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युग्म अध्ययन
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उ. गोयमा ! एवं जहा एगिंदियमहाजुम्माणं पढमसमयुद्देसए
दस नाणत्ताई ताइंचेव दस इह वि।
एक्कारसमं इमं नाणत्तं नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी। सेसं जहा एगिदियाणं चेव पढमुद्देसे।
एवं एए वि जहा एगिंदियमहाजुम्मेसु एक्कारस उद्देसगा तहेव भाणियव्वा, णवर-चउत्थ-अट्ठम-दसमेसु सम्मत्त-नाणाणि न भण्णंति।
जहेव एगिदिएसु, पढमो तइयो पंचमो य एक्कगमा,
सेसा अट्ट एक्कगमा। -विया स. ३६, १/बे., उ.२-११ २९. सलेस्स महाजुम्म बेइंदिएसु उववायाइ बत्तीसदाराणं परूवणं
प. कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मबेइंदिया णं भंते ! कओहिंतो
उववज्जति? उ. गोयमा ! एवं चेव,
कण्हलेस्सेसु वि एक्कारसउद्देसगसंजुत्तं सयं,
णवर-लेसा, संचिट्ठणा जहा एगिदियकण्हलेस्साणं।
-विया. स.३६,२/बे. उ.१-११ एवं नीललेस्सेहि विसयं। -विया. स. ३६, ३/बे. उ.१-११
उ. गौतम ! जिस प्रकार एकेन्द्रियमहायुग्मों का प्रथमसमय वाला
उद्देशक कहा उसी प्रकार यहाँ भी जानना तथा वहाँ जिन दस बातों का अन्तर बताया है, यहाँ भी उन दसों का अन्तर समझना चाहिए। ग्यारहवे में यह अन्तर है ये मनयोगी और वचनयोगी नहीं होते, किन्तु काययोगी होते हैं, शेष सब कथन एकेन्द्रियमहायुग्मों के प्रथम उद्देशक के समान जानना चाहिए। एकेन्द्रियमहायुग्म के ग्यारह उद्देशकों के समान यहाँ भी ग्यारह उद्देशक कहने चाहिए। विशेष-चौथे, आठवें और दसवें उद्देशक में सम्यक्त्व और ज्ञान का कथन नहीं करना चाहिए। एकेन्द्रिय के समान प्रथम, तृतीय और पंचम इन तीन उद्देशकों के एक समान पाठ हैं,
शेष आठ उद्देशक एक समान हैं। २९. सलेश्य महायुग्म द्वीन्द्रियों में उत्पातादि बत्तीस द्वारों का
प्ररूपणप्र. भंते ! कृष्णलेश्यी कृतयुग्म-कृतयुग्म-राशि वाले द्वीन्द्रिय जीव
कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! इसका कथन पूर्ववत् करना चाहिए।
कृष्णलेश्यी जीवों का ग्यारह उद्देशक-युक्त शतक भी इसी प्रकार है। विशेष-इनकी लेश्या और संचिट्ठणा (कायस्थिति) कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के समान है। इसी प्रकार नीललेश्यी द्वीन्द्रिय जीवों का ग्यारह उद्देशकयुक्त शतक कहना चाहिए। इसी प्रकार कापोतलेश्यी द्वीन्द्रिय जीवों का ग्यारह उद्देशक
युक्त शतक भी जानना चाहिए। ३०. भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक महायुग्मद्वीन्द्रियों में उत्पातादि
बत्तीस द्वारों का प्ररूपणप्र. भंते ! भवसिद्धिक-कृतयुग्मराशि वाले द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से
आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् देवों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते,
तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार पूर्वोक्त गमक के अनुसार भवसिद्धिक महायुग्मद्वीन्द्रिय जीवों के चारों शतक जानने चाहिए। विशेषप्र. भंते ! सर्वप्राण यावत् सर्वसत्व भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म
एकेन्द्रिय के रूप में पहले उत्पन्न हुए हैं ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
शेष सब कथन चारों औधिकशतक के अनुसार जानना चाहिए।
एवं काउलेस्सेहि वि सयं। -विया. स. ३६, ४/वे., उ.१-११
३०. भवसिद्धिय अभवसिद्धिय महाजुम्म बेइंदिएसु उवावायाइ
बत्तीसदाराणं परूवणंप. भवसिद्धिय-कडजुम्म कडजुम्मबेइंदिया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति? किं नेरइएहिंतो उववज्जति जाव
देवेहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा ! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति,
तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति, मणुस्सेहिंतो उववज्जति, नो देवेहिंतो उववज्जति। भवसिद्धियसया वि चत्तारि तेणेव पुव्वगमएणं नेयव्या, णवरं
प. अह भंते ! सव्वपाणा जाव सव्वसत्ता भवसिद्धिय
कडजुम्मकडजुम्म एगिंदियत्ताए उववन्नपुव्वा? उ. गोयमा ! णो इणढे समढे, सेसं जहेव ओहियसयाणि चत्तारि।
-विया. स.३६, ५-८/बे. उ.१-११