________________
१६३०
२३. गई पडुच्च पुढविकाइय उववाय परूवणंप. पुढविक्काइया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति
किं नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिए
मणुस्स-देवेहिंतो उववजंति? उ. गोयमा ! नो नेरइएहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणिए__ मणुस्स-देवेहितो उववति। प. भंते ! जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति-किं
एगिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति जाव पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति?
द्रव्यानुयोग-(३) २३. गति की अपेक्षा पृथ्वीकायिकों के उपपात का प्ररूपणप्र. भंते ! पृथ्वीकायिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या
वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते है या तिर्यञ्चयोनिक मनुष्य
और देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु
तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. भंते ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) तिर्यञ्चयोनिकों से आकर
उत्पन्न होते हैं, तो क्या एकेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न
होते हैं? उ. गौतम ! जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के (छठे) व्युत्क्रान्ति पद
में कहा गया है तदनुसार यहाँ भी उपपात कहना चाहिए।
यावत्प्र. भंते ! यदि वे (पृथ्वीकायिक जीव) बादर पृथ्वीकायिक
एकेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं तोक्या पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से
आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे दोनों से ही आकर उत्पन्न होते हैं।
उ. गोयमा ! जहा वक्कंतीए उववाओ भणिओ तहा इहवि
भाणियव्वो जाव
प. भंते ! जइ बायरपुढविक्काइयएगिंदियतिरिक्ख
जोणिएहिंतो उववज्जतिकिं पज्जत्त बायरपुढविक्काइय एगिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, अपज्जत्त बायरपुढविक्काइय एगिदियतिरिक्खजोणि
एहिंतो उववज्जति? उ. मोयमा ! दोहि वि उववज्जति।
-विया.स.२४, उ.१२, सु.१ २४. पुढविकाइए उववज्जतेसु पुढविकाइयस्स उववायाइ वीसं दारं
परूवणंप. पुढविकाइए णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु
उववज्जित्तए, से णं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु
उववज्जेज्जा? उ. गोयमा !जहण्णेणं अंतोमुत्तट्ठिईएस, उक्कोसेणं बावीसं
वाससहस्सट्ठिईएसु उववज्जेज्जा।
प. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जंति? । उ. गोयमा ! अणुसमयं अविरहिया असंखेज्जा उववज्जति।
सेसंतं चेव पण्होत्तराई। णवरं-छेवट्टसंघयणी। सरीरोगाहणा-जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग,
२४. पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक के उपपातादि
बीस द्वारों का प्ररूपणप्र..भंते ! जो पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने
योग्य हो तो वह भंते ! कितने काल की स्थिति वाले
पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले और उत्कृष्ट
बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न
होता है। प्र. भंते ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे प्रतिसमय निरन्तर असंख्यात उत्पन्न होते हैं।
शेष प्रश्नोत्तर कथन पूर्ववत् है। विशेष-वे सेवार्तसंहनन वाले होते हैं। उनके शरीरों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। संस्थान (आकार) मसूर की दाल जैसा होता है। .. चार लेश्याएँ होती हैं। वे सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं, मिथ्यादृष्टि ही होती हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी नहीं होते। . वे ज्ञानी नहीं होते हैं, अज्ञानी ही होते हैं। उनमें दो अज्ञान (मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान) नियम से होते हैं। वे मनोयोगी और वचनयोगी नहीं होते, काययोगी ही होते हैं। उनके (साकार और अनाकार) दोनों उपयोग होते हैं।
मसूरचंद संठिया। चत्तारि लेस्साओ। नो सम्मट्ठिी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी।
नो नाणी, अण्णाणी, दो अण्णाणा नियम।
नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी। उवओगो दुविहो वि।