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उ. गोयमा ! जहा असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स
जहण्णकालट्ठिईयस्स तिण्णि गमगा भणिया तहा एयस्स वि ओहिया तिण्णि गमगा निरवसेसं भाणियव्या (१-३)
सेसा छ गमगा न भवंति। -विया. स. २४, उ. १२, सु.३५ ३७. पुढविक्काइए उववज्जतेसु सन्नि मणुस्साणं उववायाइ बीसंदारं
परूवणंप. भंते ! जइ सण्णिमणस्सेहिंतो उववज्जंति-किं संखेज्जवासाउय सण्णिमणुस्सेहिंतो उववज्जंति,
असंखेज्जवासाउय सण्णि मणुस्सेहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा ! संखेज्जवासाउय सण्णि मणुस्सेहितो
उववज्जति, नो असंखेज्जवासाउय सण्णि मणुस्सेहितो
उववज्जति। प. भंते ! जइ संखेज्जवासाउय सण्णि मणुस्सेहितो
उववज्जति, किं पज्जत्तासंखेज्जवासाउय सण्णि मणुस्सेहिंतो उववज्जंति, अपज्जत्तासंखेज्जवासाउय
सण्णि मणुस्सेहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा ! दोहिं वि उववज्जति। प. सण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु
उववज्जित्तए, से णं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु
उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुत्तट्ठिईएस, उक्कोसेणं बावीसं
वाससहस्सट्ठिईएसु उववज्जेज्जा। प. ते णं भंते !जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति? . उ. गोयमा ! जहेव रयणप्पभाए उववज्जमाणस्स मणूसस्स
लद्धी भणिया तहेव तिसु विगमएसु इह विभाणियव्या, णवरं-ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं पंचधणुसयाई। ठिई-अणुबंधो जहण्णेणं अंतोमुहूत्तं,उक्कोसेणं पुव्वकोडी।
द्रव्यानुयोग-(३) उ. गौतम ! जिस प्रकार जघन्य काल की स्थिति वाले असंज्ञी
पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक के विषय में तीन गमक कहे गए हैं, उसी प्रकार यहां भी औधिक तीन गमक (१-२-३)
सम्पूर्ण कहने चाहिए। (१-३) शेष छ गमक नहीं होते हैं। ३७. पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले संज्ञी मनुष्यों के उपपातादि
बीस द्वारों का प्ररूपणप्र. भन्ते ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न
होते हैं, तो क्या संख्यात वर्ष की आयु वाले या असंख्यात वर्ष
की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर
उत्पन्न होते हैं, किन्तु असंख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों
से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं। प्र. भन्ते ! यदि वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से
आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क
संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे दोनों से ही आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. भन्ते ! (संख्यातवर्षायुष्क पर्याप्त) संज्ञी मनुष्य जो
पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने योग्य है तो भंते ! वह कितने काल
की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार
वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है। प्र. भन्ते ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले मनुष्य का जो कथन पूर्व
में किया है वही यहाँ भी तीनों गमकों में कहना चाहिए। विशेष-उसके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष की होती है, स्थिति-अनुबंध जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की होती है। कायसंवेध-जैसे संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने का कहा है, वैसे ही यहां कहना चाहिए (१-३) मध्य के तीन गमकों (४-५-६) का संपूर्ण कथन संज्ञी पंचेन्द्रिय के मध्य के तीनों गमकों के समान कहना चाहिए।(४-६) पिछले तीनों गमकों (७-८-९) का कथन इसी के आदि के तीन
औधिक गमकों के समान कहना चाहिए। विशेष-शरीर की अवगाहना जघन्य पांच सौ धनुष की और उत्कृष्ट भी पांच सौ धनुष की है। स्थिति और अनुबन्ध जघन्य पूर्वकोटि वर्ष और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटि वर्ष है। कायसंवेध उपयोग पूर्वक कहना चाहिए। (७-९)
कायसंवेहो जहेव सण्णिपंचिंदियस्स पुढविकाइए उववज्जमाणस्स तहेव भाणियव्वं। (१-३) मज्झिल्लएसु तिसु गमएसु लद्धी जहेव सण्णिपंचिंदियस्स मज्झिल्लेसुतिसुगमएसु।(४-६) पच्छिल्ला तिण्णि गमगा जहा एयस्स चेव ओहिया गमगा,
णवरं-ओगाहणा जहण्णेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेण वि पंचधणुसयाई। ठिई अणुबंधो य जहण्णेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी। काय संवेहो उवउंजिऊण भाणियव्यो। (७-९)
-विया. स. २४, उ. १२, सु. ३६-३९ ३८. देवे पडुच्च पुढविकाइय उववाय परूवणंप. भंते ! जइ देवेहिंतो उववज्जति-किं भवणवासिदेवेहितो
उववज्जति, वाणमंतरदेवेहितो, जोइसियदेवेहितो, वेमाणियदेवेहिंतो उववज्जंति?
३८. देवों की अपेक्षा पृथ्वीकायिक में उपपात का प्ररूपणप्र. भन्ते ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) देवों से आकर उत्पन्न होते हैं,
तो क्या भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क या वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ?