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अध्यात्म-नगन
वाद और प्रतिवाद कार माग अपने माने निश्निर और यथावं वात कहते हो, इस प्रकार जोग तेरी पाणी नाग और अमन याने वैल की तरह गोल-गाल कर पाते रहते हैं, वे भी किसी ना मिरा नहीं पाते।
इनीलिए कहा है-'तप्रनिष्ठ' ता. विना देद के नारे शानद पर जगह प्रतिष्ठित (यिर) नहीं हो पाता ।
इसलिए परमा-ममाग का विचार भी केचन तर्ण दाग करने पर निकाय अनुभवहीन या भावहीन गुण वादविवाद के और कुछ पता नहीं पहना । योथी दलीलो, या गप्न तफा में व्यक्ति किसी एक. नतीने पर नहीं पहुँच पाते । यही कारण है छहो दर्शन अपने-अपने मत वो तर द्वाग प्रमागिन करते है, मिन कर समन्वय नहीं कर पाते। चर्चा करने वाले जब अपने-अपने हेतुओ द्वारा अपने मतागृहीत पक्ष को मिद्ध करने का प्रबल करते हैं. नव सत्यगोधन के बदन केवल विद्वत्ता का प्रदर्शन दिया जाना है। नर-विनर वारने वालो मे जिनाना देवदने प्राय विजिगीपा पाई जाती है। क्रियामाग मे भी तत्त्वनान की तन्ह अपनी मानी हुई क्रियाओं को मत्य नया बीनगगमार्गानुकूल सिद्ध करने के लिए तों का बहुत दुपयोग किया जाता है तथा, परन्पर आक्षेप करके जिज्ञासावुद्धि मे प्रष्ट हो कर दूनरो यो नीचा दिखाने वदनाम करने या हराने की दुद्धि मुन्य बन जाती है। मतलब यह है कि सम्प्रदाय-मत-पथ के भेद, खीचातान, दुराग्रह, सत्यान्वेषणवृत्ति के बदले अपने अभिमत को सत्य सिद्ध करने के लिए मानवसुलभ अवृत्ति-पोषण के कारण वर्तमान स्थिति मे सत्यशोधन या वीतराग-परमात्ममार्ग का पर्यवलोपन या निर्णय कोरे तकं द्वारा होना अतीव दुप्कर है।
वस्तु का यथार्यत्प मे कयन करने वाले विरले हैं इससे पहले पूर्वोत सभी उपायो द्वारा वीतरागमार्ग के निर्णय के सम्बन्ध मे विचार किया गया, लेकिन ऐसा कोई भी उपाय मफल नहीं मालूम पडना, जिमसे यथार्य निश्चय किया जा सके।
अत श्रीआनन्दधनजी कहते है कि अब तो यह इच्छा होती है कि वस्तु जैसी और जिस प्रकार की है, उसे वसी और उसी प्रकार में जो यथार्यरूप में