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२८. आहारो तहेव जाव नियमं छद्दिसिं ।
२९. ठिई जहणेणं एवं समयं उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोबमाई।
३०. ४ समुग्धाया आदित्लगा।
मारणातियसमुग्धाएणं समोहया वि मरति असमोहया वि मरंति ।
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३१. उव्वट्टणा जहेव उववाओ।
न कत्थ पडिसेहो जाव अणुत्तरविमाण त्ति ।
प्र. ३२. अह भंते ! सव्वपाणा जाव सव्वसत्ता कडजुम्म कडजुम्म सन्नि पचिदियत्ताए उववन्त्रपुव्वा ? उ. हंता, गोयमा ! असई अदुवा अनंतसुत्तो
एवं सोलससु वि जुम्मेसु भाणियव्वं जाव अनंतखुत्तो
नवरं परिमाणं जहा बेइंदियाण सेसं तहेव
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-विया. स. ४०, १/स. पं., उ. १, सु. १-६
उववायाइ
महाजुम्म सन्निपंचेंदियेषु
३५. पढमसमयाइ बत्तीसदाराणं परूवणं
प. पढमसमय- कडजुम्मकडजुम्म सन्नि-पंचेंदिया णं भंते ! कओहितो उपवज्जति ?
उ. गोयमा ! उववाओ, परिमाणं, अवहारो जहा एएसिं चेव पढमे उद्देसए।
ओगाहणा, बंधो, वेदो, वेयणा, उदई, उदीरगा य जहा बेदियाणं पढमसमइयाणं तहेव
कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा ।
सेसं जहा बेइंदियाणं पढमसमइयाणं जाव अनंतखुत्तो
वरं इथिवेदगा था, पुरिसवेदगा या नपुंसभवेदगा था। सण, नो असणणो ।
सेसं तहेव ।
एवं सोलससु वि जुम्मेसु परिमाणं तहेव सव्यं ।
एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा तहेव । पढमो, तहओ, पंचमो य सरिसगमा । सेसा अट्ठ वि सरिसगमा । चत्य- अम-दसमे नत्थि विसेसो
-विया. स. ४०१ /स. पं., उ.२-११
३६. सलेस्स महाजुम्म सन्नि पचिदिए उबवाया बत्तीसवाराणं परूवणं
प. कण्हलेस्स- कडजुम्मकडजुम्म सन्नि-पंचेंदिया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ?
उ. गोयमा ! तहेव जहा पढमुद्देसओ सन्नीणं,
द्रव्यानुयोग - (३)
२८. वे आहार पूर्ववत् यावत् नियम से छहों दिशाओं से ग्रहण करते हैं।
२९. इनकी स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है।
३०. इनमें आदि के छह समुद्घात पाये जाते हैं।
मरणान्तिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं।
३१. इनकी उद्वर्त्तना का कथन उपपात के समान है। अनुत्तरविमान पर्यन्त कहीं भी इनकी उद्वर्तना का निषेध नहीं करना चाहिए।
प्र. ३२. भंते ! क्या सर्व प्राण यावत् सर्व सत्व कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय के रूप में उत्पन्न हुए हैं ?
उ. हां, गौतम ! वे इससे पूर्व अनेक बार या अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं।
इसी प्रकार सोलह युग्मों में अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं पर्यन्त कहना चाहिए।
विशेष- इनका परिमाण द्वीन्द्रिय जीवों के समान है। शेष सब पूर्ववत् है।
३५. प्रथम समयादि महायुग्म संज्ञीपंचेन्द्रियों में उत्पातादि बत्तीस द्वारों का प्ररूपण
प्र. भंते ! प्रथम समय के कृतयुग्म कृतयुग्मराशि वाले संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ?
उ. गौतम ! इनका उपपात परिमाण, अपहार इन्हीं के प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए।
इनकी अवगाहना, बन्ध, वेद, वेदना, उदय और उदीरणा प्रथम समय के द्वीन्द्रिय जीवों के समान जानना चाहिए।
ये कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होते हैं।
शेष प्रथमसमयोत्पन्न द्वीन्द्रिय जीवों के समान अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं पर्यन्त कहना चाहिए।
विशेष-ये स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी होते हैं। ये संत्री होते हैं. असंही नहीं होते हैं।
शेष कथन पूर्ववत् है।
इसी प्रकार सोलह ही युग्मों में परिमाण आदि सभी कथन पूर्ववत् जानने चाहिए।
इसी प्रकार यहाँ भी ग्यारह उद्देशक पूर्ववत् कहने चाहिए ।
प्रथम, तृतीय और पंचम उद्देशक एक समान है।
शेष सब आठ उद्देशक एक समान है।
चौथे, आठवें और दसवें उद्देशक में कोई विशेषता नहीं है।
३६. सलेश्य महायुग्म वाले संज्ञी पंचेन्द्रियों में उत्पातादि बत्तीस द्वारों का प्ररूपण
प्र. भंते! कृष्णलेश्यी कृतयुग्म कृतयुग्मराशि वाले संज्ञीपंचेन्द्रिय कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?
उ. गौतम ! संज्ञी के प्रथम उद्देशक के अनुसार इनका कथन करना चाहिए।