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अनेकान्त
[वर्ष १०
योंके मंगलमय क्रीडागृह हैं, नरेन्द्र और देवेन्द्र आपके करूँ ?-मुझसे आपका भजन अथवा अाराधन बनता चरण-कमोलमें नतमस्तक हैं, आप सर्वज्ञ है, सर्व-प्रति- ही नहीं ।" शयोंकी प्रधानताको प्राप्त है, चिरकालसे जयवान् हैं, त्वत्तः सुदुःप्राप्यमिदं मयाऽऽप्तं ज्ञानकलाके निधान हैं, तीनों जगतके आधार हैं, कृपा-दया
रत्नत्रयं भूरि-भव-भ्रमेण । के अवतार हैं, संसारके विकार जो दुनिवार हैं उनको दूर प्रमाद-निद्रा-वशतो गतं तत् करनेवाले वैद्य हैं और विज्ञों-गणधरादिक मुनिवरोंके
कस्याऽग्रतो नायक पूत्करोमि ।।६।। स्वामी हैं; (इन गुणोंके कारण) में आपके प्रति मुग्ध ___'मैंने यह रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और है और उस मुग्धभावके कारण ही प्रापसे अपनी कुछ सम्यकचारित्ररूप तीन रनोंका समूह-जो बड़ा ही दुर्लभ
हृद्गत भावाका बिनम्र सूचना करता हू ।' है, बहुत कुछ संसार-परिभ्रमणके बाद आपसे प्राप्त किया किं बाल-लीला-कलितो न बालः
था, प्रमाद और निन्द्रा (अज्ञानता) के वश वह सब जाता पित्रोः पुरो जल्पति निर्विकल्पः ? रहा है अतः हे नायक ! अब मैं उसके लिए किसके आगे तथा यथार्थ कथयामि नाथ
पुकार करूँ अथवा अपना रोना राऊँ ? आपके सिवाय निजाऽऽशयं साऽनुशयस्तवाऽग्रे॥३॥ दूसरा कोई भी नज़र नहीं पाता। 'क्या बाल-लीलासे युक हुश्रा बालक निर्विकल्प
मन्ये मना यन्न मनोज्ञवृत्तं होकर-बिना किसी झिजकके-माता-पिताके सामने स्पष्ट
__ त्वदाऽऽस्य-पीयूष-मयूख-लाभात् । नहीं बोलता है? बोलता ही है। उसीप्रकार हे नाथ !
द्रतं महाऽऽनन्द-रसं कठोरमैं पश्चात्तापसे युक्त हुआ अपने श्राशयको यथार्थरूपमें
मम्मादृशां देव तदश्मतोऽपि ||७|| आपके आगे निवेदन करता हूं।"
'इस बातको मैं मानता हूं कि हमारे जैमोंका जो दत्तं न दानं परिशीलितं तु
मन अमनोज्ञवृत्त था-पच्चारित्रसे युक्त न था-और न शालि-शीलं न तपोऽभितप्तम् ।
पत्थरसे भी कठोर था वह आपके मखमे उत्पन्न हुए शुभो न भावोऽप्यभवद्भवेऽस्मिन्
अमृत-कणोंके लाभस-वचनाऽमृतको पाकर-एकबार विभो मया भ्रान्तमहो मुधैव ।।४।।
महा अानन्दरसके रूपमें द्रवीभूत होगया था।' '(वस्तुतः) मैंने दान नहीं दिया, उत्तम स्वभावका
वैराग्य-रंगः पस्वञ्चनाय परिशीलन नहीं किया--उसे नहीं अपनाया, और न कोई तप
धर्मापदेशो जन-रंजनाय । तपा है, शुभ भाव भी इस भवमें मेरा नहीं हुआ, इमसे
वादाय विद्याऽध्ययनं च मेऽभूत् हे प्रभो ! खेद है कि मैंने वृथा ही भ्रमण किया है,
कियबुवे हास्यकर स्वमीश ॥८॥ दग्धोऽग्निना क्रोधमयेन दटो
'मेरा वैराग्य रंग दूसरोंको ठगनेके लिये, मेरा धर्मोपदेश दुष्टेन लोभाख्य-महोरगेण ।
लोगोंको खुश करनेके लिये और मेरा विद्याध्ययन वादके प्रस्तोऽभिमानाऽजगरेण माया
लिये हुआ-यही उसका फलितार्थ निकला ! हे ईश ! मै जालेन बद्धश्च कथं भजे त्वाम् ॥शा अपनी हंसी करानेव ला वृत्तान्त कितना कहूँ ।' 'क्रोधमयी अग्निसे मैं दग्ध रहा हूँ, लोभ नामके पराऽपवादेन मुखं सदोषं दुष्ट महासर्पने मुझे डस रखा है, अभिमानरूपी अजगर
नेत्रं पर-स्त्री-जन वीक्षणेन । मुझे निगले हुए है और मायाजालसे मैं बँधा हा हूँ,
चेतः पराऽपाय-विचिन्तनेन ऐसी स्थिति में (हे भगवन् !) मैं आपका कैसे भजन कृतं (ती) भविष्यामि कथं विभोऽहम ॥६॥