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Trai ने इन तीनों का पारमार्थिक प्रत्यक्षात अनुगामी, अननुगामी, हीयमान, वधमान
तीनों लोकों एवं तीनों कालों की
अज्ञान का अर्थ विपरीत ज्ञान है, ज्ञान का अभाव नहीं। ज्ञानी भी जानता है एवं अज्ञानी भी जानता है, किन्तु दोनों की दृष्टि भिन्न होती है। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होता है जबकि ज्ञानी सम्यग्दृष्टि होता है। मिथ्यादृष्टि का ज्ञान 'अज्ञान' कहा जाता है तथा सम्यग्दृष्टि का ज्ञान 'सम्यग्ज्ञान' कहा जाता है।
मन एवं इन्द्रियों की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। इसे ही आगमों में आभिनिबोधिकज्ञान कहा गया है। मतिज्ञान में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान (संज्ञा), तर्क (चिन्ता) और आभिनिबोध (अनुमान) का भी समावेश हो जाता है। श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। यह संकेतग्राही ज्ञान है। मतिज्ञान से फलित होने वाला ज्ञान है। मति एवं श्रुतज्ञान इन्द्रिय एवं मन के सापेक्ष होने के कारण परोक्ष कहे गये हैं। नन्दीसूत्र में एक अपेक्षा से इन्द्रिय से होने वाले ज्ञान को भी प्रत्यक्ष कहा गया है। यही नहीं जैनदर्शन में जो प्रमाणमीमांसा का विकास हुआ उसमें भी इन्द्रिय एवं मन से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष की श्रेणी में लेते हुए सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष नाम दिया गया है।
अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान में इन्द्रिय एवं मन की अपेक्षा नहीं होती। ये तीनों ज्ञान सीधे आत्मा से होने के कारण प्रत्यक्ष कहे गये हैं। दार्शनिकों ने इन तीनों का पारमार्थिक प्रत्यक्ष या मुख्य प्रत्यक्ष नाम दिया है। अवधिज्ञान में आत्मा के द्वारा रूपी द्रव्यों को एक निश्चित क्षेत्र तक प्रत्यक्ष रूप से जाना जाता है। अवधिज्ञान अनुगामी, अननुगामी, हीयमान, वर्धमान, प्रतिपाती एवं अप्रतिपाती के भेद से छह प्रकार का होता है। मनःपर्यायज्ञान में दूसरे के मन की पर्यायों को जाना जाता है। केवलज्ञान के द्वारा तीनों लोकों एवं तीनों कालों की समस्त पर्यायों को जान लिया जाता है। केवलज्ञान का दूसरा नाम अनन्तज्ञान भी है। इस ज्ञान के प्राप्तकर्ता को अनन्तज्ञानी या सर्वज्ञ भी कहा जाता है। सर्वज्ञ को कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है। संयत ___ 'संयम' शब्द चरणानुयोग का विषय है, किन्तु संयमपालक संयत-व्यक्ति द्रव्यानुयोग का विषय बनता है। इसलिए संयत की चर्चा द्रव्यानुयोग में की गई है। सांसारिक जीवों को तीन भागों में विभक्त किया जाता है-(१) संयत, (२) संयतासंयत और (३) असंयत। महाव्रतधारी साधु-साध्वियों को संयत, पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकों को संयतासंयत एवं शेष (प्रथम से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती) जीवों को असंयत कहा जाता है। कोई जीव सम्यग्दृष्टि होने पर भी तब तक असंयत ही बना रहता है जब तक वह देशविरत या सर्वविरत न हो जाय। संयत सर्वविरति चारित्र से युक्त होते हैं। चारित्र के पाँच भेदों के आधार पर संयत भी पाँच प्रकार के कहे गये हैं-(१) सामायिक संयत, (२) छेदोपस्थापनीय संयत, (३) परिहारविशुद्धि संयत, (४) सूक्ष्मसंपराय संयत और (५) यथाख्यात संयत।'
संयतों अथवा साधुओं को आगम में 'निर्ग्रन्थ' भी कहा गया है। निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के होते हैं-(१) पुलाक, (२) बकुश, (३) कुशील, (४) निर्ग्रन्थ और (५) स्नातक। संयमवान् होते हुए भी जो साधु किसी छोटे-से दोष के कारण संयम को किंचित् असार कर देता है वह पुलाक कहलाता है। बकुश वह श्रमण है जो आत्म-शुद्धि की अपेक्षा शरीर की विभूषा एवं उपकरणों की सजावट में अधिक रुचि रखता है। कुशील निर्ग्रन्थ दो प्रकार का होता है-(१) प्रतिसेवना कुशील और (२) कषाय कुशील। जो साधक ज्ञान, दर्शन, चारित्र, लिंग एवं शरीर आदि हेतुओं से संयम के मूलगुणों या उत्तरगुणों में दोष लगाता है उसे प्रतिसेवना कुशील कहते हैं। कषाय कुशील संयम के मूलगुणों एवं उत्तरगुणों में दोष नहीं लगाता, किन्तु संज्वलन कषाय की प्रकृति से वह युक्त होता है। 'निर्ग्रन्थ' भेद में कषाय प्रकृति एवं दोषों के सेवन का सर्वथा अभाव होता है। उसमें सर्वज्ञता प्रकट होने वाली रहती है तथा राग-द्वेष का अभाव हो जाता है। 'निर्ग्रन्थ' शब्द का वास्तविक अर्थ 'राग-द्वेष की ग्रन्थि से रहित' इसमें पूर्णतः घटित होता है। यह निर्ग्रन्थ वीतराग होता है। सर्वज्ञतायुक्त निर्ग्रन्थ 'स्नातक' कहे जाते हैं। पंचविध निर्ग्रन्थों में यह सर्वोत्कृष्ट स्थिति है।
संयत को प्रमत्त संयत एवं अप्रमत्त संयत की दृष्टि से भी विभक्त किया जाता है। प्रमत्त संयत साधु छठे गुणस्थान में रहता है तथा सातवें से वह अप्रमत्त दशा में रहता है।
लेश्या
सयोगी आत्मा के शुभाशुभ परिणाम लेश्या कहलाते हैं। लेश्या का सम्बन्ध योग से है। जब तक योग है तब तक लेश्या है, मन-वचन-काया की प्रवृत्तिरूप योग का अभाव होने पर लेश्या का भी अभाव हो जाता है। आवश्यकसूत्र की हारिभद्रीय टीका में लेश्या को परिभाषित करते हुए कहा गया है-"श्लेषयन्त्यात्मानमष्टविधेन कर्मणा इति लेश्याः।" अर्थात् जो आत्मा को अष्टविध कर्मों से श्लिष्ट करती है, वह लेश्या है। एक अन्य परिभाषा 'लिम्पतीति लेश्या' (धवला टीका) के अनुसार जो कर्मों से आत्मा को लिप्त करती है, वह लेश्या है। कर्मबंधन में प्रमुख हेतु कषाय और योग हैं। योग से कर्मपुद्गलरूपी रजकण आते हैं। कषायरूपी गोंद से वे आत्मा पर चिपकते हैं, किन्तु कषाय-गोंद को गीला करने वाला जल 'लेश्या' है। सूखा गोंद रजकण को नहीं चिपका सकता। इस प्रकार कषाय और योग से लेश्या भिन्न है। सर्वार्थसिद्धि, धवला टीका आदि ग्रन्थों में कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहा गया है।
लेश्या मुख्यतः दो प्रकार की होती है-(१) द्रव्यलेश्या और (२) भावलेश्या। मन, वचन एवं काया के माध्यम से जो आत्म-भावों की अभिव्यक्ति है, वह द्रव्यलेश्या है। द्रव्यलेश्या पौद्गलिक होती है और भावलेश्या अपौद्गलिक। द्रव्यलेश्या में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं, भावलेश्या अगुरुलघु होती है एवं वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से रहित होती है।
द्रव्य एवं भाव-इन दोनों प्रकार की लेश्याओं के छह भेद हैं-(१) कृष्णलेश्या, (२) नीललेश्या, (३) कापोतलेश्या, (४) तेजोलेश्या,
१. विस्तृत परिचय के लिए द्रव्यानुयोग, भाग २, पृ. ७९० पर आमुख देखा जाय।
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