Book Title: Mahavidya Vidambanam
Author(s): Bhatta Vadindra, Bhuvansundarsuri, Mangesh Ramkrishna Telang
Publisher: Central Library
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો ! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૭૨ મહાવિદ્યા વિડંબના : દ્રવ્ય સહાયક : શ્રી માણિભદ્ર સોસાયટી, સાબરમતીની આરાધક શ્રાવિકાઓના સં. ૨૦૬૮ના ચાતુર્માસની જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૯ ઈ. ૨૦૧૩ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ ક્રમાંક પૃષ્ઠ કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा. पू. जिनदासगणि चूर्णीकार पू. मेघविजयजी गणि म. सा. 001 002 003 004 005 006 007 008 009 010 011 012 013 014 015 016 017 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05. 018 019 020 021 022 023 024 025 026 027 028 029 श्री नंदीसूत्र अवचूरी श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं श्री मानतुङ्गशास्त्रम् अपराजितपृच्छा शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् शिल्परत्नम् भाग - १ शिल्परत्नम् भाग - २ प्रासादतिलक काश्यशिल्पम् प्रासादमञ्जरी राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र शिल्पदीपक वास्तुसार दीपार्णव उत्तरार्ध જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ जैन ग्रंथावली હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ | न्यायप्रवेशः भाग-१ दीपार्णव पूर्वार्ध | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १ | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२ प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः शक्तिवादादर्शः क्षीरार्णव वेधवास्तु प्रभाकर पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. पू. मानतुंगविजयजी म.सा. श्री बी. भट्टाचार्य | श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री विनायक गणेश आपटे श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री नारायण भारती गोंसाई श्री गंगाधरजी प्रणीत श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा. श्री एच. आर. कापडीआ श्री बेचरदास जीवराज दोशी श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 238 286 84 18 48 54 810 850 322 280 162 302 156 352 120 88 110 498 502 454 226 640 452 500 454 188 214 414 192 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 824 288 30 | શિન્જરત્નાકર प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३ श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. 520 034 (). પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२) 324 302 196 039. 190 040 | તિલક 202 480 228 60 044 218 036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038 | તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી 045 190 138 296 (04) 210 274 286 216 532 113 112 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર ભાષા | 218. | 164 સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२ પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६ | पू. लावण्यसूरिजी म.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प प. जिनविजयजी म.सा. 160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) | श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य 668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी सं पू. मेघविजयजी गणि 516 064| विवेक विलास सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य 268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम् | सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 420 06764शमाता वही गुशनुवाह गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम् सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया 428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 308 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन 128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं श्री भगवानदास जैन 532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો १४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376 060 322 073 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 075 076 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 077 1 ભારતનો જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય 079 શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १ 081 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - २ જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૧ જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૨ 082 ह शिल्पशास्त्र भाग - 3 O83 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो भाग-१ 084 ल्याए 125 ORS विश्वलोचन कोश 086 | Sथा रत्न छोश भाग-1 0875था रत्न छोश भाग-2 હસ્તસગ્રીવનમ્ 088 089 090 એન્દ્રચતુર્વિશનિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા गुभ. शुभ, गुभ. गुभ. शुभ श्री साराभाई नवाब श्री साराभाई नवाब श्री विद्या साराभाई नवाब श्री साराभाई नवाब सं. श्री मनसुखलाल भुदरमल श्री जगन्नाथ अंबाराम शुभ. शुभ. शुभ. शुभ, गु४. सं.हिं श्री नंदलाल शर्मा गुभ. गुभ. सं सं. श्री जगन्नाथ अंबाराम श्री जगन्नाथ अंबाराम पू. कान्तिसागरजी श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री श्री बेचरदास जीवराज दोशी श्री बेचरदास जीवराज दोशी पू. मेघविजयजीगणि पू.यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 374 238 194 192 254 260 238 260 114 910 436 336 230 322 114 560 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार- संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम संपादक / प्रकाशक मोतीलाल लाघाजी पुना क्रम कर्त्ता / टीकाकार 91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी 92 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना 93 मोतीलाल लाघाजी पुना स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी 94 मोतीलाल लाघाजी पुना स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४ वादिदेवसूरिजी 95 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी साराभाई नवाब टी. गणपति शास्त्री टी. गणपति शास्त्री वेंकटेश प्रेस 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग - १ 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग - २ 99 भुवनदीपक 100 गाथासहस्त्री 101 भारतीय प्राचीन लिपीमाला 102 शब्दरत्नाकर 103 सुबोधवाणी प्रकाश 104 लघु प्रबंध संग्रह 105 जैन स्तोत्र संचय - १-२-३ 106 सन्मति तर्क प्रकरण भाग १,२,३ 107 सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४, ५ 108 न्यायसार न्यायतात्पर्यदीपिका 109 जैन लेख संग्रह भाग - १ 110 जैन लेख संग्रह भाग-२ 111 जैन लेख संग्रह भाग-३ 112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग - १ 113 जैन प्रतिमा लेख संग्रह 114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह 115 | प्राचिन लेख संग्रह - १ 116 बीकानेर जैन लेख संग्रह 117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १ 118 प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग - २ 119 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १ 120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो २ 121 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - १ 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स 126 | विजयदेव माहात्म्यम् भोजदेव भोजदेव पद्मप्रभसूरिजी समयसुंदरजी गौरीशंकर ओझा साधुसुन्दरजी न्यायविजयजी जयंत पी. ठाकर माणिक्यसागरसूरिजी सिद्धसेन दिवाकर सिद्धसेन दिवाकर सतिषचंद्र विद्याभूषण पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर कांतिविजयजी दौलतसिंह लोढा विशालविजयजी विजयधर्मसूरिजी अगरचंद नाहटा जिनविजयजी जिनविजयजी गिरजाशंकर शास्त्री गिरजाशंकर शास्त्री गिरजाशंकर शास्त्री पी. पीटरसन पी. पीटरसन पी. पीटरसन पी. पीटरसन जिनविजयजी भाषा सं. सं. सं. सं. सं. सं./अं सं. सं. सं. सं. हिन्दी सं. सं./गु सं. सं, सं. सं. सं. सं./हि पुरणचंद्र नाहर सं./हि पुरणचंद्र नाहर सं./हि पुरणचंद्र नाहर सं./ हि जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार सं./हि अरविन्द धामणिया सं./गु सं./गु सं./हि सं./हि सं./हि सं./गु सं./गु सं./गु अं. सुखलालजी मुन्शीराम मनोहरराम हरगोविन्ददास बेचरदास हेमचंद्राचार्य जैन सभा ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट वरोडा आगमोद्धारक सभा अं. अं. अं. सं. सुखलाल संघवी सुखलाल संघवी एसियाटीक सोसायटी यशोविजयजी ग्रंथमाळा यशोविजयजी ग्रंथमाळा नाहटा धर्स जैन आत्मानंद सभा जैन आत्मानंद सभा फार्बस गुजराती सभा फार्बस गुजराती सभा फार्बस गुजराती सभा रॉयल एशियाटीक जर्नल रॉयल एशियाटीक जर्नल रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. जैन सत्य संशोधक पृष्ठ 272 240 254 282 118 466 342 362 134 70 316 224 612 307 250 514 454 354 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404 404 540 274 414 400 320 148 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ - - - प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम भाषा प्रकाशक कर्त्ता / संपादक साराभाई नवाब महाप्रभाविक नवस्मरण गुज. साराभाई नवाब गुज. हीरालाल हंसराज गुज. पी. पीटरसन अंग्रेजी कुंवरजी आनंदजी शील खंड 133 करण प्रकाशः ब्रह्मदेव 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह यशोदेवसूरिजी 135 भौगोलिक कोश- १ डाह्याभाई पीतांवरदास 136 भौगोलिक कोश-२ डाह्याभाई पीतांबरदास जिनविजयजी 137 जैन साहित्य संशोधक वर्ष १ अंक - १, २ जिनविजयजी जिनविजयजी जिनविजयजी जिनविजयजी जिनविजयजी क्रम 127 128 जैन चित्र कल्पलता 129 जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग - २ 130 ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६ 131 जैन गणित विचार 132 | दैवज्ञ कामधेनु ( प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ) 138 जैन साहित्य संशोधक वर्ष १ अंक ३, ४ 139 जैन साहित्य संशोधक वर्ष २ अंक - १, २ 140 जैन साहित्य संशोधक वर्ष २ अंक-३, ४ ४ 141 जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक-१, 142 जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक-३, 143 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ 144 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२ 145 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ 146 भाषवति 147 जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण) 148 मंत्रराज गुणकल्प महोदधि 149 फक्कीका रत्नमंजूषा- १, २ 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह) 151 सारावलि 152 ज्योतिष सिद्धांत संग्रह 153 १ २ ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम् नूतन संकलन आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन श्री गुजराती श्वे. मू. जैन संघ हस्तप्रत भंडार कलकत्ता सोमविजयजी सोमविजयजी सोमविजयजी शतानंद मारछता रनचंद्र स्वामी जयदयाल शर्मा कनकलाल ठाकूर मेघविजयजी कल्याण वर्धन विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी रामव्यास पान्डेय हस्तप्रत सूचीपत्र हस्तप्रत सूचीपत्र गुज. सं. सं./अं. गुज. गुज. गुज. हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी गुज. गुज. गुज. सं./हि प्रा./सं. हिन्दी सं. सं./ गुज सं. सं. सं. हिन्दी हिन्दी साराभाई नवाब साराभाई नवाब हीरालाल हंसराज एशियाटीक सोसायटी जैन धर्म प्रसारक सभा व्रज. बी. दास बनारस सुधाकर द्विवेदि यशोभारती प्रकाशन गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी जैन साहित्य संशोधक पुना जैन साहित्य संशोधक पुना जैन साहित्य संशोधक पुना जैन साहित्य संशोधक पुना जैन साहित्य संशोधक पुना जैन साहित्य संशोधक पुना शाह बाबुलाल सवचंद शाह बाबुलाल सवचंद शाह बाबुलाल सवचंद एच. बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस भैरोदान सेठीया जयदयाल शर्मा हरिकृष्ण निबंध महावीर ग्रंथमाळा पांडुरंग जीवाजी बीजभूषणदास जैन सिद्धांत भवन बनारस श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार पृष्ठ 754 84 194 171 90 310 276 69 100 136 266 244 274 168 282 182 384 376 387 174 320 286 272 142 260 232 160 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार क्रम विषय संपादक/प्रकाशक प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम 154 उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य 155 | उणादि गण विवृत्ति कर्त्ता / संपादक पू. हेमचंद्राचार्य पू. हेमचंद्राचार्य 156 प्राकृत प्रकाश-सटीक 157 द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति 158 आरम्भसिध्धि सटीक 159 खंडहरो का वैभव 160 बालभारत 161 गिरनार माहात्म्य 162 | गिरनार गल्प 163 प्रश्नोत्तर सार्ध शतक 164 भारतिय संपादन शास्त्र 165 विभक्त्यर्थ निर्णय 166 व्योम वती - १ 167 व्योम वती - २ 168 जैन न्यायखंड खाद्यम् 169 हरितकाव्यादि निघंटू 170 योग चिंतामणि- सटीक 171 वसंतराज शकुनम् 172 महाविद्या विडंबना 173 ज्योतिर्निबन्ध 174 मेघमाला विचार 175 मुहूर्त चिंतामणि- सटीक 176 | मानसोल्लास सटीक - १ 177 मानसोल्लास सटीक - २ 178 ज्योतिष सार प्राकृत 179 मुहूर्त संग्रह 180 हिन्दु एस्ट्रोलोजी भामाह ठक्कर फेरू पू. उदयप्रभदेवसूरिजी पू. कान्तीसागरजी पू. अमरचंद्रसूरिजी दौलतचंद परषोत्तमदास पू. ललितविजयजी पू. क्षमाकल्याणविजयजी मूलराज जैन गिरिधर झा शिवाचार्य शिवाचार्य संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं. ५ - - यशोविजयजी व्याकरण व्याकरण व्याकरण धातु ज्योतीष शील्प प्रकरण साहित्य न्याय न्याय न्याय उपा. न्याय भाव मिश्र आयुर्वेद पू. हर्षकीर्तिसूरिजी आयुर्वेद ज्योतिष पू. भानुचन्द्र गणि टीका ज्योतिष पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका शिवराज ज्योतिष ज्योतिष पू. विजयप्रभसूरी रामकृत प्रमिताक्षय टीका ज्योतिष भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष भगवानदास जैन ज्योतिष अंबालाल शर्मा ज्योतिष पिताम्बरदास त्रीभोवनदास ज्योतिष काव्य तीर्थ तीर्थ भाषा संस्कृत संस्कृत प्राकृत संस्कृत/हिन्दी संस्कृत हिन्दी संस्कृत संस्कृत / गुजराती संस्कृत/ गुजराती हिन्दी हिन्दी संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत / हिन्दी संस्कृत/हिन्दी संस्कृत / हिन्दी संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत/ गुजराती संस्कृत संस्कृत संस्कृत प्राकृत / हिन्दी गुजराती गुजराती जोहन क्रिष्टे पू. मनोहरविजयजी जय कृष्णदास गुप्ता भंवरलाल नाहटा पू. जितेन्द्रविजयजी भारतीय ज्ञानपीठ पं. शीवदत्त जैन पत्र हंसकविजय फ्री लायब्रेरी साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी जैन विद्याभवन, लाहोर चौखम्बा प्रकाशन संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय बद्रीनाथ शुक्ल शीव शर्मा लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस खेमराज कृष्णदास सेन्ट्रल लायब्रेरी आनंद आश्रम मेघजी हीरजी अनूप मिश्र ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट भगवानदास जैन शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी पिताम्बरदास टी. महेता पृष्ठ 304 122 208 70 310 462 512 264 144 256 75 488 226 365 190 480 352 596 250 391 114 238 166 368 88 356 168 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम विषय | भाषा पृष्ठ पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१ | संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी 181 | संस्कृत 364 182 काव्यप्रकाश भाग-२ 222 183 काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३ 330 184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१ 156 185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२ ___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव 248 504 संस्कृत पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला 448 188 444 616 190 632 | नारद 84 | 244 श्री चंद्रशेखर शास्त्री 220 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192 जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया संस्कृत हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 422 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 304 श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर 446 |414 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी 409 476 सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ 444 संस्कृत संस्कृत/गुजराती श्री डी. एस शाह | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट 146 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग - १ नियुक्ति + टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग - २ निर्युक्ति+ टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग - ३ निर्युक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग - ५ निर्युक्ति+ टीका 207 सुयगडांग सूत्र भाग - १ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग - २ सटीक 209 सुयगडांग सूत्र भाग - ३ सटीक 210 सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 सुयगडांग सूत्र भाग - ५ सटीक 212 रायपसेणिय सूत्र 213 प्राचीन तीर्थमाळा भाग १ 214 धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग - १ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 तार्किक रक्षा सार संग्रह 219 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची । 220 221 वादार्थ संग्रह भाग - १ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका) | वादार्थ संग्रह भाग - २ ( षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, समासवादार्थ, वकारवादार्थ) वादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका) कर्त्ता / टिकाकार भाषा श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री मलयगिरि गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री धर्मसूरि सं./ गुजराती श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा संस्कृत श्री हेमचंद्राचार्य आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती आ. श्री वरदराज संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि संस्कृत संपादक / प्रकाशक श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री बेचरदास दोशी श्री बेचरदास दोशी राजकीय संस्कृत पुस्तकालय महादेव शर्मा महादेव शर्मा महादेव शर्मा महादेव शर्मा पृष्ठ 285 280 315 307 361 301 263 395 386 351 260 272 530 648 510 560 427 88 78 112 228 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GAEKWAD'S ORIENTAL SERIES Edited under the supervision of the Curator of State Libraries, Baroda. Aho! Shrutgyanam NO. XII. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aho ! Shrutgyanam Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टवादीन्द्रविरचितं महाविद्याविडम्बनम् आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकाभ्यां समन्वितम् । तथा कुलार्कपण्डितविरचिता दशश्लोकी विवरण-विवरणटिप्पणसमेता। MAHAVIDYA-VIDAMBANA OF BHATTA VÁDÎNDRA WITH THE COMMENTARIES OF ANANDAPURNA AND BHUVANASUNDARA ŜURI AND THE DAS'A-SLOKI OF KULA'RKA PANDITA WITH VIVARANA AND VIVARANA TIPPANA. EDITED WITH INTRODUCTION AND APPENDICES BY MANGESH RAMAKRISHNA TELANG RETIRED HRAD SHIRASTEDAR OF THE BOMBAY HIGH COURT. AND EDITOR OF SANGIT RATNAKAR &c. PUBLISHED UNDER THE AUTHORITY OF THE GOVERNMENT OF HIS HIGHNESS THE MAHARAJA GAEKWAD OF BARODA. CENTRAL LIBRARY BARODA. 1920. Aho ! Shrutgyanam Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by Janardan Sakharam Kudalkar, M. A., LL. B., Curator of State Libraries, Baroda, for the Baroda Government, and Printed by Manilal Itcharam Desai, at The Gujarati Printing Press, No. 8, Sassoon Buildings, Circle, Fort, Bombay. Price Rs. 2-8-0 Aho! Shrutgyanam Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION. In this 12th Volume of the Gaekwad's Oriental Series four different books are published together as all of them treat the same topic viz. Mahavidya. They are as follows:1 महाविद्याविडम्बन of श्रीमहादेववादीन्द्र with two commentaries, 1 महाविद्या विडम्बनव्याख्यान of आनन्दपूर्ण and 2 व्याख्यानदीपिका of भुवनसुन्दरसूरिन्, 2 लघुमहाविद्याविडम्बन of भुवनसुन्दरसूरिन् . 3 दशश्लोकीमहाविद्यासूत्र of कुलार्केपण्डित. 4 महाविद्यादशश्लोकीविवरण of an unknown author with the commentary महाविद्याविवरणटिप्पन of भुवनसुन्दरसूरिन्. Of these the first two are refutations of the method of Mahávidya in. ferences or syllogisms. The third is the original text of Rules laid down to frame Mahávidya syllogisms and the fourth is a Vivarana i.e. exposition of those rules. What is Mahávidya-Before attempting to give an account of the life, date and place &c. of the authors of the above works, it would be proper to introduce the reader to the subject-matter of these books viz. Mahavidya syllogisms. The word 'Mahávidya' originally meant 'a great science.' Secondly it means according to Váchaspatya of Prof. Táránátha Tarkaváchaspati, the ten goddesses beginning with Káli &c. I quote here the portion of Váchaspatya so far as relates to the word Mahavidya:महाविद्या स्त्री कर्म०-“काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी। भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ।। बगला सिद्धविद्या च मातङ्गी कमलात्मिका । एता दश महाविद्याः ।" इत्युक्तासु काल्यादिषु दशसु देवीषु । Unfortunately the name of the book wherefrom these verses are quoted is not mentioned by Prof. Tárânátha. According to this authority, however, the word Mahavidya' means the ten goddesses known in the Tantra Shastra. No other meaning of the word is given in that great dictionary. In the commentary of the 17th verse of Lalitásahasranama Bhaskara-raya (about A. D. 1562) in explaining the difference between Mantra and Vidya Aho ! Shrutgyanam Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ii says that the incantation of a male deity is termed a Mantra and that of a female deity a Vidya. Thus according to Tantra Shástra, Vidyá means an incantation of a female deity. And Mahavidyá may therefore mean a great or important incantation in as much as it is able to grant all the gr: to its devotee. But the word Mahavidyá as used in the works now published has quite a different meaning. Vádîndra, the author of Mahavidyâ-vidambana explains it as follows: केवलान्वयिनि व्यापके प्रवर्तमानो हेतुः पक्षे व्यापकप्रतीत्यपर्यवसानबलादन्वयव्यतिरेकिसाध्यविशेषं वाद्यभिमतं साधयन्महाविद्येत्युच्यते । तस्य च महाविद्यात्वमसिद्धत्वादिसकलदोषविरहः । महाविद्याविडम्बन पृ. ३. Thus, "a positive probans which being present in the subject proves the positive-negative probandum as desired by a disputant by force of the circumstance that the pervader (1) would not be established, is termed 'Mahá. vidya.' It is called Mahavidyá because it is free from all fallacies beginning with 'unproven probans' &c." It is quite natural for any one to be curious to know how the word Mahavidya which originally meant a female deity or a great incantation according to the Tantra Shástra came to denote Kevalánvayi-hetu i. e. a purely positive probans in logic or Nyáya Shástra. This can be answered only on the assumption that Kulárka Pandita who is the reputed author of the acnāuzaŠīsies must have used the word Mahavidyá symbolically to denote the Kevalánvayi-hetu, as the number of the Mahavidyá syllogisms is Shodasha, that is, 16 which corresponds with Shodashi which is also one of the names of the female deity (of the Tántrikas) specially worshipped by him. Thus it appears that Kulárka Pandita being himself a great Tántrika may have specially made use of the numbers ten and sixteen symbolically in consideration of his great devotion and reverence for the female deity. As far as I know there is no other explanation forthcoming. References to Mahavidyá in ancient Sanskrit Books-Now let us see what information we can collect about Mahávidyá and Kulárka Pandita from ancient Sanskrit works. The Mahavidyá syllogisms have not been mentioned in the Vaiseshika sûtras of Kanada, its Bhashya of Prasastapáda and its commentary Nyáyakandalf of Sridharáchárya (A.D. 991). Similarly we do not find any trace of the Mahavidyá syllogisms in the Nyáyasutras of Gotama, its Bhashya of Vátsyáyana, its Vártika of Uddyotakara and its commentary Nyáyavártikatátparyatîka of Váchaspatimishra (Samvat 898, A. D. 842). 1 gèazar azanı: afèqzı famı zfa mafaquidquiąsta erur: faaafmurazeyeyeangaarzaवेति योतनाय मन्त्राणां मध्ये विधेत्युक्तम् । कलिता सहानाम १.९ ( निर्णयसागर Aho! Shrutgyanam Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vádîndra, author of the Mabávidya-vidambana, himself says that the Mahavidya syllogisms have not been mentioned by the Satrakára! (Kaņáda) and Bhashyakára (Prasastapáda). Nor do we find any allusion made to these syllogisms in the published works of Udayanacharya (A. D. 984) such as Nyayakusumanjali, Atmatattvaviveka and Kiranávali. An indirect reference to Mahavidya syllogisms seems to have been made by Shribarsha in his great controversial work Khandana-Khanda-Khádya. In this work while refuting the arguments of Udayanacharya in support of difference', Shriharsha has the following passage: गन्धे गन्धान्तरप्रसस्जिका न च युक्तिरस्ति । तदस्तित्वे वा का नो हानिः । तस्याः अस्माभिः खण्डनीयत्वात् । There is no argument to establish the existence of a further smell in smell. And if there be any such argument, what do we lose? Because we have got to refute the same." The commentator Anandapûrņa in the commentary upon the sentence तदस्तित्वे &c. in the above passage states that there is an argument to establish the existence of a further smell and sets forth the following syllogism which is evidently framed after the Mahavidya method of inference:__ "अयं गन्धो गन्धवद्वत्तित्वरहितगन्धवन्मात्रवृत्त्यधिकरणं प्रमेयत्वात् घटवत् ।" From the above statements it may be inferred that the Mahavidya syllogisms were known to Sriharsha (A. D. 1187) and Anandapurna (A. D. 1529-1600). The earliest direct reference made to Mahavidya is in the Tattva-pradipiká, familiary known as Chitsukhî of Chitsukháchárya who lived about A.D. 1200 In one place Chitsukháchârya quotes a syllogism under the name of Mahávidya* and in another place reproduces the 4th syllogism from the Mahavidya Daśaśloki Satra of Kulárka Pandita without mentioning the name of the book or author. But the commentator Pratyagrapa-bhagawan in explaining this last syllogism says that the author Chitsukhácharya here sets forth KularkaPandita's syllogism for the purpose of refutation, I have not been able to trace any direct reference to Mahávidya or Kulárka Pandita earlier than this. After Chitsukhâchârya, the next author who refers to Mahavidya syllo1 सूत्रकारभाष्यकाराभ्यां तदव्युत्पादनात् । महाविद्याविडम्बन पृ. ९८ 2 खण्डनखण्डखाद्य पृ. ११८१ 3 खण्डनखण्डखाद्य पृ. ११८२ (चौखम्बा) 4 अथवा अयं घटः एतद्धटान्यत्वे सति वेद्यत्वानधिकरणान्यः पदार्थत्वात्पटवदित्यादिमहाविद्याप्रयोगैरप्यवेधत्व. प्रसिद्धिरप्युहनीया। तत्त्वप्रदीपिका पृ. १३ (निर्णयसागर) 5 अस्तु तर्हि गन्धवन्तो गन्धवदगन्धावृत्तिगन्धवद्वत्त्यन्यधर्मवन्तः xxx प्रमेयत्वात् ज्वलनादिवत् । तत्वप्रदीपिका पृ. ३०४ (नि. सा.) 6 एवं प्रत्यक्ष जातौ प्रत्याख्याय कुलार्कपण्डितोत्रीतमनुमानमुद्रावयति दयितुं तहीति। महाविद्याविडम्बनम् । पृ. १३० Aho ! Shrutgyanam Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gisms is Amalananda alias Vyâsâśrama (about A. D. 1247-1260), the author of (1) Vedant Kalpataru,' a commentary on the well-known Bhâmati of Vâchaspati Miśra and (2) Sastra-darpaņa,. an original treatise on the Adhikaranas of Branha Sutras. The next reference to Mahavidya is by Anandajnána better known as Anandagiri (A.D. 1260-1320) in his able work Tarkasangraha which is a refutation of the various definitions of the categories &c. current in the Vaiseshika and Nyáya systems of philosophy. For the sake of the convenience of the reader, full quotations from this as well as other works referring to Mahavidya, Kulárka Pandita and Vádîndra are given in a separate statement after this Introduction. The next author who refers to Mahavidya, Vadindra and his Mahavidya Vidamban is the great Rámánuja Philosopher Srivenkatanátha well known by the epithet Vedântâchârya. He lived between A.D. 1267-1369.* In his tw works on the system of Rámánuja's philosophy viz. Nyáyaparishuddhis and Tattva-Mukta-Kalapa, Venkatanatha refers to Mahavidyâ syllogisms. In the latter work he further mentions Vádîndra and his (Mahavidya) Vidambana also. He has refuted Vâdîndra's view that the Kevalanvayi-hetu is entirely untenable. He agrees that the method of Mahâvidyâ is not sound but holds that the Kevalânvayi-hetu with a Kevalanyayi-sâdhya is sound and can be logically established. The next reference to Mahâvidyâ-vidambana under the name of Daśa. sloki-vidambana and to its author Vâdîndra is made by sesha Śârngadhara in his Nyâya-Muktavali' which is a commentary on the Lakshanâvali of the celebrated Naiyâyika Udayanâchârya. Sesha Śârngadhara flourished about A. D, 1450.8 Further we find that Pratyagrûpabhagavân has mentioned Kulärkao 1 एवं सर्वा महाविद्यास्तच्छाया वान्ये प्रयोगाः खण्डनीया इति । वेदान्तकल्पतरुः अ. २ पा. २ सू. ३७ (8.9 € u fã. .) 2 महाविद्यावेतद्विषया वेदान्तकल्पतरौ निर्भसिताः । शास्त्रदर्पणः अ. १ पा. २ अधि ५. (8.936 auffante) 3 Vide Anandajnana's Tarkasangrahs p. 22 published as No. III of this series (Gackwad's Oriental series.) 4 Vide the preface of alcançar 7446104 Vol I (Váni Vilás Edition): 5 Vide Nyâyaparishuddhi, pages 125, 126, 273 to 276 and 278, (Choukhambá Edition). 6 Vide Tattwamukta-Kalapa with Sarvârtha-siddhi, pages 478, 485, and 486 to 491 (Reprint from Pandit, Benares). 7 Vide Lakshanayali pages 6, 23, and 42. (Reprint from Pandit, Benares). 8 Vide Introdudtion to Tarkasangraha of Anandajnans p. xviii (Gaekwad's oriental series). Dr. Arthur Venice in his bibliographical note on Lakohanavali places Sesha Sharngadhara between the 15th and 17th centurios. 9 See Tattvapradipikâ p. 304. (N. 8. Edition). Aho ! Shrutgyanam Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V Pandita only once, and Mahâvidyâ1 and Vâdîndra several times in his commentary Nayanaprasâdinî on Chitsukhâchârya's Tattvapradîpiká. Thus from the foregoing references we find that the Mahavidyâ syllogisms were first known in the 12th century and since then they have been referred to by some authors till the 15th century of the Christian era. But it is rather curious that none of the Maithila and Bengal Naiyâyiks of the Modern school such as Gangesopadhyaya, Raghunatha Siromani, Mathurânâtha, Jagadiśa, Gadâdhara and others mention Mahâvidya, Kulârka Pandita Vádindra and his Mahavidya-vidambana in the discussion of the Kevalânvayihetu in their works. Date of Mahavidya-From all the above evidence we can definitely say that the method of Mahavidyâ syllogisms had its origin before the 12th century. From the statements made by Vâdîndra and Bhuwanasundara in their works, it is certain that one Kulârka Pandita. was the author of the ten Mahävidyá Kárikás (verses) or दशश्लोकीमहा विद्यासूत्र. Who is Kulárka Pandita-As regards the life and date of Kulârka Pandita very little can be gathered. The only manuscript of Daśaśloki-Mahâvidya Sûtra that was furnished to me does not give any information about the author of the work either in the beginning or end. It contains no Mangala verses. Nor do the ten verses possess any internal evidence to determine the name of its author. The authorship of these verses is ascribed to Kulârka Pandita on the authority of the statements made by Vâdîndra, Bhuvanasundara and Pratyagrupa-bhagavân in their works. My learned friend T. M. Tripathi Esq. B. A. of Bombay in his Introduc⚫ tion to the Tarkasangraha of Ánandajnâna p. xix says "Kulârka Pandita does not seem to be a proper name but originally an epithetical name-PanditaKulârka (i. e. the sun in the assemblage of learned men) mistaken for a proper name by separating the first word Pandita and transposing it." This may perhaps be so but it gives us no clue to find out the real name of Kulârka Pandita. Whether Kulárka Pandita is identical with Siváditya MiśraVâdîndra at the beginning of the third chapter of his Mahavidyâ-vidambana says as follows:-"Since Sivâditya and other logicians knowing that the positive-negative probans is nullified by Upâdhi (accident) have proclaimed the Mahavidyâ syllogisms, I, Vâdîndra, the religions councillor of King Śrisimha have made these efforts to refute them." 1 See Tattva-pradipika pages 13, 21, 181, 184, 206, 243, 284 and 289. N. S. Edition 2 See Ditto pages, 171, 181, 183, 184, 206, 208, 221, 235, 286 and 243. 3 उपाधिव्याधिनिर्धूतमन्वयव्यतिरेकिणम् । मत्वोद्भिन्नमहाविद्याः शिवादित्यादितार्किकाः ॥ २॥ तेषामेष विशेषेण निराकरणसंभ्रमः । श्रीसिंहधर्माध्यक्षेण वादीन्द्रेण विधीयते ॥ ३ ॥ 2 Aho! Shrutgyanam महाविद्याविडम्बन पृ. ९९ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ This statement may lead one to think that Sivaditya himself may be Kulêrka, as he is said to have proclaimed Mahâvidyâ syllogisms. But this is not sufficient to identify Kulârka Pandita with Sivaditya Miśra. For, Vâdîndra, Pratyagrûpa-bhagavan and Bhuvansundara have all separately mentioned the names of Kulârka Pandita and Sivaditya Miśra in their works. Vâdîndra mentions Kulárka' Pandita only once and Sivaditya Miśra four times separately. Pratyagrûpa-bhagavân, the commentator of Chitsukhi, also mentions the name of Kulárka: Pandita only once and that of idityat some ten times separately. Bhuvanasundara in his commentary on Mahávidyavidambana also mentions Kulárka Pandita and Sivaditya Misra separately. Had both of them been identical Bhuvanasundara would have explained it accordingly in the commentary. Besides, wherever the name of Kulárka Pandita appears in the above books, it is invariably mentioned in connection with the Mahavidya syllogisms only and not in connection with any other topic. But the name of Sivaditya Misra is mentioned in connection with the definitions of Guna, Jati, Satpratipaksha &c. No doubt Sivaditya Miśra seems to have made use of the Mahavidya syllogisms of Kulárka Pandita and written either a commentary on the Daśaśloki-Mahavidya-sätra or an original work in support of the same as may be inferred from a verse of Ś aditya's quoted by Vádîndra in his Mahávidyavidambana. In commenting on this verse Bhuvanasundara says that the verse is quoted by Vádîndra from another treatise on Mahavidya. Many Authors Wrote Works on Mahavidya Before Vadindra Many learned men who preceded Vádîndra seem to have written works either in refutation or support of the Mahavidya syllogisms. For, Vádîndra 1 कुलार्कपण्डितैस्तु केनाभिप्रायेण स्वेतरपदं प्रयुक्तमिति चिन्त्यम् । महावि० वि० पृ. १७ 2 यदाहुः शिवादित्यमिश्राः। महावि० वि० पृ. ७४ उद्भिनमहाविद्याः शिवादित्यादितार्किकाः ॥ सत्प्रतिपक्ष एवायं न विरुद्धो न हेत्वाभासान्तरमिति शिवादित्यादितार्किकाः। पृ. १०९ शिवादित्यमिश्नास्तु पूर्वोक्तन्यायेन साध्याभावप्रसिद्धिं कृत्वा । पृ. ११७ 3 Vide Chitsukhi p. 304 (N. S. Edition). 4 Vide Ditto pp. 180, 188, 190, 192, 200, 287, 810 and 323 (N. 8. Edition). 5 यदाहुः शिवादित्यमिश्राः पक्षतद्भिनवृत्तित्वरहितत्वानुरजितः । धर्मः साध्यवतः साध्यो मेयत्वात्प्रतिभाक्षये ॥ इति महावि० वि० पृ.७४ 6 इयं च कारिका महाविद्याग्रन्थान्तरस्थिता अत्र प्रन्थे अयं शब्दः स्वस्वेतरेत्यादिप्रथममहाविद्यार्थसंग्रह. प्रतिपादिकावगन्तव्या। महावि. वि. पृ. ७५ Aho ! Shrutgyanam Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vii reproduces some arguments of an older author in refutation of Mahavidya1 and also some argument of another author in support of Mahavidya. Bhuvanasundara in his commentary on the former portion of this text has a note that the author (Vádîndra) reproduces an objection put forward by another Vidambanakára (i. e. another critic who had written a Vidambana or refutation of Mahavidyá) and on the latter portion he adds a note that the author reproduces a syllogism explained by an Ekadeśi i. e. an author who partially supports Mahavidya. Moreover Vádindra in the second chapter of the Mahavidyá-vidambana3 quotes a verse from an older author in refutation of the Kevalánvayi-hetu. The author of Mahavidya-vivaraṇa at the end of the work, states that although the ten verses of Mahavidya had been annotated by the ancients, he has explained them for the edification of the dull-witted.* It must be noted here that Mr. S. Kuppusvámi Śástri of Madras has recently acquired two different Commentaries on Mahávidyá, one of them by Purushottamavana, and another by Párna- prajna. Venkatanátha Vedantáchárya (A. D. 1267-1269) in his Nyáyapariśuddhi says that the ‘“crooked syllogisms" set forth in Mahavidyá, Mána-Manohara, Pramánamanjari &c. are fallacious. Śrînivásáchárya in his commentary Nyáyasára on Nyáyapariśuddhi in explaining the above passage says "Mahavidyá, Mánamanohara, and PramanaManjarî are the names of books. There are many such books. The 'crooked syllogisms' which are set forth in all those books and which are common to the antagonistic party are included under the fallacy termed "Unproven probans."' 1 यत्पुनरत्र कैश्विदुक्तं स्वस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्तत्वं नाम x x x x द्रष्टव्या इति । महावि० वि० पृ. ६-७ 2 येतु अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वव्यतिरिक्तानित्यनिष्ठधर्माधिकरणमिति प्रतिजानते तेषां सिद्धसाधनं स्पष्टम् । महावि० वि० १. १० महावि० वि० १.७६ 3 मानं हन्त न केवलान्वयवतो धर्मस्य सत्त्वेऽपि च Bhuvanasundara gives the complete verse in his commentary on p. 77 remarking that it is from the work of an ancient Acharya. 4 महाविद्यादशश्लोकी विवृतापि चिरन्तनैः । मन्दधीवृद्धिसिध्यर्थं विवृतेयं यथागमम् ॥ महावि. वि. १. १८८ 5 श्रीमहाविद्या- मानमनोहर-प्रमाणमञ्जर्यादिपठितवानुमानस्यापि तथात्वम् ( अप्रयोजकत्वम् ) । न्यायपरिशुद्धिः पृ. २७८ ( चौखम्बा ) 6 श्रीमहाविद्यामान मनोहरप्रमाणमञ्जरीति ग्रन्थनामधेयानि । एवंजातीयका अन्येऽपि ग्रन्थाः सन्ति । तत्र तत्र पठितानि परपक्षसाधारणानि वक्रानुमानान्यप्रयोजकतया व्याप्यत्वासिद्धान्तर्भूतान्येवेत्यर्थः । न्यायपरिशुद्धिटीका पृ. २७८ ( चौखम्बा ) Aho! Shrutgyanam Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ viii Thus many learned men seem to have handled the Mahavidyá-syllogisms from A. D. 1100 to 1500. Dasa-sloki-Mahavidya Sûtra-If we examine the Daśaśloki Mahavidyá sûtra, we find that it consists of only ten verses in Anushtubh Metre, the 9th verse being in Upajáti Metre. These 10 verses lay down 16 rules for framing the various Mahavidyá syllogisms, each rule being followed by an example of the syllogism framed under that rule. The author of the Mahavidyá sûtra abruptly begins the rules without the usual Mangala (invocation) or prefatory remarks. Further he has neither mentioned the introductory reasons (e) nor even hinted at them.1 The author of the Mahavidya-vivarana has marked this defect and observed "some men find fault with this treatise for not mentioning the relation and use &c." He has tried to answer this objection by explaining that as the book treats of a subordinate topic of a science, it is covered by the AnubandhaChatushtaya of the principal science." The origin and object of Mahavidyá syllogisms-Bhuvana-sundarasûri at the commencement of his commentaries on Mahavidyá-vidambana and Mahavidya-vivarana gives two verses in Áryá metre stating how Mahávidyá syllogisms originated. The purport of these verses is as follows:-"The Bháttas (followers of the Mîmánsá school of Kumárila Bhatta) hold sound to be eternal but the Yougas" i. e. Vaiśeshikas or Naiyáyikas hold it to be noneternal. Hence a controversy arose between them. Therefore in order to convince the Bhátta disputants of the non-eternity of sound the great Áchárya of the Yougas created the Mahavidya syllogisms." 1 The Sanskrit authors generally at the commencement of a book state the four introductory reasons viz 1 विषय subject of the book, 2 प्रयोजन use of the book, 3 अधिकारी the person qualified to study or read the book, 4 the relation of the book to the subject matter &c. 2 इह खलु केचित्संबन्धप्रयोजनाद्यनभिधानेन असमीचीनत्वमाक्षिपन्ति । महाविद्याविवरण पृ. १६० 3 शास्त्रप्रतिपादितार्थैकदेशसंक्षेपकं हि प्रकरणम् । इदमपि तथा । अतः शास्त्रीयैरेव तैरिदमपि तद्वत् । महाविद्या विवरण पृ. १६० 4 भाट्टा नित्यं शब्द योगाद्या वादिनस्त्वनित्यं च । प्रतिजानते ततोऽयं जातस्तेषां विवादोऽत्र ॥ १॥ तत्तस्यानित्यत्वं प्रतिपादयितुं भाट्टवादीन्द्रान् । योगाचार्यों वर्यः कृतवानेतां महाविद्याम् ॥ २ ॥ महाविद्या विडम्बन पृ. २, १५७ 5 For the use of the word '' in the sense of a follower of the Vaiseshika or Nyaya school of philosophy see प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार with रत्नाकरावतारिकाटीका परिच्छेद १ पृ. १६; परि. ३ पृ २, ११, १३; परि. ४५१; परि. ५, १५१, ७१, ८६; and प्रमेयकमलमार्तण्ड पत्र ३४, १९९,२०८; and also qûyogafa 9 €, e, zv, 3, xx, xe &c. Gunaratna, a Jain author (A. D. 1409) says that the Naiyâyikas were called "yougas" and the Vaiseshikas "Pasupatas."' Vide pp. 49 and 51 of qecinayzappfe of Gunaratna (Bibliotheca Indica Edition). Aho! Shrutgyanam Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The controversy about the eternity or otherwise of sound existed from a very ancient time between the Mîmánsakas on one hand and the Vaiseshikas Naiyáyikas, Buddhists &c, on the other. This is evident from Jaimini's Mimánsá sâtra, Sabara's Bhashya, Kunárila's Slokavártika, Párthasarathi Mikra's Sástradîpika+ and a number of works on Mîmánsá in which a separate Adhikarana, generally known as the 'sabdanityatádhikarana,' is devoted t prove the eternity of sound and refute the contrary arguments of the Naiyáyiks, Buddhists &c. On the other hand the view of the Mîmánsakas is criticized by the Vaiseshikas in Kanada's Vaišeshika sutra, Prasastapada's Bhashya, Sridhara's Nyayakandali &c. and by the Naiyáyikas in Gotama's Nyayasutra,7 Vátsyayana's Nyáyabhashya, Udyotakara's Nyáya-vârtika, Váchaspati Misra's Nyáyavártika-tátparya-tîká, Jayanta Bhatta's Nyáya-Manjariae &c. Sankara Misra alludes to this controversy in his Vadivinoda.11 Thus the controversy about the eternity of sound has been carried on by the Mîmánsá and the Nyáya and Vaiseshika schools of philosophy even in later books. And as stated in the above Arya, Yougacharya who was a follower of the Vaiseshika or the Naiyáyika school seems to have revived the controversy by inventing the method of Mahavidya syllogisms to refute the eternity of sound maintained by the Mîmánsakas. The word Yougacharya appears to be an honorific of Kularka Pandita who according to the statements of both Vadindra and Bhuvanasundara is the author of the Mahavidya Karikás. Vádîndra has explained and supported the Mahavidya syllogisms in the first chapter of his Mahavidya-vidambana, although he has refuted them in the second and third chapters. He says that his efforts in the expositions of these syllogisms have a two-fold object viz. firstly, it would remove the impression of the Mahavidyavádí that his opponents do not understand the Mahavidya syllogisms, and secondly, a disputant whose resources fail him during a discussion for want of accurate reasoning may employ the Mahavidya 1 HAIETE, locfaceaifa 9.9.-77 2 prachrez g. 96-17 (alamat) 3 toallita g. 686-689 ( trit) 4 persifat .933-989 (fauzari ) 5 वैशेषिकसूत्रं शङ्करमिश्रकृतोपस्कारसहितं अध्या २ आ. २ सू. २१-३७ 6 REA91CH/61 F31776-tahá g. RC-R68 (fast.writ) 7 79121 ATFATTAHTOÀN 37.7 341. 2 93-80 (fas. arsit) 87491fårė g. 362–39. (Saal fa. s.) 9 paraqif tasarcqejetar go som 2x (far. Fait) 10 F31 g. 704-23 (fast. fraft) 11 alszyfaculeafarciemat: Fas cant aceastafafa dreifitatasarafaga aeftaeigi X X X विरोधनिग्रहस्थानासाकर्यमस्याकरे द्रष्टव्यम् । arrafacile g. Ru (873€117 ) Aho ! Shrutgyanam Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ syllogisms against the Buddhists, just as Játis (futile rejoinders) are employed when one fails to duly detect faults" (in the arguments of his opponent). But at the end of the third chapter Vádîndra raises a question "What is the object of refuting the Mahávidya syllogisms which can be used to prove anything desired by oneself ???? He answers this question as follows:-The object of refuting the Mahavidya syllogisms is to demonstrate that they are fallacious like Jatis i. e, futile rejoinders. Otherwise the pupils who may be employing the Mahavidya syllogisms in a controversy) will be defeated on account of the faults previously pointed out by the opponent."3 It may be observed here that both Venkatanátha Vedantáchárya and Pratyagrûpa-bhagaván style the Mahavidya syllogisms as 'Vakránumánas' (वक्रानुमान) i.e. crooked syllogisms.4 Why Mahavidya syllogisms became obsolete--The (Mahavidya sylisms seem to have aroused a keen interest among the Pandits of the 11th to 15th centuries and therefore they have been referred to in several works composed during that period as shown above. Many books were written in support as well as in refutation of Mahavidya. But none of them seem to have lived after Vádîndra wrote his Mahavidya-vidambana and completely exploded the theory of Mahavidya syllogisms by proving them to be fallacious. Hence none of the authors after the fifteenth century refer to these syllogisms, The modern Bengal school of Nyáya has not at all recognized them. Vádîndra and his Mahavidya-vidambana-So far we have tried to explain what is meant by Mahávidya and given an account of its author Kulárka Pandita and his work Daśaśloki-Mahávidya Satra, Now we shall turn to Vádîndra and his work Mahavidya-vidambana. Like many other Sanskrit authors very little is known of the life, time and place of Vádîndra. Whatever information we can gather from his own work and from the works of other authors who have noted his name or works will form the materials for the outline of his life-sketch. 1 इति गूढमहाविद्याव्याख्याकौतूहलच्छलात् । दूरे निरस्तमस्माभिरज्ञानं प्रतिवादिनः ॥ ४ ॥ यद्वा सम्यक्साधनापरिस्फूर्ती सौगतादीन्प्रति महाविद्याः प्रयोक्तव्याः, सम्यग्दृषणापरिस्कृतौँ जात्यादिव. दिति तयाख्यानं नानुपयोगि। ___ महाविद्यावि० पृ.७४ 2 अथ किमर्थं स्वाभिमतसकलप्रमेयसाधकमहाविद्यानिराकरणम् । महाविद्यावि० पृ. १४९ 3 जातीनामिव तासामाभासत्वख्यापनार्थम् । अन्यथा महाविद्याप्रयोक्तृणां शिष्याणां प्रतिवाद्युदीरितप्राचीनदूषणैः पराजयादिति । महाविद्यावि० पृ. १४९ 4 वक्रानुमानं सर्वमपि स्वसाध्यसिद्धरनङ्गत्वादप्रयोजकमेव । ...... अतो वक्रानुमानं केवलान्वयिरूपमपि साधनजातिरेव स्वव्याघातात् । तत्त्वमुक्ताकलाप पृ. ४८५, ४८६ (पंडित मु. पु.) येतु वक्ररीति रोचयन्ते तान्प्रति महाविद्याभिरपि साध्यप्रसिद्धिं सुलभयति । तत्त्वप्रदीपिकाटीका पृ. १३ (नि. सा.) Aho ! Shrutgyanam Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xi The name Vádîndra is not a proper noun as it is added as an epithet to the name of a learned man who has been at the same time a great controversialist. In the colophons at the end of all the three chapters of the Mahavidya-vidambana, Vadindra prefixes the epithets Harakinkara, Nyayacharya. Paramanandita and Bhatta.1 In verse 2 on p.2 of the Mahavidyavidambana he styles himself as Sankara-kinkara which is synonymous with Harakinkara.Madhavárya has quoted a verse under the name of Sankarakinkara in his Saryadarshana-sangraha. Vádindra may have used this epithet to express his devotion to the deity Siva whom alone he praises in the Mangala verses at the commencement of all the chapters of Mahávidya-vidambana. _My learned friend Mr. T. M. Tripathi B. A. of Bombay is of opinion that as Vádîndra was a pupil of Yogiśvara alias Sankara, he styles himself Sankara-kinkara. 4 This view also is possible. For Vádîndra mentions his preceptor as Yogiśvara at the end of Mahavidya-vidambana. But I have not been able to find any authority to identify Yogiśvara with Sankara. ___Vadindra's other epithets viz. Nyayacharya, Parama-pandita and Bhatta signify that he was a great logician, Mimansaka, and well-versed in the Sastras. Vadindra's real name-Vadindra's real name seems to have been Mahadeva. For, his pupil Bhatta Raghava in the beginning of his commentary Nyáyasára-vichára on Bhásarvajna's Nyáyasára has the following verse: महादेवमहं वन्दे गुरुं सर्वज्ञमादरात् । ग्रन्थग्रन्थिषु शैथिल्ये शक्तिर्यस्मादभून्मम ॥6 1 इति श्रीहरकिङ्करन्यायाचार्यपरमपण्डितभट्टवादीन्द्रविरचिते महाविद्याविडम्बने महाविद्यावि० पृ. ७५, ९८, १४९ 2 समुल्लसति धादीन्द्रचन्द्रे शङ्करकिङ्करे । उन्मीलन्ति महाविद्यादोषकैरवकोरकाः ॥२॥ महाविद्यावि० पृ. २ 3 तथा निरटति शङ्करकिङ्करेण अनुकूलेन तर्केण सनाथे सति साधने । साध्यव्यापकताभङ्गात्पक्षे नोपाधिसंभवः॥ सर्वदर्शनसंग्रहः पृ. ९८ (भानन्दाश्रम) 4 See Introduction to Anandajnána’s Tarkasangraha p: xviii (Gaekwad's Oriental series). 5 योगीश्वरगुरोः शब्दविद्यामासाद्य तत्त्वतः । व्यधत्त भट्टवादीन्द्रो महाविद्याविडम्बनम् ॥ महाविद्यावि० पृ. १४९ 6 This verse is quoted from the catalogue of the India Office Sanskrit Manuscripts. My friend Mr. T. M. Tripathi was kind enough to get for me the loan of a manuscript of this unpublished commentary on Bhásarvajna's Nyáyasára from the Dahilakshmi Library at Nadiad, District Kaira. Unfortunately some portion of this commentary at the beginning and at the end seems to have been lost. Thus I could not find the above Aho ! Shrutgyanam Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xii and the colophon of the aforementioned commentary runs as follows: इति सारङ्गसुतवादीन्द्रशिष्यन्यायनिपुणतर्कविचारचतुर भट्टराघवविरचिते न्यायसारविचारे तृतीयः परिच्छेदः समाप्तः ॥ From these statements it is clear that Vádindra was the preceptor of Bhatta Raghava and that Vádîndra's proper name was Mahadeva. He was also called 'Sarvajna' well-versed in all the śástras. Vadindra's date-Bhatta Raghava, Vádîndra's pupil, at the end of the aforementioned commentary gives the Saka year of its composition in the following verse:= शके चतुःसप्ततिसंख्यके शतैः शताधिकैरभ्यधिके च पञ्चभिः । द्विघातितैस्तत्र बभूव वत्सरैः ध्रुवं विचारः परिसाधि राघवः ॥ Now this verse can be interpreted in two ways:1 पञ्चभिः शतैः द्विघातितैः शताधिकैः अभ्यधिके चतुःसप्ततिसंख्यके शके = 500 x 2 = 1000 + 100 + 74 = Shaka 1174 (A. D. 1252 ) . 2 पञ्चभिः शतैः शताधिकैः द्विघातितैः अभ्यधिके चतुःसप्ततिसंख्यके शके = 500 + 100 = 600 x 2 = 1200 + 74 = Shaka 1274 (A. D. 1352 ) . The above two interpretations create a doubt as to the exact date of Bhatta Rághava. My learned friend Mr. T. M. Tripathi has provisionally accepted the second interpretation and fixed Bhatta Raghavá's date as A. D. 1352 relying on the circumstance that "Jayasimha sûri (who has also written a commentary (about A. D. 1366) on the Nyáyasára of Bhásarvjna) is described by his pupil Nayachandra-sûri (in his Hammira Kávya) to have defeated in a debate Sáranga who was a great logician and who can be safely identified verse in the manuscript. But on going through the existing portion I found Vádindra referred to in the following passages: 1 मानमेयानुसारेण पञ्चधा न्यायदर्शनात् । वादीन्द्रादिमतेनापि व्याख्यातं तन्मयेदृशम् ॥ 2 वादीन्द्रशिष्यास्त्वाहुः Ditto leaf 39 3 तदुक्तं वादीन्द्रे: यत्र यत्रास्मदादिष्टदूषणोद्धार संभवः । तं तं पन्थानमाश्रित्य व्यतिरेकी समर्थ्यताम् ॥ Manuscript leaf 33 Ditto leaf 44 1 This is quoted by Mahámahopadhyaya Satischandra Vidyabhusana M. A. Ph., D. in his Introduction to Bhásarvajna's Nyáyasára from a manuscript of Nyáyasára-vichára in the Queen's College Library, Benares. 2 See M. M. Satischandra's Introduction to Nyáyasára p. 7 (Biblio. Indica Edition). Aho! Shrutgyanam Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ with the father of Raghava."1 He has deducted 27 years from Bhatta Raghava's date A. D. 1352 on account of the difference between the ages of the pupil aud his preceptor and held Vádîndra to have flourished about A.D. 1325. But owing to some fresh evidence revealed in Vádîndra's Mahavidyavidambana itself we shall have to accept the first interpretation of Bhatta Raghava's verse mentioned above and push back Raghava's date to A.D.1252. For, Vádindra says that he was a religious councillor of the king Srisimha." Now, we do not find any king of this name among the several Dynasties of tlie North or the South between A.D. 1250-1350. But from the history of the Dynasty of the Yadavas of Devagiri (Modern Doulatá bád) we find that king Singhana (Reigned A.D. 1210 to 1247) of that Dynasty was also named Simha.3 The very name Grisimha mentioned by Vádîndra occurs as the name of king Singhaņa in a verse (eulogizing his conquests) in the first out of the two Rájapraśastis composed and included in his Chaturvarga-Chintámaņi by Hemadri who was the minister of Singhana's grandson Mahadeva (A. D. 12601271). We quote the verse here: यद्रम्भागिरिकेसरी विनिहतो लक्ष्मीधरः क्षमापतिः ___ यद्वाहावलिभिः प्रसह्य रुरुधे धाराघराधीश्वरः । बल्लालक्षितिपालपालितभुवां सर्वापहारश्च यः श्रीसिंहस्य महीपतेर्विजयते तद्वाललीलायितम् ॥ ४४ ॥ Again the name Simha as another name of singhaņa is mentioned by Jahlaņa in his Saktimuktávali. Jahlaņa was the commander of troops of elephants in the reign of King Krishna (A.D. 1247-1260) who was a grandson inghaņa and occupied the throne after him. In the following verses of his Saktimuktávali Jahlaņa says that Janárdana, a commander of troops of elephants taught Simha i. e. Singhana the art of managing elephants: तस्याभवत्सूनुररनूनसत्त्वो जनार्दनाव्हः करिवाहिनीशः । समुद्रवद्यो भुवनं बभार सह श्रिया चित्रमशेषमेतत् ॥ १९॥ सिंहोऽप्यध्यापितस्तेन गजशिक्षां तदद्भुतम् । सूक्तिमुक्तावलि i Vide Introduction to Anandajnána's Tarka-sangraha p. XVIII (Gaekwad's Oriental series No. III). 2 तेषामेष विशेषण निराकरणसंभ्रमः। श्रीसिंहधर्माध्यक्षेण वादीन्द्रेण विधीयते ॥ ३ ॥ महाविद्यावि.पृ. ९९ 3 Vide Bombay Gazetteer Vol. I, Part II p. 522. 4 Vide Bombay Gazetteer Vol. I, Part II p. 272. 5 These verses are quoted in the History of the Dekkan, Bombay Gazetteer Vol. I, Part II, p. 239. Aho ! Shrutgyanam Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xiv Thus we find that Śrisimha or Siniha was another name of king Singhaṇa of the Yadava Dynasty of Devagiri. He reigned at Devagiri from A. D. 1210-1247. Now we shall state some reasons to prove that Vádîndrás date suggested by Mr. Tripathi as A. D. 1325 is incompatible with the following fact. We have already stated that Venkatanátha Vedántáchárya who flourished between A. D. 1267-13691 has mentioned Vádindra by his name and referred to his work Mahavidya-vidambana in his Tattva-Muktá- Kalápa. Supposing Venkatanatha wrote this work in his 50th year if not earlier, the year of its composition would be A. D. 1317. Then we shall have to hold Vadîndra to have been a contemporary of Venkatanátha. But Venkataná tha mentions Vádîndra's name along with that of Udayanáchárya (A. D. 984). He must have therefore mentioned Vádîndra as an old author and not as a contemporary one. He has refuted Vádîndra's view that the Kevalánvayi-hetu is entirely untenable.3 Sanskrit authors when they criticize the views of contemporary writers do not generally mention their names in their works. Had Vádîndra been a contemporary author, Venkatanátha would not have referred to him by his name. For these reasons Vádîndra must be placed before Venkatanatha, that is, before A. D. 1267. If we accept the first interpretation of the above quoted verse of Vádîndra's pupil Bhatta Raghava, we get the year A. D. 1252 as his date and deducting 27 years there from on account of the difference in the ages of the pupil and the preceptor we get A. D. 1225 as Vadîndra's date. If we place Vádindra about A. D. 1225 it suits well with the period of King Śrisimha alias Singhaṇa of Devagiri, A. D. 1210-1247, mentioned in the History of the Dekkan; and with the mention of Vádindra's name by Venkatanatha. Singhana seems to have been a great patron of learning. For Sárngadeva, the author of Sangita-Ratná kara, an important work on Indian Music was patronized by Singhana. It is therefore likely that Vádîndra also was patronized by Singhana by conferring upon him the appointment of his Religions Councillor () as stated by him in his Mahavidya-vidambana p. 99. Thus if we fix Vádîndra's date as A. D. 1225, it does not affect any of the established dates of other authors. On the other hand, if we accept A. D. 1325 as the date of Vádîndra we are unable to satisfactorily explain Venkatanáthás reference to Vádîndra, as the former was born earlier i. e. in A. D. 1267. Besides we cannot find any King of the name of Srisimha between A. D. 1267-1350, to identify him with the Srisimha mentioned by Vádîndra. For 1 See Rajagopálácháryás life of Venkatanátha in the Vanivilas edition of Yádavábhyudaya p. XVII. 2 अत्र मतभेदेन लक्षणद्वयमाह--साधनाव्यापकत्वे सति साध्यसमव्याप्तो धर्मः उपाधिरिति उदयनः । साध नाव्यापकत्वे सति साध्यव्यापकः इति समशब्दप्रतिक्षपणे वादीन्द्रः । तत्त्वमुक्ताकलापः पृ. ४७८ 3 तत्त्वमुक्ताकलापः पू. ४९१ Aho! Shrutgyanam Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xv all these reasons we must conclude that Vádîudra lived during the reign of the king Srisimha alias Singhana of Devagiri about A. D. 1210 to I247. Vadindra's Works-Now let us make an enquiry as to what works were written by Vádindra. He has not referred to any of his other works by name in his Mahavidya-vidambana. But at the end of the book he observes "other kinds of faults falling under the heading of particular Arthántaratá affecting particular Mahavidya syllogisms will be set forth in another place."1 Bhuvanasundara in his commentary on this passage says that "in another place" means "in another book.". Thus it is clear that Vádîndra had also written another work criticizing the Mahavidya syllogisms in detail. But it cannot be traced. Vádindrás pupil Bhatta Raghava has quoted the following verse under the name of Vádîndra in the commentary of Nyáyasára of Bhásarvjua without mentioning the name of the work from which it was extracted: तदुक्तं वादीन्द्रः यत्र यत्रास्मदादिष्टदूषणोद्धारसंभवः। तं तं पन्थानमाश्रित्य व्यतिरेकी समर्थ्यताम् ॥ ___Manuscript of Nyayasāra-vicharas leaf 44. As this verse is not found in the Mahavidya-vidambana, it must have been taken from some other work of Vå dîndra on logic. 1 येतु महाविद्या विशेषनिष्ठाः भङ्गिविशेषेण अर्थान्तरताविशेषाः, तेऽन्यत्र व्युत्सादयिष्यन्ते इति । महाविद्यावि० पृ. १४५ 2 ये तु महाविद्येति । अन्यत्र ग्रन्थान्तरे इत्यर्थः महाविद्यावि० टीका पृ. १४६ 3 The following information from the manuscript of Nyáyasár-vichára is given here as it is of historical interest. In this commentary Bhatta Rághava has the following passage: एतेन यत्खण्डनमण्डनरीश्वरवादे दृषणमुदितं तत्परिहृतम् । एवं हि तत्-शुक्तिकायां रजतमित्यत्र रजतज्ञाने यदरजतं प्रतिभाति तद्रजतविषया मनीषा वृषभध्वजस्यास्ति न वा । नाद्यः, शुक्तिकारजतविषयत्वे वृषभध्वजमनीषाया मृषात्वप्रसंगात् । नेतरः, शुक्तिरजतस्यैव अज्ञानात् असर्वज्ञत्वप्रसंगादिति । Manuscript of Nyáyasára: vichára, leaf 6. Here the Khandanamandana alluded to is Shriharsha, the author of Khandana and the 'Isvarvada' meant is Shriharsha's 'Îé varábhisandhi' which is mentioned in Khandana by Shriharsha himself in two places. The 'Isvaravada' mentioned by Bhatta Rághava is not the 3rd Parichheda of Khandana, because no such argument as is stated in the above passage is to be found in that Parichheda. This Tévarábhigandhi of Shriharsha seems to have been well-known at Rághava's time (A. D. 1252). But no Manuscript of it has yet come to light. 4 शेषं च ईश्वराभिसन्धौ स्वप्रकाशवादे निर्वक्ष्यामः । खण्डन पृ. १०७ (चौखम्बा) एवमीश्वराभिसन्ध्यादौ तत्तत्स्थानस्थं सर्वनामान्तरखण्डनं द्रष्टव्यम् । खण्डन पृ. १०४१ (चौखम्बा) Aho ! Shrutgyanam Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xvi Mádhavárya (A.D. 1398) in the Akshapa dadarśana of his Sarvadarśanasangraha quotes the following verse under the name of Shankara-kinkara who is no other than Vádîndra as has been stated before: तथा निरटति शङ्करकिङ्करेण अनुकूलेन तर्केण सनाथे सति साधने । साध्यव्यापकताभङ्गात्पक्षे नोपाधिसंभवः ॥ Haggiadine: g. 8C (315FETTA ) This verse too is not found in Mahavidya-vidambana. It must have also been quoted from some other logical work of Vádîndra. Sesha Śárngadhara, author of the commentary Nyáya-muktávali on Udayanáchárya's Lakshaņávali and Pratyagrûpa-bhagavan, author of the Nayana-prasadini commentary on Chitsukhácharya's Tattvapradîpika, also quote some definitions under the name of Vádîndra. All these quotations are not to be found in the Mahavidya-vidambana. From all the above information it is evident that Vádîndra must have written several other works on logic besides the Mahavidya-vidambana His other known work is (2) Rasasára, a commentary on Guņa-kiranávali of Udayanáchárya, a manuscript of which is said to be in the Library of the Benares Sanskrit Colloge. A third work by him, styled 7601 Gerry has been recently discovered and secured for the Madras Government Oriental Library by the well-known Pandit S. kuppusvámi Sastri. If these works be published they may perhaps throw some more light on Vádîndra and his works. The scheme of Mahavidya-vidambana-Vádîndra has divided his Mahavidya-vidambana into three chapters called Parichhedas. In Chapter I after the usual Mangala he has defined Mahavidyả and after answering certain objections raised by others against Mahavidya syllogisms, has given 70 syllogisms to prove the non-eternity of sound adding explanatory notės to almost all of them. Thus in the first Chapter he has supported these syllogisms answering the criticisms of other old authors. In Chapter II commenced the refutation of the Mahavidya Syllogisms by criticizing the several definitions of Kevalánvayi-hetu. In Chapter III he has pointed out how these Mahavidva syllogisms are subject to Upadhi (accident) and how they could be demonstrated to be fallacies such as Viruddha (Contradictory probans), Anaikantika (Inconclusive probans), and Satpratipaksha (neutralized probans). Then he has shows how these syllogisms can be contradicted by other syllogisms of the same kind. Subsequently he has pointed out defects in the Mahavidya syllogisms such as Siddhantaviplavakatya (setting at nought the theories accepted by one's own school of 1 See Introduction, Ánandajnána's Tarkasangraha p. xix (Gaekwad's Oriental. Series No. III). Aho ! Shrutgyanam Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xvii philosophy), Sva-vyághátakatva (self-contradiction) and Arthantaratá (proying something which is not intended). In conclusion he has stated that these Mahavidya syllogisms canuot prove the non-eternity of sound. He has therefore condemned the Mahavidyas as useless in a controversy. Vádîndra's preceptor-In the last verse of his Mahá vidya-vidambana Vádîndra mentions the name of his preceptor as Yogîshyara'. It is already suggested that his name might have been Sankara as Vádîndra styles himself as Sankara-Kinkara (servant of Sankara). But no further information is available about him. Authors Mentioned by Vádindra-Vádîndra has referred to sutrakára, Bhashyakára and Tikákára without mentioning their names. But the authors meant by these epithets are Kaņáda, author of the Vaiseshika sůtras, Prasastapáda, author of the Praśasta páda Bháshya on Vaiseshika-sûtras and Udayanáchárya and Sridharáchárya, authors of Kiranávali and Kandali respectively which are commentaries on Prasastapáda's Bhashya. The authors mentioned by Vádîndra by a direct reference to their names are Udayanáchárya and Sivaditya Miśra. 1 -He was a great Naiyáyika of the old school. He seems to have been a Maithila Brahmana. His date is Šaka 906 (A. D. 984). His known works are (1) Nyáyakusumánjali, an original work proving the existence of God according to the Naiyáyika theory (2) Átma tattva-vireka or Bouddha-dhikkára, refutation of Buddhistic Philosophy,-(3) Kiraņávali, a commentary on Praśasta páda-bhashya,-(4) Tátparya-tiká-parishuddhi, a commentary on Váchaspati Mishra's Nyáyavártika-tátparya-tîká,-(5) Lakshanávali, a small treatise containing definitions of the categories &c, and (6) Nyáyapariśishta or Upádhi-prakarana. HETIt is stated before that Vádîndra undertook to refute the theories of Sivaditya Miśra about Mahavidya. Accordingly he has quoted and refuted his views in the third Parichheda of the vidambaná. Siváditya or Sivaditvamiśra as he is mentioned by both names by Vádîndra and Pratyagrûpabhagavan, is said to have lived between the close of the tenth century and the early beginning of the eleventh century, that is about A. D. 975–1025. Prof. Gháte identifies Śivaditya Miśra with Vyomasiváchárya, author of Vyomavati, a commentary on Praśasta-páda's Bhashya, on the doubtful 1 योगीश्वरगुरोः शब्दविद्यामासाद्य तत्त्वतः। महाविद्यावि० पृ. १४९ 2 At the end of his Lakshanávali Udayana gives the date of its composition in the following verse: तर्काम्बराङ्कप्रमितेष्वतीतेषु शकान्ततः। वर्षेषूदयनश्चक्रे सुबोधां लक्षणावलीम् ॥ 720 g. ? (Pandit Ed.) 3 See pages 109 and 117 of Mahavidya-vidambana. 4 See Prof. Ghate's Introduction to Sapta-palárthi p. X (Bom e lition of 1909). 2 Aho ! Shrutgyanam Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xviii authority of a colophon of only one manuscript of Sapta-padárthi belonging to the Benares Sanskrit College which runs as follows:- st batafazararsifatfarar 7692tletat FITETUT FATAT"! But Rama-Sastri Tailanga, Assistant Prfessor, Benares Sanskrit College who first attracted notice to this colophon in his perface to the Sapta-padárthî has expressed his doubt as to whether the copyist may not have written the name wrongly. Besides, Pratyagrûpa-bhagavan (author of the Nayana-prasadini commentary on the Tattva-pradîpiká of Chitsukháchárya), has alluded to siváditya Miśra and Vyomasiváchárya separately. He has mentioned the former by his name some ten times but the latter only once. Vallabhacharya (A. D. 984-1178) in his Nyáya-lila vati mentions one Vyomáchárya. Perhaps he may be the same as Vyomasivacharya. But Vallabha does not mention Shivaditya. Rajasekhara, a Jain author of the commentary Panjiká on Prasastapáda Bhashya,' says that one Vyomasiváchảrya wrote a commentary named Vyomavati on the Praśastapáda Bháshya. But no copy of this Vyomavati is yet available. If a manuscript of it be found, it may perhaps throw some light on this point. We must therefore wait for further proof to identify śiváditya Misra with Vyomasivacharya. siváditya's Works-1 erf-As regards the works of siváditya Miśra, his Sapta-padárthi is well known and was published with the commentary Mitabáshiņi of Madhava Saraswati in the Vizianagaram Series in Benares in 1893 and with the commentary Padártha-chandrika of Sesha Ananta, by Prof Gháte in Bombay in 1909. 2 JATTAIDI—This work is mentioned in several books on logic. The definition of correct knowledge viz fatiga:gat, has been criticized by Sriharsha (A. D. 1187) in his Khandana-khanda-khádya and Sankaramiśra (A. D. 1529), commentator of Khandana in explaining this portion of the text states that this is the first definition in the Lakshanamála of Nyayacharya (i. e. Śivadiya Miśra). Varadaraja (Between A.D. 1097-1200 ) in his Tárkikarakshả quotes the definition of Lingar from the Lakshanamála. It may be observed here that 1 See Prof, Gbáte's Introduction to Sapta-padárthî p. X (Bom Edn of 1909) 2 See Sapta-padárthî, preface p. 1 (Vijaya. S. Series 1893) 3 See pages 180, 183, 190, 192, 195, 200, 237, 295, 310 and 323 (Tattva-pradipika N. S. Edition) 4 See page 133 (Ditto) 5 See Introduction to Prasastapáda- bháshya p. 19 (Vizia. Series) 6 न्यायाचार्यकृतलक्षणमालाग्रन्थे प्राथमिकं प्रमालक्षणं खण्डयितुमुपक्रमते-तत्त्वानुभूतिरिति । खण्डनखण्डखाद्य पृ. १४३-१४४ (Lazarns Edition, Benares A. D. 1888) 7 निरुपाधिकसाध्यसंबन्धशालि लिङ्गमिति लक्षणमालायाम् । तार्किकरक्षा पृ. १७९ (काशी) Aho ! Shrutgyanam Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xix Mallinátha in his commentary of Tarkikaraksha in giving the source of the said definition says that it is from Udayana's work. He seems to have mistaken Lakshanamálá for Udayana's Lakshanávali. For, the said definition is not to be found in Lakshanávali. 3 gangi_This work of Śiváditya Misra was so long unknown. My friend Mr. T. M. Tripathi kindly sent his manuscript of it to me for reference. It consists of 8 leaves but unfortunally the first leaf is lost. The colophon runs as follows:- Efa forefraifecafarfar igausi F411". The manuscript is almost unintelligible owing to very bad mistakes conmitted by the copyist from the beginning to the end. The subject of the book seems to be the refutation of the view of the Mîmánsakas about Hetu (cause). Had not the first leaf been lost, the Maunscript would have perhaps furnished some more information about Sivaditya. In this book Sivaditya has alluded to two of his works which were not hitherto known even by name. They are Upadhi. vártika? and Arthápatti-vártika”. Whether these two treatises are separate books or form parts of a larger work cannot be decided at present, as the manuscripts of these works have not yet come to light. It may also be mentioned here that Śivaditya Miśra quotes a verse under the name of Máyánandanikára? (Mánánandini-kára ?) in the Hetukhandana. Nothing is at present known about this author or his work from which the verse has been quoted by Sivaditya. It is likely that the copyist may have committed a mistake even in transcribing the name of the author as it sounds rather strange to the ear. The following verse is quoted by Vádîndra under the name of Sivaditya Miśra: "पक्षतद्भिन्नवृत्तित्वरहितत्वानुरञ्जितः। धर्मः साध्यवतः साध्यो मेयत्वात्प्रतिभाक्षये ॥" महाविद्यावि. पृ. ७४ 1 fatacat qurataifanescaferaft upang (?) Falcalfea (?) gatan 39113वार्तिके। Manuscript of Hetukbandana leaf 2 2 तथा च अस्मदापत्तिवार्तिके सामान्यमानं च विशेषमानं तन्मीयमानं च विरुध्यमानम् । करोति पञ्चादविरुद्धमानं सामान्यमानस्य च यो विरोधः ॥ Manuscript of Hetukhandana leaf 8 3 arife Arrefarr: यत्र सामान्यतो दृष्टं विशेषे प्रतिहन्यते । प्रमाणयोर्विरोधेन तनापत्तिरिष्यते ॥ Manuscript of Hetukhandana leal 8 Aho! Shrutgyanam Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XX But it is not found either in the Saptapadarthi or Hetukhandana of Śiváditya. As the verse treats of Mahavidya Syllogisms, it must have been taken by Vádîudra from some work of Śivaditya on Mahavidyá Syllogisms. śivâditya has been alluded to by Gangeshopádhyáya (A. D. 1178?) in his Tattva-chintamani1 and by Jánakînátha (A. D. 1400?) in his Nyayamanjari without mentioning the name of his work. Mahámahopadhyaya Gokulanátha3 (A. D. 1588) of Mangroni in Maithila country quotes a verse from Śiváditya Miśra's work in the following passage of his Pada-vákya-ratná kara to explain the difference between Viśeshana and Upalakshana: विशेषे साक्षात्संसृष्टं विशेषणं, परंपरयोपलक्षणम् । यथाह शिवादित्यः"व्यावर्तनीयमधितिष्ठति यद्धि साक्षा देतद्विशेषणमतो विपरीतमन्यत् । दण्डी पुमानिति विशेषणमत्र दण्डः पुंसो न जातिरनुदण्डमसौ च तस्य ॥ " पदवाक्यरत्नाकरः पृ. ५१ ( Shastra M. Edition 1904) This verse is not seen in any of the known works of Śiváditya Miśra. We must therefore infer that he must have written many works on logic. Let us hope that some of them may be discovered in future. Short-notices of authors who have mentioned Mahavidyá, Vádîndra and his Mahavidyá-Vidambana 1 चित्सुखाचार्य- -It has already been mentioned that Chitsukháchárya has alluded to the Mahavidyá syllogisms. He was a grent Vedántin and lived about A. D. 1200. His published works are (1) Tattvapradipika (Chitsukhi) (2) A commentary on Ánandabodháchárya's Nyáyamakaranda. He has also written (3) a commentary on Sriharsha's Khandana which is not published. His other works recently discovered and secured by Mr. S. Kuppusvámi 1 सच संयोगसमवायस्वरूपसंबन्धसाधारणो ज्ञाने विषयस्याधिकरणे अभावस्य संबन्धिनि समवायस्य अस्तीति तेषामपि विशेषणत्वमिति शिवादित्यमिश्राः । त. चि. प्रत्यक्षखण्ड पृ. ८३० 2 शिवादित्यमिश्रास्तु करणायाकारानुगतमतेः करणत्वादिकमखण्डोपाधिरूप सामान्यमङ्गीचक्रुः । न्यायसिद्धान्तमञ्जरी पृ. १४ 3 १ तत्त्वचिन्तामणिटीका चक्ररश्मिः २ दिका, लनिरूपणम् ३ मिध्यात्वनिर्वचनम् ४ कुसुमाञ्जलि टिपणम् १ काव्यप्रकाशटीका, ६ कुण्डकादम्बरीकादम्बरीप्रश्नोत्तराणि, ९ एकावली, १० कादम्बरी कीर्तिश्लोकाः; ११ शिवस्तुतिः, १२ अमृतोदयनाटकम्, १३ पदवाक्यरत्नाकरः, १४ लाघवगौरखरहस्यम् इत्यादि ७ द्वैत निर्णयटीका ८ 2. Preface to Padavákyaratnákara p. He, the son of Vidyáanidhi, has also written ( न्याय ) सिद्धान्ततत्त्वविवेक. See Khandana p. 32 footnote 3 ( Choukhamba ) Aho! Shrutgyanam Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxi Sástri are (4) Bhashya-bháva-prakáśiká (a commentary on the Brahmasutra Bhashya of Sankaráchárya) (5) Vivaraṇatátparya-dîpiká, (6) a commentary on the Brahma-siddhi of Sureśvaráchárya, (7) a commentary (s) on the Pramánamálá of Ánandabodháchárya and (8) Adhikarana-Manjarî Saugati ?). His preceptor was Jnánottama (), a Sannyási who is said to have written two works on Vedanta by name Nyáyasudhá and Jnánasiddhi1. This Jnánottama is quite different from the Jnánottama, author of the commentary Chandrika on Sureśvaráchárya's Naishkarmya-Siddhi. For, the former is described as an Achárya of the King of the Goudas (Bengal) and an ascetic by his pupil Chitsukháchárya, whereas the latter describes himself as a resident of the village Mangala3 in the Chola country (Southern India), and adds to his name the epithet 'Mishra' which signifies that he was a grihastha and not a sannyasin. 2 अमलानन्द - He is also named व्यासाश्राम. He lived in the reign of Krishna Rája of Devagiri, A. D. 1247-1260. It is already stated that he wrote two works on Vedanta viz. 1 Vedanta Kalpataru and 2 Sástra Darpaṇa. He was a pupil of Anubhavánanda and his Vidyaguru was Sukhaprakásha who was a pupil of Chitsukháchárya. He is said to have written his Vedanta Kalpataru at Násik." 3 वेङ्कटनाथ वेदान्ताचार्य – He was a Brahmana belonging to the Srivaishnava sect. He was a great poet, philosopher and a follower of the Vishistádvaita school of Rámánujáchárya. He was born at Truppil near Kânchi (Conjeeveram) in the Madras Presidency in September A. D. 1267. His father was Ananta Sûri and mother Totarambá. He is also known by the names of Vedántáchárya and Deshikáchárya and was a contemporary and friend of Vidyaranya. He composed many poems and wrote several wroks on religion and philosophy of the Rámánuja School. He has also written several stotras. and minor poems. His principal worke are: Poems-1 यादवाभ्युदय महाकाव्य life of Srikrisna. 2 a poem consisting of 1000 verses in praise of the Padukas (sandals) of the deity Shriranga. 1 See Chitsukhi and its commentary p. 385 (N. S.) 2 इतिश्रीगौडेश्वराचार्य परमहंस परिव्राजकाचार्यज्ञानोत्तमपूज्यपादशिष्य &c. Colophon of Chitsukhi p. 388 (N. S.) 3 चोलेषुमङ्गलमिति प्रथितार्थनाम्नि ग्रामे वसन्पितृगुरोरभिधां दधानः । ज्ञानोत्तमः सकलदर्शनपारदृष्टा ( ? ) नैष्कर्म्यसिद्धिविवृतिं कुरुते यथावत् ॥ नैष्कर्म्यसिद्धिः पृ. १ 4 इति श्रीमहोपाध्यायज्ञानोत्तममिश्रविरचितायां नैष्कर्म्यसिद्धिचन्द्रिकायां &c. नैष्कर्म्यसिद्धिः पृ. २०८ 5 Vide preface to the Vedanta Kalpataru Vol. I, p, 19 (Vijaya. Series, Benares). 4-5 Aho! Shrutgyanam Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 garfogaitant poem in imitation of Kalidasa's Meghadûta. Drama-5 HFTLECH a religious drama in imitation of Krishnamishra's Prabodha-chandrodaya. Philosoph and Logic } }6 Farafagus a treatise on the Viśishtádvaita philosophy. 7 TragT14019 with qafefefeet or Ditto 8 grazguit a refutation of Anirvachanîyatávada. 9 -1139ff (logic) 10 ATHIA1CA1 a treatise on Mimánsá. Besides the above works in Sanskrit, he wrote many works in Tamil, He is said to have died in A.D. 1369 having lived 102 years.? 3. 377ESITA or a -He has mentioned Mahavidya syllogisms. He lived between A. D. 1260-1320. For the details of his life and works &c. see Mr. Tripathi's Introduction to his Tarkasangraha No. III of the Gaekwad's Oriental Series. 4. witfararar-He appears to have been the pupil of Venkatanátha Vedantáchárya from the statement in the colophon of his Nyáyasára, a commentary on Venkatanátha's Nyáyaparisuddhi. He must have therefore lived in the 14th century somewhere near Kanchi in the Madras Presidensy. His father's name was Devarájáchárya of the Bháradvája Gottra. He seems to have written commentaries on Venkatanáthá's Satadůshanî, Pádukásahasra and on some other works. In the commentary on Nyáyaparishuddhi he says that he has explained the methods of Mahavidya syllogisms in the first Chapter on Pratibandha (in the Nyáya-parishuddhi). Thus it seems that the Mahavidya syllogisms were keenly studied in Southern India in the 14th century. It is not known whether he wrote any original works. - He is the author of Nyáya Muktávali, a commentary on Udayanacharya's Lakshanávali. He has also written a brief commentay váditya Misra's Saptapadárthi. He seems to have flourished about D. 1450.4 His son Sesha Ananta too has written a commentry on See the life of Vedanta Deshika in the 1st volume of Yadavábhyndaya (Váni Vilás). 2 इति श्रीमद्वेदान्ताचार्यचरणारविन्दानुसन्धानविशदप्रतिबोधेन भरद्वाजकुलजलधिकौस्तुभश्री देवराजाचार्यसूनना श्रीनिवासदासेन विरचितायां न्यायपरिशुद्धिव्याख्यायां न्यायसारसमाख्यायां प्रत्यक्षाध्याये प्रथममान्हिकम् । 72179fare: g. 43 (atarat) 3 महाविद्यारीतयश्च प्रतिबन्धाद्यान्हिकेऽस्माभिः प्रपञ्चितास्तत्र द्रष्टव्याः। 29fargetal g. 988 (alapa) 4 See Introduction to Anandajnána's Tarkasangraha pp. xvii and xviii. Aho ! Shrutgyanam Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxiii Shiváditya's Saptapadárthi and also one, on the Nyáya-siddhanta-dípa of Śaśadharáchárya (A. D. 1156). 6. प्रत्यगूपभगवान् or प्रत्यकस्वरूपभगवान् - As he has mentioned Vadindra, author of Mahávidya-vidambana ( A. D. 1225) in his commentary Nayanaprasádinî on Chitsukhácháryá's Tattvapradipika, he cannot have lived earlier thah A. D. 1225. He has not mentioned any anthors of the 15th or 16th centuries. The India Office Manuscript of his work bears the date Samvat 1546 (A. D. 1490). He may therefore be placed in the interval between A. D. 1300-1400. His preceptor was a Sannyási by name Pratyakprakasha. In the Nayanaprasádinî he has alluded to a number of ancient authors and their works on Nyáya, Vedánta, Mimansá &a.1 The poet Bhavabhuti's another name is Umbeka.-Among the authors the name of Umbaka or Umbeka is mentioned by Pratyagrûpabhagaván. As he is not generally know it would be better to make an inquiry about him and his works. On page 235 of his Nayanaprasádini, Pratyagrûpa-bhagaván while commenting upon the portion of the text of Chitsukhî which criticizes the definition of Avinábháva (invariable concommitance), mentions the name of the author Umbaka and quotes his interpretation of the line संबन्धो व्याप्तिरिष्टात्र लिङ्गधर्मस्य लिङ्गिना” from Kumárila Bhatta's Slokavártika (p. 348 ). On page 265 in explaining the text "उक्तं चैतदुम्बेकेन" &c, he states that Umbeka is poet Bhavabhuti. 4 3 1. I have collected the names after careful perusal of the work and give them here for the information of researchers as they might be useful in deciding dates of some of the authors. The names of the authors alluded to are: गंगापुरी भट्टारक, कणाद, उदयन, तौतातिक, वादिवागीश्वर, भट्टपाद, प्रभाकर, शालिकनाथ, धर्मकीर्ति, भवनाथ, वाचस्पतिमिश्र, पार्थसारथिमिश्र आनन्दबोधाचार्य, शबरखामी, सुचरितमिश्र, तिमिरारि, व्योमशिव, श्रीवल्लभ, मण्डन मिश्र, सर्वदेव, श्रीधराचार्य, उद्योतकर, पतञ्जलि, उम्बक or उम्बेक, दिङ्नाग, वार्तिककार (कुमारिलभट्ट), भासर्वज्ञ, भवभूति, श्रीहर्षकविः, शिवादित्यमित्र, कुलार्कपण्डित The names of books mentioned are: न्यायरत्नदीपावली ( न्यायदीपावली), पञ्चपादिका, न्यायलीलावती, तात्पर्यपरिशुद्धि, मानमनोहर, महाविद्या, न्यायबिन्दु, पञ्चिकाप्रकरण, न्यायकल्पतरु, नयविवेक, वाक्प्रार्थमातृका ( a part of the प्रकरण - पंचिका by शालिकनाथ ), बौद्ध धिक्कार, न्यायकुसुमाञ्जलि, विष्णुपुराण, शाब्दनिर्णय, भूषण ( न्यायभूषण), किरणावली, लक्षणमाला, पदार्थतत्त्वनिर्णय, प्रशस्तपादभाष्य, कन्दली, तत्त्वसारटीका, इष्टसिद्धि, सांख्यतत्त्वकौमुदी, प्रमाणपारायण, तात्पर्यटीका, दण्डकसूत्र, प्रमाणमञ्जरी, (धर्म) कीर्तिवार्तिक, न्यायसुधा, ज्ञानसिद्धि, भैमसेनिस्मृति ( धातुपाठ ). 2 उम्बकस्तु “ संबन्धो व्याप्तिरिष्टात्र लिङ्गवर्मस्य लिङ्गिना " इत्यत्र लिङ्गधर्मस्येति दर्शनात् व्याप्येकधर्मो व्यापकनिरूप्यो व्याप्तिः, न पुनरुभयनिष्ठा इत्यब्रवीत् । चित्सुखीटीका पृ. २३५ ( नि. सा. ) त्वयाऽननुभूतार्थविषयं वाक्यं प्रयोक्तव्यं यथा4 चित्सुखी (मूल) पृ. २६६ (नि. सा. ) 23 तं चैतदुम्बेन " यदाप्तोऽपि कस्मैचिदुपदिशति न हस्तियूथशतमास्ते इति तत्रार्थव्यभिचारः स्फुटः" इति । Aho! Shrutgyanam Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxiv Ánandapurna, author of the Vidyáságari commentary on Śriharsha's Khandana, while explaining the passage "असती सा न विशेषिका' &c, quotes two verses from Kumarila Bhatta's Slokavártika, states that they have been conmented upon by Umbeka (?) and reproduces his interpretation of them.1 In the 29th Chapter ( भेदाभेद निराकरण प्रकरण) of तत्त्वशुद्धि by बोथघनाचार्य (about A. D. 1000) occurs the remark - "अयं तु क्षपणकपक्षादपि पापीयानुम्बेकपक्ष इत्युपेक्ष्यते ।" The Jain author Gunaratna (A.D. 1409) in his Shad-darshana-samuchayaVritti says that there are many schools of Mîmánsá and cites the following verse: ओ (?) बेकः कारिकां वेत्ति तन्त्रं वेत्ति प्रभाकरः । वामनस्तूभयं वेत्ति न किञ्चिदपि रेवणः || In this verse it is said that Ombeka knows the Kárikas. Now the Karikas meant here must be the Kárikás or the verses of Ślokavártika, for Pratygrûpabhagavan and Ánandapurna as mentioned above inform us that Umbeka has commented upon the same. 3 Mr. S. P. Pandit in note IV pages CCV-CCVI of his Introduction to Vákpatî's Goudavaho ( Bombay Sanskrit series No XXXIV) states that in a manuscript of Bhavabhuti's Málatîmádhava, at the end of Act III the following sentence appeared : - इति श्रीभट्टकुमारिलशिष्यकृते मालतीमाधवे तृतीयोऽङ्कः. The colophon at the end of Act X of the same Manuscript was इतिश्रीमद्भवभूतिविरचिते मालतीमाधवे दशमोऽङ्कः Thus all the above statements put together lead us to conclude that the poet Bhavabhuti was known also by the name Umbeka, that he was a pupil of the great Mimánsaka Kumárila Bhatta and that he had written a commentary on his preceptor's great work Ślokavártika. So long we knew Bhavabhuti only as a dramatist but now he must be considered to have been a 1 असतीति तदुक्तम् — संवृतेर्ननु सत्यत्वं सत्यभेदः कुतो न्वयम् । सत्या चेत्संवृतिः केयं मृषाचेत्सत्यता कथम् ॥ सत्यत्वं न च सामान्यं मृषार्थपरमार्थयोः । विरोधानहि वृक्षत्वं सामान्यं वृक्षसिंहयोः ॥ इति ( लोकवार्तिक पृ. २१८ ) तदिदं श्लोकद्वयमुवैकैन ( मुम्बेकेन ? ) व्याख्यातम् - " न हि संवृतिपरमार्थयोः सत्यत्वं नाम सामान्यम् एकत्र विरोधात्, अपरत्र पौनरुक्त्यप्रसङ्गात् " इति । खण्डन पृ. ७५ (चौखम्बा ) 2. Gunaratna's Shad-darshana-samuchaya-Vritti, p. 20 (Bibliotheca Indica) 3. Mr. Pandit says in a footnote that the manuscript appeared to be 400-500 years old and belonged to his friend Mr. Mahadeva Venkatesh Lele, B.A., L.C.E. of Indore. 4. The name is differently written. Pratyagrûpa-bhagavan writes it as and उम्बेक. बोधघन writes it as उम्बेक and Anandapurna as उवैक and Gunaratna mentions it as ओम्बेक. Mr. Pandit 's Manuscript gives it as उंवेक. These variations seem to have originated in the ignorance of the copyists. Aho! Shrutgyanam Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXV writer on Mimánsá also. Perhaps his commentary on ślokavártika fell in the back ground after the composition of the commentaries by Sucharitamishra, Párthasarathi Mishra and others. So far we have given an account of Vádîndra and his works and the authors mentioned by him and of the authors who have referred to him. We shall now turn to the authors of the two commentaries on Mahavidya-Vidambana. Commentator Anandpurna-The author of the 1st commentary published with the text in this edition is Anandaparņa. Only one incomplete Manuscript of it was furnished to me as copies of it appear to be extremely rare. The Manuscript consists only of a portion of the commentary on the first out of the three Parichhedas. Hence there are two gaps in the printed commentary of Anandaparņa viz. one from page 1 to 6 at the commencement and the other in the middle from page 26 to 45. Anandapurna's commentary appears to be rather brief when compared with that of Bhuvanasundara. No information about the time and place of Anandapurņa can be gathered from the fragment of his commentary on Mahavidya-vidanıbana published in this volume. Even the colophon at the end of the first Chapter does not give any particulars of the author except his name, But I think we can safely identify this Anandapûrņa with the Anandapûrņa, author of the Vidyasagari commentary on Khandana. For the latter has quoted a Mahavidya syllogism in the Vidyasagari as stated before. Anandaparna was well-versed in the Nyaya and other Sástras as is evident from the profound scholarship shown by him in the Vidyasagari. As this commentary discloses that its author Anandapurna was well-acquainted with Mahavidya syllogisms, I think we can safely identify him with the Anandaparņa, author of the commentary on Mahavidya-vidambana. He has also written (3) a commentary on Sureshwarácháryas Bramhasiddhi+ named भावशद्धि. His other works are (4) टीकारल a commentary on the मोक्षधर्म of महाभारत, (5) पंचपादिकाटीका, (6) and a समन्वयसूत्र विवृति comment on पंचपादिका विवरण(?) Mr. S. Kuppusyami Sástri has lately obtained a copy of (7) his fat, a work on the Vaisheshika system. One other unknown work of his is JEZITUTTET ten called 914 gefaat referred to by Nándillagopa in his commentary on Prabodha-chandrodaya Nátaka (p. 204 N. S. Ed.)-arafTe ZGITTAT Ayarog विद्यासांगरीतो द्रष्टव्यम्।) 1 See the description of the Manuscript in the annexed list of Manuscripts. 2 The colohhon is as follows:-sfà haifaarfaragot agtergofatfaa : परिच्छेदः। महाविद्यावि० पृ. ७५ 3 अयं गन्धो गन्धवद्वृत्तित्वरहितगन्धवन्मात्रवृत्त्यधिकरणं प्रमेयत्वात् धटवत् । खण्डनखण्डखाद्यटीका पृ. ११८२ (चौखम्बा) 4 My friend Mr. T. M. Tripathi informs me that Mr. Kuppuswami Shastri of Madras has secured a copy of this commentary, and there is another copy of it at the Royal Asiatic Society of Bengal, Calcutta. Aho ! Shrutgyanam Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxvi The Vidyasagari furnishes the following information about Anandapurņa. His Vidyaguru was a sannyási by name Svetagiri. The name of his spiritual preceptor was Abhayananda. Anandpůrna also was a sannyåsi which fact can be inferred from the epithet Bhagavat prefixed to his name. His name in the Pârváshrama i.e. as a house holder seems to have been Vidyasagara which has supplied the popular name Vidyasagarî to his commentary on Khandana, the real title of it as stated by himself in the colophon being Khandanafakkika-vibhajana.s Again the colophon of the India office Manuscript of jafnrett runs:"इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकचार्याभयानंदपूज्यपादशिष्यस्यानन्दपूर्णमुनीन्द्रस्य विद्यासागरापरनामधेयस्य कृतौ पञ्चपादिकाटीका समाप्ता ॥" Madhusadana Sarasvatî (A. D. 1700) has quoted in his Advaitasiddhi a syollogism under the name of Vidyasagara. It is not to be found in the commentaries on Khandana and Mahávidya-vidambana. Perhaps it may have been extracted from some unknown work of Vidyasagara. As no Vidyashcara other than the author of the commentary on Khandana is kuown in Sanskrit Philosophical literature, I think the Vidyasagara mentioned by Madhusûdana Sarasvati must be the author of the Vidyasagari. Anandapurna's date-Now as regards the date of Ánandapůrna neither of his two commentaries supplies any information. But as mentioned before, his grogatidenetaat is referred to by Nádinla (Nándilla) Gopa in his commentary on Prabodha-chandrodaya. Nândilla Gopa flourished about A. D. 1520. He was governor of Kondvidu in the reign of King Krishnaraya of Vijayanagara. There is a pillar inscription of his at Kondvidu in Guntur District dated Saka 1442 (A. D. 1520) (See Ep. Ind. Vol VI). Again the copy of his समन्वयसूत्रविवृति (at the Government College, Benares) is said to bear the date of its transcription Samvat 1461 (i. e. A. D. 1405). (see F. E. Hall's Bibliography p. 96 and 204). From these circumstances, Anand. purna seems to have flourished somewhere between A. D. 1252 and 1400. However I have found one circumstance which will help us to assign some 1 अबोधपङ्काविलबोधनीरे यदीयवाचः कतकायमानाः । वन्देमुनीन्द्रान्मुनिवृन्दवद्यान् श्रीमद्गुरून् श्वेतगिरीन्वरिष्ठान् ॥ खण्डन टीका पृ. २ (चौखम्बा) श्रीमच्छेतगिरि वन्दे शिष्यधीपद्मभास्करम् । यत्पादस्मरणं लोके भवरोगस्य भेषजम् ॥ खण्डन टीका पृ. १३४४ 2 इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्याभयानन्दपूज्यपादशिष्यस्य भगवदानन्दपूर्णस्य कृतौ खण्डनफक्किकाविभजने निग्रहानिरुक्तिर्नाम तृतीयः परिच्छेदः । खण्डन टीका पृ. १०२७ 3. See the colophon of the Vidyáságari commentary at the end of each chapter. 4 एवं च विमतं ज्ञानव्यतिरेकेण असत्, ज्ञानव्यतिरेकेण अनुपलभ्यमानत्वात् स्वप्नादिवदिति विद्यासागरोतमपि साधु। __अद्वैतसिद्धि पृ. ३२५ (नि. सा.) Aho ! Shrutgyanam Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxvii particular period to Anandapûrņa. He seems to have fourished after Sankara Misra (A. D. 1529), author of the Sankari commentary on Khandana. We meet with the following passage in the refutation of a definition of Pratyaksha (direct perception) in Sriharsha's Khandana: अथ यदनन्तरं न विजातीयप्रमित्सा तद्भावस्तथात्वम् । तन्न । तत्साजात्यानवगतो तद्विजातीयत्वानवगतेः, अरिसंपदि अनुमानादिविषयायां प्रत्यक्षयितुमनिष्टेश्च । खण्डन पृ. ३१८ (Lazarus Edition) Ditto पृ. ५८६ ( चौखम्बा) Sankar Miśra in commenting upon this passage says that the reading अनुमानादिविषयायां is gramatically inaccurate and accepts अनुमानादिविषये as the correct reading. But Anandpurņa in his Vidyasagari recites the implied objection of Sankara Miśra against the reading Eh faqurai and answers the objection by stating reasons in support of the said reading. From this circumstance it is clear that Anandpůrna who has criticized Sankara Misra's view must have lived after him i.e.after A.D. 1529. We have already stated above that Madhusudana who lived in the 17th century has referr to Anandapûrņa under the name of Vidyasagara. We must therefore place Anandapurna between A.D. 1529 and 1600. The Commentator Bhuvanasundara-We now turn to Bhuvanasundarasûri, author of the second commentary published with the text of Mahavidyavidambana in the present volume. From the verses at the commencement and at the end of his commentary we gather the following information about Bhuvanasundara:-He was a pupil of Sri Somasundara sûri belonging to Tapa-gachha sect. He wrote the commentary at the command of his preceptor. He studied logic under Guņaratua 4 (author of Shad-darsana-samuchaya-Vritti A. D. 1409). The commentary of Mahavidya-vidambana which he calls Vyákhyánadîpika was composed by him in the temple of Sri Párśvanátha at Harshapura.5 Charitrarája and Ratnashekhar Muni, two Jain scholars revised Bhuvanasundara's commentary and 1 अनुमानादिविषयायामिति प्रमादपाठः । अनुमानादिविषये इति पाठः साधीयान् । खण्डन, शाङ्करीटीका पृ. ३१९ १ विषयायामिति स्त्रीलिङ्गप्रयोगोऽनुपपन्नो, नियतपुल्लिङ्गत्वाद्विषयशब्दस्येतिचेत् । न। विषयशब्दस्य भावपरत्वात् , विषयतायामिति विवक्षितत्वात् , 'येकयोर्दिवचनैकवचने' इति प्रयोगात् यथा द्वित्वैकत्वयोरिति विवक्षितमिति। खण्डन, विद्यासागरीटीका पृ. ५८७ (चौखम्बा) 3 श्रीमत्तपाङ्गणनभोऽङ्गणमानुकल्पश्रीसोमसुन्दरगुरोः प्रवरोपदेशम् । आसाद्य साहसमिदं क्रियते मयैतद्ग्रन्थातिदुर्गमपदार्थविवेचनायाम् ॥ महाविद्यावि० टीका पृ.१ 4 तर्कादिग्रन्थविषये यत्किञ्चिज्ज्ञायते मया। तत्र श्रीगुणरत्नाव्हगुरूणां वाग्विजम्भितम् ॥ महाविद्यावि० टीका पृ. १ 5 हर्षपुरनामनगरे देवश्रीपार्श्वनाथशुभदृष्टौ । व्याख्यानदीपिकेयं समर्थिता भवतु जयलक्ष्म्यै ॥ महाविद्यावि० टीका पृ. १५० Aho ! Shrutgyanam Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxviii got the first fair copy of it made and placed on record. This is all that we can know about Bhuvanasundara from his own commentary. Bhuvanasundara has said that he was a pupil of Somasundara sûri belonging to the Tapágachha. We shall explain what is meant by Tapágachha. The Jains have two Sampradáyas (schools) viz Svetámbara and Digambara. Among the Svetambaras generally there are 84 Gachhas or sects, although the number has increased, A Gachha” means a group i, e, a congregation, Some of these Gachhas received their names from the village or town where one of the great Acháryas flourished, some were named after their founder and others bore their names from some distinguishing quality (fafateyu) of their founders. The tradition regarding the name Tapágachha is as follows:One Jagatchandra sûri took the vow of observing Achámla (in Gujarati ziats) tapa. When he successfully performed the tapa for 12 years, the king of Medapáta (Mewad) conferred in Samvat 1285 (A.D. 1229) the Biruda (title) of Tapa on him and since then the Gachha, which was successively known as Vatagachcha and Brihadagachcha came to be called Tapa-gachha. At present the principal Gachhas among the Svetambara Jainas are Tapá, Kharatara and Anchalika. The Harshapur mentioned by Bhuvanasundara cannot be identified with any modern village or town for want of sufficient particulars. There was a town called Harshapura, from a former Acharya of which place one Gachha came to be called Harshapurîya Gachha. But the present name of tha town is not known. However there are two Villages in the Jodhpur Territory, one called Harasor (16 miles from Degana), and one called Harasolá (4 miles from Gothana). There is another Harshapur the Modern Harsol, which is a village in the Prantij subdivision of the Ahmedabad District and situated 30 miles North-West of Ahmedabad. All these three contain Jaina temples, but as the temples at the last two places are modern, and the temple at the first Iarasor is old, it is probable that this Harasor is the Harshapura of Bhuvanasundara. From a Jain Work named Gurvávali in Sanskrita verse, we can trace Bhuvansundara as follows:-- Devasundara sûri (A. D. 1340-1385) was the 50th head of the Tapágachha sect. He had five pupils, Jnánaságara, Kulamandana, Gunaratna, 4 Soma 1 षट्तर्कीपरितर्ककर्कशमतिश्चारित्रराजो यतिस्वैविद्योत्तमरत्नशेखरमुनिर्वादीन्द्रवृन्दाग्रणीः । एतौद्वावपि शुद्धबुद्धिविभवौ टीकामिमां सादरं संशोध्य प्रथमप्रतौ गुणयुतौ संस्थापयामासतुः॥ महाविद्यावि०टीका पृ. १५० 2 The definition of a Gachha is "1991qalafaagara: 7893:/" 3 See Munigundara's Gurvavali, pagee 69 to 98. 4. He is the author of the Shad-darshana-samuchaya-Vritti and Kriya-ratnasamuchaya (A. D. 1409). Aho ! Shrutgyanam Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxix sundara and Sádhuratna. Jnánaságara (A.D. 1349–1404) became the 51st head of the Tapágachha sect and Somasundara succeeded him as the 52nd head in A.D. 1404. Somasundara had five pupils, Munisundara,' Jayachandra, Bhuvanasundara, Jinasundara, and Jinakirti. Now Bhuvanasundara being a pupil of Somasundara may be considered to have been younger than his preceptor by 25 years. And thus we can fix the approximate date of Bhuvanasundara as A.D. 1399 to 1460. Munisundara who was a co-student with Bhuvanasundara has praised him in the following Arya in his Gurvávali: श्रीभुवनसुन्दरा अपि वाचकवर्या न कस्य हर्षाय । सत्यपि येषां वाणी प्रतिचतुरं लीयते हृदये ॥ २३ ॥ Taigs g. 8W ( raft) Bhuvanasundara's Works--As regards Bhuvanasundara's works, three of them have been published in this volume. They are:-1 Mahavidya-vidambana-Vyákhyána, (pages 1 to 150), 2 Laghu-mahavidya-vidambana, a very brief refutation of Mahavidya syllogismis in imitation of Vádindra (pages 152 and 153), and 3 Mahavidya-vivarana-tippana (pages 157 to 189). A work of the name of (4) Parabramhotthápana-sthala is mentiond in a Gujarati work entitled Jaina-granthávali (which is a list prepared from a number of catalogues belonging to Jain Bhándárs) as being written by Bhuvansundara. But as the book is not available, nothing, can be said about it. One of his pupils Ratnasekhara, in his Srávakapratikramanasůtra-tîka (A.D. 1440), mentions one more work of his called (5) Vyákhyána-dîpiká. Mahavidya-vivarana- Lastly we come to the author of the Mahavidyavivarana which is a short commentary on the 10 verses of the Mahavidyasûtra. The author has not mentioned his name either in the introductory or concluding verses. Nor is it mentioned in the colophon which is “fat werfanfaarui A l". It seems that even Bhuvanasundara did not know the author's name as he does not mention it in the Tippana. If he was aware of it he would have stated it in the introduction as he has done in the case of Vadîndra in his commentary on the Mahavidya-vidambana. Thus there is 110 means to ascertain the name of the author of Mahavidya-vivarana. From the puport of the Mangala verse at the commencement of the Vivarana, he seems to have been a Vedantin,4 although well versed in Nyáya. For the 1 He is the author of Gurvávali, a poem in praise of some of the Gurus or Head preceptors of the Ta págachha in sucession. The book is published in the Jaina-Yashovijaya series at Benares. 2 तेषां विनयवृषभा भाग्यभुवोभुवनसुंदरावार्याः । व्याख्यानदीपिकाद्यैर्ग्रथैर्ये निजयशोऽप्रथ्नन ॥ 3 ggfaalfaatur 9.90€ 4 श्रुतिमयतनु केचित्केचिदानन्दरूपं विगलिततनु केचित्केचिदच्छस्वरूपम् । अभिदधति यदेकं तन्नमामीह जन्मस्थितिलयपरितापारम्भहीनं स्वरूपम् ॥१॥महाविद्याविवरण पृ.१५७ Aho ! Shrutgyanam Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXX word 'swarupa' which signifies 'Bramha' would not be used in saluting God by a follower of any other school of philosophy except a Vedantin. Beside while explaining the relation of Upalakshana he has alluded to the relation of Máyá with Bramha. At the end of the Vivaraṇa he states that the Mahavidya verses were explained by older authors before him.' So he may have flourished after Sivaditya (A. D. 975-1025). Bhuvansundara mentions a Brihadyritti (a larger commentary) on the Mahavidyásâtra. But nothing is known about it, Thus we have tried to give a short account of the authors and their works published in this volume together with a few historical notes on other authors connected with those works in one way or other, hoping that they may be of use to researchers in Sanskrit literature. I must now sincerely acknowledge the valuable assistance rendered to me by my friend Mr. T. M. Tripathi, B. A. of Bombay by making a loan of his two manuscripts and by furnishing information about Bhuvanasundara's date, place &c. In conclusion I take this opportunity to thank His Highness the Maharájá Sayaji Rao Gaekwád on behalf of Sanskrița loving public for the liberal patronage extended to ancient Oriental Literature. In the absence of such patronage the valuable and hitherto unknown works now published in this series would have remained sealed to the general public. NOTE ON THE MANUSCRIPTS. Following is the description of the Manuscripts used for collation in preparing this edition:4-Belongs to the Central Library at Baroda. This is the first copy of Mahavidya-vivarna, Folios 1 to 15. Size 9 x 4 inches, with 9 lines on each side. It is written on old rough paper. The writing is indifferent. It does not contain the 3 Mangala verses at the commencement. There are many omissions and mistakes made by the copvist. It begins with ॐ नमो गणेशाय and ends with श्रीरस्तु । शुभं भवतु। लेखकपाठकयोः कल्याणं भूयात् । 1 ननु उपलक्षणत्वमपि कदाचित्संबन्धिनि भवति । विपक्षसपक्षयोस्तु पक्षत्वेन संबन्धाभावात् कथं तदिति चेत् । न । यद्रजतमभात् सैषा शुक्तिरित्यत्र रजतस्य शुक्तिकोपलक्षकत्ववदुपपत्तिः, लिप्यक्षराणां वर्णोपलक्षकत्वमिव, वेदान्तिमते मायाया ब्रह्मोपलक्षकत्वमिवेति । महाविद्याविवरण पृ. १६१-१६२ 2 महाविद्या दशश्लोकी विवृतापि चिरन्तनैः । मन्दधीवृद्धिसिद्यर्थ विवृतेयं यथागमम् ॥ महाविद्याविवरण पृ. १८८ 3 एषाच महाविद्या अनेक दोषदुष्टत्वेन चिस्येत्युक्तं महाविद्याबृहद्वृत्तिकृता। महाविद्याविवरणटिप्पन पृ. १८९ Aho ! Shrutgyanam Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -This is also from the Central Library at Baroda. This manuscript forms the second copy of Mahavidya-vivarana and first copy of its commentary called Mahavidya-vivarana-tippana. Folios 2 to 6, size 101x41 inches. The first folio or leaf is lost. The manuscript is beautifully and neatly written in very small hand on Ahmedabad paper. The text is written in 6 to 10 lines in the middle of each page and the commentary is written in 9 lines above and below the text on each page. This manuscript is generally correct excepting some omissions. It ends with #TAT HETUTITI and the words "FFET TU <00" are written in the margin of the last page. 1-This belongs to the Parshvanátha Bhandara Patan and was supplied by the Central Library, Baroda. This is the first copy of Mabávidyavidambana, Folios 1 to 20 with 14 lines on each page. Size 12 x 44 inches. It is written on old Ahmedabad paper and is generally correct, excepting a few omissions and copyists mistakes. It begins with ॐ शिवाय नमः and ends with शुभं भवतु. 4—This belongs to the Travancore State Library at Trivandrum and was supplied by the Central Library, Baroda. This is a manuscript of Mahavidya-vidambana with the commentary of Anandapûrņa. It is in book-form contains folios 1 to 92 with writing on one side only. Size 131x8 inches. It is incomplete. It begins with the 23rd Anumána of the 1st Parichheda and ends with a portion of the 3rd Parichheda beginning with the words oftalaarafasifarafagas129 FT 349:q (printed page 144, line 21). The commentary of Anandapûrņa as found in this Manuscript is on a part of the 1st Parichheda only. The following note is written on the title-page of the manuscript in Sanskrit and in English:" महाविद्यांविडम्बनं हरकिङ्करन्यायाचार्यपरमपण्डितवादीन्द्रविरचितं प्रथमपरिच्छेदैकदेशमा रभ्य तृतीयपरिच्छेदैकदेशपर्यन्तम् । महाविद्याविडम्बनव्याख्या आनन्दपूर्णविरचिता प्रथमपरिछेदमात्रम् । तत्रापि आदौ कियांश्चन भागो लुप्तः । ६२ तमपृष्ठस्य नवमपतौ 'नन्यत्वदूषणम्' इत्यत आरभ्य व्याख्याग्रन्थः इति प्रतिभाति ।" "This manuscript was copied from a palm-leaf copy of the works on (in?) Malayalam character in the year 1913 belonging to Mr. Idappulle Valiya Raja and was compared with the palm-leaf original. In the original palm-leaf manuscript the following numbers of leaves are missing:-1-6, 15, 25, 29–32, 36–39 and 45-53." -This belongs to the Inána Mandira Jain Library at Baroda and was supplied by the Central Library, Baroda. This is the first copy of Mahavidya-vidambana-vritti of Bhuvansundara. Folios 1 to 48, with 61 or17 lines on each page. Size 101x41 inches. This is an old Aho! Shrutgyanam Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxii manuscript but the first 6 leaves and the 9th leaf are written on new paper. The old leaves appear to have been lost. The manuscript has been carefully corrected and there are marginal notes. The manuscript begins with “ॐ नमः सर्वज्ञाय” and ends with " भद्रम् । . " -This belongs to the Jain Mandira Jain Library at Chhani (). and was supplied by the Central Library, Baroda. This is a second copy of Mahavidya-vidambana-vritti. Folios 1 to 68 with 14 lines on each page. Size 10×4 inches. The colour of the paper shows it to be a recently made copy. This is generally correct. This begins with “ॐ नमः सर्वज्ञाय " -This belonged to the late Pandit Jyeshthárám Mukundaji of Bombay. He presented it to Mr. T. M. Tripathi of Bombay who made a loan of it to the editor for use in preparing this edition. This is the second copy of Mahavidyá-vidambana. Folios 1 to 14 with 18 lines on each page. Size 10×4 inches. The writer has given consecutive paging to the leaves of the manuscript but from the context and comparison with the other manuscripts it seems that two leaves were wanting in the original manuscript from which this copy was prepared. It is generally correct and appears to be very old. a-This also was lent by my friend Mr. T. M. Tripathi B. A. of Bombay. This is the 3rd copy of Mahavidya-vivarana-tippana of Bhuvanat sundara. The writer of this seems to be the same as that of manuscript . Folios 1 to 8 with 18 lines on each page. This is generally correcexcepting a few omissions and copyists' mistakes. It begins with "." There is a marginal note at the end as follows:"ग्रं० ५००. " This is an old manuscript. -This belongs to the Sanghvi Pádá Bhándára at Patan (in Gujarat) and was supplied by the Central Library, Baroda. This is the 3rd copy of Mahá vidyá-vidambana. Folios 1 to 17 with 16 lines on each page, size 10×4 inches. This is written neatly in a beautiful hand on Ahmedabad paper. Leaves 3 to 9 are worn out and torn in some places. It begins with "a: faar" and ends with "gỶ Hagi ayun!" There are a few omissions and copyist's mistakes. This also belongs to the Sanghvi Pádá Bhandara at Patan and was supplied by the Central Library, Baroda. This is a third copy of Mahavidya-vidambana-vritti. Folios 1 to 63 with 15 lines on each page. size 10×4 inches. This is a carefully written manuscript and generally accurate. It begins with " " and ends with the Prashasti verses printed in the present edition on page 151. Aho! Shrutgyanam Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxiii 27—This too belongs to the Sanghvi Pádá Bhandára at Patan, and was supplied by the Central Library, Baroda. This is the 4th copy of Mahavidya-vivaraña-tippana. Folios 1 to 9 with 18 lines on each page, size 101 x 45 inches. It is a neatly and carefully written Manuscript. It is generally correct excepting a few omissions. It begins with " 35 2:”. *a-This and q and of belong to the Sangha's Bhandara at Patan, was supplied by the Central Library, Baroda. This is the 3rd copy of Mahavidya-vivarana. This is generally correct. The writing is in different. It ends with "fat haifaut-faatui qatfůFTTTTTA Il fafti *T—This is the only copy of Lagbu-Mahavidya-Vidambana of Bhuvana Sundara. It is not carefully written. *$_This is the only copy of Mahavidya or Dashashloki-Mahavidya-suttra. This contians Marginal notes. -This belongs to the Central Library at Baroda. This is the 5th copy of Mahávidya-Vivarana with the Tippana of Bhuwana-Sundara. It is carefully written and almost correct. Folios 1 to 12 with 18 lines on each page. It ends with the words "Froly 8000". a, 9 and form one Manuscript consisitng of 1 to 7 folios. Size 105 X 45 inches with 16 to 18 lines on each page. It ends with "fear falsafai yaagt . 8413€ a goala I Te Hagi". Aho ! Shrutgyanam Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aho ! Shrutgyanam Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Extracts from the works of ancient Sanskrit authors who have mentioned Mahávidya, Kulárkapandita and Vádîndra: तत्त्वप्रदीपिका-(चित्सुखी-चित्सुखाचार्यकृता) पृ. १३ अथवा अयं घटः एतद्घटान्यत्वे सति वेद्यत्वानधिकरणान्यःपदार्थत्वात्पटवदित्यादि ___महाविद्याप्रयोगैरप्यवेद्यत्वप्रसिद्धिरप्यूहनीया।। पृ. १८० तदेवं जातौ व्यञ्जकप्रमाणयोरसंभवेन आकाशवृत्तिसत्ताव्याप्यजातियोगि क्रियासमाना धिकरणसत्तावान्तरजातियोगि संयोगवत्तिसत्तावान्तरजातियोगि द्रव्यमित्येवमा दीनि जातिपुरस्कारप्रवृत्तानि महाविद्यालक्षणानि निरस्तानि वेदितव्यानि । तत्त्वप्रदीपिकाटीका नयनप्रसादिनी-(प्रत्ययूपभगवत्कृता) पृ. १३ ये तु वक्ररीतिं रोचयन्ते तान्प्रति महाविद्याभिरपि साध्यप्रसिद्धिं सुलभयति __ अथवेति । पृ. २१ अवीतपदमाचार्यैरकार्यन्वयगोचराः । महाविद्याः पुनर्दिव्या दीव्यन्त्यत्रानिवारितम् ॥ तथाहि विमतं ज्ञानमेतज्ज्ञानविज्ञानविषयत्वे सति वेद्यत्वरहितज्ञानविषयः पद विषयत्वात् घटवदित्यादिमहाविद्याभिरपि समर्थनीयं स्वप्रकाशत्वम् । पृ. १८० यानि च महाविद्यानुमानानि द्रव्यत्वजातौ प्रवर्तन्ते तान्यपि परमाणुनिराकरणवादे ___निवेदनीयदूषणदूषितानीति नोदाहृतानि आचार्येण । पृ. १८१ महाविद्यालक्षणानीति—महाविद्यारीत्या प्रवृत्तानीत्यर्थः । वादीन्द्रस्तु एतानि लक्षणानि दूषयित्वा स्वमतेन कार्याश्रयो द्रव्यं, गुणश्रयो द्रव्य मित्यादिलक्षणान्युदाजहार । तानि च तत्रैव निरस्तप्रायाणीति । वादीन्द्रस्तु पृथक्त्वानाश्रयः संख्यानाश्रयः संयोगकारणत्वे सति विभागनिरपेक्षकारणत्वरहितो गुण इत्यादि प्रत्यवादीत् । तन्न । संख्यापृथक्त्वाद्याश्रयत्वस्य पूर्वमेवो पवर्णनात्। पृ. १८३ यद्वादीन्द्रेण तदुभयान्यतरत्वं नामैकान्योन्याभाववत्वे सति इतरान्योन्याभाववत्त्वा नधिकरणमिति निर्वचनं कृतं.."तदप्ययुक्तम् । ' ततो वादीन्द्र दर्पस्ते तदन्यतरतादिषु । अखण्डितनिरुक्त्युत्थः पण्डितंमन्य खण्डितः ॥" तेन जातिद्वारा उपाधिद्वारा वा वादीन्द्रादिभिरुत्प्रेक्षमाणलक्षणान्यपि क्षुण्णानि मन्त व्यानि । अपि च । वादीन्द्रस्येष्टदा तावन्महाविद्या पुलोमजा । सा च सव्यभिचारादिदोषैः संदूषितात्मना ॥ ...... नोपादेया महाविद्यामुद्रिता जातु जातयः । तत्त्वं चापि स्वीययत्नाजिगीषयिषुभिर्बुधैः ॥ शक्यते च सर्वप्रकारविप्लवो महाविद्याभिः साधयितुं, ग्रन्थगौरवभयान्न प्रपञ्यते सः । " " Aho ! Shrutgyanam Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. २२१ पृ. २३५ पृ. २४३ पृ. २८४ पृ. २८९ पृ. ३०४ पृ. ५६७ पृ. १३७ पृ. २२ पृ. १२५ पृ. १९९ पृ. २७२ पृ. २७५ पृ. २७८ ३६ वादीन्द्रस्तु बाधितत्वात्यन्ताभावोऽबाधितत्वमित्याह । एतेनास्य वन्हिविशेषस्य पूर्व प्रतीतत्वेऽपि एतत्पर्वतनिष्ठतया पूर्वमप्रतीतिरिति वदन्वादीन्द्रोऽपि विद्रावितः । पक्षधर्मताखण्डनेन महाविद्याजीवनमपि खण्डितं वेदितव्यम् । केवलान्वयिनि व्यापके प्रवर्तमानो हेतु: पक्षे व्यापक प्रतीत्यपर्यवसानबलादन्वयव्यतिरेकि साध्यविशेषं वाद्यभिमतं साधयन्हि महाविद्येत्युच्यते । तथा च व्यापक प्रतीत्यपर्यवसानानिरुक्तौ तासामप्यनिरुक्तेः दग्धसारं चेदं वादीन्द्रदावानलेन महाविद्याविपिनमिति नामाभिस्तद्भस्मीभावाय संरभ्यते । महाविद्यानुमानमप्याह — अयं घट इति । तथा निरवयवत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वानधिकरण मूर्तनिष्ठत्वरहितनिष्ठधर्माधिकरणत्वं मे - यत्वात् इत्यादि महाविद्या भिरेवार्थतः सत्प्रतिपक्षता केन वार्य I एवं हि महाविद्या कोविदाः प्राहुः श्रमादुपरमेऽपि न दोष इति । तदित्थं स्वपरपक्षाणामेषां पारिप्लवावहा । आरादेव परित्याज्या महाविद्याभिसारिका ॥ एवं प्रत्यक्षं जातौ प्रत्याख्याय कुलार्कपण्डितोन्नीतमनुमानमुद्भावयति दूषयितुं - तर्हीति । वेदान्तकल्पतरुः- ( अमलानन्दयतिकृत: ) एवं सर्वा महाविद्यास्तच्छाया वान्ये प्रयोगाः खण्डनीया इति । शास्त्रदर्पण: - ( अमलानन्दयतिकृतः ) महाविद्याश्चैतद्विषया वेदान्त कल्पतरौ निर्भत्सिताः । तर्कसंग्रहः - ( आनन्दज्ञानविरचितः) आत्मत्वं स्पर्शवदवृत्तिज्ञानवद्वृत्तिजात्यन्यत् जातित्वादिति आभाससमानता इति चेत् । तर्हि सर्वास्वेव महाविद्यासु एवमाभाससमानतासंभवादुच्छिन्नसंकथास्ताः स्युः । न्यायपरिशुद्धि: - ( वेङ्कटनाथवेदान्ताचार्यकृता ) अत एव महाविद्यादिरूपकेवलान्वथिनामप्यनवकाशः । अव्याहत साध्यविपर्ययत्वात् । अन्यथा तेषां सर्वसाधकत्वसामर्थ्याभ्युपगभङ्गप्रसङ्गात् । अत एव हि तैर्महाविद्यादिरीतीनां प्रयोगोऽभ्युपगम्यत इति । तत्र यद्यप्यस्मिन्नुदाहरणे लक्षणमसंभवि तथापि महाविद्यादिप्रस्थानेषु केषाञ्चिद्धेतूनां साध्यतदभावयोः समानाकारतया संभवं पश्यामः । प्रमाणान्तरवलात सिद्धयतः साध्यविशेषस्य विपर्यये बाधकमप्यस्तु, न पुनः महाविद्यादिहेतुभिरप्रयोजकैः सिद्धयतः । तस्मादव्याप्तभेद एवायमप्रयोजकः । तत्स्वभावानतिलङ्घनाच्च श्रीमहाविद्या- मानमनोहर - प्रमाणमञ्जर्यादिपठितवक्रानुमानस्यापि तथात्वम् । Aho! Shrutgyanam Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ न्यायपरिशुद्धिटीका न्यायसाराख्या - ( श्रीनिवासाचार्यकृता ) पृ. १२६ पृ. १९९ पृ. २७६ पृ. २७८ श्रीमहाविद्या मानमनोहर: प्रमाणमञ्जरीति ग्रन्थनामधेयानि । एवंजातीयका अन्येऽपि ग्रन्थाः सन्ति । तत्र तत्र पठितानि परपक्षसाधारणानि वक्रानुमानान्यप्रयोजकतया व्याप्यत्वासिद्धान्तर्भूतान्येवेत्यर्थः । तत्त्वमुक्ताकलापः सर्वार्थसिद्धिसमाख्यटीकायुतः - (श्रीवेङ्कटनाथवेदान्ताचार्यकृतः) पृ. ४७८ अत्र मतभेदेन लक्षणद्वयमाह । साधनाव्यापकत्वे सति साध्यसमव्याप्तो धर्म उपाधिरित्युदयनः । साधनाव्यापकत्वे सति साध्यव्यापक इति समशब्दप्रतिक्षेपेवादीन्द्रः । अतो वक्रानुमानं केवलान्वयिरूपमपि साधनजातिरेव, स्वव्याघातात् । जातिर्द्विविधा, साधनजातिर्दूषणजातिश्च । तत्र साधनजातिर्महाविद्या, दूषणजातिः प्रतिधर्मसमाधरिति विचक्षणानां निर्णयः । एतत्सर्वं विडम्बने विस्तरेण द्रष्टव्यम् । अतो वक्रानुमानस्य नानुमानत्वप्रसङ्ग इति । कुमारिलादयो व्यतिरेकिणं निरस्यन्ति, वादीन्द्रादयोऽन्वयिनमिति विशेषं दर्शयति । एवं केवलान्वय्यङ्गीकारे महाविद्याप्यङ्गीकार्या, तस्या अपि केवलान्वयित्वात् । तथा च पूर्वोक्तं तन्निराकरणं न युज्यते । किञ्च सकलसपक्षवृत्तिः केवलान्वयी महाविद्येत्युच्यते । तच्च न संभवति । प्रमेयत्वाभिधेयत्वादीनां सर्वस्थत्वे स्वात्मन्यपि वृत्तिप्रसङ्गात्, तदभावे केवलान्वयित्वाभावादिति चोदयति--सर्वस्थ इति । इत्थं बहुविधतर्ककर्कशं महाविद्यानुमानं न प्रतितिष्ठतीत्याह — तत्र चैवं विकस्पादिति । यथासंभवं विकल्पानां भूयस्त्वादित्यर्थः । इयमुत्प्रेक्षा केवलान्वयिरूपमहाविद्यादिविभागं विघटयतु न वा, सर्वथा अन्वयव्यतिरेकि सद्भावाद्याप्तिरभजरेत्याह - इतीति । न वेत्युक्त्या विभागविघटनं न सिद्ध्यतीत्यभिप्रैति । अयमभिप्रायः - महाविद्या चेत् स्वव्याघातादिभिः प्रागेव दूषिता, अभिधेयत्वादिसाधकं प्रमेयत्वादिकं तु सर्वथा केवलान्वयि च भवति । तस्य त्वदुक्तदूषणाभासैरपाकरणशङ्कापि नाङ्कुरतीति ॥ एतादृशजात्यन्तर्गतैर्विकल्पे दूषणकथने शून्यवादो दुर्वारः । भवान् पुनर्महाविद्यामेव विडम्बयन् न शून्यवादी, तत्तत्स्थापनप्रवणत्वात् । पृ. ४८६ पृ. ४८९ 33 33 पृ. ४९० ८. ४९१ 6 अव्याहत साध्यविपर्ययत्वादेव कुदृष्टिभिः स्वाभिमतसाधनत्वेनोत्प्रेक्षितानि महाविद्यानुमानानि आभासीकृतानीत्याह — अत एवेति । महाविद्यारीतीनामिति । महाविद्यारीतयश्च प्रतिबन्धाद्यान्हिकेऽस्माभिः प्रपञ्चि तास्तत्र द्रष्टव्या: । तथा च मानान्तरात्साध्यसिद्धौ महाविद्यायाः साधनत्वं न पुरस्कार्यमित्यप्रयोजिकेमहाविद्या इति भाव: । Aho! Shrutgyanam Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. ९८ ३८ सर्वदर्शनसंग्रहः - ( माधवाचार्यकृत: ) एवं च कर्तृव्यावृत्तेस्तदुपहितसमस्त कारकव्यावृत्तावकारणक कार्योत्पादप्रसङ्ग इति स्थूलः प्रमादः । तथा निरटङ्कि शङ्करकिङ्करेण - " अनुकूलेन तर्केण सनाथे सति साधने । साध्यव्यापकताभङ्गात्पक्षे नोपाधिसंभवः " ॥ इति । 1 लक्षणावलीटीका न्यायमुक्तावली - ( शेषशार्ङ्गधरकृता ) न च केवलान्वयित्वेन सत्प्रतिपक्षत्वासंभवः । केवलान्वयित्वस्यैवात्रासंभवात् । दशMatasम्बने तदनिरुक्तेरुक्तत्वाच्च । वादीन्द्रास्तु त्रसरेणुः सावयवावयवो महत्वे सति चाक्षुषत्वात् पटवदित्याहुः । वादीन्द्रास्त्वेवमाहुः - कालार्थत्वं तु अनाशङ्कनीयमेव, गुणत्वेनैवैषामभ्युपगमातु परत्वापरत्ववत् । पृ. २३ ट. ४२ Aho! Shrutgyanam Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय: महाविद्याविडम्बनग्रन्थस्थविषयानुक्रमणी । प्रथमः परिच्छेदः । मङ्गलम् ग्रन्थकर्तुः महाविद्यादूषणोद्घाटनकौशलवर्णनम् ... महाविद्याशब्दस्यार्थनिरूपणम् केवलान्वयिहेतोः असिद्धत्वादिसकलदोषविरहान्महाविद्यात्वम् महाविद्याप्रकारकथनम् ... अथ पक्षं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहा विद्याभेदाः तत्र १ महाविद्या २ महाविद्या ३ महाविद्या ४ महाविद्या ५ महाविद्या ६ महाविद्या ७ महाविद्या ८ महाविद्या ९ महाविद्या १० महाविद्या ११ महाविद्या १२ महाविद्या १३ महाविद्या १४ महाविद्या १५ महाविद्या १६ महाविद्या १७ महाविद्या ... १८ महाविद्या १९ महाविद्या २० महाविद्या २१ महाविद्या २२ महाविद्या २३ महाविद्या ⠀⠀⠀⠀ Aho! Shrutgyanam : ⠀⠀⠀ ... : : : : ::: ... :: ... ... ... ... ... ... ... : ... ... : : ... पृष्टम् १ २ 39 "3 ११ १४ "" 13 १६ १८ १९ २६ २७ "" २८ 55 २९ "" 35 " "" ३० 33 " ३१ "1 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः २४ महाविद्या २५ महाविद्या २६ महाविद्या २७ महाविद्या २८ महाविद्या २९ महाविद्या ३० महाविद्या अथ सपक्षं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्या भेदाः तत्र १ महाविद्या २ महाविद्या ३ महाविद्या ४ महाविद्या ५ महाविद्या ६ महाविद्या ७ महाविद्या ८ महाविद्या ९ महाविद्या १० महाविद्या ११ महाविद्या १२ महाविद्या १३ महाविद्या १४ महाविद्या १५ महाविद्या १६ महाविद्या १७ महाविद्या ... १८ महाविद्या १९ महाविद्या २० महाविद्या २१ महाविद्या २२ महाविद्या अथ विपक्षं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्याभेदाः तत्र १ महाविद्या २ महाविद्या ३ महाविद्या ४ महाविद्या ४० : :: Aho! Shrutgyanam : : ... ... ... ... पृष्ठम्. 440 ... ... ... :: ... ... ... ... ... ... 35 ... ३२ ३२ : : : : ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ "" ४० ४१ " ४२ "" "" ४३ "" 35 33 ४४ "" "" ४५ 27 23 23 ४७ ... ४८ ... E = X = X α x ४६ ५२ ५४ ५७ 33 ५८ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ::::::::::: विषयः ५ महाविद्या ६ महाविद्या ७ महाविद्या ८ महाविद्या ९ महाविद्या १० महाविद्या ११ महाविद्या १२ महाविद्या अथ साध्यं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्याभेदाः ... ... तत्र १ महाविद्या ... ... २ महाविद्या मूलानुमानपक्षं पक्षीकृत्य प्रवृत्तमहाविद्याभेदानां साध्यमपि पक्षीकृत्य प्रयोगाः तत्र १ महाविद्या ... अथ साध्याभावं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्याभेदाः तत्र १ महाविद्या ... ... ... अथ मूलानुमानं पक्षीकृत्य प्रवृत्तमहाविद्यानां साध्याभावमपि पक्षीकृत्य प्रयोगाः ... तत्र १ महाविद्या ... ... अथ पक्षनिष्ठधर्म पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्याभेदाः ... तत्र १ महाविद्या ... ... अथ सपक्षनिष्ठं धर्म पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्याभेदाः ... तत्र १ महाविद्या ... ... अथ विपक्षनिष्ठं धर्म पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्याभेदाः ... तत्र १ महाविद्या ग्रन्थकर्तु: महाविद्यानुमानप्रावीण्यवर्णनम् ... ... महाविद्याखण्डनप्रवृत्तस्यापि ग्रन्थकर्तुः महाविद्याव्याख्यानप्रयत्नसमर्थनम् द्वितीयः परिच्छेदः। मङ्गलम् .... केवलान्वयिहेतुरूपमहाविद्याखण्डनारम्भः ... ... ... सकलवस्तुनिष्ठत्वं केवलान्वयित्वमितिलक्षणखण्डनम् ... ... अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वविरह: केवलान्वयित्वमिति लक्षणखण्डनम् अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वखण्डनम् ... अभावाभावखण्डनम् अप्रामाणिकाभावसमर्थनम् ... ... योग्यानुपलब्धेरभावप्रमाजनकत्वनिराकरणम् Aho! Shrutgyanam Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ विषयः अन्योन्याभावः अत्यन्ताभावश्चेति अभाद्वैविध्यस्थापनम् निष्प्रमाणकाभावसमर्थनम् ... ... ... ... केवलान्वयिधर्मे बाधकोपन्यासः । केवलान्वयिधर्मेण कस्यचिदपि व्याप्तिर्नास्तीति निरूपणम् ... साध्याभाववद्वृत्तित्वाभावो व्याप्तिरिति व्याप्तिलक्षणाभ्युपगमेऽपि केवलान्वयिनि व्याप्त्यभावसमर्थनम् ... , अनौपाधिक: संबन्धः व्याप्तिरिति व्याप्तिलक्षणाभ्युपगमेऽपि केवलान्वयिनि व्याप्त्यभावसमर्थनम् ... ९४ व्याप्यत्वस्य साध्यगतत्वस्वीकारे व्याप्यत्वपक्षधर्मतयोभिन्नाधिकरणत्वात् केवलान्वयिनि व्याप्त्यभावनिरूपणम् ९६ यद्वन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वविरहः साध्यस्य तत्त्वं व्याप्यत्वमिति व्याप्तिलक्षणाभ्युपगमेऽपि केवलान्वयिनि व्याप्त्यभावसमर्थनम् ... अविद्यमानविपक्षत्वे सति सपक्षे सत्त्वं मेयत्वादीनामभिधेयत्वादिव्याप्यत्वमिति भूषणमतनिराकरणम्... ९७ केवलान्वयिनि व्याप्यत्वासिद्धिसमर्थनम् ... ... ... ... ... ... ९८ तृतीयः परिच्छेदः। मङ्गलम् ... ... ... ... ... ... ... ... ९९ शिवादित्यादितार्किकैः अन्वयव्यतिरेकिहेतुमुपाधिदूषितं मत्वा केवलान्वयित्वेन महाविद्याः श्रिताः, तन्नि राकरणाय ग्रन्थकर्तुदीन्द्रस्यैष यत्नः इति निरूपणम् ... मेयत्वादिकेवलान्वयिहेतौ अश्रावणत्वोपाधिदोषोद्भावनम् अश्रावणत्वोपाधेर्दोषत्वे बीजम् ... ... अश्रावणत्वोपाधेः पक्षेतरत्वदोषादूषितत्वनिरूपणम् ... ... ... १०४ न केवलं पक्षं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानासु महाविद्यासु अश्रावणत्वमुपाधिः, किंतु सपक्षविपक्षादीन् पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्यास्वपि अयमुपाधिरिति समर्थनम् महाविद्यासंशितकेवलान्वयिहेतौ विरुद्धहेत्वाभासोद्भावनम् ... महाविद्याख्यकेवलान्वयिहेतौ अनैकान्तिकहेत्वाभासोद्भावनम् ... महाविद्याख्यकेवलान्वयिहेतौ सत्प्रतिपक्षहेत्वाभासोद्भावनम् ... ... महाविद्यानुमानेनैव महाविद्यायां दोषोद्भावनम् ... महाविद्यानां सिद्धान्तविप्लावकत्वदोषग्रस्तत्वसमर्थनम् ... सिद्धान्तविप्लावकत्वस्य पृथग्दूषणत्वं, अथवा प्रतिबन्धामन्तर्भावः इति निरूपणम् १२९ सिद्धान्तविप्लावकत्वस्य प्रतिबन्द्यतर्भावसमर्थनम् ... ... ... १३१ महाविद्यायाः स्वव्याघातकत्वसाधनम् ... ... महाविद्याया अनैकान्तिकानुमानस्य अनैकान्तिकत्वानुमाने, तन्न्यायेन अनैकान्तिकत्वानुमानात् मूलमहा विद्यानुमानानैकान्तित्वस्य तादवस्थ्यप्रतिपादनम् ... महाविद्याया अर्थान्तरतादोषोद्भावनम् ... ... ... धूमानुमाने महाविद्यावादिन: अर्थान्तरतापूर्वपक्ष: ... ... निरुक्तपूर्वपक्षनिरास: ... प्रौढिवादेन पुनरपि प्रकारान्तरेण महाविद्याया अर्थान्तरतादोषस्थापनम् ... १०२ २२ १२८८ ३२ Aho! Shrutgyanam Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठम्. ::::: ... १४५ ... १४९ १५२-१५४ : : . १५७ ४३ विषयः पुनर्भङ्गयन्तरेण अर्थान्तरतासमर्थनम् ... ... ... ... व्याघातबलादपि महाविद्यानुमितिः शब्दानित्यत्वसाधनाक्षमेति प्रतिपादनम् ... प्रतीतापर्यवसानबलादपि महाविद्यानुमितिः शब्दानित्यत्वसिद्धावक्षमेति प्रतिपादनम् ग्रन्थोपसंहारः ... ... ... ... ... टीकाकारभुवनसुन्दरसूरिप्रशस्ति: ... ... ... .. १ परिशिष्टम् श्रीभुवनसुन्दरसूरिविरचितं लघुमहाविद्याविडम्बनम्... ... ... २ परिशिष्टम् श्रीकुलार्कपण्डितप्रणीतं षोडशानुमानात्मकमूलदशश्लोकीमहाविद्यासूत्रम् .. ३ परिशिष्टम्महाविद्याविवरणं श्रीभुवनसुन्दरसूरिविरचितटिप्पनसमेतम् ... तत्र मङ्गलम् ... ... ... अभिधेयपरिपाटीवर्णनम् संबन्धप्रयोजनाद्यभिधानाभावशङ्कासमाधानम् तत्र प्रथमानुमानम् द्वितीयानुमानम् तृतीयानुमानम् चतुर्थानुमानम् पञ्चमानुमानम् षष्ठानुमानम् सप्तमानुमानम् अष्टमानुमानम् नवमानुमानम् दशमानुमानम् एकादशानुमानम् द्वादशानुमानम् त्रयोदशानुमानम् चतुर्दशानुमानम् पञ्चदशानुमानम् षोडशानुमानम् ::::::::::::::: :::::::::::::::::::: :::::::::::::::::::: ... १६२ ... १६६ ... १६८ ... १७१ ... १७४ ... १७५ ... १७६ ... १७८ ... १८० ... १८३ ... १८५ ... १८५ ... १८७ Aho! Shrutgyanam Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सूचीपत्राणि) I महाविद्याविडम्बनग्रन्थोल्लिखितानां ग्रन्थकारप्रभृतीनां नानां सूचीपत्रम् ... ... II भुवनसुन्दरसूरिकृतमहाविद्याविडम्बनवृत्तौ उल्लिखितानां ग्रन्थक-दिनानां सूचीपत्रम् III भुवनइन्दरसरिणा महाविद्याविडम्बनवृत्तौ उद्धृतानां लक्षणादीनां संग्रहः ... IV महाविद्याविडम्बनग्रन्थगतानां परिभाषिकशब्दानां सूचीपत्रम् ... ... V महाविद्याविडम्बनादिग्रन्थचतुष्टयगतश्लोकानां वर्णानुक्रमणी. ... ... VI शुद्धिपत्रम्. ... ... ... ... ... Aho ! Shrutgyanam Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवादीन्द्रपण्डितविरचितं महाविद्याविडम्बनम् । वाकायचेतःप्रभवापराधप्रबन्धसम्बन्धतमःप्रकाश। उन्मुद्रितज्ञानसुधानिधान गौरीपते त्वां शरणं प्रपद्ये ॥ १॥ __ श्रीभुवनसुन्दरसूरिविरचिता महाविद्याविडम्बनवृत्तिः । श्रीगौर्यस्य विभोत्रिपद्यपि पर्युक्ताऽप्रमैः पर्यय द्रव्योद्यन्नयगद्वयाप्यथ नयानन्तेक्षणप्रेक्षणा । लोकालोकममेयगोचरमिता स्याद्वादवादं रसं दत्ते शाश्वतसौख्यदं स जयतान्मायाक्षरेक्ष्यो जिनः ॥ १॥ यां कन्दप्रभवन्मृणालविलसत्तन्त्वात्मना मूर्द्धगां शक्तिं कुण्डलिनी समुज्वलसुधाधाराः किरन्तीं बुधाः । चञ्चच्चन्द्ररुचिं विचिन्त्य कवितैश्वर्येण वाचस्पति धिक्कुर्वन्ति मुदेऽस्तु सा भगवती श्रीशारदादेवता ॥ २ ॥ तर्कादिग्रन्थविषये यत्किञ्चिज्ज्ञायते मया। तत्र श्रीगुणरत्नाह्वगुरूणां वाग्विजम्भितम् ॥ ३ ॥ श्रीमत्तपागणनभोऽङ्गणभानुकल्पश्रीसोमसुन्दरगुरोः प्रवरोपदेशम् आसाद्य साहसमिदं क्रियते मयैतद्वन्थातिदुर्गमपदार्थविवेचनायाम् ।। ४ ।। अथ व्याख्यायते किञ्चिन्महाविद्याविडम्बनम् । वृद्धाम्नायानुसारेण मन्दधीबुद्धिवृद्धये ॥ ५॥ (भुवन०)-इह हि तर्कसाहित्यालङ्कारादिसकलशास्त्रार्थसार्थाम्भोधिपारीणप्रतिभः स्वकीयादृष्यवैदुष्यकलारजितनानानरेन्द्रसभः श्रीभट्टवादीन्द्रो महाविद्याभ्यासक्शसंजातगर्वपर्वताधिरूढवादिवृन्दारकपिपातयिषया महाविद्यास्वरूपमविज्ञायैव विज्ञतयैष महाविद्या विडम्बयतीति साशपण्डितप्रकाण्डानां नूतनमहाविद्यानुमानपरम्पराप्रकटनपाटवेनैवंविधशङ्काशङ्कसङ्कलत्वपरिजिहीर्षया महाविद्याजिज्ञासुप्राज्ञावतंसानां विज्ञत्वसिंहासनाध्यारुरोहयिषया च महाविद्याविडम्बनग्रन्थं चिकीर्षुः १ प्रकाशः इति ज पुस्तकपाठः। १ महाविद्या० Aho ! Shrutgyanam Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं शिष्टाः कचिदिष्टे वस्तुनि प्रवर्तमानाः स्वाभीष्टदेवतानमस्कारपूर्व प्रवर्तन्ते इति पूर्वपुरुषमार्गानुवर्तनाय निर्विघ्नं शास्त्रपरिसमाप्तये स्वपरयोर्मङ्गलाभ्युदयाय चादौ नमस्कारमाह-वाकायचेतः प्रभवेत्यादि । हे गौरीपते महेश, त्वामहं शरणं प्रपद्ये । गौर्याः पतिः गौरीपतिरित्युक्तेऽन्योऽपि पुरुषवि. शेष: स्यादित्याशङ्कयाह-उन्मुद्रितेत्यादि । उन्मुद्रितं प्रकटीकृतं ज्ञानमेव सुधानिधानं येन सः । तथा तस्य संबोधनं हे उन्मद्रितेत्यादि । एतावत्युक्ते कियज्ज्ञानशाली पुरुषविशेषोऽप्येवंविधः स्यात्, तब्यवच्छेदायाह-वाकायचेत इत्यादि । वाकायचेतोभ्यः प्रभवो योऽपराधो दुष्टभाषणकरणचिन्तनादिरूपस्तस्य प्रबन्धः सातत्यम् । तस्य यः संबन्धः, तद्रूपमेव यत्तमः तिमिरं, तस्मिन्प्रकाशः प्रकाशरूपः । यथा हि भान्वादिप्रकाशेन तमःपटलं विलीयते, तथा महेशोपासनया वाचिककायिकमानसदोषसंततिरपीत्यर्थः । एतावता एवंविधविशेषणविशिष्टत्वं महेश्वरस्यैव जाघटीति नान्यस्येति कर्तुरभिप्रायः । इति प्रथमपद्यार्थः ॥ १॥ समुल्लसति वादीन्द्रचन्द्रे शङ्करकिङ्करे। उन्मीलन्ति महाविद्यादोषकैरवकोरकाः ॥२॥ (भुवन०)-अथ ग्रन्थकारः स्वस्य महाविद्यादूषणोद्घोषणायां कौशलं प्रचिकटयिषुराहसमुल्लसति वादीन्द्रचन्द्रे इत्यादि । वादीन्द्र एव चन्द्रः । तस्मिन्समुल्लसति दोषकैरवकुड्मला उन्मीलन्ति विकसन्तीत्यन्वयः । यश्चन्द्रः स भगवतो भालोपासनलालसतया शङ्करकिङ्करः स्यात् । तथा तदुदये कैरवकोरकोल्लासः स्यादेवेति युक्त एवायमर्थः ॥२॥ अथ महाविद्या कथं समुत्पन्नेतिवाच्यमार्याद्वयमुच्यते भाट्टा नित्यं शब्दं योगाद्या वादिनस्त्वनित्यं च । प्रतिजानते ततोऽयं जातस्तेषां विवादोऽत्र ॥ १॥ तत्तस्यानित्यत्वं प्रतिपादयितुं तु भाट्टवादीन्द्रान् । योगांचायों वर्यः कृतवानेतां महाविद्याम् ॥२॥ अत्राद्यपरिच्छेदे महाविद्यानुमानानि वादीन्द्रेण प्रोक्तानि । तत्र महाविद्यास्वरूपमज्ञात्वा महाविद्या दुरधिगमेत्यतो महाविद्यारहस्यं पद्यत्रयेण प्रकाश्यते । तथा हि अन्वयिव्यतिरेकित्वोपेतमूलानुमाविधौ । महाविद्यानुमानं तु प्रयोज्यं केवलान्वयि ॥ ३ ॥ यत्र मूलानुमानं मुख्यानुमानमन्वयव्यतिरेकि स्यात् तत्र महाविद्यानुमानं प्रयोज्यम् । किं विशिष्टं, केवलान्वयि । तथाहि-अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवत् इत्यत्रान्वयव्यतिरेकिणि मूलानुमाने महाविद्यानुमानं यथा-अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वानधिकरणेत्यादि । इदं च केवलान्वयि एवेत्यर्थः ॥ महाविद्यानुमानेषु सर्वेष्वेते भावा विचार्याः । तथाहि शब्दस्यास्थिरतोपलक्षणमिदं साध्यं तु चित्तेप्सितं दृष्टान्ताय च केवलान्वयितया स्थाप्याः पदार्थाः समे। १ योगाचार्यों इति च पुस्तकपाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ महाविद्याविडम्बनम् । सर्वत्रैव यथार्थसिद्धियुगलावृत्तिर्विचार्या विधे- . ___ त्याद्यं सर्वमवेक्षणीयमखिलप्रौढानुमानेष्त्रिह ॥ ४ ॥ अत्र महाविद्यानुमानेषु यत् शब्दानित्यता साध्यते तदुपलक्षणम् । तेनानेन प्रकारेण स्वचित्तेप्सितं नित्यत्वानित्यत्वसत्त्वासत्त्वपौरुषेयत्वापौरुषेयत्वसकर्तृकत्वाकर्तृकत्वादि सर्व साधनीयम् । तत्र शब्दस्यानित्यतासाधनायानुमानं क्रियते । तथाहि-अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वानधिकरणानित्य. निष्ठधर्मवान् , मेयत्वात्, घटवत् । अथानेनैवानुमानेन श्रुतेः पौरुषेयत्वं साध्यते । तथाहि-श्रुतिः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितपौरुषेयनिष्ठाधिकरणं, मेयत्वात्, घटादिवत् । एवमनेन प्रकारेणान्यदपि सर्वानुमानैः सर्व साधनीयम् । दृष्टान्ताय च केवलान्वयीति । अत्र महाविद्यानुमानेषु सर्वे नित्या अनित्याश्च पदार्थास्तद्धर्माश्च दृष्टान्तीकार्याः । पक्षं पक्षतुल्यं च वर्जयित्वा पक्षतुल्यानां पक्षवत्सन्दिग्वसाध्यवत्त्वात् । पक्षे च स्वसाध्यसाधने तद्वदेव । पक्षतुल्येष्वपि तत्साध्यसिद्धेः । अत्र च सर्वेऽपि सपक्षाः कुत इत्याशङ्कायां केवलान्वयीत्युक्तम् । महाविद्याहेतोः केत्रलान्वयित्वात, केवलान्वयिनि विपक्षाभावात्, सर्वेऽपि पदार्थाः सपक्षा एव । सर्वत्रवेत्यादि । सर्वत्र महाविद्यानुमानेषु प्रायो युगलावृत्तिविचार्या त्रिधा । तथाहि-यो धर्मः स्वस्मिन्नेव वर्तते न स्वेतरस्मिन् , सोऽपि स्वैस्वेतररूपे युगले न वर्तते । तथा यः स्वेतरस्मिन्नेव वर्तते न स्वस्मिन् , सोऽपि स्वस्वेतरयुगले न वर्तते । तथा यः स्वस्मिन्स्वेतरस्मिंश्च न वर्तते, सोऽपि स्वस्वेतरयुगले न वर्तते । अत्र चानुमाने शब्दे विचार्यमाणो धर्मः शब्दत्वादिः स्वस्मिन्नेव वर्तते न स्वेतरस्मिन् , ततः स युगलावृत्तिरुच्यते । तथा दृष्टान्ते घटादौ विचार्यमाणाः घटत्वादयः स्वेतरस्मिन्नेव वर्तन्ते न स्वस्मिन् , तथा काप्युभयत्राप्यवर्तिनो भवन्ति, तेऽपि युगलावर्तिन उच्यन्ते इत्यर्थः । इत्यादि सबै यथार्थसिद्धि अर्थसिद्धयनतिक्रमेण विचार्यमिति :काव्यार्थः ॥ एवंविधं साध्यमनित्यतां विना शब्दस्य नोत्पद्यत एव तस्मात् । शब्दोऽस्थिरः स्यादिति पारिशेष्यात्सर्वानुमानेब्बिह साध्यसिद्धिः ॥ ५ ॥ एवंविधं स्वस्वेतरवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृत्तिधर्मवानित्यादिरूपं महाविद्यासाध्यं शब्दस्य ... कृतस्यानित्यतां विना नोत्पद्यते । तस्माच्छब्दोऽनित्यः स्यादित्येवंविधपारिशेष्यात्सर्वमहाविद्यानु नेषु अनित्यत्वादिरूपसाध्यसिद्धिविधेया । यतः प्रायेग हि महाविद्या तुमानेषु पारिशेष्येणैव वि क्षितलाध्यसिद्धिविधीयते । परिशेषलक्षणं चेदम्-" प्रसक्तप्रतिषधेऽन्यत्राप्रसंगाच्छिष्यमाणे संप्र. त्ययः परिशेषः ।" इति पद्यार्थः ॥ केवलान्वयिनि व्यापके प्रवर्त्तमानो हेतुः पक्षे व्यापकप्रतीत्यपर्यवसानबलादन्वयव्यतिरेकिसाध्यविशेषं वाद्यभिमतं साधयन्महाविद्येत्युच्यते । तस्य च महाविद्यात्वमसिद्धत्वादिसकलदोषविरहः । प्रमेयत्वादीनां निर्णीतपक्षवृत्तित्वेन पक्षधर्मत्वासिद्धेरसम्भवात् । केवलान्वयिनि साध्याभावाप्रसिद्धौ साध्या १ सर्वमहा” इति च पुस्तकपाठः । २ °पि च स्वेतर' इति च पुस्तकपाठः । ३. सिद्वादिस इति ज पुस्तकपाठः। Aho! Shrutgyanam Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुन्दरसूरिकृती कायुतं भावाधिकरणविपक्षरूपव्यावर्त्यासम्भवेन यस्य कस्यचिदुपाधित्वेनाभिधीयमानस्यावश्यकंपक्षेतैरत्वदोषग्रस्तत्वेनोपाधित्वानुपपत्तौ व्याप्यत्वासिद्धेरपि निरस्तत्वात् । केवलान्वयिनि साध्याभावाप्रसिद्धत्वेनैव च साध्याभाववन्मात्रवृत्तित्व साध्याभाववद्वृत्तित्व साध्याभावसाधकसमानबलसाध्याभावसाधकाधिकबलरूपाणां विरुद्धत्वानैकान्तिकत्वर्मेतिपक्षबाधानामप्यनुपपत्तेः । विषक्षाभावेन च विपक्षवृत्तित्वशङ्कासंभवेन तन्निवृ तर्काकाङ्क्षाभावेन तर्कविरहादीनामप्यदूषणत्वादिति । ४ ( भुवन० ) -- खण्डनीयस्त्ररूपानिरूपणे खण्डनरूपविडम्बनं निरूपयितुं न शक्यम् । अतो ग्रन्थकारः प्रथमं महविद्यां विवक्षुस्तल्लक्षणमाह- केवलान्वयिनि व्यापके प्रवर्तमानो हेतुरित्यादि । 1 तुर्महाविद्या उच्यते । किं कुर्वाणः । प्रवर्तमानः । कस्मिन् । केवलान्वयिनि व्यापके । महाविद्यासाध्ये इत्यर्थः । किं कुर्वन् । साधयन् । किं कर्म । अन्वयव्यतिरेकिसाध्यविशेषम् | अन्वयश्च व्यतिरेकश्चान्वयव्यतिरेकौ । तौ विद्येते यस्य सोऽन्वयव्यतिरेकी, अनित्यः शब्दः कृतकत्वादित्यादेर्मूलानुमानस्य हेतुः । तस्य साध्यविशेषमनित्यत्यादि । तच्च किंविशं, वाद्यभिमतम् । कस्मात्साधयन । पक्षे व्यापकेति । पक्षे शब्दाद घटात्मादौ वा महाविद्या संबन्धिनि । व्यापकं साध्यं महाविद्यायाः । तस्य प्रतीतिः परिज्ञानं तस्या अपर्यवसानमनुपपत्तिः, तद्बलात् । इदमत्र हृदयम् - अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वानधिकरणानित्यनिष्ठधर्मवान् इत्यत्रैवंविधं महाविद्यासाध्यं शब्दे तदैव स्याद्यदि शब्दस्यानित्यत्वं भवेत्, सान्यथा । तस्माच्छब्दस्यानित्यत्वं स्वीकर्तव्यमित्येवमनुपपत्तिबलात् वादिनोऽभिमतमनित्यत्वादिरूपं पश्यं साधयन् हेतुर्महाविद्योच्यते इति संटकः । महाविद्या हेतोर्महाविद्यात्वं किमुच्यते इत्याकाङ्क्षास. - तस्य च महाविद्यात्वमिति । तस्य महाविद्याहेतोर्महाविद्यात्वमसिद्धत्वविरुद्धत्वादिसकलरहः । असिद्धत्वादिदोषविरहे हेतूनाह — प्रमेयत्वादीनामिति । मेयत्वादयो महाविद्याहि निश्चितं पक्षे वर्तन्ते इति तेषां पक्षधर्मत्वासिद्धेरसंभव एव । एतावता महाविद्याहेतोः धर्मत्वासिद्धत्वमसिद्धस्याद्यो भेदो निराकारि । अथासिद्धद्वितीयभेदो व्याप्यत्वासिद्धत्वं तदु याम... दोष हेत पक्ष पिनाय हेतुमाह- केवलान्वयिनीति । केवलान्वयिनि महाविद्याहेतौ साध्यं महाविद्या साध्यं, तस्य योऽभावस्तस्याप्रसिद्धौ । कोऽर्थः । महाविद्यासाध्यस्य केवलान्वयित्वेन क्वाप्यभावो नास्ति । ततः साध्याभावाप्रसिद्ध सत्याम् । साध्याभावाधिकरणेति । साध्यं महाविद्यासाध्यं तस्य योऽभावः, तस्याधिकरणं यो विपक्षः, तद्रूपव्यावर्त्यस्यासंभवेन यस्य कस्यापि दीयमानस्योपाधेरवश्यभावी यः पक्षेतरत्वदोषः, तद्भस्तत्वेन । अयमाशयः - ' साधनाव्यापकः साध्यव्याप्तिक उपाधि:' इत्युपाधिलक्षणम् । स चोपाधिः सपक्षे दीयते, तथा पक्षे विपक्षे चावर्तमानो विलोक्यते, यथा-विमता हिंसा अधर्मसाधनं, हिंसात्वात्, म्लेच्छहिंसावदित्यत्र म्लेच्छहिंसायां निषिद्धत्वमुपाधिः । अयं च साधना デ १ " वश्यप' इति ज पुस्तकपाठः । २ 'तरत्वादिदों' इति ज पुस्तकपाठ । ३ ' साध्याभाववद्वृत्तित्व ' इति पदं ज पुस्तके नास्ति । ४ 'त्वसत्प्रतिपक्षत्ववा' इति ज पुस्तके ५ 'त्याशङ्कायामाह इति च पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्या विडम्बनम् । व्यापकः साध्यव्यापकञ्चास्ति । तथा पक्षे विमतहिंसारूपे विपक्षे देवपूजादौ च स उपाधिन वर्तते । पक्षविपक्षयोर्विधेयत्वेन निषिद्धत्वाभावात् । एतावता चोपाधेः पक्षविपक्षी व्यावत्यौं भवतः । यत्र चोपाधेः पक्ष एव व्यावर्त्यः स्यान्न तु विपक्षः, तत्रोपाधेः पक्षेतरत्वं दोषः । यतः पक्षेतरस्योपाधित्वे अग्निमानयं पर्वतो धूमवत्त्वादित्यत्रापि पर्वतेतरत्वमुपाधिः स्यात् । तथा च सर्वानुमानोच्छेदः प्रसज्येत । तस्मादत्र महाविद्यानुमाने विपक्षस्यैवाभावात् विपक्षरूपव्यावासंभवेन यः कश्चनोपाधिरुत्पादयिष्यते स पक्षेतरत्वदोषप्रस्तो भविष्यतीति महाविद्यानुमानोपाधेरुपाधित्वानुपपत्तौ सत्यां किमित्याह-व्याप्यत्वासिद्धरपि निरस्तत्वादिति । इदमत्र तत्त्वम्-औपाधिकव्याप्तिको व्याप्यत्वासिद्धः। स चासिद्धमेद एव । अत्र चोपाधेरभावाद्व्याप्यत्वासिद्धेरप्यभाव एवेति महाविद्याया असिद्धता निरस्ता । अथ विरुद्धत्वादिदोषनिरासाय हेतुमाह-केवलान्वयीत्यादि । केवलान्वयिनो महा. विद्यानुमानस्य यत्साध्यं तदभावस्य यदप्रसिद्धत्वम् । अयं भावः-साध्याभावो हि विपक्षे भवति । अत्र च केवलान्वयित्वेन विपक्षाभावात्साध्याभावाप्रसिद्धिः । तेन हेतुना किमित्याह-साध्याभाव मात्रवृत्तित्वेति । अत्र मात्रशब्दोऽपरव्यवच्छेदी । ततः साध्याभाववति विपक्षे एव यो वर्तते न तु सपक्षे, एतावता विरुद्धः । 'पक्षविपक्षमात्रवृत्तिविरुद्धः' इति तल्लक्षणात् । साध्याभाववद्वत्तित्वेति । साध्याभाववति विपक्षे वर्तते । अत्र मात्रशब्दाभावात्सपक्षेऽपि वर्तते । तथा चानैकान्तिकः, 'पक्षत्रयवृत्तिरनैकान्तिकः' इति तल्लक्षणात् । साध्याभावसाधकसमानबलेति । साध्याभावसाधकः सन् पूर्वहेतोः समानबलः। एतावता सत्प्रतिपक्षापरपर्यायः प्रकरणसमः, 'तुल्यबलहेतुसाधितसाध्यव्यतिरेकः प्रकरणसमः' इति तल्लक्षणात् । साध्याभावसाधकाधिकवलेति । एतावतानुमानबाधितकालात्ययापदिष्टः । यत्र पूर्वस्मादनुमानादुत्तरमनुमानं समानबलं स्यात् तत्र प्रकरणसमत्वम् , यत्र च पूर्वानुमानादपरकृतानुमानमधिकबलं स्यात्तत्रानुमानबाधितकालात्ययापदिष्टत्वम्, इति प्रकरणसमानुमानबाधितकालात्ययापदिष्टयोर्भेदः । प्रतिपक्षबाधानामिति । प्रतिपक्षः प्रकरणसमः । बाधः कालात्ययापदिष्टः । एतावता असिद्धत्वादिहेत्वाभासपञ्चकं महाविद्यायां निरासे । ननु तथापि सकलदोषविरहः कथं, तर्कविरहादीनामपि दूषणत्वादित्याशङ्कयाह-विपक्षाभावेनेति । अत्र हि विपक्षाभावेन हेतोर्या विपक्षवृत्तित्वाशङ्का तस्या अप्यभावः एव, तेन कारणेन । तन्निवृत्यर्थमिति । विपक्षवृत्तित्वाशङ्कानिवृत्त्यर्थम् । तर्काकाङ्खाभावेनेति । तर्काकाङ्काया योऽभावस्तेन । तर्कविरहेत्यादि। अयमाशयः-प्रमेयत्वं हेतुर्भवतु, महाविद्याप्रकारप्रोक्तं साध्यं मा भूत् , विपक्षे किं बाधकम् । एवंविधाशङ्कायां तर्को विलोक्यते यथा-अग्निमानयं पर्वतो धूमवत्त्वात् महानसबदित्यत्र धूमवत्त्वं भवतु, वह्निमत्त्वं मा भूत् , विपक्षे किं बाधकमित्याशङ्कायां विपक्षबाधकतर्कः प्रयोज्यः । तथाहि-यद्यनग्निः स्यात्तर्हि निधूमः प्रसज्येत, यथा जलाश्रयादिः, इति विपक्षबाधकतर्केण धूमवत्त्वहेतौ विपक्षवृत्तित्वाशङ्काया निरासः । यत्र च विपक्षबाधकस्य तर्कस्याभावः, तत्र तर्कविरहदूषगं स्यात् । तदप्यत्र न । विपक्षस्यैवाभावादित्यर्थः । । सा चेयं महाविद्या बहुप्रकारा-काचिदन्वयव्यतिरेकिणः पक्षं पक्षीकृत्य प्रवर्तते, काचित्सपक्षं, काचिद्विपक्षं, काचित्साध्यं, काचित्साध्याभावमित्यादि । (भुवन०)-अथ ग्रन्थकारो महाविद्यायाः स्वरूपं निरूप्य तत्प्रकारानाह-सा चेयं महा Aho! Shrutgyanam Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं विद्या बहुप्रकारेति । काचिदन्वयव्यतिरेकिण इति । अनित्यः शब्दः कृतकत्वादित्यादेर्मुख्यानुमानस्यान्वयव्यतिरेकिणः पक्षं शब्दादिकं पक्षीकृत्य प्रवर्तते इत्यर्थः । साध्याभावमित्यादि । साध्य विवक्षितमनित्यत्वादि, तस्याभावः साध्याभावः । अनित्यत्वादिविपरीतं नित्यत्वादिसाध्यमित्यर्थः । अत्र चादिशब्देन पक्षमात्रनिष्ठं धर्म, सपक्षमात्रनिष्ठं धर्म, विपक्षमात्रनिष्ठं च धर्म पक्षीकृत्य प्रवर्तमाना महाविद्या गृह्यन्ते । १ तत्राद्या यथा-शब्दोऽनित्यः कृतकत्वादित्यत्रान्वयव्यतिरेकिणि अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वानधिकरणानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वाद्धटवदिति। १ (भुवन०)-तत्र ‘पक्षापक्षगतादन्यत्साध्यवद्वृत्तिपक्षगम्' इति कुलार्कपण्डितनिर्मितमहाविद्याग्रन्थस्थं कारिकार्धमुद्दिश्य पक्षं पक्षीकृत्य या महाविद्या प्रवर्तते प्रथमं तामाह-अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वेत्यादि । स्वशब्देन पक्षीकृतः शब्दः परामृश्यते, स्वेतरशब्देन च पक्षीकृतशब्दादन्ये सर्वेऽपि पदार्थाः । स्वश्च स्वेतरे च स्व वेतरे । तेषु वृत्तिर्वर्तनं येषां धर्माणानभिधेयत्वप्रमेयत्वादीनां, ते स्वस्वेतरवृत्तयः । तेषां भावः स्वस्वेतरवृत्तित्वम् । तेन अनाक्रान्तस्तेनानाश्रितः । अनित्ये निष्ठा अवस्थानं यस्य सोऽनित्यनिष्ठः । स्वस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्तश्चासौ अनित्यनिष्ठश्च तस्य धर्मत्याविकरणमाश्रय इति विग्रहः । शब्दोऽधिकरणमित्युक्ते शब्दत्वनित्यत्वाद्यधिकरणत्वसिद्ध्या अर्थान्तरत्वं स्यात्, तन्निवृत्त्यर्थमनित्यनिष्ठेत्युक्तम् । शब्दोऽनित्यनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते च मेयत्वादिना अर्थान्तरता स्यात् । अत उक्तं स्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्तानित्यनिष्ठाधिकरणमिति । एवमप्युक्ते चाप्रसिद्धविशेषणता। पक्षमात्रनिष्ठानित्यत्वसिद्धेः पूर्वमेवंभूतार्थस्य पक्षादन्यत्र घटादौ दृष्टान्तीभूतेऽसंभवेनाप्रसिद्धिः, अत उक्तं स्वेति । पक्षव्यतिरिक्तेषु पक्षतदितरवृत्तित्वरहितो धर्मः पक्षान्योन्याभावः सर्वत्रास्तीति नाप्रसिद्धविशेषणता । शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमित्येतावत्येवोच्यमाने व्याघातः । यस्य कस्यचिदपि शब्दधर्मस्य शब्दतदितरवृत्तित्वानाक्रान्तत्वस्यासंभवात् । यस्य कस्यचिदपि शब्दस्य शब्दत्वाश्रयत्वेन शब्दत्वात् । शब्दान्तरापेक्ष्या च शब्देतरत्वात् । अत उक्तं अयमिति । तथा च न व्याघातः । एतच्छब्दमात्रवृत्तर्यस्य कस्यचिदपि एतच्छब्दत्वादेर्धर्मस्यैतस्मिन्नेव शब्दे पक्षीकृते वर्तनादन्यत्र चावर्तनादिति । तस्माच्छब्दविशेषस्य अनित्यत्वं प्रसाध्य सर्वशब्दानामपि तदृष्टान्तावष्टम्भेन तत्साधनीयमिति । स्वस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्ताऽनित्यनिष्ठश्च धर्म एतच्छब्दत्वादिः पक्षेऽनित्यत्वं विना न संभवत्येव, तेन शब्दानित्यत्वसिद्धिः । सपक्षे च सर्वत्र पक्षान्योन्याभावादिधर्मो ज्ञेयः ॥ यत्पुनरत्र कैश्चिदुक्तं स्वस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्तत्वं नाम स्ववृत्तित्वविशि. ष्टस्वेतरवृत्तित्वात्यन्ताभावः । विशिष्टं च न विशेषणविशेष्याभ्यामन्यत्किश्चित् । विशिष्टाभावोऽपि विशेषणाभावविशेष्याभावोभयाभावव्येभ्यो न व्यतिरिक्तः कश्चित् । तेन स्ववृत्तित्वविशिष्टस्वेतरवृत्तित्वाभावःस्ववृत्तित्वाभावो वा स्यात्, स्वेतरवृत्तित्वाभावो वा, उभयोरभावद्वयं वा । आये स्ववृत्तित्वानाकान्तस्वेतरवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्मवान्पक्षः इति प्रतिज्ञार्थः स्यात् । तथा च व्याघातः । न हि पक्षवृत्तित्वरहितः पक्षे वर्तते इति संभवति । द्वितीये च स्वे. Aho ! Shrutgyanam Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । तरवृत्तित्वानाक्रान्तस्ववृत्त्यनित्यनिष्ठधर्मवान्पक्ष इतिप्रतिज्ञार्थः स्यात् । तथा चाप्रसिद्धविशेषणत्वम् । न हि पक्षेतरवृत्तित्वरहितः पक्षवृत्तिरनित्यनिष्ठो धर्मः पक्षनिष्ठानित्यत्वसिडेः पूर्व शक्योऽधिगन्तुम् । तृतीये च स्ववृत्तित्वानाक्रान्तस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्तानित्यनिष्ठधर्मवान्पक्ष इति प्रतिज्ञार्थः स्यात् । तथा च पूर्वोपपादितव्याघाताप्रसिद्धविशेषणत्वे दुर्वारे । एवं महाविद्यान्तरेष्वपि व्याघाताप्रसिद्धविशेषणत्वादयो द्रष्टव्या इति । श्रीमदानन्दपूर्णविरचिता महाविद्याविडम्बनटीका। ( आनं०)- x x *नन्यत्वदूषणं सर्वत्रोहनीयमित्याह-एवमिति । (भुवन०)-विडम्बनकारान्तरैराविर्भावितं दूषणं प्रस्तावयति-यत्पुनरिति । स्वस्वेतरत्तित्वानाक्रान्तत्वं नामेति । यः कश्चनानित्यवर्ती धर्मः शब्दे साधयितुमभिप्रेतस्तस्य स्वस्वेतरवृ. त्तित्वानाक्रान्तत्वं विद्यते । तच्च स्ववृत्तित्वविशिष्टं यत्स्वेतरवृत्तित्वं तस्यात्यन्ताभावरूपम् । विशिष्टं च न विशेषणविशेष्याभ्यामन्यदिति । अत्र स्ववृत्तित्वविशिष्टं स्वेतरवृत्तित्वमुक्तम् । तत्र विशिष्टमिति भावप्रधानवानिर्देशस्य विशिष्टत्वं ज्ञेयम् । तच्च विशेषणविशेष्यरूपमेव । न ततोऽन्यदित्यर्थः । विशिष्टाभावोऽपीति । विशिष्टस्याभावोऽपि विशेषणाभावो वा, विशेष्याभावो वा, उभयोर्विशेषणविशेष्ययोरभावद्वयं वा, न तव्यतिरिक्तः कश्चित् । एतावता विशिष्टाभावस्य सामान्येन विकल्पत्रयं कृतम् । अथ स्ववृत्तित्वविशिष्टस्वेतरवृत्तित्वाभावस्य विकल्पत्रयं कुरुते-तेन स्ववृत्तीत्यादि । उभयोरभावद्वयं वेति । स्ववृत्तित्वाभावः स्वेतरवृत्तित्वाभावश्चेत्येवमभावद्वयम् ! आद्यकल्पे पर्यवसितमर्थमाहआद्य इति । व्याघातेनाद्यकल्पपर्यवसितमर्थ दूषयति-तथा चेति । व्याघातमेवोपपादयति-न हीति । न हि शब्दादिपक्षवृत्तित्वरहितः स्वेतरघटादिवृत्तिरनित्यनिष्ठो धर्मः शब्दादिपक्षे वर्तते इति संभवति । तेन पक्षवृत्तित्वरहितधर्मस्य पक्ष एव साधनात् स्पष्ट एव व्याघातः । अस्तु तर्हि द्वितीयः कल्पः प्रोक्तदूषणाभावादित्यत्राह-द्वितीये चेति । पक्षेतरवृत्तित्वरहितत्वे पक्षवृत्तित्वे च सति अनित्यनिष्ठो यो धर्मस्तद्वान् शब्द इत्येवंरूपे द्वितीयकल्पेऽप्रसिद्ध विशेषणत्वमाह-तथा चेति । तदेव स्पष्टयति-न हीति । न हि पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्तरेतच्छब्दत्वादेर्धर्मस्य पक्षेतरवृत्तित्वरहितस्य पक्षानित्यत्वसिद्धेः पूर्वमनित्यवृत्तित्वमधिगन्तुं शक्यम् । अतः पक्षादन्यत्र घटादौ दृष्टान्ते तथाभूतस्य धर्मस्यासंभवादप्रसिद्धविशेषणत्वं नाम पक्षदूषणं भवत्येवेति । तृतीयेऽर्थपर्यवसानमाविष्करोति १ पक्षसत्यनित्यनिष्ठधर्मः' इति ज पुस्तकपाठः । २ 'विशेषणत्वे दष्टव्ये इति इति ज पुस्तकपाठः। . * आनन्दपूर्णकृता टीका इत आरभ्यैवोपलब्धा । आदर्शपुस्तके अस्मात् पूर्वी भागः नोपलभ्यते । Aho! Shrutgyanam Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं तृतीये चेति । तमेव दूषयति तथा चेति । पक्षवृत्तित्वरहितः पक्षे वर्तते इति व्याघातः । पक्षेतरवृत्तित्वरहितः पक्षवृत्त्यनित्यनिष्ठो धर्मोऽप्रसिद्ध इत्यर्थः । उक्तं दूषणमन्यत्रापि ज्ञेयमित्यति दिशति - एवमिति । तदयुक्तम् । यथा पक्षवृत्तिधर्मेषु पक्षवृत्तित्वं धर्मः, यथ च पक्षेतरवृतिधर्मेषु पक्षेतरवृत्तित्वं धर्मः, एवं ये पक्षे तदितरस्मिंश्च वर्तन्ते धर्माः तेषु पक्षतदिरवृत्तित्वं नाम धर्मः । तदत्यन्ताभावश्च स्वस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्तत्वम् । तद्वांश्व स्वस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्तः । स चासावनित्यनिष्ठश्चं । तेन स्वस्वेतरवृत्तित्वात्यन्ताभाववदनित्यनिष्ठधर्मवान्पक्ष इति प्रतिज्ञार्थः स्यात् । तथा च न व्याघातः । पक्षमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्मसिद्ध्यापि प्रतिज्ञावाक्यार्थस्योपपन्नत्वादिति । न चाप्रसिद्धविशेषणत्वम् । पक्षमात्रनिष्ठधर्मात्यन्ताभावपक्षान्योन्याभावयोः पक्षव्यतिरिक्तनित्यानित्यनिष्ठयो रुक्तरूपयोरुभयवादिसिडत्वादिति । एवं महाविद्यान्तरेष्वपि व्याचताप्रसिद्धविशेषणत्वे परिहरणीये । ८ ( आनं० ) - समाधत्ते - तदिति । स्ववृत्तित्वेन विशिष्टं स्वेतरवृत्तित्वं, तदत्यन्ताभावः स्वस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्तत्वमिति न विवक्षितं, किन्तु स्ववृत्त्या विशिष्टा स्वेतरवृत्तिः, तदभावः स्वस्वेतरवृत्तित्वं, तदत्यन्ताभावस्तथा विवक्षित इति सदृष्टान्तमाह - तथेति । प्रतिज्ञापर्यवसानमाह - तेनेति । एवमपि व्याघाततादवस्थ्यं विशिष्टवृत्तिनिष्ठधर्मनिषेधस्य विशेषणी भूतस्ववृत्तिनिषेधेन वाच्यत्वादित्य आह - तथा चेति । विशेष्यभूतस्वेतरवृत्त्यभावेनापि विशिष्टवृत्तिनिष्ठधर्मविशेषोपपत्तेरिति हेतुमाह-पक्षमात्रेति । तथा च पक्षस्यानित्यत्वसिद्धिः, अपरथा पक्षमात्रवृत्तेर नित्यनिष्ठधर्मत्वासिद्धेरिति भावः । पक्षस्यानित्यत्वसिद्धेः प्रागेवंभूतधर्मा प्रसिद्ध या अप्रसिद्धविशेषणत्वमत्राह-न चेति । ( भुवन ० ) - उक्तदूषणपरिहारमाह - तद्युक्तमिति । स्त्रवृत्तित्वेन विशिष्टं यत् स्वेतरवृत्तित्वं तदत्यन्ताभावः स्वस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्तत्वमिति न विवक्षितं, किन्तु स्ववृत्त्या विशिष्टा या स्वेतर - वृत्तिः तदत्यन्ताभावस्तथा विवक्षित इति । यथेत्यादि दृष्टान्तोपन्यासपूर्वकं दाष्टन्तिकमाह - एवं ये पक्षे तदितरस्मिश्चेति । अयमभिप्रायः - केवलं स्ववृत्तित्वानाक्रान्तत्वं केवलं स्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्तत्वं च यस्यानित्यवृत्तेर्धर्मस्य स्यात् स शब्दे न निषिध्यते, किन्तूभयवृत्तिर्निषिध्यते । स च सत्त्वप्रमेयत्वादिः । प्रतिज्ञापर्यवसानमाह - तेन स्वस्वेतरवृत्तित्वात्यन्ताभावेत्यादि । स्वस्वेतरयुगले वृत्तिर्येषां धर्माणां सत्त्वप्रमेयत्वादीनां तेषु स्वस्वेतरवृत्तित्वं नाम धर्मः, तस्य योऽत्यन्ताभावः, तद्वान् यः कश्चनानित्यनिष्ठो धर्मः श्रावणत्वकृतकत्वादिः, तद्वान्पक्ष इति प्रतिज्ञार्थः स्यादित्यर्थः । तथा च न व्याघातः । अत्र हेतुमाह - पक्षमात्रेति । पक्षमात्रवृत्तियोऽनित्यनिष्ठो धर्मस्तत्साधनेनापि प्रतिज्ञावाक्यार्थस्योपपन्नत्वादित्यर्थः । अप्रसिद्धविशेषणत्वमप्यत्र पक्षे न स्यादित्याह-न चेति । अत्र हेतुं ब्रूतेपक्षमात्रनिष्ठधर्मात्यन्ताभावेति । पक्षमात्रनिष्ठा ये धर्माः शब्दत्व श्रावणत्वादयः तेषामत्यन्ताभावश्च १ यथा पक्षे इति ग पुस्तकपाठः । २ रुक्तरूपोपपन्नयोरुभ' इति ज पुस्तक पाठः । Aho! Shrutgyanam Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । I पक्षान्योन्याभावश्च । तयोः किंविशिष्टयोः । पक्षव्यतिरिक्तनित्यानित्यनिष्ठयोः । पक्षः शब्दः, तद्व्यतिरिक्ता ये नित्या आत्मादयोऽनित्याश्च घटादयः, तन्निष्ठयोः तद्वर्तिनोः । पुनः किंरूपयोः । उक्तरूपयोः स्वस्वेतरवृतित्वानाक्रान्तानित्यनिष्ठयोः । वादिप्रतिवादिनोरुभयोरपि सिद्धत्वादित्यर्थः । ये तु सामान्यतः शब्दः शब्दतदितरवृत्तित्वानाक्रान्तानित्यनिष्ठाधिकरणमिति प्रतिजानते, तेषां स्पष्टो व्याघातः । यस्य कस्यचिदपि शब्दधर्मस्य शब्दतदितरवृत्तित्वेन शब्दतदितरवृत्तित्वानाक्रान्तत्वस्यासंभवात् । यस्य कस्यचिदपि शब्दस्य शब्दत्वाश्रयत्वेन शब्दत्वात्, शब्दान्तरापेक्षया च शब्देतरत्वादिति । ( आनं० ) - अयमिति पक्षविशेषणं हित्वा शब्दमात्रं धर्मीकृत्य प्रयुज्यतां लाघवादित्यत आह-येत्विति । आकाशविशेषणत्वादेः शब्दमात्रवृत्तेः शब्दतदितरवृत्तित्वाभावात्कथं व्याघातस्तत्राह-यस्य कस्यचिदिति । शब्दत्वाधिकरणप्रतियोगिकेतरेतराभावाधिकरणनिष्ठत्वाभावात् कथं शदेब्तरवृत्तित्वमत्राह-यस्य कस्यचिदपि शब्दस्येति । ( भुवन ० ) - ननु पक्षमात्रनिष्ठधर्मात्यन्ताभावपक्षान्योन्याभाववत्तयोः स्थाने यथानुक्रमं पक्षमात्रनिष्ठधर्मान्योन्याभावपक्षात्यन्ताभावयोरपि ग्रहणे को दोषः । उच्यते । पक्षमात्रनिष्ठधर्मान्योन्याभावस्य वैशेषिकादीनां मते धर्मधर्मिणोर्भिन्नत्वेन शब्देऽपि वर्तमानत्वात् स्वस्वेतरवृत्तित्वेन तद्वृत्तित्वानधिकरणत्वानुपपत्तिः । पक्षात्यन्ताभावस्य चाकाशाऽवृत्तित्वेन दृष्टान्तत्वानुपपत्तेः केवलान्वथित्वव्याघातश्च स्यादिति न तयोर्ग्रहणम् । एवमग्रेऽपि सर्वत्र महाविद्यानुमानादौ पक्षमात्रनिष्ठधर्मात्यन्ताभावपक्षान्योन्याभावयोर्ग्रहणे कारणं ज्ञेयम् । तेषां स्पष्ट व्याघात इति । अयमर्थः । अत्रायभितिपदं विना सामान्येन शब्द इत्युच्यमा - नेऽनित्यवृत्तित्वेन सिषाधयिषितस्य शब्दत्व श्रावणत्वादेः सर्वशब्दधर्मस्य यस्मिन्कस्मिंश्चिदपि घटे - त्यादिरूपे पक्षीकृतशब्दे पक्षीकृत शब्दादितरस्मिन् पटलकुटेत्यादिरूपे शब्दान्तरे च वर्तमानत्वेन शब्दतदितरवृत्तित्वेन तद्नाक्रान्तत्वं नोपपद्यते । अत्र वानित्यवृत्तित्वेन सिषाधयिषितः शब्दत्वादिः सर्वशब्दधर्मः शब्दतदितरवृत्तित्वानाक्रान्तो विलोक्यते । अतः स्पष्ट एव व्याघातः । अयमित्युच्यमाने तु एतच्छब्दत्वादिरेव धर्मः अनित्यवृत्तित्वेन विशेषितः सिषाधयिषितः । स चैतच्छब्द एव वर्तते न त्वन्यत्रेति न तत्र व्याघात इति । व्याघातमेव 'यस्य कस्यचिदपि ' इत्यादिना स्पष्टयति-यस्य कस्यचिदपीति । शब्दत्व श्रावणत्वा काश विशेषगुणत्वादेः शब्दधर्मस्येत्यर्थः । तस्मादेकैकमेव शब्दादिकं धर्मिणं निष्कृष्य पक्षीकृत्य सर्वमहाविद्याप्रयोगो द्रष्टव्यः । यद्वा शब्दः शब्दशब्दत्वरहितनिष्ठत्वानाक्रान्तानित्यनिष्ठांधिकरणमिति सामान्यतः प्रयोक्तव्या प्रतिज्ञा । ( आनं० ) - शब्दविशेषस्यानित्यत्वं प्रसाध्य तद्दृष्टान्तेन इतरशब्दानां तत्साधने गौरवादेकः १ शब्दधर्मस्य इतिपदं ग पुस्तके नास्ति । २ निष्ठधर्माधिक' इति ज पुस्तकपाठः । ३ प्रयोक्तव्यम इति ज पुस्तकपाठः । २ महाविद्या ० Aho! Shrutgyanam Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं प्रयोगः सर्वशब्दानित्यत्वविषयः इत्यत आह-यति । शब्दशब्देतरोति । शब्दशब्देन शब्दत्वाधिकरणस्य तदितरशब्देन शब्दत्वानधिकरणस्य विवक्षितत्वान्न प्राक्तनदोषानुषङ्ग इति भावः ।। (भुवन०)-तस्मादेकैकमिति । अयं विवक्षितो घटपटादिशब्द इत्येवं विश्वादकैकं शब्द पृथक् पक्षीकृत्य विवक्षितानित्यत्वसाधनेन तदृष्टान्तावष्टम्भेन सर्वशब्दानामनित्यत्वं प्रसाध्यमिति भावः। सर्वशब्दानामनित्यत्वप्रसाधनाय प्राह- यद्वा शब्दः शब्दशब्दत्वेति । शब्दः शब्दत्वाधिकरणं सर्वशब्दः । शब्दत्वरहितं शब्दत्वानधिकरणं सर्व विश्वं, तत्र यत् निष्ठत्वं तेन अनाक्रान्तो यः कश्चनानित्यनिष्ठो धर्मस्तथाधिकरणं शब्द इत्यर्थः । अत्र शब्दशब्देन शब्दत्वाधिकरणस्य, शब्दत्वरहितशब्देन च शब्दत्वानधिकरणस्य विवक्षितत्वान्न प्राचीनदोषानुषङ्ग इत्यभिप्रायः । . ये तु अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तिव्यतिरिक्तानित्यनिष्ठधर्माधिकरणमिति प्रतिजानते, तेषां सिद्धसाधनं स्पष्टम् । स्वस्वेतरवृत्त्यभिधेयत्वादिव्यतिरिक्तस्वस्वेतरवृत्त्यनित्यनिष्टप्रमेयत्वादिधर्माणां पक्षनिष्ठत्वेन वादिप्रतिवादिभ्यामङ्गीकृतत्वादिति । तस्मात्सर्वत्र तद्व्यतिरिक्तादिपदस्थाने तत्त्वानाक्रान्तत्वादिपदं प्रयोक्तव्यमिति। (आनं०)-एकदेशीयप्रयोगमनुवदति-ये विति । स्वस्मिन्स्वेतरेषु च वृत्तिर्यस्य स स्वस्वेतरवृत्तिः, तस्माद्व्यतिरिक्तोऽनित्यनिष्ठो यो धर्मस्तदाश्रय इत्यर्थः । कृत्यं पूर्ववत् । दूषयतितेषामिति । तदुपपादयति-स्वस्वेतरेति ।। (भुवन०)-एकदेशीयप्रयोगमनुवदति-ये तु अयं शब्द इति । स्वस्मिन् स्वेतरेषु च वृत्तियस्य स स्वस्वेतरवृत्तिरभिधेयत्वादिः, तद्व्यतिरिक्तोऽनित्यनिष्ठो धर्मः सत्त्वप्रमेयत्वादिः तदाश्रय इत्यर्थः । अत्र तत्त्वानाक्रान्तपदस्थाने तद्व्यतिरिक्तेति पदं प्रयुक्तमित्येतदेव वैचित्र्यम् । शेषं तु पूर्ववदेव ज्ञेयम् । अनूद्य दूषयति-तेषामित्यादि । सिद्धसाधनतामेवाह-स्वस्वेतरेति । स्वस्वेतरवृत्तिरभिधेयत्वादिधर्मः, तस्माद्व्यतिरिक्ता ये स्वस्वेतरवृत्तय एवानित्यनिष्ठाः प्रमेयत्वादयो धर्मास्तेषां पक्षनिष्ठत्वेनोभयोरपि सिद्धत्वात् स्पष्टेव सिद्धसाध्यतेत्यर्थः । अत्र च विवादपदापन्नः पक्षमात्रनिष्ठत्वे सत्यनित्यनिष्ठ एव धर्मो न तु सत्त्वप्रमेयत्वादिः, तस्य घटाद्यनित्यनिष्ठत्वेनानित्यनिष्ठत्वात्पक्षमात्रनिष्ठत्वानुपपत्तेः । तस्मादनिष्टार्थापत्त्या व्यतिरिक्तेति पदं न प्रयोज्यम् । तत्त्वानाक्रान्तेति । शब्दतदितरवृत्तित्वानाक्रान्त इत्येवं पदं प्रयोज्यम् । ___ अयं च प्रमेयत्वादिहेतुः स्वस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्तानित्यनिष्ठधर्मवत्त्वं व्यापकं पक्षे गैमयन्ननित्यत्वमन्तर्भाव्य गमयति । न हि पक्षेऽनित्यत्वमनधिगम्य पक्षमात्रनिष्ठधर्मस्यानित्यनिष्ठत्वं शक्याधिगमम् । नापि पक्षे पक्षमात्र १ महाविद्याविडम्बनग्रन्थस्यादर्शपुस्तकेषु तथा भुवनसुन्दरविरचितमहाविद्याविडम्बनवृत्तौ ' शब्दशब्दत्वरहित' इति पाठो दृश्यते । २ निष्ठाधिक इति ज पुस्तकपाठः । ३ त्वादिहे इति ग पुस्तकपाठः। ४ पधे साधय इति ज पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । निष्ठानित्यनिष्ठधर्मवत्त्वमनधिगम्य पक्षतदितरवृत्तित्वानाक्रान्तानित्यनिष्ठधर्मवत्त्वं शक्याधिगमम् । पक्षव्यतिरिक्तमात्रवृत्तिधर्मस्य पक्षे व्याघातेनोपसंहर्तुमशक्यत्वात् । तदिदं व्यापकप्रतीतेरनित्यत्वादिकमनालम्ब्यानुपपत्तिरूपमपर्यवसानमाहुः। (आनं०)-प्रथमप्रयोगात्पक्षमात्रनिष्ठधर्मसिद्धावपि कथमनित्यत्वसिद्धिरत्राह-अयं चेति । स्वस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्तानित्यनिष्ठस्ववृत्तिरहितो वा स्वमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठो वा । आद्यो व्याहत इति द्वितीयः सिध्येत् । तस्यानित्यत्वं विना कानुपपत्तिरत्राह-नहीति । पक्षमात्रनिष्ठधर्मात्यन्ताभाव. स्योक्तरूपत्वेऽपि न तेन साध्यपर्यवसानं शक्यशङ्कमित्याह-नापीति । हेतुमाह-पक्षेति । प्रमेयत्वा. दिक पक्षे स्वव्यापकं साधयंस्तदपर्यवसानेन वाद्यभिमतं साधयतीति महाविद्यावादिनः सङ्गिरन्ते । त्वया पुनर्व्यापकप्रतीतेरनित्यत्वादिकमनालम्ब्य अनुत्पत्तिरन्यैवोक्तेत्यत आह- तदिदमिति ।। (भुवन०)-प्रथमप्रयोगात्पक्षमात्रनिष्ठधर्मसिद्धावपि कथं नित्यत्वसिद्धिरत्राह-अयं चेति। स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठः स्ववृत्तित्वरहितो(वा )स्वमात्रवृत्त्यनित्यनिठो वा । प्रथमो विकल्पः पक्षे व्याहत इति द्वितीयः सिध्येत् । अनित्यत्वं विना तस्य कानुपपत्तिरित्यत आह-न हीति । पक्षेशब्देऽनित्यत्वमज्ञात्वा पक्षमात्रनिष्ठस्य शब्दत्वादे निन्यनिष्ठत्वं ज्ञातुं शक्यमित्यर्थः । पूर्वमनित्यत्वं विनाऽनित्यनिष्ठत्वं नोपपद्यते इत्युक्तं, इदानीं पक्षमात्रवृत्तिधर्मस्यानित्यनिष्ठत्वं विना पक्षतदितरवृत्तित्वानाक्रान्तानित्यनिष्ठत्वमपि नोपपद्यत इत्याह-नापि पक्षे पक्षमात्रेति । अयं पक्षमात्रनिष्ठो धर्मः शब्दत्वादिरनित्यनिष्ठ इत्येवमज्ञात्वा पक्षतदितरवृत्तित्वानाक्रान्तानित्यनिष्ठधर्मवत्त्वं पक्षे नैव शक्यमधिगन्तुमित्यर्थः । ननु सपक्षमात्रवृत्तीनां घटत्वादिधर्माणां सपक्षमात्रवृत्तित्वेन युगलावृत्तित्वात् यथोक्तलक्षणोपपन्नानां संभवात्ते एव पक्षे साधयिष्यन्ते, किं पक्षमात्रनिष्ठानित्यनिष्ठधर्मेत्यादिचिन्तयेत्याशङ्कय हेतुमाह-पक्षव्यतिरिक्तेति । केवलसपक्षवृत्तिधर्मस्य घटत्वाकाशत्वादेः। पक्षे शब्दे । उपंसहतुमिति । उपपादयितुमशक्यत्वादितिभावः । तदिदमित्यादि। स्वस्वेतरेत्यादेर्व्यापकस्य साम्यस्य प्रतीतेः अनित्यत्वादिकमनालम्ब्य अनित्यत्वं विना । अपर्यवसानमाहुरिति । अनित्यत्वं विना एवंविधसाध्यस्य विश्रान्तिन भवतीति भावः ॥ १॥ _२ अयं शब्दः अनित्यत्वात्यन्ताभावववृत्त्येतद्धर्मत्वानाक्रान्ताधिकरणं मेयत्वादिति । अस्यां वक्ष्यमाणासु च महाविद्यासु घटो दृष्टान्तः । अत्र चानित्यत्वात्यन्ताभावववृत्तयो ये एतद्धर्मास्तेष्वनित्यत्वात्यन्ताभावववृत्त्येतद्धर्मत्वं नाम धर्मः। तदत्यन्ताभाववान् धर्मः पक्षे साध्यते । स च पक्षेऽनित्यत्वमनधिगम्य न शक्योऽधिगन्तुम् । शब्दस्यानित्यत्वरहितत्वे सर्वेषामपि शब्द्ध १ अनुपपत्तिः इति स्यात् (?)। २ "त्वं परिज्ञातुं इति च पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं र्माणामनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्त्येतद्धर्मत्वेन तद्नाक्रान्तत्वानुपपत्तेः । पक्षेऽनित्यत्वाभ्युपगममात्रेण प्रकृतसाध्यार्थस्योपपन्नत्वेन न व्याघातः । पक्षवृत्तित्वाभावेन अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तिपक्षवृत्तित्वरहितयोः पक्षमात्रनिष्ठात्यन्ताभावपक्षान्योन्याभावयोः पक्षव्यतिरिक्तसकलवस्तुनिष्ठयोरुक्तरूपोपपन्नयोः प्रसिद्धत्वेन नाप्रसिद्धविशेषणतापि । एवं महाविद्यान्तरेष्वपि यथासंभवं पक्षमात्रनिष्ठात्यन्ताभावपक्षान्योन्याभावावुपादायाप्रसिद्धविशेषणत्वं निरसनीयम् । २ ( आनं० ) - प्रयोगान्तरमाह - अयमिति । अनित्यत्वात्यन्ताभावो यस्य सोऽनित्यत्वात्यन्ताभाववान्, तत्र वृत्तिर्येषां तेऽनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तयः, ते एवैतत्पक्षीकृतशब्दधर्माः अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्त्येतद्धर्मास्तेषु तथात्वं धर्मः तदत्यन्ताभाववान्, तदनाक्रान्तः तस्याधिकरणमाश्रय इत्यर्थः । शब्दः उक्तसाध्यवानित्युक्तपक्षान्योन्याभावस्य पक्षवृत्तित्वाभावादनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्त्येतद्धर्मत्वानाक्रान्तत्वमस्ति, तदधिकरणं च शब्दान्तरभिति भागे सिद्धसाधनता, अत उक्तमू- अयमिति । अयं शब्दोऽधिकरणभित्युक्ते प्रमेयत्वादिना अर्थान्तरता, अत उक्तम् - एतद्धर्मत्वानाक्रान्तेति । तथोक्ते व्याघातः स्यादत उक्तम्-अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृच्येतद्धर्मत्वानाक्रान्तेति । अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तित्वानाक्रान्ताधिकरणमित्युक्तौ नित्येषु साध्यासिद्धिः । नहि नित्यानामुक्तधर्माधिकरणत्वं, नित्यत्वस्यैवानित्यत्वात्यन्ताभावत्वादत उक्तम्-एतद्धर्मानाक्रान्तेति । अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्त्येतद्धर्मत्वानाक्रान्त एतद्धर्मत्वरहितो वा अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तित्वरहितो वा । आद्यः पक्षे व्याहतो, द्वितीयस्त्वनित्यत्वमन्तर्भाव्य सिध्यति । पक्षस्यानित्यत्वाभ्युपगममात्रेण प्रतिज्ञार्थस्योपपत्तेरिति महाविद्यार्थः । संक्षेपतो व्याचष्टे-अत्र चेति । तथापि कथमनित्यत्वमत्राह - एवेति । एतदेव कुतोऽत्राह - शब्दस्येति । एतद्धर्मत्वानाक्रान्तस्यैतस्मिन्साधने व्याघातोऽत्राह - पक्ष इति । पक्षस्य नित्यत्वे पक्षनिष्ठस्यानित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तित्वाभावेन तद्विशिष्टतद्धर्मत्वानाक्रान्तत्वमुपपन्नमित्यर्थः । शब्दस्यानित्यत्वसिद्धेः प्रागुक्तरूपधर्मासिद्धेरप्रसिद्धविशेषणतात्राह - पक्षेति । पक्षवृत्तित्वाभावे सत्यनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्त्येतद्वृत्तित्वं नास्ति । विशेष्यैतद्धर्मत्वाभावेऽपि विशिष्टाभावसाध्यसिद्धिरित्यर्थः । तथापि कथमप्रसिद्धविशेषणता परिहारोऽत्राह - पक्षवृत्तित्वरहितयोरिति । शब्दो नित्यत्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते पक्षीकृतशब्दमात्र निष्ठधर्मात्यन्ताभावस्यानित्यत्वव्यतिरिक्तत्वादेतद्धर्मत्वराहित्याच्च शब्दान्त रतदधिकरणमिति भागे सिद्धसाधनतापरिहारायोक्तमयमिति । २ ( भुवन० ) - अथ महाविद्यान्तरमाह - अयं शब्दः अनित्यत्वात्यन्ताभावेत्यादि । इयं च महाविद्या 'विच्छिद्य वाभाववदन्वितेन' इति कारिकापदं महाविद्यास्थितं समाश्रित्य पक्षपक्षीकरन प्रवृत्ता । अनित्यत्वस्य अत्यन्ताभावोऽनित्यत्वात्यन्ताभावो नित्यत्वं, तद्विद्यते यस्य सोऽनित्यत्वात्यन्ताभाववान् नित्यपदार्थः, तत्र वृत्तिर्येषां तेऽनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तयः, त एवैतत्पक्षीकृतशब्द १ थेस्योपपत्तेर्न व्या' इति ज पुस्तकपाठः । २ ' स एवेति' इत्येतत्प्रतीकं मूलमहाविद्याविडम्बनादर्श - पुस्तकेषु न विद्यते । Aho! Shrutgyanam Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । तस्या 1 धर्मा अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्येतद्धर्माः तेषु तथात्वं धर्मः, तदनाक्रान्तः तदत्यन्ताभाववान्, धिकरणमाश्रय इत्यर्थः । अयं भावः - ये नित्यपदार्थवर्तिनः शब्दस्य धर्मा मेयत्वादयस्तेषां भावस्तत्त्वं, तदत्यन्ताभाववान् धर्मः शब्दे साध्यते । स च शब्दत्व श्रावणत्वादिः शब्दस्य नित्यत्वेऽङ्गीक्रियमाणे नित्यवृत्त्येतद्धर्मत्वानाक्रान्तो न भवेत् । तस्माच्छब्दस्यानित्यत्वमङ्गीकरणीयमेवेति । अयमितिपदं विना सामान्येन शब्दः उक्तसाध्यवानिति प्रतिज्ञायां सर्वशब्दपक्षीकरणे परेण च दूषणार्थमेकस्यैव कस्यचिच्छब्दस्य पक्षत्वे शङ्किते परविवक्षितपक्षान्योन्याभावस्य पक्षवृत्तित्वाभावादनित्यत्वात्यन्ताभावववृत्त्येतद्धर्मत्वानाक्रान्तत्वमस्ति तदधिकरणं च शब्दान्तरमिति भागे सिद्धसाधनता स्यात् । अत उक्तमयमिति । इयं च व्यावृत्तिरग्रेऽपि सर्वत्र ज्ञेया । ग्रन्थकृता तु ग्रन्थगौरवभयान्नोक्ता । अयं शब्दोऽधिकरणमित्युक्ते मेयत्वादिना अर्थान्तरता, तदुक्तमेतद्धर्मत्वानाक्रान्तेति । तथोक्ते च व्याघातः । उक्तमनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्त्येतद्धर्मत्वानाक्रान्तेति । अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तित्वानाक्रान्ता • धिकरणमित्युक्ते' च न नित्येषु साध्यप्रसिद्धिः । न हि नित्यानामुक्तधर्माधिकरणत्वम्, नित्यवृत्ते - यस्य कस्यचिदपि नित्यत्वादेर्धर्मस्या नित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तित्वेन तद्नाक्रान्तत्वस्यासंभवात् । अत उक्तमेतद्धर्मत्वानाक्रान्तेति । अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्त्येतद्धर्मत्वानाक्रान्तः एतद्धर्मत्वरहितो वा, अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तित्वरहितो वा । आद्यः पक्षे व्याहतः सपक्षे चोपयोगी । द्वितीयस्त्वनित्यत्वमन्तर्भाव्य सिद्धयतीति शब्दस्यानित्यत्वसिद्धिरिति । अस्यां वक्ष्यमाणासु च महाविद्यासु घटो दृष्टान्त इति । उपलक्षणं चैतत् । तेन पक्षं पक्षतुल्यं च मुक्तत्वाऽन्ये सर्वेऽपि पदार्था घटाकाशादयः सर्वमहाविद्यासु दृष्टान्तीकार्याः । अत्र चेत्यादिना संक्षेपतः प्रयोगार्थं व्याचष्टे । अत्र च कथमनित्यत्वमित्यत आह- स चेति । अत्र हेतुमाह - शब्दस्येति । एतद्धर्मत्वानाक्रान्तस्यैतस्मिन् साधने व्याघातः स्यादिति तत्परिहारमाह — पक्षेऽनित्यत्वाभ्युपगमेति । पक्षस्यानित्यत्वे पक्षनिष्ठस्याप्यनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तित्वाभावेन अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्त्येतद्धर्मत्वानाक्रान्तत्वमुपपन्नमेवेति न व्याघातः । अप्रसिद्धविशेषणतां परिहरति — पक्षवृत्तित्वाभावेनेति | पक्षमात्रनिष्ठानां शब्दत्वादीनां योऽत्यन्ताभावः, पक्षस्य शब्दस्य योऽन्योन्याभावश्च, तयोः पक्षव्यतिरितसकलभावनिष्ठयोः प्रसिद्धत्वेन नाप्रसिद्ध विशेषणतेति संबन्धः । तयोर्धर्मयोः किंविशिष्टयोः । अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तिपक्षवृत्तित्वरहितयोः । अनित्यत्वात्यन्ताभाववान् नित्यः पदार्थः, तत्र वृत्तिः, पक्षे शब्दे च वृत्तिः । अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तिश्च पक्षवृत्तिश्च अनित्यत्वात्यन्ताभावववृत्तिपक्षवृत्ती । तयोर्भावस्तत्त्वम् । तेन रहितयोः । केन हेतुना । पक्षवृत्तित्वाभावेन । पक्षे या वृत्तिः तत्त्वाभावेन । न हि तौ धर्मों पक्षे वर्तेते । पक्षमात्रनिष्ठानामेव पक्षे वर्तनात् । तदत्यन्ताभावस्य तु पक्षादन्यत्रैव वर्तनात् । पक्षान्योन्याभावस्यापि च पक्षादन्यत्रैव वृत्तेः । न हि पक्षान्योन्याभावः पक्षे वर्तते । स्वान्यत्वरूपस्य स्वान्योन्याभावस्य स्वस्मिन्नवृत्तेरिति भावः । पुनः किंरूपयोः । उक्तरूपोपपन्नयोः । अनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्त्येतद्धर्मत्वानाक्रान्तरूपोपपन्नयोरित्याशयः । यद्यप्येवंविधरूपयोराकाशादौ नित्ये वर्तनादनित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तित्वाक्रान्तत्वं नास्ति, तथाप्येतद्विशिष्टै - १ "त्युक्ते च नित्येषु साध्य इति च पुस्तकपादः । Aho! Shrutgyanam १३ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं । तद्धर्मत्वानाक्रान्तत्वं विद्यते एव । शब्दे तयोरवर्तनात् । तथा च सति एवं विधाभावयोः सर्वसपक्षे वर्तनादप्रसिद्धविशेषणत्वमपि परिहृतमित्यर्थः ॥ २॥ ३ अयं शब्दः अनित्यत्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मत्वरहिताधिकरणं मेयत्वादिति । अत्र चानित्यत्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मेषुअनित्यत्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मत्वं नाम धर्मः, तद्रहितश्च पक्षावृत्तिर्वा अनित्यत्वं वा। तत्र प्रथमः पक्षे नोपसंह शक्यः । पक्षावृत्तिः पक्षे वर्त्तते इति व्याघातात् । तस्माद्वितीयमनित्यत्वं पक्षे सिध्यति ॥ ३ (आनं० )-अयं शब्दः एतद्धमत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते बाधोऽत उक्तम्-अनित्यत्वव्यतिरिक्तेति । अनित्यत्वव्यतिरिक्ताधिकरणमित्युक्ते मेयत्वादिनार्थान्तरता, अत उक्तम्-एतद्ध. मत्वरहितेति । अनित्यत्वस्यानित्यत्वव्यतिरिक्तत्वाभावादनित्यत्वव्यतिरिक्तत्वे सत्येतद्धर्मत्वरहितत्वमस्ति, तेन प्रमेयत्वहेतुरनित्यत्वं पक्षे गमयतीति भावः । अनुमानार्थमाह-अत्रेत्यादिना। ३ (भुवन०)-प्रयोगान्तरमाह-अयं शब्दः अनित्यत्वेत्यादि । इयं च ‘पक्षोऽथवा साध्यविनाकृतेन ' इति कारिकापदमुद्दिश्य प्रवृत्ता । अनित्यत्वव्यतिरिक्ता ये एतद्धर्माः शब्दधर्माः, तेष्वनित्यत्वव्यतिरिक्तैद्धमत्वं नाम धर्मः । तत्त्वेन रहितानां धर्माणामधिकरणमाधार इत्यर्थः । अत्र च कथमनित्यत्वसिद्धिरित्याह-तद्रहितश्चेति । अनित्यत्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मत्वरहितश्च पक्षावृत्तिाऽनित्यत्वं वा । तत्र प्रथमः पक्षावृत्तिर्घटत्वपटत्वाकाशत्वादिः पक्षे शब्दे व्याघातेन नोपसंहर्तुं शक्यः । तस्मादनित्यत्वं शब्दे सिध्यतीति भावः ।। ३॥ ४ अयं शब्दः संप्रतिपन्नैतद्धर्मत्वानाक्रान्ताधिकरणं मेयत्वादिति । अत्रच संप्रतिपन्नैतडर्मेषु संप्रतिपन्नतद्धर्मत्वं नाम धर्मः। तेनाकान्तश्चैतच्छन्दवृत्तित्वरहितो वा विप्रतिपन्नमनित्यत्वं वा । प्रथमो व्याहतत्वान्न पक्षे सिध्यति । तेन पक्षे विप्रतिपन्नानित्यत्वसिद्धिरिति ॥ ४॥ ४ (आनं०)-अयं शब्दोऽधिकरणमित्युक्ते मेयत्वादिनार्थान्तरता, अत उक्तम्-एतद्धर्मत्वानाक्रान्तेति । एतद्धमत्वानाक्रान्ताधिकरणमित्युक्ते व्याघातपरिहाराय संप्रतिपन्नेति विशेषणम् । संप्रतिपन्नैतद्धर्मत्वानाक्रान्तश्च पक्षावृत्तिर्वा विप्रतिपन्नमनित्यत्वं वा । प्रथमो व्याहत इति द्वितीयमनित्यत्वं सिध्यतीत्यर्थः। .. ४ ( भुवन०)-अथ 'पक्षेषु ये सन्ति विवादहीनाः, विहाय तानन्यतरः प्रसाध्यः ॥' इति कारिकार्धमाश्रित्य प्रवृत्तां महाविद्यामाह-अयं शब्दः संप्रतिपन्नेति । अत्र संप्रतिपन्नाः शब्दधर्माः शब्दत्वप्रमेयत्वादयः, तेषां भावः तत्त्वम् । तेनाकान्तानां धर्माणामाश्रयः इत्यर्थः । शब्दानित्यत्वसिद्धिमाह-तदनाक्रान्तश्चेत्यादिना । सुगममेवैतत् ॥ ४ ॥ ५ अयं शब्दः अनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तैतन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितात्यन्ताभावाधिकरणं मेयत्वादिति । अत्र चानित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्ताश्च ते एतनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनश्चेति विग्रहः । तेषु चानित्य Aho! Shrutgyanam Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । स्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तैतनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिषु अनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तैतन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं नाम धर्मः। तद्रहितश्च पक्षवृत्तिर्वा स्यात्, अनित्यत्वात्यन्ताभावो वा । आद्यस्यात्यन्ताभावः पक्षे व्याहतः, तेन अनित्यत्वात्यन्ताभावात्यन्ताभावः पक्षे सिध्यति । स चानित्यत्वमेवेत्यनित्यत्वं पक्षे सिध्यति ॥५॥ ५ (आनं० ) अयं शब्दः इत्यादि । अनित्यत्वस्यात्यन्ताभावोऽनित्यत्वात्यन्ताभावः तस्माव्यतिरिक्तश्च पक्षनिष्ठो योऽत्यन्ताभावः, तत्प्रतियोगित्वरहितश्च, अनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तैतनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितो यो धर्मस्तदत्यन्ताभावाधिकरणमित्यर्थः । मेयत्वादिनार्थान्तरतां परिहर्तुमत्यन्ताभावाधिकरणमित्युक्तम् । तथापि गन्धरसादीनामत्यन्ताभावाधिकरणतया सिद्धसाधनता, अत उक्तम्--एतन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितेति । एतन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितात्यन्ताभावाधिकरणमित्युक्ते व्याघातपरिहारायोक्तम्-अनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तेति । नैवं व्याघातः । अनित्यत्वात्यन्ताभावस्य अत्यन्ताभावाधिकरणतया साध्यसिद्धेरिति भावः । अनुमानार्थान्तरमाह-अत्र चेति । . ५ ( भुवन०)-' असाध्यान्यवियुक्तान्यव्यावृत्तिर्वा प्रसाध्यते ' एतत्कारिकार्धमाश्रित्य पक्षं पक्षयित्वा या प्रवृत्ता तामाह-अयं शब्दः अनित्यत्वेति । यः एतन्निष्ठः शब्दनिष्ठोऽत्यन्ताभावः, तस्य ये प्रतियोगिनो विश्वपदार्थाः । ते किंविशिष्टाः । अनित्यत्वस्य अत्यन्ताभावोऽनित्यत्वात्यन्ताभावः नित्यत्वं, तस्माद्व्यतिरिक्ता भिन्ना इत्यर्थः । तेषां भावस्तत्त्वम् । तेन रहितोऽनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तैतन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितो यो धर्मो नित्यत्वादिः, तदत्यन्ताभावाधिकरणमित्यर्थः । मेयत्वादिनाऽर्थान्तरतापरिहाराय अत्यन्ताभावाधिकरणमित्युक्तम् । तथापि घटत्वादीनामत्यन्ताभावाधिकरणतया सिद्धसाध्यता । तदुक्तमेतनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितेति । एतनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितात्यन्ताभावाधिकरणमित्युक्ते व्याघातः स्यात् । ततस्तदपोहार्थमनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तेति । न चैवं व्याघातः । अनित्यत्वात्यन्ताभावस्य अत्यन्ताभावाधिकरणतया पक्षे शब्दे साध्यसिद्धेः । इति व्यावृत्तिचिन्ता ॥ अयमाशयः-शब्दव्यतिरिक्तविश्वस्य अत्यन्ताभावःशब्देऽस्ति । अतस्तत्प्रतियोगित्वं विश्वस्यैवास्ति । तेन रहितं च साध्यधर्मपक्षे नित्यत्वमेव । तस्य अनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तेतिपदेन विश्वात् पृथक्कृतत्वात् , तदत्यन्ताभावाधिकरणं अनित्यत्वाधिकरणं शब्द इत्यर्थः । आद्यस्यात्यन्ताभावः पक्षे व्याहत इति । पक्षवृत्तिः शब्दत्वादिधर्मों यद्यप्यनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तैतन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितो वर्तते, परं तस्यात्यन्ताभावे शब्दमध्ये साध्यमाने व्याघातः स्यात् । तस्मात्पारिशेष्यान्नित्यत्वस्यैवात्यन्ताभावः शब्दे साध्यते इति भावः । शब्दमात्रवृत्तिशब्दत्वादीनामत्यन्ताभावः सर्वत्र सपक्षे धर्मो ज्ञेयः ॥ ५ ॥ ६ अयं शब्दः स्वेतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितानेकैनित्यवृत्तित्वरहितानेत १ अनित्येत्याधारभ्य नवमानुमाने 'आद्यः पक्षे ब्याघातात् ' इत्यन्तः ग्रन्थांशः ज पुस्तके जुटितः । २ ' अनेकनित्यत्तित्वरहित' इतिपदं ग पुस्तके नास्ति । Aho ! Shrutgyanam Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं निष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति । अनित्यवृत्तित्वे सति नित्यवृत्तयो ये धर्मास्तेष्वनित्यनित्यवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहितस्तदत्यन्ताभाववान् । अनेकेषु वर्त्तन्ते ये धमस्तेष्वनेकनित्यवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहितस्तदत्यन्ताभाववान् । अनेतन्निष्ठः पक्षीकृतशब्दान्यनिष्ठः । अनित्यनित्यवृत्तित्वरहितश्चासावनेकनित्यवृत्तित्वरहितश्च स चासावनेतन्निष्टश्च । तदधिकरणं तदाश्रय इत्यर्थः । १६ ६ (आनं० )–स्वेतरानित्यनित्येत्यादि । पक्षीकृतशब्दादितरे येऽनित्याः नित्याञ्च तेषु वृत्तिर्यस्य धर्मस्य तस्य स्वेतरानित्यनित्यवृत्तित्वं धर्मः, तदत्यन्ताभाववांश्च अनेकेषु नित्येषु वृत्तित्वरहितञ्च, अयमेतन्निष्ठः पक्षीकृतशब्दादन्यनिष्ठश्चेति स्वेतरा नित्यनित्यवृत्तित्वरहिता ने कनित्यवृत्तित्वरहितानेतन्निष्ठस्तस्याधिकरणमित्यर्थः । अयं शब्दोऽधिकरणमित्युक्ते पक्षीकृतशब्दव्यतिरिक्तत्वात्यन्ताभावेन पक्षमात्रनिष्ठेन अर्थान्तरता, अत उक्तम्-अनेतन्निष्ठेति । अनेतन्निष्ठाधिकरणमित्युक्ते मेयत्वादिनार्थान्तरता, अत उक्तम्- नित्यवृत्तित्वरहितेति । नित्यवृत्तित्वरहितानेतन्निष्ठाधिकरणमित्युक्ते आकाशव्यतिरिक्तनित्यान्यत्वेन शब्दनित्यत्वेऽप्युपपद्यमानेन आकाशव्यतिरिक्तनित्येषु वृत्तिहीनेन अर्थान्तरता, अत उक्तम्- अनेकनित्यवृत्तित्वरहितेति । पक्षीकृतशब्दनित्यवे तस्यानेक नित्यवृत्तित्वेन तद्रहितत्वानुपपतिः । अनेक नित्यवृत्तित्वरहितानेतन्निष्ठाधिकरणमित्युक्तौ नित्यत्वेन अर्थान्तरता, अत उक्तम्-अनेकनित्यवृत्तित्वरहितेति । स्वेतरेति पदं स्पष्टीकरणार्थम् । अनित्यनित्यवृत्तित्वरहितानेकनिष्ठचानित्यमेव पक्षे पर्यवस्यतीति भावः । पक्षव्यतिरिक्ते सर्वत्र स्वान्यत्वाधिकरणप्रतियोगिकः एकैकधर्मिकोऽन्योन्याभावोऽस्तीति व्याप्तिसिद्धिः । अनुमान विवरणग्रन्थो व्याख्यातार्थः । ६ ( भुवन० ) अथ ' अपक्षसाध्यवद्वृत्तिविपक्षान्वयवर्जितः । नानाविपक्षवृत्त्यन्यभिन्नधर्मोSस्ति पक्षिते ' इति कारिकामाश्रित्य या प्रवृत्ता तां दर्शयति-अयं शब्दः स्वेतरानित्यनित्यत्तित्वरहितेति । स्वस्मादितरे येऽनित्या नित्याच तेषु वृत्तिर्यस्य धर्मस्य तस्य स्वेतरानित्य नित्यवृत्तित्वं, तदत्यन्ताभाववांश्चासौ, अनेकेषु नित्येषु वृत्तित्वरहितश्चायम्, अनेतन्निष्ठः पक्षीकृतशब्दान्यनिष्ठश्चेति स्वेतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितानेक नित्यवृत्तित्वरहितानेतन्निष्ठः, तस्याधिकरणमित्यर्थः । न एषः अनेषः। अनेतस्मिन् पक्षीकृतशब्दादन्यस्मिन्निष्ठा यस्य सोऽनेतन्निष्ठः । नन्वेवंविधविशेषणविशिटोsपि शब्दे सिषाधयिषितो धर्मो यद्यनेतन्निष्ठः, कथं तर्ह्येतस्मिन् शब्दे साध्यते, व्याघातप्रसंगात्, पादौ घटत्वादिसाधनवत् इति चेत् । न । अर्थापरिज्ञानात् । अनेतन्निष्ठ इत्यस्य ह्ययमर्थः, शब्दे सिषाधयिषितोऽनित्यत्वादिको धर्मो घटे घटत्ववन्न केवले शब्दे एव वर्तते, किन्तु शब्दे शब्दादन्यत्र घटादौ च स वर्तते एव । तस्मात्तस्यानेतन्निष्ठत्वमुपपन्नमेवेति भावः । अनेकनित्यवृत्तित्वरहितानेतन्निष्ठाधिकरणमित्युक्ते पक्षीकृत शब्दव्यतिरिनित्यत्वात्यन्ताभावादिना अनेकनित्यवृत्तित्वरहितानेतन्निष्ठेन शब्दनित्यत्वेऽप्युपपद्यमानेनार्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्यर्थमनित्यनित्यवृत्तित्वरहितग्रहणम् । Aho! Shrutgyanam Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । पक्षीकृतशब्दनित्यत्वे पक्षीकृतशब्दव्यतिरिक्तनित्यत्वात्यन्ताभावादीनामनित्यनित्यवृत्तित्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः । अनित्यनित्यवृत्तित्वरहितानेतन्निष्ठाधिकरणमित्युक्ते नित्यानित्यवृत्तित्वरहितेन अनेतन्निष्ठेन नित्यत्वादिनार्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्यर्थमनेकनित्यवृत्तित्वरहितग्रहणम् । अनित्यनित्यवृत्तित्वर हितानेकनित्यवृत्तित्वरहिताधिकरणमित्युक्ते पक्षीकृतशब्दमात्रनिष्ठैः पक्षीकृतशउदान्यत्वात्यन्ताभावादिभिरर्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्यर्थमनेतन्निष्ठग्रहणम् । पक्षीकृतशब्दनित्यत्वे तत्रानेतन्निष्ठो धर्मो भवन् अनेतदनित्यनिष्ठो वा, अनेतनित्यनिष्ठो वा । आद्ये नित्यानित्यवृत्तित्वरहितत्वव्याघातः । द्वितीये अनेकनित्यवृत्तित्वरहितत्वव्याघातः । तेन पक्षे नित्यत्वाभावरूपानित्यत्वसिद्धिरिति । स्वेतरानित्यवृत्तित्वरहितेत्यत्र स्वेतरग्रहणस्य प्रयोजनं न पश्यामः । कुलार्क पंडितैस्तु केनाभिप्रायेण स्वेतरपदं प्रयुक्तमिति चिन्त्यम् । अत्र 'चैकैकनित्यनिष्ठैकैकानित्यनिष्ठनित्यत्वानित्यत्वादीन्युपादाय साध्यप्रसिद्धेरप्रसिद्धविशेषणत्वं निरसनीयम् ॥ ६ ॥ ( आनं० ) - आद्य इति । अनित्यनिष्ठो धर्मः पक्षीकृतशब्दे भवन् । अस्य नित्यत्वेऽनित्यानि - त्यवृत्तिरिति तद्रहितत्वव्याघात इत्यर्थः । ( भुवन० ) -- अथ पञ्चानुपूर्व्या व्यावृत्तिचिन्तामुखेन अनुमानार्थी व्याख्यानयन्नाह - अनेक नित्यद्वृत्तित्वेत्यादि । पक्षीकृतशब्दव्यतिरिक्तेति । पक्षीकृतशब्दात् व्यतिरिक्ता ये आका - शादयः तेषु यन्नित्यत्वं तस्यात्यन्ताभावः तेन । अनेक नित्यवृत्तित्वरहितेनेति । नित्यत्वात्यन्ताभावस्य नित्येष्ववर्तनात् । अनेतन्निष्ठेनेति । पक्षीकृतशब्दव्यतिरिक्तनित्यत्वात्यन्ताभावस्य अनित्येष्वपि वर्तमानत्वेन केवले शब्दे एव अवर्तनादनेतन्निष्टत्वमितिभावः । शब्दनित्यत्वेऽप्युपपद्यमानेनेति । शब्दनित्यत्वेऽपि साध्येऽस्य धर्मस्योपपद्यमानत्वात् अर्थान्तरतेति साधयितुमनित्यत्वमुपक्रान्तम् । अनया च युक्तया नित्यत्वमप्युपपद्यते । तस्मादर्थान्तरता । अनित्यनित्यवृत्तित्वेन तद्रहितत्वानुपपतेरिति । पक्षीकृतशब्दनित्यत्वे पक्षीकृतशब्दव्यतिरिक्तनित्यत्वात्यन्ताभावस्य अनित्येषु घटादिषु नित्ये शब्दे च वर्तमानत्वात् अनित्यनित्यवृत्तित्वरहितत्वं न स्यादित्यर्थः । अथानेकनित्यवृत्तित्वर. हितेति पदं त्यक्त्वा व्यावृत्तिं करोति - अनित्यनित्येत्यादि । तथा च युगलावृत्तित्वादनित्यवृतित्वरहितेन नित्यत्वादिना अर्थान्तरं स्यात्, ततोऽनेकनित्यवृत्तित्वरहितेतिग्रहणम् । अथ मन्त्यं विशेषणं परित्यज्य व्यावृत्तिं करोति - अनित्यनित्येत्यादि । पक्षीकृतशब्दमात्रनिष्ठैः पक्षीकृतशब्दान्यत्वात्यन्ताभावादिभिरिति । पक्षीकृतशब्दादन्यद्विश्वं तत्र पक्षीकृतशब्दान्यत्वं नाम धर्मः, तस्यात्यन्ताभावः शब्दे एवास्ति । तेनोक्तं पक्षीकृतशब्दमात्र निष्ठैरिति । साधयितुमिष्टं चात्रा १ 'दीनामनित्यवृत्ति' इति ग पुस्तकपाठः । ३ महाविद्या ० १७ Aho! Shrutgyanam Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आनन्दपूर्ण भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं नित्यत्वम् । एवं चोभयोरप्यविवादापन्नाः शब्दान्यत्वात्यन्ताभावादयोऽपि सिध्यन्तीत्यर्थान्तरता । अत्र शब्दस्य अनित्यत्वसिद्धिमाह - पक्षीकृतशब्दनित्यत्वे तत्रानेतन्निष्ठो घर्मो भवन्नित्यादि । पक्षीकृतशब्दस्य यदि नित्यत्वमङ्गीक्रियते तदाऽनेतदनित्यनिष्ठ इत्याद्ये विकल्पे नित्यानित्यवृत्तित्वरहितत्वव्याघातः । तस्य धर्मस्य नित्ये शब्देऽनित्ये च घटादौ वर्तनात् । द्वितीयेऽनेक नित्यवृत्तित्वरहितत्वव्याघात इति । अनतन्नित्यनिष्ठ इति द्वितीये कल्पे तस्य धर्मस्य नित्ये गगनादौ नित्ये एव च शब्दे वर्तमानत्वेन अनेकनित्यवृत्तित्वात् तद्रहितत्वव्याघातः स्फुट एवेति । तेन पक्षे नित्यत्वेति । तेन कारणेन पक्षे शब्दे नित्यत्वाभावरूपस्य अनित्यत्वस्य सिद्धिः । एवंविधश्च धर्मः शब्दे विचारितः सम् अनित्यत्वं वा, विश्वप्रतियोगिको घटशब्दान्योन्याभावादिर्वा । पूर्वोक्तसर्वविशेषणैः सह तस्य संवादात् । तस्य च शब्दे नित्ये स्वीक्रियमाणेऽनित्ये घटे नित्ये च शब्दे वर्तनात् नित्यानित्यवृत्तित्वरहितत्वं न स्यात्। तस्माच्छब्दस्यानित्यत्वं स्वीकार्यमेवेति । कुलार्कपण्डितैस्तु केनाभिप्रायेणेति । सोऽभिप्रायः कुशलतरैञ्चिन्त्यः । एतच्च महाविद्याविवरणटिप्पनेऽस्माभिरेव सप्रपञ्चं प्रपञ्चितमिति नात्र प्रपच्यते । यद्वा स्वेतरेति पदं स्पष्टीकरणार्थमेवेति ज्ञेयम् । अत्र चैकैकनित्यनिष्ठेकैकानित्यनिष्ठेत्यादि । एकैकनित्याः आकाशपरमाण्वादयः, तन्निष्ठास्तन्नित्यत्वाकाशत्वपरमाणुत्वादयः । एकैका नित्या घटपटादय:, तन्निष्ठास्तदनित्यत्वघटपटत्वादयः । ते च युगलावृत्तित्वेन नित्यानित्यवृत्तित्वरहिताः नानानित्यावृत्तयश्च तथा अनेतन्निष्ठाः शब्दादन्यत्र वर्तमानाश्च विद्यन्त एवेति तेषां सपक्षे प्रसिद्धत्वादप्रसिद्धविशेषणत्वमपि नास्तीति भावः । नित्यत्वानित्यत्वादीन्युपादायेति । अत्रादिपदेन तत्तन्नित्यमात्रनिष्ठतत्तदनित्यमात्रनिष्ठाकाशत्वघटत्वादिधर्मग्रहः ॥ ६ ॥ I ७ अयं शब्दः स्वेतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितानेकनित्यवृत्तित्वरहितानेकनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति । अनेतन्निष्ठपदस्थाने अनेकनिष्ठपदमेव पूर्वमहाविद्यावैलक्षण्यम् । अनित्यनित्यवृत्तित्वरहितानेकनित्यवृत्तित्वरहितानेकनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते नित्येषु व्यभिचारः । अनित्यनित्यवृत्तित्वरहितस्य अनित्यमात्रवृत्तेर्नित्यैषु व्याहतत्वात् । नित्यमात्रवृत्तेरनित्येषु व्याहतत्वात् । नित्यमात्रवृत्तेश्च अनेकनिष्ठस्य अनेकनित्यवृत्तित्वग्रहणेन निरस्तत्वात् । एकैकनित्यवृत्तेश्वानेकनिष्ठग्रहणेन व्युदासात् । अतो नित्यानां विपक्षत्वव्युदासेन पक्षतुल्यत्वार्थ स्वेतरग्रहणम् । शेषं पूर्ववत् ॥ ७ ॥ ७ ( आनं० ) – अयं शब्दः स्वेतरा नित्यवृत्तित्वरहितानेकनित्यवृत्तित्वरहितानेकनिष्ठाधिकरणमित्यत्रापि नित्यत्वात्यन्ताभावरूपमनित्यत्वं पक्षे सिध्यतीति भावः । ध्वनिभागेषु सिद्धसाधनत्वनिवृत्त्यर्थमयमित्युक्तम् | पक्षमात्रनिष्ठेन अर्थान्तरत्वं वारयति - अनेकनिष्ठेति । नित्यत्वेनार्थान्तरत्वनिरासाय - अनेकनित्यवृत्तित्वरहितेति । पक्षव्यतिरिक्तनित्यत्वात्यन्ताभावेनार्था - न्तरतां वारयति - नित्यानित्यवृत्तित्वरहितेति । पक्षीकृतशब्दनित्यत्वे तस्य नित्यानित्यवृत्तित्वेन १' नित्यानित्यत्तित्व र हिते 'ति प्रतीकं मूलमहाविद्याडम्बने नोपलभ्यते । Aho! Shrutgyanam Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् | तद्रहितत्वानुपपत्तिः । नित्येषु साध्यसिद्धयर्थ स्वेतरेत्युक्तम् । शब्देतर नित्यानित्यवृत्तित्वरहितानेकनिष्ठो धर्मः एकैकस्मिन्नित्ये "शब्दै कक नित्यान्यत्वात्यन्ताभावशब्दकै कनित्यवृत्तिरनेकनिष्ठोऽस्तीति भावः । स्वेतरविशेषणकृत्यमुपपादयति-- नित्यानित्यवृत्तित्वेत्यादिना । १९ ७ ( भुवन० ) - अथ पुनरप्येतदेवानुमानं अनेतनिष्ठपदस्थाने अनेकनिष्ठपदग्रहणेनाहअयं शब्दः स्वेतरा नित्यनित्यवृत्तित्वेत्यादि । अत्रापि नित्यत्वात्यन्ताभावरूपमनित्यत्वं पक्षे सिध्यतीति भावः । अत्र चानित्यपदार्थेष्वनित्यत्वादिना साध्यसिद्धिर्द्रष्टव्या, न त्वेकैकानित्यनिष्ठ - घटत्वादिना । तस्यानेकनिष्ठत्वाभावात् । नित्यानां च पक्षतुल्यत्वार्थे स्वेतरपदसाफल्यं दर्शयतिअनित्यनित्यवृत्तित्वरहितेत्यादिना । अनित्यमात्रवृत्तेरिति । अनित्यत्वादेर्धर्मस्य नित्येषु व्याह - तत्वात् । नित्यमात्रवृत्तेश्चेति । नित्यत्वादेर्धर्मस्य । एकैकनित्यवृत्तेश्चेति । आत्मत्वाकाशत्वादेर्धर्मस्येति। पक्षतुल्यत्वार्थमिति । पक्षः शब्दः तत्तुल्याः तत्समाः । सर्वेऽपि नित्या इत्यर्थः । अयं भावः । यथा शब्द पक्षीकृत्य एवमेतदनुमानं प्रयुज्यते, तथा नित्यं गगनादिकमपि विपक्षं पक्षीकृत्य प्रयोत्र्यम् । अत एव विपक्षपक्षीकरणप्रवृत्तासु महाविद्यासु एतदनुमानं दर्शयिष्यतीति ॥ ७ ॥ ८ अयं शब्दः एतदाकाशवृत्तित्वरहितनित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितनित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वादिति । एतस्मिन्नाकाशे च वर्तन्ते ये धर्मास्तेषु एतदाकाशवृत्तित्वं धर्मः । नित्यत्वव्यतिरिक्तनिस्यत्वव्याप्येषु नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वं धर्मः । नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठेषु च नित्यत्वव्याप्यनित्यनिष्ठत्वं धर्मः । एतदाकाशवृत्तित्वरहितञ्चासौ नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितश्च । स चासौ नित्यत्वाव्याप्यनित्य-मिष्ठत्वरहितच, तदाश्रय इत्यर्थः । ८ ( आनं० ) – महाविद्यान्तरमाह - एतदाकाशति । एतस्मिन्पक्षे आकाशे च वृत्तिरहित एतदाकाशवृत्तिरहितः, स चायं नित्यत्वव्यतिरिक्तत्वे सति नित्यत्वव्याप्यत्वरहितत्र्च, सचासौ नित्यत्वव्याप्यत्वे सति नित्यनिष्ठत्वरहितश्च इत्येतदाकाशवृत्तित्वरहितनित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितनित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितः, तस्याधिकरणमित्यर्थः । अयं शब्दोऽधिकरणमित्युक्ते मेयत्वादिनार्थान्तरतात आह— नित्यनिष्ठत्वरहितेति । नित्यनिष्टत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते व्याप्तिभङ्गः, नित्येषु साध्या सिद्धेरत आह- नित्यत्वाव्याप्येति । नित्यत्वं नित्यव्यप्येति वक्ष्यति । तेन नित्यत्वस्य नित्यनिष्ठत्वरहितत्वाभावेऽपि नित्यत्वाव्याप्यत्वे सति यन्नित्यनिष्ठत्वं तन्नास्तीति नित्यत्वमेव नित्येषूक्तरूपमस्तीति साध्यसिद्धिः । नित्यत्वाव्याप्य नित्यनिष्ठत्वाधिकरणमित्युक्तौ नित्यत्वेन अर्थान्तरता, अत आह—- नित्यत्वाव्याप्यत्वरहितेति । नित्यत्वव्याप्यत्वरहित"नित्यत्वा व्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते पुनरपि नित्येषु साध्यासिद्धिः । नित्यत्वस्य नित्यत्वव्याप्यत्वान्नित्यत्वव्याप्यत्वरहितत्वे सतीति विशेषणाभावादत आह— नित्यत्वव्यतिरिक्तेति । 4 १' नित्यानित्यत्तित्वे' इति प्रतीकं मूले न दृश्यते । २ ' व्याप्यमिति ? स्यात् (?) Aho! Shrutgyanam Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं नित्यत्वस्य नित्यत्वष्यतिरिक्तत्वे सति यन्नित्यत्वाव्याप्यत्वं तन्नास्तीति नित्येषु साध्यसिद्धिः । नित्यत्वन्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितनित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणमित्युक्तौ नित्यत्वे. न अर्थान्तरता, तां वारयति-आकाशत्तित्वरहितेति । आकाशवृत्तित्वरहितेत्यादि साध्योक्ती व्याप्तिभङ्गः । नित्येषु तदभावादत उक्तम्-एतदाकाशेति । शब्दस्य नित्यत्वसंदेहान्नित्यत्वस्यैतदाकाशवृत्तित्वं निश्चितं नास्तीति नित्येषु नित्यत्वमुक्तरूपमस्ति । अनित्येषु पुनरनित्यत्वमेवोक्तरूपमिति व्याप्तिसिद्धिः । पक्षस्य नित्यत्वे पक्षमात्रनिष्ठधर्मस्य नित्यत्वव्याप्तत्वान्नित्यत्वव्याप्तत्वरहितत्वव्याघातादनित्यत्वं पक्षे सिध्यतीति भावः । विवृणोति-एतस्मिन्नित्यादिना । ८(भुवन०)-महाविद्यान्तरमाह-अयं शब्दः एतदाकाशत्तित्वरहितनित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितनित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वात् घटवदिति । अतः परं च पक्षं पक्षीकृत्य प्रवृत्तानां महाविद्यानामर्थसंग्राहिकाः कारिका महाविद्यान्तरेभ्यो ज्ञातव्याः । एष चाकाशश्च एतदाकाशौ । तयोर्युगलत्वेन वृत्तिर्येषां धर्माणां ते एतदाकाशवृत्तयः, तेषु तद्वत्तित्वं नाम धर्मः, तेन रहितः । नित्यत्वेन व्यतिरिक्ता नित्यत्वव्यतिरिक्ताः । नित्यत्वेन व्याप्यन्ते इति नित्यत्वव्याप्याः । नित्यत्वव्यतिरिक्ताश्च ते नित्यत्वव्याप्याश्च । तेषु नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वं धर्मः । तद्रहितश्च । नित्यत्वेन अव्याप्याः नित्यत्वाव्याप्याः। नित्येषु निष्ठा अवस्थानं येषां ते नित्यनिष्ठाः । नित्यत्वेनाव्याप्याश्च ते नित्यनिष्ठाश्च । तेषु नित्यत्वाव्याप्यनित्य. निष्ठत्वं नाम धर्मः। तद्रहितः । अत्र विशेषणत्रये पूर्वप्राच्यविशेषणद्वयस्य द्वन्द्वः । ततो द्विपदः कर्मधारयः । एतद्विशेषणत्रयविशेषिता ये शब्दत्वश्रावणत्वादयः तेषामाश्रयः पक्षीकृतः शब्द इत्यर्थः । अर्थतस्यानुमानस्य व्याख्या । एतस्मिन् पक्षीकृतशब्दे आकाशे च या वृत्तिः तत्त्वेन रहिताः पक्षे शब्दत्वश्रावणत्वाद्यो व्योग्नि अवर्तनात् शब्दे वर्तनाच युगलावृत्तयो विद्यन्ते एव । दृष्टान्ते च घटादौ स्वस्वनिष्ठा घटत्वादयः शब्दाकाशद्वयावर्तित्वात् युगलावर्तिन एव । नित्यानां च पक्षतुल्यस्वं वक्ष्यति । न तेन तेषु साध्यप्रसिद्धिर्विचार्या । अथ द्वितीयं विशेषणं व्याख्यायते । नित्यत्वेन व्याप्या आत्मत्वाकाशत्वपरमाणुत्वादयः । 'व्याप्यं गमकमादिष्टं व्यापकं गम्यमिष्यते । व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तनिष्ठमेव हि ॥' इति वचनात्, यत्र यत्र आत्मत्वादयः, तत्र तत्र नित्यत्वम् । एवमात्मत्वादीनां नित्यत्वव्याप्यत्वोपपत्तेः । अत्र नित्यत्वं व्यापकम् , आत्मत्वादयो व्याप्याः, यथा अग्निापको धूमश्च व्याप्यः । एवं नित्यत्वमपि यत्र यत्र नित्यत्वं, तत्र तत्र नित्यत्वात्यन्ताभाववद्वत्तित्वरहितत्वमिति व्याप्त्या नित्यत्वव्याप्यमस्ति । परं नित्यत्वव्यतिरिक्तेति ग्रहणात् केवलनित्यनिष्ठधर्मेभ्यस्तत्पृथक्कृतम्। नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहिताश्च केवलानित्यनिष्ठा घटत्वपटत्वादयः, साधारणाश्च सत्त्वप्रमेयत्वादयो, नित्यत्वस्य पृथकृतत्वात् नित्यत्वं च । अथ तृतीयं विशेषणं व्याख्यायते । नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठेति । नित्यनिष्ठा धर्मा द्विधा-नित्यत्वव्याप्या नित्यत्वाव्याप्याश्च । तत्र नित्य १ तयो वर्तन्ते एवं इति छ पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । वण्याच्या आकाशत्वादयः । नित्यत्वाव्याप्याश्च सत्त्वादयः । तत्र आद्या द्वितीयविशेषणेन निषिद्धाः । सत्त्वादयश्चानेन विशेषणेन निषिद्धाः । तेषां नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः । नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताश्च अनित्यमात्रनिष्ठा घटत्वादयो, नित्यमात्रनिष्ठा आकाशत्वादयश्च । तत्र आकाशत्वादयो द्वितीयविशेषणेन निरस्ता एव । उद्धरिताश्च घटत्वपटत्वायो धर्मा घटादिदृष्टान्तोपयोगिनः । शब्दघटान्यतरत्वादयः पक्षीकृतशब्दोपयोगिनः । अत्र च द्वितीयतृतीयविशेषणद्वयविशिष्टं नित्यत्वमप्युद्धरितमस्ति । परं शब्दनित्यत्वेऽङ्गीक्रियमाणे तस्य एतदाकाशवृत्तित्वरहितत्वं न स्यात् । शब्दे चानित्येऽङ्गीक्रियमाणे विशेषणत्रयविशिष्टं तदाकाशादौ दृष्टान्ते उपकारकृत् ज्ञेयम् । एवंविधाश्व धर्मा अत्र घटशब्दान्यतरत्वादयो नित्यत्वव्याप्यनित्यनिछत्वादयो रहिताः शब्दे तदैव घटन्ते, यदि शब्दस्यानित्यत्वमङ्गीक्रियेत । तस्माच्छब्दस्यानित्यत्वमङ्गीकार्यम् । व्यावृत्तिर्ग्रन्थकृतैव कृतेति न क्रियते । अनुमानार्थमाविष्करोति — एतस्मिन्नित्या - दिना । एतस्मिन्निति । पक्षीकृतशब्दे । २१ नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितनित्यत्वव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते नित्यत्वेनार्थान्तरता स्यात् । नित्यत्वस्य नित्यत्वव्याप्यत्वेऽपि नित्यत्वव्यतिरिक्तत्वे सति यन्नित्यत्वव्याप्यत्वं तद्रहितत्वात् । नित्यत्वto freefagease नित्यत्वव्याप्यत्वेन नित्यत्वाव्याप्यत्वे सति यन्नित्यनिष्ठत्वं तद्रहितत्वाच्च । न च व्याप्यव्यापकभावस्य भेदाधिष्ठानत्वात्कथं नित्यत्वस्य नित्यत्वव्याप्यत्वमिति युक्तम् । नित्यत्वस्य नित्यत्वभेदाभावेऽपि नित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तित्वरहितस्य नित्यत्वव्याप्यत्वस्योपपत्तेरिति । अतो नित्यत्वेनार्थान्तरतापरिहारार्थमेतदाकाशवृत्तित्वरहितग्रहणम् । पक्षीकृतशब्दस्य नित्यत्वे नित्यत्वस्यैतदाकाशवृत्तित्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः । ( आनं०) विशेषणकृत्यमाह - नित्यत्वव्यतिरिक्तेति । नित्यत्वस्य नित्यत्वव्याप्यत्वर हितेति विशेषणाभावान्नार्थान्तरतेत्यत आह- नित्यत्वस्येति । सम्बन्धरूपाया व्याप्तेर्भिन्नाधिकरण'स्वादेकस्मिन्नसम्भव इत्यत आह--न चेति । हेतुमाह - नित्यत्वस्येति । तदत्यन्ताभाववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तद्वयाप्तत्वम् । धूमस्यापि धूमध्वजात्यन्ताभाववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वमेव 'द्वायत्वमिति भावः । अनेन विशेषणेन कथमर्थान्तरता निरासोऽत्राह -- पक्षीकृतेति । ( भुवन ० ) -- अथ प्रथमविशेषणं परित्यज्य व्यावृत्त्यचिन्तां करोति — नित्यत्वव्यतिरिक्तेत्यादि । कथमर्थान्तरता स्यादित्याह - नित्यत्वस्य नित्यत्वव्याप्येत्यादि । यद्यपि नित्यत्वं नाम 'धर्मो नित्यत्वव्याप्यो भवति, तथापि नित्यत्वव्यतिरिक्तत्वे सति यन्नित्यव्यव्याप्यत्वं तद्रहितोऽप्यु - पपद्यत एव । नित्यत्वव्यतिरिक्ततिविशेषणेन तस्य नित्यत्वव्याप्येभ्यः पृथक्कृतत्वात् । तद्वर्जने च पृथ १ अत्र व पुस्तके 'उरितां इति तथा छ, द, पुस्तकयोः उद्धरित इति पाठो दृश्यते । 'उर्वरित इति समीचीनः पाठः संभाव्यते । Aho! Shrutgyanam Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं धरणेन तस्यावर्जनात् । नित्यत्वस्य नित्यत्वव्यतिरिक्तेत्यादिविशेषणविशिष्टत्वमुपपाद्य नित्यस्वाव्याप्येत्यादिविशेषणविशिष्टत्वमाह-नित्यनिष्ठत्वेऽपीत्यादि । यद्यपि नित्यत्वस्य नित्यनिष्ठत्वरहितत्वं नास्ति, तथापि नित्यत्वाव्याप्यत्वे सति यत् नित्यनिष्ठत्वं, तद्रहितत्वगस्त्येव । केन हेतुना । नित्यत्वव्याप्यत्वेन । नित्यत्वस्य नित्यत्वेन व्याप्यत्वादित्यर्थः । संबन्धरूपाया व्याप्तेभिन्नाधिकरणत्वात्तस्यैव नित्यवस्य तेनैव नित्यत्वेन व्याप्यत्वासंभव इत्यत आह-न च व्याप्यव्यापकभावस्येति । अत्र हेतुमाह-नित्यत्वस्य नित्यत्वभेदेत्यादि । नित्यत्वात्यन्ताभाववत्सु अनित्येषु. वृत्तियेषां धर्माणां ते तथा । तेषां भावो नित्यत्वात्यन्ताभाववद्वत्तित्वम् । तेन रहितत्वस्य यत् नित्यत्वव्याप्यत्वं तस्योपपत्तेः । नित्यत्वं व्यापकं, नित्यत्वात्यन्ताभाववद्वृत्तिवरहितत्वं व्याप्यम् । तथा हि-यत्र यत्र नित्यत्वात्यन्ताभाववद्वत्तित्वरहितत्वं तत्र तत्र नित्यत्वम् । यथा आत्माकाशादिषु । एवं चार्थभेदाभावेऽपि शब्दभेदमात्रदर्शनप्रकारेण नित्यत्वस्य व्याप्यव्यापकभावोपपत्तिः । एतदाकाशवृत्तित्वरहितनित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते पक्षीकृतशब्दमात्रनिष्ठेन पक्षीकृतशब्दान्यत्वात्यन्ताभावादिना अर्थान्तरता स्यात् । तस्य पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्तित्वेन पक्षीकृतशब्दाकाशवृत्तित्वरहितत्वात् । पक्षीकृतशब्दनित्यत्वेऽपि तन्मात्रनिष्ठानां नित्यत्वव्याप्यत्वोपपत्त्या नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितत्वाच । अतः पक्षीकृतशब्दमात्रनिष्ठैरान्तरतापरिहारार्थ नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितग्रहणम् । पक्षीकृतशब्दनित्यत्वपक्षे तन्मात्रनिष्ठानां नित्यत्वव्यतिरिक्तत्वे सति नित्यत्वव्याप्यत्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः। ___ (आनं०) पक्षीकृतशब्दनित्यत्वे तन्मात्रनिष्ठस्य नित्यनिष्ठत्वरहितत्वाभावान्न तेनार्थान्तरते. त्यत आह-पक्षीकृतशब्दनित्यत्वेऽपीति । तेनापि तन्निरासप्रकारमाह-पक्षीति । __ (भुवन०)-अथ मध्यविशेषणं परित्यज्य व्यावृत्तिचिन्तां करोति-एतदाकाशवृत्तित्वरहितेत्यादि । पक्षीकृतशब्दान्यत्वेत्यादि । पक्षीकृतशब्दात् यत् अन्यत्वं विश्वस्य तस्यात्यन्ताभावादिना अर्थान्तरता स्यात् । अर्थान्तरतामेवाह-तस्य पक्षीकृतशब्दमात्रेत्यादि । तस्य पक्षीकृतशब्दान्यत्वात्यन्ताभावस्य केवलशब्दनिष्ठत्वेन पक्षीकृतशब्दाकाशवृत्तित्वरहितत्वमुपपन्नमेवेति । अथ पक्षीकृतशब्दान्यत्वात्यन्ताभावस्य नित्यत्वाव्याप्येत्यादिविशेषणविशिष्टत्वं दर्शयति-पक्षी. कृतशब्दनित्यत्वेऽपीत्यादि । नित्यशब्दमात्रनिष्ठानां शब्दत्वश्रावणत्वपक्षीकृतशब्दान्यत्वात्यन्ताभावादीनां नित्यत्वव्याप्यत्वोपपत्त्या नित्यत्वेन अव्याप्यत्वे सति नित्यनिष्ठत्वरहितत्वाच्च । ननु शब्दमात्रनिष्ठानां कथं नित्यत्वव्याप्यत्वोपपत्तिः । उच्यते । शब्दनित्यत्वे शब्दत्वादीनां नित्यत्वव्याप्यत्वोपपत्तियुक्तैव । तथाच सति यत्र यत्र शब्दत्वाद्यः, तत्र तत्र नित्यत्वम् । एवं शब्दत्वादीनां नित्यत्वव्याप्यत्वं ज्ञेयम् । तथा च सति नित्यत्वाव्याप्यत्वे सति यन्नित्यनिष्ठत्वं तद्रहितत्वेन तेषां शब्दत्वादिधर्माणां नित्यत्वव्याप्यत्वमेवायातम् । अतस्तैमरर्थान्तरतापरिहारार्थ नित्यत्वव्यतिरिक्त Aho! Shrutgyanam Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् | २३ नित्यत्वव्याप्यत्वरहितेतिविशेषणग्रहणम् । तथा च सति पक्षीकृतशब्दनित्यत्वपक्षे शब्दत्व श्रावणत्वशब्दान्यत्वात्यन्ताभावादीनां नित्यत्वव्याप्यत्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तिः । एतदाकाशवृत्तित्वरहितनित्यत्वव्याप्यत्वरहितनित्यत्वाव्याप्यनित्यनि 5 छत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते नित्यपदार्थेषु साध्याभावः । यदि नित्यपदार्थधर्मेषु नित्यत्वव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितत्वं नित्यनिष्ठत्वरहितत्वेन तदा नित्यनिष्ठत्वनित्यनिष्ठत्वरहितत्वयोर्व्याघातः । अथ नित्यत्वाव्याप्यत्वरहितत्वेन, तदानित्यत्वव्याप्यत्वरहितत्वनित्यत्वाव्याप्यत्वरहितत्वयोर्व्याघातः । तस्मानित्यत्वव्याप्यत्वरहितो नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितश्च धर्मो नित्येषु न संभवत्येवेति व्याप्तिभङ्गः । तन्निवृत्त्यर्थं नित्यत्वव्यतिरिक्तग्रहणम् । एतदाकाशवृत्तित्वरहितनित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते गगनान्यत्वेनोक्तरूपोपपन्नेनार्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्त्यर्थं नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितग्रहणम् । गगनान्यत्वस्य नित्यनिष्ठत्वात् नित्यत्वाव्याप्यत्वाच्च तद्रहितत्वानुपपत्तेः । ( आनं० ) विशेष्याभावाद्वा विशेषणाभावाद्वा विशिष्टाभावो वाच्यः । तथा च नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितत्वं किं नित्यनिष्ठत्वाभावेन नित्यत्वाव्याप्यत्वाभावेन वेति विकल्प्य दूषयतियदीत्यादिना । फलितमुपसंहरति--तस्मादिति । नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वर हितग्रहणेन गगनान्यत्वनिरासः कुतोऽत्राह – गगनान्यत्वस्येति । नित्यानित्यस कलवस्तुषु गगनातिरिक्तेषु गगनान्यत्वस्य सत्वान्नित्यनिष्ठत्वान्नित्यत्वाव्याप्यत्वाच्च नित्यत्वव्याप्यत्वे सति नित्यनिष्ठत्वरहितत्वं नास्तीत्यर्थः । ( भुवन ० ) - अथ द्वितीयविशेषणस्थं नित्यत्वव्यतिरिक्तेतिपदं मुक्त्वा व्यावृत्तिं चिन्तयतिएतदाकाशवृत्तित्वरहितेत्यादि । नित्यपदार्थेषु साध्याभाव इति । दृष्टान्तीकृतेषु नित्यपदार्थेषु साध्यस्यानुपपत्तिः । विशेष्याभावाद्वा विशेषणाभावाद्वा विशिष्टाभावो वाच्यः । तथा च नित्यत्वा - व्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितत्वं किं नित्यनिष्ठत्वाभावेन वा, नित्यव्याप्यत्वाभावेन वा, इति विकल्पाभ्यां तृतीयविशेषणविचारणया नित्यपदार्थेषु साध्यानुपपत्तिमेव दर्शयति - यदि नित्यपदार्थेत्यादि । मत्र तृतीयविशेषणविशिष्टा द्वये धर्माः स्युः । एके केवलानित्यनिष्ठा घटत्वादयः । अपरे केवलनित्यनिष्ठा आकाशत्वपरमाणुत्वादयः । ते च द्वयेऽपि विकल्पद्वयेन नित्येषु निवर्तयितव्याः । तत्र प्रथम विकल्पेन केवलानित्यनिष्ठान् घटत्वादीन्निवर्तयति - यदीत्यादिना । यदि नित्यनिष्ठधर्मेषु नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितत्वं विद्यते, केन प्रकारेणेत्याह – नित्यनिष्ठत्वरहितत्वेनेति । नित्यवृत्तित्वरहितत्वेन । तदा नित्यनिष्ठत्वनित्यनिष्ठत्वरहितत्वयोर्व्याघात इति । नित्यवृत्तित्वनित्यवृत्तित्वरहितत्वयोर्व्याघातः । अयमर्थः — दृष्टान्तीकृतेषु आकाशादिनित्येषु वर्तमानस्य यस्य कस्यापि धर्मस्य नित्यनिष्ठत्वेन नित्यनिष्ठत्वरहितत्वं न स्यादेवेति स्पष्ट एव व्याघातः । ' विरुद्ध - I Aho! Shrutgyanam Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं समुच्चयो व्याघातः इति तल्लक्षणात् । अथ केवलनित्यनिष्ठानाकाशत्वादीनिवर्तयति-अथेत्यादिना। अथ नित्यत्वाव्याप्यत्वरहितत्वेनेति विकल्पोऽजीक्रियते, तदा द्वितीयविशेषणोक्तस्य नित्यत्वव्याप्यत्वरहितत्वस्य एतद्विशेषणायातनित्यत्वाव्याप्यत्वरहितत्वस्य च व्याघातः । नित्यत्वव्याप्यत्वरहितो हि नित्यत्वाव्याप्यः स्यात्, न तु नित्यत्वाव्याप्यत्वरहितः । नित्यत्वाव्याप्यत्वरहितोऽपि च नित्यत्वव्याप्यः स्यात्, न तु नित्यत्वव्याप्यत्वरहितः । तेन व्याघात एव । अयं भावः-नित्यत्वव्यतिरिक्तेति पदं विना नित्यपदार्थधर्मस्य यदि द्वितीयविशेषणविशिष्टत्वं स्यात्, तदा तृतीयविशेषणविशिष्टत्वं न स्यात् । यदि च तृतीयविशेषणविशिष्टत्वं, तदा न द्वितीयविशेषणविशिष्टत्वमिति । ततो द्वितीयतृतीयविशेषणविशिष्टो धर्मो नित्यत्वव्यतिरिक्तेतिपदं विना नित्येषु न संभवत्येव । तेन तेषु व्याप्तिभङ्गः । तन्निवृत्त्यर्थ नित्यत्वव्यतिरिक्तग्रहणम् । तथा च सति नित्यपदार्थेषु नित्यत्वमेव धर्मः । अथ तृतीयं विशेषणं त्यक्त्वा व्यावृत्ति विधत्ते–एतदाकाशत्तित्वरहितेत्यादि । गगनान्यत्वेनोतरूपोपपनेनार्थान्तरतेति । गगनान्यत्वस्य हि गगनावृत्तित्वेनैतच्छन्दवृत्तित्वेन चैतदाकाशवृत्तित्वरहितत्वादनित्येष्वपि वर्तमानत्वेन नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितत्वाञ्च एतद्विशेषणद्वयोपपन्नेन तेनार्थान्तरता स्यात् , तन्निरासार्थ तृतीयविशेषणग्रहणम् । अनेन विशेषणेन कथमर्थान्तरतानिरासः, अत्राह-गगनान्यत्वस्येति । गगनान्यत्वस्य गगनातिरिक्तेषु सकलनित्यानित्येषु विद्यमानत्वेन नित्यनिष्ठत्वात् नित्यत्वाव्याप्यत्वाच्च । तद्रहितत्वेति । नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितत्वानुपपत्तेरिति भावः। ___नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितं नित्यत्वं वा स्यानित्यत्वाव्याप्यं वा । तत्र नित्यत्वं तावत्पक्षे न सिध्यति । पक्षीकृतशब्दनित्यत्वपक्षे नित्यस्वस्यैतदाकाशवृत्तित्वेन एतदाकाशवृत्तित्वरहितत्वव्याघातात् । नित्यत्वाव्याप्यमपि नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितं यदि नित्यत्वाव्याप्यत्वरहितत्वेन, तदा नित्यत्वाव्याप्यं नित्यत्वाव्याप्यत्वरहितं चेति व्याघातादेव तथारूपस्य पक्षेऽनुपसंहारः। तेन नित्यत्वाव्याप्यस्य नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितत्वं नित्यनिष्ठत्वरहितत्वेन स्वीकर्तव्यम् । तेन नित्यनिष्ठत्वरहितः पक्षीकृतशब्दे धर्मोऽधिगम्यमानो नित्यत्वप्रतिक्षेपरूपमनित्यत्वमन्तर्भाव्य अधिगम्यते इति अनित्यत्वसिद्धिः। (आनं०) तथापि कथं शब्दस्यानित्यत्वसिद्धिरत्राह-नित्यत्वेति । नित्यत्वव्यतिरिक्तवाभावाग्नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितनित्यत्वमेवास्तु, अत आह-अत्रेति । द्वितीयेऽपि नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितं नित्यत्वाव्याप्यत्वाभावेन नित्यनिष्ठत्वाभावेनवेति विकल्प्याद्यमनुवदतिनित्यत्वाव्याप्यमपीति । अपवदति-तदेति । द्वितीयः परिशिष्यत इत्याह-तेनेति । किमतस्तत्राह तेन नित्यति । (भुक्न०)-एवमप्यत्र कथं शब्दस्यानित्यत्वसिद्धिरत्र प्राह-नित्यत्कयतिरिक्तेत्यादि । Aho ! Shrutgyanam Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् | २५ नित्यत्वव्यतिरिक्तेत्यादिविशेषणेन धर्मद्वयमायाति, नित्यत्वं वा नित्यत्वाव्याप्यं वा । तत्र नित्यत्वं तावत्प्रथमविशेषणेन एतदाकाशेत्यादिना विचार्यमाणं न जाघटीति व्याघातादिति दर्शयतितत्र नित्यत्वं तावदित्यादिना । अथ नित्यत्वाव्याप्यमित्येवंरूपे द्वितीये धर्मान्तरविकल्पे पूर्ववन्नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितं नित्यत्वाव्याप्यत्वाभावेन वा नित्यनिष्ठत्वाभावेन वा इति धर्माभ्यां विचारयति — नित्यत्वाव्याप्यमपि नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितमित्यादि । द्वितीयविशेषणोद्धरितं नित्यत्वा व्याप्यमिति द्वितीयं धर्मान्तरं नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितं सत् यदि तृतीयविशेषणायात नित्यत्वा व्याप्यत्वरहितत्वेन तदा नित्यत्वाव्याप्यं नित्यत्वाव्याप्यत्वरहितं चेति व्याघातः । व्याघातादेव च तथाभूतस्य धर्मस्य पक्षे शब्दरूपेऽनुपसंहारोऽनवतारः । अथ तृतीयविशेषणायातं नित्यनिष्ठत्वरहितं द्वितीयं धर्मान्तरं परिशिष्टमभ्युपगच्छन् शब्दस्यानित्यत्वं दर्शयतितेन नित्यत्वाव्याप्यस्येत्यादिना । तेन नित्यनिष्ठत्वरहित इत्यादि । तेन नित्यनिष्ठत्वरहितः घटान्यतरत्वादिर्धर्मः पक्षीकृतशब्देऽधिगम्यमानः । नित्यत्वप्रतिक्षेपरूपमनित्यत्वमन्तर्भाव्येति । नित्यत्वतिरस्काररूपमनित्यत्वं पक्षे सिद्धं कृत्वा अधिगम्यते ज्ञायते इत्यर्थः । पूर्वोक्तविशेषणत्रयेण नित्यधर्माणा प्रतिक्षेपात् शब्दस्यानित्यत्वं विनैवंविधविशेषणविशिष्टाः शब्दघटान्यतरत्वादयः शब्दधर्मा नोपपद्यन्ते । तस्माच्छब्दस्यानित्यत्वमङ्गीकरणीयमेवेति । यद्वा अत्र शब्दत्व श्रावणत्वादयोऽपि पक्षे साध्यधर्मा ज्ञेयाः । ते च नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितास्तदैव, यदि शब्दस्यानित्यत्वं स्यादिति द्वितीय विशेषणेनापि परिशेषाच्छब्दस्यानित्यत्वमुपपाद्यमिति । ननु नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितो नित्यत्वव्याप्यनित्यनिनिष्ठत्वरहितश्च धर्मो नित्येषु नित्यत्वमेव । तस्य च पक्षीकृतशब्दाकाशवृत्तिस्वरहितत्वं शब्दानित्यत्वसिद्धेः पूर्वं दुरधिगममिति कथं नित्यानां सपक्षतेति चेत् । न । नित्यानां पक्ष तुल्यत्वेनास्माभिः सपक्षत्वानङ्गीकारात् । अत एव चैनां महाविद्यां मूलानुमानविपक्षं गगनादिकं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानासु गणयिष्यामः । तदा च मूलानुमानपक्षस्य पक्षतुल्यत्वं सपक्षस्य च सपक्षत्वमिति ॥८॥ ( आनं० ) — नित्यपदार्थानां साध्यसमानधर्मत्वाभावेन सपक्षत्वासिद्धौ व्याप्तिभङ्ग इति चोदयति - नन्विति । शब्दानित्यत्वसिद्धेः पूर्व नित्यत्वस्य एतदाकाशवृत्तित्वर । हित्यसंदेहान्नित्यानां संदिग्धसाध्यसमानधर्मतया पक्षतुल्यत्वमिति परिहरति - नेति । न च पक्षतुल्ये व्यभिचारः । अयमग्निरद्विष्ठतीन्द्रियसामान्यवन्निष्क्रियाश्रयः, कारणत्वात्, गुरुत्वाश्रयवदित्यादौ गगनादिषु व्यभि चारापत्तेरिति भावः । पक्षतुल्यत्वे लिङ्गमाह - अत एवेति । लिङ्गत्व 1 ...... ( भुवन ० ) — नित्यवस्तूनां साध्यसमानधर्मवत्त्वाभावेन सपक्षत्वासिद्धौ व्याप्तिभङ्ग इत्याक्षिपति - ननु नित्यत्वव्यतिरिक्तेत्यादि । नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वेत्यादिद्वितीयतृतीयविशेषणविशिष्टं नित्येषु दृष्टान्तीक्रियमाणेषु नित्यत्वमेव । तस्य च पक्षीकृतशब्दाकाशेत्यादि । १ उर्वरितमिति स्यात् ? । २ 'लिङ्गत्वा' इत्यतः परमादर्शग्रन्थे १० पत्राणि लुप्तानीति टिप्पनं विद्यते । ४ महाविद्या ० Aho! Shrutgyanam Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं तस्य च नित्यत्वस्य दृष्टान्तेऽपि यथोक्तविशेषणत्रयविशिष्टत्वं विलोक्यते । तच्च प्रथमविशेषणविशिष्टं नास्ति । यतः प्रथमविशेषणविशिष्टत्वं तदा अस्य स्यात्, यदि शब्दस्यानित्यत्वं सिद्धं स्यात् । तच्चाद्यापि सिद्धं नास्ति । शब्देऽद्यापि तस्य साध्यमानत्वात् । असिद्धे चानित्यत्वे नित्यत्वस्यैतदाकाशवृत्तित्वं न स्यात् । पक्षीकृतशब्द आकाशे च वर्तनात् । तस्मादृष्टान्तार्थ पृथकृतस्य नित्यत्वस्य शब्दानित्यत्वसिद्धेः पूर्वमेतदाकाशवृत्तित्वराहित्यसंदेहान्नित्यानां संदिग्धसाध्यसमानधर्मवत्तया पक्षतुल्यत्वेन कक्षं सपक्षतेत्याक्षेपे ग्रन्थकृत्परिहारमाह-न नित्यानां पक्षतुल्यत्वेनेत्यादिना । अत्र चानित्यपदार्थो घटादय एव दृष्टान्तीकार्याः, न नित्या आकाशादयः । तेषां संदिग्धसाध्यधर्मवत्त्वेन पक्षतुल्यत्वात् । न च पक्षतुल्येषु व्यभिचारः । न हि पक्षे पक्षतुल्ये वा व्यभिचारः' इति वचनात् । पक्षतुल्यत्वे हेतुमाह-अत एवैनां महाविद्यामिति । शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात् घटवत् इति मूलानुमानम् । तस्य विपक्षः तद्विपक्षः, तं मूलानुमानविपक्षमित्यर्थः । तदा चेत्यादि । तदा मूलानुमानविपक्षस्य गगनादेर्नित्यस्य पक्षत्वे । मूलानुमानपक्षस्येति । शब्दस्य पक्षतुल्यत्वम् । सपक्षस्य चेति । मूलानुमानस्यैव सपक्षस्य घटादेरनित्यस्य । सपक्षत्वमिति । साथ्यसमानधर्मवत्त्वं सपक्षत्वमित्यर्थः । सोऽयं नित्यानां पक्षतुल्यत्वे हेतुरित्यर्थः । अत्र च नित्यानां पक्षतुल्यत्वेन व्यपदेशान्नित्यत्वव्यतिरिक्तेतिपदस्य साफल्यं सूक्ष्ममतिभिश्चिन्त्यम् ॥ ८॥ ९ अयं शब्दः एतदन्योन्याभावाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वादिति । एतदन्योन्याभावाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वं धर्मः । तद्रहितश्च एतदन्योन्याभावव्याप्यो वा स्यात्, नित्यनिष्ठत्वरहितो वा । आद्यः पक्षे व्याघातान्न सिध्यति । न ह्येतदन्योन्याभावव्याप्यः एतस्मिन्नेतदन्योन्याभावरहिते वर्तते इति संभवति । तेन नित्यनिष्ठत्वरहितो धर्मः पक्षे सिध्यन्ननित्यत्वमन्तर्भाव्य सिध्यतीति अनित्यत्वसिडिः ॥९॥ ___९ (भुवन०)-पुनरपि प्रकारान्तरेण महाविद्यान्तरमाह-अयं शब्दः एतदन्योन्याभावाव्याप्येत्यादि । एतस्य पक्षीकृतशब्दस्य, अन्योन्याभावः एतदन्योन्याभावः । एतदन्योन्याभावेन अव्याप्याः एतदन्योभावाव्याप्याः । ते च ते नित्यनिष्ठाश्च एतदन्योन्याभावाव्याप्यनित्यनिष्ठाः । तेषां भावः तत्त्वम् । तद्रहितो यो धर्मः, तस्याधिकरणमित्यर्थः । अत्र नित्यनिष्ठा धर्मा द्विधा, आकाशत्वादयः सत्त्वादयश्च । तत्र प्रथमे एतदन्योन्याभावव्याप्याः, यत्र यत्र आकाशत्वादयः, तत्र तत्र एतदन्योन्याभावः इत्येवं व्याप्तिसद्भावात् । इतरे चैतदन्योन्याभावाव्याप्याः यत्र यत्र सत्त्वादयः, तत्र तत्र एतदन्योन्याभाव इति व्याप्त्यभावात् । सत्त्वादीनां शब्देऽपि भावात् । एतदन्योन्याभावस्य च तत्राभावात् । तेन. एतदन्योन्याभावाव्याप्येत्यादिना । एतदन्योन्याभावव्याप्यो वेति । एतदन्योन्याभावव्याप्यश्च धर्मो नित्यनिष्ठो वा अनित्यनिष्ठो वा पक्षीकृतशब्द. धर्मान् मुक्त्वा सर्वोऽप्युपपद्यत एव । तेषामुभयेषामप्येतदन्योन्याभावेन अव्याप्याः सन्तो ये नित्यनिष्ठाः, तत्त्वेन रहितत्वादेतदन्योन्याभावेन व्याप्यत्वाच्च । पक्षीकृतशब्दमात्रधर्माणां च शब्द एव विद्यमानत्वेन तत्र चैतदन्योन्याभावस्य अविद्यमानत्वेन तेषामेतदन्योन्याभावाव्याप्यत्वमिति भावः। Aho ! Shrutgyanam Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । नित्यनिष्ठत्वरहितो वेति । घटत्वपटत्वादिधर्मः, शब्दे नित्यत्वे चाङ्गीक्रियमाणे शब्दत्वश्रावणत्वादिः । मायः पक्षे व्याघातादित्यादि । न ह्येतदन्योन्याभावव्याप्यो नित्यधर्मों का नित्येतरधर्मो वा तन्माअनिष्ठः एतस्मिन् शब्दे स्वान्योन्याभावरहिते साधयितुं शक्यते । असंभवात् । शब्दान्योन्याभावव्याप्यो हि धर्मः शब्दान्योन्याभाववत्येव धर्मिणि साधयितुं शक्यो नान्यत्रेत्यर्थः । द्वितीयविकल्पेन शब्दानित्यत्वसिद्धिमाह-तेन नित्यनिष्ठत्वरहितो धर्म इत्यादि । नित्यनिष्ठत्वरहितोऽपि धर्मों यथोक्तविशेषणोपपन्नो द्वेधा, पक्षनिष्ठः शब्दत्वादिः, सपक्षनिष्ठो घटत्वादिश्च । तत्र घटत्वादिरन्यमात्रधर्मत्वेन पक्षे व्याघातादेव साधयितुमशक्यः । शब्दत्वादिश्च नित्यनिष्ठत्वरहितस्तदैव स्यात्, यदि शब्दस्यानित्यत्वं स्यात् । तस्मादनित्यः शब्दः स्वीकर्तव्यः । तत्तत्पदार्थमात्रनिष्ठं घटत्वगगनत्वादिधर्ममात्रमादाय सर्वत्र नित्यानित्यपदार्थेषु साध्यप्रसिद्धिर्द्रष्टव्येत्यर्थः ॥९॥ १० अयं शब्दः शब्दत्वात्यन्ताभावाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणं. मेयत्वादिति । अत्र च पक्षीकृतशब्दान्योन्याभावतुल्यः शब्दत्वात्यन्ताभावः। शेषं पूर्ववत् । एवं पक्षीकृतशब्दनिष्ठयत्किञ्चिद्धर्मविशेषात्यन्ताभावमुपादाय यावन्तः पक्षीकृतशब्द्धर्मास्तावत्यो महाविद्या द्रष्टव्याः॥१०॥ १० (भुवन०)-अयं शब्दः शब्दत्वात्यन्ताभावाव्याप्येत्यादि । शब्दत्वस्यात्यन्ताभावः शब्दत्वात्यन्ताभावः इति कार्यम् । यादृशः पाश्चात्यानुमाने शब्दान्योन्याभावः तादृशोऽत्र शब्दत्वात्यन्ताभवः । शेषं पूर्ववत् । अत्र अयमितिपक्षविशेषणस्य कार्य न दृश्यते । शब्दमात्रस्यापि शब्दत्वात्यन्ताभावरहितत्वेन शब्दैकदेशे सिद्धसाधनत्वाद्यभावात् । अतः केवलं स्पष्टीकरणार्थमयमितिविशेषणम् । यद्वा पक्षतुल्ये यत्र कापि शब्दे साध्यसिद्धेनिषेधाय अयमितिपदम् । अत्रापि पूर्ववत् शब्दत्वात्यन्ताभावाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहितो धर्मः शब्दत्वात्यन्ताभावव्याप्यो वा नित्यनिष्ठत्वरहितो वा। पूर्वः पक्षे व्याहत इति, द्वितीयः पक्षे सिध्यन्ननित्यत्वमन्तर्भाव्य सिध्यतीति शब्दानित्यत्वसिद्धिरित्यर्थः । एवं पक्षीकृतशब्दनिष्ठयत्किञ्चिदित्यादि । यथा अयं शब्दः शब्दत्वात्यन्ताभावाव्याप्येत्यादिमहाविद्या प्रयुक्ता, तथा पक्षीकृतशब्दनिष्ठा ये केचन धर्मविशेषाः श्रावणत्वाकाशविशेषगुणत्वशब्दव्यतिरिक्तान्यत्वादयः तेषां योऽत्यन्ताभावः तमादायान्या अपि महाविद्याः प्रयोक्तव्याः । तथाहि-अयं शब्दः आकाशविशेषगुणत्वात्यन्ताभावाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वात् । एवमन्या अपि ज्ञेयाः ॥ १०॥ ११ यद्वा सामान्यतः अयं शब्दः एतनिष्ठात्यन्ताभावाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वादिति । एतनिष्ठस्यात्यन्ताभावः एतन्निष्ठात्यन्ताभावः । शेषं सुगमम् ॥ ११ ॥ ११ (भुवन०)-यद्वा सामान्यतः अयं शब्दः एतनिष्ठात्यन्ताभावेत्यादि । एतस्मिन् पक्षी कृते शब्दे निष्ठा यस्य स एतन्निष्ठः । एतनिष्ठस्य अत्यन्ताभावः एतनिष्ठात्यन्ताभावः । तेन १ शेषं सर्व पूर्व इति च पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनसुन्दरसुरिकृतटीकायुतं अव्याप्या ये नित्यनिष्ठाः । तेषां भावः तत्त्वम् । तेन रहितो धर्मः, तद्वान् शब्दः । शेषं पूर्ववदेव । पूर्वमहाविद्यायां हि यथानामग्राहं शब्दत्वादिधर्मविशेषो निर्दिष्टः, इह पुनरेतनिष्ठपदेन सामान्येन यः कश्चन धर्म इति सामान्यत इत्युक्तम् । एवमग्रेऽपि शब्दत्वादिधर्मविशेषस्थाने सामान्येनैतनिष्ठपदं शे. यमिति ॥ ११॥ १२ अयं शब्दः एतदन्योन्याभावानित्यत्वान्यतराधिकरणं मेयत्वादिति । एतच्छब्दान्योन्याभावव्यतिरिक्तत्वे सति, अनित्यत्वव्यतिरिक्तं यत् तदत्यन्ताभावः । एतच्छब्दान्योन्याभावानित्यत्वान्यतरत्वमुभयानुगतम् । तेनैतच्छब्दान्योन्याभावानित्यत्वयोरन्यतरत्वमनुगतं निर्वस्तुमशक्यमिति खण्डनं निरस्तम् । एवमन्यत्राप्यन्यतरत्वं विवेचनीयम् ॥ १२॥ . १२ (भुवन०)-अयं शब्दः एतदन्योन्याभावेत्यादि । एतस्य शब्दस्य अन्योन्याभावश्च अनित्यत्वं च एतदन्योन्याभावानित्यत्वे । तयोर्यदन्यतरत् तस्याधिकरणं शब्द इत्यर्थः । एतदन्योन्याभावानित्यत्वयोः अन्यतरो हि धर्म एतदन्योन्याभावो वा स्यात्, अनित्यत्वं वा स्यात् । आद्यः पक्षे व्याहत इति द्वितीयमनित्यत्वं शब्दे सिध्यतीति भावः । एतदन्योन्याभावानित्यत्वयोरन्यतरस्य धर्मस्य अन्योन्याभावरूपत्वे व्याघातः, अनित्यत्वरूपत्वे च व्याप्त्यसिद्धिः, नित्येषु तदभावात् । तेन एकानुगतत्वादन्यतरत्वमुभयानुगतं नोपपद्यते इति शास्त्रान्तरस्थमन्यतरत्वखण्डनमाशङ्कय तब्यवच्छेदायाह-एतच्छब्दान्योन्याभावव्यतिरिक्तत्वे सतीत्यादि । एतच्छब्दस्यान्योन्याभावः एतच्छब्दान्योन्याभावः । तस्माद्व्यतिरिक्तत्वेऽन्यत्वे सति यत् अनित्यत्वव्यतिरिक्तत्वमनित्यत्वादन्यत्वमेतहयव्यतिरिक्तसर्वविश्वनिष्ठम् , तदत्यन्ताभावः एव एतच्छब्दान्योन्याभावानित्यत्वान्यतरत्वमुच्यते । तञ्च किंविशिष्टम् । उभयानुगतम् । एतदन्योन्याभावानित्यत्वलक्षणं यदुभयं तत्रानुगतमनुप्राप्तम् । एतदन्योन्याभावानित्यत्वव्यतिरिक्तत्वात्सन्ताभावस्य एतहये एव वर्तमानत्वात् । तेन एतच्छब्दान्योन्याभावेत्यादिखण्डनं निरस्तम् । एवमन्यत्राप्यन्यतरत्वं विवेक्तव्यमित्यर्थः ॥ १२ ॥ १३ अयं शब्दः एतच्छब्दत्वात्यन्ताभावानित्यत्वान्यतराधिकरणं मेयत्वादिति । शब्दत्वात्यन्ताभावानित्यत्वान्यतरः शब्दत्वात्यन्ताभावो वा, अनित्यत्वं वा, आद्यः पक्षे व्याहतत्वान्न सिध्यतीत्यनित्यत्वसिद्धिः । एवं पक्षीकृतशब्दमात्रनिष्ठधर्मविशेषात्यन्ताभावमुपादाय यावन्तः पक्षीकृते शब्दे धर्मास्तावत्यो महाविद्या द्रष्टव्याः ॥ १३ ॥ ... १३ (भुवन०)-अयं शब्दः एतच्छब्दत्वात्यन्ताभावेत्यादि । एतच्छब्दत्वस्य अत्यन्ताभाव इति तत्पुरुषः कार्यः । एवं पक्षीकृतशब्दमात्रनिष्ठेत्यादि । यथा अयं शब्दः एतच्छ्रावणत्वात्यन्ताभावानित्यत्वान्यतराधिकरणं प्रमेयत्वादित्यादि ॥ १३ ॥ . १ अस्याग्रे ‘अनित्यत्वव्यतिरिक्तत्वे सति' इत्यधिकं ग पुस्तके वियते । २ व्यायासिद्धिः इति च पुस्तकपाठः । ३ शब्दे विशेषधर्माः इति ज पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । १४ यद्वा सामान्यतः अयं शब्दः एतन्निष्ठात्यन्ताभावानित्यत्वान्यतराधिकरणं मेयत्वादिति ॥ १४ ॥ १४ ( भुवन० ) - यद्वा सामान्यतः इत्यादि । एतन्निष्ठः शब्दत्व श्रावणत्वादिधर्मविशेषः, तस्यात्यन्ताभावः एतनिष्ठात्यन्ताभावः ॥ १४ ॥ १५ अयं शब्दः एतदन्योन्याभावात्यन्ताभावानित्यत्वात्यन्ताभावान्यतररहितः मेयत्वादिति । अत्र चैतदन्योन्याभावात्यन्ताभाववति पक्षे तद्रहितत्वं व्याहृतमित्यनित्यत्वात्यन्ताभावरहितत्वं पक्षे सिध्यदनित्यत्वमन्तर्भाव्य सिध्यतीत्यनित्यत्वसिद्धिः ॥ १५ ॥ १५ ( भुवन० ) अयं शब्दः एतदन्योन्याभावेत्यादि । एतस्य शब्दस्यान्योन्याभावएतदन्योन्याभावः । तस्य अत्यन्ताभावश्च अनित्यत्वात्यन्ताभावश्च नित्यत्वम् । तयोरन्यतरेण रहित इत्यर्थ: । अयं शब्द: अनित्यत्वात्यन्ताभावरहित इत्युक्ते नित्येषु साध्यासिद्धि: । तन्निरासाय एतद्न्योन्याभावात्यन्ताभावेत्युक्तम् । एवमपि नित्येषु साध्यासिद्धिरेव । तेषामेतदन्योन्याभावात्यन्ताभावरहितत्वेन अनित्यत्वात्यन्ताभावरहितत्वेन चैतद्दूयरहितत्वासंभवात् । तेन तेषु साध्यसिद्धयर्थमन्यतरेति गृहीतम् । अत्रानित्यत्वसिद्धिमाह - अत्र चैतदन्योन्याभावात्यन्ताभावेत्यादिना । तद्राहितत्वमिति । एतदन्योन्याभावात्यन्ताभावरहितत्वमित्यर्थः ॥ १५ ॥ २९ १६ अयं शब्दः शब्दत्वानित्यत्वात्यन्ताभावान्यतररहितः मेयत्वादिति ॥ एवं पक्षनिष्ठं यं कश्चन धर्मविशेषमुपादाय यावन्तः पक्षे धर्माः, तावत्यो महाविद्या द्रष्टव्याः ॥ १६ ॥ १६ ( भुवन० ) - अयं शब्दः शब्दत्वेत्यादि । अनित्यत्वस्य अत्यन्ताभावः अनित्यत्वात्यन्ताभावः नित्यत्वम् । शब्दत्वं चानित्यत्वात्यन्ताभावश्च । तयोरन्यतररहितः तयोरन्यतरात्यन्ताभावाश्रयः इत्यर्थः । यं कञ्चन धर्मविशेषमिति । वाचकत्ववर्णात्मकत्वाकाश विशेषगुणत्व श्रावणत्वैवि - शिष्टसामान्यवत्त्वादिकमित्यर्थः ॥ १६ ॥ १७ या सामान्यतः अयं शब्दः एतन्निष्ठानित्यत्वात्यन्ताभावान्यतररहितः मेयत्वादिति ॥ एतन्निष्ठश्चानित्यत्वात्यन्ताभावश्चेति द्वन्द्वसमासः ॥ १७ ॥ १७ ( भुवन० ) - यद्वा सामान्यत इत्यादि । सुगमैव पूर्ववत् ॥ १७ ॥ १८ अयं शब्दः एतदन्योन्याभावव्यतिरिक्तनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वादिति ॥ एतदन्योन्याभावव्यतिरिक्तनित्यनिष्ठेषु एतदन्योन्याभावव्यतिरिक्तनित्यनिष्ठत्वं धर्मः । तद्रहितश्चैतदन्योन्याभावो वा स्यात्, नित्यनिष्ठ - त्वरहितो वा । आद्यः पक्षे व्याहतः । तेन नित्यनिष्ठत्वरहितः पक्षे सिध्यन्ननि त्यत्वमन्तर्भाव्य सिध्यतीत्यनित्यत्वसिद्धिः ॥ १८ ॥ १ धर्मपा इति ज पुस्तकपाठः । २ श्रवणत्वे सति सामान्य इति द पुस्तक पाठः । Aho! Shrutgyanam Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं १८ ( भुवन०)-अयं शब्दः एतदन्योन्याभावव्यतिरिक्तेत्यादि । एतदन्योन्याभावव्यतिरिक्ताश्च ते नित्यनिष्ठाश्च । तेषां भावः तत्त्वम् । तेन रहितो यो धर्मः, तस्याधिकरणं शब्दः इत्यर्थः । नित्यनिष्ठा धर्मा आकाशत्वप्रमेयत्वास्तित्वादय एतदन्योन्याभावश्च, तेषु । एतदन्योन्याभावव्यतिरिक्तपदेन एतदन्योन्याभावो नित्यनिष्ठेभ्यो बहिष्कृतः । तस्य च पक्षे साधने व्याघातः स्यात् । अतो यथोक्तविशेषणोपपन्नः एतदन्योन्याभावो दृष्टान्ताथै सर्वत्र ज्ञेयः । नित्यनिष्ठत्वरहितम्च धर्मः शब्दत्वादिः पक्षे ज्ञेयः । व्याख्यानं तु सुगममेव ॥ १८॥ ___ १९ अयं शब्दः शब्दत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वादिति॥व्याख्यानं पूर्ववत्। एवं पक्षीकृतशब्दनिष्ठयत्किञ्चिद्धर्मविशेषात्यन्ताभावमुपादाय यावन्तः पक्षीकृतशब्दधर्माः, तावत्यो महाविद्या द्रष्टव्याः॥१९॥ १९ ( भुवन०)-अयं शब्दः शब्दत्वात्यन्ताभावेत्यादि । शब्दत्वस्यात्यन्ताभावः शब्दत्वात्यन्ताभावः इति तत्पुरुषसमासः कार्यः । शेषं पूर्ववत् ॥ १९ ॥ २० यहा सामान्यतः अयं शब्दः एतनिष्ठात्यन्ताभावव्यतिरिक्तनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वादिति॥ एतन्निष्ठस्य अत्यन्ताभाव इति समासः॥२०॥ __ २० (भुवन०)-यद्वा सामान्यतः अयं शब्दः एतन्निष्ठात्यन्ताभावेत्यादि । एतन्निष्ठस्य शब्दत्वादेर्मस्य अत्यन्ताभावः एतन्निष्ठात्यन्ताभाव इत्यत्रापि तत्पुरुषसमास एव कर्तव्यः ॥२०॥ २१ अयं शब्दः शब्दत्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मत्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेय. त्वादिति ॥ शब्दत्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मेषु शब्दत्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मत्वं नाम धर्मः। तद्रहितश्चानेतद्धर्मो वा, शब्दत्वं वा । आद्यः पक्षे व्याहतः। तेन शब्दत्वमनित्यनिष्ठत्वविशेषितं पक्षे सिध्यतीति शब्दानित्यत्वसिद्धिः । एवं पक्षमात्रनिष्ठयत्किश्चिद्धर्मविशेषव्यतिरिक्तत्वमुपादाय यावन्तः पक्षमात्रनिष्ठा धर्मास्तावत्यो महाविद्या द्रष्टव्याः ॥ २१॥ ___२१ ( भुवन० )-अयं शब्दः शब्दत्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मत्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमिति । शब्दत्वात् व्यतिरिक्ताः भिन्नाः शब्दत्वव्यतिरिक्ताः । ते च ते एतद्धर्माश्च शब्दत्वव्यतिरिक्तैतद्धर्माः। तेषां भावः तत्त्वम् । तेन रहितश्चासौ अनित्यनिष्ठश्च । तदाश्रयः शब्द इति भावः । शब्दत्वव्यतिरिक्ततद्धर्मत्वरहितोऽनित्यनिष्ठश्च धर्मः शब्दान्यनिष्ठः पक्षीकृतशब्दान्योन्याभावादिदृष्टान्तीभूतेषु सर्वपदार्थेषु पक्षव्यतिरिक्तेषु नित्यानित्येषु ज्ञातव्यः । अनित्ये घटपटादौ च घटत्वपटत्वादिकोऽपि धर्मो ज्ञेयः । आकाशत्वादिकस्तु धर्मोऽनित्यनिष्ठो न भवतीति नित्येषु न तेन साध्यसिद्धिः, किन्तु पक्षान्योन्याभावादिनैव । पक्षे च शब्दत्वव्यतिरिक्तैतद्धमत्वरहितो धर्मः शब्दत्वमेव । तच्च अनित्यनिष्टं तदैव स्यात् , यदि शब्दोऽनित्यः स्यादित्यत्र शब्दानित्यत्वसिद्धिः । नित्यत्वेनार्थान्तरतापरिहारार्थमनित्यनिष्ठेतिपदम् । प्रमेयत्वादिव्यावृत्त्यर्थमेतद्धर्मत्वरहितेति ग्रहणम् । व्याघातपरिहाराय . १ 'पूर्ववदेव इति द पुस्तक पाठः। Aho! Shrutgyanam Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । शब्दत्वव्यतिरिक्तेतिपदोपादानम् । तथा च पक्षे अनित्यनिष्ठेतिविशेषणविशिष्टशब्दत्वसिद्धथा व्याघातपरिहारो बोद्धव्यः । एतदेवानुमानं शब्दव्यतिरिक्तेत्यादिना व्याख्यानयति-अनेतद्धर्म इति । अशब्दधर्म इत्यर्थः । अनित्यनिष्ठत्वविशेषितमिति । शब्दत्वस्य शब्दमात्रनिष्ठत्वादनित्यनिष्ठेति द्वितीयविशेषणविशिष्टत्वं शब्दस्यानित्यत्वे सत्येव स्यात्, नान्यथेत्यर्थः । एवं पक्षमात्रनिष्ठयत्किश्चिद्धर्मविशेषव्यतिरिक्तमिति । अयं शब्दः श्रावणत्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मत्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादित्यादिका महाविद्येत्यर्थः ॥ २१ ॥ २२ यदा सामान्यतः अयं शब्दः एतन्मात्रनिष्ठव्यतिरिक्तैतडर्मत्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ २२ ॥ __ २२ ( भुवन०) यद्वा सामान्यतः अयं शब्दः एतन्मात्रनिष्ठव्यतिरिक्तेत्यादि । एतन्माननिष्ठाः पक्षीकृतशब्दमात्रनिष्ठाः एतच्छब्दत्वैतच्छ्रावणत्वादयः । पक्षीकृतशब्दे एव तेषां वर्तमानत्वात् । तद्व्यतिरिक्ता एतद्धर्मा अस्तित्वप्रमेयत्वादयः, तेषां पक्षीकृतशब्दमात्रादन्यत्रापि वर्तनात्। तत्त्वेन रहितो योऽनित्यनिष्ठस्तस्याधिकरणमित्यर्थः । विशेषणसाफल्यं पूर्ववदेव ज्ञातव्यम् ॥२२॥ २३ अयं शब्दः एतदन्यत्वव्यतिरिक्तैतदन्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ एतदन्यत्वव्यतिरिक्ता ये एतदन्यवृत्तयः तेषु एतदन्यत्वव्यतिरिक्तैतदन्यवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहितश्चैतदन्यत्वं वा, एतदवृत्तिर्वा, एतन्मात्रवृत्तिर्वा । आद्यौ पक्षे व्योहतौ । तेन पक्षमात्रनिष्ठो धर्मोऽनित्यनिष्ठत्वविशेषितः पक्षे सिध्यतीत्यनित्यत्वसिद्धिः ॥ २३ ॥ ___ २३ ( भुवन० )-अयं शब्दः एतदन्यत्वव्यतिरिक्तैतदन्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमिति । एतस्मात्पक्षीकृतशब्दात् यत् अन्यत्वं भिन्नत्वं, तव्यतिरिक्ताः एतद्भिन्नाः । एतस्मापक्षीकृतशब्दादन्ये घटपटात्मादयः, तत्र वृत्तियेषां ते एतदन्यवृत्तयः । एतदन्यत्वव्यतिरिक्ताश्च ते एतदन्यवृत्तयश्च एतदन्यव्यतिरिक्तैतदन्यवृत्तयः । तेषां भावः तत्त्वम् । तेन रहितो योऽनित्यनिष्ठो धर्मः तस्याधिकरणं शब्द इत्यर्थः । एतदन्यत्वं वेति । एतदन्योन्याभावो वा । एतदवृत्तिति । घटत्वपटत्वात्मत्वादि । एतन्मात्रवृत्तिर्वेति । शब्दत्वश्रावणत्वादि । आद्याविति । आद्यौ धर्मों पक्षे व्याघातादेव साधयितुमशक्यौ । तृतीयश्चानित्यनिष्ठस्तदैव स्यात्, यदि शब्दोऽनित्यः स्यादिति शब्दानित्यत्वसिद्धिः । अत्रानुमाने सर्वत्रापि दृष्टान्ते एतदन्यत्वं धर्मोऽधिगन्तव्यः । तद्भिन्नानां सर्वेषामप्येतदन्यवृत्तित्वरहितपदेन निषिद्धत्वात्, एतदन्यत्वव्यतिरिक्तेति पदेन एतदन्यत्वस्यैव ग्रहणाच्च । स चानित्ये घटपटादौ वर्तमानत्वादनित्यनिष्ठ एवेति सर्व समञ्जसमेवेति ॥ २३ ॥ २४ अयं शब्दः शब्दत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तैतदन्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ अत्र चैतदन्योन्याभावपदस्थाने शब्दत्वात्यन्ता १ वा अवृत्ति इति ज पुस्तकपाठः । २ व्याहतौ ध्याघातात् । तेन' इति ज पुस्तकपाठः । ३ ऽनित्यत्व विशे इति ग पुस्तकपाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रीभुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं भावपदमेव पूर्वमहाविद्यावैलक्षण्यम् । शेषं पूर्ववत् । एवं पक्षमात्रनिष्ठयत्किश्चिद्धर्मविशेषात्यन्ताभावमुपादाय यावन्तः पक्षे धर्मास्तावत्यो महाविद्या द्रष्टव्याः ॥ २४ ॥ २४ ( भुवन०)-अयं शब्दः शब्दत्वात्यन्ताभावेत्यादि । शब्दत्वस्य अत्यन्ताभावः श. ब्दत्वात्यन्ताभावः । अत्र चैवंविधविशेषणविशिष्टो धर्मः शब्दत्वात्यन्ताभावो वा शब्दत्वादिर्वा । आद्यः पक्षे व्याहतत्वादृष्टान्तोपयोगी । द्वितीयस्तु पक्षोपयोगी । अन्योन्याभावपदस्थाने इति । अन्यत्वपदस्थाने इत्यर्थः । अन्यत्वान्योन्याभावयोहि पर्यायान्तरतैव नार्थान्तरतेति भावः ॥ २४ ॥ २५ यदा सामान्यतः अयं शब्दः एतन्मात्रनिष्ठात्यन्ताभावव्यतिरिक्तैदन्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ २५॥ २५ (भुवन०)-यद्वा सामान्यतः अयं शब्दः एतन्मात्रनिष्ठात्यन्ताभावेत्यादि । एतन्मात्रनिष्ठः शब्दत्वादिः, तस्य अत्यन्ताभावः एतन्मात्रनिष्ठात्यन्ताभावः । अत्राप्येवंविधो धर्म एतन्निष्ठात्यन्ताभावो वा शब्दत्वादिरेव वा । शेषं पूर्ववदेव ॥ २५ ॥ २६ अयं शब्दः अनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिपक्षवृत्तित्वरहितानित्यत्ववन्निष्ठानित्यत्वात्यन्ताभाववन्निष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वादिति ॥ अनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वे सति ये पक्षवृत्तयो धर्माः, तेषु अनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिपक्षवृत्तित्वं धर्मः । ये चानित्यत्ववन्निष्ठत्वे सति अनित्यत्वात्यन्ताभाववनिष्ठा धर्माः, तेषु अनित्यत्ववन्निष्ठानित्यत्वात्यन्ताभाववनिष्ठत्वं धर्मः । अनित्यत्ववनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिपक्षवृत्तित्वरहितश्चासौ अनित्यत्ववन्निष्ठानित्यत्वात्यन्ताभाववन्निष्ठत्वरहितश्च, तदधिकरणं तदाश्रय इत्यर्थः । २६ (भुवन०)-अयं शब्दः अनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिपक्षवृत्तित्वरहितानित्यत्ववन्निष्ठानित्यत्वात्यन्ताभाववन्निष्ठत्वरहिताधिकरणमिति । अनित्यत्वं विद्यते येषु ते अनित्यत्ववन्तः अनित्यपदार्थाः । तेषु निष्ठा अवस्थानं यस्य सोऽनित्यत्ववनिष्ठः । स चासौ अत्यन्ताभावश्च । तस्य प्रतियोगिनः परमाणुत्वाकाशत्वादयः । पक्षे वृत्तियेषां ते पक्षवृत्तयः । अनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनश्च ते पक्षवृत्तयश्चेति समासः । एवंविधाश्च धर्माः शब्दस्य नित्यत्वेऽङ्गीक्रियमाणे शब्दत्वश्रावणत्वनित्यत्वादयः । तेषां भावः तत्त्वम् । तेन रहिता नित्यनिष्ठा अनित्यनिष्ठा नित्यानित्योभयनिष्ठाश्च धर्माः स्युः । तत्र ये नित्यनिष्ठा आकाशत्वादयो ये चानित्यनिष्ठा घटत्वादयो ये चोभयनिष्ठा अस्तित्वप्रमेयत्वादयः, ते सर्वेऽप्यनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनः सन्तो ये पक्षवृत्तयस्तत्त्वरहिता विद्यन्त एव । यद्यप्यस्तित्वप्रमेयत्वादयः पक्षवृत्तित्वरहिता न सन्ति, तथाप्यनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वे सति ये पक्षवृत्तयस्तत्त्वरहिता एव । तेषां सर्वत्रापि १ तेषु धर्मधु अनि इति ग पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ महाविद्याविडम्बनम् । ३३ विद्यमानत्वेन अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वस्यैव अभावात् । अथ द्वितीयविशेषणं व्याख्यायते-अनित्यत्ववन्तोऽनित्यपदार्थाः । तन्निष्ठाश्च अनित्यत्वात्यन्ताभाववन्तो नित्यपदार्थाः, तन्निष्ठाश्च । तत्त्वेन रहितो यो धर्मः स तथा । ततोऽनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिपक्षवृत्तित्वरहितश्चासौ अनित्यत्ववनिष्ठात्यन्ताभाववन्निष्ठत्वरहितश्चेति कर्मधारयः । तस्याश्रयः शब्द इत्यर्थः । अत्र च द्वितीयविशेषणेन प्रथमविशेषणोपपन्नानामप्यस्तित्वप्रमेयत्वादीनां व्यवच्छेदः कृतः । एवंविधविशेषणद्वयोपपन्नश्च धर्मः पक्षे शब्दे शब्दत्वादिरेव । स च अनित्यत्ववदनित्यत्वात्यन्ताभाववद्युगलनिष्ठत्वरहितो विद्यते । स चाद्यविशेषणोपपन्नस्तदैव स्यात् , यदि शब्दस्यानित्यत्वमङ्गीक्रीयेत । शब्दस्य च नित्यत्वे स धर्मोऽनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी सन् पक्षवृत्तिरेव स्यात्, न तु तत्त्वरहितः । तस्माच्छब्दस्यानित्यत्वमङ्गीकार्यम् । दृष्टान्ते चैवंविधो धर्मः एकैकनित्यनिष्ठो गगनत्वादिरेकैकानित्यनिष्ठो घटत्वादिश्व ज्ञेयः। अनित्यत्ववन्निष्ठानित्यत्वात्यन्ताभाववन्निष्ठत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते नित्यत्वतद्वान्तरधर्मैरनित्यत्वात्यन्ताभाववन्मात्रवृत्तिभिरर्थान्तरता स्यात् । अनित्यत्ववन्मात्रवृत्तीनामिव अनित्यत्वात्यन्ताभाववन्मात्रवृत्तीनामप्यनित्यत्ववन्निष्ठानित्यत्वात्यन्ताभाववन्निष्ठत्वरहितत्वात् । तन्निवृत्यर्थमनित्यत्ववन्निष्ठास्यन्ताभावप्रतियोगिपक्षवृत्तित्वरहितग्रहणम् । पक्षीकृतशब्दनित्यत्वे नित्यत्वादीनामनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिपक्षवृत्तित्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः । अनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिपक्षवृत्तित्वरहिताधिकरणमित्युक्ते मेयत्वाभिधेयत्वादिभिरर्थान्तरता स्यात् । तेषां पक्षनिष्ठत्वेऽप्यनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वे सति यत्पक्षवृत्तित्वं तद्रहितत्वेन पक्षीकृतशब्दनित्यत्ववादिनाप्यङ्गीकारात् । तन्निवृत्यर्थमनित्यत्ववनिष्ठानित्यत्वात्यन्ताभाववन्निष्ठस्वरहितग्रहणम् । मेयत्वादीनामनित्यत्ववन्निष्ठानित्यत्वात्यन्ताभाववनिष्ठत्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः। _(भुवन०) अथैतदनुमानं व्याचष्टे-अनित्यत्ववन्निष्ठत्यादि । अथ व्यावृत्तिचिन्ता । शब्दः अनित्यत्ववन्निष्ठेत्यादिसाध्यवानिति शब्दमात्रपक्षीकरणे एकस्य शब्दस्य यन्नित्यत्वं तदनित्यत्ववनिष्ठास्यन्ताभावप्रतियोगित्वे सति यत्पक्षवृत्तित्वं तद्रहितं, सर्वशब्दानां पक्षत्वेन तत्र वृत्तिहीनत्वात् । एवमनित्यत्ववन्निष्ठत्वे सति यदनित्यत्वात्यन्ताभाववन्निष्ठत्वं तद्रहितं च । तदाश्रय एकः शब्द इति भागे सिद्धसाधनता स्यात् , अत उक्तमयं शब्द इति । अथ प्रन्यकृदाद्यविशेषणपरिहारेण व्यावृत्तिचिन्तामाह-अनित्यत्ववनिष्ठानित्यत्वेत्यादि । नित्यत्वतदवान्तरधरिति । शब्दस्यानित्यत्वे साध्ये नित्यत्वरूपार्थान्तरता स्यात् । कैः । नित्यत्वतदवान्तरधः । नित्यत्वं च, तस्मात् नित्यत्वादवान्तरधर्माश्च शब्दत्वादयः, तैः। अनित्यत्वात्यन्ताभाववन्मात्रवृत्तिभिरिति । नित्यमात्रवृत्तिभिरित्यर्थः। कथमर्थान्तरता अत्राह-अनित्यत्ववन्मात्रेत्यादि । अनित्यत्ववन्निष्ठत्वे सति यत् अनित्यत्वात्यन्ता ५ महाविद्या Aho! Shrutgyanam Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं भाववन्निष्ठत्वं तत् अनित्यमात्रवृत्तीनामिव नित्यमात्रवृत्तीनामपि नास्तीत्यर्थः । तन्निवृत्यर्थ प्रथमविशेषणम् । कथमनेन विशेषणेन तन्निरासोऽत्राह-पक्षीकृतशब्देत्यादि । तद्रहितस्वानुपपत्तेरिति । अनित्यत्ववनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिपक्षवृत्तित्वरहितत्वानुपपत्तेरित्यर्थः । अथ द्वितीयविशेषणं मुक्त्वा व्यावृत्तिचिन्तां करोति-अनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावेत्यादि । अर्थान्तरतामेवाविष्करोति-तेषामि. त्यादिना । मेयत्वादीनामनित्येष्वपि भावादनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वहीनत्वात् अनित्यत्ववनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वविशिष्टपक्षवृत्तित्वाभाव उभयसंमत इत्यर्थः । तन्निरासाय द्वितीयविशेषणोपादानम् । कथमनेन तभिरासोऽत्राह-मेयत्वादीनामित्यादि । मेयत्वादीनां नित्यानित्यवृत्तित्वेन । तद्रहितत्वानुपपत्तेरिति । नित्यानित्यवृत्तित्वरहितत्वानुपपत्तेरिति भावः । अनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितानित्यत्ववनिष्ठानित्यत्वात्यन्ताभाववन्निष्ठत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते नित्यपदार्थेषु साध्याभावः । नित्यपदार्थमात्रवृत्तीनां धर्माणामनित्यत्ववनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेन तद्रहित. त्वानुपपत्तेः । अनित्यत्ववनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितनित्यनिष्ठधर्माणां चानित्यत्वात्यन्ताभाववनिष्ठत्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः । अतो नित्येषु साध्यसद्भावसिध्यर्थं पक्षवृत्तित्वरहितग्रहणम् । यद्यप्येकैकनित्यवृत्तयो धर्मा अनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेन न तद्रहिताः, तथाप्यनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वे सति यत्पक्षवृत्तित्वं तद्रहिता भवन्त्येवेति नित्येषु साध्यानुगमसिद्धिः। (भुवन०)-अथ पक्षवृत्तित्वेतिपदं त्यक्त्वा व्यावृत्तिं विधत्ते-अनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावेत्यादि। तथाच नित्यमात्रवृत्तीनां धर्माणां द्वितीयविशेषणोपपन्नानामपि प्रथमविशेषणोपपन्नत्वस्यानुपपत्तिः । अनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितेति विशेषणोपपन्नानां च सत्त्वादीनां नित्यनिष्ठानां धर्माणां नित्यानित्ययुगलवृत्तित्वेन नित्यानित्ययुगलवृत्तित्वरहितत्वानुपपत्तिश्च । तेन नित्येषु न साध्यसिद्धिः । तदर्थ पक्षवृत्तित्वेति पदोपादानम् । तद्ग्रहणेऽपि च नित्यत्वतवान्तरधर्माणामनित्यत्ववनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वात् न नित्येषु साध्यानुगम इत्यत आह-यद्यप्येकैकनित्यवृत्तयो धर्मा इति । एकैकनित्यवृत्तयो धर्मा आकाशत्वपरमाणुत्वादयः । ते चानित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनः, एवं सति न तद्रहिताः । तथापि संपूर्णविशेषणेन विचार्यमाणाः संपूर्ण विशेषणोपपन्ना अपि भवन्त्येवेति नित्येषु साध्यसिद्धिः। ___ एवं पक्षीकृतशब्दातिरिक्तानित्येष्वपि एकैकानित्यनिष्ठधमैः साध्यानुगमो द्रष्टव्यः । अनित्यत्ववन्निष्ठानित्यत्वात्यन्ताभाववन्निष्ठत्वरहितः अनित्यत्वात्यन्ताभाववन्मात्रवृत्तिर्वा स्यात् अनित्यत्ववन्मात्रवृत्तिर्वा । आद्यः पक्षे न १.चानिस्यत्ववनिष्ठानित्यत्वा' इति ज पुस्तकपाठः । २ सिद्धेः । इति ज पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ ५०१ महाविद्याविडम्बनम् । सिध्यति । तस्यानित्यत्ववनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वे सति पक्षवृत्तित्वेन त. द्रहितत्वानुपपत्तेः । अतोऽनित्यत्ववन्मात्रवृत्तिधर्मः पक्षे सिध्यन् अनित्यत्वमन्तर्भाव्य सिध्यतीत्यनित्यत्वसिद्धिः ॥ २६ ॥ (भुवन०)-अत्रानित्यत्वसिद्धिं दर्शयितुमाह-अनित्यत्ववनिष्ठेत्यादि । अनित्यत्वात्यन्ताभाववन्मात्रवृत्तिति । नित्यमात्रवृत्तिनित्यत्वादिर्धर्म इत्यर्थः। अनित्यत्ववन्मात्रवृत्तिति । अनित्यमात्रवृत्तिः अनित्यत्वादिरित्यर्थः । शब्दे आद्यधर्मसाधने आद्यविशेषणेन सह विरोधः स्यादि. त्याह-आद्यःपक्षे न सिध्यतीत्यादि । पारिशेष्याद्वितीयधर्म शब्दे साधयति-अतोऽनित्यत्वबन्मात्रेत्यादि । अनित्यत्वशब्दत्वश्रावणत्वादिरनित्यत्ववन्मात्रवृत्तिः तदा स्यात्, यदि शब्दोऽनित्यः स्यादित्यनित्यत्वमन्तर्गतं कृत्वा स धर्मः शब्दे सिध्यति । स चानित्यमात्रवृत्तिर्यद्यपि पक्षे वर्तमानत्वेन पक्षवृत्तित्वरहितो नास्ति, तथाप्यनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वे सति यः पक्षवृत्तिः तत्त्वरहित एवास्तीति व्याख्या ॥२६॥ २७ अयं शब्दः एतच्छन्दनित्यविषयत्वरहितज्ञानविषयः मेयत्वादिति ॥ येषु येषु ज्ञानेषु एतच्छन्दविषयत्वनित्यविषयत्वे स्तः, तेषु तेषु एतच्छन्दनित्यविषयत्वं धर्मः । तद्रहितं ज्ञानमेतच्छब्दाविषयं वा, नित्याविषयं वा । आयं पक्षीकृतशब्दविषयं न सिध्यति । व्याघातात् । द्वितीयं च पक्षशन्दविषयं सिध्यदनित्यत्वमन्तर्भाव्य सिध्यति । पक्षीकृतशब्दनित्यत्वे यस्य कस्यचिदपि तद्विषयज्ञानस्य एतच्छन्दविषयत्वे सति नित्यविषयत्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः ॥ २७॥ २७ (भुवन० )-अथ प्रकारान्तरेण महाविद्यान्तरमाह-अयं शब्दः एतच्छन्दनित्यविषयत्वरहितज्ञानविषय इति । एतच्छब्दश्च नित्यश्च एतच्छब्दनित्यौ । तौ विषयौ मोचरो यस्य ज्ञानस्य तदेतच्छब्दनित्यविषयम् । तस्य भावः तत्त्वम् । तेन रहितं यत् ज्ञानं तस्य विषयः शब्द इत्यर्थः । येषु येषु ज्ञानेष्वित्यादि । येषु येषु शब्दाकाशादिज्ञानेषु । विशेषणाभावाद्वा विशेष्याभावाद्वा विशिष्टाभाव इति न्यायेन एतच्छब्दनित्यविषयत्वरहितज्ञानं हि एतच्छब्दाविषयं वा नित्याविषयं वा । तत्राद्यस्य एतच्छन्दविषयत्वे व्याघातमाह-आद्यं पक्षीकृतशब्देति । यदेवैतच्छब्दाविषयं तदैवेतच्छब्दविषयमिति व्याघात इत्यर्थः । द्वितीयमिति । नित्याविषयम् । तच्च शब्दविषयं सिध्यच्छब्दस्यानित्यत्वं साधयेदिति भावः । अनित्यत्वसाधने हेतुमाह-पक्षीकृतशब्दनित्यत्वे यस्य कस्यचिदपीत्यादि । यद्यतच्छब्दो नित्योऽङ्गीक्रीयेत, तदा यत्किञ्चिदेतच्छब्दविषयज्ञानस्य नित्यविषयत्वमेव स्यात्, न तु तदविषयत्वमित्यर्थः । तद्रहितत्वानुपपत्तेरिति । नित्यविषयत्वरहितत्वानुपपत्तेरित्यर्थः । अत्र सर्वत्र सपक्षे एतच्छब्दाविषयज्ञानविषयत्वं धर्मो मन्तव्यः ॥२७॥ - १ अनित्यशब्दत्व इति छ द पुस्तक पाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं २८ अयं शब्दः एतनिष्ठानित्यत्वात्यन्ताभावाप्रतियोगिकत्वानधिकरणात्यन्ताभाववान् मेयत्वादिति ॥ ये पक्षीकृतशब्दधर्मा अनित्यत्वात्यन्ताभावप्रतियोगिकत्वरहिताः, तेषु एतन्निष्ठानित्यत्वात्यन्ताभावाप्रतियोगिकत्वं धर्मः, तदनधिकरणं तद्रहितः, एतन्निष्ठानित्यत्वात्यन्ताभावाप्रतियोगिकत्वानधिकरणश्वासौ अत्यन्ताभावश्च तद्धिकरणमित्यर्थः । एतनिष्ठानित्यत्वात्यन्ताभावाप्रतियोगिकत्वानधिकरणवानित्युक्ते अनित्यत्वात्यन्ताभावप्रतियोगिकेन अनित्यत्वात्यन्ताभावान्योन्याभावेन पक्षीकृतशब्दनित्यत्वेऽप्युपपद्यमानेनार्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्यर्थमत्यन्ताभावग्रहणम् । एतनिष्ठानित्यत्वात्यन्ताभावप्रतियोगिकत्वानधिकरणमत्यन्ताभावः एतनिष्ठत्वरहितो वा स्यात्, अनित्यत्वात्यन्ताभावप्रतियोगिकोऽत्यन्ताभावो वा । आद्यः पक्षे व्याहतः । द्वितीयस्त्वनित्यत्वमेव । अनित्यत्वात्यन्ताभावात्यन्ताभावस्य अनित्यत्वानतिरेकात् तत्तुल्ययोगक्षेमत्वादा इत्यनित्यत्वसिद्धिः ॥ २८ ॥ ___ २८ ( भुवन०)-अयं शब्दः एतनिष्ठानित्यत्वात्यन्ताभावाप्रतियोगिकत्वानधिकरणात्यन्ताभाववानिति । अनित्यत्वात्यन्ताभावो नित्यत्वमप्रतियोगी यस्य अत्यन्ताभावस्य असौ अनित्यत्वात्यन्ताभावाप्रतियोगिकः । एतस्मिन् पक्षितशब्दे निष्ठा यस्य स तथा । एतनिष्ठश्चासौ अनित्यत्वात्यन्ताभावाप्रतियोगिकश्च एतनिष्ठात्यन्ताभावाप्रतियोगिकः । तस्य भावः तत्त्वम् । तस्य अनधिकरणं योऽत्यन्ताभावः तद्वान् शब्द इति समासः । अनित्यत्वात्यन्ताभावाप्रतियोगिकपदेन नित्यत्वात्यन्ताभावं विना सर्वेऽपि घटत्वपटत्वशब्दत्वादिप्रतियोगिका अत्यन्ताभावा उपात्ताः। एतनिष्ठविशेषणसहितेन च तेन पदेन शब्दत्वादिशब्दधर्मात्यन्ताभावाः पूर्वविशेषणायाताः पृथक्कृतत्वान्नित्यत्वात्यन्ताभावश्च निषिद्धाः । तत्त्वानधिकरणात्यन्ताभावपदेन च घटत्वपटत्वाद्यत्यन्ताभावा एतन्निष्ठेतिविशेषणायाताः सर्वेऽपि निषिद्धाः । शब्दधर्मात्यन्ताभावनित्यत्वात्यन्ताभावौ च पुनरप्युपात्तौ । तत्र पक्षीकृतशब्दे एतच्छब्दधर्मात्यन्ताभावसाधने व्याघात इति नित्यत्वात्यन्ताभावः पक्षी. कृतशब्दे साध्यते इति शब्दानित्यत्वसिद्धिः । अनुमानार्थं व्याचष्टे-ये पक्षीकृतशब्दधमो इत्यादि। पक्षीकृतशब्दधर्मा इह घटत्वाकाशत्वाद्यभावाः । तेषां सर्वेषामपि पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वात् । एतावता अनुमानस्थमेतन्निष्ठेतिपदं व्याख्यातम् । अनित्यत्वात्यन्ताभावेति । अनित्यत्वात्यन्ताभावो नित्यत्वं प्रतियोगी यस्य स तथा । तद्भावः तत्त्वम् । तेन रहिताः। पक्षीकृतशब्दधर्माः सन्तो येऽनित्यत्वात्यन्ताभावप्रतियोगिकत्वरहिता इत्यर्थः । एतावता अनित्यत्वात्यन्ताभावाप्रतियोगिकेति पदमनु. मानस्थं व्याकृतम् । शेषं सुगमम् । अथ अत्यन्ताभावं विमुच्य व्यावृत्तिं करोति- एतन्निष्ठानित्य. त्वात्यन्ताभावेत्यादि । अनित्यत्वात्यन्ताभावप्रतियोगिकेनेति । अनित्यत्वात्यन्ताभावो नित्यत्वं प्रतियोगी यस्य तेन । अनित्यत्वात्यन्ताभावो नित्यत्वं, तस्य अन्योन्याभावेन शब्दो नित्यत्वं न भवतीतिरूपेण शब्दनिष्ठेन सिषाधयिषितानित्यत्वविपर्ययेऽप्युपपद्यमानेन अर्थान्तरता स्यात्, तत्प. Aho ! Shrutgyanam Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । ३७ रिहारार्थमत्यन्ताभावग्रहणम् । अभिमतसाध्यसिद्धिं निरूपयितुमाह - एतन्निष्ठा नित्यत्वेत्यादि । एवंविधश्वात्यन्ताभावो द्वेधा स्यात्, एतन्निष्ठत्वरहितोऽत्यन्ताभावो वा नित्यत्वात्यन्ताभावो वेति । तत्राद्यस्य पक्षे व्याघातमाह - आद्यः पक्षे व्याहत इति । आद्यः एतन्निष्ठत्वरहितोऽत्यन्ताभावः, पक्षे शब्दे, व्याघातेन बाधितः । अयमाशयः -- पक्षीकृतशब्दधर्मा ये शब्दत्व श्रावणत्वादयः तेषामत्यन्ताभावः शब्दनिष्ठो नास्ति । यतः शब्दत्वादय एव शब्दधर्माः शब्दनिष्ठाः, न तु तदत्यन्ताभावः । तस्य शब्दादन्यत्रैव वर्तनात् । ततस्तस्मिन् शब्दे साध्यमाने स्फुट एव व्याघातः । तस्मादे - तन्निष्ठत्वरहितात्यन्ताभावः सर्वत्र सपक्षे ज्ञेयः । द्वितीयस्य शब्दे सिद्धिमाह - द्वितीय इत्यादि । द्वितीयोऽनित्यत्वात्यन्ताभावात्यन्ताभावः । एतावता नित्यत्वस्यात्यन्ताभावः शब्दे साध्यते । स च अनित्यत्वमेवेतिभावः । अत्र हेतुमाह - अनित्यत्वात्यन्ताभावेत्यादि । अनित्यत्वात्यन्ताभावो नित्यत्वम् । तस्यात्यन्ताभावस्य अनित्यत्वानतिरेकादनित्यत्वरूपत्वादित्यर्थः । हेत्वन्तरमाह - तत्तुल्ययोगक्षेमत्वाद्वेति । तेन तुल्यौ यौ योगक्षेमौ, तद्भावः तत्त्वं, तस्मात् । अत्रायं भावः । यथा अनित्यत्वस्यात्यन्तिकनिषेधो नित्यत्वं, तथा तदात्यन्तिकनिषेधः पुनरनित्यत्वमेव । " परस्परविरोधे हि न प्रकारान्तरस्थितिः " इतिन्यायादित्यर्थः ॥ २८ ॥ ५० १ २९ अयं शब्दः अनाद्येतदभावत्वरहिताभावप्रतियोगी मेयत्वादिति ॥ अनाद्येतदभावेषु अनाद्येतद्भावत्वं धर्मः । तद्रहितश्चाभावः एतद्भावत्वरहितो वा, आदिमानेतदद्भावो वा । आद्यं प्रत्येतस्मिन्प्रतियोगित्वं न सिध्यति । व्याघातात् । द्वितीयस्तु प्रध्वंस एवेत्यनित्यत्वसिद्धिः ॥ २९ ॥ २९ ( भुवन० ) -- अथाभिनव प्रकारान्तरेण पुनर्महाविद्यान्तरमाह - अयं शब्दः अनाद्येतदभावत्वेत्यादि । एतस्य पक्षशब्दस्य अभावाः एतदभावाः । अनादयश्च ते एतदभावाच अनायेतदभावाः, प्रागभावान्योन्याभावात्यन्ताभावरूपाः । ' अनादिः सान्तः प्रागभाव:, ' ' तादात्म्यनिषेधोऽन्योन्याभाव:, ' ' अनादिरनन्तः संसर्गाभावोऽत्यन्ताभाव: ' इति तेषां लक्षणात् । तेषां भावः तत्वम् । तेन रहितो योऽभावः पक्षमध्ये सादिरभावः, स च प्रध्वंसाभाव एव । 'सादिरनन्तः प्रध्वंसाभावः ' इति तल्लक्षणात् । तस्य प्रतियोगी शब्द इत्यर्थः । अयं शब्दः प्रतियोगीत्युक्ते श्रोत्रे शब्दसमवाय इति समवायप्रतियोगित्वेन शब्दे सिद्धसाध्यता स्यात् । अनाश्रयत्वे सति व्यावर्त - कस्य प्रतियोगित्वात् । अत उक्तमभावप्रतियोगीति । एवं चान्योन्याभावप्रतियोगित्वेन सिद्धसाधनं स्यात्, अत उक्तमनादित्वरहितेति । अनादित्वरहिताभावप्रतियोगीत्युक्ते च व्याप्तिभङ्गः, नित्येषु तद्भावात् । अत उक्तमनादित्वरहितेति । इतिव्यावृत्तिचिन्ता । एतदभाववरहितो वेति । एतस्य पक्षशब्दस्य योऽभावः, तत्त्वरहितोऽभावो घटत्वाकाशत्वाद्यभावः । सोऽप्यनाद्येतदभावत्वरहितः । परमेतस्य शब्दः प्रतियोगी न स्यात्, तस्माद्व्याघातः । आदिमानेतदभावो वेति । आदिर्विद्यते यस्य स आदिमान् । प्रध्वंसाभाव इत्यर्थः । तस्य च प्रतियोगित्वं शब्दस्य अनित्यत्वे एव स्यात्, नान्यथेति शब्दानित्यत्वसिद्धिरिति । अत्र शब्दान्यवत्सु अभावप्रतियोगित्वं शब्दे तरसमस्तवस्तूनामप्यस्तीति तेषां सपक्षता ॥ २९ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं ३० अयं शब्दः ध्वंसत्वरहितैतद्भावत्वरहिताभावप्रतियोगी मेयत्वादिति ॥ इयं पूर्वा च महाविद्या यत्र यत्रानित्यत्वं साध्यते तत्रैव संचरति । शेषास्तु सकलान्वयव्यतिरेकिसाध्यसंचारिण्य इति ॥ ३० ॥ ३० ( भुवन० ) – अयं शब्दः ध्वंसत्वर हितैतदभावेत्यादि । ध्वंसो विनाशः । तत्त्वरहिता ये एतस्य शब्दस्याभावाः पूर्वोक्ता एव । तेषां भावस्तत्त्वं तेन रहितो योऽभावः साध्यधर्मपक्षे प्रध्वंसाभाव एव तस्य प्रतियोगी शब्द इत्यर्थः । अभावप्रतियोगीत्युक्ते शब्दस्यान्योन्याभावादिप्रतियोगित्वं सिद्धमेव इत्यत उक्तमेतदभावत्वरहितेति । तथा च व्याघातः स्यात् । ततस्तत्परिहाराय ध्वंसत्वरहितेति । ध्वंसत्वरहितैतदभावेषु ध्वंसत्वर हितैदभावत्वं धर्मः । तद्रहितश्चाभाव एतदभावत्वरहितो वा ध्वंसो वा । आद्यं प्रति शब्दस्य प्रतियोगित्वं व्याहतमिति एतदभावत्वरहिताभावप्रतियोगित्वं सर्वसपक्षोपयोगि, द्वितीयं प्रति शब्दस्य प्रतियोगिलं सिध्यच्छब्दस्यानित्यत्वं साधयेदित्यर्थः । एतन्महाविद्याद्वयमनित्यत्वसाधकमेव न साध्यान्तरसाधकमिति महाविद्यान्तरेभ्योऽस्य वैलक्षण्यं प्रतिपादयति-— इयमिति । इयमनन्तरोद्दिष्टैव महाविद्या, पूर्वा चायं शब्दोऽनाद्येतदभावे - त्यादिको । शेषास्त्विति । शेषाः पक्षसपक्षादिकं पक्षीकृत्य प्रवृत्ता महाविद्याः । सकलानि अन्वयव्यतिरेकिणां यानि साध्यानि तत्संचारिण्यः । एतत्प्रकारश्च पुरापि आपातनिकायां किञ्चित्प्रपश्चित इति न प्रपश्यते । * ननु महाविद्याप्रकरणे किमिदं पक्षनिष्ठत्वं, किं वा सपक्षनिष्ठत्वं, किं वा विपक्षनिष्ठत्वं, किं वा उभयनिष्ठत्वमिति । उच्यते । अयं पक्षनिष्ठः, अयं सपक्षनिष्ठः, अयं विपक्षनिष्ठ इत्याद्यबाधितबुद्धिसाक्षिकः पक्षाश्रितत्व सपक्षाश्रितत्वविपक्षाश्रितत्वो भयाश्रितत्वरूपो धर्मविशेषः । ननु नायं भावः, अभाasपि वर्तमानत्वात् । नाप्यभावः, प्रतियोगिविशेषानिरूपणात् इति चेत् । न । द्रव्यादिषलक्षणानां ये षडत्यन्ताभावास्तद्वत्त्वस्यात्राभावत्वस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धत्वादिति । कः पुनरस्य प्रतियोगीति चेत् । न कश्चित् । सैविस्तरं चैतदन्यत्रोपपादयिष्यामः इति ॥ ( भुवन ० ) - अथ प्रेमयत्वादीनां हेतूनां पक्षेण सह संयोगसमवायादिसंबन्धाभावात्पक्षधर्मत्वाद्यसिद्धिरिति नोदयति--नन्वित्यादि । उभयनिष्ठत्वमिति । पक्षसपक्षनिष्ठत्वमित्यर्थः । बुद्धिविशेषविषयत्वोपाधिको धर्मः पक्षनिष्ठत्वादिरित्याह-उच्यत इत्यादिना । अयं धर्मविशेषः किं भावः उत अभावः इति विकल्प्य नोदकः प्रथमं प्रत्याह - ननु नायमिति । अयं पक्षनिष्ठत्वादिको धर्मो न भावः । नित्यमाकाशं कृतकत्वाभावादित्यादौ पक्षनिष्ठत्वादेर्धर्मस्य कृतकत्वाभावत अभावरूपेऽपि वर्तमानत्वात् । न द्वितीयोऽपीत्याह - नाप्यभावः, प्रतियोगिविशेषानिरूपणा १ अस्याग्रे 'शेषं तु सुगममेव ' इति अधिकं छ पुस्तके दृश्यते । २ योगिविषयानि इति घ पुस्तकपाठः । ३ त्वस्य प्रत्य' इति घ पुस्तकपाठः । ४ छ । विस्तरतश्चैतद् इति घ पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०१ महाविद्याविडम्बनम् । दित्यादि । अयं पक्षनिष्ठत्वादिधर्मो नाप्यभावः नाप्यभावरूपः । अयं घटादेराकाशादेोऽभाव इत्येवं प्रतियोगिविशेषस्य अभावसंबन्धिनोऽनिरूपणादित्यर्थः । द्वितीयं विकल्पमङ्गीकृत्य नोदकोक्तं परिहरति-न द्रव्यादिषड्लक्षणानामित्यादि । द्रव्यादयो ये षट्पदार्था द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाख्या वैशेषिकमतप्रसिद्धाः तेषां यानि षड्लक्षणानि १ " गुणाश्रयो द्रव्यम् , " २ " कर्मातिरिक्तो जातिमात्राश्रयो गुणः, " ३ " संयोगविभागाजन्यसंयोगविभागासमवायिकारणजातीयं कर्म," ४ "नित्यत्वे सत्येकत्वे सत्यनेकसमवेता जातिः सामान्यापरपर्याया," ५ "नित्येष्वेव द्रव्येष्वेव वर्तत एव ये ते अन्त्या विशेषाः,"६ "अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहप्रत्ययहेतुर्यः संबन्धः स समवायः," इत्येवं रूपाणि । तेषां ये षडत्यन्ताभावास्तद्वत्त्वस्य तदधिकरणत्वस्य अभावत्वस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धत्वादभावो ऽयं पक्षनिष्ठत्वादिरूपो धर्म इत्यर्थः । तथा हि, एवंविधो धर्मों द्रव्यं न भवति, तल्लक्षणाभावात् । तथा गुणोऽपि न भवति । तल्लक्षणाभावात् । एवं कर्मसामान्यादिरूपोऽपि न भवति । तत्तल्लक्षणाभावादेव । तस्मादयं पक्षनिष्ठत्वादिधमोऽभावरूप एव सप्तमः पदार्थः केषांचिद्वैशेषिकाणां मते प्रसिद्धः । एवं च प्रमेयत्वास्तित्वाद्योऽपि धर्माः अभावरूपाः एव ज्ञेयाः इत्यर्थः । प्रतियोग्यनिरूप्यस्य अभावत्वानुपपत्तेः प्रतियोगी वाच्य इति शङ्कते । कः पुनरस्य प्रतियोगीति । अस्य पक्षनिष्ठत्वादिधर्मस्याभावरूपस्येत्यर्थः । अभावस्य प्रतियोगिनिरूप्यत्वनियमो नेति परिहरति-न कश्चिदिति । प्रतियोगिज्ञानकार्यत्वादभावज्ञानस्य कथमनियमस्तत्राहसविस्तरं चैतदन्यत्रेति । अत्यन्ताभावो निष्प्रतियोगिक इत्यन्यत्र वार्तिके वक्ष्याम इति तत एवैतज्ज्ञेयमित्यर्थः । इति पक्षं पक्षीकृत्य प्रवृत्तास्त्रिंशन्महाविद्याः प्रादयन्त ॥ ३० ॥ अथ सपक्षं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्याभेदाः यथा-शब्दोऽनित्यः इत्यत्र सपक्षो घटः इति स्थिते, (भुवन०)-अथ सपक्षं पक्षीकृत्य महाविद्याभेदान् दिदर्शयिषुराह-अथ सपक्षमित्यादि । अथ सपक्षं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्याभेदा यथा सन्ति तथोदाहरिष्यन्त इति शेषः । शब्दोऽनित्य इत्यत्रेति । शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात् घटवदित्यत्र मूलानुमाने घटः सपनः इति स्थिते, घटं सपक्षं पक्षीकृत्य प्रयुज्यते इत्यर्थः । तत्र पक्षापक्षविपक्षान्यवर्गादेकैकमुद्धृतम् । भिन्नं साध्यवतस्तद्वदुद्धृतावधिमेदिनः ॥ इति कारिकामाश्रित्य या प्रवर्तते तामाह १ अयं घटः एतद्धटपक्षीकृतशब्दान्यान्यानित्यान्यः मेयत्वादिति । अत्र च वक्ष्यमाणासु महाविद्यासु चाकाशो दृष्टान्तः । एतद्धटपक्षीकृतशब्दयोर्ये अन्यत्वे तदुभयवत्त्वरहितः एतद्धटपक्षीकृतशब्दान्यान्यः। स चासौ अ. नित्यश्च । तदन्यत्वाधिकरणमित्यर्थः । एतद्धटपक्षीकृतशब्दान्यान्यानित्यान्यत्वं Aho ! Shrutgyanam Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनसुन्दरसूरितटीकायुतं चैतान्यत्वेन वा स्यात्, पक्षीकृतशब्दान्यत्वेन वा । ओद्यो व्याहतः । न यं घटः एतस्माद्धादन्य इति संभवति । द्वितीये तु शब्दानित्यत्वसिडि: । यदि पक्षीकृतः शब्दो न अनित्यः, कथं तर्हि पक्षीकृतानित्यान्यत्वं घटे स्यादिति ॥ १ ॥ * १ (भुवन० ) - अयं घट एतद्धटपक्षी कृतशब्दान्यान्यानित्यान्यः, मेयत्वादिति । अत्र महाविद्यानुमानापेक्षया घटः पक्षः । यच्चानुमाने पक्षीकृतशब्द इत्युक्तं, तदनित्यः शब्द इत्यादि मुख्यानुमानापेक्षया । अथ व्याख्या । अयं घट इति विवक्षितः कञ्चिद्भटः पक्षः । एतद्वदश्च पक्षीकृतशचैतद्वपक्षीकृतशब्द, ताभ्यामन्यत् एतद्धटपक्षी कृतशब्दान्यत् । तस्मादन्यश्चासौ अनित्यश्चेत्येतद्घटपक्षीकृतशब्दान्यान्यानित्यः तस्मादन्यो घट इत्यर्थः । अयं भावः । एतद्वटपक्षीकृतशब्दाभ्यां यदन्यत् विश्वं तदन्यः एतद्वटो वा पक्षीकृतः शब्दो वा । तत्रैतद्भटस्यैतद्वादन्यत्वं व्याहतम् । तस्मादनित्यशब्दादन्य एतद्वटः सिध्यन् शब्दानित्यत्वं साधयेदित्यर्थः । घटः उक्तसाध्यः इत्युक्ते घटान्तरं घटान्तरादन्यदिति भागे सिद्धसाधनम् । अत उक्तमयं घट इति । अयं घटोऽनित्यान्य इत्युक्ते अनित्यात्पटादेरन्यत्वं सिद्धमत आह— घटपक्षीकृतशब्दान्यान्या नित्यान्य इति । तथोक्ते च घटान्तरान्यत्वमुक्तरूपं सिद्धमत उक्तमेतद्धटेति । एतद्घटपक्षीकृतशब्दान्यान्य इत्युक्ते पक्षीकृतशब्दान्यत्वेन शब्दस्य नित्यत्वेऽप्युपपद्यमानेनार्थान्तरता, तदुक्तमनित्येति । एतद्भट पक्षीकृतशब्दान्यान्याऽनित्यस्य घटस्यान्यत्वेन सर्वत्राकाशादौ व्याप्तिसिद्धिर्ज्ञेया । अत्र वक्ष्यमाणेत्यादि । अत्र सपक्षं पक्षीकृत्य प्रवर्त्तमानमहाविद्यासु पटाद्यनित्य सर्वसपक्षस्य पक्ष तुल्यत्वेनाकाशादय एव दृष्टान्ता ज्ञेयाः । एतद्धटेत्यादि । एतद्वपक्षीकृतशब्दयोः संबन्धिनी ये अन्यत्वे भिन्नत्वे । तदुभयेति । तयोरन्यस्वयोरुभयमित्यर्थः । यदि पक्षीकृतेत्यादि । यदि पक्षीकृतशब्दोऽनित्यो न स्यात्, तदा पक्षीकृतादनित्याच्छब्दाद्धटस्यान्यत्वं न स्यादित्यर्थः ॥ १ ॥ २ अयं घटः एतद्धटपक्षीकृतशब्दान्यान्यानित्यनिष्ठात्यन्ताभावाधिकरणं मेयत्वादिति । अत्र चैतद्वदपक्षीकृतशब्दान्यान्यः एतद्धटो वा, पक्षीकृतः शब्दो वा । न च घटनिष्ठस्यात्यन्ताभावो घटे संभवति । तेन यदि शब्दोऽ नित्यः स्यात्, तर्हि शब्दनिष्ठस्यात्यन्ताभावमुपादाय प्रकृतसाध्यपर्यवसानं स्यादिति शब्दानित्यत्वसिद्धिः ॥ २ ॥ २ ( भुवन० ) अथ पूर्वमहाविद्यामेव अन्यान्यपदस्थाने निष्ठात्यन्ताभावाधिकरणपदक्षेपेण प्रकारान्तरेणाह - अयं घट एतद्वदेत्यादि । एतद्धटपक्षी कृतशब्दान्यान्यानित्ये एतद्धटे वा पक्षीकृतशब्दे वा निष्ठा यस्य घटत्वशब्दत्वादेर्धर्मस्य स एतद्वटपक्षी कृतशब्दान्यान्या नित्यनिष्ठः । तस्य यः व्यत्यन्ताभावस्तदधिकरणं घट इत्यर्थः । अत्र घटनिष्ठस्य घटत्वादेरत्यन्ताभावो घटे पक्षीकृते १ आये व्याघातः इति ध पुस्तकपाठः । २ कृतशब्दान्यत्वं इति घ पुस्तकपाठः । ३ प्रकृतप्रतिज्ञार्थपर्य इति ध पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ महाविद्याविडम्बनम् । साधयितुं न शक्यते । तस्माच्छब्दनिष्ठस्य शब्दत्वादेरत्यन्ताभावो घटे साध्यते । शब्दत्वादिधर्मस्य चानित्यनिष्ठत्वं तदैव स्यात्, यदि शब्दोऽनित्यःस्यादिति शब्दानित्यत्वसिद्धिः । एतद्धटपक्षीकृतशब्दान्यान्यानित्यनिष्ठस्य घटत्वादेरत्यन्ताभावः पक्षातिरिक्ते सर्वत्रास्तीति व्याप्तिसिद्धिरिति ॥२॥ ३ अयं घटः एतद्धटपक्षीकृतशब्दान्यान्यानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणं मेयत्वादिति ॥ इहापि यदि पक्षीकृतः शब्दः अनित्यः स्यात्, तेह्येव पक्षीकृतशब्दनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनं घटनिष्ठधर्ममुपादाय प्रकृतप्रतिज्ञार्थपर्यवसानं स्यादिति शब्दानित्यत्वसिद्धिः ॥३॥ ३ (भुवन०)-अथानन्तरमहाविद्यामेवात्यन्ताभावाधिकरणस्थाने ऽत्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणग्रहणेन भङ्गयन्तरेण दर्शयति-अयं घट इत्यादि । एतद्घटपक्षीकृतशब्दान्यान्यानित्यनिष्ठश्चासौ अत्यन्ताभावश्च । तस्य प्रतियोगी घटत्वादियों धर्मः तदाधारो घट इत्यर्थः । अत्रानित्यघटनिष्टस्यात्यन्ताभावस्य प्रतियोगिनः सकलपदार्थधर्माः पटत्वाकाशत्वादयस्तेषामधिकरणं घट इति व्याघातः स्यात् । तस्मादनित्यशब्दनिष्ठो यः अत्यन्ताभावस्तस्य प्रतियोगिनो ये घटत्वादयस्तेषामधिकरणं घट इति भावः । अत्रापि अनित्यनिष्ठोऽत्यन्ताभावस्तदैव स्यात् , यदि शब्दस्यानित्यत्वमङ्गीक्रियते । तस्माच्छब्दानित्यत्वसिद्धिः। घटनिष्ठस्यात्यन्ताभावस्य प्रतियोगिनं गगनैकत्वादिकं धर्म स्वस्वनिष्ठमुपादाय सर्वत्र गगनादौ व्याप्तिसिद्धिज्ञेयेति । अत्र ग्रन्थकृदनित्यत्वसिद्धिमाहइहापि यदीत्यादि ॥३॥ __४ अयं घटः एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभाववत्त्वरहितानित्यान्यः मेयत्वादिति ॥ अत्र चैतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छन्दनिष्ठास्यन्ताभावौ विवक्षितौ । पूर्वमहाविद्यायां चैतद्धटैतच्छब्दान्योन्याभावाविति महान्भेदः । एवं वक्ष्यमाणमहाविद्ययोः प्राचीनमहाविद्याभ्यां भेदो द्रष्टव्यः । शेषं पूर्ववत् ॥ ४॥ ____४ (भुवन०)-आद्यमहाविद्यामेव भङ्गयन्तरेणाह-अयं घट एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छब्देत्यादि । एतद्धटनिष्ठस्य घटवादेर्धर्मस्य अत्यन्ताभावश्च एतच्छब्दनिष्ठस्य शब्दत्वादेरत्यन्ताभावश्च एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभावौ । तौ विद्यते यस्य स एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभावान् । तस्य भावस्तत्त्वम् । तेन रहितश्चासावनित्यश्च तस्मादन्य इत्यर्थः । अयमाशयः । एतद्बटनिष्ठा रान्ता दैतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभाववदेतद्वयव्यतिरिक्तं विश्वम् । तत्त्वरहितोऽनित्य एतद्धटो वा, एतच्छब्दो वा । तत्राद्यान्यत्वं पक्षे व्याहतमिति सपक्षोपयोगि तज्ज्ञेयम् । द्वितीयान्यत्वं च सिध्यच्छब्दस्यानित्यत्वं गमयतीति भावः । आद्यमहाविद्यातोऽस्या भेदमाहअत्र चैतद्धटनिष्ठेत्यादि । पूर्वमहाविद्यायामिति । आद्यमहाविद्यायामित्यर्थः । अन्योन्याभावाविति । अन्यान्यशब्दाभ्यामुपात्ताविति । एवं वक्ष्यमाणमहाविद्ययोरिति । पञ्चमीषष्ठयोः । प्राचीनमहाविद्याभ्यां द्वितीयतृतीयाभ्यामित्यर्थः ।। ४ ॥ १ तर्हि ५ इति घ पुस्तकपाठः । ६ महाविद्या Aho ! Shrutgyanam Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं ५ अयं घटः एतद्धनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभाववत्त्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ अनित्यनिष्ठस्य अत्यन्ताभावः अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावः ॥ ५॥ ५ (भुवन०)-अथ पूर्ववदेव भङ्गयन्तरमाह-अयं घट एतद्धटनिष्ठेत्यादि । एतद्बटनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभाववत्त्वरहितश्चासौ अनित्यश्च स तथा । तन्निष्ठस्य शब्दत्वादेयोऽत्यन्ताभावस्तदाश्रयो घट इत्यर्थः । उक्तात्यन्ताभाववत्त्वरहितावेतद्बटैतच्छब्दो तयोरन्यतरानित्यः उभयप्रसिद्धो घटः । तनिष्ठस्य घटत्वादेरत्यन्ताभावः पक्षादन्यत्र सर्वत्रास्तीति व्याप्तिसिद्धिः । घटे त्वनित्यशब्दनिष्ठस्य शब्दत्वादेरत्यन्ताभावः सिध्यन्ननित्यत्वं शब्दे साधयेदिति भावः । अत्र कर्मधारयं प्रतिषेद्धमाह-अनित्यनिष्ठस्यात्यन्ताभाव इत्यादि ॥५॥ ६ अयं घटः एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभाववत्त्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणं मेयत्वादिति ॥ अनित्यनिष्ठश्चासौ अत्यन्ताभावश्च ॥६॥ ६ (भुवन०)-अथ पूर्वप्रकारान्तरेण महाविद्यान्तरमाह-अयं घट इत्यादि । यथोक्तात्यन्ताभाववत्त्वरहितानित्यनिष्ठश्वासौ अत्यन्ताभावश्च, तस्य यः प्रतियोगी घटत्वादिस्तदधिकरणं घट इत्यर्थः। यथोक्ताऽनित्य एतद्धटो वा तच्छब्दो वा । तत्रैतद्धटनिष्ठो योऽत्यन्ताभावस्तस्य प्रतियोगिनो ये विश्वनिष्ठा धर्माः पटत्वाकाशशब्दत्वादयस्तेषामधिकरणं घट इति व्याघातः । तस्मादेतच्छब्दरूपो योऽनित्यस्तन्निष्ठो योऽत्यन्ताभावः तत्प्रतियोगिनो ये घटत्वादयस्तदधिकरणं घट इत्यर्थः । व्याप्तिस्तु तत्तन्निष्ठात्मत्वाकाशत्वादिभिर्यथोक्तविशेषणोपपन्नैः पक्षादतिरिक्ते सर्वत्रापि क्षेया । तत्पुरुषसमासं व्यावर्त्तयति-अनित्यनिष्ठश्वासावत्यन्ताभावश्चेति ॥ ६॥ ७ अयं घटः एतद्धटान्योन्याभावैतच्छद्वनिष्ठात्यन्ताभाववत्त्वरहितानित्यान्यः मेयत्वादिति ॥ एतद्धटान्यत्ववदेतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभावोऽप्येतच्छन्दव्यतिरिक्तसकलनिष्ठ एव । एतच्छब्दमात्रनिष्ठानां तदन्यत्रासंभवात् । तेन न कश्चित्क्षुद्रोपद्रवः । इयं चैतद्धटान्योन्याभावैतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभावावुपादाय प्रवृत्ता । प्रथमा चैतद्धटान्योन्याभावैतच्छब्दान्योन्याभावावुपादाय । चतुर्थी चैतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभावावुपादाय । तेन प्रथमचतुर्थमहाविद्याभ्यामेतस्या महान्भेदो द्रष्टव्यः ॥७॥ ७ (भुक्न०)-चतुर्थ्यादिमहाविद्यात्रयमेवैतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावपदस्थाने एतद्धदान्योन्याभास्पदग्रहणेन प्राह-अयंघटः एतद्धटान्योन्याभावैतच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभाववत्वरहितानित्यान्यः इति । एतद्घटान्योन्याभावश्च एतच्छब्दनिष्ठस्यात्यन्ताभावश्च, एतद्धटान्योन्याभावैतच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभावौ । तद्वत्त्वरहितो योऽनित्यस्तस्मादन्यो भिन्न इत्यर्थः । एतद्धटान्योन्याभावैतच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभाववस्वरहितो एतद्धटैतच्छब्दौ । तयोरन्यतरैतद्धटान्यत्वं सर्वत्रास्तीति व्याप्तिसिद्धिः । घट Aho ! Shrutgyanam Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०१ महाविद्याविडम्बनम् । स्यानित्यशब्दादन्यत्वं च सिध्यदनित्यत्वं शब्दे गमयेदिति भावः । एतद्धदान्यत्ववदिति । यथैतद्धटान्योन्याभावः एतद्घटादन्यत्र सर्वत्रास्ति, तथा एतच्छब्दनिष्ठानां शब्दत्वादिधर्माणां योऽत्यन्ताभावः सोऽप्येतच्छब्दव्यतिरिक्तसकलवस्तुनिष्ठः एवेत्यर्थः । तदन्यत्रेति । एतच्छब्दादन्यत्र । सर्वपदार्थेष्वसंभवात् । तेन हेतुनैतद्धदान्योन्याभाव एतहटादन्यत्र सर्वत्र नास्ति । शब्दनिष्ठधर्मात्यन्ताभावस्तु सर्वत्र नास्तीत्यादिः क्षुद्रोपद्रवः कश्चिन्नाशयः । प्रथमचतुर्थेमहाविद्याभ्यामस्या भेदमाहइयं चैतदित्यादि ॥७॥ ८ अयं घटः एतद्धदान्योन्याभावैतच्छब्दनिष्ठास्यन्ताभाववस्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावाधिकरणं मेयत्वादिति ॥८॥ ८ (भुवन०)-अयं घट एतद्धटान्योन्याभावैतदित्यादि । एतटस्यान्योन्याभाव एतच्छन्दनिष्ठस्य धर्मस्यात्यन्ताभावश्च । तद्वदेतद्वयव्यतिरिक्त विश्वं, तद्वत्त्वरहितौ अनित्यौ एतौ द्वावेक । तत्र घटे निष्ठा घटत्वादयः, शब्दे निष्ठाश्च शब्दत्वादयः । तत्र घटत्वात्यन्ताभाववान्घट इति व्याहतम् । तस्मादनित्यशब्दनिष्ठस्य शब्दत्वादेरत्यन्ताभाववान्घटः । तथा च शब्दस्यानित्यत्वसिद्धिः प्रकटैवेत्यर्थः ॥ ८ ॥ ९ अयं घटः एतद्धटान्योन्याभावैतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभाववत्त्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणं मेयत्वादिति । एतयोश्च प्राचीनाभ्यां पूर्ववन्महान्भेदः ॥९॥ __९ (भुवन०)-अयं घटः एतद्घटान्योन्याभावेत्यादि । एतद्घटान्योन्याभावतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभाववत्त्वरहितानित्यनिष्ठश्वासावत्यन्ताभावश्च, तस्य प्रतियोगिनो ये धर्मा घटत्वादयस्तदधिकरणं घट इत्यर्थः । शेषं पूर्ववदेव । एतयोश्चेति । एतस्या अनन्तरोक्तमहाविद्यायाश्च प्राचीनाभ्यां पञ्चमीषष्ठीभ्यां महान्भेदो ज्ञातव्यः । यतः एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभावो आदाय ते महाविद्ये प्रवृत्ते । एते त्वेतद्भुटान्योन्याभावैतच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभावाकुपादाय चेत्यर्थः।। १० अयं घटः एतद्धनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छब्दान्योन्याभाववत्त्वरहितानित्यान्यः मेयत्वादिति ॥ इयं चैतद्धनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छन्दान्योन्याभावावुपादाय प्रवृत्ता । सप्तमी त्वेतद्धटान्योन्याभावैतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभावावुपादाय । तेनैतयोर्महान्भेदः । एवं वक्ष्यमाणयोरपि प्राचीनाभ्यां महान्भेदः ॥१०॥ १० (भुवन०)-अथ सप्तम्यादिमहाविद्यात्रयमेव भङ्गयन्तरेणाह-अयं घट इत्यादि । एतद्धटनिष्ठस्य अत्यन्ताभाव इति विग्रहः । सप्तमीमहाविद्यातोऽस्या भेदमाह-इयं चेति । वक्ष्यमाणयोरिति । एकादशीद्वादश्योः । प्राचीनाभ्यामिति । अष्टमीनवमीभ्यामित्यर्थः । शेषं पूर्ववत् ॥ १०॥ ११ अयं घटः एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छब्दान्योन्याभाववस्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ ११ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं ११ (भुवन०)-अयं घटः एतद्धटेत्यादि । एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छब्दान्योन्याभाववत्त्वरहितो योऽनित्यः शब्दादिस्तन्निष्ठा ये शब्दत्वादयस्तेषामत्यन्ताभाववान्घट इत्यर्थः ।। - १२ अयं घटः एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छन्दान्योन्याभाववत्त्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणं मेयत्वादिति ॥ १२॥ १२ (भुवन०)-अयं घट इत्यादि । एतद्धटनिष्ठस्य घटत्वादेरत्यन्ताभावः एतद्भुटनिष्ठात्यन्ताभावः । एतद्धनिष्ठात्यन्ताभावैतच्छब्दान्योन्याभाववत्त्वरहिदो योऽनित्यः शब्दादिस्तन्निष्ठो योऽत्यन्ताभावस्तस्य यः प्रतियोगी घटत्वादिस्तदधिकरणं घट इत्यर्थः ॥ १२ ॥ १३ अयं घटः एतद्धटान्यशब्दत्वात्यन्ताभाववत्त्वरहितानित्यान्यः मेयत्वादिति ॥ इयं चैतद्धटान्योन्याभावपक्षतत्तुल्यमात्रनिष्ठशब्दत्वात्यन्ताभावावुपादाय प्रवृत्ता पक्षतत्तुल्यान्यतमे यत्र कुत्रापि शब्देऽनित्यत्वं गमयति । सप्तमी त्वेतद्धटान्योन्याभावैतच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभावावुपादाय प्रवृत्ता निष्कृष्यतस्मिन्शब्देऽनित्यत्वं गमयति । तेनैतयोर्महान्भेदः । एवमुत्तरयोरपि प्राचीनाभ्यां महान्भेदः॥१३॥ १३ (भुवन० )-पुनरपि सप्तम्यादिमहाविद्या एवाष्टादशयावत्किञ्चिद्भेदेनाह-अयं घट एतद्धटान्येत्यादि । शब्दत्वस्य अत्यन्ताभावः शब्दत्वात्यन्ताभावः । स विद्यते येषु ते शब्दत्वात्यन्ताभाववन्तः, शब्दव्यतिरिक्ताः सर्वे पदार्थाः। ततो विशेषणविशेष्यकर्मधारयः । एतद्धटान्ये च ते शब्दत्वात्यन्ताभाववन्तश्च, एतद्घटान्यशब्दत्वात्यन्ताभाववन्तः । तदभावस्तद्वत्त्वं । तेन रहितश्चासौ अनित्यश्चैतद्धटो वा शब्दो वा । तस्मादन्यो घट इत्यर्थः । तत्र घटो घटादन्यो न संभवति । तस्मादनित्यशब्दादन्यो घट इति भावः । सप्तमीमहाविद्यातोऽस्या भेदमाह-इयं चैतद्धटान्योन्याभावपक्षतत्तुल्यमात्रेति । पक्षो मूलानुमानापेक्षया पक्षीकृतो विवक्षितः कश्चिच्छब्दस्तत्तुल्याः । पक्षतुल्या जगन्निष्ठा अपरे शब्दास्तदुभयनिष्ठं यच्छब्दत्वं तदत्यन्ताभावमुपादाय इयं प्रवृत्ता सती पक्षतत्तुल्यानां मध्येऽन्यतरस्मिन्यत्र कुत्रापि शब्देऽनित्यत्वं साधयति । सप्तमी त्वेतच्छब्देति भणनात्सर्वशब्दमध्यादेकं शब्द । निष्कृष्येति । पृथक् कृत्य । एतस्मिन्निति । विवक्षिते शब्देऽनित्यत्वं गम. यतीति तेनैतयोर्महान्भेदो ज्ञातव्यः। एवमुत्तरयोरपीति । चतुर्दशीपञ्चदश्योर्महाविद्ययोः । प्राचीनाभ्यामिति । अष्टमीनवमीरूपाभ्यामित्यर्थः ॥ १३ ॥ १४ अयं घटः एतद्धटान्यशब्दत्वात्यन्ताभाववत्त्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ १४ ॥ १४ (भुवन०)-अयं घट एतद्धटान्येत्यादि । एतद्धटादन्ये ये शब्दत्वात्यन्ताभाववन्तो विश्वपदार्थाः तद्वत्त्वरहितानित्यो घटो वा, शब्दो वा । तन्निष्ठा धर्मा घटत्वादयो वा शब्दत्वादयो वा । तेषामत्यन्ताभाववान्घटः साध्यते । तत्र घटत्वात्यन्ताभाववान्घट' इति साधने व्याघातः। तस्मा १ प्रदत्ता यत्र इति ज पुस्तकपाठः । २ भावप्रतियोग्यधिक इति घ पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ प०१ महाविद्याविडम्बनम् । च्छब्दत्वाद्यत्यन्ताभाववान्घटः प्रसिध्यति । शब्दत्वादि चानित्यनिष्ठं तदैव स्यात् , यदि शब्दोऽनित्यः स्यादिति शब्दानित्यत्वसिद्धिः ॥ १४ ॥ १५ अयं घटः एतद्धटान्यशब्दत्वात्यन्ताभाववत्त्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणं मेयत्वादिति ॥ एतद्धटान्यस्मिन् शब्दत्वात्यन्ताभाववति एतद्धटान्यशब्दत्वात्यन्ताभाववत्त्वं धर्मः । तद्रहितत्वमुपादायैतन्महाविद्यात्रयम् ॥ १५॥ १५ ( भुवन० )-अयं घटः एतद्धटान्यति । एतद्घटान्ये ये शब्दत्वात्यन्ताभाववन्तोऽत्यन्ताभाववन्तो विश्वपदार्थास्तद्वत्त्वरहिताऽनित्यः साध्यपक्षे शब्दे एव, तनिष्ठो योऽत्यन्ताभावस्तत्प्रतियोगिनो ये घटत्वादयो धर्माः, तदधिकरणं घट इति भावार्थः । एतन्महाविद्यात्रयोपयोगिनं धर्म दर्शयति-एतद्धटान्यस्मिन्नित्यादि ॥ १५ ॥ १६ अयं घटः एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावशब्दत्वात्यन्ताभाववत्त्वरहितानित्यान्यः मेयत्वादिति ॥ १६॥ १६ ( भुवन०)-अयं घटः एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावेत्यादि । एतद्बटनिष्ठस्य अत्यन्ताभा. वश्च । तद्वत्त्वरहितो योऽनित्यो दृष्टान्तधर्मपक्षे एतद्भुट एव । साध्यधर्मपक्षे तु शब्द एव । तस्मादन्यो घट इत्यर्थः ।। १६ ॥ १७ अयं घटः एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावशब्दत्वात्यन्ताभाववत्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ १७॥ १७ (भुवन०)-अयं घटः एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावेत्यादि । एतद्बटनिष्ठस्य घटत्वादेरत्यन्ताभावश्च शब्दत्वस्यात्यन्ताभावश्च । तौ विद्यते येषां ते तथा । तद्वत्त्वरहितानित्यौ एतौ द्वावेव । तनिष्ठा ये धर्मास्तेषां योऽत्यन्ताभावस्तदधिकरणं घदः । अत्रानित्यशब्दनिष्ठशब्दत्वात्यन्ताभाववान्घट इति परमार्थः ॥ १७ ॥ १८ अयं घटः एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावशब्दत्वात्यन्ताभाववत्त्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणं मेयत्वादिति॥ एतद्धटनिष्ठस्य अत्यन्ताभावश्च शब्दत्वात्यन्ताभावश्च एतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावशब्दत्वात्यन्ताभावौ । तदुभयरहितत्वं प्रकृतमहाविद्यात्रयोपयोगि ॥ १८॥ १८ ( भुवन० )-अयं घटः इत्यादि। एतद्धटनिष्ठस्यात्यन्ताभावश्च शब्दत्वात्यन्ताभावश्च । तद्वत्त्वरहितानित्यनिष्ठश्चासौ अत्यन्ताभावश्च । तस्य प्रतियोगिनो ये घटत्वादयो धर्मास्तेषामधिकरणं घट इत्याशयः। एतन्महाविद्यात्रयसंबन्धिनं धर्ममतिदिशति-एतद्धटनिष्ठस्यात्यन्ताभाव इत्यादि । पाश्चात्यमहाविद्यात्रयमेतद्घटान्योन्याभावमुपादाय प्रवृत्तम् । एतन्महाविद्यात्रयं त्वेतद्धटनिष्ठात्यन्ताभावमुपादायेति स्फुट एव भेदः ॥१८॥ १ भावरहि इति घ पुस्तकपाठः । २ भयवत्वरहि इतिज पुस्तकपाठः। Aho! Shrutgyanam Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण - श्री भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं १९ अयं घटः एतद्धरनित्यनिष्ठत्वरहितैतच्छब्दनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ एतस्मिन्घटे नित्ये च ये वर्तन्ते तेषु एतद्धदनित्यनिष्ठत्वं धर्मः । तद्रहितश्चैतद्धनिष्ठत्वरहितो वा, नित्यनिष्ठत्वरहितो वा । आद्यः पक्षे व्याहतः । नित्यनिष्ठत्वरहितस्तु पक्षीकृतशब्दनिष्ठस्तव स्याद्यदि पक्षीकृतः शब्दो नित्यो न भवेत् । पक्षीकृतशब्दनित्यत्वे तन्निष्ठस्य नित्यनिष्ठत्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः । तेन नित्यनिष्ठत्वरहितः पक्षीकृतशब्दनिष्ठो घटे सिध्यन् पक्षीकृतशब्दनित्यत्वमन्तर्भाव्य सिध्यतीति । एतद्धरनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते घटत्वादिना शब्दनित्यत्वेऽप्युपपद्यमानेन एतद्वनिष्ठेन अर्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्यर्थमेतच्छन्दनिष्ठग्रहणम् । एतच्छब्दनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते शब्दनित्यत्वेऽप्युपपद्यमानैर्मेयत्वादिभिरेतद्धटनिष्ठैरर्थान्तरता स्यात् । तन्नि वृत्यर्थमेतद्भट नित्यनिष्ठत्वरहितग्रहणम् । नित्यनिष्ठत्व रहितैतच्छन्दनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते नित्यपदार्थेषु साध्याभावः । तन्निवृत्त्यर्थमेतद्धदग्रहणम् । यद्यपि नित्यपदार्थेषु नित्यवृत्तित्वरहितो नास्ति, तथाप्येतद्धरनित्यनिष्ठत्वरहितः एतद्वदान्योन्याभावः एतच्छब्दनिष्ठोऽस्त्येवेति नित्यपदार्थेषु साध्यानुगमसिद्धि: ॥ १९ ॥ ४६ --- १९ ( आनं० ) — xx धिकरणमित्युक्ते व्यात्यसिद्धिर्नित्येषु तदसम्भवादत उक्तम्नित्यनिष्ठत्वरहितेति । घटान्तरप्रवृत्तिरहितेन स्वमात्रनिष्ठधर्मेणार्थान्तरत्वं निवर्तयति — एतदिति । एतद्भट नित्यनिष्ठत्वरहित एतदवृत्तिर्वा नित्यवृत्तिरहितो वा । आद्यः पक्षे व्याहतः, द्वितीयस्तु शब्दनिष्ठो धर्मः पक्षे सिध्यन्ननित्यत्वं शब्दस्य भावयेदिति भावः । व्याकरोति - एतद्वट इति । विशेषणकृत्यमाह — घटत्वादिनेति ॥ 1 १९ ( भुवन० ) अथाभिनवप्रकारेण महाविद्यान्तराणि प्राह-अयं घटः एतद्धट नित्यनित्वेत्यादि । एतद्वच नित्याच एतदनित्याः । तेषु निष्ठा येषां ते एतद्भटनित्य निष्ठास्तेषां भावस्तत्वं । तेन रहितश्चासावेतच्छन्दनिष्ठश्च तस्याधिकरणं घट इत्यर्थः । अत्र साध्यो धर्मो विश्वप्रतियोगिको घटशब्दान्योन्याभाव: । दृष्टान्तधर्मस्तु पक्षान्योन्याभावः सर्वत्र द्रष्टव्यः । अथैतां महाविद्यां व्याचरीकरोति - एतस्मिन्नित्यादि । अथान्त्यविशेषणं विमुच्य व्यावृत्तिचिन्तां करोतिएतद्घटनित्यनिष्टत्वरहितेत्यादि । घटत्वादिनेति । घटत्वादिना यथोक्तयुगलावृत्तित्वान्नित्येष्ववर्तमानेन घटे च वर्तमानेन शब्दस्य नित्यत्वेऽपि साध्ये उपपद्यमानेनार्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्यर्थमेतच्छब्दनिष्ठेति पदग्रहणम् । अथाद्यविशेषणं परित्यज्य व्यावृत्ति चिन्तयति — एतच्छन्द निष्ठेत्यादि । १ freed frइति ग पुस्तकपाठः । २ शब्दस्यानित्य इति ज पुस्तकपाठः । ३ आनन्दपूर्णकृता टीका आदर्शपुस्तके त्रुट्यनन्तरं पुनरित भारभ्य लब्धा । Aho! Shrutgyanam Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० १ महाविद्याविडम्बनम् | एवमपि मेयत्वादिभिरेतच्छब्दघटनिष्ठैः शब्दनित्यत्वरूपार्थान्तरता तथाविधैवेति तन्निवृत्त्यर्थमेतद्भटनित्यनिष्ठेत्यादिपदोपादानम् । यद्यपि नित्यपदार्थेषु नित्यवृत्तित्वेत्यादि । यद्यपि दृष्टान्तीक्रियमाणेषु नित्येषु पक्षान्योन्याभावादियों धर्मो विचार्यते स नित्यवृत्तित्वरहितो न स्यात्, तथाप्येतद्भट नित्यरूपयुगलावृत्तित्वेनैतद्भट नित्यवृत्तित्वरहितो भवत्येव । स च पक्षीकृतघटादन्यत्र सर्वत्र वर्तमानत्वेनैतच्छब्दनिष्ठोऽस्त्येवेति तेन पक्षान्यत्वादिना धर्मेण नित्येषु साध्यानुगमो द्रष्टव्यः । घटान्तवृत्तित्वरहितेन पक्षीकृतघटैतच्छब्दमात्रनिष्ठधर्मेण अर्थान्तरत्वनिवर्तनायैतदिति पदं द्रष्टव्यम् । एतनित्यनिष्टत्वरहितः एतद्वटावृत्तिर्वा नित्यवृत्तित्वरहितो वा । आद्यः पक्षे व्याहतः । द्वितीयस्तु पूर्वोक्तः शब्दनिष्ठो धर्मः पक्षे सिध्यन्ननित्यत्वं शब्दस्य साधयेदिति भावः ॥ १९ ॥ ४७ २० अयं घटः शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितैतच्छन्दनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ पूर्वमहाविद्यायामेतद्वदग्रहणस्य यत्प्रयोजनं तदेवात्र शब्देतसनित्यग्रहणस्य । शेषं पूर्ववत् ॥ २० ॥ २० ( आनं० ) - शब्देतरेति । शब्दादितरस्मिन्ननित्ये नित्ये च ये वर्तन्ते तेषु शब्देत रानि - त्यवृत्तित्वं धर्मः, तद्रहितश्चासावेतच्छब्द निष्ठश्च तस्याधिकरणमित्यर्थः । एतच्छन्दनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते मेयत्वादिनार्थान्तरमत आह- नित्येति । नित्यवृत्तित्वरहितै तच्छन्द निष्ठाधिकरणमित्युक्ते - त्येषु साध्यसिद्धिरत उक्तम् - अनित्य नित्यवृत्तित्वरहितेति । यद्यपि नित्यनिष्ठेषु नित्यवृत्तित्वराहित्यं नास्ति, तथाप्यनित्यवृत्तित्वे सति नित्यवृत्तित्वं नास्त्येव । अनित्यनित्यवृत्तित्वरहिताधिकरणमित्युक्ते घटत्वेन अर्थान्तरत्वमत आह— एतच्छन्दनिष्ठेति । अनित्यवृत्तित्वरहितैतच्छन्दनिष्ठाधिकरणमित्युक्तेऽप्रसिद्धविशेषणत्वम् । न हि शब्दस्यानित्यत्वसिद्धेः प्रागनित्यनित्यवृत्तित्वरहितः शब्दनिष्टः सिध्यतीत्यत उक्तम् — शब्देतरेति । शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितैतच्छब्दनिष्ठत्वशब्देतर नित्यान्यत्वमनित्येषु, नित्येषु च शब्देतरानित्यान्यत्वमिति व्याप्तिसिद्धिः । शब्देतरा नित्य नित्यवृत्तित्वरहितश्च नित्यमात्रवृत्तिर्वाऽनित्यमात्रवृत्तिर्वा । आद्यः पक्षे व्याहतः । द्वितीयस्तु शब्दनिष्ठः पक्षे सिध्यन्ननित्यत्वं शब्दस्य गमयतीत्यर्थः । २० ( भुवन ० ) – अयं घटः शब्देतरा नित्येत्यादि । शब्दादितरे च ते अनित्याश्च शब्दे - तरानित्याः, शब्देतरा नित्याश्च ते नित्याश्च शब्देतरानित्यनित्याः । तद्वृत्तिषु शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहितचासौ एतच्छन्द निष्ठश्च । तस्याधिकरणं घट इत्यर्थः । एवंविधश्व साध्यधर्मोऽत्र विश्वप्र तियोगिकघटशब्दान्योन्याभावादिः । स च यदि शब्दो नित्योऽङ्गीक्रियते, तदा नित्ये शब्दे शब्दे - तरानित्ये च घटे वर्तनाच्छब्देतरा नित्यनित्य वृत्तित्वरहितो न भवति । तस्माच्छब्दस्यानित्यत्वमङ्गीकार्यम् । अत्र नित्यपदार्थेषु दृष्टान्तेषु शब्दनित्यान्यतरत्वादिर्वा शब्देतरानित्यान्यत्वादिर्वा धर्मों द्रष्टव्यः । अनित्यनित्यवृत्तित्वरहितैतच्छन्द निष्ठाधिकरणमित्युक्ते वादिनः अप्रसिद्ध विशेषणत्वम् । गगनादौ सपक्षेऽनित्यनित्यवृत्तित्वरहितस्य शब्दनिष्ठस्य च शब्दगगनान्यतरत्वादेर्धर्मस्य वादिनः का प्यप्रसिद्धेः । तदर्थे शब्देतरेतिपदग्रहणम् । शब्देतरानित्यपदं तु वादिप्रतिवादिनोरुभयोरप्यप्रसिद्धविशेषणतापरिहारद्वारेण पूर्वानुमाने एतद्घटपदवन्नित्येषु साध्यसिद्धयर्थमुपात्तं । तथैव चाहपूर्वमहाविद्यायामेतद्धटेत्यादि ॥ २० ॥ 1 Aho! Shrutgyanam Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं २१ अयं घटः शब्देतरानित्यनिष्ठशब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणं मेयत्वदिति । ये शब्देतरानित्यनिष्ठाः शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनश्च तेषु शब्देतरानित्यनिष्ठत्वे सति शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं धर्मः । तद्रहिहितश्चासौ अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगीच, तद्धिकरणं तदाश्रय इत्यर्थः। उभयत्र अनित्यनिष्ठश्चासौ अत्यन्ताभावश्चेति समासः। अनित्यनिष्ठात्यन्ता. भावप्रतियोग्यधिकरणमित्युक्ते स्तम्भाद्यनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिभिर्घटत्वादिभिरेतद्धटनिष्ठैः प्रकृतशब्दनित्यत्वेऽप्युपपद्यमानैरर्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्यर्थं शब्देतरानित्यनिष्ठशब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितग्रहणम् । शब्देतरानित्यनिष्ठशब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहिताधिकरणमित्युक्ते मेयत्वादिभिरेतद्धटनिष्ठैः प्रकृतशब्दनित्यत्वेऽप्युपपद्यमानैरर्थान्तरता स्यात्। तन्निवृत्त्यर्थमनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिग्रहणम् । २१ (आनं०)-शब्देतरानित्यनिष्ठेति । शब्देतरानित्यनिष्ठश्वासावत्यन्ताभावश्च शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावः, तत्प्रतियोगित्वरहितः शब्देतरानित्यनिष्ठश्चासौ शब्देतरानित्यनिष्टात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितश्च, स चायमनित्यनिष्ठात्यन्ताभावस्य प्रतियोगी, तस्याधिकरणमित्यर्थः । अधि करणमित्युक्ते वाच्यत्वेनार्थान्तरं वारयति-अत्यन्ताभावप्रतियोगीति । अत्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणमित्युक्ते नित्यनिष्ठात्यन्ताभावस्य प्रतियोगिकार्यत्वेन अर्थान्तरमत उक्तम्-अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावेति । अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणमित्युक्ते स्तम्भनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिघटत्वेन अर्थान्तरमत उक्तम्-नित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितति । अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्र. तियोगित्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणमित्युक्ते व्याघातोऽत उक्तम्-शब्देतरेति । शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणमित्युक्ते व्यात्यसिद्धिः । नित्यमात्रनिष्ठानां शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेन तद्रहितत्वाभावात्, अत उक्तम्-अनित्यनिष्ठेति । अनित्यनिष्ठत्वे सति यच्छन्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तन्नित्यमात्रनिष्ठं धर्मेषु नास्तीति साध्यसिद्धिः । नित्येष्वनित्येष्वपि स्तम्भत्वकुम्भादीनां स्वाश्रयनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितत्वात्कार्यान्तरनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वात्साध्यसिद्धिः । अनित्यनिष्ठशब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणमित्युक्तेऽपि प्रकारान्तरेण व्याप्तिभङ्गः । शब्दानित्यत्वसिद्धः पूर्व शब्दमात्रनिष्ठानामनित्यनिष्ठत्वासिद्धेः, शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितत्वासिद्धेश्च । तत उक्तं शब्देतरानित्यनिष्ठेति। शब्दमात्रधर्मस्य शब्देतरानित्यनिष्ठत्वे सति यच्छब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तन्नास्तीति साध्यानुगमः। घटे च शब्देतरानित्यनिष्ठशब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितः १शब्दे तसिहनिष्ठा इति घ पुस्तक पाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । ४९ सिध्यन्ननित्यनिष्ठत्वरहितो न सिध्यति । तेन शब्देतरा नित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितः सिभ्येत् । स चानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी सिध्यन्ननित्यत्वं शब्दस्य गमयति । शब्देतरा नित्यमात्रनिष्ठस्य तन्मात्रनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वादिति भावः । व्याचष्टे - ये शब्देतरेति । कृत्यमाह - अनित्यनिष्ठेति । २१ (भुवन० ) - अयं घटः शब्देतरानित्यनिष्ठेत्यादि । शब्दादितरे येऽनित्याः शब्देत - रानित्याः, शब्देत नित्येषु निष्ठा येषां ते शब्देतरा नित्यनिष्ठाः । शब्दादितरे येऽनित्यास्तनिष्ठचासौ अत्यन्ताभावश्च शब्देतरा नित्य निष्ठात्यन्ताभावः । तस्य प्रतियोगिनः शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनः । शब्देतरा नित्यनिष्ठाश्च ते शब्देतरा नित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनश्च । एवंविधाश्च धर्मा एकैकानित्यनिष्ठाः परस्परं सर्वेऽपि पटत्वस्तम्भत्वादयो ज्ञेयाः । तेषां भावस्तत्त्वं । तेन रहिताः । शब्दत्वाकाशत्वादयः परस्परत्वविवक्षारहिता घटत्वादयोऽपि च । अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावेति । अनित्यनिष्ठचासौ अत्यन्ताभावश्च तस्य प्रतियोगिनः अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनः । शब्दे - तरानित्यनिष्ठशब्देतरा नित्य निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितश्चासौ अनित्य निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगीच तस्याश्रयो घटइति विग्रहः । अत्र प्रथम विशेषणविचारणायामाकाशत्वशब्दत्वस्तम्भत्वमेयत्वादयः उपपद्यन्ते । तत्राकाशत्वादयो यद्यपि शब्देत नित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहिता न सन्ति, तथापिशब्देत नित्यनिष्ठत्वे सति यच्छब्देतरा नित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तत्त्वरहिता एवेति । ये च शब्दत्वादयस्तेऽपिच यद्यपि शब्देतरा नित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहिता न सन्ति, तथापि शब्देत नित्यनिष्ठत्वे सति यच्छब्देतरा नित्यनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तत्त्वरहिता एव । ये च घटत्वस्तम्भत्वादयस्तेऽपि यद्यपि शब्देतरानित्यनिष्ठाः सन्ति, तथापि शब्देत नित्यनिष्ठत्वे सति यच्छब्दे तरा नित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तत्त्वरहिता एव । मेयत्वादयोऽपि शब्देतरानित्यनिष्ठत्वे सति यच्छब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तत्त्वरहिता एवेति । द्वितीयविशेषणस्यायमर्थः । अनित्यशब्दनिष्ठो योऽत्यन्ताभावस्तस्य प्रतियोगी पूर्वविशेषणविशिष्टश्च यो घटत्वादिधर्मस्तदाधारो घट इत्यर्थः । पूर्वविशेषणविशिष्टमपि घटत्वमनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगि तदैव स्यात्, यदि शब्दोऽनित्यः स्यात् । गगनादीनां नित्यत्वेनोभयसंमतत्वात् । शब्देतरानित्यपटादिनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वे च घटत्वादिधर्मस्य शब्देतरानित्यनिष्ठत्वे सति शब्देतरा नित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः, शब्दस्य चेतरशब्देन पृथक्कृतत्वात्पारिशेष्यादनित्यः शब्द एव स्यादिति भावः । आकाशत्वशब्दत्वादयो घटे व्याघातादेव साधयितुं न शक्यन्ते । प्रमेयत्वादीनां चात्यन्ताभावप्रतियोगित्वमेवाघटमानकं, तेषां सर्वपदार्थनिष्ठत्वात् । कुतस्तरामनित्य निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वमिति । तस्मात्तेषां घटमध्ये साधने निषेधः प्रकट एव । अथाद्यविशेषणं परित्यज्य व्यावृत्तिचिन्तां करोति । अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावेत्यादि । एवं च क्रियमाणे घटत्वादिभिः शब्दस्य नित्यत्वरूपार्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्यर्थे शब्दतरानित्येत्यादि । अयमाशयः । यद्यप्यनेन पूर्वविशेषणेनापि च घटत्वादय एवायान्ति, तथाप्युत्तरं विशेषणं यदि पूर्वविशेषणेन सह विचार्यते तदा शब्दस्यानित्यत्वमेव सिध्यति, न तु नित्यत्वम् । अथ द्वितीयविशेषणसाफल्यमाह — शब्देतरानित्यनिष्ठेत्यादि । एवमप्युक्ते मेयत्वादिभिः शब्दस्य नित्यत्वरूपार्थान्तरता तथैवेति तद्व्यवच्छेदाय अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावेत्यादि । ७ महाविद्या० पं० १ Aho! Shrutgyanam Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं मेयत्वादीनां सकलवस्तुनिष्ठत्वेन अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वस्यैवानुपपत्तेरनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वस्य सुतरामभावात् । अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणमित्युक्ते च स्पष्ट एव व्याघातः स्यात् । अतः शब्देतरेति पदं ज्ञेयम् । __ शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणमित्युक्तेऽप्रसिद्ध विशेषणत्वम् । नित्यमात्रनिष्ठानां धर्माणांशब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभवप्रतियोगित्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः। एवं शब्दमात्रनिष्ठानां शब्दनित्यमात्रनिष्ठानां च । एतद्धटव्यतिरिक्तशब्देतरानित्याश्च पक्षतुल्या इति न तन्मात्रनिष्ठेषु साध्यप्रसिद्धिः । अतोऽप्रसिद्धविशेषणतानिरासाथै शब्देतरानित्यनिष्ठग्रहणम् । यद्यपि नित्यमात्रनिष्ठा धर्माः शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनः, तथापि शब्देतरानित्यनिष्ठत्वे सति यत् शब्दे. तरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं, तद्रहिता एवेति नित्यमात्रनिष्ठेषु साध्यप्रसिद्धिः । एवं शब्दत्वादिष्वपि शब्देतरानित्यनिष्ठशब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितः शब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितो वा स्यात्, शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितो वा । आद्यः पक्षे व्याहतः। द्वितीयस्य तु अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तद्देव स्यात्, यद्यनित्यः शब्दः स्यात् । गगनादीनां नित्यत्वात् । शब्देतरानित्यमात्रवृत्तेश्च शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वानुपपत्तेश्च । तेन शब्दानित्यत्वसिद्धिः ॥ २१ ॥ (आनं०)-नित्यपदार्थेषु साध्यसिद्धिमुपपादयति-नित्यमाति। शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी नित्येषु नास्तीत्यर्थः । एवमिति । शब्दमात्रनिष्ठानां शब्देतरानित्यनिष्ठत्वं नास्ति, तथा शब्देऽनित्यमात्रे च निष्ठानामपि तन्नास्तीत्यर्थः । शब्देतरानित्यनिष्ठधर्माणामनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं शब्दानित्यत्वसिद्धेः प्राग्दुरधिगममित्याह-एतद्धटव्यतिरिक्तेति । नित्यमात्रनिष्ठानामनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वाच्छब्देतरानित्यनिष्ठग्रहणेऽपि न साध्यसिद्धिरत्राहयद्यपीति । कथं शब्दतदितरनित्येषु साध्यसिद्धिरत्राह-एवमिति । शब्दत्वादिषु शब्दमात्रधर्मेषु शब्देतरानित्यनिष्ठत्वाभावाच्छब्दे साध्यसिद्धिः । शब्देतरानित्यानां पक्षतुल्यत्वात्तत्र संदेहो न दोषः इत्यर्थः । घटस्यैवंभूतधर्माधिकरणत्वेऽपि कथं शब्दानित्यत्वमत्राह-शब्देतरेति । शब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितोऽपि तन्नित्यत्वे सति तन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितो भवतीत्यर्थः । शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितसिद्धावपि कथं विवक्षितसिद्धिरत्राह-द्वितीयस्येति । आकाशादिनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेन किं न स्यादत्राह-गगनादीनामिति । स्तम्भादिनिष्ठात्यन्ताभाषप्रतियोगित्वेन तथात्वं स्यादवाह-शब्देति । शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितस्य तद्स्वं व्याहतमित्यर्थः । परिशेषसिद्धमाह-तेनेति । Aho ! Shrutgyanam Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ प०१ महाविद्याविडम्बनम् । (भुवन०)-अथाचं शब्देतरानित्यनिष्ठेतिपदं मुक्त्वा व्यावृत्तिं करोति-शब्देतरानित्य. निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेत्यादि । इत्युक्ते अप्रसिद्धविशेषणत्वमाह-अप्रसिद्धविशेषणत्वमिति । अस्मिन्विशेषणद्वये विचार्यमाणे एवंविधधर्माणां सपक्षे अनुपपद्यमानत्वमित्यर्थः । कथमप्रसिद्धविशेषणत्वमित्याह-नित्यमात्रनिष्ठधर्माणामित्यादि । नित्यत्वाकाशत्वाइयो धर्मा नित्यमात्रनिष्ठास्तेषामित्यर्थः । एवं शब्दमात्रनिष्ठानामिति । शब्दमात्रनिष्ठाः शब्दत्वश्रावणत्वादयो धर्मास्तेषाम् । शब्दनित्यमात्रनिष्टानां चेति । शब्दनित्यमात्रनिष्ठा धर्माः शब्देतरानित्यान्यत्वादयः । तेषामपि च शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेरिति पूर्वेण संबन्धः । तर्खेतद्धटव्यतिरिक्तशब्देतरानित्येषु दृष्टान्तीक्रियमाणेषु साध्यप्रसिद्धिः कथं भविष्यतीत्याशङ्कयाह-एतद्धटव्यतिरिक्तेत्यादि । एतद्धटः पक्षीकृतो घटः, शब्देतरेति पदेन वर्जितत्वान्मूलानुमानपक्षश्च शब्दः, तो मुक्त्वा अपरे ये भावा अनित्याः पटादयस्ते सर्वेऽपि पक्षतुल्याः । यथा पक्षः सन्दिग्धसाध्यः, तथा तेऽपि सन्दिग्धसाध्या इत्यर्थः । इति न तन्मात्रनिष्ठेष्विति । एतद्बटशब्दव्यतिरिक्तानित्यमात्रेषु पूर्वोक्तविशेषणोपपन्नानां धर्माणामसंभवेन न साध्यप्रसिद्धिरन्वेषणीया । अतोऽप्रसिद्धविशेषणत्वव्यवच्छेदाय शब्देतरा नित्यनिष्ठपदोपादानम् । यद्यपि शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितेति विशेषणेन केवलेन आकाशत्वादयो धर्मा नोपपद्यन्ते, तथापि शब्देतरानित्यनिष्ठपदे प्रक्षिप्ते एतद्विशेषणद्वययोगे उपपद्यन्ते एव । तथैव चाह-यद्यपि नित्यमात्रनिष्ठा धर्मा इत्यादि । एवं च नित्यमात्रनिष्ठाकाशत्वादिना शब्दमात्रनिष्ठशब्दवादिना च साध्यप्रसिद्धौ सिद्धायामाकाशादयः शब्दश्वात्र दृष्टान्तीकार्याः । एवं च मूलानुमानपक्षं शब्दमेव पक्षीकृत्य प्रवृत्ता महाविद्याः परित्यज्य अन्यासु सर्वास्वपि शब्दोऽपि यथायोगं दृष्टान्तीकार्यः इति व्यञ्जयति-एवं शब्दत्वादिष्वपीति । एवं शब्दे दृष्टान्तीक्रियमाणे शब्दत्वादिना धर्मेण साध्यप्रसिद्धिद्रष्टव्येति भावार्थः । अनित्यनिष्ठशब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणमित्युक्त च वादिमतेन शब्दे अप्रसिद्धविशेषणत्वं स्यात् । वादिमतेन शब्दमात्रनिष्ठानामनित्यनिष्ठत्वेन शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेन च तद्रहितत्वासिद्धेः । तदर्थ शब्देतरेति पदं ज्ञेयम् । तथा च शब्दमात्रनिष्ठधर्मस्य शब्देतरानित्यनिष्ठत्वे सति यच्छब्देतरा नित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तद्रहितत्वमेवेति तेन साध्यानुगमः शब्दे द्रष्टव्य इति । घटस्यैवंभूतधर्माधिकरणत्वेऽपि कथं शब्दानित्यत्वमित्यत्राह-शब्देतरानित्यनिष्ठेत्यादि । आद्यः पक्षे व्याहत इति । आद्यः शब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितो धर्मः पक्षे घटे यः शब्देतरसर्वानित्येषु न वर्तते सोऽनित्ये घटे कथं वर्तते इति व्याघा. तेनं बाधितः । सपक्षे चासौ प्रयोजकः । यतः स धर्मः आकाशत्वशब्दत्वादिरूपः शब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितत्वेन शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितोऽस्ति । तथा अनित्यस्तम्भादिनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी चेति । द्वितीयस्य तु शब्देतरानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्र. तियोगित्वरहितत्वरूपैधर्मस्य अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरूपान्त्यविशेषणविशिष्टत्वं तदैव १ रूपस्य धर्म' इति च पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आनन्दपूर्ण - भुवन सुन्दरसूरिकृतटीकायुतं स्यात्, यद्यनित्यः शब्दः स्यादिति । आकाशादिनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेन द्वितीयस्यानि - त्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं किं न स्यादित्याह -- गगनादीनां नित्यत्वादिति । गगनादयो हि नित्यत्वेनोभयोरपि वादिप्रतिवादिनोः संमताः । अतस्तन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेऽपि द्वितीयधर्मस्यानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं न स्यादित्यर्थः । तर्हि स्तम्भादिनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेन अनित्य निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं भविष्यतीत्याशङ्कय ब्रूते - शब्देत नित्यमात्रवृत्तेचेत्यादि । शब्दा दितरे ये अनित्याः पदार्थास्तन्मात्रवृत्तेर्घटत्वादेर्धर्मस्य । शब्देतरानित्येति । शब्देत नित्यनिष्ठश्वासौ अत्यन्ताभावश्च तस्य यत्प्रतियोगित्वं तस्यानुपपत्तेः शब्देतरा नित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितस्य तद्वत्त्वं व्याहतमित्यर्थः । परिशेषाच्छब्दानित्यत्वसिद्धिमभिधत्तेनेत्यादि । तेन कारणेन द्वियीयधर्मस्य शब्दानित्यत्वं विना अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वान्यथानुपपत्तेः शब्दस्यानित्यत्वमङ्गीकार्यमिति शब्दानित्यत्वसिद्धिरित्यर्थः ॥ २१ ॥ २२ अयं घटः एतद्वंद्वैतच्छन्दव्यतिरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणं मेयत्वादिति ॥ एतद्वंद्वैतच्छन्दव्यतिरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिषु एतद्भद्वैतच्छब्दव्यतिरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं धर्मः । तद्रहितश्च एतद्वदमात्रनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी वा एतच्छब्दमात्र निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी वा । आद्यः पक्षे व्याहतः । द्वितीयस्य तु अनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वमेतच्छब्दानित्यत्वमनधिगम्य दुरधि - गममित्येतच्छब्दानित्यत्वसिद्धिः ॥ २२ ॥ २२ ( आनं० ) – अयमिति । एतद्धटचैतच्छब्दचैतद्धटैतच्छन्दौ, ताभ्यां व्यतिरिक्तनिष्ठोऽत्यन्ताभावः, तस्य प्रतियोगित्वरहितः, स चायमनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी, तस्याधिकरणमित्यर्थः । मेयत्वादिव्यावृत्त्यर्थम नित्य निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगीत्युक्तम् । स्तम्भाद्यनित्य निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिघटत्वव्यावृत्त्यर्थमेतद्घटव्यतिरिक्तैतन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वर हितग्रहणम् । एतच्छब्दव्यतिरि क्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणत्वमेतच्छब्दनित्यत्वसिद्धेः प्रागप्रसिद्धमित्यत उक्तम्- - एतद्धटेति । घटव्यतिरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितः एतदादन्यनिष्ठः एतदनित्यघटनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी च तदधिकरणत्वं घटादन्यत्र सर्वत्रास्तीति व्यायनुगमः । एतस्मिन्घटे एतच्छन्दव्यतिरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितो नित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी सिध्यन्ननित्यत्वं शब्दस्य साधयेदित्याशयः ॥ २२ ॥ २२ ( भुवन० ) – अयं घटः एतद्वद्वैत च्छन्दव्यतिरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणमिति । एतद्वदच एतच्छन्दश्च एतद्वै तच्छब्दौ । ताभ्यां व्यतिरिक्तमेतद्व्यरहितं सर्वै विश्वम् । तन्निष्टश्चासौ अत्यन्ताभावश्च, तस्य प्रतियोगी एतवटै तच्छब्दव्यतिरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी । तद्भावस्तत्त्वं । तेन रहितो वियुतः अनित्यनिष्ठो यो ऽत्यन्ताभावस्तस्य प्रतियोगी । एतद्वै तच्छन्द व्यतिरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितश्चासौ अनित्यनिष्ठात्यन्ताभाव 1 Aho! Shrutgyanam Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० १ महाविद्याविडम्बनम् | ५३ प्रतियोगी च घटत्वरूपो यो धर्मस्तस्याधिकरणमाधारो घट इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम् । एतदैतच्छब्दव्यतिरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनौ हि द्वावेव धर्मों स्याताम् । एतद्वटमात्रनिष्ठो घटत्वादिर्वा एतच्छब्दमात्रनिष्ठः शब्दत्वादिर्वा । एतद्भटै तच्छन्दद्वयादन्येषां सर्वपदार्थानां व्यतिरिक्तपदेन सङ्गृहीतत्वात् । तत्र साध्यधर्मपक्षे एतद्भद्वैतच्छन्दव्यतिरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी शब्दत्वादिरेक एवैतच्छन्दमात्रनिष्ठो विवक्ष्यते न त्वेतद्बटमात्रनिष्ठो घटत्वादिः । एतद्वद्वैतच्छब्दव्यतिरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेन रहितस्तु एतद्घटनिष्ठो घटत्वादिरेव । तत्प्रतियोगित्वरहिता यद्यपि स्तम्भत्वाकाशत्वादयोऽपि भवन्ति, तथापि ते पक्षिते घटे विरोधेन साधयितुं न शक्यन्ते । तस्माटत्वादिरेव तत्र साध्यः । स चानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी तदैव स्यात्, यदि शब्दोऽनित्यः स्यात् । एतद्वदैतच्छन्दद्वयान्यसर्वपदार्थनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वस्य आद्यविशेषणेन निषिद्धत्वात् । अवशिष्टस्य घटस्य शब्दस्यैव च सद्भावात्तत्र घटत्वं घटरूपानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगीति व्याहतम् । तस्माच्छब्दरूपो यः अनित्यस्तन्निष्टो यः अत्यन्ताभावस्तत्प्रतियोगि घटत्वं, तस्याश्रयो घटः । तथा च शब्दानित्यत्वसिद्धिरिति । दृष्टान्तधर्मपक्षे त्वेतद्वैतच्छब्दव्यरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगि घटत्वम् | तत्त्वरहितास्तु शब्दत्वा काशत्वादयः । ते चैतदरूपो योऽनित्यस्तन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिन एव । तेषामधिकरणं दृष्टान्तीभूताः शब्दाकाशादय इत्यर्थः । मेयत्वादिव्यावृत्त्यर्थमनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगीत्युपात्तम् । स्तम्भाद्यनित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिघटत्वेन सिद्धसाधनताव्यावृत्यर्थमेतच्छन्दव्यतिरिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितग्रहणम् । अयं घटः एतच्छन्दव्यति - रिक्तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितानित्यनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोग्यधिकरणभित्येतावत्येव चोच्य - मानेऽप्रसिद्धविशेषणत्वम् । एवंविधस्य धर्मस्योभयसिद्धस्य शब्दानित्यत्वसिद्धेः प्राग् दृष्टान्तेऽनुपपद्यमानत्वादत उक्तमेतद्धटेति । इति व्यावृत्तिचिन्ता ॥ अथैतदनुमानस्यार्थं व्याचष्टे - एतद्भद्वैतच्छदेत्यादि । शब्दानित्यत्वसिद्धिप्रदर्शनाय द्वेधा विकल्पयति — तद्रहितचैतद्धटमात्र निष्ठात्यन्ताभा 1 योगी वेत्यादि । पक्षीकृतघटमात्रनिष्ठश्वासौ अत्यन्ताभावश्च तस्य प्रतियोगी । एतद्वटमात्रनिष्टान्धर्मान्विना शब्दस्तम्भात्मादिसर्वपदार्थसार्थनिष्ठः शब्दत्वस्तम्भत्वात्मत्वादिः सर्वोऽपि धर्मसमूहो ज्ञातव्यः । एतच्छन्दमात्रेत्यादि । एतच्छब्दमात्रनिष्ठश्वासौ अत्यन्ताभावश्च तस्य प्रति । एतच्छब्दमात्रनिष्ठान् शब्दत्वादिधर्मान् विना नित्यानित्यसर्वपदार्थधर्मो घटत्व पटत्वा काशत्वादिकः सर्वोऽपि ज्ञातव्यः । तत्राद्यस्य पक्षे व्याघातं ब्रूते - आद्य इत्यादि । आद्य एतद्बट मात्र निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिरूपधर्मः पक्षे घटे व्याहतः । न हि शब्दत्वपटत्वाकाशत्वादिको धर्मों घटे साधयितुं शक्यते । घटस्य स्वरूपहानिप्रसङ्गादिति स्फुट: एव व्याघातः । द्वितीयस्य पक्षे सिद्धिमाह - द्वितीयस्येत्यादि । द्वितीयस्य एतच्छन्दमात्रनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिलक्षणस्य घटत्वादिधर्मस्य । अनित्यनिष्ठश्चासौ अत्यन्ताभावञ्च, तस्य प्रतियोगित्वं द्वितीयविशेषणविशिष्टत्वमित्यर्थः । एतच्छन्दानित्यत्वमनधिगम्येत्यादि । एतच्छब्दानित्यत्वं विना द्वितीयस्य धर्मस्य अनित्यनिष्ठा - त्यन्ताभावप्रतियोगित्वं न स्यात् । शब्दव्यतिरिक्तपदार्थात्यन्ताभावप्रतियोगित्वस्य आद्यविशेषणेन निरस्तत्वात् । तस्माच्छन्द एवानित्योऽङ्गीकार्यः । तथा च शब्दानित्यत्वसिद्धिरिति । एतासु महाविद्यासु अष्टादशमहाविद्या आद्यमहाविद्योतामेव कारिकामाश्रित्य नवनवभङ्गयतरेण प्रवृत्ताः । अपर Aho! Shrutgyanam Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं महाविद्याप्रवर्तककारिकास्तु निपुणैर्मन्थान्तरतो ज्ञातव्याः । एवमग्रेऽपि यत्र नोक्तास्तत्र स्वयमेवाभ्यूह्याः । इति सपक्षं पक्षीकृत्य प्रयुक्ता द्वाविंशतिर्महाविद्या दर्शिताः ॥ २२ ॥ अथ विपक्षं पक्षीकृत्य प्रवर्तमाना महाविद्याभेदाः। तद्यथा-शब्दोऽनित्यः इत्यत्र गगनादिर्विपक्ष इति स्थिते, (आनं० )-विपक्ष इति स्थिते । गगनं पक्षीकृत्य प्रयुज्यत इति शेषः । (भुवन० )-अथ विपक्षं पक्षीकृत्य प्रवृत्ता महाविद्या दर्शयति-अथेत्यादि । महाविद्याभेदा दर्श्यन्ते इति शेषः । तद्यथेति तदुपन्यासार्थः । शब्दोऽनित्य इत्यत्रेति । शब्दोऽनित्यःकृतकत्वात् घटवत् , यन्नानित्यं न तत्कृतकं, यथा गगनम् इत्यत्र मूलानुमाने गगनादिर्विपक्षः इति स्थिते, गगनं पक्षीकृत्य प्रयुज्यते इत्यध्याहारः । १ गगनं एतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयस्वादिति ॥अत्र वक्ष्यमाणासु च घटो दृष्टान्तः। अनित्यनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते मेयत्वादिभिरनित्यनिष्ठैरेतच्छन्दनित्यत्वेऽप्युपपद्यमानैरर्थान्तरता स्यात् , तनिवृत्त्यर्थमेतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितग्रहणम् । एतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहिताधिकरणमित्युक्ते नित्यत्वतद्वान्तरधर्मंगगननिष्ठैरेतच्छब्देऽप्युपपद्यमानरर्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्यर्थमनित्यनिष्ठग्रहणम् । नित्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते व्याघातः । न हि नित्यनिष्ठत्वरहितो नित्ये गगने च वर्तते इति संभवति । तन्निवृत्त्यर्थमेतच्छब्देतरानित्यग्रहणम् । यद्यपि गगने नित्यवृत्तित्वरहितो धर्मो व्याहतः, तथापि एतच्छब्देतरानित्यनित्ये च ये वर्तन्ते तेषु यदेतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वं धर्मः, तद्रहितो धर्मो गगनेऽव्याहतः । एतच्छब्देतरनित्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमित्युक्तेऽपि व्याघातः । यस्य कस्यचिदपि गगनधर्मस्य एतच्छब्देतरनित्यगगननिष्ठत्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः । तन्निवृत्त्यर्थमनित्यग्रहणम् । एतच्छब्देतरनित्यनिष्ठत्वरहितधर्मस्य गगने व्याहतत्वेऽपि एतच्छब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितधर्मस्य अव्याहतत्वात् । एतच्छब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते चाप्रसिद्धविशेषणत्वम् । न हि एतच्छब्दानित्यत्वसिद्धेः पूर्व एतच्छब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितस्य अनित्यनिष्ठत्वं शक्यमधिगन्तुम् ।तनिवृत्त्यर्थं नित्यग्रहणम्। १(आनं०) एतच्छब्देतरानित्ये नित्ये च ये वर्तन्ते तेष्वेतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहितश्वासावनित्यनिष्ठश्च तस्याधिकरणमित्यर्थः । अधिकरणमित्युक्ते शब्दाधिकरणत्वं सिद्धं वार १ वान्तरैगंग' इति ग पुस्तकपाठः । २ गगने वर्तते' इति ज पुस्तकपाठः । ३ शक्याधिगमम् । त इति ज पुस्तकपाठः। Aho! Shrutgyanam Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ महाविद्याविडम्बनम् । यति-अनित्यनिष्ठेति । अनित्यनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते मेयत्वादिना अर्थान्तरत्वं वारयितुमाहनित्यत्तित्वरहितति । नित्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते व्याघातोऽत उक्तम्अनित्यनित्यत्तित्वरहितेति । अनित्यनित्यवृत्तित्वरहिताधिकरणमित्युक्तौ नित्यत्वेनार्थान्तरत्वमत आह-अनित्यनिष्ठेति । अनित्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते व्याघातः स्यादित्युक्तं अनित्यनित्यत्तित्वरहितेति । अनित्यनित्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते व्याघातः, यस्य कस्यचिदपि गगनधर्मस्यानित्यनित्यवृत्तित्वरहितस्य नित्यमात्रवृत्तेरनित्यनिष्ठत्वायोगादत उक्तम्-शब्दतरेति । न चैवं व्याघातः । शब्दानित्यत्वोपगमेन गगनशब्दमात्रवृत्तेर्गगनशब्दसंबन्धादेरुपगमे प्रतिज्ञात्वार्थपर्यवसानात् । शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठः तु अनित्येषु शब्देतरानित्यत्वमस्ति । नित्यानां पक्षतुल्यत्वेन सपक्षत्वाभाव इति व्याप्त्यनुगमो द्रष्टव्यः । विशेषणकृत्यमाह-अनित्यनिष्ठेति । नित्ये गगनेऽनित्यवृत्तित्वधर्मस्तथापि व्याहत एवेत्यत आह-यद्यपीति । गगनेऽव्याहत इति । अव्याहत इति च्छेदः ॥ १॥ १ (भुवन० )-तत्र प्रथम अपक्षसाध्यवद्वत्तिविपक्षान्वयि यन्न तत् । साध्यवद्वृत्तितायुक्तं साध्यते साध्यवर्जिते । __ इति कारिकामाश्रित्य या प्रवृत्ता तामाह-गगनमतच्छब्देतरानित्यनित्येत्यादि । व्याख्या। गगनं पक्षः । एतच्छब्दादितरे येऽनित्या एतच्छब्देतरा नित्याः। ते च नित्याश्च एतच्छ देतरानित्यनित्याः । तत्र वृत्तियेषां ते एतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तयः, तेषां भावस्तत्त्वं । तेन रहितः । अनित्ये निष्ठा यस्य सोऽनित्यनिष्ठः । शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितश्चासौ अनित्यनिष्ठश्च, तस्याश्रयो गगनमित्यर्थः । एवंविधश्चात्र धर्मों गगनशब्दमात्रवृत्तिर्गगनशब्दसंबन्धादिर्वा विश्वप्रतियोगिकः शब्दाकाशान्योन्याभावादिर्वा । स च नित्ये गगन एव वर्तनाच्छब्देतरानित्ये च कस्मिंश्चिदप्यवर्तनाच्छब्देतरानित्यनित्यरूपयुगलवृत्तित्वरहित एव । स च धर्मोऽनित्यवृत्तिस्तदैव स्यात्, यदि शब्दोऽनित्यः स्यात् । तस्य च धर्मस्य गगने वर्तनेऽपि गगनस्य नित्यत्वेनोभयवादिसंमतत्वादनित्यवृत्तित्वं न स्यात् । तस्माद्गले पादुकान्यायेनोभयोविवादापन्नत्वाच्छब्दस्यैवानित्यत्वमङ्गीकार्यम् । एवंविधश्चात्र धर्मो मेयत्वसत्त्ववाच्यत्वादिर्न घ. टते । तस्य नित्यानित्यरूपयुगलवृत्तित्वात् । नित्यत्वादिश्चानित्यवृत्तीति पदेन निरस्तः । अनित्यमा. त्रवृत्तिरनित्यत्वादिश्व पक्षितगगने नित्ये न सम्भवति । तस्मात्पूर्वोक्तो गगनशब्दसंबन्धादिरेव साध्यधर्मोऽत्र ज्ञेयः । अत्र च दृष्ठान्तीक्रियमाणेषु घटादिषु अनित्येषु घटत्वादिः शब्देतरानित्यत्वादिर्वा धना मन्तव्यः । नित्यानां शब्दस्य चात्र पक्षतुल्यत्वेन सपक्षत्वाभावो न दोषपोषायेति । तथैव च प्रतिपादयति-अत्र वक्ष्यमाणासु चेत्यादि । घट इत्युपलक्षणं । तेन पटस्तम्भादयस्तद्धर्माश्च सर्वेऽप्यनित्या ग्राह्याः । अथाद्यं विशेषणं परित्यज्य व्यावृत्तिचिन्तां करोति-अनित्यनिष्ठेत्यादि । तथोक्ते च मेयत्वादिभिनित्यत्वरूपाऽर्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्यर्थमेतच्छब्देतरानित्येत्यादि । तथा १ प्रतिशातार्थप इति स्यात् ()। Aho ! Shrutgyanam Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं च मेयत्वादीनां शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वेन रहितत्वानुपपत्तेर्नार्थान्तरता । तदवान्तरैरिति । नित्यत्वादवान्तरैर्गगनैकत्वादिभिरित्यर्थः । तथाप्येतच्छन्दतरेत्यादि । यद्यपि नित्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते व्याघातः स्यात्, तथापि सम्पूर्णप्रथमविशेषणविचारणायां युगलावृत्ति. त्वेनैवंविधो धो गगने उपपद्यते एव । यस्य कस्यचिद्गनधर्मस्येति । गगनगतैकत्वनित्यत्वव्यापकत्वादेर्गगनधर्मस्य नित्यनिष्ठत्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेाघात इत्यर्थः । अप्रसिद्धविशेषणत्वं भावयतिनहीत्यादि । अत्र दृष्टान्ते घटादौ एवंविधस्य धर्मस्याप्रसिद्धता । यद्यपि शब्दस्यानित्यत्वे एवंविधो धर्मः शब्दानित्यत्वादिः शब्दादितरे ये भावा अनित्यास्तनिष्ठत्वरहितो विद्यते, अनित्यशब्दवृत्तित्वाधिकरणं च, तथापि शब्दानित्यत्वसिद्धेः पूर्वमन्यत्र घटपटादावेवंविधधर्मो नोपपद्यते । तेनाप्रसिद्धविशेषणत्वमित्यर्थः । एतच्छब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितानित्यनिष्ठाप्रसिद्धत्वेऽपि, एतच्छब्देतरानित्यनित्यनिष्ठत्वरहितानित्यनिष्ठस्य एतच्छब्देतरानित्यत्वादेः सुप्र. सिद्धत्वात् । एतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितो धर्मः १ एतच्छब्देतरानित्यमात्रवृत्तिर्वा, २ नित्यमात्रवृत्तिर्वा, ३ एतच्छन्दैतच्छब्देतरानित्यमात्रवृत्तिवा, ४ एतच्छब्दमात्रवृत्तिर्वा, ५ एतच्छब्दगगनव्यत्तिरिक्तनित्यमात्रवृत्तिा , ६ एतच्छब्दगगनमात्रवृत्तिर्वा । प्रथमतृतीयचतुर्थपञ्चमा गगने व्याहताः। द्वितीयस्तु अनित्यनिष्ठग्रहणेन दूरं निरस्तः । षष्ठस्य तु अनित्यनिष्ठत्वमेतच्छब्दानित्यत्वमन्तर्भाव्यैव सिध्यति । गगननित्यत्वस्योभयवादिसिइत्वादित्येतच्छब्दानित्यत्वसिद्धिः॥१॥ (आनं० )-शब्दानित्यत्वमन्तरेण व्यापकापर्यवसानं दर्शयितुमाह-एतच्छब्देतरानित्यनित्यनिष्ठत्वरहितो धर्म इति । (भुवन० )-अथ पक्षशब्दानित्यत्वमन्तरेण साध्यापर्यवसानं दर्शयितुं आद्यविशेषणविचा. रणोपपन्नं धर्म षोढा विकल्पयति-एतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितो धर्म इत्यादि । १ पतच्छब्देतरानित्यमात्रवृत्तिति । एवंविधो घटत्वपटत्वादिः । २ नित्यमात्रवृत्तिति । नित्यत्वादिः । ३ एतच्छब्दैतच्छन्देतरानित्यमात्रवृत्तिति । एतस्मिन् शब्दे एतच्छब्देतरानित्यमात्रे च घटादौ वृत्तिर्यस्य स तथा । एवंविधश्च विश्वप्रतियोगिको घटैतच्छन्दान्योन्याभावादिः । ४ एतच्छब्दमात्रवृत्तिर्वेति । एतच्छब्दत्वादिः । ५ एतच्छब्दगगनव्यतिरिक्तनित्यमात्रवृत्तिति । एतस्मिन् शब्दे गगनव्यतिरिक्ते नित्यमात्रे च वृत्तिर्यस्य स तथा । एवंविधश्च धमों विश्वप्रतियोगिक आत्मैतच्छब्दान्योन्याभावादिः । ६ एतच्छन्दगगनमात्रवृत्तिर्वेति । एतस्मिन् शब्दे गगनमात्रे च वृत्तिर्वतनं यस्यासौ तथा । एवंविधश्च धर्मो गगनशब्दसंबन्धादिः ॥ प्रथमतृतीयचतुर्थपञ्चमानां गगने विरुद्धत्वेन व्याघातमाचष्टे-प्रथमतृतीयचतुर्थेत्यादि । द्वितीयस्त्विति । द्वितीयो नित्यत्वादियद्यपि १ गगनैकत्वनि इति छ द पुस्तकपाठः । २ देः पूर्व सप्र इति ज पुस्तकपाठः । ३ महाविद्याविडम्वनग्रन्थे तथा भुवनमुन्दरमरिकृतटीकायां नित्यत्तित्वरहि इति पागे दृश्यते । Aho! Shrutgyanam Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० १ महाविद्या विडम्बनम् | गगने वर्तमानो नित्यमात्रवृतिर्भवति, तथाप्यनित्यनिष्ठत्वरूपद्वितीयविशेषणविशिष्टत्वं तस्य न स्यादिति स दूरं निरस्तः । षष्ठस्याभ्युपगमेन परिशेषाच्छन्दानित्यत्वसिद्धिमाह - षष्ठस्य तु अनित्यनित्वं गगनस्य नित्यत्वाच्छब्दानित्यत्वं विना नोपपद्यते इति अनित्यः शब्दः स्वीकर्तव्यः ॥ १ ॥ ५७ २ गगनं शब्दत्वरहितानित्यनित्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ प्राचीना महाविद्या पक्षीकृतशब्दविशेषान्योन्याभावमुपादाय प्रवृत्ता पक्षीकृतशब्दविशेषेऽनित्यत्वं गमयति । इयं तु पक्षतत्तुल्यसाधारणशब्दत्वात्यन्ताभावमुपादाय प्रवृत्ता पक्षतत्तुल्यान्यतमस्मिन् शब्दे अनित्यत्वं गमयति इत्येतयोर्महान् भेदः ॥ २ ॥ २ ( आनं० ) - गगनमिति । शब्दत्वरहिते शब्दत्वात्यन्ताभाववत्य नित्ये नित्ये च ये वर्तन्ते तेषु शब्दत्वरहिता नित्य नित्यवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहितश्चासावनित्यनिष्ठश्च तस्याधिकरणमित्यर्थः । विशेषणकृत्यं साध्यपर्यवसानं च पूर्ववत् । प्राचीनमहाविद्यायामप्ययमेवार्थः साधितः इत्यत आहप्राचीनेति । एतच्छब्देतरेतिविशेषणात्पक्षीकृतशब्द विशेषणान्योन्याभावमुपादायेत्यर्थः । इयमपि तथेति नेत्याह- इयं त्विति । पक्षः एतच्छब्दः । तत्तुल्याः अन्ये शब्दास्तेषां साधारणस्य शब्दत्वस्यात्यन्ताभावमित्यर्थः ॥ २ ॥ २ ( भुवन० ) - पूर्वामेव महाविद्यामेतच्छब्दे तरेतिपदस्थाने शब्दत्वरहितेतिपदग्रहणेन भङ्गयन्तरेणोदाहरति — गगनं शब्दत्वरहितानित्यनित्येत्यादि । शब्दत्वेन रहिताः शब्दत्वात्यन्ताभाववन्तः । ते च तेऽनित्याश्च शब्दत्वरहितानित्याः । एतावता ये शब्दत्वसहितास्तेषां सर्वेषामप्यनित्येभ्यो निष्कर्षः कृतः । शेषं पूर्ववत् । प्राचीनमहाविद्यातोऽस्या भेदमावेदयति - प्राचीनेत्यादि । प्राचीना महाविद्या एतच्छब्देतरेति भणनाद्विवक्षितस्यैव कस्यचिच्छब्दस्य अन्योन्याभावमुपादाय प्रवृत्ता सती शब्दविशेषे एवानित्यत्वं साधयति । इयं तु शब्दत्वरहितेतिभणनात्पक्षः एतच्छन्द:, तत्तुल्या अन्ये शब्दास्तेषां साधारणस्य शब्दत्वस्यात्यन्ताभावमादाय प्रवृत्ता पक्षतत्तुल्यान्यतमस्मिन् शब्देऽनित्यत्वसाधिका । सर्वशब्दानित्यत्वगमिकेयमित्यर्थः । इत्यनयोर्भेदः ॥ २ ॥ ३ गगनं एतच्छब्दतरानित्यगगनवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ पूर्वमहाविद्या नित्यमात्रमुपादायप्रवृत्ता, इयं तु पक्षीकृतनित्यविशेषमुपादायेति विशेषः । शेषं पूर्ववत् ॥ ३ ॥ ३ ( आनं० ) - एतच्छब्देत रेति । एतच्छब्देत नित्ये गगने च ये वर्तते, तेष्वेतच्छब्देतरानित्यगगनवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहितश्चासावनित्यनिष्ठश्च तस्याश्रय इत्यर्थः । नित्यत्वतदवान्तरधर्मव्यावृत्यर्थं अनित्यनिष्ठेत्युक्तम् । मेयत्वादिव्यावृत्त्यर्थ —— गगनवृत्तित्वरहितेति । व्याघातपरिहारार्थ अनित्यगगनवृत्तित्वरहितेति । अनित्यगगनवृत्तित्वरहितो नित्यनिष्ठश्चानित्यमात्रवृत्तिरिति स्थिते गगने न संभवतीत्यत आह- शब्दतरेति । पक्षतुल्ये वापि साध्यपर्यवसानं वारयति - एतदिति । एतच्छब्दे तरवृत्तित्वरहिताधिकरणमित्युक्ते व्याघातः । एतच्छब्देतरा नित्यवृत्तित्वरहिताधिकरण८-९ महाविया ० Aho! Shrutgyanam Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं मित्यपि नित्यत्वेनार्थान्तरमित्यादि स्वयमूह्यम् । एतच्छब्देतरानित्यगगनवृत्तित्वरहितो नित्यनिष्ठश्च धों गगनान्यत्वं पक्षातिरिक्त सर्वत्रास्तीति व्याप्त्यनुगमः । गगने त्वेतच्छब्देतरानित्यगगनवृत्तित्वरहितः एतच्छब्दगगनमात्रवृत्तिरनित्यनिष्ठः सिध्यन्ननित्यत्वमेतच्छब्दस्य गमयतीति भावः । प्रथममहाविद्यातोऽस्या भेदमाह-पूर्वेति । ३ (भुवन०)-अथ “अपक्षसाध्यवद्वृत्तिविपक्षे पक्षिते न यत् । साध्यववृत्तितायुक्तं साध्यते तद्विपक्षगम् ॥" इति कारिकामाश्रित्य या प्रवर्तते तां ब्रूते-गगनमतच्छब्देतरानित्यगगनवृत्तिवेत्यादि । एतच्छब्देतरानित्याश्च गगनं च, तत्र वृत्तिर्येषां, तेषां भावस्तत्त्वं धर्मः, तद्रहितश्चासावनित्यनिष्ठश्चतस्याश्रयो गगनभित्यर्थः । नित्यत्वतवान्तरधर्मव्यावृत्त्यर्थमनित्यनिष्ठेत्युक्तम् । मेयत्वादिव्यावृत्त्यर्थमेतच्छब्देतरानित्यगगनवृत्तित्वरहितेत्युपात्तम् । गगनवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते व्याघातः, तन्निवृत्त्यर्थमनित्येति । अनित्यगगनवृत्तित्वरहितोऽनित्यनिष्ठश्चानित्यमात्रवृत्तिरनित्यत्वादि. गंगने नित्ये न सम्भवतीत्युक्तं शब्देतरेति । पक्षतुल्ये यत्र कापि शब्दे साध्यपर्यवसानवारणाय एतदिति । इति व्यावृत्तिचिन्ता ।। एतच्छब्देतरानित्यगगनवृत्तित्वरहितोऽनित्यनिष्ठश्च धर्मो गगनान्यत्वं पक्षातिरिक्ते सर्वत्रास्तीति व्याप्त्यनुगमः । गगने तु एतच्छब्देतरानित्यगगनवृत्तित्वरहितः एतच्छब्दगगनमात्रवृत्तिरेतच्छब्दगगनान्यतरत्वा दिरनित्यनिष्ठः सिध्यन् अनित्यत्वमेतच्छब्दस्य साधयतीत्याशयः । प्रथममहाविद्यातोऽस्या भेदं प्रदर्शयति-पूर्वमहाविद्या नित्यमात्रमित्यादि । पूर्वमहावियायां नित्येतिभणनात्सर्वे नित्यपदार्थाः स्वीकृताः । अत्र तु नित्यपदस्थाने पक्षीकृतं गगनमेव न्यस्तमित्यनयोर्विशेषः ॥ ३॥ ४ गगनं शब्दत्वरहितानित्यगगनवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ एतस्मिंश्च महाविद्याचतुष्टये गगनेतरनित्यानां प्रकृतशब्दादेश्च पक्षतुल्यत्वम् ॥४॥ ४ ( आनं०)-चतुर्थमहाविद्या द्वितीयमहाविद्यावढ्याख्येया । अनित्यनित्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठः पक्षतत्तुल्यशब्देषु गगनातिरिक्तनित्यपदार्थे च नास्तीति व्याप्तिभङ्ग इत्यत आहएतस्मिनिति । तृतीयचतुर्थमहाविद्ययोर्गगनान्यत्वं गगनातिरिक्त सर्वत्रास्तीति व्याप्तिसिद्धेरेतस्मिन्प्रकरणमहाविद्याचतुष्टये प्रथमद्वितीयमहाविद्याद्वये वक्ष्यमाणमहाविद्याद्वये चेत्यर्थः । . ४ (भुवन०)-गगनं शब्दत्वरहितानित्यगगनेत्यादि । शब्दत्वरहिताः शब्दत्वात्यन्ताभाववन्तः । ते च तेऽनित्याश्च शब्दत्वरहितानित्याः । ते च गगनं च, तत्र वृत्तिर्येषां ते तथा । शेष तृतीयमहाविद्यावढ्याख्येयम् । एतच्छब्देतरानित्यनित्यत्तित्वरहितानित्यनिष्ठादिधर्मः शब्देषु गगनातिरिक्तनित्यपदार्थेषु च नास्तीति व्याप्तिभङ्ग इत्यत आह-एतस्मिश्चेति । तृतीयचतुर्थमहाविद्ययोगगनान्यत्वं पटादौ शब्दे च सर्वत्रास्तीति व्याप्तिसिद्धेः, प्रथम द्वितीयमहाविद्याद्वये वक्ष्यमाणमहाविद्याद्वये चेत्यर्थः ॥ ४॥ १ प्रवर्तयति इति द छ पुस्तकपाठः । २ 'प्रकृते' इति स्यात् (?) Aho ! Shrutgyanam Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ ५०१ महाविद्याविडम्बनम् । - ५ गगनं एतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितानेकनित्यवृत्तित्वरहितानेकनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ एतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तिरहितानेकनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते नित्यत्वतवान्तरैरनेकनिष्ठुरन्तरता स्यात् । तन्निवृत्त्यर्थमनेकनित्यनिष्ठत्वरहितग्रहणम् । एतच्छब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितानेकनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते गगनमात्रनिष्ठैरेकत्वादिभिरेतच्छन्दमात्रनित्यत्वेऽप्युपपद्यमानैरर्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्त्यर्थमनेकनिष्ठग्रहणम् । अनेकनित्यवृत्तित्वरहितानेकनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते घटाकाशान्यतरत्वादिना अर्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्यर्थमेतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितग्रहणम् । ___५ (आनं० )-गगनमिति । शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितश्वासावनेकनित्यवृत्तित्वरहितोऽनेकनिष्ठश्च । तस्याधिकरणमित्यर्थः । गगनमात्रनिष्ठैकत्वादिव्यावृत्त्यर्थमनेकनिष्ठग्रहणम् । नित्यत्वव्यावृत्त्यर्थमनेकनित्यवृत्तित्वरहितग्रहणम् । नित्यवृत्तित्वरहितानेकनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते व्याघातोऽत उक्तम्-अनेकनित्येति । अनेकनित्यवृत्तित्वरहितानेकनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते गगनसंयोगयोः संबन्धे. नार्थान्तरत्वमत उक्तम्-नित्यवृत्तित्वरहितेति । व्याघातपरिहारार्थमेवैतच्छब्देतरानित्यग्रहणम् । अत्रैतच्छब्दगगनमात्रवृत्तिः सिध्यन्ननेकनित्यवृत्तित्वरहितः एतच्छब्दस्यानित्यत्वं गमयेदिति भावः । ५ (भुवन०)-" अपक्षसाध्यवद्वृत्तिविपक्षान्वयवर्जितः । नानाविपक्षवृत्त्यन्यभिन्नधर्मोऽस्ति पक्षिते ॥" एतां कारिकामाश्रित्य विपक्षपक्षीकरणेन प्रवृत्तामाह-गगनमेतच्छब्देतरानित्यनित्यत्तित्वरहितानेकनित्यवृत्तित्वरहितानेकनिष्ठाधिकरणमिति । अनेके च ते नित्याश्च अनेकनित्याः तद्वृत्तित्वरहितः । एकस्मिन् गगनादौ निष्ठा यस्य असावेकनिष्ठः । न एकनिष्ठोऽनेकनिष्ठः । अनेकनित्यवृत्तित्वरहितश्चासावनेकनिष्ठश्च स तथा । एतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितश्वासावनेकनित्यवृत्तित्वरहितानेकनिष्ठश्च तस्याधारो गगनमित्यर्थः । एवंविधश्च धर्मः पक्षे विश्वप्रतियोगिकः शब्दाकाशान्योन्याभावादिज्ञेयः । स च गगन एव नित्ये वर्तनादेतच्छब्दादितरस्मिंश्च कस्मिंश्चिदप्यनित्ये अवर्तनात् एतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितः एव । तथा शब्दाकाशयोर्द्वयोरपि वर्तनादनेकनिष्ठश्चाप्यस्त्येव । स चानेकनित्यवृत्तित्वरहितस्तदैव, यदि शब्दोऽनित्यः स्यादिति पारिशेष्याच्छब्दानित्यत्वसिद्धिरिति । अत्र च पूर्वोक्तविशेषणोपपन्नमेतच्छब्देतरानित्यत्वैतच्छन्देतरकार्यत्वादिकमुपादाय अनित्येषु साध्यप्रसिद्धिर्द्रष्टव्या । गगनेतरनित्यानां शब्दस्य च पक्षतुल्यत्वान्न तेषु साध्याभावः कलङ्कपङ्कशङ्काकरः । एवमुत्तरमहाविद्यायामपि ज्ञेयम् । नित्यत्वतदवान्तरैरिति । नित्यत्वं च तदवान्तरधश्चि व्यापकत्वादयः तैः । मनःपरमाण्वादौ नित्यत्वसद्भावेऽपि व्यापकत्वादीनामभावात्तेषामवान्तरत्वम् । गगनमात्रनिष्ठरेकत्वादिभिरिति । गगनैकत्वादिभिरित्यर्थः । घटाकाशान्यतरत्वादिनेति । घटाकाशयोरन्यतरत्वं हि घटेऽप्याकाशेऽपि च वर्तते एव, उभयानुगतधर्मत्वात् । यथा चैत्रमैत्रयोरन्यतरः इत्युक्ते चैत्रोऽपि वा लभ्यते मैत्रोऽपि वेति । तेनैकस्मिन्नेव नित्ये वर्तमानत्वेन अनेकनित्यत्तित्वरहितेन घटाकाशद्वयेऽपि वर्तमानत्वेन चानेकनिष्ठेन नित्यत्वरूपार्थान्तरता । तद्व्यवच्छेदायैत Aho! Shrutgyanam Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं च्छब्देतरा नित्येत्यादि । तथा च घटाकाशान्यतरत्वादेरनित्ये घटे नित्ये चाकाशे वर्तमानत्वेनैतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितत्वानुपपत्तेरित्यर्थः । एतच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितो धर्मः १ एतच्छब्देतरानित्यमात्रवृत्तिर्वा, २ नित्यमात्रवृत्तिर्वा, ३ एतच्छब्दैतच्छब्देतरानित्यमात्रवृत्तिा , ४ एतच्छब्दमात्रवृत्तिर्वा, ५ एतच्छब्दगगनव्यतिरिक्तनित्यमात्रवृत्तिर्वा, ६ एतच्छन्दगगनमात्रवृत्तिर्वा । प्रथमतृतीयचतुर्थपञ्चमा गगने व्याहताः । द्वितीयो ऽप्यनेकनित्यवृत्तिर्वा स्यात्, एकैकनित्यवृत्तिर्वा स्यात् । प्रथमोऽनेकनित्यवृत्तित्वरहितग्रहणेन निरस्तः। द्वितीयोऽनेकनिष्ठग्रहणेन निरस्तः। षष्ठस्तु एतच्छब्दानित्यत्वमन्तर्भाव्य सिध्यति । एतच्छब्दनित्यत्वे गगनैतच्छब्दनिष्ठस्य अनेकनित्यनिष्ठत्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेः ॥५॥ (आनं०) एतच्छब्दस्यानित्यत्वमन्तरेण व्यापकापर्यवसानं दर्शयितुं संभावितप्रकारानाह-एतच्छब्देतरानित्यमात्रवृत्तिर्वेति ॥५॥ __ (भुवन० )-एतच्छब्दानित्यत्वमन्तरेण साध्यसिद्धेरपर्यवसानं दर्शयितुं प्रथमविशेषणोद्भूतान् षड्यासंभावितविकल्पानाविर्भावयति–एतच्छब्देतरानित्यनित्येत्यादि । १ एतच्छब्देतरानित्यमात्रवृत्तिति । एतच्छब्देतरा नित्यत्वादिरेकैकानित्यमात्रवृत्तिर्घटपटत्वादि । २ नित्यमात्रवृत्तिवैति । नित्यत्वादिरेकैकनित्यवृत्तिरात्मत्वादिषु । ३ एतच्छब्दैतच्छन्देतरानित्यमात्रवृत्तिर्वेति । एतच्छब्दानित्यान्यतरत्वादिविश्वप्रतियोगिको घटैतच्छब्दान्योन्याभावादि । ४ एतच्छब्दमात्रवृतिर्वेति । एतच्छब्दत्वादिः । ५ एतच्छन्दगगनव्यतिरिक्तनित्यमात्रवृत्तिति । गगनानित्यान्यत्वादिविश्वप्रतियोगिक आत्मैतच्छब्दान्योन्याभावादि । ६ एतच्छन्दगगनमात्रवृत्तिति । एतच्छब्दाकाशसंबन्धादिः । अत्रापि प्रथमतृतीयचतुर्थपञ्चमानां पक्षे व्याघातमभिधत्ते-प्रथमेत्यादि । द्वितीयं द्विधा विकल्पयति-द्वितीयोऽप्यनेकेत्यादि । प्रथमस्य मध्यविशेषणविशिष्टत्वाभावमाख्याति-प्रथमोऽनेकेत्यादि । द्वितीयस्य अन्त्यविशेषणेन निरासमाचष्टे-द्वितीयोऽनेकेत्यादि । षष्ठस्य पक्षे सिद्धिं ब्रूते-षष्ठस्त्वेतच्छब्दानित्यत्वेत्यादि । एतच्छब्दनित्यत्वसिद्धौ दूषणमुद्घोष. यति-एतच्छन्दनित्यत्व इत्यादि । अयमाशयः । आकाशो नित्यत्वेनोभयवादिनोरपि संमतः । तत्र शब्दोऽपि यदि नित्योऽङ्गीक्रियते, तदा शब्दाकाशसंबन्धादेरनेकनित्यनिष्ठत्वमेव स्यात्, न तु तद्रहितत्वम् । अनेकनित्यवृत्तित्वरहितत्वं चात्र प्रोक्तम् । तस्माच्छब्दस्यानित्यत्वमास्थेयमेवेति ॥ ५॥ ६ गगनं शब्दत्वरहितानित्यनित्यनिष्ठत्वरहितानेकनिष्ठत्वरहितानेकनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ एतयोश्च महाविद्ययोरेतच्छब्देतरानित्यत्वादिकमुक्तविशेषणोपपन्नमुपादाय साध्यप्रसिद्धिर्द्रष्टव्या । शेषं पूर्ववत् ॥६॥ १ आत्मशब्दा' इति च पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ महाविद्याविडम्बनम् । . ६ ( आनं० ) उत्तरमहाविद्यायामेतच्छब्देतरस्थाने शब्दत्वरहितपदं निहितम् । शेषं पूर्ववत् । कथमत्र व्याप्त्यनुगमोऽत्राह-एतयोश्चेति । शब्देतरानित्यत्वं शब्देतरनित्यत्वं शब्देतरकार्यत्वं च कथितविशेषणमनित्येषु सिद्धम् । गगनेतरानित्यशब्दानां शब्दस्य च पक्षतुल्यत्वाड्याप्त्यनुगम इत्यर्थः ॥ ६॥ ६ (भुवन०)-गगनं शब्दत्वरहितेत्यादि । अस्यां महाविद्यायां पूर्वमहाविद्योक्तच्छब्देतरपदस्थाने शब्दत्वरहितपदं निदधे । शेषं पूर्ववत् । कथमेतयोक्त्यिनुगमोऽत्राह-एतयोश्चेति । पञ्चमीषष्ठयोमहाविद्ययोरित्यर्थः । एतच्छब्देतरानित्यत्वादिकमिति । एतच्छब्दादितरे ये भावास्तेपामनित्यत्वादिकं धर्ममित्यर्थः । आदिशब्देन एतच्छब्देतरकार्यत्वादिग्रहः । गगनेतरनित्यानां शब्दस्य च पक्षतुल्यत्वान्न तत्र व्याप्त्यभावेऽपि दोषः ॥ ६॥ ७ गगनं गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वरहितैतच्छब्दनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ गगनेतरनित्ये गगने च ये वर्तन्ते तेषु गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहितश्च धर्मः १ गगनेतरनित्यमात्रवृत्तिर्वा, २ गगनमात्रवृत्तिा , ३ एतच्छब्देतरानित्यगगनवृत्तिा, ४ एतच्छन्दगगनवृत्तिर्वा । आद्यो गगने व्याहतः। द्वितीयतृतीयौ शब्दनिष्ठग्रहणेन निरस्तौ। चतुर्थस्तु एतच्छब्दानित्यत्वमन्तर्भाव्य सिध्यति । एतच्छब्दनित्यत्वे गगनैतच्छन्दनिष्ठस्य गगनेतरनित्यगगननिष्ठत्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेरित्येतच्छब्दानित्यत्वसिद्धिः । एतच्छन्दनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते मेयत्वादिभिरेतच्छन्दनित्यत्वेऽप्युपपद्यमानैरर्थान्तरता स्यात् । तन्निवृत्यर्थं गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वरहितग्रहणम् । गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वरहिताधिकरणमित्युक्ते गगननिष्ठैरेकत्वादिभिरेतच्छन्दनित्यत्वे ऽप्युपपद्यमानैरर्थान्तरता स्यात् । तेन्निवृत्यर्थमेतच्छब्दनिष्टग्रहणम् । ७ (आनं० )-गगनेति । गगनेतरनित्यवृतित्वे गगनवृत्तिषु गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहितश्चासावेतच्छब्दनिष्ठश्च तदधिकरणमित्यर्थः । गगनमधिकरणमित्युक्ते शब्दाधिकरणत्वेनार्थान्तरमत उक्तम्-शब्दनिष्ठेति । पक्षतुल्ये कापि साध्यसिद्धिं व्यावर्तयितुमेतच्छन्दनिष्ठाधिकरणमित्युक्तम् । तथापि मेयत्वादिकं प्रसक्तमप्यावर्तयति-गगनवृत्तित्वरहितेति । व्याघातपरिहारार्थगगनेतरनित्यत्तित्वरहितेति । गगनेतरनित्यवृत्तित्वरहितैतच्छब्दनिष्ठाधिकरणमित्युक्तेऽप्रसिद्धविशेषणत्वं, शब्दनिष्ठस्य नित्यवृत्तित्वरहितत्वस्य शब्दानित्यत्वसिद्धेः पूर्व दुरधिगमत्वादत उक्तम्गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वरहितति । गगनान्यत्वमुक्तरूपं गगनातिरिक्ते सर्वत्रास्तीति साध्यसिद्धिः । व्याप्तिबलादेतच्छब्दगगनमात्रवृत्तिगगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वरहितः सिध्यन्ननित्यत्वमेतस्य शब्दस्य साधयेदिति तात्पर्यम् । गगने तद्रहितधर्मसिद्धथा कथमेतच्छब्दानित्यत्वमत आह १ तव्यावृत्यर्थमे' इति घ पुस्तक पाठः । २ ‘वृत्तिषु' इति स्यात् (?)। ३ प्रसक्तं व्यावर्तयति इति स्यात् (?)। Aho! Shrutgyanam Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं बद्रहिववेति । एतच्छब्दगगनवृत्तेः कया अनुपपत्त्या साध्यसाधकत्वमत्राह-एतच्छब्दत्वनित्यत्वे इति । ७ (भुवन०)-गगनं गगनेतरनित्येत्यादि । गगनेतरनित्यवृत्तित्वे सति गगनवृत्तिषु गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहितश्वासौ एतच्छब्दनिष्ठश्च, तदधिकरणं गगनमित्यर्थः । गगनान्यत्वमुक्तरूपं गगनातिरिक्त सर्वत्रास्तीति व्याप्तिसिद्धिः । व्याप्तिबलादेतच्छन्दगगनमात्रवृत्तिर्गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वरहितः सिध्यन् अनित्यत्वमेतस्य शब्दस्य साधयेदिति तात्पर्यम् । अथ प्रथमविशेषणोपपन्नं धर्मचतुष्टयमाचष्टे-तद्रहितश्च धर्म इत्यादि । १ गगनेतरनित्यमात्रवृत्तिति । आत्मत्वादिः । २ गगनमात्रवृत्तिति । गगनैकत्वादिः । ३ एतच्छब्देतरानित्यगगनवृत्तिवेति । विश्वप्रतियोगिको घटाकाशान्योन्याभावादिः । स च गगनेतरनित्येषु अवर्तनान्नित्ये गगने एव च वर्तनाद्यथोक्तयुगलावृत्तित्वेन गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वरहितो विद्यते एव । ४ एतच्छन्दगगनवृत्तिर्वेति । विश्वप्रतियोगिकः एतच्छब्दाकाशान्योन्याभावादिः। अन्येषामसम्भवेन चतुर्थ पक्षे साधयति-चतुर्थस्त्वेतच्छब्दानित्यत्वमित्यादि । इदमत्र रहस्यम्-गनं हि नित्यत्वेन वादिप्रतिवादिनोरुभयोरपि सम्मतम् । शब्दोऽपि यदि नित्यत्वेनाङ्गीक्रियते, तदा एतच्छब्दाकाशान्योन्याभावो गगनेतरनित्ये एतच्छब्दे गगने च वृत्तित्वेन तत्सहित एव स्यात् , न तु तद्रहितः । तस्माच्छब्दस्यानित्यत्वमेवाङ्गीकार्यम् । शब्दानित्यत्वान्तर्भावसिद्धिमेवाविर्भावयति-एतच्छन्दनित्यत्वे इत्यादि । अप्रसिद्धविशेषणत्वमित्यादि । यावता शब्दस्यानित्यत्वं सिद्धं नास्ति, तावता शब्दनिष्ठानां शब्दत्वादीनां गगनेतरनित्यवृत्तित्वेन परैर्भाहादिभिरङ्गीकृतत्वात् गगनेतरनित्यवृत्तित्वरहितत्वं न स्यात् । तन्निवृत्यर्थे गगनग्रहणम् । ___ गगनेतरनित्यवृत्तित्वरहितैतच्छन्दनिष्टाधिकरणमित्युक्ते चाप्रसिद्धविशेषणत्वम् । एतच्छब्दानित्यत्वसिद्धेः पूर्वमेतच्छन्दनिष्ठानां गगनेतरनित्यनिप्ठत्वेन परैरङ्गीकृतत्वादिति तन्निवृत्यर्थं गगनग्रहणम् । गगनेतरनित्यवृत्तित्वरहितैतच्छन्दनिष्ठाप्रसिद्धत्वेऽपि गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वरहितैतच्छन्दनि ठस्य गगनान्योन्याभावादेः सुप्रसिद्धत्वात् । गगनवृत्तित्वरहितैतच्छब्दनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते व्याघातः । तन्निवृत्यर्थं गगनेतरनित्यग्रहणम् । गगनवृत्तित्वरहितस्य गगने व्याहतत्वेऽपि गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वरहितस्य अव्याहतत्वात् ॥७॥ ( आनं० )-शब्दनित्यत्वामीकारिमते शब्दधर्मस्य गगनेतरनित्यवृत्तित्वविरहस्याप्रसिद्धं तथापि दुष्परिहरमत्राह-गगनान्योन्याभावादेरिति । आदिशब्देन गगनमात्रनिष्ठात्यन्ताभावो गृह्यते ॥७॥ १ नित्यत्तित्वेन इति घ पुस्तकपाठः । २ गगननिष्ठत्वरहि इति थ पुस्तकपाठः । ३ अप्रसिद्धलं इति स्यात् (?)। Aho ! Shrutgyanam Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ महाविद्याविडम्बनम् । (भुवन०) तथापि अप्रसिद्धविशेषणत्वपरिहारः कथमत आह-गगनेतरनित्यत्तित्वे त्यादि । गगनान्योन्याभावादेरिति । आदिपदेन गगनमात्रनिष्ठस्यात्यन्ताभावो गृह्यते । ततो गगनान्यत्वादेर्गगनेऽवर्तनाद्गगनेतरनित्येषु च वर्तनायुगलावृत्तित्वेन गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वरहितत्वं, एतच्छब्दे वर्तमानत्वादेतच्छब्दनिष्ठत्वं च विद्यते एव । तस्माद्गगनान्यत्वादेर्दृष्टान्ते सुप्रसिद्धत्वमित्यर्थः । व्याघात इति । यो गगनवृत्तित्वरहितः स गगनवृत्तिः कथं साध्यत इति व्याघातः प्रकट एव । तन्निवृत्यर्थ गगनेतरनित्यग्रहणम् । तथा च कथं तव्यवच्छेद इत्यत आह-गगनवृत्तित्वरहितस्येत्यादि । न्यूनविशेषणविशिष्टस्य व्याघातेऽपि, सम्पूर्णविशेषणविशिष्टस्य न व्याघात इत्यर्थः ॥७॥ ८ गगनं गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वरहितशब्दनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति । पूर्वमहाविद्यायां निष्कृष्य एतस्मिन् शब्देऽनित्यत्वसिद्धिः । अस्यां तु यत्र कापि शब्देऽनित्यत्वसिद्धिरिति भेदः । एवमन्यत्रापि निष्कृष्य शब्दविशेषानित्यत्वसाधकत्वयत्किश्चिच्छब्दानित्यत्वसाधकत्वाभ्यां महाविद्याभेदो द्रष्टव्यः ॥८॥ ८ (आनं०)-प्राचीनमहाविद्यातो भेदनास्तित्वशङ्कां वारयितुमाह-पूर्वेति ॥ ८॥ ८(भुवन०)-गगनं गगनेतरनित्यगगनवृत्तित्वरहितेत्यादि । पाश्चात्यानुमाने एतच्छब्दनिष्ठेत्युक्तेरेक एव विशिष्टः शब्दो गृहीतः । अत्र तु शब्दनिष्ठेतिभणनात् सामान्येन यः कश्चिच्छब्दः इति पूर्वस्या अस्या महान्भेदः, तथैव चाभिदधाति–पूर्वमहाविद्यायामित्यादि ॥८॥ ९ गगनं अनेकनित्यवृत्तित्वरहितैतच्छब्दनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति । अनेकनित्यवृत्तित्वरहितः गगनवृत्तित्वरहितो वा एतच्छब्दवृत्तित्वरहितो वा उभयवृत्तिर्वा । गगनवृत्तित्वरहितो गगने व्याहतः । एतच्छन्दवृत्तित्वरहितश्च एतच्छब्दनिष्ठग्रहणेन निरस्तः । गगनैतच्छन्दनिष्ठस्य च अनेकनित्यनिष्ठत्वरहितत्वं तथैव स्यात्, यद्ययं शब्दो नित्यो न स्यात् । एतच्छब्दनित्यत्वे गगनैतच्छन्दनिष्ठस्य अनेकनित्यनिष्ठत्वेन तद्रहितत्वानुपपत्तेरेतच्छब्दानित्यत्वसिद्धिः । एतच्छब्देतरनित्यत्वात्यन्ताभावमुपादाय एतच्छब्दघटादौ साध्यप्रसिद्ध्या सपक्षत्वं, गगनव्यतिरिक्तनित्यादीनां च पक्षतुल्यत्वम् ॥९॥ ९ (आनं०) अनेकेति । अनेकनित्यवृत्तित्वरहितश्चासावनेतच्छब्दनिष्ठश्च तस्याधिकरणमित्यर्थः। एतच्छब्दनिष्ठाधिकरणमित्युक्ते मेयत्वादिनार्थान्तरं व्यावर्तयति-नित्यत्तित्वरहितेति । व्याघातं परिहरति-अनेकनित्यवृत्तित्वरहितेति । तथापि गगननिष्ठैकत्वादिनार्थान्तरत्वमत आह-एतच्छब्दनिष्ठेति । अनेकनित्यवृत्तित्वरहितः एतच्छब्दनिष्ठः एतच्छब्देतरनित्यान्योन्या १ °धिः । एतस्यां तु इति घ ज पुस्तकपाठः । २ ° रिति महान् भे' इति ज पुस्तकपाठः।। Aho! Shrutgyanam Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं भावो नित्येषु सिद्ध इति व्याप्तिसिद्धिः । नित्यानां पक्षतुल्यत्वाद्गगनैतच्छब्दमात्रवृत्तिरनेकनित्यवृत्तित्वरहितो गगने भवन्नेतच्छब्दानित्यत्वं गमयेदिति भावः । अनेकनित्यवृत्तिवरहिततच्छब्दनिष्टः किं गगनवृत्तिरुत एतच्छब्दवृत्तित्वरहितः, उत गगनैतच्छन्दमात्रवृत्तिरिति विकल्प्याद्यौ निरस्यतिगगनेत्यादिना । तृतीयमङ्गीकृत्याह-गगनैतच्छन्दनिष्ठस्येति । शेषं स्पष्टम् ।। ९ ॥ ९ (भुवन०)-गगनमनेकनित्यत्तित्वरहितेत्यादि । अनेकनित्यवृत्तित्वरहितश्चासौ एतच्छब्दनिष्ठश्च तस्याधिकरणमित्यर्थः । अनेकनित्यवृत्तित्वरहितः एतच्छब्दनिष्ठः एतच्छब्देतरनित्यत्वात्यन्ताभावादिरेतच्छब्दानित्येषु सिद्धः इति व्याप्तिसिद्धिः । गगनेतरनित्यानां च पक्षतुल्यत्वम् । तेन न तेषु साध्याभावो दोषपोषकः । गगनैतच्छब्दमात्रवृत्तिर्गगनैतच्छब्दान्यतरत्वादिरनेकनित्यवृत्तित्वरहितो गगने भवन्नेतच्छब्दानित्यत्वं गमयेदिति भावः । अनेकनित्यवृत्तित्वरहितैतच्छब्दनिष्ठः किं, १ गगनावृत्तिः, २ उत एतच्छब्दवृत्तित्वरहितः, ३ उत गगनैतच्छब्दमात्रवृत्तिरिति त्रेधा विकल्प्य आद्यौ निरस्यति-गगनवृत्तित्वेत्यादिना । तृतीयमङ्गीकृत्याह-गगनैतच्छन्दनिष्ठस्येति । एतच्छन्देतरेति । शब्दस्य नित्यत्वमद्यापि विवादास्पदीभूतम् । तेनैतस्माच्छब्दादितरेषामात्मादीनां यन्नित्यत्वं तदत्यन्ताभावमुपादायेत्यर्थः । यतः शब्देतरनित्यत्वात्यन्ताभावः एतच्छब्दे घटादौ चाप्यस्ति । यदि च शब्देतरेतिपदेन नित्येभ्यः शब्दो बहिः कर्षितो न स्यात् , तदा भाट्टैनित्यत्वात्यन्ताभावस्य शब्देऽनङ्गीकृतत्वात् शब्दस्य दृष्टान्तत्वं न स्यात् । तस्माच्छब्दस्य दृष्टान्तत्वाथै शब्देतरपदग्रहणम् ॥ ९॥ ___ १० गगनं अनेकनित्यनिष्ठत्वरहितशब्दनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति ॥ इयं च महाविद्या यत्र कचन शब्देऽनित्यत्वं गमयतीति पूर्वमहाविद्यातो भिद्यते ॥१०॥ १० ( भुवन०)-गगनमनेकनित्येति । अस्या व्याख्यानं पूर्ववदेव बोद्धव्यम् । प्राचीनमहाविद्यातोऽस्या भेदाभावशङ्कामपाकर्तुमाह-इयं चेति ॥ १०॥ ... ११ गगनं गगनैतच्छब्दवृत्तित्वरहितनित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितनित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वात् घटवदिति ॥ अत्र च नित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितं नित्यत्वं, तदेव च नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्टत्वरहितं, नित्यत्वस्य नित्यनिष्ठत्वेऽपि नित्यत्वव्याप्यत्वेन नित्यत्वाव्याप्यत्वरहितत्वात् । नित्यत्वस्य च गगनैतच्छब्दनिष्ठत्वरहितत्वं तर्देव स्यात्, यद्येतस्मिन् शब्देऽनित्यत्वं स्यादित्येतच्छब्दानित्यत्वसिद्धिः । इयं च महाविद्या पूर्वमेव व्याख्याता ॥ ११॥ ११ (आनं०)-गगनमिति । गगन एतस्मिन् शब्दे च ये वर्तन्ते तेषु गगनैतच्छब्दवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहितश्च नित्यत्वव्यतिरिक्तत्वे सति नित्यत्वव्याप्यत्वरहितश्च, नित्यत्वाव्याप्यत्वे सति नित्य १ शब्दे नित्यत्वं न स्या' इति घ ज पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०१ महाविद्याविडम्बनम् । निष्ठत्वरहितश्च । तस्याधिकरणमित्यर्थः । अधिकरणमित्युक्ते मेयत्वादिसक्तिं व्यावर्तयति-नित्यनिष्ठत्वरहितेति । नित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते व्याप्त्यसिद्धिः, नित्यपदार्थेषु तदसम्भवादत उक्तम्-नित्यत्वाव्याप्येति । नित्यत्वस्य नित्यनिष्ठत्वेऽपि नित्यत्वव्याप्यत्वेन तदव्याप्यत्वे सति यन्नित्यनिष्ठत्वं (तत् ? ) नास्तीति नित्येषु साध्यसिद्धिः । नित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठरहिताधिकरणमिति च नित्यत्वेनार्थान्तरमत उक्तम्-नित्यत्वव्याप्यत्वरहितेति । नित्यत्वस्य नित्यत्वव्याप्यत्वेऽपि नित्यत्वव्यतिरिक्तत्वे सति तद्वयाप्यत्वाभावात्पुनरपि तेनैवार्थान्तरं व्यावर्तयति-गगनैतच्छब्दत्तित्वरहितेति ॥ ११ ॥ ११ ( भुवन० )-गगनं गगनैतच्छब्देत्यादि । गगने एतस्मिन् शब्दे च ये वर्तन्ते तेषु गगनैतच्छब्दवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहितश्चासौ नित्यत्वव्यतिरिक्तत्वे सति नित्यत्वव्याप्यत्वरहितश्च, स चासौ नित्यत्वाव्याप्यत्वे सति नित्यनिष्ठत्वरहितश्च, तस्याधिकरणं गगनमित्यर्थः । अत्र साध्यो धर्मः पक्षे नित्यत्वम् । तस्य च द्वितीयतृतीयविशेषण विशिष्टस्यापि नित्ये शब्देऽङ्गीक्रियमाणे नित्ये गगने नित्ये च शब्दे वर्तनाद्गगनैतच्छब्दवृत्तित्वमेव स्यात्, न तु गगनैतच्छब्दनिष्ठत्वरहितत्वम् । तस्मान्नित्यत्वस्याविशेषणविशिष्टत्वानुपपत्तेः शब्दस्यानित्यत्वमङ्गीकार्यम् । दृष्टान्ते च घटपटादौ घटत्वादिरनित्यत्वादिर्वा धर्मोऽवबोध्यः । अत्र च शब्दो गगनेतरनित्याश्च पक्षतुल्या इति न तेषु साध्यप्रसिद्धिः । सङ्केपेण व्याचष्टे-अत्र च नित्यत्वेत्यादि । इयं च महाविद्या पूर्वमेव पक्षपक्षीकरणप्रवृत्तमहाविद्योदाहरणावसरे सविस्तरं व्याख्यातेत्यतिदिशति-इयं चेति ॥ ११ ॥ १२ गगनं गगनशब्दवृत्तित्वरहितनित्यत्वव्यतिरिक्तनित्यत्वव्याप्यत्वरहितनित्यत्वाव्याप्यनित्यनिष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वादिति ॥ १२॥ १२ (भुवन०)-गगनं गगनशब्दवृत्तित्वेत्यादि । एतस्याः पाश्चात्यायाश्च महाविद्यायाः पृथगुपादानकारणं पूर्ववदेव वेदनीयम् । इति विपक्षं पक्षीकृत्य प्रवृत्ता द्वादशमहाविद्या उदाह्रियन्त॥१२॥ - अथ साध्यं पक्षीकृत्य प्रवर्तमाना महाविद्याभेदा दयन्ते यथा-... १ अनित्यत्वं अनित्यत्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तैतच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वात् घटवदिति । अनित्यत्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तश्चासौ एतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठश्च । तस्य धर्मः अनित्यत्वान्योन्याभावव्यतिरिक्ततच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वम् । तद्रहितश्च अनित्यत्वान्योन्याभावो वा स्यात्, एतच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठत्वरहितो वा । आद्यो व्याहतः । न हि अनित्यत्वमनित्यत्वव्यतिरिक्तमिति संभवति । एतच्छन्दनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठत्वरहितश्च अनित्यत्वे तर्येव स्यात्, यद्यनित्यत्वमेतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगि न स्यात् इत्य. १ महाविद्याविडम्बनादर्शपुस्तकेषु च्छब्दनिष्ठत्वर' इति पाठो विद्यते । २ योगिनिष्ठत्वम् । इति ज पुस्तकपाठः। Aho! Shrutgyanam Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण - श्री भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं नित्यत्वस्यैतच्छब्दनिष्ठत्वसिद्धि: । अनित्यत्वान्योन्याभावमुपादाय घटादौ साध्यप्रसिद्धिः ॥ १॥ १ ( आनं०) - अनित्यत्वमिति । अनित्यत्वान्योन्याभावप्रतियोगित्वमनित्यत्वस्य नास्तीति तन्निष्ठो धर्मः प्रतियोगित्वनिष्ठत्वरहित इत्यर्थान्तरत्वमत आह- अत्यन्ताभावेति । घटनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठत्वरहिताधिकरणत्वेन तथाप्यर्थान्तरत्वं, घटेऽनित्यत्वात्यन्ताभावाभावात, अनित्यत्वं तदप्रतियोगीत्य नित्यनिष्ठधर्मस्य तथात्वादत उक्तम् — एतच्छब्दनिष्ठेति । एतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वाद्वटादिनिष्ठधर्माः एतच्छब्द निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठाः एवेति घटादिषु साध्याभावाव्याप्तिभङ्गोऽत आह—- अनित्यत्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तेति । अनित्यत्वान्योन्याभावव्यतिरितत्वे सत्येतच्छब्द निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठत्वरहितो नित्यत्वान्योन्याभावः सर्वत्रेति व्याप्तिसिद्धि: । एतच्छब्दानित्यत्वाभावे नित्यत्वस्यैतच्छब्द निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वात्तन्निष्ठधर्माणामेतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठत्वात्तद्रहिताधिकरणमनित्यत्वस्य न स्यादित्येतच्छब्दानित्यत्व ६६ सिद्धिरिति भावः ॥ १॥ ९ ( भुवन० ) - अथ साध्यं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्याभेदा दर्श्यन्ते यथा- - अनित्यत्वं अनित्यत्वान्योन्याभावेत्यादि । अनित्यत्वस्यान्योन्याभावः तस्माद्व्यतिरिक्तञ्चासौ एतच्छन्दनिष्ठो योऽत्यन्ताभावः तत्प्रतियोगिनिष्ठश्च तत्त्वेन रहितो यो धर्मः, तस्याधिकरणमनित्यत्वमिति विग्रहः । इदमत्राकूतम् । एतस्मिन् शब्दे निष्ठो योऽत्यन्ताभावस्तस्य प्रतियोगिनः एतच्छब्दमात्रनिष्ठैतच्छब्दत्वादिव्यतिरिक्ता घटत्वपटत्वादयः सर्वपदार्थधर्माः तेषु निष्ठाः घटवृत्तित्वपट वृत्तित्वादयोऽनित्यत्वान्योन्याभावोऽपि च । तस्याप्यनित्यत्वं विना सर्वत्र वर्तनात्परं अनित्यत्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तेति पदेन घटादिषु व्याप्तिसिद्ध्यर्थमनित्यत्वान्योन्याभावो घटवृत्तित्वादिभ्यः पृथक् कृतः । ततश्चानित्यत्वान्योन्याभावव्यतिरिकैतच्छब्द निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठत्वेन रहिता ये धर्मास्तद्वदनित्यत्वमिति । एवंविधं च धर्मद्वयं स्यात्तदेवाह - अनित्यत्वेति । अनित्यत्वान्योन्याभावो वा, एतच्छन्द निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठत्वरहितो वा । आद्यः पक्षे व्याहत इति । न ह्यनित्यत्वान्योन्याभावोऽनित्यत्वे संभवति । भिन्नयोरेव द्वयोरन्योन्याभावस्य संभवात् । न चानित्यत्वमनित्यत्वाद्भिन्नमिति संभवति । द्वितीयं पेक्षे साधयति — एतच्छन्देति । एतच्छब्द निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनो घटत्वादयः एतच्छन्दत्वादिव्यतिरिक्ताः सर्ववस्तुधर्माः तेषु निष्ठाः घटवृत्तित्वादयः । घटत्वादिष्वपि घटवृत्तित्वादिधर्मसम्भवात् । तद्रहितश्च साध्यो धर्मः पक्षेऽनित्यत्वे एतच्छब्दवृत्तित्वलक्षणः । स चानित्यत्वे पक्षिते तदैव स्यात्, यद्यनित्यत्वं एतच्छब्दनिष्ठो योऽत्यन्ताभावस्तस्य प्रतियोगि न स्यात् । इदमत्र हृदयम् । यद्यनित्यत्वस्य अत्यन्ताभावः शब्दनिष्ठः स्यात्, तदा शब्दवृत्तित्वलक्षणो धर्मोऽप्यनित्यत्वे पक्षिते न स्यात् । अनित्यत्वस्य शब्देऽवर्तमानत्वेन शब्दवृत्ति. त्वस्य अनित्यत्वेऽवर्तनात् । ततश्चानित्यत्वात्यन्ताभावस्य शब्दावृत्तित्वेनानित्यत्वस्य शब्दवृत्तित्वमङ्गीकार्यम् । तथा च शब्दत्वादिधर्मेषु यथा शब्दवृत्तित्वमस्ति, तथा अनित्यत्वेऽपि शब्दवृत्तित्व १ यं पक्षं सा इति छ. द. पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् | ६७ मस्ति । ततो यथा शब्दत्व श्रावणत्वादयः शब्दधर्मास्तथा अनित्यत्वमपि शब्दधर्मत्वेन स्वीकर्तव्यम् । तथा च परिशेषादनित्यत्वं शब्दस्यायातमेवेत्येतच्छब्दानित्यत्वसिद्धिरिति । अनित्यत्वान्योन्याभावमिति । अनित्यत्वस्य योऽन्योन्याभावोऽन्यत्वं तस्य घटात्मादौ नित्यानित्ये तद्धर्मेषु च सर्वत्र सद्भावाद्व्याप्तिसिद्धिर्ज्ञेयेत्यर्थः ॥ १ ॥ प० १ २ अनित्यत्वं अनित्यत्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तशब्दनिष्ठात्यन्ताभाव-प्रतियोगिनिष्ठत्वरहिताधिकरणं मेयत्वादिति । ईयं च महाविद्या यत्र वचन शब्देऽनित्यत्वं गमयति, पूर्वा च निष्कृष्य शब्दविशेषे इति भेदः ॥ २ ॥ २ ( भुवन० ) अनित्यत्वमित्यादि । व्याख्यानं पूर्ववद्बोद्धव्यम् । प्राच्यमहाविद्यातो-Sस्या भेदमुद्भावयति - इयं चेत्यादि ॥ २ ॥ यावन्तश्च मूलानुमानपक्षं पक्षीकृत्य प्रवृत्ता महाविद्याभेदाः, तावन्तः साध्यमपि पक्षीकृत्य प्रयोक्तव्याः । यथा अनित्यत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितैतच्छन्दनिष्ठधर्मवत् मेयत्वादिति । शब्दनिष्ठस्य धर्मः शब्दनिष्ठधर्मः । एवं महाविद्या प्रयोज्या सर्वत्र ॥ १ ॥ १ ( आनं० ) - स्वेति । स्वस्मिन्नितरस्मिंश्च ये वर्तन्ते तेषु स्वस्वेतरवृत्तित्वं धर्मः । तद्रहि-तश्चासावेतच्छब्द निष्ठधर्मश्च, तद्वत्त्वस्याधिकरणमित्यर्थः । अनित्यत्वमेतच्छदनिष्ठधर्मवदित्युक्ते शब्दनिष्टं शब्दत्वं, तस्य धर्मो ज्ञेयत्वं, तदधिकरणमर्थान्तरमित्यनित्यत्वमत उक्तम्- स्वेतरवृत्तित्वरहितेति । अप्रसिद्धविशेषणत्वपरिहाराय स्वस्वेतरेत्युक्तम् | पक्षान्योन्याभावमादाय व्याप्तिसिद्धिः । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितशब्दनिष्ठधर्मः स्वेतरमात्रशब्द निष्ठवृत्तिर्वाऽनित्यत्वमात्रवृत्तिर्वा । आद्यो व्याहतः । द्वितीयः शब्दनिष्ठधर्मः सिध्यन्ननित्यत्वस्यैतच्छब्दधर्मत्वं गमयेदित्येतच्छब्दानित्यत्वसिद्धिरिति भावः । एवं सर्वत्रेति । अनित्यत्वमनित्यत्वान्योन्याभावाव्याप्यैतच्छन्द निष्ठधर्मवन्मेयत्वाद्भटवदित्यादावित्यर्थः ॥ १ ॥ 1 1 १ ( भुवन० ) - यावन्त इति । यावन्तो महाविद्याभेदा: मूलानुमानपक्षं शब्द पक्षीकृत्य प्रवृत्तास्तावन्तः साध्यमनित्यत्वरूपमपि पक्षीकृत्य प्रयोक्तव्याः । यथा - अनित्यत्वं स्वस्वेतरेत्यादि । स्वमनित्यत्वं, स्वेतरदनित्यत्वादन्यद्विश्वमपि । तयोः स्वस्वेतरवृत्तित्वं धर्मः, तद्रहितश्वासौ एतच्छब्द-निष्ठस्य धर्मश्च । तद्वत्तस्याधिकरणमित्यर्थः । अनित्यत्वमेतच्छब्दनिष्ठधर्मवदित्युक्ते एतच्छब्दनिष्ठमे -- तच्छब्दत्वं, तस्य धर्मो ज्ञेयत्वं, तदधिकरणमनित्यत्वमित्यर्थान्तरम् । अत उक्तं स्वेतरवृत्तित्वरहितेति । अप्रसिद्धविशेषणत्वपरिहाराय स्वेत्यूचे | पक्षान्योन्याभावमादाय व्याप्तिसिद्धिः । स च पक्षादन्यत्र सर्वत्र वर्तमानत्वेन शब्दनिष्ठेष्वपि वर्तनाच्छन्दनिष्ठस्य शब्दत्व श्रावणत्वादेर्धर्म एवेति । अत्र च पक्षे साध्यो धर्मोऽनित्यत्वमात्रवृत्तिरनित्यत्वभिन्नविश्वान्यत्वादिः । स चानित्यत्वे एव वर्तनादन्यत्र चावर्तनात्स्वस्वेतरवृत्तित्वरहित एव । स च शब्दनिष्ठस्य धर्मस्तदैव स्यात्, यद्यनित्यत्वं शब्दनिष्ठं स्यात् । १ इयं सर्वस्मिन् शब्दे इति ग पुस्तकपाठः । २ साध्यनित्य' इति छ द पुस्तकपाठः । ३ 'निष्ठधर्म इति छ 'द' पुस्तक पाठः । Aho! Shrutgyanam Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं तञ्चेच्छब्दनिष्ठं जातं तदानीमनित्यः शब्दो जात एवेत्यभिप्रायः । कर्मधारयव्यावृत्तिमाह-शब्दनिष्ठस्य धर्म इति । एवमिति । अनित्यत्वमेतच्छब्दवृत्तित्वव्यतिरिक्ततद्धर्मत्वरहिताधिकरणं मेयत्वात् घटवदित्यादिमहाविद्या सर्वत्र प्रयोज्येत्यर्थः । एतद्व्याख्या । एतच्छब्दवृत्तित्वव्यतिरिक्ता ये एतद्धर्मा अनित्यत्वधर्माः । तत्त्वरहितश्च धर्मः पक्षावृत्तिा, एतच्छब्दवृत्तित्वं वा । आद्यः पक्षे व्याहतत्वादृष्टान्तोपयोगी । द्वितीयस्तु पक्षे सिद्धयन्ननित्यत्वमेतच्छब्दस्य साधयेदिति भावः । विशेषव्याख्यानं त्वस्याः पक्षपक्षीकरणप्रवृत्ततृतीयमहाविद्यावद्वोद्धव्यम् ।। १ ।। इति साध्यं पक्षीकृत्य प्रयुक्ता महाविद्या दर्शिताः। अथ साध्याभावं पक्षीकृत्य प्रवर्तमाना महाविद्याभेदा यथा १ अनित्यत्वात्यन्ताभावः अनित्यत्वात्यन्ताभावान्योन्याभावव्यतिरितैतच्छन्दनिष्ठाभावप्रतियोगी मेयत्वात् घटवत् इति ॥ अनित्यत्वात्यन्ताभावस्य चान्योन्याभावव्यतिरिक्तोऽभावः अत्यन्ताभाव एव । तस्य प्राप्रध्वंसाभावविरहात् । अनित्यत्वात्यन्ताभावस्य चात्यन्ताभावोऽनित्यत्वमेवेत्येतच्छब्दानित्यत्वसिद्धिः॥१॥ १ (आनं०)-एतच्छब्द निष्ठाभावप्रतियोगीत्युक्ते सिद्धसाधनम् , अनित्यत्वात्यन्ताभावान्योन्याभावस्यैतच्छब्देऽभावादत उक्तम्-अनित्यत्वात्यन्ताभावान्योन्याभावव्यतिरिक्तेति । प्रागभावादिः किं न स्यादत्राह-तस्येति । अत्यन्ताभावस्यानाद्यनन्तत्वादित्यर्थः ॥ १॥ . १ (भुवन० )-अथ साध्याभावं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्याभेददिदर्शयिषया प्राहअथ साध्याभावमित्यादि । साध्यं शब्दानित्यत्वादिकं, तस्य योऽभावस्तं साध्याभावमित्यर्थः । महाविद्यां दर्शयति-अनित्यत्वात्यन्ताभावोऽनित्यत्वात्यन्ताभावेत्यादि । 'तत्तादात्म्यनिषेधान्यतत्स्थाभावविरोधिता' इति कारिकार्द्धमाश्रित्येयं महाविद्या प्रवृत्ता । अनित्यत्वात्यन्ताभावो नित्यत्वं पक्षः । अनित्यत्वात्यन्ताभावो नित्यत्वं तस्य योऽन्योन्याभावः, तस्माव्यतिरिक्तो यः एतच्छब्दनिष्ठोऽभावस्तस्य प्रतियोगीति । इदमत्र तत्त्वम् । नित्यत्वप्रतियोगिनौ एतच्छब्दनिष्ठौ द्वावभावौ सम्भवतः, अन्योन्याभावो वा, अत्यन्ताभावो वा । प्रागभावप्रध्वंसाभावौ च नित्यत्वस्य न सम्भवतः । तस्य सदा स्थायित्वेनोत्पत्तिविनाशाभावात् । तत्र चानित्यत्वात्यन्ताभावान्योन्याभावव्यतिरिक्तपदेन नित्यत्वान्योन्याभावस्यैतच्छब्दनिष्ठाभावेभ्यो निषेधात् नित्यत्वमेतच्छब्दनिष्ठात्यन्ताभावस्यैव प्रतियोगि साध्यते । तथा च नित्यत्वस्यात्यन्ताभावः शब्दे तदैव स्यात्, यद्यनित्यः शब्दः स्यादित्यर्थः । व्याख्यानं तु उक्तार्थमेव-अनित्यत्वात्यन्ताभावस्य चात्यन्ताभाव इति । 'परस्परविरोधे हि न प्रकारान्तरस्थितिः' इति न्यायादनित्यत्वात्यन्ताभावात्यन्ताभावोऽनित्यत्वमेवेत्यनित्यत्वसिद्धिरेतच्छब्दस्येति । इह च घटाकाशादयो दृष्टान्ताः सर्वेऽपि ज्ञेयाः, तद्धमांश्च । तत्र च नित्यत्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तः एतच्छन्दनिष्ठोऽभावः स्वस्वान्योन्याभावादिः तस्य प्रतियोगित्वं धर्मो ज्ञेयः । तथात्रापि शब्दः सपक्ष एव । यतः शब्दोऽपि शब्दनिष्ठात्यन्ताभावप्रति १ "श्रित्येवं म' इति छ द पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०१ महाविद्याविडम्बनम् । ६९ योग्येव । न हि शब्दे शब्दोऽस्ति । शब्दे शब्दत्वादिधर्माणामेव भावात् । शब्दत्वादौ च शब्दनिष्ठो ऽभावः शब्दत्वाद्यन्योन्याभावादिः, तत्प्रतियोगित्वं च शब्दत्वादीनां व्यक्तमेवेति तेषामपि सपक्षता, इति न केवलान्वयित्वभङ्गशङ्कापि विधेयेत्यर्थः ॥ १॥ ____ यावत्यश्च महाविद्या मूलानुमानपक्षं पक्षीकृत्य प्रवृत्ताः, तावत्यः साध्याभावमपि पक्षीकृत्य प्रयोक्तव्याः । यथा १ अनित्यत्वात्यन्ताभावः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितैतच्छब्दानिष्ठधर्मवान् मेयत्वात् घटवदिति ॥१॥ १ (आनं०)-एतच्छब्दनिष्ठो न भवतीत्येतच्छब्दानिष्ठस्तस्य धर्मस्तद्वानित्यर्थः । अनित्यत्वात्यन्ताभावस्यैतच्छब्दनिष्ठत्वे तद्धर्मस्यैतच्छब्दनिष्ठधर्मत्वात् एतच्छब्दनिष्ठधर्मवत्त्वायोगात् अनित्यत्वात्यन्ताभावः एतच्छब्दनिष्ठो न भवतीत्येतच्छब्दानित्यत्वसिद्धिरिति भावः । मेयत्वादिनार्थान्तरं व्यावर्तयितुं स्वेतरवृत्तित्वरहितग्रहणम् । अप्रसिद्धविशेषणत्वपरिहाराय स्वस्वेतरेत्युक्तम् । पक्षान्योन्याभावमादाय साध्यानुगमः ॥१॥ (भुवन०)-पक्षपक्षीकरणप्रवृत्तमहाविद्यानामत्राप्यतिदेशं कुर्वाणः प्रथमां साध्याभावं पक्षीकृत्य प्रवृत्तामाह यथा-अनित्यत्वात्यन्ताभावः स्वस्वेतरेत्यादि । स्वं नित्यत्वं, स्वेतरत् नित्यत्वान्यद्विश्वं तद्वत्तित्वरहितः। एतच्छब्दे निष्ठो न भवतीत्येतच्छब्दानिष्ठः, तस्य धर्मः एतच्छब्दानिष्ठधर्मः । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितश्चासौ एतच्छब्दानिष्ठधर्मश्च, स विद्यते यत्रासौ तद्वान् । नित्यत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितैतच्छब्दानिष्ठधर्माश्रयः इत्यर्थः । अत्र नित्यत्वे पक्षे पक्षान्यान्यत्वं धर्मः । स च पक्षे एव वर्तनात्, अन्यत्र चावर्तनात् स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितोऽस्ति । स चैतच्छब्दानिष्ठस्य धर्मस्तदैव स्यात् , यदि नित्यत्वमेतच्छब्दानिष्ठं स्यात् । नित्यत्वं च यदि नैतच्छब्दनिष्ठं, तदैतच्छब्दस्यानित्यत्वं जातमेवेत्येतच्छब्दस्य अनित्यत्वसिद्धिरिति । अत्र च दृष्टान्ते सर्वत्र पक्षान्यत्वं धर्मः । स च पक्षेऽवर्तमानत्वेन पक्षादन्यत्र सर्वत्र वर्तमानत्वेन च स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितो घटत्वाकाशत्वादौ वर्तमानत्वेन चैतच्छब्दानिष्ठस्य घटत्वादेरपि धर्म एवेति घटाकाशशब्दादौ सर्वत्रापि तेन धर्मेण साध्यप्रसिद्धिष्टव्येति तत्त्वार्थः। ___ एवमनित्यत्वात्यन्ताभावः सम्प्रतिपन्नैतद्धर्मत्वानाक्रान्ताधिकरणं मेयत्वाद्धटवदित्यादयोऽपि महाविद्याः यथा सम्भवमुदाहर्तव्याः । अत्र च सम्प्रतिपन्नतद्धर्मत्वानाक्रान्तो धर्मः पक्षावृत्तिर्वा विप्रतिपन्नमेतच्छब्दानिष्ठत्वं वा । आद्यः पक्षे व्याहत इति तेन सर्वत्र दृष्टान्ते साध्यसिद्धिः । द्वितीयस्तु विप्रतिपन्नतच्छब्दानिष्ठत्वरूप: पक्षे सिद्धयन्ननित्यत्वमेतच्छब्दस्य गमयेदिति तात्पर्यम् ॥ १ ॥ इति साध्याभावपक्षीकरणप्रवृत्तमहाविद्योपायः प्ररूपितः । अथ पक्षनिष्ठधर्म पक्षीकृत्य प्रवर्तमाना महाविद्याभेदा यथा- . १ शब्दत्वं शब्दत्वव्यतिरिक्तैतच्छब्दनिष्ठत्वरहितशब्दत्वव्यतिरिक्तानित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तत्वरहितान्यत् मेयत्वादिति ॥ ये शब्दत्वव्यति १ साध्यात्यन्ताभाव इति ज पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्दपूर्ण -भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं रिक्ता एतच्छन्दनिष्ठाश्च तेषु शब्दत्वव्यतिरिक्तत्वे सति एतच्छब्दनिष्ठत्वं धर्मः । ये च शब्दत्वव्यतिरिक्तत्वे सति अनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्ताः, तेषु शब्दत्वव्यतिरिक्तत्वे सति अनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तत्वं धर्मः । शब्दत्वव्यतिरिक्तैतच्छब्दनिष्ठत्वरहितश्चासौ शब्दत्वव्यतिरिक्तानित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तत्वरहितश्च । ततोऽन्यत् भिन्नमित्यर्थः । १ ( आनं० ) - शब्दत्वमिति । शब्दत्वव्यतिरिक्तत्वे सत्येतच्छन्दनिष्ठरहितश्चासौ शब्दत्वव्यतिरिक्तत्वे सति अनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तत्वरहितश्च ततोऽन्यद्भिन्नमित्यर्थः । शब्दत्वमन्यदित्युक्ते यतः कुतंञ्चिदन्यत्वेनार्थान्तरमत उक्तम् — अनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तत्वरहितेति । तथापि व्याप्तिभङ्गः, अनित्यत्वात्यन्ताभावे एतदभावादत उक्तम् - शब्दत्वव्यतिरिक्तेति । एवमपि न प्रकृतसाध्यसिद्धिः, अनित्यत्वात्यन्ताभावाद्यत्किञ्चिन्निष्ठान्यत्वोपपत्तेरत उक्तम् - एतच्छन्दनिष्टत्वरहितेति । तथापि व्याप्तिभङ्गः, नित्यत्वात्यन्ताभावे कथितरूपसाध्याभावादत उक्तम् — शब्दत्वव्यतिरिक्तैतच्छन्दनिष्ठत्वरहितेति । पक्षान्योन्याभावमादायैव साध्यानुगमः । अनेतन्निष्ठादनित्यत्वात्यन्ताभावादन्यत्वं सिध्यदेतस्मिन्ननित्यत्वं गमयेदिति भावः । व्याचष्टे – ये शब्दत्वेति । १ (भुवन ० ) - इदानीं “ की चित्साध्याभावमित्यादि" इत्यत्रादिपदेन व्यञ्जितमहाविद्यान्तरप्रकारप्ररूपणाय प्राह- अथ पक्षनिष्ठं धर्ममित्यादि । पक्षः शब्दः, तन्निष्ठं शब्दत्वादिधर्ममि - त्यर्थः । महाविद्यामुदाहरति---यथा, शब्दत्वं शब्दत्वव्यतिरिक्तेत्यादि । शब्दत्वव्यतिरिक्ता ये एतच्छब्दनिष्ठाः श्रावणत्वादयः, तत्त्वरहितश्चासौ शब्दवत्र्यतिरिक्तत्वे सत्यनित्यत्वात्यन्ताभावो नित्यत्वं, तद्व्यतिरिक्ता ये घटत्वाकाशत्वादयः तत्त्वरहितश्च । तस्मादन्यद्भिन्नं शब्दत्वमित्यर्थः । शब्दत्वमन्यदित्युक्ते यतः कुतश्चिदन्यत्वेनार्थान्तरत्वम् । अत उक्तम् - अनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तत्वरहितेति । तथापि नित्यत्वान्यत्वेनार्थान्तरता व्याप्तिभङ्गश्च नित्यत्वे नित्यत्वान्यत्वाभावात् । अत उक्तम् — शब्दव्यतिरिक्तेति । एवमपि न प्रकृतसाध्यसिद्धिः, नित्यत्वाद्यत्किञ्चिन्निष्ठादन्यत्वोपपत्तेः । अत उक्तमेतच्छब्दनिष्ठत्वरहितेति । तथापि व्याप्तिभङ्गः, नित्यत्वे एव कथितरूपसाध्याभावात् । अत उक्तं शब्दत्वव्यतिरिक्तैतच्छन्दनिष्ठत्वरहितेति । पक्षान्योन्यभावमुपादाय साध्यानुगमो द्रष्टव्यः । पक्षे त्वेतच्छब्दनिष्ठत्वरहितानित्यत्वान्यत्वं सिद्धयत् एतच्छब्देऽनित्यत्वं गमयतीति भावः । अथैनां महाविद्यां व्याचष्टे – ये शब्दत्वव्यतिरिक्ता इत्यादि । 190 शब्दत्वव्यतिरिक्तैतन्निष्ठत्वरहितश्च शब्दत्वं वा स्यात्, एतच्छन्दनिष्ठत्वरहितो वा । आद्येऽन्यत्वं व्याहृतम् । न हि शब्दत्वं शब्दत्वान्यदिति संभवति । तेन पक्षनिष्ठत्वरहितान्यत्वं सिध्यति । स च पक्षनिष्ठत्वरहितः, अनित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तो वा, अनित्यत्वात्यन्ताभावो वा । आद्यव्यावृत्त्यर्थं शब्दत्वव्यतिरिक्तानित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तत्वरहितग्रह१ एतद्वाक्यं अस्मिन्नेव महाविद्याविडम्बनग्रन्थे ५ पृष्ठे ३२ पङ्कौ द्रष्टव्यम् । २ आयनिट इति ग पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १ महाविद्याविडम्बनम् । णम् । शब्दत्वव्यतिरिक्तत्वे सति यद‌नित्यत्वात्यन्ताभावव्यतिरिक्तत्वं तद्रहितश्च शब्दत्वं वा स्यात्, अनित्यत्वात्यन्ताभावो वा । आद्योऽन्यत्वं न सिध्यति । न हि शब्दत्वं शब्दत्वादन्यदिति संभवति । तेन शब्दनिष्ठत्वरहितानित्यत्वात्यन्ताभावान्यत्वं पक्षे सिध्यति इत्यनित्यत्वात्यन्ताभावविरहरूपानित्यत्वसिद्धिः शब्दे ॥ १ ॥ ( आनं० ) - तथापि कथं साध्यपर्यवसानमत्राह - स च पक्षनिष्ठत्वरहित इति । घटत्वव्यतिरिक्तत्वे सति शब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितश्चानित्यनिष्ठश्च ततोऽन्यदित्यर्थः । घटत्वमन्यदित्युक्ते सुखादेरन्यदिति सिद्धसाधनमत उक्तम्- अनित्यनिष्ठान्यदिति । एवमपि घटत्वादिशब्देनार्थान्तरमत उक्तम्- - शब्देतरा नित्यनिष्ठत्वरहितेति । शब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहिता नित्यनिष्ठान्यदित्युक्तेप्रसिद्धविशेषणत्वं, शब्दानित्यत्वसिद्धेः प्रागेवं रूपसाध्यासिद्धेरत आह x X X (भुवन० ) – अथाद्यविशेषणविशिष्टं धर्मद्वयं स्यात् । तदेवाह - शब्दत्वं वा स्यात्, एतच्छन्दनिष्ठत्वरहितो वेति । आद्योऽन्यत्वमिति । शब्दत्वं च यथोक्तविशेषणविशिष्टमप्युपपद्यते, परं तत्पक्षे व्याहतम् । तस्यैव शब्दत्वस्य तस्मादेव शब्दत्वादन्यत्वासम्भवात् । भिन्नयोरेव द्वयोरन्यत्वसम्भवात् । तेन द्वितीयान्यत्वं सिद्ध्यति । तथापि कथं प्रकृतसाध्यपर्यवसानमत्राह - स च पक्ष - निष्ठत्वरहित इति । मूलानुमानापेक्षया पक्षोऽत्र शब्दो ग्राह्यः । पक्षनिष्ठत्वरहितमपि द्वेधा विकल्पयति - अनित्यत्वात्यन्ताभावेत्यादि । अनित्यत्वात्यन्ताभावो नित्यत्वम् । तद्व्यतिरिक्तो हि धर्मो नित्यत्वं विना घटत्व पटत्वगगनत्वादिकः सर्वोऽपि । द्वितीयविकल्पमाह - अनित्यत्वात्यन्ताभावो वेति । नित्यत्वं वेत्यर्थः । तत्राद्यस्य निरासाय द्वितीयविशेषणसाफल्यमाह - आद्यव्यावृत्त्यर्थमित्यादि । तथा च द्वितीयविशेषणेन घटत्वाकाशत्वादिसर्वधर्माणां निषिद्धत्वेन अवशिष्टं धर्मद्वयमेव स्यात् । तदेव चाह — शब्दत्वमिति । शब्दत्वं वा अनित्यत्वात्यन्ताभावो नित्यत्वं वा । आधान्यत्वसिद्धौ असंभवं ब्रूते—न हि शब्दत्वमित्यादि । पक्षे द्वितीयान्यत्वसिद्धौ एतच्छब्दानित्यत्वसिद्धिमाह - तेन शब्दनिष्ठत्वेत्यादि । शब्दनिष्ठत्वरहितो योऽनित्यत्वात्यन्ताभावो नित्यत्वं, तस्मादन्यत्वं पक्षे शब्दत्वे सिध्यति । अयमाशयः -- यद्यपि पक्षिते शब्दत्वे नित्यत्वान्यत्वे साध्यमाने सिद्धसाधनता स्यात्, तथापि शब्दनिष्ठत्वरहितं यन्नित्यत्वं तस्मादन्यत्वं शब्दत्वस्य तदैव स्यात्, यद्यनित्यः शब्दः स्यादित्येतच्छब्दानित्यत्वसिद्धिः । अत्र च शब्दत्वान्यत्वधर्ममुपादाय घटपटाकाशादौ तद्धर्मेषु घटत्वादिषु साध्यप्रसिद्धिर्द्रष्टव्या । एवं शब्देऽपि साध्यप्रसिद्धिर्ज्ञेया । यतो धर्मधर्मिणोवैशेषिकादिमते भिन्नत्वेन शब्दत्वान्यत्वधर्मः शब्देऽपि सिद्ध एवेति परमार्थः ॥ १ ॥ इति पक्षनिष्ठधर्मपक्षीकरणप्रवृत्ता महाविद्या न्यदर्शि । अथ सपक्षनिष्ठं धर्मं पक्षीकृत्य प्रवर्तमाना महाविद्याभेदा यथा १ 'आवेऽन्यत्वं इति ज पुस्तकपाठः । २ शब्दान्यं इति ग पुस्तकपाठः । ३ आदर्श पुस्तके त्रुटितोऽयमंशः ॥ Aho! Shrutgyanam Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं १ घटत्वं घटत्वव्यतिरिक्तशब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितानित्यनिष्ठान्यत् मेयत्वात् घटवदित्यादयः ॥ १ ॥ १ ( आनं० ) — घटत्वव्यतिरिक्तेति । घटत्वव्यतिरिक्तशब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितश्च घटत्वं वा, शब्देतरा नित्यवृत्तिरहितो वा । आद्यान्यत्वं व्याहतं द्वितीयस्तु अनित्यनिष्ठत्वविशेषणः सिध्य-ननित्यत्वं शब्दे गमयेदिति भावः । आदिपदेन घटरूपं स्वव्यतिरिक्तशब्देतरा नित्यनिष्ठत्वरहितानि - त्यनिष्ठान्यत् मेयत्वाद्धटवदित्यादिसंग्रहः । ७२ (भुवन० ) - अथ सपक्षनिष्ठं धर्मे पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्याभेदा यथा - घटत्वं घटत्वव्यतिरिक्तेत्यादि । शब्दादितरे च ते अनित्याश्च शब्देतरा नित्याः । तेषु निष्ठाः पटत्वस्तम्भत्वादयः । घटत्वव्यतिरिक्ताश्च ते शब्देतरानित्यनिष्ठाञ्च । तेषां भावः तत्त्वम् । तेन रहितः । अनित्ये पटादौ निष्ठा येषां ते तथा । घटत्वव्यतिरिक्तशब्देतरा नित्यनिष्ठत्वरहितश्चासौ अनित्यनिष्ठश्च । ततोऽन्यत् घटत्वमित्यर्थः । घटत्वमन्यदित्युक्ते ज्ञानादेरन्यदिति सिद्धसाधनम् । अत उक्तं - अनित्यनिष्ठान्यदिति । एवमपि पटत्वान्यत्वादिना अर्थान्तरत्वम् । अत उपात्तं - शब्दे तरानित्यनिष्ठत्वरहितेति । शब्देत नित्यनिष्ठत्वरहिता नित्यनिष्ठान्यदित्युक्ते च अप्रसिद्धविशेषणत्वम् । शब्दानित्यत्वसिद्धेः प्रागेवंरूपसाध्यासिद्धेः । अतो घटत्वव्यतिरिक्तेति पदग्रहणम् । इति व्यावृत्तिचिन्ता || अत्राद्यविशेषणेन घटत्वव्यतिरिक्तेत्यस्य शब्देतरेत्यस्य च भणनादू, घटत्वं शब्दत्वधर्माश्च मुक्त्वा अन्ये अनित्यपदार्थधर्माः सर्वेऽपि निषिद्धाः, अनित्यनिष्ठेति द्वितीय विशेषणेन च नित्यधर्मा अपि । इति विशेषणद्वयेन घटत्वशब्दनिष्ठव्यतिरिक्तनित्यानित्यनिष्ठसर्वधर्मनिषेधे सति द्विधा धर्मा अवशिष्यन्ते घटत्वं वा शब्दमात्रनिष्ठाः शब्दत्वादयो वा । तत्र घटत्वं घटत्वादन्यदिति न संभवति । तस्माच्छब्दमात्रनिष्ठाच्छन्दत्वादेर्घटत्वमन्यदिति सिध्यति । शब्दत्वादेश्वानित्यनिष्ठेतिद्वितीयविशेषणविशिष्टत्वं तदैव स्यात्, यद्यनित्यः शब्दः स्यादितिशब्दानित्यत्वसिद्धिरिति । इह च पक्षघटत्वान्यत्वमादाय घटादौ सर्वत्र साध्यप्रसिद्धिरन्वेषणीया । घटवदित्यादयः इत्यत्रादिपदेन १ 'घटरूपं स्वव्यतिरिक्तशब्देतरा नित्यनिष्ठत्वरहिता नित्यान्यत् मेयत्वाद्घटवत्' २ 'घटगन्धो घटगन्धव्यतिरिक्तशब्देतरा नित्यनिष्ठत्वरहितानित्यनिष्टान्यत् ज्ञेयत्वाद्घटवत् ' इत्यादिसङ्ग्रहः ॥ १ ॥ इति सपक्षनिष्ठधर्मपक्षीकरणप्रवृत्ता महाविद्या न्यरूपि । अथ विपक्षनिष्ठं धर्मं पक्षीकृत्य प्रवर्तमाना महाविद्याभेदा यथा१ आकाशगतमेकत्वं आकाशगतैकत्वव्यतिरिक्तनित्यनिष्ठत्वरहितैतच्छब्देतरानित्यनिष्ठत्वेरहितधर्मान्यत्, मेयत्वात् घटवदिति ॥ १ ॥ १ ( आनं० ) - आकाशगतैकत्वव्यतिरिक्ते सति नित्यनिष्ठत्वर हितश्चासावेतच्छब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितच धर्मस्तस्मादन्यदित्यर्थः । आकाशगतमेकत्वमन्यदित्युक्ते गगनान्यदिति सिद्धमत उक्तम्धर्मान्यदिति । घटत्वव्यावृत्त्यर्थमनित्यनिष्ठत्वरहितग्रहणम् । सुखादिव्यावृत्त्यर्थं नित्यनिष्ठत्वरहितग्रहणम् । अत्र क्वचिदनित्यत्वसिद्धिनिवारणाय - एतच्छब्देतरेति । अप्रसिद्धविशेषणत्वपरिहारार्थ १ 'निष्ठत्वधर्मा' इति ज पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ महाविद्याविडम्बनम् । माकाशगतैकत्वव्यतिरिक्तेतिग्रहणम् । एकत्वस्य स्वान्यत्वायोगादेतच्छब्दमात्रनिष्ठान्नित्यनिष्ठत्वरहितात् अन्यत्वमेतदनित्यं गमयेदिति भावः । ( भुवन० )-इदानीं विपक्षनिष्ठं धर्म पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्याभेदा यथा-आकाशगतमेकत्वमाकाशगतैकत्वव्यतिरिक्तनित्यनिष्ठत्वरहिततच्छन्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितधर्मान्यदिति । आकाशगतं यदेकत्वं एकत्वसंख्यावत्त्वं, तद्व्यतिरिक्तत्वे सति ये नित्यनिष्ठाः तत्त्वरहितश्चासौ, एतच्छब्दादितरे येऽनित्यास्तन्निष्ठत्वरहितश्च यो धर्मस्तस्मादन्यदित्यर्थः । आकाशगतमेकत्वमन्यदित्युक्ते गगनान्यत्वेन सिद्धसाधनमत उक्तं धर्मान्यदिति । तथा चोच्यमाने घटत्वान्यत्वेनैवार्थान्तरत्वम् , अतस्तद्व्यावृत्त्यर्थमेतच्छब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितेति पदमुपाददे । आत्मत्वाद्यन्यत्वव्यावृत्तये च नित्यनिष्ठत्वरहितेत्यतीचक्राणम् । एतावत्येव च प्रणिगद्यमाने उभयप्रसिद्धदृष्टान्ताभावेनाप्रसिद्धविशेषणत्वं बोभूयते । अतस्तब्यवच्छेदार्थमाकाशगतैकत्वव्यतिरिक्तेति पदं निदधे । इति व्यावृत्तिचिन्ता ॥ अत्र प्रथमविशेषणेन आकाशगतैकत्वं विना सर्वेऽपि नित्यधर्मा निषिद्धाः। द्वितीयविशेषणेन च शब्दधर्मान् विना सर्वेऽप्यनित्यधर्मा निषिद्धाः । तत्राकाशगतैकत्वव्यतिरिक्तनित्यनिष्ठत्वरहितः आकाशगतैकत्वं वा, अनित्यनिष्ठो वा । तत्राद्यान्यत्वं पक्षे नोपसंहतुं शक्यम् । आकाशगतैकत्वमाकाशगतैकत्वादन्यदिति व्याघातात् । द्वितीयस्तु द्वेधा स्यात्, एतच्छब्देतरानित्यनिष्ठो वा, एतच्छब्दमात्रनिष्ठो वा । प्राच्यस्तु एतच्छब्देतरानित्यनिष्ठत्वरहितेतिद्वितीयविशेषणेन निरस्तः । एतच्छन्दमात्रनिष्ठात्तु नित्यनिष्ठत्वरहितेत्याद्यविशेषणांशविशिष्टादेतच्छब्दत्वादेः पक्षस्यान्यत्वं तदैव स्यात्, यद्यनित्य एतच्छब्दः स्यादित्येतच्छब्दानित्यत्वसिद्धिरिति भावः । आकाशगतैकत्वरूपपक्षान्यत्वधर्मेण च सर्वत्र शब्दघटाकाशादौ तद्धमेषु च साध्यानुगमो द्रष्टव्यः ॥ १॥ इति विपक्षनिष्टधर्मपक्षीकरणप्रवृत्तमहाविद्या प्रादर्शि । तत्प्रदर्शने चादिपदसूचिता अपि महाविद्या न्यरूप्यन्तेति महाविद्याप्रयोगवक्तव्यता समाप्ता ।। महाविद्यासमुद्रस्य खण्डनाखण्डलस्य च। मम नूतनमार्गेऽपि न च किञ्चिदगोचरः॥ ३ ॥ (आनं०)-महाविद्याया आत्मनश्च सर्वविषयत्वमन्येभ्योऽतिशयमाह-महाविद्यासमुद्रस्येति ॥ १॥ (भुवन०)-अथात्मनः सर्वविषयमन्येभ्योऽतिशयं श्लोकेनाविर्भावयति-महाविद्यासमुद्रस्येत्यादि । महाविद्योत्थापनप्रवृत्तस्य वादीन्द्रस्य नूतनमार्गे नवीनमहाविद्याप्रकारदर्शनरूपेऽपि न किञ्चिन्महाविद्याचक्रमार्गप्रवर्तनादिकमगोचरोऽविषय इति संटकघटना । मम किंविशिष्टस्य । महाविद्यासमुद्रस्येति । परप्रयुक्तमहाविद्यानामर्थपरिज्ञानान्नवीनतदनुमानविधानाच्च तत्समुद्रस्य । यथा समुद्रे रत्नजलादिकं सर्व लभ्यते तथा महाविद्याव्यवस्थापनतदर्थपरिज्ञानादिकं महाविद्यास्वरूपं सकलं मयि प्राप्यते इत्यर्थः । एतावता महाविद्यापरिज्ञानाद्येव समस्ति, तद्दूषणोत्पादनशक्तिस्तु न भविष्यती १ मार्गस्य न हि कश्चिद इति घ पुस्तकपाठः । २ विधावक्र इति च पुस्तकपाठः । १० महाविद्या० Aho ! Shrutgyanam Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दपूर्ण-भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं त्याशङ्कयाह-खण्डनेति । मम पुनः किंविशिष्टस्य । महाविद्याप्रयोगाणां यत् खण्डनं तत्र आखण्डलस्य शक्रस्य । यथा शको वज्रेण दुर्द्धरभूधरप्रकरखण्डनपण्डितस्तथा अहमपि स्वशक्तिव्यक्तिप्रयुक्तयुक्त्युक्तिपतथा महाविद्याप्रयोगखण्डनपण्डितिमप्रचण्ड एवेत्यर्थः । आद्यविशेषणेन सर्वमहाविद्याव्यवस्थापनविषये स्वस्य परमं कौशल्यमाविश्चक्रे । द्वितीयविशेषणेन तु तत्प्रयोगखण्डनापाण्डित्यमिति परमार्थः ॥ ३॥ ___ महाविद्यादूषणे प्रवृत्तस्य तद्व्याख्यानमैसंगतमिति चेत् । न । महाविद्यावादिना किं सभ्यविदितार्थप्रतिवादिदुरधिगममहाविद्याप्रयोगानन्तरं अज्ञानेन प्रतिवादिनं निगृह्यात्मनो विजयो भावनीयः, किं वा प्रतिवादिविदितार्थमहाविद्यार्दूषणाऽप्रतिभया प्रतिवादिनं निगृह्यात्मनो विजयो भावनीयः । नाद्यः यतैः। _इति गूढमहाविद्याव्याख्या कौतूहलच्छलात् । दूरे निरस्तमस्माभिरज्ञानं प्रतिवादिनः ॥४॥ (आनं० )-" उन्मीलन्ति महाविद्यादोषकैरवकोरकाः।" इति प्रतिज्ञाविरोधं शङ्कतेमहाविद्यादूषणेति । महाविद्यावादिना प्रतिवादिन्युद्भाव्यमानमज्ञाननिग्रहं खण्डयितुं महाविद्याव्याख्यानमसंगतमिति मत्वा परिहरति नेति । (भुवन०)-अथ ' उन्मीलन्ति महाविद्यादोषकैरवकोरकाः ' इति प्रतिज्ञाविरोधं महाविद्याव्याख्यातुः शङ्कते-महाविद्यादूषणेति । महाविद्यावादिना प्रतिवादिन्युद्भाव्यमानमज्ञाननिग्रहं खण्डयितुं महाविद्याव्याख्यानं सङ्गतमिति मत्वा विकल्पद्येन परिहरति-महाविद्यावादिनेत्यादि। महाविद्यावादिना पूर्वपक्षवादिना वैशेषिकादिना किं सभ्यैर्विदितार्था ज्ञातार्थाः प्रतिवादिभिश्च दुरधिगमा दुर्जेया या महाविद्यास्तासां प्रयोगानन्तरमज्ञानेन महाविद्याया अपरिज्ञानेन प्रतिवादिनं निगृह्यात्मनो विजयो भाव्यः । द्वितीयविकल्पमाह-किं वेत्यादि । किं वा प्रतिवादिना विदितार्था ज्ञातार्था या महाविद्यास्तासां यहूषणं तदप्रतिभया प्रतिवादिन एव तदुत्पादनाशत्तया प्रतिवादिनं निगृह्य स्वस्य विजयो भाव्यः । तत्र प्रथमविकल्पमुत्थापयति-नाद्य इति । अत्र हेतुमभिधत्ते–यत इत्यादि । यतः कारणादित्येवं प्रकारेण गूढमहाविद्याव्याख्यां कुर्वद्भिः अस्माभिः प्रतिवादिनो महाविद्याविषयमज्ञानं दूरे निरस्तमित्यर्थः ॥ ४ ॥ यद्वा सम्यक्साधनापरिस्फूतौ सौगतादीन् प्रति महाविद्याः प्रयोक्तव्याः, सम्यग्दूषणापरिस्फूर्ती जात्यादिवत् , इति तयाख्यानं नानुपयोगि । यदाहुः शिवादित्यमिश्राः "पक्षतद्भिन्नवृत्तित्वरहितत्वानुरञ्जितः । धर्मः साध्यवतः साध्यो मेयत्वात्प्रतिभाक्षये ॥” इति । १ नमनुपपन्नमिति इति ग पुस्तकपाठः। २ 'दूषणेऽप्रति इति घ पुस्तकपाठः । ३ यतः एवम् इति इति घ पुस्तकपाठः । ४ महाविद्यापि प्रयोक्तव्या । स इति थ पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०१ महाविद्याविडम्बनम् । द्वितीयं तु पक्षं महाविद्यागोचरसुगमदूषणव्युत्पादनेन निराकरिष्यामः॥ इति श्रीहरकिङ्करन्यायाचार्यपरमपण्डितभट्टवादीन्द्रविरचिते महाविद्या विडम्बने दूष्येविवेको नाम प्रथमः परिच्छेदः ॥ १॥ (आनं०)-अप्रतिभानिग्रहमात्मनः परिहर्तु महाविद्या ज्ञातव्या । अतोऽपि तद्वयाख्यानमपयुक्तमित्याह-यद्वति । पक्षे साध्यवतो धर्मिणो धर्मः केवलान्वयी व्यापकः साध्यः । पक्षे च तद्भिन्ने तदन्यस्मिंश्च वृत्तित्वरहितेन अनुरञ्जितः स्वस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्त इत्यर्थः । इति महाविद्याविडम्बनव्याख्याने श्रीमदानन्दपूर्णविरचिते प्रथमः परिच्छेदः । (भुवन०)-अज्ञाननिग्रहमात्मनः परिहतु महाविद्या ज्ञातव्या । अतोऽपि तद्व्याख्यानमपयक्तमित्याह-यद्वेति । यद्वा वादिनः सम्यक् साधनापरिस्फूर्ती सम्यक् स्वपक्षसाधनानुत्पत्तौ महाविद्यापि प्रयोक्तव्या । अत्रार्थे दृष्टान्तमाचष्टे-सम्यग्दूषणेत्यादि । अयं भावः । यथा सम्यग दृषणापरिस्फुरणे जात्यादिः, आदि शब्दाच्छलादिः प्रयुज्यते । अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदित्यादावनुमाने सम्यक् हेत्वाभासादिदूषणाप्रतिभाने यदि अनित्यघटसाधात् कृतकत्वात् अनित्यः शब्दः स्यात्तर्हि नित्याकाशसाधात् अमूर्तत्वान्नित्योऽपि किं न स्यादिति साधर्म्यसमादिजातिः प्रतिवादिना यथा प्रयुज्यते, तद्वद्वौद्धादीन् प्रति महाविद्यापि प्रयोज्येति तद्व्याख्यानमुपयुक्तमेवेति । अत्रार्थे शिवादित्यमिश्रोक्तमवतारयति-यदाहुरित्यादि । पक्षः प्रकृतः शब्दादिः । तद्भिन्नाः शब्देतरे नित्यानित्यपदार्थाः । तयोर्ये वर्तन्ते धर्मास्तेषु तद्वत्तित्वं धर्मः, तेन यद्रहितत्वं तेनानुरजितो मिश्रितः स्वस्वेतरवृत्तित्वानाक्रान्त इत्यर्थः । साध्यवतो धर्मिणोऽनित्यस्य धर्मो मेयत्वादिहेतुव्यापकः साध्यः साधनीयः । पक्षे इति शेषः । अनित्यनिष्ठसाध्य इति भावः । केन हेतुना साध्यः इत्याह-मेयत्वात् । मानविषयो मेयः, तत्त्वात् । मेयत्वादित्युपलक्षणम् । तेन सत्त्वज्ञेयत्ववाच्यत्वादयोऽपि हेतवो ग्राह्याः । ननु किं वादिना सर्वदा महाविद्या प्रयोक्तव्या, यद्वा प्रतिवादिनः प्रतिभाक्षये कर्तव्ये, स्वस्य प्रतिभाक्षये जाते वेत्याशङ्कय, द्वितीयं द्विधाप्यङ्गीकरोति-प्रतिभाक्षये इति । आद्ये पक्षे प्रतिवादिनः प्रतिभाक्षये कर्तव्ये इति व्याख्येयम् । द्वितीये वादिनः प्रतिभाक्षये जाते सतीति । इयं च कारिका महाविद्याग्रन्थान्तरस्थिता, अत्र ग्रन्थे " अयं शब्दः स्वस्वेतरे" त्यादि प्रथममहाविद्यार्थसङ्ग्रहप्रतिपादिकावगन्तव्या । द्वितीयं तु पक्षमित्यादि । महाविद्यार्थवेदिनोऽपि प्रतिवादिनस्तहूषणाप्रतिभानरूपं द्वितीयं पक्षम् । महाविद्यागोचरसुगमदूषणव्युत्पादनेनेति । केवलान्वयिभञ्जनासिद्धत्वाद्यद्भावनरूपेणातनपरिच्छेदयोनिराकरिष्याम इत्यर्थः । इति श्रीजिनशासन-गगनाङ्गणनभोमणिषड्दर्शनीरहस्याभिज्ञशिरोमणि-सुविहिताचार्य. चक्रचूडामणि-श्रीतपागच्छशृङ्गारहारभधारक-प्रभुश्रीसोमसुन्दरसूरिशिण्यश्रीभुवनसुन्दरसूरिविरचितायां महाविद्याविडम्बनवृत्ती व्याख्यानदीपिकायां दूण्यविवेकव्याख्यानो नाम प्रथमः परिच्छेदः समाप्तः ॥ १ 'नेन आश्रयिष्यामः इति ग पुस्तकपाठः । २ दृष्यविकासो नार्म इति घ पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयः परिच्छेदः। अथ सर्वजगन्नाथं प्रणम्य करुणानिधिम् । केवलान्वयिभङ्गार्थमर्थये पार्वतीपतिम् ॥ १॥ द्वितीयपरिच्छेदः । (भुवन० )-अथ द्वितीयपरिच्छेदव्याख्या प्रक्रम्यते । “ आदावन्ते मध्ये च कल्पितमङ्गलानि शास्त्राणि प्रथन्ते " इति न्यायात् मध्यमङ्गलमाचरन्नाचष्टे-अथ सर्वजगन्नाथमित्यादि ॥ १ ॥ ___ केवलान्वयिहेतुविशेषो महाविद्या इत्युक्तम् । तन्न । केवलान्वयिहेतोरेव निर्वस्तुमशक्यत्वात् । तथाहि, किं केवलान्वयित्वाधारो हेतुः केवलान्वयी, किं वा केवलान्वयित्वाधारव्याप्यः । नाद्यः । परमाणुः प्रत्यक्षः द्रव्यत्वात् घटवदिति, आकाशं अभिधेयं नित्यत्वात् गोत्ववदित्यादीनामसंग्रहप्रसङ्गात् । नापि द्वितीयः । केवलान्वयित्वस्याद्याप्यनिरुक्तेः । किं सकलवस्तुनिष्ठत्वं केवलान्वयित्वं, उत अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वविरहः । आये दूषणमाह “मानं हन्त न केवलान्वयवतो धर्मस्य सत्त्वे " इति । (भुवन०)-अथ महाविद्यालक्षणस्मारणपूर्व तल्लक्षणखण्डनमेव प्रक्रमते-केवलान्वयीत्यादि । निर्वक्तुमिति । निश्चयेन वक्तुं निर्वक्तुम् । केवलान्वयिहेतोनिरुक्तेरेव कर्तुमशक्यत्वादित्यर्थः। केवलान्वयिभनाय द्वेधा विकल्पयति-केवलान्वयित्वाधारो हेतरिति । केवलान्वयिहेतौ केवला. न्वयित्वं नाम धर्मोऽस्ति, तस्याधारो हेतुः किं केवलान्वयी, किं वा केवलान्वयित्वाधारव्याप्यः । केवलान्वयित्वाधारो महाविद्या दिसाध्यम् । यतो यथा केवलान्वयिहेतौ केवलान्वयित्वं धर्मस्तथा केवलान्वयिनि महाविद्यादिसाध्येऽपि केवलान्वयित्वं धर्मोऽस्त्येव । अतः केवलान्वयित्वाधारोऽत्र महाविद्यादिसाध्यमेव । तेन व्याप्यः प्रमेयत्वादिहेतुः, स वा केवलान्वयीत्यर्थः । तत्राद्यं विघटयतिनाद्य इति । परमाणुः प्रत्यक्ष इति । अत्र परमाणुरित्युपलक्षणादन्ये चर्मचक्षुषामदृश्या व्योमा. त्मादयोऽपि पक्षतुल्यत्वेन ग्राह्याः । यथा व्योम प्रत्यक्षं द्रव्यत्वाद्धटवदित्यादि, इति तेषां पक्षतुल्य. त्वेन न तैर्व्यभिचाराशङ्कापि चिन्तनीया । अत्र च यद् द्रव्यं तत्प्रत्यक्षमिति व्याप्तिसद्भावेऽपि रूपरसादिगुणेषु द्रव्यत्वाभावेन सपक्षैकदेशवृत्तित्वाद् द्रव्यत्वस्य केवलान्वयित्वाधारत्वम् । यतः सकलवस्तुनिष्ठस्यैव धर्मस्य त्वया केवलान्वयित्वमभीप्सामासे । तच्च द्रव्यत्वस्य रूपादिसपक्षावृत्तित्वेन नास्ति । १ श्रीमदानन्दपूर्णविरचिता टीका प्रथमपरिच्छेदान्तैवोपलब्धा । द्वितीयतृतीयपरिच्छेदयोष्टीका नोपलब्धेति नात्र प्रकाशिता । २ महाविद्या इत्युक्तः । नासौ युक्तः इति घ पुस्तकपाठः । ३ आये पक्षे दुष इति ज पुस्तकपाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०२ महाविद्याविडम्बनम् । अतो द्रव्यत्वादावुक्तरूपकेवलान्वयित्वस्यासंभव इत्यर्थः । एवमाकाशमभिधेयमित्यत्र नित्यत्वस्यात्मादौ सपक्षे वर्तनेऽपि घटपटादावनित्ये ह्यवर्तमानत्वेन नित्यत्वस्य सकलनिष्ठत्वलक्षणं केवलान्वयित्वं नास्तीत्येतयोर्हेत्वोः केवलान्वयिष्वसंग्रहः प्रसज्येत । अयमाशयः । यदि सर्ववस्तुनिष्ठत्वं केवलान्वयित्वं स्वीक्रियते, तदा अनयोर्द्रव्यत्वनित्यत्वरूपहेत्वोः सपक्षकदेशवृत्तित्वेन केवलान्वयित्वेऽपि सर्ववस्तुनिष्ठत्वाभावेन केवलान्वयिहेतुष्वसंग्रहः स्यात्, केवलान्वयिहेतुषु च संग्रहीतावेतौ हेतू इति । महाविद्यादीनां साध्यानां केवलान्वयित्वाधारत्वात्तद्वयाप्यस्य मेयत्वादेहेतोः केवलान्वयित्वमिति यो द्वितीयो विकल्पस्तमपि प्रत्याचष्टे-नापि द्वितीय इति । केवलान्वयित्वस्य अद्याप्यनिरुक्तरिति । केवलान्वयित्वस्याद्यापि भवता निश्चितोक्तेरप्रतिपादनादित्यर्थः । अत एव केवलान्वयित्वं द्विधा विकल्पयन्नाह-कि सकलवस्तुनिष्ठत्वमित्यादि । अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वविरह इति । प्रमेयत्वादीनामत्यन्ताभावस्य यत्प्रतियोगित्वं तस्य विरहोऽभाव इति यावत् । प्रमेयत्वादीनां सर्वत्र वृत्तित्वेनात्यन्ताभावः कापि नास्तीति तद्रूपं वा केवलान्वयित्वम् । आद्यपक्षदूषणे प्राचीनाचार्यवचनमुदाहरति मानं हन्त न केवलान्वयवतो धर्मस्य सत्त्वेऽपि च स्वस्मिन्वृत्तिरवर्त्तनेन सहिता व्याघातसंत्रासिता । साध्याभाववदाश्रितत्वविरहो धूमादिलब्धस्थिति ाप्तिः सा नहि केवलान्वयवता धर्मेण संगच्छते ॥ इति । हन्तेत्यामन्त्रणे । हन्त भोः केवलान्वयवतो धर्मस्य सत्त्वे मानं नास्ति । 'मानाधीनामेयसिद्धिरिति वचनादत्र प्रकृतधर्मे मानाभावेन प्रकृतधर्मरूपमेयासिद्धिरित्यर्थः । शेषवृत्तव्याख्यानं तु परिपाट्या ग्रन्थकारः स्वयमेव करिष्यतीति । तथाहि-न तावत्प्रमेयत्वादीनांसकलवस्तुनिष्ठत्वे प्रत्यक्षं मानम् । सकलवस्तुनिष्ठत्वगोचरस्य प्रत्यक्षस्य परं प्रत्यसिद्धेः। नाप्यनुमानम् । मेयत्वादयः सकलवस्तुनिष्ठा इत्यादेरप्रसिद्धविशेषणत्वात् । सकलवस्तुनिष्ठत्वं प्रमेयत्वादिनिष्ठमित्यादेश्वाश्रयोसिद्धेः । सकलवस्तूनि प्रमेयत्वाधार इत्यादेश्च दृष्टान्ताभावग्रस्तत्वात् । एतद्धटव्यतिरिक्तसकलवस्तूनि प्रमेयत्वाधारः प्रमेयत्वादित्यादेश्च साध्याविशिष्टत्वात् । एतद्धटव्यतिरिक्तसकलवस्तूनि प्रमेयत्वाधारः अभिधेयत्वादित्यादेश्व केवलान्वयित्वेन केवलान्वयिप्रामाण्ये विप्रतिपन्नं प्रत्यनुपादेयत्वादिति । __(भुवन०)-तत्र प्रत्यक्षं प्रमाणमुतानुमानं वेति विकल्प्य प्रथमं प्रत्याह-न तावदित्यादि। परं भाट्टादिकं प्रति सकलवस्तुविषयप्रत्यक्षाभावात् । तैः सर्वज्ञानङ्गीकारादिति । द्वितीयं दूषयतिनाप्यनुमानमित्यादि । प्रमेयत्वादयः सकलवस्तुनिष्ठा इति साध्यम्, उत सकलवस्तुनिष्ठत्वं प्रमे. १ प्रमेय इति ज. घ. पुस्तक पाठः । २ यासिद्धत्वात् । स इति ज. घ. पुस्तक पाठः । ३ 'र: मेयं ति ज घ पुस्तक पाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं यत्वादिनिष्ठमिति, किंवा सकलवस्तूनि प्रमेयत्वाधार इति, किं वैतद्बटव्यतिरिक्तसकलवस्तूनि प्रमेयत्वाधारः इति चतुर्धा विकल्प्य, प्रथमे दूषणमाख्याति-प्रमेयत्वादय इति । अप्रसिद्धविशेषणत्वादिति । एवंविधसाध्यस्य दृष्टान्ते काप्यप्रसिद्धत्वेन अप्रसिद्धविशेषणो नाम पक्षदोषः स्यादित्यर्थः । सकलवस्तुनिष्ठत्वस्याप्रामाणिकत्वादाश्रयासिद्धिर्द्वितीये स्यादित्युदीरयति-सकलवस्तुनिष्ठत्वमिति । अयमत्र मथितार्थः । सकलवस्तुनिष्ठत्वमिति धर्मी, प्रमेयत्वादिनिष्ठमिति साध्यो धर्मः । अत्र च सकलवस्तुनिष्ठत्वरूपधर्मस्य धर्मिण एव सिद्धौ परमतेन प्रमाणाभावात् , यस्य कस्यापि हेतो. रत्र प्रदीयमानस्याश्रयासिद्धत्वं स्यादेवेति । तृतीयः सर्वस्य पक्षतया दृष्टान्ताभावेन स्वसाध्यासाधकपक्षमात्रवृत्तिरूपानध्यवसितदोषाक्रान्त इति भाषते---सकलवस्तूनि प्रमेयत्वाधार इति । प्रमेय. त्वस्याधारः प्रमेयत्वाधारः। सकलवस्तुशब्देन सर्वस्यापि पक्षमध्ये संगृहीतत्वेन अधिकवस्त्वन्तराभावा. दत्र स्फुटमेव दृष्टान्ताभावग्रस्तत्वम् । तथा च मेयत्वादिहेतोः स्वसाध्यासाधकत्वेन पक्षमात्रवृत्तित्वेन चानथ्यवसितत्वमिति । तुर्ये विकल्पे मेयत्वं हेतुः अभिधेयत्वं वा । तत्र प्रथमं हेतुं निरस्यति एतद्धटव्यतिरिक्तेत्यादि । अत्र च पूर्वोक्तदोषपरिजिहीर्षया सकलवस्तुमध्यादेतद्धटो दृष्टान्ता पृथकृतः । साध्याविशिष्टत्वादिति । साध्यान्न विशिष्टः साध्या विशिष्टः । यथा साध्यं सकलव स्तूनां प्रमेयत्वाधारत्वादिकं विवादास्पदीभूतं, तथात्र मेयत्वादिति हेतुरपि साध्यरूपत्वेन विवादास्प दीभूत एव । तेन साध्या विशिष्टत्वं नामात्र हेतोर्दोषो भवत्येवेति । अथ द्वितीयं हेतुं निराचष्टेएतद्धटव्यतिरिक्तेत्यादि । अत्र मेयत्वादिति हेतुस्थानेऽभिधेयत्वादिति हेतुरुक्तः । तथा च न साध्या विशिष्टत्वं, तस्मिन्नेव साध्ये तस्यैव हेतोस्तथात्वात् । अत्र च तथाऽभावात् । अतो दूषणान्तरमत्राहअभिधेयत्वादित्यादि । केवलान्वयिहेतोः प्रामाण्यं विप्रतिपन्नं, प्रतिवादिनं प्रत्यनङ्गीकार्यत्वादित्यर्थः । किश्च एतद्धटव्यतिरिक्तसकलवस्तुशब्देन किं यावन्तो भवता प्रत्यक्षानुमानाभ्यामधिगतास्तावन्तो विवक्षिताः, किंवा यावन्तो भवता अन्यैश्च प्रत्यक्षानुमानाभ्यां ज्ञाताः ज्ञायन्ते ज्ञास्यन्ते च तावन्तः । नाद्यः । प्रत्यक्षानुमानाभ्यां यावन्तो भवताधिगतास्तावन्मात्रनिष्ठत्वसिद्धावपि सकलवस्तुनिष्ठत्वासिद्धेः । नापि द्वितीयः । भवद्धिगतवस्तुव्यतिरिक्तवस्तूनां भवदनधिगतत्वेन हेतोरप्रमिताश्रयत्वादिति । (भुवन० )-दूषणान्तरं भाषते-किं चेत्यादि । किं चेति दूषणान्तराभ्युच्चये । तावमात्रनिष्ठत्वसिद्धावपीति । प्रमेयत्वादीनामिति शेषः । अप्रमिताश्रयत्वादिति । अप्रमितोऽज्ञात: आश्रयोऽन्याधिगतवस्तुरूपो यस्य स तथा, तद्भावस्तत्त्वं तस्मात् । भवदधिगतवस्तुव्यतिरिक्तवस्तूनां परैख़तत्वेऽपि भवदज्ञातत्वेन भवत्प्रयुक्तहेतोरपरिज्ञाताश्रयत्वं स्यादिति भावः । अस्तु वा एतद्धटव्यतिरिक्तसकलवस्तुनिष्ठत्वं मेयत्वादीनामेतस्मादनुमानात् । सकलवस्तुनिष्ठत्वापरपर्यायं केवलान्वयित्वं तु कुतः प्रमेयत्वादीनां सिद्धम् । Aho ! Shrutgyanam Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ महाविद्याविडम्बनम् । (भुवन०)-ममाप्रमितत्वेऽप्यन्येषां प्रमातॄणां प्रमितत्वादाश्रयत्वोपपत्तेर्न हेतोराश्रयासिद्धत्वमिति परोक्तं चेतसि निधायाजीकुर्वन्नप्याह-अस्तु वैतद्धटव्यतिरिक्तेत्यादि । एतस्मादनुमानादिति । एतद्धटव्यतिरिक्तसकलवस्तूनि प्रमेयत्वाधारः अभिधेयत्वादित्यतः । सकलवस्तुनिष्ठत्वेत्यादि । सकलवस्तुनिष्ठत्वाख्यं केवलान्वयित्वं तु कुतः प्रमाणात्प्रमेयत्वादीनां सिध्यति । अयमर्थः । एतद्धटव्यतिरिक्तसकलवस्तूनामेतदनुमानात्प्रमेयत्वमस्तु । तथापि केवलान्वयित्वं प्रमेयत्वादीनां न सिध्यति । एतद्बटस्य पक्षाद्वहिष्कृतत्वेन प्रमेयत्वादीनामेतद्भुटनिष्ठत्वस्यैवासिद्धेः सकलवस्तुनिष्ठत्वरूपकेवलान्वयित्वासिद्धिरिति । __ अथ एतद्धटनिष्ठत्वं प्रमेयत्वादीनां प्रत्यक्षसिद्धम् । एतद्धटव्यतिरिक्तसकलवस्तुनिष्ठत्वं तु प्रकृतानुमानात् । तेन प्रमाणव्यपर्यालोचनया प्रमेयत्वादीनां सकलवस्तुनिष्ठत्वसिद्धिरिति ब्रूषे, तन्न । प्रमाणद्वयपर्यालोचनया प्रमेयत्वादीनां सकलवस्तुनिष्ठत्वसिद्धिरिति कोऽर्थः । किं प्रत्यक्षपर्यालोचनया सकलवस्तुनिष्ठत्वसिद्धिः, अनुमानपर्यालोचनया च सकलवस्तुनिष्ठत्वसिद्धिरित्यर्थः, किंवा मिलितप्रत्यक्षानुमानपर्यालोचनया सकलवस्तुनिष्ठत्वसिद्धिरित्यर्थः । किंवा प्रत्यक्षतः एतद्धनिष्ठत्वसिद्धिः, प्रमेयत्वादीनामनुमानतश्चैतघटव्यतिरिक्तसकलवस्तुनिष्ठत्वसिद्धिः, तेन प्रत्यक्षानुमानावगतैतद्धटनिष्ठत्वे सति एतद्धटव्यतिरिक्तसलवस्तुनिष्ठत्वात्सकलवस्तुनिष्ठत्वं प्रमेयत्वादीनामनुमीयते इत्यर्थो विवक्षितः । नाद्यः। प्रत्यक्षस्यैतद्धटमात्रनिष्ठत्वग्राहकत्वात् । अनुमानस्य चैतद्धटव्यतिरिक्तसकलवस्तुमात्रनिष्ठत्वग्राहकत्वाचेति । नापि द्वितीयः। प्रत्यक्षानुमानयोर्मिलितयोः सकलवस्तुनिष्ठत्वप्रमाजनकत्वस्य निप्रमाणकत्वादिति । नापि तृतीयः । प्रमेयत्वादयः सकलवस्तुनिष्ठाः, एतद्धटनिष्ठत्वे सति एतद्धटव्यतिरिक्तसकलवस्तुनिष्ठत्वादित्यादेरप्रसिद्धविशेषणत्वात् । एतद्धटनिष्ठत्वे सति एतद्धटव्यतिरिक्तसकलवस्तुनिष्ठत्वमेव सकलवस्तुनिष्ठत्वम् , तच प्रकृतप्रमाणव्यावसितमिति नाप्रसिद्ध विशेषणतेति चेत् । न । प्रमेयत्वादयः सकलवस्तुनिष्ठाः सकलवस्तुनिष्ठत्वादित्यादेः साध्याविशिष्टत्वात् । __(भुवन०)-प्रत्यक्षानुमानयोः प्रत्येकं सकलवस्तुनिष्ठत्वसाधकत्वाभावेऽपि सम्भूय तत्साधकत्वं भविष्यतीत्याशङ्कते-अथैतद्धटनिष्ठत्वमित्यादि । वक्ष्यमाणविकल्पासहतया परोक्तं परिहरतितन्नेति । परोक्तस्यार्थ पक्षत्रैवं विधाय पृच्छति । प्रमाणद्वयेति । 'किं प्रत्यक्षे' त्यादिः ‘सिद्धिरित्यर्थः । इति पर्यन्तः प्रथमो विकल्पः । केवलेन प्रत्यक्षेणापि सकलवस्तुनिष्ठत्वसिद्धिः, अनु १°द्वयस्य प इति घ पुस्तक पाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० श्रीभुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं मानेनापि च केवलेन सकलवस्तुनिष्ठत्वसिद्धिः प्रमेयत्वादीनामित्यर्थः । ' किं वा मिलिते त्यादिः ‘सिद्धिरित्यर्थः' इत्यन्तो द्वितीयो विकल्पः । केचिद् घटपटादयो भावा: प्रत्यक्षेण केचिच्च मन्दरादयोऽनुमानेन ज्ञायन्ते इति मिलितप्रत्यक्षानुमानाभ्यां प्रमेयत्वादीनां सकलवस्तुनिष्ठत्वसिद्धिरिति भावः । ' किंवा प्रत्यक्षत ' इत्यादिः 'सिद्धिरिति ' प्रान्तस्तृतीयो विकल्पः । तृतीयविकल्पस्य पर्यवसितार्थमाह-तेन प्रत्यक्षानुमानेति । तेन कारणेन प्रत्यक्षानुमानाभ्यामवगतं यदेतद्बटनिष्ठत्वे सत्येतद्भटव्यतिरिक्तस कलवस्तुनिष्ठत्वं तस्मादत्रैतद्धनिष्ठत्वे सत्येतद्वव्यतिरिक्तसकलवस्तुनिष्ठत्वमिति सप्तम्या खण्डितत्वेऽपि विवक्षितार्थप्रतिपादकत्वादखण्डं पदं ज्ञेयम् तेन कर्मधारयोपपत्तिरेवेति । अथाद्यं पक्षं प्रतिक्षिपति - नाद्य इत्यादि । अयं भावः । आद्ये विकल्पे प्रत्यक्षेणाप्यनुमानेनापि च सकलवस्तुनिष्ठत्वसिद्धिर्विवक्षिता । अत्र च प्रत्यक्षस्यैतद्भटनिष्ठत्वस्यानुमानस्य तदन्यसर्ववस्तुनिष्ठत्वस्य च ग्राहकत्वं विवक्षितमिति प्रथमविकल्पस्य व्यक्त एव निरासः । द्वितीयं निरस्यति - नापीति । मिलिते प्रत्यक्षानुमाने प्रमेयत्वादीनां सकलवस्तुनिष्ठत्वप्रमाजनके इत्यादेः साध्यस्य तथाविधहेतोरसम्भवेन निष्प्रमाणकत्वमित्यर्थः । तृतीयेऽपि किमेतद्भट निष्टत्वे सत्येतद्घटव्यतिरिक्तसकलवस्तुनिष्ठत्वं हेतुः, किं वा सकलवस्तुनिष्ठत्वमात्रमिति द्विधा विकल्प्याद्यं दूषयन्नाह - नापि तृतीय इति । अप्रसिद्धविशेषणत्वादिति । अत्र सकलवस्तुनिष्ठत्वस्य सा काप्यप्रसिद्धत्वेन पक्षस्याप्रसिद्धविशेषणत्वमित्यर्थः । अथ साध्यस्य प्रमाणतोऽप्रसिद्धत्वेऽप्रसिद्धविशेषणत्वमित्यर्थः । अथ साध्यस्य प्रमाणतोऽप्रसिद्धत्वेन पक्षस्याप्रसिद्धविशेषणत्वं, अत्र पुनः प्रमाणप्रसिद्धं सायमिति नोतो दोष इत्याशङ्कते - एतद्धनिष्ठत्वे सत्येतद्धटेत्यादि । एतद्वनिष्ठत्वं प्रमेयत्वादीनां प्रत्यक्षेणावगतम्, तद्भिन्नसकलवस्तुनिष्ठत्वं चानुमानेन । एतद्वदैतदन्यसकलवस्तुनिष्ठत्वमेव च सकवस्तुनिष्ठत्वमुच्यते । तच्च सकलवस्तुनिष्ठत्वं प्रकृतप्रमाणद्वयं प्रत्यक्षानुमानद्वयलक्षणं तेनावसितं ज्ञातमित्यर्थः । तथा च सकलवस्तुनिष्ठत्वस्य साध्यस्य प्रमाणप्रसिद्धत्वेन नाप्रसिद्धविशेषणतेति भावः । द्वितीयविकल्पदूषणमुखेनैव अप्रसिद्ध विशेषणत्वपरिहाराशङ्कामपाकुरुते — नेति । प्रमेयत्वादय इति । अत्र सकलवस्तुनिष्ठत्वमिति साध्यम् । हेतुरपि सकलवस्तुनिष्ठत्वादित्येवेति साध्यतुल्यत्वेन साध्याविशिष्ट हेतुः । यादृशं साध्यं तादृश एव हेतुरित्यर्थः । अयं भावः । प्रमाणद्वयावसितं साध्यमित्युक्तं, तत्र च प्रमेयत्वादयः सकलवस्तुनिष्ठा इत्याद्यनुमानं साध्याविशिष्टत्वादिदोषग्रस्तमिति प्रमाणद्वयावसितताभावादप्रसिद्ध विशेषणतैवेति । किञ्च एतद्धनिष्ठत्वे प्रत्यक्षावगतेऽपि एतद्धव्यतिरिक्तसकलवस्तुनिछत्वे चानुमानावगतेऽपि एतद्वनिष्ठत्वे सति एतद्वदव्यतिरिक्तसकलवस्तुनि - ष्ठत्वे मानाभावस्य तदवस्थत्वादिति । अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वविरहः केवलान्वयित्वमितिद्वितीयपक्षेऽपि - " मानं हन्त न केवलान्वयवतो धर्मस्य सत्त्वे " इत्येतदेवोत्तरम् । प्रमेयत्वादिनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वविरहगोचरप्रत्यक्षस्य अस्मान्प्रत्यसिद्धत्वोत् । १ सिद्धत्वादिति । इति घ पुस्तक पाठः । Aho! Shrutgyanam Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । ( भुवन० ) - तृतीयविकल्पस्य प्रथमविकल्पे हेतोरसिद्धिश्वेत्याह- किं चेत्यादि । अयमाशयः । एतद्वनिष्ठत्वं प्रमेयत्वादीनां प्रत्यक्षेण ज्ञातम् । तदन्यत्सकलवस्तुनिष्ठत्वं चानुमानेन । तथापि प्रमेयत्वादयः सकलवस्तुनिष्ठा एतटनिष्ठत्वे सत्येतद्भटव्यतिरिक्तसकलवस्तुनिष्ठत्वादित्यादौ एतद्घटनिष्ठेत्यादिहेतुपरिच्छेदकस्यैकस्य प्रमाणस्याभावेन मानाभावस्तदवस्थ एवेत्यर्थः । अथ केवलान्वथित्वस्य द्वितीयं विकल्पं निराचिकीर्षुराह - अत्यन्ताभावेत्यादि । अत्यन्ताभावस्य प्रतियोगी तन्निरूपकः । ' अभावनिरूपकः प्रतियोगी 'ति तल्लक्षणात् । तस्य भावस्तत्त्वं, तस्य विरहोऽभावः । प्रमेयत्वादीनां सर्ववृत्तित्वेन अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं नास्तीति तदभाव एव केवलान्वयित्वमिति द्वितीयः पक्षः, तत्रापि प्रत्यक्षं मानमुतानुमानमिति पूर्ववद्विकल्प्य तत्र प्रत्यक्षप्रमाणप्रतिक्षेपं कुरुते - प्रमेयत्वादीत्यादि । अत्रादिपदेनाभिधेयत्वादिग्रहः । प्रमेयत्वादिनिष्ठं च तदत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं च तस्य विरहः, स एव गोचरो विषयो यस्य प्रत्यक्षस्य तत्तथा । एवंविधप्रत्यक्षस्यास्मान्प्रत्यसिद्धत्वात् । अयमर्थः । प्रमेयत्वादयोऽत्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितास्तदैव भवन्ति यदि प्रमेयत्वादीनामत्यन्ताभावः क्वापि न भवेत् । तथा च प्रमेयत्वादयः सर्वत्र सन्ति । एवंविधस्य प्रमेयत्वादीनामत्यन्ताभावप्रतियोगित्वविरहगोचर प्रत्यक्षस्यास्मान् प्रतिवादिनः प्रत्यसिद्धत्वमिति । प० २ प्रमेयत्वादयः अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहिता इत्यादेः पूर्ववदप्रसिद्धविशेषणत्वादिना निरस्तत्वात् । अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं कुतश्चिद्व्यावृत्तं मेयत्वादित्यादेश्च भवद्भिमत केवलान्वयिधर्मेषु भवन्मतेन अनैकान्तिकत्वादिति । भ वदभिमत केवलान्वयित्वविधुरात्यन्ताभावप्रतियोगित्वादेव अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वस्य व्यावृत्तिसिद्धिमात्रेण अस्योपपन्नत्वेन अर्थान्तरताग्रस्तत्वाच्च । केवलान्वयिनः परं प्रति अगमकत्वाच्च । अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं प्रमेयत्वव्यावृतम्, अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तप्रमेयत्वनिष्ठत्वरहितत्वात् संप्रतिपन्नप्रमेयत्वानिष्टवदित्यपि न । अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं प्रमेयत्वनिष्ठम्, अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तप्रमेयत्वव्यावृत्तत्वरहितत्वात्, संप्रतिपन्नप्रमेयत्वनिष्ठवत् इत्यादिना सेत्प्रतिपक्षितत्वात् तद्विरहेण सोपाधित्वाच्चेति । " ८१ ( भुवन ० ) — द्वितीये प्रमेयत्वादिकं पक्षीकृत्यानुमानं प्रयुज्यते, अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं वा प्रथमं पराकरोति — प्रमेयत्वादय इत्यादि । अत्राप्यादिशब्देनाभिधेयत्वादिग्रहः । द्वितीय - पक्षं प्रतिक्षिपति — अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वमित्यादि । अत्र यद्यन्मेयं तत्तत्कुतश्चिद्व्यावृत्तमिति नियमो नास्ति । अत्र हेतुमाह - भवदभिमतेति । भवदभिमता ये केवलान्वयिनो धर्माः प्रमेयत्ववाच्यत्वादयः ते च भवन्मतेन मेयाः सन्ति, न कुतश्चिद्व्यावृत्ता इति तेषु व्यभिचार इत्यर्थः । अत्रैवानुमाने दोषान्तरमाह — भवदभिमत केवलान्वयित्वविधुरेत्यादि । भवदभिमतं यत्केवलान्वयित्वं सर्ववस्तुनिष्ठत्वं तेन विधुरो योऽत्यन्ताभावस्तस्य यत्प्रतियोगित्वं घटत्वादीनां तस्मादेवात्यन्ताभाव १ सत्प्रतिपक्षत्वात् इति थ पुस्तक पाठः । ११ महाविद्या० Aho! Shrutgyanam Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं प्रतियोगित्वस्य व्यावृत्तिसिद्धिमात्रेण अस्यात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं कुतश्चिव्यावृत्तमित्यादिरूपस्यानुमानस्योपपन्नत्वेन संजातत्वेन प्रमेयत्वादीनामत्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यावृत्तिरूपादात्सिषाधयिषितादन्यो योऽर्थः स्वस्मात्स्वव्यावृत्तिलक्षणस्तदर्थान्तरं, तेन प्रस्तत्वाच्च । चकारी हेत्वन्तरसूचनार्थः । अयमभिप्रायः । यथा मेयत्ववाच्यत्वादयः सर्ववृत्तित्वेन भवन्मते केवलान्वयिनो वर्तन्ते, तथा खरविषाणादेरप्रामाणिकस्यात्यन्ताभावोऽपि सकलवस्तुनिष्ठत्वेन केवलान्वयित्ववानेव भवति । के वलान्वयित्वेन विधुरस्त्वत्यन्ताभावो घटत्वादिप्रतियोगिको ज्ञेयः । तस्य घटे वर्तमानत्वेन सकलवस्तुनिष्ठत्वाभावात् । तेन केवलान्वयित्वविधुरात्यन्ताभावप्रतियोगित्वादेव केवलान्वयित्वविधुरात्यन्ता. भावप्रतियोगित्वस्य व्यावृत्तिः सिध्यति, न प्रमेयत्वादेः । एतदुक्तं भवति । अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वेऽत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं स्ववृत्तिविरोधानास्तीति स्वस्मादेव स्वव्यावृत्तिमात्रसिद्धौ अर्थान्तरमिति । अथ पुनरत्रैव हेतुदोषं भाषते-केवलान्वयिन इति । परं प्रतीति । परं प्रतिवादिनं प्रतीत्यर्थः । अथानुमानान्तरमाशङ्कते-अत्यन्ताभावेति । प्रमेयत्वाड्यावृत्तम् प्रमेयत्वव्यावृत्तम् । अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं प्रमेयत्वे न वर्तते इत्यर्थः । अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तत्वे सति ये प्रमेयत्वनिष्ठाः प्रमेयवृत्तित्वादयस्तत्त्वरहितत्वादिति हेतुः । संप्रतिपन्ना वादिप्रतिवादिभ्यां प्रतिपन्ना ये प्रमेयत्वानिष्ठा द्रव्यत्वघटत्वादयस्तद्वदित्यर्थः । अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं व्यावृत्तमित्युक्ते स्वतो व्यावृत्तत्वे. नार्थान्तरत्वं स्यात् । अत उक्तं प्रमेयत्वव्यावृत्तमिति । अथ हेतुव्यावृत्त्यचिन्ता । प्रमेयत्वनिष्ठत्वरहितत्वादित्युक्ते प्रतिवादिनं भाट्टादिकं प्रत्यसिद्धिः स्यात् , तन्मतेऽत्यन्ताभावप्रतियोगित्वस्य प्रमेयत्वनिष्ठत्वात् । अत उक्तमत्सन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तेति । एवमुक्ते च हेतुरुभयवादिसंमतो जातः । यतः प्रमेयत्वनिष्ठाः सत्त्वप्रमेयवृत्तित्वादयो यथा सन्ति, तथा प्रतिवादिनो मते ऽत्यन्ताभावप्रतियो. गित्वमपि प्रमेयत्वनिष्ठं विद्यते । तच्चात्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तेति पदेन बहिष्कृतम् । तथा चात्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्ता ये मेयत्वनिष्ठाः, तत्त्वरहितत्वमत्यन्ताभावप्रतियोगित्वस्य पक्षितस्यास्त्येवेत्यर्थः । तुल्यबलत्वेन साध्याभावसाधकः प्रकरणसमापरपर्यायः सत्प्रतिपक्षः, तेन कलङ्कितमेतदिति परिहरति-नेति । प्रमेयत्वे वर्तमानमित्यर्थः-अत्यन्ताभावेति । अत्यन्ताभावप्रतियोगिस्वव्यतिरिक्ता ये प्रमेयत्वाघ्यावृत्ताः प्रमेयत्वावर्तमानाः घटत्वपटत्वद्रव्यत्वादयः, तत्त्वरहितत्वादिति हेतुः । अत्रापि प्रमेयत्वव्यावृत्तत्वरहितत्वादित्युक्तेऽत्यन्ताभावप्रतियोगित्वस्य महाविद्यावादिनो मते प्रमेयत्वाट्यावृत्तत्वेन पूर्ववद्धेतोरसिद्धता स्यात् । तत्परिहारार्थमत्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तेति पदमुररीचक्रे । संप्रतिपन्ना ये प्रमेयत्वनिष्ठाः सत्त्ववाच्यत्वादयो धर्मास्तद्वदिति दृष्टान्तः । अत्र संप्रतिपन्नप्रमेयत्वनिष्ठवदित्यादिनेत्यत्रादिपदेन प्रमेयत्वमत्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मत्वानाक्रान्ताधिकरणं वस्तुत्वाद्धटवदित्यादीनां संग्रहः । न केवलं सत्प्रतिपक्षत्वं, प्रमेयत्वनिष्ठत्वाभावश्वोपाधिरपीत्याह-तद्विरहेणेति । तच्छब्देन सत्प्रतिपक्षानुमाने यत्साध्यं प्रमेयत्वनिष्ठत्वलक्षणं तत्परामृश्यते । तस्य विरहोऽभावस्तद्विरहः । तेनात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं प्रमेयत्वव्यावृत्तमित्यनुमानस्योपाघित्वं, प्रमेयत्वनिष्ठत्वाभावोऽत्रोपाधिरित्यर्थः । स चोपाधियः प्रमेयत्वंव्यावृत्तः। स प्रमेयत्वनिष्ठत्वरहित इति साध्यव्याप्तिकः । तथा योऽत्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तप्रमेयत्वनिष्ठत्वरहितः स प्रमे १ 'ब्देन प्रतिप इति च पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ महाविद्याविडम्बनम् । ८३ यत्वनिष्ठत्वरहित इति साधनेन सहोपाधेाप्तिर्नास्ति । यतः पक्षीकृतेऽत्यन्ताभावप्रतियोगित्वेऽत्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तमेयत्वनिष्ठत्वरहितत्वमस्ति, न च प्रमेयत्वनिष्ठत्वरहितत्वं, तस्याद्यापि विवादास्पदत्वात् । तेन साधनाव्यापकश्वायमुपाधिः । तथात्र यत्प्रमेयत्वनिष्ठत्वरहितं नास्ति, तत्प्रमेयत्वाड्यावृत्तमपि नास्ति, यथा सत्त्ववाच्यत्वादि, इति सत्त्वादेविपक्षस्योपाधावय॑त्वेन पक्षेतरत्वाख्यमपि दूषणमुपाधे शङ्कनीयमिति प्रमेयत्वनिष्ठत्वविरहेणात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं प्रमेयत्वव्यावृ. त्तमित्यनुमानस्य सोपाधित्वं स्यादेवेति तात्पर्यार्थः । न च केवलान्वयित्वसिद्ध्यै महाविद्यापि प्रमेयत्वादीनां प्रभवति । वक्ष्यमाणसकलदोषव्याकुलत्वादिति । एवमुदयनादीनां मतमवलम्ब्य घटादिनिधमत्यन्ताभावप्रतियोगित्वमङ्गीकृत्य अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं कुतश्चिद्ध्यावृ. त्तमित्यादिप्रयोगो निरस्तः। (भुवन०) अथ प्रमेयत्वादयः संप्रतिपन्नतद्धर्मत्वरहिताधिकरणं वस्तुत्वाद्धटवदित्यादिमहाविद्यया प्रमेयत्वादीनां केवलान्वयित्वं विप्रतिपन्नं सेत्स्यतीत्याशंक्य वावक्ति-न च केवलेत्यादि । प्रमेयत्वादीनां केवलान्वयित्वसिद्धथै महाविद्यापि न च प्रभवतीति पदान्वयः । वक्ष्यमाणाः सकलदोषाः सोपाधित्वासिद्धत्वादयस्तैर्व्याकुलत्वादिति-उदयनादीनामिति । उदयनादिपूर्वाचार्याणाम् । वयं तु ब्रूमः-अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वमेव नास्ति । कस्य धर्मित्वम् । अप्रामाणिकप्रतियोगिको त्यभावोऽत्यन्ताभावः, तत्प्रतियोगित्वं चाप्रामाणिकमेव। न चाप्रामाणिकनिष्ठमत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं नाम धर्मः शक्योऽङ्गीकर्तुम् । प्रमाणविरहादिग्रस्तत्वात्।। (भुवन०)-अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वमेवेति। अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वरूपो धर्म एवं यदि नास्ति, तर्हि कस्य धर्मित्वं घटते ।धर्माधारो हिधर्मीतिव्यवस्थितेः । अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं निष्प्रमाणकत्वान्न हेतोराश्रय इति वक्तुमत्यन्ताभावस्वरूपमाह-अप्रामाणिकेति। अप्रामाणिकं शशशृङ्गादिप्रतियोगि यस्याभावस्य स तथा-तत्पतियोगित्वामिति । अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वमित्यर्थः-न चापामाणिकनिष्ठमिति । अप्रामाणिके खरविषाणादौ निष्ठं यदत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तद्रूपो धर्मः कथमङ्गीकारार्हः । तत्र प्रमाणाभावात् । ____अथ अन्योन्यप्राक्मध्वंसाभावव्यतिरिक्तः संसृज्यमानप्रतियोगिनिरूप्यः इह भूतले घटो नास्तीत्यादिप्रतीतिसाक्षिकः कुम्भादीनामभावोऽत्यन्ताभावः, तत्प्रतियोगित्वं चात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं कुम्भादिनिष्ठमनुभवसिद्धमिति ब्रूषे, तन्न । इह भूतले घटो नास्तीत्यत्र एतद्धटैतद्भूतलाश्रयायिभावात्यन्ताभावस्यैव अनुभवसिद्धत्वात् । १ दोषग्रस्तत्वादि इति घ पुस्तक पाठः। २ योगी चाप्राणिक एवं । इति घ जपुस्तक पाठः । Aho! Shrutgyanam Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं (भुवन०)-अथानादिः सान्तः प्रागभावः, सादिरनन्तः प्रध्वंसाभावः, तादात्म्यनिषेधोऽन्योन्याभावः, अनादिरनन्तः संसर्गाभावोऽत्यन्ताभावः, इति चतुर्धाऽभावः। तत्रात्यन्ताभावे प्रमाणमनुभव एवेत्यारेकते-अथान्योन्यमापध्वंसेत्यादि। घटस्य यः इह भूतलेऽत्यन्तमभावः, सोऽन्योन्याभावप्रागभावप्रध्वंसाभावत्रयाव्यतिरिक्तो भिन्नः । पुनः किंविशिष्टः-संसृज्यमानप्रतियोगिनिरूप्य इति । भूतलादिना संसृज्यमानः संश्लिष्यमाणो यो घटादिः प्रतियोगी तेन निरूप्योऽत्यन्ताभावः। तत्मतियोगित्वं चेति । तस्य अत्यन्ताभावस्य प्रतियोगित्वं तत्प्रतियोगित्वं, तदेव चात्यन्ताभावप्रतियोगित्वम् । कुम्भादिनिष्ठमनुभवसिद्धमिति । प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धमित्यर्थः । अनुभवस्यान्यथैवोपपत्त्या परोक्तं तिरस्करोति-तन्नेति । आश्रयाश्रयिमावेति । आश्रयो भूतलम् , आश्रयी घटः, तयोर्भाव आश्रयायिभावः । एतद्धटैतद्भूतलयोर्यत्राश्रयायिभावः सम्बन्धस्तदत्यन्ताभावस्यैवानुभवसिद्धत्वात् । अयं भावः । इह भूतले एतद्बटो नास्तीत्ययं घटस्यात्यन्ताभावो न भवति, किं त्वयमाश्रयाअयिभावस्यैवात्यन्ताभावः । यतोऽत्रायं घटो न निषिध्यते, अपि तु एतद्धटैतद्भूतलयोः संसर्गो निषिध्यते । स चाप्रामाणिक एव । तस्य तत्रासत्त्वेन काल्पनिकत्वात् । तस्य तत्रासत्त्वं च यस्य घटस्यैतद्भूतलेन आश्रयायिभावो न जातो, नापि भविष्यति, तस्य घटस्यैतद्भूतलेनाश्रयायिभावस्य निष्प्रमाणकस्य विवक्षितत्वात् । अतोऽप्रामाणिकैतद्बटैतद्भूतलाश्रयाश्रयिभावात्यन्ताभावस्यैव प्रत्यक्षसिद्धत्वान्न घटस्यात्यन्ताभावोऽयमिति । ___ अथ यदीह भूतले घटाभावाभावः, तर्हि घटः स्यादिति ब्रूषे । तन्न । किमत्र एतद्धटैतद्भूतलसंसर्गः आपाद्यते किंवा घटः । आये आपाद्यासिद्धिः । द्वितीये तु इष्टापादनम् । कचिद् घटस्याप्यङ्गीकारात् । - (भुवन०)-अथ घटाभावेऽपोद्यमाने हि घटभाव एवावशिष्यते इति शङ्कते-अथ यदीहेत्यादि। घटस् अभावो घटाभावः, तस्याप्यभावो घटाभावाभावो, घट इत्यर्थः । “द्वौ नौ समाख्यातौ पूर्वोक्तमेवाथै गमयतः" इति न्यायात् । विकल्पद्वयेन एतत्परिहरति-तन्नेति । अत्रेति भूतले । आद्य इति । आये विकल्पे आपाद्यस्य एतद्बटैतद्भूतलसंसर्गस्यासिद्धिः । यतोऽत्र भूतले यदि घटाभावाभावः स्यात् , तर्खेतद्धटैतद्भूतलसंसर्गः स्यादित्यत्रैतद्धटैतद्भूतलसंसर्गः आपाद्यः । स चासिद्ध एव । अनिष्टप्रस जनार्थमेवोक्तत्वेन तत्र तस्य काल्पनिकत्वादिति । यदीह भूतले घटाभावाभावः, तर्खेतद्धटैतद्भूतलसंसर्गः स्यादित्यत्र तर्के आपाद्यासिद्धिर्नाम तर्कदूषणं स्यादिति न प्रथमो विकल्पोडीकारार्हः इति भावार्थ:-द्वितीये त्विष्टापादनमिति । घटाभावाभावे सति कापि भूतलादौ घटस्याप्यङ्गीकारात् । किञ्च घटाभावाभावः किं घटप्रागभावस्थाभावः, किंवा घटप्रध्वंसस्याभावः, किंवा घटान्योन्याभावस्याभावः । त्रयमपि न । घटप्रागभावप्रध्वंसान्योन्याभावाभाववति घटे घटस्याविद्यमानत्वेन आपाधापादकयोोप्तिभङ्गा. १ योाप्त्यभावात् । ना' इति घ पुस्तक पाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ महाविद्याविडम्बनम् । दिति । नापि प्रागभावप्रध्वंसाभावान्योन्याभावव्यतिरिक्तसंसृज्यमानघटाभावाभावेन अस्मिन् भूतले घट एतद्भूतलघटसंसर्गो वा आपाद्यते इति युक्तम् । प्रागभावप्रध्वंसाभावव्यतिरिक्तसंसृज्यमानघटाभावस्य अस्मन्मते निष्प्रमाणकत्वेन तद्भावस्य गगनादौ घटैतद्भूतलघटसंसर्गव्याप्यत्वभङ्गादिति। नाप्येतद्धटैततलाश्रयायिभावो युष्माकमस्माकं वा प्रसिद्ध इति । (भुवन०)-किं च प्रागभावप्रध्वंसाभावान्योन्याभावरूपाभावत्रयाभावेन आपादकेन घटः आपाद्यते, किं वा तत्रयातिरिक्तसंसृज्यमानाभावाभावेनेति द्विधा विकल्प्य आये कल्पे आपाद्यापादकयोर्व्याप्तिविरहात्तर्कस्य प्रशिथिलमूलतेत्याह-किं च घटाभावाभावः इत्यादि । घटप्रागभावेत्यादि । घटे हि घटप्रागभावाद्यभावत्रयाभावसम्भवेन आत्माश्रयतापाताद्धटे घटाभावेन च यत्र घटाभावाभावस्तत्र घट इति व्याप्तिभङ्गात् । इदमत्र तत्त्वम् । अत्र घटाभावाभावः आपादकः, घटश्वापाद्यः । ततो घटे घटप्रागभावप्रध्वंसाभावान्योन्याभावाभावोऽस्ति, नतु घटः इति आपाद्यापादकयोर्व्याप्तिभङ्ग इति । द्वितीयं प्रत्याह-नापीति । संसृज्यमानो भूतलेन सम्बद्धथमानो यो घटस्तस्याभावः । प्रागभावादिव्यतिरिक्तश्चासौ संसृज्यमानघटाभावश्च । एवंविधश्चाभावत्रयव्यतिरिक्तो घटस्याभावोऽत्यन्ताभाव एव । तस्याभावेनापाद्यते किं तदित्याह-अस्मिन्भूतले घटो वा एतदूतलघटसंसों वा । नापि युक्तमिति सम्बन्धः । कुत इत्याह-प्रागभावेत्यादि । प्रागभावादिव्यतिरिक्तस्य संसृज्यमानघटाभावस्य घटात्यन्ताभावस्य अस्मन्मते निष्प्रमाणकत्वेन तदभावस्य संसृज्यमानघटाभावाभावस्य गगनादौ घटसंसर्गसद्भावेन घटश्चैतद्भूतलघटसंसर्गश्च ताभ्यां यद्व्याप्यत्वं तस्य भङ्गात् । अयं भावः । गगने यदा केनापि घटो मन्त्रशक्त्या स्तम्भितस्तदा गगने घटात्यन्ताभावाभावस्य सद्भावेऽपि, घटैतद्भूतलघटसंसर्गाभावाद्यत्र यत्र व्याप्यस्य घटात्यन्ताभावाभावस्य सद्भावः, तत्र तत्रैतद्भतलस्थितघटैतद्भूतलघटसंसर्गयोापकयोरभावेन घटैतद्भूतलघटसंसर्गाभ्यां घटात्यन्ताभावाभावस्य व्याप्यत्वभङ्गः स्यादेवेति । एतद्धटैतद्भूतलाश्रयायिभावस्य अप्रामाणिकत्वं नास्मसिद्धान्तमात्रसिद्धं, किन्तु भवतोऽपि संमतमेवेत्याह-नाप्येतद्धटैतद्भतलेत्यादि । इदमत्रैदंपर्यम् । यस्य घटस्यान्यदेशस्थस्य एतद्भूतलेन सह संसगों न जातो, नापि भविष्यति, तस्य घटस्यैतद्भूतलेन सह संसगों निषिध्यते । स च युष्माकमस्माकं वा अप्रामाणिकत्वेन अप्रसिद्ध एव । प्रसिद्धत्वे निषेधासिद्धेरिति । __ अथ एतद्धटैततलाश्रयायिभावस्य अप्रामाणिकत्वात्तदभावोऽपि प्रामाणिको न स्यात् । न हि अप्रामाणिकोऽभावः प्रामाणिको नामेत्यभिधत्से । तन्न । किमत्र अप्रामाणिकाभावत्वेन एतद्धटैतद्भूतलाश्रयायिभावाभावस्य अप्रामाणिकत्वमनुमीयते, किंवा अप्रामाणिकाभावत्वेन अप्रामाणिकत्वमापाद्यते । नाद्यः। अप्रामाणिकाभावस्य प्रमितत्वे विरोधात् । अप्रमितत्वे चाश्रयासिद्धेः । अप्रामाणिकाभावप्रतीतिमनङ्गीकुर्वतो भवतो हेत्वप्रमितेश्चेति । नापि Aho ! Shrutgyanam Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं द्वितीयः । अप्रामाणिकाभावत्वाप्रामाणिकत्वयोः कचिदपि व्यास्यसिद्धेर्मूलशैथिल्यादिति । पूर्ववदापाद्यापादकयोरप्रसिद्धेश्च । (भुवन०)-अथ आश्रयायिभावस्याप्रामाणिकत्वात्तदभावस्याप्यप्रामाणिकत्वमिति शङ्कतेअथैतद्धटैतद्धतलेत्यादि । तदभावोऽपीति । एतद्धटैतद्भूतलाश्रयाश्रयिभावाभावोऽपीत्यर्थः । अत्र युक्तिमाह-नहीत्यादि । अप्रामाणिकस्य आश्रयिभावादेरभावोऽप्रामाणिकाभावः । अभावनिरूपकत्वात्प्रतियोगिनः, तदभावोऽपि तत्समान एव न्याय्य इत्यर्थः । विकल्पासहत्वेन परोदितं दूषयति-तन्नेति । अप्रामाणिकाभावत्वेनेति । अप्रामाणिकस्याभावोऽप्रामाणिकाभावः, तत्य भावस्तत्त्वं, तेन । अप्रमाणिकत्वमनुमीयते इति । एतद्धटैतद्भूतलाश्रयायिभावाभावोऽप्रामाणिकः अप्रामाणिकाभावत्वात् खरविषाणाभाववदित्यनुमानं क्रियते । किं वाप्रामाणिकति । अप्रामाणिकस्याभावत्वेनाप्रामाणिकत्वमापाद्यते । यः एवापाद्यते स एव तर्कः, 'आपाद्याभिन्नत्वात्तस्ये 'ति वचनादनिष्टापादनरूपस्तकों वापाद्यत इति । एतावता इदमनुमानमापाद्यरूपस्तकों वेति विकल्पो इत्यर्थः। आये विकल्पेऽप्रामाणिकाभावः प्रमितो न वेति द्वेधा विकल्प्य, क्रमेण दूषणोद्धोषणां विधत्तेअप्रामाणिकाभावस्येति । अप्रामाणिकस्य अभाव इति समासः । विरोधादिति । यदि अप्रामाणिकाभावस्तर्हि कथं प्रमितः, अप्रामाणिकस्य प्रमाणाग्राह्यत्वेन तदभावस्यापि तथात्वादित्यभिप्रायेण विरोध इत्यर्थः । अप्रमितत्वे इति । अप्रामाणिकस्य आश्रयाश्रयिभावस्याभावः पक्षीकृतो यद्यप्रमितः प्रमाणेन न गृहीतः, तर्हि तस्मिन्नप्रमिते खरविषाणे इव प्रवर्तमानोऽप्रामाणिकाभावत्वादिति हेतुराश्रयासिद्धः स्यादित्यभिप्रायः । अथाप्रामाणिकाभावत्वादित्ययं हेतुरसिद्ध इत्याहअप्रामाणिकाभावप्रतीतिमिति । हेत्वप्रमितेश्चेति । अप्रामाणिकाभावत्वादिहेतोर्भवन्मतेऽप्रामाणिकत्वादप्रसिद्धत्वेनासिद्धत्वमित्यर्थः । अथ द्वितीयं विकल्पमुत्थापयति । नापि द्वितीय इति । अप्रामाणिकत्वमापाद्यते इत्येवंरूपो द्वितीयोऽपि न । अप्रामाणिकाभावेति । अप्रामाणिकाभावत्वं व्याप्यम् । अप्रामाणिकत्वं व्यापकम् । तयोश्च यत्र अप्रामाणिकाभावत्वं तत्र अप्रामाणिकत्वमिति व्याप्त्यसिद्धाप्त्यनुपपत्तेः । यतो विवक्षितभूतले प्रामाणिकाश्रयाश्रयिभावाभावोऽप्रामाणिको न भवत्यस्माकं मते । तस्य चाक्षुषत्वेन प्रामाणिकत्वात् । मूलशैथिल्यादिति । तर्कस्य हि मूलं व्याप्तिः, तस्याश्चात्रासिद्धेः प्रशिथिलमूलतापरपर्यायो मूलशैथिल्याख्यस्तर्कदोषः स्यादेवेत्यर्थः । तथा अप्रामाणिकाभावप्रतीतिमनजीकुर्वतो भवतः आपादकादेरसिद्धिरपि तर्कदोषः स्यादित्याहपूर्ववदापाद्यापादकयोरप्रसिद्धेश्चेति । व्याप्योऽप्रामाणिकाभाव आपादकः, व्यापकमप्रामाणिकत्वमापाद्यं तयोरप्रसिद्धेरिति । आपादकादिकं हि प्रसिद्धं वाच्यम् । तञ्च भवन्मतेऽप्रामाणिकत्वेनाप्रसिद्धमिति युक्तं तदप्रसिद्धयाख्यानमित्यर्थः। ननु असति तस्मिन् कस्याभावः इति चेत् । यस्मिन् असतीति त्वयोच्यते तस्यैव । (भुवन० )-अथ ' यदस्ति तन्मेयमिति नियमादप्रामाणिकत्वेन प्रतियोगिनः एतद्धटैतद्भूतलाश्रयायिभावादेरसत्त्वात् अभावो न स्यान्निरूपकाभावादित्याशङ्कते-नन्वित्यादि । Aho! Shrutgyanam Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ महाविद्याविडम्बनम् । तस्मिन्नाश्रयायिभावादौ प्रतियोगिनि असति असद्भूते कस्याभावः स्यादित्यर्थः । पराशङ्कां मत्वा सिद्धान्ती प्रतिविधत्ते-यस्मिन्नसतीति । नन्वसति तस्मिन्नित्यत्र असतीति यस्मिन्विषये त्वयोच्यते, तस्यैवायमभावः । एतावता असत एवायमभाव इत्यर्थः ।। अथ अभावविरहरूपत्वं प्रतियोगित्वम् , तचाप्रामाणिकस्य न घटते इत्युच्यते । तन्न । अभावतद्धर्मादिव्यतिरिक्तस्य अप्रामाणिकाभाव इत्येतत्प्रतीतिगोचरस्य अप्रामाणिकाभावप्रतियोगित्वेन अप्रामाणिकाभाववादिभिः पूर्वाचार्यैरङ्गीकारात् । वयं तु निष्पतियोगिकमेवात्यन्ताभावं ब्रूमः । प्रतियोगित्वं हि धर्मविशेषः, न चासावप्रामाणिके संभवति । (भुवन०)-अथ प्रतियोगिलक्षणप्रणयनपूर्वमप्रामाणिकस्य प्रतियोगित्वाभावमारेकतेअथाभावविरहरूपत्वमिति । अभावस्य असद्रूपस्य यो विरहोऽभावस्तद्रूपत्वं प्रतियोगित्वम् । भावरूपत्वं प्रतियोगित्वमिति भावः । तच्चेति । तदेवंविधं प्रतियोगित्वमप्रामाणिकस्य असत्त्वेन न घटत इत्यर्थः । अभावानाश्रयत्वेऽभावादन्यत्वे च सति अभावप्रतीतिसमये प्रतीयमानत्वमानं प्रतियोगित्वमिति परिहरति-तन्नेति । अभावतद्धमोदीति । अभावश्च, तद्धर्मा अभावत्वादयोऽभावधर्माश्च, अभावतद्धर्माः । अत्रादिपदेन प्रमातृसंग्रहः । तद्व्यतिरिक्तस्य खरविषाणादेः । अप्रामाणिकेति । अप्रामाणिकस्य प्रमाणाग्राह्यस्य वस्तुनोऽयमभावः इत्येवंसम्बन्धपूर्विका या प्रतीतिस्तद्गोचरस्य तद्विषयस्येत्यर्थः । अप्रामाणिकस्य योऽयमभावस्तस्य प्रतियोगित्वेन अप्रामाणिकस्य योऽभावस्तद्वादिभिः पूर्वाचार्यैरङ्गीकारात्स्वीकारादित्यर्थः । अथ सर्वथैवाप्रामाणिकस्य प्रतीतिरनुचितेत्यत्राह-वयमिति । अत्यन्ताभवस्य कोऽपि प्रतियोगी नास्तीति वयमङ्गीकुर्म इत्यर्थः । अत्रैव युक्तिमाचष्टे-प्रतियोगित्वं हीत्यादि। ननु यदि न अप्रामाणिके अभावप्रतियोगित्वं, कथं तबयमप्रामाणिकोऽभावः इति । अप्रामाणिकाभावत्वरूपधर्माश्रयत्वादित्यवेहि । (भुवन०)-अप्रामाणिकप्रतियोगिकत्वानङ्गीकारेऽप्रामाणिकाभाव इति व्यपदेशस्य का गतिरित्याह-ननु यदीत्यादि । अप्रामाणिके एतद्धटैतद्भूतलाश्रयाश्रयिभावादौ यद्यभावप्रतियोगित्वं नास्ति, कथं तीयमप्रामाणिकाभाव इत्युच्यते इत्यर्थः । अप्रामाणिकाभावोऽप्रामाणिका भावत्वरूपधर्मविशेषाश्रयत्वाद्भविष्यतीत्यनेन परारेका तिरस्कुरुते-अप्रामाणिकाभावत्वरूपेति । अप्रामाणिकाभावत्वरूपधर्माश्रयत्वाद्धेतोरप्रामाणिकाभाव इति वक्तुं युक्तमेवेति भावः ।। __अथ योग्यानुपलब्धिगम्यो ह्यभावः, प्रतियोगितद्धर्मव्यतिरिक्ता च प्रतियोगिप्रतीतिसामग्री योग्यता । अप्रामाणिकप्रतीतिसामग्री च भ्रान्तिसामग्येव । सा च प्रतियोगितद्धर्मव्यतिरिक्तैव । तस्यां च सत्यामपेक्षणीयान्तराभावादनुपलब्धिर्नास्ति । अनुपलब्धौ च सत्यामप्रामाणिकोपलम्भसामग्रीरूप १ रहयोगित्वं प्रति इति० ज पुस्तक पाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं योग्यता नास्ति । तेन योग्यतासहितानुपलब्धेरसम्भवादप्रामाणिकाभावप्रमितेरनुपपत्तिरिति मन्यसे, तन्न । चाक्षुषयोरप्रामाणिकाश्रयायिभावाभावस्य चाक्षुषत्वाङ्गीकारात् । एवं त्वगादिगम्ययोरप्रामाणिकाश्रयाश्रयिभावाभावस्य त्वगादिगम्यत्वात्, योग्यानुपलब्धेस्त्वभावप्रमाजनकत्वमस्माकमनभिमतमेवेति न किञ्चिदेतत्। (भुवन०)-परः 'अथ योग्यानुपलब्धी'त्यादि इति मन्यसे' इत्यन्तामप्रामाणिकाभावस्य प्रमित्यनुपपत्तिमाशङ्कते-अथ योग्यानुपलब्धीत्यादि । योग्यस्य घटादेरनुपलब्धिरनुपलम्भस्तया गम्यो ज्ञेयो ह्यभावः । यत्र दर्शनयोग्यस्य घटादेरनुपलब्धिस्तत्र तस्याभावः । यथा आलोकादिसामग्र्यां सत्यां मुण्डभूतले घटादेरभावः । अत्र योग्यानुपलब्धीत्युक्तं, अतो योग्यतालक्षणमाख्यातिप्रतियोगितद्धमेति । प्रतियोगिनो घटादयः, तद्धर्माः घटत्वादयः, तेभ्यो व्यतिरिक्ता आलोकसद्भावादिका प्रतियोगिप्रतीतिकारिणी सामग्री योग्यता इत्युच्यते । प्रतियोगितद्धर्मव्यतिरिक्ता प्रतियोगिप्रमापकसामग्री योग्यतेत्यर्थः । प्रामाणिकप्रतियोगिनः सामग्रीमुक्त्वा अप्रामाणिकप्रतियोगिनस्तामाह-अप्रामाणिकमतीतीति । अप्रामाणिको निषेध्यमान आश्रयाश्रयिभावादिः तस्य या प्रतीतिः, तस्या या सामग्री सा पुनर्धान्तिसामग्र्येव । प्रतियोगितद्धर्मयोः प्रतियोगिप्रतीतिहेतुत्वाद्योग्यतान्तर्भावः किं न स्यादत्राह-सा च प्रतियोगीत्यादि । सा.च भ्रान्तिसामग्री। प्रतियोगी अप्रामाणिकः, तद्धर्माश्च अप्रामाणिकत्वादयस्तद्व्यतिरिक्तवेत्यर्थः । तथापि योग्यानुपलब्धेरभावप्रमापकत्वे प्रकृते किमायातमित्यत आह-तस्यां च सत्यामिति । तस्यां भ्रान्तिसामग्र्यां सत्यामालोकाद्यपेक्षणीयान्तराभावादप्रामाणिकस्यानुपलब्धिर्नास्ति, किं तु अप्रामाणिकस्य सर्वदोपलब्धिरेवास्ति । भ्रान्तिसामग्र्यां भ्रान्त्युत्पत्तिनियमादित्यर्थः । यदि चाप्रामाणिकस्यानुपलब्धिरङ्गीक्रियते, तदा किं स्यादित्यत आह–अनुपलब्धौ चेति । यद्यप्रामाणिकस्यानुपलब्धिः स्यात्, तदा तस्यां सत्यामप्रामाणिकोपलम्भसामग्रीरूपा या योग्यता सैव नास्ति । तस्यां सत्यामुपलब्धेरेव सम्भवात् । अथ फलितं प्रादुश्वरीकरीति-तेन योग्यतेत्यादि । तेन कारणेन योग्यतासहितस्य अप्रामाणिकस्य या अनुपलब्धिस्तस्या असम्भवादप्रामाणिकस्य खरविषाणादेर्योऽभावस्तत्र या प्रमितिः प्रमाणं, तस्या अनुपपत्तिरघटमानतेति पदान्वर्थः । भावार्थस्त्वयम् । अप्रामाणिकं शशशृङ्गादि यद्वस्तु तद्यादशमस्ति, तादृशं सर्वदेवास्ति, तस्य तुच्छत्वात्प्रकाशादिकारणान्तरानपेक्षत्वेन घटादिवत्कादाचित्कोपलम्भानुपलम्भासम्भवात् । तस्य च सामग्र्यपि भ्रान्तिरूपा यादृक्षास्ति तादृक्षी सर्वदेवास्ति । अतोऽप्रामाणिकस्य सर्वदा प्रतीतिसामग्रीसद्भावेन अनुपलब्धेरसम्भवात्सर्वदोपलब्धिरेव स्यात् । तथा चाप्रामाणिकस्य सर्वदोपलभ्यमानत्वेन योग्यानुपलब्धिगम्यत्वलक्षणोऽभाव एव न स्यादिति कथं तत्राभावे प्रमाणमुपपद्यत इति । मन्यस इति पर्यन्तं परोक्तमाशङ्कय अप्रामाणिकाभावस्य प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमेन सिद्धान्ती प्रतिविधत्त-तन्नेति । चाक्षुषयोश्चक्षुह्ययोः एत टैतद्भूतलयोर्योऽप्रामाणिकाश्रयाश्रयिभावस्तदभावस्य चाक्षुषत्वानीकारात् । अयमाशयः । त्वया अप्रामाणिकाभावे प्रमितेरनुपपत्तिरुक्ता । अस्माकं तु मते तत्र प्रत्यक्षमेव प्रमाणं स्फुरतीति । Aho ! Shrutgyanam Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ महाविद्याविडम्बनम् । एवं त्वगादीति । त्वक् चर्म, स्पर्शनेन्द्रियमिति यावत् । आदिपदेन जिह्वादीनां ग्रहः । घोरान्धकारनिकरे त्वगादिना गम्ययोज्ञेययोरेतद्धटैतद्भतलादिकयोरेव योऽयमप्रामाणिकः आश्रयायिभावस्तदभावस्य त्वगादिगम्यत्वात् स्पार्शनप्रत्यक्षज्ञेयत्वादित्यर्थः । योग्यतासहितानुपलब्धेरसम्भवादिति यदुक्तं तत्प्रत्याह-योग्यानुपलब्धेरित्यादि । अभावस्य या प्रमा प्रमितिस्तजनकत्वं योग्यानुपलब्धेरस्माकं नाभिमतमिति पूर्वोक्तं दूषणं न किञ्चिदित्यर्थः। _ न च कारणाभावादत्यन्तासद्गोचरानुभवाभावेन प्रतियोगिस्मृत्यनुपपत्तौ तद्भावप्रमानुपपत्तिरिति युक्तम् । एतद्धटैतद्भूतलाश्रयायिभावादेर्वाक्यादिभ्योऽनुभवात् । __(भुवन०)-प्रतियोगिनोप्रामाणिकस्य पूर्वानुभवसंस्काररूपद्वयाभावात्तत्स्मृतेरभावेन तदभावप्रमितिर्न स्यादत्राह-न च कारणाभावादित्यादि । अत्यन्तमसद्रूपं खरविषाणादि, तद्गोचरो योऽनुभवस्तस्याभावेन कुतस्तदभावः इत्याह-कारणाभावादिति । तथाविधं किञ्चित्कारणं नास्ति येनात्यन्तासतोऽनुभवः स्यादित्यर्थः, इत्यनुभवाभावेन प्रतियोगिनोऽप्रामाणिकस्य स्मृत्यनुपपत्तौ । तदभावेति । तस्यात्यन्तासतो योऽभावस्तत्र प्रमायाः प्रत्यक्षादेः प्रमितेरनुपपत्तिरिति न च युक्तमिति संटङ्कः । अन्न हेतुमाह-एतद्धटैतद्भूतलेत्यादिवाक्यादिभ्य इति । अत्र आदिपदेन लिङ्गाभाससंग्रहः। न च एतद्धटैतद्भूतलयोराश्रयाश्रयिभावस्य जातत्वाजनिष्यमाणत्वाचा कथं तस्यात्यन्ताभाव इति वाच्यम् । यस्य घटस्य एततलाश्रयाश्रयिभावोन जातो, नापि भविष्यति, तस्य घटस्य एतद्भूतलेन आश्रयाश्रयिभावो निष्प्रमाणक इति तद्भावस्यात्यन्ताभावत्वेन स्वीकारात् । (भुवन०)-एतद्धटैतद्भूतलसंयोगस्य जातत्वाजनिष्यमाणत्वाद्वा अत्यन्ताभावस्त्रिकालवर्तमानोऽयुक्त हत्याशङ्कयाह-न चैतद्धटैतदित्यादि । इति न च वाच्यमिति सम्बन्धः । अयमर्थः । यत्सर्वथा असद्रूपं खरविषाणादि, तस्यैवात्यन्ताभावो युक्तः, विवक्षितयोरेतयोस्तु घटभूतलयोराश्रयायिभावो जातो वा भावी वेति कथं तस्यात्यन्ताभावो युक्तिमानिति पराशङ्का प्रदर्य सिद्धान्तवादी गूढस्वाभिप्रायमाविर्भावयति-यस्य घटस्येत्यादि । यस्य घटस्य एतद्भूतलेन सह आश्रयायिभावः सम्बन्धः कदापि न जातो नापि भावी, तस्य घटस्यैतद्भूतलेन विवक्षितभूतलेनाश्रयायिभावो निष्प्रमाणकः प्रमाणाग्राह्यः । प्रत्यक्षादेः प्रमाणस्य तत्रानुदयादिति, तदभावस्यैतद्वटैतद्भूतलाप्रमाणिकाश्रयाश्रयिभावाभावस्यैव अत्यन्ताभावत्वेन स्वीकारादिति पदार्थः । ___यद्वा एतद्धटैतद्भूतलयोराश्रयायिभावो जातो भविष्यति वा, तदुभयव्यतिरिक्तो यः एतद्धटैततलयोराश्रयाश्रयिभावो निष्पमाणकः, तस्याभावोऽत्यन्ताभावः । यः पुनरेतद्धटैतद्भूतलयोराश्रयायिभाव आसीत् , तस्येदानी. मभावः प्रध्वंसः । यः पुनरेतद्धटैतद्भूतलयोराश्रयायिभावो भविष्यति, तस्येदानीमभावः प्रागभाव इति व्यवस्था । १२ महाविद्या० Aho ! Shrutgyanam Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं ( भुवन ० ) - " सर्वव्याख्या विकल्पानां द्वयमिष्टं प्रयोजनम् । पूर्वत्रापरितोषो वा व्याप्तिर्वा विषयान्तरे ।। " इति विषयान्तरव्याप्त्यर्थे पक्षान्तरमाह — यद्वा एतदित्यादि । तदुभयव्यतिरिक्तो भूतभाव्येतदाश्रयाश्रयिभावद्वयभिन्नः आश्रयाश्रयिभावो न कदापि जातो न भावी यश्च वर्तमानः सोऽपि च । तस्यापि जन्मनोऽतीतत्वेन जातत्वात् । तेन तदुभयव्यतिरिक्तेत्यनेन भूतभाविभवद्व्यतिरिक्तोऽसन्नेवाश्रयाश्रयिभावोऽप्रामाणिक उपात्तः । ततस्तस्याभावोऽत्यन्ताभाव इति पक्षान्तरार्थः । एतस्मादनन्तरोक्तपक्षस्य निषेधमुख रचनावैचित्र्येणैव भेदो, न त्वर्थत इति भावः । कथं तर्ह्याश्रयाश्रयिभावस्य प्राक्प्रध्वंसाभावयोर्व्यवस्था इत्यत आह--यः पुनरेतदित्यादि । अथ यदि इह भूतलेऽयं घटो नास्तीत्यत्र एतद्भद्वैतद्भूतलयोराश्रयाश्रयि-. भावो निष्प्रमाणकः प्रतिषिध्यते, तर्हि घटोत्पत्तेः प्रागूर्ध्वं च घटावयवेषु घटो नास्तीत्यत्रापि एतद्वद्वावयवैतद्धदयोराश्रयाश्रयिभाव एव तत्कालीनो निष्प्रमाणकः प्रतिषिध्यतामिति गतं प्राक्प्रध्वंसाभावाभ्यामित्युच्यते, तत्राप्योमित्येवोत्तरम् । द्विविध एव ह्यभावः, अन्योन्याभावोऽत्यन्ताभावश्चेति । यश्च कार्योत्पत्तिपूर्वक्षणे कार्यसमवायिकारणयोराश्रयाश्रयिभावो निष्प्रमाणकः, तस्यात्यन्ताभावः प्रागभाव इत्युच्यते । यश्च कार्योत्पत्त्युत्तरक्षणे कार्यसमवायिकारणयोराश्रयाश्रयिभावो निष्प्रमाणकः, तस्यात्यन्ताभावः प्रध्वंस इत्युच्यते शास्त्रकारैः, न तु प्राकूप्रध्वंसाभावौ अत्यन्ताभावाद्भिन्नाविति । ( भुवन ० ) - अथ परो व्यवस्थाभङ्गं शङ्कते - अथ यदीत्यादि । यद्येवंविधः आश्रयाश्र• यिभावो निष्प्रमाणकः सन् प्रतिषिध्यते, तदा अतिप्रसङ्गात्प्राक्प्रध्वंसाभावयोर्व्यवच्छेद एव न स्यादित्याह-तहींत्यादि । घटो यदोत्पन्नो नास्ति तदा मृद्रूपेषु घटावयवेषु यदा घटो विनष्टस्तदा कपालरूपेषु घटावयवेषु च घटो नास्तीत्यत्राप्येतद्वद्वैतद्भटावयवयोराश्रयाश्रयिभाव एव तत्कालीनो घटानुत्पादविनाशकालिको भवद्युक्त्या निष्प्रमाणकः सन् प्रतिषिध्यताम् । तस्य च प्रतिषेधे प्रागभावप्रध्वंसाभावावेव प्रतिषिद्धौ स्याताम् । अप्रामाणिकाभावस्य अत्यन्ताभावरूपत्वेन स्वीकारात् । तथाच सति गतमेव प्रागभावप्रध्वंसाभावाभ्यामित्यर्थः । इति पूर्वपक्षिणोक्ते सिद्धान्त्याह-- ओमिति । यस्वयाभ्यधायि तदेवमेव । एतदेवोपपादयति - द्विविध इत्यादि । अन्योन्याभावात्यन्ताभावरूपौ ardarera raaraणां संमतौ । प्राक्प्रध्वंसाभावौ तु अत्यन्ताभावरूपावेव, न तु भिन्नौ । एतदेव दर्शयति—यश्चेति । घटपटादिकं यत्कार्यं तस्योत्पत्तिपूर्वक्षणेऽनुत्पत्तिक्षणे । कार्यसमवायीति । कार्य घटपटादिकं, समवायिकारणं मृत्तिकातन्त्वादि, तयोर्य आश्रयाश्रयिभावोऽसद्भूतत्वान्निष्प्रमाणकस्तस्यात्यन्ताभावः प्रागभाव इति । यश्चेति । कार्यस्य घटादेरुत्पत्त्युत्तरक्षणे विनाशक्षणे कार्यसमवायिकारणयोर्घटमृदादिरूपयोराश्रयाश्रयिभावस्यात्यन्ताभावः प्रध्वंस इति । १ इत्युच्येत तत्रा इति थ पुस्तकपाठः । २ कारणानि मृत्तिकातन्तुरूपाणि त° इति छ. द. पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । ९१ या अनुत्पत्तिः प्रागभावः । स च निराश्रय एव । घटो नोत्पद्यते इत्येव प्रतीतेः । एवं विनाशः प्रध्वंसः । सोऽपि निराश्रय एव । घटो विनष्ट इत्याश्रयानवच्छेदेनैव प्रतीतेः । यस्तु समवायिकारणनिष्ठः कार्योत्पत्तेः प्रागूर्ध्व च इदानीं घटो नास्तीत्यभावः प्रतीयते स तूक्तरीत्या अत्यन्ताभाव एवेति । ( भुवन ० ) - परमतप्रसिद्धथा अभावस्वरूपं निरूपयति-- यद्वा अनुत्पत्तिरित्यादि । घटादे - रनुत्पत्तिः प्रागभावः । अनुत्पत्तेरपि कार्यसमवायिकारणयोराश्रयाश्रयिभावाभावादत्यन्ताभावतो न भेद इत्याह-- स चेति । आश्रयानवच्छेदेनेति । आश्रयस्यापरिज्ञानेन समवायिकारणसंसर्गमन्तरेणेत्यर्थः । कस्तर्ह्यत्यन्ताभावोऽत्राह-यस्त्विति । घटादिकार्यस्योत्पत्तौ विनाशे च समवायिकारणं मृत्स्नादि । 'स्वसमवेतकार्योत्पादकं समवायिकारणमिति तलक्षणात् । तत्र यः समवायिकारणनिष्ठः कार्योत्पत्तेः पूर्व पश्चाबेद्देदानीं घटो नास्तीत्यभावः प्रतीयते स तूक्ता या पूर्वत्र रीतिस्तया अत्यन्ताभाव एव । प० २ अथ एतद्धद्वैतद्भूतलाश्रयाश्रयिभावाभावे प्रमाणं प्रवर्तमानं किमभावमात्रं गोचरयति, किंवा एतद्धद्वैतद्भूतलाश्रयाश्रयिभावविशेषितमभावम् । आग्रे नाभावविशेषसिद्धिः । द्वितीयेऽपि निष्प्रमाणकविषयं प्रमाणं चेति व्याहतमित्युच्यते । तन्न । आभासप्रतिपन्ने निष्प्रमाणके तदभावविशेषस्यैव प्रमाणविषयत्वात्, स्मृते कुम्भादौ तदभावविशेषस्येव । ( भुवन० ) - अत्यन्ताभावः प्रमीयते न वा । न चेदसिद्ध:, प्रमीयते चेत्तत्र विकल्पद्वयेनाशङ्कते — अथैतद्धटेति । एतद्भटैतद्भूतलयोर्यः आश्रयाश्रयिभावस्तदभावे प्रवर्तमानं प्रमाणमभावमात्रं गोचरयति, किंवा आश्रयाश्रयिभावेन विशेषितमभावम् । आश्रयाश्रयिभावं तदभावं च गोचरयतीत्यर्थः । पक्षद्वयमपि दूषयति- आद्ये इति । एतत्प्रतियोगिकोऽयमभावः इत्येवमभावविशेषेस्यासिद्धिः । अभावमात्रस्यैव ग्रहणात् । निष्प्रमाणकेति । निष्प्रमाणकस्याश्रयाश्रयिभावादेर्विषयोऽप्रमाणं चेति व्याघातः । यदि निष्प्रमाणकविषयं तर्हि प्रमाणं कथमिति, अत्र प्रतिसमाधत्ते — तनेति । आभासेन प्रमाणाभासेन प्रतिपन्ने निष्प्रमाणके आश्रयाश्रयिभावादौ तदभावविशेषस्यैव प्रमाणविषयत्वात् । अयं भावः । संसर्गादिराभासप्रतिपन्नः संसर्गाभावविशेषश्च प्रमाणप्रतिपन्नः । स्मृते कुम्भादाविति । यथा स्मृते कुम्भादौ मनसि सद्रूपत्वेनाभावात् निष्प्रमाणकेऽपि स्मृतकुम्भाभावविशेषस्य प्रमाणविषयत्वमित्यर्थः । अथ निष्प्रमाणकाभावे किं प्रमाणम् । एतद्वदैतद्भूतलाश्रयाश्रयिभावो नास्तीत्यादिप्रत्यक्षमेव । अनुमानं च - एतचक्षुः एतचक्षुर्जन्यप्रामाणिकप्रतियोगिकविषयत्वरहिताभावप्रमाजनकं चक्षुष्वात् अन्यचक्षुर्वदित्यादिकम् । इत्यलमतिविस्तरेण | १ 'विशेषणस्या' इति छ पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं केवलान्वयिनि धर्मे बाधकमाह ऽपि च । स्वस्मिन्वृत्तिरवर्तनेन सहिता व्याघातसंत्रासिता॥' इति । (भुवन०)-एतच्चक्षुरित्यादि । एतच्चक्षुर्देवदत्तादिविवक्षितचक्षुः । प्रामाणिकः प्रमाणग्राह्यः प्रतियोगी यस्याभावस्य स प्रामाणिकप्रतियोगिकः । स विषयो यस्य ज्ञानस्य तत्प्रामाणिकप्रतियोगिकविषयम् । एतच्चक्षुर्जन्यं च तत्प्रामाणिकप्रतियोगिकविषयं च, तस्य भावः तत्त्वम् । तेन रहितो योऽभावः तस्मिन् या प्रमा प्रमाणं तस्या जनकम् । अत्रैतच्चक्षुर्जन्यप्रामाणिकप्रतियोगिकविषयत्वरहिताभावो द्विधा स्यात्, अनेतच्चक्षुाह्यः प्रामाणिकप्रतियोगिकोऽभावो वा, एतच्चक्षुर्ग्राह्योऽप्रामाणिकप्रतियोगिकोऽभावो वा । आद्यो यद्यपि प्रामाणिकप्रतियोगिकविषयत्वरहितो नास्ति तथाप्येतच्चक्षुर्जन्यं यत्प्रामाणिकप्रतियोगिकविषयत्वं तेन रहितः एव । द्वितीयो यद्यप्येतच्चक्षुह्यत्वरहितो नास्ति तथाप्येतचक्षुर्जन्यं यत्प्रामाणिकप्रतियोगिकविषयत्वं तेनै रहितो नास्ति एव । तत्राद्यः पक्षः पक्षे व्याहतः। न ह्येतचक्षुर्यः एतच्चक्षुषा न गृह्यतेऽभावस्वस्य प्रमाजनकम् । द्वैतीयीकस्तु पक्षे सिध्यन्नप्रामाणिकप्रतियोगिकाभावस्य चाक्षुषत्वं साधयति । आद्यो विकल्पश्च सपक्षे प्रयोजकः । अथ व्यावृत्त्यचिन्ता । चक्षुरुक्तसाध्यवदित्युक्ते दृष्टान्तभागे सिद्धसाध्यता, तद्व्यावृत्त्यर्थमेतदिति । भावप्रमा. जनकत्वेनार्थान्तरं वारयति-अभावप्रमेति । अन्योन्याभावादिप्रमाजनकत्वेनार्थान्तरं पराकरोतिप्रामाणिकप्रतियोगिकविषयत्वरहितेति । अप्रसिद्धविशेषणतां दृष्टान्ते साध्यवैकल्यं च परिहर्तमेतच्चक्षुर्जन्येत्युक्तम् । आदिपदेनैतच्छ्रोत्रमेतच्छ्रोत्रजन्यप्रामाणिकप्रतियोगिकविषयत्वरहिताभावप्रमा. जनकं श्रोत्रत्वादन्यश्रोत्रवत् इत्यादिसंग्रहः । _ 'मानं हन्त न केवलान्वयवतो धर्मस्य सत्त्वेऽपि चेत्यादिवृत्तस्याद्यपादं व्याख्याय द्वितीयमवतारयति केवलान्वयिनीति । स्वस्मिन्निति । प्रमेयत्वादिहेतोः स्वस्मिन्वृत्तिरवृत्तिश्च व्याहतेत्यर्थः । इह स्वस्मिन्वृत्तीत्यादिपदे सहितशब्दः समुच्चयाभिप्रायेण बोद्धव्यः । दृश्यते हि समुच्चयेऽपि सहितपदप्रयोगः । तद्यथा-" रोहिणीसहितमुत्तरात्रयमिति श्रीपतिवचने । ___तथाहि-प्रमेयत्वादिकं स्वस्मिन् वर्तते न वा । आये व्याघातः । न हि तदेव तस्मिन् वर्तते इति संभवति, माता वन्ध्येतिवत् । यथौ हि या माता सा वन्ध्या न भवत्येवेति नियमः । एवं यत्प्रमेयत्वाश्रितं अभिधेयत्वादिकं प्रमेयं, यच्च प्रमेवत्वाश्रयः, तत्प्रमेयत्वं न भवत्येवेत्येतावपि नियमौ । १ बाधकान्तरमा इति घ पुस्तकपाठः । २ तेन रहिता या अभावप्रमा तस्याः जनकम् । अत्रैतचक्षुर्जन्यप्रामाणिकप्रतियोगिकविषयत्वरहिताभावप्रमा द्विधा स्यात् , अनेतच्चक्षुर्जन्याप्रामाणिकप्रतियोगिकाभावविषया बा, एतच्चक्षुर्जन्याप्रामाणिकप्रतियोगिकाभावविषया वा । आद्या ययापि प्रामाणिकप्रतियोगिकविषयत्वरहिता नास्ति तथाप्येतच्चक्षुर्जन्यत्वविशिष्टं यत्प्रामाणिकप्रतियोगिकविषयत्वं तेन रहिता एव । द्वितीया यद्यप्येतच्चक्षुर्जन्यस्वरहिता नास्ति तथाप्येतच्चक्षुर्जन्यत्वविशिष्टं यत्प्रामाणिकप्रतियोगिकविषयत्वं तेन रहिता अस्त्येव । तत्रायः इति अधिकः पाठः च पुस्तके वर्तते। ३त् । तथा हि इति थ पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । ९३ ( भुवन ० ) - पक्षद्वयेऽपि व्याघातं दर्शयति — प्रमेयत्वादिकमिति । न हि तदेवेति । न हि प्रमेयत्वे प्रमेयत्वं वर्तत इति सम्भवति, आत्माश्रयबाधकतर्कात् । दान्तिकमाह-एवंयत्प्रमेयेत्यादि । अभिधेयत्वादिकं यत्प्रमेयत्वेनाश्रितं यच्च घटादिकं प्रमेयं प्रमेयत्वधर्माश्रयः, तत्प्रमेयत्वं न भवत्येव । अयमाशयः । अभिधेयत्वादिधर्मेषु घटादिरूपप्रमेयेषु च प्रमेयत्वं वर्तते । परमभिधेयत्वादिकं प्रमेयं च प्रमेयत्वरूपं न सम्भवति । तेनाभिधेयत्वप्रमेयत्वादौ प्रमेयत्ववर्तनेऽपि प्रमेयत्वरूपत्वाभावात् प्रमेयत्वे प्रमेयत्वं न वर्तत एव । इत्येतावपि नियमाविति । आद्यो नियमोऽभिधेयत्वादिधर्ममाश्रित्योपपादितः । द्वितीयस्तु प्रमेयं घटादिकं धर्मिणमाश्रित्योक्त इति नियमद्वयस्यापि साफल्यम् । प०२ अथ या माता सा वन्ध्या न भवति, या च वन्ध्या सा माता नेत्युभयेनियमो व्याघातस्थले दृष्टः । प्रकृते तु यत्प्रमेयत्वाश्रितं न तत्प्रमेयत्वमिति नियमसत्त्वेऽपि यत्प्रमेयत्वं न तत्प्रमेयत्वाश्रयः इति प्रतिवादिनं प्रति नियमो न सिद्धः । असाधारणत्वात् । तेन न व्याघातः इत्युच्यते । तन्न । एकनियमेन व्याघातोपपत्तौ द्वितीयनियमस्य निरर्थकत्वात् असाधारणेऽपि व्याप्तेवक्ष्यमाणत्वाच्चेति । द्वितीये पक्षे प्रमेयत्वादीनां केवलान्वयित्वव्याघातः । न हि स्वस्माद्व्यावृत्तः केवलान्वयी चेति संभवति । 1 ( भुवन० ) - प्रकृते त्विति । यत्प्रमेयत्वाश्रितं न तत्प्रमेयत्वमिति सत्त्वाभिधेयत्वादौ नियमसद्भावेऽपि, यत्प्रमेयत्वं तत्प्रमेयत्वस्याश्रयो नेति नियमः प्रतिवादिनं वैशेषिकादिकं प्रति न सिद्धः । असाधारणत्वादिति । पक्षमात्रवृत्तित्वेन सपक्षवृत्तिरहितत्वादसाधारणत्वमित्यर्थः । आचार्यः प्रत्युत्तरयति - तन्नेति । प्रमेयत्वाश्रितस्य प्रमेयत्वाभावव्याघ्या एकनियमेन व्याघातोपपत्तौ द्वितीयनियमो निरर्थक इत्यर्थः । असाधारणे इति । असाधारणेऽपि नियमे व्याप्तिरुत्तरत्र केवलव्यतिरेक्यनुमानादौ वक्ष्यते इत्यतश्च प्रमेयत्वादिकं स्वस्मिन् वर्तते न वेति विकल्प्य आयो निरस्तः । संप्रति द्वितीयं निरस्यति — द्वितीये पक्षे इति । न हि स्वस्मादिति । एकस्मात्स्वस्मादपि यो व्यावृत्तः स केवलान्वयीति न संभवति । केवलान्वयित्वस्य सर्ववस्तुनिष्ठत्वरूपत्वात् । एवं केवलान्वयिनं धर्म निरस्येदानीं केवलान्वयिना धर्मेण सह कस्यचि - दपि हेतोर्व्याप्तिर्न घटते इत्याह साध्याभाववदाश्रितत्वविरहो धूमादिलब्धस्थिति र्व्याप्तिः सा न हि केवलान्वयवता धर्मेण संगच्छते ॥ २ ॥ इति । साध्याभाववद्वृत्तित्वाभावो हि व्याप्तिः व्याप्यत्वं अविनाभावः इति चोच्यते । तस्यैवान्वयव्यतिरेकाभ्यां धूमादिनिष्ठस्यानुमित्यङ्गतावधार १ भयथा नियं इति घ पुस्तकपाठः । २ धारणत्वेऽपि इति घ पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं णात् । न च केवलान्वयिना धर्मेण कस्यचिदपि हेतोः साध्याभावववृत्तित्वाभावरूपा व्याप्तिः शक्यावगन्तुम् । केवलान्वयिनि साध्याभाववप्रतीतौ तवृत्तित्वाभावस्य दुरधिगमत्वात् । (भुवन०)-साध्याभाववदाश्रितत्वविरह इत्यादिपदद्वयं व्याकरोति–साध्याभाववदत्तित्वेत्यादि । साध्यस्य योऽभावः विपक्षः, तत्र वृत्तित्वाभावो व्यतिरेकव्याप्तिः । व्याप्यत्वमविनाभावः इत्येतौ व्याप्तः पर्यायौ । धूमादिलब्धस्थितिरित्येतद्व्याचष्टे-तस्यैवेति । तस्यैव अविनाभावस्यैव । अन्वयव्यतिरेकाभ्यामिति । यत्र धूमस्तत्र वह्निः, यत्र वह्निर्न भवति तत्र धूमोऽपि न भवतीत्येवं धूमादिनिष्ठस्यानुमितिः अनुमानं, तदङ्गतावधारणात् । 'व्याप्तिः सा न ही 'त्यादि व्याख्याति-न च केवलान्वयिनेत्यादि । न च केवलान्वयिना धर्मेण महाविद्यासाध्यादिरूपेण कस्यचिदपि प्रमेयत्वादिहेतोः, साध्याभाववन्तो महाविद्यासाध्यरहिताभावाः, तत्र वृत्तित्वाभावरूपा व्यतिरेकव्याप्तिः संभवति । इह हेतुमाह-केवलान्वयिनीति । केवलान्वयिनि हेतौ साध्यस्यापि केवलान्वयित्वात्तदभावस्यैवाभावात् साध्याभाववदप्रतीतौ साध्याभाववत्सु वृत्तित्वाभावस्य दुरधिगमत्वात्, महाविद्यायां विपक्षाभावात् साध्याभाववद्वृत्तित्वमेव दुरधिगममिति प्रतियोगिज्ञानाभावात् कुतस्तरां साध्याभाववद्वृत्तित्वाभावावगम इत्यर्थः । अथ न साध्याभावववृत्तित्वाभावो व्याप्तिः, किन्तु अनौपाधिकः संबन्धः, स चाभिधेयत्वादिना प्रमेयत्वादेः शक्यावगम इति मन्यसे । तन्न। किमभिधेयत्वव्यापकः प्रमेयत्वाव्यापकश्च धर्म उपाधित्वेनाभिमतः प्रमितो न. वा । आये तभावप्रतीतिर्बाधिता। द्वितीये तदभावप्रतीतिरशक्या प्रतियोग्यप्रमितेरिति । यावन्तोऽभिधेयत्वादिसाध्यव्यापकाः तावत्सु प्रमेयत्वादिसाधनाव्यापकत्वं निषिध्यते । यावन्तश्च मेयत्वादिसाधनाव्यापकाः, तावत्सु अभिधेयत्वादिसाध्यव्यापकत्वं निषिध्यते । तस्माद्नौपाधिकत्वसिद्धिरित्यपि न युक्तम् । प्रकृतसाध्यव्यापकप्रकृतसाधनाव्यापकधर्माप्रतीतौ तद्भावस्य भङ्गिसहस्रेणाप्यधिगन्तुमशक्यत्वात् । (भुवन०)-उदयनमतमाशङ्कते-अथ न साध्याभावेति । यत्र साध्यसाधनयोः सम्बन्धे उपाधिन भवति, सोऽनौपाधिकः सम्बन्धो व्याप्तिः । स चाभिधेयत्वादिनेत्यादि । शब्दोऽभिधेयः प्रमेयत्वात् घटादिवदित्याद्यनुमाने विपक्षाभावादनौपाधिकः संबन्धः शक्यावगमः । अत्र चाभिधेयत्वादिधर्मों यदुपात्तस्तदुपलक्षणम् । एवमन्येऽपि महाविद्यासाध्यादयः केवलान्वयिधर्मा अत्र ज्ञेयाः । तथाहि-महाविद्यायां स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वादिसाध्यस्य सर्ववस्तुनिष्ठत्वात्केवलान्वयित्वेन विपक्षाभावाद्यस्य कस्याप्युपाधेरावश्यकपक्षेतरदोषप्रस्तत्वेन अनौपाधिकसंबन्धत्वं शक्यावगममित्यर्थः । अथ दूषयति-तन्न । किमभिधेयत्वेत्यादि । साधनाव्यापकः साध्यव्यापकः उपाधिरित्युपाधिलक्षणम् । तत्र अभिधेयत्वसाध्याव्यापकः प्रमेयत्वसाधना. Aho ! Shrutgyanam Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० २ महाविद्याविडम्बनम् | व्यापको यः उपाधित्वेनाभिमतः, स प्रमितः प्रमाणेन गृहीतो न वा । विकल्पद्वयमपि निर्लोडयतिआधे तदभावेति । यदि स उपाधिः प्रमितस्तर्हि तदभावप्रतीतिर्बाधिता । प्रमाणगृहीतस्य असद्रूपत्वेन कर्तुमशक्यत्वात्। द्वितीये इति । यद्युपाधिरप्रमितः, कथं तर्हि तदभावप्रतीतिः कर्तुं शक्या । प्रतियोगिनः उपाधेरप्रतीतेः । 'प्रतियोगिज्ञानाधीनज्ञानोऽभावः' इति वचनात् । अथ पुनरप्याशङ्कते - यावन्त इत्यादि अनौपाधिकत्वसिद्धिरित्यन्तेन । अयमर्थः- : -- यः उपाधिरभिधेयत्वादिसाध्यव्यापको भवति स प्रमेयत्वादिसाधनाव्यापको न भवति । यश्च मेयत्वादिसाधनाव्यापकः सोऽभिधेयत्वादिसाध्यव्यापको न भवतीत्युपाधेः साधनाव्यापकसाध्यव्यापकत्वरूपसंपूर्णलक्षणाभावादत्रानुमानेषु अनोपाधिकसंबन्धत्वसिद्धिः । अथ आचार्य उत्तरयति — इत्यपि न युक्तमिति । हेतुमाहप्रकृतसाध्येत्यादि । प्रकृतमभिधेयत्वादिसाध्यं तस्य व्यापकः, प्रकृतं मेयत्वादिसाधनं तस्याव्यापer यो धर्मः उपाधिलक्षणः, तस्याप्रतीतौ प्रतियोगिज्ञानाभावात् तदभावस्य उपाधिलक्षणधर्माभावस्य भङ्गिसहस्रेण प्रकारसहस्रेणाप्यधिगन्तुं परिज्ञातुमशक्यत्वात् । ९५ एवं सति धूमानुमानादिष्वपि अनौपाधिकत्वमशक्याधिगममिति चेत् । एवमस्तु । न नः काचित्क्षतिः । ( भुवन० ) — अथैवमभिहिते परोऽतिप्रसङ्गमुपपादयति — एवं सति धूमानुमानेत्यादि । अनौपाधिकः संबन्धो व्याप्तिरित्यस्माभिरस्वीकरणान्नायं प्रसङ्ग इत्याह - एवमस्त्विति । अथ नियमो व्याप्यत्वम् । नियमश्चायोगव्यवच्छेदः । स चाभिधेयत्वादिसाध्यस्य मेयत्वादिसाधनवन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वाभावः शक्योऽधिगन्तुमिति मन्यसे । तदपि न | अभिधेयत्वादिसाध्यनिष्ठस्य मेयत्वादिसाधनवन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वविरहस्य व्यापकत्वेन मेयत्वाद्यनिष्ठतया मेयत्वादीनां व्याप्यत्वभङ्गस्य दुरपन्हवत्वात् । ( भुवन ० ) - अथ प्रकारान्तरेण व्याप्तिविषयामाशङ्कां कुरुते - अथ नियमः इति । यत्र साधनं तत्र साध्येन भाव्यमेवेति यो नियमः, तदेव साधनस्य साध्येन व्याप्यत्वम् । अयोगव्यवच्छेद इति । साधनस्य साध्येन सह अयोगो न किन्तु योग एव । स चाभिधेयेति । स च अयोगव्यवच्छेदोऽभिधेयत्वादिसाध्यस्य मेयत्वादिसाधनवन्तो घटात्मादय:, तेषु निष्ठो योऽत्यन्ताभावः, तस्य यत्प्रतियोगित्वं, तदभावः शक्यो ज्ञातुम् । अयमाशयः - मेयत्वादिसाधनवत्सु अभिधेयत्वादिसाध्यस्य अभावो नास्तीत्येतावता यत्र हेतुः तत्र साध्येन भाव्यमेवेत्येवं व्याप्तिरस्तीत्यर्थः । दूषयति - तदपि नेत्यादि । मेयत्वादिसाधनवत्सु निष्ठो योऽत्यन्ताभावः तस्य यत्प्रतियोगित्वं तद्विरहस्य अभिधेयत्वादिसाध्यनिष्ठस्य । व्यापकत्वेनेति । अभिधेयत्वादिकं साध्यं व्यापकं, तन्निष्ठो यो मेयत्वादिवन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वाभावः सोऽपि व्यापकनिष्ठत्वेन व्यापक एवेत्यर्थः । मेयत्वाद्यनिष्ठतयेति । अयमर्थः -यो हि गेयत्वादिवन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वाभावोऽभिधेयत्वादिसाध्यनिष्ठो व्यापकः स मेयत्वादिहेत्वनिष्ठ एव । मेयत्वादिव्याप्यनिष्ठस्य व्याप्यत्वेन Aho! Shrutgyanam Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतीकायुतं व्यापकत्वाभावात् । यथा यैव घटे सत्तास्ति न सैव पटे इति । व्याप्यत्वभङ्गस्येति । पूर्वाभि धेयत्वादिसाध्यस्य मेयत्वादिसाधनवनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वाभावो व्याप्तिरुक्ता । सा च साध्यसाधनोभयनिष्ठा स्यात् । मेयत्वादिवन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वविरहश्च यः साध्यनिष्ठः स साधननिष्ठ इति मेयत्वादीनां यद्व्याप्यत्वं व्याप्तिः, तस्य भङ्गो दुरपन्हव एवेत्यर्थः । ९६ अथ मेयत्वादिसाधनवन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वविरहोऽभिधेयत्वादिसाध्यनिष्ठो व्याप्यत्वमनुमानाङ्गमिति ब्रूषे । तन्न । साध्यस्यैवंरूपव्याप्यत्वावगमेऽपि पक्षधर्मत्वानवगमात् । अवगमे वा अनुमानवैयर्थ्यात् । न च साध्यगतं व्याप्यत्वं साधनगतं च पक्षधर्मत्वमनुमानाङ्गमिति युक्तम् । व्यासिपक्षधर्मतयोः समानाधिकरणयोरनुमितिजनकत्वस्योभयवादिसिद्धत्वात् । ( भुवन ० ) - अस्मन्मते साध्यगतं व्याप्यत्वं, न तु साधन गतमिति पराभिप्रायं प्रकटयतिअथ मेयत्वादिति । मेयत्वादिसाधनवन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वविरहो यः एवाभिधेयत्वादिसाध्यनिष्ठः तदेव साधनस्य साध्येन व्याप्यत्वमिति भावार्थः । ग्रन्थकारः परिहरति — तन्न । साध्यस्येत्यादि । साध्यस्य अभिधेयत्वादेर्यद्यप्येवंरूपं केवलसाध्यगतं व्याप्यत्वमत्रगतं, परं तथापि पक्षधर्मत्वमवगतं नास्ति । पक्षधर्मता च विलोक्यते । यतोऽनुमानस्य द्वे रूपे व्याप्यत्वं पक्षधर्मता च । तन्त्रान्यतररूपानवगमेऽनुमानमेव न स्यात् । अवगमे वेति । साध्यस्य यदि पक्षधर्मता अवगता तदा अनुमानवैयर्थ्यम् । साध्यस्य पक्षधर्मताव्यवस्थापनार्थमेवानुमानकरणात् । न च साध्येत्यादि । साध्यगतं हि व्याप्यत्वं, पक्षधर्मत्वं च साधनगतमिति भिन्नाधिकरणे व्याप्यत्वपक्षधर्मते अनुमानाङ्गमिति न च युक्तम् । हेतुमाह-व्याप्तिपक्षेति । व्याप्तिपचधर्मतयोः समानाधिकरणयोरेकाधि - करणयोरित्यर्थः । अथ निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वविरहः साध्यस्य तत्त्वं व्याप्यत्वम् । तच्च प्रमेयत्वादीनां घटते इति ब्रूषे । तन्न । यद्वन्निष्ठेत्यत्र यच्छब्देन, तत्त्वमित्यत्र च तच्छब्देन किं प्रमेयत्वादिस्वरूपं विवक्षितं, तद्धर्मो वा कश्चित् । नाद्यः । हेतुस्वरूपातिरिक्तव्याप्यत्वानङ्गीकारे व्याप्यत्वासिद्धेर्दुर्वारत्वात् । न द्वितीयः प्रमेयत्वादिव्यतिरिक्तस्य यत्तच्छब्दार्थस्य निर्वक्तुमशक्यत्वात् । (भुवन० ) महाविद्यावादी शङ्कते - अथ यद्वनिष्ठेति । यच्छब्देन प्रमेयत्वादिहेतवः, तद्वत्सु निष्ठो योऽत्यन्ताभावः तस्य यत्प्रतियोगित्वं तद्विरहो यः साध्यस्य । तत्त्वमिति । तस्य साध नस्य भावः तत्त्वं व्याप्यत्वम् । साधनस्य साध्यवन्निष्ठत्वं व्याप्यत्वमित्यर्थः । विकल्पैः परिहरतितन्न । यदित्यादि । यद्वन्निष्ठेत्यत्र यच्छन्देन, तत्त्वं व्याप्यत्वमित्यत्र च तच्छब्देन च किं प्रमेयत्वादिस्वरूपं विवक्षितं तद्धर्मो वा । प्रमेयत्वादिधर्मो वेत्यर्थः । आद्यं पक्षं दूषयति-नाद्य इत्यादि । यद्वनिष्ठेत्यत्र यच्छब्देन, तत्त्वं व्याप्यत्वमित्यत्र च तच्छब्देन किं प्रमेयत्वादिस्वरूपं विवक्षितं तद्धमों १ वैयर्थ्यम् । न इति पुस्तक पाठः । Aho! Shrutgyanam Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० २ महाविद्याविडम्बनम् | वा । प्रमेयत्वादिधर्मो वेत्यर्थः । आद्यं पक्षं दूषयति-नाद्य इत्यादि । हेतुस्वरूपादधिकं यब्यायत्वं तदनङ्गीकारे व्याप्यत्वं व्याप्तिः तस्या असिद्धिरेव । अयमभिप्रायः -- साधनस्य हि व्याप्यत्वं साध्येन स्यात् । तत्र यदि साधनमात्रस्वरूपमेव व्याप्यत्वं स्वीक्रीयेत, तर्हि हेत्वाभासस्यापि व्याप्यत्वं भवेदिति व्याप्यत्वस्यासिद्धिरेव । द्वितीयं पक्षं दूषयति-न द्वितीय इति । प्रमेयत्वादिव्यतिरिक्तस्य यत्तच्छब्दार्थस्य विचारासहत्वेन निर्वक्तुमशक्यत्वात् । यत्तच्छब्दार्थो मेयत्वादिकमेव । तस्य भावः तत्त्वं व्याप्यत्वमित्यपि न तस्य भावः किं तस्य धर्ममात्रं धर्मविशेषो वा । आद्ये मेयत्वस्य सर्वव्याप्यतापत्तिः । द्वितीये तदनिरुक्तिरिति । I ( भुवन० ) - यत्तच्छब्दार्थः इति । यत्तच्छन्दार्थो मेयत्वादिकमेव नापरं किमपीत्यर्थः । परोक्तं विकल्पयति — तस्य भाव इति । तस्य मेयत्वादेर्भावः । आद्यविकल्पमुत्थापयति-आधे मेयत्वस्येति । यदि मेयत्वस्य तद्भावो व्याप्यत्त्ररूपो धर्ममात्रमभिवीयते, तदा मेयत्वस्य सर्वध र्व्याप्यतापत्तिः स्यात् । अयं भावः -- तस्य भावो व्याप्यत्वमित्युक्तम् । तत्र यदि व्याप्यत्वं मेयत्वस्यः धर्म:, तर्हि मेयत्वं व्याप्यं जातमेव । यच्च व्याप्यं तद्धि व्यापकेन व्याप्यते एवेति मेयत्वस्य: व्याप्यरूपत्वेन त्वपटत्वादिसर्वधमैव्र्याप्यता प्रसज्येत । नास्ति च मेयत्वस्य व्याप्यत्वम् । तस्य व्यापकरूपत्वात् । तस्मान्न प्राच्यः पक्षः क्षोदक्षमः । द्वितीयं निरस्यति - द्वितीय इति । तस्य मेयत्वादिसंबन्धिनो विशेषधर्मस्य निर्णीतस्य अप्रतिपादनादनिरुक्तिः । अथ अविद्यमानविपक्षत्वे सति सपक्षे सत्त्वं मेयत्वादीनामभिधेयत्वादिव्याप्यत्वमिति मन्यसे । तन्न । अविद्यमानविपक्षत्वं नाम विपक्षाभावः । तथा च किं केवलान्वयिनि विपक्ष: प्रमितो न वा । आद्ये विपक्षाभावप्रतीतेर्बाधितत्वेन: व्याप्यत्वासिद्धि: । द्वितीयेऽपि विपक्षाप्रमितौ तदभावप्रमितेर्व्याप्यत्वासिद्धि: । ( भुवन० ) - भूषणसंमतं मतं शङ्कते - अथाविद्यमानेति । विपक्षाभावे सति सपक्षे सत् यत्तदेव मेयत्वादिहेतूनामभिधेयत्वादिसाध्येन व्याप्यत्वम् । असंभवेन निराकुरुते - तन्नेत्यादि ॥ विकल्पयेऽपि दोषं दर्शयति — आधे विपक्षेति । यदि विपक्षः प्रभितस्तर्हि विपक्षस्याभावप्रतीतिर्बाधिता । यतो यो हि मानेन गृहीतः कथं तस्याभावः कर्तुं शक्यः । तस्माद्विपक्षाभावप्रतीतेरभावाद्व्याप्यत्वं व्याप्तिः, तस्या असिद्धिः । द्वितीयेऽपीति । यदि विपक्षो न प्रमितः, तदा प्रतियोगिप्रतीतेरभावाद्विपक्षाभावस्य अप्रमितेर्व्याप्यत्वासिद्धिः । किञ्च विपक्षाभावस्यानुमित्यङ्गत्वे केवलव्यतिरेक्यन्वयव्यतिरेकिणोविंद्यमानविपक्षयोरनुमितिजनकत्वाभावप्रसङ्गः । सपक्षे सत्वस्य चानुमितिजनकत्वे सपक्षरहितस्य केवलव्यतिरेकिणोऽनुमितिजनकत्वाभावप्रसङ्गः । एतेन अन्वयव्यतिरेकिण्यपि सपक्षसत्स्वापरपर्यायस्यन्वयस्यानुमितिजनकत्वं निरस्तम् । १ ययस्यानु इति घ पुस्तक पाठः । १३-१४ महाविद्या ० Aho! Shrutgyanam Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवन सुन्दरसूरिकृत टीकायुतं ( भुवन० ) - केवलान्वयिनि विपक्षाभावः किमप्रयोजकः प्रयोजको वा । आक्षे यत्पूर्वमविद्यमान विपक्षत्वे सतीत्यादिलक्षणमभ्यधायि, तस्य लक्षणत्वासम्भवः । द्वितीयेऽतिप्रसङ्गः, तमेव दर्शयति- किश्च विपक्षेति । यदि विपक्षाभावोऽनुमानाङ्गं तदानीं केवलव्यतिरेकिणोऽन्वयव्यतिरेकिणञ्च हेतोर्विपक्षसत्त्वेनानुमितिजनकत्वं न स्यात् । अनन्तरोक्तव्याप्यत्वलक्षणेऽविद्यमानविपक्षत्वं दूषयित्वा सपक्षे सत्त्वमपि दूषयति- सपक्षे इति । ननु यथान्वयव्यतिरेकिणि सपक्षसत्त्वस्य प्रयोजकत्वं, तथा केवलान्वयिन्यपि सपक्षसत्त्वस्य प्रयोजकत्वं भविष्यतीति पराभिप्रायमाशङ्कयाह – एतेनेत्यादि । एतावतान्वयव्यतिरेकिण्यपि हेतौ सपक्षसत्त्वापरपर्यायस्यावयस्य यदनुमितिजनकत्वं तन्निरस्तम् । इदमत्र तत्रम् | अन्वयव्यतिरेकिणि सपक्षसत्त्वस्य प्रयोजकत्वाभावात्केवलान्वयिन्यपि तस्य न प्रयोजकत्वम् । एतेन व्याप्यत्वलक्षणे सपक्षे सत्त्वमपि व्युस्तं मन्तव्यम् । ९८ 1 तस्मात्साध्याभाववद्वृत्तित्वविरहो व्यतिरेकापरपर्यायो व्याप्यत्वमनुमानबीजमिति स्थिते केवलान्वयिनो व्याप्यत्वासिद्धिदुर्वारेति । तदिदं यथेष्टचारिण्या महाविद्यया संसर्गमनुभवतः केवलान्वयिनः प्राणान्तिकं प्रायश्चिउत्तम् । न च वैशेषिकादीनां केवलान्वयिनं निराकुर्वतामपसिद्धान्तः । सूत्रकारभाष्यकाराभ्यां कचिदपि तदव्युत्पादनात् । टीकाकारादीनां चास्माभिरनादरणात् । आदरणे वा तदीयकेवलान्वथिव्युत्पादनस्य परमतत्वेन व्याख्यानात् ॥ इति श्री हरकिङ्करन्यायाचार्यपरमपण्डित भट्टवादीन्द्रविरचिते महाविद्याfast केवलान्वभिङ्गो नाम द्वितीयः परिच्छेदः ॥ २ ॥ ( भुवन० ) - परमतनिरासेन सिद्धं स्वमतमुपसंहरति - तस्मात्साध्याभावेति । साध्याभाववद्वृत्तित्त्रविरहो विपक्षवर्तनाभावो व्याप्यत्वं व्यतिरेकव्याप्तिरित्यर्थः - केवलान्वयीति केवलान्वयिनो हेतोर्व्याप्यत्वं व्याप्तिस्तस्या असिद्धिर्दुर्वारेत्यर्थः तदिदं यथेष्टेति । अत्रानुक्तोऽपि रूपकालङ्कारो यथेष्टचारिण्येतिविशेषणेन महाविद्याया अकुलस्त्रीत्वमारोपयति । तस्याश्च संग प्राणत्यागरूपं प्रायश्चित्तं समञ्जसमेत्र । सूत्रकारादिपूर्वाचार्यव्युत्पादित केवलान्वयिनो भङ्गे कथं न सिद्धान्तविरोधोऽत्राह — न च वैशेषिकेति । प्रन्थकर्ता हि वैशेषिकः, तत्र वैशेषिकादीनां केवला. 1 न्वयिनं निराकुर्वतामपसिद्धान्त इति न च वाच्यमित्यर्थः - तदव्युत्पादनादिति । तस्य केवला - न्कथित्वस्याव्युत्पादनात् — टीकाकारादीनामिति । टीकाकाराः कन्दलीकिरणावल्यादिटीकाकर्तारः । ननु तैर्युत्पादिताः समवायादय आद्रियन्ते, कथं तर्ह्यनादरणमित्याह - आदरणे वेति । वदीयं यत्केवलान्वयिन्युत्पादनं तस्य परमतत्वेन व्याख्यानादित्याशयः । इति श्रीजिनशासनश्री सोमसुन्दरसूरिशिष्यश्रीभुवनसुन्दरसूरिविरचितायां महाविद्याविडम्बनवृत्तौ व्याख्यानदीपिकायां केवलान्वयिभङ्गव्याख्यानो नाम द्वितीयः परिच्छेदः समाप्तः ॥ Aho! Shrutgyanam Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीयः परिच्छेदः। नमस्यामो दूरीकृतभवनभङ्गं भगवतो वपुर्विश्वारम्भस्थितिलयनिदानं पुररिपोः। यदस्पृष्टं भोगैरपि दलितकामं करुणया भवानीभ्रूभङ्गप्रणयकलहेभ्यः स्पृहयति ॥१॥ (भुवन०)-कृतादिमध्यमङ्गलद्वयश्चरममङ्गलमाचष्टे-नमस्याम इत्यादि । वयं नमस्यामो नमस्कुर्मः । किं, वपुः । कस्य, पुररिपोः श्रीमहादेवस्य । किंभूतं वपुः-दूरीकृतेत्यादि । भवनमुत्पत्तिः, भजो विनाशः । तो दूरीकृतौ येन तत्तथा । एतावता शाश्वतमित्यर्थः । पुनः कीदृशं वपुःविश्वारम्भेत्यादि । विश्वारम्भो निर्माणम् । स्थितिरवस्थानम् । लयो विनाशः । तेषां निदानं कारणम् । यद्वपु गैरस्पृष्टं दलितकाममपि भवानीभ्रूभङ्गप्रणयकलहेभ्यः स्पृहयति । ननु यद्येवंविधं वपुस्तदा भवानीकटाक्षरागो विरुद्ध इत्याह-करुणयेति । एतावता नीरागोऽपि सन्करुणयेव गौरीमाद्रियत इत्यर्थः ॥ १॥ उपाधिव्याधिनिधूतमन्वयव्यतिरेकिणम् । मत्वोद्भिन्नमहाविद्याः शिवादित्यादितार्किकाः ॥२॥ ( भुवन०)-महाविद्याप्रवर्तकानां निराकरणं श्लोकद्वयेन प्रस्तावयति-उपाधीति । अन्वयव्यतिरेकिणं प्रयोगमुपाधिरूपव्याधिना कम्नं मत्वा ज्ञात्वा उद्भिन्नाः अन्तर्भूतण्यर्थत्वाप्रकटिता महाविद्या यैस्ते उनिन्नमहाविद्याः शिवादित्यादितार्किकाः । अजायन्तेति क्रियाध्याहारः । अन्वयव्यतिरेकिणमुपाधिकर्थितं ज्ञात्वा शिवादित्यादितार्किकैः केवलान्वयित्वेन महाविद्याः श्रिता इत्यर्थः ॥ २॥ . तेषामेष विशेषेण निराकरणसंभ्रमः । श्रीसिंहधर्माध्यक्षेण वादीन्द्रेण विधीयते ॥३॥ (भुवन०)-तेषामिति । तेषां शिवादित्यादितार्किकाणां वादीन्द्रेण श्रीसिंहनरेश्वरस्य धर्माधिकारिणा निराकरणं क्रियते इति संटङ्कः ॥ ३ ॥ असिद्धविरुडानैकान्तिकसत्प्रतिपक्षकालात्ययापदिष्टाः पञ्च हेत्वाभासाः सूत्रकारादिभिर्युत्पादिताः। असिद्धोऽपि वेधा, पक्षधर्मत्वासिद्धो व्याप्यत्वासिद्धश्च । तत्र न यद्यपि महाविद्याहेतुः पक्षधर्मत्वासिद्धः, तथापि व्याप्यत्वासिद्धो भवत्येवेति व्युत्पादितं द्वितीयपरिच्छेदे। १ कृतभुवनभङ्ग इति घ पुस्तकपाठः । २ 'कृतादिमध्यमङ्गलेत्यादि चरममङ्गलमाचष्टे इत्यन्तो प्रन्यांशः छ द पुस्तकयो स्ति । ३ विरच्यते इति घ पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं किञ्च, अथ नृतनतर्कज्ञमनःकुमुदचन्द्रमाः। महाविद्यातमःस्तोममुपाधिरुपढौकते ॥४॥ यो भङ्गिस्थनिवृत्तिमत्त्वरहितो' यदर्जिते मेयता मेयत्वे श्रुतिगोचरत्वविरहः स स्यादुपाधि(वः । भङ्गो विनाशः । स विद्यते यस्य असौ भङ्गी । अनित्य इत्यर्थः । तत्र स्थिता निवृत्तिरत्यन्ताभावः । तद्वत्त्वं तत्प्रतियोगित्वं । तेन रहितः इत्यर्थः । तदनेन अनित्यत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरहितत्वं अश्रावणत्वादीनामनित्यत्वरूपसाध्यव्यापकत्वं दर्शितम् । यदर्जिते मेयतेति । येन अश्रावणत्वेन वर्जिते अश्रावणत्वात्यन्ताभाववति शब्दत्वादौ मेयतेत्यर्थः । तदनेन मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वमश्रावणत्वादीनां मेयत्वादिसाधनाव्यापकत्वं दर्शितम् । सः श्रुतिगोचरत्वविरहः श्रवणेन्द्रियग्राह्यत्वात्यन्ताभावः । मेयत्वे साधनाभिमते, उपाधिर्भवेदित्यर्थः। ( भुवन० )-असिद्धोऽपि द्वेधेति । पक्षस्य यो हेतुधर्मो न स्यात्स पक्षधर्मत्वासिद्धो, यथा अनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वात् घटवदिति । व्याप्यत्वासिद्धश्च साधनस्य साध्येन ययाप्यत्वं तेनासिद्धो व्याप्तिशून्य इत्यर्थः । औपाधिकव्याँप्तिकच व्याप्यत्वासिद्धः । तत्र न यद्यपीति । यद्यपि महाविद्याहे तुः मेयत्वादिः पक्षे शब्दादौ वर्तनान्न पक्षधर्मत्वासिद्धः-तथापीति । तथापि व्याप्यत्वासिद्धो व्याप्तिशून्यो भवत्येवेति द्वितीयपरिच्छेदे प्रत्यपादि । व्याप्तिशून्यो व्याप्यत्वासिद्ध इति पुरापि प्रादर्शि। औपाधिकव्याप्तिकोऽपि व्याप्यत्वासिद्धो भवतीति तदुपपादनायाह-किंच । अथेत्यादि । उपाधिरुपढौकते । कं । महाविद्यारूपतमःस्तोमम् । किंविशिष्टः उपाधिः-नूतनेति । नूतना ये तर्कज्ञास्तेषां मनांस्येव कुमुदानि तत्र चन्द्रमाः । वादिप्रयुक्तमहाविद्यानुमानादिखण्डनाचित्ताहादक इत्यर्थः । उपाधेश्चन्द्रत्वारोपणान्महाविद्यातमःस्तोमनिराकरणं युक्तमेव ॥४॥ अथोपाधिदोषोद्भावनाय पद्यमाह-यो भङ्गिस्थेत्यादि। पूर्वार्ध व्याचष्टे-भङ्गो विनाश इति । तद्वत्त्वं तत्पतियोगित्वमिति । नन्वत्र तद्वत्त्वं तत्प्र. तियोगित्वं कथं, यतो भङ्गिस्थनिवृत्तिमन्तोऽनित्याः पदार्थाः । कथं तर्हि तेषां प्रतियोगित्वम् । उच्यते । सर्व वस्तु हि खनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगि । न हि घटे घटोऽस्ति आत्माश्रयात् । तस्माद्बटो घटनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी स्यादेवेति तद्वत्त्वं तत्प्रतियोगित्वं समीचीनमेव । तेन रहित इति। अनित्यपदार्थेषु उपाधेरत्यन्ताभावो नास्तीति परमार्थः-तदनेनेति । अनित्यत्ववन्तोऽनित्य. . १ रहिते य इति घ पुस्तकपाठः । २ धिर्धवम् । इति घ पुस्तकपाठः । ३ व्याप्तिकोऽपि व्या छ पुस्तकपाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ महा विद्याविडम्बनम् । १०१ पदार्था:, तेषु निष्ठो योऽत्यन्ताभावस्तस्य यत्प्रतियोगित्वं तेन यद्रहितत्वं तदश्रावणत्वादीनामुपाधी - नामनित्यत्वरूपसाध्यस्य व्यापकत्वं दर्शितम् । इदमत्र हृदयम् । यत्र यत्रानित्यत्वं तत्र तत्राश्रावणत्वं यथा घटादावित्येवमुपाधेः साध्यव्यापकत्वम् । तदनेनेत्यादि । तत्तस्मात्कारणात् अनेन अनन्तरो - क्तेन मेयत्ववन्तो मेयभावाः तेषु निष्ठो योऽत्यन्ताभावः तस्य यत्प्रतियोगित्वं तदश्रावणत्वादीनां मेयत्वादिसाधनस्याव्यापकत्वमित्यर्थः । एतावता मेयत्वसाधनेवत्स्वपि अश्रावणत्वोपाधिर्नास्ति । तथा च यत्र यत्र मेयत्वं तत्र तत्र अश्रावणत्वं नास्ति, शब्दत्वादौ मेयत्वसत्त्वेऽप्यश्रावणत्वाभावादित्यश्रावणत्वस्य साधनाव्यापकत्वम् । श्रवणेन्द्रियेति । अश्रावणत्वमित्यर्थः । अयमभिप्रायः । साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वमुपाधित्वम् । साध्यं च तदेव यद्विप्रतिपन्नं प्रति पक्षे मेयत्वेन बोधयितुमभिप्रेतम् । अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं इत्यत्र अनित्यत्वं च परं प्रति पक्षे मेयत्वेन बोधयितुमभिप्रेतम् । तस्मादनित्यत्वरूपसाध्यव्यापको मेयत्वादिसाधनाव्यापकः श्रोत्रग्राह्यात्यन्ताभावः उपाधिर्भवत्येव 1 ( भुवन ० ) - श्रावणत्वं नोपाधिः, नित्ये गगनादौ श्रावणत्वोपाधिसद्भावेऽप्यनित्यत्वसाध्याभावेन समव्याप्तिकत्वाभावादित्याशङ्कयाह - अयमभिप्रायः इति । अत्र समव्याप्तिर्न विवक्षितेतिभावः । किं तत्साध्यं यस्य व्यापक उपाधिरवाह - साध्यं चेति । पक्षे मूलानुमानपक्षे शब्दे इत्यर्थः। अयं शब्दः स्वस्वेतरेत्यादि । उपलक्षणं चेदम् । तेनात्र अन्यान्यपि पूर्वोक्तमहाविधानुमानानि मन्तव्यानि । अथ साध्यव्यापकः साधनाव्यापक इत्यत्र साध्यपदेन व्यापकत्वाभिमतं विवक्षितम् । प्रकृते च पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं व्यापकम् । न च तस्य श्रावणत्वात्यन्ताभावो व्यापकः । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्ववत् शब्दत्वादिनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वात् । तेन साध्यव्यापकताभावान्नायमुपाधिरिति मन्यसे । तन्न । किं व्यापकत्वाभिमतव्यापकः साधनाव्यापक इत्युपाधिसामान्यलक्षणं, किंवा प्रकृतसाध्यसाधनसंबन्धोपाधिलक्षणम् । नाद्यः । व्याघातात् । यत्किञ्चिद्याप - कौभिमतव्यापकस्य स्वात्मादिकिञ्चित्साधनव्यापकत्वेन साधनाव्यापकत्वानुपपत्तेः । नापि द्वितीयः । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वव्यापकमेयत्वव्यापकस्य भवद्भिरनङ्गीकाराल्लक्ष्यलक्षणयोरप्यसिद्धेः, सिद्धौ वा सोपाधित्वस्य दुर्वारत्वादिति । १ 'साधनवत् श्रा इति छ द पुस्तकपाठः । २ 'भवेदेव ।' इति घ पुस्तकपाठः । ३ प्रकृतसाध्यव्यापकत्वे सति प्रकृतसाधनाव्यापकत्वमुपाधिल इति घ पुस्तकपाठः । ४ 'व्यापकत्वाभि इति घ पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं (भुवन० ) अत्रे महाविद्यावादी शङ्कते-अथ साध्येति । घ्यापकत्वेनाभिमतं व्यापकत्वाभिमतमित्यर्थः । प्रकृते चेति । प्रकृते प्रस्तुते महाविद्यानुमाने पक्षीकृतेत्यादिकं व्यापकं साध्य न्यस्तम् । न च तस्येति । न च तस्य महाविद्यासाध्यस्य स्वस्वेतरेत्यादिकस्य श्रावणत्वात्यन्ताभावोऽश्रावणत्वोपार्व्यािपकः । हेतुमाह-पक्षीकृतेति । पक्षीकृतशब्देत्यादिमहाविद्यासाध्यसहितं यच्छब्दत्वादि तत्र निष्ठो योऽत्यन्ताभावस्तस्य प्रतियोगित्वात् अश्रावणत्वोपाधेरित्यर्थः । एतावता महाविद्यासाध्यवति शब्द वेऽश्रावणत्वस्याभावाद्यत्र महाविद्यासाध्यं तत्रोपाधिरित्युपाधेः साध्यव्यापकत्वं नास्ति । फलितमाह-तेन साध्येति । आचार्यों दूषयति-तन्नेति । व्यापकत्वेति । व्यापकत्वाभिमतं साध्यमित्यर्थः । किंवा प्रकृतसाध्यसाधनेति । प्रकृतसाध्यव्यापकः प्रकृतसाधनाव्यापक उपाधिरिति विशेषलक्षणं वा विवक्षितमिति भावः । आद्यं दूषयति-नाद्यः इति । व्याघातं स्पष्टयति-यत्किश्चियापकेति । व्यापकं च तदभिमतं च व्यापकाभिमतं साध्यं यत्किश्चिदनित्यत्वादि, तव्यापकस्य स्वात्मादि यत्किञ्चित्सा. धनमश्रावणत्वादिरूपमेव, तस्य व्यापकत्वादुपाधेः साधनाव्यापकत्वानुपपत्तिः । स्वात्मादीत्यत्र स्वात्मशब्दः पूर्वोक्ताश्रावणत्वोपाध्यपेक्षः । अयमाशयः-घटादयो नित्याः अश्रावणत्वादात्मादिवदित्याद्यनुमाने नित्यत्ववादिना कृते योऽश्रावण वादिहेतुः, स एतदुपाधिरूपः एवेत्यश्रावणत्वाद्युपाधिरेतस्य साधनस्य व्यापक एवेति साधनाव्यापकत्वं नोपपद्यतेत्यर्थः । द्वितीयमुत्थापयतिनापि द्वितीय इति । पक्षीकृतशब्देत्यादि । साध्यव्यापकस्य मेयत्वसाधनाव्यापकस्योपाधेर्भवद्भिरस्वीकाराल्लक्ष्यलक्षणयोः, लक्ष्य उपाधिः, लक्षणं प्रकृतसाध्यव्यापक इत्यादिकं विशेषलक्षणं, तयोरप्यसिद्धेः । लक्षणत्वस्वीकारे तु तस्योपाधित्वमेव स्यादित्याह-सिद्धौ वेति । अथ महाविद्याविरोधिनामपि साध्यव्यापकः साधनाव्यापकः इत्युपाधिसामान्यलक्षणं वा विवक्षितम् । उभयथापि पूर्वदोषापत्तिरिति मन्यसे । तन्न । अस्माभिः साध्यपदेन पक्षनिष्ठतया विप्रतिपन्नं प्रति प्रतीत्यपर्यवसानेन ज्ञाप्यस्यानित्यत्वस्य प्रकृतस्य विवक्षितत्वात् । तेन अनित्यत्वव्यापको मेयत्वाव्या. पकः इति प्रकृतोपाधिविशेषलक्षणम् । (भुवन०)-चोद्यपरिहारसाम्यरूपया प्रतिबन्धा परः शङ्कते-अथ महाविद्येति । महाविद्याविरोविनां भवतामपि साध्यव्यापकेत्यादिविकल्पयोः पूर्वदोषः स्यादित्यर्थः । ग्रन्थकारः प्रत्युत्तरयति-तन्नेति । अस्माभिः साध्यपदेन महाविद्यासाध्यं न विवक्षितं, किन्तु पक्षे शब्दादौ निष्ठतया विप्रतिपन्नं प्रतिवादिनं प्रति प्रतीत्यपर्यवसानेन अनित्यत्वं विना साध्यप्रतीतिर्न स्यादित्यपर्यवसानेन ज्ञाप्यमनित्यत्वं विवक्षितम् । एतावता किमुक्तं भवतीत्यत आह-तेनेत्यादि । प्रकृतोऽधिकृतो य उपाधिरश्रावणत्वादिरूप इति भावः। कथं पुनरस्य दोषत्वमिति चेत् । अश्रावणत्वव्यापकनिवृत्तौ अनित्यत्व १ अथ महा इति च पुस्तक पाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ ५०३ महाविद्याविडम्बनम् । व्याप्यनिवृत्तेरावश्यकत्वेन पक्षीकृतशब्दे एव मेयत्वपक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वयोव्योप्तिभङ्गादित्यवेहि । इदमेव चान्यत्राप्युपाधिदूषणत्वबीजम् । (भुवन० )-आशङ्कते-कथमिति । अस्योपाधेरित्यर्थः । आचार्यः प्रत्याचष्टे-अश्रावणत्वेति । अश्रावणत्वं यः उपाधिर्व्यापकस्तस्य निवृत्तावनित्यत्वं साध्यरूपं व्याप्यं निवर्तत एव । तथा हि-यत्र यत्र अनित्यत्वं तत्र तत्र अश्रावणत्वं यथा घटादौ । यत्राश्रावणत्वं न स्यात्तत्रानित्यत्वमपि न, यथा शब्दत्वे नित्यत्वेन वादिप्रतिवादिनोः संमते । एतावता उपाधिर्निवर्तमानः साध्यं गृहीत्वा निवृत्तः । किं तहीत्याह-पक्षीकृतशब्दे इति । पक्षीकृतशब्दे एव यन्मेयत्वसाधनं पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्यासाध्यं च तयोर्व्याप्तिभवात् । अयमर्थः । उपाधिधर्मो व्याप्तिः साधने चकास्ति, जपापुष्पंधर्मो लौहित्यं स्फटिकोपल इवेत्युपाधिना साध्यसाधनयोर्व्याप्तिभङ्गः । इदमेव चेति । अन्यत्राप्यनुमानेषूपाधेर्दूषणत्वमेवमेवेति भावः। यदा स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं अनित्यत्वेन विशेष्य अश्रावणत्वमुपाधिर्वक्तव्यः । तथाहि-यत् एतच्छब्दैतच्छब्देतरनिष्ठत्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वे सति अनित्यं, तत् अश्रावणमिति साध्यव्यापकत्वम् । अश्रावणत्वं च मेयत्ववत् शब्दत्वादिनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगीति साधनाव्यापकम् । तेन भवत्युपाधिः । न चाभिप्रेतसाध्यव्यापकस्य विशेषितसाध्यव्यापकस्य चोपाधित्वेऽतिप्रसङ्गः । एवंविधोपाधिमतामनुमानत्वानङ्गीकारात् । तद्रहितेषु च स्वतः एवातिप्रसङ्गनिवृत्तिरिति । अन्यथा व्यापकत्वाभिमतसाध्यव्यापकस्यापि उपाधित्वे प्रवर्तमानस्यातिप्रसङ्गस्य कः शास्ता इति । (भुवन०)-प्रकारान्तरेणोपाधिं व्युत्पादयति-यद्वा स्वस्वेतरेति । स्वस्वेतरेत्यादिमहाविद्यासाध्यमनित्यत्वेन विशिष्टं कृत्वा अश्रावणत्वमुपाधिवक्तव्यः । एतदेवोपाधेः साध्यव्यापकत्व. दर्शनपूर्वकं दर्शयति-तथा हीति । यदेतच्छब्देत्यादिमहाविद्यासाध्यवत्त्वे सति अनित्यं तदश्रावणं, यथा घटादि । उपाधेः साध्यव्यापकतां प्रदर्श्य साधनाव्यापकतामाह-अश्रावणत्वं चेति । मेयत्ववद्यच्छब्दत्वादि तत्र निष्ठो योऽत्यन्ताभावस्तस्य प्रतियोगि अश्रावणत्वम् । एतावता मेयत्वसाधनवति शब्दत्वादावश्रावणत्वरूपोपाधेरत्यन्ताभावः । शब्दमेयत्वसद्भावेऽप्यश्रावणत्वस्य असद्धावात् । आशङ्कापूर्व परिहरति-न चाभिप्रेतेति । अभिप्रेतसाध्यमनित्यत्वम्, विशेषितसाध्यं महाविद्यासत्कम् । हेतुमाह-एवंविधेति । एवंविधोपाधिमतामनुमानानामित्यर्थः । तद्रहितविति । एवंविधोपाधिरहितेषु स्वयमेवातिप्रसङ्गनिवृत्तेः । अन्यथेति । एवंविधोपाधिरहितानुमानेष्वपि अति. प्रसङ्गकरणे । व्यापकत्वाभिमतेति । व्यापकत्वेनाभिमतं मुख्यं यत्साध्यमग्निमत्त्वादि तब्यापकस्या. १ अस्याग्रे ‘अत्र साध्यसाधनयोाप्तिः । सा अश्रावणत्वेन सोपाधिका' इत्यधिकं च पुस्तके दृश्यते । २ पुष्पलौहि इति च पुस्तकपाठः । ३ वपि अप्रसङ्ग इति छ द पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटी का युतं युपाधित्वेऽतिप्रसङ्गस्य कः शास्ता शिक्षयिता । अयमभिप्रायः - कस्मिंश्चिदनुमाने सत्योपाधावपि केनाप्युद्भावितेऽतिप्रसङ्गः कथं निवार्यः । ननु अत्र अयं क्षन्दः पक्षः । एतद्व्यतिरिक्तं च सर्व सपक्षः । तेन विपक्षरूपव्यावर्त्यभावात् अश्रावणत्वस्य पक्षेतरत्वमित्यत आह १०४ "शब्दत्वादि निवर्त्यमस्ति न ततः पक्षेतरत्वभ्रमः” इति । यत् विप्रतिपन्नं प्रति पक्षनिष्ठतया वादिना साध्यते तत्साध्यम् । तदभाववांश्च विपक्ष: उपाधेवर्त्यः । तथाविधश्च अश्रावणत्वस्य शब्दत्वादिरेव । तेन व्यावर्त्य सत्वान्न पक्षेतरत्वभ्रान्तिः कर्तव्या । ( भुवन० ) - लोकतृतीयपादावताराय आशङ्कां कुरुते - नन्वत्रेति । पक्षेतरत्वमिति । विमता हिंसा अधर्मसाधनं हिंसात्वात् ग्लेच्छहिंसावदित्यत्र निषिद्धत्वमुपाधिः । अस्योपाधेः संध्यावन्दनादिर्विपक्षो व्यावर्त्यः । संध्यावन्दनादौ निषद्धत्वाभावात् । अत्र च महाविद्यायां विपक्षस्यैवाभावाद्विपक्षव्यावर्तनाभावेन पक्षः एव व्यावर्त्योऽस्ति । तथा चोपाधेः पक्षेतरत्वं दोषः । 'शब्दत्वादीति । अत्र शब्दत्वाद्युपाधेर्निवर्त्त्यमस्ति । यतोऽत्रा श्रावणत्वमुपाधिः । स च शब्दत्वादेर्विपक्षाव्यावृत्त एव, शब्दत्वेऽश्रावणत्वाभावादित्युपाधेः शब्दत्वादिविपक्षो व्यावर्त्यः । तस्मात्पक्षेतरत्वभ्रमो न कार्य इत्याशयः । श्लोक तृतीयपादं व्याख्याति । यत् विप्रतिपन्नमिति । विप्रतिपन्नं प्रतिवादिनं प्रति यदनित्यत्वादि पक्षे शब्दादौ निष्ठतया वादिना साध्यते तत्साध्यम् । तस्य साध्यस्याभावो नित्यत्वं, तद्वांश्च नित्यो विपक्षः । उपाधेर्व्यावर्त्य इति । यत्र कुत्राप्युपाधिः स्यात्, स विपक्षे पक्षे च वर्तमानो न विलोक्यते । तथा च सति तस्योपाधेर्विपक्षः पक्षश्च व्यावत्यों भवतीति सर्वत्रोपाधेः रीतिः । यत्र च विपक्षो व्यावत्यों न भवेत्तत्र केवलपक्षस्यैव व्यावर्तनादुपाधेः पक्षेतरत्वं दोषः । अत्र च तथा नाशङ्कनीयम् । शब्दत्वादिविपक्षादश्रावणत्वोपाधेर्व्यावृत्तत्वादित्यर्थः । नाममाहमुपाधिव्यावर्त्य माह – तथाविधवेति । यत् वादिनो व्यापकत्वेनाभिमतं तदभाववान् विपक्ष: उपाधिव्यावत्य न त्वन्य इति चेत् । न । सर्वत्र विप्रतिपत्तिगोचरसाध्याभाववतो व्यावर्त्य - स्वम् । तथाभूतव्यावर्त्य र हितस्योपाधेः पक्षेतरत्वमित्येतावतैव सकलव्यवस्थोप पत्तौ व्यापकीभूतसाध्याभाववतो व्यावर्त्यत्वं तथाभूतत्र्यावर्त्यरहितस्य च पक्षेतरत्वमित्यादिव्यवस्थाया गरीयस्या निष्प्रमाणकत्वादिति । ( भुवन० ) - महाविद्यावादी शङ्कते - यद्वादिनो व्यापकेति । व्यापकत्वेन साध्यत्वेनाभिम महाविद्यासाध्यं स्वस्वेतरेत्यादिरूपं तदभाववान्विपक्षः उपाधिना व्यावत्यों, न त्वन्यो भवदद्भिमतो मुख्यानुमानसाध्यविपक्षः इति भावः । आचार्यः उत्तरयति - न सर्वत्रेति । विप्रतिपत्तिगोचरं यत्साध्यमनित्यत्वादि तदभावो नित्यत्वं, तद्वतो नित्यस्य व्यावर्त्यत्वम् । व्यापकीभूतेति । १ उपाधेय' इति घ पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ महाविद्याविडम्बनम्। व्यापकीभूतसाध्यं महाविद्यासत्कं, तदभाववतो व्यावय॑त्वमित्यादिव्यवस्था गरीयसी निष्प्रमाणका। कल्पनालाघवे सति कल्पनागौरवबाधकतर्कसद्भावात् । ननु अस्तु पक्षं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानासु महाविद्यासु अयमुपाधिः । सप. क्षविपक्षादीन् पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्यास्तु उपाधिविधुरा एवेत्यत आह "सर्वत्रैवमुपाधिरप्रतिहतः," इति अयं घटः एतद्धटैतच्छन्दव्यतिरिक्तत्वरहितानित्यान्यः मेयत्वादित्यत्र अश्रावणत्वमुपाधिः । एतच्छब्दनिष्ठतया परं प्रति साध्यस्य अनित्यत्वस्य व्यापकत्वात् । मेयत्वसाधनाव्यापकत्वाच । अनित्यत्वरूपसाध्यरहितशब्दत्वादिव्यावहँसत्त्वेन पक्षेतरत्वानाक्रान्तत्वाचेति । तथा गगनं शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादित्यत्रापि अश्रावणत्वमुपाधिः । एतच्छन्दनिष्ठत्वेन साधयितुमभिप्रेतस्य अनित्यत्वस्य व्यापकत्वात्, मेयत्वाव्यापकत्वाच्च । सिषाधयिषितानित्यत्वाभाववतः शब्दत्वादेावय॑स्य सत्वेन पक्षेतरत्वानाक्रान्तत्वाचेति । एवं साध्यादीनपि पक्षीकृत्य शब्दानित्यत्वे प्रवर्तमानासु महाविद्यास्वंयमुपाधिद्रष्टव्यः । ननु अस्तु नाम अनित्यत्वे प्रवर्तमानासु महाविद्यासु अश्रावणत्वमु. पाधिः । अन्वयव्यतिरेकिसाध्यान्तरप्रवर्तमानासु न कश्चिदुपाधिरित्यत्राप्येतदेवोत्तरम् । सर्वत्रैवमुपाधिरप्रतिहत इति । यत्र यत्रान्वयव्यतिरेकिणि हेतौ यो य उपाधिः, तत्तत्साध्यप्रवर्तमानमहाविद्यासु स स एवोपाधिः पूर्वन्यायेन द्रष्टव्यः । यः पुनरन्वयव्यतिरेकी निरुपाधिक एव, तत्साध्यप्रवर्तमानमहाविद्याप्यनौपाधिकी एवास्तु । किं नः छिन्नम् । तदप्रामाण्यस्य वक्ष्यमाणदोषैरपि सिद्धेः। (भुवन)-तुरीयपादभागमवतारयितुं चोदयति । नन्वस्त्विति । इत आरभ्य एतदेवोत्तरं सर्वत्रैवमुपाधिरप्रतिहत इतियावत्सुगममिति न लेशतोऽपि व्याचक्रे । ननु स श्यामो मैत्रपुत्रत्वात्संप्रतिपन्नपुत्रवदित्यन्वयव्यतिरेकिणि सोऽयं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितश्यामनिष्ठाधिकरणं मेयत्वाद्धटात्मा दिवदित्यस्यां महाविद्यायामश्रावणत्वस्य अनुपाधित्वादेतदेवोत्तरमित्ययुक्तमुक्तमित्याशङ्कयाह-यत्र यत्रान्वयीति । यत्र यत्र अन्वयव्यतिरेकिणि मूलानुमानहेतौ यः उपाधिः । तत्तदिति । तत्तदन्वयव्यतिरेकिहेतुसाध्यप्रवर्तमानमहाविद्यासु स एव मूलानुमानोपाधिरेव द्रष्टव्यः । श्यामत्वसाध्यप्रवर्तमानमहाविद्यायां च शाकाद्याहारजन्यत्वं मेयत्वसाधनाव्यापकं पक्षनिष्ठतया विप्रतिपन्नश्यामत्वसाध्यव्यापकं दुग्धाद्यश्यामव्यावर्त्य विशिष्टमुपाधिः । परमाणुनित्योऽनादिभावत्वात् १ बास्वश्रावणत्वम् इति घ पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं आत्मवदित्यत्र अयममात्मैतदात्मैतत्परमाणुव्यतिरिक्तत्वरहितनित्यान्यः प्रमेयत्वाद्धटादिवदित्यत्र कः उपाधिरत्राह-यः पुनरन्वयेति । तदप्रामाण्यस्येति। निरुपाधिकमहाविद्याया अप्रामाण्यं वक्ष्य. माणदोषैविरुद्धतानैकान्तिकत्वादिभिरपि सेत्स्यतीत्यर्थः । यः पुनव्युत्पादितमपि साध्यव्यापकं साधनाव्यापकं चोपाधिं प्रमेयत्वादी न मन्यते, तस्य अयं शब्दोऽनित्यः, सामान्यवत्त्वे सति अस्मद्वाह्यप्रत्यक्षत्वादित्यादावपि अश्रावणत्वादिरुपाधिन स्यात् , अविशेषादित्याह 'नो चेन्न हेत्वन्तरे,' इति (भुवन० )-चतुर्थपादान्त्यभागतात्पर्यमाह-यः पुनर्ग्युत्पादितमिति । य एवं पूर्वोत्पादितमप्युपाधिं न स्वीकुरुते, तस्य अयं शब्दोऽनित्यः इत्यत्रापि अश्रावणत्वोपाधिर्न स्यात् । अस्ति चात्रोपाधिः । तथाहि । यद्यदनित्यं तत्तदश्रावणं यथा घटादि। यत्राश्रावणत्वाभावः तत्रानित्यत्वाभावो यथा शब्दत्वे इति साध्यव्यापकत्वम् । तथा शब्दे सामान्यवत्त्वे सति यदस्मद्वाह्यप्रत्यक्षत्वं तस्मिन्सत्यपि अश्रावणत्वोपाधेरभावात्साधनाव्यापकत्वं चोपाधेः । शब्दवरूपविपक्षव्यावय॑सत्त्वेन च न पक्षेतरत्वमिति । नो चेन्न हेत्वन्तर इति । यदि पूर्वोपपादितः उपाधिन भवति, तदा हेवन्तरे सामान्यवत्त्वे सति अस्मद्वाह्यप्रत्यक्षवादित्यादिकेऽप्युपाधिन स्यादित्यर्थः ।। अथ प्रतीत्यपर्यवसानलभ्यसाध्यव्यापकः तथाविधसाध्याभाववद्रूपपक्ष. व्यावर्त्यवांश्चोपाधिः कचिदपि न दृष्टः इति चेत् । न । पक्षे व्यापकीभूतसाध्य. साधकं विपक्षादीन् पक्षीकृत्य पक्षे तथाभूतसाध्यसाधकमनुमानमपि कचिन्न दृष्टमेव । महाविद्यैव तथा दृश्यते इति चेत् । तर्हि तदुपाधिरपि तथाभूतो दृश्यते इति संतोष्टव्यम् । न चैवं सति सकलकेवलान्वयिप्रामाण्यभङ्ग इति वाच्यम् । तत्प्रामाण्यस्यास्माभिरनङ्गीकारात् । अङ्गीकारे वा सर्वत्रापर्यवसानलभ्यान्वयव्यतिरेकिसाध्याभावेन तद्यापकस्योपाधेरनुपपत्तिरिति ।। __ (भुवन० )-परः शङ्कते-अथ प्रतीत्यपर्यवसानेति । प्रतीतेरपर्यवसानेन अभवनेन लभ्यं यदनित्यत्वादिसाध्यं, तस्य व्यापकः, तथा विधं यदनित्यत्वादि साध्यं तस्य योऽभावः, तद्वद्रूपो यो विपक्षो व्यावर्त्यस्तद्वांश्वोपाधिन क्वापि दृष्टचरः। आचार्यः परिहरति-न पक्षे व्यापकेति । पक्षे विपक्षादौ व्यापकीभूतं साध्यं महाविद्यासाध्यं, तत्साधकं सत् विपक्षादीन्पक्षीकृत्य पक्षे शब्दे तथाभूतसाध्यमनित्यत्वादिकं तत्साधकमनुमानमपि कचिन्न दृष्टमित्यर्थः । ननु यदि केवलान्वयी न स्वीक्रियते, तीदृष्टादि कस्यचित्प्रत्यक्षं मेयत्वाद्धटवदित्यादेः केवलान्वयित्वेन अस्वीकारार्हत्वात्सर्वज्ञसिद्धिः कथमित्याशङ्कापरिहारायाह-अङ्गीकारे वेति। केवलान्वयिहेतोरङ्गीकारे वा सर्वानुमानेष्वपर्यवसानलभ्यं यदन्वयव्यतिरेकिणो मूलानुमानस्य साध्यं, तदभावेन व्यापकस्य अपर्यवसान... १ 'अस्मदा दिवायेन्द्रियग्राह्यत्वादि इति घ पुस्तकपाठः । २ वणत्वमुपा' इति घ पुस्तकपाठः । ३ तथाभूता । इति घ पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०३ महाविद्याविडम्बनम्। लभ्यान्वयव्यतिरेकिसाध्यव्यापकस्योपाधेरनुपपत्तिः । अयमभिप्राय:-महाविद्यायां हि अपर्यवसान. लभ्यानित्यत्वादिसाध्यसद्भावेन तद्व्यापक उपाधिः सम्भवति, नान्यत्र केवलान्वयिषु । तत्रानन्तरोक्तसाध्यासम्भवात् । तस्मात्केवलान्वयिषूपाधेरभावः इत्यर्थः । इति संक्षेपतोऽस्माभिरुपाधिरुपवर्णितः। महाविद्यानिरासार्थ तन्मूलकषणक्षमः ॥ ५॥ मूलश्लोकस्तु यो भङ्गिस्थनिवृतिमत्त्वरहितो यदर्जिते मेयता मेयत्वे श्रुतिगोचरत्वविरहः स स्यादुपाधिर्भुवः । शब्दत्वादि निवत्यमस्ति न ततः पक्षेतरत्वभ्रमः सर्वत्रैवमुपाधिरप्रतिहतो नो चेन्न हेत्वन्तरे ॥ ६॥ (भुवन)-श्लोकः स्पष्टः॥५॥ अथ संनह्यतेऽभीष्टविरोधस्तर्कमुद्रया। प्रतिवादिमहाविद्याघर्षणाय विचक्षणः ॥७॥ (भुवन० )-उत्तरश्लोकतात्पर्यमाह-अथ संनद्यते इति । अभीष्टविरोधः संनह्यते सन्नद्धों भवति । कया । तर्कमुद्रया तर्कयुक्त्या ॥ ७ ॥ धत्तेऽभीष्टविरुद्धतां निगदितो हेतुः समुन्मीलयन् ___ इष्टाभावमभीष्टतुल्यनयतः पक्षे विचारक्षमाम् । इति यथाकथितो हेतुःमेयत्वादिः पक्षीकृतशब्दे तत्तदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं साधयन् पक्षे साध्यप्रतीत्यपर्यवसानाद्वाद्यभिमतमनित्यत्वं साधयति। तथा पक्षीकृतशब्दे तत्तदितरवृत्तित्वरहितानित्यत्वात्यन्ताभाववन्निठाधिकरणत्वं साधयन् पक्षे साध्यप्रतीत्यपर्यवसानरूपानित्यत्वसिडितुल्यन्यायेन वाद्यभिमतानित्यत्वात्यन्ताभावं साधयति । तेन वाद्यभिमतानित्यत्वरूपसाध्याभावसाधकत्वाद्यमभीष्टविरुडो विशेषविरुद्ध इष्टविघातकारी चेत्युच्यते । व्यापकत्वाभिमतसाध्याभावव्याप्यत्वं विरुद्धत्वम् । तच्च प्रकृते नास्तीति नायं विरुद्ध इत्यत आह किश्चियापकमीप्सितं तदपरं भेदस्तयोः कीदृशः साध्यत्वे तद्भावसाधकतया लोके विरुद्धस्थितिः॥ ८॥ इति। (भुवन०)-अभीष्टविरुद्धतां दर्शयति-धत्तेऽभीष्टेत्यादि । निगदितो हेतुर्मेयत्वादिरभीष्टस्य विरुद्धता अभीष्टविरुद्धता, तां विचारक्षमां धत्ते । किं कुर्वन्समुन्मीलयन् । कम् । इष्टाभावम् । इष्टमनित्यत्वम्, तदभावो नित्यत्वम् । कस्मात् । अभीष्टतुल्यनयतः अभीष्टमनित्यत्वं यथा साध्यते, Aho! Shrutgyanam Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं तथा नित्यत्वमपीति तत्तुल्यन्यायात् । कस्मिन् । पक्षे शब्दादौ । अनित्यत्ववन्नित्यत्वमपि साधयविरुद्धः स्यादित्यर्थः। श्लोकाध व्याचष्टे-यथाकथित इत्यादि । मेयत्वादिहेतुः पक्षीकृतशब्दे तत्तदितरेत्यादि महाविद्यासाध्यं साधयन्पक्षे यत्साध्यप्रतीतेरपर्यवसानमनुपपत्तिः, तद्बलेन यथा वाद्यभिमतमनित्यत्वं साधयति, तथैव वाद्यभिमतं यदनित्यत्वं तदत्यन्ताभावो नित्यत्वं तदपि साधयति । तथापि किं दूषणमित्याह तेन वायभिमतेति । वाद्यभिमतं यदनित्यत्वरूपं साध्यं तदभावो नित्यत्वं, तत्साधकत्वादयमभीष्टविरुद्धः । ' हेतुभेदाभावेन तुल्यबलः साध्याभावसाधकोऽभीष्टविरुद्धः' इति संपूर्ण तल्लक्षणस्य सद्भावात् । उत्तरार्धावताराय शङ्कते-व्यापकत्वाभिमतेति । व्यापकत्वाभिमतं साध्यमत्र स्वस्वेतरेत्यादिकं महाविद्यासत्कं । तदभावेन व्याप्यो हि हेतुविरुद्ध इत्युच्यते । अयं तु पारिशेष्यलभ्यानित्यत्वसाध्यस्य अभावेन व्याप्यो, न तु महाविद्यासाध्यस्याभावेन । ततो नायं विरुद्ध इत्यर्थः । उत्तरार्ध दर्शयति-किञ्चिद्वयापकमिति । किञ्चिद्व्यापकं महाविद्यासाध्यं किञ्चित्तस्मादपरं च व्यापकप्रतीत्यपर्यवसानलभ्यमनित्यत्वादि, तयोः साध्यत्वे भेदः कीदृशो, न कोऽपीत्यर्थः । तयोः साध्ययोर्योऽभावस्तत्साधको लोके तार्किकलोके विरुद्धो हेतुरुच्यते इत्यभिप्रायः ॥ ८॥ प्रकृतव्यापकाभावव्याप्यः प्रकृतो हेतुर्विरुड इत्ययुक्तम् । प्रकृतहेतोरे. वंरूपत्वप्रमितौ विरुद्धत्वस्य दुर्वारत्वात् । अप्रमितौ अस्य लक्षणस्य स्वरूपासिद्धत्वात् । तस्मात्साध्याभावसाधकः प्रकृतो हेतुर्विरुद्ध इत्युच्यते । ( भुवन० )-श्लोकोत्तरार्ध व्याख्यातुं परोक्तं दूषयति-प्रकृतव्यापकेति । प्रकृतं व्यापक महाविद्यासाध्यं, तदभावेन व्याप्यः प्रकृतो हेतुर्मेयत्वादिविरुद्ध इति भावः । प्रकृतव्यापकाभावव्याप्यत्वं हेतोः प्रमितं न वा । आद्यं प्रत्याह-प्रकृतहेतोरिति । प्रकृतहेतोर्मेयत्वादेरेवंरूपत्वप्रमितौ प्रकृतव्यापकाभावव्याप्यत्वप्रमितौ विरुद्धवंदुर्वारम् । द्वितीयं प्रत्याह-अप्रमिताविति । यदि प्रकृतव्यापकाभावव्याप्यत्वं हेतोरप्रमितं, तदानीमेतल्लक्षणस्य स्वरूपमेवासिद्धम् । यतः एतल्लक्षणं हि विशेषलक्षणत्वेन अन्यत्राप्रसिद्धम् । तर्हि किं लक्षणमित्याह-तस्मात्साध्याभावेति । साध्यं च द्विविधम् । किश्चिद्यापकाभिमतं, किश्चिद्यापकप्रतीत्यपर्यवसानलभ्यम्।न चानयोः प्रतिवादिना पक्षनिष्ठतयानङ्गीकृतयोर्वादिना च तनिष्ठतया बोध्यमानयोः साध्यत्वे कश्चिद्विशेषोऽस्ति । व्यापकत्वाभिमतसाध्याभावव्याप्यत्वं तु व्यापकविरुद्धापरपर्यायं विरुद्ध विशेषलक्षणम् । यदि पुनर्विरु विशेषलक्षणाभावात् नायं विरुद्धः, तर्हि अभिप्रेतसाध्यविशेषाभावसाधको विरुद्ध इति विरुद्धविशेषलक्षणाभावायापकाभिमताभावव्याप्योऽपि विरुद्धो न स्यादिति । यहा मा भूदयं विरुद्धः, तथाप्यभीष्टविरुद्धापरपर्यायं हेत्वाभा. सान्तरं भविष्यति। १ अनित्यत्वं नित्यत्व' इति छ द पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ महाविद्याविडम्बनम् । (भुवन०)-श्लोकाध व्याचाख्याति-साध्यं च द्विविधमित्यादि । व्यापकत्वेनाभिमतं महाविद्यासाध्यम् । व्यापकं महाविद्यासाध्यं, तस्य या प्रतीतिस्तस्याः अपर्यवसानेन लभ्यमनित्यत्वादि । न चानयोरिति । अनयोः साध्ययोः प्रतिवादिना महाविद्यानिराकर्ता पक्षे शब्दादौ निष्ठतया अनङ्गीकृतयोर्वादिना महाविद्यावादिना तन्निष्ठतया पक्षनिष्ठतया बोध्यमानयोः न च साध्यत्वे कश्चिद्विशेषोऽस्ति । यतः उभयमपि साध्यतयोच्यते । प्रकारान्तरेणाशङ्कते-व्यापकत्वाभिमतेति । व्यापकत्वेनाभिमतं महाविद्यासाध्यं तस्य योऽभावस्तेन व्याप्यत्वं हेतोस्तद्व्यापकविरुद्धः इत्यपरपर्यायं विरुद्धहेतोर्विशेषलक्षणमित्याशयः । आचार्यः प्रत्युत्तरयति-तहीत्यादि । अभिप्रेतः साध्यविशेषोऽनित्यत्वादिः, तदभावसाधको विरुद्ध इत्यभिप्राय: । व्यापकाभिमतेति । व्यापकं यदभिमतं महाविद्यासाध्यमित्यर्थः। तर्हि संशयः एव स्यान्न निर्णयोऽत्राह-यद्वा मा भूदिति ।। सत्प्रतिपक्ष एवायं, न विरुद्धो,न हेत्वाभासान्तरमिति शिवादित्यमिश्राः। तन्न । साध्याभावसाधकतुल्यबलद्वितीयहेतावेव पूर्वाचार्याणांप्रतिपक्षव्यवहारात् , साध्याभावसाधकत्वमात्रेण प्रतिपक्षत्वे विरुद्वस्यापि प्रतिपक्षत्वप्रसङ्गात् । तुल्यबलत्वाभावान्न विरुद्धः प्रतिपक्षो बाधवदिति चेत् । अथ तुल्यबलत्वविशेषणं किमर्थम् । विरुडादिनिवृत्त्यर्थमिति चेत् । अथ विरुद्धादयः किमर्थ निवाः । पूर्वाचार्याणां तत्र प्रतिपक्षव्यवहाराभावादिति चेत् । एवं तर्हि प्रकृतहेत्वन्यत्वमपि विशेषणमुपादेयमेव । पूर्वाचाय॒स्तस्यैव तं प्रति प्रतिपक्षत्वेन अव्यवहारादित्यलमुपजीव्यैः सह कलहेन । ( भुवन० )-परमतं प्रकटयति-सत्पतिपक्ष इति । अयं हेतुः प्रकरणसम एवेति शिवादित्यमिश्राः प्राहुरिति । परमतं निरस्यति-तन्न । साध्याभावेति । साध्याभावसाधको यः पूर्वहेतोस्तुल्यबलो द्वितीयहेतुस्तत्रैव पूर्वाचार्याणां सत्प्रतिपक्षत्वव्यवहारात् । इदं हृदयम् । पूर्वानुमानोक्तहेतुना मेयत्वादिना अनित्यत्वादिसाध्यसाधकेन तुल्यबल:, तस्मान्मेयत्वादेश्च यो द्वितीयहेतुरभिधेयत्वादिः पूर्वोक्तानित्यत्वादिसाध्याभावसाधकः स एव सत्प्रतिपक्षः । साध्याभावसाधकस्यैव प्रतिपक्षत्वेऽतिप्रसङ्गमाह-साध्याभावेति । साध्याभावसाधक एव यदि प्रतिपक्षः, तर्हि विरुद्धोऽपि साध्याभावसाधकत्वात्प्रतिपक्षः प्रसज्येत । परः शङ्कते-तुल्यबलेति । साध्याभावसाधकोऽपि तुल्यबल एव प्रतिपक्षो नातुल्यबलः, तस्मात्तुल्यबलत्वाभावाद्विरुद्धः प्रतिपक्षो नोच्यते, यथा बाधः कालात्ययापदिष्टस्तुल्यबलत्वाभावान्न प्रतिपक्षः । प्रश्नपूर्वकं परिहरतिअथ तुल्येत्यादि । साध्याभावसाधकस्तुल्यबलः प्रतिपक्ष इति भवत्संमतलक्षणे तुल्य. बलत्वविशेषणं किमर्थमित्यर्थः । प्रतिबन्दीमुपादत्ते-एवं तहीति । प्रकृतो हेतुर्मेयत्वादिद्युक्तः, तस्मादन्योऽभिधेयत्वादिःसत्त्वम् । एतत्तत्त्वम्-यथा प्रतिपक्षलक्षणे तुल्यबलत्वविशेषणमुपात्तम्, १ बाधः अधिकवलप्रत्यनुमानस्तुल्य इति च पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० भुवन सुन्दरसूरिकृतटीका युतं तथा प्रकृतत्वन्य इत्यपि विशेषणमुपादेयम् । तथा च साध्याभावसाधकस्तुल्यबल: प्रकृतहेत्वन्यः प्रतिपक्ष इति प्रतिपक्षलक्षणमुक्तं भवति । प्रकृतहेत्वन्यः इति विशेषणाङ्गीकरणे हेतुमाहपूर्वाचार्यैरिति । तस्यैव मेयत्वादेरेव, तं प्रति मेयत्वादिकमेव प्रति प्रतिपक्षत्वेन पूर्वाचार्यैरव्यवहारात् । पूर्वाचार्याणां हि पूर्वोक्तहेत्वन्यस्मिन्नेव प्रति नक्षत्वव्यवहारोऽस्ति नतु मेयत्वादेरेव मेयत्वादिकं प्रतीतिभावार्थः । उपजीव्यैरिति । अयमभिप्रायः । पूर्वाचार्यैः प्रकृतहेत्वन्य इति विशेषणमुपादाय | शिवादित्यमिश्राश्च नोपाददते इति य: उपजीव्यैः पूर्वाचार्यैः सह भवतां कलहस्तेन कृतम् । एतावता पूर्वोक्तहेतोः सत्प्रतिपक्षत्वमुत्थापितं, अभीष्टविरुद्धत्वं तु स्थापितं भवति । महाविद्यान्तरेष्वपि अनित्यपदस्थाने अनित्यत्वात्यन्ताभावपदं प्रक्षिप्य साध्यप्रतीत्यपर्यवसानानित्यत्वात्यन्ताभावसाधकत्वमुपपाद्य अभीष्टविरुद्धता द्रष्टव्येति । ( भुवन ० ) - उक्तमन्यत्रातिदिशति । महाविद्येति । अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानि - त्यवृत्तिधर्मवानित्याद अनित्यत्ववृत्तिपदस्थाने नित्यवृत्तिपदं प्रयुज्यत इत्यर्थः । अपि सर्वगुणोऽभीष्टविरोधेन विनश्यति । किं पुनर्दोषसंघातैर्महाविद्या समाकुला ॥ ९ ॥ ( भुवन० ) — अभीष्टविरुद्धतामुपसंहरति — अपि सर्वगुण इति । सर्वगुणोऽपि हेतुरभीgavaदोषेण विनश्यति । अन्योऽपि जनः सर्वगुणोऽप्यभीष्टस्य मित्रादे विरोधेन विनश्यत्येव । महाविद्याया दोषसंघातैः समाकुलायास्तु किमुच्यते ॥ ९ ॥ अथ सव्यभिचारत्वमुन्मीलत्कुलिशेश्रियम् । महाविद्या महाभूभृत्पक्षच्छेदाय सज्जते ॥ १० ॥ ( भुवन० ) - अनैकान्तिकतोद्भावनाय प्रक्रमते - अथ सव्यभिचारत्वमिति । सव्यभि - चारत्वमनैकान्तिकत्वं महाविद्यामहाद्रिपक्षच्छेदाय सज्जते । किं कुर्वत् । उन्मीलत् । अन्तर्भूतण्यर्थत्वादुन्मीलयत् । कां कुलिशश्रियम् । यद्वोन्मीलत्कुलिशद्युतीति पदमवगन्तव्यम् । तथा च सव्यभिचारत्वस्यैतद्विशेषणम् ॥ १० ॥ सर्वमेव वस्तु स्वनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगीत्युक्तम् । तेन महाविद्यासाध्ये तदत्यन्ताभाववति मेयत्वस्य गतत्वादनैकान्तिकत्वमिति । किञ्च, त्वत्साध्यं स्वभिदान्यमेयनिहिताऽभावान्वितत्वाश्रयो मेयत्वादिति केवलान्वयिमतेऽस्माकं तु तद्भेदतः । या मेयनिवृत्तताधिकरणं साध्यं त्वदीयं ततो भिन्नत्वादिति साध्यवर्जिततनौ लब्धस्थितिर्मेयता ॥ ११ ॥ त्वत्साध्यमिति । पक्षीकृत शब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वादिकं १ कुलिशयुति । इति घ पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ महाविद्याविडम्बनम् । विवक्षितम् । स्वभिदेति । स्वान्योन्याभावः । मेयनिहितो मेयाश्रितः । स चासौ अभावश्च । तेन अन्वितः । तस्य प्रतियोगी । तस्य भावः तत्त्वम् । तस्याश्रयः तदधिकरणमित्यर्थः । प्रयोगस्तु-पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तमेयनिष्ठाभावप्रतियोगित्वाश्रयः, मेयत्वात् घटवदिति । पक्षीकृतसाध्यान्योन्याभावव्यतिरिक्तश्च सर्वेषामन्योन्याभावः प्रमेयेऽस्त्येवेति तेषां सपक्षता । प्रकृतसाध्यस्य चान्योन्याभावव्यतिरिक्तो मेयनिष्ठोऽभावः सिध्यन्नत्यन्ताभाव एव सिध्यति । तस्य साध्यस्य सदातनत्वेन प्राक्प्रध्वंसाभावानुपपत्तेः । तेन साध्याभाववति गमनान्मेयत्वस्य सव्यभिचारत्वं अनैकान्तिकत्वापरपर्यायं दुर्वारम् । अयं हेतुः केवलान्वयिप्रामाण्यवादिनाम् । अस्माकं तु स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तमेयनिष्ठाभावप्रतियोगित्वान्यत्वादिति हेतुः । तदिदमुक्तं तद्भेदत इति । तदन्यत्वादित्यर्थः । तच्छब्देन च स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तमेयनिष्ठाभावप्रतियोगित्वं परामृश्यते। (भुवन०)-अनैकान्तिकत्वं दर्शयति-सर्वमेवेति । सर्व वस्तु घटात्मादि स्वनिष्ठो योऽत्यन्तभावस्तस्य प्रतियोगि। इदमत्राकृतम् । घटे यदि घट: स्यात्तात्माश्रयो बाधकतर्कः प्रसज्येत । 'अव्यवधानेन स्वापेक्षणमात्माश्रयः । इति तल्लक्षणात् । तस्माद्धटादौ स्वात्यन्ताभावो विद्यते एवेति सर्व वस्तु स्वात्यन्ताभावप्रतियोगि भवतीति द्वैतीयीकपरिच्छेदे किञ्चिदुक्तम् । तेन महाविद्येति । महाविद्यासाध्ये स्वस्वेतरेत्यादौ तस्य महाविद्यासाध्यस्यैव योऽत्यन्ताभावस्तद्वति मेयत्वहेतोवृत्तत्वादिति । अयमर्थः-महाविद्यासाध्ये पूर्वोक्तयुत्तया स्वात्यन्ताभावोऽस्ति । तथा च मेयत्वस्य हेतोः स्वात्यन्ताभाववति महाविद्यासाध्यरूपे विपक्षे वर्तनादनैकान्तिकत्वम् । 'पक्षसपक्षविपक्षवृत्तिरनैकान्तिकः' इति तल्लक्षणात् । अथ प्रकारान्तरेण अनैकान्तिकत्वं दिदर्शयिषुः पद्यमाह-त्वत्साध्यमिति । वादिन् ,त्वत्साध्यं स्वस्वेतरेत्यादिकं महाविद्यासाध्यं, स्वभिदान्यमेयनिहिताभावान्वितत्वाश्रयः । स्वभिदायाः वस्वान्योन्याभावादन्यः स्वभिदान्यः । स चासौ मेयनिहितो मेयाश्रितोऽभावश्च, तेनान्वितः तत्प्रतियोगी, तस्य भावस्तत्त्वं, तदाश्रय इत्यर्थः ॥ ११ ॥ पद्यं व्याचरीकरीति-त्वत्साध्यमिति । तेनान्वित इति । ननु मेयाश्रिताभावान्वितो मेय एव, तत्कथं स एव तस्य प्रतियोगी । उच्यते-स्वस्मिन्स्वस्यावृत्तेर्मेयाश्रिताभावस्य मेयः प्रतियोग्येवेति तेनान्वितस्तस्य प्रतियोगी स्यादेवेति । प्रयोगं रचयति-प्रयोगस्त्विति । पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्यासाध्यं पक्षः । मेयेषु निष्ठश्वासौ अभावश्च मेयनिष्ठाभावः । स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तश्चासौ मेयनिष्ठाभावश्चेति विग्रहः । महाविद्यासाध्यस्य स्वान्योन्याभावप्रतियोगित्वेन सिद्धसाध्यता स्यात्, तां निवारयति स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तेति पदेन । एवंविधोऽभावः कास्तीति Aho! Shrutgyanam Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं सापेक्षत्वं वारयति मेयनिष्ठेतिपदेन । ननु कथमत्र व्याप्यवगमोऽत्राह - पक्षीकृतसाध्येत्यादि । घटान्योन्याभाव: पटेऽस्ति, पटान्योन्याभावश्च घटे इत्येवंप्रकारेण सर्वेषां घटपटादीनामन्योन्याभावः प्रमेयेऽस्ति । ततस्तेषां घटपटादीनां सपक्षता । तेन साध्याभाववतीति । अयमाशयः । अनेनानुमान महाविद्या साध्यस्य मेयेऽत्यन्ताभावोऽस्तीति साधितम् । मेयत्व हेतुस्तु तत्रापि मेये वर्तत इति साध्याभाववति गमनान्मेयत्वस्य अनैकान्तिकत्वम् । नन्वयमपि भवतो हेतुर्महाविद्याया इव केवलान्वयी, ततोऽस्यापि हेतोरनैकान्तिकत्वं कथं नेत्याह-अयं हेतुरित्यादि । अयं मेयत्वादिति हेतुः । तर्हि भवद्भिः किं हेतुक्रियतेऽवाह - अस्माकं त्विति । अत्र साध्यधर्मान्यत्वादिति हेतु: । व्याप्तिश्च यत्स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तमेयनिष्ठाभावप्रतियोगित्वान्यत् तत्स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्त मेयनिष्ठाभावप्रतियोगित्वाश्रयो यथा घटादि । अयं भावः । सर्वेऽपि भावा: परस्परापेक्षया मेयनिष्ठा - त्यन्ताभावप्रतियोगित्ववन्तः, तथा मेयनिष्ठोत्यन्ताभावप्रतियोगित्वरूपो यो धर्मस्तस्मादन्ये भिन्ना अपि भवन्ति । धर्मधर्मिणोर्भिन्नत्वात् । व्यतिरेकव्याप्तिस्तु यन्मेयनिष्ठाभावप्रतियोगित्वाश्रयो न भवति, तन्मेयनिष्ठाभावप्रतियोगित्वान्यन्न भवति । यथा मेयनिष्ठाभावप्रतियोगित्वमेव, स्वात्मन्यवृत्तेः । तेन तस्मिन्नेव तदत्यन्ताभाववति मेयत्वस्य अनैकान्तिकत्व - मिति परिहृतम् । ( भुवन० ) - अस्यापि हेतोः केवलान्वयित्वेन कथं न व्यभिचाराशङ्केत्याह-व्यतिरेकव्याप्तिरित्यादि । व्यतिरेकव्याप्तौ मेयनिष्ठाभावप्रतियोगित्वं दृष्टान्तः । तच्च मेयनिष्ठाभावप्रतियोगित्वस्याश्रयो न भवति, स्वस्मिन्स्वस्य अवृत्तेः । नापि मेयनिष्ठाभावप्रतियोगित्वं स्वस्मादन्यद्भवति । स्वस्य स्वतोऽन्यत्वे स्वरूपस्यैव हाने: । तेन तस्मिन्निति । तेनान्वयव्यतिरेकि - तूकरणादिकारणेन तस्मिन्नेव महाविद्यानुमानोत्थापकानुमानसाध्य एव स्वात्यन्ताभाववति वर्तनामेयत्वहेतोरनैकान्तिकत्वं परेणोद्भाव्यमानमाशङ्कय परिहृतमित्यर्थः । यद्वैवं प्रयोगः - पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वाधिकरणं, मेयत्वान्यत्वे सति मेयत्ववन्निष्टात्यन्ताभावप्रतियोगित्वान्यत्वात्, घटवदिति । तदिदमुक्तं - यद्वा मेयनिवृताधिकरणं साध्यं त्वदीयं ततो, भिन्नत्वादिति साध्यवर्जिततनौ लब्धस्थितिर्मेयता । मेयनिवृत्तता मेयनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वम् । ततो भिन्नत्वादिति । मेयनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वमेयत्वाभ्यामन्यत्वादित्यर्थः । एवं सर्वमहाविद्या साध्यानि पक्षीकृत्य अनैकान्तिकत्वं साधनीयम् । १ निष्ठान्योन्याभाव इति च पुस्तक पाठः । २ निष्ठान्योन्याभाव' इति च पुस्तक पाठः । Aho! Shrutgyanam Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ ५०३ महाविद्याविडम्बनम् । . (भुवन०)-उत्तरार्धं व्याचष्टे-यद्वैवमिति । अत्र पूर्वोक्तः एव पक्षः । पूर्वोक्तसाध्यमध्याञ्च स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तेति पदं त्यक्तं, अत्यन्ताभावेति चोपात्तम् । शेषं तदेव । हेतुश्चात्र यत्साध्य तदन्यत्वादित्येव, परं मेयत्वान्यत्वे सतीत्यधिकं पदम् । तच्च चेन्न गृह्येत, तर्हि मेयत्वे मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वान्यत्वरूपसाधनसत्त्वेऽपि मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वाश्रयत्वरूपसाध्याभावेन यत्र यत्र साधनं तत्र तत्र साध्यमिति व्याप्त्यभावान्मयत्वेन व्यभिचारो भवेत् । तद्व्यावृत्त्यर्थं मेयत्वान्यत्वे इत्युपादायि । मेयत्वं चाशेषलक्षणम् । अन्येऽपि वाच्यत्वसत्त्वादयो ये केवलान्त्रयिधर्मास्तदन्यत्वे सतीति मन्तव्यम् । अन्यथा वाच्यत्वादिभिरपि व्यभिचारः केन निवार्येतेति भावार्थः । यद्वा मेयनिवृत्ततेति । मेयानिवृत्तो मेयनिवृत्तः, तस्य भावो मेयनिवृत्तता । एतावता मेयनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं प्रोक्तम् । यतो मेयनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगी मेयनिवृत्त एवेति । मेयनिवृ. तताया अधिकरणं त्वदीयं साध्यं महाविद्यासत्कम् । एतावता पक्षीकृतेत्यादिपक्षे मेयत्ववन्निष्ठेत्यादि साध्यं सूचितम् । ततो भिन्नत्वादिति । ततो मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वधर्मान्मेयत्वधर्माच्च भिन्नत्वादन्यत्वादित्यर्थः । अनेन मेयत्वान्यत्वेत्यादिहेतुरसूचि । अयं सर्वसव्यभिचारत्वपक्षपरमार्थः-महाविद्यासाध्यं स्वस्मिन्वर्तते न वा । वर्तते चेत्तदा आत्माश्रयः । नो चेत्तर्हि स एव विपक्ष इति युक्त्या महाविद्यासाध्ये महाविद्यासाध्यवर्जिते तथा पूर्वानुमानाभ्यां मेयमध्ये महाविद्यासाध्याभावसाधनात्, महाविद्यासाध्यरहिते घटादिमेये च मेयत्वस्य वर्तनात् अनैकान्तिकत्वमित्यर्थः। ___ न चैवं सैति सकलसाध्यानि पक्षीकृत्य सर्वहेतूनामनैकान्तिकत्वस्य साधयितुं शक्यत्वात्सर्वानुमानोच्छेद इति वाच्यम् । महाविद्यानुमानानैकान्तिकत्वस्य तत्साधनस्य च सकलानुमानानैकान्तिकत्वेन तत्साधनेन च व्यास्यभावेन ताभ्यां तयोरापादयितुमशक्यत्वात् । एवंविधानुमानानां चास्माभिः प्रामाण्यानङ्गीकारात् । महाविद्यावादिना चैवंविधानुमानप्रामाण्ये विप्रतिपत्तुमशक्यत्वादिति। ( भुवन० )-न वाच्यमित्यत्र हेतुमाचष्टे-महाविद्यानुमानानैकान्तिकत्वस्येति । महाविद्यानुमानानैकान्तिकत्वस्य प्राक्प्रदर्शितस्य सर्वानुमानानैकान्तिकत्वेन सह, तथा महाविद्यानुमानानैकान्तिकत्वसाधनस्य सर्वानुमानानैकान्तिकत्वसाधनेन सह व्याप्त्यभावात् । व्यात्यभावश्चात्रेत्थम् । न हि यत्र यत्र महाविद्यानुमानानैकान्तिकत्वं तत्र तत्र सकलानुमानानैकान्तिकत्वमिति तथा यत्र महाविद्यानुमानानैकान्तिकत्वसाधनं तत्र सर्वानुमानानैकान्तिकत्वसाधनमिति च व्यातिरस्ति । व्याप्त्यभावेन किं तदित्याह-ताभ्यां तयोरापादयितुमिति । ताभ्यां महाविद्यानुमानानैकान्तिकत्वतत्साधनाभ्यां तयोः सर्वानुमानानैकान्तिकत्वतत्साधनयोरापादयितुमशक्यत्वात् । यतः आपादकेनापाद्यं तदैव आपाद्यते यद्यापाद्यापादकयोाप्तिः स्यात् , व्याप्तिमूलत्वात्तकस्य । द्वितीयं हेतुं ब्रूते १°न चैवं सक। इति घ, ज पुस्तकपाठः। १५ महावि० Aho! Shrutgyanam Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं एवंविधेति । यद्धेतूंनामनैकान्तिकत्वं साधयितुं शक्यते, तान्येवंविधानुमानानि महाविद्यानुमानादीनि तेषामस्माभिः प्रामाण्यं नाङ्गीक्रियते इत्याशयः । ___एवं पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं मेयत्ववनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मत्वरहिताधिकरणं, मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तैतन्निष्ठत्वरहिताधिकरणत्वान्यत्वात् घटवदित्यादिभिरपि सर्वमहाविद्यासु अनैकान्तिकत्वं साधनीयमिति । __ (भुवन०)-महाविद्यानैकान्तिकत्वसाधनाय तार्तीयिकमनुमानं दर्शयति-पक्षीकृतशब्देति। पक्षीकृतेत्यादि महाविद्यासाध्यं पक्षः । मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तश्चासौ एतद्धर्मत्वरहितश्च, तदाश्रयः इत्यन्वयः । मेयत्ववति मेये निष्ठो योऽत्यन्ताभावस्तस्य यत्प्रतियोगित्वं धर्मस्तस्मादन्यः । एतद्धर्माः पक्षीकृतमहाविद्यासाध्यधर्माः, तत्त्वेन रहितश्च धर्मः पक्षीकृतमहाविद्यासाध्यान्यधर्मो वा, व्यतिरिक्तपदेन कर्षितं मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं वा । आद्यो व्याहतः। न हि पक्षान्यधर्मः पक्षे वर्तते इति सम्भवति । द्वितीयस्तु पक्षे सिध्यन क्वापि मेये पक्षीकृतमहाविद्यासाध्यस्याभावं साधयति । तथा च साधनवति साध्याभावान्मेयत्वस्य व्यभिचारपिशाचसंचारदुःसंचरत्वम् । आद्यः पक्षः पक्षान्यधर्मरूपः सर्वत्र सपक्षे प्रयोजकः । मेयत्वादिव्यावृत्त्यर्थमेतद्धर्मत्वरहितग्रहणम् । एतद्धर्मत्वरहिताधिकरणमित्युक्ते व्याघातः, तव्यावृत्त्यर्थ मेयत्ववनिष्ठेत्यादिग्रहणम् । अत्र यत्साध्यं तदन्यत्वादिति हेतुरिति हेतुव्यावृत्त्यानि स्पष्टानि । इति सव्यभिचारत्वदोषेणाकुलिता सती। कुलस्त्रीव महाविद्या प्राणानुज्झति लजिता ॥ १२ ॥ ( भुवन० )-सव्यभिचारत्वमुपसंहरति-इति सव्यभिचारेति ॥ १२ ॥ अथ सत्प्रतिपक्षत्वं पक्षिराजस्य पक्षतिः। पराभवति दुर्वारमहाविद्याभुजङ्गमान् ॥ १३ ॥ ( भुवन० )-सत्प्रतिपक्षत्वदोषायोपक्रमते-अथ सदति । सत्प्रतिपक्षत्वं प्रकरणसमत्वं, प्रत्यनुमानवाधितत्वमिति यावत् । पक्षिराजस्य गरुडस्य पक्षतिः पक्षमूलम् ॥ १३ ॥ धर्मी च त्वभीष्ठसाध्यरहितः साध्यस्तदेकाश्रितैः साध्याभाववदाश्रितत्वरहितैः साध्यप्रसिद्धिः पुनः । साध्यं ते स्वभिदान्यजन्मनिधनाऽनाक्रान्तभावस्फुर द्भेदस्य प्रतियोगितत्त्वविरहादित्यादिभिर्जायते ॥१४॥ धर्मी पक्षीकृतः शब्दः । त्वद्भीष्टं साध्यं, स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वादि । तद्रहितः तदत्यन्ताभाववान् । साध्यः अनुमेयः इत्यर्थः । १ "ति । यैः सर्वहेतूना' इति च पुस्तकपाठः । २ "सिध्यन्न क्वापि इति द पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ महाविद्याविडम्बनम् । ११५ प्रयोगस्तु-अयं शब्दः एतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वात्यन्ताभा. ववान्, एतदन्यत्वरहितत्वात् । यत्पुनरेतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वात्यन्ताभाववत् ने, न तदेतदन्यत्वरहितं यथा घटः । एतदन्यत्वरहितश्चायम् । तस्मादितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वात्यन्ताभाववानित्यादि । साध्याभावववृत्तित्वरहितत्वे सति साध्यवद्धृत्तित्वं साध्यव्याप्यत्वम् । न चैतप्रकृतपक्षनिष्ठसाध्याधिगममन्तरेण शक्यमधिगन्तुमिति व्याप्यत्वासिद्धः प्र. कृतो हेतुरिति चेत् । न । साध्याभावववृत्तित्वरहितत्वमात्रेण व्याप्यत्वेनानुमानोपपत्तौ साध्यववृत्तित्वस्य वैयर्थेन व्याप्यकोटिनिवेशाभावात् । साध्याभावववृत्तित्वरहितत्वमात्रस्य व्याप्यत्वे गगनादीनामपि प्रकृतसाध्यव्याप्यत्वप्रसक्तिः । तेषामप्यनाश्रितत्वेन प्रकृतसाध्याभाववदाश्रितत्वविरहादिति चेत् । एवमस्तु, को दोषः । तथा सति गगनादीनां प्रकृतसाध्यानुमापकत्वप्रसङ्ग इति चेत् । न । व्याप्यत्वेऽपि तेषामनाश्रितत्वेन पक्षधर्मत्वानुपपत्तेः । तदिदमुक्तम्-साध्याभाववदाश्रितत्वरहितैरिति । (भुवन०)-सत्प्रतिपक्षतां दर्शयति-धर्मी चेति । धर्मी शब्दः, त्वदभीष्टं साध्यं महाविद्यासाध्यं, तेन रहितः साध्यः साधनीयः । कैः । तदेकाश्रितैः । तस्मिशब्दे एवैकस्मिन् ये आश्रिता धर्माः शब्दमात्रनिष्ठास्तैरित्यर्थः ॥ १४ ॥ श्लोकं व्याचाख्येति-धर्मी पक्षीकृत इति । प्रयोगेण सत्प्रतिपक्षतां स्पष्टयतिअयं शब्द इत्यादि । अयं शब्द: पक्षः, एतदितरेत्यादिमहाविद्यासाध्यस्य योऽत्यन्ताभावस्तद्वान् एतदन्यत्वरहितत्वात् । एतस्माच्छन्दाद्यदन्यत्वं तेन रहितत्वात् एतच्छब्दत्वादित्यर्थः । व्यतिरेकन्याप्तिमाह-यत्पुनरित्यादि। यन्महाविद्यासाध्यरहितं तदेतच्छब्दादन्यदेव, यथा घटादीति तात्पर्यार्थः । व्याप्तिभङ्गाथै व्याप्यत्वस्वरूपं परः प्ररूपयति-साध्याभावेति । साध्याभाववान्विपक्षः तत्र वृत्तित्वरहितत्वेऽवर्तमानत्वे सति साध्यवति सपक्षे वृत्तित्वं यत्तत्साध्येन हेतोाप्यत्वम् । न चैतत्साध्यव्याप्यत्वं प्रकृतपक्षोऽयं शब्दः, तन्निष्ठं साध्यं महाविद्यासाध्याभाववत्त्वं तस्याधिगमं विना शक्याधिगमम् । व्यतिरेकित्वेन सपक्षस्य साध्यवतोऽत्रानुमानेऽभावात् । व्याप्यत्वासिद्ध इति । हेतोर्यत्साध्येन व्याप्यत्वं तेनासिद्धोऽन्वयव्याप्तिशून्यो भवदुक्तो हेतुरिति तत्त्वम् । सिद्धान्ती समाधत्तेन।साध्याभावेति । साध्याभाववान्विपक्षः, तत्रावर्तमानत्वमात्ररूपेण हेतोाप्यत्वेन अनुमानोपपत्तौ,साध्यवान्सपक्षः, तत्र वृत्तित्वस्य व्यर्थत्वेन, व्याप्यो हेतुस्तस्य कोटावप्रभागे निवेशाभावात् । इदं तात्पर्यम्-साथ्याभाववद्वत्तित्वरहितत्वमात्रमेव हेतोर्लक्षणम् । सपक्षवृत्तित्वं तु हेतुलक्षणं - १ वस् न भवति, नतदें। इति घ पुस्तकपाठः । २ मात्रेणैव व्या । इति घ पुस्तकपाठः। ३ प्रसिद्धिः। ते इति घ पुस्तकपाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ भुवनसुन्दरसूरिकृत टीकायुतं व्यर्थमिति । अतिप्रसङ्गं शङ्कते - साध्येति । यर्हि साध्याभाववद्वृत्तित्वरहितत्वमेव व्याप्यत्वं तर्हि गगनादीनामपि प्रकृतसाध्येन व्याप्यत्वप्रसङ्गः । हेतुमाह - तेषामपीति । तेषामपि गगनादीनामपि । अनाश्रितेति । न आश्रिताः अनाश्रिताः, कस्यापि नाश्रिता इत्यर्थः । यतो गगनादयो नित्यभावा: निरवयवत्वेन स्वावयवानप्यनाश्रिताः एव । तेषां भावोऽनाश्रितत्वं तेन अनाश्रितत्वेन । प्रकृतसाध्यं महाविद्यासाध्याभाववत्त्वं तदभाववान्विपक्षः, तस्य यदाश्रितत्वं तस्य विरहात् । अयमत्र तत्त्वार्थः—विपक्षवृत्तिराहित्यस्यैव व्याप्यत्वेऽत्र गगनत्वादिकोऽपि हेतु: प्रसज्येत । गूढाभिप्रायेणानुवदति - एवमस्त्विति । अगृहीतपराभिप्रायः परः शङ्कते - तथा सतीति । तथा सति साध्याभाववदाश्रितत्वविरहात्साध्यव्याप्यत्वे गगनादीनां प्रकृतसाध्यं महाविद्या साध्याभाववत्त्वं तस्यानुमा पकत्वं ज्ञापकत्वं तत्प्रसञ्जनमिति हृदयम् । अभिप्रायं प्रकटयन्प्रत्याचष्टे - न । व्याप्यत्वेऽपीति । विपक्षवृत्तिराहित्यात्साध्येन व्याप्यत्वेऽपि तेषां गगनादीनां कस्याप्यनाश्रितत्वेन पक्षस्य शब्दरूपस्य धर्मत्वानुपपत्तेः । पक्षधर्मता च विलोक्यते - ' व्याप्तिपक्षधर्मतावल्लिङ्गमिति वचनात् । तस्मात्पक्षधर्मताभावाद्गगनादीनां न साध्यानुमापकत्वप्रसक्तिरित्यभिप्रायः । एवं च साध्याभाववद्वृत्तित्वरहितत्वमात्रमेव व्याप्यत्वमिति सिद्धम् । तथैवानुवदति - तदिदमिति । साध्याभाववन्तं ये आ श्रितास्तत्त्वरहितैर्विपक्षवृत्तिहीनैरित्यर्थः । एतावता व्यतिरेकव्याप्तिः सूचिता भवति । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वात्यन्ताभावाप्रसिद्धेरप्रसिद्धविशेषणतेति चेत् । न । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तप्राक्प्रध्वंसाभावत्वरहिताभावप्रतियोगित्वाश्रयः स्वान्योन्याभावैव्यतिरिक्तप्राक्प्रध्वंसाभावत्वरहिताभावप्रतियोगित्वान्यत्वात् घटवत् इत्यादिना साध्यप्रसिद्धेः । प्राक्प्रध्वंसाभावाभ्यामर्थान्तरतानिरासार्थं प्रागभावप्रध्वंसाभावत्वरहितग्रहणम् । एवंविधार्थान्तरतानङ्गीकारवादिनं प्रति तु तन्नोपादेयमेव । एवमनुमानान्तरैरपि साध्यप्रसिद्धिष्टव्या । तदिदमुक्तं साध्यप्रसिद्धिः पुनरित्यादिना । ते तव । साध्यं स्वभिदान्यः स्वान्योन्याभावान्यः । जन्मनिधनानाक्रान्तः उत्पत्तिविनाशरहितः । भावात् स्फुरन् भेदो यस्य स भावस्फुरद्भेदः अभावः तस्य प्रतियोगि तत्प्रतियोगित्वाक्रान्तं । तत्त्वविरहः तदन्यत्वम् । शेषं सुगमम् । ( भुवन ० ) - पक्षदोषं शङ्कते - पक्षीकृतेति । पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्या साध्यात्यन्ताभावस्य सपक्षेऽप्रसिद्धेरप्रसिद्धविशेषणता पक्षस्येति चेत्, समाधत्ते -न पक्षीकृतेत्यादि । पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्या साध्यं पक्षः, स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तः प्रागभावप्रध्वंसाभावत्वेन रहितश्चाभावोऽर्थादत्यन्ताभावः एव तस्य यत्प्रतियोगित्वं तदाश्रय इति साध्यो धर्मः । इह यत्साम्यं तदन्यत्वादिति १ भाववति ये आ' इति च छ द पुस्तकपाठः । २ भाववव्यति इति घ पुस्तकपाठः । ३ ताप. रिहाराय प्रा इति घ पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । ११७ हेतुः । घटाल्मादयो हि स्वान्योन्याभावान्यः प्राक्प्रध्वंसत्वरहितश्चाभावः पक्षनिष्ठान्योन्याभावः, तत्प्रतियोगित्वधर्मादन्येऽपि भवन्ति तद्धर्मवन्तश्चेति तेषां सपक्षता । व्यावृत्त्यानि स्पष्टानि । अने. नानुमानेन महाविद्यासाध्यस्य अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं प्रादर्शीति साध्यप्रसिद्धिः । एवंविधार्थान्तरतेति । ये तु महाविद्यासाध्यस्य नित्यत्वात्प्राक्प्रध्वंसाभावौ न मन्यन्ते, तेषामेवंविधार्थान्तरता न स्यादिति तान्प्रति तत्प्राक्प्रध्वंसाभाववत्त्वरहितेति विशेषणं नोपादेयमेवेत्यर्थः । एवमिति । त्वत्साध्यं अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तैतन्निष्ठत्वरहिताधिकरणं अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तैतन्निष्ठत्वरहितान्यत्वात, घटवत् । अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्ताः ये एतस्मिन्पक्षीकृते त्वत्साध्ये निष्ठाः धर्मास्त्वत्साध्यत्वादयः, तत्त्वेन रहितो धमोंऽनेतन्निष्टो वा अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं वा । आद्यः पक्षे व्याहतः, सपक्षे च प्रयोजकः । द्वितीयस्तु पक्षे सिध्यन्नत्यन्ताभावप्रतियोगी पक्ष इति साधयतीत्यादिभिरनुमानान्तरैरिति भावः । उक्ते मूलपदमवतार्य व्याचाख्यायतेसदिदमुक्तमित्यादि । उत्पत्तिविनाशरहितः प्राक्प्रध्वंसाभाववत्त्वरहितः । तदन्यत्वमिति । तदन्यत्वं तस्मात्साध्यादन्यत्वमिति हेतुः। यहा प्रकृतसाध्यसाधकानुमानसाध्यं पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वेन विशेष्य तेनैव सत्प्रतिपक्षत्वं सर्वमहाविद्यानामुद्भावनीयम् । प्रयोगस्तु-पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तमाक्मध्वंसाभावत्वरहितपक्षीकृतशब्दनिष्ठाभावप्रतियोगित्वाश्रयः, स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तप्रामध्वंसाभावत्वरहितपक्षीकृतशब्दनिष्ठाभावप्रतियोगित्वान्यत्वात् घटवत् इत्यादि। . (भुवन०)-धर्मी चेत्यत्र चकारसूचितमर्थमाचष्टे-यद्वेति । प्रकृतं साध्यं सत्प्रतिपक्षानुमानसाध्यं, तस्य साधकमनुमानं साध्यप्रसिद्धिकर्तृ, तस्य साध्यं स्वान्योन्याभावान्येत्यादिकं, पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वेन विशेष्य । अयमर्थः-पूर्वमनुमानद्वयेन कृत्वा महाविद्यासाध्यस्यैतच्छन्देऽत्यन्ताभावः प्रत्यपादि । अत्र चैकेनैव अनुमानेन महाविद्यासाध्यस्य अत्यन्ताभावः एतच्छब्दे प्रतिपाद्यते । तथा च साध्यप्रसिद्धिकर्तृद्वितीयानुमानमपि न विलोक्यत इति तेनैव प्रकृतसाध्यसाधकानुमानेनैव सत्प्रतिपक्षणीयमिति । प्रयोगेणैतदेव विशदयति-पक्षीकृतेति । पक्षीकृतशब्दनिष्ठश्वासौ अभावश्च । शेषं पूर्ववत् । शिवादित्यमिश्रास्तु पूर्वोक्तन्यायेन साध्याभावप्रसिद्धिं कृत्वा, अयं शब्दः एतन्महाविद्यासाध्यात्यन्ताभावव्यतिरिक्तस्वनिष्ठत्वरहिताधिकरणं, मेयत्वात् घटवत् इति सत्प्रतिपक्षयन्ति । तन्न । हेतुभेदाभावेन अस्यापि विरोधे एवान्तर्भावात् । तस्मादयं शब्दः एतन्महाविद्यासाध्यात्यन्ताभावव्यतिरिक्तस्वनिष्ठत्वरहिताधिकरणं, तथा स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यत्वात्यन्ताभाववन्निष्ठाधिकरणं, अभिधेयत्वादित्यादिना सत्प्रतिपक्षणीयम् । Aho ! Shrutgyanam Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं (भुवन० )-मतान्तरमाह-शिवादित्येति । पूर्वोक्तन्यायेनेति । साध्यप्रसिद्धिः पुनरित्यायुक्तन्यायेन महाविद्यासाध्यस्य अभावप्रसिद्धिं विधाय प्रतिपक्षानुमानं कुर्वते-अयं शब्द इति । स्वस्मिशब्दे निष्ठाः स्वनिष्ठाः शब्दत्वादयः । एतन्महाविद्यासाध्यात्यन्ताभावव्यतिरिक्ताश्च ते स्वनिष्ठाश्च, तेषां भावस्तत्त्वं, तेन रहितो धर्मः शब्दान्यनिष्ठो वा, एतन्महाविद्यासाध्यात्यन्ताभावो वा । आद्यः पक्षे व्याहतः, सपक्षे च प्रयोजकः । द्वितीयस्तु महाविद्यासाध्यात्यन्ताभावः एव, तदधिकरणं शब्दः इत्यर्थः । परमतं निरस्यति-तन्नेति । महाविद्यायामपि मेयत्वादिहेतुः, प्रतिपक्षानुमानेऽप्ययमेव हेतुरिति हेत्वैक्येन अस्यापि दोषस्य अभीष्टविरोधे एवान्तर्भावः इत्यर्थः । कथं तर्हि प्रतिपक्षणीयमित्याह-तस्मादिति । अत्र प्रयोजनव्याख्यानमनन्तरोक्तमेव ज्ञेयम् । प्रयोगान्तरं रचयति-तथा स्वस्वेतरेति । अत्रानन्तरोक्तः एव पक्षः । अनित्यत्वस्यात्यन्ताभावो नित्यत्वं, तद्वान्नित्यः, तत्र निष्ठा यस्य । स्वस्मिन्पक्षीकृतशब्देतरस्मिंश्च वृत्तित्वरहिताश्च येऽनित्यत्वात्यन्ताभाववनिष्ठास्तदाश्रयः शब्द इत्यर्थः । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितः स्वमात्रवृत्तिर्वा, स्वेतरमात्रवृत्तिर्वा । द्वितीयः पक्षे व्याहतः इति स्वमात्रवृत्तिः शब्दत्वादिः पक्षे सिध्यति । स च धर्मोऽनित्यत्वात्यन्ताभाववनिष्ठस्तद्देव, यहि शब्दो नित्यः स्यात्, तस्य धर्मस्य अन्यत्रावर्तनादिति शब्दनित्यत्वसिद्धिः । अत्र सपक्षे शब्दान्यत्वं धर्मः सर्वत्र ज्ञेयः । स चानित्यत्वात्यन्ताभाववति गगनादौ निष्ठः एव । अत्राभिधेयत्वादिति हेतुः, पूर्वत्र च मेयत्वादितीत्यस्यानुमानस्य सत्प्रतिपक्षत्वम् । 'हेतुभेदेन साध्याभावसाधकः समानबलः सत्प्रतिपक्षः' इति तल्लक्षणात् ।। यद्वैवं सत्प्रतिपक्षता । वर्तमानः कालः इदानींतनपक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वरहितवान् कालत्वात् अतीतकालवत् इत्या. दि । इदानींतनपक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वरहितः इदानींतनत्वरहितो वा स्यात्, पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वरहितो वा स्यात् । आद्यः पक्षे व्याहतः । न हि इदानीमस्ति इदानींतनत्वरहितश्चेति घटते । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वरहितश्च पक्षीकृतशन्व्यतिरिक्तोन संभवत्येव । पक्षीकृतशब्दान्यत्वस्य पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितस्य घटाद्यनित्यनिष्ठस्य पक्षीकृतशब्दव्यतिरिक्त सर्वस्मिन्नुपपत्तेरिति । तेन पक्षीकृतः शब्दः एव पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वरहितो वर्तमाने काले पर्यवसानात्सिध्यतीति पक्षीकृतशब्दे अनित्यत्वाभावसिद्धिरिति । एवमिदानींतनत्वविशेषितसकलमहाविद्यासाध्यवत्त्वरहितान्वितवर्तमानकालसाधनेन सर्वासामपि महाविद्यानां सत्प्रतिपक्षता द्रष्टव्या। १ प्रयोगव्या इति च पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०३ महाविद्याविडम्बनम् । ११९ (भुवन०)-सत्प्रतिपक्षतां प्रयोगान्तरेण स्पष्टयति-यद्वैवमिति । इदानीन्तनं यत्पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं महाविद्यासाध्यं तेन रहितो यस्तद्वान्वर्तमानः कालः इत्यन्वयः । अनुमानं व्याचष्टे-इदानींतनेति । आद्यः पक्षे इति । आद्यः इदानीन्तनत्वरहितरूपः पक्षे व्याहतः, सपक्षे च सार्थकः । व्याघातमाह-नहीति । वर्तमानकालधर्मस्य इदानींसत्त्वादिदानीन्तनत्वरहितत्वं व्याहतमित्यर्थः । द्वितीयं पक्षं व्याख्याति-पक्षीकृतेत्यादि । महाविद्यासाध्यरहितः पक्षितशब्दः एवेत्यर्थः । हेतुमाह-पक्षीकृतशब्दान्येति । पक्षीकृतशब्दान्यस्वधर्मस्य पक्षशब्दादन्यस्मिन्नेव वर्तनात्पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितस्य तथा घटादयोऽनित्यास्तेषु निष्ठस्य पक्षीकृतशब्दव्यतिरिक्त सर्वस्मिन् घटात्मादौ घटनात् । तेन पक्षीकृत इति । तेन हेतुनैवंविधमहाविद्यासाध्यरहितः पक्षितशब्दः एव । तद्वांश्च वर्तमानः काल इत्याशयः । सिद्धं दर्शयति-पक्षीकृतशब्द इति । अयमर्थः-महाविद्यासाध्यं शब्दानित्यत्वसाधनायोपन्यस्तम् । तच्चेच्छब्दे न वर्तते, तर्हि शब्देऽनित्यत्वस्य योऽभावो नित्यत्वं तस्य सिद्धिरभूदेव ! अथ व्यावर्त्यचिन्ता । अतीतकालेन भागे सिद्धसाधननिवारणाय वर्तमानः काल इति प्रोक्तं । अप्रसिद्धविशेपणतां निवारयति-इदानीन्तनेत्यनेन । व्याघातं परिहरति-पक्षीकृतेत्यादिना । अर्थान्तरता अप्रसिद्धविशेषणता च मा भूदिति रहितेतिपदग्रहणम् । एवमिदानीमिति । इदानीन्तनत्वेन विशेषितं यत्सकलमहाविद्यासाध्यवत्त्वं तेन रहितः पक्षीकृतशब्दादिः, तेनान्वितो यो वर्तमानकाल: तत्साधनेनेत्यर्थः। न च अनिदानींतनकालत्वमुपाधिः । पक्षातिरिक्तव्यावर्त्याभावेन पक्षेतरत्वग्रस्तत्वात् । अयं कालः इदानींतनैतदुपाधिव्यतिरिक्तैतत्साध्यव्यापकव्यतिरिक्ततत्साध्यव्यापकवान् कालत्वादित्यादिना प्रकृतोपाधेः प्रकृतसाध्यव्यापकत्वभङ्गाच । इदानींतनैतदुपाधिव्यतिरिक्तैतत्साध्यव्यापकव्यतिरिक्तो हि इदानींतनत्वरहितो वा स्यात्, एतदुपाधिव्यतिरिक्तैतत्साध्याव्यापकव्यतिरिक्तो वा । आद्यः पक्षे व्याहतः । एतदुपाधिव्यतिरिक्तैतत्साध्याव्यापकव्यतिरिक्तोऽपि एतत्साध्यव्यापको वा अयमुपाधिर्वा । आद्यः एतत्साध्याव्यापकपदेन निरस्तः । द्वितीये पुनरस्योपाधेरेतत्साध्याव्यापकत्वसिद्धिरिति । प्रकृतहेतुव्यापकाभावाव्याप्यत्वान्नायं प्रकृतहेतुप्रतिपक्षः, धूमवत्त्वादिवदिति चेत् । न । प्रकृतहेतुप्रतिपक्षत्वाप्रमितौ, तभावसाधनस्य अप्रसिद्धविशेषणत्वात् । अत्रैव तत्प्रमितौ, तद्भावसाधनस्य बाधितत्वात् । एतद्यतिरिक्तस्थले च तत्पमितौ तेनैव सत्प्रतिपक्षत्वस्य दुर्वारत्वादिति । (भुवन०)-उपाधिशङ्कां निरस्यति-न चानिदानीमिति । न चातीतकाले अनिदानीन्तनकालत्वमुपाधिः । हेतुमाह-पक्षातिरिक्तेति । यत्र अनिदानीन्तनकालत्वं नास्ति, तत्रेदानी. १ धर्मस्य इदानीन्तनस्वरहि इति छ द पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं न्तनेत्यादिसाध्यवत्त्वमपि नास्ति, यथा पक्षे वर्तमानकाले एवेति पक्षादतिरिक्त ययावत्यै विपक्षः, तदभावेन पक्षेतरत्वदोषः उपाधेरिति भावः । एतदुपाधेः साध्यव्यापकतामनुमानेन भनक्तिअयं काल इत्यादि । एष चासौ उपाधिश्चैतदुपाधिः, तस्माव्यतिरिक्ताश्च ते एतत्साध्याव्यापकाच, एतदुपाधिव्यतिरिक्तैतत्साध्याव्यापकाः । इदानीन्तनाश्च ते एतदुपाधिव्यतिरिक्ततत्साध्याव्यापकाश्च । तेभ्यो व्यतिरिक्ताश्च ते एतत्साध्याव्यापकाच, तद्वानयं वर्तमानः काल इत्यन्वयः । अथ व्यावर्त्यचिन्ता । अयं कालः एतत्साध्याव्यापकवानित्युक्ते एतत्साध्याव्यापकैर्घटादिभिः सिद्धसाध्यता स्यात् । तद्व्यावृत्त्यर्थमेतत्साध्याव्यापकव्यतिरिक्तेत्युक्तम् । एवमुच्यमाने च व्याघातः । न हि एतत्साध्याव्यापकव्यतिरिक्ताः एतत्साध्यव्यापकाश्च धर्माः सम्भवन्ति । तन्निवृत्त्यर्थमेतदुपाधिव्यतिरिक्तेत्युपात्तम् । एतदुपाधिव्यतिरिक्तैतत्साध्यव्यापकव्यतिरिक्तैतत्साध्याव्यापकवानित्युक्ते यद्यप्येतदुपाधेरेतत्साध्याव्यापकत्वं सिध्यति, तथाप्यतीतकालादौ सपक्षे एवंविधधर्माभावात्साध्यवैकल्यं स्यात् , तदर्थमिदानीन्तनेति पदोपादानम् । अनुमानं ग्रन्थकृब्याचाख्यायते—इदानीमिति । एतत्साध्यं पूर्वानुमानोक्तमिदानीन्तनपक्षीकृतेत्यादिकं, तस्याव्यापकाः एतत्साध्याव्यापकाः इत्यर्थः । इदानीन्तनाः वर्तमानाः, एतदुपाधिः अनिदानीन्तनकालत्वरूपः, तद्व्यतिरिक्ता एतत्साध्यव्यापकाश्च धर्मा घटत्वपटत्वादयः, तद्व्यतिरिक्तो धर्मो द्विधा स्यादिति परमार्थः । आद्यः पक्षे व्याहत इति । आद्यः इदानीन्तनत्वरहितरूपः साध्याव्यापकः साध्यव्यापको वाऽस्मिन्वर्तमानकाले पक्षे व्याहत इत्यर्थः । द्वितीय पक्षं व्याचष्टे-एतदुपाधीति । एतत्साध्यव्यापकोऽस्तित्वप्रमेयत्वादिरित्यर्थः । सिद्धमुपपादयति-द्वितीय इति । अयमुपाधिरेतत्साध्याव्यापकेत्यन्त्यविशेषणविशिष्टः पारिशेष्या. त्पक्षे साधितः इत्येतस्योपाधेरेतत्साध्यव्यापकत्वं सिद्धम् । अत्रातीतकालादौ सपक्षे इदानीन्तनत्वरहितो धर्मो ज्ञेयः । परः शङ्कते-प्रकृतहेत्विति । प्रकृतो हेतुर्मेयत्वादिः, तस्य व्यापकं महाविद्यासाध्यं, तस्य योऽभावस्तेन न व्याप्यते इत्यतो हेतो यं पूर्वोक्तप्रतिपक्षानुमानस्य कालत्वादिति हेतुः प्रकृतहेतोर्महाविद्यासत्कस्य मेयत्वादेः प्रतिपक्षः इति पदान्वयः । अयं भावः । येन हेतुना यत्साध्यं साध्यते, तत्साध्यं तस्य हेतोर्व्यापकम् । कालत्वादिति प्रतिपक्षहेतुना च महाविद्याऽभावः साध्यः । न च महाविद्यासाध्याभावेन प्रतिपक्षहेतुप्प्यः , कालत्वरूपप्रतिपक्षहेतुमत्यपि काले महाविद्यासाध्याभावाभावात् । निदर्शनं दर्शयति-धूमवत्त्वादिवदिति । यथा धूमवत्त्वादिहेतवो महाविद्यासाध्याभावाव्याप्यत्वान्न प्रकृतहेतुप्रतिपक्षाः, तथायमपि हेतुरित्यभिप्रायः । एतावतैवं परेणानुमानं विहितं भवति । तथाहि-नायं हेतुः प्रकृतहेतुप्रतिपक्षः प्रकृतहेतुव्यापकाभावाव्याप्यत्वात् धूमवत्त्वादिवदिति । अत्र परानुमाने प्रकृतहेतुप्रतिपक्षोऽप्रमितो न वेति विकल्प्याद्यं प्रत्याहन प्रकृतेति । प्रकृतहेतोर्मेयत्वादेर्यत्प्रतिपक्षत्वं, तस्य अप्रमितौ तदभावसाधनस्य प्रकृतहेतुप्रतिपक्षत्वाभावसाधनस्य अप्रसिद्ध विशेषणत्वं दृष्टान्तेऽप्रसिद्धत्वमित्यर्थः । भावार्थस्त्वयम्-यत्पक्षे साध्यं साध्यते, तद्धि सपक्षे प्रसिद्ध स्यादिति हि रीतिः । अत्र च यदि प्रतिपक्षत्वं न प्रमितं, तदा प्रतियोग्यनवगतेः तदभावोऽप्यप्रमितः एव । तथा च तदभावसाधनस्याप्रसिद्धत्वान्न सिद्धिः। द्वितीयपक्षे प्रमितत्वमस्मिन्नेवानुमाने, अनुमानान्तरे वा । आद्यं दूषयति-अत्रैवेति । अत्रैवानुमाने तत्प्र १ साध्याभाषाम् । इति छ पुस्तकपाठः । AMAVACHAN HHHHHHHHHHH - Aho! Shrutgyanam Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ महाविद्याविडम्बनम् । १२१ मितौ प्रतिपक्षत्वप्रमितौ तदभावसाधनस्य प्रतिपक्षत्वाभावसाधनस्य बाधितत्वम् । यतः प्रमाणेन गृहीतस्य न ह्यभावः कर्तुं शक्यः । द्वितीयं दूषयति-एतद्व्यतिरिक्तेति । एतस्माद्व्यतिरिक्ते स्थले अनुमानान्तरे तत्प्रमितौ प्रकृतहेतुप्रतिपक्षत्वप्रमितौ तेनैवान्यस्थले प्रमितप्रकृतहेतुप्रतिपक्षत्वेनैव सत्प्रतिपक्षतेत्याशयः । किञ्च, किमिदं प्रकृतहेतुप्रतिपक्षत्वं, किं प्रकृतहेतुव्यापकाभावव्याप्यत्वं, किंवा प्रकृतहेतुपक्षनिष्ठतया प्रकृतविप्रतिपत्तिगोचरानित्यत्वाद्यभावसाधकत्वे सति प्रकृतहेतुतुल्यबलत्वम्, किंवा प्रकृतहेतुपक्षनिष्ठतया प्रकृतव्यापकाभावसाधकत्वे सति प्रकृतहेतुतुल्यबलत्वम्, किंवा अन्यदेव किश्चित् । आद्याभावसाधने साध्याविशिष्टता। द्वितीये बाधः । तृतीयेऽपि बाध एव । पक्षे प्रकृतव्यापकाभावप्रतीतिमन्तरेण अनित्यत्वाभावप्रतीतेरपर्यवसानादिति । न हि अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं अनित्यत्वाभाववांश्चेति शक्यं प्रतिपत्तुम् । चतुर्थस्तु अप्रसिद्धत्वादेव निषेड्डुमशक्य इति स उपेक्षणीयः । कालात्ययापदिष्टतां पुनरग्रे व्युत्पादयिष्यामः । (भुवन०)–परोक्तानुमाने प्रकृतहेतुप्रतिपक्षः किंरूपोऽत्र विवक्षितः इत्यादि विकल्पयतिकिश्चेत्यादि । प्रकृतहेतुमेयत्वादिः, तस्य व्यापकं महाविद्यासाध्यं, तस्य योऽभावः, तेन व्याप्यत्वं, किंवा प्रकृतहेतोः प्रमेयत्वादेर्यः पक्षः शब्दादिः, तन्निष्टतया यत्प्रकृतं विप्रतिपत्तिगोचरमनित्यत्वादिसाध्यं तदभावसाधकत्वे सति प्रकृतहेतोर्मेयत्वादेः तुल्यं बलं यस्य स तथा, तद्भावस्तत्त्वम् । किंवा प्रकृतहेतोर्यः पक्षः, तन्निष्ठतया प्रकृतव्यापकं महाविद्यासाध्यं, तदभावसाधकत्वे सति प्रकृतहेतोस्तुल्यबलत्वम् । किंवा अन्यदेवैतद्विकल्पत्रयात्किञ्चिदित्यर्थः । विकल्पचतुष्टयमपि क्रमाग्निर्लोठयति-आद्याभावेति । आद्याऽभावसाधने प्रकृतहेतुव्यापकाभावव्याप्यत्वरूपप्रतिपक्षत्वाभावसाधने । अयं हेतुः प्रकृतहेतुव्यापकाभावव्याप्यत्वरूपप्रतिपक्षो न भवति, प्रकृतहेतुव्यापकाभावाव्याप्यत्वात् धूमत्वादिवदित्यत्र हेतोः साध्याविशिष्टता स्यात् । साध्यादविशिष्टता साध्याविशिष्टता। साध्यरूपः एव हेतुरित्यर्थः । द्वितीयतृतीयौ निरस्यति-द्वितीयेत्यादि । हेतुमाहपक्षे प्रकृतेति । पक्षे शब्दे, प्रकृतव्यापकं महाविद्यासाध्यं, तदभावप्रतीति विना अनित्यत्वाभावप्रतीतिर्न पर्यवस्यतीति परमार्थः । एतदेव विशदयति-न ह्ययमिति । इदमत्राकूतम्-शब्दस्याद्यापि महाविद्यासाध्यमानत्वात् , यावच्च महाविद्यासाध्यरहितत्वं न सिद्धं, तावन्महाविद्यासाध्यसहितत्वमेव शब्दस्य । तस्मिँश्च सति अनित्यत्वाभाववान् शब्दः इति न हि प्रतिपत्तुं शक्यम् । एतावता महाविद्यासाध्याभावप्रतीत्यभावात्तृतीयविकल्पेऽपि बाधो दर्शितः एव । तुरीयं प्रत्याहचतुर्थ इति । अन्यदेवेति सामान्योक्तावपि विशेषस्यानिर्दिष्टत्वेन अप्रसिद्धत्वादेव चतुर्थविकल्पप्रतिपादितप्रकृतहेतुप्रतिपक्षत्वं भवता निषेढुं न शक्यत इति स चतुर्थविकल्पः उपेक्षणीयोऽवगणनीय इत्यर्थः । नन्वसिद्धविरुद्धानैकान्तिकसत्प्रतिपक्षबाधा इति हेत्वाभासपञ्चके तञ्चतुष्टयमेव १६-१७ महाविद्या० Aho! Shrutgyanam Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं महाविद्याहेतौ प्रादर्शि, बाधं किमिति न दर्शितवन्तः इत्याशङ्कयाह-कालात्ययेति । महाविद्याहेतोरिति शेषः । अप्येकप्रतिपक्षोऽपि न क्षमः स्वार्थसिद्धये । महाविद्या तु किं नाम प्रतिपक्षशताकुला ॥ १५॥ (भुवन०)-सत्प्रतिपक्षतामुपसंहरति-अप्येकेति ॥ १५ ॥ अथ प्रबन्धादादिष्टं यहेत्वाभासपश्चकम् । तत्प्रत्युक्तमहाविद्याबलात्तस्यां प्रपश्यते ॥ १६ ॥ तथाहि, किश्च स्वव्यभिचारमुल्ललयति प्रोन्मीलयत्यात्मनः सोपाधित्वमुदाहरत्यभिमतव्याप्यत्वभङ्गं निजम् । आचष्टे प्रतिपक्षमात्मविषयं बाधां समुन्मुद्रय त्याधत्ते स्थितिविप्लवं च भजते प्रत्यर्थितामात्मनः ॥१७॥ इति। तथाहि-अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादित्यनैकान्तिकम् । एतच्छब्दैतच्छब्देतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं वा स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितमेयत्व. वन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठाधिकरणं मेयत्वात् घटवदितिव्यभिचारानुमानात् । तदिदमुक्तं किञ्च स्वव्यभिचारमुल्ललयतीति । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहिता. नित्यनिष्ठाधिकरणत्वे च पक्षीकृतशब्दान्यत्वमुपाधिः । न च साध्यव्यापकत्वानिश्चयात्पक्षतरत्वस्यानुपाधित्वमिति युक्तम् । पक्षीकृतशब्देतरत्वं स्वस्वेतरवृ. त्तित्वरहितप्रकृतसाध्यव्यापकनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति प्रकृतसाध्यव्यापकत्वानुमानात् । न च साध्यव्यापकत्वसाधनाव्यापकत्वनिश्चयेऽपि पक्षेतरत्वादेवायमनुपाधिरिति युक्तम् । व्यापकव्यावृत्तौ व्याप्यव्यावृत्तेरावश्यकत्वेन साधनवति पक्षे एव व्याप्तिभङ्गस्यावश्यकत्वात् । अन्यथा स्थलान्तरेऽपि उपा. धेर्दूषणत्वानुपपत्तेः। (भुवन०)-उत्तरश्लोकतात्पर्यमाह-अथ प्रबन्धादिति । प्रबन्धो नैरन्तर्यमनन्तरमिति यावत् । अनन्तरमेव यद्धेत्वाभासपञ्चकमसिद्धविरुद्धानैकान्तिकसत्प्रतिपक्षबाधरूपमुपदिष्टं तद्धत्वाभासपञ्चकं तस्यां वादिप्रयुक्तमहाविद्यायां प्रपश्यते विस्तार्यते । कस्मात् प्रत्युक्तमहाविद्याबलात् । प्रति सन्मुखमुक्ता प्रत्युक्ता या महाविद्या प्रत्यनुमानरूपा तबलात् । एतावता महाविद्ययैव महाविद्या दूष्यते इत्यर्थः ॥ १६ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०३ महाविद्या विडम्बनम् । १२३ (भुवन०) हेत्वाभासपञ्चकं श्लोकेनोपपादयति-किञ्चेति । मेयत्वादिकः पूर्वोक्तो महाविद्याहेतुः स्वव्यभिचारमात्मनोऽनैकान्त्यमुल्ललयति अङ्करयति, प्रोन्मीलयति प्रकाशयति, स्थितिविप्लवमव्यवस्थामाधत्ते, स्वस्य प्रत्यर्थितां विरोधितां भजते ॥ १७ ॥ ___ श्लोकं व्याचष्टे तथाहीत्यादि । अनुमिमीते-एतच्छन्देति । एतच्छब्देत्यादि स्वस्वे. तरेत्यादि वा महाविद्यासाध्यं पक्षः । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितश्चासौ मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठश्चेति विग्रहः । स्वस्मिन्पक्षीकृतमहाविद्यासाध्ये स्वस्मात्पक्षीकृतमहाविद्यासाध्यादितरस्मिंश्च युगलावृत्तित्वेन वृत्तित्वरहितो धर्मः स्वमात्रवृत्तिा, स्वेतरमात्रवृत्तिर्वा । तत्र द्वितीयः पक्षे व्याहतः । तस्मात्स्वमात्रवृत्तिरेतत्पक्षत्वादिधर्मः पक्षे सिध्यति । स च धमों मेयत्ववन्तो घटादिपदार्थाः, तनिष्ठो योऽत्यन्ताभावः, तस्य यः प्रतियोगी, तस्मिन्निष्टस्तदैव यदि पक्षीकृतमहाविद्यासाध्यं मेयत्ववनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगि स्यात् । तस्य धर्मस्य एतत्पक्षमात्रवृत्तित्वेनान्यत्रावर्तनात् । यदिच महाविद्यासाध्यं मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगि जातं, तदानीं मेयत्ववति महाविद्यासाध्यस्य अत्यन्ताभावः सम्पन्नः एव । तथा च मेयत्वसाधनवति घटादिभावे महाविद्यासाध्याभावान्मेयत्वस्य अनैकान्त्यसिद्धिः । स्वेतरमात्रवृत्तिधर्मोऽत्र पक्षान्यत्वादिः सर्वत्र सपक्षे बोद्धव्यः । स च स्वेतरस्मिन्नेव वर्तनात्स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितः, तथा मेयत्ववत्पक्षीकृतं महाविद्यासाध्यं तत्र निष्ठो योऽत्यन्ताभावस्तत्प्रतियोगिनि घटादौ निष्ठश्च सम्भवेदिति तेन व्याप्त्यनुगमः । अधिकरणमित्युक्ते स्वनिष्ठेन महाविद्यासाध्यत्वधर्मेण स्वस्य मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वाभावेऽप्युपपद्यमानेनार्थान्तरं स्यात् । तन्निवृत्त्यर्थ मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठेत्युपात्तम् । तथोक्ते घटपक्षीकृतमहाविद्यासाध्यान्यतरत्वेन मेयत्ववत्पटादिनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिघटनिष्ठेनार्थान्तरम् । अत उक्तं स्वेतरवृत्तिवरहितेति । तथापि सपने साध्याप्रसिद्धिः, तदुक्तं स्वेति । उक्ते मूलपदमवतारयतितदिदमिति । उपाधिदोषं पोषयति-स्वस्वेतरेत्यादि । अयं शब्दः स्वस्वेतरेत्यादिमहाविद्यानुमाने पक्षीकृतो यः शन्दस्तदन्यत्वमुपाधिः । यत्र महाविद्यासाध्यं तत्रैतच्छब्दान्यत्वं, यथा घटास्मादाविति साध्यव्यापकत्वात, मेयत्वसाधनवति शब्दे एतच्छब्दान्यत्वस्याभावेन साधनाव्यापकत्वाच्च । पराशङ्कां पराकरोति-न च साध्येति । साध्यव्यापकत्वस्य अनिश्चयात्पक्षेतरत्वस्य एतच्छब्दान्यत्वस्यानुपाधित्वमिति भावः । हेतुमाह-पक्षीकृतेत्यादि । पक्षीकृतशब्देतरत्वरूपः उपाधिरेव पक्षः । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितश्चासौ प्रकृतसाध्यव्यापकनिष्ठश्चेति समासः । स्वस्मिन् पक्षीकृतशब्देतरत्वोपाधौ स्वस्मादेतदुपाधेरितरस्मैिश्च वृत्तित्वरहितः स्वमात्रवृत्तिा, स्वेतरमात्रवृत्तिर्वा । तत्र स्वेतरमात्रवृत्तिः पक्षान्यत्वादियद्यपि प्रकृतसाध्यव्यापके मेयत्वादौ निष्ठोऽस्ति, तथापि पक्षादन्यत्रैव वर्तनात्पक्षे व्याहतः, सपक्षे च सर्वत्र प्रयोजकः । तेन स्वमात्रवृत्तिरेतदुपाधित्वादिधर्मः पक्षे सिध्यति । स च धर्मः प्रकृतं साध्यं महाविद्यासत्कं स्वस्वेतरेत्यादिकं तस्य यो व्यापकस्तत्र निष्ठस्तदैव, यद्ययमुपाधिः प्रकृतसाध्यव्यापकः स्यादिति । परिशेषप्रमाणेनैतच्छब्दान्यत्वोपाधेः साध्यव्यापकत्वं सिद्धम् । व्यावृत्त्यकृत्यं स्पष्टम् । न च साध्येति । साम्यव्यापकत्वसाधनाव्यापकत्वरूपोपाधिलक्षणसद्भावेऽपि पक्षेतरत्वमेव दोषः । तथाहि-यत्रीपाधिना पक्षः एव व्यावय॑ते नेतरो विपक्षः, तत्र पक्षेतरत्वं, यथा धूमानुमाने प्रतिवादिना Aho! Shrutgyanam Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं . पर्वतेतरत्वोपाधौ उद्भाविते पक्षस्यैव व्यावर्तनात्पक्षेतरत्वम् । पक्षेतरस्योपाधित्वे च सर्वानुमानोच्छेदप्रसङ्ग इत्यर्थः । कुतो न युक्तमत्राह-व्यापकेति । व्यापक उपाधिः, तव्यावृत्तौ व्याप्यस्य साध्यस्थ व्यावृत्तेरवश्यंभावित्वेन मेयत्वादिसाधनवति पक्षे शब्दे एव व्याप्तिभङ्गात् । तथाहि-यत्र साध्यं तत्रोपाधिर्यथा घटादौ, यत्र चोपाधेरभावस्तत्र साध्यस्याप्यभावो यथा शब्दे एव इति । उपाधियावर्तमानः साध्यमपि व्यावर्तयतीत्युपाधिना साध्यस्य गृहीतत्वात्साध्यसाधनयोर्व्याप्तिभङ्गः इत्युपाधेः साफल्यमित्याशयः । विपर्यये बाधकमभिधत्ते-अन्यथेति । यदीदृशोऽपि नोपाधिः, तर्हि स्थलान्तरे अनुमानान्तरेऽप्युपाधेर्दूषणत्वं नोपपद्यते इत्यर्थः । किश्च पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वव्यापकत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितमेयत्वाव्यापकनिष्ठाश्रिताधिकरणं मेयत्वात् घटवदिति चोपाध्यनुमानम् । मेयत्वाव्यापकत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितपक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वव्यापकनिष्ठाधिकरणं मेयत्वात् घटवदिति चोपाध्यनुमानः। पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वव्यापकत्वं च मेयत्वादावेव सिद्धम् । मेयत्वाव्यापकत्वं चानुष्णत्वादौ सिडमिति नानयोराश्रयासिद्धत्वादि शङ्कनीयम् । तदिदमुक्तं प्रोन्मीलयत्यात्मनःसोपा. धित्वमिति । व्याप्यत्वासिद्धं च मेयत्वम् । मेयत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितपक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वाव्याप्यनिष्ठाधिकरणं मे. यत्वादिति व्याप्यत्वाभावानुमानात् । - (भुवन०)-अथ पुनरपि पक्षेतरत्वोपाधेः साधनाव्यापकत्वं चानुमानाभ्यां दर्शयतिकिं च पक्षीकृतेत्यादि । महाविद्यासाध्यध्यापकत्वं पक्षः, मेयत्वस्य अव्यापके निष्ठो मेयत्वाव्या. पकनिष्ठः, तस्याश्रितो मेयत्वाव्यापकनिष्ठाश्रितः । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितश्चासौ मेयत्वाव्यापकनिष्ठाश्रितश्च तदधिकरणमिति पदान्वयः । स्वस्मिन् महाविद्यासाध्यव्यापकत्वे पक्षीकृते स्वस्मात्पक्षादितरस्मिंश्च वृतित्वरहितः स्वमात्रवृत्तिर्वा स्वेतरमात्रवृत्तिर्वा । तत्र द्वितीयः पक्षान्योन्याभावादिः पक्षे व्याघातानिषिद्धः । स्वमात्रवृत्तिस्तु एतत्पक्षत्वं धर्मः पक्षे सिध्यति । स च धर्मों मेयत्वस्य अव्यापके निष्ठो यो धर्मस्तदाश्रितस्तदैव, यदि महाविद्यासाध्यव्यापकत्वरूपः पक्षो मेयत्वाव्यापकनिष्ठः स्यात् । तथा च यैर्हि महाविद्यासाध्यव्यापकत्वमुपाधिधर्मो मेयत्वाव्यापकनिष्ठो जातः, तर्हि मेयत्वरूपसाधनाल्यापकः उपाधिर्जातः एवेति पक्षीकृतशब्देतरत्वोपाधेः साधनाव्यापकत्वम् । अत्र सपक्षे स्वेतरमात्रवृत्तिरेतत्पक्षान्यत्वादिधर्मोऽवगन्तव्यः । स च धर्मो मेयत्वाव्यापको घटादिः, तनिष्ठो घटत्वादिर्धर्मस्तदाश्रित एवेति साध्यप्रसिद्धिः । आश्रिताधिकरणमित्युक्ते एतत्पक्षमात्रवृत्तिधर्मणोपायः साधनव्यापकत्वेऽप्युपपद्यमानेन अर्थान्तरम् । तन्निवृत्तये मेयत्वाव्यापकनिष्ठेति । एतावत्युच्यमाने च मेयत्वादिना अर्थान्तरत्वम् , अत उक्तं स्वेतरवृत्तित्वरहितेति । तथापि सपने .. १ तिरहि इति च पुस्तकपाठः । २ यदि महा इति छ पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ महाविद्याविडम्बनम् । १२५ साध्यप्रसिद्धिनेंत्याह-स्वेति । उपाधेः साधनाव्यापकत्वमनुमाय साध्यव्यापकत्वायानुमिमीतेमेयत्वाव्यापकत्वमिति । मेयत्वसाधनस्य अव्यापकत्वं पक्षः । स्वं पक्षः । स्वेतरत् पक्षादन्यत् । तागले यो न वर्तते स धमों द्विधा स्यात् , स्वमात्रवृत्तिः स्वेतरमात्रवृत्तिश्च । उत्तरः पक्षे व्याहतः । तेनाद्यः एतत्पक्षत्वादिः पक्षे सिध्यति। स च पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्यासाध्यस्य व्यापके निष्ठो यो धर्मः तदाश्रितः तदैव, यदि पक्षीकृतं मेयत्वाव्यापकत्वं महाविद्यासाध्यव्यापकनिष्ठं भवेत् । तथा च यदि मेयत्वाव्यापकत्वमुपाधिधर्मों महाविद्यासाध्यव्यापकनिष्ठोऽजनि, तर्युपाधिर्महाविद्यासाध्यव्यापकः संपन्न एवेति साध्यव्यापकत्वं पक्षीकृतशब्देतरत्वोपाधेः सिद्धिसौधमध्यास्त । अत्रापि सर्वत्र धर्मध. ादौ सपक्षे पक्षान्यत्वधर्मेण महाविद्यासाध्यव्यापकं मेयत्वादि, तन्निष्ठमस्तित्वादि, तदाश्रितेन साध्यानुगमः । व्यावानि उत्तानार्थानि । उपाध्यनुमान इति । अनुमानशब्दो हि पुनपुंसकलिलो लिङ्गानुशासने प्रत्यपादीत्यतः उपाध्यनुमानः इत्युक्तम् । महाविद्यासाध्यव्यापकत्वं मेयत्वा. व्यापकत्वं च न कचित्प्रमितमित्याश्रयासिद्धिरित्याह-पक्षीकृतेति । यत्र यत्र महाविद्यासाध्यं तत्र तत्र मेयत्वमिति महाविद्यासाध्यव्यापकत्वस्य मेयत्वादी सिद्धेः । उष्णत्वादौ मेयत्वसद्भावेऽप्यनुष्णत्वाभावेन यत्र यत्र मेयत्वं, तत्र तत्रानुष्णत्वमिति व्याप्तेरभावात् मेयत्वाव्यापकत्वस्यानुष्णत्वादौ सिद्धेश्च अनयोः पूर्वोक्तहेत्वोराश्रयासिद्धत्वादि नाशङ्कयमिति भावः । एवमौपाधिकव्याप्तिकत्वेन व्याप्यत्वासिद्धत्वं महाविद्याहेतोः प्रतिपादितम् । साध्यव्याप्यत्वाभावत्वेन व्याप्यत्वासिद्धत्वमाहव्याप्यत्वासिद्धं चेति । हेतोयत्साध्येन व्याप्यत्वं तेन असिद्धं मेयत्वं महाविद्यासाध्यं मेयत्वहेतुं न व्याप्नोतीत्यर्थः । एतदेव महाविद्यानुमानेनाह-मेयत्वमिति । वं मेयत्वं, स्वस्मान्मेयत्वादितरसर्व जगत् । तयोयुगले यो न वर्तते धर्मः स द्वेधा स्यात्, स्वमात्रवृत्तिः स्वेतरमात्रवृत्तिर्वा । द्वितीयः पक्षान्यत्वादिः पक्षे व्याहतत्वात्सपक्षोपयोगी इति प्राचीनः एतत्पक्षत्वादिर्धर्मः पक्षे सिध्यति । स च पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्यासाध्येन अव्याप्यो यः तत्र निष्ठस्तदेव, यदि मेयत्वं महाविद्यासाध्याव्याप्यं भवेदिति मेयत्वस्य महाविद्यासाध्येन अव्याप्यत्वं सिद्धम् । व्यावानि यथा-मेयत्वमधिकरणमित्युक्ते येन केनापि वाच्यत्वादिधर्मेण मेयत्वस्य प्रकृतसाध्यव्याप्यत्वेऽप्युपपद्यमानेन अर्थान्तरम् , अत उक्तमव्याप्यनिष्ठेति । तथापि घटत्वेनाव्याप्यमस्तित्वं तनिष्ठेन अभिधेयत्वादिना अर्थान्तरत्वं, तदर्थ पक्षीकृतेत्यादि । स्वस्वेतरेत्यादिविशेषणकृत्यं पूर्ववदेवेति पुननोंच्यते । न च पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वाव्याप्याप्रसिद्धेरप्रसिद्धविशेषणतेति वाच्यम् । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वव्याप्यत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितकुतश्चियावृत्तनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति तत्सिद्धेः। पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वव्याप्यत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितमेयत्वावृत्तिनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति व्याप्यत्वाभावानुमानम् । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितमेयत्वाव्यापकनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति वा । न च अनेन पक्षे मेयत्वव्यापकत्वाभावसिद्धिः, नतु मेयत्वे तयाप्यत्वाभावसिद्धिरिति Aho ! Shrutgyanam Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं बाच्यम् । महाविद्यावदपर्यवसानात्तत्सिद्धेः। न हि प्रकृतं साध्यं मेयत्वा. व्यापकं मेयत्वं च तद्व्याप्यमिति प्रतिपत्तुं शक्यम् । तदिदमुक्तं उदाहरत्यभिमतव्याप्यत्वभङ्गं निजमिति । अभिमतं साध्यं, · तयाप्यत्वं अभिमतव्याप्यत्वमिति । तस्य भङ्गः तद्भाव इति । (भुवन०)-अत्र पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्यासाध्याव्याप्यस्य कस्याप्यप्रसिद्धेः, तनिष्ठधर्मस्यापि सपक्षेऽप्रसिद्धत्वात् अप्रसिद्धविशेषणत्वं पक्षस्य आशङ्कमानः परिहरति-न च पक्षीकृतेत्यादि । महाविद्यासाध्यस्य सर्वव्यापकत्वान्महाविद्यासाध्येन अव्याप्यस्य अप्रसिद्धः, तन्निष्ठधर्मस्याप्यप्रसिद्धत्वात्पक्षोऽप्रसिद्धविशेषणः इति परमार्थः । हेतुमाह-पक्षीकृतेत्यादि । पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्यासाध्यव्याप्यत्वं पक्षः । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितश्वासौ कुतश्चिद्यावृत्तनिष्ठश्चेति विग्रहः । खशब्देनैतत्पक्षंग्रहः । अत्र स्वमात्रवृत्तिरेतत्पक्षत्वादिधर्मः पक्षेऽवसेयः । स च कुतश्चिव्यावृत्ते निष्ठः तदैव, यदि पक्षितं महाविद्यासाध्यव्याप्यत्वं कुतश्चिद्व्यावृत्तं स्यात् । तथा च यतो महाविद्यासाध्यव्या. प्यत्वं व्यावृत्तं स महाविद्यासाध्याव्याप्यः सिद्ध एव । पक्षान्यत्वादिधर्मेण कुतश्चिद्यावृत्तं घटत्वादि तनिष्ठेन साध्यप्रसिद्धिः । व्याप्यत्वं यथोक्तसाध्यवदित्युक्तेऽग्निमत्त्वव्याप्यत्वं कुतश्चिद्धटादेावृत्तं स्वमेव तन्मात्रनिष्ठधर्मवदित्वर्थान्तरम् । तदर्थ पक्षीकृतेत्यादि गृहीतम् । पक्षीकृतेत्यादिव्याप्यत्वमधिकरणमित्युक्ते स्वमात्रनिष्ठधर्मेण अर्थान्तरं, तत उक्तं कुतश्चिव्यावृत्तनिष्ठेति । इतरद्विशेषणं व्याख्यातार्थम् । तत्सिद्धेरिति । पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्यासाध्याव्याप्यत्वसिद्धेरित्यर्थः । मेयत्वहेतोर्महाविद्यासाध्यव्याप्यत्वं प्रयोगान्तरेण निरस्यति-पक्षीकृतेति । मेयत्वेऽवृत्तिर्यस्य स मेयत्वावृत्तिः, तत्र निष्ठा यस्य स तथा । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितश्वासौ मेयत्वावृत्तिनिष्ठश्च तस्याश्रय इत्यर्थः । इह स्वमात्रवृत्तिरेतत्पक्षत्वं धर्मो मेयत्वावृत्तिनिष्ठः पक्षे सिध्यन्महाविद्यासाध्यव्याप्यत्वस्य पक्षितस्य मेयत्वे अवृत्तिं साधयति । तथा च मेयत्वस्य महाविद्यासाध्येन अव्याप्यत्वं सिद्धमेव । इह सपक्षे पक्षान्यत्वं धर्मोऽवसेयः । मेयत्वहेतोरेव व्याप्यत्वाभावानुमानं तृतीयमाचष्टे-पक्षीकृतेत्यादि। महाविद्यासाध्यं पक्षः । अत्रैवंविधो धर्मः स्वेतरमात्रवृत्तिः स्वमात्रवृत्तिश्च । तत्राद्यः पक्षे व्याहत इति द्वीतियः एतत्पक्षत्वं धर्मः पक्षे सन् सिध्यति । स च मेयत्वस्य अव्यापके निष्ठस्तयेव, यदि महाविद्यासध्यं मेयत्वाव्यापकं स्यात् । यदि च महाविद्यासाध्यं मेयत्वाव्यापक समजनि, तदा मेयत्वं महाविद्यासाध्येन अप्याव्यं संपन्नमेवेति व्याप्यत्वाभावः । महाविद्यासाध्यान्यत्वधर्मेण मेयत्वाव्यापकं घटत्वं तन्निष्ठेन साध्यानुगमः । व्यावानि पूर्ववद्वोद्धव्यानि । आशङ्कां कुर्वनिराकरोति-न च अनेनेति । अनेन अनन्तरोक्तेनैवानुमानेन पक्षे महाविद्यासाध्यरूपे मेयत्वस्य यद्व्यापकत्वं तस्याभावसिद्धिः स्यात्, न तु मेयत्वे तद्व्याप्यत्वस्य महाविद्यासाध्यरूपन्यापकव्याप्यत्वस्य अभावसिद्धिरिति न वाच्यम् । हेतुमाह-महाविद्येति । यथा महाविद्यायायां अपर्यवसानेन साध्यसिद्धिः, तथेहापि । यदि महाविद्यासाध्ये मेयत्वाव्यापकत्वं सिद्धं, तदानीं मेयत्वतदव्याप्यं सिद्धमेवेत्यपर्यवसाना १ अपक्षीकृ' इति छ द पुस्तकपाठः । २ व्याप्यत्वासपक्षि इति छ द पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । १२७ व्याप्यत्वाभावसिद्धिः । एतदेव विशदद्यति न हीति । प्रकृतं साध्यं महाविद्यासत्कं मेयत्वस्याव्यापकं, मेयत्वं च तेन महाविद्यासाध्येन व्याप्यमित्ययुक्तं, व्याघातादित्यर्थः । उक्ते मूलपदं दर्शयति - तदिदमिति । तदेव व्याचष्टे - अभिमतमिति । अभिमतं साध्यं महाविद्यासाध्यं तेन व्याप्यत्वं तद्व्याप्यत्वमिति । किश्च अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमित्यत्र अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वरहितः एतदन्यत्वरहितत्वादित्यादयः प्रतिपक्षाः । न च पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वरहितत्वमप्रसिद्धमितिवाच्यम् । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितकुतश्चिद्यावृत्तनिष्ठाधिकरणं मेयत्वात् घटवदिति तत्सिद्धेः । ( भुवन० ) - प्रतिपक्षं लक्षयति- किश्चेत्यादि । अयं शब्दः स्वस्वेतरेत्यादिमहाविद्यासाध्येन रहितः एतदन्यत्वरहितत्वात् । एतच्छब्दाद्यदन्यत्वं तेन रहितत्वात् एतच्छब्दत्वात् । व्यतिरेके घटादि कुतो न वाच्यमत्राह - पक्षीकृतेति । एतन्महाविद्यासाध्यं पक्ष: । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितश्वासौ कुतश्चिद्व्यावृत्तनिष्ठश्चेति विग्रहः । इह स्वमात्रवृत्तिरेतन्महाविद्यासाध्यत्वादिको धर्मः पक्षे साध्यः । स च कुतश्चिद्व्यावृत्तनिष्ठस्तदैव, यदि पक्षितं महाविद्यासाध्यं कुतश्चिद्व्यावृत्तं भवेत् । यतश्च तद्व्यावृत्तं स महाविद्या साध्यरहितः संपन्न एवेति पक्षितमहाविद्यासाध्यरहितत्वप्रसिद्धिः । पक्षान्योन्याभावमुपादाय साध्याधिगमः । १०३ अयं शब्दो नित्यः शब्दत्वादिति वा प्रतिपक्षः । न चायं पक्षधर्मोऽपि सपक्षविपक्षव्यावृत्तत्वादसाधारण इति वाच्यम् । व्याप्तिपक्षधर्मतयोरखण्डने असाधारणस्य दूषणत्वानङ्गीकारात् । व्याप्यत्वानिश्चयादयमगमक इति चेत् । न । शब्दत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्व रहितनित्यत्वव्याप्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वात घटवदिति व्याप्यत्वसिद्धेः । तदिदमुक्तं आचष्टे प्रतिपक्षमात्मविषयमिति । आत्मविषयं प्रतिपक्षं निर्धारयतीत्यर्थः । ( भुवन ० ) - न चायमिति । अयं शब्दत्वादिहेतुः पक्षधमोंऽपि सपक्षविपक्षाभ्यां व्यावृत्तत्वादसाधारणानैकान्तिकः । सति सपक्षे सपक्षाप्रवेशी असाधारणानैकान्तिकोऽनैकान्तिकभेदो वा अनद्धयवसितो वा । अत्र च नित्यत्वे साध्ये गगनादीनां सपक्षत्वेऽपि हेतोः सपक्षाप्रवेशादसाधारणत्वमिति रहस्यं । हेतुमाह - व्याप्तिपक्षेति । व्याप्तिश्च पक्षधर्मता च व्याप्तिपक्षधर्मते, तयोरखण्डने सति असाधारणानैकान्तिकत्वस्य दूषणत्वं नोरीक्रियते इत्यन्वर्थः । परमार्थस्वयम् । 'व्याप्तिपक्षधर्म तावलिङ्गमिति लक्षणाव्याप्तिपक्षधर्मते एवाखण्डिते विलोक्यते इति । आशङ्कते - व्याप्यत्वेति । अयं शब्दत्वादिति हेतुर्नित्यत्वसाध्येन यद्व्याप्यत्वं हेतोः, तदनिर्णयाद्गमकः साध्य1 स्याज्ञापक इत्यर्थः । समाधत्ते - न । शब्दत्वमिति । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितो धर्मः एतत्पक्षत्वादिः Aho! Shrutgyanam Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं पक्षे ज्ञेयः । स च नित्यत्वव्याप्यनिष्ठस्तदैव, यदि शब्दत्वं नित्यत्वव्याप्यं भवेदिति शब्दत्वस्य नित्यत्वव्याप्यत्वसिद्धिः । पक्षान्यत्वधर्मेण नित्यत्वव्याप्ये आत्मत्वादौ निष्ठेन साध्यानुगतिः । शब्दत्वान्यान्यत्वादिना धर्मेण अर्थान्तरपरिहाराय नित्यत्वव्याप्यनिष्ठेत्युपात्तम् । शेषं सुगमम् । किश्च अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादित्ययं कालात्ययापदिष्टः । अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वरहित इत्यस्मदादिवचनजनितप्रमितिबाधात् । न च अस्याः प्रमितित्वमसिद्धमिति वाच्यम् । इदं ज्ञानं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितप्रमितिनिष्ठाधिकरणं मेयत्वाद्वदवदिति तत्सिद्धेः । पूर्वज्ञानविपरीतप्रमितित्वमेव बाधकत्वं नान्यत् किश्चित् । तदिदमुक्तं बाधां समुन्मुद्रयतीति । समुद्धादयतीत्यर्थः । ( भुवन ० ) - कालात्ययापदिष्टतां स्पष्टयति-किश्च अयमित्यादि । प्रमाणाबाधितसाधकत्वेन नात्र हेतौ बाधासम्बन्धवैधुर्यमित्यत आह-अयं शब्द इति । अयं शब्दः स्वस्वेतरेत्यादिसाध्यरहितः इत्येवंरूपा या अस्मदादिवचनजनिता प्रमितिः आगमप्रमाणं, तया बाधः इति भावः । न च अस्या इति । अस्या अस्मदादिवचनजनितप्रभितेः प्रभितित्वमागमप्रमाणत्वमसिद्धमिति न च वाच्यम् । कुतो न वाच्यमित्यत आह- इदं ज्ञानमिति । अस्मदादिवाक्यजन्यज्ञानमित्यर्थः । एतज्ज्ञानत्वं धर्मः पक्षेऽवसेयः । स च प्रमितिनिष्ठः तदानीमेव, यदि पक्षितमेतज्ज्ञानं प्रमितिरूपं स्यादित्येतज्ज्ञानस्य प्रमितित्वसिद्धिः । सपक्षे एतज्ज्ञानान्यत्वं धर्मो बोद्धव्यः । स च प्रमितिः प्रत्यक्षादिप्रमाणं तन्निष्ठः एवेति तेन साध्यानुगतिः । घटादिज्ञानेन सिद्धसाधनता मा भूदितीदं ज्ञानमित्युक्तं । तत्सिद्धेरिति । अस्मदा दिवचनप्रमितित्वसिद्धेरित्यर्थः । पूर्वमहाविद्याया बाध्यत्वं दर्शयितुं बाधकलक्षणं लक्षयति — पूर्वेति । पूर्वज्ञानं महाविद्या साध्यवत्त्वज्ञानं शब्दस्य, तस्माद्यद्विपरीतप्रमितित्वं शब्दस्य महाविद्यासाध्यरहितत्वज्ञानं, तदेव बाधकत्वं तच्चास्मदादिवाक्यजनितप्रमितेरस्त्येवेति भावार्थ: । एवं मेयत्वादिहेतोः कालात्ययापदिष्टता समादिष्टा । ' प्रमाणबाधितसाध्यसा - धकत्वं कालात्ययापदिष्टत्वमिति तल्लक्षणात् । किञ्च सकलमहाविद्यानां सिद्धान्तविप्लावकत्वं नाम दूषणम् । तथाहिगगनादयः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति, पार्थिवपरमाणुः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितनित्यरूपादिमन्निष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति, आप्यादिपरमाणुः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितपाकजरूपादिमन्निष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति, ईश्वरः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यज्ञानेच्छाप्रयत्नधर्माधर्म सुखदुःखदेषभावनावन्निष्ठाधिकरणं मेयत्वादित्यादेः सर्वत्र सुवचत्वात् । न चैवमादीनामागमबाधः । विवादपद्मागमः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहिताप्रमाणनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादित्यादेः तत्प्रामाण्यप्रतिक्षेपेऽपि सुवचत्वात् । ( भुवन० ) - इदानीं सिद्धान्तविप्लावकत्वदूषणं प्रादुष्करोति- किञ्च सकलेति । विप्लावकत्वं व्यवस्थारहितत्वम् । ननु नित्या गगनादय:, तथा चतुर्विधाः अपि परमाणवो नित्याः, Aho! Shrutgyanam Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ महाविद्याविडम्बनम् । १२९ पार्थिवपरमाणोः रूपरसगन्धस्पर्शाश्चानित्याः, वायवीयपरमाणुषु स्पशों नित्योऽपाकजश्व, रूपरसगन्धास्तु तत्र सन्त्येव न । आप्यपरमाणोः रूपरसस्पर्शाः नित्याः, गन्धस्तु तत्र नास्त्येव । तैजसपरमाणोः रूपस्पशौँ नित्यौ, रसगन्धौ तु न स्तः । तथा तैजसाप्यपरमाणुषु रूपाद्यपाकजम् । पार्थिवपरमाणुषु रूपादिपाकजम् । ईश्वरज्ञानेच्छाप्रयत्ना नित्याः । धर्माधर्मादयस्तु तत्र न सन्तीति सिद्धान्तमर्यादाभङ्गाभावात्कथं विप्लावकत्वमित्यत आह-तथा हीत्यादि । गगनादयः पक्षः । आदिपदेन आत्मपरमाण्वादिसंग्रहः । अनुमानव्याख्या पूर्ववत् । गगनादीनां सिद्धान्ते नित्यत्वं प्रत्यपादि, महाविद्यया चाऽनित्यत्वमपि साध्यते इति सिद्धान्तविप्लवः । पार्थिवेत्यादि । नित्यं च तद्पादि च नित्यरूपादि । आदिशब्देन रसगन्धस्पर्शपरामर्शः । नित्यरूपादयो विद्यन्ते येषु ते नित्यरूपादिमन्तः, तनिष्ठो धर्मः पार्थिवपरमाणुत्वादिः पक्षे सिध्यन्पक्षितपार्थिवपरमाणूनां नित्यरूपादिमत्त्वं साधयेदिति भावः । सपक्षे अनित्यरूपादिमानाप्यादिपरमाणुस्तनिष्ठेन पक्षान्योन्याभावेन पक्षान्यसर्वनिष्ठेन साध्याधिगमः । वैशेषिकादिमते पार्थिवाणूनामनित्यरूपादिमत्त्वं प्रतिपाद्यते, अत्र तु विपरीतसाधनाद्विप्लावकत्वम् । आप्यादीति । आदिपदात्तेजोऽणूनां ग्रहणम् , न तु वायवीयाणूनाम् । तेषां केवलस्पर्शवत्त्वेन रूपादिमत्त्वाभावात् । पाकजं च तद्रूपादि च तद्वत्सु निष्ठो यो धर्मः, तदाश्रय इत्यर्थः । आदिशब्दाद्रसस्पर्शपरामृष्टिः । अत्र आप्यादिपरमाणुत्वं साध्यधर्मः पाकजरूपादिमनिष्ठः पक्षे सिध्यन्पाकजरूपादिमत्त्वमाप्याद्यणूनां साधयति । पक्षान्यत्वं धर्मः सपक्षे ज्ञातव्यः। स च पाकजरूपादिमान्पार्थिवाणुस्तनिष्ठोऽस्त्येवेति साध्यप्रसिद्धिः । पार्थिवाणवो हि सूर्यादितेजसा ज्वलितत्वात्पाकजरूपादिमन्तः उच्यन्ते । आप्याद्यणवस्तु अवलितत्वादपाकजरूपादिमन्तः इति सिद्धान्तस्थितिः । अत्र च तद्वैपरीत्यकरणास्थितिभङ्गः। ईश्वर इति । ईश्वरो हि नित्यज्ञानादिमान्धर्माधर्मादिरहितश्च संप्रतिपन्नः,अत्र चान्यथापि साधनाद्विप्लवः । ज्ञानं चेच्छा च प्रयत्नश्च धर्मश्च अधर्मश्च सुखं च दुःखं च द्वेषश्च भावना च, अनित्याश्च ते ज्ञानादयश्चेति विग्रहः । इहेश्वरत्वं धर्मः उभयविशेषणविशिष्टः पक्षे सिध्यन्पक्षस्येश्वरस्य अनित्यज्ञानादिमत्त्वं साधयेत् । पक्षान्योन्याभावमनित्यज्ञानादिवति क्षेत्रज्ञात्मनि निष्ठमादाय साध्यानुगमः । इत्यादेरिति । अत्रादिपदेन ' श्रुतिः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहिताप्रमाणनिष्ठाश्रयो ज्ञेयत्वाद्धटात्मादिवत् ' तथा 'ईश्वरः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितजगत्कर्तृत्वरहितनिष्ठाश्रयो मेयत्वाद्घटादिवदित्यादीनां ग्रहणम् । न चैवमिति । एवमादीनां गगनाद्यनित्यत्वादिसाधकानुमानानामित्यर्थः । कुतो नेत्याह-विवादेत्यादि । अत्र विप्रतिपन्नागमत्वं पक्षे साध्यधर्मः । सपक्षे च पक्षान्यत्वं धर्मः । स चाप्रमाणे प्रत्यक्षादिप्रमाणादन्यस्मिनिष्ठः एवेत्यर्थः । शेषमनुमानमुत्तानार्थम् । तत्प्रामाण्येति । तस्य विवादपदागमस्य यत्प्रामाण्यं तत्प्रतिक्षेपेऽपीति भावः । अथ सिद्धान्तविप्लावकत्वं कुत्रान्तर्भवतीति पृच्छसि, तर्हि न कचिदित्यवेहि । यथा सिद्धत्वादयः पृथगेव दूषणं, एवमिदमपि । यदा प्रतिबन्धामस्या. १ सपक्षे च नित्य इति च पुस्तकपाठः । २ "ध्याधिगतिः । वैशे इति च पुस्तकपाठः । ३ हि प्रलयकाले ज्वलि इति च पुस्तकपाठः । ३ था अप्रसिद्ध इति ग पुस्तकपाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं तर्भावः । यद्येवंविधैरनुमानैः शब्दानित्यत्वं साध्यते, तर्हि गगनानित्यत्वमपि कस्मान्न साध्यते इति । (भुवन०)-परः पृच्छति । अथेति । सिद्धान्त्याह-तीति । यथा असिद्धत्वविरुद्धत्वादिदोषाः मुख्याः एव, तथा सिद्धान्तविप्लावकत्वमपि मुख्यमेव दूषणमित्याकूतम् । स्वतन्त्रदूषणत्वकल्पने गौरवं बाधकस्तर्क इत्याशङ्कयाह-यद्वेति । प्रतिबन्धामन्तर्भावप्रकारमेवाविर्भावयतियद्येवंविधैरिति । एवंविधैर्महाविद्यानुमानैर्यदिशब्दस्यानित्यत्वं साध्यते, तर्हि तथैव गगनाऽनित्यत्वमपि कथं न साध्यते इति । एतत्तत्वम् । 'चोद्यपरिहारसाम्यं प्रतिबन्दीतर्कः' इति हि तल्लक्षणम् । ततोऽत्रापि यद्येवमित्यादिना चोद्यपरिहारसाम्यमदर्शि ।। __यदि पुनः सिद्धान्तविश्लावकत्वं सर्वसाधनदूषणसाधारणं दूषणं नाङ्गीक्रियते, तर्हि यस्मिन्कस्मिंश्चिदप्यनुमाने परेण पक्षेतरत्वेन सोपाधिकत्वेऽभिहिते संदिग्धसाध्यपक्षवृत्तित्वेन संदिग्धानैकान्तिके वा अभिहिते किं वक्तव्यम् । एवं सति सर्वानुमानविप्लव इति वक्तव्यमिति चेत् । तर्हि स्वीकृतमायुष्मता सिद्धान्तविप्लावकत्वस्य दूषणत्वम् । एवं वाद्युदीरितसाधने भवता अनैकान्तिकत्वादिसम्यग्दूषणेऽभिहते, यदि वादी नैतस्यानैकान्तिकत्वादिकं दूषणमिति वद्ति, तर्हि भवता किं वक्तव्यम् । अपसिद्धान्तः स्यादिति वक्तव्यमिति चेत् । न । एतस्य हेतोर्यदनैकान्तिकत्वं तस्य तेन दूषणत्वानङ्गीकारात् । एवं तर्हि सर्वत्रानैकान्तिकत्वस्य दूषणत्वं न स्यादिति चेत् । अङ्गीकृतं तर्हि सिद्धान्तविप्लावकत्वस्य दूषणत्वमित्यलं कलहेन । - (भुवन०)-पूर्वपक्षिणं शङ्कते-यदि पुनरिति । सर्वसाधनानां यानि दूषणानि असिद्धत्वादीनि तेषां साधारणं समानमित्यन्वयः । परमार्थस्त्वयं-यादृशमसिद्धत्वादिदूषणं तादृशं सिद्धान्तविप्लावकत्वदूषणमपि यदि नाभ्युपेयते । तर्हि यस्मिन्निति । पक्षेतरत्वस्योपाधिदूषणत्वेऽपि शब्दो नित्यः कृतकत्वाद्धटवदित्यादौ यत्र काप्यनुमाने प्रतिवादिना पक्षेतरत्वेन सोपाधिके प्रोक्ते । यद्वा 'संदिग्धविपक्षवृत्तिः संदिग्धानैकान्तिकः' इति तल्लक्षणे सत्यपि, प्रतिवादिना संदिग्धसाध्यं यत्र स संदिग्धसाध्यः, स चासौ पक्षश्च, तद्वत्तित्वेन हेतोः संदिग्धानकान्तिकत्वे प्रसजिते, किं वाच्यं भवतीत्याशयः । परः उत्तरयति–एवं सतीति । घट्टकुट्यां प्रभातमिति न्यायेन परिहरति-तर्हि स्वीकृतमिति । प्रकारान्तरेण सिद्धान्तविप्लावकत्वं स्वीकारयति-एवं वायुदीरितेति । नित्याः वर्णाः श्रावणत्वाच्छन्दत्ववदित्यादौ नैत्यशब्दिकवायुदीरिते साधने भवता प्रतिवा. दिना ध्वनिरूपे भागेऽनैकान्तिकत्वादिसम्यद्षणेऽभिहिते, यदि वादी नैतस्य हेतोरनैकान्तिकत्वादिदूषणमिति वदति, तदा त्वया किं वाच्यमित्यर्थः । परः प्रत्याचष्टे-अपसिद्धान्त इति । परिहरति १ कथं न इति' इति च पुस्तकपाठः । २ नैत्यशब्दवा' इति छ पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ महाविद्याविडम्बनम् । नेति । एतस्य हेतोर्वाद्युक्तस्य यदनैकान्तिकत्वं तस्यानैकान्तिकत्वस्य भवदुत्पादितस्य तेन वादिना दूषणत्वं नाङ्गीक्रियते इत्यर्थः । परः परिहारमाह-एवं तहीति । सिद्धं नः समीहितमित्याहअङ्गीकृतमिति । ____ अथ प्रतिबन्दी तर्कः एव । तर्कश्च आपाद्यपादकयोाप्तिमूलः । न च प्रमेयत्वस्य पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वसाध. कत्वस्य प्रमेयत्वस्येश्वरतदितरवृत्तित्वरहितानित्यज्ञानादिमन्निष्ठाधिकरणत्वसाधकत्वेन व्यासिरस्ति । अतो मूलशैथिल्यात्तर्काभासोऽयमिति मन्यसे । तन्न । प्रसङ्गव्यतिरिक्तप्रतिबन्द्यादितर्काणां व्याप्तिमूलत्वानङ्गीकारात् । अन्यथा सम्यक्साधनेऽपि परेण पक्षेतरत्वोपाधिपक्षनिष्ठसंदिग्धानकान्तिकत्वादिना दृषिते सम्यगनैकान्तिकत्वादौ च परेण नात्रानैकान्तिकत्वदूषणमित्युड़ते भवतोऽपि न किश्चिदुत्तरं स्यादिति । तदिदमुक्तं आधत्ते स्थितिविप्लवं चेति । __ (भुवन० )-सिद्धान्तविप्लावकत्वस्य प्रतिबन्धामन्तर्भावं पूर्वोक्तमालम्ब्य शङ्कते-अथ प्रतिबन्दीत्यादि । यद्ययमनग्निः स्यात्तर्हि निधूमः प्रसज्येत । अत्रानग्नित्वमापादकं, निधूमत्वमापाद्यं, यत्रापादकं तत्रापाद्यमिति व्याप्तिमूलस्तर्कः । न च प्रमेयेति । प्रमेयत्वहेतोर्यत्पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्यासाध्यसाधकत्वं तस्य न च व्याप्तिरस्ति । केन सह । मेयत्वहेतोरेव यदीश्वरेत्यादिमहाविद्यासाध्यसाधकत्वं तेन इत्यन्वर्थः । भावार्थस्तु अयम्-यत्र यत्र मेयत्वस्य पक्षीकृतेत्यादिसाध्यसाधकत्वरूपमापादकं, तत्र तत्र मेयत्वस्य ईश्वरेत्यादिसाध्यसाधकत्वरूपमापाद्यमित्यापाद्यापदकयोाप्रभावः इति । किं तीत्याह-अत इति । व्याप्तिरूपं यन्मूलं तस्य शैथिल्यादयं प्रतिबन्दी तर्कस्ताभास इति आचार्यः समाधत्ते तन्नेत्यादि । प्रतिबन्दीव्याघातात्माश्रयपरस्पराश्रयादितर्काणामित्यर्थः । विपक्षे बाधकमभिधत्ते-अन्यथेति । अन्यथा प्रतिबन्द्यादितर्काणां व्याप्तिमूलत्वस्वीकारे धूमत्वादिसम्यक्साधनेऽपि परेण प्रतिवादिना पक्षेतरत्वोपाधिना पक्षनिष्ठतया संदिग्धानकान्तिकत्वादिना च दूषिते, तथा 'नित्यः शब्दः श्रावणत्वाच्छब्दत्ववदित्यत्र ध्वनिनानैकान्त्यम् । यतो वैशेषिकादिमते ध्वनिरनित्यः श्रावणश्च भवति । "मारुतगुणः श्रावणोऽवर्णात्मा अनित्यः शकटादिभवो ध्वनिरिणत्यादि तत्स्वरूपादिति ध्वनिना सम्यगनैकान्तिकत्वादावुद्भावितेऽपि नात्रैतडूषणमिति परेणोद्धृते च, तवापि न किञ्चिदुत्तरमित्यर्थः ।भावस्त्वयम्-परेणैवमुक्ते सति भवतात्र पक्षेतरत्व. स्योपाधित्वे सर्वानुमानानां पक्षेतरत्वोपाधिग्रस्तत्वं स्यादित्यादि प्रतिबन्येव वाच्या । न च यत्रैकस्मिन्ननुमाने पक्षेतरत्वस्योपाधित्वं तत्र सर्वानुमानेषु पक्षेतरत्वस्योपाधित्वमिति व्याप्तिरस्ति । भवदाशयेन तु व्याप्तिर्विलोक्यते एवेति तव न किञ्चिदुत्तरं स्यादिति । पूर्वोक्ते मूलपदमवतारयतितदिदमिति । स्थितिः सिद्धान्तस्वरूपा। किञ्च पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं स्वस्वेतर१ ‘पक्षतरत्वोपाधि इति छ द पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं वृतित्वरहितपक्षाविद्यमाननिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति विरुद्धत्वम् । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वरूपप्रकृतव्यापकाभावस्य पक्षनिष्ठतया प्रकृतहेतुनैव साधनादिति । पक्षनिष्ठतया प्रकृतव्यापकाभावसाधकत्वमेव च साक्षाद्विरुद्धलक्षणं, न तु प्रकृतव्यापकाभावव्याप्यत्वं । तस्य साक्षाद्विरुद्धावान्तरभेदलक्षणत्वादिति संक्षेपः । तदिदमुक्तं भजते प्रत्यर्थितामात्मन इति । एवं सर्वमहाविद्यास्वपि अनैकान्तिकत्वादिसाधकत्वं योज्यम् । ( भुवन ० ) — विरुद्धत्वं महाविद्याहेतोराह – किश्चेत्यादि । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितो धर्मः एतन्महाविद्यासाध्यत्वमेतत्पक्षान्यान्यत्वादिर्वा पक्षे द्रष्टव्यः । स च पक्षे शब्देऽविद्यमानो यस्तन्निष्ठस्तव, यहि पक्षितं महाविद्या साध्यं पक्षेऽविद्यमानं भवेदिति विरुद्धत्वम् । पक्षान्यत्वेन व्याप्तिसिद्धिः । स्वमात्रनिष्ठधर्मेणार्थान्तरता मा भूदित्युक्तं – पक्षाविद्यमाननिष्ठेति । पक्षाविद्यमाने घ-टादौ निष्ठेन मेयत्वादिना अर्थान्तरं वारयति - स्वेतरवृत्तित्वरहितेति । अप्रसिद्धविशेषणत्वं परिहर्तु स्वेति । विरुद्धत्वे हेतुमाह - पक्षीकृतेत्यादि । पक्षीकृतशब्देत्यादिरूपं यत्प्रकृतव्यापकं महाविद्यासाध्यं तस्य योऽभावः, तस्य पक्षे शब्दे निष्ठतया प्रकृतहेतुना मेयत्वेनैव साधनात् । ननु प्रकृतव्यापकाभावव्याप्यो हि विरुद्धो हेतुर्नतु प्रकृतव्यापकाभावसाधकः इत्यपराशङ्कां पराकरोतिपक्षनिष्ठतयेत्यादि । पक्षे शब्दे निष्ठतया प्रकृतव्यापकमत्र महाविद्या साध्यं तदभावसाधकत्वमेव साक्षाद्विरुद्धहेतुलक्षणं, न तु महाविद्या साध्याभावेन व्याप्यत्वं विरुद्धहेतु लक्षणमित्याकूतम् । हेतुं ब्रूतेतस्येति । तस्य प्रकृतव्यापकाभावव्याप्यत्वस्य साक्षाद्विरुद्धस्य योऽवान्तरभेदः तल्लक्षणत्वं न तु सा - क्षाद्विरुद्धलक्षणत्वमित्यर्थः । पूर्वोक्तमन्यत्रातिदिशति — एवं सर्वेति । अयं शब्दोऽनित्यत्वव्यतिरिचैतद्धर्मत्वरहिताधिकरणं मेयत्वाद्धटवदित्यत्र अनित्यत्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मत्वरहिताधिकरणं मेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वव्यतिरिक्तैतद्धर्मत्वरहिताधि करणं मेयत्वाद्घटवदित्यनैकान्त्यादिसाधकत्वप्रकारेण “ किथ्व स्वव्यभिचारम्" इत्यारभ्य ये पूर्वमूचिरे दोषाः अनैकान्तिकत्वसोपाधिकत्वादयः ते सर्वमहाविद्यास्वप्यूहनीयाः इति रहस्यम् । ननु महाविद्यारीतिर प्रमाणं प्रमाणं वा । आद्ये न तद्बलादनैकान्तिकत्वादिदोषसिद्धिरिति निर्दुष्टत्वं महाविद्यायाः । द्वितीये तु अङ्गीकृतप्रमाणभावायां महाविद्यायामनैकान्तिकत्वादिव्युत्पादनं व्याहतमित्यत आह स्वव्याघातकमुत्तरं तव मते जातिस्तत्रापि किं स्वव्याघातकतैव दुष्टिजननी किंवोत्तरत्वान्विता । आद्ये स्यात्तव जातिसाधनमिदं पक्षे द्वितीये पुन वैयर्थ्य प्रथमं च दूषणमिह न्यायस्य तुल्यत्वतः ॥ १८ ॥ अयमर्थः -- स्वव्याघातकमुत्तरं जातिरिति हि परस्य संमतम् । तत्र किं स्वव्याघातकत्वमेव दुष्टत्वं गमयति, किंवा उत्तरत्वसहितम् । आधे महावि Aho! Shrutgyanam Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ महाविद्याविडम्बनम्। १३३ द्यापि स्वानैकान्तिकत्वादिव्युत्पादनेन स्वव्याघातकैवेति कथं न दुष्टा । केवलमुत्तरत्वाभावाजातिसाधनमियम् । अन्यत्तु जात्युत्तरमिति। द्वितीये तु उत्तरत्वविशेषणं व्यर्थम् । स्वव्याघातकत्वस्यैव दुष्टत्वबोधापरपर्यायदुष्टिजनकत्वात् । दुष्टत्वबोधानुपयोगिविशेषणोपादाने च स्वव्याघातकं साधनं जातिरिति साधनत्वविशेषणोपादानेन उत्तरस्यापि जातित्वं निवर्तयतः किमुत्तरं स्यादिति । (भुवन०)-उत्तरश्लोकावताराय चोदयति-नन्विति । आद्यं प्रत्याह-आये नेति । महाविद्यायाः अप्रमाणत्वे महाविद्याबलेन नानैकान्त्यादिदोषसिद्धिरिति दोषाभावान्महाविद्यासमञ्जसैवेति भावः । द्वैतीयकं निलोठयति-द्वितीये इति । महाविद्यायाः प्रमाणत्वेऽनैकान्त्यादिदोषव्युत्पादनं व्याहतमित्याशयः। एतावता द्वितीयविकल्पोक्तां प्रमाणीकृतमहाविद्यादोषव्युत्पादनं भवतां स्वव्याघातकमिदं जात्युत्तरमिति पराशङ्कां निरस्यति-स्वव्याघातकमुत्तरमित्यादि ॥१८॥ काव्यं व्याकुरुते-अयमर्थः इत्यादि । जातेः परसंमतलक्षणं प्रदर्य विकल्पयति-तत्र किं स्वेति । जातिर्हि दुष्टत्वगमिका, जातौ सत्यां दुष्टत्वस्य सद्भावात् । सा च स्वव्याघातकोत्तररूपा । तेन तत्र 'स्वव्याघातकमुत्तरं जातिरिति लक्षणे स्वव्याघातकत्वमेव दुष्टत्वगमकं, किंवा स्वव्याघातकमुत्तरमिति भावः । विकल्पयुगलमपि क्रमेण दूषयति-आये इति । स्वव्याघातकत्वस्यैव दुष्टत्वे महाविद्यापि स्वस्यानकान्तिकत्वादिदोषसाधनेन दुष्टैवेत्यर्थः । केवलमिति । अत्र स्वव्याघातकत्वमस्ति, न तूत्तरत्वम् । तेन यथा मृषोद्यमुत्तरं जात्युत्तरं, तथा मिथ्यासाधनं जातिसाधनमियं महाविद्येत्यभिप्रायः । अपरं पक्षं दूषयति-द्वितीये इति । स्वव्याघातकमुत्तरं दुष्टत्वं गमयतीतिरूपे स्वव्याघतकत्वस्यैव दुष्टत्वगमकत्वादुत्तरत्वविशेषणं व्यर्थमित्यर्थः । ' स्वव्याघातकमुत्तरं जातिरिति लक्षणस्य वृद्धप्रणीतत्वान्नोत्तरत्वविशेषणं हातुं शक्यमित्याशङ्कयाहदुष्टत्वबोधानुपयोगीति । दुष्टत्वबोधस्य अनुपयोगिविशेषणमुत्तरत्वं, तस्योपादाने उत्तरत्वविशेषणस्थाने साधनत्वविशेषणग्रहणात् । स्वव्याघातकं साधनं जातिरिति लक्षणेन स्वव्याघातकमुत्तरं जातिरिति लक्षणोपात्तस्य उत्तरत्वविशेषणस्यापि जातित्वं निवर्तयतः परस्य पुरस्तात्तव किमुत्तरं स्यादिति परमार्थः । किञ्च उत्तरत्वविशेषणेन साधनस्य जातित्वं निवर्तता, स्वव्याघातकत्वेन दुष्टत्वं तु न निवर्तते एव । न हि उत्तरगतं स्वव्याघातकत्वं दुष्टत्वं गमयति, नतु साधनगतमित्यत्र नियामकमस्ति । (भुवन०)-'प्रथमं च दूषणमित्येतद्व्याख्याति-किञ्चेत्यादि । उत्तरत्वविशेषणग्रहणे सत्युत्तरस्यैव जातित्वं स्यात्, नदु साधनस्य । तथाप्युत्तरत्वविशेषणे साधनत्वविशेषणे वा सत्यपि स्वव्याघातकत्वेन दुष्टत्वं स्यादेवेत्यर्थः । एतावता द्वितीये पक्षे जातिसाधनं नाम प्रथममपि दूषणं कथितं भवति । ' न्यायस्य तुल्यत्वतः' इत्येतव्याचष्टे-न हि उत्तरेति । उत्तरगतमुत्तरत्वविशेषण Aho ! Shrutgyanam Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं सहितं स्वव्याघातकत्वं दुष्टत्वं गमयति, न तु साधनगतं साधनत्वविशेषणसहितमित्यत्र नियामकं नियमकारि न हि किञ्चिदस्ति । एतावता जातिसाधने जात्युत्तरे च न्यायस्य तुल्यत्वं दर्शितं भवति । ___ अथ अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादित्यत्र अनित्यत्वसाधने शब्दविशेषो धर्मी, पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं च साध्यम् । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितमेयत्ववनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठाधिकरणमित्यत्र अनैकान्तिकत्वसाधने च पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं धर्मी, एतदितरवृत्तित्वरहितमेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठाधिकरणत्वं च साध्यम् । तेन अनयोर्महाविद्ययोर्धर्मिसाध्यभेदान्महान्भेदः । तथा च या तावदनित्यत्वं गमयति, नासौ स्वात्मनो ऽनैकान्तिकत्वं गमयति । या पुनरनैकान्तिकत्वं गमयति, नासौ शब्दानित्यत्वं गमयति । तेन स्वव्याघातकत्वाभावान्महाविद्या न जातिसाधनमिति चेत् । न । यदि अनित्यघटसाधादनित्यः शब्दः स्यात्, तर्हि नित्याकाशसाधादमूर्तत्वान्नित्योऽपि स्यादिति साधय॑समायां प्रयुक्तायां स्वव्याघातकत्वं कीदृशं वक्तव्यम् । यदि नित्यसाधान्नित्यत्वमुच्यते, तर्हि उत्तराभाससाध त्त्विदुक्तिरुत्तराभासः स्यादिति स्वव्याघातकत्वं साधर्म्यसमायां वक्तव्यमिति चेत् । न । नित्यसाधान्नित्यत्वापादनस्य उत्तराभाससाधादुत्तराभासत्वापादनस्य च सुव्यक्तभेदत्वेन स्वव्याघातकत्वस्यानुपपत्तेः । समानरीतिकत्वेन तु स्वव्याघातकत्वं महाविद्यायामपि समानम् । यदि च व्याघातोऽत्र न संभवति, तर्हि पूर्वोक्तन्यायेन अनैकान्तिकत्वमेव अनुमानबलाद्भावनीयम् । (भुवन०)-अथ स्वव्याघातकत्वमेव महाविद्याया नास्तीति प्रतिपादयितुं शाशतिअथायमित्यादि । एतन्महाविद्याद्वयं पुरापि व्याख्यातार्थमेव । धर्मिसाध्यभेदादिति । धर्मी च साध्यं च तयोर्भेदादिति । महाभेदमेव भावयति-तथा चेति । न जातिसाधनमिति यावत्सुगमम् । सिद्धान्ती प्रतिसमाधत्ते-न । यद्यनित्येति। अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद्धटवदित्युक्ते जातिवादिना च यद्यनित्यघटसाधात्कृतकत्वादनित्यः शब्दः स्यात्, तर्हि नित्याकाशसाधादमूर्त्तत्वेन नित्योऽपि स्यादिति साधर्म्यसमायां जातौ प्रयुक्तायां भवता स्वव्याघातकत्वं कीदृशं वक्तव्यम् । स्वव्याघातकत्वं च सर्वजातिसाधारणलक्षणत्वेन गवेष्यते एव । प्रश्नं मत्वा परः उत्तरमाहयदि नित्येति । परिहरति-न। नित्येति। यन्नित्यसाधान्नित्यत्वापादनमुत्तराभाससाधादुत्तराभासत्वापादनं च, तयोर्द्वयोरपि सुव्यक्तभेदत्वेन अतिस्फुटभेदत्वेन स्वव्याघातकत्वं नोपपद्यते। अयमर्थः। नित्यत्वापादनस्य उत्तराभासत्वापादनस्य च भिन्नविषयत्वेन विरुद्धसमुच्चयाभावान्न स्वव्याघातोऽत्रेति । विषयभेदेऽपि यदि समानन्यायतयात्र स्वव्याघातः, तदानीं तयैव युक्त्या महाविद्यास्वपि Aho ! Shrutgyanam Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०३ महाविद्याबिडम्बनम् । १३५ स भवत्येवेत्याह-समानेत्यादि । दुर्बलं वादिनं दृष्ट्वा स्वव्याघातत्वाभावमप्यभ्युपेत्य भङ्गान्तरं भणति-यदि चेति । अत्र महाविद्यायां यदि 'विरुद्धसमुच्चयो व्याघात:' इत्येवंरूपो व्याघातो बाधकतों न सम्भवति, तर्हि पूर्वोक्तव्याघातदोषाभावेन यथैव पूर्वमुक्तं तथैवानैकान्त्यं महाविद्यायामुद्भाव्यमिति तात्पर्यम् । __ अथ अनैकान्तिकत्वानुमानेऽपि अनेनैव न्यायेन अनैकान्तिकत्वानुमानान्मूलानुमानानैकान्तिकत्वपरिहार इति चेत् । न । अनैकान्तिकत्वानुमानानैकान्तिकत्वानुमानेऽपि अनेनैव न्यायेन अनैकान्तिकत्वानुमानान्मूलानुमानानैकान्तिकत्वस्य तोदवस्थ्यात् । एवमुत्तरत्राप्यनैकान्तिकत्वानुमाने वक्तव्यम् । (भुवन०)-अन्यः शङ्कते-अथ अनैकान्तिकत्वेति । महाविद्यानुमानोच्छेदाय यत्प्रतिवादिनानैकान्त्यानुमानं विदधे तस्मिन्नप्यनेनैव महाविद्यानुमानानैकान्तिकत्वन्यायेनानैकान्तिकत्वे कृते, मूलानुमानस्य यदनैकान्तिकत्वं तस्य परिहारः । मूलानुमानतदनैकान्त्यानुमानं तदनैका. न्त्यानुमानाश्चैवं विधेयाः । तथाहि-अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वा(टात्मादिवदिति मूलानुमानम् । तदनैकान्त्याय प्रतिवादी अनुमिमीते यथा-स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितमेयत्ववन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठाश्रयो मेयत्वाद्घटात्मादिवदिति मूलानुमानानैकान्त्यानुमानम् । अथास्याप्यनैकान्त्यं यथा-स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितमेयत्ववन्निष्टात्यन्ताभावप्रतियोगिनिष्ठाश्रयत्वं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितं मेयत्वववृत्तिनिष्ठाश्रयो ज्ञेयत्वाद्घटादिवदिति मूलानुमानैकान्त्यानुमानानैकान्त्यान्मूलमहाविद्याया निर्दुष्टत्वं परिहरतिनेत्यादि । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितमेयत्ववदवृत्तिनिष्ठाश्रयत्वं स्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तमेयत्ववन्निष्ठाभावप्रतियोगित्वाश्रयः प्रमेयत्वाद्धटात्मादिवदित्याद्यनुमानेन मूलानुमानानैकान्त्यानुमानस्य अनैकान्तिकीकरणाय यदनुमानं प्रयुक्तं, तस्याप्यनैकान्त्ये कृते मूलमहाविद्याया अनैकान्त्यं तदवस्थमेवेति तत्त्वम् । ननु तस्मिन्नप्यनैकान्त्यं महाविद्यया अनुमातुं शक्यमत्राह-एवमिति । एवं चतुर्थानुमानानैकान्त्याय पञ्चमानुमाने वादिना प्रयुक्त उत्तरत्रापि षष्ठानुमानादावपि वक्तव्यमित्यर्थः । ____ एवं सति अनैकान्तिकत्वसमर्थनोपयुक्तानुमानपरंपरानुपरमप्रसङ्ग इति चेत् । न । मूलानुमानानैकान्तिकत्वपरिहारोपयुक्तानुमानपरंपरानुपरमप्रसङ्गस्य त्वन्मतेऽपि समानत्वात् । श्रमात्तदुपरम इति चेत् । तुल्यम् । एवं सति उभयोः समानत्वादेकस्यापि विजयो न व्यवतिष्ठते इति चेत् । एवमस्तु । महाविद्यावादी सर्वत्र विजयते इत्यभिमानस्तावद्गलितः। (भुवन०)-अनवस्थाप्रसङ्गं प्रकटयन्महाविद्यावादी वदति-एवं सतीति । मूलमहाविद्याया अनैकान्तिकत्वसमर्थनायोपयुक्ता या अनुमानपरंपरा सा नोपरमतीति हृदयम् । साम्येन १ मानवलान्मूला इति घ पुस्तकपाठः । २ स्य तदवस्थत्वात् । इति घ पुस्तकपाठः । ३ कत्वसाधमाय प्रयु इति घ पुस्तकपाठः । ४ स्याविजयो नावति इति घ पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं दूषयति-न मूलेति । मूलानुमानं शब्दानित्यत्वसाधकं महाविद्यानुमानं, तदनैकान्तिकत्वस्य परिहारायोपयुक्तानुमानपरंपरापि नोपरमते इति तात्पर्यार्थः। परः आह-श्रमादिति । तस्याः पूर्वानुमानपरंपराया उपरमः इत्यर्थः । प्रत्याचष्टे-तुल्यमिति । अस्माकमपि श्रमात्तदुपरम इति रहस्यम् । साधकबाधकयोरभावे संशयः परिशिनष्टीत्याह-एवं सत्युभयोरिति । आपाततः स्वीकुरुतेएवमस्त्विति । किञ्च साध्याभावववृत्तित्वाभावनिश्चयोऽनुमानाङ्गमित्युक्तम् । न चासौ साध्याभावववृत्तित्वानुमाने प्रत्यनीके सति संभवति । तेन साधनवादिन एव पराजय इति गुरवः । (भुवन०)-महाविद्याविडम्बनाभिमानस्तवापि गलितोऽत्राह-किश्चेति । साध्याभाववान्विपक्षः, तद्वत्तित्वाभावनिश्चयोऽनुमानाङ्गमिति पूर्वमुक्तम् । न चासौ विपक्षवृत्तित्वाभावनिश्चयः साध्याभाववान्विपक्षस्तद्वृत्तित्वसाधके अनुमाने प्रत्यनीके विपरीते सति सम्भवति । किं तह-त्याहतेन साधनेति । साधनवादिनो महाविद्यावादिनः एव पराजयः पराभव इति गुरवः प्रभाकराचार्याः प्राहुरिति संटङ्कः।। अथार्थान्तरता नाम कृत्या नृत्यति सङ्गरे । सप्रपञ्चमहाविद्याग्रासकौतूहलाकुला॥ १९ ॥ (भुवन०)-अर्थान्तरतामाविष्कर्तुं प्रक्रमते-अथार्थान्तरेति । कृत्या अनर्थकरी देवता राक्षसीत्यर्थः । सप्रपञ्चाः सविस्तराः याः महाविद्यास्तगासे यत्कौतूहलं तेनाकुला । अत्र महाविद्यावादिप्रतिवादिनोविवादसङ्घामे नानाप्रकारसारयुक्तिपतिहेतिसंहतिहन्यमाना असमानमहाविद्यानुमानप्रयोगप्रतिभटघटाकोटिप्रसृतसदर्थसार्थरक्तासवपानमदोन्मत्तायाः अर्थान्तरताकृत्यायाः नृत्यं चतुरस्रमेव ॥ १९॥ शब्दे शब्दतदन्यवृत्तिरहितानित्यस्थवत्त्वे मिते नित्यत्वप्रमितिः कथं न हि तयोरैक्यं न च व्यासता। नो साम्यान्यविशेषता न च ततो बोधे प्रकारान्तरं सैषार्थान्तरताखिलामपि महाविद्यां समास्कन्दति ॥ २० ॥ (भुवन०) अर्थान्तरतां पद्येन प्रतिपादयति-शब्दे शब्दतदन्येति । शब्दे पक्षीकृते शब्द. तदन्यवृत्तिरहितानित्यस्थवत्वे मिते स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाश्रयत्वे सिद्धेऽप्यनित्यत्वप्रमितिः कथं, किं स्वस्वेतरेत्यादिसाध्यस्यानित्यत्वेन ऐक्यात्, उत अनित्यत्वेन व्याप्तवात्, आहोस्विदनित्यत्वस्य तद्विशेषणत्वात्। न प्राच्यः इत्याह-न हि तयोरैक्यमिति । तयोः स्वस्वेतरेत्यादिमहाविद्यासाध्याऽनित्यत्वयोरक्यमेकात्मता न ह्यस्ति । उक्तसाध्यवतो गगनादेरनित्यत्वस्य व्यावृत्तत्वात् । अत एव नोत्तरः पक्षः इत्याह-न च व्याप्ततेति । न च स्वस्वेतरेत्यादिसाध्यस्यानित्यत्वेन १ विषाऽनित्यत्व इति च पुस्तक पाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०३ महाविद्याविडम्बनम् । व्याप्यत्वम् । स्वस्वेतरेत्यादिसाध्यवति गगनादावनित्यत्वस्याभावेन यत्रोक्तसाध्यं तत्रानित्यत्वमिति व्याप्तेरभावादित्यर्थः । अनित्यत्वरहिते गगनात्मादौ कथितसाध्यसद्भावेन विशेषस्य विशेषणाव्याप्तत्वान्नापि तृतीयः इत्याह-नो सामान्यविशेषतेति । सामान्यविशेषतायां हि सामान्यस्य विशेध्यत्वं, विशेषस्य च विशेषणत्वं स्यादिति । अत्र च महाविद्यासाध्याऽनित्यत्वयोर्न विशेष्यविशेषणभावोऽस्ति । गगनादौ महाविद्यासाध्यरूपविशेष्यसद्भावेऽपि अनित्यत्वरूपविशेषणाभावेन यत्र विशेष्यं तत्र विशेषणमिति व्याप्तेरभावात् । तस्मात् नो सामान्यविशेषतापीत्यर्थः । महाविद्यासाध्यापर्यवसानस्य दुर्निरूपत्वेन ततः उक्तप्रकारादनित्यत्वस्य बोधे प्रकारान्तरं च नास्ति । समास्कन्दतीति । स्कन्धातोरुभयार्थत्वात्समागच्छति शोषयति वेति ॥२०॥ सिध्यतु वा मेयत्वादेः पक्षीकृतशब्दे पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वम् ।अनित्यत्वसिद्धिस्तु कुतः। न हि प्रकृतसाध्यमेवानित्यत्वम् । तद्वतोऽपि गगनादेावृत्तत्वात् । नापि तस्य व्यापकम् । तत एव । नच पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वव्यापकव्याप्यत्वेनाभिमतस्य मेयत्वादेः तत्त्वव्यापकाभ्यामन्येन व्याप्तिर्भवता शक्याऽभ्युपगन्तुम् । न च अव्यापकमपि अनित्यत्वं पक्षधर्मताबलायापकधर्मिसंसर्गवत्सेत्स्यतीति युक्तम् । हेतोः पक्षधर्मतया व्यापकपक्षसंबन्धमात्रचरितार्थत्वात् । (भुवन०)-पद्यं व्याख्यानयति-सिध्यतु वेत्यादि । मेयत्वादिहेतुतः पक्षितशब्दे महाविद्यासाध्य सिध्यतु, अनित्यत्वं तु कुतः सिध्यतीति तत्त्वम् । एतदेव द्रढयति-नहीति । प्रकृतसाध्यं महाविद्यासाध्यमेवानित्यत्वमिति तत्त्वार्थः । हेतुमाह-तद्वतोऽपीति । प्रकृतसाध्यवतो गगनादेः सकाशादनित्यत्वस्य व्यावृत्तत्वात् । नापि तस्येति । तस्य प्रकृतसाध्यस्य व्याप्यरूपस्य नाप्यनित्यत्वं व्यापकम् । तत एव, प्रकृतसाध्यवतोऽपि गगनादेरनित्यत्वस्य व्यावृत्तत्वादेवेति । इदं तत्त्वम् । यत्र व्याप्यं तत्र व्यापकेन भाव्यमिति हि नियमः । अत्र च प्रकृतसाध्यरूपव्याप्यं गगनादौ अस्ति, न तु अनित्यत्वरूपव्यापकम् । तस्मादनित्यत्वस्य महाविद्यासाध्यव्यापकत्वं न घटामटाट्यते इति । ननु मेयत्वहेतुरेव व्याप्तिबलात्स्वव्यापकमनित्यत्वं किं न गमयेदित्याशङ्कामपाकुरुते-न चेति । पक्षीकृतेत्यादिकं यध्यापकं महाविद्यासाध्यं तव्याप्यत्वेनाभिमतस्य मेयत्वादिहेतोः, तत्त्वं मेयत्वं, व्यापकं महाविद्यासाध्यं, ताभ्यामन्येनानित्यत्वादिना न व्याप्तिः शक्या स्वीकर्तुम् । एतत्तात्पर्यम्मेयत्वमहाविद्यासाध्ययोयाप्यव्यापकभावोऽस्तु । तयोरन्येनानित्यत्वादिना मेयत्वादेर्व्याप्पिने स्यादिति । न च अव्यापकमिति । हेतोः पक्षधर्मताबलात् अव्यापकस्य महाविद्यासाध्यस्य धर्मिणा शब्दादिना सह यथा संसर्गः सिध्यति, तथा हेतोः पक्षधर्मताबलादेव अनित्यत्वं मेयत्वस्य अव्यापकमपि सेत्स्यतीति न च युक्तमित्यर्थः । कुतो न युक्तमत्राह-हेतोरिति । हेतोर्मेयत्वादेः पक्षधर्मतया व्यापकं प्रकृतसाध्यं, पक्षः शब्दादिस्तयोः सम्बन्धात्रत्वेन चरितार्थत्वात् । अयं भावः । मेयत्वादिः पक्षधर्मताबलाच्छब्दमहाविद्यासाध्यसम्बन्धकरणेनैव चरितार्थः इत्यव्यापकमनित्यत्वं न साधयतीति । ... १ हेतुं प्राह' इति च पुस्तकपाठः । २ "मात्रे चरि इति च पुस्तकपाठः । १८ महाविधा० Aho! Shrutgyanam Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं अथ पक्षनिष्ठव्यापकप्रतीत्यपर्यवसानात्पक्षे अनित्यत्वसिद्धिरिति मन्यसे। तन्न। किमिदमयं शब्दः स्वस्वेत्तरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणमिति पक्षनिष्ठव्यापकप्रतीतेरनित्यत्वमन्तरेण अपर्यवसानं अनित्यत्वमनालम्ब्यानुपपत्तिर्वा, अनित्यत्वालम्बनत्वनियमो वा। नाद्यः। अनित्यत्वमनालम्ब्य प्रतीतेरनुपपत्तिर्नाम किमनित्यत्वानालम्बनायाः प्रतीतेः प्रागभावः, किंवा अनित्यत्वाना लम्बनः प्रतीतेः प्रागभावः । नाद्यः । अनित्यत्वानालम्बनत्वे तस्या विवक्षितानित्यत्वगोचरत्वव्याघातात् । नापि द्वितीयः । अनित्यत्वानालम्बनस्य एतत्मतीतिप्रागभावस्य एतत्प्रतीत्यनित्यत्वगोचरत्वाक्षेपकत्वे मानाभावात् । नापि द्वितीयः । पक्षनिष्ठव्यापकप्रतीतेरनित्यत्वालम्बनत्वनियमस्य असिद्धेः। (भुवन०)-परः स्वाभिप्रायं प्रादुश्वरीकरीति-अथ पक्षेति । पक्षे शब्दादौ निष्ठं यव्यापकं महाविद्यासाध्यं तत्प्रतीतेर्यदपर्यवसानमनुपपत्तिः, तस्मादिति परमार्थः । दूषयति-तन्नेति । स्वस्वेतरेत्यादिरूपं यत्पक्षनिष्ठं व्यापकं महाविद्यासाध्यं तत्प्रतीतेरनित्यत्वं विनाऽपर्यवसानं किमिदमित्यन्वयः । विकल्पयति-अनित्यत्वमिति । अनित्यत्वालम्बनात् विना महाविद्यासाध्यस्य शब्देऽनुपपत्तिरित्येको विकल्पः । अनित्यत्वेति । शब्दे प्रकृतसाध्यसाधनेऽनित्यत्वमालम्बनीयमेव नियमेनेति द्वितीयः । आद्यं विकल्पं द्विधा विकल्प्य खण्डयति-नाद्यः इति । अनित्यत्वमनालम्ब्य प्रतीतेरनुपपत्तिः किंरूपा, अनित्यत्वानालम्बना या प्रतीतिः तस्याः प्रागभावः । अनित्यत्वानालम्बना प्रतीतिर्नोत्पद्यत इत्यभिप्रायः । कि वेति । अनित्यत्वालम्बनं विना प्रतीतिर्नोपपद्यत इति रहस्यम् । आद्यं प्रति प्राह-नाद्यः इति । तस्याः प्रतीतेयेदि अनित्यत्वस्यानालम्बनत्वं, तदा विवक्षित पक्षीकृतशब्दनिष्ठं यदनित्यत्वं तद्गोचरत्वव्याघातः इति हृदयम् । अपरं पक्षं निराकुरुते-नापीति । अनित्यत्वानालम्बनं पक्षीकृतशब्दे महाविद्यासाध्यप्रतीतेः प्रागभावः पक्षे प्रकृतसाध्यप्रतीतेरनित्यत्वगोचरत्वं आक्षिपतीत्यत्र मानं नास्तीत्याकूतम् । पूर्वकल्पयोरौदीच्यं कल्पं निरसितुमाह-नापि द्वितीय इति । द्वितीयोऽनित्यत्वालम्बनत्वनियमरूपः । इह हेतुं वदति-पक्षनिष्ठेति । पक्षः शब्दघटादिः, तनिष्ठं व्यापकं महाविद्यासाध्यं, तत्प्रतीतिः शब्दस्यानित्यत्वमालम्बते एवेति नियमस्या. सिद्धेरिति । ___अथ मतं, अस्ति तावडूमवत्त्वादग्निमान् पर्वत इत्यनुमानानन्तरं पर्वतनिष्ठवन्हिविशेषे पाकार्थिनां प्रवृत्तिः तत्प्राप्तिश्च । तेन अवश्यं पर्वतो वन्हिमानित्यत्र वन्हिविशेषस्फूर्तिरङ्गीकर्तव्या । न च वन्दिमत्त्वमेवासी, नापि तस्य व्यापकः । वन्हिमत्त्ववतोऽपि महानसादेावृत्तत्वात् । न च अव्यापक १ व्यापकत्वप्रती इति घ पुस्तकपाठः । २ विवक्षितः पक्षीकृतशब्दस्तदनित्यत्वगों' इति छ द पुस्तकपाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ महाविद्याविडम्बनम् । १३९ मपि पक्षधर्मताबलात्साध्यपक्षसंसर्गातिरिक्तं सिध्यतीति त्वयैवोक्तम् । तत्कथं पर्वतनिष्ठवन्हिविशेषसिद्धिः।। __(भुवन० )-अथ धूमानुमानेऽप्यर्थान्तरताप्रथनेन प्रतिबन्दीमुपादत्ते परः-अथ मतमिति । इत आरभ्य 'तदयुक्तमिति यावत्पराशङ्का । अस्ति तावदिति । वह्निविशेषः तार्णपार्णादिकः पाकादियोग्योऽग्निरित्यर्थः । तत्माप्तिरिति । तत्प्राप्तिः पर्वतनिष्ठवह्निविशेषप्राप्तिः । न च वह्निमत्त्वमिति । वह्निमत्त्वे वा असौ वह्निविशेषो न स्यात् । वह्निविशेषस्य वह्निमत्त्वजातेभिन्नत्वात् । नापीति । नापि तस्य वन्हिमत्त्वस्य असौ वन्हिविशेषो व्यापकः। वन्हिविशेषस्य वह्निमत्त्ववत्यपि महानसादौ अवर्तनात् । न चाव्यापकमिति । वह्निविशेषादिकं धूमवत्त्वादिहेत्वव्यापकमपि साधनस्य पक्षधर्मताबलात् साध्यं वह्निमत्त्वं, पक्षः पर्वतः, तत्संयोगादधिकं सिध्यतीति पूर्व त्वयैव महाविद्याविडम्बनाभिमानिनैवोक्तम् । तत्कथमिति । तस्मात्पर्वते सामान्येन वह्निमत्त्वे सिद्धेऽपि वह्निविशेषसिद्धिः कथमिति भावः। ___ अथ धूमवत्त्वस्य वन्हिमत्त्वं व्यापकम् , वन्हिमत्त्वं च वन्हिविशेषघटितमूर्ति, तेन पर्वते वन्हिमत्त्वमधिगम्यमानं वन्हिविशेषावच्छिन्नमेवाधिगम्यते इति । एवं तर्हि पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वमपि व्यापकं पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठविशेषघटितमूर्तीति सो. ऽपि पक्षे सिध्यत्येव। (भुवन०)-शङ्कते-अथ धूमेति । धूमवत्त्वव्याप्यस्य वह्निमत्त्वं व्यापकम् । वह्निमत्त्वं वेति । "निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् शशविषाणवन् । सामान्यरहितत्वेन विशेषास्तद्वदेवही"ति वचनाद्वह्निमत्त्वं सामान्यं वह्निविशेषेण घटितमूर्तीत्यभिप्रायः । फलितमाह-तेनेत्यादि । यदैव वह्निमत्त्वं ज्ञायते, तदैव वह्निविशेषोऽप्यवगम्यते इत्याशयः । मार्गमागतोऽसीत्याह-एवं तहीति । सोऽपि पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठविशेषः पक्षीकृतशब्दानित्यत्वे सति शब्दत्वादिरित्यर्थः। अथ पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठविशेषसिद्धावपि पक्षमात्रनिष्ठत्वे सति अनित्यनिष्ठः कथं पक्षे सिध्यतीत्युच्येत, तर्हि धूमानुमाने वन्हिविशेषसिद्धावपि कथं पर्वतनिष्ठवन्हिविशेषसिद्धिरिति वक्तव्यम् । (भुवन०)-आशङ्कते-अथ पक्षीकृतेति । पक्षीकृतेत्यादिविशेषस्य घटादौ सपक्षे सिद्धावपि, पक्षः शब्दः, तन्मात्रनिष्ठत्वे सति योऽनित्यनिष्ठः शब्दानित्यत्वे सति शब्दत्वादिः, स कथं पक्षे शब्दे सिध्यतीत्यर्थः।तुल्यचर्चतया परिहरति-तहीति । अथ वह्निविशेषो द्विविधः-अपर्वतनिष्ठः, पर्वतनिष्ठश्च । आद्यः पक्षे व्याघातादिना निरुडः । तेन द्वितीयस्य सिद्धिरिति । एवं तर्हि पक्षीकृतश १ शब्दादिरि' इति छ पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं ब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठोऽपि द्वेधा, पक्षीकृतशब्दानिष्ठः तनिष्ठश्च । आद्यः पक्षे व्याहत इति द्वितीयस्य सिद्धिरिति । (भुवन०)-दहनानुमाने पर्वतनिष्ठवह्निविशेषसिद्धिं शङ्कते-अथ वह्नीति । पक्षे पर्वते इत्यर्थः । व्याघातादिनेति । विरुद्धसमुच्चयो व्याघातः । आदिपदेन प्रमाणविरोधसंग्रहः । इहापि समः समाधिरित्याह-एवं तीत्यादि । तन्निष्ठः पक्षीकृतशब्दनिष्ठः । पक्षे विवक्षितशब्दे इत्यर्थः । अथ पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं किं पंक्षानिष्ठानित्यनिष्ठघटितमूर्ति किंवा पक्षमात्रनिष्ठानित्यनिष्ठघटितमूर्ति, किंवा उभयविशेषघटितमूर्ति । आये पैक्षानिष्ठस्यापि पक्षे प्रसङ्गः, द्वितीये पक्षमात्रवृत्तेरपि सपक्षे प्रसङ्गः, तृतीये तु उभयोरपि उभयत्र प्रसङ्ग इत्युच्येत, तर्हि वन्हिमत्त्वमपि किमपर्वतनिष्ठवन्हिविशेषघटितमूर्ति, किंवा पर्वतनिष्ठवन्हिविशेषघटितमूर्ति, किंवा उभयविशेषघटितमूर्तीति विकल्प्य पूर्ववदोषो वक्तव्य इति । (भुवन० )-महाविद्यासाध्यं स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठविशेषघटितमूर्तीति पूर्वोक्तं विकल्पैः शाशति-अथ पक्षीकृतेति । पक्षे शब्दादौ अनिष्ठः, अनित्ये घटादौ च निष्ठो घटत्वादियों धर्मः तेन घटिता विहिता मूर्तिः यस्य तत्तथा । किं वा पक्षमात्रेति । शब्दमात्रे निष्ठोऽनित्यनिष्ठश्च शब्दानित्यत्वे शब्दत्वादिधर्मः, तेन घटितमूर्ति । किवोभयेति । अनन्तरोक्तविकल्पद्धयस्य पक्षेतरवृत्तिपक्षमात्रवृत्तिरूपो उभयविशेषाविति हृदयाभिप्रायः । तृतीयं भेदं बेभिदीतितृतीये इति । पक्षानिष्ठपक्षमात्रनिष्ठयोरुभयोरप्युभयत्र पक्षे सपक्षे च प्रसङ्गः । “एकस्मिन् ये प्रसज्यन्ते द्वयोर्भावे कथं न ते” इति न्यायात् । अथात्रापि महाविद्यावादी परप्रयुक्तयुक्तिसाम्यमादिशति-तीति । एतत्स्पष्टम् ।। ___ अथ वन्हिमत्त्वव्याप्यपर्वतनिष्ठधूमवत्त्वानुभवः एव तदनन्तरभाविनी वन्हिमत्त्ववन्हिविशेषावच्छिन्नपर्वतानुमितिं जनयिष्यति, किमपर्यवसानादिना इत्युच्यते, एवं तर्हि पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वव्याप्यपक्षीकृतशब्दनिष्ठमेयत्वानुभवः एव पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वपक्षमात्रनिष्ठत्वे सति अनित्यनिष्ठविशेषावच्छिन्नपक्षीकृतशब्दानुमितिं जनयिष्यतीति संतोष्टव्यम् । (भुवन० )-अथ वह्नीति । वह्निमत्त्वसाध्येन व्याप्यं यत्पर्वतनिष्ठं धूमवत्त्वसाधनं तस्यानुभवः एव, तस्मात्पर्वतनिष्ठधूमवत्त्वानुभवादनन्तरभाविनी वन्हिमत्त्ववन्हिविशेषाभ्यामवच्छिन्नो -- १ त्वं किमपक्षनि इति घ पुस्तकपाठः । २ बेऽपक्षनि इति घ पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०३ महाविद्या विडम्बनम् । १४१ विशिष्टो यः पर्वतः तदनुमिति जनयिष्यति, किमपर्यवसानादिना अनुपपत्त्यादिनेत्यर्थः । प्रतिबन्धैव प्रत्युत्तरयति-एवमित्यादि । पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्यासाध्येन व्याप्यं यत्पक्षीकृतनिष्ठं मेयत्वं साधनं तदनुभवः एव । पक्षीकृतेत्यादिसाध्यं च पक्षमात्रनिष्ठत्वे सति, अनित्यनिष्ठविशेषश्च शब्दानित्यत्वे सति शब्दत्वादिरूपः । ताभ्यामवच्छिन्नस्य विशिष्टस्य पक्षीकृतशब्दस्य अनुमितिमिति पदान्वयः । एवं सकलमहाविद्यासु धूमानुमानसमानन्यायेन विशेषसिद्धिरुपपादनीयेति । तद्युक्तम् । पर्वतो वन्हिमान् धूमवत्त्वादित्यत्रापि धूमवत्त्वव्यापकवन्हिमत्त्वावच्छिन्नपर्वतातिरिक्तवन्हिविशेषाप्रतीतेः । कथं तर्हि अविसंवादिविशेषविषयप्रवृत्तिसाक्षिका वन्हिविशेषप्रतीतिरिति चेत् । अयं पर्वतः एतइन्हिमान् एतडूमवत्त्वात्, न यदेवं न तदेवं, यथा हद इत्यनुमानादित्यवेहि । न च अनयोर्वन्हिधूमविशेषयोः पूर्वमप्रतीतेाप्तिग्रहणासंभवः इति वाच्यम् । महानसादौ धूमवत्त्ववन्हिमत्त्वव्याप्तिग्रहणसमये सकलधूमवन्हिविशेषतनिष्ठव्याप्तिप्रतीत्यङ्गीकारात् । न च एतस्य वन्हिविशेषस्य पूर्वमेव प्रतीतत्वे अनुमानवैयर्थ्यम् । अस्य वन्हिविशेषस्य पूर्व प्रतीतत्वेऽपि एतत्पर्वतनिष्ठतया पूर्वमप्रतीतेः। __ (भुवन० ) उपसंहरति-एवमिति । विशेषसिद्धिरनित्यत्वादिसिद्धिरित्यर्थः । एवं महाविद्यावादिनोऽभिप्रायमाशङ्कय पराचष्टे-तदयुक्तमिति । कुतोऽयुक्तमत्राह-पर्वत इति । धूमवस्वहेतोापकं वन्हिमत्त्वं, तेन अवच्छिन्नपर्वतादतिरिक्तस्य विन्हिविशेषस्य अप्रतीतेरिति संबन्धः । पाकार्थिनां विशेषप्रतीतिरनुभूयते, तत्र का गतिरिति आशङ्कते-कथमिति । अविसंवादी यो विशेषः पाकादियोग्याग्निस्वरूपः, तद्विषया या प्रवृत्तिः, तत्साक्षिका वन्हिविशेषप्रतीतिः कथमिति योजना । अयमर्थः। यया अविसंवादिविशेषविषया प्रवृत्तिर्जन्यते सा वन्हिविशेषप्रतीतिरिति । गतिमाह-अयं पर्वतः इति । एतद्वह्निर्विवक्षित: पाकादियोग्योऽग्निरित्यर्थः । आशङ्कामुच्छिनत्तिनच अनयोरिति । अनयोर्विवक्षितयोधूमवन्हिविशेषयोः पूर्व महानसादौ अपरिज्ञानाव्याप्तिन संभवतीति न च भाषणीयमिति भावः । कस्मान्न वाच्यमित्यत्राह-महानसादाविति । महानसादौ सामान्येन धूमवत्त्ववन्हिमत्त्वयोर्व्याप्तिग्रहणसमये सकलधूमवन्हिविशेषयोः तनिष्ठा सकलधूमवन्हिविशेषनिष्ठा या व्याप्तिः, तस्याश्च प्रतीतेरङ्गीकारादिति पद्घटना । वन्हिविशेषश्चेत्पूर्व प्रतीतः, तदा सिद्धसाधनत्वेन अनुमानकथाप्युच्छिद्येत इत्याह-न च एतस्येति । पूर्व महानसादावित्यर्थः । हेतुमाचष्टे-अस्येति । अस्तु वा वन्हिमत्त्वावच्छेदकतया पर्वते वन्हिविशेषवत्पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वावच्छेदकतया पक्षीकृतशब्दे पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठविशेषसिद्धिः। पक्षीकृतशब्दमात्रनिष्ठा १ धूमाठमानन्या' इति घ पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं नित्यनिष्ठसिडिस्तु कथम् । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठोऽपि वेधा, पक्षीकृतशब्दावृत्तिः पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्तिर्वा । आद्यः पक्षे व्याहत इति द्वितीयस्य सिद्धिरिति चेत् । न । मा भूत्तावत्पक्षीकृतशब्दे व्याहतत्वेन पक्षीकृतशब्दानिष्ठानित्यनिष्ठविशेषसिद्धिरनुमानात् । पक्षमात्रनिष्ठानित्यनिठत्वसिद्धिस्तु दुर्घटैव । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठविशेषमात्रेणानुमितिपर्यवसानात् । (भुवन०) अथ धूमानुमानसमाननयेन पूर्वोपपादितामपि स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठविशेषसिद्धिं प्रत्युक्तयुक्तिपतिभिरपास्य स्वप्रौढताप्रकटनाय उररीकृत्यापि प्रकारान्तरेण अर्थान्तरतां प्रथयति-अस्तु वा वन्हीत्यादि । इदं हृदयम्-यथा अग्निमत्त्वविशेषकतया पर्वते वन्हिविशेषसिद्धिः, तथा स्वस्वतरेत्यादिसाध्यविशेषकतया पक्षे स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठविशेषसिद्धिरस्तु इति । पक्षीति । पक्षीकृतशब्दमात्रनिष्ठोऽनित्यनिष्ठश्च शब्दानित्यत्वे सति शब्दत्वादिः, तत्सिद्विस्तु कथम् । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठविशेषस्य घटत्वादेरपि संभवादित्यर्थः । पूर्वपक्षी भाषते-पक्षीकृतेति। अथाचार्यः परोक्तं निराचष्टे-न। मा भूदिति । पक्षीकृतशब्देऽनिष्ठो नित्यनिष्ठश्च घंटत्वादिरिति भावः । दुर्घटत्वे हेतुमाह-पक्षीति । स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठविशेषमात्रेणैवानुमितिः पर्यवसिता, न तु पक्षमात्रनिष्ठानित्यनिष्ठविशेषेणेति तत्त्वम् । न च पर्वतेऽपि यत्किश्चिद्रन्हिविशेषसिद्धिरस्तु, पर्वतनिष्ठवन्हिविशेषसिद्धिस्तु कुत इति वाच्यम् । पर्वते वन्हिविशेषसिद्धिरस्तु, पर्वतनिष्ठश्च वन्हिने सिध्यतीत्यस्य व्याहतत्वेन उन्मत्तप्रलापत्वात्। (भुवन०)-आशङ्कां प्रादुष्कुर्वन् विघटयति-न चेत्यादि । धूमानुमानेऽपि पक्षितपर्वते यस्य कस्यचिद्वह्निविशेषस्य सिद्धया अनुमितिपर्यवसानात्पर्वतनिष्ठाग्निविशेषसिद्धिर्न स्यादित्याशयः । सिध्यतु वा पक्षीकृतशब्दे पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्तिरनित्यनिष्ठो धर्मः । अनित्यत्वसिद्धिस्तु कथम् । न हि स एवानित्यत्वमित्यादिपूर्वोक्तन्यायात् । __ (भुवन० )-पूर्वोक्तं पुनरप्यभ्युपगम्य अर्थान्तरतामेव भङ्गयतरेणाह-सिध्यतु वेति । युक्तिं प्रयुङ्क्ते-नहीति । न हि स एव शब्दमात्रवृत्तिरनित्यनिष्ठो धर्मः एव अनित्यत्वम् । तस्य अनित्यत्वरूपत्वाभावात् । आदिपदेन ' नाप्यनित्यत्वं तस्य व्यापकमित्यादिपूर्वोक्तयुक्तिग्रहः । अथ पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्तिरित्यनेन पक्षीकृतस्य आश्रयत्वं, तदन्यस्य चानाश्रयत्वं लब्धम् । अनित्यनिष्ठ इत्यनेन च विवक्षितधर्माश्रयस्यानित्यत्वम् । विवक्षितधर्माश्रयश्च पक्षीकृतः शब्द एव । तदन्यस्य मात्रग्रहणेन व्यवच्छिन्न १ विशेषणमा' इति ज पुस्तकपाठः । २ विशेषताया' इति छ द पुस्तकपाठः । ३ "श्च पटत्वा इति च पुस्तकपाठः । ४ पक्षीकृतशब्दस्य आश्र इति घ पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । त्वात्। तेन पक्षीकृतशब्दानित्यत्वसिद्धिःप्रतीत्यपर्यवासानादिति मन्यसे। तन्न । पक्षीकृतः शब्दः पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्मवानितिप्रतीतेः । पक्षीकृतशब्दानित्यत्वालम्बनत्वनियमे मानाभावात् । अन्यथा सकलवस्त्वालम्बनत्वनियमस्य दुर्वारत्वात्। पक्षीकृतशब्दस्य पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्मवत्त्वमनित्यत्वाभावे व्याहतमिति प्रकृतप्रतीतेः पक्षीकृतशब्दानित्यत्वालम्बनत्वनियमसिद्धिरिति चेत् । न । अवास्तवपक्षीकृतशब्दानित्यत्वेनापि व्याघातनिवृत्तौ प्रकृतप्रतीतेः पक्षीकृतशब्दानित्यत्वालम्बनत्वनियमस्य नि/जत्वात् । (भुवन० )-अनित्यत्वं परिशेषात्सेत्स्यतीत्याशङ्कते-अथ पक्षीकृतेति । पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्तिरित्येतावता पदेन पक्षीकृतस्य शब्दस्य साध्यधर्माश्रयत्वं लब्धम् । पक्षमात्रवृत्तेश्च पक्षादन्यत्रासत्त्वेन तदन्यस्य पक्षान्यस्य साध्यधर्मानाश्रयत्वमिति तत्त्वार्थः । तथापि कथमाश्रयस्यानित्यत्वमित्याह-अनित्यनिष्ठ इति । पक्षमात्रवृत्तिः कथंभूतः । अनित्यनिष्ठः । अनित्यनिष्ठत्वं च तस्य तदैव, यद्यनित्यः शब्दःस्यादिति विवक्षितधर्माश्रयस्य शब्दस्यानित्यत्वमनित्यनिष्ठ इति पदेन लब्धमित्यभिसन्धिः । विवक्षितधर्माश्रयः कः इत्याह-विवक्षितेति । विवक्षितो धर्मः शब्दमात्रवृत्तिरनित्यनिष्ठः शब्दत्वादिरित्यर्थः । तत्कुतः इत्याह-तदन्यस्येति । पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्तिरित्यत्र मात्रशब्दप्रहणात्पक्षीकृतशब्दान्यस्य निषिद्धत्वादित्यर्थः । सिद्धं दर्शयति-तेनेति । शब्दस्य अनित्यत्वं विना पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्मस्य प्रतीतिर्न विश्राम्यतीत्याकूतं मानाभावेन निराकरोति-तन्नेत्यादि । पक्षे पक्षमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्मप्रतीतिः पक्षीकृतशब्दस्यानित्यत्वमालम्बते एवे. तिनियमे मानं नास्तीति तात्पर्यार्थः । प्रमाणं विनापि तदालम्बनत्वनियमाभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गं प्रेरयतिअन्यथेति । अन्यथा तत्प्रतीतिः समस्तवस्तून्यप्यालम्बते एव नियमेनेत्यर्थः । महाविद्यावादी वावदीति-पक्षीकृतेति । शब्दो यद्यनित्यो न भवेत् , तर्हि शब्दस्य पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्मवत्त्वं व्याहतमिति प्रकृतशब्दस्य यदनित्यत्वं तदालम्बनत्वनियमसिद्धिरित्यर्थयोजना । आचार्यः प्रत्याचष्टे-न । अवास्तवेति । अवास्तवं वादिभ्रमसिद्धं यत्पक्षीकृतशब्दस्य अनित्यत्वं तेनापि व्याघातनिवृत्तौ जातायां प्रकृतप्रतीतेः पक्षमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्मवत्त्वप्रतीतेः पक्षीकृतशब्दस्य यदनित्यत्वं तदालम्बलनत्वनियमस्य निर्हेतुकत्वमित्यक्षरार्थः । किञ्च व्याघातबलादियमनुमितिः पक्षीकृतशब्दानित्यत्वे पर्यवस्यतीति वक्तव्यम् । व्याघातश्च विरोधप्रतीतिः । सा च विरुदयप्रमितिजन्या । प्रकृते चानित्यत्वाभावपक्षीकृतशब्दमात्रावृत्त्यनित्यनिष्ठधर्मी विरोधिनौ । न च पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्मः प्रकृतानुमितेः पूर्व प्रमितः । प्रकृतानुमानवैयर्थ्यात् । अनुमित्युत्तरकालीनस्तु व्याघातो निरर्थकः। व्याघाताभावेन विनाप्यनित्यत्वं पूर्वमेवानुमितेः पर्यवसितत्वात् । १ रत्वम् । पं इति घ पुस्तकपाठः । २ व्याघातेन विनापि पूर्व इति घ पुस्तकपाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं (भुवन०)-भङ्गान्तरं भणितुं प्रस्तावयति-किञ्च व्याघातेति । यदि शब्दानित्यत्वं नाभ्युपेयते, तर्हि पक्षे पक्षेतरत्वधर्मसिद्धया व्याघातः स्यादिति व्याघातबलादियं महाविद्यानुमितिः पक्षीकृतशब्दस्यानित्यत्वे विश्राम्यतीति भावः । ननु व्याघातः कः, अत्राह-व्याघात इति । द्वयोर्विरोधप्रतीतिर्व्याघातः इत्यर्थः। सा चेति । सा च विरोधप्रतीतिविरुद्धयोद्धयस्य या प्रमिति: तज्जन्येत्यक्षरयोजना । प्रकृते चेति । प्रकृते महाविद्यानुमानेऽनित्यत्वस्याभावो नित्यत्वं, पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्तिरनित्यनिष्ठः पक्षीकृतशब्दानित्यत्वे शब्दत्वादिः, तौ द्वावपि विरोधिनौ । पूर्वकालीनो व्याघातः शब्दानित्यत्वसिद्धथुपयोगी किंवा उत्तरकालीनः इति गूढाभिप्रायेण द्वैधं विकल्प्य प्राचीनं प्रति आह--न चेत्यादि । पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठो धर्मः शब्दानित्यत्वे सति शब्दत्वादिः प्रकृतानुमितेर्महाविद्यानुमानात्पूर्व न च प्रमाणेन गृहीतः । तद्धर्मस्य पूर्व प्रतीतौ महाविद्यानुमानवैयर्थ्यात् । एतावतानुमितेः पुरा विरुद्धप्रमितेरभावात्पूर्वकालीनव्याधातासम्भवेन पौरस्त्यः पक्षोऽपास्तो भवति । उदीचीनं कल्पमपास्यते-अनुमितीति । अनुमानकरणादुत्तरकाले विरुद्धप्रतीतिश्चेव्याघातः, तदा स निरर्थकः एवेत्यर्थः। हेतुना पूर्वोक्तं द्रढयति-व्याघातेति । अनित्यत्वं विनापि व्याघाताभावेन हेतुना अनुमितेः पूर्वमेव पर्यवसितत्वादिति पदान्वयः । तात्पर्यार्थस्त्वयम्व्याघातबलात् हि अनित्यत्वमिति भवानवादीत् । अत्र चानुमानावसरे व्याघाताभावेन शब्दस्यानित्यत्वं विनाप्यनुमितिः पर्याप्तेत्युत्तरकालजातो व्याघातो व्यर्थः एवेति ।। किञ्च, किं व्याघाते एकपरिहारेण द्वितीयस्योपलम्भो बीजं, किंवा उभयोः परस्परपरिहारेणोपलम्भः, किंवा उभयोनियमेन परस्परपरिहारेणोपलम्भः । आये घटत्वमेयत्वादेर्व्याघातापत्तिः । द्वितीये घटत्वशुक्लत्वादेर्व्याघातापत्तिः वक्ष्यमाणदोषश्च । तृतीयस्तु प्रकृते न संभवत्येव । अनित्यत्वाभावस्य पक्षीकृतशब्दमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्ममन्तरेणोपलम्भेऽपि अनित्यत्वाभावमन्तरेण पक्षीकृतशब्दमात्रनिष्ठानित्यनिष्ठधर्मस्यानुपलम्भात् । उभयोः परस्परपरिहारेणोपलम्भेऽपि परस्परपरिहारनियमस्य निष्प्रमाणत्वाचेति । (भुवन०)-अथ व्याघातमेव त्रिः पक्षयित्वा प्रतिक्षिपति-किञ्च किमित्यादि। एकमन्तरेणापि द्वितीयस्योपलम्भो व्याघाते बीजं कारणमिति परमार्थः । प्राचिकं पक्षं परास्यतेआये इति । यद्यपि घटत्वे मेयत्वमस्ति, तथापि मेयत्वे घटत्वाभावाद्घटत्वपरिहारेण मेयत्वस्य पटादावुपलम्भोऽस्ति । ततः एकपरिहारेण द्वितीयोपलब्धौ चेद्व्याघात:, तदात्रापि व्याघातः प्रसज्येत । नास्ति व्याघातो, घटत्वे मेयत्वसद्भावादित्यादिमः पक्षो न क्षोदक्षमः । पुरःसरपक्षं क्षिपतिद्वितीये इति । रक्ते घटे घटत्वं शुक्लत्वं विनाप्युपलब्धम् , पटादौ च शुक्लत्वं घटत्वमन्तरेणाप्युपलब्धमिति परस्परपरिहारोपलम्भादेकस्मिन् शुक्ले घटे घटत्वशुक्लत्वसंसर्गस्य व्याघाताभावेऽपिव्याघातः आपछतेत्यर्थः । वक्ष्यमाणेति । परस्परपरिहारोपलम्भस्य व्याघातबीजत्वे निष्प्रमाणकत्वं नाम तृतीयपक्षस्य वक्ष्यमाणदोषश्च स्यादित्यत्र घटना । तार्तीयीकमसम्भवेन निराकरोति-तृतीयः इति । १ पक्षमात्रवृत्त्यानित्यनिष्ठो इति च पुस्तकपाठः । २ संसर्गव्याघा इति छ द पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ महाविद्याविडम्बनम् । १४५ असम्भवमुपपादयति-अनित्यत्वाभावेति । अनित्यत्वाभावो नित्यत्वं, तस्य गगनादौ पक्षमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्ममन्तरेणोपलम्भेऽपि, अनित्यत्वाभावो नित्यत्वं, तं विना पक्षमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्मस्यानुपलम्भात् । अयं मथितार्थः यद्यपि पक्षमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठधर्म विनापि नित्यत्वं गगनादावुपलभ्यते, तथापि नित्यत्वं विना पक्षमात्रवृत्त्यनित्यनिष्ठो धर्मः पक्षीकृतशब्दानित्यत्वे शब्दत्वादिनोंपलभ्यते एव । ननु नित्यत्वं विनाप्येवंविधधर्मोपलब्धिः पक्षीकृतशब्देऽस्त्येव । न । पक्षीकृतशब्दे ह्ययं धर्मोऽद्यापि व्याघातबलात्साध्यमानोऽस्ति । व्याघातश्चात्र विकल्प्य खण्ड्यमानोऽस्ति । व्याघातसिद्धौ च तत्सिद्धिर्भवित्रीति तद्धर्मस्य पक्षे विवादास्पदीभूतत्वात्कुत्रापि नोपलब्धिः संभवति । तस्मादत्र परस्परपरिहारोपलम्भनियमाभावेन तृतीयभेदो न संभवत्येवेति । उभयोः परस्परपरिहारोपलम्मेऽपि तन्नियमस्याप्रामाणिकत्वं सङ्गिरते-उभयोरिति । दण्डित्वकुण्डलित्वयोः परस्परपरिहारोपलम्मेऽपि देवदत्तादौ द्वयोरपि सहोपलम्भादेतन्नियमस्य निष्प्रमाणकत्वमितिभावना। अथ व्याघातो मा भूत, प्रतीतापर्यवसानं तु भविष्यतीति । प्रतीतं हि पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वमस्मादेवानुमानात्। तच्च पक्षीकृतशब्दानित्यत्वमन्तरेणापर्यवस्यत् तद्गमयतीति । तन्न । किमिदमनित्यत्वमन्तरेणापर्यवसानं प्रकृतसाध्यस्य, किमनित्यत्वव्याप्यत्वं, अनित्यत्वेन विना अनुपपद्यमानत्वं वा । नाद्यः । गगनादौ व्याप्तिभङ्गात् । नापि द्वितीयः । तेन विनापि भवतः तेन-विनानुपपद्यमानत्वासिद्धेः । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वपक्षीकृतसंसर्गोऽनित्यत्वव्याप्यः, अनित्यत्वेन विनानुपपद्यमानो वा इति चेत् । न । तस्यापि उभयसंसर्गिनिष्ठतया पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वे नित्येऽपि वर्तमानत्वेन अनित्यत्वाव्याप्यत्वात्, तेन विनाप्युपपद्यमानत्वाचेति । पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वे सति पक्षीकृतशब्दत्वमनित्यत्वव्याप्यं, अनित्यत्वेन विनानुपपद्यमानं वेति चेत् । न । तस्य असाधारणत्वेन व्याप्यत्वानुपपद्यमानत्वविरहात् । अन्यथा तस्य नित्यत्वव्याप्यत्वनित्यत्वेन-विनानुपपद्यमानत्वयोरप्यापत्तेः, पक्षीकृतशब्दव्यतिरिक्तविशेषणवैयर्थ्याच्चेति । सेयमर्थान्तरता सकलमहाविद्यासु संचारणीया । ये तु महाविद्याविशेषनिष्ठाः भङ्गिविशेषेण अर्थान्तरताविशेषाः, तेऽन्यत्र व्युत्पादयिष्यन्ते इति । (भुवन० )-महाविधिकः आरेकते-अथ व्याघातः इति । प्रतीतस्यापर्यवसानमिति विग्रहः । प्रतीतापर्यवसानमेव व्यक्तीकुरुते-प्रतीतमित्यादि । तच्च पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वं चेत्यर्थः । तद्गमयतीति । तत् पक्षीकृतशब्दानित्यत्वमिति तच्छब्दार्थः। विकल्पासहत्वादपाकुरुते तन्न । किमिदमिति । महाविद्यासाध्यस्यानित्यत्वं विना अपर्यवसानं नाम किमिदमिति योजना । द्वेषा विकल्पयति-प्रकृतसाध्यस्येति । प्रकृतसाध्यस्य महाविद्यासाभ्यस्य । १९ महाविद्या० Aho! Shrutgyanam Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं किमनित्यत्वेन व्याप्यत्वं । यत्र यत्र महाविद्यासाष्यं तत्र तत्रानित्यत्वमिति भावः । अनित्यत्वे - नेति । अनित्यत्वं विना महाविद्यासाभ्यं नोपपद्यते एवेत्यर्थः । प्राक्तनं प्रति जल्पति - नाघ इति । गगनादौ महाविद्यासाध्यसत्त्वेऽप्यनित्यत्वस्य अभावाव्याप्तिभङ्गः इति हृदयम् । द्वितीयमपवदति - नापीति । युक्तिं खेटयति - तेन विनेति । तेन अनित्यत्वेन विनापि गगनादौ भवतो वर्तमानस्य महाविद्यासाध्यस्य तेन अनित्यत्वेन विना यदनुपपद्यमानत्वं तस्यासिद्धेः । अयमाशय: - अनित्यत्वेन विनापि गगनादौ महाविद्यासाध्यसद्भावान्महाविद्यासाध्यस्य अनित्यत्वेन विना अनुपपद्यमानत्वमसिद्धमिति । अथ परः आरेकते - पक्षीकृतेति । पक्षीकृतेत्यादिसाध्यस्य पक्षीकृतशब्देन सह संसगोंऽनित्यत्वेन व्याप्यः, अनित्यत्वेन विनानुपपद्यमानो वेति परारेकार्थः । पूर्वपक्षिणो के सिद्धान्ती आह— न । तस्यापीति । तस्यापि पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्या साध्यपक्षीकृतशब्दसंसर्गस्यापि उभयसंसर्गिणौ महाविद्यासाध्यपक्षरूपौ तत्र निष्ठतया, पक्षीकृतेत्यादिसाध्ये नित्ये शाश्वतेऽपि वर्तमानत्वेन अनित्यत्वेनाव्याप्यत्वात् तेनानित्यत्वेन विनाप्युपपद्यमानत्वाच्चेति पदाक्षर - योजना । अयं तत्त्वार्थः । संसर्गस्य द्विष्टत्वान्नित्येऽपि महाविद्यासाध्ये वर्तनादनित्यत्वस्य च तत्रावर्तनाद्यत्र प्रकृतसंसर्गः तत्रानित्यत्वमिति व्याप्तिभङ्गात्प्रकृतसंसर्गस्यानित्यत्वेन व्याप्यत्वं न घटाकोटमाटीकते । तथा अनित्यत्वं विनापि प्रकृतसंसर्गस्य अनित्ये महाविद्यासाध्ये वर्तनादनित्यत्वेन विना अनुपपद्यमानत्वमपि न जाघट्यादिति । पूर्वपक्षी आक्षिपति - पक्षीकृतेति । पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्यासाध्यवत्त्वे सति यत्पक्षीकृतशब्दत्वं तत् अनित्यत्वेन व्याप्यं, अनित्यत्वेन विना अनुपपद्यमानं वेत्यर्थः । अत्र हि शब्दस्यानि - त्यत्वं साध्यं, साध्येन च यो व्याप्यते स हेतुरिति पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाfreरणत्वे सति पक्षीकृतशब्दत्वस्य अनित्यत्वरूपसाध्यासाधकत्वादवास्तवमपि अनित्यत्वसाध्यव्यापकत्वाद्धेतुत्वं मनसि निधाय पराचष्टे - न । तस्येति । तस्य पक्षीकृतेत्यादिसाध्यवत्त्वे सति पक्षीकृतशब्दत्वस्य, असाधारणानैकान्तिकत्वेन व्याप्यत्वानुपपद्यमानत्वयोर्विरहादित्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम् - सति सपक्षे सपक्षाप्रवेशी असाधारणानैकान्तिकोऽनध्यवसितो वा अनैकान्तिकभेदो वा । तत्र अस्य हेतोः सपक्षे घटादौ सत्यपि सपक्षा प्रवेशित्वेन असाधारणानैकान्तिकत्वात् यत्र पक्षीकृतेत्यादिसाध्यवत्त्वे सति पक्षीकृतशब्दत्वं तत्रानित्यत्वमिति व्याप्तेः कापि सपक्षे प्रसिद्धत्वाभावेन अनित्यत्वव्याप्यत्वाद्यनुपपत्तिरिति । विपक्षे बाधकमादिशति — अन्यथेति । अन्यथा असाधारणत्वेऽप्यनित्यत्वव्याप्यत्वाद्यभ्युपगमे तस्य पक्षीकृतेत्यादिसाध्यवत्त्वे सति पक्षीकृतशब्दत्वस्य नित्यत्वव्याप्यत्वाद्यपि आपद्येत, युक्तेरुभयत्रापि साम्यादिति । न केवलमस्य हेतोरसाधारण्यं, व्यर्थविशेपणतापीत्याह -- पक्षीकृतशब्दव्यतिरिक्तेति । पक्षीकृतशब्दात् यद्व्यतिरिक्तं विशेषणं तद्वैयर्थ्यात् । चकारो दोषान्तरसूचकः । एतावता पक्षीकृतशब्दत्वमेव हेतुरस्तु, व्यर्थमन्यद्विशेषणमिति भावः । उक्तमितरत्रातिदिशति — सेयमित्यादि । ननु भवद्भिः सामान्येन महाविद्यानिष्ठार्थान्तरता प्रत्य पादि, न प्रत्येकं महाविद्याविशेषनिष्ठेत्याशङ्कयाह – ये तु महाविद्येति । अन्यत्र प्रथान्तरे इत्यर्थः । १ साध्यव्याप्यत्वा' इति च पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ महाविद्याविडम्बनम् । अथ अयं शब्दो नित्योऽनित्यो वेति विप्रतिपत्तौ यदा अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादित्यादिमहाविद्या प्रयुज्यते, तदा अस्तु नाम अर्थान्तरता । यदा पुनरयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं न वा इत्येव विवादः, तदा कथमन्तरतेति चेत् । मा भवतु तदा अर्थान्तरता, प्राचीनदोषास्तु भविष्यन्त्येव । (भुवन० )-अथ परारेका-अथायं शब्द इति । शब्दस्य नित्यत्वानित्यत्वविषये वि. वादे सति यदा महाविधिकोऽयं शब्दः स्वस्वेतरेत्यादिकमनुमिमीते, तदा महाविद्यासाध्यं शब्दे सिध्यतु, अनित्यत्वं तु कुतस्त्यमित्येवंरूपार्थान्तरता भवतु । यदा पुनरिति । यदा त्वयं शब्दः स्वस्वेतरेत्यादिमहाविद्यासाध्यवान्न वेति विवादः, तदा कौतस्कुतीयमर्थान्तरता, अन्यस्यार्थस्यैवाभावादित्यक्षरार्थयोजना । प्रत्युतरं प्राह-मा भवत्विति । प्राचीनदोषाः उपाध्यनैकान्त्यादयः। . किञ्च, अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं न वेत्यादिविवाद एव दुर्घटः । केवलान्वयित्वाभिमतधर्माभावस्याप्रसिद्धत्वेन न वेति पक्षानुत्थानात् । ( भुवन० )-उक्तविवादमूरीकृत्य मा भवतु तदार्थान्तरतेत्यभिहितं, साम्प्रतमुक्तविवादः एव न सम्भवेदित्याह-किं चेत्यादि । किंच दूषणान्तरोक्तौ । हेतुमाह-केवलान्वयीति । केवलान्वयित्वेन सर्ववस्तुनिष्ठत्वेनाभिमतो यो धर्मः, तदभावस्याप्रसिद्धत्वेन न वेति पक्षः एव नोत्तिष्ठति । अयमभिप्रायः-महाविद्यासाध्यधर्मस्य त्वन्मते केवलान्वयित्वेन सर्वत्र सत्त्वान्न वेति पक्षः एव नोदियादिति। ____अथ पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वादिः केक्लान्वयित्वाभिमतः पक्षनिष्ठो न वेति विवादमुद्धाव्य, अयं शब्दः स्वस्वेतरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणं मेयत्वादिति प्रयोगमारचयसि, तदा दुर्वारैवार्थान्तरता । न हि पक्षीकृतशब्दतदितरवृत्तित्वरहितानित्यनिष्ठाधिकरणत्वमेव पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वम् । नापि तस्य व्यापकम् । तस्य त्वन्मते केवलान्वयित्वात् , पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वस्य च गगनादेयावृत्तत्वात् । अन्यथा तभावाप्रसिद्धौ तत्रापि विवादामुपपत्तेः । नापि प्रकृतसाध्यवत्त्वापरपर्यायः प्रकृतसाध्यपक्षसंसर्गः एव पक्षनिष्ठत्वम् । प्रकृतसाध्यवत्त्वस्य त्वन्मते पक्षनिष्ठत्वात् । पक्षनिष्ठत्वस्य च पक्षनिष्ठत्वविरहात् । न च पक्षस्य प्रकृतसाध्यवत्त्वसिद्धिरपर्यवसानात्प्रकृतसाध्यस्य पक्षनिष्ठत्वं गोचरयतीति युक्तम् । अपर्यवसानस्य प्रागेव प्रतिषिद्धत्वादित्यलमाराध्यविरोधेन। . १ त्यादिविवा' इति ज पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं (भुवन०)-भङ्गयन्तरेण परः आक्षिपते-अथ पक्षीकृतेति । यदि पक्षीकृतेत्यादिसा. ध्यधर्मः केवलान्वयित्वेनाभिमतः पक्षे शब्दे निष्ठो न वेति विवादं प्रकटीकृत्य, महाविद्यासाध्यस्य पक्षनिष्ठत्वारोपणाय अयं शब्दः इत्याद्यनुमिमीषे । तदेति। तदा महाविद्यासाध्यं भवतु, महाविद्यासाध्यस्य पक्षशब्दनिष्ठत्वं तु कौतस्कृतमितिरूपा अर्थान्तरता दुर्वारैवेत्यर्थः । अर्थान्तरतो. पपादनाय युक्तीः प्रयुङ्क्ते-न हि पक्षीकृतेति । न हि पक्षीकृतेत्यादिमहाविद्यासाध्यमेवपक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वं, किन्तु महाविद्यासाध्यस्य पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वं धर्मः । धर्मधर्मिणोश्च वैशेषिकादिदर्शने भेदान्न तदेव तदित्यर्थः । नापि तस्येति । पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वं तस्य पक्षीकृतशब्दतदितरेत्यादिसाध्यस्य नातिव्यापकम् । कुतो न व्यापकमत्राह-तस्येति । तस्य पक्षीकृतेत्यादिप्रकृतसाध्यस्येत्यर्थः । पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वस्येति । पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वं हि पक्षितशब्दनिष्ठे एव अस्ति, न तु गगनादाविति । यत्र पक्षीकृतेत्यादि साध्यं तत्र पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वमिति व्याप्तेरभावात् पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वं पक्षीकृतेत्यादिसाध्यस्य नापि व्यापकमित्यर्थः । पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वस्य गगनादावपि वर्तमानत्वोपगमे दोषं भाषते-अन्यथेति । तस्य पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वस्य योऽभावः, तदप्रसिद्धौ तत्रापि पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वेऽपि विवादानुपपत्तिः। अयं परमार्थः-यदि पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वं गगनादावपि स्यात्, तर्हि केवलान्वयित्वेन महाविद्यासा• ध्यवत् तस्य सर्वत्र सद्भावात्, महाविद्यासाध्ये पक्षीकृतशब्दनिष्ठत्वमस्ति न वेति विवादः एव न भवेदिति । युक्त्यन्तरेण अर्थान्तरतामेव समर्थयते-नापि प्रकृतेत्यादि । नापि प्रकृतसाध्यं महाविद्यासाध्यं तद्वत्त्वापरपर्यायः, प्रकृतसाध्यं महाविद्यासाध्यं पक्षः शब्दः, तयोः संसर्गः एव महाविद्यासाध्यस्य पक्षनिष्ठत्वमित्यर्थः । हेतुमाह-प्रकृतेति । प्रकृतसाध्यं महाविद्यासाध्यम् । तद्वत्त्वं हि पक्षे शब्दे निष्ठमस्ति त्वन्मते । एवं च प्रकृतसाध्यवत्त्वस्य पक्षनिष्ठत्वं धर्मो जातः । धर्मधर्मिणोश्च तादात्म्याभावात्प्रकृतसाध्यवत्त्वमेव पक्षनिष्ठत्वमिति न समीचीनमित्यर्थः । ननु प्रकृतसाध्यवत्त्वस्य पक्षनिष्ठत्वरूपस्यैव पक्षनिष्ठत्वं किं न स्यादित्याशङ्कयाह-पक्षनिष्ठत्वस्येति। एतत्तत्वम्-यदि प्रकृतसाध्यवत्त्वमेव पक्षनिष्ठत्वरूपं स्यात्, तदा प्रकृतसाध्यवत्त्वस्य पक्षनिष्ठत्वरूपस्य पक्षनिष्ठत्वं न भवेत् । स्ववृत्तिविरोधात् । तस्मात्प्रकृतसाध्यवत्त्वस्य पक्षनिष्ठत्वं धर्मः एव, न तु प्रकृतसाध्यवत्त्वमेव पक्षनिष्ठत्वमिति । प्रकृतसाध्यपक्षसंसर्गो यद्यपि न पक्षनिष्ठत्वं, तथाप्यपर्यवसानात्पक्षनिष्ठत्वं गमयेदिति महाविद्यासाध्यस्य पक्षनिष्ठत्वसिद्धिरित्याशङ्कय वक्ति-न च पक्षस्येति। पक्षस्य शब्दस्य, प्रकृतसाध्यं महाविद्यासाध्यं, तद्वत्त्वसिद्धिः। अपर्यवसानादिति । पक्षे प्रकृतसाध्यवत्त्वसिद्धिः तर्देव, यहि महाविद्यासाध्यस्य पक्षनिष्ठत्वं स्यादित्यपर्यवसानबलात्प्रकृतसाध्यस्य महाविद्यासाध्यस्य पक्षनिष्ठत्वं गोचरयतीति न च युक्तमित्यन्वयः । कस्मान्न युक्तमत्राहअपर्यवसानस्येति । अपर्यवसानं नाम किं तेन व्याप्यत्वं, तेन विनानुपपद्यमानत्वं वा इत्यादिपूर्वोक्तयुक्तिभिरपर्यवसानस्य प्रागेव प्रतिषिद्धत्वादित्यर्थः । आराध्यविरोधेनेति । आराध्याः सूत्रकारभाष्यकारादयः पूर्वाचार्याः । तैश्च केवलान्वयित्वानङ्गीकारान्महाविद्यापि नोररीचक्रे इति महाविद्यावादिनां तदभ्युपगमे आराध्यविरोधः प्रकट: एवेत्याकूतम् । १ 'साध्यस्य पर्व' इति च पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनम् । इति दृषणपाषाणजर्जरीकृतमूर्तयः । महाविद्याः क्षणं स्थातुं न क्षमन्ते रणाङ्गणे ॥ २१ ॥ ( भुवन० ) —— पूर्वप्रतिपादितनिखिलदोषदूषितत्वं महाविद्याया निगमयति- इति दूषणेत्यादि । दूषणान्येव पाषाणाः, तैर्जर्जरीकृता मूर्तयो यासां तास्तथेति विग्रहः । वादरणाङ्गणे महाविद्याः क्षणमपि स्थातुं न क्षमन्ते, न समर्था भवन्तीत्यर्थः ॥ २१ ॥ अथ किमर्थं स्वाभिमतसकलप्रमेयसाधकमहाविद्यानिराकरणम् । जातीनामिव तासामाभासत्वख्यापनार्थम् । अन्यथा महाविद्याप्रयोक्तृणां शिष्याणां प्रतिवाद्युदीरितप्राचीनदूषणैः पराजयादिति । १०३ १४९ ( भुवन ० ) - अन्वयव्यतिरेक्यनुमानसाध्यस्य स्वाभिमतस्य महाविद्यया अनायासेन साधयितुं शक्यत्वात्तन्निरासः किमर्थमित्यारेकते - अथ किमर्थमित्यादि । स्वस्य अभिमान सकलप्रमेयाणि नित्यत्वानित्यत्वादीनि तत्साधिकाः याः महाविद्याः तन्निराकरणं किमर्थमित्यन्वयः । प्रश्नं मत्वा सिद्धान्ती समाधत्ते - जातीनामिवेति । यथा जातीनां दूषणाभासत्वं, तथा महावि-द्यानां हेत्वाभासत्वख्यापनार्थे महाविद्यानिराकरणमिति भावः । विपर्यये बाधकमभिधत्तेअन्यथा महाविद्येति । अन्यथा यदि महाविद्यानामाभासत्वं न ख्याप्यते, तदा सम्यक् साधनत्वाच्छिष्या महाविद्याः प्रयुञ्जते । तथा च प्रतिवाद्युद्भावित दुष्परिहारपूर्वोक्तानैकान्तिकत्वादिदूषणैः शिष्याणां पराजयः प्रसज्येत । तस्मादाभासत्वख्यापनाय महाविद्यानिरासः समञ्जसः एवेति हृदयाभिप्रायः । एवं च साधनाभासत्वान्महाविद्या कथायां न प्रयोक्तव्येति शिष्यानुशिष्टिरादिष्टा भवति । किञ्च यत्र यत्र परः प्रौढिप्रकर्षमवलम्बते । श्लाघ्यस्तत्तन्निरासार्थः प्रज्ञाभ्यासवतां श्रमः ॥ २२ ॥ योगीश्वरगुरोः शब्दविद्यामासाद्य तत्त्वतः । व्यत्त भट्टवादीन्द्रो महाविद्याविडम्बनम् ॥ २३ ॥ इति श्रीहरकिङ्करन्यायाचार्यपरमपण्डितवादीन्द्रविरचिते महाविद्याविडम्बने दूषणविवेको नाम तृतीयः परिच्छेदः ॥ ३ ॥ ( भुवन ० ) - महाविद्याप्रयोक्तारो वयं सर्वत्र विजयिनः इति गर्वपर्वताधिरूढानां दुरभिमानभङ्गार्थमपि महाविद्यानिरासः कार्यः इत्याह- किंच यत्रेत्यादि । किंच प्रकारान्तरोक्तौ । यत्र यत्र परः प्रौढिशकर्ष पाण्डित्याभिमानमवलम्बते तत्तन्निरासार्थ: प्रज्ञाभ्यासवतां दुरधिगमग्रन्थादिविषयिणी या प्रज्ञा प्रतिभा गूढार्थविचारणादिरूपा तस्या: अभ्यासः पौनःपुन्येन परिशीलनं, तत्र तत्पराणां नराणां श्रमः श्लाघ्यो भवतीति योजना । इह यत्र यत्रेत्यत्र यच्छब्दपरामृष्टं तत्तनिरासेत्यत्र तच्छब्देन परामृश्यते । एतावता महाविद्यायां परस्य प्रौढिप्रकर्षे मत्वा महाविद्यानिरासाय श्रमः यः एवेत्यभिहितं भवति । तथा च महाविद्यानिरासेऽपरमपि प्रयोजनं प्रदर्शितमित्यर्थः ||२२|| Aho! Shrutgyanam Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटीकायुतं श्रीसोमसुन्दरगुरुत्तमपादपद्म संसेविना भुवनसुन्दरसूरिणेयम् । वृत्तिः कृता स्वपरयोरुपकारहेतोः __सेव्या प्रमाणनिपुणैर्विजयोदयाय ॥ १ ॥ हषपुरनामनगरे देवश्रीपार्श्वनाथशुभदृष्टौ । व्याख्यानदीपिकेयं समर्थिता भवतु जयलक्ष्म्यै ॥२॥ षट्तर्कीपरितर्ककर्कशमतिश्चारित्रराजो यति विद्योत्तमरत्नशेखरमुनिर्वादीन्द्रवृन्दाग्रणीः । एतौ द्वावपि शुद्धबुद्धिविभवो टीकामिमां सादरं __ संशोध्य प्रथमप्रती गुणयुतौ संस्थापयामासतुः ॥ ३॥ ग्रन्थोऽयं विषमो मतान्तरगतो गूढार्थसार्यान्वितो व्याख्या नैव पटुः स्फुटार्थघटने नो संप्रदायस्तथा । तस्मान्मन्दमतिप्रबोधविधये स्पष्टार्थनिष्टविनी टीकेयं विहिता चिरं विजयतामन्विष्यमाणा बुधैः ॥४॥ इति श्रीजिनशासन-गगनाङ्गणनभोमणिषड्दर्शनीरहस्याभिज्ञशिरोमणि-सुविहिताचार्यचक्रचूडामणि-श्रीतपागच्छदारहारभट्टारक-प्रभुश्रीसोमसुन्दरसूरिशिष्यश्रीभुवनसुन्दरसूरिविरचितायां महाविद्याविडम्बनवृत्तौ व्याख्यानदीपिकायां दूषणविवेकव्याख्यानो नाम तृतीयः परिच्छेदः समाप्तः ॥ - ग्रन्थश्च संपूर्णः १ इत भारभ्य श्लोकचतुष्टयात्मिका ग्रन्थकर्तृप्रशस्तिः छ द पुस्तकयोर्न विद्यते । २ तपोगच्छ इति च पुस्तकपाठः । ३ इतः परं द पुस्तके निनलिखितानि प्रशस्तिपद्यानि वियन्ते। . . Aho ! Shrutgyanam Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प०३ १५१ महाविद्याविडम्बनम् । अथ प्रशस्तिः । . श्रीवीरः श्रेयसे भूयाच्चित्रकृच्चरितः सताम् । सिद्धार्थमपि सिद्धार्थतनयं यं विदुर्बुधाः ॥१॥ तत्पट्टमुकुटं श्रीमान सुधर्मगणभृद्वभौ। गनेव द्वादशाङ्गीयं यतो हिमवतोऽजनि ॥२॥ अभूवंस्तस्य संताने श्रीजगच्चन्द्रसूरयः । तदीयानुक्रमे चाथ भूरिसूरिपवित्रिते ॥३॥ श्रीमत्तपागणसरोजसरोजिनीशा भक्तिप्रकर्षविनमत्सकलावनीशाः । श्रीदेवसुन्दर इति प्रथिताभिधानाः सूरीश्वराः समभवन्भुवनप्रधानाः ॥ ४ ॥ ॥ युग्मम् ॥ अन्यासाध्यविशुद्धतीव्रतपसा विश्वत्रयोदयोतक त्तत्तादृग्यशसा प्रतापमहसाऽपास्तार्यमज्योतिषा । . संपूर्णागमधारणेन हरणेनोाः समग्राशिव प्रोतैश्च (?) युगप्रधानपदवीमासादयन् ये भुवि ॥५॥ श्रीमञ्चन्द्रकुले तदीयविलसत्पट्टोदयाद्रौ बुधा नव्याः केऽप्युदिताः स्फुरनिजगवा विश्वत्रयोदयोतिनः । भास्वद्गी:पतिमित्रतामुपगताः श्रीमङ्गलोल्लासिनः श्रीगच्छाधिपसोमसुन्दरवराचार्या विराजन्त्यमी ॥६॥ वादीन्द्रव्रजनिर्जयानलभरैर्ब्रह्माण्डभाण्डे परि क्षिप्य प्रौढयशःपयो गुणसितायुक्तं यदीयं विधिः । पाचं पाचमचिन्तनीयरसतां निन्ये तथा कोविदाः खादं स्वादमहर्निशं श्रुतिमुखैस्तृप्तिं यथा यान्ति न ॥ ७ ॥ तदीयकरमाहात्म्यजलवर्धिष्णुवैभवाः । श्रीसूरयस्त्रयो भान्ति सहकारतरूपमाः ।। ८॥ आद्या: श्रीमुनिसुन्दराव्हगुरवस्तेषु स्फुरत्कीर्तय स्तर्कव्याकरणादिशास्त्रनिपुणा राजन्ति यैर्निर्मितः । हस्ताष्टाग्रशतप्रमाणकलितो लेखः सकृजल्पितप्रोद्यन्नामसहस्रधारणकलोxxxxx॥९॥ १ इयं प्रशस्तिःद पुस्तके एव लब्धा । २ इतः परमार्शपुस्तकस्यैकं पत्रं लुप्तम् । अतोऽपूर्णवेयं प्रशस्तिः । Aho! Shrutgyanam Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ परिशिष्टम् श्रीभुवनसुन्दरसूरिविरचितं लघुमहाविद्याविडम्बनम् । स्याद्वादवादप्रबलप्रणाद प्रणष्टदुर्वादिमदद्विपेन्द्रा। गी:सिंहका यस्य विभाति देवः स वर्धमानः श्रियमातनोतु ॥ १॥ इह हि केऽपि दुराहङ्कारप्राग्भारपूरिताः श्रीसर्वज्ञोक्तहेयोपादेयविचारचातुरीदूरिताः सकलस्वाभीष्टवस्तुसाधनाय परपक्षनिषेधाय च स्वकपोलकल्पितान्येवंविधान्यनुमानानि प्रकटयन्ति । तथाहि-आत्मा शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृत्तिधर्मवान् मेयत्वात् घटवत् । अत्र पराहकारप्राग्भारतिरस्कारायोपक्रम्यते ।। ___ हहो वादिन , किमेतदनुमानम् । महाविद्यासत्कमिति चेत् । मैवम् । विद्यात्वमपि सावद्यस्य अस्यानुमानस्य विचार्यमाणं न संजाघटीति , दूरेऽस्तु हेत्वाभासः । केवलान्वयित्वेन व्यतिरेकन्यामेरभावात् । तथा साध्यमत्र अनित्यत्वं परमार्थतः । ततो यद्यदनित्यत्वं तत्तदश्रावणं, यथा घटपटादयः इति साध्यव्यापकश्चायमुपाधिः । शब्दस्य चानित्यत्वमद्यापि विवादास्पदीभूतम् । तस्मात्तेन व्यभिचाराभावात्सोपाधिरयं हेतुः ।। ___ अथ अत्रानित्यत्वं साध्यं न भवति, किन्तु शब्देतरानित्यनित्येत्यादिकम् । तस्य चोपाधिना व्याप्तिास्ति । शब्दत्वेन व्यभिचारादिति नायमुपाधिरिति चेत् । मैवम् । अस्य हनूमल्लोललाङ्गल लम्बस्यापि अनित्ये एव विश्रामात् । साध्यं च तदेव यद्विप्रतिपनं प्रति पक्षे मेयत्वेन साधयितुमभिप्रेतम् । तत्तु अनित्यत्वमेव । अथ च विरुद्धतापिशाचीजठरपिठरीप्रक्षिप्तोऽयं हेत्वाभासः । यतोऽत्र साध्यमनित्यत्वम् । तद्विरुद्धं च नित्यत्वम् । तदपि चानेन साधयितुं शक्यते एव । तथाहि-घटः शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृत्तिधर्मवान् । अपरं च अनैकान्तिकत्वदुर्धरसिन्धुरकरप्रहारविधुरोऽप्ययं हेतुर्मेयत्वादिः। तथा हि-महावि. द्यासाध्ये महाविद्यासाध्यं विद्यते नवा। विद्यते चेत्, आत्माश्रयः । नो चेत्तर्हिमहाविद्यासाध्ये मेयत्वहेतोर्वर्तनात् महाविद्यासाध्यस्य चावर्तनात्, तस्यैव विपक्षवेन अनैकान्तिकः एव अयं हेतुः । तदेवं, दोषत्रयत्रिपथगातरङ्गप्लाविते मुहुः।। हेतुतृणे विलग्नोऽपि वादिन मयसि निश्चितम् ॥ २॥ किञ्चेयं महाविद्या केवलान्वयिव्याप्तिजीवितव्या । सैव चतुरचेतोभिश्चिन्त्यमाना नोपपद्यते । तथाहि-यात्प्रमेयं तत्तदनित्यं दृष्टमिति नियमो नास्ति । आकाशादौ प्रमेयत्वेऽपि नित्यत्वात् । १ वियत्व' इति प्र पुस्तकपाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुमहाविद्याविडम्बनम् १५३ अन्यच्च, अत्र आत्मनः पक्षत्वमेव न संगच्छते । “संदिग्धसाध्यवान्पक्षः" इति पक्षलक्षणम् । तच्चात्र नास्ति । अनित्यत्वस्य शब्दे साध्यत्वेन शब्दस्यैव संदिग्धसाध्यत्वात् । आत्मनो नित्यत्वेन उभयोः सिद्धस्य तथात्वाभावात् । न हि जले शैत्ये साध्यमाने अनल: शीतलः इति केनाप्युच्यते । ततश्चात्मादयोऽत्र पक्षत्वेनोपन्यस्ताः अपि अजागलस्तनकल्पत्वेन असत्कल्पाः एव । एवं सपक्षोऽपि पक्षीकृतो निर्लोठयितव्यः । युक्तेः समानत्वात् । यच्च साध्यं पक्षीक्रियते सदप्ययुक्तम् । साध्यं हि सर्वैरपि धर्मिणि साध्यते, न तु साध्ये । साध्यस्य संदिग्धसाध्यवत्त्वपक्षलक्षणाभावात् । एवमपि साधने घटोऽपि घटे, पटोऽपि पटे साध्यताम् । तार्किकव्यवहारपरित्यागात् । यथा साध्याभावमपि पक्षीकुरुते, तदप्यसमीचीनम् । सर्वथा असतो निरुपाख्यत्वेन पक्षीकर्तुमशक्यत्वात् । असदपि चेत् पक्षीक्रियते, तदा तुरङ्गशृङ्गगगनाम्भोरुहादयोऽपि पक्षीक्रियन्ताम् । युक्तेः समानत्वात् । तुच्छे साध्याभावेऽपि साध्यसाधने दरिद्रमेव विश्वं स्यात् । ___ तत एषा महाविद्या पण्यस्त्रीव सविभ्रमा। बाह्याडम्बरमात्रेण गोहेयेन्न न तत्त्वतः ॥ ३ ॥ अपिच महाविद्याहेतुः केवलान्वयी त्वया उच्यते । केवलान्वयित्वमेव विचारं नाञ्चति । यतः केवलान्वयित्वं सकलवस्तुनिष्ठत्वं त्वया अभ्युपेयते । तथाच सति प्रमेयत्वहेतुः प्रमेयत्वेऽस्ति न वा । अस्ति चेदात्माश्रयः । न चेत्तर्हि स्वस्मिन्नस्यैव अवर्तनात्केवलान्वयित्वभङ्गः । तथा महाविद्यासाध्यमपि सकलवस्तुनिष्ठं स्वीचक्राणम् । तथात्वे च महाविद्यासाध्यं महाविद्यासाध्ये विद्यते न वा । विद्यते चेत्तर्हि व्याघातः । न हि घटे घटो वर्तते एकस्मिन् तहयप्रसङ्गात् । नो चेत्केवलान्वयित्वभङ्गः एव । ततश्च नानाभरणयुक्तापि दुर्भगस्त्रीव वीक्षिता।। बाह्ययुक्तिगुणाप्यन्ते मोह............ ॥ ४ ॥ अति प्रसङ्गदूषणमपि महाविद्यायां स्पष्टमेव । यतोऽनेन प्रकारेण प्रमथनाथादीनामपि अनित्यत्वादिसाधनदर्शनात् भवतः स्वमन्दिरोदरविदारणोपायप्रसङ्गः । तथाहि-ईश्वरः स्वस्वेतरवृत्तिवानधिकरणासर्वव्यापकनिष्ठाधिकरणं मेयत्वात् घटवत् । अथवा आकाशस्य असर्वव्यापकत्वे एतदेवानुमानम्-आकाशः स्वस्वेतरवृत्तित्वानधिकरणासर्वव्यापकनिष्ठाधिकरणं मेयत्वात् घटवत् । अयं घटः एतद्घटान्योन्यसकर्तृकान्यः मेयत्वात् गगनवत् । अनेनानुमानेन तव भूभूवरादेः सकर्तृक(त्व) साधनाभिधाने अनेनैव चास्माभिरकर्तृकत्वमपि साध्यते । तथाहि-आकाशः आकाशाङ्कुरान्यान्याकर्तृकान्यो मेयत्वात् घटवत् । अपिच अनेनैव अनुमानेन ईश्वरस्यापि सकर्तृकत्वं साधयितुं शक्यते एव । तथाहि-अयं घटः एतद्बटेश्वरान्यान्यसकर्तृकान्यः मेयत्वात् घटवत् । एवं विधानुमानैश्च विप्रोऽपि शूद्रमुद्रावान् कर्तु शाशक्यते एव । तथाहि-विप्रः स्वस्वेतरवृत्तित्वानविकरणाशूद्रमुद्रावनिष्ठाधिकरणं मेयत्वात् घटवत् । तदेवं सर्वानुमानानि शब्दपरावर्तेन विपरीतानि कृत्वा वितण्डावादी निर्लोठनीयः । ततश्च आप्तप्रणीतसिद्धान्तमार्गविप्लावकत्वतः । तमस्विनी महाविद्या सिद्धिसौधं न गच्छति ॥५॥ १ ' मोहयेत्' इति स्यात् । २ “तु' इति स्यात् । ३ अत्र आदर्शपुस्तके षडक्षराणि न विषन्ते । २०-२१ महाविया० Aho! Shrutgyanam Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ भुवनसुन्दरसूरिकृतं अथ वादिनः प्रतिभाक्षये जाते सति प्रतिवादिनो वा प्रतिभाक्षये कर्तव्ये महाविद्या प्रयोक्तव्येत्युच्यते भवता । तत्र वादिनस्तव प्रतिभाक्षये जाते एवंविधानुमानवल्लीवितानालम्बनेऽपि प्रतिवादिद्विरदप्रचण्डवाक्शुण्डादण्डाकृष्यमाणस्य कौतस्कुती शुभंयुता । प्रतिवादिनश्च प्रतिभाक्षयाय महाविद्याविद्याप्रयोगेऽपि प्रतिवादिनि जैने स्याद्वादतनुत्राणपरित्राणे वाचस्पतेरपि प्रवीणकृपाणीगा (?) जर्जरीभवन्ति । दूरे भवन्ति भवन्महाविद्याकोमलकमलनालप्रयोगाः। न हि कपोलपालीपरिस्रवन्मद्धारादुर्धरसिन्धुरयुवा दृढेरपि तन्तुप्रयोगैः रोर्बु पार्यते । ततश्च असंभाव्येऽपि विद्यात्वे महाविद्येति यत्कृतम् । नामैतस्या अपार्थ तन्मनुजो देवराजवत् ॥ ६॥ महाविद्याप्रयोगाणां क्षेपणाय विचक्षणैः । सेव्यं लघुमहाविद्याविडम्बनमिदं सदा ॥ ७ ॥ सुपर्वाभमिदं यस्य कण्ठपीठे लुठिष्यति ।। सर्पिण्योऽमर्महाविद्या न स्फुरिष्यन्ति तत्पुरः ॥ ८ ॥ श्रीसोमसुन्दरगुरोः शिष्यः श्रीभुवनसुन्दराचार्यः। कृतवानेतत्प्राज्ञप्रज्ञावृद्धयै विजयदायी ॥ ९ ॥ इति श्रीभुवनसुन्दराचार्यविरचितं लघुमहाविद्याविडम्बनं समाप्तम् ॥ - Aho! Shrutgyanam Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ परिशिष्टम् । श्रीकुलार्कपण्डितप्रणीतं षोडशानुमानात्मकं दशश्लोकीमहाविद्यासूत्रम् । १ अपक्षसाध्यवद्वृत्तिविपक्षान्वयियन्न तत् । साध्यवद्वृत्तितायुक्तं साध्यते साध्यवर्जिते ॥ १ ॥ आत्मा शब्देतरा नित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणा नित्यवृत्तिधर्मवान् मेयत्वात् घटवत् ॥ १ ॥ २ अपक्षसाध्यवद्वृत्ति विपक्षे पक्षिते न यत् । साध्यवद्वृत्तितायुक्तं साध्यते तद्विपक्षगम् ॥ २ ॥ आकाशः आकाशशब्देतरानित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृत्तिधर्मवान् । ३ अपक्षसाध्यवद्वृत्तिविपक्षान्वयवर्जितः । नानाविपक्षवृत्त्यन्यभिन्नधर्मोऽस्ति पक्षिते ॥ ३ ॥ शब्दः शब्दानित्यनित्यवृत्त्यन्यनानानित्यावृत्त्यशब्दधर्मवान् । ४ पक्षापक्षगतादन्यत्साध्यवद्वैधवर्जितम् । गन्धवन्तो गन्धवद्गन्धावृत्तिगन्धवद्वृत्त्यवृत्त्यन्यवन्तः । ५ पक्षापक्षगतादन्यत् साध्यवद्वृत्ति पक्षगम् ॥ ४ ॥ शब्दः शब्दाशब्दावृत्त्यनित्यवृत्तिधर्मवान् । ६ तत्तादात्म्यनिषेधान्यतत्स्था भावविरोधिता । नित्यत्वं स्वप्रतियोगिकान्योन्याभावातिरिक्तशब्दगताभावप्रतियोगि । ७ स्वीकृतानन्यवृत्तित्वसंपन्नान्यत्वसाधनम् ॥ ५ ॥ शब्दाधिकरणं शब्दाधिकरणादन्यत् । ८ पक्षापक्षविपक्षान्यवर्गादेकैकमुद्धृतम् । भिन्नं साध्यवतस्तद्वदुद्धृतावधिभेदिनः ॥ ६ ॥ अयं घटः एतद्वटाङ्कुरान्यान्यसकर्तृकान्यः । ९ तस्यैव तद्वृत्तेन योगो वात्र प्रसाध्यते । अयं घटः एतगुटाङ्कुरान्यान्यसकर्तृकावृत्तिमान् । १० तद्वृत्त्यवृत्तिरथवा प्रोद्धृतेऽत्र प्रसाध्यते ॥ ७ ॥ यथा -- अयं घटः एतद्वटाङ्कुरान्यान्यसकर्तृकधर्मविरही । Aho! Shrutgyanam Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्रीकुलार्कपण्डितप्रणीतं ११ असाध्यान्यवियुक्तान्यव्यावृत्तिर्वा प्रसाध्यते । शब्दः साध्याभावान्यैतद्वियुक्तान्यव्यावृत्तिमान् । १२ असाध्यतद्वियुक्तान्यव्यावृत्तिर्वा प्रसाध्यते ॥ ८॥ शब्दः साध्याभावतद्वियुक्तान्यव्यावृत्तिमान् । १३ पक्षेषु ये सन्ति विवादहीनाः विहाय तानन्यतरः प्रसाध्यः। शब्दः संप्रतिपन्नैतन्निष्ठान्यधर्मवान् ॥ १४ पक्षोऽथवा साध्यविनाकृतेन, शब्दः साध्यव्यतिरिक्ततद्धर्मातिरिक्तधर्मवान् । १५ विच्छिद्य वाऽभाववदन्वितेन ॥९॥ शब्दः शब्दनित्यावृत्तिधर्मवान् । १६ अपक्षसाध्यवद्धृत्तिविपक्षान्वयि यन्न तत् । साध्याश्रयविपक्षान्यविपक्षे व्यतिरेकभाक् ॥ १० ॥ यथा-शब्दः शब्देतरानित्यनित्यावृत्त्याकाशान्यनित्यमात्रवृत्तित्वानधिकरणाकाशधर्मवान् । इति षोडशानुमानात्मिकदशश्लोकीमहाविद्यासूत्रं समाप्तम् ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ परिशिष्टम्। अर्थ महाविद्याविवरणम्। श्रीभुवनसुन्दरसूरिविरचितटिप्पनसमेतम् । श्रृंतिमयतनु केचित्केचिदानन्दरूपं विगलिततनु केचित्केचिदच्छस्वरूपम् । अभिधति यदेकं तन्नमामीह जन्मस्थितिलयपरितापारम्भहीनं स्वरूपम् ॥ १॥ श्रीभुवनसुन्दरसूरिविरचितं महाविद्याविवरणटिप्पनम् । श्रियो धाम श्रीमजिनवरपदाम्भोजयुगलं गिरं देवीं चेतोऽभिमतफलदाने सुरमणीम् । नमस्कृत्यानन्दाद्गुरुचरणयुग्मं च विधिना महाविद्यावृत्तेः किमपि करवै टिप्पनमहम् ॥१॥ प्रायष्टीकाकृतैतस्या रहस्यं न प्रकाशितम् । ___ रहस्याख्यानपूर्व तद्वत्तिाख्यायते मया ॥२॥ महाविद्याबृहद्वत्तिर्व्याख्याता प्रायशो मया । विडम्बनस्य टीकायां विलोक्या सा तदर्थिभिः ॥३॥ अथ महाविद्या कथं समुत्पन्नेति वाच्यमार्याद्वयमुच्यते । __ भाट्टा नित्यं शब्द योगाद्या वादिनस्त्वनित्यं च । प्रतिजानते ततोऽयं जातस्तेषां विवादोऽत्र ॥४॥ तत्तस्यानित्यत्वं प्रतिपादयितुं तु भाट्टवादीन्द्रान् ।। योगाचार्यों वर्यः कृतवानेतां महाविद्याम् ॥ ५ ॥ युग्मम्। अथ सामान्यतो महाविद्यास्वरूपप्रकाशकं पद्यत्रयमुच्यते । तथाहि अन्वयव्यतिरेकित्वोपेतमूलानुमाविधौ । महाविद्यानुमानं तु प्रयोज्यं केवलान्वयि ॥ ६ ॥ १ आदर्शपुस्तकस्य आदौ अन्ते वा ग्रन्थकर्तुर्नामोल्लेखः नोपलभ्यते । २ इत आरभ्य 'विप्याराण वर्णोपलक्षकत्वमिव' (पृ. १६२) इत्यन्तः ग्रन्थः ख पुस्तके नास्ति, तस्य प्रथमपत्रस्य लप्सत्वात् । Aho! Shrutgyanam Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतम् । अर्थतस्य व्याख्या । यत्र मूलानुमानं मुख्यानुमानं अन्वयव्यतिरेकि स्यात्, तत्र महाविद्यानुमानं प्रयोज्यम् । किंविशिष्टम् । केवलान्वयि । तथाहि-अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवत् । व्यतिरेके गगनमित्यत्रान्वयव्यतिरेकिणि मूलानुमाने महाविद्यानुमानं यथा-आत्मा शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणेत्यादि । इदं च केवलान्वय्येवेति श्लोकार्थः । महाविद्यानुमानेषु सर्वेष्वेते भावा विचार्याः । तथाहि शब्दस्यास्थिरतोपलक्षणमिदं साध्यं तु चित्तेप्सितं दृष्टान्ताय च केवलान्वयितया स्थाप्याः पदार्थाः समे । सर्वत्रैव यथार्थसिद्धि युगलावृतिर्विचार्या विधे त्याद्यं सर्वमवेक्षणीयमखिलप्रौढानुमानेष्विह ॥ ७ ॥ अत्र महाविद्यानुमानेषु यत् शब्दस्यानित्यता साध्यते तदुपलक्षणम् । तेनानेन प्रकारेण स्वचितेप्सितं नित्यत्वानित्यत्वसत्त्वासत्त्वपौरुषेयत्वापौरुषेयत्वसकर्तृकत्वाकर्तृकत्वादि सर्व साधनीयम् । तत्र शब्दस्यानित्यतासाधनाय विपक्षं पक्षीकृत्य महाविद्यानुमानं दर्श्यते । तथाहि आत्मा शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृक्तिधर्मवान् मेयत्वात् घटादिवत् । तथा अनेनैवानुमानेन श्रुतेः पौरुषेयत्वं साध्यते । तथाहि-आत्मा श्रुतीतरपौरुषेयापौरुषेयवृत्तित्वरहितपौरुषेयनिष्ठाधिकरणं मेयत्वात् घटादिवत् । एवमनेन प्रकारेणान्यदपि सर्वानुमानैः सर्व साधनीयम् । दृष्टान्तायेत्यादि । अत्र महाविद्यानुमानेषु सर्वे नित्या अनित्याश्च पदार्थाः तद्धर्माश्च दृष्टान्तीकार्याः । पक्षं पक्षतुल्यं च वर्जयित्वा पक्षतुल्यानां पक्षवत्सन्दिग्धसाध्यवत्त्वात् पक्षे विवक्षितसाध्यसाधने पक्षतुल्येऽपि तत्साध्यसिद्धेश्च । अत्र च सर्वेऽपि सपक्षाः कुत इत्याशङ्कायां केवलान्वयितयेत्युक्तम् । महाविद्याहेतोः केवलान्वयित्वात् , केवलान्वयिनि च विपक्षाभावात्, सर्वेऽपि पदार्थाः सपक्षाः सपक्षा एव । सर्वत्रैवेत्यादि । सर्वमहाविद्यानुमानेषु प्रायो युगलावृत्तिर्विचार्या त्रिधा । तथाहि-यो धर्मों नित्ये एव केवले वर्तते, न अनित्ये, सोऽपि नित्यानित्यरूपे युगले न वर्तते, । तथा अनित्ये एव केवले यो धर्मों वर्तते न नित्ये, सोऽपि नित्यानित्ययुगले न वर्तते । तथा यो नित्ये अनित्येऽपि च न वर्तते, सोऽपि नित्यानित्ययुगले न वर्तते । आत्मा शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितानित्यवृत्तिधर्मवानित्यत्र चानुमाने पक्षीकृते आत्मनि साध्यो धर्मः शब्दात्मान्यान्यत्वादिः । स च नित्ये आत्मनि वर्तते, न शब्देतरानित्ये । ततः स शब्देतरानित्यनित्यरूपयुगलावृत्तिरुच्यते । अत्र च दृष्टान्ते घटादौ विचार्यमाणा घटत्वादयो धर्माः घटादिरूपेऽनित्ये एव वर्तन्ते, न नित्ये । तेऽपि शब्देतरानित्यनित्यरूपयुगलावर्तिनः उच्यन्ते । तथा काप्युभयत्राप्यवर्तिनो ये भवन्ति तेऽपि युगलावर्तिनो भवन्तीत्यर्थः । इत्यादि सर्व यथार्थसिद्धि अर्थसिद्धयनतिक्रमेण विचार्यमिति काव्यार्थः । एवंविधं साध्यमनित्यतां विना __ शब्दस्य नोत्पद्यत एव तस्मात् । शब्दोऽस्थिरः स्यादिति पारिशेष्यात् सर्वानुमानेष्विह साध्यसिद्धिः ॥ ८॥ १ तुल्ये तत्सा इति ध पुस्तकपाठः । २ नित्यपुग इति ध पुस्तकपाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १५९ एवंविधं शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृत्तिधर्मवानित्यादिरूपं महाविद्यासाध्यं शब्दस्यानित्यतां विना पक्षीकृते आत्मनि न संभवति । तस्माच्छब्दोऽनित्यः स्वीकार्यः इत्येवंविधपारिशेष्याच्छब्दस्यानित्यत्वरूपसाध्यसिद्धिः स्यादिति । परिशेषलक्षणं च “प्रसक्तप्रतिषेधेऽन्यत्राप्रसङ्गाच्छिष्यमाणे संप्रत्ययः परिशेषः" इति ज्ञेयम् । एवं सर्वमहाविद्यानुमानेषु विवक्षितसाध्यसिद्धिर्विधेयेति पद्यार्थः । इह हि सर्वः कोऽपि ग्रन्थारम्भे अभीष्टदेवतानमस्कारपूर्व प्रवर्तते इति पूर्वपुरुषमार्गमनुस्मरन् कुलार्कपण्डितनिर्मितमहाविद्यावृत्तिं चिकीर्षुर्वृत्तिकारः आदावभीष्टदेवतानमस्कारमाह-श्रुतिमयतनु केचित्केचिदानन्दरूपमित्यादि । तत्स्वरूपं परमात्मरूपं अहं नमामि । तत्कि । यदभिदधति । के कर्तारः । केचित् नित्यस्फोटवादिनो वैयाकरणाः। किंविशिष्टम् । श्रुतिमयेति । श्रुतयो वेदाः ता एव रूपं यस्याः तन्वाः सा श्रुतिमयी, तथाविधा तनुर्यस्य तत्तथा । केचिद्वेदान्तादिमतानुसारिणः आनन्दरूपं आनन्दः एव रूपं स्वरूपं यस्य तत्तथा । केचिन्नैयायिकादयो विगलिततनु अशरीरमित्यर्थः। तथा केचित्सांख्यादयः अच्छं निर्मलमित्यर्थः । पुनः किंविशिष्टं। जन्मेत्यादि। जन्म जननं, स्थितिः सावधिकमवस्थानं संसारदशायामवस्थानमित्यर्थः । लयो विपत्तिः । तैः कृतो यः परितापः, तस्य यः आरम्भः, तेन हीनम् । एतावता जन्मस्थितिविनाशरहितमिति यावत् । एवं. विधं च ब्रम्हस्वरूपं योगिनामेव गम्यं, न त्वस्मदादीनामित्यर्थः । ग्रन्थान्तरेऽपि चैवमेव परमात्मस्वरूपं प्रत्यपादि । तथाहि " नेन्दोः कला न गिरिजा न कपालशक्ति नोंक्षा न भस्म न जटा न भुजङ्गहारः । यस्यास्ति नान्यदपि किञ्चिदुपास्महे त द्रूपं पुराणमुनिशीलितमीश्वरस्य ॥" अन्यत्रापि । “ अपाणिपादो ह्यमैनो ग्रहीता " इत्यादि । अपरत्र च “निर्मलनिश्चलनिष्क्रियरूपमित्यादि । इतरत्र च-" न रूपं नो गन्धः" इत्यादि ॥१॥ महाविद्यानिगूढार्थदर्शनी दीपिका मया। क्रियते धीमतामन्तस्तमोविच्छित्तिहेतवे ॥२॥ (भुवन० )-महाविद्यावृत्तिरीदृशी मया आरभ्यमाणास्तीति वाच्यं श्लोकं वृत्तिकृदाहमहाविद्यानिगूढार्थेत्यादि । स्पष्टमेतत् ॥२॥ पदाक्षेपः पूर्व तद्नु परिपाटीविघटनं विपक्षव्यावृत्तिस्तद्नु तदनु स्वार्थकथनम् । ततस्तेषां वृत्तिः प्रतिभटमुपक्रम्य विरले स्थले कार्येत्येवं विवरणमिदं नः प्रभवति ॥३॥ १ पालभुक्तिः इति ध पुस्तकपाठः । २ दो जवनो ग्रं इति पाठः श्वेताश्वतरोपनिषदि। ३ दि । परत्र च इति ध पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतम् । (भुवन० )-महाविद्यावृत्तौ ग्रन्थकारोऽभिधेयपरिपाटीमाह-पदाक्षेपः पूर्वं तदनु परिपाटीविघटनमित्यादि । पदाक्षेपः पदव्याख्यापदविग्रहपदयोजनादिरूपः । परिपाटी क्रमः, तस्या विघटनं व्यावृत्त्यचिन्तेत्यर्थः । व्यावृत्त्यचिन्तायाः पदक्रमविघटनारूपत्वात् । विपक्षस्य परोद्भावितस्य स्वयं शङ्कितस्य वा व्यावृत्तिरेतावता पराशङ्काया व्यावृत्तिः । स्वार्थस्य शब्दानित्यत्वाद्यपर्यवसानलभ्यार्थस्य कथनम् । तेषां पदानां वृत्तिर्व्याख्या साध्यधर्मदृष्टान्तधर्मकथनादिरूपा कार्येत्यन्वयः । प्रतिभटं प्रतिवादिनं प्रति उपक्रम्य विरले वापि कापि स्थले अधिकारविशेषे इत्यर्थः । इत्येवं प्रकारेण नः अस्माकं विवरणं वृत्तिरर्थव्याख्याविधौ समर्थ भवतीत्यर्थः । यतोऽन्यत्रापि विवरणलक्षणमेवमेव भैरूपितम् ___" उपोद्घातः पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं व्याख्या तन्त्रस्य षडिया ॥"-इति विवक्षितप्रकरणसिध्द्यर्थ या चिन्ता सा उपोद्घातः । तथा चोक्तम्" चिन्तां प्रकृतसिद्धयर्थामुपोद्घातं प्रचक्षते"। -इति ॥ शेषं तु सुगमम् ॥ ३॥ इह खलु केचित्संबन्धप्रयोजनाद्यनभिधानेन असमीचीनत्वमाक्षिपन्ति । तथाहि-प्रकरणेनापि प्रवर्तमानेन किमपि प्रतिपाद्यं संबन्धं वा कमप्यपेक्ष्य प्रवर्तनीयम् । यतः ( भुवन० )-ननु संबन्धप्रयोजनाद्यभिधानाभावेन प्रकरणमेवेदं न स्यादित्याशङ्कतेइह खलु केचित्संबन्धप्रयोजनाधनभिधानेनेत्यादि । संबन्धो विषयविषयिभावलक्षणो वाच्यवाचकभावलक्षणो वा । प्रयोजनं अनन्तरपरंपरभेदभिन्नं कर्तृश्रोत्रसंबन्धि, तयोरनभिधानेन असमीचीनत्वमाक्षिपन्ति उद्भावयन्ति । केऽपीति संबन्धः । तथाहि-प्रकरणेनापीत्यादि । प्रकरणेनापि प्रतिपाद्यमभिधेयं संबन्धं वा पूर्वोक्तमपेक्ष्य प्रवर्तनीयम् । " शास्त्रैकदेशसंबद्धं शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम् ।। __ आहुः प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपश्चितः" इति हि तल्लक्षणात् । अत्र च तस्याभावादिति । तदपि न विद्धन्मानसमानन्दयति । तस्य सर्वांत्र सत्त्वात् । तथाहि-शास्त्रप्रतिपादिताथैकदेशसंक्षेपकं हि प्रकरणम् । इदमपि तथा । अतः शास्त्रीयैरेव तैरिदमपि तद्वत् । भिन्नोक्तौ ग्रन्थबाहुल्येन प्रकरणत्वव्याघातात् । तस्मात्साधुरेवारम्भः । अत्रापि छलप्रतिवादिनः सर्वमयथावन्मन्यमानस्य प्रमाणेन पूर्व मुखमुद्रणार्थं पक्षस्य तावदनेकत्वमुदाहरणैरेव सूचितम् । १ शङ्कयां इति ध पुस्तकपाठः । २ प्रतिरू' इति ध पुस्तकपाठः। ३ अपोद्धा इति त ध पुस्तकपाठः । ४ सिद्धयर्थ मपों इति त ध पुस्तकपाठः। ५ आदितः 'प्रवर्तनीयम् । यतः' इत्यन्तः ग्रन्थांशः क पुस्तके नास्ति। ६ "न्तरपरभे' इति ब पुस्तक पाठः। ७°मानसमानं पदं दर्शयति । तस्य इतिक पुस्तकपाठः। ८ 'सर्वस्यास्य स इति क पुस्तकपाठः। ९ प्रतिपादनैकदेश इति क पुस्तकपाठः । १० भित्रोक्तैः ग्रन्थ इति क पुस्तक पाठः। Aho! Shrutgyanam Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १६१ ( भुवन० ) — शास्त्रैकदेशसंबद्धमित्यादि । प्रमाणप्रमेयादिसर्ववस्तुप्रतिपादकस्य शास्त्रस्य यः एकदेशः प्रमाणप्रतिपादनादिरूपः तेन संबद्धम् । यथा प्रमाणतद्भेदतदन्यलक्षणादिप्रतिपादनपरं न्यायसारादि प्रकरणम् । शास्त्रकार्यं मोक्षादि । शास्त्रस्य मुख्यत्वेन मोक्षार्थत्वात् । तस्मादन्यत्कार्य शास्त्रकार्यान्तरं प्रमाणप्रमेयप्रतिपादनादिरूपम् । तस्मिन्स्थितम् । एवं विधं ग्रन्थभेदं विपश्चितो विद्वांसः प्रकरणं प्राहुरित्यर्थः । तस्य सर्वस्येति । तस्य प्रकरणलक्षणस्येत्यर्थः । शास्त्रीयैरेव तैरित्यादि । शास्त्रीयैः शाखसंबन्धिभिरेव तैः संबन्धप्रयोजनादिभिरिदमपि तद्वत् संबन्धप्रयोजनादिवत् । संबन्धश्चात्र विषयविषयिभावादिः । विषयो महाविद्यानुमानानि, विषयी चैतत्प्रकरणमेव, प्रयोजनं च शब्दानित्यत्वादिसाधनरूपमत्र मन्तव्यम् । तस्मात्तद्वत्त्वेन प्रकरणमेवेदम् । संबन्धप्रयोजनादीनां भिन्नोक्तौ पृथगुक्तौ ग्रन्थबाहुल्येन प्रकरणत्वव्याघातात् । संबन्धप्रयोजनादीनां तु पृथगुक्तौ शास्त्रमेवेदं स्यात्, न तु प्रकरणमित्यर्थः । यतः पक्षत्वं हि कचिदपि भजत्यत्र मिथ्या सपक्षः पक्षीकार्यः कचिदपि विपक्षोऽपि वालीक एव । पक्षः साक्षात्कचिदपि भजत्यन्यपक्षस्य कक्षामेवं पक्षः श्रयति बहुधा रूपभेदं नवीनम् ॥ विपक्षपक्षयोस्तु पक्षीकरणमव्यभिचरणार्थमेव । तयोस्तद्व्याहतमिति - चेत् । न । उपलक्षणत्वेन अविरोधात् । ( भुवन ० ) - पक्षत्वं हि कचिदपि भजत्यत्र मिथ्या सपक्षः इत्यादि । मूलानुमानसपक्षो घटादिः कापि मिथ्यैव पक्षत्वं भजते । स्वाभिमतसाध्यस्य शब्दरूपे पक्षे एव सिद्धेः मिध्येत्युक्तम् । एवमग्रेऽपि पदसाफल्यं स्वयं ज्ञेयम् । कचिदपि मूलानुमानविपक्षोऽपि गगनादिः पक्षी - कार्यः । साक्षात्पक्षः शब्दरूपः क्वचिदप्यैन्यपक्षस्य सपक्षादेः कक्षां प्रतिज्ञां भजते । सपक्षविपक्षादिकं वा पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्यासु शब्दरूपपक्षस्यापि सपक्षत्वात् । विपक्षसपक्षयोस्तु पक्षीकरणमव्यभिचरणार्थमेवेति । अत्र महाविद्यायां विपक्षपक्षयोः पक्षीकरणमव्यभिचरणार्थम् । अयमर्थःपक्षस्यैव पक्षीकरणे पक्षे विपक्षे सपक्षे च वर्तनाद्धेतोर्व्यभिचारः स्यात् । ततः तन्निवर्तनाय विपक्षसपक्षयोः पक्षीकरणम् । तथा च व्यभिचारस्थानं विपक्षोऽपि यदि पक्षीकृतः, तर्हि विपक्षाभावात् क्वापि व्यभिचारो न भवेदित्यर्थः । तयोस्तद्व्याहतमिति चेदिति । तयोः विपक्षपक्षयोः तत्पक्षी • करणं व्याहतमिति चेत् इत्युक्ते आचार्य: आह-न । उपलक्षणत्वेनेत्यादि । पक्षपक्षीकरणस्योपलक्षणत्वेन विपक्षपक्षयोरपि पक्षीकरणस्याविरोधात् । ननु उपलक्षणत्वमपि कदाचित्संबन्धिनि भवति । विपक्षपक्षयोस्तु १ शब्दस्वरूपे इति त पुस्तक पाठः । २ दप्यपक्ष' इति त पुस्तकेतरपुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतम् । पक्षत्वेन संबन्धाभावात्कथं तदिति चेत् । न ।यद्रजतमभात् सैषा शुक्तिरित्यत्र रजतस्य शुक्तिकोपलक्षकत्ववदुपपत्तिः, लिप्यक्षराणां वर्णोपलक्षकत्वमिव वेदान्तिमते मायाया ब्रह्मोपलक्षकत्वमिवेति । न च रजतादीनां शुत्त्यादिविशेषणत्वात् दृष्टान्तदान्तिकयोवैषम्यमिति वाच्यम् । विशेषणस्य विद्यमानत्वव्याप्तत्वात्, विद्यमानत्वव्यापकनिवृत्तौ निवर्तनादिति । (भुवन०)-नोदकः आह-ननूपलक्षणत्वमपीति । उपलक्षणत्वमपि कदाचित्संबन्धिनि कदाचिद्येन सह संबन्धः स्यात्तत्र भवति । “ कदाचित्संबद्धं व्यावर्तकमुपलक्षणमिति तल्लक्षणात् । कथं तदिति । तदुपलक्षणत्वं कथमित्यर्थः । आचार्यः आह-न। यद्रजतमित्यादि । यत्पूर्व भ्रान्तावस्थायां रजतमभात् प्रत्यभात् , सैषा शुक्तिरित्यत्र रजतस्य शुक्तिकोपलक्षकत्ववत् शुक्तिकाप्रत्यायनमिव पूर्वोक्तोपलक्षणत्वोपपत्तेः । अयं भावः यथा पूर्वप्रतिभातरजतेन शुक्तिकोपलक्ष्यते, तथा पक्षस्य पक्षीकरणेन विपक्षसपक्षयोरपि पक्षीकरणमुपलक्ष्यते इति । अथ पुनरपि दृष्टान्तद्वयेनैतदेव द्रढयति-लिप्यक्षराणां वर्णोपलक्षकत्वमिवेति। लिप्यक्षराणां गौर्जरकार्णाटान्ध्रादिलिप्यक्षराणां पुस्तकादिलिखितानां श्रोतृप्राह्यज्ञानमयवर्णोपलझकत्वमिव । वेदान्तिमते इत्यादि । वेदान्तिमते संसाररूपमायायाः अविद्येति नाम्न्याः यथा ब्रह्मोपलक्षकत्वं परब्रह्मोपलक्षकत्वमित्यर्थः । अयमत्र भावः । असत्यं हि सत्याधारे भवति, शुक्तिकायां यथा रजतप्रतिभासः । एवमत्रापि मायायाः प्रपञ्चरूपायाः असत्यत्वेन केनापि तदाधारण सत्येन भाव्यम् । सत्यं च विचार्यमाणं ब्रह्मैव, अन्यस्य सर्वस्य प्रपञ्चान्तर्गतत्वादित्यनेन प्रकारेण मायाया ब्रह्मोपलक्षकत्वमित्यर्थः । न च रजतादीनामित्यादि । पक्षपक्षीकरणस्योपलक्षणत्वेन विपक्षसपक्षयोः पक्षीकरणं दान्तिकं, रजतस्य शुक्तिकोपलक्षकत्वं दृष्टान्तः, तत्र च यद्रजतमभात् सैषा शुक्तिरित्येवं रजतं विशेषणभूतं सत् शुक्तिकां गमयति, पक्षपक्षीकरणं चोपलक्षणत्वेन विपक्षसपक्षयोः पक्षीकरणं गमयतीत्यतो दृष्टान्तदाान्तिकयोः वैषम्यमिति न च वाच्यम् । विशेषणस्य विद्यमानत्वव्याप्तत्वादिति । विशेषणस्य विद्यमानत्वेन व्यापकेन व्याप्तत्वात् । " सर्वदा संबद्धं व्यावर्तकं विद्यमानं विशेषणमिति तल्लक्षणात् । व्याप्यत्वं च यद्यद्विशेषणं तत्तद्विद्यमानमिति तयोर्व्याप्तिसद्भावादित्यर्थः । विद्यमानत्वव्यापकनिवृत्तौ निवर्तनादिति । विद्यमानत्वस्य व्यापकस्य निवृत्तौ विशेषणस्य ल्याप्यस्य निवर्तनात् । विद्यमानत्वं हि व्यापक रजतादेनिवृत्तं सत् विशेषणत्वमपि रजतादेर्निवर्तयति । तस्माद्रजतादिकमुपलक्षणत्वेनैव स्वीकार्य, न तु विशेषणत्वेन । उपलक्षणं वा अविद्यमानमपि स्यात्, न तु विशेषणम् । तस्माद्रजतादिवदुपलक्षणत्वेन विपक्षसपक्षयोः पक्षीकरणं युक्तमेवेत्यर्थः । (अथ प्रथमानुमानम् ।) तत्र प्रथमं तावत् शब्दानित्यत्वानुमानम् । तत्रापि तस्यानुमानस्य संग्राहकः श्लोको यथा-अपक्षेति । १ 'पपत्तेः । लिइति क पुस्तकपाठः। २ विधमानव्या इति ख पुस्तकपाठः । ३ टान्धीलिप्य इति त पुस्तकपाठः। ५ परमत्र इति त पुस्तकपाठः । ५ गमयति । अतों इति ध पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १६३ १ अपक्षसाध्यवद्धृत्तिविपक्षान्वयियन्न तत् । साध्यवद्धृत्तितायुक्तं साध्यते साध्यवर्जिते ॥१॥ आत्मा शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृत्तिधर्मवान् मेयत्वात् घटवत् । तस्यायमर्थः-अपक्षो यः साध्यवान् सः अपक्षसाध्यवान् । सपक्षः इत्यर्थः। तत्र सपक्षे वर्तमानं यत् तत् अपक्षसाध्यववृत्ति । विपक्षे अन्वयो यस्य तत् विपक्षान्वयि । अपक्षसाध्यववृत्ति च तत् विपक्षान्वयि च इत्यपक्षसाध्यवद्धृत्तिविपक्षान्वयि । तत् यत् न भवति तत् अपक्षसाध्यववृत्तिविपक्षान्वयियन्न । सपक्षविपक्षावृत्तीत्यर्थः । तत्साध्यते इति संबन्धः। किंभूतम् । साध्यववृत्तितायुक्तम् । साध्यवान् सपक्षः, तत्र वर्तते इति साध्यववृत्ति, तस्य भावः इति यावत् । ( अथ प्रथमानुमानम् ।) तत्र प्रथमं तावच्छब्दानित्यत्वानुमानस्य सङ्ग्राहकं श्लोकं व्याचिख्यासुराह-अपक्षेतीति । " अपक्षसाध्यवद्वृत्तिविपक्षान्वयियन तत् ।। साध्यवद्वत्तितायुक्तं साध्यते साध्यवर्जिते " ॥१॥ __ अस्यायमर्थः-अपक्षो यः साध्यवान् सोऽपक्षसाध्यवान् सपक्षः इत्यर्थः । तत्र सपक्षे घटादौ वर्तमानं यत्तत् अपक्षसाध्यवद्वृत्ति । विपक्षे गगनादौ अन्वयो यस्य तद्विपक्षान्वयि । अपक्षसाध्यवइत्ति च तद्विपक्षान्वयि चेति अपक्षसाध्यवत्तिविपक्षान्वयि । तद्यन्न भवति तदपक्षसाध्यवद्वृत्तिवि. पक्षान्वयियन्न । सपक्षविपक्षावृत्तीत्यर्थः । तत्साध्यते इति संबन्धः । किंभूतम् । साध्यवद्वृत्तितायुक्तं साध्यवान्सपक्षः, तत्र वर्तते इति साध्यवद्वत्ति । तस्य भावः साध्यवत्तिता, तया युक्तम् । ननु अपक्षसाध्यवद्वत्तीत्यादिभणनात् महाविद्यानुमानसाध्यस्य सपक्षे विपक्षे च वृत्तिता निषिद्धा। तत. स्तत्साध्यवद्वृत्तितेत्यादिभणनात् साध्यवद्वृत्तितायुक्तं साध्यवर्जिते विपक्षे यदि साध्यते, तदा सपक्षविपक्षवृत्तितैव तस्य स्यात् । तथा च कारिकापूर्वार्धोत्तरार्द्धयोर्विरोधः एवापद्यते इति चेत् । न । अत्र सपक्षविपक्षयोरवृत्तिता या प्रोक्ता सा युगलावृत्तित्वेन । तथा च सति यो धर्मो विपक्षे साध्यते स सपक्षे नास्ति । शब्दात्मान्यान्यत्वादेः शब्दात्मभ्यामन्यत्र घटादिसपक्षेऽवर्तनादिति स सपक्ष. विपक्षयुगलावृत्तिरुच्यते । एवंभूतश्च विपक्षे साध्यते । ननु तर्हि स धर्मः शब्दात्मान्यान्यत्वादिः साध्यवद्वृत्तिः कथम् । सत्यम् । अत्र शब्दात्मान्यान्यत्वधर्मस्य शब्दात्मनोरन्यत्रावर्तनात् साध्यवद्धत्तित्वं तदेव, यदि शब्दः साध्यवान्स्यादिति परिशेषप्रमाणेन शब्दः एव साध्यवान् जातः । तथा च स धर्मः साध्यवति शब्दे वर्तमानो भवतीति साध्यवद्वत्तित्वं तस्य धर्मस्येति न कश्चिद्विरोधगन्धोऽपि बुद्धिमद्भिरपि शङ्कितुं शक्यते इति । इदानी लोकानमानपढयोजनिका-अत्र शब्देतरानित्येत्यनेन अपक्ष Aho ! Shrutgyanam Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ भुवनसुन्दरसूरिकृत टिप्पनसमेतं साध्यवद्धृत्तीति व्याख्यातम् । नित्यवृत्तित्वेत्यनेन विपक्षान्वयीति । अनधिकरणेत्यनेन यन्नेति । अनित्यवृत्तिधर्मवानित्यनेन साध्यवद्धृत्तितायुक्तमिति । आत्मेत्यनेन च साध्यवर्जिते इति । इति पदयोजना ॥ (भुवन० )-अथानुमानम् । आत्मा शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृत्तिधर्मवान् मेयत्वात् घटवत् । अत्र कारिकायां यादृक्षं लक्षणमुक्तं ताहगेवानुमानेऽपि दर्शयितुं श्लोकानुमानपदयोजनां विधत्ते-इदानीं श्लोकानुमानेति । श्लोकश्चानुमानं च श्लोकानुमाने, तयोः परस्परं पदयोजनिका । अत्र शब्देतरानित्येत्यनेनेति । वृत्तीत्यप्रेतनपदोक्तमपि द्वयोः संबन्धित्वादत्रापि संबध्यते । तेन शब्दादितरे ये अनित्याः तत्र वृत्तीत्येतावताऽपक्षसाध्यवद्वृत्तीति व्याख्यातम् । यतः शब्देतरानित्येषु यद्वर्तते तन्मूलानुमानापेक्षया सपक्षाः ये अनित्याः घटादयः तेषु वर्तते एव । नित्यत्तित्वेत्यनेन विपक्षान्वयीति व्याख्यातम् । यतो यन्नित्ये वर्तते तन्मूलानुमानापेक्षया विपक्षे गगनादौ वर्तते एवेति । अनधिकरणेत्यनेनेति । शब्देतरानित्यवृत्तित्वस्य अनधिकरणमिति भणनात् श्लोकमध्यस्थं यन्नेति व्याख्यातम् । युगलावृत्तित्वेनोभयोर्न वर्तत एवेत्यर्थः । अनित्यवृत्तिधर्मवानित्यनेनेत्यादि । योऽनित्यवृत्तिधर्मवान् स धर्मः साध्यं मूलानुमानापेक्षयाऽनित्यत्वम् । तद्वाननित्यः तत्र वर्तते एवेति भावः । आत्मेत्यनेनेति । आत्मा तदैव पक्षीकृतो यदि साध्यमनित्यत्वं, तेन वर्जिते पक्षे साध्यं साध्यते इति योजना । अथ व्यावृत्त्यचिन्ता-आत्मा अनित्यवृत्तिधर्मवानिति कृते सत्तया सिद्धसाधनम् । तदर्थं शब्देतरानित्यवृत्तिधर्मवानिति कृतम् । तथा च सत्ताव्यावृत्तिः । तस्याः शब्देऽपि वर्तमानत्वात् । तथापि द्रव्यत्वेन सिद्धसाधनम् । तदर्थं नित्यवृत्तित्वानधिकरणेति प्रक्षिप्तम् । द्रव्यत्वं नित्येष्वपि वर्तते । तथा चैवमनुमानं स्यात्, आत्मा शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणधर्मवानिति । तथाप्येवंभूतधर्मस्य युगलावृत्तेरात्मनि आत्मत्वस्यैव संभवात्सिद्धसाधनम् । तदर्थमनित्यवृत्तीत्युक्तम् । ___ (भुवन०)-अथ व्यावृत्त्यचिन्तेति । व्यावृत्त्यानि व्यावर्तनार्हाणि यानि पदानि तेषामेतत्पदं किमर्थ प्रक्षिप्तमित्यादिरूपा चिन्ता व्यावृत्त्यचिन्ता । एवं सर्वत्रापि ज्ञेयम् । आत्मा अ. नित्यत्तिधर्मवानिति कृते सत्तया सिद्धसाधनमिति । सत्ता नित्यानित्ययोधर्मः, स चात्मन्यपि विद्यते एव । आत्मनि सत्तासाधनेऽनुमानमध्ययुक्तम् । आत्मनि सत्तायाः उभयोरपि सिद्धत्वात्। वदर्थ शब्देतरानित्येति । ये शब्दे धर्माः सन्ति तेभ्यः इतरे ये अनित्यधर्माः तद्वानात्मा । एवं कृते सत्ताव्यावृत्तिः । सत्तायाः शब्देऽपि भावात् । तथापि द्रव्यत्वेन सिद्धसाधनमिति । द्रव्यत्रं शब्दे नास्ति । शब्दस्य वैशेषिकादिमतेनाकाशगुणत्वात्, अनित्येष्वपि वर्तमानत्वाच्च । तेन तद्वानात्मा स्यात् । तथा च सिद्धसाधनं स्यात् । द्रव्यत्वस्यात्मनि वादिप्रतिवादिनोरुभयोरपि सिद्धत्वादित्यर्थः । तदर्थ नित्यत्तित्वानधिकरणेति प्रक्षिप्तम् । द्रव्यत्वं नित्येष्वपि वर्तते इति । Aho ! Shrutgyanam Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ महाविद्याविवरणम्। एवंविधो धर्मः नित्यवृत्तित्वानधिकरणं विलोक्यते, द्रव्यत्वं च नित्येष्वपि वर्तते । तस्मान्नित्यवृत्तित्वाऽनधिकरणेति ग्रहणेन तन्निषिद्धमित्यर्थः । तथा चैवमनुमानं स्यात् , आत्मा शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणधर्मवानिति । तथाप्येवंभूतस्येति । आत्मत्वं हि नित्यवृत्त्यस्ति, न तु अनित्यवृत्तीति पूर्वोक्तयुगलावृत्तिप्रकारेण तत् शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणमुच्यते । अतः तेन सिद्धसाधनं स्यादेवेति । तदर्थमनित्यवृत्तीत्युक्तमिति। एवंविधो धर्मः अनित्यवृत्तिविलोक्यते । आत्मत्वं चानित्यवृत्ति नास्ति । नित्ये एव आत्मनि तस्य वर्तनात् । तस्मात्तन्निषिद्धमित्यर्थः । ननु आत्मा शब्देतरधर्मवानिति क्रियतामिति चेत् । न । आत्मत्वेनैव सिद्धसाधनात् । तस्य आत्मधर्मत्वेन शब्देतरधर्मत्वात् । तदर्थं नित्यवृत्तित्वानधिकरणेत्युक्तम् । तथापि विरोधः । आत्मवृत्तित्वे नित्यत्तित्वानधिकरणत्वानुपपत्तेः। तदर्थमनित्यपदग्रहणम् । तथाप्यात्मत्वादि युगलावृत्त्यपि भवति। आत्मन्येव वर्तनात् । तदर्थमनित्यवृत्तिधर्मवानिति कृतम् । स च धर्म: आत्मनि नित्ये बोधितः शब्दस्य अनित्यत्वमादाय पर्यवस्यति । से च शब्दामनोरन्योन्याभावः एव । __ (भुवन०)-अथ आशङ्कामुखेन प्रकारान्तरेण व्यावृत्तिचिन्तां करोति-नन्वित्यादि । आत्मा शब्देतरधर्मवानित्यादि स्पष्टम् । तथाप्यात्मत्वादि युगलावृत्त्यपि भवतीति । आत्मा शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणधर्मवानितिकृतेऽप्यात्मत्वमात्मनि नित्ये वर्तते, न अनित्ये । तेन युगलावृत्तित्वेन नित्यानित्ययोरवर्तनादात्मधर्मत्वाच्च तेन सिद्धसाधनं स्यात् , तदर्थमनित्यवृत्तिधर्मवानिति कृतमित्यर्थः। ___ अर्थतस्यानुमानस्य व्याख्या-आत्मा पक्षः । अनित्ये वृत्तिः यस्य सोऽनित्यवृत्तिः । स चासौ धर्मश्चेति । शब्दादितरे शब्दव्यतिरिक्ता ये अनित्या घटादयो नित्याश्चाकाशादयः, तेषु ये वर्तन्ते धर्माः, तेषु शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वं धर्मः, तस्यानधिकरणमनाधारः । स चासौ अनित्यवृत्तिधर्मश्चेति समासः । अत्र शब्देतरानित्यनित्ययुगलवृत्तिः धर्मः सत्ताद्रव्यप्रमेयत्वादिः शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणेतिपदेन निरस्तः । अथ च यो नित्ये एव केवले विद्यते नित्यत्वस्थिरैकस्वभावत्वादिः, स चानित्यवृत्तीतिपदेन निरस्तः । अथ चानित्ये एव केवले यो धर्मोऽनित्यत्वादिः विद्यते, स नित्ये आत्मनि पक्षीकृतेऽसंभावादेव निरस्तः । एतावता शब्देतरानित्यनित्ययुगल. वर्ती एकैकनित्यमात्रानित्यमात्रवर्ती च धर्मः साध्यरूपतया निषिद्धः । अवशिष्टश्च साध्यधर्मो विश्वप्रतियोगिकः शब्दात्मान्योन्याभावः शब्दात्मान्योन्यत्वादिर्वा पक्षे आत्मनि सिध्यति । ननु सिध्यतु विश्वप्रतियोगिकः शब्दात्मान्योन्याभावादिः पक्षे, परं शब्दस्यानित्यत्वं कथं सिध्यतीत्याशङ्कय आहस च धर्म इति । स धर्मः शब्दात्मान्योन्याभावादिनित्ये आत्मनि बोधितः साधितः सन् शब्दस्यानित्यत्वमादाय पर्यवस्यति विश्राम्यति । यतः आत्मनि वर्त्तनेऽपि तस्य धर्मस्यानित्यवृत्तित्वं तदैव स्यात् , यद्यनित्यः शब्दः स्यात् । आत्मनो नित्यत्वात् । आत्मनित्यत्वे च वादिप्रतिवादिनोरवि १ स च धर्मशब्दा इति ख पुस्तकपाठः । । Aho ! Shrutgyanam Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतं वादात् । तस्य धर्मस्य शब्दात्मभ्यामन्यत्र घटादौ चावर्तनात् । तस्मात्पारिशेष्याच्छब्दस्यैवानित्यत्वमायातम् । शब्दानित्यत्वे च तस्य धर्मस्य शब्दरूपेऽनित्ये वर्तनादनित्यवृत्तित्वमुपपन्नमेवेत्यर्थः । साध्यधर्ममाचष्टे स च शब्देति । स च धर्मः शब्दात्मव्यतिरिक्तविश्वप्रतियोगिकः शब्दात्मान्यो-' न्याभाव एवेत्यर्थः । उपलक्षणं चैतत् । तेन शब्दात्मान्यान्यत्वशब्दात्मान्यतरत्वादिः शब्दात्ममात्रवृत्तिरन्योऽपि साध्यधर्मो बोद्धव्यः । ___ ननु तथापि दृष्टान्ते घटे तथाभूतधर्मस्य असंभवात् साध्यविकलत्वम् । न । घटेऽपि शब्देतरोनित्यनित्ययुगले न वर्तते अनित्यवृत्त्यपि घटत्वम् । अतस्तेनैव व्याप्तिरिति न दोषः । इति प्रथमोदाहरणम् ॥ (भुवन०)-सपक्षधर्म प्रतिपिपादयिषुराशङ्कते-नन्विति । परिहरति-न घटेऽपीति । अत्र च दृष्टान्तीभूते घटेऽपि घटत्वमस्तीत्यध्याहारः । तच्च शब्देतरानित्यनित्ययुगले न वर्तते । घटरूपानित्ये एव तस्य वर्तनात् । तत एव च तत् अनित्यवृत्यप्यस्ति । अतस्तेनैव घटत्वेनैव व्याप्तिरिति भावः । उपलक्षणं चैतत् । तेन पटादीनां दृष्टान्तत्वे पटत्वादयो धर्माः ज्ञेयाः । अत्र व्याप्तिश्वेत्थं विधेया-यत् यत् प्रमेयं तत्तच्छब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृत्तिधर्मवत् यथा घटादि । न चाकाशादिषु मेयत्वे सत्यपि शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यधर्मवत्त्वं नास्तीत्यनैकान्तिकत्वमिति वाच्यम् । आकाशादीनां पक्षतुल्यत्वात् । अयमर्थः-यथा आत्मात्र पक्षी. कृतस्तथाकाशादिकमपि पक्षीक्रियते । तथाहि-आकाशं शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृत्तिधर्मवत् मेयत्वात् घटादिवत् । एवं च सति नहि पक्षे पक्षतुल्ये वा व्यभिचारः । ततश्च यथा पक्षे सन्दिग्धसाध्यत्वेन व्याप्तेरभावेऽपि व्यभिचारो नास्ति, तथा पक्षतुल्येऽपीत्यर्थः । ननु यादृशो धर्मः पक्षे साध्यरूपः तादृशः सपक्षे नास्ति । मैवम् । शब्दपरावतै विनैव आत्मा शब्देतरेत्यादिभिरेव शब्दैः पक्षे शब्दात्मान्योन्याभावस्य दृष्टान्तीभूते घटे घटत्वस्य चोपपत्तेरिति प्रथममहाविद्याव्याख्या ॥ (अथ द्वितीयानुमानम् ।) अथ प्रकारान्तरेण शब्दानित्यत्वसाधनं दर्शयितुमनित्यत्वानुमानसंग्राहिकां कारिकामाह २ अपक्षसाध्यवदृत्ति विपक्षे पक्षिते न यत् । साध्यवद्धृत्तितायुक्तं साध्यते तद्विपक्षगम् ॥ २॥ आकाशः आकाशशब्देतरानित्यत्तित्वानधिकरणानित्यत्तिधर्मवान् । अस्य च पूर्वस्मादयमेव भेदो यत्पक्षीकृतस्यैव विपक्षस्य व्यावृत्तिः, न सर्वस्य । पूर्वस्मिस्तु यावद्विपक्षव्यावृत्तिरिति । अयमर्थः-अपक्षो यः साध्यवान् सः अपक्षसाध्यवान् । तत्र यद्वर्तते . १ 'तरानित्यपर्ग इति क ख पुस्तकपाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १६७ तदपक्षसाध्यववृत्ति, तद्यन्न भवति । विपक्षे आकाशादौ च पक्षिते पक्षीकृते यन्न वर्तते तत्साध्यते इति संवन्धः । किंभूतं साध्यते । विपक्षगं, विपक्षे इत्यर्थः । उपलक्षणपक्षीकृते इति यावत् । अथ पदयोजना-अत्र आकाशेत्यनेन विपक्षे इति व्याख्यातम् । शब्देतरानित्येत्यनेन अपक्षसाध्यववृत्तीति । अनित्यवृत्तीत्यनेन साध्यववृत्तितायुक्तमिति । इति पदयोजना ॥ (अथ द्वितीयानुमानम् ।) (भुवन०)-अथ शब्दानित्यत्वसाधनायैव द्वितीयानुमानवाच्यां कारिकां व्याख्यातुमाहअपक्षेतीति । “ अपक्षसाध्यवद्वति विपक्षे पक्षिते न यत् । साध्यवद्वृतितायुक्तं साध्यते तद्विपक्षगम् " ॥२॥ एतस्यार्थः पूर्ववत् । अस्य चेत्यादि । अयमर्थः । पूर्वस्मिन्ननुमाने आत्मा शब्देतरानित्यनित्येत्यत्र नित्यपदेन सर्वेऽपि नित्याः पदार्थाः वर्जिताः । आकाशः आकाशशब्देतरानित्यवृत्तित्वेत्यत्र तु नित्यपदस्थाने आकाशपदप्रक्षेपेण पक्षीकृतस्याकाशस्यैव व्यावृत्तिर्न तु सर्वनित्यपदार्थानामिति । अथानुमानम्-आकाशः आकाशशब्देतरानित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृत्तिधर्मवान् मेयत्वात् घटवत् । आकाशश्च शब्देतरानित्याश्च तत्र वृत्तिर्येषां तद्भावः तत्त्वम् । तदनधिकरणं चासौ अनित्यत्तिधर्मश्चेति विग्रहः। अथ व्यावृत्त्यचिन्ता-आकाशोऽनित्यवृत्तिधर्मवानितिकृते सत्तया सिद्धसाधनम् । तदर्थं शब्देतरेतिपदम् । तथापि घटाकाशसंबन्धः शब्देतरानित्यघटे एव वर्तते इति तेन सिद्धसाधनम् । तद्यावृत्त्यर्थमनित्यवृत्तित्वानधिकरणेति पदोपादानम् । तथाप्याकाशपरमाणुसंयोगः शब्देतरानित्यवृत्तित्वानधिकरणो भवति, नित्ये परमाणावेव वर्तनात् । अतस्तेन सिद्धसाधनम् । तदर्थमनित्यवृत्तीतिपदग्रहणम् । तेनेदृशमनुमानं स्यात्-आकाश: शब्देतरानित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृत्तिधर्मवानिति । तथाप्येवंविधधर्मस्य अन्यत्र अदृष्टचरत्वादप्रसिद्ध विशेषणः पक्षः । न हि अनित्ये वर्तते, शब्देतरानित्ये च न वर्तते इति धर्मः संभवति । यो हि अनित्यवृत्तिः स शब्देतरानित्ये वर्तते यथा घटत्वादि । तथा च सपक्षाभावेन अन्वयित्वमेव व्याहन्यते । तदर्थमाकाशग्रहणम् । तथा च न कश्चिद्दोषः । आकाशशब्देतरानित्यमेलके यो न वर्तते, (सः) अनित्यवृत्तिरपि भवति । एवंभूतश्च धर्मो दृष्टान्ते घटे घटात्मा १ व्यावृत्तिचिन्ता इति न पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतं न्योन्याभावोऽपि संभवति । आकाशे त्वेवंभूतो धर्मस्तदा स्याद्यदि शब्दस्यानित्यत्वं स्यात् । स च शब्दाकाशान्योन्याभावः एव । इति द्वितीयोदाहरणम्॥ (भुवन०)-आकाशोऽनित्यत्तिधर्मवानिति कृते सत्तयेति । सत्तारूपस्य धर्मस्यानित्ये आकाशेऽपि च विद्यमानत्वात्सिद्धसाधनं स्यादित्यर्थः । तदर्थ शब्देतरेति । सत्तायाः शब्देऽपि विद्यमानत्वात्तनिषेधः । तथापि घटाकाशसंबन्धः इत्यादि । घटस्याकाशेन संबन्धः घटाकाशसंबन्धः । तस्य च शब्देतरानित्यघटे आकाशे च विद्यमानत्वात्तेन सिद्धसाधनं स्यादित्यर्थः । तयावृत्त्यर्थमनित्यत्तित्वानधिकरणेति पदोपादानम् । तथाप्याकाशपरमाणुसंयोगः इत्यादि। अत्रायं भावः । आकाशः शब्देतरानित्यवृत्तित्वानधिकरणधर्मवान् इति कृतेऽप्याकाशपरमाणुसंयोगेन सिद्धसाध्यतैव । आकाशश्च परमाणुश्च आकाशपरमाणू, तयोः संयोगः आकाशपरमाणुसंयोगः । स च नित्यवृत्तिरेव । तस्मात्तेन सिद्धसाधनता । तथाप्येवंविधधर्मस्येत्यादि । अयमर्थः-आकाशः शब्देतरानित्यवृत्तित्वानधिकरणानित्यवृत्तिधर्मवानिति कृतेऽप्रसिद्धविशेषणः पक्षः । अन्यत्र दृष्टान्ते एवंविधस्य धर्मस्य अप्रसिद्धत्वात् । कथमप्रसिद्धविशेषणतेत्याशङ्कयाह-नहि अनित्ये वर्तते इत्यादि। स्पष्टम् । तथा च सपक्षाभावेन अन्वयित्वमेव व्याहन्यते इत्यादि। अन्वयित्वं केवलान्वयित्वं तस्यैव धर्मस्य स्यात्, यो दृष्टान्ते सिद्धः स्यात् । अत्र चैवंविधस्य धर्मस्य दृष्टान्ते अभावेन अन्वयित्वं व्याहन्यते इत्यर्थः । आकाशशब्देतरानित्यमेलके इत्यादि । आकाशे न वर्तते, शब्देतरानित्ये च वर्तते । तेन एवंविधो धर्मों युगलावृत्तिरनित्यवृत्तिश्च दृष्टान्ते घटादौ घटात्मव्यतिरिक्तविश्वप्रतियोगिकघटात्मान्योन्याभावादिः घटत्वादिषु संभवति । आकाशे त्वेवंभूतो धर्मस्तदा स्यादित्यादि । पक्षीकृते आकाशे एवंविधो महाविद्यासाध्यविचारणायातो धर्मस्तदैव स्याद्यदि शब्दस्यानित्वं स्यात् । इदमत्रैदंपर्यम्-एवंविधो धर्मः शब्दाकाशान्योन्याभावः शब्दाकाशव्यतिरिक्तविश्वप्रतियो. गिकः, शब्दाकाशौ शब्दाकाशव्यतिरिक्तविश्वादन्यौ इति रूपः अवशिष्यते । तस्य च अनित्यवृत्तित्वं तदैव स्यात्, यदि शब्दोऽनित्यः स्यात् । आकाशस्य च नित्यत्वं वादिप्रतिवादिनोरविवादास्पदीभूतम् । तस्माच्छब्दस्यैव विप्रतिपन्नमनित्यत्वं पारिशेष्यात्सिध्यतीति द्वितीयानुमानव्याख्या ॥ (अथ तृतीयानुमानम् ) अथ पुनरप्यपेक्षितशब्दानित्यत्वसिद्धये भङ्गयन्तरमाचक्षाणः संग्राहिकां कारिकामाह ३ अपक्षसाध्यवद्धृत्तिविपक्षान्वयवर्जितः। नानाविपक्षवृत्त्यन्यभिन्नधर्मोऽस्ति पक्षिते ॥३॥ शब्दः अशब्दानित्यनित्यवृत्त्यन्यनानानित्यादृत्त्यशब्दधर्मवान् । पूर्वस्मादस्य अयमेव भेदो यत्र वास्तवः एव पक्षो न विपक्षादिः । पुरनप्यनेकविपक्षव्यावृत्तिश्चेति । अत एव पूर्वाध गतार्थमेवेति न व्याख्यातम् । उत्तरार्घस्य त्वयमर्थः । नानाविधा येऽस्य विपक्षाः ते नानाविपक्षाः, तत्र प्रव. Aho ! Shrutgyanam Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १६९ तते इति नानाविपक्षवृत्तिः । तस्मादन्यः नानाविपक्षवृत्त्यन्यः । अनेकविपक्षावृत्तिरित्यर्थः । भिन्नस्य धर्मो भिन्नधर्मः । नानाविपक्षवृत्त्यन्यश्चासौ भिन्नधर्मश्वेति नानाविपक्षवृत्त्यन्यभिन्नधर्मः । सः पक्षिते पक्षीकृते वास्तवे वा पक्षेऽस्ति साध्यते इत्यर्थः । भिन्नधर्म इति । भिन्नस्य धर्मत्वं पक्षापेक्षया बोद्धव्यम् । पक्षाच्छब्दाद्भिन्नस्येत्यर्थः, न तु भिन्नश्चासौ धर्मश्चेति भिन्नधर्मः । एतदेवापि साध्यपर्यवसानाय भिन्नस्य धर्मः इति । (अथ तृतीयानुमानम् ।) (भुवन०)-अथ पक्षमेव पक्षीकृत्य प्रवर्त्तमानमहाविद्यावाच्यकारिका ब्याचिख्यासुराहअपक्षेतीति। “ अपक्षसाध्यवद्वत्तिविपक्षान्वयवर्जितः । नानाविपक्षवृत्त्यन्यभिन्नधोऽस्ति पक्षिते " ॥ ३ ॥ पूर्वस्मादित्यादि । पूर्वस्मादनुमानादस्य अयमेव भेदो यदत्र वास्तवः सत्यः एव शब्दः पक्षो न आकाशात्मादिः । पुनरप्यनेकविपक्षव्यावृत्तिश्चेत्यादि । पुनरपि पूर्वस्मादनुमानादयं विशेषो यदनेकविपक्षव्यावृत्तिश्च । पूर्वस्मिन्ननुमाने तु पक्षितस्यैवैकस्य विपक्षस्य व्यावृत्तिरिति । नानाविपक्षवृत्त्यन्यः इति । नानाविपक्षेषु न वर्तते एकस्मॅिस्तु वर्तते एव । भिन्नधर्मः इति। पक्षापेक्षया अपरो यो भिन्नः पदार्थः तस्य धर्मः । एतदेवेति । भिन्नस्य धर्मः इति एतदेव साध्यपर्यवसानाय अनित्यत्वरूपसाध्यसिद्धबै भवति इत्यर्थः । अस्यां कारिकायामथवेति वक्तव्ये महाविद्याकर्तुरपक्षेति पदं प्रमादात्पतितम् । “ अथवा साध्यवद्वृत्तिविपक्षान्वयवर्जितः" इति तु पाठो युक्तः । इदानीमनुमानश्लोकपदयोजना-अत्र अपक्षसाध्यववृत्तीति अशब्दानित्येत्यनेन व्याख्यातम् । विपक्षान्वयवर्जितः इति नित्यवृत्त्यन्येत्यनेन । नानाविपक्षवृत्त्यन्येति नानानित्यावृत्तिरित्यनेन व्याख्यातम् । भिन्नस्य धर्मः इत्यशब्दधर्मवानित्यनेन । इति योजना ॥ (भुवन०)-अथानुमानम्-शब्दः अशब्दानित्यनित्यवृत्त्यन्यनानानित्यावृत्त्यशब्दधर्मवान् मेयत्वात् घटादिवत् । अपक्षसाध्यवद्वत्तीति । अत्रानुमाने अशब्देति यदुक्तं तब्यर्थमपि कारिकायां अपक्षेति भणनादुक्तम् । अयं भावः । पूर्वत्र अपक्षेतिकारिकायामुक्तं तदपेक्षया अनुमाने शब्देतरेत्युक्तम् । तत्र च साध्यो धर्मों विपक्षस्य पक्षीकृतत्वात् शब्दात्मान्योन्याभावादिः । स च शब्देतरेत्युक्तं यदि न स्यात्, तदा नित्ये आत्मनि अनित्ये च शब्दे तस्य धर्मस्य वर्तनात् वाद्यभिप्रायेण अनित्यनित्यवृत्तित्वानधिकरणत्वं न स्यात् । तेन शब्देतरेति भणितम् । अस्मिंश्चानुमाने साम्यो धर्मो वास्तवस्यैव पक्षस्य पक्षीकृतत्वादनित्यत्वादिः । स चानित्ये एव वर्तते न नित्ये । तस्मादत्राशब्देति पदं व्यर्थम् । १°एतदेव साध्य इति घ पुस्तकपाठः । २२ महाविद्या० Aho ! Shrutgyanam Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतम् । . अत्र शब्देतरानित्यनित्ययुगले यो न वर्तते, यो नानानित्येष्वपि न वर्तते, सः अशब्दधर्मः शब्देऽनित्यत्वमेव । तथाहि-अनित्यनित्ययुगले यो न वर्तते, तस्य प्रकारत्रयमत्र घटते । उभयत्र यो न वर्तते, सोऽपि युगले न वर्तते । नित्ये वा केवले यो न वर्तते, सोऽपि युगले न वर्तते । अनित्ये वा केवले यो न वर्तते, सोऽपि युगले न वर्तते । अत्र च अशब्दधर्मवानित्यनेन वृत्तिसाधनेन सर्वथा अत्र अवृत्तिस्तावन्निषिद्धा । अतः एकैकवृत्तिरवशिष्यते। तत्र नानाविपक्षवृत्त्यन्येत्यनेन नित्यवृत्तिः प्रत्युक्ता। अतः परिशेषादनित्यवृत्तिरेवावशिष्यते । तच्चानित्यत्वमेवेति साध्यसिद्धिः । तस्य च इमेव अशब्दधर्मत्वं यत्सकलानित्यसाधारण्यमिति न कश्चिद्दोषः॥ ( भुवन० ) अशब्दधर्मवानित्यनेन वृत्तिसाधनेनेति । वर्तनं वृत्तिः । तत्साधनेन एवंविधो धर्मः कापि वर्तते एव । सर्वत्र न तस्य अवृत्तिरित्यर्थः । एतावता उभयत्रानित्यनित्ययोयों धर्मो न वर्तते, तस्य प्रथमप्रकारोक्तस्य निषेधः कृतः इति भावः । यद्यशब्दधर्मः तर्हि शब्दे कथं साध्यते इत्याशङ्कयाह-तस्य चेदमेव अशब्दधर्मत्वमिति । शब्दस्यैव स धर्मो न भवति किन्तु सकलानित्यानां धर्मः इत्यर्थः। अथ व्यावृत्त्यचिन्ता-अत्र शब्दः अशब्दधर्मवानितिकृते साधारणधर्मवानित्यर्थः स्यात् । तथा च सत्तया सिद्धसाधनं, तस्याः साधारणत्वात् । तदर्थं नानानित्यावृत्तिरित्युक्तम् । तथा चैवमनुमानं स्यात्-शब्दो नानानित्यावृत्त्यशब्दधर्मवान् । तथा च घटशब्दान्योन्याभावेन सिद्धसाधनम् । तदर्थमनित्यनित्यवृत्त्यन्येति प्रक्षिप्तम् । तथा सति एतावतीप्रतिज्ञा स्यात्-शब्दोऽनित्यनित्यवृत्त्यन्यनानानित्यावृत्त्यशब्दधर्मवानिति तथा च घटशब्दान्योन्याभावेन सिद्धसाधनता परिहृता। तस्य प्रतिवाद्यभिप्रायेण नित्ये शब्दे अनित्ये घटे च वर्तमानत्वान्न नित्यानित्यावृत्तित्वम् । एवं सति यद्यपि साध्यमनित्यत्वं सिध्यति, तथाप्याकाशादौ तथाभूतस्य धर्मस्य असंभवात्, अन्वयित्वव्याघातः । विपक्षस्य संभवात् । तदर्थमशब्देति पदम् । तथा सत्याकाशादौ शब्दान्योन्याभावः एवेत्यसौ यद्यपि नित्यानित्यवृत्तिर्न भवतीत्युच्यते, तथापि अशब्दानित्यनियंवृत्तिर्भवतीति न व्यभिचाराशङ्कापि । इति तृतीयोदाहरणम् । १ नित्यत्तित्वमें इति क ख पुस्तकपाठः । २ प्रतिवायपेक्षया नित्ये इति ख पुस्तकपाठः । ३ असंभवेन अन्व इति क पुस्तकपाठः । ४ शब्दाकाशान्यों इति न पुस्तकपाठः । ५ नित्यानित्यावृत्तिनम इति न पुस्तकपाठः । ६ नित्यनित्यावृत्ति इति न पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १७१ (भुवन०)-तथा च सत्तया सिद्धसाधनमिति । अशब्दा घटादयः, तत्र वर्तनादशब्दधमत्वं तस्याः । ततः सिद्धसाधनं तयेत्यर्थः । तथा च घटशब्दान्योन्याभावेन सिद्धसाधनमिति । शब्दो नानानित्यावृत्त्यशब्दधर्मवान् इति प्रतिज्ञायां घटशब्दान्यविश्वप्रतियोगिको यो घटशब्दान्योन्याभावः तेन सिद्धसाधनं स्यात् । घटशब्दान्योन्याभावस्य नानानित्येष्ववर्तनात्, घटे वर्तमानत्वेन अशब्दधर्मत्वाचेत्यर्थः । अत्र च अनित्यत्वं साध्यो धर्मः, अथवा घटशब्दान्यतरत्वादिः । स च घटशब्दयोरेव वर्तनाच्छब्दस्यानित्यत्वे नित्यत्वे वा नानानित्येषु न वर्तते । अशब्दो घटादिस्तद्धर्मश्चास्ति, परं स धर्मः घटशब्दान्यतरत्वादिः अनित्यनित्यावृत्तिस्तदैव, यदि शब्दस्यानित्यत्वं स्यात् । अन्यथा स धर्मों नित्ये शब्दे अनित्ये घटे च वर्तनादनित्यनित्यवृत्तिरेव स्यात् । तस्माच्छब्दः अनित्यः स्वीकार्यः । अत्र दृष्टान्ताः घटाकाशादयः तद्धर्माश्च सर्वेऽपि ज्ञेयाः । तत्र सर्वत्र च घटत्वाकाशत्वादीनां स्वस्वमात्रनिष्ठधर्मेण साध्यानुगमो द्रष्टव्यः । अत्रानुमाने नानेति पदमाकाशादिदृष्टान्तार्थम् । अन्यथा आकाशे आकाशत्वं यदस्ति तन्नित्ये आकाशे वर्तनान्नित्यवृत्त्येव स्यात्, न नित्यावृत्ति । नानेति पदोपादाने चाकाशत्वादि यद्यपि नित्यावृत्ति न स्यात् , तथापि नानानित्येष्ववर्तनान्नानानित्यावृत्ति भवत्येवेत्यर्थः । इति तृतीयानुमानम् ॥ (अथ चतुर्थानुमानम् । ) एवं शब्दानित्यत्वसाधनव्याजेन अभीष्टार्थसाधकप्रकारत्रयमुपदर्शितम्। इदानीं पृथिवीत्वसाधनव्याजेन अभीष्टान्तरसाधकं प्रकारान्तरं दर्शयितुं संग्राहकं श्लोकार्धमाह ४ पक्षापक्षगतादन्यत्साध्यवद्वैधर्जितम् ॥४॥ गन्धवन्तो गन्धवदगन्धावृत्तिगन्धवद्वृत्त्यन्यवन्तः॥ अयमर्थः-पक्षो वास्तवः, अपक्षो विपक्षः, तत्र मिलिते गतं गमनं यस्य तत्पक्षापक्षगतम् । तस्मादन्यत् पक्षापक्षगतादन्यत् । तद्धर्मान्तरं साध्यते इति संबन्धः । किंभूतम् । साध्यवद्वैधवर्जितम् । साध्यवान् पक्षः, तत्र यत् बैधं, तत्र वृत्तिः अवृत्तिश्च तद्वर्जितम् । वर्तमानावर्तमानत्वरहितमित्यर्थः । _ अथ श्लोकपदानुमानयोजना-अत्र गन्धवदित्यनेन पक्षेति व्याख्यातम् । अगन्धेत्यनेन अपक्षेति व्याख्यातम् । अवृत्तीत्यनेन अन्यदिति, साध्यवद्वैधवर्जितमिति च गन्धववृत्त्यवृत्त्यन्यधर्मवन्तः इत्यनेन, इति मिथो योजना । (अथ चतुर्थानुमानम् ।) (भुवन०)-अथ पृथिवीत्वसाधनव्याजेन अभीष्टान्तरसाधकं कारिकार्द्ध व्याचिकीर्षुः प्राहपक्षापक्षेतीति । तथाहि १ रत्रितयमुइति ख पुस्तकपाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतम् । “ पक्षापक्षगतादन्यत्साध्यवधवर्जितम् ॥ ४॥ पक्षो वास्तवः इत्यादि । पक्षो धर्मी, अपक्षो विपक्षः, तत्र मिलिते गतं गमनं यस्य तस्मादन्यद्धर्मान्तरं साध्यते । अयमर्थ:-गन्धवन्तः पक्षः, तदन्योऽपक्षः, तदुभयवृत्तिमेयत्वादिः तस्मादन्यदभिप्रेतं साध्यं पृथिवीत्वं घटादौ साध्यते । साध्यवद्वैधवर्जितमिति । साध्यवान्पक्षः, तत्र यद्वैधं वृत्तिरवृत्तिश्च, तद्वर्जितं वर्तमानावर्तमानत्वरहितं, तत्पक्षेऽस्तीति वाक्यशेषः । यद्वा पूर्वश्लोकगतं 'अस्ति पक्षिते ' इत्यनुवर्तते । तद्वा पक्षगमित्यप्रेतनं संबध्यते । अथ व्यावृत्त्यचिन्ता-गन्धवन्तो गन्धववृत्तिमन्तः इति कृते तट्ट. त्तिना धर्मेण सिद्धसाधनम् । तदर्थमगन्धववृत्तिमन्तः इत्युक्तम् । एतावन्मात्रे च क्रियमाणे सत्तादिभिः साधारणैर्धमैंः सिद्धसाध्यता, असाधरणैश्च विरोधः। तदर्थमुभयपदग्रहणम् । तथापि उभयवृत्तिधर्मेण सिद्धसाधनम् । तदर्थमवृत्तिपदग्रहणम् । तथापि घटत्वादीनां गन्धवत्त्वनिष्ठानां तथात्वात् तैः सिद्धसाधनम् । तदर्थं गन्धववृत्त्यवृत्तिमन्तः इत्युक्तम् । तथापि स्वव्यक्तिमात्रनिष्ठानां घटत्वादीनां पटादिष्ववृत्तिरपि विद्यते । तदर्थमन्येति पदम् । गन्धववृत्त्यवृत्त्यन्यवन्तः इत्येतावन्मात्रे च क्रियमाणे द्रव्यत्वादिभिरेव सिडसाधनम् । तदर्थं गन्धववृत्तीत्युक्तम् । तथा सति विरोधः एव स्यात्पौनरुत्त्यं वा । वृत्त्यवृत्त्यन्येति पदस्य उभयार्थत्वात् । तदर्थमगन्धेतिपदप्रक्षेपः । आकाशे च गन्धवद्गन्धावृत्तिगन्धववृत्त्यवृत्त्यन्यः शब्दः एव शब्दाश्रयभावो वा । यतो वृत्त्यवृत्त्यन्येति पदस्थार्थो वेधानामुभयावृत्तित्वं विद्यते । तदर्थं गन्धवदगन्धावृत्ति वर्तते एव न वर्तते एव वा । शब्दस्तु गन्धवति न वर्तते एवेति सर्वमवदातम् । एवं तेजस्त्वायनुमानमूह्यम् । तथाहि-उष्णवन्तः उष्णवदनुष्णावृत्त्युष्णवठ्ठत्यवृत्त्यन्यधर्मवन्तः मेयत्वात् घटवदित्यादि । इति चतुर्थोदाहरणम् ॥ (भुवन०) अथानुमानम्-गन्धवन्तो गन्धवदगन्धावृत्तिगन्धवद्वत्त्यवृत्त्यन्यवन्तः मेयत्वात् आकाशवत् । गन्धवन्तो गन्धवदृत्तिमन्तः इति कृते तद्वृत्तिनेत्यादि । तद्वृत्ति गन्धवद्वृत्ति गन्धक्त्त्वं । तेन सिद्धसाधनम् । तदर्थमगन्धवद्वत्तिमन्तः इत्युक्तमिति । एवं च गन्धवन्तः अगन्धवत्तिमन्तः इति कृते सत्तादिभिः साधारणैधः सिद्धसाध्यता । गन्धवत्सु अगन्धवत्सु च सत्ताया विद्यमानत्वात् । असाधारणैरिति । असाधारणा ये जलधर्माः शीतस्पर्शवत्त्वादयः, तेजोधर्मा उष्णत्वादयः, तैर्विरोधः । गन्धवत्सु तेषामभावात् । तथापि उभयवृत्तिधर्मेण सिद्धसाधनमिति। अयमर्थः । गन्धवन्तो गन्धवदगन्धवृत्तिमन्तः इति कृते उभयवृत्तिना सत्तादिना सिद्धसाधनम् । तदर्थमवृत्तिपदग्रहणमिति । अवृत्तिग्रहणे कृते च गन्धवन्तो गन्धवदगन्धावृत्तिमन्तः इति जातम् । १ एव शाब्दां इति ख पुस्तकपाठः । २ न्यन्यवन्तः इति न पुस्तकपाठः। ३ 'चतुर्थानुमानम् इति क ख पुस्तकपाठः। Aho ! Shrutgyanam Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १४३ तथापि घटत्वादीनामित्यादि । घटत्वं गन्धवति घटे वर्तमानं विद्यते, अगन्धवत्सु च जलादौ अवर्तमानम् । ततो युगलावृत्तित्वेन तस्य गन्धवदगन्धावृत्तित्वं विद्यते एव । सत्तेन सिद्धसाधनमित्यर्थः। तदर्थं गन्धवद्वृत्त्यवृत्तिमन्तः इत्युक्तमिति । एवं चोक्ते गन्धवन्तो गन्धवदगन्धावृत्तिगन्धवद्वत्त्यवत्तिमन्तः इति प्रतिज्ञा जाता । एवमप्युक्ते च घटत्वादिभिरेव सिद्धसाध्यता । तेषां गन्धवदगन्धयुगलावृत्तित्वात् । गन्धवत्सु घटादिषु वर्तनेन गन्धवत्सु एव पटादिषु च अवर्तनेन गन्धवद्वृत्त्यवृत्तित्वाच्च, तदर्थमन्येति । तथा च गन्धवन्तो गन्धवदगन्धावृत्तिगन्धवद्वृत्त्यन्यवन्तः इति सम्पूर्णा प्रतिज्ञा जाता। अथ गन्धवदगन्धावृत्तीति पदं मुक्त्वा गन्धवद्वृत्त्यवृत्त्यन्यवन्तः इति ग्रहणेन व्यावृत्तिचिन्तां करोति । तथा च करणे द्रव्यत्वेनैव सिद्धसाधनमित्याह-द्रव्यत्वादिभिरेव सिद्धसाधनमिति । द्रव्यत्वस्य गन्धक्त्सु सर्वेषु वर्सनेन गन्धवद्वृत्त्यवृत्त्यन्यत्वात् , तदर्थ गन्धवद्वत्तीति । एवं च कृते गन्धवन्तो गन्धवदवृत्तिगन्धवद्वृत्त्यवृत्त्यन्यवन्तः इति प्रतिज्ञा जाता । तथा सति विरोध इति । अत्र वृत्त्यवृत्त्यन्य इति पदस्यार्थद्वयम् । यो गन्धवत्सु वर्तते एव, यश्च न वर्तते एव, तौ द्वावपि वृत्त्यवृत्त्यन्यपदेन सङ्गहीतौ भवतः । तत्र यो गन्धवत्सु वर्तते एव स गन्धवदवृत्तिरित्युच्यमाने विरोधः पौनरुक्त्यं चेति । यश्च गन्धवत्सु न वर्तते एव स गन्धवदवृत्तिरित्युच्यमाने पौनरुक्त्यं । गन्धवदवृत्तिगन्धवद्वत्त्यवृत्त्यन्यपदयोर्मध्ये एकेनैव साध्यसिद्धेः । आकाशे च गन्धवदगन्धावृत्तीत्यादि । आकाशे च दृष्टान्तीक्रियमाणे एवंविधः शब्दः एव । तस्य गन्धवत्सु अवर्तनेन अगन्धवत्सु च वर्त्तनेन गन्धवदगन्धावृत्तित्वं विद्यते एव । तथा तस्य गन्धवद्वत्त्यवृत्यन्यत्वं चाप्यस्ति । अगन्धक्त्सु एव वर्तनात् । एवमात्मादिरपि गन्धवत्त्वरहितः सवोंऽपि पदार्थो दृष्टान्तत्वेन ज्ञेयः शब्दाश्रयभावः इति । शब्दस्य आश्रयः आधारः शब्दाश्रय आकाशः । शब्दाश्रयस्य भावः स्वरूपं शब्दाश्रयभावः आकाशत्वमित्यर्थः । - अथैतस्यानुमानस्य व्याख्या । गन्धवन्तः सर्वे भूभेदाः । ते च जलानिलादिपदार्थाष्टकं वर्जयित्वा सर्वेऽपि ज्ञेयाः । तेषु भूभेदेषु धर्मों वर्तमानः जलादिषु अवर्तमानश्च स युगलावृत्तित्वेन गन्धक्दगन्धावृत्तिः । पुनरपि च स किंविशिष्टः । गन्धवत्सु वृत्तिरवृत्तिश्च यस्य धर्मस्य ततोऽन्यः । ततो गन्धवदगन्धावृत्तिश्चासौ गन्धवद्वत्त्यवृत्त्यन्यश्चेति विग्रहः । एवंविधो धर्मो गन्धवत्सु साध्यते । स च धर्मः पृथिवीत्वमेव । तच्च गन्धवत्सु वर्तनेन अगन्धवत्सु चावर्तनेन गन्धवदगन्धयुगलावृत्ति । तथा गन्धवत्सु तस्य वर्तनावर्तनं नास्ति, किन्तु वर्तनमेव । एवं सति दृष्टान्ते जलादी जलत्वादिः आकाशादौ शब्दाश्रयत्वादिश्च धर्मो ज्ञेयः । अत्र च यन्मुख्यानुमानमाश्रित्यैषा महाविद्या प्रवृत्ता तदुच्यते । तथाहि-पृथ्वी द्रव्यत्वावान्तरजातिमती मूर्तद्रव्यत्वात् जलवत् इति मुख्यानुमानम् । गन्धवत्त्वेन गन्धवनिष्ठसङ्घयया गन्धवव्यतिरिक्तविश्वप्रतियोगिकात्यन्ताभावेन च सिद्धसाध्यतादोषादियं महाविद्या कुशलतरैः प्रयत्नतश्चिन्तनीया । एवं तेजस्त्वाद्यनुमानमूद्यमिति । यथा पृथिवीत्वं तथा तेजस्सु तेजस्त्वं साध्यम् । तथाहि-उष्णवन्तः उष्णवदनुष्णावृत्त्युष्णवद्वत्त्यवृत्त्यन्यवन्तः मेयत्वात् घटवत् । अत्रैवंविधो धर्मस्तेजस्त्वं औष्ण्यं वा साध्यम् । एवं वायौ वायुत्वं जले स्नेहादि च विप्रतिपत्तौ साध्यम् । इति चतुर्थानुमानव्याख्यानम् ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ पुनरपि र्षमाह— भुवनसुन्दर सूरिकृतटिप्पनसमेतम् । ( अथ पञ्चमानुमानम् ) शब्दानित्यत्वसाधनप्रकारमाचक्षाणं संग्राहकं कारिकोत्तरा ५ पक्षापक्षगतादन्यत्साध्यवद्वृत्ति पक्षगम् ॥ ४ ॥ शब्दः शब्दाशब्दावृत्त्यनित्यवृत्तिधर्मवान् । अयमर्थः - पक्षी वास्तवः शब्दः एव । अपक्ष: सपक्षविपक्षसाधारणः, तद्गतं तद्वृत्ति यद्धर्मान्तरं तस्मादन्यत् पक्षापक्षगतादन्यत् । तत्साध्यते इति संबन्धः । किम्भूतम् । साध्यवद्वृत्ति सपक्षवृत्ति । पुनः किम्भूतम् । पक्षगं वास्तवपक्षनिष्ठमित्यर्थः । ( अथ पञ्चमानुमानम् । ) ( भुवन० ) - अथ जातिसाधनच्छलेन अभीष्टसाधकं प्रकारं प्रदर्श्य पुनरपि शब्दानित्यत्वा'दिसाधकं कारिकोत्तरार्द्धं व्याकर्तुमाह — पक्षापक्षेतीति । पक्षापक्षगतादन्यत्साध्यवद्वृत्ति पक्षगम् " ॥ ५ ॥ पक्षी वास्तवः शब्दः एव । अपक्ष: सपक्षविपक्षरूपः, तद्वर्ति यद्धर्मान्तरं तस्मादन्यत् । एतावता त्रये यन्न वर्तते द्वये तु वर्तते एव, तत्पक्षगं वास्तवपक्षनिष्ठं साध्यते इति संबन्धः । अथ योजना - शब्दाशब्दावृत्तीत्यनेन पक्षापक्षगतादन्यदिति व्याख्यातम् । अनित्यवृत्तीत्यनेन साध्यवद्वृत्तीति । एवं च पक्षसपक्षविपक्षमेलके न वर्तते, सपक्षे च वर्तते । पक्षनिष्ठं च तदनित्यत्वमेव पर्यवस्यति । ( भुवन० ) - तथापि ध्वनिशब्दयोरित्यादि । शब्दः अशब्दावृत्त्यनित्यवृत्तिधर्मवानिति प्रतिज्ञायां ध्वनिशब्दयोर्ध्वनिशब्दान्यविश्वप्रतियोगिको योऽन्योन्याभावः तेन सिद्धसाधनम् । तस्य अशब्द शब्दव्यतिरिक्तं विश्वं तत्रावर्तनादनित्ये ध्वनौ वर्तनाच्च । अत्र ध्वनिशब्देनावर्णात्मकाः निर्झरझात्कारचीत्कारपशुशब्दादयो गृह्यन्ते । ते चानित्या भाद्वैरप्यङ्गीक्रियन्ते । 66 - अथ व्यावृत्त्यचिन्ता – तत्र अनित्यवृत्तिधर्मवानिति कृते सत्तादिभिः सिद्धसाधनम् । तदर्थमशब्दावृत्त्यनित्यवृत्तिधर्मवानिति कृतम् । तथापि ध्वनिशब्दयोरन्योन्याभावः अशब्दवृत्तिर्भवति, अनित्ये ध्वनौ च वर्तते । अतस्तेन सिद्धसाधनम् । तदर्थं शब्देति पदं कृतम् । शब्दाशब्दावृत्तिधर्मवानित्येतावन्मात्रे च क्रियमाणे शब्दत्वेनैव सिद्धसाधनम् । तदर्थमनित्यवृत्तिपदग्रहणम् । इति पञ्चमानुमानम् ॥ १ यत्वप्रका इति कख पुस्तकपाठः । २ 'विपक्षसाधारणः, तद्वर्ति' इति ख पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १७५ (भुवन०)-अथ अनित्यवृत्तिपदं विमुच्य शब्दपदं प्रक्षिप्य च व्यावृत्तिचिन्तां करोतिशब्दाशब्दावृत्तिधर्मवानिति । एवं च क्रियमाणे शब्दत्वेनैव सिद्धसाधनम् । तस्य युगलावृत्तित्वेन शब्दाशब्दावृत्तिधर्मत्वं विद्यते एव । तन्निवृत्त्यर्थमनित्यवृत्तिपदग्रहणम् । __अथानुमानम्-शब्दः शब्दाशब्दावृत्त्यनित्यवृत्तिधर्मवान् मेयत्वात् घटवत् आकाशादिवद्वा । अत्र अशब्दशब्देन नित्यानित्यरूपं विश्वम् । तत्र केवले शब्दे ये धर्माः, शब्दव्यतिरिक्ते केवले नित्यानित्यरूपे विश्वे च ये धर्मास्ते युगलावृत्तित्वेन शब्दाशब्दावृत्तयो भवन्ति । तत्र ये शब्दव्यतिरिक्तानां धर्मास्तेषां शब्दे साधने व्याघातः । तस्माच्छब्दधर्माः श्रावणत्वशब्दत्वादयोऽत्र साध्याः। तेषां चानित्यवृत्तित्वं तदैव, यद्यनित्यः शब्दः स्यात् । दृष्टान्तीभूतघटाकाशादौ तद्धमेषु च सर्वत्र शब्दान्यत्वधर्मेण व्याप्तिः । तस्य चाशब्दे वर्तनात् , शब्दे चावर्तनात्, शब्दाशब्दावृत्तित्वमनित्यवृत्तित्वं चास्ति । इति पश्चमानुमानम् ॥ (अथ षष्ठानुमानम् ।) एवमन्वयमुखेन अनित्यत्वसाधकप्रकारानुक्त्वा व्यतिरेकमुखेनाह ६ तत्तादात्म्यनिषेधान्यतत्स्थाभावविरोधिता। नित्यत्वं स्वप्रतियोगिकान्योन्याभावातिरिक्तशब्दगताभावप्रतियोगि। तेन नित्यत्वेन सह तादात्म्यनिषेधोऽन्योन्याभावः । शब्दस्येति ज्ञेयः शब्दो नित्यत्वं न भवतीति स्वरूपः । तस्मादन्योन्याभावात् अन्यो यः, तत्स्थाभावः संसर्गाभावः शब्दे नित्यत्वं नास्तीतिस्वरूपः, तद्विरोधिता तस्मिन् प्रतियोगिता साध्यते । नित्यत्वस्येति शेषः । इति कारिकार्थः । इदानी पदयोजना-अत्र स्वप्रतियोगिकान्योन्याभावातिरिक्तेत्यनेन तत्तादात्म्यनिषेधान्येति व्याख्यातम् । शब्दगताभावप्रतियोगीत्यनेन तत्स्थाभावविरोधितेति व्याख्यातमिति योजना ॥ (अथ षष्ठानुमानम् ।) (भुवन०)-एवमन्वयमुखेना नित्यत्वसाधकप्रकारानुक्त्वा व्यतिरेकमुखेन साध्याभावं पक्षीकृत्य प्रवर्तमानमहाविद्यावाचककारिकार्द्ध व्याख्यातुमाह-तत्तादात्म्येतीति । ___" तत्तादात्म्यनिषेधान्यतत्स्थाभावविरोधिता " ॥ ६ ॥ एतद्व्याख्या वृत्तावुक्तैव । किञ्चित्सविस्तरा प्रोच्यते । तेन नित्यत्वेन सह शब्दस्य यस्तादाम्यनिषेधोऽन्योन्याभावः शब्दो नित्यत्वं न भवतीतिरूपः । “ तादात्म्यनिषेधोऽन्योन्याभावः " इति तल्लक्षणात् । एतावता तादात्म्यनिषेधशब्देन अन्योन्याभावः उक्तः । तस्मादन्यः अभावः । स च कः इत्याह-तत्स्थेति । तत्र शब्दे तिष्ठतीति तत्स्थः । स चासावभावश्च तत्स्थाभावः । तत्तादात्म्यनिषेधान्यश्चासौ तत्स्थाभावश्च । एवंविधश्चाभावः कः इत्याह-संसर्गाभावः इति । संसर्गाभावोऽत्यन्ताभावः । स च शब्दे नित्यत्वं नास्तीति स्वरूपः । तद्विरोधितेति । तस्मिन्प्रति १ ज्ञेयम् । श इति ख पुस्तकेतर पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतम् । योगिता नित्यत्वस्य पक्षीकृतस्य साध्यते इत्यर्थः । इदमुक्तं भवति । नित्यत्वान्योन्याभावव्यतिरिक्तशब्दगताभावप्रतियोगित्वमनित्यत्वविरुद्धस्य नित्यत्वस्य साध्यते । अथैतदनुमानम्-नित्यत्वं स्वप्र. तियोगिकान्योन्याभावातिरिक्तशब्दगताभावप्रतियोगि मेयत्वात् घटवत् आकाशादिवद्वा। अथ व्यावृत्त्यचिन्ता-अत्र नित्यत्वं शब्दगताभावप्रतियोगीति कृते अन्योन्याभावेन सिद्धसाधनम् । तदर्थमन्योन्याभावान्येति । तथापि घटः शब्दो न भवतीति घटप्रतियोगिकोऽन्योन्याभावस्तदतिरिक्तः शब्दगतोऽभावः शब्द नित्यत्वान्योन्याभावः एव भवति । तत्प्रतियोगित्वसाधने सिद्धसाधनम् । तदर्थ स्वप्रतियोगिकेति पदम् । नित्यत्वं स्वप्रतियोगिकान्योन्याभावातिरिक्तमित्युक्ते सिद्धसाधनम् । तदर्थ शब्दगताभावप्रतियोगीति कृतम् । श्लोकेऽन्येति पदं सामान्याभिप्रायेणेति बोद्धव्यम् । इति षष्ठानुमानम् ॥ (भुवन०)-अथ व्यावृत्त्यानि । नित्यत्वं शब्दगताभावेत्यादि । शब्दगतान्योन्याभावं प्रति नित्यत्वस्य प्रतियोगित्वात् सिद्धसाधनम् । तदर्थमन्योन्याभावान्येति । तथा च सति अन्योन्याभावातिरिक्तशब्दगताभावप्रतियोगीति जातम् । तथापि घटः इत्यादि । घटः शब्दो न भवतीति घटप्रतियोगिकान्योन्याभावोऽपि शब्देऽस्ति । तस्माद्धटप्रतियोगिकान्योन्याभावादतिरिक्तो भिन्नः शब्दस्थो ऽभावो नित्यत्वप्रतियोगिकान्योन्याभावः एव स्यात् । नित्यत्वस्य तत्प्रतियोगित्वसाधने सिद्धसाधनम् । तदर्थ स्वप्रतियोगिकेतिपदम् । तथाच सति स्वप्रतियोगिकोऽन्योन्याभावो निषिद्धः । अन्ततो व्यावृत्त्यचिन्ताकृता। अथादितो व्यावृत्यचिन्तामाह-नित्यत्वं स्वप्रतियोगिकान्योन्याभावेत्यादि । नित्यत्वे नित्यत्वप्रतियोगिकान्योन्याभावादन्यत्वस्य स्वयमेव सिद्धत्वात् सिद्धसाधनमित्यर्थः । अत्र नित्यत्वस्य शाश्वतत्वात् प्रागभावप्रध्वंसाभावौ न सम्भवतः एव । -स्वप्रतियोगिकान्योन्याभावातिरिक्तेतिपदेन चान्योन्याभावो निषिद्धः । शेषस्तु अत्यन्ताभावः एवावशिष्यते । अभावश्च प्रतियोगिनं विना न संभवति । " प्रतियोगिज्ञानाधीनज्ञानः अभावः इंति वचनात् । ततश्च नित्यत्वस्य शब्दगतात्यन्ताभावप्रतियोगित्वे शब्दस्यानित्यत्वं सिद्धम् । अत्र नित्यत्वप्रतियोगिकान्योन्याभावातिरिक्तशब्दगतात्यन्ताभावप्रतियोगिवं घटाकाशशब्दादिष्वपि विद्यते एव । शब्दत्वश्रावणत्वादिषु च शब्दगतान्योन्याभावप्रतियोगित्वमिति तेषां सर्वेषां सपक्षखा श्लोके अन्येतिपदं सामान्याभिप्रायेणेत्यादि । अत्र कारिकायां तत्तादात्म्यनिषेधान्येत्यत्र अ. न्येति पदं यदुक्तं तत्सामान्याभिप्रायेण । तेनान्यपदस्थाने अतिरिकादयोऽपि शब्दाः ज्ञेयाः । तस्मादेव स्वप्रतियोगिकान्योन्याभावातिरिक्तेति प्रोक्तमनुमाने । इति षष्ठानुमानम् ॥ (अथ सप्तमानुमानम् ।) इदानीं भेदसाधक प्रकारं दर्शयति-स्वीकृतेति । ७ स्वीकृतानन्यवृत्तित्वसंपन्नान्यत्वसाधनम् ॥ ५॥ शब्दाधिकरणं शब्दाधिकरणादन्यत् । Aho ! Shrutgyanam Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १७७ अयमर्थः-अन्यत्र वर्तते इत्यन्यवृत्तिः। नान्यवृत्तिः अनन्यवृत्तिः। एकवृत्तिरित्यर्थः । तस्य भावोऽनन्यवृत्तित्वम् । स्वीकृतं च तदनन्यवृत्तित्वं चेति स्वीकृतानन्यवृत्तित्वम् । तेन स्वीकृतानन्यवृत्तित्वेन संपन्नं स्वीकृतानन्यवृत्तित्वसंपन्नम् । स्वीकृतं प्रतिवादिनैव । एकस्यामेवाकाशव्यक्तौ वर्तनात् । तस्मास्वीकृतानन्यवृत्तित्वसंपन्नादन्यत्वसाधनं क्रियते इत्यर्थः। (अथ सप्तमानुमानम्।) (भुवन०)-इदानीं भेदसाधकं प्रकारं दर्शयतीति । अयमर्थः-एकत्वेनाङ्गीकृतस्याकाशादेः पदार्थस्य भेदं भिन्नत्वं दर्शयति कारिकार्द्धन-स्वीकृतेतीति । ___स्वीकृतानन्यवृत्तित्वसंपन्नान्यत्वसाधनम् ॥ ७ ॥ यस्मात् शब्दः आकाशे एव वर्तते नान्यत्र, तस्मात् शब्दः अनन्यवृत्तिरुच्यते । तस्य भावः अनन्यवृत्तित्वम् । स्वीकृतमनन्यवृत्तित्वं यस्य शब्दस्य स स्वीकृतानन्यवृत्तित्वः, तेन सम्पन्नं यदाकाशं तस्मात् स्वीकृतानन्यवृत्तित्वसम्पन्नात् । अन्यत्वसाधनमाकाशबहुत्वसाधनं क्रियते इत्यर्थः । अथानुमानम्-शब्दाधिकरणं शब्दाधिकरणादन्यत् मेयत्वात् घटवत् । अथ पदयोजना-शब्दाधिकरणादिति अनेन स्वीकृतानन्यवृत्तित्व. संपन्नेति व्याख्यातम् । अन्यदित्यनेन अन्यत्वसाधनमिति व्याख्यातम् । अत्रैकैकपदोपादाने साकाङ्क्षत्वेन प्रतिज्ञाया निरर्थकत्वात् पदवयोपादानम् । न व्यावृत्त्यान्तरमस्ति । भेदप्रसाधनप्रकारदर्शनमात्रमेतत्, न तु भेदसाधनम् । अपसिद्धान्तप्रसङ्गात् । इति सप्तमानुमानम् ॥ ७॥ (भुवन० )-अत्रैकैकपदोपादाने साकासत्वेनेत्यादि । यदि शब्दाधिकरणमन्यदिति क्रियते, तदा शब्दाधिकरणमाकाशं कस्मादन्यदिति साकाङ्कता । तथा यदि शब्दाधिकरणमिति पदं विमुच्य शब्दाधिकरणादन्यदिति क्रियते, तदा शब्दाधिकरणादाकाशात् किमन्यदित्यत्रापि साकाङ्कत्वम् । ततः साकाङ्कत्वेन प्रतिज्ञा निरर्थका भवेत् । अतः शब्दाधिकरणं शब्दाधिकरणादन्यदिति पदद्वयोपादानम् । न व्यावृत्त्यान्तरमस्तीत्यादि । अत्रानुमाने व्यावृत्तिः कृतैव, व्यावृत्त्यान्तरमन्यव्यावृत्त्यहँ नास्तीत्यर्थः । भेदसाधनप्रकारदर्शनेत्यादि । अयं भेदसाधनस्य प्रकारः। यत्र कुत्रापि भेदः साध्यते तत्रायं भेदसाधनोपायः । आकाशे तु भेदसाधने अपसिद्धान्तत्वं स्यात् । वैशेषिकादिसिद्धान्ते तत्राभेदस्यैव दर्शितत्वात् ।। अथास्यानुमानस्य व्याख्या-अत्र शब्दाधिकरणं गगनमिति पक्षः। शब्दाधिकरणाद्गगनादन्यदिति साध्यो धर्मः । मेयत्वादिति हेतुः । यत्र यत्र मेयत्वं तत्र तत्र शब्दाधिकरणादन्यत्वम् । यथा घटपटादिषु । यथा घटपटादयो मेयाः सन्तः शब्दाधिकरणादन्ये, एवं शब्दाधिकरणमपि शब्दाधिकरणादन्यत् । अत्र च तदेव शब्दाधिकरणं तस्मादेव शब्दाधिकरणादन्यदिति व्याघातः । १"सिद्धान्तेन तत्रा इति ख पुस्तकपाठः । २३ महाविद्या. Aho ! Shrutgyanam Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतम् । तस्माच्छब्दाधिकरणबहुत्वं पारिशेष्यात् सिद्धम् । आकाशे च मेयत्वं पुराप्युभयसिद्धं, भिन्नत्वं च प्रतिवादिनोऽसिद्धं अनेन अनुमानेन साध्यते । अत्राकाशं आकाशादन्यदेवमपि वदने अर्थस्य अनन्यत्वमेव, परं महाविद्यानुमानत्वेन किञ्चिद्वक्रच्छाययोक्तम् । एवं च सर्वेषामेकत्वेन अङ्गीकृतानामनेकत्वं साधनीयम् । अत्र च मुख्यानुमानमिदम्-दिक्कालाकाशाः अनेके, द्रव्यत्वात् , घटवत् । इयं च महाविद्या पक्षं पक्षयित्वा प्रवृत्ता । इति सप्तममनुमानम् ॥ ( अथ अष्टमानुमानम् ।), अथ पुनरपि सकर्तृकत्वसाधनव्याजेन सर्वसाधकप्रकारान्तरदर्शनाय सङ्ग्राहक श्लोकमाह-पक्षापक्षेतीति । ८ पक्षापक्षविपक्षान्यवर्गादेकैकमुद्धतम् । भिन्नं साध्यवतस्तददुद्धृतावधिभेदिनः ॥६॥ अयं घटः एतद्धटाङरान्यान्यसकर्तृकान्यः । तस्य अयमर्थः-पक्षो वास्तवः संदिग्धकर्तृकः अङ्कुरादिः, अपक्षः सपक्षो निश्चितकर्तृको घटादिः, विपक्षोऽकर्तृकः आकाशादिः। तदन्यवर्गात्पक्षापक्षविपक्षान्यवर्गात् । अन्यतमवर्गादेकैकमुद्धृतं भिन्नं साध्यते इति सम्बन्धः । कस्मात् । साध्यवतःसकर्तृकात्। ततः किम्भूतात्। तदुद्धृतावधिभेदिनः । तदान्साध्यवान् यो घटादिवृतः(स एव)प्रत्यवधित्वेन भेदो विद्यते यस्य साध्यवतः सतहदुतावधिभेदी तस्मात्। एतेन सपक्षस्यैव पक्षत्वमिति सूचितम् । तथा च विपक्षवर्गादेकोद्धाराभावेन असङ्गतत्वं परिहृतम् । यतोऽप्यत्र अन्यत्वं अन्य तमत्वं विवक्षितम् । अन्यतमत्वं च त्रयापेक्षया एकस्यापि भवति, व्योरपि भवति, व्यक्तिभेदेन त्रयाणामपि भवति । तत्र द्वयोरप्येकोद्धारः संभवत्येवेति. न दोषः कश्चित् । एकैकेति वीप्सायाश्चरितार्थत्वात् । तथा चायमर्थः पर्यवसितः स्यात् । एतद्धटाकुरादन्यद्विश्वं तस्मादन्यत्सकर्तृकम् । एतद्द्यान्यतमत् । तद न्यत्वे साध्यत्वे घटः स्वरूपाद्भिन्नः इति विरुद्धम् । अतोऽड्डरात्सकर्तृकादन्यः इति परिशेषादागच्छति । ___ अथ पदयोजना-अत्र पक्षापक्षविपक्षान्यवर्गादेकैकमुद्धृतमिति एतद्धटाकुरान्यान्येत्यनेन व्याख्यातम् । भिन्नमित्युद्धृतविशेषणेन उद्धृतयोरेव पक्षसपक्षयोरेव प्रतियोगित्वख्यापनान्मध्यगतान्यपवयोपादानमपि सूचितमिति पदयोजना। १ साध्ये घ इति खपुस्तकपाटा । Aho! Shrutgyanam Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १७९ - (अथाष्टमानुमानम् ।) (भुवन०)-पुनरपि सकतकत्वसाधनव्याजेनेत्यादि । अयमत्र सकर्तृकत्वसाधनोपायो दर्यमानोऽस्ति । अनेन प्रकारेण अकर्तृकत्वपौरुषेयत्वापौरुषेयत्वाद्यपि सर्व साधनीयम् । पक्षापक्षेतीति । " पक्षापक्षविपक्षान्यवर्गादेकैकमुद्धृतम् । भिन्नं साध्यवतस्तद्वदुद्धृतावधिमेदिनः" ॥८॥ भिन्नं साध्यते इत्यादि । मूलानुमानापेक्षया पक्षादयो ग्राह्याः । अत्र पक्षमध्यादकुरः सपक्षमध्यात् घटश्च द्वावुद्धृतौ । तत्रानेन अनुमानेन सकर्तृकत्वसाध्यवतः अङ्कुराद्धटस्य भिन्नत्वं साध्यम् । तद्वदुद्धृतावधिमेदिन इति । तद्वान् सकर्तृकत्वसाध्यवान् यो घटादिः, स एव प्रत्यवधित्वेन प्रतियोगित्वेन भेदो यस्य अङ्कुरादेः साध्यवतः, स तद्वदुद्धृतावधिभेदी, तस्मात्तद्वदुतावधिमेदिनः । एतेन सपक्षस्यैव पक्षत्वं सूचितमिति । यदि सकर्तृकादङ्कुरात् घटो भिन्नः साध्यते, तदा मूलानुमानसपक्षस्य घटस्य पक्षत्वं सूचितमेवेत्यर्थः । अथानुमानम् । अयं घट: एतद्भुटाङ्कुरान्यान्यसकर्तृकान्यः मेयत्वादाकाशादिवत् । तथा चायमर्थः इत्यादि । अयं घटः इति पक्षः । एतद्घटाङ्कुरादन्यद्विश्वम्, तस्मादन्यत्सकर्तृकं, एसहयान्यतमत् । तच्चैतझुटो वा अङ्करो वा। तत्रायं घट: एतस्मात् घटादन्य इति घटते न । नहि कोऽपि स्वस्मात् भिन्नः । परापेक्षयैव सर्वस्य भिन्नत्वात् । अतोऽङ्कुरात् सकर्तृकात् पक्षीकृता(टोऽन्यः इति परिशेषादागच्छति । सकर्तृकादकरादन्यत्वं घटस्य यदि च सिद्धं, तर्हि अङ्करः सकर्तृको जातः एव । अङ्कुरस्योपलक्षणत्वात् । भूभूधरादेरप्यनेनैवानुमानेन सकर्तृकत्वं साधनीयम् । तस्य च कर्ता स एव ईश्वरैः इतीश्वरसिद्धिः। अथ व्यावृत्त्यचिन्ता-घटः सकर्तृकादन्यः इति कृते पटाद्यन्यत्वेन सिद्धसाधनम् । तदर्थमेतद्धटान्यसकर्तृकान्य इति कृतम् । तथापि सिद्धसाधनं तथैव इत्यङ्करपदप्रक्षेपः । तथा चैवमनुमानं स्यात्-घटः एतद्धटाकुरान्यसकर्तृकान्यः । तथापि पटाद्यन्यत्वेन सिद्धसाधनं तथैवेति द्वितीयान्यपदोपादानम् । अयं घटः एतद्धटाकुरान्यान्यधर्मवानित्येतावन्मात्रे क्रियमाणे घटत्वेन सिद्धसाधनं, अड्डरत्वेन च व्याघातः । तदर्थमेतद्धटाकुरान्यान्यसकर्तृकधर्मवानिति कृतम् । तथापि सिद्धसाधनं तवस्थमेवेति अन्यपदप्रक्षेपः । इति व्याव या॑नि । अथवा प्रकारान्तरेणान्वयः क्रियते-एकैकमुद्धृतं भिन्नं साध्यते । किम्भूतम् । तद्वत् साध्यवत् । सकर्तृकत्वधर्मयुक्तमित्यर्थः । एतेन सपक्षस्य पक्षत्वमपि सूचितं भवति । इति अष्टमानुमानं समाप्तम् ॥ १. कर्तृकत्वं ए' इति ध पुस्तकपाठः । २ एव ईश्वरः सिद्धः । इति ध पुस्तकपाठः । ३ 'व्या. वर्मचिन्ता । अथवा इति ख पुस्तकपाउः । Aho! Shrutgyanam Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतम् । (भुवन० )-अथ व्यावृत्त्यचिन्ता । घटः सकर्तृकादन्य इति । यदि घटः सकर्तृकादन्यः इति क्रियते, तदा घटस्य सकर्तृकात्पटादन्यत्वेन सिद्धसाधनं स्यात् । तदर्थमेतद्धटान्यसकर्तृकान्य इतीति । एवं कृतेऽपि तथैव पूर्वोक्तप्रकारेणैव सिद्धसाधनम् । एतद्बटादन्यः सकर्तृकः पटः, तस्मादन्यत्वस्य घटे सद्भावात् । तथापि पटाद्यन्यत्वेन सिद्धसाधनमिति । एतद्घटाङ्कुराभ्यामन्यो यः सकर्तृकः पटः, तस्मादन्यत्वस्य घटे सद्भावात् सिद्धसाधनमित्यर्थः । घटत्वेन सिद्धसाधनं अकरत्वेन च व्याघातः इति । अयं घट एतद्घटारान्यान्यधर्मवानिति यदि क्रियते, तदैतद्भुटाङ्कु राभ्यामन्यद्विश्वं, तस्मादन्यौ एतद्बुटाकुरावेव । तयोर्धर्माः घटत्वादयोऽङ्करत्वादयश्च । तत्र घटत्ववत्त्वे घटस्य साध्यमाने सिद्धसाधनम् । अङ्करत्ववत्त्वे च घटस्य साध्यमाने व्याघातः । अङ्कुरत्ववत्त्वस्य घटे अभावात् । तदर्थमेतद्धटाङरान्यान्येत्यादि । अत्र सकर्तृकपदक्षेपेऽपि सकर्तृकत्वस्याङ्कुरेऽद्यापि विवादास्पदीभूतत्वात् यद्यपि व्याघातो न सम्भवति, तथापि सकर्तृको यो घटस्तद्धर्मवत्त्वे घटस्य साध्यमाने सिद्धसाध्यता स्यादेवेत्यर्थः । अथवा प्रकारान्तरेणान्वयः इति । अन्वयः प्रकारान्त. रेण सम्बन्धयोजनं क्रियते इत्यर्थः । एकैकमित्यादि । एकैकं उद्धृतं भिन्नं घटादि साध्यते । किम्भूतं । तद्वत् सकतृत्वं यत् साध्यं तद्युक्तमित्यर्थः । पूर्व तद्वदितिपदं 'उद्धृतावधिभेदिनः' इत्यनेन समस्तं कृतम, अत्र तूद्धृतमित्येतस्य विशेषणं कृतमिति भेदः इत्यर्थः । अथ व्याप्तिः प्रदर्श्यते। यद्यत् प्रमेयं तत्तदेतद्धटाङ्करान्यान्यसकर्तृकान्यत् यथा आकाशादि । घटान्यत्वस्य आकाशादौ सर्वत्र सद्भावात् । अस्या महाविद्यायाः मुख्यानुमानमिदम्-भूभूधराङ्कुरादिसकर्तृकं कार्यत्वात् , घटवत् । इयं महाविद्या सपक्षं पक्षयित्वा प्रवृत्ता । इति अष्टमानुमानम् ॥ (अथ नवमानुमानम् ) अस्यैवानुमानस्य पदान्तरकरणेन भङ्गयन्तरं दर्शयति___ ९ तस्यैव तदवृत्तेन योगो वात्र प्रसाध्यते । अयं घटः एतद्घटाङ्कुरान्यान्यसकर्तृकावृत्तिमान् । अयमर्थः-तस्यैवोपलक्षणस्य पक्षस्य घटस्य । तदवृत्तेनेति-एतद्धटाडुरान्यान्यसकर्तृकावृत्तेन योगः संबन्धः साध्यते । वर्त्तनं वृत्तः(त्तिः)तेन वर्तनेन इत्यर्थः । अन्त्यस्य अन्यपदस्य स्थाने वृत्तिमानिति पदान्तरकरणेनेत्यर्थः । वाशब्दो भङ्गयन्तरसूचनार्थः । अत्रापि व्यावानि पूर्वोक्तोदाहरणकथितान्येव । अर्थस्य अर्थ्यधीनत्वात् । इति नवममनुमानम् ॥ (अथ नवमानुमानम् ।) (भुवन०)-तस्यैवेतीति । " तस्यैव तदवृत्तेन योगो वात्र प्रसाध्यते” ॥९॥ Aho! Shrutgyanam Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १८१ - तस्यैवोपलक्षणस्येति । अङ्कुरस्य मुख्यानुमानापेक्षया पक्षत्वेऽप्युपलक्षणत्वेन घटस्य सपक्षमध्यादुद्धृत्य पक्षीकृतस्येत्यर्थः । अथानुमानम्-अयं घटः एतद्घटाकरान्यान्यसकर्तृकावृत्तिमान् मेयत्वात् आकाशादिवत् वा । एतद्भुटाकुराभ्यामन्यद्विश्वं, तस्मादन्यौ एतद्धटाकुरावेव सकर्तृको, तत्र यो न वर्तते तद्वान् पक्षीकृतो घटः साध्यते इत्यर्थः । तत्र घटे घटावृत्तिधर्मवत्त्वं विरुद्धं, तस्मात् सकर्तृकेऽङ्करे यो न वर्तते स एतद्भुटाकुरान्यान्यसकर्तृकावृत्तिर्घटत्वादिधर्मः, तद्वान् घट इत्यायातम् । तथा च सति अङ्कुरस्य सकर्तृकत्वं पारिशेष्यात्सिद्धम् । शेषं पूर्ववत् । इति नवमानुमानम् ॥ ( अथ दशमानुमानम् ) पुनरप्येतदेवानुमानं पदान्तरोपादानेन भङ्गयन्तरेण दर्शयति__ १० तद्वृत्त्यवृत्तिरथवा प्रोद्धृतेऽत्र प्रसाध्यते ॥७॥ यथा-अयं घटः एतद्घटाकुरान्यान्यसकर्तृकधर्मविरही। . अयमर्थः-तवृत्तिः यो धर्मः एतड्वन्टाकुरान्यान्यसकर्तृकवृत्तिरित्यर्थः । तस्य धर्मस्य या अवृत्तिः वर्तननिषेधः । स चात्र घटे प्रसाध्यते इत्यर्थः । अत्र अथवा शब्दो भङ्गयन्तरसूचनार्थः एव । व्यावृत्त्यानि च तानि पूर्वतनान्येव । इति दशमानुमानं समाप्तम् ॥ (अथ दशमानुमानम् ।) (भुवन०)-तद्वृत्तीति । __तद्वत्त्यवृत्तिरथवा प्रोद्धृतेऽत्र प्रसाध्यते " ॥१०॥ अथानुमानम्-अयं घट: एतद्धटाङ्करान्यान्यसकर्तृकधर्मविरही मेयत्वात् गगनादिवत् । सकर्तृकघटाकरयोर्थे धर्मास्तेषां विरहो घटे साध्यते । तत्र घटे घटधर्मविरहस्तावत्संभवति न। तस्मात्सकर्तृकाङ्कुरधर्माः अङ्कुरत्वादयः तेषां विरहो घटे प्रसाध्यते । तथा च सति सकर्तृकाङ्करधर्मविरही घटः तदेव, यद्यङ्करः सकर्तृकः स्यादित्यर्थः । शेषं पूर्ववदेव ज्ञेयम् । इति दशमानुमानम् ॥ (अथ एकादशानुमानम् ।) एवमेकस्मिन्नेवार्थे सर्वसाधकं प्रकारत्रयं दर्शितम् । इदानी पुनः शब्दानित्यत्वसाधनं प्रकारान्तरं दर्शयितुं संग्राहकं कारिकार्धमाह ११ असाध्यान्यवियुक्तान्यव्यावृत्तिा प्रसाध्यते । शब्दः साध्याभावान्यैतद्वियुक्तान्यव्यावृत्तिमान् । असाध्यं नित्यत्वं, तस्मादन्यत् अनित्यत्वम् । तस्मादसाध्यान्यात् अनित्यत्वात् वियुक्तोऽन्यो नित्यरूपः सोऽसाध्यान्यवियुक्तान्यः नित्यः । तस्माया. १ अत्तिः व्यादत्तिः वर्त इति ख पुस्तक पाठः । Aho ! Shrutgyanam Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतम् । वृत्तिा व्यतिरेको वा प्रसाध्यते, शब्दे इति शेषः इति केचियाख्यातवन्तः । तदसंगतम् । तथा सति आकाशादौ सपक्षे तथाभूतनित्यत्वलक्षणधर्मव्यतिरेकस्वीकारे अनिष्टापत्तिः स्यात् । अयं चार्थ:-असाध्यात् नित्यादन्यत् एतद्वियुक्तं शब्दव्यतिरिक्तं विश्वं एतद्वयव्यतिरेकेण भवति । तस्मादन्यदेत. द्वयमेव । तस्मायावृत्तिमत्वे साध्ये शब्दः शब्दव्यावृत्तिमानित्युक्ते विरोधः स्यात् । अतः परिशेषात् नित्यः शब्दो न भवतीति नित्यव्यावृत्तिरागच्छति । सति चैवमर्थे शब्दः आकाशो न भवतीति शब्दमादाय व्याप्तिः । (अथ एकादशानुमानम् ।) (भुवन०)-असाध्यान्येतीति । ___"असाध्यान्यवियुक्तान्यव्यावृत्तिा प्रसाध्यते ॥" इति केचियाख्यातवन्तः तदसङ्गतमिति । अस्मिन्व्याख्याने नित्यव्यावृत्तिः प्रसाध्या । तथा च सति आकाशे दृष्टान्तीक्रियमाणे नित्यव्यावृत्तौ स्वीक्रियमाणायामनिष्टापत्तिः स्यात् । आकाशस्य नित्यत्वात् । ततोऽन्वयित्वव्याघातात् इदं व्याख्यानमसङ्गतमित्यर्थः । अयं चार्थः इत्यादि । अत्रानुमानमध्ये एतदः प्रोक्तत्वात् कारिकार्थव्याख्यानावसरे सोऽनुक्तोऽपि गृह्यते । एतस्माच्छब्दा. द्वियुक्तमेतद्वियुक्तं शब्दव्यतिरिक्तं विश्वम् । तत् किंविशिष्टम् । असाध्यान्यत् असाध्यात् नित्यादन्यत् असाध्यान्यत् । ततश्च असाध्यान्यच्च तत् एतद्वियुक्तं च असाध्यान्यैतद्वियुक्तमिति कर्मधारयः । एतावता नित्येन शब्देन च विरहितं विश्वं जातम् । ततोऽसाध्यान्यवियुक्तादन्यौ असाध्यान्य. वियुक्तान्यौ, तौ च नित्यशब्दावेव । तयोर्ध्यावृत्तिभिन्नत्वं शब्दे साध्यते । ___ अथानुमानम् । शब्दः साध्याभावान्यैतद्वियुक्तान्यव्यावृत्तिमान् मेयत्वात् घटाकाशादिवत् । अतः परिशेषानित्यव्यावृत्तिरागच्छतीत्यादि । शब्दे शब्दव्यावृत्तिर्घटते न । तस्मानित्यव्यावृत्तिरायाति । तथा च नित्यव्यावृत्तौ सत्यां शब्दोऽनित्यो जातः एव । ननु एकस्माच्छब्दादपरः शब्दो व्यावर्तते इति शब्दव्यावृत्तिरपि शब्दे जाघटीत्येव, कस्मान्न घटते इत्युक्तम् । उच्यते । अत्र पक्षीकृतशब्दमध्ये सर्वे त्रिभुवनोदरविवरवर्तिनः शब्दाः गृहीताः । अयं शब्दः इत्यभणनात् । ततो न कश्चिद्दोषः । सति चैवमर्थे शब्दः आकाशो न भवति इत्यादि । अत्र साध्यतात्पर्य द्वयमुद्ररितं शब्दनित्यरूपम् । तत्रान्यव्यावृत्तिरिति भणने शब्दनित्यरूपपदार्थद्वयात् यदि व्यावृत्तिवति, तदाप्यन्यव्यावृत्तिरुच्यते । द्वयोर्मध्ये एकस्माद्यदि व्यावृत्तिर्भवति तदाप्यन्यव्यावृत्तिरुच्यते। अन्यशब्दस्य साधारणत्वात् । ततोऽस्मिन्ननुमाने आकाशे दृष्टान्तीक्रियमाणे आकाशस्य नित्यरूपत्वान्नित्यव्यावृत्तिर्न घटते । ततः शब्दः आकाशरूपो न भवतीत्याकाशस्य शब्दाव्यावृत्तिः क्रियते । एवमात्मघटादावपि ज्ञेयम् । अत्र पदयोजना सुगमैव । १ अद्वरित इति ख, त, ध इति संशितादर्शपुस्तकत्रयेऽपि पाठो दृश्यते। स च मुर्वरित इति संभाव्यते। Aho! Shrutgyanam Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १८३ (भुवन०)-अत्र पदयोजना सुगमैवेति । अत्र साध्याभावान्येत्यनेन असाधान्येति, एतद्वियुक्तान्येत्यनेन वियुक्तान्येति च, व्यावृत्तिमानित्यनेन व्यावृत्तिः साध्यते इति च व्याख्यातमित्येवं पदयोजना कार्या। अथ व्यावृत्त्यचिन्ता-अयं शब्दः साध्याभाववानिति कृते विपरीतसाधनं स्यात् । तदर्थं साध्याभावान्यवानिति कृतम् । तथापि शब्दत्वेन सिद्धसाधनम् । तदर्थ साध्याभावान्यैतद्वियुक्तवानिति कृतम् । तथाप्येतद्वयातिरिक्तेन शब्दत्वादिना सिद्धसाधनम् । तदर्थं द्वितीयान्यपदोपादानम् । तथापि एतदुभयातिरिक्ताद्विश्वस्मादन्यत् नित्यत्वमेव भवति । तेन सिद्धसाधनं स्यात्प्रतिवादिनः । तदर्थं व्यावृत्तिमानिति कृतम् । इति व्यावृत्त्यचिन्ता ॥ इत्येकादशोदाहरणम् ॥ (भुवन०)-अथ व्यावृत्त्यचिन्ता । तथापि शब्दत्वेन सिद्धसाधमिनति । अयमर्थःयदि साध्याभावान्यवानिति क्रियते, तदा साध्याभावो नित्यत्वं तस्मादन्यच्छब्दत्वं, तद्वान् शब्दः स्यात्, तथा च सिद्धसाधनम् । तथाप्येतद्वयातिरिक्तेन शब्दत्वादिनेति । यदि साध्याभावान्यैतद्वियुक्तवानिति क्रियते, तदापि शब्दनित्यत्वद्वयव्यतिरिक्तं शब्दत्वमपि भवति । ततः शब्दत्वे शब्दे साध्यमाने सिद्धसाध्यतैव । तदर्थ द्वितीयान्यपदोपादानमित्यादि । तथा च सति साध्याभाधान्येतद्वियुक्तान्यः इति जातम् । तत्र साध्याभावो नित्यत्वं, तस्मादन्यद्यदेतद्वियुक्तं शब्दव्यतिरिक्त विश्वम् । एतावता एतदुभयादन्यद्विश्वं सिद्धम् । ततोऽप्यन्यदेतद्वयमेव । तत्र शब्दः शब्दवानिति तु भवति न । आत्माश्रयबाधकतर्कसद्भावात् । नित्यत्ववानिति तु कृते तादृशस्य प्रतिवादिनः सिद्धसाध्यतैवेत्यर्थः । तदर्थ व्यावृत्तिमानित्यादि । तथा च शब्द: साध्याभावान्यैतद्वियुक्तान्यव्यावृ. त्तिमानिति संपूर्णा प्रतिज्ञा जाता। साध्याभावान्यैतद्वियुक्तान्यश्च शब्दो वा नित्यत्वं वा । तत्र शब्दव्यावृत्तिमत्त्वं शब्दे व्याहतत्वात् घटाकाशादिसर्वसपक्षोपयोगि । नित्यत्वव्यावृत्तिमत्त्वं तु शब्दे सिध्यत् परिशेषाच्छब्दानित्यत्वं साधयति । अत्र अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद्धटवदिति मुख्यानुमानम् । इत्येकादशोदाहरणम् ॥ (अथ द्वादशानुमानम् ।) पुनरप्येतदेव शब्दानित्यत्वानुमानं प्रथमान्यपदानुपादानेऽपि संभवतीति श्लोकार्धेन दर्शयति-असाध्येतीति । १२ असाध्यतद्रियुक्तान्यव्यावृत्तिा प्रसाध्यते ॥ ८॥ शब्दः साध्याभावतद्वियुक्तान्यव्यावृत्तिमान् । अत्रापि तच्छब्देन पक्षपरामर्शः । अयमर्थ:-असाध्येन नित्येन, तेन च शब्देन वियुक्तं असाध्यतद्रियुक्तम् । एतद्द्यातिरिक्तं विश्वम् । तस्मादन्यदेत Aho! Shrutgyanam Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतम् । द्वयमेव । तयावृत्तिमानित्युक्ते स्वव्यावृत्तिर्विरोधेन अनुपपन्ना नित्यत्वव्यात्तिमानयति । आकाशादौ शब्देन व्याप्तिः पूर्ववदेव । व्यावृत्त्यादीनि च पूर्वोक्तान्येवेति न पृथगभिहितानि । इति द्वादशानुमानम् ॥ (अथ द्वादशानुमानम् ।) ( भुवन० )-अथैतदेवानुमानमाद्यान्यपदानुपादानेन कारिकामध्येऽध्याहारितैतदः स्थाने तच्छब्दं च प्रयुज्य प्रकारान्तरेण दिदर्शयिषुः शब्दानित्यत्वसाधनाय कारिकार्द्ध व्याख्यातुमाहअसाध्येतीति। " असाध्यतद्वियुक्तान्यव्यावृत्तिा प्रसाध्यते " ॥ १२॥ तद्व्यात्तिमानित्युक्ते इत्यादि । शब्दः शब्दाब्यावर्तते इति तु घटते न । ततो नित्यत्वव्यावृत्तिः शब्दे परिशेषादागतैव । तथा च सति अनित्यत्वं सिद्धं शब्दस्य । शेषं सर्व पूर्ववत् । इति द्वादशमुदाहरणम् ॥ (अथ त्रयोदशानुमानम् ।) । एवं शब्दानित्यत्वसाधकं प्रकारव्यं प्रदर्य पुनरपि सर्वसाधकं प्रकारं दर्शयितुं संग्राहकं कारिकार्धमाह १३ पक्षेषु ये सन्ति विवादहीनाः विहाय तानन्यतरः प्रसाध्यः। शब्दः संप्रतिपन्नैतन्निष्ठान्यधर्मवान् । अयमर्थः-पक्षेषु संदिग्धसाध्यवत्सु शब्दादिषु ये विवादहीनाः उभयवादिसंमता धर्माः शब्दत्वादिलक्षणाः सन्ति, तान् धर्मान् विहाय परित्यज्य अन्यतरो विप्रतिपन्नः प्रसाध्यः साधनीयः । पक्षेष्विति सामान्यपदोपादानेन वास्तवस्यैव पक्षस्य पक्षतेति सूचितम् । उदाहरणं च अतिसुगममेवेति न लेशतोऽपि व्याकृतम् । इति त्रयोदशानुमानम् ॥ (अथ त्रयोदशानुमानम् ।) (भुवन०)-एवं शब्दानित्यत्वसाधकं प्रकारद्वयमिति । पूर्वोक्तं ह्यनुमानद्वयं साध्यपद्विपर्यासं विना अनित्यत्वादन्यसाध्यसाधकं न भवति । तेन शब्दानित्यत्वसाधकमित्युक्तम् । पुनरपि सर्वसाधकमिति । अग्रेतनमनुमानं साध्यपदविपर्यासं विनापि पक्षविपर्यासेनैव स्वाभिमतसाध्यसाधकं भवतीति सर्वसाधकमित्युक्तम् । एवमन्यत्रापि यथायोगं ज्ञेयम् । पक्षेष्वितीति । "पक्षेषु ये सन्ति विवादहीनाः विहाय तानन्यतरः प्रसाध्यः ॥ १३ ॥ १°भिमतसर्वसाध इति ख पुस्तकपाठः । Aho! Shrutgyanam Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । अनुमानं यथा-शब्दः संप्रतिपन्नैतनिष्ठान्यधर्मवान् मेयत्वात् घटवत् । शब्दः पक्षः। संप्रतिपन्ना वादिना प्रतिवादिना चाङ्गीकृताः, एतस्मिन् शब्दे निष्ठाः एतन्निष्ठाः । संप्रतिपन्नाश्च ते एतन्निष्ठाश्च संप्रतिपन्नैतनिष्ठाः श्रावणत्वशब्दत्वादयः । तेभ्यो योऽन्यो धर्मः प्रतिवादिनो विप्रतिपन्नः अनित्यत्वलक्षणः, तद्वान् शब्दः इत्यर्थः । नित्यत्वं तु प्रतिवादिना प्रतिपन्नम् । तेन नित्यत्वं संप्रतिपन्नैतन्निष्ठान्यधर्मो न भवति, किन्त्वनित्यत्वमेवेति शब्दानित्यत्वसिद्धिः । अत्र व्याप्तिरेवम्यद्यत् प्रमेयं तत्तत्संप्रतिपन्नैतन्निष्ठान्यधर्मवत् यथा घट: आकाशं वा । शब्दे ये संप्रतिपन्नाः श्रावणत्वादयः तेभ्योऽन्ये घटत्वनित्यत्वादयः, तद्वत्त्वस्य घटाकाशादिष्वपि सत्त्वात् । इति त्रयोदशो. दाहरणम् ॥ (अथ अचतुर्दशानुमानम् ।) अथ पुनरस्यैव श्लोकस्य तृतीयपादेन भङ्गयन्तरमस्यैव प्रकारस्य कथयति १४ पक्षोऽथवा साध्यविनाकृतेन। शब्दः साध्यव्यतिरिक्तैतद्धर्मातिरिक्तधर्मवान् । अथवा भङ्गयन्तरसूचनार्थः । अथवा पक्षः शब्दादिः साध्यविनाकृतेन साध्येन विनाकृतेन साध्यव्यतिरिक्तेन धर्मेण साध्यते । किम्भूतः साध्यते इत्याकाङ्क्षायामेतद्धर्मातिरिक्तधर्मवानिति पूर्वार्धादनुवर्तते । श्लोकस्यैकत्वादिति । अत्रापि उदाहरणं सुगममेवेति पूर्ववन्न व्याख्यातम् । इति चतुर्दशानुमानम् ॥ (अथ चतुर्दशानुमानम् ।) (भुवन० )-पक्षोऽथवेतीति ।। ___" पक्षोऽथवा साध्यविनाकृतेन ” ॥ १४॥ साध्येन विनाकृतेनेति भणनात् साध्यव्यतिरिक्तेति पदं जातम् । तदने एतद्धर्मातिरिक्तधर्मवानिति पूर्वा दनुवर्तते । ततः इत्थमनुमानं जातम्-शब्दः साध्यव्यतिरिक्तैतद्धर्मातिरिक्तधर्मवान् मेयत्वात् घटाकाशादिवत् ॥ ___ अत्रानुमानपदव्याख्या-शब्दः पक्षः, साध्यमनित्यत्वं, तस्माद्व्यतिरिक्ताः अन्ये ये एतद्धाः शब्दधर्माः श्रावणत्वसत्त्वादयः, तेभ्योऽतिरिक्तः साध्यव्यतिरिक्तेति पदेन पृथक्कृतोऽनित्यत्वधर्मः एव शब्दे आयाति । तद्वान् शब्दः साध्यते । अत्रापि साध्यव्यतिरिक्ता ये शब्दधर्माः तेभ्योऽतिरिक्ताः अन्ये घटत्वाकाशगतैकत्वादयः, तद्वत्त्वेन घटाकाशादिषु व्याप्तिः । इति चतुर्दशानुमानम् ॥ (अथ पञ्चदशानुमानम् ।) अथ पुनरस्यैव श्लोकस्य चतुर्थपादेन वास्तवपक्षस्य प्रतिज्ञान्तःप्रक्षेपे. णापि अभीष्टसाधकः प्रकारः संभवतीति दर्शयति-विच्छिद्येति। . Aho ! Shrutgyanam Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतम् ।। १५ विच्छिद्य वाऽभाववदन्वितेन ॥९॥ शब्दः शब्दनित्यावृत्तिधर्मवान् । अयमर्थः-विच्छिद्य भिन्नीकृत्य प्रतिज्ञान्तर्गतं कृत्वा । पक्षमित्यर्थः । अभाववदन्वितेति । अभावः साध्याभावः । साध्यमनित्यत्वं, तस्य अभावो नित्यत्वं, तबत् तद्युक्तम् । साध्याभाववन्नित्यमित्यर्थः । तत्र साध्याभाववद्न्वितेन नित्येन साध्यते । किम्भूतः साध्यते इत्याकाङ्क्षायां पूर्ववयावृत्तधर्मवानिति श्लोकैकत्वादनुवर्तते। अथ योजना-अन्न प्रतिज्ञान्तर्गतेन शब्दपदेन श्लोकगतं विच्छिद्येति पदं व्याख्यातम् । नित्यवृत्तिधर्मवानित्यनेन अभाववदन्वितेनेति व्याख्यातम् । इति योजना ॥ (अथ पञ्चदशानुमानम् ।) (भुवन० )-वास्तवपक्षस्येति । शब्दस्य । विच्छिद्येतीति । ___“ विच्छिद्य वाऽभाववदन्वितेन " ॥ १५ ॥ विच्छिद्य भिन्नीकृत्येत्यादि । पक्षं शब्दरूपं प्रतिज्ञान्तः साध्यमध्ये निक्षिप्येत्यर्थः । अयमर्थः-विच्छिद्येतिपदेन शब्दस्य पक्षादहिष्करणाच्छब्देति पदं प्रतिज्ञायां लब्धम् , अभाववदवितेनेति कथनात् शब्दस्याग्रे नित्येतिपदं च । ततः पक्षशब्दस्याग्रे शब्दनित्येति जातम् । ततस्तदरोऽवृत्तिधर्मवानिति पूर्वश्लोकादनुवयं योजितम् । तथा च सत्येवमनुमानं जातम्-शब्दः शब्दनित्यावृत्तिधर्मवान् मेयत्वात् घटाकाशादिवत् । शब्दश्चासौ नित्यश्च शब्दनित्यः, तत्र यो न वर्तते धर्मः तद्वान् शब्दः । एवंविधश्च शब्दत्वश्रावणत्वादिः साध्यो धर्मः । अत्र यदि शब्दो नित्योऽङ्गीक्रियते, तदा शब्दत्वादिधर्मः शब्दनित्यावृत्तिनं भवति, शब्दरूपे नित्ये वर्तनात् । तस्माच्छब्दस्यानित्यत्वमङ्गीकार्यमिति परिशेषाच्छब्दानित्यत्वसिद्धिः । अथ व्यावृत्त्यचिन्ता-शब्दोऽवृत्तिधर्मवानिति कृते व्याघातः । तदर्थं नित्यावृत्तिधर्मवानिति कृतम् । तथापि नित्ये आत्मादौ न वर्तते यत् शब्दत्वादि तेन सिद्धसाधनम् । तदर्थ शब्दपदं प्रक्षिप्तम् । तथापि शब्दत्वं शब्दे नित्ये आत्मादौ च न वर्तते इति सिद्धसाधनम् , शब्दे एव वर्तनादिति न च वाच्यम् । नित्यपदसमानाधिकरणं शब्दपदं स्वनिष्ठामनित्यतां व्यावर्तयति, शब्दनित्ये वर्तयति । शब्दनित्ये वर्तनात्तु शब्दनित्यावृत्तीति न सिद्धसाधना मितिसर्वमनवद्यम् । इति पञ्चदशानुमानम् ॥ Aho! Shrutgyanam Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्या विवरणम् । (भुवन० )-अथ व्यावृत्त्यचिन्ता । शब्दोऽत्तिधर्मवानितीति । वर्तनं वृत्तिः , न विद्यते वृत्तिः यस्य सोऽवृत्तिः, स चासौ धर्मश्च, तद्वान् शब्द इति व्याघातः । तदर्थ नित्यावृत्तीत्यादि । व्याघातस्य पूर्वोत्पादितस्य निवृत्त्यर्थ नित्यपदं प्रक्षिप्तम् । तथा सति नित्यावृत्तिधर्मवानिति जातम् । तथापि शब्दत्वेन सिद्धसाधनम्, तदर्थ शब्दपदं प्रक्षिप्तम् । अथ पराशङ्कामुद्भाव्य तां निराकुरुतेतथापि शब्दत्वमित्यादि । तथापि एवं क्रियमाणेऽपि शब्दत्वं शब्दे वर्तते, नित्ये आत्मादौ च न वर्तते इति युगलावृत्तित्वेन शब्दनित्यावृत्ति भवति । तस्मात्तेन सिद्धसाधनमिति न च वाच्यम् । नित्यपदसमानाधिकरणमित्यादि । शब्दश्चासौ नित्यश्चेत्येवं नित्यपदेन समानाधिकरणं नित्यपदसमानाधिकरणम् । किं तदित्याह-शब्दपदम् । तत् किं करोतीत्याह-व्यावर्तयति । कां कर्मतापन्नाम् । स्वनिष्ठामनित्यताम् । अयमर्थः-यदि शब्दनित्यपदयोर्विशेषणविशेष्यभावोजातः, तदा शब्दः स्वस्मादनित्यतां व्यावर्तयत्येव । शब्दनित्ये वतेयतीत्यादि । अत्र पूर्वप्रस्तुतं शब्दत्वं कर्म नित्यपदसमानाधिकरणं शब्दपदं कर्तृ शब्दनित्ये वर्तयति । तथा च सति शब्दत्वं शब्दरूपे नित्ये यदि वर्तते, तदा शब्दनित्यावृत्ति तन्न स्यात् । अनुमाने च शब्दनित्यावृत्तीत्युक्तम् । तस्मान्न सिद्धसाधनमिति सर्वमनवद्यमित्यर्थः । अथ व्याप्तिः-यो यः प्रमेयः स स शब्दनित्त्यावृत्तिधर्मवान् यथा घटाकाशादिः । शब्दरूपो यो नित्यः, तत्र न वर्तन्ते ये धर्माः घटत्वाकाशत्वादयः, तद्वान् घटाकाशादिरित्यर्थः । इति पञ्चदशोदाहरणम् ॥ (अथ षोडशानुमानम् ।) अथ पुनरपि प्रथममेवानुमानं साध्याश्रयविपक्षव्यावर्तनेन भङ्गयन्तरेण दर्शयति-अपक्षेति। १६ अपक्षसाध्यवद्धृत्तिविपक्षान्वयि यन्न तत् । साध्याश्रयविपक्षान्यविपक्षे व्यतिरेकभाक् ॥१०॥ यथा-शब्दः शब्देतरानित्यनित्यावृत्याकाशान्यनित्यमात्रवृत्तित्वानधिकरणाकाशधर्मवान्। इति षोडशानुमानात्मकदशश्लोकीमहाविद्यासूत्रं समाप्तम् ॥ अस्यायमर्थः-अपक्षः पक्षादन्यो यः साध्यवान् सपक्षातवृत्ति विपक्षवृत्ति च यन्न भवति, यच्च साध्याश्रयो यो विपक्षः आकाशः तस्मादन्यो यो विपक्षो नित्यमानं तदृत्ति न भवति । तथाभूतं धर्मान्तरं वास्तवे पक्षे साध्यते इति संबन्धः। - अथ पदयोजना-अत्र शब्देतरानित्येत्यनेन अपक्षसाध्यववृत्तीति व्याख्यातम् , नित्येत्यनेन विपक्षान्वयीति, अवृत्तीत्यनेन यन्नेति, आका माधान Aho ! Shrutgyanam Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ भुवनसुन्दरसूरिकृतटिप्पनसमेतम् । शान्येत्यनेन साध्याश्रयविपक्षान्येति । नित्यमात्रवृत्तित्वानधिकरणेत्यनेन विपक्षे व्यतिरेकभागिति योजना । (अथ षोडशानुमानम्।) (भुवन० )-साध्याश्रयविपक्षेत्यादि । अत्र साध्यः पक्षीकृतः शब्दः । तदाश्रयो विपक्षः आकाशः । तस्य व्यावर्तनेन निषेधनेनेत्यर्थः । अपक्षेतीति । " अपक्षसाध्यवद्वृत्तिविपक्षान्वयि यन्नतत् । साध्याश्रयविपक्षान्यविपक्षे व्यतिरेकभाक् ” ॥ १६ ॥ अपक्षः पक्षादन्यः इत्यादि । अपक्षः पक्षादन्यो यः साध्यवान्, सपक्षो घटादिः । तत्र विपक्षे आकाशादौ च युगलावृत्तित्वेन यन्न वर्तते । यच्च साध्याश्रयो यो विपक्षः इत्यादि । साध्यते इति साध्यः पक्षः शब्दः । तदाश्रयो विपक्षः आकाशः । तस्मादन्यो विपक्षो नित्यमात्रं, तत्र व्यतिरेकभाक् अवृत्तिभाक, न वर्तते इत्यर्थः । अत्राकाशव्यतिरिक्तात्मादिनित्येषु वृत्तिनिषेधादाकाशवृत्तित्वमनुज्ञातमेव । विशेषनिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञाविषयत्वात् । अत एव आकाशधर्मवानिति कारिकायामनुक्तमप्यनुमाने गृहीतम् । एवंविधं धर्मान्तरं पक्षे साध्यते इत्यर्थः । अथानुमानम् । शब्दः शब्देतरानित्यनित्यावृत्त्याकाशान्यनित्यमात्रवृत्तित्वानधिकरणाकाशधर्मवान् मेयत्वात् घटाकाशादिवत् । अथ व्यावृत्त्यचिन्ता-आकाशधर्मवानिति कृते नित्यत्वेन विपरीत. साधनं स्यात् । तदर्थ नित्यमात्रवृत्तित्वानधिकरणेति । तथापि द्रव्यत्वेन व्याघातः । तदर्थमाकाशान्येति । तथापि द्रव्यत्वेन व्याघातस्तवस्थः एव । तदर्थमनित्यनित्यावृत्तीति । तथापि न विवक्षितसिद्धिरिति शब्देतरेति पदं प्रक्षिप्तम् । इति सर्वमनवद्यम् । इति षोडशानुमानम् ॥ महाविद्यादशश्लोकी विवृतापि चिरन्तनैः । मन्दधीवृद्धिसिद्ध्यर्थं विवृतेयं यथागमम् ॥ इति महाविद्याविवरणं समाप्तम् । (भुवन० )-अथ व्यावृत्त्यचिन्ता । आकाशधर्मवानित्यादि । यदि शब्दः आकाशधर्मवानिति क्रियते, तदा साध्यमनित्यत्वं तेत्र न सिद्धथति, किन्तु नित्यत्वम् । तथा च सति विपरीत. साधनं स्यादित्यर्थः । तदर्थ नित्यमात्रवृत्तित्वेत्यादि । शब्दो नित्यमात्रवृत्तित्वानधिकरणाकाशधर्मवानिति यदि क्रियते, तदा द्रव्यत्वेन व्याघातः । यतो द्रव्यत्वं नित्यमात्रे एव न वर्तते, किन्तु अनित्ये घटपटादावपि वर्तते, ततो नित्यमात्रवृत्तित्वानधिकरणम् । आकाशेऽपि वर्तनात् । आकाशधर्मश्च द्रव्यत्वम् । तच्चेत् शब्दे साध्यते, तदा व्याघातः स्यादेव । शब्दस्य गगनगुणत्वात् । गुणे च . १ त्वं तन्न सिं इति त ध पुस्तकपाठः। Aho! Shrutgyanam Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविवरणम् । १८९ द्रव्यत्वाभावात् । तदर्थमाकाशान्येत्यादि । तथाच आकाशान्येति पदे प्रक्षिप्ते आकाशान्यनित्यमात्रवृत्तित्वानविकरणाकाशधर्मवानिति जातम् । एवं चोच्यमाने द्रव्यत्वेन व्याघातः तदवस्थः एव । द्रव्यत्वस्य घटादिष्वनित्येष्वाकाशेऽपि च वतर्नात् । आकाशान्यनित्यमात्रवृत्तित्वानधिकरणत्वस्याकाशधर्मत्वस्य च विद्यमानत्वात् । तदर्थमनित्यनित्यावृत्तीत्युपात्तम् । तथापि न विविक्षितसिद्धिरिति । विवक्षितमत्र शब्दानित्यत्वं, तन्न सिद्धयति । यतः एवंविधः शब्दाकाशान्यतरत्वादिः साध्यो धर्मः उपपद्यते । तस्य च धर्मस्य शब्दानित्यत्वे स्वीक्रियमाणे सति, अनित्ये शब्दे नित्ये चाकाशे वर्तनादनित्यनित्यावृत्तित्वं न स्यात् । तस्माच्छब्दो नित्यः एवाङ्गीकर्तव्यः स्यात् । तथा च न विविक्षितानित्यवसिद्धिः । तदर्थ शब्देतरेति पदं प्रक्षिप्तम् । तथा च सत्येवंविधः साध्यो धर्मः शब्दाकाशान्यतरत्वादिः । स च शब्देतरस्मिन् अनित्ये न वर्तते, नित्ये चाकाशे वर्तते । तेन तस्य शब्दे. तरानित्यनित्ययुगलावृत्तित्वं आकाशे वर्तनादाकाशधर्मत्वं च तस्य विद्यते एव । स च धर्मः आकाशान्यनित्यमात्रवृत्तित्वानधिकरणं तदैव, यद्यनित्यः शब्दः स्यात् । शब्दस्य च नित्यत्वेऽङ्गीक्रियमाणे तस्य धर्मस्य आकाशान्यनित्यमात्रवृत्तित्वाधिकरणत्वमेव स्यात् , न तु तदनधिकरणत्वम् । तस्य धर्मस्य आकाशान्यनित्ये शन्देऽपि वर्तनात् । तस्मात्पारिशेष्याच्छब्दस्यानित्यत्वं स्वीकर्तव्यम् । अत्र च घटे दृष्टान्तीक्रियमाणे घटशब्दाकाशान्यतरत्वादिधर्मो ज्ञेयः । स च शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितोऽस्ति, शब्देऽपि वर्तनात् । एतावता शब्देऽनित्ये घटे, नित्ये चाकाशे वर्तते न तु शब्दादितरदेव यदनित्यं नित्यं च तयोर्युगले तथा । स चाकाशान्यनित्यमाने एव न वर्तेते, अनित्ये घटेऽपि वर्तनात् । स चाकाशे वर्तनादाकाशधर्मोऽपि भवति । आकाशे चाकाशत्वादिः, आत्मादौ च घटशब्दाकाशात्मान्यतरत्वादिः । स च शब्देतरानित्यनित्यवृत्तित्वरहितोऽस्ति, शब्देऽपि च वर्तनात् । आकाशान्यनित्यमात्रवृत्तित्वरहितोऽप्यस्ति, घटेऽपि वर्तनात् । इदमत्राकूतम् स धर्मः आकाशादन्यस्मिन्नित्यमाने एव न वर्तते, किन्त्वनित्ये घटेऽपि वर्तते एव । आकाशधर्मत्वं च तस्य प्रकटमेव । एवं चान्यस्मिन्नपि दृष्टान्तीक्रियमाणे यथायोगं धर्मयोजना कार्या इति सर्व सुयौक्तिकम् । एषा च महाविद्या अनेकदोषदुष्टत्वेन चिन्त्येत्युक्तं महाविद्याबृहद्वृत्तिकृता । प्रस्तुतलघुवृत्तिकृतानेनापि च साध्यधर्मदृष्टान्तधर्माद्यकथनेन विशेषतो न व्याचक्रे केनापि हेतुना । तथापि वाचयितृविनेयजनमनःस्थिरीकरणाय अर्थगमनिकामात्रं कृतमस्तीति ज्ञेयम् । इति षोडशोदाहरणव्याख्यानं समाप्तमिति ॥ श्रीदेवसुन्दरगुरुप्रथितप्रतिष्ठ पट्टोदयाचलसहस्रकरोपमानाः । श्रीमत्तपागणमहार्णवपूर्णचन्द्राः __ श्रीसोमसुन्दरगुरुप्रवरा जयन्ति ॥१॥ तेषां गुरूत्तमानां शिष्यः श्रीभुवनसुन्दरः सूरिः। तनुते स्म महाविद्याविवृतेर्जयकारि टिप्पनकम् ॥ २ ॥ इति श्रीभुवनसुन्दसूरिविरचितं महाविद्याविवरणटिप्पनं समाप्तम् । - - १ इदं पर्व ख पुस्तके न विद्यते । Aho! Shrutgyanam Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aho ! Shrutgyanam Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः वादीन्द्र: ( महाविद्याविडम्बनप्रणेता ) कुलार्कपण्डितः ( दशश्लोकी महाविद्याकारिकाकर्ता ) महाविद्याविडम्बनग्रन्थोल्लिखितानां ग्रन्थकारप्रभृतीनां नाम्नां सूचीपत्रम् | १ ... I ... उदयन: ( प्राचीनन्यायाचार्य : ) वैशेषिका: ( कणादमुनिप्रणीत वैशेषिकदर्शनानुयायिन: ) सूत्रकारः ( कणादमहर्षि: ) भाष्यकारः ( वैशेषिकसूत्रभाष्यकर्ता प्रशस्तपादाचार्य : ) टीकाकारा: ( कन्दलीकिरणावल्यादिटीकाकाराः ) ... शिवादित्यः, शिवादित्यमिश्रः ( सप्तपदार्थीप्रभृतिन्यायग्रन्थप्रणेता प्राचीनन्यायाचार्य : ) ७४,९९, १०९,१०७ श्रीसिंह: ( यस्य सभायां वादीन्द्रः धर्माध्यक्षः आसीत् स भूपतिः ) पूर्वाचार्या: ( प्रशस्तपाद-श्रीधर उदयनादिप्राचीनन्यायाचार्या : ) Aho! Shrutgyanam ... ... पृष्ठम्. २,९९ १७ *** ८३ ९८ ९८ ९८ ९८ ९९ १०९ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ भुवनसुन्दरसूरिकृतमहाविद्याविडम्बनवृत्तौ उल्लिखितानां ग्रन्थकादीनां नामानि. विषयः पृ.| विषय. श्रीगुणरत्नः १ श्रीपतिः सोमसुन्दरः १ शिवादित्यादितार्किकाः भट्टवादीन्द्रः १ श्रीसिंहनरेश्वरः ... महाविद्या १ गुरवः ... ... कुलार्कपण्डितः ... ६ प्राभाकराचार्याः ... विडम्बनकारान्तरम् ७ हर्षपुरं ( पत्तनम् ) वैशेषिका: ... ३९ रत्नशेखरमुनिः भाट्टा.... ... ... ६२ महाविद्याविवरणटिप्पने शिवादित्यमिश्रा: ... ७५ महाविद्याबृहद्वृत्तिः... ... ... १५७ ... ९० न्यायसारः ( भासर्वज्ञकृत:) ... ... १६१ :::::::::: १५० शास्त्रकाराः Aho ! Shrutgyanam Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III mm my mmmm my my भुवनसुन्दरसूरिणा महाविद्याविडम्बनवृत्तौ उद्धृतानां लक्षणादीनां संग्रहः । विषयः पृष्ठम् प्रसक्तप्रतिषेधेऽन्यत्राप्रसङ्गाच्छिष्यमाणे संप्रत्ययः परिशेष: साधनाव्यापक: साध्यव्यापक: उपाधिः ... पक्षविपक्षमात्रवृत्तिविरुद्धः ... ... ... पक्षत्रयवृत्तिरनैकान्तिक: ... ... . .. तुल्यबलहेतुसाधितसाध्यव्यतिरेकः प्रकरणसमः ... 'व्याप्यं गमकमादिष्टं व्यापकं गम्यमिष्यते। व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव हि ॥ ... न हि पक्षे पक्षतुल्ये वा व्यभिचारः' इति वचनात् ... विशेषणाभावाद्वा विशेष्याभावाद्वा विशिष्टाभावः इति न्यायः... 'परस्परविरोधे हि न प्रकारान्तरस्थितिः' इति न्यायः (न्यायकुसुमाञ्जलौ उदयनाचार्य:)... अनादिः सान्त: प्रागभावः । तादात्म्यनिषेधोऽन्योन्याभावः ... अनादिरनन्त: संसर्गाभावोऽत्यन्ताभाव: सादिरनन्तः प्रध्वंसाभावः ... ... गुणाश्रयो द्रव्यम् कर्मातिरिक्तो जातिमात्राश्रयो गुणः ... संयोगविभागाजन्यसंयोगविभागासमवायिकारणजातीयं कर्म नित्यत्वे सत्यनेकसमवेता जातिः सामान्यापरपर्याया... नित्येष्वेव द्रव्येष्वेव वर्तन्ते एव ये ते अन्त्या विशेषाः ... अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहप्रत्ययहेतुर्यः सम्बन्धः स समवाय: ... 'आदावन्ते मध्ये च कल्पितमङ्गलानि शास्त्राणि प्रथन्ते । ( महाभाष्ये )... अभावनिरूपक: प्रतियोगी ... ... ... ... ... ' द्वौ नौ समाख्यातौ पूर्वोक्तमेवार्थ गमयत:' इति न्यायः ... 'सर्वव्याख्याविकल्पाना द्वयमिष्टं प्रयोजनम् । पूर्वत्रापरितोषो वा व्याप्तिर्वा विषयान्तरे । ॥ स्वसमवेतकार्योत्पादकं समवायिकारणम् 'रोहिणीसहितमुत्तरात्रयम् । इति श्रीपतिवचने ... अव्यवधानेन स्वापेक्षणमात्माश्रयः पक्षसपक्षविपक्षवृत्तिरनैकान्तिक: ... व्याप्तिपक्षधर्मतावलिङ्गम् ... ११६ चोद्यपरिहारसाम्यं प्रतिबन्दीतर्कः ... ... संदिग्धविपक्षवृत्ति: संदिग्धानेकान्तिकः... ... स्वव्याघातकमुत्तरं जाति: ... ... विरुद्धसमुच्चयो व्याघात: ... 'एकस्मिन्ये प्रसज्यन्ते द्वयोर्भावे कथं न ते । इति न्यायः ... २९ महाविद्या. mmm my M ० my ० १४. Aho ! Shrutgyanam Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनग्रन्थगतानां पारिभाषिक शब्दानां सूचीपत्रम् | पृष्ठम्. विषयः १०३ आश्रयाश्रयिभाव विषयः अतिप्रसङ्ग अत्यन्ताभाव अत्यन्ताभावप्रतियोगि अत्यन्ताभावाप्रतियोगि अधिकरण अनिरुक्ति अनुगम अनुपपत्ति अनुपरम अनुपलब्धि अनुमान अनैकान्तिक अनैकान्तिकत्व अनौपाधिक अन्योन्याभाव अन्वयव्यतिरेकि... अपर्यवसान अपसिद्धान्त अप्रतिभा अप्रमिताश्रयत्व... अप्रसिद्धविशेषणत्व अप्रामाणिकप्रतियोगिक अप्रामाणिक भाव अभाव अभीष्टविरोध अयोगव्यवच्छेद अर्थान्तरता अविनाभाव असिद्ध आगमबाध आपाद्यापादक भापाद्यासिद्धि ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ६,११,१४,१८ इ. उपरम ... ... IV २६ | तर्कमुद्रा ३, ५, ६,३८, इ. तर्कविरह ११,१३८,१४०,१४७ तर्काकाङ्क्षा १३० दृष्टान्त ... २७,८९ आश्रयासिद्धि ... ३२ | इष्टापादन ३६ उत्तराभास ... ... ९७ उपसंहार ३४ उपाधि ७४ द्वन्द्वसमास ७८ धर्मिन् ७,१२,१७ नियम ७७ चाक्षुष ९९ जाति: ११२ | जात्युत्तर ९४ तर्क ११,१२ कालात्ययापदिष्ट १३५ | केवलान्वयि ८७ चरितार्थत्व *** ... ९३ पक्षनिष्ठत्व ९९ पक्षवृत्तित्व १२८ क्षेतरत्व ८४ पक्षे तर वृत्तित्व ८४ | परमाणु Aho! Shrutgyanam ... ८३ नियामक ८७ निरुपाधिक ३.८ | निष्प्रमाणक १०७ | पक्षतुल्यत्व ९५ पक्षधर्मत्व १६,२१,२२,१३६ पक्षधर्मत्वासिद्ध ... ... ... ... ... 010 ... ... :: ... ... ... ... ... ... ... 400 पृष्ठम्. ८२,८५,८९ ७७,८५ ८४ १३४ १३५ २४ ... ... ... ... ८.. ... ... ... 800 ४ ३९ २९ ९,११४ ९२,९३,९५ १३५ १०५ ... ... 800 ... ... ... ... ... ... ... ९,१०१ ९९ ३,७६ १३७ ८८ १३२ १३३ १२१ १०७ ... ७९,८९ २५,६३ ९६ ९९ १०,३८ ८, ११ ४,११९ ७ ७६ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टम्. .. ११२ . १४२ ७,८,११,२४,१४३,१४४ m विषयः परस्परपरिहार ... पराजय प्रतिज्ञा प्रतिबन्दी प्रतियोगिन् ... प्रतिवादिन् ... प्रतीतापर्यवसान प्रतीत्यपर्यवसान प्रत्यक्ष प्रध्वंस प्रमाण प्रमाणविरह प्रमिति प्रमेयत्व my 0 ::::::::: ११४,११९ १ प्रसङ्ग प्रागभाव :::::::::::::::::::::::::::::: पृष्ठम.) विषयः ... १४४ व्यतिरेकव्याप्ति ... १३६,१४९ व्यभिचार ... ७,९/व्यवच्छिन्न १२९,१३१ व्याघात ३८/ व्यापक | व्याप्तिः ... १४५ व्याप्यत्व १०२,१०६,१३८/ व्याप्यत्वासिद्ध ... ___७६ व्याप्यत्वासिद्धि ... ... ३७,८९/ व्युदास ... सकलवस्तुनिष्ठत्व | सत्प्रतिपक्ष ९७| सत्प्रतिपक्षता ... | सत्प्रतिपक्षत्व ... १सत्प्रतिपक्षितत्व... ८९ सपक्षता ... १२१ सपक्षनिष्ठत्व ... १२२,१२८ समवायिकारण... ... ३८ सव्यभिचारत्व ... २,७,७९, इ. सन्दिग्धानकान्तिक ... ७७| संप्रतिपन्न ... ८,६,१३१ संसर्ग ... ... ८८ संसृज्यमानप्रतियोगि ... ८७.८८ साधनवादिन् ... साधनाव्यापकत्व साध्यव्यापकत्व... ९९,१०७,१३२ सिद्धान्तविप्लावकत्व सोपाधित्व ... स्वरूपासिद्ध ... स्वव्याघातक ... ... ९८ स्वस्वेतरवृत्तित्व... बाध . बाधा ::::::::: ::::::::::::::::::::::::::: .. भाव महाविद्या . १३२ ::::::::::::::: १४५ मान मलशैथिल्य योग्यता योग्यानुपलब्धि ... वादिन् ... विपक्षनिष्ठ विरुद्ध विशिष्टाभाव विशेषणाभाव ... विशेष्याभाव ... व्यतिरेक १३६ १०१ १२८ ८१ १०८ १३२ ६,८,१० इ. Aho ! Shrutgyanam Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्याविडम्बनादिग्रन्थचतुष्टयगतश्लोकानां वर्णानुक्रमणी। विषयः पृष्ठम्.| विषयः पृष्ठम्. अथ नूतन ... १०० तदीयकर अथ प्रबन्धा १२२ तद्वत्त्यवृत्ति अथ व्याख्या ... ... ... १ तर्कादिग्रन्थ अथ सत्प्रति ११४ | तस्यैव त १५५,१८७ अथ संनह्य १०७ तेषां गुरू ... १८९ अथ सव्यभि तेषामेष अथार्थान्तर ... १३६ त्वत्साध्यं स्व अन्यासाध्य ... १५१ | दोषत्रय ... १५२ अन्वयव्यति ___२,१५७ धत्तेऽभीष्ट अपक्षसाध्य ५५,५८,५९,१५५,१५६,१६३ धर्मी च त्वद ... ११४ अपि सर्व ... ... ११० नमस्यामो अप्येकप्रति " ... १२२ नानाभरण अभूवंस्तस्य ... १५१ नेन्दोः कला असंभाव्ये ... १५४ पक्षतद्भिन्न असाध्यत १८३ पक्षत्वं हि ... १६१ असाध्यान्य १५६,१८१ पक्षापक्षग १५५,१७१ आप्तप्रणीत पक्षापक्षवि ... ३९,१५५,१७८ आद्या: श्रीमुनि पक्षेषु ये ... १५६,१८४ इति गूढ पक्षोऽथवा ... १८५ इति दूषण प्रायष्टीका ... १५७ इति सव्यभि भाट्टा नित्यं २,१५७ इति संक्षेप महाविद्या दश ... १८८ उपाधि ... ९९ महाविद्याप ... १५४ उपोद्धात: ... १६० महाविद्यास एवंविधं ___३,१५८ मानं हन्त किञ्च स्वव्य ... १२२ यत्र यत्र ग्रन्थोऽयं वि ... १५० या कन्दप्रभ तत एषा ... १५३ यो भङ्गिस्थ तत्तस्यानि २,१५७ वाकायचेतः तत्तादात्म्य ... १५५ वादीन्द्रवज्र तत्पमुकुट .., १५१ विच्छिद्य वा ... ७४ :::::::::::::::::::::::::::::: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: : ::::::::: ३ ... १५१ Aho ! Shrutgyanam Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः शब्दस्यास्थिर शब्दे शब्द शास्त्रैकदेश श्रियो धाम श्रीगौर्यस्य श्रीदेवसुन्दर श्रीमच्चन्द्र श्रीमत्तपा श्रीवीरः श्रे श्री सोमसुन्दर विषयः पृष्टम्. २,१५८ श्रु १३६ कर १६० | समुल्लसति १५७ सर्वव्याख्या १ सुपर्वाभ १८९ स्याद्वादवाद १५१ स्वव्याघातक १,१५१ स्वीकृतानन्य १५१ हर्ष पुरनाम ... ... ... ... १५०,१५४ Aho! Shrutgyanam ... ... ... ... ९० १५४ १५२ १३२ १५५,१७६ १५० ... ... ... पृष्ठम्. १५७ १५० २ ... Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VI शुद्धिपत्रम् अशुद्धम् शुद्धम् प्रतिषधे प्रतिषेधे महविद्यां महाविद्या धर्माणा धर्माणां "धिकरण 'धिकरणं सर्वविषयत्व सर्वविषयकत्वं तन्त्रयाति तबयाति 'वंख्पत्वं वरूपत्वं द्वितीयः 'उभयोः ५' इत्यस्योपरि 'घ' पुस्तकमितो ऽने नोपलब्धमिति टिप्पनं पठनीयम् । हर्षपुर m १२६ द्वीतियः १४४ हषपुर Aho ! Shrutgyanam