________________
। युग्म अध्ययन
१५७३ उ. गोयमा ! एवं जहेव ओहिओ गमओ तहेव निरवसेसं जाव उ. गौतम ! इनका सारा कथन औधिकगमक के समान परप्रयोग नो परप्पयोगेणं उववज्जति।
से उत्पन्न नहीं होते हैं पर्यन्त कहना चाहिए। प. रयणप्पभापुढवि-भवसिद्धिय-खुड्डागकडजुम्म-नेरइया प्र. भंते ! रत्नप्रभापृथ्वी के क्षुद्रकृतयुग्मराशि वाले भवसिद्धिक णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति?
नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गोयमा ! एवं चेव निरवसेसं।
उ. गौतम ! इनका समग्र कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। एवं जाव अहेसत्तमाए।
इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी पर्यन्त कहना चाहिए। एवं भवसिद्धिय-खुड्डागतेयोए नेरइया वि,
इसी प्रकार भवसिद्धिक क्षुद्रत्र्योजराशि वाले नैरयिक के लिए
भी कहना चाहिए। एवं जाव कलिओगा वि,
इसी प्रकार कल्योज पर्यन्त जानना चाहिए। णवरं-परिमाणं पुव्वभणियं जहा पढमुद्देसए।
विशेष-प्रथम उद्देशक में कहे गए परिमाण के अनुसार -विया.स.३१, उ.५, सु.१-४
इनका पृथक्-पृथक् परिमाण जानना चाहिए। प. कण्हलेस्स-भवसिद्धिय-खुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! प्र. भंते ! क्षुद्रकृतयुग्म वाले कृष्णलेश्यी नैरयिक कहाँ से आकर कओहिंतो उववज्जति?
उत्पन्न होते हैं? उ. गोयमा ! एवं जहेव ओहिओ कण्हलेस्स उद्देसओ तहेव उ. गौतम ! कृष्णलेश्यी औधिक उद्देशक में कहे गए अनुसार निरवसेसं चउसु वि जुम्मेसु भाणियव्यो जाव
चारों युग्मों पर्यन्त इनका सब कथन करना चाहिए यावत्प. अहेसत्तमपुढविकण्हलेस्स-भवसिद्धिय-खुड्डाग
प्र. भंते ! अधःसप्तमपृथ्वी के कृष्णलेश्यी क्षुद्रकल्योजराशि वाले कलियोगनेरइया णं भंते !कओहिंतो उववज्जति?
नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गोयमा ! तहेव। -विया.स.३१, उ.६, सु. १-२ उ. गौतम ! पूर्ववत् कहना चाहिए। नीललेस्स-भवसिद्धिय-चउसु वि जुम्मेसु तहेव भाणियव्या
नीललेश्यी भवसिद्धिक नैरयिकों के चारों (क्षद) युग्मों के जहा ओहियनीललेस्सउद्देसए। -विया. स.३१, उ.७.सु.१
उत्पातादि का कथन औधिक नीललेश्यी उद्देशक के अनुसार
कहना चाहिए। काउलेस्स-भवसिद्धिय चउसु वि जुम्मेसु तहेव
कापोतलेश्यी-भवसिद्धिक नैरयिक के चारों ही युग्मों के उववाएयव्या जहेव ओहिए काउलेस्सउद्देसए।
उत्पातादि का कथन औधिक नीललेश्यी-उदेशक के अनुसार -विया. स.३१, उ.८, सु.१
कहना चाहिए। जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि उद्देसगा भणिया,
जिस प्रकार भवसिद्धिक के चारों उद्देशक कहे एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उदेसगा भाणियव्वा
उसी प्रकार अभवसिद्धिक के भी कापोतलेश्यी पर्यन्त जाव काउलेस्सउद्देसओ त्ति।
चारों उद्देशक कहने चाहिए। -विया.स.३१, उ.९-१२, सु.१ १८. खुड्डाग कडजुम्माइ सम्मदिट्ठि-मिच्छद्दिट्ठि नेरइयाणं १८. क्षुद्रकृतयुग्मादि सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि नैरयिकों के उत्पातादि उववायाइ परूवणं
का प्ररूपणएवं सम्मद्दिट्ठीहि वि लेस्सासंजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा इसी प्रकार लेश्या सहित सम्यग्दृष्टि के चार उद्देशक कायव्या,
कहने चाहिए। णवर-सम्मद्दिट्ठी पढम-बिइएसु दोसु वि उद्देसएसु विशेष-सम्यग्दृष्टि के प्रथम और द्वितीय इन दो उद्दशकों में अहेसत्तमपुढवीए न उववाएयव्यो।
सम्यग्दृष्टि का उपपात अधःसप्तम पृथ्वी पर्यन्त नहीं कहना
चाहिए। सेसंतं चेव।
-विया. स. ३१, उ.१३-१६, सु.१ शेष सब कथन पूर्ववत् है। मिच्छट्ठिीहि वि चत्तारि उद्देसगा कायव्या जहा भवसिद्धिकों के समान मिथ्यादृष्टि के भी चार उद्देशक भवसिद्धियाणं।
-विया.स.३१, उ. १७-२०, सु.१ कहने चाहिए। १९. खुड्डागकडजुम्माइ कण्हपक्खिय-सुक्कपक्खिय नेरइयाणं. १९. क्षुद्रकृतयुग्मादि कृष्णपाक्षिक शुक्लपाक्षिक नैरयिकों के उववायाइ परूवणं
उत्पातादि का प्ररूपणएवं कण्हपक्खिएहि वि लेस्सा संजुत्ता चत्तारि उदेसया भवसिद्धिकों के चार उद्देशकों के समान लेश्याओं सहित कायव्वा जहेव भवसिद्धिएहिं।।
कृष्णपाक्षिक के भी चार उद्देशक इसी प्रकार कहने चाहिए। -विया. स.३१, उ.२१-२४, सु.१ सुक्कपक्खिएहिं एवं चेव चत्तारि उद्देसगा भाणियव्वा जाव
इसी प्रकार शुक्लपाक्षिक के भी लेश्या-सहित चार उदेशक कहने चाहिए यावत्