Book Title: Trishashtishalakapurushcharitammahakavyam Parva 1
Author(s): Hemchandracharya, Charanvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् प्रथम पर्व सम्पादक: मुनिराज श्रीचरणविजयजी महाराज anim I RIT MOSooo શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ચ प्रकाशक: कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण-सरकारनिधि अहमदाबाद Jain Education international Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य विरचितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् प्रथमं पर्व सम्पादक: मुनिराज श्रीचरणविजयजी महाराज IMARATHI 6000-0-0-0:00 TVAN શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ચ नन्न सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें. कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण-संस्कारनिधि अहमदाबार आर्थिक सहयोग : श्रीजैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक बोडिंग, अहमदाबाद Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण समताभरी साधुताना साधक, गीतार्थ भगवन्तोनी रहस्यवादी परम्पराना अन्तिम स्तम्भ अमन्य आत्मरमणताना स्वामी परमपूज्य आचार्य भगवन्त श्रीविजयोदयसूरीश्वरजी महाराजना पुण्य स्मरणमां........ -शीलचन्द्र विजय जीवन्त अन्तःसलिला सरस्वती निहाळी में "श्री उदय' स्वरूपमा गम्भीरता, व्याप, अगाधता छतां प्रवर्शनाटोप न नाण-नीरनो Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यनी नवमी जन्म शताब्दीना उपलक्ष्यमा तेमनी महान काव्य रचनास्वरूप त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र नामक ग्रंथनु पुनर्मद्रण करतां अमे अपार हर्षनो लागणी अनुमवी छोओ. छत्रीश हजार श्लोकोमा पथरायेला अने २४ तीर्थकर भगवन्तो तथा अन्य शलाकापुरुषोनां विशव अने विस्तृत चरित्रो वर्णवतो आ ग्रंथ जैन संघना संस्कृत तेमज ऐतिहासिक साहित्यमां अपूर्व अलंकार स्वरूप ग्रंथ छे. आ ग्रंथनु पठन पाठन, तेनी रचना यइ त्यारथी मांडीने आज पर्यत जन संघमां अविरतपणे चाल्या ज कयु छ अने हजी पग एज प्रकारे ते ग्रंथ बंचातो रहेशे ते निःसन्देह छे.. आ ग्रंथनी एक करतां वधु आवत्तिओ, जुदा जुवा स्थळेथी प्रगट थइ छे. अने आजना फोटोस्टेट के ओफसेट मुद्रण पद्धतिना झडपी समयमा तो अत्यन्त झडपथी तेनी नकलो छपाइ रही छे, जे आ ग्रन्थनी मांग अने उपयोगितान द्योतन करे छे. परन्तु आ महानन्थन, जुदी जुदी प्राचीन ताडपत्रीय तथा अन्य हाथपोथोओना आधारे संशोधन करी, तेनी शुद्ध वाचना तथा उपलब्ध पाठांतरोनी नोंघ तथा विशिष्ट टिप्पणी वगेरे तैयार करवा पूर्वक आ ग्रन्थ प्रगट पाय ते अत्यन्त जरूरी हतु. केम के आ ग्रन्थ मात्र जैन साधु साध्वीओमा जनहि, पण जैनेतर समाजमा तेम ज विदेशी विद्वज्जगतमां पण खूब जिज्ञासापूर्वक वंचातो रह्यो छे अने या ग्रन्थना गूजराती ज नहि, पण विदेशी विद्वाने करेल अंग्रेजी अनुवादो पण प्रगट थया छे. आ संयोगोमां आ ग्रन्थना समीक्षित-संशोधित-शुद्ध वाचना तैयार करवी अत्यन्त अनिवार्य गणाय. आ वात आजथी छ दायका अगाउ व्यायांभोनिधि परमपूज्य जैनाचार्य श्री आत्मारामजी महाराजना पट्टधर पंजाबकेशरी परमपूज्य आचार्य श्रीविजयवल्लभसूरीश्वरजी म. ना प्रशिष्य विद्वत्प्रवर परमपूज्य मुनिराज श्री चरणविजयजी म. ना ध्यान पर आवी हती, अने सम्पूर्ण त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्रना सम्पायननु महान कार्य तेओओ आरंभ्यु हतु, जेना फळस्वरूपे वि. स. १९९२ (ई. १९३६) मां आ महाग्रन्थनो प्रथम पर्वात्मक प्रथम भाग, पुस्तकाकारे तेम ज प्रताकारे, भावनगरनी श्रीजैन आत्मानन्द समा तरफथी प्रगट थयो हतो. दुर्भाग्ये, पछी थोडा ज समयमा सम्पादक मुनिराज काळधर्म पामी जतां, बीजा भागनू शरु थयेलं काम अधूरुं रह जे त्यार पछी आगम प्रभाकर पूज्य मुनिराज श्रीपुण्य विजयजी महाराजे पूरुं करी आप्यु, अने ते बीजो भाग वि. सं. २००६ मां (ई-१९५०) ते ज सभा तरफथी प्रगट थयो हतो. आ बोजा भागमां २-३-४ पर्वोनो समावेश थयो छे. सं. २०४५ ना वर्षे, श्री कलिकालसर्वज्ञनी नवमी जन्मशताब्दीन निमित्त पामीने अत्यारे अलभ्यप्राय आ बन्ने मागोनु पनर्मद्रण करवानी तेमज आगळना अवशिष्ट पर्वात्मक भागोन सम्पादन-प्रकाशन करवानी भावना प. पू. आचार्यमहाराज श्रीविजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराज तथा तेमना शिष्य पं. श्रीशीलचन्द्र. विजयजी गणीने थता तेओश्री अमोने प्रेरणा करतां अमोजे ते स्वीकारी लीधी. अने प्रथम तबकामां आजे तद्दन अप्राप्य अका प्रथम-द्वितीय भागोनु पुनम द्रण करवान नवकी कयु, जेना फळरूपे प्रस्तुत ग्रन्थ आपना हाथमां छे. आ बन्ने भागोना पनर्मद्रण माटे सम्मति आपवा बदल श्री जैन आत्मानन्द सभा-भावनगरनो अमे घणो घणो आभार मानीओ छोओ. अने आ बन्ने भागोनू झडपी पनर्मुद्रण करी आपवा बबल श्री सरस्वती पुस्तक भण्डार--अमदावावना संचालकोना पण अमे ऋणी छीओ. पुस्तकरूपे प्रगट थतां आ बे भागो आम तो जूनी आवृत्तिनु ऑफसेट पद्धतिथी करेलु पुनर्मुद्रण ज छ, तेम छतां आ आवृत्तिमां थोडांक परिशिष्टोनो उमेरो करवामां आव्यो छे ते आ प्रमाणे Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १मां श्लोकोनो अकाराविक्रम मूकवामां आव्यो छे; बीजा परिशिष्टमां ग्रन्थगत विशेष नामोनी सूचि आपी छ, त्रीजा परिशिष्टमां ग्रन्थगत सूक्ति-कण्डिकाओनु संकलन छे. आ उपरांत प्रथम आवृत्तिमा क्यांक क्यांक अशुद्धिओ रही गयेली जणातां तेनी नोंध करी तेनु शुद्धिपत्रक पण आ मुव्रणमा मूकेल छे. आ बधां परिशिष्टो वगेरे तैयार करवामां. प. पू. मुनिराजश्री नन्विघोष विजयजी, मुनिराज श्रीजिनसेनविजयजी, मुनिराज श्री विमलकीति विजयजो आदिमे तेम ज खंभातवाळां प. पू. साध्वीजी महाराज श्री पूर्णभद्राश्रीजी म. तथा तेमनां शिष्यापरिवारे घणो श्रम लीधो छे. आ ग्रन्थोना सम्पादन माटे उपयुक्त पति तेमज हस्तप्रतिओ आदि विषे जाणकारी जिज्ञासुओने मळी रहे ते हेतुथी मूळ आवृत्तिना सम्पादकोनां निवेदनो यथावत् पुनर्मुद्रित करेल छे. प्रथम बे मागोना पुनर्मुद्रण पछी तबक्कावार बाकीनां पर्वोनी सम्पादित वाचनान प्रकाशन करवानी पण अमारी भावना छ, अने अमोने आनन्द छ के बाकीनां पर्वोनु प्राचीन प्रतिओना आधारे सम्पादन कार्य पं. श्री शीलचन्द्रविजयजी करी रह्या होवाथी टूक समयमां अमारी आ भावना अवश्य साकार बनशे. प्रस्तुत कार्यमां श्री जैन श्वेताम्बर मृतिपूजक बोडिंग अमदाबाद तरफथी अमोने पर्ण आर्थिक सहयोग प्राप्त थयो छे, ते बदल ते संस्थाना संचालकोनो अमे हृदयपूर्वक आभार मानी छोओ. __ अन्तमा, घरदीवडा जेवी अमारी नानकडी संस्थाना माध्यमथी श्रीहेमचन्द्राचार्यना महान अने उपकारक साहित्यनो प्रसार-प्रचार करवानो आवो अवसर अमने वारंवार मळतो रहे तेवी शुभ भावना. ली. ठे. लालमाई दलपतमाईनो । कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति वंडो संस्कार-शिक्षण निधि-अहमदाबादना पानकोर नाका अहमदावाद-१ टूस्टीओ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितस्य प्रथमपर्वणः विस्तरतो विषयानुक्रमणिका । प्रथमः सर्गः। विषयः श्लोकाः विषयः श्लोकाः दायक-ग्राहक-देय-काल-भावभेदेन धोपचतुर्विंशतितीर्थकृतां नामग्राहं स्तुतयः १-२६ ग्रहदानस्य पञ्चविधता १७५-१८६ त्रिषष्टिशलाकापुरुषाः २७-२९ शीलधर्मवर्णनम् १८७ आदौ श्रीऋषभप्रभोश्चरित्रस्योपक्रमः तत्र श्रावकाणां द्वादश व्रतानि १८८-१९४ तत्र प्रथमं धनसार्थवाहभवस्यारम्भः सर्वविरतिस्वरूपम् १९५-१९६ जम्यूद्वीपस्य वर्णनम् तपोमाहात्म्यवर्णनम् १९७ क्षितिप्रतिष्टितनगरे धनसार्थवाहः, तस्यद्धिवर्णनं च ३६-४३ तस्य बाह्याभ्यन्तरभेदाद् द्वैविध्यम्, पुनरेकैकस्य धनस्य वसन्तपुरपत्तने गमनाभिलापः ४४ षषड्भेदाः क्षितिप्रतिष्टितनगरे प्रस्थानभेरीवादनम् . ४५-५० भावनास्वरूपम्, अत्रान्तरे श्रीधर्मघोषसूरीणां समागमनम् । देशनां श्रुत्वा धनस्य स्वस्थानागमनम् २०१-२०३ सूरिं दृष्ट्वा धनस्य सविनयं समागमनकारणपृच्छा, मङ्गलपाठकनिवेदितं प्रातःकालस्य शरदश्च सादृश्यम् २०४-२०७ सूरेः प्रत्युत्तरश्च ५२-५७ अत्रान्तरे ढौकितपक्वाम्रफलानि दृष्ट्वा 'अमूनि फलानि शरदृतुवर्णनम् २०८-२१७ प्रयाणभेरीवादनं, समुत्तीर्णायामटम्यां धनमनुज्ञाप्य गृहीतानुगृह्णीत च माम्' इति सूरिभ्यो धनस्य विज्ञप्तिः५८-५९ सूरीणामन्यत्र बिहारः, धनस्य वसन्तपुरप्रापणं च २१८-२२३ सूरिभिर्निरूपितां साधुचयां निशम्य धनेन तत्र भाण्डानि विक्रीय प्रतिभाण्डानि चादाय कृता सूरीणां प्रशंसा ६०-६२ धनस्य बसन्तपुरं प्रति प्रयाणं, सार्थशोभावर्णनं च ६३-७९ धनस्य सार्थस्य च स्वपुरे प्रत्यागमः २२४-२२५ मार्गे समायातग्रीष्म-वर्षवॉर्वर्णनम् आयुःपूर्णे द्वितीये भवे उत्तरकुरुषु युग्मिधर्मेणोत्पत्तिः २२६-२२७ ८०-९९ मार्गे चिकलत्वं प्रेक्ष्य धनस्याटव्यां निवासः, युगलिकस्वरूपवर्णनम् २२८-२३० धर्मघोषसरिवराणामपि तत्रैव स्थितिः १००-१०२ दशविधकल्पवृक्षवर्णनम् २३१-२३६ धनस्योपालम्भः १०३-१०९ ततो विपद्य तृतीये भवे सौधर्मे देवो जातः २३७-२३८ सार्थस्य, विशेषतः सूरीणां दौःस्थ्यमवलोक्य अपरविदेहे गन्धिलावत्यां विजये गन्धसमृद्धकपुरे उपालम्भं धुत्वा च धनस्य पश्चात्तापः ११०-११६ चतुर्थे भवे शतबलराज्ञश्चन्द्रकान्तायां भार्यायां प्रातरुपाश्रये समागत्य धर्मघोषसूरीणां पुत्रत्वेनोत्पत्तिः २३९-२४१ साधूनां च दर्शनम् ११७-१२४ 'महाबल' इति नामकरणं, यौवने सूरीन्द्रमभिवन्ध स्वापराधक्षामणं, विनयवतीपरिणयनं च २४२-२४९ सूरिभिः सान्त्वनं च १२५-१३४ शतबलराज्ञो वैराग्यम् २५०-२६४ सूरिसमीपे धनस्य साग्रहं भिक्षार्थमभ्यर्थना, महाबलं राज्ये निवेश्य तस्य संयमग्रहणम् २६५-२७९ साधुद्वितयप्रेषणं, साधुभ्यो घृतस्य दानं च १३६-१४१ विषयासक्तं महाबलं वीक्ष्य तं प्रतिबोधयितुं दानप्रभावाद् धनस्य सम्यक्त्वप्राप्तिः स्वयम्बुद्धमनिणो विमर्शः २८०-२९५ रजन्यां पुनः सूरिसन्निधौ धनस्य गमनं, आस्थानसभायामेव तस्मै धर्मोपदेशः २९५-३२३ सूरीणामुपदेशश्च १४४-१४३ तत्र सम्भिन्नमतिमत्रिणः प्रत्युक्तिः, परलोकातत्रादौ धर्मस्य प्रभावः १४६-१५१ भावज्ञापनं च ३२४-३४५ दान-शील-तपो-भावभेदाद् धर्मस्य चातुर्विध्यम् १५२ स्वयम्बुद्धेन कृता युक्तिपुरस्सरं परलोकस्य सिद्धिः ३४६-३७४ तत्र दानधर्मस्य ज्ञाना-ऽभय-धर्मोपग्रहभेदात् त्रैविध्यम् १५३ बौद्धेन शतमतिमत्रिणा स्वमतस्य दृढीकरणम् ३७५-३७६ ज्ञानदानस्य महिमा १५४-१५६ स्वयम्बुद्धेन कृतः क्षणिकवादनिरासः ३७७-३८३ अभयदानवर्णने स्थावर-त्रसभेदेन जीवस्य द्वैविध्यम् १५८ चतुर्थमन्त्रिणा मायावादमरूपणम् ३८४-३८९ पर्याप्तिषट्कप्रपञ्चनम् १५९-१६० स्वयम्बुद्धेन कृतं युक्त्या तस्य खण्डनम् ३९०-३९४ पृथ्वी-जल-तेजो-वायु-वनस्पतिसंज्ञानां सप्रशंसमनवसरोऽयं धर्मोपदेशस्येति राज्ञा कथमम् ३९५-३९९ सूक्ष्म-बादरकेन्द्रियजीवानां स्वरूपम् १६१-१६२ पुना राज्ञे 'धर्ममेवाश्रय' इति स्वयम्बुद्धस्य कथनम् द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रियभेदभिन्नानां सानां परिचयः१६३-१६८ बाल्ये दृष्टस्य धर्मप्रभावाद् दिवंगतस्य अतिअभयदानमाहात्म्यम् १६९-१७४ | बलनाम्नः पितामहस्य वचनस्सारणम् ४०१-४०८ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीक्षेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व ४३२ विषयः श्लोकाः विषयः श्लोकाः शाक्तस्य निर्दयस्य कुरुचन्द्रस्य मरणवेदना, शैलशिरसि केवलिनो युगन्धरमुनेदर्शनं, वन्दनं च ५४८-५५५ अधर्मप्रभावात् सप्तमनरकगमनं च ४०९-४१७ श्रीयुगन्धरकेवलिनो धर्मदेशना ५५६-५५८ तत्पुत्रस्य हरिचन्द्रस्य राज्याभिषेकः, मत्तोऽप्यधिकदुःखितः कोऽप्यस्तीति निर्नामिकया धमें तत्परता च ४१८-४२२ पृष्टे केवलिना चातुर्गतिकदुःखप्रतिपादनम् ५५९-५८५ शीलन्धरकेवलिपार्श्वे देशनाश्रवणं, हिंसा-ऽसत्या-ऽस्तेया-ऽब्रह्म-परिग्रहत्यागोपदेशः ५८६-५९१ स्वपितुर्गतिपृच्छा च ४२३-४२६ सम्यक्त्वादानपूर्व गृहिव्रतान्यादाय निनामिकायाः सप्तमपृथ्वीगमनं श्रुत्वा तस्य प्रव्रज्याग्रहणं, स्वगृहगमनं, विविधतपोविधानं च ५९२-५९६ मुक्तिगमनं च ४२७-४३१ प्राप्तयौवनामपि तां न कोऽपि पर्यणेषित् तेनाऽधुना दण्डकाख्यपार्थिकस्य वृत्तान्तः तत्रैव पर्वते युगन्धरमुनेरग्रे गृहीतानशनां पुत्रादिपरिजनेषु स्वर्णरत्नादिधनेषु चात्यन्तासक्तिवशात् त्वं स्वरूपं दर्शय, ते पनी भवेदिति निवेदनम् ५९७-५९९ दण्डकस्य मरणं, स्वकीये भाण्डा तथैव कृते तस्याः स्वयम्प्रभात्वेनोत्पत्तिः गारेऽजगरत्वेनावतारः ४३३-४३५ अन्यदा स्वच्यवनचिह्नान्यालोक्य ललिताङ्गस्य मणिमालिनाम्ना तस्य पुत्रेणाजगरविलोकनम् ४३६-४३८ क्वापि न रतिः, स्वयम्प्रभया सहालापश्च ज्ञानिमुनिसकाशात् स्वपितुर्वृत्तान्तं ज्ञात्वा तस्य इन्द्रादिष्टदृढधर्मदेववचनात् नन्दीश्वरादिधर्मश्रावणं, आयुःक्षये शुभध्यानादजगरस्य तीर्थयात्रायां सप्रियस्य ललिताङ्गस्य गमनं, देवत्वेनोत्पत्तिः ४३९-४४० शाश्वतप्रतिमार्चनं च ६१९-६२२ पुत्रप्रेम्णा मणिमालिने दिव्यहारसमर्पणम् ४४१-४४२ आयुषि क्षीणे ततश्युत्वा जम्बूद्वीपे पूर्व विदेहे अनवसरे धर्मप्रेरणायाः कारणज्ञापनम् ४४३-४४६ पुष्कलावत्यां विजये लोहार्गलपुरे सुवर्णजवराज्ञो 'धर्म समाचरेति महाबलराशे स्वयम्बुद्धमत्रिणः लक्ष्म्यां पल्यां पुत्रत्वेन जन्म, वज्रजङ्घनामकरणं च ६२३-६२६ पुनर्निवेदनं, राज्ञा कृता तस्य प्रशंसा च ४४७-४४८ स्वयम्प्रभापि च्युत्वात्रैव विजये पुण्डरीकियां अल्पायुः कथं धर्म सानोमीति महाबलस्य शङ्का ४४९ नगयाँ वज्रसेनचक्रिणो गुणवतीपत्नयां स्वयम्बुद्धेन निवेदितमेकदिनाङ्गीकृतप्रवज्याफलम् ४५०-४५१ श्रीमतीनाम्नी सुता जाता ६२७-६२२ खं पुत्रं राज्ये संस्थाप्य महाबलस्य दीक्षाङ्गीकरणं, अन्येधुः प्राप्तयौवना क्रीडाथ सर्वतोभद्रपर्वते गता तत्समय एव चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं च ४५२-४५८ । सा मनोरमोद्याने सुस्थितमुनिकेवलोत्पत्तिमहसि द्वाविंशतिदिनानशनं विधाय समाधिना मृत्वा पञ्चमे देवदर्शनाजातजातिस्मृतिः, मूञ्छिता लब्धसंज्ञा भवे द्वितीये कल्पे श्रीप्रभविमाने ललिताङ्गनाम्ना चाचिन्तयत् ६३०-६३६ देवत्वेनोपपादः ४५९-४६१ पूर्वभवपतिललिताङ्गगतिज्ञानाभावात् दुःखितया तस्य दिव्याकृतिवर्णनम्, ४६२-४६७ श्रीमत्या पण्डिताख्या धात्र्या आग्रहाद् वितर्काकुलस्य तस्य देवैः ईशानकल्पाधिपत्यसूचनम् ४६८-४८९ प्राग्जन्मवृत्तान्तकथनम् ६३७-६४७ उपयोगदानात् पूर्वभवस्मरणं, जिना पुस्तक पटे तत्स्वरूपमालेख्य पण्डितया राजमार्ग स्थापनम् ६४८ वाचनादिकर्मनिर्माणं, लीलासदनगमनं च ४९०-४९८ वज्रसेनचक्रिणो वर्षग्रन्थिमहसि भूरिभूधवसमागमे स्वयम्प्रभादेव्याः स्वरूपम् । ४९९-५१० दुन्तिराजकुमारस्य कपटनाटकं,मित्रादीनामुपहासश्च ६४९-६७० ललिताङ्गस्य तया सह सम्बन्धः लोहार्गलपुराद् वज्रजङ्घस्य तत्र गमनं, पटावआयुःक्षये स्वयम्प्रभायाश्यवनं, ललिताञ्जस्य लोकनान्मूर्छा,पूर्वभवस्वरूपकथनं,तया सहोदाहश्व ६७१-६८८ विलपनं च ५१५-५१९ स्वर्णजङ्घस्य दीक्षाग्रहणं, वज्रसेनस्य दीक्षां गृहीत्वा स्वयम्बुद्धमत्रिण ईशानकल्पे तीर्थकरभवनं च ६८९-६९० दृढधर्मनाम्ना देवत्वेनोपपादः ५२०-५२१ वज्रजङ्घश्रीमत्योः सुतोत्पत्तिः ६९१-६९२ पूर्वभवसम्बन्धाल्ललिताङ्गं प्रति तस्याश्वासनम् ५२२-५२६ सामन्तराजोपद्रुतेन पुष्कलेनाहूतयोः, सामन्तान् मृगयमाणेन मया 'तव प्रिया प्राप्ता' इति विजित्य पुण्डरीकिण्याः पश्चादागच्छतोस्तयोः ललिताङ्गाय कथनम् शरवणवने सागरसेन-मुनिसेनकेवलिदर्शनं, धातकीखण्डे नन्दिनामे दरिदिनागिलनागश्रियोहे तद्देशनाश्रवणं, प्रतिलाभनं च निनामिकाख्यया कन्याषद्कोपरि सुतारवेन जन्म ५२८-५४३ तहिनादेव जातवैराग्ययोः सुखसुप्तयो रात्री निर्नामिकया मोदके याचिते मातुस्तिरस्कारः, राज्यलुब्धपुत्रकृतविषधूपाद् मृत्युः, उत्तरकुरुषु रजु लात्वा अम्बरतिलकपर्वते प्रेषणं च ५४४-५४७ ! । युगलिकरूपेणोत्पत्तिः, ततः सौधर्म सुरौ च ७०७-७१७ ६९३-७०६ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका] त्रिषष्टिशलाकापुरुपचरितम श्लोकाः विषयः श्लोकाः : विषयः वज्रजङ्घजीवस्य जम्बूद्वीपविदेहे क्षितिप्रतिष्टितपुरे वज्रनाभकृतां बाहुसुबाहुप्रशंसां श्रुत्वा सञ्जातामीामसुविधेद्यस्य पुत्रत्वेनोत्पत्तिः, जीवानन्द इति नालोच्य पीठ-महापीठयोः स्त्रीकम्मोपार्जनम् ९०६-९०९ नामकरणं च ७१८-७११ षण्णामपि चतुर्दशपूर्वलक्षांश्चारित्रं प्रपाल्य राजपुत्रमहीधरः, मत्रिपुत्रसुबुद्धिः, सार्थवाइसुत सर्वार्थसिद्धौ गमनम् पूर्णभद्रः, श्रेष्टिपुत्रगुणाकरः, श्रेष्टिपुत्रः श्रीमतीजीवः केशवः, एतेषां षण्णां मैत्री ७२०-७३१ एकदा जीवानन्दवैद्यगृहे एण्णामपि गमनं, तत्र द्वितीयः सर्गः। कुष्ठिमुनिदर्शनं, तच्चिकित्साकरणतत्परता च ७३२-७४५ जम्बूद्वीपापरविदेहेषु अपराजितापुर्यां श्रेष्ठिचन्दनदासरनकम्बल-गोशीर्षचन्द्रनार्थं वृद्धवणिक्पाचे गमनं, कारणनिवेदनं, विना मूल्यं दत्वा वणिजो सुतस्य सागरचन्द्रस्येशानचन्द्रनृपदर्शनार्थगमनं, दीक्षाग्रहणं च मङ्गलपाठकोक्तं वसन्तसमागमं श्रुत्वा राज्ञ पडिरपि मित्रैः कुष्ठिमुनेनिरुजीकरणं, अवशिष्ट उद्यानगमनोदोषणा, सागरचन्द्रायाप्यागमनादेशश्च १-११ गोशीर्षचन्दन रत्नकम्बलं च विक्रीय चैत्यनिर्मपणं च ७५७-७८० राजादेशात् स्वसुहृदाऽशोकचन्द्रेण सह सागरचन्द्रअन्ते षण्णामपि भित्राणां दीक्षाङ्गीकरणं, स्योद्यानयानं, पूर्णभद्श्रेष्टिपुत्र्याः प्रियदर्शनायाअच्युतकल्पे शक्रसामानिकदेवत्वेनोपपत्तिः ७८५-७९०, तब वन्दिभ्यो मोचनं, तयोरन्योन्यमनुरक्तयोः ततश्युत्वा जम्बूदीपविदेहे पुष्कलावत्यां विजये स्वस्वगृहगमनं च १२-२४ वज्रसेनभूपतेर्धारिण्यां राश्यां वैद्यजीवस्य श्रुतवृत्तान्तेन पित्रा साम्ना सागरचन्द्रायानुशासनं, वज्रनाभनाना चक्रवर्तित्वेनोत्पत्तिः नागाध्यशोकचन्द्रमैत्रित्याजनोपदेशश्च २५-४१ राज-मन्त्रि-श्रेष्ठि-सार्थेशपुत्रजीवानां तब्रातृ सागरचन्द्रस्य मनसि नानावितकोद्भवः ४२-५५ त्वेनोत्पत्तिः, अनुक्रमेण बाहु-सुबाहु-पीठ पुत्राभिप्रायदिना पिना पूर्णभद्रात् प्रियदर्शनामहापीठ-नामकरणं, केशवजीवस्य च पाचन तया सहोदाइश्च ५६-६३ 'सुयशा' नाम्ना राजपुत्रत्वेन जन्म ७९४-७५५ सागरनन्द्रे बहिर्गतेऽशोकचन्द्रस्यागमनं, प्रियदर्शनाने एतेषां परस्परं क्रीडादिकरणम् ७९६-८०० वज्रनाभं राज्ये संस्थाप्य लोकान्तिकदेवविज्ञप्त्या दोषप्रकटनं, तत्प्रेमयाचनं, निर्भसितस्य तया बज्रसेनस्य सांवत्सरिकदानपूर्व दीक्षाग्रहण स्वगृहं गच्छतो मार्गे सागरचन्द्रसमागमश्च मन्यत्र विहारश्च ८०-८०३ सागरेणोद्विग्नत्वकारणे पृष्टे 'प्रियदर्शना मां वज्रनाभचक्रिणा सुयशसः सारथित्वे स्थापनम् ८०७-८०८ प्रेमाऽयाचत, कृच्छ्रादात्मानं मोचयित्वेहागमम् , वज्रसेनतीर्थकृतः केवलज्ञानोत्पत्तिः इति तस्यां मिथ्यादौःशिल्यदोषारोपः ७७-९८ ८०९ पुष्कलावतीविजयं संसाध्य चक्रवर्तिभोगान् ततः प्रभृति मन्दस्नेहेऽपि सागरे माऽनयो दो भुजानस्य चक्रिणः समये वैराग्योद्भवः, वज्रसेन भूदिति प्रियदर्शनयाऽशोकचन्द्रवृत्तान्तस्याऽकथनम् ९९-१०६ जिनसमवसृतिश्च ततो विपद्य जम्बूद्वीपस्य भरतक्षेत्रदक्षिणखण्डे तद्देशनां निशम्य राज्यं पुत्रसात् कृत्वा वज्रनाभ गङ्गासिन्ध्वन्तरे सागरप्रियदर्शनाजीवयोचक्रिणो बाहादीनां सुयशःसारथिनश्च दीक्षाग्रहणं, युग्मिरूपेणोत्पत्तिः १०७-११० वज्रसेनतीर्थकृतो निर्वाणगमनं च सामान्येन घडरकावसपिण्युत्सर्पिणीकालचक्रस्वरूपम् १११-११७ धज्रनाभादीनां योगप्रभावात् लब्ध्युत्पत्तिः ८४१-८४३ विस्तरेण प्रथमारकयुग्मिनां स्वरूपम् ११८-१२० खेलौषध्यादीनामष्टाविंशतिलब्धीनां त्रिस्तरतो दश विधकल्पवृक्षव्यावर्णनम् १२१-१२८ वर्णनम् ८४४-८८1 द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-पञ्चम-षष्ठारकस्वरूपम् १२९-१३६ विंशतिस्थानासेवनया वज्रनाभस्य तीर्थ तृतीयारकोत्पन्नयोयुग्मिरूपयोः सागरचन्द्रप्रिय कृनामकमोपार्जनम् दर्शनाजीवयोर्देहमानादिनिरूपणम् विंशतेः स्थानानां सप्रपञ्चं स्वरूपम् ८८३-९०३ प्राग्जन्मकृतमाययाऽशोकचन्द्रस्य तत्रैव श्वेतवैयावृत्यं वितन्वतो बाहुमुनेश्चक्रवर्तिभो वर्णचतुर्दन्तदन्तीभवनम् १४० गकोपार्जनम् प्राम्भवस्नेहोवादनिच्छतोऽपि युग्मिनः मुनीनां विश्रामणां कुर्वतः सुबाहुमुने स्वस्कन्धाधिरोपणं, अन्योन्यदर्शनार्बाहुबलोपार्जनम् ९०५ । भ्यासाजातिस्मृतिज्ञानं च १४१-१४४ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व छा च विषयः श्लोकाः निर्मलगजवाहनत्वान्मिथुनैस्तस्य 'विमलवाहन' नामकरणम् कालदोषेण कल्पवृक्षमन्दीभावे तब ममेति सञ्जायमाने ममत्वे कलहे च विमलवाहनस्य स्वामितया स्थापन, विभज्य कल्पवृक्षदानं, मर्यादाभङ्गे हाकारनीतिविधानं च १४७-१६४ आयुषोऽवशेष चन्द्रयशोभार्यायां सातस्य द्वितीयकुलकरचक्षुष्मचन्द्रकान्ताख्ययुग्मिनो देहमानादिस्वरूपम् विमलवाहनस्य सुपर्णकुमारेषु, चन्द्रयशसो नागकुमारेपु चोत्पादः १६८-१७० चक्षुप्मचन्द्रकान्ताजातस्य तृतीयकुलकरयशस्विस्वरूपाभिधस्य युगलिकयुगलस्य स्वरूपम् १७१-१७४ चक्षुध्मतः सुपर्णेपु, चन्द्रकान्ताया नागकुमारेषु चोत्पादः मिथुनै कारनीत्युल्लङ्घने कृते यशस्विना माकारदण्डयोजनम् अल्पापराधे प्रथमा, मध्यमे द्वितीया, महीयसि नीतिद्वयी प्रयोक्तव्येति व्यवस्थापनम् यशस्विस्वरूपोद्भूतस्य चतुर्थकुलकराभिचन्द्रप्रतिरूपाख्य युगलस्य स्वरूपम् १८०-१८३ यशस्विनोऽब्धिकुमारेषु, सुरूपाया नागकुमारेषु चोत्पत्तिः अभिचन्द्रप्रतिरूपाजातस्य पञ्चसकुलकरप्रसेनजिच्चक्षुष्कान्ताख्ययुगलस्य देहमानवर्णादिस्वरूपम् अभिचन्द्रस्योदधिकुमारेषु, प्रतिरूपाया नागकुमारेषु चोत्पादः १९० प्रसेनजिता हाकार-माकार-धिक्कारनीतित्रयव्यपस्थापनम् प्रसेनजिच्चक्षुष्कान्ताजातस्य षष्टकुलकरमरुदेवश्रीकान्तासंज्ञस्य युगलस्य देहमानादिवर्णनम् १९५-१९८ प्रसेनजितो द्वीपकुमारेषु, चक्षुषकान्ताया मागकुमारेषु चोपपत्तिः मरुदेवश्रीकान्तोत्पन्नस्य सप्तमकुलकरनाभि-- मरुदेवानाम्नो युगलस्य स्वरूपम् २००-२०४ मरुदेवस्य द्वीपकुमारेषु, श्रीकान्ताया नागकुमारेषु चोत्पादः २०६ तृतीयारकस्य सनवाशीतिपक्षेषु चतुरशीतौ पूर्वलक्षेषु शेषेषु आषाढशुक्लचतुर्थ्यामुत्तराषाढानक्षत्रे सर्वार्थसिद्धितश्युतस्य पूर्वोक्तस्य वज्रनाभजीवस्य मरुदेवाकुक्षाववतरणम् प्रसुप्तया मरुदेव्या दृष्टानां वृषभादिचतुर्दशमहास्वमानां विस्तरतः स्वरूपम् २१२-२२६ विषयः श्लोकाः प्रवुद्धया मरुदेव्या भत्रे स्वप्नावलोकन निवेदनं, तेषां फलपृच्छा च २२७-२२९ आसनगकम्पादिन्द्राणां तवागमनं, स्वमार्थस्फुटीकरणं, मरुदेवां प्रणय स्वस्थानगमनं च २३०-२४९ अन्तर्वव्या मरुदेवायाः स्वरूपम् २५०-२६३ चैत्रकृष्णाष्टम्यामुत्तराषाढानक्षत्रे मरुदेव्या युगलस्य प्रसवनम् २६४-२६५ जन्मसमये किं किं जातमिति व्यावर्णनम् २६६-२७२ षट्पञ्चाशहिक्मारिकागमनं, विस्तरेण तत्कृतसूतिकाकर्मवर्णनं च २७३-३१७ शाश्वतवण्टानादः, इन्द्राणामासनकम्पः, सौधर्माधिपतेः कोपः, अवधिना प्रथनजिनजन्मावलोकनं च ३१८-३२५ त्यक्तसिंहासनेन कृताञ्जलिना शक्रेण विहिता प्रथमजिनस्तुतिः मैगमेषिणमाहूय जिनजन्मस्त्रावतवे देवाद्वानादेशः ३३८-३४० नैगमेषिणा सुघोषाधण्टावादनं, देवेभ्यः शहादशश्रावणं त्र ३४१-३४९ आगच्छतां देवानां विविधचर्यावर्णनम् ३५०-३५२ इन्द्रादेशाद् विहितस्य पालकविमानस्य, तत्परितः स्थितानामन्येवामग्रमहीप्यादिविमानानांच वर्णनम् ३५३-३७८ पालकविमानमधिरुह्याग्रस्थितस्य पुरन्दरस्य शोभावर्णनम् ३७९-३९३ गच्छतां देवानामालापवर्णनम् आदौ विमानस्य नन्दीश्वरे लम्पातः, ततो रतिकरपर्वते तत् सद्धिप्य शत्रस्य प्रभुजन्भगृहे समागमनं च ३९९-४०४ प्रभुं तन्मातरं च नरवा स्तुत्वा, मात्रेऽवस्वापनिकां वितीर्य प्रभोः प्रतिच्छन्दं तत्र निधाय शक्रेण पञ्चरूपकरणम् ४०५-४१७ एकेन रूपेणोत्सङ्ग प्रभोर्ग्रहणं, एकेन पृष्ठे छत्रधरणं, पार्श्वयोर्द्वाभ्यां चामरवीजननं, एकेन द्वाःस्थवदनगमनं च ४१८-४२२ मेरोः पाण्डकवनेऽतिपाण्डुकम्बलशिलायां प्रभुमादाय शक्रस्य निषीदनम् ४२३-४३० स्वस्वस्थानात् समागतानां चतुःषष्टेरिन्द्राणां सप्रपञ्चं वर्णनम् ४३१-४७४ प्रथममच्युतेन्द्रकृतजिनाभिषेकवर्णनम् ४७५-५०४ देवघुष्टानां विविधातोद्यानां वर्णनम् जिनाभिषेकसजीकृतानां कुम्भानामम्भसश्च वर्णनम्५१४-५३८ प्रभोः शरीरस्य गन्धकाषाय्येन प्रमार्जनं, गोशीर्षचन्दनादिभिर्विलेपनं च ५३९-५४३ देतया विहितानां विविधक्रियाणां निरूपणम् ५४४-५६८ १९९ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । ६४७ विषयः श्लोकाः विषयः श्लोकाः अच्युतेन्द्रकृतजिनेन्द्रविलेपना-ऽर्चन-वन्दना भोगकर्मावश्यं भोक्तव्यमित्यवधिना ज्ञात्वा नन्तरमन्यद्वाषष्टीन्द्राणां यथाक्रम मात्रख्यापनं च ५६९-५७२ शिरोधूननेन अधोमुखकरणेन च प्रभोरभिप्रायतत ईशानेन्द्रेण पञ्चरूपीभूय जिनग्रहणम्, मुपलक्ष्य शक्रेण विवाहकर्मारम्भाय सद्यो देवाह्वानम् ७६६-७६८ प्रान्ते सौधर्मेन्द्रकृतजिनसान-प्रमार्जना-ऽष्ट आभियोगिकदेवैर्विहितविवाहमण्डपवर्णनम् ७६९-७८४ मङ्गलालेखन-विलेपन-वस्त्रभूषणपरिधा विवाहसामग्र्युपनयनार्थमप्सरसां विविधादेशाः ७८५-७९५ पना-ऽऽरात्रिकोत्तारणादिनिरूपणम् अप्सरोभिः सुनन्दा-सुमङ्गलयोनिखिलवधूयोग्यशक्रन्द्रकृता प्रथमजिनस्तुतिः ६०१-६०९ क्रियानिर्मापणम् ७९६-८२५ विहितपञ्चरूपेण शक्रेणेशानेन्द्रोत्सङ्गात् प्रभोर्ग्रहणं, शक्रनिर्मापिताशेषवरकर्मणा प्रभुणा दिव्ययानमरुदेव्याः सदनमागत्यावस्वापिनी-प्रतिच्छन्दादि मारुह्य मण्डपद्वारागमनम् ८२६-८२९ संहरणं, मातुरुत्सङ्गे प्रभुं निधाय दुकूलयुगल वरवर्णिनीभिः मङ्गलार्थ शरावसम्पुट-रूप्यस्थालरत्नकुण्डलद्वय-श्रीदामगण्ड-वितानादिसंस्थापनं च ६१०-६१९ वैशाखादिस्थापनं, देवस्वीभिर्गीयमानेषु गीतेषु कुबेरमादिश्य जृम्भकसुर्जिनभवने महय प्रभोरर्घ्यदानं च ८३०-८४० वस्तुनिक्षेपणम् ६२०-६२३ वरवध्वोः हस्तमेलापादिकरणम् ८४१-८५२ "अर्हतोऽर्हजनन्योश्च, योऽशुभं चिन्तयिष्यति । तत्र देवाङ्गनानां मङ्गलगीतानि ८५३-८६३ तस्यार्जकमञ्जरीवत्, सप्तधा भेत्स्यते शिरः॥" वरवध्वोरञ्चलबन्धनं, शक्रेण स्वामी, इन्द्राइत्याभियोगिकदेवैः सर्वत्रोद्घोषणं, प्रभोरङ्गुष्ठेऽ णीभ्यां सुनन्दा-सुमङ्गले च कट्यामारोप्य मृतसङ्कामणं,धात्रीकर्मार्थं पञ्चाप्सरोनियोजनं च ८६४-८६८ ६२४-६२९ पूर्वद्वारेण वेदिकागृहप्रविशनं च जिनस्नानानन्तरं देवानां नन्दीश्वरद्वीपगमनं, अग्नेस्त्रिः प्रदक्षिणादानं, हस्ताञ्चलमोक्षणं, तत्र शाश्वतप्रतिमानामष्टाह्निकोत्सवविधानं च देवानां नृत्यादिविविधाश्चेष्टाश्च ६३०-६४६ ८६९-८७८ क्रियासमाप्तौ यानमारुह्य प्रभोः स्वस्थानगमनं, प्रातर्मरुदेव्या नाभये सुरागमाद्यखिलवृत्तान्तनिवेदनम्, प्रभुं नत्वा शक्रादीनामपि स्वाश्रययानं च ८७९-८८० ताभ्यां पत्नीभ्यां प्रभोश्चिरं विलासः ८८१-८८२ उरुस्थऋषभलाञ्छनत्वात् प्रथमं ऋषभस्वाम सर्वार्थसिद्धितश्युतयोर्बाहुजीव-पीठजीवयोः दर्शनाच 'ऋषभ' इति नामकरणं, कन्यायाः ‘सुमङ्गला' अभिधानं च सुमङ्गलाकुक्षाववतरणम् ८८३-८८४ तथैव सर्वार्थसिद्धितश्युतयोः सुबाहु-महा. जन्मतः किञ्चिदूने वत्सरे गते वंशस्थापनार्थ पीठजीवयोः सुनन्दोदरेऽवतारः ८८५ मागतेन्द्रसकाशादिक्षुग्रहणात् 'इक्ष्वाकुः, इति सुमङ्गलादेन्या चतुर्दशस्वप्नावलोकनं, सुतश्चक्री वंशनामप्रतिष्ठापनम्, ६५४-६५९ भावीति प्रभुणा कथनं च ८८६-८८७ प्रभोर्खाल्यदेहवर्णनम् ६६०-६६९ सातयोस्तयोर्भरत-ब्राह्मीति नामस्थापनम् ८८८ देवकुमारैः सह प्रभोर्बालक्रीडावर्णनम् ६७०-६८१ जातयोर्बाहुबलि-सुन्दरीत्यभिख्याकरणम् ८८९ प्रभोरङ्गुष्टामृतपान-देवानीतोत्तरकुरुफल सुमङ्गलया क्रमादेकोनपञ्चाशद्युगलप्रसवनम् भोजनक्षीरोदवारिपाननिरूपणम् ८९०-८९२ ६८२-६८४ कालदोषेण कल्पवृक्षहासात् मिथुनै तित्रयोयौवनावस्थायां प्रभोर्विकसितसर्वशारीरावयव ल्लङ्घनकरणात् तैर्विज्ञप्तेन प्रभुणा 'अपराधिनां नानालक्षणन्यावर्णनम् ६८५-७३० राजा शासिता भवति, इति निवेदनम् , प्रभोर्दिव्यसङ्गीतप्रेक्षा ७३१-७३४ युगलिनां नाभेः सकाशाद् राजमार्गणा दुर्दैववशाद् दारके मृते प्रथमापमृत्युसम्भवः ७३५-७४० 'ऋषभो वो राजा भवतु' इति नाभिनोक्ते कन्यायाः पित्राभ्यां वर्द्धनं, सुनन्दाभिधानकरणं च ७४१-७४२ तेषां स्वाम्यभिषेकजलानयनार्थगमनम् 6९८-९०३ पिनोर्विपन्नयोस्तस्या एकाकिन्या वने भ्रमणम् ७४३-७४४ आसनप्रकम्पादेत्य सौधर्माधिपतिना तत्र सुनन्दायाः शरीरवर्णनम् ७४५-७५४ सिंहासनस्थापन, दिग्यवस्वा-ऽलकारमिथुनैम्तस्या नाभेरुपायनीकरणं, ऋषभस्य मुकुटादिभिः प्रभोरलङ्करणं च । पली भवत्विति नाभिना तस्या अङ्गीकरणं च ७५५-७५६ आगतैर्युग्मिभिः प्रभुमलवृत्तं वीक्ष्य प्रभोः अवधिज्ञानोपयोगाद् भगवतो विवाहसमयं ज्ञात्वा पादयोः पयोनिक्षेपाद् 'विनीता अमी' इन्द्रेण समागत्य सुनन्दा-सुमङ्गलाविवाह इति मत्वा विनीतापुरीनिर्माणम् ९०९-९११ करणेच्छाप्रदर्शनम् ७५७-७६५ । विनीतानगरीवर्णनम् ९१२-१२३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व विषयः श्लोकाः प्रभुणा सप्तविधानीकादिराज्याङ्गप्रगुणीकरणम् प्रभुणा दर्शितेष्वपि विविधोपायेपु कालदोषामिथुनानामजीर्यत्याहारे तरूणां मिथः सङ्घर्षणादग्नरुत्पत्तिः ९३४-९४१ तत्रौषधीपाचनविधिदर्शनम् ९४२-९४८ गजस्कन्धारूढेन प्रभुणाऽऽमृत्तिकापिण्डमानाय्य तया पात्रं निर्माय्य दत्त्वा प्रथम कुम्भकारशिल्पदर्शनम् ९४९-९५२ पश्चाद् वर्धक्ययस्कारावशेष (१००) शिल्पप्रदर्शनम् ९५३-९५८ राज्यव्यवस्थार्थ साम-दाम-भेद-दण्डोपायचतुष्टयकल्पनम् भरताय द्वासप्ततिकलाः, बाहुइलिने हस्त्यश्वस्त्रीपुलक्षणानि, ब्राहयै अष्टादशलिपीः, सुन्दय गणितज्ञानं च दवा प्रभुणा सर्वलौकिकव्यवहारप्रकटीकरणम् ९६०-९७३ उग्र-भोग-राजन्य-क्षत्रभेदैर्जनानां विभजनम् ९७४-९८४ अन्यदा प्रभोरुद्याने समागमनं, पुष्पवासगृहावस्थानं च ९८५-९८६ वसन्तर्तुवर्णनं, तत्र जनानां नानाप्रकारैः क्रीडनं च९८७-१०१६ लोकानां क्रीडामवलोकयतः प्रभोः 'ईदृक्षा पूर्व कापि दृष्टा, इस्युपयुञानस्याऽवधिनाऽनुत्तरस्वर्गसुखस्मरणाद् वैराग्यभावना १०१७-१०३४ लोकान्तिकदेवैरागत्य 'प्रभो! धर्मतीर्थ प्रवर्तय' इति विज्ञापनं, प्रभोः स्वस्थानगमनं च १.३५-१०४० विषयः लोकाः चैत्रकृष्णाष्टभ्यामुत्तराषाढानक्षत्रे प्रभोश्चतुमुंष्टिलोचकरणम् ६५-६७ सौधर्माधिपतिना प्रभोः कचानां वस्त्राञ्चले ग्रहणम् पञ्चममुष्टिं समुच्चिखनिषताऽपि भगवता शक्रवचनेन तथैव शिरसि धारणम् ६९-७१ प्रभूत्पाटितानां कचानामिन्द्रेश क्षीरसिन्धौ क्षेपणम् ७२ पष्टतपः कृत्वा सिद्धनमस्कारपूर्व सर्वसावद्यमुत्सृज्य प्रभोः प्रव्रज्याङ्गीकरणम् ७३-७४ दीक्षोत्सवक्षणे नारकाणामपि क्षणं सुखं, प्रभोर्मनःपर्यवज्ञानोत्पत्तिश्च सुहृद्वगवार्यमाणानामपि कच्छ-महाकच्छादिचतु:सहस्रनृपाणां प्रभुणा सहैव दीक्षाङ्गीकरणम् शक्रकृता प्रभोर्दीक्षाकल्याणकस्तुतिः प्रभुं स्तुत्वा नन्दीश्वरं गत्वा इन्द्रादीनां यथास्थानगमनम् भरत बाहुबल्यादीनामपि स्वस्वस्थानगमनं, प्रभोरन्यत्र बिहारश्च ९२-९३ तदानीं लोकानां भिक्षादानानभिज्ञत्वात् प्रभोरन्यमुनीनां चाऽऽहाराप्राप्तिः प्रभु राजानमेव मत्वा लोकैर्विविधवस्तूपढौकनम् ९५-९९ क्षुत्पिपासादिपरिषहान् सहमानस्य प्रभोः शेषमुनीनां च तथैव विहरणम् १००-१०२ क्षुधादिभिः क्लान्तानां राजन्यमुनीनां नानाविकल्पाः १०३-११० कच्छ महाकच्छादिभिः सार्द्धमालोच्य सम्भूय च तेषां गङ्गातीरगतवनेषु गमनं, तत्र स्वैरं कन्द-मूल-फलाद्यशनारम्भश्च इतो दूरदेशादागताभ्यां नमि-विनमिभ्यां पित्रोः पृच्छनं, ताभ्यां यथाजातस्वरूपनिवेदनं च १२४-१३३ प्रभोः समीपमागत्य नमि-विनम्यो राजमार्गणं, भभाषमाणे प्रभौ भक्तिकरणं, त्रिसन्ध्यं याचनं च १३४-१४४ प्रभुवन्दनार्थ धरणेन्द्रागमनं, ताभ्यां सहालापः, प्रभुभत्या प्रसद्य तयोगौंरीप्रज्ञप्तिप्रमुखाष्टचत्वारिंशत्सहस्रविद्यादानं च १४५-१७० वैताब्यपर्वते श्रेणिद्वये नगराणि प्रतिष्ठाप्य युवां राज्यं कुर्वाथामित्यादेशदानम् १७१ प्रभु नस्वा पुष्पकविमानं विकृत्य धरणेन्द्रेण समं तयोश्चलनम् १७२ स्वपित्रोः कच्छमहाकरछयोर्भरतस्य च स्वर्द्विज्ञापनम् १७३-१७४ स्वपरिजनमादाय तयोर्वैतात्यगिरिगमनम् १७५ वैताव्यपर्वतवर्णनम् १७६-१८५ नमिना दक्षिणश्रेण्यां निवेशितानां पञ्चाशत्पुराणां नामानि १८६-१९५ उत्तरश्रेण्यां विनमिना विनिर्मितानां षष्टिनगराणामभिधेयानि १९६-२०० तृतीयः सर्गः। पुत्रानाहूय प्रभुणा राज्यं भरताय समर्पणं, सुरैस्तस्याऽभिषेककरणं च राजचिह्नालङ्कतस्य भरतस्य शोभावर्णनम् १३-१६ बाहुबल्यादिभ्यो विभज्य यथोचितदेशराज्यप्रदानम् १७ प्रभुणा दातुमारब्धस्य सांवत्सरिकदानस्य वर्णनम् १८-२५ वार्षिकदानान्ते आसनप्रकम्पात् समागतेन शक्रेण प्रभोर्दीक्षाभिषेककरणं, दिव्यालङ्कारवस्त्रादिपरिधापन, सुदर्शनाशिबिकानयनं च २६-२९ देवोत्पाटितया शिबिकया मङ्गलतूर्यपुरःसरं प्रभोः पथि गमनम् ३०-३५ प्रभु दिदृक्षणां जनानां स्त्रीणां च विविधचेष्टावर्णनम् ३६-१९ गगने महाविमानैर्देवागमननिरूपणम् भरतबाहुबल्यादिभिर्भूरिभिर्जनैः सुरैश्च परि. वृतस्य प्रभोः सिद्धार्थोद्याने समागमनम् ततः शिबिकायाः समुत्तीर्य प्रभुणा सर्वव. खालङ्कारमोचनम् देवेन्द्रेण प्रभोः स्कन्धे देवदूष्यस्थापनम् Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । विषयः श्लोकाः विषयः श्लोकाः तत्र शाखापुर-जनपदादिस्थापनं, नाभिनन्दन . शकटमुखोद्याने प्रभोः केवलज्ञानोत्पत्तिः ३८९-३९८ जिनचैत्यादिनिर्मापणं, तत्पूजादिविधानं च २०९-२१२ स्वामिकेवलज्ञानमहोत्सवार्थ देवेन्द्राणामासनप्रकम्पः ३९९ धरणेन्द्रेण विद्याधराणां मर्यादानिवेदनम् २१३-२१८ सौधर्माधिपतेर्गजीभूतस्यैरावणस्य श्रीवर्णनम् ४००-४१७ पोडशविद्यावतां तत्तन्नाम्ना षोडश निकायाः २१९-२२४ ऐरावणमारुह्य सौधर्मेन्द्रस्य तत्रागमनं, नमि-विनमिभ्यां प्रत्येकमष्टाऽष्टनिकायग्रहणम् २२५-२२६ अन्येषामपोन्द्राणां समागमज्ञापनं च ४१८-४२१ विद्याधरयोस्तयोश्चर्यावर्णनम् २२७-२३३ देवनिर्मितस्य समवसरणस्य स्वरूपम् ४२२-४५७ गङ्गाकूलस्थितानां कच्छमहाकच्छादीनां चर्यानिरूपगम्२३३-२३७ देवकोटीपरिवृतस्य सुरनिर्मितस्वर्णमयकमलनवके आर्यानार्येषु विचरता भगवता गजपुरे भिक्षार्थगमनम्२३८.२४३ पादन्यासं वितम्वतश्च प्रभोः पूर्वद्वारेण समवसरणे प्रवेशः ४५८-४६१ तत्र श्रेयांसयुवराजेन, सुबुद्धिश्रेष्ठिना, सोमयशोराज्ञा च स्वमावलोकनं, सदस्यन्योन्यस्य निवेदनं, चैत्यवृक्षं तीर्थं च नत्वा रत्नसिंहासनेऽवस्थानम् ४६२ सनिर्णयमजानतां स्वस्वगृहगमनं च ४६३ . २४४-२४८ व्यन्तरैरन्यदिक्षु भगवत्प्रतिबिम्बत्रयकरणम् प्रभोभिक्षार्थ हस्तिनापुरे प्रवेशः, लोकानां भामण्डल-देवदुन्दुभि-रत्नध्वजवर्णनम् विविधाः प्रार्थनाश्च समवसरणे द्वादशपर्षदां स्थानादिनिरूपणम् ४६८-४७६ २४९-२६४ तत्कोलाहलं श्रुत्वा पृष्टेन वेत्रिणा श्रेयांसाय सौधर्मेन्द्रकृता प्रभोः केवलज्ञानकल्याणकस्तुतिः ४७७-४८६ यथातथस्वरूपनिवेदनम् ऋषभविरहे मरुदेवाया विलापः, भरतेन कृतं २६५-२७६ तत्सान्त्वनं च ५८७-५०९ प्रभुसमीपमागत्य पादयोर्निपत्य त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य अत्रान्तरे वेत्रिणा समागत्य भरतं प्रति प्रभुश्रेयांसेन प्रभोर्वन्दनं, 'ईदृशं क्वापि मया दृष्टमिति ज्ञानोत्पत्तेश्चक्ररत्नोत्पत्तेश्च युगपनिवेदनं, चिन्तयतो जातिस्मरणज्ञानप्राप्तिः, पूर्वभवसम्ब आदी जिनार्चननिश्चयश्च ५१०-५१५ धावलोकनं च २७७-२८९ मरुदेवया सह भरतस्य प्रभुवन्दनार्थमागमनम् विज्ञातनिर्दोषभिक्षादानविधिना श्रेयांसेन तदानी. ५१६-५१९ भरतेन मरुदेवाय ऋषभर्द्धिस्वरूपज्ञापनम् मेवोपायनीकृतघटेक्षुरसेन प्रभोः पारणकारणं, पुत्रर्द्धि शृण्वत्या मरुदेवायाः कर्मक्षयाद् देवैः पञ्चदिव्यवर्षणं च २९०-३०० गजस्कन्धारूढाया एव केवलज्ञानं, मोक्षश्च ५२-५३० तहिनादेव राधशुक्लतृतीयायां अक्षयतृतीयापर्वप्रवृत्तिः ३०१ देवैम्तद्वपुपः क्षीरावे क्षेपणं, तहिनादेव श्रेयांसकुमारेणाऽबनौ प्रथमं दानधर्मप्ररूपणम् मृतकपूजनप्रवृत्तिश्च ५३१-५३२ श्रेयांसगृहाङ्गणे राज्ञां नागराणां कच्छमहाकच्छा राजचिहानि सन्त्यज्य भरतस्य समवसरणे प्रवेशः ५३३-५३५ दीनां च समागमनं, 'स्वयेदं कथं ज्ञातम्' इति भरतकृता प्रभोः स्तुतिः ५३६-५४९ पृच्छायां प्रभुणा सह कृताष्टभवस्वरूपनिवेदनं च ३०३-३२९ प्रभु स्तुस्वा शक्रपृष्टे भरतस्यावस्थानं प्रभोर्देशनारम्भः५५०-५५२ पारणस्थाने श्रेयांसेन आदिकृन्मण्डलनाम्ना तत्रादौ चातुर्गतिकदुःखवर्णनम् रत्नपीठनिर्माण, तस्य त्रिसन्ध्यमर्चनं च ३३०-३३३ मोक्षे दुःखाभाव-महानन्दवर्णनम् ५६८-५७३ यत्र यत्र प्रभोभिक्षाग्रहणं तत्र तत्र जनैः तत्त्रात्युपायः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररखत्रितयम् 'आदित्यमण्डल' विरचनम् ज्ञानपशकस्वरूपम् ५७५-५८१ प्रभोर्बहलीदेशे तक्षशिलायां नगर्यां गमनं, बाहुबलये निसर्ग-गुरूपदेशभेदेन सम्यक्त्वप्राप्तिवर्णनम् नियुक्तजनैजिनागमनिवेदनं, बाहुबलिना ग्रन्थिभेदस्वरूपम् ५८३-५९५ नगरशोभाकरणं च ३३५-३४१ सम्यक्त्वस्यौपशमिकादिपञ्चभेदनिरूपणम् ५९६ 'प्रातर्महामहेन प्रभुं वन्दिप्ये' इति विचारणया तेषां च क्रमतः स्वरूपम् ५९७-६०४ बाहुबलिना रात्रिनिर्गमनं, प्रभोरन्यत्र विहारश्च ३४२-३४४ रोचक-दीपक-कारकदर्शनवर्णनम् ६८५-६०७ प्रातः साडम्बरं वन्दनार्थमागतस्य प्रभुमनालोक्य सम्यक्त्वस्य शमादिपञ्चलक्षणनिरूपणम् ६०८-६१६ बाहुबलेः पश्चात्तापः, सचिवदर्शितप्रभुपद. सर्वविरतिस्वरूपम् ६१७-६२४ पड्डिमभिवन्ध तत्र धर्मचक्रस्थापन, गृहस्थानां द्वादशव्रतवर्णनम् ६२५-६४० अष्टातिकोत्सवकरणं च । ३४५-३८५ देशनां निशम्य प्रबुद्धानां ऋषभसेनादीनां भरतस्य परीषहान् सहमानेनाऽऽर्यानार्येषु विहरता पञ्चशतपुत्राणां पौत्र सप्तशत्याश्च प्रव्रज्यादानम् ६४१-६४८ भगवतैकसहस्रवर्षनिर्गमनम् ३८६-३८८ प्रभोः केवल महिमानम.लोक्य मरीचेः, अयोध्यायाः शाखापुरे पुरिमतालनगरे | भरतेन विमृष्ट्राया ब्राइयाश्च व्रतग्रहणम् ६४९-६५० ar ०. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७९ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व विषयः श्लोकाः विषयः लोकाः भरतेन निषिद्धायाः सुन्दर्याः, भरतस्य च ततः प्रतीच्यां दिशि प्रभासतीर्थगमनम् १९५-१९० श्राविकाश्रावकत्वस्वीकारः ६५१-६५३ प्रभासनाथमुद्दिश्याऽष्टमभक्तकरणम् १९८ कच्छ-महाकच्छवान्यराजन्यतापसानां अष्टमान्ते रथमारुल जलधिं प्रविश्य प्रभासाभिमुखं पुनर्दीक्षाङ्गीकरणम् ६५४ स्वनामाङ्गितमार्गणक्षेपणम् प्रभुणा चतुर्विधसङ्घस्थापनम् । ६५५-६५६ बाणस्थाक्षरावलोकनात् समागत्य भरताज्ञाङ्गीकरणं, चतुरशीतेः ऋषभसेनादीनां त्रिपदी प्रदाय देवानीत कटक-कटीसूत्र-चूडामणिहारनिष्काधुपायनीकरणं च २०५-२१० स्थालाद् दिव्यचूर्णक्षेपपूर्व गणधरपदाधिरोपणम् ६५७-६६३ तमाश्वास्य तत्रैव पुनः संस्थाप्य स्वस्कन्धावारं समागत्य तेषामनुशिष्टिमयीं देशनांदत्वा प्रभोः पौरुषीसमापनम्६६४.६६६ अष्टमपारणकरणं, अष्टाह्निकोत्सव विधानं च २११-२१४ भरतानीतस्य बलेर्विभजनम् ६६७-६७४ ततो महासिन्धोदक्षिणरोधसि गवाऽष्टमभप्रभोदेवच्छन्दे गमनं, ऋषभसेनस्य देशनाविधानं च ६७५-६७८ केन सिन्धुदेव्याः साधनम् २१५-२२३ देशनान्ते पर्षदां स्वस्वस्थानगमनम् प्रान्तेऽष्टमपारणकरणं, अष्टासिकामहोविधानं च २२४-२२६ गोमुखयक्षस्य, अप्रतिचक्रायाः शासन ततो वैतात्यपर्वतं प्राप्याऽष्टमभक्तेन वैताब्याद्रिकुमार देवतायाश्च स्वरूपम् ६८०-६८३ संसाध्य पारणाऽष्टाह्निकामहोनिर्मापणम् २२७-२३६ प्रभोरन्यत्र विहारः, अतिशयाश्च ६८४-६८९ ततस्तमिस्त्रागुहामागत्याऽष्टमभक्केन कृतमालं देवं साधयित्वा पारणाऽष्टाह्निकोत्सवकरणम् २३७-२४० चतुर्थः सर्गः। दक्षिणसिन्धुनिष्कुटसाधनार्थ सेनानी प्रत्याज्ञापनम् २४०-२५० सेनाम्या तत्र गत्वा सिंहल-बर्बर-टङ्कादिदेशान् भरतेन चक्ररत्नस्य पूजादिकरणम् -१-१३ दिग्विजया जिगमिषोर्भरतस्य माङ्गल्यादिविधानम् जवन-नर-व्याघ्रादिद्वीपांश्च विजित्य भरतमभ्येत्य ४-३१ तदाहृतदण्डोपढौकनं, भरतेन सत्करणं च २५१-२८१ गजरत्नमधिरुह्य भरतस्य दिग्विजयार्थ प्रयाणम् ३२-३९ चक्रादिद्वादशरत्नवर्णनम् चमूपति प्रति तमित्राकपाटोद्घाटनार्थमादेशः २८५ ४०-४७ भरतेश्वरस्य दिग्विजययात्रावर्णनम् सेनान्याष्टमतपसा कृतमालदेवमाराध्य पाणिना ४८-५५ योजनमानप्रयाणैर्वजता प्रथमंगङ्गाया दक्षिणकूलप्रापणम्५६-५७ स्पृष्टस्य कपाटद्वयस्य स्वयमुद्दटनं,चक्रिणे निवेदनं च२८६-२९८ तत्र कृतशिबिरस्य चक्रिणः सैन्यायाश्चर्यावर्णनम् ५८-७७ हस्तिरनमारुह्य चक्रिणो गुहाद्वारे प्रवेशनम् २९९-३०४ ततो मागधतीर्थ गत्वा मागधतीर्थकुमार देवं काकिणीरवस्वरूपम् ३०५-३०७ साधयितुं वा किनिर्मितपौषधशालायां चक्रिणा काकिणीरत्नेनैकोनपञ्चाशन्मण्डलालेखनम् ३०८-३१० चक्रिणाऽष्टमतपोविधानम् ७८-८६ गुहायां सैन्यायाः प्रवेशः ३११-३१५ अष्टमान्ते बलिविधिं कृत्वा रथारोहणम् ८०-९१ उन्मना-निमग्नानयोः पद्याविधानम् ३१६-३२३ भरतचक्रिणा मागधेशसभायां स्वनामाङ्कितशिली गुहाया उत्तरद्वारस्य स्वयमेवोद्धटनम् , ३२४-३२० मुखप्रेषणं, मागधाधिपतेः कोपः, सभायां क्षोभश्च ९२-१२७ ततो निर्गत्य चक्रिण उत्तरभरता प्रवेशः अमात्यदर्शितबाणगतचक्रिनामदर्शनात् कोपोपशान्तिः, तत्रत्यकिरातराज्ञां सजातान्यनेकान्युत्पातचिह्नानि ३३६-३५२ भरतस्य शासनस्वीकारश्च १२८-१४८. मिथः सम्भूय तेषां भरतं प्रति युद्धाय समुत्थानम् ३५३-३६८ भरताय किरीट-कुण्डलार्पणं, भरतेन तस्य सरकरणं च १४९-१५० भरताग्रसेनयासह तेषां युद्धं, चक्रिचमूत्रासदानं च ३६९-३७७ रथं वालयित्वा तेनैव पथा स्कन्धावारमेत्य अष्टम ततस्तैः समं सेनापतेयुद्धाय गमनम् ३०८-२८० भक्तपारणकरणं, अष्टाह्निकामहोविधानं च १५१-१५३ कमलापीडाख्यतुरङ्गमवर्णनम् ३०१-३९५ ततो दक्षिणस्यां दिशि वरदामतीर्थ प्रति गमनम् १५४-१५० खगरनवर्णनम् ३९६-३९८ वरदामदेवसाधनार्थमष्टमतपःकरणम् १५८-१६० सेनापतेर्युद्धेन अस्तानां तेषां सिन्धुं गस्वाऽष्टमतपसा अष्टमान्ते रथमारुह्य वरदामेशपर्षदि बाणप्रेषणं, मेघमुखनागकुमाराख्यस्वकुलदेवताराधनम् ३९९-४१. वरदामेशकोपोक्तिश्च १६१-१७५ देवैः प्रसन्नीभूय तेषां साहाय्यकरणं, चक्रिणः सैन्यायां बाणगताभिधेयाक्षरावलोकनात् प्रशान्तक्रुधा समागत्य सप्ताहोरात्राण्यविरतं घोरमेघोपद्रवविधानं च ४११-१२५ भरतेशाय बाणस्य प्रत्यर्पणं, मुक्ताराशि-कटिसूत्रो चक्रिणा स्वहस्तेन चर्मरत्रस्पर्शनं, वर्द्धिते च पायनीकरणं, भरतशासनाङ्गीकरणं च १७६-१९० तसिन् ससैन्यस्य चक्रिणोऽवस्थानम् ४२६-४२८ तत्सर्वस्वं लावा. वरदामेशं स्वस्थाने संस्थाप्य पुन छत्ररत्रस्वरूपम् निजशिबिरमागत्य अष्टमपारणाऽष्टातिकोत्सवकरणम् १९१-१९४ | चक्रिणा कृतश्चर्मच्छवरनयोरुपयोगः ४३२-४३९ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । विषयः श्लोकाः चतुर्दशरवानामुत्पत्तिस्थानवर्णनम् ७०९-७१२ भरतस्य चक्रिपदर्द्धिवर्णनम् ०१३-७२८ सम्भाष्यमाणेषु स्वजनेषु सुन्दरीस्थितिमालोक्य भरतस्य चिन्ता, सेवकेभ्य उपालम्भप्रदानं च ७२९-७४३ सेवकैज्ञीतायां तस्या दीक्षाग्रहणेच्छायां भरतेनाज्ञादानम् ७४४-७५४ नियुक्तजनैरष्टापदगिरौ प्रभोरागमनिवेदनम् ७५५-७५७ भरतसुन्दर्योर्वन्दनार्थ गमम, सुन्दर्या दीक्षाग्रहणं च ७५८-७९७ भरतेन स्वशासनस्वीकारार्थ भ्रातृन् प्रति दूतप्रेषणं, सम्भूय तैः प्रत्युत्तरदानं च ७९८-८०७ भरतभ्रातृभिःप्रभोः समीपमागत्य स्वरूपनिवेदनम् ८०८-८२६ अङ्गारकारकदृष्टान्तेन तेभ्यः प्रभोरुपदेशः ८२७-८४४ सातवैराग्यानां तेषामष्टनवतेतृणां दीक्षाग्रहणं, चक्रिणा तेषां राज्यानि स्वायत्तीकरणं च ८४५-८४७ विषयः श्लोकाः चक्रिणो भावविदङ्गरक्षकदेवानां वचनात् तैमेंधमुखैर्देवैर्मेघादिसंहरणं, किरातेभ्यो भरतशरणगमनादेशश्च ४४०-४४० किरातैर्भरतस्य शरणग्रहणं, भरतेन सत्कृत्य तेषां विसर्जनं च ४४८-४५७ भरताज्ञया सिन्धोरुत्तरनिष्कुटं संसाध्य सुषेणस्याऽऽगमनम् ४५८-४५९ ततः ससैन्यस्य चक्रिणः क्षुद्रहिमवद्विरिप्रापणम् , ४६०-४६३ विहिताष्टमतपसा चक्रिणा प्रहितशिलीमुखस्थाक्षरावलोकनात् क्षुद्रहिमवत्कुमारराज्ञा शासने स्वीकृतेऽष्टमतपःपारणाऽष्टाह्निकोत्सवकरणम् १६४-४८१ ततो वैतादयगिरिं गत्वा विद्याधरेशनमि-विनमी प्रति मार्गणप्रेषणं, तयोर्युद्धाय समागमनं, द्वादशवर्ष. युद्धान्ते भरताज्ञाङ्गीकरणं, बिनामिना स्वदुहितुर्भरताय प्राभृतीकरणं च ४८३-५१५ सुभद्राख्यस्त्रीरत्नस्य रूपवर्णनम् ५१६-५३५ नमि-विनमिभ्यां प्रभोः पावें दीक्षाग्रहणम् ततो गङ्गा प्रति भरतचक्रिणः प्रयाणम् ५३७-५३८ गङ्गोत्तरनिष्कुटस्य सुषेणेन सेनान्या साधनम् भष्टमभक्ताराधनया गङ्गादेव्या रत्नसिंहा. सनादिविश्राणनम् ५४०-५४१ भरतरूपमालोक्य गङ्गादेव्याः कामोत्पत्तिः, तया भरतं स्वभवनं नीत्वा तेन समं विलसनं च ५४२-५४७ एकसहस्रवर्षान्ते भरतस्य शिबिरं प्रत्यागमनम् ततः खण्डप्रपातागुहां प्रति प्रयाणम् ५४९-५५० चक्रिणाऽष्टमतपसा नाट्यमालदेवं साधयित्वा पारणाऽष्टाह्निकामहोत्सवकरणम् ५५१-५५५ भटमतपसा नाव्यमालदेवमाराध्य सेनान्या खण्डप्रपातागुहायाः कपाटोद्घाटनम् ५५६-५६१ गुहां प्रविश्य चक्रिणा काकिणीरत्नेनैकोनपञ्चाशन्मण्डलान्यालिख्य उन्मन्ना-निमग्नानदीपद्यया गङ्गायाः पश्चिमरोधसि विनिर्गमनम् ५६२-५६७ निधीनुद्दिश्य चक्रिणाऽष्टमतपोविधानम् ५६८ नवनिधिस्वरूपम् ५६९-५८२ वशमागतेषु तेषु अष्टमभक्तपारणाकरण, तेषामष्टाह्निकामहोविधानं च ५८३-५८५ नृपाज्ञया सेनाम्या गङ्गाया दक्षिण निष्कुटसाधनम् ५८६-८७ दिग्विजयसमाप्ती भरतस्य विनीतायामागमनम् ५८०-६०८ मालार्थमधमतपःकरणम् ६०९-६१० विनीतायां भरतस्य प्रवेशोत्सवः, नागरानन्दवर्णनं च ६११-६५. प्रासादवर्णनम् ६५१-६५७ भारक्षकादीन् विसृज्य पित्र्यप्रासादप्रवेशः, सुखेन कालनिर्गमनं च ६५८-६६८ सुरनरकृतभरतराज्याभिषेकवर्णनम् ६६९-७०८ ५४८ पञ्चमः सर्गः। आयुधशालायामप्रविष्टं चक्ररस्नमालोक्य चक्रिणा तत्कारणे पृष्टे सेनान्या बाहुबलेर्विजयाभावकथनम् १-१३ बन्धुनेहादिभिर्विकल्पाकुले भरते सेनान्या कृतं समाधानम् १४-२२ बाहुबलये दूतप्रेषणनिर्णयः सुवेगाख्यदूतस्य विनीतायाः प्रयाणम् २४-२६ तस्याऽध्वनि सातानि दुर्निमित्तानि मार्गे समागताया अटव्या वर्णनम् दूतस्य बहलीदेशे प्रवेशः ४३-१९ साश्चर्य तेन तक्षशिलापुरीप्रापणम् ५०-५३ ऋद्धिं विलोकयतो दूतस्य नगर्या प्रवेशः ५४-५९ बाहुबलिनः सौधद्वारप्रापणम् ६०-६७ वेत्रिणा गृहीतायामाज्ञायां दूतस्य सभायां प्रवेशः ६८-६९ सभासीनस्य राज्ञो बाहुबलिनो वर्णनम् नत्वाऽऽसने निविष्टे बाहुबलिना भरतादीनां कुशलोदन्तपृच्छनम् ७७-८५ साम-दाम-दण्ड-भेदोपायगर्भितं दूतस्य सयुक्तिकमुत्तरम् ८६-१२० बाहुबलिनः सकोपं तस्य प्रति वचनम् १२१-१५४ तद्वचसा क्षुब्धस्य दूतस्य बहिर्निर्गमनम् १५५-१६४ पौराणामम्योऽयं जल्पः १६५-६७४ भरतबाहुबलिनोयुद्धवार्तायाः प्रसरः, जनानां युद्धोद्योगश्च १७५-१९३ जनचर्या विलोकयतः सुवेगस्य चिन्ता विनीतायां सभायां च प्राप्तस्य तस्य भरतेन कुशलादिपुग्छनम् २०९-२१२ सुवेगेन बाहुबलेर्महत्वदर्शकोत्तरदानम् २१३-२३० भरतराजश्वेतसोऽस्थिरत्वम् २३१-२३८ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथम वर्ष विषयः श्लोकाः । विषयः श्लोकाः 'ससैन्यः स्वामी गत्वा स्वयमीक्षताम्' इति बाहुबलिनो भूमावाजानुनिमजनं,बाहुबलिनः युद्धोद्योगसूचकः सुषेणेन दर्शित उपायः, प्रहारेण भरतस्याऽऽकण्ठं भूमौ प्रवेशः तत्र सचिवस्य सम्मतिश्च २३९-२६१ भरतस्य मनस्यात्मनश्चक्रित्वचिन्ता ७०२-७०६ ससैन्यं सन्नह्य युद्धार्थ भरतस्य प्रयाणम् २६२-२७१ यक्षराजैः समानीय चक्रिणो हस्ते चक्ररत्नार्पणम् ७०७-७१० मार्गे लोकोक्तिश्रवणम् २७२-२७८ चक्रं निरीक्ष्य भरतं प्रति बाहुबलिनो धिक्कारः ७१-७१५ क्रमेण बहलीदेशमागत्य तत्सीम्नि शिबिरनिवेशनम् २७९-२८४ चक्रिणा बाहुबलिनं प्रति चक्रमोचनम् युद्धार्थ सजीभूतेन बाहुबलिना तत्समीप एव बाहुबलिनश्चेतसि चक्रस्य चूर्णनादिविकल्पः ७१७-७२१ गङ्गातटे स्कन्धावार निवेशनम् २८५-२९९ बाहुबलिनं प्रदक्षिणीकृत्य चक्रस्य प्रत्यागमनम् ०२२-७२४ सैन्यद्वयेऽपि सेनापतिस्थापना, युद्धोद्योगैश्च भरताय क्रुद्धस्य बाहुबलिनो मुष्टिमुद्यम्य धावनम् ७२५-७२० रात्रिनिर्गमनम् ३००-३२७ चेतसि विचारपरावर्तने साते तेनैव मुष्टिना मूर्भः प्रातयुद्धार्थ द्वयोरपि सैन्ययोः सजीभूतानां कचानुत्य बाहुबलिना चारित्राङ्गीकरणम् ७२८-७४० भटानां विविधोद्योगवर्णनम् ३२८-३५१ देवैः प्रशंसापूर्व बाहुबलिन उपरि पुष्पवृष्टिविधानम् ७४१ राजनियुक्तानामाज्ञापनकोलाहलः ३५२-३५९ 'अवाप्तकेवलज्ञान एव स्वामिपादान्ते यास्यामि' इति रणसङ्ग्रामविधिः ३६०-३६३ निश्चित्य बाहुबलिना कार्योत्सर्गेण तत्रैवावस्थानम् ७४२-७४५ बाहुबलिना चैत्यं गत्वा ऋषभप्रभोरर्चनादिविधानम् ३६४-३७१ खिन्नेन भरतेन कृतात्मनिन्दा, बाहुबलिनः स्तुतिश्च ७४६-७५३ बाहुबलिना कृता ऋषभप्रभोः स्तुतिः ३७२-३७९ बाहुबलिनो राज्ये चन्द्रयशसं संस्थाप्य देवगृहानिर्गत्य वज्रसन्नाहादिपरिधाय गजारोहणम् ३८०-३८८ भरतस्याऽयोध्यायामागमनम्। ७५४-७५६ भरतराज्ञा ऋषभप्रभोः पूजनादिविधानम् ३८९-३९६ कायोत्सर्गेणाऽवस्थितस्य बाहुबलिनः स्वरूपम् ७५७-७७८ भरतेन कृता ऋषभप्रभोः स्तुतिः ३९७-४०४ वर्षान्ते प्रभुणा तत्प्रतिबोधार्थ प्रेषिताभ्यां ब्राझीचक्रिणा सबा गजरवाधिरोहणम् ४०५-४१३ सुन्दरीभ्यां 'हस्तिस्कन्धाधिरूढस्य न केवलज्ञानम्' भरतबाहुबलिनोः स्वस्वसैन्यमध्यागमनम् ४१४-४१६ इत्युपदिश्य गमनम् द्वयोरपि सैन्ययोः सङ्घटः ४१७-४३४ तयोगिराऽपगते मदे लघीयसां भ्राणां वन्दनार्थ । नभसि देवानामागमनम् पादमुरिक्षपतः बाहुबलिनः केवलज्ञानोत्पत्तिः .८९-७९६ देवैर्भरतस्य समीपं गत्वा युद्धनिरोधाय विज्ञपनम् ४३६-४५५ ततः समागत्य प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्य बाहुबलिनः भरतेन चक्ररत्नस्याऽप्रवेशकारणदर्शनम् ४५६-१७० केवलिसभायामवस्थानम् ७९७-७९८ ततो बाहुबलिनमभ्येत्य देवैः सङ्ग्रामनिवारणज्ञापनम् ४७१-४८५ बाहुबलेः प्रतिवचनम् ५८६-५०९ षष्ठः सर्गः। देवस्तयोर्मनःसमाधानार्थ दृष्ट्यादियुद्धपञ्चकसूचनं, संयमभारवहनाक्षमस्य मरीचेश्चिन्ता ताभ्यां सादरमङ्गीकरणं च स्वमतिकरूपतया मरीचिना वेषपरिवर्तनम् १४-२३ बाहुबलेः प्रतिहारेण वीराणां समरान्निषेधनम् ५१९-५२७ विचित्रवेषं तमालोक्य लोकैर्धौ पृष्टे शुद्धधर्मोपदेशः, विषण्णानां वीराणामपसरणम् ५२८-५४१ चारित्रं जिघृक्षूणां प्रभोः पार्थे प्रेषणं च २४-२८ भरतेन निषिद्धानां वीराणां शङ्कापनोदार्थ स्वं शरीरं अन्यदा रूणावस्थायामप्रतिचारिषु साधुषु मरीचेः वटे निबद्ध्य तैः कर्षणादिनाऽऽरमशक्तिज्ञापनम् ५४२-५७० स्खयोग्यशिष्यकरणाभिलाषः, निरुजीभवनं च २९-३८ देवैर्भूमौ रजोऽपहरण-गन्धाम्बुवर्षण-कुसुम प्रभोर्देशनायामरुचितायां कपिलराजपुत्रेण क्षेपादिविधानम् ५७१-५७५ मरीचिमभ्येत्य धर्मपृच्छनम् ३९-४४ प्रथमं दृष्टियुद्धारम्भः, तन्त्र भरतस्य पराजयः ५७६-५८७ पुनरपि सद्धर्मश्रवणार्थ मरीचिना प्रभोः पार्थे प्रेषणम् ५५-१६ द्वितीयं वाग्युद्धं, अत्रापि बाहुबलिनो विजयः ५८८-६०७ तथापि धर्मेऽरुचिते 'तत्रापि धर्मोऽस्त्यत्रापि' ततो बाहुयुद्धं, तेन पराजितस्य भरतस्य वैलक्ष्यम् ६०८-६४० इति तं प्रति भाषमाणेन मरीचिना कोटाबाहुबलिना समाश्वास्य मुष्टियुद्धायाऽऽह्वानम् ६४१-६४५ कोटीसागरोपमभवार्जनम् ततो मुष्टियुद्धारम्भः, बाहुबलेर्मुष्टिप्रहारेण भरतस्य दीक्षिताच तस्मात् परिवाजकमतोत्पत्तिः मूर्छा, बाहुबलिना स्वोत्तरीयेण बीजनं, भगवतोऽतिशयानां वर्णनम् भरतस्य लज्जा च ६४६-६६२ प्रभोरष्टापदादी समागमनम् ७४-७७ सतः समारब्धे दण्डयुद्धे भरतदण्डप्रहारेण भष्टापदगिरिवर्णनम् ७८-१०१ ७७९-७८८ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका ] विषयः देवनिर्मितस्य समवसरणस्य वर्णनम् भगवतः समवसरणे प्रवेशः मरणे पूर्वादिदिक्षु द्वादशपर्षदामवस्थानम् इन्द्रागमनम् इन्द्रेण कृता प्रभोः स्तुतिः पालकिने प्रभोरागमनज्ञापनेन वपनम् भरत सर्व प्रभोन्दनार्थ निर्गमनम् गजादुत्तीर्याऽष्टापदाद्विमारुह्य भरतेन समपसरणे प्रविशनम् भरतेन कृता प्रभोः स्तुतिः ये पद स्थितिवर्णनम् प्रभोर्देशनाश्रवणम् प्रभोदेशनान्ते लघुभ्रातृभ्यो भरतेन पुना राज्यग्रहणार्थं निमन्त्रणं, प्रभुणा तन्निवारणं च पभिः शरशतैराहारमानाय्य आतॄणामामत्रणे कृते 'राजेन्द्र ! राजपिण्डोऽपि, महर्षीणां न कपसे ।' इति भगवता तस्यापि निषेधनम् भरतस्य विषादमावलोक्येन्द्रेणाऽवग्रहस्वरूपपृच्छनम् प्रभुणाऽपग्रहपञ्चकं निरूप्य भरत मनःसाभवनं च 'अमुना भक्तपानादिना मया किं कर्तव्यम्' इति भरतेन पृष्टे 'गुणाधिकेभ्यो देवम्' इति इन्द्रवचनात् आवकेभ्यः प्रदानम् भरतस्य शक्रस्वरूपदिदृक्षा भरतस्याsत्याग्रहे शक्रेण स्वाङ्गुलीदर्शनम् भरतेन स्वाश्रयं गत्वा तदङ्गुल्या अष्टाह्निकामहोबिधानालोके इन्द्रोत्सवप्रवृत्तिः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । श्रीका १०२-१२९ १३० - १३२ १३४-१३८ १३९ १४०-१४८ १५० १५२ १५३-१६९ १७०-१७२ १७३-१८० १८१-१८५ १८६-१८८ १८९-१९६ १९७-२०२ २०३-२०१ २१०-२१३ २१४-२१७ २१८-२११ २२३-२२५ प्रभोरन्यत्र विहारः २२६ भरतेन स्वगृहे भोजनाय श्रावकेभ्यो निमन्त्रणम् २२७-२२८ "जितो भवान् वर्द्धते भीखतो मा हन मा हन' इति प्रत्यहं तेषां स्वाध्यायमाकर्ण्य विचारनया भरतस्य धर्मध्याने प्रवर्तनम् तेषां सङ्ख्यावृद्धौ सूदविज्ञया तेषां परीक्षाकरणनिर्णयः सुश्रावकाणां काकिणीरत्नेनाऽङ्कणं, तेषां स्वाध्यायहेतवे आर्यचतुर्वेदनिर्माणं च तत एव ब्राह्मण-वेद यज्ञोपवीतोत्पि तदनु सञ्जातैरष्टभिः पुरुषर्भरता राज्यस्ख भगवन्मुकुटख च धारणं, स्वर्ण-रूप्यसूत्र. मययज्ञोपवीतदानं च भरवनिर्मितानामार्य वेदानां विपर्ययश्च नियुक्त पुरुषैर्भगवदागमने शंसिते तेभ्यः पारितोषिकदानपूर्वमष्टापदं समेत्य भरतेन भगवते नमस्करणम् २५७-२६२ २२९-२३५ २३७-२४१ २४२-२४० २४८ २४९-२५४ २५५-२५६ विषयः भरतकृता भगवतः स्तुतिः प्रभोदेशनां निशम्य भावितीर्थकृमिभृतीनां जिज्ञासा भरतेन कृता पृच्छा भगवता भाविनां तीर्थचक्रवर्ति-वासुदेवदेव-प्रतिवासुदेवानां नगर-गोत्र- पितृमातृआयु:-वर्ण-मानान्तर दीक्षा गत्यादिप्रतिपादनम् २०६-३६९ "अनकं कचिदप्यस्ति भगवन् ! भगवानिव । तीर्थ प्रष्य भरतक्षेत्रं यः पावविष्यति ॥" इति भरतेन पृष्टे भगवता मरीचेः प्रथमदाशार्ह प्रियमिप्राश्यचचिरमजिनभवन सूचनम् सानन्दमभ्येत्य भरतेन मरीचये भगवत्कथनं निवेद्य 'न ते ज्यां जन्म वा वन्दे, किन्तु यवं चरमजिनो भविष्यसीति बन्दे, इत्युक्त्वाऽभिवन्द्य च स्वस्थानगमनम् जातप्रमोदेन मरीचिनाकुलमकरणाशीच गोत्रकमपार्जनम् भगवतः शत्रुञ्जयतीर्थे समागमनम् शत्रुञ्जयतीर्थवर्णनम् कियत्कालं भगवतस्तत्राऽवस्थानम् केवलप्राप्ति-मुक्तिगमनादिलाभं दर्शयित्वा पुण्डरीकं गणतं समुनिसमुदायं तत्राऽवस्थानुमादिश्य भगवतोऽपत्र बिहार: पुण्डरीकादीनां तत्र निर्वाणम् ११ द्राणामवस्थानम् तृतीयारकस्यैकोननवती पक्षेष्ववशिष्टेषु माघकृष्णत्रयोदश्यां भगवतो निर्वाणम् अन्येषामपि दशसहस्रमुनीनां भगवता सहवाऽपवर्गप्राप्तिः लोकाः २६१-२७० चितात्रयीस्थाने रत्नस्तूपत्रयं निर्माय देवैः स्वस्वस्थानमेत्य समुद्र के प्रभुदंष्ट्रादिपूजनम् भरतेन तत्र सिंहनिषद्याख्यप्रासादनिर्मापणम् २७१-२७५ ३००-३७९ ४२५-४३० ४३१-४४५ भरतेन चक्रिणा कारितः शत्रुञ्जयस्य प्रथम उद्धारः ४४६ - ४४९ भगवतः साध्वादिपरिवार: भगवतोऽनशनार्थमहापदाङ्गादागमनम् ४५०-४५८ ४५९-४६० ३८० - ३८४ प्रभोरनशनस्वीकारः ४६१ रुपाकमुखात् प्रभोरनशनं निशम्य भरतस्य खेदः ४६२-४६४ भरतस्य पादचारेण तत्रागमनं, भगवदुपासनाविधानं च४६५-४७९ आसनप्रकम्पादागतानां विखिन्नचेतसा मि ३८५-३९० ३९१-३९५ ३९६-४१६ ४१७-४२४ ४८०-४८२ ४८३-४९० भगवतो निर्वाणगमनशोकाद् भरतस्य परिदेवनं, तेन लोके रोदनप्रवृत्तिश्च विलपन्तं भरतं प्रति शक्रेण कृतः प्रयोः इन्द्रादिभिः कृतं भगवतो निर्वाणमहोत्सवः, ततोऽग्निहोत्रप्रवृत्तिश्च ५२२-५५६ लोकैर्भस्मादिग्रहणात् तापसानां भस्मोद्धरुप्रवृत्ति: ५५०-५६१ ४९१-४९२ ४९३-५०१ ५०२-५२१ ५६२-५६४ ५६६-५६० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व श्लोकाः श्लोकाः ५६८-६२१ ६३०-६३२ ७२०-७५६ ६३३-६३० १३८-६४४ ७३७-७३० विषयः सिंहनिषद्याप्रासादवर्णनम् नवनवतेतृणां तत्र स्तूपनिर्मापणम् आशातनानिवारणार्थ चक्रिणा तस्य लोहयत्रादिभी रक्षाविधानम् भरतेन तन्त्रस्थप्रतिमानामर्चनादिकरणम् शोक-भक्त्याक्रान्तेन भरतेन कृता ऋषभप्रभोः, अन्येषां त्रयोविंशतितीर्थकृतां च स्तुतिः भरतस्याऽयोध्यायामागमनम् शोकाकुलस्य भरतस्य कुलामात्यादिप्रबोधन पुना राज्यकर्मणि प्रवृत्तिः भरतस्य सांसारिकसुखोपभोगः अन्यदा भरतस्य रनादर्शगृहे गमनम् तत्राऽङ्गुलितो मुद्रिकायाः पतनम् विषयः अकुलीयकविरहिता विरूपामङ्गुली निरीक्ष्य सर्वाङ्गीणाभरणोत्तारणेन निःश्रीकं स्वं विलोक्य भरतेन कृताऽऽत्मनि विचारणा भावनावृद्धौ क्षपकश्रेण्यारूढस्य भरतस्य केवलज्ञानोत्पत्तिः देवैस्तस्मै मुनिवेषार्पणम् , दशसहस्त्रनृपाणां प्रव्रज्यादानं च आदित्ययशसो राज्याभिषेक: देशनया भव्यान् प्रतिबोधयतो भरतस्य पूर्वलक्षयावद् विहारः अष्टापदाद्री भरतस्य निर्वाणम् भरतस्य सर्वायुःप्रमाणम् प्रथमपर्वण उपसंहारः ६४५-६७७ ६७८-६८३ ७३९-१४५ ७४६ ६८४-६८९ ६९०-७१४ ७१५-७१७ ७१९ ७४७-७४८ ७४९-७५० ७५१-७५५ ७५६ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविकं विज्ञापनम्. geopoegODODE प्रकृतमिदं दशपर्वप्रविभक्तं त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरितं महाकाव्यं पुरा वि. सं. १९६१-१९६५ प्रमिते संवत्सरे भावनगरस्थया श्रीजैनधर्मप्रसारकस भया मुद्रयित्वा प्रकाशितमासीत् । परं साम्प्रतं तस्याऽनुपलभमानत्वादनल्पाशुद्धिसद्भावाच्चैतस्य विशिष्टसंस्करणसम्पादनार्थे कतिपय विद्वज्जनमुनिवरादिसम्प्रार्थितैः पूज्यपादैराचार्यवरैः श्रीविजयवल्लभसूरिभिरेतदर्थमाज्ञापितोऽहं पुनः सुसंस्कृत्य सम्पादनेऽस्मिन्नतिगहने कर्मणि तेषामेव महत्या कृपया सम्प्रवृत्तः । महौजसां लोकोत्तराणामवश्यं लोकाग्रप्रयायिनां चतुर्विंशतितीर्थकर - द्वादशचक्रवर्त्ति - वासुदेवनवक-प्रतिवासुदेवनवक -बलदेवनवकानां शलाकापुंस्त्वप्रसिद्धानां त्रिषष्ठेर्महापुरुषाणामितिवृत्तात्मकं सुचारुरूपैः सुललितमनोहरपद्यैः सुगमगभीरशैल्या च सङ्घथितं दशपर्वमयं प्रस्तुतमेतन्महाकाव्यं समुत्साहयति स्म मे चेतः । तत्र श्रीमतः प्रथमतीर्थ नायकस्य ऋषभखामिनः, तत्पुत्रस्य प्रथमचक्रवर्त्तिनो भरतस्य च चरितेन समायुक्तं षट्सर्गमनोहरमिदं प्रथमं पर्व पूज्यपाद - जैनाचार्य - श्री विजयवल्लभसूरीश्वर सद्विचारप्रादुर्भूतायाः श्रीजैन - आत्मानन्द- शताब्दि-ग्रन्थमालायाः सप्तमपुष्परूपं सुसावधानतया सम्पाद्य समुपदीक्रियते लोकोत्तमपुरुषचरित्रानन्दामृतपिपासुभ्यो विपश्चिद्वरेण्येभ्यः सज्जनमहानुभावेभ्य इति समुल्लसति मेऽन्तःकरणे परमाह्लादः। सुप्रसिद्ध-गुर्जरेश्वर - परमदयालु- परमार्हतकुमारपाल भूपालप्रार्थनयाऽस्येतिवृत्तरूपमहाकाव्यस्य - तारः सुविहितशिरोमणयः सुप्रसिद्धनामधेया विपश्चित्कुलावतंसकाः कलिकालसर्वज्ञपदप्रतिष्ठिताः श्रीहेमचन्द्रसूरयो वारिधिवारिवसनामिमां रत्नाकरवलयां वसुमतीं कदा कतमां निजजन्मना, उपशमरसपीयूषवर्षिण्या भारत्या, पावनचरणारविन्देन चाऽलङ्कृतां कृतवन्तः ?, कं वंशं, कां ज्ञातिं वा निर्मलस्वजनुषा विभूषितवन्तः ?, अथ च विशुद्धखजीवितव्येन कं गच्छं पावनं चक्रुः ?, इत्यादीनां सप्रमाणः परामर्शः समग्रग्रन्थ पर्यवसानेऽन्तिमे विभागे विस्तृतप्रस्तावनासमये विस्तरतः करिष्यते । इदानीं त्वत्राऽनतिविस्तरेणैव संसूच्यते । पूज्या इमे महाकवयः पूर्णतल्लगच्छीयाः सूरयः । सत्तासमयश्चैषां विक्रमीयद्वादशशताब्द्या उत्तरार्धे त्रयोदशशताब्द्याश्च पूर्वार्धे सम्यगवबुध्यते ऐतिह्यप्रमाणेन । जन्मभूमिस्तु सौराष्ट्र- गूर्जरजनपदयोः सन्धौ स्थितं धन्धूकाख्यं नगरम् । उत्पत्तिवंशस्तु बुद्धिवैभवप्रौढो मोढो वणिग्वंशः । पादचङ्क्रमणेनाऽनल्पविषयेषु विहृत्य प्रतापशालिनो महाराजान्, राज्याधिकारिणो, नागरिकप्रभृतींश्चाऽनेकान् भव्यान् स्वकीयामोघधर्मदेशना दानेन बोधयित्वा सद्धर्मे नियोजितवन्त इति सुप्रसिद्धमेव । एते च प्रौढा ग्रन्थकाराः सर्वतन्त्रस्वातन्येण प्रभूततरदार्शनिकविज्ञान रहस्य वेदित्वेन च प्रौढप्रतापगुर्जरेश्वर - सिद्धराजेत्यपरनाम - जयसिंह परमार्हतकुमारपाल भूपालाभ्यां भूरितरं सन्मानं महतीं प्रतिष्ठां चौपालभिषत, तत्कालीनभारतीयपण्डितप्रवरपरिषत्सु मूर्धन्यतां च प्रापुः । अद्भुतचातुर्याचेमे आचार्यधर्याः समयक्ष धुरन्धरतया, निजासाधारणप्रतिभाप्रागल्भ्यवशात्, कृतकृत्यत्वेन च स्वकीयं युगप्राधान्यं प्रकटयाञ्चक्रुरित्यत्र तत्कालीना बहुश्रुता विद्वज्जनास्तेषां भूरिकृतयश्च प्रामाण्यमुद्धोषयन्ति । कविकुलतिलकायमानानां सूरिशेखराणां श्रीमतां हेमचन्द्रसूरीश्वराणां शाब्दिकचातुरीचतुरत्वम्, साहित्यतन्त्रजागरूकत्वम्, अपारजिनागमपारावारपारगामित्वम्, निखिलदर्शन निष्णातत्वम्, विषयविशदीकरणविशारदत्वम्, लौकिकशास्त्रावगाहननैपुण्यं चैतञ्चरितावलोकनेन सुस्पष्टं समवज्ञायते । महाकाव्यलक्षणपरिपूर्णेऽस्मिन् महाकाव्ये कुत्रचित् कलाकौशल्यम्, क्वचन वासनावैषम्यम्, कापि प्रकृतिप्रभावम, कुत्रापि बुद्धिमाहात्म्यम्, क्वचिद् दार्शनिकविवादम्, कापि च तत्त्वरहस्यादिकं सरलेन रचनासन्दर्भेण सुकुमारशैल्या च निरूपयन्त इमे ग्रन्थकाराः स्वसमयप्रवर्त्तमानस्य लौकिकाचार-व्यवहारस्य, सामाजिक प्रथायाः, धार्मिकभावस्य, नैतिकजीवनस्य, अन्यस्याऽपि च तादृशस्याऽऽनुषङ्गिकस्य तत्समयज्ञातब्यवस्तुनः समुल्लेखं यथास्थानं श्लेषगर्भितरूपेण चकुः । तस्मादिदं महाकाव्यं यथा जैनधर्मवासितान्तःक Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविकं विज्ञापनम। रणानां भव्यानां धार्मिकशिक्षादीक्षाविषयत्वेन महतीमुपकारकतामाकलयति, तथैवाऽन्येषामपि काव्यरसास्वादतत्पराणां रसिकानां, पुरातनतत्त्वानुसन्धानकलक्ष्याणां दक्षाणां, भारतवर्षीयगीर्वाणगिरापरिशीलनपरायणानां पण्डितानां चोपयुक्तता सम्पादयेदिति मे सुदृढतरो विश्वासः। ____ अवगाहितविविधवाङ्मयाश्चेमे प्रौढप्रतिभाशालिनो ग्रन्थकारा एतदतिरिक्तान्यन्यान्यपि स्वोपक्षसुगमवृत्तिसमन्धितलिङ्गानुशासन-धातुपारायणायङ्गगरिष्ठ-संस्कृत-प्राकृतसिद्धहेमशब्दानुशासन-संस्कृतप्राकृतघ्याश्रयमहाकाव्य-अभिधानचिन्तामणिनाममाला-अनेकार्थसङ्ग्रह-निघण्टु-देशिनाममाला-खोपशालङ्कारचूडामणिविवरणसमलकृतकाव्यानुशासन-छन्दोनुशासन-प्रमाणमीमांसाअर्हन्नीति-खोपक्षवृत्तिविभूषितयोगशास्त्र-वीतरागस्तोत्र-महादेवस्तोत्र-अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका-अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकादीनि विविधविषयव्यावर्णनपराणि नैकग्रन्थरत्नानि जग्रन्थुः । ग्रन्थकर्ताऽस्मिन् प्रथमे पर्वणि वर्णितो विषयः प्रान्ते पद्येनकेनैव सङ्गिततया इत्थं समासूचि खामिप्राग्भववर्णनं कुलकरोत्पत्तिः प्रभोर्जन्म चो द्वाहादिव्यवहारदर्शनमथो राज्यं व्रतं केवलम् । चक्रित्वं भरतस्य मोक्षगमनं भर्तुः क्रमाचक्रिणो ऽप्यस्मिन् पर्वणि वर्णितं वितनुतात् पर्वाणि सर्वाणि वः॥ जिज्ञासूनां कृतेऽस्य विस्तृता विषयानुक्रमणिका त्यत्राऽग्रे प्रदर्शिता विशेषजिज्ञासां परिपूरयिष्यतीति मन्ये । प्रस्तुतमहाकाव्यस्य सम्पादनप्रसङ्गे आदर्शपुस्तकपञ्चकं समासादितमस्माभिः। तत्र१ प्रथमं स्तम्भतीर्थीयप्राचीनताडपत्रीयजैनभाण्डागारसत्कं, विक्रमसंवत्१२४०संवत्सरे श्रीसर्वाणन्दसूरीणामुपासकेन घूसडीग्रामवासिना श्राद्धधर्मेण घूसडीग्रामे लिखितं, व्याख्यापितं च, ताडपत्रीयमतिजीर्णमतिशुद्धतमंत्रयोदशाधिकपञ्चशत(५१३)पत्रात्मकमादर्शपुस्तकं प्रान्त्यपत्रत्रुटितं "श्रेष्ठिदीपचन्द्र पानाचन्द्र"द्वारा समुपलब्धम् । इदमत्र "खंता०" सङ्केतेन समभिज्ञापितम् । अत्र१५" x २" प्रमाणपरिमितस्याऽस्य प्रार. म्भप्रान्तपत्रयोः प्रतिकृती अत्र प्रदर्शिते। " २द्वितीयम्-अणहिल्लपुरपत्तन (पाटण) फोफलीयापाटकान्तर्गत "वखतजी"संज्ञकवीथीस्थधीसभाण्डागारसम्बन्धि वि. सं. १४८३ वत्सरे लिखितं प्रायशोऽशुद्धं, सुवाच्यमेकपश्चाशदधिकशत(१५१)पत्रात्मकं कागदोपरिलिखितं विद्वद्रत्न-मुनिपुङ्गव-श्रीपुण्यविजयकृपया समासादितम् । एतदत्र “सं१" संज्ञया सूचितम्।।१२४५" प्रमाणप्रमितस्याऽस्याऽऽद्य-प्रान्तपत्रयोः प्रतिकृती अत्र निदर्शिते । * एतस्य समाप्त्यनन्तरोपन्यस्तैरिमैः पुस्तकलेखयितृप्रशस्तिपद्यैर्षिभूषितोऽयं समुल्लेखो विजृम्भते......,.... विचारणा । सुधर्मस्य ततो ज्ञानं, ज्ञानात् तस्य परिग्रहः॥१॥ तस्माद् भवन्ति श्रेयांसि, स्थैर्यस्य ..............., [तस्माद् धर्मपरिणतिः॥२॥ तस्माद् धर्मोपदेशश्चोपदेशाद् धर्मविस्तृतिः । ततोऽनेके भवं तीर्ला, लभन्ते च परं पदम् ॥३॥ इत्यनेकगुणं ज्ञानं, ........ । सर्वेषामेव धर्माणां, ज्ञानदानफलं महत् ॥ ४॥[चतुर्भिः कलापकम् ] “ज्ञानदानेन जानाति, जन्तुः खस्य हिताहितम् । वेत्ति [जीवादितत्त्वानि, विरतिं ] च समश्नुते ॥५॥ ज्ञानदानादवाप्नोति, केवलज्ञानमुज्वलम् । अनुगृह्याऽखिलं लोकं, लोकाग्रमधिगच्छति ॥ ६॥" [ त्रि. श. पु. च. प. १. स. १ श्लो. १५५-१५६ ] ऋते ज्ञानात् कथं जन्तु[त्ति खस्य हिताहितम् ] । अज्ञानी जनुषान्धवत् , कथं वर्तेत सत्पथि ? ॥ ७ ॥ [ विज्ञाय ] माहात्म्यं ज्ञानदानस्य सद्गुरोरिति । श्रीसर्वाणन्दसूरीणामुपासकेन स(4)[दा ॥८] ....... न, घूसडीग्रामवासिना । लिखितं श्राद्धधर्मेण, चरित्रमृषभप्रभोः॥९॥ यावद् भूर्भूधरो मेरुावचन्द्रदिवाकरौ । यावजिनेन्द्र [ धर्मोऽयं, तावजयेत् ] सुपुस्तकः ॥ १० ॥ ७ ॥ मङ्गलं महाश्रीः ॥ ५ ॥ वत्सरे श्रीविक्रमार्के, द्वादशवेदाम्बराधिके (१२४०)। व्याख्यातं घुसडीग्रामे, ........॥ ११ ॥ + अस्य प्रान्तभागेऽयं समुल्लेखो दृश्यते संवत् १४८३ वर्षे द्वितीयवैशाखवदि ४ बुधे - -[सूरिपट्टालङ्कार भ७ श्रीविजयसिंहसूरिशिष्य मुं० जिनचन्द्रेण श्रीआदिनाथचरित्रं लेखयांचके । परोपकाराय ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं, तादृशं लिखितं मया। यदि शुद्धमशुद्धं वा, मम दोषो न दीयते ॥ [खंभायत (?) नयरे ] सम्पूर्ण कृतम् । शुभं भवतु लेखकपाठकयोश्च । [धे इत्यत आरभ्य त्रं यावत् , तथा ते इत्यत आरभ्य सं यावत् पतिद्वयं केनचिन्मषीकूर्चिकया विनाशितम् , तथापि सम्प्रयत्नेन पठितः पाठः प्रदर्शितः।] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्ताविकं विज्ञापनम् । ३ तृतीय पूर्वनिर्दिष्टस्तम्भतीर्थीयप्राचीनताडपत्रीयपुस्तकभाण्डागारसत्कं वि.सं.१५२० वर्षे लिखितं प्रायःशुद्धं कागदीयं नवनवति(९९)पत्रमयं “श्रेष्ठिदीपचन्द्र पानाचन्द्र" द्वारा प्राप्तम् । इदमत्र "खं." संज्ञया निर्दिष्टम।। १०x४," एतत्प्रमाणस्याऽस्याऽऽद्यान्तपत्रयोः प्रतिकृती अत्र प्रदर्शिते । ४ चतुर्थ पत्तनीयपूर्वोक्तश्रीसङ्घभाण्डागारसत्कं सप्तपञ्चाशदधिकशत( १५७ )पत्रात्मक सुवाच्यं नातिशुद्धं प्रत्नं स्थूलाक्षरसमलङ्कृतं कागदपुस्तकं पूज्यप्रवर-संशोधनकार्यकुशल-मुनिश्रीपुण्यविजयप्रयत्नेनाऽऽसादितम् । इदमत्र "सं २" नाना निदशितम् । ११६x४६ प्रमाणांमतम् ५ पञ्चमं च सूर्यपुर( सुरत )गोपीपुरास्थश्रीजैनानन्दपुस्तकालयसत्कं प्राचीनमशुद्धं मनोहरं त्रिपञ्चाशदधिकशत(१५३)पत्रात्मकं कागदीयं "झवेरी अमरचन्द्र मूलचन्द्र" द्वारा संलब्धम् । एतदत्र "आ" संज्ञया विनिर्दिष्टम् । १०३" x ४३" प्रमाणम् । ___ आदर्शपुस्तकपञ्चकेऽपि यो यत्र पाठभेदः समासादितः शुद्धतया च प्रतिभातः स तत्रैव तत्तत्पुस्तकसङ्केतेन सह तस्य पत्रस्य निम्नभागे टिप्पनरूपेण विन्यस्तः। पूर्वनिर्दिष्टादर्शपुस्तकानि वितीर्याऽत्र साहाय्यविधायकेभ्योभूरि धन्यवादान् वितरामि। निवेदये चैतेऽन्ये चाऽनेन पथाऽऽदर्शपुस्तकसाहाय्यं दत्त्वा ममाऽन्येषां च प्राचीनसाहित्यप्रकाशनप्रयासं मुहुर्मुहुः समुत्तेजयन्त्विति। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यान्तर्गतानां विशेषनाम्नां परिचयोऽकारादिक्रमेणाऽन्तिमे विभागे प्रदर्शयिष्यामः । प्रथमस्य पर्वणोऽस्य संशोधनकर्मण्यन्तिम प्रूफ" रूपाणि पत्राणि विलोक्य विशुद्धिं विर्निदिश्य च सुसा. हाय्यविधायिनः पुरातनग्रन्थोद्धारक-पूज्यपाद-प्रवर्तकपदालङ्कृतश्रीकान्तिविजयप्रशिष्यरत्नस्य संशोधनकार्यातिनिपुणस्य विद्वजनमान्यस्य पूज्यप्रवरमुनिश्रीपुण्यविजयस्य, प्रथमत आरभ्याऽन्तिमपर्यन्तं संशोधने सहकारकारिणश्च विबुधस्य पूज्यवरस्य मुनिश्रीउत्तमविजयस्य महोपकारं कृतज्ञतयाऽत्र संस्मरामि । ___ मदुपरोधतः प्रस्तुतमहाकाव्यस्य विस्तरतो विषयानुक्रमणिकाकर्तुः पूज्यपाद-दक्षिणविहारि-मुनिश्रीअमरविजयशिष्यरत्नस्येतिहासप्रियस्य कविकर्मकुशलस्य श्रीचतुरविजयस्याऽप्युपकृतिरत्र कथं नाम विस्मयते?। प्राच्यविद्यामन्दिरीयगायकवाडप्राच्यग्रन्थमालायां जैनविद्वत्कर्तृकविविधग्रन्थसम्पादकत्वेन ख्यातकीले प्राचीनेतिहासतत्त्ववेदिनोऽस्मिन् प्रास्ताविके विहितसाहाय्यस्य गान्धीत्युपास्य श्रेष्ठिभगवान्दास तनुजस्य जैनपण्डितश्रीलालचन्द्रस्य नामग्राहं स्मरणं क्रियते । प्रस्तुतस्य महाकाव्यस्याऽऽद्यपर्वणः प्रसिद्धिकृते 'पंजाब'देशोद्धारक-न्यायाम्भोनिधि-जैनाचार्यश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वर (प्रसिद्धनामधेयश्रीआत्मारामजी महाराज) पट्टधर-आचार्यश्रीविजयवल्लभसूरीश्वराणां सुधासोदरेण निखिलप्रत्यूहव्यूहविनाशिनोपदेशेन समुदारतया द्रव्यसहायताकी धांगध्रावास्तव्यस्य धर्मेकपरायणस्य “श्रेष्ठिवर्य श्रीपुरुषोत्तम सुरचन्द्र” इत्यस्य धर्मपत्नी अं०सौ० श्रीमती "पूरी" इत्याख्या सुश्राविका धन्यवादारे । पित * अस्याऽन्त्योऽयमुल्लेखः समवलोक्यते-- संवत् १५२० वर्षे प्रथमचैत्रसुदि ५ वार बृहस्पति लिखितं पण्ड्या मदनजीकेन पुण्याय परोपकाराय लिखापितम् ॥ सा. मोहनजी लिखापितम् ॥ ७ ॥ ॥५॥ ॥७॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्ताविकं विज्ञापनम् । एवमुपरिचितानां पञ्चानामादर्शपुस्तकानामाधारेणाऽतिसावधानतया संशोधित, उपयुक्तटिप्पन्यादिना परिष्कृतेऽप्यस्मिन् महाकाव्ये प्रमादादिदोषवशाद्, मतिभ्रमादक्षरयोजकदोषाद् वा यत्र कुत्रचिद् याः काश्चनाsशुद्धयः स्थिता जाता वा भवेयुस्ताः परिमार्जयन्तु विधाय मयि कृपां, संसूचयन्तु च सौहार्दभावेन परिश्रमवेदिनो गुणैकपक्षपातिनो धीधना इति सम्प्रार्थयते कुमतनिशानिमीलितभव्यपद्मविबोधन सहस्रकिरण- पञ्चनददेशोद्धारक-बृहत्तपागच्छान्तर्गतसंविग्नशास्त्रीयाऽऽद्याचार्य-संविग्नचूडामणि- सिद्धान्तोदधिपारगामि-न्यायाम्भोनिधि - जैनाचार्यश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वर - (प्रसिद्ध नामधेय श्री आत्मारामजी महाराज) पट्टधर-निजासाधारणोपदेशप्रभावादनेकधार्मिक-सामाजिको श्नतिविधायिजैनविद्यालय-गुरुकुल- पुस्तकालयादिसंस्थासंस्थापक- यथार्थोपदेशक- पूज्यपाद - आचार्यश्रीविजयवल्लभसूरीश्वर प्रधानशिष्यरत्न- तपोनिधिश्रीविवेकविजय शिष्यावतंसक- विद्वच्छ्रेष्ठ आचार्यपदोपशोभितश्रीविजयोमङ्गसूरिचरणारविन्दचञ्चरीकायमाणो विद्वज्जनकृपाभिलाषी वटपद्रम्, (बडौदा) घडीयाली पोल, जैन उपाश्रय. विक्रमसं. १९९२. वीरसं. २४६२. आत्मसं. ४१. ज्येष्ठशुक्ला ८. गुरुवासरे. ता. २८-५-३६. चरणविजयो मुनिः । १६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ ॥ नमः प्रथमानुयोगप्रणेतृभ्यः श्रीकालकार्येभ्यः॥ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविनिर्मितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । ऋषभस्वामि-भरतचक्रवर्तिचरितप्रतिवद्धं प्रथमं पर्व । प्रथमः सर्गः सकलार्हत्प्रतिष्ठानमधिष्ठानं शिवश्रियः । भूर्भुवःस्वस्त्रयीशानमार्हन्त्यं प्रणिर्दध्महे ॥१॥ नामा-ऽऽकृति-द्रव्य-भावैः, पुनतस्त्रिजगजनम् । क्षेत्रे काले च सर्वसिन्नर्हतः समुपासहे ॥२॥ _आदिमं पृथिवीनाथमादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च, ऋषभखामिनं स्तुमः ॥३॥ अर्हन्तमजितं विश्वकमलाकरभास्करम् । अम्लानकेवलादर्शसङ्क्रान्तजगतं स्तुवे ॥ ४ ॥ विश्वभेव्यजनारामकुल्यातुल्या जयन्ति ताः । देशनासमये वाचः, श्रीसम्भवजगत्पतेः॥५॥ अनेकान्तमताम्भोधिसमुल्लासनचन्द्रमाः । दद्यादमन्दमानन्दं, भगवानभिनन्दनः ॥६॥ घुसकिरीटशाणामोत्तेजिताभिनखावलिः । भगवान् सुमतिस्वामी, तनोत्वभिमतानि वः ॥ ७ ॥ पद्मप्रभप्रभोदेहभासः पुष्णन्तु वः शिवम् । अन्तरङ्गारिमथने, कोपाटोपादिवाऽरुणाः ॥ ८॥ श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्राय, महेन्द्रमहितामये । नमश्चतुर्वर्णसङ्घगगनाभोगभास्वते ॥ ९॥ चन्द्रप्रभप्रभोश्चन्द्रमरीचिनिचयोज्वला । मूर्तिमूर्तसितध्याननिर्मितेव श्रियेऽस्तु वः ॥ १० ॥ 10 करामलकवद् विश्वं, कलयन् केवलश्रिया । अचिन्त्यमाहात्म्यनिधिः, सुविधिर्बोधयेऽस्तु वः ॥११॥ सत्त्वानां परमानन्दकन्दोद्भेदनवाम्बुदः । स्याद्वादामृतनिस्यन्दी, शीतलः पातु वो जिनः ॥ १२ ॥ भवरोगार्तजन्तूनामगदङ्कारदर्शनः । निःश्रेयसश्रीरमणः, श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥ १३ ॥ विश्वोपकारकीभूततीर्थकृत्कर्मनिर्मितिः । सुरासुरनरैः पूज्यो, वासुपूज्यः पुनातु वः ॥ १४ ॥ विमलखामिनो वाचः, कतकक्षोदसोदराः । जयन्ति त्रिजगच्चेतोजलनैर्मल्यहेतवः ॥ १५॥ 15 स्वयम्भूरमणस्पर्धी, करुणारसवारिणा । अनन्तजिदनन्तां वः, प्रयच्छतु सुखश्रियम् ॥ १६ ॥ कल्पद्रुमसधर्माणमिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् । चतुर्धा धर्मदेष्टारं, धर्मनाथमुपासहे ॥ १७ ॥ सुधासोदरवाग्ज्योत्स्नानिर्मलीकृतदिङ्मुखः । मृगलक्ष्मा तमःशान्त्य, शान्तिनाथजिनोऽस्तु वः ॥१८॥ श्रीकुन्थुनाथो भगवान् , सनाथोऽतिशयर्द्धिभिः । सुराऽसुरनृनाथानामेकनाथोऽस्तु वः श्रिये ॥१९॥ त्रिभुवनाधीशम् । २ चित्तकाम्येण नमस्कुर्महे । ३ सेवा कुर्महे। ४ अम्लानो यः केवलज्ञानरूप आदर्शस्तस्मिन् सङ्कातानि जगन्ति यस्य स तम् । ५ समग्रभव्यजन एवं आरामम्तस्मिन सारणिसमानाः। ६ कोपाडम्बरात् । ७ करस्थित निर्मलजलवत् । ८कतकचूर्णसमानाः। त्रिषष्टि. १ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रथमं पर्व कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं अरनाथः स भगवांश्चतुर्थाऽरनभोरविः । चतुर्थपुरुषार्थश्रीविलासं वितनोतु वः ॥२०॥ सुराऽसुरनराधीशमयूरनववारिदम् । कर्मदून्मूलने हस्तिमल्लं मल्लिमभिष्टुमः ॥ २१ ॥ जगन्महामोहनिद्राप्रत्यूषसमयोपमम् । मुनिसुव्रतनाथस्य, देशनावचनं स्तुमः ॥ २२ ॥ लुठन्तो नमतां मूर्भि, निर्मलीकारकारणम् । वारिप्लंवा इव नमः, पान्तु पादनखांशकः ॥ २३ ॥ 5 यदुवंशसमुद्रेन्दुः, कर्मकक्षहुताशनः । अरिष्टनेमिर्भगवान् , भूयाद् वो रिष्टनाशनः ॥ २४ ॥ कमठे धरणेन्द्रे च, स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः, पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः ॥ २५ ॥ कृतापराधेऽपि जने, कृपामन्थरतारयोः । ईपद्वाष्पार्द्रयोभद्रं, श्रीवीरजिननेत्रयोः ॥ २६ ॥ एषां तीर्थकृतां तीर्थेष्वासन द्वादशै चक्रिणः । नवाऽर्धचेंक्रिणो रामास्तथा प्रत्यर्धचक्रिणः ॥ २७॥ एते शलाकापुरुषा, भूतभाविशिवश्रियः । त्रिषष्टिरवसर्पिण्यां, भरतक्षेत्रसम्भवाः ॥ २८ ॥ 10 एतेषां चरितं ब्रूमः, शलाकापुंस्त्वशालिनाम् । महात्मनां कीर्तनं हि, श्रेयोनिःश्रेयसास्पदम् ॥ २९ ॥ तत्र तावद् भगवतश्चरित्रमृषभप्रभोः । बोधिवीजावाप्तिहेतोर्भवादारभ्य वर्ण्यते ॥ ३० ॥ अस्त्यसङ्ख्याम्बुधिद्वीपवलयैः परिवेष्टितः । जम्बूद्वीप इति द्वीपो, वज्रवेदिकयाऽऽवृतः ॥ ३१ ॥ भूषितस्य संवन्तीभिवर्षधरैरपि । स्वर्णरत्नमयो मेमध्ये तस्याऽस्ति नाभिवत् ॥ ३२ ॥ स लक्षयोजनोच्छ्रायो, मेखलात्रयभूपितः । चत्वारिंशयोजनोच्चचूलोऽर्हचैत्यमण्डितः ॥ ३३ ॥ 15 अस्ति पश्चिमतस्तस्य, विदेहेषु महापुरम् । क्षितिप्रतिष्ठितं नाम, क्षितिमण्डलमण्डनम् ॥ ३४ ॥ तत्र प्रसन्नचन्द्रोऽभूनिस्तन्द्रो धर्मकर्मसु । देवराजोपमो राजा, राजमानो महर्द्धिभिः ॥ ३५॥ तत्र चाऽऽसीत् सार्थवाहो, धनो नाम यशोधनः । आस्पदं सम्पदामेकं, सरितामिव सागरः ॥ ३६ ॥ आसंस्तस्य महेच्छस्याऽनन्यसाधारणाः श्रियः । परोपकारैकफला, रुचो हिमरुचेरिव ॥ ३७ ॥ सदा सदाचारनदीप्रवाहैकमहीधरः । सेवनीयो न कस्याऽऽसीत् , स महीतलपावनः? ॥ ३८॥ 120 तस्मिन्नौदार्यगाम्भीर्यधैर्यप्रभृतयो गुणाः । आसन् बीजान्यमोघानि, प्रभवाय यशस्तरोः ॥ ३९ ॥ कणानामिव रत्नानामुत्करास्तस्य वेश्मनि । गोणीनामिव देवाङ्गवाससामपि राशयः ॥ ४० ॥ अश्वैरश्वतरैरुष्ट्रहिनैरपरैरपि । तस्य वेश्म व्यराजिष्ट, यादोभिरिव सागरः ॥४१॥ धनिनां गुणिनां कीर्तिशालिनां च नृणामसौ । धुर्यत्वं धारयामास, प्राणोऽङ्गमरुतामिव ॥ ४२ ॥ अर्थस्तस्य महार्थस्य, पर्यपूर्यन्त सेवकाः । महामरोवरस्येव, स्यैन्दैरभ्यर्णभूमयः ॥ ४३ ॥ 25 स गृहीतमहाभाण्ड, उत्साह इव मूर्तिमान् । ईहाश्चक्रेऽन्यदा गन्तुं, वसन्तपुरपत्तनम् ॥४४॥ सार्थवाहो धनस्तस्मिन् , सकलेऽपि पुरे ततः । डिण्डिमं ताडयित्वोचैः, पुरुषानित्यघोषयत् ॥ ४५ ॥ असौ धनः सार्थवाहो, वसन्तपुरमेष्यति । ये केऽप्यत्र यियासन्ति, ते चलन्तु सहाऽमुना ॥ ४६॥ भाण्डं दास्यत्यभाण्डायाऽवाहनाय च वाहनम् । सहायं चाऽसहायायाऽशम्बलाय च शम्बलम् ॥ ४७॥ दस्युभ्यस्त्रास्यते मार्गे, श्वापदोपद्रवादपि । पालयिष्यत्यसौ मन्दान् , सहगान् बान्धवानिव ॥४८॥ 30 क्षणे से कल्यः कल्याणे, कुलस्त्रीकृतमङ्गलः । रथमास्थाय विदधे, प्रस्थानं पत्तनाद् बहिः॥४९॥ प्रस्थानभेरीमाङ्कारैराकारकनरैरिव । जनाः सर्वेऽपि तत्रेयुर्वसन्तपुरगामिनः ॥ ५० ॥ मोक्षलक्ष्मीविलासम् । २ जलप्रवाहाः। * तश्च न सं १॥ ३ नदीभिः । ४ क्षेत्रैः । ५ कुलपर्वतैः। ६ आलस्यरहितः । ७ इन्द्रतुल्यः। ८ स्थानम् । ९ चन्द्रस्य । १० राशयः । ११ खचरैः। १२ जलजन्तुभिः। १३ अङ्गमरुतां-अङ्गान्तर्गतसर्ववायूना मध्ये प्राणो नाम वायुर्यथा धुर्यत्वं धारयामास तथा । १४ क्षुद्रप्रवाहैः। १५पाथेयम् । सकल्यकल्या सं२॥ १६ नीरोगी। १७ आह्वानकारकैः ।। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MY प्रथमः सर्गः ] त्रिपष्टिदालाकापुरुषचरितम् । अत्रान्तरे धर्मघोष, आचार्यः साधुचर्यया । धर्मेण पावयन् पृथ्वीं, सार्थवाहमुपाययौ ॥५१॥ ससम्भ्रममथोत्थाय, धनो दीपं तपस्त्विषा । सहस्रांशुमिवाऽऽचार्यमवन्दत कृताञ्जलिः ॥५२॥ धनेन पृष्टास्त्वाचार्याः, समागमनकारणम् । वसन्तपुरमेष्यामस्त्वत्सार्थेनेत्यचीकथन् ॥ ५३॥ सार्थवाहोऽप्युवाचैवं, धन्योऽद्य भगवनहम् । अभिगम्या यदायाता, मत्सार्थेन च यास्यथ ॥ ५४ ॥ आचार्याणां कृतेऽमीषामनपानाधमन्वहम् । सम्पादनीयं युष्माभिः, सूदानित्यादिशच सः॥ ५५ ॥ आचार्या अप्यचोचन्त, यतीनामशनादिकम् । अकृतं चाऽकारितं चाऽसङ्कल्प्यं चापि कल्पते ॥ ५६ ॥ वापीकूपतडागादिगतं वार्यपि वार्यते । अस्त्रिोपहतं सार्थनाथ ! जैनेन्द्रशासने ॥ ५७ ॥ __ अत्रान्तरे च केनापि, सार्थवाहस्य दौकितम् । पक्कचूताश्चितं स्थालं, भ्रष्टसन्ध्याभ्रसन्निभम् ॥५८॥ प्रमोदमेदरमना, निजगाद ततो धनः। फलान्यमनि ग्रहीताऽनुग्रहीत च मामिति ॥ ५९॥ सूरिरूचे फलादीगशस्त्रोपहतं हि नः । न स्प्रष्टुमपि कल्पेत, किं पुनः श्राद्ध ! खादितुम् ? ॥ ६० ॥ 10 धनोऽवोचदहो ! कापि, दुष्करवतकारिता । शक्यं दिनमपीक्षैभवितुं न प्रमादिभिः ॥ ६१ ॥ कल्प्यं वः स्याद् यदन्नादि, तद् दास्यामि प्रसीदत । चलताऽद्येत्युदित्वा तान् , नत्वा च व्यसृजन्मुनीन् ॥६२॥ सार्थवाहस्ततोऽचालीत् , चञ्चलैस्तुरगैर्मयैः । शकटैरुक्षेभिस्तुङ्गैस्तरङ्गैरिव सागरः ॥ ६३ ॥ अथ प्रचेलुराचार्या, अपि साधुभिरावृताः । मूर्ततामाश्रितैर्मूलगुणोत्तरगुणैरिव ॥ ६४ ॥ सार्थस्याऽग्रे धनः पृष्ठे, माणिभद्रः सखाऽस्य तु । ईयतुः पार्श्वयोस्त्वश्ववारवाराववारितौ ॥६५॥ 15 श्वेतच्छत्रैः स चक्रे यां, शरदभ्रमयीमिव । मायरैरातपत्रैश्च, प्रावृडब्दमयीमिव ॥६६॥ करभैः सैरिभैरुक्षवरैरश्वतरैः स्क्रैः । तस्योहे दुर्वहं भाण्डं, घुनवातैरिव क्षितिः ॥ ६७ ॥ वेगादलक्ष्यमाणाधिपाता वातमजा इव । ययुः पार्श्वस्थगोणीभिरुत्पक्षा इव वेसरीः ॥६८ ॥ यूनामन्तर्निविष्टानों, तत्र क्रीडानिवन्धनम् । जङ्गमानीव वेश्मानि, शकटानि चकासिरे ॥ ६९ ॥ महाकाया महास्कन्धा, महिषास्तोयचाहिनः 1 महीं प्राप्ता इवाऽम्भोदा, जनानां चिच्छिदुस्तृर्षम् ॥ ७० ।। 20 तदा तद्भाण्डसम्भारभाराकान्ता समन्ततः । शकटश्रेणिचीत्कारै, ररासेव वसुन्धरा ॥ ७१ ॥ औक्षकेणौष्ट्रकेणाऽऽश्वेनोद्भूतः पांशुरानशे । तथा दिवं यथा विष्वक, सूचीभेद्यं तमोऽभवत् ॥ ७२ ॥ उक्ष्णां घण्टाटणत्कारैर्बधिरीकृतदिशुखैः 1 चमर्यस्तत्रसुर्दरादुत्कास्तर्णकैः समम् ॥ ७३ ॥ महाभार वहन्तोऽपि, कामन्तोऽपि क्रमेलकाः । वलितग्रीवमग्राणि, भूरुहां लिलिहुर्मुहुः ॥ ७४ ॥ उत्कर्णसरलग्रीवा, दशन्तो दशनैर्मिथः । पृष्ठप्रतिष्ठकण्ठालाः, प्रष्ठा एवाऽभवन् खराः ॥ ७५ ॥ आरक्षकैः प्रतिदिशं, वेष्टितः शस्त्रपाणिमिः । वज्रपञ्जरमध्यस्थ, इव सार्थोऽवहत् पथि ॥ ७६ ॥ महार्थस्यापि सार्थस्य, दूरेऽस्थुस्तस्य दस्यवः । महाघमौलिरत्वस्य, भुजङ्गमपतेरिव ॥ ७७ ॥ निःस्वाऽऽध्ययोनिर्विशेष, योगे क्षेमे च सोद्यमः । धनः सर्वान् सहाऽनपीद् , यूथेशः कलभानिव ॥७॥ आशास्थमानः सकलैलोकैः स्फारितलोचनैः । दिने दिने रविरिख, प्रयाणमकरोद् धनः ॥ ७९ ॥ सरसां सरितां चाऽऽपस्तनूकुर्वन् निशा इव । उद्दामः समभूत् पान्थभीष्मो श्रीष्मऋतुस्तदा ।। ८० 30 राष्ट्रमिन्धा इब क्वुर्वायवोऽत्यन्तदुःसहाः । आतपं तपनस्तेचे, विष्वम् वहिच्छटोपमम् ॥ ८१ ॥ तत्सार्थपथिकास्तस्थुरनुपातं तरं तरुम् । प्रपा प्रपा प्रवेशं च, पायं पायं पयोऽलुठन् । ८२ ॥ * दीसं भा ॥१सूर्यमिव । २ अप्रासुकम् । ३ उष्ट्रः। ४ बलिष्यवृषभैः । ५ उष्टैः । ६ महिषैः । ७ धनवाताः पृथ्व्याधारभूता कतविशेषाः। ८ पबनाभिमुखचारिणो मृगविशेषाः । ९ खचराः। तृषां सं १॥ १० लघुवत्सकैः। १५ उष्ट्राः । १२ निर्धवधनाख्ययोः। १५ अप्राप्तख प्राप्युपायो योगः। १४ प्राप्तस्य रक्षणं क्षेमः। सार्थान् सं॥ १५ लघुगजात् । १६ सूर्यः 25 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व जिह्वामकर्षन् महिषा, निःश्वासप्रेरितामिव । विविशुश्च नदीपङ्केष्ववधीरितकाहराः ॥ ८३ ॥ रथिकानवमत्यापि, प्रार्जनेषु पतत्स्वपि । उन्मार्गपादपानीयुरुक्षाणश्च क्षणे क्षणे ॥ ८४ ॥ तप्तायःसूचीसदृशै, रोचिभिश्चण्डरोचिषः । व्यलीयन्त शरीराणि, विष्वग् मदनपिण्डवत् ॥ ८५ ॥ ततायःफालकरणिं, तरणिनितरां दधौ । पथि क्षिप्तकरीपाग्निवैषम्यं पांशवोऽवहन् ॥ ८६ ॥ प्रविश्य मार्गसरितः, परितः सार्थयोषितः । उन्मूल्य नलिनीनालान् , गलनालेषु चिक्षिपुः ॥ ८७ ॥ धर्माऽम्भःक्लिन्नवासोभिरशोभन्त भृशं पथि । जलाः इव विभ्रत्यः, सार्थपान्थपुरन्ध्रयः ॥ ८८ ॥ पलाशतालहिन्तालनलिनीकदलीदलैः । तालवृन्तीकृतैः पान्थाश्चिच्छिदुर्घर्मजं श्रमम् ।। ८९ ॥ ग्रीष्मस्येव स्थितिच्छेदं, गतिच्छेदं प्रवासिनाम् । विदधानः समागच्छन्मेपचिह्नमृतस्ततः ॥९० ॥ यातुधान इवाऽऽकाशे, दधानो धन्व वारिदः । कुर्वन् धाराशरासारं, सार्थेनोत्रासमैक्ष्यत ॥ ९१ ॥ 10 अलातमिव तडितं, तडित्वान् भ्रमयन् मुहुः । निर्भरं भापयामास, पथिकान् बालकानिव ॥ ९२ ॥ अभ्रंलिहैः पयःपूरैः, कूलिनीनां प्रसारिभिः । कूलानि पान्थहृदयानीव सद्यो विददिरे ॥ ९३॥ सलिलैनींचमुच्चं च, सर्वमुर्त्या समीकृतम् । जडानामुदये हन्त !, विवेकः कीदृशो भवेत् १ ॥ ९४ ॥ पयोभिः कण्टकैः पङ्केदुर्गमत्वेन वर्त्मनः । योजनानां शतमिव, क्रोशोऽपि समजायत ॥ ९५ ॥ अध्वन्यजन आजानुसंलग्ननवकर्दमः । आमुक्तमोचक इव, प्रचचाल शनैः शनैः ॥९६ ॥ 15 धर्तु प्रतिपथं पान्थान् , दुर्दैवेन प्रसारिताः । प्रवाहच्छमना दीर्घाः, स्वबाहुपरिधा इव ॥ ९७॥ अमजन्नभितः पङ्कविकटे शकटाः पथि । चिरं कृतविमर्दोत्थरोपाद् ग्रस्ता इवेलया ॥ ९८॥ अवरुह्याऽऽकृष्यमाणा, औष्ट्रिकै तरज्जुभिः । पथि क्रमेलकाः पेतुर्घश्यत्पादाः पदे पदे ॥ ९९॥ दुर्गत्वं वर्त्मनां प्रेक्ष्य, सार्थवाहस्ततो धनः । तस्यामेव महाटव्यां, दत्त्वा वासानवास्थित ॥ १००।। अतिवाहयितुं वर्षाश्चक्रे तत्रोटजान् जनः । न हि सीदन्ति कुर्वन्तो, देशकालोचितां क्रियाम् ॥१०१॥ दर्शिते माणिभद्रेण, निर्जन्तुजगतीतले । उटजोपाश्रयेऽवात्सुः, सूरयोऽपि ससाधवः ॥१२॥ भूयस्त्वात् सार्थलोकस्य, दीर्घत्वात् प्रावृषोऽपि च । अत्रुट्यत् तत्र सर्वेषां, पाथेययवसादिकम् ॥ १०३ ॥ ततश्चेतस्ततश्चेलुः, कुचेलास्तापसा इव । खादितुं कन्दमूलादि, क्षुधार्ताः सार्थवासिनः ॥१०४॥ ___ अथ तत् सार्थनाथस्य, सार्थदौःस्थ्यमशेषतः । विज्ञप्तं माणिभद्रेण, तन्मित्रेण निशामुखे ॥ १०५ ॥ सार्थवाहः सार्थदुःखचिन्तासन्ताननिश्चलः । तस्थौ निवातनिष्कम्प, इव पाथोनिधिस्ततः ॥१०६ ॥ तस्य चिन्ताप्रपन्नस्य, निद्राऽभूत् क्षणमात्रतः । अतिदुःखाऽतिसौख्ये हि, तस्याः प्रथमकारणम् ॥ १०७ ॥ यामिन्याश्चरमे यामे, मन्दुरायामपालकः । ततश्च कश्चिदप्येवमपाठीदशठाशयः ॥ १०८ ॥ प्रत्याशं विस्फुरत्कीर्तिः, प्राप्तोऽपि विषमां दशाम् । स्वामी नः पालयत्यात्मप्रतिपन्नमसावहो ! ॥१०९॥ _तदाकर्ण्य धनो दध्यावुपालब्धोऽस्मि केनचित् । अस्तीह मामके सार्थे, को नामाऽत्यन्तदुःस्थितः ? ॥११०॥ आ ज्ञातं सन्ति मे धर्मघोषाचार्याः सहागताः । अकृताऽकारितप्रासुभिक्षामात्रोपजीविनः ॥ १११ ॥ 30 कन्दमूलफलादीनि, स्पृशन्त्यपि न ये क्वचित् । अधुना दुःस्थिते सार्थे, वर्तन्ते हन्त ! ते कथम् ?॥११२॥ मार्गकृत्यमुरीकृत्य, पथि यानहमानयम् । तानद्यैव समस्मार्ष, किमकार्षमचेतनः ? ॥ ११३ ॥ वामात्रेणापि नो येषामद्य यावत् कृतौचिती । स्वमुखं दर्शयिष्यामि, तेषामद्य कथं न्वहम् ? ॥ ११४ ।। तिरस्कृतकशाविशेषाः । २ "परोणी" इति भाषायाम्। ३ सूर्यस्य । ४ सदृशम्। ५ सूर्यः। * प्राविशन् मार्ग सं१,२. खं॥ स्त्रियः। राक्षसः । ८ प्रज्वलत्काष्ठम् । ९ मेघः । १० अत्र डलयोरैक्यात् जलानामित्यपि वक्तव्यम् । ११ स्वबाहुरूपार्गला इव । ११ भूम्या । १३ उष्ट्रारूढः। तत्रैव च म सं ॥श्चक्रुस्तत्रोटजान् जनाः सं १, खं ॥ १४ समुद्रः। १५ वाजिशालाप्राहरिकः । १६ उचिताचरणम् । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ] त्रिपशिलाकापुरुषचरितम् । 15 " तथाऽप्यद्याऽपि तान् दृष्ट्वा, निजांहः क्षालयाम्यहम् । सर्वत्राऽपि निरीहाणां, कार्य तेषां तु किं मया ।। ११५ ।। इति चिन्तयतस्तस्योत्सुकस्य मुनिदर्शने । तुर्यो यामस्त्रियामायास्त्रियामेवाऽपराऽभवत् ॥ ११६ ॥ विभातायां विभावर्या, शुचिवस्त्रविभूषणः | सूरीणामाश्रयमगात्, सप्रधानजनो धनः ॥ ११७ ॥ पलाशच्छद नच्छन्नं, सच्छिद्र तृणभित्तिकम् । स्थलस्थण्डिलसंस्थानं, तेषां सोऽविशदाश्रयम् ॥ ११८ ॥ मन्थानमिव पापाब्धेः पन्थानमिव निर्वृतेः । आस्थानमिव धर्मस्य, संस्थानमिव तेजसाम् ॥ ११९ ॥ कषायगुल्मनीहारं, हारं कल्याणसम्पदः । सङ्घस्याऽद्वैतमार्कल्पं, कल्पद्धुं शिवकाङ्क्षिणाम् ॥ १२० ॥ पिण्डीभूतं तप व मूर्त्तिमन्तमिवाऽऽगमम् | तीर्थङ्करमिवाऽद्राक्षीद्, धर्मघोषमुनिं धनः ॥ १२१ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् । ] ध्यानाधीनात्मनः कांश्चित, कांश्चिन्मौनावलम्बिनः । कायोत्सर्गस्थितान् कांश्चित् पठतः कांश्चिदागमम् ॥ १२२ ॥ वाचनां ददतः कांश्चित् कांश्चिद् भूमिं प्रमार्जतः । वन्दमानान् गुरून् कांश्चित्, कांश्चिद् धर्मकथाजुषः ॥ १२३ ।। 10 श्रुतमुद्दिशतः कांश्चित् कांश्चित् तदनुजानतः । तत्त्वानि वदतः कांश्चित् तत्राऽद्राक्षीन्मुनीनपि ॥ १२४॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् । ] सोsवन्दताssचार्यपादान, साधनपि यथाक्रमम् । तस्मै ते धर्मलाभं च ददुः पापप्रणाशनम् ।। १२५ ।। आचार्य पादपद्मान्ते, राजहंस इवाऽथ सः । निषेधाऽऽसादितानन्द, इति वक्तुं प्रचक्रमे ॥ १२६ ॥ तदाssकारता युष्मान्, भगवन्नात्मना सह । मुधैव सम्भ्रमोऽदर्शि, शरद्गर्जितवन्मया ॥ १२७ ॥ आरभ्य तहिनाद् यूयं, न दृष्टा न च वन्दिताः । न चाऽन्नपानवस्त्राद्यैः कदाचिदपि सत्कृताः ॥ १२८ ॥ जाग्रत्सुषुप्तावस्थेन, मया मूढेन किं कृतम् ? | यद् यूयमवजज्ञिध्वे, ध्वस्तस्ववचसा चिरम् ॥ १२९ ॥ भगवन्तः ! सहध्वं तत् प्रमादाचरणं मम | सर्वंसहा महान्तो हि, सदा सर्वसहोपमाः ।। १३० ॥ सूरयोऽप्यचिरेऽस्माकं त्वया किं किं न सत्कृतम् ? । दुःश्वापदेभ्यो दस्युभ्यस्त्रायमाणेन वर्त्मनि ॥१३१॥ तवैव सार्थिका यच्छन्त्यन्नपानादि चोचितम् । तन्न सीदति नः किञ्चित् मा विषीद महामते ! ॥ १३२ ॥ २० धनोsयूचे गुणानेव सन्तः पश्यन्ति सर्वतः । ततो मम सदोषस्याऽप्याराध्यैरेवमुच्यते ॥ १३३ ॥ सर्वथा स्वप्रमादेन, लज्जितोऽस्मि प्रसीदत | साधून् प्रेषयताऽऽहारं प्रयच्छामीच्छया यथा ।। १३४ ।। सूरिभाषे योगेन वर्त्तमानेन वेत्सि नु । अकृताऽकारिताऽचित्तमन्नाद्युपकरोति नः ॥ १३५ ॥ तदेव दास्ये साधूनां यदेवोपकरिष्यते । इत्युदित्वा च नत्वा च, निजावासं ययौ धनः ॥ १३६ ॥ अस्याऽनुपदमेवाऽथ, साधुद्वितयमागमत् । तदहं चाऽन्नपानादि, दैवादासीन्न किञ्चन ।। १३७ ॥ इतस्ततोऽन्वेपर्यंच, सार्थवाहः स्वयं ततः । ईक्षाञ्चक्रे घृतं स्त्यानं, निजाशयमिवाऽमलम् ।। १३८ ।। इदं वः कल्पते किञ्चिदिति सार्थपतीरिते । इच्छामीति वदन् साधुः पतग्रहमधारयत् ।। १३९ ।। धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं पुण्योऽहमिति चिन्तयन् । रोमाञ्चितवपुः सर्पिः साधवे स स्वयं ददौ ॥ १४० ॥ आनन्दाश्रुजलैः पुण्यकन्दं कन्दलयन्निव । घृतदानावसानेऽथ, धनोऽवन्दत तौ मुनी ॥ १४१ ॥ सर्वकल्याणसंसिद्धौ, सिद्धमन्त्रसमं ततः । वितीर्य धर्मलाभं तौ, जग्मतुर्निजमाश्रयम् ॥ १४२ ॥ तदानीं सार्थवाहेन, दानस्यास्य प्रभावतः । लेभे मोक्षतरोबींजं, बोधिवीजं सुदुर्लभम् ॥ १४३ ॥ रजन्यां पुनरप्येषां, मुनीनामाश्रयं ययौ । स प्रविश्याऽनुजानीतेति वदन् प्राणमद् गुरून् ॥ १४४ ॥ धर्मघोष सूरयोsपि, मेघनिर्घोषया गिरा । श्रुतकेवलिदेशीयां, दिदिशुर्देशनामिमाम् ॥ १४५ ॥ " , १ स्वपापम् । २ रात्र्याः । ३ मधनदण्डम् । ४ सभास्थानम् । ५ हिमम् । ६ भूषणरूपम् । ७ तदनुज्ञाकारिणः । ८ उपविश्य । ९ आमणं कुर्वता । १० जाग्रताऽपि सुषुप्तावस्थागतेन । ११ पृथ्वी तदुपमा। १२ दुष्टहिंस्रप्राणिभ्यः । १३ चौरेभ्यः । १४ पूज्यैः । १५ अकृतं अकारितं अचित्तं चेति एकवद्भावी द्वन्द्वः । १६ पात्रम् । १७ घृतम् । १८ पुण्याङ्कुरम् । १९ श्रुतकेवलिसमानाम् । 5 25 80 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टं, धर्मः स्वर्गाऽपवर्गदः । धर्मः संसारकान्तारोल्लङ्घने मार्गदेशकः ॥ १४६ ॥ धर्मो भातेव पुष्णाति, धर्मः पाति पितेव च । धर्मः सखेव प्रीणाति, धर्मः स्निह्यति बन्धुवत् ॥ १४७॥ धर्मः सङ्गमयत्युच्चैर्गुणान् गुरुरिवोज्वलान् । धर्मः प्रकृष्टां स्वामीव, प्रतिष्ठां च प्रयच्छति ॥ १४८ ॥ धर्मः शर्ममहाहम्यं, धर्मो वर्माऽरिसङ्कटे । धर्मो जोड्यच्छिदाधर्मो, धर्मो मर्माविदंहसाम् ॥ १४९ ॥ धर्माजन्तुर्भवेद् भूपो, धर्माद् रामोऽर्धयपि । धर्माचक्रधरो धर्माद्, देवो धर्माच्च वार्सवः ॥ १५० ॥ ग्रैवेयकानुत्तरेषु, धर्माद् यात्यहमिन्द्रताम् । धर्मादार्हन्त्यमामोति, किं किं धर्मान्न सिध्यति ? ॥१५१॥ दुर्गतिप्रपतजन्तुधारणाद् धर्म उच्यते । दान-शील-तपो-भावभेदात् स तु चतुर्विधः ॥१५२॥ तत्र तावद् दानधर्मस्त्रिप्रकारः प्रकीर्तितः । ज्ञानदाना-ऽभयदान-धर्मोपग्रहदानतः॥ १५३ ॥ दानं धर्मानभिजेभ्यो. वाचनादेशनादिना । ज्ञानसाधनदानं च. ज्ञानदानमितीरितम ॥१५४॥ 10 ज्ञानदानेन जानाति, जन्तुः स्वस्स हिताहितम् । वेत्ति जीवादितत्त्वानि, विरतिं च समश्नुते ॥ १५५ ॥ ज्ञानदानादवामोति, केवलज्ञानमुज्वलम् । अनुगृह्याखिलं लोकं, लोकाग्रमधिगच्छति ॥ १५६ ॥ भवत्यभयदानं तु, जीवानां वधवर्जनम् । मनो-वाकायैः करण-कारणा-ऽनुमतैरपि ॥ १५७ ॥ तत्र जीवा द्विधा ज्ञेयाः, स्थावर-त्रसभेदतः । द्वितयेऽपि द्विधा पर्याप्ताऽपर्याप्तविशेषतः ॥१५८॥ पर्याप्तयस्तु षडिमाः, पर्याप्तत्वनिवन्धनम् । आहारो वपुरक्षाणि', प्राणो भाषा मनोऽपि च ॥ १५९ ॥ 15 स्युरेकाक्ष-धिकलाक्ष-पश्चाक्षाणां शरीरिणाम् । चतस्रः पञ्च षड् वापि, पर्याप्तयो यथाक्रमम् ॥ १६०॥ एकाक्षाः स्थावरा भूम्यतेजोवायुमहीरुहः । तेषां तु पूर्वे चत्वारः, स्युः सूक्ष्मा बादरा अपि ॥ १६१ ।। प्रत्येकाः साधारणाच, द्विप्रकारा महीरुहः । साधारणा अपि द्वेधा, सूक्ष्म-बादरभेदतः ॥ १६२ ।। असा द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रियत्वेन चतुर्विधाः । तत्र पञ्चेन्द्रिया द्वेधा, संज्ञिनोऽसंज्ञिनोऽपि च ॥ १६३ ॥ शिक्षोपदेशाऽऽलापान ये, जानते ते तु संज्ञिनः । सम्प्रवृत्तमनःप्राणास्तेभ्योऽन्ये स्युरसंज्ञिनः ॥ १६४ ॥ 20 स्पर्शनं रसनं घ्राणं, चक्षुः श्रोत्रमितीन्द्रियम् । तस्य स्पर्शो रसो गन्धो, रूपं शब्दश्च गोचरः ॥ १६५ ॥ द्वीन्द्रियाः कृमयः शङ्खाः, गण्डूपदा जलौकसः । कपर्दकाः शुक्तयश्च, विविधाकृतयो मताः ॥ १६६॥ यूका मत्कुण-मर्कोट-लिक्षाद्यास्त्रीन्द्रिया मताः । पतङ्ग-मक्षिका-भृङ्ग-दंशाद्याश्चतुरिन्द्रियाः॥ १६७ ॥ तिर्यग्योनिभवाः शेषा, जल-स्थल-खचारिणः । नारका मानवा देवाः, सर्वे पश्चेन्द्रिया मताः ॥ १६८ ॥ लत्पर्यायक्षपाद् दुःखोत्पादात् सङ्क्लेशतस्विधा । वधस्य वर्जनं तेष्वभयदानं तदुच्यते ॥ १६९ ॥ 25 ददात्मभयदान यो, दसेऽर्थात् सोऽखिलानपि । जीविते सति जायेत, यत् पुमर्थचतुष्टयी ॥ १७ ॥ जीवितादपरं प्रेयो, जन्तोर्जायेत जातुचित् । न राज्यं न च साम्राज्यं, देवराज्यं न चोच्चकैः ॥ १७१.॥ इतोऽशुचिस्थस्य कृमेरितः स्वर्गसदो हरेः । प्राणापहारप्रभवं, द्वयोरपि समं भयम् ।। १७२ ॥ समप्रजगदिष्टायाऽभयदानाय सर्वथा । सर्वदाऽप्यप्रमत्तः सन् , प्रवर्तेत ततः सुधीः ॥ १७३ ॥ भवेदश्रयदानेन, जनो जन्मान्तरेषु हि । कान्तो दीर्घायुरारोग्य-रूप-लावण्यशक्तिमान् ॥ १७४ ॥ 30 भर्मोपग्रहदश्नं तु, जायते सत्र पञ्चधा । दायक ग्राहक-देय-काल-भावविशुद्धितः ॥ १७५ ॥ तत्र दायकशुद्धं तस्याबार्थो ज्ञानवान् सुधीः । निराशंसोऽननुतापी, दायकः प्रददाति यत् ।। १७६ ॥ इदं विचमिदं वित्तमिदं पात्रं निरन्तरम् । सञ्जातं यस्य मे सोऽहं, कृतार्थोऽस्पीखि दायकः ॥ १७७ ॥ मार्गदर्शकः । * प्रतिष्ठां ॥ २ शैत्यविच्छेदे धर्मरूपः । ३ बलदेवः। ४ वासुदेवः । ५ चक्रवर्ती । ३ इन्द्रः । तीर्थररवम् । +दितः सं २,॥ अन्तुस्तस्य सं २॥ ८ मोक्षम् । ९ कृतकारितापुमोदितः। १. शरीरम् । "इन्द्रियाणि विकलाक्षशब्दैन द्वीन्द्रियादयो विकलेन्द्रिया प्रायाः । ५ वनस्पतिकायाः। मित्कोट-लि . १४ धर्मार्थकाममोक्षरूपा। १५ नीतिसम्पादितार्थः । १६ निरीहः । १० पात्तापविरहितः। - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ] त्रिपष्टिशलाकापुरुपचरितम । सावद्ययोगविरतो, गौरवत्रयवर्जितः । त्रिगुप्तः पञ्चसमितो, रागद्वेषविनाकृतः ॥ १७८ ॥ निर्ममो नगरवसत्यगोपकरणादिषु । तथाऽष्टादशशीलाङ्गसहस्रधरणोद्धरः ।। १७९ ॥ रत्नत्रयधरो धीरः, समकाञ्चनलेष्टुकः । शुभध्यानद्वयस्थास्तुर्जिताक्षः कुकिंशम्बलः ॥ १८० ॥ निरन्तरं यथाशक्ति, नानाविधतपःपरः । संयमं सप्तदशधा, धारयनविखण्डितम् ॥ १८१ ॥ अष्टादशप्रकारं च, ब्रह्मचर्य समाचरन् । यत्रेग ग्राहको दानं, तत् स्यात् ग्राहकशुद्धिमत् ॥ १८२ ॥ 5 देयशुद्धं द्विचत्वारिंशद्दोषरहितं भवेत् । पाना-ऽशन-खाद्य-खाद्य-वस्त्र-संस्तारकादिकम् ॥ १८३॥ कालशुद्धं तु यत् किश्चित् , काले पात्राय दीयते । भावशुद्धं त्वनाशंसं, श्रद्धया यत् प्रदीयते ॥ १८४ ॥ न देहेन विना धर्मो, न देहोऽनादिकं विना । धर्मोपग्रहदानं तद्, विदधीत निरन्तरम् ॥ १८५ ॥ पात्रेभ्योऽशनपानादिधर्मोपग्रहदानतः । करोति तीर्थाव्युच्छित्ति, प्रामोति च परं पदम् ॥ १८६ ॥ __शीलं सावद्ययोगानां, प्रत्याख्यानं निगद्यते । द्विधा तद्देशविरति-सर्वविरतिभेदतः॥१८७॥ 10 देशतो विरतिः पञ्चाणुव्रतानि गुणास्त्रयः । शिक्षात्रतानि चत्वारि, चेति द्वादशधा मताः ॥ १८८ ॥ तत्र स्थूलाऽहिंसा-सत्या-ऽस्तेय-ब्रह्मा-ऽपरिग्रहाः । अणुव्रतानि पञ्चेति, कीर्शितानि जिनेश्वरैः ॥ १८९॥ अथ दिग्विरति गोपभोगविरतिस्तथा । अनर्थदण्डविरतिश्चैवं गुणव्रतत्रयी ॥ १९ ॥ सामायिकं च देशावकाशिकं पौषधस्तथा । अतिथीनां संविभागः, शिक्षाबतचतुष्टयम् ॥ १९१ ॥ तदेषा देशविरतिः, शुश्रूषादिगुणस्पृशाम् । यतिधर्मानुरक्तानां, धर्मपंथ्यदनार्थिनाम् ॥ १९२॥ 15 शम-संवेग-निर्वेदा-ऽनुकम्पा-ऽऽस्तिक्यलक्षणम् । सम्यक्त्वं प्रतिपन्नानां, मिथ्यात्वविनिवर्तिनाम् ॥ १९३॥ महात्मनां सानुबन्धक्रोधोदयविवर्जिनाम् । चारित्रमोहंघातेन, जायते गृहमेधिनाम् ॥ १९४ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ।] स्थूलानामितरेषां च, हिंसादीनां विवर्जनम् । 'सिद्धिनौधैकसरणिः, सा सर्वविरतिर्मता ॥ १९५ ।। प्रकृत्याऽल्पकषायाणां, भवसौख्यविरागिणाम् । विनयादिगुणाऽक्तानां, सा मुनीनां महात्मनाम् ॥१९६।। 20 ___ यत् तापयति कर्माणि, तत् तपः परिकीर्तितम् । तद् बाह्यमनशनादि, प्रायश्चित्तादि चाऽऽन्तरम् ॥१९७।। अनशनमौनोदर्य, वृत्तेः संक्षेपणं तथा । रसत्यागस्तनुक्लेशो, लीनतेति बहिस्तपः ॥ १९८ ॥ प्रायश्चित्तं वैयावृत्यं, स्वाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गोऽथ शुभध्यानं, षोढेत्याभ्यन्तरं तपः ॥ १९९ ॥ रत्नत्रयधरेष्वेका, भक्तिस्तत्कार्यकर्म च । शुभैकचिन्ता संसारजुगुप्सा भावना भवेत् ॥ २० ॥ चतुर्धा तदयं धर्मो, निःसीमफलसाधनम् । साधनीयः सावधानैर्भवभ्रमणभीरुभिः ॥ २०१॥ 25 धनोऽप्यूचे मया स्वामिन्!, धर्मोऽयं शुश्रुवे चिरात् । एतावन्ति दिनान्येष,वञ्चितोऽसि खकर्मभिः।।२०२॥ वन्दित्वा गुरुपादाब्जद्वन्द्वं शेषमुनीनपि । धन्यंमन्यो निजावासं, सार्थवाहस्ततो ययौ । २०३ ॥ परमानन्दनिमग्नो, धर्मदेशनया तया । धनस्तां क्षपयामास, क्षणदां क्षणमात्रवत ।। २०४॥ सुप्तोत्थितस्य तस्याऽथ, प्रातर्मङ्गलपाठकः । पपाठ शङ्खगम्भीरमधुरध्वनिबन्धुरः ॥ २०५॥ __ घनान्धकारमलिना, पद्मिनीलक्ष्मितस्करी । व्यवसायहरा नृणां, ययौ प्रावृडिव क्षपा ॥ २०६॥ 30 तेजोऽभिमुखचण्डांभुर्व्यवसायसुहवृषाम् । शरत्काल इव प्रातःकालोऽयं जृम्भतेऽधुना ॥ २०७।। सरसामापगानां च, प्रापुरापः प्रसनताम् । शरदा तत्वबोधेन, मनांसीव मनीषिमाम् ॥ २०८ ॥ सूर्याशुभिः शुष्कपङ्काः, पन्थानः सुगमा भृशम् । आसन् ग्रन्था इवाऽऽचार्योपदेशाच्छिन्नसंशयाः ॥२०९॥ कूलिन्यः कूलयोर्मध्ये, वहन्तीह शनैः शनैः । नेमिसीमन्तयोरन्तः, शकटश्रेणयो यथा ॥ २१०॥ जितेन्द्रियः। २ उदरमात्रपाथेयः । * तस्य प्रासंant'शुद्धिं सं शुद्धिं सं॥ ३ वान्छारहितम् । कुर्यात् । ५ तीर्थस्य भविच्छेदम् । ६ पथ्यदनं शम्बलम् । 'मोहा सं॥ ७ सिद्धिप्रासादैकसोपानमार्गः। ८ कायोत्सर्गः। ९ रात्रिम् । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व पक्वश्यामाक-नीवार-वालुङ्क-कुवलादिभिः । अध्वन्यानामिहाऽध्वान, आतिथ्यमिव कुर्वते ॥ २११॥ पवनान्दोल्यमानेचवणध्वानरसौ शरत् । यानाभियोगसमयं, शसतीवाऽऽभियोगिनाम् ॥ २१२ ॥ पान्थानां तप्यमानानां, रुचिभिश्चण्डरोचिषः । आतपत्रीभवन्त्येते, क्षणं शारदवारिदाः ॥ २१३ ॥ एते सार्थककुअन्तः, ककुदैर्भिन्दते स्थलीः । सुखयात्राकृते भॉ, वैषम्यमवनेरिव ॥ २१४ ॥ गर्जन्तः प्लावयन्तः क्ष्मां, पुरा ददृशिरे हि ये । नेशुार्गवहास्तेऽत्र, प्रावृषेण्या घना इव ।। २१५ ॥ वल्लीभिः फलनम्राभिः, स्वच्छैस्तोयैः पदे पदे । पन्थानोऽयत्नपाथेयाः, पान्थानामिह जज्ञिरे ॥ २१६ ॥ राजहंमा इवोत्साहबहलीकृतचेतसः । गन्तुं देशान्तराण्यत्र, त्वरन्ते व्यवसायिनः ॥ २१७॥ __ तच्छ्रुत्वा सार्थवाहोऽपि, प्रयाणसमयोऽमुना । विज्ञप्त इति विज्ञाय, यात्राभेरीमवादयत् ॥ २१८ ॥ सार्थोऽपि रोदसीकुक्षिम्भरेभैरीवात् ततः । चचाल गोवृन्दमिव, गोपगोशृङ्गनादतः ॥ २१९ ॥ भव्याजबोधप्रवणैः, साधुभिः परिवारितः । मरीचिभिः सूर इव, सूरिरप्यचलत् ततः ॥ २२० ॥ अग्रतः पार्श्वतः पश्चादारक्षपुरुषैः स्वयम् । रक्षामासूत्र्य सार्थस्य, प्रतस्थे सार्थपो धनः ॥ २२१ ॥ महाटवीं समुत्तीणे, सार्थे सार्थपतिं ततः । अनुज्ञाप्याऽऽचार्यवर्या, विहर्तुं ययुरन्यतः ॥ २२२ ॥ __ ततश्च सार्थवाहोऽपि, निष्प्रत्यूहं वहन् पथि । पाथोधिमिव नद्योघो, वसन्तपुरमासदत् ।। २२३ ॥ विक्रीणीते स भाण्डानि, प्रतिभाण्डानि चाऽऽददे । कालेन कियताऽप्येष, धीमन्तो ह्याशुकारिणः।।२२४॥ परितो भरितस्तस्माद् , वारिधेखि वारिदः । क्षितिप्रतिष्ठं नगरं, पुनरप्याययौ धनः ॥ २२५ ॥ कालेन तत्र पूर्णायुः, कालधर्ममुपागतः । आस्थितैकान्तसुषमेषूत्तरेषु कुरुष्वसौ ॥ २२६ ।। सीतानद्युत्तरतटे, जम्बूवृक्षानुपूर्वतः । उत्पेदे 'युग्मधर्मेण, मुनिदानप्रभावतः ॥ २२७ ॥ तत्राऽष्टमस्य पर्यन्ते, मा भोज्याभिलाषिणः । षट्पञ्चाशशतद्वन्द्वसङ्ख्यपृष्ठकरण्डकाः ॥ २२८ ॥ युग्मरूपास्त्रिगव्यूतोच्छ्याः पल्यत्रयायुषः । पर्यन्तप्रसवाः स्वल्पकपाया ममतोज्झिताः ॥ २२९ ॥ अपत्ययुग्ममेकोनपश्चाशतमहानि तु । पालयित्वा विपद्यन्तेऽथोत्पद्यन्ते सुरेषु ते ॥ २३० ॥ शर्करास्वादुसिकताः, शरज्योत्स्नानिमाम्भसः । तत्रोत्तरेषु कुरुषु, भूभ्यो रम्याः स्वभावतः ॥ २३१॥ मद्याङ्गप्रमुखास्तत्र, दशधा कल्पपादपाः । मनुजानामयत्नेन, सदा यच्छन्ति वाञ्छितम् ॥ २३२ ॥ ददते तत्र मद्याङ्गा, मद्यं भृङ्गास्तु भाजनम् । तूर्याङ्गकास्तु तूर्याणि, वर्याणि विविधैर्लयैः ॥ २३३ ॥ दीपशिखा ज्योतिष्काच, तन्वन्त्युझ्योतमद्भुतम् । माल्यं यच्छन्ति चित्रीङ्गा, भोज्यं चित्ररंसाः पुनः॥ 25 भूषणानि तु मण्यङ्गा, गेहाकारा गृहाणि तु । सम्पादयन्ति चाऽनग्ना, दिव्यवासांस्यनेकशः ॥२३५॥ एते च नियतानर्थान् , यच्छन्त्यनियतानपि । अन्ये च कल्पतरवस्तत्र सर्वेप्सितप्रदाः ॥ २३६ ॥ दिवीव तत्र कल्पद्रुसम्पन्नसकलेप्सितः । धनजीवो युग्मधर्माऽन्वभूद् वैषयिकं सुखम् ॥ २३७ ॥ मिथुनायुः पालयित्वा, धनजीवस्ततश्च सः । प्राग्जन्मदानफलतः, सौधर्मे त्रिदशोऽभवत् ॥ २३८ ॥ ___ च्युत्वा सौधर्मकल्पाच्च, विदेहेष्वपरेष्वथ । विजये गन्धिलावत्यां, वैताठ्यपृथिवीधरे ॥२३९॥ 30 गन्धाराख्ये जनपदे, पुरे गन्धसमृद्धके । राज्ञः शतबलाख्यस्य, विद्याधरशिरोमणेः ॥ २४॥ भार्यायां चन्द्रकान्तायां, पुत्रत्वेनोदपादि सः । नाना महाबल इति, बलेनाऽतिमहाबलः ॥ २४१ ॥ रक्ष्यमाणः स आयुक्तैलाल्यमानस्तथा तथा । वृद्धिमासादयामास, शाखीव क्रमयोगतः ॥ २४२ ॥ श्यामाकस्तृणधान्यविशेषः, नीवारो धान्यविशेषः, वालुङ्कः चिर्भटकम्, कुवलं बदरीफलम् , "काकडी बोर" इति लोकभाषायाम् । २ पान्थानाम् । ३ मार्गाः। ४ यात्रोत्सुकानाम् । ५ मार्गप्रवाहाः। ६ व्यापारिणः। ७ सूर्यः। ८ रक्षकनरैः । ९ निर्विघ्नम् । * वृक्षस्य पू आ, सं२॥ । युग्मरूपेण सं १, खं ॥१० चतुर्थे दिवसे । ११ पृष्टस्थितसूक्ष्मगात्रावयवाः । १२ देवः । १३ रक्षकैः । १४ वृक्ष इव । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम । कलानिधिरिवाऽशेषकलापूर्णः शनैः शनैः । स बभूव महाभागो, जनानां नयनोत्सवः ॥ २४३॥ स कन्यां विनयवतीं, मूर्ती तु विनयश्रियम् । समये समयाभिज्ञः, पित्रादेशादुपायत ॥ २४४ ॥ निशातमस्त्रं कामस्य, कामिनीजनकार्मणम् । रतिलीलावनं सोऽथ, यौवनं प्रत्यपद्यत ॥ २४५ ॥ क्रमौ समतलौ तस्य, क्रमात् कूर्मवदुन्नतौ । सिंहमध्याधरीकारधुरीणं मध्यमप्यभूत् ॥ २४६ ॥ उरःस्थलं चाऽकलयत् , स्वर्णशैलशिलातुलाम् । उद्धरौ दधतुः स्कन्धी, ककुमत्ककुदश्रियम् ॥ २४७ ॥ 5 भुजौ भुजङ्गमाधीशभोगशोभां च बँभ्रतुः । अ‘म्युदितराकेन्दुलीलामलिङमाददे ॥ २४८ ॥ रदैनखैर्मणिनिभैर्वपुषा कनकत्विषा । सकलां कलयामास, मेरुलक्ष्मी स्थिराकृतिः ॥ २४९ ॥ __ अपरेयुः शतबलो, विद्याधरपतिः सुधीः । महासत्त्वस्तत्त्वविज्ञश्चिन्तयामासिवानिदम् ॥ २५० ॥ विधाय सहजाऽशौचमुपस्कारैर्नवं नवम् । गोपनीयमिदं हन्त !, कियत्कालं कलेवरम् ? ॥ २५१ ॥ सत्कृतोऽनेकशोऽप्येष, सत्क्रियेत यदापि न । तदापि विक्रियां याति, कायः खलु खलोपमः ॥ २५२ ।। 10 अहो ! बहिर्निपतितैर्विष्ठा-मूत्र-कफादिभिः। हणीयन्ते प्राणिनोऽमी, कायस्याऽन्तःस्थितैर्न किम् ॥२५३॥ रोगाः समुद्भवन्त्यसिन्नत्यन्तातङ्कदायिनः । दन्देशूका इव क्रूरा, जरविटपिकोटरे ॥ २५४ ॥ निसर्गाद् गत्वरश्वाऽयं, कायोऽब्द इव शारदः । दृष्टनष्टा च तत्रेयं, यौवनश्रीस्तडिनिभा ॥२५५ ॥ आयुः पताकाचपलं, तरङ्गतरलाः श्रियः। भोगिभोगनिभा भोगाः, सङ्गमाः स्वमसन्निभाः ॥ २५६ ॥ काम-क्रोधादिभिस्तापैस्ताप्यमानो दिवानिशम् । आत्मा शरीरान्तःस्थोऽसौ, पच्यते पुटपाकवत् ॥२५७॥ 15 विषयेष्वतिदुःखेषु, सुखमानी मनागपि । नाऽहो ! विरज्यति जनोऽशुचिकीट इवाऽशुचौ ॥ २५८ ॥ दुरन्तविषयास्वादपराधीनमना जनः । अन्धोऽन्धुमिव पादारस्थितं मृत्युं न पश्यति ॥ २५९ ॥ आपातमात्रमधुरैर्विषयैर्विषसन्निभैः । आत्मा मूञ्छित एवाऽऽस्ते, स्वहिताय न चेतति ॥ २६० ॥ तुल्ये चतुर्णा पौमर्थ्य, पापयोरर्थकामयोः । आत्मा प्रवर्तते हन्त !, न पुनर्धर्ममोक्षयोः ॥ २६१ ॥ अस्मिन्नपारे संसारपारावारे शरीरिणाम् । महारत्नमिवाऽनयं, मानुष्यमतिदुर्लभम् ॥ २६२ ॥ मानुष्यकेऽपि सम्प्राप्ते, प्राप्यन्ते पुण्ययोगतः । देवता भगवानर्हन् , गुरवश्च सुसाधवः ॥ २६३ ॥ मानुष्यकस्य यद्यस्य, वयं नादग्रहे फलम् । मुषिताः स तदधुना, चौरैर्वसति पत्तने ॥ २६४ ॥ तदद्य कवचहरे, कुमारेऽस्मिन् महाबले । राज्यभारं समारोप्य, कुर्महे स्वसमीहितम् ॥ २६५ ॥ विमृश्यैवं शतबलः, समाहूय महाबलम् । विनीतं बोधयामास, राज्यग्रहणहेतवे ॥ २६६ ॥ स राज्यभारमुद्वोर्ल्ड, मेने पितृनिदेशतः । भवन्ति हि महात्मानो, गुर्वाज्ञाभङ्गभीरवः ॥ २६७॥ 25 ततः शतबलः सिंहासनेऽध्यास्य महाबलम् । अभिषिच्य स्वहस्तेन, चक्रे तिलकमङ्गलम् ॥ २६८ ॥ स रराज नवो राजा, कुन्दसोदरकान्तिना । चान्दनेन तिलकेनोदयाचल इवेन्दुना ॥ २६९ ॥ पैतृकेणाऽऽतपत्रेण, हंसपत्रामलेन सः । शुशुभे शारदाभ्रेण, गिरिराज इवोच्चकैः ॥ २७० ॥ विरेजे प्रेङ्खता चारुचामरद्वितयेन सः । बलाकायुगलेनेव, विमलेन बलाहकः ॥ २७१ ॥ तस्याभिषेके गम्भीरतरो मङ्गल्यदुन्दुभिः । दध्वान ध्वनयनाशाश्चन्द्रोदय इवोदधिः ॥ २७२ ॥ 30 समन्तान्मत्रिसामन्तैः, समेत्य समनम्यत । द्वैतीयीकः शतबल, इव रूपान्तरेण सः॥ २७३ ॥ पुत्रं राज्ये निवेश्यैवं, स्वयं शतबलस्ततः । आददे शमसाम्राज्यमाचार्यचरणान्तिके ॥ २७४ ॥ सोऽसारान् विषयान् प्रोज्झ्य, सारं रत्नत्रयं दधौ। तथाऽप्यखण्डा तस्यासीत् , सर्वत्र समचित्तता॥२७५॥ मूलादुन्मूलयामास, कषायान् स जितेन्द्रियः । कूलङ्कषापूर इव, कूलस्थितमहीरुहान् ॥ २७६ ॥ तीक्ष्णम् । २ चरणौ। * बिभ्रतः सं १, आ॥ ३ ललाटम् । ४ संस्कारैः। ५ सपः। निसर्गग आ॥ ६सर्पफणातुल्याः । ७ कूपम् । ८ पुरुषार्थत्वे। संसारे पासं २ ॥६°बलस्तदारसं ॥९ मेषः। १० नयाः पूर इव । त्रिषधि. २ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकाल सर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथमं पर्व आत्माराममना वाचंयमो नियतचेष्टितः । अधिसेहे महासच्चो, दुःसहान् स परीपहान् ॥ २७७ ॥ मैत्र्यादिभिर्भावनाभिः, प्रवृद्धध्यानसन्ततिः । सोऽमन्दानन्दनिर्मनस्तस्थौ मुक्ताविवाऽनिशम् ॥ २७८ ॥ ध्यानेन तपसा चाssयुर्लीलयैवाऽतिवाह्य सः । महात्मा सादयामास, सदनं त्रिदिवौकसाम् ॥ २७९ ॥ महाबलोऽपि बलिभिः, खेचरैः परिवारितः । आखण्डल इवाऽखण्डशासनः प्रशशास गोम् ॥ २८० ॥ 5 रम्यास्वारामराजीषु स रेमे रमणीवृतः । मुदितः पङ्करुहिणीखण्डेष्विव सितच्छदः || २८१ ॥ अभ्रुवंस्तत्पुरो नित्यसङ्गीतप्रतिशब्दितैः । सङ्गीतकानुवादिन्य, इव वैताढ्यकन्दराः ॥ २८२ ॥ अग्रतः पार्श्वयोः पश्चान्नारीभिः परिवेष्टितः । स चकासामास रसः शृङ्गार इव मूर्तिमान् ॥ २८३ ॥ स्वच्छन्दं तस्य विषयक्रीडाव्यग्रस्य सर्वदा । समरात्रिन्दिवः कालो, बभूव विषुवन्निभः ।। २८४ ॥ अनेकामात्यसामन्तैर्मणिस्तम्भैरिवाऽपरैः । परिष्कृतां निजास्थानीं, सोऽधितस्थावथैकदा ॥ २८५ ॥ तं नत्वोपाविशन् सर्वे, यथास्थानं सभासदः । ते तदेकाग्रनयना, योगिलीलामधारयन् ॥ २८६ ॥ ते स्वयम्बुद्ध-सम्भिन्नमती शतमतिस्तथा । महामतिश्च तत्रासाञ्चक्रिरे मत्रिणोऽपि हि ॥ २८७ ॥ स्वामिभक्तिसुधासिन्धुर्मनीषारत्नरोहणः । सम्यग्दृष्टिः स्वयम्बुद्ध, इति तत्र व्यचिन्तयत् ॥ २८८ ॥ अस्माकं पश्यतामेष, दुर्वाजिभिरिवेन्द्रियैः । ह्रियते विषयासक्तः, स्वामी धिग् न उपेक्षकान् ॥ २८९ ॥ defeatव्यग्रस्य, जन्माऽस्मत्स्वामिनो मुधा । यातीति ताम्यति मनो, मीनः स्तोक इवाम्भसि ॥ २९० ॥ अस्माभिर्मत्रिभिरसौ, न चेदुच्चैः पदं श्रयेत् । तदस्माकं भवेन्नर्ममत्रिणां च किमन्तरम् ॥ २९९ ॥ तद्विज्ञपय्य नेतव्योऽस्माभिः स्वामी हिते पथि । नीयन्ते यत्र तत्रैते, यान्ति सारणिवन्नृपाः ॥ २९२ ॥ यद्यप्यपवदिष्यन्ते, स्वामिव्यसनजीविनः । वाच्यं तथाऽपि नोप्यन्ते, यवा मृगभयेन किम् ? ।। २९३ ।। विमृश्येति स्वयम्बुद्धो, धौरेयो बुद्धिशालिनाम् । इति विज्ञपयामास, राजानं रचिताञ्जलिः ॥ २९४ ॥ आसंसारं सरिन्नाथः, किं तृप्यति सरिज्जलैः ? । सरित्पतिपयोभिर्वा, किमेष वडवानलः १ ॥ २९५ ॥ अर्न्तको जन्तुभिः किं वा ?, किमेधोभिर्हुताशनः १ । सुखैर्वैषयिकैरात्मा, किं तथैष कदाचन ? ।। २९६ ।। कूलच्छाया दुर्जनाच, विषं च विषयास्तथा । दन्दशूकाश्च जायन्ते, सेव्यमाना विपत्तये ।। २९७ ॥ आसेव्यमानस्तत्कालसुखोऽन्तविरसः स्मरः । कण्डूय्यमाना पॉमेव, निकामं च प्रवर्द्धते ।। २९८ ॥ कामोऽयं नरकदूतः, कामो व्यसनसागरः । कामो विपल्लताकन्दः, कामः पापद्धुसारणिः ।। २९९ ।। मदनेन मदेनेव, जनः परवशीकृतः । सदाचारपथभ्रष्टः पतत्येव भवावटे ॥ ३०० ॥ 10 15 20 べ 25 अर्थं धर्मं च मोक्षं च, वेश्मेव गृहमेधिनः । आसादितप्रवेशोऽयं, खनत्याखुरिव स्मरः ॥ ३०९ ॥ दर्शनेन स्पर्शनेनोपभोगेन च निर्भरम् । व्यामोहायैव जायन्ते, विषवल्य इव स्त्रियः ॥ ३०२ ॥ निकाममेव कामिन्यः, कामलुब्धकवागुराः । हरिणानामिव नृणां, जायन्तेऽनर्थहेतवे ।। ३०३ ।। ये नर्मसुहृदः खादाचामैकसुहृदो हि ते । स्वामिनश्चिन्तयन्त्येते, परलोकहितं न यत् ॥ ३०४ ॥ स्त्रीकथाभिर्गीतनृत्तैर्नर्मोक्त्या मोहयन्त्यमी । पिङ्गाः स्वस्वामिनमहो !, नीचाः स्वार्थैकतत्पराः || ३०५ ॥ 30 कुसंसर्गात् कुलीनानां भवेदभ्युदयः कुतः ? । कदली नन्दति कियद् ?, बदरीतरुसन्निधौ ॥ ३०६ ॥ तत्प्रसीद कुलस्वामिन्!, स्वयं विज्ञोऽसि मा मुहः । विहाय व्यसनासक्तिं, मनो धर्मे निधीयताम् ।। ३०७ ॥ निभ्छायेन द्रुमेव, सरसेवाऽपवारिणा । निर्गन्धेनेव पुष्पेण, विदन्तेनेव दन्तिना ॥ ३०८ ॥ रूपेणेवाऽलवणिम्ना, राज्येनेवाऽपमन्त्रिणा । अदेवेनेव चैत्येन, रजन्येवेन्दुहीनया ॥ ३०९ ॥ १ इन्द्रः । २ पृथ्वीम् । ३ हंसः । * पुरे नि° सं १, आ ॥ ४ सङ्गीतस्य अनुकरणं कुर्वन्त्यः । ५ समरात्रिदिनात्मकः कालो विषुवत् । ६ सभाम् । ७ बुद्धिरत्नस्य रोहणाचलरूपः । ८ समुद्रः । ९ समुद्रः । १० यमराजः । ११ काष्ठैः । १२ खसः । १३ भवकूपे । १४ मूषकः । १५ खानपानैकमित्राणि । १६ विटाः । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 प्रथमः सर्गः ] त्रिपष्टिशलाकापुरुपचरितम । ११ यतिनेवाऽचरित्रेण, सैन्येनेवाऽपशस्त्रिणा । मुखेनेवाक्षिहीनेन, निधर्मेण नरेण किम् ? ॥ ३१०॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ।] चक्रवर्त्यप्यधर्मः सन् , जन्म तल्लभते पुनः । कदन्नमपि सम्प्राप्त, साम्राज्यं यत्र मन्यते ॥ ३११ ॥ महाकुलप्रसूतोऽपि, धर्मोपाजनवर्जितः । भवेद् भवान्तरे श्वेव, परोच्छिष्टान्नभोजनः ॥३१२ ॥ धर्महीनो द्विजन्माऽपि, नित्यं पापानुबन्धकः । बिडाल इव दुवृत्तो, म्लेच्छयोनिपु जायते ॥ ३१३॥ 5 बिडाल-व्याल-शार्दूल-श्येन-गृध्रादियोनिषु । भवन्ति भूयिष्ठभवा, भविनो धर्मवर्जिताः ॥ ३१४ ॥ धर्महीनाः कृमयः स्युरेसकृच्छकदादिपु ! कुक्कुटादेर्लभन्ते च, चञ्चूचरणताडनम् ॥ ३१५ ॥ जायन्ते धर्मरहिता, नरा नरकभूमिषु । वैरादिव कदर्थ्यन्ते, परमाधामिकासुरैः ॥ ३१६ ॥ अनन्तव्यसनावेगज्वलनान्तरवर्तिनः । त्रपुःपिण्डानिव हहा!, धिगधर्मान् शरीरिणः ॥ ३१७ ॥ धर्मादामोति शर्माणि, परमादिव बान्धवात् । तरण्डेनेव तरति, धर्मेण विपदापगाः ॥ ३१८ ॥ 10 पुंसां शिरोमणीयन्ते, धर्मार्जनपरा नराः । आश्रीयन्ते च सम्पद्भिलताभिरिव पादपाः॥ ३१९ ॥ आधि-व्याधि-विरोधादि, सर्वं बाधानिबन्धनम् । विध्यायत्याशु धर्मेण, जलेनेव हुताशनः ।। ३२० ॥ जन्मान्तरेऽप्यर्पणाय, सर्वकल्याणसम्पदाम् । प्रतिभूधर्म एवाऽयमलङ्कर्मीणविक्रमः ॥ ३२१ ॥ किमन्यदुच्यते स्वामिन् ! ?, धर्मेणैव बलीयसा । सौधाग्रमिव निश्रेण्या, लोकाग्रं यान्ति जन्तवः ॥३२२॥ विद्याधरनरेन्द्रत्वं, धर्मेणैव त्वमासदः । अतोऽप्युत्कृष्टलाभाय, धर्ममेव समाश्रय ॥ ३२३ ॥ दर्शरात्रिरिवाऽत्यन्तमिथ्यात्वतिमिराकरः । ततो विषोपममतिः, सम्भिन्नमतिरब्रवीत् ॥ ३२४॥ साधु साधु स्वयम्वुद्ध !, स्वामिनो हितकाम्यसि । यदाहार इबोद्गारैगिंरा भावोऽनुमीयते ॥ ३२५ ॥ ऋजोः सदा प्रसन्नस्य, स्वामिनः सुखहेतवे । वदन्त्येवं कुलामात्यास्त्वादृशा एव नाऽपरे ।। ३२६ ।। निसर्गकठिनः कस्त्वामुपाध्यायोऽध्यजीगपत् ? । अकाण्डाशनिपाताभ, प्रभौ यदिदमब्रवीः ॥ ३२७ ॥ स्वयं भोगार्थिभिः स्वामी, सेव्यते सेवकैरिह । मा भुंक्थास्त्वं तु भोगानित्युच्यते स कथं नुतैः?॥३२८॥20 त्यक्त्वा यदैहिकान् भोगान् , परलोकाय यत्यते । हित्वा हस्तगतं लेद्यं, कूर्परालेहनं हि तत् ॥ ३२९ ॥ परलोकफलो धर्मः, कीर्त्यते तदसङ्गतम् । परलोकोऽपि नाऽस्त्येवाऽभावतः परलोकिनः ॥ ३३०॥ पृथ्व्यप्तेजःसमीरेभ्यः, समुद्भवति चेतना । गुडपिष्टोदकादिभ्यो, मदशक्तिरिव स्वयम् ॥ ३३१ ॥ शरीरान्न पृथक कोऽपि, शरीरी हन्त ! विद्यते । परित्यज्य शरीरं यः, परलोकं गमिष्यति ॥ ३३२ ॥ निःशङ्कमुपभोक्तव्यं, ततो वैषयिकं सुखम । स्वात्मा न वञ्चनीयोऽयं. स्वार्थभ्रंशो हिमखंता ॥३३३॥ 25 धर्माधर्मों च नाशक्यौ, विघ्नहेतू सुखेषु तत् । तावेव नैव विद्यते, यतः खेरविषाणवत् ॥ ३३४ ॥ सपनेनाङ्गरागेण, माल्यवस्त्रविभूषणैः । यदेकः पूज्यते ग्रविा, पुण्यं तेन व्यधायि किम् ? ॥ ३३५ ॥ अन्यस्य चोपरि ग्राव्ण, आसित्वा मूत्र्यते जनैः। क्रियते च पुरीषादि, पापं तेन व्यधायि किम् ? ॥३३६॥ उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते, कर्मणा यदि जन्तवः । उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते, बुद्बुदाः केन कर्मणा ? ॥ ३३७ ॥ तदस्ति चेतनो यावत् , चेष्टयते तावदिच्छया । चेतनस्य विनष्टस्य, विद्यते न पुनर्भवः ॥ ३३८॥ 30 य एव म्रियते जन्तुः, स एवोत्पद्यते पुनः । इत्येतदपि वामात्रं, सर्वथाऽनुपपत्तितः॥ ३३९ ॥ शिरीषकैल्पे तत्तल्पे, रूपलावण्यचारुभिः । रमणीभिः समं स्वामी, रमतामविशङ्कितम् ॥ ३४० ॥ भोज्यान्यमृतरूपाणि, पेयानि च यथारुचि । खाद्यन्तां स्वामिना खैरं, स वैरी यो निषेधति ॥ ३४१ ॥ १ कुत्सितमन्नम्। * यत्र राज्याय मन्यते संता ॥ २ पौनःपुन्येन विष्ठादिषु । ३ सीसकपि डान् । ४ शाम्यति । ५ समर्थ पराक्रमः। ६ अमावास्यारात्रिः। 1 "रिवोत्पन्नमि आ॥ ७ अनवसरे वज्रपाततुल्यम् । ८ हस्तमध्यभागः "कोणी" इति कोके। ९गर्दभशजवत् । १० पाषाणः। ११ असिद्धितः। १२ शिरीषकुसुमतुल्ये। १३ शय्यायाम् । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व कर्पूरागरुकस्तूरीचन्दनादिभिराँचितः । एकसौरभ्यनिष्पन्न, इव तिष्ठ दिवानिशम् ॥ ३४२ ॥ उद्यानयानजगतीचित्रशालादिशालि यत् । तत्तत् क्षितीश ! प्रेक्षस्व, चक्षुःप्रीत्यै प्रतिक्षणम् ॥ ३४३ ॥ वेणुवीणामृदङ्गानुनादिभिर्गीतनिखनैः । दिवानिशं तव स्वामिन्नस्तु कर्णरसायनम् ॥ ३४४ ॥ यावजीवेत् सुखं जीवेत् , तावद् वैषयिकैः सुखैः । न ताम्येद् धर्मकार्याय, धर्माधर्मफलं क्व तत् ? ॥३४५॥ स्वयम्बुद्धस्ततोऽवादीन्नास्तिकैः स्वपरारिभिः । अन्धैरन्धा इवाकृष्य, पात्यन्ते धिगधो जनाः ॥३४६॥ स्वसंवेदनवेद्योऽयमात्माऽस्ति सुखदुःखवित् । निषेधितुं बाधाभावाच्छक्यते न हि केनचित् ॥ ३४७ ॥ सुखितोऽहं दुःखितोऽहमिति कस्यापि जातुचित् । जायते प्रत्ययो नैव, विनाऽऽत्मानमबाधितः ॥३४८॥ स्वशरीरे स्वसंवित्तेरेवमात्मनि साधिते । अस्त्येव परकीयेऽपि, शरीरे सोऽनुमानतः ॥ ३४९ ॥ निश्चीयते शरीरेऽस्ति, परकीयेऽपि चेतनः । सर्वत्र बुद्धिपूर्वायाः, क्रियाया उपलम्भतः॥३५०॥ 10 य एव म्रियते जन्तुः, स एवोत्पद्यते पुनः । अस्त्येवं परलोकोऽपि, चेतनस्य न संशयः ॥ ३५१ ॥ यात्येकमेव चैतन्यं, जन्मतोऽन्यत्र जन्मनि । शैशवादिव तारुण्ये, तारुण्यादिव वार्द्धके ॥ ३५२ ॥ विना हि पूर्वचैतन्यानुवृत्तिं जातमात्रकः । अशिक्षितः कथं बालो, मुखमर्पयति स्तने ? ॥ ३५३ ॥ अचेतनेभ्यो भूतेभ्यश्चेतनो जायते कथम् ? । कारणस्याऽनुरूपं हि, कार्य जगति दृश्यते ॥ ३५४ ॥ प्रत्येकं युगपद् वा स्याद् , भूतेभ्यश्चेतनो ननु । आद्यः पक्षो यदि तदा, तावन्तश्चेतना न किम् ? ॥३५५॥ 15 अथ द्वितीयः पक्षः स्यात्, तदा भिन्नस्वभावकैः । भूतैरेकस्वभावोऽयं, जन्यते चेतनः कथम् ? ॥३५६ ॥ रूपगन्धरसस्पर्शगुणा तावद् वसुन्धरा । प्रत्यक्षमेतदापोऽपि, रूपस्पर्शरसात्मिकाः ॥ ३५७ ॥ रूपस्पर्शगुणं तेज, एकस्पर्शगुणो मरुत् । अमीषामेवमाबालं, व्यक्ता भिन्नस्वभावता ॥ ३५८ ॥ तोयादिभ्यो विसदृशां, मुक्तानां जन्मदर्शनात् । भूतेभ्योऽचेतनेभ्योऽपि, चेतनः सम्भवीति चेत् ॥३५९॥ तन्न युक्तं यतस्तोयं, मौक्तिकादिषु दृश्यते । एक पौद्गलिक रूपं, वैसदृश्यं ततः कथम् ? ॥ ३६० ॥ किश्च पिष्टोदकादिभ्यो, मदशक्तिरचेतना । अचेतनेभ्यो जातेति, दृष्टान्तश्चेतने कथम् ? ॥ ३६१ ॥ न च देहात्मनोरैक्यमिति वाच्यं कदाचन । यद्देहे तदवस्थेऽपि, चेतनो नोपलभ्यते ॥ ३६२ ॥ यच्चैकः पूज्यते ग्रावा, मूत्राद्यैर्लिप्यतेऽपरः । तदसत् सुखदुःखादि, कुतस्त्यमपचेतने ? ॥ ३६३ ॥ ततो देहाद् विभिन्नोऽयमात्माऽस्ति परलोकवान् । विद्यते परलोकोऽपि, धर्माधर्मनिबन्धनम् ॥ ३६४ ॥ अङ्गनालिङ्गनादग्नितापादिव समन्ततः । विलीयते मनुष्याणां, विवेको नवनीतवत् ॥ ३६५ ॥ निरर्गलं बहुरसांस्तांस्तानाहारपुद्गलान् । भुञ्जानो नैव जानाति, मत्तः पशुरिवोचितम् ॥ ३६६ ॥ चन्दनागरु कस्तूरी-धनसारादिगन्धतः । आक्रामति नरं सद्यो, दन्दशूक इव स्मरः ॥ ३६७ ॥ पुमान् रामादिरूपेषु, विलग्नेनेह चक्षुषा । वृतिलग्नोपसंव्यानाञ्चलेनेव स्खलत्यहो ! ॥ ३६८ ॥ मुहूर्त्तसुखदानेन, मोहयन्ती मुहुर्मुहुः । धूर्त्तमैत्रीव सङ्गीतिः, कुशलाय न सर्वथा ॥ ३६९ ॥ तत्पापस्यैकसुहृदो, धर्मस्यैकविरोधिनः । नरकस्याकृष्टिपाशान् , विषयान् मुश्च दूरतः ॥ ३७० ॥ 30 यत् प्रेष्य एको भवति, खामी भवति चाऽपरः । एकः प्रार्थयते भिक्षामपरश्च प्रयच्छति ॥ ३७१ ॥ वाहनं च भवत्येकस्तमन्यश्चाधिरोहति । अभयं याचते चैको, द्वितीयस्तु ददाति तत् ॥ ३७२ ॥ इत्यादि सम्यगेवेह, धर्माधर्मफलं महत् । पश्यन्नपि न मन्येत, यस्तस्मै स्वस्ति धीमते ! ॥ ३७३ ॥ तदंसद्वागिवाऽधर्मो, हेयो दुःखनिबन्धनम् । स्वामिन् ! सद्वागिवादेयो, धर्मः शमैंककारणम् ॥ ३७४ ॥ ऊचे ततः शतमतिर्मात्मा कश्चिदिहाऽपरः । पदार्थविषयज्ञानात् , प्रतिक्षणविभङ्गुरात् ॥ ३७५ ॥ * भिरर्चितः सं १, आ॥ सौगम्ध्योत्पनः। २ कर्णामृतम् । ३ स्वानुभववेद्यः। ४ विश्वासः। ५ स्वानुभवात् । ६ प्राप्तेः । + तत्पाकस्यै सं॥ अयं श्लोकः सं १ पुस्तके न दृश्यते॥ असजनोक्तिवत् पापो, हेयो सं॥ 25 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः] त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरितम् । यद्वस्तुपु स्थिरत्वे धीर्वासना तत्र कारणम् । पूर्वापरक्षणानां तदेकत्वं वास्तवं न तु ॥ ३७६ ॥ ___ अथोवाच स्वयम्वुद्धो, वस्तु नास्ति निरन्वयम् । अम्भस्तृणादि हि गवां, हन्त ! दुग्धाय कल्पते ॥३७७॥ आकाशपुष्पवत् कूर्मरोमवञ्च निरन्वयम् । नैव वस्तु भवत्यत्र, तद् वृथा क्षणभङ्गधीः ॥ ३७८ ॥ वस्तु चेत् क्षणविध्वंसि, सन्तानः क्षणिको न किम् ? । सन्तानस्य च नित्यत्वे, समस्तं क्षणिकं कुतः?॥३७९॥ सर्वभावेष्वनित्यत्वे, निहितप्रतिमार्गणम् । स्मरणं प्रत्यभिज्ञा च, कथं नामोपपद्यते ? ॥ ३८० ॥ 5 जन्मानन्तरनाशित्वे, द्वितीयक्षणसम्भवी । पित्रोन पुत्रः पितरौ, न पुत्रस्येत्यसङ्गतिः ॥ ३८१ ॥ विवाहसमयादूर्वा, जम्पत्योः क्षणनाशिनोः । न जायायाः पतिः पत्युर्न जायेत्यसमञ्जसम् ॥ ३८२ ॥ इह कृत्वाऽशुभं कर्म, स नाऽमुत्राऽश्नुते फलम् । भुङ्क्तेऽन्यः किन्तु तदिति, कृतनाशाऽकृतागमौ ॥३८३॥ __ तुर्योऽप्युवाच मायाऽसौ, तत्त्वतो नास्ति किश्चन । दृश्यमानमपि स्वाम-मृगतृष्णादिसन्निभम् ॥३८४ ॥ गुरुः शिष्यः पिता पुत्रो, धर्मोऽधर्मो निजः परः । इत्यादि दृश्यते यत् स, व्यवहारो न तात्त्विकम् ॥३८५।। 10 विहाय जम्बुको मांसं, तीरे मीनाय धावितः । मीनोऽथ प्राविशत तोये, मांसं गृध्रोहरद यथा ॥३८६॥ तथैहिकसखं हित्वा. परलोकाय धाविताः । आत्मानमभयभ्रष्टा. वञ्चयन्ते हि ते नराः ॥३८७॥ पाखण्डिनामलीकाज्ञां, श्रुत्वा नरकभीरवः । दण्डयन्ति निजं देहमहो ! मोहाद् व्रतादिना ॥ ३८८ ॥ यथा क्षमापातशङ्ककाङ्किणा नृत्यति लावकः । तथाभिशङ्कय नरकपातं जन्तुस्तपस्यति ॥ ३८९ ॥ स्वयम्वुद्धोऽब्रवीद् वस्तु,न सच्चेदर्थकृत् कथम् ? । माया चेदीदृशी तर्हि, स्वमेभः किं न कार्यकृत् ॥३९०॥15 कार्यकारणभावं चेद्, वस्तूनां पारमार्थिकम् । न मन्यसे तदा किं त्वं, बिभेषि पततोऽशनेः? ॥ ३९१ ॥ एवं सति न त्वं नाऽहं, न वाच्यं न च वाचकः। तदेष्टप्रतिपत्तिः स्याद्, व्यवहारकरी कथम् ? ॥३९२॥ वितण्डापण्डितैरेभिः, स्वयं विषयगृभुभिः । देव ! प्रतार्यसे नित्यं, शुभोर्दकपराङ्मुखैः ॥ ३९३ ॥ ततो विवेकमालम्ब्य, विषयांस्त्यज दूरतः । धर्ममेवाश्रय स्वामिन्नत्राऽमुत्र च शर्मणे ॥ ३९४ ॥ __ अथ राजाऽब्रवीदेवं, प्रसादसुभगाननः । खयम्बुद्ध ! महाबुद्धे !, साधु साधूक्तवानदः ॥ ३९५ ॥ 20 युक्तं धर्म उपादेयो, न धर्मद्वेषिणो वयम् । उपादीयेत कालेऽसौ, मत्रास्त्रमिव सङ्गरे ॥ ३९६ ॥ चिरादभ्यागतं मित्रमिव को नाम यौवनम् । उपेक्षेत तदुचिता, प्रतिपत्तिमकल्पयन् ? ॥ ३९७ ॥ धर्मोपदेशस्तदयं, त्वयाऽनवसरे कृतः । वीणायां वाद्यमानायां, वेदोद्गारो न राजते ॥ ३९८ ॥ परलोको हि धर्मस्य, फलं सन्दिग्धमेव तत् । तदैहिकसुखास्वादमकाण्डे किं निषेधसि ? ॥ ३९९ ॥ ___ अथ विज्ञपयामास, स्वयम्बुद्धः कृताञ्जलिः । आवश्यके धर्मफले, मा शतिष्ठाः कदाचन ॥४००॥ 25 किं न स्मरसि बालत्वे, यदावां नन्दने वने । अपश्याव गतावेकं, कान्तिरूपधरं सुरम् ? ॥ ४०१ ॥ सप्रसादो जगादैवं, स देवस्त्वां तदा नृप! । अहं ह्यतिबलो नाम, भवतोऽसि पितामहः ॥ ४०२ ॥ क्रूरमित्रादिवोद्विग्नोऽमुष्माद् वैषयिकात् सुखात् । राज्य तृणमिव त्यक्त्वा, निरनीमहमाश्रयम् ॥ ४०३ ॥ व्रतप्रासादकलसः, संन्यासोऽन्तक्षणे मया । गृहीतस्तत्प्रभावेण, जातोऽहं लान्तकाधिपः ॥ ४०४॥ प्रमद्वरेण न स्थेयं, तत् त्वयाऽपीत्युदीर्य च । विद्योतितवियद्विद्युदिव सोऽथ तिरोदधे ॥ ४०५॥ 30 मन्यस्व परलोकं तद्, वचः पैतामहं स्मरन् । प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणे किं, प्रमाणान्तरकल्पना? ॥४०६॥ राजाऽप्यूचे सारितोऽस्मि, साधु पैतामहं वचः । परलोकमहं मन्ये, धर्माधर्मनिबन्धनम् ॥ ४०७ ॥ मिथ्यादृग्वाक्पांशुपुञ्जजलदः सोऽथ मत्रिराट् । लब्धावकाशः सानन्दमिति वक्तुं प्रचक्रमे ॥ ४०८॥ तव वंशेऽभवत् पूर्व, कुरुचन्द्रो नरेश्वरः । जाया कुरुमती तस्य, हरिचन्द्रश्च नन्दनः ॥ ४०९ ।। १ निःसन्तानम् । २ न्यासीकृतस्य प्रतियाचनम् । ३ असत्याज्ञाम् । ४ पक्षिविशेषः । ५ विषयलोलुपैः। ६ शुभोत्तरकालविमुखैः । * "वार्जय वासं १॥ युद्धे। शानदर्शनचारित्ररूपाम् ।९ प्रमादिना। १० प्रकाशिताकाशः । *हरिश्चन्द्र सं१,२॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं नृपतिः स तु कौलोऽभून्महारम्भपरिग्रहः । धुर्योऽनार्येषु कार्येषु, निर्दयश्च कृतान्तवत् ॥ दुराचारोऽपि रौद्रोऽपि स राज्यं बुभुजे चिरम् । पूर्वोपार्जित पुण्यानां, फलमप्रतिघं खलु ॥ तस्यावसानसमये, जज्ञे धातुविपर्ययः । आसन्ननरकक्लेशवर्णिकामात्रसन्निभः || ४१२ ॥ आसीत् कण्टकशय्येव, तूलशय्याऽस्य दुःखदा । निम्बवद् विरसान्यासन्, भोज्यानि सुरसान्यपि ॥ ४१३ || 5 चन्दनागरुकर्पूरकस्तूर्यः पूर्तयोऽभवन् । शत्रुवत् पुत्रमित्राद्या, शोरुद्वेगहेतवः ॥ ४१४ ॥ कर्णक्लेशाय गीतानि, बभूवुः क्रोष्टुनादवत् । पुण्यच्छेदेऽथवा सर्व, प्रयाति विपरीतताम् ॥ ४१५ ॥ सुखेतरैस्तं विषयोपचारैरतिदेः क्षणम् । कुरुमतीहरिचन्द्रौ, प्रच्छन्नं प्रत्यजागृताम् ॥ ४१६ ॥ चुम्ब्यमान इवाङ्गारैः, प्रत्यङ्गं दाहविह्वलः । रौद्रध्यानपरः प्रापदवसानं स भूपतिः ॥ ४१७ ॥ तस्यौर्ध्वदेहिकं कृत्वा, हरिचन्द्रस्तदात्मजः । अशिषद् विधिवद् राज्यं, सदाचारपंथाध्वगः ॥ ४१८ ॥ सोsavers फलं दृष्ट्वा तन्मरणं पितुः । धर्ममेव पुमर्थेषु तुष्टावार्कं ग्रहेष्विव ॥ ४१९ ॥ सुबुद्धिं बालसुहृदं, श्रावकं सोऽन्यदाऽऽदिशत् । धर्मविद्योऽन्वहं धर्मः श्रुत्वा शंस्यस्त्वया मम ॥ ४२० ॥ सुबुद्धिर्विधे नित्यं, तत्तथाऽत्यन्ततत्परः । अनुकूलनिदेशो हि, सतामुत्साहकारणम् ।। ४२१ ॥ प्रत्यहं हरिचन्द्रोऽपि धर्मं तत्कथितं भृशम् । श्रद्दधे पापभीतः सन, रोगभीत इवौषधम् ॥ ४२२ ॥ अन्यदा बहिरुद्याने, शीलन्धर महामुनेः । उत्पन्ने केवलज्ञानेऽभीयुर्देवास्तमर्चितुम् ॥ ४२३ || सुबुद्धिनैवं कथिते, श्रद्धोलिखितमानसः । स राजा तुरगारूढस्तं मुनीन्द्रमुपाययौ ।। ४२४ ॥ नमस्कृत्योपविष्टे च, तस्मिन् राज्ञि महामुनिः । विदधे कुमतध्वान्तकौमुदीं धर्मदेशनाम् ।। ४२५ ।। देशनान्ते स भूपालस्तं पप्रच्छ कृताञ्जलिः । स्वामिन् ! मम पिता मृत्वा, कां गतिं प्रत्यपद्यत ? ।। ४२६ ।। उवाच मोऽथ भगवान्, महाराज ! पिता तव । सप्तमं नरकं प्राप, स्थानं नान्यत्र तादृशाम् ।। ४२७ ॥ तदाकर्ण्य समुद्भूतसंवेगः स महीपतिः । वन्दित्वा मुनिमुत्थाय ययाँ निजनिकेतने ॥ ४२८ ॥ 20 राज्यं सूनोः सोऽर्पयित्वा सुबुद्धिमिदमभ्यधात् । प्रवजिष्याम्यहं धर्मं, मयीवाऽस्मिन् सदा दिशेः ॥४२९ ॥ सोsप्यूचे प्रत्रजिष्यामि, भवन्तमनु भूपते ! । त्वत्सुते मत्सुतो धर्मं, वक्ष्यत्यहमिव त्वयि ॥ ४३० ॥ कर्माद्रिभेदकुलिशं व्रतं तौ राजमत्रिणौ । आददाते सुचिरं च, पालयित्वेयतुः शिवम् ॥ ४३१ ॥ युष्मद्वंशेऽपरश्चासीद्, दण्डको नाम पार्थिवः । प्रचण्डशासनो दण्डधरः साक्षादिवाऽरिषु ॥ ४३२ ॥ बभूव तनयस्तस्य, मणिमालीति विश्रुतः । अंशुमालीव तेजोभिरभिव्याप्तदिगन्तरः ॥ ४३३ ॥ पुत्रमित्रकलत्रेषु, रत्नस्वर्णधनेषु च । प्राणेभ्योऽप्यत्यभीष्टेषु मूर्च्छावान् दण्डकोऽभवत् ॥ ४३४ ॥ आर्त्तध्यानपरः कालाद्, दण्डकः प्राप पञ्चताम् । भाण्डागारे निजे सोऽजगरोऽजायत दुर्गरः || ४३५ || तत्रागारे प्रविवेश, यो यस्तं तं स जयसे । दारुणात्मा सर्वभक्षी, हुताशन इवोद्यतः ॥ ४३६ || अन्यदा ददृशे तेन, मणिमाली गृहं विशन् । प्राग्जन्मस्मरणाच् चात्मसूनुरित्युपलक्षितः || ४३७ ॥ प्रशान्तां दर्शयन्मूर्ति, सस्नेहो मूर्तिमानिव । प्राग्जन्मबन्धुर्नः कोऽपीत्यज्ञायि मणिमालिना ॥ ४३८ ॥ 30 मुनीनां ज्ञानिनां पार्श्वाज्ज्ञात्वा तं पितरं निजम् । उपविश्य पुरस्तस्य, जैनं धर्म शशंस सः ॥ ४३९ ॥ सोऽवबुध्यार्हतं धर्म, संन्यासं प्रत्यपद्यत । शुभध्यानपरो मृत्वा देवभूयमियाय च ॥ ४४० ॥ पुत्रप्रेम्णा दिवोऽभ्येत्य स हारं मणिमालिने । दिव्यमुक्तामयमदात् सोऽयमद्यापि ते हृदि ॥ ४४१ ॥ हरिचन्द्रान्वयेऽभ्रस्त्वं, सुबुद्धेरन्वये त्वहम् । क्रमागताप्तभावेन, ततो धर्मे प्रवर्त्यसे ॥ ४४२ ॥ 10 15 25 १४ | प्रथमं पर्व ४१० ॥ १ शाक्तः । * प्रतिमं ख खं, सं २ ॥ २ दुर्गन्धमय्यः । । "रिश्चन्द्रौ सं १, २ ॥ °रिश्चन्द्र सं १, २ ॥ ६ पथानुगः सं २ ॥ || 'रिश्चन्द्रों सं १, २ ॥ ३ कुमतान्धकारचन्द्रिकाम् ४ सम्प्राप्तवैराग्यः । ५ कर्मरूपपर्वतविदारणे वज्रम् । ६ त्यागम् । ७ देवत्वम् । ४११ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः] त्रिषष्ट्रिशलाकापुरुपचरितम् । यद्विज्ञप्तमकाण्डे तु, श्रूयतां तत्र कारणम् । यदद्य नन्दनेऽद्राक्षं, चारणश्रमणावहम् ॥ ४४३ ॥ जगत्प्रकाशजनकौ, महामोहतमच्छिदौ । एकत्र मिलितौ साक्षात् , सूर्याचन्द्रमसाविव ॥ ४४४ ॥ कुर्वन्तौ देशनां तत्र, ज्ञानातिशयशालिनौ । तौ मया समये पृष्टौ, प्रमाणं भवदायुषः ॥ ४४५ ॥ ताभ्यां तु भवतो मासमात्रमायुर्निवेदितम् । अतस्त्वां त्वरयाम्यद्य, धमोयैव महामते!॥४४६ ॥ महाबलोऽथाऽभिदधे, स्वयम्बुद्ध ! धियांनिधे ! । त्वमेवैकोऽसि मे बन्धुर्यन्मत्कार्याय ताम्यसि ॥४४७॥ 5 आक्रम्यमाणं विषयैर्निद्रालु मोहनिद्रया । मामजागरयः साधु, शाधि किं साधयाम्यतः ? ॥ ४४८ ॥ आयुष्यल्पेऽधुना धर्मः, साधनीयः कियान मया ? । कीदृशं कूपखननं, सद्यो लग्ने प्रदीपने ॥ ४४९ ॥ स्वयम्बुद्धोऽप्युवाचैवं, मा विपीद दृढीभव । परलोकैकसुहृदं, यतिधर्म समाश्रय ॥ ४५०॥ अप्येकं दिवसं जीवः, परिव्रज्यामुपेयिवान् । अपवर्गमपि प्रामोत्येव स्वर्गस्य का कथा ? ॥ ४५१ ॥ आमेत्युदित्वा स्वसुतं, स्खे पदे प्रत्यतिष्ठिपत् । महाबलस्तदाचार्यः, प्रासादे प्रतिमाभिव ॥ ४५२ ॥ 10 दीनाऽनाथजनेभ्योऽथ, दयादानमदत्त सः । तथा यथा न कोऽप्यासीद्, याज्जादीनो जनः पुनः॥४५३॥ विचित्रवस्त्रमाणिक्यसुवर्णकुसुमादिभिः । स चक्रेऽष्टाह्निका सर्वचैत्येष्विन्द्र इवाऽपरः ॥ ४५४॥ ततश्च क्षमयित्वा स्वजनं परिजनं तथा । दीक्षां मुनीन्द्रपादान्तेऽग्रहीन्मोक्षश्रियः सखीम् ॥ ४५५ ॥ सर्वसावंद्ययोगानां, विरत्या सममेव सः । चक्रे चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं महामनाः ॥ ४५६ ॥ असौ समाधिपीयूषहदमग्नो निरन्तरम् । अम्भोजिनीखण्ड इव, न हि मम्लो मनागपि ॥ ४५७ ॥ 15 भुञ्जान इव भोज्यानि, पेयान्यपि पिबन्निव । सोऽक्षीणकान्तिरभवन्महासत्त्वशिरोमणिः ॥ ४५८ ॥ समाहितः स्मरन् पञ्चपरमेष्ठिनमस्क्रियाम् । द्वाविंशतिदिनान् कृत्वाऽनशनं स व्यपद्यत ॥ ४५९ ॥ स स्वयं सम्भृतैः पुण्यैर्दिव्यैरिव तुरङ्गमैः । ऐशानकल्पं तत्कालमाससाद दुरासदम् ॥ ४६० ॥ विमाने श्रीप्रभेऽथोपपादे शयनसम्पुटे । विद्युत्पुञ्ज इवाऽम्भोदगर्भे समुदपादि सः ॥ ४६१ ॥ दिव्याकृतिः सुसंस्थानः, सप्तधातूज्झिताङ्गकः । शिरीषसुकुमाराङ्गः, कान्तिकान्तदिगन्तरः ॥ ४६२ ॥ 20 वज्रकायो महोत्साहः, पुण्यलक्षणलक्षितः । कामरूपोऽवधिज्ञानी, सर्वविज्ञानपारगः ॥ ४६३॥ अणिमादिगुणोपेतो, निर्दोषोऽचिन्त्यवैभवः । ललिताङ्ग इति ख्यातः, स यथार्थाभिधोऽभवत् ॥४६४॥ पादयो रत्नकटके, कटिसूत्रं कटीतटे । हस्तयोः कङ्कणद्वन्द्वं, भुजयोरङ्गदद्वयम् ॥ ४६५॥ वक्षःस्थले हारयष्टिः, कण्ठे ग्रैवेयकं तथा । कुण्डले कर्णलतयोः, स्रकिरीटौ च मूर्धनि ॥ ४६६ ॥ इत्यादिभूषणग्रामो, दिव्यानि वसनानि च । सर्वाङ्गभूषणं तस्य, यौवनं च सहाऽभवत् ॥ ४६७ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] ननाद नादयन्त्राशाः, प्रतिनादेन दुन्दुभिः । पेठुर्जय जगन्नन्देत्यादि मङ्गलपाठकाः ॥ ४६८ ॥ गीतवादित्रनिर्घोषवन्दिकोलाहलाकुलम् । तद्विमानं जगर्जेव, नाथागेमभुवा मुदा ॥ ४६९ ॥ सोऽथ सुप्तोत्थित इव, पश्यन्नेवं व्यतर्कयत् । किमिन्द्रजालं ? किं स्वमः ?, कि माया? किमिवेदृशम् ? ॥४७०॥ किमेतद् गीतनृत्तादि, मामुद्दिश्य प्रवर्तते ? । अयं लोको विनीतः किं, मह्यं नाथाय तिष्ठते ? ॥ ४७१ ॥ 30 इदं श्रीमदिदं रम्यमिदं सेव्यमिदं प्रियम् । इदमानन्दसदनं, सदः किमिदमासदम् ॥ ४७२ ॥ स्फूर्जतिर्कसम्पर्क, तमकर्कशया गिरा । इति विज्ञपयामास, प्रतीहारः कृताञ्जलिः ॥ ४७३ ॥ अद्य नाथ ! वयं धन्याः, सनाथाः स्वामिना त्वया । कुरु प्रसादं नमेषु, पीयूषसदृशा दृशा ॥ ४७४॥ शिक्षय । २ अग्नौ। * दाभिशः सं ॥ चक्रे सर्वचैत्येषु, पूजां शक्र इवापरः आ ॥ ३ सर्वसदोष'योगानाम् । आत्माराममनाः प्राप, मासान्ते सोऽथ पश्चताम् आ॥ ५ प्रीवाभरणम् । ५ स्वामिसमागमजनितया । ६ स्फुरद्विकल्पसम्पर्कम् । ७ कोमलया। 25 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कलिकालमर्वजश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीनं [प्रथमं पर्व स्वामिन्नशानकल्पोऽयं, यथासङ्कल्पितप्रदः । अनल्पानश्वरश्रीकः, मदा सुग्वनिकेतनम् ॥ ४७५ ॥ अमुष्मिन् देवलोके च, त्वया पुण्यैरुपार्जितम् । विमानं श्रीप्रभमिदं, माधवलङ्कुरुपेऽधुना ॥ ४७६ ॥ त्वत्सभामण्डनममी, तव सामानिकाः सुराः । एकोऽप्यनेक इव यैर्विमानेऽस्मिंस्त्वमीक्ष्यसे ॥ ४७७ ॥ त्रायस्त्रिंशा अमी स्वामिन् !, पुरोधोमत्रितास्पदम् । त्वदादेशमपेक्षन्ते, यथासमयमादिशेः ॥ ४७८ ॥ पारिषद्याः सुराश्चैते, नर्मसाचिव्यकारिणः । लीलाविलासगोष्ठीषु, रमयिष्यन्ति ते मनः ॥ ४७९ ॥ सदा संवर्मितास्तीक्ष्णपत्रिंशच्छस्त्रधारिणः । स्वामिरक्षामहादक्षाश्चात्मरक्षा अमी तव ॥ ४८० ॥ लोकपाला अमी च त्वत्पुररक्षाधिकारिणः । अनीकपतयश्चैते, त्वदनीकधुरन्धराः ॥ ४८१ ॥ पौरजानपदप्रायाः, प्रकीर्णकसुरा इमे । देव ! त्वदाज्ञानिर्माल्यं, धारयिष्यन्ति मूर्धनि ॥ ४८२ ।। दास्ययोग्याश्चाभियोग्याः, सेवन्ते त्वामितस्त्वमी । सुराः किल्विपिकाश्चैते, म्लेच्छकर्मकृतस्तव ॥ ४८३ ॥ 10 तवैते रम्यरमणीरमणीयतराङ्गणाः । मनःप्रसादजननाः, प्रासादा रत्ननिर्मिताः ॥ ४८४ ॥ अमूर्वाप्यो रत्नमय्यः, सौवर्णकमलाकराः । तवाँक्रीडनगाश्चैते, रत्नकाञ्चनसानवः ॥ ४८५ ॥ एताः स्वच्छजलाः क्रीडानद्यः सद्यः प्रमोददाः । क्रीडोद्यानानि चैतानि, नित्यपुष्पफलानि ते ॥ ४८६ ॥ सदःर्सदनमेतत् ते, स्वर्णमाणिक्यनिर्मितम् । आदित्यमण्डलमिव, द्युतिद्योतितदिङ्मुखम् ॥ ४८७ ॥ एताश्च चामरादर्शतालवृन्ताकपाणयः । सर्ववारं वारनार्यस्त्वत्सेवैकमहोत्सवाः ॥ ४८८ ॥ अयं चतुर्विधातोद्यचतुरः पुरतस्तव । गन्धर्ववर्गः सङ्गीतकृते सजोऽवतिष्ठते ॥ ४८९ ॥ दत्तोपयोगस्तत्कालमवधिज्ञानतस्ततः । स दिनं ह्यस्तनमिव, पूर्वजन्मैवमस्मरत् ॥ ४९० ॥ विद्याधरपतिः सोऽहं, स्वयम्वुद्धेन मत्रिणा । धर्ममित्रेण जैनेन्द्र, धर्ममस्मि विबोधितः ॥ ४९१ ॥ प्रयज्यां प्रतिपन्नोऽहं. तदैवाऽनशनं व्यधाम । आसदं तत्फलमिदमहो! धर्मस्य वैभवम ॥ ४९२ ॥ इति स्मृत्वा समुत्थाय, दत्तबाहुः स वेत्रिणा । सिंहासनमलञ्चक्रे, म्फूर्जजयजयध्वनिः ॥ ४९३ ॥ 20 ततोऽभिपिपिचे देवैरवीज्यत च चामरैः । अगीयत च गन्धर्वैः, कलमङ्गालगीतिभिः ॥ ४९४ ॥ समुत्थाय ततोऽप्येष, भक्तिभावितमानसः । गत्वा चैत्येऽर्हत्प्रतिमाः, पूजयामास शाश्वतीः ॥ ४९५ ॥ देवैमत्रयोद्गारमधुरे गीतमङ्गले । क्रियमाणे जिनाधीशं, सोऽस्तावीद् विविधैः स्तवैः ॥ ४९६ ॥ ततोऽसौ वाचयामास, पुस्तकान् ज्ञानदीपकान् । आनर्च माणवस्तम्भस्थितान्यस्थीनि चाऽर्हताम् ॥ ४९७ ॥ अथ दिव्यातपत्रेण, पार्वणेन्दुसनाभिना । भ्राजिष्णुार्यमाणेन, स लीलासदनं ययौ ॥ ४९८ ॥ 25 नितान्तसुकुमारानिपाणिनेत्राननच्छलात् । लावण्यसिन्धुमध्यस्थारविन्दवनिकामिव ॥ ४९९ ॥ आनुपूर्येण पृथुलौ, वृत्तावूरू च बिभ्रतीं । न्यासीकृताविव निजी, तूणीरौ पुष्पधन्वना ॥ ५०० ॥ राजमानां नितम्बेन, विपुलेनाऽच्छवाससा । कलहंसकुलालीढपुलिनेनेव निम्नगाम् ॥ ५०१॥ राजन्तीमुदरेणाऽतिक्षामेण पैविमध्यवत् । पीनोन्नतकुचद्वन्द्वभारप्रोद्वहनादिव ॥ ५०२ ॥ भान्ती रेखात्रयाङ्केण, कण्ठेन कलनादिना । कम्बुनेव सरनृपस्योच्चैर्विजयशंसिना ॥५०३ ॥ अधरीकृतबिम्बाभ्यामधराभ्यां चकासतीम् । नासया नेत्रनलिननाललीलाजुषाऽपि च ॥ ५०४॥ अर्कीकृतपार्वणेन्दुलक्ष्मीसर्वस्वहारिणा । हारिणा चित्तहरणी, स्निग्धगण्डालिकेन च ॥ ५०५॥ कर्णी रतिपतेः क्रीडादोलालीलामलिम्लुचौ । भ्रूयुगं च स्मरधनुर्यष्टिश्रीहारि विभ्रतीम् ॥ ५०६ ॥ शोभमानां कवर्या च, स्निग्धकजलकान्तया । वदनाम्भोरुहस्याऽनुसारिण्येवालिमालया ॥ ५०७ ॥ सर्वाङ्गीणं च विन्यस्तरत्नाभरणसम्पदा । जङ्गमीभावभाक्कल्पलताविभ्रमहारिणीम् ॥ ५०८॥ पुरोहितमश्रिस्वस्थानम् । २ कवधिमः । ३ क्रीडापर्वताः। ४ सभागृहम् । ५ व्यजनम् । ६ वेश्याः। ७ मधुरमङ्गलगीतैः । पूर्णिमाचन्द्रतुल्येन । ९ इषुधी। १० बनमध्यवत् । मनोहरेण । १२ केशापाशेन । १ सर्वाङ्गेषु । 30 -- Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः] त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरितम् । मनोजमुरुपबाभिरष्सरोभिः सहस्रशः । परितः परिकरिता, सरिद्भिरिव जालवीम् ॥ ५०९ ॥ देवीं स्वयम्प्रभा नाम, प्रभाभग्नाचिरंप्रभाम् । प्रभूतप्रमदस्तत्र, ददर्श श्रीप्रभप्रभुः ॥५१०॥ [द्वादशभिः कुलकम् ], कृताभ्युत्थानया दूरात् , स्नेहातिशययुक्तया । तया सहैकपर्यङ्के, निषसादाऽमराग्रणीः ॥ ५११ ॥ एकत्र च निषण्णौ तौ, चकासामासतुर्भृशम् । एकालवालमध्यस्थौ, लताविटपिनाविव ॥ ५१२ ॥ 5 परस्परमभूञ्चेतस्तयोर्लीनं निरन्तरम् । निगडेनेव रागेण, निविडेन नियत्रितम् ॥ ५१३ ॥ रममाणस्तया सार्द्धमच्छिन्नप्रेमसौरभः । गमयामास भूयांसं, कालमेकां कलामिव ॥ ५१४ ॥ दलं वृक्षादिव दिवस्ततोऽच्योष्ट स्वयम्प्रभा । आयुःकर्मणि हि क्षीणे, नेन्द्रोऽपि स्थातुमीश्वरः ॥५१५।। आक्रान्तः पर्वतेनेव, कुलिशेनेव ताडितः । प्रियाच्यवनदुःखेन, ललिताङ्गोऽथ मूञ्छितः ॥ ५१६ ॥ लब्धसंज्ञः क्षणेनाऽथ, विललाप मुहुर्मुहुः । विमानं श्रीप्रभमपि, प्रतिशब्दैविलापयन् ॥ ५१७ ॥ 10 प्राप नोपवने प्रीति, न वाप्यामपि निर्ववौ । क्रीडाशैलेऽपि न स्वस्थान्नानन्दन्नन्दनेऽपि सः ॥ ५१८ ॥ हा प्रिये ! हा प्रिये ! क्वाऽसि, क्वाऽसीति विलपन्नसौ । खयम्प्रभामयं विश्वं, पश्यन् वाम सर्वतः ॥५१९॥ ___ इतश्च खामिमरणोत्पन्नवैराग्यवासनः । स्वयम्वुद्धोऽप्यात्तदीक्षः, श्रीसिद्धाचार्यसन्निधौ ॥ ५२० ॥ सुचिरं निरतीचारं, पालयित्वा व्रतं सुधीः । ऐशाने दृढधर्माख्य, इन्द्रसामानिकोऽभवत् ॥ ५२१ ॥ [सन्दानितकम् ] 15 स पूर्वभवसम्बन्धाद् , बन्धुवत् प्रेमबन्धुरः । आश्वासयितुमित्यूचे, ललिताङ्गमुदारधीः ॥ ५२२ ॥ किं मुह्यसि महासत्त्व !, महिलामात्रहेतवे ?। धीराः प्राणावसानेऽपि, न हि यान्तीदृशीं दशाम् ॥ ५२३ ॥ ललिताङ्गोऽप्युवाचेति, बन्धो ! किमिदमुच्यते । प्राणान्तः सुसहः कान्ताविरहस्तु सुदुःसहः ॥५२४॥ एकैव ननु संसारे, सारं सारङ्गलोचना । यां विना नूनमीदृश्योऽप्यसाराः सर्वसम्पदः ॥ ५२५ ॥ तदुःखदुःखितः सोऽपीशानसामानिकः सुरः । दत्त्वोपयोगमवधिज्ञानाज्ज्ञात्वाऽब्रवीदिति ॥ ५२६ ॥ 20 मा विपीद महाभाग !, भव स्वस्थोऽधुना ननु । मया मृगयमाणेन, प्राप्ताऽस्ति भवतः प्रिया ॥ ५२७ ॥ पृथिव्यां धातकीखण्डे, प्राग्विदेहेषु विद्यते । नन्दिग्रामे गृहपतिर्नागिलो नाम दुर्गतः ॥५२८॥ पूरणायोदरस्थापि, भ्रमन् प्रेत इवाऽन्वहम् । क्षुधितस्तृषितः शेते, चोत्तिष्ठति च तादृशः ॥ ५२९ ॥ दारिद्यस्य बुभुक्षेव, तस्सास्ति सहचारिणी । नागश्रीरित्यभिधया, मन्दभाग्यशिरोमणिः ॥ ५३० ॥ उपर्युपरि कन्यां षद् , कन्यास्तत्राऽस्य जज्ञिरे । पामनस्येव पिटका, अधोऽधः पिटकं तनौ ॥ ५३१॥ 25 प्रकृत्या बहुभक्षिण्यः, कुरूपा विश्वगर्हिताः । बभूवुस्तास्तयोः पुग्यो, ग्रामशूकरयोरिष ॥ ५३२॥ आपनसत्त्वा पत्न्यासीत् , पुनरप्यस्य कालतः । प्रायेण हि दरिद्राणां, शीघ्रगर्भभृतः खियः ॥ ५३३ ॥ सोऽथैतच्चिन्तयामास, कस्येदं कर्मणः फलम् ? । यदहं मर्त्यलोकेऽपि, प्रामोमि नरकव्यथाम् ॥ ५३४॥ अमुना जन्मसिद्धेन, दुश्चिकित्सेन भूयसा । उपदेहिकयेव दुर्दारियेणाऽसि विद्रुतः ॥ ५३५॥ इतः साक्षादलक्ष्मीभिरिव निर्लक्ष्ममूर्तिभिः । कन्यकाभिः पूर्वजन्मवैरिणीभिरिवादितः ॥ ५३६ ॥ 30 अधुना यदि भूयोऽपि, दुहिता प्रसविष्यते । तदा देशान्तरं यास्याम्युज्झित्वैतत् कुटुम्बकम् ॥ ५३७॥ एवं चिन्तां प्रपत्रस्य, सुषुवे तस्स गेहिनी । कर्णसूचीप्रवेशाभं, सुताजन्म च सोऽशृणोत् ॥ ५३८ ॥ ययावूर्ध्वमुखः सोऽथ, कुटुम्बं प्रोज्झ्य नागिलः । पर्यस्य भारं सहसा, बलीवर्द इवाऽधमः ॥ ५३९ ॥ तस्याः प्रसवजे दुःखे, पतिप्रवसनव्यथा । समजायत तत्कालं, क्षारक्षेप इव क्षते ॥ ५४० ॥ । विद्युतम् । २ शृङ्खलया। ३ शान्ति जगाम। * °स्वस्थो, नानन्दचन्द सं १, २॥ ४ दरिद्री । ५ पामायुक्तस्य । ६ निस्फोटाः। ७ सगर्भा। "उधेड"इति भाषायाम्। दुहितभिःसं, १॥ ९ त्यक्त्वा । त्रिषष्टि. ३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथमं पर्व नामापि तस्या नागश्रीर्नाकार्षीदतिदुःखिता । निर्नामिकेति नाम्नाऽसौ ततो लोकैरुदीरिता ॥ ५४१ ॥ साsपालयन्न तां सम्यगवर्द्धिष्ट तथाऽपि सा । जन्तोर्वज्राहतस्याऽपि मृत्युर्नाऽत्रुटितायुः || ५४२ ॥ अत्यन्तदुर्भगा मातुरप्युद्वेगविधायिनी । सा कालं गमयत्यन्यगृहे दुष्कर्म कुर्वती ॥ ५४३ ॥ एकस्मिन्नुत्सवेऽन्येद्युराढ्यबालकपाणिषु । ईक्षित्वा मोदकान् साऽपि ययाचे मातरं निजाम् ।। ५४४ ॥ दन्तैर्दन्तान् धर्षयन्ती, तामम्बाऽपीदमत्रवीत् । याचसे मोदकान् युक्तं, मोदकांदी पिताऽपि ते ।। ५४५ ।। यदि मोदकलिप्सुस्त्वं रज्जुमादाय गच्छ तत् । शैलमम्बरतिलकं, दारुभारकृते हले ! ॥ ५४६ ॥ करीपानिसोदरया, दह्यमाना तया गिरा । रुदती रज्जुमादाय, तं पर्वतमियाय सा ।। ५४७ ॥ अस्तस्य शिरस्यैकरात्रिकप्रतिमाजुषः । केवलज्ञानमुत्पेदे, युगन्धरमुनेस्तदा ।। ५४८ ॥ तस्याऽथ सन्निहिताभिर्देवताभिः प्रचक्रमे । तत्कालं केवलज्ञानमहिमाख्यो महोत्सवः ।। ५४९ ॥ पर्वतासन्ननगरग्रामवासी ततो जनः । अहंपूर्विकया तत्र, तं चन्दितुमुपाययैौ ॥ ५५० ॥ यान्तं जनं दृष्ट्वा नानाभरणभूषितम् । तस्थौ निर्नामिका चित्रलिखितेवाऽतिविस्मयात् ।। ५५१ ॥ सा परम्परया ज्ञात्वा, लोकागमनकारणम् । दारुभारं दुःखभारमिवोत्सृज्याऽचलत् ततः ।। ५५२ ।। जनेन सह तेनाथ, साऽपि निर्नामिका गिरिम् । तमारुरोह तीर्थानि सर्वसाधारणानि यत् ।। ५५३ ॥ कूल्पपादपवत् पादौ, मन्यमाना महामुनेः । सा सानन्दमवन्दिष्ट, मतिर्गत्यनुसारिणी ।। ५५४ ॥ लोमाह्लादयन्नब्द, इव गम्भीरया गिरा । मुनिर्विश्वजनीनोऽथ, विदधे धर्मदेशनाम् ।। ५५५ ।। ऑमसूत्र व्यूतखाधिरोहणसहोदरम् । भवभूमौ निपाताय, नृणां विषयसेवनम् ॥ ५५६ ।। एकग्रामसभावाससुप्तपान्थजनोपमः । पुत्रमित्रकलत्रादिसङ्गमः सर्वदेहिनाम् ।। ५५७ ।। लक्षेषु चतुरशीत, योनिषु भ्रमतामिह । अनन्तो दुःखसम्भारः, स्वकर्मपरिणामजः ।। ५५८ ।। अथ निर्नामिकाऽवोचद्, भगवन्तं कृताञ्जलिः । तुल्यो राज्ञि च रङ्के च, यत् त्वं विज्ञप्यसे ततः ॥ ५५९ ॥ मारो दुःखसदनं, भगवद्भिः प्रकीर्त्तितः । अस्ति किं कश्चिदप्यत्र, मत्तोऽप्यधिकदुःखितः १ ।। ५६० ॥ भगवानप्युवाचैवं दुःखं दुःखितमानिनि ! । भवत्याः कीदृशं भद्रे !, दुःखितानपरान् शृणु ।। ५६१ ।। स्वकर्मपरिणामेनोत्पद्यन्ते नरकावनौ । भैदिकाछेदिकाः शीर्षच्छेद्याश्वाऽपि शरीरिणः ।। ५६२ ।। तिलपीडं निपीड्यन्ते, यत्रैस्तत्र हि केचन । दारुदारं च दार्यन्ते, क्रकचैः केऽपि दारुणैः ।। ५६३ ॥ शूलतूलिकशय्यासु, शाय्यन्ते केऽपि सन्ततम् । असुरैर्वस्त्रवत् केचिदास्फाल्यन्ते शिलातले ॥ ५६४ ॥ 25 कुट्यन्ते केऽप्ययस्पात्राणीव लोहघनैर्घनैः । खण्ड्यन्ते शाकपणिका, इव केचन खण्डशः ॥ ५६५ ॥ भूयोऽपि मिलिताङ्गास्ते, भूयो भूयस्तथैव हि । तद्दुःखमनुभाव्यन्ते, क्रन्दन्तः करुणस्वरम् || ५६६ ।। पिपासिताश्च पाय्यन्ते, तप्तत्रपुरसं मुहुः । छायार्थिनो निषाद्यन्ते, चाऽसिपत्रतरोस्तले ।। ५६७ ।। मुहूर्त्तमपि न स्थातुं लभन्ते वेदनां विना । नरके नारकाः कर्म, स्मार्यमाणाः पुराकृतम् ॥ ५६८ ॥ वत्से ! नारकर्षेण्डानां यद् दुःखं तदशेषतः । श्राव्यमाणमपि प्राणभाजां दुःखाय जायते ।। ५६९ ।। किश्च प्रत्यक्षमीक्ष्यन्ते, जल-स्थल - खचारिणः । प्राणिनो विविधं दुःखमापेदीनाः स्वकर्मजम् ॥ ५७० ॥ तत्र वारिचराः खैरं खादन्त्यन्योन्यमुत्सुकाः । धीवरैः परिगृह्यन्ते, गिल्यन्ते च बकादिभिः ॥ ५७१ ॥ उत्कीलयन्ते त्वचयद्भिर्भृज्यन्ते च भटित्रवत् । भोक्तुकामैर्विपच्यन्ते, निगाल्यन्ते वसार्थिभिः ॥ ५७२ ॥ प्राणिनश्च स्थलचरा, अबला बलवत्तरैः । मृगाद्याः सिंहप्रमुखैर्मार्यन्ते मांसकामिभिः ।। ५७३ ।। मृगयासक्तचित्तैश्च, क्रीडया मांसकाम्यया । नरैस्तत्तदुपायेन, हन्यन्तेऽनपराधिनः ॥ ५७४ ॥ 5 10 15 20 30 १८. १ धनि बालककरेषु । २ मोदकभक्षकः । * तत्रायान्तं आ ॥ ३ विश्वहितकर्ता । ४ अपकसूत्रम्यूतखट्टाधिरोहणसदृशम् । ५ भेदनीयाः । ६ छेदनीयाः । ७ लोहपात्राणि । ८ शाकावयवाः । ९ नारकिनाम् । १० प्रामुवन्तः । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । क्षुधा-पिपासा-शीतोष्णा-ऽतिभारारोपणादिना । कशा-ऽङ्कुश-प्रतोदैश्च, सहन्ते वेद नाममी ॥ ५७५ ॥ खेचरास्तित्तिरि-शुक-कपोत-चटकादयः । श्येन-शिञ्चान-गृध्राद्यगृह्यन्ते मांसगृक्षुभिः ॥ ५७६ ॥ मांसलुब्धैः शाकुनिकै नोपायप्रपञ्चतः । सङ्ग्रह्य प्रतिहन्यन्ते, नानारूपैविडम्बनैः ॥ ५७७ ॥ जलादिशस्त्रादिभवं, तिरश्चां सर्वतो भयम् । अभनप्रसरं स्वस्वकर्मबन्धनिबन्धनम् ॥ ५७८ ॥ मानुष्यकेऽपि सम्प्राप्ते, जायन्ते केऽपि जन्मिनः । जन्मान्धवधिरा जन्मपङ्गयो जन्मकुष्टिनः ॥ ५७९ ॥ 5 चौरिकापारदारिक्यप्रसक्ताः केऽपि मानवाः । नवनवैनिंगृह्यन्ते, निग्रहर्नारका इव ॥ ५८० ॥ विविधैर्व्याधिभिः केऽपि, बाध्यमाना निरन्तरम् । प्रेक्षमाणाः परमुखमुपेक्ष्यन्ते सुतैरपि ॥ ५८१ ॥ मूल्यक्रीताश्च ताड्यन्ते, केचिदश्वतरा इव । अतिभारेण बाध्यन्तेऽनुभाव्यन्ते तृषादिकम् ॥ ५८२ ॥ परस्परपराभूतिक्लिष्टानां घुसदामपि । स्वस्वामिभावबद्धानां, दुःखमेव निरन्तरम् ॥ ५८३ ॥ अस्मिन्नसारे संसारे, निसर्गेणाऽतिदारुणे । अवधिन हि दुःखानां, यादसामिव वारिधौ ॥ ५८४ ॥ 10 संसारे दुःखनिलये, जैनो धर्मः प्रतिक्रिया । मत्राक्षरमिव स्थाने, भूतप्रेतादिसङ्कुले ॥ ५८५ ॥ जातु हिंसा न कर्त्तव्या, हिंसया हि शरीरिणः । पोता इवाऽतिभारेण, मजन्ति नरकार्णवे ॥ ५८६ ॥ असत्यं सर्वथा त्याज्यमसत्यवचनेन यत् । चिरं भ्रमति संसारे, जन्तुस्तृण्येव वात्यया ॥ ५८७ ॥ अदत्तं नाददीतार्थमदत्तादानतो यतः। कपिकच्छूफलस्पर्शादिव जातु सुखं न हि ॥ ५८८ ॥ अब्रह्म परिहर्त्तव्यमब्रह्मचरणेन हि । धृत्वा गले रङ्क इव, नीयते नरके जनः ॥ ५८९ ॥ 15 परिग्रहो न कर्त्तव्यः, परिग्रहवशेन यत् । दुःखपङ्के जनो मजत्यतिभारेण गौरिव ॥ ५९० ॥ पश्चाऽप्यमूनि हिंसादीन्युत्सृजेद् देशतोऽपि यः । उत्तरोत्तरकल्याणसम्पदां सोऽपि भाजनम् ॥ ५९१ ॥ ___ अथ साऽऽसादयामास, संवेगमतिशायिनम् । अयोगोल इवाऽभेद्यः, कर्मग्रन्थिरभिद्यत ॥ ५९२ ॥ महामुनेः पुरः साऽथ, सम्यक् सम्यक्त्वमाददे । प्रतिपेदे जिनोपज्ञं, गृहिधर्मं च भावतः ॥ ५९३ ॥ अहिंसादीनि पञ्चाऽपि, तदेवाऽणुव्रतानि सा । परलोकाध्वपाथेयभूतानि प्रत्यपद्यत ॥ ५९४ ॥ 20 मुनिनाथं प्रणम्याऽथ, गृहीत्वा दारुभारकम् । जगाम कृतकृत्येव, मुदिता सा स्वमालयम् ॥ ५९५॥ ततः प्रभृति सा तेपे, तपो नानाविधं सुधीः । स्वनामेवाऽविसरन्ती, युगन्धरमुनेर्गिरम् ॥ ५९६ ॥ न हि कश्चिदुपायंस्त, दुर्भगां यौवनेऽपि ताम् । कदुतुम्ब्याः पक्कमपि, फलमश्नाति कोऽथवा ? ॥ ५९७ ॥ ततो विशिष्टसंवेगा, तत्राऽद्रावेयुषः पुनः । युगन्धरमुनेरग्रे, साऽस्त्यात्तानशनाऽधुना ॥ ५९८ ॥ तद् गच्छ दर्शयाऽस्याः खं, त्वयि रक्ता सती मृता। सा ते पत्नी भवेदन्ते, या मतिःसा गतिः किल ॥५९९।। 25 तच्चके ललिताङ्गोपि, साऽपि तद्रागिणी सती । मृत्वा स्वयम्प्रभा नाम, तत्पत्यजनि पूर्ववत् ॥६००॥ प्रणष्टां प्रणयक्रोधादिव प्राप्य प्रियां ततः । स रेमेऽभ्यधिकं तापे, रत्यै छाया हि जायते ॥ ६०१॥ रममाणस्तया सार्द्ध, गते काले कियत्यपि । आत्मच्यवनचिह्नानि, ललिताङ्गो व्यलोकयत् ॥ ६०२ ॥ तस्य रत्नाभरणानि, निस्तेजस्कानि जज्ञिरे । मम्लुश्च मौलिमाल्यानि, तद्वियोगभयादिव ॥६०३॥ मालिन्यं भेजिरे सद्यस्तस्याऽङ्ग वसनानि च । आसन्ने व्यसने लक्ष्म्या, लक्ष्मीनाथोऽपि मुच्यते ॥६०४॥ 30 भोगेष्वत्यन्तमासक्तिस्तस्याऽभूद् धर्मबाधया । प्रकृतिव्यत्ययः प्रायो, भवत्यन्ते शरीरिणाम् ॥ ६०५॥ जजल्प शोकविरसं, तस्य सर्वः परिच्छदः । भाविकार्यानुसारेण, वागुच्छलति जल्पताम् ॥ ६०६ ॥ आकालप्रतिपन्नाभ्यां, प्रियाभ्यां च सहैव हि । कृतापराध इव स, श्रीहीभ्यां पर्यमुच्यत ॥ ६०७ ॥ अदीनोऽपि हि दैन्येन, विनिद्रोऽपि हि निद्रया । स शिश्रिये मृत्युकाले, पक्षाभ्यामिव कीटिका ॥६०८॥ जलजन्तूनाम् । २ प्रतीकारः । ३ प्रवहणानि । १ तृणसमूह इव । ५ कोहगोलः। ६ जिनोपदिष्टम् । ७ गृहीतानशना । विष्णुः। ९ परिवारः। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथमं पर्व हृदयेन समं तस्य विश्लिष्यत्सन्धिबन्धनाः । महाबलैरप्यकम्प्याः, कल्पवृक्षाचकम्पिरे ।। ६०९ ।। तस्याऽरुजोऽप्यभज्यन्त, सर्वाङ्गोपाङ्गसन्धयः । भाविदुर्गतियानोत्थवेदनाशङ्कनादिव ।। ६१० ॥ पदार्थग्रहणे तस्यापदुष्टिरजायत । तथैव स्थितिमन्येषामक्षमेव निरीक्षितुम् || ६११ ॥ गर्भावास निवासोत्थदुःखागमभयादिव । प्रकम्पतरलान्यङ्गान्यस्याज्जायन्त तत्क्षणम् ।। ६१२ ।। 5 क्रीडागिरि सरिद्वापी दीर्घिकोपवनेषु सः । रम्येष्वपि रतिं नाप, सैंपार्कल इव द्विपः ॥ ६१३ ॥ ततः स्वयम्प्रभावोचदपराद्धं न किं मया ? । विमनस्कतया देव !, यदेवमुपलक्ष्यसे ।। ६१४ ॥ ललिताङ्गोऽप्युवाचैवं नाऽपराद्धं प्रिये ! त्वया । अपराद्धं मया सुभ्रु !, यदल्पं प्राकृतं तपः ।। ६१५ ।। भोगेषु जागरूकोsहं, धर्मे सुप्त इवाऽनिशम् । पूर्वजन्मन्यभूवं हि, विद्याधरनरेश्वरः ।। ६१६ ।। मद्भाग्यप्रेरितेनेव, स्वयम्बुद्धेन मन्त्रिणा । धर्मं प्रबोधितो जैनमायुः शेपेऽहमाप्तवान् ॥ ६१७ ॥ इयत्कालं च तद्धर्मप्रभावाच्छ्रीप्रभे प्रभुः । सञ्जातोऽहमत योष्ये, नाऽलभ्यं लभ्यते क्वचित् ॥ ६१८ ॥ एवमाभाषमाणस्य, तस्याऽऽदिष्टो विडौजसा । दृढधर्माभिधो देवो, जगादैवमुपेत्य तम् ॥ ६१९ ॥ जिनेन्द्रप्रतिमापूजां कर्तुं नन्दीश्वरादिषु । यास्यत्यैशानकल्पेन्द्रस्त्वमप्येहि तदाज्ञया ।। ६२० ।। अहो ! भाग्यवशात् कालोचितं मे स्वामिशासनम् । इति प्रमुदितोऽचालीललिताङ्गः सवल्लभः ॥६२१॥ गत्वा नन्दीश्वरे सोsहृत्प्रतिमाः शाश्वतीस्ततः । आनर्च विस्मृतासन्नच्यवनः परया मुदा ।। ६२२ ।। 15 ततोऽप्यन्येषु तीर्थेषु गच्छन् स्वच्छेन चेतसा । सोऽगादभावं क्षीणायुः, क्षीणतैलप्रदीपवत् ॥ ६२३ ॥ जम्बूद्वीपे ततः पूर्वविदेहेषूपसागरम् । महानद्याश्च सीताभिधानाया उत्तरे तटे ।। ६२४ ॥ विजये पुष्कलावत्यां, लोहार्गलमहापुरे । राज्ञः सुवर्णजङ्घस्य, लक्ष्म्यां पत्ल्यां सुतोऽभवत् ||६२५|| [ युग्मम् ॥ ] अथ कन्दलितानन्दाप्य दिवस शुभे । वज्रज इति श्रीता, पितरो नाम चक्रतुः ।। ६२६ ।। स्वयम्भा दुःखाता, कालेन कियताऽप्यथ । धर्मकर्मणि संलीना, व्यच्योष्ट ललिताङ्गवत् ॥ ६२७ नगर्यां पुण्डरीकियां, विजयेऽत्रैव चक्रिणः । वज्रसेनस्य भार्यायां गुणवत्यां सुताऽभवत् ।। ६२८ ।। सर्वलोकातिशायिन्या, श्रियाऽसौ संयुता ततः । श्रीमतीत्यभिधानेन, पितृभ्यामभ्यधीयत ।। ६२९ ॥ लतेवोद्यानपालीभिर्धात्रीभिललिता सती । मृद्वङ्गी विलसत्पाणिपल्लवा ववृधे क्रमात् ॥ ६३० ॥ स्निग्धया पल्लवयन्तीमिव कान्त्या नभस्तलम् । तां यौवनमलञ्चक्रे, रत्नं स्वर्णोर्मिकामिव ॥ ६३१ ॥ अन्येद्युः सर्वतोभद्रं, नाम प्रासादमुच्चकैः । शैलं सन्ध्याभ्रलेखेव, क्रीडयाऽध्यारुरोह सा ।। ६३२ ॥ ततो मनोरमोद्याने, सुस्थितस्य महामुनेः । उत्पन्ने केवलज्ञाने, ददर्शाऽऽगच्छतः सुरान् ॥ ६३३ ॥ पूर्वं मया दमित्यूहापोहकारिणी । जन्मान्तराणि पूर्वाणि, निशास्त्रममिवाऽस्मरत् ।। ६३४ ॥ हृदये प्रभवज्ञानभारं वोढुमिवाऽक्षमा । क्षमासले क्षणादेव, मूच्छिता निपपात सा ।। ६३५ ।। चन्दनापचारेण, सखीभिः कल्पितेन सा । लब्धसंज्ञा समुत्तस्थौ, चित्ते चैवमचिन्तयत् ।। ६३६ ।। पूर्वजन्मपत्ति स, ललिताङ्गो दिवश्युतः । व सम्प्रत्यवतीर्णोऽस्तीत्यज्ञानं हा ! दुनोति माम् ||६३७ || तस्मिन् हृदयसङ्कान्ते, नान्यो मे हृदयेश्वरः । कर्पूरभाण्डे को नाम, लवणं विनिवेशयेत् ? ।। ६३८ ।। स च प्राणाधिनाथो मे, न चेद् वचनगोचरः । आलप्याडलं तदन्येनेत्याददे मौनमेव सा ॥ ६३९ ॥ आधिदैविकदोषाभिशङ्कया तत्सखीजनैः । अकारि मत्रतन्त्रादिरुपचारो यथोचितम् ॥ ६४० ॥ सा मुमोच न मृकत्वमुपचारशतैरपि । व्याधेरन्यस्य न ह्यन्यदौषधं जातु शान्तिकृत् ॥ प्रयोजने परिजनं, स्वं नियोजयति स्म सा । अक्षराणि लिखित्वा भ्रूहस्तादेरथ संज्ञया ॥। ६४२ ॥ * सपङ्किल° सं १ ॥ १ पाकलो गजज्वरः । + 'तीमङ्गका' सं १ ॥ २ तर्कवितर्ककारिणी । + 'दैवतदो' वा ॥ ६४१ ॥ 10 0 25 30 २० 35 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम । अन्येयुः श्रीमती क्रीडोद्याने यातवती सती । एकान्ते समयं प्राप्य, धात्र्योचे पण्डिताख्यया॥६४३॥ मम प्राणा इवाऽसि त्वं, मातेवाऽस्मि तवाऽप्यहम् । अन्योन्यमावयोस्तेन, नाऽस्त्यविश्वासकारणम् ॥६४४॥ मौनमालम्बसे पुत्रि , हेतुना येन शंस तम् । तदुःखसंविभाग मे, दत्त्वा दुःखं लघूकुरु ॥ ६४५ ॥ ज्ञात्वा दुःखं यतिष्येऽहं, तत्प्रतीकारकर्मणे । न ह्यज्ञातस्य रोगस्य, चिकित्सा जातु युज्यते ॥ ६४६ ॥ पण्डितायाः स्ववृत्तान्तं, साऽपि प्राग्जन्मसम्भवम् । यथावदब्रवीत् प्रायश्चित्तार्थी सद्गुरोरिय ॥ ६४७॥ 5 पटे वृत्तान्तमालेख्य, श्रीमत्यास्तं च पण्डिता। उपायपण्डिता मङ्गु, बहिर्दर्शयितुं ययौ ॥ ६४८ ॥ __ चक्रिणो वज्रसेनस्य, वर्षग्रन्थिरभूत् तदा । प्रस्तावादाययुस्तत्र, भूयांसो वसुधाधवाः ॥ ६४९ ॥ पण्डिता राजमार्गेऽथ, तमालेख्यपटं स्फुटम् । विस्तार्य तस्थौ श्रीमत्या, मनोरथमिवाऽलघुम् ॥६५०॥ तत्राऽऽगमविदः केऽपि, स्वर्गनन्दीश्वरादिकम् । आगमार्थाविसंवादि, लिखितं परितुष्टुवुः ॥ ६५१ ॥ इतरे तु महाश्राद्धा, धूनयन्तः शिरोधराम् । प्रत्येकं वर्णयामासुर्बिम्बानि श्रीमदर्हताम् ॥ ६५२ ॥ 10 कूणिताक्षमभीक्ष्णं केऽपीक्षमाणाः प्रतिक्षणम् । रेखाशुद्धिं प्रशशंसुः, कलाकौशलशालिनः ॥ ६५३ ॥ इतरे तु सिति-श्वेत-पीत-नीला-ऽरुणादिकान् । सन्ध्याभ्राभीकृतपटान् , वर्णकानित्यवर्णयन् ॥ ६५४ ॥ ___ अत्रान्तरे च तनयो, दुर्दर्शनमहीपतेः । यथार्थनामा दुर्दान्त, इति तत्र समाययौ ॥ ६५५ ॥ स क्षणं तं पटं प्रेक्ष्य, प्रेक्षावान मूर्च्छया क्षितौ । अलीकयाऽपतदथ, लब्धसंज्ञ इबोत्थितः ॥ ६५६ ॥ मूर्छायाः कारणं पृष्ट, उत्थितश्च जनेन सः । कथयामास वृत्तान्तं, कृत्वा कपटनाटकम् ॥ ६५७ ॥ 15 मम प्राग्जन्मचरितं, पटे केनाऽप्यलेख्यत । जातिस्मरणमुत्पेदे, हन्त! तदर्शनादिह ।। ६५८ ॥ ललिताङ्गोऽस्म्यहं देवो, मम देवी स्वयम्प्रभा । इत्यादि संवदत्येव, यदत्र लिखितं पटे ॥ ६५९॥ __ पप्रच्छ पण्डिता चाऽथ, यद्येवं भद्र ! तद्वद । सनिवेशः पटे कोऽयमङ्गुल्या दर्शय स्वयम् ॥६६०॥ स ऊचे मेरुरेषोऽद्रिः, पूरियं पुण्डरीकिणी । पुनः पृष्टो मुने माऽब्रवीनामाऽस्य विस्मृतम् ॥ ६६१ ॥ भूयोऽपि पृष्टः को नाम, नृपोऽयं मत्रिभितः। तपस्विनी च का न्वेषेत्याख्यदाख्यां न वेद्यहम्॥६६२॥ 20 मायावीति च संज्ञातः, सोपहासं तयोदितः । पुत्रदं संवदत्येव, प्राग्जन्मचरितं तव ॥ ६६३ ॥ ललिताङ्गोऽसि देवस्त्वं त्वत्पत्नी तु खयम्प्रभा।नन्दिग्रामे कर्मदोषात् ,पङ्गभूताऽस्ति सम्प्रति॥६६४॥ सञ्जातजातिस्मरणादालिख्य चरितं निजम् । पटो मे धातकीखण्डगताया अर्पितस्तया ॥ ६६५ ।। तस्याः पवाः करुणया, त्वं मयाऽसि गवेषितः । तदेहि धातकीखण्डे, त्वां नयामि तदन्सिक॥६६६॥ वराकी त्वद्वियोगे सा, दुःखं जीवति पुत्रक!। समाश्वासय तामद्य, प्राग्जन्मप्राणयल्लभाम् ।। ६६७ ॥ 25 एवमुक्त्वा पण्डितायां, तूष्णीकायां स मायिकः । इत्थं वयस्यैः खैरेव, सोपहासमभाष्यत ॥ ६६८॥ कलत्ररत्नाधिगमादहो ! पुण्योदयस्य । अभिगम्या च पोष्या च, सा पङ्गः सर्वथा तव ॥ ६६९ ।। ततो वैलक्ष्यदीनास्यः, स दुर्दान्तः कुमारकः । विक्रीयमाणेभ्य इवाऽयशिष्टः कचिदप्यमात् ॥ ६७० ॥ __ लोहार्गलपुराद् वज्रजवोपि हि तदाऽऽययौ । चरितं चित्रलिखितं, तद् ददर्श मुमूर्छ च ॥६७१॥ व्यजनै जितो नीरैरुक्षितोऽथ स उत्थितः । जातजातिस्मृतिरभूत, सद्यः स्वर्गादिवागतः ॥ ६७२ ॥ 30 पटालेख्यमिदं दृष्ट्वा, किं कुमाराऽसि मूछितः । इति पण्डितया पृष्टो, वज्रजङ्घोऽब्रवीदिदम्।।६७३॥ चरित्रं सकलत्रस्य, मम प्राग्भयसम्भवम् । इदं हि लिखितं भद्रे !, तद् दृष्ट्वा मूछितोऽस्म्यहम् ।। ६७४॥ श्रीमानशानकल्पोऽयं, विमानं श्रीप्रभंत्विदम् । एषोऽहं ललिताङ्गाख्यः, प्रिया मेऽसौ स्वयम्प्रभा६७५ इसश्च धातकीखण्डे, नन्दीग्रामस्य मध्यतः । गृहे महादरिद्रस्य, सुता निर्मामिकेत्यसौ ॥ ६७६ ॥ शैलमम्बरतिलकमध्यारूदाऽस्ति सा त्विह । गृहीतानशनाऽमुष्य, युगन्धरमुनेः पुरः ॥ ६७७॥ 35 १चित्ररचना। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व आत्मसन्दर्शनायाऽस्या, आगतोऽहमिहाऽसि च । मयि रक्ता मृता जज्ञे, नॅनमेषा स्वयम्प्रभा॥६७८ ॥ इह नन्दीश्वरे जैनबिम्बार्चनपरोऽस्म्यहम् । गच्छनितोऽन्यतीर्थेषु, च्यवमानोऽहमंस्म्यहम् ॥ ६७९ ॥ इह चैकाकिनी दीना, वराकीयं स्वयम्प्रभा । इह च च्यवमानेयं, मन्ये सैव मम प्रिया ॥ ६८०॥ साऽस्तीह मन्ये लिखितं, जातिस्मृत्या तया त्वदः। अन्यानुभूतं न ह्यन्यो, जनो जानाति जातुचित् ॥६८१॥ आमेति पण्डिताऽप्युक्त्वा, श्रीमत्याः पार्श्वमेत्य च । तत्सर्वमाख्यत् हृदयविशल्यकरणौषधम् ॥ ६८२॥ श्रीमती दयितोदन्तगिरा रोमाञ्चिताऽभवत् । अम्भोदध्वनिना रत्नाङ्कुरितेव विदूरभूः ॥ ६८३ ॥ . पितुर्व्यज्ञपयत् तच्च, श्रीमती पण्डितामुखात् । अस्वातत्र्यं कुलस्त्रीणां, धर्मो नैसर्गिको यतः॥६८४ ॥ तद्गिरा मुदितः सद्यः, स्तनितेनेव बर्हिणः । वज्रसेननृपो वज्रजङ्घमाजूहवत् ततः ॥ ६८५ ॥ कुमारमूचे भूपालोऽसत्पुत्री श्रीमतीत्यसौ । भवत्विदानी भवतो, गृहिणी पूर्वजन्मवत् ॥ ६८६ ॥ 10 तथेति प्रतिपन्ने च, कुमारेणोदवाहयत् । श्रीमती भूपतिः प्रीतो, हरिणेवोदधिः श्रियम् ॥ ६८७ ॥ ज्योत्स्त्रीचन्द्राविव युतौ, तौ सितक्षौमवाससौ । लोहार्गलपुरं राज्ञाऽनुज्ञातौ जग्मतुस्ततः ॥ ६८८ ॥ योग्यं ज्ञात्वा वज्रजङ्घ, स्वर्णजङ्घोऽथ भूपतिः । राज्ये निवेशयामास, स्वयं दीक्षामुपाददे ॥ ६८९ ॥ सूनोः पुष्कलपालस्य, दत्त्वा राज्यश्रियं निजाम् । प्रात्राजीद् वज्रसेनोऽपि, जज्ञे तीर्थकरश्च सः॥६९०॥ विलसन् वज्रजङ्घोऽपि, श्रीमत्या सह कान्तया । उवाह लीलया राज्यमम्भोजमिव कुञ्जरः ॥ ६९१ ॥ 15 अप्राप्तयोर्विप्रयोगं, गङ्गासागरयोरिव । तयोर्भुञ्जानयो गान् , सुतः समुदपद्यत ॥ ६९२ ॥ ___ अथ पुष्कलपालस्य, व्यभिंद्यन्त महारुषः । समन्तात् सीमसामन्सः, सर्पभारोपमाजुषः ॥ ६९३ ॥ तेन तेषां द्विजिह्वानामिव साधनहेतवे । नरेन्द्रो वज्रजङ्घोऽथ, समाहूतोऽचलद् बली ॥ ६९४ ॥ श्रीमत्यपि समं वज्रजङ्घन जगतीभुजा । अचालीदचला भक्तिः, पौलोमीव बिडौजसा ॥ ६९५ ॥ स गच्छन्नर्द्धमार्गेऽथ, महाशरवणं पुरः । ददर्श दर्शयामिन्यामपि ज्योत्स्नाभ्रमप्रदम् ॥ ६९६ ॥ 20 दृग्विषोऽहिरिहाऽस्तीति, विज्ञप्तः सोऽध्वगैरगात् । पथाऽन्येन नयज्ञा हि, प्रस्तुतार्थेषु तत्पराः ॥ ६९७ ॥ आययौ पुण्डरीकिण्यां, पुण्डरीकोपमोऽथ सः । सामन्तमण्डलं सर्व, वशेऽभूत् पुष्कलस्य च ॥६९८॥ राजा पुष्कलपालोऽपि, पुष्कलानि विधेयवित् । विविधानि व्यधादस्य, स्वागतानि गुरोरिव ॥ ६९९ ॥ श्रीमन्तं श्रीमतीबन्धुमनुज्ञाप्याऽन्यदा तु सः । श्रीमत्या सहितोऽचालीच्छ्रियः पतिरिव श्रिया॥७००॥ सोऽथ प्राप्तः शरवणं, निकषा कषणो द्विषाम् । इत्यूचे कुशलैर्यात, मध्येनाऽप्यस्य सम्प्रति ॥ ७०१ ॥ 25 उत्पेदे केवलज्ञानं, द्वयोरत्राऽनगारयोः । तत्र देवागमोयोताद् , दृग्विषो निर्विषोऽभवत् ।। ७०२ ॥ नाम्ना सागरसेनश्च, मुनिसेनश्च तौ मुनी । राजन्नत्रैव विद्यते, सूर्याचन्द्रमसाविव ॥ ७०३ ॥ सोदयौं तौ मुनी ज्ञात्वा, विशेषमुदितो नृपः । उवास तत्रैव वने, वनमालीव वारिधौ ॥ ७०४ ॥ कुर्वाणौ देशनां तत्र, तौ वृतौ देवपर्षदा । भक्तिभारादिवाऽऽनम्रः, सभार्यः सोऽभ्यवन्दत ॥७०५ ॥ देशनान्ते च पानानवस्त्रोपकरणादिभिः । तौ प्रत्यलाभयद् राजा, चिन्तयामास "चेति सः॥७०६॥ 30 धन्यावेतौ निष्कषायौ, निर्ममौ निष्परिग्रहौ । सोदर्यभावे सामान्येऽप्यहो! नाऽस्म्यहमीदृशः ॥ ७०७ ॥ आत्तव्रतस्य तातस्य, सत्पथेनाऽनुगामिनौ । एतावेचौरसौ पुत्रौ, पुत्रः क्रीत इवाऽस्म्यहम् ॥ ७०८ ॥ एवं स्थितेऽपि मे किश्चिन्नायुक्तं प्रव्रजामि चेत् । प्रवज्या दीपिकेवाऽऽत्तमात्राऽपि हि तमश्छिदे ॥७०९॥ तदिदानी पुरीं गत्वा, दत्त्वा राज्यं च सूनवे । हंसस्येव गतिं हंसः, श्रयिष्येऽहं पितुर्गतिम् ॥ ७१० ॥ संवादिन्या व्रतादानेऽनुस्यूतमनसेव सः । सहितः श्रीमतीदेव्या, प्राप लोहार्गलं पुरम् ।। ७११॥ * पुनरेषा स्व° ता, खं ॥ मसम्ययम् ता॥ दखनिना र खं ॥ ज्योत्स्नाच संता॥ १ अन्तर्भेदं प्राप्ताः। इन्द्राणी । ३ समीपे । ४ संहारकः । ५ सहोदरौ। ६ विष्णुरिव । चेतसि सं १,२॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ प्रथमः सर्गः] त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरितम् । राज्यलुब्धस्तदा त्वस्य, पुत्रः प्रकृतिमण्डलम् । धनैरभेदयत् तैर्हि, किं न भेधं जलैरिव ? ॥ ७१२ ॥ प्रातः स्वयं व्रतादानं, राज्यदानं सुतस्य च । चिन्तयन्तौ सुषुपतुर्निशायां श्रीमतीनृपौ ॥ ७१३॥ विषधूपं व्यधात् पुत्रस्तयोस्तु सुखसुप्तयोः । कस्तं निरोद्भुमीशः स्याद् , गृहादमिमिवोत्थितम् ? ॥७१४ ॥ तभूपधूमैरधिकैर्जीवाकर्षाङ्कुटैरिव । प्राणप्रविष्टैस्तौ सद्यो, दम्पती मृत्युमापतुः ॥ ७१५ ॥ अथोत्तरकुरुष्वेतावुत्पन्नौ युग्मरूपिणौ । एकचिन्ताविपन्नानां, गतिरेका हि जायते ॥ ७१६ ॥ क्षेत्रानुरूपमायुश्च, पूरयित्वा तथा युतौ । तौ विपद्योदपद्येतां, सौधर्मे स्नेहलौ सुरौ ॥७१७ ॥ - वज्रजङ्घस्य जीवोऽथ, भोगान् भुक्त्वा निरन्तरम् । आयुःक्षयात् ततोऽच्योष्ट,हिमग्रन्थिरिवाऽऽतपात् ७१८ जम्बूद्वीपे विदेहेषु, पुरे क्षितिप्रतिष्ठिते । वैद्यस्य सुविधेः पुत्रः, स जीवानन्द इत्यभूत् ॥७१९ ॥ तदैव तसिन्नगरे, चत्वारोऽन्येऽपि दारकाः । उदपद्यन्त धर्मस्य, भेदा इव वपुर्जुषः ॥ ७२० ॥ अभूत् तत्रैक ईशानचन्द्रस्य पृथिवीपतेः । भार्यायां कनकवत्यां, सूनुर्नाम्ना महीधरः ॥ ७२१॥ 10 मत्रिणोऽन्यः शुनाशीरनाम्नः पल्यामजायत । लक्ष्म्यां श्रीनन्दन इव, सुबुद्धिर्नाम नन्दनः ॥७२२॥ अन्यः सागरदत्तस्य, सार्थवाहपतेरभूत् । भार्यायामभयमत्यां, पूर्णभद्राभिधः सुतः ॥ ७२३ ॥ चतुर्थश्च समुत्पेदे, पन्यां श्रेष्ठिधनस्य तु । शीलमत्यां शीलपुञ्ज, इव नाम्ना गुणाकरः ॥ ७२४ ॥ प्रयवाद् रक्ष्यमाणास्ते, बालधारैर्दिवानिशम् । समं ववृधिरे सर्वेऽप्यङ्गेऽङ्गावयवा इव ॥ ७२५ ॥ सहपांशक्रीडिनस्ते. जगहः सममेव हि। कलाकलापं सकलं, मेघाम्भः पादपा इव ॥ ७२६॥ 15 तत्रैव नगरे जीवः, श्रीमत्या अपि सोऽभवत् । सूनुरीश्वरदत्तस्य, श्रेष्ठिनः केशवाभिधः ॥ ७२७ ॥ समं च मिलितास्तेन, ते पण्मित्राणि जज्ञिरे । अवियुक्ताः करणान्तःकरणानीव सर्वदा ॥ ७२८ ॥ विदाञ्चकाराऽऽयुर्वेदं, जीवानन्दोऽपि पैतृकम् । अष्टाङ्गमौषधीश्चाऽपि, रसवीर्यविपाकतः ॥ ७२९ ॥ ऐरावण इवेभेषु, ग्रहेष्विव दिवाकरः । अभूत् प्राज्ञो निरवद्यविद्यो वैद्येषु सोऽग्रणीः ॥ ७३० ॥ सौदर्या इव सम्भूय, रममाणाः सदैव ते । कदाचित् कस्यचिद् वेश्मन्यन्योऽन्यस्याऽवतस्थिरे ॥ ७३१ ॥ 20 एकदा वैद्यपुत्रस्य, जीवानन्दस्य मन्दिरे । एतेषां तिष्ठतामेकः, साधुर्भिक्षार्थमाययौ ॥ ७३२ ॥ पृथ्वीपालस्य राज्ञः स, सूनुर्नाम्ना गुणाकरः । राज्यं मलमिवोत्सृज्य, शमसाम्राज्यमाददे ॥ ७३३ ॥ सरिदोघ इव ग्रीष्मातपेन तपसा कृशः । कृमिकुष्ठाभिभूतश्च, सोऽकालापथ्यभोजनात् ॥ ७३४ ॥ सर्वाङ्गीणं कृमिकुष्ठाधिष्ठितोऽपि स भेषजम् । ययाचे न क्वचित् कायानपेक्षा हि मुमुक्षवः ॥ ७३५ ॥ गोमूत्रिकाविधानेन, गेहाद् गेहं परिभ्रमन् । षष्ठस्य पारणे दृष्टः, स तैर्निजगृहाङ्गणे ॥ ७३६ ॥ 25 महीधरकुमारेण, स किश्चित् परिहासिना । जीवानन्दो निजगदे, जगदेकभिषक् ततः ॥ ७३७ ॥ अस्ति व्याधेः परिज्ञानं, ज्ञानमस्त्यौषधस्य च । चिकित्साकोशलं चाऽस्ति, नाऽस्ति वः केवलं कृपा ॥७३८॥ सदा संस्तुतमप्यार्त्तमपि प्रार्थकमप्यहो ! । वेश्या इव विना द्रव्यं, यूयं नाऽक्ष्णाऽपि पश्यथ ॥ ७३९ ॥ तथाऽप्येकान्ततो नाऽर्थलुब्धैर्भाव्यं विवेकिभिः । धर्ममप्युररीकृत्य, कृत्यं क्वापि चिकित्सितम् ॥७४०॥ चिकित्सायां निदाने च, धिक् ते सर्व परिश्रमम् । आयातमीदृशं पात्रं, सरोगं यदुपेक्षसे ॥ ७४१ ॥ 30 जीवानन्दोऽपि विज्ञानरत्नरत्नाकरोऽब्रवीत् । साधु साधु महाभाग, त्वया विसापितोऽस्म्यहम् ॥७४२॥ ब्राह्मणजातिरद्विष्टो, वणिग्जातिरवञ्चकः । प्रियजातिरनीालुः, शरीरी च निरामयः ॥ ७४३ ॥ विद्वान् धनी गुण्यगर्वः, स्त्रीजनश्चाऽपचापलः । राजपुत्रः सुचरित्रः, प्रायेण न हि दृश्यते ॥ ७४४ ॥ [सन्दानितकम् ] ___ * सर्वेऽप्यनझाव सं ॥ १ करणानि इन्द्रियाणि, अन्तःकरणं मनः, एतान्यपि षटूसङ्ख्याकानि । २ गोमूत्रधारावद्वत्वेन। ३ परिचितम् । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्नाचार्यप्रणीतं [ प्रथवं पर्व चिकित्सनीय एवाऽहो !, महामुनिरयं मया । औषधानामसामग्री, किन्तु यावन्तरायताम् ॥ ७४५ ॥ तत्रैक लक्षपार्क मे, तैलमस्तीह नाऽस्ति तु । गोशीर्षचन्दन रत्नकमबालश्चाऽऽनयन्तु तत् ॥७४६ ॥ आनेष्यामो वयमिति, प्रोच्य पश्चापि तत्क्षणम् । ते ययुर्विपणिश्रेणी, स्वस्थानं सोऽप्यगान्मुनिः ।।७४७।। रत्नकम्बल-गोशीर्षे, मूल्यमादाय यच्छ नः । इत्युक्तस्तैर्वणिग्वृद्धस्ते ददानोऽब्रवीदिदम् ॥ ७४८ ॥ दीनाराणां लक्षमेकं, प्रत्येकं मूल्यमेतयोः। गृहीत ब्रूत वस्तुभ्यां, किमाभ्यां वः प्रयोजनम् ॥७४९॥ तेऽप्यूचुर्मूल्यमादत्स्व, दत्स्व गोशीर्षकम्बलौ । एताभ्यां हि महासाधुचिकित्सा नः प्रयोजनम् ॥ ७२० ॥ श्रुत्वा तद्वचनं श्रेष्ठी, विसयोत्तानलोचनः । रोमाञ्चसचितानन्दश्चेतसैवमचिन्तयत् ॥ ७५१ ॥ कैषां यौवनमुन्मादप्रमादमदनोन्मदम् ? । मतिर्विवेकवसतिर्वयोवृद्धोचिता क च १ ॥ ७५२ ॥ जराजर्जरकायाणां, मादृशां योग्यमीदृशम् । कुर्वन्त्यमी यत् तदहोऽदम्यारोऽयमुह्यते ॥ ७५३ ॥ चिन्तयित्वेति सोऽवोचदिमौ गोशीर्षकम्बलौ । गृह्यतामस्तु वो भद्रं, भद्रा! द्रव्येण चाऽस्तु कः ॥७५४॥ अवयोर्वस्तुनोर्मूल्यमादास्ये धर्ममक्षयम् । धर्मभागीकृतः साधु, युष्माभिः सोदरैरिव ॥ ७५५ ॥ श्रेष्ठिश्रेष्ठोऽपयित्वाऽथ, तेषां गोशीर्षकम्बलौ । भावितात्मा प्रवत्राज, वव्राज च परं पदम् ॥ ७५६ ॥ आदायौषधसामग्रीमग्रिमास्ते महात्मनाम् । जीवानन्देन सहिताः, प्रययुफैन तं मुनिम् ।। ७५७ ॥ न्यग्रोधपादपस्याऽधस्तत्पादमिव निश्चलम् । कायोत्सर्गेण तिष्ठन्तं, तं नत्वा ते बभाषिरे ।। ७५८ ।। धर्मविनं करिष्यामश्चिकित्साकर्मणाऽद्य वः । भगवन्ननुजानीहि, पुण्येनाऽनुगृहाण नः ॥ ७५९ ।। मुनिमेषममुज्ञाप्य, तेऽथ गोमृतकं नवम् । आनिन्युर्विचिकित्सन्ति, न हि जातु चिकित्सकाः ॥ ७६० ॥ मुनेः प्रत्यङ्गमभ्यङ्गं, तेन तैलेन ते व्यधुः । उद्यानमिव कुल्याम्भः, शरीसन्तस्तदानशे ॥ ७६१ ॥ तैलेनाऽत्युष्णवीर्येण, जज्ञे निःसंज्ञको मुनिः । योग्यमुग्रस्य हि व्याधेः, शान्त्यामत्युग्रमौषधम् ।। ७६२ ॥ आकुलास्तेन तैलेन, कृमयस्तस्कलेवरात् । तस्थुर्बहिर्जलेनेव, वोमलरात् पिपीलिकाः ॥ ७६३ ॥ . 20 जीवानन्दस्ततो रत्नकम्बलेन समन्ततः । मनिमाच्छादयामास, शशीव ज्योत्स्नया नभः॥ ७६४॥ कमयोऽथ न्यलीयन्त. शीतत्वाद रत्नकम्बले। शैवले ग्रीष्ममध्याहतप्ताः शफरिका इव ॥७६५॥ मन्दमन्दोलयन वैद्यः, कम्बलं गोशवोपरि । कमीनपातयदहो!, सर्वत्राद्रोहिता सताम् ॥ ७६६ ॥ जन्तुजीवातुभिर्जीबानन्दोऽमृतरसैरिख । मुनिमाश्वासयामास, ततो गोशीर्षचन्दनैः ॥ ७६७ ॥ कृमयस्त्वग्गता एव, ह्यमी निरसरनिति । तैलाभ्यङ्गं मुनेर्भूयो, जीवानन्दोऽथ निर्ममे ॥ ७६८ ॥ 25 तेनाऽभ्यङ्गेन भूयोऽपि, भूयांसो मांसगा अपि । निरीयुः कृमयो वातेनोदानेन रसा इव ॥ ७६९ ॥ तथैवाच्छादने रत्नकम्बले कमयोऽलगन् । अलक्तकंपटे दनोऽतिद्व्यहस्येव जन्तवः ।। ७७० ॥ कस्मिन् मोमृतके भूयस्तान कृमीन रत्नकम्बलात् । तथैवाऽपातयदहो !, भिषजो बुद्धिकौशलम् ॥ ७७१ ॥ गोशीर्षचन्दनरसासारैराण्याययन्मुनिम् । जीवानन्दोऽम्भोद' इवा, वृथ्याः ग्रीष्मादितं द्विपम् ।। ७७२ ।। भूयोऽभ्यङ्गेन किरंयुः, कृमयोऽस्थिगता अपि । न वज्रपञ्जरेऽप्यस्ति, स्थानं स्टे क्लीयसि ।। ७७३ ।। 30. रत्नकम्बललग्नास्ताम् , पुनर्गोमृतके कमीम् । स चिक्षेपाऽधमं स्थानमधमामां हि युज्यते ॥ ७७४ ॥ गोशीर्षचन्दनरसैविलिलेप मुनि पुनः । भक्त्या परमया देवमिव सद्यो भिषम्वरः ॥ ७७५ ॥ संरोपणौषधैर्जातमवत्वक् कान्तिमान मुनिः । चकासामास निर्मुष्टकाञ्चनप्रतिमेवः सः ।। ७७६. ।। तैतिदक्षैः क्षमितः, स क्षमाक्षमणस्ततः । ययौ विहर्तुमन्यत्र, नास्था काऽपि हि तादृशाम् ।। ७७७ ॥ ततोऽवशिष्टगोशीर्षचन्दनं रत्नकम्बलम् । तत्र विक्रीय जगृहुस्ते स्वर्ण बुद्धिशालिनः ॥ ७७८ ॥ ..विनत्वम् । २ वस्सतरः । *युर्यत्रतं. सं ॥ ३ वटवृक्षस्य । ४ सारणिजलम् । ५ वष्मीचाद। बयाः । ७ जन्तु जीवनप्रदैः। 1 °कपुटे आ॥ अतिक्रान्तदिनद्वयस्य । निरीयः संता॥संरोहणौ खं, आ॥ श्रवण मंदा। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तेन स्वर्णेन ते चैत्यं, सुवर्णेन स्वकेन च । कारयामासुरुत्तुङ्ग, मेरुशृङ्गमिवाऽऽहत्तम् ॥ ७७९ ।। जिना_मर्चयन्तस्ते, गुरूपासनतत्पराः । कर्मवत् क्षपयामासुः, कश्चित् कालं महाशयाः ॥ ७८० ॥ ते षडप्येकदा जातसंवेगाः साधुसन्निधौ । धीमन्तो जगृहुर्दीक्षां, मर्त्यजन्मतरोः फलम् ॥ ७८१ ॥ ते विजहुः पुरि पुरो, ग्रामे ग्रामाद् वने वनात् । तिष्ठन्तो नियतं कालं, राशौ राशेरिव ग्रहाः ॥ ७८२ ॥ शाणेरिव तपोभिस्ते, तूर्यषष्ठाष्टमादिभिः । चारित्ररत्नं विदधुर्निर्मलं निर्मलादपि ॥ ७८३ ॥ अपीडयन्तो दातारं, प्राणधारणकारणात् । पारणे जगृहुर्भिक्षां, ते मधुव्रतवृत्तयः ॥ ७८४ ॥ अवलम्बितधैर्यास्ते, क्षुत्पिपासातपादिकान् । परीषहान सहन्ते स्म, प्रहारान् सुभटा इव ॥ ७८५ ॥ सेनाङ्गानीव चत्वारि, मोहराजस्य सर्वतः । चतुरोऽपि कषायांस्ते, जिग्युरस्त्रैः क्षमादिभिः ॥ ७८६ ॥ कृत्वा संलेखनामादौ, द्रव्यतो भावतश्च ते । भेजिरेऽनशनं कर्मशैलनिनोशनाशनिम् ॥ ७८७ ॥ समाधिभाजस्ते पञ्चपरमेष्ठिनमस्क्रियाम् । सरन्तस्तत्यजुर्देहं, न हि मोहो महात्मनाम् ॥ ७८८ ॥ 10 षडपि द्वादशे कल्पेऽच्यतनामनि तेऽभवन । शकसामानिकास्ताग, न सामान्यफलं तपः ॥ ७८९ ॥ आयुस्ते पूरयित्वा द्वाविंशति सागरोपमान् । ततोऽच्यवन्ताऽच्यवनं, न हि मोक्षं विना क्वचित् ॥ ७९० ॥ जम्बूद्वीपाभिधे द्वीपे, विदेहेषु च पूर्वतः । विजये पुष्कलावत्यां, महाम्भोनिधिसन्निधौ ॥७९१॥ नगर्या पुण्डरीकिण्यां, वज्रसेनस्य भूपतेः । धारिण्यां जज्ञिरे राज्यां, तेषु पञ्च क्रमात् सुताः ॥७९२॥ तत्र वैद्यस्य जीवोऽभूद्, वज्रनाभोऽभिधानतः । चतुर्दशमहास्वमसूचितः प्रथमः सुतः ॥ ७९३ ॥ 15 राजपुत्रस्य जीवस्तु, द्वितीयो बाहुसंज्ञया । मत्रिपुत्रस्य जीवोऽपि, सुबाहुरिति नामतः ॥ ७९४ ॥ नाम्ना पीठमहापीठौ, श्रेष्ठिसार्थेशपुत्रयोः । जीवौ जीवः केशवस्य, सुयशा राजपुत्रकः ॥ ७९५ ।। सुयशाः शिश्रिये वज्रनाभं बाल्यात् प्रभृत्यपि । स्नेहः प्राग्भवसम्बद्धो, ह्यनुबध्नाति बन्धुताम् ॥७९६॥ तेऽवर्द्धन्त क्रमाद् राजसूनवः सुयशाः स च । नरभावमिवापन्नाः, षड्वर्षधरपर्वताः ॥ ७९७ ॥ वाहयन्तो मुहुर्वाहान् , वाह्याल्यां ते महौजसः । बिभराञ्चक्रिरेऽनेकरूपरेवन्तविभ्रमम् ॥ ७९८॥ 20 कलाभ्यासे कलाचार्योऽभूत् तेषां साक्षिमात्रकः । प्रादुर्भवन्ति महतां, स्वयमेव यतो गुणाः ।। ७९९ ॥ शैलानपि शिलातोलं, तेषां तोलयतां भुजैः । अपूर्यत बलक्रीडा, न केनापि मनागपि ॥ ८००॥ __ अथ लोकान्तिकैर्देवैरन्तिकीभूय भूपतिः । वज्रसेनो व्यज्ञपीदं, स्वामिंस्ती प्रवर्त्तय ॥ ८०१ ॥ वज्रसेनस्ततो वज्रनाभं वनिसमौजसम् । राज्ये निवेशयामास, स्वमिवाऽपरमूर्त्तितः ॥ ८०२ ॥ सांवत्सरिकदानेन, प्रीणयामास मेदिनीम् । अम्भोधर इवाऽम्भोभिर्वज्रसेननृपस्ततः ॥ ८०३ ॥ देवासुरनृदेवैश्व, कृतनिष्क्रमणोत्सवः । गत्वोद्यानमलञ्चक्रे, स व्योमेव हिमद्युतिः ॥ ८०४ ॥ स्वयम्बुद्धः स भगवांस्तत्र दीक्षामुपाददे । उदपद्यत च ज्ञानं, मनःपर्ययसंज्ञकम् ।। ८०५ ॥ आत्मारामः साम्यधनो, निर्ममो निष्परिग्रहः । प्रावर्त्तत विहां मां, स नानाभिग्रहः प्रभुः ॥ ८०६ ॥ । भ्रातृभ्यो वज्रनाभोऽपि, प्रत्येकं विषयान् ददौ । लोकपालैरिवेन्द्रोऽभात् , स च तैर्नित्यसेवकैः ॥८०७॥ क्षत्ताऽभूत् तस्य सुयशा, अरुणस्तरणेरिव । आत्मानुरूपः कर्त्तव्यः, सारथिर्हि महारथैः ॥ ८०८॥ 30 उत्पेदे वज्रसेनस्य, घातिकर्ममलक्षयात् । उयोतो दर्पणस्येव, केवलज्ञानमुज्वलम् ॥ ८०९ ॥ तदा च वज्रनाभस्य, प्रविवेश महीपतेः । चक्रमायुधशालायामधरीकृतभास्करम् ॥ ८१०॥ त्रयोदश च रत्नानि, तस्याऽऽसन्नपराण्यपि । सम्पद्धि पुण्यमानेनाऽम्भोमानेनेव पद्मिनी ।। ८११॥ नवाऽपि निधयस्तस्याऽभवन् सेवाविधायिनः । आकृष्टाः प्रबलैः पुण्यैर्गन्धैरिव मधुव्रताः ॥ ८१२ ॥ सोऽशेष साधयामास, विजयं पुष्कलावतीम् । चक्रे च चक्रवर्तित्वाभिषेकोऽस्याखिलैर्नृपः ॥ ८१३ ॥ 35 १ सूर्यपुत्रः। २ चन्द्रः। ३ देशान् । ४ सारथिः । विषष्टि. ४ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व भुञ्जानस्याऽप्यस्य भोगान् , धर्मे धीरधिकाधिकम् । वयसो वर्द्धमानस्य, स्पर्द्धयेव व्यवर्द्धत ॥ ८१४ ॥ क्रमादस्य प्रभवन्त्या, भववैराग्यसम्पदा । बहिष्टा धर्मधीरासीद् , वल्लीवाऽऽवालवारिणा ॥ ८१५ ।। एकदा विहरंस्तत्र, वज्रसेनजिनेश्वरः । परमानन्दजननः, साक्षान्मोक्ष इवाऽऽययौ ॥ ८१६ ।। स्वामी समवसरणे, ततश्चैत्यतरोस्तले । कर्णामृतप्रपां धर्मदेशनामुपचक्रमे ॥ ८१७ ॥ सबन्धुर्वज्रनाभोऽपि, जगद्वन्धोर्जिनप्रभोः । राजहंस इवाऽऽभ्यागादुपपादाम्बुजं मुदा ॥ ८१८॥ स त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य, प्रणम्य च जगत्पतिम् । अनुजन्मेव शक्रस्य, पृष्ठतः समुपाविशत् ।। ८१९ ॥ म बोधिमुक्ताजननी, भव्यमानसशुक्तिषु । देशनां स्वातिवृष्टयाभां, शुश्राव भागकाग्रणीः ॥ ८२० ॥ गिरं भगवतः शृण्वन् , मृगो गीतिमिवोन्मनाः । हर्षाद् विचिन्तयामास, स एवं भूमिवासवः ॥८२१॥" असावपारः संसारः, सरस्वानिव दुस्तरः । तस्यापि तारकस्तातो, दिष्ट्याऽसौ विष्टपाधिपः ॥ ८२२ ॥ 10 अन्धकार इवाऽत्यन्तं, मोहोऽन्धङ्करणो नृणाम् । तस्याऽयमभितो भेत्ता, भगवान् भानुमानिव ॥ ८२३ ॥ चिरकालभवश्वाऽयं, महाव्याधिरिवोल्वणः । अचिकित्स्यः कर्मराशिस्तातस्तस्य चिकित्सकः ॥ ८२४ ॥ यद्वा किमन्यत् सर्वेषां, दुःखानामेष नाशनः । सुखानामेकजननः, करुणामृतसागरः॥ ८२५ ॥ खामिन्येवंविधेऽप्यस्मिन्नहो ! मोहप्रमद्वरैः । असाभिरात्मनैवाऽऽत्मा, वश्चितोऽसौ कियच्चिरम् ? ॥८२६॥ चक्रवर्ती ततो धर्मचक्रवर्तिनमानतः । इति विज्ञपयामास, भक्तिगद्गदया गिरा ॥ ८२७ ॥ 15 ____ अर्थप्रसाधनपरैर्नीतिशास्त्रैश्चिरं मम । मतिः कदर्थिता नाथ !, क्षेत्रभूः कुँशिकैरिव ॥ ८२८ ॥ तथा विषयलोलेन, नित्यं नेपथ्यकर्मभिः । अयमात्मा नटेनेव, चिरं विनटितो मया ॥ ८२९ ।। इदं हि मम साम्राज्यमर्थकामनिबन्धनम् । चिन्त्यते यस्तु धर्मोऽत्र, स स्यात् पापानुबन्धकः ॥ ८३०॥ तातस्य पुत्रो भूत्वाऽपि, भवाम्भोधौ भ्रमामि चेत् । तत् कः पुरुषकारः स्यादन्यसाधारणस्य मे ? ॥८३१॥ अपालयमिदं राज्यं, युष्मद्दत्तमहं यथा । तथा संयमसाम्राज्यं, पालयिष्यामि देहि मे ॥ ८३२ ॥ कृत्वा च पुत्रसाद् राज्यं, निजान्वयनभोरवि । व्रतं भगवतः पार्श्वे, प्रपेदे चक्रवर्त्यथ ।। ८३३ ॥ बाहादयोऽपि जगृहुस्तत्सोदर्यास्तदा व्रतम् । पित्रा ज्येष्ठेन चोपात्तं, तद्धि तेषां क्रमागतम् ॥ ८३४ ॥ सुयशाः सारथिः सोऽपि, पादान्ते धर्मसारथेः । अनुस्वामि प्रवत्राज, भृत्याः खाम्यनुगामिनः ॥८३५॥ श्रुतसागरपारीणो, वज्रनाभोऽभवत् क्रमात् । प्रत्यक्षा द्वादशाङ्गीव, जङ्गमैकाङ्गतां गता ॥ ८३६ ॥ एकादशाझ्याः पारीणा, जाता बाह्वादयोऽपि ते । क्षयोपशमवैचित्र्याचित्रा हि श्रुतसम्पदः ॥ ८३७ ॥ 25 तीर्थकृत्पादसेवायास्तपसो दुश्चरस्य च । असन्तुष्टाः सदाऽभूवंस्ते सन्तोषधना अपि ॥ ८३८ ॥ ते नित्यं तीर्थकृद्वाणीपीयूषरसपायिनः । अपि मासोपवासादितपसा नैव चक्लमः॥ ८३९ ॥ भगवान् वज्रसेनोऽपि, शुक्लध्यानं श्रितोऽन्तिमम् । निर्वाणं पाप गीर्वाणप्रपश्चितमहोत्सवम् ॥ ८४० ॥ सनाभिरिव धर्मस्य, वृतो व्रतसनाभिभिः । मुनिभिर्वज्रनाभोऽपि, विजहार वसुन्धराम् ॥ ८४१॥ खामिना वज्रनाभेन, बाह्वाद्याः स च सारथिः । सनाथा जज्ञिरे पञ्चेन्द्रियाणीवाऽन्तरात्मना ॥८४२॥ 30 तेषां योगप्रभावेण, सर्वाः खेलादिलब्धयः । औषध्य इव शैलानामाविरासन् शशित्विषा ॥ ८४३ ॥ तेषां श्लेष्मलवेनाऽपि, संश्लिष्टं कुष्ठिनो वपुः । कोटिवेधरसेनेव, ताम्रराशिः सुवर्ण्यभूत् ॥ ८४४ ॥ कर्णनेत्रादिभरङ्गभश्च तेषामभन्मलः । कस्तूरिकापरिमलो, रोगनः सर्वरोगिणाम ॥४५॥ तेषां वपुःपरिस्पर्शमात्रादपि शरीरिणः । सरुजो नीरुजोऽभूवन् , सुधाम्भःस्नपनादिव ॥ ८४६ ॥ तदङ्गसङ्गादम्भोदमुक्तं नद्यादिवाह्यपि । सर्वरोगान् पयोऽहार्षीत् , तमांसीवाऽशुमन्महः ॥ ८४७॥ १ आलवालः । २ स्वातिनक्षत्रवृष्टितुल्याम् । ३ समुद्रः। ४ दभैः। * दुष्करस्य सं १॥ + सेनाभि सं १॥ ५ सहोदरः। ६ व्रतसहितः। 20 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । विषादिदोषाः प्राणश्यस्तदङ्गस्पर्शिवायुना । गन्धसिन्धुरदानाम्भोगन्धेनेवाऽन्यसिन्धुराः॥ ८४८॥ विषसम्पृक्तमन्नादि, तेषां पात्रे मुखेऽपि वा । सम्प्रविष्टं सुधाकुण्ड, इव निर्विषतामगात् ॥ ८४९ ॥ वचनश्रवणात् तेषां, विषं मन्त्राक्षरादिव । बाधा महाविषव्याधिबाधितस्याऽप्यपासरत् ।। ८५० ॥ नखाः केशा रदाश्चान्यदपि तेषां शरीरजम् । भेजे भेषजतां सर्व, मुक्तात्वं शुक्तिवारिवत् ॥ ८५१ ॥ आसन्नणीयसी मूर्ति, तथा ते कर्तुमीश्वराः । यथा सञ्चरितुमलं, सूचीरन्धेऽपि तन्तुवत् ॥ ८५२ ॥ वपुर्महत्तरीकर्तुं, शक्तिस्तेषां बभूव सा । यया सुमेरुशैलोऽपि, जानुदनो व्यधीयत ॥ ८५३ ॥ तेषां वपुर्लघीयस्त्वसामर्थ्य तदजायत । समुल्ललचे तद् येन, मारुतस्याऽपि लाघवम् ॥ ८५४ ॥ वपुर्गरिमशक्तिश्च, वज्रादप्यतिशायिनी । साऽभूत् तेषां न या सह्या, शक्रायैत्रिदशैरपि ॥ ८५५ ॥ प्राप्तिशक्तिरभूत् तेषां, भूस्थानां स्पर्शनं यया । अङ्गुल्यग्रेण मेर्वग्रग्रहादेवृक्षपत्रवत ॥ ८५६ ॥ साऽभूत् प्राकाम्यशक्तिश्च, भुवीवाऽप्सु यया गतिः । निमजनोन्मजने च, पानीय इव भुव्यपि ॥८५७॥ 10 आसीत तेषां तदैश्वर्य, प्रभवन्ति स्म येन ते । चक्रभृत्रिदशाधीशऋद्धिमाधातुमात्मनः ॥ ८५८॥ तेषां वशित्वसामर्थ्य, तदपूर्वमजायत । भेजिरे वशितां येन, स्वतन्त्राः क्रूरजन्तवः ॥ ८५९ ॥ तेषामप्रतिघातित्वशक्तिः साऽभूद् यया खलु । अद्रिमध्येऽपि निःसङ्गं, गमनं रन्ध्रमध्यवत् ॥ ८६० ॥ तदन्त नसामर्थ्यमभूत् तेषामनाहतम् । नभस्वतामिवाऽदृश्यरूपता येन सर्वतः ॥ ८६१॥ प्रावीण्यं कामरूपित्वे, तत् तेषामुल्ललास च । अलं पूरयितुं लोकं, नानारूपैर्यथा निजैः ॥ ८६२ ॥ 15 तेषामाविरभूद् बीजबुद्धिता सातिशायिनी । एकार्थबीजतोऽनेकार्थवीजानां प्ररोहिणी ॥ ८६३ ॥ ते कोष्ठबुद्धयोऽभूवन् , कोष्ठप्रक्षिप्तधान्यवत् । विना स्मरणमर्थानां, प्राक् श्रुतानां तथास्थितेः ॥ ८६४ ॥ आद्यादन्त्यान्मध्यमाद् वा, श्रुतादेकपदादपि । सर्वार्थग्रन्थबोधात् तेऽभूवन पदानुसारिणः ॥ ८६५ ॥ एकं वस्तु समुद्धृत्याऽन्तर्मुहूर्ताच्छुतोदधेः । अवगाहनसामर्थ्यात् , ते मनोबलिनोऽभवन् ॥ ८६६ ॥ अन्तर्मुहर्त्तमात्रेण, मातृकामावलीलया । गुणयन्तः श्रुतं सर्वमासन् वाग्वलिनश्च ते ॥ ८६७ ॥ 20 प्रपद्यमानाः प्रतिमां, चिरकालमपि स्थिराम् । श्रमक्लमाभ्यां रहितास्ते कायबलिनोऽभवन् ॥ ८६८ ॥ अभूवनमृतक्षीरमध्वाज्यास्रविणश्च ते । पात्रस्थस्य कदनस्याऽप्यमृतादिरसागमात् ॥ ८६९ ॥ दुःखादितेष्वमृतादिपरिणामाद् गिरां च ते । अमृतक्षीरमध्वाज्यासविणः साधु जज्ञिरे ॥ ८७० ॥ अन्नस्य पात्रपतितस्याऽल्पस्याऽप्यतिदानतः । अक्षयेणाऽक्षीणमहानसर्द्धयश्च तेऽभवन् ॥ ८७१ ॥ तीर्थकृत्पर्षदीवाऽल्पदेशेऽपि प्राणिनां सुखम् । असङ्ख्यानां स्थितेरासंस्ते चाऽक्षीणमहालयाः ॥ ८७२ ॥ 25 एकेनाऽपीन्द्रियेणाऽन्येन्द्रियार्थस्योपलम्भनात् । ते बभूवुश्च सम्भिन्नस्रोतोलब्धिमहर्द्धयः ॥ ८७३ ।। जङ्घाचारणलब्धिश्च, तेषामजनि सा यया । रुचकद्वीपमेकेनोत्पातेन प्राप्तुमीश्वराः ॥ ८७४ ॥ वलन्तो रुचकद्वीपादेकेनोत्पतनेन ते । नन्दीश्वरेऽलमायातुं, द्वितीयेन यतो गताः ॥ ८७५ ॥ ते चोर्द्धगत्यामेकेन, समुत्पतनकर्मणा । उद्यानं पाण्डकं गन्तुमलं मेरुशिरःस्थितम् ॥ ८७६ ॥ ततस्ते वलिता एकेनोत्पातेन तु नन्दनम् । अलं गन्तुं द्वितीयेन, प्रथमोत्पातभूमिकाम् ॥ ८७७॥ 80 ते विद्याचारणाऽऽसुमेकेनोत्पातकर्मणा । मानुषोत्तरमन्येन, द्वीपं नन्दीश्वरं क्षमाः ॥ ८७८ ॥ एकोत्पातात् ततश्चाप्तुं, पूर्वोत्पातमहीतलम् । तिर्यग्यानक्रमेणोद्धमप्यलं ते गतागते ॥ ८७९ ॥ आसीदाशीविषर्द्धिश्च, निग्रहाऽनुग्रहक्षमा । तेषामन्या अप्यभूवन् , बहुलं बहुलब्धयः॥ ८८०॥ लब्धीनामुपयोगं ते, जगृहुर्न कदाचन । मुमुक्षवो निराकासा, वस्तुषूपस्थितेष्वपि ।। ८८१ ॥ इतश्च तीर्थकुनामगोत्रकर्मार्जितं दृढम् । खामिना वजनाभेन, विंशत्या स्थानकैरिति ॥ ८८२ ॥ 35 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व तत्रैकमर्हतामहत्प्रतिमानां च पूजया । अवर्णवादव्याषेधैः, सद्भूतार्थस्तवैरपि ॥ ८८३ ॥ सिद्धानां सिद्धिस्थानेषु, प्रतिजागरणोत्सवैः । यथावस्थितसिद्धत्वकीर्तनाच्च द्वितीयकम् ।। ८८४ ॥ बालक-ग्लान-शैक्षादियतीनां यस्त्वनुग्रहः । प्रवचनस्य वात्सल्यं, स्थानकं तत् तृतीयकम् ।। ८८५ ॥ आहारौषधवस्त्रादिदानादञ्जलियोजनात् । गुरूणामतिवात्सल्यकरणं तु तुरीयकम् ॥ ८८६ ॥ विंशत्यब्दपर्यायाणां, षष्टिवर्षायुषां तथा । समवायभृतां भक्तिः, स्थविराणां तु पश्चमम् ।। ८८७ ॥ अर्थव्यपेक्षया स्वरसाद, बहुश्रुतभृतां सदा । अन्नवस्त्रादिदानेन, षष्ठं वात्सल्यनिर्मितिः ॥ ८८८ ॥ सुविकृष्टतपःकर्मनिर्माणानां तपस्विनाम् । भक्तिविश्रामणादानैर्वात्सल्यमिति सप्तमम् ॥ ८८९ ॥ द्वादशाङ्गे श्रुते प्रश्नवाचनादिमिरन्वहम् । सूत्रार्थोभयगो ज्ञानोपयोगो यस्तदष्टमम् ॥ ८९० ॥ शङ्कादिदोषरहितं, स्थैर्यादिगुणभूषितम् । शमादिलक्षणं सम्यग्दर्शनं नवमं पुनः ॥ ८९१ ॥ 10 ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारैश्च चतुर्विधः । कर्मणां विनयनतो, विनयो दशमं पुनः ॥ ८९२॥ इच्छामिथ्याकरणादियोगेष्वावश्यकेष्वलम् । अतीचारपरीहारो, यत्नादेकादशं तु तत् ॥ ८९३ ॥ अहिंसादिसमित्यादिमूलोत्तरगुणेषु या । प्रवृत्तिर्निरतीचारा, स्थानकं द्वादशं तु तत् ॥ ८९४ ॥ शुभध्यानस्य करणं, क्षणे क्षणे लवे लवे । प्रमादपरिहारेण, स्थानमेतत् त्रयोदशम् ॥ ८९५ ॥ अनाबाधेन मनसो, वपुषश्च निरन्तरम् । यथाशक्ति तपःकर्म, स्थानमेतच्चतुर्दशम् ॥ ८९६ ॥ 15 अन्नादीनां संविभागो, यथाशक्ति तपस्विषु । मनोवाक्कायशुद्ध्या यः, स्थानं पञ्चदशं हि तत् ॥ ८९७ ॥ आचार्यादीनां दशानां, भक्तपानाऽऽसनादिभिः । वैयावृत्यस्य करणं, स्थानकं षोडशं तु तत् ॥ ८९८ ॥ चतुर्विधस्य सङ्घस्य, सर्वापायनिषेधनात् । मनःसमाधिजननं, स्थानं सप्तदशं हि तत् ॥ ८९९ ॥ सूत्रस्याऽर्थस्योभयस्याऽप्यपूर्वस्य प्रयत्नतः । अन्वहं यदुपादानं, स्थानमष्टादशं तु तत् ॥ ९०० ॥ श्रद्धानेनोद्भासनेनाऽवर्णवादच्छिदादिना । श्रुतज्ञानस्य भक्तिस्तत् , स्थानमेकोनविंशकम् ।। ९०१॥ विद्यानिमित्तकवितावादधर्मकथादिभिः । प्रभावना शासनस्य, तद् विंशतितमं पुनः ॥ ९०२॥ अप्येकं तीर्थकृभामकर्मणो बन्धकारणम् । मध्यादेभ्यः स भगवान् , सर्वैरपि बबन्ध तत् ॥ ९०३ ॥ बाहुनाऽपि च साधूनां, वैयावृत्यं वितन्वता । चक्रवर्तिभोगफलं, कर्मोपार्जितमात्मनः ॥ ९०४ ॥ विश्रामणां महर्षीणां, कुर्वाणेन तपोजुषाम् । सुबाहुना बाहुबलं, लोकोत्तरमुपार्जितम् ॥ ९०५॥ अहो ! धन्याविमौ वैयावृत्य-विश्रामणाकरौ । इति बाहु-सुबाहू तो, वज्रनाभस्तदाऽस्तवीत् ॥ ९०६ ॥ 25 तौ तु पीठ-महापीठौ, पर्यचिन्तयतामिति । उपकारकरो यो हि, स एवेह प्रशस्यते ॥ ९०७ ॥ आगमाध्ययनध्यानरतावनुपकारिणौ । को नौ प्रशंसत्वथवा, कार्यकृद्धको जनः ॥९०८॥ ताभ्यामनालोचयद्भयामितीर्थ्याकृतदुष्कृतम् । मायामिथ्यात्वयुक्ताभ्यां, कर्म स्त्रीत्वफलं कृतम् ॥९०९॥ ते षडप्यनतीचारां, खड्गधारासहोदराम् । प्रव्रज्यां पालयामासुः, पूर्वलक्षांश्चतुर्दश ॥ ९१० ॥ संलेखनाद्वयपुरःसरमेकधीरास्ते पादपोपगमनानशनं प्रपद्य । 30 सर्वार्थसिद्धिमधिगम्य दिवं त्रयस्त्रिंशाब्ध्यायुषः सुरवराः पडपि ह्यभूवन् ॥ ९११॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमे पर्वणि धनादिद्वादशभववर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ॥१॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । द्वितीयः सर्गः। इतश्च जम्बूद्वीपस्य, विदेहेष्वपरेषु पूः । नाम्नाऽपराजितेत्यस्ति, द्विषद्भिरपराजिता ॥१॥ तस्यां वसुमतीनाथो, विक्रमाक्रान्तविष्टपः । ईशानचन्द्र इत्यासीदीशानेन्द्र इव श्रिया ॥२॥ तत्र श्रेष्ठी श्रिया श्रेष्ठः, प्रष्ठो धर्मैकशालिनाम् । नाम्ना चन्दनदासोऽभूजगदानन्दचन्दनः ॥३॥ जगतो नयनानन्दनिदानं तस्य नन्दनः । नाम्ना सागरचन्द्रोऽभूत् , सागरस्येव चन्द्रमाः ॥ ४॥ 5 ऋजुशीलः सदैवाऽसौ, धर्मकर्मा विवेकवान् । नगरस्याखिलस्यापि, बभूव मुखमण्डनम् ।। ५ ॥ सोऽन्यदेशानचन्द्रस्य, राज्ञो दर्शनहेतवे । सेवोपनतसामन्ताकुलं राजकुलं ययौ ॥६॥ स तदाऽऽसनताम्बूलदानादिप्रतिपत्तितः । महास्नेहेन ददृशे, पित्रेव पृथिवीभुजा ॥ ७ ॥ अत्रान्तरे पराभूतशङ्खध्वनितया गिरा । राजद्वारे कश्चिदेत्याऽपाठीन्मङ्गलपाठकः ॥ ८॥ उद्यतोद्यानपालीव, त्वदुद्यानेऽद्य भूपते! । सजीकृतानेकपुष्पा, वसन्तश्रीविजृम्भते ॥९॥ 10 विकासिकुसुमामोदसुरभीकृतदिग्मुखम् । सम्भावय तदुद्यानं, महेन्द्र इव नन्दनम् ॥ १० ॥ राजाऽप्याऽऽज्ञापयद् द्वाःस्थं, यत् प्रातरखिलैर्जनैः । गन्तव्यमसदुद्यानमेवमाघोष्यतां पुरे ॥ ११ ॥ त्वयाऽप्येतव्यमुद्यानमिति श्रेष्टिसुतं नृपः । स्वयमादिशदेवं हि, प्रसन्नस्वामिलक्षणम् ॥ १२ ॥ ततो राज्ञा विसृष्टोऽसौ, हृष्टः स्वावसथं ययौ । मित्रायाऽशोकदत्ताय, तां नृपाज्ञां जगाद च ॥ १३ ॥ द्वितीयेऽति ययौ राजाऽप्यद्यानं सपरिच्छदः। पौरलोकोऽप्यगात तत्र, प्रजा राजानयायिनी ॥ १४॥ 15 वसन्त इव मलयानिलेन श्रेष्ठिसूरपि । सुहृदाऽशोकदत्तेन, सहोद्यानं जगाम सः ॥ १५ ॥ पुष्पावचयसन्दर्भगीतनृत्यादिभिस्ततः । प्रवृत्तः क्रीडितुं लोकः, स्थितः कामस्य शासने ।। १६ ॥ स्थाने स्थाने कृतास्थानाः, पौराः क्रीडाविधायिनः । आवासितस्सरनृपस्कन्धावारधुरां दधुः ।। १७ ॥ पदे पदे सम्प्रवृत्तगीतातोद्यमहाध्वनौ । जयायाऽन्येन्द्रियार्थानामिवाऽभ्यधिकमुत्थिते ॥ १८॥ प्रत्यासनादथैकरसादकस्मात् तरुगह्वरात् । वायध्वं त्रायध्वमिति, त्रस्तस्त्रीध्वनिरुत्थितः ॥ १९ ॥ 20 तया समाकृष्ट इव, गिरा कर्णप्रविष्टया । किमेतदिति सम्भ्रान्तः, सागरः समधावत ॥ २० ॥ श्रेष्ठिनः पूर्णभद्रस्य, कन्यका प्रियदर्शनाम् । स बन्दिभिधृतां तत्राऽपश्यदेणी वृकैरिव ॥ २१ ॥ एकस्य बन्दिनो हस्तमामोव्याऽथाऽऽददे क्षुरीम् । श्रेष्ठिस्नुर्विर्षभृतो, ग्रीवां भङ्क्त्वा मणीमिव ॥ २२ ॥ तस्येति विक्रमं दृष्ट्वा, बन्दिनस्ते विदुद्रुवुः । व्याघ्रा अपि पलायन्ते, ज्वलज्वलनदर्शनात् ॥ २३ ॥ इति सागरचन्द्रेण, बन्दिभ्यः प्रियदर्शना । एधोहॉरिभ्यो माकन्दलतेव परिमोचिता ॥ २४ ॥ 25 परोपकारव्यसनी, क एष पुरुषाग्रणीः । आगादिह समाकृष्टो, दिष्ट्या मद्भाग्यसम्पदा ? ॥ २५ ॥ सररूपाधरीका, भर्ती भाव्ययमेव मे । चिन्तयन्तीति स्वं धाम, जगाम प्रियदर्शना ॥ २६ ॥ अनुस्यूतामिव वहन् , हृदये प्रियदर्शनाम् । अशोकदत्तसहितः, श्रेष्टिपुत्रोऽभ्यगाद् गृहम् ॥ २७ ॥ अथ चन्दनदासेन, स परम्परयाखिलः । अवाबुध्यत वृत्तान्तः, केन छायेत तादृशम् ॥२८॥ स दध्याविति युक्तोऽस्य, रागोऽधिप्रियदर्शनम् । अजयं पङ्कजिन्या हि, राजहंसस्य युज्यते ॥ २९ ॥ 30 इयमुटताऽकारि, यत् तदा तन साम्प्रतम् । कार्य सपौरुषेणाऽपि, वणिजा न हि पौरुषम् ॥ ३० ॥ सङ्गः किञ्च ऋजोरस्याऽशोकदत्तेन मायिना । न साधुजोतु बदरीद्रुणेव कदलीतरोः ॥ ३१ ॥ विचिन्त्येति चिरं श्रेष्ठी, स समाहूय सागरम् । भद्रद्विपं निषादीव, सानोऽऽरभत शासितुम् ॥ ३२ ॥ सर्वशास्त्रानुसारेण, व्यवहारेण च स्वयम् । वत्स ! सम्यगमिज्ञोऽसि, तथापि ज्ञाप्यसे मया ॥ ३३ ॥ अग्रणीः । २ खावासम् । । सपरिवारः। ४ हरिणीम् । ५ बनवानैः । ६ सर्पस्य । काठहारिभ्यः। ८ आमूलतेव । समतिः। सरकस।" महामात्रः। १२ बुवचनेन । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व वयं हि वणिजस्तात !, कलाकौशलजीविनः । अनुद्भटाऽऽचारवेषाः, सन्तो गामहे न हि ॥ ३४ ॥ भवितव्यं यौवनेऽपि, भवद्भिर्गुढविक्रमैः । वणिजो लोकसामान्येऽप्यर्थे साशङ्कवृत्तयः ॥ ३५ ॥ सम्पदो विषयक्रीडा, दानं च च्छन्नमेव नः । अलं भवति शोभायै, शरीरमिव योषिताम् ॥ ३६ ॥ आत्मजातेरनुचितं, क्रियमाणं न शोभते । चरणे करभस्येव, बद्धं कनकनूपुरम् ॥ ३७॥ 5 ततो निजक्रमौचित्यव्यवहारपरायणैः । दातव्यः प्रहरी वत्स !, गुणानां सम्पदामिव ॥ ३८ ॥ त्याज्योऽसतां च संसर्गो, निसर्गानृजुचेतसाम् । सोऽलर्कविषवत् कालेनाऽपि यात्येव विक्रियाम् ॥ ३९ ॥ अयं चाऽशोकदत्तस्त्वां, मित्रं श्वित्रं तनूमिव । अवाप्तप्रसरो वत्स !, सर्वथा दूषयिष्यति ॥ ४० ॥ मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् , क्रियायामन्यदेव हि । गणिकाया इवाऽमुष्याऽत्यन्तमायाजुषः सदा ॥४१॥ आदरादुपदिश्यैवं, श्रेष्ठिश्रेष्ठे स्थिते सति । इति सागरचन्द्रोऽपि, चिन्तयामास चेतसि ॥ ४२ ॥ 10 कन्याबन्दिव्यतिकरस्तातेन सकलोऽपि सः । विज्ञात इति मन्येऽहमुपदेशदिशाऽनया ॥ ४३ ॥ असावशोकदत्तश्च, तातस्याऽभान सङ्गतः । मन्दभाग्यतया पुंसां, गुरवः स्युरनीदृशाः ॥ ४४ ॥ भवत्वेवं तथाऽपीति, विमृश्य मनसि क्षणम् । ऊचे सागरचन्द्रोऽपि, Iश्रयाश्रितया गिरा ॥ ४५ ॥ यंदादिशति तातस्तत् , कर्तव्यं सूनुरस्मि ते । कृतं तेन कृतेनाऽपि, गुर्वाज्ञा यत्र लङ्घयते ॥ ४६ ॥ किन्तु दैवादकाण्डेऽपि, कृत्यं तदुपतिष्ठते । नाऽऽलोचकालहरणं, सहते यन्मनागपि ॥ ४७ ॥ आलोचं कुर्वतोऽत्येति, कालः कार्यस्य कस्यचित् । पर्ववेलेव जिह्मस्य, पादशौचं वितन्वतः ॥४८॥ ईदृशेऽप्यागते काले, प्राप्तेऽपि प्राणसंशये । तदेवाऽहं करिष्यामि, तव लक्षाकरं न यत् ॥ ४९ ।। तातेनाऽशोकदत्तस्य, यच्च तादृगुदीरितम् । तद्दोषेण न दोष्यमि, न गुणी तद्गुणेन वा ॥ ५० ॥ यन्ममाऽशोकदत्तेन, मैत्री तत्रेति कारणम् । सहवासः सहपांशुक्रीडनं दर्शनं मुहुः ॥ ५१ ॥ समा जातिः समा विद्या, समं शीलं समं वयः । परोक्षेऽप्युपकारित्वं, सुखदुःखविभागिता ॥ ५२ ॥ 20 असिंश्च कैतवमहं, न पश्यामि मनागपि । मृषा तातस्य कोऽप्याख्यत. खलाः सर्वपाः खल ॥५३ अस्तु वा तादृशो मायाव्येष मे किं करिष्यति ? । एकत्र विनिवेशेऽपि, काचः काचो मणिमणिः॥५४॥ इत्युक्तः सूनुना श्रेष्ठी, तमचे बुद्धिमानसि । तथापि ह्यवधातव्यं, दुर्लक्षा हि पराशयाः॥५५॥ सोऽथ स्वसूनो वज्ञस्तदर्थं प्रियदर्शनाम् । शीलादिभिर्गुणैः पूर्णा, पूर्णभद्रादयाचत ॥५६॥ असावुपतिक्रीती, त्वत्सुतेन सुता मम । अग्रेऽपीति वदन् पूर्णभद्रोऽमन्यत तद्वचः ॥ ५७ ॥ 25 ततः सागरचन्द्रस्य, प्रियदर्शनया सह । विवाहोऽकारि पितृभिः, शुभे लग्ने शुभे दिने ॥ ५८॥ विचिन्तिताया दुन्दुभ्याः, पतनेनेव तौ ततः । मनीषितविवाहेन, मुमुदाते वधूवरौ ॥ ५९॥ समानमानसतया, तयोरेकात्मनोरिव । परस्परमवर्द्धिष्ट, प्रीतिः सारसयोरिव ॥ ६॥ रेजे सागरचन्द्रेण, सा चन्द्रेणेव चन्द्रिका । सहोदयवती सौम्यदर्शना प्रियदर्शना ॥ ६१ ॥ तयोः शीलभृतो रूपवतोराजवशालिनोः । अनुरूपोऽभवद् योगश्चिराद् घटयतो विधेः ॥६२॥ 30 अविसम्भो न जात्वासीदन्योऽन्यप्रत्ययात् तयोः । विपरीतं न शङ्कन्ते, कदापि सरलाशयाः ॥ ६३ ॥ अथ सागरचन्द्रस्य, बहिर्गतवतो गृहे । अशोकदत्तोऽभ्यायासीदूचे च प्रियदर्शनाम् ॥ ६४॥ श्रेष्ठिनो धनदत्तस्य, वध्वा मत्रयते रहः । नित्यं सागरचन्द्रो यत्, तत्र किं स्यात् प्रयोजनम् ? ॥६५॥ निसर्गऋज्वी साऽप्यूचे, जानात्येतत् सुहृत् तव । द्वितीयं हृदयं तस्य, त्वं वा जानासि सर्वदा ॥ ६६ ॥ उष्ट्रस्य । २ हडक्कयितश्वविषवत् । ३ श्वेतकुष्ठम् । ४ विनयाश्रितया। *अयं श्लोकः सं १ पुस्तके न दृश्यते ॥ ५विचारकालग्रतीक्षणम् । ६ गच्छति। ७दीर्घसूत्रिणः। ८ सर्वक्षोभकारकाः। ९ उपकारक्रीता । १. मनोऽभीष्टविवाहेन । अविनासः। १२ खभावसरला । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । ३१ रहःसवितकार्याणि, महतां व्यवसायिनाम् । को जानात्यथ जानाति, स कथं कथयेद् गृहे ? ॥ ६७ ॥ उवाचाऽशोकदत्तोऽपि, त्वत्पतेर्यत् तया सह । मन्त्रे प्रयोजनं वेनि, तत् परं कथ्यते कथम् ? ॥ ६८ ॥ प्रियदर्शनया किं तदित्युक्तः सोऽब्रवीदिति । त्वया प्रयोजनं यन्मे, सुधु! तस्याऽपि तत् तया ॥६९।। तद्भावाविज्ञया ऋज्वा, प्रियदर्शनया पुनः । मया प्रयोजनं ते किमित्युक्तः सोऽवदत् पुनः ॥ ७० ॥ पुंसो रसान्तरविदः, कस्य न स्यात् सचेतसः । त्वया प्रयोजनं सुभ्र, तमेकं त्वत्प्रियं विना ॥ ७१ ॥ 5 आकर्ण्य कर्णसूच्याभ, दुरीहासूचि तद्वचः । सकोपाऽधोमुखीभूय, सा साक्षेपमभाषत ।। ७२ ॥ रे निर्मर्याद! पुस्खेट!, त्वयैतच्चिन्तितं कथम् । चिन्तितं वा कथं तूक्तं ?, धिक साहसमचेतसः॥७३॥ किञ्च सम्भावयसि रे!, महात्मानं पतिं मम । आत्मानुरूपमेवैवं, धिक त्वां मित्रमिषाद् द्विषम् ॥७४॥ गच्छ मा तिष्ठ रे पाप!, पापं त्वदर्शनादपि । इत्याक्रुष्टस्तया शीघ्रं, स दस्युरिव निर्ययौ ।। ७५ ॥ स गोहत्याकार इवाऽन्धकारमलिनाननः । विमनस्कः समागच्छन् , सागरेण व्यलोक्यत ॥ ७६ ॥ 10 हे मित्र ! हेतुना केन, त्वमुद्विग्न इवेक्ष्यसे । इति सागरचन्द्रेण, सोऽप्रच्छि स्वच्छचेतसा ॥७७ ॥ ततः स मायाकूटाद्रिर्दीघं निःश्वासमुद्वमन् । विकूणिताधरः किञ्चिद् , दुष्टः कष्टादिवाऽवदत् ॥७८ ॥ जाड्यहेतुमिव हिमक्ष्माभृदभ्यर्णवासिनाम् । संसारे वसतां भ्रातः!, पृच्छस्युद्वेगकारणम् ? ॥ ७९ ॥ न यच्छादयितुं नापि, प्रकाशयितुमिश्यते । तदस्थानव्रणमिव, किमपीहोपतिष्ठते ।। ८० ॥ इत्युदित्वा स्थिते मायादर्शितासविलोचने । अशोकदत्ते सोऽमायश्चिन्तयामासिवानिति ॥ ८१ ।। 15 अहो ! असारः संसारः, पुंसां यत्रेदशामपि । सन्देहपदमीक्षमकस्मादुपजायते ॥ ८२ ॥ अस्य धैर्यादवदतोऽप्यन्तरुद्वेग उच्चकैः । हुताश इव धूमेन, बलाद् बाप्पेण सूच्यते ।। ८३ ॥ चिन्तयित्वेति सुचिरं, सद्यस्तदुःखदुःखितः । भूयः सागरचन्द्रस्तमित्युवाच सगद्गदम् ॥ ८४ ॥ अप्रकाश्यं न चेद् बन्धो, तच्छंसोद्वेगकारणम् । दत्त्वा दुःखविभागं मे, स्तोकदुःखो भवाऽधुना ॥ ८५ ॥ अशोकदत्तोऽपीत्यूचे, मम प्राणसमे त्वयि । अन्यदप्यप्रकाश्यं न, वृत्तान्तोऽयं विशेषतः ॥८६॥ 20 इदं वयस्यो जानाति, सदाऽपि यदिहाऽङ्गना । अनर्थानां प्रसूर्दशिर्वरी तमसामिव ॥ ८७ ॥ सागरोपि जगादेवमाम किं नाम सम्प्रति । सङ्कटे न्यपतः कस्या, अप्युरग्या इव स्त्रियाः ? ॥ ८८ ॥ प्रत्यूचेऽशोकदत्तोऽपि, नाटयन् कृत्रिमा त्रपाम् । असमञ्जसमूचे मां, चिरं हि प्रियदर्शना ॥ ८९ ॥ लजित्वा स्वयमप्येषा, कदापि स्थास्यतीत्यहो! । मया सलजं सावज्ञं, सेयत्कालमुपेक्षिता ।। ९० ॥ दिने दिने परमसावसतीत्वोचितोक्तिभिः । मां वदन्ती न विरमत्यहो! स्त्रीणामसङ्ग्रहाः ॥ ९१ ॥ 25 अद्य त्वावसथे युष्मदन्वेषणकृते गतः । बन्धो ! निरुद्धोऽसि तया, राक्षस्येव छलज्ञया ॥ ९२ ॥ तन्तुबन्धादिव करी, कथश्चिदपि तद्हात् । आत्मानं मोचयित्वाऽहमिहाऽगममतिद्रुतम् ॥ ९३ ॥ ततश्चाचिन्तयमहं, जीवन्तं मां न मोक्ष्यति । असाविति तदात्मानमद्य व्यापादयामि किम् ? ॥ ९४॥ यद्वा न मर्तुमुचितं, मन्मित्रस्य यदीदृशम् । कथयिष्यत्यन्यथाऽसौ, मत्परोक्षे तु तत्तथा ॥ ९५ ॥ अथवा कथयाम्येतत्, सर्व वसुहृदः स्वयम् । यथाऽस्यां कृतविश्वासो, नाऽपायमुपयात्यसौ ॥ ९६ ॥ 30 नाऽदोऽपि युक्तं यन्नास्या, मयाऽपूरि मनोरथः । दौःशील्यकथनेनाऽथ, क्षते क्षारं क्षिपामि किम् ? ॥९७॥ एवं विचिन्तयन्नत्र, त्वया दृष्टोऽसि सम्प्रति । उद्वेगकारणं चेदं, मम जानीहि बान्धव ! ॥ ९८॥ .. इत्याकर्ण्य वचः पीतहालाहल इव क्षणम् । निःस्पन्दः सागरोऽथाऽभून्निवात इव सागरः ॥ ९९ ॥ सागरो व्याजहारैवं, युज्यते योषितामिदम् । क्षारत्वमूपरमहीनिपानपयसामिव ॥ १० ॥ कर्णसूचीसदृशम् । २ हे पुरुषाधम । * सागरे व सं १॥ जयसदुद्वेग उ° सं॥ ३ अमावास्यारात्रिः। ४ भाम इनि अङ्गीकारे। ५ अयुक्तम् । ६ पीतविषः । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व आसादय विषादं मा, व्यवसाये शुभे भव । स्थातव्यं स्वास्थ्यमास्थाय, स्मरणीयं न तद्वचः ॥१०१॥ यादृशी तादृशी वापि, साऽस्तु किं वस्तुतस्तया ? । माभून्मनोमलिनिमा, केवलं भ्रातरावयोः ॥१०२॥ तेनैवमृजुना सोऽनुनीतः प्रमुमुदेऽधमः । सत्कारयन्ति ह्यात्मानं, कृत्वाऽप्यागांसि मायिनः ॥ १०३ ॥ ततः प्रभृति निःस्नेहः, सागरः प्रियदर्शनाम् । सोद्वेगं धारयामास, रोगग्रस्तामिवाऽङ्गुलीम् ॥ १०४ ॥ किन्तु तां वर्त्तयामासोपरोधात् प्राग्वदेव सः । वन्ध्याऽप्युन्मूल्यते नैव, लता या लालिता स्वयम् ॥१०५॥ मत्कृतो माऽनयोर्भेदोऽभूदिति प्रियदर्शना । नाऽशोकदत्तवृत्तान्तं, तं प्रियाय न्यवेदयत् ॥ १०६ ।। कारागाराय संसारं, मन्यमानोऽथ सागरः । ऋद्धिं कृतार्थयामास, दीनादिषु नियोगतः ॥ १०७॥ कालेन पूरयित्वाऽऽयुः, सागरः प्रियदर्शना । अशोकदत्तश्च ययुः, कालधर्म त्रयोऽपि ते ॥१०८॥ जम्बूद्वीपस्य भरतक्षेत्रदक्षिणखण्डके । गङ्गासिन्ध्वन्तरस्याऽन्तर्भागे मध्येऽवसर्पिणि ॥ १०९॥ 10 तृतीयारे पल्याष्टमांशशेषे युग्मरूपतः । ततः समुदपद्येतां, सागरप्रियदर्शने ॥ ११० ॥ [ युग्मम् ] भारतेषु च वर्षेषु, पञ्चखैरवतेष्विव । द्वादशारं कालचक्रं, हेतुः कालव्यवस्थितेः ॥ १११ ॥ कालो द्विविधोऽवसर्पिण्युत्सर्पिणीविभेदतः । अराः षडवसर्पिण्यां, एकान्तसुषमादयः ॥ ११२ ॥ तत्रैकान्तः सुषमारश्चतस्रः कोटिकोटयः । सागराणां सुषमा तु, तिस्रस्तत्कोटिकोटयः ॥ ११३ ॥ सुषमदुःषमा ते द्वे, दुःषमसुषमा पुनः । सैका सहस्रैर्वर्षाणां, द्विचत्वारिंशतोनिता ॥ ११४ ॥ 15 एकविंशतिरब्दानां, सहस्राणि तु दुःषमा । एकान्तदुःषमाऽपि स्यात् , तावद्वर्षप्रमाणिका ॥११५॥ अरका अवसर्पिण्यां, य एते समुदीरिताः । उत्सर्पिण्यां त एव स्युः, प्रतिलोमक्रमेण तु ॥ ११६ ॥ तदेवमवसर्पिण्यामुत्सर्पिण्यां च मीलिताः । सागरोपमकोटीनां, कोटयः खलु विंशतिः ॥ ११७ ।। तत्राऽरे प्रथमे माः, पल्यत्रितयजीविनः । गव्यूतत्रितयोच्छ्रायाश्चतुर्थदिनभोजिनः ॥ ११८ ॥ चतुरस्रसुसंस्थानाः, सर्वलक्षणलक्षिताः । वज्रऋषभनाराचसंहननाः सदासुखाः ॥ ११९ ॥ 20 अपक्रोधा गतमाना, निर्माया लोभवर्जिताः । सर्ववारं स्वभावेनाऽप्यधर्मपरिहारिणः ॥ १२० ॥ प्रायच्छंस्तत्र तेषां तु, वाञ्छितानि दिवानिशम् । मद्याङ्गाद्याः कल्पवृक्षा, दशोत्तरकुरुष्विव ॥ १२१ ॥ खादुमद्यानि मद्याङ्गा, ददुः सद्योऽपि याचिताः। भाजनादीनि भृङ्गाश्च, तद्भाण्डागारिका इव ॥१२२ ॥ तेनुस्तूर्याङ्गास्तूर्याणि, तूर्यत्रयकराणि तु । उझ्योतमसमं दीपशिखा ज्योतिषिका अपि ॥ १२३ ॥ विचित्राणि तु चित्राङ्गा, माल्यानि समढौकयन् । सूंदा इव चित्ररसा, भोज्यानि विविधानि तु ॥१२४॥ 25 यथेच्छमर्पयामासुर्मण्यङ्गा भूषणानि तु । गेहाकाराः सुगेहानि, गन्धर्वपुरवत् क्षणात् ॥ १२५ ॥ अभग्नेच्छमननास्तु, वासांसि समपादयन् । एते प्रत्येकमन्यानप्यर्थान् ददुरनेकशः ॥ १२६ ॥ तदा च भूमयस्तत्र, स्वादवः शर्करा इव । सदा माधुर्यधुर्याणि, धुन्यादिषु पयांस्यपि ॥ १२७ ॥ अतिक्रामत्यरे तत्र, त्वायुःसंहननादिकम् । कल्पद्रुमप्रभावाश्च, न्यूनं न्यूनं शनैः शनैः ॥ १२८॥ द्वितीये त्वरके माः, पल्यद्वितयजीविनः । गव्यूतद्वितयोच्छ्रायास्तृतीयदिनभोजिनः ॥ १२९ ॥ ३० किञ्चिन्यूनप्रभावाश्च, तत्र कल्पमहीरुहः । किश्चिन्माधुर्यतो हीना, आपो भूशर्करा अपि ॥ १३० ।। अस्मिन्नप्यरके कालात् , पूर्वारक इवाऽखिलम् । न्यूनन्यूनतरं स्थौल्यं, स्तम्बेरेमकरे यथा ॥ १३१ ॥ अरके तु तृतीयस्मिन्नेकपल्यायुषो नराः । एकगव्यूतकोच्छ्राया, द्वितीयदिनभोजिनः ।। १३२ ॥ अस्मिन्नप्यरके प्राग्वत् , कामति न्यूनमेव हि । वपुरायु माधुर्य, कल्पद्रुमहिमाऽपि च ॥ १३३ ॥ पूर्वप्रभावरहिते, चतुर्थे त्वरके नराः । पूर्वकोट्यायुषः पञ्चधनुःशतसमुच्छ्याः ॥ १३४ ॥ 35 पञ्चमे तु वर्षशतायुषः सप्तकरोच्छ्रयाः । षष्ठे पुनः षोडशाब्दायुषो हस्तसमुच्छ्रयाः ।। १३५ ।। मनोमालिन्यम । २ सर्वदा । ३ रसवतीकारकाः । ४ नद्यादिषु । ५ इम्तिशुण्शायाम् । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । I एकान्तदुःखप्रचिता, उत्सर्पिण्यामपीदृशाः । पश्चानुपूर्व्या विज्ञेया, अरेषु किल षट्स्वपि ।। १३६ ।। तृतीयारान्तजातत्वाद्, दैर्ये नवधनुः शतौ । पल्यदशमांशायुष्कावभूतां तौ तु युग्मिनौ ॥ १३७ ॥ वज्रऋषभनाराचसन्धिबन्धं वपुस्तयोः । समेन चतुरस्रेण, संस्थानेन परिष्कृतम् ॥ १३८ ॥ युग्मधर्मी शुशुभे, जात्यजाम्बूनदद्युतिः । प्रियङ्गुवर्णया पत्न्या, सुमेरुरिव मेध्यया ।। १३९ ॥ तत्रैवाऽशोकदत्तोऽपि प्राग्जन्मकृतमायया । श्वेतवर्णश्चतुर्दन्तः, सुरदन्तीव दन्त्यभूत् ॥ १४० ॥ भ्राम्यतेतस्ततः स्वैरमन्येद्युस्तेन दन्तिना । स युग्मधर्मी पुरतः, प्राग्जन्मसुहृदैक्ष्यत ॥ १४१ ॥ तदर्शनामृतासारस्फारीभूततनोस्ततः । बीजस्येवाऽङ्कुरस्तस्य स्नेहः समुदपद्यत ॥ १४२ ॥ हस्तिना तेन हस्तेनाऽऽदायाऽऽलिङ्गय यथासुखम् । अनिच्छन्नपि स स्कन्धप्रदेशमधिरोपितः ॥ १४३ ॥ अन्योऽन्यदर्शनाभ्यासाद्, द्वयोरपि तयोस्ततः । जज्ञे परुत्कृतस्येव, स्मरणं पूर्वजन्मनः ॥ १४४ ॥ चतुर्दन्तद्विपस्कन्धारूढं ददृशुरिन्द्रवत् । तमन्ये विस्मयोत्तानलोचना युग्मरूपिणः ॥ १४५ ॥ शङ्खकुन्देन्दुविमलं, गजमारूढ इत्यसौ । ततः प्रोच्यत मिथुनैर्नाम्ना विमलवाहनः ॥ १४६ ॥ जातिस्मृत्या स नीतिज्ञो, विमलद्विपवाहनः । प्रकृत्या रूपवांश्रेति, जज्ञे सर्वजनाधिकः ॥ १४७ ॥ कालेन गच्छता तत्र, प्रभावः कल्पभूरुहाम् । मन्दीबभूव चारित्रभ्रष्टानां यतिनामिव ॥ १४८ ॥ मद्याङ्गादिरसं भद्यमदुः स्तोकं विलम्बितम् । दुर्दैवेन परावृत्य समानीता इवाऽपरे ॥ १४९ ॥ दीयतां मा दीयतां वेत्यमर्शविवशा इव । सविलम्बं भाजनानि, भृङ्गा अप्यर्थिता ददुः ।। १५० ।। आतोद्यादि न तादृक्षं, तूर्याङ्गा अप्यसैत्रयन् । तिरस्कारसमाकृष्टा, गन्धर्वा इव विष्टयः ।। १५१ ।। अर्ध्यमाना अपि मुहुर्दीपज्योतिष्कभूरुहः । नोयोतं तादृशं तेनुर्दिवा दीपशिखा इव ।। १५२ ॥ चित्राङ्गा अपि माल्यादि, द्रुतमिच्छानुसारतः । न हि विश्राणयामासुर्भृत्या दुर्विनया इव ।। १५३ ।। भोज्यं चतुर्विधं चित्ररसं चित्ररसा अपि । प्राग्वन्नादुः क्षीयमाणदानेच्छा इव संत्रिणः ।। १५४ ॥ भूषणाद्यर्पयामासुर्न मण्यङ्गास्तथाविधम् । सम्पत्स्यते कथं भूय, इति चिन्ताकुला इव ।। १५५ ।। हाकारास्तु गेहानि, मन्दं मन्दं वितेनिरे । सत्काव्यानीव कवयो, मन्दव्युत्पत्तिशक्तयः ।। १५६ । अनग्ना अपि वस्त्राणि, स्खलितस्खलितं ददुः । क्रूरग्रहावग्रहिणो, वारि वारिधरा इव ।। १५७ ।। ताकालानुभावेन, मिथुनानामजायत । ममत्वं कल्पवृक्षेषु, स्वदेहावयवेष्विव ॥ १५८ ॥ I 1 ३३ १ सुवर्णकान्तिः । २ मेघमालया । ३ भरचयन् । ४ ददुः । ५ दानशालाकारिणः । ६ शनिरविभीमादम अदृष्टिकारकाः । ७ चन्द्रे । त्रिषष्टि. ५ 5 10 25 अन्येन स्वीकृतं कल्पवृक्षमन्यो यदाऽऽश्रयत् । महान् परिभवो ह्यासीत्, तदा स्वीकृतपूर्विणः ।। १५९ ॥ तथापराभवं सोढुमसहास्ते परस्परम् । आत्माधिकं स्वामितया, चक्रुर्विमलवाहनम् ॥ १६० ॥ जातिस्मृत्या स नीतिज्ञो, युग्मिनां कल्पपादपान् । ददौ विभज्य स्थविरो, द्रविणं गोत्रिणामिव ।। १६१ ।। यो यस्तत्याज मर्यादां, परकल्पद्रुमेच्छया । आविश्वकार हाकारनीतिं तद्दण्डनाय सः ।। १६२ ।। हा त्वया दुष्कृतमिति, तस्य दण्डेन युग्मिनः । वार्द्धिवेलाजलानीव, मर्यादां नातिचक्रमुः ॥ १६३ ॥ तेन हाकारदण्डेन युग्मान्येवममंसत । वरं दण्डादिभिर्घातो, न हाकारतिरस्कृतिः ॥ १६४ ॥ तस्याssवशेषे तु वर्षार्द्धप्रमिते सति । भार्यायां चन्द्रयशसि, मिथुनं समजायत ।। १६५ ।। तौ स्त्रीपुंसावसंख्येयपूर्वायुष्कौ सुसंस्थिती । आद्यसंहननौ श्यामावष्टधन्वशतोच्छ्रयौ ॥ १६६ ॥ चक्षुश्चन्द्रकान्ता च पितृभ्यां कल्पिताऽभिधौ । ववृधाते सहोद्भूतौ, लताविटपिनाविव ।। १६७ ॥ प्रपाल्य युग्मं षण्मासान्, जरारोगौ विना मृतः । सुपर्णककुमारेषूत्पेदे विमलवाहनः ॥ १६८ ॥ तदैव च चन्द्रयशा, मृत्वा नागेष्वजायत । अस्तमीयुषि पीयूँषकरे तिष्ठेन चन्द्रिका ॥ १६९ ॥ 15 20 30 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ कलिकालसर्वनश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व आत्मीयं पालयित्वाऽऽयुस्तत्र स्तम्बेरमोऽपि सः । पाप नागकुमारत्वं, कालमाहात्म्यमीदृशम् ॥१७० ॥ हाकारदण्डनीत्यैव, चक्षुष्मानथ युग्मिनाम् । मर्यादां वर्चयामास, यथा विमलवाहनः ॥१७१॥ प्राप्ते च चरमे काले, चक्षुष्मचन्द्रकान्तयोः । यशस्वी च सुरूपा च, जज्ञाते युग्मरूपिणौ ॥१७२॥ तत्संहननसंस्थानवौँ न्यूनायुषौ मनाक् । कलयामासतुर्वृद्धि, वयोबुद्धी इव क्रमात् ॥ १७३ ॥ 5 सदा युग्मचरौ कान्तौ, सप्तधन्वशतोच्छ्रयौ । बिभराश्चक्रतुद्वौं तौ, तोरणस्तम्भविभ्रमम् ॥ १७४ ॥ कालेन पञ्चतां प्राप्य, चक्षुष्मानुदपद्यत । सुपर्णेष्वथ नागेषु, चन्द्रकान्ताऽपि तत्क्षणम् ॥ १७५ ॥ __ ततो यशस्वी पितृवन्मिथुनान्यखिलान्यपि । सलीलं पालयामास, गोपाल इव गाश्चिरम् ॥ १७६ ॥ अथोल्लचितुमारेभे, हाकारो मिथुनैः क्रमात् । स्फुरदन्तर्मदावस्थैरङ्कुशो वारणैरिव ॥ १७७ ॥ चक्रे माकारदण्डं च, यशस्वी तानि शासितुम् । रोगे ह्येकौषधासाध्ये, देयमेवौषधान्तरम् ॥ १७८ ॥ आगस्यल्पे नीतिमाद्यां, द्वितीयां मध्यमे पुनः । महीयसि द्वे अपि ते, स प्रायुत महामतिः ॥ १७९ ॥ यशस्विनः सुरूपायाचाऽसम्पूर्णायुषोर्मनाक् । स्त्रीपुंसौ समजायेतां, सह धीविनयाविव ॥ १८० ॥ ताभ्यां चन्द्रोज्वलः पुत्रोऽभिचन्द्र इति कीर्तितः । प्रियङ्गप्रतिरूपा तु, प्रतिरूपेति पुत्र्यपि ॥ १८१ ॥ पितृतोऽल्पायुषौ सार्द्धषट्कार्मुकशतोच्छ्यौ । शम्यश्वत्थाविव युतौ, क्रमाद् वृद्धिमुपेयतुः ॥ १८२ ॥ सदैव शुशुभाते तौ, यथा मिलितवारिणौ । मन्दाकिनी-यमुनयोः, प्रवाहाविव पावनौ ॥ १८३ ॥ 15 पूर्णायुष्को यशस्वी चाऽब्धिकुमारेष्वजायत । सुरूपाऽप्यभवन्नागकुमारेषु तदैव तु ॥ १८४ ॥ पितेव चाऽभिचन्द्रोऽपि,सर्वान् युगलधर्मिणः। स्थित्या तयैव नीतिभ्यां,ताभ्यामेवाशिपच्चिरम् ॥१८५॥ ततो बहुलभूतेष्टाशर्वर्येव निशाकरः । प्रान्तकाले मिथुनकं, सुषुवे प्रतिरूपया ॥ १८६ ॥ सुनोः प्रसेनजिदिति, पितृभ्यां नाम निर्ममे । चक्षुष्कान्तेति पुत्र्याश्च, कान्तेयं चक्षुषामिति ॥१८७॥ न्यूनायुषौ पितृभ्यां च, तमालश्यामलत्विषौ । सहितौ ववृधाते तौ, मुद्दुत्साहाविव क्रमात् ॥ १८८॥ 20 षट्कार्मुकशतोत्सेधं, धारयन्तावुभावपि । विषुवद् वासरनिशे, इवाऽभूतां समप्रमौ ॥ १८९ ॥ मृत्वाऽभिचन्द्रोऽप्युदधिकुमारेषूदपद्यत । प्रतिरूपा पुनर्नागकुमारेषु तदैव हि ॥ १९०॥ बभूव युग्मिनां नाथस्तथैवाऽथ प्रसेनजित् । प्रायो महात्मनां पुत्राः, स्युर्महात्मान एव हि ॥१९१।। हाकारनीतिं माकारनीतिं च व्यत्यलचयन् । तदा युग्मानि कामार्ता, हीमर्यादे इव क्रमात् ॥ १९२ ॥ अनाचारमहाभूतत्रासमत्राक्षरोपमाम् । धिक्कारनीतिमपरामकृताऽथ प्रसेनजित् ॥ १९३॥ 25 नीतिभिस्तिसृभिस्ताभिः, स प्रयोगविचक्षणः । शशास सकलं लोकं, यतैस्त्रिभिरिव द्विपम् ॥ १९४ ॥ ततश्च पश्चिमे काले, किश्चिदूनायुषी खतः । चक्षुष्कान्ताऽपि सुषुवे, स्त्रीपुंसौ युग्मरूपिणी ॥ १९५ ॥ तौ तु पञ्चाशदधिकपञ्चधन्वशतोच्छ्रयौ । सहैव प्रापतुर्वृद्धिं, वृक्षच्छाये इव क्रमात् ।। १९६ ॥ मरुदेव इति सूनुः, श्रीकान्तेति च नन्दना । तौ युग्मधर्मिणौ लोके, नाम्ना ख्यातिमुपेयतुः ॥ १९७ ॥ प्रियङ्गुवर्णया पन्या, मरुदेवः सुवर्णरुक् । शुशुभे नन्दनतरुश्रेण्येव कनकाचलः ॥ १९८ ॥ 30 ततो द्वीपकुमारेषु, जज्ञे मृत्वा प्रसेनजित् । चक्षुष्कान्ता पुननांगकुमारेषु तदैव हि ॥ १९९ ॥ नीतिक्रमेण तेनैव, सर्वान् युगलधर्मिणः । मरुदेवस्ततो देवान् , देवराजे इवाऽन्वशात् ॥ २० ॥ श्रीकान्तायाः प्रान्तकालेऽजायेतां युग्मधर्मिणौ । नाभिश्च मम्देवा च, स्त्रीपुंसावभिधानतः ॥ २०१।। पञ्चविंशत्यभ्यधिकपञ्चधन्वशतोच्छ्यौ । सहैव प्रापतुर्वृद्धि, तो क्षमासंयमाविव ।। २०२ ॥ मरुदेवा प्रियङ्गुश्री भिर्जाम्बूनदद्युतिः । पित्रोः सावर्ण्यतोऽभाता, तन्प्रतिच्छन्दकाविव ॥ २०३ ॥ *सार्धसप्त खंता, आ॥ श्रीवि सं १॥ १ शमीपिप्पलवृक्षौ । २ कृष्णचतुर्दशीराव्येव । ३ हपोस्माहौ । समप्रभौ सं . आ॥ ४ इन्द्रः। ५ तत्प्रतिबिम्बभृनौ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । सङ्ख्यातपूर्वप्रमितं, तयोरायुर्महात्मनोः । श्रीकान्तामरुदेवाभ्यां मनागूनमभूत् किल ॥ २०४ ॥ विपद्य मरुदेवोऽथ, प्राप द्वीपकुमारताम् । श्रीकान्ताऽपि हि तत्कालमेव नागकुमारताम् ॥२०५॥ सप्तमोऽभूत् कुलकरो, नाभिस्तदनु युग्मिनाम् । तिसृभिनतिभिस्तांश्च यथावत् प्रशशास सः ॥ २०६ ॥ तदा तृतीयारशेषे, पूर्वलक्षेषु सङ्ख्यया । चतुरशीतौ सनवाशीतिपक्षेषु सत्स्विह ॥ २०७ ॥ आषाढमासस्य पक्षे, प्रवृत्ते धवलेतरे । चतुर्थ्यामुत्तराषाढा नक्षत्रस्थे निशाकरे ॥ २०८ ॥ प्रपाल्याऽऽयुत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमसम्मितम् । जीवः श्रीवज्रनाभस्य, च्युत्वा सर्वार्थसिद्धितः ॥ २०९ ॥ श्री नाभिपत्या उदरे, मरुदेव्या अवातरत् । मानसात् सरसो हंस, इव मन्दाकिनीतटे ॥ २१० ॥ तदा स्वामिन्यवतीर्णे, त्रैलोक्येऽपि शरीरिणाम् । दुःखच्छेदात् क्षणं सौख्यमुद्द्योत महानभूत् ॥ २११ ॥ तत्राऽवतरयामिन्यां, वासागारे प्रसुप्तया । मरुदेव्या ददृशिरे, महास्वमाचतुर्दश ।। २१२ ।। 5 आदौ वृषः सितः पीनस्कन्धो दीर्घर्जुवालधिः । सस्वर्णकिङ्किणीमालः, शरन्मेघ इवोत्तडित् ॥ २१३ ।। 10 दन्तिराजचतुर्दन्तः, श्वेतवर्णः क्रमोन्नतः । क्षरन्मदनदीरम्यः, कैलास इव जङ्गमः ॥ २१४ ॥ पिङ्गाक्षो दीर्घरसनः, केसरी लोलकेसरः । पताकामिव शूरेषु तन्वन्नुत्पुच्छनच्छलात् ॥ २१५ ॥ देवी च पद्मनिलया, पद्मसदृग्विलोचना । दिकुञ्जरकरोत्क्षिप्तपूर्णकुम्भोपशोभिता ।। २१६ ॥ नानाविधामरतरुप्रसूनपरिगुम्फितम् । दाम प्रलम्बधन्वेव, ऋजुरोहितंधन्वनः ॥ २१७ ॥ निजाननप्रतिच्छन्दमिवाऽऽनन्द निबन्धनम् । कान्तिपूरद्योतिताशामण्डलं चन्द्रमण्डलम् ॥ २९८ ॥ निशायामपि तत्कालं, वासरभ्रमकारकः । सर्वान्धकारच्छिदुरः, स्फुरद्युतिरहपतिः ॥ २१९ ॥ + किङ्किणी मालभारिण्या, प्रचलन्त्या पताकया । करीव कर्णतालेन, राजमानो महाध्वजः ॥ २२० ॥ अम्भःकुम्भः शातकौम्भः, स्मेराम्भोजार्चिताननः । अम्भोधिमथनोद्गच्छत्सुधाकुम्भसहोदरः ।। २२१ ।। स्तोतुं तमाद्यमर्हन्तं, पद्मैर्भृङ्गनिनादिभिः । अनेकवदनीभूत इव पद्माकरो महान् ॥ २२२ ॥ भुव्यास्तीर्णशरन्मेघमालालीलामलिम्लुचैः । उद्वीचिनिचयैश्वेतोऽभिरामः क्षीरनीरधिः ॥ २२३ ॥ यत्रोषितोऽभूद् भगवान्, देवत्वे तदिवाऽऽगतम् । इहापि पूर्वस्नेहेन, विमानममितद्युति ॥ २२४ ॥ कुतोऽप्येकत्र मिलितस्तारकाणामिवोत्करः । रत्नर्पुञ्जो महान् व्योम्नि, पुञ्जीभूतामलद्युतिः ॥ २२५ ॥ तेजखिनां पदार्थानां, त्रैलोक्योदरवर्त्तिनाम् । सम्पिण्डितं तेज इव, निर्धूमोऽग्निर्मुखेऽविशत् ॥ २२६ ॥ १ निशाविरामसमये, स्वामिनी मरुदेव्यपि । स्वप्नान्ते स्मयमानास्या, पद्मिनीव व्यबुध्यत ।। २२७ ॥ असम्मान्तीं मुदमिवोद्भिरन्ती कोमलाक्षरैः । स्वमानकथयद् देवी, तांस्तथैवाऽऽशु नाभये ॥ २२८ ॥ उत्तमस्ते कुलकरस्तनयो भवितेत्यथ । स्वार्जवस्याऽनुसारेण, नाभिः स्वमान् व्यचारयत् ॥ २२९ ॥ स्वामिनः कुलकुन्मात्रसम्भावनमसाम्प्रतम् । इति कोपादिवेन्द्राणामकम्पन्ताऽऽसनान्यथ ।। २३० ।। किमित्यकस्मादस्माकमासनानां प्रकम्पनम् । इति दत्त्वोपयोगं तद्, विदाञ्चक्रुर्बिडौजसः ॥ २३१ ॥ तत्कालं भगवन्मातुः, स्वनार्थमभिशंसितुम् । सुहृदः कृतसङ्केता, इवेन्द्रास्तुल्यमाययुः ॥ २३२ ॥ ततस्ते विनयान्मूर्ध्नि, घटिताञ्जलिकुड्मलाः । स्वमार्थं स्फुटयामासुः, सूत्रं वृत्तिकृतो यथा ॥ २३३ ॥ भावी स्वामिनि ! पुत्रस्ते, स्वमे वृषभदर्शनात् । मोहपङ्कमनधर्मस्यन्दनोद्धरणक्षमः ।। २३४ ॥ हस्तिदर्शनतो देवि !, तव सूनुर्भविष्यति । गरीयसामपि गुरुर्महास्थामैकधाम च ॥ २३५ ॥ भावी पुरुषसिंहस्ते, तनयः सिंहदर्शनात् । धीरः सर्वत्र निर्भीक, शूरोऽस्खलितविक्रमः ।। २३६ ।। यच्च श्रीर्ददृशे तत्र, तनयः पुरुषोत्तमः । देवि ! त्रैलोक्यसाम्राज्यलक्ष्मीनाथो भविष्यति ।। २३७ ।। स्व सग्दर्शनात् पुण्यदर्शने ! स्यात् तवाऽऽत्मजः । सर्वस्य जगतः स्रग्वच्छिरसोद्वाह्यशासनः ।। २३८ ॥ 35 | लम्बसरलपुच्छः । कङ्कणीमाता, सं २ ॥ २ आरूढधन्वनः । ३ सूर्यः । + किङ्कणी सं १ ॥ ३५ 15 20 25 30 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · 10 15 ३६ स्वामिन्य पीन्द्रैः स्वप्नार्थव्याख्यानसुधयोक्षिता । वसुधेवाऽम्बुदैरद्भिः, संसिक्ता समुदश्वसत् ।। २५० ।। सा तेनाsशोभि गर्भेण, मेघमालेव भानुना । शुक्तिर्मुक्ताफलेनेव, सिंहेनेवाऽद्रिकन्दरा ।। २५१ ॥ प्रियङ्गुश्यामवर्णाऽपि मरुदेवा निसर्गतः । शरदा मेघमालेव, गर्भेण प्राप पाण्डुताम् ।। २५२ ।। तस्या अभूतां वक्षोजी, विशेषात् पीवरोन्नतौ । स्तन्यपो नौ जगत्स्वामी, भावीतीय प्रमोदतः ।। २५३ ।। तस्या विशेषतोऽभूतां, सविकाशे विलोचने । भगवद्वदनं द्रष्टुं, दूरमुत्कण्ठिते इव ।। २५४ ।। नितम्बभित्तिः स्वामिन्या, वैपुल्यं विपुलाऽपि हि । भेजे वर्षात्यये निम्नगायाः पुलिनभूरिव ।। २५५ ॥ मन्दा सहजभावेनाऽप्यस्या मन्दतराऽभवत् । गतिर्मतङ्गजस्येव, मदावस्थामुपेयुषः ॥ २५६ ॥ तस्यास्तदानीं ववृधे, लावण्यश्रीर्विशेषतः । प्रज्ञेवोषसि विदुषो, ग्रीष्मे वेलेव वारिधेः ॥ २५७ ॥ 20 त्रैलोक्यैकमहासारं, सा गर्भ धारयत्यपि । नाऽखिद्यत प्रभावोऽयमर्हतां गर्भवासिनाम् ॥ २५८ ॥ उदरे मरुदेवायाः, शनकैः शनकैस्ततः । निगूढं ववृधे गर्भः, कन्दोऽन्तरवनेरिव ॥ २५९ ॥ स्वामिन्यभूत् तत्प्रभावाद्, विशेषाद् विश्ववत्सला । शीतमप्यम्बु शीतं स्यात्, क्षिप्तया हिममृत्या || २६० ॥ गर्भावतीर्णभगवत्प्रभावान्नाभिरप्यभूत् । पितृतोऽप्यधिकं मान्यः सर्वेषां युग्मधर्मिणाम् ।। २६१ ॥ तत्प्रभावाद् विशिष्टानुभावाः कल्पद्रवोऽभवन् । शरत्कालवशादिन्दुकरा स्युरधिकश्रियः ।। २६२ ।। 25 तत्प्रभावाच्छान्ततिर्यग्नृबैरा भूरभूच्च सा । सर्वतो ऽपि हि शाम्यन्ति, सन्तापाः प्रावृडागमात् ।। २६३ ॥ ततो नवसु मासेषु, दिनेष्वर्द्धाष्टमेषु च । गतेषु चैत्रबहुलाष्टम्यामर्द्धनिशाक्षणे ॥ २६४ ॥ उच्चस्थेषु ग्रहेष्विन्दावुत्तराषाढया युते । सुखेन सुषुवे देवी, पुत्रं युगलधर्मिणम् ॥ २६५ ॥ 30 कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथमं पर्व जगन्मातस्त्वया यच्च, स्वमे पूर्णेन्दुरैक्ष्यत । तनेत्रानन्दनः कान्तो, नन्दनस्ते भविष्यति ॥ २३९ ॥ ईक्षाञ्चक्रे रविर्यच्च तत्सूनुस्ते भविष्यति । मोहान्धकारविध्वंसाञ्जगदुद्द्योतकारकः ॥ २४० ॥ आलोके त्वया खमे, यच्च देवि ! महाध्वजः । महावंशप्रतिष्ठः स्यात्, तत् ते धर्मध्वजोङ्गजः || २४१ ॥ यच्च स्वप्ने पूर्णकुम्भो, भवत्याऽऽलोकि देवि ! तत् । सूनुः समग्रातिशयपूर्णपात्रं भविष्यति ॥ २४२ ॥ यच्च पद्मसरो दृष्टं, तत् खामिनि ! तवाऽऽत्मजः । तापं संसारकान्तारपतितानां हरिष्यति ॥ २४३ ॥ सरित्पतिर्यदालोक, भवत्या तनयस्तव । अधृष्यश्चाभिगम्यश्च तदवश्यं भविष्यति ॥ २४४ ॥ विमानं देवि ! यद् दृष्टं, भवत्या भुवनाद्भुतम् । वैमानिकैरपि सुरैस्तत् ते सेविष्यते सुतः ॥ २४५ ॥ रत्नपुञ्जः स्फुरत्कान्तिरीक्षामासे च यत् त्वया । तत्सर्वगुणरलानामाकरः स्यात् तवाऽऽत्मजः ॥ २४६ ॥ यज्ज्वलनो दृष्टो वक्रमध्ये विशंस्त्वया । अन्यतेजखिनां तेजस्तदपास्यति ते सुतः || २४७ ।। चतुर्दशभिरप्येतैः, स्वप्नैः स्वामिनि ! सूच्यते । चतुर्दशंरज्जुदभे, लोके स्वामी तवाऽऽत्मजः ॥ २४८ ॥ इति स्वार्थमाख्याय, मरुदेवीं प्रणम्य च । क्षणान्निर्जनिजस्थानान्यगमन्नमरेश्वराः ॥ २४९ ॥ दिशः प्रसादमासेदुस्तदानीं सम्मदादिव । लोकः क्रीडापरो जज्ञे, ध्रुवसीव महामुदा ॥ २६६ ॥ जरायुरक्तप्रभृतिकलङ्कपरिवर्जितः । उपपादशय्योद्भूत, इव देवो रराज सः ॥ २६७ ॥ तदा कृतजगन्नेत्रचमत्कारोऽन्धकारभित् । बभूव विद्युदुयोत, इवोयोतो जगत्रये ॥ २६८ ॥ किङ्करानाहतोऽप्युच्चैर्मेघगम्भीरनिस्वनः । स्वयं द्यौरिव हर्षेण, ननाद दिवि दुन्दुभिः ॥ २६९ ॥ अप्राप्तपूर्विणां सौख्यं, नारकाणामपि क्षणम् । समजायत तिर्यग नृ-सुराणां किं पुनस्तदा ? ।। २७० ।। भूमि प्रसर्पद्धर्मन्दं मन्दं समीरणैः । रजोऽपनिन्ये मेदिन्याः, परिचर्याकरैरिव ॥ २७१ ॥ चेलक्षेपं च गन्धाम्बु, वषृषे स्तनयित्नुभिः । सिक्तबीजवदुच्छ्रासमाससाद च मेदिनी ॥ २७२ ॥ * यद्देवि ! ज्वलनो ह° सं १ ॥ १ चतुर्दशरज्जुप्रमाणे । + 'जस्थानान्यगमन् सर्वेऽपि सुरेश्वराः सं १ ॥ २ मृत्तिकया । ३ चैत्रकृष्णाष्टम्याम् । उत्तराषाढया युक्ते, चन्द्रे चन्द्रनिवेन्द्रदिकू सं २, आ ॥ ४ देव इव । ५ मेचैः । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ] त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरितम् । ३७ 1 15 अथाऽघोलोकवासिन्यः सद्यः प्रचलितासनाः । दिकुमार्यः समाजग्मुरष्टौ तत्सूतिवेश्मनि ॥ २७३ ॥ भोगङ्करा भोगवती, सुभोगा भोगमालिनी । तोयधारा विचित्रा च, पुष्पमाला त्वनिन्दिता ॥ तत्रादिमं तीर्थकर, तीर्थकृन्मातरं च ताम् । तात्रिः प्रदक्षिणीकृत्य, वन्दित्वा चैवमृचिरे ।। २७५ ।। नमस्तुभ्यं जगन्मातर्जगद्दीपप्रदायिके ! | अष्टौ वयमधोलोकवासिन्यो दिक्कुमारिकाः ।। २७६ ।। अवधिज्ञानतो ज्ञात्वा तीर्थजन्म पावनम् । तन्महिम्नः करणार्थं, तत्प्रभावादिहागताः ।। २७७ ।। 5 तन्न भेतव्यमित्युक्त्वा, देशे पूर्वोत्तरे स्थिताः । चक्रुः स्तम्भसहस्राङ्कं प्राङ्मुखं सूतिकागृहम् || २७८ ।। ताथ संवर्त्तवातेन, परितः सूतिकागृहम् | आयोजनमपाहार्षुः, शर्कराकण्टकादिकम् ॥ २७९ ॥ संवर्त्तवातं संहृत्य, भगवन्तं प्रणम्य च । तदासन्ननिषण्णास्तास्तं गायन्त्योऽवतस्थिरे ॥ २८० ॥ तथैवाऽऽसनकम्पेन, ज्ञात्वा मेरु गिरिस्थिताः । ऊर्द्धलोकनिवासिन्योऽप्यष्टेयुर्दिकुमारिकाः || २८१ ॥ मेघङ्करा मेघवती, सुमेधा मेघमालिनी । सुवत्सा वत्समित्रा च वारिषेणा बलाहिका ।। २८२ ।। 10 जिनं जिनजननीं च, नत्वा नुत्वा तथैव ताः । नभस्यवन्नभस्यभ्रपटलं द्राग् विचक्रिरे ॥ २८३ ॥ ताभिः सुगन्धितोयेनाऽऽयोजनं वेश्मपार्श्वतः । समन्ततो रजोऽशामि, कौमुद्येव तमस्ततिः ॥ २८४ ॥ वसुन्धरां वितन्वानां नानालेख्यमयीमिव । जानुदनीं पञ्चवर्णैः पुष्पैर्वृष्टिं वितेनिरे ॥ २८५ ॥ तथैव तीर्थनाथस्य, गायन्त्यो निर्मलान् गुणान् । हर्षप्रकर्षशालिन्यः, स्थाने तस्थुर्यथोचिते ॥ २८६ ॥ दिकुमार्योsष्ट पौरस्त्यरुचकाद्रिस्थिता अपि । विमानैर्मनसा सार्द्धं, स्पर्द्धमानैरिवाऽऽययुः ॥ २८७ ॥ ताश्च नन्दोत्तरानन्दे, आनन्दानन्दिवर्द्धने । विजया वैजयन्ती च जयन्ती चाऽपराजिता ॥ स्वामिनं मरुदेवां च, नत्वाऽऽख्याय च पूर्ववत् । गायन्त्यो मङ्गलान्यस्थुस्ताः प्रादर्पणपाणयः ॥ २८९ ॥ अपाच्य रुचकाद्रिस्थास्तावन्त्यो दिकुमारिकाः । तत्राऽययुः प्रमोदेन, प्रतोदेनेव नोदिताः ।। २९० ॥ समाहारा सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा यशोधरा । लक्ष्मीवती शेषवती, चित्रगुप्ता वसुन्धरा ।। २९१ ॥ जिननार्थं तदम्बां च, नत्वा प्राग्वन्निगद्य च । भृङ्गारपाणयस्तस्थुर्गायन्त्यो दक्षिणेन ताः ।। २९२ ।। serveenशैलस्था, अप्यष्टौ दिकुमारिकाः । आययुस्त्वरयाऽन्योऽन्यमित्र भक्त्या जिगीषवः ।। २९३ ।। इलादेवी सुरादेवी, पृथिवी पद्मवत्यपि । एकनासा नवमिका, भद्रा सीतेति नामतः ॥ २९४ ॥ नत्वा जिनं जिनाम्बां च, विज्ञपय्य च पूर्ववत् । तस्थुर्व्यजनहस्तास्ता, गायन्त्यः पश्चिमेन तु ।। २९५ ।। उदचकतोऽप्येयुर्दिकुमार्योऽष्ट वेगतः । वातैरिव रथीभूतैरमरैराभियोगिकैः ॥ २९६ ॥ अलम्बुसा मिश्रकेशी, पुण्डरीका च वारुणी । हासा सर्वप्रभा चैव, श्री हीरित्यभिधानतः ॥ २९७ ।। 25 नत्वा जिनं तदम्बां च कृत्यं चाऽऽख्याय पूर्ववत् । गायन्त्य उत्तरेणाऽस्थुस्तास्तु चामरपाणयः ॥ २९८ ॥ युर्विदिग्चकाद्रेश्चतस्रो दिक्कुमारिकाः । चित्रा चित्रकनका सतेरा सौत्रामणी तथा ।। २९९ ॥ नत्वा जिनं जिनाम्बां च, विज्ञपय्य तथैव हि । गायन्त्योऽस्थुर्दीपहस्ता, ईशानादिविदिक्षु ताः || ३०० || रुचकद्वीपतोऽप्येयुश्चतस्रो दिकुमारिकाः । रूपा रूपाशिका चाऽपि, सुरूपा रूपकावती ॥ ३०१ ॥ चतुरङ्गुलवता, नाभिनालं जगत्पतेः । न्यकृन्तन् विदरं चख्नुस्तं च तत्र निचिक्षिपुः ॥ ३०२ ॥ विद॑रं पूरयामासुर्वत्रै रत्नैश्च मञ्जु ताः । दुर्वया पीठिकाबन्धं, तस्योपरि च चक्रिरे ॥ ३०३ ॥ जिनजन्मगृहात् पूर्वदक्षिणोत्तरदिक्षु च । विचक्रुस्त्रीणि कदलीगृहाणि श्रीगृहाणि ताः ॥ ३०४ ॥ प्रत्येकमेषां मध्ये च, ताः सिंहासनभूषितम् । विचक्रिरे चतुःशालं, विशालं स्वविमानवत् ।। ३०५ ॥ 20 1 30 * अथ मेरुरुचकाधोलोकस्थाश्चलि° खंता ॥ + सुवत्सा वत्समित्रा च पु° खंता, आ ॥ । देशेऽथोत्तरपश्चिमे स्वता ॥ ६ तोयधारा विचित्रा च वारि° संता, आ ॥ १ भाद्रपदभासवत् । २ जानुप्रमाणाम्। १ "युः प्रयत्वेन, प्रमोदेनैव चालिताः सं १ ॥ ॐ विवरं सं १, खं ॥ || विवरं सं १, खं ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व ता दक्षिणचतुःशाले, जिनं न्यस्य कराञ्जलौ । निन्युस्तन्मातरं चाऽऽप्तचेटीवद् दत्तबाहवः ॥ ३०६ ॥ सिंहासने निवेश्योभावभ्यान ः सुगन्धिना । ता लक्षपाकतैलेन, जरत्संवाहिका इव ॥ ३०७ ॥ अमन्दामोदनिःस्यन्दप्रमोदितदिशा भृशम् । उभावुद्वर्त्तयामासुर्दिव्येनोद्वर्त्तनेन ताः ॥ ३०८ ॥ नीत्वा ताः प्राश्चतुःशाले, न्यस्य सिंहासने च तौ । नपयामासुरम्भोभिः, स्वमनोभिरिवाऽमलैः ॥३०९॥ गन्धकाषायवासोभिस्तदङ्गान्यजन्नथ । गोशीर्षचन्दनरसैश्चर्चयामासुराशु ताः ॥ ३१० ॥ ताभ्यामामोचयामासुर्देवदृष्ये च वाससी । विद्युदुझ्योतसध्यञ्चि, ताश्चित्राभरणानि च ॥ ३११ ।। अथोत्तरचतुःशाले, नीत्वा सिंहासनोपरि । न्यषादयन् भगवन्तं, भगवन्मातरं च ताः ॥ ३१२ ॥ गोशीर्षचन्दनैधांसि, द्राक् क्षुद्रहिमवगिरेः । ताः समानाययामासुरमरैराभियोगिकैः ॥ ३१३ ॥ उत्पाद्याऽरणिदारुभ्यां, वह्निमहाय तास्ततः । होमं वितेनु:शीर्षचन्दनैरेधसात्कृतैः ॥ ३१४ ॥ 10 रक्षापोट्टलिकां वह्निभमना तेन ता व्यधुः । तयोर्महामहिम्नोरप्यासां भक्तिक्रमः स हि ॥ ३१५ ॥ पर्वतायुभवेत्युच्चैरुक्त्वा कर्णान्तिके विभोः । ताः समास्फालयामासुर्मिथः पाषाणगोलको ॥ ३१६ ।। सूतिकाभवने तस्मिन् , मरुदेवां विभुं च ताः । शय्यागतौ विधायाऽस्थुर्गायन्त्यो मङ्गलान्यथ ॥३१७॥ ___ तदा शाश्वतघण्टानां, स्वर्गेषु युगपद् ध्वनिः । बभूव लग्नवेलायामातोद्यानामिवोच्चकैः ॥ ३१८ ॥ वासवानामासनानि, शैलमूलाचलान्यपि । चकम्पिरे तदानीं च, हृदयानि च सम्भ्रमात् ॥ ३१९ ॥ 15 ततश्च सौधर्मपतिः, कोपाटोपारुणेक्षणः । ललाटपट्टघटितभ्रकुटीविकटाननः ।। ३२० ॥ . अधरं स्फोरयन्नन्तः, क्रोधवः शिखामिव । उच्छ्रसन्नङ्गिणैकेन, स्थिरीकर्तुमिवाऽऽसनम् ॥ ३२१॥ कस्योत्क्षिप्तं कृतान्तेन, पत्रमद्येति विब्रुवन् । आदित्सते स्म दम्भोलिं, स्वशौण्डीर्यानलानिलम् ॥ ३२२ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] एवं पुरन्दरं प्रेक्ष्य, क्रुद्धकेसरिसोदरम् । मूर्तो मान इवाऽनीकपतिनत्वा व्यजिज्ञपत् ॥ ३२३ ॥ 20 किमावेशः स्वयं स्वामिन् !, पदातौ मयि सत्यपि ? । समादिश जगन्नाथ!, कं मनामि तव द्विषम् ॥३२४।। ततो मनःसमाधानमाधाय विबुधाधिपः । प्रयुज्याऽवधिमज्ञासीजन्माऽऽदिमजिनप्रभोः ॥३२५ ॥ मुदा विगलितक्रोधसंवेगस्तत्क्षणादभूत् । शान्तदावानलो वृष्ट्या, सानुमानिव वासवः ॥ ३२६ ॥ धिग् मया चिन्तितमिदं, मिथ्यादुष्कृतमस्तु मे । इति बुवाणो गीर्वाणाग्रणीः सिंहासनं जहौ ॥ ३२७ ॥ गत्वा पदानि सप्ताऽष्टान्युत्तमाङ्गे निधाय च । द्वितीयरत्नमुकुटश्रीविश्राणकमञ्जलिम् ॥ ३२८ ॥ जानूत्तमाङ्गकमलसंस्पृष्टपृथिवीतलः । नत्वा रोमाञ्चितोऽर्हन्तमिति स्तोतुं प्रचक्रमे ॥३२९ ॥ तुभ्यं नमस्तीर्थनाथ !, सनाथीकृतविष्टप! । कृपारससरिनाथ !, नाथ! श्रीनाभिनन्दन ॥ ३३० ॥ मत्यादिभित्रिभिमा॑नैः, सहोत्थैर्नाथ ! शोभसे । नन्दनादिभिरुद्यानैरिव मेरुमहीधरः ॥ ३३१ ॥ देवेदं भारतं वर्ष, दिवोऽप्यद्याऽतिरिच्यते । त्रैलोक्यमौलिरत्नेन, यदलतियते त्वया ॥ ३३२ ॥ असौ त्वजन्मकल्याणमहोत्सवपवित्रितः । आसंसारं जगन्नाथ!, वन्यस्त्वमिव वासरः ॥ ३३३॥ नारकाणामपि सुखं, जज्ञे त्वजन्मपर्वणा । अर्हतामदयः केषां न स्यात सन्तापहारकः?॥३३४॥ जम्बूद्वीपस्य भरतक्षेत्रे नष्टो निधानवत् । त्वदाज्ञाबीजकेनाऽतः, परं धर्मः प्रकाशताम् ॥ ३३५ ॥ त्वत्पादौ प्राप्य संसार, तरिष्यन्ति न केऽधुना ? । अयोऽपि यानपात्रस्थं, पारं प्रामोति वारिधेः ॥३३६॥ कल्पवृक्ष इवाऽवृक्षे, नदीस्रोतो मराविव । भगवन्नवतीर्णोऽसि, लोकपुण्येन भारते ॥ ३३७ ॥ भगवन्तमिति स्तुत्वा, प्रथमस्वर्गनायकः । पदात्यनीकाधिपति, नैगमेषिणमादिशत् ॥ ३३८ ॥ 35 जम्बूद्वीपस्थभरतदक्षिणार्द्धस्य मध्यमे । भूमिभागे कुलभृतो, नाभेः पत्न्याः श्रियांनिधेः ॥ ३३९ ॥ विद्युत्प्रकाशसमानानि । २ वज्रम् । ३ इन्द्रम् । * द्वीपीयम खंता, द्वीपस्य भ° सं १, आ॥+निधिः खंता, आ॥ 30 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । नन्दनो मरुदेवाया, जज्ञे प्रथमतीर्थकृत् । आहूयन्तां सुराः सर्वे, तजन्मस्नात्रहेतवे ॥३४०॥ ततश्च योजनपरिमण्डलामद्भुतस्वनाम् । स त्रिरुल्लालयन् घण्टा, सुघोषाख्यामवादयत् ॥ ३४१ ॥ सर्वापरविमानानां, नेदुर्घण्टाः सुघोषया । समं मुखरगायन्या, गायन्य इव पक्षगाः ॥ ३४२ ॥ घण्टानां निस्वनस्तासां, दिङ्मुखोत्थैः प्रतिस्वनैः । सूनुभिः स्वप्रतिच्छन्दैः, सतां कुलमिवाऽवृधत् ॥३४३॥ द्वात्रिंशति विमानानां, लक्षेषु स समुच्छलन् । तालुनीवाऽनुरणनरूपः शब्दो व्यजृम्भत ॥ ३४४ ॥ 5 देवाः प्रमत्तव्यासक्तास्तेन शब्देन मैंर्छता । किमेतदिति सम्भ्रान्ताश्चक्रिरे सावधानताम ॥ ३४५॥ उद्दिश्य तानवहितान् , सेनानीः सोऽथ वज्रिणः । वचसा मेघनिर्घोषगम्भीरेणाऽभ्यधादिति ॥ ३४६ ॥ भो भो देवाः ! समस्तान वः, सदेव्यादिपरिच्छदान् । इत्यादिशत्यनुल्लयशासनः पाकशासनः ॥३४७॥ जम्बूद्वीपस्थ भरतदक्षिणार्द्धस्य मध्यतः । नाभेः कुले कुलकृतो, जज्ञे प्रथमतीर्थकृत् ॥ ३४८ ॥ तत्र तजन्मकल्याणमहोत्सवविधित्सया । गन्तुं त्वरध्वमस्मद्वत्, कृत्यं नाऽतः परं परम् ॥ ३४९॥ 10 प्रत्यर्हन्तं रागतः केऽप्यभिवातमिवैणकाः । केऽपि शक्राज्ञयाऽऽकृष्टा, अयस्कान्तेन लोहवत् ॥ ३५० ॥ दारैरुल्लासिताः केऽपि, यादांसीव नदीरयैः । केचित् सुहद्भिराकृष्टा, गन्धा गन्धवहैरिव ।। ३५१ ॥ एयुर्विमानै रुचिरैर्वाहनैरपरैरपि । द्यामन्यामिव कुर्वाणा, गीर्वाणाः शक्रसन्निधौ ॥ ३५२ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] आदिशत् पालकं नाम, वासवोऽप्याभियोगिकम् । असम्भाव्यप्रतिमानं, विमानं क्रियतामिति ॥३५३।। 15 तत्कालं पालकोऽपीशनिदेशपरिपालकः । रत्नस्तम्भसहस्रांशुपूरपल्लविताम्बरम् ॥ ३५४ ॥ गवाक्षरक्षिमदिव, दीधैर्दोष्मदिव ध्वजैः । वेदीभिर्दन्तुरमिव, कुम्भैः पुलकभागिव ॥ ३५५ ॥ पञ्चयोजनशत्युच्चं, विस्तारे लक्षयोजनम् । इच्छानुमानगमनं, विमानं पालकं व्यधात् ॥ ३५६ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] आसंस्तस्य विमानस्य, तिस्रः सोपानपतयः । गिरेर्हिमवतो नद्य, इव कान्तितरङ्गिताः ॥ ३५७ ॥ 20 तासां पुरस्ताद् विविधवर्णरत्नमयानि च । तोरणानि त्रिधाभूतशक्रधन्वश्रियं दधुः ॥ ३५८ ॥ चन्द्रबिम्बवदादर्शवदालिङ्गिमृदङ्गवत् । दीपमल्लीवदस्यान्तः, समवृत्ता रराज भूः ॥३५९ ॥ न्यस्तरत्नशिलारश्मिपटलैर्विरलेतरैः । भित्तिचित्रोपरितिरस्करणीरिव सा न्यधात् ॥ ३६० ॥ अभूत् तन्मध्यतः प्रेक्षामण्डपो रत्ननिर्मितः । अप्सरोनिर्विशेषाभिः, पाञ्चालीभिर्विभूषितः ॥ ३६१ ॥ मण्डपस्य च तस्यान्तश्चारुमाणिक्यनिर्मिता । बभूव पीठिकोनिद्रपङ्कजस्येव कर्णिका ॥ ३६२ ॥ 25 चकासामास विष्कम्भायामयोरष्टयोजना। सा चतुर्योजना पिण्डे, शय्येव मघवेश्रियः ॥ ३६३ ॥ रेजे तस्या उपर्येकं, रत्नसिंहासनं महत् । अशेषज्योतिषां सारं, पिण्डयित्वेव निर्मितम् ॥ ३६४ ॥ तस्योपरिष्टाद् विजयदृष्यं दृष्येतरश्यभात् । विचित्ररत्नखचितं, निचिताम्बरमंशुभिः ॥ ३६५ ॥ तस्य मध्ये कर्ण इवेभस्य वज्राङ्कुशोऽशुभत् । लीलादोलानिभं लक्ष्म्या, मुक्तादाम च कुम्भिकम् ।।३६६॥ तदीयामिभिर्मुक्तादामभिश्वार्धकुम्भिकैः । पार्श्वगैर्दाम रेजे तद् , गङ्गा नद्यन्तरैरिव ॥ ३६७ ॥ 30 तत्संस्पर्शसुखलोभादिव स्खलितगामिभिः । मन्दं मन्दमदोल्यन्त, तानि प्राच्यादिवायुभिः ॥ ३६८ ॥ तदन्तः सञ्चरन् वायुश्चक्रे श्रुतिसुखं स्वरम् । चाटुकार इवेन्द्रस्य, गायन्निव यशोऽमलम् ॥ ३६९ ॥ तत्सिंहासनमाश्रित्य, वायव्योत्तरयोर्दिशोः । दिशि चोत्तरपूर्वयां, सामानिकदिवौकसाम् ॥ ३७० ॥ चतुरशीतिसहस्रसङ्ख्यानामभवन् क्रमात् । भद्रासनानि तावन्ति, धुश्रीणां मुकुटा इव ॥ ३७१ ॥ १ अग्रसरगायक्या । * मूछिताः सं १, २, आ ॥ २ सावधानान् । ३ लोहचुम्बकेन । ४ जलजन्तवः । ५ मल्लिकाजातिविशेषः । ६ जवनिकाः । ७ पुत्तलिकाभिः। ८ दैर्ध्य विस्तारयोः। ९ इन्द्रश्रियः । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथमं पर्व अष्टानामग्रदेवीनां प्राच्यामष्टासनानि तु । सदृशाकारधारीणि, सोदराणीव जज्ञिरे ॥ ३७२ ॥ दिशि दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरसभासदाम् । भद्रासनसहस्राणि द्वादशाऽऽसन् दिवौकसाम् ।। ३७३ ।। आसनानि दक्षिणस्यामासन् मध्यसभासदाम् । चतुर्दशानां दिविषत्सहस्राणां क्रमेण तु ॥ ३७४ ॥ दक्षिणपश्चिमायां तु देवानां बाह्यपर्षदः । पोडशानां सहस्राणामासीदासनधोरणी ॥ ३७५ ॥ 5 दिशि प्रतीच्यां सप्तानामनीकपतिनाकिनाम् । सप्तासनान्येकविम्बपतितानीव रेजिरे || ३७६ || चतुरशीतिः सहस्राण्यासनान्यात्मरक्षिणाम् । भानीव मेरुं परितः शक्रं प्रतिदिशं बभ्रुः ॥ ३७७ ॥ परिपूर्ण विमानं तद्, विरचय्याऽऽभियोगिकाः । देवा विज्ञपयामासुः, स्वामिने त्रिदिवौकसाम् || ३७८ ।। पुरन्दरोऽपि तत्कालं, विचक्रे रूपमुत्तरम् । नैसर्गिकी हि भवति, सदां कामरूपिता ।। ३७९ ।। महिषीभिः सहाऽष्टाभिर्दिश्रीभिरिव वासवः । गन्धर्वनाट्यानीकाभ्यां दर्श्यमानकुतूहलः || ३८० || ततः प्रदक्षिणीकुर्वन्, पूर्वसोपानवर्त्मना । आरुरोह विमानं तन्निजं मानमिवोन्नतम् ॥ ३८१ ॥ सहस्राक्षः सहस्राङ्ग, इव माणिक्यभित्तिषु । सङ्क्रान्तमूर्तिरध्यास्त, प्राङ्मुखः स्वं तदासनम् ।। ३८२ ।। शक्ररूपान्तराणीव, शक्रसामानिकास्तथा । आरुह्योदीच्य सोपानैर्यथाऽऽसनमुपाविशन् ॥ ३८३ ॥ प्रविश्याऽपाच्य सोपानपङ्कयाऽन्येऽपि दिवौकसः । स्ववासनेषु न्यपदन्, स्वाम्यग्रे नाऽऽसेनात्ययः ।। ३८४ ॥ सिंहासननिषण्णस्य, पौलोमी भर्त्तुरग्रतः । दर्पणप्रभृतीन्यष्टमङ्गलान्यष्ट रेजिरे || ३८५ ॥ 15 शुशुभे शशभृत्पाण्डु, पुण्डरीकं विडौजसः । हंसाविवोपसर्पन्तौ, धूयमानौ च चामरौ ॥ ३८६ ॥ सहस्रयोजनोत्सेधो, विमानाग्रे हरिध्वजः । अशोभत पताकाभिर्निर्झरैरिव पर्वतः || ३८७ || ततः परिवृतो देवैः, शक्रः सामानिकादिभिः । कोटिसङ्ख्यैरराजिष्ट, स्रोतोभिरिव सागरः || ३८८ ॥ विमानैरन्यदेवानां, विमानं तच्च वेष्टितम् । रुरुचे परिधिचैत्यैर्मूलचैत्यमिवोच्चकैः ॥ ३८९ ॥ अन्योऽन्यं चारुमाणिक्यभित्तिषु प्रतिविम्वितैः । विमानैर्गर्भितानीव, विमानानि चकाशिरे ।। ३९० ॥ 20 मागधानां जयजयध्वानैर्दुन्दुभिनिखनैः । गन्धर्वानीकनाट्यानीकातोद्यध्वनितैरपि ।। ३९१ ॥ दिङ्मुखप्रतिफलितैद्य दारयदिवाऽभितः । सौधर्ममध्यतोऽचालीत्, तद् विमानं हॅरीच्छया ।। ३९२ ।। सौधर्मोत्तरतस्तिर्यग्मार्गेण च तदुत्तरत् । अलक्षि जम्बूद्वीपस्य, पिधानायेव भाजनम् ।। ३९३ ।। 1 हस्तियाविन्नितो याहि, न मे सिंहः सहिष्यते । सादिनपसर क्रुद्धः, कासरो वाहनं मम ।। ३९४ ॥ मृगवान ! माभ्यागा, नन्वहं द्वीपिवाहनः । सर्वध्वज ! व्रजेतस्त्वं, पश्य मे गरुडं ध्वजे ।। ३९५ ।। किं पतस्यन्तरे मे त्वं, गतिविघ्नकरः पुरः । विमानं घट्टयसि भोः !, स्वविमानेन किं मम ।। ३९६ ॥ किं पञ्चात्पतितोऽस्येहि, शीघ्रं याति सुराधिपः । मा कुप्य घर्षणेनाऽद्य, सम्मर्दः खलु पर्वणि ।। ३९७ ॥ सौधर्मकल्पदेवानां, देवेन्द्रभ्रुपसर्पताम् । एवमौत्सुक्यजन्मा भून्मिथः कोलाहलो महान् ॥ ३९८ ॥ [ पञ्चभिःकुलकम् ] महाध्वजपटं रेजे, तद् विमानं नभस्तलात् । अम्भोधिमध्यशिखराद्, यानपात्रमिवोत्तरत् ॥ ३९९ ॥ नक्षत्रचक्रमध्येन, मध्येडुममिव द्विपः । मतीकुर्वदिव दिवं, मेघमण्डलपङ्किलम् ॥ ४०० ॥ द्वीपाम्भोधीनसङ्ख्यातान्, वेगेनोल्लङ्घय वायुवत् । अधिनन्दीश्वरद्वीपं तद् विमानं समापतत् ॥४०१ ॥ तत्र दक्षिणपूर्वस्मिन् गत्वा रतिकराचले । सञ्चिक्षेप विमानं तदिन्द्रो ग्रन्थं सुधीरिव ॥ ४०२ ॥ समुल्लङ्गं समुल्लङ्घ, ततोऽर्वाग् द्वीपसागरान् । ततोऽपि सनिपंस्तच्च, विमानं क्रमयोगतः ॥ ४०३ ॥ जम्बूद्वीपाsभिधे द्वीपे भरतार्द्धे तु दक्षिणे । आदितीर्थकृतो जन्मभवनं प्राप वासवः ॥ ४०४ ॥ 10 25 30 ४० १ आसनपरावृत्तिः । २] श्वेतच्छत्रम् । ३ बहिर्मण्डलस्थितचेत्यैः । ४ इन्द्रेच्छया । * ण प्राचलत्तरम् सं १ ॥ ५ हे अश्वारोह ! । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । अथ तेन विमानेन, स्वामिनः सूतिकागृहम् । स प्रदक्षिणयामास, सुमेरुमिव भास्करः ॥ ४०५॥ उदयाच्यां तु ककुभि, स पूर्वककुभः प्रभुः । अस्थापयत् तद् विमानं, निधानं धामकोणवत् ॥ ४०६ ॥ ततो विमानादुत्तीर्य, मानादिव महामुनिः । प्रसन्नमानसः शक्रो, जगाम स्वामिसन्निधौ ॥ ४०७॥ प्रभुमालोकमात्रेऽपि, प्रणनामाऽमराग्रणीः । उपायनं हि प्रथम, प्रणामः स्वामिदर्शने ॥ ४०८॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य, भगवन्तं समातरम् । प्रणनाम पुनः शक्रो, भक्तौ न पुनरुक्तता ॥ ४०९॥ 5 मूर्ध्नि बद्धाञ्जलिर्धाभिषिक्तस्त्रिदिवौकसाम् । भक्तिमान् स्वामिनीमेवं, मरुदेवामवोचत ॥ ४१० ॥ कुक्षौ रत्नधरे ! देवि !, जगद्दीपप्रदायिके ! । नमस्तुभ्यं जगन्मातस्त्वं धन्या पुण्यवत्यसि ॥४११॥ त्वमेवाऽमोघजन्माऽसि, त्वमेवोत्तमलक्षणा । पुत्रिणीषु त्वमेवाऽसि, पवित्रा भुवनत्रये ॥ ४१२ ॥ धर्मोद्धरणधौरेयश्छन्नमोक्षाध्वदर्शकः । प्रथमस्तीर्थनाथोऽयं, भगवान् सुषुवे यया ॥४१३ ॥ अहं सौधर्मदेवेन्द्रो, देवि ! त्वत्तनुजन्मनः । अर्हतो जन्ममहिमोत्सवं कर्तुमिहाऽऽगमम् ॥ ४१४ ॥ 10 भवत्या नैव भेतव्यमित्युदीर्य दिवस्पतिः । अवस्वापनिकां देव्यां, मरुदेव्यां विनिर्ममे ॥ ४१५॥ नाभिसूनोः प्रतिच्छन्द, विदधे मघवा ततः। देव्याः श्रीमरुदेवायाः, पार्श्वे तं च न्यवेशयत् ॥४१६॥ स चक्रे पञ्चधाऽऽत्मानं, पञ्चशक्रास्ततोऽभवन् । तस्याऽर्हा स्वामिनो भक्तिर्नैकाङ्गैः कर्तुमीश्यते ॥४१७॥ एकः सङ्क्रन्दनस्तत्र, पुरोभूय प्रणम्य च । भगवन्ननुजानीहीत्युदित्वा प्रश्रयाश्रितम् ॥ ४१८ ॥ गोशीर्षचन्दनाक्ताभ्यां, पाणिभ्यां भुवनेश्वरम् । मूर्तिस्थमिव कल्याणं, कल्याणीभक्तिराददे ॥ ४१९ ॥ 15 जगत्तापापनोदैकातपत्रस्य जगत्पतेः । आतपत्रं दधौ मूर्द्धन्येकः शक्रस्तु पृष्ठगः ॥ ४२० ॥ स्वामिनः पार्श्वयोरन्यौ, बाहुदण्डाविव स्थितौ । बिभराञ्चक्रतुश्वारुचामरे चाऽमरेश्वरौ ॥ ४२१ ॥ दम्भोलिदण्डं बिभ्राणो, वल्गन् द्वास्थाग्रणीरिव । अग्रेसरः शुनासीरो, बभूवाऽन्यो जगत्पतेः ॥ ४२२ ॥ वृताः सुरैर्जयजयेत्येकरावीकृताम्बरैः । उत्पेतुरम्बरेणेन्द्रा, अम्बरामलचेतसः ॥ ४२३ ॥ उत्कण्ठितानां देवानां, निपेतुर्भगवत्तनौ । सुधासरस्यां तृषिताध्वगानामिव दृष्टयः ॥ ४२४ ॥ 20 प्रभोस्तदद्भुतं रूपं, द्रष्टुं प्रष्ठा दिवौकसः । पृष्ठवर्तीनि नेत्राणि, कामयामासुरात्मनः ॥ ४२५ ॥ अतृप्ताः स्वामिनं द्रष्टुममराः पारिपार्श्विकाः । नाशकन्नन्यतो नेतुं, नयने स्तम्भिते इव ॥ ४२६ ॥ अनुगास्तु सुरा द्रष्टुं, प्रभुमग्रे यियासवः । पर्यस्यन्तो न हि निजं, मित्रस्वाम्याद्यजीगणन् ॥ ४२७ ॥ हृदयान्तरिवाऽर्हन्तं, हृदयद्वारि धारयन् । दिवौकसामधिपतिः, प्राप मेरुमहीधरम् ॥ ४२८॥ तत्रान्तः पाण्डकवनं. चलिकां दक्षिणेन तु । अतिपाण्डकम्बलायां. शिलायाममलत्विषि॥४२९॥25 सिंहासनेर्हत्स्नात्राहे, निजाङ्कस्थापितप्रभुः । सहर्ष न्यसदत् पूर्वाभिमुखः पूर्वदिक्पतिः ॥ ४३०॥ __ अत्रान्तरे महाघोषाघण्टानादप्रबोधितैः । अष्टाविंशतिविमानलक्षवास्यमरैर्वृतः ॥ ४३१ ॥ ऐशानकल्पाधिपतिः, शूलभृद् वृषवाहनः । पुष्पकाभियोग्यकृते, विमाने पुष्पके स्थितः ॥ ४३२ ॥ दक्षिणेनैशानकल्पमुत्तीर्णस्तिर्यगध्वना । अधिनन्दीश्वरमुदक्पूर्वे रतिकराचले ॥ ४३३ ॥ विमानमुपसंहृत्य, सौधर्मेन्द्र इव द्रुतम् । आगात् सुमेरुशिरसि, भक्त्या भगवदन्तिकम् ॥ ४३४॥ 30 विमानद्वादशलक्षीवासिभिस्त्रिदशैर्वृतः । सनत्कुमारः सुमनोविमानस्थः स चाऽऽययौ ॥ ४३५ ॥ विमानलक्षाष्टकजैर्महेन्द्रोऽप्यन्वितः सुरैः । श्रीवत्सेन विमानेन, मनसेवाऽऽययौ द्रुतम् ॥ ४३६ ॥ चतुर्विमानलक्षस्थैर्वृतो ब्रह्माऽपि नाकिभिः । नन्द्यावर्तविमानेन, स्वामिनोऽभ्यर्णमाययौ ॥ ४३७ ॥ __ आगाद् विमानपञ्चाशत्सहस्रीवासिभिः सुरैः । कामगवविमानेन, लान्तकोऽपि जिनान्तिकम् ॥ ४३८॥ * अयं श्लोकः आ पुस्तके न दृश्यते। १ एतदाख्यां निद्राम् । २ विनयसहितम् । ३ इन्द्रः। + पार्श्वकाः खंता ॥ ४ एतदाख्यायां शिलायाम् । त्रिषष्टि.६ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व चत्वारिंशत्सहस्राणां, विमानानां सुरैर्वृतः । प्रीतिगमविमानेन, शुक्रोऽगान्मेरुमूर्द्धनि ॥ ४३९ ॥ संहस्रारः सह सुरैः, षड्विमानसहस्रजैः । मनोरमविमानेनाऽऽययावुपजिनेश्वरम् ॥ ४४० ॥ विमलेन विमानेनाऽऽनत-प्राणतवासवः । चतुर्विमानशतजैः, सुरैः सह समाययौ ॥ ४४१ ॥ आरणाच्युतराजोऽपि, विमानत्रिशतीसुरैः । तत्राऽऽगात् सर्वतोभद्रविमानेनाऽतिरंहसा ॥ ४४२ ॥ रत्नप्रभाया मेदिन्या, बाहल्यान्तर्निवासिनाम् । भवनव्यन्तरेन्द्राणामासनान्यचलंस्तदा ॥ ४४३ ॥ पुर्या चमरचञ्चायां, सुधर्मायां च पर्षदि । सिंहासने च चमरे, निषण्णश्चमरासुरः ॥ ४४४ ॥ जिनजन्मावर्ज्ञात्वा, लोकज्ञप्त्यै द्रुमेण च । पत्यनीकाधिपेनौघस्वरां घण्टामवादयत् ॥४४५॥ चतुःषष्ट्या सहस्त्रैः स, सामानिकदिवौकसाम् । त्रयस्त्रिंशित्रायस्त्रिंशैश्चतुर्भिर्लोकपालकैः ।। ४४६ ॥ पञ्चभिश्चाग्र्यदेवीभिः, पर्षद्भिस्तिसृभिस्तथा । सप्तभिश्च महानीकैस्तदधीशैश्च सप्तभिः ॥ ४४७ ॥ 10 प्रतिदिश चतुःषष्ट्या, सहस्रैरात्मरक्षिणाम् । वृतोऽपरैरप्यसुरकुमारैः परमर्द्धिभिः॥४४८ ॥ पञ्चयोजनशत्युच्चं, महाध्वजविभूषितम् । पञ्चाशतं सहस्राणि, योजनानि तु विस्तृतम् ॥ ४४९ ॥ विमानमाभियोग्येन, सद्यो देवेन निर्मितम् । अधिरुह्याऽचलत् स्वामिजन्मोत्सवविधित्सया ॥ ४५० ॥ सङ्क्षिप्य शक्रवन्मार्गे, विमानं चमरासुरः। जगाम मेरुशिखरं, स्वाम्यागमपवित्रितम् ॥ ४५१ ॥ बलिश्च बलिचश्चाया, नगर्या असुरेश्वरः । घण्टां घोषयता तारं, प्राग महौघस्वराभिधाम् ॥४५२॥ 15 महाद्रुमेण सेनान्या, सामानिकदिवाकसाम् । षष्ट्या सहस्रैराहूतैरारक्षश्च चतुर्गुणैः ॥ ४५३ ॥ त्रायस्त्रिंशादिभिश्चापि, वृतश्चमरवत् सुरैः । जगामामन्दमानन्दमन्दिरं मन्दराचलम् ॥ ४५४ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] नागेन्द्रो धरणो मेघस्वराघण्टाप्रताडनात् । पत्तिसेनाधिपतिना, भद्रसेनेन बोधितैः ॥ ४५५ ॥ पदसामानिकसहस्यात्मरक्षैस्तच्चतुर्गुणैः । पड्भिश्च पट्टदेवीभिर्वृतोऽन्यैरपि पन्नगैः ॥ ४५६ ॥ 20 योजनानां सहस्राणि, पञ्चविंशानि विस्तृतम् । सार्द्धद्वियोजनशतीतुङ्गेन्द्रध्वजभूषितम् ॥ ४५७ ॥ विमानरत्नमारुह्य, भगवदर्शनोत्सुकः । मन्दराचलमूर्द्धानमाससाद क्षणादपि ॥ ४५८ ॥ - [चतुर्भिः कलापकम् ] भूतानन्दोऽपि नागेन्द्रो, घण्टां मेघखरांप्रता । पत्यनीकेशदक्षेणाहूतैः सामानिकादिभिः ॥ ४५९ ॥ वृतो विमानमारुह्याभियोगिकसुरोद्भवम् । जगाम त्रिजगन्नाथसनाथं मन्दराचलम् ॥ ४६० [ युग्मम् ] 25 इन्द्रौ विद्युत्कुमाराणां, हरिहरिसहस्तथा । सुपर्णानां वेणुदेवो, वेणुदारी च वासवौ ॥ ४६१ ॥ इन्द्रावग्निकुमाराणामग्निशिखाग्निमाणवी । समीरणकुमाराणां, वेलम्बाख्यभञ्जनौ ॥४६२॥ स्तनितानां सुघोषश्च, महाघोषश्च नायकौ । तथोदधिकुमाराणां, जैलकान्तजलप्रभो ॥४६३॥ पूर्णो विशिष्टच द्वीपकुमाराणां पुरन्दरौ । तथैव दिकुमाराणाममितामितवाहनौ ॥ ४६४ ।। व्यन्तरेषु कालमहाकालौ पिशाचवासवौ । सुरूपः प्रतिरूपश्च, तथा भूतपुरन्दरौ ॥ ४६५ ॥ यक्षराजौ पूर्णभद्रो, माणिभद्रश्च नामतः । इन्द्रौ भीममहाभीमनामानौ रक्षसां पुनः ॥ ४६६ ॥ किन्नरः किम्पुरुषश्च, किन्नराणामधीश्वरौ । तथा सत्पुरुषमहापुरुषो किम्पुरुषपौ ॥ ४६७ ॥ अतिकायमहाकायौ, महोरगपुरन्दरौ । गीतरतिस्तयंशा, गन्धर्वाणां तु वासवौ ॥ ४६८ ॥ तथैवाऽप्रज्ञप्तिपश्चप्रज्ञत्यादीनां षोडश । व्यन्तराष्टनिकायानां, वज्रिणः समुपाययुः ॥ ४६९ ॥ तत्राऽप्रज्ञप्तीनामिन्द्रौ, सन्निहितः सैंमानकः। धाता विधाता च पञ्चप्रज्ञप्तीनां त्वधीश्वरौ ॥४७०॥ * त्रयस्त्रिंशत्राय आ, त्रयस्त्रिंशः पारिषद्यैश्चतु सं १॥ + न्याहूतैः सामानिकैः सुरैः आ॥ हस्तेभ्योऽङ्ग रक्षकैश्च सं १ आ॥ 30 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । ऋषिवादितकानां तु, ऋषिश्च ऋषिपालकः । तथा भूतवादितानामीश्वरोऽथ महेश्वरः॥४७१॥ क्रन्दितानां पुनरिन्द्रौ, मुंवत्सकविशालको । महाक्रन्दितकानां तु, हासहासरती हरी॥४७२॥ कुष्माण्डानां पुनः श्वेतमहाश्वेतपुरन्दरौ । पवकपर्वकपती, पावकानां तु वासवौ ॥ ४७३ ॥ ज्योतिष्काणामसङ्ख्यातो, चन्द्रादित्यावुपेयतुः । इतीन्द्राणां चतुःषष्टिराययौ मेरुमूर्द्धनि ॥ ४७४ ॥ ___ आदिक्षदच्युतेन्द्रोऽथ, त्रिदशानाभियोगिकान् । जिनजन्माभिषेकोपकरणान्यानयन्त्विति ॥ ४७५ ॥5 अथ किश्चिदपक्रम्योत्तरपूर्वदिशि क्षणात् । ते वैक्रियसमुद्घातेनाकृष्योत्तमपुद्गलान् ॥ ४७६ ॥ सौवर्णान् राजतान् रत्नमयान् काञ्चनराजतान् । स्वर्णरत्नमयान् स्वर्णरूप्यरत्नमयानपि ॥ ४७७॥ रूप्यरत्नमयान् भौमान् , कलशान् पूजिताननान् । रम्यान् प्रत्येकमष्टाग्रसहस्रं ते विचक्रिरे ॥ ४७८ ॥ 1 [विभिर्विशेषकम् ] भृङ्गारान् दर्पणान् रत्नकरण्डान सुप्रतिष्ठकान् । स्थालानि पात्रिकाचाऽपि, पुष्पचङ्गेरिका अपि ॥ ४७९ ॥ 10 प्रत्येकं कुम्भसङ्ख्यातांस्तद्वत्स्वर्णादिवस्तुजान् । तत्कालं ढौकयामासुरग्रे निष्पादितानिव ॥ ४८० ॥ [सन्दानितकम् ] कलशांस्तानुपादाय, ते देवा आभियोगिकाः । क्षीरोदधावाददिरे, वारि वारिधरा इव ॥ ४८१ ॥ तत्रागृह्णन पुण्डरीकोत्पलकोकनदानि ते । तदम्भसामभिज्ञानमिव दर्शयितुं हरेः॥ ४८२ ॥ उदधौ पुष्करोदेऽपि, जगृहुः पुष्कराणि ते । निपान इव पानीयहारिकाः कुम्भपाणयः॥ ४८३॥ 15 भरतैरवतादीनां, तीर्थेषु मागधादिषु । तेऽम्भो मृत्स्नां च जगृहुः, कर्तुं कुम्भानिवाधिकान् ॥४८४॥ गङ्गादिकानां च महानदीनामुदकानि ते । समुपाददिरे स्वैरं, शौल्किका इव वर्णिकाम् ॥ ४८५ ॥ ते क्षुद्रहिमवत्येत्यागृह्णन् न्यासीकृतानिव । सिद्धार्थपुष्पतुवरगन्धान सौषधीरपि ॥ ४८६ ॥ तत्र पद्माभिधहदादम्भांस्यम्भोरुहाणि च । विमलानि सुगन्धीनि, जगृहुः पावनानि ते ॥ ४८७ ॥ तेऽन्यवर्षधरेभ्योऽम्बुपद्माद्याददिरे तथा । प्रस्पर्धिन इवाऽन्योन्यमेकस्मिन् कर्मणीरिताः॥४८८॥ अगृह्णन्नखिलक्षेत्रवैताट्यविजयेष्वपि । अम्भोऽम्भोजादिकं तत्राऽतृप्ताः स्वामिप्रसादवत् ॥ ४८९ ॥ वक्षारकगिरिभ्योऽपि, ते पवित्रं सुगन्धि च । तत् तदाददिरे वस्तु, तदर्थमिव सश्चितम् ॥ ४९० ॥ देवोत्तरकरुभ्योऽपि, पूरयामासुरम्भसा । स्वमिव श्रेयसा तेऽथ, कलसानलसेतराः॥४९१॥ भद्रशाले नन्दने च, सौमनसेऽथ पाण्डके । जगृहुः सर्वं तुवरगोशीर्षचन्दनादि ते ॥ ४९२॥ गन्धकारा इवैकत्र, गन्धद्रव्यं जलानि च । मेलयित्वा समाजग्मुर्मछु ते मेरुमूर्द्धनि ॥ ४९३ ॥ 25 सामानिकानां दशभिः, सहस्रेस्तच्चतुर्गुणैः । आत्मरक्षैत्रायस्त्रिंशैत्रयस्त्रिंशन्मितैस्तथा ॥ ४९४ ॥ तिसृभिः परिषद्भिश्च, चतुर्भिर्लोकपालकैः । सप्तभिश्च महानीकैरनीकेशैश्च सप्तभिः ॥ ४९५ ॥ आरणाच्युतकल्पेन्द्रः, सर्वतः परिवारितः । भगवन्तं स्मपयितुं, ततः शुचिरुपास्थित ॥ ४९६ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ] ततः कृतोत्तरासङ्गो, निःसङ्गाभक्तिरच्युतः । उन्निद्रपारिजातादिपुष्पाञ्जलिमुपाददे ॥ ४९७ ॥ 30 अस्तोकधूपधूमेन, धूपायित्वा सुगन्धिना । मुमोच त्रिजगद्भर्तुः, पुरस्तं कुसुमाञ्जलिम् ॥ ४९८ ॥ देवैरानिन्यिरे गन्धाम्भस्कुम्भाः सम्भिरर्चिताः । सयमाना इव खामिसान्निध्योद्भूतया मुदा ॥ ४९९ ॥ चकासामासुरास्यस्थेस्ते पञमुखरालिभिः । अधीयाना इव स्वामिनावमङ्गलमादिमम् ॥ ५०० ॥ अलक्ष्यन्त च ते कुम्भाः, स्वामिस्नपनहेतवे । पातालतः समायाताः, पातालकलशा इव ॥ ५०१॥ * योजनान आ॥ १ कमलभेदाः। २ जलाशये। ३ जलग्राहिण्यः। भरतैरावता आ, सं २ ॥ ४ जलकमलादिकम् । ५ आलस्यरहिताः । 20 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व अच्युतेन्द्र उपादत्त, समं सामानिकादिभिः । कुम्भान् सहस्रमष्टाग्रं, फलानीव खसम्पदः ॥ ५०२ ॥ ते तेषां रेजुरुत्क्षिप्तभुजदण्डाग्रवर्तिनः । उदस्तोन्नालनलिनकोशलक्ष्मीविडम्बिनः ॥ ५०३ ॥ अच्युतेन्द्रः स्नपयितुमथाऽऽरेभे जगत्पतिम् । आत्मीयमिव मूर्द्धानं, कलसं नमयन् मनाक् ॥ ५०४ ॥ अथोचैर्वादयामासु किनः केचिदानकान् । गुहाप्रतिरवैरुच्चैर्वाचालितसुराचलान् ॥ ५०५॥ दुन्दुभीस्ताडयामासुरपरे भक्तितत्पराः । मन्थायस्तमहाम्भोधिध्वानश्रीतस्करध्वनीन् ॥ ५०६॥ उत्तालाः कांस्यतालानि, केचिदास्फालयन् मिथः । पर्याकुलध्वनिस्रोतःकल्लोलाननिला इव ॥ ५०७॥ अवादयन् केऽपि तारं, भेरीरुन्मुखशालिनीः । ऊर्ध्वलोके जिनेन्द्राज्ञां, सर्वतस्तन्वतीरिव ॥ ५०८ ॥ अपूरयन् महानादबहलाः केपि काहलाः । नाहेला इव गोशृङ्गाण्यद्रिशृङ्गस्थिताः सुराः ॥ ५०९ ॥ दुष्टशिष्यानिवोद्घोषहेतवे मुरजान मुहुः । पाणिभिस्ताडयामासुः, केचन त्रिदिवौकसः ।। ५१० ॥ असङ्ख्यातागतार्केन्दुमण्डलश्रीविडम्बिनीः । स्वर्णरूप्यमयीर्देवा, झल्लरीः केऽप्यवादयन् ॥५११॥ गण्डैः पीयूषगण्डूषगभैरिव समुन्नतैः । तारमापूरयामासुः, शङ्खान केऽपि दिवौकसः ॥ ५१२ ॥ इत्थं विचित्रातोयेषु, वाद्यमानेषु नाकिभिः । अंवादकमिवाऽऽतोद्यं, द्यौरासीत् प्रतिशब्दितैः ॥ ५१३ ॥ जय नन्द जगन्नाथ !, सिद्धिगामिन् ! कृपार्णव ! । धर्मप्रवर्तकेत्यादि, चारणश्रमणा जगुः ॥ ५१४॥ विचित्रैर्बुवकैः श्लोकैरुत्साहैः स्कन्धकैरपि । गलितैर्वस्तुवदनैर्गद्यैरपि मनोहरैः ॥ ५१५ ॥ स्तुति पठित्वा मधुरां, कुम्भान् भुवनभर्तरि । शनैः प्रलोठयामासाऽच्युतेन्द्रः स्वामरैः समम् ॥५१६॥ तेऽम्भस्कुम्भाः शुशुभिरे, लुठन्तः स्वामिमूर्द्धनि । सुमेरुशैलशिखरे, वर्षन्त इव वारिदाः ॥ ५१७ ॥ अमरैर्नाम्यमानास्ते, मूर्द्धन्युभयतः प्रभुम् । सद्यः सङ्घटयामासुर्माणिक्योत्तंसविभ्रमम् ॥ ५१८ ॥ कुम्भेभ्यः पूजितायेभ्यस्ताः पतन्त्यश्चकाशिरे । वारिधारा गिरिदरीमुखेभ्य इव निर्झराः ॥ ५१९ ॥ उच्छलन्त्यो मौलिदेशाद. विष्वदीच्यो जलच्छटाः । स्वामिनो धर्मकन्दस्य प्ररोहा इव रेजिरे ॥५२॥ परिवेषेण विस्तीर्ण, मर्भि श्वेतातपत्रवत् । ललाटपट्टे प्रसरच्चान्दनीव लॅलाटिका ॥ ५२१ ॥ कर्णयोः प्रान्तविश्रान्तनयनोपान्तकान्तिवत् । कपोलपाल्योः कर्पूरपत्रवल्लिवितानवत् ॥ ५२२ ॥ मनोज्ञयोरधरयोः, स्मितद्युतिकलापवत् । कण्ठकन्दलदेशे तूद्दाममौक्तिकदामवत् ॥५२३ ॥ स्कन्धदेशोपरिष्टाच्च, गोशीर्षस्थासकोपमम् । बाहुहृत्पृष्ठभागेषु, विशाल इव चोलकः ॥ ५२४ ॥ कटिजान्वन्तराले चोत्तरीयमिव विस्तृतम् । पतद् भगवति भ्रेजे, क्षीरोदाधुदकं तदा ॥ ५२५ ॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] खामिस्नात्रजलं तच, भूमावपतदेव हि । श्रद्धया जगृहे कैश्चिन्मेषाम्भश्चातकैरिव ।। ५२६ ॥ क नाम प्राप्स्यतेऽसाभिभूयोऽद इति मूर्द्धनि । तत्पयः केचिदमरा, न्यधुर्मरुनरा इव ॥ ५२७ ॥ पयसा सिषिचे तेन, साभिलाषैश्च कैश्चन । भूयो भूयो वपुर्देवैीष्मात्तैवि कुञ्जरैः ॥ ५२८ ॥ रयेण प्रसरन्मेरुगिरिप्रस्थेषु तत् पयः । अकल्पयनिर्झरिणीसहस्राणि समन्ततः ॥ ५२९ ॥ 30 तत् पाण्डके सौमनसे, नन्दने भद्रशालके । उद्याने प्रसृतातुल्यकुल्यालीलामशिश्रियत् ॥ ५३० ॥ हरेः स्वपयतः कुम्भा, भवन्तोऽधोमुखा बभुः । स्नात्रस्तोकीभवद्वारिसम्पदा लजिता इव ॥ ५३१ ॥ तानेव बिभराञ्चक्रुः, कुम्भान् कुम्भान्तराम्बुभिः । आभियोगिकगीर्वाणाः, कुर्वाणाः स्वामिशासनम्॥५३२॥ वृन्दारकाणां हस्तेषु, हस्तेभ्यः सञ्चरिष्णवः । बभ्राजिरे ते कलशाः, श्रीमतां बालका इव ॥ ५३३ ॥ ढौक्यमानाऽभितो नाभिसूनुं कलशधोरणी । आरोप्यमाणवर्णाजमालालीलायितं दधौ ॥ ५३४ ॥ १ टक्काविशेषान् । २ किराताः। ३ वादकजनरहितम्। * प्रभोः आ, सं २॥ योजनास्येभ्यस्ताः आ ॥ ४ ललाटालङ्कारः। . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । पुनः प्रालोठयन् कुम्भानमराः खामिमूर्द्धनि । पयः शब्दायितमुखानर्हत्स्तुतिपरानिव ।। ५३५ ॥ स्वामित्रात्रे हरे रिक्तरिक्तान् कुम्भानपूरयन् । अमरावक्रिणो यक्षा, निधानकलशानिव ॥ ५३६ ॥ रिक्तरिक्ता भृतभृता, रेजिरे सञ्चरिष्णवः । भूयो भूयः कलशास्तेऽरघट्टघटिका इव ॥ ५३७ ॥ एवमच्युतनाथेन, यथेष्टं कुम्भकोटिभिः । स्वामिनो विदधे स्नात्रं, चित्रमात्मा पवित्रितः ।। ५३८ ।। दिव्यया गन्धकाषाय्याऽऽरणाच्युतविभुर्विभोः । अङ्गमुन्मार्जयामास, स्वयं मार्जितमान्यथ ॥ ५३९ ॥ 5 सा रेजे गन्धकाषायी, स्पृशन्ती स्वामिनो वपुः । प्रातःसन्ध्याभ्रलेखेव मण्डलं चण्डरोचिषः || ५४० ॥ सुवर्णसारसर्वस्वं, सुवर्णाद्रेरिवैकतः । आहृतं शुशुभे तादृगुन्मृष्टं भगवद्वपुः ।। ५४१ ॥ अथाऽऽभियोग्या गोशीर्षचन्दनद्रवकर्दमम् । पात्रिकाभिर्विचित्राभिरच्युतायोपनिन्यिरे ॥ ५४२ ॥ विलेपयितुमारेभे, प्रभुं तेन पुरन्दरः । सुमेरुशैलकटकं, ज्योत्स्नयेव निशाकरः ।। ५४३ ॥ अभितः स्वामिनं केचिदुत्तरासङ्गधारिणः । उद्दामधूपदहनपाणयोऽस्थरथाऽमराः ॥ ५४४ ॥ केऽपि तत्राऽक्षिपन् धूपं, स्निग्धया धूमलेखया । मेरोनलमयीं चूलां रचयन्त इवाऽपराम् ॥ ५४५ ॥ केsपि श्वेतातपत्राणि, धारयामासुरुच्चकैः । कुमुद्वदिव कुर्वाणा, अन्तरिक्षमहासरः ॥ ५४६ ॥ केचिदन्दोलयामासुश्चामराण्यमरोत्तमाः । आह्वयन्त इवाऽऽत्मीयान्, स्वामिदर्शनहेतवे ॥ ५४७ ॥ केचिद् बद्धपरिकरा, विभ्राणाः स्वस्वमायुधम् । परितः स्वामिनं तस्थुरात्मरक्षा इवामराः ।। ५४८ ॥ सुराः केचिन्मणिस्वर्णतालवृन्तान्यचीचलन् । उद्यद्विद्युल्लतालीलां दर्शयन्तो नभस्तले ॥ ५४९ ॥ विचित्रदिव्यसुमनोवृष्टिं त्रिदिववासिनः । हर्षोत्कर्षजुषोऽकार्षु, रङ्गाचार्या इवाऽपरे ।। ५५० ।। नितान्तसुरभिं गन्धद्रव्यक्षोदं चतुर्दिशम् । अवर्षन्नपरे चूर्णमुच्चाटनामिवांहसाम् ।। ५५१ ॥ स्वामिनाऽधिष्ठितस्याऽद्रेर्मेरोर्ऋद्धिमिवाऽधिकाम् । चिकीर्षवः केऽपि सुराः, स्वर्णवृष्टिं वितेनिरे ॥ ५५२ ॥ स्वामिपादप्रणामावतरत्ताराविडम्बिनीम् । केचिदुच्चै रत्नवृष्टिं, त्रिविष्टपसदो व्यधुः ।। ५५३ ।। गन्धर्वानीकमधरीकुर्वन्तो मधुरस्वरैः । ग्रामरागैर्नवनवैः केचन स्वामिनं जगुः ॥ ५५४ ॥ ततान्यथाऽवनद्धानि, घनानि शुषिराणि च । वादयामासुरातोद्यान्यन्ये भक्तिर्ह्यनेकधा ।। ५५५ ।। निर्त्तयिषव इव, स्वर्णशैलशिरांस्यपि । पादपातैः कम्पयन्तो, ननृतुः केऽपि नाकिनः ॥ ५५६ ॥ नाट्यं प्रवर्त्तयामासुर्विचित्राभिनयोज्ज्वलम् । त्रिदशाः सह जायाभिर्जायाजीवा इवाऽपरे ।। ५५७ ॥ गरुन्मन्त इवोत्पेतुरमराः केचिदम्बरे । निपेतुः क्रीडया केचित्, ताम्रचूडा इवाऽवनौ ॥ ५५८ ॥ ववल्गुर्वल्गु केऽप्यङ्ककारा इव दिवौकसः । केऽपि सिंहा इवाऽऽनन्दात् सिंहनादं वितेनिरे ।। ५५९ ।। 25 उच्चकैश्चक्रिरे केचित्, कुञ्जरा इव वृंहितम् । सहर्षा हेषितं केचित् तेनिरे तुरगा इव ।। ५६० ॥ स्यन्दना इव केचिच्च, व्यधुर्घणघणारवम् । विदूषका इवाऽन्येषां चक्रुः शब्दचतुष्टयीम् ॥। ५६१ ।। कूर्दमानाः केऽपि मेरुशिखराण्यङ्घ्रिदर्दरैः । अकम्पयन् भृशं शाखिशाखाः शाखामृगा इव ।। ५६२ ।। उद्भटं ताडयामासुश्चपेटाभिर्महीतलम् । रणप्रतिज्ञाकरणोद्यता वीरा इवाऽपरे ।। ५६३ ॥ कोलाहलं विदधिरे, केचिजितपणा इव । स्कन्धातोद्यवदुत्फुल्लौ, गल्लौं केचिदवादयन् ॥ ५६४ ॥ विकृतीभूय विटवत्, केsपि लोकानहासयन् । केऽप्यग्रे पार्श्वयोः पश्चाद्, ववल्गुः कन्दुका इव ॥ ५६५॥ केचिच्च मण्डलीभूय, रासावलयगायिनः । चक्रुर्नृत्तं मनोहारि, हल्लीसकमिव स्त्रियः ॥ ५६६ ॥ केऽप्यज्वलन् ज्वलनवदतपन् केऽपि सूर्यवत् । जगर्जुर्मेघवत् केऽपि, केऽपि विद्युद्युतन् ॥ ५६७ ।। केचिदोदनसम्पूर्णा छात्रा इव विचक्रिरे । तादृक् स्वाम्याप्तिजानन्दः, शक्यते केन गोपितुम् ॥५६८ ॥ बहुप्रकारमानन्दविकारं धारयत्स्वपि । देवेष्वच्युतदेवेन्द्रश्चक्रे भर्तुर्विलेपनम् ।। ५६९ ।। 1 १ रज्ञाचार्याः । यः । ३ महाः । ४५ 10 15 20 30 35 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व पारिजातादिभिः पुष्पैर्विकसद्भिः स्वभक्तिवत् । ततोऽच्युतपतिः पूजा, चक्रे जिनपतेः स्वयम् ॥ ५७० ॥ अपसृत्य ततः किञ्चित्, स्वामिनं भक्तिवामनः । प्रणनाम ववन्दे च, सोऽन्तेवासीव वासवः ॥ ५७१ ॥ एवं द्वाषष्टिरन्येऽपि, शक्राश्चक्रुर्जगत्पतेः । स्नात्राङ्गरागौ पूजां चाऽनुज्येष्ठं सोदरा इव ॥ ५७२ ॥ __ विकृत्य पञ्चधाऽऽत्मानमथ सौधर्मराजवत् । उत्सङ्गे त्रिजगन्नाथं, जग्राहैशानवासवः ॥ ५७३ ॥ 5 तत्रैकोऽधान विभोर्मूर्ध्नि, छत्रं कर्पूरपाण्डुरम् । मुक्तावचूलैः प्रेङ्खद्भिर्दिशां लास्यमिवोदिशत् ।। ५७४ ।। वीजयामासतुश्चाऽन्यौ, चामराभ्यां जिनेश्वरम् । विक्षिप्तकरणेनोचैर्नृत्यनामिव सम्मदात् ॥ ५७५ ॥ शूलमुल्लालयन् पाणावपरः पुरतोऽभवत् । स्वामिनो दृष्टिपातैः स्वं, पूतीकर्तुमना इव ॥ ५७६ ॥ अथ सौधर्मकल्पेन्द्रो जगद्भर्तुश्चतुर्दिशम् । चत्वारि स्फाटिकोत्तुङ्गवृषरूपाणि निर्ममे ॥ ५७७ ॥ उत्तुङ्गशृङ्गरुचिरा, वृषभास्ते चकाशिरे । दिशां चतसृणां चान्द्रकान्ताः क्रीडाचला इव ॥ ५७८ ॥ तेषां स्फोटितपातालनालेभ्य इव सन्तताः । शृङ्गेभ्योऽष्टभ्य उत्पेतुर्वारिधारा नभस्तले ॥ ५७९ ॥ मूले भिन्नास्तोयधाराधोरण्यस्ता निरन्तराः । अन्ते मिलन्त्यः खे चक्रुर्नदीसङ्गमविभ्रमम् ॥ ५८० ॥ सकौतुकं वीक्ष्यमाणाः, सुरासुरवधूजनैः । ताः पेतुर्जगतांपत्यावपांपत्याविवाऽऽपगाः ॥५८१ ॥ शृङ्गेभ्यो जलयत्रेभ्य, इव निर्यद्भिरम्बुभिः । शक्रेण मपयाञ्चके, भगवानादितीर्थकृत् ॥ ५८२ ॥ दूरमुच्छलता तेन, स्वामित्रपनवारिणा । आसन् भक्त्या मनांसीव, वासांस्यााणि नाकिनाम् ॥५८३ ॥ चतुरोऽपि महोक्षास्तानुपसंहृतवानथ । प्राचीनबर्हिः सहसेन्द्रजालमिव जालिकः ॥ ५८४ ॥ नपयित्वाऽतिविच्छर्दादेवं देवप्रभुः प्रभोः । रत्नादर्शमिवाऽमार्जदङ्गं देवाङ्गवाससा ॥ ५८५ ॥ अथ रत्नमये पट्टे, निर्मलै रूप्यतन्दुलैः । अखण्डैरालिखन लेखाः, स्वामिनोऽग्रेऽष्टमङ्गलीम् ॥ ५८६ ॥ निजेनेवाऽनुरागेणाऽङ्गरागेण गरीयसा । अङ्गं विलेपयामास, वासवस्त्रिजगद्गुरोः ॥ ५८७ ॥ स्वामिनः स्मेरवकेन्दुकौमुदीभ्रमकारिभिः । विशदैर्दिव्यवासोभिः, पूजां व्यधित देवराट् ॥ ५८८ ॥ 20 विश्वमूर्द्धन्यताचिह्न, मूर्द्धनि त्रिजगत्पतेः । वज्रमाणिक्यमुकुटं, स्थापयामास वज्रभृत् ॥ ५८९ ॥ न्यधत्त मघवा भर्तुः, कर्णयोः स्वर्णकुण्डले । व्योम्नः पूर्वापरदिशोः, सायं शशिरवी इव ।। ५९० ॥ लक्ष्म्या विभ्रमदोलेव, दिव्यमुक्तालता तता । न्यपि पुरुहूतेन, स्वामिनः कण्ठकन्दले ॥ ५९१ ॥ सोऽङ्गादे निदधे बाहुदण्डयोस्त्रिजगत्पतेः । सुवर्णवलये भद्रकलभस्येव दन्तयोः ॥ ५९२ ॥ वृत्तोरुमौक्तिकमणिकङ्कणे मणिबन्धयोः । स न्यधत्त प्रभोः शाखिशाखान्तस्तबकोपमे ।। ५९३ ।। स वर्णकटिसूत्रं च, कटिदेशे न्यधाद् विभोः । वर्षधरनितम्बस्थस्वर्णकूलाविलासभृत् ॥ ५९४ ॥ माणिक्यपादकटके, स न्यवीविशदीशितुः । अङ्ग्रयोर्लग्ने देवदैत्यतेजसी इव सर्वतः ॥ ५९५ ॥ अलङ्काराय यानीन्द्रो, भूषणानि न्यवीविशत् । अलङ्कृतानि तान्येव, प्रत्युताङ्गैर्जगद्गुरोः ॥ ५९६ ॥ उनिद्रपारिजातादिदामभिः परमेश्वरम् । भक्तिवासितचेतस्कः, पूजयामास वासवः ॥ ५९७ ॥ कृतकृत्य इवाऽथाऽपसृत्य किश्चित् पुरन्दरः । पुरोभूय जगद्भर्तुरारात्रिकमुपाददे ॥ ५९८ ॥ ज्वलद्दीपत्विषा तेन, चकासामास कौशिकः । भावदोषधिचक्रेण, शृङ्गेणेव महागिरिः ॥ ५९९ ॥ श्रद्धालुभिः सुरवरैः, प्रकीर्णकुसुमोत्करम् । भर्तुरुत्तारयामास, तत्रिस्त्रिदशपुङ्गवः ॥ ६०० ॥ . शक्रः शक्रस्तवेनाऽथ !, वन्दित्वा परमेश्वरम् । रोमाञ्चितवपुर्भक्त्या, स्तोतुमित्युपचक्रमे ॥ ६०१ ॥ __ नमस्तुभ्यं जगन्नाथ !, त्रैलोक्याम्भोजभास्कर ! । संसारमरुकल्पद्रो, विश्वोद्धरणबान्धव ! ॥६०२॥ वन्दनीयो मुहूर्तोऽयं, यत्र ते धर्मजन्मनः । अपुनर्जन्मनो जन्म, दुःखच्छिद् विश्वजन्मिनाम् ॥६०३॥ 35 युष्मजन्माभिषेकाम्भःपूरैराप्लाविताऽधुना । अयत्नक्षालितमला, सत्या रत्नप्रभा प्रभो! ॥६०४॥ १ समुद्र । २ इन्द्रः। ३ देवाः। इनः । 30 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ] त्रिषष्टिशला कापुरुषचरितम् । ४७ मनुष्याः खलु ते धन्या, ये त्वां द्रक्ष्यन्त्यहर्निशम् । यथासमयमेव त्वां द्रष्टारः कीदृशा वयम् ? ।। ६०५ ।। भरतक्षेत्रजन्तूनां, मोक्षमार्गोऽखिलः खिलः । त्वया नूतनपान्थेन, नाथ ! प्रकटयिष्यते ॥ ६०६ ॥ सास्तु तावत् तव सुधासधीची धर्मदेशना । त्वद्दर्शनमपि श्रेयो, विश्राणयति जन्मिनाम् || ६०७ ॥ न कश्चिदुपमापात्रं, भवतो भवतारक ! । ब्रूमस्त्वत्तुल्यमेव त्वां यदि का तर्हि ते स्तुतिः ? ।। ६०८ ॥ नाऽस्मि वक्तुमलं नाथ !, सद्भूतानपि ते गुणान् । स्वयम्भूरमणाम्भोधेर्मातुमम्भांसि कः क्षमः || ६०९ || 5 इति स्तुत्वा जगन्नाथं, प्रमोदामोदिमानसः । विचक्रे पञ्चधाऽऽत्मानं, पूर्ववत् पूर्वदिक्पतिः ।। ६१० ॥ ईशानोत्सङ्गतः शक्रः, एकस्तत्राऽमद्वरः । रहस्यमित्र जग्राह, हृदयेन जगत्पतिम् ॥ ६११ ॥ अपरे पूर्ववत् स्वानि, स्वानि कर्माणि चक्रिरे । विनियुक्ता इव स्वामिसेवाविज्ञा विडौजसः । ६१२ ॥ वृतो निजामरैः सर्पनम्बरेणाऽमराग्रणीः । जगाम धाम तद् देव्याऽलङ्कृतं मरुदेवया ॥ ६१३ ॥ तीर्थकृत्प्रतिरूपं तदुपसंहृत्य वासवः । तथैव स्थापयामास, स्वामिनं मातुरन्तिके ॥ ६१४ ॥ तामवखापनी निद्रां पद्मिन्या इव भास्करः । स्वामिन्या मरुदेवाया, व्यपनिन्ये दिवस्पतिः ॥ ६१५॥ कूलिनीकूललुलितहंसमालाविलासभृत् । एकं दुकूलयुगलमुच्छीर्षे सोऽमुचत् प्रभोः ॥ ६१६ ॥ तत्रैव स न्यधाद् रत्नकुण्डलद्वयमीशितुः । वालत्वेऽपि समुद्भूतभामण्डलविकल्पदम् ।। ६१७ ।। एकं श्रीदामगण्ड च, स्वर्णप्राकारनिर्मितम् । विचित्ररत्नहारार्धहाराढ्यं हेमभासुरम् ॥ ६१८ ।। उपरि स्वामिनो दृष्टिविनोदाय पुरन्दरः । विताने स्थापयामास, नभसीव नभोमणिम् ।। ६१९ ।। [सन्दानितकम् ] 10 20 अथ स श्रीमादिशत्, प्रत्येकमपि सम्प्रति । हिरण्यस्वर्णरत्नानां, कोटीर्द्वात्रिंशतं द्रुतम् ।। ६२० ।। नन्दासन-भद्रासनान्यथ द्वात्रिंशतं पृथक् । अन्यच्च वस्त्रनेपथ्यप्रभृत्यतिमनोहरम् ।। ६२१ || सांसारिक सुखोत्पादि, महार्घं वस्तु सर्वतः । स्वामिनो भवनेऽमुष्मिभिधेयप इवाम्बुदः ।। ६२२ ।। [ त्रिभिर्विशेषकम् ] कुबेरः कारयामास तत् सद्यो जृम्भकामरैः । आज्ञा ह्याज्ञाप्रचण्डानां वचसा सह सिध्यति ।। ६२३ ॥ अभियोगकान् देवानादिदेशेति वासवः । उच्चैर्देवनिकायेषु चतुर्ष्वघुष्यतामिदम् ॥ ६२४ ॥ अर्हतोऽर्हजनन्याच, योशुभं चिन्तयिष्यति । तस्यार्जकॅमञ्जरीवत्, सप्तधा भेत्स्यते शिरः ।। ६२५ ।। भवनपतिव्यन्तरज्योतिर्वैमानिकेषु तत् । ते समुज्जुघुषुः शिष्या, वाचमुच्चैर्गुरोरिव ।। ६२६ ।। शक्रः सङ्क्रमयामास, नानाहाररसामृतम् । खाम्यङ्गुष्ठेऽमृतानाडीचक्रे भानुरिवाऽम्मयम् ॥ ६२७ ॥ अर्हन्तोऽस्तन्यपा यस्मात्, किन्तु क्षुदुदये सति । प्रक्षिपन्ति मुखेऽङ्गुष्ठं, स्वमेव रसवर्षिणम् ॥ ६२८ ॥ धात्रीकर्माणि सर्वाणि, निर्मापयितुमीशितुः । धात्रीरप्सरसः पञ्चाऽऽदिदेश सदां पतिः ॥ ६२९ ॥ 30 तदा च बहवो देवा, जिनस्नात्रादनन्तरम् । सुमेरुशिखरादेव, द्वीपं नन्दीश्वरं ययुः ।। ६३० ॥ श्री नाभि सदनात, सौधर्मेन्द्रोऽपि च द्रुतम् । ययौ नन्दीश्वरद्वीपं निवासं स्वर्गवासिनाम् ॥ ६३१ ॥ तत्र शक्रः क्षुद्रमेरुप्रमाणे पूर्वदिस्थिते । नामतो देवरमणेऽञ्जनाद्राववतीर्णवान् ॥ ६३२ ॥ तत्र चैत्ये चतुर्द्वारे, विचित्रमणिपीठिके । चैत्यद्रुमेन्द्रध्वजाङ्के, प्राविशद् घुसदांपतिः ।। ६३३ ।। ऋषभप्रभृतीरर्हत्प्रतिमास्तत्र शाश्वतीः । यथावत् पूजयामास, सोऽष्टाह्वयारम्भपूर्वकम् ॥ ६३४ ॥ तस्य चाश्चतुर्दिक्स्थमहावापीविवर्त्तिषु । स्फाटिकेषु दधिमुग्वपर्वतेषु चतुर्ष्वपि ।। ६३५ ।। चैत्येष्वर्हत्प्रतिमानां, शाश्वतीनां यथाविधि । चत्वारः शक्रदिक्पालाञ्च कुरष्टाह्निकोत्सवम् ।। ६३६ ।। ईशानेन्द्रोऽप्यवातारीदुत्तराशाप्रतिष्ठिते । रमणीयाह्वये नित्यरमणीयेऽञ्जनाचले ।। ६३७ ।। 35 १ अप्रहतः केनाऽप्यनाक्रान्तः । २ ददाति । ३ सावधानः । ४ अर्जकवृक्षस्य मञ्जरीवत् । ५ प्रभूता आपो यत्र तद् अम्मयम् । 15 25 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ 15 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व तत्र चैत्ये तावतीनां, शाश्वतीनां तथैव सः । प्रतिमानामाईतीनां, चकाराष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ६३८॥ तस्यापि लोकपालास्तद्वापीदधिमुखाद्रिपु । शाश्वताहत्प्रतिमानां, तद्वद् विदधुरुत्सवम् ॥ ६३९ ।। चमरेन्द्रोऽप्युत्ततार, दक्षिणाशाव्यवस्थिते । नित्योड्योताभिधे रत्ननित्योयोतेऽञ्जनाचले ॥ ६४० ॥ भक्त्या महत्या तत्राऽयमपि चैत्ये यथाविधि । शाश्वतीनां प्रतिमानां, विदधेऽष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ६४१ ॥ तद्वाप्यन्तर्दधिमुखाचलेष्वचलचेतसः । चक्रुर्जिनप्रतिमानां, तदिक्पाला महोत्सवम् ॥ ६४२॥ अवातरद् बलीन्द्रोऽपि, पश्चिमाशानिवासिनि । स्वयम्प्रभाभिधेऽम्भोदप्रभाचौरेऽञ्जनाचले ॥ ६४३ ॥ शाश्वतीनामृषभादिप्रतिमानामसावपि । उत्सवं विदधे तद्वद्, दिविषदृष्टिपावनम् ॥ ६४४ ॥ तत्पुष्करिणीकान्तःस्थेषचैर्दधिमुखाद्रिषु । चक्रुस्तस्यापि दिक्पालाः, शाश्वतप्रतिमोत्सवम् ॥ ६४५ ॥ इति नन्दीश्वरे चैत्यमहिमानं विधाय ते । पथा यथागतेनैव, स्वं खं स्थानं ययुः सुराः ॥ ६४६ ॥ ___स्वामिनी मरुदेवापि, सम्प्रबुद्धाऽथ नाभये । नैशं स्वममिवाऽमर्त्यसम्पातं तमचीकथत् ॥ ६४७ ॥ ऊरुप्रदेशे ऋषभो, लाञ्छनं यजगत्पतेः । ऋषभः प्रथमं यच्च, स्वप्ने मात्रा निरीक्षितः॥ ६४८ ॥ तत् तस्य ऋषभ इति, नामोत्सवपुरःसरम् । तौ मातापितरौ हृष्टौ, विदधाते शुभे दिने ॥ ६४९ ॥ तदा च युग्मजातायाः, कन्याया अपि पावनम् । सुमङ्गलेति पितरौ, यथार्थं नाम चक्रतुः ॥ ६५० ॥ शक्रसङ्क्रमितां स्वामी, निजाङ्गुष्ठे सुधामथ । पिबति स्म यथाकालं, कुल्याजलमिवाभिपः ॥ ६५१॥ भगवान् शुशुभे बालः, पितुरुत्सङ्गमाश्रितः । अङ्के शिखरिणः सिंहकिशोर इव भासुरः ॥ ६५२ ॥ शक्रादिष्टाश्च धान्यस्ताः, पश्चाऽपि परमेश्वरम् । महामुनि समितय, इवाऽमुञ्चन् न जातुचित् ॥ ६५३ ॥ स्वामिनो जन्मनः किञ्चिदूने संवत्सरे सति । सौधर्मवासवो वंशस्थापनार्थमुपाययौ ॥ ६५४ ॥ भृत्येन रिक्तहस्तेन, न कार्य स्वामिदर्शनम् । इति बुद्ध्येव महतीमिक्षुयष्टिं स आददे ॥ ६५५ ॥ सेक्षुयष्टिः सुनासीरः, शरत्काल इवाऽङ्गवान् । नाभ्युत्सङ्गनिषण्णस्य, जगाम स्वामिनोऽग्रतः ॥ ६५६ ॥ 20 ज्ञात्वा च शक्रसङ्कल्पमवधिज्ञानतो विभुः । तामिक्षुयष्टिमादातुं, करीव करमक्षिपत् ॥ ६५७ ॥ गम्य शिरसा शक्रः, स्वामिने भाववित् ततः। अपयामास तामिक्षुलतिकामुपदामिव ॥६५८॥ यदिक्षुराददे भत्रेक्ष्वाकुरित्याख्यया ततः । स्वामिवंशं प्रतिष्ठाप्य, दिवस्पतिरगाद् दिवम् ॥ ६५९ ॥ देहो युगादिनाथस्य, खेदामयमलोज्झितः । सुगन्धिः सुन्दराकारस्तपनीयारविन्दवत् ॥ ६६० ॥ गोक्षीरधाराधवले, अविस्र मांसशोणिते । आहारनीहारविधिलॊचनानामगोचरः ॥ ६६१ ॥ 25 उत्फुल्लकुमुदामोदसोदरं श्वाससौरभम् । चत्वारोऽतिशया एते, बभूवुर्जन्मना सह ॥ ६६२ ॥ वज्रऋषभनाराचं, दधत् संहननं प्रभुः । मन्दं चचाल पादाभ्यां, भूमिभ्रंशभयादिव ॥ ६६३ ॥ प्रभुर्वभाषे बालोऽपि, गम्भीरमधुरध्वनिः । नृणां लोकोत्तराणां हि, बाल्यं वपुरपेक्षया ॥ ६६४ ॥ संस्थानं स्वामिनस्तुल्यचतुरस्रमशोभत । श्रियां रिरंसमानानां, क्रीडावेदीव काश्चनी ॥ ६६५ ॥ सवयोभूय सम्भूयाऽऽयातैः सुरकुमारकैः । अरस्त वृषभखामी, तेषां चित्तानुवृत्तये ॥ ६६६ ॥ 30 धूलीधूसरसर्वाङ्गो, बिभ्राणो घर्घरस्रजम् । कलभोऽन्तर्मदावस्थ, इव क्रीडन् वभौ विभुः ॥ ६६७ ॥ जग्राह पाणिना स्वामी, यत् किञ्चिल्लीलयापि हि । महर्द्धिकोऽपि त्रिदशो, न तदाच्छेत्तुमीश्वरः ॥६६८॥ बलं परीक्षितुमधादङ्गुलीमपि यः प्रभोः । स श्वासपवनेनाऽपि, ययौ दूरेण रेणुवत् ॥ ६६९ ॥ स्वामिनं रमयामासुः, केचित् सुरकुमारकाः । विचित्रैः कन्दुकै मौ, लुठन्तः कन्दुका इव ॥ ६७० ॥ चाटूनि जीव जीवेति, नन्द नन्देत्यनेकशः । केपि राजशुकीभूय, चाटुकारा इवाऽवदन ॥ ६७१ ॥ 35 स्वामिनो रमणायैके, केकीभूय दिवौकसः । केकाप्रधानाः पुरतो, ननृतुः षड्जगायिनः ॥ ६७२ ॥ हंसीभूयापरे वेतः, पार्श्वे गान्धारराविणः । प्रभोः सलीलहस्ताजग्रहणस्पर्शतृष्णया ॥ ६७३ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ] त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरितम् । क्रौञ्चीभूयाऽग्रतः केऽपि, मध्यमाराविणोऽरसन् । स्वामिनः प्रीतिमदृष्टिपातामृतपिपासिताः ॥ ६७४ ॥ केपि पुंस्कोकिलीभूय, पञ्चमस्वरमुजगुः । स्थित्वोपस्वामितरुषु, तन्मनःप्रीतिहेतवे ॥ ६७५ ॥ आययुस्तुरगीभूय, धैवतध्वनिहेषिणः । स्वामियानतयाऽऽत्मानं, पिपावयिषवोऽपरे ॥ ६७६ ॥ केऽप्येयुः कलभीभूय, निषादस्वरराविणः । स्पृशन्तोऽधोमुखीभूय, करेण चरणौ प्रभोः ॥ ६७७ ॥ केचिच्च वृषभीभूय, ऋषभस्वरबन्धुराः । ताडयन्तस्तटीः शृङ्गैग्विनोदं व्यधुर्विभोः ॥ ६७८ ॥ 5 महिपीभूय केऽप्यस्थुरञ्जनाचलसन्निभाः । युध्यमाना मिथो युद्धक्रीडां भर्तुरदर्शयन् ॥ ६७९ ॥ केऽपि भतुर्विनोदायाऽऽस्फालयन्तो भुजान मुहुः । मल्लीभूयाऽक्षवाटान्तराह्वासत परस्परम् ।। ६८० ॥ एवं विनोदैविविधैर्वृन्दारककुमारकैः । उपास्यमानः सततं, परमात्मेव योगिभिः ॥ ६८१ ॥ ताभिर्धात्रीभिरुयानपालीभिरिव पादपः । अप्रमत्तं लाल्यमानः, क्रमेण ववृधे प्रभुः ॥६८२॥ [सन्दानितकम्] अङ्गुष्ठपानावस्थायाः, परस्ताद् वयसि स्थिताः । गृहवासेऽपरेऽर्हन्तः, सिद्धमन्नं हि भुञ्जते ॥ ६८३॥ 10 देवानीतोत्तरकम्फलानि बजे सदा । क्षीरोदवारि च पपौ. भगवान्नाभिनन्दनः ॥६८४॥ बाल्यं कल्यमिवोल्लकच, मध्यन्दिनमिवार्यमा । विभुर्विभक्तावयवं. द्वितीयं शिश्रिये वयः ॥ ६८५॥ यौवनेऽपि मृदू रक्तौ, कमलोदरसोदरौ । उष्णावकम्प्रावस्वेदी, पादौ समतलौ प्रभोः ॥ ६८६ ॥ नतार्तिच्छेदनायेव, प्रपदे चक्रमीशितुः । सदास्थितश्रीकरणोरिव दामाङ्कुशध्वजाः ॥ ६८७ ॥ स्वामिनः पादयोर्लक्ष्मीलीलासदनयोरिव । शङ्खकुम्भौ तले पाणी, स्वस्तिकश्च विरेजिरे ॥ ६८८ ॥ 15 मांसलो वर्तुलस्तुङ्गो, भुजङ्गमफणोपमः । अङ्गुष्ठः स्वामिनो वत्स, इव श्रीवत्सलाञ्छितः ॥ ६८९ ॥ प्रभोर्निर्वातनिष्कम्पस्निग्धदीपशिखोपमाः । नीरन्ध्रा ऋजवोऽङ्गुल्यो, दलानीव पदाब्जयोः ॥ ६९० ॥ नन्द्यावर्ता जगद्भर्तुः, पादाङ्गुलितलेप्वभान् । यदिम्बानि क्षितौ धर्मप्रतिष्ठाहेतुतां ययुः ॥ ६९१ ॥ यवाः पर्वस्वङ्गुलीनामधो वापीभिरावभुः । उप्ता इव जगल्लक्ष्मीविवाहाय जगत्प्रभोः ॥ ६९२ ॥ कन्दः पादाम्बुजस्येव, पाणिवृत्तायतः पृथुः । अङ्गुष्टाङ्गुलिफणिनां, फणामणिनिभा नखाः ॥ ६९३ ॥ 20 हेमारविन्दमुकुलकर्णिकागोलकश्रियम् । गूढौ गुल्फो वितेनाते, नितान्तं स्वामिपादयोः ६९४ ॥ प्रभोः पादावुपर्यानुपूर्त्या कूर्मवदुन्नतो । अप्रकाशशिरौ स्निग्धच्छवी लोमविवर्जितौ ॥ ६९५ ॥ अन्तर्मनास्थिपिशितपुष्कले क्रमवत्तुले । एणीजङ्घाविडम्बिन्यौ, जो गौ? जगत्पतेः ॥ ६९६ ॥ जानुनी स्वामिनोऽधातां, वर्तुले मांसपूरिते । तूलपूर्णपिधानान्तःक्षिप्तदर्पणरूपताम् ॥ ६९७ ॥ ऊरू च मृदुलौ स्निग्धावानुपूर्येण पीवरौ । बिभराञ्चक्रतुः प्रौढकदलीस्तम्भविभ्रमम् ॥ ६९८ ॥ स्वामिनः कुञ्जरस्येव, मुष्की गूढी समस्थिती । अतिगूढं च पुंश्चिह्न, कुलीनस्येव वाजिनः ॥ ६९९ ।। तच्चाऽसिरमनिम्नोचमहस्व-दीर्घमश्लथम् । सरलं मृदु निर्लोम, वर्तुलं सुरभीन्द्रियम् ॥ ७०० ॥ शीतप्रदक्षिणावर्तशब्दयुक्तकधारकम् । अबीभत्सावत्तोकारकोशस्थं पिञ्जरं तथा ॥ ७०१ ।। आयता मांसला स्थूला, विशाला कठिना कटिः । मध्यभागस्तनुत्वेन, कुलिशोदरसोदरः ॥ ७०२ ॥ नाभिर्बभार गम्भीरा, सरिदावर्त्तविभ्रमम् । कुक्षी स्निग्धौ मांसवन्ती, कोमलौ सरलौ समौ ॥ ७०३ ॥ 30 अधाद् वक्षःस्थलं स्वर्णशिलापृथुलमुन्नतम् । श्रीवत्सरत्नपीठाङ्क, श्रीलीलावेदिकाश्रियम् ॥ ७०४ ॥ दृढपीनोन्नती स्कन्धौ, ककुद्मत्ककुदोपमौ । अल्परोमोन्नते कक्षे, गन्धखेदमलोज्झिते ।। ७०५ ॥ पीनौ पाणिफणाच्छत्री, भुजावाजानुलम्बिनौ । चञ्चलाया नियमने, नागपाशाविव श्रियः ॥ ७०६ ॥ नवाम्रपल्लवाताम्रतलौ निष्कर्मकर्कशौ । अस्वेदनावपच्छिद्रावुष्णी पाणी जगत्पतेः ॥ ७०७ ॥ दण्डचक्रधनुर्मत्स्यश्रीवत्सकुलिशाङ्कुशेः । ध्वजाब्जचामरच्छत्रशङ्खकुम्भाब्धिमन्दरैः ।। ७०८ ।। । * णो वभुः सं १, खं ॥ १ मल्लयुद्धभूमिषु । २ आहूतवन्तः । 25 35 त्रिषष्टि. ७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० 10 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व मकरर्षभसिंहाश्वरथस्वस्तिकदिग्गजैः । प्रासादतोरणद्वीपैः, पाणी पादाविवाङ्कितौ ॥ ७०९ ॥ [ युग्मम् ] अङ्गुष्ठोऽङ्गुलयः शोणाः, सरलाः शोणपाणिजाः । प्ररोहा इव कल्पद्रोः, प्रान्तमाणिक्यपुष्पिताः ॥७१० ॥ यवाः स्पष्टमशोभन्त, स्वामिनोऽङ्गुष्ठपर्वसु । यशोवरतुरङ्गस्य, पुष्टिवैशिष्ट्यहेतवः ॥ ७११ ॥ अङ्गुलीमूर्द्धसु विभोः, सर्वसम्पत्तिशंसिनः । दधुः प्रदक्षिणावर्ता, दक्षिणावर्त्तशङ्खताम् ॥ ७१२ ॥ 5 कृच्छ्रादुद्धरणीयानि, जगन्ति त्रीण्यपीत्यभान् । सङ्ख्यालेखा इव तिस्रो, लेखा मूले कराब्जयोः ॥७१३॥ वर्तुलोऽनतिदीर्घश्व, लेखात्रयपवित्रितः । गम्भीरध्वनिराधत्त, कण्ठः कम्बुविडम्बनाम् ॥ ७१४ ॥ विमलं वर्तुलं कान्तितरङ्गि वदनं विभोः । पीयूषदीधितिरिवाऽपरो लाञ्छनवर्जितः ॥ ७१५ ॥ मसृणौ मांसलौ स्निग्धौ, कपोलफलको प्रभोः । दर्पणाविव सौवर्णी, वाग्लक्ष्म्योः सहवासयोः ॥ ७१६ ॥ अन्तरावर्तसुभगौ, कौँ स्कन्धावलम्बिनौ । प्रभोर्मुखप्रभासिन्धुतीरस्थे शुक्तिके इव ॥ ७१७ ॥ ओष्ठौ बिम्बोपमौ दन्ता, द्वात्रिंशत् कुन्दसोदराः । क्रमस्फारा क्रमोत्तुङ्गवंशा नासा महेशितुः ॥ ७१८ ॥ अहवदीर्घ चिबुकं, मांसलं वर्तुलं मृदु । मेचकं बहलं स्निग्धं, कोमलं श्मश्रु तायिनः ॥ ७१९ ॥ प्रत्यग्रकल्पविटपिप्रवालारुणकोमला । प्रभोर्जिह्वाऽनतिस्थूला, द्वादशाङ्गागमार्थमः ॥ ७२० ॥ अन्तरा कृष्णधवले, प्रान्तरक्ते विलोचने । नीलस्फटिकशोणाश्ममणिन्यासमये इव ॥ ७२१ ॥ ते च कर्णान्तविश्रान्ते, कजलश्यामपक्ष्मणी । विकस्वरे तामरसे, निलीनालिकुले इव ॥ ७२२ ॥ बिभराश्चक्रतभत्तः, श्यामले कुटिले भ्रवौ । दृष्टिपुष्करिणीतीरसमुद्भिन्नलताश्रियम् ॥ ७२३ ॥ विशालं मांसलं वृत्तं, कठिनं मसृणं समम् । भालस्थलं जगद्भर्तुरष्टमीसोमसोदरम् ॥ ७२४ ॥ भुवनस्वामिनो मौलिरानुपूर्व्या समुन्नतः । दधावधोमुखीभूतच्छत्रसब्रह्मचारिताम् ।। ७२५ ॥ मौलिच्छत्रे महेशस्य, जगदीशत्वशंसिनि । वृत्तमुत्तुङ्गमुष्णीषं, शिश्रिये कलसश्रियम् ॥ ७२६ ॥ केशाश्चकाशिरे मूर्भि, प्रभोर्धमरमेचकाः । कुञ्चिताः कोमलाः स्निग्धाः, कालिन्द्या इव वीचयः ॥ ७२७॥ गोरोचनागर्भगौरी, स्निग्धस्वच्छा त्वगाबभौ । स्वर्णद्रवविलिप्तेव, तनौ त्रिजगदीशितुः ॥ ७२८ ॥ मृदूनि भ्रमरश्यामान्यद्वितीयोगमानि च । बिसतन्तुतनीयांसि, लोमानि स्वामिनस्तनौ ॥ ७२९ ॥ इत्यसाधारणैर्नानालक्षणैर्लक्षितः प्रभुः । रत्नै रत्नाकर इव, सेव्यः कस्येव नाऽभवत् ? ॥ ७३० ॥ दत्तहस्तो महेन्द्रेण, यक्षरुत्क्षिप्तचामरः । धरणेन्द्रकृतद्वास्थ्यो, धृतच्छत्रः प्रचेतसा ॥ ७३१ ॥ विष्वक् परिवृतो देवैर्जीव जीवेति वादिभिः। अनुत्सित्तो जगत्स्वामी, विजहार यथासुखम् ॥७३२॥ युग्मम् ] देवानीतासनासीनो, बलीन्द्राङ्काहितक्रमः । चमरेन्द्राङ्कपर्यविन्यस्तोत्तरविग्रहः ॥ ७३३ ॥ अप्सरोभिरुभयतो, हस्तशाटकपाणिभिः । उपास्यमानोऽनासक्तः, सङ्गीतं दीव्यमैक्षत ॥७३४॥ [युग्मम् ] अन्येद्युः क्रीडया क्रीडद्, बालभावानुरूपया। मिथो मिथुनकं किञ्चित् , तले तालतरोरगात् ॥७३५॥ तदैव दैवदुर्योगात् , तन्मध्यानरमूर्द्धनि । तडिद्दण्ड इवैरण्डेऽपतत् तालफलं महत् ।। ७३६ ॥ प्रहतः काकतालीयन्यायेन स तु मूद्धनि । विपन्नो दारकस्तत्र, प्रथमेनाऽपमृत्युना ॥ ७३७॥ 30 ययौ सोऽल्पकषायत्वाद्, दिवं मिथुनदारकः । तूलमप्यल्पभारत्वादाकाशमनुधावति ॥ ७३८ ॥ पुरा हि मृतमिथुनशरीराणि महाखगाः । नीडकाष्ठमिवोत्पाट्य, सद्यश्चिक्षिपुरम्बुधौ ॥ ७३९ ॥ भ्रंशात् तस्याऽनुभावस्य, तदानीं तत्कलेवरम् । तस्थौ तथैवाऽवसर्पत्प्रभावा ह्यवसर्पिणी ॥ ७४०॥ बालिकाऽस्य द्वितीयाऽथ, निसर्गान्मौग्ध्यशालिनी । सा विक्रीतावशिष्टेव, तस्थौ तरलितेक्षणा ॥ ७४१ ॥ आदाय तां तजनकमिथुनं पर्यवर्द्धयत् । नामधेयं पुनस्तस्याः, सुनन्देति विनिर्ममे ॥७४२ ॥ 35 दिनैः कतिपयैस्तस्या, विपनौ पितरावपि । जातापत्यानि युग्मानि, जीवन्ति कियदेव हि ॥७४३॥ निगर्वः। २ उत्तरकायः। ३ महापक्षिणःहीयमानप्रभावा । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । ७४७ ॥ । 10 किङ्कर्त्तव्यजडा साsपि, बालिका लोललोचना । यूथभ्रष्टा कुरङ्गीव, बभ्रामैकाकिनी वने ॥ ७४४ ॥ सरलाङ्गुलिपत्राभ्यां सा पदाभ्यां पदे पदे । विकखराणि पद्मानि, रोपयन्तीव भुव्यपि ।। ७४५ ॥ जङ्घे काञ्चनतूणीराविव कामस्य विभ्रती । आनुपूर्व्यपृथू वृत्तावृरू करिकरोपमौ || ७४६ ॥ कन्दर्पद्यूतकृत्स्वर्णशाराफलक विभ्रमम् । विभ्राणेन नितम्बेन, मांसलेन गरीयसा मुष्टिग्राह्येण मध्येनाऽऽकर्पेणेव मनोभुवः । तस्यैवाऽऽक्रीडवाप्येव, नाभिदेशेन शोभिता ।। ७४८ ।। रूपास्तत्रिजगत्त्रैणजय रेखात्रयीमिव । वलीतरङ्गत्रितयीमुदरेण च विभ्रती ॥ ७४९ ॥ धारयन्ती रतिप्रीत्योः, क्रीडाशैलाविव स्तनौ । तयोरेव स्वर्णदोलायष्टी इव च दोलते ॥ ७५० ॥ कण्ठेन च त्रिरेखेण, कम्बुविभ्रमहारिणा । अधरेण पराभूतपक्वविम्बफलत्विषा ।। ७५१ ।। दन्तैरधरशुक्त्यन्तःस्थितैर्मुक्ताकणैरिव । नासया नेत्रनलिननाले नेवाऽतिहारिणी ।। ७५२ ।। गण्डौ भालस्पर्द्धयेवान्दुलक्ष्मीमलिम्लुचौ । दधती कुन्तलांचाऽऽस्यपद्मलग्नानलीनिव ॥ ७५३ ॥ सर्वाङ्गसुभगा पुण्य लावण्यामृतकूलिनी । वनान्तर्वनदेवीव, सञ्चरन्ती व्यराजत ॥ ७५४ || [ दशभिः कुलकम् ] ततश्चैकाकिनों मुग्धां मिथुनान्यवलोक्य ताम् । किङ्कर्त्तव्यविमूढानि, श्रीना भेरुपनिन्यिरे ॥ ७५५ ॥ एषा ऋषभनाथस्य, धर्मपत्नी भवत्विति । प्रतिजग्राह तां नाभिर्नेत्रकैरवकौमुदीम् ।। ७५६ ।। अत्रान्तरेऽवधिज्ञानप्रयोगेण पुरन्दरः । भर्तुर्विवाहसमयं ज्ञात्वा तत्र समाययौ ।। ७५७ ॥ प्रणम्य चरणौ पत्युः, पत्तिमात्र इवाऽग्रतः । स्थित्वा दिवस्पतिर्बद्धाञ्जलिरेवं व्यजिज्ञपत् ।। ७५८ ।। अज्ञो ज्ञाननिधिं नाथं, यो मन्त्रणधिया पुमान् । प्रविवर्त्तयिषेत् कार्येषूपहासास्पदं हि सः ।। ७५९ । स्वामिनाऽतिप्रसादेन, सदा भृत्या हि वीक्षिताः । स्वच्छन्दमपि जल्पन्ति, कदाचिदपि किञ्चन || ७६० ।। विदित्वा स्वाम्यभिप्रायं, ये प्राहुस्ते हि सेवकाः । अज्ञात्वा यद् ब्रुवे तत्राऽप्रसादं नाथ ! मा कृथाः ॥ ७६१॥ मन्ये स्वामी वीतरागो, गर्भवासात् प्रभृत्यपि । चतुर्थपुरुषार्थाय, सञ्जोऽन्यार्थानपेक्षया ॥। ७६२ ।। तथाऽपि नाथ ! लोकानां व्यवहारपथोऽपि हि । त्वयैव मोक्षवत्र, सम्यक् प्रकटयिष्यते ॥ ७६३ || 20 तल्लोकव्यवहाराय, पाणिग्रहमहोत्सवम् । विधीयमानं भवतेच्छामि नाथ ! प्रसीद मे ॥ ७६४ ॥ सुमङ्गलानन्दे च देव्यों भुवनभूषणे । स्वानुरूपे रूपवत्यौ, स्वामिन्नुद्वोढुमर्हसि । ७६५ ।। स्वाम्यप्यवधिनाऽज्ञासीत् कर्म भोगफलं दृढम् । व्यशीतिं पूर्वलक्षाणां यावद् भोक्तव्यमस्ति नः ।।७६६।। अवश्यभोक्तव्यमिदं कर्मेत्याधूनयन् शिरः । तस्थावधोमुखः स्वामी, तदा सायं सरोजवत् ॥ ७६७ ॥ अथ भर्तुरभिप्रायमुपलक्ष्य पुरन्दरः । विवाहकर्मारम्भाय, सद्यो देवानजूहवत् । ७६८ ॥ अथाभियोगका देवाः, पाकशासनशासनात् । मण्डपं रचयामासुः, सुधर्माया इवानुजम् ॥ ७६९ || स्वर्णमाणिक्यरजतस्तम्भास्तत्र चकाशिरे । मेरुरोहणवैताढ्यचूलिका इव रोपिताः ।। ७७० ।। शातकुम्भमयास्तत्र, कुम्भाः प्रद्योतकारिणः । चक्रिणः काकणीरत्नमण्डलानीव रेजिरे ।। ७७१ ॥ सुवर्णवेदिकास्तत्र, बभ्रुरुद्यद्भिरंशुभिः । पर्यस्यन्त्य इवाऽऽदित्यं, तेजोऽन्यदसहिष्णवः ॥ ७७२ ॥ प्रविशन्तो मणिशिलाभित्तिषु प्रतिविम्बिताः । के के न प्राप्नुवंस्तत्र, परिवारपरिक्रियाम् १ || ७७३ ॥ रत्नस्तम्भव्यवष्टब्धाः, सङ्गीतश्रान्तनर्त्तकीः । विडम्बयन्त्यस्तत्रोच्चैः, शालभञ्ज्यो भासिरे ।। ७७४ | तोरणानि प्रतिदिशं, सन्तानतरुपल्लवैः । तत्राऽभूवन् धनूंपीव, सञ्जितानि मनोभुवः ॥ ७७५ ।। स्फाटिकद्वारशाखासु, बभ्रुर्नीलाश्मतोरणाः । शरदभ्रावलीमध्यस्थितकीरालिसन्निभाः ।। ७७६ ।। क्वचित् स्फटिकबद्धोबींनिरन्तरमरीचिभिः । सोऽतनोन्मण्डपः क्रीडापीयूषसरसीभ्रमम् ॥ ७७७ ॥ पद्मरागशिलाशोचिनिंचयैः प्रसृतैः क्वचित् । सोऽदिशद् दिव्यविस्तारिकौसुम्भांशुकसंशयम् ॥ ७७८ ॥ १ मोक्षाय । त्रिषष्टि पूर्व आ । २ पुत्तलिकाः । " ५१ 5 15 25 30 35 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य प्रणीतं [ प्रथमं पर्व क्वचिनीलशिलारश्मिप्ररोहैः सोऽतिहारिभिः । पुनरुक्तोप्तमङ्गल्ययवाङ्कुर इवाऽऽबभौ ॥ ७७९ ॥ क्वचिन्मरकतक्षोणिरश्मिदण्डैरखण्डितैः । आर्द्रापनीतमङ्गल्यवंशशङ्कां दिदेश सः ॥ ७८० ॥ श्वेतदिव्यांशुकोल्लोचच्छलेन गगनस्थया । गङ्गयेवाऽऽश्रितः सोऽभूत्, तत्कौतुकदिदृक्षया ॥ ७८१ ॥ उल्लोचं परितस्तं च, लम्बिता मौक्तिकस्रजः । अष्टानां ककुभां हर्षहसितानीव रेजिरे ॥ ७८२ ॥ 5 चतस्रो रत्नकलस श्रेणयोऽभ्रंलिहाग्रकाः । पर्यष्ठाप्यन्त देवीभिर्निधानानि रतेरिव ॥ ७८३ ।। आर्द्राः शुशुभिरे वंशाः, कुम्भावष्टम्भदायिनः । विश्वावष्टम्भदखामिवंशवृद्धेर्नु सूचकाः ॥ ७८४ ॥ आरभख स्रजो रम्भे !, दुर्वामुर्वशि ! सञ्जय । घृताचि ! घृतदध्यादि, वरार्घाय समाहर ।। ७८५ ।। मञ्जुघोषे ! मञ्जुघोषयाऽऽलीर्घवलमङ्गलान् । त्वं सुगन्धे ! सुगन्धीनि वस्तूनि प्रगुणीकुरु ॥ ७८६ ॥ स्वस्तिकानुत्तमान् द्वारदेशे देहि तिलोत्तमे । । मेने ! सम्मानयाऽऽयातानुचितालापभङ्गिभिः ।। ७८७ ॥ 10 सुकेशि ! केशाभरणं, वधूवरकृते धर । सहजन्ये ! जन्ययात्रानृणां स्थानं प्रदर्शय ।। ७८८ ।। चित्रलेखे ! लिखाऽऽलेख्यं, विचित्रं मातृवेश्मनि । प्रगुणीकुरु तूर्णं त्वं, पूर्णपात्राणि पूर्णिनि ! ||७८९ ॥ पुण्डरीके ! पुण्डरीकैः, पूर्णकुम्भान् विभूषय । त्वं स्थापय यथास्थानमम्लोचे ! वरमञ्चिकाम् ।। ७९० ।। आपादय हंसपादि !, त्वं वधूवरपादुकाः । त्वं पुञ्जिकास्थले ! वेदिस्थलीं लिम्पाऽऽशु गोमयैः ।।७९१ ॥ रामे ! किं रमसेऽन्यत्र !, हेमे ! किं हेम वीक्षसे ? । ऋतुस्थले ! प्रमत्तेव, किमसि त्वं विसंस्थुला १ ।। ७९२ ॥ किं चिन्तयसि मारीचि !?, सुमुख्यसि किमुन्मुखी । किमर्वाग् नाऽसि गान्धर्वि!?, दिव्ये! दीव्यसि किं मुधा! आसन्नं वर्त्तते लग्नं, ननु सर्वात्मना ततः । स्खे स्खे त्वरध्वं कर्त्तव्ये, विवाहोचितकर्मणि ।। ७९४ ॥ मिथ इत्यादिशन्तीनां, नामग्राहं मुहुर्मुहुः । सरसोऽप्सरसां जज्ञे तुमुलस्तत्र सम्भ्रमात् ॥ ७९५ ।। [ एकादशभिः कुलकम् ] सुमङ्गलां सुनन्दां च मङ्गलस्नानहेतवे । ततश्वाऽप्सरसः काश्चिदासयामासुरासने ॥ ७९६ ॥ 20 तयोरुद्गीयमाने च धवले मङ्गले कले । व्यधुः सर्वाङ्गमभ्यङ्ग, तैलेनाऽथ सुगन्धिना ।। ७९७ ॥ पतदुद्वर्त्तनीपुञ्जपवित्रितमहीतलम् । पिष्टातकैः सूक्ष्मपिष्टैश्चक्रुश्चोद्वर्त्तनं तयोः ॥ ७९८ ।। पादयोर्जानुनोः पाण्योरंसयोरलिके तयोः । सुधाकुण्डान्नवेवाऽङ्गलीनांस्तास्तिलकान् व्यधुः ॥ ७९९ ॥ कौसुम्भसूत्रैस्तर्कस्थैरङ्गं सव्यापसव्ययोः । ताः स्पृशुः समचतुरस्रतामिव वीक्षितुम् ॥ ८०० ॥ एवं ते वरवर्णिन्यौ, वर्णके ताभिहिते । प्रयत्नाद् वारयन्तीभिर्धात्रीभिरिव चापलात् ॥ ८०१ ॥ 23 तदैवोद्वर्णकमपि वर्णकस्येव सोदरम् । व्यधुस्तेनैव विधिना, तयोस्ताः प्रमदोन्मदाः ।। ८०२ ।। निवेश्य चाssसनेऽन्यस्मिन्, स्वर्णकुम्भोदकैरथ । स्त्रपयन्ति स्म तास्ते स्वकुलयोरिव देवते ॥ ८०३ ॥ विदधुर्गन्धकाषाय्या, तयोरङ्गप्रमार्जनम् । केशांच वेष्टयामासुर्वाससा मसृणेन ताः ।। ८०४ ॥ तास्ते क्षौमाणि संव्याय्याssसयित्वा चाऽऽसनान्तरे । केशेभ्योऽश्वोतयन् वारि, मुक्तावृष्टिभ्रमं दिशत् ८०५ ईषदार्द्रानधूपायन्, दिव्यधूपेन कुन्तलान् । स्त्रिग्धधूमलतापुष्टश्रीविशेषांस्तयोश्च ताः ।। ८०६ ॥ पद्मखण्डपतद्बालारुणरोचिर्विडम्बिना । अमण्डयंस्तयोः पादानलक्तकरसेन ताः ।। ८०७ ॥ अङ्गनारलयोरङ्गमङ्गरागेण चारुणा । काञ्चनं गैरिकेणेव, विलिम्पन्ति स्म तास्तयोः ॥ ८०८ ॥ ग्रीवाभुजाग्रवक्षोजगण्डदेशेषु तास्तयोः । प्रशस्तीरिव कामस्य, लिलिखुः पत्रवल्लरीः ॥ ८०९ ॥ अलिके तिलकं चारु, चक्रुस्ताश्चान्दनं तयोः । रतिदेव्यवताराय, प्रग्रमिव मण्डलम् ॥ ८१० ॥ तयोः प्रसाधयामासुर्नयनान्यज्ञ्जनेन ताः । नीलोत्पलवनापातिभृङ्गसब्रह्मचारिणा ।। ८११ ।। तयोर्बबन्धुर्धम्मिल्लमुन्मीलन्माल्यदाम ताः । पुष्पायुधेनेव कृतमायुधागारमात्मनः ।। ८१२ ॥ १ स्थापिते । २ परिधाप्य । ३ ललाटे । ४ नवीनम् । 15 30 ५२ 35 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । पारिणेत्राणि वस्त्राणि, ताभ्यां ताः पर्यधापयन् । लम्बमानदशाश्रेणिन्यकृतेन्दुकराण्यथ ॥ ८१३ ॥ तयोरधिशिरो न्यासन् , विचित्रमणिभासुरौ । ताः किरीटौ पुष्पदन्ती, पूर्वापरदिशोरिव ॥ ८१४ ॥ तत्कर्णयोर्मणिमयावतंसौ ता न्यवीविशन् । रत्नाङ्करितमेरुवीगर्वसर्वस्वतस्करौ ॥ ८१५ ॥ ताः समारोपयामासुर्दिव्ये मौक्तिककुण्डले । तत्कर्णलतयोर्नव्यपुष्पगुच्छविडम्बिनी ॥ ८१६ ॥ निष्कं ताश्चित्रमाणिक्यदीप्तिदन्तुरिताम्बरम् । सङ्क्षिप्तेन्द्रधनुर्लक्ष्मीहरं कण्ठे न्यधुस्तयोः ॥ ८१७॥ हारमारोपयामासुरधिस्तनतटं तयोः । आतन्वानं स्थलारोहदवरोहन्नदीभ्रमम् ॥ ८१८॥ भुजयोर्योजयामासुः, केयूरे रत्नमण्डिते । पुष्पवाणधनुर्बद्धवीरपट्टोपमे तयोः ॥ ८१९ ॥ आमुक्तौ च तयोर्मुक्ताकङ्कणी पाणिमूलयोः । आवालाविव पानीयशालिनौ लतयोस्तले ॥ ८२० ॥ प्रक्वणत्किङ्किणीश्रेणिं, श्रोणी व्यश्राणयंस्तयोः । मणिकाञ्ची रतेर्देव्या, इव मङ्गलपाठिकाम् ॥ ८२१ ॥ तयोरारोपयामासुः, पादयो रत्ननूपुरौ । झणज्झणिति कुर्वाणी, स्तुवन्ताविव तद्गुणान् ॥ ८२२ ॥ 10 सञ्जयित्वैवमुत्पाट्य, देव्यौ देवीजनेन ते । नीत्वा मातृगृहस्थाऽन्तरासिते काञ्चनासने ॥ ८२३ ॥ विवाहसजीभवनायोपेत्य नमुचिद्विषा । विज्ञप्यमानो निर्बन्धात्, प्रभुवृषभलाञ्छनः ॥ ८२४ ॥ दर्शनीया स्थितिलॊके, भोक्तव्यं भोग्यकर्म च । अस्ति मे चिन्तयित्वैवमन्वमन्यत तद्वचः ॥ ८२५ ॥ [युग्मम् ] अथ स्वामी महेन्द्रेण, स्नपयित्वा विलिप्य च । यथाविधि विधिज्ञेन, भूपितो भूपणादिना ॥८२६॥ 15 वेत्रिणेव महेन्द्रेण, शोध्यमानायवर्त्मकः । उत्तार्यमाणलवणः, पार्श्वयोरप्सरोजनैः ॥ ८२७ ॥ इन्द्राणीभिर्गीयमानश्रेयोधवलमङ्गलः । सामानिकादिदेवीभिः, क्रियमाणावतारणः ॥ ८२८ ॥ गन्धवौंधैर्वाद्यमानातोद्यः सद्योभुवा मुदा । स्वामी दिव्येन यानेन, मण्डपद्वारमाययौ ।। ८२९ ।। खामी स्वयं विधिज्ञोऽथ, यानादुत्तीर्य तत्र तु । अब्धिवेलेव मर्यादालताभूमाववास्थित ।। ८३० ॥ तत्र त्रिदशनाथेन, दत्तवाहुर्वभौ विभुः । महीरुहमवष्टम्भ्य, स्तम्बेरम इव स्थितः ॥ ८३१ ॥ 20 तटवटिति कुर्वाणलवणानलगर्भितम् । सरावसम्पुटं द्वारि, मुमुचुर्मण्डपस्त्रियः ।। ८३२ ॥ रूप्यस्थालं च दूर्वादिमङ्गल्यद्रव्यलाञ्छितम् । काऽप्यने धारयामास, राकेव मृगलाञ्छनम् ॥ ८३३ ॥ पञ्चशाखेन वैशाखं, प्रत्यक्षमिव मङ्गलम् । उत्क्षिप्याऽर्घाय काऽप्यग्रे, कौसुम्भवसनाऽभवत् ।। ८३४ ।। देह्यर्घमर्घदेऽर्ध्याय, क्षणं म्रक्षणमुत्क्षिप । स्थालादुद्धहि च दधि, पीयूपमुदधेरिव ॥ ८३५ ॥ सुन्दरे ! नन्दनाऽऽनीतचन्दनद्रवमुन्नय । आहृतां भद्रशालोा , दूर्वां समृदमुद्धर ॥ ८३६ ॥ 25 मिलल्लोकेक्षणश्रेणिजातजङ्गमतोरणः । तोरणद्वारि नन्वेप, जगत्रयवरो वरः ॥ ८३७ ॥ ऊध्वस्तिष्ठत्युत्तरीयाच्छादिताशेषविग्रहः । गङ्गातरङ्गान्तरितराजहंसयुवोपमः ॥ ८३८ ॥ वातेनोद्वान्ति पुष्पाणि, चन्दनं च विशुष्यति । तद्द्वारि सुन्दरि ! चिरं, वरं मा धर मा धर ।। ८३९ ।। देवस्त्रीभिर्गीयमानेषच्चकैर्धवलेष्विति । अर्घ त्रिजगदाय, ददावथ वराय सा ।। ८४० ॥ . [पभिः कुलकम् ] 30 प्रारब्धधवलेवोच्चः, कणद्भिर्भुजकङ्कणैः । मंथा चुचुम्ब बिम्बोष्ठी, त्रिलं त्रिजगत्पतेः ॥ ८४१ ।। सरावसम्पुटं साग्निं, हिमकर्परलीलया । पदा सपादुकेनाऽथ, वामेनाऽदलयद् विभुः ॥ ८४२ ॥ ततस्तयाऽर्षदायिन्या, कण्टे कौमुम्भवाससा । प्रक्षिप्तेनाऽऽकृष्यमाणो, ययौ मातृगृहं प्रभुः ॥ ८४३॥ कन्देन मदनस्येव, मदनेनोपशोभितम् । वधूवरस्य हस्तेपु, हस्तसूत्रमबध्यत ।। ८४४ ॥ अग्रतो मातृदेवीनामथोचेः काञ्चनासने । आसाश्चक्रे प्रभुमेरुशिलायामिव केसरी ।। ८४५॥ 35 १चन्द्रसूर्यो। २ कण्ठाभरणम् । ३ मन्थानेन । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व शम्यश्वत्थत्वचौ पिष्टवा, हस्तालेपं ततः स्त्रियः । निदधुः कन्ययोः पाणौ, स्मरद्रोरिव दोहदम् ॥ ८४६ ॥ शुभलग्नोदये तूर्णमविहस्तस्ततः प्रभुः । हस्तालेपयुतौ हस्तौ, हस्ताभ्यामग्रहीत् तयोः ॥ ८४७॥ हस्तसम्पुटमध्यस्थहस्तालेपान्तरूमिकाम् । चिक्षेप तत्र सुत्रामा, पल्वले शालिबीजवत् ॥ ८४८॥ ताभ्यामुभाभ्यामुभयहस्तात्ताभ्यां बभौ विभुः । शाखाद्वितयलग्नाभ्यां, लताभ्यामिव पादपः॥ ८४९ ॥ वधूवरदृशोऽन्योऽन्यं, तारामेलकपर्वणि । सरित्पतिसरित्तोयानीवाभिमुखमापतन् ॥ ८५० ॥ दृष्टिदृष्ट्या तदानीं च, निर्वातजलनिश्चला । मनसेव मनस्तेषां, परस्परमयुज्यत ।। ८५१ ॥ कनीनिकासु तेऽन्योऽन्यं, रेजिरे प्रतिबिम्बिताः । प्रविशन्त इवाऽन्योऽन्यं, हृदयेष्वनुरागतः ॥ ८५२ ॥ इतवाऽनुचरीभूय, सुराः सामानिकादयः । पार्श्वेष्वस्थुः प्रभोमेरोरिव विद्युत्प्रभादयः ॥ ८५३ ॥ वधूट्योः पारिपार्श्विक्यश्चतुरा नर्मकर्मणि । एवं कौतुकधवलान्, गातुमारेभिरे स्त्रियः ॥ ८५४ ॥ ज्वरीवाऽब्धि शोषयितुं, मोदकान् परिखादितुम् । श्रद्धालुरनुवरको, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८५५ ॥ मण्डकेभ्योऽखण्डदृष्टिः, कान्दकस्येव कुकरः । स्पहयालरनवरो. मनसा केन नन्वसौ ?॥८५६ आजन्मादृष्टपूर्वी किं, वटकान् रोरबालवत् ? । श्रद्धत्तेऽत्तुमनुवरो, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८५७ ॥ तोयानां चातक इव, धनानामिव याचकः । पूगानां श्राद्धोऽनुवरो, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८५८ ॥ ताम्बूलवल्लीपत्राणां, तृणानामिव तणेकः । श्रद्धालुरद्याऽनुवरो, मनसा केन नन्वसो ? ॥ ८५९ ॥ हैयङ्गवीनपिण्डस्य, बिडाल इव लम्पटः । श्राद्धश्शूर्णस्याऽनुवरो, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८६० ।। विलेपनस्य केदारकर्दमस्येव कासरः । श्रद्धां दधात्यनुवरो, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८६१॥ निर्माल्यानामिवोन्मत्तो, माल्यानां लोललोचनः । श्रद्धानुबन्ध्यनुवरो, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८६२ ॥ एवं कौतुकधवलान्, कौतुकोत्कर्णिताननाः । आकर्णयन्तोऽस्थुलेखा, आलेख्यलिखिता इव ।। ८६३ ॥ लोकेषु व्यवहारोऽयं, दर्शनीय इति प्रभुः । विवाद इव मध्यस्थस्तदुपेक्षितवांस्तदा ॥ ८६४ ।। 20 नावोरिवाञ्चलो देव्योरञ्चलाभ्यां जगत्पतेः । महाप्रवहणस्येव, बबन्ध बॅलसूदनः ॥ ८६५ ॥ कट्यां स्वामिनमारोह्याऽऽभियोगिक इवाऽमरः । अमराधिपतिर्भक्त्याऽचलद् वेदिगृहं प्रति ॥ ८६६ ॥ इन्द्राणीभ्यां द्रुतं देव्यावप्यारोह्य कटीतटे । अवियोजितहस्ताग्रं, चालिते स्वामिना समम् ॥ ८६७॥ शिरोरत्नैत्रिजगतस्ते तैः सह वधूवरैः । पूर्वद्वारेण विविशुर्मध्येवेदिनिकेतनम् ।। ८६८ ॥ त्रायस्त्रिंशसुरस्तत्र, वह्निमहाय कोऽप्यथ । आविश्चक्रे वेदिकुण्डे, पृथ्वीमध्यादिवोत्थितम् ।। ८६९ ॥ 25 समिदाधानतो धूमलेखा व्यानशिरे दिवम् । कर्णावतंसतां यान्त्यश्चिरं खेचरयोषिताम् ॥ ८७० ॥ तमग्निं परितोऽभ्राम्यत, स्वामी स्त्रीगीतमङ्गलः । सुमङ्गलासुनन्दाभ्यां, यावत् पूर्णाष्टमङ्गली ॥ ८७१॥ सहैव पाणिमोक्षेण, तेषामञ्चलमोक्षणम् । गीयमानाभिराशीर्भिः, कारयामास वासवः ॥ ८७२ ॥ सैंकलत्रोऽथ मघवा, हस्ताभिनयलीलया । ननर्त रंगाचार्यन्ति, स्वाम्युत्सवभवा मुदः ॥ ८७३ ॥ तमन्वनृत्यन् मुदिता, अपरेऽपि दिवौकसः । मरुता नर्तितं वृक्षमन्वाश्रितलता इव ॥ ८७४ ॥ 30 कैश्विजयजयारावकारिभिश्चारणैरिव । कैश्चिद् विचित्रचारीकं, नृत्यद्भिर्भरतैरिव ॥ ८७५ ॥ गन्धर्वैरिव गायद्भिरपरैर्जातिबन्धुरम् । वादयद्भिर्मुखान्यन्यैरातोद्यानीव सुस्फुटम् ॥ ८७६ ॥ सम्भ्रमेण प्लवमानैः, प्लवगैरिव कैश्चन । हासयद्भिर्जनं सर्वमन्यै(हासिकैरिव ॥ ८७७ ॥ अपसारयद्भिर्लोकं, प्रतीहारैरिवाऽपरैः । हर्षोन्मत्तैः सुरैरेवं, दर्यमानस्वभक्तिकः ॥ ८७८ ॥ सुमङ्गलासुनन्दाभ्यां, भूपितोभयपार्श्वकः । दिव्ययानाधिरूढोऽथ, स्वस्थानमगमद् विभुः ॥ ८७९ ॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] १ अव्याकुलः। २ इन्द्रः। ३ हास्यकर्मणि । ४ अनुवरको लोके "अणवर" इति प्रसिद्धः। ५रवाककवत् । ६ देवाः। .इन्द्रः। * सपत्नीकोऽथ आ॥ रिक्षाचार्यवत् ॥ रजाचार्षपदाचरन्ति । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ] त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरितम् । __ एवं निवर्तितोद्वाहः, प्रभुं नत्वा स्वमाश्रयम् । ययौ समाप्तसङ्गीतो, रङ्गाचार्य इवाऽद्रिभित् ।। ८८० ॥ ततः प्रभृति सोद्वाहस्थितिः स्वामिप्रदर्शिता । प्रावर्तत पराय, महतां हि प्रवृत्तयः ॥ ८८१॥ भोगान् स्वाम्यप्यनासक्तः, पत्नीभ्यां बुभुजे चिरम् । सवेंदनीयमपि हि, न कर्म क्षीयतेऽन्यथा ॥८८२॥ विवाहाऽनन्तरं ताभ्यां, समं विलसतः प्रभोः। गतेपु किश्चिदूनेषु, पूर्वलक्षेषु पदस्वथ ॥ ८८३ ॥ बाहुजीवपीठजीवौ, च्युत्वा सर्वार्थसिद्धतः । कुक्षौ सुमङ्गलादेव्या, युग्मत्वेनाऽवतेरतुः ॥ ८८४ ॥ तौ सुबाहुमहापीठजीवौ सर्वार्थसिद्धतः । च्युत्वा कुक्षौ सुनन्दायास्तद्वदेवाऽवतेरतुः ॥ ८८५ ॥ चतुर्दश महास्वामान्, गर्भमाहात्म्यशंसिनः । तदैव मादेवीव, देव्यपश्यत् सुमङ्गला ॥ ८८६ ॥ स्वामिनी स्वामिने स्वमान् , कथयामास तानथ । चक्रभृत् ते सुतो भावीत्याख्यत् प्रभुरपि स्फुटम् ॥८८७।। सूर्यसन्ध्ये इव प्राची. द्यतिधोतितदिअखे । अपत्ये भरतनायो, सुषवेऽथ सुमङ्गला ॥८८८॥ अजीजनद् बाहुबलि-सुन्दयौं सुन्दराकती। सुनन्दा स्वामिनी प्रावृडिव वारिदविद्युतौ ।। ८८९ ॥ 10 देवी सुमङ्गलैकोनपञ्चाशतमथ क्रमात् । असूत मुतयुग्मानि, रत्नानीय विदूरभूः ॥ ८९० ॥ अवर्धन्त क्रमेणाऽमी, रममाणा इतस्ततः । महौजसो महोत्साहा, विन्ध्याद्रौ कलभा इव ॥ ८९१ ॥ शुशुभे वृषभस्वामी, समन्तात् परिवारितः । तैरपत्यैर्महाशाखी, शाखाभिरिव भूरिभिः ॥ ८९२॥ तदा च कालदोषेण, प्रभावः कल्पभूरुहाम् । अहीयत प्रदीपानामिव तेजो दिवामुखे ॥ ८९३ ॥ प्रादुरासन कपायाश्च, मिथुनानां क्रुदादयः । लाक्षाकणा इवाऽश्वत्थपादपानां शनैः शनैः ॥ ८९४ ॥ 15 अथ हाकारमाकारधिक्काराख्यं नयत्रयम् । यतत्रयमिव व्याला, मिथुनान्यत्यलङ्घयन् ॥ ८९५॥ . सम्भूय ऋषभनाथं, मिथुनान्युपतस्थिरे । तच्चाऽसमञ्जसं सर्व, जायमानं व्यजिज्ञपन् ॥ ८९६॥ ज्ञानत्रयधरो जातिस्मरः स्वामीत्यवोचत । मयांदोल्लविनां लोके, राजा भवति शासिता ॥ ८९७ ॥ आसयित्वाऽऽसनेऽत्युच्चेऽभिषिक्तः प्रथमं हि सः । चतुरङ्गवलोपेतः, सादखण्डितशासनः ॥ ८९८ ॥ तेऽप्यूचुर्भव राजा नस्त्वमेव किमुपेक्षसे ? । ईक्ष्यते नाऽपरः कोऽपि, मध्येऽस्माकं य ईदृशः ॥ ८९९ ॥ 20 अभ्यर्थयध्वमभ्येत्य, नाभिं कुलकरोत्तमम् । स वो दास्यति राजानमित्यभाषत नाभिभूः ॥ ९००॥ राजानं याचितस्तैस्तु, नाभिः कुलकराग्रणीः । भवतामृषभो राजा, भवत्विति जगाद तान् ॥ ९०१॥ अथो मिथुनधर्माणो, मुदिताः समुपेत्य ते । अस्माकं नाभिना राजार्पितोऽसीत्यूचिरे प्रभुम् ॥ ९०२ ॥ __ ततः स्वाम्यभिपेकार्थ, तेऽयुनीराय युग्मिनः । सिंहासनं चाऽकम्पिष्ट, त्रिविष्टपपतेस्तदा ॥ ९०३ ॥ विज्ञायाऽवधिना राज्याभिषेकसमयं प्रभोः । तत्राऽऽजगाम सुत्रामा, गेहाद् गेहमिव क्षणात् ॥ ९०४ ॥ 25 सौधर्मकल्पाऽधिपतिः, क्लस्वा काञ्चनवेदिकाम् । अतिपाण्डुकम्बलावत्, तत्र सिंहासनं न्यधात् ॥९०५॥ राज्याभिषेकमृषभवामिनः पूर्वदिक्पतिः । देवानीतैस्तीर्थतोयैः, सौवस्तिक इव व्यधात् ॥ ९०६ ॥ स्वामिना वासयाञ्चके, दिव्यवासांसि वासवः । चारुचन्द्रातपमयानीव नैर्मल्यसम्पदा ।। ९०७ ।। प्रभोर्जगत्किरीटस्य, किरीटादीनि वृत्रहा । रत्नालङ्करणान्यङ्गे, यथास्थानं न्यवेशयत् ॥ ९०८ ॥ आजग्मुर्युग्मिनोऽप्यम्भो, गृहीत्वाऽम्भोजिनीदलैः । उदर्घा इव तस्थुस्ते, पश्यन्तो भूषितं प्रभुम् ॥९०९ ।। 30 दिव्यनेपथ्यवस्त्रालङ्कृतस्य शिरसि प्रभोः । न युज्यते क्षेप्नुमिति, तेऽक्षिपन् पादयोः पयः ॥ ९१० ॥ विनीताः साध्वमी तेन, विनीताख्यां प्रभोः पुरीम । निर्मातं श्रीदमादिश्य, मघवा त्रिदिवं ययौ ॥११॥ द्वादशयोजनायामां, नवयोजनविस्तृताम् । अयोध्येत्यपराभिख्यां,विनीतां सोऽकरोत् पुरीम् ॥९१२।। तां च निर्माय निर्मीयः, पूरयामास यक्षराट् । अक्षय्यवस्त्रनेपथ्यधनधान्यैर्निरन्तरम् ॥ ९१३ ॥ वजेन्द्रनीलवैडूर्यहर्म्य किरिरश्मिभिः । भित्तिं विनाऽपि खे तत्र, चित्रकर्म विरच्यते ॥ ९१४ ॥ 35 १ इन्द्रस्य । २ पुरोहितः। * मूर्तच संता ॥ ३ इन्द्रः। ४ निष्कपटः । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व तत्रोच्चैः काञ्चनैहम्यरुशैलशिरांस्यभि । पत्रालम्बनलीलेव, ध्वजव्याजाद् वितन्यते ॥ ९१५ ॥ तद्वप्रे दीप्तमाणिक्यकपिशीर्षपरम्पराः । अयत्नादर्शतां यान्ति, चिरं खेचरयोषिताम् ॥ ९१६ ॥ तस्यां गृहाङ्गणभुवि, स्वस्तिकन्यस्तमौक्तिकैः । खैरं कर्करकक्रीडां, कुरुते बालिकाजनः ॥९१७॥ तत्रोद्यानोच्चवृक्षाग्रस्खल्यमानान्यहर्निशम् । खेचरीणां विमानानि, क्षणं यान्ति कुलायताम् ॥ ९१८ ॥ 5 तत्र दृष्ट्वाऽदृहर्येषु, रत्नराशीन् समुच्छ्रितान् । तंदवकरकूटोऽयं, तय॑ते रोहणाचलः ॥ ९१९ ॥ जलकेलिरतस्त्रीणां, त्रुटितैरिमौक्तिकैः । ताम्रपर्णीश्रियं तत्र, दधते गृहदीर्घिकाः ॥ ९२० ॥ तत्रेभ्याः सन्ति ते येषां, कस्याऽप्येकतमस्य सः । व्यवहर्तुं गतो मन्ये, वणिकपुत्रो धनाधिपः ॥ ९२१ ॥ नक्तमिन्दुदृषद्भित्तिमन्दिरस्यन्दिवारिभिः । प्रशान्तपांसवो रथ्याः, क्रियन्ते तत्र सर्वतः ॥ ९२२ ॥ वापीकूपसरोलक्षैः, सुधासोदरवारिभिः । नागलोकं नवसुधाकुण्डं परिवभूव सा ॥ ९२३ ॥ गतायां जन्मतः पूर्वलक्षाणां विंशतौ तदा । तस्यां नगर्या राजाऽभूत् , प्रभुः पालयितुं प्रजाः ॥९२४ ॥ ॐकार इव मन्त्राणां, नृपाणां प्रथमो नृपः । अपत्यानि निजानीव, पालयामास स प्रजाः ॥ ९२५ ॥ असाधुशासने साधुपालने कृतकर्मणः । प्रत्यङ्गानि स्वकानीव, मत्रिणो विदधे विभुः ॥ ९२६ ॥ चौर्यादिरक्षणे दक्षानारक्षानप्यसूत्रयत् । सुत्रामेव लोकपालान् , राजा वृषभलाञ्छनः ॥ ९२७ ॥ अनीकस्याङ्गमुत्कृष्टमुत्तमाङ्गं तनोरिव । राज्यस्थित्यै राजहस्ती, हस्तिनः स समग्रहीत् ॥ ९२८ ।। __ आदित्यतुरगस्पर्द्धयेवात्युद्धरकन्धरान् । बन्धुरान् धारयामास, तुरगान् वृषभध्वजः ॥ ९२९ ॥ सुश्लिष्टकाष्ठघटितान् , स्यन्दनान् नाभिनन्दनः । विमानानीव भूस्थानि, सूत्रयामास च स्वयम् ॥९३०॥ सुपरीक्षितसत्त्वानां, पत्तीनां च परिग्रहम् । नाभिसूनुस्तदा चक्रे, चक्रवर्तिभवे यथा ॥ ९३१ ॥ नव्यसाम्राज्यसोधस्य, स्तम्भानिव बलीयसः। अनीकाधिपतींस्तत्र, स्थापयामास नाभिभूः॥ ९३२॥ गो-बलीवर्द-करभ-सैरिभा-ऽश्वतरादिकम् । आददे तदुपयोगविदुरो हि जगत्पतिः ॥९३३ ॥ कल्पद्रप समच्छन्नेष्वनपत्यान्वयेष्विव । कन्दमलफलादीनि, तदा बुभुजिरे जनाः ॥९३४॥ शालि-गोधूम-चणक-मुद्गाद्या ओषधीरपि । तृणवत् स्वयमुत्पन्नास्ते चखादुरपाकिमाः ॥९३५ ॥ तस्मिन्नजीर्यत्याहारे, तैर्विज्ञप्तोऽवदद् विभुः । मृदित्वा त्वचयित्वा च, हस्तैस्ताः खादताऽधुना ॥ ९३६ ॥ उपदेशं जगद्भर्तुस्तेषां पालयतामपि । काठिन्यादोषधीनां तु, नाऽऽहारो जीर्यति स्म सः ॥ ९३७ ॥ तैर्विज्ञप्तः पुनः स्वामीत्यूचे सङ्घष्य पाणिभिः । तास्तिमित्वा जलैः पत्रपुटे धृत्वा च खादत ॥ ९३८ ॥ 25 ते तथा चक्रिरे तत्राऽप्यजीर्णाहारवेदनाम् । तैर्विज्ञप्तो जगन्नाथः, पुनरप्येवमादिशत् ॥ ९३९ ॥ पूर्वोक्तविधिमाधायौषधीर्मुष्टौ निधाय च । आतपे कक्षयोः क्षिप्त्वा, भक्षयन्तु ततः सुखम् ॥ ९४० ॥ तत्राऽप्यजीर्णाहारेण, विधुरेषु जनेष्वथ । तरुखण्डे मिथः शाखाघर्षणादग्निरुत्थितः ॥ ९४१ ॥ तृणकाष्ठादि स प्रोपंन् , दीप्ररत्नभ्रमेण तु । धावित्वाऽऽदातुमारेभे, प्रसारितकरैर्जनैः ॥ ९४२ ॥ तेनाग्निना दह्यमाना, भीताः प्रभुमुपेत्य ते । नूतनं भूतमुद्भूतं, किञ्चिदप्येवमूचिरे ॥ ९४३ ॥ 30 स्वाम्यप्यूचे स्निग्धरूक्षकालादेषोऽग्निरुत्थितः । नैकान्तरूक्षे नैकान्तस्निग्धे काले भवत्यसौ ॥ ९४४ ॥ स्थित्वाऽस्य पार्श्वतो वह्ने, पर्यन्तस्थं तृणादिकम् । अपसारयताऽशेष, पश्चाद् गृह्णीत तं ननु ॥ ९४५॥ ततः पूर्वोक्तविधिना, साधयित्वौषधीरिमाः । ज्वलनेऽस्मिन् परिक्षिप्य, परिपच्य च खादत ॥ ९४६ ॥ ते तथा चक्रिरे मुग्धा, दग्धाश्चौषधयोऽग्निना । आगत्य कथयामासुरिति च स्वामिने पुनः ॥ ९४७ ॥ ___ स्वामिन् ! न किञ्चिदस्मभ्यं, ददात्येष बुभुक्षितः । कुक्षिम्भरिरिवैकोऽत्ति, क्षिप्ताः सर्वत ओषधीः॥९४८॥ 35 तदानीं सिन्धुरस्कन्धाधिरूढः प्रभुरप्यभूत् । तैः समानाययामास, मृत्तिकापिण्डमाकम् ॥ ९४९ ॥ * दीप्रमा' सं १, २॥ तिदावकरकू आ, सं २ ॥ ग्लोषन् संता ॥ 20 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । कुम्भिकुम्भे मृदं न्यस्य, प्रवितन्य च पाणिना । पात्रं चक्रे तदाकारं, शिल्पानां प्रथमं प्रभुः ॥ ९५० ॥ स्वामीत्यूचे कुरुतैवं, भाजनान्यपराण्यपि । तान्यग्नौ न्यस्य पचतौषधीस्तदनु खादत ॥९५१॥ ततश्च चक्रिरे ते तु, तथैव स्वामिशासनम् । तदादि जज्ञिरे कुम्भकाराः प्रथमकारवः ॥ ९५२ ॥ चक्रे वर्द्धक्ययस्कार, गृहायर्थं जगत्पतिः । विश्वस्य सुखसृष्टय हि, महापुरुषसृष्टयः ॥ ९५३ ॥ गृहादिचित्रकृतये, कृती चित्रकृतोऽपि सः । सूत्रयामास लोकानां, क्रीडावैचित्र्यहेतुना ॥ ९५४ ॥ 5 कुविन्दान कल्पयामास, लोकसंव्यानहेतवे । सर्वकल्पद्रुमस्थाने, ह्येकः कल्पद्रुमः प्रभुः ॥ ९५५ ॥ रोम्णां नखानां वृद्ध्या च, वाध्यमाने भृशं जने । जगदेकपिता स्वामी, नापितानप्यसूत्रयत् ॥ ९५६ ॥ तानि पञ्चाऽपि शिल्पानि, प्रत्येकं विशिभेदतः । शतधा प्रासरल्लोके, स्रोतांसि सरितामिव ॥ ९५७ ॥ तृणहारकाष्ठहारकृपिवाणिज्यकान्यपि । कमाण्यासूत्रयामास, लोकानां जीविकाकृते ॥९५८ ॥ स्वामी सामदानभेददण्डोपायचतुष्टयम् । जगद्व्यवस्थानगरीचतुष्पथमकल्पयत् ॥ ९५९ ॥ 10 ___ द्वासप्ततिकलाकाण्डं, भरतं सोऽध्यजीगपत् । ब्रह्म ज्येष्ठाय पुत्राय, ब्रूयादिति नयादिव ॥९६०॥ भरतोऽपि स्वसोदस्तिनयानितरानपि । सम्यगध्यापयत् पात्रे, विद्या हि शतशाखिका ॥ ९६१ ॥ नाभेयो बाहुबलिनं, भिद्यमानान्यनेकशः । लक्षणानि च हस्त्यश्वस्त्रीपुंसानामजिज्ञपत् ॥ ९६२ ॥ अष्टादश लिपीाया, अपसव्येन पाणिना । दर्शयामास सव्येन, सुन्दर्या गणितं पुनः॥ ९६३ ॥ मानोन्मानाऽवमानानि, प्रतिमानानि वस्तुषु। पोतान् प्रोतांश्च मण्यादीन , प्रभुः प्रावर्तयत् तदा ॥९६४ ॥15 राजाध्यक्षकुलगृहसाक्षिभिः समजायत । व्यवहारस्तदादिष्टो, विवादिप्रतिवादिनाम् ॥ ९६५ ॥ नागाद्यर्चा धनुर्वेदश्चिकित्सोपासने रणः । अर्थशास्त्रं बन्धघातवधगोष्ठयस्ततोऽभवन् ॥ ९६६ ॥ असौ माता पिता भ्राता. भार्या पत्रो गहं धनम । ममेत्यादि च ममताऽभजनानां तदादिका॥९६७॥ दृष्ट्वा स्वामिनमुद्वाहे, प्रसाधितमलङ्कृतम् । प्रासाधयदलचके, लोकोऽपि स्वं ततः परम् ॥ ९६८ ॥ तदा दृष्ट्वा प्रभुकृतं, पाणिग्रहणमादिमम् । लोकोऽपि कुरुतेऽद्यापि, ध्रुवो ह्यध्वा महत्कृतः ॥ ९६९॥ 20 दत्तकन्योपयमनं, प्रभूद्वाहात् प्रभृत्यभूत् । चूडोपनयनक्ष्वेडापृच्छा अपि ततोऽभवन् ।। ९७० ॥ एतच्च सर्व सावद्यमपि लोकानुकम्पया । स्वामी प्रवर्त्तयामास, जानन् कर्त्तव्यमात्मनः ॥ ९७१ ॥ नदाम्नायात् कलादीदमद्यापि भुवि वर्तते । अर्वाचीनैर्बुद्धिमद्भिर्निबद्धं शास्त्ररूपतः ॥ ९७२ ॥ स्वामिनः शिक्षया दक्षो, लोकोऽभूदखिलोऽपि सः । अन्तरेणोपदेष्टारं, पशुवन्ति नरा अपि ॥ ९७३ ॥ तदोन-भोग-राजन्य-क्षत्रभेदैश्चतुर्विधान् । जनानासूत्रयद् विश्वस्थितिनाटकसूत्रभृत् ॥ ९७४ ॥ 25 आरक्षपुरुषा उग्रा, उग्रदण्डाधिकारिणः । भोगा मत्र्यादयो भर्तुत्रायस्त्रिंशा हरेरिव ॥ ९७५ ॥ राजन्या जज्ञिरे ते ये, समानवयसः प्रभोः । अवशेषास्तु पुरुषा, बभूवुः क्षत्रिया इति ॥ ९७६ ॥ विरचय्य नवामेवं, व्यवहारव्यवस्थितिम् । नवोढामिव बुभुजे, नवां राज्यश्रियं विभुः ॥ ९७७ ॥ यथाऽपराधं दण्ड्येषु, दण्डं प्रायुत नाभिभूः । व्याधितेषु यथा व्याधिचिकित्सक इवाज्गदम् ॥९७८॥ दण्डभीतस्तदालोकश्चक्रे चौर्यादिकं न हि । एकैव दण्डनीतिर्हि, सर्वान्यायाहिजाङ्गुली ॥ ९७९ ॥ 30 क्षेत्रोद्यानगृहादीनां, मर्यादां कोऽपि कस्यचित् । नाऽत्यक्रामत् प्रभोराज्ञामिव लोकः सुशिक्षितः॥९८०॥ कालेऽवर्षजलधरः, सस्यनिष्पत्तिहेतवे । न्यायधर्म जगद्भर्तुर्गर्जाव्याजात् स्तुवन्निव ॥ ९८१॥ सस्यक्षेत्ररिक्षुबाटैर्गोकुलैश्वाऽऽकुलास्तदा । रेजुर्जनपदाः स्वा, स्वाम्यगर्दाभिधायिनः ॥ ९८२ ॥ हेयादेयविवेकज्ञीकृतैलॊकैर्व्यधाद् विभुः । प्रायेण भरतक्षेत्रं, विदेहक्षेत्रसनिभम् ॥ ९८३ ॥ * लोकानां गृहहेतोश्च, प्रभुळधित वर्द्धकीन् आ॥ १ तन्तुवायकान् । + विंशभे सं १, २, आ॥ २ परमतत्वम् । ३ दक्षिणेन । 'न्मानप्रमाणानि सं १ ॥ ४ गजादिपूजा। ५ स्थिरः। ६ पशुवदाचरन्ति । ७ सर्पोच्चाटनी मनविद्या । त्रिषष्टि. ८ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व राज्याभिषेकात् प्रभृति, पृथिवीं परिपालयन् । त्रिषष्टिं पूर्वलक्षाणि, नाभिभूरत्यवाहयत् ॥ ९८४ ॥ प्रभुः सरकृतावासे, मधुमासे समेयुषि । अगादन्येधुरुधाने, परिवारानुरोधतः ॥९८५ ॥ पुष्पवासगृहे तत्र, पुष्पाभरणभूषितः । आसाञ्चके जगत्स्वामी, पुष्पमास इवाऽङ्गवान् ॥ ९८६ ॥ गुञ्जद्भिः फुल्लमाकन्दमकरन्दोन्मदालिभिः । मधुलक्ष्मीबभूवेव, स्वागतिकी जगत्प्रभोः ॥ ९८७ ।। पूर्वरङ्ग इवाऽऽरब्धे, पञ्चमोच्चारिभिः पिकैः । अदर्शयल्लतालास्यं, मलयानिललासकः ॥ ९८८ ॥ कामुकेभ्य इवाऽऽश्लेषपादपातमुखासवान् । ददुः कुरबकाऽशोकबकुलेभ्यो मृगेक्षणाः ॥९८९ ॥ तिलकः प्रबलामोदप्रमोदितमधुव्रतः। अशोभयद् युवभालस्थलीमिव वनस्थलीम् ॥ ९९० ॥ पुष्पस्तवकभारेण ननाम लवलीलता । पीनोरसिजभारेण, भूयसेव कृशोदरी ॥९९१ ॥ सहकारलतां मन्दमन्दं मुग्धां वधूमिव । विदग्धः कामुक इव, सखजे मलयानिलः ॥ ९९२ ॥ जम्बूकदम्बमाकन्दचम्पकाशोकयष्टिभिः । प्रवासिनो हन्तुमलं, याष्टीक इव मन्मथः ॥ ९९३ ॥ प्रत्यग्रपाटलापुष्पसम्पर्कसुरभीकृतः । वारिवत् कस्य न ददौ, मुदं मलयमारुतः १ ॥ ९९४ ॥ अन्तःसारो मधुरसैर्मधूको मधुभाण्डवत् । मधुपैरुपसर्पद्भिश्चके कलकलाकुलः ॥ ९९५ ॥ गोलिकाधनुरभ्यासं, कर्तुं कुसुमधन्वना । गोलिकाः सजिता मन्ये, कदम्बकुसुमच्छलात् ॥ ९९६ ॥ इष्टापूर्तप्रियेणेव, वसन्तेन प्रकल्पिता । वासन्ती भृङ्गपान्थानां, मकरन्दरसप्रपा ॥ ९९७ ॥ 15 सिन्दुवारेण दुर्वारकुसुमामोदसम्पदा । चक्रे घ्राणविषेणेव, महामोहः प्रवासिनाम् ॥ ९९८ ॥ वसन्तोद्यानपालेन, चम्पकेषु नियोजिताः । आरक्षा इव निःशङ्क, भ्रमन्ति स्म मधुव्रताः॥ ९९९ ॥ उत्तमानुत्तमानामप्यवनीरुहवीरुधाम् । श्रियं मधुर्दिदेश स्त्रीपुंसानामिब यौवनम् ॥ १००० ॥ तत्राऽवचेतुं कुसुमान्यारभन्त मृगीदृशः । महातिथेर्वसन्तस्य, दातुमर्षमिवोत्सुकाः ॥ १००१॥ अस्मास्वायुधभूतासु, सरस्याऽन्यैः किमायुधैः ? । इति बुद्धयेव कामिन्यः, कुसुमान्यवचिच्यिरे ॥१००२॥ उचितेषु च पुष्पेषु, तद्वियोगरुजार्दिता । अरोदीदिव वासन्ती, मञ्जुगुञ्जन्मधुव्रता ॥ १००३ ॥ मल्लीमुच्चित्य गच्छन्ती, काचित् तल्लग्नवाससा । तस्थौ निषिध्यमानेव, तया माऽन्यत्र गा इति ॥१००४॥ चम्पकं चिन्वती काचिदलियूनोत्पतिष्णुना । दश्यते स्माऽधरदले, क्रुधेवाऽऽश्रयभङ्गतः ॥१००५ ॥ उच्चैरुच्चैः सुमनसः, काचिदुत्क्षिप्तदोलता । जहार मनसा सार्द्ध, यूनां दोर्मूलदर्शिनाम् ॥ १००६ ॥ प्रत्यग्रपुष्पस्तवकसनाथीकृतपाणयः । रेजुः पुष्पावचायिन्यो, जङ्गमा इव वल्लयः ॥ १००७॥ 25 प्रतिशाखं विलग्नाभिः, पुष्पोच्चयकुतूहलात् । रेजिरे शाखिनः स्त्रीभिः, सञ्जातस्त्रीफला इव ॥ १००८॥ मल्लिकाकोरकैः कोऽपि, कामिन्याः स्वयमुच्चितैः । सर्वाङ्गाभरणं चक्रे, मुक्तादामविडम्बकम् ॥ १००९ ॥ प्रियायाः कोऽपि धम्मिल्लं, विकचैर्निजपाणिना । कुसुमैः पूरयामास, कुसुमेषोरिवेषुधिम् ॥१०१० ॥ पञ्चवर्णैः स कश्चिद् , ग्रथित्वा कुसुमैः स्वयम् । विडम्बितेन्द्रधनुषं, दत्त्वा कान्तामतोषयत् ॥१०११॥ सलीलं प्रियया कोऽपि, प्रक्षिप्तं पुष्पकन्दकम् । प्रतीच्छति स्म पाणिभ्यां, प्रसादमिव किङ्करः ॥१०१२॥ 30 दोलान्दोलनसञ्जातयातायाता मृगीदृशः। जनुः पादैः पादपायान् , सापराधान् पतीनिव ॥१०१३ ॥ दोलारूढा नवोदूढा, पृच्छन्तीनां धवाभिधाम् । काऽप्यालीनां लताघातान्, सेहे हीमुद्रितानना॥१०१४॥ कातराक्ष्या समं कश्चिदारूढः सम्मुखीनया । गाढमन्दोलयद् दोलां, तबाढालिङ्गनेच्छया ॥१०१५॥ प्रतिशाखं लम्बमानदोलान्दोलनलीलया । रेजुरुधानवृक्षेषु, युवानः प्लवगा इव ॥ १०१६ ॥ एवं खेलायमानेषु, तत्र पौरजनेष्वथ । दध्यौ खामी किमीक्षा, क्रीडाऽन्यत्रापि कुत्रचित् ? ॥१०१७॥ 35 जज्ञेऽथाऽवधिना स्वामी, स्वःसुखं चोत्तरोत्तरम् । अनुत्तरवर्गसुखं, भुक्तपूर्व स्वयं च यत् ।। १०१८ ।। भूयोऽप्यचिन्तयदिदं, विगलन्मोहबन्धनः । पिगेष विषयाक्रान्तो, वेत्ति नाऽऽत्महितं जनः ॥१०१९ ॥ 20 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरितम् । अहो ! संसारकूपेऽस्मिन् , जीवाः कुर्वन्ति कर्मभिः । अरघट्टघीन्यायेनैहिरेयाहिराक्रियाम् ॥ १०२० ।। धिर धिग् मोहान्धमनसा, जन्मिनां जन्म गच्छति । सर्वथाऽपि मुधैवेदं, सुप्तानामिव शर्वरी ॥ १०२१॥ एते रागद्वेषमोहा, उद्यन्तमपि देहिनाम् । मूलाद् धर्म निकृन्तन्ति, मूषिका इव पादपम् ॥ १०२२ ॥ अहो ! विवय॑ते मुग्धैः, क्रोधो न्यग्रोधवृक्षवत् । अपि वर्द्धयितारं स्वं, यो भक्षयति मूलतः ॥ १०२३ ॥ न किश्चिन्मानवा मानाधिरूढा गणयन्त्यमी । मर्यादालचिनो हस्त्यारूढा हस्तिपका इव ॥ १०२४ ॥ 5 कपिकच्छ्बीजकोशीमिव मायां दुराशयाः । उपतापकरी नित्यं, न त्यजन्ति शरीरिणः ॥ १०२५ ॥ दुग्धं तुषोदकेनेवाऽञ्जनेनेव सितांशुकम् । निर्मलोऽपि गुणग्रामो, लोभेनैकेन दृष्यते ॥ १०२६ ॥ कषाया भवकारायां, चत्वारो यामिका इव । यावजाग्रति पार्श्वस्थास्तावन्मोक्षः कुतो नृणाम् ? ॥ १०२७॥ अङ्गनालिङ्गनव्यग्रा, भूतात्ता इव देहिनः । समन्ततः क्षीयमाणमप्यात्मानं न जानते ॥ १०२८ ॥ तत्तत्प्रकारैराहारैरात्मनोन्माद आत्मनः । उत्पाद्यतेऽनर्थकृते, सिंहारोग्यमिवौषधैः ॥ १०२९ ॥ 10 सुगन्धीदं सुगन्धीदं, किं श्रयामीति लम्पटः ? । मूढो भ्रमरवद् भ्राम्यन्न जातु लभते रतिम् ॥१०३०॥ आपातरमणीयैर्धिग् , रमणीप्रायवस्तुभिः । प्रतारयति लोकः खं, बालं क्रीडनकैरिव ॥ १०३१ ॥ वेणुवीणादिनादेषु, दत्तकर्णो निरन्तरम् । स्वार्थाद् भ्रश्यति निद्रालुरिव शास्त्रानुचिन्तनात् ॥ १०३२ ॥ युगपद् विषयैरेभिर्वातपित्तकफैरिव । लुप्यते प्रबलीभूतैश्चैतन्यं धिक् शरीरिणाम् ॥ १०३३ ॥ एवं संसारवैराग्यचिन्तासन्ततितन्तुभिः । निःस्यूतमानसो यावद् , बभूव परमेश्वरः ॥ १०३४ ॥ 15 तावत् सारखतादित्यवहयो वरुणा अपि । गर्दतोयोस्तुषिताश्चाऽव्याबाधा मरुतस्तथा ॥ रिष्टाश्चेति नवभेदा, ब्रह्मलोकान्तवासिनः । देवा लोकान्तिकाः पादान्तिकमेत्य जगत्प्रभोः ॥१०३६॥ मूर्ध्नि न्यस्तैरञ्जलिभिः, पद्मकोशसहोदरैः । आसूत्रितापरोत्तंसा, इवैवं ते व्यजिज्ञपन् ॥ १०३७॥ [चतुर्भिः कलापकम् ] शक्रचूडामणिविभाम्भोमनचरणाम्बुज ! । भरतक्षेत्रनिर्नष्टमोक्षमार्गप्रदीपक ! ॥ १०३८ ॥ लोकव्यवस्था प्रथमा, यथा नाथ ! प्रवर्तिता । प्रवर्त्तय तथा धर्मतीर्थ कृत्यं निजं स्मर ॥१०३९ ॥ एवं देवास्ते प्रभुं विज्ञपय्य, खं खं स्थानं ब्रह्मलोके दिवीयुः । प्रव्रज्येच्छुः खाम्यपि खं निशान्तं, सद्योऽयासीनन्दनोद्यानमध्यात् ॥ १०४० ॥ 20 इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमे पर्वणि भगवजन्म-व्यवहार-राज्यस्थितिप्रकाशनो नाम द्वितीयः सर्गः ॥२॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहमचन्द्राचार्यप्रणीतं तृतीयः सर्गः । आजूहवदथ स्वामी, सामन्तादीन् समन्ततः । भरतं बाहुबल्यादींस्तनयानितरानपि ॥ १ ॥ प्रभुर्बभाषे भरतं, राज्यमादत्स्व वत्स ! नः । वयं संयमसाम्राज्यमुपादास्यामहेऽधुना ॥ २ ॥ स्वामिनो वचसा तेन, स्थित्वा क्षणमधोमुखः । प्राञ्जलिर्भरतो नत्वा, जगादैवं सगइदम् || ३ || त्वत्पादपद्मपीठाग्रे, लुठतो मे यथा सुखम् । रत्नसिंहासने स्वामिन्नासीनस्य तथा नहि ॥ ४ ॥ त्वदग्रे धावतः पद्भ्यां यथा मम सुखं विभो ! । सलीलसिन्धुरस्कन्धाधिरूढस्य तथा नहि || ५ || त्वत्पादपङ्कजच्छायानिलीनस्य यथा सुखम् । जायते मे सितच्छत्रच्छायाच्छन्नस्य नो तथा ॥ ६ ॥ त्वया विरहितः स्यां चेत्, तत् किं साम्राज्यसम्पदा ? । त्वत्सेवासुखदुग्धान्धे, राज्यसौख्यं हि विन्दुवत् ॥७॥ स्वाम्यपीत्यवदद् राज्यमस्माभिस्तावदुज्झितम् । पृथ्व्यां च पार्थिवाभावे, मात्स्य न्यायः प्रवर्तते ॥ ८ ॥ पृथिवीं तदिमां वत्स !, यथावत् परिपालय । आदेशकारकोऽसि त्वमादेशोऽप्ययमेव नः ॥ ९ ॥ सिद्धादेशं प्रभोरेवं, स लङ्घितुमनीश्वरः । आमेत्यभाषत गुरुध्वेपैव विनयस्थितिः ॥ १० ॥ प्रणम्य स्वामिनं मूर्ध्ना, विनीतो भरतस्ततः । सिंहासनमलञ्चक्रे, पित्र्यं वंशमिवोन्नतम् ॥ ११ ॥ स्वाम्यादेशादथाऽऽमात्यसामन्तानीकपादिभिः । प्रभोरिव सुरैश्चक्रेऽभिषेको भरतस्य तु ॥ १२ ॥ तदा च शुशुभे छत्रं, पार्वणेन्दुसहोदरम् । स्वामिनः शासनमिवाऽखण्डं भरतमूर्द्धनि ॥ १३ ॥ तत्पार्श्वयोश्चकाशाते, आपतन्तौ च चामरौ । भरतार्द्धद्वयादेष्यच्छ्रियोर्दृताविवाऽऽगतौ ॥ १४ ॥ चकासामास वासोभिर्मुक्तालङ्करणैरपि । गुणैरिव स्वैरत्यन्तविशदैर्वृषभात्मजः ॥ १५ ॥ शशीव स नवो राजा, महामहिमभाजनम् । नमश्चक्रे राजचक्रेणाऽऽत्मकल्याणकाम्यया ।। १६ ।। अथ ददौ बाहुबलिप्रभृतिभ्यो यथोचितम् । अन्येभ्योऽपि च पुत्रेभ्यो, विभज्य विषयान् विभुः || १७॥ ततश्च सांवत्सरिकं, दानमारभत प्रभुः । कल्पद्रुम इव स्वेच्छाप्रार्थनानुगुणं नृणाम् ॥ १८ ॥ यो येनाऽर्थी स तद् गृह्णात्वेवमाघोषणां विभुः । चतुष्पथप्रतोल्यादिस्थानेषूच्चैरकारयत् ॥ १९ ॥ चिरभ्रष्टानि नष्टानि, प्रक्षीणस्वामिकानि च । अतिप्रनष्टसेतूनि, गिरिकुञ्जगतानि च ॥ २० ॥ श्मशानस्थानगूढानि, गुप्तानि च गृहान्तरे । रजतस्वर्णरत्नादिधनान्याहृत्य सर्वतः ॥ २१ ॥ वासवादिष्टधनदप्रेरिता जृम्भकाः सुराः । ददतोऽपूरयन् भर्तुः पयांसीव पयोमुचः ॥ २२ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] एकi कोटीं हिरण्यस्य, लक्षाण्यष्टौ च नाभिभूः । दिने दिने ददौ सूरोदयादा भोजनक्षणम् ॥ २३ ॥ वत्सरेण हिरण्यस्य, ददौ कोटीशतत्रयम् । अष्टाशीतिं च कोटीनां, लक्षाशीतिं च नाभिभूः ॥ २४ ॥ जातसंसारवैराग्या, दीक्षया स्वामिनो जनाः । शेषामात्रमदोऽगृह्णन्निच्छादानेऽपि नाऽधिकम् ।। २५ ।। अथ वार्षिकदानान्ते, वास्रवश्चलितासनः । भक्त्याऽन्य इव भरतो, भगवन्तमुपास्थित ॥ २६ ॥ समं सुरवरैरम्भस्कुम्भहस्तैर्जगत्पतेः । दीक्षोत्सवाभिषेकं स चक्रे राज्याभिषेकवत् ॥ २७ ॥ 30 मपनीतं तदधिकारिणेव बलारिणा । दिव्यालङ्कारवस्त्रादि, पर्यधत्त जगद्विभुः ।। २८ ।। अनुत्तरविमानानां विमानमिव किञ्चन । सुदर्शनाख्यां शिविकां, पत्ये हरिरसूत्रयत् ।। २९ ।। दत्तहस्तो महेन्द्रेण, शिविकामारुरोह ताम् । प्रभुः प्रथमसोपानमिव लोकाग्रवेश्मनः ॥ ३० ॥ आदौ रोमाञ्चितैर्मत्यैरमत्यैस्तदनन्तरम् । उदधे शिविका मूर्त्तपुण्यभार इवाऽऽत्मनः ॥ ३१ ॥ वर्यमङ्गलतूर्याणि, ताडिवानि सुरासुरैः । अपूरयन् दिशो नादैः पुष्करावर्त्तका इव ॥ ३२ ॥ चकाशे चामरद्वन्द्वं, पार्श्वतस्त्रिजगत्पतेः । नैर्मल्यमिव मूर्तिस्थं, परलोकेहलोकयोः ॥ ३३ ॥ १ यथा गुरुलघु मत्स्यानू मक्त्याः भक्षयन्ति तद्वद् राजानं विना लोका अपि एवं कुर्वन्ति । * भरतेशितुः सं १, २ खं ॥ 5 10 15 20 25 ६० 35 [ प्रथम पर्व Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ] त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरितम् । 15 प्रीणितश्रवणो नृणामुचैर्जयजयारवः । चक्रे पत्युर्वन्दिवृन्दैरिव वृन्दारकजैः ॥ ३४ ॥ trist शिविकारूढः पथि गच्छन्नराजत । सुरोत्तमविमानस्थशाश्वतप्रतिमोपमः ।। ३५ ।। भगवन्तं तथाssयान्तं दृष्ट्वा सर्वेऽपि नागराः । सम्भ्रमादन्वधावन्त पितरं बालका इव ।। ३६ । दूरतः स्वामिनं द्रष्टुं, जीमूतमित्र केकिनः । उच्चपादपशाखामु, केचिदारुरुहुर्नराः ॥ ३७ ॥ केचिच्च स्वामिनं द्रष्टुमारूढा मार्गवेश्मसु । चन्द्रातपमित्र प्रौढं, सूर्यातपमजीगणन् ॥ ३८ ॥ अश्वानारुरुहुः केऽपि, कालक्षेपासहिष्णवः । त्वरितं स्वयमेवावा, इव पुलविरे पथि ।। ३९ ।। अन्तः प्रविश्य लोकानां केsपि वारामिवाऽऽतयः । अग्रे प्रादुर्भवन्ति स्म, स्वामिनो दर्शनेच्छया ॥ ४० ॥ अभि त्रिभुवनाधीशं, धावन्त्यः काचिदङ्गनाः । वेगात् त्रुटितहारेण, लाजाञ्जलिमिवाऽमुचन् ॥ ४१ ॥ आगच्छतो जगद्भर्त्तुरग्रे तस्थुर्दिदृक्षया । कटिस्थवाला आरूढवानरा इव वीरुधः ॥ ४२ ॥ भुजावुभयतः सख्योः, काचिदालम्व्य सत्वरम् । कृत्वा पक्षानिवाऽऽगच्छन्, कुचकुम्भभरालसाः ॥ ४३ ॥ 10 गतिभङ्गकरान् भारान, स्वान् नितम्वान् मृगीदृशः । निनिन्दुः काचन स्वामिप्रेक्षणक्षणकाङ्क्षया ॥ ४४ ॥ शुभकौसुम्भवसना, वर्त्मवेश्मकुलाङ्गनाः । पूर्णपात्रान् दधुः काचित्, सेन्दु सन्ध्यासहोदराः ।। ४५ ।। काश्चिदप्यञ्चलान् पाणिपमैश्च पललोचनाः । चामराणीव चलयामासुरालोकने प्रभोः ॥ ४६ ॥ काश्चिदप्यभि नाभेयं, नार्यो लाजान् निचिक्षिपुः । आत्मनः पुण्यबीजानि, वपन्त्य इव निर्भरम् ||४७|| चिरं जीव चिरं नन्देत्याद्याशीर्वचनानि च । काश्चिञ्जगुर्निजकुलसुवासिन्य इवोच्चकैः ॥ ४८ ॥ निश्चलाक्ष्यश्चलाक्ष्योऽपि, मङ्खुगा मन्दगा अपि । प्रभुं पश्यन्त्योऽनुयान्त्यचाभूवन् पुरयोषितः ॥ ४९ ॥ नभस्यथ समापेतुरपि देवाञ्चतुर्विधाः । महाविमानैः कुर्वाणा, एकच्छायं महीतलम् ॥ ५० ॥ मदाम्भोवर्षिभिः केचित, कुञ्जरैर्निर्जरोत्तमाः । आपतन्तो विदधिरे, दिवं मेघमयीमिव ॥ ५१ ॥ अपारगगनाम्भोधेस्तरण्डैस्तुरगोत्तमैः । कशानदण्डसहिता, आपतन् पतिमीक्षितुम् ।। ५२ ।। मूर्तिमद्भिः पवमानैरिवाऽतिशयिरंहसा । स्यन्दनैर्युसदः केचिदासदन्नाभिनन्दनम् ॥ ५३ ॥ अन्योऽन्यं वाहनक्रीडाप्रतिज्ञातपणा इव । प्रतीक्षाञ्चक्रिरे मित्रमपि न त्रिदिवौकसः ॥ ५४ ॥ स्वाम्यसौ स्वाम्यसावेवं, कथयन्तो मिथः सुराः । वाहनानि स्थिरीचक्रुः, प्राप्तग्रामा इवाऽध्वगाः ॥ ५५ ॥ विमानहम्र्म्येः करिभिस्तुरगैः स्यन्दनैरपि । नभस्यभूद् द्वितीयेव, विनीता नगरी तदा ॥ ५६ ॥ परिवत्रे जगन्नाथः, प्रकृष्टसुरमानुषैः । मानुषोत्तरशिखरीवाऽहस्करनिशाकरैः || ५७ ॥ पार्श्वयोर्भरतबाहुबलिभ्यामुपसेवितः । रोधो भ्यामिव पाथोधिर्वभासे वृषभध्वजः ।। ५८ ।। अष्टानवत्या तनयैर्विनीतैरितरैरपि । अन्वगामि जगत्स्वामी, यूथनाथ इव द्विपैः ।। ५९ ।। माता पत्न्यौ च पुत्र्यौ च स्त्रियोऽन्या अपि साश्रवः । सावश्यायकणाः पद्मिन्य इव प्रभुमन्वगुः ॥ ६० ॥ विमानमिव सर्वार्थसिद्धं प्राक्तनजन्मनि । नाम्ना सिद्धार्थमुद्यानमाससाद जगत्पतिः ॥ ६१ ॥ तस्माच्च शिविकारत्नात्, संसारादिव निर्ममः । समुत्ततार नाभेयस्तत्राऽशोकतरोस्तले ॥ ६२ ॥ तानि वस्त्राणि माल्यानि, भूषणानि च नाभिभूः । उज्झाञ्चकार सपदि, कषायानिव सर्वतः ।। ६३ । कोमलं धवलं सूक्ष्मं, व्यूतं चन्द्रकरैरिव । देवदृष्यं देवराजः, स्कन्धदेशे न्यधाद् विभोः ॥ ६४ ॥ तदा च चैत्रैबहुलाष्टम्यां चन्द्रमसि श्रिते । नक्षत्रमुत्तराषाढामो भागेऽथ पश्चिमे ।। ६५ ॥ भवज्जयजयारावकोलाहलमिषाद् भृशम् । उद्भिरद्भिर्मुदमिव वीक्ष्यमाणो नरामरैः ॥ ६६ ॥ उच्चखान चतसृभिर्मुष्टिभिः शिरसः कचान् । चतसृभ्यो दिग्भ्यः शेषामिव दातुमनाः प्रभुः ।। ६७ ।। [ त्रिभिर्विशेषकम् ] 30 १ आतिः अलनिवासी पक्षी । २ चैत्र कृष्णाष्टम्याम् । ६१ 5 20 25 35 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीनं प्रथमं पर्व प्रतीच्छति स्म सौधर्माधिपतिः कुन्तलान् प्रभोः । वस्त्राञ्चले वर्णान्तरतन्तुमण्डनकारिणः ॥ ६८ ॥ मुष्टिना पञ्चमेनाऽथ, शेषान् केशान् जगत्पतिः । समुच्चिखनिपन्नेवं, ययाचे नमुंचिद्विषा ॥ ६९ ।। नाथ ! त्वदंसयोः स्वर्णरुचोर्मरकतोपमा । वातानीता विभात्येषा, तदास्तां केशवल्लरी ॥ ७० ॥ तथैव धारयामास, तामीशः केशवल्लरीम् । याजामेकान्तभक्तानां, स्वामिनः खण्डयन्ति न ।। ७१ ॥ सौधर्मेशः क्षीरसिन्धौ, केशान् क्षिप्त्वाऽभ्युपेत्य च । रङ्गाचार्य इवारक्षत्, तुमुलं मुष्टिसंज्ञया ॥७२॥ कृतपठतपःकर्मा, कृतसिद्धनमस्कृतिः । देवासुरमनुष्याणां, समक्षमथ नाभिभूः ॥ ७३ ।। सावद्ययोगं सकलं, प्रत्याख्यामीत्युदीरयन् । मोक्षाध्वनो रथमिव, चारित्रं प्रत्यपद्यत ॥७४ । [युग्मम् ] स्वामिदीक्षोत्सवेनाऽऽसीन्नारकाणामपि क्षणम् । शरदातपतप्तानामिवाऽभ्रच्छायया सुखम् ।। ७५ ॥ ज्ञानं प्रभोर्मय॑क्षेत्रमनोद्रव्यप्रकाशकम् । मनःपर्ययमुत्पेदे, दीक्षासङ्केतभागिव ॥ ७६ ॥ 10 वार्यमाणाः सुहृद्वर्गे, रुध्यमानाश्च बन्धुभिः । निषिध्यमाना भरतेश्वरेणाऽपि मुहुर्मुहुः ॥ ७७ ॥ स्मरन्तः स्वामिनः पूर्वप्रसादमतिशायिनम् । तत्पादपद्मविरहस्याऽसहाः षट्पदा इव ॥ ७८ ॥ हित्वा पुत्रकलत्रादि, राज्यं च तृणलीलया । या गतिः स्वामिनोऽस्माकमपि सैवेति निश्चयात् ।। ७९ ।। नृपाः कच्छमहाकच्छादय आददिरे मुदा । दीक्षां सहस्राश्चत्वारो, भृत्यानामेष हि क्रमः॥ ८०॥ [चतुर्भिः कलापकम् ] 15 आदिनाथं प्रणम्याऽथ, शचीनाथादयः सुराः । एवं विरचयामासू, रचिताञ्जलयः स्तुतिम् ॥ ८१ ॥ गुणांस्तव यथावस्थान , वयं वक्तुमनीश्वराः । स्तुमस्तथापि प्रज्ञा हि, त्वत्प्रभावाद् भृशायते ॥ ८२ ।। त्रसस्थावरजन्तूनां, हिंसायाः परिहारतः । स्वामिन्नभयदानैकसत्रिणे भवते नमः ॥ ८३ ॥ नमस्तुभ्यं मृषावादपरित्यागेन सर्वथा । पथ्यतथ्यप्रियवचःसुधारसपयोधये ॥ ८४ ॥ भगवन्नदत्तादानप्रत्याख्यानखिलाध्वनि । प्रथमायाऽध्वनीनाय, नमस्तुभ्यं जगत्पते ! ॥ ८५ ॥ 20 अखण्डितब्रह्मचर्यमहातेजोविवस्वते । भगवन् ! मन्मथध्वान्तमथनाय नमोस्तु ते ॥८६॥ सर्वमेकपदे नाथ !, पृथिव्यादिपरिग्रहम् । पलालवत् त्यक्तवते, तुभ्यं मुक्त्यात्मने नमः ।। ८७ ।। तुभ्यं नमः पञ्चमहावतभारककुमते । संसारसिन्धुतरणकर्मठाय महात्मने ॥ ८८॥ महाव्रतानां पञ्चानामिव पश्चाऽपि सोदराः । बिभ्रते समितीस्तुभ्यमादिनाथ ! नमो नमः ॥ ८९ ॥ आत्मारामैकमनसे, वचःसंवृतिशालिने । सर्वचेष्टानिवृत्ताय, नमस्तुभ्यं त्रिगुप्तये ॥ ९० ॥ 25 इति नाथमभिष्टुत्य, यथास्थानं ययुस्तदा । जन्माभिषेकवन्नन्दीश्वरमध्येन नाकिनः ॥ ९१ ॥ प्रणम्य नाथं भरतबाहुबल्यादयोऽपि ते । जग्मुर्निजनिजस्थानं, कथञ्चिदमरा इव ॥ ९२ ॥ अनुप्रबजितैः कच्छमहाकच्छादिभिनृपैः । अनुयातः प्रभुमौनी, मां विहाँ प्रचक्रमे ॥ ९३ ॥ __ भगवान् पारणाहेऽपि, भिक्षां न प्राप कुत्रचित् । भिक्षादानानभिज्ञो हि, तदैकान्तऋजुर्जनः ॥ ९४ ॥ केऽपि वेगपराभूतोच्चैःश्रवस्कांस्तुरङ्गमान् । शौर्यनिर्जितदिग्नागानपरे नागकुञ्जरान् ॥ ९५ ॥ रूपलावण्यविजिताप्सरसः केऽपि कन्यकाः । विद्युद्विभ्रमधारीणि, केचिदाभरणानि तु ॥ ९६ ॥ नानावर्णानि सन्ध्याभ्राणीव वासांसि केचन । माल्यदामानि मन्दारदामस्पनि केऽपि च ॥ ९७ ॥ केचित् काश्चनराशिं च, मेरुशृङ्गसहोदरम् । रोहणाचलचूलाभ, रत्नकूटमथाऽपरे ॥ ९८॥ स्वामिने ढोकयामासुर्लोका भिक्षार्थमीयुषे । राजानमेव नाथं स्म, जानते ते हि पूर्ववत् ॥ ९९ ॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] समुत्खनितुमिच्छन् । २ इन्द्रेण । * °पर्याय खं आ, ॥ ३ अमराः। ४ भृशं भवतीति भृशायते। + "खिलेऽभव. खंता॥ ५ पथिकाय । 30 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः] त्रिषष्ट्रिशलाकापुरुषचरितम् । ६३ भिक्षामलभमानोऽपि, स्वाम्यदीनमनाः सदा । विहरन् जङ्गमं तीर्थमिव पृथ्वीमपावयत् ॥ १०॥ सप्तधातुविनाभूतशरीर इव सुस्थितः । भगवान् क्षुत्पिपासादीनधिसेहे परीषहान् ॥ १०१॥ अनुयान्तः स्वामिनं ते, पोता इव समीरणम् । तथैव विहरन्ति स्म, राजानो दीक्षिताः स्वयम् ॥१०२ ।। अथ क्षुदादिभिः क्लान्तास्तत्त्वज्ञानविवर्जिताः । स्वबुद्ध्यनुगुणं दध्युस्ते गजन्यास्तपस्विनः ॥ १०३ ॥ किम्पाकानीव नाऽत्येष, फलानि मधुराण्यपि । न स्वादन्यपि पिवति, क्षाराणीव पयांसि च ॥१०४ ।। । परिकर्मानपेक्षश्च, न स्नाति न विलिम्पति । वस्त्रालङ्कारमाल्यानि, नोपादत्ते च भारवत् ॥ १०५ ॥ आलिङ्गयते शैल इव, वातोद्धृताध्वधृलिभिः । नितान्तं महते मूर्ध्नि, ललाटंतपमातपम् ।। १०६ ॥ शयनादिविहीनोऽपि, नाऽऽयाममनुगच्छति । न परिक्लिश्यते शीतोष्णाभ्यां गिरिवरेभवत् ॥ १०७ ॥ न हि क्षुधां गणयति, न जानाति तृपामपि । लवैरः क्षत्रिय इव, निद्रामपि न सेवते ।। १०८ ॥ अस्माननुचरीभूतान् , कृतागस इवाधुना । न प्रीणयति दृष्ट्याऽपि, सङ्कथायास्तु का कथा ? ॥ १०९ ॥ 10 अपि पुत्रकलत्रादिपरिग्रहपरामुखः । न जानीमः किमपि यञ्चित्ते चिन्तयति प्रभुः ॥ ११० ॥ अथ कच्छमहाकच्छी, भरिभ्यर्णसेवको । आत्मवृन्दपुरोभृतावित्यूचाते तपस्विभिः ॥ १११ ॥ कैष स्वामी क्षुद्विजयी?, क्व वयं चाऽनकीटकाः?। क्व वा जितपिपासोऽयं ?, क वयं वारिदर्दुराः॥११२॥ क चाऽयमातपजयी?, कच्छायामत्कुणा वयम् ? । क शीतापरिभूतोऽयं?, क शीतकपयो वयम् ? ॥११३॥ क्व च निद्रादरिद्रोऽयं ?, क्व निद्राजगरा वयम् ? । क्वाऽयं नित्यमनासीनो ?, वयं काऽऽसनपङ्गवः ॥ 15 व्रतेऽनुगमनं भर्तुस्तदस्माभिः प्रचक्रमे । उदन्वल्लङ्घनविधौ, काकैरिव गरुत्मतः ॥ ११५ ॥ किं निजान्येव राज्यानि, गृहीमो जीविकाकृते ?। किन्तु तानि गृहीतानि, भरतेन क गम्यताम् ? ॥ किं वा व्रजामो भरतमेव जीवनहेतवे ? । अस्माकं स्वामिनं हित्वा, गतानां तत एव भीः ॥ ११७ ॥ तदार्यों ! कार्यमूढानां, किं कार्य ? ब्रूतमद्य नः । अग्रेऽपि नित्यमासन्नौ, भावाभिज्ञौ युवां विभोः ॥११८॥ तावप्येवं बभाषाते, स्वयम्भूरमणाम्बुधेः। आसाद्यते यदि स्ताघो, भावोऽपि स्वामिनस्तदा ॥ ११९ ।। 20 अग्रेऽपि स्वामिनाऽऽदिष्टमेव नित्यमकृष्वहि । अधुना कृतमौनस्तु, नाऽऽदिशत्येष किञ्चन ॥ १२० ॥ वित्थ यूयं यथा नैव, विद्वो नाऽऽवां तथैव हि । गतिः समाना सर्वेषां, बताऽऽवां किमु कुर्वहे ? ॥१२१॥ मम्भूयाऽऽलोच्य सर्वेऽपि, गङ्गातीरवनानि ते । भेजुर्बु जिरे स्वैरं, कन्दमूलफलाद्यथ ॥ १२२ ॥ प्रावर्त्तन्त ततः कालात् , तापसा वनवासिनः । जटाधराः कन्दफलाद्याहारा इह भूतले ॥१२३ ॥ ___ अथ कच्छमहाकच्छतनयो विनयान्वितौ । स्वाम्यादेशाद् दूरदेशान्तराणि गतपूर्विणौ ।। १२४ ॥ 25 आयान्तौ नमि-विनामिनामानों तद्वनाध्वना । अपश्यतां स्वपितरावित्यचिन्तयतां च तो। १२५ ॥ नाथे वृषभनाथेऽपि, किमनाथाविवेशीम् । अवस्थां प्रतिपेदाते, पितरावावयोरिमौ ? ।। १२६ ॥ व तच्चीनांशुकमिदं, किरातार्ह व वल्कलम् ? । क्व सोऽङ्गरागो वपुषि ?, भूरजः क पशूचितम् ? ॥१२७॥ क्व माल्यगर्भो धम्मिल्लः ?, क्व जटा वटवृक्षवत् ? । क्व गजारोहणं? वैष, पादचारः पदातिवत् ॥१२८॥ एवं विचिन्तयन्ती तौ, प्रणम्य पितरौ तदा । पप्रच्छतुः कच्छमहाकच्छावप्येवमूचतुः॥१२९ ॥ 30 त्यक्त्वा राज्यं जगन्नाथो, भगवानृषभध्वजः । भुवं विभज्य भरतादिभ्यो दत्त्वाऽग्रहीद् व्रतम् ॥१३०॥ स्वामिना सममस्माभिरशेष रभसावशात् । तदा तद् व्रतमारेभे, हस्तिनेवेक्षुभक्षणम् ॥ १३१ ॥ क्षुधापिपासाशीतोष्णप्रभृतिक्लेशपीडितः । तद् व्रतं मुमुचेऽसाभिय॑स्ता धूः कसरैरिव ॥ १३२ ॥ यद्यपि स्वामिनो गत्या, वयं गन्तुं न शक्नुमः । तथापि मुक्त्वा गार्हस्थ्यं, वसामोऽत्र तपोवने ॥१३३॥ . स्वामिनो भूसंविभागमावामप्यर्थयावहे । इत्युक्त्वा नमि-विनमी, स्वामिपादावुपेयतुः ॥ १३४ ॥ 35 निःसङ्ग इत्यजानन्तौ, प्रभुं प्रतिमया स्थितम् । प्रणम्यैवं विज्ञपयाम्बभूवतुरुभावपि ॥ १३५ ।। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व आवां प्रेष्य प्रेषणेन, दृरदेशान्तरं विभो ! । पुत्रेभ्यो भरतादिभ्यस्त्वया दत्ता विभज्य भूः ॥ १३६ ॥ मही गोष्पदमात्राऽपि, त्वयाऽऽवाभ्यां न किं ददे ?। इदानीमपि तद्देहि, विश्वनाथ ! प्रसादतः॥१३७ ॥ दोषः किमावयोः कोऽपि, देवदेवेन वीक्षितः ? । यद् दत्से नोत्तरमपि, दूरेऽन्यद् देयमस्तु तत् ॥१३८॥ प्रभुन किश्चित् प्रत्यूचे, वदन्तावपि तौ तदा । निर्ममा हि न लिप्यन्ते, कस्याऽप्यहिकचिन्तया ॥१३९ ॥ 5 न ब्रूते यद्यपि स्वामी, तथाऽपि गतिरेष नौ । इति निश्चित्य तौ देवं, प्रवृत्तावुपसेवितुम् ॥ १४० ॥ जलं जलाशयान्नित्यमानीय नलिनीदलैः । ववृषुः स्वामिनोऽभ्यर्णे, रजःप्रशमहेतवे ॥ १४१ ॥ तावुज्झाञ्चक्रतुर्धर्मचक्रिणः पुरतः प्रगे । पुष्पप्रकरमामोदमाद्यन्मधुकरोत्करम् ॥ १४२ ॥ कृष्टासी च सिषेवाते, स्वामिनं पारिपार्श्विकौ । अहर्निशं मेरुगिरि, सूर्याचन्द्रमसाविव ॥ १४३॥ त्रिसन्ध्यं च प्रणम्यैवं, ययाचाते कृताञ्जली । आवयो ऽपरः स्वामी, स्वामिन् ! राज्यप्रदो भव ॥१४४॥ ___ अन्येधुर्धरणो नागकुमाराणामधीश्वरः । श्राद्धः समाययौ तत्र, स्वामिपादान् विवन्दिपुः ॥१४५॥ स्वामिनं सेवमानौ तौ, याचमानौ श्रियं ततः । बालाविव ऋजू नागराजः साश्चर्यमैक्षत ॥ १४६ ॥ स तौ जगाद पीयूषस्यन्दसोदरया गिरा । कौ युवां ? किं च याचेथे, दृढं विरचिताग्रहौ ? ॥ १४७ ।। संवत्सरं जगत्स्वामी, महादानं किमीप्सितम् । प्रददावनवच्छिन्नं, तदानीं व गतौ युवाम् ? ॥ १४८ ॥ वर्तते सम्प्रति स्वामी, निर्ममो निष्परिग्रहः । रोषतोषविनिर्मुक्तो, निराकासो वपुष्यपि ॥ १४९ ॥ 15 स्वामिनः सेवकः कश्चिदेषोऽपीति सगौरवम् । धरणं पन्नगाधीशं, प्रत्यूचतुरुभावपि ॥ १५० ॥ भृत्यावावामसौ भर्ता, क्वचिदप्यादिशत् स्वयम् । राज्यं विभज्य सर्वेभ्यः, स्वपुत्रेभ्यो ददावथ ॥१५१॥ अपि प्रदत्तसर्वस्वो, दाताऽसौ राज्यमावयोः । अस्ति नाऽस्तीति का चिन्ता ?, कार्या सेवैव सेवकैः ॥१५२॥ याचेथां भरतं गत्वा, स्वामिवत् स्वामिभूरपि । इत्युक्तौ धरणेन्द्रेण, पुनस्तावेवमूचतुः ॥ १५३ ॥ विश्वस्वामिनमाप्याऽमुं, कुर्वः स्वाम्यन्तरं न हि । कल्पपादपमासाद्य, कः करीरं निषेवते ? ॥ १५४ ॥ 20 आवां याचावहे नाऽन्यं, विहाय परमेश्वरम् । पयोमुचं विमुच्याऽन्यं, याचते चातकोऽपि किम् ? ॥१५५॥ वस्त्यस्तु भरतादिभ्यस्तव किं चिन्तयाऽऽनया ? । स्वामिनोऽसाद् यद् भवति, तद् भवत्वपरेण किम् ? ॥ तदुक्तिमुदितोऽवादीदथेदं पन्नगेश्वरः । पातालपतिरेषोऽसि, स्वामिनोऽस्यैव किङ्करः ॥ १५७ ॥ महाभागौ महासत्त्वौ, खाम्यसावेव नाऽपरः । सेवनीय इति दृढा, प्रतिज्ञा साधु साधु वाम् ॥ १५८ ॥ भुवनस्वामिनोऽमुष्य, सेवया राज्यसम्पदः । पुमांसमुपसर्पन्ति, पाशाकृष्टा इव द्रुतम् ॥ १५९ ॥ सेवया चाऽस्य वैतात्यगिरौ विद्याधरेन्द्रता । नितान्तसुलभैवेह, पालम्बफलवन्नृणाम् ॥ १६० ॥ सेवामात्रेण चाऽमुष्य, भवनाधिपतिश्रियः । अयत्नप्राप्यतां यान्ति, पादाधःस्थनिधानवत् ॥ १६१ ।। अमुं च सेवमानानां, पुंसामुपनमत्यलम् । वशंवदा व्यन्तरेन्द्र श्रीः कार्मणवशादिव ॥ १६२ ॥ अस्यैव सेवकं ज्योतिष्पतिश्रीरपि सत्वरम् । स्वयं वृणीते सुभगं, स्वयंवरवधूरिव ॥ १६३ ॥ भवन्त्यस्यैव सेवातः, पौरन्दर्योऽपि सम्पदः । वसन्तादेव जायन्ते, विचित्राः कुसुमर्द्धयः ॥ १६४ ॥ 30 अस्यैव सेवनादाशु, लभन्ते दुर्लभामपि । अहमिन्द्रश्रियं मुक्तेरिव यामि कनीयसीम् ॥ १६५ ॥ अमुमेव जगन्नाथं, सेवमानः शरीरभाक् । प्रामोत्यपुनरावृत्ति, सदानन्दमयं पदम् ॥ १६६ ॥ इह त्रिभुवनाधीशः, सिद्धरूपः परत्र च । असाविव भवेद् देही, स्वामिनोऽस्यैव सेवया ॥ १६७ ॥ दासोऽहं स्वामिनोऽमुष्य, युवामपि च सेवको । तत्सेवायाः फलं विद्याधरैश्वर्यं ददामि वाम् ।। १६८ ॥ खामिसेवाप्तमेवैतद्, बुध्येथां हन्त ! माऽन्यथा । उझ्योतोऽरुणजन्माऽपि, सूर्यजन्मैव यद् भुवि ॥१६९ ॥ 35 सम्बोध्यैवं ददौ गौरीप्रज्ञप्तीप्रमुखां तयोः । अष्टचत्वारिंशद्विद्यासहस्री पाठसिद्धिदाम् ॥ १७० ॥ * °दादिष्टवान् सं १, °दप्यादिदेश व खं, आ॥ । भगिनीम् । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ तृतीयः सर्गः ] त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरितम् । आदिदेश च वैताढ्ये, गत्वा श्रेणिद्वये युवाम् । नगराणि परिष्ठाप्य, कुर्वाथां राज्यमक्षयम् ॥ १७१ ॥ नत्वाऽर्हन्तं तो विमानं, पुष्पकाख्यं विकृत्य च । आरुह्य च प्रचलितो, पन्नगम्यामिना समम् ॥१७२।। स्वामिसेवातरुफलभूतां तां सम्पदं नवाम् । गत्वा पित्रोः कच्छमहाकच्छयोस्तावशंसताम् ॥ १७३॥ ज्ञापयामासतुः स्वर्द्वि, गत्वाऽयोध्यापतेश्च तो । मानिनां मानसिद्धिर्हि, सफला स्थानदर्शिता ।। १७४ ।। तत्र स्वजनमादाय, सर्व परिजनं च तौ । विमानवरमारोह्य, प्रति वैताट्यमीयतुः ॥ १७५ ।। प्रान्तयोलवणाम्भोधिवीचीनिचयचुम्बितम् । पूर्वापरदिशोरन्तर्मानदण्डमिव स्थितम् ।। १७६ ।। आघाटभूतं भरतदक्षिणोत्तरभागयोः । पञ्चाशतं योजनानि, दक्षिणोत्तरयोः पृथुम् ।। १७७ ॥ षड् योजनानि सक्रोशान्यवगाढं महीतले । उत्सेधं धारयन्तं च, पञ्चविंशतियोजनीम् ॥ १७८ ॥ प्रसारिताभ्यां वाहुभ्यामिव दृगद् हिमाद्रिणा । गङ्गासिन्धुस्रवन्तीभ्यां, समाश्लिष्टं समन्ततः ॥१७९।। भरतार्धश्रियो लीलाविश्रामसदने इव । खण्डप्रपाता-तमिस्राभिधाने दधतं गुहे ॥ १८० ॥ 10 सिद्धायतनकूटेन, शाश्वतप्रतिमाजुषा । विभ्राणमद्भुतां शोभा, सुमेरुमिव चूलया ॥ १८१ ॥ नानारत्नमयान्यच्चैलीलास्थानानि नाकिनाम । नवग्रेवेयकाणीव, नवकटानि विभ्रतम् ।। १८२ ॥ ऊर्ध्वं योजनविंशत्या, दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः । दधानं व्यन्तरावासश्रेण्यौ निवसने इव ।। १८३ ॥ आमूलचूलिकं चारुकलधौतशिलामयम् । पृथिव्यां पादकटकमिवैकं विच्युतं दिवः ॥ १८४ ॥ मरुदन्दोलितोद्दामशाखिशाखाभुमुहुः । आह्वयन्तमिवाऽऽरात् ती, वैतादयगिरिमापतुः ॥ १८५ ॥ 15 [ दशभिः कुलकम् ] क्ष्मातलाद् दशयोजन्या, उपरिष्टान्नमिर्नृपः । तत्राद्रौ दक्षिणश्रेण्यां, चक्रे पञ्चाशतं पुरीः ॥ १८६ ॥ प्राकिन्नरनरगीतं, बहुकेतुपुरं ततः । पुण्डरीकं हरिकेतु, सेतुकेतुपुरं तथा ॥ १८७ ॥ सारिकेतुनगरं, श्रीबहुश्रीगृहं तथा । लोहार्गला-रिञ्जये च, स्वर्गलीलपुरं तथा ॥ १८८ ।। वज्रार्गलपुरं वज्रविमोकनगरं तथा । तथा महीसार-पुरये सुकृतमुख्यपि ॥ १८९ ॥ 20 चतुर्मुखी बहुमुखी, रता च विरताऽपि च । आखण्डलपुरं चाऽपि, विलासयोनिपत्तनम् १९० अपराजितं काञ्ची-दामाख्ये सुविनयं नभः । क्षेमङ्करंसह-चिहपुरं कुसुमपुर्यपि ॥ १९१॥ सञ्जयन्ती शक्रपुर, जयन्ती वैजयन्त्यपि । विजया क्षेमङ्करं च, चन्द्रभासपुरं तथा ॥१९२॥ रविभासपुरं सप्तभूतलावासमेव च । सुविचित्रं महानं च, चित्रकूटं त्रिकूटकम् ॥ १९३ ॥ वैश्रवणकूट-शर्शिपुरे रविपुरं तथा । विमुखी-चाहिन्यौ सुभुखी नित्योढ्योतिनी तथा ॥१९४॥25 श्रीरथनूपुरचक्रवालं तु नगरोत्तमम् । एषां पुराणां मध्यस्थमध्युवास स्वयं नमिः ॥ १९५ ॥ ___ तथैव चोत्तरश्रेण्यां, विनमिः पर्यसूत्रयत् । पष्टिं पुराणि सद्योऽपि, नागराजस्य शासनात् ॥ १९६॥ पुर्यर्जुनी वारुणी च, वैरिसंहारिणी तथा । कैलासवारुणी विद्युद्दीप्तं किलिंकिलं तथा ॥१९७॥ चारुचूडामणिश्चैव, चन्द्रभाभूषणं तथा । वंशवत् कुसुमचूलं, हंसगर्भ च मेधकम् ॥ १९८॥ शङ्करं लक्ष्मिहयं च, चामरं विमलं तथा । असुमत्कृतं च शिवमन्दिरं वसुमत्यपि ॥१९९॥ 30 सर्वसिद्धस्तुतं चैव, सर्वशत्रुनयं तथा । केतुमालाङ्कनगरमिन्द्रकान्ताभिधं ततः ॥ २० ॥ महानन्दनाशोकंच, वीतशोकं विशोककम् । सुग्वालोका-ऽलकतिलक-नभस्तिलकान्यपि २०१ मन्दिरं कुमुदकुन्दं, ततो गगनैवल्लभम् । युवतीतिलैंकसंज्ञमवनीतिलकं ततः ॥ २०२ ॥ सगन्धर्व मुक्तहारं, ततोऽनिमिषविष्टपम् । अग्निज्वाला गुरुज्वाला,श्रीनिकेतपुरं तथा ॥२०३॥ ततो जयश्रीनिवासं, रत्नकुलिशपत्तनम् । वसिष्टाश्रयं द्रविणजयं चाऽथ सभ,कम् ॥ २०४ ।। 35 भद्राशयपुरं तस्मात् , फेनशिंग्वरमप्यथ । गोक्षीरवरशिग्वराभिधानं तदनन्तरम् ॥ २०५ ।। त्रिषधि, ९ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व वैर्यक्षोभशिखरकं, गिरिशिखरकं ततः । धरणीवारणीसंज्ञं, सुदर्शनपुरं ततः ॥ २०६ ॥ दुर्ग दुर्धर-माहेन्द्रे, विजयं च सुगन्धिनी । सुरतनागरपुरं, ततो रत्नपुराभिधम् ॥ २०७॥ एषां प्रधानभूतं तु, पुरं गगनवल्लभम् । विनमिः स्वयमध्यष्ठाद् , धरणेन्द्रमधिष्टितः ॥ २०८ ॥ ते च विद्याधरश्रेण्यौ, शुशुभाते महर्द्धिके । ऊर्ध्वस्थव्यन्तरश्रेण्याविवाऽधःप्रतिविम्बिते ॥ २०९ ॥ 5 ग्रामाननेकशः कृत्वा, तौ शाखानगराणि च । स्थापयामासतुः स्थानौचित्याजनपदानपि ॥ २१० ।। यस्माद् यस्माजनपदान्नीत्वा तत्राऽऽहिता नराः । तत्संज्ञयैव तत्रापि, ताभ्यां जनपदाः कृताः ।। २११॥ तेष्वथो नमि-विनमी, पुरेष्वधिसभं विभुम् । स्थापयामासतुर्नाभिनन्दनं मनसीव तौ ॥ २१२ ॥ ___ मा विद्यादुर्मदा विद्याधराः कार्षुः स्म दुर्नयम् । धरणेन्द्रस्ततस्तेषां, मर्यादामेवमादिशत् ॥ २१३ ॥ जिनानां जिनचैत्यानां, तथा चरमवर्मणाम् । प्रतिमाप्रतिपन्नानां, सर्वेषां चाऽनगारिणाम् ॥ २१४ ॥ 10 पराभवं लङ्घनं च, ये करिष्यन्ति दुर्मदाः। विद्यास्त्यक्ष्यन्ति तान् सद्यः, कृतालस्यानिव श्रियः २१५॥ [युग्मम्] मात्मस्त्रीकं हनिष्यन्ति, ये नरं येऽपि च स्त्रियम् । रमयिष्यन्त्यनिच्छन्ती, विद्यास्त्यक्ष्यन्ति तान् क्षणात्।।२१६ उच्चैरुदीर्य मर्यादामेवमाचन्द्रकालिकीम् । अलीलिखदहिस्वामी, रत्नभित्तिप्रशस्तिषु ॥ २१७ ॥ विद्याधराधिराजत्वे. सप्रसादं निवेश्य तौ। विरचय्य व्यवस्थां च. धरणेन्दस्तिरोदधे ॥ २१८॥ गौरीणां नाम्ना गौरेया, मनूनां मनुपूर्वकाः। गान्धारीणां तु गान्धारा, मानवीनां तु मानवाः२१९ 15 कैशिकीनां तु विद्यानां, कैशिकीपूर्वका मताः। विद्यानां भूमितुण्डानां, कीर्तिता भूमितुण्डकाः २२० विद्यानां मूलवीर्याणां, विश्रुता मूलवीर्यकाः । शङ्कुकानां शङ्कुकास्तु, पाण्डुकीनां तु पाण्डुकाः२२१ कालीनां कालिकेयास्तु,श्वपाकीनां श्वपाककाः। मातङ्गीनां तु मातङ्गाः,पार्वतीनां तु पार्वताः२२२ वंशालयानां विद्यानां, ख्याता वंशालया इति । विद्यानां पांसुमूलानां, प्रथिताः पांसुमूलकाः २२३ विद्यानां वृक्षमूलानां,विख्याता वृक्षमूलकाः। स्वस्व विद्याख्यया ख्याता, निकायाः षोडशाऽभवन्।।२२४॥ एवं विद्याधराणां तु, निकाया नमिभूभुजा । आदीयन्त विभज्याऽष्टावष्टौ विनमिना पुनः ॥ २२५ ॥ खके स्वके निकाये च, स्वकाय इव भक्तितः । स्थापयाञ्चक्रिरे ताभ्यां, विद्याधिपतिदेवताः ॥ २२६ ॥ तौ नित्यमृषभखामिमूर्तिपूजाकृतक्षणौ । धर्मानाबाधया भोगान् , बुभुजाते सुराविव ॥ २२७ ॥ द्वीपान्तजगतीजालकटकेषु कदापि तौ । रेमाते सह कान्ताभिः, शक्रेशानाविवाऽपरौ ॥ २२८ ॥ सुमेरुशैलोद्यानेषु, कदाचिन्नन्दनादिषु । सदानन्दौ विजहाते, स्वैरिणौ तौ समीरवत् ॥ २२९ ॥ नन्दीश्वरादितीर्थेषु, जग्मतुस्तौ कदाचन । शाश्वतप्रतिमार्चाय, श्राद्धश्रीणां फलं ह्यदः ॥ २३० ॥ तौ कदाचिद् विदेहादिक्षेत्रेषु श्रीमदर्हताम् । गत्वा समवसरणे, पपतुर्वाक्सुधारसम् ॥ २३१ ॥ चारणश्रमणेभ्यश्च, कदाचिद् धर्मदेशनाम् । तौ शुश्रुवतुरुत्की , गीतं युवमृगाविव ॥ २३२ ॥ सम्यक्त्ववन्तावक्षीणकोशौ विद्याधरीवृतौ । त्रिवर्गाबाधया राज्यं, यथावत् तौ प्रचक्रतुः ॥ २३३ ॥ ते तु कच्छमहाकच्छादयो राजन्यतापसाः । गङ्गाया दक्षिणे कूले, मृगा इव वनेचराः ॥ २३४ ॥ 30 वल्कलाच्छादनधराः, पादपा इव जङ्गमाः । आहारमुद्वान्तमिवाऽस्पृशन्तो गृहमेधिनाम् ॥ २३५ ॥ चतुर्थषष्ठादितपःपरिशोषितधातुकम् । धारयन्तः कृशतरं, रिताभस्त्रोपमं वपुः ॥ २३६ ॥ भुञ्जानाः पारणाहेऽपि, शीर्णपर्णफलादिकम् । हृदये भगवत्पादान् , ध्यायन्तोऽस्थुरनन्यगाः ॥ २३७ ॥ आयोनार्येषु मौनेन, विहरन् भगवानपि । संवत्सरं निराहारश्चिन्तयामासिवानिदम् ॥ २३८ ॥ प्रदीपा इव तैलेन, पादपा इव वारिणा । आहारेणैव वर्तन्ते, शरीराणि शरीरिणाम् ।। २३९ ॥ 35 द्विचत्वारिंशता भिक्षादोषैर्भृशमदूषितः । स तु वृत्त्या माधुकर्या, काले ग्राह्योऽनगारिणा ॥ २४० ॥ अद्यापि यदि वाऽऽहारमतिक्रान्तदिनेष्विव । न गृह्णाम्यभिग्रहाय, किन्तूत्तिष्ठे पुनर्यदि ॥ २४१ ॥ 20 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । अमी सहस्राश्चत्वार, इवाऽभोजनपीडिताः । तदा भङ्गं ग्रहीष्यन्ति, भाविनो मुनयोऽपरे ॥ २४२ ॥ स्वामी मनसिकृत्यैवं, भिक्षार्थं चलितस्ततः । पुरं गजपुरं प्राप, पुरमण्डलमण्डनम् ॥ २४३॥ तस्मिन् पुरे याहुबलिमूनोः सोमप्रभस्य तु । राज्ञः कुमारेण तदा, स्वप्ने श्रेयांसभूभुजा ॥२४४।। अदृश्यत स्वर्णगिरिः, परितः श्यामलो मया। अभिषिच्य पयस्कुम्भैर्विहितोऽधिकमुज्ज्वलः॥२४५॥[युग्मम्] सुबुद्धिश्रेष्ठिनाऽप्यक्षि, गोसहस्रं रवेश्युतम् । श्रेयांसेनाऽऽहितं तत्र, ततोऽर्कोऽप्यतिभासुरः ॥ २४६ ॥5 अदार्श सोमयशसा, राज्ञैको बहुभिः परैः । रुद्धः समन्ताच्छ्रेयांससाहाय्याजयमीयिवान् ॥ २४७॥ त्रयस्ते सदसि स्वमानन्योऽन्यस्य न्यबीविदन् । तन्निर्णयमजानन्तः, स्वं स्वं स्थानं पुनर्ययुः ॥ २४८ ॥ प्रादुर्भावयितुमिव, तदा तत्स्वमनिर्णयम् । भिक्षार्थं प्राविशत् स्वामी, नगरं हस्तिनापुरम् ॥ २४९ ॥ संवत्सरं निराहारोऽप्यायान् वृपभलीलया । ददृशे वृषभखामी, नागरैर्जातसम्मदैः ॥ २५० ॥ उत्थायोत्थाय धावित्वा, धावित्वा च ससम्भ्रमम् । पोरैर्देशान्तरायातबन्धुवत् स्वाम्यवेष्ट्यत ॥ २५१ ॥ 10 कोऽप्युवाचैहि भगवन् !, गृहाण्यनुगृहाण नः । वसन्तोत्सववद् देव !, चिरादसि निरीक्षितः ॥ २५२ ॥ । कोऽप्यवादीदिदं मजं, स्नानीयं वसनं जलम् । तेलं पिष्टातकश्चेति, स्नाहि स्वामिन् ! प्रसीद नः॥२५३॥ कोऽप्यचे स्वोपयोगेन, स्वामिन ! मम कृतार्थय । जात्यचन्दनकपूरकस्तूरीयक्षकदेमान् ॥ २५४॥ गटत्न!. रत्नालङ्करणानि नः । स्वाङ्गाधिरोपणात स्वामिन्नलङ्करु दयां कुरु ॥ २५५ एवं व्यज्ञपयत् कोऽपि, गृहे समुपविश्य मे । स्वामिन्नगानुकूलानि, दुकूलानि पवित्रय ॥ २५६ ॥ 15 कश्चिदप्यब्रवीदेवं, देव ! देवाङ्गनोपमाम् । प्रभो! गृहाण नः कन्यां, धन्याः स्मस्त्वत्समागमात् ॥२५७॥ कोऽप्यूचे पादचारेण, क्रीडयाऽपि कृतेन किम् ? । इममारोह शैलाभं, कुञ्जरं राजकुञ्जर ! ॥ २५८ ॥ कोऽप्यजल्पन्मम हयान् , गृहाणाऽर्कहयोपमान् । लिमातिथेयाग्रहणादयोग्यान विदधासि नः ? ॥२५९॥ कोऽप्युवाचाऽऽदत्स्व रथान् , सनाथान् जात्यवाजिभिः। किमेभिर्ननु कर्त्तव्यं, पादचारिणि भर्तरि ? ॥२६०॥ कोऽप्यूचेऽमृनि पक्कानि, सहकारफलानि नः । उपादत्स्व प्रभो ! माऽवमंस्थाः प्रणयिनं जनम् ॥ २६१ ॥ 20 कोऽप्यभाषिष्ट ताम्बूलबल्लीपत्राण्यमूनि मे । क्रमुकाण्यप्युपादत्स्व, प्रसीदेकान्तवत्सल ! ॥२६२ ॥ बभापे कश्चिदप्येवमपराद्धं नु किं मया ? । यदशृण्वन्निव स्वामिन्नत्तरं न प्रयच्छसि ? ॥ २६३ ॥ इत्यर्थ्यमानोऽकल्प्यत्वादगृह्णन किमपि प्रभुः । गेहं गेहमुपेयाय, ऋक्षमृक्षमिवोडुपः ॥ २६४ ॥ प्रातःकाले शकुन्तीनामिव कोलाहलं तदा । पोराणां परिशुश्राव, श्रेयांसः स्वाश्रयस्थितः ॥ २६५ ॥ किमेतदिति तेनाऽनुयुक्तो वेत्रधराग्रणीः । इति विज्ञपयामास, पुरोभूय कृताञ्जलिः ॥ २६६ ॥ 25 लुठद्भिः पादपीठाग्रे, किरीटस्पृष्टभूतलम् । इन्द्रेनरेन्द्ररिख यः, सेव्यते दृढभक्तिभिः ॥ २६७ ॥ जीवनोपायकर्माणि, लोकेष्वेकानुकम्पया । दर्शयाश्चक्रिरे येन, पदार्था इव भानुना ॥ २६८॥ विभज्य भरतादीनां, युप्माकं चापि भूरियम् । ददे येन स्वशेपेव, तदा दीक्षां जिघृक्षता ॥ २६९ ॥ यः स्वयं त्वाददे सर्वसावद्यपरिहारतः । कर्माष्टकमहापङ्कशोपग्रीष्मातपं तपः ।। २७० ॥ व्रतात् प्रभृति नाथोऽसो, निःसङ्गो ममतोज्झितः । निराहारो विहरते, पादाभ्यां पावयन् महीम् ॥२७१॥ 30 सूर्यातपान्नोद्विजते, न च्छायामनुमोदते । तुल्य एवोभयत्रापि, स्वाम्ययं सानुमानिव ॥ २७२ ॥ न विरज्यत्यसो शीतादशीते च न रज्यति । वज्रकाय इव स्वामी, यत्र तत्राऽवतिष्ठते ॥ २७३ ॥ युगमात्रं दत्तदृष्टिरमँगन् कीटिकामपि । पादचारं करोत्येष, संसारकरिकेसरी ॥ २७४ ॥ प्रत्यक्षीकारनिर्देश्या, जगत्रितयदेवता । इह भाग्यवशादायात्ययं ते प्रपितामहः ।। २७५ ॥ गवामिवाऽनुगोपालं, धावतां स्वामिनं ह्यमुम् । असौ सकलपौराणां, कलः कलकलोऽधुना ॥ २७६ ॥ 35 * न्यवीवदन् खं, आ॥ । गृहाणानु सं 2, २॥ । रमृदन् सं १, खं ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथमं पर्व दृष्ट्वा स्वामिनमायान्तं युवराजोऽपि तत्क्षणम् । अधावत् पादचारेण, पत्तीनप्यतिलङ्घयन् ॥ २७७ ॥ छत्रोपानहमुत्सृज्य, युवराजेऽभिधाविनि । अच्छत्रोपानहा पर्पत्, तच्छायेवाऽन्वधावत ।। २७८ ॥ सम्भ्रमादुल्ललन् लोलकुण्डलो युवराड् बभौ । स्वामिनोऽग्रे पुनर्बाललीलामाकलयन्निव ।। २७९ ।। गृहाङ्गजुषो भर्चुलुठित्वा पादपङ्कजे । श्रेयांसोऽमार्जयत् केशै भ्रमर भ्रमकारिभिः ॥ २८० ॥ 5 स उत्थाय जगद्भर्तुर्विधाय त्रिः प्रदक्षिणाम् । ननाम पादौ हर्षाश्रुवारिभिः क्षालयन्निव ।। २८१ ।। सऊद्धभूय पुरतः स्वामिनो मुखपङ्कजम् । ईक्षाञ्चक्रे मुदा चन्द्रं, चकोर इत्र पार्वणम् ।। २८२ ।। ईदृशं क मया दृष्टं, लिङ्गमित्यभिचिन्तयन् । विवेकशाखिनो बीजं, जातिस्मरणमाप सः ॥ २८३ ॥ विवेद चैवं यत् पूर्वविदेहे चक्रवभृत् । भगवान् वज्रनाभोऽयं, जातोऽहं चाऽस्य सारथिः ॥ २८४ ॥ तस्मिन्नेव भवे भर्तुर्वज्रसेनाभिधः पिता । ईदृशं तीर्थकुल्लिङ्ग, धारयन्नीक्षितो मया ॥ २८५ ॥ 10 स्वामिनो वज्रसेनस्य, पादान्ते समुपाददे । वज्रनाभः परिव्रज्यामहमप्यस्य पृष्ठतः ।। २८६ ॥ अर्हतो वज्रसेनस्य, मुखादश्रौषमित्यहम् । भरते वज्रनाभोऽसौ भावी प्रथमतीर्थकृत् ॥ २८७ ॥ स्वयम्प्रभादींश्च भवान्, पर्याटममुना सह । अधुना वर्त्तते स्वामी, ममैष प्रपितामहः ।। २८८ ॥ दिष्ट्या दृष्टो मया नाथः, समग्रजगतामपि । अनुग्रहीतुं मामेप, साक्षान्मोक्ष इवाऽऽगतः ।। २८९ ।। अत्रान्तरे कुमारस्य, प्राभृते केनचिन्मुदा । नवेक्षुरससम्पूर्णा, ढोकयाञ्चक्रिरे घटाः ॥ २९० ॥ ततो विज्ञातनिर्दोषभिक्षादानविधिः स तु । गृह्यतां कल्पनीयोऽयं, रस इत्यवदद् विभुम् ।। २९१ ।। प्रभुरप्यञ्जलीकृत्य, पाणिपात्रमधारयत् । उत्क्षिप्योत्क्षिप्य सोऽपीक्षुरसकुम्भानलोठयत् ।। २९२ ।। भूयानपि रसः पाणिपात्रे भगवतो ममौ । श्रेयांसस्य तु हृदये, ममुर्न हि मुदस्तदा ।। २९३ ।। स्त्यानो नु स्तम्भितो न्वासीद्, व्योम्नि लग्नशिखो रसः। अञ्जलौ स्वामिनोऽचिन्त्यप्रभावाः प्रभवः खलु ॥ २९४ ॥ ततो भगवता तेन रसेनाऽकारि पारणम् । सुरासुरनृणां नेत्रैः पुनस्तद्दर्शनामृतैः ।। २९५ ॥ दिविदुन्दुभयो नेदुः प्रतिनादोन्मदिष्णवः । श्रेयांसश्रेयसां ख्यातिकरा वैतालिका इव ।। २९६ ।। रत्नवृष्टिरभूच्छ्रेयांसौकसि त्रिदिवौकसाम् । सममानन्दसम्भूतजननेत्राभ्रुवृष्टिभिः ॥ २९७ ॥ दिवो देवाः पञ्चवर्णपुष्पवृष्टिं वितेनिरे । पृथ्वीं पूजयितुमिव, स्वामिपादपवित्रिताम् ।। २९८ ।। सर्वामरद्रुकुसुमनिःस्यन्दैरिव सञ्चितैः । चक्रुर्गन्धाम्बुभिर्दृष्टि, त्रिविष्टपसदस्तदा ।। २९९ ॥ विदधानो दिवं दीव्यद्विचित्राभ्रमयीमिव । चेलोत्क्षेपः सुरनरैश्चक्रे चामरसोदरः || ३०० || 25 राधशुक्ल तृतीयायां, दानमासीत् तदक्षयम् । पर्वाक्षयतृतीयेति, ततोऽद्यापि प्रवर्तते ।। ३०१ || श्रेयांसोपज्ञमवनौ, दानधर्मः प्रवृत्तवान् । स्वाम्युपज्ञमिवाऽशेषव्यवहारनयक्रमः ॥ ३०२ ॥ स्वामिपारणकाद् देवसम्पाताच्चाऽथ विस्मिताः । राजानो नागराश्वान्येऽप्येयुः श्रेयांसवेश्मनि ॥ ३०३ ॥ ते च कच्छमहाकच्छादयः क्षत्रियतापसाः । आजग्मुरुद्दाममुदः, स्वामिपारणवार्त्तया ॥ ३०४ || राजानो नागराचाऽन्ये जना जानपदा अपि । पुलकोत्फुल्लवपुषः, श्रेयांसमिदमूचिरे ॥ ३०५ ॥ भो भोः कुमार ! धन्योऽसि, नृणामसि शिरोमणिः । यदिक्षुरस आहारः, स्वामिना ग्राहितस्त्वया ॥ ३०६ ॥ प्रदीयमानमस्माभिः सर्वस्वमपि नाऽऽत्तवान् । नाऽमन्यत तृणायाऽपि, प्रसन्नोऽस्मासु न प्रभुः ।। ३०७ ॥ संवत्सरमटन् स्वामी, ग्रामाकरपुराटवीः । कस्याप्यादत्त नाऽऽतिथ्यं धिगस्मान् भक्तमानिनः ॥ ३०८ ॥ दूरेऽस्तु वस्तुग्रहणं, दूरे वेश्मसु विश्रमः । अद्य यावन्न वाचाऽपि खामी नः समभावयत् ॥ ३०९ ॥ 15 ६८ 20 30 समुपात्तवान् सं १, खं ॥ १ श्रेयांस कल्याणानाम् । २ बन्दिनः । ३ वैशाख शुक्ल तृतीयायाम् । प्रथमं श्रेयांसेन प्रकटीकृतो दानधर्मः प्रवृत्तवान् । वान् । + मानवा खंता ॥ * ४ श्रेयांसोप ५ स्वाम्युपशं प्रथमं ऋषभस्वामिना प्रकटीकृतोऽशेषव्यवहारनयक्रमः प्रवृत्त Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । पुत्रवत् त्रातपूर्वी नः, पूर्वलक्षाण्यनेकशः । असंस्तव इवेदानी, प्रभुरस्मासु वर्तते ॥ ३१० ॥ श्रेयांसस्तानुवाचैवं, किमेवमभिधीयते ? । न ह्ययं पूर्ववत् स्वामी, परिग्रहपरो नृपः ।। ३११ ॥ इदानीं वर्तते भर्ता, भवावन्निवर्तितम् । कृतनिःशेषसावधव्यापारविरतियतिः ॥ ३१२॥ स्नानाङ्गरागनेपथ्यवस्त्राणि स्वीकरोति सः। यो भोगेच्छुः स्वामिनस्तु, तद्विरक्तस्य किं हि नः ? ॥ ३१३ ।। कन्यकाः स हि गृह्णाति, यः कामविवशो जनः। स्वामिनो जितकामस्य, कामिन्यः काममश्र्मवन ।।३१४।। 5 हस्त्यश्वादि स गृह्णाति, यो महीराज्यमिच्छति । भर्तुः संयमसाम्राज्यभाजस्तद्दग्धवस्त्रवत् ॥ ३१५ ॥ फलादिकं स गृह्णाति, सजीवं यो हि हिंसकः । स्वामी त्वखिलजन्तूनामसौं जीवाभयप्रदः ॥ ३१६ ॥ एषणीयं कल्पनीयं, प्रासुकं च जगत्पतिः । आदत्तेऽन्नादि तन्मुग्धा, भवन्तो न हि जानने ॥३१७ ॥ ऊचिरे युवराजं ते, स्वामिना ज्ञापितं पुरा । यत् किश्चिदपि शिल्पादि, तन्मात्रं जानने जनाः॥३१८॥ न ज्ञापितमिदं भर्चा, न जानीमस्ततो वयम् । त्वया पुनः कुतो ज्ञातमिति शंसितुमर्हसि ॥ ३१९ ॥ 10 ___ व्याजहार कुमारोऽपि, भगवदर्शनान्मम । जातिसरणमुत्पन्नं, धीरिव ग्रन्थदर्शनात् ॥ ३२० ॥ अमुना स्वामिना सार्द्धमष्टौ जन्मान्तराण्यहम् । भृत्यो ग्रामान्तराणीव, पर्याटं स्वर्गमय॑योः ॥ ३२१ ॥ इतो भवात् तृतीयस्मिन्नतिक्रान्तभवे प्रभोः। पिताऽभवद् वज्रसेनो, विदेहभुवि तीर्थकृत् ।। ३२२ ॥ तदन्तिके प्रवजितः, स्वामी पश्चादहं पुनः । तजन्मस्मरणादेतदज्ञायि सकलं मया ॥ ३२३ ॥ तथा मे तातपादानां, सुबुद्धिश्रेष्ठिनोऽपि च । त्रयाणामपि स्वमानां, प्रत्यक्षमधुना फलम् ॥ ३२४ ॥ 15 श्यामो मेरुर्मया दृष्टः, पयोभिः क्षालितश्च यत् । तपःक्षामः स हि स्वामीक्षुरसेः पारणादभात् ॥ ३२५ ॥ युध्यमानोऽरिभिर्यस्तु, राज्ञा दृष्टः प्रभुहि सः । मत्पारणकसानिध्यात्, पराजिग्ये परीपहान् ॥ ३२६ ॥ सुबुद्धिश्रेष्ठिना यञ्च, दृष्टमादित्यमण्डलात् । गोसहस्रं च्युतं न्यस्तं, मयाऽथाऽर्कोऽधिकं बभौ ॥ ३२७ ॥ आदित्यो भगवानेष, गोसहस्रं तु केवलम् । तद् भ्रष्टं पारणेनाऽद्य, मयाऽयोजि बभौ च सः॥ ३२८ ॥ एतच्छ्रुत्वा च ते सर्वे, श्रेयांसं साधु साध्विति । भाषमाणाः प्रमुदिताः, स्थानं निजनिजं ययुः ॥३२९॥ 20 कृतपारणकः स्वामी, श्रेयांससदनात् ततः । जगामाऽन्यत्र नैकत्र, तिष्ठेच्छमस्थतीर्थकृत् ॥ ३३० ॥ भगवत्पारणस्थानातिक्रम कोऽपि मा व्यधात । इति रत्नमयं तत्र, श्रेयांसः पीठमादधे ॥३३१॥ त्रिसन्ध्यमपि तद् रत्नपीठं भक्तिभरानतः । श्रेयांसः पूजयामास, साक्षात् पादाविव प्रभोः ॥ ३३२ ॥ किमेतदिति लोकेन, पृष्टः सोमप्रभात्मजः । आदिकृन्मण्डलमिदमिति तं शंसति स तत् ॥३३३ ॥ यत्र यत्र प्रभुर्भिक्षामग्रहीत् तत्र तत्र च । पीठं लोकोऽकृताऽऽदित्यपीठं तच्च क्रमादभूत् ॥ ३३४ ॥ 25 __ स्वामी सम्प्राप सायाहे, निकुञ्जमिव कुञ्जरः । बहलीमण्डले बाहुबलेस्तक्षशिलापुरीम् ॥ ३३५ ॥ तस्याश्च पहिरुद्याने, तस्थौ प्रतिमया प्रभुः । गत्वा च बाहुबलये, तदायुक्तैर्त्यवेद्यत ॥ ३३६ ॥ अथाऽऽदिक्षत् पुरारक्षं, मापतिस्तत्क्षणादपि । विचित्रं हट्टशोभादि, नगरे क्रियतामिति ॥ ३३७ ॥ पदे पदेऽभवद् रम्भास्तम्भतोरणमालिका । लम्बमानमहालुम्बिचुम्बिताध्वन्यमौलिका ॥ ३३८ ॥ मञ्चाः प्रतिपथं चासन् , रत्नभाजनभासुराः । विमानानीव भगवदर्शनायातनाकिनाम् ॥ ३३९ ॥ 30 अनिलान्दोलितोद्दामपताकामालिकाच्छलात् । पूँः सहस्रभुजीभूय, ननर्तेव मुदा तदा ॥ ३४० ॥ नव्यकुङ्कुमपानीयच्छटाभिरभितोऽप्यभूत् । सद्यो रचितमङ्गल्याङ्गरागेव वसुन्धरा ॥ ३४१॥ भगवदर्शनोत्कण्ठारजनीजानिसङ्गमात् । पुरं तदानीमुनिद्रमभूत् कुमुदषण्डवत् ॥ ३४२ ॥ प्रातः खं पावयिष्यामि, लोकं च स्वामिदर्शनात् । इतीच्छतो बाहुबले, साऽभून्मासोपमा निशा ॥३४३॥ तस्यामीपद्विभातायां, विभावर्या जगद्विभुः । प्रतिमां पारयित्वाऽगात् , क्वचिदन्यत्र वायुवत् ॥ ३४४ ॥ 35 रक्षितपूर्वी । २ अपरिचित इव । ३ संसाररूपजलावर्तात् । ४ पाषाणवत् । ५बहलीदेशे । * भूः सह सं॥ चन्द्र। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व प्रातश्च बद्धमुकुटैमहद्भिर्मण्डलेश्वरैः । भूयिष्टैरिव मार्तण्डेः, परितः परिवारितः ॥ ३४५॥ उपायानामिवाऽगारैरर्थशास्त्रैरिवाङ्गिभिः । शुक्राद्यैरिव भूयिष्ठैर्वरिष्ठंमत्रिभिर्वृतः ॥ ३४६ ॥ जगल्लञ्चनजङ्घालैर्लक्षसङ्खयैस्तुरङ्गमैः । गूढपक्षैः पक्षिराजैरिव विष्वग विराजितः ॥ ३४७॥ क्षरन्मदजलासारशमितक्षितिरेणुभिः । उत्तुङ्गैः शोभितो नागैर्नगैरिव सनिझरैः ॥ ३४८॥ वसन्तश्रीप्रभृत्यन्तःपुरस्त्रीभिः सहस्रशः । पातालकन्याभिरिवाऽसूर्यम्पश्याभिरावृतः ॥ ३४९ ॥ सचामराभ्यां च वारस्त्रीभ्यां सेवितपार्श्वकः । सराजहंसाभ्यां गङ्गायमुनाभ्यां प्रयागवत् ॥ ३५० ॥ धवलेनाऽऽतपत्रेणोपरिस्थेनातिहारिणा । राकानिशीथशशिना, सानुमानिव शोभितः ॥ ३५१॥ सुवर्णदण्डहस्तेन, प्रतीहारेण चाऽग्रतः । शोध्यमानपथो देवनन्दिना देवराडिव ॥ ३५२ ॥ अन्वीयमानोऽश्वारूढः, रत्नाभरणभूषितैः । पोरैरिभ्यैरसङ्ख्यातः, श्रीदेव्या इव पुत्रकैः ॥ ३५३ ॥ शिलोच्चयशिलापृष्ठमिव पञ्चाननो युवा । भद्रद्विपपतिस्कन्धमध्यारूढः सुरेन्द्रवत् ॥ ३५४ ॥ विराजमानः शिरसि, तरङ्गीभूतकान्तिना । रत्नमयकिरीटेन, चलयेवाऽमराचलः ॥ ३५५ ॥ बिभ्रन्मुक्ताकुण्डले च, वदनस्य श्रिया जितौ । सेवाकृते समायाता, जम्बूद्वीपविधू इव ॥ ३५६ ॥ स्थूलमुक्तामणिमयं, हारयष्टिं च धारयन् । हृदये मन्दिरे लक्ष्म्या, वप्रसब्रह्मचारिणम् ॥ ३५७ ॥ दोर्मूलयोर्दधानश्च, जात्यजाम्बूनदाङ्गदौ । दृढौ नवलतावेष्टाविवोच्चैर्भुजशाखिनोः ॥ ३५८ ॥ 15 मुक्तामणिमयो बिभ्रत्कङ्कणौ मणिबन्धयोः । लावण्यसरितस्तीरवर्तिफेनच्छटोपमौ ॥ ३५९ ॥ अङ्गुलीये च विभ्राणः, कान्तिपल्लविताम्बरे । मणी इवाऽनणीयांसौ, पाण्योः फणिफणश्रियोः ॥ ३६० ॥ चोलकेनाऽङ्गालग्नेन, सूक्ष्मश्वेतेन शोभितः । असंलक्ष्यविभेदेन, श्रीचन्दनविलेपनात् ॥ ३६१ ॥ चारुमन्दाकिनीवीचिनिचयस्पर्द्धिनी पटीम् । धारयन् परितो राकाचन्द्रमाश्चन्द्रिकामिव ॥ ३६२ ॥ विचित्रवर्णरुचिरेणाऽन्तरीयेण रोचितः । नानाधातूंपत्यकया, निषेवित इवाञ्चलः ॥ ३६३ ॥ 20 महाबाहुर्बाहुबलिः, पाणिभ्यां वर्तयन् शृणिम् । श्रीणामाकर्षणक्रीडां, कुटिकामुल्वणामिव ॥ ३६४॥ बन्दिवृन्दजयजयारावपूरितदिङ्मुखः । स्वामिपादपवित्रस्योपवनस्याऽन्तिकं ययौ ॥ ३६५ ॥ [एकविंशत्या कुलकम् ] अवरुह्य करिस्कन्धाद् , वैनतेय इवाऽम्बरात् । छत्रादिप्रक्रियां त्यक्त्वा, तदुद्यानं विवेश सः ॥३६६॥ व्योमेव चन्द्ररहितं, सुधाकुण्डमिवाऽसुधम् । तदस्वामिकमुद्यानमपश्यदृषभात्मजः ॥ ३६७ ॥ क्व नाम भगवत्पादा, नयनानन्ददायिनः? । इत्यपृच्छदतुच्छेच्छः, सर्वानुद्यानपालकान् ॥ ३६८॥ तेप्यूचुः किश्चिदप्यग्रे, यामिनीव ययौ विभुः । यावत् कथयितुं यामस्तावद् देवोऽप्युपाययौ ॥ ३६९ ।। हस्तविन्यस्तचिबुको, बाष्पायितविलोचनः । अथेदं चिन्तयामास, ताम्यंस्तक्षशिलापतिः॥ ३७० ॥ खामिनं पूजयिष्यामि, समं परिजनैरिति । मनोरथो मुधा मेऽभूद् , हृदि बीजमिवोपरे ॥ ३७१ ॥ चिरं कृतविलम्बस्य, लोकानुग्रहकाम्यया । धिगियं मम सा जज्ञे, स्वार्थभ्रंशेन मूर्खता ॥ ३७२॥ 30 धिगियं वैरिणी रात्रिर्धिगियं च मतिर्मम । अन्तरायकरी स्वामिपादपद्मावलोकने ॥ ३७३ ॥ विभातमप्यविभातं, भानुमानप्यभानुमान् । दृशावप्यदृशावेव, पश्यामि स्वामिनं न यत् ॥ ३७४ ॥ अत्र प्रतिमया तस्थौ, रात्रिं त्रिभुवनेश्वरः । अयं पुनर्बाहुबलिः, सौधे शेिते म निस्त्रपः ॥ ३७५ ॥ अथ बाहुबलिं दृष्ट्वा, चिन्तासन्तानसङ्कुलम् । उवाच सचिवो वाचा, शोकशल्यविशल्यया ॥३७६ ॥ १ वेगवद्भिः। २ पूर्णिमारात्रिचन्द्रेण । ३ इन्द्रप्रतीहारेण । ४ केशरी। * वराङ्गीभूत सं १॥ ५ जम्बूद्वीपस्थञ्चन्द्रौ इव। ६ जात्यसुवर्णकेयूरो। ७ महान्तौ । ८ पर्वतासमभूम्या। ९ अङ्कुशम् । + यारावपूरिताखिलदि आ ॥ १.महेछः। ११क्षारभूमौ । सुष्वाप नि आ, सं २॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । अत्र स्वामिनमायातं, नाऽपश्यमिति शोचसि । किं देव ! नित्यवास्तव्यः, स एव हृदि यस्य ते ? ॥३७७॥ कुलिशाङ्कुशचक्राब्जध्वजमत्स्यादिलाञ्छितेः । दृष्टैः स्वामिपदन्यासैदृष्टः स्वाम्येव भावतः ॥ ३७८ ॥ श्रुत्वेति स्वामिनस्तानि, पदविम्बानि भक्तितः । सान्तःपुरपरीवारः, सुनन्दासूरवन्दत ॥ ३७९ ॥ पदान्येतानि मा स्माऽतिक्रामत् कोऽपीति बुद्धितः । धर्मचक्रं रत्नमयं, तत्र बाहुबलिय॑धात् ॥ ३८० ॥ अष्टयोजनविस्तारं, तच योजनमुच्छ्रितम् । सहस्रारं बभौ बिम्बं, सहस्रांशोरिवाऽपरम् ॥ ३८१ ॥ 5 त्रिजगत्स्वामिनस्तस्य, प्रभावादतिशायिनः । सद्यस्तत्कृतमेवैक्षि, दुष्करं घुसदामपि ॥ ३८२ ॥ तत् तथाऽपूजयद् राजा, पुष्पैः सर्वत आहृतैः । समलक्षि यथा पौरैः, पुष्पाणामित्र पर्वतः ॥ ३८३ ॥ तत्र प्रवरसङ्गीतनाटकादिभिरुद्भटम् । नन्दीश्वरे शक्र इव, स चक्रेऽष्टाह्निकोत्सवम् ।। ३८४ ॥ आरक्षकानर्चकांश्च, तत्राऽऽदिश्य विशांपतिः । नमस्कृत्य च कृत्यज्ञो, जगाम नगरी निजाम् ।। ३८५ ।। __ भगवानप्यनायत्तः, समीरण इवाऽस्खलन् । नानाविधतपोनिष्ठो, विविधाभिग्रहोद्यतः ॥ ३८६॥ 10 यवनाडम्बइल्लादिम्लेच्छदेशेषु मौनभाक् । अनार्यान् भद्रकीकुर्वन् , दर्शनेनापि देहिनः ॥ ३८७॥ उपसगैरसंस्पृष्टः, सहमानः परीषहान् । सहस्रमेकं वर्षाणां, व्यहरद् दिनलीलया ॥ ३८८ ॥ अयोध्याया महापुर्याः, शाखानगरमुत्तमम् । ययौ पुरिमतालाख्यं, भगवानृषभध्वजः ॥३८९ ।। तस्य चोत्तरतो रम्यं, द्वितीयमिव नन्दनम् । उद्यानं शकटमुखं, नाम न्यविशत प्रभुः ॥ ३९० ॥ कृताष्टमतपास्तत्र, न्यग्रोधस्य तरोरधः । प्रतिमास्थोऽप्रमत्ताख्यं, गुणस्थानं प्रपन्नवान् ॥ ३९१ ॥ 15 ततश्चाऽपूर्वकरणमारूढः प्रत्यपद्यत । शुक्लध्यानं सवीचारं, पृथक्त्वेन वितर्कयुक् ॥ ३९२ ॥ प्राप्यानिवृत्तिं च सूक्ष्मसम्परायगुणं ततः । क्षणात् क्षीणकपायत्वं, प्रतिपेदे जगद्गुरुः ॥ ३९३ ॥ ऐक्यश्रुतमवीचारं, शुक्लध्यानं द्वितीयकम् । क्षणादासादयदथ, क्षीणमोहान्तिमक्षणे ॥ ३९४ ॥ पञ्च ज्ञानावरणानि, दृष्ट्यावृतिचतुष्टयम् । अन्तरायांश्च पञ्चेति, घातिशेषमनाशयत् ॥ ३९५ ॥ अथ व्रतात् सहस्राब्द्यां, फाल्गुनैकादशीदिने । कृष्णे तथोत्तराषाढास्थिते चन्द्रे दिवामुखे ॥ ३९६॥ 20 उत्पेदे केवलज्ञानं, त्रिकालविषयं विभोः । हस्तस्थितमिवाऽशेषं, दर्शयद् भुवनत्रयम् ॥३९७॥ [ युग्मम् ] दिशः प्रसेदुरभवन् , वायवः सुखदायिनः । नारकाणामपि तदा, क्षणं सुखमजायत ॥ ३९८ ॥ अथेन्द्राणामशेषाणामासनानि चकम्पिरे । तान् नोदितुमिव स्वामिकेवलोत्सवकर्मणे ॥ ३९९ ॥ प्रणेदुरिन्द्रलोकेषु, महाघण्टाः पटुखनाः । सद्यो दूत्य इव स्वस्वलोकाकारणकर्मणि ॥ ४००॥ यियासोः स्वामिपादान्ते, सौधर्माधिपतेः सुरः । ऐरावणो गजीभूय, चिन्तामात्रादुपास्थित ॥ ४०१॥25 विराजमानस्तन्वा स, लक्षयोजनमानया । दिक्षुः स्वामिनं मेरुरिव जङ्गमतां गतः ॥ ४०२ ॥ अङ्गप्रभाभिर्नीहारधवलाभिः समन्ततः । ककुभां चान्दनमिव, वितन्वानो विलेपनम् ॥ ४०३ ॥ गण्डस्थलगलद्दानजलैरतिसुगन्धिभिः। स्वर्गाङ्गणभुवं कुर्वन् , कस्तूरीस्तबकाङ्किताम् ॥ ४०४ ॥ कर्णतालैस्तालवृन्तैरिव लोलैर्निवारयन् । कपोलतलसम्पातिगन्धान्धमधुपावलीम् ॥ ४०५ ॥ कुम्भस्थलपराभूतबालमार्तण्डमण्डलः । आनुपूर्वीपीनवृत्तशुण्डानुकृतनागराद् ॥ ४०६॥ मध्वाभनेत्रदशनस्ताम्रपत्राभतालुकः । भम्भावृत्तशुभग्रीवः, पृथुगात्रान्तरालकः ॥ ४०७ ॥ अधिज्यीकृतधन्वाभपृष्ठवंशः कृशोदरः । चन्द्रमण्डलसङ्काशनखमण्डलमण्डितः ॥४०८ ।। सुगन्धिदीर्घनिश्वासश्चलदीर्घकराङ्गुलिः । दी!ष्ठपल्लवो दीर्घमेहनो दीर्घवालधिः॥४०९ ॥ घण्टाभ्यां पार्श्वयोश्चन्द्रार्काभ्यां मेरुरिवाङ्कितः । देवद्रुकुसुमावेष्टं, कक्षानाडी च धारयन् ॥ ४१० ॥ • दर्शनावरणचतुष्टयम्। *सहस्रकं फा खं ॥ २ सहस्रवर्षेषु गतेषु । ३ आह्वानकर्मणि। ४ मधुवर्णनेत्रदन्तः । ५ शुण्डामः। ६ दीर्घपुच्छः । 30 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व मुखान्यष्टौ हेमपट्टाश्चितभालानि तस्य च । बभुर्दिगष्टकरीणामिव विभ्रमभूमयः ॥ ४११॥ अष्टौ मुखे मुखे दन्तास्तिरश्चीनायतोन्नताः । दृढाश्चकाशिरे तस्य, महाद्रेरिव दन्तकाः ॥ ४१२ ॥ दन्ते दन्ते पुष्करिणी, स्वादुनिर्मलपुष्करा । गिरी वर्षधरे वर्षधरे इद इवाऽभवत् ॥ ४१३ ॥ पुष्करिण्यां पुष्करिण्यामष्टावम्भोरुहाणि च । अब्देवीभिः कृतानीव, मुखानि बहिरम्भसः ॥ ४१४ ॥ दलानि विपुलान्यष्टाम्भोरुहेऽम्भोरुहेऽपि च । क्रीडत्सुरस्त्रीविश्रामान्तरीपाणीच रेजिरे ।। ४१५ ॥ दले दलेऽष्टसङ्ख्यानि, नाटकानि विरेजिरे । चतुर्विधैरभिनयैः, सनाथानि पृथक् पृथक् ॥ ४१६ ॥ द्वात्रिंशदासन पात्राणि, नाटके नाटकेपि च । निर्झरा इव सुस्वादरसकल्लोलसम्पदः ॥ ४१७ ॥ वासवः सपरीवारस्तं वारणवरं ततः । अग्रासनेऽध्यारुरोह, कुम्भाग्रच्छन्ननाभिकः ।। ४१८ ॥ आसीनसपरीवारवासवो वारणाधिपः । सहसा सकलः कल्पः, सौधर्म इव सोऽचलत् ॥ ४१९ ॥ 10 क्षणादपि तदुद्यानमृषभखामिपावितम् । स पाप पालक इव, स्ववपुः सद्भिपन क्रमात् ॥ ४२० ।। इन्द्राः समं देवगणैरपरेऽप्यच्युतादयः । अहंपूर्विकयेवेयुस्तत्रोचैर्दधतस्त्वराम् ॥ ४२१ ॥ __इतः समवसरणस्याऽवनीमेकयोजनाम् । अमृजन वायुकुमाराः, स्वयं मार्जितमानिनः ॥ ४२२ ॥ गन्धाम्बुवृष्टिभिर्मेघकुमाराः सिषिचुः क्षितिम् । सुगन्धिवाष्पैः सोत्क्षिप्तधूपावैष्यतः प्रभोः ॥ ४२३ ॥ व्यन्तराः स्वर्णमाणिक्यरवाश्मभिरुदंशुभिः । आत्मानमिव भक्त्या तद्, बबन्धुर्वसुधातलम् ॥ ४२४ ॥ तत्राऽधोमुखवृन्तानि, प्रोद्गतानीव भूतलात् । पञ्चवर्णानि पुष्पाणि, सुगन्धीन्यकिरंच ते ॥ ४२५ ॥ तोरणानि विचक्रुश्च, रखमाणिक्यकाशनैः । चतसृष्वपि ते दिक्षु, तद्भूषाकण्ठिका इव ॥ ४२६ ॥ अन्योऽन्यदेहसङ्क्रान्तप्रतिबिम्बैर्षमासिरे । आलिङ्गिता इवाऽऽलीभिस्तत्रोच्चैः शालभजिकाः ॥ ४२७ ॥ स्निग्धेन्द्रनीलघटिता, मकरास्तेषु रेजिरे । प्रणश्यन्मकरकेतुत्यक्तकेतुभ्रमप्रदाः ॥ ४२८ ॥ भगवत्केवलज्ञानकल्याणभवया मुदा । हासा इव दिशां रेजुः, श्वेतच्छत्राणि तत्र च ॥ ४२९ ।। 20 ध्वजाश्च भेजिरे तत्र, भूदेव्याऽतिप्रमोदतः । उत्तम्भिता इव भुजाः, स्वयं नर्त्तितुकामया ॥ ४३० ॥ तोरणानामधस्तेषां, वलिपट्टेष्विवोच्चकैः । मङ्गलस्याऽष्ट चिह्नानि, स्वस्तिकादीनि जज्ञिरे ॥ ४३१ ॥ तत्रोपरितनं वर्ग, विमानपतयो व्यधुः । रत्नमयं रत्नगिरेराहृतां मेखलामिव ।। ४३२ ॥ नानामणिमयान्यासन् , कपिशीर्षाणि तत्र च । अंशुभिः सूत्रयन्ति यां, चित्रवर्णाशुकामिव ॥ ४३३ ॥ मध्यभागे पुनः स्वाङ्गज्योतिभिरिव पिण्डितैः । प्राकारं कनकैयॊतिष्पतयस्तत्र चक्रिरे ॥ ४३४ ॥ स्नैर्विरचयामासुः, कपिशीर्षाणि तत्र च । सुरासुरवधूवक्ररत्नादायितानि ते ॥ ४३५ ॥ रूप्यवप्रश्च भवनपतिभिस्तद्वहिष्कृतः । भक्तितो मण्डलीभूत, इव वैताठ्यपर्वतः ॥ ४३६ ॥ तस्योपरि विशालानि, कपिशीर्षाणि जज्ञिरे । सौवर्णान्यम्बुजानीव, दिविषद्दीर्घिकाजले ॥ ४३७ ॥ भवनाधिपतिज्योतिष्पतिवैमानिकश्रियाम् । एकैककुण्डलेनेव, सा त्रिवग्रीकृता बभौ ॥ ४३८ ॥ माणिक्यतोरणास्तत्र, पताकामालभारिणः । रश्मिजालैर्विरचितान्यपताका इवाऽभवन् ॥ ४३९ ॥ 30 प्रतिवणं च चत्वारि, गोपुराणि चकाशिरे । चतुर्विधस्य धर्मस्य, क्रीडावातायना इव ॥ ४४०॥ इन्द्रनीलमणिस्तम्भायितधूमलतामुचः । द्वारे द्वारे धूपघव्योमुच्यन्त व्यन्तरामरैः ॥ ४४१॥ प्रतिद्वारं विचके तैर्वापी काञ्चनपङ्कजा । समवसरणवप्र, इव द्वारचतुष्कभृत् ॥ ४४२ ॥ प्राकारस्य द्वितीयस्याऽन्तरे चोत्तरपूर्वतः । देवच्छन्दं विचक्रुस्ते, स्वामिविश्रामहेतवे ॥ ४४३ ॥ तत्र प्रथमवप्रस्य, द्वास्थौ प्रारद्वारि तस्थतुः । स्वर्णवर्णावुभयतो, वैमानिकदिवौकसौ ॥ ४४४ ॥ १ अन्तरद्वीपाणीव । * °कान्यभिनिन्यिरे सं २, आ॥ २ पुष्पबन्धनस्थानानि । ३ पुत्तलिकाः। स्वामिप्रभा. प्रणश्यन्मकरकेतुभ्रम सं.॥ ३ समवसरणभूमिः। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ तृतीयः सर्गः] त्रिपष्टिशलाकापुरुपचरितम् । तस्यैव दक्षिणद्वारपार्श्वयोर्द्वारपालको । प्रतिबिम्बे इवाऽन्योऽन्यस्याऽस्थानां व्यन्तरौ सितौ ॥ ४४५ ॥ अभितः पश्चिमद्वार, ज्योतिष्को द्वारपालकौ । रक्तवर्णी वितष्ठाते, सायमिन्दुरखी इव ।। ४४६ ।। तस्थतुश्च प्रतीहारावुत्तरद्वारपार्श्वयोः । भवनाधिपती कृष्णो, मेघाविव समुन्नतो ॥ ४४७ ॥ द्वितीयवप्रद्वारेषु, प्राक्क्रमेण चतुर्वपि । सर्वा अप्यभयपाशाङ्कुशमुद्गरपाणयः ॥ ४४८ ।। देव्यो जया च विजया, चाऽजिता चाऽपराजिता । तस्थुश्चन्द्राश्मशोणाश्मस्वर्णनीलत्विषः क्रमात् ॥ 5 अन्त्यवप्रे प्रतिद्वारं, तस्थौ द्वास्थस्तु तुम्बुरुः । खट्वाङ्गी नृशिरःस्रग्वी, जटामुकुटमण्डितः ॥ ४५० ॥ मध्ये समवसरणं, चैत्यद्रुच्यन्तरेः कृतः। कोशत्रयोदयो रत्नत्रयोदयमिवोद्दिशन ॥४५१॥ तस्याऽधो विविधै रत्नैः, पीठं विदधिरे च ते । तस्योपरि च्छन्दकं चाऽप्रतिच्छन्दमणीमयम् ॥ ४५२ ॥ तन्मध्ये पूर्वदिग्भागे, रत्नसिंहासनं ततः । सपादपीठं ते चक्रुः, सारं सर्वश्रियामिव ॥ ४५३ ॥ तस्योपरि विचके च, तैश्छत्रत्रयमुज्ज्वलम् । स्वामिनस्त्रिजगत्स्वाम्यचिह्नत्रयमिवोच्चकैः ॥ ४५४॥ 10 यक्षाभ्यां तत्र दधाते, पार्श्वयोश्चामरौ शुची । हृद्यमान्तौ बहिर्भूतौ, स्वामिभक्तिभराविव ॥ ४५५ ॥ ततः समवसरणद्वारे हेमाम्बुजस्थितम् । अत्यद्भुतप्रभाचक्र, धर्मचक्र विचक्रिरे ॥ ४५६ ॥ तत्राऽन्यदपि यत् कृत्यं, तत् सर्व व्यन्तरा व्यधुः । साधारणे हि समवसरणे तेऽधिकारिणः ॥ ४५७॥ चतुर्विधानां देवानामथ कोटीभिरावृतः । भगवान् समवसत्तुं, प्रचचाल दिवामुखे ॥ ४५८ ॥ सहस्रपत्राण्यम्जानि, सौवर्णानि तदा नव । विदधुर्निदधुश्चाऽग्रे, क्रमेण स्वामिनः सुराः ॥४५९ ॥ 15, विदधे तेषु च स्वामी, पादन्यासं द्वयोर्द्वयोः । पुरः सञ्चारयामासुराशु शेषाणि नाकिनः ।। ४६० ॥ पूर्वद्वारेण समवसरणं प्राविशत् ततः । चक्रे च चैत्यवृक्षस्य, जगन्नाथः प्रदक्षिणाम् ॥ ४६१ ॥ तीर्थं नत्वा प्रामुखोऽथ, जगन्मोहतमश्छिदे । स्वामी सिंहासनं भेजे, पूर्वाचलमिवार्यमा ॥ ४६२॥ रत्नसिंहासनस्थानि, दिक्ष्वन्याखपि तत्क्षणम् । भगवत्प्रतिबिम्बानि, व्यन्तरास्त्रीणि चक्रिरे ॥ ४६३ ॥ देवाः प्रभोः सदृग्रूपमङ्गुष्ठस्याऽपि न क्षमाः । कर्तुं ताशि तान्यासन् , पुनः स्वामिप्रभावतः॥४६४ ॥ 20 आविर्बभूवाऽनुशिरस्तदा भामण्डलं विभोः । खद्योतपोतवद् यस्य, पुरो मार्तण्डमण्डलम् ॥ ४६५ ॥ प्रतिध्वानैश्चतस्रोऽपि, दिशो मुखरयन् भृशम् । अम्भोद इव गम्भीरो, दिवि दध्वान दुन्दुभिः ॥ ४६६ ।। भगवानेक एवाऽयं, स्वामीत्यूर्वीकृतो भुजः । धर्मेणेव प्रभोरग्रे, रेजे रत्नमयध्वजः ॥ ४६७ ॥ प्रविश्य पूर्वद्वारेण, कृत्वा च त्रिः प्रदक्षिणाम् । तीर्थनाथं च तीर्थ च, नत्वा प्राकार आदिमे ॥४६॥ स्थानं विहाय साधूनां, साध्वीनां च तदन्तरे। पूर्वदक्षिणदिश्यास्तस्थुर्वैमानिकस्त्रियः॥४६९॥ [ युग्मम् ] 25 प्रविश्याऽपाच्यद्वारेण, विधिना तेन नैर्ऋते । क्रमेणाऽस्थुवनेशज्योतिष्कव्यन्तरस्त्रियः ॥ ४७०॥ प्रविश्य प्रत्यग्द्वारात् प्राग, विधिपूर्व मरुद्दिशि । अतिष्ठन् भवनपतिज्योतिष्कव्यन्तराः सुराः ।। ४७१ ॥ प्रविश्योदीच्यद्वारेण, तेनैव विधिना क्रमात् । ऐशान्यां कल्पदेवाश्च, नरा नार्योऽवतस्थिरे ॥ ४७२ ॥ तत्राऽऽदावागतोऽल्पर्द्धिरागच्छन्तं महर्द्धिकम् । नमति साऽऽगतं तु प्राग्, नमन्नेव जगाम च ॥४७३ ॥ नियत्रणा तत्र नैव, विकथा न च काचन । विरोधिनामपि मिथो, न मात्सर्य भयं न च ॥ ४७४॥ 30 द्वितीयस्य तु वप्रस्य, तिर्यञ्चस्तस्थुरन्तरे । वाहनानि तृतीयस्थ, प्राकारस्य तु मध्यतः ॥ ४७५ ॥ प्राकारस्य तृतीयस्य, बाह्यदेशेऽभवन् पुनः । विशन्तः केपि निर्यान्तः, केपि तिर्यग्नरामराः ॥ ४७६ ॥ ___ अथ सौधर्मकल्पेन्द्रो, नमस्कृत्य कृताञ्जलिः । रोमाञ्चितो जगन्नाथमिति स्तोतुं प्रचक्रमे ॥ ४७७॥ स्वामिन् ! क धीदरिद्रोऽहं, क च त्वं गुणपर्वतः । अभिष्टोष्ये तथाऽपि त्वां, भक्याऽतिमुखरीकृतः॥४७८॥ श्वेतवौँ । २ खट्टाकायुषधारी। ३ मुण्डमाली। उच्छ्रयः। ५ अप्रतिममणिमयम् । सुवर्णकमकस्थितम् । * °वाऽनुवपुस्तदा आ॥ ७ पतङ्गशिशुवत् । ८ दक्षिणद्वारेण । ९ वायन्यदिशि। १० उत्तरद्वारेण । त्रिषष्टि, १० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व अनन्तैर्दर्शनज्ञानवीर्यानन्दैर्जगत्पते! । रत्नै रत्नाकर इव, त्वमिहैको विराजसे ॥ ४७९ ॥ देवेह भरतक्षेत्रे, चिरं नष्टस्य सर्वथा । धर्मस्याऽसि प्ररोहाय, वीजमेकं तरोरिव ॥ ४८० ॥ अनुत्तरसुराणां त्वं, तत्रस्थानामिह स्थितः । वेत्सि छिनत्सि सन्देहं, न माहात्म्यावधिस्तव ॥४८१॥ फलं त्वद्भक्तिलेशस्य, निवासः स्वर्गभूमिषु । यत् सुराणां समग्राणां, महर्द्धिद्युतिभास्वताम् ॥ ४८२ ॥ देव ! त्वद्भक्तिहीनानां, तपांस्यतिमहान्त्यपि । अबोद्धणामिव ग्रन्थाभ्यासः क्लेशाय केवलम् ॥ ४८३ ॥ यस्त्वां स्तवीति यो द्वेष्टि, समस्त्वमुभयोस्तयोः । शुभाशुभं फलं किन्तु, भिन्नं चित्रीयते हि नः ॥४८४॥ द्युश्रियाऽपि न तोषो मे, नाथ! नाथाम्यदस्ततः । भगवन् ! भूयसी भूयात् , त्वयि भक्तिर्ममाऽक्षया ।।४८५॥ इत्यभिष्टुत्य नत्वा च, निषसाद कृताञ्जलिः । नारीनरनरदेवदेवानामग्रतो हरिः ॥ ४८६ ॥ इतोऽपि च विनीतायां, विनीतो भरतेश्वरः । आजगाम नमस्कर्तु, मरुदेवां दिवामुखे ॥४८७॥ 10 तनूजविरहोद्भूतैरश्रान्तैरवारिभिः । जातनीलिकया लुप्तलोचनाब्जां पितामहीम् ॥ ४८८ ॥ ज्येष्ठः पौत्रो नमत्येष, देवि! त्वत्पादपङ्कजे । स्वयं विज्ञपयन्नेवं, भरतः प्रणनाम ताम् ॥४८९॥ [युग्मम्] स्वामिनी मरुदेवापि, भरतायाऽऽशिषं ददौ । हृद्यमान्तीं शुचमिव, गिरमित्युजगार च ।। ४९० ॥ मां त्वां महीं प्रजां लक्ष्मी, विहाय तृणवत् तदा । एकाकी गतवान् वत्सो, दुर्मरा मरुदेव्यहो! ॥४९१॥ सूनोश्चन्द्रातपच्छायमातपत्रं क मूर्द्धनि ? । सर्वाङ्गसन्तापकरः, क्वेदानीं तपनातपः ? ॥ ४९२ ॥ 15 सलीलगतिभिर्यानैर्यानं हस्त्यादिभिः क तत् ? | वत्सस्य पादचारित्वं, क्वेदानी पथिकोचितम् ? ॥४९३॥ क तद् वारवधूत्क्षिप्तचारुचामरवीजनम् ? । मत्सूनोः क्वाऽधुना दंशमशकाद्यैरुपद्रवः ? ॥ ४९४ ॥ व तद् देवसमानीतदिव्याहारोपजीवनम् ? । क भिक्षाभोजनं तस्याऽभोजनं वाऽपि सम्प्रति ? ॥ ४९५ ॥ रत्नसिंहासनोत्सङ्गे, महर्द्धः क्व तदासनम् ? । मत्सूनोः खगिन इव, व निरासनताऽधुना ? ॥ ४९६ ॥ आरक्षरात्मरक्षश्च, रक्षिते व पुरे स्थितिः ? । सूनोः क्व वासः सिंहाहिदुःश्वापदपदे बने ? ॥ ४९७ ॥ 20 क तद् दिव्याङ्गनागीतं, कर्णामृतरसायनम् ? । सूनोः कोन्मत्तफेरुण्डफेत्काराः कर्णसूचयः ॥ ४९८ ॥ अहो ! कष्टमहो ! कष्टं, यन्मे सूनुस्तपात्यये । पद्मखण्ड इव मृदुः, सहते वारिविद्रवम् ॥ ४९९ ॥ हिमत्तौं हिमसम्पातसंक्लेशविवशां दशाम् । अरण्ये मालतीस्तम्ब, इव याति निरन्तरम् ॥ ५०० ॥ उष्ण वुष्णकिरणकिरणैरतिदारुणैः । सन्तापं चाऽनुभवति, स्तम्बेरम इवाऽधिकम् ॥ ५०१ ॥ तदेवं सर्वकालेषु, वनेवासी निराश्रयः । पृथग्जन इवैकाकी, वत्सो मे दुःखभाजनम् ॥ ५०२ ॥ 25 तत्तदुःखाकुलं वत्सं, पश्यन्त्यग्रे दृशोरिव । वदन्ती नित्यमप्येवं, हा ! त्वामपि दुनोम्यहम् ॥५०३॥ इति दुःखाकुलां देवीं, मरुदेवीमुदञ्जलिः । वाचाऽवोचन्नवसुधासधीच्या वसुधाधवः ॥ ५०४ ॥ स्थैर्याद्रेर्वज्रसारस्य, महासत्त्वशिरोमणेः । तातस्य जननी भूत्वा, किमेवं देवि ! ताम्यसि ? ॥ ५०५ ॥ तातस्तरीतुं सहसा, संसाराम्भोधिमुद्यतः । कण्ठबद्धशिलाप्रायान, स्थाने तत्याज नः प्रभुः॥५०६॥ वने विहरतो भर्तः, प्रभावाच्छापदा अपि । नोपदवं कर्तमलं. पाषाणघटिता इव ॥ ५०७॥ 30 क्षुत्पिपासातपप्राया, दुःसहा ये परीषहाः । सहायाः खलु तातस्य, ते कर्मद्वेषिसूदने ॥ ५०८ ॥ न चेत् प्रत्येषि मद्वाचा, प्रत्येष्यसि तथाऽपि हि । तातस्य न चिराजातकेवलोत्सववार्त्तया ॥ ५०९ ॥ अत्रान्तरे महीभर्तुओपितौ वेत्रपाणिना । नाम्ना यमक-शमको, पुरुषावभ्युपेयतुः ॥ ५१० ॥ प्रणम्य यमकस्तत्र, भरतेशं व्यजिज्ञपत् । दिष्ट्याऽद्य वर्धसे देवाऽनया कल्याणवार्तया ॥ ५११ ॥ पुरे पुरिमतालाख्ये, कानने शकटानने । युगादिनाथपादानामुदपद्यत केवलम् ॥ ५१२ ॥ 35 प्रणम्य शमकोऽप्युच्चैःवरमेवं व्यजिज्ञपत् । इदानीमायुधागारे, चक्ररत्नमजायत ॥ ५१३ ॥ अधुजलैः। २ नेत्ररोगविशेषः । ३ गण्डकाख्यपशोः। ४ जलोपद्रवम्। ५ ग्रीष्मत्तौं । ६ अस्मान् । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः ] त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरितम् । उत्पन्नकेवलस्तात, इतश्चक्रमितोऽभवत् । आदौ करोमि कस्याऽचमिति दध्यौ क्षणं नृपः ॥ ५१४ ॥ व विश्वाभयदस्तातः ?, क्व चक्रं प्राणिघातकम् ? । विमृश्येति स्वामिपूजाहेतोः खानादिदेश सः ।। ५१५ ।। यथोचितमथो दवा, पुष्कलं पारितोषिकम् । विससर्ज नरेन्द्रस्तौ, मरुदेवामुवाच च ।। ५१६ ।। देवि! त्वं सर्वदाऽपीदमादिक्षः करुणाक्षरम् । भिक्षाहारो यदेकाकी, वत्सो मे दुःखभाजनम् ॥५१७॥ त्रैलोक्यस्वामिताभाजः, स्वसनोस्तस्य सम्प्रति । पश्य सम्पदमित्युक्त्वाऽऽरोहयामास तां गजे ।। ५१८ ।। 5 सुवर्णवज्रमाणिक्यभूषणैस्तुरगैर्गजैः । पत्तिभिः स्यन्दनैर्मूर्त्त श्रीमयैः सोऽचलत् ततः ॥ ५१९ ॥ सैन्यैर्भूषणभाःपुञ्जकृतजङ्गमतोरणैः । गच्छन् दूरादपि नृपोऽपश्यद् रत्नध्वजं पुरः || ५२० ॥ मरुदेवामथाऽवादीद्, भरतः परतो ह्यदः । प्रभोः समवसरणं, देवि ! देवैर्विनिर्मितम् ।। ५२१ ॥ अयं जयजयारावतुमुलस्त्रिदिवौकसाम् । श्रूयते तातपादाब्जसेवोत्सवमुपेयुषाम् ॥ ५२२ ॥ गम्भीरमधुरं मातर्दिव्ययं दुन्दुभिर्नदन् । तनोति हृदयानन्दं, वैतालिक इव प्रभोः ॥ ५२३ ॥ स्वामिपादाब्जवन्दारुवृन्दारकविमानभूः । अनणुः किङ्किणीनादः, श्रवणातिथिरेष नः ॥ ५२४ ॥ स्वामिदर्शनहृष्टानां, क्ष्वेडानादो दिवौकसाम् । स्तनितं स्तनयिलूनामिवैष श्रूयते दिवि ।। ५२५ ॥ गन्धर्वाणामियं गीतिग्रमरागपवित्रिता । स्वामिवाचो भुजिष्येव, पुष्यत्यानन्दमद्य नः ।। ५२६ ।। | शृण्वत्यास्तत् ततो देव्या, मरुदेव्या व्यलीयत । आनन्दाश्रपयः पूरैः पङ्कवन्नीलिका दृशोः ||५२७|| साऽपश्यत् तीर्थकुलक्ष्मी, सूनोरतिशयान्विताम् । तस्यास्तद्दर्शनानन्दात्, तन्मयत्वमजायत ।। ५२८ ॥ 15 साssरुह्य क्षपकश्रेणिमपूर्वकरणक्रमात् । क्षीणाष्टकर्मा युगपत्, केवलज्ञानमासदत् ॥ ५२९ ॥ करिस्कन्धाधिरूढैव, स्वामिनी मरुदेव्यथ । अन्तकृत्केवलित्वेन, प्रपेदे पदमव्ययम् ॥ ५३० ॥ एतस्यामवसर्पिण्यां, सिद्धोऽसौ प्रथमस्ततः । सत्कृत्य तद्वपुः क्षीरनीरधौ निदधेऽमरैः ॥ ५३१ ॥ तदादि च प्रववृते, लोके मृतकपूजनम् । यत् कुर्वन्ति महान्तो हि तदाचाराय कल्पते ।। ५३२ ।। ततो विज्ञाततन्मोक्षो, हर्ष- शुग्भ्यां समं नृपः । अभ्रच्छायाऽर्कतापाभ्यां शरत्काल इवाऽऽनशे ॥ ५३३ || 20 सन्त्यज्य राज्यचिह्नानि, पदातिः सपरिच्छदः । उदग्द्वारेण समवसरणं प्रविवेश सः ॥ ५३४ ॥ चतुर्भिर्देवनिकायैः, स्वामी परिवृतस्तदा । ददृशे भरतेशेन, दृक्चकोरनिशाकरः ।। ५३५ ।। विश्व प्रदक्षिणीकृत्य, भगवन्तं प्रणम्य च । मूर्ध्नि बद्धाञ्जलिः स्तोतुमिति चत्री प्रचक्रमे ॥ ५३६ ॥ जयाsखिलजगन्नाथ !, जय विश्वाभयप्रद ! | जय प्रथमतीर्थेश !, जय संसारतारण ! ।। ५३७ ॥ अद्याऽवसर्पिणीलोकपद्माकरदिवाकर ! । त्वयि दृष्टे प्रभातं मे, प्रनष्टतमसोऽभवत् ।। ५३८ ॥ तेषां दूरे न लोकाग्रं, कारुण्यक्षीरसागर ! । समारोहन्ति ये नाथ !, त्वच्छासनमहारथम् ।। ५३९ ।। लोकाग्रतोऽपि संसारमग्रिमं देव ! मन्महे । निष्कारणजगद्वन्धुर्यत्र साक्षात् त्वमीक्ष्यसे ॥। ५४० ॥ त्वदर्शनमहानन्दस्यन्दनिष्यन्दलोचनैः । स्वामिन् ! मोक्षसुखास्वादः, संसारेऽप्यनुभूयते ॥ ५४१ ॥ रागद्वेषकषायाद्यै, रुद्रं जगदरातिभिः । इदमुद्वेष्यते नाथ !, त्वयैवाऽभयसत्रिणा ।। ५४२ ॥ नानावस्कन्दसङ्ग्रामहतग्रामभुवो मिथः । मित्रीभूयेह तिष्ठन्ति राजानस्तव पर्षदि ॥ ५४३ ॥ त्वत्पद्ययमायातः, करंटी करटस्थलीम् । करेण केसरिकरं, कृष्ट्वा कण्डूयते मुहुः ॥ ५४४ ॥ इतश्व महिषमिव, महिषोऽयं मुहुर्मुहुः । स्नेहतो जिह्वया मार्ष्टि, हेषमाणमिमं हयम् ॥ ५४५ ॥ लीलालोलितलाङ्गूल, उत्कर्णोन्नमिताननः । घ्राणेन व्याघ्रवदनं जिघ्रत्ययमितो मृगः ॥ ५४६ ॥ पार्श्वयोरग्रतः पश्चाल्ललन्तं निजपोतवत् । अयं तरुणमार्जारः समाश्लिष्यति मूषकम् ॥ ५४७ ॥ हृदि खंता ॥ ५ गजः । " १ मूर्तिमलक्ष्मीमयैः । २ महान् । * किङ्कणीना खंता ॥ ३ कर्णगोचरः । ४ सिंहनादः । ६ शब्दं कुर्वाणम् । । मूषिकम् खं, सं २, मूषिकाम् आ ॥ ७५ 10 25 30 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व अयं च निर्भयो भोगं, कुण्डलीकृत्य कुण्डली । अदबभ्रोरभ्यणे, निषीदति वयस्यवत् ॥ ५४८ ॥ देव! ये केचिदन्येऽपि, जीवाः शाश्वतवैरिणः । निर्वैरास्तेऽत्र तिष्ठन्ति, त्वत्प्रभावोऽसमो ह्ययम् ॥५४९ ॥ इति स्तुत्वा जगन्नाथमपक्रम्याऽऽश्रितक्रमः । निषसाद महीनाथो, छुसन्नाथस्य पृष्ठतः ॥ ५५० ॥ क्षेत्रे योजनमात्रेऽपि, सत्त्वानां कोटिकोटयः । ममुस्तसिन् निराबाधं, तीर्थनाथप्रभावतः ॥५५१ ॥ अभुओंजनगामिन्या, सर्वभाषास्पृशा गिरा । पञ्चत्रिंशदतिशयजुषेमां देशनां व्यधात् ॥ ५५२ ।। आधिव्याधिजरामृत्युज्वालाशतसमाकुलः । प्रदीप्तागारकल्पोऽयं, संसारः सर्वदेहिनाम् ॥ ५५३ ॥ न युज्यते तद् विदुषः, प्रमादोत्र मनागपि । कः प्रमाद्यति बालोऽपि, निशोल्लङ्घन्थे मरुस्थले ? ॥५५४ ॥ संसाराधाविहाऽनेकयोन्यावर्ताकुले जनैः । दुर्लभं मानुषं जन्म, महारत्नमिवोत्तमम् ॥ ५५५ ॥ परलोकसाधनेन, मानुष्यमपि देहिनाम् । पादपो दोहदेनेव, सफलीभवति ध्रुवम् ॥ ५५६ ॥ 10 आपातमात्रमधुराः, परिणामेऽतिदारुणाः । शठवाच इवाऽत्यन्तं, विषया विश्ववञ्चकाः ॥ ५५७ ॥ पदाथोनामशेषाणां, संसारोदरवर्तिनाम् । संयोगा विप्रयोगान्ताः, पतनान्ता इवोच्छ्रयाः। आयुर्धनं यौवनं च, स्पर्द्धयेव परस्परम् । सत्वरं गत्वराण्येव, संसारेऽस्मिन् शरीरिणाम् ॥ ५५९ ॥ 'संसारस्याऽस गतिषु, चतसृष्वपि जातुचित् । नाऽस्त्येव सुखलेशोऽपि, स्वादु नीरं मराविव ॥ ५६० ।। तथाहि क्षेत्रदोषेण, परमाधार्मिकैरपि । मिथवाऽऽक्लिश्यमानानां, नारकाणां कुतः सुखम् ? ॥ ५६१ ॥ 15 शीतवातातपाम्भोभिर्वधबन्धक्षुदादिभिः । विविधं वाध्यमानानां, तिरश्चामपि किं सुखम् ? ॥ ५६२॥ गर्भवासजनिव्याधिजरादारिद्यमृत्युजैः । क्रोडीकूतानामसुखैर्मनुष्याणां कुतः सुखम् ? ॥ ५६३ ॥ अन्योऽन्यमत्सरामर्षकलहच्यवनाऽसुखैः । सुखलेशोऽपि नैवाऽस्ति, कदाचिद् घुसदामपि ॥ ५६४ ॥ अज्ञानाजन्मिनो भूयो, भूयः संसारसम्मुखम् । तथापि परिसर्पन्ति, नीचाभिमुखमम्बुक्त् ॥ ५६५ ॥ -तद् भव्यातनावन्तो, निजेनाऽनेन जन्मना । मा पोषयत संसारं, दुग्धेनेव भुजङ्गमम् ॥ ५६६ ॥ 20 संसारवासजं दुःखं, विचार्य तदनेकधा । सर्वात्मनाऽपि मोक्षाय, यतध्वं हे विवेकिनः! ॥५६७ ॥ गर्भवासथवं दुःखं, नरकाऽसुखसन्निभम् । संसारवन्न मोक्षेऽस्ति, जीवानां हन्त ! जातुचित् ॥५६८॥ घटीमध्याकृष्यमाणनारकार्तिसहोदरा । नेह प्रसवजन्माऽपि, जायते जातु वेदना ॥ ५६९ ॥ बहिरन्त परिक्षिप्तशल्यतुल्या भवन्ति च । नाऽऽधयो व्याधयो नापि, तत्र बाधानिबन्धनम् ॥ ५७० ॥ अग्रदूखी कूतान्तस्य, तेजःसर्वखतस्करी । पराधीनत्वजननी, न जरा तत्र सर्वथा ॥ ५७१॥ 25 सञ्जायते नारकिकतियेग्नुधुसदामिव । न तत्र मरणं भूयो, भवभ्रमणकारणम् ॥ ५७२ ॥ किन्तु तत्र महानन्दं, मुखमद्वैतमव्ययम् । रूपं च शाश्वतं ज्योतिः, केवलालोकभास्करम् ॥ ५७३ ।। स च सम्प्राप्यते मोक्षः, शीलयद्भिर्निरन्तरम् । ज्ञानदर्शनचारित्ररत्नत्रितयमुज्वलम् ॥ ५७४ ॥ तत्र जीवादितत्त्वानां, सझेपाद् विस्तरादपि । यथावदवबोधो यः, सम्यग्ज्ञानं तदुच्यते ॥ ५७५ ॥ मतिश्रुताऽवधिमक पर्यायैः केवलेन च । अमीभिः सान्वयैर्भेदैस्तत् तु पञ्चविधं मतम् ॥ ५७६ ॥ 30 अवग्रहादिभिभिवं, बह्वायैस्तिरैरपि । इन्द्रियानिन्द्रियभवं, मतिज्ञानमुदीरितम् ॥ ५७७ ॥ विस्तृतं बहुधा पूरङ्गोपाङ्गः प्रकीर्णकैः । स्थाच्छब्दलाञ्छितं ज्ञेयं, श्रुतज्ञानमनेकधा ॥ ५७८ ॥ देवनैरयिकागां स्यादवधिर्भवसम्भकः । षड्विकल्पस्तु शेषाणां, क्षयोपशमलक्षणः ॥ ५७९ ॥ ऋजुर्विपुल इत्येवं, स्यान्मनःपर्ययो द्विधा । विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां, तद्विशेषोऽवगम्यताम् ॥ ५८० ॥ अशेषद्रव्यपर्यायविषयं विश्वलोचनम् । अनन्तमेकमत्यक्षं, केवलज्ञानमुच्यते ॥ ५८१ ॥ । सर्पः । २ महानकुलस्म । * संयोगाः स्युर्वियोगान्ताः सं॥ + अयं श्लोकः पा. पुस्तके न दृश्यते । ३ जन्तोः। ४ अङ्कस्थापितानाम्। - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ तृतीयः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । रुचिः श्रुतोक्ततत्त्वेषु, सम्यश्रद्धानमुच्यते । जायते तनिसर्गेण, गुरोरधिगमेन वा ॥ ५८२ ॥ तथाधनाधन्तमवावर्त्तवर्तिषु देहिषु । ज्ञानदृष्ट्यावृतिवेद्यान्तरायाभिधकर्मणाम् ॥ ५८३ ॥ सागरोपमकोटीनां, कोट्यस्त्रिंशत् परा स्थितिः । विंशतिर्गोत्रनाम्नोथ, मोहनीयस्य सप्ततिः ॥ ५८४ ॥ ततो गिरिसरिद्रावघोलनान्यायतः स्वयम् । क्षीयन्ते सर्वकर्माणि, फलानुभवतः क्रमात् ॥ ५८५ ॥ एकोनत्रिंशदेकोनविंशत्येकोनसप्ततीः । सागराणां कोटिकोटीः, स्थितिमुन्मूल्य कर्मणाम् ॥ ५८६ ॥ देशोनैकावशिष्टाब्धिकोटिकोटौ तु जन्मिनः । यथाप्रवृत्तिकरणाद्, ग्रन्थिदेशं समिति ॥५८७॥ [युग्मम्] रागद्वेषपरीणामो, दुर्भदो ग्रन्थिरुच्यते । दुरुच्छेदो दृढतरः, काष्ठादेखि सर्वदा ॥ ५८८ ॥ तीराभ्यर्णान्महापोता, इव वातसमाहताः । रागादिप्रेरिताः केऽपि, व्यावर्त्तन्ते ततः पुनः ॥ ५८९ ॥ तत्रैव तत्परीणामविशेषादासतेऽपरे । स्थलस्खलितगमनान्यम्भांसि सरितामिव ॥ ५९० ॥ अपरे ये पुनर्भव्या, भाविभद्राः शरीरिणः । आविष्कृत्य परं वीर्यमपूर्वकरणेन ते ॥ ५९१ ॥ अतिक्रामन्ति सहसा, तं ग्रन्थि दुरतिक्रमम् । अतिक्रान्तमहाध्वानो, घट्टभूमिमिवाऽध्वगाः ॥५९२ ॥ अथाऽनिवृत्तिकरणादन्तरकरणे कृते । मिथ्यात्वं विरलीकृत्य, चतुर्गतिकजन्तवः ॥ ५९३ ॥ आन्तर्मुहर्तिकं सम्यग्दर्शनं प्राप्नुवन्ति यत् । निसर्गहेतुकमिदं, सम्यक् श्रद्धानमुच्यते ॥ ५९४ ॥ [युग्मम्] गुरूपदेशमालम्ब्य, भव्यानामिह देहिनाम् । सम्यक् श्रद्धानं तु यत् तद्, भवेदधिगमोद्भवम् ॥ ५९५ ॥ तच स्यादौपशमिकं, साखादनमथाऽपरम् । क्षायोपशमिकं वेद्यं, क्षायिकं चेति पञ्चधा ॥ ५९६॥ 15 तत्रौपशमिकं भित्रकर्मग्रन्थेः शरीरिणः । सम्यक्त्वलामे प्रथमेऽन्तर्मुहूत्र्तं प्रजायते ॥ ५९७॥ तथोपशान्तमोहस्योपशमश्रेणियोगतः । मोहोपशमजमौपशमिकं तु द्वितीयकम् ॥ ५९८॥ त्यक्तसम्यक्त्वभावस्य, मिथ्यात्वाभिमुखस्य च । तथाऽभ्युदीर्णानन्तानुबन्धिकस्य शरीरिणः ॥५१॥ यः सम्यक्त्वपरीणाम, उत्कर्षेण षडावलिः । जघन्येनैकसमयस्तत् सास्वादनमीरितम् ॥६००॥ अथ तृतीयं मिथ्यात्वमोहक्षयशमोद्भवम् । सम्यक्त्वपुद्गलोदयपरिणामवतो भवेत् ॥ ६०१॥ 20 वेदकं नाम सम्यक्त्वं, क्षपकश्रेणिमीयुषः । अनन्तानुबन्धिनां तु, क्षये जाते शरीरिणः ॥ ६०२॥। मिथ्यात्वस्याऽथ मिश्रस्य, सम्यग् जाते परिक्षये । क्षायिकसम्मुखीनस्य, सम्यक्त्वाऽन्त्यांशभोमिनः।।६०३॥ शुभभावस्य प्रक्षीणसप्तकस्य शरीरिणः । सम्यक्त्वं क्षायिकं नाम, पञ्चमं जायते पुनः ॥६०४॥ सम्यग्दर्शनमेतच, गुणतस्त्रिविधं भवेत् । रोचकं दीपकं चैव, कारकं चेति नामतः ॥ ६०५॥ तत्र श्रुतोक्ततत्त्वेषु, हेतूदाहरणेविना । दृढा या प्रत्ययोत्पत्तिस्तद् रोचकमुदीरितम् ॥ ६०६॥ 25 दीपकं तद् यदन्येषामपि सम्यक्त्वदीपकम् । कारकं संयमतपःप्रभृतीनां तु कास्कम् ॥ ६०७ ॥ ___ शम-संवेम-निर्वेदा-ऽनुकम्पा-ऽऽस्तिक्यलक्षणैः । लक्षणैः पञ्चभिः सम्यक्, सम्यक्त्वं तत् तु लक्ष्यते॥६०८॥ अनन्तानुबन्धिकषायाणामनुदयः शमः । स प्रकृत्या कषायाणां, विपाकेक्षणतोऽपि वा ॥ ६०९ ॥ ध्यायतः कर्मविपाकं, संसाससारतामपि । यत् स्याद् विषयवैराग्यं, स संवेग इतीस्तिः ॥ ६१०॥ संसारवासः कारव, बन्धनान्येव बन्धयः । ससंवेगस्य चिन्तेयं, या निर्वेदः स उच्यते ॥ ६११॥ 30. एकेन्द्रियप्रभृतीनां सर्वेषामपि देहिनाम् । भवाब्धौ मञ्जतां क्लेशं, पश्यतो हृदयार्द्रता ॥ ६१२ ।। तद्दुःखैदुःखितत्वं च, तत्प्रतीकारहेतुषु । यथाशक्ति प्रवृत्तिश्चेत्यनुकम्पाभिधीयते ॥ ६१३ ॥ [युम्मम् ] तत्त्वान्तराकर्णनेऽपि, या तत्त्वेष्वाहतेषु तु । प्रतिपत्तिनिराकासा, तदास्तिक्यमुदीरितम् ॥ ६१४ ॥ सम्यग्दर्शनमित्युक्तं, प्राप्तावस्य क्षणादपि । मत्यज्ञानं पुराऽभूद् यत्, तन्मतिज्ञानतां ब्रजेत् ॥ ६१५ ॥॥ जन्मिनो यच्छ्रताऽज्ञानं, तच्छृतज्ञानतां भजेत् । विभङ्गज्ञानमवधिज्ञानभावं च गच्छति ॥ ६१६ ॥ 35 सर्वसावधयोगानां, त्यागश्चारित्रमिष्यते । कीर्तितं तदहिंसादिव्रतमेदेन पञ्चधा ॥ ६१७ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं प्रथमं पर्व अहिंसा-नृता-ऽस्तेय-ब्रह्मचर्या-ऽपरिग्रहाः । पञ्चभिः पञ्चभिर्युक्ता भावनाभिर्विमुक्तये ॥ ६१८॥ न यत् प्रमादयोगेन, जीवितव्यपरोपणम् । सानां स्थावराणां च, तदहिंसात्रतं मतम् ॥ ६१९ ॥ प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं, सूनृतव्रतमुच्यते । तत् तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥ ६२० ॥ अनादानमदत्तस्याऽस्तेयव्रतमुदीरितम् । बाह्याः प्राणा नृणामों, हरता त हता हि ते ॥ ६२१ ॥ दिव्यौदारिककामानां, कृताऽनुमतकारितैः । मनोवाकायतस्त्यागो, ब्रह्माऽष्टादशधोदितम् ॥ ६२२॥ सर्वभावेषु मूर्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः । यदसत्स्वपि जायेत, मूर्च्छया चित्तविप्लवः ॥ ६२३ ॥ सर्वात्मना यतीन्द्राणामेतच्चारित्रमीरितम् । यतिधर्मानुरक्तानां, देशतः स्यादगारिणाम् ॥ ६२४ ॥ सम्यक्त्वमूलानि पश्चाऽणुव्रतानि गुणास्त्रयः । शिक्षापदानि चत्वारि, व्रतानि गृहमेधिनाम् ॥ ६२५ ॥ पङ्गुकुष्ठिकुणित्वादि, दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः। निरागस्त्रसजन्तूनां, हिंसां सङ्कल्पतस्त्यजेत् ॥ ६२६ ॥ 10 मन्मनत्वं काहलत्वं, मूकत्वं मुखरोगिताम् । वीक्ष्याऽसत्यफलं कन्यालीकाद्यसत्यमुत्सृजेत् ॥ ६२७ ॥ कन्यागोभूम्यलीकानि, न्यासापहरणं तथा । कूटसाक्ष्यं च पश्चेति, स्थूलासत्यानि सन्त्यजेत् ॥ ६२८ ॥ दौर्भाग्यं प्रेष्यतां दास्यमङ्गच्छेदं दरिद्रताम् । अदत्तात्तफलं ज्ञात्वा, स्थूलस्तेयं विवर्जयेत् ॥ ६२९ ॥ पच्छेदं. वीक्ष्याऽब्रह्मफलं सधीः । भवेत खदारसन्तष्टोऽन्यदारान वा विवर्जयेत ॥६३०॥ असन्तोषमविश्वासमारम्भं दुःखकारणम् । मत्वा मूर्छाफलं कुर्यात, परिग्रहनियत्रणम् ॥ ६३१ ॥ 15 दशस्वपि कृता दिक्षु, यत्र सीमा न लङ्घयते । ख्यातं दिग्विरतिरिति, प्रथमं तद् गुणव्रतम् ॥ ६३२ ॥ भोगोपभोगयोः सङ्ख्या, शक्त्या यत्र विधीयते । भोगोपभोगमानं तद् , द्वैतीयीकं गुणव्रतम् ॥ ६३३ ॥ आतं रौद्रमपध्यानं, पापकर्मोपदेशिता । हिंसोपकारिदानं च, प्रमादाचरणं तथा ॥६३४ ॥ शरीराद्यर्थदण्डस्य, प्रतिपक्षतया स्थितः । योऽनर्थदण्डस्तत्त्यागस्तृतीयं तु गुणवतम् ॥ ६३५॥ त्यक्तातरौद्रध्यानस्य, त्यक्तसावद्यकर्मणः । मुहूर्त समता या तां, विदुः सामायिकवतम् ॥ ६३६ ॥ 20 दिग्व्रते परिमाणं यत्, तस्य सङ्केपणं पुनः । दिने रात्रौ च देशावकाशिकव्रतमुच्यते ॥ ६३७॥ चतुष्पां चतुर्थादि, कुव्यापारनिषेधनम् । ब्रह्मचर्यक्रिया स्नानादित्यागः पौषधवतम् ॥ ६३८ ॥ दानं चतुर्विधाहारपात्राच्छादनसद्मनाम् । अतिथिभ्योऽतिथिसंविभागवतमुदीरितम् ।। ६३९ ॥ रत्नत्रयमिदं सम्यग्, यतिभिः श्रावकैरपि । उपासनीयं सततं, निर्वाणप्राप्तिहेतवे ॥ ६४०॥ आकर्ण्य देशनामेवमुत्थाय भरतात्मजः । ऋषभस्वामिनं नत्वार्षभसेनो व्यजिज्ञपत् ।। ६४१॥ खामिनिह भवारण्ये, कषायदवदारुणे । नव्याम्बुद इवाऽवर्षस्तत्त्वामृतमनुत्तरम् ॥ ६४२ ॥ तरण्ड इव मजद्भिः, प्रपेव च पिपासितैः । कृशानुरिव शीतात्तैस्तापात्तैरिव पादपः ॥ ६४३ ॥ ध्वान्तमग्नैर्दीप इव, निधियॊस्थ्यस्थितैरिव । विषादितैरिव सुधा, रोगितैरिव भेषजम् ॥ ६४४ ॥ विक्रान्तद्विषदाक्रान्तैरिव दुर्ग जगत्पते । भवभीतैरसि प्राप्तो, रक्ष रक्ष दयानिधे ! ॥६४५॥[त्रिभिर्विशेषकम्] पितृभिर्धाभितपुत्रैरन्यैश्व बन्धुभिः । अनाप्तैरिव पर्याप्तं, भवभ्रमणहेतुभिः ॥ ६४६ ॥ 30 जगच्छरण्य ! शरणं, संसारार्णवतारण! । त्वामेवाऽऽश्रितवानस्मि, दीक्षां देहि प्रसीद मे ॥६४७॥ [युग्मम्] उक्त्वेति भरतस्याऽन्यैरेकोनैः पञ्चभिः शतैः । पुत्राणां प्रावजत् पौत्रसप्तशत्या च सोऽन्वितः ॥ ६४८॥ भर्तुः केवलिमहिमां, क्रियमाणां सुरासुरैः । दृष्ट्वा मरीचिर्भरततनयो व्रतमग्रहीत् ॥ ६४९॥ विसृष्टा भरतेशेन, ब्रायपि व्रतमग्रहीत् । गुरूपदेशः साक्ष्येव, प्रायेण लघुकर्मणाम् ॥ ६५० ॥ विमुक्ता बाहुबलिना, जिघृक्षुः सुन्दरी व्रतम् । भरतेन निषिद्धा तु, श्राविका प्रथमाऽभवत् ॥ ६५१ ॥ प्राणापहरणम् । २ अर्थम्। ३ ब्रह्मचर्यम् । ४ मोहस्य। ५ गृहस्वानाम् । * पुत्रैः पौत्रसप्तशत्या, चाsधितो व्रतमाददे आ, सं॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ तृतीयः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । भरतः स्वामिपादान्ते, श्रावकत्वमशिश्रियत् । न हि भोगफले कर्मण्यभुक्ते भवति व्रतम् ॥ ६५२ ॥ नरतिर्यक्सुरेष्वेके, तदानीं जगृहुव्रतम् । श्रावकवतमन्ये तु, सम्यक्त्वमपरे पुनः ॥ ६५३ ॥ ते च कच्छमहाकच्छवर्ज राजन्यतापसाः । आगत्य स्वामिनः पार्श्वे, दीक्षामाददिरे मुंदा ॥ ६५४ ॥ साधवः पुण्डरीकाद्याः,साव्यो ब्राह्मीपुरस्कृताः। श्रावका भरताद्यास्तु,श्राविकाः सुन्दरीमुखाः॥६५५॥ चतुर्विधस्य सङ्घस्य, व्यवस्थेयं तदाऽभवत् । अद्यापि वर्त्तते सेयं, धर्मस्य परमं गृहम् ॥ ६५६ ॥ तदानीं चतुरशीतेर्गणभृन्नामकर्मणाम् । वतिनामृषभसेनप्रभृतीनां सुमेधसाम् ॥ ६५७ ॥ उत्पादो विगमो ध्रौव्यमिति पुण्यां पदत्रयीम् । उद्दिदेश जगन्नाथः, सर्ववाङ्मयमातृकाम् ॥ ६५८ ॥ सचतुर्दशपूर्वाणि, द्वादशाङ्गानि ते क्रमात् । ततो विरचयामासुस्तत्रिपद्यनुसारतः ॥६५९ ॥ अथाऽऽदाय दिव्यचूर्णपूर्ण स्थालं पुरन्दरः । देवैर्वृतो देवदेवपादान्तं समुपास्थित ॥ ६६० ॥ अथोत्थाय गणभृतां, चूर्णक्षेपं यथाक्रमम् । कुर्वाणः सूत्रेणाऽर्थेन, तथा तदुभयेन च ॥ ६६१ ॥ द्रव्यैर्गुणैः पर्यायैश्च, नयैरपि जगत्पतिः । ददावनुयोगानुज्ञां, गणानुज्ञामपि स्वयम् ॥ ६६२ ॥ ततोऽमरा नरा नार्यो, दुन्दुभिध्यानपूर्वकम् । वासक्षेपं विदधिरे, तेषामुपरि सर्वतः ॥ ६६३ ॥ तस्थुर्गणधरास्नेऽपि, रचिताञ्जलिसम्पुटाः । स्वामिवाचं प्रतीच्छन्तो, मेघाम्भ इव पादपाः॥ ६६४॥ मृगेन्द्रासनमारुह्य, पूर्ववत् पूर्वदिअखः । अनुशिष्टिमयीं स्वामी, विदधे देशनां पुनः ॥ ६६५ ॥ देशनोदामवेलायाः, स्वामिवारिधिजन्मनः । मर्यादायाः प्रतिरूपा, तदाऽपूर्यत पौरुषी ॥ ६६६ ॥ 15 अत्रान्तरे च कलमैरखण्डैर्निस्तुपोज्ज्वलैः । विनिर्मितश्चतुःप्रस्थीप्रमाणः स्थालसंस्थितः ॥ ६६७ ॥ दिविषन्निहितैर्गन्धैर्द्विगुणीकृतसौरभः । प्रधानपुरुषोत्क्षिप्तो, भरतेश्वरकारितः ॥ ६६८ ॥ देवदुन्दुभिनिर्घोषप्रतिघोषितदिअखः । अन्वीयमानः प्रोद्गीतमङ्गलैर्ललनाजनैः ॥ ६६९ ॥ पौरैः स्वामिप्रभावोत्थपुण्यराशिरिवाऽऽवृतः । पूर्वद्वारेण समवसरणे प्राविशद् बलिः ॥ ६७० ॥ प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्य, सोऽक्षिप्यत बलिः पुरः । वप्तुं कल्याणसस्यानामिव बीजमनुत्तमम् ॥ ६७१ ॥ 20 अन्तरिक्षानिपततोऽन्तगलेऽपि समाददे । तस्याऽर्धममरैर्मेघपानीयमिव चातकैः ॥ ६७२ ॥ तस्य भूमिगतस्याऽधू, जग्राह भरतेश्वरः । शेषं तु गोत्रिण इव, विभज्य जगृहुर्जनाः ॥ ६७३ ॥ पूर्वोत्पन्नाः प्रणश्यन्ति, रोगाः सर्वे नवाः पुनः । षण्मासान् नैव जायन्ते, बलेस्तस्य प्रभावतः ॥ ६७४ ॥ ___ अथोत्थायोत्तरद्वारवर्मना निर्ययौ प्रभुः । अन्वीयमानो देवेन्द्रैः, पद्मखण्ड इवालिभिः ॥ ६७५ ॥ रत्नमयस्वर्णमयवप्रयोरन्तरस्थिते । व्यश्राम्यद् भगवान् देवच्छन्द ईशानदिस्थिते ॥ ६७६ ॥ 25 तदानीमृषभसेनो, गणभृन्मुखमण्डनम् । भगवत्पादपीठस्थो, विदधे धर्मदेशनाम् ॥ ६७७ ॥ खामिनः खेदविनोदः, शिष्याणां गुणदीपना । उभयतः प्रत्ययश्च, गणभृद्देशनागुणाः ॥ ६७८ ॥ तस्मिन् गणधरे धर्मदेशनाविरते सति । प्रणम्य स्वामिनं सर्वे, स्थानं निजनिजं ययुः ॥ ६७९ ॥ __ तीर्थे तत्र समुत्पन्नो, गोमुखो नाम गुंह्यकः। वराऽक्षमालाशालिन्यां, दोभ्यां दक्षिणपार्श्वतः ॥६८०॥ मातुलिङ्गपाशभृद्भ्यां, वामदोभ्या॑ च शोभितः। हेमवर्णो गजरथः, पार्श्वस्थोऽभूत् ततो विभोः॥६८१॥[युग्मम्] 30 नामतो प्रतिचक्रेति, हेमामा गरुडासना । वरप्रदेषुभृचक्रिपाशिभिर्दक्षिणैर्भुजैः ॥ ६८२ ॥ * तु खंता॥ तदा खंता ॥ यक्षकः सं .॥ मातुलिङ्गः "बीजोरु" इति भाषायाम् । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० कलिकालसर्वज्ञभीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व वामहस्वैर्षनुर्वजचक्राशधरैर्युता । तत्तीर्थभूरभूत् पार्थे, भर्तुः शासनदेवता ।। ६८३॥ [ युग्मम् ] ततो विहर्तमन्यत्र, जगाम भगवानपि । महर्षिभिः परिवृतो, नक्षत्रैरिव चन्द्रमाः ॥ ६८४ ॥ गच्छतः खामिनोऽभूवन् , भक्त्येव तरवो नताः । अधोमुखाः कण्टकाश्च, शकुनाश्च प्रदक्षिणाः ॥ ६८५॥ ऋत्विन्द्रियार्थानुकूल्यं, वायोरप्यनुकूलता । भर्जिघन्यतोऽप्यासीत् , पार्श्वे कोटिदिवौकसाम् ॥ ६८६ ॥ 5 भवान्तरोद्भूतकर्मच्छेदालोकभयादिव । नाऽवर्धन्त कचाः श्मश्रु, नखाश्च त्रिजगत्पतेः ॥ ६८७ ॥ खाम्यगाद् यत्र नो तत्र, वैरमारीत्यवृष्टयः । दुर्भिक्षमतिवृष्टिर्वा, भये च स्वाऽन्यचक्रजे ॥ ६८८ ॥ विश्वविसयकरैरिति प्रभुर्नाभिभूरतिशयैः समन्वितः। संसरजगदनुग्रहैकधीः, मामिमां विहरति स वायुवत् ॥ ६८९ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमे पर्वणि भगव10 दीक्षा-छमस्थविहार केवलज्ञान-समवसरणव्यावर्णनो नाम तृतीयः सर्गः ॥३॥ १मारी रोगोपद्रवः, ईतयः प्रसिद्धाः। २स्वचक्रपरचक्रजाते भये। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ चतुर्थः सर्गः। त्रिषष्टिशलाकापुरुपचरितम । चतुर्थः सर्गः। इतश्च भरतश्चक्री, विनीतामध्यवर्त्मना । प्रययावायुधागारं, चक्रस्योत्कोऽतिथेरिव ॥१॥ तदालोकनमात्रेऽपि, प्रणनाम महीपतिः । मन्यन्ते क्षत्रिया शस्त्रं, प्रत्यक्षमधिदैवतम् ॥ २॥ रोमहस्तकमादाय, भरतस्तदमार्जयत् । भक्तानां प्रक्रिया ह्येषा, न रत्ने तादृशे रजः ॥३॥ स्नपयामास तत् तोयैः, पावनैरवनीपतिः । उदयन्तमिव प्राच्यसरित्पतिरहप॑तिम् ॥४॥ स्थासंकान् स्थापयामास, तत्र पूज्यत्वशंसिनः । पृष्ठे धुर्यगजस्थेव, राजा गोशीर्षचन्दनैः ॥ ५॥ पुष्पर्गन्धैश्चूर्णवासैर्वासोभिर्भूपणैरपि । नृपस्तत् पूजयामास, साक्षादिव जयश्रियम् ॥६॥ तस्याऽग्रे तन्दुलै रौप्यरालिखत् सोऽष्टमङ्गलीम् । पृथक पृथग् मङ्गलायेवैष्यदष्टककुश्रियाम् ॥ ७ ॥ पञ्चवर्णश्च कुसुमैरुपहारं तदग्रतः । विचित्रचित्रामवनी, कुर्वाणमकरोन्नृपः ॥८॥ दिव्यचन्दनकर्पूरप्रायं धूपमथोत्तमम् । नृपः प्रयत्नाचक्राग्रे, द्विपद्यश इवाऽदहत् ॥९॥ 10 त्रिश्च प्रदक्षिणीचक्रे, चक्रं चक्रधरस्ततः । पदान्यपागात् सप्ताष्टान्यवग्रहाद् गुरोरिव ॥१०॥ वामं जानु समाकुन्य, दक्षिणं न्यस्य च क्षितौ । राजा चक्रं नमश्चक्रे, तमिव प्रणयी जनः ॥११॥ तत्रैव च कृतावासश्चक्रस्याऽष्टाहिकोत्सवम् । चकार साकार इव, प्रमोदो मेदिनीपतिः ॥ १२॥ चक्रपूजोत्सवश्चक्रे, पौरैरपि महर्द्धिभिः । पूजितैः पूज्यमानो हि, केन केन न पूज्यते ? ॥ १३ ॥ __ तस्योपयोगमादित्सुश्चक्ररत्नस्य दिग्जयम् । स्नानागारं ययौ राजा, मङ्गलस्नानहेतवे ॥ १४॥ 15 विमुक्ताभरणश्रेणिः, शुभस्मानीयवस्त्रभृत् । न्यषदत् प्रामुखस्तत्र, स्नानसिंहासने नृपः ॥ १५॥ सुरद्रुपुष्पनिर्यासमयैरिव सुगन्धिभिः । सहस्रपाकप्रमुखैस्तैलैरभ्याजि भूपतिः ॥ १६ ॥ संवाहनाभिर्मासा-अस्थि-त्वग्-रोमसुखहेतुभिः । चतुर्विधाभित्रिविधैर्मृदुमध्यदृद्वैः करैः ॥ १७ ॥ मर्दनीयामर्दनीयस्थानविज्ञाः कलाविदः । नृपं संवाहयामासुः, संवाहकनरास्ततः ॥ १८ ॥ आदर्शमिव भूपालमम्लानश्रुतिभाजनम् । सूक्ष्मेण दिव्यचूर्णेनोद्वर्त्तयामासुराशु ते ॥१९॥ काश्चित् करोद्धृतस्वर्णपयस्कुम्भा वरस्त्रियः । उन्नालनव्यनलिना, इव लावण्यवापयः ॥२०॥ स्त्यानीभूय पयांसीव, गतान्याधारतामपाम् । राजतानम्बुकलसान् , बिभ्रत्यः काश्चिदङ्गनाः ॥२१॥ लीलानीलोत्पलभ्रान्तिदायिनश्वारुपाणिषु । इन्द्रनीलपयस्कुम्भान्, दधानाः काश्चन स्त्रियः ॥२२ ।। नखरत्नप्रभाजालवर्द्धमानाधिकश्रियः । दिव्यरत्नमयान् कुम्भान् , बिभ्रत्यः सुभ्रुवोऽपराः ॥ २३ ॥ सुगन्धिभिः पवित्राम्बुधाराभिर्धरणीधवम् । क्रमेण स्नपयामासुर्जिनेन्द्रमिव देवताः ॥ २४ ॥ 25 कृतस्नानोऽथ भूपालः, कृतदिव्यविलेपनः । वासोभिः शोभितः शुभैः, ककुब्भासैरिवाभितः ॥२५॥ ललाटपट्टे मङ्गल्यं, चान्दनं तिलकं दधत् । यशोद्रुमस्याऽभिनवं, प्ररोहन्तमिवाऽङ्कुरम् ॥ २६ ॥ मुक्तामयानलङ्कारान् , स्वयशःपुञ्जनिर्मलान् । तारकाप्रकरांस्तारांस्तारापथ इवोद्वहन् ॥ २७ ॥ चञ्चन्मरीचिनिचयत्रीडितोष्णमरीचिना । प्रासादः कलसेनेव, किरीटेन विभूषितः ॥२८॥ मुहुरुत्क्षिप्यमाणाभ्यां, वारनारीकराम्बुजैः । कर्णोत्तंसायमानाभ्यां, चामराभ्यां विराजितः ॥ २९ ॥ 30 वर्णकुम्भभृता श्वेतातपत्रेणोपशोभितः । श्रीसमपद्मभृत्पद्महदेन हिमवानिव ॥ ३० ॥ सर्वदा सन्निधानस्थैः, प्रतीहारैरिवाऽभितः । भक्तैः षोडशभिर्यक्षसहस्रैः परिवारितः ॥ ३१ ॥ उत्तुङ्गकुम्भशिखरस्थगितैकदिगाननम् । आरोहद् वासव इवैरावणं रत्नकुञ्जरम् ॥ ३२ ॥ PAN १ उत्कण्ठितः । २ प्रमार्जनसाधनविशेषम् । ३ प्रक्रमः रीतिर्वा । पूर्वसमुद्रः। ५ "थापा" इति भाषायाम् । राजानम् । त्रिषष्टि. ११ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीनं स गर्जनूर्जितं नागकुञ्जरस्तत्क्षणादभूत् । उद्दाममदधाराभिर्धाराधर इवाऽपरः ।। ३३ ॥ उत्क्षिप्य पाणीन् कुर्वाणैर्दिवं पल्लवितामिव । युगपद् बैन्दिनां वृन्दैश्चक्रे जयजयावः ॥ ३४ ॥ दुन्दुभिस्ताड्यमानोऽथ नदन्नुच्चैर्दिशोऽपि हि । नादयामास मुखरंगायनो गायनीवि ॥ ३५ ॥ दूतीभूतानि निःशेषसैनिकाह्वानकर्मणि । प्रणेदुर्वर्यतूर्याणि, मङ्गलान्यपराण्यपि ॥ ३६ ॥ 5 गजैः सिन्दूरभृत्कुम्भैः, सधातुभिरिवाऽद्रिभिः । अश्वैरनेकधाभूतरेवन्ताश्वभ्रमप्रदैः ॥ ३७ ॥ मनोरथैरिव निजैर्विशालैश्च महारथैः । पत्तिभिश्च महौजोभिः, सिंहैरिव वशंवदैः ॥ ३८ ॥ प्रचचाल महीपालः, पूर्वं पूर्वां दिशं प्रति । संव्यानमिव तन्वानः, सैन्योत्थैः पांशुभिर्दिशाम् ॥ ३९ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] तत्सैन्याग्रेसरं यक्षसहस्राधिष्ठितं ततः । चरत्नमभूद् विम्बं भानोखि नभश्वरम् ॥ ४० ॥ दण्डरंनधरो वाजिरंनमारुह्य तत्परः । नाम्ना सुषेणः सेनानीरत्नं चक्रमिवाऽचलत् ॥ ४१ ॥ निःशेषशान्तिकविधौ, शान्तिमन्त्र इवाऽङ्गवान् । पुरोघोरत्नमचलत्, समं वसुमतीभुजा ॥ ४२ ॥ सैन्ये प्रत्याश्रयं दिव्यभोजनापादनक्षमम् । अचालीद् गृहिरनं च, संत्रशालेव जङ्गमा ॥ ४३ ॥ स्कन्धावारादि निर्मातुं, विश्वकर्मेव सत्वरम् । अलं वर्धकिरत्नं च चचाल सह भूभुजा ॥ ४४ ॥ चचाल चर्मरत्नं च च्छ्रत्ररत्नमिवाऽद्भुतम् । चक्रिणः सकलस्कन्धावारविस्तारशक्तिमत् ।। ४५ ।। रत्ने च णि- काकिण्यौ, ध्वान्तविध्वंसनक्षमे । सह प्रवेलतुर्भाभिः सूर्याचन्द्रमसाविव ॥ ४६ ॥ ययौ सह नरेन्द्रेण, खरत्नं च भासुरम् । सुरासुरवरास्त्राणामिव सारैर्विनिर्मितम् ॥ ४७ ॥ ततश्च सचमूचक्रश्चक्रभृद् भरतेश्वरः । प्रतीहारानुग इवागमच्चानुगः पथि ॥ ४८ ॥ पवनेनाऽनुकूलेनाऽनुकूलैः शकुनैरपि । सर्वतो दिग्जयस्तस्याशंसि ज्योतिषिकैरिव ॥ ४९ ॥ विषमं सुषमीच, सैन्यस्य पुरतो व्रजन् । सेनानीर्दण्डरलेन, मतेनेव कृषिः क्षितिम् ।। ५० ।। रुरुचे पृतनोद्भूतरजोभिः कृतदुर्दिनम् । रथद्विपपताकाभिर्बलाकाभिरिवाऽम्बरम् ॥ ५१ ॥ अदृश्यमानपर्यन्ता, सा चमूचक्रवर्त्तिनः । गङ्गाऽलक्षि द्वितीयेव, सर्वत्राऽप्यस्खलद्गतिः ॥ ५२ ॥ चीत्कृतैः स्यन्दना वाहा, हेषितैर्गर्जितैर्गजाः । अतत्वरनिवाऽन्योऽन्यं, दिग्जयोत्सव कर्मणे ॥ ५३ ॥ अद्युतन् सादिनां कुन्ताश्चमृत्खाते रजस्यपि । हसन्त इव तच्छन्नान् दीधितीनुष्णदीधितेः ॥ ५४ ॥ आबद्धमुकुटै रेजे, राजभी राजकुञ्जरः । भक्तिमद्भिर्वृतो गच्छन् शक्रः सामानिकैरिव ।। ५५ ।। 25 गत्वा योजनपर्यन्ते तच्च चक्रमवास्थित । जज्ञे योजनमानं च तत्प्रयाणानुमानतः ॥ ५६ ॥ 10 15 20 30 ततो योजनमानेन, प्रयाणेन व्रजन् नृपः । गङ्गाया दक्षिणं कूलं, प्रापत् कतिपयैर्दिनैः ॥ ५७ ॥ नृपोऽपि विपुलां गङ्गापुलिनोवीं निरन्तरैः । विविधैः सङ्कटीकुर्वन्नावासैर्विश्रमं व्यधात् ॥ ५८ ॥ क्षरत्करिमदाम्भोभिः, पङ्किला कूलमेदिनी । तदा मन्दाकिनीनद्याः प्रावृट्काल इवाऽभवत् ।। ५९ । जाह्नवीस्रोतसि स्वच्छे, स्वच्छन्दं जगृहुस्ततः । वारीणि वीरणवरा, वारिधौ वारिदा इव ॥ ६० ॥ अतिपारिप्लवत्वेनोत्प्लवमाना मुहुर्मुहुः । तत्र सख्नुस्तुरङ्गाच, तरङ्गभ्रमदायिनः ॥ ६१ ॥ सम्प्रविष्टैः श्रमादन्तर्गजाश्वमहिषोक्षभिः । जातनूतनैनक्रेव, चक्रे विष्वक् सरिद्वरा । ६२ ॥ अनुकूलयितुं कूलस्थितं नृपमिवाऽञ्जसा । श्रमं गङ्गाऽहरच्चम्वास्तरङ्गोद्भूतसीकरैः ॥ ६३ ॥ महीभुजः सेव्यमाना, महत्या सेनया तया । कृशीबभूव गङ्गाऽपि सद्यः कीर्तिरित्र द्विषाम् ॥ ६४ ॥ [ प्रथमं पर्व * जायकु सं ॥ १ मेवः । + कुर्वाणान् दिवं खंता ॥ बन्दिवृन्देन च खंता सं २ ॥ २ मुख्यगायकः । १ सूर्याश्वः । ४ महापराक्रमैः । ५ वस्त्रम् । तत्पुरः सं १ खं ॥ ६ दानशाला । ७ देव शिल्पी । ८ सूर्यस्य । ९ तटमेदिनी । १० उत्तमगजाः | १| 'जबारा सं १ ॥ ११ अतिवेगेन । + 'नचक्रेव, खंता ॥ १२ मत्स्यविशेषाः । || तदा कतिपयैर्दिनैः सं ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तत्सैन्यगजराजानामयत्नालानतां ययुः । भागीरथीतीररुहो, देवदारुमहीरुहाः ॥ ६५ ॥ अश्वत्थसल्लकीकर्णिकारोदुम्बरपल्लवान् । लुलुवुः पशुभिर्हस्तिकृते हस्तिपकाः क्षणात् ॥ ६६ ॥ कुर्वाणास्तोरणानीवोनमितैः कर्णपल्लवैः । विरेजुर्वाजिनो बद्धाः, श्रेणीभूताः सहस्रशः ॥ ६७ ॥ मंकुष्ठ-मुद्ग-चणक-यवादीनि जवात् पुरः । बन्धूनामिव निदधुरश्वानामश्वपालकाः ॥ ६८॥ बभूवुः शिबिरे तत्र, चत्वराणि त्रिकाणि च । आपणानां श्रेणयश्च, विनीतायामिव क्षणात् ॥ ६९॥ 5 गुप्यद्गुरुस्थूलपटकुटीभिः पटचारुभिः । नाऽसरन् पूर्वसौधानां, सुस्थिताः सर्वसैनिकाः ॥ ७० ॥ शमीकर्कन्धुबब्बूलप्रायान् द्रून् लिलिहुर्मयाः । दिशन्त इव सैन्यानां, कार्य कण्टकशोधनम् ॥ ७१ ॥ स्वच्छन्दं जाह्नवीतीरतले सिकतिलेऽलुठन् । भृत्या इव स्वामिनोऽग्रे, वेसराश्चलकेसराः ॥ ७२ ॥ केचिदाजहुरेधांसि, सरिदम्भांसि केचन । दुर्वादिभारकान केचित् , केचिच्छाकफलादिकम् ॥ ७३ ॥ प्रचख्नुश्चल्लिकाः केचित् , तन्दुलान केऽप्यखण्डयन् । केचिदज्वालयन्नग्निमपचन् केचिदोदनम् ॥ ७४ ॥10 सस्नुः केऽप्येकतस्तत्र, खोकसीवोज्वलै लैः । स्नाता धृपैरधूपायन्, केऽप्यात्मानं सुगन्धिभिः ॥ ७५ ॥ केचिद् बुभुजिरे स्वैरं, पुरो भुञ्जानपत्तयः । सँह स्त्रीभिर्विलिलिपुः, केचिदङ्ग विलेपनैः ॥ ७६ ॥ नाऽमंस्त कटकायातं, कोऽप्यात्मानं मनागपि । लीलोपलभ्यसर्वार्थे, शिविरे चक्रवर्तिनः ॥ ७७॥ अहोरात्रे व्यतिक्रान्ते, तस्मिन् पुनरपि प्रैगे । चक्ररत्नं जगामैकं, योजनं चक्रवर्त्यपि ॥ ७८॥ एवं योजनमानेन, प्रयाणेन दिने दिने । गच्छंश्चक्रानुगश्चक्री, मागधं तीर्थमासदत् ॥ ७९ ॥ 15 नवयोजनविस्तारं, दैर्य द्वादशयोजनम् । पूर्वाब्धिरोधसि नृपः, स्कन्धावारं न्यवीविशत् ॥ ८॥ आवासान् सर्वसैन्यानां, तत्र व्यधित वर्द्धकिः । एकां पौषधशालां च, शालां धर्मेकदन्तिनः॥ ८१॥ राजा पौषधशालायामनुष्ठानविधित्सया । उत्ततार करिस्कन्धात् , पर्वतादिव केसरी ॥ ८२ ॥ तत्र संस्तारयामास, दर्भसंस्तारकं नवम् । राजा संयमसाम्राज्यलक्ष्मीसिंहासनोपमम् ॥ ८३ ॥ मागधतीर्थकुमार, देवं मनसि कृत्य च । प्रपेदेऽष्टमभक्तं सोऽर्थसिद्धेरिमादिमम् ॥ ८४ ॥ 20 स घौतांशुकभृत् त्यक्तनेपथ्यस्रग्विलेपनः । त्यक्तशस्त्रः पुण्यपोषौषधं पौषधमाददे ॥ ८५ ॥ दर्भसंस्तारके तस्मिन्, प्रतिजाग्रत् स पौषधम् । निष्क्रियो नृपतिस्तस्थौ, सिद्धः पद इवाऽव्यये ॥ ८६ ॥ अष्टमान्ते नृपः पूर्णपोषधः पौषधौकसः । शरदभ्रादिवाऽऽदित्यो, निर्ययावधिकद्युतिः ॥ ८७ ॥ राजा सर्वार्थनिष्णातः, स्नातो बलिविधिं व्यधात । यथाविधि विधिज्ञा हि, विस्मरन्ति विधिं न हि ॥८॥ उत्पताकध्वजस्तम्भ, प्रासादमिव जङ्गमम् । शस्त्रागारमिवाऽनेकशस्त्रश्रेणिविभूषितम् ॥ ८९ ॥ चतुर्दिग्विजयश्रीणामिवाऽऽह्वानार्थमुच्चकैः । टणत्कारकृतो घण्टाश्चतस्रश्चारुविभ्रतम् ॥ ९०॥ पवनैरिव जङ्घालैधीरैः पश्चाननैरिख । अश्वैः सनाथमध्यास्त, स रथं रथिनां वरः ॥९१ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] राज्ञो भावविशेषज्ञो, वासवस्येव मातलिः । नुनोद सारथी रथ्यान् , रश्मिचालनमात्रतः ॥९२ ॥ महाकरिगिरिस्तोमो, महाऽनोमकरोत्करः । विलोलहयकल्लोलश्चित्रशस्वाऽहिभीषणः ॥ ९३॥ 30 उच्छलद्भूरजोवेलो, स्थनिर्घोषगर्जितः । द्वितीय इव पाथोधिः, पाथोधिं प्रत्यगान्नृपः ॥९४ ॥ [ युग्मम् ] संवर्द्धिताम्बुनिर्घोषस्त्रस्तनंक्रकुलारवैः । नाभिदन्नं रथेनाऽम्भोऽम्भोनिधेः सोऽभ्यगाहत ॥ ९५ ॥ न्यस्यैकं लस्तके हस्तं, द्वितीयं त्वंटनीतटे । सोऽधिज्यं विदधे धन्व, पञ्चमीन्दुविडम्बकम् ॥ ९६ ॥ पाणिना किश्चिदाकृष्य, धनुयां भरतेश्वरः । धनुर्वेदोङ्कारमिवोचैष्टङ्कारमकारयत् ॥ ९७ ॥ महामात्राः। २ धान्यकप विशेषाः। ३ वृक्षान् । ४ उष्ट्राः। ५ सिकतामये। *सनारीका वि.सं २, In प्रातःकाले। शिविरम् । मोक्षे। ९ अस्तमकरकुलशब्दैः। 20 नाभिप्रमाणम् । ११ धनुर्मभ्यभागे। १२ ज्यारोपणस्थाने । 25 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 20 25 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं पातालद्वारनिर्गच्छन्नागराजानुहारकम् । इषुधेराचकर्षेषु, निजनामाङ्कितं नृपः ॥ ९८ ॥ सिंहकर्णिका मुष्ट्या, धृत्वा पुङ्खाग्रभागके । शिञ्जिन्यां निदधे वाणं, वज्रदण्डमरातिषु ।। ९९ ।। सौवर्णकर्णताडङ्कपद्मनालतुलास्पृशम् | आकर्णान्तं स आकर्षत् काञ्चनं तं शिलीमुखम् ॥ १०० ॥ प्रसरद्भिर्महीभर्त्तुर्नखरत्नमरीचिभिः । शुशुभे स महाबाणः, सोदरैरिव वेष्टितः ॥ १०१ ॥ आकृष्टकार्मुकान्तःस्थो, दीप्यमानः स सायकः । व्यात्तान्तकमुखप्रेङ्ख जिह्वालीलामुपाददे ।। १०२ ।। धनुर्मण्डलमध्यस्थः, स मध्यमजैगत्पतिः । शुशुभे परिवेषान्तर्भानुमानिव दारुणः ॥ १०३ ॥ चालयिष्यति किं स्थानान्निग्रहीष्यत्यथैष माम् ? । इतीव चुक्षोभ तदा, सर्वतो लवणाम्बुधिः ॥ १०४ ॥ अथर्वीशो बहिर्मध्ये, मुखे पुते च सर्वदा । नागासुरसुपर्णादिदेवताभिरधिष्ठितम् ॥ १०५ ॥ आज्ञाकरं दूतमिव, शिक्षाक्षरभयानकम् । अभि मागधतीर्थेशं, विससर्ज शिलीमुखम् ॥१०६॥ [ युग्मम् ] उद्दामपक्षसूत्कारवाचालितनभोङ्गणः । निर्ययौ तत्क्षणं वेगात् स पत्री पत्रिरोडिव ॥ १०७ ॥ विद्युद्दण्ड इवाऽम्भोदादुल्काग्निर्गगनादिव । स्फुलिङ्ग इव सप्तार्चेर्लेश्यार्चिरिव तापसात् ।। १०८ ।। शिंखीव सूर्योपलतो, वज्रं वज्रिभुजादिव । निष्पतन्नृपकोदण्डादशोभत स सायकः ॥ १०९ ॥ [सन्दानितकम् ] योजनानि द्वादशाऽतिक्रम्य पत्री क्षणेन सः । सभायां मागधेशस्य, हृदि शल्यमिवाऽपतत् ॥ ११० ॥ अकाण्डकाण्डपातेन तेन मागधतीर्थराट् । उच्चैश्रुकोप दण्डाभिघट्टनेनेव पन्नगः ॥ १११ ॥ 151 वक्रीकुर्वन् भ्रुवोर्युग्मं, कोदण्डमिव दारुणम् । दधानश्चक्षुषी ताम्रे, दीप्ताग्निविशिखाविव ॥ ११२ ॥ भस्त्रापुटे इवोत्फुल्लीकुर्वाणो नासिकापुटे । स्फोरयन्नधरदलं, तक्षकाहेरिवाऽनुजम् ॥ ११३ ॥ ललाटे घटयन् लेखाः, केतूनिव नभस्तले । गृह्णन् दक्षिणहस्तेन, वार्त्तिकोऽहिमिवाऽऽयुधम् ॥ ११४ ॥ ताडयन्नासनं वामहस्तेनाऽरिकपोलवत् । वाचं विषार्चिः संधीचीमित्यूचे मागधाधिपः ॥ ११५ ॥ [ चतुर्भिः कलापकम् ] ऐरावणरदांश्छित्वा, कस्ताडङ्कान् चिकीर्षति ? । सौपर्णेयस्य कः पक्षैरवतंसान् विधित्सति ॥ ११६ ॥ कः पन्नगपतेमौलिमणिमालां जिघृक्षति ? । सहस्रदीधितेः को वा, हयानपि जिहीर्षति । ।। ११७ ॥ अप्रार्थित प्रार्थकः को, वीरमान्यविमृश्यकृत् ? । अस्माकमस्मिन् सदसि, प्रचिक्षेप शरं कुधीः १ ॥ ११८ ॥ सुपर्ण इव सर्पस्य, दर्पं तस्य हराम्यहम् । एवं ब्रुवाणो रभसादुत्तस्थौ मागधाधिपः ॥ ११९ ॥ बिलादिवोरगं कोशात्, खड्गदण्डं चकर्ष सः । कम्पयामास च व्योम्नि, धूमकेतु भ्रमप्रदम् ॥ १२० ॥ वार्धिवेलेव दुर्वारः, परिवारोऽपि तत्क्षणम् । युगपत् सकलोऽप्यस्य, सकोपाटोपमुत्थितः ॥ १२१ ॥ खङ्गैः केचिद् दिवं चक्रुः, कृष्णविद्युन्मयीमिव । वसुनन्दैश्च विशदैरनेकेन्दुमयीमिव ॥ १२२ ॥ नितान्तनिशितान् कुन्तान् खे केचिदुदलालयन् । कृतान्तदन्तशकलश्रेणीभिरिव निर्मितान् ॥ १२३ ॥ परशून् केचिदुज्जहुर्वह्निजिह्वासहोदरान् । खर्भानुभीमपर्यन्तान्, जगृहु: केऽपि मुद्गरान् ॥ १२४ ॥ वज्रको ट्युत्कटान्यन्ये, शूलान्याददिरे करे । अपरे दण्डभृद्दण्डचण्डान् दण्डानुदक्षिपन् ॥ १२५ ॥ चक्रुः केऽपि करास्फोटं, वैरिविस्फोटकारणम् | क्ष्वेडानादं व्यधुः केऽपि, मेघनादमिवोर्जितम् ॥ १२६ ॥ चिजहि जहीत्यूचुः केचिद् धर धरेति च । तिष्ठ तिष्ठेति केचिच्च, याहि याहीति केचन ।। १२७ ।। इत्यभूच्चित्रसंरम्भचेष्टो यावत् परिच्छदः । तस्य तावदमात्यस्तं, सम्यग् बाणं न्यरूपयत् ॥ १२८ ॥ " 30 ८४ [ प्रथमं पर्व १ धनुर्गुणे । २ प्रसारितयममुखचल जिह्वालीलाम् । ३ पृथ्वीपतिः । * चकाशे खंता ॥ ४ मण्डलान्तः स्थितः सूर्य इव । ५ गरुडः । ६ अभेः । + सूर्यकान्तादिव शिखी व खंता ॥ ७ अग्निः । ८ अकस्माद् बाणपातेन । ९ दण्डताडनेन । १० गारुडिकः । ११ विषज्वालातुल्याम् । १२ कर्णभूषणविशेषान् । १३ अविचार्यकारी | १४ दरात् । ५ युद्धसाधनविशेषैः । १६ राहुः । + न्यभालयत् संता ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । महासाराण्युदाराणि, तत्र पत्रिणि मत्रिराट् । दीव्यमत्राक्षराणीवेत्यक्षराणि व्यलोकयत् ॥ १२९ ॥ राज्येन यदि वः कार्य, जीवितव्येन वा यदि । ततः सेवां कुरुध्वं नः, स्वसर्वखोपढौकनात् ॥ १३० ॥ इत्यादिशति वः साक्षात् , सुरासुरनरेशितुः । ऋषभस्वामिनः सूनुर्भरतश्चक्रवर्त्ययम् ॥ १३१ ॥ मत्री दृष्ट्वाऽक्षराण्येवं, विज्ञायाऽवधिना च तत् । दर्शयन् स्वामिनो बाणमुच्चकैरित्यवोचत ॥ १३२ ॥ भो भोः सर्वे राजलोका !, धिग् वो रभसंकारिणः । स्वामिनोऽर्थधियाऽनर्थदायिनो भक्तमानिनः॥१३३॥ 5 भरतो भरतक्षेत्रे, प्रथमश्चक्रवर्त्यभूत् । सूनुः प्रथमतीर्थेशऋषभस्वामिनो ह्ययम् ॥ १३४ ॥ स एष याचते दण्डं, दिधारयिषते च वः । पाकशासनवच्चण्डशासनः शासनं निजम् ॥ १३५ ॥ अपि शोष्येत पाथोधिर्मेरुरप्युद्रियेत च । कृतान्तोऽपि निहन्येतोत्क्षिप्येताऽपि वसुन्धरा ॥ १३६ ॥ दम्भोलिरपि दल्येत, विध्याप्येताऽपि वाडवः । कथञ्चन न जीयेत, चक्रवर्ती महीतले॥१३७॥ [युग्मम्] देवाऽयं वार्यतां लोकः, स्तोकधी/मतांवरः । प्रगुणीक्रियतां दण्डश्चक्रिणे प्रणतो भव ॥ १३८॥ 10 आकण्ये मत्रिवाचं तां, दृष्ट्वा तान्यक्षराणि च । गन्धेभगन्धमाघ्राय, करीव प्रशशाम सः॥१३९ ॥ उपायनमुपादाय, तं चेषु मागधाधिपः । उपेत्य भरताधीशं, नत्वा चैवं व्यजिज्ञपत् ॥ १४०॥ दिष्ट्या दृष्टिपथं प्राप्तोऽस्यधुना मम भूपते! । स्वामिन् ! कुमुदखण्डस्य, शशाङ्क इव पार्वणः ॥१४१॥ भगवानृषभस्वामी, प्रथमस्तीर्थकृद् यथा । प्रथमश्चक्रवर्ती त्वं, तथा विजयसे भुवि ॥ १४२ ॥ सुरेभस्य प्रतीभः को?, वायोः प्रतिबली च कः?। नमसः प्रतिमानं कः?, प्रतिमल्लश्च तेऽस्तु कः॥१४३।। 15 आकर्णाकृष्टकोदण्डानिर्यातं ते शिलीमुखम् । अलम्भविष्णुः कः सोलु, बिडौजस इवाऽशनिम् ? ॥१४४॥ प्रसादं कुर्वता त्वेष, प्रमत्तस्य मम त्वया । कर्त्तव्यज्ञापनायेषुः, प्रेषि वेत्रिपुमानिव ॥ १४५ ॥ अतः परमहं नाथ !, महीनाथशिरोमणे!। शिरोमणिमिवाऽऽज्ञां ते, धारयिष्यामि मूर्धनि ॥ १४६ ॥ स्वामिन् ! मागधतीर्थेऽस्मिन् , स्थास्याम्यारोपितस्त्वया। तवैव प्राग्जयस्तम्भ, इव निर्दम्भभक्तिभाक् ॥१४७॥ एते वयमिदं राज्यमेष सर्वः परिच्छदः । त्वदीयमेवाऽन्यदपि, शाधि नः पूर्वपत्तिवत् ॥ १४८॥ 20 इत्युक्त्वा सोऽर्पयामास, चक्रिणे पत्रिणं सुरः । तच्च मागधतीर्थाम्भः, किरीटं कुण्डले अपि ॥ १४९ ।। तच्च राजा प्रतीयेष, मागधाधिपति च तम् । सच्चकार महान्तो हि, सेवोपनतवत्सलाः ॥ १५० ॥ ___ अथो रथं वालयित्वा, पथा तेनैव पार्थिवः । स्कन्धावारं निजमगात् , सुत्रामेवाऽमरावतीम् ॥१५१॥ अवरुह्य रथादङ्ग, प्रक्षाल्य सपरिच्छदः । चकाराऽष्टमभक्तान्तपारणं भरतेश्वरः॥१५२ ॥ तदा मागधनाथस्य, महद्धर्या वसुधाधवः । चक्रस्येवोपनतस्य, विदधेऽष्टाहिकोत्सवम् ॥१५३॥ 25 आदित्यस्यन्दनस्रस्तमिव तेजोभिरुल्वणम् । अष्टाहिकोत्सवान्ते च, चक्ररत्नं चचाल खे ॥ १५४ ॥ दक्षिणस्यां वरदामतीर्थ प्रति ययौ ततः । चक्रं तच्चक्रवर्ती च, धातुं प्रादिरिवाऽन्वगात् ॥ १५५ ॥ प्रयाणैः प्रत्यहं गच्छन् , राजा योजनमात्रकैः । दक्षिणाब्धि क्रमात् प्राप, मानसं राजहंसवत् ॥१५६ ॥ एलालवङ्गलवलीकक्कोलबहले नृपः । सैन्यान्यावासयामास, दक्षिणाम्भोधिरोधसि ॥१५७ ॥ आवासान् सर्वसैन्यस्य, पौषधौकश्च वर्द्धकिः । पूर्ववद् रचयामास, शासनाचक्रवर्तिनः॥१५८॥ 30 वरदामामरं चित्ते, कृत्वाऽष्टमतपोऽकरोत् । नृपतिः पौषधागारे, पौषधं च समाददे ॥ १५९ ॥ पौषधान्ते बहिर्भूत्वा, नृपः पौषधवेश्मनः । उपाददे धनुः कालपृष्ठं प्रष्ठो धनुर्भृताम् ॥ १६० ॥ सर्वतः स्वर्णरचितं, खचितं रत्नकोटिभिः । आरुरोह रथं राजा, वासागारं जयश्रियः ॥ १६१ ॥ अधिष्ठितो नृदेवेनाऽत्युदाराकारधारिणा । प्रासाद इव देवेन, शुशुभे स महारथः ॥१६२॥ अनुकूलमरुल्लोलपताकामण्डिताम्बरः । स सन्दनवरोऽम्भोधौ, यानपात्रमिवाऽविशत् ॥ १६३ ॥ १ साहसकारिणः । २ धारयितुमिच्छति । ३इन्द्रवत् । ४ वडवामिः। ५ मल्पबुद्धिः। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथमं पर्व रथाङ्गनाभिद्वयसं, गत्वा जलनिर्जलम् । रथस्तस्थौ रथाग्रस्थसारथिस्खलितैहयैः ॥ १६४ ॥ अन्तेवासिनमाचार्य, इव विश्वम्भरापतिः । आनतीकृत्य विदधेऽधिगुणं विशिखासनम् ॥ १६५ ॥ सङ्ग्रामनाटकारम्भनान्दीनिषिमुच्चकैः । आह्वानमत्रं कालस्य, ज्याटङ्कारं चकार सः ॥ १६६ ॥ आकृष्य बाणधेबोणं, न्यधाद् बाणासने नृपः। भालान्तरालरचिततिलकश्रीमलिम्लुचम् ॥ १६७॥ वक्रीकृतस्य धनुषो, मध्ये धर्धमदायिनम् । शिलीमुखं महीनाथः, कर्णजाहमुपानयत् ॥१६८ ॥ किं करोमीति विज्ञीप्सुमिव कर्णान्तमागतम् । विससर्ज शरं राजा, वरदामाधिपं प्रति ॥ १६९ ॥ शैलैः पतत्पविभ्रान्त्या, तायभ्रान्त्या च पन्नगैः । अब्धिना चाऽपरौर्वाग्निभ्रान्त्या सभयमीक्षितः ॥१७॥ गगनं द्योतयन्नुच्चैर्गत्वा द्वादशयोजनीम् । बाणः सोऽपतदुल्केव, वरदामेशपर्षदि ॥१७१॥ [युग्मम् ] विद्विषत्प्रेषितं घातकारं नरमिवाऽग्रतः । पतितं प्रेक्ष्य तं वाणं, चुकोप वरदामराट् ॥ १७२ ॥ 10 उद्वेल इव पाथोधिरुद्धान्तधूतरङ्गितः । उद्दामां वरदामेशो, वाचमेवमवोचत ॥ १७३॥ केनाऽद्य केसरी सुप्तः, पदा स्पृष्ट्वा प्रबोधितः ? । कस्य वाचयितुं पत्रमद्योदक्षेपि मृत्युना ? ॥ १७४ ॥ कुष्ठीवोत्पन्नवैराग्यो, जीवितव्यस्य कोऽथवा ? । चिक्षेप यो रभसया, मम पर्षदि पत्रिणम् ॥ १७५ ॥ तमनेनैव बाणेन, हन्मीति वरदामराट् । उत्थाय पाणिना बाणं, तं कोपग्रहिलो ग्रहीत् ॥ १७६ ॥ मागधाधीश्वर इव, वरदामेश्वरस्ततः । तानि तत्राऽक्षराणीक्षाश्चके पत्रिणि चक्रिणः ॥१७७ ॥ 15 तान्यक्षराणि सम्प्रेक्ष्याऽहिर्नागदमनीमिव । वरदामपतिः सद्योऽप्यशाम्यदिति चाब्रवीत् ॥ १७८ ॥ मण्डूक इव कृष्णाहेश्चपेटां दातुमुद्यतः । प्रजिहीर्षुर्विषाणाभ्यामुरघ्र इव दन्तिनः ॥ १७९ ॥ पिपातयिषुरुव/धं, दशनाभ्यामिव द्विपः । मन्दधीर्भरतेनाऽसि, युयुत्सुश्चक्रवर्तिना ॥ १८० ।। भवत्वद्यापि नो किञ्चिद्, विनष्टमिति स ब्रुवन् । उपायनान्युपानेतुं, दिव्यानि खान् समादिशत् ॥१८१॥ ततस्तं शरमादाय, प्राभृतान्यद्भुतानि च । आर्षभिं सोऽभ्यगादिन्द्र, इव श्रीऋषभध्वजम् ॥१८२॥ 20 स नत्वा तमुवाचैवमद्य क्ष्मापुरुहूत ! ते । दूतेनेव समाहूतः, पत्रिणाऽहमिहाऽऽगमम् ॥ १८३ ॥ त्वामिहाऽऽयातमुर्वीश, न स्वयं यदुपागमम् । सहस्त्र मे तदज्ञस्य, निद्भुते दोषमज्ञता ॥ १८४ ॥ श्रान्तेनेवाऽऽश्रमः पूर्ण, तृषितेनेव पल्वलम् । स्वामिन्नवामिना स्वामी, मया प्राप्तोऽसि सम्प्रति ॥१८५॥ अद्य प्रभृति भूनाथ !, स्थापितोऽहमिह त्वया । स्थास्यामि भवतो वेलाधरो गिरिरिवोदधेः ॥ १८६ ॥ इत्युक्त्वा भरतेशाय, निर्भरं भक्तिभागसौ । अर्पयामास तं वाणं, न्यासीकृतमिवाऽग्रतः ॥ १८७॥ 25 कटीसूत्रं स्नमयं, रोचीरोचितदिभुखम् । राज्ञः सोऽदात् तिग्मरोची रोचिभिरिव गुम्फितम् ॥ १८८ ॥ पुरतो भरतेशस्य, ढोकयामास चोज्वलम् । मुक्ताराशिं यशोराशिमिव खं चिरसञ्चितम् ॥ १८९॥ महीपतेरुपददाववदातोद्यतद्युतिम् । रत्नाकरस्य सर्वस्वमिव रत्नोत्करं च सः॥१९॥ तत् सर्वमग्रहीद राजाऽन्वग्रहीद् वरदामपम् । अस्थापयञ्च तत्रैव, तं कीर्तनमिव खकम् ॥ १९१ ॥ घरदामेशमाभाष्य, सप्रसादं विसृज्य च । जगाम जगतीनाथो, विजयी शिबिरं निजम् ॥ १९२ ॥ 30 अवतीर्य रथात् स्नात्वाऽष्टमभक्तान्तपारणम् । चक्रे समं परिजनैः, स राजरजनीकरः ॥ १९३ ॥ वरदामाधिपस्याऽथ, स चक्रेऽष्टालिकोत्सवम् । लोके महत्वदानाय, महन्त्यात्मीयमीश्वराः ॥ १९४ ॥ प्रति प्रतीची प्राचीनबर्हिरन्य इवौजसा । चक्री चक्रानुगोऽचालीत् , प्रभासाभिमुखं ततः॥१९५॥ पूरयन रोदसीरन्ध्र, "नीरन्धैः सैन्यरेणुभिः । स प्रयाणैः कतिपयैः, पयोधि प्राप पश्चिमम् ॥ १९६ ॥ १धुरा। २ कर्णपयन्तम् । ३ अन्यवडवाग्निभ्राम्त्या। भेकः। ५ शृङ्गाभ्याम् । ६ मेषः । पर्वतम् । भरतम्। ९हे पृथ्वीन्द्र!। १० लघुजलाशयः। ११ कीर्तिकारकमिव । १२ राजचन्द्रः। १३ पूजयन्ति। इन्द्रः । १५ गावाभूमी। १६ घनैः। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । ततः क्रमुकताम्बूलीनालिकेरीवनाकुले । स्कन्धावारं विनिदधे, स रोधस्यपरोदधेः ॥ १९७ ॥ प्रभासनाथमुद्दिश्याऽष्टमभक्तं व्यधात् ततः । राजा जग्राह च प्राग्वत् , पौषधं पौषधौकसि ॥ १९८ ॥ पौषधान्त समारुह्य, स्यन्दनं मेदिनीपतिः । प्रविवेश पयोराशि, पाशपाणिरिवाऽपरः ॥ १९९ ॥ अतिक्रम्य जलं चक्रनाभिदघ्नं महीपतिः । स्यन्दनं धारयामासाऽधिज्यं च विदधे धनुः ॥२०॥ जयश्रीकेलिवल्लंक्या, धनुर्यष्टेर्विशांपतिः। पाणिना वादयामास, मौवीं तन्त्रीमिवोच्चकैः ॥२०१॥ शरं चकर्ष रिधीरधेर्वेत्रदण्डवत् । आसयच नृपो बाणासनेतिथिमिवाऽऽसने ॥ २०२॥ ततः प्रभासाभिमुखं, तं चिक्षेप शिलीमुखम् । आदित्यबिम्बादाकृष्टमिवैकं किरणं नृपः ॥ २०३ ॥ वेगाद् वायुरिवोल्लङ्घय, वार्द्धादशयोजनीम् । द्या भाभिर्भासयन प्राप, स प्रभासेशवेश्मनि ॥२०४॥ _क्रुद्धः सोऽपि शरं प्रेक्ष्य, प्रेक्ष्य तत्राऽक्षराणि च । सद्योऽशाम्यन्नट इव, प्रादुष्कृतरसान्तरः॥२०५॥ तं पत्रिणमुपादायोपदामप्यपरां स्वयम् । ययौ भूपं प्रभासेशो, नत्वा चैवं व्यजिज्ञपत् ॥ २०६॥ 10 अद्य देव ! प्रभासोऽसि, भासितः स्वामिना त्वया । रवेः करैः कमलानि, कमलानि भवन्ति हि॥२०७॥ एष प्रत्यग्दिगन्तस्थः, सामन्त इव ते प्रभो! । सर्वदा शासनं मूर्धा, धास्याम्यवनिशासन ! ॥२०८॥ इत्युक्त्वा भरतेशस्य, तमादौ प्रहितं शरम् । खलूरिकापत्तिरिख, प्रभासपतिरार्पयत् ॥ २०९ ॥ कटकानि कटीसूत्रं, चूडामणिमुरोमणिम् । निष्कादि चार्पयद् राज्ञे, मूर्त तेज इव स्वकम् ॥ २१ ॥ तस्याऽऽश्वासकृते सर्व, तदुर्वीपतिरग्रहीत् । प्रभोः प्रसादचिह्न हि, प्राभृतादानमादिमम् ॥ २११ ॥ 15 तत्रैव स्थापयित्वा तमावाल इव पादपम् । स आययौ पुनः स्कन्धावारं वैरिनिवारणः ॥ २१२ ॥ तत्कालं गृहिरत्नेन, कल्पावनिरुहेव सः । उपनीतैर्दिव्यभोज्यैर्विदधेऽष्टमपारणम् ॥ २१३ ॥ नृपः प्रभासदेवस्य, चक्रे चाऽष्टाहिकोत्सवम् । आदौ सामन्तमात्रस्याऽप्युचिताः प्रतिपत्तयः ॥ २१४ ॥ अनुदीपमिवाऽऽलोकोऽनुचक्र भूपतिर्ययौ । ततः सिन्धोर्महासिन्धो, रोधः प्राप च दक्षिणम् ॥२१५॥ पूर्वाभिमुखमुर्वीशो, गत्वा तेनैव रोधसा । निषा सिन्धुसदनं, स्कन्धावारं न्यवीविशत् ॥ २१६॥ 20 अष्टमं विदधे तत्र, सिन्धुं मनसिकृत्य सः । आसनं सिन्धुदेव्याचाञ्चलद् वाताहतोर्मिवत् ।। २१७ ॥ ततः साऽवधिनाऽज्ञासीदायातं चक्रवर्त्तिनम् । प्रभूतैः प्राभृतैर्दिव्यैस्तं चाऽर्चितुमुपाययौ ॥ २१८ ॥ ततो जयजयेत्याशीःपूर्वकं सा नभःस्थिता । इत्यूचेऽत्राऽसि ते चक्रिन्', किङ्करी करवाणि किम् ? ॥२१९॥ श्रीदेव्या इव सर्वखं, निधीनामिव सन्ततिम् । साऽष्टोत्तरं रत्नकुम्भसहस्रं भूभुजे ददौ ॥ २२० । सहोद्वोढुं प्रकृतयोरिव कीर्तिजयश्रियोः । योग्ये नृपतयेऽयच्छद्, रत्नभद्रासने च सा ॥ २२१ ॥ नागराजशिरोरत्नान्युद्धृत्येव विनिर्मितान् । दीपरत्नमयान् राज्ञे, सा ददौ बाहुरक्षकान् ॥ २२२ ॥ मध्योत्कीणोकेबिम्बाभानदत्त कटकांश्च सा । मृदनि मुष्टिग्राह्याणि, दिव्यानि वसनानि च ॥ २२३॥ तत्सर्व प्रतिजग्राह, स सिन्धोः सिन्धराडिव । तां स प्रसादालापेन, प्रमोघ विससर्ज च ॥ २२४ । अथाऽभिनेवराकेन्दुसोदरे स्वर्णभाजने । चकाराऽष्टमभक्तान्तभोजनं भूभुजां विभुः ॥२२५ ॥ सिन्धुदेव्या नरदेवो, विदधेष्टाहिकोत्सवम् । दर्यमानपथश्चक्रेणाऽग्रेग्वेव चचाल च ॥ २२६ ॥ 30 दिशोदक्पूर्वया गच्छन्, क्रमेण भरतेश्वरः। भरतार्द्धद्वयाँघाट, प्राप वैताव्यपर्वतम् ॥ २२७॥ नितम्बे दक्षिणे तस्य, स्कन्धावारं न्यवीविशत । अन्तरीयमिव क्षमापो. विस्तारायामशोभितम ॥२२८॥ चकाराऽष्टमभक्तं च, तत्र विश्वम्भरीपतिः। वैताठ्याद्रिकुमारस्य, पर्यकम्पिष्ट चाऽऽसनम ॥२२९॥ १ पूगवृक्षाः। २ पश्चिमसमुद्रस्य । ३ वरुणः। ४ रथाङ्गानामिप्रमाणम् । ५ जयलक्ष्मीकीडावीणायाः। ६ निषङ्गात् । ७ वृक्षविशेषः। ८ शस्त्राभ्यासभूमिः। ९ वक्षःस्थलमणिम्। १० दीनारादि। ११ उपायनग्रहणम्। १२ कल्पना । १३ सत्काराः । १४ समीपे । १५ अभिनवपूर्णिमाचन्द्रसदृशे । १६ अग्रगामिना। १७ भरवाईद्वयसीमानम् । १८ पृथ्वीपतिः। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीक्षेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व उत्पन्नो भरतक्षेत्रे, प्रथमश्चक्रवर्त्यसौ । इत्यज्ञासीदवधिना, वैताब्याद्रिकुमारकः॥२३०॥ अथाऽभ्यगात् स भरतं, व्योमस्थश्चाब्रवीदिदम् । प्रभो! जय जयैषोऽस्मि, सेवकस्ते प्रशाधि माम् २३१ स महाया॑णि रत्नानि, रत्नालङ्करणानि च । देवदष्याणि च राजे, कोशायुक्त इवाऽऽर्पयत् ॥ २३२ ॥ भद्रासनानि भद्राणि, भूयास्यवनिशासिने । प्रतापसम्पदः क्रीडावेश्मानि विततार सः ॥ २३३ ॥ तस्य प्रत्यग्रहीत् तच्च, सर्व सर्वसंहापतिः । अलुब्धा अपि गृह्णन्ति, भृत्यानुग्रहहेतुना ॥ २३४ ॥ नृपस्तमथ सम्भाष्य, विससर्ज सगौरवम् । महान्तो नाऽवजानन्ति, नृमात्रमपि संश्रितम् ॥ २३५ ॥ चकाराऽष्टमभक्तान्ते, पारणं पृथिवीपतिः । चक्रे च वैतात्यगिरिदेवस्याऽष्टाह्निकोत्सवम् ।। २३६ ॥ गुहां तमिस्रामुद्दिश्य, चक्ररत्नं ततोऽचलत् । राजाऽप्यगात् तस्य पदान्वेषकस्येव पृष्ठतः ॥ २३७ ॥ गत्वा तमिस्रासविधे, सैन्यान्यावासयन्नृपः । विद्याधरपुराणीवाऽवतीर्णानि गिरेरधः ॥ २३८ ॥ 10 कृत्वा मनसि भूपालः, कृतमालमथाऽमरम् । चक्रेऽष्टमतपोऽचालीत, तस्य देवस्य चाऽऽसनम् ॥२३९॥ सोऽज्ञासीदवधिज्ञानादागतं चक्रवर्तिनम् । आजगामाऽर्चितुं तं च, चिराद् गुरुमिवाऽतिथिम् ॥ २४० ॥ स्वामिन् ! तमिस्राद्वारेऽस्मिन् , द्वारपाल इवाऽस्मि ते । इति ब्रुवन् महीभर्तुः, स सेवां प्रत्यपद्यत ॥२४१॥ स्त्रीरत्नयोग्यं तिलकचतुर्दशमनुत्तमम् । दिव्याभरणसम्भारं, विततार स भूभुजे ॥ २४२ ॥ तद्योग्यानि च माल्यानि, दिव्यानि वसनानि च । सोऽदाद् राज्ञे धारितानि, प्राक् तदर्थमिवाऽऽदरात् २४३ 15 राजा तदाददे सर्व, कृतार्था अपि भूभुजः । न त्यजन्ति दिशो दण्डं, चिह्न दिग्विजयश्रियः ॥ २४४ ॥ प्रसादेनाऽतिमहता, सम्भाष्य विससर्ज तम् । शिष्यमध्ययनप्रान्त, उपाध्याय इवाऽऽर्षभिः ॥ २४५ ॥ भून्यस्तंभाजनैरग्रे, भुञ्जानै राजकुञ्जरैः । स्वांशैरिव पृथग्भूतैः, समं चक्रे स पारणम् ॥ २४६ ॥ सोऽकरोत् कृतमालस्य, देवस्याऽष्टाह्निकोत्सवम् । प्रभवः प्रणिपातेन, गृहीताः किं न कुर्वते ? ॥२४७॥ सुषेणाभिधमन्येयुः, सेनापतिमिलापतिः । समाहूय हेरिरिव, नैगमेषिणमादिशत् ॥ २४८ ॥ 20 सिन्धुसागरवैताट्यसीमानं सिन्धुनिष्कुटम् । दक्षिणं साधयोत्तीर्य, चर्मरलेन निम्नगाम् ॥ २४९ ॥ बदरीवणवत् तत्र, म्लेच्छानायुधयष्टिभिः । ताडयित्वा चित्ररत्नसर्वस्वफलमाहरेः॥ २५० ॥ ___ ततः स सेनाधिपतिर्मृगाधिपतिरोजसा । तेजसा तेजसांनीथो, धिषणो धिषणागुणैः ॥ २५१ ॥ निम्नानां निष्कुटानां च, जलस्थलभुवामपि । अन्येषामपि दुर्गाणां, तजन्मेव प्रचारवित् ॥ २५२ ॥ सम्पूर्णलक्षणः सर्वम्लेच्छभाषाविचक्षणः । शिरसा शासनं भर्तुस्तत्प्रसादमिवाऽऽददे ॥ २५३ ।। 25 [त्रिभिर्विशेषकम् ] प्रणम्य स्वामिनं गत्वा, स्वावासे निदिदेश सः। सामन्तादीन प्रयाणाय, प्रतिच्छन्दानिवाऽऽत्मनः ।।२५४॥ अथ स्नात्वा कृतबलिमहीय॑खल्पभूषणः । संवर्मितः कृतप्रायश्चित्तकौतुकमङ्गलः ॥ २५५ ॥ जयश्रियाऽऽलिङ्गनाय, प्रक्षिप्तामिव दोर्लताम् । रत्नप्रैवेयकं दिव्यं, धारयन् कण्ठकन्दले ॥ २५६ ॥ शोभितश्चिह्नपट्टेन, पट्टद्विप इवोच्चकैः । गृहीतास्त्रः कटौ विभ्रन्मूर्ती शक्तिमिव क्षुरीम् ॥ २५७ ॥ 30 बिभ्राणः स्वर्णतूणीरावतुच्छौ सरलाकृती । पृष्ठतोऽपि रणं कर्तु, दोर्दण्डाविव वैक्रियौ ॥२५८ ॥ गणनेतृदण्डनेतृश्रेष्ठिभिः सार्थवाहिभिः । सन्धिपालचराद्यैश्च, युवराज इवाऽऽवृतः ॥ २५९ ॥ आरुरोह स सेनानीर्गजरत्नं नगोन्नतम् । निश्चलानासनस्तेनाऽऽसनेन सहभूरिव ॥ २६० ॥ [षड्भिः कुलकम् ] १ पृथ्वीपतिः। २ अवज्ञा कुर्वन्ति। * भक्तस्य, खंता ॥ ३ भरतः। ४ भूमिस्थापितपात्रैः। ५ इन्द्रः । जत्तीर्येमां नदी रत्नचर्मणा खंता ॥ ६ सूर्यः। ७ बृहस्पतिः ८ बुद्धिगुणैः। ९ मार्गवेत्ता। १० प्रतिबिम्बरूपान् । १. महामूल्यस्वल्पाभरणः। १२ रखमयं ग्रीवाभरणम् । १३ प्रधानहस्ती। १४ पर्वतोचतम् । १५ सहजातः इव । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम । शोभमानः सितच्छत्रचामरैः सोऽमरोपमः । वारणं प्रेरयामास, चरणाडुष्ठसंज्ञया ॥२६१ ॥ ममं राज्ञोऽर्द्धसैन्येन, स गत्वा सिन्धुरोधस्ति । अस्थाहुद्धृतरजसा, सेतुबन्धमिवादधत् ॥ २६२ ॥ योजनान्येधते म्पृष्टं, यच्च द्वादश यत्र च । प्रातरुमानि धान्यानि, निष्पद्यन्ते दिनात्यये ॥ २६३ ।। नंदीनदनदीनाथाम्भासु यत् तारणक्षमम् । तत् सम्पस्पर्श हस्तेन, चर्मरतं चम्पतिः॥२६४॥सन्दानितकम् नैसर्गिकप्रभावेन, प्रससार तटद्वयम् । तचर्मरलं प्रक्षिप्तं, सलिलोपरि तैलवत् ॥ २६५ ॥ सँह चम्वा चमूनाथश्चर्मरत्नेन नेन सः । उचीर्य पद्यवेवाऽऽपदापायाः परं तटम् ॥ २६६ ॥ तं सिसाधयिषुः सर्व, सिन्धोर्दक्षिणनिष्कुटम् । कल्पान्तपाथोधिरिव, प्रससार चम्पतिः ॥ २६७ ॥ धनुर्निर्घोषबूत्कारदारुणो रणकौतुकी । लीलयैव पराजिग्ये, स सिंह इव सिंहलान् ॥ २६८ ॥ बर्बरानात्मसाच्चके, मूल्यातानित्र किङ्करान् । दृष्ट्वाणानतयामास, राजाङ्केन हयानिव ॥ २६९ ॥ रत्नाकरमिवानीरं, रत्नमाणिक्यपूरितम् । अजयजयनद्वीप, नरद्वीपी स लीलया ॥ २७० ॥ 10 तथा कालमुग्खास्तेन, जिग्यिरे ते यथाऽभवन । अभुजाना अपि मुखे, क्षिप्तपश्चाङ्गलीदलाः ॥२७१ ॥ म्लेच्छा जोनकनामानस्तस्य प्रसरतः सतः। आसन पराअखा वायोरिव पादपपल्लवाः॥२७२ ॥ अपरा अपि वैताव्यपर्वतोपत्यकास्थिताः । म्लेच्छजातीविजिग्ये सोहिजातीरिव वार्त्तिकः ॥ २७३ ।। प्रौढप्रतापग्रसरः, प्रसरन्ननिवारितम् । आक्रामत् कच्छदेशोवी, सर्वां दिवमिवार्यमा ॥ २७४ ।। इति निष्कुटमाक्रम्य, पञ्चानन इवाटवीम् । समोया कच्छदेशस्य, तस्थौ सुस्थश्चमूपतिः ॥ २७५ ॥ 15 म्लेच्छभूपतयस्तत्र, विचित्रोपायनैः समम् । सेनापति समापेतुर्भक्त्या पतिमिव स्त्रियः ॥ २७६ ॥ रत्नवर्णोत्करान् केचित् , स्वर्णशैलतटोपमान् । केचिचलितविन्ध्याद्रिकल्पान् करटिनो ददुः ।। २७७॥ केचिद् विश्राणयामासुर्वाजिनोऽत्यर्कवाजिनः । केचिदञ्जननिष्पन्नान् , स्थान देवरथोपमान् ॥ २७८ ॥ तत्राऽन्यदपि यत् सारं, तस्मै सर्वेऽपि तद् ददुः । गिरिभ्योऽपि सरित्कृष्ट, रत्नं रलाकरे व्रजेत् ॥ २७९ ॥ तवाऽऽयुक्ता इवाऽऽदेशकरा वयमतः परम् । स्थास्यामः खस्वविषयेष्वित्यूचुस्ते चमूपतिम् ॥ २८०॥ 20 महीभुजस्तान् यथार्ह, सत्कृत्य विससर्ज सः । पूर्ववञ्च सुखं सिन्धुमुत्ततार तरङ्गिणीम् ॥२८१ ॥ म्लेच्छेभ्य आहृतं सर्व, तं दण्डं दण्डनायकः । दोहदं कीर्तिवल्लीनां, ढौकयामास चक्रिणे ॥ २८२ ।। सत्कृतः कृतिना सोऽथ, प्रमादाञ्चक्रवर्तिना । विसृष्टश्च प्रहृष्टोऽगानिजावासं चमूपतिः ॥ २८३ ॥ अयोध्यायामिव सुखं, तत्राऽस्थाद् भरतेभरः । सिंहः प्रयाति यत्रापि, तस्यौकः खं तदेव हि ॥२८४॥ __ अन्येदुराहय चम्पतिं भूपतिरादिशत् । उद्घाटय नमिलायाः, कपाटद्वितयीमिति ॥ २८५ ॥ 25 आज्ञां नरपतेर्मालामित्रोपाढाय मौलिना । अविदूरे तमिस्राया, गत्वा तस्थौ चमूपतिः ॥ २८६ ॥ कृत्वा मनसि सेनानीः, कृतमालमथाऽमरम्म् । चक्रेऽष्टमतपः सर्वास्तपोमूला हि सिद्धयः ॥ २८७ ॥ सेनापतिरथ स्नातः, श्वेतसंव्यानपक्षभृत् । निर्ययौ स्नानसदनात्, सरसो राजहंसवत् ॥ २८८ ॥ सौवर्ण धूपदहनं, लीलास्वर्णारविन्दवत् । सुषेणः पाणिना विभ्रत् , तमित्राद्वारमासदत् ॥ २८१ ।। तत्र चालोकयामास, कपाटौ प्राणमञ्च सः । महान्तः शक्तिमन्तोऽपि, प्रथमं साम कुर्वते ॥ २९० ॥ 90 वैताख्यसञ्चरद्विद्याधरस्त्रीस्तम्भनौषधम् । अष्टाह्निकोत्सवं तत्र, स व्यधत्त महर्द्धिकम् ॥२९१ ॥ अखण्डैस्तन्दुलैरष्टमङ्गली मङ्गलावहाम् । मण्डलं मात्रिक इवाऽऽलिलेख पृतनापतिः ॥ २९२ ॥ वज्र वज्रधरस्येव, चक्रिणो वैरिसूदनम् । दण्डरनमुपादत्त, स्वहस्तेन चमूपतिः ॥ २९३ ॥ नदीहूदसमुद्रजलेषु। * सचमूकश्च खंता ॥ २ नद्याः। ३ वशीचके। नरध्यानः। ५ पर्वतासधभूमिस्थिताः। ६ गारुडिकः। ७ सिंहः । ८ गजान् । ९ अतिक्रान्तसूर्याश्वान् । १० नद्याकृष्टम् । स्वेषु देशस्वित्यूचुस्ते तंच खंता चालोकयाञ्चक्रे खंता ॥ ११ सेनापतिः । त्रिषष्टि. १२ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञनीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व आजिघांसुरपाक्रामत् , सप्ताष्टानि पदानि सः । मनागपसरत्येव, प्रजिहीर्षुर्गजोऽपि हि ॥ २९४ ॥ सेनानीस्तेन दण्डेन, त्रिः कपाटावताडयत् । उच्चैस्तरां कन्दरां तामातोद्यमिव नादयन् ॥ २९५ ॥ वैताड्यपृथिवीध्रस्य, विलोचनपुटे इव । बाढमुजघटाते ते, कपाटे वज्रनिर्मिते ॥ २९६ ॥ ततो विघटमानौ तौ, कपाटौ दण्डताडनात् । तडत्तडिति कुर्वाणी, चक्रन्दतुरिवोच्चकैः ॥ २९७ ॥ उदग्भरतखण्डानां, जयग्रस्थानमङ्गलम् । कपाटोद्घाटनं राजे, सेनानाथो व्यजिज्ञपत् ॥ २९८ ॥ हस्तिरत्नं समारूढः, अरूढप्रौढविक्रमः । अथाऽऽययौ तमिस्रायां, नरेन्द्रश्चन्द्रमा इव ॥ २९९ ॥ मूर्द्धस्थेन शिखाबन्धेनेव येन कदापि हि । उपसँर्गा न जायन्ते, तिर्यग्नरसुरोद्भवाः॥३०॥ अन्धकारमिवाऽशेषं, येनैं दुःखं प्रणश्यति । शस्त्रघाता इव रुजः, प्रभवन्ति न येन च ॥ ३०१॥ नृपो यक्षसहस्रेणाऽधिष्ठितं चतुरङ्गुलम् । उयोतकं भास्करवन्मणिरत्नं तदाददे ॥३०२ ॥ 10 [त्रिभिर्विशेषकम् ] दक्षिणे कुम्भिनः कुम्भस्थले सोऽरिनिषूदनः । पूर्णकुम्भ इव स्वर्णपिधानं निदधे च तत् ॥ ३०३ ॥ चतुरङ्गचमूचक्रयुक्तश्चक्रानुगस्ततः । प्रविवेश गुहाद्वारं, केसरीव नृकेसरी ॥ ३०४ ॥ अष्टसुवर्णप्रमाणं, षट्तलं द्वादशास्रिकम् । समतलं मानोन्मानप्रमाणयोगसंयुतम् ॥ ३०५॥ सर्वदाधिष्ठितं यक्षसहस्रेणाऽष्टकर्णिकम् । योजनानि द्वादशाऽन्धकारन्यकारकारणम् ॥ ३०६ ॥ 15 अधिकरणीसंस्थानं, सूर्यचन्द्रानलप्रभम् । नृपतिः काकिणीरनं, चतुरङ्गुलमाददे ॥ ३०७ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] गोमूत्रिकाक्रमात् तेन, स गुहापार्श्वयोर्द्वयोः । योजनान्ते योजनान्ते, मण्डलान्यालिखन् ययौ ॥३०८॥ धनुःपञ्चशतायामान्येकैकमेकयोजनम् । उयोतकारीण्येकोनपञ्चाशत् तानि जज्ञिरे ॥ ३०९ ॥ तावत् स्थायीनि तान्यासन् , गुहा चोद्घाटितानना । यावजीवति कल्याणी, चक्रवर्ती महीतले ॥३१॥ 20 मण्डलानां प्रकाशेन, तेनाऽप्रस्खलिता चम्ः । सञ्चचार सुखं चक्ररत्नानुगनृपानुगा ॥ ३११ ॥ सा गुहा सञ्चरन्तीभिश्चमूभिश्चक्रवर्तिनः । असुरादिबलै रत्नप्रभामध्यमिवाऽऽवभौ ॥ ३१२ ॥ अन्तः सञ्चरता तेन, चमूचक्रेण सा गुहा । आसीदुद्दामनिर्घोषा, मन्थानेनेव मन्थेनी ॥ ३१३ ॥ रथैः सीमन्तितः सद्योऽश्वखुरैः क्षुण्णकर्करः । जज्ञे पुरीपथ इव, स विलोपि गुहापथः ॥ ३१४ ॥ अन्तःस्थितेन सा तेन, सेनालोकेन कन्दरा । तिरश्चीनत्वमापन्ना, लोकनालिरिवाऽभवत् ॥ ३१५ ।। 25 मध्यभागे तमिस्रायाः, संव्यानंरसने इव । नृपः प्रापदथोन्मना-निमग्ने नाम निम्नगे ॥ ३१६ ॥ याम्योदग्भरतक्षेत्रार्द्धाभ्यामागच्छतां नृणाम् । आज्ञालेखे इव कृते, ते नदीछेमतोऽद्रिणा ॥ ३१७ ॥ तुम्बीफलमिवैकस्यामुन्मजति शिलाऽपि हि । शिलेव तुम्बीफलमप्यन्यस्यां तु निमजति ॥ ३१८॥ तमिस्रायाः पूर्वभित्तेर्निर्गते ते तु गच्छतः । भित्तेः प्रतीच्या मध्येन, सिन्धौ सङ्गममानुतः ॥ ३१९ ॥ बबन्ध वर्द्धकिः पद्यामनवद्यां ततस्तयोः । वैताब्याद्रिकुमारस्य, रहःशय्यामिवाऽऽयताम् ।। ३२० ।। 30 पद्या क्षणेन सा जज्ञे, चक्रभृवर्द्धकेः खलु । गेहाकारद्रुमेभ्यो हि, कालक्षेपो न वास्तुनः ॥ ३२१॥ भूयोभिरपि पाषाणैः, कृता सुश्लिष्टसन्धिभिः । रेजे तावत्प्रमाणैकपाषाणघटितेव सा ॥ ३२२ ॥ सा पाणिवत् समतला, वज्रवच्च द्रढीयसी । गुहाद्वारकपाटाभ्यामिवाऽलक्ष्यत निर्मिता ॥ ३२३ ।। ससैन्योऽपि सुखेनैव, निम्नगे दुस्तरे अपि । समर्थः पदविधिवच्चक्रवर्युत्ततार ते ॥ ३२४ ॥ गुहाया उत्तरं द्वारमुत्तराशामुखोपमम् । सह चम्वा क्रमाद् गच्छन्नासदन्मेदिनीपतिः ॥ ३२५ ॥ त्रिवारम् । २ वैताख्यपर्वतस्य । ३ उपद्रवाः। * °न शेषं प्र° खंता ॥ ४ द्वादशकोणकम् । ५ मन्थनघटी। ६ सञ्चाररहितोऽपि । ७ अधोवस्त्रमेखले। + 'नवस खंता ॥ ८ नद्यौ। ९नदी मिषेण। १० एतदाख्यकल्पवृक्षेभ्यः। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः मर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम । ९१ आकर्ष्याघातनिर्घोषं, याम्यद्वारकपाटयोः । भीताविवोजघटाते, तत्कपाटौ स्वयं क्षणात् ॥ ३२६ ॥ तदा विघटमानौ तौ, सरत्सरितिशब्दतः । सरणप्रेरणमिव, चक्रिसैन्यस्य चक्रतुः ॥ ३२७॥ गुहायाः पार्थभित्तिभ्यां, तथा संश्लिष्य संस्थितो । अलक्ष्येतां यथा तत्राऽभूतपूर्वाविवाररी ॥ ३२८ ॥ __ अथ प्रथमतश्चक्रं, पुरोगं चक्रवर्तिनः । निर्जगाम गुहामध्यादभ्रमध्यादिवायेमा ॥ ३२९ ॥ महीयसा महीनाथो, गुहाद्वारेण तेन च । बलीन्द्र इव पातालविवरण विनिर्ययौ ॥ ३३०॥ तस्या गुहाया निःशङ्कलीलागमनशालिनः । निर्ययुर्दन्तिनो विन्ध्यसानुमद्गह्वरादिव ॥ ३३१॥ गुहातो वल्गु वल्गन्तो, निर्गच्छन्ति म वाजिनः । अम्भोधिमध्यनिर्गच्छदर्कवाजिविडम्बिनः ॥ ३३२ ॥ वैताख्यकन्दरादाढ्यकुंटीगर्भादिवाऽक्षताः । नादयन्तः खनादैयाँ, निरीयुः स्यन्दना अपि ॥ ३३३ ॥ पत्तयोऽपि विनिष्पेतुर्महौजस्का गुहामुखात् । सद्यः स्फुटितवल्मीकवदनादिव पन्नगाः ॥ ३३४ ॥ पञ्चाशद्योजनायामां, तामतिक्रम्य कन्दराम् । उदरभरतवर्षाद्ध, विजेतुं प्राविशन्नृपः ॥ ३३५ ॥ 10 किरातास्तत्र निवसन्त्यापाता नाम दुर्मदाः । आढ्या महौजसो दीप्ता, भूमिष्ठा इव दानवाः ॥३३६॥ तेऽविच्छिन्नमहाहHशयनासनवाहनाः । अनल्पस्वर्णरजताः, कुबेरस्येव गोत्रिणः ॥ ३३७ ॥ बहुजीवधनास्ते च, बहुदासपरिच्छदाः । अजाताभिभवाः प्रायः, सुरोद्यानद्रुमा इव ॥ ३३८ । अनेकसम्परायेषु, नियूंढबलशक्तयः । महाशकटभारेषु, महोक्षा इव ते सदा ॥ ३३९ ॥ प्रसह्य भरताधीशे, कृतान्त इव सर्पति । अनिष्टशंसिनस्तेषामुत्पाता अभवन्निति ॥ ३४० ॥ 15 चलद्भरतसैन्यप्राग्भारभारैरिवाऽर्दिता । प्रकम्पितगृहोद्याना, प्रचकम्पे वसुन्धरा ॥ ३४१ ॥ दिगन्तव्यापिभिः प्रौढैः, प्रतापरिव चक्रिणः । अजायन्त दिशां दाहा, दावानलसहोदराः ॥ ३४२ ॥ क्षरता रजसाऽत्यन्तमनालोकनभाजनम् । बभूवुः ककुभः सर्वाः, पुष्पवत्य इव स्त्रियः ।। ३४३ ॥ दुःश्रवक्रूरनिर्घोषा, आस्फलन्तः परस्परम् । पयोनिधाविव ग्राहा, दुर्वाता विजजृम्भिरे ॥ ३४४॥ निसेतुर्गगनादुल्का, उल्मकानीव सर्वतः । समस्तम्लेच्छव्याघ्राणां, प्रक्षोभस्य निबन्धनम् ॥ ३४५ ॥ अभवन् वज्रनिर्घाता, महानिर्घोषभीषणाः । क्रुद्धोत्थितकृतान्तस्य, हस्तधाता इव क्षितौ ॥ ३४६ ॥ स्थाने स्थाने काकचिल्लमण्डलानि नभस्तले । भ्रमुः समुपसर्पन्त्याछत्राणीवाऽन्तकश्रियः ॥ ३४७ ॥ अथ सौवर्णसन्नाहपरशुप्रासरश्मिभिः । सहस्ररश्मि कुर्वाणं, कोटिरश्मिमिवाऽम्बरे ॥ ३४८ ॥ दन्तुराम्बरमुद्दण्डैदण्डकोदण्डमुद्गरैः । ध्वजस्थव्याघ्रसिंहाहित्रस्ताम्बरचरीगणम् ॥ ३४९॥ महाद्विपघटामेघान्धकारितदिगाननम् । यमाननपरिस्पर्द्धिरथाग्रमकराननम् ॥ ३५० ॥ खुरापातैस्तुरङ्गाणां, पाटयन्तमिव क्षितिम् । जयतूर्यरवेरैः, स्फोटयन्तमिवाऽम्बरम् ॥ ३५१ ॥ भौमेनाऽग्रेसरेणाऽर्कमिव चक्रेण भीषणम् । आयान्तं भरतं दृष्ट्वा, किराताश्चुकुपुस्तराम् ॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] मिथः सम्भूय ते क्रूरग्रहमैत्रीविडम्बिनः । अवनी संजिहीर्षन्त, इव सक्रोधमभ्यधुः ॥ ३५३ ॥ अप्रार्थितप्रार्थयिता, कोऽयं बाल इवाऽल्पधीः । पृथग्जन इव श्रीहीधृतिकीर्तिविवर्जितः ॥ ३५४ ॥ परिक्षीणपुण्यचतुर्दशीको हीनलक्षणः । अस्मद्विषयमायाति, मृग. सिंहगुहामिव ? ॥ ३५५ ॥ 30 तदेनमुद्धताकारं, प्रसरन्तमपि क्षणात् । महावाता इवाऽम्भोदं, प्रक्षिपामो दिशोदिशि ॥ ३५६ ॥ इत्युच्चैर्विब्रुवाणास्ते, सम्भूय भरतं प्रति । उदतिष्ठन्त युद्धाय, प्रत्यब्दं शरभा इव ॥ ३५७॥ अभेद्यान् कूर्मपृष्ठास्थिशकलेरिव निर्मितान् । सन्नाहान् धारयामासुः, किरातपतयोऽथ ते ॥ ३५८ ॥ दिशन्ति मूर्धामुत्केशनिशाचरशिरःश्रियम् । ऋक्षादिकेशच्छन्नानि, शिरस्त्राणानि ते दधुः ॥ ३५९ ॥ १ कपाटौ। २ धनाढ्यगृहगर्भाद् इव । ३ क्षतरहिताः। ४ भूमि स्थिताः । ५ अनेकयुद्धेषु । ६ रजस्वलाः। ७ मत्स्यविशेषाः । ८ खेचरीगणम् । ५ मालग्रहेण । १० रविमङ्गलशनिराहुकेतुरूपाः। 11 अष्टापदाः। १२ भालूकादि। 25 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए कलिकालसर्वज्ञश्रीक्षेमचन्द्राचार्यप्रणीत प्रथमं पर्व उत्साहेनोच्छ्सद्देहतया सन्नाहजालिकाः । त्रुटन्ति स प्रतिमुहुरहो ! तेषां रणोत्कता ॥ ३६० ॥ शिरोभिरुत्कचैस्तेषां, शिरस्त्राणान्युदासिरे । त्राता किमपरोऽस्माकमित्यमर्षवशादिव ॥ ३६१ ॥ केचित् कुपितकीनाशभ्रकुटीकुटिलान्यधुः । धषि शृङ्गघटितान्यधिज्यीकृत्य लीलया ॥ ३६२ ॥ केऽपि सङ्गरदुरांस्तरवारीन् भयङ्करान् । कोशादाचकृपुलीलातल्पकल्पान् जयश्रियः ॥ ३६३ ॥ 5 केचिदुद्दधिरे दण्डान् , दण्डपाणेरिवाऽनुजाः । कुन्ताननर्तयन् केपि, केतूनिव नभस्तले ॥ ३६४ ॥ शूलान्यधारयन् केऽपि, शूलाकर्तुमिव द्विषः । श्रीतये प्रेतराजस्याऽऽमत्रितस्य रणोत्सवे ॥ ३६५ ॥ विद्विषर्तिकाचक्रपाणसर्वस्वतस्करान् । अयःशल्यान् निदधिरे, श्येनानिव करेऽपरे ॥ ३६६ ॥ पिपातयिषव इव, नमस्तस्तारकोत्करम् । केचिदाददिरे सद्यो, मुद्रानुभुरैः करैः ॥ ३६७ ॥ विविधान्यायुधान्यन्येऽप्यधुरायोधनेच्छया । विना शस्त्रं न कोऽप्यासीद् , विना विषमिवोरगः ॥३६८॥ 10 उद्दिश्य भरतानीकमनीकरसलालसाः । अभ्यधावन्नेककालमेकात्मान इवाऽथ ते ॥ ३६९ ॥ भरतस्याऽग्रसैन्येन, सार्द्ध युयुधिरे रयात् । म्लेच्छाः शस्त्राणि वर्षन्तोऽरिष्टाब्दाः करकानिव ॥ ३७० ॥ भुवो मध्यादिवोत्पेतुर्दिअखेभ्य इवाऽपतन् । पेतुश्च व्योमत इव, तेभ्यः शस्त्राणि सर्वतः ॥ ३७१ ॥ भरतेशाग्रसेनायां, किरातानां शिलीमुखैः । न तदासीन यद् भिन्नं, दुर्जनानामिवोक्तिभिः ॥३७२ ॥ म्लेच्छसैन्येन पर्यस्ता, भरतेशाग्रसादिनः । नदीमुखोमय इवाऽवलन् वारिधिवेलया ॥ ३७३ ॥ चक्रिणः करिणस्नेसू , रसन्तो विरसस्वरम् । निनसु म्लेच्छसिंहेषु, शिलीमुखनखैः शितैः ॥ ३७४ ॥ ताडिता म्लेच्छसुभटैश्चण्डैदण्डायुधैर्मुहुः । भूपतेः पत्तयः पेतु लन्तः कन्दुका इव ॥ ३७५ ॥ खच्छन्दं म्लेच्छसैन्येन, नृपाग्रब्वजिनीरथाः । अभज्यन्त गदापातैर्वज्रघातैरिवाऽद्रयः ॥ ३७६ ॥ तिमिङ्गिलैरिव म्लेच्छै स्तस्मिन् समरसागरे । ग्रस्तत्रस्तं नृपचमूनचक्रमजायत ॥ ३७७ ॥ अनाथामिव तां सेना, सेनानाथः पराजिताम् । पश्यन् सुषेणः कोपेनाऽनोदि राज्ञ इवाऽऽज्ञया ॥३७८॥ 20 आताम्रनयनस्ताम्रवदनः स क्षणादभूत् । दुरीक्षो नररूपेण, वैश्वानर इव स्वयम् ॥ ३७९ ॥ रक्षोराज इवाऽशेषान् , ग्रसितुं परसैनिकान् । स्वयं संवर्मयामास, सुषेणः पृतनापतिः ॥ ३८० ॥ उत्साहोच्छसदङ्गत्वादतिगाढत्वमागतम् । सौवर्ण वर्म सेनान्यस्त्वगन्तरमिवाऽशुभत् ॥ ३८१ ॥ अशीत्यङ्गुलमुच्छ्रेित्यामेकन्यूनशताङ्गुलम् । परिणाहे देध्ये पुनरष्टोत्तरशताङ्गुलम् ॥ ३८२ ॥ द्वात्रिंशदङ्गुलोत्सेधं, सततोन्नतमौलिकम् । चतुरङ्गुलकर्ण च, विंशत्यङ्गुलबाहुकम् ॥ ३८३ ॥ 25 षोडशाङ्गुलजङ्घाकं, चतुरङ्गुलजानुकम् । चतुरङ्गुलोच्चखुरं, वृत्तं वलितमध्यकम् ॥ ३८४ ॥ विशालसङ्गतनतप्रसन्नपृष्ठशालिनम् । दुकूलतन्तुभिरिव, कोमलैर्लोमभिर्युतम् ॥ ३८५ ॥ प्रशस्तद्वादशावत, शुद्धलक्षणलक्षितम् । सुजातयौवनप्राप्तशुकपिच्छहरिच्छविम् ॥ ३८६ ॥ कशानिपातरहितं, सादिचित्तानुगामिनम् । रत्नस्वर्णवल्गाव्याजाद् , दोभ्यां श्लिष्टमिव श्रिया ॥३८७ ॥ काश्चनैः *किङ्किणीजालैः, क्वणद्भिर्मधुरस्वरम् । अन्तर्ध्वनन्मधुकराम्भोजस्रग्भिरिवाऽचितम् ॥ ३८८ ॥ 30 पञ्चवर्णमणीमिश्रस्वर्णालङ्करणांशुभिः । रूपाद्वैतपताकाङ्कमिव विभ्राणमाननम् ॥ ३८९ ॥ काञ्चनाम्भोजतिलकं, भौमाङ्कितमिवाऽम्बरम् । चामरोत्तंसनिभतोऽन्यौ कर्णाविव विभ्रतम् ॥ ३९० ॥ वज्रिणो वाहनमिवाऽऽकृष्टं पुण्येन चक्रिणः । मुञ्चन्तं चरणौ वक्रो, पतन्तौ लालकादिव ॥ ३९१ ॥ सुपर्णमन्यमूर्येव, मूर्तिमन्तमिवाऽनिलम् । क्षणेन योजनशतोल्लङ्घने दृष्टविक्रमम् ॥ ३९२ ॥ कर्दमोदकपाषाणशर्करागर्त्तदुःषमात् । महास्थलीगिरिदरीदुर्गाचोत्तारणक्षमम् ॥ ३९३ ॥ १रणोत्कण्ठता। २ खड्गान् । ३ लीलाशय्यासदृशान् । ४ यमस्य । ५ लोहशल्यान् । ६ उत्पातमेघाः। वर्षोपलान् । ८ महामत्स्यैः। ५ अग्निः। १० औचत्ये। ११ विशालतायाम्। * किडणी खंता॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ] त्रिषष्टशलाकापुरुषचरितम् । ईषद्भूलग्नपादत्वात् सञ्चरन्तमिवाम्बरे । मेधाविनं विनीतं च पञ्चधाराजितश्रमम् ॥ ३९४ ॥ कमलामोदनिःश्वार्स, कमलापीडमाख्यया । साक्षाज्जयमिवाऽऽरोहद्, वाजिराजं चमूपतिः ।। ३९५ ॥ [ चतुर्दशभिः कुलकम् ] पञ्चाशदङ्गुलं दैर्ये, विस्तारे षोडशाङ्गुलम् । अर्द्धाङ्गुलं च बाहल्ये, स्वर्णरत्नमयत्संरु || ३९६ ॥ अपास्तको निर्मुक्तनिर्मोकमिव पन्नगम् । तीक्ष्णधारमतिदृढं, द्वैतीयीकमिवाऽशनिम् ॥ ३९७ ॥ विचित्र पुष्कर श्रेणिव्यक्तवर्णविराजितम् । खड्गरत्नं स जग्राह द्विषां पत्रमिवाऽन्तकः ॥ ३९८ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] जातपक्ष इवाहीन्द्र:, सन्नद्ध इव केसरी । बभूव खड्गरलेन, स तेन पृतनापतिः ।। ३९९ ॥ तडिद्दण्ड इवाऽऽकाशे, तरलं भ्रमयन्नसिम् । वाजिनं * प्रेरयामास, सांयुगीनं चमूपतिः ।। ४०० ॥ जलकान्तो जलमित्र, स्फाटयन् विद्विषद्बलम् । विवेश वाजिना तेन, सुषेणः समराङ्गणम् ॥ ४०१ ॥ 10 सुषेणे निति द्विषः केऽपि मृगा इव । नेत्रे निमील्य केऽप्यस्थुः पतित्वा शशका इव ॥ ४०२ ॥ भूरे तस्थुः खेदिता रोहिता इव । आरोहन् विषमस्थानं, केsपि शाखामृगा इव ।। ४०३ ॥ केषाञ्चित् पेतुरस्त्राणि, पत्राणीव महीरुहाम् । आतपत्राणि केषाञ्चिद्, यशांसीव समन्ततः ॥ ४०४ ॥ केषाञ्चित् तुरगास्तस्थुर्मन्त्रस्तन्धा इवोरगाः । केषाञ्चिदप्यभज्यन्त, स्यन्दना मृन्मया इव ॥ ४०५ ॥ स्वमप्यसंस्तुतमिव, प्रत्यैक्षन्त न केचन । आत्मप्राणान् गृहीत्वा तु ययुम्लेच्छा दिशोदिशम् ॥ ४०६ ।। 15 पर्यस्तास्ते सुषेणेनाम्भः पूरेण द्रुमा इव । निःस्थामानो योजनानि, भूयांसि व्यपचक्रमुः ॥ ४०७ ॥ 20 ते वायसा इवैकत्र, सम्भूयाऽऽलोच्य च क्षणम् । आतुरा मातरमिव, ययुः सिन्धुं महानदीम् ॥ ४०८ ॥ तस्याश्च सैकते कृत्वा, संस्तरान् सिकतोत्करैः । ते सम्भूयोपविविशुरपस्त्रानोद्यता इव ॥ ४०९ ॥ नशा उत्तानका मेघमुखान् स्वकुलदेवताः । चित्ते नागकुमारांस्ते, कृत्वाऽष्टमतपो व्यधुः ॥ ४१० ॥ तदष्टमतपः प्रान्ते, चक्रितेजोभयादिव । तेषां नागकुमाराणामासनानि चकम्पिरे ॥ ४११ ॥ ते दृष्ट्वाऽवधिना तांस्तु, म्लेच्छानार्त्तास्तथास्थितान् । अर्त्या पितृवदभ्येत्य, प्रादुरासंस्तदग्रतः ॥ ४१२ ॥ ब्रूत भो ! भवतामर्थः, कोऽधुना मनसीप्सितः ? । अन्तरिक्षस्थिता एवं, ते किरातान् बभाषिरे ||४१३ ॥ दृष्ट्वा मेघमुखान्नागकुमारान्नभसि स्थितान् । तेऽबभन्नञ्जलीन् भालेष्वत्यन्ततृषिता इव ॥ ४१४ ॥ अस्मद्देशमनाक्रान्तपूर्वं कोऽप्यागतोऽधुना । यथा स गच्छति तथा, कुरुतेत्यूचिरे च ते ।। ४१५ ।। ऊचुर्मेघमुखाचैवं, भरतश्चक्रवर्त्ययम् । देवासुरनरेन्द्राणामप्यजय्यो महेन्द्रवत् ॥ ४१६ ॥ मत्रतत्रविषास्त्रानिविद्यादीनामगोचरः । गिरिग्रावेव टङ्कानां चक्रवत्तीं महीतले ।। ४१७ ॥ युष्माकमनुरोधेन, वयमस्य तथाऽपि हि । उपसर्ग करिष्याम, इत्युक्त्वा ते तिरोऽभवन् ।। ४१८ ॥ अम्भोध इवोत्पत्य, भुवोऽम्भोदा नभस्तलम् । व्यामुवन्तोऽञ्जनश्यामरुचः सञ्जज्ञिरे क्षणात् ॥४१९॥ तेऽतर्जयन्निव तडित्तैर्जन्या चक्रभृचमूम् । ऊर्जितैर्गर्जितरवैश्वाऽऽचुक्रुशुरिवाऽसकृत् ॥ ४२० ॥ ते तस्थुरुपरि क्ष्मापस्कन्धावारस्य तत्क्षणम् । चूर्णनाय तत्प्रमाणोद्यतवत्रशिलोपमाः ॥ ४२१ ॥ अयोग्रैरिव नाराचैरिव दण्डैरिवाऽथ ते । धाराभिरम्भसां तत्र, प्रावर्त्तन्त प्रवर्षितुम् ॥ ४२२ ॥ मेघाम्भसा पूर्यमाणे, समन्तादपि भूतले । अनव्यन्त रथास्तत्राऽनक्रायन्त गजादयः ॥ ४२३ ॥ क्वाऽप्यगच्छदिवाऽऽदित्यः, प्रणेशुरिव पर्वताः । तेन मेघान्धकारेण, स्फूर्जता कालरात्रिवत् ॥ ४२४ ॥ १ खङ्गमुष्टिः । 'चोदयामास सं २, आ. नोदयामास खता ॥ २ रणकुशलम् । ३ कपयः । ४ अपरिचितम् । ५ निर्बलाः । ६ मृतखाने उग्रता इव । ७ पूर्वमनाक्रान्तम् । ८ गिरिपाचाणः । ९ पाषाणभेदनास्त्राणाम् । १० विद्रूपपर्जन्य कुल्या । ११ कोहाः । १२ नौवदाचरणमकुर्वत । १३ नक्रवदाचरणमकुर्वत । ९.३ * 5 25 30 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथमं पर्व एकान्धकारता चैकजलभावश्च भूतले । तदानीं युगपद् युग्मधर्माविव बभूवतुः || ४२५ ॥ अरिष्टवृष्टिमुत्कृष्टां प्रेक्ष्य तां चक्रवर्त्त्यपि । चर्मरत्नं स्वहस्तेन, प्रियभृत्यमिवाऽस्पृशत् ॥ ४२६ ॥ स्पृष्टं तच्चक्रिहस्तेन, चर्मरत्नमवर्द्धत । योजनानि द्वादशोद पवनेनेव वारिदः ॥ ४२७ ॥ तस्मिन् जलस्योपरिस्थे, घनाब्धेरिव भूतले । चर्मरले समारुह्य, तस्थौ राजा ससैनिकः ॥ ४२८ ॥ मण्डितं नवनवत्या, सहस्रैरैतिचारुभिः । चामीकरशलांकाभिः, क्षीराब्धिमिव विद्रुमैः ॥ ४२९ ॥ व्रणग्रन्थिविहीनेन, सरलत्वैकशालिना । नालेन नलिनमिव, स्वर्णदण्डेन शोभितम् ॥ ४३० ॥ तोयातपमरुद्रेणुत्राणक्षममिलापतिः । पस्पर्श पाणिना छत्रं, चर्मवद् ववृधे च तत् ॥ ४३१ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] छत्रदण्डस्योपरि च, ध्वान्तध्वंसकृते नृपः । तेजसाऽतिनभोरलं, मणिरत्नं न्यवेशयत् ॥ ४३२ ॥ 10 तरदण्डमिवाऽराजत्, सम्पुटं च्छत्रचर्मणोः । ततः प्रभृति लोकेऽभूद्, ब्रह्माण्डमिति कल्पना ॥ ४३३ ॥ चर्मरले च सुक्षेत्र, इवोप्तानि दिवामुखे । सायं धान्यान्यजायन्त गृहिरत्नप्रभावतः ॥ ४३४ ॥ प्रातरुप्ताश्च कूष्माण्डपालक्यामूलकादयः । दिनान्ते निरपद्यन्त, प्रासादा ऐन्दवा इव ।। ४३५ ॥ उप्ता दिनमुखे चूतकदल्याद्याः फलद्रुमाः । दिवान्तेऽपि फलन्ति स्म, प्रारम्भा महतामिव ॥ ४३६ ॥ धान्यशाकफलान्येतान्यभुक्त मुदितो जनः । उद्यानकेलिगतवन्नाबुद्ध कटकश्रमम् ॥ ४३७ ॥ चर्मरतच्छत्ररत्नमध्ये मध्यजगत्पतिः । प्रासादस्थ इव स्वस्थोऽवतस्थे सपरिच्छदः ॥ ४३८ ॥ सप्ताऽभूवनहोरात्राण्यश्रान्तं तत्र वर्षताम् । तेषां नागकुमाराणां तदा कल्पान्तकालवत् ॥ ४३९ ॥ पापाः केऽमी ममेदृक्षोपसर्गं कर्तुमुद्यताः ? । इति भावं नरेन्द्रस्य, विदित्वाऽथ महौजसः ॥ ४४० ॥ सदा सन्निहिता यक्षास्ते सहस्राणि षोडश । सन्नद्धा बद्धतूणीरा, अधिज्यीकृतकार्मुकाः ॥ ४४१ ॥ दिर्घक्षव इव क्रोधानलेन परितः परान् । एत्य मेघमुखान् नागकुमारानेवमब्रुवन् ॥ ४४२ ॥ अरे वराकाः ! किं यूयं हन्त ! निचेतना इव । न जानीथ महीनाथं, चक्रिणं भरतेश्वरम् १ ॥ ४४३ ॥ विश्वाजय्ये नृपेमुष्मिन्नारम्भो वोऽयमापदे । महाशिलोच्चये दन्तप्रहारो दन्तिनामिव ॥ ४४४ ॥ एवं सत्यप्यपयात, त्वरितं मत्कुणा इव । अदृष्टपूर्वो भावी वोsपमृत्युर्ब्राढमन्यथा ॥ ४४५ ॥ 5 15 20 ९४ इत्याकर्ण्याssकुला मेघबलं मेघमुखाः सुराः । संजहुरिन्द्रजालज्ञा, इन्द्रजालमिव क्षणात् ॥ ४४६ ॥ ययुः किरातांस्ते मेघमुखास्तच्चाऽऽचचक्षिरे । भरतं शरणं गत्वाऽऽश्रयध्वमिति चाऽऽदिशन् ॥ ४४७ ॥ 25 ततस्तद्वचनान्म्लेच्छा, भग्नेच्छा भरतेश्वरम् । शरण्यं शरणायेयुरनन्यशरणास्तदा ॥ ४४८ ॥ फणामणीनिवाहीनामेकतः पुञ्जितान् मणीन् । अन्तःसारमिव मेरोश्चारुचामीकरोत्करम् ॥ ४४९ ॥ अश्वरलंप्रतिच्छन्दानिवाऽश्वानपि लक्षशः । उपायनेऽर्पयामासुस्ते नत्वा भरतेशितुः || ४५० ।। [ युग्मम् ] निबद्धाञ्जलयो मूर्ध्नि, वाचा चाटूक्तिगर्भया । सर्भा इव संतानामिति चोच्चैर्बभाषिरे । ४५१ ॥ विजयख जगन्नाथ !, प्रचण्डाखण्डविक्रम ! | आखण्डल इवाऽसि त्वं, पट्खण्डे क्षोणिमण्डले ॥ ४५२ ॥ 30 वैताढ्य पर्वतस्याऽस्मद्ध्रुवप्रस्यैकभूपते ! । गुहाप्रतोलीं त्वद्यते, क उद्घाटयितुं क्षमः १ ॥ ४५३ ॥ ? ज्योतिश्चक्रमिवाऽऽकाशे, स्कन्धावारं जलोपरि । अन्यो धर्त्तुमलम्भूष्णुर्जिष्णो ! त्वामन्तरेण कः १ ॥४५४ ॥ एवमद्भुतया शक्त्या, स्वामिन्नापि दिवौकसाम् | अजय्य इति विज्ञातोऽस्यज्ञानागः सहस्व नः ।। ४५५ ॥ १ उत्तरपवनेन । * • स्त्रैश्चारुरोचिषाम् सं १ खं ॥ ° लाकानां सं १ खं ॥ २ प्रवालैः । ३ अन्धकारनाशार्थम् । ४ अतिक्रान्तसूर्यम् । ५ कूष्माण्ड : "कोलु” इति भाषायाम् । ६ सैन्यश्रमम् । ७ सपरिवारः । ८ दग्धुमिच्छवः । 1 च्छास्ते भीता भ° सं १ ॥ ९ अश्वरत्वप्रतिबिम्बानीव । १० सहोदराः । ११ बन्दिनाम् । १२ अस्मद्भूमिदुर्गस्य । १३ समर्थः । १४] अज्ञानापराधम् । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । नवं जीवातुमधुना, पृष्ठे हस्तं प्रयच्छ नः । स्थास्थामोऽतः परं नाथ, त्वदाज्ञावर्तिनो वयम् ॥ ४५६ ॥ भरतोऽप्यात्मसात्कृत्य, तान् सत्कृत्य च कृत्यवित् । विससर्बोत्तमानां हि, प्रणामावधयः क्रुधः॥४५७॥ गिरिसागरमर्यादं, सिन्धोरुत्तरनिष्कुटम् । नृपाज्ञया सुषेणोऽथ, साधयित्वा समाययौ ॥ ४५८ ॥ भोगान् तत्रोपभुञ्जानश्चिरं तस्थौ महीपतिः । आर्गीकर्तुमिवाऽनार्यान् , निजार्यजनसङ्गमात् ॥ ४५९ ॥ __ अन्यदाऽऽयुधशालाया, भाविशालं महीभृतः । चक्ररत्नं निरक्रामत् , प्रतिभूः ककुभां जये ॥ ४६०॥5 गच्छतः पूर्वमार्गेणाऽभि क्षुद्रहिमवगिरिम् । ययौ तस्याऽध्वना राजा, प्रवाह इव कुल्यया ॥ ४६१ ॥ कैश्चित् प्रयाणकैर्गच्छन्, गजेन्द्र इव लीलया । नितम्ब दक्षिणं क्षुद्रहिमाद्रेः प्राप भूपतिः ॥ ४६२ ॥ तसिंश्च भूर्जतगरदेवदारुवनाकुले । न्यधान्नरेन्द्रः शिबिरं, महेन्द्र इव पाण्डके ॥ ४६३ ॥ उद्दिश्य क्षुद्रहिमवत्कुमारं तत्र चाऽऽर्षभिः । चक्रेऽष्टमं कार्यसिद्धेस्तपो मङ्गलमादिमम् ॥ ४६४ ॥ ततश्चाऽष्टमभक्तान्ते, निशान्त इव भास्करः । रथारूढो महातेजा, निर्ययौ शिविरोदधेः ॥ ४६५॥ 10 वेगेन गत्वा हिमवत्पर्वतं त्रिरताडयत् । साटोपो रथशीर्षेण, शीर्षण्यः पृथिवीभुजाम् ॥ ४६६ ॥ हिमाचलकुमाराय, निजनामाङ्कितं शरम् । विससर्जाऽथ भूनाथो, वैशाखस्थानकस्थितः ॥ ४६७ ॥ द्वासप्ततिं योजनानि, विहायसा विहङ्गवत् । शरः स गत्वा हिमवत्कुमारस्य पुरोऽऽपतत् ॥४६८॥ स समालोक्य तं वाणमारां व्याल इव द्विपः । कोपादजनि तत्कालं, लोहितायितलोचनः ॥ ४६९ ॥ स करेण गृहीत्वेष, तत्र नामाऽक्षराणि च । दृष्टा शमं ययौ दीप, इव पन्नगदर्शनात ॥४७०॥ प्रधानपुरुषेणेव, राज्ञस्तेनेषुणा सह । उपायनान्युपादाय, स ययौ भरतेश्वरम् ॥ ४७१॥ उक्त्वा जयजयेत्युच्चैरन्तरिक्षस्थितोऽथ सः । आदौ भूपाय तं काण्डं, काण्डकार इवाऽऽर्पयत् ॥ ४७२ ॥ सोऽदाद् देवगुसुमनोमालां गोशीर्षचन्दनम् । सर्वोषधीहदाम्भश्च, राज्ञे सारं हि तस्य तत् ॥ ४७३ ॥ कटकान् बाहुरक्षांश्च, देवदूष्यांशुकानि च । ददौ नरपतेर्दण्डे, प्राभृतच्छद्मनाऽथ सः ॥ ४७४ ॥ खामिनुत्तरदिक्प्रान्ते, तवाऽऽयुक्त इवाऽस्म्यहम् । इत्युक्त्वा विरतो राज्ञा, स सत्कृत्य व्यसृज्यत ॥४७५॥ 20 अरेस्तस्य प्रस्थमिव, सह प्रस्थितमुच्चकैः । स वालयामास रथं, मनोरथमिव द्विषाम् ॥ ४७६ ॥ गत्वा ऋषभकूटाद्रिमृषभवामिभूस्ततः । जघान रथशीर्षण, त्रिर्दन्तेनेव दन्तिराट् ॥ ४७७ ॥ स्थापयित्वा रथं तत्र, पृथिवीपतिरग्रहीत् । पाणिना काकिणीरत्नं, रश्मिकोशमिवार्यमा ॥ ४७८ ॥ अवसर्पिण्यां तृतीयारप्रान्ते भरतोऽस्म्यहम् । चक्रीति वर्णान् काकिण्या, तत्पूर्वकटकेऽलिखत् ॥४७९॥ ततो व्यावृत्य सद्वृत्तः, स्कन्धावारं निजं ययौ । चकाराऽष्टमभक्तान्तपारणं च महीपतिः ॥४८॥ 25 ततश्च क्षुद्रहिमवत्कुमारस्य नरेश्वरः । अष्टाह्निकोत्सवं चक्रेऽनुरूपं चक्रिसम्पदः ॥ ४८१ ॥ गङ्गासिन्धुमहानद्योरन्तरालमहीतले । अमाद्भिरिव वियत्युत्प्लवमानस्तुरङ्गमैः ॥ ४८२ ॥ सैन्यभारपरिक्लान्तां, सेक्तुकामैरिवाऽवनिम् । प्रस्रवद्भिर्मदजलप्रवाहं गन्धसिन्धुरैः ॥ ४८३ ॥ उद्दामनेमिरेखाभिः, सीमन्तालङ्कतामिव । विदधानैर्वसुमती, स्वन्दिभिः स्यन्दनोत्तमैः ॥ ४८४ ॥ पत्तिभिः कोटिसङ्ख्यैश्च, प्रसरद्भिर्महीतले । दर्शयद्भिर्नराद्वैतमिवाऽद्वैतपराक्रमैः ॥ ४८५॥ 30 अश्ववारानुगो जात्यमतङ्गज इव वजन् । चक्ररत्नानुगश्चक्री, प्राप वैताठ्यपर्वतम् ॥ ४८६ ॥ शिविरं शबरीगीताविगीतादिजिनस्तवे । उदग्नितम्बे तस्याऽद्रेनरेन्द्रः सन्यवेशयत् ॥ ४८७ ।। ततो नमिविनम्याख्यौ, विद्याधरपती प्रति । जिघाय विशामीशो, मार्गणं दण्डमार्गणम् ॥४८८॥ १ सजीवनौषधरूपम् । २ कान्तिविशालम् । ३ पाण्डके वने । ४ प्रातःकाले। ५ अग्रणीः। ६ अशम् । दुष्टगजः। ८ बाणकारकः। ९ कल्पवृक्षपुष्पमालाम् । १० उपायनमिषेण । ११ मृत्यः। *काकणी खंता॥ काकण्या, खंता॥ १२ नरमपम् । १३ अनिम्धः। १४ प्रेरयामास । १५ दण्डयाचकम् । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व आलोक्य मार्गणं तं च, विद्याधरपती वरौ । कोपाटोपसमाविष्टावित्यमन्त्रयतां मिथः ॥ ४८९ ॥ द्वीपस्य जम्बूद्वीपस्य, वर्षेत्र भरतेऽधुना । उत्पेढे भरतो हन्त !, प्रथमश्चक्रवर्त्ययम् ॥ ४९० ॥ असावृषभकूटाद्री, चन्द्रबिम्ब इव स्वयम् । नामधेयं लिखित्वा स्वं, वलितोऽत्र समाययौ ।। ४९१ ॥ आरोहक इवेभस्य, वैताव्यस्याऽस भूभृतः । पार्श्वे कृतपदोऽस्त्येष, भूपतिर्भुजगर्वितः ॥ ४९२ ॥ 5 तदेष जितकासी सन्नमत्तोऽपि जिघृक्षति । मन्ये दण्डं तदुद्दण्डं, चिक्षेपाऽस्मासु सायकम् ॥ ४९३ ॥ तावन्योऽन्यमुदित्वैवमुत्थाय समरोन्मुखौ । प्रतस्थाते गिरिप्रस्थं, स्थगयन्तौ निजैर्बलैः ॥ ४९४ ॥ तत्र युसैद्धलानीव, सौधर्मेशाननाथयोः । आज्ञयाऽथ तयोर्विद्याधरानीकान्युपाययुः ॥ ४९५ ॥ तेषामुच्चैः किलिकिलारावैर्वैताट्यपर्वतः । जहासेव जगर्जेव, पुस्फोटेव समन्ततः॥ ४९६ ॥ विद्याधरेन्द्रभृतकाः, कलधौतमयान् पृथून् । दुन्दुभीन् वादयामासुर्वैताख्यस्येव कन्दरान् ॥ ४९७ ॥ उदग्दक्षिणयोः श्रेण्योभूमिग्रामपुराधिपाः । विचित्ररत्नाभरणा, रत्नाकरसुता इव ॥ ४९८॥ 10 अस्खलद्गतयो व्योग्नि, सौपर्णेया इवाऽचलन् । समं नमिविनमिभ्यां, तन्मूर्तय इवाऽपराः ॥ ४९९ ॥ एयुर्विचित्रमाणिक्यप्रभोद्भासितदिशुखैः । विमानैः केऽप्यसंलक्ष्यभेदा वैमानिकामरैः ॥ ५०० ॥ गर्जद्भिः शीकरासारवर्षिभिर्गन्धसिन्धुरैः । पुष्करावर्तकाम्भोदसोदरैरपरेऽचलन् ॥ ५०१॥ आच्छिन्नेरिन्दुमार्तण्डप्रभृतिज्योतिषामिव । सुवर्णरत्नरचितैः, स्यन्दनैः केचिदापतन ॥५०२॥ 15 गगने वल्गु वल्गद्भिर्वेगातिशयशालिभिः । केपि प्रतस्थिरे वायुकुमारैरिव वाजिभिः ॥ ५०३ ॥ 15 विहस्तहस्ताः शस्त्रौधैर्वज्रसन्नाहधारिणः । प्लवमानाः प्लवङ्गवत् , केचिदेयुः पदातयः ॥५०४ ॥ तावथोत्तीर्य वैताढ्याद् , विद्याधरबलावृतौ । युयुत्समानौ सन्नद्धौ, भरतेश्वरमीयतुः ॥ ५०५ ॥ कुर्वन् मणिविमाना, बहुसूर्यमयीमिव । प्रज्वलद्भिः ग्रहरणैस्तडिन्मालामयीमिव ॥ ५०६ ॥ उद्दामदुन्दुभिध्वानैमेघघोषमयीमिव । विद्याधरबलं व्योमन्यपश्यद् भरतस्ततः ॥५०७॥ दण्डार्थिन् । दण्डमसत्तस्त्वं गृह्णासीति भाषिणौ । आहवायाह्वयेतां तौ, विद्यादृप्तौ महीपतिम् ॥ ५०८ ॥ 20 अथ ताभ्यां ससैन्याभ्यां, प्रत्येकं युगपञ्च सः । युयुधे विविधैर्युद्धैर्युद्धाा यजयश्रियः ॥ ५०९ ॥ युधा द्वादशवार्षिक्या, विद्याधरपती जितौ । प्राञ्जली प्रणिपत्यैवं, भरताधीशमूचतुः ॥ ५१० ॥ रवेरुपरि किं तेजो ?, वायोरुपरि को जवी ? । मोक्षस्योपरि किं सौख्यं ?, कश्च शूरस्तवोपरि १॥५११॥ ऋषभो भगवान् साक्षादद्य दृष्टस्त्वमार्षमे ! । अज्ञानाद् योधितोऽसाभिः, कुलस्वामिन् ! सहस्व तत् ॥५१२॥ . 25 ऋषभस्वामिनो भृत्यौ, पुरा वामधुना तु ने । सेवावृत्तिर्न लजाय, स्वामिवत् स्वामिनन्दने ॥ ५१३ ॥ 25 याम्योदग्भरतान्तिर्वतिवैताठ्यपाश्वयोः । दुर्गपालाविवेहाऽऽवां, स्थास्यावः शासनेन ते ॥ ५१४ ॥ इत्यस्य वचनस्याऽन्ते, विनम्य विनमिर्नृपः । विदधे दित्समानोऽपि, यियाचिषुरिवाऽञ्जलिम् ॥५१५ ॥ समचतुरस्राकारां, सूत्रं दत्त्वेव निर्मिताम् । त्रैलोक्यवर्तिमाणिक्यतेजःपुञ्जमयीमिव ॥ ५१६ ॥ यौवनेन नखैः केशैः, श्रीमद्भिः सर्वदा स्थितैः । विराजमानामत्यन्तं, कृतज्ञैरिव सेवकैः ॥ ५१७ ॥ 30 सर्वामयोपशमनी, बल्यां दिव्यामिवौषधीम् । यथाकामीनशीतोष्णसंस्पर्शा दिव्यवारिवत् ॥ ५१८॥ 30 त्रिषु श्यामा त्रिषु श्वेतां, त्रिपुतानां त्रिषूनताम् । त्रिगम्भीरां त्रिविस्तीर्णा, न्यायतां त्रिशीयसीम् ॥५१९॥ जयन्ती केशपाशेन, कलापान प्रचलाकिनाम् । पराभवन्ती भालेन, पक्षमध्यक्षपाकरम् ॥ ५२० ॥ 20 कृतस्थानः। २ जयाभिमानी। ३ देवसैन्यानि इव । *किलकिला सं १, २. ॥ + सीकरा सं १, खं ॥ व्याकुलहस्सा।। प्पिषगवत् आ॥ ५ विद्योन्मत्तौ। ६ वेगवान् । ७ सर्वरोगोपशमनीम् । ८ बलहेतुकाम् । ९ यथे. रछशीतोष्णसंस्पर्शाम् । १० केशादिषु। ११ देहादिषु । १२ करतलादिषु। १३ स्तनादिषु । १४ नाम्यादिषु । १५ नितबादिप। १६ कोचमाविषु। १७ उत्रादिषु। १८ मयूराणाम् । १९ अष्टमीचन्दम् । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । रतिप्रीत्योरिव क्रीडादीर्घिके दधतीं दृशौ । नासां च भाललावण्यजलधारामिवाऽऽयताम् ।। ५२१ ।। कपोलाभ्यां नवस्वर्णादर्शाभ्यामित्र शोभिताम् । दोलाभ्यामित्र कर्णाभ्यां, लग्नाभ्यामंसदेशयोः ।। ५२२ ।। विभ्राणामधरौ युग्मजातबिम्बविडम्बिनौ । दन्तांश्च वज्रशकलश्रेणिशोभाभिभावकान् ।। ५२३ || विभ्राणां मध्यमित्र च, त्रिरेखं कण्ठकन्दलम् । भुजे च नलिनीनालसरले बिसकोमले ।। ५२४ ।। कुचौ दधानां कामस्य, कल्याणकल साचिव । स्तनापहृतबाहल्यमिव मध्यं च पेलवम् ।। ५२५ ।। वहन्तीं सरिदावर्त्तसनाभिं नाभिमण्डलम् । रोमालीं च नाभिवापीतीरदूर्वावलीमिव ॥ ५२६ ॥ नितम्बेन विशालेन, तल्पेनेव मनोभुवः । दोलासुवर्णस्तम्भाभ्यामिवोरुभ्यां च राजिताम् ॥ ५२७ ॥ जङ्घाभ्यामेणिकाजङ्घे, अधरीकुर्व तीतराम् । पाणिभ्यामिव पादाभ्यां पङ्कजानि निकुर्वतीम् ॥ ५२८ ॥ पाणिपादाङ्गुलिदलैर्वल्लीं पल्लवितामिव । नखै रत्तै रोचमानै, रत्नाचलतटीमिव ॥ ५२९ ॥ शोभमानां च वासोभिर्विशालखच्छकोमलैः । चलैन्मृदुमरुञ्जातोत्कलिकाभिरिवाऽऽपगाम् ।। ५३० ॥ मनोरमैरवयवैः, स्वच्छकान्तितरङ्गितैः । भूषयन्तीं भूषणानि, रत्नस्वर्णमयान्यपि ॥ ५३१ ॥ पृष्ठत छत्रधारिण्या, छाययेव निषेविताम् । सञ्चरच्चामराभ्यां च, हंसाभ्यामित्र पद्मिनीम् ।। ५३२ ॥ अप्सरोभिः श्रियमिवाऽऽपगाभिर्जाह्नवीमित्र । सहस्रशो वयस्याभिः परितः परिवारिताम् ।। ५३३ ॥ नाम्ना सुभद्रां स्त्रीरत्नं, स स्वां दुहितरं ततः । राज्ञे विश्राणयामास, स्थिरीभृतामिव श्रियम् ।। ५३४ ॥ [ विंशत्या कुलकम् ] महामूल्यानि रत्नानि भूभुजे नमिरप्यदात् । गृहागते स्वामिनि हि, किमदेयं महात्मनाम् ? ॥ ५३५ ॥ अथ राज्ञा विसृष्टौ तौ राज्यान्यारोप्य सूनुषु । विरक्तावृषभेशाङ्घ्रिमूले जगृहतुर्व्रतम् ।। ५३६ ॥ 15 ततोऽपि चलितवतचरत्नस्य पृष्ठतः । गच्छन् सोऽमन्दतेजस्कः, प्राप मन्दाकिनीतम् ॥ ५३७ ॥ नात्यासन्ने नातिदूरे, जाह्नवीसदनस्य सः । सैन्यान्यावासयामास, वसुमत्येकवासवः ॥ ५३८ ॥ गङ्गां सिन्धुवदुत्तीर्य, नृपादेशाच्च भूपतिः । सुषेणः साधयामास, गाङ्गमुत्तरनिष्कुटम् ।। ५३९ ।। ततः सोऽष्टमभक्तेन, गङ्गादेवीमसाधयत् । उपचारः समर्थानां सद्यो भवति सिद्धये ॥ ५४० ॥ राज्ञे विश्राणयामास, रत्नसिंहासनद्वयम् । अष्टोत्तरं रत्नकुम्भसहस्रं च सरिद्वैरा ॥ ५४१ ॥ भरतं रूपलावण्य किङ्करीकृतमन्मथम् । तत्राऽवलोक्य गङ्गाऽपि प्राप क्षोभमयीं दशाम् ॥ ५४२ ॥ विराजमाना सर्वाङ्गं, मुक्तामयविभूषणैः । वदनेन्दोरनुगतैस्तारैस्तारागणैरिव ॥ ५४३ ॥ वस्त्राणि कदलीगर्भत्वक्सगर्भाणि विभ्रती । स्वप्रवाहपयांसीव, तद्रूपपरिणामतः ।। ५४४ ।। रोमाञ्चकञ्चुकोदञ्चत्कुचस्फुटितकञ्चुका । स्वयंवरस्रजमिव क्षिपन्तीं धवलां दृशम् ॥ ५४५ ॥ प्रेमगद्गदया वाचा, गाढमभ्यर्ध्य पार्थिवम् । रिरंसमाना साऽनैषीद्, देवी रैतनिकेतनम् ॥ ५४६ ॥ [ चतुर्भिः कलापकम् ] भुञ्जानो विविधान् भोगांस्तत्र राजा तया सह । एकाहमिव वर्षाणां सहस्रं सोऽत्यवाहयत् ।। ५४७ ।। कथचिदपि सम्बोध्य, सोऽनुज्ञाप्य च जाह्नवीम् । खण्डप्रपाताभिमुखं, चचाल प्रबलैर्बलैः || ५४८ || 30 गुहां खण्डप्रपाताख्यामखण्डितपराक्रमः । ततः स्थानान्नृपः प्राप, केसरीव वनाद् वनम् ॥ ५४९ ॥ अथ खण्डप्रपाताया, गुहायाः सोऽपि दूरतः । निवेशयामास बलं बलेनातिमहाबलः ।। ५५० ।। तत्र देवं नाव्यालं कृत्वा मनसि भूपतिः । चक्रेऽष्टमतपोऽचालीत्, तस्य देवस्य चाऽऽसनम् ||५५१॥ सास्पावधिना तत्राssयातं भरतचक्रिणम् । उपायनैरुत्तमर्णमधमर्ण इवाऽऽययौ ।। ५५२ ।। * 'कण्डमण्डलम् भ ॥ ५ मृगीजङ्ग । २ तिरस्कुर्वतीम् । ३ चन्मृदुपवनजातलहरीभिः । ४ पृथ्व्या मेक ५। ६ सम्भोगस्थानम् । ७. एकदिनमिव । धन्यः । १३ ९७ 5 10 20 25 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्पज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व षट्खण्डक्ष्माभूषणस्य, स देवो भूरिभक्तिभाक् । भूषणान्यर्पयामास, सेवां च प्रत्यपद्यत ॥ ५५३ ॥ कृतनाट्यं नटमिव, नाट्यमालसुरं ततः । प्रसादपूर्वमुर्वीशो, विससर्ज विवेकयुक् ॥ ५५४ ।। पारणं विदधे भूपस्तस्य चाऽष्टाह्निकोत्सवम् । सुषेणं चाऽऽदिशत् खण्डप्रपातोद्घाट्यतामिति ॥५५५ ॥ ___ नाव्यमालं चमूनाथः, कृत्वा मनसि मत्रवत् । चक्रेऽष्टममग्रहीच, पौषधं पौषधौकसि ॥ ५५६ ॥ निष्क्रम्य पौषधागारादष्टमान्ते चम्पतिः । प्रतिष्ठायामिवाऽऽचार्यवर्यो बलिविधि व्यधात् ॥ ५५७ ॥ ततश्च विहितप्रायश्चित्तकौतुकमङ्गलः । महाळखल्पनेपथ्यभृद् धूपदहनं दधत् ॥ ५५८ ॥ खण्डप्रपातां स ययावालोकेऽपि ननाम च । आनर्च तत्कपाटे च, लिलेख चाऽष्टमङ्गलीम् ॥ ५५९ ।। पदान्यपेत्य सैंप्ताऽथ, कपाटोद्घाटनाय सः । उपाददे दण्डरत्नं, काश्चनीमिव कुञ्चिकाम् ॥ ५६० ॥ तेनाऽऽहतं च दण्डेन, तत्कपाटद्वयं क्षणात् । व्यवटिष्टाउंशुमद्रश्मिस्पृष्टपङ्कजकोशवत् ।। ५६१॥ आरूढः करिणः स्कन्धं, कुम्भदेशे च दक्षिणे । मणिरत्नं निवेश्योच्चैस्तां विवेश गुहां नृपः ॥ ५६२ ॥ अन्वीयमानः सैन्येन, भरतस्तिमिरच्छिदे । काकिण्या पूर्ववत् तत्र, मण्डलान्यालिखन् ययौ ॥ ५६३ ॥ निःसरन्त्यौ गुहाप्रत्यग्भित्तेःप्राग्भित्तिमध्यतः। भूत्वा मिलन्त्यो जाह्नव्या,सख्या सख्याविवाभितः॥५६४ ते उन्मग्ना-निमग्नाख्ये, निम्नगे प्राप भूपतिः । प्राग्वच्च पद्यया सद्यो, ललझे सह सेनया ॥ ५६५ ॥ तद्गुहादक्षिणद्वारं, स्वयमुजघटे क्षणात् । सैन्यशल्यातुरेणेव, वैताढ्येनाऽद्रिणेरितम् ॥ ५६६ ॥ निर्ययौ तद्गुहामध्यात् , केसरीव नरेश्वरः । स्कन्धावारं च निदधे, गाङ्गे रोधसि पश्चिमे ॥ ५६७ ॥ __ उद्दिश्य च निधीन पृथ्वीपतिश्चक्रेऽष्टमं तपः । प्राक्तपोऽर्जितलब्धीनामागमे मार्गदर्शकम् ॥ ५६८ ॥ अष्टमान्ते तमभ्येयुर्निधयो नव विश्रुताः । सदा यक्षसहस्रेण, ते प्रत्येकमधिष्ठिताः ॥ ५६९ ॥ नैसर्पः पाण्डुकश्चाऽथ, पिङ्गलः सर्वरत्नकः। महापद्मः कालमहाकालौ माणवशङ्खको ॥५७०॥ तेऽष्टचक्रप्रतिष्ठाना, उत्सेधे चाऽष्टयोजनाः । नवयोजनविस्तीर्णा, दैर्य द्वादशयोजनाः ॥ ५७१ ।। वैडूर्यमणिकपाटस्थगितवदनाः समाः । काञ्चना रत्नसम्पूर्णाश्चक्रचन्द्रार्कलाञ्छनाः ॥ ५७२ ॥ तेषामेवाऽभिधानैस्तु, तदधिष्ठायकाः सुराः । पल्योपमायुषो नागकुमारास्तन्निवासिनः ॥ ५७३ ॥ स्कन्धावारपुरग्रामाकरद्रोणमुखौकसाम् । मडम्बपत्तनानां च, नैसर्पाद् विनिवेशनम् ॥ ५७४ ॥ मानोन्मानप्रमाणानां, सर्वस्य गणितस्य च । धान्यानामथ बीजानां, सम्भवः पाण्डुकानिधेः॥५७५॥ नराणामथ नारीणां हस्तिनां वाजिनामपि । सर्वोऽप्याभरणविधिधेिर्भवति पिडलात ॥ ५७६ ॥ एकेन्द्रियाणि सप्ताऽपि, सप्त पञ्चेन्द्रियाणि च । चक्रिरत्नानि जायन्ते, सर्वरत्नाभिधे निधौ ॥ ५७७ ॥ वस्त्राणां सर्वभक्तीनां, शुद्धानां रागिणामपि । सञ्जायते समुत्पत्तिर्महापद्मान्महानिधेः ॥ ५७८ ॥ भविष्यद्भूतयोर्ज्ञानं, वत्सरांस्त्रीन् संतोऽपि च । कृष्यादीनि च कर्माणि, शिल्पान्यपि च कालतः ॥५७९॥ प्रवालरजतस्वर्णशिलामुक्ताफलायसाम् । तथा लोहाद्याकराणां, महाकाले समुद्भवः ॥ ५८० ॥ योधानामायुधानां च, सन्नाहानां च सम्पदः । युद्धनीतिरशेषाऽपि, दण्डनीतिश्च माणवात् ॥ ५८१ ॥ चतुर्धा काव्यनिष्पत्तिर्नाट्यनाटकयोविधिः । तूर्याणामखिलानां चोत्पत्तिः शङ्खान्महानिधेः ॥ ५८२ ॥ ___ ऊचुस्ते च वयं गङ्गामुखमागधवासिनः । आगतास्त्वां महाभाग!, भवद्भाग्यैर्वशीकृताः ॥५८३ ॥ यथाकाममविश्रान्तमुपभुङ्ग प्रयच्छ च । अपि क्षीयेत पाथोऽब्धौ, न तु क्षीयामहे वयम् ॥ ५८४ ॥ वशं यातेषु निधिषु, नृपो व्यधित पारणम् । अष्टाहिकोत्सवं तेषां, निर्विकारश्चकार च ॥ ५८५ ॥ नृपाज्ञया सुषेणोऽपि, गङ्गादक्षिणनिष्कुटम् । पल्लीवल्लीलया सर्व, साधयित्वा समाययौ ॥ ५८६ ॥ *सप्ताट, कसं २, आ॥ १ मागण । २ प्रेरितम् । ३ आकर: खनिः, जल-स्थलपथाभ्यां यत्र भाण्डाचागच्छति तद् द्रोणमुखम् । ४ वर्तमानस्य । ५ जलम् । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तत्राऽस्थाल्लीलयाऽऽक्रान्तपूर्वापरपयोनिधिः । द्वितीय इव वैताढ्यो, बहुकालमिलापतिः ॥५८७ ॥ अन्येयुः साधिताशेषभरतं भरतेशितुः । अयोध्याभिमुखं चक्रमचालीद् गगनस्थितम् ॥५८८॥ भरतोऽपि कृतस्त्रानो, विधाय बलिकर्म च । नेपथ्यभृत् कृतप्रायश्चित्तकौतुकमङ्गलः ॥ ५८९ ॥ कुञ्जराधिपतिस्कन्धमारूढो देवराडिव । नवभिनिधिभिः पुष्टकोशः कल्पद्रुमैरिव ॥ ५९० ॥ निरन्तरं महारत्नैश्चतुर्दशभिरावृतः । सुमङ्गलायाः स्वमानां, पृथग्भूतैः फलैरिव ॥ ५९१ ॥ 5 सैज्ञां कुलश्रीभिरिवोढाभिर्दुहितृभिः क्रमात् । द्वात्रिंशता सहस्रैश्चाऽसूर्यम्पश्याभिरन्वितः ॥ ५९२ ॥ तावद्भिर्जनपदभूत्रीसहस्रैश्च सुन्दरैः । अप्सरोभिरिवाऽत्यन्तचारुभिः परिशोभितः ॥ ५९३ ॥ श्रितो द्वात्रिंशता राजसहस्रः पदिकैरिव । चतुरशीत्येभलक्षैर्विन्ध्याद्रिरिव राजितः ॥ ५९४ ॥ अश्वै रथैश्च तावद्भिर्विश्वतोऽप्याहृतैरिव । भंटानां षण्णवत्या च, कोटिभिश्छन्नभूतलः ॥ ५९५ ॥ आद्यप्रयाणदिवसादतिक्रान्तेषु सत्स्वथ । षष्टौ वर्षसहस्रेषु, चक्रमार्गानुगोऽचलत् ॥ ५९६ ॥ 10 [अष्टभिः कुलकम् ] सैन्योद्धृतरजःपूरपरिस्पर्शमलीमसान् । खेचरानपि कुर्वाणः, कृतभूलुठनानिव ॥ ५९७ ॥ व्यन्तरान् भवनपतींश्चाऽपि भूमध्यवासिनः । सैन्यभारान्महीभेदशङ्कोत्पादेन भापयन् ॥ ५९८ ॥ गोकुले गोकुले गोपसुंदृशां विकसदृशाम् । गृह्णन् हैयङ्गवीनार्घमनय॑मिव भक्तितः ॥ ५९९ ॥ कुम्भिकुम्भस्थलोद्भूतमौक्तिकप्रभृतीनि च । प्राभृतानि किरातानामाददानो वने वने ॥ ६०० ॥ पर्वते पर्वते भूपैः, 'पार्वतीयैः पुरो धृतम् । रत्नस्वर्णखनीसारं, स्वीकुर्वन्नुवनेकशः ॥ ६०१॥ ग्रामे ग्रामे ग्रामवृद्धान् , सोत्कण्ठान् बान्धवानिव । अनुगृह्णन सप्रसादमात्तानात्तैरुपायनैः ।। ६०२ ॥ निजाज्ञायष्टिनोग्रेण, विष्वक् प्रसृमरानपि । ग्रामेभ्यः सैनिकान् रक्षन् , क्षेत्रेभ्यो गा इवाऽभितः ॥६०३॥ वृक्षाधिरूढान् प्लवगानिव ग्रामीणदारकान् । सहर्ष पश्यतः पश्यन् , जनकस्तनयानिव ॥ ६०४ ॥ धान्यैर्धनैर्जीवधनैः, सर्वदा निरुपद्रवैः । ग्रामाणां सम्पदं पश्यन् , निजनीतिलताफलम् ॥ ६०५ ॥ 20 आपंगाः पङ्किलीकुर्वन् , सरांसि परिशोषयन् । वापीकूपांश्च कुर्वाणः, पातालशुषिरोपमान् ॥ ६०६ ॥ मलयानिलवल्लोकसुखं गच्छन् शनैः शनैः । विनीतां प्रापदुर्वीशो, दुर्विनीतारिशासनः ॥ ६०७ ॥ [एकादशभिः कुलकम् ] अविदूरे विनीतायाः, स्कन्धावार न्यवेशयत् । तस्याः सहोदरमिवाऽतिथीभूतं महीपतिः ॥ ६०८ ॥ कृत्वा मनसि तां राजधानी राजशिरोमणिः । चकार निरुपसर्गप्रत्ययं सोऽष्टमं तपः ॥ ६०९॥ 25 निष्क्रम्याऽष्टमभक्तान्ते, पौषधागारतो नृपः । पारणं विदधे दिव्यरसवत्या नृपैः सह ।। ६१०॥ अयोध्यायां त्वबध्यन्त, तोरणानि पदे पदे । दिगन्तरागतश्रीणां, क्रीडादोला इवोच्चकैः ॥ ६११॥ चक्रुः पौराः पथि पथि, सेकं कुङ्कुमवारिभिः । गन्धाम्बुवृष्टिभिरिव, स्वर्गिणो जिनजन्मनि ॥ ६१२ ॥ मचान् विरचयामासुः स्वर्णस्तम्भैः पुरीसदः । अनेकीभूय निधिभिः, पुरोभूयागतैरिव ॥ ६१३ ॥ अभानुभयतो मार्ग, मश्चास्तेऽन्योऽन्यसम्मुखाः । वर्णाद्रय इव कुरुष्वभितो ह्रदपश्चकम् ॥ ६१४ ॥ 30 प्रतिमञ्चमजायन्त, रत्नभाजनतोरणाः । प्राचीनबर्हिकोदण्डश्रेणिशोभाभिभाविनः ॥ ६१५ ॥ समं वीणामृदङ्गादिवादकैर्गायनीजनः । विमानेष्विव गन्धर्वानीकं मञ्चेष्ववास्थित ॥ ६१६ ॥ * राजन्यकदुहितृणां, मूर्तानां तच्छ्रियामिव । द्वात्रिंशता सहस्रश्च, नवोढानां समावृतः सं १, खं॥ + त्रैस्तथोच्चकैः सं वृ तो भटैः षण्णवत्या, सं २, आ ॥ षष्टिवर्ष सं १॥ गोपालखीणाम् । २ नवनीतम् । गा पर्वतीयैः खं, सं २ ॥ ३ महत्। ४ गृहीतागृहीतैः। ५ प्रसृतान। ६ नदीः। ७ पातालच्छिद्रोपमान् । ८ सेचनम् । ९ इन्द्रधनुःश्रेणिशोभातिरस्कारिणः । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 20 कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथमं पर्व मुक्तावचूला मञ्चेषु, बभ्रुरुल्लोचलम्बिनः । कान्तिस्तव किताकाशा, वातागारेपित्र श्रियः ।। ६१७ ॥ प्रमोदमानपूर्देव्या, हसितैरिव चामरैः । दिवो मण्डन भङ्गीभिरिव चित्रकचर्मभिः ।। ६१८ ।। कौतुकादागतैर्धिष्ण्यैरिव काञ्चनदर्पणैः । खेचराणां हस्तेशादैरिव वासोभिरद्भुतैः ।। ६१९ ॥ विचित्रमणिमालाभिर्मेखलाभिरिव श्रियाम् । उत्तम्भितेषु स्तम्भेषु, हट्टशोभां व्यधुर्जनाः ६२० ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] प्रक्वणत्किङ्किणीमालाः, पताकाश्च बबन्धिरे । दर्शयन्त्यः शरत्कालं, कलनिर्ह्रादसारसम् ।। ६२१ ।। प्रत्यङ्कं प्रतिगेहं च, यक्षकर्दमगोमयैः । लिप्तेष्वदादङ्गणेषु, मौक्तिकस्वस्तिकान् जनः ॥ ६२२ ॥ अपूर्यन्ताऽरुक्षोदे धूपघट्यः पदे पदे । उच्चैर्धृमायमाना द्यामपि धूपायितुं ध्रुवम् ।। ६२३ ॥ I प्रवेष्टुकामो नगरीमारुरोह शुभे क्षणे । गजं मेघमिवं गर्ज, चक्री भूमेघवाहनः ।। ६२४ ॥ 10 एकेनैवाऽऽतपत्रेण, कर्पूरक्षोदपाण्डुना । हिमांशुमण्डलेनेव, गगनं परिशोभयन् ।। ६२५ ।। सङ्क्षिप्य स्वं वपुर्भक्त्या, चामरद्वितयच्छलात् । अभ्युपेत्य समं गङ्गासिन्धुभ्यामिव सेवितः ॥ ६२६ || वासोभिः शोभितः शुभ्रैः, सुसूक्ष्मैर्मसृणैर्घनैः । स्फाटिकाद्रि शिलासारं, त्वचर्यित्वेव निर्मितैः ॥ ६२७ ॥ प्रेम्णा रत्नप्रभाभूम्या, निजसारैरिवाऽर्पितैः । विचित्ररत्नालङ्कारैः सर्वाङ्गीणमलङ्कृतः ।। ६२८ ॥ नृपैराबद्धमाणिक्यमुकुटैः परिवारितः । फणामणिधरैर्नागकुमारैरिव नागराद् ।। ६२९ ।। 15 वैतालिकैर्जयजयारावपूर्वं प्रमोदिभिः । कीर्त्यमानाद्भुतगुणः, सुत्रामा चारणैरिव ॥ ६३० ॥ मङ्गल्य तूर्य निर्घोषप्रतिशब्दापदेशतः । रोदसीभ्यामपि भृशं कृतमाङ्गलिकध्वनिः ॥ ६३१ ॥ तेजोबिडौजा नृपतिर्भाण्डागारमिवौजसाम् । येतेन कुञ्जरं किञ्चित् प्रेरयन् प्रचचाल सः || ६३२ ॥ [ अष्टभिः कुलकम् ] अवतीर्ण दिव इव, भूमध्यादिव चोत्थितम् । चिरायातं नृपं द्रष्टुं ग्रामादिभ्योऽभ्यगाजनः ॥ ६३३ ॥ सा राज्ञः सकला सेना, लोकश्च मिलितो बभौ । मर्त्यलोकः समग्रोऽपि, पिण्डीभूत इवैकतः ॥ ६३४ ॥ नैरन्तर्यादनीकानां, लोकानां चाऽभ्युपेयुषाम् । मुक्तस्तिलोऽपि हि तदा, न पपात महीतले ।। ६३५ ।। स्तूयमानो मुदोत्तालैः कैश्चिद् वैतालिकैरिव । वीज्यमानोऽञ्श्चलैः कैश्चिच्चञ्चलैश्चामरैरिव ॥ ६३६ ॥ भालस्थाञ्जलिभिः कैश्चिद्, वन्द्यमानोऽंशुमानिव । अयमाणफलपुष्पः कैश्चिदारामिकैरिव ॥ ६३७ ॥ प्रणम्यमानः स्वकुलदेवतेव च कैश्चन । केचित् प्रदीयमानाशीर्गोत्रवृद्धा जनैरिव ॥ ६३८ ॥ 25 प्रविवेश विशामीशश्चतुर्द्वारां पुरीं स ताम् । पूर्वद्वारेण समवसरणं नाभिभूखि || ६३९।।[चतुर्भिः कलापकम् ] प्रत्येकमपि मश्चेषु, सङ्गीतानि तदाऽभवन् । युगपल्लग्नघटिका तूर्यनादा इवोच्चकैः ॥ ६४० ॥ पुरो गच्छति भूपाले, राजमार्गापण स्थिताः । मुदिताः पौरसुदृशो, लौजान् दृश इवाऽक्षिपन् ॥ ६४१ ॥ पौरप्रक्षिप्तकुसुमदामभिः पिहितोऽभितः । सोऽभूत् पुष्परथप्रायो, राजकुञ्जरकुञ्जरः || ६४१ ॥ शनैः शनै राजपथे, प्रययौ जगतीपतिः । उत्कण्ठितानां लोकानामकुण्ठोत्कण्ठया पुनः ॥ ६४३ ॥ नाऽजीगणन् गजभयमभ्यर्णेऽभ्येत्य भूभुजे । फलादीन्यार्पयन् पौराः, प्रमोदो बलवान् खलु ॥ ६४४ ॥ ताडयन् सृणिर्दण्डेन, मध्येकुम्भस्थलं नृपः । मञ्चयोर्मञ्चयोरन्तः, स्थिरीचक्रे मतङ्गजम् ।। ६४५ ।। मञ्चानामुभयेषां चाऽग्रस्थाः प्रवरयोषितः । कर्पूरारात्रिकं चक्रुर्युगपञ्चक्रवर्तिनः ॥ ६४६ ॥ भूपतिः पार्श्वयोर्भ्राम्यज्ज्वलदारात्रिकस्तदा । बभारोभयपार्श्वस्थार्केन्दुमेरुगिरिश्रियम् || ६४७ ॥ १ नक्षत्रैः । २ हस्तपदैः । + श्रियः आ, सं २ ॥ ३ अगरुचूर्णैः । ४ राजा । १० तेजसा इन्द्रः । ९ व्याजतः । १२ अङ्कुशेन । 30 २०० * मानभूदेव्या सं । ॥ ५ कोमलैः । + स्फटिका सं १ २ ॥ ६ खण्डयित्वा । ७ सर्वाङ्गेषु । ८ इन्द्रः । यत्नेन खं । मदोत्तालैः सं २, आ ११ भृष्टीहीन् । + जगतांपतिः आ ॥ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । स्थालान्युत्क्षिप्य पूर्णानि, मौक्तिकैरक्षतैरिव । आपणाग्रे स्थितान् दृष्ट्याऽऽलिलिङ्गेत्र स वाणिजान् ॥६४८॥ मार्गासन्नेषु हर्येषु, द्वारस्थकुलयोषिताम् । मङ्गलानि प्रतीयेष, स्वसृणामिव पार्थिवः ॥ ६४९ ॥ दिदृशयाऽन्तिकीभूतान् , जनान् परिजनानिव । वेत्रिभ्योऽरक्षदुत्क्षिप्ताभयप्रदकरो नृपः ॥ ६५० ॥ अग्रभूमावुभयतो, बद्धाभ्यामतिबन्धुरम् । सिन्धुराभ्यां राज्यलक्ष्मीक्रीडाद्रिभ्यामिवोच्चकैः ॥ ६५१ ॥ द्वारेणोभयतः स्वर्णकुम्भाभ्यामतिशोभिना । स्रोतसेव रथाङ्गाभ्यां, विशालेन विराजितम् ।। ६५२ ॥ माकन्ददलपूर्णेन, तोरणेनाऽतिहारिणा । इन्द्रनीलमयग्रीवाभरणेनेव भूषितम् ॥ ६५३ ॥ कचिन्मुक्ताकणगणैः, क्वचित् कर्पूरपांशुभिः । क्वचिच्च चन्द्रमणिभिः, कृतस्वस्तिकमङ्गलम् ॥ ६५४ ।। कचिच्च चीनवासोभिर्दुकूलवसनैः क्वचित् । देवदूष्यैरपि क्वाऽपि, पताकामालभारिणम् ॥ ६५५ ।। कचित् कर्पूरपानीयैः, पुष्पद्रुतिरसैः क्वचित् । क्वचिद् गजमदाम्भोभिरजिर कृतसंचनम् ॥ ६५६ ।। विश्रान्तपूषाणमिव, सुवर्णकलसच्छलात् । सप्तभूमं भूमिपालः, पिन्यं प्रासादमासदत् ॥ ६५७ ॥ 10 [सप्तभिः कुलकम् ] तस्साऽङ्गणाग्रवलभीवेद्यां पादं निवेशयन् । उत्ततार द्विपाद् वेत्रिदत्तहस्तस्ततो नृपः ॥ ६५८ ॥ आचार्य इव सम्पूज्य. स्वाधिनायकदेवताः । ताः षोडश सहस्राणि, व्यसजजगतीपतिः ॥६५९ ।। तद्वद्वात्रिंशतं राजसहस्राणि चमूपतिम् । पुरोहितं गृहपति, वर्द्धकिं विससर्ज सः ॥ ६६० ॥ 'मेदांश्च स त्रिषष्टीनि, शतानि त्रीणि भूपतिः । स्वस्थानायाऽऽदिशद् दृष्ट्याऽऽलानायेव मतङ्गजान् ॥६६१॥15 श्रेष्ठिनोऽष्टादशश्रेणिप्रश्रेणीर्दुर्गपालकान् । व्यसृजत् सार्थवाहानप्युत्सवान्तेऽतिथीनिव ॥ ६६२ ॥ शक्रः शच्येव सहितः, स्त्रीरत्नेन सुभद्रया । द्वात्रिंशता सहस्रैश्च, रांशीनां राजजन्मनाम् ।। ६६३ ॥ तावतीभिर्जनपदाग्रणीकन्याभिरावृतः । प्रत्येकं द्वात्रिंशत्पात्रैस्तावद्भिर्नाटकैरपि ॥ ६६४ ॥ मणिरत्नशिलाश्रेणिविश्राणितगुत्सवम् । प्रासादं प्राविशद् भूपः, कैलासमिव यक्षराट् ॥ ६६५ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] 20 तत्र च प्रामुखः सिंहासने स्थित्वा क्षणं नृपः । कृत्वा च सङ्कथाः काश्चिद्, ययौ स्नाननिकेतनम् ॥६६६॥ सरसीव द्विपस्तत्र, कृत्वा स्नानं नरेश्वरः । समं परिजनैश्चक्रे, सुरसाहारभोजनम् ॥ ६६७ ॥ तैर्नाटकैनवरसैः, सङ्गीतैश्च मनोरमैः । निनाय कालं कमपि, योगर्योगीव भूपतिः ॥ ६६८ ॥ तं च विज्ञपयामासुभक्त्या सुरनस इति । सविद्याधरराजेयं, षट्खण्डाऽसाधि भूस्त्वया ॥ ६६९ ॥ असांस्तदनुमन्यस्ख, शंतमन्युपराक्रम ! । महाराज्याभिषेकं ते, स्वच्छन्दं कुर्महे यथा ॥ ६७० ॥ 25 राज्ञा तथेत्यनुज्ञाताः, सुराः पुर्या बहिर्व्यधुः । सुधर्मायाः खण्डमिव, पूर्वोदग्दिशि मण्डपम् ॥ ६७१ ॥ हदेभ्यो इदिनीभ्यश्च, इदिनीनीथतोऽपि च । तीर्थेभ्यश्वाऽऽहरन्नीरमौषधीमत्तिकाश्च ते ॥ ६७२ ॥ गत्वा पौषधशालायां, राजाऽष्टमतपोऽग्रहीत् । राज्यं तपसाऽऽप्तमपि, तपसैव हि नन्दति ॥ ६७३ ॥ राजाऽष्टमे परिणमत्यन्तःपुरवृतो ययौ । वारणेन परीवारयुतस्तं दिव्यमण्डपम् ॥ ६७४ ॥ अन्तःपुरेण सह तैर्नाटकैश्च सहस्रशः । भरतः प्रविवेशाभिषेकमण्डपमुन्नतम् ॥ ६७५ ॥ 30 स मृगेन्द्रासनं तत्र, स्नानपीठं मणीमयम् । चक्री प्रदक्षिणीचक्रे, मेरुशैलमिवार्यमा ॥ ६७६ ॥ पूर्वसोपानपद्धत्या, स्नानपीठं तदुच्चकैः । आरुरोह महीनाथः, शैलप्रस्थमिव द्विपः ।। ६७७ ॥ १ स्त्रीचकार । २ भगिनीनाम् । ३ गजाभ्याम् । ४ अङ्गणे । * षोडशसहस्रसङ्ख्या, व्यसृ° सं १, खं ॥ सूदानां स खं॥ ५ पाचकान् । राशीभी राजजन्मभिः आ, सं २ ॥ ६ कुबेरः। ईसर आ, सं १ ॥ विद्याधरराजसहिता। ८ इन्द्रः। ९ ईशानदिशि। १० नदीभ्यः। ११ समुद्रात् । १२ गजेन। Tण सहितैना' मा ||पमुखमम् सं १॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ 15 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व प्राचीपतेरिव प्रीत्या, प्राग्दिशोऽभिमुखस्ततः । रत्नसिंहासने तत्रोपाविशद् भरतेश्वरः॥ ६७८ ॥ "ते द्वात्रिंशत्सहस्राणि, भूपाः कतिपया इव । सुखमारुरुहुः पीठमुदक्सोपानवमना ॥ ६७९ ॥ चक्रिणो नातिदूरोया, तस्थुर्भद्रासनेषु ते । बद्धाञ्जलिपुटा देवमिव बन्दारवो नृपाः ॥ ६८० ॥ सेनापतिहपतिर्वर्द्धकिश्च पुरोहितः । श्रेष्ठयादयोऽप्यारुरुहुर्याम्यसोपानमालया ॥ ६८१ ॥ 5 आसनेषु समासीनाः, खो चेतेषु यथाक्रमम् । बद्धाञ्जलिपुटास्तस्थुर्विज्ञीप्सव इव प्रभुम् ॥ ६८२ ॥ __ततश्च नरदेवस्याऽऽदिदेवस्येव वासवाः । आभियोगिकदेवास्तेऽभिषेकाय डुढौकिरे ॥ ६८३ ॥ स्वाभाविकैबैंक्रियैश्च, पयोग:घनैरिव । वदनन्यस्तकमले, रैथाङ्गविहगैरिव ॥ ६८४ ॥ पतत्पानीयनादेन, तूर्यनादानुवादिभिः । ते रत्नकलसैश्चक्रुरभिषेकं महीपतेः ॥ ६८५ ॥ [ युग्मम् ] तं द्वात्रिंशत् सहस्राणि, शुभेऽभिषिषिचुः क्षणे । नृपाः कुम्भैलठत्तोपैहर्षात् खनयनैरिव ।। ६८६ ।। 10 ते शिरस्यञ्जलीन् बद्धा, पद्मकोशसहोदरान् । चक्रिणं वर्द्धयामासुर्जय त्वं विजयस्व च ॥ ६८७ ॥ सेनापतिप्रभृतयोऽपरे श्रेष्ठ्यादयश्च तम् । अभ्यषिञ्चन् जलैवाक्यैश्चाऽस्तुवंस्तैरिवोज्वलैः ॥ ६८८ ॥ शुचिपक्ष्मलया गन्धकाषाय्या सुकुमारया । माणिक्यमिव तस्याऽङ्गममृजन्नथ ते भृशम् ॥ ६८९ ॥ गोशीर्षचन्दनरसे, राज्ञो विलिलिपुश्च ते । कान्तिपोषकरैरङ्गं, गैरिकैरिव काञ्चनम् ॥ ६९० ॥ शक्रप्रदत्तमृषभस्वामिनो मुकुटं ततः । मूर्ध्नि मूर्धाभिषिक्ताग्रेसरस्य निदधुः सुराः ॥ ६९१ ॥ ते पर्यधापयन् राज्ञा, कर्णयो रत्नकुण्डले । चित्रास्वाती इव मुखहिमांशोः पारिपार्श्वगे ॥ ६९२ ॥ तत्कण्ठे ते न्यधुहोरं, ग्रथितं शुचिमौक्तिकः । अलक्ष्यसूत्रैर्युगपन्मालारूपोदमैरिव ॥ ६९३॥ निवेशयाम्बभूवे चाऽर्द्धहारस्तैर्नृपोरसि । अलङ्करणराजस्य, हारस्य युवराडिव ॥ ६९४ ॥ अभ्रकान्तःपुटमये, इवाऽच्छच्छविशालिनी । वाससी देवदृष्ये ते, भूभुजा पर्यधापयन् ॥ ६९५ ॥ उद्दामं सुमनोदाम, नृपतेः कण्ठकन्दले । ते प्राक्षिपन्नुरोवेश्मच्छायावप्रमिव श्रियः ॥ ६९६ ॥ 20 कल्पद्रुम इवाऽनयंवस्त्रमाणिक्यभूषणः । भूपतिर्मण्डयामास, स्वःखण्डमिव मण्डपम् ॥ ६९७ ॥ आह्वाय्य वेत्रिपुरुषैः, स सर्वपुरुषाग्रण: । आयुक्तपुरुषानेवमादिदेश विशालधीः ॥ ६९८ ॥ भो! यूयं सिन्धुरस्कन्धमधिरुह्य समन्ततः । पर्यट्य च प्रतिपथं, विनीतां नगरीमिमाम् ॥ ६९९ ॥ अशुल्कामकरादण्डाकुदण्डामविशद्भटाम् । नित्यप्रमोदां कुरुत, वर्षद्वादशकावधिः ।। ७०० ॥ [युग्मम् ] तत् तथा तत्क्षणादेव, ते चक्रुरधिकारिणः । रत्नं पञ्चदशं ह्याज्ञा, चक्रिणः कार्यसिद्धिषु ॥ ७०१॥ ___ रत्नसिंहासनात् तसादुत्तस्थावथ पार्थिवः । प्रतिबिम्बानि तस्येवाऽन्येऽप्युत्तस्थुः सहैव हि ॥ ७०२ ॥ निजागमनमार्गेणोत्ततार भरतेश्वरः । तथाऽन्येऽप्युत्तरन्ति स्म, मानपीठाद् गिरेरिव ॥ ७०३ ॥ स्वप्रतापमिवाऽसह्यमारुह्य वरहस्तिनम् । महीपतिर्महोत्साहः, प्रासादमगमन्निजम् ॥ ७०४ ॥ तत्र स्नानगृहं गत्वा, तोयैः स्नात्वा च निर्मलैः । चकाराऽष्टमभक्तान्तपारणं धरणीधवः ॥ ७०५ ॥ अभिषेकोत्सवे वृत्ते, तस्मिन् द्वादशवार्षिके । स्नातः कृतवलिः प्रायश्चित्तकौतुकमङ्गली ॥ ७०६ ॥ 30 गत्वा च बहिरास्थानीमात्मरक्षकदेवताः । तान् षोडश सहस्राणि, सत्कृत्य व्यसृजन्नृपः ॥ ७०७॥ ततश्च प्रासादवरारूढो वैषयिकं सुखम् । भुञ्जानोऽस्थाद् विमानस्थ, इव शको महीपतिः ।। ७०८ ॥ चक्र छत्रमसिर्दण्डो, रत्नान्येतानि जज्ञिरे । एकेन्द्रियाणि चत्वारि, तस्याऽऽयुधनिकेतने ॥ ७०९ ॥ काकिणीचर्ममणयो, निधयो नव चाऽभवन् । श्रीगृहे श्रीमतस्तस्य, माणिक्यानीव रोहणे ॥ ७१०॥ इन्द्रस्य । द्वात्रिंशत्सहस्त्रसंख्या भू° सं॥ २ वन्दनशीलाः। ३ चक्रवाकपक्षिभिः। + राक्षां कु० सं॥ पारिपाश्चिके सं १, परिपार्श्वगे खं, आ, सं २॥ ४ अकरां अदण्डां अकुदण्डां इति पदत्रयस्थ समासः । पषोडशसहस्रसङ्ख्याः, ससं १, खं ॥ ५ आयुधशालायाम् । काकणी खंता, सं२॥ 25 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । सेनापतिर्गृहपतिः, पुरोधो-वर्द्धकी अपि । चत्वारि नररत्नानि, स्वपुर्यां तस्य जज्ञिरे ॥ ७११ ॥ गजा-ऽश्वरत्ने वैतात्य गिरेर्मूले बभूवतुः । उदग्विद्याधरश्रेण्यां, स्त्रीरत्नं तूदपद्यत ॥ ७१२ ॥ नयनानन्ददायिन्या, मूर्त्या मोम इवाऽशुभत् । दुःसहेन प्रतापेन, भरतो भानुमानिव ॥ ७१३ ॥ अलब्धमध्यः सोऽम्भोधिरिव पुंरूपतां गतः । प्राप्तो मनुष्यधर्मेव, मनुष्यस्वामितां पुनः ॥ ७१४ ॥ अशोभत महारत्नैः, स चतुर्दशभिः सदा । जम्बूद्वीप इव गङ्गासिन्धुप्रभृतिसिन्धुभिः ॥ ७१५ ॥ पादाधःस्थतया तस्य, नवाऽपि निधयोऽनिशम् । हेमाजानीव वृषभप्रभोविहरतोऽभवन् । ७१६ ॥ सदा षोडशभिर्देवसहः पारिपार्श्विकैः । अनल्पवेतनक्रीतैरात्मरक्षैरिवाऽऽवृतः ॥ ७१७॥ नृपाणां नृपकन्यानामिव निर्भरभक्तितः । द्वात्रिंशता सहस्रैः स, निरन्तरमुपास्यत ॥ ७१८ ॥ द्वात्रिंशता सहस्रैः स, नाटकानामिवाऽनिशम् । जानपदीनां कन्यानामरस्ताऽवनिवासवः ॥ ७१९ ॥ म जगत्यामेकभूपः, सूपकारवरैरभात् । शतैस्त्रिभिस्त्रिषष्ट्यग्रैर्वा सरैखि वत्सरः ।। ७२० ॥ 10 श्रेणिप्रश्रेणिभिः सोऽष्टादशभिः पृथिवीतले । प्रावर्तयद् व्यवहारं, लिपिभिर्नाभिभूरिव ।। ७२१ ॥ लक्षश्चतुरशीत्याऽभात् , स रथद्विपवाजिनाम् । प्रत्येकं ग्रामपत्तीनां, षण्णवत्या च कोटिभिः ॥ ७२२ ॥ द्वात्रिंशतो जनपदसहस्राणामधीश्वरः । द्वासप्ततेः पुरवरसहस्राणां च स प्रभुः ॥ ७२३ ॥ महस्रोनद्रोणमुखलक्षस्याऽधिपतिश्च सः । पत्तनाष्टाचत्वारिंशत्सहस्राणां च सोऽधिभूः ।। ७२४ ॥ कर्बटानां मडम्बानामिव साडम्बरश्रियाम् । चतुर्विंशतिसहस्रसङ्ख्यातानां स ईशिता ॥ ७२५ ॥ 15 स विंशतिसहस्राणामाकराणां करेश्वरः । तथा खेटसहस्राणां, पोडशानां प्रशासिता ॥ ७२६ ॥ चतुर्दशानां सम्बाधसहस्राणामपि प्रभुः । अधिपोऽन्तरोदेकानां, स पट्पञ्चाशतोऽपि च ॥ ७२७॥ पश्चाशतः कुराज्यानामेकोनायाश्च नायकः । स मध्ये भरतक्षेत्रमन्येषामपि शासिता ।। ७२८ ॥ विनीतायां स्थितः कुर्वन्नाधिपत्यमखण्डितम् । अभिषेकोत्सवप्रान्ते, स्मर्तुं प्रववृते स्वकान् ॥ ७२९॥ षष्टिं वर्षसहस्राणि, विरहाद् दर्शनोत्सुकान् । अदर्शयन् निजान राज्ञो, नियुक्तपुरुषास्ततः ॥ ७३० ॥ 20 ततः कृशां ग्रीष्मकालाक्रान्तामिव तरङ्गिणीम् । म्लानां हिमानीसम्पर्कवशादिव सरोजिनीम् ॥ ७३१ ॥ प्रनष्टरूपलावण्यां, हैमनेन्दुकलामिव । पाण्डुक्षामकपोलां च, रम्भां शुष्कदलामिव ।। ७३२ ॥ सोदरां बाहुबलिनः, सुन्दरी गुणसुन्दरः । नामग्राहं स्वपुरुौदर्यमानां ददर्श सः।।७३३॥[त्रिभिर्विशेषकम्] तथाविधां च सम्प्रेक्ष्य, तां परावर्तितामिव । सकोपमवनीपालः, स्वायुक्तानित्यवोचत ।। ७३४ ॥ किं कदाप्यस्मदीयेऽपि, सदने नौदनान्यरे ! ? । न किं लवणपाथोधी, विद्यन्ते लवणान्यपि ? ॥७३५।। 25 सूपकारा न किं सन्ति, तत्तद्रसवतीविदः । निरादराः किमथवा, तद्यमी वृनितस्कराः? ॥ ७३६ ॥ द्राक्षाखर्जूरमुख्यानि, खाद्यान्यपि हि नेह किम् ? । न हि किं विद्यते स्वर्णमपि स्वर्णशिलोचये ॥७३७॥ किमुद्यानेषु ते वृक्षा, बभूवुरवकेशिनः ? । फलन्ति तरवः किं हि, न नन्दनवनेऽपि हि ? ॥ ७३८ ॥ न वा दुग्धानि धेनूनां, घटोनीनामपीह किम् ? । किं नु शुष्कस्तनस्रोताः, सञ्जाता कामगंव्यपि ? ॥७३९॥ अथ भोज्यादिसम्पत्सु, सतीष्वपि हि सुन्दरी । न किञ्चिदश्नाति यदि, तदसावामयाविनी ॥ ७४० ॥30 आर्मयः कोऽपि चेदस्याः, कायसौष्ठवतस्करः । तत् किं वभूवुः सर्वेऽपि, कथाशेषी भिषग्वराः ? ॥७४१॥ १ पुरोहितः। * पादाध स्थितयस्तस्य खंता ॥ । पार्श्वकैः खं, सं१॥२ बहुमूल्यकीतैः। राजभी राजकन्याभरिव सं२, आ॥ || नाटकैरिव चारुभिः । जानपदीभिः कन्याभिरं सं २, आ॥ मृदान मत्यराजत सं १, खं ॥ [स्त्रिदिनोनार्कवर्षवत् सं, खं: लक्षश्चतुरशीत्येभरवैरिव रथैरिव । स कोटिभिः पण्णवत्याऽभाद् ग्रामैरिव पत्तिभिःसंह, खं॥ + गां नरेश्वरः खं ॥ ३ अन्तरद्वीपानाम् । ४ हेमन्तकालचन्द्रकलामिव । ५ कदलीम् । ६ परावर्तितरूपामिव । ७ आजीविकाचौराः। ८ निष्फलाः । ९ कामधेनुः। १० रोगिणी । ११ रोगः । १२ मृत्युङ्गताः । १३ वैद्याः। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ कलिकालसर्वज्ञश्रीक्षेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व यदि चौषधयो दिव्याः, प्राप्यन्ते नाऽस्मदोकसि । तदोषयीभी रहितो, हिमाद्रिरपि सम्प्रति ॥ ७४२ ॥ ये पश्यन्निमां क्षामां, दरिद्रतन यामिव । तदहो ! वैरिभिरिव, भवद्भिर्वश्चितोऽस्म्यहम् ॥ ७४३ ॥ प्रणम्य भरतं तेऽपि, प्रोचुरेवं नियोगिनः । सर्वमप्यस्ति देवस्य, देवेन्द्रस्येव सद्मनि ॥ ७४४ ॥ किन्तु देवो यदायगाद् , दिग्जयाय तदाद्यसौ । आचामाम्लानि कुरुते, प्राणत्राणाय केवलम् ॥७४५ ॥ तथा यदैव देवेन, प्रव्रजन्ती न्यषिध्यत । ततः प्रभृत्यसौ तस्थौ, भावतः संयंतेव हि ॥ ७४६ ॥ कैल्याणिनेयि ! कल्याणि !, प्रविजिषसीति सा । अनुयुक्ता महीनाथेनैवमेवेत्यवोचत ॥ ७४७॥ भरतोऽप्यभ्यधादेवं, प्रमादेनाऽऽर्जवेन वा । अहमस्या इयत्कालं, व्रतविघ्नकरोऽभवम् ॥ ७४८ ॥ अपत्यं तातपादानामनुरूपमसौ खलु । असक्तं विषयासक्ता, राज्यातृप्ताश्च के वयम् ? ॥ ७४९ ॥ आयुर्विनश्वरतरं, वार्द्धिवारितरङ्गवत् । जानन्तोऽपि न जानन्ति, जना विषयगृनवः ॥ ७५० ॥ गत्वरेणाऽऽयुषाऽनेन, मोक्षः साध्येत साधु तत् । मार्गावलोकनमित्र, विद्युता दृष्टनष्टया ।। ७५१ ॥ यकृच्छकृन्मूत्रमलखेदामयमयस्य यत् । प्रसाधनं वपुषस्तद्, गृहस्रोतोऽधिवासनम् ।। ७५२ ॥ आदत्से वपुषाऽनेन, साधु मोक्षफलं व्रतम् । क्षीराब्धितोऽपि रत्नानि, गृह्णन्ति निपुणाः खलु ॥७५३ ॥ अनुज्ञाता नरेन्द्रेण, मुदितेन व्रताय सा । तपःकृशाऽप्यकुशेव, प्रमदोच्छसिताऽभवत् ।। ७५४ ॥ अत्रान्तरे च भगवान , विहरन् वृषभध्वजः । अष्टापदगिरावागाजगदैहिबलाहकः ॥ ७५५ ॥ चक्रुश्च देवाः समवसरणं तत्र पर्वते । अपरं पर्वतमिव, रत्नकाञ्चनरूप्यजम् ॥ ७५६ ॥ कुर्वाणं देशनां तत्र, स्वामिनं गिरिपालकाः । एत्य विज्ञपयामासुर्भरतस्वामिने द्रुतम् ।। ७५७ ॥ __ षट्खण्ड भरतक्षेत्रविजयादधिकं ततः । तमुदन्तं समाकर्ण्य, मुमुदे मेदिनीपतिः ॥ ७५८ ॥ खामिनमागमयन्यो भृत्येभ्यः पारितोषिकम् । ददौ कोटीः सुवर्णस्य, सार्की द्वादश पार्थिवः ॥ ७५९ ॥ त्वन्मनोरथसंसिद्धिरित्र मूर्ती जगद्गुरुः । विहरनाजगामेह, सुन्दरीमित्युवाच च ।। ७६० ॥ अकारयनिष्क्रमणाभिषेकं भरतेश्वरः । तस्याः स्वान्तःपुरवधूर्जनैर्दासीजनैरिव ॥ ७६१ ॥ कृतस्नानाऽथ सा सद्यः, कृतपुण्यविलेपना । विलेपनान्तरमिव, पर्यधात् सदशांशुके ॥ ७६२ ॥ आमुमोच च सा रत्नालङ्कारानुत्तमानय । तस्याः शीलमलङ्कारोऽलङ्काराः प्रक्रियाकृते ॥ ७६३ ॥ तथास्थितायाः सुन्दर्याः, पुरतो रूपसम्पदा । स्त्रीरनं सा सुभद्राऽपि, चेटीवत् प्रत्यभासत ॥७६४ ॥ यो यद् ययाचे तत् तस्मै, वितताराऽविलम्बितम् । जङ्गमा कल्पवल्लीव, सुन्दरी शीलसुन्दरी ।। ७६५॥ कर्पूरधुलिधवलैर्वासोभिरुपशोभिता । कुमुदिनी मैरालीव, शिविकामारुरोह सा ।। ७६६ ॥ निषादिसादिपादातस्यन्दनच्छन्नभूमिना । अन्वयायि नरेन्द्रेण, मरुदेवीव सुन्दरी ॥ ७६७ ॥ वीज्यमाना चामराभ्यां, श्वेतच्छत्रेण शोभिता । वैतालिकैः स्तूयमाननिबिडव्रतसंश्रया ।। ७६८ ॥ भ्रातृजायाभिरुद्गीतप्रवज्योत्सवमङ्गला । उत्तार्यमाणलवणा, वरस्त्रीभिः पदे पदे ॥ ७६९ ॥ राजन्ती सह गच्छद्भिः, पूर्णपात्रैरनेकशः । स्वामिपादपवित्रं सा, प्रापदष्टापदाचलम् ॥ ७७० ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] सच्चन्द्रमिव पूर्वादि, तमद्रिं स्वाम्यधिष्ठितम् । दृष्ट्वा भरतसुन्दरों, महान्तं हर्षमीयतुः ॥ ७७१ ॥ वर्गापवर्गयो राज्यं, सोपानमिव विस्तृतम् । तं विशालशिलं शैलं, समारुरुहतुश्च तौ ॥ ७७२ ॥ १ यतः प्रभृति। * आचाम्लानि कुरुते च प्रा खं ॥ + श्लोकोऽयं आपुस्तके नोपलभ्यते । २ दीक्षिता । ३ करूपाण्या: अपत्यं कल्याणिनेयी तत्सम्बुद्धी। ४ प्रव्रजितुमिच्छसि । ५ पृष्टा । ६ निरन्तरम् । ७ कुओ दक्षिण भागस्थो मांसपिण्डः । ८ विष्ठा । ९ मण्डनम् । १० जगन्मयूरमंघः। ११ वृत्तान्तम् । स्वाम्य गमयतां तेषां भृत्यानां पा सं २, आ॥ १२ आचारार्थम् । १३ दासीवत् । १४ हंसीव । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । ततः समवसरणं, शरणं भवभीजुषाम् । तौ प्रापतुश्चतुर्दार, सक्षिप्तां जगतीमिव ॥ ७७३ ॥ भरतेश्वरसुन्दर्यावुत्तरद्वारवर्त्मना । अथो समवसरणं, विशतः स यथाविधि ॥ ७७४॥ ममं हर्षविनयाभ्यामुच्छ्रसत्सङ्कुचत्तनू । प्रदक्षिणीचक्रतुस्तावथ त्रिः परमेश्वरम् ॥ ७७५ ॥ पञ्चाङ्गस्पृष्टभूमिकौ, नेमतुश्च जगत्पतिम् । रत्नभूतलसङ्क्रान्तमपि द्रष्टुमिवोत्सुकौ ॥ ७७६ ॥ चक्रवर्ती ततो धर्मचक्रवर्तिनमादिमम् । स्तोतुं प्रचक्रमे चारुगिरा भक्तिपवित्रया ॥ ७७७ ॥ असद्भूतान् गुणान् जल्पन् , जनः स्तौतीतरं जनम् । गुणान् सतोऽपि ते वक्तुमक्षमोऽहं स्तुवे कथम् ॥ तथापि हि जगन्नाथ!, करिष्यामि तव स्तुतिम् । न ददाति दरिद्रः किं, श्रीमतामप्युपायनम् ॥ ७७९ ॥ युष्मत्पादैदृष्टमात्रैरन्यजन्मकृतान्यपि । गलन्त्येनौसि शेफालीपुष्पाणीन्दुकरैरिव ॥ ७८० ॥ दुश्चिकित्समहामोहसन्निपातवतामपि । स्वामिन् ! जयन्ति ते वाचोऽमृतौषधिरसोपमाः ॥ ७८१॥ चक्रवर्तिनि रके वा, कारणं प्रीतिसम्पदाम् । समास्त्वदृष्टयो नाथ !, वार्षिक्य इव वृष्टयः ॥ ७८२ ॥ 10 क्रूरकर्महिमग्रन्थिविद्रावणदिवाकरः । स्वामिन्नमादृशां पुण्यैरिमां विहरसे महीम् ॥ ७८३ ॥ शब्दानुशासनव्यापिसंज्ञासूत्रोपमा प्रभो ! । जन्मव्ययधौव्यमयी, जयति त्रिपदी तव ॥ ७८४ ॥ यस्त्वां स्तौतीह भगवंस्तस्याऽप्येषोऽन्तिमो भवः । शुश्रूषते ध्यायति वा, यः पुनस्तस्य का कथा ? १७८५॥ भगवन्तमिति स्तुत्वा, नत्वा च भरतेश्वरः । पूर्वोत्तरस्यां ककुभि, निषसाद यथोचितम् ।। ७८६ ॥ सुन्दर्यपि हि वन्दित्वा, स्वामिनं वृषभध्वजम् । कृताञ्जलिर्जगादेवं, गद्गदाक्षरया गिरा ॥७८७॥ 15 मनसा दृश्यमानोऽभूरियत्कालं जगत्पते ! । प्रत्यक्षं बहुभिः पुण्यैर्दिष्ट्या दृष्टोऽसि सम्प्रति ॥ ७८८॥ मृगतृष्णोपमसुखे, संसारमरुमण्डले । पुण्यैः प्राप्तोऽसि लोकेन, त्वं पीयूषमहादः ॥ ७८९ ॥ निर्ममोऽपि जगन्नाथ !, जगतोऽप्यसि वत्सलः । कथं विषमदुःखाब्धेस्तत्समुद्धरसेऽन्यथा ? ॥ ७९० ॥ कृतिनी स्वामिनी ब्राह्मी, भ्रोतृव्याः कृतिनो मम । भ्रातृव्यजाश्च कृतिनो, ये हि त्वत्पथमन्वगुः ॥७९१॥ भरतेशोपरोधेन, यन्मयाऽग्राहि न व्रतम् । भगवंस्तदियत्कालं, स्वयमेवासि वञ्चिता ॥ ७९२॥ 20 विश्वतारक ! मां दीनां, तात! तारय तारय । गृहोयोतकरो दीपः, किं नोयोतयते घटम् ? ॥७९३ ॥ प्रसीद देहि दीक्षां मे, विश्वत्राणैकदीक्षित! । संसाराम्भोधितरणयानपात्रनिभां विभो! ॥ ७९४ ॥ साधु साधु महासत्त्वे, बुवन्निति ददौ विभुः । तस्यै दीक्षां सामायिकसूत्रोच्चारणपूर्विकाम् ॥ ७९५ ॥ महाव्रतद्रुमारामसुधासारणिसन्निभाम् । अनुशिष्टिमयीं तस्यै, देशनां विदधे विभुः ॥ ७९६ ॥ मोक्षप्राप्तमिवाऽऽत्मानं, मन्यमाना महामनाः । अनुज्येष्ठं निषसाद, सा मध्येव्रतिनीगणम् ॥ ७९७ ॥ 25 देशनां स्वामिनः श्रुत्वा, पादपझे प्रणम्य च । ययावयोध्यां नगरी, मुदितो भरतेश्वरः ॥७९८॥ दिदृक्षोः खं जनं सर्व, पुनस्तस्याधिकारिभिः । आगताः समदर्यन्ताऽस्मार्यन्ताऽनागता अपि ॥७९९ ॥ भ्रातूननागतान् ज्ञात्वा, स्वाभिषेकोत्सवेऽपि तान् । तेषामेकैकशो दूतान् , प्राहिणोद् भरतेश्वरः ॥८००॥ राज्यानि चेत् समीहध्वे, सेवचं भरतं ततः । दूतैरित्युदिताः सर्वेऽप्यालोच्यैवाऽवदन्निदम् ॥ ८०१ ॥ विभज्य राज्यं दत्तं नस्तातेन भरतस्य च । संसेव्यमानो भरतोऽधिकं किं नः करिष्यति ॥८०२॥ 30 समापतन्तं किं काले, कालं प्रस्खलयिष्यति? । किं जराराक्षसी देहग्राहिणीं निग्रहीष्यति? ॥ ८०३ ॥ बाधाविधायिनः किं वा, व्याधिव्याधान् हनिष्यति । यथोत्तरं वर्द्धमानां, यद्वा तृष्णां दलिष्यति ? ८०४ ईदृक् सेवाफलं दातुं, न चेद् भरत ईश्वरः । मनुष्यभावे सामान्ये, तर्हि कः केन सेव्यताम् ॥८०५॥ प्राज्यराज्योऽप्यसन्तोषादस्मद्राज्यं जिघृक्षति । स्थाम्ना चेत् तद् वयमपि, तस्य तातस्य सूनवः ॥८०६ ॥ - संसारभयवताम् । २ हर्षेणोच्छुसन्स्यौ विनयेन सङ्कुचन्स्यो तनू कायौ ययोस्ती । * असद्धतगु° खंता ॥ ३ पापानि । ४ कृतार्था । ५ भ्रातृपुत्राः। ६ शिक्षामयीम् । ७ रोगरूपव्याधान् । ८ बलेन । त्रिषष्टि. १४ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं प्रथमं पर्व अविज्ञपय्य तातं तु, सोदर्येणाऽग्रजन्मना । त्वदीयस्वामिना योद्धं, न वयं प्रोत्सहामहे ॥ ८०७ ॥ ते दूतानभिधायैवं, तदैवाऽष्टापदाचले । स्थितं समवसरणे, वृषभखामिनं ययुः ॥ ८०८ ॥ त्रिश्च प्रदक्षिणीकृत्य, प्रणेमुः परमेश्वरम् । शिरःसु बद्धाञ्जलयः, सर्वेऽप्येवं स्तुतिं व्यधुः॥ ८०९ ॥ देवैरप्यपरिज्ञेयगुणं कः स्तोतुमीश्वरः? । त्वां स्तोष्यामस्तथापीश !, विलसद्भालचापलाः ॥ ८१० ॥ तपस्यतामप्यधिकास्त्वां नमस्यन्ति ये सदा । वरिवस्यन्ति ये तु त्वां, योगिनामपि तेऽधिकाः॥८११॥ नमस्यतां प्रतिदिनं, विश्वालोकदिनेश्वर! । धन्यानामैवतंसन्ति, त्वत्पादनखरश्मयः ॥ ८१२ ॥ न किञ्चित् कस्यचित् साम्ना, बलाद् वा गृह्यते त्वया । त्रैलोक्यचक्रवर्ती त्वं, तथाऽप्यसि जगत्पते ! ॥८१३॥ खामिस्त्वमेको जगतां, समं चेतःसु वर्त्तसे । पीयूषदीधितिः सर्वजलाशयजलेष्विव ॥ ८१४ ॥ त्वां स्तोता स्तूयते देव !, सर्वैस्त्वामर्चिताऽर्च्यते। त्वां नन्ता नम्यते सर्वा, त्वयि भक्तिर्महाफला ॥८१५॥ 10 त्वं देव ! दुःखदावाग्नितप्तानामेकवारिदः । मोहान्धकारमूढानामेकदीपस्त्वमेव हि ॥ ८१६ ॥ रोराणामीश्वराणां च, मूर्खाणां गुणिनामपि । साधारणोपकारी त्वं, छायाद्रुम इवाऽध्वनि ॥ ८१७ ॥ __ इति स्तुत्वा भ्रमरवत् , स्वामिपादारविन्दयोः । निवेशितदृशस्तेऽथ, सम्भूयैवं व्यजिज्ञपन् ॥ ८१८ ॥ तदानीं तातपादैनः, संविभज्य पृथक् पृथक् । देशराज्यानि दत्तानि, यथार्ह भरतस्य च ॥ ८१९ ॥ तैरेव राज्यैः सन्तुष्टास्तिष्ठामो विष्टपेश्वर! । विनीतानामलङ्घन्या हि, मर्यादा स्वामिदर्शिता ॥ ८२० ॥ 15 स्वराज्येनाऽन्यराज्यैश्वाऽपहृतैर्भरतेश्वरः । न सन्तुष्यति भगवन् !, वडवाग्निरिवाऽम्बुभिः ॥ ८२१ ॥ आचिच्छेद यथाऽन्येषां, राज्यानि पृथिवीभुजाम् । अस्माकमपि भरतस्तद्वदाच्छेत्तुमिच्छति ॥ ८२२ ॥ त्यज्यन्तामाशु राज्यानि, सेवा वा क्रियतां मम । आदिदेशेति पुरुषैर्भरतो नः परानिव ॥ ८२३ ॥ वचोमात्रेण मुश्चामस्तस्याऽऽत्मबहुमानिनः । तातदत्तानि राज्यानि, क्लीवा इव कथं वयम् ? ॥ ८२४ ॥ सेवामपि कथं कुर्मो, निरीहा अधिकर्द्धिषु ? । अतृप्ता एव कुर्वन्ति, सेवां मानविघातिनीम् ॥ ८२५ ॥ 20 राज्यामुक्तांचसेवायां, युद्धं स्वयमुपस्थितम् । तातपादांस्त्वनापृच्छय, न किञ्चित् कर्तुमीश्महे ॥ ८२६ ॥ __ अम्लानकेवलज्ञानसङ्कान्ताशेषविष्टपः । कृपावान् भगवानादिनाथोऽपीत्यादिदेश तान् ॥ ८२७॥ वत्साः! पुरुषवीरैर्हि, पुरुषव्रतधारिभिः । योद्धव्यं वैरिवर्गेणाऽनर्गलं द्रोहकारिणा ॥ ८२८ ॥ रागो द्वेषश्व मोहश्च, कपायाश्चेति वैरिणः । अनर्थदायिनः पुंसां, जन्मान्तरशतेष्वपि ॥ ८२९ ॥ रागो हि सद्गतौ पुंसामायसी पादशृङ्खला । द्वेषश्च नरकावासनिवासप्रतिभूवली ।। ८३० ॥ 25 मोहो भवार्णवावर्त्तप्रक्षेपणपणो नृणाम् । कषायाः स्वाश्रयानेव, दहन्ति दहना इव ॥ ८३१ ॥ अनपायमयैस्तैस्तैरुपायास्त्रैर्निरन्तरम् । युद्धा युद्धा विजेतव्यास्तदमी वैरिणो नृभिः ॥ ८३२ ॥ सेवाऽपि हि विधातव्या, धर्मस्यैवैकतायिनः । तच्छाश्वतानन्दमयं, पदमीपत्करं यया ॥ ८३३ ।। अनेकयोनिसम्पातानन्तवाधानिबन्धनम् । अभिमानफलैवेयं, राज्यश्रीः साऽपि नश्वरी ॥ ८३४ ॥ किं च या खःसुखैस्तृष्णा, नाऽत्रुट्यत् प्राग्भवेषु वः । साऽङ्गारकारकस्येव, मर्त्यभोगैः कथं त्रुटे ? ॥८३५।। 30 अङ्गारकारकः कश्चिदादाय पयसो दृतिम् । जगाम कर्तुमङ्गारानरण्ये रीणवारिणि ॥ ८३६ ॥ सोऽङ्गारानलसन्तापान्मध्याह्नातपपोषितात् । उद्भूतया तृषाऽऽकान्तः, सर्व दृतिपयः पपौ ॥ ८३७ ॥ नेनाऽप्यच्छिन्नतृष्णः सन् , सुप्तः स्वमे गृहं गतः । आलूकलसनन्दानामुदकान्यभितोऽप्यपात् ॥ ८३८ ॥ तजलैरप्यशान्तायां, तृष्णायामग्नितैलवत् । वापीकूपतडागानि, पायं पायभशोषयत् ॥ ८३९ ॥ १ सेवन्ते। २ हे विश्वप्रकाशसूर्य !। ३ अवतंसदाचरन्ति । ४ चन्द्रः। ५ दीनानाम् । ६ हे जगदीश्वर । ७ नपुंसकाः। निःस्पृहाः। ९ अमोचने। १० सेवाया अकरणे। १: लोहमयी। १२ प्रतिनिधिः। १३ ग्लहः । १४ नित्यानन्दमयम् । १५ शुष्कजले। १६ जलपात्रभेदाः । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ] त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरितम् । तथैव तृषितोऽथाsपात् सरितः सरितांपतीन् । न च तस्य तृषाऽत्रुट्यन्नारकस्येव वेदना || ८४० || मरुकूपे ततो यातः, कुशलं स रज्जुभिः । बद्धा चिक्षेप पयसे, किमार्त्तः कुरुते नहि ? ॥ ८४१ ॥ दूराम्बुत्वेन कूपस्य, मध्येऽपि गलिताम्बुकम् । निश्चोत्य पूलं द्रमकः, स्नेहपोतमिवाऽपिवत् ॥। ८४२ ।। न च्छिन्ना याऽर्णवाद्यैस्तृट्, छेद्या पूलाम्भसा न सा । तद्वद् वः स्वःसुखाच्छिन्ना, छैद्या राज्यश्रिया किमु ? अमन्दानन्दनिःस्यन्दनिर्वाणप्राप्तिकारणम् । वत्साः ! संयमराज्यं तद्, युज्यते वो विवेकिनाम् ॥ ८४४ ॥ 5 तत्कालोत्पन्नसंवेगवेगा भगवदन्तिके । तेऽष्टानवतिरप्याशु, प्रव्रज्यां जगृहुस्ततः ।। ८४५ ।। अहो ! धैर्यमहो ! सचमहो ! वैराग्यधीरिति । चिन्तयन्तस्तत्स्वरूपं, दूता राज्ञे न्यवेदयन् ॥ ८४६ ॥ ज्योतींषीव ज्योतिषां ज्योतिरीशस्तेजांसीवाऽहर्पतिः पावकानाम् । वाणीव स्रोतसां वारिराशिस्तेषां राज्यान्याददे चक्रवर्ती ॥ ८४७ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितं महाकाव्ये प्रथमे पर्वणि भरतच - 10 क्रोत्पत्ति-दिग्विजय- राज्याभिषेक सोदर्यव्रतग्रहणकीर्त्तनो नाम चतुर्थः सर्गः ॥ ४ ॥ १ दर्भपूलम् । * प्रोत खं, सं १ ॥ १०७ २ स्वर्गसुखाच्छिन्ना । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः। ततश्च भरताधीशा, सदासदनमीयिवान् । सुषेणसेनापतिना, नमस्कृत्येत्यभाष्यत ॥१॥ कृत्वापि दिग्जयमिदं, तव चक्र पुरीमिमाम् । अद्याऽपि न प्रविशति, स्तम्भं व्याल इव द्विपः ॥२॥ बभाषे भरतोऽप्येवं, षट्खण्डभरतान्तरे । अद्यापि वीरः को नाम, ममाऽऽज्ञां न प्रतीच्छति ? ॥३॥ तदैव सचिवोऽवोचजाने देवेन निर्जितम् । एतद्धि भरतक्षेत्रमा क्षुद्रहिमवगिरि ॥ ४ ॥ जेयः किमवशिष्टोऽस्ति, दिग्यात्राकृत्यपि त्वयि ? । भ्रमद्धरट्टे पतितास्तिष्ठन्ति चणकाः किमु ? ॥५॥ पुर्यामप्रविशचैतच्चक्र सूचयति प्रभो ! । कमप्यद्याऽपि जेतव्यं, त्वदाज्ञालङ्घनोन्मदम् ॥ ६॥ देवेष्वपि न पश्यामि, जेतव्यं दुर्जयं च ते । आ ज्ञातमथवाऽस्त्येको, जेतव्यो विश्वदुर्जयः॥ ७ ॥ ऋषभस्वामिनः सूनुः, स्वामिन्नवरजस्तव । महावलो बाहुबलिबेलिनां बलसूदनः ॥८॥ 10 सर्वास्त्राण्येकतो वज्रमेकतश्च यथा तथा । एकतो राजकं सर्वं, स बाहुबलिरेकतः ॥९॥ लोकोत्तरो यथाऽसि त्वमृषभस्वामिनन्दनः । तथा सोऽपि तदेतस्मिन्नजिते किं जितं त्वया ? ॥१०॥ षट्खण्डे भरते दृष्टो, न कोऽपि स्वामिनः समः । तज्जये परंभागोऽस्तु, को नाम भरतेशितुः१ ॥११॥ अयं खलु जगन्मान्यां, भवदाज्ञां न मन्यते । तदसाधनतश्चक्रमेति हीणमिवेह न ॥ १२॥ उपेक्षितव्यो न परः, स्वल्पोऽप्यामयवद् यतः । तदद्याऽलं विलम्बेन, यतध्वं तज्जयं प्रति ॥ १३ ॥ 15 दावाग्निमेघवृष्टिभ्यामिवाद्रिर्भरतेश्वरः । सद्यः कोपोपशान्तिभ्यामाश्लिष्टोऽथाऽब्रवीदिदम् ॥ १४ ॥ नाऽनुजोऽपि करोत्याज्ञामिति लज्जाकृदेकतः । सार्द्ध कीया युद्धमिति चैकत्र बाधते ॥ १५ ॥ खगृहेऽपि न यस्याऽऽज्ञा, तस्याऽऽज्ञा हासकृद् बहिः । प्रवादश्च कनिष्ठस्याऽविनयासहने मम ॥ १६ ॥ एकतो राजधर्मोऽयं, दृप्तानां दर्पशातनः । इतो भ्रातरि सौत्रात्रं, सङ्कटे पतितोऽसि हा! ॥ १७ ॥ अमात्योऽप्यभ्यधादेवं, स्वमहत्त्वेन सङ्कटम् । यद् देवस्य कनीयांस्तत् , स एव ह्यपनेष्यति ॥ १८॥ 20 आज्ञा हि ज्यायसा देया, कर्त्तव्या च कनीयसा । आचारो रूढ एवाऽयं, सामान्यगृहिणामपि ॥ १९ ॥ भ्रातरं तत् कनीयांसं, लोकरूढेन वर्त्मना । आज्ञापयतु देवोऽपि, प्रेष्य सन्देशहारकम् ॥ २० ॥ आज्ञां सर्वजगन्मान्यां, वीरमानी तवाऽनुजः । सहिष्यते न चेद् देव!, पर्याणमिव केसरी ॥ २१ ॥ प्रशास्यास्त्वं तदा पाकशासनोगाढशासनः । न चाऽपवादस्ते लोके, लोकाचारानतिक्रमात् ॥ २२ ॥ तथेति प्रतिपेदे तद्वचनं मेदिनीपतिः । उपादया शास्त्रलोकव्यवहारानुगा हि गीः ॥ २३ ॥ अनुशिष्य ततो दूतं, नयज्ञं वाग्मिनं दृढम् । सुवेगं नाम नृपतिः, प्रैषीद् बाहुबलिं प्रति ॥ २४ ॥ खामिशिक्षा दौत्यदीक्षामिवाऽऽदाय स सौष्ठवाम् । सुवेगो रथमारुह्याऽचलत् तक्षशिलां प्रति ॥२५॥ सारसैन्यपरीवारो, रथेनाऽसह्यरंहसा । निर्ययौ स विनीताया, राजाज्ञेव वपुष्मती ॥ २६ ॥ __ कार्यारम्भविधौ वामं, दैवं पश्यदिवाऽसकृत् । पस्पन्दे लोचनं वाम, गच्छतस्तस्य वर्त्मनि ॥ २७ ॥ नाडी नाडीन्धमस्येव, वह्निमण्डलमध्यतः । उवाह दक्षिणा तस्य, रोगाभावेऽप्यनारतम् ॥ २८ ॥ 30 समेष्वपि हि मार्गेषु, रथस्तस्याऽस्खलन्मुहुः । अप्यसंयुक्तवर्णेषु, जिह्वा ललंगिरामिव ॥ २९ ॥ सादिभिर्वार्यमाणोऽपि, प्रेर्यमाण इवाऽसकृत् । कृष्णसारः पुरस्तस्य, दक्षिणाद् वामतो ययौ ॥ ३० ॥ तस्याऽग्रे करटः शुष्के, निविष्टः कण्टकद्रुमे । अरसत् कटुकं घर्षश्चञ्चं शस्त्रमिवोपले ॥ ३१ ॥ १सभामण्डपम् । २ दुष्टाजः । ३ लघुभ्राना । ४ राजसमूहम् । ५ उत्कर्षता । ६ लजितमिव । ७ शत्रुः। ८ गर्वनाशकः । ९ ज्येष्ठेन। १० लघुना। ११ वाचालम् । १२ वेगवता । १३ प्रांत कूलम् । १४ सुवर्णकारस्य। १५ स्खलदिराम् । १६ मृगविशेषः। १७ काकः । १८ पाषाणे। 25 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । 15 उत्ततार पुरस्तस्य, प्रलम्बः कृष्णपन्नगः । क्षिप्तागलेव देवेन, तद्याननिरुरुत्सया ॥ ३२ ॥ प्रतिकूलो ववौ वायुश्चक्षुषोः प्रक्षिपन रजः । पर्यस्यन्निव तं पश्चाद् , विचारकविपश्चितम् ॥ ३३ ॥ तस्य दक्षिणतो भूत्वा, विररास च रासभः । अभोजितप्रस्फुटितमृदङ्गविरसखरः ॥ ३४ ॥ सुवेगोऽगादनिमित्तान्येतानि प्रविदन्नपि । सद्धृत्याः स्वामिनः कापि, काण्डवत् प्रस्खलन्ति न ॥३५॥ ललझे स बहून् ग्रामनगराकरकटान् । तद्वासिभिदृश्यमानो, वात्यावर्त इव क्षणम् ॥ ३६॥ तरुखण्डसरःसिन्धुपुलिनप्रभृतिष्वपि । विशश्राम न स स्वामिकार्यतोत्र प्रवर्तितः ॥ ३७॥ किरातैः सज्जकोदण्डैः, शरव्यीकृतकुञ्जरैः । चमूरुचर्मसंव्यानैर्जातुधानेरिवाऽऽकुलाम् ॥ ३८॥ चमूरु-चित्रक-व्याघ्र-हरिभिः शरभैरपि । सगोत्रैरन्तकस्येव, क्रूरसत्त्वैर्निरन्तराम् ॥ ३९ ॥ युध्यमानाहि-नकुलवामलूरविभीषणाम् । भल्लूकीकेशधरणव्यग्रवालकिरातिकाम् ॥ ४० ॥ मिथो महिषसङ्ग्रामभज्यमानजरत्तरुम् । नाहलोत्थापितक्षौद्रमक्षिकाभिरसञ्चराम् ॥४१॥ अभ्रंलिहतरुस्तोमतिरोहितदिवाकराम् । रहोरतभुवं मृत्योरिवाऽऽप स महाटवीम् ॥४२॥ [पञ्चभिः कुलकम्] घोरां तामटवीं वेगात् , सुवेगो वेगवद्रथः । सलीलं लङ्घयामास, विपदं पुण्यवानिव ॥ ४३ ॥ मार्गान्ततरुविश्रान्तैरलङ्करणधारिभिः । संलक्ष्यमाणसौराज्य, सुस्थैः पान्थवधूजनैः ॥ ४४ ॥ गोकुले गोकुले वृक्षतलासीनैः प्रमोदिभिः । गीयमानर्षभस्वामिचरितं गोपदारकैः ॥ ४५ ॥ भद्रशालादिवाऽऽहृत्याऽऽरोपितैः फलमालिभिः । अलङ्कृताखिलग्राम, बहलैर्बहुभिर्दुमैः ॥ ४६॥ पत्तने पत्तने ग्रामे, ग्रामे वेश्मनि वेश्मनि । दानकदीक्षितैरिभ्यैः, शोध्यमानवनीपकम् ॥ ४७॥ आगतैर्भरतात् त्रस्तैरिवोदग्भरतार्द्धतः । प्रायेणाऽध्यासितग्राम, म्लेच्छैरक्षीणऋद्धिभिः॥४८॥ षड्भ्यो भरतखण्डेभ्यः, खण्डान्तरमिव स्थितम् । भरताज्ञानभिज्ञं स, बलीदेशमासदत् ॥ ४९ ॥ .. [सप्तभिः कुलकम् ] ऋते श्रीबाहुबलिनं, राजान्तरमजानतः । जनान् जानपदान मार्गेष्वनानि वार्तयन मुहुः ॥ ५० ॥ 20 वनेचरान् गिरिचरान् , दुर्मदान् श्वापदानपि । द्राक् खञ्जीभवतः पश्यन् , सुनन्दानन्दनाज्ञया ॥५१॥ प्रजानामनुरागोक्त्या, महतीभिश्च ऋद्धिभिः । अद्वैतमनुमिमानः, श्रीबाहुबलिनो नयम् ॥ ५२ ॥ भरतावरजोत्कर्षाकर्णनाद् विस्मृतं मुहुः । अनुस्मरन् वाचिकं स, प्राप तक्षशिलापुरीम् ॥ ५३॥ [चतुर्भिः कलापकम् ] किचिल्लोचनपातेन, पुरीपरिसरोषितैः । प्रेक्ष्यमाणः क्षणं लोकैरेकपान्थावलीढया ॥ ५४॥ लीलोद्यानेषु सम्भूय, खेलेन खुरलीजुषाम् । सुभटानां भुजास्फोटैखस्यद्रथतुरङ्गमः ॥ ५५ ॥ इतस्ततः पौरऋद्धिप्रेक्षणव्यग्रताजुषा । दक्षिणस्थेनाऽनिषिद्धोत्पथगामिस्खलद्रथः ॥ ५६ ।। एकत्रेवेभरत्नानि, समस्तद्वीपचक्रिणाम् । बद्धान वरगजान् पश्यन् , बहिरुद्यानशाखिषु ।। ५७ ।। प्रेक्षमाणो मन्दुरीश्च, बन्धुरास्तुरगोत्तमैः । ज्योतिष्काणां विमानानि, विहायेव समागतैः ॥ ५८ ॥ भरतावरजैश्वर्याश्चर्यालोकनजन्मना । शिरोऽत्येव शिरो धुन्वन् , प्रविवेश स तां पुरीम् ॥ ५९ ॥ 30 [ षड्भिः कुलकम् ] स्वच्छन्दवृत्तीनत्याढ्यानपिणेषु वणिग्जनान् । अहमिन्द्रानिव पश्यन् , राजद्वारं जगाम सः ॥ ६ ॥ कृष्णसर्पः। * ननिषिषित्सया खंता॥ २ विचारकचतुरम् । ३ गर्दभः। ४ बाणवत् । ५ चक्रवातः। ६ लक्ष्यीकृतकुअरः। चमूरच खंता, सं २, आ॥ ७ मृगविशेषः। चमूरैश्चित्रकैात्रैर्ह खंता, सं २, आ॥ ८ अष्टापदैः । ९ वल्मीकाः। १० घनैः। १५ याचकम् । १२ सुखिनः। १३ हिनप्राणिनः। १४ अनुमानं कुर्वन् । १५ नीतिम् । १६ सन्देशम्। १७ भराभ्यासजुषाम्। १८ साराथना। १९ मझाक्षाः३०हषु । 25 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व सहस्ररोचिपो रोचीप्याच्छियव विनिर्मितान् । कुन्तान् दधानः कुत्राऽपि, पत्त्यनीकैरधिष्ठितम् ॥ ६१॥ - विभ्राणैरिक्षुपत्रास्यान्ययःशल्यानि पत्तिभिः । शोभितं कुत्रचिच्छौर्यद्रुमैः पल्लवितैरिव ॥ ६२ ॥ अभङ्गानश्मभङ्गऽपि, विभ्रलिहिमुद्गरान् । सनाथं क्वाऽपि सुभटैरेकदन्तैरिव द्विपः ॥ ६३ ॥ फलकासिधरैः क्वाऽपि, चन्द्रकेतुधरैरिव । शोभितं वीरपुरुपत्रकाण्डश्चण्डशक्तिभिः ॥ ६४ ॥ आ नक्षत्रगणं दुरापातिभिः शब्दवेधिभिः । तूगपृष्ठः कालपृष्ठपाणिभिः क्वाऽप्यधिष्ठितम् ।। ६५ ॥ उद्दामशुण्डादण्डाभ्यां, स्थिताभ्यां पार्श्वयोर्द्वयोः । इभाभ्यां द्वारपालाभ्यामिव दूराद् भयङ्करम् ॥६६॥ सिंहद्वारं नृसिंहस्स, पश्यन् विसितमानसः । द्वाःस्थप्रतीक्षितस्तस्थौ, स्थितिरेपा नृपोकसाम् ॥ ६७ ॥ [सप्तभिः कुलकम् ] गत्वा च वाहुबलये, द्वास्थेनेति न्यवेद्यत । त्वद्भातुज्यायसो दृतः, सुवेगो द्वारि तिष्ठति ॥ ६८॥ 10 वेत्रिणाऽथाऽऽज्ञया राज्ञोऽनुमतो धीमतां वरः । बुधोऽर्कमण्डलमिव, सुवेगः प्राविशत् सदः ॥ ६९ ॥ आबद्धरत्नमुकुटैस्तंजस्विभिरिलाधवैः । दिवाकरेरिव दिवो, भुवं प्राप्तरुपासितम् ॥ ७० ॥ प्रदीप्तचूलामणिभिरधृष्यैर्जगतोऽपि हि । कुमारप्रवरेनागकुमारैरिव सेवितम् ॥ ७१ ॥ स्वामिविश्वाससर्वस्ववल्लीसन्तानमण्डपैः । सचिवैरुपधाशुद्धीमद्भिः परिवारितम् ॥ ७२ ॥ सहस्रशश्चाऽऽत्मरक्षनिष्कोशायुधपाणिभिः । उज्जिद्वैरिव फणिभिभीषणं मलयाद्रिवत् ॥ ७३ ॥ 15 वारस्त्रीभिर्वीज्यमानं, चामरेरतिचारुभिः । शैलं हिमालयमिव, चमरीभिर्निरन्तरम् ॥ ७४ ॥ वर्णदण्डधरेणाऽग्रे, शुचिवेषेण वेत्रिणा । सविद्युता शरद्वारिधरेणेवोपशोभितम् ॥ ७५ ॥ रत्नसिंहासनासीनं, तेजसामिव दैवतम् । ददर्श बाहुबलिनं, स तत्रोद्भूतविसयः ॥ ७६ ॥ [सप्तभिः कुलकम् ] नरनाथं ननामाऽथ, ललाटस्पृष्टभूतलः । स करीव रणदीर्घतरकाश्चनशृङ्खलः ॥ ७७ ॥ 20 ततो भ्रसंज्ञया राज्ञा, तत्कालमुपनायितं । प्रदर्शित प्रतीहारणाऽऽसाञ्चक्र स आसनं ।। ७८ ॥ ___ तं प्रसादसुधाधौतदृशा पश्यन् नृपोऽब्रवीत् । सुवेग ! कुशलं कच्चिदार्यस्य भरतशितुः ? ॥ ७९ ॥ नातपादैलालितायां, पालितायां च मुन्दर ! । तस्यां पुरि विनीतायां, कञ्चित् कुशलिनी प्रजा ? ॥८॥ पण्णां भरतखण्डानां, कामादीनामिव द्विपाम् । निरन्तरायं विजयं, कच्चिद् व्यधित भूपतिः ? ॥ ८१॥ षष्टिं वर्षसहस्राणि, कृत्वा कटकमुत्कटम् । सेनान्यादिपरीवारः, कञ्चित् कुशलमागतः ? ॥ ८२ ॥ 25 सिन्दूरारुणितेः कुम्भैद्या सन्ध्याभ्रमयीमिव । वितन्वती करिघटा, राज्ञः कञ्चिन्निरामया ? ॥ ८३ ॥ आ हिमाद्रिमहीमेतां, समाक्रम्य समेयुषाम् । राज्ञो वरतुरङ्गाणां, वर्तते कच्चिदक्लमः ? ॥ ८४ ॥ अखण्डाज्ञस्य सर्वत्र, सेव्यमानस्य पार्थिवैः । सुखेन व्यतिगच्छन्ति, कच्चिदार्यस्य वासराः ? ॥ ८५ ॥ परिपृच्छयति तूष्णीके, स्थितं वृषभनन्दने । कृताञ्जलिरनावेगः, सुवेग इदमभ्यधात् ॥ ८६ ॥ इलायाः सकलाया यः, करोति कुशलं स्वयम् । अस्ति तस्य स्वतः सिद्धं, कुशलं भरतेशितुः ॥८७।। 30 पुर्याः सुषेणादीनां च, हस्त्यश्वस्य च किं क्षमः? । देवोऽप्यकुशलं कर्तुं, येषां नेती तवाऽग्रजः॥ ८८॥ तुल्योऽधिको वा किं कोऽपि,क्वाऽप्यस्ति भरतशितुः। पण्णां भरतखण्डानां,जये यो विघ्नकृद् भवेत्॥८९॥ अखण्डिताज्ञः सर्वत्र, सेव्यते च नरेश्वरैः । तथापि भरताधीशो, जातु नाऽन्तः प्रमोदते ॥ ९ ॥ दरिद्रोऽपि कुटुम्बन, सेव्यते यः म ईश्वरः । न सेव्यते तु यस्तेन, तस्यैश्वर्यसुखं कुतः? ॥ ९१ ॥ १ सूर्यस्य । २ तेजांसि। ३ नक्षत्रगणपर्यन्तम्। ४ धनुःपाणिभिः। ५ भूपतिभिः। ६ काम-क्रोध-लोभ-मान-मदहर्षाणाम् । ७ अश्रमः। * सुखेनैवातिग सं 1, स्वं ॥ एवमापृच्छय सं २, आ॥ ८ स्थिरः। ९पृथ्थ्याः । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः] त्रिपष्ट्रिालाकापुरुषचरितम । पष्टिवर्षसहस्रान्तादेयुपा ज्यायसा तव । उत्कण्ठया कनिष्ठानामागंमाध्या निरीक्षितः ॥ ९२॥ सर्वे तत्राऽऽययुर्वन्धुसम्बन्धिसुहृदादयः । विदधुश्च महाराज्याभिषेकं भरतेशितुः ॥ ९३ ॥ आसतां तैः समायातैः, सुरैरपि मवासवैः । न हप्यति महीनाथोऽपश्यन् पार्थे निजानुजान ॥ १४ ॥ द्वादशस्वपि वर्षषु, ज्ञात्वा भ्रातृननागतान् । तानाह्वातुं नरं प्रैपीदुत्कण्ठा हि बलीयसी ॥ ९५ ॥ कश्चिद् विकल्पं सङ्कल्प्य, भरलं न समाययुः । ययुस्तु नातपादान्तं, दीक्षामाददिरे च ते ॥ ९६ ॥ 5 तेषां सम्प्रत्यरागाणां, न कोऽपि स्वो न वा परः । तैः कथं पूर्यते राज्ञो, भ्रातृवात्सल्यकौतुकम् ? ॥९७॥ तदेहि देहि हृदयप्रमोदं मेदिनीपतेः । तवाऽपि यदि तत्राऽस्ति, स्नेहः सौभ्रात्रसम्भवः ।। ९८ ॥ कुलिशादप्यधिकं वः, कठोरांस्तर्कयाम्यहम् । चिराद् दिगन्तादायाते, ज्येष्ठेऽप्येवं यदास्यते ॥ ९९ ॥ शङ्के वो गुर्ववज्ञानान्निभयेभ्योऽपि निर्भयान् । शूरैरपि वर्तितव्यं, गुगै हि सभयैरिव ॥ १० ॥ एकत्र विश्वविजयी. विनयी चाऽन्यतो गरौ । पारिषौर्षिचार्यालं.द्वैतीयीकः प्रशस्यते ॥१०१॥ 10 तवाऽविनयमप्येवं. सोदा सर्वसहो नपः । कर्णजपानां किन्त्वेवमवकाशो निराशः ॥ १०२॥ पिशुनानां गिरस्तत्र, त्वदभक्तिप्रकाशिकाः । दुपयिप्यन्ति तचेतः, क्षीरं शुक्तच्छंटा इव ॥ १०३॥ अत्यल्पमपि तद रक्ष्यमात्मच्छिद्रं निजे प्रभौ। छिद्रेण लघुनाऽप्यम्भः, सेतुमुन्मूलयत्यहो! ॥१०४॥ इयत्कालं नागतोऽस्मीत्याशङ्कां हृदि मा कृथाः । अधुनाऽप्येहि सुस्वामी, गृह्णाति स्खलितं नहि ॥१०५॥ त्वयि तत्र गते सद्यः, पिशुनानां मनोरथाः । विलीयन्तां हिमानीव, नभोभाजि नभोमणौ ॥ १०६॥ 15 तेजोभिश्चिरमेधस्व, बामिना तेन सङ्गमात् । अद्यैव पर्वणि दिवाकरेणेव निशाकरः ॥१०७॥ म्वामीयन्तस्तमन्येऽपि, बहवो बाहुशालिनः । सेवाशालीनतां हित्वा, सेवन्ते प्रतिवासरम् ॥ १०८ ॥ अवश्यं सेवनीयो हि, चक्रवर्ती महीधरैः । निग्रहानुग्रहसहः, सहस्राक्ष इवाऽमरैः ॥ १०९ ॥ चक्रवर्तित्वपक्षेपि, तस्य सेवा त्वया कृता । अद्वैतभ्रातृसौहार्दपक्षमुझ्योतयिष्यति ॥ ११० ॥ भ्रातेति यदि निर्भीको, नाऽऽयास्येतन साम्प्रतम् । आज्ञासारा न गृह्यन्ते, ज्ञातेयेन महीभुजः ॥ १११ ॥20 अयस्कान्तैरिवाऽयोंसि, देवदानवमानवाः । कृप्टाः प्रकृष्टैस्तेजोभिरायान्ति भरतेश्वरम् ।। ११२ ॥ यमर्द्धासनदानेन, वासवोऽपि सँखीयति । तमागमनमात्रेणाऽनुकूलयसि किं नहि ? ॥ ११३ ॥ वीरमानितया चेत् तं, गजानमवमन्यसे । तर्हि तस्मिन् समैन्योऽपि, त्वमब्धौ सक्तुमुष्टिवत् ॥ ११४ ॥ चतुरशीतिलक्षास्तद्गजाः शक्रेभसन्निभाः । सह्याः केनाभिसर्पन्तः, पर्वता इव जङ्गमाः ? ॥ ११५ ॥ तावतोऽश्वान् रथांश्चाऽस्य, विष्वक् प्लावयतो महीम् । कल्लोलानिव कल्पान्तोदधेः कः स्खलयिष्यति ॥११६॥25 तस्य षण्णवतिग्रामकोटिभर्तुः पदातयः । तेंद्रामप्रमिताः सिंहा, इव त्रासाय कस्य न ? ॥ ११७ ॥ एकः सुषेणः सेनानीर्दण्डपाणिः समापतन् । कृतान्त इव किं शक्यः, मोढुं देवासुरैरपि ? ॥ ११८ ॥ अमोघं बिभ्रतश्चक्र, चक्रिणो भरतस्य तु । सूर्यस्येव तमस्तोमः, स्तोकिकैव त्रिलोक्यपि ॥ ११९ ॥ तेजसा वयसा ज्येष्ठो, नृपः श्रेष्ठः स सर्वथा । राज्यजीवितकामेन, सेव्यो बाहुबले! त्वया ॥ १२० ॥ ___ अथ वाहुबलिर्बाहुबलापास्तजगदलः । इत्यभाषिष्ट गम्भीरध्वानोऽर्णव इवाऽपरः ॥ १२१॥ 30 साधु दूत! त्वमेवैको, वाग्मिनामैग्रणीरसि । ममाऽपि पुरतो वाचं, य एवं वक्तुमीशिपे ॥ १२२ ॥ ताततुल्यो हि मे भ्राता, ज्यायान् सोऽपि यदिच्छति । समागम बान्धवानां, युक्तमेव तदप्यहो। ॥१२३॥ सुरासुरनृपश्रीभित्रद्धः सोऽस्माभिरागतैः । लजिष्यतेऽल्पविभवैरागमायेति नो वयम् ॥ १२४॥ १ आगतेन । २ आगमनमार्गः। ३ पिशुनानाम् । ? भरतस्य चेतः। ५ काञ्जिकन् । ६ हिमसमूहः। ७ सूर्ये । ८ स्वामिवदाचरन्तः । ९ इन्द्रः। १० अद्वैतभ्रातृवात्सल्यपक्षम् । ११ ज्ञातिभावेन । १२ लोहानि। १३ सखिवदाचरति । * कोट्यः एण्णवति सि सं २, आ॥ १४ अल्पमात्रा। १५ अग्रेसरः । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीनं [ प्रथमं पर्व पष्टिं वर्षसहस्राणि, परराज्यानि गृह्णतः । कनिष्ठराज्यग्रहणे, व्यग्रता तस्य कारणम् ॥ १२५ ॥ सौभ्रात्रं कारणं तस्य, यदि तत् प्राहिणोत् कथम् । भ्रातृणामेकशो दृतान् , गज्यसङ्ग्रामकाम्यया ? ॥१२६॥ को भ्राता ज्यायसा सार्द्ध, लुब्धेनाऽपि हि योत्स्यते ? । इति बुद्ध्या महासच्चाः, कनिष्ठाम्तातमन्वगुः ॥१२७॥ तेषां च राज्यग्रहणेनाऽपि त्वत्स्वामिनो ध्रुवम् । छलमन्वीक्षमाणस्य, प्रकट बकचेष्टितम् ॥ १२८ ॥ 5 असावस्मास्वपि स्नेह, तादृशं दर्शयन्नहो! । प्रजिंघाय विशिष्टं त्वां, वाक्प्रपञ्चविचक्षणम् ॥ १२९ ॥ प्रव्रज्य भ्रातृभी राज्यदानाद् याऽकारि तस्य मुत् । आगतेन मया रोज्यगृथ्नोः किं सा करिष्यते ॥१३०॥ वज्रादपि कठोरोऽहं, यत् स्वल्पविभवोऽपि मन् । तस्य ऋद्धिं न गृह्णामि, भ्रातृन्यकारकातरः ॥ १३१ ॥ स तु पुष्पादपि मृदुमायावी योऽनुजन्मनाम् । अवर्णवादभीरूणां, राज्यानि स्वयमाददे॥१३२ ॥ निर्भया निर्भयेभ्योऽपि, कथं दूत! वयं ननु । भ्रातराज्यानि गृह्णन्तं, यदुपेक्षामहे स्म तम् ॥ १३३ ॥ गुरौ प्रशस्यो विनयी, गुरुर्यदि गुरुर्भवेत् । गुरौ गुरुगुणीने, विनयोऽपि वपास्पदम् ॥ १३४ ॥ गुरोरप्यवलिप्तस्य, कार्याकार्यमजानतः । उत्पथप्रतिपन्नस्य, परित्यागो विधीयते ॥ १३५ ।। तस्याऽऽच्छिन्नं किमश्वादि ?, भग्नं वा नगरादिकम् ? । येनाऽविनयमसाकं, सोढा सर्वसहो नृपः ॥१३६॥ दुर्जनप्रतिकाराय, न तत्र प्रयतामहे । विमृश्यकारिणः सन्तः, किं दृष्यन्ते खलोक्तिभिः? ॥ १३७ ॥ इयत्कालं नाऽऽगताः मो, यतो हेतोःस किं ययौ । अनीहालक्षणः क्वाऽपि ?, यामो येनाऽद्य चक्रिणम् ॥१३८॥ 15 सर्वत्राऽप्यप्रमत्तानामलुब्धानां च नः सदा । स्खलितं किं स गृह्णीयाच्छलान्वेष्यपि भूतवत् ? ॥ १३९ ॥ किमप्यनाददानानां, तदीयं नीवृदादिकम् । वाम्येव नः कथं नाम, स भवेद् भरतेश्वरः? ॥ १४०॥ भगवानृषभवामी, स्वाम्येको मम तस्य च । मिथः स्वस्वामिसम्बन्धो, घटते कथमावयोः? ॥ १४१ ॥ तेजोहेतोर्मयि गते, तत्र स्यात् तस्य कीदृशम् । तेजोऽभ्युदितवत्यर्के, तेजस्वी नहि पावकः ॥१४२ ॥ खामीयन्तोऽक्षमास्ते तु, निषेवन्तां क्षमाभुजः । एष येषु वराकेषु, निग्रहानुग्रहक्षमः ॥ १४३ ॥ सेवाऽसिन् भ्रातृसौहार्दपक्षेणापि मया कृता । चक्रवर्त्तित्वपक्षे स्याद् , यदबद्धमुखो जनः ।। १४४ ॥ भ्राताऽस्म्यभीः स चाऽऽज्ञेश, आज्ञापयतु यद्यलम् । ज्ञातिस्लेहेन किं वज्र, वज्रेण न विदार्यते ? ॥१४५।। सुरासुरनरोपास्त्या, प्रीतोऽस्त्वेष मयाऽस्य किम् ? । मार्ग एव क्षमः स्तम्बे, रथः सजोऽपि भज्यते ॥१४६।। तातभक्तो महेन्द्रश्चेज्येष्ठं तं तातनन्दनम् । आसयत्यासनस्याऽढे, स किं तेनाऽपि दृप्यति ? ॥१४७॥ ते त्वन्येऽस्मिन् समुद्रे ये, ससैन्याः सक्तुमुष्टिवत् । तेजोभिर्दुःसहोऽहं तु, हन्त ! स्यां वडवानलः ॥१४८॥ पत्तयोऽश्वा रथा नागाः, सेनानीभरतोऽपि च । मयि सर्वे प्रलीयन्तां, तेजांसीवाऽर्कतेजसि ॥ १४९ ॥ करिणेव करेणोच्चैर्यः समादाय पादयोः । मयोदलालि गगने, बालत्वे लोष्टुलीलया ॥ १५०॥ गगने दूरमध्वानं, गत्वा यश्च पतन भुवि । मा भूत् परासुरित्येप, मया प्रत्यैषि पुष्पवत् ॥ १५१ ॥ चाटुभिश्चाटुकाराणां, निर्जितानां क्षमाभुजाम् । व्यस्मार्षीत् तदसौ प्राप्तो, जन्मान्तरमियाऽधुना ॥१५२॥ चाटुकाराः प्रणश्यन्ति, ते सर्वेऽपि स्वयं त्वसौ । एकः सहिष्यते बाहुबलिबाहुवलाद् व्यथाम् ॥१५३॥ 30 याहि दूत ! स एवैतु, राज्यजीवितकाम्यया । तातदत्तांशतुष्टेन, मयैवोपैक्षि तस्य भूः ॥१५४॥ चित्रकायैरिव दृढस्वाम्याज्ञापाशयत्रितैः । प्रकोपताम्रनयनैः, प्रेक्ष्यमाणो नरेश्वरैः ॥ १५५ ॥ रोषाद्धत हतेऽत्यन्तणद्भिः स्फुरिताधरैः । कटाक्ष्यमाणो विकटं, कुमारैश्च मुहुर्मुहुः ॥ १५६ ॥ जित्सुभिरिवोदकः, किञ्चिञ्चलितहेतिभिः । दृढाबद्धपरिकरैरीक्ष्यमाणोऽङ्गरक्षकैः ॥ १५७ ॥ प्रेषयामास । २राज्यलुग्धस्य। ३ प्रातृतिरस्कारकातरः । । लज्जास्थानम् । ५ सावलेपस्य । ६ नि:स्पृहालक्षणः । प्रामाणानाम्। ८देशादिकम् । ९सामिपक्षाचरतः। १. भरतः। ११ निर्भीकः । १२ आज्ञाकारकः । उपासना .काण्डरहिते रक्षादौ। १५ प्रवाही मिभिः ।१७ चीकृतकुटिभिः। १८चलितखहै। 20 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ पञ्चमः सर्गः] त्रिपष्टिशलाकापुरुपचरितम् । हनिष्यते वराकोऽयं, केनाऽपि रभसाजुषा । नः स्वामिपैदिकेनेति, चिन्त्यमानश्च मत्रिभिः ॥ १५८ ॥ सजीकृतेन हस्तेन, पादमुत्क्षिप्य तस्थुषा । कण्ठे धर्तुमिवोत्केनोत्थापितो वेत्रपाणिना ॥ १५९ ॥ सुवेगो धैर्यमालम्ब्य, मनसि क्षुभितोऽपि सन् । निर्जगाम समुत्थाय, सदासदनतस्ततः ।। १६० ॥ [षड्भिः कुलकम् ] क्रुद्धतक्षशिलाधीशतारशब्दानुमानतः । द्वारस्थया पत्तिँचम्वा, रोपाभितया भृशम् ॥ १६१॥ 5 आस्फाल्यमानैः फेलकैनर्त्यमानैर्महासिभिः । उदस्यमानश्चक्रेश्च, गृह्यमाणैश्च मुद्गरैः ॥ १६२ ॥ स्फाव्यमानैर्खिशल्यैश्च, पीड्यमानश्च तूणकैः । आदीयमानैर्दण्डैश्वोद्यम्यमानेश्च पशुभिः ॥ १६३ ।। सर्वतोऽप्यात्मनो मृत्युमिव पश्यन् पदे पदे । स्खलत्पदो नृसिंहस्य, सिंहद्वारात् स निर्ययो ॥ १६४ ॥ [चतुर्भिः कुलकम् ] क एष नूतनो राजद्वारान्निरगमत् पुमान् ? । आगतः खल्वयं दृतो, भरतस्य महीपतेः ॥ १६५ ॥ 10 राजा किमपरः कश्चिदप्यस्तीह महीतले ? । भ्राता बाहुबलेज्येष्ठोऽयोध्यायां भरतेश्वरः ॥ १६६ ।। अत्र च प्रजिघायेमं, स दूतं केन हेतुना ? । आकारणाय स्वभ्रातुः, श्रीबाहुबलिभूपतेः ॥ १६७ ॥ इयत्कालं गतः क्वाऽऽसीद्, भ्राताऽस्मत्स्वामिनो ननु ? । पटखण्ड भरतक्षेत्रजयाय स गतो ह्यभृत्।।१६८॥ उत्कण्ठितः कनिष्ठं स, किं समाह्वयतेऽधुना? । अन्यराजन्यसामान्यां, सेवां कारयितुं ननु ॥ १६९ ॥ तस्याऽसारान् नृपान् जित्वा, किं कीलेऽत्राऽधिरोहणम् ? । अखण्डश्चक्रवर्तित्वाभिमानस्तत्र कारणम् ॥१७०।। 15 कनिष्ठेन जितो राज्ञां, स्खं कथं दर्शयिष्यति ? । न वेत्ति जितकासी म, भाविनं स्वपराभवम् ॥ १७१ ॥ मत्रणे नाऽऽखुरप्यस्ति, भूपतेर्भरतस्य किम् ? । भूयांसो मत्रिणः सन्ति, मतिमन्तः क्रमागताः ॥१७२।। स कण्डूयियिपुस्तुण्डमहेः किं तैर्न वारितः ? । न वारितः प्रेरितः किन्त्वीदृशी भवितव्यता ॥ १७३ ॥ नागराणामिति मिथो, जल्पतामुच्चकैर्गिरम् । आकर्णयन् रथारूढो, नगर्या निर्जगाम सः ॥ १७४ ।। _ [दशभिः कुलकम् ] 20 देवताभिरिव प्रादुष्कृतां द्वारे व्रजन्नसौ । आर्षभ्योर्विग्रहकथामितिहासमिवाऽशृणोत् ॥ १७५ ॥ क्रोधात् त्वरितमप्यस्य, गच्छतः स्पर्धयेव सा । वर्त्मनि त्वरिततरं, तद्विग्रहकथा ययौ ॥ १७६ ॥ वार्त्तयाऽपि तया राजादेशेनेव क्षणाद् भटाः । प्रतिग्रामं प्रतिपुरं, कटकाय ससजिरे ॥ १७७ ॥ रधान् साङ्ग्रामिकान कृष्ट्वा, शालाभ्योऽक्षादिभिर्नवैः । केचिद् दृढतरीचक्रुः, शरीराणीय योगिनः ॥१७८॥ आरुह्याऽऽरुह्य बाँह्याल्यां, धाराभिरपि पञ्चभिः । कर्तु रणसहानश्वान् , केपि श्रममजापयन् ॥ १७९ ॥ 25 अयस्कोरगृहेष्वेत्य, कृपाणादिकमायुधम् । अपरे तेजयामासुस्तेजोमूर्तिमिव प्रभोः ॥ १८० ॥ संयोज्य शृङ्गसाराणि, बद्धाऽभिनवतत्रिभिः । यमभ्रूसोदराण्यन्ये, शार्ङ्गधन्वान्यसूत्रयन् ॥ १८१॥ वर्मादिवहनायोष्ट्रानरण्यात् केचिदानयन् । तूर्याणि प्राणवन्तीव, प्रयाणेषु प्रणादिनः ॥ १८२ ॥ सबाणान् वाणधीन केचित् , सशिरस्कांश्च कङ्कटान् । दृढानपि दृढीचक्रुः, सिद्धान्तानिव तार्किकाः ॥१८३॥ केऽपि गुप्यद्गुरून् काण्डपेटान् पटकुटीरपि । गन्धर्वभवनानीव, वितत्याऽऽलोकयन् क्षणात् ॥ १८४ ॥ 30 स्पर्द्धयेव मिथः सर्वे, भक्ता बाहुबलौ नृपे । युधि सजीभवन्ति स्म, जना जानपदा अपि ॥ १८५ ॥ आप्तेन तत्र यः कोऽपि, न्यवार्यत रणोन्मुखः । अनाप्तायेव तस्मै सोऽकुप्यद् भक्तिचिकीर्नृपे ॥१८६ ॥ साहसिकेन । २ स्वामिपत्तिना । ३ उत्कण्ठितेन । ४ पदातिसेनया। ५ अस्त्रप्रतिघातनिवारकैः "ढाल" इति लोके । ६ शस्त्रविशेषैः। ७ निषङ्गैः। * ध्यते खं, सं १ ॥ ८ मूषकः। ९ मुखम् । १० बाहुबलि-भरतयोः। ११ सैन्याय । १२ रथावयवादिभिः। १३ अश्वपाटिकायाम्। १४ अश्वगतिभिः। १५ लोहकारगृहेषु। १६ यमभ्रूसदृशानि । १७ निषङ्गान् । १८ वर्माणि । १९ “कनात"इति लोके । त्रिषधि १५ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व प्राणरपि प्रियं राज्ञोऽनुरागेण चिकीर्षताम् । जनानामेवमारम्भ, स ददर्श पथि वजन् ।।१८७ ॥ श्रुत्वा दृष्ट्वा च तल्लोके, “पर्वतीयनृपा अपि । प्रतिराजानमद्वैतभक्तिमानितयाऽमिलन् ॥ १८८ ॥ गावो गोपखरेणेव, निकुञ्जेभ्यः सहस्रशः । तेषां गोशृङ्गनादेन, किराताः प्रदधाविरे ॥ १८९ ॥ द्वीपिपुच्छत्वचा केचित् , केकिपिच्छैश्च केचन । लताभिः केपि वेगेन, वबन्धुः कुन्तलान् भटाः ॥१९०। 5 दन्दशंकत्वचा केऽपि, तारख्या केचन त्वचा । केचिद् गोधात्वचाऽबधन्, परिधानं मृगत्वचम् ॥१९१ । ग्रावहस्ता धनुर्हस्ताः, प्लवमानाः प्लवङ्गवत् । स्वपतीन् परिवत्रुस्ते, पतिभक्ताश्ववद् भृशम् ॥ १९२ ॥ अद्य दो बाहुबलिप्रसादावक्रयं चिरात् । भरताक्षौहिणीक्षोदादिति तेषां गिरोऽभवन् ॥ १९३ ॥ __ तैषामप्येवमारम्भ, ससंरम्भं निरूपयन् । मुवेगश्चिन्तयामास, मनसैवं विविक्तधीः ॥ १९४ ॥ पैतृकेणेव वैरेण, त्वरन्ते रणकर्मणे । अहो! अमी बाहुबलिगृह्या विषयवासिनः ॥ १९५ ॥ 10 *किराता अप्यमी हन्तोत्सहन्ते हन्तुमागतम् । अमद्धलं बाहुबलिबलाग्रे समरेच्छवः ॥ १९६ ॥ तं कञ्चन न पश्यामि, यः सज्जति युधे नहि । विद्यते स न कोऽपीह, रक्तो बाहुबलौ न यः ॥१९७।। शूराश्च स्वामिभक्ताश्च, बहल्यां हलिनोऽप्यहो! । तत् किं देशस्वभावोऽयमुत बाहुबलेर्गुणः? ॥१९८॥ भवन्तु वेतनक्रीताः, सामन्ताद्याः पदातयः । अहो ! अस्य गुणक्रीती, पत्तीभूताऽखिलाऽपि भूः ॥१९९॥ बह्वीमपि चक्रिच , मन्ये लध्वीं लघीयसः। श्रीबाहुबलिसैन्यस्य, तण्या वह्वेरिवाऽग्रतः ॥२०॥ 15 महावीरस्य किं चाऽस्य, न्यूनं बाहुबले पुरः ? । कलभं शरभस्येव, शङ्के चक्रिणमप्यहो! ॥२०१॥ ओजस्वी भुवि चक्र्येव, वज्येव दिवि विश्रुतः । तयोरन्तरवर्द्धवर्ती वा लघुरांर्षभिः ॥ २०२ ॥ अपि तच्चक्रिणश्चक्रमपि वज्रं च पत्रिणः। मन्ये विफलमेवाऽस्य, चपेटाघातमात्रतः॥२०३॥ ऋक्षः कर्णे तदात्तोऽयं, महाहिर्मुष्टिना धृतः । विरोधितो यदस्माभिरहो ! बाहुबलिर्बली ॥२०४ ॥ मृगमेकमिव द्वीपी, गृहीत्वा भूमिखण्डलम् । सन्तुष्टोऽयं मुधाऽसाभिस्तर्जयित्वा खलीकृतः ॥२०५॥ 20 अनेकनृपसेवाभिः, किमपूर्ण नृपस्य ? यत् । अयमारम्भि सेवायै, वाहनायेव केसरी ॥ २०६॥ धिग् मत्रिणः स्वामिहितमानिनोऽस्मानपीह धिक् । यैर्द्विषद्भिरिवोपेक्षाश्चके स्वाम्यत्र कर्मणि ॥२०७॥ गत्वैकेन सुवेगेन, विग्रहश्चालितः प्रभोः । भणिष्यतीति लोकस्तु, धिर दौत्यं गुणदूषणम् ॥ २०८ ॥ एवं विचिन्तयन् नित्यं, दिनैः कतिपयैरपि । सुवेगो नगरी प्राप, विनीतां नीतिकोविदः ॥ २०९ ॥ नीतः सभायां द्वास्थेन, प्रणामरचिताञ्जलिः । न्यषीदत् सोऽथ पप्रच्छ, सादरं चक्रवर्तिना ॥ २१० ॥ 25 किं नाम कुशलं बाहुबलेर्मदनुजन्मनः । यत् त्वं सुवेग! वेगेनाऽऽगतोऽसि क्षुभितोऽस्मि तत् ॥२११॥ अथवा तेन पर्यस्तस्ततस्त्वरितमागतः । वीरवृत्तिरियं युक्ता, मद्भातस्तस्य दोष्मतः ॥ २१२ ॥ सुवेगोपि जगादेवं, देव! देवोऽपि न क्षमः । तस्याऽकुशलमाधातुं, तवेवाऽनवमौजसः ॥ २१३ ॥ स उक्तः स्वामिसेवार्थ, पूर्व विनयपूर्वकम् । मया तवाऽनुजन्मेति, नितान्तहितकाशिणा ॥ २१४ ॥ मेषजेनेव तीव्रण, परिणामोपकारिणा । सोऽवाच्यवचनीयेन, वचसा तदनन्तरम् ।। २१५ ॥ 50 न साम्ना न खरेणाऽपि, देवसेवां स मन्यते । किं नाम भेषजं कुर्याद्, विकारे सान्निपातिके ? ॥२१६॥ मानसारस्तृणायैतत् , त्रैलोक्यमपि मन्यते । स सिंह इव जानीते, प्रतिमल्लं न कञ्चन ॥ २१७ ॥ असिन् सुषेणसेनान्यां, सैन्ये च तव वर्णिते । किमेतदिति दुर्गन्धादिवाऽभासीत् स नासिकाम् ॥२१८॥ प्रभोर्भरतपदखण्डविजये प्रस्तुते च सः । अनाकर्णितकं कुर्वन्, खंदोर्दण्डौ निरीक्षते ॥ २१९ ॥ ___ * भूभुजःपार्वता अपि खंता । पार्व. सं ॥ १ पर्वतसम्बन्धिनो नृपाः। २ लतागृहेभ्यः। ३ व्याघ्रपुच्छत्वचा। ४ मयूरपिच्छैः। ५ सर्पस्वचा। ६ तहसम्बन्धिन्या। * अयं श्लोक आ पुस्तके पतितः। + रे कच खं ॥ ७ कृषीवलाः । ८ तृणसमूहम् । ९ बाहुबलिः । १० बलवतः। ११ उत्तमपराक्रमस्य । १२ तीक्ष्णेन । १३ स्वभुजदण्डौ । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम। तातदत्तांशतुष्टस्य, ममेवोपेक्षयाऽग्रहीत् । भरतो भरतक्षेत्रपखण्डमिति चाऽऽह सः ॥ २२० ॥ पर्याप्तं सेवया तस्य, प्रत्युताऽऽह्वयतेऽधुना । रणाय देवं स व्याघीमिव दोहाय निर्भयः ॥ २२१ ॥ ईदृक् तावत् तव भ्रातौजस्वी मानी महाभुजः । गन्धद्विप इवाऽसह्यः, सहते नाऽन्यविक्रमम् ॥ २२२ ॥ सभायां तस्य सामन्ता, हरेः सामानिका इव । प्रचण्ड जशोण्डीया, न हीयन्ते तदाशयात् ॥ २२३॥ कुमारा अपि तस्योचे, राजतेजोभिमानिनः । रणकण्डूलदोर्दण्डास्ततो दशगुणा इव ॥ २२४ ॥ तन्मत्रमनुमन्यन्ते, मत्रिणोऽप्यस्य मानिनः । यादृशो भवति स्वामी, परिवारोऽपि तादृशः ॥ २२५ ॥ तस्याऽनुरागिणः पौरा, अप्यन्यं पार्थिवं न हि । जानन्ति न सहन्ते च, सत्योऽपरपतीनिव ॥ २२६ ॥ जना जानपदा ये च, तस्याऽष्टकरविष्टयः । भृत्या इवाऽनुरागेण, तेऽपि प्राणैः प्रियैषिणः ॥ २२७ ।। वनेचरा गिरिचराः, सिंहा इव भटाश्च ये । मानसिद्धिं चिकीर्षन्ति, तेऽपि तस्य वशंवदाः ॥ २२८ ॥ अलमुक्त्वा बह्वथवा, स वीरो वर्ततेऽधुना । युयुत्सया दिक्षुस्त्वां, स्वामिन्नुत्कण्ठया न तु ॥ २२९ ॥ 10 यदात्मने रोचतेऽतः परं स्वामी करोतु तत् । दूता न मत्रिणः किन्तु, सत्यवाचिकवाचिनः ॥ २३० ॥ युगपद् विसयामर्षमर्षहर्षादि तत्क्षणम् । नाटयित्वा भरतवद्, भरतोऽथाऽब्रवीदिति ॥ २३१ ॥ सुरासुरमनुष्येषु, तुल्यो नाऽमुष्य कश्चन । अर्थोऽनुभूत एवाऽयं, शिशुक्रीडास्वपि स्फुटम् ॥ २३२ ॥ जगत्रयस्वामिसूनोस्तस्याऽसदनुजन्मनः । त्रिलोक्यपि तृणायेति, वास्तवं न पुनः स्तवः ॥ २३३ ॥ सर्वथा श्लाघ्य एवाऽहमनेनाऽवरजन्मना । भाति नैको गुरुर्बाहुर्द्वितीयस्मिन् लघीयसि ॥ २३४ ॥ 15 सिंहः सहेताऽऽलोनं चेच्छरभो वा वशं व्रजेत् । वश्यो बाहुबलिश्च स्यात् , किं हि न्यूनं तदा भवेत् ॥२३५॥ तत् सहिष्यामहे तस्य, वयं दुर्विनयानपि । यदि लोका अशक्तं मां, वदिष्यन्ति वदन्तु तत् ॥ २३६ ॥ सर्वमप्याप्यते वस्तु, पौरुषेण धनेन वा । न भ्राता प्राप्यते क्वाऽपि, तादृशस्तु विशेषतः ॥ २३७ ॥ किमेवं युज्यते नो वा?, तूष्णीमास्थाय किं स्थिताः । उदासीना इव यूयं ?, यथार्थं ब्रूत मत्रिणः!॥२३८॥ क्षमया स्वामिनो बाहुबलेरविनयेन च । प्रहारेणेव दूनोऽथ, सेनानीरित्यवोचत ॥ २३९ ॥ 20 ऋषभस्वामिनः सूनोः, सुप्रभोर्भरतेशितुः । उचितैव क्षमा किन्तु, करुणाभाजने जने ॥ २४ ॥ वसेद् ग्रामेऽपि यो यस्य, तस्याधीनः स जायते । स देशमपि भुञ्जानो, वाचाऽपि न वशस्तव ॥ २४१ ॥ प्राणापहार्यपि वरं, वैरी तेजः प्रवर्द्धयन् । न तु बन्धुरपि भ्रातुस्तेजोवधविधायकः ॥ २४२ ॥ कोशैः सैन्यैः सुहृद्भिश्च, तनयैर्वपुषाऽपि च । तेजो रक्षन्ति राजानस्तेषां तेजो हि जीवितम् ॥ २४३ ॥ किमपूर्ण स्वराज्येनाऽप्यभूद् भर्तुः कृतस्तु यः । षट्खण्डभरतक्षेत्रविजयस्तेजसे स तु ॥ २४४॥ 25 एकत्रापि क्षतं तेजः, सर्वत्र क्षतमेव हि । एकदापि सती लुप्तशीला स्यादसती सदा ॥ २४५॥ संविभागो धनेष्वेव, गृहिणामपि बान्धवैः । गृह्यमाणं तेजप तेजो, नोपेक्षन्ते मनागपि ॥ २४६ ॥ सकलं भरतं जिष्णोर्यदिहाविजयः प्रभोः । उत्तीर्णस्य पयोरीशिं, गोष्पदे तनिमजनम् ॥ २४७॥ किश्च श्रुतमिदं क्वापि, दृष्टं वा काऽपि यद् भुवि । चक्रिणोऽपि प्रतिस्पर्धी, राजा राज्यं भुनक्ति च ॥२४८॥ तत्राविनीते यः स्नेहो, भ्रातृसम्बन्धमात्रजः । तदेतदेकहस्तेन, तालिकावादनं विभोः ॥ २४९॥ 30 वेश्याजन इवाऽस्नेहे, तत्रापि स्नेहलः प्रभुः । एवं निगदतो नश्चेन्निषेधति निषेधतु ॥ २५० ॥ शत्रून् सर्वान् विजित्याऽन्तःप्रवेक्ष्यामीति संश्रवात् । निषेधिता कथं चक्र, देवोऽद्यापि बहिःस्थितम्।।२५१।। भ्रातृव्याजाद् द्विषयेष, युज्यते न घुपेक्षितुम् । अमुमर्थं प्रभुः पृच्छत्वपरानपि मत्रिणः ॥ २५२ ॥ १ गन्धहस्ती इव । २ प्रचण्डभुजपराक्रमाः। * किं च तस्य कुमारा अप्योजस्ते खंता ॥ ३ रणकण्डूयुक्तभुजदण्डाः । ५ पतिव्रताः खियः। ५ योदुमिछया। ६ सत्यसन्देशवाचिनः। ७ सूत्रधारवत् । ८ सत्यम् । + राजत्येको गुरुर्बाहुर्न द्वितीये ल° खंता ॥ ९ बन्धनम् । १० दयापाने।" गृहिणोऽपि। १२ समुद्रम् । ते स्नेहोऽयं, खंता ॥ । शत्रुः। मुजपराक बितीयेयः । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीक्षेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथमं पर्व सम्मुखालोकनेनानुयुक्तो वसुमतीभुजा । वाचस्पतिसमोऽवोचदथैवं सचिवाग्रणीः ।। २५३ ॥ सेनानीरुक्तवान् युक्तं, कोऽन्यो वक्तुमिदं क्षमः ? | स्वामितेजो ह्युपेक्षन्ते, विक्रमायासंभीरवः ॥ २५४ ॥ तेजसे स्वामिनाऽऽदिष्टा, अपि प्रायो नियोगिनः । रचयन्त्युत्तरं स्वार्थे, व्यसनं वर्द्धयन्ति वा ॥ २५५ ।। अयं तु सेनाधिपतिर्देवकीयस्य तेजसः । पवनः पावकस्येव, केवलं वृद्धिहेतवे ।। २५६ ।। 5. चक्ररत्नमिव स्वामिन्!, सेनाधिपतिरप्यसौ । अपि स्तोकं द्विषच्छेषमविजित्य न तुष्यति ।। २५७ ।। पर्याप्तं तद् विलम्बेन, दण्डहस्तैस्त्वदाज्ञया । प्रयाणभम्भा तेऽद्यैव, ताड्यतां प्रतिपक्षवत् ॥ २५८ ॥ सर्पता तन्निनादेन, सवाहनपरिच्छदाः । मिलन्तु सैन्याः सुघोषाघोषेणेव दिवौकसः । २५९ ।। विदधातु प्रयाणं च देवस्तक्षशिलां प्रति । उत्तराभिमुखं तेजोवृद्धये भानुमानिव ।। २६० ।। गत्वा स्वयमपि स्वामी, भ्रातुः सौभ्रात्रमीक्षताम् । वेत्तु सत्यमसत्यं वा, सुवेगमुखवाचिकम् ।। २६१ ।। तद्वचो भरताधीशस्तथेति प्रत्यपद्यत । युक्तं वचोऽपरस्याऽपि मन्यन्ते हि मनीषिणः ॥ २६२ ॥ ततः शुभेऽह्नि भुपालः कृतयात्रिकमङ्गलः । आरुरोह प्रयाणाय, नागं नगमिवोन्नतम् ॥ २६३ ॥ स्यन्दनाश्वरथारूढैः पत्तिभिश्च सहस्रशः । यात्रातूर्याण्यवाद्यन्ताऽन्यराजैकच सूनिभैः ॥ २६४ ॥ नादैः प्रयाणतूर्याणां सर्वसैन्यान्यथाऽमिलन् । समहस्तकनिर्घोषैरिव सङ्गीतकारिणः || २६५ ।। नरेन्द्रमन्त्रिसामन्तचमूपैः परिवारितः । अनेकमूर्त्तिर्भूत्वेव, नगर्या निर्ययौ नृपः ॥ २६६ ॥ " I अथ यक्षसहस्रेणाधिष्ठितं भरतेशितुः । अभूत् सेनापतिरिव, चक्ररनं पुरस्सरम् || २६७ ॥ राज्ञः प्रयाणपिशुनाः, पांशुपूराश्वमृत्थिताः । दूरमाशु प्रससृपुरपसर्पा इव द्विषाम् || २६८ ।। तदा प्रचलितैस्तस्य, लक्षसङ्ख्यैर्मतङ्गजैः । अलक्ष्यन्त गजोत्पत्तिभूमयो निर्गजा इव ॥ २६९ ॥ चलद्भिस्तस्य तुरगैः, स्यन्दनैर्वेसरैर्मयैः । निर्वाहनमभून्मन्ये, सर्वमन्यन्महीतलम् ॥ २७० ॥ पादतिं पश्यतां तस्य, बभौ नरमयं जगत् । अम्भोधिं वीक्षमाणानामम्भोमयमिवाऽखिलम् || २७१ ।। 20 साधितं भरतक्षेत्रं, क्षेत्रमेकमिवाऽमुना । पूर्वाणीव मुनिः प्राप, रत्नान्येष चतुर्दश ॥ २७२ ॥ 10 15 ११६ आयुक्त व नियोsस्याऽभूवन् वशगा नव । एवं सति कुतो हेतोः क्व वा प्रास्थित पार्थिवः १ ॥ २७३ ॥ यदृच्छया गच्छति वा, स्वदेशान् वैष वीक्षितुम् । द्विषत्साधनहेतुस्तच्चक्रमग्रे प्रयाति किम् ? ॥ २७४ ॥ ध्रुवं दिगनुमानेन याति बाहुबलिं प्रति । अहो ! अखण्डप्रसराः, कषाया महतामपि ।। २७५ ।। स तावच्छ्रयते देवासुरैरपि सुदुर्जयः । तं जिगीषुरसौ मेरुमङ्गुल्योद्धर्तुमिच्छति ।। २७६ ।। जितोऽनुजोऽनुजेनाऽपि, जित इत्ययशो महत् । महीपतेरुभयथाऽप्यत्र नूनं भविष्यति ॥ २७७ ॥ इति प्रवादा लोकानां, ग्रामे ग्रामे पुरे पुरे । मार्गे मार्गे च भूपस्य, गच्छतो जज्ञिरे चिरम् ॥ २७८ ॥ [ सप्तभिः कुलकम् ] वर्द्धिष्णुमिव विन्ध्याद्रिमन्धकारमिवोच्छलत् । उत्पतत्पांशुपूरेण, सर्वतोऽपि प्रदर्शयन् ।। २७९ ।। हेषाबृंहितचीत्कारकरास्फोटरवैर्दिशः । नादयन् पृतनाङ्गानां चतुर्णामानकैरिव ॥ २८० ॥ 30 शोषयन् मार्गसरितो, ग्रीष्मार्क इव सर्वतः । पवमान इवोद्दामः, पातयन्नध्वपादपान् ॥ २८९ ॥ बलाकिनीमिव दिवं कुर्वन् सैन्यध्वजांशुकैः । सैन्यार्दितामिभमदैर्भुवं निर्वापयनिव ॥ २८२ ॥ दिने दिने नरपतिर्गच्छंश्चक्रपदानुगः । राश्यन्तरमिवाऽऽदित्यो, बहलीदेशमासदत् ॥ २८३ ॥ [ पञ्चभिः कुलकम् ] प्रवेशे तस्य देशस्य, निवेश्य शिविरं नृपः । अवतस्थे समर्यादो, मर्यादायामिवाऽर्णवः ॥ २८४ ॥ १ प्रेरितः । २ देवसम्बन्धिनः । * ३ शत्रुवत् । • मन्तैश्वमू° सं २, भा ॥ * प्रयाणसूचकाः । ६ पदातीनां समूहम् । ७ ढक्काख्यवाद्यविशेषैः । ८ पवनः । ९ बलाकायुताम् । १० मेषादिराश्यन्तरम् । ५ गुप्तचराः । 25 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 पञ्चमः सर्गः ] त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरितम । अज्ञासीदागतं तत्र, सुनन्दानन्दनोऽपि तम् । राजनीतिगृहस्तम्भः, सद्यः प्रणिधिपूरुपैः ॥ २८५ ॥ अथ बाहुबलियाबाहेतोभम्भामवीवदत् । प्रतिनादेनिनदन्ती, द्यां भम्भीकुर्वतीमिव ॥ २८६ ॥ कृतप्रस्थानकल्याणः, कल्याणमिव मूर्तिमत् । आरुरोहोत्साहमिव; भद्रं बाहुबलिपिम् ॥ २८७ ॥ नृपैः कुमारैः सचिवैः, प्रवीररपरैरपि । सद्योऽपि परिवत्रे स, सुररिव पुरन्दरः ॥ २८८ ॥ महाबलैर्महोत्साहरेककार्यप्रवृत्तिभिः । अभेद्यस्तरात्मनोऽशरिव बाहुबलिबभौ ।। २८९ ॥ निषादिनः सादिनश्च, रथिनोऽथ पदातयः । तस्येयुर्लक्षशः सद्यस्तन्मनोधिष्ठिता इव ॥ २९० ॥ ओजस्विभिरुदत्रैः स्वैरेकवीरमयीमिव । स वीर रचयन्नुर्वी, चचालाऽचलनिश्चयः ॥ २९.१ ॥ अहमेकोऽपि जेष्यामि, परानिति परस्परम् । तद्वीरा व्यवदनिःसंविभागजयगृनवः ॥ २९२ ॥ तत्र सैन्ये वीरमानी, कोहलावादकोऽप्यभूत् । सर्वेऽपि मणिताभाजः, कर्करा अपि रोहणे ॥ २९३ ॥ महामाण्डलिकच्छत्रमण्डलैरिन्दुपाण्डुभिः । पुण्डरीकमयीव द्यौस्तदानीं समजायत ॥ २९४ ॥ ययौ बाहुबलिः पश्यन् , प्रत्येकमपि भूभुजः । भुजानिव निजानुच्चैर्मन्यमानो महौजसः ॥ २९५ ॥ भुवं भारैरनीकानां, जयतूर्यरवैर्दिवम् । आस्फोटयदिवोदामैत्रजन् बाहुबलिः पथि ॥ २९६ ॥ स्वदेशसीग्नि दूरेऽपि, शीघ्रं बाहुबलिययो । वायुतोऽपि भृशायन्ते, समरोत्कण्ठिताः खलु ॥ २९७ ।। गङ्गातटे बाहुबलिः, स्कन्धावारं न्यवेशयत् । नात्यासन्ने नातिदूरे, शिबिराद् भरतेशितुः ॥२९८ ॥ प्रातयुद्धोत्सवायाऽथ, मागधैर्ऋषभात्मंजौ । निमन्त्रयामासतुस्तावन्योऽन्यमतिथी इव ॥ २९९ ॥ 15 ___ अथ बाहुबलिनक्तं, राजकानुमतं सुतम् । चक्रे सेनापति सिंहरथं सिंहमिवौजसा ॥ ३०० ॥ मूर्ध्नि पट्टद्विपस्येव, रणपट्टोऽस्य भूभुजा । स्वयं न्यवेशि सौवर्णः, प्रताप इव भासुरः ॥ ३०१॥ स राजानं नमस्कृत्य, लब्धया रणशिक्षया । भुवेव प्राप्तया हृष्टो, ययावावासमात्मनः ॥ ३०२॥ राजा यद्धार्थमादिश्याऽन्यानपि व्यसजन्नपान । स्वयं रणार्थिनां तेषां सत्कारः स्वामिशासनम ॥३०३॥ कुमारनृपसामन्तसम्मतां भरतोऽपि हि । रणदीक्षां सुषेणस्य, ददावाचार्यवर्यवत् ॥ ३०४॥ 20 *सिद्धिमत्रमिवाऽऽदाय, सुषेणः स्वामिशासनम् । चक्रवाक इव प्रातः, काम्यन् निजगृहं ययौ ॥३०५॥ कुमारान् बद्धमुकुटान् , सामन्तानितरानपि । आहूय भरताधीशः, समरायैवमन्वशात् ।। ३०६॥ सेनापतिः सुषेणोऽयं, रणे मदनुजन्मनः । अप्रमत्तैरहमिवाऽनुगम्यो हे महौजसः ॥ ३०७ ॥ भो भो ! भवद्भिर्भूयांसो, भूभुजो भुजदुर्मदाः । महामात्रैरिव व्याला, व्यधीयन्त वशंवदाः ॥ ३०८ ॥ वैताढ्याद्रिमतिक्रम्य, किराताश्च दुराक्रमाः। विक्रान्तैर्बाढमाक्रान्ता, हन्त ! देवैरिवाऽसुराः ॥३०९ ॥25 जीयन्तां हन्त ते सर्वे, यतस्तेषु न कोऽप्यभूत् । अपि तक्षशिलाधीशपत्तिमात्रस्य सनिमः ॥ ३१० ॥ एकोऽपि सोमः सैन्यानि, तूलानीव समीरणः । दिशो दिशि क्षेप्नुमलं, ज्येष्ठो बाहुबले सुतः॥३११॥ कनिष्ठो वयसा तस्याऽकनिष्ठो विक्रमेण तु । महारथः सिंहरथः, शत्रुसैन्यदवानलः ॥ ३१२ ॥ किश्च बाहुबले पुत्रपौत्रादिष्वपरेषु च । एकैकोऽक्षोहिणीमल्लः, कृतान्तस्यापि भीतये ॥ ३१३ ॥ सामन्ताद्याश्च ये तस्य, स्वामिभक्त्या बलेन च । तोल्यन्ते तेऽपि तैः सार्द्ध, प्रतिमानस्थिता इव ॥३१४|| 30 अन्यसैन्येऽग्रणीर्यादृग्, भवत्येको महाबलः । सर्वेऽपि तादृशाः सैन्याः, सैन्ये तस्य महौजसः ॥ ३१५ ॥ दूरे बाहुबलिस्तावत् , स महाबाहुराहवे । एतस्यैकोऽपि हि व्यूहो, दुःस्फोटो हन्त ! वज्रवत् ॥ ३१६ ॥ तयुद्धायाऽभिगच्छन्तं, सुषेणमनुगच्छत । प्रावृषेण्यं पयोवहिं, पौरस्त्यपवना इव ॥ ३१७ ॥ सुधोपमगिरा भर्तुरन्तस्ते पूरिता इव । स्फारीबभूवुर्वपुषः, पुलकेन समन्ततः ॥ ३१८ ॥ - गुप्तचरैः। २ कांस्याख्यवाद्यविशेषः। ३रोहणाचले। ४ चारणैः। ५ रात्रौ। *सिद्धम सं., खं ॥ ६ दुष्टगजाः । ७ पराक्रमेण श्रेष्ठः । ८ प्रतिबिम्बस्थिता इव । ९ युद्धे । १० सैन्यरचनाविशेषः। ११ मेघम् । १२ पूर्वदिक्पवनाः। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व विसृष्टास्ते नरेन्द्रेण, जयश्रीणामिव स्वयम् । वरणं प्रतिवीराणां, कुर्वाणाः स्वगृहं ययुः ॥ ३१९ ॥ द्वयोरपि तदाऽऽर्षभ्योः , प्रसादार्णमहार्णवम् । तितीर्षवो वीरवराः, ससज्जू रणकर्मणे ॥ ३२० ॥ कृपाणचापतूणीरगदाशत्त्यादिकान्यथ । आनचुर्देवतानीव, स्वानि खान्यायुधानि ते ॥ ३२१ ॥ शस्त्राग्रे वादयामासुस्तूयाण्युच्चैर्महाभटाः । तालं पूरयितुमिवोत्साहाच्चित्तस्य नृत्यतः ॥ ३२२ ॥ आत्मानं मार्जयन्ति स्म, चन्दनोद्वर्त्तनैनवैः । महाभटाः सुरभिभिः, स्वयशोभिरिवाऽमलैः ॥ ३२३ ॥ चक्रुर्भटा मार्गमदीर्ललाटेषु ललाटिकाः । आबद्धमेचकपटवीरपट्टविडम्बिनीः ॥ ३२४ ॥ शस्त्राणि जाग्रतां भाविशस्त्राशस्त्रिकथाकृताम् । सैन्यद्वयेऽपि वीराणां, निद्रा भीतेव नाऽऽययौ ॥ ३२५ ॥ सैन्यद्वितयवीराणां, प्रातयुद्धाभिकाशिणाम् । त्रियामा शतयामेव, कथञ्चिदपि सा ययौ ॥ ३२६ ॥ आर्षभ्योवीक्षितुमित्र, रणक्रीडाकुतूहलम् । अथाऽऽरुरोह चण्डांशुरुदयाचलचूलिकाम् ॥ ३२७ ॥ 10 मन्दरक्षुब्धसङ्घभ्यत्पयोधिपयसामिव । पुष्करावर्तमेघानामिव प्रलयजन्मनाम् ॥ ३२८ ॥ दम्भोलिताड्यमानानामिव सानुमतां महान् । प्रणादो रणतूर्याणां, सैन्ययोरुभयोरभूत् ॥३२९॥ [युग्मम्] उत्कर्णतालास्तत्कालं, वित्रेसुर्दिमतङ्गजाः । सभयभ्रान्तयादस्काथुक्षुभुश्च पयोधयः ॥ ३३० ॥ गुहासु विविशुः क्रूराण्यपि सत्वानि सर्वतः । रन्ध्रादपि हि रन्ध्रेषु, न्यलीयन्त महोरगाः ॥ ३३१॥ गण्डशैलीभवच्छृङ्गाः, शैलाश्च प्रचकम्पिरे । विभाय सङ्कुचत्पादकण्ठं कमठराडपि ॥ ३३२ ॥ 15 बाढमध्वंसतेव द्यौर्विदद्र इव मेदिनी । रणातोद्यप्रणादेन, तदा तेन प्रसर्पता ॥ ३३३ ॥ [चतुर्भिः कलापकम् ] राजदौवारिकेणेव, रणतूर्येण चालिताः । उभयोः सैन्ययोः सैन्याः, ससजुरथ संयते ॥ ३३४ ॥ रणोत्साहोच्छ्सद्देहात् , त्रुट्यन्तीवर्मजालिकाः । भूयो भूयो नवनवास्ताः केपि समचारयन् ॥ ३३५ ॥ आरोचकितयाऽश्वान् केऽप्यात्मना समनाहयन् । स्वतोऽपि ह्यधिको रक्षा, भटाः कुर्वन्ति वाहने ॥३३६॥ 20 सन्नाह्याऽऽरुह्य केऽप्यश्वान् , परीक्षितुमवाहयन् । दुःशिक्षितो जडश्चाऽश्वः, शत्रवत्येव सादिनि ॥ ३३७॥ सन्नाहग्राहणे केऽपि, हेषमाणांस्तुरङ्गमान् । आनचुर्देववद् युद्धे, हेषा हि जयसूचिनी ॥ ३३८॥ लब्धाश्वान केऽप्यसन्नाहान् , सन्नाहान् विजहुर्निजान् । शौण्डीरदोष्णां समरेष्विदं हि पुरुषव्रतम् ॥३३९॥ अस्खलन् सञ्चरे|रे, रणे मत्स्य इवाऽर्णवे । दर्शयेः कौशलमिति, शशासुः केपि सारथिम् ॥ ३४०॥ पथिका इव पाथेयैरस्त्रैः केऽपि निजान् रथान् । समन्तात् पूरयामासुः, पश्यन्तः समरं चिरम् ॥ ३४१॥ 25 दूरादात्मख्यापनाय, केपि वैतालिकानिव । उत्तम्भितखस्खचिह्नान , ध्वजस्तम्भान् दृढान् व्यधुः॥३४२॥ रथेष्वायोजयन् केऽपि, सुश्लिष्टयुगशालिषु । परसैन्यपयोराशिजलकान्तांस्तुरङ्गमान् ॥ ३४३ ॥ सारथिभ्यो ;ढीयांसि, तनुत्राणानि केऽप्यदुः । रथाः सरथ्या अपि हि, निष्फलाः सारथिं विना ॥३४४॥ उद्दामलोहवलयश्रेणिसम्पर्ककर्कशान् । आनचुर्दन्तिनां दन्तान् , केचिनिजभुजानिव ॥ ३४५ ॥ करिष्यारोपयन् शारीः, पताकामालभारिणीः । केचिद् वासगृहाणीव, समेष्यन्त्या जयश्रियः ॥ ३४६ ॥ सद्यःस्फुटद्गण्डगजमदैमूंगमदेरिव । जल्पन्तः शकुनमिति, तिलकान् केऽपि चक्रिरे ॥ ३४७ ॥ परेभमदगन्धाढ्यं, वायुमप्यसहिष्णवः । कैश्चिदप्यारुरुहिरे, मनोवद् दुर्धरा गजाः ॥ ३४८ ॥ सौवर्णान् ग्राहयामासुः, सर्वैः सर्वेऽपि सिन्धुरैः । समरोत्सवशृङ्गारचोलकानिव कङ्कटान् ॥ ३४९ ॥ उन्नालनीलनलिनीलीलया लोहमुद्गरान् । कुञ्जरैर्ग्राहयामासुः, कराग्रेषु निषादिनः ॥ ३५० ॥ १ ललाटालङ्कारान् । २ कृष्णवस्त्रं बोध्यम् । ३ शस्त्राशस्त्रियुद्धकथाः कुर्वाणानाम् । ४ भयं प्राप्तः । ५ युद्धाय । ६ कवचजालिकाः। ७ शत्रुव दाचरति । ८ अश्वशब्दः। ९ पराक्रमिभुजानाम् । १० चारणान् । ११ हलतमानि । १२ कवचानि । १३ अश्वसहिताः । १४/गजकवचान् । १५ कस्तूरीभिः । ...... . ... Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः] त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरितम् । ११९ कालायसमयान् कोशानाशु हस्तिपकाः शितान् । यमस्येवाऽऽहृतान् दन्तान् , दन्तिदन्तेषु विन्यधुः॥३५१॥ वेसराः शकटाचाऽस्त्रपूर्णास्तूर्ण प्रयान्त्वनु । अन्यथा लघुहस्तानामस्त्रं पूरिष्यते कथम् १ ॥ ३५२ ॥ वर्मपूर्णाश्च यान्तृष्टा, वाण्यग्रे धृतानि यत् । त्रुटिष्यन्ति हि वीराणामत्रुटद्रणकर्मणाम् ।। ३५३ ॥ रथान्तराणि गच्छन्तु, सज्जानि रथिनामनु । भज्यन्ते हि स्थाः शस्त्राशनिपातान्नगा इव ॥ ३५४ ॥ श्रान्तेषु प्रथमाश्वेषु, युद्विघ्नो मारम भूदिति । सादिनां पृष्ठतो यान्तु, शतशोऽश्वान्तराण्यपि ॥ ३५५ ॥ 5 एकैकं बद्धमुकुटं, भूयांसोऽप्यनुयान्त्विभाः । न निर्वहति यत् तेषामिभेनैकेन सङ्गरः ॥ ३५६ ॥ गच्छन्तु महिषाचाऽनुसैनिकं वारिवाहिनः । रणायासनिदाघर्तुतप्तानां जङ्गमपाः ॥ ३५७ ॥ कोश इवौषधीशस्य, सारं हिमगिरेरिव । उत्पाट्यन्तां च गोणीभी, रोहणौषधयो नवाः ॥ ३५८ ।। रणे राजनियुक्तानामित्याज्ञापनजन्मभिः । कोलाहलैरतायिष्ट, रणतूर्यमहारवः ॥ ३५९ ॥ - [अष्टभिः कुलकम् ] 10 विश्वं शब्दमयमिव, तुमुलैर्विष्वगुत्थितैः । अयोमयमिव चाऽऽसीत् , सर्वतः प्रेङ्खदायुधैः ॥ ३६० ॥ सारयन्तश्चरित्राणि, पूर्वेषां दृष्टपूर्विवत् । शंसन्तो रणनिर्वाहफलं व्यासवदुच्चकैः ॥ ३६१ ॥ उद्दीपनाय वीराणां, कीर्तयन्तो मुहुर्मुहुः । उपस्थितान् प्रतिभटान् , सादरा नारदर्षिवत् ॥ ३६२ ॥ प्रतिनागं प्रतिरथं, प्रत्यश्वं पर्ववन्मुदा । वैतालिका रणोत्तालास्तत्र भ्रेमुरनाकुलम् ॥ ३६३ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] 15 अथ बाहुबलिः स्नात्वा, प्रययौ देवमर्चितुम् । देवागारे गरीयांसः, कार्य गुप्यन्ति न क्वचित् ॥३६४॥ ऋषभस्वामिनस्तत्र, प्रतिमां गन्धवारिभिः । भक्त्या सोऽनपयजन्माभिषेक इव वासवः ॥ ३६५ ॥ दिव्यया गन्धकाषाय्या, निष्कषायस्ततः स ताम् । ममार्ज परमश्राद्धः, श्रद्धयेव निजं मनः ॥ ३६६ ॥ प्रतिमायास्ततो यक्षकर्दमेन विलेपनम् । चक्रे दिव्यांशुकमयं, रचयन्निव चोलकम् ॥ ३६७ ॥ राजा जिनार्चामानर्च, विचित्रैः पुष्पदामभिः । सुरद्रुसुमनोदामसोदरैरिव सौरभात् ॥ ३६८ ॥ 20 सौवर्णे धूपदहने, दिव्यं धूपं ददाह च । तद्भूमै रचयन् पूजां, नीलोत्पलमयीमिव ॥ ३६९ ॥ ततः कृतोत्तरासङ्गो, मकरस्थ इवाऽयमा । प्रतापमिव जग्राहाऽऽरात्रिकं दीप्रदीपकम् ॥ ३७० ॥ तदाऽऽरात्रिकमुत्तार्य, प्रणम्य च कृताञ्जलिः । आदिनाथं बाहुबलिर्भक्तिमानेवमस्तवीत् ॥ ३७१ ॥ ___ अवज्ञायाऽज्ञतां स्वस्य, सर्वज्ञ! त्वां स्तवीम्यहम् । यन्मां मुखरयत्येषा, दुर्वारा भक्तिमानिता ॥३७२॥ जयन्त्यादिमतीर्थेश !, त्वत्पादनखदीप्तयः । वज्रपञ्जरतां यान्त्यो, भवारित्रस्तदेहिनाम् ॥ ३७३ ॥ 25 देव! त्वच्चरणाम्भोजमीक्षितुं राजहंसवत् । धन्याः प्रतिदिनं दूरादपि धावन्ति देहिनः ॥ ३७४ ॥ घोरसंसारदुःखात्तैः, शीतातैरिव भास्करः । शरणीक्रियसे देव, त्वमेवैको विवेकिभिः ॥ ३७५ ॥ ये त्वां पश्यन्ति भगवन् !, नेत्रैरनिमिषैर्मुदा । परलोकेऽप्यनिमिषीभावस्तेषां न दुर्लभः ॥३७६ ॥ देव! त्वद्देशनावाग्भिर्याति कर्ममलो नृणाम् । क्षीरेण क्षौमवस्त्राणामिव मालिन्यमाञ्जनम् ॥ ३७७॥ खामिन्नृषभनाथेति, जप्यमाना तवाभिधा । आलम्बते सर्वसिद्धिसमाकर्षणमत्रताम् ॥ ३७८ ॥ 30 न वज्रमपि भेदाय, न शूलमपि हि च्छिदे । तेषां शरीरिणां नाथ!, येऽधित्वद्भक्तिवर्मिताः ॥ ३७९ ॥ भगवन्तमिति स्तुत्वा, नत्वा च पुलकाश्चितः । निरगाद् देवतागारानरेश्वरशिरोमणिः ॥ ३८॥ १ कृष्णलोहमयान् । २ हस्तलाघववताम् । ३ अविच्छिन्नरणकर्मणाम् । ४ रणप्रयासग्रीष्म तप्तानाम् । ५ जङ्गमजलसत्राणि। ६ चन्द्रस्य । ७व्रणसंरोहणी। ८ लोहमय मिव । ९ महान्तः। १० सुगन्धिद्रव्यमिश्रितविलेपनविशेषेण । ११ कल्पवृक्षपुष्पमालासमानैरिव । १२ कृतः उत्तरासको येन सः, सूर्यपक्षे कृतः उत्तरदिशः सनो येन सः। १३ मकरराशिस्थितः। १४ सूर्यः। १५ संसाररिपुत्रस्तप्राणिनाम्। १६ देवत्वम्। १७ कजलसम्बन्धि । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत [प्रथमं पर्व जयाह वनसंभाहं, हेममाणिक्यमण्डितम् । विजयश्रीविवाहाय, स कक्षुकमिवोच्चकैः ॥ ३८१ ॥ शुशुभे वर्मणा तेन, भातुरेण नरेश्वरः । घनविद्रुमसंहत्याऽधिपतिर्यादसामिव ॥ ३८२ ॥ शिरस्त्राणं च शिरसि, न्यधत्त धरणीधवः । शैलशृङ्गनिविष्टाभ्रमण्डलश्रीविडम्बकम् ॥ ३८३ ।। पृष्ठेऽषधाच तूणीरौ, लोहनाराचपूरितौ । महाफणिगणाकीर्णपातालविवगेपमौ ।। ३८४ ॥ युगान्तसमयोदस्तयमदण्डसहोदरम् । कोदण्डं वामदोर्दण्डे, धारयामास भूपतिः ।। ३८५ ॥ आशास्यमानः स्वस्तीति, सौवस्तिकवरैः पुरः । जीव जीवेत्युच्यमानः, स्वगोत्रजरतीजनैः ॥ ३८६ ॥ नन्द नन्देत्युच्यमानो, जरदाप्तजनैः पुनः । चिरं जय जयेत्युच्चैर्गद्यमानश्च बन्दिभिः ॥ ३८७ ॥ मेरुशृङ्गमिव खारोट, महेभं स महाभुजः । आरुरोहाऽऽरोहकेण, दत्तहस्तावलम्बनः ॥ ३८८ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] 10 इतस्तदानीमेव श्रीभरतेशोऽपि पुण्यधीः । जगाम देवतागारं, कोशागारं शुभश्रियः ॥ ३८९ ॥ प्रतिमामादिनाथस्य, नपयामास तत्र सः । दिग्जयानीतपद्मादितीर्थतोयैर्महामनाः ॥ ३९० ।। ममार्ज राजशार्दूलो, देवदूष्येण वाससा । प्रतिमां तामप्रतिमां, शिल्पिवर्यो मणीनिव ? ॥ ३९१ ॥ हिमाचलकुमारादिदत्तैोशीर्षचन्दनैः । विलिलेप प्रतिमां तां, स्वयशोभिरिवाऽवनीम् ॥ ३९२ ॥ पौर्विकस्वरैः पद्मासद्मपद्मसहोदरैः । रचयामास पूजां च, नयनस्तम्भनौषधीम् ॥ ३९३ ॥ 15 प्रतिमायाः पुरो धूपं, निर्ददाह महीपतिः । आलिखन्निव कस्तूरीपत्राली धूमवल्लिभिः ॥ ३९४ ॥ निःशेषकर्मसमिधामग्निकुण्डमिवोल्वणम् । आदत्ताऽऽरात्रिकं दीप्रदीपकं राजदीपकः ॥ ३९५ ॥ तदुत्तार्याऽऽदिनाथाय, नमस्कृत्य च भूपतिः । विरचय्याञ्जलिं मूर्भि, स्तोतुमित्युपचक्रमे ॥ ३९६ ॥ त्वां जडोऽपि जगन्नाथ!, युक्तमानी स्तवीम्यहम् । लल्ला अपि हि बालानां, युक्ता एव गिरो गुरौ ॥३९७॥ देव ! त्वामाश्रयन् जन्तुर्गुरुकर्माऽपि सिध्यति । अयोऽपि हेमीभवति, स्पर्शात् सिद्धरसस्य हि ॥ ३९८ ॥ 20 त्वां ध्यायन्तः स्तुवन्तश्च, पूजयन्तश्च देहिनः । धन्याः स्वामिन्नाददते, मनोवाग्वपुषां फलम् ॥ ३९९ ॥ पृथ्व्यां विहरतः स्वामिन्नपि ते पादरेणवः । महामतङ्गजायन्ते, पापद्न्मूलने नृणाम् ॥ ४००॥ नैसर्गिकेण मोहेन, जन्मान्धानां शरीरिणाम् । विवेकलोचनं नाथ !, त्वमेको दातुमीशिषे ॥४०१॥ सुचिरं चश्वरीकन्ति, ये भवत्पादपद्मयोः । तेषां न दूरे लोकाग्रं, मेर्वादि मनसामिव ॥ ४०२॥ देव ! त्वद्देशनावाग्भिर्गलन्त्याशु शरीरिणाम् । कर्मपाशा जम्बुफलानीव वारिदवारिभिः ॥ ४०३ ॥ 25 इंदं याचे जगन्नाथ !, त्वां प्रणम्य मुहुर्मुहुः । त्वयि भक्तिस्त्वत्प्रसादादक्षयाऽस्त्वन्धिवारिवत् ॥ ४०४ ॥ आदिनाथमिति स्तुत्वा, नमस्कृत्य च भक्तिमान् । निर्ययौ देवतागारान्नरदेवदिवाकरः ॥ ४०५॥ भूयो भूयोऽपि शिथिलीकृत्य माने विनिर्मितम् । अङ्गेन हर्षोच्छसितेनाऽऽददे कवचं नृपः॥४०६॥ रेजे तेनाऽङ्गलग्नेन, दिव्येन मणिवर्मणा । माणिक्यपूजया देवप्रतिमेव महीपतिः॥४०७॥ स्वर्णरत्नशिरस्त्राणं, मध्योच्चं छत्रवर्तुलम् । द्वैतीयीकमिवोष्णीषं, बभार भरतेश्वरः॥ ४०८ ॥ नागराजाविवाऽत्यन्ततीक्ष्णनाराचदन्तुरौ । पृष्ठे निषङ्गौ बिभराञ्चके विश्वम्भराधवः ॥ ४०९॥ उपाददे ततो वैरिवामं वामेन पाणिना । कालपृष्ठं महाचापं, वज्रीव ऋजुरोहितम् ॥ ४१० ॥ अन्यतेजस्विनां तेजो, असमानो ग्रहेन्द्रवत् । लीलास्थिरपदन्यासं, कामन् भद्रगजेन्द्रवत् ॥ ४११ ॥ तृणवद् गणयन्नग्रे, प्रतिवीरान् मृगेन्द्रवत् । दृष्ट्यापि दुर्विषहया, भीषणः पन्नगेन्द्रवत् ॥ ४१२ ॥ १ वज्रकवचम् । २ विपुल प्रवालसमूहेन । ३ यादसां अधिपतिः समुद्रः। ४ पुरोहितैः । ५ इन्द्रः। * शिवधि खंता ॥ ६ लक्ष्मीगृहपभसदृशैः। समग्रकर्मकायाम्। ८ स्खलिताः। ९ सुवर्णीभवति। १० भ्रमरायन्ते। । एकं खंता ॥ ११ शिरोवेष्टनम् । १२ पृथ्वीपतिः। १३ वैरिप्रतिकूलम् । 30 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ मनमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । बन्दिकन्दारकैरुच्चैः, स्तूयमानो महेन्द्रवत् । नरेन्द्रो रणनिस्तन्द्रमारुरोह महागजम् ॥ ४१३ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ] मागधेभ्यः प्रयच्छन्ती, द्रविणं कल्पशाखिवत् । पश्यन्तावागतान् सैन्यान् , सहस्रेक्षणवन्निजान् ॥४१४॥ बिभ्राणौ बाणमेकं च, मृणालं राजहंसवत् । कुर्वाणौ रणवात्तां च, रतवात्ता विलासिवत ॥४१५॥ महोत्साहौ महौजस्को, नभोमध्यं दिनेशवत् । उभावप्यार्षभी स्वस्वसैन्यमध्यमथेयतुः ॥ ४१६ ॥ 5 [त्रिभिर्विशेषकम् ] भरतो बाहुबलिश्च, निजसैन्यान्तरस्थितः । बभार जम्बूद्वीपान्तर्वर्तिमेरुगिरिश्रियम् ॥ ४१७ ॥ तयोश्च सेनयोरन्तर्वर्तिनी भूरलक्ष्यत । विदेहक्षेत्रभूमीव, मध्ये निषधनीलयोः॥४१८॥ उभे अपि तयोः सेने, पतीभूयाऽभ्यसर्पताम् । कल्पान्तसमये पूर्वापरवारिनिधी इव ॥ ४१९॥ बहिर्विस्फुट्य गच्छन्तो, न्यवार्यन्त पदातयः । राजदौवारिकैर्वारिप्रवाहा इव सेतुभिः ॥ ४२०॥ 10 मिथः समपदन्यासं, चेलू राजाज्ञया भटाः । ते तालेनैकसङ्गीतवर्त्तिनो नर्तका इव ॥ ४२१॥ अलचितनिजस्थानं, चलद्भिः सर्वसैनिकैः । पताकिन्यौ तयोरेकतनू इव विरेजतुः ॥ ४२२ ॥ दारयन्तः शताङ्गानां, राङ्गैरायसाननैः । अयःकुद्दालकल्पैश्च, खनन्तो वाजिनां खुरैः ॥ ४२३ ॥ मिन्दाना वेसरखुरैरर्द्धचन्द्ररिवाऽऽयसैः । क्षुन्दन्तश्च पदातीनां, चरणैर्वज्रपाणिभिः ॥ ४२४ ॥ खण्डयन्तः क्षुरप्राभैर्महिषोक्षखुरैः खरैः । मुद्गराभैः करिपादैचूर्णयन्तश्च मेदिनीम् ॥ ४२५ ॥ 15 छादयन्तो रजोभिमन्धकारसहोदरैः । द्योतयन्तश्च शस्त्रोत्रैर्भानुमद्भानुबन्धुभिः ॥ ४२६ ॥ भूयसा निजभारेण, क्लिश्नन्तः कूर्मकर्परम् । दंष्ट्रां महावराहस्य, नामयन्तः समुन्नताम् ॥ ४२७ ॥ गाढं शिथिलयन्तश्च, फणाटोपं फणीशितुः । दिग्गजानपि खर्वाङ्गीकुर्वन्तो निखिलानपि ॥ ४२८ ॥ ब्रह्माण्डमाण्डं वेडाभिर्वादयन्त इवोच्चकैः । करास्फोटप्रणादैश्व, स्फोटयन्त इवोत्कटैः ॥ ४२९॥ उपलक्ष्योपलक्ष्योचैर्विश्रुतैः केतुलाञ्छनैः । नामग्राहं च वृण्वन्तः, प्रतिवीरान् महौजसः ॥ ४३०॥ 20 अन्योन्यमाह्वयमाना, मानशौण्डीर्यशालिनः । अग्रसैन्यैरग्रसैन्या, अमिलन सैन्ययोर्द्वयोः ॥ ४३१ ॥ . [नवभिः कुलकम् ] गजिनो गजिनां यावद्, यादांसि यादसामिव । सादिनां सादिनो यावद् , वीचिनामिव वीचयः ॥४३२॥ रथिनां रथिनो यावद् , वायूनामिव वायवः । पत्तीनां पत्तयो यावच्छृङ्गिणामिव शृङ्गिणः ॥ ४३३ ॥ प्रासं प्रासस्थाऽसिमसेर्मुद्गरं मुद्गरस्य च । दण्डं दण्डस्य चाऽमर्षान्मेलयन्तो डुढौकिरे ॥ ४३४ ॥ 25 तावनभसि सम्भ्रान्तास्त्रैलोक्योन्माथशङ्कया । उपर्युपरि गीर्वाणं, गीर्वाणाः समुपागमन् ॥ ४३५ ॥ [चतुर्भिः कलापकम् ] सङ्घर्षः कोऽयमार्षभ्योः , स्वकयोरिव हस्तयोः । इत्यामृशन्तस्ते प्रोचुरुभयोः सैनिकानिति ॥४३६॥ ऋषभखामिनोत्राऽऽज्ञा, योद्धव्यं केनचिन्न हि । युष्माकं स्वामिनी यावद्, बोधयामो मनखिनौ ॥४३७॥ आज्ञया त्रिजगद्भर्तुरुभयेऽपि हि सैनिकाः । तथैव तस्थुस्ते सर्वेऽप्यालेख्यलिखिता इव ॥ ४३८॥ 30 किममी बाहुबलिनः १, किं वा भरततः सुराः । एवं तु चिन्तयामासुः, सैनिकास्ते तथास्थिताः॥४३९॥ न व्यनश्यदहो! कार्य, भद्रं लोकाय सम्प्रति । इति ब्रुवाणा गीर्वाणाश्चक्रिणं ययुरादितः ॥ ४४० ॥ दत्त्वा जयजयेत्याशीर्वाद देवाः प्रियंवदाः । युक्तियुक्तेन वचसा, तं मत्रिण इवाऽवदन ॥ ४४१ ॥ साधु षदखण्डभरतक्षेत्रे भूपास्त्वया जिताः । नृदेव ! देवराजेन, पूर्वदेवी इवाऽभितः ॥ ४४२॥ १ पूर्वपश्चिमसमुद्रौ। २ राजद्वारपालैः । ३ रथानाम्। ४ चकैः। ५ महिषवृषखुरैः। ६ सूर्यकिरणसदृशैः। ७ कर्मष्ठम्। जीकुर्वन्तः। ९सिंहनादैः । १० चित्रलिखिता इव । ११ न विनष्टम् । १२ असुराः । त्रिषष्टि, १६ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 20 25 30 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथमं पर्व तवौजसा तेजसा च तेषु राजेन्द्र ! राजसु । मृगेषु शरभस्येव, प्रतिमल्लो न कोऽप्यभूत् ॥ ४४३ ॥ अपूर्यत रणश्रद्धा, तैर्नूनं भवतो नहि । हैयङ्गेवीनश्रद्धेव, वारिकुम्भैर्विलोडितैः ॥ ४४४ ॥ द्वितीयेनाऽऽत्मनो भ्रात्रा, सहाऽऽरेभे त्वया ततः । युद्धमेतत् स्वहस्तेन, स्वहस्तस्येव ताडनम् ॥ ४४५ ॥ दोःकण्डूरेव ते राजंस्तद्रणे कारणं ध्रुवम् । गण्डकण्डूरिवेभस्य, महातरुनिघर्षणे ॥ ४४६ ॥ भुजक्रीडाऽपि युवयोर्जगतां प्रलयाय हि । वनभङ्गाय सम्फेटो, मत्तयोर्हि वनेभयोः ॥ ४४७ ॥ विश्वं संहर्तुमारब्धं, क्रीडामात्रकृते कुतः १ । क्षणिकप्रीतये मांसादिना खगकुलं यथा ॥ ४४८ ॥ जगत्रातुः कृपाम्भोधे ऋषभादाप्तजन्मनः । अग्निवृष्टिः सुधास्तेरिवेदं किं तवोचितम् ॥ ४४९ ॥ तद् घोरात् सङ्गरादस्मात्, सङ्गेभ्य इव संयमी । विरम क्षोणिरमण !, निजं व्रज निकेतनम् ॥ ४५० ॥ त्वय्यायाते समायातो, याते यास्यत्यसावपि । तवानुजो बाहुबलिः, कार्य हि खलु कारणात् ||४५१ ॥ शुभं भवतु वां विश्वर्क्षयांहःपरिहारतः । उभयेभ्योऽपि सैन्येभ्यश्चाऽस्तु क्षेमं रणोज्झनात् ॥ ४५२ ॥ त्वत्सैन्यभारसम्भूतभूमिभङ्गविरामतः । भूगर्भवासिनः सन्तु भवनेन्द्रादयः सुखम् ॥ ४५३ ॥ भूमिः शैलाः समुद्राच, प्रजाः सत्त्वानि सर्वतः । क्षोभं त्यजन्तु त्वत्सैन्यविमर्दविरहादिह ॥ ४५४ ॥ युष्मत्समरसम्भाविविश्वसंहारशङ्कया । विना भूताः सुखं तिष्ठन्त्वपि सर्वे दिवौकसः । ४५५ ।। इत्युदित्वा कार्यवाद, विरतेषु सुपर्वसु । बभाषे भरताधीशो, गिरा स्तनितंधीरया ॥ ४५६ ॥ इमां विश्वहितां वाचं, के ब्रूयुर्भवतो विना ? । जनो हुँदास्ते प्रायेण, परकौतुकमीक्षितुम् ॥ ४५७ ॥ किन्त्वत्र समरोत्थानकारणं वतुतोऽन्यथा । युक्त्याऽन्यथा तु युष्माभिरूहितं हितकाङ्क्षिभिः ॥ ४५८ ॥ कार्यमूलमविज्ञाय, स्वयमभ्यै किश्चन । शासितुः शासनं मोघं भवेत् सुरगुरोरपि ॥ ४५९ ॥ दोष्मोनस्मीति सहसा, सङ्ग्रामेच्छुर्न खल्वहम् । सति भूयसि किं तैले, शैलाभ्यङ्गो विधीयते १ ॥ ४६० ॥ षट्खण्डभरतक्षेत्रे, नृपतीन् जयतो मम । प्रतिमल्लो यथा नाऽऽसीत्, तथाऽद्याऽपि न विद्यते ॥४६१॥ प्रतिमल्लो द्विषन्नेव, जयाजयनिबन्धनम् । बाहुबलिस्त्वहमेव, जातभेदो विधेर्वशात् ॥ ४६२ ॥ निर्वादभीरुर्लज्जावान्, विवेकी विनयी सुधीः । पुरा तातमिवाऽमंस्त, मां हि बाहुबलिः खलु ॥ ४६३ ॥ षष्टिं वर्षसहस्राणि कृत्वा दिग्जयमागतः । तं वीक्षेऽन्यादृशमिव, भूयान् कालोऽत्र कारणम् ॥ ४६४ ॥ ततोऽभिषेकवर्षेषु, द्वादशस्वपि मां न हि । आगाद् बाहुबलिस्तत्र, प्रमादस्तर्कितो मया ॥ ४६५ ॥ आह्वानाय मया दूते, प्रहितेऽप्येष नैति यत् । तर्क्यते मन्त्रिणां मन्त्रदोषस्तत्राऽपि कारणम् ॥ ४६६ ॥ अहमप्याह्वयाम्येनं, न लोभान्न च कोपतः । किन्त्वन्तर्न विशेच्चक्रमेकस्मिन्नप्यनार्तेते ॥ ४६७ ॥ न चक्ररलं नगरीं, प्रविशत्येष मां न च । परस्परस्पर्द्धयेवेत्यनयोः सङ्कटेऽपतम् ॥ ४६८ ॥ स एकवारमायातु, मम भ्राता मनस्व्यपि । अन्योर्वीमपि गृह्णातु, मत्तः पूजामिवाऽतिथिः || ४६९ ॥ विना चक्रप्रवेशं मे, नाऽन्यत् सङ्ग्रामकारणम् । नतेनाऽप्यनतेनाऽपि न मे मानोऽनुजन्मना ॥ ४७० ॥ अथोचिरे सुरा राजन्!, महत् सङ्ग्रामकारणम् । अल्पेन कारणेनेदृकू, प्रवृत्तिर्न भवादृशाम् ॥। ४७१ ॥ उपेत्य बाहुबलिनं, बोधयामोऽधुना वयम् । युगक्षय इवाऽऽगच्छन्, रक्षणीयो जनक्षयः ॥ ४७२ ॥ भवानिव युधः सोऽपि, यद्युचैः कारणान्तरम् । वदेत् तथाऽपि युद्धेन, योद्धव्यमधमेन न ॥ ४७३ ॥ दृष्टि-वाग्बाहु - दण्डाद्यैर्युद्धैर्योद्धव्यमुत्तमैः । वधो निरपराधानां गजादीनां यथा न हि ॥ ४७४ ॥ तथेति प्रतिपेदाने, चक्रवर्त्तिनि नाकिनः । द्वितीयस्मिन् 'बैले बाहुबलिराजानमभ्ययुः ॥ ४७५ ।। १२२ १ प्रतिस्पर्धी । २ नवनीतश्रद्धा | ३ युद्धम् । ४ मांसभक्षिणा । ५ चन्द्रात् । ६ विश्वक्षयपापपरिहारतः । ७ रणत्यागात् । ८ देवेषु । ९ मेघगर्जनगभीरया । १० उदासीनो भवति । ११ वित । १२ बलवान् अस्मि । १३ पर्वतमर्दनम् । १४ अनन्रीभूते । १५ सैन्ये । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । १२३ अहो ! अधृष्यो मूल्ऽसौ, दृढावष्टम्भगर्भया । इत्यन्तर्विस्मयजुषस्ते तमेवं बभाषिरे ॥ ४७६ ॥ चिरं जय चिरं नन्द, वृषभस्वामिनन्दन ! । जगन्नेत्रचकोराणामानन्दैकनिशाकर ! ॥ ४७७ ॥ अम्भोधिरिव मर्यादां, नोल्लङ्घयसि जातुचित् । बिभेष्यवर्णवादाच्च, समरादिव कातरः ॥ ४७८ ॥ निजसम्पत्खनुत्सेकी, परसम्पत्स्वमत्सरी । विनेता दुर्विनीतानां, विनीतश्च गुरुष्वपि ॥ ४७९ ॥ विश्वाभयकृतो देवस्याऽनुरूपस्त्वमात्मजः । उच्छेदायाऽपरस्याऽपि, नाभ्ययुक्था मनागपि ॥ ४८०॥5 तत् किं ते भ्रातरि गुरावारम्भोऽयं भयङ्करः । त्वत्तः सम्भाव्यते नैष, पञ्चत्वममृतादिव ॥ ४८१ ॥ इयत्यपि गते कार्य, न विनष्टं मनागपि । तद्रणारम्भसंरम्भ, खलमैत्रीमिव त्यज ॥ ४८२॥ सम्परायरयाद् वीरान् , निवारय नरेश्वर ! । निजाज्ञया प्रसरतो, मत्रेणेव महोरगान् ॥ ४८३ ॥ भरते भ्रातरि गुरौ, गत्वा भव वशंवदः । एवं च श्लाघ्यसेऽत्यन्तं, शक्तो विनयभागिति ॥ ४८४ ॥ तदिदं भरतक्षेत्रं, षट्खण्डं भरतार्जितम् । मुख खोपार्जितमिव, युवयोर्हि किमन्तरम् १ ॥४८५॥ 10 इत्युदित्वा विरतेषु, तेषु वृष्ट्वा घनेष्विव । एवं बाहुबलिः साऽऽह, सित्वा गम्भीरया गिरा ॥४८६॥ आवयोर्विग्रहे हेतुमज्ञात्वा परमार्थतः । निजखच्छतया यूयमेवं वदथ हे सुराः! ॥ ४८७ ॥ तातभक्ताः सदा यूयमावां तातस्य चाऽऽत्मजौ । इति सम्बन्धतोऽप्युक्तं, युक्तं युष्माभिरीदृशम् ॥४८८॥ पुरा हि दीक्षासमये, तातोऽर्थिभ्यो हिरण्यवत् । विभज्य देशानसभ्यमदत्त भरताय च ॥ ४८९ ॥ वयं सर्वेऽपि तिष्ठामः, सन्तुष्टाः स्वस्वनीव्रता । धनमात्रकृते हन्त !, परद्रोहं करोति कः १॥ ४९० ॥ 15 असन्तुष्टस्तु भरतो, जग्रसे भरतोदधौ । मत्स्यानिव महामत्स्यो, राज्यान्यखिलभूभुजाम् ॥ ४९१ ॥ राज्यस्तैरप्यसन्तुष्ट, आधून इव भोजनैः । आचिच्छेद स राज्यानि, खेषामवरंजन्मनाम् ॥ ४९२ ॥ पितृदत्तानि राज्यानि, भ्रातॄणामाच्छिनत्ति यः । गुरुत्वमात्मनस्तेन, स्वयमेव निवारितम् ॥ ४९३ ॥ वयोमात्रेण न गुरु[गुरुवदाचरन् । गुरुत्वं दर्शितं तेन, धानिर्वासनादिदम् ॥ ४९४॥ भ्रान्तेनाध्यमियत्कालं, दृष्टो गुरुधिया मया । स्वर्णबुड्या पित्तलवन्मणिबुद्ध्या च काचवत ॥ ४९५॥ 20 पित्रा वंश्येन वाऽन्यस्याऽप्युर्वी दत्तां निरागसः । न हरेदल्पराज्योऽपि, किं पुनर्भरतेश्वरः ॥ ४९६॥ हृत्वाऽनुजाना राज्यानि, नूनमेष न लज्जितः । जितकासी राज्यकृते, मामप्याह्वयते यतः ॥ ४९७ ॥ जित्वाऽसौ भरतं सर्व, रयादास्फलितो मयि । ती|ऽम्भोधि पोत इव, दन्ते तटमहीभृतः॥ ४९८ ॥ ज्ञात्वा लुब्धममर्यादं, क्रव्यादमिव निघृणम् । अमुं ममाऽनुजन्मानोऽप्यभजन लज्जया नहि ॥ ४९९ ॥ तस्य केन गुणेनाऽहं, भवाम्यद्य वशंवदः । ब्रूत माध्यस्थ्यमास्थाय, सभासद इवाऽमराः ॥ ५००॥ 25 अथ स्वविक्रमेणाऽयं, मां करोति वशंवदम् । तत् करोत्वेष पन्था हि, क्षत्रियाणां वशंवदः ॥५०१॥ एवं स्थितेऽपि ह्यालोच्य, वलित्वा हन्त ! याति चेत् । एष क्षेमेण तद् यातु, लुब्धोऽहं न ह्यसाविव ॥५०२॥ तहत्तं भरतं सर्व, भुञ्जेऽहमिति किं भवेत् ? । केसरी केनचिद् दत्तं, किमश्नाति कदाचन ॥५०३ ॥ भरतं गृह्णतस्तस्य, वर्षषष्टिसहस्यगात् । इदं यद्यजिघृक्षिष्यमग्रहीष्यं तदाऽपि हि ॥ ५०४ ॥ कालेनैतावता तस्य, जातं भरतवैभवम् । तर्द्धनस्य धनमिव, कथं भ्राता हराम्यहम् ? ॥ ५०५॥ 30 करीब जातीकवलेनाऽमुना वैभवेन चेत् । अन्धम्भविष्णुर्भरतः, सुखं न स्थातुमीश्वरः ॥ ५०६ ॥ तदेतद् भरतक्षेत्रवैभवं भरतेशितुः । हृतमेव मया वित्थोपेक्षितं यनपेक्षया ॥ ५०७ ॥ मझमर्पयितुं कोशं, हस्त्यश्वादि यशोऽपि च । प्रति भिरिवाऽऽनीतोऽमात्यैः स्वसदृशैरसौ ॥ ५०८ ॥ धर्षितुमशक्यः। २ गर्वरहितः। ३ नाभियोगमकुरुथाः। ४ मरणम्। ५ युद्धवेगात्। ६ निजहृदयनैर्मल्येन । ..स्वस्वदेशेन । ८ भरतक्षेत्रसमुद्रे । ९ उदरपूरकः । १० लघुभ्रातृणाम् । ११ बन्धुनिष्कासनात् । १२ राक्षसम् । १३ निर्दयम् । रुपणस्य । १५ जानीय । १६ प्रतिनिधिभिः । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व युद्धाभिषेधतैनं तद् , यद्यस्य हितकाशिणः । अयुध्यमानेनाऽन्येनाऽप्यहं युध्ये न जातुचित् ॥५०९॥ ___ ऊर्जितं तद् वचस्तस्य, पर्जन्यस्येव गर्जितम् । आकर्ण्य विस्मयोत्कर्णास्ते भूयोऽप्येवमभ्यधुः॥ ५१०॥ इतो जल्पन युधे हेतुं, चक्री चक्राप्रवेशनम् । न शक्योऽनुत्तरीकृत्य, निरोद्धं गुरुणाऽपि हि ॥५११ ॥ युध्यमानेन युध्येऽहमिति जल्पन् भवानपि । युद्धान्निरोद्धं नियतं, शक्रेणाऽपि न शक्यते ॥५१२ ॥ द्वयोरप्यषभखामिदृढसंसर्गशालिनोः । द्वयोरपि महाबुद्ध्योर्द्वयोरपि विवेकिनोः ॥ ५१३॥ द्वयोरपि जगत्रात्रोईयोरपि दयावतोः । भाग्यक्षयेण जगतां, युद्धोत्पात रपस्थितः ॥ ५१४ ॥ [युग्मम्] तथापि प्रार्थ्यसे वीर!, प्रार्थनाकल्पपादप! । उत्तमेनैव युद्धेन, युध्येथा माऽधमेन तु ॥५१५ ॥ अधमेन हि युद्धेन, युवयोरुग्रतेजसोः । भूयिष्ठलोकप्रलयादकाले प्रलयो भवेत् ॥ ५१६ ॥ दृष्टियुद्धादिभिर्युद्धैर्योद्धव्यं साधु तेषु हि । आत्मनो मानसिद्धिः स्याल्लोकानां प्रलयो न च ॥ ५१७ ॥ 10 आमेति तस्मिन् वदति, नातिदूरे दिवौकसः । तस्थुर्द्रष्टुं तयोर्युद्धं, नगर्या नागरा इव ॥ ५१८॥ ___ अथाऽऽज्ञया बाहुबलेः, प्रतीहारो गजस्थितः । गर्जन् गज इवोर्जखि, जगादेति स्वसैनिकान् ॥५१९।। भो भोः ! समस्तराजन्याश्चिरं चिन्तयतां हि वः । उपस्थितं स्वामिकार्यमभीष्टं पुत्रलाभवत् ॥ ५२० ॥ परं वः खल्पपुण्यत्वाद् , देवैर्देवोऽयमर्थितः । भरतेन सह द्वन्द्वयुद्धहेतोर्महाभुजः ॥ ५२१ ॥ खतोऽपि द्वन्द्वयुद्धेच्छुः, किं पुनः प्रार्थितः सुरैः । स्वामी स्वाराजतुल्यौजाः, समैरान वो निषेधति ।।५२२।। 15 हस्लिमल्ल इवैकाङ्गमल्लो युष्माभिरेष तत् । युध्यमानः प्रेक्षणीयस्तटस्थैरमरैरिव ॥ ५२३ ॥ वालयित्वा रथानश्वान् , कुञ्जरांश्च महौजसः । अपक्रामत तद् यूयं, वक्रीभूता इव ग्रहाः ॥ ५२४ ॥ खड्गान् क्षिपत कोशेषु, करण्डेष्विव पन्नगान् । कुन्तान् केतूनिवोदस्तान् , मोचकान्तर्विमुञ्चत ॥ ५२५ ॥ मुद्गरान् न्यञ्चतोदस्तान् , हस्तानिव महाद्विपाः । उत्तारयत कोदण्डान्मौवीं भालादिव ध्रुवम् ॥५२६॥ भूयोऽपि बाणधौ बाणं, निधत्ताऽर्थ निधानवत् । शल्यानि संवृणुत च, विद्युतो वारिदा इव ॥ ५२७॥ 20 प्रतीहारगिरा वज्रनिर्घोषेणेव घूर्णिताः । सैनिका बाहुबलिनश्चेतस्येवं व्यचिन्तयन् ॥ ५२८ ॥ अहो! रणाद् भाविनोऽपि, भीतैर्वाणिजकैरिव । भरतेश्वरसैन्येभ्यो, लब्धोत्कोचैरिवोच्चकैः ॥ ५२९ । प्राग्जन्मवैरिभिरिवाऽकस्सादसाकमागतैः । हा प्रभुं प्रार्थ्य विबुधै, रुद्धो युद्धोत्सवोऽधुना ॥५३०॥ [युग्मम् अग्रतो भाजनमिव, भोजनाय निषेदुषाम् । पर्यङ्कतः सूनुरिव, लालनायोपसर्पताम् ।। ५३१ ॥ आकर्षणीरज्जुरिव, कूपानिर्गच्छतामहो ! । अहारि दैवेनाऽसाकमागतोऽपि रणोत्सवः ॥५३२॥ [युग्मम्] 25 अन्यो भरततुल्यः कः, प्रतिपक्षो भविष्यति । स्वामिनो येन सङ्ग्रामे, भविष्यामोऽणा वयम् ॥५३३। मुधोपादायि दायादैरिव स्तेयकरैरिव । सौवासिनेयैरिव चाऽस्माभिर्याहुबलेधनम् ॥ ५३४ ॥ *नूनं गतं मुधा बाहुदण्डवीर्यमिदं च नः । अरण्यभववृक्षाणामिव प्रसवसौरभम् ॥ ५३५ ॥ क्लीवैः स्त्रीणामिवाऽत्राणामसाभिः सङ्ग्रहो मुधा । व्यधायि शस्त्राभ्यासश्च, शास्त्राभ्यासः शुकैरिव ॥५३६। इदं चाऽगृह्यताऽस्माभिः, पादातमपि निष्फलम् । कामशास्त्रपरिज्ञानमिव तापसदारकैः ॥ ५३७ ॥ 30 मुधैव कारिता माराभ्यासमेते मतङ्गजाः । वाजिनश्च श्रमजयमस्माभिहतबुद्धिभिः ॥ ५३८ ॥ मुधा गर्जितमस्माभिर्वारिदैरिव शारदैः । महिषीभिरिवाऽस्माभिर्विकटं च कटाक्षितम् ॥ ५३९ ॥ मुधा सन्नद्धमस्माभिः, सामग्रीदर्शकैरिव । तच्चाऽहङ्कारगर्भत्वमपूर्णे युद्धदोहदे ॥ ५४० ॥ एवं विचिन्तयन्तस्ते, विषादविषगर्भिताः । ससूत्काराः सफूत्कारा, इव सर्पा अपासृपन् ॥ ५४१ ॥ १ मेघस्य । २ इन्द्रतुल्यपराक्रमः। ३ युद्धात् । ४ हस्तिश्रेष्ठः। ५ वक्रगतियुक्ताः। ६ कोशान्तः । ७ नीचैः कुरुत ८ ललाटात्। ९ 'लांच' इति लोके । १० ऋणरहिताः। ११ चौरैः। १२ चिरपितृगृहवासिनीस्त्रीपुत्रैः । * मन्ये ग आ, सं २॥ १३ युद्धमनोरथे। . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । १२५ तत्कालं भरतेशोऽपि, क्षत्रव्रतमहाधनः । स्वामपासारयत् सेना, वेलामिव महार्णवः ॥ ५४२ ॥ चक्रिणा सैनिकाः खेऽपसार्यमाणा महौजसा । एवमालोचयामासुर्वृन्दीभूय पदे पदे ॥ ५४३ ॥ खामिना कस्य मत्रेण, मत्रिव्याजेन वैरिणः । द्विबाहुमात्रकेणेव, द्वन्द्वयुद्धममन्यत ? ॥ ५४४ ॥ स्वामिना यो हि सङ्घामो, यद् भोजनमुदचिता । पर्याप्तमेव तदहो, किं कृत्यं नस्ततः परम् १ ॥५४५॥ षदखण्ड भरतक्षेत्रभूभुजां रणकर्मसु । कोऽपि नः किमपक्रान्तो, यनिषिध्यामहे रणात् १ ॥५४६॥ । युक्तं भृत्येषु नष्टेषु, विजितेषु हतेषु वा । युद्धं भर्तुर्नाऽन्यथा तु, विचित्रा हि रणे गतिः ॥ ५४७ ॥ *स्वामिनः संशयं युद्धे, जातु शङ्कामहे न हि । विनैकं बाहुबलिनं, प्रतिपक्षो भवेद् यदि ॥ ५४८ ॥ उदग्रबाहुना बाहुबलिना सममाहवे । विजये संशयः पाकशासनस्याऽपि केऽपरे ? ॥ ५४९ ।। महाकल्लोलिनीपूरस्येव दुस्सहरंहसः । तस्य प्रथमतोऽप्याजौ, स्थातुं भर्तुर्न युज्यते ॥ ५५० ॥ अस्माभिर्योधिते पूर्व, भर्तुस्तत्रोचितो रणः । पूर्वमश्वदमैर्दान्ते, वाजिनीवाधिरोहणम् ॥ ५५१॥ 10 अन्योऽन्यं सैनिकानेवं, गृणतः प्रेक्ष्य चक्रभृत् । भावज्ञ इङ्गिताकारैः, समाहूयेत्यभाषत ॥ ५५२ ॥ तमोनिर्दलने भानोर्यद्वदग्रेसराः कराः। द्विषदायोधने तद्वद् , यूयमग्रेसरा मम ॥ ५५३ ॥ युष्मासु सत्सु योधिषु, न मां कोऽप्याययौ रिपुः । परिखायामगाधायामिव वप्रतटं द्विपः ॥ ५५४ ॥ अदृष्टपूर्विणो युद्धं, ततो मे यूयमीदृशम् । आशङ्कध्वे मुधा भक्तिमुपदेऽपीक्षते भयम् ।। ५५५ ॥ सर्वे कुरुध्वं सम्भूय, दोर्बलालोकनं मम । शङ्का नश्यति वो येनाऽगदेनेव गदः क्षणात् ॥ ५५६ ॥ 15 इत्युदित्वा क्षणेनापि, चक्री खनकपूरुषः । अतिविस्तीर्णगम्भीरं, गर्तमेकमखानयत् ॥ ५५७ ॥ तीरे दक्षिणपाथोधेरिव सह्यमहीधरः । अवटस्य तटे तस्योपाविशद् भरतेश्वरः॥ ५५८ ॥ वामे स दोष्णिं निबिडाः, शृङ्खलाः प्रतिशृङ्खलाः । अबन्धयल्लम्बमाना, वटवृक्षे जटा इव ॥ ५५९ ॥ ताभिः सहस्रसङ्ख्याभिः, सहस्रांशुरिवाऽशुभिः । महागुरिव वल्लीभिश्वकासामास चक्रभृत् ॥ ५६० ॥ सोऽथ राज्ञ उवाचैवं, यूयं सबलवाहनाः । महाशकटवद् गांवो, मामाकर्षत निर्भयम् ॥ ५६१॥ 20 सर्वे सौंजसा कृष्ट्वा, मां गर्ने पातयन्त्विह । मद्दोबलपरीक्षार्थ, खाम्यवज्ञाछलं न कः॥ ५६२॥ दुःस्वमोऽप्ययमसाभिदृष्टस्तत् प्रतिहन्यताम् । स हि मोघीभवेदेव, चरितार्थीकृतः स्वयम् ॥ ५६३ ॥ भूयो भूयश्चक्रिणेवमादिष्टास्ते ससैनिकाः । कथञ्चित् प्रत्यपद्यन्त, स्वाम्याज्ञा हि बलीयसी ॥ ५६४॥ चकृषुः शङ्खलाजालं, सैन्याश्चक्रिभुजस्य ते । नेत्री तमहिं मन्थगिरेरिव सुरासुराः॥ ५६५॥ गाढलग्नाः प्रलम्बासु, चक्रिदो शृङ्खलासु ते । उत्तुङ्गशाखिशाखाग्रेष्विव शौखामृगा बभुः ॥ ५६६ ॥ 25 इभानिवाऽद्रिं भिन्दानान्, कर्षतः खं च सैनिकान् । कौतुकप्रेक्षणायोपेक्षाञ्चक्रे चक्रभृत् स्वयम् ॥५६७॥ हृद्यङ्गरागं चक्रेऽथ, चक्री तेनैव पाणिना । मालाबद्धघटीमालान्यायात् ते तु सहाऽपतन् ॥ ५६८ ॥ निरन्तरं लम्बमानैः, सैनिकैश्चक्रिणो भुजः । रराज खजूरतरुशाखा खजूंरकैरिव ॥ ५६९ ॥ हृष्यन्तः स्वामिनः स्थाना, सैन्यास्तद्वाहुशृङ्खलाः । प्राकृतामिव दुःशङ्कामुज्झाञ्चक्रुः क्षणादपि ॥ ५७०॥ चक्रभृत् कुञ्जरारूढस्तदेव समराजिरम् । जग्राह प्राक्तनं भूयोऽप्युद्राहमिव गायनः ॥ ५७१॥ 30 उभयोः सैन्ययोर्मध्ये, विपुलं विपुलातलम् । गङ्गायमुनयोरन्तर्वेदिदेश इवाऽऽबभौ ॥ ५७२ ॥ जगत्संहाररक्षातो, मुदिता मरुतस्ततः । आयुक्ता इव शनकैस्तत्रोामहरन रजः ॥ ५७३ ॥ गन्धाम्बुवृष्ट्या समवसरणोर्विमिवाऽभितः । तां मेदिनीमभ्यषिश्चञ्चुचितज्ञा दिवौकसः ॥ ५७४ ॥ १ तक्रेण । * अयं श्लोकः खं पुस्तके नोपलभ्यते ॥ २ शत्रुः। ३ इन्द्रस्य । ४ दुस्सहवेगस्य । ५ युद्धे । ६ एतदाख्यः पर्वतः। ७ गतस्य । ८ भुजे। ९ वृषभाः। १० मन्थनरज्जुभूतम् । ११ मन्दराचलस्य । १२ कपयः। १३ बलेन । १४ पृथ्वीतलम् । १५ देवाः । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व मात्रिका मण्डलावन्यामिव तत्र रणावनौ । उन्मेषवन्त्यनिमिषाः, कुसुमानि विचिक्षिपुः ॥ ५७५ ।। ___ कुञ्जरादवतीर्याऽथ, तावुभौ राजकुञ्जरौ । कुञ्जराविव गर्जन्ती, प्रविष्टौ समरावनिम् ॥ ५७६ ॥ उभावपि महौजस्कौ, सर्पन्तौ लीलयाऽपि हि । पदे पदेऽरोपयता, कूर्मेन्द्र प्राणसंशये ।। ५७७ ॥ दृष्टियुद्धेन योद्धव्यं, प्रतिज्ञायेति तस्थतुः । सम्मुखावनिमेषाक्षौ, शक्रेशानाविवाऽपरौ ॥ ५७८ ॥ सम्मुखौ मुखमन्योऽन्यस्यैक्षेतामरुणेक्षणौ । उभयत्र स्थितार्केन्दुसायाह्नगगनश्रियौ ॥ ५७९ ॥ उभौ मिथो निध्यायन्ती, ध्यायन्ताविव योगिनौ । चिरकालं वितस्थाते, तौ निश्चलविलोचनौ ॥५८०॥ दिवाकरकराक्रान्तनीलोत्पलवदीक्षणे । ज्येष्ठस्य ऋषभस्वामिनन्दनस्य न्यमीलताम् ॥ ५८१ ॥ कीर्तेर्महत्या भरतपट्खण्डजयजन्मनः । वारीवाऽस्रजलव्याजाददातां चक्रिणोऽक्षिणी ॥ ५८२ ॥ ___ तदा शिरांसि धुन्वानाः, प्रत्यूपे पादपा इव । विदधुर्बाहुबलिनि, पुष्पवृष्टिं दिवौकसः ॥ ५८३ ॥ विजये बाहुबलिनो, वीरैः सोमप्रभादिभिः । हर्षकोलाहलचक्रे, सूर्यस्येवोदये खगैः ॥ ५८४ ॥ जयसूर्याण्यवाद्यन्त, राज्ञो बाहुबलेबलैः । तत्कालं कीर्तिन-क्या, नृत्तारम्भ इवोद्यते ॥ ५८५ ॥ अभूवन भरतस्यापि, सैन्या मन्दायितौजसः । मूर्छिता इव संसुप्ता, इव रोगातुरा इव ॥ ५८६ ॥ ते विषादप्रमोदाभ्यामयुज्येतामुमे बले । अन्धकारप्रकाशाभ्यां, मेरुपाचोविवाधिकम् ॥ ५८७ ॥ विजितं काकतालीयन्यायेनेति स मा वदः । वाग्युद्धेनाऽपि युध्यस्खेत्यवोचच्चक्रिणं नृपः ॥ ५८८ ॥ 15 फणीव चरणस्पृष्टः, सामर्षश्चक्रवर्त्यपि । जितकासिन् ! भवत्वेवमित्यभाषत भूपतिम् ॥ ५८९ ॥ ईशानोक्षेत्र निनदं, शक्रेभ इव बृंहितम् । स्तनितं वारिद इवोच्चैः क्ष्वेडा भरतोऽकरोत् ॥ ५९० ॥ रणेक्षकाणां देवानां, विमानान् पातयन्निव । नभस्तो ग्रहनक्षत्रतारकाः संसयन्निव ॥ ५९१ ॥ कुलाचलानामत्युच्चैः, शृङ्गाणि चलयन्निव । समन्ताजलराशीनां, जलान्युच्छालयन्निव ॥ ५९२ ॥ व्यानशे प्रसरंस्तस्य, क्ष्वेडानादः स रोदेसी । महाविन्त्याः परितः, पूरवारीव रोधंसी ॥ ५९३ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] रश्मि नाजीगणन् रंथ्या, गुर्वाज्ञामिव दुर्धियः। संणीन् नाऽमानयन् नागाः, पिशुना इव सद्गिरम् ॥५९४॥ अश्वा नाऽज्ञासिपुर्वल्गा, कटुत्वं श्लेष्मला इव । मैया नाऽगणयन् नासारखं लजां विटी इव ॥ ५९५ ॥ न वेसराः कशाघातं, भूताविष्टा इवाऽविदन् । त्रस्यन्तस्तेन नादेन, न केऽपि स्थैर्यमादधुः ॥ ५९६ ॥ अथाऽऽपतत्पक्षिराजपक्षनिर्घोषबुद्धितः । पातालतोऽपि पातालं, विविक्षुभिरिवोरगैः ॥ ५९७ ॥ अन्तःप्रविष्टमन्थाद्रिमन्थनध्वानशङ्कया । मध्येजलधि यादोभित्रस्यद्भिः सर्वतोऽपि च ॥ ५९८ ॥ भूयो जम्मारिनिर्मुक्तदम्भोलिध्वनितभ्रमात् । क्षयं खस्याऽऽशङ्कमानैः, कम्पमानैः कुलाचलैः ॥ ५९९ ॥ कल्पान्तपुष्करावर्तमुक्तविद्युद्धनिभ्रमात् । लुठद्भिरवनीपीठे, मध्यलोकनिवासिभिः॥ ६०० ॥ अकाण्डागतदैत्यावस्कन्दकोलाहलभ्रमात् । आकुलैश्चाऽमरकुलैः, श्रूयमाणोऽतिदुःश्रवः ॥ ६०१॥ लोकनालिस्पर्द्धयेव, वर्धमानोऽधरोत्तरम् । विदधे बाहुबलिना, सिंहनादोऽतिभैरवः ॥ ६०२॥ [षद्धिः कुलकम् ] भूयो व्यंधत्त भरतः, सिंहनादं महाबलः । वैमानिकानां वनितास्त्रासयन्तं मृगीरिव ॥ ६०३ ॥ एवं क्रमेण चक्राते, चक्रिभूपौ महाध्वनिम् । जगतो मध्यमस्याऽस्य, क्रीडया भीषकाविव ॥ ६०४ ॥ हस्तो मतङ्गजस्येव, शरीरं दृक्श्रुतेरिव । अहीर्यंततमां शब्दः, क्रमेण भरतेशितुः॥ ६०५॥ विकसितानि । २ देवाः। ३ ईशानेन्द्रस्य वृषभ इव । ५ ऐरावत इव । ५ धावाभूमी। ६ महानयाः। तटे। महान् । ९ रथयोजिताश्वाः । १. शान्। ११शेष्मरोगिणः । १२ उट्राः । १३ जाराः। १४ गरुडः। १५ इन्द्रः। स ।१७ सतिशबेन हीनोऽभवत् । 80 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । सिंहनादो बाहुबलेववृषे त्वधिकाधिकम् । प्रवाहः सरित इव, सजनस्येव सौहृदम् ॥ ६०६ ॥ शास्त्रीयवाग्युद्धेऽप्येवं, वादिना प्रतिवाद्यसौ । वीरेण बाहुबलिना, विजिग्ये भरतेश्वरः ॥६०७॥ अथ तौ बाहुयुद्धार्थमुभावपि हि बान्धवौ । बबन्धतुः परिकरं, बद्धकक्षद्विपोपमौ ॥६०८॥ अथ बाहुबलेगर्जनुढेल इव वारिधिः । स्वर्णदण्डधरः साऽऽह, प्रतीहाराग्रणीरिति ॥ ६०९ ॥ वज्रकीलानिव शैलानवष्टभ्य विशेषतः । आस्थाय स्थाम चाऽशेषमपि पृथ्वि! स्थिरीभव ॥ ६१०॥ परितः पूरयित्वा च, कुम्भयित्वा च मारुतम् । हे नागराज! नगवद् , दृढीभूय धरां धर ॥ ६११॥ लुठित्वा वारिधेः पङ्के, विहायाऽग्रेतनं श्रमम् । पुनर्नवीभूय महाक्रोड ! क्रोडीकुंरु क्षितिम् ॥ ६१२॥ वज्रमानिन् ! निजाङ्गानि, सङ्कोच्य परितोऽपि हि । स्वपृष्ठं कर्मठप्रष्ठ!, द्रढयित्वा महीं वह ॥ ६१३ ॥ प्रमादतो मदतो वा, निद्रां मा धत्त पूर्ववत् । सर्वात्मना सावधाना, वसुधां धत्त दिग्गजाः! ॥ ६१४ ॥ वज्रसारो बाहुबलिर्वज्रसारेण चक्रिणा । यदसौ मल्लयुद्धेन, यो मुत्तिष्ठतेऽधुना ॥ ६१५॥ 10 . महामल्लौ तडिद्दण्डताडिताद्रिरवोपमम् । विदधानौ करास्फोटमाह्वासातां मिथोऽथ तौ ॥ ६१६ ॥ तौ सलीलपदन्यासं, चेलतुश्चलकुण्डलौ । सार्केन्दू धातकीखण्डात्, क्षुद्रमेरू इवाऽऽगतौ ॥ ६१७ ॥ तावन्योऽन्यं कराभ्यां चाऽऽस्फालयामासतुः करौ। नदन्तौ बलवदन्तौ, दन्ताभ्यां दन्तिनाविव ॥ ६१८॥ अयुज्येतां क्षणेनापि, व्ययुज्येतां क्षणेन च । तावासन्नमहावृक्षाविवोद्दण्डानिलेरितौ ॥ ६१९ ॥ उत्पेततुः क्षणेनापि, क्षणेनापि निपेततुः । वीरौ तौ दुर्दिनोन्मत्तमहाम्भोधितरङ्गवत् ॥ ६२० ॥ 15 अथ स्नेहादिवाऽमर्षाद् , धावित्वा तावुभावपि । अङ्गेनाऽङ्गं पीडयन्तौ, सखजाते महाभुजौ ।। ६२१ ॥ क्षणादधः क्षणादूर्ध्व, कदाचित् कश्चिदप्यभूत् । नियुद्धविज्ञानवशात् , प्राणी कर्मवशादिव ॥ ६२२॥ उपर्यसावधोऽसावित्यज्ञायेतां जनैर्न तौ । जलान्तर्मत्स्यवद् वेगान्मुहुर्विपरिवर्तिनौ ॥ ६२३ ॥ चक्रतुर्बन्धविज्ञानं, महाही इव तौ मिथः । निरासतुश्च सद्योऽपि, चपलौ प्लवंगाविव ॥ ६२४ ॥ मुहुर्महीलुठनतस्तावुभौ धूलिधूसरौ । बभासाते प्राप्तधूलीमदौ मदकलाविव ॥ ६२५ ॥ असहिष्णुस्तयोर्भारं, शैलयोरिव सर्पतोः । पादनिर्यातनिर्घोषादारंराटेव मेदिनी ॥ ६२६ ॥ अथ बाहुबलिः क्रुद्धः, करेणैकेन चक्रिणम् । शरभः कुञ्जरमिवोदग्रहीदुग्रविक्रमः ॥ ६२७॥ व्योमन्युल्लालयामास, स तं रूपमिव द्विपः । अहो ! निरवधिः सर्गो, बलिनो बलिनामपि ॥ ६२८॥ चापादिषुरिवोन्मुक्तः, पाषाण इव यत्रतः । तारोपथपथे दूरं, जगाम भरतेश्वरः ॥ ६२९ ॥ भरतेशादापततः, शक्रमुक्तात् पैवेरिव । पलायाश्चक्रिरे सर्वे, खेचराः समरेक्षिणः॥३०॥ 25 हाहारवो महान् जज्ञे, सेनयोरुभयोरपि । कस्य दुःखाकरो न स्यान्महतां ह्यापदागमः ॥ ६३१॥ घिर मे बलमिदं बाह्रोधिग् धिग् राभैसिकं च माम् । एतत् कर्मोपेक्षकांच, धिग् राज्यद्वयमत्रिणः॥६३२॥ किं वा विगर्हितैरेभिर्यावदद्यापि मेऽग्रजः । पतित्वा मेदिनीपृष्ठे, कणशो न विशीर्यते ॥ ६३३ ॥ तावत् पतन्तं गगनात् , प्रतीच्छामीति चिन्तयन् । तल्पकल्पौ भुजौ तस्याऽधो दधौ बाहुबल्यपि॥६३४॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] 30 ऊर्ध्वबाहुव्रतीवोर्ध्वबाहुर्बाहुबलिः क्षणम् । तस्थौ दिनकरालोकव्रतीव च तदोन्मुखः ॥ ६३५॥ पादाग्रप्राणतस्तिष्ठन्नुत्पित्सुरिव स क्षणात् । निपतन्तं प्रतीयेषाँऽग्रजं गेन्दुकलीलया ॥ ६३६ ॥ भरतोत्क्षेपणोद्भूतं, विषादं द्रागबाधत । चम्बोस्तद्रक्षणाद्धर्ष, उत्सर्गमपवादवत् ॥ ६३७ ॥ १ बलम् । २ स्तम्भयित्वा। ३ हे महावराह । ४ मध्येकुरु। ५ हे कूर्मश्रेष्ठ!। ६ आलिङ्गितवन्तौ । वानरौ । ८ हस्तिनौ । ९ आचुक्रोश । १० अष्टापदः । ११ पशुम् । १२ गगनमार्गे। १३ वज्रात्। १४ साहसिकम्। १५ शय्यातुल्यौ। १६ उत्पतितुमिच्छुः। १७ जग्राह । १८ कन्दुकलीलया। 20 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व लघ्वार्षभेविवेकन, भ्रातरक्षणजन्मना । विद्या शीलगुणेनेव, पौरुषं तुष्टुवे जनैः॥ ६३८॥ उपरिष्टाद् बाहुबलेः, पुष्पवृष्टिं व्यधुः सुराः । तादृग्वीरव्रतजुषस्तस्येदमथवा कियत् १ ॥ ६३९ ॥ तदा वैलक्ष्यकोपाभ्यां, युगपद् भरतेश्वरः । धूमवंज इव धूमज्वालाभ्यां समयुज्यत ॥ ६४० ॥ ___ अथ बाहुबलिर्लजानमद्वदनपङ्कजः । वैलक्ष्यं ज्यायसो हर्तुमित्युवाच सगद्गदम् ॥ ६४१ ॥ मा विषीद जगन्नाथ !, महावीर्य ! महाभुज ! । दैवात् कदाचित् केनापि, विजय्यपि विजीयते ॥६४२॥ एतावता नाऽसि जितो, विजयी चाऽसि नेयता | घुणाक्षरन्यायभवं, मन्येऽद्याप्यात्मनो जयम् ॥६४३॥ इयत्यपि त्वमेवैको वीरोऽसि भवनेश्वर! । अमरैर्मथितोऽप्यब्धिरब्धिरेव न दीर्घिका ॥६४४॥ फालच्युत इव द्वीपी, पद्खण्डभरतेश्वर ! । किं तिष्ठसि ? समुत्तिष्ठोत्तिष्ठस्व रणकर्मणे ॥ ६४५ ॥ __ बभाषे भरतोऽप्येवं, निजदोषस्य मार्जनम् । करिष्यत्येव दोर्दण्डो, मुष्टिं प्रगुणयन्नयम् ॥ ६४६ ॥ 10 ततो मुष्टिं समुद्यम्य, फणामिव फणीश्वरः । प्रकोपताम्रनयनोऽपेत्याऽधावत चक्रभृत् ॥ ६४७ ॥ भरतो मुष्टिना तेनाऽऽजघान नृपतेरुरः । कपाटं गोपुरस्येव, दशनेन मतङ्गजः ॥ ६४८॥ प्रदानवदसत्पात्रे, बधिरे कर्णजापवत् । सत्कारवच पिशुने, जलवृष्टिवद्रूपरे ॥ ६४९ ॥ सङ्गीतवदरण्यान्यां, हिमान्यां वह्निपातवत् । मुधाऽभूच्चक्रिणो मुष्टिप्रहारः पार्थिवोरसि ॥६५०॥ [युग्मम् ] ___ असभ्यमपि किं क्रुद्ध, इत्याशङ्कयेक्षितोऽमरैः । उच्चिक्षेपोचकैर्मुष्टिं, सुनन्दानन्दनोऽप्यथ ॥६५१॥ 15 मुष्टिनाऽताडयत् तेन, स चक्रिणमुरःस्थले । कुम्भस्थले महामात्रोऽयोगोलेनेव कुम्भिनम् ॥ ६५२ ॥ घातेन तेन दम्भोलिनिपातेनेव पर्वतः । पपात मूर्छाविधुरो, भूतले भरतेश्वरः॥ ६५३ ॥ चकम्पे पतता तेन, भूः पत्येव कुलाङ्गना । पर्वता अप्यवेपन्त, बान्धवेनेव बान्धवाः ॥ ६५४ ॥ क्षत्रियाणां कुहेवाकः, कोऽयं वीरव्रताग्रहे ? । विग्रहो निग्रहान्तोऽयं, यत्र भ्रातर्यपीदृशः ॥ ६५५ ॥ न जीवेदग्रजश्चेत् तज्जीवितेन ममाऽप्यलम् । एवं मनसि कुर्वाणः, सिञ्चन् नयनवारिभिः ॥ ६५६ ॥ 20 स्वमुत्तरीयं व्यजनीकृत्य बाहुबलिस्ततः। भरतं वीजयामास, यो बन्धुर्वन्धुरेव सः ॥ ६५७ ॥ | त्रिभिर्विशेषकम् ] चक्री सुप्त इवोत्तस्थौ, लब्धसंज्ञः क्षणादथ । ददर्श च पुरो भृत्यमिव बाहुबलिं स्थितम् ॥ ६५८ ॥ अधोमुखौ वितस्थाते, बान्धवौ तावुभावपि । पराजयो जयश्चापि, लज्जायै महतामहो। ॥ ६५९ ॥ किञ्चित् पश्चात्पदन्यासमपचक्राम चक्रभृत् । पुंसामोजायमानानां, युयुत्सालक्षणं ह्यदः ॥ ६६० ॥ 25 युयुत्सुः पुनरप्यायः, शङ्के युद्धेन केनचित् । नोज्झन्ति मानिनो मानं, यावजीवं मनागपि ॥ ६६१॥ अवर्णवादो बलवान् , भावी बाहुबलेः खलु । भ्रातृहत्याभवो मन्ये, नैवाऽन्तेऽपि विरंस्यति ॥ ६६२ ॥ इति सञ्चिन्तयामास, यावद् बाहुबलिः क्षणम् । तावञ्चक्रधरो दण्डं, दण्डपाणिरिवाऽऽददे ॥ ६६३ ॥ तेनोदस्तेन दण्डेन, चकासामास चक्रभृत् । चूलयेवाऽचलश्छायापथेनेव मरुत्पथः ॥ ६६४ ।। अथ तं दण्डमुत्पातकेतुभ्रमविधायिनम् । नभसि भ्रमयामास, क्षणं भरतभूपतिः ॥ ६६५ ॥ 30 पञ्चाननयुवा पुच्छदण्डेनेव महीतलम् । शिरस्यताडयच्चक्री, तेन दण्डेन भूपतिम् ॥ ६६६ ॥ समास्फलन्त्या सह्याद्री, वेलयेव महोदधेः । तन्मूर्ध्नि चक्रिणो दण्डघातेनाऽभून्महान् ध्वनिः ॥६६७॥ दण्डेनाऽचूर्णयच्चक्री, किरीटं मूर्ध्नि भूपतेः । अयोधनेनाध्य इवाधिकरण्यामवस्थितम् ॥ ६६८ ॥ किरीटरत्नखण्डानि, निपेतुर्नुपमूर्धतः । वातान्दोलितवृक्षाग्रादिव पुष्पाणि भूतले ॥ ६६९ ॥ भूपतिस्तेन घातेन, क्षणं मुकुलितेक्षणः । तन्निर्घोषेण घोरेण, लोकश्च समजायत ॥ ६७०॥ १ बाहुबलिनः। २ अग्निः । ३ ज्येष्टस्य । ४ वापिका । ५ अपसृत्य । ६ मूर्ख । ७ क्षारभूमौ । ८ महति अरण्ये । ९महति हिमे। १० अङ्कुशेन । ११ कुस्वभावः। १२ तालवृन्तीकृत्य । १३ यमराजः। १४ सिंहयुवा। १५ लोहशिलायाम् । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । उन्मील्य नयने हस्तेनाऽऽददे बाहुबल्यपि । उद्दण्डमायसं दण्डं, सानामिक इव द्विपः ॥ ६७१ ॥ पाटयिष्यत्यसौ किं मां?, किं मामुत्पाटयिष्यति । इत्याशशङ्के स द्यावापृथिवीभ्यां यथाक्रमम् ॥६७२।। रेजे बाहुबलेर्मुष्टौ, लोहदण्डः स आयतः । पर्वतस्याऽग्रभागस्थवामलूर इवोरगः ॥ ६७३ ॥ दूरतोऽप्यन्तकाह्वानसंज्ञावस्त्रमिवाऽथ तम् । भृशमुद्भमयामास, दण्डं तक्षशिलापतिः॥ ६७४ ॥ निर्दयं हृदये तेन, चक्रिणं बहलीपतिः । ताडयामास लकुटेनेव *बीजस्य मूटकम् ॥ ६७५ ॥ तेन घातेन घटवद्, द्रढीयानपि खण्डशः । विशीर्यते स सहसा, सन्नाहश्चक्रवर्तिनः ॥ ६७६ ॥ निरभ्र इव मार्तण्डो, निर्धूम इव पावकः । शीर्णवर्मा चक्रवर्ती, दिद्युतेऽमर्षतोऽधिकम् ॥ ६७७ ॥ क्षणार्ध विह्वलीभूतो, नाऽचेतयत किञ्चन । भरतः सप्तममदावस्थाप्राप्त इव द्विपः ॥ ६७८ ॥ प्रियमित्रमिवाऽऽलम्ब्याऽविलम्वाद् बाहुपौरुषम् । चक्रभृद् दण्डमुद्यम्य, भूयो राज्ञेऽभ्यधावत ॥ ६७९॥ पीडयन्नधरं दन्तैर्भृकुटीमङ्गभीषणः । भरतोऽभ्रमयद् दण्डमौर्वावर्तविडम्बिनम् ॥ ६८० ॥ - 10 मूर्मि बाहुबलिं तेन, चक्रपाणिरताडयत् । तडिदण्डेन कल्पान्तजीमूत इव पर्वतम् ॥ ६८१ ॥ ममजाऽऽजानु घातेन, तेन बाहुबलिर्भुवि । लोहाधिकरणीमध्ये, वज्रोपेल इवाऽऽहतः ॥ ६८२॥ आस्फल्य बाहुबलिनि, वज्रसारे व्यशीर्यत । स्वेन तेनाऽऽगसा भीत, इव दण्डः स भारतः ॥ ६८३ ॥ आजानु मनो मेदिन्यामवगाढ इवाऽचलः । निष्क्रान्तशेषः शेषाहिरिव बाहुबलिर्बभौ ॥ ६८४ ॥ अधूनयत् स मूर्धानं, घातवेदनया तया । अन्तश्चमत्कृत इव, ज्यायसो भ्रातुरोजसा ॥ ६८५॥ 15 आत्माराम इव योगी, न किञ्चिदशणोत् क्षणम् । तदा बाहुबलिस्तेन, घातेन प्राप्तवेदनः ॥ ६८६ ॥ निर्ययौ मेदिनीमध्यात् , सुनन्दानन्दनस्ततः । आश्यानकूलिनीकूलपङ्कमध्यादिव द्विपः ॥ ६८७॥ लाक्षारसारुणैदृष्टिपातैरातर्जयन्निव । स्खौ दोर्दण्डौ च दण्डं चाऽपश्यत् सोऽमर्षणाग्रणीः ॥ ६८८ ॥ दुष्प्रेक्षं तक्षकमिवाऽभीक्ष्णं तक्षशिलापतिः । ततस्तं भ्रमयामास, दण्डमेकेन पाणिना ॥ ६८९ ॥ मुनन्दासूनुना दण्डो, भ्रम्यमाणोऽतिवेगतः । राधावेधपरिभ्राम्यञ्चक्रलक्ष्मीमुवाह सः ॥ ६९० ॥ 20 कल्पान्तसागरावर्तगर्तभ्रान्तादिमत्स्यवत् । स भ्राम्यन् प्रेक्ष्यमाणोऽपि, भ्रमि व्यधित चक्षुषाम् ॥ ६९१॥ उत्पतंस्तपेनं कांस्यपात्रवत् स्फोटयिष्यति । भारुण्डाण्डवक्षेशमण्डलं चूर्णयिष्यति ॥ ६९२ ॥ तारागणानामलकीफलवद् भ्रंशयिष्यति । वैमानिकविमानानि, नीडवत् पातयिष्यति ॥ ६९३ ॥ पैतन् पर्वतशृङ्गाणि, नौकुवद् दलयिष्यति । महातरुनिकुञ्जानि, निष्पेक्ष्यति तृणौघवत् ॥ ६९४ ॥ अपक्कमृत्तिकागोलवच भेत्स्यति मेदिनीम् । हस्तादमुष्य देवाच्चेद् , दण्ड एष पतिष्यति ॥ ६९५ ॥ 25 इत्याशङ्काकुलैः सैन्यैः, प्रेक्ष्यमाणोऽमरैरपि । भूपतिश्चक्रिणं तेन, दण्डेन शिरसि न्यहन् ॥ ६९६ ॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] तेन दण्डाभिघातेन, चक्रवर्ती महीयसा । आकण्ठं प्रविवेशोयाँ, मुद्गराहतकीलवत् ॥ ६९७ ॥ यथाऽसत्स्वामिनो दत्तं, विवरं देहि नस्तथा । इतीव पेतुर्मेदिन्यां, विषण्णाश्चक्रिसेवकाः ॥ ६९८ ॥ राहुग्रस्त इवाऽऽदित्ये, भूमग्ने चक्रवर्तिनि । तुमुलोऽभूद् भुवि महान् , नृणां दिवि दिवौकसाम् ॥६९९।। 30 निमीलिताक्षः श्यामास्यः, पखण्डभरतेश्वरः । लजयेव महीमध्ये, क्षणमेकमवास्थित ॥ ७००॥ अथैकस्य क्षणस्याऽन्ते, तेजसा मोऽतिभासुरः । निर्ययाववनीमध्यान्निशान्त इव भास्करः ॥ ७०१॥ सोऽथैवं चिन्तयामास, युद्धेषु निखिलेष्वपि । जितोऽहममुना द्यूतेष्विवाऽन्धद्यूतकारकः ॥ ७०२॥ १ दण्डेन । * बीजान्नमूटकम् सं २, आ ॥ २ निर्नेघः । ३ वडवानलः । ४ कल्पान्तमेषः । ५ बज्रमणिः । ६ शेषनागः। गुष्कनदीतटपकमध्यात् । ८ नागविशेषम् । सूर्यम् । १० भारण्डपक्षिणः अण्डवत् ।"न्द्रमण्डलम् । १२ एतदास्यवृक्ष. फलवत् । १३ पक्षिगृहवत् । + अयं लोकः खं पुस्तके पतितः। १४ वस्मीकवत्।५कोकाहरूः। राज्यन्ते । त्रिषष्टि. १७ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीक्षेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व किं स्वादस्योपयोगाय, साधितं भरतं मया ? । गोदोहकस्येव गवा, जग्धं दूतृणादिकम् ॥ ७०३ ॥ एकस्मिन् भरतक्षेत्रे, युगपच्चक्रवर्तिनौ । उभावसी कोश इव, न च दृष्टौ न वा श्रुतौ ॥ ७०४॥ इन्द्रो विजीयते देवैश्चक्रवर्ती च पार्थिवैः । अनाकर्णितपूर्व नश्चेदं खरविषाणवत् ॥ ७०५ ॥ अमुना विजितश्चक्रवर्ती किं न भवाम्यहम् ? । मयाऽप्यविजितो विश्वाजय्यस्तच्चक्रवर्त्यसौ ? ॥ ७०६ ।। एवं चिन्तयतस्तस्य, चिन्तामणिविडम्बकैः । यक्षराजैः समानीय, चक्रमारोपितं करे ॥ ७०७ ॥ तत्प्रत्ययाच्चक्रिमानी, चक्रं भ्रमयति स्म सः । वात्यावर्त इवाऽम्भोजरजोमण्डलमम्बरे ॥ ७०८ ॥ कालानल इवाऽकालेऽप्यौर्वानल इवाऽपरः । वज्रानल इवाऽकस्मादुल्कापुञ्ज इवोच्चकैः ॥ ७०९ ॥ रविबिम्बमिव भ्रस्यद् , विद्युद्गोल इव भ्रमन् । ज्वालाजालकरालं तच्चक्रं व्योमन्यलक्ष्यत ॥७१०॥ [युग्मम् ] भ्रम्यमाणं प्रहाराय, तच्चक्र चक्रवर्तिना । निध्यायं दध्यौ मनसि, मनस्वी बहलीपतिः ॥ ७११॥ 10 धिक् तातपुत्रमानित्वमस्य क्षत्रत्रतं च धिक् । मयि दण्डायुधे चक्रादानं यद् भरतेशितुः॥ ७१२॥ समक्षं घुसदामस्योत्तमयुद्धप्रतिश्रवम् । धिगहो ! बालकस्येव, संव्यानादानमीदृशम् ॥ ७१३ ॥ तेजोलेश्यां तपस्वीव, रुष्टश्चकं प्रदर्शयन् । यथैषोऽभापयद् विश्वं, मां विभाययिषुस्तथा ॥ ७१४ ॥ निजदोर्दण्डदण्डानां, सारं विज्ञातवान् यथा । असौ तथा राङ्गस्याऽप्यस्य जानातु विक्रमम् ॥७१५ ॥ एवं चिन्तयतो बाहुबलेर्दोर्बलशालिनः । प्रेर्य सौंजसा चक्र, मुमोच भरतेश्वरः ॥ ७१६ ॥ 15 दण्डेन दलयाम्याशु, किमिदं जीर्णभाण्डवत् । किंवा कन्दुकवत् पश्चात्, क्षिपाम्याहत्य हेलया ?।।७१७॥ शङ्खलॉवत् किमथवा, लीलयोल्लालयामि खे? । यदि वा मेदिनीमध्ये, न्यस्यामि शिशुनालवत् ? ॥७१८ ।। गृह्णामि पाणिना किं वोल्ललच्चटकपोतवत् ? । अथाऽपहस्तयाम्याराद्, वधानपिराधिवत् ? ॥ ७१९ ॥ अथाऽधिष्ठायकानस्य, सहस्रं यक्षकानमून् । दलयाम्याशु दण्डेन, घरटेन कणानिव ? ॥ ७२० ॥ विधेयमथवा सर्वमिदं पश्चादमुष्य हि । जानामि प्रथमं तावदलकीणतावधिम् ॥ ७२१॥ 20 एवं विमृशतस्तक्षशिलाभर्तुरुपेत्य तत् । चक्रे प्रदक्षिणां चक्रमन्तेवासी गुरोरिव ॥ ७२२ ॥ [षद्भिः कुलकम् ] न चक्रं चक्रिणः शक्तं, सामान्येऽपि स्वगोत्रजे । विशेषतस्तु चरमशरीरे नरि तादृशे ॥ ७२३ ॥ चक्र चक्रभृतः पाणिं, पुनरप्यापपात तत् । वासयष्टिं खग इव, तुरङ्ग इव मन्दुरीम् ॥ ७२४ ॥ विषं विषधरस्येवाऽमोघं मारणकर्मणि । इदमेवाऽस्त्रसर्वस्वमस्य नाऽन्यदतः परम् ।। ७२५ ॥ मयि दण्डायुधे चक्रमोक्षादन्यायकारिणम् । तदेनमेष मृद्रामि, सचक्रमपि मुष्टिना ॥७२६ ॥ अमोचिन्तयित्वैवं, सुनन्दानन्दनो दृढाम् । मुष्टिमुद्यम्य यमवद्, भीषणः समधावत ॥ ७२७ ॥ करीवोन्मुद्गरकरः, कृतमुष्टिकरो द्रुतम् । जगाम भरताधीशान्तिकं तक्षशिलापतिः॥७२८॥ मर्यादोामिवोद॑न्वांस्तत्र तस्थौ रयादपि । एवं च स महासत्त्वश्चिन्तयामास चेतसि ॥ ७२९ ॥ अहो ! राज्यस्य लुब्धेन, लुब्धैकादपि पापिना । अमुनेव समारब्धो, धिर धिग् भ्रातृवधो मया ॥७३०॥ 20 पदादावपि हन्यन्ते, भ्रातृभ्रातृव्यकादयः । शाकिनीमत्रवत् तस्य, राज्यस्याऽर्थे यतेत का ? ॥ ७३१ ॥ राज्यश्रिया प्राप्तयाऽपि, यथेच्छं भुक्तयाऽपि च । सुरयेव सुरापस्य, पुंसस्तृप्तिर्न जायते ।। ७३२ ॥ भवेदाराध्यमानापि, प्राप्य स्तोकमपि च्छलम् । राज्यलक्ष्मीः क्षणात् क्षुद्रदेवतेव पराशुखी ॥ ७३३ ॥ राज्यलक्ष्मीरमावास्यारात्रिवद् भूरितामसा | उज्झाञ्चकार तृणवत्, तातोऽप्येनां कुतोऽन्यथा ? ॥७३४ ॥ तस्य तातस्य पुत्रेण, सताऽप्येषा मया चिरात् । दुर्वृत्तत्वेन विज्ञाता, ज्ञास्यत्यन्यः कथं ह्यमूम् ? ॥७३५॥ भुक्तम् । २ वडवाग्निः । ३ दृष्ट्वा । ४ चक्रस्य । ५ उत्पलपत्रिकायत् । ६ पराक्रमावधिम् । ७ शिव्यः। ८ अश्वशालाम् । ९ भरतस्य। १० समुद्रः। ११ व्याधात् । १२ भ्रातुः पुत्रादयः । १३ मदिरापानकारकस्य । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । सर्वथा त्यजनीयेयमिति निश्चित्य चेतसि । महामना बाहुबलिरित्यूचे चक्रवर्त्तिनम् ॥ ७३६ ॥ तितिक्षत्र क्षमानाथ !, राज्यमात्रकृतेऽपि यत् । द्विषन्निव मया भ्रातरेवं त्वमसि खेदितः ॥ ७३७ ॥ महाभवइदेऽमुष्मिस्तन्तुं पाशसहोदरैः । भ्रातृपुत्रकलत्राद्यै, राज्येन च कृतं मम ॥ ७३८ ॥ त्रिजगत्स्वामिनो विश्वाभयदानैकसत्रिणः । एष पान्थीभविष्यामि, पथि तातस्य सम्प्रति ॥ ७३९ ॥ इत्युदित्वा महासच्चः सोऽग्रणीः शीघ्रकारिणाम् । तेनैव मुष्टिना मूर्भ, उद्दधे तृणवत् केचान् ॥ ७४० ॥ ॐ साधु साध्विति सानन्दं निगदन्तो दिवौकसः । बाहुबलेरुपरिष्टात्, पुष्पवृष्टिं वितेनिरे ॥ ७४१ ॥ सोऽप्येवं चिन्तयामास, प्रतिपन्नमहाव्रतः । किं तातपादपद्मान्तमहं गच्छामि सम्प्रति ? || ७४२ ॥ नोवा यास्यामि पूर्वात्तत्रतानां ज्ञानशालिनाम् । मध्येऽनुजानामपि मे, यल्लघुत्वं भविष्यति ॥ ७४३ ॥ sa दग्ध्वा घातीनि कर्माणि ध्यानवह्निना । अवाप्तकेवलज्ञानो, यास्यामि स्वामिपर्षदि ॥ ७४४ ॥ मनस्वी चिन्तयन्भेवं, प्रलम्बितभुजद्वयः । कायोत्सर्गेण तत्रैवाऽस्थाद् रत्नप्रतिमेव सः ॥ ७४५ ॥ 10 " 20 भरतस्तं तथा दृष्ट्वा, विचार्य स्वं कुकर्म च । बभूव न्यतिग्रीवो, विविक्षुरिव मेदिनीम् ॥ ७४६ ॥ शान्तं रसं मूर्त्तमिव भ्रातरं प्रणनाम सः । नेत्रयोरशुभिः कोष्णैः, कोपशेषमिवोत्सृजन् ॥ ७४७ ॥ भरतः प्रणमंस्तस्याऽधिकोपास्तिविधित्सया । नखादर्शेषु सङ्क्रान्त्या, नानारूप इवाभवत् ।। ७४८ ।। सुनन्दानन्दनमुनेर्गुणस्तवनपूर्विकाम् । खनिन्दामित्यथाऽकार्षीत्, स्वापवादगदौषधीम् ॥ ७४९ ।। धन्यस्त्वं तत्यजे येन, राज्यं मदनुकम्पया । पापोऽहं यदसन्तुष्टो, दुर्मदस्त्वामुपाद्रवम् ।। ७५० ॥ स्वशक्ति ये न जानन्ति ये चान्यायं प्रकुर्वते । जीयन्ते ये च लोभेन, तेषामस्मि धुरन्धरः ।। ७५१ ॥ राज्यं भवतरोर्बीजं, ये न जानन्ति तेऽधमाः । तेभ्योऽप्यहं विशिष्ये तदजहानो विदन्नपि ।। ७५२ । त्वमेव पुत्रस्तातस्य, यस्तातपथमन्वगाः । पुत्रोऽहमपि तस्य स्यां चेद् भवामि भवादृशः ।। ७५३ ।। विषादपङ्कमुन्मूल्य, पश्चात्तापजलैरिति । तत्पुत्रं सोमयशसं, तद्राज्ये स न्यवीविशत् ।। ७५४ ॥ तदादि सोमवंशोऽभूच्छाखाशतसमाकुलः । तत्तत्पुरुषरत्नानामेकमुत्पत्तिकारणम् ॥ ७५५ ॥ ततो बाहुबलिं नत्वा, भरतः सपरिच्छदः । पुरीमयोध्यामगमत्, खाराज्यश्रीसहोदराम् ।। ७५६ ।। भगवानपि तत्रैकस्तस्थौ बाहुबलिर्मुनिः । भूमेरिव समुद्भूतोऽवतीर्णो गगनादिव ।। ७५७ ।। ध्यानैकतानो नासान्तविश्रान्तनयनद्वयः । निष्कम्पः स मुनिः शङ्कुरिव दिक्साधनो बभौ ।। ७५८ ॥ विकिरन्तीं वह्निकणानिवोष्णान् वालुकाकणान् । उष्णवात्यां देहेन स सेहे वनवृक्षवत् ॥ ७५९ ।। अग्निकुण्डमिव ग्रीष्ममध्यन्दिनरविं च सः । शुभध्यानसुधामनो, नाऽज्ञासीन्मूर्ध्न्यपि स्थितम् ॥ ७६० ॥ 25 आर्शिरःप्रपदं ग्रीष्मतापात् स स्वेदवारिभिः । रजः पङ्कीकृतैः क्रोर्ड, इवाऽभात् पङ्कनिर्गतः ॥ ७६१ ।। स प्रावृषि महाझञ्झानिलघूर्णितपादपैः । धारासारैर्गिरिरिव, नाऽभिद्यत मनागपि ॥ ७६२ ॥ विद्युत्पातेषु निर्घातकम्पिताद्रि शिरःस्वपि । न कायोत्सर्गतो नाऽपि, ध्यानतः प्रचचाल सः । ७६३ ।। अधोद्वारिभवैः, शैवलैश्वरणद्वयम् । तस्योर्द्वसग्रामवापीसोपानवदलिप्यत || ७६४ ॥ हिमतौं हिमसाद्भूतद्विपदमसरित्यपि । सोऽस्थात् कर्मेन्धनप्लोषोद्युक्तध्यानाग्निना सुखम् ॥ ७६५ ॥ Titty हिमष्टषु त्रिषु कुन्दैवत् । धर्म्यं ध्यानं बाहुबलेरुअजृम्भे विशेषतः ॥ ७६६ ।। तस्मिन्नरण्यमहिषा, विषणाच्छोटपूर्वकम् । महातरुस्कन्ध इव, स्कन्धकण्डूयनं व्यधुः ॥ ७६७ ॥ १] तन्तुपाश सहशैः । २ केशान् । * °लिर्नृपः खंता ॥ ६ स्थाणुरिव । वापीसोपानवत् । ११ हिमसाद्भूतगजप्रमाणसरिति । कुसुमवत् । १५ शृङ्गाच्छोटनपूर्वकम् । १३१ ३ नम्रीभूतग्रीवः । ४ प्रवेष्टुमिच्छुः । ५ अधिकोपासनां विधातुमिच्छया । ७ ग्रीष्म वातसमूहम् । ८ आमस्तकपादानम् । ९ सूकरः । १० निर्जनग्राम१२ हेमन्त सम्बन्धिनीषु । १३ हिमदग्धवृक्षासु । १४ माध्य 15 30 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ 15 कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व वपुषा तद्वपुरवष्टभ्य शैलतटीमिव । वाणसकुलान्यन्त्रभूवन्निद्रासुखं निशि ॥ ७६८ ॥ सल्लकीपल्लवभ्रान्त्या, तत्पाणिचरणं मुहुः । कर्षन्तः कटुमसहा, वैलक्ष्यं करिणो ययुः ।। ७६९ ॥ उत्कण्टककरालाभिर्जिह्वाभिः करपत्रवत् । विश्वस्तास्तं लिहन्ति स्मोदाननाश्चमरीगणाः ॥ ७७० ॥ लताभिः शतशाखाभिः, प्रसरन्तीभिरुच्चकैः । मुरजश्चर्मवीभिरिव सोऽवेश्यताऽभितः ॥ ७७१ ॥ 5 परितस्तं शरस्तम्बाः, प्ररोहन्ति स सन्तताः । पूर्वस्नेहवशायातशराढ्यशरधिश्रियः ॥ ७७२ ॥ उद्ययुः पादयोस्तस्य, प्रावृट्पङ्कनिमग्नयोः । चलच्छंतपदीगर्भा, अदभ्रा दर्भसूचयः ।। ७७३ ॥ प्रचक्रिरे कुलोयांश्च, तदेहे वल्लिसङ्कुले । परस्पराविरोधेन, ते श्येनचटकादयः ।। ७७४ ॥ अरण्यकेकिकेकातस्त्रस्तास्तत्र महोरगाः । वल्लीवितानगहने, समारोहन् सहस्रशः ॥ ७७५ ॥ शरीरमधिरूढेस्तैलंम्बमान जङ्गमैः । बभौ बाहुबलिर्बाहुसहस्रमिव धारयन् ॥ ७७६ ॥ 10 पादपर्यन्तवल्मीकविनियोतैर्महोरगैः । पादयोर्वेष्टयाश्चक्रे, स पादकटकैरिख ।। ७७७ ॥ इत्थं स्थितस्य ध्यानेन, तस्यैको वत्सरो ययौ । विनाऽऽहारं विहरतो, वृषभस्वामिनो यथा ॥ ७७८ ॥ पूर्णे तु वत्सरे विश्ववत्सलो वृषभध्वजः । आहूय भगवान् ब्राह्मीसुन्दर्यावेवमादिशत् ॥ ७७९॥ स इदानीं बाहुबलिः, क्षीणप्रचुरकर्मकः । शुक्लचतुर्दशीरात्रिरिव प्रायेण निस्तमाः ।। ७८० ॥ मानात् स मोहनीयांशाज्ज्ञानं नाऽऽमोति केवलम् । तिरोहितः काण्डपटेनाऽप्यर्थो न हि दृश्यते ॥७८१॥ युवयोर्वचसा मानं, सद्यस्त्यक्ष्यति सोऽद्य तत् । यातं तस्योपदेशाय, समयः खलु वर्तते ॥ ७८२ ॥ तामाज्ञां शिरसाऽऽदाय, नत्वा च चरणौ प्रभोः। प्रति बाहुबलिं ब्राह्मीसुन्दर्यो चेलतुस्ततः ।।७८३॥ ज्ञात्वाऽपि तन्मानमुपेक्षाञ्चके वत्सरं प्रभुः । अगूढलक्ष्या अर्हन्तः, समये ह्युपदेशकाः ॥ ७८४ ।। ते आर्ये जग्मतुस्तत्र, देशे वल्लीतिरोहितम् । रनं रजश्छन्नमिवाऽलक्षयेतां न तं मुनिम् ॥ ७८५ ॥ मुहुरन्वेषयन्तीभ्यां, ताभ्यामथ तथास्थितः । पालक्षि कथञ्चित् स, वृक्षेभ्यो ह्यविशेषमाक् ।। ७८६ ॥ 20 निपुणं लक्षयित्वा तं, कृत्वा त्रिश्च प्रदक्षिणाम् । महामुनि बाहुबलिं, ते वन्दित्वैवमूचतुः ॥ ७८७ ।। आज्ञापयति तातस्त्वां, ज्येष्ठार्य! भगवानिदम् । हस्तिस्कन्धाधिरूढानामुत्पद्येत् न केवलम् ॥ ७८८ ।। इत्युदित्वा भगवत्यौ, जग्मतुस्ते यथागतम् । सोऽपि विस्मयमानोऽन्तर्महात्मैवमचिन्तयत् ॥ ७८९ ॥ त्यक्तसावद्ययोगस्य, कायोत्सर्गजुषस्ततः । असिंस्तरोरिवाऽरण्ये, ममेभारोहणं कुतः १ ॥ ७९० ॥ इमे भगवतः शिष्ये, भाषेते न मृपा क्वचित् । तत् किमेतदहो ! यद्वा, हुं ज्ञातं हि चिरान्मया ॥ ७९१ ॥ को हि व्रतगरिष्ठानां, कनिष्ठानां नमस्क्रियाम् । कति मान एवेभस्तमारूढोऽसि निर्भरम् ॥ ७९२ ॥ जगत्रयगुरोस्तस्य, चिरं सेवाजुषोऽपि मे । नाऽभूद् विवेकस्तरणं, कुलीरस्येव वारिणि ।। ७९३ ॥ प्रतिपन्नवतेष्वादौ, स्वभ्रातृषु महात्मसु । कनिष्ठा इति यत् तेषु, नाऽभून्मम विवन्दिषा ॥ ७९४ ॥ इदानीमपि गत्वा तान् , वन्दिष्येऽहं महामुनीन् । चिन्तयित्वेति स महासत्त्वः पादमुदक्षिपत् ।। ७९५॥ लतावल्लीवत् त्रुटितेष्वभितो घातिकर्मसु । तस्मिन्नेव पदे ज्ञानमुत्पेदे तस्य केवलम् ॥ ७९६ ॥ 30 उत्पन्नकेवलज्ञानदर्शनः सौम्यदर्शनः । वेरिव शशी सोऽथ, जगाम स्वामिनोऽन्तिकम् ।। ७९७ ॥ प्रदक्षिणां तीर्थकृतो विधाय, तीर्थाय नत्वा च जगन्नमस्यः । महामुनिः केवलिपर्षदन्तस्तीर्णप्रतिज्ञो निषसाद सोऽथ ॥ ७९८ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित महाकाव्ये प्रथमे पर्वणि बाहुबलिसङ्ग्राम-दीक्षा-केवलज्ञानसङ्कीर्तनो नाम पञ्चमः सर्गः ॥५॥ १ गण्डकाख्यः पशुविशेषः। २ अर्ध्वमुखाः । ३ मृदङ्गः । ४ कीटविशेषः। ५ नीडानि। ६ अटवीमयूरवाणीतः। ७ पटखण्डेन । ८ गतम् । ९ हस्स्यारोहणम् । १० कर्कटस्य जलजन्तुविशेषस्य । ११ वन्दितुमिछा। १२ जगतां नमस्करणीयः । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । १३३ 10 षष्ठः सर्गः। इतश्च स्वामिनः शिष्यो, मरीचिर्भरतात्मजः । एकादशानामङ्गानामध्येता निजनामवत् ॥ १॥ सहितः श्रामणगुणैः, सुकुमारो निसर्गतः । कलभो यूथपेनेव, विहरन् स्वामिना समम् ॥ २॥ ग्रीष्मे मध्यन्दिने भीष्मैर्दिवाकरकरोत्करैः । नाडीन्धमैरिवाऽऽध्मातेप्यभितो मार्गपांशुषु ॥ ३ ॥ अदृश्याभिर्हतवहज्वालाभिरिव सर्वतः । महावात्याभिरुष्णाभिः, खिलीभूतेषु वर्त्मसु ॥ ४ ॥ आपादमस्तकोद्भूतखेदधारानिरन्तरे । अग्नितप्तेषदा.धःसधीचि निजवमणि ॥५॥ पयःसंसिक्तसंशुष्कचर्मगन्धवदुद्धते । प्रस्खेदक्लिन्नवस्त्राङ्गमलगन्धे च दुःसहे ॥६॥ पादयोर्दह्यमानश्चाऽवतप्ते नकुलस्थितम् । नाटयंस्तृष्णयाऽऽक्रान्तश्चेतसैवमचिन्तयत् ॥ ७ ॥ [ सप्तभिः कुलकम् ] केवलदर्शनज्ञानार्केन्दुमेरुमहीभृतः । ऋषभखामिनस्तावदसि पौत्री जगद्गुरोः ॥ ८ ॥ अखण्डषदखण्डमहीमण्डलाखण्डलस्य च । विवेकैकनिधेस्तस्स, पुत्रोऽसि भरतेशितुः ॥ ९॥ चतुर्विधस्य सङ्घस्याऽन्वक्षं च स्वामिनोऽन्तिके । प्रात्राजिपं पञ्चमहाव्रतोच्चारणपूर्वकम् ॥१०॥ एवं सति स्थानतोऽसाल्लञ्जयानलितस्य मे । न युज्यते गृहे गन्तुं, वीरस्येव रणाजिरात् ॥ ११ ॥ श्रामणं गुणभारं च, महाद्रिमिव दुर्वहम् । मुहूर्त्तमपि चोद्वोढुमलमसि न साम्प्रतम् ॥ १२ ॥ इतः कुलायमलिनमितश्चाऽसुकरं व्रतम् । इतस्तटीतः शार्दूलः, सङ्कटे पतितोऽसि हा ! ॥ १३॥ 15 आ ज्ञातमथवाऽस्तीह, सुषमो विषमेऽपि हि । पर्वते दण्डकपथ, इव पन्था अयं खलु ॥ १४ ॥ मनोवाक्कायदण्डानां, जयिनः श्रमणा ह्यमी । तैरहं विजितोऽस्मीति, भविष्यामि त्रिदण्डिकः ॥१५॥ अमी मुण्डाः शिरकेशलुश्चनेन्द्रियनिर्जयैः । अहं पुनर्भविष्यामि, क्षुरमुण्डशिखाधरः ॥१६॥ स्थूलसूक्ष्मप्राणिवधादिभ्योऽमी विरताः सदा । स्थूलप्राणातिपातादिविरतिर्भवतान्मम ॥ १७ ॥ एते ह्यकिञ्चना मेऽस्तु, स्वर्णमुद्रादि किश्चन । एतेऽनुपानेहोऽहं तु, परिधास्याम्युपानहौ ॥ १८॥ 20 एतेऽष्टादशशीलाङ्गसहरुयाऽतिसुगन्धयः । शीलेनाऽहं तु दुर्गन्ध, आदास्ये चन्दनादिकम् ॥ १९ ॥ अपमोहाः साधवोऽमी, मोहच्छन्नोऽस्म्यहं ततः । तच्चिह्न धारयिष्यामि, च्छत्रकं मस्तकोपरि ॥२०॥ श्वेतवस्त्रधरा एते, कषायकलुषस्त्वहम् । तत्स्मृत्यै परिधास्यामि, काषायाण्यंशुकान्यहम् ॥ २१ ॥ पापभीताः प्राज्यजीव, जलारम्भं त्यजन्त्यमी । अस्तु स्नानं च पानं च, पानीयेन मितेन मे ॥ २२ ॥ स्वबुद्ध्या कल्पयित्वैवं, मरीचिलिङ्गमात्मनः । बभार तादृशश्वाऽथ, विजहे स्वामिना सह ॥ २३ ॥ 25 नाऽश्वो न च खरः किन्तुभयांशोऽश्वतरो यथा । न संयतो न च गृही. मरीचिरभवत तथा ॥ २४॥ महर्षिषु विजातीयं, मरालेष्विव वायसम् । तं निरीक्ष्य जनो भूयान् , धर्म पप्रच्छ कौतुकात् ॥ २५ ॥ मूलोत्तरगुणप्रष्ठं, साधुधर्ममुपादिशत् । स्वयं च तदनाचारे, पृष्टोऽशक्तिं जगाद सः ॥२६॥ प्रतिबोध्याऽऽगतान् भव्यान्, परिविव्रजिषून् सतः । मरीचिः श्रेषयामास, समीपे स्वामिपादयोः ॥२७॥ प्रतिबुध्यागतानां च, तेषां दीक्षां स्वयं ददौ । निष्कारणोपकारेकबन्धुः स्वाम्वृषभध्वजः ॥ २८॥ 30 मरीचेः स्वामिना सार्द्ध, एवं विहरतोऽन्यदा । शरीरे रोग उत्पेदे, काष्ठे घुण इवोल्वणः ॥ २९॥ प्रालम्बभ्रष्टकपिवद् , व्रतभ्रष्टो बहिष्कृतः। खयूथ्यसंयतैनँव, मरीचिः प्रत्यपाल्यत ॥३०॥ अजातप्रतिचारोऽसौ, बबाधे व्याधिनाऽधिकम् । इक्षुवाट इवाऽऽरक्षवर्जितः सूकरादिना ॥ ३१ ॥ - * °करैरसौ खं ॥ १ अग्नितोषदाईकाइसमाने। २ स्वशरीरे। ३ प्रत्यक्षम् । ४ काञ्चनादिरहिताः । ५ चर्मपादुकारहिताः। ६ मोहरहिताः। ७ वमाणि । हंसेषु । ९ काकम् । इत आरभ्म ५२ पर्यन्तं श्लोकाः सं १, Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यप्रणीतं रोगे निपतितो घोरे, महारण्य इवाऽसखा । एवं विचिन्तयामास, मरीचिर्निजचेतसि ॥ ३२ ॥ अहो ! मम भवेोदीर्ण कर्म शुभेतरम् । मां यदेते परमिवोपेक्षन्ते खेऽपि साधवः ॥ ३३ ॥ यद्वा दिवाकरस्येव के नालोककारिणः । दोषो न कस्याऽपि मयि, साधोरप्रतिचारिणः || ३४ || सावद्यविरतास्ते हि, सावद्यनिरतस्य मे । वैयावृत्यं कथं कुर्युम्लेंच्छस्येव महाकुलाः ॥ ३५ ॥ न तान् कारयितुं युक्तं, वैयावृत्यं ममाऽपि हि । व्रतभ्रंशोत्थपापस्य, सन्तानाय हि तद् भवेत् ॥ ३६ ॥ तदात्मप्रतिचाराय, मन्दधर्माणमात्मवत् । अन्वेषयामि कमपि, युज्यन्ते हि मृगैर्मृगाः ॥ ३७ ॥ मरीचिश्चिन्तयन्नेवमुल्लाघः कथमप्यभूत् । कालादनूषरत्वं हि व्रजत्यूपरभूरपि ॥ ३८ ॥ 5 अन्यदा स्वामिनः पादपद्मान्ते दूरभव्यकः । कुतोऽपि कपिलो नाम, राजपुत्रः समाययौ ॥ ३९ ॥ विश्वोपकारकरण प्रावृषेण्यपयोमुचः । कुर्वतो देशनां भर्तुर्धर्मस्तेन च शुश्रुवे ॥ ४० ॥ ज्योत्स्नेव चक्रवाकायोलूकायेव दिवामुखम् । प्रक्षीणभागधेयाय, रोगितायेव भेषजम् ॥ ४१ ॥ शीतलं वातलायेव, छागोयेव वनागमः । स धर्मः स्वामिगदितो, रुरुचे कपिलाय न ॥ ४२ ॥ [ युग्मम् ] धर्मान्तरं तु शुश्रूषुः क्षिपन् दृष्टिमितस्ततः । प्रेक्षाञ्चक्रे मरीचिं स, स्वामिशिष्यविलक्षणम् ॥ ४३ ॥ मरीचिं स्वामितः सोऽगाद्, धर्मान्तरजिघृक्षया । महेभ्याट्टाद् दरिद्राट्टमिव क्रायकबालकः ॥ ४४ ॥ धर्म तेनानुयुक्तस्तु, मरीचिरिदमभ्यधात् । नेहाऽस्ति धर्मो धर्मार्थी, यदि तत् स्वामिनं श्रय ॥ ४५ ॥ ऋषभस्वामिनः पादाभ्यर्णं भूयो जगाम सः । पुनराकर्णयामास, धर्मं तत्र तथैव तम् ॥ ४६ ॥ स्वकर्मदूषितायाऽस्मै, स्वामिधर्मोऽरुचन्न हि । चातकस्य वराकस्य, सम्पूर्णसरसाऽपि किम् ? ॥ ४७ ॥ मरीचिमा भूयः, स इत्यूचे च किं तव । योऽपि सोऽपि न धर्मोऽस्ति, निर्धर्मं किं व्रतं भवेत् ? ॥४८॥ मरीचिश्चिन्तयामासाऽनुरूपः कोऽप्ययं मम । अहो ! दैवादयं जज्ञे, योगः सदृशयोश्चिरात् ॥ ४९ ॥ सहायो निःसहायस्य, ममाऽस्त्विति विचिन्त्य सः । तत्राऽपि धर्मोऽस्त्यत्राऽपि धर्मोऽस्त्येवमभाषत ॥५०॥ 20 दुर्भाषितेन तेनैकेनाऽप्युपार्जयदुल्बणम् । अब्धिकोटीकोटिमानं, मरीचिर्भवमात्मनः ॥ ५१ ॥ अक्षयत् स कपिलं, स्वसहायं चकार च । परिव्राजकपाखण्डं, ततः प्रभृति चाऽभवत् ॥ ५२ ॥ अथ साग्रं योजनानां शतं लोकान् रुजां क्षयात् । अनुगृह्णस्तापशान्त्या, प्रावृषेण्य इवाम्बुदः ॥५३॥ पतङ्गमूषकशुकप्रायेतेरप्रवृत्तित: । अनीतेरिव भूपालः, सुखयन्नखिलाः प्रजाः ।। ५४ ॥ नैमित्तिकानां वैराणां, शाश्वतानां च सर्वतः । प्रशमात् प्रीणयन् जन्तून्, रविर्ध्वान्तक्षयादिव ॥ ५५ ॥ 25 व्यवहारप्रवृत्त्याऽग्रे, सर्वसौस्थ्यकृता यथा । आनन्दयन्नमार्या च परितोऽपि प्रजास्तथा ॥ ५६ ॥ अत्यन्तवृष्टयनावृष्टी, अजीर्णातिक्षुधाविव । प्रभावेनाऽगेदेनेव, जगतोऽप्यपसारयन् ॥ ५७ ॥ स्वान्यचक्रभवेनाऽन्तःशल्येनेवाऽपगच्छता । सद्यः प्रीतैर्जनपदैः, क्रियमाणागमोत्सवः ॥ ५८ ॥ सर्वसंहारघोराच्च, रक्षन् दुर्भिक्षतो जगत् । रक्षसो मान्त्रिक इव, स्तूयमानो भृशं जनैः ॥ ५९ ॥ भामण्डलं दधानश्च जितमार्त्तण्डमण्डलम् । बहिर्भूतमिवाऽनन्तं, ज्योतिरन्तरसम्मितम् ॥ ६० ॥ चक्रवर्ती चक्रेण, निःसाधारणतेजसा । प्रसर्पता पुरो व्योम्नि, धर्मचक्रेण राजितः ॥ ६१ ॥ लघुध्वजसहस्रेण, पुरो धर्मध्वजेन च । सर्वकर्मजयस्तम्भेनेव तुङ्गेन शोभितः ॥ ६२ ॥ स्वयं शब्दायमानेन, दिव्यदुन्दुभिना दिवि । क्रियमाणप्रयाणाईकल्याण इव निर्भरम् ॥ ६३ ॥ नमः स्थितेन स्फटिकरत्नसिंहासनेन च । पादपीठसमेतेन, यशसेवोपशोभितः ॥ ६४ ॥ सुरैः सञ्चार्यमाणेषु, सौवर्णेष्वम्बुजन्मसु । कुर्वाणश्चरणन्यासं, सलीलं राजहंसवत् ॥ ६५ ॥ 10 15 30 [ प्रथमं पर्व १ असहायः । २ स्वकीया अपि । ३ नीरोगः । ४ वातरोगिणे । ५ मेषाय । ६ धनाव्यापणात् । ८ पादसमीपम् । ९ औषधेन । १० स्वचक्रपरचक्रभवेन । ११ केवलज्ञानम् । १२ कमलेषु । ७ पृष्टः । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 पष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । भिया रसातलमिव, विविक्षुभिरधोमुखैः । तीक्ष्णतुण्डैः कण्टकैरप्यनाक्लिष्टपरिच्छदः ॥ ६६ ॥ *उपास्थमानो युगपद्, ऋतुभिर्निखिलैरपि । कर्तुं प्रायश्चित्तमिवाऽनङ्गसाहाय्यपाप्मनः ॥ ६७ ॥ मार्गावनीरुहैरुचैर्दूरानमितमूर्द्धभिः । असंज्ञैरपि नमस्क्रियमाण इवाऽभितः ॥ ६८ ॥ तालवृन्तानिलेनेव, मृदुना शीतलेन च । अनिलेनाऽनुकूलेन, सेव्यमानो निरन्तरम् ॥ ६९॥ न शुभं स्वामिवामानामिति ज्ञात्वेव पक्षिभिः । प्रदक्षिणं प्रोत्तरद्भिर्लङ्घयमानायवर्त्मकः ॥ ७० ॥ जघन्यतः कोटिसङ्खयै, राजमानः सुरासुरैः । यातायातपरैर्वेलातरङ्गैरिव सागरः ॥ ७१ ॥ भक्तिप्रभाववशतः, सप्रमेण दिवाऽपि हि । इन्दुनेव नमःस्थेनाऽऽतपत्रेण विराजितः ॥ ७२ ॥ इन्दोर्मरीचिसर्वस्वकोशैरिव पृथक्कृतैः । गङ्गातरङ्गधवलैर्वीज्यमानश्च चामरैः ॥ ७३ ॥ तपसा दीप्यमानैश्च, सौम्यैश्च श्रमणोत्तमैः । लक्षशः परिकरितः, उडुनाथ इवोडुभिः ॥ ७४ ॥ प्रतिग्रामं प्रतिपुरं, भव्यजन्तून् प्रबोधयन् । प्रतिसिन्धु प्रतिसरः, पङ्कजानीव भास्करः ॥ ७५ ॥ ग्रामाकरपुरद्रोणमुखकर्बटपत्तनैः । मडम्बाश्रमखेटाद्यैश्वापूर्णा विहरन् महीम् ॥ ७६ ॥ विश्वोपकारप्रवणो, भगवानृषभध्वजः । अपरेयुः क्रमात् प्रापदष्टापदमहाचलम् ॥ ७७॥ . [पञ्चविंशत्या कुलकम् ] शारदानामिवाऽभ्राणां, राशिमेकत्र कल्पितम् । संस्त्यांनीभूतदुग्धाब्धिवेलाकूटमिवाऽऽहृतम् ॥ ७८ ॥ जन्माभिषेकविकृतपुरन्दरककुमताम् । एकं ककुंअन्तमिवोत्तुङ्गशृङ्गमिव स्थितम् ॥ ७९ ॥ 15 नन्दीश्वरमहाद्वीपवर्तिपुष्करिणीसदाम् । मध्याद् दधिमुखाद्रीणामिवैकतममागतम् ॥ ८॥ जम्बूद्वीपारविन्दस्य, बिसंखण्डमिवोद्धृतम् । उद्भटं मुकुटमिव, श्वेतरत्नमयं भुवः ॥ ८१ ॥ नैर्मल्याद् भासुरत्वाच्च, नित्यमेव द्युसद्गणैः । स्नप्यमानमिवाऽम्भोभिर्मज्यमानमिवाऽशुकैः ॥ ८२ ॥ स्फटिकोपलकूलेषु, निर्मलेष्वङ्गनाजनैः । उपलक्ष्यसरिद्वारिं, वातोद्भूताब्जरेणुना ॥ ८३ ॥ शृङ्गाग्रभागविश्रान्तविद्याधरमृगीदृशाम् । वैताठ्यक्षुद्रहिमवद्विसारणभवान्तरम् ॥ ८४ ॥ 20 आदर्शमिव रोदस्योर्दिशां हासमिवाऽसमम् । ग्रहनक्षत्रनिर्माणमृत्स्नास्थलमिवाऽक्षयम् ॥ ८५ ॥ मध्यभागसमासीनक्रीडाश्रान्तकुरङ्गकैः । शिखरैर्दर्शितानेकमृगलाञ्छनविभ्रमम् ॥ ८६॥ आमुक्तामलसंव्यानमिव निर्झरपक्तिभिः । उत्पताकमिवोदश्चदर्ककान्तोपलांशुभिः ॥ ८७ ॥ तुङ्गनिर्मलशृङ्गाग्रतक्रान्तेन विवस्वता । मुग्धसिद्धपुरन्ध्रीणां, दत्तोदयगिरिभ्रमम् ॥ ८८॥ अत्यापत्रबहलैः, सन्ततच्छायमतिपैः । मयूरपत्ररचितैरातपरिवोरुभिः ॥ ८९॥ खेचरीमिर्लाल्यमानेष्वेणपोतेषु कौतुकात् । उत्प्रस्रवमृगीक्षीरसिच्यमानलतावनम् ॥९०॥ कदलीपत्रसंव्यानशबरीलास्यमीक्षितुम् । श्रेणीकृताक्षिपत्राभिः, सुरस्त्रीभिरधिष्ठितम् ॥ ९१ ॥ रतश्रान्तोरगीपीतदरिद्रितवनानिलम् । वनानिलनटक्रीडाप्रनर्त्तितलतावनम् ॥ ९२ ॥ किन्नरस्त्रीरतारम्भमन्दिरीभूतकन्दरम् । अप्सरोमजनभरोत्तरङ्गितसरोजलम् ॥ ९३ ॥ शारधूतपरैः क्वापि, पानगोष्ठीरतैः क्वचित् । कचनाऽऽबद्धपणितैर्यक्षैस्तुमुलितोदरम् ॥ ९४ ॥ 30 क्वचिच्छबरनारीभिः, किन्नरीभिः क्वचित् पुनः । क्वचिद् विद्याधरस्त्रीभिः, क्रीडाप्रक्रान्तगीतिकम् ॥१५॥ पक्कद्राक्षाफलोन्मत्तशुकैः काऽपि कृतारवम् । क्वाऽपि चूताङ्कुरोन्मत्तपिकोद्राहितपश्चमम् ॥ ९६ ॥ * इमौ ६७-६८ तमौ श्लोकौ खं पुस्तके न विद्यते। कामसाहाय्यपापस्य । २ मार्गवृक्षः। ३ निश्चेष्टैः। ४ स्वामिप्रतिकूलानाम् । ५ साधूत्तमः। ६ चन्द्रः। ७ नक्षत्रैः। ८ घनीभूतक्षीरसमुद्रवेलाकूटम् । ९ वृषभम् । १० नालखण्डम् । ११ देवसङ्घः। १२ उपलक्षणीयनदीजलम् । १३ द्यावाभूम्योः । १४ सूर्यग। १५ वृक्षैः। १६ मृगशिशुषु । १७ पाशफलकबूतपरैः। १८ कोलाहलीकृतमध्यम् । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १३६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व क्वचिन्नवविसास्वादमत्तहंसस्वरोद्धरम् । सरित्तटोन्मदक्रौञ्चक्रेङ्कारमुखरं क्वचित् ॥९७ ॥ क्वाऽप्यासन्नघनोन्माद्यत्केकि केकारवाकुलम् । क्वचित् सपरिसरत्सारसस्वरसुन्दरम् ॥ ९८॥ कौसुम्भवाससमिव, रक्ताशोकवनैः क्वचित् । तमालतालहिन्तालैनीलाम्बरमिव क्वचित् ॥ ९९ ॥ पीतांशुकमिव क्वाऽपि, किंशुकैः कुसुमाश्चितैः । श्वेतवस्त्रमिव कापि, मालतीमल्लिकावनैः ॥ १० ॥ अष्टयोजनमानेनोच्छ्रायेणाऽभ्रंलिहं ततः । गिरि गिरिगरिष्ठस्तमारुरोह जगद्गुरुः ॥ १०१॥ [चतुर्विंशत्या कुलकम् ] मरुत्कीर्णैर्दुकुसुमैस्तथा निझरवारिभिः । त्रिजगत्स्वामिनः सोऽद्रिरेषपाये व्यधादिव ॥ १०२ ॥ अष्टापदगिरिः सोऽथ, स्वामियादैः पवित्रितः । न हीनमान्यभून्मेरोस्तजन्मस्नानपावितात् ॥ १०३ ॥ प्रहृष्टपरपुष्टादिकूजितव्याजतो मुहुः । जगाविव जगन्नाथगुणानष्टापदाचलः ॥ १०४ ॥ क्षेत्रे योजनमात्रेऽथ, तृणकाष्ठादिकं क्षणात् । वर्द्धनीजीविन इव, जहुर्वायुकुमारकाः ॥१०५ ॥ विकृत्य सद्योऽप्यभ्राणि, पानीयमहिपानिव । गन्धान्बुभिस्तां सिषिचुः, क्षिति मेघकुमारकाः ॥१०६॥ वर्णरत्नशिलाभिश्च, विशालाभिर्दिवौकसः । सममादर्शतलवद्, ववन्धुर्धरणीतलम् ॥ १०७ ॥ पञ्चवर्णाः शक्रधनुःखण्डोत्करविडम्बिनीः । जानुदनीः सुमनसो, ववृषुर्व्यन्तरामराः ॥ १०८ ॥ व्यन्तरास्तत्र कालिन्दीवीचित्रीतस्करान् व्यधुः । दुदलैस्तोरणानार्दैः, ककुप्सु चतसृष्वपि ॥ १०९ ॥ तोरणान्यभितः स्तम्भेष्वराजन्मकराकृतिः । सिन्धूभयतटस्थास्नुमकरश्रीविडम्बिनी ॥ ११०॥ तेषु श्वेतातपत्राणि, चत्वारि च चकाशिरे । दिग्देवीनां चतसृणां, राजता इव दर्पणाः ॥१११ ॥ रेजुर्ध्वजपटास्तेषु, समीरणतरङ्गिताः । आकाशगङ्गातरलतरङ्गभ्रान्तिदायिनः ॥ ११२ ॥ अधोऽधस्तोरणान्यासन् , मौक्तिकस्वस्तिकादयः । जगतो मङ्गलमिहेत्यालेख्यलिपिविभ्रमाः ॥ ११३ ॥ तत्रोन्या रचिते पीठे, व वैमानिकाः सुराः । रत्नाकरश्रीसर्वस्वमिव रत्नमयं व्यधुः ॥ ११४ ॥ 20 तैश्चके तत्र माणिक्यकपिशीर्षपरम्परा । चन्द्रचण्डांशुमालेव, मानुषोत्तरसीमनि ॥ ११५ ॥ वलयीकृत्य हेमाद्रिशृङ्गमेकमिवाऽमलम् । प्राकारं मध्यमं ज्योतिष्पतयः काञ्चनं व्यधुः ॥११६ ॥ चक्रिरे कपिशीर्षाणि, तत्र रत्नमयानि ते । सचित्राणीव सुचिरं, प्रेक्षकप्रतिविम्वितैः ॥ ११७ ॥ विदधुर्भवनाधीशा, रौप्यं वामधस्तनम् । कुण्डलीभूतशेषाहिभोगभ्रमविधायिनम् ॥ ११८ ॥ चक्रुस्ते काश्चनीं तत्र, कपिशीर्षपरम्पराम् । क्षीरोदेतीरनीरस्थसुपर्णश्रेणिविभ्रमाम् ॥ ११९॥ 25 वने वने च चत्वारि, चक्रिरे गोपुराणि तैः । तदा विनीतानगरीप्रकारे गुह्यकैरिव ॥ १२० ॥ गोपुरेषु च माणिक्यतोरणान्यक्रियन्त तैः । प्रसारिभिः शतगुणानीव खैरेव रश्मिभिः ॥ १२१ ॥ द्वारे द्वारे न्यधीयन्त, व्यन्तरैबूंपचारकाः । चक्षुरक्षाञ्जनलेखासदृग्धूपोर्मिधारिणः ॥ १२२ ॥ मध्यवप्रान्तरे पूर्वोदीच्यां विश्रान्तये विभोः । देवच्छन्दं व्यधुर्देवा, देवालयमिवौकसि ॥ १२३ ॥ त्रिकोशमानश्चैत्यदुर्विचक्रे व्यन्तरामरैः । अन्तःसमवसरणं, पोतान्तरिव कूपकः ॥ १२४ ॥ 30 पीठं रत्नमयं चक्रुस्तेऽथ चैत्यतरोरधः । "तं मूलतः पल्लवितमिव कुर्वाणमंशुभिः॥१२५ ॥ मृज्यमानं मुहुश्चैत्यशाखिशाखान्तपल्लवैः । तस्योपरिष्टात् पीठस्य, ते रत्नच्छन्दकं व्यधुः ॥ १२६ ॥ तस्यान्तः प्राक् साभिपीठं, रत्नसिंहासनं व्यधुः । कर्णिकामिव विकचाम्भोजकोशस्य मध्यतः ॥ १२७ ॥ * कदलैः सं १॥ गगनपर्यन्तोन्नतम् । + ग रेष्टुं तसं १॥ २ अर्यपाद्योदके। ३ प्रहर्षितकोकिलादिकृजितमिषात् । ४ मार्जनीजीविनः । ५ जानुप्रजाणाः। ६ पुष्पाणि । ७ यमुना। अयं श्लोकः खंपुस्तके पतितः। मूर्द्धनि खंता ॥ ८ मण्डलीकृत्य । ९ क्षीरसमुद्रतटजलस्थगरुडपतिविभ्रमाम् । १० यक्षः। ११ किरणैः। खायितधू खंता । १२ प्रवहणान्तः कूपस्तम्भ इव । १३ चैत्यतरुम् । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । छन्दकस्योपरि च्छत्रत्रितयं ते विचक्रिरे । आवर्त्तितं त्रिपथगास्रोतस्त्रयमिवाऽभितः ॥ १२८ ॥ कुतोऽपि हि समाहृत्य, पूर्वसिद्धमिव क्षणात् । इत्थं समवसरणमस्थाप्यत सुरासुरैः ॥ १२९ ॥ 5 ततश्च पूर्वद्वारेण, मोक्षद्वारं जगत्पतिः । भव्यानां हृदयमिव, प्रविवेश तदुच्चकैः ॥ १३० ॥ तत्कालं श्रवणोत्तंसीभवच्छाखान्तपल्लवम् । ततः प्रदक्षिणीचत्रे, तमशोकतरुं प्रभुः ॥ १३१ ॥ नमस्तीर्थायेति वदन्, पूँर्वाशाभिमुखोऽथ तत् । राजहंस इवाऽम्भोजं, भेजे सिंहासनं विभुः ।। १३२ ।। दिक्ष्वन्यास्वपि तिसृषु, रूपाणि परमेष्ठिनः । रत्नसिंहासनस्थानि, विचक्रुर्व्यन्तरामराः ॥ १३३ ॥ पूर्व द्वाराऽविशन् साधु-साध्वी- वैमानिकस्त्रियः । प्रदक्षिणीकृत्य नेमुर्जिनं तीर्थ च भक्तितः ॥ १३४ ॥ प्राकारे प्रथमे तत्र, धर्माराममहाद्रुमाः । पूर्वदक्षिणदिश्यासाञ्चक्रिरे सर्वसाधवः ।। १३५ ।। तेषां च पृष्ठतस्तस्थुरूर्द्धा वैमानिकस्त्रियः । तासां च पृष्ठतस्तस्थुस्तथैव त्रैतिनीगणाः ॥ १३६ ॥ प्रविश्य दक्षिणद्वारा, प्राग्विधानेन नैर्ऋते । तस्थुर्भवनेशज्योतिर्व्यन्तराणां स्त्रियः क्रमात् ।। १३७ ।। प्रविश्य पश्चिमद्वारा, तद्वन्नत्वाऽवतस्थिरे । मरुद्दिशि भवनेशज्योतिष्कव्यन्तराः क्रमात् ॥ १३८ ॥ तदा च नाथं समवसृतं विज्ञाय वासवः । छादयन् द्यां विमानौधैस्तत्र सत्वरमाययौ ॥ १३९ ॥ प्रविश्योदीच्यद्वारेण, स्वामिनस्त्रिः प्रदक्षिणाम् । कृत्वा नत्वा च सुत्रामा, भक्तिमानेवमस्तवीत् ॥ १४० ॥ अपि सर्वात्मना ज्ञातुमशक्या योगिपुङ्गवैः । स्तुत्याः क्व ते गुणाः ? स्तोता, क्वाऽहं नित्यप्रमद्वरः ॥ १४१ ॥ तथापि नाथ ! स्तोष्यामि, यथाशक्ति भवद्गुणान् । दीर्घेऽध्वनि व्रजन् खञ्जः, किं केनाऽपि निवार्यते १ ॥ १४२ ॥ 15 भवदुःखातपक्लेशविवशानां शरीरिणाम् । छत्रच्छायायमानाङ्घ्रिच्छाय ! त्रायस्व नः प्रभो ! ॥ १४३ ॥ कृतार्थस्त्वं स्वयं नाथ !, कृते लोकस्य केवलम् । एवं विहरसे स्वार्थायोद्याति किमहस्करः १ ॥ १४४ ॥ मध्यन्दिनादित्य इव, त्वयि प्रतपति प्रभो ! । सङ्कुचत्यभितः कर्म, देहच्छायेव देहिनाम् ॥ १४५ ॥ तिर्यञ्चोऽपि हि धन्यास्ते, ये त्वां पश्यन्ति सर्वदा । भवद्दर्शनवन्ध्यास्तु, त्रिविष्टपसदोऽपि न ॥ १४६ ॥ प्रकृष्टेभ्यः प्रकृष्टास्ते, भविकास्त्रिजगत्पते ! । एको हृदयचैत्येषु येषां त्वमधिदेवता ॥ १४७ ॥ एकं याचे भवत्पादानू, ग्रामाद् ग्रामं पुरात् पुरम् । विहरन्नपि मा जातु, विहासीहृदयं मम ॥ १४८ ॥ प्रभुं स्तुत्वेति पञ्चाङ्गस्पृष्टभूमिः प्रणम्य च । पूर्वोत्तरस्यां दिश्यासाञ्चक्रे दिविषदां पतिः ॥ १४९ ॥ 20 १३७ तथा च समवसृतं, स्वामिनं शैलपालकाः । शशंसुचक्रिणे तत्र तदर्थं स्थापिता हि ते ॥ १५० ॥ स वदान्यो ददौ स्वर्णकोटीर्द्वादश सार्द्धिकाः । तेभ्यो जिनं ज्ञपययः, सर्व स्तोकं हि तादृशाम् ॥ १५१ ॥ सिंहासनादथोत्थायाऽभिमुखं भगवदिशः । गत्वा पदानि सँप्ताऽष्टान्यनमद् विनयात् प्रभुम् ॥ १५२ ॥ 26 स्थित्वा सिंहासने भूयो भूय आजूहवन्नृपान् । स्वामिपादान्तयानाय, पुरन्दर इवाऽमरान् ॥ १५३ ॥ आययुः सर्वतो भूपाः, क्षणेन भरताज्ञया । वेलयेव पयोराशेरुचैवचिपरम्पराः ॥ १५४ ॥ जगर्जुर्दन्तिनस्तारं, वाजिनश्च जिहेषिरे । त्वरयन्त इव स्वामियानाय स्वाधिरोहकान् ॥ १५५ ॥ रथिनः पत्तयश्चेयुः, प्रमोदपुलकाञ्चिताः । राजाज्ञा भगवद्याने, सुगन्धिस्वर्णसनिभा ॥ १५६ ॥ सैन्यान्याष्टापदायोध्यं, न मान्ति स्म स्थितान्यपि । महानिर्झरिमीपूरफ्यांसीबाऽऽतटीद्वयम् ॥ १५७ ॥ १० श्वेतातपत्रैर्मायूरातपत्रैश्च वियत्यपि । मन्दाकिनीयमुनयोर्वेमीसङ्ग इवाऽभवत् ॥ १५८ ॥ सादिवीरकराग्रस्थाः, स्फुरद्भिः खैर्मरीचिभिः । कुन्ता अपि समुत्क्षिप्तकुन्ता इव चकाशिरे ॥ १५९ ॥ गर्जद्भिरूर्जितं हर्षादारूदैर्वीरकुञ्जरैः । कुञ्जरा अपि चोदूढकुञ्जरा इव रेजिरे ॥ १६० ॥ १ गङ्गाप्रवाहत्रयम् । २ प्रथमनिष्पन्नमिव । ३ पूर्वदिशाभिमुखः । ४ धर्मोद्यानमहावृक्षाः । ५ साम्यः । ६ः ७ पादविकलः । ८ सूर्यः । ९ देवाः । १० श्रेष्ठः । * सप्ताऽष्टौ ननामाऽन्वक्षवत् प्रभुम् संवा + भूयः सैन्वानाजूहवत् सं २, खंता, आ ॥ ई सेनाः खंता ॥ ११ महानदीपूरपयांसीव । त्रिषष्टि. १८ 10 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व चक्रितोऽप्यौत्सुकायन्त, सैन्या नन्तुं जगत्पतिम् । असिकोशस्तदसितो, नितान्तं निर्शितोऽभवत् ॥१६१॥ सर्वतो मिलिताः सैन्या, महाकोलाहलेन ते । द्वाःस्थेनेव न्यवेद्यन्त, मध्यस्थस्याऽपि चक्रिणः ॥ १६२ ॥ अथाऽङ्गशौचं लानेन, प्रचक्रे चक्रवर्त्यपि । रागद्वेषजयेनेव, मनःशौचं मुनीश्वरः ॥ १६३ ।। भरतेशः कृतप्रायश्चित्तकौतुकमङ्गलः । पर्यधाद् वस्त्रनेपथ्यान्युज्वलानि स्ववृत्तवत् ॥ १६४ ॥ मूर्तीि श्वेतातपत्रेण, चामराभ्यां च पार्श्वयोः । भ्राजमानः स शुभ्राभ्यां, ययौ वेश्मान्तवेदिकाम् ॥१६५॥ पूर्वाचलमिवाऽऽदित्यस्तामारुह्य महीपतिः । नभोमध्यमिवोदग्रमारुरोह महागजम् ॥ १६६ ॥ भेरीशङ्खानकप्रायवर्यतूर्यमहारवैः । अनुवानोऽम्बराभोगं, यत्रधाराजलैरिव ॥ १६७ ॥ दिशो गर्निरुन्धानोऽम्बुदैरिव मदाम्बुभिः । तुरङ्गैश्छादयन्नुर्वी, तरङ्गैरिव सागरः ॥ १६८ ॥ हर्षत्वराभ्यां युग्मिभ्यामिव कल्परन्वितः । सान्तःपुरपरीवारः, सोऽगादष्टापदं क्षणात् ॥ १६९ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] सोऽवरुह्य गजात् तस्मादारुरोह महागिरिम् । गृहस्थधर्मादुत्तुङ, चारित्रमिव संयमी ॥ १७० ॥ उदग्द्वारेण समवसरणं प्रविवेश सः । प्रभुं ददर्श चाऽऽनन्दकन्दलोद्गमवारिदम् ॥ १७१॥ त्रिश्च प्रदक्षिणां कृत्वा, नत्वा च चरणौ प्रभोः । बद्धाञ्जलिः शिरस्येवमारेभे भरतः स्तुतिम् ॥ १७२ ॥ कुम्भैर्मानमिवाऽम्भोधेः, स्तवनं मादृशैस्तव । स्तोष्यामि तदपि स्वामिन् !, भक्त्या ह्यसि निरङ्कशः॥१७३॥ - त्वदाश्रितास्त्वया तुल्या, भवन्ति भविनः प्रभो!। यान्ति दीपस्य सम्पर्काद्, वर्त्तयोऽपि हि दीपताम् ॥१७४॥ माद्यदिन्द्रियदन्तीन्द्रामदीकरणभेषजम् । तव स्वामिन् ! विजयते, शासनं मार्गशासनम् ॥ १७५ ॥ हत्वा घातीनि कर्माणि, शेषकर्माण्युपेक्षसे । भुवनानुग्रहायैव, मन्ये त्रिभुवनेश्वर ! ॥ १७६ ॥ पादलमास्तव विभो!, लङ्घन्ते भविनो भवम् । उदैन्वन्तं पक्षिराजपक्षमध्यगता इव ॥ १७७ ॥ जयत्यनन्तकल्याणदुमोल्लासनदोहदम् । विश्वमोहमहानिद्राप्रत्यूषं दर्शनं तव ॥ १७८ ॥ 20 त्वत्पदाम्भोजसंस्पर्शाद, दीर्यते कर्म देहिनाम् । इन्दोर्मदुभिरप्युर्दन्तिदन्ताः स्फुटन्ति हि ॥ १७९ ॥ वृष्टिारिधरस्येव, मृगाङ्कस्येव चन्द्रिका । जगन्नाथ ! प्रसादस्ते, सर्वसाधारणः खलु ॥ १८० ॥ ___ एवं जगत्पतिं स्तुत्वा, नत्वा च भरतेश्वरः । निषसाद हरेः पृष्ठे, सामानिक इवाऽमरः ॥ १८१॥ दिवौकसां पृष्ठतश्च, निषेदुरपरे नराः । नराणां पृष्ठतो नार्य, ऊर्द्धा एवाऽवतस्थिरे ॥ १८२ ॥ इत्थं प्रथमवप्रान्तस्तस्थौ सङ्घश्चतुर्विधः । चतुर्विधो धर्म इवाऽनवद्ये स्वामिशासने ॥ १८३ ॥ 25 प्राकारे च द्वितीयसिस्तियश्चस्तस्थुरुन्मुदः । विरोधिनोऽपि हि मिथः, सस्नेहाः सोदरा इव ॥१८४॥ तार्तीयीके पुनर्वप्रे, नृपादीनामुपेयुषाम् । देशनाकर्णनोत्कर्णास्तस्थुर्यानपरम्पराः ॥१८५ ॥ सर्वभाषानुगामिन्या, मेघनिर्घोषधीरया । गिरा त्रिभुवनस्वामी, विदधे धर्मदेशनाम् ॥ १८६ ॥ आसक्तभारनिर्मुक्ता, इवाऽऽप्तेष्टपदा इव । कृवाभिषेककल्याणा, इव ध्यानस्थिता इव ॥ १८७ ॥ प्राप्ता इवाऽहमिन्द्रत्वं, परं ब्रह्म गता इव । शृण्वन्तो देशनां हर्षात्, तस्थुस्तिर्यग्नरामराः॥१८८॥ [युग्मम्] देशनान्ते च भरतो, भ्रातृनात्तमहाव्रतान् । निरीक्ष्य समनस्तापो, मनस्येवमचिन्तयत् ॥ १८९ ॥ बन्धूनां गृह्णता राज्यमेतेषां किं कृतं मया? । अनारतमतृप्तेन, भसकामयिनेव हा! ॥ १९० ॥ अन्येभ्योऽपि ददानोऽस्मि, लक्ष्मी भोगफलामिमाम् । तच्च मे भसनि हुतमिव मूढस्य निष्फलम् ॥१९१॥ काकोऽप्याहूय काकेभ्यो, दत्त्वाऽन्नाद्युपजीवति । ततोऽपि हीनस्तदहं, भोगान् भुञ्जे विना ह्यमून् ॥१९२॥ दीयमानान् यदि पुनर्भोगान् भूयोऽपि मच्छुभैः । आददीरनमी भिक्षा, मासहूंपणिका इव ॥ १९३ ॥ १ उत्सुका अभवन् । २ तीक्ष्णः। ३ समुद्रम् । ४ रश्मिभिः। * °हन्मदाः सं २॥ ५ वाहनपरम्पराः। ६ मनःसन्तापसहितः। ७ भस्मकरोगिणेव । मासोपवासिनो मुनयः । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिशलांकापुरुषचरितम् । एवमालोच्य भरतः, पादमूले जगद्गुरोः । भ्रातृन् निमन्त्रयामास, भोगाय रचिताञ्जलिः ॥ १९४ ॥ प्रभुरप्यादिदेशैवमृज्वाशय! विशाम्पते। भ्रातरस्ते महासत्वाः, प्रतिज्ञातमहाव्रताः ॥ १९५॥ संसारासारतां ज्ञात्वा, परितस्त्यक्तपूर्विणः। न खलु प्रतिगृह्णन्ति,भोगान् भूयोऽपि वान्तवत्॥१९६॥[युग्मम् ] एवं निषिद्धो भोगेषु, स्वामिना भरतेश्वरः। भूयो विचिन्तयामास, सानुतापेन चेतसा ॥ १९७ ॥ यदि तावदमी त्यक्तसङ्गा भोगान् न भुञ्जते । तथाऽपि तावदाहारं, भोक्ष्यन्ते प्राणधारणम् ॥ १९८ ॥ 5 एवं विचिन्त्य शकटशतैः पञ्चभिरुच्चकैः । आनाय्याऽऽहारमनुजान्, न्यमत्रयत् स पूर्ववत् ॥ १९९ ॥ स्वामी भूयोऽप्युवाचैवमन्नादि भरतेश्वर !। आधाकर्माऽऽहृतं जातु, यतीनां न हि कल्पते ॥२०० ॥ एवं निराकृतो भूयोऽप्यकृताकारितेन सः । अन्नेनाऽऽमन्त्रयाञ्चक्रे, शोभते सर्वमार्जवे ॥ २०१॥ राजेन्द्र ! राजपिण्डोऽपि, महर्षीणां न कल्पते । एवं भूयो निराचक्रे, चक्रभृद् धर्मचक्रिणा ॥ २०२ ॥ खामिना प्रतिषिद्धोऽसि, सर्वथेति महीयसा । अदूयताऽनुतापेन, राहुणेव निशाकरः ॥ २०३॥ 1c उपलक्ष्य विलक्षत्वं, सहस्राक्षः क्षमापतेः । पप्रच्छ खामिनमिति, कतिधा स्यादवग्रहः ॥२०४॥ खाम्यपि व्याजहारैवं, पञ्चधा स्यादवग्रहः । इन्द्रक्रिनृपागारिसाधुसम्बन्धिभेदतः ॥ २०५॥ उत्तरेणोत्तरेणैषां, पूर्वः पूर्वः प्रबाध्यते । विधिः परोक्तो बलवान्, यत् पूर्वोक्तपरोक्तयोः ॥ २०६॥ शक्रोऽप्यूचेऽवग्रह मे, साधवो विहरन्ति ये । तदमीषां मया देवानुजज्ञेऽवग्रहो निजः ॥ २०७॥ इत्युदित्वा खामिपादान् , वन्दित्वाऽवस्थिते हरौ । एवं सश्चिन्तयामास, भूयोऽपि भरतेश्वरः।।२०८॥15 एमिर्मदीयं मुनिभिर्यद्यप्यन्नादि नाऽऽदृतम् । अवग्रहानुज्ञयाऽद्य, कृतार्थः स्यां तथाऽप्यहम् ॥ २०९ ॥ सम्प्रधाउँति हृदये, हृदयालुर्महीपतिः । शक्रवत् स्वामिपादाग्रेऽन्वज्ञासीत् स्वमवग्रहम् ॥ २१० ॥ सब्रह्मचारिणमिवेत्यपृच्छद् वासवं च सः । मया कि कार्यममुना, भक्तपानादिनाऽधुना ? ॥ २११॥ गुणोत्तरेभ्यो दातव्यमिति शक्रेण भाषिते । एवं स दध्यौ मम के, विना साधून गुणोत्तराः १ ॥२१२ ॥ आ! ज्ञातमथवा सन्ति, विरताविरताः खलु । गुणोत्तराः श्रावका मे, तेभ्यो देयमिदं मया ॥ २१३ ॥ 20 कर्त्तव्यं तच्च निश्चित्य, चक्रवर्ती दिवस्पतेः । भाखदाकृतिकं रूपं, दृष्ट्वा पप्रच्छ विसितः ।। २१४ ॥ किमीदृशेन रूपेण, ययं स्वर्गेऽपि तिष्ठथ ? । रूपान्तरेण यदि वा, कामरूपा हि नाकिनः ॥२१५॥ देवराजोऽब्रवीद् राजन्निदं रूपं न तत्र नः । यत् तत्र रूपं तन्मत्यैर्न द्रष्टुमपि पार्यते ॥ २१६ ॥ भरतः पुनरप्यूचे, सहस्राक्ष ! ममोच्चकैः । यौष्माकीणस्य रूपस्य, दर्शने तस्य कौतुकम् ॥ २१७ ॥ तस्या दिव्याकृतेः खस्या, दर्शनेन दिवस्पते ! । परिप्रीणय मे चक्षुश्चकोरमिव चन्द्रमाः ॥ २१८ ॥ 25 त्वं पुमानुत्तमोऽसीति, मा तेऽभूत् प्रणयो मुधा । तदेकमगावयवं, दर्शयिष्यामि भूपते ! ॥ २१९ ॥ इत्युदीर्य शुनासीरो, योग्यालङ्कारशालिनीम् । खाङ्गुली दर्शयामास, जगद्वेश्मैकदीपिकाम् ॥ २२० ॥ पार्वणेन्दुमिवोदन्वान् , विकसद्भासुरद्युतिम् । तां महेन्द्राङ्गुली दृष्ट्वा, मुमुदे मेदिनीपतिः ॥ २२१ ॥ भगवन्तं प्रणम्याऽथ, राजानमनुमान्य च । शतमन्युस्तिरोऽधत्त, सन्ध्याभ्रमिव तत्क्षणात् ॥ २२२ ॥ खामिनं प्रणिपत्याऽथ, चक्रवर्त्यपि शक्रवत् । कृत्यानि चिन्तयंश्चित्ते, विनीतां नगरीं ययौ ॥२२३।। 30 शक्राङ्गुली न्यस्य रानी, भरतोऽष्टाहिकां व्यधात् । भक्तौ स्नेहेऽपि च सतां, कर्त्तव्यं तुल्यमेव हि ॥२२४॥ इन्द्रस्तम्भं समुत्तभ्य, ततः प्रभृति सर्वतः । इन्द्रोत्सवः समारब्धो, लोकैरद्यापि वर्तते ॥ २२५ ॥ विजहार ततोऽन्यत्राऽष्टापदाद् भगवानपि । भव्याजबोधकृत क्षेत्रात्, क्षेत्रान्तरमिवार्यमा ॥ २२६ ॥ भरतोऽथ समाहूय, श्रावकानभ्यधादिदम् । गृहे मदीये भोक्तव्यं, युष्माभिः प्रतिवासरम् ॥ २२७॥ कृष्यादि न विधातव्यं, किन्तु स्वाध्यायतत्परैः । अपूर्वज्ञानग्रहणं, कुर्वाणैः स्थेयमन्वहम् ॥ २२८ ॥ 35 १ पश्चात्तापसहितेन । २ सरलत्वे । तीर्थकरेण । ४ इन्द्रः । ५ इन्द्रे। ६ प्रार्थना। ७ इन्द्रः। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १४० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं प्रथमं पर्व भुक्त्वा च मेऽन्तिकगतैः, पठनीयमिदं सदा । जितो भवान् वर्धते भीस्तस्मान्मा हन मा हन ॥ २२९ ॥ प्रतिपद्य तथा ते तु, भुञ्जते स तदोकसि । तथा च तद् वचः पेठुः, स्वाध्यायमिव तत्पराः ॥ २३० ॥ रतिमनो देव इव, नृदेवोऽपि प्रमद्वरः । तच्छब्दाकर्णनादेव, किश्चिदेवं व्यचिन्तयत् ॥ २३१ ॥ जितोऽस्मि केन ? हुं ज्ञातं, कषायैर्वर्धते च भीः । कुतो मे तेभ्य एवेति, मा हन्यां प्राणिनस्ततः ॥२३२॥ एवं च सारयन्त्येते, नित्यमेव विवेकिनः । अहो ! मम प्रमादित्वमहो ! विषयलुब्धता ॥ २३३ ॥ औदासीन्यमहो! धर्मेऽप्यहो ! संसाररागिता । अहो ! महापुरुषतोचिताचारविपर्ययः ॥ २३४ ॥ अनया चिन्तया धर्मध्यानं प्रावर्त्तत क्षणम् । गङ्गाप्रवाहः क्षाराब्धाविव तस्मिन् प्रमादिनि ॥ २३५ ॥ भूयोऽपि भूपः शब्दादिष्विन्द्रियार्थेष्वसज्यत । कर्म भोगफलं कोऽपि, नाऽन्यथा कर्तुमीश्वरः ॥२३६॥ सूदाध्यक्षैरथाऽन्येधुरेवं व्यज्ञपि भूपतिः । श्रावकोऽश्रावको वाऽपि, भूयस्त्वान्नोपलक्ष्यते ॥ २३७ ॥ 10 आदिशद् भरतः सूदान् , श्राद्धा यूयमपि स्थ यत् । परीक्षापूर्वकं देयमतः प्रभृति भोजनम् ॥ २३८ ॥ को भवान् ? श्रावकोऽहं, तद्वतानि कति? शंसनः। तानि न श्रावकाणां स्युः, किन्त्वसार्क सदापि हि ॥२३९॥ अणुव्रतानि पश्चाऽथ, सप्त शिक्षाव्रतानि च । एवं परीक्षानियूँढास्तैस्तेऽदर्यन्त भूपतेः ॥ २४०॥ ज्ञानदर्शनचारित्रलिङ्गं रेखात्रयं नृपः । वैकक्ष्यमिव काकिण्या, विदधे शुद्धिलक्षणम् ॥ २४१ ॥ अर्द्धवर्षेऽर्द्धवर्षे च, परीक्षां चक्रिरे नवाः । श्रावकाः काकिणीरत्नेनाऽऽलम्ब्यन्त तथैव हि ॥२४२॥ तल्लाञ्छना भोजनं ते, लेभिरेऽथाऽपठनिदम् । जितो भवानित्याधुच्चैर्माहनास्ते ततोऽभवन् ॥ २४३ ॥ निजान्यपत्यरूपाणि, साधुभ्यो ददिरे च ते । तन्मध्यात् स्वेच्छया कैश्चिद्, विरक्तैर्ऋतमाददे ॥ २४४ ॥ परीषहासहैः कैश्चिच्छ्रावकत्वमुपाददे । तथैव बुभुजे तैश्च, काकिणीरत्नलाञ्छितैः ॥ २४५ ॥ भूभुजा दत्तमित्येभ्यो, लोकोऽपि श्रद्धया ददौ । पूजितैः पूजितो यस्मात् , केन केन न पूज्यते ॥२४६॥ अर्हत्स्तुतिमुनिश्राद्धसामाचारीपवित्रितान् । आर्यान वेदान् व्यधाच्चक्री, तेषां स्वाध्यायहेतवे ॥२४७॥ 20 क्रमेण माहनास्ते तु, ब्राह्मणा इति विश्रुताः । काकिणीरत्नलेखास्तु, प्रापुर्यज्ञोपवीतताम् ॥ २४८ ॥ इयं भरतराज्येऽभूत् , स्थितिरर्कयशाः पुनः । स्वर्णयज्ञोपवीतानि, चक्रे काकिण्यभावतः ॥ २४९ ॥ महायशःप्रभृतयः, केचिद् रौप्याणि चक्रिरे । पट्टसूत्रमयान्यन्येऽपरे सूत्रमयानि तु ॥२५०॥ [युग्मम्] भरतादादित्ययशास्ततश्वाऽऽसीन्महायशाः। अतिबलो बलभद्रो, बलवीर्यस्ततोऽपि च ॥२५१॥ कीर्तिवीर्यो, जलवीर्यो, दण्डवीर्यस्ततोऽष्टमः । इत्यष्टौ पुरुषान् यावदाचारोऽयं प्रवृत्तवान् ॥२५२ ॥ 25 एभिर्भूपैश्च बुभुजे, भरताधं समन्ततः । भगवन्मुकुटः शक्रोपनीतो मृयधारि च ॥ २५३ ॥ शेषैर्महाप्रमाणत्वान स वोढुमपार्यत । हस्तिभिर्हस्तिभारो हि, वोढुं शक्येत नाऽपरैः ॥ २५४ ॥ जज्ञे साधुविच्छेदोऽन्तनवमदशमाहतोः । एवं सप्तस्वन्तरेषु, जिनानामेष वृत्तवान् ॥ २५५ ॥ वेदाचार्हत्स्तुतियतिश्राद्धधर्ममयास्तदा । पश्चादनार्याः सुलसायाज्ञवल्क्यादिभिः कृताः ॥२५६ ॥ इतश्च भरतस्तस्थौ, दिवसानतिवाहयन् । श्राद्धदानैः कामकेल्या, विनोदैरपरैरपि ॥ २५७ ॥ 30 अवनि पावयन् पादैर्गगनं चन्द्रमा इव । अन्येचुर्भगवानागादष्टापदमहागिरिम् ॥ २५८ ॥ सघश्च तत्र समवसरणे निर्मिते सुरैः । आसाञ्चके जगनाथो, विदधे धर्मदेशनाम् ॥ २५९ ॥ तथास्थितो जगत्स्वामी, समेत्याऽऽयुक्तपूरुषैः । शशंसे भरतेशाय, त्वरितैरनिलैरिव ॥ २६०॥ पूर्वप्रमाणं तेभ्योऽदाद्, भरतः पारितोषिकम् । दिने दिने कल्पतरुर्ददानो न हि हीयते ॥ २६१॥ पाचकाधिपतिभिः। २ तिर्यकक्षावलम्बी हारभेदः। * काकण्या खंता॥ काकणी खंता ॥ +काकणी काकणी खंता॥काकण्य खंता ॥ ३ सुविभिशीतलायतीर्थकृतोः। इतः खंता ॥ ४ नियुफपुरुषैः। खंता Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिालाकापुरुषचरितम् । *अष्टापदे च समवसृतं स्वामिनमेत्य सः । प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य चक्रीति तुष्टुवे ॥ २६२ ॥ त्वत्प्रभावात् स्तवीमि त्वामप्राज्ञोऽपि जगत्पते । शशिनं पश्यतां दृष्टिर्मन्दापि हि पट्टयते ॥२६३॥ मोहान्धकारनिर्मग्नजगदालोकदीपक ! । आकाशवदनन्तं ते, खामिन् ! जयति केवलम् ॥ २६४ ॥ प्रमादनिद्रामग्नानां, नाथ ! कार्येण मादृशाम् । एवं गतागतानि त्वं, करोष्यर्क इवाऽसकृत् ॥ २६५ ॥ जन्मलक्षार्जितं कर्म, त्वदालोकाद् विलीयते । कालेन दृषदीभूतमप्याज्यं वह्निना द्रवेत् ॥ २६६ ॥ 5 एकान्तसुषमातोऽपि, साध्वी सुषमदुःपमा । यत्र कल्पद्रुमेभ्यस्त्वं, विशिष्टफलदोऽभवः ॥२६७ ॥ समस्तभुवनेशेदं, भुवनं भूषितं त्वया । राज्ञा पुरीव ग्रामेभ्यो, भुवनेभ्यः प्रकृष्यते ॥ २६८ ॥ पिता माता गुरुः स्वामी, यत् सर्वेऽपि न कुर्वते । एकोऽप्यनेकीभूयेव, त्वं हितं विदधासि तत् ॥२६९॥ निशा निशाकरेणेव, हंसेनेव महासरः । वदनं तिलकेनेव, शोभते भुवनं त्वया ॥ २७० ॥ इति स्तुत्वा नमस्कृत्य, भगवन्तं यथाविधि । निषसाद यथास्थानं, विनयी भरतेश्वरः ॥ २७१ ॥ 10 आयोजनविसर्पिण्या, सर्वभाषानुयातया । भारत्या भगवान् विश्वोपकृत्यै देशनां व्यधात् ॥ २७२ ॥ देशनाविरतौ नत्वा, स्वामिनं भरतेश्वरः । रोमाश्चितवपुर्वद्धाञ्जलिरेवं व्यजिज्ञपत् ॥ २७३ ॥ नाथेह भरते यूयं, यथा विश्वहितास्तथा । कत्यन्ये भाविनो धर्मचक्रिणश्चक्रिणः कति ? ॥ २७४ ।। तेषां च नगरं गोत्रं, पितरावर्भिधाऽऽयुषी । वर्ण मानान्तरे दीक्षागती च ज्ञापय प्रभो! ॥ २७५ ॥ अथाऽऽचचक्षे भगवान् , भरते भाविनोऽपरे । त्रयोविंशतिरर्हन्त, एकादश च चक्रिणः ॥ २७६ ॥ 15 जिनौ च विंशद्वाविंशौ, तत्र गोतमवंशजौ । काश्यपान्वयजास्त्वन्ये, सर्वे निर्वाणगामिनः ॥ २७७ ॥ अयोध्यायां जितशत्रु-विजयातनयोजितः । द्वासप्ततिपूर्वलक्षायुष्को निष्कसमद्युतिः ॥ २७८ ॥ अर्द्धपश्चमकोदण्डशतान्युत्तुङ्गविग्रहः । पूर्वाङ्गोनपूर्वलक्षपर्यायोऽसौ भविष्यति ॥ २७९ ॥ तथा मदीयनिर्वाणाऽजितनिर्वाणकालयोः । सागरोपमकोटीनां, लक्षाः पञ्चाशदन्तरम् ॥ २८० ॥ श्रावस्त्यां जितारि-सेनाभूः स्वर्णाभश्च सम्भवः । षष्टिपूर्वलक्षायुष्कश्चतुर्धन्वशतोच्छ्यः ॥२८१॥ 20 चतुःपूर्वाङ्गहीना च, पूर्वलक्षाऽस्य तु व्रते । सागरोपमकोटीना, लक्षाणि त्रिंशदन्तरम् ॥ २८२ ॥ विनीतापुर्यां संवर-सिद्धार्थाजोभिनन्दनः । पञ्चाशत्पूर्वलक्षायुः, सार्द्धधन्वशतत्रयः ॥ २८३ ।। वर्णाभः पूर्वलक्षाऽष्टपूर्वाङ्गोनाऽस्य तु व्रते । सागरोपमकोटीनां, दशलक्षाणि चाऽन्तरम् ॥ २८४ ॥ तत्पुर्या सुमतिर्मेघ-मङ्गलाभूः सुवर्णरुक् । सद्विचत्वारिंशत्पूर्वलक्षायुविधनुःशतः ॥ २८५ ॥ द्वादशपूर्वाङ्गहीना, पूर्वलक्षाऽस्य तु व्रते । सागरोपमकोटीनां, नवलक्षाणि चाऽन्तरम् ॥ २८६॥ 25 कौशाम्ब्यां धर-सुसीमासूनुः पद्मप्रभोऽरुणः । त्रिंशत्पूर्वलक्षायुष्कः, सार्द्धन्वशतद्वयः ॥२८७॥ षोडशपूर्वाङ्गन्यूनो, पूर्वलक्षोऽस्य तु व्रते । अब्धिकोटिसहस्राणां, नवतिः पुनरन्तरम् ॥२८८॥ वाराणस्यां तु प्रतिष्ठ-पृथ्वीसूनुः सुवर्णरुक् । सुपाश्वो विंशतिपूर्वलक्षायुर्द्विधनुःशतः ॥ २८९ ॥ विंशत्यङ्गविहीनोऽस्य, पूर्वलक्षो व्रते पुनः । सागरोपमकोटीनां, सहस्राणि नवाऽन्तरम् ।। २९० ॥ चन्द्रानने महासेन-लक्ष्मणाभूः शशिप्रभः । दशपूर्वलक्षायुप्कः, शुभ्रः सार्द्धधनुःशतः ॥२९१।। 80 चतुर्विंशत्यङ्गहीना, पूर्वलक्षाऽस्य तु व्रते । सागरोपमकोटीनां, शतानि नव चाऽन्तरम् ।। २९२ ॥ काकन्द्या सुग्रीव-रामातनयः सुविधिः सितः। पूर्वलक्षद्वयायुष्क, एकधन्वशतोच्छ्रयः ॥२९३।। अष्टाविंशत्यङ्गहीना, पूर्वलक्षाऽस्य तु व्रते । सागरोपमकोटीनां, नवतिः पुनरन्तरम् ॥ २९४ ॥ शीतलो भद्रिलपुरे, नन्दा-दृढरथात्मजः । स्वर्णाभः पूर्वलक्षायुर्धनुर्नवतिमुच्छ्रितः ॥ २९५ ॥ . *इमौ द्वौ २६२,२६३ तमौ श्लोकौ खंपुस्तके पतितौ । १ समर्था भवति । २ स्त्यानीभूतम् । ३ घृतम्। सर्वभाषानुगामिन्या। ५ तीर्थकराः। ६ नाम । ७ सुवर्णकान्तिः। ८ शरीरम् । चित्वरिंशत्पूर्वलक्षायुर्धनुखियतीमितः सं २० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२॥ १४२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथम पर्व अमुष्य तु व्रते पूर्वसहस्राः पञ्चविंशतिः । अन्तरं तु सरिनाथोपमानां कोटयो नव ॥ २९६ ॥ सिंहपुरे विष्णुराज-विष्ण्वोः सूनुः सुवर्णरुक् । श्रेयांसस्तु जिनोऽशीतिशरासनसमुन्नतिः॥२९७।। वर्षाणां चतुरशीत्या, लक्षैः अमितजीवितः । अमुष्य तु व्रते वर्षलक्षाणामेकविंशतिः ॥ २९८ ॥ पड्विंशत्याऽब्दसहः, षषष्ट्या वर्षलक्षकैः । तथार्णवशतेनोनार्णवकोटिर्जिनान्तरम् ॥ २९९ ॥ चम्पापुर्यां वासुपूज्यो, वसुपूज्य-जयात्मजः । द्वासप्तत्यब्दलक्षायुर्धनुःसप्ततिमुन्नतः ॥ ३०० ॥ रक्तोऽस्य चतुःपञ्चाशद्वर्षलक्षाणि तु व्रतम् । तथा सागरोपमाणां, चतुःपञ्चाशदन्तरम् ॥ ३०१ ॥ काम्पिल्ये च कतवर्म-उयामाभविमलो जिनः । षधिवत्सरलक्षायः. षष्टिधन्वा सवर्णरुक॥३० अमुष्य च पञ्चदश वर्षलक्षाणि तु व्रतम् । वासुपूज्यान्ततन्मोक्षान्तरे च त्रिंशदर्णवाः ॥ ३०३ ॥ अयोध्यायां सिंहसेन-सुयशोभूः सुवर्णरुक् । अनन्तस्त्रिंशल्लक्षाब्दायुः पञ्चाशद्धनून्नतिः॥३०४॥ 10 सार्दानि वर्षलक्षाणि, सप्त तस्य पुनर्बतम् । विमलमोक्षतन्मोक्षान्तरे च नव सागराः ॥ ३०५॥ धर्मो रत्नपुरे भानु-सुव्रताभूः सुवर्णरुक् । दशाब्दलक्षायुः पञ्चचत्वारिंशद्धनून्नतिः ॥ ३०६॥ पर्यायस्तस्य वर्षाणां, सार्द्ध लक्षद्वयं खलु । अनन्तमोक्षतन्मोक्षान्तरेऽर्णवचतुष्टयम् ॥ ३०७ ॥ पुरे गजपुरे शान्तिर्विश्वसेना-चिरासुतः । स्वर्णवर्णोऽब्दलक्षायुश्चत्वारिंशद्धनून्नतिः ॥ ३०८ ॥ पञ्चविंशतिरब्दानां, सहस्राण्यस्य तु व्रते । अन्धित्रयं पल्यचतुर्भागत्रिकोनमन्तरम् ॥ ३०९ ॥ 15 कुन्थुर्गजपुरे स्वर्णवर्णः सूर-श्रियोः सुतः । पञ्चनवत्यब्दसहस्रायुः पल्या कान्तरः ॥ ३१ ॥ पञ्चत्रिंशद्धनुस्तुङ्गः, पर्यायेऽस्य तु वत्सराः । त्रयोविंशतिसहस्राः, सार्द्धसप्तशतानि च ॥ ३११ ।। स्वर्णाभोऽरो गजपुरे, देवी-सुदर्शनात्मजः । चतुरशीत्यब्दसहस्रायुस्त्रिंशद्धनून्नतिः ॥ ३१२ ॥ पर्याये तस्य वर्षाणां, सहस्राण्येकविंशतिः । पल्यतुर्यांशोऽब्दकोटिसहस्रोनो जिनान्तरम् ॥ ३१३ ॥ मल्लिनाथो मिथिलायां, कुम्भ-प्रभावतीप्रमः । पञ्चविंशतिधन्वाऽब्दकोटीसहस्रकान्तरः ॥३१४॥ 20 नीलोऽस्याऽब्दसहस्राणि, पञ्चपञ्चाशदायुषि । एकवर्षशतोनानि, पूर्वोक्ताब्दानि तु व्रते ॥३१५ ॥ पद्मा-सुमित्रसू राजगृहे कृष्णस्तु सुव्रतः। त्रिंशद्वर्षसहस्रायुर्धनुर्विंशतिमुन्नतः ॥ ३१६ ॥ सप्तवर्षसहस्राणि, सार्द्धान्येतस्य तु व्रतम् । चतुष्पश्चाशदब्दानां, लक्षाणि तु जिनान्तरम् ॥३१७ ॥ मिथिलायां स्वर्णवर्णो, वप्रा-विजयभूर्नमिः । दशवर्षसहस्रायुः, पञ्चदशधनूनतिः ॥३१८ ॥ समासहस्रद्वितयं, सार्द्धमेतस्य तु व्रतम् । मोक्षान्तरं मुनिनम्योर्वर्षलक्षाः षडेव हि ॥ ३१९ ॥ 25 _ *शिवा-समुद्रविजयात्मजः शौर्यपुरे शितिः । नेमिर्दशधनुस्तुङ्गः, समासहस्रजीवितः ॥ ३२०॥ शतानि सप्त वर्षाणां, प्रव्रज्यायाममुष्य तु । मुक्त्यन्तरे नमिनेम्योर्वर्षलक्षाणि पञ्च तु ॥ ३२१ ॥ वामा-ऽश्वसेनभूः पार्थो, वाराणस्यां विनीलरुक् । नवहस्तप्रमाणाङ्गः, शतवत्सरजीवितः॥३२२॥ विर्षाणां सप्ततिस्तस्य, व्रतेऽन्तरे तु वत्सराः । सहस्राणि त्र्यशीतिः सार्दानि सप्तशतानि च ।। ३२३ ॥ कुण्डग्रामे महावीरः, सिद्धार्थ-त्रिशलासुतः। स्वर्णाभः सप्तहस्ताङ्गो, द्वासप्तत्यब्दजीवितः ॥३२४॥ 30 द्वाचत्वारिंशदब्दानि, प्रव्रज्यायाममुष्य च । पार्श्ववीरान्तरालं तु, सार्द्ध वर्षशतद्वयम् ।। ३२५ ॥ काश्यपाश्चक्रिणः स्वर्णवर्णा अष्टैषु मोक्षगाः। त्वं मयीवाऽजिते तत्राऽयोध्यायां सगरः खलु ॥३२६ ॥ तुक् सुमित्र-यशोमत्योः, सार्द्धधन्वचतुःशतः । द्वासप्तत्या पूर्वलक्षः, स तु प्रमितजीवितः ॥ ३२७ ॥ श्रावस्त्यां मघवा भद्रा-समुद्रविजयात्मजः । पञ्चाब्दलक्षायुः सार्द्धद्विचत्वारिंशधन्वकः ॥ ३२८ ॥ सनत्कुमारोऽब्दक्षत्रयायुहस्तिनापुरे । प्राग्मानादेकधन्वोनः, सहदेव्यश्वसेनभूः ॥ ३२९ ॥ * इमौ द्वौ ३२०, ३२१ तमौ श्लोकौ खं पुस्तके नोपलभ्येते ॥ १ श्यामवर्णः । । वर्षाणि खंता । व्रतेऽगादन्तरे पुन. सं २, आ, दीक्षायामन्तरे पुनः सं ॥२ कास्यपगोत्रिणः। ३ पुत्रः । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । १४३ धर्मशान्त्यन्तरे चैतौ, तृतीयस्वर्गगामिनौ । शान्तिः कुन्थुररश्चैतेऽर्हन्तश्चक्रभृतोऽपि च ॥ ३३०॥ तारा-कृतवीर्यसुतः, मुभूमो हस्तिनापुरे । पष्टिवर्षसहस्रायुरष्टाविंशिधनूनतिः॥ ३३१ ॥ अरमल्यन्तरे भावी, सप्तमं नरकं गमी । वाराणस्यां पुनः पद्मो, ज्वाला-पद्मोत्तरात्मजः ॥३३२॥ त्रिंशद्वर्षसहस्रायुधनुर्विंशतिमुच्छ्रितः । काम्पिल्ये हरिषेणस्तु, मेरा-महाहरिप्रमः ॥ ३३३ ॥ दशवर्षसहस्रायुः, पञ्चदशधनून्नतिः । मुनिनम्योर्विहरतोवप्येतौ भविष्यतः ॥ ३३४ ॥ वप्रा-विजयभू राजगृहे द्वादशकार्मुकः । जयंख्यब्दसहस्रायुर्नमिनेमिजिनान्तरे ॥ ३३५ ॥ काम्पिल्ये ब्रह्मदत्तस्तु, चुलनी-ब्रह्मनन्दनः । सप्तवर्षशतायुष्कः, सप्तधन्वसमुन्नतिः ॥ ३३६ ॥ श्रीनेमिनाथश्रीपार्श्वनाथतीर्थान्तरे त्वसौ । रौद्रध्यानपरो गामी, सप्तमी नरकावनीम् ॥ ३३७ ॥ तत्र प्रभुरपृष्टोऽपीत्याख्यच्चयर्द्धविक्रमाः । त्रिखण्डावनिभोक्तारो, वासुदेवा नवाऽसिताः ॥ ३३८ ॥ अष्टमः काश्यपकुलस्तेषु शेषास्तु गौतमाः । सापना भ्रातरस्तेषां, बलदेवाः सिता नव ॥ ३३९ ॥ 10 त्रिपृष्टः केशवस्तत्र, नगरे पोतनाह्वये । प्रजापति-मृगावत्योः, सुतोऽशीतिधनूनतिः ॥ ३४० ॥ महीं विहरमाणे तु, श्रेयांसजिनपुङ्गवे । चतुरशीत्यब्दलक्षायुरन्त्यं नरकं गमी ॥ ३४१ ॥ द्वारवत्यां द्विपृष्टस्तु, धनुःसप्ततिमुन्नतः । भुवं विहरमाणे तु, वासुपूज्यजिनेश्वरे ॥ ३४२ ॥ द्वासप्ततिवर्षलक्षायुः पद्मा-ब्रह्मनन्दनः । गमिष्यति च सोऽवश्यं, षष्ठी नरकमेदिनीम् ॥ ३४३ ॥ द्वारवत्यां खयम्भूस्तु, धनुःषष्टिसमुन्नतः । षष्टिवत्सरलक्षायुर्विमलस्वामिवन्दकः ॥ ३४४ ॥ 15 भद्रराजस्य पृथिवीदेव्याश्चैष तनूरुहः । गमिष्यति च पूर्णायुः, षष्ठिकां नरकावनीम् ॥ ३४५ ॥ तस्यामेव नगर्या तु, पुरुषोत्तम आख्यया । पञ्चाशत्कार्मुकोत्तुङ्गः, सोम-सीतातनूरुहः ॥ ३४६ ॥ वर्तमाने जिनेऽनन्ते, त्रिशल्लक्षाब्दजीवितः । समाप्तायुरसौ षष्ठी, नरको: गमिष्यति ॥३४७ ॥ अश्वपुरे तु पुरुषसिंहो नाम्ना भविष्यति । धर्मनाथजिने पञ्चचत्वारिंशद्धनूनतिः ॥ ३४८ ॥ शिवराजा-ऽमृतासूनुर्वर्षलक्षाण्यसौ दश । आयुरनुपाल्य षष्ठी, नरकोवीं गमिष्यति ॥ ३४९ ॥ 20 चक्रपुर्यां तु पुरुषपुण्डरीकोऽभिधानतः । अरमहयन्तरे लक्ष्मीवती-महाशिरःसुतः ॥ ३५० ॥ एकोनत्रिंशतं चापानयमुन्नतविग्रहः । पञ्चषष्टिसहस्राब्दायुः षष्ठं नरकं गमी ॥ ३५१॥ दत्तो वाराणसीपुर्या, षड्विंशतिधनून्नतिः । जिनान्तरे तु तत्रैव, शेषवत्यग्निसिंहभूः ॥ ३५२ ॥ षट्पञ्चाशत्सहस्राणि, वर्षाणामस्य जीवितम् । गमिष्यति च पूर्णायुः, पञ्चमी नरकावनीम् ॥ ३५३ ॥ नारायण इति ख्यातः, पुरे राजगृहाह्वये । द्वादशाब्दसहस्रायुर्मुनिनम्यन्तरे त्वसौ ॥ ३५४ ॥ 25 सुमित्रादशरथभूर्धनुःषोडशकोन्नतिः । गमिष्यति च पूर्णायुस्तुरीयां नरकावनीम् ॥ ३५५ ॥ कृष्णस्तु मथुरापुर्या, देवकीवसुदेवभूः । वन्दिता नेमिनाथस्य, दशधन्वसमुच्छ्रयः ॥ ३५६ ॥ सहस्रमेकं वर्षाणामायुरस्य भविष्यति । ततो नरकमेदिन्यां, तृतीयायां गमिष्यति ॥ ३५७ ॥ प्रथमो बलदेवस्तु, तत्र भद्रासुतोऽचलः । पञ्चाशीतिवर्षलक्षाण्यायुरस्य भविष्यति ॥ ३५८ ॥ द्वितीयस्तु बलदेवो, भावी विजय आख्यया । सुभद्राभूः पञ्चसप्तत्यब्दलक्षाणि जीविता ॥ ३५९ ॥ 30 तृतीयस्तु बलदेवो, भद्र इत्यभिधानतः । सुप्रभाभूः पञ्चषष्टिवर्षलक्षाणि जीविता ॥ ३६० ।। चतुर्थस्तु बलदेवः, सुप्रभो नामधेयतः । सौदर्शनेयोऽब्दपञ्चपञ्चाशल्लक्षजीवितः ॥३६१ ॥ पञ्चमो बलदेवस्तु, भावी नाम्ना सुदर्शनः । सप्तदशवर्षलक्षजीवितो विजयासुतः ॥ ३६२ ॥ षष्ठो बलो वैजयन्त्याः , सूनुरानन्द आख्यया । पञ्चाशीतिसहस्राणि, वर्षाणामस्य जीवितम् ॥ ३६३ ॥ १ पद्माख्यश्चक्री। * नम्यन्तराले तु, द्वा खंता ॥ २ जयाख्यश्चक्री। ३ कृष्णवर्णाः । ४ गौतमकुलाः। इत आरभ्य ३४८ पर्यन्तं शोकाः खंपुस्तके पतिताः॥ इमौ द्वौ ३५४, ३५५ तमौ श्लोकौ खंपुस्तके न दृश्येते। कैकेयीद खंता, सं१२॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ कलिकालसर्वज्ञभीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व सप्तमो बलदेवस्तु, नन्दनो नामधेयतः । पञ्चषष्टिसहस्राब्दायुर्जयन्तीसमुद्भवः ॥ ३६४ ॥ अष्टमस्तु बलदेवः, पनोऽपराजितासुतः । पञ्चदश सहस्राणि, वर्षाणामस्य जीवितम् ॥ ३६५ ।। नवमस्तु बलदेवो, राम इत्यभिधानतः । द्वादशाब्दशतायुष्को, रोहिणीतनुसम्भवः ॥ ३६६ ॥ तत्राष्टौ मोक्षगा रामो, ब्रह्मकल्पं गमिष्यति । उत्सर्पिण्यां स भरते, कृष्णतीर्थे तु सेत्स्यति।।३६७॥ अश्वग्रीवस्तारैकश्च, मेरको मधुरेव च। निशुम्भ-बलि-प्रहाद-लकेश-मगधेश्वराः॥३६८॥ वासुदेवप्रतिमल्लाः, सर्वे चक्रप्रहारिणः । हनिष्यन्ते निजैश्चर्वासुदेवकरङ्गतैः ॥ ३६९ ॥ श्रुत्वा तद् भरताधीशो, भव्यसत्त्वैः समाकुलाम् । दृष्ट्वा च तां सभा हृष्टः, पप्रच्छ स्वामिनं पुनः॥३७०॥ जगत्रय इवैकत्र, सामस्त्येनापि तस्थुषि । तिर्यनरामरमये, सदसि त्रिजगत्पते ! ॥ ३७१ ॥ अत्र किं कश्चिदप्यस्ति, भगवन् ! भगवानिव । तीर्थ प्रवर्त्य भरतक्षेत्रं यः पावयिष्यति ॥३७२॥[युग्मम्] 10 शशंस भगवानेवं, य एष तव नन्दनः । मरीचिर्नामधेयेन, परिव्राजक आदिमः ॥ ३७३ ॥ आर्त्तरौद्रध्यानहीनः, सम्यक्त्वेन च शोभितः । ध्यायश्चतुर्विधं धर्मध्यानं च रहसि स्थितः ॥ ३७४ ॥ दुकूलमिव पङ्केन, निःश्वासेनेव दर्पणः । कर्मणा मलिनोऽमुष्य, जीवः सम्प्रति वर्त्तते ।। ३७५ ॥ शुक्लध्यानाग्निसंयोगादग्निशौचमिवाऽशुकम् । जात्यं सुवर्णमिव च, स क्रमाच्छुद्धिमेष्यति ॥ ३७६ ॥ इहैव भरतक्षेत्रे, नगरे पोतनाभिधे । त्रिपृष्ठो नाम दाशार्हः, प्रथमोऽसौ भविष्यति ॥ ३७७॥ क्रमात् प्रत्यग्विदेहेषु, मूकायां पुरि चक्र्यसौ। तुग् धनञ्जय-धारिण्योः, प्रियमित्रो भविष्यति॥३७८॥ चिरं च संसृत्य भवे, भविष्यत्यत्र भारते । अयं नाम्ना महावीरश्चतुर्विशस्तु तीर्थकृत् ॥३७९ ॥ इति श्रुत्वा खाम्यनुज्ञामादाय भरतेश्वरः। मरीचिं वन्दितुं भक्त्या, भगवन्तमिवाऽभ्यगात् ॥३८० ॥ नाम्ना त्रिपृष्टः प्रथमो, दाशार्हाणां भविष्यति । चक्रवर्ती विदेहेषु, प्रियमित्राभिधश्च यत् ॥३८१ ॥ न तद् वन्दे न चेदं ते, पारिवाज्यं न जन्म च । किन्तु वन्दे चतुर्विंशो, यत् त्वमर्हन भविष्यति॥३८२॥ 20 इति जुवाणः शिरसि, बद्धाञ्जलिपुटस्ततः । तं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य, ववन्दे भरतेश्वरः ॥ ३८३ ॥ [विभिर्विशेषकम् ] अथ नत्वा जगन्नाथं, जगाम जगतीपतिः । अयोध्यां नगरी नागराजो भोगवेतीमिव ॥ ३८४ ॥ __ मरीचिस्तद्गिरा दृप्यंस्त्रिः करास्फोटपूर्वकम् । जातप्रमोदोऽभ्यधिक, वक्तुमेवं प्रचक्रमे ॥ ३८५ ॥ यद्यायो वासुदेवानां, विदेहेषु च चक्रभृत् । अन्त्योर्हन् भविताऽसीति, पूर्णमेतावता मम ॥३८६ ॥ पितामहोऽर्हतामाद्यश्चक्रिणां च पिता मम । दाशार्हाणामहं चेति, श्रेष्ठं कुलमहो ! मम ॥ ३८७॥ त्रैलोक्यमेकतः सर्वमेकतश्च कुलं मम । एकतोऽन्यद् गजकुलं, यथैरावण एकतः ॥ ३८८ ॥ आहेभ्य इव चण्डांशुरुडुभ्य इव चन्द्रमाः । सर्वेभ्योऽपि कुलेभ्यो मे, कुलमेकं प्रकृष्यते ॥ ३८९ ॥ एवमात्मकुलमदं, कुर्वाणेन मरीचिना । ठूतयेव पुटं नीचगोत्रं सूत्रितमात्मनः ॥३९०॥ पुण्डरीकप्रभृतिभिर्द्रतो गणधरैरथ । नाथोऽप्यचालीत् प्रघुनन्, विहारव्याजतो महीम् ॥ ३९१ ॥ 30 कृपया पुत्रवद् धर्मकौशलं कौशलान् नयन् । तपस्यमुग्धान् मगधान्, कुर्वन् परिचितानिव ॥ ३९२ ॥ काशीन विकाशयन् पनकोशानिव दिवाकरः । आनन्दयन् दशार्णाश्चाऽर्णवानिव निशाकरः ॥३९३ ॥ देशनासुधया चेदींचेतयन् मूञ्छितानिव । मालवैर्मालयन धर्मधुरां वत्सतरैरिव ॥ ३९४ ॥ कुर्वन् पापविपनाशानिर्जरानिव गूर्जरान् । सौराष्ट्रान् पटयन् वैद्य, इव शत्रुक्षयं ययौ ॥ ३९५ ॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] *सिद्धिगा खंवा १ सिद्धिं गमिष्यति । २ प्रतिवासुदेवाः। ३ पुत्रः। ४ परिव्राजकत्वम् । ५ नागपुरीम् । ६ चरमतीर्थकरः श्रीमहावीरः । नक्षत्रेभ्यः । ८ "करोसियो" इति भाषायाम् । ९ पवित्रीकुर्वन् । १० पापविपत्तिविनाशात् । ११ देवानिव । 25 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । विदेशमिव वैताढ्यं, क्वचित् रूप्यशिलाचयैः । वर्णगावोच्चयैः क्वाऽपि, मेरोस्तटमिवाऽऽहृतम् ॥३९६॥ क्वचिच्च रत्नखानीभी, रत्नाचलमिवाऽपरम् । काऽप्यौषधीभिर्हिमाद्रिमिव स्थानान्तरस्थितम् ॥ ३९७ ॥ आमुक्तचोलकमिवाऽसक्तसंसक्तवारिदैः । स्कन्धावलम्बिसंव्यानमिव निर्झरवारिभिः ॥ ३९८ ॥ शिरोऽभ्यर्णजुषा सूर्येणोत्किरीटमिवाऽहनि । नक्तं च चन्दनरसतिलकाङ्कमिवेन्दुना ॥ ३९९ ॥ सहस्रमूर्द्धानमिव, शृङ्गैर्गगनरोधिभिः । अनेकदोर्दण्डमिव, तुङ्गैस्तालमहीरुहैः ॥ ४००॥ नालिकेरीवनेषुचैः, पाकपिङ्गासु लुम्बिषु । निजापत्यभ्रमाद् वेगोत्पतत्प्लवगसङ्कुलम् ॥ ४०१ ॥ चूतोवचायसक्तानां, सौराष्ट्रहरिणीदृशाम् । आकर्ण्यमानमधुरगीतिमँत्कर्णितैर्मगैः ॥ ४०२॥ उद्बुद्धसूचिव्याजेन, सञ्जातपलितैरिव । जरद्भिः केतकीवृक्षरशून्याधित्यकाभुवम् ॥ ४०३ ॥ स्थाने स्थाने सिन्दुवारैः, श्रीखण्डद्रवपाण्डुभिः । कृतसर्वाङ्गमङ्गल्यपुण्ड्रावलिमिवोच्चकैः ॥ ४०४ ॥ शाखास्थितगोलोङ्गललाङ्गलजटिलीकृतैः । चिञ्चागुमैरनुकृतप्लक्षन्यग्रोधपादपम् ॥ ४०५॥ 10 अद्भुतस्वपरीणाहसम्पदा मुदितैरिव । नित्यं कण्टकिलफलैः, पनसैरुपशोभितम् ॥ ४०६ ॥ श्लेष्मातकैरमारात्रितमःसब्रह्मचारिभिः । अञ्जनाचलचूलाभिराहताभिरिवाऽङ्कितम् ॥ ४०७ ॥ किंशुकैः शुकचञ्चवदारक्तकुसुमर्द्धिभिः । शोभमानं महानागं, कुङ्कुमस्थासकैरिव ॥ ४०८॥ काऽपि द्राक्षाभवं काऽपि, खारं काऽपि तालजम् । मध्वापिबद्भिराबद्धगोष्ठीकं शबरीजनैः ॥ ४०९ ॥ अभेद्यैरर्ककिरणेघृणामस्खलतामपि । सन्नाहमिव बिभ्राणं, ताम्बूलीवनमण्डपैः ॥ ४१० ॥ 15 आर्द्रदर्वाङ्कुरास्वादसुहितैर्मृगमण्डलैः । आबध्यमानरोमन्थं, महाविटपिनां तले ॥ ४११ ॥ सहकारफलावादमग्नचनूपुटैश्विरम् । शुकैर्निरन्तरैर्जात्यवैडूर्यैरिव मण्डितम् ॥ ४१२ ॥ केतकी-चम्पका-ऽशोक-कदम्ब बकुलोद्भवैः । परागैः पवनोद्भूतै, रजस्खलशिलातलम् ॥ ४१३ ॥ पान्थसास्फाल्यमाननालिकेरीफलाम्भसा । परितः पङ्किलीभूतोपत्यकातटभूतलम् ॥ ४१४ ॥ भद्रशालप्रभृतीनां, मध्याद् वैशाल्यशालिना । वनेनैकतमेनेव, तरुखण्डेन मण्डितम् ॥ ४१५॥ 20 पश्चाशद्योजनं मूले, शिखरे दशयोजनम् । तमष्टयोजनोत्सेधमारुरोह गिरिं प्रभुः ॥ ४१६ ॥ - [एकविंशत्या कुलकम् ] तत्र सद्योऽपि समवसरणे सुरनिर्मिते । सर्वीयो भगवानासाश्चके चक्रे च देशनाम् ।। ४१७ ॥ गम्भीरया गिरा भर्नुर्विदधानस्य देशनाम् । अनूवादेव स गिरिर्गहरोत्थैः प्रतिस्वनैः ॥ ४१८ ॥ वृष्टेरिव पयोवाहः, प्रावृषि त्रिजगत्पतिः । गतायामथ पौरुष्यां, व्यरंसीद् देशनाविधेः ॥ ४१९ ॥ उत्थाय च ततः स्थानान्मध्यप्राकारमण्डले । देवच्छन्दे देवदेवो, न्यषीदद् देवनिर्मिते ॥ ४२० ॥ __ ततश्च स्वामिनः पादपीठे गणधराग्रणीः । श्रीपुण्डरीको न्यषदत् , सम्राजो युवराडिव ॥ ४२१॥ तथैव हि निषेदुष्यां, सभायां गणभृद्वरः । भगवल्लीलया धर्मदेशनां विदधेतराम् ॥ ४२२ ॥ सोऽपि द्वितीयपौरुष्यां, पारयामास देशनाम् । अवश्यायसुधासेकं, समीरण इव पँगे ॥ ४२३ ॥ एवं सत्त्वोपकाराय, कुर्वाणो धर्मदेशनाम् । कश्चित् कालं तत्र तस्थावष्टापद इव प्रभुः ॥ ४२४ ॥ 30 अन्यतश्च प्रतिष्ठोसुरपरेधुर्जगद्गुरुः । गणभृत्पुण्डरीकं तं, पुण्डरीकं समादिशत् ॥ ४२५ ॥ महामुने! प्रयास्यामो, विहत्तुं वयमन्यतः । गिरौ तिष्ठ त्वमत्रैव, मुनिकोटिभिरावृतः॥४२६॥ १ फलगुच्छेषु । २ आम्रावचयनासक्तानाम् । * मुत्कणकैर्मू खंता, सं १ ॥ ३ अशून्यपर्वतोपरिसमभूमिकम्। ४ वृक्षविशेषैः। ५ कपयः । ६ अम्लिकावृक्षैः । ७ विस्तारः। ८ अमावास्यारात्रितमःसमानैः। ९ महागजम् । १°दमुदितै सं॥ १. आबध्यमानचर्वितचर्वणम्। ११ आसन्नभूमिः । १२ विशालत्वशोभिना। १३ अष्टयोजनोच्छ्रितम्। १४ सर्वहितकारी। १५ बिरामं प्राप्तवान् । १६ मण्डलेश्वरस्य । १७ हिमामृतसिञ्चनम् । १८ प्रात:काले। १९ प्रस्थातुमिच्छुः। त्रिषष्टि. १९ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ 10 15 कलिकालसर्वज्ञश्रीक्षेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथम पर्व अत्र क्षेत्रानुभावेन, भवतोऽचिरकालतः । ज्ञानं सपरिवारस्योत्पत्स्यते केवलं खलु ॥ ४२७ ॥ इहैव शैले शैलेशीध्यानमासेदुषस्तव । परिवारसमेतस्याऽचिरान्मोक्षो भविष्यति ॥ ४२८ ॥ तथेति स्वामिनो वाचं, प्रतिपद्य प्रणम्य च । तत्रैव सोऽस्थाद् गणभृत् , सहैव गणकोटिभिः ॥ ४२९ ॥ तीरगर्तेषु रत्नौघमुद्वेल इव वारिधिः । मुक्त्वा तं तत्र नाथोऽगादन्यतः सपरिच्छदः ॥ ४३० ॥ पुण्डरीकः स्थितस्तत्र, पर्वते मुनिभिः समम् । उदयाद्रितटे सार्द्धमृक्षैरिव निशाकरः ॥ ४३१ ॥ __ततः परमसंवेगावेगान्मधुरया गिरा । पुण्डरीको गणधरः, श्रमणानित्यभाषत ॥ ४३२ ॥ गिरिः क्षेत्रप्रभावेण, सोऽयं सिद्धिनिबन्धनम् । जिगीषूणां दुर्गमिव, सीमान्तावनिसाधकम् ॥ ४३३॥ कार्या संलेखना मुक्तेः, साधनान्तरमप्यहो । । भवति द्विविधा सा तु, द्रव्यभावविशेषतः ॥ ४३४ ॥ सर्वोन्मादमहारोगनिदानानां समन्ततः । शोषणं सर्वधातूनां, द्रव्यसंलेखना मता ॥ ४३५ ॥ यो रागद्वेषमोहानां, कषायाणां च सर्वतः । नैसर्गिकद्विषां छेदो, भावसंलेखना तु सा ॥ ४३६ ॥ इत्युदित्वा पुण्डरीका, समं श्रमणकोटिभिः । सर्वानालोचयामासाऽतीचारान् सूक्ष्मबादरान् ॥ ४३७ ॥ महाव्रतारोपणं च. भयश्चक्रेऽतिशद्धये । क्षोमस्य क्षालनं द्विस्त्रिीतिनैर्मल्यकारणम ॥ ४३८॥ जीवाः साम्यन्त सर्वे मे. तेषां च क्षान्तवानहम । मैत्री मे सर्वभतेष, वैरं मम न केनचित ॥ ४३९ ॥ इत्यक्त्वा भवचरमं. निराकारं सुदष्करम । प्रतिपेदे सोऽनशनं. समस्तश्रमणैः समम ॥४४०॥ क्षपकश्रेणिमारूढस्याऽत्रुध्यन्नभितोऽपि हि । घातीनि कर्माणि तस्यौजस्विनो जीर्णरज्जुवत् ॥ ४४१॥ साधूनां कोटिसङ्ख्यानां, तेषामपि हि तुत्रुटुः । सद्यो पातीनि कर्माणि, सर्वसाधारणं तपः ॥ ४४२ ॥ मासान्ते चैत्रराकायां. पुण्डरीकस्य केवलम । ज्ञानं बभव प्रथमं पश्चात तेषां महात्मनाम ॥४४३॥ शुक्लध्याने स्थितास्तूर्ये, निर्योगे ते च योगिनः । प्रक्षीणाशेषकर्माणो, निर्वाणपदवीं ययुः ॥ ४४४ ॥ समागत्य दिवो देवा, मरुदेव्या इव क्षणात् । भत्त्या विदधिरे तेषां, निर्वाणगमनोत्सवम् ॥ ४४५ ॥ 20 भगवानृषभखामी, प्रथमस्तीर्थकृद् यथा । तथाऽभूत् प्रथमं तीर्थ, शत्रुञ्जयगिरिस्तदा ।। ४४६ ॥ यत्रैकोऽपि यतिः सिध्येत् , तीर्थं तदपि पावनम् । किं पुनर्यत्र तावन्तः, सिषिधुस्ते महर्षयः ? ॥४४७॥ अथ शत्रुञ्जयगिरौ, चैत्यं रत्नशिलामयम् । अकारयन्मेरुचूलाप्रस्पर्द्धि भरतेश्वरः ॥ ४४८॥ पुण्डरीकप्रतिमया, सहितां प्रतिमां प्रभोः । चेतनामिव चेतोऽन्तस्तन्मध्येऽस्थापयन्नृपः ॥ ४४९ ॥ नानादेशेषु विहरन् , भविनो भगवानपि । अन्वग्रहीद् बोधिदानाच्चक्षुर्दानादिवाऽन्धलान् ॥ ४५० ॥ 25 प्रभोराकेवलज्ञानाच्छ्रमणानां तु जज्ञिरे । चतुरशीतिसहस्राः, साध्वीलक्षत्रयं तथा ।। ४५१ ॥ स पञ्चाशत्सहस्रं तु, श्राद्धलक्षत्रयं तथा । श्राद्धीलक्षाः पञ्च साद्धाश्चतुःसहस्रसंयुताः ॥ ४५२ ॥ सहस्राणि तु चत्वारि, तथा सप्त शतानि च । पञ्चाशदधिकान्यासन् , श्रीचतुर्दशपूर्विणाम् ।। ४५३ ॥ *अवधिज्ञानिसाधूनां, सहस्राणि नवाऽभवन् । केवलज्ञानिसाधूनां, सहस्राणि तु विंशतिः ।। ४५४ ।। जातवैक्रियलब्धीनां, श्रमणानां महात्मनाम् । षट्शताभ्यधिकान्यासन् , सहस्राणि तु विंशतिः॥४५५॥ 30 पृथक् पृथग वादिनां च, मनःपर्ययिणां तथा । द्वादशाऽऽसन् सहस्राणि, सपञ्चाशच षदशती ॥४५६ ।। अनुत्तरविमानोपपातिनां च महात्मनाम् । द्वाविंशतिसहस्राणि, चाऽभवन् भुवनप्रभोः ॥ ४५७ ॥ एवं चतुर्विधं सङ्घ, भगवानादितीर्थकृत् । धर्मे संस्थापयामास, व्यवहार इव प्रजाः ॥ ४५८ ॥ दीक्षाकालात् पूर्वलक्षं, क्षपयित्वा ततः प्रभुः । ज्ञात्वा खमोक्षकालं च, प्रतस्थेऽष्टापदं प्रति ॥ ४५९॥ शैलमष्टापदं प्राप, क्रमेण सपरिच्छदः । निर्वाणसौधसोपानमिवाऽऽरोहच्च तं प्रभुः ॥ ४६० ।। १ नक्षत्रैः। २ वस्त्रस्य । ३ चैत्रपूर्णिमायाम्। ४ पाढ़े। * इमी द्वौ ४५४-४५५ तमौ श्लोकौ खंपुस्तके नोपलभ्येते॥ + पर्यायिणां सं १, २॥ द्वादश सहस्राणि सचतुर्विशतिषट्शतीं सं० १॥ " मोक्षप्रासादसोपानम् । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । १४७ समं मुनीनां दशभिः, सहस्रः प्रत्यपद्यत । चतुर्दशेन तपसा, पादपोपगमं प्रभुः ॥ ४६१ ॥ __ तस्थिवांसं तथा विश्वनाथं पर्वतपालकाः । आशु विज्ञापयामासुर्गत्वा भरतचक्रिणे ॥ ४६२ ॥ प्रभोश्चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं निशम्य सः । शोकेन शङ्कुनेवान्तःविष्टेन व्यवाध्यत ॥ ४६३ ॥ ततोऽकुशेन संस्पृष्टः, सद्यः शोककृशानुना । तरुः सिमिसिमा विन्दनिवाऽश्रूणि मुमोच सः ॥ ४६४ ।। सान्तःपुरपरीवारो, qारासुखपीडितः । प्रतस्थे पादचारेण, प्रत्यष्टापदमार्षभिः ॥ ४६५ ॥ 5 नाजीगणत् कर्करान् स, कशानपि पादयोः । वेद्यते वेदना नैव, हर्षेणेव शुचाऽपि यत् ॥ ४६६ ॥ अक्षरन् रक्तधाराश्व, पदोः कर्करदूनयोः । आसीचालक्तकाङ्केच, तस्याङ्ग्रिन्यासपद्धतिः ॥ ४६७ ॥ अवाजगणदुर्वीशो, जनान् यानोपनायिनः । आरोहणक्षणेनाऽपि, मा भूद् विघ्नो गतेरिति ॥ ४६८ ॥ आतपत्रे शिरःस्थेऽपि, तप्ततप्तो जगाम सः । न तापो मानसो जातु, सुधावृष्ट्याऽपि शाम्यति ॥ ४६९ ॥ शुंग्विहस्तो हस्तदातॄनपहस्तयते स सः । मार्गे विलगतः शाखिशाखाप्रान्तानिवोच्चकैः ॥ ४७० ॥ 10 अग्रेसरान् वेत्रधरानपि पश्चाच्चकार सः । रयात् तरीव तीरद्रून्, सरिदायामगामिनी ॥ ४७१॥ पदे पदे स्खलन्तीश्च, वेगाचामरधारिणीः । चक्री प्रतीक्षाञ्चके न, चित्तवद् गन्तुमुत्सुकः ॥ ४७२ ।। उच्छल्योच्छल्य वेगेनोरःस्थलास्फालनैर्मुहुः । विशीर्णमपि नाऽज्ञासीन्मुक्ताहारं महीपतिः ॥ ४७३ ।। प्रभौ गतमनस्कत्वात् , पार्श्वस्थानप्यजूहवत् । भूयः प्रष्टुं स्वामिवार्ता, वेत्रिणा गिरिपालकान् ॥ ४७४ ॥ नाऽपश्यत् किश्चिदप्यन्यन्नाऽशृणोत् कस्यचिद् वचः । दध्यौ स प्रभुमेवैकं, ध्यानस्थ इव योगवित्॥४७५॥ 15 लघूकुर्वन्निवाऽध्वानं, रंहसा भरतेश्वरः । समीरण इव प्राप, क्षणेनाऽष्टापदाचलम् ॥ ४७६ ॥ परिश्रममजानानो, जनवत् पादचार्यपि । अध्यारुरोह भरतस्ततोऽष्टापदपर्वतम् ॥ ४७७ ।। ईक्षाञ्चके चक्रवर्ती, शोकहर्षसमाकुलः । तत्र च त्रिजगन्नाथं, पर्यङ्कासनसंस्थितम् ॥ ४७८ ॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य, वन्दित्वा च जगत्पतिम् । देहच्छायेव पार्श्वस्थः, समुपास्ते स्म चक्रभृत् ॥ ४७९ ॥ इत्थं स्थिते प्रभावतेऽप्यस्मासु कथमासते ? । इति हेतोरिवेन्द्राणामासनानि चकम्पिरे ॥ ४८० ॥ 20 अवधिज्ञानतो ज्ञात्वाऽऽसनकम्पस्य कारणम् । इन्द्रा जिनेन्द्रमभ्येयुश्चतुःषष्टिरपि द्रुतम् ॥ ४८१ ॥ तेऽपि प्रदक्षिणीकृत्य, जगन्नाथं प्रणम्य च । विषण्णाश्च निषण्णाश्च, तस्थुरालिखिता इव ॥ ४८२ ॥ तथाऽस्यामवसर्पिण्यां, तृतीयस्याऽरकस्य तु । पक्षेप्वेकोननवताववशिष्टेषु सत्सु च ॥ ४८३ ॥ माघाभिधानमासस्य, कृष्णत्रयोदशीतिथौ । पूर्वाहेऽभीचिनक्षत्र. शशियोगमपागते ॥४८४॥ तथा निषण्णः पर्यङ्कासने स्थित्वा च बादरं । काययोगे बादरो वाक्चित्तयोगी रुरोध च ॥ ४८५ ॥ 25 सूक्ष्मेण काययोगेन, काययोगं च बादरम् । रुद्धा रुरोध सूक्ष्मौ च, योगौ वाक्चित्तलक्षणौ ॥ ४८६ ॥ इति सूक्ष्मक्रियं नाम, शुक्लध्यानं तृतीयकम् । अस्तसूक्ष्मतनूयोगं, क्रमात् प्रभुरसाधयत् ॥ ४८७ ॥ ततश्च ध्यानमुंच्छन्नक्रियं नाम तुरीयकम् । पञ्चहखाक्षरोच्चारमितकालमशिश्रियत् ।। ४८८ ॥ सर्वदुःखपरित्यक्तः, केवलज्ञानदर्शनी । क्षीणका निष्ठितार्थोऽनन्तवीर्यसुखर्द्धिकः ।। ४८९ ॥ बन्धाभावादूर्ध्वगतिरेरण्डफलवीजवत् । प्रभुः स्वभावादृजुना, पथा लोकाग्रमासदत् ॥ ४९० ॥ 30 प्रपन्नानशनास्तेऽपि, सहस्रा वतिनां दश । क्षपकश्रेणिमारूढाः, सर्वेऽप्युत्पन्न केवलाः ॥ ४९१ ॥ मनोवचनकायानां, योगं रुद्धा च सर्वतः । क्षणादासादयामासुः, स्वामिवत् परमं पदम् ॥ ४९२ ॥ स्वामिनिर्वाणकल्याणानिर्वाणो दुःखपावकः । अदृष्टसुखलेशानां, नारकाणामपि क्षणम् ॥ ४९३ ॥ १कीलेन । * • प्रतिष्ठान खंता, स्वं ॥२ सहता। ३ शोकामिना । ४ अत्यनादुःखपीडितः । , कटोरान् । ६ तितप्तः । ७ शोकेन विह्वलः। ८ नाविका। योगिवत् सं १,२॥ मुत्सन्न मं१॥ ५ अ इ उ ल इति पञहस्वाक्षरोचारे यावान् कालो जायते तावत्कालमितं कालम् । सहस्राणि दशर्षयः खंता ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १४८ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व महाशोकसमाकान्तश्चक्रवर्ती तु तत्क्षणम् । पपात मूञ्छितः पृथ्व्यां, वज्राहत इवाञ्चलः ॥ ४९४ ॥ महत्यप्यागते दुःखे, दुःखशैथिल्यकारणम् । विदाञ्चकार रुदितं, न कश्चिदपि यत् तदा ॥ ४९५ ॥ दुःखशैथिल्यहेतुं तच्चक्रिणोऽज्ञापयत् स्वयम् । शक्रश्चकार रुदितं, महापूत्कारपूर्वकम् ॥ ४९६ ॥ । अनु सङ्क्रन्दनं चक्रे, क्रन्दनं त्रिदशैरपि । समा हि समदुःखानां, चेष्टा भवति देहिनाम् ॥ ४९७ ॥ तेषां च रुदितं श्रुत्वा, संज्ञामासाद्य चयपि । उच्चैःस्वरेण चक्रन्द, ब्रह्माण्डं स्फोटयनिव ॥ ४९८ ॥ रुदितेनाऽस्फुटद् राज्ञः, शोकग्रन्थिमहानपि । पालीबन्धो महास्रोतोरंहसेव महीयसा ॥ ४९९ ॥ सुरासुरमनुष्याणां, रुदितै रुदितैस्ततः । त्रैलोक्ये करुणरस, एकच्छत्र इवाऽभवत् ॥५०॥ ततः प्रभृति लोकेऽपि, देहिनां शोकसम्भवे । रोदनाध्या प्रववृते, शोकशल्यविशल्यकः॥५०१॥ नैसर्गिकमपि त्यक्त्वा, धैर्य भरतभूपतिः । दुःखितो विललापैवं, तिरश्वोऽपि हि दुःखयन् ॥५०२॥ हा तात ! हा जगद्वन्धो !, हा कृपारससागर ! । अज्ञानिह भवारण्ये, त्यक्तवानसि नः कथम् ? ॥५०३॥ अम्लानकेवलज्ञानप्रकाशेन विना त्वया । तमसीव ऋते दीपं, स्थास्यामोऽत्र कथं भवे ॥५०४॥ छमस्थस्येव ते मौनं, किमेतत् परमेश्वर ! १ । कुरुष्व देशनां नाऽनुगृह्णासि किममुं जनम् ? ॥ ५०५॥ लोकाग्रमथवाज्यासीभगवन् ! भाषसे न यत् । आभाषन्ते दुःखितं मां, तेऽपि मद्वन्धयो न किम् ? ॥५०६॥ हुं ज्ञातमथवा ते हि, सदा स्वाम्यनुगामिनः । स्वामिनोऽननुगो नास्ति, मत्कुले मां विनाऽपरः ॥५०७॥ तातो जगत्रयत्राता, बाहुबल्यादयोऽनुजाः । स्वसारौ ब्राह्मीसुन्दयौँ, पुण्डरीकादयः सुताः॥५०८॥ श्रेयांसायाश्च नप्तारो, हत्वा कर्मद्विषोऽखिलान् । ययुर्लोकाग्रमद्याऽपि, जीवामि प्रियजीवितः॥५०९॥ शोकाजीवितनिर्विष्णं, मुमूर्षुमिव चक्रिणम् । दृष्ट्वा बोधयितुमिति, पारेभे पार्कशासनः ॥ ५१० ॥ भरतेश! महासत्त्व!, स्वाम्यसौ तावदावयोः। संसाराम्भोधिमतरत् , तारयामास चाऽपरान् ॥५११॥ एतत्कृतेन तीर्थेन, तीर्थेनेव महानदीम् । उत्तरिष्यन्ति संसारं, चिरं संसारिणोऽपरे ॥ ५१२ ॥ 20 कृतकृत्यः स्वयं ह्येष, भगवानपरानपि । कृतकृत्यान् जनान् कतुं, पूर्वलक्षमवास्थित ॥ ५१३॥ अनुगृह्याखिलं लोकं, स्थानं तदपुनर्भवम् । आसेदुषो जगद्भ, राजन् ! किं नाम शोचसि ? ॥५१४॥ प्रेत्यं यो योनिलक्षेषु, महादुःखैकवेश्मसु । अनेकशः सञ्चरति, पराँसुः स हि शोच्यते ॥ ५१५ ॥ तत् किं न लजसे शोचन् , प्रभावन्यजनेष्विव ? । शोचितुः शोचनीयस्य, चोभयोरपि नोचितम् ।।५१६॥ एकदापि हि योऽश्रौषीत् , स्वामिनो धर्मदेशनाम् । न सोऽपि शोकहर्षाभ्यां, जीयते किं पुनर्भवान् ॥५१७॥ महाम्भोधेरिव क्षोभः, कम्पो मेरुगिरेरिव । उद्वर्त्तनमिवाऽवन्याः, कुलिशस्येव कुण्ठता ॥ ५१८ ॥ पीयूषस्येव वैरैस्यमनुष्णांशोरिवोष्णता । असम्भाव्यं महीनाथ!, तवेदं परिदेवनम् ॥ ५१९ ॥ [ युग्मम् ] धीरो भव धराधीश !, विद्ध्यात्मानं यदीशितुः । जगत्रयैकधीरस्य, तनयस्तस्य नन्वसि ॥ ५२० ॥ गोत्रवृद्धेनेव वृद्धधैवसैवं प्रबोधितः । आललम्बे नृपो धैर्य, सहजं शैत्यमम्बुवत् ॥ ५२१ ॥ __ अथ स्वाम्यङ्गसंस्कारोपस्कराहरणे द्रुतम् । आदिदेश शुनासीरस्त्रिदशानाभियोगिकान् ॥ ५२२ ॥ ततः सङ्क्रन्दनादेशान्नन्दनोद्यानतः क्षणात् । गोशीर्षचन्दनेधांसि, समानिन्युर्दिवौकसः ॥ ५२३ ॥ इन्द्रादेशादथैन्यां ते, स्वामिदेहस्य हेतवे । वृत्तामारचयामासुश्चितां गोशीर्षचन्दनैः ॥ ५२४ ॥ कृते तथा महर्षीणामिक्ष्वाकुकुलंजन्मनाम् । दिशि व्यधुर्दक्षिणस्यां, व्यस्राकारां चितां सुराः॥५२५॥ अन्येषामनगाराणां, कृते च त्रिदिवौकसः । चतुरस्रां चितां चक्रुरपरस्यां पुनर्दिशि ॥ ५२६ ॥ १ महाप्रवाहवेगेन । २ रोदनमार्गः। ३ पौत्राः। ४ कर्मशत्रन् । ५ ममिछुम् । ६ इन्द्रः। ७ जलावतारमार्गेण । ८ मोक्षस्थानम् । ९ मृत्वा । १० मृतः। ११ रसराहित्यम् । १२ चन्द्रस्य । ॥ विलापः। १४ इन्द्रेण । १५ इन्वादेशात् । १६ पूर्वदिशि। * °लजन्मिनाम् सं १॥ 25 30 . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः ] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । अथ क्षीरोदपाथोधेः, पुष्करावर्त्तकैरिव । देवैरानाययामास, द्रुतं पाथसि वासवः ।। ५२७ ॥ तेन च रूपयामास, पयसा भगवत्तनुम् । गोशीर्षचन्दनरसैर्विलिलेप च वज्रभृत् ॥ ५२८ ॥ वासवो वासयामास, वाससा हंसलक्ष्मणा । ततस्तद् देवदृष्येण, शरीरं परमेशितुः ।। ५२९ ।। सर्वतो भूषयामास, दिव्यैर्माणिक्यभूषणैः । परमेष्ठिशरीरं तत्, त्रिविष्टपसदग्रणीः ।। ५३० ॥ अन्ये तु देवा अन्येषां मुनीनामपि तत्क्षणम् । इन्द्रवद् विदधुर्भक्त्या, तत् सर्वं स्वपनादिकम् ।। ५३१ ॥ 5 जगत्रय्या रत्नसारैः, पृथक् पृथगिवाऽऽहृतैः । सहस्रवाद्याः शिविकास्तिस्रश्चक्रुर्दिवौकसः ॥ ५३२ ॥ प्रणम्य चरणौ भर्त्तुर्वपुचाऽऽरोप्य मूर्धनि । शिबिकायां निचिक्षेप, स्वयमेव पुरन्दरः ।। ५३३ ॥ वपूंषीक्ष्वाकुवंश्यानामपरस्यां दिवौकसः । शिविकायां शिवपदातिथीनां परिचिक्षिपुः ॥ ५३४ ॥ शिबिकायां तृतीयस्यामन्येषामनगारिणाम् । निदधुर्विबुधाः कायान्, निजेष्वारोप्य मूर्ध ।। ५३५ ॥ अथ तां स्वामिशिबिका मुद्दधार स्वयं हरिः । मुनीनामपरेषां तु, शिविके अपरे सुराः ।। ५३६ ।। अप्सरःसु ददानासु, तालरासकमेकतः । कुर्वाणासु च सङ्गीतं, मधुरध्वानमन्यतः ॥ ५३७ ।। पुरः पुरो धूपघटीर्धारयत्सु सुपर्वसु । धूपधूमच्छलाद् बाष्पं, वमन्तीरिव शोकतः ।। ५३८ ।। क्षिपत्सु पुष्पदामानि, शिविकोपरि केषुचित् । शेषाहेतोश्च तान्येवोपाददानेषु केषुचित् ।। ५३९ ।। देवदृष्यैस्तोरणानि, पुरः कुर्वत्सु केषुचित् । ददत्सु केषुचिद् यक्षकर्दमैः सेकमग्रतः ॥ ५४० ॥ केषुचिद् विलुठत्वग्रे, यत्र भ्रष्टाश्मगोलवत् । धावत्सु पृष्ठतोऽन्येषु, मोहचूर्णाहतेष्विव ॥ ५४१ ।। उच्चैः शब्दायमानेषु, नाथ! नाथेति केषुचित् । मन्दभाग्या हताः स्मः स्वमिति निन्दत्सु केषुचित् ॥ ५४२ ॥ शिक्षां नो देहि नाथेति, मुहुर्नार्थैत्सु केषुचित् । को धर्मसंशयं छेत्स्यत्येवं जल्पत्सु केषुचित् ॥ ५४३ ॥ वयं यामोऽन्धवत् क्वेति, सानुशयेषु केषुचित् । ददातु भूर्नो विवरमित्याकाङ्क्षत्सु केषुचित् ॥ ५४४ ॥ वाद्यमानेषु तूर्येषु, तां स्वामिशिबिकां हरिः । उपचित्यं निनायाऽन्ये, निन्युश्च शिबिके सुराः ।। ५४५ ।। [ नवभिः कुलकम् ] 20 15 प्रांचीनबर्हिः प्राचीनचितायां स्वामिनस्तनुम् । शनकैः स्थापयामास, स्वपुत्र इव कृत्यवित् ॥ ५४६ ॥ चित्यायां दाक्षिणात्यायामिक्ष्वाकु कुलजन्मनाम् । वपूंषि स्थापयन्ति स्म, सनाभय इवामराः ॥ ५४७ ॥ अन्येषामनगाराणां, शरीराण्यपरे सुराः । प्रतीचीनचितायां तु, समीचीनविदो न्यधुः ॥ ५४८ ॥ 25 अथ गोत्रेभिदादेशान्नाकिनोऽग्निकुमारकाः । चितासु तासु तत्कालमग्निकायान् विचक्रिरे ॥ ५४९ ।। शक्राज्ञया विचक्रुश्च, वायून् वायुकुमारकाः । अभितो ज्वालयामासुर्वह्निमह्नाय ते ततः ।। ५५० ।। चिताखिन्द्राज्ञया देवाः, कर्पूरादीनि भारशः । निदधुः कुम्भशश्चाऽपि, संपींषि च मधूनि च ।। ५५१ ।। मुक्त्वाऽस्थि धातवो यावद्, दग्धास्तावच्चितानलम् । व्यध्यापयन् सुराः क्षीराम्भोभिर्मेघकुमारकाः।।५५२।। प्रतिमावत् पूजयितुं, स्वविमाने पुरन्दरः । अग्रहीदुपरितनीं, दंष्ट्रां वामेतरां प्रभोः ॥ ५५३ ॥ ईशानोऽप्युपरितनीं, तद्दंष्ट्रां दक्षिणेतराम् | अधस्तनीं दक्षिणां तु, चमरेन्द्र उपाददे ।। ५५४ ॥ बलिर्वामामधोदंष्ट्रां, जग्राहाऽन्ये तु वासवाः । शेषदन्तान् नाकिनोऽन्ये, जगृहुः कीर्कसानि तु ।। ५५५ ।। 30 मार्गन्तः श्रावका देवैर्दत्तकुण्डत्रयाग्नयः । ततः प्रभृत्यभूवंस्ते, ब्राह्मणा अग्निहोत्रिणः || ५५६ ॥ ते हि स्वामिचितावह्निं, गृहे नित्यमपूजयन् । रक्षन्ति स्म च निर्वातं, लक्षदीपमिवेश्वराः ।। ५५७ ।। इक्ष्वाकुवंश्यशेषानगाराणां ते चितानलौ । निर्वाणौ जीवयन्ति स्म, स्वामिचित्याकृशानुना ॥ ५५८ ॥ इक्ष्वाकूणां महर्षीणामपि चित्याकृशानुना । अन्यानगारिचित्याग्निं, ते निर्वाणमबोधयन् ॥ ५५९ ॥ १ जलानि । २ हंसचिन । ३ इन्द्रः । ४ साधुनाम् । ५ देवेषु । ६ याचमानेषु । * इदमुत्तरार्धं खंपुस्तके नास्ति ॥ ७ इन्द्रः । ८ सहोदराः । ९ इन्द्रादेशात् । १० शीघ्रम् । ११ घृतानि । १२ अस्थीनि । १३ अग्निना । १४९ 10 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [प्रथमं पर्व अन्यानगारिचित्याग्निं, चित्यान्योरन्ययोः पुनः । न हि सङ्क्रमयन्ति स्म, द्विजेष्वद्याऽप्यसौ विधिः ॥५६०॥ केचित् तु लब्धभसानो, भक्त्या भस ववन्दिरे । ततः प्रभृति जाताच, तापसा भमभूषणाः ॥ ५६१ ॥ चितास्थानत्रये देवा, रत्नस्तूपत्रयं ततः । अष्टापदगिरेनव्यं, शृङ्गत्रयमिव व्यधुः ॥ ५६२ ॥ ततो नन्दीश्वरद्वीपे, शाश्वतप्रतिमोत्सवम् । कुर्वाणास्ते तु गीर्वाणाः, सेन्द्राः खं खं पदं ययुः॥५६३॥ 5 इन्द्राः खस्खविमानेषु, सुधर्मायां च पर्षदि । अधिमाणवकस्तम्भं, वृत्तवज्रसमुद्के ॥ ५६४ ॥ न्यवेशयन् स्वामिदंष्ट्रा, आनषुश्च निरन्तरम् । तासां प्रभावात् तेषां च, सदा विजयमङ्गले ॥ ५६५ ॥ __भरतस्तत्र च स्वामिसंस्कारासन्नभूतले । प्रासादं योजनायाम, त्रिगव्यूतसमुच्छ्रयम् ।। ५६६ ॥ नामतः सिंहनिषद्यां, पद्यां निर्वाणवेश्मनः । उच्चैर्वर्द्धकिरत्नेन, रत्नाश्मभिरकारयत् ॥ ५६७ ॥ तस्स द्वाराणि चत्वारि, स्फटिकाश्ममयानि च । रम्याणि स्वामिसमवसरणस्येव जज्ञिरे ॥ ५६८ ॥ 10 प्रतिद्वारमुभयतो, बभूवुस्तत्र षोडश । रत्नचन्दनकलसाः, कोशा इव शिवश्रियाम् ॥ ५६९ ॥ । द्वारे द्वारे रत्नमयास्तोरणाः षोडशाऽभवन् । साक्षादिव समुद्भूताः, परितः पुण्यवल्लयः ॥ ५७० ॥ द्वारे द्वारेऽष्टमङ्गल्यो, मङ्गल्याः षोडशाऽभवन् । प्रासादद्वारविन्यस्तप्रशस्तिलिपिसन्निभाः ॥ ५७१॥ द्वारेषु तेषु चाऽभूवन् , विशाला मुखमण्डपाः । दिक्पालानां चतुर्णामप्याहृता इव पर्षदः ॥ ५७२ ॥ तेषां चतुर्णां च मुखमण्डपानां पुरोऽभवन् । श्रीवल्लीनां मण्डपान्तः, प्रेक्षासदनमण्डपाः ॥ ५७३ ॥ 15 तेषां प्रेक्षामण्डपानां, मध्यभागेषु जज्ञिरे । अक्षवाटा वज्रमयाः, सूर्यबिम्बोपहासिनः ॥ ५७४ ॥ अक्षवाटेऽक्षवाटे च, मध्यभागे मनोहरम् । रत्नसिंहासनमभूमध्येऽब्जमिव कर्णिका ॥ ५७५ ॥ प्रतिप्रेक्षामण्डपाग्रं, बभूव मणिपीठिका । चैत्यस्तूपास्तदुपरि, चाऽभवन् रत्नशालिनः ॥ ५७६ ॥ तेषां च चैत्यस्तूपानां, पुरतो द्योतिताम्ब्ररा । प्रत्येकं च प्रतिदिशं, महती मणिपीठिका ॥ ५७७ ॥ प्रत्येकं तदुपरिष्टात् , पञ्चधन्वशतप्रमाः। चैत्यस्तूपसन्मुखीनाः, सर्वाङ्ग रत्ननिर्मिताः ॥ ५७८ ।। 20 ऋषभा वर्द्धमाना च, ततश्चन्द्राननाऽपि च । वारिषेणेति पर्यङ्कासनासीना मनोहराः॥ ५७९ ॥ शाश्वत्यः प्रतिमा जैन्यो, नेत्रकैरवचन्द्रिकाः । नन्दीश्वरमहाद्वीपचैत्यमध्य इवाऽभवन् ॥ ५८० ॥ तेषां च चैत्यस्तूपानां, प्रत्येकं पुरतोऽभवत् । अनर्घामाणिक्यमयी, विशाला चारुपीठिका ॥ ५८१ ॥ पीठिकानां पुरस्तासां, प्रत्येकं चैत्यपादपाः । चैत्यद्रूणां पुरस्तेषां, प्रत्येकं मणिपीठिकाः ॥ ५८२ ॥ उपरीन्द्रध्वजस्तासां, प्रत्येकमपि चाऽभवत् । जयस्तम्भो दिशि दिशि, धर्मेणेवाऽधिरोपितः ॥ ५८३ ॥ 25 इन्द्रध्वजानां च पुरः, प्रत्येकमपि चाऽभवत् । नाम्ना नन्दा पुष्करिणी, त्रिसोपाना सतोरणा ॥ ५८४ ॥ खच्छशीतजलापूर्णा, विचित्राम्भोजशालिनी । मनोहरा दधिमुखाधारपुष्करिणीनिभा ॥ ५८५ ॥ आसीत् सिंहनिषद्याया, महाचैत्यस्य तस्य तु । मध्यभागे सुमहति, महती मणिपीठिका ॥ ५८६ ॥ तस्याश्चोपरि समवसरणस्येव मध्यतः । चित्ररत्नमयो देवच्छन्दकः समजायत ॥ ५८७ ।। नानावांशुकमय, उल्लोचस्तदुपर्यभूत् । उद्भावयन्नकालेऽपि, सन्ध्याभ्रपटलश्रियम् ।। ५८८ ॥ 30 उल्लोचस्याऽन्तरे पार्श्वतश्च वज्रमयाङ्कुशाः । आसन्नुल्लोचशोभा तु, तथाऽप्यासीनिरङ्कुशा ॥ ५८९ ।। सुधाधारोपमा हारा, अङ्कुशेष्ववलम्बिताः । कुम्भमेयैरामलकस्थूलैर्मुक्ताफलैः कृताः ॥ ५९० ॥ हारप्रान्तेषु चाऽभूवन , विमला मणिमालिकाः । त्रैलोक्यमणिखानीनामाहता इव वर्णिकाः ॥ ५९१ ॥ प्रान्तेषु मणिमालानाममला वज्रमालिकाः । आलिका इव भादोर्भिरालिङ्गन्त्यः परस्परम् ॥ ५९२ ॥ तद्भित्तिषु गवाक्षाश्चाऽभवंश्चित्रमणीमयाः । स्वप्रभापटलैतितिरस्करिणिका इव ।। ५९३ ॥ 35 दह्यमानागरुधूमस्तोमास्तेषु चकाशिरे । गिरेस्तस्य नवोद्भूतनीलचूलाभ्रमप्रदाः ॥ ५९४ ॥ देवाः । २ नेत्रकुमुदज्योत्साः। ३ आमलकफलवत् स्थूलैः । ४ सख्यः । ५ कान्तिभुजैः। ६ जातजवनिकाः । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् देवच्छन्देऽभवन् रत्नप्रतिमास्तत्र निर्मलाः । ऋषभखामिमुख्यानां, चतुर्विंशतिरर्हताम् ॥ ५९५ ॥ प्रतिमाः खस्वसंस्थानमानवर्णधरास्तु ताः । साक्षादिव स्वामिनोऽभान् , शैलेशीध्यानवर्तिनः ॥ ५९६ ॥ तत्र षोडश सौवर्यो, राजावतकृते उभे । द्वे स्फाटिक्यौ द्वे वैडूर्यमय्यौ शोणाश्मजे उभे ॥ ५९७ ॥ तासां चाहत्प्रतिमानां, सर्वासामपि जज्ञिरे । लोहिताक्षप्रतिसेका, अङ्करत्नमया नखाः ॥५९८॥ नाभीकेशान्तभूजिह्वातालुश्रीवत्सचूच॒कम् । तलानि हस्तपादस्य, तोपनीयानि जज्ञिरे ॥ ५९९ ॥ 5 पक्ष्माणि ताराः श्मश्रूणि, ध्रुवो रोमाणि मूर्द्धजाः । रिष्टरत्नमयान्यासन् , वैद्रुमा दन्तवाससः॥६००॥ दन्ताच स्फटिकमयाः, शीर्षघट्यस्तु वज्रजाः । नासाश्चाऽन्तर्लोहिताक्षप्रतिसेकाः सुवर्णजाः ॥ ६०१॥ लोहिताक्षप्रतिसेकप्रान्ता अङ्ककृता दृशः । इत्यनेकमणीमय्यः, प्रतिमास्ताश्चकाशिरे ॥ ६०२॥ तासां च पृष्ठे प्रत्येकमेकैका रत्ननिर्मिता । छत्रधारप्रतिमा च, यथावन्मानशालिनी ॥ ६०३ ॥ मुक्ताप्रवालजालाढूं, सकुरण्टकदामकम् । श्वेतातपत्रं स्फटिकमणिदण्डं दधत्यभूत् ॥६०४॥ [युग्मम् ] 10 प्रत्येकं पार्श्वयोस्तासामुत्क्षिप्तमणिचामरे । चामरधारप्रतिमे, रत्नमय्यौ बभूवतुः ॥६०५॥ नांगयक्षभूतकुण्डधाराणां प्रतिमे उभे । प्रत्येकमग्रे भगवत्प्रतिमानां बभूवतुः ॥ ६०६॥ ताः कृताञ्जलयो रत्नमय्यः सर्वाङ्गमुज्ज्वलाः । निषेदिवांसः प्रत्यक्षा, इव नागादयो बभुः ॥ ६०७॥ देवच्छन्दे रत्नघण्टाश्चतुर्विंशतिरुज्वलाः । सशिप्तादित्यबिम्बाभास्तथा माणिक्यदर्पणाः ॥ ६०८॥ स्थानस्थदीपिका हैम्न्यस्तथा रत्नकरण्डकाः । पुष्पचङ्गेरिकाश्चङ्गाः, सरिदावर्त्तवर्तुलाः ॥६०९॥ 15 लोमहेस्तपटल्योऽथ, विभूषणकरण्डकाः । हैमानि धूपदहनकानि चाऽऽरात्रिकाणि च ॥ ६१० ॥ रत्नमङ्गलदीपाश्च, रत्नभृङ्गारका अपि । स्फाराणि रत्नस्थालानि, तापनीयाः पतद्रहाः ॥ ६११ ॥ रत्नचन्दनकलसा, रत्नसिंहासनानि च । रत्नमय्योऽष्टमङ्गल्यो, हैमास्तैलसमुद्गकाः ॥ ६१२ ॥ धूपभाण्डानि हैमानि, हैमाश्चोत्पलहस्तकाः । पुरो बभूवुश्च चतुर्विंशतः श्रीमदर्हताम् ॥ ६१३ ॥ इति नानारत्नमय, त्रैलोक्येऽप्यतिसुन्दरम् । मूर्तेन धर्मेणेवेन्दुकान्तवप्रेण शोभितम् ॥ ६१४ ॥ 20 ईहामृगोक्ष-मकर-तुरङ्ग-नर-किन्नरैः । विहङ्ग वालक-रुरु-शैरभैश्चमरैपिः ॥ ६१५ ॥ वनलताऽब्जलताभिर्विचित्राद्भुतभङ्गिकम् । बहुद्रुममिवोद्यानं, रत्नस्तम्भसमाकुलम् ॥ ६१६ ॥ व्योमगङ्गोर्मिभिरिव, पताकाभिर्मनोरमम् । उन्नतैर्दन्तुरमिव, ध्वजदण्डैश्च काश्चनैः ॥ ६१७ ॥ ध्वजस्थकिङ्किणीकाणैः, प्रसरद्भिनिरन्तरैः । खेचरस्त्रैणरसनादामध्वनिविडम्बकम् ॥ ६१८ ॥ उपरि भ्राजमानं च, विशालद्युतिशालिना । पद्मरागाश्मकुम्भेन, माणिक्येनाऽङ्गुलीयवत् ॥ ६१९ ॥ 25 क्वचित् पल्लवितमिव, संवर्मितमिव क्वचित् । कचिद् रोमाश्चितमिव, क्वचिल्लिप्तमिवाऽशुभिः ॥ ६२०॥ गोशीर्षचन्दनरसमयस्थासकलाञ्छितम् । अतिसुश्लिष्टसन्धित्वादेकग्राव्णेव निर्मितम् ॥ ६२१ ॥ माणिक्यशालभञ्जीभिश्चेष्टावैचित्र्यचारुभिः । अधिष्ठितनितम्बं चाऽप्सरोभिर्मेरुशैलवत् ॥ ६२२ ॥ द्वारदेशमुभयतो, लिप्ताभ्यां चन्दनद्रवैः । कुम्भाभ्यां पुण्डरीकाभ्यां, स्थलजाभ्यामिवाङ्कितम् ॥ ६२३ ॥ धूपितैर्दामभी रम्यं, तिर्यग्बद्धावलम्वितैः । कुसुमैः पञ्चवर्णैश्व, रचितप्रकरं तले ॥ ६२४ ॥ कर्परागरुकस्तूरीधूपधूमैश्च सन्ततैः । कालिन्येव कलिन्दादि, प्लाव्यमानमहर्निशम् ॥ ६२५ ॥ अप्सरोगणसङ्कीर्ण, द्योः पालकमिवाऽऽगतम् । वैताढ्यमेखलाखण्डमिव विद्याधरीवृतम् ॥ ६२६ ॥ अग्रतः पार्श्वतः पश्चाच्चारुभिश्चैत्यपादपैः । माणिक्यपीठिकाभिश्च, भूषणैरिव भूषितम् ॥ ६२७ ॥ १ राजावर्त्तारख्यरत्नविशेपकृते। २ लोहिताशमणि रसच्छटाः। ३ अङ्काख्यरत्नविशेषमयाः । ४ स्तनाग्रभागः। ५ सौवर्णानि । ६ रिटाख्यरत्नविशेषमयानि । ७ ओष्ठाः । ८ द्वे नागप्रतिमे, द्वे यक्षप्रतिमे, द्वे भूतप्रतिमे, द्वे कुडधारप्रतिमे च । ९ चामरसमूहाः । १० पात्राणि । ११ वृकः। १२ मृगविशेषः । १३ अष्टापदः। १४ यमुनया। 30 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत [प्रथमं पर्व अष्टापदाद्रेर्मूर्धन्यमिव माणिक्यभूषणम् । नन्दीश्वरादिचैत्यानां, स्पर्द्धयेवाऽतिपावनम् ॥ ६२८ ॥ तचैत्यं भरतस्याऽऽज्ञातुल्यकालं कलाविदा । तेन वर्द्धकिरत्नेन, व्यधीयत यथाविधि ॥ ६२९ ॥ [षोडशभिः कुलकम् ] तत्रैव कारयामास, दिव्यरत्नशिलामयीः । भ्रातृणां नवनवतेः, प्रतिमा भरतेश्वरः ॥ ६३० ॥ 5 शुश्रूषमाणां प्रतिमामात्मनोऽपि महीपतिः । कारयामास तत्रैव, स हि भक्तेरतृप्तिकः ॥ ६३१॥ चैत्याद् बहिर्भगवतः, स्तूपमेकमकारयत् । भ्रातृणां शतमेकोनं, स्तूपांश्च भरतेश्वरः ॥ ६३२ ॥ अत्र माऽऽशातनां कार्युर्गमनागमनैनराः । इत्यकार्षीद् यत्रमयान् , लौहानारक्षकान् नृपः ॥ ६३३ ॥ आरक्षपुरुषैलौहैर्यत्रायुक्तैश्च तैरभूत् । नृणामगम्यं स्थानं तन्माद् बहिरिव स्थितम् ॥ ६३४ ॥ दण्डरत्नेन रत्नेशो, दन्तांश्चिच्छेद तत्र च । ऋजूच्चस्तम्भवत् सोऽदिरनारोह्यस्ततोऽभवत् ।। ६३५॥ 10 नृपो नृभिरलङ्घयानि, योजनान्तरितानि च । पदानि मेखलारूपाण्यष्टौ तं परितो व्यधात् ॥ ६३६ ॥ ततः प्रभृति शैलोऽसौ, नाम्नाष्टापद इत्यभूत् । लोके हराद्रिः कैलासः, स्फटिकाद्रिश्च कीर्त्यते ॥६३७॥ इति चैत्यं विनिर्माप्य, प्रतिष्ठाप्य च चक्रभृत् । श्वेतांशुकधरस्तत्राविशन्मेघ इवोडुपः ॥ ६३८॥ कृत्वा प्रदक्षिणां तत्र, प्रतिमास्ताः सुगन्धिभिः । उदकैः पयामास, भूपतिः सपरिच्छदः ॥ ६३९ ॥ ममार्ज देवदूष्यैश्च, भरतः परितोऽपि ताः । रत्नादर्श इवाऽभूवंस्तास्ततश्चाऽधिकोज्वलाः ॥ ६४० ॥ 15 गोशीर्षचन्दनरसैर्विलिलेप नृपोऽथ ताः । सुगन्धिस्त्यानतां प्राप्तयोत्स्नापूरैरिवाऽमलैः ॥ ६४१॥ ताः क्षमापतिरानर्च, विचित्र रत्नभूषणैः । दिव्यदामभिरुदामैर्देवदूष्यांशुकैरपि ॥ ६४२ ॥ ददाह वादयन् घण्टां, धूपं तद्भूमवर्तिभिः । कुर्वन् चैत्यान्तरं नीलवल्लरीभिरिवाङ्कितम् ॥ ६४३ ॥ ततश्चोत्तारयामास, कर्पूरारात्रिकं नृपः । संसारशीतभीतानामग्निकुण्डमिव ज्वलत् ॥ ६४४ ॥ ऋषभखामिनो नत्वा, प्रतिमां भरतेश्वरः । आक्रान्तः शोकभक्तिभ्यां, स्तोतुं प्रस्तुतवानिति ॥६४५॥ कल्याणैः पञ्चभिर्दत्तसुखाय वभ्रिणामपि । जगत्सुखाकर ! नमस्तुभ्यं त्रिजगदीश्वर ! ॥ ६४६ ॥ स्वामिन् ! विश्व॑जनीनेन, त्वया विहरताऽन्वहम् । रविणेवाऽनुगृहीतं, चराचरमिदं जगत् ॥ ६४७ ॥ अप्यार्याणामनार्याणां, प्रीतये व्यहरश्चिरम् । गतिः परोपकाराय, भवतः पवनस्य च ॥ ६४८ ॥ उपकर्तुमिहाऽन्येषां, व्यहापर्भिगवंश्चिरम् । मुक्तौ कस्योपकाराय, गतोऽसि परमेश्वर ! १ ॥६४९ ॥ लोकाग्रमद्य लोकाग्रं, भवता यदधिष्ठितम् । मर्त्यलोकोऽयमद्यैव, मर्त्यलोकस्त्वयोज्झितः ॥ ६५० ॥ 25 अद्यापि साक्षात् त्वमसि, तेषां भव्यशरीरिणाम् । विश्वानुग्रहकरिणी, देशनां ये सरन्ति ते ॥ ६५१ ॥ रूपस्थमपि ये ध्यानं, त्वयि नाथ ! प्रयुञ्जते । प्रभो! प्रत्यक्षमेवासि, तेषामपि महात्मनाम् ॥ ६५२॥ यथा संसारमत्याक्षीरशेषं परमेश्वर ! । निर्ममोऽपि तथा जातु, मा त्याक्षीर्मानसं मम ॥ ६५३ ॥ आदिनाथमिति स्तुत्वा, जिनेन्द्रानपरानपि । नत्वा नत्वेति प्रत्येकमुपश्लोकयति स सः ॥ ६५४ ॥ जयाऽजित ! जगन्नाथ!, कषायविषयाजित!। विजयाकुक्षिमाणिक्य !, जितशत्रुनृपात्मज! ॥६५५।। 30 जितारिसूनो! श्रीसेनाकुक्षिसम्भव ! सम्भव ! । भवव्योमातिक्रमणप्रभाकर! नमोऽस्तु ते ॥६५६ ॥ सिद्धार्थापूर्वदिक्सूर्य!, संवरान्वयमण्डन! । विश्वाभिनन्दन! विभोऽभिनन्दन ! पुनीहि नः ॥६५७॥ भगवन् ! मङ्गलादेवीमेघमालैकमौक्तिक ! । मेघान्वयावनीमेघ !, सुमते ! भवते नमः ॥ ६५८ ॥ स्वामिन् ! धरधराधीशसरित्पतिनिशाकर! । सुसीमाजाह्नवीपद्म!, पद्मप्रभ! नमोऽस्तु ते ॥ ६५९ ॥ श्रीसुपार्श्वप्रभो ! पृथ्वीमलयावनिचन्दन ! । श्रीप्रतिष्ठकुलगृहप्रतिष्ठास्तम्भ ! पाहि माम् ॥६६० ॥ १ आज्ञासमनन्तरम् । २ चक्री। ३ शशी। ४ सुगन्धिधनताम् । ५ चैत्यमध्यम् । ६ नारकाणाम्। विवाहितकारकेण । ८ मोक्षस् । ९ सर्वलोकोत्तरम् । १० मनुष्यलोकः। ११मरणोपितलोकः । 20 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्टः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । १५३ महसेनान्वयनभश्चन्द्र! चन्द्रप्रभ ! प्रभो ! । भगवन् ! लक्ष्मणाकुक्षिसरसीहंस! रक्ष नः॥ ६६१ ॥ श्रीरामानन्दनाराममहीकल्पमहीरुह! । सुग्रीवसूनो! सुविधे !, विधेहि शिवमाशु नः ॥ ६६२ ॥ नन्दादेवीहृदानन्द !, स्वामिन् ! दृढरथात्मज! । जगदाह्लादशीतांशो', श्रीशीतल ! मुदे भव ॥६६३।। श्रीविष्णुदेवीतनय, विष्णुराड्वंशमौक्तिक! । निःश्रेयसश्रीरमण !, श्रेयांस ! श्रेयसे भव ॥६६४॥ जयाविदूरभूरन !, वसुपूज्यनृपात्मज! । वासुपूज्य ! जगत्पूज्य !, विश्राणय शिवश्रियम् ॥६६५ ॥ 5 श्यामाशमीशमीगर्भ!, कृतवर्मनृपात्मज!। भगवन् ! विमलस्वामिन् !, विमलीकुरु मे मनः ॥६६६॥ श्रीसिंहसेनभूपालकुलमङ्गलदीपक! । सुयशःस्वामिनीसूनोऽनन्ताऽनन्तं सुखं तनु ॥ ६६७ ॥ सुव्रतामाग्गिरितटीभानो! भानुनृपात्मज! । श्रीधर्मनाथ ! भगवन्!, धेहि धर्मे धियं मम ॥६६८॥ विश्वसेनकुलोत्तंसाऽचिरादेवीतनूद्भव! । श्रीशान्तिनाथ! भगवन् !, भव नः कर्मशान्तये ॥६६९॥ सूरान्वयवियत्सूर!, श्रीराज्ञीकुक्षिसम्भव! । कुन्थुनाथ ! जगन्नाथ, जयोन्मथितमन्मथ ! ॥६७०॥10 देवीशरच्छ्रीकुमुद !, सुदर्शननृपात्मज ! । अरनाथ ! वितर मे, भवोत्तरणवैभवम् ॥ ६७१ ॥ कुम्भाम्भोधिसुधाकुम्भ, प्रभावत्यङ्गसम्भव! । कर्मक्षयमहामल्ल, मल्लिनाथ ! शिवं दिश ॥६७२।। सुमित्रहिमवत्पग्रहद ! पद्मावतीसुत! । मुनिसुव्रततीर्थेश, नमस्ते परमेश्वर ! ॥ ६७३ ॥ वप्रावज्राकरमहीवज्र! श्रीविजयात्मज! । जगन्नमस्यपादाब्ज!, नमस्तुभ्यं नमिप्रभो! ॥ ६७४ ॥ शिवगामिन् ! शिवासनो, समुद्रानन्दचन्द्रमः! अरिष्टनेमे ! भगवन् !, नमः कारुणिकाय ते॥६७५॥15 अश्वसेनावनीपालकुलचूलामणे! प्रभो ! । वामामुनो ! नमस्तुभ्यं, श्रीमत्पार्श्वजिनेश्वर ! ॥ ६७६ ॥ सिद्धिसम्प्राप्तिसिद्धार्थ, सिद्धार्थनृपनन्दन ! । त्रिशलाहृदयाश्वास!, श्रीवीर ! भवते नमः ॥६७७॥ इति स्तुत्वा नमस्कृत्य, सवोन प्रत्येकमहेतः। चैत्यात सिंहनिषद्याया.निर्ययौ भरतेश्वरः॥६७८॥ विलोकयन् वलद्वीवं, तच्चैत्यं प्रियमित्रवत् । उत्तताराष्टापदादूर्भरतः सपरिच्छदः ॥ ६७९ ॥ प्राग्विलग्नमना लग्नवस्त्राञ्चल इवाऽचलत् । मन्दं मन्दं प्रत्ययोध्यमयोध्याधिपतिस्ततः ॥ ६८०॥ 20 सैन्योद्धृतै रजःपूरैः, शोकपूरैरिवाऽऽकुलाः । दिशोऽपि कुर्वन् शोकार्तस्तां पुरीं प्राप भूपतिः ॥ ६८१॥ तदुःखदुःखितैर्वाद, सोदरैरिव नागरैः । सास्रग्भिदृश्यमानो, विनीतां प्राविशन्नृपः ॥ ६८२ ॥ सारं सारं स्वामिपादान , वृष्टशेष इवाऽम्बुदः । सोऽसाम्बुविनुषो वर्षन् , खं विवेश निवेशनम् ॥ ६८३॥ तिष्ठन् गच्छन् स्वपन् जाग्रद् , बहिर्मध्ये दिवा निशि । दध्यौ स प्रभुमेवार्थ, हृतार्थ इव तद्धनः ॥६८४॥ अप्यन्यहेतुनाऽऽयातानष्टापदतलानरान् । प्रभुं प्रथयतः पूर्व, स पूर्ववदमन्यत ।। ६८५॥ आदौ पशुवदज्ञानं, व्यवहारनये जनम् । इमं प्रवर्त्तयामास, गृहवासस्थितोऽपि यः ॥ ६८६ ॥ आत्तदीक्षश्च भगवानचिरोत्पन्नकेवलः । उद्दिधीर्षर्भवाम्भोधैर्धर्मे प्रावर्त्तयजगत् ।। ६८७ ॥ कृतकृत्यः स्वयं कृत्वा, कृतकृत्यान् जनानपि । यः पदं परमं प्राप, तं कथं नाम शोचसि ? ॥६८८ ॥ शोकाकुलः कुलामात्यैः, कथञ्चिदपि बोधितः । शनकै राजकार्येषु, प्रावर्त्तत महीपतिः॥ ६८९ ॥ [चतुर्भिः कलापकम् ] 80 शनैः शनैः शोकमुक्तो, राहुमुक्त इवोडपः । बहिर्विहारभूमिषु, विचचार नरेश्वरः ॥ ६९० ॥ स्वामिपादानसौ स्मृत्वा, गजो विन्ध्यस्थलीमिव । विषदन्नेत्याऽऽप्तजनैः, सदाऽऽसनैय॑नोद्यत ॥ ६९१ ॥ परिवारानुरोधेन, कदाऽप्यारामवीथिषु । विनोदोत्पत्तिभूमिषु, जगाम जगतीपतिः ॥ ६९२ ॥ स्त्रीराज्येनेवाऽऽगतेन, समं वैणेन तत्र च । लतामण्डपशय्यासु, रेमे रम्यासु भूपतिः ॥ ६९३ ॥ , सूरवंशगगनसूर्य!। २ देवीशरलक्ष्मीकुमुद !। ३ सुमित्राहिमाचलपानद!। ४ अश्रुजलबिन्दून् । ५ कृपणः । उद्वर्तुमिच्छुः । ७ आगत्य । ८ स्त्रीसमूहेन । त्रिषष्टि. २० 25 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं [ प्रथमं पर्व ७०४ ॥ कुसुमाहरणां विद्याधराणामिव तत्र सः । कुसुमावचयक्रीडां, यूनामैक्षिष्ट कौतुकात् ॥ ६९४ ॥ ग्रथित्वा पुष्पनेपथ्यं, बरवामभ्रुवः स्वयम् । प्रसूनेधन्वनः पूजामिव तस्योपनिन्यिरे ॥ ६९५ ॥ सर्वाङ्गपुष्पाभरणाश्चिक्रीडुस्तत्पुरोऽङ्गनाः । ऋतुश्रिय इवाऽसङ्ख्यीभूतास्तं समुपासितुम् ॥ ६९६ ॥ रराज राजराजोऽपि सर्वतः पुष्पभूषणः । तासामृतुदेवतानामिवैकमधिदैवतम् ।। ६९७ ॥ 5 कदाचित् क्रीडितुं क्रीडादीर्घिकां सवधूजनः । राजहंस इव खैरं प्रययौ भरतेश्वरः ।। ६९८ ॥ तत्र चक्रे जलक्रीडां, वामनेत्राभिरार्षभिः । करेणुकाभिः सहितो, रेवायामिव कुञ्जरः ॥ ६९९ ॥ आलिङ्गन्त्यः क्षणं कण्ठे, क्षणं दोष्णोः क्षणं हृदि । तमापेतुः पयोवीच्यो, वामाक्षीशिक्षिता इव ॥ ७०० ॥ अवतंसीकृताम्भोजश्चलन्मौक्तिककुण्डलः । भरतो वरुणः साक्षादिवाऽलक्ष्यत वारिणि ।। ७०१ ॥ लीलाविलाससाम्राज्यनिवेशायेव भूपतिः । अहंपूर्विकया स्त्रीभिरभ्यषिच्यत वारिभिः ॥ ७०२ ॥ अप्सरोभिरिव जलदेवताभिरिवाऽभितः । जलकेलिप्रसक्ताभी, रेमे ताभिर्महीपतिः ॥ ७०३ ॥ स्वप्रतिस्पर्द्धिनां वारिजन्मनामिव दर्शनात् । वारिभिस्ताम्रतामापुः कुरङ्गकदृशां दृशः अङ्गनानामङ्गरागैरङ्गाद् विगलितैर्घनैः । आपः सकर्दमा यक्षकर्दमत्वं प्रपेदिरे ।। ७०५ ।। सङ्गीतकं कारयितुं, कदाचिदपि शक्रवत् । विलासमण्डपास्थानीमातस्थौ पृथिवीपतिः ।। ७०६ ॥ ॐकारमिव मत्राणामाद्यं सङ्गीतकर्मणाम् । सुखरं पूरयामासुर्वेणुं वैणविकोत्तमाः ॥ ७०७ ॥ 15 पुष्पादिभिः श्रुतिसुखैर्व्यक्तैर्व्यञ्जनधातुभिः । वैणिका वादयामासुर्वीणा एकादशाऽपि ताः ॥ ७०८ ॥ तत्तत्कवित्वानुगतं, नाम्ना प्रस्तारसुन्दरम् । रङ्गचार्या दधुस्तालं, नृत्ताभिनयमातरम् ।। ७०९ ॥ प्रिय मित्रवदन्योऽन्यमनुज्झन्तो मनागपि । मार्दङ्गिकाः पाणविकाः स्वं स्वं वाद्यमवादयन् ॥ ७१० ॥ जातिरागान् नवनवान्, खरगीतिमनोरमान् । गायनाश्च जगुर्हाहाहूह्वहङ्कारहारिणः ॥ ७११ ॥ चित्रीयमाणाश्वित्रैश्वाऽङ्गहारैः करणैरपि । नर्त्तक्यो ननृतुस्तारं, लास्यताण्डवपण्डिताः ।। ७१२ ।। 20 प्रेक्षाञ्चक्रे प्रेक्षणीयानीत्यविघ्नं महीपतिः । यत्र तत्र प्रसक्तानां प्रभूणां को हि बाधकः १ ।। ७१३ ॥ सांसारिक सुखान्येवं, भुञ्जानो भरतेश्वरः । खामिमोक्षदिनात् पूर्वलक्षाः पञ्चात्यवाहयत् ।। ७१४ ॥ अपरेद्युः कृतस्नानः, प्रक्लृप्तबलिकर्मकः । देवदूष्यांशुकोन्मृष्टशरीरः स्रग्विकुन्तलः ।। ७१५ ॥ गोशीर्षचन्दनकृतसर्वाङ्गीणविलेपनः । सर्वाङ्गनिहितानर्घ्यदिव्यरत्नविभूषणः ॥ ७१६ ॥ सोऽन्तःपुरनिकेतान्तर्वरस्त्रीपरिवारितः । वेत्रिण्या दर्श्यमानाध्वा, रत्नादर्शगृहं ययौ ॥ ७१७ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] प्रतिबिम्बितमत्यच्छे, गगनस्फटिकोपमे । यथाप्रमाणं सर्वाङ्ग, रूपं तत्र हिं दृश्यते ॥ ७१८ ॥ तत्र च प्रेक्षमाणस्य, स्वं वपुर्भरतेशितुः । अङ्गुल्या एकतमस्या, निपपाताऽङ्गुलीयकम् ॥ ७१९ ॥ तदङ्गुल्या गलितमप्यङ्गुलीयं महीपतिः । नाऽज्ञासीद् बेर्हिणो बर्हभाराद् बर्हमिवैंककम् ॥ ७२० ॥ वपुः पश्यन् क्रमेणेक्षाञ्चक्रे तां चत्र्यनर्मिकाम् । अङ्गुलीं गलितज्योत्स्त्रां, दिवा शशिकलामिव ।। ७२१ ॥ अहो ! विशोभा किमसाङ्गुलीति विचिन्तयन् । ददर्श पतितं भूमावङ्गुलीयं नरेश्वरः ॥ ७२२ ॥ किमन्यान्यपि विशोभान्यङ्गान्याभरणैर्विना १ । इति मोक्तुं स आरेभे, भूषणान्यपराण्यपि ॥ ७२३ ॥ आदावुत्तारयामास, माणिक्यमुकुटं नृपः । तद्धीनं च शिरोऽपश्यच्युतरत्नामिवोर्मिकाम् || ७२४ ॥ माणिक्यकुण्डले प्रोज्झ्य, तद्धीनौ च ददर्श सः । कर्णपाशावनैकेंन्दू, पूर्वापरदिशाविव ॥ ७२५ ।। 10 25 30 १५४ १ कामदेवस्य । २ नर्मदायाम् । ३ भुजयोः । ४ जलदेवः । * इत आरभ्य + एतहिपर्यन्तं पाठो नास्ति खंपुस्तके ५ कमलानाम् । नानाप्र सं १, खं ॥ ६ सूत्रधाराः । ७ मृदङ्गवादकाः । ८ पणववादकाः । दृश्यत खंता ॥ [ भरतेश्वरः सं २, आ ॥ ९ मयूरस्य । १० पिच्छम् । ११ सूर्यचन्द्ररहिते । स्निग्धकुन्तलः आ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । प्रैवेयकमहासीच, ग्रीवां तद्रहितामथ । नृपो ददर्श निःश्रीकां, निम्नंगामिव निर्जलाम् ॥ ७२६ ॥ हारमुत्तारयामासाऽऽलोकयामास च क्षणात् । वक्षःस्थलं तद्विहीनं, व्योमेव गततारकम् ॥ ७२७॥ केयूरे चाऽमुचद् बाहू, तन्मुक्तौ च ददर्श सः । उद्वेष्टितार्द्धलतिकापाशौ सालद्रुमाविव ॥ ७२८ ॥ कङ्कणौ चाऽत्यजत् पाणिमूले ताभ्यां च वर्जिते । निरामलसारकाग्रप्रासादवदुदैवत ॥ ७२९ ॥ अन्यान्यप्यङ्गुलीयानि, तत्याजाऽऽलोकयच्च सः । तद्धीना अङ्गुलीभ्रष्टमणीः फणिफणा इव ॥ ७३० ॥ तत्याज पादकटकौ, ददर्शाऽङ्गी तदुज्झितौ । गलितवर्णवलयौ, राजेभदशनाविव ॥ ७३१ ॥ इति क्रमेण भरतस्त्यक्तसर्वाङ्गभूषणम् । खमपश्यत् गतश्रीकं, शीर्णपर्णमिव द्रुमम् ॥ ७३२ ॥ अचिन्तयच्च धिगहो, वपुषो भूषणादिभिः । श्रीराहार्यैव कुंड्यस्य, पुस्तायैरिख कर्मभिः ॥ ७३३ ॥ अन्तःक्लिन्नस्य विष्ठाद्यैर्मलैः स्रोतोभवैर्बहिः । चिन्त्यमानं शरीरस्य, किमप्यस्य न शोभनम् १ ॥ ७३४ ॥ इदं शरीरं कर्पूरकस्तूरीप्रभृतीन्यपि । दूषयत्येव पाथोदपाथांस्यूपरभूरिव ॥ ७३५ ॥ विरज्य विषयेभ्यो यैस्तेपे मोक्षफलं तपः । तैरेव फलमेतस्य, जगृहे तत्त्ववेदिभिः॥ ७३६ ॥ इति चिन्तयतः सम्यगपूर्वकरणक्रमात् । क्षपकश्रेण्यारूढस्य, शुक्लध्यानमुपेयुषः ।। ७३७ ॥ घातिकर्मक्षयादाविरासीत् तस्याऽथ केवलम् । सूर्यप्रकाशो जीमूतपटलापगमादिव ॥ ७३८ ॥ सहसाऽऽसनकम्पोऽभूत् , तदानीं च दिवस्पतेः । महद्भ्यो महतामृद्धिमपि शंसन्त्यचेतनाः ॥ ७३९ ॥ भक्त्या तमभ्यगाच्चेन्द्रो, भक्ता हि प्रतिपत्तिदाः । स्वामिवत् खामिपुत्रेऽपि, किं पुनः प्राप्तकेवले १ ॥७४०॥15 शक्रोऽभ्यधाद् द्रव्यलिङ्गं, प्रतिपद्यस्व केवलिन् ! । यथा वन्दे विदधे च, तव निष्क्रमणोत्सवम् ॥७४१॥ ततश्च बाहुबलिवद्, विदधे भरतेश्वरः । प्रवज्यालक्षणं केशोत्पाटनं पञ्चमुष्टिकम् ॥ ७४२ ॥ उपनीतं यथा सन्निहितदेवतया ततः। रजोहरणमुख्योपकरणं भरतोऽग्रहीत् ॥ ७४३॥ ववन्दे देवराजेन, ततश्च भरतेश्वरः। न जातु वन्द्यते प्रामकेवलोऽपि बदीक्षितः ॥ ७४४॥ राज्ञां दशसहस्राश्च, प्रावजन्नार्षभिं श्रिताः । तादृशखामिसेवा हि, परत्राऽपि सुखाकरी ॥ ७४५॥ __अथ विश्वम्भराभारं, सोढुर्भरतजन्मनः । राज्याभिषेकमकरोदादित्ययशसो हरिः ॥ ७४६ ॥ आरभ्य केवलोत्पत्तेऋषभखामिवत् ततः । ग्रामाकरपुरारण्यगिरिद्रोणमुखादिषु ॥ ७४७॥ धर्मदेशनया भव्यान् , देहभाजः प्रबोधयन् । पूर्वलक्षं विजहार, भरतः सपरिच्छदः ॥ ७४८॥ अष्टापदगिरौ गत्वा, ततश्च भरतेश्वरः । चक्रे चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं यथाविधि ॥ ७४९ ॥ अथैकमासपर्यन्ते, चन्द्रे श्रवणऋक्षगे । सिद्धानन्तचतुष्कोऽसौ, सिद्धिक्षेत्रमुपाययौ ॥ ७५० ॥ 25 ____ एवं च भरतः पूर्वलक्षाणां सप्तसप्ततिम् । कुमारभावेऽमयत्, प्रभौ शासति मेदिनीम् ॥ ७५१ ॥ एकं माण्डलिकत्वे च, सहस्रं शरंदामसौ । अतिवाहितवांश्छद्मस्थतया भगवानिव ॥ ७५२ ॥ एकवर्षसहस्रोनपूर्वलक्षाणि षद् तथा । आर्षभिर्व्यतिचक्राम, चक्रवर्तित्वमुद्वहन ॥ ७५३ ॥ उत्पन्नकेवलज्ञानो, विश्वानुग्रहकाम्यया । विजहे पूर्वलक्षं च, दिवसं भानुमानिव ॥ ७५४ ॥ इत्यायुषा चतुरशीतिमतीत्य पूर्वलक्षाणि मोक्षमगमद् भरतो महात्मा । शक्रेण मोक्षमहिमा विदधे च तस्य, देवैः समं सपदि कन्दलितप्रमोदैः ॥ ७५५ ॥ 30 ग्रीवाभूषणम् । २ नदीम् । * चाऽमुचत् खं ॥ ३ भित्तेः। ५ लेप्यकर्मायैः। ५ क्षारभूमिः । तमन्वगासं २ ॥ नपा दशसहस्राणि प्रा. आ, सं२॥ ६ परलोकेऽपि । श्रवणनक्षत्रगे। ८ वर्षाणाम् । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 १५६ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतं स्वामिप्राग्भववर्णनं कुलकरोत्पत्तिः प्रभोर्जन्म चोद्वाहादिव्यवहारदर्शनमथो राज्यं व्रतं केवलम् । चक्रित्वं भरतस्य मोक्षगमनं भर्त्तुः क्रमाञ्चक्रिणोऽप्यस्मिन् पर्वणि वर्णितं वितनुतात् पर्वाणि सर्वाणि वः ॥७५६॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमे पर्वणि मरीचिभव भाविशलाकापुरुष-भगवन्निर्वाण-भरत निर्वाणवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः ॥ ६ ॥ समाप्तं च श्रीऋषभस्वामि-भरतचक्रवर्त्तिप्रतिबद्धं प्रथमं पर्व ॥ १ ॥ [ प्रथमं पर्व Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमे पर्व णि प्रथमं परिशिष्टम् ॥ श्लोकानामकारादिक्रमेणानुक्रमणिका ॥ (संकलन : मुनिश्री जिनसेनविजयजी) श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ म अज्ञासीदागतं तत्र २८५ ११७ अथ क्षुदादिभिः क्लान्ता १०३ ६३ अकाण्ड काण्ड पातेन १११ ८४ अज्ञो ज्ञाननिधि नाथं ७५९ ५१ अथ खण्डप्रपाताया ५५० ९७ अकाण्डागतदैत्याव ६०१ १२६ अणिमादि गुणोपेत ४६४ १५ अथ गोत्रभिदादेशात् ५४९ १४८ अकारयनिष्क्रमणा ७६१ १०४ अणुव्रतानि पञ्चाऽथ २४० १४० अथ चन्दन दासेन २८ २९ अक्षरन् रक्तधाराश्च ४६७ १४७ अतः प्रथमतश्चकं ३२९ ९१ अथ तं दण्डमुत्पात ६६५ १२८ अक्षवाटेऽक्षवाटे च ५७५ १५० अतिक्रम्य जलं चक्र २०० अथ तत् सार्थनाथस्य १०५ ४ अखण्ड षट्खण्डमही ९ १३३ अति कामत्यरे तत्र १२८ ३२ अथ तां स्वामि शिबिका ५३६ १४९ अखण्डाज्ञस्य सर्वत्र ८५ ११० अतिक्रामन्ति सहसा ५९२ ७७ अथ ताभ्यां ससैन्याभ्यां ५०९ ९६ अखण्डित ब्रह्मचर्य ८६ ६२ अतिकायमहाकायो ४६८ ४२ अथ तृतीयं मिथ्यात्व ६०१ ७७ अखण्डिताज्ञः सर्वत्र ९० ११० अतिपारिप्लवत्वेनोत् ६१ . अथ तेन विमानेन ४०५ ४१ अखण्डैस्तन्दुलरष्ट २९२ ८९ अतिवाहयितुं वर्षा १०१ ४ अथ तो बाहयुद्धार्थ ६०८ १२७ अगृहणन्नखिलक्षेत्र ४८९ ४३ अतृप्ताः स्वामिनं द्रष्टु ४२६ अथ दिग्विरतिभोगो- १९०७ अग्रतो भाजन मिव ५३१ १२४ अतोद्यापि न तादृक्षं १५१ ३३ अथ दिव्यातपत्रेण ४९८ १६ अग्रतो मातृदेवीना ८४५ ५३ अतः परमहं नाथ ! १४६ अथ द्वितीयः पक्षः स्यात् ३५६ १२ अग्रतः पार्वतः पश्चा- २२१ ८ अत्यन्त दुर्भगा मातु ५४३ १८ अथ नत्त्वा जगन्नाथम् ३८४ १४४ अग्रतः पार्श्वतः पश्चा- ६२७ १५१ अत्यन्त वृष्ट्यनावृष्टी ५७ १३४ अथ निर्वामिकाऽवोचद ५५९ अग्रत:पार्श्वयोः पश्चान् २८३ १० अत्यल्पमपि तद्रक्ष्य १०४ १११ अथ पुष्कल पालस्य ६९३ २२ अग्रदूती कृतान्त स्य ५७१ ७६ अत्याई पत्र बहलैः ८९ १३५ अथ प्रचेलुराचार्या ६४ ३ अग्रभूमावुभयतो ६५१ १०१ अत्र कि कश्चिदप्यस्ति ३७२ १४४ अर्थप्रसाधनपर ८२८ २६ अग्रेऽपि स्वामिनाऽऽदिष्ट १२० ६३ अत्र क्षेत्रानुभावेन ४२७ १४६ अथ बाहुबलिं दृष्ट्वा ३७६ ७० अग्रेसरान् वेत्रधरानपि ४७१ १४७ अत्रच प्रजियायेम १६७ ११३ अथ बाहुबलिः क्रुद्धः ६२७ १२७ अग्निकुण्डमिव ग्रीष्म ७६० १३१ अत्र प्रतिमया तस्थौ ३७५ ७१ अथ बाहुबलिनक्तं ३०० ११७ अङ्गनानामङ्गरागै ७०५ १५४ अत्र माssशातनां कार्पु ६३३ १५२ अथ बाहुबलिर्बाहु १२१ १११ अङ्गनारत्नयोरङ्ग ८०८ ५२ अत्र स्वामिनमायातं ३७७ ७१ अथ बाहुबलिर्यात्रा २८६ ११७ अङ्गनालिङ्गनादग्नि ३६५ १२ अत्रान्तरे कुमारस्य २९० ६८ अङ्गनालिङ्गन व्यग्रा १०२८ ५९ अत्रान्तरे च कलमै ६६७ ७९ अथ बाहुबलिर्लज्जा- ६४१ १२८ अङ्गप्रभानिहार ४०३ ७१ अत्रान्तरे च केनापि ५८ ३ अथ बाहुबलिः स्नात्त्वा ३६४ ११९ अङ्गारकारकः कश्चि- ८३६ १०६ अत्रान्तरे च तनयो ६५५ २१ अथ बाहुबलेनर्जन् ६०९ १२७ अगुलीमूर्खसु विभोः ७१२ ५० अत्रान्तरे पराभूत ८ २९ अथ भर्तुरभिप्राय ७६८ ५१ अगुलीये च बिभ्राणः ३६० ७० अत्रान्तरे धर्मघोष ५१ ३ अथ भोज्यादि सम्पत्सु ७४० १०३ अगुष्ठपानावस्थायाः ६८३ अत्रान्तरे च भगवान् ७५५ १०४ अथ यक्ष सहस्रणा २६७ ११६ अचिन्तयच्च धिगहो ! ७३३ १५५ अत्रान्तरे महाघोषा ४३१ ४१ अथ रत्नमये पट्टे ५८६ ४६ अगुष्ठोऽगुलयः शोणा:७१०।। अत्रान्तरे महीभत्तुं ५१० ७४ अथ राजाऽब्रवीदेवं ३९५ १३ अचेतनेभ्यो भूतेभ्य ३५४ १२ अत्रान्तरेऽवधिज्ञान ७५७ अथ राज्ञा विसृष्टौतौ ५३६ ९७ अच्युतेन्द्र उपादत्त ५०२ ४४ अथ कच्छ महाकच्छ १२४ अथ लोकान्तिकैर्देवं ८०१ २५ अच्युतेन्द्रः स्नपयितु ५०४ ४४ अथ कच्छ महाकच्छौ १११ अथवा कथयाम्यैतत् ९६ "अजातप्रतिचारोऽसौ ३१ १३३ अथ कन्दलितानन्दा ६२६ २० अथवा रेन पर्यस्त २१२ ११४ अजीजनद् बाहुबली ८८९ ५५ अथ किञ्चिदपक्रम्यो ४७६ ४३ अथ वार्षिक दानान्ते २६ ६० अज्ञानाज्जन्मिनो भूयो ५६५ ७६ अथ क्षीरोदपायोधेः ५२७ १४९ अथ विज्ञपयामास ४०० १३ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. अथ विश्वम्भराभारं ७४६ १५५ अथ व्रतात्सहस्राब्द्या ३९६ ७१ अथ शत्रुञ्जयगिरी ४४८ १४६ अथ स श्रीदमादिक्षत् ६२० ४७ अथ सागरचन्द्रस्य ६४ ३० अथ सानं योजनानां ५३ १३४ अथ साऽऽसादयामास ५९२ १९ अथ सौधर्मकल्पेन्द्रो ५७७ ४६ अथ सौधर्मकल्पेन्द्रो ४७७ अथ सौवर्ण सन्नाह ३४८ ९१ अथ स्नात्वा कृतबलि २५५ ८८ अथ स्नेहादिवाऽमर्षाद् ६२१ १२७ अथ स्वविक्रमेणाऽयं ५०१ १२३ अथ स्वामी महेन्द्रेण ८२६ ५३ अथ स्वाम्यङ्ग संस्कारो ५२२ १४८ अथ हाकारमाकार ८९५ ५५ अथाङ्ग शौचं स्नानेन १६३ १३८ अथाऽऽचचक्षे भगवान् २७६ १४१ अथाऽऽज्ञया बाहुबले: ५१९ १२४ अथाऽऽदाय दिव्यचूर्ण ६६० ७९ अथाऽदिक्षत्पुरारक्षं ३३७ ६९ अथाऽधिष्ठायकानस्य ७२० १३० अथाऽधोलोक वासिन्यः २७३ ३७ अथाऽनिवृत्तिकरणा ५९३ ७७ अथाऽऽपतत्पक्षिराज ५९७ १२६ अथाअभिनवराकेन्दु २२५ अथाऽभि योग्या गोशीर्ष ५४२ ४५ अथाभियोगिका देवाः ७६९ अथाभियोगिकान् देवा ६२४ ४७ अथाऽभ्यगात् स भरतं २३१ अथेन्द्राणामशेषाणा ३९९ ७१ अर्थक मास पर्यन्ते ७५० १५५ अथैकस्य क्षणस्याऽन्ते ७०१ १२९ अस्तस्य महार्थस्य ४३ २ अथोचिरे सुरा राजन् ! ४७१ १२२ अथोच्चैर्वादयामासु ५०५ अथोत्तरकुरुष्वेता अथोत्तरचतु शाले ३१२ ३८ अथोत्थाय गणभृतां ६६१ अथोत्यायोत्तरद्वार ६७५ अथो ददी बाहुबली १७ अथो मिथुनधर्माणो ९०२ अथोर्वीशो बहिर्मध्ये १०५ अथो रथं वालयित्त्वा १५१ अथोल्लङ्गितुमारेभे १७७ श्लोक नं. पृष्ठ नं. अथोवाच स्वयम्बुद्धो ३७७ १३ अदत्तं नाददीतार्थ ५८८ १९ अदशि सोमयशसा २४७ ६७ ।। अदीक्षयत् स कपिलं ५२ १३४ अदीनोऽपि हि दैन्येन ६०८ १९ अदृश्यत स्वर्ण गिरिः २४५ ६७ अदृश्यमानपर्यन्ता ५२ ८२ अदृश्याभिहुंतवह- ४ १३३ ।। अदृष्टपूर्विणो युद्ध ५५५ १२५ अद्रेस्तस्य प्रस्थमिव ४७६ बद्रेस्तस्य शिरस्यक. ५४८ १८ अद्भुतस्वपरिणाह- ४०६ १४५ अद्य त्वावसथे युष्म- ९२ ३१ अद्य दयो बाहुबलि १९३ ११४ अद्य देव ! प्रभासोऽस्मि २०७ अद्य नाथ !वयं धन्याः ४७४ १५ अद्य प्रभूति भूनाथ ! १८६ अद्यापि यदि वाऽहार २४१ ६६ अद्यापि साक्षात् त्वमसि ६५१ ।। अद्याऽवसपिणी लोक ५३८ ७५ अधुतन् सादिनां कुन्ता- ५४ ८२ अधमेन हि युद्धेन ५१६ १२४ अधरं स्फोरयन्नन्तः ३२१ ३८ अधरीकृत बिम्बाभ्याम् ५०४ १६ अधाद् वक्षः स्थलं स्वर्ण ७०४ अधिकरणी संस्थान ३०७ अधिज्यीकृतधन्वाभ- ४०८ अधिष्ठितो नदेवेना- १६२ अर्कीकृतपार्वणेन्दु ५०५ १६ अधुना यदि भूयोऽपि ५३७ १७ अघूनयत् स मूर्षानं ६८५ १२९ अधोऽयस्तोरणान्यासन् ११३ १३६ अधोमुखौ वितस्थाते ६५९ १२८ अधोवहद्वारिभवः ७६४ १३१ अध्वन्यजनआजानु- ९६ अनग्ना अपि वस्त्राणि १५७ अनन्त व्यसनावेग ३१७ अनन्तानुबन्धिकषाया- ६०९ ७७ अनन्तदर्शनज्ञान ४७९ ७४ अनपायमयस्तैस्तै ८३२ १०६ अनया चिन्तया धर्म- २३५ १४०।। अनशनमौनोदर्य १९८७ अनयोर्वस्तुनोमूल्य- ७५५ अनाचारमहाभूत १९३ अनाथामिव तां सेनां ३७८ ९२ श्लोक नं. पृष्ठ नं. अनादान मदत्तस्पा ६२१ ७८ अनाबाधेन मनसो ८९६ अनिलान्दोलितोद्दाम- ३४० अनीकस्याङ्गमुत्कृष्ट ९२८ अनुकूलमरुल्लोल अनुकूलयितुं कूल- ६२ अनुगास्तु सुरा द्रष्टुं ४२७ ४१ अनुगृह्याऽखिलं लोकं ५१४ १४८ अनुज्ञाता नरेन्द्रेण ७५४ १०४ अनुत्तरविमानानां २९ ६० अनुत्तरविमानोप- ४५७ १४६ अनुत्तर सुराणां त्वं ४८१ ७४ अनुदीपमिवाssलोको २१५ अनुप्रबजितः कच्छ ९३ ६२ अनुयान्त: स्वामिनं ते १०२ ६३ अनुशिष्य ततो दूतं २४ १०८ अनुसङ्क्रन्दनं चक्रे ४९७ १४८ अनुस्यूतामिव वहन् २७ २९ अनेकनृपसेवाभिः २०६ ११४ अनेकान्त मताम्भोधि ६१ अनेकामात्यसामन्तै २८५ १० अनेकयोनिसम्पाता ८३४ १०६ अनेक सम्परायेषु ३३९ ९१ अन्तकोजन्तुभिः किंवा २९६ १० अन्तर्मग्नास्थिपिशित- ६९६ अन्तर्मुहुर्त मात्रेण ८६७ अन्तरा कृष्णधवले ७२१ ५० अन्तरावर्त सुभगो ७१७ अन्तरिक्षानिपततो. ६७२ अन्तेवासिनमाचार्य १६५ अन्तःक्लिनस्य विष्टाच-७३४ १५५ अन्तः प्रविश्य लोकानां ४० ६१ अन्तः प्रविष्टमन्थाद्रि ५९८ १२६ अन्तः पुरेण सह तै- ६७५ १०१ अन्तः सारो मधुरसै- ९९५ ५८ अन्तः सञ्चरता तेन ३१३ अन्तः स्थितेन सा तेन ३१५ अन्त्यवप्रे प्रतिद्वारं ४५० अन्धकार इवाऽत्यन्त ८२३ अन्धकारमिवाशेषं- ३०१ अन्नस्य पात्र पतित- ८७१ २७ अन्नादीनां संविभागो ८९७ २८ अन्यतश्च प्रतिष्ठासु- ४२५ १४५ अन्यतेजस्विनां तेजो ४११ १२० ४४ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. अन्यदा ददृशे तेन ४३७ १४ । अन्यदा बहिरुद्याने ४२३ १४ । अन्यदाऽऽयुधशालाया ४६० ९५ अन्यदा स्वामिनः पाद ३९ १३४ अन्यः सागरदत्तस्य ७२३ २३ अन्यसैन्येऽग्रणीर्यादृग् ३१५ ११७ अन्यस्य चोपरि ग्राउण ३३६ ११ अन्या नगरचित्याग्निं ५६० १५० अन्यान्यप्यङ्गुलीयानि ७३० १५५ अन्ये तु देवा अन्येषां ५३१ १४९ अन्येद्यः क्रीडयाक्रीडद् ७३५ ५० अन्येा धरणो नाग- १४५ ६४ अन्येाराहूय चमू २८५ ८९ अन्येधुः श्रीमती क्रीडो- ६४३ २१ अन्येधुः सर्वतोभद्रं ६३२ २० अन्येाः साधिताशेष ५८८ ९९ अन्येन स्वीकृतं कल्प १५९ ३३ अन्येभ्योऽपि ददानोऽस्मि १९१ १३८ अन्येषामनगाराणां ५२६ १४८ अन्येषामनगाराणां ५४८ १४९ अन्योऽन्यं चारु माणिक्य ३९० ४० अन्योऽन्यं वाहन क्रीडा ५४ ६१ अन्योऽन्यं सैनिकानेवं ५५२ १२५ अन्योऽन्य दर्शनाभ्यासाद् १४४ ३३ अन्योऽन्य देहसङ्क्रान्त ४२७ ७२ अन्योऽन्य मत्सरामर्ष ५६४ ७६ अन्योऽन्य माह्वयमाना ४३१ १२१ अन्यो भरततुल्यः कः ५३३ १२४ अन्वीयमानः सैन्येन ५६३ ९८ अन्वीयमानोऽश्वारूढः ३५३ ७० अपक्रोषा गतमाना १२० ३२ अपक्व मृत्तिका गोल- ६९५ १२९ अपमोहाः साधवोऽमी २० १३३ अपत्यं तातपादाना ७४९ १०४ अपत्य युग्ममेकोन . २३०८ अपरा अपि वैताढय २७३ ८९ अपराजितं काञ्चीदा __ मा १९१ ६५ अपरे पूर्ववत् स्वानि ६१२ ४७ अपरे ये पुनर्भध्या ५९१ ७७ अपरेयुः कृतस्नानः ७१५ १५४ अपरेयुः शतबलो २५० ९ अपसारयलिलॊकं ८७८ ५४ अपसृत्य ततः किञ्चित् ५७१ ४६ श्लोक नं. पृष्ठ नं. अपाच्यरुचकाद्रिस्था २९० ३७ अपारगगनाम्भोधे ५२ ६१ अपालयमिदं राज्यं ८३२ २६ अपास्तकोशं निर्मुक्त ३९७ अपि तच्चक्रिणश्चक्र २०३ ११४ अपि प्रदत्तसर्वस्वो १५२ ६४ अपि पुत्रकलत्रादि ११० ६३ अपि शोध्येत पाथोधि- १३६ ८५ अपि सर्वात्मना ज्ञातु- १४१ १३७ अपीडयन्तो दातारं ७८४ २५ अपूरयन् महानाद ५०९ ४४ अपूर्यत रणश्रद्धा ४४४ . १२२ अपूर्यन्तागरुक्षोदै ६२३ १०० अप्यन्यहेतुनाऽऽयाता ६८५ १५३ अप्यार्याणामनार्याणां ६४८ १५२ अप्येकं तीर्थकृन्नाम ९०३ . २८ अप्येक दिवसं जीवः ४५१ १५ अप्सरोगण सङ्कोण ६२६ १५१ अप्सरोभिरिव जल ७०३ १५४ अप्सरोभिरुभयतो ७३४ ५० अप्सरोभिः श्रियमिवा ५३३ ९७ अप्सरःसु ददानासु ५३७ १४९ अप्रकाश्यं न चेद् बन्धो! ८५ ३१ अप्रार्थितप्रार्थकः को- ११८ ८४ अप्रार्थितप्रार्थयिता ३५४ अप्राप्तपूर्विणः सौख्यं २७० ३६ अप्राप्तयोविप्रयोगं ६९२ २२ अब्रह्मपरिहर्तव्य ५८९ १९ अभ्रं लिहतस्तोम ४२ १०९ अभ्रंलिहै: पयः पूरैः ९३ ४ अभ्रकान्तःपुटमये ६९५ १०२ अभग्नेच्छमनग्नास्तु १२६ ३२ अभङ्गानश्मभङ्गेऽपि ६३ ११० अभवन् वज्रनिर्धाता ३४६ ९१ अभानुभयतो मार्ग ६१४ ९९ अभितः स्वामिनं केचि- ५४४ ४५ अभितः पश्चिमद्वारं ४४६ ७३ अभिषकोत्सवे वृत्ते ७०६ १०२ अभित्रिभुवनाधीश ४१ ६१ अभूत् तत्रैक ईशान ७२१ २३ । अभूत् तन्मध्यतः प्रेक्षा ३६१ ३९ अभूवन भरतस्याऽपि ५८६ १२६ अभूवन्नमृतक्षीर- ८६९ २७ अभूवंस्तत्पुरो नित्य २८२ १० श्लोक नं. पृष्ठ नं. अभेद्यान् कूर्मपृष्ठास्थि- ३५८ ९१ अभेद्यैरककिरणे ४१० १४५ अभ्यर्थयध्वमभ्येत्य ९०० ५५ अमज्जन्नभितः पङ्क ९८४ अमन्दानन्दनिःस्यन्द ८४४ १०७ अमन्दामोद निःस्यन्द ३०८ ३८ अमरै म्यमानास्ते ५१८ ४४ अमर्षाच्चिन्तयित्वैवं ७२७ १३० अमात्योऽप्यभ्यधादेवं १८ १०८ अमी मुण्डाः शिरःकेश १६ १३३ अमी सहस्राश्चत्वार २४२ अमुं च सेवमानानां १६२ ६४ अमुना जन्मसिद्धेन ५३५ १७ अमुना विजितश्चक्र- ७०६ १३० अमुना स्वामिना सार्च ३२१ ६९ अमुमेव जगन्नाथं १६६ ६४ अमुष्य च पञ्चदश ३०३ १४२ अमुष्य तु व्रते पूर्व २९६ १४२ अमुष्मिन् देवलोके च ४७६ १६ अमूर्वाप्यो रत्नमय्यः ४८५ १६ अमोघं बिभ्रतश्चक्रं ११९ १११ अम्भकुम्भःशातकौम्भः २२१ ३५ अम्भोषय इवोत्पत्य ४१९ ९३ अम्भोषिरिव मर्यादा ४७८ १२३ अम्लानकेवलज्ञान ५०४ १४८ अम्लानकेवलज्ञान ८२७ १०६ अयं खलु जगन्माया १२ १०८ अयं चतुर्विधातोद्य ४८९ १६ अयं च निर्भयो भोगं ५४८ ७६ अयं चाऽशोकदत्तस्त्वां ४० ३० अयं जयजयाराव ५२२ ७५ अयं तु सेनाधिपति- २५६ ११६ अयस्कान्तरिवाऽयांसि ११२ १११ अयस्कारगृहेष्वेत्य १८० ११३ अयुज्यतां क्षणेनाऽपि ६१९ १२७ अयोरिव नाराचै ४२२ ९३ अयोध्यायामिव सुखं २८४ ८९ अयोध्यायां जितशत्रु २७८ १४१ अयोध्यायां त्वबन्ध्यन्त ६११ ९९ अयोध्याया महापुर्याः ३८९ ७१ अयोध्यायां सिंहसेन ३०४ १४२ अरका अवसपिण्यां ११६ ३२ अरके तु तृतीयस्मिन् १३२ ३२ अरण्यकेकिकेकात ७७५ १३२ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. अरनाथः स भगवां- २०२ अविदूरे विनीतायाः ६०८ ९९ अरमल्ल्यन्तरे भावी ३३२ १४३ ।। अविसम्भो न जात्वासी ६३ ३० अरिष्टवृष्टिमुत्कृष्टां ४२६ ९४ अशीत्यङ्गुलमुच्छ्रित्या ३८२ ९२ अरे वराकाः किं यूयं ४४३ अशुल्कामकरादण्डा ७०० १०२ अर्थ धर्म च मोक्षं च ३०१ अशेषद्रव्यपर्याय ५८१ ७६ अर्थव्यपेक्षया स्वस्माद ८८८ २८ अशोकदत्तोऽपीत्यूचे ८६ ३१ अय॑माना अपि मुह- १५२ ३३ अशोभत महारत्नैः ७१५ १०३ अर्धपञ्चमको दण्ड २७९ १४१ अश्वग्रीवस्तारकश्च ३६८ १४४ अर्द्धवर्षेऽर्द्धवर्षे च २४२ १४० अश्वत्थ सल्लकीकणि ६६ ८३ अर्हतो वज्रसेनस्य २८७ ६८ अश्वानाऽज्ञासिषुर्वल्गां ५९५ १२६ अर्हतोऽहज्जनन्याश्च ६२५ ४७ अश्वपुरे तु पुरुष ३४८ १४३ अर्हत्स्तुति मुनिश्राद्ध २४७ १४० अश्वरत्नप्रतिच्छन्दा- ४५० ९४ अर्हन्तमजितं विश्व ४ अश्ववारानुगो जात्य ४८६ ९५ अर्हन्तोऽस्तन्यपायस्मात् ६२८ ४७ अश्वसेनावनीपाल ६७६ १५३ अलक्ष्यन्त च ते कुम्भाः ५०१ ४३ अश्वानारुरुहः केऽपि ३९ अलङ्काराय यानीन्द्रो ५९६ ४६ ___ अश्वैरर्थश्च तावद्भि- ५९५ ९९ अलचितनिजस्थानं ४२२ १२१ अश्वैरश्वतरैरुष्ट- ४१ २ अलमुक्त्वा बह्वथवा २२९ ११५ अष्टमं विदधे तत्र २१७ ८७ अलम्बुसा मिश्रकेशी २९७ ३७ अष्टमस्तु बलदेवः ३६५ १४४ अलब्ध मध्यःसोऽम्भोधि ७१४ १०३ अष्टमः काश्यपकुल- ३३९ १४३ अलातमिव तडितं ९२ .४ अष्टमान्ते तमभ्येयु ५६९ ९८ अलिके तिलकंचारु ८१० ५२ अष्टमान्ते नृपः पूर्ण ८७ ८३ अवग्रहादिभिभिन्नं ५७७ ७६ अष्ट योजनमानेनो १०१ १३६ अवज्ञायाऽज्ञतां स्वस्य ३७२ ११९ अष्टयोजन विस्तारं ३८१ ७१ अवर्णवादो बलवान् ६६२ १२८ अष्टसुवर्णप्रमाणं ३०५ ९० अवतंसीकृताम्भोज ७०१ १५४ अष्टादशप्रकारंच १८२ अवतीर्ण दिव इव ६३३ १०० अष्टादश लिपी हि म्या ९६३ ५७ अवतीर्य रथात् स्नात्त्वा १९३ ८६ अष्टानवत्या तनयः ५९ अवधिज्ञानतो ज्ञात्वा २७७ ३७ अष्टानामग्रदेवीनां ३७२ ४० अवधिज्ञानतो ज्ञात्वा ४८१ १४७ अष्टापदगिरिः सोऽथ १०३ १३६ अवधिज्ञानि साधूनां ४५४ १४६ अवर्धन्त क्रमेणाऽमी ८९१ अष्टापदगिरी गत्त्वा ७४९ १५५ ५५ अष्टापदादूर्धन्य- ६२८ १५२ अवनि पावयन् पाद- २५८ १४० अष्टापदे च समव- २६२ १४१ अवरुह्य करिस्कन्धाद् ३६६ ७० अष्टाविंशत्यङ्गहीना २९४ १४१ अवरुह्य रथादङ्गं. १५२ ८५ अष्टो मुखे मुखे दन्ता ४१२ ७२ अवरुह्याकृष्यमाणा ९९ ४ असङ्ख्याता गतार्केन्दु ५११ अवलम्बितधैर्यास्ते ७८५ २५ असत्यं सर्वथा त्याज्य ५८७ अवश्यं सेवनीयो हि १०९ असद्भूतान् गुणान अवश्यभोक्तव्यमिदं ७६७ जल्पन् ७७८ १०५ अवसपिण्यां तृतीया- ४७९ ९५ असन्तुष्टस्तु भरतो ४९१ १२३ अवाजगणदुर्वीशो '४६८ १४७ असन्तोषमविश्वास- ६३१ ७८ भवातरद् बलीन्द्रोऽपि ६४३ ४८ असम्मान्तीं मुदमिवो- २२८ ३५ अवादयन् केऽपि तारं ५०८ ४४ असहिष्णुस्तयोर्भार ६२६ १२७ अविज्ञपय्य तातं तु ८०७ १०६ असाधुशासने साधु ९२६ ५६ श्लोक नं. पृष्ठ नं. असावशोकदत्तश्च ४४ ३० असावस्मास्वपि स्नेहं १२९ ११२ असावपारः संसारः ८२२ २६ असावुपकृतिक्रीती ५७ ३० असावृषभ कूटाद्री ४९१ ९६ असौ त्वज्जन्मकल्याण- ३३३ ३८ असौ धन: सार्थवाहो ४६ असौ माता पिता भ्राता ९६७ असौ समाधिपीयूष ४५७ अस्खलद्गतयो व्योम्नि ४९९ अस्खलन सञ्चरेोरे ३४० अस्ति पश्चिमतस्तस्य ३४ २ अस्ति ध्याधेः परिज्ञानं ७३८ २३ अस्तु वा तादृशो माया- ५४ ३० अस्तोकधुपधुमेन ४९८ ४३ अस्त्य सङ्ख्याम्बुधिद्वीप ३१ २ अस्मभ्यमपि किं क्रुद्ध ६५१ १२८ अस्मद्देशमनाक्रान्त ४१५ ९३ अस्माकं पश्यतामेष २८९ १० अस्माननुचरीभूतान् १०९ ६३ अस्माभिमन्त्रिभिरसौ २९१ १० अस्माभिर्योंधिते पूर्व ५५१ १२५ अस्मांस्तदनुमन्यस्व ६७० १०१ अस्मास्वायुधभूतासु १००२ ५८ अस्मिन्नपारे संसार २६२ ९ अस्मिन्नप्यरके कालात् १३१ ३२ अस्मिन्नप्यरके प्राग्वत् १३३ ३२ अस्मिन्न सारे संसारे ५८४ १९ अस्मिन् सुषेण सेनान्यां २१८ ११४ अस्मिश्च कैतवमहं ५३ ३० अस्य धर्यादवदतो ८३ अस्याऽनुप दमेवाऽय १३७ अस्यैव सेवक ज्योतिष १६३ ।। अस्यैव सेवनादाशु १६५ ६४ अहं सौधर्म देवेन्द्रो ४१४ ४१ अहमप्याह्वयाम्येनं ४६७ १२२ अहमे कोऽपि जेष्यामि २९२ ११७ अहिंसादिसमित्यादि ८९४ २८ अहिंसादीनि पञ्चाऽपि ५९४ १९ अहिंसा सूनृताऽस्तेय ६१८ ७८ अहो! अधृष्यो मूल्ऽसौ ४७६ १२३ अहो ! असार: संसारः ८२ ३१ अहो ! कष्टमहो! कष्टं ४९९ ७४ अहो! धन्याविमो वया- ९०६ २८ ६१ ४४ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. अहो! धर्यमहोसत्त्व ८४६ १०७ अहो ! बहिनिपतित- २५३ ९ अहो! भाग्य वशात्कालो ६२१ २० अहो! मम भवेऽत्रवो- ३३ १३४ अहो! विवय॑ते मुग्धः १०२३ ५९ अहो!रणाद् भाविनोऽपि ५२९ १२४ अहो! राज्यस्य लुब्धेन ७३० १३० अहोरात्र व्यतिक्रान्ते ७८ ८३ अहो! विशोभा किमसा- ७२२ १५४ अहो! संसारकूपेऽस्मिन् १०२० ५९ अह्रस्वदीर्घ चिबुकं ७१९ आ आकर्ण्य कर्णसूच्या ७२ आकर्ण्य देशनामेव ६४१ आकर्ण्य मन्त्रिवाचं तां १३९ आकर्णाकृष्टकोदण्डान् १४४ ८५ आकाघातनिर्घोषं ३२६ आकर्षणीरज्जुरिव ५३२ १२४ आकालप्रतिपन्नाभ्यां ६०७ १९ आकाश पुष्पवत् कूर्म- ३७८ आकुलास्तेन सैलेन ७६३ आकृष्य बाणधेर्वाणं १६७ आकृष्ट कार्मुकान्तःस्थो १०२ आक्रयमाणं विषय- ४४८ १५ आक्रान्तः पर्वतेनेव ५१६, १७ आगच्छतो जगभर्तु ४२ ६१ आगतैभरतात् स्तं- ४८ आगमाध्ययनध्यान ९०८ २८ आगस्यल्पे नीतिमाद्यां १७९ ३४ आगाद् विमान पञ्चाशत् ४३८ ४१ आघाटभूतं भरत १७७ ६५ आचार्य इव सम्पूज्य ६५९ आचार्याणां कृतेऽमीषा- ५५ आचार्या अप्यवोचत ५६ आचार्य पादपद्मान्ते १२६ आचार्यादीनां दशानां ८९८ २८ आचिच्छेद यथाऽन्येषां ८२२ आच्छिन्नरिन्दुमार्तण्ड ५०२ आजग्मुर्युग्मिनोऽप्यम्भो ९०९ ५५ आजन्मादृष्ट पूर्वी किं ८५७ -आजानु मग्नो मेदिन्या- ६८४ १२९ आजिर्षासुरपाक्रामत् २९४ । आजूह वदथ स्वामी १ ६० आज्ञया त्रिजगद् भत्तुं- ४३८ १२१ ।। श्लोक नं. पृष्ठ नं. आज्ञां नरपतेर्माला २८६ ८९ आज्ञा सर्वजगन्मायां २१ १०८ आज्ञाकरं दूतमिव १०६ ८४ ।। आज्ञातं सन्ति मे धर्म १११ ४ आज्ञातमथवाऽस्तीह १४ १३३ आज्ञापयति तातस्त्वां ७८८ १३२ आज्ञा हि ज्यायसा देया १९ १०८ आतपत्रे शिरःस्थेऽपि ४६९ १४७ आताम्रनयनस्ताम्र ३७९ ९२ आत्तदीक्षश्च भगवान् ६८७ १५३ आत्तव्रतस्य तातस्य ७०८ २२ आत्मजातेरनुचितं ३७ ३० आत्मसन्दर्शनायाऽस्या ६७८ २२ आत्मानं मार्जयन्ति स्म ३२३ ११८ आत्माराम इव योगी ६८६ १२९ आत्माराममना वाचं- २७७ १० आत्मारामैकमनसे ९० ६२ आत्मारामः साम्यधनो ८०६ २५ आत्मीयं पालयित्वाऽऽयु १७० ३४ आदत्से वपुषाऽनेन ७५३ . १०४ आदरादुपदेश्य वं ४२३० आदर्शमिव भूपाल १९ ८१ आदर्शमिव रोदस्यो- ८५ १३५ आदाय तां तज्जनक ७४२ ५० आदायौषध सामग्री ७५७ २४ आदावुत्तारयामास ७२४ १५४ आदिक्षदच्युतेन्द्रोऽय ४७५ ४३ आदित्यतुरग स्पर्द्ध- ९२९ ५६ आदित्यस्यन्दनस्रस्त १५४ ८५ आदित्यो भगवानेष ३२८ आदिदेश च वैताढये १७१ ६५ आदिनाथं प्रणभ्याऽथ ८१ ६२ आदिनाथमिति स्तुत्वा ४०५ १२० आदिनाथ मितिस्तुत्वा ६५४ १५२ आदिमं पृथिवीनाथ- ०३ ०१ आदिशत्पालकं नाम ३५३ ३९ आदिशद् भरतः सूदान् २३८ १४० आदौ पशुवदज्ञानं ६८६ १५३ आदी रोमाञ्चितैर्मत्य- ३१ ६० आदी वृषः सितः पीन २१३ ३५ आद्यप्रयाणदिवसा- ५९६ . ९९ आद्यादन्त्यान्मध्यमाद्वा ८६५ आधिदैविकदोषाभि ६४० २० आधिव्याधिजरामृत्यु ५५३ ७६ श्लोक नं. पृष्ठ नं. आधिव्याधिविरोधादि ३२० ११ आनक्षत्रगणं दूरा ६५ ११० आनन्दाश्रुजलैः पुण्य १४१ ०५ आनुपूज्यण पृथुलो ५०० १६ आनेष्यामो वयमिति ७४७ आन्तर्मुर्तिकं सम्यग्- ५९४ आपगाः पङ्किलीकुर्वन् ६०६ आपन्नसत्वा पत्न्यासीत् ५३३ ।। आपातमात्रमधुराः ५५७ ७६ आपातमात्रमधुर २६० ०९ आपातरमणीयधिग् १०३२ ५९ आपादमस्तकोद्भूत ०५ १३३ आपादय हंसपादि ! ७९१ ५२ बाप्तेन तत्र यः कोऽपि १८६ ११३ आबद्धमुकुट रेजे ५५ ८२ आबद्धरत्नमुकुट- ७० ११० आमयः कोऽपि चेदस्या: ७४१ १०३ आमसूत्रव्यूतखटवा- ५५६ १८ आमुक्तचोलकमिवा- ३९८ १४५ आमुक्तामलसंव्यान ८७ १३५ आमुक्ती च तयोर्मुक्ता- ८२० ५३ आमुमोच च सा रत्ना- ७६३ १०४ आमूलचुलिक चारु १८४ ६५ आमेति तस्मिन् वदति ५१८ १२४ आमेति पण्डिताऽप्युक्त्वा ६८२ २२ आमेत्युदित्वा स्वसुतं ४५२ १५ आयता मांसला स्थूला ७०२ ४९ आययुस्तुरगीभूय ६७६ आययुः सर्वतो भूपाः १५४ १३७ आययो पुण्डरीकिण्यां ६९८ २२ आयान्तौ नमि विनमि १२५ ६३ आयुक्ता इव निधयो २७३ ११६ आयुर्धनं यौवनं च ५५९ ७६ आयुविनश्वरतरं ७५० १०४ आयुष्यल्पेऽधुना धर्मः ४४९ १५ आयुस्ते पूरयित्वा द्वा. ७९० २५ आयुः पताकाचपलं २५६ आयोजन विसर्पिण्या २७२ १४१ आरक्षकानचंकांश्च ३८५ आरक्षकः प्रतिदिशं ७६ ०३ आरक्षपुरुषा उग्रा ९७५ ५७ आरक्षपुरुषोंहै- ६३४ १५२ आरक्षरात्मरक्षश्च ४९७ ७४ आरणाच्युतकल्पेन्द्रः ४९६ ४३ आरणाच्युतराजोऽपि ४४२ ४२ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. आसीदाशीविद्धिश्च ८८० २७ आसीनसपरीवार ४१९ ७२ ।। आसेव्यमानस्तत्काल २९८ १० आस्फल्य बाहुबलिनि ६८३ १२९ आस्फाल्य मानःफलकै- १६२ ११३ आहारोषधवस्त्रादि ८८६ २८ आ हिमाद्रि महीमेतां ८४ ११० आह्वानाय मया दूते ४६६ १२२ आह्वाप्य वेत्रिपुरुषैः ६९८ १०२ आः ! ज्ञातमथवा सन्ति २१३ १३९ २१ श्लाक नं. पृष्ठ नं. आरभस्व सजो रम्भे! ७८५ ५२ आरभ्य तद्दिनाद् यूयं १२८ ०५ आरभ्य केवलोत्पत्ते- ७४७ १५५ आरुरोह ससेनानी २६० ८८ आरुह्यारुह्यबाह्याल्या १७९ ११३ आरूढः करिणःस्कन्धं ५६२ ९८ अरोचकितयाऽश्वान् के- ३३६ ११८ आरोहक इवेभस्य ४९२ ९६ आतध्यानपर: कालाद् ४३५ १४ आर्त रौद्रध्यानहीनः ३७४ १४४ आतरौद्रमपध्यानं ६३४ ७८ आर्द्राकुरास्वाद ४११ १४५ आःशुशुभिरेवंशः ७८४ ५२ आर्यानार्येषु मौनेन २३८ ६६ आलिङ्गन्त्यः क्षणं कण्ठे ७०० १५४ . आलिङ्गयते शैल इव १०६ ६३ आलुलोके त्वया स्वप्ने २४१ ३६ आलोक्य मार्गणं तं च ४८९ ९६ आलोचं कुर्वतोऽत्येति ४८ ३० आवयोविग्रहे हेतु ४८७ १२३ आवां प्रेष्य प्रेषणेन १३६ ६४ बावा याचावहे नाऽन्यं १५५ ६४ आवासान् सर्वसैन्यस्य १५८ आवासान् सर्वसैन्यानां ८१ आविर्बभूवाऽनुशिर ४६५ आशास्यमानः सकल- ७९ ०३ आशास्यमानः स्वस्तीति ३८६ १२० आशिरःप्रपदं ग्रीष्म ७६१ १३१ आषाढमासस्य पक्षे २०८ ३५ आर्षभ्योर्वीक्षितुमिव ३२७ ११८ आसंसारं सरिन्नाथ २९५ १० आसंस्तस्य महेच्छस्या ३७ . ०२ आसंस्तस्य विमानस्य ३५७ ३९ आसक्तभारनिर्मुक्ता १८७ १३८ आसतां तैः समायातः ९४ १११ आसन्नं वर्तते लग्नं ७९४ ५२ आसन्नणीयसीं मूर्ति ८५२ २७ आसनानि दक्षिणस्या- ३७४ ४० आसनेषु समासीना: ६८२ १०२ आसयित्वाऽऽसने अत्युच्चे ८९८ ५५ आसादय विषादं मा १०१ ३२ आसीत्कण्टकशय्येव ४१३ आसीत्तेषां तदैश्वर्य ८५८ २७ आसीत् सिंह निषद्याया ५८६ १५० श्लोक नं. पृष्ठ नं. इति स्तुत्त्वा जगन्नाथ ५५० ७६ इति स्तुत्त्वा नमस्कृत्य २७१ १४१ इति स्तुत्वा नमस्कृत्य ६७८ १५३ इति स्तुत्वा भ्रमरवत् ८१८ १०६ इति स्वप्नार्थमाख्याय २४९ ३६ इतो जल्पन् युधे हेतुं ५११ १२४ इतोऽपि च विनीतायां ४८७ ७४ इतो भवात् तृतीयस्मिन् ३२२ ६९ इतोऽशुचिस्थस्य कृमे- १७२ ०६ इतः कुला द्यमलिन १३ १३३ इतः समवसरण- ४२२ ७२ इत: साक्षादलक्ष्मीभि- ५३६ १७ इत्थं प्रथमवप्रान्त- १८३ १३८ इत्थं विचित्रातोद्येषु ५१३ ४४ इत्थं स्थितस्य ध्यानेन ७७८ १३२ इत्थं स्थिते प्रभावेते ४८० १४७ इत्यभिष्टुत्य नत्त्वा च ४८६ ७४ इत्यभूच्चित्रसंरम्भ १२८ इत्यय॑मानोऽकल्प्यत्वा २६४ इत्यसाधारण ना ७३० इत्यस्य वचनस्याऽन्ते ५१५ ९६ इत्याकयं वचः पीत. ९९ इत्याकाsकुलामेष ४४६ इत्यादि भूषणग्रामौ ४६७ इत्यादिशति वः साक्षात् १३१ ८५ इत्यादि सम्यगेवेह ३७३ १२ इत्यायुषा चतुरशी ७५५ १५५ इत्याशङ्काकुलःसैन्यः ६९६ १२९ इत्युक्तःसूनुना श्रेष्ठी ५५ ३० इत्युक्त्वा भरतेशस्य २०९ ८७ इत्युक्त्वा भरतेशाय १८७ इत्युक्त्वा भवचरम ४४० १४६ इत्युक्त्वा सोऽर्षयामास १४९ ८५ इत्युच्चैविब्रुवाणास्ते ३५७ ९१ इत्युदित्वा कार्यवादं ४५६ १२२ इत्युदित्वा क्षणेनाऽपि ५५७ १२५ इत्युदित्वा पुण्डरीकः ४३७ १४६ इत्युदित्वा भगवत्यौ ७८९ १३२ इत्युदित्वा महासत्त्वः ७४० १३१ इत्युदित्वा विरतेषु ४८६ १२३ इत्युदित्वा स्वामिपादान् २०८ १३९ इत्युदित्वा स्थिते माया ८१ ३१ इत्युदीर्य शुनासीरो २२० १३९ इदं चाऽगृह्यताऽस्माभिः ५३७ १२४ इदं चित्तमिदं वित्तं- १७७ ०६ इक्ष्वाकुवंश्यशेषान- ५५८ १४९ इक्ष्वाकूणां महर्षीणा- ५५९ १४१ इच्छामिथ्याकरणादि ८९३ २८ इतरे तु महाश्राद्धा ६५२ २१ इतरे तु सितिश्वेत इतश्च जम्बूद्वीपस्य इतश्चतीर्थकृन्नाम ८८२ इतश्च धातकीखण्डे ६७६ २१ इतश्च भरतश्चक्री ०१ इतश्च भरतस्तस्थौ २५७ १४० इतश्च महिषमिव ५४५ ७५ इतश्च स्वामिनः शिष्यो ०१ १३३ इतश्च स्वामिमरणोत्- ५२० १७ इतवाऽनुचरीभूय ८५३ ५४ इतस्ततोऽन्वेषयंश्च १३८ ०५ इतस्ततः पौरऋद्धि ५६ १०९ इतस्तदानीमेव श्री ३८९ १२० इति क्रमेण भरत ७३२ १५५ इति चिन्तयतस्तस्यो. ११६ ०५ इति चिन्तयतः सम्य. ७३७ १५५ इति चैत्यं विनिर्माप्य ६३८ १५२ इति दुःखाकुलां देवीं ५०४ ७४ इति नन्दीश्वरे चैत्य ६४६ ४८ इति नाथमभिष्टुत्य ९१ ६२ इति नानारत्नमयं ६१४ १५१ इति निष्कुटमाक्रम्य २७५ ८९ इति प्रवादा लोकानां २७८ ११६ इति ब्रुवाणः शिरसि ३८३ १४४ इति श्रुत्वा स्वाभ्यनुज्ञा ३८० १४४ इति सञ्चिन्तयामास ६६३ १२८ इति सागरचन्द्रेण २४ २९ इति सूक्ष्मक्रियं नाम ४८७ १४७ इति स्मृत्वा समुत्थाय ४९३ १६ इति स्तुत्वा जगन्नाथ ६१० ४७ ₹mmm १४ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1.4 श्लोक नं. पृष्ठ नं. ईहक सेवा फलं दातुं ८०५ १०५ ईदृग्विनोदव्यग्रस्य २९० १० ईदृशं क्व मया दृष्टं २८३ ६८ ईदृशेऽप्यागते काले ४९ ३० ईशाञ्चके चक्रवर्ती ४७८ १४७ ईशानेन्द्रोऽन्यवातारी ६३७ ४७ ईशानोक्षेव निनदं ५९० १२६ ईशानोत्सङ्गतःशक्रः ६११ ४७ ईशानोऽप्युपरितनी ५५४ १४९ ईषदा नष्पायन् ८०६ ईषद्भूलग्नपादत्वात् ३९४ ९३ ईहामृगोक्षमकर ६१५ १५१ श्लोक नं. पृष्ठ नं. इदं याचे जगन्नाथ ! ४०४ १२० इदं वयस्यो जानाति ८७ ३१ इदं वः कल्पते किञ्चित् १३९ ०५ इदं शरीरं कर्पूर ७३५ १५५ इदं श्रीमदिदं रम्य ४७२ १५ इदं हि मम साम्राज्य ८३० २६ इदानीं वर्तते भर्ता ३१२ ६९ इदानीमपि गत्त्वा तान् ७९५ १३२ इन्दोमरीचिसर्वस्व ७३ १३५ इन्द्रनीलमणिस्तम्भा- ४४१ ७२ इन्द्रध्वजानां च पुरः १८४ १५० इन्द्रस्तम्भं समुत्तभ्य- २२५ १३९ इन्द्राणीभ्यां द्रुतं देव्याः ८६७ ५४ इन्द्राणीभिगीर्यमान ८२८ ५३ इन्द्रादेशादथैन्द्यां ते ५२४ १४८ इन्द्रावग्निकुमाराणा- ४६२ ४२ इन्द्रो विजीयते देव. ७०५ १३० इन्द्रो विद्युत्कुमाराणां ४६१ ४२ इन्द्राः समं देवगण- ४२१ ७२ इन्द्राःस्वस्वविमानेषु ५६४ १५० इभानिवादि भिन्दानान् ५६७ १२५ इमां विश्वहितां वाचं ४५७ १२२ इमे भगवतः शिष्ये ७९१ १३२ इयं भरतराज्येऽभूत् २४९ १४० इयत्कालं गतः क्वासीद् १६८ ११३ इयत्कालं च तद्धर्म ६१८ २० इयत्कालं नागतोऽस्मी- १०५ १११ इयत्कालं नाऽऽगता:स्मो १३८ ११२ इयत्यपि गते कार्य ४८२ १२३ इयत्यपि त्वमेवैको ६४४ १२८ इयमुद्भटताऽकारि ३० २९ इलादेवी सुरादेवी २९४ ३० इलायाः सकलाया यः ८७ ११० इष्टापूत्तं प्रियेणेव ९९७ इह कृत्वाऽशुभं कर्म ३८३ १३ इह चंकाकिनी दीना ६८० २२ इह त्रिभुवनाधीशः १६७ ६४ इह नन्दीश्वरे जैन ६७९ २२ इहैव दग्ध्वा घातीनि ७४४ १३१ इहैव भरतक्षेत्र ३७७ १४४ इहैव शैले शैलेसी ४२८ १४६ उक्त्वा जयजयेत्युच्च- ४७२ ९५ उक्त्वेति भरतस्याऽन्य-६४८ उक्षणां घण्टाटणत्कारै- ७३ ०३ उच्चकैश्चक्रिरे केचित् ५६० ४५ उच्चखान चतसृभि- ६७ - ६१ उच्चस्थेषु ग्रहेष्विन्दा- २६५ ३६ उच्चितेषु च पुष्पेषु १००३ ५८ उच्च रुच्चैः सुमनसः १००६ ५८ उच्चै रुदीय मर्यादा २१७ उच्चैः शब्दाय मानेषु ५४२ १४९ उच्छलद्भरजोवेलो ९४ ८३ उछलन्त्यो मौलि देशाद्-५२० ४४ उच्छल्योच्छल्य वेगेनो- ४७३ १४७ उत्कण्टककरालाभि- ७७० १३२ उत्कण्ठितानां देवानां ४२४ ४१ उत्कण्ठित: कनिष्ठं स १६९ ११३ उत्कर्णतालास्तत्कालं ३३० ११८ उत्कर्ण सरल ग्रीवा ७५ उत्कील्यते त्वचयद्भि- ५७२ उत्क्षिप्य पाणीन् कुर्वाण- ३४ ८२ उत्ततार पुरस्तस्य- ३२ १०९ उत्तमस्ते कुलकर २२९ ३५ उत्तमानुत्तमा नाम १००० ५८ उत्तरेणोत्तरेणषां २०६ १३९ उत्ताला: कांस्य तालानि ५०७ ४४ उत्तुङ्ग कुम्भशिखर ३२ ८१ उत्तुंङ्ग शृङ्ग रुचिरा ५७८ उत्थाय च ततःस्थानात् ४२० १४५ उत्थायोत्थाय पावित्वा २५१ ६७ उत्पतंस्तपनं कांस्य ६९२ १२९ उत्पताकध्वजस्तम्भं ८९ ८३ उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते ३३७ ११ श्लोक नं. पृष्ठ नं. उत्पाद्याऽरणिदारुभ्यां ३१४ ३८ उत्पन्न केवलज्ञान ७९७ १३२ उत्पन्न केवलज्ञानो ७५४ १५५ उत्पन्न केवलस्तात उत्पन्नो भरतक्षेत्र २३० ८८ उत्पादो विगमो ध्रौव्य ६५८ उत्पेततुः क्षणेनाऽपि ६२० १२७ उत्पेदे केवलज्ञानं ३९७ ७१ उत्पेदे केवलज्ञानं ०२ २२ उत्पेदे वनसेनस्य ८०९ २५ उत्फुल्लकुमुदामोद ६६२ ४८ उद्भट ताडयामासु ५६३ उत्साहेनोच्छ्वसद्देह- ३६० उत्साहोच्छ्वसदङ्गत्वा- ३८१ उदघाच्यां तु ककुभि ४०६ ४१ उदग्दक्षिणयोः श्रेण्यो- ४९८ ९६ उदग्द्वारेण समक- १७१ १३८ उदरभरतखण्डानां २९८ ९० उदग्रुचकतोऽप्येयु- २९६ ३७ उदग्रबाहुना बाहु- ५४९ १२५ उदरे मरुदेवायाः २५९ ३६ उदधौ पुष्करोदेऽपि ४८३ ४३ उद्दामदुन्दुभिध्वान- ५०७ ९६ उद्दामनेमिरेखाभिः ४८४ ९५ उद्दामपक्षसूत्कार १०७ ८४ उद्दामलोहवलय ३४५ ११८ उद्दामशुण्डादण्डाभ्यां ६६ ११० उद्दामं सुमनोदाम ६९६ १०२ उद्दिश्यक्षुद्र हिमवत् ४६४ ९५ उद्दिश्य च निधीन् पृथ्वी ५६८ ९८ उद्दिश्यतानवहितान् ३४६ उद्दिश्य भरतानीक- ३६९ ९२ उद्दीपनाय वीराणां ३६२ ११९ उबुद्धसूचिव्याजेन ४०३ १४५ उद्यतोद्यानपालीव उद्ययुः पादयोस्तस्य ७७३ १३२ उद्यानयानजगती ३४३ १२ उद्वेल इव पाथोधि- १७३ ८६ उन्नालनीलनलिनी ३५० ११८ उन्निद्रपारिजातादि ५९७ ४६ उन्मील्य नयने हस्ते- ६७१ १२९ उपकत्तुंमिहान्येषां ६४९ १५२ उपदेशं जगद्भर्तु ९३७ ५६ उपनीतं यथासन्नि- ७४३ १५५ ५८ ईक्षाञ्चके रविर्यच्च २४० ३६ ईहक् तावत् तव भ्राती-२२२ ११५ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. उपभूमि प्रसद्धि - २७१ ३६ ऋरिवन्द्रियर्थानुकूल्यं ६८६ ८० उपरिभ्राजमानं च ६१९ १५१ ऋषभप्रभृतीरहत् ६३४ ४७ उपरिष्टाद् बाहुबलेः ६३९ १२८ ऋषभस्वामिनस्तत्र ३६५ ११९ उपरि स्वामिनो दृष्टि ६१९ ४७ ।। ऋषभस्वामिनोऽत्राज्ञा ४३७ १२१ उपरीन्द्रध्वजस्तासां ५८३ १५० ऋषभस्वामिनो नत्त्वा ६४५ १५२ उपर्यसावधोऽसावि ६२३ १२७ ऋषभ स्वामिनो भृत्यो ५१३ ९६ उपर्युपरि कभ्यां षट् ५३१ १७ ऋषभ स्वामिनः पादा ४६ १३४ उपलक्ष्य विलक्षत्वं २०४ १३९ ऋषभस्वामिनः सूनुः ८ १०८ उपलक्ष्योपलक्ष्योच्च- ४३० १२१ ऋषभा वर्द्धमानाच ५७९ १५० उपसगैरसंस्पृष्ट: ३८८ ७१ ऋषभो भगवान् साक्षा ५१२ ९६ उपाददे ततो वैरि ४१० १२० ऋषभस्वामिनः सूनोः २४० ११५ उपायनमुपादाय १४० ८५ ऋषिवादितकानां तु ४७१ ४३ उपायानामिवाऽगार- ३४६ ७० उपास्यमानो युगपद् ६७ १३५ एक मण्डलिकत्वे च ७५२ १५५ उपेक्षितव्यो न परः १३ १०८ एकं याचे भवत्पादान् १४८ १३७ उपेत्य बाहुबलिनं ४७२ १२२ एक वस्तु समुद्धृत्या- ८६६ २७ उप्ता दिनमुखे चूत ४३६ ९४ एकं श्रीदामगण्डं च ६१८ ४७ उभयोः सैन्ययोर्मध्ये ५७२ १२५ एकग्रामसभावास ५५७ उभावपि महौजस्को ५७७ १२६ एकतो राजधर्मोऽयं १७ १०८ उभे अपि तयोः सेने ४१९ १२१ एकत्र च निषण्णौ तौ ५१२ १७ उभौ मियो निध्यायन्ती ५८० १२६ एकत्र विश्वविजयी १०१ १११ उरः स्थलं चाऽकलयत् २४७ ९ एकत्रापि क्षतं तेजः २४५ ११५ उल्लोचं परितस्तं च ७८२ ५२ एकत्रेवेभरत्नानि ५७ १०९ उल्लोचस्यान्तरे पार्श्व ५८९ १५० एकदाऽपि हि योऽश्रोषोत्५१७ १४८ उवाच सोऽय भगवन् ! ४२७ १४ एकदा विहरंस्तत्र ८१६ २६ उवाचाऽशोक दत्तोऽपि ६८ एकदा वैद्यपुत्रस्य ७३२ २३ उष्ण वृष्णकिरण ५०१ ७४ एकवर्षसहस्रोन ७५३ १५५ एकविंशतिरब्दानां ११५ ३२ ऊचिरे युवराजते ३१८ एकस्य बन्दिनो हस्त २२ २९ ऊचुमघमुखाश्च ४१६ ९३ ऊचुस्ते च वयंगङ्गा ५८३ एकस्मिन्युत्सवेऽन्येद्यु- ५४४ १८ । ऊचे तत: शतमति- ३७५ एकस्मिन् भरतक्षेत्रे ७०४ १३० १२ ऊरू च मृदुलो स्निग्धा ६९८ एकां कोटीं हिरण्यस्य २३ ६० ऊरुप्रदेशे ऋषभो ६४८ ४८ एकाक्षाः स्थावरा भूम्य-१६१६ जितं तद् वचस्तस्य ५१० १२४ एकादशाङ्ग्याः पारीणा ८३७ २६ ऊवं योजनविशत्या १८३ ६५ एकान्तदुःखप्रचिता १३६ ३३ ऊर्वबाह व्रतीवोर्ध्व ६३५ १२७ एकान्तसुषमातोऽपि २६७ १४१ ऊर्ध्वस्तिष्ठत्युत्तरीया ८३८ ५३ एकान्धकारता चैक ४२५ ९४ ऊवो भूयाऽपरे तस्थुः ४०३ ९३ एकेनाऽपीन्द्रियेणान्ये- ८७३ २७ एकेनैवाऽऽतपत्रेण ६२५ १०० ऋक्षः कर्णे तदात्तोऽयं २०४ ११४ एकेन्द्रियप्रभृतीनां ६१२ ७७ ऋजुर्विपुल इत्येवं ५८० ७६ एकेन्द्रियाणि सप्ताऽपि ५७७ ऋजुशील: सदैवाऽसौ ५ २९ एकैकं बद्धमुकुटं ३५६ ११९ ऋजोःसदा प्रसन्नस्य ३२६ ११ एकैव ननु संसारे ५२५ १७ । ऋते श्री हुबलिनं ५० १०९ एकोत्पातात् ततश्चाप्तुं ८७९ २७ श्लोक नं. पृष्ठ नं. एकोनत्रिंशतं चापा- ३५१ १४३ एकोनविंशदेकोन- ५८६ ७७ एकोऽपि सोमः सैन्यानि ३११ ११७ एकः सङ्क्रन्दनस्तत्र ४१८ ४१ एक: सुषेण: सेनानी- ११८ १११ एतच्च सर्व सावध ९७१ ५७ एतच्छ त्वा च ते सर्व ३२९ ६९ एतत्कृतेन तीन ५१२ १४८ एतस्यामवसविण्यां ५३१ ७५ एतावता नाऽसि जितो ६४३ १२८ एताश्च चामरादर्श ४८८ १६ एताः स्वच्छजला: क्रीडा ४८६ १६ एते च नियतानर्थान् २३६ एते रागद्वेषमोहा १०२२ एते वयमिदं राज्य १४८ ८५ एते शलाकापुरुषा २८ ०२ एतेषां चरितं ब्रूमः २९ २ एतेऽष्टादशशीलाङ्ग १९ १३३ एते सार्थककुयन्तः २१४ ८ एतेह्य किञ्चना मेऽस्तु १८ १३३ एभिर्भूपैश्च बुभुजे २५३ १४० एभिर्मदीयंमुनिभि- २०९ १३९ एयुविचित्रमाणिक्य ५०० ९६ एलालवङ्गलवली १५७ ८५ एवं क्रमेण चक्राते ६०४ १२६ एवं कौतुक धवलान् ८६३ ५४ एवं खेलायमानेषु १०१७ ५८ एवं चतुर्विधं सङ्घ ४५८ १४६ एवं च भरतः पूर्व ७५१ १५५ एवं च स्मारयन्त्येते २३३ १४० एवं चिन्तयतस्तस्य ७०७ १३० एवं चिन्तयतो बाहु- ७१६ १३० एवं चिन्तां प्रपन्नस्य ५३८ १७ एवं जगत्पति स्तुत्वा १८१ १३८ एवं ते वरवणिन्यौ ८०१ ५२ एवं देवास्ते प्रभुं वि-१०४० ५९ एवं द्वाषष्टिरन्येऽपि ५७२ एवं निराकृतो भूयो- २०१ १३९ एवं निवत्तितोद्वाहः ८८० ५५ एवं निषिद्धो भोगेषु १९७ १३९ एवं पुरन्दरं प्रेक्ष्य ३२३ ३८ एवं योजनमानेन ७९ ८३ एवं विचिन्तयन्नत्र ९८ ३१ एवं विचिन्तयन् नित्यं २०९ ११४ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. एवं विचिन्तयन्तस्ते ५४१ १२४ एवं विचिन्तयन्ती ती १२९ ६३ एवं विचिन्त्य शकट १९९ १३९ एवं विद्याधराणां तु २२५ ६६ एवं विनोदैवि विध- ६८१ ४१ एवं विमृशतस्तक्ष- ७२२ १३० एवं व्यज्ञपयत् कोऽपि २५६ ६७ एवं संसार वैराग्य १०३४ ५९ एवं सति न त्वं नाऽहं ३९२ १३ एवं सति स्थानतोऽस्मा- ११ १३३ एवं सत्यप्यपयात ४४५ ९४ एवं सत्त्वोपकाराय ४२४ १४५ एवं स्थितेऽपि मे किञ्चिन् ७०९ २२ एवं स्थितेऽपि ह्यालोच्य ५०२ १२३ एवमच्युतनाथेन ५३८ ४५ एवमदभुतया शक्तया ४५५ ९४ एवमात्मकुलमदं ३९० १४४ एवमाभाषमाणस्य ६१९ २० एवमालोच्य भरतः १९४ एवमुक्तवा पण्डितायां ६६८ २१ एयुविदिगुरुचकाद्रे- २९९ ३७ एयुर्विमानै रुचिरै- ३५२ एषणीयं कल्पनीयं ३१७ ६९ एष प्रत्यग् दिगन्त स्थः २०८ एषां तीर्थकृतां तीर्थ- २७ एषां प्रधानभूतं तु २०८ ६६ एषा ऋषभनाथस्य ७५६ ५१ س سه ی श्लोक नं. पृष्ठ नं. कञ्चिद् विकल्पं सङ्कल्प्य ९६ १११ कटकान बाहुरक्षांश्च ४७४ कटकानि कटीसूत्र २१० कटिजान्वन्तराले चो- ५२५ ४४ कटीसूत्र रत्नमयं १८८ कट्यां स्वामिनमारोह्या ८६६ कणानामिव रत्नानां ४० ०२ कण्ठेन च त्रिरेखेण ७५१ ५१ कथञ्चिदपि सम्बोध्य ५४८ ९७ कदलीपत्रसंध्यान ९१ १३५ कदाचित् क्रीडितु क्रीडा ६९८ १५४ कनिष्ठेन जितो राज्ञां १७१ ११३ कनिष्ठो वयसा तस्या ३१२ ११७ कनीनिका सुतेऽन्योऽन्यं ८५२ ५४ कन्दमूलफलादीनि ११२ कन्दर्पद्यूतकृत्स्वर्ण ७४७ ५१ कन्दः पादाम्बुजस्येव ६९३ ४९ कन्देन मदनस्येव ८४४ कन्यकाः स हि गहाणाति ३१४ कन्यागोभूम्यलीकानि ६२८ कन्या बंन्दिव्यतिकर ४३ ३० कपि कच्छू बीज कोशी १०२५ ५९ कपोलाभ्यां नवस्वर्णा ५२२ कमठे धरणेन्द्रे च २५ कमलामोद निःश्वासं ३९५ ९३ करभैः सैरिभैरुक्ष ६७ ०३ करामलकवद्विश्व ११ ०१ करिणेव करेणोच्च- १५० ११२ करिस्कन्धाधिरूढव ५३० ७५ करिष्वारोपयन् शारी: ३४६ ११८ करीव जाती कवले- ५०६ १२३ करीवोन्मुद्गरकरः ७२८ १३० करीषाग्निसोदरया ५४७ १८ कर्णक्लेशाय गीतानि ४१५ १४ कर्णतालस्तालवृन्तै- ४०५ ७१ कर्णनेत्रादिभूरङ्ग- ८४५ कर्णयोः प्रांतविश्रान्त ५२२ कणी रतिपते: क्रीडा- ५०६ कर्तव्यं तच्च निश्चित्य २१४ १३९ कर्दमोदकपाषाण ३९३ ९२ कर्पूरलिधवल- ७६६ १०४ कर्पूरागरुकस्तूरी ३४२ १२ कर्पूरागरूकस्तूरी ६२५ १५१ कर्बटानां महम्बाना- ७२५ १०३ श्लोक नं. पृष्ठ नं. कर्मादिभेदकुलिशं ४३१ १४ कलत्ररत्नाधिगमा- ६६९ २१ कलशांस्तानुपादाय ४८१ ४३ कलानिधिरिवाऽशेष २४३ ०९ कलाभ्यासे कलाचार्यो ७९९ २५ कल्पद्रुम इवानऽयं ६९७ १०२ कल्पद्रुमसधर्माण १७ ०१ कल्पद्रुषु समुच्छन्ने- ९३४ ५६ कल्पपादपवत् पादौ ५५४ १८ कल्पवृक्ष इवाऽवृक्षे ३३७ ३८ कल्पान्तपुष्करावर्त ६०० .१२६ कल्पान्तसागरावर्त ६९१ १२९ कल्याणिनेयि! कल्याणि! ७४७ १०४ कल्याणः पञ्चभिर्दत्त ६४६ १५२ कल्प्यं वः स्याद् यदन्नादि ६२ कशानिपातरहितं ३८७ कश्चिदप्यब्रवीदेवं २५७ कषायगुल्मनीहार' १२० कषाया भवकारायां १०२७ कस्योक्षिप्त कृतान्तेन ३२२ ३८ काकन्यां सुग्रीव-रामा २९३ १४१ काकिणीचर्ममणयो ७१० १०२ काकोऽप्याहूय काकेन्यो १९२ १३८ काञ्चनाम्भोजतिलकं ३९० ९२ काञ्चनैः किङ्किणी . जालैः ३८८ ९२ कातराक्ष्या समं कश्चि- १०१५ ५८ कामक्रोधादिभिस्तापै २५७ ०९ कामुकेम्य इवाश्लेष ९८९ ५८ कामोऽयं नरकदूतः २९९ - १० काम्पिल्ये च कृतवर्म ३०२ १४२ काम्पिल्ये ब्रह्मदत्तस्तु ३३६ १४३ कारागाराय संसार १०७ ३२ कार्यकारणभावं चेद् ३९१ १३ कार्यमूलमविज्ञाय ४५९ १२२ कार्यारम्भविधी वाम २७ १०८ कार्या संलेखना मुक्तेः ४३४ १४६ कालशुद्धं तु यत्किञ्चित् १८४ ०७ कालानल इवाऽकाले ७०९ १३० कालाय समयान् कोशा ३५१ ११९ कालीनां कालिकेयास्तु २२२ ६६ कालेन गच्छता तत्र १४८ ३३ कालेन तत्र पूर्णायुः २२६ ०८ ऐक्यश्रुतमविचारं ३९४ ७१ ऐरावण इवेभेषु ७३० २३ ऐरावणरदांश्छित्वा ११६ ८४ ऐशानकल्पाधिपतिः ४३२ ४१ ओ ओंकार इव मन्त्राणां ९२५ ५६ औकारमिव मन्त्राणा- ७०७ १५४ ओजस्विभिरुदस्वःस्व. २९१ ११७ ओजस्वी भुवि चक्रयेव २०२ ११४ ओष्ठीबिम्बोपमो दन्ता ७१८ ५० औ औक्षकेणोप्ट्रकेणाऽश्वे- ७२ ०३ औदासीन्यमहो! धर्म- २३४ १४० क एष नूतनो राज १६५ ११३ कङ्कणी चाऽत्यजत् पाणि ७२९ १५५ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. कालेन पञ्चतां प्राप्य १७५ ३४ कालेन पूरयित्वाऽऽयुः १०८ ३२ ।। काले नैतावता तस्य ५०५ १२३ कालेऽवर्षज्जलधरः ९८१ ५७ कालो द्विविधोऽ वसपिण्य ११२ ३२ काशीन् विकाशयन् पय ३९३ १४४ काश्चित् करोद्धृतस्वर्ण २० ८१ काश्चिदप्यञ्चलान् पाणि- ४६ ६१ काश्चिदप्यभिनाभेयं ४७ ६१ काश्यपाश्चक्रिण: स्वर्ण ३२६ १४२ किं कदाप्यस्मदीयेऽपि ७३५ १०३ किं करोमीति विज्ञीप्सु १६९ ८६ किं च या स्वःसुखैस्तृष्णा ८३५ १०६ कि चिन्तयसि मारीचि ७९३ किन स्मरसि बालस्वे ४०१ १३ किं नाम कुशलं बाहु २११ ११४ कि निजान्येव राज्यानि ११६ ६३ कि पतस्यन्तरे मे त्वं ३९६ ४० कि पश्चात पतितोऽस्येहि ३९७ ४० किं मुह्यसि महासत्त्व! ५२३ १७ किंवा विहित रेभि- ६३३ १२७ किंवा व्रजामो भरत ११७ ६३ किं शुकैः शुकचञ्चुवद् ४०८ १४५ कि स्यादस्योपयोगाय ७०३ १३० किङ्कर्त्तव्यजडा साऽपि ७४४ ५१ किङ्करानाहतोऽप्युच्च २६९ ३६ किङ्किणीमालभारिण्या २२० । किञ्च प्रत्यक्ष मीक्ष्यन्ते ५७० १८ किञ्च पिष्टोदकादिभ्यो ३६१ १२ किञ्च बाहुबले: पुत्र ३१३ ११७ किञ्च श्रुतमिदं __ क्वाऽपि २४८ ११५ किञ्च सम्भावयसि रे! ७४ ३१ किञ्चित पश्चात् । - पदन्यास ६६० १२८ किञ्चिन्यूनप्रभावाच्च १३० ३२ किञ्चिल्लोचनपातेन ५४ १०९ किन्तु तत्र महानंद ५७३ ७६ किन्तु तां वर्तयामासो- १०५ ३२ किन्तु देवो यदाद्यगाद् ७४५ १०४ किन्तु दैवादकाण्डेऽपि ४७ ३० श्लाक नं. पृष्ठ नं. किन्त्वत्र समरोस्थान ४५८ १२२ किन्नरस्त्रीरतारम्भ ९३ १३५ किन्नरः किम्पुरुषश्च ४६७ ४२ किमन्यदुच्यते __स्वामिन् ? ३२२ ११ किममी बाहुबलिनः ? ४३९ १२१ किमन्यान्यपि विशोभा-७२३ १५४ किमपूर्ण स्वराज्येना २४४ ११५ किमप्यनाददानानां १४० ११२ किमावेशः स्वयं __स्वामिन् ! ३२४ ३८ किमित्यकस्मादस्माक- २३१ ३५ किमीदृशेन रूपेण २१५ १३९ किमुद्यानेषु ते वृक्षा ७३८ १०३ किमेतदिति तेनाऽनु- २६६ ६७ किमेतदिति लोकेन ३३३ ६९ किमेतद् गीतनृत्तादि ४७१ १५ किमेवं युज्यते नो वा? २३८ ११५ किम्पाकानीव नाऽत्त्येष १०४ ६३ किराता अप्यमी हन्तो- १९६ ११४ किरातास्तत्र निवस- ३३६ ९१ किरातः सज्जकोदण्ड : ३८ १०९ किरीटरत्नखण्डानि ६६९ १२८ कीर्तिवीर्यों जलवीयर्यो २५२ १४० कीत्तमहत्या भरत ५८२ १२६ कुक्षौ रत्नघरे! देवि! ४११ ४१ कुचौ दधानां कामस्य ५२५ ९७ कुञ्जरादवतीर्याऽथ ५७६ १२६ कुञ्जराधिपतिस्कन्ध ५९० ९९ कुट्यन्ते केऽप्ययस्पात्रा- ५६५ १८ कुण्डग्रामे महावीरः ३२४ १४२ कुतोऽपि हि समाहृत्य १२९ १३७ कुतोऽप्येकत्र मिलित २२५ ३५ कुन्थुर्गजपुरे स्वर्ण- ३१० १४२ कुबेरः कारयामास ६२३ ४७ कुमारनुपसामन्त ३०४ ११७ कुमारमूचे भूपालो ६८६ २२ कुमारा अपि तस्योच्चै २२४ ११५ कुमारान् बद्धमुकुटान् ३०६ ११७ कुम्भस्थलपराभूत ४०६ ७१ कुम्भाम्भोधि सुधाकुम्भ ! ६७२ १५३ कुम्भि कुम्भ स्थलोद्भूत ६०० ९९ श्लोक नं. पृष्ठ नं कुम्भिकुम्भे मृदं न्यस्य ९५० ५७ कुम्भेभ्यः पूजितास्येभ्य-५१९ ४४ कुम्भर्यानमिवाम्भोधेः १७३ १३८ कुर्वन् पापविपन्नाशा- ३९५ १४४ कुर्वन् मणिविमानैयाँ ५०६ ९६ कुर्वन्तो देशनां तत्र ४४५ कुर्वाणं देशनां तत्र ७५७ कुर्वाणास्तोरणानीवो- ६७ ८३ कुर्वाणो देशनां तत्र ७०५ २२ कुलाचलानामत्युच्च: ५९२ १२६ कुलिशाङकुशचक्राइज ३७४ ७१ कुलिशादप्यधिकं वः ९९ १११ कुविन्दान् कल्पयामास ९५५ ५७ कुष्ठीवोत्पन्नगैराग्यो १७५ ८६ कुष्माण्डानां पुन:श्वेत ४७३ ४३ कुसंसर्गात् कुलीनानां ३०६ १० कुसुमाहरणां विद्या- ६९४ १५४ कृणिताक्षमभीषणं के- ६५३ कुर्दमाना: केऽपि मेरु ५६२ कूलच्छाया दुर्जनाश्च २९७ कूलिनीकूललुलित ६१६ ४७ कूलिन्यः कुलयोर्मध्ये २१० ०७ कृच्छादुद्धरणीयानि ७१३ ५० कृतकृत्य इवाऽथाऽप. ५९८ ४६ कृतकृत्यः स्वयं कृत्वा ६८८ १५३ कृतकृत्यः स्वयं ह्येष ५१३ १४८ कृत नाटयं नटमिव ५५४ ९८ कृतपारणक: स्वामी ३३० ६९ कृतप्रस्थान ल्याण: २८७ ११७ कृतषष्ठतपःकर्मा ७३ ६२ कृतस्नानाऽथ सा सद्यः ७६२ १०४ कृतस्नानोऽय भूपालः २५ ८१ कृतार्थस्त्वं स्वयं नाथ! १४४ १३७ कृतापराधेऽपि जने २६ ०२ कृताभ्युत्थानया दूरात् ५११ १७ कृताष्टमतपास्तत्र ३९१ ७१ कृतिनी स्वामिनी ब्राह्मी ७९१ १०५ कृते तथा महर्षीणा ५२५ १४८ कृत्वा च पुत्र साद् राज्यं ८३३ २६ कृत्वाऽपि दिग्जयमिदं ०२ १०८ कृत्वा प्रदक्षिणां तत्र ६३९ १५२ कृत्वा मनसि तां राज- ६०९ कृत्वा मनसि भूपाल: २३९ ८८ कृत्वा मनसि सेनानीः २८७ ८९ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GG श्लोक नं. पृष्ठ नं. कृत्वा संलेखनामादौ ७८७ २५ कृपया पुत्रवधर्म ३९२ १४४ कृपाणचापतूणीर- ३२१ ११८ कृमयस्त्वग्गता एवं ७६८ २४ कृमयोऽथ न्यलीयन्त ७६५ २४ कृष्णस्तु मथुरापुर्या ३५६ १४३ कृष्यादि न विधातव्यं २२८ १३९ कृष्टासी च सिषेवाते १४३ ६४ केचिच्च मण्डलीभूय ५६६ केचिच्च वृषभीभूय ६७८ ४९ केचिच्च स्वामिनं द्रष्टु- ३८ केचिज्जहि जहीत्यूचुः १२७ केचिस्काञ्चनराशिं च ९८ ६२ केचित्कुपितकोनाश ३६२ ९२ केचित्तु लब्धभस्मानो ५६१ १५० केचिदन्दोलयामासु ५४७ ४५ केचिदाजहरेधांसि ७३ ८३ केचिद् बद्धपरिकरा ५४८ केचिद् बुभुजिरे स्वरं ७६ केचिदुद्दधिरे दण्डान् ३६४ केचिदोदनसंपूर्णा ५६८ ४५ केचिद् विश्राणयामासु २७८ ८९ केतकी चम्पकाऽशोक ४१३ १४५ के नाऽद्य केसरी सुप्तः १७४ ८६ केऽपि गुप्यद्गुरून् काण्ड १८४ ११३ केऽपि तत्राऽक्षिपन् घूपं ५४५ ४५ केऽपि पुस्कोकिलीभूय ६७५ केऽपि भर्तुविनोदाया- ६८० ४९ केऽपि वेगधराभूतो- ९५ ६२ केऽपि श्वेतातपत्राणि ५४६ केऽपि सङ्गरदुर्वास- ३६३ ९२ केऽप्यज्वलन् ज्वलनव ५६७ ४५ केऽप्येयुः कलभीभूय ६७७ ४९ केयूरे चाऽमुचद् बाहु ७२८ १५५ केवलदर्शनज्ञाना ०८ १३३ केशाश्चकाशिरे मूनि ७२७ ५० केषाञ्चित् तुरगास्तस्थु-४०५ ९३ केषाञ्चित् पेतुरस्त्राणि ४०४ ९३ केषुचिद् विलुठत्स्वग्रे ५४१ १४९ कैशिकीनां तु विद्यानां २२० ६६ कैश्चिज्जयजयाराव- ८७५ ५४ कैश्वित् प्रयाणकर्गच्छन् ४६२ ९५ कोऽप्यजल्पन् मम ह्यान् २५९ ६७ श्लोक नं पृष्ठ नं. कोऽप्यभाषिष्ट ताम्बूल २६२ कोऽप्यवादीदिदं सज्जं २५३ ६७ कोऽप्युवाच जगद्रत्न २५५ ६७ कोऽप्युवाचाऽऽद स्व रथान् २६० ६७ कोऽप्युवाचैहि __ भगवन् ! २५२ कोऽप्यूचे पादचारेण २५८ कोऽप्यूचेऽमूनि पक्वानि २६१ ६७ कोऽप्यूचे स्वोपयोगेन २५४ ६७ को भवान् ? श्रावकोऽहं त- २३९ १४० को भ्राता ज्यायसा सार्द्ध १२७ ११२ कोमलं धवलं सूक्ष्म कोलाहलं विदधिरे ५६४ ४५ कोश इवौषधीशस्य ३५८ ११९ कोशः सेन्यः सुहृद्भिश्च २४३ ११५ को हि व्रतगरिष्ठानां ७९२ १३२ कौतुकादागतधिष्ण्य ६१९ १०० कौशाम्ब्यां धर सुसीमा २८७ १४१ कौसुम्भवाससमिव ९९ १३६ कौसुम्भसूत्रस्तकुंस्थै ८०० ५२ कः पन्नगपतेौलि ११७ ८४ ऋन्दितानां पुनरिन्द्री ४७२ क्रमात्प्रत्यविदेहेषु ३७८ १४४ क्रमादस्य प्रभवन्त्या ८१५ २६ क्रमेण माहनास्ते तु २४८ १४० क्रमो समतलौ तस्य २४६ ०९ क्रीडागिरिसरिद्वापी- ६१३ २० ऋतक्षशिलाधीश १६१ ११३ क्रुद्धः सोऽपि शरं प्रेक्ष्य २०५ ८७ क्रूरकर्महिम ग्रन्थि ७८३ १०५ ऋरमित्रादिवोद्विग्नो ४०३ १३ क्रोधात् त्वरित मप्यस्य १७६ ११३ क्रौञ्चीभूयाऽग्रतः केऽपि ६७४ ४९ क्लीबैः स्त्रीणामिवाऽवाणा ५३६ १२४ क्व च निद्रादरिद्रोऽयं ११४ ६३ क्वचाऽयमातफ्जयी ११३ ६३ क्वचिच्च रत्नखानीभी ३९७ १४५ श्लोक नं. पृष्ठ नं क्वचिन्छबरनारीभिः ९५ १३५ क्वचित् कपूरपानीयः ६५६ १०१ क्वचित्पल्लवितमिव ६२० १५१ क्वचित् स्फटिक बद्धोवी. ७७७ ५१ क्वचिन्नीलशिलारश्मि ७७९ ५२ क्वचिन् मरकतक्षोणि ७८० ५२ क्वचिन्मुक्ताकणगणैः ६५४ १०१ क्वचिन्नवबिसास्वाद ९७ १३६ क्वचिच्च चीनवासोभि ६५५ १०१ क्व तच्चीनांशुकमिदं १२७ ६३ क्व तद्दिव्याङ्गना गीतं ४९८ ७४ क्व तद्देवसमानीत ४९५ व तद्वारवधू क्षिप्त ४९४ क्व नाम प्रास्यतेऽस्माभि ५२७ क्व नाम भगवत्पादा ३६८ ७० क्व माल्यगर्भो धम्मिल्लः क्व विश्वाभय दस्तात:? क्वापि द्राक्षाभवं क्वाऽपि ४०९ १४५ क्वाप्यगच्छदिवाss दित्यः क्वाऽप्यासन्न धनोन्माद्य. ९८ १३६ वैष स्वामी क्षुद्विजयी ११२ ६३ क्वैषां यौवनमुन्मादं ७५२ २४ क्षणादधः क्षणादूर्व ६२२ १२७ क्षणादधि तदुद्यान- ४२० ७२ क्षणार्ध विह्वलीभूतो ६७८ १२९ क्षणे स कल्यःकल्याणे ४९ ०२ क्षत्ताऽभूत् तस्य सुयशा ८०८ २५ क्षत्रियाणां कुहेवाकः ६५५ १२८ क्षपकश्रेणि मारूढ ४४१ १४६ क्षमया स्वामिनो बाहु २३९ ११५ क्षरता रजसाऽत्यन्त ३४३ ९१ क्षरकरिमदाम्भोधि: ५९ क्षरन्म दजलासार ३४८ ७० क्षिपत्सु पुष्पदामानि ५३९ क्षत्पिपासातपप्राया ५०८ क्षुधापिपासाशीतोष्ण ५७५ १९ " " , १३२ ६३ क्षेत्रानुरूपमायुश्च ७१७ २३ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्लोक नं. पृष्ठ नं. क्षेत्रे योजनमात्रेऽथ १०५ १३६ क्षेत्रे योजनमात्रेऽपि ५५१ ७६ क्षेत्रोद्यानगृहादीनां ९८० ५७ मातलाशयोजन्या १८६ ६५ खड्गान् क्षिपत कोशेषु ५२५ १२४ खड्गः केचिदिवं चक्रुः १२२ ८४ खण्डप्रपातां स यया ५५९ खण्डयन्तः क्षुरप्राभ ४२५ १२१ खुरापातस्तुरङ्गाणां ३५१ ९१ खेचरास्तित्तिरिशुक ५७६ १९ खेचरीभिलाल्यमाने ९० १३५ गगनं द्योतयन्नुच्च १७१ ८६ गगने दूरमध्वानं १५१ ११२ गगने वल्गु वल्गद्भि-५०३ ९६ गङ्गां सिन्धुवदुत्तीर्य ५३९ ९७ गङ्गातटे बाहुबलिः २९८ ११७ गङ्गादिकानां च महा ४८५ गङ्गासिन्धुमहानधो ४८२ ९५ गच्छतः पूर्वमार्गेणा ४६१ ९५ गच्छतः स्वामिनोऽभूवन् ६८५ ८० गच्छन्तु महिषाश्चाऽनु ३५७ ११९ गच्छ मा तिष्ठ रे पाप! ७५ ३१ गजाऽश्वरत्ने वैताढय ७१२ १०३ गजिनो गजिनां यावद् ४३२ १२१ गजैः सिन्दुरभृत्कुम्भैः ३७ ८२ गणनेत दण्डनेतृ २५९ ८८ गमशैलीभवच्छृङ्गाः ३३२ ११८ गण्डस्थलगलद्दान ४०४ ७१ गण्डः पीयूषगण्डूष ५१२ ४४ गण्डो भालस्पर्द्धयेवा ७५३ . ५१ गतायां जन्मतः पूर्व ९२४ ५६ गति भङ्गकरान् भारान् ४४ ६१ गत्वरेणाऽऽयुषानेन ७५१ १०४ गरवा ऋषभकूटाद्रि ४७७ ९५ गत्वा च बहिरास्थानी ७०७ १०२ गत्वा च बाहुबलये ६८ ११० गत्वा तमिस्रासविधे २३८ ८८ गत्वा नन्दीश्वरे सोऽहं ६२२ २० गस्वा पदानि सप्ताऽष्टा ३२८ ३८ गत्वा पौषधशालायां ६७३ १०१ गत्वा योजनपर्यन्ते ५६ ८२ ४३ श्लोक नं. पृष्ठ नं. गत्वा स्वयमपि स्वामी २६१ ११६ गत्व केन सुवेगेन २०८ ११४ गन्धकारा इव कत्र ४९३ ४३ गन्धकाषाय वासोभि ३१० ३८ । गन्धर्वाणामियं गीति- ५२६ ७५ ।। गन्धाम्बुवृष्टिभिर्मेध ४२३ ७२ गन्धाम्बुवृष्ट्या समव ५७४ १२५ गन्धाराख्य जनपदे २४० ०८ गन्धर्वानीकमधरी ५५४ ४५ गन्धवैरिव गायद्भि ८७६ ५४ गन्धर्वोपर्वाधमाना ८२९ ५३ गम्भीरमधुरं मात ५२३ गम्भीरया गिरा भत्तुं ४१८ १४५ गरुन्मन्त इवोत्पेतु ५५८ ४५ गर्जभिरूजितं हर्षा १६० १३७ गर्जभिः शीकरासार ५०१ ९६ गर्जन्तः प्लावयन्तःक्ष्मा २१५ ०८ गर्भवासज निव्याधि भवासभव दुःख ५६८ गर्भावतीर्णभगवत् २६१ गर्भावासनिवासोत्थ ६१२ २० गवाक्षरक्षिमदिव ३५५ ३९ गवामिवाऽनु गोपालं २७६ ६७ गाढं शिथिलयन्तश्च ४२८ १२१ गाढलग्ना: प्रलम्बासु ५६६ १२५ गावो गोपस्वरेणेव १८९ ११४ गिरं भगवतः शृण्वन् ८२१ २६ गिरिसागरमर्याद ४५८ ९५ गिरिःक्षेत्रप्रभावेण ४३३ १४६ गीतवादित्रनिर्घोष ४६९ गुञ्जभिः फुल्लमाकन्द ९८७ ५८ गुणांस्तव यथावस्थान ८२ गुणोत्तरेभ्यो दातव्य २१२ १३९ गुप्यद्गुरुस्थूलपट ७० ८३ गुरुः शिष्यः पिता पुत्रो ३८५ १३ गुरूपदेशमालम्ब्य ५९५ गुरोरप्यवलिप्तस्य १३५ ११२ गुरी प्रशस्यो विनयी १३४ ११२ गुहां खण्डप्रपाताख्या ५४९ ९७ गुहां तमिस्रामुद्दिश्य २३७. गुहातो वल्गु वल्गन्तो ३३२ गुहाया उत्तरं द्वार ३२५ गुहायाः पार्थ भित्तिभ्यां३२८ ९१ गुहासु विविशुः क्रूरा ३३१ ११८ गुहाङ्गणजुषो भर्तुः २८० ६८ श्लोक नं. पृष्ठ नं. गृहादिचित्रकृतये ९५४ ५७ गृह्णामि पाणिना कि वो-७१९ १३० गेहाकारास्तु गेहानि १५६ ३३ गोकुले गोकुले गोप ५९९ ९९ गोकुले गोकुले वृक्ष ४५ १०९ गोक्षीरधाराषवले ६६१ ४८ गोत्र वृद्धेनेव वृद्ध ५२१ १४८ गोपुरेषु च माणिक्य १२१ १३६ गोबलीवर्दकरभ ९३३ ५६ गोमूत्रिकाक्रमात् तेन ३०८ ९० गोरोचनागर्भगोरी ७२८ ५० गोलिकाधनुरभ्यासं ९९६ ५८ गोशीर्षचन्दनकृत ७१६ १५४ गोशीर्षचन्दनरस ६२१ १५१ गोशीर्षचन्दनरसा- ७७२ २४ गोशीर्षचन्दनरसै- ७७५ २४ गोशीर्षचन्दनरसै- ६९० १०२ गोशीर्षचन्दनरस- ६४१ १५२ गोशीर्षचन्दनाक्ताभ्यां ४१९ ४१ गोशीर्षचन्दनैघांसि ३१३ ३८ गौमूत्रिकाविधानेन ७३६ २३ गौरीणां नाम्ना गौरेया २१९ ६६ प्रथित्वा पुष्पनेपथ्यं ६९५ १५४ ग्रहेभ्य इव चण्डांशु ३८९ १४४ ग्रामाकरपुरद्रोण ७६ १३५ ग्रामाननेकशः कृत्वा २१० ६६ ग्रामे ग्रामे ग्रामवृद्धान् ६०२ ९९ प्रावहस्ता धनुहस्ता: १९२ ११४ ग्रीवाभुजाप्रवक्षोज ८०९ ५२ प्रीष्मस्येव स्थितिच्छेदं ९० ०४ ग्रीष्मे मध्यन्दिने भीष्म- ०३ १३३ प्रैवेयकमहासीच्च ७२६ १५५ अवेयकाऽनुत्तरेषु १५१ ०६ घटिमध्याकृष्यमाणा- ५६९ ७६ घण्टानां निस्वनस्तासां ३४३ ३९ घण्टाभ्यां पावं योश्चन्द्रा-४१०।। घनान्धकारमलिना २०६ ०७ धर्माऽम्भःक्लिन्नवासोभि ८८ ०४ पातिकर्मक्षयादावि- ७३८ १५५ घातेन तेन दम्भोलि ६५३ १२८ घोरसंसारदुःखात्तः ३७५ ११९ घोरां त्वामटवीं वेगात् ४३ १०९ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ श्लोक नं. पृष्ठ नं. २ पवमा २६ चकम्पे पतता तेन ६५४ १२८ चकाराऽष्टमभक्तच २२९ ८७ चकाराष्टमभक्तान्ते २३६ ८८ चकाशे चामरद्वन्द्वं ३३ ६० चकासामास वासोभि १५ चकासामास विष्कम्भा ३६३ चकासामासुरास्यस्थ- ५०० ४३ चकृषुः शृङ्खलाजालं ५६५ १२५ चक्र चक्रभृत: पाणि ७२४ १३० चक्र छत्रमसिर्दण्डो ७०९ १०२ चक्रतुर्बन्धविज्ञानं ६२४ १२७ चक्रपुर्या तु पुरुष ३५० १४३ चक्रपूजोत्सवश्वके १३ ८१ चक्रभृत् कुजरारूढ ५७१ १२५ चक्ररत्नमिव स्वामिन् ! २५७ ११६ चक्रवत्तित्वपक्षेऽपि ११० १११ चक्रवत्तिनि रडू वा ७८२ १०५ चक्रवर्ती ततो धर्म ८२७ २६ चक्रवर्ती ततो धर्म ७७७ १०५ चक्रवर्तीव चक्रेण ६१ १३४ चक्रवर्त्यप्यधर्मः सन् ३११ ११ चक्रिणा सैनिकाः स्वेऽप ५४३ १२५ चक्रिणो नातिदूरोया ६८० १०२ चक्रिणो वज्रसेनस्य ६४९ २१ चक्रिणः करिणस्त्रेसू ३७४ ९२ चक्रितोऽप्योत्सुकायन्त १६१ १३८ चक्रिरे कपिशीर्षाणि ११७ १३६ चक्री सुप्त इवोत्तस्थौ ६५८ १२८ चक्रुभंटा मार्गमदी- ३२४ ११८ चक्रुश्च देवा: समव- ७५६ १०४ चक्रुस्ते काञ्चनीं तत्र ११९ १३६ चक्रुः केऽपि करास्फोटं १२६ ८४ चक्रुः पौरा: पथि पथि ६१२ ९९ चक्रे माकारदण्डं च १७८ चक्रे वर्द्धक्ययस्कारं ९५३ चक्षुष्मांश्चन्द्रकान्ता च १६७ चचाल चर्मरत्नं च चञ्चन्मरीचिनिचय २८ ८१ चतस्रो रत्न कलस ७८३ चतुरङ्गचमूचक्र ३०४ चतुरगुलवर्जता ३०२ ३७ चतुरशीतिलशास्तद् ११५ १११ चतुरशीतिसहस्र ३७१ ३९ श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. चतुरशीतिः सहस्रा- ३७७ ४० चारुचूडामणिश्च व १९८ ६५ चतुरस्रसुसंस्थानाः ११९ ३२ चारुमन्दाकिनी वीचि ३६२ ७० चतुरोऽपि महोक्षास्ता- ५८४ चालयिष्यति कि स्थाना १०४ ८४ चतुर्थश्च समुत्पेदे ७२४ २३ चिकित्सनीय एवाऽहो !७४५ २४ चतुर्षषष्टादि तपः २३६ ६६ चिकित्सायां निदाने च ७४१ २३ चतुर्थस्तु बलदेवः ३६१ १४३ चितास्थानत्रये देवा ५६२ १५० चतुर्दन्तद्विपस्कन्धा १४५ ३३ चितास्विन्द्राज्ञया देवा: ५५१ १४९ चतुर्दशभिरप्येतः २४८ ३६ चित्यायां दाक्षिणात्याया-५४७ १४९ चतुर्दश महास्वप्नान् ८८६ ५५ चित्रकायैरिव दृढ, १५५ ११२ चतुर्दशानां सम्बाध ७२७ १०३ चित्रलेखे! चतुर्दिग्विजयश्रीणा- ९० लिखाऽऽलेख्यं ७८९ ५२ चतुर्षा काव्यनिष्पत्ति- ५८२ चित्राङ्गा अपि माल्यादि१५३ ३३ चतुर्षा तदयं धर्मों चित्रीयमाणाश्रित्रचा ७१२ १५४ चतुभिर्देवनिकायः ५३५ ७५ चिन्तयित्वेति सुचिरं ८४ ३१ चतुर्मुखी बहुमुखी १९० ६५ चिन्तयित्वेति सोऽवोच-७५४ २४ चतुर्विधस्य सङ्घस्य ८९९ २८ . चिरंकृतविलम्बस्य ३७२ ७० चतुविधस्य संङ्घस्य ६५६ ७९ चिरं च संसृत्य भवे ३७९ १४४ चतुर्विधस्य संघस्या- १० चिरं जय चिरं नन्द ४७७ १२३ चतुर्विघानां देवाना- ४५८ ७३ चिरं जीव चिरं नन्दे- ४८ ६१ चतुर्विमानलक्षस्य- ४३७ ४१ चिरकालभवश्चायं ८२४ चतुर्विशत्यङ्गहीना २९२ १४१ चिरभ्रष्टानि नष्टानि २०६० चतुष्पव्यां चतुर्थादि ६३८ ७८ चिरादम्यागतं मित्र ३९७ १३ चतुःपूर्वाङ्गहीना च २८२ १४१ चीत्कृतः स्यन्दना वाहा ५३ ८२ चतुःषष्ट्या सहस्रःस- ४४६ ४२ चुम्ब्यमान इवाङ्गारे ४१७ १४ चत्वारिंशत्सहस्राणां ४३९ चूतावचायसक्तानां ४०२ १४५ चन्दनागरुकर्पूर ४१४ चेलक्नोपं च गन्धाम्बु २७२ ३६ चन्दनागरुकस्तूरी , ३६७ चैत्याद् बहिभंगवतः ६३२ १५२ चन्दनायुपचारेण ६३६ २० चैत्येष्वहत्प्रतिमानां ६३६ ४७ चन्द्रप्रभप्रभोश्चन्द्र चोलकेनाऽङ्गलग्नेन ३६१ ७० चन्द्रविम्बवदादर्श चौरिक्या पारवारिक्य ५८० १९ चन्द्रानने महासेन २९१ १४१ चौर्यादि रक्षणे दक्षा ९२७ चमरेन्द्रोऽप्युत्ततार ६४० ४८ च्युावा सौधर्मकल्पाच्च २३९ ०८ चमूरचित्रकव्याघ्र ३९ १०९ चम्पकं चिन्वती काचि-१००५ ५८ छत्रदण्डस्योपरि च ४३२ ९४ चम्पापुर्या वासुपूज्यो ३०० १४२ छास्थस्येव ते मौनं ५०५ १४८ चरित्रं स कलत्रस्य ६७४ २१ छत्रोपानहमुत्सृज्य २७८ ६८ चर्मरत्नच्छत्ररत्न ४३८ ९४ छन्दकस्योपरिच्छत्र- १२८ १३७ चर्मरत्ने च सुक्षेत्र ४३४ छादयन्तो रजोभिर्धा ४२६ १२१ चलद्भरतसैन्यप्राग- ३४१ ९१ चलद्भिस्तस्य तुरगैः २७० ११६ अगच्छरण्य ! शरणं ६४७ चाटुकाराः प्रणश्यन्ति १५३ ११२ जगतो नयनानन्द ०४ २९ चाटुभिश्चाटुकाराणां १५२ ११२ जगत्तापापनोदैका- ४२० चाटूनि जीव जीवेति ६७१ ४८ जगत्प्रकाशजनको चापादिषुरिवोन्मुक्तः ६२९ १२७ जगत्त्रय इव कत्र ३७१ १४४ चारणश्रमणेभ्यश्च २३२ ६६ जगत्त्रयगुरोस्तस्य ७९३ १३२ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. २३३ ११५ ५३२ १४९ जगत्त्रयस्वामिसूनो जगत्त्रय्या रत्नसारे: जगत्त्रातुः कृपाम्भोषे: ४४९ जगत्संहाररक्षातो जगन्महामोहनिद्रा १२२ ५७३ १२५ २२ ०२ जगन्मातस्त्वया यच्च २३९ ३६ जगर्जुग्लिनस्तार जगस्तश्चनजपाले १५५ १३७ ३४० ३८१ जग्राह पाणिना स्वामी ६६८ जग्राह वज्रसन्नाहं जघन्यतः कोटिसङ्खये जयाचरणलब्धिश्र ८७४ जङ्घाभ्यामेणिका जङ्घे ५२८ ७१ जङ्घे काञ्चन तूणीरा- ७४६ जजल्प शोकविरसं जsersवधिना ७० ४८ १२० १३५ २७ ९७ ५१ ६०६ १९ स्वामी १०१८ ५८ १४० २२७ ११५ जज्ञे साधु विच्छेदोऽन्त २५५ जना जानपदा ये च जमेन स तेनाय जन्तु जीवातुभिर्जीवा ७६७ २४ ५५३ १८ २६६ १४१ जन्मलाजितं कर्म जन्म नन्सरनाशिवे ३८१ १३ ३२१ ७९ जन्मान्तरेऽप्यर्पणाय जन्माभिषेकविकृत जन्मिनो वच्छताऽज्ञानं ६१६ ७७ अभ्यूकदम्बमाकन्द ९९३ ५८ जम्बूद्वीपस्य भरत ३३९ ३८ जम्बूद्वीपस्य भरत ३९ जम्बूद्वीपस्य भरत १०९ ३२ जम्बूद्वीपस्य भरत ३३५ ३८ जम्बूद्वीपाभिधे द्वीपे ७९१ २५ जम्बूद्वीपाऽभिधे द्वीपे ४०४ ४० ३४८ जम्बूद्वीपारविन्दस्य ८१ जम्बूद्वीपे ततः पूर्व ६२४ जम्बूद्वीपे विदेहेषु ७१९ ५८५ १७८ १३८ ४४ जयतुर्याण्यवाद्यन्त जयत्यनन्त कल्याणजय नन्द जगन्नाथ ! ५१४ जयन्त्यादिमतीर्थेश ! ३७३ जयन्ती केशपाशेन ५२० जयश्रियाssलिङ्गनाय २५६ जयश्री के लिवल्लक्ष्या २०१ जयाऽखिलजगताच ! ५३७ ११ ११५ १३५ २० २३ १२६ * * ११९ ९६ ८८ ८७ ७५ ex लाक नं. पृष्ठ नं. जयाsबित ! जगन्नाथ !६५५ जया विदूरभूरत्न ६६५ जराजर्जरकायाणां ७५३ २४ २६७ ३६ जरायुरक्तप्रभृति जल जलाशयानित्य जलकान्तो बलमिव ४०१ जलकेलिरतखीणा ९२० जला शिक्षाविभवं जावरपुप्तावस्थेन जाहेतुमिव हिम जातपक्ष इवाऽडीन्द्रः १५२ १५३ १४१ ६४ ९३ ५६ १९ ५७८ १२९ ०५ ७९ ७१ ३९९ ९३ जात ४५५ १४६ २५ ६० १५४ ३३ १९ ४९ जात संसारराग्या जातिरागान् नवनवान् ७११ जातिस्मृत्या स नीतिज्ञो १४७ जातिस्मृत्यास नीतिज्ञो १६१ जातु हिंसा न कर्तव्या ५८६ जानुनी स्वामिनोऽघातां ६९७ समाज कमल ३२९ ३८ जायन्ते धर्मरहिता ३१६ ११ जाह्नवीस्रोतसि स्वच्छे ६० ८२ जिघत्सुभिरिवोद्भ्रूः १५७ ११२ जितारिनो ! श्रीसेना- ६५६ १५२ जितोऽनुजोऽनुजेनाऽपि २७७ ११६ जितोऽस्मि केन ? ३०४ ७८० ज्ञातं - २३२ जित्वाऽसौ भरतं, सर्व ४९८ जिनं जिनजननीं च २८३ जिनजन्मगृहात् पूर्व जनजन्मावर ४४५ जिननार्थ तदम्ब च २९२ जिनामर्षयन्तस्ते जिनानां नित्यानां २१४ जिनेन्द्रप्रतिमापूजां ६२० जिनौ च विशद्वाविंशी २७७ जिह्वामकर्षन् महिषा जीयन्तां हन्त ते सर्व जीवनोपयकर्माणि २६८ जीवानन्दस्ततो रत्न ૬૪ जीवानन्दोऽपि विज्ञान ७४२ जीवाः साम्यन्तु सर्वे मे ४३९ जीवितादपरं प्रेयो १७१ जेयः किमवशिष्टोऽस्ति ०५ ज्ञात्वा च शक्रसकल्प ६५७ ज्ञात्वाऽपि तन्मानमुपे- ७८४ ८३ ३१० १४० १२३ ३७ ३७ ४२ ३७ २५ ६६ २० १४१ له ११७ ६७ २४ २३ १४६ ०६ १०८ ४८ १३२ लोक नं. ज्ञात्वा दुःख यतिष्येऽहं ६४६ ज्ञात्वा लुग्धममर्यादं ४९९ ज्ञानं प्रभोर्मर्त्यक्षेत्र ज्ञानत्रयधरो जाति ज्ञानदर्शनचारित्र ज्ञानदर्शनचारित्रो ज्ञानदानादवाप्नोति पृष्ठ नं. २१ १२३ ७६ ६२ ८९७ ५५ २४१ १४० ८९२ १५६ ज्ञानदानेन जानाति १५५ पयामासतुः स्वदि १७४ रीवा शोषयितुं ८५५ दलीपस्विषा तेन ५९९ ज्येष्ठः पौत्रो नमत्येष ४८९ ज्योतिश्चक्रमिवाकाशे ४५४ ज्योतिष्काणाम सङ्ख्याती ४७४ ज्योतींषीव ज्योतिषां ८४७ ज्योत्स्नेव चक्रवाकायो- ४१ ज्योत्स्नीचन्द्राविव युती ६८८ २८ ०६ ०६ ६५ ५४ ४६ ७४ ९४ ४३ १०७ १३४ २२ ठ ढोक्यमानाऽभितो नाभि ५३४ त ११४ तं कपन न पश्यामि १९७ तं च विज्ञपयामासु - ६६९ तं द्वात्रिंशत् सहस्राणि ६८६ १०१ १०२ तं नत्वोपाविशन् सर्वे २८६ १० तं पत्रिणमुपादायो- २०६ ८७ १६० ४४ तं प्रसादसुधाधीत ७९ तं सिसाधयिषुः सर्व २६७ राज्य हताङ्गोऽपि ६०० तच्च राजा प्रतीयेष १५० तच्च स्वादोपशमिकं ७७ ५९६ तच्चाऽसिरमनिम्नोच ७०० ४९ तत्यं भरतस्याऽऽज्ञा ६२९ १५२ तच्छ्र ुत्वा सार्थ ८९ १९ ८५ वाहोऽपि २१८ ०८ १०६ तज्जलेरप्य शान्तायां ८३९ तट टिति कुर्वाण ८३२ ५३ इवाऽऽकाक्षे ४०० ९३ ततश्च क्षमयित्वा स्व- ४५५ १५ ततश्च क्षुद्र हिमवत्४८१ ९५ ततश्च चक्रिरे ते तु ९५२ ५७ ततश्च ध्यानमुच्छन्न- ४८८ १४७ ततश्च नरदेवस्या ६८३ १०२ ततश्च पश्चिमे काले १९५ ३४ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ जानीर्य ४०७ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ततश्च पूर्वद्वारेण १३० १३७ ततश्च प्रासादवरा- ७०८ १०२ ततश्च बाहुबलिवद् ७४२ १५५ ततश्च भरताधीश: ०१ १०८ ततश्च योजनपरि- ३४१ ३९ ततश्च विहितप्राय- ५५८ ९८ ततश्च सचमूचक्र- ४८ ८२ ततश्च सांवत्सरिकं १८ ततश्च सार्थवाहोऽपि २२३ ततश्च सौधर्म पतिः ३२० ३८ ततश्च स्वामिनः पाद- ४२१ १४५ ततश्चाऽचिन्तयमहं ९४ ३१ ततश्चाऽपूर्वकरण- ३९२ ७१ ततश्चाऽष्टमभक्तान्ते ४६५ ९५ ततच्चेतस्ततश्च लुः १०४ ततश्च काकिनी मुग्धा ७५५ ५१ ततश्चोत्तारयामास ६४४ १५२ ततस्तं शरमादाय १८२ ततस्तद्वचनाम्लेच्छा ४४८ ९४ ततस्तयाऽर्षदायिन्या ८४३ ततस्ते वलिता एके ८७७ २७ ततस्ते विनयान्मूनि २३३ ३५ ततान्यथाऽनवद्धानि ५५५ ततोऽकृशेन संस्पृष्टः ४६४ १४७ ततो गिरिसरिग्राव ५८५ ततो जय जयेत्याशी: २१९ ८७ ततो जय श्रीनिवासं २०४ ततो देहाद् विभिन्नोऽय-३६४ १२ ततो द्वीपकुमारेषु १९९ ३४ ततो नन्दीश्वरद्वीपे ५६३ १५० ततो नमिविनम्याख्यौ ४८८ ९५ ततो नवसु मासेषु २६४ ३६ ततो निजक्रमौचित्य ३८ ३० ततोऽपि चलितवत- ५३७ ९७ सतोऽप्यन्येषु तीर्थेषु ६२३ ततो बहुलभूतेष्टा १८६ ३४ ततो बाहुबलिं नत्वा ७५६ १३१ ततो भगवता तेन २९५ ततोऽभिषिषिचे देव- ४९४ १६ ततोऽभिषेकवर्षेषु ४६५ १२२ ततो भ्रूसंज्ञया राज्ञा ७८ ११० ततो मनोरमोद्याने ६३३ २० ततो मन:समाधान ३२५ ३८ ततोऽमरा नरा नार्यों ६६३ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ततो मुष्टि समुद्यम्य ६४७ १२८ ततो यशस्वी पितृवन् १७६ ७४ ततो योजनमानेन ५७ ततो राज्ञा विसृष्टोऽसौ १३ ततोऽवशिष्टगोशीर्ष ७७८ ततो विघटमानौ तौ २९७ ततो विज्ञाततन्मोक्षो ५३३ ततो विज्ञातनिर्दोष २९१ ततो विमानादुत्तीर्य ततो विवेकमालम्ब्य ३९४ ततो विशिष्टसंवेगा ५९८ ततो विहत्तुंमन्यत्र ६८४ ततो वैलक्ष्यदीनास्यः ६७० ततो व्यावृत्त्य सदृत्तः ४८० ततोऽसौ वाचयामास ४९७ ततः कृतोत्तरासङ्गो ३७० ११९ ततः कृतोत्तरासङ्गो ४९७ ४३ ततः कृशांग्रीष्मकाला ७३१ १०३ ततः क्रमुकताम्बूली १९७ ८७ तत: परमसंवेगा- ४३२ १४६ ततः परिवृतो देवः ३८८ ४० ततः पूर्वोक्तविधिना ९४६ ५६ ततः प्रदक्षिणीकुर्वन् ३८१ ४० तत: प्रदक्षिणीकृत्य ४०९ ततः प्रभासाभिमुखं २०३ ततः प्रभृति निःस्नेह १०४ ३२ ततःप्रभृति सा तेपे ५९६ १९ ततःप्रभृति लोकेऽपि ५०१ १४८ ततःप्रभूति शैलोऽसौ ६३७ १५२ ततःप्रभृति सोद्वाह ८८१ ५५ ततः शतबल: सिंहा- २६८ ०९ ततःशुभेऽह्नि भूपालः २६३ ११६ ततःसङ्क्रन्दनादेशान्- ५२३ १४८ ततः स मायाकूटाद्रि ७८ ३१ ततः समवसरणं ७७३ १०५ ततः समवसरण ४५६ ७३ ततः स सेनाधिपति २५१ ततः सागरचन्द्रस्य ५८ ३० ततः सोऽवधिनाऽज्ञासी २१८ ततः सोऽष्टमभक्तेन ५४० ततः स्वयम्प्रभाऽवोच ६१४ । ततः स्वाम्यभिषेकार्थ ९०३ ५५ तत्कण्ठे ते न्यधुरि ६९३ तत्कर्णयोर्मणिमया ८१५ ५३ सत्कालं गुहिरत्नेन २१३ ८७ १:४१ श्लोक नं. पृष्ठ नं. तत्कालं पालकोऽपीश ३५४ ३९ तत्कालं भगवन्मातुः २३२ ३५ तत्कालं भरतेशोऽपि ५४२ १२५ तत्कालं श्रवणोत्तंसी १३१ १३७ तत्कालोत्पन्नसंवेग ८४६ १०७ तत् कि ते भ्रातरि गुरा ४८१ १२३ तत् किन लज्जसे शोचन ५१६ १४८ तत्तत् कवित्वानुगतं ७०९ १५४ तत्तत् प्रकारैराहारै १०२९ ५९ तत्तथा तत्क्षणादेव ७०१ १०२ तत्तथाऽपूजयद् राजा ३८३ तत्तदुःखाकुलं वरसं ५०३ तत्तस्य ऋषभ इति ६४९ ४८ तत्त्वान्तराकणंनेऽपि ६१४ तत्पर्यायक्षयाददुःखो- १६९ तत्पाण्डके सौमनसे ५३० तत्पापस्यैकसुहृदो- ३७० १२ तत्पावं योनकाशाते १४ ६० तत्पुयां सुमतिर्मंघ २८५ तत्पुष्करिणीकान्तः ६४५ ४८ तत् प्रत्ययाच्चक्रिमानी ७०८ १३० तस्प्रभावाच्छान्ततिर्यग् २६३ ३६ तत्प्रभावाहिशिष्टानु- २६२ ३६ तत्प्रसीद कुलस्वामिन् ! ३०७ १० तत्याज पादकटको ७३१ १५५ तत्र चक्रे जलक्रीडां ६९९ १५४ तत्र च प्राङ्मुखः सिंहा ६६६ १०१ तत्र च प्रेक्षमाणस्य ७१९ तत्र चालोकयामास २९० तत्र चाऽऽसीत् सार्थवाहो ३६ तत्र चैत्ये चतुरि ६३३ तत्र चैत्ये तावतीनां ६३८ तत्र जीवादितत्त्वानां ५७५ तत्र जीवा द्विधा ज्ञेयाः १५८ तत्र तज्जम्मकल्याण ३४९।। तत्र त्रिदशनाचेन ८३१ ५३ तत्र तावद्दानधर्म १५३ तत्र तावद् भगवत- ३० तत्र घुसबलानीव ४९५ तत्र दक्षिणपूर्वस्मिन् ४०२ तत्र दायकशुद्ध तन् १७६ तत्र दृष्ट्वाऽट्टहयेषु ९१९ तत्र देवं नाट्यमालं ५५१ ९७ ०२ . Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्लोक नं. पृष्ठ नं. तत्र पप्राभिषहदा ४८७ ४३ तत्र प्रथमवप्रस्य ४४४ ७२ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य ४७९ १४७ तत्र प्रभुरपृष्टोऽपी- ३३८ १४३ तत्र प्रवरसङ्गीत २८४ ७१ तत्र प्रसन्नचन्द्रोऽभू- ३५ तत्र यान्तं जनं दृष्ट्वा ५५१ तत्र वारिचराः स्वरं ५७१ तत्र वैद्यस्य जीवोऽभूत् ७९३ तत्र शक्रः क्षुद्रमेरु ६३२ ४७ तत्र श्रुतोक्ततत्त्वेषु ६०६ ७७ तत्र श्रेष्ठी श्रिया श्रेष्ठ ०३ : २९ तत्र षोडश सौवर्यो ५९७ १५१ तत्र संस्तारयामास ८३ ८३ तत्र सबोऽपि समव- ४१७ १४५ तत्र सैन्ये वीरमानी २९३ ११० तत्र स्थूलाऽहिंसा सत्या १८९ ०७ तत्र स्नानगृहं गत्वा ७०५ १०२ तत्र स्वजनमादाय १७५ तत्राऽऽगमविदः केऽपि ६५१ २१ तत्रागारे प्रविवेश ४३६ १४ तत्रागृह णन् पुण्डरीको ४८२ ४३ तत्राऽऽदावागतोऽल्पद्धि-४७३ तत्राऽऽदिमं तीर्थकरं २७५ तत्राऽधोमुखवृन्तानि ४२५ । तत्रान्तःपाण्डकवनम् ४२९ तत्राऽन्यदपि यत्कृत्यं ४५७ तत्राऽन्यदपि यत्सारं २७९ ८९ तत्राऽप्रज्ञप्तीनामिन्द्री ४७० तत्राऽप्यजीर्णाहारेण ९४१ तत्राऽरे प्रथमे मा ११८ तत्राऽवचेतुं कुसुमान्या श्लोक नं. पृष्ठ नं. तत्रैव कारयामास ६३० १५२ तत्रैव च कृतावास १२ ८१ तत्रैव तत्परीणाम तव नगरे जीवः ७२७ २३ तत्रैव स न्यधाद् रत्न ६१७ ४७ तत्रव स्थापयित्वा त- २१२ तत्रवाऽशोकदत्तोऽपि १४० तत्रोच्चैः काञ्चनहर्म्य ९१५ ५६ तत्रोद्यानोच्चवृक्षार ९१८ ५६ तत्रोपरितनं वनं ४३२ ७२ तत्रोव्यां रचिते पीठे ११४ १३६ तत्रौशपमिकं भिन्न ५९७ ७७ तत्संस्पर्श सुखलोभा- ३६८ ३९ तत्संहननसंस्थान १७३ ३४ तत्सर्व प्रतिजग्राह २२४ ८७ तत्सर्वमग्रहीद् राजा १९१ ८६ तरसहिष्यामहे तस्य २३६ ११५ तत्सार्थपथिकास्तस्थु- ८२ तसिहासनमाश्रित्य ३७० ३९ तत्सैन्यगजराजाना ६५ ८३ तत्सम्याग्रेसरं यक्ष ४० ८२ तथा कालमुखास्तेन २७१ तथा च समवसृतं १५० १३७ तथा निषण्णः पर्यङ्का- ४८५ १४७ तथा पराभवं सोढं १६० ३३ तथाऽपि नाथ ! लोकानां श्लोक नं. पृष्ठ नं. तथाहि क्षेत्रदोषेण ५६१ ७६ तथापनाद्यन्तभवा- ५८३ ७७ तथेति प्रतिपन्ने च ६८७ २२ तथेति प्रतिपेदाने ४७५ १२२ तथेति प्रतिपेदे तद्- २३ १०८ तथेति स्वामिनो वाचं ४२९ १४६ तथैव चोत्तरश्रेण्या १९६ ६५ तथैव तीर्थनाथस्य २८६ ३७ तथैव तृषितोऽथाऽपात् ८४० १०७ तथैव धारयामास ७१ ६२ तथैव हि निषेदुष्यां ४२२ १४५ तथैवाच्छादने रत्न- ७७० तथैवाऽप्रज्ञप्तिपञ्च- ४६९ तथैवाऽऽसनकम्पेन २८१ तथैहिकसुखं हित्वा ३८७ तथोपशान्तमोहस्यो- ५९८ तदङ्गसङ्गादम्भोद ८४७ तदगुल्या गलितमा- ७२० १५४ तदद्य कवचहरे २६५ ०९ तदन्तर्धानसामर्थ्य ८६१ तदन्तिके प्रवजितः ३२३ तदन्तःसञ्चरन् वायु ३६९ तदर्डा यामिभिमुक्ता ३६७ तदष्टमतपःप्रान्ते ४११ तदसद्वागिवाऽधर्मो ३७४ तदस्ति चेतनो यावत् ३३८ तदाकर्ण्य घनोदध्या ११० तदाकर्ण्य समुद्भूत ४२८ तदाऽऽकारयता युष्मान् १२७ तदाकृतजगन्नेत्र २६८ तदा च कालदोषेण ८९३ ५५ तदा च चैत्रबहला ६५ ६१ तदा च नाथं समव- १३९ १३७ तदा च बहवो देवा ६३० ४७ तदा च भूमयस्तत्र १२७ तदा च युग्मजाताया: ६५० सदा च वजनाभस्य ८१० तदा च शुशुभे छत्रं १३ तदा तद्भाण्डसम्भार ७१ तदा तृतीयारशेषे २०७ ३५ तदात्मप्रतिचाराय ३७ १३४ तदादि च प्रववृते ५३२७५ तदादि सोमवंशोऽभू- ७५५ १३१ तदा दृष्ट्वा प्रभुकृतं ९६९ ५७ तदानीं चतुरशीते ६५७ ७९ तथाऽपि नाथ ! स्तोष्यामि १४२ १३७ तथाऽपि प्रार्थ्यसे वीर! ५१५ १२४ तथाऽपि हि जगन्नाथ ! ७७९ १०५ तथाऽप्यद्याऽपि तान् दृष्ट्वा तत्राऽवतरयामिन्यां २१२ ३५ तत्राऽविनीते यः स्नेहो २४९ ११५ तत्राऽष्टमस्य पर्यन्ते २२८ ०८ तत्राऽष्टौ मोक्षगा रामो ३६७ १४४ तत्राऽस्थाललीलयाऽऽक्रान्त तत्रेभ्याः सन्ति ते येषां ९२१ तत्रैकमहंतामहत् ८८३ तत्रकं लक्षपार्क मे ७४६ तत्रैकान्तःसुषमार ११३ नत्रकोऽषा विभोर्मूनि ५७४ ४६ तथाऽप्येकान्ततो नाऽर्थ ७४० २३ तथा मदीयनिर्वाण २८० १४१ तथा मे तातपादानां ३२४ ६९ तथा यदैव देवेन ७४६ १०४ तथाविधां च सम्प्रेक्ष्य ७३४ १०३ तथा विषयलोलेन ८२९ २६ तथाऽस्यामवसपिण्यां ४८३ १४७ तथास्थितायाः सुन्दर्या ७६४ १०४ तथास्थितो जगत्स्वामी २६० १४० Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०४ श्लोक नं. पृष्ठ नं. तदानीं तातपादनः ८१९ १०६ तदानीं सार्थवाहेन १४३ ०५ तदानीं सिन्धुरस्कन्धा ९४९ ५६ तदानीमृषभसे नो ६७७ ७९ तदा प्रचलितैस्तस्य २६९ ११६ तदा मागधनाथस्य १५३ ८५ तदाम्नायात् कलादीद ९७२ ५७ तदाऽऽरात्रिकमुत्तार्य ३७१ ११९ तदायौ ! कार्य मूढानां ११८ ६३ तदा लोकनमात्रेऽपि ०२ ८१ तदा विघटमानो तो ३२७ ९१ तदा लक्ष्यकोपाभ्यां ६४० १२८ तदा शाश्वतघण्टानां ३१८ ३८ तदा शिरांसि धुन्वानाः ५८३ १२६ तदा स्वामिभ्यवर्तीणे २११ ३५ तदिदं भरतक्षेत्र ४८५ १२३ तदिदानी पुरी गत्वा ७१० २२ तदुक्तिमुदितोऽवादी १५७ ६४ तदुत्तार्याऽऽदिनाथाय ३९६ १२० तदेतद् भरतक्षेत्र- ५०७ १२३ तदेनमुद्धताकारं ३५६ ९१ तदेवं सर्वकालेषु ५०२ ७४ तदेव दास्ये साधूनां १३६ तदेवमवसपिण्यां ११७ ३२ तदेषा देशविरतिः १९२ ०७ तदेष जितकासी सन् ४९३ ९६ तदेहि देहि हृदय ९८ १११ तदैव च चन्द्रयशा १६९ ३३ तदेव तस्मिन्नगरे ७२० २३ तदेव देवदुर्योगात् ७३६ ५० तदेव सचिवोऽवोच ०४ १०८ तदेवोद्वर्णकमपि ८०२ ५२ तदोन-भोग-राजन्य ९७४ ५७ तद् गच्छ दर्शयाऽस्या:स्वं ५९९ तगिरा मुदितः सद्यः ६८५ २२ तद्गुहादक्षिणद्वारं ५६६ ९८ तद्घोरात्सङ्गरादस्मात् ४५० १२२ तहत्तं भरतं सर्व ५०३ १२३ तदर्शनामृतासार १४२ ३३ ।। तदुःखदुःखितैबढिं ६८२ १५३ तदुःखदुःखितः सोऽपी- ५२६ तदुःखैदुःखितत्वं च ६१३ ७७ ।। तधुपमैरधिक- ७१५ २३ तद्भव्याश्च तनावन्तो ५६६ ७६ श्लोक नं. पृष्ठ नं. तभावाविज्ञया ऋज्वा ७० ३१ तभित्तिषु गवाक्षाश्चा- ५९३ १५० तद् युद्धायाऽभिगच्छन्तं ३१७ ११७ तद योग्यानि च माल्यानि २४३ ८८ तद् वचो भरताधीश २६२ ११६ तद् वप्रे दीप्त माणिक्य ९१६ ५६ तद्वद् द्वात्रिंशतं राज- ६६० १०१ तद् वाप्यन्तर्दधिमुखा- ६४२ ४८ तद् विज्ञपय्य नेतव्यो २९२ १० तनूजविरहोद्भूतै- ४८८ ७४ तन्तुबन्धादिव करी ९३ ३१ तन्मन्त्रमनुमन्यन्ते २२५ ११५ तन्न युक्तं यतस्तोयं ३६० १२ तन्न भेतव्यमित्युक्त्वा २७८ ३७ तन्मध्ये पूर्व दिग्भागे ४५३ ७३ तपसा दीप्यमानश्च ७४ १३५ तपस्यतामप्यधिका- ८११ १०६ तप्तायःफालकरणिं तप्तायःसूचीसही ८५ ०४ तमग्नि परितोऽभ्राम्यत् ८७१ तमनेनैव बाणेन १७६ तमन्वनृत्यन् मुदिता ८७४ ५४ तमिस्रायाः पूर्वभित्ते ३१९ ९० तमोनिर्दलने भानो ५५३ १२५ तया समाकृष्ट इव २० तयोरषिशिरो न्यासन् ८१४ ५३ तयोरारोपयामासु ८२२ ५३ तयोरुद्गीयमाने च ७९७ ५२ तयोर्बवन्धुर्धम्मिल्ल ८१२ ५२ तयोश्च सेनयोरन्त- ४१८ १२१ तयोः प्रसाधयामासु ८११ ५२ तयोः शीलभूतो रूप- ६२ ।। तरण्ड इव मज्जद्भिः ६४३ ७८ तरदण्डमिवाऽराजत् ४३३ ९४ तरुखण्डसरःसिन्धु ३७ १०९ तल्लाञ्छना भोजनं ते २४३ तल्लोकव्यवहाराय ७६४ तव वंशेऽभवत् पूर्व ४०९ १३ तवाऽऽयुक्ता इवाऽऽदेश २८० ८९ तवाऽविनयमप्येवं १०२ १११ तवैते रम्यरमणी ४८४ १६ तवैव साथिका यच्छन् १३२ ०५ तवौजसा तेजसा च ४४३ १२२ तस्थतुश्च प्रतीहारा ४४७ ७३ श्लोक नं. पृष्ठ नं तस्थिवांसं तथा विश्व ४६२ १४७ तस्थुर्गणघरास्तेऽपि ६६४ ७९ तस्माच्च शिबिका रत्नात् ६२ ६१ तस्मिश्च भूजंतगर ४६३ तस्मिन् गणधरे धर्म ६७९ तस्मिन् गोमृतके भूय ७७१ तस्मिन् जलस्योपरिस्थे ४२८ ९४ तस्मिन्नजीर्यत्याहारे ९३६ ५६ तस्मिन्नरण्य महिषा ७६७ तस्मिन्नेव भवे भत्तुं- २८५ ६८ तस्मिन्नौदार्यमाम्भीर्य ३९ ०२ तस्मिन् पुरे बाहुबलि- २४४ ६७ तस्मिन् हृदयसंक्रान्ते ६३८ । तस्य केन गुणेनाऽहं ५०० तस्य चाऽद्रेश्चतुर्दिक ६३५ ४७ तस्य चिन्ताप्रपन्नस्य १०७ ०४ तस्य चोत्तरतो रम्यं ३९० ७१ तस्य तातस्य पुत्रेण ७३५ १३० तस्य दक्षिणतो भूत्वा ३४ १०९ तस्य द्वाराणि चत्वारि ५६८ १५० तस्य प्रत्यग्रहीत् तच्च २३४ ८८ तस्य भूमिगतस्याऽधं ६७३ तस्प मध्ये कर्ण इवे ३६६ ३९ तस्य रस्नाभरणानि ६०३ १९ तस्य षण्णवतिग्राम ११७ १११ तस्यां गृहाङ्गणभुवि ९१७ ५६ तस्यां वसुमतीनाथो ०२ २९ तस्या अभूतां वक्षोजी २५३ तस्या गुहाया निःशङ्क ३३१ ९१ तस्याने करटः शुष्के ३१ १०८ तस्याने तन्दुलै रोप्य ०७ ८१ तस्याङ्गणाग्रवलभी ६५८ १०१ तस्याच्छिन्नं किमश्वादि १३६ ११२ तस्याऽथ सन्निहिताभि-५४९ १८ तस्या दिव्याकृतेःस्वस्या २१८ १३९ तस्याऽधो विविध रत्नः ४५२ ७३ तस्यानुरागिणः पौरा २२६ ११५ तस्यान्तः प्राक साघ्रिपीठं १२७ १३६ तस्यापि लोकपालास्त ६३९ ४८ तस्याऽभिषेके गम्भीर २७२ ०९ तस्यामीषद् विभातायां ३४४ ६९ तस्यामेव नगयां तु ३४६ १४३ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. - श्लोक नं. पृष्ठ नं. तस्याऽऽयुरवशेषे तु १६५ ३३ ताभ्यामनालोचयया-९०९ २८ तस्याऽरुजोऽप्यभजन्त ६१० २० । ताभ्यामामोचयामासु ३११ ३८ तस्यावसानसमये ४१२ १४ ताभ्यामुभाम्यामुभय ८४९ ५४ तस्या विशेषतोऽभूतां २५४ ३६ तामवस्वापनी निद्रां ६१५ ४७ तस्याश्च बहिरुद्याने ३३६ ६९ । तामाज्ञां शिरसाऽऽदाय ७८३ १३२ तस्याश्च सैकते कृत्वा ४०९ ९३ ताम्बूलवल्लीपत्राणां ८५९ ५४ । तस्याश्चीपरि समव- ५८७ १५० । तार्तीयीके पुनर्वप्रे १८५ १३८ तस्याऽऽश्वासकृते सर्व २११ ८७ ताराकृतबीयं सुतः ३३१ १४३ तस्थाऽसारान् नपान् तारागणानामलकी ६९३ १२९ जित्वा १७० ११३ तालवन्तानिलेनेव ६१ १३५ तस्यास्तदानीं ववृधे २५७ ३६ तावतीभिर्जनपदा ६६४ १०१ तस्याः पङ्ग्बाः करुणया ६६६ तावतोऽश्वान् रथांश्चास्य ११६ १११ तस्याः प्रसवजे दुःखे ५४० तावत्पतन्तं गगनात् ६३४ १२७ तस्येति विक्रमं दृष्ट्वा २३ तावत्सारस्वतादित्य १०३५ ५९ तस्यैव दक्षिणद्वार ४४५ ७३ तावत्स्थायीति तान्यासन् ३१० ९० तस्योपयोगमादित्सु- १४ ८१ तावथोत्तीयं वैताढयाद् ५०५ ९६ तस्योपरि विचक्रे च ४५४ तावद्भिर्जनपदभू- ५९३ ९९ तस्योपरि विशालानि ४३७ ७२ तावन्नभसि सम्म्रान्ता ४३५ १२१ तस्योपरिष्टाद् विजय ३६५ तावन्योऽन्यं कराभ्यांचा ६१८ १२७ तस्यौवंदेहिकं कृत्वा ४१८ १४ तावन्योऽन्यमुदित्वैव ४९४ ९६ तां च निर्माय निर्मायः ९१३ ५५ तावप्येवं बभाषाते ११९ ६३ ताडयन्नासनं वाम ११५ तावुझाञ्चऋतुर्धर्म १४२ ६४ ताडयन् सृणिदण्डेन ६४५ १०० ताश्च नन्दोत्तरानन्दे २८८ ३७ ताडिता म्लेच्छ सुभटै- ३७५ ९२ ताश्च संर्तवातेन २७९ ३७ ताततुल्यो हि मे भ्राता १२३ १११ तासां च पृष्ठे प्रत्येक ६०३ १५१ तातदत्तांशतुष्टस्य २२० ११५ तासां चाऽहत्प्रतिमानां ५९८ १५१ तातपादलालितायां ८० ११० तासां पुरस्ताद्विविध ३५८ ३९ तातभक्ताः सदायूय- ४८८ १२३ तास्ते क्षौमाणि संव्याप्या ८०५ ५२ तातभक्तो महेन्द्र श्वे- १४७ ११२ ताः कृताञ्जलयो रत्न ६०७ १५१ तातस्तरीतुं सहसा ५०६ ७४ ता: क्षमापतिरान तातस्य पुत्रो भूत्वाऽपि ८३१ २६ ता: समारोपयामासु ८१६ ५३ तातेनाऽशोकदत्तस्य ५० तितिक्ष्वस्व समानाय! ७३७ १३१ तातो जगत्त्रयत्राता ५०८ १४८ ता दक्षिणचतुःशाले ३०६ ३८ तिमिङ्गिलैरिव म्लेच्छ ३७७ ९२ ताहक्कालानुभावेन १५८ ३३ तिर्यग्योनिभवाः शेषा १६८। तानि पञ्चाऽपि शिल्पानि ९५७ ५७ तिर्यञ्चोऽपि हि धन्यास्ते १४६ तिलकः प्रबलामोद तानि वस्त्राणि माल्यानि ६३ ९९० तिलपी निपीड्यन्ते ५६३ १८ तानेव बिभराञ्चक्रु ५३२ ४४ तिष्ठन् गच्छन् स्वपन् तान्यक्षराणि सम्प्रेक्ष्या १७८ ८६ जाग्रद् ताभिर्धात्रीभिरुद्यान- ६८२ ४९ तिसृभिः परिषद्भिश्च ४९५ ४३ ।। ताभिः सहस्रसंख्याभिः ५६० १२५ तीरगतषु रत्नौष ४३० १४६ ताभिः सुगन्धितोयेना २८४ ३७ तीराभ्यान्महापोतो ५८९ ७७ ताभ्यां चन्द्रोज्ज्वल: पुत्रो १८१ ९४ तीरे दक्षिणपाथोधे- ५५८ १२५ ताभ्यां तु भवतो मास ४४६ १५ तीर्थ नत्वा प्राङ्मुखोऽय ४६२ ७३ श्लोक नं. पृष्ठ नं. तीर्थकृतपर्षदीवाऽल्प ८७२ २७ तीर्थ कृत् पादसेवाया ८३८ २६ तीर्थकृतप्रतिरूपं तत्- ६१४ ४७ तीर्थे तत्र समुत्पन्नो ६८० ७९ तुक् सुमित्र यशोमत्योः ३२७ १४२ तुननिर्मलशृङ्गान ८८ १३५ तुभ्यं नमस्तीर्थ नाथ ! ३३० ३८ तुभ्यं नमः पञ्चमहा ८८ ६२ तुम्बीफलमिव कस्या ३१८ तुर्योऽप्युवाच मायाऽसौ ३८४ तुल्ये चतुणी पौमर्थ्य २६१ ०९ तुल्योऽधिको वा किं कोऽपि ८९ ११० तृणकाष्ठादि स प्रोषन् ९४२ ५६ तृणवद् गणयन्न ३ ४१२ १२० तृणहारकाष्ठहार ९५८ ५७ तृतीयस्तु बलदेवो ३६० १४३ तृतीयारान्तजातत्वाद् १३७ ३३ तृतीयारे पल्याऽष्टमा ११० ३२ ते आयें जग्मतुस्तत्र ७८५ ते उम्मग्ना निमग्नास्ये ५६५ ते कोष्ठबुद्धयोऽभूवन् ८६४ २७ ते क्षुद्रहिमवत्येत्या- ४८६ ते च कच्छमहाकच्छ ३०४ ते च कच्छमहाकच्छ ६५४ ते च कर्णान्तविश्रान्ते ७२२ ५० ते च विद्याधरण्यौ २०९ ६६ ते चोर्द्धवगत्यामेकेन ८७६ २७ तेजसा वयसा ज्येष्ठो १२० १११ तेजसे स्वामिनाऽऽदिष्टा २५५ ११६ तेजस्विनां पदार्थानां २२६ ३५ तेजोविडोजा नपति ६३२ १०० तेजोऽभिमुंखचण्डाशु २०७ ०७ तेजो भिश्विरमेषस्वा १०७ १११ तेजोलेश्यां तपस्वीव ७१४ १३० तेजोहेतोमंयि गते १४२ ११२ ते तथा चक्रिरे तत्रा ९३९ ५६ ते तया चक्रिरे मुग्धा ९४७ तेऽसर्जयन्निव तडित- ४२० ते तस्युरुपरिक्ष्माप- ४२१ ते तु कच्छमहाकच्छा- २३४ ते तेषां रेजुरुत्क्षिप्त- ५०३ ४४ ते वन्येऽस्मिन् समुद्रे ये १४८ ११२ ते दूतानभिधाय ८०८ १०६ ते दृष्ट्वाऽवधिना तांस्तु ४१२ ९३ ते द्वात्रिंशत्सहस्राणि ६७९ १०२ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. तेन घातेन घटवद् ६७६ १२९ ५२८ १४९ तेन च स्नपयामास तेन तेषां विद्वानां १९४ तेन दण्डाभिघातेन ६९७ तेन खर्णेन ते चैत्यं ७७९ २५ १६४ ९४३ तेन हाकारदण्डेन तेनाग्निना दह्यमाना तेनाध्यच्छिन्नतृष्णः सन् ८१८ तेनाभ्यङ्गेन भूयोऽपि ७६९ तेनाSSहतं च दण्डेन ५६१ ते निश्वं तीर्थकुद वाणी ८३९ तेनुस्र्याङ्गास्तूर्याणि १२३ २६ ३२ नवमृजुना सोनु १०३ ३२ तेनोदस्तेन दण्डेन ६६४ १२८ सेऽस्यवर्षचरेभ्योऽम्बु- ४८८ ४३ ते पर्यंधापयन् राज्ञा ६९२ १०२ सेsपि प्रदक्षिणीकृत्य ४८२ १४७ तेऽप्यूचुर्भव राजा न- ८९९ ५५ तेऽप्यूचुर्मूल्यमादत्स्व- ७५० २४ तेऽप्यूपुः किञ्चिदध्य २६९ वेम्मः कुम्भाः शुशुभिरे ५१७ ४४ तेऽवर्द्धन्त क्रमाद् राज- ७९७ २५ ते वायसा इवैकत्र ते विधिमाह ते विजहुः पुरि पुरो ते विद्याचारणss ८७८ २२ १२९ ४०८ ३३७ ७८२ ३३ ५६ ९३ ९१ २५ २७ ते विषाद प्रमोदाभ्याम् ५८० १२६ तेरी दवा ६८७ २०६ २४ ९८ १०२ ९१० २८ ७८१ २५ हे पहनतीचा ते षडप्येकदा जात तेषामप्येवमारम्भं १९४ ११४ तेषामप्रतिघातित्व- ८६० २७ ८६३ २७ ९६ सेवामाविरद्] बीज तेषामुच्चैः किलिकिला ४९६ तेषामेवाऽभिधानंस्तु ५७३ ९८ तेषां च यस्पानां ५७७ १५० तेषां च चैत्यस्तूपानां ५८१ १५० तेषां चतुर्णां च मुख- ५७३ तेव च नगर गोषं २७५ तेषां १५० १४१ तेषां च पृष्ठतस्तस्थु - १३६ १३७ तेषां च राज्यग्रहणे १२८ ११२ तेषां च रुदितं श्रुत्वा ४९८ १४८ १९ लोक नं. पृष्ठ नं. ५१९ तेषां दूरेन लोका तेषां प्रेक्षामण्डपानां ७५ ५७४ १५० तेषां योगप्रभावेण ८४३ तेषां पुलंचीयस्य २६ ८५४ २७ सेयां वपुःपरिस्पर्श तेष वशित्वसामर्थ्य ८४६ २६ ८५९ २७ तेषां नाऽपि ८४४ २६ तेषां सम्प्रश्वरागाणां ९७ १११ तेषां स्फोटितपाताल ५७९ ४६ तेषु तातपाणि तेऽष्टचक्रप्रतिष्ठाना १११ १३६ ५७१ ९८ तेष्वथो नमिविनमि २१२ ६६ ते स्वयम्बुद्धसम्भिन्न २८७ ते हि स्वामिचिताह्न ५५७ तेरेव राज्य सन्तुष्टा ८२० नटवरमे ६६८ तंक्तियक्षः क्षमितः ७७७ तै विज्ञप्तः पुनः स्वामी ९३८ तैलेनाऽत्युष्णवीर्येण ७६२ के तत्र मागिवय ११५ सोयापम तोयादिभ्यो विसदृशी तोयानां चातक इब तोरणानामवस्तेषां तोरणानि प्रतिदिशं तोरणानि विचक्रुश्च ४२६ तोरणम्यभितः स्तम्भे ११० तो कदाचिद् विदेहादि २३१ तौ तु पञ्चाशदधिक १९६ ४३१ ७७५ ९०७ ती तु पीडमहापीठी तो नित्यमृषभस्वामि २२७ तो सीलपदया ६१७ १२७ ८८५ ५५ १६६ ३३ त्यक्त सम्यक्त्वभावस्य ५९९ ७७ स्वक्तसावद्ययोगस्य ७९० १३२ स्वाऽध्यानस्य ६३६ ७८ त्यक्त्वाथ दैहिकान् भोगान् ३२९ ११ त्यक्त्वा राज्यं जगन्नाथो तो सुबाहुमहापीठ तो स्त्रीपुंसावसंख्येय ४३१ ३५९ ८५८ १३० स्वयन्तामाशु राज्यानि ८२३ स्याम्पोऽसतां च सं १९ त्रयस्ते सदसि स्वप्ना २४८ १० १४९ १०६ १०१ २४ ५६ २४ १३६ ९४ १२ ५४ ७२ ७२ १३६ E ३४ २८ ६६ ६३ १०६ ३० ૬. श्लोक नं. त्रयोदश च रत्नानि ८११ सस्थावरजन्तूनां ८३ जसा द्वित्रिचतुःपञ्चे- १६१ पायरियायुरस्त ८६९ त्राया अभी स्वामिन् पृष्ठ नं. २५ ६२ ०६ ५४ ४७८ સ્ नादिभिखापि ४५४ चिको मानव १२४ १३६ त्रिजगत्स्वामिनस्तस्य ३८२ त्रिजगत्स्वामिनो विश्वा ७३९ त्रिपृष्ठ: केशवस्त ३४० त्रिश्च प्रदक्षिणां कृत्वा १७२ विश्व प्रदक्षिणीकृत्य ५३६ विश्व प्रदक्षिणीकृत्य ८०९ विश्र प्रदक्षिणीच १० ८१ ९६ त्रिषु दयामां चिंता ५१९ त्रिसन्ध्यं च प्रणम्येवं १४४ ६४ ३३२ ६९ ३३३ १४३ त्रिसन्ध्यमपि तद्रत्न त्रिशद्वर्षसहस्रायु त्रैलोक्यमेकतः सर्व त्रैलोक्यस्वामिताभाज: ३८८ १४४ स्वत्पचयमायातः त्वत्पादपङ्कजच्छाया स्वत्पादपद्यपीठाचे १६ ७१ १३१ १४३ १३८ ७५ १०६ ५१८ ७५ लाक्यै कमहासारं २५८ स्वत्पदाम्बोज संस्पद १७९ ५४४ ०६ ०४ स्वत्वादी प्राप्य संसारं ३२६ स्वभावात् स्ववीमि वा २६३ स्वत्सभामण्डनममा ४७७ त्वत्सैन्यभारसम्भूत १६ ४५३ १२२ त्वदग्रे धावतः पद्द्भ्यां ०५ ६० स्वाधितायातुवा १७४ १३८ त्वद्दर्शन महानन्द वन्मनोरथसिद्धि स्वमेव पुत्रस्ता तस्य त्वमेवाऽमोषजन्माऽसि * * ३६ १३८ ७५ ६० ६० ३८ १४१ ५४१ ७५ ७६० १०४ ७५३ १३१ ४१२ ४१ स्वयाऽप्येतव्यमुद्यान- १२ २९ त्वया विरहितः स्यां चेत् ०७ ६० स्वय्यायाते समायातो ४५१ १२२ स्वयि तत्र गते सद्यः १०६ १११ एवं देव ! दुःखदावाग्नि ཨྠ ८१६ १० Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. १२० स्वं पुमानुत्तमोऽसीति २१९ २१९ १३९ स्वमिहाऽऽयात मुर्वीश ! १८४ ८६ त्वां जडोsपि जगन्नाथ ! ३९७ त्वां ध्यायन्तः स्तुवन्तश्च ३९९ त्वां स्तोता स्तूयते देव !८१५ व १२० १०६ दक्षिणपश्चिमायां तु ३७५ so दक्षिणस्यां वरदाम १५५ ८५ ९० दक्षिणे कुम्भिनः कुम्भ- ३०३ दक्षिणेनेशान कल्प ४३३ ४१ ७०८ ४९ ९७९ ५७ ८२ १५२ दण्डचक्रधरस्व दण्डभीतस्तदालोकदण्डरनधरो वाजि - ४१ दण्ड रहनेन रत्नेशो ६३५ दण्डाfथन ! दण्डमस्मत ५०१ ९६ ७१७ १३० ६६८ १२८ ९७० ५७ ७३१ ५० ३० ६० ४९० १२१ ०८ ०६ १५२ दत्तो वाराणसी ३५२ ३५२ १४३ दत्वा जयजयेत्याशी- ४४१ ददते मदाङ्गा २३३ वदास्यभयदानं यो- १७० ददाह वादयन् घण्टा ६४३ दन्ताश्च स्फटिकमया ६०१ दन्तिराजतुतः दन्तुराम्बर मुण्डदन्ते दन्ते पुष्करिणी ४१३ ७२ दन्ते रमरवणुक्त्यन्तः २१४ ३४९ १५१ ३५ ९१ ७५२ ५१ १८ दण्डेन दलवायाशु दण्डेन चूर्ण ची दत्तकन्योपयमनं दत्तहस्तो महेन्द्रेण दत्तहस्तो महेन्द्रेण दसपयोगस्तस्का दन्तैर्दन्तान् धर्षयन्ति ५४५ दन्दशूकवचा केsपि दम्भोहितायमानाना १९१ १६ ११४ * ३२९ ११८ दम्भोदिण्डं विभ्राणी ४२२ दम्भोतिरपि दत्येत ** ८५ १३७ ९१ ११० ८६ ८३ ५३ दरिद्रोऽपि कुटुम्बेन दर्श संस्तार के तस्मिन् दर्शनीय स्थितिलो के ८२५ दर्शनेन स्पर्शनेनोदर्शनिरिवाइत्यन्त दर्शिते मणिभद्रेण ३०२ १० ३२४ ११ १०२ ०४ २० श्लोक नं. पृष्ठ नं. १७ ७२ ७२ १४३ ७८ दलं वृक्षादिव दिव- ५१५ दलानि विपुलान्यष्टा ४१५ दसे सस्यानि ४१६ दशवर्षसहस्रायुः ३३४ दशस्वपि कृता दिक्षु ६३२ दस्युभ्यनास्ते मार्गे ४८ दह्यमाना ५९४ ६३९ दानं चतुर्विधाहार दानं धर्मानभिज्ञेभ्यो- १५४ दारयन्तः शताङ्गानां ४२३ १२१ दारिद्यस्य बुभुक्षेव ५३० १७ दारैरुल्लासिताः केऽपि ३५१ दावाग्निमेष ष्टिभ्या- १४ दासोऽहं स्वामिनोऽमुच्य १६८ दास्ययोग्यायोग्यः ३९ दिक्कुमायोऽष्ट पौरस्त्य २८० विन्यास्वपि तिसृषु १२३ दिगन्तस्यापिभिः प्रौड ०२ १५० ४८३ १६ ३७ १३७ ५८१ २९६ १०८ ६४ १४६ १५ ७८ २४ ७७ ०८ ३३ १४१ ८५ ६८ दिष्ट्या दृष्टो मया नाथः २८९ दीक्षाकालात् पूर्वलक्षं ४५९ दीनानाथजने म्योऽथ ४५३ दीनाराणां लक्षमेकं ०६ ७४९ दीपकं तद् यदन्येषा ६०७ दीपशिखा ज्योतिष्काव २३४ दीयतां मा दीयतां वे- १५० दीयमानान् यदि पुन - १९३ १३८ दुकूलमिव पङ्केन २७५ १४४ दुग्धं तुषोदकेनेवा १०२६ ५९ दुन्दुभिस्ताड्यमानाऽय ३५ ८२ दुन्दुभिस्ताडयामासु ५०६ दुरन्तविषयास्वाद २५९ दुराचारोऽपि रौद्रोऽपि ४११ दुर्गं दुर्धर माहेन्द्रे दुर्गतिप्रपतन्तु दुर्गवं वर्त्मना प्रेषय १०० दुर्जन प्रतिकाराय ૪૪ २०७ १५२ १३७ ११२ १३४ दुर्भाषितेन तेनैके५१ दुश्चिकित्समहामोह ७८१ १०५ ૪૪ दुष्टशिष्यानिवोद्घोष ५१० दुष्प्रे तलकविना ६८९ १२९ दुःखशैथिल्यहेतुं तच्- ४९६ १४८ दुःखादिष्वसृतादि ८७० २७ ३४४ दुःश्रवक्रूर निर्घोषा ९१ दुःस्वप्नोऽप्यवमस्माभि ५६३ १२५ वृतीभूतानि निःशेष दूये पश्यन्नियां क्षामा दूतोऽप्यन्तकाङ्खान दूरतः स्वामिनं द्रष्टुं ३६ ८२ ७४३ १०४ ६७४ ३७ ५८३ ४६ १२९ ६१ ३४२ ११८ दूरमुच्छलता तेन दूरादात्मख्यापनाय दूराम्बुवेन कूपस्य ८४२ १०७ दूरे बाहुबलिस्ता ३१६ ११७ दूरेऽस्तु वस्तुग्रहणं ३०९ ६८ मिषोऽहरिहाऽस्तीति६९७ २२ पीनोन्नती स्कन्धौ ७०५ ४९ २० पूर्व मया वेद ६३४ दृष्टि ष्ट्या तदानीं च ८५१ दृष्टियुद्धादिभिर्यु- ५१७ ५४ १२४ ३४२ दिन् व्रते परिमाणं यत् ६२७ विमुख प्रतिफलित ३९२ दिवाऽतिकी भूतान् ६५० दिदृक्षोः खंजनं सर्व ७९९ दिधक्षव इव क्रोधा दिने दिने नरपति - ४४२ २८३ ६८ १३८ दिने दिने परमसा- ९१ दिनैः कतिपयस्तस्या ७४३ दिवाकरकराकारत दिवि दुन्दुभयो नेदुः दिवियन्निहितेટ दिवीव तत्र कल्पद्रु २३७ दिवो देवाः पञ्चवर्ण २९८ दिवो पृष्ठभ १८२ दिव्यचन्दनकर्पूर ०९ ८१ दिव्यनेपथ्यवत्राल ९१० दिव्यया गन्धकाषाय्या ३६६ ११९ दिव्यथा गन्ध काषाय्या ५३९ ४५ दिव्याकृतिः सुसंस्थानः ४६२ १५ दिव्यौदारिककामानां ६२२ दिशन्ति सूनमुकेश ३५१ ९१ दिशि दक्षिणपूर्वस्या- ३७३ ४० दिशि प्रतीच्या सप्ताना २७६ दिशो गर्जनयन्यानो ११८ १३८ ७८ ४० ९१ ७८ ४० १०१ १०५ ९४ ११६ ३१ ५० १२६ ६८ ७९ ०८ श्लोक नं. पृष्ठ नं दिशोदक्पूर्वया गच्छन् २२७ दिशः प्रसादमासेदु २६६ ३६ दिशः प्रसेदुरभवन् ३९८ ७१ दिष्ट्या दृष्टिपथ प्राप्तो ८७ * ०९ * ६६ ०६ ०४ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. द्वितीये त्वरके माः १२९ ३२ द्वितीये नात्मनो भ्राता ४४५ १२२ द्वितीयेऽह्नि ययौ राजा- १४ २९ द्वीन्द्रियाः कुमयः शङ्खाः १६६ ०६ द्वीपस्य जम्बूद्वीपस्य ४९० ९६ द्वीपारतजगतीजाल २२८ ६६ द्वीपाम्भोधीनसङ्ख्या तान् ४०१ ४० द्वीपिपुच्छत्वचा केचित् १९० ११४ श्लोक नं. पृष्ठ नं. दृष्टियुद्धेन योद्धव्यं ५७८ १२६ दृष्टिवाग्बाहुदण्डाई- ४७४ १२२ दृष्ट्वा मेघमुखान्नाग ४१४ ९३ दृष्ट्वा स्वामिनमायान्तं २७७ दृष्ट्वा स्वामिनमुद्वाहे ९६८ देयशुद्ध द्विचत्वारिं- १८३ देवच्छन्देऽभवन् रत्न ५९५ १५१ देवच्छन्द रत्नघण्टा ६०८ १५१ देवताभिरिव प्रादु- १७५ ११३ देव ! स्वच्चरणाम्भोज ३७४ ११९ देव ! त्वद्देशनावाग्भि- ३७७ ११९ देव ! त्वद्देशनावाग्भि- ४०३ १२० देव! त्वद्भक्तिहीनानां ४८३ ७४ देव !त्वामाश्रयन् जन्तु ३९८ १२० देवदुन्दुभिनिॉष ६६९ ७९ देवदूष्यस्तोरणानि ५४० १ देवनैरयिकाणां स्याद् ५७९ ७ देव! ये केचिदन्येऽपि ५४९ ७६ देवराजोऽब्रवीद् राजन् २१६ १३९ देवस्त्रीभिर्गीयमाने ८४० ५३ देवानीतासनासीनो ७३३ ५० देवानीतोत्तरकुरु- ६८४ ४८ देवाऽयं वार्यता लोकः १३८ देवासुरनदेवश्च ८०४ देवाः प्रमत्त व्यासक्ता ३४५ ३९ देवाः प्रभोः सहग् रूप-४६४ देवि ! त्वं सर्वदाऽपीद ५१७ ७५ देवी स्वयम्प्रभानाम ५१० १७ देवीच पद्मनिलया २१६ ३५ देवी शरच्छ्रीकुमुद ! ६७१ १५३ देवी सुमनलकोन ८९० ५५ देवेदं भारतं वर्ष ३३२ ३८ देवेष्वपि न पश्यामि ०७ १०८ देवेह भरतक्षेत्रे ४८० ७४ देवरप्यपरिज्ञेय ८१० १०६ देवैरानिन्यि रे गन्धा- ४९९ ४३ देवमित्रयोद्गार ४९६ १६ देवोत्तरकुरुभ्योऽपि ४९१ ४३ देव्यो जया च विजया ४४९ देशतो विरतिः पञ्चा- १८८ ०७ देशनां स्वामिनः श्रुत्वा ७९८ १०५ देशनान्ते च भरतो १८९ १३८ देशनान्ते च पानान्न ७०६ २२ देशनान्ते स भूपाल ४२६ १४ देशनाविरतौ नत्त्वा २७३ १४१ श्लाक नं. पृष्ठ. नं. देशनासुधया चेदी- ३९४ १४४ ।। देशनोद्दामवेलायाः ६६६ ७९ देशो नैकावशिष्टाब्धि ५८७ ७७ देहोयुगादिनाथस्य ६६० देह्यधमर्ष देऽाय ८३५ दोर्मूलयोर्दधानश्च ३५८ दोलान्दोलनसजात- १०१३ दोलारुढानवोदूढा १०१४ ५८ दोषः किमावयोः कोऽपि १३८ ६८ दोष्मानस्मीति सहसा ४६० १२२ दोःकण्डुरेव ते राजं ४४६ १२२ दौभाग्यं प्रेष्यतां दास्या ६२९ ७८ श्रियाऽपि न तोषो मे ४८५ धुसकिरीटशाणाम्रो- ०७ ०१ द्रव्यगुणः पर्यायैश्च ६६२ ७९ द्राक्षाखजूरमुख्यानि ७३७ १०३ द्वयोरपि जगत्त्रातो ५१४ १२४ द्वयोरपि तदाऽऽर्षभ्योः ३२० ११८ द्वयोरप्यूषभस्वामि ५१३ १२४ द्वाचत्वारिंशददानि ३२५ १४२ द्वात्रिंशता सहस्रः स- ७१९ १०३ द्वात्रिंशति विमानानां ३४४ ३९ द्वात्रिंशतो जनपद ७२३ १०३ द्वात्रिंशदङ्गुलोत्सेधं ३८३ ९२ द्वात्रिंशदासन् पात्राणि ४१७ ७२ द्वादशपूर्वाङ्गहीना २८६ १४१ द्वादशयोजनायामां ९१२ ५५ द्वादशस्वपि वर्षेषु ९५ १११ द्वादशाङ्गे श्रुते प्रश्न ८९० २८ द्वारदेशमुभयतो ६२३ १५१ द्वारवत्यां द्विपृष्ठस्तु ३४२ १४३ द्वारवत्यां स्वयम्भूस्तु ३४४ १४३ द्वारेणोभयतः स्वर्ण- ६५२ १०१ द्वारे द्वारे न्यधीयन्त १२२ १३६ द्वारे द्वारे रत्नमया ५७० १५० द्वारे द्वारेऽष्ट मङ्गल्यो ५७१ १५० द्वारेषु तेषु चाऽभूवन् ५७२ १५० द्वासप्तति योजनानि ४६८ ९५ द्वासप्ततिकलाकाण्डं ९६० ५७ द्वासप्ततिवर्षलक्षा- ३४३ १४३ द्विचत्वारिंशता भिक्षा २४० ६६ । द्वितीयवप्रद्वारेषु ४४८ द्वितीयस्तु बलदेवो ३५९ १४३ द्वितीयस्य तु वप्रस्य ४७५ ७३ घनिनां गुणिनां कीति- ४२ . .२ धनुनिर्घोषबूस्कार २६८ ८९ धनुर्मण्डलमध्यस्थः १०३ ८४ धनुःपञ्चश तायामान् ३०९ घनेन पृष्टास्त्वाचार्याः ५३ घनोऽप्यूचे गुणानेव १३३ ०५ घनोऽप्यूचे मया स्वामिन् ! २०२ ०७ घनोऽवोचदहो! कापि ६१ ०३ धन्यस्त्वं तत्यजे येन ७५० १३१ धन्यावेती निष्कषायो ७०७ २२ धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं १४० ०५ घर्तु प्रतिपथं पान्थान् ९७ धर्म तेनाऽनुयुक्तस्तु ४५ १३४ धर्मघोषसूरयोऽपि १४५ ०५ धर्मदेशनया भव्यान् ७४८ १५५ धर्मविघ्नं करिष्याम ७५९ २४ धर्मशान्त्यन्तरे चेती ३३० १४३ धर्महीनाः कृमयः स्यु ३१५ ११ धर्महीनो द्विजन्माऽपि ३१३ धर्माज्जन्तुर्भवेद् भूपो १५० धर्मादाप्नोति शर्माणि ३१८ धर्माधमौच नाशङ्कयौ ३३४ ११ धर्मान्तरं तु शुश्रूषु ४३ १३४ धर्मोद्धरणधीरेय ४१३ ४१ धर्मोपग्रहदानं तु धर्मोपदेशस्तदयं ३९८ १३ धर्मो मंगल मुत्कृष्ट १४६ ०६ धर्मों मातेव पुष्णाति १४७ ०६ धर्मों रत्नपुरे भानु ३०६ १४२ धर्मः शर्ममहाहम्यं १४९ ०६ धर्मः सक्रमयत्युच्च- १४८ धवलेनाऽऽतपत्रेणो ३१५ धात्रीकर्माणि सर्वाणि ६२९ ४७ धान्यशाकफलान्येता- ४३७ ९४ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ न हि कश्चिदुपायस्तं ५९७ १९ न हि क्षुषां गणयति १०८ ६३ नागयक्षभूतकुण्ड ६०६ १५१ नागराजशिरोरत्ना २२२ ८७ नागराजाविवाऽत्यन्त ४०९ १२० नागराणामिति मिथो १७४ ११३ नामाद्यर्चा धनुर्वेद ९६६ ५७ नागेन्द्रो घरणो मेघ ४५५ ४२ नाऽजीगणत् कर्करान् स ४६६ १४७ नाऽजीगणन् गजभय ६४४ १०० नाटय प्रवर्त्तयामासु ५५७ ४५ नाटयमालं चमूनाथः ५५६ ९८ नाडी नाडीन्धमस्येव २८ १०८ नात्यासन्ने नातिदूरे ५३८ ९७ नाथ ! स्वदंसयोः स्वर्ण ७० ६२ नाथे वृषभनाथेऽपि १२६ ६३ नाथेह भरते यूयं २७४ १४१ नाथोऽपि शिबिकारूढः ३५ ६१ नाऽदोऽपि युक्त यन्नास्या श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. धान्यर्जन जीवधनैः ६०५ ९९ नत्वा जिन जिनाम्बां च २९५ ३७ धारयन्ति रतिप्रीत्योः ७५० ५१ नत्वा जिनं जिनाम्बां च ३०० ३७ धिक् तातपुत्रमानि स्व ७१२ १३० नत्त्वा जिनं तदम्बां च २९८ ३७ ।। धिग् घिग् मोहान्ध नत्त्वाऽहन्तं तो विमानं १७२ मनसां १०२१ ५९ नदीनदनदीनाथा २६४ धिग् मन्त्रिणःस्वामिहित २०७ ११४ न देहेन विना धर्मो १८५०७ धिग् मया चिन्तित मिदं ३२७ ३८ ननाद नादयन्नाशाः ४६८. १५ घिग मे बलमिदं बाह्वो ६३२ १२७ नन्द नन्देत्युच्यमानो ३८७ १२० घिगियं वैरिणी रात्रि ३७३ ७० नन्दनो मरुदेवाया ३४० ३९ धीरो भव घराधीश ! ५२० १४८ नन्दादेवी हृदानन्द ६६३ १५३ धूपभाण्डानि हैमानि ६१३ १५१ नन्दासनभद्रासना ६२१ ४७ धूपितमभी रम्यं ६२४ १५१ नन्दीश्वरमहाद्वीप ८० १३५ धूलिधूसरसर्वाङ्गो ६६७ ४८ नन्दीश्वरादितीर्थेषु २३० ६६ ध्यानाधीनात्मनः नन्द्यावर्ता जगभर्तुः ६९१ ४९ ___ कांश्चित् १२२ ०५ न ब्रूते यद्यपि स्वामी १४० ध्यानेन तपसा चाऽऽयु २७९ १० नभस्यथ समापेतु ५० ६१ ध्यानकतानो नासान्त ७५८ १३१ नभःस्थितेन स्फटिक ६४ १३४ ध्यायतः कर्मविपाकं ६१० ७७ नमस्कृत्योपविष्टे च ४२५ १४ ध्रुवं दिगनुमानेन २७५ ११६ नमस्तीर्थायेति वदन् १३२ १३७ ध्वजस्थ किङ्किणीक्वाणः ६१८ १५१ नमस्तुभ्यं जगन्नाथ ! ६०२ ४६ ध्वजाश्च भ्रजिरे तत्र ४३० ७२ नमस्तुभ्यं जगन्मात २७६ ३७ ध्वान्तमग्नर्दीप इव ६४४ ७८ नमस्तुभ्यं मृषावाद ८४ ६२ नमस्यतां प्रतिदिनं ८१२ न यच्छादयितु नाऽपि ८० ३१ न कश्चिदुपमापात्र ६०८ ४७ न यत् प्रमादयोगेन ६१९ ७८ न किञ्चित् कस्यचित् नयनानन्ददायिन्या ७१३ १०३ साम्ना न युज्यते तद् विदुषः ५५४ ७६ न किञ्चिन्मानवा माना १०२४ ५९ नरतिर्यक्सुरेष्वेक ६५३ ७९ नक्तमिन्दुदृषद्भित्ति ९२२ ५६ नरनाथं ननामाऽथ ७७ ११० नक्षत्रचक्रमध्येन ४०० नराणामय नारीणां ५७६ ९८ नखरत्नप्रभाजाल २३ ८१ नरेन्द्रमन्त्रिसामन्त नखाः केशा रदाश्चान्य ८५१ २७ नवं जीवातुमधुना नगयीं पुण्डरीकियां ६२८ न ववमपि भेदाय ३७९ ११९ नगयाँ पुण्डरीकिण्यां ७९२ नवमस्तु बलदेवो ३६६ १४४ नग्ना उत्तानका मेधा ४५० नवयोजनविस्तारं ८३ न चक्रं चक्रिणःशक्त ७२३ १३० न वा दुग्धानि धेनूनां ७३९ १०३ न चक्ररत्न नगरी ४६८ १२२ न वाऽपि निधयस्तस्या ८१२ २५ न च देहात्मनोरक्य ३६२ १२ नवाम्रपल्लवाताम्र ७०७ ४९ न चेत् प्रत्येषि मद्वाचा ५०९ ७४ न विरज्यत्यसो शीता २७३ ६७ नच्छिन्नायाऽर्णवाद्येस्तृट् ८४३ १०७ न वेसराः कशापातं ५९६ १२६ न जीवेदग्रजश्वेत् तज् ६५६ १२८ नव्यकुकुमपानीय ३४१ ६९ न ज्ञापितमिदं भर्चा ३१९ ६९ नव्यनश्यदहो! कार्य ४४० १२१ न तद्वन्दे न चेदं ते ३८२ १४४ नव्यसाम्राज्यसौषस्य ९३२ ५६ न तान् कारयितु युक्त ३६ १३४ । न शुभं स्वामि वामाना ७० १३५ नतात्तिच्छेदनायेव ६८७ ४९ __ न साम्ना न स्वरेणाऽपि २१६ ११४ नादः प्रयाणतूर्याणां २६५ ११६ नानादेशेषु विहरन् ४५० १४६ नानामणिमयान्यासन् । ४३३ ७२ नानारत्नमयान्युच्च १८२ ६५ नानावर्णानि सन्ध्याभ्रा- ९७ ६२ नानावाँशुकमय- ५८८ १५० नानावस्कन्दसग्राम ५४३ ७५ नानाविधामरतरु २१७ ३५ नाऽनुजोऽपि करोत्याज्ञा १५ १०८ नाऽपश्यत् किञ्चिदप्यन्ना ४७५ १४७ नाभिर्बभार गम्भीरा ७०३ ४९ नाभिसूनोः प्रतिच्छन्दं ४१६ ४१ नाभीकेशान्तभू जिह्वा ५९९ १५१ नाभेयो बाहुबलिन ९६२ नामतोऽप्रतिचक्रेति ६८२ ७९ नाऽमस्त कटकायातं ७७ नामत: सिंहनिषद्यां ५६७ १५० नामाकृति द्रव्यभावः ०२ ०१ नामाऽपि तस्या नागश्री ५४१ १८ नाम्ना त्रिपृष्ठः प्रथमो ३८१ १४४ नाम्ना पीठमहापीठो ७९५ २५ नाम्ना सागरसेनश्च ७०३ २२ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ श्लोक नं. पृष्ठ नं. नाम्ना सुभद्रा स्त्रीरत्नं ५३४ ९७ नारकाणामपि सुखं ३३४ ३८ नारायण इति ख्यात: ३५४ १४३ मालिकेरीवनेषुच्चः ४०१ १४५ नावोरिवाञ्चलो देख्यो- ८६५ ५४ नाऽश्वो न च खरः किन्तू २४ १३३ नाऽस्मि वक्तुमलं नाथ! ६०९ ४७ निकाममेव कामिन्यः ३०३ १० निजयोर्दण्डदण्डानां ७१५ १३० निजसम्पतस्वनुत्से की ४७९ १२३ निजागमेन मागंणो ७०३ १०२ निजाज्ञायष्टिनोग्रेण ६०३ ९९ निजाननप्रतिच्छन्द २१८ ३५ नि जान्यपत्यरूपाणि २४४ १४० निजेने वाऽनुरागेणा ५८७ ४६ नितम्ब भित्तिः स्वामिन्या २५५ ३६ नितम्बे दक्षिणे तस्य २२८ नितम्बेन विशालेन ५२७ ९७ नितान्तनिशितान् कुन्तान् श्लोक नं. पृष्ठ नं. नर्मल्याद भासुरत्वाच्च ८२ १३५ नैसर्गिकप्रभावेण २६५ ८९ नैसगिकमपि त्यक्त्वा ५०२ १४८ नैसर्गिकेण मोहेन ४०१ १२० नैसर्पः पाण्डुकश्चाऽथ ५७० ९८ नो वा यास्यामि पूर्वात्त ७४३ १३१ भ्यग्रोधपादपस्याऽध ७५८ २४ न्यवत्त मघवा भर्तुः ५९० ४६ न्यवेशयन् स्वामिदंष्ट्रा ५६५ १५० न्यस्तरत्नशिलारश्मि ३६० ३९ न्यस्यकं लस्तके हस्तं ९६ ८३ न्यूनायुषो पितृभ्यां च १८८ ३४ ११७ __श्लोक नं. पृष्ठ नं. निवेश्य चाऽऽसनेऽन्यस्मिन् ८०३ ५२ निशातमस्त्रं कामस्य २४५ ०९ निशा निशाकरेणेव २७० निशायामपि तत्काल २१९ निशाविरामसमये २२७ ३५ निश्चलाक्ष्यश्चलाक्ष्योऽपि ४९ ६१ निश्चीयते शरीरेऽस्ति ३५० १२ निश्छायेन द्रुमेणेव ३०८ निषादिसादिपादात ७६७ निषादिनः सादिनश्च २९० निष्कं ताचित्रमाणिक्य ८१७ निष्क्रम्य पौषधागारा ५५७ निष्क्रम्याऽष्टमभक्तान्ते ६१० ९९ निसर्गऋज्वी साऽप्यूचे ६६ निसर्गकठिनः कस्त्वा- ३२७ ११ निसर्गाद् गत्वरश्नायं २५५ । ०९ निःशङ्कमुपभोक्तव्यं ३३३ ११ निःशेषकर्मसमिधा ३९५ १२० निःशेषशान्तिकविधौ ४२ ८२ निःसङ्ग इत्यजानन्ती १३५ ६३ निःसरन्त्यौ गुहाप्रत्यग् ५६४ ९८ निःस्वाऽऽधयोनिविशेष ७८ नीतिक्रमेण तेनैव २०० ३४ नीति भिस्ति सृभिस्ताभिः १९४ ३४ नीतः सभायां द्वास्थेन २१० ११४ नीत्वा ताः प्राक् चतुः शाले ३०९ ३८ नीलोऽस्याऽब्दसहस्राणि ३१५ १४२ नूनं गतं मुषा बाहु- ५३५ १२४ नृपतिः स तु कोलोऽभून् नितान्तंस कुमाराध्रि ४९९ १६ नितान्तसुरभि गन्ध ५५१ ४५ निनर्तयिषव इव ५५६ ४५ निपूर्ण लक्षयित्वा तं ७८७ १ निपेतुर्गगनादुल्का ३४५ ९१ निबद्धाञ्जलयो मूनि ४५१ ९४ निमीलिताक्षः श्यामास्यः ७०० १२९ निम्नानां निरुकुटानां च २५२ ८८ नियन्त्रणा तत्र नैव ४७४ ७३ निरन्तरं महारत्ने ५९१ ९९ निरन्तरं यथाशक्ति १८१ ०७ निरन्तरं लम्बमान ५६९ १२५ निरभ्र इव मार्तण्डो ६७७ १२९ निरर्गलं बहुरसा ३६६ १२ निर्दयं हृदये तेन ६७५ १२९ निर्भया निर्भयेभ्योऽपि १३३ ११२ निर्ममो नगरवस १७९ ०७ निर्ममोऽपि जगन्नाथ ! ७९० १०५ निर्माल्यानामिवोन्मत्तो ८६२ ५४ निर्ययौ तद्गुहामध्यात् ५६७ ९८ निर्ययो मेदिनीमध्यात् ६८७ १२९ निर्वादभी रुर्लज्जावान् ४६३ १२२ निवेशयाम्बभूवे चा- ६९४ १०२ पक्वद्राक्षारुलोन्मत्त ९६ १३५ पक्वश्यामाकनीवार २११ ०८ पक्ष्माणि ताराः श्मश्रुणि ६०० १५१ पङ्गुकुष्ठिकुणित्वादि ६२६ ७८ पञ्चज्ञानावरणानि ३९५ ७१ पञ्चत्रिशतनुस्तुङ्गः ३११ १४२ पञ्चभिश्चाग्यदेवीभिः ४४७ ४२ पञ्चमे तु वर्षशता- १३५ ३२ पञ्चमो बलदेवस्तु ३६२ १४३ पञ्चयोजनशत्युच्च ३५६ ३९ पञ्चयोजनशत्युच्च ४४९ ४२ पञ्चवर्णमणीमिश्र- ३८९ ९२ पञ्चवर्णाः शक्रधनुः १०८ १३६ पञ्चविंशतिरदानां ३०९ १४२ पञ्चविंशत्यभ्यधिक २०२ ३४ पञ्चवर्णैश्च कुसुमै- ०८ ८१ पञ्चवर्णः स्रज कश्चिद् १०११ ५८ पञ्चशाखेन वैशाख ८३४ ५३ पञ्चाङ्गस्पृष्टभूमीको ७७६ १०५ पञ्चाननयुवा पुच्छ ६६६ १२८ पञ्चाऽप्यमूनि हिंसादी ५९१ १९ पञ्चाशत: कुराज्याना ७२८ १०३ पञ्चाशदगुलं दैध्ये ३९६ ९३ पञ्चाशद्योजनं मूले ४१६ १४५ पञ्चाशद्योजनायामां ३३५ ९१ पटालेख्यमिदं दृष्ट्वा ६७३ पटे वृत्तान्तमालेख्य ६४८ २१ पण्डितायाः स्ववृत्तान्तं ६४७ २१ नृपस्तमथ सम्भाष्य २३५ ८८ नृपः प्रभासदेवस्य २१४ ८७ नुपाज्ञया सुषेणोऽपि ५८६ ९८ नुपाणां नपकन्याना- ७१८ १०३ नृपाः कच्छ महाकच्छा ८० ६२ नुपैराबद्धमाणिक्य ६२९ १०० नपैः कुमारैः सचिवैः २८८ ११७ नृपो नृभिरलङ्घयानि ६३६ १५२ नृपोऽपि विपुलां गङ्गा ५८ ८२ नृपो यक्षसहस्रेणा- ३०२ ९० नैमित्तिकानां वैराणां ५५ १३४ नैरन्तर्यादनीकानां ६३५ १०० Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्लोक नं. पृष्ठ नं. पण्डिता राजमार्गेऽथ ६५० २१ पतङ्गमूषकशुक ५४ १३४ पतत्पानीयनादेन ६८५ १०२ पतदुद्वत्तंनीपुञ्ज ७९८ ५२ पतन् पर्वत शृङ्गाणि ६९४ १२९ पत्तने पत्तने ग्रामे ४७ १०९ पत्तयोऽपि विनिष्पेतु ३३४ ९१ पत्तयोऽश्वा रथा नागाः १४९ ११२ पत्तिभिः कोटिसङस्यश्च ४८५ ९५ पथिका इव पाथेय ३४१ ११८ पदान्यपेतसप्ताऽथ ५६० ९८ पदान्येतानि मा स्माऽति ३८० ७१ पदार्थग्रहणे तस्या ६१ २० पदार्थानामशेषाणां ५५८ ७६ पदे पदेऽभवद् रम्भा ३३८ पदे पदे सम्प्रवृत्त १८ २९ पदे पदे स्खलन्तीश्च ४७२ १४७ पद्मखण्डपतद्वाला ८०७ पद्म प्रभ प्रभोदेह ०८ ०१ पद्मरागशिलाशोचि- ७७८ ५१ पद्मासुमित्रसूराज ३१६ १४२ पद्मविकस्वरः पद्मा ३९३ १२० पद्या क्षणेन सा जज्ञे ३२१ ९० पप्रच्छ पण्डिता चाऽथ ६६० २१ पयसा सिषिचे तेन ५२८ ४४ पयोभिः कण्टकैः पङकै-९५ ०४ पयःसंसिक्तसंशुष्क ०६ १३३ परं वः स्वल्पपुण्यत्वाद् ५२१ १२४ परमानन्दनिर्मग्नो २०४ ०७ परलोकालो धर्मः ३३० परलोकसाधनेन ५५६ ७६ परलोको हि धर्मस्य ३९९ परशून् केचिदुज्जहू. १२४ परस्परमभूच्चैत ५१३ परस्परपराभूति ५८३ पराभवं लधनं च २१५ परिकर्मानपेक्षश्च १०५ परिक्षीणपुष्यचतु- ३५५ ९१ परिग्रहो न कर्त्तव्यः ५९० १९ परितस्तं शरस्तम्ब ७७२ १३२ परितो भरितस्तस्माद् २२५ ०८. श्लोक नं. पृष्ठ नं. परितः पूरयित्वा च ६११ १२७ परिपूर्ण विमानं तद् ३७८ ४० परिपृच्छ्येति तूष्णी के ८६ ११० परिव जगन्नाथः ५७ ६१ परिवारानुरोधेन ६९२ १५३ परिवेषेण विस्तीर्ण' ५२१ ४४ परिश्रममजानानो- ४७७ १४७ परिषहासहैः कैश्चिच २४५ १४० परेभमदगन्धाढचं ३४८ ११८ परोपकारव्यसनी २५ २९ पर्यस्तास्ते सुषेणेना ४०७ ९३ पर्याप्तं तद् विलम्बेन २५८ ११६ पर्याप्त सेवया तस्य २२१ ११५ पर्याप्तयस्तु षडिमाः १५९ ०६ पर्यायस्तस्य वर्षाणां ३०७ १४२ पर्याये तस्य वर्षाणां ३१३ १४२ पर्वतायुभवेत्युच्चै- ३१६ ३८ पर्वतासन्ननगर ५५० १८ पर्वते पर्वते भूपैः ६०१ ९९ पलाशच्छदनच्छन्नं ११८ ०५ पलाशतालहिन्ताल ८९ ०४ पवनान्दोल्य मानेक्षु २१२ ०८ पवनेनाऽनुकूलेना ४९ ८२ पवनैरिव जङघाल- ९१ पाखण्डिनामलीकाज्ञां ३८८ पाटयिष्यत्यसो कि मां? ६७२ १२९ पाणिना किञ्चिदाकृष्य ९७ ८३ पाणिपादाङगुलिदल- ५२९ पातालद्वारनिर्गच्छ- ९८ पात्रेभ्योऽशनपानादि १८६ पादपर्यन्तवल्मीक ७७७ पादयो रत्नकटके . ४६५ पादयोजानुनोः पाण्यो ७९९ ५२ पादयोर्दा मानना .७ १३३ पादलग्नास्तव विभो! १७७ १३८ पादानप्राणतस्तिष्ठ ६३६ १२७ पादातं पश्यतां तस्य २७१ ११६ पादाधः स्थतया तस्य ७१६ १०३ पान्थसास्मिाल्यमान ४१४ १४५ पान्थानां तप्यमानानां २१३ ०८ पापभीताः प्राप्य जीवं २२ १३३ पापा: केडमी ममेदृक्षो ४४० ९४ । पारणं विदधे भूप ५५५ ९८ ।। पारिजातादिभिः पुष्प ५७० श्लोक नं. पृष्ठ नं. पारिणेत्राणि वाणि ८१३ ५३ पारिषद्या: सुराश्च ते ४७९ १६ पार्वणेन्दुमिवादन्वान् २२१ १३९ पाव योर्भरतबाहु ५८ ६१ पार्श्व योरप्रतः पश्चा- ५४७ ७५ पिण्डीभूतं तप इव १२१ ०५ पितामहोऽहतामाद्य- ३८७ १४४ पिता माता गुरुः स्वामी २६९ १४१ पितृभिर्धातृभिर्धातु ६४६ ७८ पितृयज्ञपयत् तच्च ६८४ २२ पितृतोऽल्पायुषो सार्द्ध १८२ ३४ पितृदत्तानि राज्यानि ४९३ १२३ पित्रा वंश्येन वाऽभ्यस्या ४९६ १२३ पितेव चाऽभिचन्द्रोऽपि १८५ ३४ पिपातयिषव इव ३६७ ९२ पिपातयिषुरुध्रि १८० पिपासिताश्च पाय्यन्ते ५६७ पिशुनानां गिरस्तत्र १०३ १११ पिङ्गाक्षो दीर्घरसनः २१५ ३५ पीठ रस्नमयं चक्रु १२५ १३६ पीठिकानां पुरस्तासां ५८२ १५० पीडयन्नधरं दन्तै- ६८० १२९ पीतांशुकमिव क्वापि १०० १३६ पीनी पाणिफणाच्छत्री ७०६ ४९ पीयूषस्येव वरस्य ५१९ १४८ पुण्डरीके ! पुण्डरीकैः ७९० ५२ पुण्डरीकप्रति मया ४४९ १४६ पुण्डरीकप्रभृतिभि- ३९१ १४४ पुण्डरीक: स्थितस्तत्र ४३१ १४६ पुत्र राज्ये निवेश्यवं २७४ पुत्रप्रेम्णा दिवोऽभ्येत्य ४४१ पुत्रमित्रकलत्रेषु ४३४ १४ पुत्रवत्त्रात पूर्वीन: ३१० ६९ पुनः प्रालोठयन् कुम्भा ५३५ पुमान् रामादिरूपेषु ३६८ पुरतो भरतेशस्य १८९ पुरन्दरोऽपि तत्कालं ३७९ पुरा हि दीक्षासमये ४८९ १२३ पुरा हि मृत मिथुन ७३९ ५० पुरे गजपुरे शान्ति ३०८ १४२ पुरे पुरिमतालाख्ये ५१२ ७४ पुरो गच्छति भूपाले ६४१ १०० पुर:पुरो धूपघटी ५३८ १४९ पुर्यर्जुनी वारुणी च १९७ ६५ WGG । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ 29 श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. पुर्यामप्रविशच्चत- ०६ १०८ प्रक्वणकिङ्किणीमाला: ६२१ १०० पुर्याः सुषेणादीनां च ८८ ११० प्रक्वणत्किङ्किणीश्रेणि ८२३ ५३ पुष्करिण्यां पुष्करिण्या ४१४ ७२ ।। प्रचक्रिरे कुलायांश्च ७७४ १३२ पुष्पवासगृहे तत्र ९८६ ५८ प्रचरूनुश्च ल्लिका केचित् ७४ ८३ पुष्पस्तबकभारेण ९९१ ५८ प्रचचाल महीपाल: ३९ ८२ पुष्पादिभिः श्रुतिसुखै- ७०८ १५४ प्रजानामनुरागोक्तया ५२ १०९ पुष्पावचयसन्दर्भ १६ २९ प्रणम्य चरणी पत्युः ७५८ ५१ पुष्पगन्धैश्च र्णवासै ०६ प्रणम्य चरणौ भर्तु ५३३ १४९ पुंसां शिरोमणीयन्ते ३१९ ११ प्रणम्य नाथं भरत ९२ ६२ पुंसो रसान्तरविदः ७१ ३१ प्रनष्टां प्रणय क्रोधा- ६०१ १९ पूरणायोदरस्याऽपि ५२९ १७ प्रणम्य भरतं तेऽपि ७४४ १०४ पूरयन् रोदसीरन्ध्र १९६ ८६ प्रणम्यमानः स्वकुल ६३८ १०० पूर्णायुको यशस्वी चा १८४ ३४ प्रणम्य यमकस्तत्र ५११ ७४ पूर्णे तु वत्सरे विश्व ७७९ १३२ प्रणम्य शमकोऽप्युच्च: ५१३ ७४ पूर्णो विशिष्टश्च द्वीप- ४६४ प्रणम्य शिरसा शक्रः ६५८ पुर्या चमरचञ्चायां ४४४ ४२ प्रणम्य स्वामिनं गत्वा २५४ पूर्वजन्मपतिम स ६३७ प्रणम्य स्वामिनं मूर्ना ११ पूर्वद्वाराऽविशन् साधु १३४ १३७ प्रणेदुरिन्द्र लोकेषु ४०० .७१ पूर्वद्वारेण समव- ४६१ ७३ प्रतिकूलो ववौ वायु- ३३ १०९ पूर्वप्रभावरहिते १३४ ३२ प्रतिग्राम प्रतिपुरं ७५ १३५ पूर्वप्रमाणं तेभ्योऽदाद् २६१ १४० प्रतिदिशं चतुःषष्ट्या ४४८ ४२ पूर्वरङ्ग इवाऽऽरब्धे ९८८ ५८ प्रतिद्वारं विचके तै- ४४२ ७२ पूर्व सोपानपढत्या ६७७ १०१ प्रतिद्वारमुभयतो ५६९ १५० पूर्वाञ्चलमिवाऽऽदित्य १६६ १३८ प्रतिध्वानैश्चतस्रोऽपि ४६६ ७३ पूर्वाभिमुखमुर्वीशो २१६ प्रतिनागं प्रतिरथं २६३ ११९ पूर्वोक्तविधिमाषायो ९४० ५६ प्रतिपद्य तथा ते तु २३० १४० पूर्वोत्पन्नाः प्रणश्यन्ति ६७४ ७९ प्रतिपन्नव्रतेष्वादी ७९४ १३२ पृथक् पृथग् वादिनां च ४५६ १४६ प्रति प्रतीची प्राचीन १९५ ८६ पृथिवीं तदिमां वत्स! ०९ ६० प्रतिप्रेक्षामण्डपायं. ५७६,१५० पृथिव्यां घातकीखण्डे ५२८ प्रतिविम्बितमत्यच्छं ७१८ १५४ पृथ्वीपालस्य राज्ञः स ७३३ प्रतिबुध्यागतानां च २८ १३३ पृथ्व्यप्तेष:समीरेभ्यः ३३१ ११ प्रतिबोध्याऽऽगतान् पृथ्व्यां विहरतः स्वामि ४०० १२० भव्यान् २७ १३३ पृष्ठत छत्रधारिण्या ५३२ ९७ प्रतिमञ्चमजायन्त ६१५ ९९ पृष्ठेऽवध्नाच्च तूणीरी ३८४ १२० प्रतिमल्लो द्विषन्नेव ४६२ १२२ पैतृकेणाऽऽतपत्रेण २७० ०९ प्रतिमामादिनाथस्य ३९० १२० पैतृकेणेव बरेण १९५ ११४ प्रतिमायास्ततो यक्ष ३६७ ११९ पौरजानपदप्रायाः ४८२ प्रतिमायाः पुरो धूपं ३९४ १२०, पौरपक्षिप्त कुसुम ६४१ १०० प्रतिमावत् पूजयितु ५५३ २४९ पोरैः स्वामि प्रभावोत्था ६७० प्रतिमाः स्वस्वसंस्थान- ५९६ १५१ पौषधान्ते बहिर्भूत्वा १६० प्रतिवच चत्वारि ४४० ७२ पौषधान्ते समारुह्य १९९ प्रतिशाखं लम्बमान १०१६ ५८ प्रकृत्याऽल्पकषायाणां १९६ प्रतिशाखं विलग्नाभिः १००८ ५८ प्रकृत्या बहुमक्षिण्यः ५३२ १७ प्रतीच्छति स्म सौधर्मा- ६८ ६२ प्रकृष्टेभ्यः प्रकृष्टास्ते १४७ १३७ प्रतीहारगिरा वज ५२८ १२४ श्लोक नं. पृष्ठ नं. प्रत्यक्षीकारनिर्देश्या २७५ ६७ प्रत्यग्रकल्पविटपि ७२० ५० प्रत्यग्रपाटलापुष्प ९९४ ५८ प्रत्यन पुष्पस्तबक १००७ : ५८ प्रत्यग्रेचकशैलस्था २९३ ३७ प्रत्यहं प्रतिगेहं च ६२२ १०० प्रत्यहन्तं रागतः के ३५० ३९ प्रत्यहं हरिचन्द्रोऽपि ४२२ १४ प्रत्याशं विस्फुरत्कीतिः १०९ . ०४ प्रत्यासनादर्थकस्माद् १९ प्रत्यूचेऽशोकदत्तोऽपि ८९ ३१ प्रत्येकं कुम्भसङख्यातां ४८० ४३ प्रत्येकं तदुपरिष्टात् ५७८ १५० प्रत्येकं पार्श्व योस्तासा- ६०५ १५१ प्रत्येक युगपद् वा स्याद् ३५५ १२ प्रत्येकमपि मञ्चेषु ६४० १०० प्रत्येकमेषां मध्ये च ३०५ ३७ प्रत्येकाः साधारणाश्च १६२ ०६ प्रथमो बलदेवस्तु ३५८ १४३ प्रदक्षिणां तीर्थकृतो- ७९८ १३२ प्रदानवदसत्पात्रे ९४९ १२८ प्रदीपा इव तैलेन २३९ ६६ प्रदीप्तचुलामणिभि ७१ ११० प्रदीयमानमस्माभिः ३०७ प्रधानपुरुषेणेव ४७१ ९५ प्रनष्टरूपलावण्यां ७३२ १०३ प्रपद्यमानाः प्रतिमा ८६८ २७ प्रपन्नानशनास्तेऽपि ४९१ १४७ प्रपाल्य युग्मं षण्मासान् १६८ ३३ प्रपाल्याऽऽयुस्त्रयस्त्रिंशत् २०९ ३५ प्रभासनाथमुद्दिश्या १९८ ८७ प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्य ६७१ ७९ प्रभुं स्तुत्वेतिपञ्चाङ्ग १४९ १३७ प्रभुमालोकमात्रेऽपि ४०८ ४१ प्रभुरप्यञ्जलीकृत्य २९२ ६८ प्रभुरप्यादिदेशव १९५ १३९ प्रभुन किञ्चित् प्रत्यूचे १३९ ६४ प्रभुभाषे भरतं ०२ प्रभुर्वभाषे बालोऽपि ६६४ ४८ प्रभुयोजनगामिन्या ५५२ प्रभुः स्मरकृतावासे ९८५ ५८ प्रभोराकेवलज्ञानाच ४५१ १४६ प्रभोगकिरीटस्य ९०८ प्रमोनितिनिष्कम्प ६९० ४९ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. प्रेत्य यो योनिलक्षेषु ५१५ १४८ प्रेमगद्गदया वाचा ५४६ ९७ प्रेम्णा रत्नप्रभाभूम्या ६२८ १०० प्रौढप्रतापप्रसरः २७४ ८९ श्लोक नं. पृष्ठ नं. प्रभोभरतषट्खण्ड २१९ ११४ प्रभोश्चतुर्विधाहार ४६३ १४७ प्रभोस्तदभुतंरूपं ४२५ ४१ प्रभोः पादावुपर्यानु ६९५ ४९ प्रभो गतमनस्कत्वात् ४७४ १४७ प्रमद्वरेण न स्यं ४०५ १३ प्रमादतो मदतो वा ६१४ १२७ प्रमादनिद्रामग्नानां २६५ १४१ प्रमोदमानपूर्दव्या ६१८ १०० प्रमोदमेदुरमना ५९ ०३ प्रयत्नाद् रक्ष्यमाणास्ते ७२५ प्रयाणः प्रत्यहं गच्छन् १५६ प्रयोजने परिजनं ६४२ प्रवालरजतस्वर्ण ५८० प्रविवेश विशामीश- ६३९ १०० प्रविशन्तो मणिशिला ७७३ प्रविश्य दक्षिणद्वारा- १३७ १३७ प्रविश्य पश्चिमद्वारा १३८ १३७ प्रविश्य पूर्वद्वारेण ४६८ ७३ प्रविश्य प्रत्यगद्वारात् प्राग फणामणीनिवाहीना- ४४९ ९४ फणीव चरणस्पृष्टः ५८९ १२६ फलं त्वद्भक्तिलेशस्य ४८२ ७४ फलकासिधरैःक्वापि ६४ ११० फलादिकं स गृह्णाति ३१४ ६९ फालच्युत इव द्वीपी ६४५ १२८ प्रविश्याऽपाच्यारेण ४७० ७३ प्रविश्याऽपाच्यसोपान ३८४ ४० प्रविश्योदीज्यद्वारेण ४७२ प्रविश्योदीच्य द्वारेण १४० १३७ प्रविश्य मार्गसरितः ८७ ०४ प्रवेशे तस्य देशस्य २८४ ११६ प्रवेष्टकामो नगरी ६२४ १०० प्रव्रज्य भ्रातृमी राज्य १३० ११२ प्रव्रज्यां प्रतिपन्नोऽहं ४९२ १६ प्रशान्तां दर्शयन्मूर्ति ४३८ १४ प्रशस्तद्वादशावर्त ३८६ ९२ प्रशास्यास्वं तदापाक २२ १०८ प्रसरद्भिर्महीभत्तुं १०१ ८४ प्रसह्य भरताधीशो ३४० प्रसादं कुर्वता त्वेष १४५ ८५ प्रसादेनातिमहता २४५ ८८ प्रसारिताभ्यां बाहुभ्यां १७९ ६५ प्रसीद देहि दीक्षां मे ७९४ १०५ प्रस्थानभेरीमाङ्कार- ५० । प्रहतः काकतालीय ७३७ ५० प्रहृष्टपरपुष्टादि १०४ १३६ प्राकारस्य तृतीयस्य ४७६ ७३ प्राकारस्य द्वितीयस्या- ४४३ ७२ प्राकारे च द्वितीयस्मि-१८४ १३८ । श्लोक नं पृष्ठ नं. प्राकारे प्रथमे तत्र १३५ १३७ प्राक्किन्नरनरगीतं १८७ ६५ प्राग्जन्मवैरिभिरिवा ५३० १२४ प्राविलग्नमनालग्न ६८१ १५३ प्राचीनबहिः प्राचीन ५४६ १४९ प्राचीपतेरिव प्रीत्या ६७८ १०२ प्राज्यराज्योऽप्य सन्तोषा ८०६ १०५ प्राणापहार्यपि वरं २४२ ११५ प्राणिनश्च स्थलचरा ५७३ १८ प्राणरपि प्रियं राज्ञो १८७ ११४ प्रातरुप्ताश्च कूष्माण्ड ४३५ ९४ प्रातर्युतोत्सवायाऽथ २९९ ११७ प्रातश्च बद्धमुकुट- ३४५ ७० प्रातःकाले शकुन्तीनां २६५ ६७ प्रातः स्वं पावयिष्यामि ३४३ प्रातः स्वयं प्रतादानं ७१३ प्रादुरासन् कषायाश्च ८९४ प्रादुर्भावयितुमिव २४९ ६७ प्रान्तयोलवणाम्भोधि १७६ ६५ प्रान्तेषु मणिमालाना- ५९२ १५० प्राप नोपवने प्रीति ५१८ १७ । प्राप्ता इवाहमिन्द्रत्वं १८८ १३८ । प्राप्तिशक्तिरभूत्तेषां ८५६ २७ प्राप्ते च चरमे काले १७२ ३४ प्राप्यानिवृत्ति च सूक्ष्म ३९३ ७१ प्रायच्छंस्तत्र तेषां तु १२१ ३२ प्रायश्चित्तं वैयावृत्तं १९९ ०७ प्रारब्धवलेवोच्चैः ८४१ ५३ प्रालम्बभ्रष्टक पिवद् ३० १३३ प्रावर्तन्त ततः कालात् १२३ प्रावीण्यं कामरूपित्वे ८६२ प्रासं प्रासस्याऽसिमसे ४३४ प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं ६२० । प्रियङगुवर्णया पल्या १९८ ३४ प्रियङगु श्यामवर्णाऽपि २५२ ३६ प्रियदर्शनया किंत- ६९ ३१ प्रियमित्रमिवाऽऽलम्ब्या ६७९ १२९ प्रियमित्र वदन्योऽन्य ७१० १५४ प्रियायाः कोऽपि धम्मिल्लं । १०१० ५८ प्रीणितश्रवणो नृणा ३४ ६१ प्रेक्षमाणो मन्दुराश्च ५८ १०९ प्रेक्षाञ्चके प्रेक्षणीया- ७१३ १५४ बदरीवणवत् तत्र २५० ८८ बन्दिवृन्दजयजया- ३६५ ७० बन्दिवन्दारकै रुचः ४१३ १२१ बग्धाभावादूर्ध्वगति ४९० १४७ बन्धूनां गृहणता राज्य १९० १३८ बबन्ध वर्द्ध कि: पचा ३२० ९० बभाषे कश्चिदप्येव २६३ ६७ बभाषे भरतोऽप्येवं ०३ १०८ बभाषे भरतोऽप्येवं ६४६ १२८ बभूव तनयस्तस्य ४३३ १४ बभूव युग्मिनां नाथ १९१ ३४ बभूवुः शिबिरे तत्र ६९ ८३ बर्बरानात्मसाच्चक्रे २६९ ८९ बलं परीक्षितुमघाद् ६६९ ४८ बलाकिनीमिव दिवं २८२ ११६ बलिर्वामामधो दंष्ट्रां ५५५ १४९ बलिश्च बलिचञ्चाया- ४५२ ४२ बहिरन्त:परीक्षिप्त ५७० ७६ बहिविस्फुटय गच्छम्तो ४२० बहुजीवधनास्ते च ३३८ ९१ बहुप्रकारमानन्द ५६९ ४५ बह्वीमपि चक्रिचमू २०० ११४ बाढमध्वंसतेव द्यो- ३३३ ११८ बाधाविधायिनः किं वा ८०४ १०५ बालकालानशक्षादि ८८५ २८ बालिकाऽस्य द्वितीयाऽथ ७४१ ५. बाहुजीवपीठजीवी ८८४ बास्यं कल्यमिवोल्लय ६८५ बाहुनाऽपि च साधूनां ९०४ २८ बाह्वादयोऽपि जगृहु ८३४ २६ बिडाल-व्याल-शार्दूल ३१४ ११ बिभराञ्चक्रतुर्भः ७२३ ५० बिभ्रन्मुक्ताकुण्डले च ३५६ .. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ९७ ९७ विभ्राणां मध्यमिव च ५२४ विभ्राणामभरी युग्म ५२३ विभ्रारिपना स्यान १२ ११० बिस्राणी बागमे च ४१५ १२१ विम्राणः स्वर्णतूणीरा २५८ ८८ बिलादिवोर कोशात् १२० ब्रह्माण्डभाण्डं वेडाभि ४२९ ब्राह्मणजातिरद्विष्टो ७४३ ८४ १२१ २३ ब्रूत भो ! भवतामर्थः ४१३ ९३ म भक्तिप्रभाववशतः ७२ १३५ भक्तचा तमम्यगाच्चेन्द्रो ७४० १५५ ४८ भक्तथा महत्वा तत्राऽय ६४१ भगवत्केवलज्ञान भगवत्पारणस्थानाभगवदर्शनोत्कण्ठा ४२९ ७२ ३३१ ६९ ३४२. ६९ भगवन्तं तथाऽऽयान्तं ३६ ६१ भगवन्तं प्रणम्याऽथ २२२१३९ भगवन्तमिति स्तुत्वा २३८ ३८ भगवन्त मिति स्तुत्वा ७८६ १०५ भगवन्तमिति स्तुवा ३८० ११९ भगवन्तः ! सहस्वं तत् १३० ०५ ६२ भगवन्नदत्तादान ८५ ! मङ्गलादेवी ६५८ १५२ भगवन् भगवानपि तत्रैक ७५७ १३१ ३८६ ७१ ५६१ १८ भगवानव्यनायत्तः भगवानप्युवाचैव भगवानृषभस्वामी १४२ भगवानृषभस्वामी भगवानृषभस्वामी ८५ १४१ ११२ ४४६ १४६ ४६७ ७३ ९४ ६२ भगवान् बखसेनोऽपि ८४० २६ भगवान् शुशुभे वाले ६५२ ४८ ३४५ *. भद्रराजस्य पृथिवी भद्रशालप्रभृतीनां ४१५ १४५ भद्रशाला दिवाऽऽहृत्या ४६ १०९ भद्रशाले नन्दने च ४९२ ४३ भद्राक्षयपुरं तस्मात् २०५ ६५ भावनानि भद्राणि २३३ ८८ ५०४ १२३ ५४२ ९७ भरतसेन जन्तून ६०६ ४७ भरतस्तं तथा दृष्ट्वा ७४६ १३१ भगवानेक एवायं भगवान् पारणाहेऽपि भरतं गृहणतस्तस्य भरतं रूपलावण्य २७ लोक नं. पृष्ठ नं. भरतस्तत्र च स्वामि ५६६ १५० भरतस्यायसंश्येन ३७० ९२ भरवादादित्यया २५१ १४० भरतार्थथियो लीला १८० ६५ भरतावर अयभरतावरजोकर्या ५९ १०९ ५३ १०९ भरते भ्रातरि गुरौ भरतेश महासत्व | भरतेशः कृतप्राय भरतेशायसेनायां भरवेशादापततः भरतेशोपरोधेन ४८४ ५११ १६४ ३७२ १२३ १४८ १३८ ९२ ६३० १२७ ७९२ १०५ ७७४ १०५ भरतेश्वरसुन्दर्या भरतरवतादीनां ૪૮૪ ४३ ६२७ १२७ १३९ ९९ ५७ भरतोरपणोद्भूतं भरतोऽथ समाहूय २२७ भरतोऽपि कृतस्नानो ५८९ भरतोऽपि स्वसोदर्यां ९६१ ७४८ भरतोऽप्यभ्यधादेवं १०४ भरतोऽत्मसात्कृत्य ४५७ ९५ ४१७ १२१ भरतो भरतक्षेत्रे १३४ ८५ भरतो मुष्टिना तेना- ६४८ भरतः पुनरप्यूचे १२८ २१७ १३९ भरतः प्रणमंस्तस्या १३१ भरत: स्वामिपादान्ते भर्तुः केवलमहिमा भरतो बलिय ३८० ७४८ ६५२ ६४९ ६६ भवज्जयजयाराव भवत्यभय दानं तु भवत्या नैव भेत्तव्य भवश्वेवं तथाऽपीति भवस्वद्यापि नो किञ्चिद् १५७ ४१५ ४५ 1 ७९ ७८ ६१ ०६ ४१ ३० १८१ भवदुःखात पक्लेश १४३ १३० भवन्तु वेतनकीताः १९९११४ भवन्त्यस्यैव सेवातः १६४ ६४ भवन पतिव्यन्तर ६२६ ४७ भवनाधिपतिज्योतिष् ४३८ ७२ भवरोगार्तजन्तूना ११ ०१ भवानिय युधः सोऽपि ४७३ १२२ भवान्तरोद्भुतकर्म ६८७ ८० भवितव्यं यौवनेऽवि २५ ३० भविष्य ५७९ ९८ भवेदभयदानेन १७४ ०६ भवेदाराध्य मानाऽपि ७३३ १३० श्लोक नं. पृष्ठ नं. भाजबोधप्रवणे २२० ०८ मनापुढे इवोत्फुल्ली ११३ ૮૪ भाण्डं दास्यत्यभाण्डाया ४७ ०२ भ्रातृम्यो बच्चनाभोऽपि ८०७ २५ भान्तीं रेखाचयाङ्केण ५०३ १६ भामण्डलं दधानश्च ६० १३४ १११ भार्यायां चन्द्रकान्तायां २४१ ०८ मालस्याञ्जलिभिः केचिद् भारतेषु च वर्षेषु ३२ १०० ३५ ३५ ६३ ४२४ १२१ ६३७ भावी पुरुषसिंहास्ते २३६ भावी स्वामिनि ! पुत्रस्ते २१४ भिक्षामलभमानोऽपि १०० मिन्दाना बेखरखुरं भिया रसातलमिव कृत्वा च मेऽगि भुजक्रीडाsपि युवयो भुजयोर्योजयामासु ४३ भुजावुभयतः सख्योः भुज भुजङ्गमाषीण २४८ भुजान इन भोज्यानि ४५८ भुञ्जानस्याप्यस्य भोगान् ८१४ भुञ्जानाः पारणाहेऽपि २३७ भुजानो विविधान् भोग ६६ १२५ २२९ १४० ४४७ १२२ ८१९ ५३ ६१ ०९ १५ २६ ६६ ९७ ११७ ६४ ५४७ ४२ भूयं भाररनीकामा २९६ भुवनस्वामिनोऽमुष्य १५९ भुवनस्वामिनो मौलि ७२५ भुवो मध्यादिवोले २७१ मुव्यास्तीर्णशरन्मेष २२३ भूतानन्दोऽपि नागेन्द्रो - ४५१ भून्यस्तभाजनैरग्रे २४६ ८८ भूपतिस्तेन घातेन ६७० १२८ भूपतिः पार्श्वयोर्भ्राम्य ६४७ १०० भूभुजा दत्तमित्येभ्यो २४६ २४६ १४० भूमिः शैलाः समुद्रा ४५४ १२२ भूयसा निजभारेग ४२७ भूयस्त्वात् सार्थ लोकस्य १०३ भूमानपि रसः पाणि २९३ भूयोजम्भारि निर्मुक्त ५९९ भूयोऽपि पृष्टः को नाम ६६२ भूयोऽपि वाणी वाणं ५२७ भूयोऽपि भूपः सदादि २३६ भूयोऽपि मिलिताङ्गास्ते ५६६ भूयोऽप्यचिन्तयदिदं १२१ १०१९ ५० ९२ ३५ ०४ ६८ १२६ २१ १२४ १४० १८ ५८ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. भूयोभिरपि पाषाणैः ३२२ ९० भूयोभूयश्चक्रिणव ५६४ १२५ भूयोभूयोऽपि शिथिको ४०६ १२० भूयोऽम्यनेन निरयुः ७७३ २४ भूयो व्यषत्त भरतः ६०३ १२६ ।। भूषणाचर्पयामासु १५५ ३३ भूषणानि तु मण्यनो २३५ भूषितस्य स्रवन्तीभिः ३२ भृङ्गारान् दर्पणान् रत्न ४७९ भृत्यावावामसी भर्ता १५१ भृत्येन रिक्तहस्तेन ६५५ ४८ भेरीशङ्खानकप्राय १६७ १३८ भेषजेनेव तीवेण २१५ ११४ भोगकुरा भोगवती २७४ ३७ भोगान् स्वाम्यायनासक्तः ८८२ ५५ भोगान् तत्रोपभुज्ञान ४५९ ९५ भोगेषु जागरूकोऽहं ६१६ । भोगेष्वत्यन्तमासक्ति ६०५ भोगोपभोगयोः सङ्ख्या ६३३ ७८ भोज्यं चतुर्विषं चित्र- १५४ भोज्यान्यमृतरूपाणि ३४१ ११ भो भोः कुमार ! धन्योऽसि श्लोक नं. पृष्ठ नं. मन्त्रेण नाऽऽखुरप्यस्ति १७२ ११३ मन्थानमिव पापाब्धेः ११९ ०५ मन्दमन्दोलयन् वैयः ७६६ २४ मन्दरक्षुब्धस क्षुभ्य- ३२८ ११८ मन्दा सहज भावेना २५६ ३६ मन्दिरं कुमुदकुन्दं २०२ ६५ मन्मनत्वं काहलत्वं ६२७ मन्यस्व परलोकं तद् ४०६ मन्ये स्वामी वीतरागो ७६२ ५१ ममज्जाऽऽजानु घातेन ६८२ १२९ मम प्राग्जन्मचरितं ६५८ २१ मम प्राणा इवाऽसि त्वं ६४४ २१ ममार्ज देवदूष्यश्च ६४० १५२ ममा राजशार्दूलो ३९१ १२० मयि दण्डायुधे चक्र ७२६ १३० मरीचि स्वामितः सोऽगाद् ४४ १३४ मरीचिमाययौ भूपः ४८ १३४ मरीचिश्चिन्तयन्नेव ३८ १३४ मरीचिश्चिन्तयामास ४९ १३४ मरीचिस्तदृगिरा दृप्यं- ३८५ १४४ मरीचे: स्वामिना साद्धं २९ १३३ मरुकूपे ततो यातः ८४१ १०७ मरुत्कीर्ण कुसुमै १०२ १३६ मरुदन्दोलितोद्दाम १८५ ६५ मरुदेव इति सूनुः १९७ मरुदेवा प्रियङ्गश्री २०३ मरुदेवामथाऽवादीद् ५२१ मर्दनीया मर्दनीय १८ ८१ मर्यादोयामिवोदन्यां ७२९ १३० मलयानिलवल्लोक ६०७ ९९ मल्लिकाकोरकैः कोऽपि १००९ ५८ मल्लिनाथो मिथिलायां ३१४ १४२ मल्लिमुच्चित्य गच्छन्ती मकरर्षभसिंहाच ७०९ ५० मकुष्ठमुद्गचणक ६८ ८३ मशंपनीतं तदधि २८ ६० मङ्गल्यतूर्यनिघोष ६३१ १०० मञ्चानामुभयेषां चा- ६४६ १०० मञ्चान् विरचयामासुः ६१३ ९९ मञ्चाः प्रतिपथं चासन ३३९ ६९ मञ्जुघोषे! मञ्जुघोष ७८६ ५२ मणिरत्नशिलाश्रेणि ६६५ १०१ मण्डकेभ्योऽखण्डदृष्टि: ८५६ ५४ मण्डपस्य च तस्यान्त ३६२ ३९ मण्डलानां प्रकाशेन ३११ मण्डितं नवनवत्या ४२९ मण्डूक इव कृष्णाहे- १७९ मतिश्रुताऽवधिमनः- ५७६ मस्कृतो माऽनयो दो १०६ मत्यादिभित्रिभिऑन ३३१ मदनेन मदेनेव ३०० मदाम्भो वर्षिभिः केचित् ५१ मद्भाग्यप्रेरितेनेव ६१७ महाङ्गप्रमुखास्तत्र २३२ ०८ मद्याङ्गा विरसं मद्य १४९ मध्यन्दिनादित्य इव १४५ १३७ मध्यभागसमासीन ८६ १३५ मध्यभागे तमिस्रायाः ३१६ ९० मध्यभागे पुनः स्वाङ्ग ४३४ ७२ मध्यवप्रान्तरे पूर्वो १२३ १३६ मध्येसमवसरणं मध्योत्कीर्णा बिम्बाभा-२२३ ८७ मध्वाभनेत्रदशन- ४०७ ७१ मनसा दृश्यमानोऽभू ७८८ १०५ मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् ४१ ३० मनस्वी चिन्तयन्नेवं ७४५ १३१ मनुष्याः खलु ते धन्या ६०५ मनोज्ञमुखपद्माभि- ५०९ १७ मनोज्ञयोरधरयोः ५२३ ४४ मनोरथैरिव निज ३८ ८२ मनोरमैरवयवः ५३१ ९७ मनोवचनकायानां ४९२ १४७ मनोवाक्कायदण्डानां १५ १३३ मन्त्रतन्त्रविषास्त्राग्नि ४१७ ९३ मन्त्रिणोऽन्यः शुनाशीर ७२२ २३ । मन्त्री दृष्ट्वाऽक्षराण्येवं १३२ ८५ भो भो देवाः ! समस्तान् वः ३४७ ३९ भो! भो! भवद् भिभूयांसो भो भोः ! समस्त राजन्या ५२० १२४ भो भोः सर्वे राजलोका ! १३३ भो! यूयं सिन्धुरस्कन्ध ६९९ १०२ भौमेनाऽप्रेस रेणाऽर्क- ३५२ ९१ भ्रंशात्तस्याऽनुभावस्य ७४० ५० भ्रम्यमाणं प्रहाराय ७११ १३० भ्रातरं तत्कनीयांसं २० १०८ भ्राताऽस्म्यभी: स चाऽऽज्ञेश १४५ ११२ । भ्रातृजायाभिरुद्गीत ७६९ १०४ भ्रातृव्याजाद् द्विषन्नेव २५२ ११५ भ्रातृननागतान् ज्ञात्वा ८०० १०५ भ्रातेति यदि निर्भीको १११ १११ भ्रान्तेनाऽयमियत्कालं ४९५ १२३ भ्राम्यतेतस्ततः स्वर १४१ ३३ भ्राष्ट्रमिन्धा इव ववु ८१ ०३ मसूणौ मांसलो स्मिग्घी ७१६ ५० महत्यप्यागते दुःखे ४९५ १४८ महर्षिषु विजातीयं २५ १३३ महसेनान्वयनभ- ६६१ १५३ महाकरिगिरिस्तोमो ९३ ८३ महाकल्लोलिनीपूर ५५० महाकाया महास्कन्धा ७० महाकुलप्रसूतोऽपि ३१२ महाटवीं समुत्तीर्णे २२२ महात्मनां सानुबन्ध १९४ ०७ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ श्लोक नं. पृष्ठ नं. महाद्रुमेण सेनाम्या- ४५३ ४२ महाद्विपघटा मेघा ३५० ९१ महाध्वजपटं रेजे ३९९ ४० महानन्दनाशोकं च २०१ ६५ महाबलमहोत्साहै- २८९ ११७ महाबलोऽथाभिदधे ४४७ १५ महाबलोऽपि बलिभिः २८. १० महाबाहुर्बाहुबलिः ३६४ ७० महाभवह्रदेऽमुष्मि- ७३८ १३१ महाभागौ महासत्त्वी १५८ ६४ महाभारं वहन्तोऽपि ७४ ०३ महामल्लो तडिद्दण्ड ६१६ १२७ महामाण्डलिकच्छत्र २९४ ११७ महामुने! प्रयास्यामो ४२६ १४५ महामुने: पुरः साऽथ ५९३ १९ महामूल्यानि रत्नानि ५३५ ९७ महाम्भोधेरिव क्षोभः ५१८ १४८ महायशःप्रभूतयः २५० १४० महार्थस्यापि सार्थस्य ७७ ०३ महावीरस्य किंचाऽस्य २०१ ११४ महाव्रतद्रुमाराम ७९६ १०५ महाव्रतानां पञ्चाना- ८९ ६२ महावतारोपणं च ४३८ १४६ महाशोकसमाकान्त ४९४ १४८ महासाराण्युदाराणि १२९ ८५ महिषीभिः सहाऽष्टाभि ३८० ४० महिषीभूय केऽप्यस्थु ६७९ ४९ महीं विहरमाणे तु ३४१ १४३ मही गोष्पदमात्राऽपि १३७ ६४ महीधरकुमारेण ७३७ २३ महीपतेरुपददा १९० ८६ महीभुजस्तान यथाऽहं २८१ महीभुजः सेव्यमाना ६४ महीयसा महीनाथो ३३० ९१ महोत्साही महीजस्को ४१६ १२१ मह्यमर्पयितुं कोशं ५०८ १२३ माकन्ददल पूर्णन ६५३ १०१ मागधतीर्थकुमारं ८४ ८३ मागषाधीश्वर इव १७७ ८६ मागधानां जयजय- ३९१ ४० मागधेभ्यः प्रयच्छन्तौ ४१४ १२१ माघाभिधानमासस्य ४८४ १४७ माणिक्यकुण्डले प्रोज्झ्य ७२५ १५४ माणिक्यतोरणास्तत्र ४३९ ७२ माणिक्यपादकटके ५९५ ४६ श्लोक नं. पृष्ठ नं. माणिक्यशालभजीभि ६२२ १५१ माता पल्यौ च पुत्री च ६० ६१ मातुलिङ्गपाशमृद्भ्यां ६८१ ७९ मा त्वां महींप्रजां लक्ष्मी ४९१ ७४ माद्यदिन्द्रियदन्तीन्द्रा १०५ १३८ मानसारस्तृणायैतत् २१७ ११४ मानात् स मोहनीयांशा-७८१ १३२ मानुष्यकस्य पद्यस्य २६४ ०९ मानुष्यकेऽपि सम्प्राप्ते २६३ ०९ मानुष्य केऽपि सम्प्राप्ते ५७९ मानोन्मानप्रमाणानां ५७५ मानोन्मानाऽवमानानि ९६४ ५७ मान्त्रिका माण्डला वन्या- ५७५ १२६ मायावीति च संज्ञातः ६६३ २१ मार्गकृत्यमुरीकृत्य ११३ ०४ मागंन्तः श्रावका देवै- ५५६ १४९ मागान्ततरुविश्रान्त ४४ १०९ मार्गावनीरहरुच्च ६८ १३५ मार्गासम्नेषु हम्यषु ६४९ १०१ मालिन्यं भेजिरे सद्य ६०४ १९ मा विद्यादुर्मदा विद्या- २१३ ६६ मा विषीद जगन्नाथ ! ६४२ १२८ मा विषीद महाभाग ! ५२७ मांसलुब्धः शाकुनिक ५७७ मांसलो वर्तुलस्तुङ्गो ६८९ मासान्ते चैत्रराकायां ४४३ १४६ मिथ इत्यादिशन्तीनां ७९५ ५२ मिथिलायां स्वर्णवर्णो ३१८ १४२ मिथुनायुः पालयित्वा २३८ ०८ मियो महिषसङ्ग्राम ४१ १०९ मिथः समपदन्यासं ४२१ १२१ मिथः सम्भूय ते क्रूर ३५३ ९१ मिथ्यात्वस्याऽथ मिश्रस्य ६०३ ७७ मिथ्यादृग्वाक्यांशु पुञ्ज ४०८ १३ मिलल्लोकेक्षणश्रेणि ८३७ मुक्ताप्रवालजालात ६०४ मुक्तामणिमयो विभ्रत् ३५९ मुक्तामयानलङ्कारान् २७ ८१ मुक्तावचूलामञ्चेषु ६१७ १०० मुक्त्वाऽस्थि पावतो यावद् ५५२ १४९ मुखान्याष्टो हेमपट्टा ४११ ७२ लोक नं. पृष्ठ नं. मुदा विगलितक्रोध ३२६ ३८ मुद्गरान् न्यञ्चतोद स्तान् ५२६ १२४ मुषा गजितमस्माभि ५३९ १२४ मुषा सन्नमस्माभिः ५४० १२४ मुधैव कारितामारा ५३८ १२४ मुधोपादायि दायाद- ५३४ १२४ मुनिनाथं प्रणम्याऽथ ५९५ १९ मुनिमेवमनुज्ञाप्य ७६० २४ मुनीनां ज्ञानिनां पार्वा- ४३९ १४ मुनेः प्रत्यङ्गमभ्यङ्ग ७६१ २४ मुष्टिग्राणि मध्येना ७४८ ५१ मुष्टिनाऽताब्यत्तेन ६५२ १२८ मुष्टिना पञ्चमेनाथ ६९ ६२ मुहुर्महीलुठनत- ६२५ १२७ मुहरन्वेषयन्तीभ्यां ७८६ १३२ मुहुरुरिक्षप्यमाणाभ्यां २९ ८१ मुहूर्तमपि न स्थातुं ५६८ १८ मुहूर्तसुखदानेन ३६९ मूछायाः कारणं पृष्ट ६५७ मूर्तिमद्भिः पवमान ५३ ६१ मूढस्थेन शिखाबन्धे- ३०० ९० मूनि न्यस्तरजलि भिः १०३७ ५९ मूर्ध्नि पट्टद्विपस्येव ३०१ ११७ मूर्ध्नि बद्धाञ्जलिमा ४१० ४१ मूर्ध्नि बाहुबलिं तेन १८१ १२९ मूनि श्वेतातपत्रेण १६५ १३८ मूलादुन्मूलयामास २७६ ०९मूलेभिन्नास्तोयधारा ५८० ४६ मूलोत्तरगुणप्रष्ठं २६ १३३ मूल्यक्रीताश्चताडयन्ते ५८२ १९ मृगतृष्णोपमसुखे ७८९ १०५ मृगमेकमिव द्वीपा २०५ ११४ मृगयासक्तचित्तश्व ५७४ १८ मृगवाहन ! माऽभ्यागा ३९५ ४० मृगेन्द्रासन मारुह्य ६६५ ७९ मृज्यमानं मुहुश्नत्य १२६ १३६ मृत्वाऽभिचन्द्रोऽप्युदधि १९० ३४ मृदूनि भ्रमरण्यामा ७२९ ५० मेघरा मेघवती २८२ मेषाम्भसा पूर्यमाणे ४२३ ९३ मेरुशृङ्गमिव स्वाराट् ३८८ १२० मैश्यादिभिर्भावनाभि: २७८ १० ५३ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० श्लाक नं. पृष्ठ. नं. मोक्षप्राप्त मिवाऽऽत्मानं ७९७ १०५ मोहान्धकारनिर्मग्न २६४ १४१ मोहो भवार्णवावर्त ८३१ १०६ मानमालम्बसे पुत्रि ! ६४५ २१ मौलिच्छत्रे महेशस्य ७२६ म्लेच्छभूपतयस्तत्र २७६ ८९ म्लेच्छसैन्येन पर्यस्ता ३७३ ९२ म्लेच्छा जोनकनामान २७२ ८९ म्लेच्छेभ्य आहतं सर्व २८२ ८९ श्लोक नं. पृष्ठ नं. यद्यप्यपवदिष्यन्ते २९३ १० यद्याद्यो वासुदेवानां ३८६ १४४ यद्वस्तुषु स्थिरत्वे धी- ३७६ १३ यद्वा किमन्यत् सर्वेषां ८२५ २६ यद्वा दिवाकरस्येवो- ३४ १३४ यद्वा न मर्तुमुचितं ९५ ३१ यद्विज्ञप्तमकाण्डे तु ४४३ १५ यन्ममाऽशोकदत्तेन ५१ ३० यमसनदानेन ११३ १११ ययावूर्वमुखः सोऽथ ५३९ १७ ययुः किरातांस्ते मेघ ४४७ ९४ ययो बाहुबलि: पश्यन् २९५ ययो सह नरेन्द्रेण ४७ ययोसोऽल्पकषायत्वाद् ७३८ यवना डम्बइल्लादि ३८७ यवाः पर्वस्वगुली नाम् ६९२ यवाः स्पष्टमशोभन्त ७११ यशस्विनः सुरूपाया १८० यस्माद् यस्माज्जनपदा-२११ ६६ यस्त्वां स्तवीति यो द्वेष्टि ४८४ ७४ यस्त्वां स्तोतीह भगवं- ७८५ १०५ यः सम्यक्त्वपरीणाम ६०० यः स्वयं त्वाददे सर्व- २७० याचेथां भरतं गत्वा १५३ यातुधान इवाऽऽकारो ९१ यात्येकमेव चैतन्यं ३५२ याशी तादृशी वाऽपि १०२ यामिन्याश्चरमे यामे १०८ याम्योदग्भरतक्षेत्रा ३१७ याम्योदग्भरतान्ति ५१४ ९६ यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ३४५ १२ याहि दूत! स एवैतु १५४ ११२ यियासोः स्वामि पादान्ते ४०१ ७१ युक्त धर्म उपादेयो ३९६ १३ युक्त भृत्येषु नष्टेषु ५४७ १२५ युगपद् विषयै रेभि १०३३ ५९ युगपद् विस्मयामर्ष २३१ ११५ युगमानं दत्तदृष्टि- २७४ ६७ युगान्तसमयोदस्त ३८५ १२० युग्मधर्मी स शुशुभे १३९ ३३ ।। युग्मरूपास्त्रिगन्यूतो २२९ ०८ युतान्निषेधतेनं तद् ५०९ १२४ ।। युधा द्वादशवाषिक्या ५१० ९६ युध्यमानाहिनकुल- ४० १०९ युध्यमानेन युध्येऽह- ५१२ १२४ श्लोक नं. पृष्ठ नं. युध्यमानोऽरिभिर्यस्तु ३२६ ६९ युयुत्सुः पुनरप्यायः ६६१ १२८ युवयोर्वचसा मानं ७८२ १३२ युष्मज्जन्माभिषेकाम्भः ६०४ ४६ युष्मत्पादह ष्टमात्रै- ७८० १०५ युष्मत्समरसम्भावि ४५४ १२२ युष्मद्वंशेऽपरश्वासीद् ४३२ १४ युष्माकमनुरोधेन ४१८ ९३ युष्मासु सत्सु योधिषु ५५४ १२५ यूकामत्कुणमर्कोट १६७ ०६ यूनामन्तनिविष्टानां ६९ ०३ ये त्वां पश्यन्ति भगवन् ! ३७६ ११९ ये नर्मसुहृदः खादा- ३०४ योग्यं ज्ञात्वा वनजङ्घ ६८९ २२ योजनानां सहस्राणि ४५७ योजनानि द्वादशाऽति ११० योजनान्येधते स्पृष्टं २६३ योषानामायुधानां च ५८१ यो यद् ययाचे तत्तस्मै ७६५ १०४ यो यस्तत्याज मर्यादां १६२ ३३ पो येनाऽर्थी स तद् य एव म्रियते जन्तुः ३३९ ११ य एव म्रियते जन्तुः ३५१ १२ यकृच्छकृन्मूत्रमल ७५२ १०४ यक्षराजी पूर्णभद्रो ४६६ ४२ यक्षाभ्यां तत्र दध्राते ४५५ यच्च पद्मसरो दृष्टं २४३ ३६ यच्च श्रीददृशे तत्र २३७ यच्च स्वप्ने पूर्णकुम्भो २४२ यच्चकः पूज्यते ग्रावा ३६३ १२ यज्जलज्ज्वलनो दृष्टो २४७ ३६ यतिनेवाऽचरित्रेण ३१० ११ यत् तापयति कर्माणि १९७ ०७ यत्प्रेष्य एको भवति ३७१ १२ यत्र यत्र प्रभुभिक्षा ३३४ ६९ यत्रकोऽपि यतिः सिध्येत् ४४७ १४६ यत्रोषितोऽभूद् भगवान् २२४ ३५ यथाकाममविश्रान्त ५८४ ९८ यथामापातशङ्कयेका-३८९ १३ यथाऽपराध दण्ड्येषु ९७८ ५७ यथा संसारमत्याक्षी- ६५३ १५२ यथाऽस्मत्स्वामिनो दत्तं ६९८ १२९ यथेच्छमर्पयामासु १२५ ३२ यथोचितमथो दत्त्वा ५१६ ७५ यदात्मने रोचतेऽत: २३० ११५ यदादावपि हन्यन्ते ७३१ १३० यदादिशति तातस्तत् ४६ ३० यदिक्षुराददे भत्रे ६५९ ४८ यदि चौषधयो दिव्याः ७४२ १०४ यदि तावदमी त्यक्त १९८ १३९ यदि मोदकलिप्सुस्त्वं ५४६ १८ यदुवंशसमुद्रेन्दुः २४ ०२ यदृच्छया गच्छति वा २७४ ११६ यद्यपि स्वामिनो गत्या १३३ ६३ यो रागद्वेषमोहानां ४३६ १४६ यौवनेन नखैः केशः ५१७ ९६ यौवनेऽपि मृदू रक्ती ६८६ ४९ . . रक्तोऽस्य चतुःपञ्चाशद् ३०१ १४२ रक्षापोट्टलिकां वह्नि ३१५ ३८ रक्षोराज इवाऽशेषान् ३८० रक्ष्यमाणः स आयुक्त २४२ रजन्यां पुनरप्येषां १४४ ०५ रणे कक्षाणां देवानां ५९१ १२६ रणे राजनियुक्ताना- ३५९ ११९ रणोत्साहोच्छवसदेहात् ३३५ ११८ रतश्रान्तोरगीपीत ९२ १३५ रतिप्रीत्योरिव क्रीडा- ५२१ ९७ रतिमग्नो देव इव २३१ १४० रत्नकम्बलगोशीष ७४८ २४ रत्नकम्बललग्नांस्तान् ७७४ २४ रत्नचन्दनकलसा ६१२ १५१ रत्नत्रयधरेग्वेका २०० ०० रत्नत्रयधरो धीरः १८० ०७ रत्नत्रयमिदं सम्यग् ६४० ७८ रत्नपुञ्जः स्फुरत्कांति २४६ ३६ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक नं. पृष्ठ नं. रत्नप्रभाया मेदिन्या ४४३ ४२ रश्नमङ्गनदीपा रत्नमयस्वर्णमय ६११ १५१ ६७६ ७९ ६८ ४६३ ७३ १०२ ७६ ११० ४९६ ७४ रत्नवृष्टिरभू २९७ रत्नसिंहासनस्थानि रत्नसिंहासनात् तस्मा ७०२ रत्नसिंहासनासीनं रत्नसिंहासनोत्सङ्ग रत्नस्तम्भ व्यवस्तब्धाः ७७४ रत्नस्वर्णौस्करान् केचित् २०७ रत्नाकर मिवानीर २७० रहने च मनिकाकिच्यो ५१ ८९ ८९ ४६ ८२ ४३५ ७२ ८६ रत्नविरचयामासुः रथाङ्गनाभिद्वयसं- ** रवान्तराणि गच्छन्तु ३५४ ११९ रथान् ङ्गामिकान् कृष्ट्या १७८ ११३ रविकानवमस्यादि ८४ ०४ १३७ १२१ रविनः पतया पुः १५६ रथिनां रथिनो यावद् ४३३ रयेष्वायोजन केऽपि ३४३ ११८ रथः सीमन्तितः सद्यो ३१४ ९० रनवे मंणिनि२४९ ०९ रममाणस्तया सार्द्धं - ५१४ १७ रममाणस्तया सार्द्ध ६०२ १९ रम्यास्वारामराजीषु २८१ १० रयेण प्रसरन् मे ५२९ ४४ रराज राजराजोऽपि ६९७ १५४ रविविम्बमिव अस्पद ७१० रविभासपुरं सप्त- १९३ ६५ रपरि कि तेत्रो ? ५११ रहिमं नाऽजीगणन् रथ्या ५९४ रहः सूत्रित कार्याणि रागद्वेष कषायादी रागद्वेषपरीणामो रागो द्वेष मोहन ८२९. १०६ रागो हि सद्गती पुंसा ८३० १०६ राजदीवारिकेव ३३४ ११८ राजती सह गच्छद्भिः ७७० १०४ राजन्सी मुदरेणाऽति ५०२ १६ राजन्या जज्ञिरे ते ये ९७६ ५७ ७९४ राजपुत्रस्य जीवस्तु २५ राजमानां नितम्बेन ५०१ १६ राजहंसा इवोत्साह २१७ ०८ राजा किमपरः कश्चि- १६६ ११३ ९६ १२६ ६७ ३१ ५४२ ७५ ५८८ ७७ लोक नं. पृष्ठ नं. ३६८ राजा जिनाचमा २४४ ९६५ राजा तदाददे सर्व राजाध्यक्षकुलगृह राजानं याचितस्तैस्तु ९०१ राजानी नागराचाऽन्ये ३०५ राजा पुष्कलपालोऽपि ६९९ राजा पौषधशालाया- ८२ राजाऽप्याऽऽज्ञापयद् द्वाःस्थं राजाऽप्यूचे स्मारि ११ तोऽस्मि ४०७ राजा युद्धार्थमादिश्या ३०३ राजाऽष्टमे परिणम- ६७४ राजा सर्वार्थनिष्णातः ८८ राजेन्द्र ! राजपिण्डोऽपि २०२ राज्यं भवतरोजं ७५२ राज्यं सूनोः सोऽपं श्लोक नं. पृष्ठ नं. ११९ रूपस्पर्शगुणं तेज ३५८ १२ रूपास्तत्रिजगत्स्त्रेण ७४९ ८८ रूपेणैवाऽलवणिम्ना ३०९ ५१ ५७ रूप्यरत्नमयान् भौमान् ४७८ रूप्यवप्रश्च भवन ४३६ रूप्यस्थालं च दुर्वादि ८३३ अपटास्तेषु ११२ ३६४ ९६ ६५२ ५५ ६८ २२ ८३ २९ १३ ११७ १०१ ८३ १३९ १३१ वि४२९ राज्यलक्ष्मी रमावास्या ७३४ राज्यलुब्धस्तदा स्वस्व ७१२ राज्यश्रिया प्राप्तयाऽपि ७३२ राज्यानि चेत् समीहते ८०१ राज्याभिषेकमृषभ- ९०६ राज्याभिषेकात् प्रभृति ९८४ राज्यामुक्तावसेवायां ८२६ राज्येन यदि व कार्य १३० ८५ राज्यस्तरव्यसन्तुष्ट ४९२ १२३ राज्ञः प्रयाणपिशुना: २६८ ११६ राजा कुलश्रीमिरिया ५९२ ९९ राज्ञां दशसहस्राच ७४५ १५५ राज्ञा तचेत्यनुज्ञाताः ६७१ १०१ राजे विश्राणयामास ५४१ ९७ राज्ञो भावविशेषज्ञो ९२ ८३ रामतृतीयायां ३०१ ६८ रामे किरमसेऽभ्य ७९२ ५२ राहुग्रस्त इवाऽऽदित्ये ६९९ १२९ रिक्तरिक्ताभृतभृती ५३७ 24 रिष्टाच ेति नवभेदा १०३६ ५९ euters ३०१ ३७ रुचिः श्रुतोक्ततत्वेषु ५८२ ७७ रुदितेनाऽस्फुटद् राज्ञः ४९९ १४८ रुरुचे पृतनोद्भूत रूपगन्धरसस्पर्श ५१ ८२ ३५७ १२ रूपलावण्यविजिता रूपस्थमपि ये ध्यानं १४ १३० २३ ६२ १५२ रेजे तस्या उपक रेज सेनाऽनेन रेजे बाहुबलेर्मुष्टी रेजे सागरचन्द्रेण ४०७ ६७३ ܕ १२० १२९ ६१ ३० रे निर्मर्याद | पुंस्बेट ! ७३ ३१ रोगाः समुद्भवम्यस्मिन् ४३ ७२ ५३ १३६ ३९ ल २५४ ३२ रोगे निपतितो घोरे ०३ रोमहस्तकमादाय रोमाञ्चकको ५४५ रोम्णां नखानां वृद्ध्या च ९५६ ५७ रोराणामीश्वराणां च ८१७ १०६ रोषाद्धतहतेऽत्यन्त १५६ ११२ १३० १०५ ५८ १०६ ५९१ ४६ लक्षेषु चतुरशीतो ५५ १८ ५५८ लक्षैश्चतुरशीत्याऽभातृ ७२२ १०३ लक्ष्म्या विभ्रमदोले लघुध्वज सहस्रेण ६२ कुर्वननं ४०६ वार्षभे विवेकेन जिरवा स्वयमध्ये ९० लताभिः शतशाखाभिः ७७१ लतावल्लीवत् त्रुटिते लते वोद्यानपालीभि- ६३० सम्पतः क्षणेनाऽप ५१७ ७९६ २७ १०९ लब्धाश्वान् केऽप्य सन्नाहान् लब्धीनामुपयोगं ते ८८१ ललङ्घे स बहून् ग्राम ३६ ललाटपट्टे मङ्गल्यं २६ ८१ ललाटे घटयन् लेखाः ११४ ૮૪ ललिताङ्गोऽप्युवाचेति ५२४ ललिताङ्गोऽप्युवाचैव ६१५ २० ललिताङ्गोऽसि देवस्त्वं ६६४ २१afeatङ्गोsert देवो ६५९ २१ लाक्षाराष्ट ६८८ १२९ लीलानीलोत्पलभ्रान्ति २२ १७ ८१ ०९ १३४ ८१ ९७ ११४ १४७ ६३८ १२८ २१ १३१ १३२ २० " ३३९ ११८ * Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक नं. पृष्ठ नं. लीलाविलाससाम्राज्य ७०२ १५४ लीलालोलितलाङ्गल ५४६ ७५ लीलोद्यानेषु सम्भूय ५५ १०९ सृभिः पादपीठाचे २६७ लुठन्तो नमतां मूर्ध्नि लुठित्वा वारिधेः पङ्के ६१२ लोकनाथस्पर्द्धमेव ६०२ ६७ २३ ०२ १२७ १२६ १६ लोकपाला अमीच स्वत् ४८१ लोकमालादयन्नब्द ५५५ लोकव्यवस्था प्रथमा १०३९ ६५० १५२ ५४ लोकप्रतोऽपि संसार ५४० लोकमवापासी ५०६ लोकायमच लोका लोकेषु व्यवहारोऽयं ८६४ लोकोत्तरी वाऽसि त्व- १० लोमहस्त पटल्योऽथ ६१० १५१ लोहागंलपुराद् वज्र ६७१ २१ लोहिताक्षप्रतिसेक ६०२ १५१ १०८ व ६६ ૪ वंशालयानां विद्यानां २२३ वत्रीकुर्वन् भ्रुवोर्युग्मं ११२ वीकृतस्य धनुषो १६८ ८६ बक्षारकविरिभ्योऽपि ४९० ४३ १५ वक्ष:स्थले हारयष्टि ४६६ वचनश्रवणात पो ८५० २७ वचोमात्रेण मुञ्चाम ८२४ १०६ बज्र बज्रपरस्येव २९३ ८९ ६६३ ४८ १३८ वज्रकायो महोत्साहः ४६३ वकीलानि शंसा- ६१० वज्रऋषभनाराचं वज्रऋषभनाराच * ५९ ७५ १४८ कोकटायन्ये १२५ वज्रजङ्घस्य जीवोऽथ ७१८ वज्रमानिन् ! निजाङ्गानि ३३ १५ १२७ ૮૪ २३ ६१३ १२७ वज्रसारो बाहुबलि - ६१५ १२७ वज्रसेनस्ततो वज्र ८०२ २५ वज्रादपि कठोरोऽहं १३१ ११२ वालपुरं वज्र १८९ ६५ वज्रिणो वाहनमिवा ३९१ ९२ वन्द्रनील सूर्य ९१४ वत्सरेण हिरण्यस्य २४ ६० बता! पुरुष ८२८ १०६ वत्से ! नारकषण्ढानां ५६९ १८ ५५ ३२ पृष्ठ नं. ५४ ५४ ६१६ १५१ २२८ ११५ १०९ ७४ ४६ ०७ श्लोक नं. वधूटघोः पारिपार्श्विक्य- ८५४ वधूवरहशोऽन्योऽन्यं ८५० वनलताऽब्जलताभिवनेचरा गिरिवरा: वनेचरान् गिरिचरान् ५१ वने विहरतो भत्तुंः ५०७ वन्दनीयो मुहूर्तीऽयं ६०३ वन्दित्वा गुरुपादाब्ज वरमशक्ति वपुहतरी २०३ ८५५ २७ ८५३ २७ ७६८ १३२ वपुषा तद्वपुरववपुः पश्यन् क्रमेणेक्षा- ७२१ वपूंषीक्ष्वाकुवंश्याना ५३४ वप्रावज्राकरमहीवप्रा विजयराज ३३५ बजे बने च चत्वारि १२० वयं यामोऽम्बवत्वेति ५४४ वयं सर्वेऽपि तिष्ठामः ४९० वयं हि वणिवस्तात ! ३४ वयोमात्रेण न गुरु वरदामाधिपस्याऽथ वरदामामरं चिले वरदामेशमाभाष्य बराकी स्ववियोगे हा वर्त्तते सम्प्रति स्वामी वर्तमाने जिनेऽनन्ते वोऽनतिदीर्घ १५४ १४९ ६७४ १५३ १४३ ४९४ १९४ १५९ १९२ ६६० १४९ ३४७ १३६ १४९ १२३ ३० * * १२३ ८६ ८५ २१ ६४ १४३ ७१४ ५० वष्णुमिव विन्ध्याद्रि- २७९ ११६ ११९ वर्णाश्व यान्तूष्ट्रा वर्मादिवनायोष्ट्रा ११३ १८२ मर्याणि ३२ ६० वर्षाणां चतुरशीत्या २९८ १४२ वर्षाणां सप्ततिस्तस्य ३२३ १४२ बलन्तो दचकद्वीपा ८७५ २७ वलयीकृत्य हेमाद्रि १३६ ११६ वल्कलाच्छादनधराः २३५ ६६ वल्लीभिः नमामि २१६ ०८ ववन्दे देवराजेन ૭૪૪ १५५ 889 गुर्वकेऽप्यङ्क ५५९ वशं यातेषु निषिषु ५८५ ९८ २९ २४९ ७० वसन्त इव मलयायसबीप्रभूत्यन्त:वसन्तोद्यानपालेन वसुन्धरां वितम्वानो २८५ ३७ ९९९ ५८ श्लोक नं. वसेद् ग्रामेऽपि यो यस्य २४१ वस्तु चेत् क्षणविध्वंसि ३७९ वस्त्राणां सर्व भक्तीनां ५७८ वखाणि कदलीय ५४४ ५२६ वहन्ति सरिदावतं यामात्रेणाऽविनो पृष्ठ ५५० ३९८ नं. ११५ १३ ९८ ९७ ९७ देवा- ११४ ०४ 04 ५३ वाचनां ददतः कां१ि२३ वातेनोद्वान्ति पुष्पाणि ८३९ वाद्यमानेषु तूर्येषु antara ५४५ १४९ ०३ वापीकूप सरोक ५७ ९२३ ५६ ११ ८१ ६८३ वाम जानु समाकु वामहस्ते धनुर्व बामाऽश्वसेनः पार्थी १२२ वामे स दोष्णि निविडाः ५५९ वारस्त्रीभिर्वीज्यमानं ७४ ८० १४२ १२५ ११० + ११३ ૮૪ ६२ १२४ २२ ६० ५२९ १४९ ३१९ ३८ ४१८ ७२ १४४ १०० वाराणस्यां तु प्रतिष्ठ २८९ वार्तयाऽपि तया राजा १७७ वाघिवेलेव दुर्वार: १२१ वार्यमाणाः सुहृद्वर्गे ७७ वालयित्वा रथानश्वान् ५२४ वासवादिष्टधनद वासवो वासयामास वासवानामासनानि वासवः सपरीवार वासुदेवप्रतिमस्था ३६९ यासोभिः शोभितः शुभैः ६२७ वाहनं च भवत्येक ३७२ वाहयन्तो मुहुर्वाहान् ७९८ १४१ विशत्पङ्गविहीनोऽस्य २९० विपर्याय ८८७ २७ विकासमामोद १० विकिरन्तीं वह्निकमा ७५९ विकृतीभूय विटवत् ५६५ ४५ विकृत्य पञ्चषाssस्मान ५७३ विकृत्य सोऽप्यभ्राणि १०६ १३६ विक्रान्त द्विपदाकारी- ६४५ ७८ विक्रीणीते हम भाण्डानि २२४ १२ २५ २९ १३१ ૪. ०८ ४५ विचित्रदिव्य सुमनो विचित्रपुष्करमेण ९३ विचित्रमणिमालाभि ६२० १०० ३६३ विचित्रवर्णरुचिरे विचित्रवस्त्रमाणिक्य ४५४ विचित्राणि तु चित्राङ्गा १२४ ७० १५ ३२ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक न. पृष्ठ. नं. विचित्रवः श्लोक ५१५ ४४ विचिन्तिताया दुन्दुभ्याः ५९ ३० विचिन्त्येति चिरं श्रेष्ठि ३२ २९ विजयस्व जगन्नाथ ! ४५२ ।। विजये पुष्कलावत्यां ६२५ २० । विजये बाहुबलिनो ५८४ १२६ विजहार ततोऽन्यत्रा २२६ १३९ विजितं काकतालीय ५८८ १२६ विज्ञायाऽवधिना राज्या ९०४ ५५ वितण्डापण्डितैरेभिः ३९३ १३ वित्थ यूयं यथा नैव १२१ ६३ विदधातु प्रयाणं च २६० ११६ विदधानो दिवं दीव्य ३०० ६८ विदधुर्गन्धकाषाय्या ८०४ ५२ विदधुर्भवनाधीशा ११८ १३६ विदधे तेषु र स्वामी ४६० ७३ विदरं पूरयामासु ३०३ ३७ विदाञ्चकाराऽऽयुर्वेदं ७२९ २३ विदित्वा स्वाम्यभिप्रायं ७६१ ५१ विदेशमिव वैताढ्यं ३९६ १४५ विद्याधरनरेन्द्रत्वं ३२३ ११ विद्याधरपतिः सोऽहं ४९१ १६ विद्याधराधिराजत्वे २१८ ६६ विद्याधरेन्द्रभृतकाः ४९७ विद्यानां मूलवीर्याणां २२१ विद्यानां वृक्षमूलानां २२४ ६६ विद्यानिमित्त कविता ९०२ २८ विद्युत्पातेषु निर्घात ७६३ १३१ विद्युद्दण्ड इवाऽम्भोदा १०८ ८४ विद्वान् धनी गुण्यगर्वः ७४४ २३ विद्विषत्प्रेषितं घात १७२ ८६ विद्विषत्तिका चक्र ३६६ ९२ विधाय सहजाऽशौच २५१ ०९ विधेयमथवा सर्व ७२१ १३० विना चक्रप्रवेशं मे ४७० १२२ विना हि पूर्वचैतन्य ३५३ १२ विनीतापुर्यां संवर २८३ १४१ विनीतायां स्थितः कुर्वन् ७२९ १०३ विनीताः साध्वमी तेन ९११ ५५ विपद्य मरुदेवोऽथ २०५ ३५ विभज्य भरतादीनां २६९ ६७ विभज्य राज्यं दत्तं नः ८०२ १ विभातमप्यविभातं ३७४ ७० श्लोक नं. पृष्ठ नं. विभातायां विभावयाँ ११७ ०५ विमलं वर्तुलं कान्ति ७१५ ५० विमलस्वामिनो वाचः १५ विमलेन विमानेना ४४१ ४२ विमानं देवि! यद् दृष्टं २४५ विमानद्वादशलक्षी ४३५ विमानमाभियोग्येन ४५० विमानमिव सर्वार्थ ६१ ६१ विमानमुपसंहृत्य ४३४ ४१ विमानरत्नमारुह्य ४५८ विमानलक्षाष्टक- ४३६ विमानहम्यः करिभि ५६ ६१ विमाने श्रीप्रभेऽथोप- ४६१ विमानैरन्यदेवानां ३८९ विमुक्ता बाहुबलिना ६५१ विमुक्ताभरणश्रेणि: १५ विमृश्येति स्वयम्बुद्धो २९४ १० विमृश्य वं शतबल: २६६ विरचय्य नवामेवं ९७७ ५७ विरज्य विषयेभ्यो य-७३६ १५५ विराजमानस्तन्वा स ४०२ ७१ विराजमाना सर्वाङ्ग ५४३ ९७ विराजमानः शिरसि ३५५ ७० विरेजे प्रेता चारु २७१ ०९ विलसन् वनजङ्घोऽपि ६९१ २२ विलेपनस्य केदार ८६१ ५४ विलेपयितुमारेभे ५४३ ४५ विलोकयन् वलद्ग्रीवं ६७९ १५३ विवाहसज्जीभवना ८२४. ५३ विवाहसमयादूर्व ३८२ १३ विवाहाऽनन्तरं ताभ्यां ८८३ विविधान्यायुधान्यन्ये ३६८ विविधाधिभिः केऽपि ५८१ १९ विवेद चैवं यत्पूर्व २८४ ६८ विशालं मांसलं वृत्तं ७२४ ५० विशालसङ्गतनत ३८५ ९२ विश्रान्तपूषणमिव ६५७ १०१ विश्रामणां महर्षीणां ९०५ २८ विश्व संहर्तुमारब्धं ४४८ १२२ विश्व शब्दमयमिव ३६० ११९ विष्वक् परिवृतो देव ७३२ ५० । विश्वतारक! मां दीनां ७९३ १०५ ।। विश्वभव्यजनाराम ०५ ०१ श्लोक नं. पृष्ठ नं. विश्वमूर्धन्यताचिह्न ५८९ ४६ विश्वविस्मयकरैरिति प्रभु ६८९ ८० विश्वसेन कुलोत्तंसा ६६९ १५३ विश्वस्वामिनमाप्याऽमुं-१५४ ६४ विश्वाजय्ये नृपेऽमुष्मिन् ४४४ ९४ विश्वाभयकृतो देव ४८० १२३ विश्वोपकारकरण ४० १३४ विश्वोपकारकीभूत १४ ०१ विश्वोपकारप्रवणो ७७ १३५ विषं विषधरस्येवा ७२५ १३० विषयूपं व्यषात् पुत्र ७१४ २३ विषमं सुषमीचके ५० ८२ विषयेष्वतिदुःखेषु २५८ ०९ विषसम्पृक्तमन्नादि ८४९ २७ विषादपङ्कमुन्मूल्य ७५४ १३१ विषादिदोषाः प्राणश्यं ८४८ २७ विसृष्टा भरतेशेन ६५० ७८ विसृष्टास्ते नरेन्द्रेण ३१९ विस्तृतं बहुधा पूर्व- ५७८ विहस्तहस्ताः शास्त्रीधै ५०४ ९६ विहाय जम्बुको मांसं ३८६ १३ वीजयामासतुश्चाऽन्यो ५७५ ४६ वीज्यमाना चामराभ्यां ७६८ १०४ वीरमानितया चेत् तं ११४ १११ वृक्षाधिरूढान् प्लवगा ६०४ वृताः सुरैर्जयजये- ४२३ वृतो निजामरैः सर्पन ६१३ वृतोरुमौक्तिकमणि- ५९३ वृत्तो विमानमारुह्या ४६० वृन्दारकाणां हस्तेषु ५३३ ४४ वृष्टिर्वारिधरस्येव १८० १३८ वृष्टेरिव पयोवाहः ४१९ १४५ वेगादलक्ष्यमाणाङ्घि- ६८ ०३ वेगाद्वायुरिवोल्लङ्घय २०४ । वेगेन गत्वा हिमवत् ४६६ वेणुवीणादिनादेषु १०३२ ५९ वेणुवीणामृदङ्गानु ३४४ वेत्रिणाऽथाऽऽज्ञया राज्ञो वेत्रिणेव महेन्द्रेण ८२७ ५३ वेदकं नाम सम्यक्त्वं ६०२ ७७ वेदाश्चाऽर्हत्स्तुतियति २५६ १४० वेश्याजन इवाऽस्नेहे २५० ११५ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ लोक नं. पृष्ठ नं. शतानि सप्तवर्षाणां ३२१ १४२ शत्रूम् सर्वान् विजित्यान्तः २५१ ११५ शनैः शनैः राजपथे ६४३ १०० शनैः शनैः शोकमुक्तो- ६९० १५३ शब्दानुशासनव्यापि ७८४ १०५ शमसंवेगनिदा १९३ ०७ शमसंवेगनिदा ६०८ शमीकर्कन्धुबब्बुल ७१ ८३ शम्यश्वत्थत्वची पिष्ट्वा श्लोक नं. पृष्ठ नं. वेसराः शकटाश्चात्र ३५२ ११९ वैडूर्यमणिकपाट ५७२ ९८ वैताढयकन्दरादाढष ३३३ ९१ वैतादयपर्वतस्याऽस्म- ४५३ ९४ वैताढयपृथिवीघ्रस्य २९६ ९० वैताठ्यसञ्चरद्विद्या- २९१ ८९ वैताब्याद्रिमतिक्रम्य ३०९ ११७ वैतालिकर्जयजया- ६३० १०० वैर्यक्षोभशिखरकं २०६ ६६ वैश्रवणकूटशशि- १९४ ६५ व्यजनीजितो नीर- ६७२ २१ व्यन्तरान् भवनपती- ५९८ ९९ व्यन्तरास्तत्र कालिन्दी १०९ १३६ व्यन्तराः स्वर्णमाणिक्य ४२४ ७२ व्यन्तरेषु कालमहा- ४६५ ४२ व्यवहारप्रवृत्त्याने ५६ १३४ व्याजहार कुमारोऽपि ३२०६९ व्यानशे प्रसरंस्तस्य ५९३ १२६ व्योमगङ्गोमिभिरिव ६१७ १५१ व्योमन्युल्लालयामास ६२८ १२७ व्योमेव चन्द्ररहितं ३६७ ७० वणग्रन्थिविहीनेन ४३० ९४ व्रतप्रासादकलसः ४०४ व्रतात्प्रभृति नाथोऽसौ २७१ ६७ व्रतेऽनुगमनं भर्तु- ११५ ६३ श्लोक नं. पृष्ठ नं. शिवराजाऽमृतासूनु ३४९ १४३ शिवासमुद्रविजया ३२० १४२ शीतप्रदक्षिणावर्त ७०१ ४९ शीतलं वातलायेव ४२ १३४ शीतलो भद्रिलपुरे २९५ १४१ शीतवातात पाम्भोभि- ५६२ ७६ शीलं सावद्ययोगानां १८७ ०७ शुक्लध्यानाग्नि संयोगा ३७६ १४४ शुक्लध्याने स्थितस्तूर्ये ४४४ १४६ शुग्विहस्तो हस्तदातृ ४७० १४७ शुचिपक्षमलया गन्ध ६८९ १०२ शुभं भवतु वां विश्व- ४५२ १२२ शुभकोसम्भवसना शुभध्यानस्य करणं ८९५ २८ शुभभावस्य प्रक्षीण ६०४ ७७ शुभलग्नोदये तूर्ण ८४७ ५४ शुशुभे वर्मणा तेन ३८२ १२० शुशुभे वृषभस्वामी ८९२ ५५ शुशुभे शशभृत्पाण्डु ३८६ ४० शुश्रूषमाणां प्रतिमा ६३१ १५२ शूराश्च स्वामिभक्ताश्च १९८ ११४ शूलतूलिकशय्यासु ५६४ १८ शूलमुल्लालयन् पाणा- ५७६ ४६ शूलान्यधारयन् केऽपि ३६५ ९२ शङ्गाग्रभागविश्रान्त ८४ १३५ शुङ्गेभ्यो जलयन्त्रेभ्य - ५८२ ४६ शृण्वत्यास्तत् ततो देव्या ५२७ ७५ शेषैर्महाप्रमाणत्वान् २५४ १४० शैलमम्बरतिलक ६७७ २१ शैलपष्टापदं प्राप ४६० १४६ शैलानपि शिलातोल ८०० २५ शैलैः पतत्पविभ्रान्त्या १७० ८६ शोकाकुलः कुलामात्यः ६८९ १५३ शोकाज्जीवितनिविणं ५१० १४८ शोभमानां कबर्या च ५०७ १६ शोभमानां च वासोभि-५३० ९७ शोभमानः सितच्छत्र २६१ ८९ शोभितश्चिह्नपदेन २५७ ८८ शोषयन मार्गसरितो २८१ ११६ श्मशान स्थानगूढानि २१ ६० श्यामा शमी शमीगर्भ ! ६६६ १५३ श्यामो मेरुर्मया दृष्टः ३२५ ६९ श्रद्धानेनोद्भासनेना ९०१ २८ श्रद्धालुभिः सुरवरैः ६०० ४६ शयनादिविहीनोऽपि १०७ ६३ शरं चकर्ष शरधे २०२ शरीरमधिरूढस्तै- ७७६ १३२ शरीराद्यर्थदण्डस्य ६३५ ७८ शरीरान्न पृथक् कोऽपि ३३२ ११ शर्करास्वादुसिकताः २३१ ०८ शशंस भगवाने ३७३ १४४ शशीव स नवो राजा १६ ६० शस्त्राने वादयामासु ३२२ ११८ शस्त्राणि जाप्रतां भावि ३२५ ११८ शाखास्थितगोलागूल ४०५ १४५ शाणरिव तपोभिस्ते ७८३ २५ शातकुम्भमयास्तत्र ७७१ ५१ शान्त रसं मूर्तमिव ७४७ १३१ शारदानामिवाऽभ्राणां ७८ १३५ शाराद्यूतपरैः क्वाऽपि ९४ १३५ शालिगोधूमचणक ९३५ ५६ शाश्वतीनामृषभादि ६४४ ४८ शाश्वत्यः प्रतिमा जैन्यो ५८० १५० शास्त्रीयवाग्युद्धेऽप्येवं ६०७ १२७ शिक्षां नो देहि नाथेति ५४३ १४९ शिक्षोपदेशाऽऽलापान ये १६४ ०६ शिखीव सूर्योपलतो १०९ ८४ शिबिकायां तृतीयस्या ५३५ १४९ शिबिरं शबरीगीता ४८७ ९५ शिरस्त्राणं च शिरसि ३८३ १२० शिरीषकल्पे तत्तल्पे ३४० ११ शिरोभिरुत्कचस्तेषां ३६१ ९२ शिरोऽभ्यर्णजुषा सूर्ये- ३९९ १४५ शिरोरत्न स्त्रिजगत ८६८ ५४ शिलोच्चयशिलापृष्ठ ३५४ ७० शिवगामिन् ! शिवासूनो ! शक्रचूडामणिविभा १०३८ ५९ शक्रप्रदत्तमृषभ ६ ९१ १०२ शक्ररूपान्तराणीव ३८३ ४० शक्रः सङ्कमयामास ६२७ ४७ शक्रसङ्क्रमितां स्वामी- ६५१ ४८ शकागुली न्यस्य रानी २२४ १३९ शक्राज्ञया विचक्रुश्च ५५० १४९ शक्रादिष्टाश्च धात्र्यास्ताः ६५३ ४८ शक्रोऽप्यूचेऽवग्रहे मे २०७ १३९ शकोऽभ्याधाद् द्रव्यलिङ्ग७४१ १५५ शक्रः शक्रस्तवे नाथ ! ६०१ ४६ शक्रः शच्येव सहितः ६६३ १०१ शङ्करं लक्ष्मिहर्म्य च १९९ शङ्कादिदोषरहितं ८९१ २८ शकुलावत् किमथवा ७१८ १३० शङ्के वो गुर्ववज्ञानान् १०० १११ शङ्ख कुन्देन्दुविमलं १४६ ३३ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. थान्तेनेवाऽऽश्रमः पूर्ण १८५ ८६ बान्तेषु प्रथमा ३५५ ११९ १२ १३३ १४१ १४२ ९९ ३४ ०१ ८७ ३५ श्रामणं गुणभारं च श्रावस्त्यां जितारिसेना २८१ श्रावस्त्यां मघवाभद्रा ३२८ बिताता राज ५९४ श्रीकान्तायाः प्राप्तकाले २०१ श्री कुन्थुनाथ भगवान् १९ श्रीदेव्या इव सर्वस्वं २२० श्रीनाभिपल्या उदरे २१० सदनात् ६३१ श्री नेमिनाथ श्रीपार्थ- ३३७ श्रीमतीदयितोदन्त ६८३ श्रीमत्यपि समं वज्र ६९५ श्रीमन्त श्रीमती बन्धु श्रीमानेशान कल्पोऽयं पोरनूपुरक श्रीरामानन्दनाराम ४७ १४३ २२ २२ ७०० २२ ६७५ २१ १९५ ६५ ६६२ १५३ श्रीविनय ! श्री सिंहभूपाल श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय श्रीसुपार्श्व प्रभो ! २६ पृथ्वी ६६० १५२ श्रुतमुद्दिशतः कांश्वित् १२४ ०५ मृतसागरपारीणी ८३६ श्रुत्वा तद् भरताधीशो ३७० श्रुत्वा तद्वचनं श्रेष्ठी ७५१ श्रुत्वा दृष्ट्वा च तल्लोके १८८ श्रुत्वेति स्वामिनस्तानि ३७९ श्रेणि प्रश्रेणिभिः सोऽष्टा ७२११०३ श्रेयांसस्तानुवाच वं ६९ ३११ श्रेयांसाद्याश्च नप्तारो ५०९ १४८ श्रेयांसोपव ३०२ ६८ श्रेष्ठिनो धनदत्तस्य ६५ श्रेष्ठोऽष्टादश्रेणि ६६२ १०१ ३० पूर्णस्य २१ २९ ष्ष्ठोऽविस्वाऽव ७५६ २४ रमारात्रि ४०७ १४५ श्व ेतच्छत्रः स चक्रे द्यां ६६ ०३ श्व तदिव्यांशुकोल्लोच ७८१ ५२ श्वेतवस्त्रधरा एते २१ १३३ १५८ १३७ मरा ६६४ १५३ ६६६ १५३ ०९ ०१ २४ ११४ ७१ ३५ श्लोक नं. पृष्ठ नं. षट्कार्मुकशतोत्सेधम् १८९ पट् खण्डमाभूषणस्य ५५३ पद भरत क्षेत्र ३४ ९८ ७५८ १०४ ५४६ १२५ ४६१ १२२ १०८ १४३ पण्डभरक्षेत्र पट् खण्डभरतक्षेत्रे पटू खण्डे भरतो दृष्टो ११ षट्पञ्चात्सहस्राणि ३५३ पद सामानिकसहरयात्म ૪૬ ४२ ७८९ २५ १०९ दादसे क ४९ षड्भ्यो भरतखण्डेभ्य: ४९ षड्योजनानि सक्रोशा १७८ ६५ *૧ पविशत्याऽब्दसहस्रं २९९ हस्वमिन्द्रियच्छेद ६३० ७८ षण्णां भरतखण्डानां ८१ ११० ef वर्षसहस्राणि १०३ ७३० १२५ ११२ पष्टि वर्षसहस्राणि ४६४ १२२ पष्टि वर्षसहस्राणि षष्टिवर्षसहस्रान्ता षष्टी वर्षसहस ९२ १११ ८२ ११० षष्ठो बलो वैजयन्त्याः ३६३ १४३ षोडशपूर्वाङ्गन्यून २८८ १४१ षोडशाङगुलजङ्घाकं ३८४ ९२ स संयोग्य साराणि १८१ ११३ संपोषजति ७७६ २४ ९११ २८ संवात संहृत्य २८० ३७ संवत्सरं जगत्स्वामी संलेखनाइयपु १४८ * २५० ३०८ संवत्सरं निराहारो संवत्सर मटन् स्वामी ९५ ८३ संबंधिताम्बुनिष संवादिन्या व्रतादाने ७११ २२ संवाहनाभिर्मासास्थि १७ ८१ संविभागो धनेष्वेव २४६ ११५ संसारवासजं दुःखं ५६७ ७६ संसारवासः कार्रव ६११ ७७ संसारस्याऽस्य गतिषु ५६० ७६ संसाराब्धा विहानेक ७६ संसारासारतां ज्ञात्वा संसारे दुःखनिलये ५५५ १९६ १३९ ५८५ संसारो दुःखसदनं ५६० संस्थानं स्वामिनस्तल्य ६६५ १९ १८ ४८ स इदानीं बाहुबलि ७८० स उक्तः स्वामिसेवार्थ' २१४ स उत्थाय जगद्भर्तुसरूपे मेरेषोऽति: सऊवींभूय पुरतः स एकवारमायातु स एष याचते दण्डं श्लोक नं. पृष्ठ स कण्डयियिषुस्तुण्ड स कम्पां विनयवर्ती स करेग गृहीत्येषु सकलं भरतं जिष्णो स कलत्रोऽथ मघवा कलाप्रतिष्ठान २८१ ६६१ २८२ ४६९ १३५ १७३ २४४ ४७० २४७ ८७३ ०१ ५८१ ६५६ ६९६ २०३ ३३ ४४ ६७ स चतुर्दश पूर्वाणि स च प्राणाधिनाथो मे ६८ ४१७ ६५९ नं. १३२ ११४ सकौतुकं वीक्ष्यमाणाः सक्षणं तं पटं प्रेक्ष्य स गच्छन्नर्द्धमार्गेऽब सगन्धर्य मुक्तहारं स गर्जति नाग स गृहीतमहाभाण्ड ४२ स गोहत्याकार इवा- ७६ सङ्क्षिप्य शक्रवन्मार्गे ४५१ सङ्गिय स्वं वपुर्भवत्या ६२६ १०० सङ्ख्यात पूर्व प्रमितं सङ्गीतकं कारयितुं सङ्गीतवदरण्यान्यां ६५० सङ्गः किम्जोरस्या ३१ १६६ सङ्ग्राम नाटकारम्भ संघर्षः कोऽयमार्थम्योः ४३६ स चक्रे पञ्चधाssस्मानं २०४ ३५ ७०६ १५४ १२८ २९ ८६ ६३९ स च सम्प्राप्यते मोक्षः ५७४ स चामराभ्यां च वार- ३५० सच्चन्द्रमिव पूर्वाद्र ७७१ जगत्वामेकभूपः सज्जयन्ती शक्रपुरं सज्जयित्व व मुत्याटय ८२३ सुजीकृतेन हस्तेन १५९ स ज्ञात्वाऽवधिना तत्रा- ५५२ सज्जातजातिस्मरणाद् ६६५ सञ्जायते नारकिक ५७२ स तदाssसनताम्बूल ०७ ६८ २१ ६८ १२२ ८५ ११३ ०९ ९५ ११५ ५४ ०१ ४६ २१ २२ ६५ ८२ ०२ ३१ १२१ x ७९ २० ७६ ७० १०४ ७२० १०३ १९२ ६५ ५३ ११३ ९७ २१ ७६ २९ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक नं. सतावच्छू यते देवा स तु पुष्पादपि मृदु स तो जगाद पीयूष सत्कृतोऽनेकशोऽप्येष २५२ सत्कृतः कृतिना योऽच २८३ सषिः प्रदक्षिणीकृत्य ८१९ १२ सत्वानां परमानन्द सदध्याविति युक्तोऽस्य २९ सदा युग्मवरी कान्ती १७४ सदा भ ७१७ सदा संमितास्तीवन ४८० सदा संस्तुतमध्या ७३९ सदा सदाचारनदी ३८ ०२ सदा सन्निहिता यक्षा ४४१ ९४ १८३ ३४ सदैव शुशुभाते तो सदः सदनमेतत्ते ४८७ १६ सबोधिमुक्ताजननीं सब्रह्मचारिणनिये पृष्ठ नं. २७६ ११६ १३२ ११२ १४७ ६४ सद्यश्च तत्र समव ३२९ सद्यः स्फुटद्गण्डगजस घोतांशुकभृत् त्यक्त सनत्कुमारोऽब्दलक्ष सनत्वा तमुवाचैव १८३ स नाभिरिव धर्मस्य ८४१ सन्त्यज्य राजचिह्नानि ५३४ सग्नाहग्राहने केऽपि १३८ ११८ सन्नाह्याऽऽरुह्य केऽप्यश्वान् ७५ सभायां तस्य सामन्ता समं च मिलितास्तेन समं मुनीनां दशभिः समं राज्ञोऽर्द्ध संग्येन २५९ ३४७ ८५ २६ ०१ २९ ३४ १०३ १६ २३ ५२२ १७ ३३७ ११८ स पञ्चाशत्सहस्रं तु ४५२ १४६ स पूर्वभवसम्बम्बाद सप्तधातु विनाभूत १०१ ६३ सप्तमो बलदेवस्तु ३६४ १४४ सप्तमोऽभूत् कुलकरो २०६ ३५ सप्तवर्षसहस्राणि ३१७ १४२ सप्ताऽभूवन्नहोरात्रा ४३९ ९४ सप्रसादो जगाय ४०२ १३ स प्रावृषि महाशझा- ७६२ १३१ सब नामोऽपि ८१८ २६ स बाणान् बाणधीन केचित् १४० ११८ ८३ १४२ ८६ २६ ९९ २७ ६० समं हर्षविनयाम्या- ७७५ १०५ समक्षं सदामस्यो ८९ समग्र जगदिष्टाया ७१३ ०९ १३० १७३ ०६ समचतुरलाकारां ५१६ ९६ समन्तान्मन्त्रान्तैः २७३ ०९ समस्तभुवनेशेवं २६८ १४१ स महार्घ्याणि रत्नानि २३२ समागत्य दिवो देवा ४४५ समा जातिः समा विद्या ५२ समाधिभाजस्ते पच ७८८ समानमानस तया ६० समापतन्तं किं काले ८०३ समासहस्रतिय ३१९ समास्फलन्त्या सह्याद्री ६६७ समाहारा प्रदता २९१ समाहितः स्मरन् पञ्च- ४५९ दिनम ८७० ३६ १८३ ११३ ८२० २६ २११ १३९ २२३ ११५ २३ ७२८ ४६१ १४७ २६२ ८९ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ६१६ समं वीणामृदङ्गादि समं सुरवररम्भ समुदाय ततोऽप्येष समुल्लङ्घ समुल्लङ्घ स मृगेन्द्रासनं तत्र समेश्वपि हि मार्गेषु सम्पद विषयक्रीडा ४९५ ४०३ ६७६ ८८ १४६ ३० २५ ३० १०५ १४२ १२८ ३७ १५ ५४ १६ ४० १०१ १०८ २९ ३६ २५३ सम्परायरयाद् वीरान् ४८३ सम्पूर्णलक्षणः सर्व सम्प्रधार्येति हृदये २१० सम्प्रविष्टः श्रमादन्त - ६२ सम्बोध्यैवं ददौ गौरी १७० ८९६ सम्भूय ऋषभनाथं सम्भूयाऽऽलोच्य सर्वेऽपि १२२ ६३ सम्भ्रमादुल्ललन् लोल २७९ ६८ सम्भ्रमेण प्लवमानंः ८७७ ५४ २५३ सम्मुखालोकनेनानु ११६ सम्मुखमुखमन्योऽम्य ५७९ १२६ सम्यक्त्वमूलानि पञ्चा. ६२५ सम्यक्त्वयन्तायलोण सम्यग्दर्शनमित्युक्तं ७८ २३३ ६६ ६१५ ७७ सम्यग्दर्शनमेतच ६०५ ७७ ०९ स रराज नवो राजा २६९ ५१ सरलाङ्गुलि पत्राभ्याम् ७४५ सरसां सरितां चाऽऽप ८० ०३ सरसामापगानां च २०८ ०७ ३० १२३ ८८ १३९ ८२ ६४ ५५ सरसीव द्विपस्तत्र २६७ ०९ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ६६७ १०१ स राजानं नमस्कृत्य ३०२ ११७ स राज्यभारमुद्वोढुं सरावसम्पुर्ण साग्नि सरित्पतिमंदाकि सरिदोष इव ग्रीष्मा सर्पता सन्निदानेन सर्पारिकेतुनगरं ८४२ ५३ २४४ ३६ ७३४ २३ २५९ ११६ १८८ ६५ सर्व कल्याणसंसिद्धो सर्वतोऽप्यात्मनो मृत्यु १६४ सर्वतोभूषयामास ५३० सर्वतो मिलिताः संभ्या १६२ सर्वतः स्वर्णरचितं सर्वत्राऽप्यप्रमनाना सर्वया त्यजनीयेय सर्वथाश्लाघ्य एवाऽह सर्वच स्वप्रमादेन सर्वदाचिष्ठितं यक्ष सर्वदा सन्निधानस्थेः सर्वदुःख परित्यक्तः सर्वभावेषु मूच्या सर्वभावेष्यनित्यत्वे सर्व भाषानुगामिन्या सर्वमप्याप्यते वस्तु सर्वमेकपदे नाथ ! सर्वलोकातिशायिन्या सर्वशाखानुसारेण सर्वसंहारोराज्य सर्वसाद्ययोगानां १४२ ०५ ११३ १४९ १३८ सर्वामरकुसुम सर्वाण्यैको बज ८५ १६१ १३९ ११२ ७३६ १३१ २३४ ११५ १३४ ०५ ३०६ ३१ ४८९ ६२३ ३८० १८६ २३७ ८७ ६२९ ३३ ५९ ४५६ ६१७ ९० ८१ १४७ ७८ १३ १३८ ११५ ६२ २० २९ १३४ १५ सर्व सावद्ययोगानां ७७ २०० ६५ सर्वसिद्ध स्तुतं चैन सर्वाङ्गपुष्पाभरणा ६९६ १५४ सर्वाङ्गनुभगा पुण्य ७५४ ५१ सर्वाङ्गीणं कृमिकाष्ठा- ७३५ सर्वाङ्गीणं च विन्यस्त- ५०८ सर्वात्मना तीरखागा- ६२४ सर्वापरविमानान ३४२ ३९ सर्वामयोपशमनी ७८ ५१८ ९६ २९९ ६८ सर्वे कुरुध्वं सम्भूय सर्वे तत्रायुर्वन्धु ०९ १०८ ५५६ १२५ ९३ १११ सर्वे सर्वोजसा कृष्ट्वा ५६२ १२५ सर्वोन्मान महारोग स लक्षयोजनच्छायो १४६ ४३५ ३३ ०२ २३ १६ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ واع श्लोक नं. पृष्ठ नं. सल्लकीपल्लवभ्रान्त्या ७६९ १३२ सशील प्रियया कोऽपि १०१२ ५८ सकीलगतिभिर्यान- ४९३ ७४ सलिलींचमुच्चं च ९४ ०४ स वदान्यो ददौ स्वर्ण १५१ १३७ सवयोभूय सम्भूया ६६६ ४८ स विंशतिसहस्राणा- ७२६ १०३ स समालोक्य तं बाण ४६९ ९५ ससम्भ्रममयोत्याय ५२ ससैन्योऽपि सुखेनैव ३२४ सस्नुः केऽप्येकतस्तत्र ७५ सस्यक्षेत्ररिक्षुवाटै ९८२ स स्वयं सम्भृतः पुण्य- ४६० १५ सस्वर्णकटिसूत्रं च ५९४ ४६ सहकारफलास्वाद ४१२ १४५ सहकारलतां मन्द ९९२ ५८ सह चम्वा चमूनाथ २६६ ८९ सहपांशुक्रीडिनस्ते ७२६ २३ सहसाऽऽसनकम्पोऽभूत् ७३९ १५५ सहस्रपत्राण्यजानि ४५२ ७३ सहस्रमूर्द्वानमिवे- ४०० १४५ सहस्रमेक वर्षाणा ३५७ १४३ सहस्रयोजनोत्सेधो ३८७ ४० सहस्ररोचिषो रोची ६१ ११० सहस्रशश्चाऽऽत्मरक्ष ७३ ११० सहस्राक्षः सहस्राङ्ग ३८२ ४० सहस्राणि तु चत्वारि ४५३ १४६ सहस्रारः सह सुरैः ४४० ४२ सहस्रोनद्रोणमुख ७२४ १०३ सहायो निःसहायस्य ५० १३४ सहितः श्रमणगुणः ०२ १३३ सहैव पाणिमोक्षण ८७२ ५४ सहोद्वोढुं प्रकृतयो २२१ ८७ सांवत्सरिकदानेन ८०३ २५ सांसारिकसुखान्येवं ७१४ सांसारिक सुखोत्पादि ६२२ सागरोपमकोटीनां ५८४ सागरोऽपि जगादेव. ८८ ३१ सागरो व्याजहारवं १०० सा गुहा सञ्चरन्तीभि ३१२ सा तेनाऽशोभि गर्मेण २५१ सात्मस्त्रीकं हनिष्यन्ति २१६ ६६ सादिभिर्यिमाणोऽपि ३० १०८ सादिवीरकराग्रस्थाः १५९ १३७ श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. साधवः पुण्डरीकाद्याः ६५५ ७९ सिद्धानां सिद्धिस्थानेषु ८८४ २८ साधितं भरतक्षेत्र २७२ ११६ सिद्धायतनकूटेन १८१ ६५ साधु दूत ! त्वमेवैको १२२ १११ सिद्धार्था पूर्वदिक् सूर्य ६५७ १५२ साधु षट्खण्डभरत ४४२ १२१ सिद्धिमन्त्रमिवादाय ३०५ ११७ साधु साधु महासत्त्वे ! ७९५ १०५ सिद्धिसम्प्राप्ति साधु साधु स्वयम्बुद्ध ! ३२५ ११ सिद्धार्थ ! ६७७ १५३ साधु साध्विति सानन्दं ७४१ १३१ सिन्दुवारेण दुरि ९९८ ५८ साधूनां कोटि सङ्खधानां ४४२ १४६ सिन्दुरारुणितैः कुम्भ- ८३ ११० सान्तःपुरपरीवारो ४६५ १४७ सिन्धुदेव्या नरदेवो २२६ सा परम्परया ज्ञात्वा ५५२ १८ सिन्धुसागरवैताउच २४९ ८८ साऽपश्यत्तीर्थकुल्लक्ष्मी ५२८ सीतानद्युत्तरतटे २२७ सा पाणिवत्समतला ३२३ सुकेशि ! केशाभरणं. ७८८ ५२ साऽपालयन तां सम्य- ५४२ सुखितोऽहं दुःखितोऽह-३४८ साऽभूत् प्राकाम्यशक्तिश्च ८५७ सुखेतरस्तं विषयो- ४१६ सामन्ताद्याश्च ये तस्य ३१४ । सुगन्धिदीर्घनिश्वास ४०९ सामानिकानां दशभिः ४९४ । सुगन्धिभिः पवित्राम्बु २४ सामायिकं च देशाव. १९१ ०७ सुगन्धीदं सुगन्धीदं १०३० सा मुमोच न मूकत्व ६४१ २० सुचिरं चञ्चरीकन्ति ४०२ सारथिम्यो द्रढीयांसि ३४४ ११८ सुचिरं निरतीचारं ५२१ सारसंन्यपरीवारो २६ १०८ _सुधाधारोपमा हारा- ५९० १५० सा राज्ञः सकला सेना ६३४ १०० सुधासोदरवाग्ज्योत्स्ना १८ ॥ साऽऽरुह्य क्षपकश्रेणि ५२९ ७५ सुषोपमगिरा भर्तु ३१८ ११७ सा रेजे गन्धकाषायी ५४० सुनन्दानन्दनमुने ७४९ १३१ सार्थवाहस्ततोऽचालीत् ६३ सुनन्दासूनुना दण्डो ६९० १२९ सार्थवाहो धनस्तस्मिन् ४५ सुन्दरे ! नन्दनाऽऽनीत ८३६ ५३ सार्थवाहोऽप्युवाचवं ५४ सुन्दर्यपि हि वन्दित्वा ७८७ १०५ सार्थवाहः सार्थदुःख १०६ सुपरीक्षितसत्त्वानां ९३१ ५६ सार्थस्याऽने धनः पृष्ठे ६५ ०३ सुपर्ण इव सर्पस्य ११९ ८४ सार्थोऽपि रोदसीकुक्षि २१९ ०८ सुपर्ण मन्यमूत्यैव ३९२ सार्वानि वर्षलक्षाणि ३०५ १४२ सुप्तोत्थितस्य तस्याऽथ २०५ सावधयोगं सकलं ७४ ६२ सुबुद्धि बालसुहृदं ४२० सावद्ययोगविरतो १७८ ०७ सुबुद्धिनवं कथित ४२४ १४ सावधविरतास्ते हि ३५ १३४ सुबुद्धिविदधे नित्यं ४२१ सास्तीह मन्ये लिखितं ६८१ २२ सुबुद्धिश्रेष्ठिनाऽप्यक्षि- २४६ ६७ साऽस्तु तावत्तव सुधा ६०७ सुबुद्धिवेष्ठिना यच्च ३२७ सिंहकणिकया मुष्ट्या ९९ ८४ सुमङ्गलां सुनन्दां च ७९६ सिंहद्वारं नृसिंहस्य ६७ ११० सुमङ्गलासुनन्दाभ्यां ८७९ ५४ सिंहनादो बाहुबले. ६०६ १२७ सुमङ्गलासुनन्दे च ७६५ ५१ सिंहपुरे विष्णुराज २९७ १४२ सुमित्रहिमवत्पद्म ६७३ १५३ सिंहः सहेताऽऽलानं चे- २३५ ११५ सुमित्रादशरथभू- ३५५ १४३ सिंहासननिषण्णस्य ३८५ ४० सुमेरुशैलोद्यानेषु २२९ ६६ सिंहासनादथोत्थाय १५२ १३७ सुयशाः शिश्रिये वज-७९६ सिंहासने निवेश्योभा- ३०७ सुयशाः सारथिः सोऽपि ८३५ सिंहासनेऽहत्स्नात्रा, ४३० ४१ सुरद्रुपुष्प निर्यास १६ ८१ सिद्धादेशं प्रभो रेवं १० ६० सुराऽसुरनराधीश २१ ०२ .. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ८४ श्लोक नं. पृष्ठ नं. सुरासुर नरोपास्त्या १४६ ११२ सुरासुरनृपश्रीभि १२४ १११ सुरासुरमनुष्याणां ५०० १४८ सुरासुरमनुष्येषु २३२ ११५ सुराः केचिन्मणि स्वर्ण ५४९ ४५ सुरेभस्य प्रतीभः को ? १४३ ८५ सुरैः सञ्चार्यमाणेषु ६५ १३४ सुवर्णदण्डहस्तेन ३५२ ७० सुवर्णवज्रमाणिक्य सुवर्णवेदिकास्तत्र ७७२ ५१ सुवर्णसारसर्वस्व ५४१ ४५ सुविकृष्टतपःकर्म ८८९ २८ सुवेगोऽगादनिमित्ता ३५ १०९ सुवेगो धर्ममालम्ब्य १६० ११३ सुवेगोऽपि जगादेवं २१३ ११४ सुव्रता प्राग् गिरि तटी ६६८ १५३ सुश्लिष्ट काष्ठ घटितान् ९३० ५६ सुषमा दुःषमा ते द्वे ११४ ३२ सुषेणाभिधमन्येा २४८ ८८ सुषेणे निघ्नति त्रेसु ४०२ ९३ सूक्ष्मेण काययोगेन ४८६ १४७ सूतिकाभवने तस्मिन् ३१७ ३८ सूत्रस्यार्थस्योभयस्या- ९०० २८ सूदांश्च स विषष्टीनि ६६१ १०१ सूदाध्यक्षरथाऽन्ये द्यु २३७ १४० सूनोश्चन्द्रातपच्छाय ४९२ ७४ सूनो: पुष्कलपालस्य ६९० २२ सूनोः प्रसेनजिदिति १८७ ३४ सूपकारा न कि सन्ति ७३६ १०३ सूरयोऽप्यूचि रेऽस्माकं १३१ ०५ सूरान्वयवियत्सूर ! ६७० १५३ सूरिरूचे फलादीदृग् ६० ०३ सूरिर्बभाष योगेन १३५ ०५ सूर्य सन्ध्ये इव प्राची ८८८ सूर्यांशुभिः शुष्कपङ्का: २०९ ०७ सूर्यात पान्नोद्विजते २७२ सेक्षुयष्टि: सुनासीरः ६५६ ४८ सेनाङ्गानीव चत्वारि ७८६ २५ सेनानी रुक्तवान् युक्तं २५४ ११६ सेनानीस्तेन दण्डेन २९५ ९० सेनापतिगृहपति- ६८१ १०२ सेनापतिगृहपतिः ७११ १०३ सेनापतिप्रतियो ६८८ १०२ सेनापतिरथ स्नातः २८८ ८९ श्लोक नं. पृष्ठ नं. सेनापतिः सुषेणोऽयं ३०७ ११७ सेवया चाऽस्य वैताढ्य १६० ६४ सेवाऽपि हि विधातव्या ८३३ १०६ सेवामपि कथं कुर्मो ८२५ १०६ सेवामात्रेण चाऽमुष्य १६१ ६४ सेवाऽस्मिन् भ्रातृसौहार्द १४४ ११२ सैन्यान्याष्टापदायोध्यं १५७ १३७ सैन्यद्वितयवीराणां ३२६ ११८ सैन्यभारपरिक्लान्तां ४८३ ९५ सैन्ये प्रत्याश्रयं दिव्य ४३ सैन्य भूषण भा: पुञ्ज ५२० सैन्योद्भूतरजःपूर ५९७ सैन्योद्धृत रजःपूरैः ६८१ १५३ सोऽकरोत् कृतमालस्य २४७ ८८ सोऽङ्गदे निदधे बाहु-५९२ ४६ सोऽङ्गारानलसन्तापा ८३७ सोऽज्ञासीदवधिज्ञाना- २४० ८८ सोऽत्रापि दृष्ट्वाऽवफल ४१९ १४ सोऽथ प्राप्तः शरवणं ७०१ २२ सोऽथ राज्ञ उवाचैवं ५६१ १२५ सोऽथ सुप्तोत्थित इव ४७० १५ सोऽथ स्वसुनोविज्ञ- ५६ ३० सोऽथैतच्चिन्तयामास ५३४ १७ सोऽथैवं चिन्तयामास ७०२ १२९ सोदरां बाहुबलिनः ७३३ १०३ सोदयौं तो मुनी ज्ञात्वा ७०४ २२ सोऽदाद् देवद्रुसुमनो ४७३ ९५ सोऽन्तःपुरनिकेतान्त ७१७ १५४ सोऽन्यदेशानचन्द्रस्य ०६ २९ सोऽपि द्वितीयपौरुष्या ४२३ १४५ सोऽप्यूचे प्रजिष्यामि ४३० १४ सोऽप्येवं चिन्तयामास ७४२ १३१ सोऽवन्दताऽऽचार्यपादान १२५ ०५ सोऽवबुध्याहतं धर्म' ४४० १४ सोऽवरुह्य गजात् तस्मा १७० १३८ सोऽशेषं साधयामास ८१३ २५ सोऽसारान विषयान् प्रोज्झ्य २७५ ०९ सौदर्या इव सम्भूय ७३१ सौधर्मकल्पदेवानां ३९८ सौधर्मकल्पाऽधिपतिः ९०५ सौधर्मेश: क्षीरसिन्धौ ७२ ६२ श्लोक नं. पृष्ठ नं. सौधर्मोत्तरतस्तिर्यग्- ३९३ ४० सौवर्णं घूपदहनं २८९ ८९ सौवर्णकर्णताडङ्क १०० सौवर्णान् ग्राहयामासुः ३४९ ११८ सौवर्णान् राजतान् रत्न ४७७ ४३ सौवणे धूपदहने ३६९ ११९ सौभ्रात्रं कारणं तस्य १२६ ११२ स्कन्धदेशोपरिष्टाच्च ५२४ ४४ स्कन्धावारपुरग्रामा ५७४ ९८ स्कन्धावारादि निर्मातुं ४४ स्तनितानां सुघोषश्च ४६३ ४२ स्तुति पठित्वा मधुरा ५१६ ४४ स्तूयमानो मुदोत्तालः ६३६ १०० स्तोतुं तमाद्यमहन्तं २२२ ३५ स्त्यानीभूय पयांसीव २१ ८१ स्त्यानो नु स्तम्भितोम्वासीद् २९४ ६८ स्त्रीकथाभिर्गीतनृत्त- ३०५ १० स्त्रीरत्नयोग्यं तिलक २४२ ८८ स्त्रीराज्येनेवाऽऽगतेन ६९३ १५३ स्थानं विहाय साधूनां ४६९ ७३ स्थानस्थ दीपिका हैम्न्य ६०९ १५१ स्थाने स्थाने काकचिल्ल ३४७ ९१ स्थाने स्थाने कृतास्थाना: १७ २९ स्थाने स्थाने सिन्दुवारैः ४०४ १४५ स्थापयित्वा रथं तत्र ४७८ ९५ स्थालान्युक्षिप्य पूर्णानि ६४८ १०१ स्थासकान् स्थापयामास ०५ ८१ स्थित्वा सिंहासने भूयो १५३ १३७ स्थित्वाऽस्य पार्श्वतो वह नेः ९४५ ५६ स्थूलमुक्तामणिमयं ३५७ ७० स्थूलसूक्ष्मप्राणिवधा १७ १३३ स्थूलानामितरेषां च १९५ ०७ स्थर्याद्रवज्रसारस्य ५०५ स्नपनेनाङ्गरागेण ३३५ स्नपयामास तत्तोयैः ०४ । स्नपयित्वाऽतिविच्छी ५८४ ४६ स्नानाङ्गरागनेपथ्य ३१३ ६९ स्निग्धया पल्ल वयन्ती-६३१ २० स्निग्धेन्द्रनीलघटिता ४२८ ७२ स्पर्द्धयेव मिथः सर्वे १८५ ११३ स्पर्शनं रसनं घ्राणं १६५ ०६ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. स्पृष्टं तच्चक्रिहस्तेन ४२७ ९४ स्फटिकद्वारशाखासु ७७६ ५१ स्फटिकोपलकूलेषु ८३ १३५ स्फाट्यमान स्त्रिशल्यैश्च १६३ ११३ स्फूर्जद्वितर्कसम्पर्क ४७३ स्मरन्तः स्वामिनः पूर्व ७८ ६२ स्मररूपाधरीकर्ता २६ २९ स्मारं स्मारं स्वामिपादान् ६८३ १५३ स्मारयन्तिश्चरित्राणि ३६१ ११९ स्यन्दना इव केचिच्च ५६१ ४५ स्यन्दनाश्वरथारूढः २६४ ११६ स्युरेकाक्षविकलाक्ष १६० ०६ स्वकर्मदूषितायाऽस्मै ४७ १३४ स्वकर्मपरिणामे नो ५६२ १८ स्वके स्वके निकाये च २२६ ६६ स्वगृहेऽपि न यस्याऽऽज्ञा १६ १०८ स्वच्छन्दं जाह्नवीतीर ७२ ८३ स्वच्छन्दं तस्य विषय २८४ १० स्वच्छन्दं म्लेच्छसैन्येन ३७६ ९२ स्वच्छन्दवृत्तीनत्याधा श्लोक नं. पृष्ठ नं स्वर्गापवर्गयो राज्यं ७७२ १०४ स्वर्णकुम्भभृता श्वेता- ३० ८१ स्वर्णदण्डधरेणाऽग्रे ७५ ११० स्वर्णमाणिक्यरजत ७७० ५१ स्वर्णरत्नशिरस्त्राण ४०८ १२० स्वर्णरत्न शिलाभिश्च १०७ १३६ स्वर्णाभोऽरी गजपुरे ३१२ १४२ स्वर्णाभः पूर्वल झाऽष्ट २८४ १४१ स्वशक्ति ये न जानन्ति ७५१ १३१ स्वशरीरे स्वसंवित्ते- ३४९ १२ स्वसंवेदनवेद्योऽय- ३४७ १२ स्वस्तिकानुत्तमान् द्वार ७८७ ५२ स्वस्त्यस्तु भरतादिभ्य-१५६ ६४ स्वादुमद्यानि मद्याङ्गा १२२ ३२ स्वान्यचक्रभवेनान्त: ५८ १३४ स्वाभाविकै क्रियश्च ६८४, १०२ स्वामिस्त्वमेको जगतां ८१४ १०६ स्वामिदर्शनहुष्टानां ५२५ ७५ स्वामिदाक्षोत्सवेनाऽऽसी ६४ श्लोक नं. पृष्ठ नं. स्वामिनो भूसविभाग १३४ ६३ स्वामिनो रमणायके ६७२ स्वामिनो वचसा तेन ०३ स्वामिनो वज्रसेनस्य २८६ स्वामिनः कुञ्जरस्येव ६९९ स्वामिनः कुलकृन्मात्र २३० स्वामिनः खेदविनोदः ६७८ स्वामिनः पादयोर्लक्ष्मी ६८८ स्वामिनः पावं योरन्यौ ४२१ । स्वामिनः शिक्षया दक्षो ९७३ ५७ स्वामिनः संशयं युद्ध ५४८ १२५ स्वामिनः सेवकः कश्चि- १५० स्वामिनः स्मेर वक्वेन्दुः ५८८ ४६ स्वामिन् ! क्व धी दरिद्रोऽहं ४७८ ७३ स्वामिन् तमिस्रा द्वारेऽस्मिन् २४१ ८८ स्वामिन् ! धरधरावीश ६५९ १५२ स्वामिन् ! न किञ्चिदस्मभ्य ९४८ ५६ स्वामिन् ! मागध तीर्थेऽस्मिन् १४७ ८५ स्वामिन् ! विश्व जनीनेन ६४७ १५२ स्वामिन्निह भवारण्ये ६४२ ७८ स्वामिन्नुत्तरदिक्प्रान्ते ४७५ ९५ स्वामिन्नशान कल्पोऽयं ४७५ १६ स्वामिन्यपीन्द्रः स्वप्नार्थ- २५० ३६ स्वामिन्यभूत् तत्प्रभावाद् २६० ३६ स्वामिन्येवं विधेऽ प्यस्मिन्- ८२६ २६ स्वामिपादप्रणामाव ५५३ ४५ स्वामिपादानसौ स्मृत्वा ६९१ १५३ स्वामिपादाब्जवन्दारु ५२४ ७५ स्वामिपारणकाद्देव ३०३ स्वामिप्राग्भववर्णनम्- ७५६ १५६ स्वामिभक्ति सुधासिन्धु २८८ १० स्वामिविश्वाससर्वस्व ७२ ११० स्वामिशिक्षा दौत्यदीक्षा २५ १०८ स्वामिसेवातरुफल १७३ ६५ स्वामिसेवाप्तमेवैतद् १६९ ६४ स्वामिनं पूजयिष्यामि ३७१ ७० स्वामिनं प्रणिपत्याऽथ २२३ १३९ स्वामिनं मरुदेवां च २८९ ३७ स्वामिनं रमयामासुः ६७० ४८ स्वामिनं सेवमानौ तौ १४६ ६४ स्वामिनमागमययो ७५९ १०४ स्वामिना कस्य मन्त्रेण ५४४ १२५ स्वामिनाऽतिप्रसादेन ७६० ५१ स्वामिनाऽधिष्ठितस्याद्रे-५५२ ४५ स्वामिना प्रतिषिद्धोऽस्मि२०३ १३९ स्वामिनायो हि सङ्ग्रामो ५४५ १२५ स्वामिना वचनाभेन ८४२ २६ स्वामिना वासयाञ्चक्रे ९०७ ५५ स्वामिना सममस्माभि-१२१ स्वामि निर्वाण कल्याणा-४९३ ।। स्वामिनी मरुदेवाऽपि ६४७ स्वामिनी मरुदेवाऽपि ४९० स्वामिनी स्वामिने स्वप्नान ८८७ ५५ स्वामिन्नषभनाथेति ३७८ ११९ स्वामिने ढोकयामासु ९९ ६२ स्वामिनो जन्मनः किञ्चि ६५४ ४८ स्वच्छशीतजलापूर्णा ५८५ १५० स्वतोऽपि द्वन्द्वयुद्धेच्छु: ५२२ १२४ स्वदेशसीम्नि दूरेऽपि २९७ ११७ स्वप्रतापमिवाऽसह्य ७०४ १०२ स्वप्रतिस्पद्धिनां वारि ७०४ १५४ स्वप्ने स्रग्दर्शनात् पुण्य-२३५ ३५ स्वबुढ्या कल्पयित्वैवं २३ १३३ स्वमप्यसंस्तुतमिव ४०६ ९३ स्वमुत्तरीयं व्यजनी- ६५७ १२८ स्वयंप्रभादींश्च भवान्- २८८ ६८ स्वयं भोगाथिभिः स्वामी ३२८ ११ स्वयं शब्दायमानेन ६३ १३४ स्वयम्प्रभाऽपि दुःखार्ता ६२७ २० स्वयम्बुद्धस्ततोऽवादीन् ३४६ १२ स्वयम्बुद्धोऽप्युवाचैवं ४५० स्वयम्बुद्धोऽब्रवीद् वस्तु ३९० १३ स्वयम्बुद्धः स भगवां- ८०५ २५ स्वयम्भूरमणस्पर्डी १६ ०१ स्वराज्येनाऽन्य राज्यश्चा ८२१ १०६ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. स्वामिस्नात्रजलं तच्च ५२६ ४४ स्वामिस्नात्रे हरे रिक्त ५३६ ४५ स्वामीत्यूचे कुरुतवं ९५१ ५७ स्वामी मनसि कृत्यैवं २४३ ६७ स्वामीयन्तस्तमन्येऽपि १०८ १११ स्वामी सामदानभेद- ९५९ ५७ स्वामी भूयोऽप्यु वाचैव २०० १३९ स्वामीयन्तोऽक्षमस्ते तु १४३ ११२ स्वामी समवसरणे ८१७ २६ स्वामी सम्प्राप सायाह्न ३३५ ६९ स्वामी स्वयं विधिज्ञोऽथ ८३० ५३ स्वाम्यगाद् यत्र नो तत्र ६८८ ८० स्वाम्यपि व्याजहारैवं २०५ १३९ स्वाम्यपीत्यवदद् राज्य ०८ ६० स्वाम्यप्यवधिनाऽज्ञासीत् श्लोक नं. पृष्ठ नं. हनिष्यते वराकोऽयं १५८ ११३ हरिचन्द्रान्वयेऽभूस्त्वं ४४२ १४ । हरेः स्नपयतः कुम्भा ५३१ ४४ हर्ष स्वराभ्यां युग्मिभ्या-१६९ १ हंसीभूयाऽपरे चेरुः ६७३ ४८ हस्तविन्यस्त चिबुको ३७० ७० हस्तसंपुटमध्यस्थ ८४८ हस्तिदर्शनतो देवि ! २३५ ३५ हस्तिना तेन हस्तेना- १४३ ३३ हस्तिमल्ल इवैकाङ्ग ५२३ १२४ हस्तियायिन्नितो याहि ३९४ ४० हस्तिरत्नं समारूढः २९९ ९० हस्तो मतङ्गजस्येव ६०५ १२६ हस्त्यश्वादि स गृह्णाति ३१५ ६९ हाकारदण्डनीत्यैव १७१ ३४ हाकारनीति माकार- १९२ ३४ हा तात! हा जगद्वंधो! ५०३ १४८ हा त्वया दुष्कृतमिति १६३ ३३ हा प्रिये ! हा प्रिये ! क्वाऽसि- ५१९ १७ हारप्रान्तेषु चाऽभूवन् ५९१ १५० हारमारोपयामासु ८१८ ५३ श्लोक नं. पृष्ठ नं. हारमुत्तारयामासा ७२७ १५५ हाहारवो महान् जज्ञे ६३१ १२७ हित्वा पुत्रकलादि ७९ ६२ हिमत्तौ हिमसम्पात ५०० ७४ हिमत्तौं हिमसाद्भूत ७६५ १३१ हिमाचलकुमारादि ३९२ १२० हिमाचलकुमाराय ४६७ ९५ हुं ज्ञातमथवा ते हि ५०७ १४८ हृत्वाऽनुजाना राज्यानि ४९७ १२३ हृदयान्तरिवाऽर्हन्तं ४२८ ४१ हृदयेन समं तस्य ६०९ २० हृदये प्राग्भवज्ञान ६३५ २० हृद्यङ्गरागं चक्रेऽथ ५६८ १२५ हृष्यन्तः स्वामिनः स्थाम्ना- ५७० १२५ हेमारविन्दमुकुल ६९४ ४९ हे मित्र ! हेतुना केन ७७ ३१ हेयादेयविवेकज्ञी ९८३ ५७ हेषाबृंहितचीत्कार २८० ११६ हैमनीषु हिमप्लुष्ट ७६६ १३१ हैयङ्गवीनपिण्डस्य ८६० ५४ ह्रदेभ्यो ह्रदिनीभ्यश्च ६७२ १०१ स्वाम्यप्यूचे स्निग्धरूक्ष-९४४ ५६ स्वाम्यसौ स्वाम्यसावेवं ५५ स्वाम्यादेशादथाऽऽमात्य १२ हत्वा धातीनि कर्माणि १७६ १३८ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षयतृतीयापर्व अक्षीणमहानसद्धि ढये उत्तर श्रेण्यां पुरी) अग्निमाणव (लम्पिः ) अक्षीण महालय afग्नकुमार (भवनपति विशेषः) २ ४६२ ४२ अग्निकुमारक ( भवनपति प्रकार: ) ६ ५४९ १४९ अग्निज्वाला (वैता अङ्गारकारक [अ] अच्युत देवेन्द्रः अच्युतनाथ अच्युतपतिः अच्युतः अच्युतेन्द्र: ( द्वादश कल्पेन्द्र :) श्लोक नं. पृष्ठ नं. कुमारेन्द्र २ २ ४६२ ४२ अग्निशिख (अग्निकुमारेद्र) २ ४६२ ४२ अग्निसिंह (दत्त पिता) ans (पम्प) अचल (प्रथमो बलदेव) अचिरा (शान्ति २०१ ६८ ६ ३५२ १४३ ६ ५९४ १५० ४ ६२३ १०० ४ ८३५ १०६ ४ ८३६ १०६ ४२९ ७२ अच्युत (अच्युतेन्द्रः ) ३ अच्युतकल्प १ ७८९ २५ अजित (द्वितीय जिनः ) १८७१ २७ १ ८७२ २७ ३ २०३ ६५ २ ५३९ ४५ २ ५३८ ४५ द्वितीयं परिशिष्टम् त्रिपष्टि - प्रथमपर्वगत- विशेषनाम-सूचिः ॥ लोक नं. पृष्ठ नं. २ ५७० ४६ २ ४९७ ४३ २ ५४२ ४५ २ ४७५ ४३ २ ५०२ ४४ २ ५०४ ४४ २ ५१६ ४४ नाथजिन माता) ६ ३०८ १४२ ६ ६६९ १५३ ६ ३५८ १४२ अजितः (द्वितीय जिनः ) अजिता (द्वारपाल अञ्जनाचल (गिरिविशेषः) अञ्जनाद्रिः अतिकाय (महोरगेन्द्र : ) अतिविसंविभाग देवी) ३ ४४९ ७३ व्रतम् (चतुर्थं शिक्षाव्रतम् अतिपाण्डुकम्बला (मेरी शिला) २७८ १४१ २८० १४१ ६ ३६० १४२ ६ ६५५ १५२ ६ अनन्तानुबन्धि ६ ४०७ १४५ २ ६३७ ४७ २ २ ६४३ २ २ ४६८ ४२ ३ ६३९ अतिबल (भरत सन्ताने राजा) अन्तर्वेदिदेश: अन्तरकरण (अध्यसायविशेषः) ३ * ६४० ४८ ४८ ६३२ ४७ ६ २ ४२९ ४१ २ ९०५ ५५ १ ४०२ १३ ५ अन्तराय (अष्टमः कर्मभेदः) ३ ३ ७८ २५११४० ५७२ १२५ ५९३ ७७ ७१ ३९५ ५८३ ७७ २३५ ८ १२६ ३२ १५७ ३३ १ ३०४ १४२ ३०७ १४२ अनग्न ( कल्पद्रुमः) १ २ २ अनन्तजित् (जिनः ) १ अनन्त (जिनः ) ६ ६ ६ ३४७ १४३ ६ ३६७ १५३ ( कषायप्रकार: ) ३ ५९९ ७७ ३ ६०२ ७७ ३ ६०९ ७७ अनर्थदण्डस्याग (तृतीयं गुणव्रतम् ) ५ अनार्या वेदा: (शास्त्राणि ) ६ २५६ १४० अनिन्दिता (अधोलोक दिककुवारी) २ २७४ ३७ अनिमिषविष्टप वैता उत्तर पुरी) ३ अनिवृत्ति (नवम गुणस्थानम्) अनिवृत्तिकरण (अध्यवसाय विशेषः) २ अनुकम्पा (सम्यक्त्वस्वलक्षणम्) श्लोक नं. पृष्ठ नं. अपराजित (ता दक्षिणश्रेण्या अनुत्तरविमानोपपाति ( साधवः ) अनुसर अनुसरविमान अनुत्तरसुर (अनुत्तर विमान देवः) अनुतरस्वर्ग (स्वर्गविमान विशेषः) अनेकान्तमत (स्था द्वादसिद्धान्तः) अपरविदेह (क्षेत्रम् ) २ अपराजिता (द्वारपालदेवी) " ३ ३९३ ६२५ ६ २०३ ५९३ नगरम् ) ३ ७७ ३६०८ ३ ६१३ ७७ १ ३ २९ ३ ४८१ २ १०१८ ७८ ४५७ १४६ १५१ ६ ६० ६ १ २३९ ६५ ७१ ७७ अप्रज्ञप्ति ( व्यंतरनिकाय) २४६९ २ ४७० ६४ ५८ १ २९ ८ १९१ ६५ ३ ४४९ ७३ (पूर्व रुचकाद्रि दिक्कुमारी) २ २८८ ३७ ( कौशल्या, 99 पद्ममाता) ६ ३६५ १४४ (नगरी) २ १ २९ अपरिग्रह (व्रतम् ) ३ ६१८ ७८ ६२३ 33 ३ ४२ ४२ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्लोक न. पृष्ठ. नं. ३ ५७९ ७६ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ६ ३०५ १४२ ६ ३२६ १४४ ६ ३८४ १४४ ६ ६८० १५३ ४ ४ २८४ ८९ ५८८ ९९ श्लोक नं. पृष्ठ नं. अप्रतिचका (ऋषभदेवशासन यक्षी) ३ ६८२ ७९ अप्रमत्त गुणस्थानम् (सप्तमम्) ३ ३९१ ७१ अपाच्यरुचकाद्रिः (रुचकगिरिः दक्षिणस्थः) २ २९० ३७ अपूर्वकरण (अध्यवसायविशेषः) ३ ५९१ ७७ अपूर्वकरणम् (अष्टमगुणस्थानम्) ३ ३९२ ७१ ३ ५२९ ७५ अब्धिकुमार (भवनपतिनिकाय विशेष:)२ १८४ ३४ अभयमती (सागरदत्तभार्या) १ ७२३ २३ अभिचन्द्रः (चतुर्थः कुलकरः) २ १८१ ३४ २ १८५ ३४ २ १९० ३४ अभिनन्दनः (चतुर्थ जिन:) ६ २८३ १४१ ६ ६५७ १५२ अभीचिनक्षत्र ६ ४८४ १४७ अम्बरतिलक (गिरिः) १ ५४६ १८ १ ६७७ २१ अम्भःकुम्भः (नवमः स्वप्न:) २ २२१ ३५ अम्लोचा (अप्सरा:)२ ७८९ ५२ अमरावती (शक्रनगरी) ४ १५१ ८५ अमित (दिक्कुमारेन्द्रः) २ ४६४ ४२ अमितवाहन (दिक्कुमारेन्द्र :)२ ४६४ ४२ अमृतक्षीरमध्वा ज्यास्रविणः (लब्धि. विशेषधरा मुनयः)१ ८६९ २७ अमृता (पुरुषसिंह माता) ६ ३४९ १४३ अयोध्या (नगरी) ६ १५७ १३७ ६ २७८ १४१ ४ ७९८ १०५ अयोध्या (नगरी) २ ९१२ ५५ ३ ३८९ ७१ अयोध्यापतिः (भरतः) ६ ६८० १५३ अर्कयशाः (आदित्ययशाः) ६ २४९ १४० अर्जुनीपुरी (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ १९७ ६५ अरः (जिनः सप्तमचक्री च) ६ ३१२ १४२ ६ ३३० १४३ ६ ३३२ १४३ ६ ३५० १४३ ६ ६७१ १५३ अरनाथ (जिन:) १ २० २ अरिजय (वैताढये दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १८८ ६५ अरिष्टनेमि (जिन:)६ ६७५ १५३ १ २४ २ अलकतिलक (वैताढये उत्तर श्रेण्यां पुरी) ३ २०१ ६५ ।। अलम्बुसा (उदग्रुचकदिक्कुमारी) २ २९७ ३७ अव्याबाध (लोकान्तिकदेवजाति:) २ १०३५ ५९ अवधि (ज्ञानप्रकार:) ४ २१८ ८७ ४ २३० ८८ ४ २४० ८८ ४ ५५२ ९७ अवधि (तृतीयज्ञानम्)३ ५७६ ७६ अवधिज्ञान , ६ ४८१ १४७ अवनीतिलक (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०२ ६५ अवस्वापनिका (निद्राप्रकार:) २ ४१५ ४१ अवस्वापनी (निद्राप्रकारः) २ ६१५ ४७ अवसर्पिणी (कालप्रकार:) ३ ५३१ ७५ ३ ५३८ ७५ १ २८ २ २ १०९ ३२ २ ११६ ३२ २ ११७ ३२ २ ७४० ५० ६ ४८३ १४७ ४ ४७९ ९५ अश्वग्रीवः (प्रथमः प्रतिवासुदेवः) ६ ३६४ १४४ अश्वपुर ६ ३४८१४३ अश्वरत्न ४ ४५० ९४ ४ ७१२ १०३ अश्वसेन (पाचजिनपिता) ६ ३२२ १४२ ६ ६७६ १५३ ६ ३२९ १४२ अशोक (वृक्षः) ६ ४१३ १४५ अशोकतरु ६ १३१ १३७ अशोक दत्त (सागरचन्द्रस्य मित्र) २ २ २ २ १३ २९ १५ २९ २७ २९ ३१ २९ ४० ३० ४४ ३० ५० ३० २ २ २ २ ६४ ३० ६८ ३१ ८१ ३१ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक नं. पृष्ठ नं. २ ८६ ३१ २ ८९ ३१ २ १०६ ३२ २ १०८ ३२ २ १४० ३३ अष्टम (उपवास त्रयात्मकं तपः । ) ४ ५६८ ४ अष्टमङ्गली (टी मङ्गलानि ) ५६९ * ६०९ ९९ ४ ६७३ १०१ ४ ६७४ १०१ ४ ८७ ८३ ४ १५९ ८५ ४ २१३ ८७ * २१७ ८७ ४. २३९ ८८ * २८७ ८९ ९३ ४ ४१० ४ ४६४ ४ ५५१ ४ ५५६ ४ ५५७ अष्टमभक्तम् (उपवास त्रयात्मकम् ) ९८ ९८ अष्टमतपः (उपवास त्रिकम् ) ३ अष्टापद (पर्वत) ६ ६ ६ o so so o ९५ ९७ ९८ ९८ ४ ७ ८१ ६ ५७१ १५० ६ ६१२ १५१ * २९२ ८९ ૪ ५५९ ९८ SEXEY ४ ૮૪ ८३ ४ १५२ ८५ ४ १९३ ८६ ४ १९८ ८७ ४ २२५ ८७ ४ २३६ ८८ ४ ४८० ९५ ४ ६१० ९९ ४ ७०५ १०२ ४ २२९ ८७ ३९१ ७१ ७७ १३५ १०३ १३६ १०४ १३७ अष्टापदगिरि ४३ अष्टापदात्वल "" लोक नं. पृष्ठ अहमिन्द्र (अनुत्तर विमान देवः ) अहर्षति (सप्तम ६ १५७ १३८ ६ १६९ १३९ ६ २२६ १४० ६ २५८ १४१ ६ २६२१४५ ६ ४२४ १४६ ६ ४५९ १४६ ६ ४६० १४६ ६ ४६५ १४७ ६ ४७६ १४७ ६ ४७७ १४७ ६ ५६२ १५० ६ ६२८ १५२ ६ ६ ६ ६ ( तीर्थम् ) ४ ७५५ १०४ ૪ ७७० १०४ ४ ८०८ १०६ ६१८ ७८ B ६२१ ७८ ७०९ १०२ अस्तेय (प्रतम्) ३ अस्तेयव्रतम् असि: (खड्गरत्नम् ) ४ अमस्कृत (ता उत्तर श्रेण्यां पुरी) ३ असुर (भवनपति निकाय: ) ३ नं स्वप्नः) २ ३ अहिंसा ( व्रतम् ) अहिंसादितानि १ महिसाबल ३ ६३७ १५२ ६७९ १५३ ६८५ १५३ ७४९ १५५ ४ १०५ ८४ ४ ३१२ ९३ ६ १९९ ६५ १६५ ६४ २१९ ३५ ६१८ ७८ ८९४ २८ ६१७ ७७ ६१९ ७८ ३ (आ) आकाशगङ्गा ६ ११२ १३६ आखण्डलपुर (वैताढये दक्षिण यां नगरम् ३ १९० ६५ आचामाम्ल (तपोविशेषः) ४ ७४५ १०४ आतपत्र (प्रातिहार्यम्) ७२ १३५ लोड नं. पृष्ठ नं. आदिमण्डलम् (धेयांसकृतं प्रभुचरणोपरि रनपीठम) आदिजिन आदित्य ( ज्योति केन्द्र) ३ ३३३ ६९ ४ ४८७ ९५ २ आदित्य (लोकान्तिकदेवजातिः) आदिदेव आदिनाथ ४७४ ४३ २ १०३५ ५९ आदित्यपीठम् (श्रेयांसकृतं प्रभुचरणो परि रत्नपीठम् ) ३ ३३४ ६९ आदित्ययशाः (नृपः ) ६ ६ आदितीयंत् २ २ ५८२ ४६ ६ ४५८ १४६ * ६८३ १०२ ५ २०१ ११९ ५ ३९० १२० ५ ३९६ १२० ५ ४०५ १२० ६५४ १५२ ८१ ६२ ८९ ६२ 19 २५११४० ७४६ १५५ ४०४ ४० ६ ३ ३ ४ ८२७ १०६ २ ३२५ ३८ "3 आदिम जनप्रभु आदिमतीर्थंकर (ऋषभदेवः ) २ २७५ ३७ आदिमतीर्थेश ५ ३७३ ११९ आनत प्राणत वासवः ( नवम दशम कल्पोरिन्द्रः) २ ४४१ ४९ आनन्दा (पूर्व रुचकाद्रि दिक्कुमारी) २ २८८ ३७ आनन्दः (षष्ठो बलदेव:) ६ ३६३ १४३ आपाताः (किरातजातयः ) ४ ३३६ ९१ आमलसार ( प्रासादाङ्गम् ) ६ ७२९ १५५ आतं रौद्रध्यान ६ ३७४ १४४ जावेद शास्त्राणि ६ २४७ १४० आरणाच्युत करूपेन्द्रः २ ४९६ ४३ आरणाच्युतराजः ( एकादशद्वादश कल्पयेोरिन्द्रः) २ ४४२ ४२ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक नं. पृष्ठ नं. आरणाच्युतविभुः २ ५३९ ४५ आशीविषद्धि लब्धिः ) १ (भरतः, ऋषभदेवसुत) इक्ष्वाकुकुल ६ ६ आस्तिक्य ( सम्यक्त्व स्य लक्षणम्) ५ १७५ ११३ ५ ३२० ११८ ५ ३२७ ११८ ५ ४१६ १२१ ५ ४३६ १२१ ४ १८२ ८६ ४ २४५ ८८ ४ ४६४ ९५ ४ ५१२ ९६ ८८० २७ ६ ७४५ १५५ ६ ७५३ १५५ (इ) इक्ष्वाकु (ऋषभस्य बंध) इक्ष्वाकु ४६५ १४७ ६९९ १५४ ३ ६०८ ७७ ३ ६१४ ७७ (ई) २ ६५९ ४८ ६ ५३४ १४९ ६ ५५८ १४९ ६ ५५९ १४९ ६ ५२५ १४८ ६ ५४७ १४९ २०० ६५ इन्द्रकान्त (वैताये उत्तरथेच्या पुरी) ३ इलादेवी (प्रत्यग्यचकाद्रि दिक्कुमारी) २ २९४ ३७ ईश्वरदत्तः ( श्रेष्ठी) १ ७२७ २३ ईश्वर: (भूतवादितेन्द्र ) २ ४७१ ईशानचन्द्र: ( क्षितिप्रति - ष्ठितपतिः नृपः ) १ ७२१ २३ ईशानचन्द्र ४३ m a २ २ २९ ६ २९ ईशानसामा निक (स्वयम्बुद्ध जीव ईशानेन्द्र सामानिको देवः ) १ ५२६ १७ ૪૪ ईशान (द्वितीय कल्पेन्द्रः ) २ ६११ ४७ ५ ५७८ १२६ ईशान ५ ५९० १२६ लोक नं. पृष्ठ नं. (इन्द्र) ६ ईशाननाच ( ईशानेन्द्र ४ ईशानेन्द्र ५५४ १४९ ४९५ ९६ २ २ २९ २ ६२७ ४७ (3) उच्यम् (शुक्लध्यान) उत्तरकुरु उत्पादो विगमो धौम्यम् (त्रिपदी) ३ उत्तरकुरु ( क्षेत्रम्) १ 14 ६ ४८८ १४७ १ ७१६ २३ २ १२१ ३२ २ ६८४ ४९ ( क्षेत्रम् ) २ ४९१ ४३ उत्तरानन्दा (पूर्व रुचकाद्रि दिक्कुमारी) २ २८८ ३७ उत्तराषाढा (नक्षत्रम्) 31 १ २३१ ८ ३ ३ उत्तराषाढा नक्षत्रम् २ उत्सर्पिणी २ ६५८ ७९ २२६ ८ (कालविशेषः) २ ११७ ३२ २ १३६ ३३ उद विद्याधरश्रेणी ४ उदग्भरत ( उत्तरभरत क्षेत्रम् ) ६५ ६१ ३९६ ७१ २०८ ३५ ११६ ३२ ६ ३६७ १४४ ७१२ १०३ ४ ४ उता क्षेत्रम् ५ उचक (उत्तरस्थ रुवकाचलः) उदधिकुमार २९८ ९० ३३५ ९१ ४८ १०९ २ २९९ ३७ २ १९० ३४ २ ४६३ ४२ ३२७ ११८ ६ ४३१ १४६ उदयाचल (मेरुः ) ५ उदयाद्रि (मेष) उदुम्बर (विशेष) ४ उन्मग्ना (नदी) ४ ३१६ ६६ ८३ ९० ४ ५६५ ९८ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ७७ उपशमश्रेणी ३ ५९८ उपशान्तमोह (एकादर्श गुणस्थानम् ) ३ ५९८ उर्वशी ( अप्सराः) २ ७८५ ५२ ७७ (ॠ) ऋजुः (ऋजुमतिमन: पर्यवज्ञानम् ) ३ ५८० ७६ ऋषभ (प्रथमजिनः ) ५ ४४९ १२२ २ ६३४ ४७ २ ६४४ ४८ ६४९ ४८. ९०१ ५५ ५१२ ९६ २ २ ४ ऋषभा ( शाश्वतप्रतिमा) ६ ५७९ १५० ऋषभात्मज (ऋषभदेव सुल) ५ २९९ ११७ ऋषभेश (प्रथमजिनः) ४ ५३६ ९७ ४७७ ऋषभकूट (पर्वत) ४ ९५ ४९१ ९६ ४ ऋषभध्वज (प्रथमजिनः ) ६ ६ ३ ३ ऋषभनाथ (प्रथमजिनः) ऋषभप्रभुः ऋषभस्वामी ५ १ २ ७५६ ५१ २ ८९६ ५५ ३७८ ११९ ३० २ १ ३ १ २ ९०६ ५५ ३ २२७ ६६ ३ ४२० ६६ ३ ६४१ ७८ ४ ६४१ ७८ ४ १३१ ८५ ४ १३४ ८५ १४२ ८५ ५१३ ९६ ६९१ १०२ ८ १०८ १० १०८ ४५ १०९ ४ ४ ५ ५ २८ १३३ ७७ १३५ १३० ६२ २८९ ७१ ५ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ५ १४१ ११२ ५ २४० ११५ ५ ३६५ ११९ ५ ४३७ १२१ ५ ५१३ १२४ ६ ८१३३ ६ ४६ १३४ ६ ४४६ १४६ ६ ५९५ १५१ श्लोक नं. पृष्ठ नं. , (इन्द्रवाहनदेवः) ३ ४०१ ७१ ऐशान (द्वितीयदेवलोक:) १ ५२१ १७ ऐशानतकल्प , १ ४६० १५ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ऋतुस्थला (अप्सराः) २ ७९२ ५२ ऋन्दित (व्यन्तरजाति:) २ ४७२ ४३ कलिन्दाद्रि (गिरिविशेष:) ६ ६२५ १५१ काकन्दी (नगरी) ६ २९३ १४१ काकिणी (काकिणीरत्नम्) ६ २४१ १४० ६ २४९ १४० ६ ७४७ १५५ ऋषभस्वामिनन्दन ५ ५८१ १२६ ऋषभस्वामिभूः (भरत:) ४ ४७७ ९५ ऋषभसेन (भरतपुत्रः प्रथमगणधरश्च) ३ ६४१ ७८ ३ ६५७ ७९ ३ ६७७ ७९ ऋषिः (ऋषिवादितेन्द्रः) २ ४७१ ४३ ऋषिपालक: २ ४७१ ४३ ऋषिवादितक (व्यम्तरजातिः) २ ४७१ ४२ १६७५ २१ ऐशानकल्प , २ ४३३ ४१ ऐशानकल्पेन्द्रः (ईशानेन्द्रः) १ ६२० २० ऐशानकल्पाधिपतिः २ ४३२ ४१ ऐशानवासवः , २ ५७३ ४६ ओ ओघस्वरा (चमरेन्द्र घण्टा) २ ४४५ ४२ औ औपशमिक (सम्यक्त्व प्रकार:) ३ ५९७ ७७ ३ ५९८ ७७ कच्छ (नपः) الله س س ३ १२४ ६३ ३ १७३ ६५ ३ २३४ ६६ ३ ३०४ ६८ ४ ४७९ ९५ ४ ७१० १०२ काकिणीरत्नं ४ ३०७ ९० ४ ४७८ ९५ ४ ५६३ ९८ काकिणीरत्न ६ २४५ १४० ६ २४२ १४० ६ २४८ १४० काञ्ची (वैताढधे दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९१ ६५ काम्पिल्य (पुरी) ६३०२ १४२ ६ ३३३ १४३ ६ ३३६ १४३ कामगव (लान्तकेन्द्रविमान) २ ४३८ ४१ कारकम् (सम्यक्त्वप्रकार:) ३ ६०५ ७७ ३ ६०७ ७७ कालमुख (म्लेच्छजातिः) ४ २७१ ८९ काल (पिशाचेन्द्रः) २ ४६५ ४२ काल: (निधिः) ४ ५७० ७८ ४ ७९ ९८ कालिकेय (विद्याघरनिकायः) ३ २२२ ६६ काली (विद्या) ३ २२२ ६६ काश्यपकुल ६ ३३९ १४३ काश्यपान्वय (काश्यपवंशः) ६ २७७ १४१ काशि (काशीजनपद वासिनः) ६ ३९३ १४४ किन्नरः (किन्नरेंद्र) २ ४६७ ४२ किन्नर (व्यन्तरजातिः) २ ४६७ ४२ एकनासा (प्रत्यग्रुचकाद्रि दिक्कुमारी) २ २९४ ३७ एकान्त दुःषमा (षष्ठः २ ११५ ३२ एकान्तसुषमा (प्रथमारः) २ ११५ ३२ ६ २६७ १४१ , (प्रथमारः काल:) २ ११२ ३२ २ ११३ ३२ अरः) ऐक्य श्रुतमवीचारं शुक्ल ध्यानं (द्वितीयशुक्लध्यानभेद:) ३ ३९४ ७१ ऐरवत (क्षेत्र) २ १११ ३२ २ ४८४ ४३ ऐरावण (इन्द्रहस्ती)४ ३२ ८१ कच्छदेश ४ २७४ ८९ ४ २७५ ८९ कनकवती (इशानचन्द्रस्य राज्ञी) १ ७२१ २३ कनकाचल (मेरु:) २ १९८ ३४ कपिल: (राजपुत्रो मरीचिशिष्यः) ६ ३९ १३४ ६ ४२ १३४ ६ ५२ १३४ कमठ (तापसः) १ २५ २ कमठप्रष्ठ (कूर्मराजः) ५ ६१३ १२७ कमठराड् ५ ३३२ ११८ कमलापीड (अश्वरत्नस्य नाम) ४ ३९५ ९३ ६ ३८८ १४४ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लाक नं. पृष्ठ नं. किन्नरनरगीत (वैताढचे दक्षिण श्रेण्यां नगरम्) ३ १८७ ६५ किम्पाक (विषफलम्) ३ १०४ ६३ किम्पुरुषः (व्यन्तरजातिः) २ ४६७ ४२ , (किन्नरेंद्रः) २ ४६७ ४२ किलिकिल (वैताढचे उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ १९७ ६५ कीतिवीर्यः (भरत . सन्ताने राजा) ६ २५२ १४० कुण्डग्राम (नगरम्) ६ ३२४ १४२ कुन्थुः (जिनः षष्ठचक्री च) ६ ३१० १४२ ६ ३३० १४३ ६ ६७० १५३ कुबेरः (धनदः) ४ ३३७ ९१ २ ६२३ ४७ श्लोक नं. पृष्ठ नं. कौल (शाक्तमतानुयायी) १ ४१० १४ कोशल (कोशलजनपद वासिनः) ६ ३९२ १४४ कौशाम्बी (नगरी) ६ २८७ १४१ क्षपकश्रेणि ६४४१ १४६ ६ ४९११४७ ६ ७३७ १५५ ३ ६०२ ७७ ३ ५२९ ७५ क्षयोपशम (भावविशेष:) ३ ५७९ ७६ क्षायिकम् (सम्यक्त्वप्रकार:) ३ ५९६ ७७ (मल्लिजिमपिता) ६ ३१४ १४२ ६६७२ १५३ कुमुदकुन्द (वैताढथे उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०२ ६५ कुरुचन्द्रः (नृपः) १४०९ १३ कुरुमती (कुरुचन्द्रनृपभार्या) १४०९ १३ कृतवीर्य (सुभूमपिता) ६ ३३५ १४३ कृष्णः (भावी तीर्थकरः) ६ ३६७ १४४ -कृष्णः (नवमो वासुदेवः) ६ ३५६ १४३ ६ ४१३ १४५ केतुमालाङ्कनगर (वैताढचे उत्तर श्रेण्यां पुरी) ३ २०० ६५ केवल (केवलज्ञानं) ३ ५७६ ७६ केवलज्ञान ४ ८२७ १०६ ५ ७४४ १३१ ५ ७८१ १३२ ५ ७८८ १३२ ५ ७९६ १३२ ६ ४५१ १४६ ६ ४८९ १४७ ६ ५०४ १४८ ६ ७५४ १५५ केवलज्ञानम् (पूर्ण पञ्चमं ज्ञानं) ३ ३९७ ७१ ३ ५८१ १७६ केवलज्ञान कल्याण (केवलज्ञान प्राकट्यम्) ३ ४२९ ७२ केवल दर्शन-ज्ञान ६ ८ १३३ केवलम् (ज्ञानम) ६ २६४ १४१ ६ ४२७ १४६ ६ ४९११४७ केशवः (ईश्वरदत्तसुतः, __ श्रीमतीजीव.) १७२७ २३ १ ७९५ २५ केसरी (तृतीय स्वप्न:)२ २९५ ३५ कैलासः (पर्वतः) ४ ६६५ १०१ ., (अष्टापद) ६ ६२७ १५२ कैलासवारुणी (वैताढये उत्तर श्रेण्यां पुरी) ३ १९७ ६५ कैशिकी (विद्या) ३ २२० ६६ कैशिकीपूर्वक (विद्याधरनिकायः) ३ २२० ६६ कुलाचल (पर्वतविशेषः) ५ ५९२ १२६ ५ ५९९ १२६ कुसुमचूल (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ १९८ ६५ कुसुमपुरी (वैताठये दक्षिणश्रेण्यां पुरी) ३ १९१ ६५ कूष्माण्ड (व्यन्तरजातिः) २ ४७३ ४३ ३६०४ ७७ क्षायोपशमिकम् (सम्यक्त्वप्रकार:) ३ ५९६ ७७ क्षितिप्रतिष्ठितपुर १ ३४ २ १ २२५ ८ १ ७१९ २३ क्षीणकषायत्वम् (द्वादशं गुणस्थानम्) ३ ३९३ ७१ क्षीणमोह (द्वादशं गुणस्थानम्) ३ ३९४ ७१ क्षीरनीरधिः (एकादशः स्वप्नः) २ २२३ ३५ क्षीरसिन्धुः (क्षीरोदधिः) ३ ७२ ६२ क्षीरोद (क्षीरोदधिः) २ ६८४ ४९ क्षीरोदधिः २ ४८१ ४३ क्षुद्रमेरु (मेरुविशेषः) २ ६३२ ४७ ५६३७ १३० क्षुद्रहिमवत्कुमार (देवः) ४ ४६४ ९५ ४ ४८१ ९५ क्षुद्रहिमवगिरि ५ ४ १०८ २ ३१३ ३८ २ ४८६ ४३ क्षुद्रहिमवान् (गिरिः) ६ ८२४ १३५ (महाकूर्मः पृथ्वीधरः) ५ ४२७ १२१ कर्मेन्द्र ५ ५७७ १२६ कृतमाल (तमिस्रागुहाग्वामी देव:) ४ २३९ ८८ ४ २४७ ८८ ४ २८७ ८९ कृतवर्मा (विमलजिनपिता) ६ ३०२ १४२ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेमर ताइपे दक्षिणा नगरम् ) ३ १९२ क्षेमरसता दक्षिणश्रेण्यां नगरम् ) ३ १९१ खड्गरत्नम् खेल लधि ४ ३९८ ४ ३९९ खण्डप्रपाता ( गुहा ) ४५४८ ४ ५४९ ४५५० ४ ५५९ ३ १८० गगन उत्तर गङ्गा (नदी) " وا गजपुर 17 13 " 31 29 गङ्गादेवी " श्लोक नं. पृष्ठ नं. लब्धि:) १८४३ ग बैलाचे ४७ ८२ ९३ पुरी) ३ २०२ ३ २०८ २ १०९ २ ४८५ ( नद्यधिष्ठात्री) ४.५४० २ ७८१ २ ८३८ ३ १७९ ३ २३४ ६५ ६५ ४ ५४२ ९३ ९७ ९७ ९७ ९८ ६५ २६ w w m m 3 3 & ६५ ६६ ३२ ४३ ५२ ५३ ३ ३५० ७० ४ ५२ ८२ ४ ५७ ८२ ४ ५८ ८२ ४ ६३ ८२ ૪ ६४ ८२ ४४८२ ९५ ४ ५३९ ९७ ४ ५८३ ९८ ४ ५८६ ९८ ४ ६२६ १०० ४ ७१५ १०३ ५ २९८ ११७ ५ ५७२ १२५ ६५ ६७ ९७ ९७ ३ २४३ ६७ ६ ३०८ १४२ गजरत्नम् गन्धसमृद्धकपुर सम्पर्क (व्यस्तर गन्धार (जनपद) प्रदेश ४७ ( नगरम् ) १ गाव विजय (क्षेत्र) १ गर्दतोय (लोकान्तिक गिरिशिखरक गीतयशा छोक नं. पृष्ठ न. ६ ३१० १४२ ६ ३१२ १४२ ४ २६० ८८ ७१२ १०३ ४ जातिः) २ ४६८ ४२ ८ २४० ५८७ ७७ (वैताढ्ये उत्तर गाङ्ग उत्तर निष्कुट ४ ५३९ गान्धार ( विद्याधर निकायः) ३ गान्धारी (विद्या) ३ गान्धर्वी (अप्सराः) २ 37 39 ३ गीततिः 13 गुणवती ( चक्रिणः गृहिरत्नम् देवजातिः २ १०३५ ५९ ९७ श्रेण्यां पुरी) ३ २४० २३९ ૪ ४ ૪ गेहाकार ( कल्पद्रुमः ) २ २ १ ४ ८ ४ ( गन्धर्वेन्द्रः ) २ ४६८ ४२ २ ४६८ ४२ राशी) १ ६२८ २० गुणाकरः (पृथ्वीपाल नृपपुत्रो मुनिः) १ ७३३ गुणाकर: (घन - सुतः ) १ ७२४ गुरुज्वाला (वैताढ्ये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ गुर्जर (गुर्जरदेश बाखिनः) ६ गृहपति (पाकशास्त्री) ४ ४ ८ २१९ ६६ २१९ ६६ ७९३ ५२ २०६ ६६ २३ २३ २०३ ६५ ३९५ १४४ ६६० १०१ ६८१ १०२ ७११ १०३ ४३ ८२ २१३ ८७ ४३४ ९४ १२५ ३२ ३३ १५६ २३५ ८ ३२१ ९० श्लोक नं. पृष्ठ नं. ग्रैवेयक (देवलोक ) १ १५१ गोक्षीश्वरशिखर ६ (वैताढ उत्तरश्रेण्यां पुरी) गोत्र ( सप्तमः कर्म भेदः) ३ गोमुखः (ऋषभदेवशासनयज्ञः) ३ गोमूत्रिकाविधान १ गोशीर्ष ( चन्दन] प्रकार:) गोशीर्षचन्दन गौतम (गोत्र) गौतमवंश गौरी (विद्या) ३ २०५ ६५ १ १ १ १ ७४८ २४ ७५० २४ ७५४ २४ ७५६ २४ २ ५२४ ૪૪ ૪ ५ ८१ * ४७३ ९५ ४ ६९० १०२ १ ७४६ २४ १ ७६७ २४ ७७२ २४ ७७५ २४ ५२३ १४८ ५२४ ९४८ १ १ ६ ५८४ ६ ६८० ७३६ ७७ ७९ २३ ६ ५२८ १४९ ६ ६२१ १५१ ६ ६४१ १५२ ६ ७१६ १५४ ६ ३३९ १४२ ६ २७७ १४१ ३ १७० ६४ ३ २१९६६ गौरेय (विद्याधरनिकायः) ३ घ घृताची (अप्सराः) २ ७८५ ५२ च २१९ ६६ छन्दकम् ( सिंहासनस्थानम् ) ३ ४५२ ७३ चक्षुष्कान्ता (प्रसेनजित कुलकर भार्या) २ १८७ ३४ २ १९५ ३४ २ १९९ ३४ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्षुष्मान् (द्वितीय कुलकर) २ चक्र चक्रपुरी चक्रम् लोक नं. पृष्ठ नं. १६७ २ १७१ २ २ ६ ૪ १० ८१ ११ ८१ १३ ८१ ४१ ८२ ४८ ८२ ४ ५६ ८२ ४ ७९ ८३ * ४ ४ ४ ४ ४ १५३ ८५ १५५ ८५ १९५ ८५ २२६ ८७ ३०४ ९० ३२९ ९१ ३५२ ९१ ४ ५८८ ९९ ४ ५९६ ९९ ४ ७०९ १०२ ६८२ ७९ ४ ३ ६ ५ ५ ३३ ३४ १७२ ३४ १७५ ३४ ३५० १४३ २ १०८ १२ १०८ ११९ १११ २०३११४ २५१ ११५ २७४ ११६ ५ २८३ ११६ ५ ४६७ १२२ ५ ४७० १२२ ५ ५११ १२४ ५ ३६९ १४४ ६१ १३४ १ ८१ ९ ८१ ५ .५ ५ इ ५ ७०७ १३० ५ ७०८ १३० ५ ७१० १३० ५ ७१११३० ५ ७१२ १३० ५ ७१४ १३० चक्ररत्न चक्ररत्नम् ४८ लोक नं. पृष्ठ नं. ५ ७१६ १३० ५ ७२२१३० ५ ७२३ १३० ५ ७२४१३० ५ ७२६ १३० ४ १४ ८१ ४ ४० ८२ ૪ * ४ चन्द्रकान्ता ७८ ८३ १५४ ८५ २३७ ८८ ४ ३११ ९० ४ ४६० ९५ ४ ४८६ ९५ ४ ५३७ ९७ ५ २५७ ११६ ५ २६७ १२६ ५ ४६८ १२२ ३५१३ ७४ ३ ५१४ ७५ ३ ५१५ ७५ चतुर्थ तपः (उपवास) ३ २३६ ६६ चतुर्दशपूर्व (रष्टिवादाङ्ग) ३ ६५९ चतुर्दशपूवि ६५९ ७९ (साधवः) ६४५२ १४६ चतुर्मुखी (वैताढ्ये उत्तर श्रेण्यां नमरम्) ३ १९० ६५ चतुर्विधस १ चन्दनदासः (श्रेष्ठी) २ ८९९ २८ ३ २९ २८ २९ २ ४७४ ४३ चन्द्र ( ज्योतिष केन्द्रः ) २ चन्द्रकान्ता ( शत बलस्य राही १ (चक्षुष्मद्भार्या) २ २४१ ८ १६७ ३३ २ १७२ ३४ २ चन्द्रप्रभ (जिन ) ६ १७५ ३४ ६६१ १५३ १ १० १ चन्द्रभाभूषण (वैताचे उत्तर श्रेण्यां पुरी) ३ चन्द्रभासपुर (वैताचे दक्षिण १९८ ६५ श्रेण्यां नगरम् ) ३ १९२ ६५ लोक नं. पृष्ठ नं. चन्द्रमण्डलम् ( पष्ठः स्वप्नः) २ २१८ ३५ चन्द्रवा (विमल वाहन भार्या) २ चन्द्रानन (नगरी) ६ " चन्द्रानना ( शाश्वत प्रतिमा ) ६ चम्पापुरी चमर चमर (चमरेन्द्रसिंहासनं ) २ चमचा (चमरेन्द्रनगरी) २ चमरासुरः (असुरेन्द्रः) चर्मरत्नम् चामर (जिन ५७९ १५० ६ ३०० १४२ २ ४५४ ४२ चमूपति (सेनापति रनम्) ४ पर्म (रश्नम् ) * ४ ४ ४ ૪ ४ * ४ ४ १६५ ३३ २९१ १४१ २ ૪૪૪ ४५१ चमरेन्द्र: (असुरेन्द्रः ) २ ६४० ४८ २ ७३३ ६ ૪૪૪ ४२ ૪૪૪ ४२ * * * * * * * * * * * * * * ५० ५५४ १४९ ६६० १०१ ४३१ ४३३ ७१० १०२ ४५ २४९ २६४ ८९ ९४ ८२ २६५ २६६ ४२६ ९४ ४ ४२७ ९४ ४ ४२८ ९४ ४ ४३४ ४ ४३८ ८९ ९४ ९४ प्रातिहार्यम् ) ३ ४५५ ७३ ६ ७३ १३५ चामर (वंताचे उत्तर१९९ पुरी) ३ ६५ चारणश्रमण ( विद्याधरमुनिः) २५१४ ४४ ३ २३२ ६६ चाचूडामणि (ता उत्तर पुरी) ३ १९८ ६५ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. जाह्नवी (नयधिष्ठात्री) ४ ५४८ ९७ " (गङ्गा) ४ ६० ८२ ४ ७२ ८३ ____४ ५३८ ९७ श्लोक नं. पृष्ठ नं. चित्रकनका (विदिग्रुचकाद्रिदिककुमारी) २ २९९ ३७ चित्रकूट (वैताढये दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९३ ६५ चित्रगुप्ता (अपाच्य रुचकादिदिक्कुमारी)२ २९१ ३७ चित्ररस (कल्पद्रुमः) १ २३४ ८ २ १२४ ३२ २ १५४ ३३ चित्रलेखा (अप्सराः)२ ७८९ ५२ चित्रा (नक्षत्रम्) ४ ६९२ १०२ , (विदिग्रुचकाद्रि दिक्कुमारी) २ २९९ ३७ चित्राङ्ग(कल्पद्रुमः) १ २३४ ८ २ १२४ ३२ २ १५३ ३३ चिन्तामणि (रत्नप्रकार) ५ ७०७ १३० चिह्नपुर (वैताढये दक्षिणश्रेण्या नगर) ३ १९१ ६५ बुलनी (ब्रह्मदत्तमाता) ६ ३३६१४३ चेदि (चेदिजनपद वासिनः) चैत्यवृक्ष चैत्यशाखी ६ १२६ १३६ चैत्यतरुः (प्रातिहार्यम्) १ ८१७ २६ ६ १२५ १३६ चैत्यगुः (जिनसमवसरणे चैत्यवृक्षः, प्रातिहार्यम्) ३ ४५१ ०३ ६ १२४ १३६ जङ्घाचारणलब्धि १ ८७४ २७ जम्बूद्वीप १ ६२४ २० १ ७१९ २३ १ ७९१ २५ २ ३३५ ३८ २ ३३९ ३८ २ ४८ ३९ २ ९३ ४० २ ४०४ ४० ३ ३५६ ७० ४ ४९० ९६ ४ ७१५ १०४ ५ ४२७ १२१ ६ ८१ १३५ जम्बूवृक्ष १ २२७ ८ जयः (दशमचक्री) ६ ३३५ १४३ जयन्ती (पूर्वरुचकाद्रि दिक्कुमारी) २ २८८ ३७ जयन्ती (वैताढये दक्षिणश्रेण्यां नगर) ३ १९२ ६५ जयन्ती (नन्दनमाता) ६ ३६३ १४४ जयश्रीनिवास (वैताढये उत्तर श्रेण्यां पुरी) ३ २०४ ६५ जया (द्वारपाल देवी)३ ४४९ ७३ जया (वासुपूज्यस्य माता) ६ ३०० १४२ ६ ६६५ १५३ जलकान्तः (उदधि कुमारेन्द्रः) २ ४६३ ४२ जलप्रभः (उदधि कुमारेन्द्रः) २ ४६३ ४२ जलवीर्यः (भरत सन्ताने राजा) ६ २५२ १४० जवनद्वीप (म्लेच्छानां द्वीपः) ४ २७० ८९ जातिस्मरण (मतिज्ञानविशेषः) ३ २८३ ६८ ३ ३२० ६९ ज्वाला (पग्रमाता) ६ ३३२ १४३ जितारि (तृतीयजिनपिता) ६ २८१ १४१ ६ ६५६ १५२ जितशत्रु (अजितजिनपिता) ६ २७८ १४१ ६ ६५५ १५२ जीवानन्दः (सुविधि वैद्यसुतः वज्र जङ्घजीवः) १ ७१९ २३ १ ७२९ २३ १ ७३२ २३ १ ७३७ २३ १ ७४२ २३ १ ७५७ २४ १ ७६४ २४ १ ७६७ २४ १ ७६८ २४ १ ७७२ २४ जम्भक सुर (धनदसेवका देव . विशेषाः) ३ २२ ६० जुम्भकामर २ ६२३ ४७ जोनक (म्लेच्छजातिः) ४ २७२ ८९ ज्योतिः ६ १३७ १३७ ६ १३८ १३७ ज्योतिष्क (देवनिकायः) २ ४७४ ४३ ज्योतिष्क (ज्योतिष्क देव) ३ ४४६ ७३ ३ ४७१ ७३ ५ ५८ १०९ ज्योतिष्क (कल्पद्रुमः)१ २३४ ८ १ १५२ ३३ ज्योतिष्कस्त्रियः (ज्योतिष्क निकाय देव्यः) ३ ४७० ७३ ४ ४३२ ९४ ४ ४३३ ९४ ४ ७०९ १०२ छत्रत्रयम् (जिन प्रातिहार्यम्) ३ ४५४ ७३ छत्रत्रितयम् ६ २१८ १३७ छचरत्नम् ४ ४३८ ९४ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ज्योतिष्पतयः (ज्योतिष्कदेवाः) ३ ४३४ ७२ ३ ४३८ ७२ ज्योतिष्पति (देवजातिः) श्लोक नं. पृष्ठ नं. ४ २८९ ८९ ४ २९९ ९० श्लोक नं. पृष्ठ नं. दधिमुखाद्रि ६ ८० १३५ दृढधर्मा (स्वयम्बुद्धजीव, ईशानेन्द्रसामानिको देवः) १ ५२१ १७ १ ६१९ २० दृढरथ (दशम जिन पिता) ६ २९५ १४१ , (देवनिकाय विशेष स्वामी) ज्योतिषिक (देवनिकायः) २ १२३ ३२ ज्ञानदर्शन चारित्रोपचार १८९२ २८ ज्ञानावरण (प्रथमः कर्मभेदः) ज्ञानावृति , ३ ५८३ ७१ दण्ड (रत्नम्) ४ ५६१ ९८ ४ ७०९ १०२ दण्डकः (राजा) १ ४३२ १४ दण्डरत्न दण्डरत्नम् टङ्कण (म्लेच्छजाति)४ १ ४३५ १४ ६ ६३५ १५२ ४ ४१ ८२ ४ ५० ८२ ४ २९३ ८९ डम्ब इस्ला (म्लेच्छदेशविशेषः) ३ ३८७ ७१ तक्षक (नागः) ५ ६८१ १२९ तक्षकाहि(तक्षकनागः) ४ ११३ ८४ तक्षशिला (बाहुबलि राज्यस्य राजधानी)५ २५ १०८ ५ ५३ १०९ ५ २६० ११६ तक्षशिलाधीश (बाहुबलि:) ५ १६१ ११३ ५ ३१० ११७ तक्षशिलापतिः (बाहुबलि:) ३ ३७० ७० ५ ६७४ १२९ ५ ८९ १२९ ५ ७२८ १३० तक्षशिलापुरी (बाहुबले राजधानी) ३ १८० ६५ तारकः (द्वितीयः प्रतिवासुदेवः) ६ ३६८ १४४ तारा (सुभूममाता) ६ ३३१ १४३ त्रिकूटक (वैताढये दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९३ ६५ त्रिपृष्ठः (प्रथमो वासुदेवः) ६ ३४० १४३ ६ ३७७ १४४ ६ ३८१ १४४ त्रिशला (वीरजिनमाता) ६ ३२४ १४२ ६ ६७७ १५३ तिलोत्तमा (अप्सराः) २ ७८७ ५२ तीर्थकृन्नामकर्म १ ९०३ २८ तीर्थ कुन्नाम गोत्रकर्म १ ८८१ तुम्बुरु (द्वारपाल देव:) ३ ४५० ७३ तुर्यः । (महाबलस्य मन्त्री) १ ३८४ १३ तूर्याङ्ग (कल्पद्रुमः) २ १२३ ३२ २ १५१ ३३ तूर्याङ्गक १ २३३ ८ तेजोलेश्या (शक्तिः) ५ ७१४ १३० तोयधरा (अधोलोक दिक्कुमारी) २ २७४ ३७ तुषित (लोकान्तिक देवजातिः) २ १०३५ ५९ दण्डवीर्य (भरत सन्ताने राजा) ६ २५२ १४० दत्तः (सप्तमो वासुदेवः) ६ ३५२ १४३ दन्तिराजः (द्वितीय स्वप्नः) २ २१४ ३५ द्रव्यसंलेखना ६ ४३५ १४६ द्रविणजय (वैताउथे उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०४ ६५ दशरथ (नारायणपिता) ६ ३५५ १४३ दशाण (दशाणं __ देशवासिनः) ६ ३९३ १४४ दृष्टयावति (द्वितीयः कर्मभेदः) ३ ३९५ ७१ ३ ५८३ ७७ दाम (पञ्चमः स्वप्नः) २ २१७ ३५ दाम (वैतादये दक्षिण श्रेण्यां नगरम्) ३ १९१ ६५ द्वादशाङ्गश्रुत १ ८९० २८ द्वादशाङ्गानि (जिनप्रवचनम्) ३ ६५९ ७९ द्वारवती (नगरी) ६ ३४२ १४३ বহিম (बाहुबकी) ५ ७२२ १३० तमिस्रा (गृहाविशेषः) ४ २३७ ८८ ४ २३८ ८८ ४ २४१ ८८ ४ २८५ ८८ ४ २८६ ८९ दक्ष (भूतानेन्द्रसेनानी) २ ४५९ ४२ दधिमुख (पर्वतविशेष) २ ६३५ ४७ २ ६३९ ४८ २ ६४२ ४८ २ ६४५ ४८ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक न. पृष्ठ. नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. दुर्धर (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०६ ६६ दुर्दर्शन (नृपः) १ ६५५ २१ बुम (चमरेन्द्र सेनानीः) २ ४४५ ४२ दुःषम सुषमा (चतुर्थोऽरः) २ ११४ ३२ दुःषमा (पञ्चमोऽरः) २ ११५ ३२ देवी (अरजिनमाता) ६ ३१२ १४२ १ १ १०० ११० १ १ १२१ १३३ श्लोक नं. पृष्ठ नं. दाशार्हः (वासुदेवः)६ ३७० १४४ ६ ३८१ १४४ ६ ३८७ १४४ दिक्कुमार (भवनपतिविशेषः) २ ४६४ ४२ दिक्कुमारी २ २७३ ३७ २ २८७ ३७ २ २९६ ३७ दिक्कुमारिका २ २८१ ३७ २ २९० ३७ २ २९३ ३७ २ २९९ ३७ २ ३०१ ३७ दिग्गज ५ ४२८ १२१ ५ ६१४ १२७ दिग्विरतिः (प्रथमं गुणवतम्) ३ ६३२ ७८ दिव्यदुन्दुभि (प्रातिहार्यम्) ६ ६३ १३४ दिण्या (अप्सराः) २ ७९३ ५२ द्विपृष्ठः (द्वितीयवासुदेवः) ६ ३४२ १४३ दीनार (स्वर्णमुद्राप्रकार:) १ ७४९ २४ दीप (कल्पवृक्षः) २ १५२ ३३ س س س س س س ه ه م م م م م م م ۸ ۸ ۸۸ देवी पानिलया (श्रीदेवी, चतुर्थः __स्वप्नः) २ २१६ ३५ देवकी (कृष्णमाता) ६ ३५६ १४३ देवकुरु (क्षेत्रम्) २ ४९१ ४३ देवच्छन्द (तीर्थकृद्विश्राम स्थानम्) ६ १२३ १३६ ६ ४२० १४५ ६ ५८७ १५० ६ ५९५ १५१ देवच्छन्द १ १४१ १ २०२ १ २०४७ १ २२१ ८ १ २२५ ८ १ २३७ ८ १ २३८ ८ घनञ्जय (प्रियमित्रपिता) ६ ३७८ १४४ धनद (कुबेर यक्ष) ३ २२ ६० धनदत्त (श्रेष्ठी) २ ६५ ३० धनुर्वेद ४ ९७ ८३ धर्मः (जिनः) ६ ३०६ १४२ ६ ३३० १४३ धर्मघोष आचार्यः १ ५१ ३ दीपकम् देवदुन्दुभिः (जिनप्रातिहार्यम्) ३ ६६९ ७३ देवदूष्यं (वस्त्रं दिव्यं) ५ ३९१ १२० ६ ५४० १४९ ६ ७१५ १५४ धर्मचक्र ३ ३८० ७१ (सम्यक्त्वप्रकार:) ३ ६०५ ७७ ३ ६०७ ७७ दीपशिख (कल्पद्रुमः) १ २३४ ८ २ १२३ ३२ द्वीपकुमार (भवनपतिविशेषः) २ १९९ ३४ २ २०५ ३५ २ ४३४ ४२ दुग्धाब्धि (क्षीरसमुद्रः) ६ ७८ १३५ दुन्तिः (दुर्दर्शनसुतः) १६५५ २१ १ ६७० २१ देवनन्दी (देवेन्द्रस्य प्रतीहारः) ३ ३५२ ६९ देवरमण (अञ्जना चलनाम) २ ६३२ ४७ देशावकाशिकव्रतम् (द्वितीयं शिक्षाव्रतम्) ३ ६३७ ७८ धर्मध्यान ६ ३७४ १४४ धर्मध्वज ६ ६२ १३४ धर्मनाथजिनः ६ ३४८ १४३ ६ ६६८ १५३ धर्मलाभ १ १२५ ५ १ १४२ ५ धर (षष्ठजिनपिता) ६ २८७ १४१ घरणः (धरणेन्द्रः, नागेन्द्रः) २ ४५५ ४२ दुन्दुभिः धनः (श्रेष्ठी) , (सार्थवाहः) १ ७२४ २३ १ १ ४५ २ (जिनप्रातिहार्यम्) ३ ४६६ ७३ दुर्ग (वैतादये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०६ ६६ ३ ५२३ ७५ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. नन्दा (पूर्वरुचकाद्रि दिक्कुमारी) २ २८८ ३७ नन्दा (दशम जिनमाता) ६ २९५ १४१ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ३ २१२ ६६ ३ २२५ ६६ नमिः (विद्याधरपतिः) ४ ४८८ ९५ ३ १५० ६४ धरणीवारणी (वैताढये उत्तर श्रेण्या पुरी) ३ २०६ ६६ धरणेन्द्र १ २५ २ २ ७३१ ५० नन्दा (पुष्करिणी) ६ ५८४ १५० नन्दिग्राम १ ५२८ १७ 2 ३ २०८ ६४ ३ २१८ ६६ धातकीखण्ड (क्षेत्रम्) ५ ६१७ १२७ १ ५२८ १७ १ ६६५ २१ १ ६७६ २१ धाता (पञ्चप्रज्ञप्तीन्द्रः) २ ४७० ४२ धारिणी (वज्रसेनस्य राज्ञी) १ ७९२ २५ धारिणी (प्रियमित्र माता) ६ ३७८ १४४ धिक्कार (नीतिः) २ ८९५ ५५ धिक्कारनीति, २ १९३ ३४ नन्दिवर्धना (पूर्व रुचकाद्रि दिक्कुमारी) २ २८८ ३७ नन्दीग्राम १ ६७६ २१ नन्दीश्वरद्वीप (अष्टमो द्वीपः) १ ८७५ २७ १ ८७८ २७ १ ६२० २० १ ६२२ २० १ ६५१ २१ १ ६७९ २२ २ ४०१ ४० २ ६३१ ४७ ४ ५३५ ९७ , (जिन:) ६ ३१८ १४२ ६ ३१९ १४२ ६ ३३४ १४३ ६ ३३५ १४३ ६ ३५४ १४३ ६ ३७४ १५३ नवमिका (प्रत्यग्रुचकाद्रि दिक्कुमारी)२ २९४ ३७ नाग (भवनपति निकाय विशेषः) २ १६१ ३३ २ १७५ ३४ ४ १०५ ८४ नागकुमार (भवनपति प्रकार:) २ १७० ३४ २ १८४ ३४ २ १९० ३४ २ १९९ ३४ २ २०५ ३५ ४ ४१० ९३ २ ६३० ४७ २ ६४६ ४८ ४ ४१४ ९३ नववेयक (देवलोक विशेषाः) ३ १८२ ६५ न्यग्रोध (ऋषभदेव केवलोत्पत्तिवृक्षः) ३ ३९१ ७१ नन्दन (सप्तमो बलदेवः) ६ ३६४ १४४ नन्दन (मेरी वनं) ३ २२९ ६६ २ ४९२ ४३ ३ २३० ६६ ३ ३८४ ७१ ६ ८० १३५ ६ ५८० १५० ६ ६२८ १५२ ६ ५६३ १५० नभः (वैताढ दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९१ ६५ नभस्तिलक (वैताढये. उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०१ ६५ नमिः १ २३ २ नमिः (कच्छसुतः) ३ १२५ ६३ ४ ४४२ ९४ ४ ५७३ ९८ ४ ६२९ १०० नागकुमार ५ ७१ ११० नागराजः (शेषः) ५ ६११ १२७ , (धरणेन्द्रः) ६ ३८४ १४४ ३ १४६ ६४ नागराट् (धरणेन्द्रः)४ ६२९ १०० नागश्री (नागिलभार्या) १ ५३० १७ १ ८७७ २७ नन्दनवन नन्दनवनम् ४ ७३८ १०३ नन्दनोद्यान २ १०४० ५९ नन्दनोद्यान ६ ५२३ १४८ नन्द्यावत्तं (ब्रह्मलोकेन्द्र विमानं) २ ४३७ ४१ नागिल: (गृहपतिः) १ ५२८ १७ ३ १८६ ६५ नाटयमाल (खण्डप्रपाता स्वामी देवः) ४ ५५१ ९७ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाभिः (सप्तम कुलकर: ऋषभ स्वामिपिता च २ नाभिनन्दन: (ऋषभदेव :) नाभिभूः (ऋषभदेवः) नाभिसूनु श्लोक नं. पृष्ठ नं. ४ ५५४ ९८ ४ ५५६ ९८ नाम ( षष्ठः २०१ ३४ २ २०३ ३४ २ २०६ ३५ २१० ३५ २ २२८ ३५ २ २२९ ३५ २ २६१ ३६ २ ३३९ ३८ २ ३४८ ३९ २ ६४७ ४८ २ ६५६ ४८ २ ७५५ ५१ २ ७५६ ५१ २ ९०० ५५ २ २ ९०० ५५ २ ९३२ ५६ २ ९७८ ५७ २ ९८४ ५८ ३ २३ ६० ३ २४ ६० ६३ ६१ ३ ७३ ६२ ३ ६८९ ८० ४ ६३९ १०० ४ ७२१ १०३ २ ४१६ ४१ २ ५३४ ४४ २ ९३१ ५६ २ ६३१ ४७ नाभेय (ऋषभदेवः ) ३ ३ २ ९०१ ५५ २ ९०२ ५५ २ ६८४ ४९ ३ ५३ ६१ ३ २१२ ६६ कर्मभेदः) ३ ४७ ६१ ६२ ६१ ५८४ ७७ ५३ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ३६२ ११९ नारद (ऋषि) ५ नारायणः (अष्टम वासुदेव) ६ नित्योद्योत निमा (नदी) (जालना) २ ६४० नित्योयोतनी (वैताढ्ये दक्षिण श्रेण्यां नगरम् ) ३ * निर्धूमोऽग्नि चतुर्दशः स्वप्नः) २ निर्नामिका (स्वयंप्रभा जीवः) १ १ १ निर्वाण कल्याण निर्वाणं निर्वेद (सम्यक्त्वस्य १ १ ६ १ लक्षणम्) ३ निशुम्भ (पञ्चमः ५ प्रतिवासुदेवः ) ६ निषय (पर्वत) नील (पर्वत) नेमिः (जिनः ) ५ ६ ६ पण्डिता श्रीमत्या ३५४ १४२ १९४ ३१६ ५६५ ४८ ६५ ९० ९८ १ १ २२६ ३५ ५४१ ५५१ ५५३ ५५९ ६७६. ४९३ १४७ ८४० སྱཱ ྂ ལཱིཿ ལཱ ལྤ ལྤ རྞ १८ १८ २१ ६०८ ७७ ३ ६११ ७७ २६ मंगमेषी (हरिणगमेषी, इन्द्रसेनापतिदेवः) २ ३३८ ३८ ४ २४८ ८८ सर्पः (निधि) * ५७० ९८ * ५७४ ९८ (प) ३६८ १४४ ४१८ १२१ ४१८ १२१ ३२० १४२ ३३५ १४३ पञ्चप्रज्ञप्ति (व्यन्तरनिकायः) २ ४६९ ४२ २ ४७० ४२ घात्री) १ ६४३ २१ १ ६४७ २१ १ ६४८ २१ ६५० २१ ६६० २१ पद्म: ( रामः " 33 19 पद्मप्रभः " लोक नं. पृष्ठ नं. ६६८ २१ १ १ ६७३ १ अष्टमो बल ६ (पद्म सरोवर ) २ (सर) ५ ( अष्टम चक्री) ६ 39 १ पद्मा (द्विपृष्ठ (षष्ठ जिनः ) ६ ६ २१ ६८२ २२ ६८४ २२ ८ १ पद्मवती (प्रत्यग्भचकाद्रि दिक्कुमारी) २ २९४ ३७ पद्म हृद ( सरोवर विशेष :) ४ ३५६ १४४ ४८७ ४३ ३९० १२० ३३२ १४३ १ २८७ १४१ ६५९ १५२ ३० ८१ माता) ६ ३४३ १४३ ( सुव्रत जिन माता) ६ ३१६ १४२ पद्माकरः ( दशमः स्वप्नः) २ पद्मावती ६ पद्मोत्तर (पद्मपिता ) ६ पदानुसारी (लब्धि ) १ पन्नगस्वामी २२२ ३५ ६७६ १५३ ३३२ १४३ ८६५ २७ (नागेन्द्र:) ३ १७३ ६५ पन्नगेश्वर (नागेन्द्र:) ३ १५७ ६४ पवक (पावकेन्द्र) २ पवकपति ४७३ ४३ ४७३ ४३ (पावकेन्द्र) २ पश्चिमविदेह १ ३४ २ पाण्डक (मेरी वनम् ) २ ४९२ ४३ २ ५३० ૪૪ ४ ४६३ ९५ पाण्डकं उद्यानं १ ८७६ २७ पाण्डकवनं २ ४२९ ४१ पाण्डुक (विद्याधरनिकायः) ३ पाण्डुक: (निधि) ४ २२१६६ ५७० ९८ ५७५ ९८ पाकी (विद्या) १ २२१ ६६ पादपोपगमं ( अनशन ४ प्रकारः) ६ ४६१ १४७ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक नं. पृष्ठ नं. पादपोपगमनानशनं १ ९११ २८ पालक (शाभियोगिको देवः) २ ३५३ ३९ २ ३५४ ३९ पालक (विमानं) २ १५६ ३९ २ ४७३ ४३ पावक (व्यन्तर जाति) पावंत (विद्यार निकाय:) पार्वती (विद्या) पाणपाणि (वरुण देव:) पार्श्व: (जिनः ) पिशाच ध्यन्तर जातिः ) पुब्जिकास्था ( अप्सराः) पुण्डरीक (प्रथमगणधर : ) ३ २२२ ६६ ३ २२२६६ ४ 31 ६. पार्श्वनाथ: मुलक (विद्यार ३ निकाय :) २२३ ६६ पांसुमूला (विद्या) ३ २२३ ६६ पिङ्गल (निधि) ४ ५७० ९८ * ५७६ ९८ ६ ६ १ पीठ (पूर्णभद्र जीवः, वयसेनसुतः) १ ७९५ १ ९०७ १९९ ८७ ३२२ १४२ ३२५ १४२ ६७६ १५३ २५ २ 22 २५ २८ २ ४६५ ४२ ता पुण्डरीक दक्षिण श्रेण्यां नगरम् ) ३ १८० पुण्डरीका (उदययकदिक्कुमारी) २ ( अप्सरा :) २ २ ७९१ ५२ ६ ३९१ १४४ ६ ४२११४५ ६ ४२५ १४५ ६ ४३१ १४६ ६ ४३२ १४६ ६ ४३७ १४६ ६ ४४२ १४६ ६ ४४९ १४६ ६ ५०८ १४८ ३ ६५५ ७९ ६५ २९७ ३७ ७८९ ५२ ५४ लोक नं. पृष्ठ नं. पुण्डिरीकिणी (नगरी) १ ६२८ २० १ ६६१ २१ १ ६९८ २२ १ ७९२ २५ पुरञ्जय (वैता दक्षिण श्रेण्यां नगरम् ) ३ पुरन्दर ( देवनिकाय विशेष स्वामी) ३ पुरिमाल (अयोध्याशाखापुरम्) पुरुषपुण्डरीकः (षष्ठो वासुदेवः) पुरुषोत्तमः (चतुर्थी वासुदेव:) पुरोषोरलम् (पुरोहित) ३ ३ पुष्कल (वासेन पुत्रो राजा) पुष्कलपाल पुरुषसिंह: (पञ्चमो वासुदेव:) पुरोहित (रत्नम् ) ४ ६ ४ ६ ६ ३५० १४२ १ १ पुष्पक (ईशानाभियोगिकसुरः) पुष्पक (नविविनमि विमानम् ) पुष्पकं ( ईशान विमानम् ) १ १ पुष्करावर्स (मेघः ) ५ १८९ ६५ ४ ४२ ८२ ४ ७१११०३ ५ पुष्करावर्तक (मेघः ) ४ ३ ६ १६४ ६४ ३८९ ७२ ५१२ ७४ ३४६ १४३ ३४८ १४३ ६६० १०१ ६८१ १०२ ६९८ २२ ६९० २२ ६१३ २२ ६९९ २२ ३२८ ११८ ६०० १२६ ५०१ ९६ ३२ ६० ५२७ १४९ पुष्करोद (पुष्करवर समुद्रः ) २ ४८३ ४३ पुलावती विजय १ ६२५ २० १ ७९१ २५ १ ८१३ २५ * २ ४३२ ४१ ३ १७२ ६५ २ ४३२ ४१ लोक नं. पृष्ठ नं. पुष्पमाला (अधोलोक दिक्कुमारी २ २७४ ३७ पूर्णः (द्वीपकुमारेन्द्रः ) २ ४६४ ४२ पूर्णभद्रः (श्रेष्ठ) २ २१ २९ २ ५६ ३० २ ५७ ३० "3 ( यक्षेन्द्र) २ ४६६ ४२ (सागरदत्तसुतः) १ ७२३ २३ पूर्णिनी (अप्सराः) २ ७८९ ५२ पूर्वदिपति (इन्द्र) २ ६१० ४७ पूर्व विदेह (क्षेत्रम् ) ३ २८४ ६८ ६२४ २० ७९१ २५ १६६ १३८ मेव:) पृथ्वी (सप्तमजिन माता) १ पूर्वाचल पृथक्त्व वितर्कस वीचारं शुक्लध्यानम् (प्रथम ध्यान १ ६ पौषधव्रतम् (तृतीयं शिक्षाव्रतम्) पोषषवेश्मन् पौषधशाला ३ २८९ १४१ ६६० १५२ पृथ्वीपाल (राजा) ७३३ २३ पृथिवी (प्रत्यग्रुच - काद्रि दिक्कुमारी ) २ २९४ पृथिवीदेवी (स्वय म्भूमाता ) पोतन (नगरम् ) ६ ६ ६ ६ ६ पौरस्त्यश्चाद्रिः (रचनामा पर्वतः पूर्व स्थितः ) २ पौषध ( व्रत विशेषः ) ४ ४ ३९२ ७१ ૪ ३४५ १४२ ३४० १४३ ३७७ १४४ २८२ ८५ ३७ ४ १५९ ४ १६० ४ ५५६ 2 3 3 3 5 5 Y ३७ ८६ ८३ ८७ ८३ ८३ ८५ ८५ ९८ ३ ६३८ ૪ १६० ४ ८१ ४ ८२ ८३ ४ ས ཙྩུལ$ སྨྱུ ६७३ १०१ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. पौषधम् (तविशेषः)४ १९८ ८७ श्लोक नं. पृष्ठ नं. प्रवचन १ ८८५ २८ प्रसन्नचन्द्रः (राजा)१ ३५ २ प्रसेनजित् (पञ्चमः कुलकरः) २ १८७ ३४ पौषधागार ४ ५५७ ९८ २ १९३ ३४ २ १९९ ३४ प्रह्लाद (सप्तमः प्रतिवासुदेवः) ६ ३६८ १४४ प्राग् विदेह (क्षेत्रम्) १ ५२८ १७ प्रियदर्शना (पूर्णभद्रस्य पुत्री) २ २१ २९ २ २४ २९ २ २६ २९ २ २७ २९ २९ २९ ५६. ३० श्लाक नं. पृष्ठ नं. ब्रह्मा (पञ्चम देवलोकेन्द्रः) २ ४३७ ४१ ब्रह्मा (ब्रह्मदत्त पिता) ६ ३३६ १४३. ब्रह्मा(द्विपृष्ठ पिता)६ ३४३ १४२ बलभद्रः (भरत सन्ताने राजा) ६ २५१ १४० बलवीर्यः (भरत सन्ताने राजा) ६ २५१ १४० बलाहिका (ऊर्ध्व लोकदिक्कुमारी) २ २८२ ३७ बलिः (षष्ठः प्रतिवासुदेवः)६ ३६८ १४४ बलि: (नर्वेद्य विशेषः) ३ ६७० ७९ ४ १५९ ८५ पौषधोकः (पौषध. शाला) ४ ८७ ८३ ४ १५८ ८५ १९८ ८७ ४ ५५६ ९८ प्रचेतस् (वरुणदेवः) २ ७३१ ५० प्रज्ञप्ति (विद्या) ३ १७० ६४ प्रजापति (त्रिपृष्ठ पिता) ६ ३४० १४३ प्रभञ्जन (वायुकुमारेन्द्रः) २ ४६२ ४२ प्रभावती (मल्लिजिन माता) ६ ३१४ १४२ ६ ६७२ १५३ प्रभास (तीर्थ विशेषः) ४ १९५ ८६ प्रभास (देव:) ४ २०३ ८७ ४ २०७ ८० प्रभासदेव ४ २१४ ८७ प्रभासपतिः ४ २०९ ८७ प्रभासेश (देवः) ४ २०४ ४ २०६ ८७ प्रत्यग्रुचक शैल: (पश्चिम रुचक गिरिः)२ २९३ ३७ प्रत्यगविदेह (क्षेत्रम्) ६ ३७८ १४४ ६ ३८१ १४४ ६ ३८७ १४४ प्रतिरूप: (भूतेन्द्रः) २ ४६५ ४२ प्रतिरूपा (अभिचन्द्र भार्या) २ १८२ ३४ २ १८६ ३४ rrrrrrrrrror २ ६९ ३१ २ ८९ ३१ २ १०४ ३२ २ १०६ ३२ २ १०८ ३२ २ ११० ३२ प्रिय मित्र: (चक्री वीरजीव) ६ ३७८ १४४ ६ ३८१ १४४ प्रीतिगम (शुक्रन्द्र दिमान) बलि: (असुरेन्द्रः) २ ४५२ ४२ __, (इन्द्रः) ६ ५५५ १४९ बलिचञ्चा (बलीन्द्रनगरी) २ ४५२ ४२ बलीन्द्रः (नागेन्द्रः)२ ६४३ ४८ २ ७३३ ५० ४ ३३० ९१ बहली (देशः) ५ १९८ ११४ बहलीदेश ५ ४९ १०९ ५ २८३ ११६ बहलीपतिः (बाहुबलिः) ५ ६७५ १२९ ५ ७११ १३० बहलीमण्डल (बाहुबले राज्यमण्डलम्) ३ ३३५ ६९ बहुकेतुपुर (वैतादये दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १८७ ६५ बहुमुखी (वैताढचे दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १८७ ६५ ३ १९० ६५ १ ८३४ २६ १ ७९४ २५ १ ८३७ २६ १ ८४२ २६ फणीशितृ (शेषनागः) ५ ४२८ १२१ ब्रह्म प्रतिष्ठ (सप्तम जिन पिता) ६ २८९ १४१ ६ ६६० १५२ प्रथमस्तीर्थनाथः २ ४१३ ४१ प्रथमस्तीर्थ कृत् २ ३४० ३९ २ ३४८ ३९ प्रयाग (तीर्थस्थानम्)३ ३५० ७० बर्बर (म्लेच्छजाति) ४ २६९ ८९ ३ ६२२ ७८ ब्रह्मकल्प (पञ्चमो देवलोक:) ६ ३६७ १४४ ब्रह्मचर्य ३ ६१८ ७८ ब्रह्मदत्तः (एकादशश्वक्री) ६ ३३६ १४३ ब्रह्मलोक (पञ्चमः देवलोकः) २ १०३६ ५९ २ १०४० ५९ बाहुः Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मी श्लोक नं. पृष्ठ नं. १ २ ब्राह्मणा: (मानाः) ६ ब्राह्मौ (ऋषभसुमङ्गलयोः पुत्री ) २ २ १ ( भरतभगिनी) ३ ३ ४ बाहुबलि (ऋषभ - ५ ६ सुनन्दयोः सुतः ) २ २ ३ ३ ३ ५. ५ ५ ५ ५ १७ ५८ ३ ९२ ३ ३ ५ ५ ५ ९०४ २८ ९०६ २८ ८८४ ५५ २४८ १४० ५ ५ ८८८ ९६३ ५७ ३ ६९ ३ ६९ ३ ७० ३ ३७५ ७० ३ ३७६ ७० ३ ३८० ७१ ३ ६५१ ७८ ४ ७३३ १०३ ८ १०८ ९ १०८ २४ १०८ ५० १०९ ५२ १०९ ६८ ११० ७६ ११० १२० १११ १२१ १११ १५३ ११२ १६६ ११३ १८५ ११३ १९३ ११४ १९५११४ १९६ ११४ ५५ ६५० ७८ ६५५ ७९ ७९१ १०५ ७८३ १३२ ५०८ १४८ १ १ ८८९ ५५ ९६२ ५७ ६० ६० ६१ ६२ २४४ ६७ ३३५ ६९ ३३६ ३४३ ३६४ ५६ श्लोक नं. पृष्ठ नं. १९७ ११४ १९८ ११४ २०० ११४ २०१ ११४ २०४ ११४ २११ ११४ २३५ ११५ २३९ ११५ २७५ ११६ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ २८६ ११७ ५ २८७ ११७ ५ २८९ ११७ ५ २९५ ११७ ५ २९६ ११७ ५ २९७ ११७ ५ २९८ ११७ ५ ३०० ११७ ५ ३११ ११७ ५ ३१३ ११७ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ३१६ ११७ ३६४ ११९ ३७१ ११९ ४१७ १२१ ४३९ १२१ ४५१ १२२ ५ ४६२ १२२ ५ ४६३ १२२ ५ ४६५ १२२ ५ ४७२ १२२ ५ ४७५ १२२ ५ ४८६ १२३ ५ ५१९ १२४ ५ ५२८ १२४ ५ ५३४ १२४ ५ ५४८ १२५ ५ ५४९ १२५ ५८३ १२६ ५ ५ ५८४ १२६ ५ ५८५ १२६ ५ ६०२ १२६ ५ ६०६ १२७ ५ ६०७ १२७ ५ ६०९१२७ ५ ६१५ १२७ लोक नं. पृष्ठ नं ५ ६२७ १२७ ५ ६३४ १२७ ५ ६३५ १२७ ५ ६३९ १२८ ५ ६४१ १२८ ६५७ १२८ ६५८ १२८ भद्रः ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ६८४ १२९ ६८६ १२९ ७१६ १३० ७३६ १३१ ७४१ १३१ ७५६ १३१ ७५७ १३१ ७६६ १३१ ५ ७७६ १३२ ५ ७८० १३२ ५ ७८३ १३२ ५ ७८७ १३२ ६ ५०८ १४८ ६ ७४२१५५ बीज] ( १ ८६३ २७ (म) ५ ५. ५ ५ ५ ५ ५ ६६२ १२८ ६६३ १२८ ६७१ १२९ ६७३ १२९ ६८१ १२९ ६८२ १२९ ६८३ १२९ बाजः ५ २८७ ११७ (तृतीयो बलदेवः ) ६ ३६० १४३ भद्रराज स्वयम्भूपिता) ६ ३४५ १४३ भद्रशाल (मेरी वनम् ) ६४१५ १४५ ५ ४६ १०९ २ ४९२ ४३ २ ८३६ ५३ ४४ ५३० भद्रशालक (,, ) २ भद्रसेन परवेन्द्र सेनानी) २ ४५५ ४२ भद्रा (प्रत्यचकाद्रि दिनकुमारी) २२९४ २० Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ५ ४९१ १२३ ५ ५०६ १२३ ५ ५२१ १२४ ५ ५३३ १२४ श्लोक नं. पृष्ठ नं. भद्रा (अवलमाता) ६ ३५८ १४३ (मघवमाता) ६ ३२८ १४२ भद्राशय पुर (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०५ ६५ भद्रिलपुर (नगरी) ६ २९५ १४१ भरतः (ऋषभसुमङ्गलयोः पुत्रः प्रथमश्चक्रवर्ती) २ ८८८ ५५ २ ९६० ५७ २ ९६१ ५७ २ ३३९ ३८ २ ३४८ ३९ २ ४८४ ४३ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ४ ३९२ ९६ ४ ३५७ ९२ ४ ३६९ ९२ ४ ७० ९२ ४ ४१६ ७३ ४४७ ९४ ४ ४५७ ९५ ४७९ ९६ ४ ४९० ९६ ४ ५०७ ९६ ४ ५५२ ९८ ५ ५९० १२६ ५ ६०३ १२६ ५ ६३७ १२६ ५ ६४६ १२७ ५ ६४८ १२८ ५ ६५७ १२८ ५ ६६५ १२८ ५ ६७८ १२९ ५ ६८० १२९ ५ ७४६ १३१ ७४८ १३१ ५ ७५६ १३१ m in "" ar m ३ १२ ६० m ४ ५८९ ९९ ४ ६७५ १०१ ४ ७१३ १०३ ७४४ १०४ ७४८१०४ ७५७ १०४ ४ ७७१ १०४ ४ ८०१ १०५ ४ ८०२ १०५ , ८०५ १०५ ४ ८१९१०६ ४ ८२२ १०६ ४ ८२३ १०६ ५ ३१०८ ५ ४८१०९ m m ९२ ६२ m m ३ १३० ६३ ६ १५४ १३७ ६ १७२ १३८ ६ १८९ १३८ ६ १९४ १३९ ६ २१७ १३९ ६ २२४ १३९ ६ २२७ १३९ ६ २२८ १४० ६ २४९ १४० ६ २५७ १४० ६ २६१ १४० ६ ४६२ १४७ ६ ४७७ १४७ ६ ५०२ १४८ ६ ५६६ १५० ६ ६२९ १५२ ६ ६४० १५२ ६ ६७९ १५३ ३ १५६ ३ २६९ ३ ४८९ ६४ ६७ ७४ ५ ५९ १०९ ३ ५२१ ७५ ३ ६४१ ७८ ३ ६४८ ७८ ५ १७२ ११३ ५ १९३ ११४ ५ २२० ११५ ५ २३१ ११५ ५ २४७ ११५ ६ ७३२ १५५ ६ ७४३ १५५ ६ ७४६ १५५ ६ ७४८ १५५ ५ ४१७ १२१ ४३९ १२१ ५ ४८४ १२३ ५ ४८५ १२३ ५ ४८९ १२३ ६ ७५५ १५५ ४ १८० ८६ ४ २३१ ९१ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ श्लोक नं. पृष्ठ नं. भरत (क्षेत्रम्) श्लोक नं. पृष्ठ नं. ३ १७७ ६५ ३ २८७ ६८ ५ ३ १०८ ५ ११ १०८ ४ ६७८ १०२ ४ ७०३ १०२ د श्लोक नं. पृष्ठ नं. भरतदक्षिणार्ध २ ३३९ ३८ भरतार्द्ध ३ १८० ६५ भरतार्ड दक्षिण २ ४०४ ४० भरता द्वय (उत्तर-दक्षिण भरत विभागी)४ २२७ ८७ भरतार्धम् (क्षेत्रम्) ६ २५३ १४० भरताधीश: (भरतः)४ ३४० ९१ ४ ५१० ९६ ५ १४०८ ५ ९० ११० ५ २६२ ११६ ४ ७७४ १०५ ४ ७८६ १०५ ४ ७९८ १०५ ४ ८२१ १०६ ५ १४ १०८ ५ ११२ १११ ५ १४० ११२ د د ५ ८१ ११० ५ ८९ ११० ५ २२९ ११५ ५ २२० ११५ ५ ४९१ १२३ ५ ४९८१२३ ५ ५०३ १२३ ५ ५०४ १२३ ५ ५८२ १२६ ५ ७०३ १३० ६ २७४ १४१ ६ २७६ १४१ ६ ३६७ १४४ भरतक्षेत्र दक्षिण खण्डक २ १०९ ३२ भरतक्षेत्रम् ६ ३७२ १४४ ६ ३७७ १४४ भरतक्षेत्र १ २८ २ २ १०९ ३२ २ ३३५ ३८ ५ ४५६ १२२ ५ ७२८ १३१ ६ ३७० १४४ ५ ४०८ १२० ५ ४९६ १२३ ५ ५२९ १२४ ५ ५५८ १२५ ५ ६०७ १२७ ५ ६२९ १२७ ५ ६४० १२८ ५ ६४५ १२८ ५ ६५३ १२८ ५ ७०० १२९ भरतेश: ३ ५३५ ३ ६५० ७५ ७८ ४ १८९ ८६ ४ २०९ ८७ ४ ३७२ ९२ ४ ३७३ ९२ ४ ७९२ १०५ ५ ३८९ २२० ५ ५४२ १२५ ५ ६३० १७ २ ९८३ ५७ २ १०३८ ५९ ३ ४८० ७४ १३४ ८५ ४ २३० ८८ ६ २६० १४० ६ ५११ १४८ ३ ७७ ६२ ३ ४८७ ७४ ६ १७२ १३८ ६ १९७ १३९ ६ २०० १३९ २०८ १३९ ६ २७१ १४१ ६ २७३ १४१ ६ ३८० १४४ ३८३ १४४ ६ ४४८ १४६ ६ ४७६ १४७ ६ ६३० १५२ ६ ६३२ १५२ ६ ६४५ १५२ ६ ६७८ १५३ ६ ६९८ १५४ भरतेश्वर: , که ४ ५८८ ९९ ४ ७२८ १०३ ४ ७५८ १०४ ५ ४ १०८ ५ १६८ ११३ ५ २४४ ११५ ५ २७२ ११६ ५ ४.२ १२१ ४६१ १२२ ५ ४८५ १२३ ५ ५०७ १२३ .५ ५४६ १२५ ३ ६७३ ७९ ४८ ४ ९७ ८३ ४ १५२ ८५ ४ २२७ ८७ ४ २८४ ८९ ४ ४४३ ९४ ४ ४४८ ९४ د د ७४२ १५५ ७४४ १५५ ६ ७४९ १५५ भरतेशित (भरतः) ४ ४५० ९४ ४ ५८८ ९९ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनपति ( देवनिकायः ) भवनाधीश भवनेश 31 लोक नं. पृष्ठ नं. ११ १०८ ७९ ११० ८७ ११० ८९ ११० ५ ९३ १११ ५ २४० ११५ ५ २६७ ११६ ५ २९८ ११७ ५ ५०७ १२३ ५ भवनाधिपति ( देवनिकाय विशेषस्वामी) ३ भारत ( क्षेत्रम् ) भारतवर्ष ५ ५ ५ "3 ५ ६०५ १२६ ५ ७१२ १३० ६ ९ १३३ ६ ७१९ १५४ ७२ ३ ४३६ ३ ४७१ ७३ ४ ५९८ ९९ ४३८ ७२ ३ ४४८ ७३ भवनेशस्त्रियः (भवनपति निकाय देव्यः) ३ ४७० ७३ भागीरथी (गङ्गा) ४ ६५ ८३ भानु (धर्मनाथ ३ ६ ६ ६ (प्रतिहार्यम् ) ६ पिता ) ६ ३०६ १४२ ६ ६६८ १५३ १६१ ६४ ११८ १३६ १३७ १३७ १३८ १३७ ६० १३४ ३ ४६५ ७३ ६ ३७९ १४४ २ ३३७ ३८ २ १११ ३२ २ ३३२ ३८ भारुण्ड (पक्षि प्रकारः ) ५ ६९२ १२९ भावसंलेखना ६ ४३६ १४६ भीम (राक्षसेन्द्र) २ ४६६ ४२ ५९ लोक नं. पृष्ठ नं. भूत (व्यन्तरजातिः ) २ ४६५ ४२ भूतवादित (व्यन्तर जाति) २ ४७१ ४३ भूतानन्द (नागेन्द्रः ) २ ४५९ ४२ भूमितुण्डक ( विद्याधर निकायः) ३ २२० ६६ भूमितुण्डा (विद्या) ३ २२० शृङ्ग (कल्पद्रुमः) १ २ भोगोपभोगमानम् द्वितीयगुणतम् (म) मञ्जुघोषा ( अप्सरा :) २ मध्यङ्ग (कल्पद्रुमः) २ २ १ २ भोगङ्करा (अधोलोक - दिकुमारी) २ २७४ ३७ भोगमालिनी २ २७४ ३७ भोगवती (अधोलोकदिवकुमारी) २ भोगवती (धरणेन्द्रस्य २७४ ३७ नगरी) ६ ३८४ १४४ मणिमाली ( दण्डक - नृपपुत्रः ) १ २३३ १२२ १५० १ १ Iw v 2 m ६६ मकर (राशि:) मुक्तहार (वैताढघे उत्तरयां पुरी) मगध (मगधजनपदवासिनः) ६ मगधेश्वर (नवमः प्रतिवासुदेव) ६ १६८१४४ मघवा (तृतीयचक्री) ६ ३२८ १४२ मङ्गला (पञ्चम जिनमाता) ६२८५ १४१ ६ ६५८ १५२ मणि ( मणिरत्नम् ) ४ ८ ५ ३७० ११९ ३२ २०३ ३३ ६३३ ७८ ६५ ই ই ३९२ १४४ ७८६ ५२ १२५ ३२ १५५ ३३ २३५ ८ ४३३ १४ ४३७ १४ ४३८ १४ १ ४४१ १४ ४६ ८२ ४ ७१० १०२ मणिरत्न ४ मति (प्रथमज्ञानं ) ३ मतिज्ञानम् ३ ३ मत्वज्ञानम् मथुरापुरी लोक नं. पृष्ठ नं ૪ ३०२ ९० ५६१ ९८ ५७६ ७६ ५७७ ७६ ६१५ ७७ ६१५ ७७ ३५६ १४३ १२१ ३२ १२२ ३२ ३३ २३२ ८ २३३ ८ ३ ६ मया ( कल्पवृक्षः) २ २ २ १४९ १ १ मध्यलोक ( तिर्यग्लोकः ) ५ मधुः (चतुर्थ: प्रतिवासुदेव:) ६ मन्यगिरि (मेरु : ) ५ मन:पर्ययं ज्ञानम् १ मन:पर्ययम् (चतुर्थज्ञानम् ) ३ ७६ ६२ मन:पर्यय (साधवः) ६ मन:पर्यय ४५६ १४६ (चतुर्थ ज्ञानम् ) ३ ५८० ७६ मनः पर्याय २ मन्दाकिनी (गङ्गा) २ ४ ६०० १२६ (चतुर्थ ज्ञानम् ) ३ ५७६ ७६ मन्दर (मेरुः ) मन्दराचल (मेरुः ) २ ५ ३२८ ११८ ४५४ ४२ २ ४५८ ४२ १६८ १४४ ५६५ १२५ ८०५ २५ ૪ ६ मन्दिर ( उतरण्या पुरो) ३ ३ मनु (विद्या) मनुपूर्वक मरीचिः (भरतपुत्रो ४६० ४२ २१० ३५ ५९ ८२ ५३७ ९७ १५८ १३७ २०१ ६५ २१९६६ ( विद्याधरनिकायः) ३ २१९ २१९ ६६ मनोरम (उद्यानम् ) १ ६३३ २० (सहसा रेन्द्र विमानं) २ ૪૪૦ ४२ वीरजिनजीवः) ३ ६४१ ७८ ६ १ १३३ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुदेवी श्लोक नं. पृष्ठ नं. ६ २३ १३३ ६ २४ १३३ ६ २७ १३३ ३० १३३ ३२ १३४ ३८ १३४ ४३ १३४ ४४ १३४ ४५ १३४ ४८ १३४ ४९ १३४ श्लोक नं. पृष्ठ नं. २ २१० ३५ २ २१२ ३५ २ २२७ ३५ २ २४९ ३६ २ ४१५ ४१ २ ८८६ ५५ ३ ४९१ ७४ ३ ५०४ ७४ ३ ५२७ ७५ ३ ५३० ७५ ४ ७६७ १०४ श्लोक नं. पृष्ठ नं. महानन्दनाशोक (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०१ ६५ महापद्यः (निधिः) ४ ५७० ९८ ४ ५७८ ९८ महापीठ (गुणाकरजीवः वज्रसेनसुतः) १ ७९५ १ ९०७ महापुरुष (किम्पुरुषेन्द्रः ) २ ४६७ ४२ महाबलः (धनजीवः शतबलपुत्रः) १ २४१ १ २६५ ९ ६ मलयाद्रि मल्लि १ २१ २ मल्लिनाथ ६ ३१४ १४२ ६ ३३२ १४३ ६ ३५० १४३ ६ ६७२ १५३ महाऋन्दित (व्यन्तरजातिः) २ ४७२ ४३ महाकच्छ (नृपः) ३ ८० ६२ ३ ९३ ६२ ६ ३७३ १४४ ६ ३८० १४४ ६ ३८५ १४४ ६ ३९० १४४ मरुत् (लोकान्तिक देवजाति:) २ १०३५ ५९ मरुदेवः (षष्ठकुलकरः) २ १९७ ३४ २ १९८ ३४ २ २०० ३४ '. २ २०४ ३५ २ २०५ ३५ मरदेवा (नाभिकुलकरभार्या, ऋषभदेवमाता च) २ २०१ ३४ २ २०३ ३४ २ २५२ ३६ २ २५९ ३६ २ २८९ ३७ २ ३१७ ३८ २ ३४० २ ४१० ४१ २ ४१६ १ २६८ ९ १ २८० १० १ ४४७ १५ १ ४५२ १५ महाभीम (राक्षसेन्द्रः)२ ४६६ ४२ महामतिः (महाबलस्य मन्त्री ) १ २८७ १० महायशाः (भरतसन्ताने राजा) ६ २५० १४० ६ २५१ १४० महावराहः ५ ४२७ १२१ महावीरः (चरमजिनः) ६ ३२४ १४२ ६ ३७९ १४४ महाशरवणं (वनम्)१ ६९६ २२ महाशिरा: (पुरुषपुण्डरीकपिता) ६ ३५० १४३ महाश्वेत २ ४७३ ४३ ३ १२४ ६३ ३ १२९ ६३ ३. १७३ ६५ ३ २३४ ६६ ३ ३०४ ६८ ६५४ ७९ महाकाय (महोरगेन्द्रः) २ ४६८ ४२ महाकाल: (पिशाचेन्द्रः) २ ४६५ ४२ महाकाल: (निधि.) ४ ५७० ९८ ४ ५८० ९८ महाक्रोड (महावराहः) ५ ६१२ १२७ महाध्वजः (अष्टम: स्वप्नः) २ २२० ३५ महान (वैताढघे दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९३ ६५ महाघोष (स्तनितकुमारेन्द्रः) २ ४६३ ४२ महाघोषा (ईशाने कल्पे घण्टा) २ ४३१ ४१ (कुष्माण्डेन्द्रः) महासेन (अष्टमजिनपिता) ६ २९१ २ ६१५ ४७ २ ६४७ ४८ ३ ४८७ ७४ महाहरि (हरिषेणपिता) ६ ३३३ १४३ महीधरः (ईशानचन्द्रस्य पुत्रः) १ ७२१ २३ १ ७३७ २३ महीसार (वैताढये दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १८९ ६५ ३ ५२१ ७५ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. महेन्द्रः (चतुर्थदेवलोकेन्द्र।) २ ४३६ ४१ २ ७३१ ५० २ ८२६ ५३ २ ८२७ ५३ श्लोक नं. पृष्ठ नं. माणवस्तम्भ (दिव्यः स्तूपः) १ ४९७ ११ माणिभद्रः (धनसार्थवाहस्य सखा) १ १५ ३ १ १०२ ४ " (इन्द्रः) ४ ४१६ ९३ ४ ४६३ ९५ माणिभद्रः (यक्षेन्द्रः)२ ४६६ ४२ मातङ्ग महेश्वरः (भूतवादि. तेन्द्रः) २ ४७१ ४३ महोरग (व्यन्तर जाति:) २ ४६८ ४२ महौघस्वरा (बलीन्द्र घण्टा) २ ४५२ ४२ माकार (नीतिः) २ ८९५ ५५ माकारदण्ड , २ १७८ ३४ माकारनीति- २ १९२ ३४ मागध (तीर्थ विशेष:) २ ४८४ ४३ मागधनाथ मागधतीर्थकुमार (मागधदेवः) ४ ८४ ८३ मागधतीर्थ राट् (मागधदेवः) ४ १११ ८४ मागध तीर्थम् ४ ७९ ८३ ४ १४७ ८५ ४ १४९ ८५ (विद्याधर निकाय:) ३ २२२ ६६ मातङ्गी (विद्या) ३ २२२ ६६ मातलि: (इन्द्रसारथिः) ४ ९२ ८३ मानव (विद्याधर निकायः) ३ २१९ ६६ मानवी (विद्या) ३ २१९ ६६ मानसम् (मानससरोवरः) ४ १५६ ८५ मानुषोत्तर (पर्वतः) १ ८७८ २७ श्लोक नं. पृष्ठ नं मुनिसुव्रत ६ ६७३ १५३ मुनिसुव्रतनाथ १ २२ २ भूका (नगरी) ६ ३७८ १४४ मूलवीर्यक (विद्याधरनिकायः) ३ २२१ ६६ मूलवीर्या (विद्या) ३ २२१ ६६ मूलोत्तरगुण १ ८९४ २८ मृगावती (त्रिपृष्ठ माता) ६ ३४० १४३ मृगेन्द्रासनम् (जिनप्रातिहार्यम्) ३ ६६५ ७३ मेघ (पञ्चमजिनपिता) ६ २८५ १४१ ६ ६५८ १५२ मेधक (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ १९८ ६५ मेघकुमारक (भवनपतिदेवजातिः) ६ १०६ १३६ ६ ५५२ १४९ मेषंकरा (ऊवं लोकदिक्कुमारी) २ २८२ ३७ मेषकुमाराः (भवनपतिविशेषाः) ३ ४२३ ७२ मेघमालिनी (ऊर्वलोकदिक्कुमारी) २ २८२ ३७ मेघमुख (नागकुमारदेवप्रकारः) पाथ मारीचि (अप्सराः) २ ७९३ ५२ मालव (मालवदेशवासिनः) ६ ३९४ १४४ माहना: (श्रावकाः) ६ २४८ १४० माहेन्द्रः (वताये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०६ ६६ मिश्रकेशी (उदग्रुचक दिक्कुमारी) २ २९७ ३७ मिश्र (मिश्रमोहनीयम्) ३ ६०३ ७७ मिथ्यात्व (मोहप्रकार:) ३ ६०३ ७७ मिथ्यात्वम् ३ ५९३ ७७ ४ ४४२ ९४ मागधतीर्थेश (मागधदेवः) मागधाधिप: ४ १०६ ४ ११५ ८४ ८४ ४ १४० ८५ मागधाधिपतिः (मागधदेव:) ४ १५० ८५ मागधाधीश्वरः ४ १७७ ८६ मागधेश ४ ११० ८४ माणव: (निधिः) ४ ५७० ९८ मेधवती (ऊर्वलोकदिक्कुमारी) २ २८२ ३७ मेघस्वरा (भूतानेन्द्रघण्टा) २ ४५ ४२ (धरणघण्टा) २ ४५९ ४२ मेना (अप्सराः) २ ७८७ ५२ १ ८५६ २७ मेरकः (तृतीयः प्रतिवासुदेवः) ६ ३६८ १४४ मेरा (हरिषेण माता)६ ३३३ १४३ मेरूः १ ६६१ २१ १ ८७६ २७ मिथ्यात्वमोह ३ ६०१ ७७ मिथिला (नगरी) ६ ३१४ १४२ ६ ३१८ १४२ मुनि (मुनिसुवत:) ६ ३२९ १४२ ६ ३३४ १४३ मेर्वन माणवकस्तम्भ (जिनदंष्ट्रा रक्षणस्तूपः) ६ ५६४ १५० मुनिसेन (मुनियुग्मं, वनजंघस्य बन्धू) १ ७०३ २२ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुमिरि: मोहनीय (चतुर्थ: कर्मभेद: ) यक्षकर्दम (सुगन्धि द्रव्यम्) लोक नं. पृष्ठ नं. १ ८७६ २७ २ ४२८ ४१ २ ४३९ ४१ २ ४५१ ४२ २ ४७४ ४३ २ ४९३ ४३ २ ५२९ ४४ २ ५४५ ४५ २ ५५२ ४५ २ ७७० ५१ २ ८४५ ५३ २ ८५३ ५४ ३ ९८ ६२ ३ १४३ ६४ ३ ३२५ ६९ ३ ४०२ ७१ ३ ४१० ७१ ४ १३६ ८५ ४ ४ ५ २७६ ११६ ५ ३८८ १२० ५४०२१२० ५ ४१७ १२१ ५ ५८७ १२६ ६ १०३ १३६ ६ ३९६ १४५ ६ ५१८ १४८ ६ ६२२ १५१ २२८१३७ ५ ७८१ १३२ ३ ५८४ ७७ यक्ष (व्यन्तरजातिः ) २ ४६६ ४२ २ ७३१ ५० ६४७ १०० ६७६ १०१ ६ ५४० १४९ ६ ७०५ १४४ यक्षकर्दम (मन्यब्रव्य प्रकार :) ४ ६२२ १०० यक्षराज (कुबेर: ) २ ९१३ ५५ यक्षराट् ४ ६६५ १०१ यज्ञोपवीत ६ २४८ १४० ६ २४८ १४० लोक नं. पृष्ठ नं. यथाप्रवृत्तिकरण (अध्यवसायविशेष: ३ ५८० ७७ १ २४ २ ७४ ७४ ५७२ १२५ ६२ यदुवंश यमक ( भरतदूत) ३ ५१० ३ ५११ ५ यमुना (नदी) यमुना यवना ( म्लेच्छ देश विशेष :) यशस्वी (तृतीयः कुलकर: ) यशोधरा (अपाच्य - उचकाद्रि युगन्धर: (केवली मुनि: ) ३ ३५० ७० ६ १५८ १३७ ३ ३८७ ७१ २ १७२ २ १७६ २ १७८ २ २ रत्नकुलिदापत्तन (ताचे उत्तरश्रेय पुरी) २ दिक्कुमारी) यशोमती (सगर माता ) ६ ३२७ १४२ याज्ञवल्क्य ऋषिः वेदप्रणेer) ६ २५६ १४० याम्यदग्भरक्षेत्रार्द्ध ४ ३१७ ४ ५१४ १ ३४ ३४ १ ३४ १८० ३४ १८४ X ३४ १ १ २९१ ३७ ܨ ܐ ܐ ܘ ५४८ १८ ५९६ १९ १ ५९८ १९ १ ६७७ २१ ३ ५१२ ७४ ९० ९६ युगादिनाथ युवतीतिलक (वैसाढ उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०२ ६५ (र) रक्षः (व्यन्तर जाति:) २ ४६६ ४२ रक्षापोहलिका २ ३१५ ३८ रक्ताशोक (बु) ६ १९ १३६ रत्नकम्बल: (लक्षमूल्य कम्बलविशेषः) ७४६ २४ ७४८ २४ १ ७६४ २४ १ ७६५ २४ ३ २०४ ६५ रत्नच्छन्दकम् ( सिंहासनाय पीठम् ) ६ रत्नपुञ्जः श्योदय: स्वप्नः ) रत्नपुर रनपुर (बेताब उत्तरयां पूरी रत्नप्रभा (प्रथमा (पृथ्वी) रत्नप्रभा (प्रथमा पृथ्वी) २ रत्नमयध्वजः (जिनप्रातिहार्यम् ) रत्नसिंहासन ( प्रातिहार्यम् ) रस्ताव गृहम् रता (वैताढघे दक्षिणश्रेण्यां नगरम् ) रतिकरायल (गिरिविशेष: ) लोक नं. पृष्ठ. रविपुर(संताचे दक्षिणण्य २ ६ नगरम् ) रविभासपुर (वैता दक्षिणश्रेण्यां ४ रामा (नवमजिनमाता) ६ ६ ३ ४६७ ७३ रत्नसिंहासनम् ( जिनप्रातिहार्यम्) ३ ४५३ ७३ रत्नाचल ( रोहणाद्रि) ३ १२६ १३६ २२५ ३५ ३०६१४२ २०६ ६६ ३१२ ९० नगरम् ) ३ राजगृह (नगरम् ) ६ ६०४ ४६ ६ ३१७ १४५ ६ ७१७ १५४ रम्भा ( अप्सरा ) २ ७८५ रमणीय ( अञ्जना ६ ६ ५ राधावेध रामः (नवमो बल: ) ६ ६ ६४ १३४ १२७ १३६ २ ४०२ ४० २ ४३३ ૪૧ ५२ १९० ६५ २ ६३७ ४७ ३ १९४ ६५ १९३ ६५ ३१६ १४२ ३३५ १४३ ३५४ १४३ ६९० १२९ ३६६ १४४ ३६० १४४ ६ २९३ १४१ ६ ६६२ १५३ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. रामा (अप्सराः) २ ७९२ ५२ राहु (ग्रहः) ६ ६९० १५३ ५ ६९९ १२९ रिष्ट (लोकान्तिक देवजाति:) २१०३५ ५९ रुचकद्वीप २ ३०१ ३७ रुचकद्वीपं १ ८७४ २७ १ ८७५ २७ रूपकावती (रुचक द्वोपदिक्कुमारी) २ ३०१ ३७ रूपा (रुचकद्वीपदिक्कुमारी) २ ३०१ ३७ रूपाशिका (रुचकद्वीप ___ दिक्कुमारी) २ ३०१ ३७ रेवा (नर्मदा) ६ ६९९ १५४ रोचकम् (सम्यक्त्वप्रकारः) ३ ६०५ ७७ श्लोक नं. पृष्ठ नं. २ ४२९ ४१ २ ४९२ ४३ २ ५४२ ४५ लघुः आर्षभिः (बाहुबलि:) ५ २०२ ११४ लध्वार्षभिः (बाहुबलिः) ५ ६३८ १२८ लङ्कश (अष्टमः प्रतिवासुदेवः) ६ ३६८ १४४ ललिताङ्ग (महाबलजीवः, श्रीप्रभविमानाधिपो देवः) १ ४६४ १५ १ ५२२ १७ १ ५२४ १७ रोमहस्तकम् (लि. प्रमार्जनसाधनम् ) ४ ३ ८१ रोहण (रत्नपर्वतः) ५ २९३ ११७ गेहण २ ७७० ५१ रोहण ४ ७१० १०२ रोहणाचल ३ ९८ ६२ रोहिणी (राममाता)६ ३६६ १४४ १ ६०२ १९ १ ६१५ २० १ ६२१ २० १ ६२७ २० १ ६३७ २० १ ६५९ २१ श्लोक न. पृष्ठ. नं. वजनाभः (जीवानन्दजीवः, वनसेनसुतः चक्री) १ ७९३ २५ १ ७९६ २५ १ ८०२ २५ १ ८०७ २५ १ ८१० २५ १ ८१८ २६ ८४१ २६ १ ८४२ २१ १ ८८२ २७ १ ९०६ २८ २ २०९ ३५ वज्रनाभः (ऋषभदेवजीवश्चक्रवर्ती) ३ २८४ ६८ ३ २८६ ६८ ३ २८७ , वज्रविमोकनगर (वंताढये दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १८९ ६५ वज़वेदिका १ ३१ २ वज्रसेनः (पुण्डरीकिण्या राजा तीर्थ करः) १ ७९२ २५ १ ८०१ २५ १ ८०२ २५ १ ८०३ २५ १ ८०९ २५ १ ८४० २६ वज्रसेन (तीर्थकरः) ३ २८५ ६८ ३ २८६ ६८ , २८७ ६८ , ३२२ ६९ वनसेन (तीर्थ करचक्रवर्ती) १ ६२८ २० १ ६४९ २१ १ ६८५ २२ ६९० २२ वज्रसेनजिनेश्वरः १ ८१६ २६ वज्रागलपुर (वैतादये दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १८९ ६५ वज्रजङ्घः (ललिताङ्गजीवः, सुवर्णजङ्घपुत्र.) ६२६ २० ६७१ २१ लक्ष्मणा (अष्टमजिन माता) ६ २९१ १४१ लक्ष्मिहम्यं (वैताढये उत्तरश्रेण्या पुरी) ३ १९९ ६५ लक्ष्मी (शुनाशीरभार्या) १ ७२२ २३ लक्ष्मी (सुवर्णजङ्घस्य राज्ञी) १ ६२५ २० लक्ष्मीवती (पुरुषपुण्डरीकमाता) ६ ३५० १४३ लक्ष्मीवती (अपाच्यरुचकाद्रिदिक्कुमारी)२ २९१ ३७ लक्षपाक (तैलप्रकारः) १ ७४६ २४ २ ३१० ३८ २ ३१३ ३८ २ ३१४ ३८ १ ६७५ २१ लवण (समुद्रः) ३ १७६ ६५ लवणाम्बुधिः ४ १०४ ८४ लान्तकः (षष्ठकल्पेन्द्र) २ ४३८ ४१ लान्तक १ ४०४ १३ लोकाग्रम् (सिद्धिः) ५ ४०२ १२० लोकाग्रं (सिद्ध शिला) ६ ५०६ १४८ ६ ५०९ १४८ लोकान्तिक (पञ्चमदेवलोकवासिदेवप्रकार:) १ ८०१ २५ लोकाम्तिक २ १०३६ ५९ लोहार्गल (वैतादधे दक्षिणश्रेण्यां नगरम्)३ १८८ ६५ लोहार्गल (नगरम्) १ ६२५ २० १ ६७१ २१ १ ६८८ २२ १ ७११ २२ वक्षारकगिरि २ ४९० ४३ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ श्लोक नं. पृष्ठ नं. वर्षकिरत्नम् (स्थपतिः) वर्द्धमाना (शाश्वतप्रतिमा) ६ ५७९ १५० वरदामतीर्थम् ४ १५५ ८५ वरदामप वरदामपतिः ४ १७८ ८६ वरदामराट ४ १७२ ८६ श्लोक नं. पृष्ठ नं. १ ६७३ २१ १ ६८५ २२ १ ६८९ २२ १ ६९१ २२ १ ६१४ २२ १ ६९५ २२ १ ७१८ २३ वत्समित्रा (ऊध्र्वलोकदिक्कुमारी) २ २८२ ३७ वप्रा(नमिजिनमाता)६ ३१८ १४२ ६ ६७४ १५३ वप्रा (जयमाता) ६ ३३५ १४३ व्यन्तर (देवनिकायः)३ १८३ ६५ ३ ४५७ ७३ ३ ४६३ ७३ ३ ४७१ ७३ ४ ५९८ ९९ ३ ४४५ ७३ वरदामाधिप ४ १९४ ८६ वरदामामर वरदामेश ४ १७१ ८६ ४ १९२ ८६ वरदामेश्वरः ४ १७७ ८६ वरुण (लोकान्तिक. देवजाति:) २ १०३५ ५९ वरुणः (जलदेवः) ६ ७०१ १५४ वंशवत् (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ १९८ ६५ वंशालय (विद्याधर निकायः) ३ २२३ ६६ वंशालया (विद्या) ३ २२३ । वसन्तपुरपत्तन १ ४४ २ श्लोक नं. पृष्ठ नं वामा पार्श्वजिनमाता) ६ ३२२ १४२ ६ ६७६ १५३ वायुकुमार (भवन पतिनिकायः) ४ ५०३ ९६ वायुकुमारक (भवनपतिदेवजातिः) ६ १०५ १३६ ६ ५५० १४९ वायुकुमारा: (भवनपतिदेवविशेषाः) ३ ४२२ ७२ वाराणसी (नगरी) ६ २८९ १४१ ६ ३२२ १४२ ६ ३३२ १४३ ६ ३५२ १४३ वारिषेणा (ऊर्व लोकदिक्कुमारी) २ २८२ ३७ वारिषेणा (शाश्वत प्रतिमा) ६ ५७९ १५० वारुणी (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ १९७ ६१ वारुणी (उदगुरुचक दिक्कुमारी) २ २९७ ३७ वासुपूज्यः (जिनः)६ ३०० १४२ ६ ३०३ १४२ ६ ३४२ १४३ ६ ६६५ १५३ वासुपूज्यः १ १४ १ वाहिनी (वैताढये दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९४ ६५ विचित्रा (अधोलोक दिक्कुमारी) २ २७४ ३७ विजय (क्षेत्रप्रकारः)२ ४८९ ४३ विजय (वैताढये दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९२ ६५ विजय (वैताढचे उत्तरश्रेण्या पुरी) ३ २०६ ६६ विजय (नमिजिन पिता) ६ ३१८ १४२ ६ १०८ १३६ or orror ६ १२२ १३६ ६ १२४ १३६ ६ १३३ १३७ ६ १३७ १३७ ६ १३८ १३७ व्यन्तरखियः (ब्यन्तर निकायदेव्यः) ३ ४७० ७३ ध्यन्तरामर (ध्यंतरनिकाया देवाः) ३ ४४१ ७२ व्यन्तरेन्द्रः (देवनिकायविशेषस्वामी) ३ १६२ ६४ व्यास (ऋषिः) ५ ३६१ ११९ व्योमगङ्गा ६ ६१७ १५१ वधंकिः (रत्नम्) ४ ८१ ८३ ४ १५८ ८५ ४ ६६० १०२ ४ ६८१ १०२ ४ ७११ १०३ ४ ३२० ९० ४ ३२१ ९० वर्धकिरत्न ६ ५६७ १५० ६ ६२९ १५२ १ २२३ ८ वसन्तश्री (बाहुबले राज्ञी) ३ ३४९ ७० वसिष्ठाश्रय (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०४ ६५ वसुदेव (कृष्णपिता)६ ३५६ १४३ वसुन्धरा (अपाच्यरुचकाद्रिदिक्कुमारी) २ २९१ ३७ वसुपूज्य (वासुपूज्यस्य पिता) ६ ३०० १४२ ६ ६६५१५३ वसुमती (वैताढये उसरश्रेण्यां पुरी) ३ १९९ ६५ वह्नि (लोकान्तिक देवजातिः) २ १०३५ ५९ वाजिरत्नम् ४ ४१ ८२ विजय (जयपिता) ६ ३३५ १४३ विजयः (द्वितीयो बलदेवः) ६ ३५९ १४३ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. विनीता (अयोध्या) : १ ८१ श्लोक नं. पृष्ठ नं. विश्वकर्मा (देवशिल्पी) ४ ४४ ८२ विश्वसेन (शान्ति. नाथ जिन पिता) ६ ३०८ १४२ ७२९ १०३ २६ १०८ विनीता ५ श्लोक नं. पृष्ठ नं. विजया (पूर्वरुचकाद्रि दिक्कुमारी) २ २८८ ३७ विजया (सुदर्शन माता) ६ ३६२ १४३ विजया (द्वारपाल देवी) ३ ४४९ ७३ विजया (अजितजिनमाता) ६ २७८ १४१ ६ ६५५१५२ विद्युत्कुमार (भवनपति निकाय विशेषः)२ ४६१ ४२ विद्यत्प्रभ (देवविशेषः) २ ८५३ ५४ विझुद्दीप्त (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ १९७ ६१ विद्याचारणति १ .८७८ २७ विदिगुरुचकाद्रिः (विदिगस्थित , रुचकाद्रिः) २ २९९ ३७ विदेह (महाविदेह क्षेत्रम्) ३ २३१ ६६ ३ ३२२ ६९ विदेह १ ७१९ २३ विदेहक्षेत्र २ ९८३ ५७ विदेहक्षेत्र ५ ४१८ १२१ विधाता (पञ्च प्रज्ञप्तीन्द्रः) २ ४७० ४२ विन्ध्यस्थली ६ ६९१ १५३ विन्ध्याद्रि ५ २९३ ११७ विनमि (विद्याधर पतिः) ४ ४८८ ९५ ५ २०९११४ विनीतानगरी ३ ४८७ ७४ विनीता नगरी ६ १२० १३६ ६ २२३ १३१ ६ २८३ १४१ . ६ ६८२ १५३ विपुलः (विपुलमतिमनःपर्यवज्ञानम्) ३ ५८०७६ विभङ्गशानम् ३ ६१६ ७७ विमल: (जिन:) ६ ३०२ १४२ ६ ३०५ १४२ ६ ३४४ १५२ विंशतिस्थानम् १ ८८२ २७ विशालक (कन्द्रि. तेन्द्रः) २ ४७२ ४३ विशिष्टः (द्वीप. कुमारेन्द्रः) २ ४६४ ४२ विशोकक (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०१ ६५ विष्णु (श्रेयांसमा ता)६ २९७ १४२ ६ ६६४ १५३ विष्णुराज (श्रेयांस पिता)६ २९७ १४२ - विमल (आनतप्राणतेन्द्रविमानं) २ २४१ ४२ विमल (वैतादये उत्तर श्रेण्यां पुरी) ३ १९९ ६५ विमलवाहन (प्रथम कुलकरः) २ १४६ ३३ वीत शोक (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०१ ६५ वीर ६ ३२५ १४२ ६ ६७७ १५३ वृक्षमूलक (विद्याघरनिकायः) ३ २२४ ६६ वृक्षमूला (विद्या) ३ २२४ ६६ वृषः (प्रथम स्वप्नः)२ २१३ ३५ वृषभध्वजः २ ९२९ ५३ ४ ७५५ १०४ ५ ७७९ १३२ , (ऋषभदेव:) ३ ५८ ६१ वृषभनन्दनः (बाहुबलिः) ५ ८६ ११० वृषभनाथ वृषभप्रभु वृषभलाञ्छन २ ८२४ ५३ २ ९२७ ५६ वृषभस्वामिनन्दन (बाहुबलि:) ५ ४७७ १२३ वृषभस्वामी २ ६६६ ४८ २ ८९२ ५५ ३ २५० ६७ ४ ८०८ १०६ ५ ७७८ १३२ वृषभात्मजः (बाहुबलि:) ३ ३६७ ७० वृषभात्मजः (भरतः) ३ १५ ६० १६८ , १७१ ३४ विमलस्वामी १ १५ १ विमानपतयः (वैमानिक देवाः) ३ ४३२ ७२ विमानम् (द्वादशः स्वप्नः) २ २२४ ३५ विमुखी (वैताब्ये दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९४ . ६५ विरता (वैताढये दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९० ६५ विलासयोनिपत्तन (वैताढये दक्षिणश्रेण्या नगरम्) ३ १९० ६५ , ५३५ ९७ विनमि (महाकच्छ सुतः) ३ १२५ ६३ , २०८ ६६ " २१२ ६६ " २२५ , विनयवती (महा बलस्य भार्या) १ २४४ ९ विनीता २ ९११ ५५ २ ९१२ , Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ४ ४९७ , ४ ५१४ ॥ श्लोक नं. पृष्ठ नं. वेणुदारी (सुवर्णकुमारेन्द्रः) २ ४६१ ४२ वेणुदेवः (सुवर्णकुमारेन्द्रः) २ ४६१ ४२ वेद्य (तृतीयः कर्मभेदः) ३ ५८३ ७७ वेद्यम् (सम्यक्त्वप्रकार:) ३ ५९६ ७७ वेदकम् (सम्यक्त्व प्रकारः) ३ ६०२ ७७ वेलम्ब (वायुकुमारेन्द्रः) २ वैक्रियसमुद्धात (दिव्य प्रक्रिया विशेषः) २ ४७६ ४३ वैजयन्ती (आनन्दमाता) ६ ३६३ १४३ वैजयन्ती (पूर्वरुचकाद्रि दिक्कुमारी)२ २८८ ३७ वजयन्ती (वैताढये दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९२ ६५ वैताढय (पर्वतः) + २३९ ८ वैताढय (भरत सीमावर्ती गिरिः) २ ४८९ ४३ वैताव्य (अद्रिः) २ ७७० ५१ ६ ८४ १३५ श्लोक नं. पृष्ठ नं. शक्रस्तव (इन्द्रकृता प्रभुस्तुतिः) २ ६०१ ४६ शकटमुखम् (पुरिमताल पुरोद्यानम्) ३ ३९० ७१ शकटानन (पुरिमताल. पुरोद्यानम्) ३ ५१२ ७४ शङ्कर (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ १९९ ६५ शङ्ख कः (निधिः) ४ ५७० ९८ ४ ५८३ ९८ शङ्कक (विद्याधर ___ निकायः) ३ २२१ ६६ शङ्का (विद्या) ३ २२१ ६६ शतबलः (विद्याधरो राजा) १ २४० ८ १ २५० ९ ४ ५८७ ९९ ४ ७१२ १०३ वैताढयाद्रि ५ ३०९ ११७ वैताब्याद्रिकुमार (देवः) ४ २२९ ८७ ४ २३० ८८ ४ ३२० ९० वैमानिक (देवजाति:) ५ ६०३ १२६ ५ ६९३ १३० वैमानिक (देवजातिः) ६ ११४ १३६ वैमानिकः (वैमानिकदेवः) ३ ४३८ ७२ ३ ४४८ ७२ वैमानिकस्त्रियः (देव्यः) ३ ४६९ ७३ वैमानिकस्त्रियः (वैमानिक देव्यः) ६ १३४ १३७ ६ १३६ १३७ वैमानिकामर (देवनिकायः) ४ ५०० ९६ वर्यक्षोभशिखरक (वैताढये उत्तर श्रेण्यां पुरी) ३ २०६ ६६ वैरि संहारिणी (वैताढये उत्तर श्रेण्यां पुरी) ३ १९७ ६५ वैश्रवणकूट (वैताढये दक्षिण श्रेण्यां नगरम्) ३ १९४ ६५ १ २६८ ९ १ २७३ ९ १ २७४ ९ शतमतिः (महाबलस्य मन्त्री) १ २८७ १० १ ३७५ १२ शत्रुजय (तीर्थम्) ६ ३९५ १४४ ६ ६२६ १५१ वैताढयगिरिदेव ४ २३६ ८८ वैताढय (गिरिः) ३ १६० ६४ ६ ४४८ १४६ शम (सम्यक्त्वस्य लक्षणम्) ३ ६०८ ७७ ३ ६०९ ७७ शमक (भरत दूतः) ३ ५१० ७४ ३ ५१३ ७४ श्यामा (विमलजिन माता) ६ ३०२ १४२ वैताढय पर्वत ४ २२७ ८७ ४ २४९ ८८ ४ २७३ ८९ ४ २९१ ८९ ४ २९६ ९० ४ ३३३ ९१ ४ ४५३ ९४ ४ ४८६ ९५ ४ ४९२ ९६ ४ ६९१ १०२ ६ ७५५ १५५ शक्रः ६ ४९६ १४८ शक (प्रथम कल्पेन्द्रः) ५ ५७८ १२६ शक्रपुर (वैताढये ५ ५९० १२६ दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९२ ६५ शरवणं १ ७०१ २२ शलाकापुंस्त्व १ २९ २ शलाकापुरुष १ २८ २ शशिपुर (वैतादधे दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९४ ६५ হাসিম: (अष्टमजिन:) ६ २९१ १४१ ४ ४९६ ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्रीकान्ता (मरुदेवकुलकरभार्या) २ १९७ ३४ , २०१ ३४ , २०४ ३५ , २०५ २५ श्रीकुन्थुनाथ: १ १९ १ श्रीद (कुबेर) २ ९११ ५५ श्रीदेवी ४ २२० ८७ श्रीनिकेतपुर (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०३ ६५ श्रीनेमिनाथ६ ३३७ १४३ ६ ३५६ १४३ श्रीपार्श्वनाथ ६ ३३७ १४३ श्रीप्रभ (विमानम्) १ ४६१ १५ श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्री रथनूपुर चक्रवाल (वैताढये दक्षिण श्रेण्यां नगरम्) ३ १९५ ६५ श्रीवत्स (महेन्द्रविमान) २ ४३६ ४१ श्रीवत्सी (नगरी) ६ २८१ १४१ ६ ३२८ १४२ श्रीवीरजिन १ २६ २ श्रीसम्भव श्रासिताचार्य १ ५२० १७ श्रीसुपार्श्व श्रुत (द्वितीयं ज्ञानं)१ १२४ ५ श्रुत ३ ५८२ ७७ श्रुतज्ञान १ ९०१ २८ श्रुतज्ञानम् ३. ५७८ ७६ श्लोक न. पृष्ठ. नं. शान्तिः (षोडशो जिनः पञ्चमचक्री च) ६ ३०८ १४२ ६ ३३० १४३ शान्तिनाथः ६ ६६९ १५३ शान्तिनाथ जिन: १ १८ १ शिवमन्दिर (वैताढये उत्तर श्रेण्यां पुरी) ३ १९९ ६५ शिवराज (पुरुषसिंह पिता) ६ ३४९ १४३ शिवा (नेमिजिनमाता) ६ ३२० १४२ ६ ६७५ १५३ शीतल: १ १२ १ शीतल (दशमजिनः) ६ २९५ १४१ ६ ६६३ १५३ शीलन्धर (केवलिमुनिः) १ ४२३ १४ शीलमती (धनभार्या) १ ७२४ २३ शुक्र: (सप्तम कल्पेन्द्रः) २ ४३९ ४२ शुक्लध्यानं १ ८४० २६ शुक्लध्यान ६ ३७६ १४४ ६ ४४४ १४६ ६ ७३७ १५५ शुनाशीर (मन्त्री) १ ७२२ २३ शेषवती (दत्त माता)६ ३५२ १४३ शेषवती (अपाच्यरुचका द्रि दिक्कुमारी) २ २९१ ३७ शेषाहिः (शेषनागः) ५ ६८४ १२९ शैलेशीध्यानम् ६ ४२८ १४६ शौर्यपुर ६ ३२० १४२ श्री (उदगुरुचक दिक्कुमारी) २ २९७ ३७ श्री (कुन्थुजिनमाता) ६ ३१० १४२ ६ ६७० १५३ श्राऋषभध्वज (प्रथमजिनः) ४ १८२ ८६ १ ५१७ १७ १ ६१८ २० १ ६७५ २१ श्राप्रभप्रभुः (महाबलजीव:, श्रीप्रभविमाना धिपो देव:) १ ५१० १७ श्रीबहुश्रीगृह (वैता ढये दक्षिण श्रेण्यां नगरम्) ३ १८८ ६५ श्रीमती (चक्रिसुता, स्वयंप्रभाजीवः) १ ६२९ २० १ ६४३ २१ १ ६४८ २१ १ ६५० २१ १ ६८२ २२ श्रुताऽज्ञानम् ३ ६१६ ७७ श्रेयांस (राजकुमार) ३ २४४ ६७ ., २४६ ॥ , २४७ २६५ , , २८० ६८ २९३ , २९६ , २९७ " ३०२ ॥ ___३०३ , , ३११ ६९ ,, ३२९ ॥ , ३३० , , ३३१ , १ ६८४ ॥ १ ६८७ १ ६९१ , ॥ श्रेयांस (ऋषभप्रपौत्र) ६ ५०९ १४८ श्रेयांसः (जिनः) १ १३ १ श्रेयांसः ६ २९७ १४२ ६ ३४१ १४३ ६ ६६४ १५३ श्वपाकक (विद्याधर निकाय:) ३ २२२ ६६ श्वपाकी (विद्या) ३ २२२ ६६ श्वत (कूष्माण्डेन्द्रः) २ ४७३ ४३ १ ७११ , १ ७१३ २३ १ ७२७ २३ १ ७०० २२ । श्रीमतीबन्धु Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ (उपवासद्वयम् ) ३ ७३६ २३ (उपवास) षष्ठतपः श्लोक नं. पृष्ठ नं. (ब) सगन्धर्वा उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ सगर (द्वितीय चक्री) ६ जयन्ती (वैताये दक्षिण श्रेण्यां नगरम् ) ३ सत्पुरुष ७३ ६२ ३ २३६ ६६ (स) सनत्कुमार erfire ( भवनपतिविशेषः ) २ स्थविर १ स्थासक (थापा (किम्पुरुषेन्द्र) २ ४६७ ४२ इति भाषायां ) ४ सनत्कुमार सतेरा ( विदिग् रुचकाद्रिदिवकुमारी) २ २९९ ३७ (तृतीय कल्पेन्द्र ) २ (चतुर्थचक्री) ६ सन्निहित संलेखना सप्तभूतलावाम (वैताचे दक्षिणण्या नगरम् ) ३ स्फटिकाद्रि: २०३ ६५ ३२६ १४२ १९२ ६५ सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्श संवर (चतुर्थ जिन चे क ४६२ ४२ ८८७ २८ ५ ८१ (प्रज्ञप्ती) २ ४७० ४३५ ४१ ३२९ १४२ च ४२ ६ ४३४ १४६ (अष्टापद) ६ ६२७ १५२ समद्रक (वैताचे उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०४ ६५ सम्भवः १९३ ६५ (तृतीयजिनः ) ६ २८९ १४१ ६ ६५६ १५२ ३ सम्यक्त्व ६०१ ७७ सम्यक्षद्धानम् ३ ५८२ ७७ ३५९४ ३ ५९४ ७७ ७७ १ ८९१ २८ पिता ) ६ २८३ १४१ संवर्तवात समवसरणं ( वायुविशेष: ) २ २७९ ३७ २८० समवसरण समवसरण समवसरण समवसरणम् 4 समानकः श्लोक नं. पृष्ठ नं. ६ ६५७ १५२ 33 ४ મ ६३९ १०० ७५६ १०४ ७७३ १०५ ७७४१०५ ८०८ १०६ 99 १ ८१७ २६ ५ ५७४ १२५ ३ २३१ ६६ ४२२ ७२ ४४२ ७२ ४५१ ७३ ४५६ ७३ ४५७ ४६१ ५२१ ७५ ५३४ ७५ ६७० ७९ 21 ६ १२४ १३६ १२९ १३७ १७० १३८ २५९ १४० ४१७ १४५ ५६८ १५० ५८७ १५० 11 33 " सम्भिन्नस्रोतो समीरणकुमार (भवनपति निकाय 17 31 33 " 37 23 " " 27 29 ܕ ܕ (अज्ञप्ती) २ ४७० ४२ संवेग (सम्यवस्थ समाहारा (अपाच्य रुचकाद्रि दिवकुमारी) २ २९१ सम्भिन्नमतिः लक्षणम् ) ३ ६०८ ७७ ३ ६१० ७७ (महाबलस्य मन्त्री) १ १ १ 27 71 लब्धि १ ३७ २८७ १० ३२४ ११ ३४६ १२ १ ५२० १७ १ ६१७ २० ८७३ २७ विशेषः) २ ४६२ ४२ समुद्रविजय (मिजिन पिता ) ६ ६ समुद्रविजय लोक नं. पृष्ठ ( मघवपिता ) ६ १ स्याद्वाद सर्पारिकेतु नगर (वैलाढये दक्षिण स्वयम्प्रभा (तस् यो नगरम् ३ १८८ ६५ पत्नी - देवी) १ १ स्वयम्प्रभ अञ्जना नाम) २ स्वयम्प्रभादेवी (श्रेयांस वीवो देवी) २८८ ६८ १ १ = ३२० १४२ ६७५ १५३ १ ३२४ १४२ १२ १ ५१० १७ ५१५ १७ ५१९ १७ ६०० . १९ १ ६१४ २० १ ६२७ २० १ ६५९ २१ १ ६६४ २१ १ ६७५ २१ १ ६७८ २२ १ ६८० २२ १ १ ६४३ स्वयम्बुद्धः ( महाबलस्य मन्त्री) १ २८७ १० १० १ २८८ १ २९४ १० १ ३२५ ११ १ ३४६ १२ ३७७ १३ ३९० १३ ४८ १३ १३ ३९५ १ ४०० १ ४४७ १५ १ ४५० १५ १ ४९१ १६ स्वयम्भूः (तृतीयो वासुदेवः ) ६ ३४४ १४३ स्वयम्भूरमण ( समुद्र विशेषः ) १ स्वयम्भूरमण ३ १६ १. ११९ ६३ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर श्लोक नं. पृष्ठ नं. २ २० २९ , ३१ , ॥ ७६ ३१ , ८८ ॥ २ १०० ३१ २ १०४ ३२ २ १०८ ३२ २ ११० ३२ सागरचन्द्रः (चन्दनदासस्य पुत्र.) ___ २४ ॥ सिन्धु २ २ ४५ ३० ५८ , श्लोक नं. पृष्ठ नं. स्वयम्भूरमणाम्भोधि २ ६०९ ४७ स्वर्गलीलपुर (वैताढये दक्षिण श्रेण्यां नगरम्) ३ १८८ ६५ स्वर्णगिरिः ३ २४५ ६७ स्वर्णजङ्घ (नृपः) १ ६८९ २२ सर्वतोभद्र (आरणाच्युतेन्द्र विमान) २ ४४२ ४२ सर्वतोभद्र (प्रासादः) १ ६३२ २० सर्वप्रभा (उदग् रुचकदिक्कुमारी) २ २९७ ३७ सर्वरत्नकः (निधिः)४ ५७० ९८ ४ ५७७ सर्वशत्रुञ्जय (वैताब्ये उत्तर __श्रेण्यां पुरी) ३ २०० ६५ सल्लकी (वृक्षविशेषः) ४ ६६ ८३ स्वस्तिक (मङ्गलचिह्नमष्टमङ्गल गतम्) ३ ४३१ ७२ सर्वसिद्धस्तुत (वैताढये उत्तर श्रेण्या पुरी) ३ २०० ६५ स्वाति (नक्षत्रम्) ४ ६९२ १०२ सर्वार्थसिद्धि २ ८८४ ५५ २ ८८५ ५५ सर्वार्थसिद्धि १ ९११ २८ सर्वार्थसिद्ध विमान ३ ६१ ६१ स्त्रीरत्न (चक्रिणः पट्टमहिषी) ४ २४२ ८८ ४ ५३४ ९७ ४ ७१२ १०३ ४ ७६४ १.४ सहजन्या (अप्सरा:) २ ७८८ ५२ सहदेवी (सनत्कुमार माता) ६ ३२९ १४२ सह्य (सह्याद्रिः) ५ ५५८ १२५ ५ ६६७ १२८ सहस्रपाक (तैल विशेषः) ४ १६ ८१ सहस्रारः (अष्टमकल्पेन्द्रः) २ ४४० ४२ २ ७७ ३१ २ ८४ ३१ सागरदत्तः (सार्थवाहः) १ ७२३ २५ सागरसेनः (मुनियुग्मं, वजजंघस्य बन्धू) १ ७०३ २२ सागरोपम१ ७९० २५ सामायिकव्रतम् (आद्यं शिक्षा व्रतम्) ३ ६३६ ७८ सामायिक सूत्र ४ ७९५ १.५ सारस्वत (लोकान्तिक देवजातिः) २ १०३५ ५९ सांवत्सरिक दानं ३ १८ ६० सास्वादनम् (सम्यक्त्व प्रकार:)३ ५९६ ७७ श्लोक नं. पृष्ठ नं. सिद्धार्थ (वीरजिनपिता) ६ ३२४ १४२ ६ १७७ १५३ सिद्धार्थ (उद्यानम्) ३ ७१ ६१ सिद्धार्था (चतुर्थ जिन माता) ६ २८३ १४१ ६ ६५७ १५२ सिद्धि (मोक्षः) १८८४ २८ सिद्धिस्थान (सिद्धशिला) १ ८८४ २८ सिन्धु (महानदी) २ १०९ ३२ ४ २१५ ८७ २४९ ८८ २६२ ८९ २६७ , २८१ ॥ ४०८ ९३ ४५८ ९५ , ४८२ ९५ ,, ५३९ ९७ , ६२६ १०० , ७१५ १०३ ३ १७९ ६५ ६ ११० १३६ सिन्धु (नद्यधिष्ठात्री) ४ २१६ ८७ ४ २१७ , ४ २२४ , सिन्धुदेवी ४ २१७ ४ २२६ ८७ सिन्धुनिष्कुटम् ४ २४९ ८८ सिंहकणिका (मुष्टिप्रकारः) ४ ९९ ८४ सिंहनिषद्या (जिनचैत्यम्) ६ ५६७ १५० ५८६ १५० ६ ६७८ १५३ सिंहपुर ६ २९७ १४२ सिंहरथ (बाहुबलिसेनानीः) ५ ३०० ११७ ५ ३१२ ११७ सिंहल (म्लेच्छ. जातिः) ४ २६८ ८९ सिद्ध (द्वितीयः परमेष्ठी) ३ ७३ ६२ ३ १६७ ६४ ३ ५३१ ७५ सिद्धः (परमेष्ठी) ४ ८६ ८३ सिद्धायतनकूट (वैताढये शिखर) ३ १८१ ६५ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. सिंहसेन (अनन्त जिनपिता)६ ३०४ १४२ , ७९६ ५२ , ८७१ ५४ ., ८७९ ५४ २ ८८५ ५५ २ ८८९ ५५ सीता (पुरुषोत्तममाता) ६ ३४६ १४३ सीता १ ६२४ २० सीता (महानदी) १ २२७ ८ सीता (प्रत्यग्रुचकाद्वि दिक्कुमारी) २ २९४ ३७ सुकेशी (अप्सराः) २ ७८८ ५२ श्लोक नं. पृष्ठ नं १ ९०५ २८ १ ९०६ २८ सुबुद्धिः (सुनाशीर मन्त्रिपुत्रः) १ ७२२ २३ सुबुद्धिः (श्रावकः हरिचन्द्रस्य सुहृत्) १ ४२० १४ १ ४२१ १४ १ ४२४ , सुनन्दानन्दन (बाहुबलिः) ५ २८५ ११७ ५ ६५१ १२८ ५ ६८७ १२९ ५ ७२७ १३० ५ ७४९ १३१ सुकृतमुखी ५ १ ४४२ , सुबुद्धिश्रेष्ठी ३ २४६ ६७ ३ ३२४ ६९ ३ ३२७ ६९ सुभद्रा (विजयमाता)६ ३५९ १४३ सुभद्रा (चक्रिणः स्त्रीरत्नम्) ४ ५३४ १७ (वैताब्ये दक्षिण श्रेण्या नगरम्) ३ १८९ ६५ सुखालोक (वैताढये उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०१ ६५ सुगन्धा (अप्सराः) २ ७८६ ५२ सुगन्धिनी (वैताढचे उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ २०६ ६६ ६९० १२९ सुनन्दासूनु (बाहुबलि) सुनन्दासूः (बाहुबलि) सुन्दरी (बाहुबलि भगिनी) ३ ३७९ ७१ ३ ६५१ ७८ सुग्रीव सुन्दरी सुन्दरी सुन्दरी (नवमजिनपिता) ६ २९३ १४१ ६ ६६२ १५३ सुघोष (स्तनित कुमारेन्द्रः)२ ४६३ ४२ सुघोषा (देव घण्टा) ५ २५१ १६१ सुघोषा (देव-घण्टा)२ ३४१ ३९ ॥ ३४२ , ५ ७८३ १३२ ५०८ १४८ ७३३ १०३ ७४० ७६० ४ ७६४ १०४ सुभूमः (पञ्चम चक्रो) सुभोगा (अधोलोकदिक्कुमारी) २ २७४ ३७ सुमङ्गला सुमङ्गला (ऋषभ भार्या) २ ६५० ४८ २ ७३५ ५१ २ ७९६ ५२ २ ८७१ ५४ २ ८७९ ५४ २ ८८४ ५५ ७६४ ७६७ ॥ सुदर्शन २ ८८८ ५५ (अरजिनपिता) ६ ३१२ १४२ ६ ६७१ १५३ सुदर्शन: पञ्चमो बलदेवः) ६ ३६२ १४२ सुदर्शनपुर (वैताढचे उत्तर श्रेण्यां पुरी) ३ २०६ ६६ सुदर्शना शिविका ३ २९ ६० सुदर्शना (सुप्रभमाता) ६ ३६१ १४३ सुधर्मा (इन्द्रसभा) ४ ६७१ १०१ ७७१ ॥ ७७४ १०५ सुन्दरी (ऋषभसुनन्दयोः सुता) २ ८८९ ५५ २ ९६३ ५७ सुप्रदत्ता (अपाच्य रुचकाद्रि दिक्कुमारी)२ २९१ ३७ सुप्रबुद्धा (अपाच्य रुचकाद्रि दिक्कुमारी)२ २९१ ३७ सुप्रभः (चतुर्थों बलदेवः) ६ ३६१ १४३ सुप्रभा (भद्रमाता) ६ ३६० १४३ सुपार्श्व: (सप्तम जिनः) ६ २८९ १४१ ६ ६६० १५२ सुबाहुः (सुबुद्धिजीवः, वज्रसेनसुतः) १ ७९४ २५ सुमतिस्वामी (पञ्चमजिनः) १७ १ सुमतिः ६ २८५ १४१ ६ ६५८ १५२ सुमनः (सनत्कुमारेन्द्रविमान) २ ४३५ ४१ सुमित्र(सगर पिता) ६ ३२७ १४२ सुमित्र (सुव्रत जिनपिता) ६ ३१६ १४२ ६ ६७३ १५३ सुधर्मा (चमरेन्द्रसभा) २ ४४४ ४२ सुधर्मा (शक्रसभा) ६ ५६४ १५० सुनन्दा (ऋषभपत्नी) २७४२ ५० Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक नं. पृष्ठ नं. श्लोक नं. पृष्ठ नं. सुमित्रा (नारायण माता) सुमुखी (अप्सराः) २ ७९३ ५२ सुमुखी (वंताढये दक्षिणश्रेण्या नगरम्)३ १९४ ६५ सुमेघा (कवलोक__ दिक्कुमारी) २ २८२ ३७ सुमेरु ३ १८१ ६५ ३ २२९ ६५ ४३४ ४१ २ ५१७ ४४ श्लोक नं. पृष्ठ नं. सुवत्सक (क्रन्दितेन्द्रः)२ ४७२ ४३ सुव्रता (धर्मनाथ माता) ६ ३०६ १४२ ६ ६६८ १५३ सुवत्सा (ऊर्वलोक दिक्कुमारी) २ २८२ सुविचित्र (वैताढ दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) सुविधिः (नवम जिनः) ६ २९३ १४१ ६६६२ १५३ س सुमेरु له सुविधिः (वैद्यः) १ ७१९ २३ सुविनय (वैताउथे दक्षिणश्रेण्यां नगरम्) ३ १९१ ६५ सुवेगः(भरतस्य दूतः)५ २४ १०८ २५ १०८ ३५ १०९ ४३ १०९ ५ ६८ ११० ५ ६९ ११० ५ ०९ ११० د د ५ ११०८ ५ ८८ ११० ५ ११८ १११ ५ २१८ ११४ ५ ३०४ ११७ ५ ३०५ ११७ ५ ३०७ ११७ ५ ३१७ ११७ सुस्थित (केवली मुनिः ) १६३३ २० सुसीमा (षष्ठ जिन माता) ६ २८७ १४१ ६ ६५९ १५२ सूक्ष्मक्रियम् (शुक्ल ध्यानप्रकारः) ६ ४८७ १४७ सूक्ष्मसंपराय (दशम गुणस्थानम्) ३ ३१३ ७१ सूनत ३ ६१८ ७८ सूनृतव्रतम् ३ ६२० ७८ सूर (कुन्थुजिनपिता) ६ ३१० १४२ ६ ६७० १५३ सेतुकेतुपुर (वताढये दक्षिण श्रेण्यां नगरम्) ३ १८७ ६५ सेना (तृतीयजिन माता) ६ २८१ १४१ ६ ६५६ १५२ सेनानीः ५० ८२ सेनानीरत्नम् ४ ४१ ८२ सेनापतिः ४ ६८१ १०२ د د जन सुमेरुशैल: १ ८५३ सुयशाः (केशवजीवो राजपुत्रकः) १ ७९५ २५ १ ७९६ २५ १ ७९७ २५ १ ८०८ २५ १ ८३५ २६ सुयशा (अनन्त जिनमाता) ६ ३०४ १४२ ६ ६६७ १४३ सुरगुरु (बृहस्पतिः) ५ ४५९ १२२ सुरतनागरपुर (वैतादधे उत्तर श्रेण्यां पुरी) ३ २०६ ६६ सुरादेवी (प्रत्यग्रुचकदिक्कुमारी) २ २९४ ३७ सुरूप (भूतेन्द्रः) २ ४६५ ४२ सुरूपा(यशस्विभार्या, २ १७२ ३४ २ १८० ३४ २ १८४ ३४ सुरूपा (रुचकद्वीप दिक्कुमारी) २ ३०१ ३७ सुलसा (वेदप्रणेतृ ऋषिभार्या) ६ २५६ १४० सुवर्ण २ १७५ ३४ د ५ १६० ११३ ५ १९४ ११४ ५ २०८ ११४ ५ २०९ ११४ ५ २११ ११४ ५ २१३ ११४ ५ २६१ ११६ सुषमदुःषमा (चतुर्थारः) ६ २३७ १४१ २ ११४ ३२ सुषमा (द्वितीयारः)२ ११३ ३२ सुषेण (भरत चक्रिण: सेनापतिः) ४ ४१ ८२ ४ २४८ ८८ ४ २८९ ८९ ४ ३७८ ९२ ४ ३८० ९२ ४ ४०१ ९३ ४ ४०२ ९३ ४ ४०७ ९३ ४ ७११ १०३ ४ १०५ ८४ सुवर्णकुमार (भवन पतिनिकायः) २ १६८ ३३ सुवर्णजङ्घ (नृपः) १ ६२५ २० सुव्रतः (मुनिसुव्रत ६ ३१६ १४२ सोमः (बाहुबलेः सुतः) ५ ३११ ११७ सोम (पुरुषोत्तम पिता) ६ ३४६ १४३ सौमनस (मेरुवनं) २ ५३० ४४ सोमप्रभ (बाहुबले: ___ सुतः) ५ ५८४ १२६ (बाहुबले.पुत्रो नृपः) ३ २४४ ६७ ३ ३३३ ६९ जिनः) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोम बाहुबले श्लोक नं. पृष्ठ नं. पुत्रो नृपः ) ३ २४७ ६७ ५ ७५४ १३१ सोमा बाइ बलिपुत्र :) सोमवंश (चन्द्रवंश:) ५ ७५४ १३१ सौत्रामणी (विदिग्रुच काद्रि दिक्कुमारी) २ सौधर्म (प्रथम देवलोव:) धर्मकल्प (प्रथमो देवलोक :) १ १ २ २ २९९ ३७ १ २३९ ८ २ ३९८ ४० ३ ४१९ ७२ सोपपति: २ ९०५ ५५ सस्पेन्द्र २ ५७७ ४६ ३ ४७७ ७३ सौधर्मदेवेन्द्रः २ सौधर्मनाथ ( इन्द्रः ) ४ सौधर्मपतिः सौधर्मराज सौधर्मवासवः सौधर्मेन्द्र : सोपमधिपतिः ( सौधर्मेन्द्र ) २३८ ८ ७१७ २३ ३९२ ४० ३९३ ४० ३ ४१४ ४१ ४९५ ९६ ३८ २ ३२० २ ५७३ ४६ २ ६५४ ४८ २ ४३४ ४१ ६८ ६२ ७२ श्लोक नं. पृष्ठ नं. ३ ४० १ ७१ ३ ७२ ६२ ६ ४०२ १४५ सौधर्मेश : सौराष्ट्र (देश:) सौराष्ट्र (सुराष्ट्रा जनपद वासिनः) ६ १९५ १४४ ह हराद्रि: (अष्टापद ) ६ ६२७ १५२ हरिः विकुरेद्र) २ ४६१ ४२ (विद्युत्कुमारेन्द्र हरिचन्द्र: (कुरुचन्द्र नृपसुतः) हरिकेतु (वैताचे दय १ ४०९ नगरम् ) हरिसह (विद्युत् कुमारेन्द्रः) हरिषेण: (६ हस्तिनापुर २ ३ १८७ ४६१ १३ ६५ ४२ ३३३ १४३ ३ २४९ ६७ ६ ३२९ १४२ ६ ३३१ १४३ २९९ ९० हस्तिरत्नम ४ हंसगर्भ (वैताढघे उत्तरश्रेण्यां पुरी) ३ १९८ ६५ हंसपदी (अप्सराः) २ ७९१ ५२ हाकार (नीति) २ १६४ ३३ २ १७७ ३४ २ ८९५ ५५ परिशिष्ट २ प्रथमपर्वगतम् सिङ्कलनम् ॥ सर्ग श्लोक १ २९ १ ९४ १ १०१ महात्मनां कीर्तनं हि श्रेयोनिःश्रेयसास्पदम् || जडानामुदये हन्त !, विवेकः कीदृशो भवेत् ।। न हि सीदन्ति कुर्वन्तो, देशकालोचितां क्रियाम् ।। अतिदुःखातिसी हि तस्याः प्रथमकारणम् ।। सर्वसहा महान्तो हि सदा सर्व सहोपमाः । भवन्ति हि महात्मानो गुर्वाज्ञाभङ्गभीरवः ॥ नीयन्ते यत्र तत्रेते, यान्ति सारणिवन्नृपाः ॥ १ नीचा: स्वार्थकतत्पराः ॥ १ १०७ १ १३० १ २६७ २९२ १ ३०५ हाकारदण्ड हाकार दण्डनीति हाकारनीति हास ( महाकन्दित केन्द्र) हासरति " हासा (उदग्रुचक हिमगिरि हिमवरकुमार हिमवान् गिरि विशेष :) श्लोक नं. पृष्ठ नं. २ १६४ ३३ २ १७१ ३४ २ १६२ ३३ २ १९२ ३४ दिक्कुमारी) २ २९७ ३७ हिम्साल (क्ष) ६ ९९ १३६ हिमाचलकुमार (देवनाम ) २४०२ ४३ २ ४७२ ४३ ५ ४ ४ ४६६ ९५ ३० ८१ ५ ४ हिमाद्रि: (पर्वत) ५ ३ ४ ६ हिमालय (पर्वत) ५ ही (उदग्चकदिपकुमारी) हेमा (अप्सरा :) हेमाद्रि (मेe: ) २ २ ६ कुसंसर्गात् कुलीनानां भवेदभ्युदयः कुतः । कदली नन्दति कियद्, बदरीत रुसन्निधौ ? ॥ निर्मेण नरेण किम् ? ।। दाहार इवोद्गारंगिरा भावोऽनुमीयते ॥ स्वार्थो हि मूर्खता ॥ कारणस्याऽनुरूपं हि कार्य जगति दयते । वीणायां बाद्यमानायां वेदोद्गारो न राजते ॥ प्रत्यक्षेपि प्रमाणे कि, प्रमाणान्तरकल्पना ॥ ३५८ ११९ ४६८ ९५ ३९२ १२० ४६७ ९५ ८४ ११० १७९ ६५ ७४२ १०४ ३९७ १४५ ७४ ११० २९७ ३७ ७९२ ५२ ११६ १३६ सर्ग श्लोक १ ३०६ १ ३१० १ ३२५ ३३३ ३५४ ३९८ ४०६ १ १ १ १ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स श्लोक १ ४१५ १ ४२१ १ ४४९ १ ५१५ ५२४ पुष्पच्छेदेऽथवा सर्व प्रयाति विपरीतताम् ।। अनुकूल निदेशो हि खतामुत्साहूकारणम् ॥ कीडयां कूपखननं सद्यो ने प्रदीपने ॥ आयुः कर्मणि हि लीपे नेन्द्रोऽपि स्यातुमीश्वरः ॥ प्राणान्तः सुसहः कान्ताविरहस्तु सुदुःसहः ॥ धीराः प्राणावसानेऽपि न हि यान्तीह दशाम् ॥ प्रायेण हि दरिद्राणां शीघ्रगर्भभृतः स्त्रियः ॥ जन्तोर्वज्राहतस्याऽपि मृत्युर्नाऽत्रुटितायुषः । ... तीर्थानि सर्वसाधारणानि यत् ॥ कटुतुम्ब्याः पक्वमपि फलमश्नाति कोऽथवा ? भवेदन्ते, या मतिः सा गतिः किल ॥ तापे, रत्यं छाया हि जायते ॥ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ आसन्ने व्यसने लक्ष्म्या, लक्ष्मीनाथोऽपि मुच्यते ।। १ प्रकृतिष्यत्ययः प्रायो भवत्यन्त शरीरिणाम् ॥ भाविकार्यानुसारेण, वागुच्छलति जल्पताम् ॥ नाऽलभ्यं लभ्यते क्वचित् ।। करमाण्डेको नाम यणं विनिवेशयेत् ? ।। व्याधेरन्यस्य न ह्यन्यदौषधं जातु शान्तिकृत् ।। न ह्यज्ञातस्य रोगस्य, चिकित्सा जातु युज्यते ॥ अन्यानुभूतं न ह्यन्यो, जनो जानाति जातुचित् ॥ १ अस्वातन्त्र्यं कुलस्त्रीणां धर्मो नैसर्गिको यतः ॥ नयज्ञा हि प्रस्तुतार्थेषु तत्पराः ॥ १ १ १ १ प्रव्रज्या दीपिकेवाऽऽत्तमात्राऽपि हि तमछिदे ।। १ एकचिताविपन्नानां गतिरेका हि जायते ॥ १ १ १ ५२३ ५११ ५४२ ५५३ ५९७ ५९९ ६०१ ६०४ ६०५ ६०६ ६१८ ६३८ ६४१ ૪૬ ६८१ ६८४ ६९७ ७०९ ७१६ १ ७३५ १ ७४३ १ ૭૪૪ १ ७६६ कायानपेक्षा हि मुमुक्षवः ॥ ब्राह्मणजातिरद्विष्टो वणिग्जातिरवञ्चकः । प्रियजातिरनीर्ष्यालुः, शरीरी व निरामयः ।। विद्वान् बनी गुण्यगर्वः श्रीजनाऽपचाल राजपुत्रः सुचरित्रः प्रायेण न हि दृश्यते ।। योग्यमुग्रस्य हि व्याधेः, शान्त्यामत्युग्रनोषधम् ।। १ ७६२ सर्वत्राऽद्रोहिता सताम् ॥ नरेऽस्ति स्थान अधमं स्थानमघमानां हि युज्यते ॥ न हि मोहो महात्मनाम् ॥ rarai, न हि मोक्षं विना क्वचित् ॥ स्नेहः प्राग्भवसम्बद्धो ह्यनुबध्नाति बन्धुताम् ।।१ प्रादुर्भवन्ति महतो, स्वयमेव यतो गुणाः ।। आत्मानुरूपः कर्तव्यः सारथिहि महारर्थः ॥ सम्पदि पुष्यमानेनाऽम्भोमानेनेव पचिनी ॥ बीयसि ॥ ७७३ १ ७७४ १ ७८८ १ ७९० ७९६ १ ७९९ १ ८०८ १ ८११ 89 सर्ग श्लोक १ ८३५ १ ८३७ १ ८८१ भृत्या: स्वाम्यमुगामिनः ॥ क्षयोपशमवित्र्याचित्रा हि युतसम्पदः ॥ मुमुक्षवो मिराकाङ्क्षा, वस्तुषूपस्थितेष्वपि ॥ कार्यकृद्गुह्यको जनः ॥ १ ९०८ प्रजा राजानुयायिनी ॥ २ १४ २ २३ २ २९ २ ३० व्याघ्रा अपि पलायन्ते ज्वलज्वलन दर्शनात् ॥ अजय पङ्कजिन्या हि राजहंसस्य युज्यते ॥ कार्य पणाऽपि वणिजा न हि पौयम् ॥ वणिजो लोकसामान्येऽप्यचे सासरत्तयः ॥ कृतं तेन कृतेनाऽपि, गुर्वाज्ञा यत्र लङ्घयते ॥ सर्वषाः ॥ २ २ २ ५३ ५४ एकत्र विनिवेशेऽपि काचः काचो मणिर्मणिः ॥ २ दुर्लक्षा हि पराशयाः ॥ २ ५५ ६३ २ १०३ १०५ १६९ विपरीतं न शङ्कन्ते कदाऽपि सरलाशयाः ॥ २ सरकारयन्ति ह्यात्मानं कृत्वाऽप्यागांसि माविनः ।। वन्ध्याऽप्युन्मूल्यते नैव, लता या लालिता स्वयम् ॥ २ अस्तमीयुषि पीयूषकरे तिष्ठेन्न चन्द्रिका || २ रोगे कोपधासाध्ये, देवमेषान्तरम् ।। २ १७८ प्रायो महात्मनां पुत्राः स्युर्महात्मान एव हि ।। २ १९१ शीतमप्यम्बु शीतं स्यात्, क्षिप्तया हिममृत्स्नया ॥। २ २६० सर्वतोऽपि हि शाम्यन्ति सन्तायाः प्रावृागमात् ।। २२६२ अतामुदयः केषां न स्वात् सन्तापहारकः ? ।। २ अयोऽपि वानपात्रस्यं पारं प्राप्नोति वारिधेः ॥ २ नैसगिकी हि भवति, सदा कामरूपिता स्वाम्यग्रे नाssसनात्ययः ॥ 3 ३३४ ३३६ २ ३७९ २ ३८४ सम्मर्थः खलु पर्वणि । २ ३९७ २ ४०८ उपायनं हि प्रथमं प्रणामः स्वामिदर्शने ।। भक्तो न पुनरुक्तता ॥ २ ४०९ आज्ञा हायण्डानां वचसा सह सिध्यति ॥ २ ६२३ मृत्येन रिक्तहस्तेन न कार्य स्वामिदर्शनम् ।। २६५५ नृणां लोकोशराणां हि बास्यं वपुरपेक्षया ॥ ६६४ २ २ ७३८ तुसमध्यस्य भारत्वादाकाशमनुधावति ।। स्वामिनाऽतिप्रसादेन सदा मृत्या हि वीक्षिता: । स्वच्छन्दमपि जपन्ति कदाचिदपि । २ विदित्वा स्वाम्यभिप्रायं, ये प्राहुस्ते हि सेवकाः ।। २ परार्थाय महता हि प्रवृत्तयः ॥ २ मर्यादोल्लङ्घनां लोके, राजा भवति शासिता ।। २ विश्वस्य सृष्ट हि महापुरुपसृष्टयः ॥ पात्रे, विद्या हि पातशाखिका ॥ २ २ ३५ ४६ ७६० ७६१ ८८१ ८९७ ९५३ ९६१ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्ग श्लोक उर्ग श्लोक ध्रुवा ह्यध्वा महत्कृतः ॥ २ ९६९ उपचारः समर्थानां, सद्यो भवति सिद्धये ॥ ४ ५४० अन्तरेणोपदेष्टारं, पशवन्ति नरा अपि ।। २ ९७३ क्षाराधितोऽपि रत्नानि गृह्णन्ति निपुणाः खलु ॥ ४ ७५३ एकव दण्डनीतिर्हि, सर्वान्यायाहिजाङ्गुली ॥ २ ९७९ न ददाति दरिद्रः किं, श्रीमतामप्युपायनम् ? ॥ ४ ७७९ पृथ्व्यां च पार्थिवाभावे, मात्स्यो न्यायः प्रवर्तते ॥ ३ ८ विनीतानामलधचा हि, मर्यादा स्वामिदर्शिता।। ४ ८२० याचनामेकान्तभक्तानां, स्वामिनः खण्डयन्ति न। ३ ७१ अतृप्ता एव कुर्वन्ति, सेवा मानविघातिनीम् ॥४। निर्ममा हि न लिप्यन्ते, कस्याऽप्यहिकचिन्तया ।। ३ १३९ किमातः कुरुते नहि ?॥ ४ ८४१ कल्पपादपमासाद्य, कः करीरं निषेवते ? ॥ ३ १५४ । भ्रमदर? पतितास्तिष्ठन्ति चणकाः किमु ? ।। ५ पयोमुचं विमुच्याऽन्यं, याचते चातकोऽपि . उपादेया शास्त्रलोकव्यवहारानुगा हि गीः ॥ ५ २३ किम् ? !! ३ १५५ सभृत्याः स्वामिनः क्वाऽपि, काण्डवत् प्रस्खलन्ति उद्योतोऽरुणजन्माऽपि, सूर्यजन्मैव यद् भुवि ।। ३ १६९ न ।। ५ ३५ मानिनां मानसिद्धिहि, सफला स्थानदर्शिता ॥ ३ १७४ दरिद्रोऽपि कुटुम्बेन, सेव्यते यः स ईश्वरः । अचिन्त्यप्रभावाः प्रभवः खलु ॥ ३ २९४ न सेव्यते तु यस्तेन, तस्यैश्वर्यसुखं कुतः ? ॥ ५ ९१ यत् कुर्वन्ति महान्तो हि, तदाचाराय कल्पते ॥ ३ ५३२ ।। शूरैरपि वत्तितव्यं, गुरौ हि सभयैरिव ॥ ५ १०० संयोगा विप्रपोगान्ताः, पतनान्ता इवोच्छ याः ।। ३ ५५८ सुस्वामी, गृह णाति स्खलितं न हि। ५ १०५ तत् तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाऽहितं च यत् ।। ३ ६२० आज्ञासारा न गृह्यन्ते, ज्ञातेयेन महीभुजः ॥ ५ १११ बाह्याः प्राणा नृणामों, हरता तं हता हि ते ।। ३ ६२१ गुरौ प्रशस्यो विनया, गुरुयदि गुरुभवेत् । न हि भोगफले कर्मण्यभुक्ते भवति व्रतम् ।। ३ ६५२ गुरी गुरुगुणीने, विनयोऽपि पास्पदम् ॥ ५ १३४ मन्यन्ते क्षत्रिया शस्त्र, प्रत्यक्षमधिदैवतम् ॥ ४ २ गुरोरप्यवलिप्तस्य, कार्याकार्यमजानतः । भक्तानां प्रक्रिया ह्येषा, न रत्ने तादृशे रजः॥ ४ ३ ।। उत्पथप्रतिपन्नस्य, परित्यागो विधीयते ॥ ५ १३५ पूजितः पूज्यमानो हि, केन केन न पूज्यते ।।। ४ १३ । विमृश्यकारिणः सन्तः, किं दूष्यन्ते खलोक्तिभिः? ॥ ५ १३७ विधिज्ञा हि, विस्मरन्ति विधिं न हि ।। कि वज्र, वज्रेण न विदार्यते ? ॥ ५ १४५ महान्तो हि, सेवोपनतवत्सलाः ॥ ४ १५० मार्ग एव क्षमः स्तम्बे, रथः सज्जोऽपि भज्यते ॥ ५ १४६ निह नुते दोषमज्ञता ॥ ४ १८४ कि नाम भेषज कुर्याद्, विकारे सान्निपातिके ? ॥ ५ २१६ लोके महत्त्वदानाय, महन्त्यात्मीयमीश्वराः ।। ४ १९४ यादृशो भवति स्वामी, परिवारोऽपि तादृशः ॥ ५ २२५ रवेः करैः कमलानि, कमलानि भवन्ति हि ॥ ४ २०७ दूता न मन्त्रिणः किन्तु, सत्यवाचिकवाचिनः ।। ५ २३० प्रभोः प्रसादचिह्न हि, प्राभृतादानमादिमम् ।। ४ २११ एकदाऽपि सती लुप्तशीला स्यादसती सदा ॥ ५ २४५ अलुब्धा अपि गृह्णन्ति, भृत्यानुग्रहहेतुना ।। ४ २३४ स्वामितेजो ह्यपेक्षन्ते, विक्रमायासभीरवः ॥ ५ २५४ महान्तो नाऽवजानन्ति, नृमात्रमपि संश्रितम् ॥ ४ २३५ । युक्तं वचोऽपरस्याऽपि, मन्यन्ते हि मनीषिणः ॥ ५ २६२ कृतार्था अपि भूभुजः । न त्यजन्ति दिशो दण्ड, अहो ! अखण्डप्रसरा:, कषाया महतामपि ॥ ५ २७५ चिह्न दिग्विजय श्रियः ॥ ४ २४४ सर्वेऽपि मणिताभाजः, कर्करा अपि रोहणे । ५ २९३ प्रभवः प्रणिपातेन, गृहीता: किं न कुर्वते ?।. ४ २४७ वायुतोऽपि भृशायन्ते, समरोत्कण्ठिता: खलु ।। ५ २९७ गिरिभ्योऽपि सरित्कृष्ट, रत्न रत्नाकरे व्रजेत् ।। ४ २७९ रथाः सरथ्या अपि हि, निष्फला: सारथि विना ॥ ५ ३४४ सिंहः प्रयाति यत्राऽपि, तस्योक: स्वं तदेव हि ।। ४ २८४ लल्ला अपि हि बालानां, युक्ता एव गिरो गुरी ।। ५ ३९७ सर्वास्तपोमूला हि सिद्धयः ।। ४ २८७ अयोऽपि हेमीभवति, स्पर्शात् सिद्धरसस्य हि ॥ ५ ३९८ महान्त: शक्तिमन्तोऽपि, प्रथमं साम कुर्वते । ४ २९० वनभङ्गाय सम्फेटो, मत्तयोहि वनेभयोः ॥ ५ ४४७ मनागपसरत्येव, प्रजिहीर्षुर्गजोऽपि हि ।। ४ २९४ कार्य हि खलु कारणात् ॥ ५ ४५१ उत्तमानां हि, प्रणामावधयः क्रुधः ॥ ४ ४५७ जनो ह्य दास्ते प्रायेण, परकौतुकमीक्षितुम् ॥ ५ ४५७ कार्यसिद्धे, स्तपो मङ्गलमादिमम् । ४ ४६४ सति भूयसि कि तैले, शैलाभ्यङ्गो विधीयते ?।। ५ ४६० सेवावृत्तिन लज्जाय, स्वामिवत् स्वामिनन्दने ।। ४ ५१३ धनमात्रकृते हन्त !, परद्रोह करोति कः ? ॥ ५ ४९० गुहागते स्वामिनि हि, किमदेयं महात्मनाम् ? ॥ ४ ५३५। केसरी केनचिद् दत्तं, किमश्नाति कदाचन ? ॥ ५ ५०३ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्ग श्लोक स्वाम्याज्ञा हि बलीयसी॥ कस्य दुःखाकरो न स्यान्महतां ह्यापदागमः ? ।। ५ ६३१ तिरोहितः काण्डपटेनाऽप्यर्थो न हि दृश्यते ॥ ५ ७८१ युज्यन्ते हि मृगमृगाः ॥ कालादनूषरत्वं हि, व्रजत्यूषरभूरपि ॥ ६ ३८ यान्ति दीपस्य सम्पाद, वत्तंयोऽपि हि दीपताम् ॥ ६ १७४ इन्दोमुंदुभिरप्युन दंन्तिदन्ताः स्फुटन्ति हि ॥ ६ १७९ कामरूपा हि नाकिनः ।। भक्ती स्नेहेऽपि च सतां, कत्र्तव्यं तुल्यमेव हि ।। ६ २२४ . सर्ग श्लोक पूजितः पूजितो यस्मात् , केन केन न पूज्यते ?।। ६ २४६ हस्तिभिहस्तिभारो हि, वोढुं शक्येत नाऽपरः।। ६ २५४ दिने दिने कल्पतरुदंदानो न हि हीयते ॥ ६ २६१ शशिनं पश्यतां दृष्टिर्मन्दाऽपि हि पटूयते ॥ ६ २६३ सर्वसाधारणं तपः ।। वेद्यते वेदना नैव, हर्षेणेव शुचाऽपि यत् ॥ ६ ४६६ न तापो मानसो जातु, सुधावृष्टयाऽपि शाम्यति ।। ६ ४६९ समा हि समदुःखाना, चेष्टा भवति देहिनाम् ।। ६ ४९७ यत्र तत्र प्रसक्तानां, प्रभूणां को हि बाधकः ? ॥ ६ ७१३ भक्ता हि प्रतिपत्तिदाः । स्वामिवत् स्वामिपुत्रेऽपि।। ६ ७४० न जातु वन्द्यते प्राप्त केवलोऽपि ह्यदीक्षितः ॥ ६ ७४४ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्ये प्रथमे पर्वणि शुद्धिपत्रकम् ॥ पत्राङ्कः पङ्क्तिः अशुद्धम् शुद्धम् पत्राङ्कः पङ्क्ति अशुद्धम् शुद्धम् ८ २ शसतीवा. शंसतीवा० ४१ १३ पञ्चशक्रा० पञ्च शक्रा० ८ १७ जम्बूवृक्षानुपूर्वत: जम्बूवृक्षात्तु पूर्वत:(त्रिषष्टाय ४१ २५ तत्रान्तः पाण्डकवनं तत्रान्तःपाण्ड कवनं ताडपत्रीय प्रतावयमेव पाठो ४२ १० प्रतिदिश प्रतिदिश विद्यते इति बोध्यम्)। ५० २६ दीव्य० । दिव्य० ९ २ समयाभिज्ञः, पित्रा० समयाभिज्ञ-पित्रा० (ताड- ५२ ८ मञ्जुघोषया० मञ्जु घोषया० पत्रीयोऽयं पाठः)॥ ५७१ प्रवितन्य प्रवितत्य (ताडपत्रेऽप्यय९ २४४ तमः श्लोको यदि २४९ तमश्लोकादनन्तरं मेव पाठः ।) स्यात तर्हि शोभनं स्यादिति प्रतिभाति ।। ७२ २४ ज्योतिभि० ज्योतिभिः ११ २९ जतवः जन्तवः ७२ टिप्पण्या ३ समवसरणभूमिः। ४ समवसरणभूमिः । १९ २७ प्रणष्टां प्रनष्टां ७३. ७ मध्ये समव० मध्येसमव० १८ अचला भक्तिः अचलाभक्तिः ११ स्वोकसी० स्वौकसी० २३ २० सौदर्या सोदा २० मनसि कृत्य मनसिकृत्य ३६ ३४ चेलक्षेप चेल क्नोपं (ताडपत्रेऽप्यय २६ श्वारुबिम्रतम् श्वारु बिभ्रतम् मेव पाठः ।) ८५ १ दीव्य० दिव्य ३७ २४ ०ऽप्येयु० •ऽप्यषु० (ताडपत्रे पाठः, १४ मृन्मया मृण्मया योग्यश्च ।) ९६ १६ प्लवङ्गवत् प्लवगवत Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाकः पङिक्त: अशुद्धम् शुद्धम् १०३ १८ मध्ये भरत. मध्ये भरत. १०४ १२ क्षीराग्धि क्षाराब्धि (ताडपत्रेऽप्येवमेव) १०४ २० वर्जन वधूजन. १०५ ४ भूमिको भूमीको ११३ १ नः स्वामि० न स्वामि० (ताडपत्रेऽप्येवमेव) १२२ १६ वतुतो० वस्तुतो १२५ १३ योषिषु १३३ ८ ० ऽवतप्ते मकुल • ऽवतप्तेनकुल. १४० १४ परीक्षां चक्रिरे परीक्षांचक्रिरे पमाङ्कः पङ्क्तिः अशुद्धम् शुद्धम् १४३ ३ अरमल्यन्तरे अरमल्लघन्तरे १४६ १८ स्थितास्तूयें स्थितास्तुयें १५१ ३५ (टि०) द्वे कुडधार. वे कुण्डधार० १७ टिप्पण्यां पं. ३५, 'सं १, २' इत्यनन्तरं "सु+ अस्थात्" इति स्यात्तदा शोभनम् ।। ३५९ तमश्लोकगत "दीपमल्लीव' इति पदस्य टिप्पण्या "मल्लिकाजातिविशेषः" इति लिखितमस्ति, तन्न युक्त प्रतिभाति । "दीपस्य मल्ली-दीप ज्योतिषो यो निर्गच्छति मल: श्यामः स यथा दोपोपरिवत्तिभूभागे समवृत्तो विराजते, तथा विमानस्यान्तरपि भूः समवृत्ता" इति तु योग्योऽर्थः प्रतिभाति ॥ योधेषु त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । प्रथमपर्वात्मक: प्रथमो विभागः । आद्यसम्पादक : मुनिराज श्रीचरणविजयजी महाराजः । परिशिष्टादिना समलकृत्य पुन: सम्पादकः । पूज्यपादाचार्यप्रवर श्रीविजयसूर्योदयसूरिवर-शिष्य पं. शीलचन्द्रविजय गणी । प्रकाशक : क. स. श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण-संस्कारनिधि, समदाबाद प्रतय : ५००, वि. सं. २०४६ ई. स. १९९० मूल्यम् : प्राप्तिस्थान : (१) श्रीविजयनेमिसूरिज्ञानशाला, पांजरापोळ, रिलीफ रोड, अमदावाद-३८०००१ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार, हाथीखाना, रतनपोळ, अमदावाद-३८० ००१ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિત यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न कुत्रचित् // જે અહીં છે તે અન્ય સ્થળે છે, જે અહીં નથી તે ક્યાંય નથી.’ ઉપરનાં વચન મહાભારત માટે લખાયેલાં છે. તે જ વચન ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતને સારી રીતે લાગુ પડે છે. ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિત એટલે જૈન સંપ્રદાયના સિદ્ધાંતો, કથાનકે, ઈતિહાસ, પૌરાણિક કથાઓ, તત્ત્વજ્ઞાનને સર્વસંગ્રહ, આખા ગ્રંથનું કદ 36 000 લેાક ઉપરાંત પ્રમાણનું થવા જાય છે. આ મહાસાગર સમાન વિશાલ ગ્રંથની રચના શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યે તેમની ઉત્તરાવસ્થામાં કરી હતી. શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યની સુધાવર્ષિણી વાણીનાં ગૌરવ અને મીઠાશ એ મહાકાવ્યમાં આપણે અનુભવી શકીએ છીએ. સમકાલીન સામાજિક, ધાર્મિક અને વિચારગત પ્રણાલિકાના. પ્રતિબિંબ એ વિશાલ, ગ્રંથમાં ઘણે સ્થળે આપણે જોઈ શકીએ છીએ. એ રીતે તો ગૃજરાતને તે કાલનો સમાજ અને તેનું માનસ તેમાં નિવૃઢ રીતે પ્રતિબિંબિત થયા છે. આ દૃષ્ટિએ ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતનું મહત્ત્વ હેમચંદ્રાચાર્યની કૃતિઓમાં વિશિષ્ટ પ્રકારનું છે. યાશ્રયમાં જેટલું વૈવિધ્ય તેમનાથી સાધી શકાયું છે તેના કરતાં અનેક પ્રકારે ચઢિયાતું વૈવિધ્ય આ ગ્રંથમાં દષ્ટિગોચર થાય છે. | ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરૂષચરિતમાં 63 ‘શલાકાપુરુષ’’માં ચરિતોનું આલેખન કરવામાં આવ્યું છે. ‘શલાકાપુરુષો” એટલે તે પ્રભાવક પુરુષે જેમના મોક્ષ વિષે સંદેહ નથી. આ ત્રેસઠ શલાકાપુરુષમાં ૨૪-તીર્થકર, 12 ચક્રવતી, 9 વાસુદેવ, 9 બળદેવ, તથા 9 પ્રતિવાસુદેવનો સમાવેશ થાય છે. કાવ્યની અને શશાસ્ત્રની દૃષ્ટિએ તો આ કાવ્યની વાત જ શી કરવી ? તેમાં પ્રસાદ છે, કલ્પના છે. શબ્દનું માધુર્ય છે, સરળતા છતાંય ગૌરવ છે. આ નાના પ્રકરણમાં આ બધુ ય બતાવવા માટે શી રીતે અવતરણો આપવા. ? જિજ્ઞાસુને તો મૂળJથે જોવા માટે જ ભલામણ કરવી રહી. એક પરિશીલન કરનાર કહે છે કે ‘‘એ ગ્રંથ આખેય સાવંત વાંચવામાં આવે તે સંસ્કૃતભાષાના આખા કેશને અભ્યાસ થઈ જાય તેવી તેની ગાઠવણ છે? | ત્રિષષ્ટિશલાકા પુરુષચરિતનું આખુંય અવલોકન અને પરિશીલન એ નાના પ્રકરણનો વિષય ન જ થઈ શકે. 36 000 લેકના અગાધ કાવ્યશક્તિ અને વ્યુત્પત્તિથી ભરેલા ગ્રંથનું પ્રસ્તુત પરિશીલન અત્યંત અ૯પ છે. આખાય ગ્રંથનું સમગ્ર પરીક્ષણ તા એક વિસ્તૃત મહાનિબંધનો વિષય બની શકે. હેમચંદ્રાચાર્ય નું કલિકાલસર્વ જ્ઞનું બિરૂદ આ એકલા ગ્રંથ પણ સિદ્ધ કરી શકે એ એ વિશાળ, ગંભીર, સર્વ દશી છે. એક દિશાસૂચક પ્રકાશશલાકાથી વધારે તો કયાંથી આ નાનું લખાણ આપી શકે ? કાલિદાસના શબ્દોમાં ‘‘દુસ્તર સમુદ્રને તરાપા”થી એળગવા માટે આશા સેવતા હેમસારસ્વતના ઉપાસકના પ્રયત્ન કરતાં આ પ્રકરણમાં વધારે હોઈ પણ શું શકે ? - મધુસૂદન મોદી (“હેમસમીક્ષા” માંથી સાભાર ઉદ્ભૂત) in Education Intematonal www.jainen