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गर्भ अध्ययन : आमुख
इस गर्भ अध्ययन में उन जीवों के जन्म का विवेचन है जो गर्भ से जन्म ग्रहण करते हैं। इसके साथ ही विग्रहगति एवं मरण का भी विशद वर्णन है। यह अध्ययन वक्कंति (व्युत्क्रान्ति) अध्ययन का पूरक अध्ययन है।
कुछ जीवों का जन्म सम्मूच्छिम जन्म कहलाता है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि जीवों का जन्म इसी श्रेणी में आता है। देवों एवं नैरयिकों का जन्म बिना माता-पिता के संयोग के होने से उपपात जन्म कहलाता है। मनुष्य, पशु, पक्षी आदि कुछ जीव ऐसे हैं जिनका जन्म गर्भ से होता है।
चौबीस दण्डकों में से मात्र दो दण्डकों के जीवों का जन्म गर्भ से होता है-१. मनुष्य और २. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का। इन दोनों के चर्मयुक्त पर्व होते हैं। ये दोनों शुक्र और रक्त से उत्पन्न होते हैं। ये दोनों गर्भ में रहते हुए आहार ग्रहण करते हैं तथा वृद्धिंगत होते हैं। गर्भ में रहते हुए इनकी हानि, विक्रिया, गतिपर्याय, समुद्घात, कालसंयोग, गर्भ से निर्गमन और मृत्यु होती है।।
गर्भधारण करने व न करने के सम्बन्ध में स्थानांग सूत्र में बहुत सी बातें दी गई हैं। पाँच कारणों से स्त्री पुरुष का सहवास न करती हुई भी गर्भ धारण कर सकती है-१. कुआसन से बैठी स्त्री की अनावृत योनि में शुक्रपुद्गल चले जाने से २. शुक्र-पुद्गलों से युक्त वस्त्र को योनि-देश में प्रविष्ट कराने पर ३. स्वयं ही अपने हाथ से शुक्र-पुद्गलों को योनि देश में प्रवेश कराने पर ४. दूसरे के द्वारा शुक्र-पुद्गलों को योनि-देश में प्रवेश कराने पर ५. शीतोदक में स्नान करती हुए स्त्री के योनि स्थान में शुक्र-पुद्गलों के प्रवेश कर जाने से। पाँच कारणों से स्त्री पुरुष का सहवास करती हुई भी गर्भ धारण नहीं करती है-१. स्त्री के पूर्ण युवति न होने पर २. यौवन बीत जाने पर ३. जन्म से ही वंध्या होने पर ४. रोगयुक्त होने पर ५. शोकग्रस्त होने पर। ऐसे पाँच-पाँच अन्य कारण और भी हैं जिनसे स्त्री पुरुष का सहवास प्राप्त करके भी गर्भ धारण नहीं करती है, यथा-१. स्त्री के सदा ऋतुमती रहने पर २. कभी भी ऋतुमती न होने पर ३. गर्भाशय के नष्ट हो जाने पर ४. गर्भाशय की शक्ति क्षीण होने पर तथा ५. अप्राकृतिक क्रीड़ा करने पर। अन्य पाँच कारण हैं-१. ऋतुकाल में वीर्यपात होने तक पुरुष का सेवन न करने से २. समागत शुक्र पुद्गलों के विध्वस्त हो जाने से ३. पित्त प्रधान शोणित के उदीर्ण होने से ४. देव, कर्म, शाप आदि से ५. पुत्र-फलदायी कर्म के अर्जित न होने से।
मानुषी स्त्रियों के गर्भ चार प्रकार के होते हैं-१. स्त्री के रूप में, २. पुरुष के रूप में, ३. नपुंसक के रूप में, ४. बिम्ब विचित्र आकृति के रूप में। शुक्र अल्प और रज अधिक होने पर स्त्री, शुक्र अधिक और रज अल्प होने पर पुरुष, रज व शुक्र समान होने पर नपुंसक तथा वायुविकार के कारण स्त्री रज के स्थिर होने पर बिम्ब उत्पन्न होता है। गर्भस्थ जीव शुभ भावों से काल करने पर देवलोक में उत्पन्न होता है तथा अशुभ भावों से काल करने पर नरक में जाता है। गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव इन्द्रिय सहित भी उत्पन्न होता है तथा इन्द्रिय रहित भी उत्पन्न होता है। भावेन्द्रियों की अपेक्षा वह इन्द्रियों सहित उत्पन्न होता है तथा द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा वह इन्द्रियरहित उत्पन्न होता है। इसी प्रकार गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव तैजस एवं कार्मण शरीरों की अपेक्षा सशरीर उत्पन्न होता है तथा औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों की अपेक्षा शरीर रहित उत्पन्न होता है। गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श परिणाम से परिणमित होता है। __विभिन्न गओं की काल-स्थिति भिन्न-भिन्न होती है। उदक गर्भ-जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक उदक गर्भ के रूप में रहता है। तिर्यग्योनिक गर्भ जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आठ वर्ष तक तिर्यग्योनिक गर्भ के रूप में रहता है। मानुषी गर्भ जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष तक मानुषी गर्भ के रूप में रहता है। काय-भवस्थ जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौबीस वर्ष काय-भवस्थ के रूप में रहता है। मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च सम्बन्धी योनिगत वीर्य योनिभूत जननशक्ति के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक रहता है। गर्भगत जीव पर माता के सुखी दुःखी होने, लेटने, जागने आदि का प्रभाव होता है। प्रसवकाल में गर्भगत जीव सिर या पैरों से बाहर आने पर भलीभाँति आ जाता है किन्तु टेड़ा निकलने पर मर जाता है।
गर्भगत जीव के शरीर में माता के तीन अंग होते हैं-१. माँस, २. शोणित और ३. मस्तिष्क। पिता के भी तीन अंग होते हैं-१. हड्डी, २. मज्जा, और ३. केश, दाड़ी, मूंछ, रोम व नख । माता-पिता के वे अंग जीव के भवधारणीय शरीर रहने तक रहते हैं, उसके नष्ट होने पर नष्ट हो जाते हैं। यह जीव सभी गतियों में अनन्त बार जन्म ले चुका है। सभी जीव सबके माता-पिता, भाई, बहन आदि बन चुके हैं।
विग्रहगति पर भी इस अध्ययन में विस्तृत विचार हुई है। जीव कदाचित् विग्रहगति को प्राप्त होता है और कदाचित् विग्रह गति को प्राप्त नहीं होता। विग्रह गति में प्रायः एक समय, दो समय या तीन समय लगते हैं, किन्तु एकेन्द्रिय जीवों की विग्रहगति में चार समय तक लग जाते हैं। सात प्रकार की श्रेणियाँ हैं-ऋज्वायता (सीधी), एकतोवक्रा (एक मोड़ वाली), उभयतोवक्रा (दो मोड़ वाली) आदि। इनमें जो जीव ऋज्वायता श्रेणी से उत्पन्न
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