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३-१९. सेसं तं चैव जाय अणुबंधो ति भाणियव्यो। प. २० ते णं भते! पज्जत्ताअसष्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए उक्कोसकालट्टिईयरयणप्पभापुढविनेरइए पुणरवि पज्जत्ता असणिपचिदियतिरिक्खजोणिए ति केवइय काल सेवेज्जा, केवइयं कालं गतिरागति करेज्जा ?
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उ. गोयमा! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं पतिओवमस्स असंखेज्जइभागं अंतोमुहुतमब्भहियं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुव्वकोडिमब्महियं एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागति करेज्जा ॥ (३ तइओ गमओ) प. १ जहण्णकालठिईयपञ्जत्ता असण्णिपचिदिय तिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भन्ते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा ?
उ. गोयमा जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिईएस, उक्कोसेणं पलिओयमस्स असंखेज्जइभागट्ठिईएसु उववज्जेजा।
प. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जंति ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति । अवसेस तं चैव
णवर-इमाई तिणि नाणत्ताई आउं अज्झयसाणा, अणुबंधो । ठिई जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं ।
प. तेसि णं भंते! जीवाणं केवइया अज्झवसाणा पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पण्णत्ता ।
प. ते णं भंते! किं पसत्था, अपसत्था ?
उ. गोयमा ! नो पसत्था, अपसत्था, अणुबन्धो अंतोमुहुत्तं ।
प. से णं भंते ! जहण्णकालट्ठिईयपज्जत्ता असण पंचिंदियतिरिक्खजोणिए रयणप्पभापुढवि नेरइए पुणरवि पज्जत्ता असण्णि-पंचिंदियतिरिखजोणिए त्ति जहन्नकालठिईए केवइयं कालं सेवेज्जा, केवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा ?
उ. गोयमा ! भवादेसेण दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेण दसवाससहस्साई अंतोमुहत्तमव्यहियाई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं अंतोमुहुत्तमव्यहियं एवइयं काल सेवेज्जा, एवइयं काल गतिरागति करेज्जा । (४) (चउल्यो गमओ)
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प जहण्णकालट्ठिईयपज्जत्ता असण्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए जहण्णकालटिईएसु रयणयभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भन्ते ! केवइयकालट्ठिईएस उववज्जेज्जा ?
द्रव्यानुयोग - ( ३ )
३ - १९. अनुबन्ध पर्यन्त शेष कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। प्र. २०. भंते! वह पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी में नैरयिक होकर पुनः पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक के रूप में उत्पन्न हो तो कितना काल व्यतीत करता है और कितने काल तक गमनागमन करता है ?
उ. गौतम! भवादेश से दो भव ग्रहण करता है और कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन भी करता है। (यह तृतीय गमक है)
प्र. भंते! जघन्य काल की स्थिति वाला पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव जो रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ?
उ. गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है।
प्र.
उ.
प्र.
उ.
भंते! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ?
गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं।
शेष कथन पूर्ववत् समझना चाहिए।
विशेष- आयु (स्थिति) अध्यवसाय और अनुबन्ध इन तीनों में अन्तर है। स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है।
भंते! उन जीवों के अध्यवसाय कितने कहे गए हैं ?
गौतम! उनके अध्यवसाय असंख्यात कहे गए हैं।
भंते! (उनके) वे (अध्यवसाय) प्रशस्त हैं या अप्रशस्त हैं ?
प्र.
उ. गौतम ! वे प्रशस्त नहीं हैं किन्तु अप्रशस्त हैं।
उनका अनुबन्ध अन्तर्मुहूर्त तक रहता है।
प्र. भंते! वह जघन्यकाल की स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव जो रनप्रभापृथ्वी में नैरयिक होकर पुनः जघन्यकाल की स्थिति वाले पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक रूप में उत्पन्न हो तो वह कितना काल व्यतीत करता है और कितने काल तक गमनागमन करता है ? उ. गौतम! वह भवादेश से दो भव ग्रहण करता है और कालादेश
से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक पत्योपम के असंख्यातवां भाग काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन भी करता है। (यह चौथा गमक है)
प्र. भंते! जघन्यकाल की स्थिति वाला पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जो जीव जघन्यकाल की स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो भंते! वह जीव कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ?