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चन्द्र सिंधु तो नाहि रहे करे स्वर्ग में वास । जिनके दृढ़ उपदेश से नष्ट होय भव त्रास ॥ कुंथसागराचार्य भी थे रत पर उपकार । मिष्ठ सुधा सम वचन थे छोड़ गए संसार ।। सबको बंदू भाव से नत मस्तक मतिमान ।
जिनवाणी दुःखहारिणी हो से हो कल्याण ॥" परमपूज्य आचार्य नमिसागर जी महाराज की कठोर तपश्चर्या, व्रतविधान एवं शरीर के प्रति उनका अनासक्त भाव आचार्यरत्न के लिए प्रेरणा का विषय रहे हैं । दशलक्षण धर्म में उत्तम तप का विवेचन करते हुए महामुनि नमिसागर जी महाराज का चित्र उनकी आंखों में तैर जाता है और वे उनके जीवन के अनेक प्रसंगों को उदाहरण रूप में प्रस्तुत करते हैं। यथा
"एक बार आचार्य नमिसागर जी महाराज रोहतक गये। उनके पास एक हठयोगी आया। वह हठयोग-प्राणायाम आदि का अच्छा अभ्यासी था। उसने महाराज से चर्चा करते हुए कहा-मन को रोकने के लिए केवल प्राणायाम ही सर्वोत्तम साधन है। जो प्राणायाम नहीं कर सकता, वह साधु नहीं है । उसने प्राणायाम करके भी बतलाया। फिर बोला-आप क्या जानते हैं ? नमिसागर जी महाराज उससे बोले-ठीक है। कौन ज्यादा जानता है ? चलो, धूप में बैठें। दो घण्टे में हठयोगी घबड़ाकर भाग गया !"
अपने दादा धर्मगुरु आचार्य श्री पायसागर जी के चरणों में तो उनका अप्रतिम श्रद्धाभाव है। अपने धर्मगुरु की अनुपस्थिति में वे उन्हें ही गुरु मानकर चलते हैं। प्रत्येक मंगल अवसर पर वे उनके आशीर्वाद एवं आदेश की आकांक्षा करते हैं। धर्मसभाओं में भी वे उनके दिव्य गुणों का श्रद्धापूर्वक उल्लेख किया करते हैं। यथा
"दक्षिण में एक धर्मात्मा श्रावक था। वह एक दिन पूजा करने का द्रव्य लेकर जा रहा था। रास्ते में एक बगीचा पड़ता था। जब उसके सामने से बह निकला तो एक सांप ने निकल कर घुटने पर उसे काट खाया। उसने समझ लिया कि अब मृत्यु निश्चित है। वहां से पांच मील पर आचार्य पायसागर जी महाराज ठहरे हुए थे। वह दौड़ा-दौड़ा महाराज के पास पहुंचा और बोलामहाराज मुझे मरना है। जल्दी संस्कार करो। उसने तत्काल क्षुल्लक दीक्षा ले ला । महाराज बीजाक्षर मंत्र पढ़ते रहे। धीरे-धीरे उसका जहर उतर गया और ठीक हो गया। उनका नाम सुबल महाराज था।"
इस संबंध में विशेष रूप से यह स्मरणीय है कि श्री देशभूषण जी ने 'आचार्य पद' के गुरुतर दायित्व को ग्रहण करने से पूर्व सूरत की जैन समाज से स्पष्ट रूप में कह दिया था कि मैं अपने दादा धर्मगुरु श्री पायसागर जी की अनुमति एवं आशीर्वाद के बिना कभी भी इस दायित्व को ग्रहण नहीं करूंगा। उनके दृढ़ संकल्प के सम्मुख नतमस्तक होकर सूरत का जैन समाज आचार्य श्री पायसागर जी महाराज के चरणों में आवश्यक निवेदन के लिए गया था। परमपूज्य पायसागर जी महाराज तो शायद इस अवसर की तलाश में ही थे। उन्हें श्री देशभूषण जी जैसे शिष्य पर अभिमान था। वे उनके अन्दर की छिपी हुई रचनात्मक एवं आत्मिक शक्ति से भलीभांति परिचित थे। अतः उन्होंने प्रफुल्लित मन से धर्म की बेल को हरा-भरा करने के लिए श्री देशभूषण जी को आचार्य पद पर अभिषिक्त करने की आज्ञा दे दी।
ऐसी गौरवशाली है आचार्य रत्न श्री देशभूपण जी की गुरु-परम्परा और धन्य हैं गुरु-परम्परा का निर्दोष पालन एवं आचरण करने वाले आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज । साधना के पथ पर
श्री पायसागर जी एवं आचार्य श्री जयकीति जी के निकट सम्पर्क में आकर बालगौड़ा का अकस्मात् कायाकल्प हो गया। मुनि श्री जयकीति जी महाराज ने इन्हें निकटभव्य जीव जानकर सदाचार एवं संयम का मंगल पाठ पढ़ाया। उनकी पावन प्रेरणा से बालगौड़ा ने इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके जैनधर्म शास्त्रों में वर्णित अभक्ष्य भोजन को सदा-सदा के लिए छोड़ दिया। आचार्य श्री जयकीति जी ने इनके सर्वाङ्गीण विकास की भावना से इन्हें स्वाध्याय के लिए प्रेरित किया। बाल गौड़ा ने पूज्य गुरु की प्रेरणा से जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, द्रव्यसंग्रह, धनंजय नाममाला, सर्वार्थसिद्धि इत्यादि ग्रन्थों का पारायण किया और साथ ही संस्कृत भाषा का विशेष अध्ययन किया । एक आदर्श धर्मगुरु के रूप में उन्होंने बालगौड़ा को संस्कारित करने के लिए कठोर अनुशासक के दायित्व का भी निर्वाह किया।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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