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(१) हड्डी, (२) मज्जा और (३) केश, दाढ़ी, मूँछ, रोम व नख । गर्भ धारण किस प्रकार होता है तथा किस प्रकार नहीं, इसका विवेचन स्थानांगसूत्र में हुआ है जो गर्भ अध्ययन में समाविष्ट है।
आधुनिक युग में गर्भ धारण करने के सम्बन्ध में टेस्ट ट्यूब बेबी (परखनली शिशु) का आविष्कार हुआ है, किन्तु इससे आगम का कोई विरोध नहीं है। कभी-कभी बच्चा स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक के रूप में जन्म न लेकर विचित्र आकृति ग्रहण कर लेता है। इसका उल्लेख स्थानांगसूत्र में उपलब्ध है।'
जीव जब एक शरीर को छोड़कर अन्यत्र जन्म ग्रहण करने के लिए गति करता है तो उसे विग्रहगति कहा जाता है। विग्रहगति में जीव को प्रायः एक, दो या तीन समय लगते हैं, किन्तु एकेन्द्रिय जीवों को विग्रहगति में चार समय तक लग जाते हैं।
मरण के पाँच प्रकार भी निरूपित हैं तथा १७ प्रकार भी प्रतिपादित है। पाँच मरण है- (१) आवीधिमरण, (२) अवधिमरण, (३) आत्यन्तिकमरण, (४) बालमरण और (५) पण्डितमरण। इनमें बालमरण के वलयमरण, वशार्तमरण आदि १२ प्रकार हैं तथा पण्डितमरण दो प्रकार का प्रतिपादित है - ( १ ) पादपोपगमन और (२) भक्तप्रत्याख्यान । २
आगम में मृत्यु के समय जीव के निकलने के पाँच मार्ग प्रतिपादित हैं - ( १ ) पैर (२) उरु, (३) हृदय, (४) सिर और (५) सर्वांग शरीर पैरों से निर्माण करने वाला जीव नरकगामी होता है, उरु से निर्याण करने वाला तिर्यग्गामी, हृदय से निर्माण करने वाला मनुष्यगामी, सिर से निर्याण करने वाला देवगामी और सर्वांग से निर्याण करने वाला जीव सिद्धगति को प्राप्त करता है।
युग्म
जैनागमों में 'युग्म' शब्द चार की संख्या का द्योतक है। चार की संख्या के आधार पर युग्म का विचार किया जाता है। प्रायः गणितशास्त्र में समसंख्या को युग्म एवं विषम संख्या को ओज कहा जाता है। इन युग्म एवं ओज संख्याओं का विचार जब चार की संख्या के आधार पर किया जाता है तो युग्म के चार भेद बनते हैं - (१) कृतयुग्म, (२) ओज, (३) द्वापरयुग्म और (४) कल्योज। इनमें से दो 'युग्म' अर्थात् सम राशियाँ हैं तथा दो 'ओज' अर्थात् विषम राशियाँ हैं। इन सबका विचार चार की संख्या के आधार पर किये जाने से इन्हें युग्म राशियाँ कहा जाता है। जिस राशि में से चार-चार निकालने पर अन्त में चार शेष रहे वह 'कृतयुग्म' है, यथा-८, १२, १६, २०, २४ आदि संख्याएँ । जिस राशि में से चार-चार निकालने पर अन्त में तीन शेष रहे उसे त्र्योज कहते हैं, यथा-७, ११, १५, १९ आदि संख्याएँ । जिस राशि में से चार-चार घटाने पर अन्त में दो शेष रहे उसे द्वापरयुग्म एवं जिसमें एक शेष रहे उसे कल्योज कहते हैं, यथा-६, १०, १४, १८ आदि संख्याएँ द्वापरयुग्म एवं ५, ९, १३, १७ आदि संख्याएँ कल्पोज है।
गम्मा ( गमक)
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में चौबीस दण्डकों में परस्पर गति आगति अथवा व्युत्क्रान्ति के आधार पर उपपात आदि २० द्वारों से गमक अध्ययन प्रमुखतः : विचार किया गया है। २० द्वार है- (१) उपपात (२) परिमाण (संख्या), (३) संहनन, (४) उच्चत्व (अवगाहना), (५) संस्थान, (६) लेश्या, (७) दृष्टि, (८) ज्ञान-अज्ञान, (९) योग, (१०) उपयोग, (११) संज्ञा, (१२) कषाय, (१३) इन्द्रिय, (१४) समुद्घात, (१५) वेदना, (१६) वेद, (१७) आयुष्य, (१८) अध्यवसाय, (१९) अनुबन्ध और (२०) कापसंवेध
उपपात द्वार के अन्तर्गत यह विचार किया गया है कि अमुक दण्डक का जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होता है। परिमाण द्वार में उनकी उत्पत्ति की संख्या के सन्दर्भ में विचार किया गया है। संहनन द्वार के अन्तर्गत अमुक दण्डक में उत्पन्न होने वाले ( किन्तु अधुना यावत् अनुत्पन्न) जीव के संहननों की चर्चा है। उच्चत्व द्वार में वर्तमान भव की अवगाहना का वर्णन है। संस्थान, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान-अज्ञान, योग, उपयोग, संज्ञा, कषाय, इन्द्रिय एवं समुद्धात द्वारों में उत्पद्यमान जीव में इनसे सम्बद्ध प्ररूपणा है । वेदना द्वार में साता एवं असातावेदना का तथा वेद द्वार में स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद का विचार किया गया है। आयुष्य द्वार के अन्तर्गत 'स्थिति' की चर्चा है । अध्यवसाय दो प्रकार के होते हैं - ( १ ) प्रशस्त एवं (२) अप्रशस्त। जो जीव जिस दण्डक में उत्पन्न होने वाला होता है उसके अनुसार ही उसके प्रशस्त या अप्रशस्त अध्यवसाय अर्थात् भाव पाये जाते हैं। अनुबन्ध एवं कायसंवेध ये दो द्वार इस अध्ययन में सर्वथा विशिष्ट हैं। अनुबन्ध का तात्पर्य है विवक्षित पर्याय का अविच्छिन्न या निरन्तर बने रहना तथा कायसंवेध का तात्पर्य है वर्ण्यमान काय से दूसरी काय में या तुल्यकाय में जाकर पुनः उसी काय में लौटना । इन बीस द्वारों के माध्यम से प्रत्येक दण्डक के विविध प्रकार के जीवों की जो जानकारी इस अध्ययन में संकलित है वह अत्यन्त सूक्ष्म एवं युक्तिसंगत है।
२० द्वारों के निरूपण में यत्र-तत्र नौ गमकों का भी प्रयोग हुआ है। ये नौ गमक ओघ, जघन्य एवं मध्यम स्थितियों के कारण बने हैं। गमक अध्ययन का आधार व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का चौबीसवां शतक है अतः विशेष जानकारी हेतु इस शतक की टीका या वृत्ति का अनुशीलन सहायक होगा।
आत्मा
'आत्मा' एवं 'जीव' शब्द आगम में एकार्थक हैं, इसलिए जीव अध्ययन का विवेचन होने के पश्चात् 'आत्मा' के पृथक् अध्ययन की आवश्यकता नहीं रहती है, तथापि 'आत्मा' शब्द से आगम में जो विशिष्ट विवेचन उपलब्ध है, उसे इस अध्ययन में संकलित किया गया है।
१ स्थानांगसूत्र ४/४, सूत्र ३०७
२. पण्डितमरण अथवा समाधिमरण के सम्बन्ध में विशेष जानकारी हेतु 'प्रकीर्णक साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा' (प्रकीर्णक साहित्य मनन और मीमांसा, उदयपुर) लेख द्रष्टव्य है।
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