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'आत्मा' शब्द जीव का सूक्ष्म एवं विशिष्ट विवेचन करता है। इस आत्मा को जीवात्मा भी कहा गया है। वेदान्तदर्शन में 'आत्मा' शब्द ब्रह्म के लिए प्रयुक्त हुआ है तथा 'जीव' शब्द अज्ञानाच्छन्न सांसारिक प्राणियों के लिए प्रयुक्त होता है। जैनदर्शन में जीव एवं आत्मा में ऐसा भेद नहीं है। यहाँ पर संसारी प्राणियों को भी जीव कहा गया है तथा मुक्त (सिद्ध) जीवों को भी जीव कहा गया है। इस प्रकार जीवों की संख्या अनन्त है, फिर भी चैतन्य के साम्य की दृष्टि से ठाणांगसूत्र में 'एगे आया' अर्थात् 'आत्मा एक है' कथन का प्रयोग हुआ है। __संख्या की दृष्टि से जैनदर्शन में अनन्त आत्माएँ मान्य हैं। वेदान्तदर्शन ब्रह्म या आत्मा को संख्या की दृष्टि से एक मानता है तथा संसारी जीवों में उसका ही चैतन्यांश स्वीकार करता है, किन्तु जैनदर्शन में आत्मा एक नहीं, अनन्त हैं।
आत्मा का स्वरूप ज्ञानदर्शनमय है। आत्मा कदाचित् ज्ञानरूप है तथा कदाचित् अज्ञानरूप है, किन्तु ज्ञान नियमतः आत्मा है। अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है, अपितु मिथ्यादर्शन की उपस्थिति में जो ज्ञान होता है उसे ही अज्ञान कहा जाता है। दर्शन नियमतः आत्मा होता है तथा आत्मा नियमतः दर्शन होता है।
आत्मा को अपेक्षाविशेष से आठ प्रकार का कहा गया है-(१) द्रव्य-आत्मा, (२) कषाय-आत्मा, (३) योग-आत्मा, (४) उपयोग-आत्मा, (५) ज्ञान-आत्मा, (६) दर्शन-आत्मा, (७) चारित्र-आत्मा और (८) वीर्य-आत्मा। इनमें द्रव्य-आत्मा का तात्पर्य है आत्मा का द्रव्य से होना अथवा प्रदेशयुक्त जीव द्रव्य के रूप में होना। यह द्रव्य-आत्मा तो सभी जीवों में सदैव रहती है। कषाययुक्त आत्मा को कषाय-आत्मा; मन, वचन एवं काया के योग से युक्त आत्मा को योग-आत्मा; ज्ञान-दर्शन रूप उपयोग सम्पन्न आत्मा को उपयोग-आत्मा; ज्ञान-गुण-लक्षण की दृष्टि से उसे ज्ञान-आत्मा एवं दर्शन-गुण-लक्षण की अपेक्षा से उसे दर्शन-आत्मा कहते हैं। इसी प्रकार चारित्रयुक्त होने की अपेक्षा से उसे चारित्र-आत्मा एवं वीर्य-पराक्रम से सम्पन्न होने के कारण उसे वीर्य-आत्मा कहा जाता है। इनमें द्रव्य-आत्मा, उपयोग-आत्मा, ज्ञान-आत्मा, दर्श न-आत्मा और वीर्य-आत्मा सभी जीवों में एक साथ हो सकती हैं। कषाय-आत्मा तो सकषायी संसारी जीवों में होती है तथा योग-आत्मा सयोगीकेवली गुणस्थान तक पायी जाती है। चारित्र-आत्मा चारित्रयुक्त जीवों में होती है। 'आत्मा' का यह विश्लेषण एक ही जीव के विभिन्न आयामों को प्रकट करता है।
ज्ञातव्य तथ्य यह है कि प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, प्राणातिपातविरमण यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, औत्पातिकी यावत् पारिणामिकी बुद्धि, अवग्रह यावत् धारणा, उत्थान यावत् पुरुषकार पराक्रम, नैरयिकत्व यावत् वैमानिकत्व, ज्ञानावरण यावत् अन्तरायकर्म, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या, तीनों दृष्टियाँ, चारों दर्शन, पाँचों ज्ञान एवं तीनों अज्ञान, आहारादि चार संज्ञाएँ, पाँचों शरीर, तीनों योग, साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग तथा इनके जैसे और भी पदार्थ आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र परिणमन नहीं करते हैं। ये सब आत्मा के साथ सम्वद्ध हैं तथा उसमें ही परिणमन करते हैं। शब्द, रूप, गंध, रस एवं स्पर्श को ग्रहण करने का कार्य आत्मा दो प्रकार से करती है-शरीर के एक भाग से अथवा समस्त शरीर से। अवभास, प्रभास, विक्रिया, परिचारणा, भाषा, आहार, परिणमन, वेदन और निर्जरा आदि क्रियाएँ भी आत्मा उपर्युक्त दो प्रकारों से करती है। समुद्घात
विभिन्न कारणों से जब जीव के आत्म-प्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं तो उसे समुद्घात कहा जाता है। वे आत्म-प्रदेश पुद्गलयुक्त होते हैं, इसलिए समुद्घातों का निरूपण करते समय आगम में पुद्गलों को भी शरीर से बाहर निकालने का वर्णन मिलता है।
जैनदर्शन एक ओर आत्मा को स्वदेह-परिमाण स्वीकार करता है तो दूसरी ओर समुद्घात के समय आत्म-प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलकर सम्पूर्ण लोक में फैल जाने की बात भी स्वीकार करता है। यह जैनदर्शन की अनूठी मान्यता है। आगम के अनुसार समुद्घात के समय जो पुद्गलयुक्त आत्म-प्रदेश लोक में फैलते हैं, वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि इन्द्रियों के माध्यम से उनका अनुभव नहीं किया जा सकता। विशेषतः केवली समुद्घात के समय आत्म-प्रदेश सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं, किन्तु इसका अनुभव छद्मस्थ जीवों को नहीं होता। जैनागम में प्रतिपादित समुद्घात की अवधारणा वैज्ञानिकों के लिए आश्चर्य एवं शोध का विषय है।
समुद्घात सात प्रकार के होते हैं-(१) वेदना, (२) कषाय, (३) मारणान्तिक, (४) वैक्रिय, (५) तेजस्, (६) आहारक और (७) केवली।
वेदना के असह्य होने पर उसे सहन करने अथवा निर्जरित करने के लिए जीव वेदना समुद्घात करता है। कषाय समुद्घात कषाय का आवेग वढ़ने पर होता है। मारणान्तिक समुद्घात देह-त्याग के समय होता है। वैक्रिय समुद्घात वैक्रियलब्धि के होने पर अथवा उत्तरवैक्रिय करते समय किया जाता है। तेजस् समुद्घात तेजोलेश्या का प्रयोग करते समय या ऐसे ही अन्य प्रसंग में किया जाता है। आहारक समुद्घात तव किया जाता है जब कोई चौदह पूर्वधारी मुनि आहारक शरीर का पुतला जिनेन्द्र देव से विशिष्ट जानकारी हेतु बाहर भेजता है। केवली समुद्घात का प्रयोजन भिन्न है। जब केवली के आयुष्यकर्म की स्थिति कम हो तथा वेदनीय, गोत्र एवं नामकर्म की स्थिति अधिक हो तो उसे सम करने के लिए केवली समुद्घात किया जाता है। केवली समुद्घात के अलावा छह समुद्घात छद्मस्थों में पाये जाते हैं। छद्मस्थ में होने वाले समुद्घातों का काल असंख्यात समय है जबकि केवली समुद्घात का काल मात्र आठ समय है। __इन समुद्घातों में से केवली समुद्घात एक बार होता है और वह भी केवली बनने पर किसी-किसी केवली को होता है। आहारक समुद्घात मनुष्य पर्याय में एक जीव की अपेक्षा अतीत में उत्कृष्ट तीन हुए हैं तथा भविष्य में चार से अधिक नहीं होंगे। यह मात्र चौदह पूर्वधारी मुनि को छठे गुणस्थान में होता है। वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय एवं तेजस् समुद्घात कदाचित् असंख्यात तथा कदाचित् अनन्त तक हो सकते हैं।
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