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गर्भ अध्ययन
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१७. अनंतरोववन्नग एगिदिय जीवाणं विग्गहगइस्स समय
परूवणंप. अणंतरोववन्नगएगिंदिया णं भंते ! कओ हितो
उववज्जति? उ. गोयमा !जहेव ओहिए उद्देसओ भणिओ।
-विया. स.३४/ए.१, उ.२,सु.१ १८. परंपरोववन्नग एगिंदिय जीवाणं विग्गहगइस्स समय
परूवणंप. कइविहा णं भंते ! परंपरोववन्नगा एगिंदिया पण्णत्ता? उ. गोयमा ! पंचविहा परंपरोववन्नगा एगिंदिया पन्नत्ता,
१७. अनंतरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों की विग्रह गति के समय का
प्ररूपणप्र. भन्ते ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कहां से आकर उत्पन्न
होते हैं? उ. गौतम ! यह औधिक (पूर्व) उद्देशक के अनुसार कहना
चाहिए। १८. परंपरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों की विग्रहगति के समय का
प्ररूपणप्र. भंते ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? उ. गौतम ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे
गए हैं, यथापृथ्वीकायिक इत्यादि के चार-चार भेद वनस्पतिकायिक पर्यन्त
कहने चाहिए। प्र. भन्ते ! परम्परोपपन्नक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव
रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्वी चरमान्त में मरण समुद्घात करके रलप्रभापृथ्वी के यावत् पश्चिमी चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य है तो
तंजहा
पुढविकाइया भेओ चउक्कओ जाव वणस्सइकाइयत्ति।
प. परंपरोववन्नगअपज्जत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते !
इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव पच्चथिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए,
से णं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमो उदेसओ
जाव लोगचरिमंतो त्ति। -विया. स.३४/ए.१, उ. ३, सु. १-२ १९. अणंतरावगाढाइ एगिंदिय जीवाणं विग्गहगइस्स समय
परूवणंएवं सेसा वि अट्ठ उद्देसगा जाव अचरिमो त्ति। णवर-अणंतरावगाढाई अणंतरोववन्नग सरिसा, परंपरावगाढाई परंपरोववन्नग सरिसा,
चरिमा य अचरिमा य एवं चेव। -विया. स. ३४/ए.१, उ. ४-११ २०. कण्ह-नील-काउ-लेस्सी एगिंदिय जीवाणं विग्गहगइस्स समय
परूवणंप. कइविहाणं भंते ! कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता?
भंते ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! औधिक (प्रथम) उद्देशक के अभिलाप के अनुसार
लोक के चरमान्त पर्यन्त उत्पत्ति कहनी चाहिए। १९. अणंतरावगाढादि एकेन्द्रिय जीवों की विग्रहगति के समय का
प्ररूपणइसी प्रकार शेष आठ उद्देशक अचरिम पर्यन्त कहने चाहिए। विशेष-अनंतरावगाढादि अणंतरोपपन्नक के समान है। परंपरावगाढादि परंपरोपपन्नक के समान है।
चरम-अचरम का कथन भी इसी प्रकार है। २०. कृष्ण नील कापोत लेश्यी एकेन्द्रिय जीवों की विग्रह गति के
समय का प्ररूपणप्र. भन्ते ! कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे
गए हैं? उ. गौतम ! कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गए हैं,
उनके चार-चार भेद कृष्णलेश्यी एकेन्द्रियशतक के अनुसार
वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानने चाहिए। प्र. भन्ते ! कृष्णलेश्यी अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव इस
रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वीचरमान्त में मरण समुद्घात करके रत्नप्रभा पृथ्वी के यावत् पश्चिमी चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य है तो भंते ! वह कितने समय की विग्रह गति से उत्पन्न होता है?
उ. गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता,
भेओ चउक्कओ जहा कण्हलेस्स एगिंदियसए जाव
वणस्सइकाइय त्ति। प. कण्हलेस्स अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव पच्चथिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं
उववज्जेज्जा ? उ. गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिय उद्देसओ
जाव लोगचरिमंते ति। सव्वत्थ कण्हलेस्सेसु चेव उववाएयव्यो । -विया. स.३४/ए.२, उ.१-११,सु.५-२
उ. गौतम ! औधिक उद्देशक के अभिलाप के अनुसार लोक
के चरमान्त पर्यन्त सर्वत्र कृष्णलेश्या वालों में उपपात कहना चाहिए।