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RST
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CELL શ્રેય જીર્ણોદ્ધાર
-: સંયોજક :શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવના હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫.
મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩
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“અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૧૦૫
જૈન સ્તોત્ર સંચય ૧-૨-૩
: દ્રવ્ય સહાયક :
કચ્છવાગડ દેશોદ્ધારક અધ્યાત્મયોગી
પૂ.આ.શ્રી કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શિષ્યરત્ન ગચ્છનાયક પ.પૂ. આચાર્ય શ્રીમદ્વિજય કલાપ્રભસૂરિશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાવર્તિની પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી મયૂરકલાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી
શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા આરાધના ભવનના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
સંયોજક શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૭ ઈ.સ. ૨૦૧૧
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"Aho Shrut Gyanam"
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯) સેટ નં-૧
ક્રમાંક
પુસ્તકનું નામ
કર્તા-ટીકાકા-સંપાદક
001
002
003
004
005
006
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024
025
026
027
श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता - भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजित पृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् शिल्परत्नम्भाग-१
शिल्परत्नम्भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
पर्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદમાર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ
न्यायप्रवेशः भाग - १
दीपार्णव पूर्वार्ध
अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग २
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
पू. विक्रमसूरिजीम. सा.
पू. जिनदासगणिचूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणिम. सा.
पू. भद्रबाहुस्वामीम. सा.
पू. पद्मसागरजी गणिम. सा.
पू. मानतुंगविजयजीम. सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारतीगोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલસોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजीम. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराजदोशी
श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
પૃષ્ઠ
238
286
84
18
48
54
810
850
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162
302
156
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88
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498
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226
640
452
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454
188
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028
414
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824
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202
| क्षीरार्णव
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 029 वेधवास्तुप्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई | 030 શિલ્પપત્રીવાર
| श्री नर्मदाशंकरशास्त्री 031. प्रासाद मंडन
पं. भगवानदास जैन 032 | શ્રી સિદ્ધહેમ વૃત્તિ વૃતિ અધ્યાય પૂ. ભવિષ્યમૂરિનમ.સા. 033 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 034 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂક્યાસ અધ્યાય છે પૂ. ભાવસૂરિનીમ.સા. 035 | શ્રસિહમ વૃત્તિ ચૂદાન અધ્યાય (ર) (૩) પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 036 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृति बृहन्न्यास अध्याय५ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. | 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા તિલકમન્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 | તિલકમન્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 040 તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી 042 સપ્તભીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 | સામાન્ય નિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 | સપ્તભળીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 047 વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી 048 | નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 050 ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 051 સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 | બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી જ્યોતિર્મહોદય
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
041.
480
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043
6o
044
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138
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પાદક | પૃષ્ઠ !
160
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦ - સેટ નં-૨ ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ભાષા કર્તા-ટીકાકા(સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वत्ति बूदन्यास अध्याय-६
पू. लावण्यसूरिजीम.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
पू. जिनविजयजी म.सा. 057 | भारतीय हैन श्रम संस्कृति सने मना शु४. पू. पूण्यविजयजी म.सा.
164 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
| सं श्री धर्मदत्तसूरि
। 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि 0608न संगीत राजमाता
| . श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 306 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 | 063 चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
पू. मेघविजयजी गणि
516 064 विवेक विलास
सं/J. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 सन्मतितत्त्वसोपानम्
|सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 0676शमादा ही गुशनुवाई | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
638 068 मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा.
192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/J. श्री अंबालाल प्रेमचंद | 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य |
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073| मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 0748न सामुद्रिनi iय jथी
J४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र इल्पद्र्भ साग-१
४४. श्री साराभाई नवाब
374
420
406
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076 | જૈન ચિત્ર કલ્પનૂમ ભાગ-૨
સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
077
078 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય
079
શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩
| 083 | આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
084
કલ્યાણ કારક
183 વિધઓપન જોશ
086
087
188 હસ્તસીવનમ્
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2
089 એન્દ્રચનુવિંશતિકા
090
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
श्री साराभाई नवाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
સં.
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
सं./ हिं श्री नंदलाल शर्मा
ગુજ.
ગુજ.
સં.
સં.
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पू. यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
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194
192
254
260
238
260
114
910
436
336
230
322
114
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
पृष्ठ
272
92
240
93
254
282
95
118
466
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम पुस्तक नाम
कर्ता/टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक |91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना 96 पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
सं./अं साराभाई नवाब 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
| भोजदेवसं . टी. गणपति शास्त्री समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव
टी. गणपति शास्त्री 99 . | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
सं. वेंकटेश प्रेस | 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. सुखलालजी भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा हिन्दी मुन्शीराम मनोहरराम 102 शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर
ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी
आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मतितर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी सन्मतितर्क प्रकरण भाग-४,५ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी
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98
362
134
70
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224
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जैन लेख संग्रह भाग - १
जैन लेख संग्रह भाग - २
जैन लेख संग्रह भाग - ३
जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
जैन प्रतिमा लेख संग्रह
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाह
कांतिसागरजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
प्राचिन लेख संग्रह - १
बीकानेर जैन लेख संग्रह
प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १
प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो -२
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो -३
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-१
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-४
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल
कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
विजयदेव माहात्म्यम्
पी. पीटरसन
जिनविजयजी
सं./ह
सं./हि
सं./ह
सं./हि
सं./ह
सं./गु
सं. गु
सं./ह
सं./हि
सं./ह
सं. गु
सं./गु
सं./गु
अं.
अं.
अं.
सं.
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
अरविन्द धामणिया
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक
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श्री आगमोद्धारकग्रन्थमालाया एकादशं रत्नम्
___ॐ नमो जिनाय आगमोद्धारक-आचार्यप्रवर-श्री० आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः
जैनस्तोत्रसञ्चयस्य प्रथमो विभागः
संशोधक :परमपूज्य-गच्छाधिपति आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसूरिः
द्रव्यसहायक :मुनिश्रीलाभसागरमहाराजोपदेशाच्छाणीग्रामस्थजैनसंघः ॥
प्रतय ५००-मूल्यम् रू. १-० वीर सं. २४८६-वि. सं. २०१६
प्रकाशक :रमणलाल जयचन्द शाह ठे. शेठ मीठाभाइ कल्याणचंदनी पेढी
कपडवंज (जि. खेडा)
मुद्रक :रमणलाल नानालाल शाह अशोक प्रिन्टरी रावपुरा
वडोदरा
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________________
न
किञ्चिद्वक्तव्यम्
अयि विबुधाः : जिनवरभक्तिरससक्तचेतसां भवतां करसरोरुहे जैनम्तोत्रसञ्चयस्य प्रथमोऽयं विभागः सादरं समर्प्यते । अत्र तिस्रः कृतयः सन्ति । तत्र प्रथमा अवरियुता अष्टादशस्तोत्री । अत्र युष्मच्छन्दप्रयोगगर्भा नब स्तवाः तथा अस्मच्छब्दप्रयोगगर्भा नव स्तवाः सन्ति । एतन्मूलस्य कर्ता श्रीसोमसुन्दरमरिः तत्सत्ताकालश्च वि० पञ्चदशशताबीरूपः, तथा अवचूरेः कर्ता श्रीसोमसुन्दरमूरिशिष्यः सोमगणिः तत्सत्ताकालश्च वि० पञ्चदशशताब्दीरूपः । एतच्च एतद्ग्रन्थान्तभागावलोकनात् सुस्पष्टमेव । द्वितीया पंचकल्लाणं थोत्त- अत्र प्रथमतीर्थकरस्य श्रीऋषभदेवस्य पञ्चभिः कल्याणकैः स्तुतिः कृताऽस्ति । अस्य कर्तनामप्रभृति न ज्ञायते, किन्तु अस्य वि० १२८५ वर्षे लिखिता ताडपत्रीया प्रतिः छाणीग्रामस्थज्ञानमन्दिरे समस्ति, तेन एतत् कर्ता वि० १२८५ वर्षात् प्राकालीन इति तु स्फुटमेव । तथा तृतीया कृतिः अवचूरिसंयुतो महावीरस्तवः । अस्य कर्ता पादलिप्तसूरिः । एतच्च
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एतत्स्तवान्ते ' पालित्तय' पदोल्लेखात् स्फुटमेव । अवचूरिश्च अम्योपरि १३८० वर्षे श्रीजिनप्रभसूरिभिः कृताया वृत्तेः सक्षिप्य कृताऽस्ति. परंतत्कत्तनामा दिन ज्ञायते । एतासां तिसृणां कृतीनां मुद्रणयोग्यपत्राणि (प्रेसकोपी) पू० आगमोद्धारकआचार्यप्रवर-श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरैः मत्पा-वि० २००५ वर्षे कारितानि स्वयं च शोधितानि जैनानन्दपुस्तकालयात् प्राप्तानि तदाधारेण संशोध्य प्रकाशीनाः कृतयः । इति निवेदयति.
चन्दनसागरगणि २०१६ कार्तिक शुक्लाएकादशी वटपढ़े
साभार स्वीकार श्री बडोदरा मध्ये जानीशेरी श्राविकाउपाश्रयना ज्ञानखातेथी रु. ५१. श्राधिका हसमुखबहेने
अर्पण कर्या.
प्यवस्थापक: रमणलाल जयचन्द शाह
PALALPARA.ORMALPANAVALPORao
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शुद्धिपत्रक
अशुद्धम्
० राया
पाचौ
विषया
स्तुता:
० नत्रर०
० ऽन्या
निरृता:
छात्रैः
मयूर ०
सन्ता,
● निदेश:
ययास्ताव
लजोध
०न्तया
पाठा
ययोवृ०
० ध्योः प्रीता,
तुभ्यं
इतिच०
सदृग् । कमलकुमुदेषु
● गुरुत्त०
सक्का०
०दिद्ध
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०
शुद्धम्
०रायां
०पाव
विषया:
स्तुता
नगर०
उन्यो ।
निरृताः
छत्रे:
मयूर०
सन्तो
निर्देश:
ययोस्ता
लज्जौध
०न्तयो०
पाठा
ययोर्वृ० च्योः,
O
गुरुत्त० सक्की०
● दिद्धं
प्रीता
तुल्यं
इतिब ०
सदृकमलकुमुदेषु ।
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ॐ नमो जिनाय आगमोद्धारक आचार्यप्रवरश्री. आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः
श्रीसोमदेवगणिनिर्मितावचूरिसमेता आचार्यपुङ्गव-श्री० सोमसुन्दरसरिरचिता युष्मदस्मच्छब्दरूपरचनाश्चिता
अष्टादशस्तोत्री॥ स्तुवे पाच जिनाधीश, पार्श्वयक्षोपसेवितम् । प्रणतानल्पसङ्कल्प-दानकल्पद्रुमोपमम् ॥१॥ पूजितत्वं जन: पूज्य:, स्यात् सर्वजगतामपि हीलितत्वां तु नैवैति, दुःखोच्छेदः कदाचन ॥२॥
अवचूरि:-बहुव्रीहेरेकवचने युष्मच्छब्दस्यैक १ द्विर बहु३ वचनैः प्रत्येकं त्रयः स्तवाः, बहुव्रीहेर्द्विवचनेपि युष्मच्छब्दस्यैक १ द्वि २ बहु ३ वचनैश्च प्रत्येकं त्रयः स्तवाः, बहुवचनेपि युष्मच्छब्दस्यैक १ द्विर बहु ३ वचनैः प्रत्येकं त्रयः, एवं युष्मच्छब्दप्रयोगगर्भा नव स्तवाः। एवमेव चाऽस्मच्छब्दप्रयोगगर्भा अपि नव । सर्वे अष्टादश इति रचनाक्रमः ।
स्तुवे०-प्रणतानामनल्पाः सङ्कल्पाश्चिन्तितानि तेषां दाने कल्पद्रुम उपमा-उपमानं यस्य स, तम् ॥१॥
पूजितः त्वं येन स पूजितत्वं, त्वां मा इत्यादिषु ' त्वमौ प्रत्यय०' सिद्धहेम० ॥२॥१॥११॥ इत्यस्य, प्रिया यूयं यस्य स
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प्रयत्वमित्यत्र 'मह' मित्यस्य च सावकाशत्वात् पूजितत्वमित्यादिषु उभयोः सूत्रयोः स्पर्धे परत्वात् त्वमहं सिना० | २ । १ । १२ । इत्येव प्रवर्त्तते. ' स्पर्धे पर ' इतिन्यायात् । एवं तुभ्यं यूयं तवाद्यादेशेष्वपि सावकाशत्यादि वाच्यं । हीलण् चुरादिधातुः बहुलमेव निदर्शनमितिवचनात् दशवैकालिकबृहद्वृत्तौ 'हीलन्ति मिच्छं पडिवजमाणा' इत्यादिव्याख्यायां ही लन्तीतिप्रयोगदर्शनाच्च, हीलितः त्वं येन स तं, विशेषणबलाज्जनमिति विशेष्यं गम्यते । तुः पूजाविपर्ययकर्त्तुः फलविपर्ययं द्योतयति । एवोऽवधारणे । दुःखोच्छेदः कदाचन नैवेति । पूर्वस्य धातोस्तिथि ' अवर्णस्येवर्णादिना० । १ । २ । ४ । इत्यतः परत्वात्पूर्वं 'नामिनो गुणोऽक्ङिति | ३ | ४ । ७१ । इति गुणे उपसर्गस्यानिणिवेदोति ' । १ । २ । १९ । इत्यत्र इणूवर्जनात् आलोपाभावे ' ऐदौत्स - न्ध्यक्षरे: ' | १२|१२| इति एकारे, ऐति इतिरूपम् ॥ २ ॥ नाथीकृतत्वया देव !, भवारिर्जीयते क्षणात् । हर्षाद्वीक्षिततुभ्यं च, स्पृहयेन मुक्तिकामिनी ॥३॥
अब ० - अनाथो नाथः क्रियसे स्म 'कृभ्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्वे च्चि:' । ७ । २ । १२६ । इति चौ 'ईश्च्वाववर्णस्थानव्ययस्य ' | ४ | ३ | १११ । इति ईकारे नाथीकृतः, नाथीकृतस्त्वं येन स तेन, 'त्वमौ प्रत्यय० | २|१|११| इति युष्मदो मान्तावयवस्य त्वादेशे ' लुगस्य. ' |२| १|११३ | इति
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अष्टादश
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स्तोत्री
त्वशब्दाकारलोपे अकारसम्बन्धे च 'टाइयोसि यः' ।२।१७) इति दो यः। अरिरिवारिः, भवश्वासावरिश्च 'उपमेयं व्याघ्राद्यैः' ।३।१।१०२। इति कर्मधारयः । एवमन्यत्रापि रूपके। वीक्षितस्त्वं
येन स तम्मै, · त्वमौ प्रत्यय०' ।२।११११॥ इति 'तुभ्यं मह्यं या' ।२।१।१४। इति द्वयोः प्राप्तौ परत्वात्तुभ्यमादेशः । - स्पृहेाप्यं वा' ।।२।२६॥ इति सम्प्रदानत्वे चतुर्थी, अदन्तस्य स्पृहयातोणिचि अलुक्यपि स्थानिवद्भावाद् गुणाभावः ॥ ३ ॥ नतत्वत्पुरुषादोषा, रोषाद्या यान्ति दूरतः । सम्यध्याततव स्वामिन् , सिध्यन्ति च मनोरथा:
॥४ ॥ अव०-नतस्त्वं येन तस्मात्, ‘उसेश्चाद् ' ।२।१।१९। इति अदादेशे - शेषे लुम्' ।२।१८। इति दलुक् 'लुगस्य' ।२।१।११३। इति अलुक् । पुरुषादित्यत्र दूरशब्दयोगसद्भावाद् 'आरादर्थः' ।।२।७८। इति पञ्चमी । सम्यक् ध्यातस्त्वं येन. तस्य । अत्रापि · त्वमौ प्रत्यय' ।२११११॥ इति 'तव मम' १२।१।१५। इति सूत्रयोः प्राप्तौ परत्वात् तवादेशः। विशेषणबलाजनस्येति विशेष्यं ग्राह्य । एवमग्रेपि ॥ ४ ॥ स्तुतत्वयि नरे नाथ!, विलसन्त्यखिला: कला:! उपमानोपमेयत्वं ! चिरं जिया जिनेश्वर! ॥५॥
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अष्टादश
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अव० -- स्तुतस्त्वं येन तस्मिन् । प्राग्वत् त्वादेशे 'टायोसि' | २|१|७| इति दो यः । अथ सम्बोधने प्रथमैकवचनं, यथा उपमा० - उपमानं च उपमेयच त्वं यस्य तव स. हे उपमानोपमेयत्वं ! | अनन्यसाधारणस्य तव उपमानं उपमेयश्च त्वमेवासीतिभावः । ' ये देव ! भवतः पादौ भवत्पादाविवाश्रिताः ' इत्यादिष्विवानन्वयालङ्कारः । ' उपमानोपमेयत्वे एकस्यैवैकवाक्यगेऽनन्वय ' इति काव्यप्रकाशवचनाद् । द्वयाश्रये द्वितीयसर्गे ९ वृत्ते प्रेयश्वतस्रः प्रियतिस्र ईशास्तिस्रश्चत 'स्रोपि वधूर्विहाय' अत्र प्रेयश्चतस्रः प्रियतिस्र इति १५ काव्ये 'रात्रौ गतायां वियुतावीह स्वपद्यवय्यी ' ति, तथा तत्रैव २० काव्ये 'त्वां मां धिगावां च युवां तथाऽस्मान्, युस्मान्न यत्सत्तव सन्ममेशः। अत्र सत्तव सन्ममेति प्रयोगविशेषणं सर्वादिसङ्ख्यं च बहुव्रीहौ |३|१|१५० | इत्युक्तपूर्वनिपातस्याऽनित्यत्वदर्शनात् न उपमानोपमेयशब्दात् प्रागू युष्मच्छन्दस्य निपातः । एवमन्येवयुदाहरणेषु ज्ञेयं । क्तान्तानां प्रियस्य च 'क्ताः' | ३|१|१५१ | 'प्रिय' | ३|१|१५७ | इति सूत्राभ्यां युष्मच्छदात् प्राग् निपात सिद्ध एव ॥ ५ ॥ युष्मत्पदान्यपदगैकवचः प्रयोगैः, स्तुत्वेति पार्श्वजिन ! सद्गुणभाजनं त्वाम् । एकं प्रभुं त्रिभुवनेऽपि भवे भवेऽहम्, याचे शिवप्रतिभुवं ननु बोधिलाभम् || ६ ||
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स्तोत्री
इति युष्मद्बहुव्रीधेकवचनमयः प्रथमः श्रीपार्श्वस्तवः ॥
अब --युष्म० स्पष्टं, नवरं अन्यपदं युष्मच्छब्दादन्यद् बहुव्रीहिसमासे यच्छद्ररूपं विशेष्यपदम् । इत्याधस्तवावचूरिः।। शान्तिप्रकरणादुपद्रवोपशमः ॥ अथश्रीअजितशान्तिस्तवःस्मृतिनिर्मितजनशान्ती,
___महिमाढ्यावजितशान्तिनामानौ । नविकमीकुर्वेऽहं, द्वितीय
षोडशजिनौ समकम् ॥१॥ अव०--नवनं नविः, 'इकिश्तिव स्वरूपार्थे ।५।३।१३८॥ इति स्तवनमित्यर्थः । नवेः कर्म नविकर्म, अनविकर्म नविकर्म कुर्वे 'कृभ्वस्ती'ति को 'नोऽपदस्य तद्धिते' [७।४।६१। इति नलोप 'ईश्च्वाववर्णस्य० ।४।३।१११॥ इति ईकारः ॥ १॥ पुष्पाद्यैर्महितत्वं परभागपरागभाग्भवेन्मर्त्यः । वृषभीभूतयुवां श्रीधर्मरथं श्रयति शिवगामी ॥२॥ ____ अव०-पु०-मह्येथे स्मेति 'तत्साप्यानाप्या०' ।३३।२१॥ इति ते महिती, महितौ युवां येन स महितत्वम् । अत्र * मन्तस्य० '१२।११०। इति त्वमहं सिना०' ।२१।१२॥ इत्यस्य च प्राप्तौ परत्वात् त्वमहं सिनेत्येव फलति । एवमग्रेऽपि
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अष्टादश
'मन्तस्येति 'त्वमौ प्रत्यया विति च परत्वाद् बाधित्वा 'तुभ्यं मह्यं ड्या ।।१।१४। इति. तव मम ।२।१।१५। इति च सूत्रयोरेव फलनमभ्यूह्य । परभागो-गुणोत्कर्षः स एव सकलजनाप्यायकत्वात् परागस्तं भजति, भजो विण । अवृषभौ वृषभौ भवथः स्म, ‘गत्यर्थाकर्म० । ।५।१।११। इति कर्तरि क्ते वृषभीभूतौ तदुद्धरणसमर्थत्वात् युवां यस्मिन् . स वृषभीभूतः त्वं तं वृष० । मन्तावयवस्य युवादेशे 'अमौ मः' ।२।१।१६। इति अमो मे ‘युष्मदस्मदोः ' ।२।१६। इति आः ।। २ ।। प्रिययुवया पुरुषेण,
प्राप्यन्ते शान्ति-कान्ति-धृति-मतयः। प्रतिपन्नप्रभुतुभ्यं,
जनाय भद्रं भवेन्नूनम् ॥३॥ अव०-प्रिय०-प्रियौ युवां यस्य. तेन । प्रतिपन्नौ प्रभू युवां येन स तस्मै । अत्र युवादेशं बाधित्वा परत्वात्तुभ्यमादेशः। * तद्भद्रायुष्यक्षेमार्थ ' ।२२६६। इति चतुर्थी ॥ ३ ॥ नित्यं मनोधृतयुवन्नुर्नान्यो जगति धन्यमुर्द्धन्यः । निजवित्तव्ययविषयीकृततव ऋद्धिः प्रवर्द्धत ॥४॥ . अव०-नित्यं०-नित्यं मनोधृतौ युवां येन स, तस्मात् । ङ्सेश्चादित्यादिप्रक्रिया प्राग्वता नुरिति नृशब्दात् 'प्रभृत्यन्यार्थ'
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स्तोत्री
१२।२।७५। इति पञ्चमी । मूर्द्धनि भवो मूर्द्धन्यो-लक्षणोन्कृष्टः, धन्येषु मूर्द्धन्यः । अविषयौ विषयौ क्रियेथे स्म, 'कृभ्वस्ती० ति च्चौ, ईश्च्चाविति ईकारः । निजवित्तव्ययस्य विषयीकृतौ युवां येन स, तस्य । अत्र युवादेशं बाधित्वा परत्वात्तवादेशः॥४॥ ध्यातश्रीविमलाचलतीर्थ
स्थितयुवयि भव्यता नियमात् । हे स्वस्वबोधकयुवाँ ! हृदि
वसतं मे जिनाधिपती ॥ ५॥ अव०-ध्यातौ श्रीविमलाचलतीर्थे स्थितौ युवां येन तस्मिन् जने नियमात् भव्यता अस्तीति सम्बन्धः । अभव्यस्य तदसम्भवात् । हे स्व०-चीप्सायां द्वित्वे स्वस्थ स्वस्य च बोधको युवां ययोः, युवयोः स्वयम्बुद्धत्वादिति भावः । हे स्व० हृदि वसतं । पञ्चमी तं। अत्र स्तवे बहुव्रीह्येकवचने प्रस्तुतेपि सम्बोधने युष्मच्छब्दस्य अन्यपदार्थस्य अभिन्नस्यैव भावादन्यपदे एकत्वं न सम्भवतीति तदकरणम् । एवमुत्तरस्तवे एकत्वे प्रस्तुतेपि सम्बोधने बहुवचनमेकत्वासम्भवादेवेति ज्ञेयम् ॥५॥ नूतौ युवामजितशान्तिजिनौ मयेति,
युष्मत्पदद्विवचनान्यपदैकतोक्त्या ।
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अष्टादश
श्रीनन्दिषेणगणिसंस्तुतपादपद्मौ,
देयास्तमस्तविपदं सुखसम्पदं मे ॥६॥ इतियुष्मत्पद द्विवचनबहुव्रीह्येकवचनमयो द्वितीयः श्रीअजितशान्तिस्तवः ।। ___ अव -श्रीनन्दि०-शत्रुञ्जये श्रीनेमिशिष्यनन्दिषेणगणधरैः यात्रार्थागतैः श्रीअजितशान्तिस्तवकरणात् । पूर्वपूर्वमहर्षिस्तुतत्वोपलक्षणार्थ चेदं। देयास्तं आशीःक्यास्तम् । इति द्वितीयस्तवावचूरिः ॥२॥ अथ साधारणजिनस्तवःकल्याणकदिनपञ्चक
सुरपतिततिविहितदिव्यमहिमान: । स्तुतिगोचरीक्रियन्ते, ____ मया जिना ध्वस्तसमवृजिनाः ॥ १ ॥
अव०-कल्याण०-स्तुतिगोचरीक्रियन्तेन च्विः । हद्धक्तिगोचरानीत-त्वं स्यादासन्नसिद्धिकः । सङ्कटेऽप्युत्कटे ध्यात-युष्मां नायाति दुःखिता।२।
अव०-हृ०-हृद्भक्तिगोचरं आनीता यूयं येन सः। सामान्येन त्वमहमादेशयोरुक्तत्वेनात्र युष्मद्रहुवचनेपि त्वमादेशः। ध्याता यूयं येन स तं । अत्र समासस्यैकत्वेपि युष्मदो बहुत्वे वृत्तेरेकत्ववृत्यभावात् 'त्वमौ प्रत्यय०' २।१ । ११ । इति न
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स्तोत्री
त्वादेशः । एवमपि ज्ञेयम् ॥ २॥ प्रासादस्थापितस्वर्ण-रूप्यादिमययुष्मया । निर्मीयन्ते नरेणोच्चैः, स्ववशाः सर्वसम्पदः॥३॥ ___अव०-प्रासादे स्थापिताः स्वर्णरूप्यादिमया यूयं येन, स तेन ॥३॥ अङ्गाद्यर्चाराधिततुभ्यं कः श्लाघते न देहभृते ?। आभरणमालभारीकृतयुष्मद् भाग्यवान् कोऽन्यः
॥४॥ अव०-अङ्गा०-आदिशद्वादग्रभावी, तद्विषया अर्चा, मयूरव्यंसकत्वादित्वात् समासे विषयशब्दे लोपे तया. राधेरपपठितस्य चुरादेः सद्भावात्, आराधिता यूयं येन स तस्मै, लाधिक्रियाभिप्रेयत्वात् सम्प्रदाने चतुर्थी । तुभ्यं मह्यं ङया' २।१।१४। इतिसामान्योक्तेबहुत्वेपि तुभ्यमादेशः । एवं तवादेशेपि वाच्यं । आभरणमालां विभृथेति आभरणमालभारिणः 'मालेपीकेष्टकस्यान्तेपि भारतुलचिते' २।४।१०२॥ इति इस्वः । अते ते कृताः च्यौ 'व्यञ्जनस्यान्त ई' ७२।१२९। इति ईकारं बाधित्वा 'नोऽपदस्य ' ७४६१॥ इति नलोपे 'दीर्घश्चि०' ४३।१०८॥ इति दीर्घत्वे आभरणमालभारीकृता यूयं येन स तस्मात्, 'उसेश्वादि' त्यादि प्राग्वत् 'प्रभृत्यन्यार्थ०' २।२।७५। इति पञ्चमी ॥४॥
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अष्टादश
अभिष्टुततवाऽष्टापि, सिद्धयः स्युः सहर्द्धयः । सम्यग् विधिसमाराद्ध-युष्मयि स्युः श्रिय: स्थिरा:
अव०-अभि०-अभिष्टुता यूयं येन तस्य, सिद्धयो लघिमाद्याः, ऋद्धयः आमौंषध्याद्याः । सम्यग् विधिना समाराद्धा यूयं येन. तस्मिन् । भिन्नवाक्यत्वेन स्युरित्यस्य न पौनरुक्त्यम् ॥ ५॥ ध्यातृध्येयोभयीभूत-यूयं जीयास्त हे जिनाः !। युष्मच्छब्दबहुत्वाऽन्य-पदैकवचनस्तुताः ॥६॥
अव-ध्या०-ध्यातारश्च ध्येयाश्च तेषामुभयं-द्वयं, यथा द्वयत्रयादिशब्दा मुख्यवृत्त्या गुणिनि वर्तमाना अपि विवक्षया गुणेपि वर्तन्ते, गुणा त्वयट तयडित्यादिषु तथोक्तेः । तथा उभयशब्दोऽप्यत्र गुणप्रधानः, 'सूत्रार्थतदुभय विद' इत्यादिप्रयोगदर्शनाच । अतत् तद् भूता यूयं येषां ते, ध्या० सम्बोधने । कोऽर्थः? यथा येषां युष्माकं तीर्थकराणां श्रीवीरादीनां भावितीर्थकराः पद्मनाभादयो ध्यातारः. युष्माकं तीर्थकराणां पद्मनाभादीनां श्रीवीरादयो ध्येया भूतपूर्वगत्या इति भाविभूतयोरेकीकरणेन ध्यातृध्येयोभयीभूता यूयं । यद्वा एकत्रैवोभयम् । यथा पद्मनाभो जिनध्याता भूतपूर्वतया श्रीवीरध्यातृत्वात्, ध्येयश्च परेषां द्रव्यजिनानां इति, यथा पचनाभजिनो जिनध्याता जिनध्येयश्च
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स्तोत्री तथा श्रीऋषभादयोपि । जीयास्तेति आशीद्वितीयद्विकबहुवचनेन यूयमिति कर्ता लभ्यते ॥ ६ ॥ संस्तुत्य भक्तिभरतो वृषभादिमान श्रीवीरान्तिमान जिनपतीनिति तीतदोषान् । श्रीज्ञानसागरगतप्रवरार्थसार्थलीलाऽवगाहनकलावलमेव याचे ॥७॥
। इति युस्मत्पदबहुवचनान्यपदैकवचनगर्भः साधारणजिनस्तवस्तृतीयः ॥ ३॥ अथ श्रीऋषभस्तव :___ अव०-स्थानाङवृत्तौ 'अतीत इत्यत्र पिधानवदतीत्यकारलोपो' इत्युक्तेः तीतशब्दोऽत्र साधुः । तृतीयस्तवावचूरिः ॥३॥ कृपया प्रकटीकृताखिल-व्यवहारोतमधर्मसत्पथम् । प्रथमं जिननायकं मुदा, विनयेन स्तुतिकर्मतां नये
अव०-कृप०-प्रकटीकृता अखिला व्यवहारस्य उत्तमधर्मस्य च सत्पथा येन तम् ॥ १॥ श्रुतत्वां मे श्रुती धन्ये, दृष्टत्वां चक्षुषी स्तुवे । कराभ्यां चर्चितत्वाभ्यां, कृतार्थोऽस्मि
जिनेश्वर! ॥२॥
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अष्टादश
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अव० - श्रुतस्त्वं याभ्यां ते श्रु० । अत्र बहुव्रीहिद्वित्वेऽपि युष्मच्छद्रस्यैकत्वे वर्त्तनात् न युवादेशः । दृष्टस्त्वं याभ्यां, इ० । चर्चण् अध्ययने 'भीपि भृषि' ५।३।१०९ । इत्यङि चर्चा - अङ्गसंस्क्रिया, चर्चिक्यं समालभनं चर्चा ( अभिधान० श्लो० ६३६ ) इतिवचनात् तां कुरुतः णिजि चर्चयतः कर्मणि चच्र्यसे स्म इति चर्चितः, चर्चितस्त्वं याभ्यां ताभ्याम् ||२|| अभितः कृपाणधाराप्रतिफलनवरात्रि - रूपितत्वाभ्याम् |
त्वद्भक्त्या धरणेन्द्रो नमिविनमिभ्यामदाद विद्याः ॥ ३ ॥
अव० - अभित उभयत इत्यर्थः, कृपाणधाराया प्रतिफल - नस्य - प्रतिविम्बनस्य वशेन त्रिरूपः क्रियसे णिजि त्रिरूप्यसे स्म क्ते त्रिरूपितः, त्रिरूपितस्त्वं याभ्यां ताभ्यां कर्माभिप्रेयत्वात् सम्प्रदानत्वे चतुर्थी ॥ ३ ॥
जटाभ्यां शोभितस्वर्णवर्ण-त्वाभ्यां तवांसयोः । श्रीमेरोः पार्श्वयोनींल-वनालीभ्यामिवाऽभवत् |४|
अव० -- शुभधातोर्णिगि कर्मणि क्ते शोभितस्वर्णवर्णस्त्वं याभ्यां ताभ्यां जटाभ्यामिति जटे आश्रित्य ' गम्य यपः कर्माधारे ' २२|७४ | इति पञ्चमी ॥ ४ ॥
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स्तोत्री
द्रव्यभावतमोरुद्ध-दृष्टेर्दिष्टया मम प्रभो ! । सूर्येन्द्वोरुदयो भूयात् , स्वविभादर्शितत्वयोः ।५।
अव०-द्रव्यभावौ बाह्यान्तरे ये तमसी, ताभ्यां रुद्धा दृष्टिनयनं ज्ञानं च यस्येत्यस्य मम, दिटयेत्यव्ययं सम्मदे । उदयाशिषि हेतुरूपं विशेषणमाह-स्व०स्व विभया दर्शितस्त्वं याभ्यां सूर्येन्दुभ्यां तयोः । इदंतत्वात् 'लघ्वार० ३१११६०॥ इति इन्दुशब्दस्य प्राग्निपाते प्राप्तेपि धर्मार्थादित्वात् सूर्यशब्दस्य प्राग्निपातोऽभूत् ॥ ५॥ जन्मस्नात्रमहानन्द-पदलाभार्हितत्वयोः । अष्टापदादयोः केषां न, सतां निविशते मनः।६
इति युष्मदेकवचनबहुव्रीहिद्विवचनप्रयोगसुभगः श्रीऋषस्तवस्तुरीयः
अव०-जन्मस्नात्रं महानन्दपदलाभश्च, ताभ्यां करणभूताभ्य अहिंतः-पूजितः त्वं ययोराधारभूतयोः तौ तयोः, अष्टापदस्य स्वर्णस्य अद्रिमरुः अष्टापदश्चासौ अद्रिश्च कैलासः द्वन्द्वे ' स्यादावसख्येयः' ३३११११९ । इति एकशेषः, तयोः, नि०-'निविशः ' ३।३।२४। इत्यात्मनेपदम् ।। ६ ॥ युष्मत्पदैकवचनान्यपदद्विवचनवचोविरचनेन । स्तुत इति मया प्रदेयाः
प्रवचनचातुर्यमाद्याहन ॥ ७ ॥
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अष्टादश
____ इति तुर्यस्तवावचूरिः ॥ ४ ॥ अथ पार्श्वसुपार्श्वस्तव :पार्श्वसुपााभिख्यौ फणमणिघृणिगणविभा
सिताकाशौ। स्तोष्ये ऋभुक्षिमुख्यस्तुतपदपद्मौ जिनौ
भक्त्या ॥ १ ॥ अव०-आनुपूर्व्यापेक्षया सुपार्श्वस्य प्राग्निपाते युक्तेपि अल्पस्वरत्वात् पार्श्वशद्धस्य प्राग्निपातः। ऋभुक्षिः मुख्यो येषां ते ऋभुक्षिमुख्या. देवा इति विशेष्यमनुक्तमपि प्रकरणाद् लभ्यते. 'संशय्य कर्णादिषु तिष्ठते यः' इत्यादिष्विव ॥ १ ॥ स्यातां प्रमोदपुष्टया दृष्टयुवां स्त्रीनरौ विमलदृष्टी। मधुरस्वरगीतयुवां वाग्माधुर्यं सदाऽभ्येति ॥२॥ ___ अव - दृष्टौ युवां याभ्यां तौ, द्वितीयाद्विवचनम् ॥ २ ॥ उपासितयुवाभ्यां च, लभ्यते भुवनेशता । भक्त्या प्रणतयुवाभ्यां, वासवोपि नमस्यति।३।
अब ०-उपासितौ युवां याभ्यां ताभ्यां । प्रणतौ युवां याभ्यां, कर्माभिप्रेयत्वात् सम्प्रदाने चतुर्थी ॥३॥ ऊरीकृतयुवाभ्यां नो, दूरे लोकाग्रगं पदम् । सुप्रभूभूतयुवयो- सायन्ते सुरद्रवः ॥ ४ ।।
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स्तोत्री
____ अव०-उरीकृतौ-स्वामितया अङ्गीकृतौ युवां याभ्यां ताभ्यां, 'आरादर्थैः' २।२।७८ इतिपञ्चमी । असुप्रभू सुप्रभू भवथः स्म, च्वौ 'गत्यर्थाकर्मक०' ५।१।११। इति कर्तरि क्ते सुप्रभू भूतौ युवा ययोस्तयोः ॥ ४ ॥ मनसि न्यस्तयुवयो-र्लसन्त्यखिलसम्पदः। विभक्तिसप्तकेनैवं, स्तुतो श्रीजिननायकौ ॥५॥
चतुर्भिः स्वीनरावृत्या सम्बद्धैःकलापकम् । अव:-न्यस्तौ युवां याभ्यां तयोः । पाठान्तरे आधेययुवयो: 'सर्वे दधत्याधेयतां गुणा' इति रूपे आधेयौ युवां ययोस्तयोः स्त्रीनरयोः, सर्वगुणा आधेयता दधति, तं स्वाधिकरणं कुर्वन्तीतिभावः ।। ५ ।। युष्मत्पदान्यपदगद्विवचनगर्भोक्तियुक्तिरम्येण । स्तवनेन संस्तुतौ स्तां पार्श्वसुपाश्वौ प्रसन्नौ मे ॥६॥ इतियुष्मच्छब्दबहुव्रीहिद्विवचनगर्भः श्रीपार्श्वसुपार्श्वस्तवः ।।
अव-स्ताम्-असक् भुवि, पञ्चमी तां 'नास्न्योलक' ४१२१९०। इति अलुक् । इति पञ्चमस्तवावचूरिः ।।
अथ साधारणजिनस्तवः । कल्पद्रुचिन्तामणिकामधेनु
मुख्यार्थसार्थाधिकयत्प्रणामान् ।
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अष्टादश
जिनॉस्त्रिलोकीजनितांहिपूजान् ,
भूजानिवंशप्रभवान्नुवामि ॥ १ ॥ अव०-कल्पश्चासौ द्रुश्च कल्पद्रुः, चिन्तायाः पूरको मणिः चिन्तामणिः. कामस्य पूरिका धेनुरुभयत्र मयूरव्यंसकादित्वात् समासः । भूर्जाया येषां ते भूजानयः 'जायाया जानिः । ७।३।१६४। इति जान्यादेशः । णु०णुधातुः ।। १ ॥ स्थितनामद्रव्याद्यात्मकयुष्मां रोदसी बुधश्लाध्ये । तुष्यन्ति गीतयुष्मां न के नराः किंनरौ श्रुत्वा ?
॥२॥ अव०-स्थिता नामद्रव्ये आदिशब्दात् स्थापनाभावी ते आत्मा-स्वरूपं येषां ते नामद्रव्याद्यात्मका यूयं ययोस्तौ, रोदसीद्यावाभूम्यौ, किनरश्च किंनरी च 'पुरुषस्त्रिये'त्येकशेषः ॥ २ ॥ आशातितयुष्माभ्यां स्त्रीनृभ्यां ।
___ लभ्यते न किं दुःखम् ? । आराधितयुष्माभ्यामभ्यायान्ति
स्वयंवराः कमलाः ॥ ३ ॥ गीतिः ॥ अव०-आशा० 'शदे: शिति' ३३१४१॥ इत्यात्मनेपदे आशीयध्वे यूयं ते आशीयमानाः । स्त्रीनृभ्यां प्रयुज्यध्वे णिगि; 'शदेरगतौ शात्' इति शातिकमणि क्ते च आशातिता यूयं
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स्तोत्री
याभ्यां ताभ्या. आराधिता यूयं याभ्यां ताभ्यां क्रियाभिप्रेयत्वात् सम्प्रदाने चतुर्थी ॥३॥ पथिषु स्मृतयुष्माभ्यां पलायते निखिलभीतिरतिदूरम्। पित्रोः सुत्रामापि प्रणमति स्तुतयुष्मयोः पादौ ।४।
___ अव०-स्मर्यध्वे स्मेति स्मृताः, स्मृता यूयं याभ्यां ताभ्यां, 'पञ्चम्यपादाने' २१२२६९। इति पञ्चमी । पिता च माता च 'पिता मात्रा वे' त्येकशेषे पितरी तयोः, स्तुता यूयं ययोस्तयोः ।।। युष्मास्तिव मम भक्तिः,
स्वात्मैकत्वाप्तयुष्मयोभूयात् । युष्महुवचनान्यद्वित्वोक्त्यैवं जिना नूताः ॥५॥
अब०-युष्मा०-आत्मना सह एकत्वं प्राप्ता यूयं ययोस्तयोः युष्मादृशीभूतयोरिति भावः, स्त्रीनरयोविषययोः ॥ ५ ॥ इत्थं स्तुत्वा सर्वतीर्थाधिनाथान्,
__ भव्यप्राणिप्रार्थितार्थामरढून् । दुःखोच्छेदं कर्ममर्मक्षयं सा
गन्तातीतं बोधिलाभं च याचे ॥६॥ इतियुष्मच्छन्दबहुवचनबहुव्रीहिद्विवचनगर्भः साधारणजिनम्तवःषष्ठः ।। ___अब०-बोधिलाभेन कर्ममर्मक्षयस्ततश्च दुःखोच्छेद इति
अ.-२
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अष्टादश
त्रयाणामन्योऽन्यं हेतुहेतुमद्भावः । अन्तं अतीतम्तं, 'श्रितादिभिः' ३।११६२॥ इति तत्पुरुषः । इति षष्ठस्तवावचुरिः ॥६॥
पुनः प्रकारान्तरेण षष्ठ एव स्तव उपदश्यते सर्वान् सार्वान् रागरोषादिदोषै
स्त्यक्तान युक्तान् मुक्तसङ्ख्यातिशेषैः । हर्षादीडे ब्रीडया पीडितोऽपि,
। भूतनाथान् ॥१॥ अव०- सर्वान् -मुक्ता सङ्ख्या यैस्तैः. अतिशेषशब्दः 'इय अइसेसज्झयणा भूआवाओअ'नो स्थीणं' इत्यादिसमयपरिभापया अतिशयार्थः, तैर्युक्तान् . अर्हतां प्रसिद्धानां चतुत्रिंशतोऽतिशयानामुपलक्षणमात्रत्वान्न मुक्तसङ्ख्यत्वव्याघातः ।।१} अभिविजितयुष्मां कं, मोदयेतां न चामरे । सदासेवितयुष्मां च, देवदेव्यौ स्मराम्यहम् ॥२॥ ___ अव०-'वीजण अपठितश्चौरादिकः। अभि-समन्ताद्विजिता यूयं याभ्यां ते, देवश्च देवी च । अत्र धवयोगलक्षणार्थविशेषसद्भावात् पुरुषःस्त्रिया' ।३।१।१२६। इति न एकशेपस्तत्र हि तन्मात्रभेद एव गृहीतोऽस्ति ।। २ ।। ज्ञानक्रियाभ्यां भव्यानां, मोक्षसौख्याभिलाषिणाम् । देशकीभूतयुष्माभ्यां, संसारः सुतरो भवेत् ॥३॥
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स्तोत्री
अव०-देशकीभूता अत्र चिः क्तश्च ] यूयं ययोस्ताभ्यां, करणे तृतीया ॥३॥ अच्युतसुखान्तसत्फलदात्रीभ्यां द्रव्यभावपूजाभ्याम् विषयीकृतयुष्माभ्यां प्रयतेत श्रावको न हि कः ?।४। ___ अव०-द्रव्यपूजापक्षे अच्युतसुख-द्वादशदेवलोकसुखं, भावपूजापक्षे अच्युतसुखमक्षयमुक्तिसम्बन्धि यत्सुखं, तदन्तानां सत्फलानां दायिकाभ्यां, द्रव्यभावप्रधाने पूजे, मयूरव्यंसकादित्यात्समासः । ताभ्यां. अविषया विषया क्रियध्वे स्मेति विषयीकृता, विषयीकृता य॒यं याभ्यां ताभ्यां, · गम्यस्याप्ये' १२।१६२। इति चतुर्थी, ते कत्तुं को न प्रयतेत ? इत्यर्थः ॥४॥ व्याख्यानोद्युक्तयुष्माभ्यां, धर्माभ्यां भव्यजन्तवः । तीर्णास्तरन्ति मोहाब्धि, तरिष्यन्ति तथा न के ? ॥५॥
अव०-व्याख्याने उद्युक्ता यूयं ययोस्ताभ्यां, साधुश्राद्धभेदन द्वौ धर्मों · गम्ययपः० ' ।२।२१७४। इति पञ्चमी । तावाश्रित्येत्यर्थः ॥ ५ ॥ साधयेन्निर्मलं धर्म, निश्चयव्यवहारयोः । मर्यादामनतिक्रामन् , दर्शकीभूतयुष्मयोः॥६॥
अव०-दर्शकीभूता यूयं ययोस्तयोः, अनतिक्रामन् इति विशेषणवलाञ्जन इति विशेष्यं लभ्यते ॥ ६ ॥
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३०
अष्टादश
द्रव्यपर्यायनययो:, प्रमाणीकृतयुष्मयोः । स्थितो भूपसभे वादी, जल्पन्नाप्नोति वैजयम् ॥७॥ ____ अव०-अप्रमाणं प्रमाणं क्रियध्वे स्म इति प्रमाणीकृताः, प्रमाणीकृता यूयं याभ्यां तयोः । द्रव्यपर्यायनयौ हि यथा युष्मदुपदिष्टं सर्वार्थेष्वविसंवादितया प्रवर्त्तमानौ युष्माकं प्रामाण्यं व्यवस्थापयतः । वक्तुः प्रामाण्य एव वचनप्रामाण्यनियमात्। भूपसभं राजवर्जिते' (लिङ्गानु०)ति क्लीवत्वं वै निश्चये। युष्मदुपज्ञद्रव्यपर्यायनयवादिनो जयस्यैकान्तिकत्वात् ॥ ७ ॥ युष्मच्छब्दबहुत्वाऽन्यपदद्वित्वोक्तिभिः स्तुताः एवं। श्रीज्ञानसागरत्वं देयासुः सर्वसार्वा मे ॥८॥
इतियुष्मच्छद्रबहुवचनबहुव्रीहिद्विवचनप्रयोगमयः साधा रणजिनस्तवः एष वा षष्ठः । इति द्वितीयषष्ठस्तवावचूरिः ॥६॥
अथ श्रीनेमिस्तवः रैवताचलश्रृङ्गारं, भृङ्गारं ज्ञानवारिणः । श्यामलच्छायमिच्छामि, श्रीनेमि स्तोतुमादरात् ॥१॥ शिष्यीभूयानुयूयं ये, भव्यास्ते नात्र संशयः । सम्यग्दृक्त्वादभित्वांश्च, भजन्ति त्रिदशा विशः।२।
अव०-वामनुगताः. अनुलोमादिष्विव 'प्रात्यवपरि०' ३३११४७। इति द्वितीयातत्पुरुषः पूर्वपदप्रधानः । अत्र युष्मद
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स्तोत्री
एकत्वे वृत्तावपि · त्वमौ प्रत्यये 'ति न त्वादेशः. परत्वेन — यूयं वयं जसे ' त्यस्यैव प्रवृत्तः । शिष्यीभूय अनु यूयं ये स्युः, ते भव्या एव भवन्ति, नात्र संशयोऽस्ति इति वाक्यत्रयेणाऽन्धयः । स०-'ऋत्विजू दिसू दृशू०' २।१।६९। इति शकारस्य गकारः। तस्मात्, त्वां अभि प्रतिपन्नाः अभियूयं, अभिमुखादिवत् 'प्रात्यवपरि०' ३१॥४७॥ इति द्वितीयातत्पुरुषः । तान् ‘शसो नः' २११।१७॥ इति शसो ने, युष्मदस्मदोः। २११।६। इत्याः, विश:पुरुषान् ॥ २॥ प्रियत्वाभिर्नरैरुच्चै-र्मुच्यते विषयस्पृहा । रुचिगोचरितत्वभ्यं, न रोचन्तेऽन्यतीर्थिकाः॥३॥ ___ अव०-प्रियस्त्वं येषां ते प्रिययूय. तैः। अत्र बहुव्रीहेबहुत्वेपि युष्मद एकत्वे प्रवृत्तेः 'त्वमौ प्रत्यय०' २।१।११। इति त्वादेशः । एवमग्रेपि । रुक-रुचेः-श्रद्धाया गोचरः क्रियसे "णिज् बहुलं०' ।३।४।४२। इति णिजि रुचिगोचर्यसे स्मेति क्ते रुचिगोचरितस्त्वं यैस्तेभ्यः, रुचिकृप्यर्थधारिभिः०१२।२१५५॥ इति चतुर्थी ! ' अभ्यं भ्यसः ' ।२।१११८५ इति अभ्यम् • शेषे लुक ' १२।१।१८॥ इति दलुक् ॥ ३॥ निरन्तराविस्मृतत्वन् , नश्यन्ति सकलारयः ध्यानाधीनीकृतत्वाकं, पादान्नमति विष्टपम् ॥४॥
अब०-निरन्तरं अविस्मृतस्त्वं येषां तेभ्यः, 'ङसेश्चाद् '
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अष्टादश
१२।१।१९। इति अद्, ध्यानस्य अधीनो-वशः. असः स कृतस्त्वं यस्तेषां, व्या० 'आम आकम् । २।१।२०। इति शेषे लुक' ।२।१८। ॥ ४ ॥ नरेषु नायकत्वासु, न स्याद्भवरिपोर्भयम् । एवं युष्मत्पदैकत्वान्यबहुत्वोक्तितो मया ॥ ५॥
अव०-नायकस्त्वं येषां तेषु ॥५॥ श्रीमान् देव: शिवासूनु-रानीतःस्तुतिगोचरम् । ब्रह्मविद्यामयं दद्यात्, प्रसद्यात्मपदं मम ॥६॥
इति युष्मच्छब्दैकवचनान्यपदबहुत्वगर्भः श्रीनेमिस्तवः ।
अव०---ब्रह्मविद्या-केवलज्ञानं सा प्रकृता यस्य, 'प्रकृते मयट्' । दद्यादिति, विधिनिमन्त्रणाधीष्टसम्प्रश्न० ५।४।२८ इति अध्येषणे सप्तमी, दद्यादमन्दमानन्दमितिवत् ॥ ६॥ इति सप्तमस्तवावचूरिः ॥७॥
अथ श्रीसीमन्धरयुगन्धरस्तवः । भवपङ्कपतजन्तु-जातोद्धारधुरन्धरौ । स्तुवे जिनौ विदेहस्थौ, सीमन्धरयुगन्धरौ ॥१॥ स्वामिताङ्कितयूयं याः, प्रजास्ता भाग्यभाजनम् । भावेनोपासितयुवान्, स्तुवे सेवकपुङ्गवान् ॥२॥
समस्तवाससमी, देवानमन्त्रणा कृता यस्य
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स्तोत्री
૨૨
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प्रथमं शिविकारूढव्यूढयुवाभिर्नृभिस्तपस्यायाम् | इन्द्रेभ्योऽप्यखिलेभ्यः प्राधान्यं प्राप्यते स्म खलु ॥३॥ अव :- स्वामितयाङ्कितौ-चिह्नितौ युवां यासां ता परत्वाद् युवादेशं बाधित्वा यूयमादेशः । उपासितौ युवां यैस्तान् 'शसो नः' | २|१|१| 'युष्मदस्मदो:' | २|१|६| इत्याः | बहुव्रीहिबहुत्वेपि युष्मच्छब्दस्य द्वित्वेपि वृत्तेः ' मन्तस्य ० | २|१|१०| इति युवादेशः । एवमग्रेतनेष्वपि प्रयोगेषु ॥ २ ॥ प्रथ० - शिविका - याप्ययानं तत्रारूढौ व्यूहौ युवां यैस्तैः । न च व्यूढेत्यत्र विपूवों वहतिर्विवाहार्थ एव, 'बूढो गणहरसदो' तथा ' मुणिवृढो सीलभरो ' इत्यादिषु व्यूढशब्दस्य वहनार्थस्यापि प्रयोगाणां दर्शनात् । इन्द्रा अपि हि ' मनुष्योद्भवाः जिना' इति मनुष्याणामेव प्रथमं याप्ययानवहनानुमति ददति ॥ ३ ॥ याचकेभ्योऽपि भद्रं स्ताद, वार्षिकत्यागपर्वणि । स्वहस्तदायकी भूत - युवभ्यं वाञ्छितावधि ॥ ४ ॥ अव--- याच०-' तद्भद्वायुष्य ० ||श६६। इति चतुर्थी । याचकानामाशीदर्शन हेतुरूपं विशेषणमाह-स्वहस्तेन दायकीभूतौ युवां येषां तेभ्यः । वाञ्छितमवधिर्यस्मिन् स्वहस्ताने तत् । गङ्गायां बहुमानातिशयात्तन्मृत्तिकापि यथा बहुमान्या तथा स्वहस्तदायकीभूतयूयं याचका अपीतिभावः ॥४॥
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૨૪
अष्टादश
प्रदक्षिणीकृतयुवत् , केवलिभ्यो भवत्सभाम् । संश्रितेभ्यो विदः स्पष्टं केन वैनयिकक्रमम? ।५।
अव-दक्षिणां प्रगती प्रदक्षिणौ, 'प्रात्यवपरि०' ।३।११४७। इति समासः । अतौ तौ क्रियेथे स्मेति प्रदक्षिणीकृतौ, प्रदक्षिणीकृतौ युवां यैस्तेभ्यः, 'गम्ययपः कर्म ' १२।२१७४। इति पञ्चमी, भ्यसो ' उसेश्चाद् । १२।१।१९। इति अद् । विनय एव वैनयिकं. ' विनयादेरिकण ' ॥ ५ ॥ स्वविहारक्रमपावकयुवाकमुवी महाविदेहानाम् । स्पृहयेद् बुधो न कस्क: सदावहन्मोक्षनगरपथाम् ।।
__ अव०-स्वविहारस्य क्रमेण - परिपाट्या, पावकोपावित्र्यकारको युवां येषां विदेहानां तेषां, भरतैरावतेभ्यो महत्त्वात् महान्तश्च ते विदेहाश्च महाविदेहाः । एकपदव्यभिचारेऽपि विशेषणसमासो दृश्यते । यथा शेषाहिः, अबू द्रव्यं, पृथिवी द्रव्यमित्यादि । बहुवचनं चात्र सीमन्धराधर्हच्चतुष्टयविहारकल्याणकादियोगहेतुकान् अन्यक्षेत्रातिशायिनः स्याद्वादनीत्या कथञ्चिदभिन्नान् महाविदेहानां बहून गुणान् सूचयति । सदा वहन् मोक्षनत्ररस्य पथो यस्यां उर्ध्या तां, वहति सार्थ इत्यादिष्विव अत्र वहिरकर्मकः सातत्यगमनार्थः अविच्छिन्नमुक्तिगच्छन्नैकजनाश्रितत्वेन उपचारात् मुक्तिमार्गोपि वहन्नुच्यते, मञ्चाः क्रोशन्तीत्यादिवत् ॥ ६॥
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स्तोत्री
अवतीर्णतरुणतरणिप्रभप्रभास्वरयुवासु भूमीषु । तिमिरं न संशयमयं तिष्ठति भव्याङ्गिहृदयगतम् ७
__ अव–अवतीर्णौ तरुणतरणिप्रभौ प्रभास्वरौ युवां यासु विदेहभूषु तासु । अत्रापि प्राग्वत् गुणबहुत्वसूचनार्थ बहुवचनम् । अन्योऽन्यापमितयुवां, युवां जिनाधीश्वरौ ? विजेज्याथाम् । आव्योमसोमसूर्य महाविदेहाभरणभूतौ। ८ ।
अब.- अन्योऽन्येन कर्तभूतेन उपमितौ युवां ययोस्ती सम्बोधने, विपूर्वा जिधातोर्यङलुपि 'प्रकृतिग्रहणे यङ्लुबन्तस्यापि ग्रहण' मिति न्यायात् पञ्चम्या आत्मनेपदीययुष्मदर्थे द्विवचनं । आ व्योमसोमसूर्येभ्यः आ० पर्यपाङबहिरच पञ्चम्या' इत्यव्ययीभावः । ।३।१।३२।। सीमन्धरप्रभुयुगन्धरनामधेयौ,
भक्त्या स्तुतौ जिनवरौ युगपन्मयेति । अत्राप्यवाप्तजनुषः सुकृताऽऽशिषं त्वां,
दत्तां मम प्रमदतो नमतोऽनवेलम् ॥ ९ ॥ इति युष्मच्छब्दद्विवचनबहुव्रीहिबहुवचनप्रयोगगर्भः श्रीसीमन्धरयुगन्धरस्तवोऽष्टमः ॥ ९॥ ____ अव०-सुकृतं ते भूयादिति सुकृतविषया आशीः सुकृताशीस्तां, मयूख्यसकादित्वात् समासः ।९। अष्टमस्तवावचूरिः ।।
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६६
अष्टादश
अथ सर्वजिनस्तव: ।
यद्गुणस्तवने नालम्भूष्णवो योगिनोऽपि हि । तान् किलाखिलसर्वज्ञान् स्तोष्ये ऽहमपि प्रभून् ॥ १ ॥ अव० – इत्यल्पधीत्वेनाल्पोऽहम्
,
' त्यादिसर्वादे: ० '
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|७|३|२९| इत्यक ॥ | १ ||
ये स्युः परिवृतयूयं निर्वृतभूयं भजन्ति ते शिष्याः । हृदयास्थाक्रोडीकृतयुष्मान् नाराध्यति नरान् कः ॥ श
अब०-परिव्रियध्वे स्मेति परिवृताः परिवृता यूयं यैस्ते ।
,
"
निवृताः - समाहिताः मुक्ता इतियावत् तेषां भावः, 'हत्या भूयं भावे' ५।११३६ | इति भूयनिपातः । हृदयास्थया - आन्तर श्रद्धया, अक्रोडाः क्रोडाः क्रियध्वे स्म च्वौ 'तत् साप्या०' । ३|३|२१| इति क्ते च कोडीकृता विषयीकृता इति यावत् यूयं यैस्तान् युष्मदेकत्वद्वित्वयोरभावात् न त्वयुवादेशौ ||२|| दृष्टैः कः शशिविशदैस्त्रिकैरधिचतुर्दिशं दिव्यैः । छायास्थितयुष्माभिच्छात्रैः पात्रीभवेन्न मुदाम् |३|
6
अव० - चतुर्दिशि अधि, 'विभक्तिसमीप०' |३|१|३९| इत्यव्ययीभावे शरदादे: ' | ७|३|१२| इत्यत्समासान्तः । छायास्थिता यूयं येषां तैः अपात्रं पात्रं भवेत् च्चिः । मुदामित्यस्यापेक्षायामपि पात्रीभवेदित्यत्र तद्धितवृत्तिर्नित्यसापेक्ष
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स्तोत्री
२७
त्वात् । तदुकं परिभाषायां- सम्बन्धिशब्दः सापेक्षो, नित्यं सर्वः प्रवर्तते । स्वार्थवत् सा व्यपेक्षाऽस्य, वृत्तावपि न हीयते ॥३॥ मध्यासितयुष्मभ्यं पर्षद्भ्यो द्वादशभ्य इह भव्यः। परिमुक्तनित्यवैरादिभ्यः श्लाघेत को न जनः?||४|| __ अव०मध्ये आसिताः-स्थिता यूयं यासां ताभ्यः. ' अभ्यं भ्यसः ' (२।१।१८। इत्यभ्यं । आदिशब्दात् क्षुत्पिपासादिबाधाग्रहणं । श्लाधिक्रियाभिप्रेयत्वात् सम्पदानन्वे
चतुर्थी ॥ ४ ॥ संसद्यनुकृतयुष्मन्मूर्तिभ्योऽन्याभ्य इह सुरकृताभ्यः। यौष्माकमूलमूर्तेर्मेदं न विवेद विदुरोऽपि ॥५॥ __अव०-अनुकृता यूयं याभिस्ताभ्यः, भ्यसोऽद्, मूलं पार्था द्ययोरिति (अभिधान०) वचनात् मूलमाद्यार्थे, 'प्रभृत्यन्यार्थ०' १२।२।७५। इति पञ्चमी ॥५॥ अन्तर्मूगेन्द्रविष्टरनिविष्टयुष्माकमुत्तमाः पुरुषाः । प्राकाराणां त्रितयं रम्यं के नो दिदृक्षन्ते ?॥६॥ सन्मुखनिविष्टयुष्मास्वनल्पसोपानपङ्क्तिषु सुखेन । आरोहन् समवसृतौ बालो वृद्धोऽपि न श्राम्येत् ॥७॥
अव०-मृगेन्द्रावयवं विष्टरं, मयूख्यसकादित्वात्समासः ।
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२
अष्टादश
तन निविष्टा यूयं येा तेषां, दिदृ० — स्मृदृशः ' ३३१७२। इत्यात्मनेपदं ॥६॥ सन्मुखा निविष्टा यूयं यासु तासु, जिनेन्द्रवदनदर्शनम मुल्लसदमन्दसम्मदो जिनातिशयात् न कश्चित् खेदं वेदयते इति भावः ॥ ७ ॥ ज्ञानातिशयगुणा भरतैरावतविदेहसर्वजिनाः। अन्योऽन्यतुलितयूयं मम यूयं दत्त शिवसौख्यम् ।।
अब-ज्ञाना०-अन्योऽन्येन का तुलिताः-समीकृता युयं येषां युष्माकं ते, हे० ।। ८॥ युष्मत्पदान्यपदसत्कवहुत्वगर्भ
मुग्धोक्तिभि: स्तुतिपथं गमिता मयेत्थम् । श्रीज्ञानसागरसमाः समतीर्थनाथाः,
श्रीसोमसुन्दरगुणा ददतु प्रसादम् ॥ ९॥ इति युष्मच्छब्दबहुव्रीहिवचनगर्भः सर्वजिनस्तवो नवमः ॥९॥ एवं च समाप्ता युष्मच्छब्दत्रिषष्टिरूपरचनाञ्चिता क्षुल्लादिबुद्धिव्युत्पत्तये तपागच्छाधिराजश्रीसोमसुन्दरसूरिभिविरचिता नवस्तवी ॥ __अव:-युष्म०-सदेव सत्कं, 'यावादिभ्यः कः' ।७।३।१५॥ इति कः, सम्बन्धीतियावत् । वदति हि जनः इदं वस्तु ममसत्तायां, सा च सम्बन्धिता इत्यर्थः ।एवं च व्यक्तमेव सच्छब्दः सम्बन्ध्यर्थे,
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स्तोत्र
पृथुकार्तस्वरपात्रं भूषितनिश्शेषपरिजनं देव | विलसत्करेणुगहनं, सम्प्रति सममावयोः सदनम् ॥ १ ॥ इत्यादौ विलस त्केत्यादिप्रयोगदर्शनाच || ९ ||
इति नमस्तवावचूरिः सम्पूर्णा ॥ ९ ॥
*
२९
श्री सोमसुन्दर सूरिविरचिता अथास्मच्छेन्दरूपाङ्किता नवस्वी आरभ्यते— जिनं निरस्तवृजिनं, भाजनं गुणसम्पदाम् । कृपापण्यापणं नाथं, किञ्चिद्विज्ञपयाम्यहम् ॥ १ ॥
.
अब :- नाथोऽपि निर्दयो न विज्ञप्यत इत्याह- कृपा०तथापि स्वयं गुणवानेव परेषां गुणाधाने क्षम इत्याह- भा० तं चकं ? इत्याह- जिनमित्यादि ॥ | १ || विडम्बिताहं मोहस्त्वां, बाघते देव ! न क्वचित् । स्वदासीकृतमां कामं, निकामं त्वं निहंस्यहो ! |२|
अव० - विडम्बितोsहं येन स मस्य अहमश्र प्राप्तौ परत्वात् अहमादेश एव । स्वदासीकृतोऽहं येन तं त्वमौ०' | २|१|११| इति मादेशः ||२||
सेवकीभूतरोराभ - मयेन्द्रोपासित ! त्वया । न द्रुतव्यं यतः सन्ता, राजरङ्कसदृग्दृशः ॥३॥
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३०
अत्र ०- सेवकीभूतो रोराभोऽहं यस्य तेन, 'टाइयोसि', २|१|७| इति यः । हे इन्द्रोपासित ! अर्थान्तरन्यासमाह-यतः सं० ॥३॥
अष्टादश
सर्पादिरूपतानीत - मह्यं रोपाय न त्वया । saकाशलेशोऽपि, युक्तं सेवकवत्सल: ॥ ४ ॥
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अव० - सर्पादीनि रूपाणि यस्य स तत्तां नीतोऽहं येन स तस्मै, 'त्वमौ प्रत्यय ० | २|१|११| इत्यस्य प्राप्तावपि परत्वात् 'तुभ्यं मह्यं ङया' | २|१|१४ इति स्यात् । सेवकापराधिनां हि प्रभुणा नावकाशो देयः ||४||
नारकीभूतमत्पापात् पाहि स्वं सेवकं जनम् । अनुगामिममार्हस्ते, भाविनी विहतिः कदा ? ॥ ५॥
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अ-नारकीभृतोऽहं यस्मात्तस्मात् । अनुगामी अहं यस्य तस्य, अत्रापि त्वमौ प्रत्यय ' | २|१|११| इति बाधित्वा परत्वान्ममादेशः । अयं हि सर्वजनसाधारणस्तवः । ततः सीमन्धरादिविहरमाण जिनाऽपेक्षया इदमाशंसनमुपपद्यते ॥ ५ ॥ अनुकम्प्याश्रितमयि त्वयि नाथे प्रसन्नता । भूयादवश्यं देव ! स्यां, फलेग्रहिजनुर्यतः ॥ ६ ॥
अव० - अनुकम्प्य आश्रितोऽहं यस्य तस्मिन, यतः फलेग्रहिजनुः स्यामित्यन्वयः । अपेक्षते न यच्छब्दस्तदम्
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स्तोत्री
त्तस्वाक्यग' इतिवचनात् न पूर्वार्द्ध तद आकाङ्क्षा । फलं गृह्णाति — रजःफले मलाद् ग्रहः । ।५।११९८॥ इति इ., फले इति निर्देशादेकारश्च । ६ । अस्मत्पदान्यपदयोरिति जिन ! नूतस्त्वमेकवचनेन । निजपदपङ्कजसेवाहेवाकितया कृतार्थय माम् ॥७॥ इति अस्मद्बहुव्रीहोकवचनप्रयोगगर्भः स्तवः प्रथमः।।१॥
इति प्रथमस्तवावचूरिः ॥ १॥
अथ साधारणजिनस्तवः । सुरासुरेन्द्रौ निस्तन्द्रौ, कल्याणसमयागतो हषोंन्निद्रौ जिनेन्द्राग्रे, विज्ञप्ति तनुतो यथा ॥१॥
अव०–'तनुत' इति तत्कालापेक्षया वर्तमानतानिदेशः । एवमग्रेतनेष्वपि स्तवनेषु ज्ञेयं । यथा इत्युपदर्शने ।। १ ।। एवंविधर्द्धि प्राप्ताहमर्हणा पदयोस्तव । विनयावहिताऽऽवां त्वां, निषेवन्ते न के नरा:?।२।
अव०-एवं विधां ऋद्धि प्राप्तौ आवां यतः सा, 'मन्तस्येति प्राप्तं आवादेशं बाधित्वा परत्वादहमादेशः । अर्हण पूजायां * णिवेत्त्यासश्रन्थ० ' ५।३।१११इत्यनः स्त्युत्कत्वादार विनयेऽवहितौ आवां यस्य तं, निषे० लोकः पूजितपूजक इति हि स्थितिः ।। २ ।।
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अष्टादश
येन ब्रह्मादयोऽप्येते, किङ्करीभावमापिताः । विगोपितावया तेन, रागेण न जितो भवान् ॥३॥ ____ अव०-विगोपितो आवां येन तेन, 'देवा विसयपसत्ता' इतिवचनात् ॥ ३ ॥
भूयोभ्रमितमह्यं त्वं, परतीथिंकवादिने । विश्वार्यो रोबसे नैव, धूकायार्क इव प्रभा!॥४॥
अव०-भ्रमिती मिथ्याज्ञानेन (ज्ञानस्य) दीक्षितौ आवां येन तस्मै, मस्य मह्यमश्च प्राप्तौ परत्वान् मह्यमेव प० जाती एकवचनं, रुचिकृप्यथ० ।।२।२।५५। इति चतुर्थी ॥ ४ ॥ प्रबोधितावद्भावत्क-विशुद्धागमभाषितात् । प्रबुद्धा: साधयामासु-महानन्दपदं न के ? ॥५॥
अव०-प्रबोधितौ आवां येन तस्मात्, 'उसेश्चाद्' ।२।१।१९। इति अत् . भवत इदं भा० · भवतोरिकणीयसौ । ।६।३।३०। इति इकण, 'ऋवोवर्णदोसिसुसशश्वदकस्मात्त इकस्येतो लुक्' १७१४७१। इति इलुग्, वृद्धिः स्वरेवादेणिति तद्धिते' ।७।४।१॥ इति वृद्धिः, 'गम्य यप:०१२।२१७४। इति पञ्चमी लब्ध्वेत्यर्थः । सा० 'सिध्यतेरज्ञाने' ।४।२।११। इत्याः ॥ ५ ॥ निष्पत्युद्यतमम ते समवसृतेर्भुवि समं समासीनाः।
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स्तोत्री
३३
बाधां न बुबुधिरे जन्तुकोटिकोटयोपि चित्रमिदम् ६
जघनविपुला। अव-निष्पत्युद्यतो आवां यस्यास्तस्याः, मादेशं बाधित्वा परत्वान् ममादेशः । एवमग्रेऽपि वाच्यम् ।। ६॥ अनन्तदर्शनज्ञान-वीर्यानन्दप्रयात्मनि । तृणप्रायावयि पदे, परमेऽवस्थितो जय ॥ ७ ॥ ___ अवल-प्रायशब्दः अकृत्स्नब झुत्वे, तृणप्रायौ आवां यस्मिन् तस्मिन् ॥ ७॥ अस्मच्छब्दद्विवचोऽन्यपंदेकवच:प्रपञ्चरुचिरेण । स्तवनेनाऽनेन नुतः प्रभो! प्रसीद त्वमचिरेण ।।
इ. अस्मच्छब्द द्विवचनबहीबैकवचनमयः साधारणजिननवो द्वितोयः ॥२॥
अब-अम्म-सुरासुरेन्द्रकृतेनेति शेपः ।। ८ ॥
इति द्वितीयस्तवावचूरिः ।। २ ।। अथ वीरस्तवःउदितज्ञानदिनकरं विदांवरैतीर्ण्यमानगुणविभवम् । समसमयमिन्द्रनिवहा: स्तुवन्ति भक्त्या जिनं वीरम् १
अव०-उदितो ज्ञानमेव दिनकरो यस्य तम् ॥ १ ॥ सकलातिशयसमृद्धया सर्वजिनोत्कृष्टतामवाप्नोति ।
भ. ३
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अष्टादश
मेवासक्ताहमहा ! धत्से नोत्सेकलेशमपि ॥ २ ॥ __ अव०-सेवासक्ता वयं यस्य । उत्सेक चित्तातिरेकः ।।२।। जननजरामरणोच्छलदतुच्छकल्लोलमालया कलितम् । निर्मग्नास्मां संसारसागरं तीर्णवान् भगवान् ॥३॥ ___अव०-निर्मग्ना वयं यस्मिन् विषयासक्ततया. सर्व जानाति देव इतिवत् प्रकरणात् भवान लभ्यते ॥ ३॥ पारप्राप्ताऽस्मया जज्ञे, मन्ये दुःखाधिनाऽधुना । लभामहे महेश ! त्वदर्शनं पावनं यतः॥४॥ ___ अव०-पारं प्राप्ता वयं यस्य तेन, मन्ये इत्यव्ययं, नो चेत अत्र स्तवे अम्मदो बहत्वप्रक्रमात् मन्यामहे इति स्यात् , न च बहुवचनार्थे एकवचनान्तप्रतिरूपकमव्ययमपि न प्रयोगाहमितिवाच्यं, 'सदृशं त्रिपु लिङ्गेषु, सर्वासु च विभक्तिषु । वचनेषु च सर्वेषु, यन् न व्येति तदव्यय मित्यव्ययलक्षणात् । उक्तं च व्यक्त्येदं ओपनियुक्तिवृत्ती-किमथि अन्नेवि अणुओगा' इत्यस्य व्याख्यायाम् ॥ ४॥ दूरेऽपि सदनुष्ठानं, कृतं जीवदयादिकम् । इदृक्श्रीप्राप्तमह्यं त्वद्भक्त्यायेव हि कल्पते । ५। ___ अव०-दूरे०-त्वत्त इत्यध्याहार्य । ईदृग् श्रियं प्राप्ता वयं यतस्तस्यै ' तुभ्यं मह्यं ।। ।२१४१४। इति मा. श्लेष्मणे
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स्तोत्री
दधि कल्पते इत्यादिवत् , ' रुचिकृप्यर्थ ' ।२।२१५५। इति चतुर्थी, आज्ञापालनं हि भक्तिस्तच्च त्वत्तो दूरेपि न भिद्यते इति भावः ॥ ५॥ यदर्जितं भवेऽनादौ, कषायविषयादिभिः चिरं विधुरितास्मत्प्राक् तस्मात्त्रायस्व कर्मणः ।।
अब :-विधुराः क्रियामहे णिजि 'तत्साप्या०३।३।२१॥ इति क्ते विधुरिता वयं येन, तस्मात् ॥ ६॥ पत्तीयितममसेवकजनदत्तात्मीयपदसदृशऋद्धेः । योगक्षेमविधायक ! तव नायकतामभीप्सामः ॥७॥
अव०-पत्तय इबाचरामः पत्तीयामहे, पत्तीयामहे स्म पत्तीयिता वयं यस्य तस्य सेवकजनस्य दत्ता आत्मीयपदसदृशी ऋद्धिर्येन. तस्य । अलब्धलाभो योगो, लब्धपरिपालनं क्षेमा, अभ्याप्तुमिच्छामः भवान्तरेऽपीति शेषः ।७।। प्रकटीकृतजगतीगतजीवाऽजीवादिभावसद्धावे । सुज्ञायकीकृतास्मयि तवागमे स्ताद्रतिनित्यम् ।।
अब०-सु०-निगोदादिसूक्ष्मविचाराणां सुज्ञायकीकृता वयं येन, तस्मिन् ॥ ८॥ अस्मच्छब्दबहुत्वान्यपदैकत्वाङ्किताऽर्हतः ।
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अष्टादश
श्रीज्ञानसागरस्याऽस्तु, स्तुतिरेषा सुखाय नः ॥९॥
इति अस्मच्छब्दबहुवचनबहुव्रीह्येकवचनप्रयोगमयः श्रीवीरस्तवः तृतीयः ॥ ३ ॥ इति तृतीयस्तवावचूरिः समाप्ता । अर्बुदगिरिवरभूषणमदुषणं प्रथमतीर्थकरनाथम् । स्तुतिपथमानेतास्मि प्रसृमरमहिमानमतिमानम् १ ___ अब०-प्रथमः तीर्थकगे नाथश्च राजा तीर्थकरनाथयोः, खञ्जकुण्टादिवत् समारः ।। १ ॥ कल्पद् इव ते पादौ, मनोऽभीष्टार्थदायकौ । मेव्यावुपान्तविश्रान्त-मां केषां नैव धीमताम्? ॥२॥ ___ अव०-उपान्ते विश्रान्तोऽहं ययोम्तौ, धीमतां कृत्यम्य वा' ।२।२१८८। इति षष्ठी ॥ २ ॥
आसादि यत्प्रसादाद्धर्मः शिवशर्मकृद भवदुपजम्। पितरौ तावभिवन्दे प्रसूतमां दुष्प्रतीकारौ। ३ । ___ अव०-' आङः सदा गतौ ' भवत उपज्ञा-प्रथमं ज्ञानं. भवता प्राक् प्रकाशित इति भावः । पितामात्रे' त्येकशेपः । प्रमूतोऽहं याभ्यां तो, दुःखेन प्रतीकारो नृणीभावो ययोस्तो,
अव्ययं ' ।३।११४८। इति बहुव्रीहिः, दुःखेन प्रतिक्रियेते इति वाक्ये - दुःस्वीषतः० ' ।५।३।१३९॥ इति खल स्यात् ।
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स्तोत्री
असाधारणसौभाग्य-भवदुरूपनिरूपणे । भूयो व्यापृतमाभ्यां स्व-चक्षुभ्यां सफलोऽस्म्यहम् ।
अव०-भूयो व्यापृतोऽहं ययोस्ताभ्याम् ।। ४ ॥ एतदगिरिसत्काभ्यां त्वद् योगात् सर्वतीर्थभूताभ्याम् । मङ्गलमवनतमाभ्यामधित्यकोपत्यकाभ्यां स्तात् । ५।
अव०-एतस्य गिरेबुदस्य सम्बन्धिनीभ्यां, सर्वतीर्थानांभूते तुल्ये 'भूतरूपोपमा' इति वचनात् . ताभ्यां. कामहदादौ अधित्यकायामपि श्रीआदिनाथयोगः । अत एवावनतोऽहं याभ्यां ताभ्यां, 'तद्भद्र०' ।।३६६। इति चतुर्थी । अधित्यको भूमिः स्या-दधोभूमिरुपत्यका (हैम० ) ॥ ५ ॥ चलनप्रवृत्तमाभ्यां, त्वद्यात्राकरणक्षणे । एताभ्यामबंदोत्तंस !, पादाभ्यां पुण्यमाप्नुयाम् ।।
__ अव०-चलने-सञ्चरणे प्रवृत्तोऽहं ययास्ताभ्यां, अर्थात् स्वाभ्यां पादाभ्यां 'गम्ययपः०० १२१२।७४। पञ्चमी ।।६।। यदा त्वदर्शनं लेभे, दूरीभूतमयोस्तदा। तिर्यग्नरकदुर्गत्योः, स्वप्नेऽपि व्यरमद्भयम् ॥ ७॥
__ अव०-अस्मदर्थेऽन्यदर्थे च परोक्षात्मनेपदैकवचनस्य एकरूपत्वेन कर्मणि कर्तरि च भेदाभावा. अहं मया वा यदा
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সাহা
त्वदर्शनं लेभे, तदा दूरीभूतमयोः सत्योस्तियग्नरकदुर्गत्योर्भय स्वप्नेपि व्यरमत्-निवृत्तं, अर्थान्मम। हेतुरूपं विशेषणमाह-तिर्य० कीदृश्योः ? दूरी० दूरीभूतमयोः, अदूरो दुरो भवामि स्म यौ क्ते दूरीभूतोऽहं याभ्यां, तयोः ॥ ७ ॥ त्वद्धर्मावाप्तितः पूर्व-मनुत्पन्नमयो: किल । देवमानवसद्गत्यो-न वासं कः समीहते? ॥८॥
अव०-अनुत्पन्नोऽहं ययोस्तयोः ॥ ८॥ इत्यस्मदेकवचनान्यपदद्वित्वोक्तिभिः स्तुतो वृषभः। देवोर्बुदगिरिमौलिः कलयतु लीलां मनोऽन्त, ९ इति अस्मच्छब्दैकवचनबहुव्रीहिद्विवचनप्रयोगचारु :
श्रीऋषभस्तवः ॥ ४ ॥ अव०-मनोऽन्तरिति 'पारे मध्येऽग्रेऽन्तः०' ३३१॥३०॥ इत्यव्ययीभावविषये विभाषाकरणसामर्थ्यात् 'तृप्तार्थ.' १३३११८५। इतिनिषिद्धोऽपि षष्ठीतत्पुरुषोऽभूत् ॥९॥
इतितुर्यस्तवावचूरिः॥ ४ ॥ अथ ऋषभवीरस्तवःश्रीऋषभवर्द्धमानौ युगपत्पौरस्त्यचरमतीर्थपती। निभृतीभूय सुभक्ती इतीह जायापती नुवतः।।
अव०-निभृतो-विनीतः, चिः क्त्वा यपू ॥१॥
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स्तोत्री
नेशते यद्यपीन्द्राद्या:, स्तुत्यै तत्र तथाप्यहो । युवामुपस्थितावां ह्री - स्थानं नैव गुरुत्वतः |२|
अव० - यद्यपीन्द्राद्याः स्तुत्यैस्तुतिकत्तु नेशते, अर्थात् युवयोस्तथापि तत्र स्तुतौ उपस्थितौ सज्जीभूतावावां ययोस्तौ युवां हीस्थानं न भवथः, कुत ? इत्याह-युवां हि गुरू- महाशयौ । अत आवयोः स्तवनेनापि न लज्जोध इति भावः ॥ २ ॥
"
३९
यत्राऽयेथे युवां युष्म-दुर्म परिपाल्यते । कुलजाती पवित्रे ते, जातावां स्तुवहे सदा । ३ । जातिमत्रिकी, जाती आवां
अव०. - कुलं- पैतृकं, ययोस्ते || ३ || मूढावाभ्यामनिशं रागरुषाभ्यां जगज्जनमशेषम् | पीडितमवतामेतं प्रभू ! भवन्तौ दयावन्तौ |४|
>
तां ।
अव० - मूढौ - निर्विवेकौ आवां याभ्यां ताभ्यां । रुषा भिदादित्वादङि आपि च । अवतां - पञ्चमी रक्षाया हेतुरूपं विशेषणमाह - प्रभू दयावन्तौ ॥ ४ ॥ स्वायोग्यतया तादृग् विशिष्टकालेपि दूरितावाभ्याम् । अनिमित्तवत्सलाभ्यामपि विज्ञपयावहे किमु वाम ? |५| अव०-आवां युवाभ्यां क्रियाभिप्रेयत्वात् सम्प्रदानभूताभ्यां
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अधादश
कि विज्ञपयावहे इत्यन्वयः । कीदृशाभ्यां ? अनिमित्तवत्सलाम्यामपि, स्वायोग्यं० स्वायोग्यतया मुक्तिगमनाहकालेऽपि आवयोः दूरि० दुरौ क्रियावहे ‘णिज् बहुलम् ' ।।४।४२। इति णिजि परमतेन 'स्थलदरयुधः' इति अन्तस्थालोपगुणयोरभावे तिौ आवां याभ्यां, ताभ्यां, 'प्रभृत्यन्यार्थ' ।।७५। इति पञ्चमी ॥ ५॥ मिथ्यात्वमहाम्भोधेर्निजागमप्रवहणार्पणादधुना । तीरानीतावाभ्यां परो युवाभ्यां कृपावान् कः ? ॥६॥ ऋजुवक्राज्ञयोर्योग्य, युवामन्तर्गतावयोः । विधि पञ्चव्रतीमुख्यं, दिशन्तौन कथं हितौ ?॥७॥
अव०-ऋजुश्च वक्रश्च ऋजुवक्रौ. तौ च तो अज्ञौ-जडौ च अन्तर्गतौ आवां ययोस्तयोः श्रीऋषभतीर्थ उत्पन्नत्वेन ऋजुजडी श्रीवीरतीर्थोत्पन्नत्वेन वक्रजडी चावामिति भावः । पञ्चव्रती मुख्या यस्य, मानोपेतवस्त्रग्रहणाद् म् ॥ ॥ आद्यन्तयाश्चतुर्थारस्यानुचितावयोर्विमुक्तिपथे । सुवहेपि भवद्भयां नौ सिद्धं कार्य न किं कुर्वः ।।
अव०-अनुचितौ-मुक्त्यनहौं आवां ययोस्तयोः । भवद्भयामिति पञ्चमी, चतुर्थारस्यादौ श्रीऋषभात् अन्ते च श्रीवीरात्
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स्तोत्री
४१
नौ-आवयोः, कार्य न सिद्धम् ॥ ८ ॥ इत्यानन्दपुरस्थौ श्रीमन्नाभेयवीरतीर्थपती। स्तुत्वा कौचित् श्राद्धावार्जिजतां दम्पती पुण्यम् ९ अस्मत्पदान्यपदयोर्द्विवचनगर्भस्तवेन नुतिविषयम् । नीतौ जिनाविति मम प्रयच्छतां स्वच्छतां मनसः
इत्यस्मच्छब्दबहुव्रीहिद्विवचनगर्भ ऋषभवीरम्तयः ।। इतिपञ्चमस्तवावचूरिः ॥ ५ ॥ अथ साधारणजिनस्तवःलोकान्तिकनाकिवरा जिनपुरतो
__ मौलिमिलितभूमितलाः। दीक्षासमयसमेता विज्ञप्ति तन्वते मुदिताः ॥१॥
अव०-लोको-ब्रह्मलोकस्तस्यान्ते-समीपे भवा इकण, ब्रह्मलोकवासित्वात् । तन्वते इति वर्तमाननिर्देशस्तत्समयापेक्षः ॥ १ ॥ अशक्तास्मां महाप्रज्ञा-वैभवेनापि केनचित् । स्तुतिपूजे विधातुं ते, न शक्येते कदाचन ॥२॥
अव०-अशक्ता वयं ययोस्ते, प्रज्ञा च वैभवं च, महती ते यस्य तेन, स्तुति० द्वन्द्वः, 'लवक्षर० ।।३।१।१६०। इति; इदंतत्वात् स्तुतिशब्दस्य पूजाशब्दात् प्राग् निपातः ।। २ ॥
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ર
गुणैर्विस्मारितास्मां त्व- तिसावीजनौ कदा | प्रणस्यामस्तवोपास्ति, कुर्वाणौ वह्निदिस्थितौ ३
अष्टादश
अव०- गुणैः करणभूतैः विस्मायिता वयं याभ्यां तौ, प्रयोक्तुः स्वार्थाभावादकाराभावः स्मिङ ' पुरुषस्त्रिया ' इत्येकशेषात् त्वत्साधुसाध्वीजनाविति पाठा न सङ्गच्छते, व०दक्षिणपूर्वा दिगू, आग्नेयी इतिभावः ॥ ३ ॥ निजगुणगणैरधरितास्माभ्यां सुत्रेणपोंस्नवर्गाभ्याम् । सशविरतिमद्भयां कदा विभास्यति सभाभवतः ८
•
6
अव० - अधरि० अधरिता - अधःकृता अविरता वयं याभ्यां ताभ्यां स्त्रीणामयं स्त्रैणः पुंसामयं पौंस्नः । प्राग्वतः स्त्रीपुंसाद् नञ स्नञ् ' | ६ |१| २५ | तौ च तौ वर्गों च ताभ्याम् ॥ ४ ॥
कदा चान्तर्गताऽस्माभ्यां त्वदुव्याख्याक्षिप्तचेतसाम् । नरामराणां वृन्दाभ्यां न सुधापि स्वदिष्यते |५|
अव-अन्तर्गता वयं लोकान्तिकदेवा ययो बन्दयोस्ताभ्यां रुचिकर्थ ० ' | २|२|५५| इति चतुर्थी ॥ ५ ॥
,
तवेश ! देशनाभ्यां द्वि-दिने के नेह देहिनः । प्रीताऽस्माभ्यां प्रपत्स्यन्ते, सम्यक्त्वचरणादिकम् ? ६
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स्तोत्री
अव० दिने द्विः प्रथमचरमपौरुण्योः प्रीता, वयं याभ्याम्
ताभ्याम् || ६ ||
निशादिवससम्बन्धि - प्रतिक्रमणयोः क्रियाः । अत्यस्मयोः कदा देव!, भवान् प्रादुष्करिष्यति ? ७
'
अव० - अस्मान् अतिक्रान्तौ तयोः प्रात्यवपरि० |३|१|४१ | इति पूर्वपदप्रधानस्तत्पुरुषः अतिखट्वादिवत् । देवानामविरतत्वेन प्रतिक्रमणासम्भव इति ॥ ७ ॥ ध्यानयोर्दुर्गतिक्षिप्ता - स्मयोरौद्रार्त्तयोर्विभो ! | वर्त्तमानं जनं भव्यं निवर्त्तय दयानिधे ! ||८||
,
अव ० - दुर्गतौ क्षिप्ता वयं याभ्यां पूर्वपूर्वबहुभवापेक्षयेदम् |८| जय त्वं नन्द भद्रं ते धर्मतीर्थं प्रवर्त्तय । इत्यादिवचनैर्लोका-न्तिकाः शंसन्ति यं विभुम् ९ स एषोऽस्मत्वेन द्वित्वेनान्यपदस्य च । स्तुत एवं जिनो देयान् निर्वणचरणे रतिम १० ।
"
,
४३
इति अस्मच्छन्द बहुवचनबहुव्रीहिद्विवचनगर्भो लोकान्तिकदेवविज्ञप्तिरूपः साधारणजिनस्तवः षष्ठः ॥ ६ ॥ इतिषष्ठस्तवावचूरिः सम्पूर्णा || ६ || अथ शाश्वतजिनस्तवःश्री ऋषभवर्द्धमानौ चन्द्राननवारिषेणसञ्ज्ञौ च ।
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अष्टादश
शाश्वतजिनेश्वरानिति नवीमि चतुरोग्यचतुरोपि।१। दरस्थितवयं यूयं, ध्यानेनाऽऽसन्नतां गताः। प्रसीदत ममायोग्य-स्याप्यचिन्त्यसुखार्पणात ॥२॥
अब०-अन्ये तु युक णुक व्यञ्जनादौ विति शिति ईतमपीच्छन्ति' इति क्रियारत्नसमुच्चयोक्तेर्नवीमीति साधुः । दुरस्थितोऽहं येषां युष्माकं, ते ॥ २ ॥ अत्रस्थ एव वन्देऽहं, साक्षाद्रष्टुमशक्तमान् । युष्मान्मानस एवेह, व्यापारो हि सतां मतः ।३।
अव०-अत्रस्थत्वेन साक्षाद् द्रष्टुमशक्तोऽहं येषां तान् , मनसोऽयं तस्येदम् ।६।३।१६० अण, मत इति प्राधान्येन ।३। सम्पादनानलम्भूष्णु-माभिः पुष्पादिकैर्जिना:। मर्त्यलोकासम्भविभिः, पूज्यचे सर्वदा सुरैः ।४। ___ अव०-सम्पादने अनलम्भूष्णुरक्षमोहं येषां मानां दिव्यरित्यर्थः ॥ ४ ॥ दर्शनपूजनवन्दनसेवादिमनोरथोच्छसितमभ्यम् । युष्मभ्यं भद्रं स्तात् सनाऽप्यनाद्यन्तरूपेभ्यः ॥५॥
अव-दर्शनादिमनोरथैरुच्छ्वसितोऽहं येषां तेभ्यः, अनाद्यन्तंशाश्वतं रूपं येषां तेभ्यः ।। ५ ।।
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स्तोत्री
प्रत्यक्षाश्रितदेवेभ्यः, परोक्षाश्रितमत्पुनः । युष्मद्भवेत्फलं तुभ्यं, सद्भावादुभयेष्वपि ॥६॥ ___ अव०-प्रत्यक्षमाश्रिता देवा यान् तेभ्यः, अत्रस्थत्वेन परोक्षमाश्रितोऽहं यान् तेभ्यः, 'गम्ययप' इति पञ्चमी, संचासौ भावश्च, तस्मात् । उभ० देवेषु मयि च ॥ ६ ॥ सुलभं कृतपुण्यानां, दुर्लभं पापिनां पुनः । युष्माकं सदगुणास्वाद-लुब्धमाकं सुदर्शनम् ॥७॥ __ अब०-सद्गुणाम्याद लुब्धोऽहं येषां ते, शोभनं दर्शनमम्तीति गम्यते ॥ ७॥ वागतिका-तसौभाग्य-युष्मद्रूपकथास्वहो । अशक्तमासु सुत्रामा-दिमा अपि हि न क्षमा: ।।
अव०-वागतिक्रान्तं सौभाग्यं यस्यैवंविधं युष्मद्रपं, तम्य कथासु-स्तुतिरूपासु, अशक्तोऽहं यासु तासु ॥ ८॥ अस्मत्पदैकवचनान्यपदबहुत्वेन संस्तुता एवम् । मम ददतु शाश्वतजिनाः शाश्वतपदसम्पदं सपदिर
इति अस्मच्छब्दैकवचनबहुव्रीहिबहुवचनगर्भः शाश्वत जिनस्तवः सप्तमः ।। इति सप्तमस्तवावचूरिः ॥ ७ ॥ अथ वीरस्तवः सूर्यन्दू सविमानौ वन्दनहेतोरितौ मुदा नुवतः ।
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४६
अष्टादश
कौशाम्ब्यां समवसृतं, श्रीवीरं चरमतीर्थकरम् १।
अव०-सूर्येन्दू इति, धर्मार्थादित्वात् सूर्यशब्दस्य माग्निपातः, वर्तमाननिर्देशस्तत्समयापेक्षः ॥१॥ स्वतेजसा जितवयं, चातुरूप्यभृतस्तव । धर्मचक्राणि चत्वारि, दीप्यन्ते देशनाक्षणे ॥२॥ ___ अव०-स्वते० जितौ आवां यः, चतुरूपस्य भावश्चातरूप्यम् ॥ २॥ आन्तरागि तमांसि त्वं, भव्यस्वान्तगतान्यहो । अनीशितावानुच्छेत्तुं, निर्णाशयसि सर्वतः ॥३॥ ___अव०-अनीशितौ आवां येषां तानि, 'अलिङ्गे युष्मदस्मदी' इति न — नपुंसकस्य शिः' ।१ । ४ । ५५ । बहुव्रीह्यादौ लिङ्गाभ्युपगमे पि वा 'शसोन' ।।१।१७। इति अनेन बाधितत्वान्न शिः । प्रिय युष्मान् कुलानि पश्य इति शसो न' इत्यस्य न्यासे उक्तेः ॥३॥ स्वामिन्ननुकृतावाभि- स्वभामण्डलैस्तव । चतुर्भिर्देशनासम, सदोद्योतं विराजते ॥ ४ ॥
अव०-अनुकृतौ-तुलितो आवां यैरतैः. सदा उद्योतो यस्मिन् ' अव्ययम् ' ।३।१।२१॥ इति च० समासः ॥ ४ ॥
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स्तोत्री
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सङ्कोचादिविशेषाप्रौढावभ्यं सदा स्मिता जेभ्यः । त्वच्चरणयुग्मसङ्गमपूतेभ्यः प्रणमति न कस्कः ? ५
अव० - सङ्कोचादिविशेषेषु अप्रौढौ-असमर्थौ, आवां येषां तेभ्यः क्रियाभिप्रेयत्वात् सम्प्रदानत्वे चतुर्थी ॥ ५ ॥ प्राप्तत्वदुपास्तिभ्यो दिवस - निशाभ्यः
शुभोदयकृताभ्यः । हेतुभूतावत् को नाजयति स्वर्गमोक्षसुखम् ॥६॥
अव०- प्राप्ता त्वदुपास्तिर्यासु ताभ्यः, हेतूभूत आवां यासां ताभ्यः, आवयोर्दिनकर निशाकरत्वेन प्रसिद्ध:, 'गम्ययपः ' | २२|७४ | इति पञ्चमीभ्यस् || ६ || रसलयलीनावाकं त्वद्वचनानां सुधायमानाम् । तृप्ताः कदापि न स्युर्भव्यजना बहु लिहन्तोऽपि ७
अव० - रस० रसः - श्रवणरतिस्तत्र लय - एकाग्रता, तस्यां arat आवां सूर्येन्दु येषां तेषां त्वद्व० करणस्य सम्बन्धमात्रविवक्षायां षष्ठी, यथा फलानां तृप्ता इति ॥ ७ ॥
1
देव ! सदृग् नौ न रुचिः,
प्रियाऽप्रियावासु कमलकुमुदेषु । विश्वप्रियस्य नु कृपारूपरुचिः सर्वसदृशी ते |८|
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४८
अष्टादश
अव०--नौ-आवयो रुचिर्न सदृग् । कमलकुमुदेषु हेतुरूप विशेषणमाह-क्रमेण प्रियाप्रियौ आवों येषु तेषु । विश्वप्रियस्य ते कृपारूपा रुचिः सर्वेषु सदृशी अस्ति । रूपकमेतत् । वीतरागस्यापि कृपा वर्ण्य ! एवं. मुनिसुव्रतप्रभोरश्वबोधाय एकराच्या ६० योजनोधनेन भृगु छागमनश्रवणात् 'मैत्रीपवित्रपात्राय, मुदितागोदशालिने । कृपोपेक्षाप्रतीक्षाय ( वीतरागम्तोत्र ) इति चनाच्च ॥ ८॥ स्तुतवन्तौ भक्त्यैवं यं देवं शशिरवी स मे वीरः। अस्मत्पदद्विवचनान्यवहुत्वनुतस्तनोतु शिवम् ।९। इति अम्मच्छब्द द्विवचनबहुव्रीहिबहुवचनमयः
सूर्यन्दुस्तुतिरूपः श्रीवीरस्तयोऽष्टम:। । इति अष्टमस्तवावचूरिः परिपूर्णा । अथ वीरस्तवःश्रीवर्द्धमानमनघं सुरासुरा भक्तिभासुरा एवम् । गमयन्ति स्तुतिविषयं जिनेश्वरं समवसरणस्थम् ॥१॥
अब०-सुरा० सुरासुराणां हि न निनिमित्तकं वरमपि तु राज्यापहारादिकृतमिति । समवसरणे नित्यवरोपशमनाद्वान * नित्यवैरस्य ' ।३।१।१४१॥ इतिसमाहारद्वन्द्वः । वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत् ॥१॥ बद्धा अपि महाकाव्यप्रबन्धैर्विषुधैर्गुणाः ।
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स्तोत्री
प्रसरन्ति जगत्पीठे, स्तवनुन्नवयं तव ॥२॥
अब-बद्धा० विबुधः पण्डिते सुरे' ( हैम० अनेकार्थसङ्ग्रहः) इतिवचनात् वि० विद्वद्भिः। स्तवे नुन्नाः-प्रेरिता वयं यस्ते। बद्धाः कथं प्रसरन्तीत्यापतिते विरोधाद्विरोधालङ्कारः।२। स्मृतमात्रा अपि नन्ति, विघ्नं सङ्घजनस्य ये । नामवर्णा न के जाप-रतास्मांस्तान स्तुवन्ति ते ? ३ ___ अव०-तान् ते नामवर्णान् के न स्तुवन्ति ? इत्युत्तरार्द्धऽन्वयः! जापे रता वयं देवा येषां नामवर्णानां, तान् ॥ ३॥ पद्मसञ्चारसंरब्धा-स्माभिर्मोहतमोहरैः। रविणेव त्वया पादैः, को देशोऽद्योति न प्रभो ! ४॥
अव०-पनानां यः सञ्चारः-पदयोरधोन्यासस्तत्र संरब्धा वयं येषां तेः, पादैरिति 'गुरावेकश्चेति पूज्यत्वात् बहुवचनम् । पक्षे पादैः-किरणैः ॥ ४॥ निर्मितिमुदितास्मभ्यं तव समवसृतौ प्रदीपवप्रेभ्यः। द्वादशयोजन्या अपि धन्याः के के न गच्छन्ति ? ॥५॥ ____ अव-निर्मितिनिर्माणं तया मुदिता-हृष्टा वयं येषां तेभ्यः, 'गतेनैवाना' रारा६३॥ इति चतुर्थी । यथा
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अष्टादश
ग्रामाय गच्छतीत्यादि । द्वादशानां योजनानां समाहारे, तस्याः ॥ ५ ॥
पुरः स्थितास्मत्पर्षयो, वर्षति त्वयि गीः सुधाम् । सबाह्याभ्यन्तरस्तापो, दवीयान् जायते प्रभो ! ॥ ६ ॥
अब०-पूरः स्थिता वयं देवा यासां ताभ्यः ' आरादर्थैः |२२|७८ इति पञ्चमी । सह बाह्येन वर्त्तते यः स चासावस्यन्तरश्च । अतिशयेन दूरो दवीयान् ' गुणाङ्ग० ' ७३९ इति ईसि 'स्थूलदूर ० ' | ७|४|४२ | इति अन्तस्थालोपे गुणे च ॥६॥ चतुर्णामाननानां ते, मोहितास्माकमीक्षणे । तृप्तिर्न जायते देव ! लावण्यामृतवारिधे ! ||७|| अव० - मोहिता वयं यैस्तेषां ईक्षणे दर्शने ।। ७ ॥ प्रातिहार्येषु निर्माण - सुहितास्मासु ते प्रभो ! | स्पष्टं दृष्टेषु सद्दृष्टिः, को न चित्रीयतेतराम् ! | न अव० - निर्माणेन सुहिताः - प्रीता वयं येषां तेषु । सतीसम्यग्दृष्टिर्यस्य सः ॥ ८ ॥
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अस्मत्पदबहुव्रीहि - बहुत्वरचनाश्चितः । इत्यमर्त्यकृतो वीरस्तवः स्ताद वास्तवश्रिये ॥ ९॥ इत्यस्मद्बहुव्रीहिबहुवचनमयः सुरासुरविज्ञप्तिरूपः स्तत्रो
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स्तोत्री
नवमः । एवं च समाप्ताऽस्मच्छन्द त्रिषष्टिरूपचार्वी नवस्तवी. अव० - इत्यमर्च्यशब्दः सामान्येन देवाभिधायकः, तेन अमशब्देन सुराणामसुराणां च ग्रहणान्न प्रक्रमभङ्गप्रसङ्गः । वास्तवश्रिये - शिवसम्पदे ॥ ९ ॥
इति नवमस्तवावचूरिः परिपूर्णा ||
श्रीदेवसुन्दर गुरुत्तमशिष्यमुख्यश्रीज्ञानसागरगुरुक्रमपद्मरेणोः । श्रीसोमसुन्दरगुरोरिति युष्मदस्मदष्टादशस्तवकृति: कृतिनां मुदेऽस्तु || १ || एतामष्टादशस्तोत्री - मुद्युक्तो गुरुभक्तितः । अशोधयच्छुद्धबुद्धिः, सोमदेवगणर्गुणी ||२||
इतिश्रीतपागच्छाधिराजपरमगुरुभट्टारकपुरन्दरश्री सोमसुन्दरसूरिभिः क्षुल्लादिबुद्धिव्युत्पच्युपकारकौतुकितया कृता अष्टादशस्तवाः चिरं जीयासुः ।
इत्यष्टादशस्तोच्या मुनिनिधिमनुमिते १४९७ वर्षे परमगुरुश्री तपागच्छनायक भट्टारकपुरन्दरश्रीपूज्यश्री सोमसुन्दरसूरिराजकृतायास्तच्छिष्याणुसोमदेवगणिरचिता संक्षिप्तावचूर्णिः ||
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पंचकल्लाण
पंचकल्लाणं थोत्तं । (२)
( अज्ञातकत्तकम् ) तिन्थं पयवण सुयदेवयं च नमिऊण सव्वभावेण ।
कल्लाणपंचएणं, आइजिणिदं नमसामि ॥१॥ चवणं जम्मणनिक्रवमण, केवलं पंचमं च निब्वाणं ।
संखेववित्थरेणं, अहक्कम कित्तइस्सामि ॥२॥ सिरिनाभिनरिंदसुओ, मरुदेवीनंदणो उसहसामी।
जयइ पढमो जिणिदो, सव्वटमहाविमाणचुओ ॥३॥ पेच्छड चोद्दस सुमिणे, मरुदेवीसामिणी सुहप्पसुत्ता।
गभगए भगवंते, पहायसमयंमि वसहाई ॥४॥ परितुहा य भगवई, नाभिनरिदस्स ते निवेएछ ।
सोवि य आणदिअंगो, सुमिणाण फलं परिकहेइ ॥५॥ होही तव वरपुत्तो, खायजसो तिहुअणस्स अब्भहिओ।
अम्हं कुलप्पईवो, नरनाहो कित्तिगुणनिलओ ॥६॥ अवितहवयणं तुम्हं, देवी आणंदिया य सपणामा ।
भवणे सुहासणस्था, सक्कागमणं महामहिमा ||७|| अमराहिवो पणाम, काउं देवीएँ नाभिपत्तीए ।
संथुणइ हितुट्ठो, नमोऽत्थु ते रयणकुच्छीए ॥८॥ भुवणब्भहियाए णमो णमो देवि भुवणलच्छीए।
तिहुयणलग्गगखंभो, जीसे गम्भंमि अवयरिओ ॥९॥
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थोत्तं
धना तं सुकयत्था. सुजीवियं तुभ मणुयजम्मो य । जीए उयरेण धरिओ, तिहुयणचूडामणी पढमो ॥१०॥ एवं बहुप्पयारं, उबवूहेउं दिवं गओ खिप्पं ।
सुरसहिओ विवई समत्त कल्लाणयं पढमं ॥११॥ बीयरस समारम्भे, मरुदेवी संधुया य सक्केणं ।
गभं वह सुहेणं, कमेण जाओ नरिंदवई ॥१२॥ दसदिसि उज्जोतो, दिसाकुमारीहि जम्मकयकिच्चो |
न्हविओ य सुखरेहिं, वरकंचणसेलसिहरंमि ॥१३॥ दिव्वविलेवणआभरणमउडवरदामभूसियसरीरो |
सुरवइवंदियचलणो, जणणीए समपिओ सिग्घं || १४ || पंच दिव्याणि तत्थ य, गंधोदगपुष्पबुद्धिवसुहारा ।
५३
दुंदुहिचेक्खेवो, जयजयरवबहिरियं भुवणं ||१५|| सुरवर नट्टं सुरसुंदरीण पेक्खेवि विम्हिया देवा |
पढमजिणजम्मकालेऽणेगविहं परमभत्तीए ॥१६॥ सक्कत्रयणेण धणओ, मणिकंचणरयणपंचवन्नेहिं ।
नाभिनरनाहभवणं, आऊरइ हह्तुट्ठो य ॥ १७॥ तुहिं मिहुणगेर्हि, कयजम्ममहूसको सह सुरेहिं |
इय बीयं कल्लाणं, पढमजिदिस्स सम्मतं ॥ १८ ॥ कयजम्माईमहिमा, देवा नंदीसरंमि गंतूणं |
सासयजिणाण पूयं, न गीयं च कुव्वंति ॥ १॥
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पंचकल्लाणं
सुरमिहुणगपरियरिओ, कमेण संवढिओ तियसमहिओ।
सारयससिव्य भयवं, पयर्डतो देहकंतीए ॥२॥ सुरवइआणाएँ सुरो, जगप्पहाणस्स दिव्यमाहारं ।
देवकुराए गहिउं, निवेयई उसमसामिस्स ।।३।। अह जोव्वर्णमि पत्ते, सुरिंदमहिए जिणंमि सुरनाहो।
आगम्म विभूईए, विवाह किच्चं कुणइ सव्वं ॥४॥ सह देवेहिं परिगओ, वंदित्ता तिहुयणच्चियं उसभं ।
पुच्छंतमिहुणगाणं, भयवं परिकहइ करणिज्जं ॥५॥ रायाभिसेयकाले, पुणरवि आगम्म भत्तिराएणं ।
सीहासणंमि पवरे, अहिसिंचइ कणयकलसेहिं ॥६॥ सुहगंधोदयदेवंगवत्थ आभरणदिव्वमउडाई ।
हरिचंदणगंधुक्कडविलेवियं कुणइ जगनाहं ॥७॥ वरसुरभिमल्लसुरतरु-सुयंधकुसुमच्चियं तियसणाहं ।
पवरपलम्बियमालं, गंधेणासत्तभमरउलं ॥८॥ पउमिणिपुडेहिं तोयं, आणेउं मिहुणगेहिं दट्टणं ।
पययंकयंमि खितं, तुट्टो सक्को य सुरराया ॥९॥ कंचणविणीयनयरी, तेसिं काऊण पत्तु सुरलोए ।
उग्गा भोगा राइन्नखत्तिया आणं पडिच्छंत्ति ॥१०॥ ससीएँ पालियजणो, संगहियतुरंगहत्थिगोरयणो।
बहुगामनगरपट्टण, दंसिय कम्माण आयारो ॥११॥
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थोतं
पढमं रायाहिराओ, निप्पडिवक्खो अनंतविरिओ य ।
सयपुत्तनमियचलणो, नरनाहसहस्रपणिवडओ ॥ १२ ॥ परिदंसियसिष्पकलो. पमुइय निच्चं सदेव लोगंमि । वित्थरियदानविन्नाणरयण रयणायरो जयइ ॥ १३॥ परिपालिऊण रज्जं, भवियाण हियट्टयाएँ तो भयवं ।
भरहाइदत्तपुहईरज्जं, रयणाणि सव्वाणि || १४ | संवच्छरियं दाणं, कणगाह पयच्छिऊण उद्दामं ।
सहिओ पुरंदरेहिं, सव्वेहिं सुरासुरेहिं च ॥ १५ ॥ मणिकणगरयणसी हा सणमि हविओ सुरेहिं जगतामी । कयकोउय मंगल गीयन आउज्जसदेणं ॥ १६ ॥
-
वत्थाहरणविलेवण-कुसुमाइ जगेऽवि गरुयमोल्लाई ।
रेहंति विसेसेणं, जगगुरुणो अंगलग्गाई ॥१७॥ उच्छलइ नंदिसहो, जय जय तेलोकभाणु सुरनाह ! |
raute मोहतिमिरं, केवलकिरणेहिं अवणेहि ॥ १८ ॥ जय जगपईव ! वच्छल ! जगबंधव ! जय तिहुयणमयंक ! | धम्म कहाजुहाए, पडिबोहसु भवियकुमुयाई ||१९|| रयणदाणेण एवं, जह जम्मदालिहं फेडेसिं ।
तह दुहियजीवाण सामिय, चरित्तनिहिप्पयाणेणं ॥ २० ॥ सिबियाए सुदंसणाए, मणिमयसीहासणंमि उवविट्ठो । सकासाणसुराद्दिव उभओ चामरविहत्थेहिं ॥२१॥
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पंचकला
चउविहदेवनिकाएहि, संधुयमाणो नरिंदपरियरिओ । सुरतूरगहिरजयजयश्वेण सिद्धत्वणसंडे ||२२||
५६
निक्खमणमहिमअक्खित्ततिहुयणो नरवईसहस्सेहिं । उहिं सहिओ महप्पा, तिलोयपुज्जो य निक्खंतो ||२३|| कयचउमुट्ठीलोओ, पंचममुट्ठी विरायमाणो य ।
दहण देवराया, अच्छउ सामीति विनविओ ||२४|| सावज्जजोगविरओ, गहियपनो महामुणिदवई ।
विरह गामाई तओ, देवावि गया य सहाणे ||२५|| तइयंमि सम्मत्तमी, चउत्थकलाणएण थोसामि ।
जं ण भए इह भणियं तं सव्वं आगमा णेयं ||२६|| कयघोरतवचरणो, साहियइंदियअणंगसेणो य ।
जियरागदोसमोहो, परीसहारीहि अव्वहिओ ॥ १ ॥ णिज्जियकसायमल्लो, पालियइरियाइपंचस मिइओ ।
भगवं तिगुत्तगुत्तो, तिदंडविरओ य सिल्लो ||२॥ जत्थत्थमियनिवासी, गिरिगुहकंदरतरुस्स पामूले |
कत्थइ सिलायलगओ, चिट्ठइ भयवं सुहज्झाणे ॥ ३ ॥ सत्तभयविप्यमुको, अट्ठमयड्डाणवजिओ भयवं ।
नवभचेरगुत्तों, परिवालइ दसविहं धम्मं ॥४॥ पुताइचत्तनेहो, परिहरिया सेससयण संबंधो ।
fasts ममत्तरहिओ, पुरपट्टणगामनगराई ॥५॥
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थोतं
अमुणियभिक्खाइजणो, मणिकंचणरयणधणसमिद्धोवि ।
परमेसरो अदीणो, विहरइ वसुहं निराहारो ॥६॥ ते चत्तारि सहस्सा, भरहेग निवारिया य रायेणं ।
पढमपरीसहचइया, वणमझे तावसा जाया ॥७॥ नमिविनमिरायपुत्ता, न समीवे आसि दाणकालंम्मि ।
तिहुयणनाहस्स तओ, ओलग्गंती पयत्तणं ॥८॥ धरणिंदस्सागमणं, जिणवरभत्तीएँ पूयसकारं ।
ते दिट्ठा पूयंता, दिन्नाओ ताण विजाओ ॥९॥ मा एएसि सेवा, रिसहजिणिंदस्स निष्फला होइ।
वेयड्ढस्साहिवई, जाया विज्जाहरा दोवि ॥१०॥ संवच्छरंमि पुन्ने, सेयंसनरिंदभवणसंपत्तो।
दटुं तिलोयनाई. सहरिसमभुडिओ मइमं ॥१२॥ तिपयाहिणेवि वंदिय, जाईसरोण मुणेवि दाणविही।
सेयंसो पल्हत्थइ, इक्खुरसं कणयकलसेहिं ॥१२॥ करकमलअंजलीए, दिज्जंतं पडिच्छए भयवं ।
दि(द)व्यादिभावसुद्धं, नाउं निरवज्जमाहारं ॥१३॥ नरनारीहिं महियलं, गयणयलं छाइयं सुरगणेहिं ।
सियछत्तचमरऊसियघंटारवमणिविमाणेहिं ॥१४॥ सेयंस अहो ! दाणं, धन्नो धन्नो तुम जगे जेणं ।
पाराविओ जिणिदो, पवत्तिया पढमभिक्खा य ॥१५॥
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पंचकल्लाणं
गंधोदयपुफाणि य, वुहा य महग्घरयणवसुहारा ।
दुंदुहिचेलुक्खेको, जयजयरवबहिरियं भुवणं ॥१६॥ वरतूरसंखकाहलनिग्योसपणच्चियाउ देवीओ।
एवं नरिंददइया. महामहो देवमणुयाणं ।। १७ ॥ विहिणा पारेवि तओ, आहिंडइ वसुमई गुणसमिद्धो।
मेरुव्व निप्पकंपो. सीयाइपरीसहे सहइ ॥१८॥ आरामुजाणेसु य, गोपुरसुन्नहरजाणसालासु । ___ बहुसंठियउस्सग्गो, धम्मज्झाणेण नवि खलिओ ॥१९॥ बहलीअडंबइल्ला-जोणगविसयाइ परिअडंतस्स ।
भद्दगमणुया जाया. वयणाणुठ्ठाणहियहियया ॥२०॥ लंघेवि पव्वया तह, नईओ विहरेवि अणारियं खेतं ।
उसामिया य मिच्छा, दुहावि महाणुभावेणं ॥२१॥ कयकिच्चोवि हु भयवं, पवजाईय भवविणासाय ।
एवं विहि दसिंतो, छउमत्थाणं य परिभमइ ॥२२।। सपरिकमो य धीरो, भीसणरनेऽवि ठाइ उस्सग्गे ।
ज्झाणग्गिए दहतो, निरुहइ कम्भिधणं पउरं ॥२३॥ पुन्ने वाससहस्से, पत्तो उजाणपुस्मितालंमि ।
नग्गोहदुम्मस्स हेट्ठि, उप्पनं केवलं नाणं ॥२४॥ सव्वं लोगालोग, निस्संदिद्ध परिप्फुडं चेव ।
भयवं जाणइ पासइ, करयलगयसच्छरयणं व ॥२५॥
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थोत्तं
५९
चलियासणो य सको. पडिहारं आणवेइ सव्वसुरा ।
मेलेइ तक्खणेणं, घंटारवगहिरघोसेणं ॥ २६॥ वरमउड कुंडलधरा भूमिकेयूरहारकडएहिं ।
तुरयत्रिमाणारूढा, सिग्धं च समागया विबुहा ||२७|| पज्जलिअविविहरयणा, उज्जोइयभुवणनट्टतमनिवहा ।
गुरुयाणंद पहिडा. मुक्का य कयंतदुद्वेगं ||२८|| मिलिया सुरासुरगणा बत्तीससुराहिवा तओ तुरियं ।
केवल हिमं काउं, विणीए नयरीए उइन्ना ॥ २९ ॥ रइयं च समोसरणं, मणिमयसिंहासणं असोगतरुं ।
तत्थ उ पढमजिणिदो, विहीएँ सीहासणे ठाइ ||३०|| भरोऽवि चक्कट्टी, केवलमहिमं जिणस्स नाऊणं ।
सव्विडूढीए चलिओ. सियछत्तो गयवरारूढो ॥ ३१ ॥ पुत्तविओयसुदुक्खां पुरओ मरुदेवी सामिणीं काउं ।
दहं जिणवर रिद्धीं, विमाणसुरछाइयं गयणं ॥ ३२ ॥ पागारतियमणि तोरणाइदुंदुहिनायजयसदं ।
सोउं जिणजणणीए, उप्पन्नं केवलं नाणं ॥ ३३॥ आउं च परिसमत्तं, सुरेहिं सकारिया पढमसिद्धा ।
भरोऽवि सोगहरिसं, अणुहवई थेवकालेति ॥ ३४ ॥ उत्चिन्नो मयलाओ, नरवई मोत्तण पंचकउहाई ।
छत्तं वाहण खग्गं, मउडं तह चामराओ य ॥ ३५॥
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पंचकल्लाणं
दारुत्तरेण पविसइ, दणं जिणं तिलोगपरियरियं ।
दुंदुहिज्झयछत्तत्तय चामरसीहासणारूढो ॥३६॥ हरिसरोमंचजुत्तो, तिपयाहिण बंदिउं सपरिवारो।।
उवविहो भरहवई, सकाइ ठिया उ सट्टाणे ॥३७॥ धम्मं कहेइ भयवं, नारयतिरियमणुयदेवाणं ।
जह होइ दुहसुहाइ, उप्पत्ती जेण कम्मेणं ॥३८॥ तह सव्वदेसविरई, पयासई वित्थरेण सुरमहिओ।
भरहपुत्ताइ सोउं, बहवे तत्थेव पच्वइया ॥३९॥ बंभीपमुहा अजा. सावय तह साविया अणेगाओ।
इय पढमसमणसंधो. उप्पन्नो उसभनाहस्स ॥४॥ एवं तु अणेगाणं, पडिबोहं काउ उहए भयवं ।
देवावि सभवणगया, समत्त कल्लाणयचउत्थं ॥४१॥ कम्मकलंकविमुक्को, जिणचंदो पंचमंमि पारद्धे ।
समणसीहेहिं सहिओ, परिवज्जियविसयपंकेहिं ।।१।। धम्मवरचक्कवट्टी, सुसत्थवाहो य मोक्खनयरस्स ।
चउगइवाहिसु वेजो, सरणं भवघोरभीयाणं ॥२॥ दिप्पंतरयणसुरकयपउमेसु निहित्तचलणसयवत्तो।
संचल्लइ मणिनिम्मल-पुरओ ठियधम्मचक्केणं ॥३॥ सुरविजाहरकिन्नर - नरवइगंधब्बजक्खपरियरिओ।
रक्खंतो जमदंडाउ तिहुयणं जीवहरिणाओ ॥४॥
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थोत्तं
६१
नयरीपट्टणवेला - उलाई आगरमडंबखेडाई |
परिसक्कड़ जगजेठो, छज्जीवहियंकरो भयवं ॥५॥ सुररसमोसरणो, अट्ठमहापाडिहेरसंजुत्तो ।
निरुवमवसिरीओ. चउतीसाइसयगुणकलिओ ||६||
नासह अन्नाणतमं, जीवाण विवेगरयणदाणें ।
दसवारसभेणं, धम्मेण जगं समुद्धरइ ||७| तित्थस्स हेउ गाउं, पुंडरियं गणहरं सपरिवारं ।
पेसह सिरि सेत्तज्जे, पियामहो उसभसामित्ति ||८|| उग्गतवचरणरुई, गुरुआणाचरणकरणमुज्जुत्तो ।
गंतूण विमलसेले . भवियाण करेइ उवयारं ॥९॥ विरइयचोदसपुच्चो, संसयघण तिमिसूरपजलिओ ।
भवस सहस्सलखाण साहणं कुणइ जीवाणं ॥ १०॥ निदलियघाइकम्मो, उप्पन्न अणंत केवलुज्जोओ ।
पंचकोडीहिं सहिओ, निव्वाणमणुत्तरं पत्तो ॥ ११॥ भरोऽवि दिवई, कंचणभवणाई जिणवरिंदाणं ।
तुज्जे कारवेइ पुंडरियए गए सिद्धिं ||१२|| पच्छा विहरेइ महिं, सुरसहिओ तं गिरिं समारुदइ ।
नाहिसुआ तित्थयरो, सुरागमो सरण धम्मकहा ||१३|| एवं बावीस जणा ओसरिया कोडिलक्ख सिद्धा य । एएण कारणं सेज्जगिरी महातित्थं ॥ १४ ॥
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पंचकल्लाणं
नमिविनमिरामपंडव-नारयपज्जुन्नसंवपमुहाओ। - दविडनरिंदाण सम, सिद्धाओ णेगकोडीओ ॥१५॥ सेसजिणाणं काले. जे सिद्धा तह जिणंतरे चेव ।
सेत्तुज्जे ताण संखा, अइसयणाणी परिकहेइ ॥१६॥ गहु एत्थ समोसरिओ, नेमिजिर्णिदो भवारिनिद्दलणो।
बारवइमाइनयरीओ विहरिओ भब्वसत्ताणं ॥१७॥ पडिबोहं काऊणं, सक्काइदसारकण्हरामसुओ।
नरवइमउडधराणं विहिपणओ चरमकालंमि ॥१८॥ उजिंतमहिहरम्मी, सहिओ अगगार पंचहिं सएहिं ।
छत्तीसम्भहिएहिं, पत्तो परमेसरो मोक्खं ॥१९॥ पुब्बि पच्छा य तहा, बहवे सिद्धा य लोगनाहस्स।
बहुपावसंचयहरं, नमामि उज्जितवरतित्थं ॥२०॥ तित्थयस्केवलीहि, गणहरपुरधरसाहुमाईहिं ।
जो कोइ सुहपएसो अक्कंतो सो महातित्थं ॥२१॥ पुणरवि भगवं विहरइ भारहं संजयाण लक्खाई।
नाऊण चरमकालं, अट्ठावयनगवरारूढो ॥२२॥ दसहिं सहस्से हिं समं. मुणिवस्तवचिन्नचरमदेहाणं ।
काऊण अगसणविहीं, सव्वेहि समो गओ मोक्खं ॥२३॥ गोसोसचंदणागरुचियाए सक्कारिओ सुरवरेहिं ।
भरहागम जिणभवणं कणयमयं रयणमालाहिं ॥२४॥
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थोतं जयघंटागहिरवं सव्वेसि जिणाण तत्थ पडिमाओ। जो जहप्पमाणवन्नो तह निम्मविओ य जिणकहिओ ॥२५॥ चउवीसं तित्थयरा. फुरंतरयणेहिं पंचवन्नेहि ।
एवं विहीऍ भाउयसयस्स थूभाणि कारवई ॥२६।। पडिमाउ तत्थ तेसिं, पइट्टिया ण्वहणमाइसक्कारं ।
पूयाइकयविहाणो. सपरियणो परमभत्तीए ॥२७॥ भरहो थुणइ पसंतो, जय जय देवाहिदेव ! जगतिलय ! । जयगुरु ! तिहुयणपालग !, ससुरासुरनमियपयकमल ! ॥२८॥ जय चिंतामणि ! जय कप्परुक्ख! जय पढमपयडियसुधम्म !!
इक्खागवंसभूसण !, पढमजिणेसर ! नमो तुभं ॥२९॥ जय तेलोक्कपियामह :, बत्तीसपुरंदरेहिं थुयचलण! ।
भवजलहिनिबुड्डाणं, जीवाण विसालदढपोय ! ॥३०॥ जय तित्थनाह ! सामिय :, दाउं णाणाइर्ग महामंतं ।
भीमभवरक्खसाओ. लोगतिगं गक्खियं सव्यं ॥३१॥ जय रागग्गहफेडण !, जय दोसभुयंगदुनिवण!।
मोहपिसायवियारण ! वारण ! कोहाइभूयाणं ॥३२॥ असंमजसकलिघायग :, पमायतेणाण निग्गहसमत्थ ! ।
रोदपमुहा य ण, तुह दंसणसीहनाएणं ॥३३॥ जय पुरिसोत्तम ! को तुम्ह, संथवं अविगलं जगे कुणइ ? ।
उद्धरियं जेण जगं, निवडतं भीमनरएसु ॥३४॥
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पंचकल्लाणं
मिच्छत्ततिमिरनासण !, पडियोहग ! भवियपउमकोडीणं । भुवणुज्जोयस्स तुमे, सामिय ! जिणसूर ! पणमामि ॥३५॥ जय जीवाइपयासग :, जय पंचस्थिकायमइयस्स । लोगस्स सुहुमभासग :, खयकारग ! जम्ममरणाणं ॥३६॥ एगंतहियं पत्थं, अतित्तिजणगं च तुम्ह वरवयणं ।
को पावइ महायस !, गुरुतरपुण्णेहिं परिहीणो ॥३७॥ मूलुत्तरपयडीओ, कम्मस्स कहेइ भव्वजीवाणं ।
तेण समं दुटेणं कओ विओगो महामुणिणा ॥३८॥ जय कुगइपहनिवारण :, जय सोग्गइमोक्खपयडियावास ! । जय सयलसोक्खदायग!, जय सामिय ! तिहुयणुद्धरण ! ॥३९॥ सेसाई जे य जिणा, अजियाई वद्धमाणपज्जंता ।
लोगस्स उजोयगरा, अणतविरिया पुरिससीहा ॥४०॥ तीयाणागय तित्थं-करा य चंदामि तिहुयणवरिठा ।
विहरंति जे य पुजा, अड्ढाइज्जेसु दीवेसु ॥४१॥ सिद्धाणि सबकज्जाणि, जेसिं निरुवमसुहं च संपत्ता ।
ते सिद्धा पणमामि, पारगया भवसमुदस्स ॥४२॥ आयरिया वि हु सव्वे, उवज्ज्ञाया साहु सीलगुणजुत्ता।
आयारधरा लोगुत्तमा य मणवयणकाएहिं ॥४३।। वंदइ भरहाहिवई, देवा वंदित्तु गया नियावासं ।
एवंपि महाइसयं सम्मत्त कल्लाणपंचमयं ॥४४॥
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थोतं
आषाढचउत्थीए, बहुलाएँ चुओ जाओ चेत्तस्स।
बहुलट्ठमीऍ भयवं एयाए तिहीए निखंतो ॥४५॥ फग्गुणबहुलेकारसि जिणिदउसमस्स केवलुप्पत्ती।
माहे य बहुलतेरसि संपत्तो सासयं ठाणं ॥४६॥ तत्तो भरहनरिंदो, रज्जं काऊण अँजिओ भोए ।
आयंसघरे नाणं, पवज्ज कमेण निव्वाणं ॥४७॥ एयं जो पढइ नरो, पढमजिणिदस्स पंचकल्लाणं ।
निसुणइ जो भावेण मोवि सुहं सासयं लहइ ॥४८॥ वाहिवेयालमाई नासइ दालिद्ददुक्खदोहग्गं ।
एयं पावइ य लहुं पडिहणि सव्यविग्घाई ॥४९॥ पवयणदेवी नमो, जीएँ पसायेण पंचकल्लाणं । भंदमहणा विरइयं कल्लाणपरंपराहेउं ॥५०॥
पंचकल्लाणं सम्मत्तं ॥
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श्रीपादलिप्तसूरिविरचितः सुवर्णसिद्धिगर्भः श्रीमहावीरजिनस्तवः (३)
____ अवचूरिसंयुतः । गाहाजुयलेण जिणं मयमोहविवज्जियं जियकसायं। थोसामि तिसंघाएण तिनसंगं महावीरं ॥१॥
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६
श्री महावीर
सुकुमालधीरसोमा रत्तकसिणपंडुरा सिरिनिकेया। सीयंकुसगहभीरू जलथलनहमंडणा तिनि ॥२॥ न चयंति वीर लीलं हाउं जे सुरहिमत्तपडिपुन्ना। पंकयगइंदचंदा लोयणचंकम्मियमुहाणं ॥३॥
अव०-यथाऽस्यातिलघीयस्त्वेपि स्तवनत्वं स्यादेव, आगमे पद्यचतुष्कादारभ्य यावदष्टोत्तरं पद्यशनं स्तवेषु सङ्ख्याभिधानाद् । अथ गाथार्थः कथ्यते, अस्य स्तवस्य गाथाचतुष्टयात्मकत्वेऽपि आद्यान्त्यगाथयोयथासङ्ख्यं प्रस्तावनानिगमनरूपत्वात् . गाथायुगलेनैव भगवतो लोचनच
क्रमितमुखानि वर्णयति,-'सुकु० ' 'न च०' । 'वीर त्ति लुसपष्ठीविभक्तिकं पदं, प्राकृतत्वात् । श्रीवीरस्य सम्बन्धिनां • लोयण ' लोचनौ-नेत्रे, ‘चङ्कमण' पादविहरणात्मिका गतिरित्यर्थः. मुख-चंद्रवदनं, द्वन्द्वः । तेषां लीलां-शोभा सादृश्यमित्यर्थः । ' हातुं' गंतु-प्राप्तुं न चयन्ति ' न शक्नुवन्ति. 'शकेश्वयतरतीरपारा' इति सिद्धहेमप्राकृतलक्षणात्. हातुमिति ओहाङ् गता' वित्यस्य धातोः प्रयोगः। जे' इति पादपूरणे, ' इजेराः पादपूरणे' इति प्राकृतवचनात् । के न शक्नुवन्ति ? इत्याह- पंकय० ' कमल-महागज-शशिनोत्र यथासाव्यमलङ्कारः । पङ्कजं भगवन्नेत्रयोलीला हातुं न शक्तं, तम्मादप्यत्यन्तरमणीये नेत्रे । गजेन्द्रश्चङ्क्रमितलीलां गन्तु
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जिनस्तयः
मशक्तः गजेन्द्रगतितोऽप्यनन्तप्रकर्षशालित्वाद्भगवदतेः । चन्द्रस्तु मुखलीलां गन्तु न शक्तः, तस्मादप्यात्यन्तिकगुणोपेतत्वाद्भगवद्वदनस्य । पङ्कजादयः किं वि० ? 'सुकु०' तत्र सुकुमार -कोमलं, प्रकृत्या मृदुलं पङ्कजं । धोरो-निष्प्रकम्पः, शौण्डीययुक्तत्वाद्गजेन्द्रो धीरः। 'सौम्यो' नेत्रालादकारी, चन्द्रोऽपि स्वभावात् तापनिर्वापणप्रवणत्वात् सौम्यः । पुनः कि वि० ते ? ' रत्त० ' पङ्कजं हि कुमुदोत्पलादिविशेषनिर्देश विना कविसमये रक्तमेव वर्ण्यते । नागेन्द्रो' अहिः, प्रायः कृष्ण एव स्यात् । चन्द्रस्तु पाण्डुर एव । पुनस्त्रयः किंवि ? 'सिरिनि० ' 'श्रीः । लक्ष्मीदेवता, तस्या निकेता' निवासाः, लक्ष्मीहि पङ्कजे गजे चन्द्रे च वसतीति रूढिः, तथा च लक्ष्मीस्तवे-' गजे शङ्ख मधौ छत्रे, चन्द्रे पझे जिनालये । मौक्तिके विद्रुमे स्वर्णे, या नित्यं परमेश्वरी ॥१॥ पुनः किंवि० ते ? 'सीयंकु०' शीतं अडशो ग्रहश्च तेभ्यो 'भीरवः ' कातराः । पङ्कजं हि तुषारेण दह्यते इति शीतभीतः, गजेन्द्रस्त्वङ्कशतोदनाद्धीरुः, चन्द्रः ग्रहात् सामर्थ्यात् राहुतो भीरुः, पुनः किंविशिष्टाः ? ' जलथल०' जलं च स्थलं च नभश्च तानि मण्डयन्ति-अलङ्कुर्वन्तीत्येवंशीला जल० मण्डनाः, • तिन्नि ' त्रयस्त्रिसङ्ख्याः । पुनः किंवि० ? 'सुरहि० । पङ्कजं सुगन्धि, गजेन्द्रः मत्त उन्मदिष्णुः, चन्द्रस्तु प्रतिपूर्णः सम्पूर्णमण्डलस्तस्यैव हि मुखेनौपम्यं ग्रहभीरुत्वं युज्यते ।
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श्री महावीर एवंप्रकारनैसर्गिकोपाधिकगुणविशिष्टा अपि न शक्ताः इति गाथाद्वयार्थः ॥ ___ अथ चतुर्थगाथया स्तुतिं निगमयन् प्रणिधानमाहएवं वीरजिणिदो अच्छरगणसंघसंथुओ भयवं । पालित्तयमयमहिओ दिसउ खयं सम्बदुरियाणं ॥४॥ इति श्रीपादलिप्तसूरिविरचितः स्वर्णसिद्धिगर्भः
श्रीमहावीरजिनस्तवः। ' एवं०' पूर्वोक्तप्रकारेण, जिना:-रागादिजेतृत्वात् सामान्यकेवलिनस्तेषु इन्द्रः ३४ अतिशयसमृद्धयनुभवनाजिनेन्द्रः, वीरश्चासौ जिनेन्द्रश्च वीर० । 'अप्सरसो ' देवाङ्गना गणयन्तिभोगार्हत्वात् बहुमन्यन्ते. अप्सरोगणाः-देवास्ते च सङ्घश्च-चतुर्वर्णः श्रमणसङ्घस्ताभ्यां संस्तुतः, स्तवकर्त्तरपि सङ्घातगतत्वात मया च संस्तुत इति गम्यते । भगवान् — ऐश्वर्यस्य सम० ' पविधभगयुक्तः । पालि०' पालयन्ति-रक्षन्तीति पालिन:पालकास्तेषां त्रयं पालित्रयं, तत उर्वलोकपाला इन्द्रास्तिर्यग्लोकपाला नरेन्द्रव्यन्तरेन्द्रज्योतिष्केन्द्रा अधोलोक० भवनपतीन्द्रा इत्यनेन पालित्रयेण कर्बभेदेन करणभूतेन मदेन'हर्षेऽप्यामोदवन्मदः' इत्यमरकोशवचनात् हर्षेण कृत्वा महितःपूजितः, सर्वदूरितानां-दारियरोगजरादीनां, क्षयं दिशतु, इति ॥४॥ अथाऽऽद्यगाथार्थमाह-गाथायुगलेन-मात्राछन्दोविशेषरूपद्वयेन, 'जिन' रागादिजेतारं, 'मयमोह. '
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जिनस्तवः
ना
मद्यपानजनितो विकारो मदः-क्षीयता, मद इव मदः पारवश्यत्वात् , मदवासी मोहश्च-मोहनीयकर्म च मदमोहः, * जह मजपाणमूढो लोए पुरिसो परव्यसो होइ। तह मोहेण मूढो जीवोवि परब्यसो होइ ।।१।' इति तेन विवर्जितं । मदशब्दस्थाहङ्कारत्वे व्याख्यायमाने जितकषायमित्यनेन सह पौनरुक्त्यं स्यात् । कषायाणां मोहान्तर्गतत्वेऽपि पृथगुपादानं संसारकारणेषु प्राधान्यख्यापनार्थ । 'त्रिसङ्घातेन' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपरत्नमीलनेन साधकतमेन, तीर्णसङ्गं, तीर्णः सङ्ग:-कर्मनोकर्मसम्बन्धरूपः संयोगो येन तं, शरीरमित्यर्थः । अथवा त्रिसङ्घातेन स्तोष्ये इति योज्यं, तत्र त्रयाणां वक्ष्यमाणलोचनादिवर्णवस्तूनां सङ्घातः तेन। अथाऽत्र स्वर्णसिद्धि ( प्रकरणे ) प्रकारेण व्याख्या-तिसृणामौषधीनां रक्तदुग्धिकासोमवल्लीबहुफलीनां सङ्घातेन - समवायेन 'थोसामि' त्ति, स्वेदनमुखोद्घाटनजारणादिविधि विधास्यामि। तत्र स्वेदनं-गोमहिष्यजानरखरमूत्रैः काजिकसहितैदोलायत्रेण, जारणं बिडनिष्पादनेन गोरोचनास्फटिकानवसारगन्धकहरितालस्यन्दसौभाग्यरूपं औषधषटकचूर्ण समांशं अजापित्तके निक्षिप्य मासमेकं चूल्लया उपरि धार्य । इत्थं बिडं निष्पाद्य मुखमुद्घाटयते, तच्चेद्यं कृत्वा कृष्णाभ्रकपत्रं कृत्वा यवारनालमध्ये प्रहराष्टकं निक्षिप्य फागकन्दलैर्दुर्वानाला सह वस्त्रेण गाल्यते, तद्र्व्यरूपं रसदोषविवर्जितं । रसस्य हि त्रयो दोषा मलं शिखी विषं चेति । ततो ' मयमोहविवज्जियं ' इति, अनेन
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श्री महावीर
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मलविपलक्षणदोषद्वयवर्जितत्वं उक्तं । सम्प्रति दहनदोषनिरासार्थं विशेषणमाह-' जियकसायं 'ति, जितः - स्वात्मनि निलीनः कृतः कषायस्त्रिफलाख्यो येन स तथा तं । अनेनेदं उक्तं भवति यस्त्रिफलया तस्य शिखिदोषोऽपनीत इति । तथा च रसग्रन्थः - ' मलशिखिविपनामानो रसस्य नैसर्गिकास्त्रयो दोषाः । गृहकन्या हरति मलं त्रिफलाऽग्नि चित्रकस्तु विषम् ||१|| ' इति । 'धोसामि' स्तम्भयिष्यामि, केन कृत्वा ? त्रिसङ्घातेन सिताम्रकं तालकं तारय (?) तेषां त्रयाणां सङ्घातेन योगेनेत्येके । अन्ये तु व्याचक्षते - दुग्धिकादीनां स्वरसं रसमध्ये दद्यात्, औषधानां शुष्कत्वे तु तासां क्वाथं कृत्वा तद्रसं निक्षिपेत् । अत्र च रक्तदुग्धिका सोमवल्लीबहुफलीनां अन्यतमयापि कार्याणि सिद्धयन्ति तथापि तिस्रो ग्राह्या इत्याम्नायः । पुनः कथम्भूतं ? जिनं- पारदं, तीर्णसङ्ग-मृत सप्तगुणसङ्गोत्तीर्ण, अस्य सम्प्रदायो गुरुमुखाच्छ्रोतव्यः । एतावता श्वेत ओलि दर्शिता । अधुना पीतविधिमाह - 'महावीरं' 'म' इति हेममाक्षिकं 'हा' इति हाटकं 'वी' इति कृष्णाभ्रकं 'र' इति रसः तं स्तोष्यामि । शेषा औषधयः समाना एव इति प्रथमगाथार्थः । सुकुमाल ' इति नाइणि, 'धीर' इति नाइ, 'सोमा' इति सोमवल्लीत्रयं सोमा वा कुवी रत्त ' इति रक्तदुग्धिका ' कसिण ' इति कृष्णा बहुफली काश्चनिका ' इति देवदाली 'सि' इति शृङ्गिकविषं 'रि' इति
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,
पण्डुरा
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जिन स्तयः
लघुरींगिणी ' निकेया ' इति केतकी तन्निर्यासः, ' सियं इति लाङ्गुलिका, 'कुसगह ' इति अहिखराबीजानि अपामार्गवीजानि वा 'भीरु' इति लज्जालुका 'जलमण्डनिका' मण्डूकब्राह्मी 'स्थलमण्डनका' अंबावनी अम्चचङ्गेरी 'नभोमण्डनिका' सुनाली आकाशवल्ली चेत्येके । एतास्तिस्र औषधयः । औषधीनां बहुत्वेपि ' तिन्नि त्ति, अभिधानं मण्डनशद्रयोजनासाम्यात् । इति द्वितीयगाथार्थः ॥ इदानीं रोचनक्रमेोद्घाटनविधिमाह -
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' न चयंति' वीरो अग्निः, तस्य लीलां -अभिरूपतां हातुं त्यक्तुं न शक्नुवन्ति, भास्वरकार्त्तस्वररूपत्वात् । के ते ? पंकय गइंदु चंदा पंकय ' इति गगनम् - अभ्रकमित्यर्थः । ' गइंद ' इति मृतनागं, 'चंद ' इति हेम त्रितयमपि वा । एते च पङ्कजादयः कीदृशाः सन्तो वीरलीलां न त्यजन्ति ? इत्याह- ' सुरहिमत्तपडिपुन्ना ' सुरभिमात्राप्रतिपूर्णा । 'सुरभिनि चम्पके । जातीफले मातृभेदे, रम्ये चैत्रवसन्तयोः ॥ सुगन्धौ गवि सल्लक्या' (हैम० - १०५९ ) मित्यनेकार्थवचनात्, सुरभिः- रसगन्धानुसारितया रम्या या मात्रा - परिमानियतिस्तया प्रतिपूर्णा :- समग्रा, यथोक्तमात्रोल्लङ्घने हिन सिद्धि:, अतस्ते सुरभिमात्राप्रतिपूर्णा इति । केषां कार्याणां सम्पादयित्री या मांत्रात आह-' लोयणचंक म्मियमुहाणं ' ति, 'लोयण' इति रलयोरैक्यात् ' रोचनं ' वेध इत्यर्थः,
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श्री महावीरजिनस्तवः 'चकमिय' इति क्रमणं 'चुचुंधरि सव्वंगं महिलामयदंकणेण कयलेवं । सबटुं (दु) देसु कमणं निद्दिट्ट वीयरागेण ॥१॥' 'मुह' इति उद्घाटनं श्वेते नागोत्तरणं पीते पुटदानं, यदुक्तं-सूतसंहितायाम्-उद्घाटने पुटो नान्यः, क्रामणे कान्तमिच्छति । न शुल्वाद्रञ्जकः कश्चिन्न माक्षीकात् प्रकाशकः ॥शा' इत्यत्राप्युक्तम् ' तारिहिं तारुसुवन्नुसुवन्निई मूओरे न हु बज्झइ अन्नई। कामणवेह उघाडणनाइं दधीकरणु होइ रसराई (?) ॥१॥ इति तृतीयगाथार्थः ॥३॥ अथ निगमयन्नाह -एवं पूर्वप्रकारेण 'वी०' रसेन्द्र :-रसज्ञः, अच्छः, अः अम्लवर्गः, छः क्षारवर्गों मूत्रलवणादिः, 'र' रसवर्गः, एषां त्रयरूपो गणस्तस्यः 'सङ्घ ' समवायम्तेन 'सं०' परिचितः-संस्तुत्य स्तम्भितः. ' भगवान् ' ऐश्वर्यात्पूज्यः ‘पालिक' पादलितो-- रसविद्यासिद्धः सूरिः, तस्य मतेन-अभिप्रायेण, मथितः, अणसेइओ न तरलो न निम्मलो होइ महणारहिओ । सोरणरहिओ पसरइ कामे ओ नेय कमलोहेसु (१)॥१॥ इत्यादियुक्त्या परिकम्मितो, दिशतु क्षयं 'सर्व' दारिद्यरोगजरादीनां । पाठान्तरे-पादलिप्तस्य मत्या मथितः, (इति) चतुर्थगाथार्थः । इत्थं स्तवरूपतया लवतः सितपीतसिद्धिरूपतया । श्रीपादलिप्तरचिते रचिता वीरस्तवे मया वृत्तिः ॥ इति श्रीजिनप्रभसूरिभिः संवत् १३८० वर्ष कृतायाः श्रीवीरस्तववृत्तेः सक्षिप्यावचूरिः । ग्रन्थानम् ९८ ॥
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श्रीआगमोद्धारक ग्रन्थमालाया द्वादश रत्नम्
ॐ नमो जिनाय । आगमोद्धारक--आचार्यप्रवर श्री -आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः
जैनस्तोत्रसञ्चयस्य द्वितीयो विभागः।
- ૨૧
संशोधकः प, पू. गच्छाधिपति-आचार्य-श्रीमन्माणिक्यसागरसूरिः
द्रव्यसहायक: झवेरी कालिदासात्मजजमनादासहारा वटपद्रीय
श्रीआत्मानन्दजैनउपाश्रयः ।
प्रतय ५००-मूल्यम् १-५० वीर संवत् २४८६
. वि संवत् २०१६ प्रकाशक :
मुद्रक : रमणलाल जयचन्द शाह
मंगळभाई वेरीभाई पटेल ईठे. शेठ मीठाभाइ कल्याणचन्दनी
मेनेजर है पेढी, कपडवंज (जि. खेडा) सहकारी छापखानुं रावपुरा, वडोदरा.
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किञ्चिद्वक्तव्यम्
अयि विबुधाः ! जिनवरभक्तिरससक्तचेतसां भवतां करसरोरुहे जैनस्तोत्रसञ्चयस्य द्वितीयोऽयं विभागः सादरं समर्प्यते । अत्र आचार्यश्रीसोमसुन्दरमूरीणां तच्छिष्यरत्नश्रीमुनिसुन्दरसूरीणां च कृतयः सन्ति ।
श्रीसोमसुन्दरसूरे जन्म प्रल्हादनपुरे सज्जन श्रेष्ठिनो माल्हणदेव्याः कुक्षौ विक्रमसंवत् १४३० वर्षे, दीक्षा सं. १४३७ वर्षे, वाचकपदं १४५० वर्षे, सूरिप सं. १४५७ वर्षे, विधायानेकधर्म्यकर्माणि सं १४९९ वर्षे दिवं जगाम । श्रीमतः श्रीमुनिसुन्दरसूरिप्रमुखा बहवः शिष्याः आसन् । एतदर्थे विशेष जिज्ञासुभिर्विलोकनीयं श्रीसोमसौभाग्यकाव्यम् ।
श्रीमुनिसुन्दरसूरेः जन्म वि. १४३६ वर्षे, दीक्षा सं. १४४३ बर्षे, १४४६ वर्षे वाचकपदं सूरिपदे १४७८ वर्षे, स्वर्गवासः १५०३ वर्षे कार्तिक शुक्लप्रतिपदूदिने ।
एतासां कृतीनां मुद्रणयोग्य पत्राणि ( प्रेसकोपी ) पू. आगमोद्धारकआचार्यप्रवर श्री आनन्दसागरसूरीश्वरैः मत्पार्श्वे वि. २००५ वर्षे कारितानि स्वयं च शोधितानि जैनानन्दपुस्तकालयात् प्राप्तानि तदाधारेण संशोध्य प्रकाशीकृताः कृतयः इति निवेदयति
२०१६ मागशीर्षशुक्लपञ्चमी राजनगरे
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- चन्दनसागरगणिः
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अनुक्रमणिका
nment १ श्रीअर्बुदस्थश्रीऋषभजिनस्तवनम् २ श्रीगिरिनारगिरिमण्डनश्रीनेमिजिनस्तवनम् ३ श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथपञ्चविंशतिका ४ श्रीनवखण्डपाश्वनाथस्तवः ५ श्रीच्यवनकल्याणकस्तवः साधारण: ६ श्र जन्मकल्याणकस्तव: ७ श्रीदीक्षाकल्याणकस्तवः ८ श्रीज्ञानकल्याणकस्तवः ९ श्रीनिर्वाणकल्याणकस्तवः १० साधारणः श्रीजिनकल्याणकस्तवः ११ श्रीजिनकल्याणकस्तवः १ मङ्गलशब्दार्थस्तवनम् २-३-४
स्तवः ५ सकलजिनस्तवनम् ६-७ श्रीयुगादिदेवस्तवनम् ८ श्रीसीमन्धरस्वामिस्तवनम् २ श्रीवर्द्धमान जिनाष्टकम् १० माहपुरश्रीपार्श्वनाथस्तवनम् ११-१२ चतुर्विशतिजिनस्तवः १३ श्रीचतुर्विशति विहरमाणशाश्वतजिनस्तवनम् १४ मङ्गलस्तोत्रम् १४ चतुर्विशतिजिनमङ्गलस्तवनम् १६ श्रीजिनमङ्गलस्तवः १७ श्रीजिनब्रह्मस्तवः १८ श्रीजिनमहिमस्तवः १९-२० श्रीजिनमङ्गलस्तवः २१ श्रीजिनभक्तिस्तवः
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२२ श्रीजिनराजभक्तिमङ्गलस्तव: २३ श्रीमङ्गलशब्दस्तवः २४ श्रीशान्तिजिनस्तवनम् २५ श्रीवीरमिनस्तुतिः
त्रिदशतरङ्गिणी ४ श्रीअभिनन्दनजिनस्तोत्ररत्नम् ५ श्रीसुमति जिनस्तोत्ररत्नम् ६ श्रीपद्मप्रभजिन ७ श्रीसुपार्श्वजिन ८ श्रीचन्द्रप्रभजिन ९ श्रीसुविधिजिन १० श्रीशीतलजिन ११ श्रीश्रेयांसजिन १२ श्रीवासुपूज्यजिन १३ श्रीविमलजिन १४ श्रीअनन्तजिन १५ श्रीधर्म जिन १६ श्रीशान्तिजिन १७ श्रीकुन्थुजिन १८ श्रीअरजिन १९ श्रीमल्लिजिन २० श्रीमुनिसुव्रत २१ श्रीनमिजिम २२ श्रीनेमिजिन २३ श्रीपार्श्वजिन २४ श्रीवर्द्धमानजिन २५ श्रीवर्द्धमान जिन २६ श्रीवीरस्तवः
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ॐ नमो जिनाय ॥ आगमोद्धारक-आचार्यमवरश्री आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः
जैनस्तोत्रसञ्चयः। आचार्यसत्तमश्रीसोमसुन्दरसूरिकृतं
श्रीअर्बुदस्थश्रीऋषभजिनस्तवनम् (१) श्रीअर्बुदाचलविभूषण ! दूषणाली
वन्ध्यार्जुनाभविभ ! नाभिमवाऽऽद्यदेव । स्वामिस्तव स्तवपथे पथिकीकरोमि,
वाचं शुचीकरणकारणतोऽहमहन् ॥१॥ कौतूहलान न न च काव्यकलावलेपान्।
नामुष्मिकैहिकफलाऽऽप्यभिलाषतो वा । किन्त्वीश ! ते स्तुतिविधावधियामधीशो
ऽप्यस्मिन् प्रवृत्तमतिरस्मि मवाभिभूत्यै ॥२॥ वेगादगं जिगमिषामि तदङ्गपङ्गु
र्गत्या जिगीर्गगनगप्रबलानिलस्य । मातुं मरुत्पथमथो विदधे तदिच्छां,
मित्स्यामि चान्तिमसमुद्रनल पलैस्तत् ॥३॥ स्प्रष्टुं करण तरणिं स्पृहयामि वाऽहं,
सर्विरामपि पदैर्यदिवा पिधित्स्न्ये । यस्सर्वथा मितिकथापथहृद्गुणस्य,
स्तुत्यां यतेऽहमिह ते सहसा किलवम् ॥४॥ युग्मम् शक्ति निजामनवधार्य तथापि कार्ये
ऽमुग्मिन्नुपक्रमवतो भवतः प्रसादात् ।
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जैनस्तोत्र
कर्मक्षयैकफललाभमभीप्सतो मे,
नूनं जिनेश ! सफलो भविता श्रमोऽसौ ॥५॥ यत -नानाभवोपजनितं भविनामनन्तं,
वश्यं कयापि वितथाकुरुतेऽवसत्रम् । निर्णिक्तभक्तिभरजस्य महामहिम्नो,
देव ! स्तवस्य तु तवात्र विधौ कथा का ? ॥६॥ नो मत्सरः स्फुरति कोऽपि परामरेषु,
चेतोऽनुरागवशगं त्वयि देव ! नैव । सन्तस्तथापि निबिडाद् गुणपक्षपातात् ,
त्वामेव सेवकतया प्रभुमभ्युपेताः ॥७॥ स्वामिन्नसख्यसुखदं भवभीभिदं त्वा, - ... हित्वाऽऽरिरात्स्यति सुरानपरान् नरो यः । विश्वोत्तमामृतरसं सरसं व्यपास्या
सन्तोषमेष विषमं विषमापिपासेत् ॥८॥ रागोऽङ्गनाङ्गपरिषङ्गविधिप्रसिद्धः,
क्रोधोऽपि हेतिततिसङ्गतिबुद्धिबोध्यः । मोहोऽट्टहासनटनक्रिययाऽवसेयः ।
कामं कमण्डलुधृतिप्रथितं ह्यशौचम् ॥९॥ स्फाराक्षसूत्रकरधारणलिङ्गगम्य
मज्ञानमयखिलमातृमुखैरपीक्ष्यम् । मूर्तिष्वपीति भगवन् ! भवतः परेषां,,
हा हा ! महानिबिडदोषविडम्बनैव ॥१॥ युग्मम् ॥ दूरादपास्तवनितातनुसङ्गशस्त्राs
... द्यङ्काभिशयमदनादिकविक्रियायाम् । शान्ताकृतौ प्रतिकृतावपि ते यतीन्द्र !,
नीरागतैव जगताऽपि विभाव्यतेऽलम् ॥११॥
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सञ्चयः ।
d..
आस्तां भवान् मुवननाथ ! दृषन्मयीयं,
... त्वन्मूर्तिरप्यसुमतां तनुते प्रमोदम् । साक्षादवेक्षितवपूष्य पि सौख्यदानि,
न स्युर्नृणां मतिमतां परदैवतानि ॥१२॥ दूरेऽथवेन्दुरुदकप्रतिबिम्बतापि,
तन्मूर्तिरेव तनुते मुदमीश ! यद्वत् । तद्वद्विलोकित विभास्वरमण्डलाऽपि,
.. किं तारकावलिरलं प्रमदप्रदाने ? ॥१३॥ युन्मम् ॥ एकान्तशान्तरस्मसागरमलमूर्ते--
: र्या ते जगत्त्रयपतेऽद्भुतप्ताम्यमुद्रा। रोषादिदोषकलुषीकृतविग्रहाणां,
क्व स्यादसौ हरिहरप्रमुखामराणाम् ? ॥१४॥ विश्वत्रया तिशयिविस्मयकारिरूपं, ... देवं भवन्तमवलोकयतोऽपि न स्यात् । यस्याऽऽस्यमुल्लसितलोचनयुग्ममीश !, .
काष्ठं पशुः किमथवा दृषदेष साक्षात् ॥१५॥ यन्न प्रसीदसि विभोऽद्भुतभक्तिमाजि,
निन्दापरे च नरि नैव करोषि रोषम् । त्वां लक्षणेन खलु विश्वविलक्षणेना
- नेनैव दैवतधिया मुनयः प्रपन्ना: ॥१६॥ देवाऽन्यदैवतगणादगुणान् नृणां या,
..... सामान्यसत्त्वसदृशत्वभृतोऽमृतेच्छा । साऽत्यन्तनिर्धनजनादतिभूरिभूति
प्राप्तावतीव महती मनसः समीहा ॥१७॥ विश्वत्रयप्रकटदेवतचेष्टितं ये,
देवं मदादवपदन्ति भवन्तमेतम् ।
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जैनस्तोत्र
ते सूरबिम्बममि रेणुभरं किरन्ति,
दन्तैरदन्ति गिरिसारभरं च दर्पात् ॥१८॥ त्वं देव ! मोहितजगत्त्रयमानसोऽपि,
मिथ्यादृशो ददसि नो मनसः प्रमोदम् । आप्यायिताखिलमहीतललोचनोऽपि,
कि कोकलोकमुस्खमुज्ज्वलयेत् ? कलावान् ॥१९॥ योऽनेकशोपि ददृशे न भवान् दृशेश !,
स्यादस्य देव ! परतीर्थकरेऽनुरागः । आजन्मतोऽप्यनवलोकितरत्नजाते
श्वेतोरतिर्भवति हि प्रति काचखण्डम् ॥२०॥ देवान्तरस्य भगव॑स्तव चान्तरं यो,
नो बुध्यते विबुध बोधकबुद्धिवन्ध्यः । निम्बाम्रकाचमणिसर्षपमन्दरादि
भावोत्करे किमु भिदां स विदांकरोतु ! ॥२१॥ देवाः परे परमडम्बरधारिणोपि,
नो लेशतोऽपि तिरयन्ति तव प्रभावम् । खद्योतका द्युतिततिं दधतोऽपि किं वै,
वैवस्वतं मुकुलयन्ति किल प्रतापम् ? ॥२२॥ नैकप्रकल्पित विकल्पशता अपि स्यु -
भॊषं जुषः सदप्ति ते जिन ! तेऽन्यतीर्थ्याः किं घोरघूत्कृतिपरा अपि नैव चूका,
___ मूका भवन्ति सवितुर्महसां समूहे ? ॥२३॥ ये त्वन्मतामृतरहस्यरसैकचित्ता,
नूनं मसिन रमतेऽन्यमतेषु तेषाम् ।। आस्वादितामृतरसस्य नरस्य किं स्यात् ,
पातुं स्पृहापि सलिलान्याप पङ्किलानि ? ॥२४॥
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सञ्चयः
चेत्कस्यचिद् गतमतेन मतं मतं ते,
म्यादस्य विश्वमाहितस्य ततः क्षितिः का ?। रुच्या न चौरजनचेतसि चन्द्रिका चे--
च्छोच्या भवेत् किमियतापि जगत्प्रियेयम् ॥२५॥ पश्यन्त्यभव्यभवनो नहि दूरभव्या
श्वाशेषविश्वविदितं भगवन् ! भवन्तम् । किं वा जगत्प्रकटमम्बुजवन्धुत्रिम्ब
मालोकयन्ति जनुषान्धजनाः कदाचित् ? ॥२६॥ मिथ्यात्वमोहविषमाहिमहाविषेण,
प्रस्तस्य विश्वजगतो गतचेतनस्य । अस्य प्रबोधनविधावनुपाधिशुद्धं,
न त्वन्मतामृतमृवे ह्यपरोऽस्त्युपायः ॥२७॥ तप्तं तपो न विततं न जपोऽपि जप्तः,
क्लप्ता न दैवतशतक्रमपर्युपास्तिः । नानाक्रिया अपि कृता नहि मुक्तये स्यु
स्वच्छासनं जिन : विना भविनां कदाचित् ॥२८॥ तप्त्वा तपांस्यपि परैः शरदां शतानि,
___या यत्नवद्भिरपि सम्पदवाप्यते नो। चित्रं जना जिनपते ! त्वदुपज्ञपुण्या
दन्तर्मुहुर्तविहितादपि तां लभन्ते ॥२९॥ त्वदर्शनं जगति न प्रतिभाति किश्चि
दन्तर्गतं तव यदीश ! न शासनस्य । किं सम्भवेदिह भवेऽपि महन्महस्त
दन्तर्भवेन्न यदहर्पतिकान्तिपुञ्जे ! ॥३०॥ या वागगोचरसुरासुरसौख्यसम्पद् ,
या मानुषा सुखसमृद्धिरतिप्रवृद्धा ।
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जैनस्तोत्र
मोक्षकमुख्यफलभृद्भवदीग्रभक्तेः ।
प्राप्तङ्गिकं फलमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥३१॥ स्वामिन् श्रीगुरुदेवसुन्दरगुणास्त्वय्यैव सर्वे व्यधुः,
. स्थान नूनमशेषदोषनिवहाश्चान्येष्वथो नाकिषु । तन्मा भूज्जननान्तरेऽपि हि कदाप्येतेषु देवत्वधीः,
स्वप्नेपि प्रतिजन्म सम्भवतु मे नित्याऽऽप्तबुद्धिस्त्वयि ॥३२॥ एवं सर्वान्यदेवानधिगतमहिमश्रीसमालिङ्गिताङ्गः,
श्रीनाभेयो जिनेन्द्रोऽर्बुदगिरिशिखरोत्तसभूतोऽभिभूतः । भत्युत्कर्षात् सहर्ष तनुतरमतितोऽप्याभव मेऽव्ययश्री,
कैवल्यातुल्यमोदोदयसुखनिधये बोधिलाभाय भूयात् ॥३३॥
इति तपागच्छेशश्रीसोमसुन्दररिकृतं श्रीअर्बुदस्यश्रीऋषभजिनस्तवनम् ॥
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-सञ्चवः
श्री गिरिनारगिरिमण्डनश्री नेमिजिनस्तवः (२)
श्रीमदैवतका भिधाननगभूभूबैकभूषामणे !,
श्रीमन्नेमिविभो ! भवारिभवभीनिर्भेदमेदस्वल ! | भक्तिव्यक्तिवशोलसद्बहुलमुद्रोमाञ्चचञ्चद्वपुः,
स्वामिन्नज्ञतमोऽपि विज्ञपयति त्वां किञ्चनाऽयं जनः ॥ १ ॥
निस्सीमोत्तमचङ्गिमा गुणगणः क्वासौ तवासौख्यन्
निस्सारा वचसां भराः क्व च ममेमेऽस्वच्छतुच्छात्मनः । एवं सत्यपि भक्तितः प्रलपितान्येतानि वाक्यानि मे,
देवकर्णयितुं त्वमर्हसि यतो जातोऽसि सर्व सहः ॥ २ ॥ एतावन्तमनेहसं त्वयि विभो ! याऽभूदृछे पुरा,
त्वत्पादाब्जदिया परमयोत्कण्ठा गरिष्ठा मम । भूयो भूय इह त्वदीक्षण विधौ लावण्यवारांनिधे !
सम्प्रति प्रतिदिनं सा वर्द्धते सन्ततम् ॥३॥ गङ्गाऽगान्मरुमण्डले स्थलभुवि प्रादुर्बभूवाम्बुजं.
मध्ये क्षारपयोनिधेः समुदभूत कूपोऽमृताम्भोभृतः । त ध्वान्तौघमये निशीथसमये जज्ञे दिनेशोदयो,
यत्त्वं दृक्पथमागतोऽसि सहसा मेऽत्रापि काले कलौ ॥४॥ निःस्वः स्वर्णनिधिं यथाऽऽप्यं लभते स्वान्ते नितान्तं मुदं, तृष्णाक्रान्त इव प्रपामनुपमां घर्मातुरो वा तरुम् । शीतार्त्ती ज्वलितं हुताशनमिव स्थानं पथो वा च्युत
: स्तद्वत्त्वामुपलभ्य भाग्यवशतो जातोऽस्मि मोदास्पदम् ||५|| श्रीनेमे ! जगदेकनायक ! मुहुस्त्वां निर्निमेषेक्षणं,
पश्यन् श्यामतनुच्छविं जिनवर ! प्राज्यामृतश्रीपदम् । प्रावृट्कालघनाघनाभमनिभं सारङ्गवदङ्गभाग्,
नश्यत्तापतृषामरव्यतिकरः सद्यः प्रपद्ये रतिम् ॥६॥
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जैनस्तोत्र
नि थोऽपि सनाथतामहमगामद्य प्रभो! भाग्यतः,
- सम्प्राप्तेन जगत्त्रयाधिपतिना नाथेन नाथ ! त्वया निष्पुण्योपि शरण्यवसते ! पुण्यैकपूतात्मनां,
धुर्यवाहमभूवमत्र भवतस्ते पादप बेक्षणात् ॥७॥ भूयो जन्मजरामृतिप्रभृतिकक्लेशोर्मिमालाकुले,
भीमेऽस्मिन् भववारिधौ निरवधौ मज्जन्तमेतं जनम् । किंकर्त्तव्यतया विमूढहृदयं हीनं च दीनाशयं,
स्वामिन् ? स्वीयतरीसमाननयनप्रक्षेपतः प्रीणय ॥८॥ गाढागाधभवापगापयसि ही हीनात्मनामग्रणी;
श्रीनेमीश्वर ! पश्यतोपि भवतो मज्जामि मज्जाम्यहम् । तन्मां तारय तारयाशु करुणापण्याऽऽपगाभ! प्रभो!,
नोपेक्षा तव युन्यते यतिपते! विश्वयीतारक ! ॥२॥ यावद्देव ! तव श्रुतोक्तिसरसस्रोतस्विनीश्रोतसि,
क्रीडां क्वापि तनोत्ययं मम मनोमीनोऽतिहीनोद्यमः। रागद्वेषमदादिका बकगणा आदातुकामा इम,
धावन्ति त्वरितं तदैव परितोऽप्येते हहा! दुस्सहाः ॥१०॥ लब्धाप्यत्र भवे तवेश! सुकृतैराज्ञा विहीनात्मना,
स्वाधीनापि मया प्रमादवशतो नाराध्यते हाऽधुना । पश्चाईर्गतिदुर्गकूफ्कुहरावर्त्तप्रपाते प्रभो !,
तत्तदुःखपरम्परापरिगतः स्थाताऽस्मि दुःस्थः कथम् ॥११॥ माधन्मृत्युदवानले अनिजरादुःखौघदुःश्वापदे,
भ्रामं भ्राममनेकधा भववने निस्सीमभीमाजने । श्रान्तोऽत्यन्तमहं महामयमये तत्त्वं जिनेशात्मनः
__ कारुण्याम्बुनिधे ! विधेहि सविधे वासं स्वदासस्य मे ॥१२॥ नेमे ! ज्ञानपदं न वेद्मि किमपि प्रज्ञाप्रकर्षान्झितो,
ध्यातुं ध्यानमपि क्षमो नहि मनःस्थैर्याद्यभावादहम् ।
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सञ्चयः
स्फूर्म-ज्ञाननभोमणिप्रसृमरज्योतिःसमुज्जृम्भिते,
विद्वन्मानसवारिभूरुहवने लीलां वितन्त्रन्नलम् । प्रोद्यत्तालतमालकज्जलकलच्छायैककायद्युते ! ,
श्रीनेमे ! वरचञ्चरीकतुलनामालम्बसे त्वं विभो ! ॥१४॥ कालेऽस्मिन् कलिनामके सुरतरुः स्वर्गाङ्गणं सङ्गतः, . कामं कामगवी न वीक्षणपथेऽप्यायाति केषां क्वचित् । नष्टः कामघटोपि दृष्टिपदवीभ्रष्टश्च चिन्तामणि
स्तेषामेष पदेऽस्ति सम्प्रति भवानैव प्रभो ! भूतले ॥१५॥ एवं मन्दधिया मयाऽपि किमपि स्वामिन् स्तुतेर्गाचरं,
नीतोऽसि स्वमतिप्रकल्पितवचोन्यासैरसारैरपि । त्रैलोक्यैकगुरुं भवन्तमपरं याचे न किञ्चिद्वरं,
किन्त्यका भवदीयपादयुगलोपास्तिदैवाऽस्तु मे ॥१६॥ इतिगिरिगिरिनारोत्तुङ्गशृङ्गावतंसं,
जिनवरमिह नेमि यो जनोऽनन्यचेताः । निजहृदयनभक्तिप्रेरितः स्तौति नित्यं,
शिवसुखमचिरेणाप्यनुतेऽसावनन्तम् ॥१७॥ मालिनी इति श्रीसोमसुन्दरसूरिकृतः श्रीगिरिनारगिरिमण्डनश्रीनेमिजिनस्तवः!
अथ श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथपञ्चविंशतिका (३) ( भुजङ्गप्रयातम् ) स्फुरत्केवलज्ञानचारुप्रकाशं, फणामण्डपाडम्बरोद्योतिताशम् । महाकर्मपङ्कौघनाशे दिनेशं, स्तुवे स्तम्भनाधीशपाच जिनेशम् ॥१॥ प्रभो ! सद्गुणश्रेणिलक्ष्मीनिवास, भवन्तं प्रदत्तान्तरारिप्रवासम् । जगद्वन्द्यपादाम्बुज कोऽस्तहासं, जनः स्तोतुभीष्टे लसद्देवदासम् ॥२॥ महानन्दलीलाविलासैकगेहं, तथापि प्रभो ! किञ्चन त्वां स्तुवेऽहम् । महाभक्ति रागेरितो नीलदेहं, जिनाऽज्ञोऽपि भव्यावलीपूरितेहम् ॥३॥
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जैनस्तोत्र
जय त्वं प्रभो ! प्राप्तसंसारतीर , स्फुरत्पापधूलीप्रणाशे समीर ! । महामानमायावनीसारसीर ! ज्वलत्क्रोधदावानले मेघनीर ! ॥४॥ अहं त्वां निरीक्ष्याद्य जज्ञे कृतार्थः, सनाथीकृताशेषभव्याङ्गिसार्थ । तथा धन्यभावो ममावेश ! जातः, सदा सेवकीभूतदेवेन्द्रजात ॥५॥ ममाद्याऽभवन् नेत्रयुग्मं पवित्रं, महादोषमालातृणालीलवित्रम् । यतो दृष्टमेतद्गुणश्रेणिपात्रं, त्वदीयं मया भाग्ययोगेन गात्रम् ॥६॥ वचः स्यात्तदेवात्र लोके प्रधानं, भवन्तं स्तुते यद्गुणानां निधानम् । मनोपि प्रशस्यं भवेदेतदेव, त्वमानन्दतो ध्यायसे येन देव ! ॥७॥ सदा देवलोके सुरेशा भवन्तं,
मुदाऽभ्यर्चयन्त्यद्भुतज्ञानवन्तम् । तथा पन्नगा नागलोके स्तुवन्ति,
प्रभो ! मर्त्यलोके नरेन्द्रा नुवन्ति ॥८॥ प्रमोदेन येनार्यसे नाथ ! नित्य,
विहाय प्रभाते समस्तान्यकृत्यम् । असौ संसृतौ नो धनं बम्भ्रमीति,
क्षणात् सिद्धिवध्वा समं रमीति ॥९॥ जिन ! त्वां जनो यः सदा तोष्टवीति,
त्रिलोकीस्तुतोऽसौ क्रमाद्वोभवीति । तव ध्यानतः स्वं च यः पोपवीति,
स्वकर्माणि सर्वाण्ययं लोलवीति ॥१०॥ मनो यो विधत्ते तव ध्यानवश्य,
जनोऽयं मनोऽभीष्टमाप्नोत्यवश्यम् । लभेताऽथवा का मितं को न कल्प
द्रुमं संश्रितः पुण्यलक्ष्म्येकतल्पम् ! ॥१॥ महामोहमिथ्यात्वघोरान्धकारे,
प्रभो ! दुष्षमाकालरात्रिप्रचारे ।
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सम्वयः
मया भाग्ययोगेन दीपोपमान
स्त्वमद्याऽसि दृष्टो गुणैर्दीप्यमानः ॥१२॥ तयाऽऽलोकनादेव मे देव ! कष्टं,
समग्रं जिन ! स्तम्भनाधीश ! नष्टम् । प्रभातेऽथवा भानुबिम्वेपि दृष्टे,
तमोजालमा किमु स्थातुमीष्टे ? ॥१३॥ गुणागार ! संसृत्यरण्यान्तराले, .
भवानन्यतीर्थावलीवृक्षजाले । मयेतस्ततो भ्राम्यता सार्थनाथ !,
शिवाध्वन्यवापे भवोधाग्निपाथः ॥१४॥ सुपर्वद्रुमस्वर्गवीकामकुम्भ
स्फुरद्देवरत्नादिका अप्यदम्भम् । न भावा विभो ! दुर्लभाः किनत्वपापं,
त्रिलोकीतले शासनं ते दुरापम् ॥१५॥ तथाभव्यताऽऽदित्यकान्तिप्रयोग
प्रबुद्धेषु विध्वस्तरागादिरोग !। सतां मानसाब्जेषु खेलत्सहेलं,
प्रभो ! भृङ्गसि श्यामलाङ्गाऽनुवेलम् ॥१६॥ त्वदीयोरुमाहात्म्यवन्नाममन्त्र
स्मृतेरप्यनन्ता द्भुतज्ञानसत्र ! । करिव्याघ्रसिंहोरगारातिभूता
धीतिः क्षणात क्षीयतेपि प्रभूता ॥७॥ भवापारवारांनिधौ विश्वनेत
महादु:खनीरेऽन्तरङ्गारिजेतः ! । नृणां मज्जता तारणायोरुकाष्ठ
तरण्डायते शासनं ते गरिष्ठम् ॥१८॥
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जैनस्तोत्र
चरीकर्ति तेऽर्चा जनो यो वरिष्ठा
म्चरीभर्ति भक्तिं च चित्ते पटिष्ठाम् । नरीनर्ति कीर्ति ने तस्य वर्य, .
सरीसर्ति वा चिन्तितं सर्वकार्यम् ॥१९॥ प्रसर्पत्प्रभावस्य तेऽल्पस्य (प्र) भावा,
विभो ! नैव साम्यं श्रयन्तेऽन्यदेवाः । प्रभाभ्राजमानस्य भानोः किमेते,
लभन्ते तुलां तारका अप्यनन्ते ? ||२०११ स्वचित्ताऽऽलवालप्ररूढा वरेण्य
क्रियातोयपूरेण सिक्ता शरण्य !। तवाज्ञामहाकल्पवल्ली जनानां,
फलैः पुम्फुलीतीप्सितैः सज्जनानाम् ॥२१॥ सदाऽचीचरद्देवराजैः स्वदास्य,
तथाऽचीकरयो महेशेन लास्यम् । जनेऽवीवृतत् स्वामिहाज्ञां च काम,
त्वमहन्ननैषीस्तमप्याशु कामम् ॥२२॥ विभो ! कल्पवृक्षस्यभीष्टार्थदाने,
सुधाम्मोदसि क्षेमवल्लीविताने । दिनेशायसे भव्यराजीवचक्रे,
त्वमिन्दूयसे वा सुदृग्दृष्टिचक्रे ॥२३॥ अदीपिष्ट भूमौ भवानीश ! विश्वं,
स्वतोऽबोधि सज्ज्ञानयोगेन विश्वम् । अपूरिष्ट कीर्त्या समस्तं त्रिलोक,
_ तथाऽतायि सुक्ष्मेतरं जीवलोकम् ॥२४॥ श्रीस्तम्भनाभरण ! पार्श्व ! भवन्तमेवं,
प्रातः स्तुते प्रतिदिनं धनवासनो यः ।
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सऊचयः
वश्याः श्रयन्ति भगवन् ! मनुजाधिराज
श्रीदेवसुन्दररमा शिवसम्पदस्तम् ॥२५॥ (वसन्ततिलका) इतिश्रीसोमसुन्दरपूरिभिरेकर जन्यां कृता श्रीस्तम्भनकपार्श्वनाथपञ्चविंशतिका ।
श्रीनवखण्डपार्श्वनाथस्तवः (४) (शार्दूल.) स्फूर्मन्नागफणामणीगणसमुद्भूतप्रभूतप्रभा
भारोद्भामितभमिमण्डलमहं मन्दोऽपि मोहोदयात् । स्वामिस्त्वां नवखण्डपिण्डिततनुं श्रीपार्श्व ! विश्वेश्वरं,
__ घोघासन्नगरप्रधानवसुधालङ्कारभूतं स्तुवे ॥१॥ नागैः संवलितान् निधीन् नव तव स्वामिन्नमून् सङ्गतान् ,
मूतौ खण्डमिषाद्विभिन्नवपुषोऽप्येकात्मतामागतान् , मन्येऽहं यदि चैतदेवमिह न स्यात् तत्कथं प्राणिना- ..
___ मेतेभ्यः परमा रमा निरुपमाः स्युः सर्वदा शर्मदाः॥२॥ स्वर्गस्थानि मतान्यमूनि सुमनोनाथस्य नाऽहिप्रभोः,
पातालालगितानि पन्नगपते! स्वर्गभूमीभुजः । सञ्चिन्त्येति विधिय॑धान्नव सुधाकुण्डानि भूमण्डले,
___मन्ये त्वत्तनुखण्डमण्डलमिषात्तुल्ये तयोः श्रीविभोः ॥३॥ चञ्चच्चारुनवोरुखण्डवपुषस्त्वत्तोऽनिशं सेवकी
भूयाऽऽप्तं नवभिग्रहैरिह महास्वामिन् महीयो महः । जाने तेन विहायसि प्रसृमरस्वज्योतिरस्तापर
ज्योतिर्मण्डलभाः प्रभान्ति भुवने प्रत्यक्षलक्ष्या अमी ॥४॥ विश्वेऽस्मिन्नधुना कलौ विरसतामाप्ते समस्ते विभो !,
लक्ष्याः खण्डमिपान्निराश्रयतया श्रृङ्गारमुख्या रसाः । त्वद्रूपे न्यविशन्नमी शममये श्रित्वा स्वयं शान्तिता,
नो चेत्तद्भविनो विभिन्नरसिनम्तोष त्वयीयुः कथम् ? ॥५॥
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जैनस्तोत्र
विध्वग्दोषाकलुषपरमब्रह्मरूपैकमूर्ते !,
___ स्वामिन् मूर्ति त्वमसमतमज्योतिरुद्योतिताशाम् । स्वीयां बिभ्रन्नवनवमहाखण्डरूपस्वरूपां, स्वस्मिन् नाविर्जनयसि नवब्रह्मगुप्त्यात्मकत्वम् ॥६॥ (मन्दाक्रान्ता) मन्ये नूनं त्वया यद्रिपुत्रलमखिलं रागदोषादिमुख्यं,
जिग्ये देवाऽन्तरङ्गं समरभुवि महातेजसाऽप्येककेन । तेनाङ्गेम्वेपु जातान्यभवत च नवस्वप्यमूनि क्षतानि, प्रत्यक्षं वीसितानि क्षितिमुकुटमहावीरतां व्यञ्जयन्ति ॥७॥ स्रग्धरा नवभ्यः खण्डेभ्यः स्वयमयमुपादाय धरणे
विधाताऽणून सारान् व्यधित नियतं किं किल तनुम् । अभूवंस्तेनाङ्गे तव नव विभागाः पृथगिति, प्रभो ! मन्ये यस्मात्क्वचिदपि न हीरक परवपुः ॥८॥ (शिखरिणी) इति प्रातर्भक्त्या प्रतिदिनमधीते तव नवं,
__स्तवं यः श्रीपार्श्व ! प्रथितनवखण्डाभिध ! विभो ! । नवोदग्रौवेयकमुखमहासौख्यविभवं,
विभुज्यासौ भुङ्क्ते ननु नवभवान्तः शिवसुखम् ॥९॥ इतिश्रीसोमसुन्दररिकृतः श्रीनवखण्डपार्श्वनाथस्तवः ।।
श्रीच्यवनकल्याणकस्तवः साधारणः ॥ (५)(उपजाति.) गर्भाक्तीर्ण भववाड़ितीर्ण, स्तुवे जिनेन्द्रं प्रणतामरेन्द्रम् । पापापनोदत्रिजगत्प्रमोद- हेतु तमोहं गुरुभक्तितोऽहम् ॥॥ स्वद्धा त्रिलोक्यामपि निस्समाना-दिवो विमानान् ननु नाथ ! तस्मात् । कथं महीयं न महीयसी स्यान् ?, निरस्य यद्यां स्वयमाश्रयस्त्वम् ॥२॥ मत्यादिकज्ञानवस्त्रयर्द्धिा यावती पूर्वभवे तवासीत्, गर्भागतस्यापि सहैव साऽऽगात्, सौभाग्यभङ्गी तव काप्यपूर्वा ॥३॥
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सञ्चयः
त्वय्यागते कुक्षिसरो मरालवत , स्वप्नानपश्यज्जननी चतुर्दश । भावित्वदीयोरुगुणश्रियां किल, स्वस्वानुरूपं दिशतः समुच्छ्यम् ॥४॥ नानानिधानानि पदे पदेऽपि, प्रकाशयन् गर्भपदस्थितोपि । भृत्यादिकस्यापि न कस्य कस्य, प्रमोदहेतुर्भगवन्नभूस्त्वम् ? ॥५॥ त्वां कुक्षिकोणे जननी दधाना, सौन्दर्यतेजःसुषमामवाप । यथैव बिभ्रत्यमलाऽभ्रमाला, स्वाभ्यन्तरे दीप्रप्तहस्ररश्मिम् ॥॥ कथं स राजा त्रिजगज्जनानां, न श्लाघनीयोऽनघसर्वभावः ? । वं पूरको विश्वमनोरथानां, प्राप्तोऽवतारं जिन ! यस्य गेहे ॥७॥ महीगृहग्रामपुराकराद्य, तद्वासवस्यापि न किं नमस्यम् ? । त्वयेश ! विश्चैकसुखाकरेण, निजावतारेण पवित्रितं यत् ॥८॥ इन्द्रादिदेवैर्महित: प्रमोदाद, गर्भावतारोऽजनि ते यदाऽर्हन् । आविर्भवद्भरिशुभानुभावा, भूरप्यभद्देव ! तदैव सर्वा
॥९॥ इतिच्यवननामकं जिनवरेन्द्रकल्याणकं,
तव स्तवनगोचरं विनयभक्तिभावादहम् । नयन् न परमैहिकं किमपि नाथ ! नवार्थये,
परं कुरु ममाक्षयं प्रवरबोधिलाभोदयम् ॥१०॥ (पृथ्वी) इति साधारणः च्यवनकल्याणकस्तवः ॥॥
श्रीजन्मकल्याणकस्तवः (६) मुवनमोहनरूपसुसम्पदः, प्रणतवासवमौ लिमिलत्पदः। जनिमहस्तवनेन तव प्रमो!, सफलतां गमयामि निजां गिरम् ॥१॥(द्रुत) तव जन्मनि चेतनावता, कतुकं किं यदि तम्मदः सताम् । चतुरङ्गुलकी मुदश्वसद्य-दचैतन्यवती धरित्र्यपि ॥०॥ (वैतालीयम् ) समिरः सुखकद्ववौ तदा, तरवः फेलुरकाल एव च । अभवंश्च दिशोऽतिनिर्मला-स्तव जन्माननि भारते यदा ॥३॥
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जैनस्तोत्र तव जन्मनि सुत्यऽगारतः, परितो योजनमानभूतले । वरगन्धजलाभिषेचनं, चेलक्नोपमरीरचन् सुराः अभवद्दिवि दुन्दुभिध्वनिः, सुमवृष्टिश्च जनुःक्षणे तक। समलाः सकला जलाशयाः, स्वापः प्रापुरतिप्रसन्नताम् ॥५॥ शिखिनोऽपि च दक्षिणार्चिषो, निखिला जज्वलुरुज्वलस्थिते ।। ऋतवश्च षडप्यवातरन् , वनदेशेषु विशेषतः स्वयम् तव सूतिविधेविधायिकाः, पुरतश्चामरदीपधारिकाः । ददिरे जिन ! शान्तिकारिका, न मुदं कस्य दिशां कुमारिकाः ॥७॥ सकले समकालमेव ते, जनुषि प्रादुरभन्महामहः । त्रिजगत्यथवाऽस्ति वास्तवं, न किमेकं चरितं तवाद्भुतम् ॥८॥ निजकुक्षिसुरत्नधारिकायै, जगदुद्योतकदीपदे ! नमस्ते । इति शंसति यां पुरा तुराषा-डुपमेया तव केन सा प्रसूः स्यात् ? ॥९॥ जनुषा तव ये पवित्रिता, दिनमासाऽयनहायनर्त्तवः जगदेकजयावहा विभो ! सुखदास्तेऽद्य ममापि संस्मृताः ॥१०॥ ददृशेऽशनमम्बयापि ते, नहि नीहारविधिश्च जन्मतः ।। शुचिता भुवनेऽप्यनुत्तरा, यदहो ! स्तन्यमपीश ! नापिषः ॥११॥ तव जनुःसमये जिन ! नारकाः, अपि भवन्ति समे सुखिनः क्षणम् । तदपराऽसुमतां तु किमद्भुतं, ननु सुखानुभवे मुवनेश्वर ! ॥१२॥ द्रुत. तव जनुःस्वपनोदकपावितं, दिविजराजसमाजकृतोत्सवम् । सुरगिरेः शिखरं जिन ! कस्य तन् , न जनयेन्निनदर्शनवासनाम् ॥ १३॥ कनकरूप्यमणीगणबर्षणैः, सुरकृतैस्तव जन्मनि मोदतः । जनकरानगृहाङ्गणभूमिका-ऽभवदिह स्फुटरोहणभूरिव ॥१४॥ वपुषि ते रुधिरामिषमुज्ज्वलं, जिन ! निकाममनामयवर्मणः । श्वसितमप्यनुपाधिसुगन्धि यत् , क इव वास्त्यपरोऽतिशयोऽमुतः ॥१५॥ इतिजनुःसमयस्मृतिहेतवे, तव नवं स्तवनं जिन ! यः पठेत् । विगतविघ्नभरः प्रतिवासरं, स लभते वरमङ्गलमालिकाम् ॥१६॥
इति जन्मकल्याणकस्तवः ॥२॥
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सञ्चयः
अथ दीक्षाकल्याणकरतवः ७ (मुजङ्गप्रयातम्)
स्तुवे चारुचारित्रमार्ग चरन्तं, जने सम्मदाद्वैतमुत्पादयन्तम् । महेन्द्रादिदेवैर्मुदाऽभ्यय॑मानं, जिनं ध्वस्तनिश्शेषभावारिमानम् ॥१॥ जगुर्ये पुरस्ते तपस्यां प्रपित्सोस्तदुत्साहकानीश! वाक्यानि भत्तया पदातिप्रवेका वोद्यद्विवेका, न लोकान्तिकास्ते सुराः कस्य शस्या:?||२|| ददानो महादान मिच्छानुरूपं, मणिस्वर्णदुर्वर्णकुप्यादिरूपम् । प्रनानां प्रभो ! निविशेष सहर्ष, भवे कल्पवृक्षायसे स्मैकवर्षम् ॥३॥ स्थाश्वेभशुद्धान्तपत्त्यादिपूर्ण, परित्यज्य राज्यं सुदुहेचमन्यैः ।। भवान् संयमैश्वर्यमीशोर्यकार्षी-द्विशेषज्ञ ! तेत्थं तवैवात्रभाति ॥४॥ त्वयि प्रस्थिते देव ! दीक्षां जिघृक्षावुदूहुर्मुदोद्भिन्नरोमोद्गमा ये। अहंपूर्विकातो जना याप्ययानं, त एवं स्वकार्येकसिद्धयेकतानाः ॥५॥ मृगेन्द्रासनच्छत्रसच्चामरादि-श्रिया संयमार्थं पुरान्त नस्त्वम् । विमानाधिरूढः प्ररूढाधिकश्री-नतः संस्तुतः प्रेक्षतोऽसीश ! धन्यैः॥६॥ वनं पावन तन् मुने ! यस्य मध्यं, त्वयाऽध्यापि चारित्रलक्ष्मीविवाहे । द्रुभो निस्समोऽसौ महातीर्थयों, तलेऽस्थापस्त्वं निजी यस्य पादो॥७॥ विमुच्या खिलाङ्गाद्यलङ्कारवारं, स्वयं मुष्टिभिः पञ्चभिर्लोचमुच्चैः । सृजन्तं भवन्तं जना येऽभ्यपश्य-नवश्यं दृशःश्लाघनीयास्तदीयाः ॥८॥ स्वयम्बुद्धभावस्य सिद्धप्रणामोत्तरं सर्वसामायिक गृह्णतस्ते । मुदाऽवन्दिषातां पदाम्भोरुहे यैः, सुजन्मान एते ध्रुवं भाविभद्राः ॥९॥ पुरा ज्ञानलब्धित्रयर्या समृद्धं, द्रुतं योगमारूढवन्तं भवन्तम् । स्वसङ्केतहतव तुर्याऽतिवर्या, प्रपेदे मनःपर्ययज्ञामलक्ष्मीः ॥१०॥ यथा केशरोमादिकां सस्क्रियां ते, नरा निर्मिमाणा मुने ! सौवभक्त्या। तपस्यां प्रपन्नस्य साऽस्थात्तयैवेत्यहो! योगमाहात्म्यना तेऽङ्गसिद्धिः ॥११॥ इति नुतिविषयं त्वां यो नयत्यात्मभावा
चरणविधिविधूताशेषकर्मप्रपञ्चम् ।
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१८
जैनस्तोत्रसुलभसुकृतलाभ: सोऽल्पकालादपीश !,
श्यति निहतकर्मा मोक्षसौख्यं सुखेन ॥१२॥ (मालिनी) इति साधारणो दीक्षाकल्याणकस्तवः ॥३॥
अथ ज्ञानकल्याणकस्तवः ८ ( स्रग्विणी )
केवलालोकसङ्क्रान्तविश्वत्रय-स्यैकवाक्याऽस्तनैकप्रजासंशय! । बाढमप्यक्षमाङ्गां निजां गामिमां, गोचरे चारयाम्यद्य ते संस्तुतेः ॥ १॥ ध्यातवांस्त्वं यदा शुक्लभेदद्वयी-मादिमां मोहनीयक्षयकक्षमाम् । आविरासीत्तदा देव ! ते केवलं, प्रातरैन्द्रयां दिशीवांशुमन्मण्डलम् ॥२॥ वर्षमेतन्मुने ! ऽद्वैतहर्ष जने, दत्तदुःखप्रवासः स मासस्तथा । वासरः सौख्यभाभासुरश्चाभवत् , केवलं लेभिषे येषु संवेदनम् ॥३॥ शकचक्रयादिलोकस्य साऽा मही, यामधिष्ठाय शुक्लं भवान् ध्यातवान् । पादपोऽप्येष सङ्ख्यावदर्ग्यः स यच्छायमास्थाय संविच्छ्यिं भेजिवान्।।४।। विश्वमन्तर्गताशेषभावोत्कर, केवलज्ञानतः सर्वतः पश्यतः । गोप्यमन्तर्हितं दूरमभ्यन्तरं, वस्तु नास्त्येव किञ्चित्तवाऽनीक्षितम् ॥५॥ ज्ञानभाजः सुयोगैकरूपात् मनो, जातु माभूत कुयोगोऽस्य किञ्चिद्विभोः । पादभूम्यन्तराले किल स्वर्गिणः, स्वर्णपद्मान्यधुस्तेन ते सर्वदा ॥६॥ विश्वविश्वाधिपत्यैकसंसूचक, प्रातिहार्याष्टकं चैत्यवृक्षादिकम् ।। दैवतैर्देव ! ते निर्मितं भक्तितः, कस्य नाश्चर्यजायते वीक्षितम् ॥७॥ अन्यदेवेष्वदृष्टाश्रुतामद्भुतां, सम्पदं रत्नरैरूप्यवप्रादिकाम् । वीक्षमाणोऽपि हृष्येन् न यस्तावकी-मेष काष्टं दृषन् नाथ ! चञ्चाऽथवा ॥८॥ केऽपि देवाऽसुराः कर्तुमन्यत्र ये, त्वत्समं नाङ्गमङ्गुष्ठमात्रं क्षमाः। . देशनायाः क्षणे तेऽपि रूपत्रयीं, त्वादृशीं तन्वते ते प्रभावादहो ! ॥९॥ देवतिर्यग्नरश्रेणिसाधारणं, पुण्यपीयूषकुल्यैकतुल्यं विभो !।। वाक्यमायोजनागामुकं तावकं, कं न कुर्यात् समुत्कर्णमाकणितम् ? ॥१०॥
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सञ्चयः
नूनमासन्नमोक्षा इपा द्वादश, स्युर्न कस्य प्रभो ! हर्षदाः पर्पदः !! या मुखालोकने देशनाकर्णने, दत्तचित्तोपयोगाः पुरस्ते स्थिताः ॥११॥ हस्तिसिंहं मृगव्याघ्रबभ्ररगं, श्वैणरक्ताक्षताक्खुमार्जारकम् । मुक्तवैरं मिथः स्नेहभृत्त विभो ! देशनासद्मगं के न चित्रीयते ? ॥१२॥ योजनोर्वी मिते देव ! ते स्थानके, मान्ति तिर्यग्नदेवा असङ्ख्या अपि। वागतिक्रान्तमाहात्म्यभाजस्त-तादृशामद्भुतानां न सङ्ख्याऽस्ति वा॥१३॥ त्वां नमन्ति द्रुमाः सर्व एवर्त्तव
श्चाश्रयन्त्याशुगा वान्ति पृष्ठानुगाः । पक्षिणो दक्षिणं यान्ति देवाऽखिलाः,
कण्टकाः स्युस्तयाऽधोमुखास्तेऽध्वनि रोगदुर्भिक्षमारीतिराजोद्भवा, नोद्भवन्ति प्रजानामिहोपद्रवाः । योजनानां सपादे शतेऽवस्यिते, त्वय्यहो! ध्वान्तसङ्घा यथोष्ण तौ॥१५॥ श्रीगणाधीश्वराणां त्रिपद्यर्पणात् , त्वं जगन्नाथ ! तीर्थप्रवृत्तिं यदा। आतनोषि स्म विस्मापितेन्द्रवन, भूरशेषा चभासे सनाया ततः ॥१६॥ इत्येवं केवलश्रीरभसभरसरीरम्भलाभाप्तशोभ,
भक्तिप्रवामरेन्द्रासुरनरनिकरारब्धपादाब्जसेवं । देवं यः स्तौति भक्त्या प्रतिदिवसमसौ पञ्चमज्ञानलक्ष्मीलीलासौख्यानि भुक्त्वा परमपदसुखान्यप्यवाप्नोति तूर्णम् ॥१७॥ (स्रग्धरा)
इतिज्ञानकल्याणकस्तवः ॥ ४ ॥
अथ श्रीनिर्वाणकल्याणकस्तवः १ (स्व.गता)
प्राप्तमुक्तिवनितामुखसङ्ग, ध्वस्तकर्मपटलं विकलङ्कम् ।
रूपगन्धरसहीनमनन्त, श्रीजिने नुवतिकर्म करोमि ॥१॥ मुक्तिमाश्रितवति त्वयि नाथे, भूरियं जिन ! बभूव गतामा ।
अस्तमाप्तवति भास्वति किं नो, द्यौर्भवेद् गलितकान्तिविताना ॥२॥
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जनस्तोत्र
देव ! मुक्तिललना सुखलिप्सो-र्यत्र तेऽनशनमीश ! किलाssसीत् । तत्पदं तव पदैः परिपूतं, पूजनीयमिह कस्य न विश्वे ? ॥३॥ वीतराग ! तव निर्वृतिकाले, त्वद्वियोगजनितातुलदुःखात् ।
एककालममरासुरनृणां कन्दनध्वनिरभूदनिवारः देव ! दूरतरमुक्तिपदं ते, केवलार्ककलितस्य गतस्य ।
व्यानशेऽन्धतमसैः समकालं, विश्वमेतदखिलं क्षणमात्रम् 11311 त्वद्विजास्थि शुचि निर्जरराजो, मामहुर्मुहुरहो ! अधिनाकम् | भस्मरत्नमपि देव ! तनोस्तं, नाऽऽपि राजभिरपीह महार्घम् ॥ ॥ आपतद्भिरभितः परियद्भिर्देवदानवसुरी निकुरुम्ने: ।
२०
॥४॥
मोक्षपर्वरजनी तव जज्ञे, केवलघुतिमयी सकलाऽपि तीर्थकृत्तकमला विमलाऽपि त्यज्यते स्म भवता गतरूपा ।
॥९॥
>
आता सपदि सिद्धिवधूः किं, विज्ञता तव विभोऽभिनवेयम् ||८|| नैव जन्म न जरा न च रोगाः, क्षुत्तृषामृतिमुखा अपि भावाः । क्षिप्तकर्मपटलस्य कदाचिद्देव ! निवृतिगतस्य तत्र स्युः सिद्धिसौधमधिरूढवतस्ते, ज्ञानदर्शन बलप्रमदानाम् । सम्पदोऽनुभवतोऽखिलकालं, नान्तरं जिनपतेऽस्ति न चान्तः ज्ञानतोऽनवरतं जगदेतन् निर्वृतौ तव सुखं यदनन्तम् । लेशतोऽपि बत तस्य समस्ते, नास्ति विष्टपतलेऽप्युपमानम् सिद्धबुद्धपरिनिर्वृतमुक्त क्षीणदुःखकृतकृत्य मुखास्ते । संस्मृता बहुविधा अभिवाः स्युः, पापपङ्कविगमाय न केषाम् ? ॥ १२॥ इति विशृङ्खलयाऽपि गिरा मया, जिन ! नुतोऽसि महोदयमाश्रितः । स्वमिह तत् कुरु येन जिनेश ! मे, भवति ते पदवी नदवीयसी ॥१३॥ इति श्रीजिननिर्वाणकल्याणकस्तवः ॥५॥
कृताः पञ्चापि स्तत्राः तपागच्छेन्द्र श्रीसोमसुन्दरसूरिपादैः ॥
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॥ १० ॥
॥ ११ ॥
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सञ्चय:
अथ साधारणः श्रीजिनकल्याणकस्तवः २ (उपजातिः) कल्याणकारीणि जिनेश्वराणां, पञ्चापि कल्याणदिनानि वन्दे ।
आह्लादिताशेषजगज्जनानि, महोत्सवाद्वैतरमामयानि ॥१॥ हारप्रक्लप्तोत्सववन्दनप्रसू-सुस्वप्ननिध्यागमसचितोदयम् । गर्भागमाख्यं निखिलार्हता सतां, कल्याणकं यच्छतु मोदमादिमम् ॥२॥ जगत्त्रयोद्योतनमिन्द्रनिर्मिताभिषेचनं नारकलोकशर्म च ।
इत्यादिभावैर्मुक्नाद्भुतैर्युत, श्रीजन्मकल्याणकमर्हतां स्तुमः ॥३॥ संवत्सरोत्सर्जनविश्वतोषण-लॊकान्तिकामर्त्यप्तभक्तिभाषणैः । सम्प्राप्तशोभं शित्रिकादिकैस्तथा, जिनेन्द्र ! दीक्षादिनमस्तु नः श्रिये ॥४॥ चतुनिकायामरनिर्मितस्फूरत्-सत्प्रातिहार्यातिशयर्द्धिवन्धुरम् । साऽलोकलोकाकलनैककौशले, हेतुर्जिन! ज्ञानदिनं सुखाय नः ॥५॥ ऐकान्तिकात्यन्तिकसौख्यभाजनं, ज्ञानाद्यनन्तर्द्धिचतुष्टयान्वितम् । येष्वहतां सिद्धपदं बभूत्र तान् , स्मरामि निर्वाणदिनान्मुदा सदा ॥६!! तीतादिकालत्रितयेऽखिलाहता, श्रीभारतैरावतभाविनां सना । गर्भादिकल्याणकाञ्चके ध्रुवान् , स्मरामि मासोडुतिथीन् यथाक्रमम् ॥७॥ कल्याणकानामिति ये नवं स्तवं, दिने दिन पापठति प्रमोदतः । तेषामशेषाः सुखसम्पदोऽद्भुता, भवे भवे बोभुवति प्रभास्वराः ॥८॥
इति साधारणः श्री जिनकल्याणकपञ्चकस्तवः । कृतिः श्रीसोमसुन्दरपूरिपादानामियम् ।।
... श्रीजिनकल्याणकदिनस्तुतयः (३)
यहोगतः शम्भवतीर्थनाथः, सत्केवलोद्योतरमामवाप । मा पञ्चमी कार्तिकमास आसीत , श्यामापि शुक्ला सुतरां कयं न ? ॥१॥
इन्द्रवज्रा
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जैनस्तोत्र द्वादश्यशुक्लाऽपि किलोमासः प्रासाधि जन्मच्यवनोत्सवाभ्याम् । याभ्यां निजाभ्यां जिननायको तौ, नमामि पद्मप्रभनेमिनाथौ ॥२॥ उप: यद्वा- निजच्यवनजन्मभ्यां, कार्तिकद्वादशीश्चियम् । श्यामाप्यऽलाम्भ याभ्यां तो, नैमिपद्मप्रभौ भजे ॥२॥ पथ्यावयत्रम् पविविता येन सितेतरा व्रतस्वीकारतः कार्तिककत्रयोदशी । तत् सर्वशुद्धेति दधे प्रथां नु सा, सर्वापि पद्मप्रभमानमामि तम् ॥३॥
इन्द्रवंशा उपजातिः यन्मोक्षपर्वप्रभवेन दीपोत्सवेन, वैशद्यमिता जिगाय । राकाः कुहः कार्तिकस्य सर्वाः, सार्वःस वीरः शिवतातिरस्तु ॥४॥ उपजातिः बाहुलस्य धवले तनीयके, सत्तियावतिथिताऽऽप्तकेवलम् । विश्वविश्वजनताहितावहं, श्रीजिनं सुविधिमर्चयाम्यहम् ॥५॥ रथोद्धता कार्तिकस्योज्ज्वलद्वादशीवासरे, केवलज्ञानमासादयामास यः । स्फातिमत्प्रातिहार्यातिशेषश्रियं, श्रीअरं सादरं तं स्मरामीश्वरम् ॥६॥
स्रग्विणी । कार्तिकः १ ॥ कर्पूरगौरवपुषः सुविधेर्जिनस्य,
___या जन्मनोऽजनि जगत्सुखदस्य की । मा पञ्चमी शितिसहस्य कथं नमस्या,
न स्यात् सुरासुरनृणां जननीव रामा ? ॥७॥ वसन्ततिलका सुविधि विधिवत् स्तुमो जिनं, नवमं येन जगन्नवं कृतम् । निजमयमराज्ययोगतः सहषष्ठीदिनमाद्यपक्षगम् ॥८॥ बैतालीयम् मार्गकृष्णदशमीदिने शमी-भावमाप्तमहमाप्तमन्तिमम् ।। ज्ञातनन्दनमनन्तसंविद, दम्भवर्जितहृदा मुदा स्तुवे ॥९॥ रथोद्धता प्रभु पद्मरागप्रभ देवपद्म-प्रभं भग्नसर्वान्तरारातिगर्वम् । सहस्यासितकादशीप्राप्तमोक्षं, सुखज्ञानसाम्राज्यमाज भजेयम् ॥१०॥
भुजङ्गप्रयातम्
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सञ्चयः
२३
येन जन्मशिववम॑गमाभ्यां, भूषिता किल मणीवलयाभ्याम् । मार्गशुक्लदशमी रमणीव, श्रीअरो भवहरोऽस्तु ममाऽसौ ॥११॥ स्वागता श्रीमल्लिजन्मवतकेवलानि, तथा नमिक्षानमरत्रतं च । यस्यामनायन्त सिता सहस्य, सैकादशी म्यान्नहि कस्य शस्या ! ॥१२॥
उपजाति: मार्गमासि विशदा चतुर्दशी शम्भवस्य जनुषाऽहंतोऽननि । इन्द्रवृन्दमहिता हितोल्लसन् - नारकावधिजगज्जनोत्सवा ॥१३॥ रथोद्धता सा मार्गशीर्पस्य कथं न राका, स्याच्चित्रकृचत्र बभूव भाग्यात् । गुणैदः संयम एव मुक्ते-निवन्धनं श्री जिनशम्भवस्य ॥१४॥
उपजातिः। मार्गशीर्षः ॥२॥ यत्राश्वसेननरनाथगृहं महर्या,
स्वागमेन च जितत्रिदिवं विरेजे। सा पौषकृष्णदशमी जिनपार्श्वनन्म
_पूता पवित्रयतु मानसमस्मदीयम् ॥१५॥ वसन्ततिलका राज्य परित्यज्य बभार सारं, पाधो जिनो यत्र चरित्रभारम् । पौषस्य कृष्णामपि पुण्यरूपामेकादशी तां मनभा स्मरामि ।।१६।। इन्द्रवजा तैषस्याद्यद्वादशीलब्धजन्मा,
योऽभद्भमेkषण भारतस्य । सेबे द्युत्याऽपास्तचन्द्रप्रभस्ये,
त्यस्यांही श्रीदेवचन्द्रप्रभस्य ॥१७॥ शालिनी पौघमास्यविशदत्रयोदशीप्राप्तसंयमरमासमागमम् । अष्टमं जिनमहा (था)ष्टकर्मभीवा रणं शरणमाश्रथाम्यहम् ॥१८॥ रथोद्धता चतुर्दशी शीतलकेवलाप्त्या,
पोषस्य कृष्णाऽसुमतां मताऽभूतु । मन्ये ततः सर्वजनेऽपि भते
ष्टेति प्रसिद्धा सकलाऽ प माऽऽसीत् ॥१९॥ उ जातिः
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२४
जैनस्तोत्रपौषे जनसौख्यपोषके, सितषष्ठीदिनलब्धकेवलम् । विमलं सकलज्ञशेखरं, वरभक्त्या समुपास्महेऽन्वहम् ॥२०॥ वैतालीयम् पौषशुक्लनवमीदिनलब्धप्राज्यकेवलमहोमहिमाढ्यः । शान्तितीर्थकर ! किंकरतां ते, सर्वदेव भगवन् करवाणि ॥२१॥ स्वागता पौषशुक्लैकादशीलब्धजन्मा, यस्य प्रोद्यत्केवलज्ञानभानुः ।। तुर्यारस्यादीदिपन् मध्यमार्ग, द्वैतीयीकस्तीर्थनाथः स जीयात् ॥२२॥
शालिनी सहस्यशुक्लकचतुर्दशीज, यज्ञानतेजः सकलां त्रिलोकीम् । अपूपुरत् संवरराजजन्मा-ऽभिनन्दनस्तुर्यजिनः स नोऽव्यात् ।। २३ । उप० या श्रीमतो धर्मनिनश्वरस्य, तं ज्ञानचन्द्रं प्रकटीचकार । गम्यो न योऽम्भोदविधुन्तुदादे-स्ता पौषराकामिह कामयेऽहम् ॥२४॥
इन्द्रवज्रा । पौषः ॥३॥ माघस्य षष्ठ्यां विशदेतरस्यां, यत्रावतीर्णो युगपच्चकार । हर्ष विषादं च भुवो दिवश्व, पद्मप्रभ तं प्रमुमाद्रियेऽहम् ॥२५॥ श्रीशीतलः स्वीकृतवान् द्वयोः स्व-कल्याणयोर्जन्मतपस्ययोर्याम् । सा द्वादशी श्यामतमा न माघी, मान्या भवेत् कस्य सचेतनस्य ? ॥२६॥
इन्द्रवज्रा असिता तपसस्त्रयोदशीयं, शिवहेतुर्भवति स्म यस्य नेतुः ।। दशसाधुसहस्रसंयुतस्य, प्रथमः तीर्थपतिः पृणातु सोऽस्मान् ।२७॥
॥ औपच्छन्दसिकम् ॥ यत्केवलज्ञानरमाप्रयोगादमाऽपि माघस्य बभूव सश्रीः ।। एकादशस्तीर्थकरो नराणामेकां शुभामेव दशां स दिश्यात् ॥२८॥
उपजातिः यत्र जातमभिनन्दनजन्म, ज्ञानमाप वसुपूज्यसुंतश्च । सा द्वितीयकतिथिः सितमाघे, नित्यमेतु मनसोऽतिथितां मे
इन्द्रवज्रा
॥२९॥
स्वागता
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सञ्चयः
विमलधर्म जिनेश्वरयोर हो !, जनिमहोऽजनि यत्र महाद्भुतः । सुविशदा तपसोऽस्तु तृतीयिका, तिथिरसौ शिवसौख्यनिबन्धनम् ॥ ३० ॥
द्रुतविलम्बितम्
२५
पक्षे वलक्षे तपसश्चतुर्थी - दिने मुनित्वं प्रतिपन्नवान् यः । श्यामाङ्गभूः श्रीकृतवर्म भूप-कुलप्रदीपो विमलः स जीयात् ॥३१॥ उपजातिः
जितशत्रु क्षितिपालला लिताऊं, विजयाकुक्षिसरोजराजहंसम् | अजित माघसिताष्टमीन्द्रवृन्द- प्रकृतप्राज्यजनुर्महं महामि ॥३॥ औषच्छन्दसिकाऽपरान्तिका
माल्य शुक्लनवमीदिवसे विसृज्य, राज्यं चरित्रकमलामुररीचकार । यः स्वर्ण वर्णवपुरङ्कगहस्तिमलः, शैवं सुखं स तनुतामजितो जिनो नः ॥ ३३ ॥ वसन्ततिलका
तपोद्वादशीवासरे शुक्लपक्षे, परिव्रज्य निर्ग्रन्थनाथो य आसीत् । जिन संवरक्ष्मापजन्मा तुरीयः, स आर्यस्तपो वर्यवीर्य वितर्यात् ॥ ३४॥ भुजङ्गप्रयातम्
माघमासविशदत्रयोदशी - वासरे समजनिष्ट यो व्रती, भानुभूपतिकुलाभ्रभानुमान्, धर्मतीर्थकर एष शर्मणे
113411 रथोद्धता | माघः ४
फाल्गुने बहुलषष्ठवासरे, ज्ञानरत्नमुदपादि पञ्चमम् । यस्य शस्यमहिमाम्बुधैर्दधे, तं सुपार्श्वजिनमात्ममानसे || ३६ || रथोद्धता | सप्तमाष्टमजिनावत्रापतुर्यत्र मुक्तिपद केवल श्रियौ । फाल्गुनस्य शितिपक्षसप्तमी, सा प्रमोदपदवीं न कं नयेत् ?
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॥३७॥
रथोद्धता
तपस्य मासस्य सिते तरस्यां, जातं द्युलोकच्यवनं नवम्याम् । स्वबोधये श्रीसुविधिं जिनेन्द्र, ध्यायामि शुद्धात्मवपुः स्वरूपम् ॥३८॥
उपजातिः
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जैनस्तोत्र
यैकादशी फाल्गुनिकस्य कृष्णा, सत्केवलज्ञानसमृद्धिलाभे। नाभेयदेवस्य निदानमासी-दाराधयेत्तां खलु धन्य एव ॥३९॥ इन्द्रवज्रा श्रीसुव्रतस्याजनि केवलश्रीः, श्रेयांसनाथस्य जनिश्च यस्याम् । सा द्वादशी फाल्गुनमासि कृष्णा, मुष्णातु तृष्णातुरतां नतानाम् ॥४०॥
इन्द्रवजा मासे तपस्ये बहुलत्रयोदशी-गृहीतचारित्रभरं जिनेश्वरम् ।। श्रेयांसनामानममानमत्सरं, भुजिष्यवनिर्भरभक्तितो भजे ॥४१॥ उपनातिः फाल्गुनासितचतुर्दशी तिथौ. देवक्तृप्तननिमज्जनक्षणम् । पूजयामि वसुपूज्यनन्दनं, पापतापशमनैकचन्दनम् ॥४२॥ रथोद्धता यः प्राबाजीत् फाल्गुने कृष्णपक्षे-ऽमावास्यायां विश्वरक्षकदक्षः । तस्य श्रीमद्वासुपूज्यस्य नाम-स्मृत्या नित्यं स्वं कृतार्थीकरोमि ॥४॥
शालिनी तपस्यस्य शुक्लद्वितीयादिने द्यो- वं भारती भूषयामासिवान् यः । अरं पारंग सर्वसंसारवाड़े-दधे ध्यानमार्गे सुवर्णधुर्ति तम् ॥४४॥
. भुजङ्गप्रयातम् धराधीशकुम्भप्रभावत्यपत्य, जिन मल्लिनामानमानौमि नित्यम् । चतुर्थी तिथौ फाल्गुने शुक्लपक्षे, क्षपाढे दिवोऽत्रावतीर्णो भुवं यः॥४५॥
भुनङ्गप्रयातम् तपस्यमासस्य सिताष्टमी सा, न कं जनं प्रापयति प्रमोदम् । श्रीशम्भवो यत्र जितारिभूप-वंशेऽवतारं रघयाञ्चकार ॥४६॥ उपजाति: तपस्यस्य सद्द्वादशी सा द्वितीया-ऽद्वितीयैव यत्रेति कल्याणयुग्मम् । शिवं मल्लिरेकोनविंशो जिनेशश्चरित्रश्रियं सुव्रतश्चाप विंशः ॥४७॥
: भुजङ्गप्रयातम् ॥ फाल्गुनः । श्लाघ्यैव कृष्णापि मधोश्चतुर्थी, पार्श्वश्च्युतिज्ञानमहात्मकेन । निजेन कल्याणयुगेन यत्रा-वातीतरत् स्वर्गरमामिहोाम् ॥४८॥ उप०
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सञ्चयः
चैत्रे शितौ पञ्चमिकातिथौ यः, श्रीलक्ष्मणाकुक्षिमलञ्चकार । चन्द्रप्रमः श्रामहसेनभूप-कुलाब्जहंसः स सतां श्रियेऽस्तु ॥४९॥उपनातिः कृष्णचैत्राष्टमीजातजन्मव्रतं, दर्शितन्यायधर्मव्यवस्थं धुरि। नाभिराजाङ्गजन्मानमाद्यं जिनं, ध्यानसेवानमस्कारमार्ग नये ॥१०॥
स्त्रग्विणी यस्य शुक्ल मधुमामतृतीया-वासरे विमलकेवलमासीत् । तस्य सप्तदशकुन्युजिनेन्द्र-स्यां हियुग्ममहमन्वहमीडे ॥५१॥ स्वागता धवलचैत्रिकमासगपञ्चमी-समुपजातमहोदयसङ्गमान् । अजितशम्भवतीर्थपती तथा, जिनमनन्तमपि प्रणिदधमहे ॥५२॥
॥ द्रुतविलम्बितम् ॥ चैत्रशुक्लनवमीसमवाप्ता-नन्तमोक्षसुखसङ्गममीशम् । शीलयामि सततं सुमतिं श्री-मङ्गलोदरदरीहरितुल्यम् ॥५३॥ स्वागता चैत्रिकैकादशी सा सिता नो मता, कस्य यस्यामसौ पञ्चमस्तीर्थकृत् । मेघभूपाङ्गभर्भूतलप्रीतिदः, केवलज्ञानलक्ष्मीमुपा द्विभुः ॥५४॥स्रग्विणी मधुमाससितत्रयोदशी-रजनीजातजनुर्महामहम् । त्रिशलातनयं नयाम्यहं, जिनमन्तर्मनस सुवर्णभम् ॥५५॥ वैतालीयम् यस्त्रां सुसीमाधरराजनन्दनः, पद्मप्रभो ज्ञानमवाप पञ्चमम् । . सा पौर्णमासी मधुमासमण्डनं, विखण्डनं नो वितनोतु कर्मणाम् ॥१६॥
उपजातिः। चैत्रः ॥६॥ वैशाखकृष्णप्रतिपत् पवित्रा, कथं न यत्राऽजनि मोक्षलक्ष्मीः । श्रीकुन्थुनाथस्य सुवर्णकान्तेः, श्रीसुरराजेन्द्रतनूद्भवास्य ॥१७॥
इन्द्रवजा उपनातिः यो राधमासस्य शितौ द्वितीया-दिने महानन्दपदं प्रपेदे । श्रीशीतलं भूतलतायिन तं, नन्दातनूज परिपूजयामि ॥५८॥ उपजातिः स्त्रयशसा पृथवे जिनकुन्थवे, नृपतिपूरसुताय नमो नमः । असितमाधवपञ्चभिकातिथौ, य उदुवाह महाव्रतसम्पदम् ॥१९॥
॥ द्रुतविलम्बितम् ॥
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जैनस्तोत्र
वैशाखषष्ठ्यां बहुले धुलोकान् , नन्दोदरे योऽवततार सारे । श्रीशीतलः कोपढ़वानलेन, प्लुष्टं जगच्छीतलयत्वलं सः ॥६॥इन्द्रवज्रा राधकृष्णदशमी नमनीया, सा न कस्य विदुषः पुरुषस्य । या मुनि नमिजिनं शिवपुर्या, वर्यराज्यपदभाजमकार्षीत् ॥६॥स्वागता माधवस्य बहुलत्रयोदशी-जातजन्ममहिमं महाधतिम् । सिंहसेननृपनन्दनं नमः, कर्मतां जिनमनन्तमानये ॥६२॥ रथोद्धता ( अनन्तो व्रतं केवलं चाप यत्रामलं,
तथा कुन्थुनाथो जिनो जन्मकालोत्सवम् । इह त्रीणि कल्याणकान्येवमासन्भुदे चतुर्दश्यशुक्लाऽपि सा माधवी वः श्रिये ॥३॥
॥शक्वों छन्दोविशेषः) । चतुर्दश्यशुक्ला मुदे माधवीया, विकल्याणकीयं बभु(वे)ति यस्याम् । अनन्तो व्रतज्ञानलक्ष्म्याववापत् , तथा कुन्थुनाथो जनेरुत्सवं च ॥६३॥
. ॥ भुजङ्गप्रयातम् । यः शुद्धराधस्य तिथौ चतुर्थ्या, श्रीसंवरक्ष्मापकुलेऽवतीर्णः । सुवर्णवर्णः स भिनत्तु भूयो, भयं भवार्तेरभिनन्दनो वः ॥६४॥ उपजातिः सप्तमी सपदि माधवमासः, प्रीतिदा न न भवेदवदाता । यत्र धर्मपरमेष्ट्यऽवताराइ, भानुभूपकुलमु ज्वलमासीत् ॥६५॥ स्वागता वैशाखे विशदाष्टमीदिन यौ, लेभाते जननोत्सवं शिवं च । सुमतिश्री अभिनन्दनौ जिनौ तौ, तनुतामातनुतां ममाघराशेः ॥६६॥
औपच्छन्दसिकाऽपरान्तिका । राधशुक्लनवमीदिवसे यो-ऽशिश्रियच्चरणभारमुदारम् । मेघराजतनुमः स जिनेन्द्रो, न्यत्करोतु सुमतिः कुमतीन:
स्वागता वर्द्धमानजिनराट् चरणद्धि, नेनयीतु चरमः परमां नः । माधवस्य विशदा दशमी यं, प्रापयत् प्रवरकेवललक्ष्मीम् ॥६८॥ स्वागता
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सञ्चयः
राधमाससितपक्षगता सा, द्वादशी शमयताद्दरितं वः । श्रीमती वसुमती विमलम्या-भूद्दिवच्यवनपर्वणि यस्याम् ॥६९। स्वागता त्रयोदशीमाधवमाससत्का, सित सतां संतनुतां मतिं सा । * यत्राजितः श्रीजितशत्रुभूप-कुले झुलोकादुपपादि देवः ॥७ ॥
उपजातिः वैशाखः । ज्येष्ठे मासे कृष्णे पक्ष, षष्ठयां गर्भोत्पत्तिर्यस्य । विष्णो रायाः कुक्षौ देवं, श्रेयांसं तं नित्यं सेवे ॥७१॥ विद्युन्माला ज्येष्ठाष्टम्यां कृष्णपक्षे यदीयं, जज्ञे जन्माऽऽखण्डलश्रेणिपूज्यम् । श्रीमन्तं तं सुत्रतं तीर्थनार्थ, पद्मासूनुं नूनमाराधयामि ॥७२॥ शालिनी ज्येष्ठमासनवमी दिनसिद्ध, श्रीसुमित्रनरराजतनूजम् । कूर्मलाञ्छनमतुच्छतमाल-च्छायकायमपमत्सरमीडे ॥७३॥ स्वागता ज्येष्ठमासबहुलत्रयोदशी-जातजन्म महनिर्वृतिक्षणः । प्रार्थितार्थघटनासुरद्रुमः, शान्तितीर्थपतिरस्तु शान्तये १७४॥ रथोद्धता नमत शान्तिजिनं कनकाति, दुरितसन्ततिशान्तिकहेतवे । बहुलपक्षगशुक्ल चतुर्दशी, व्रतमहारमया यमरीरमत्
द्रुतविलम्बितम् ज्येष्ठमासि प्सितपञ्चमी तिथौ, मौक्तिकं फलमुपायत् किल । ज्ञानलक्ष्मिसमलङ्कृतेः कृते, यः स धर्म निनराड् विजेजिताम् ॥७॥
रयोद्धता ज्येष्ठस्य शुक्ला नवमीतमी यं, दिवोऽवतार्याऽऽर्यममू मुदतक्ष्माम् ।। श्रीवासुपज्यो वसुषज्थसूतु-निनः प्रनालद्युतिरेष जीयात् ।।७७॥ उपनातिः द्वादश्यां सितशुक्लमासगायां, जन्मानायत यस्य विश्वशस्यम् । श्रीपृश्वीनृपतिप्रतिष्ठमनुः, स सतां यच्छतु वाञ्छितं सुपार्श्वः ॥७८॥
. औपच्छन्दसिकाऽपरान्तिका * वरं वृणीने म्म चरित्रलक्ष्मी-र्यस्यां प्रशस्य विमलं सुरेशैः इति प्रत्यन्त
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ज्येष्ठमासविशदत्रयोदशी, यं युयोज चरणश्रिया वरम् । श्रीसुपार्श्वजिनराट् सप्तमः, सत्तमां गतिमयं ददातु नः
॥७९॥
रथोद्धता । ज्येष्ठः
आषाढपक्षे बहुले चतुर्थ्यां यस्याऽऽगमाद् भारतभूभ से । श्रीनाभिभूपालकुलावतंसः, श्रीआदिदेवस्तनुतां शिवं सः ||८०|| इन्द्रवज्रा मासे शुचावसितसप्तमी दिने, ये मोक्षसौख्यपदवी समीयुषी । विश्वेश्वरं विमलमातनोमि तं ध्यानाधिरूढमनिशं मनोऽन्तरे
नवमीदिवसे शुचितिपक्षे, तपसः कमला यमलमकार्षीत् । विजयक्षितिपामलकुलदीपं, नमिमिन्द्रनतं नमत जिनं तम्
जैनस्तोत्र
श्रावणमासे कृष्णतृतीया-वासरलब्धानन्तशिवर्द्धिः । विष्णुसुतः श्रीतीर्थकर, श्रीमोक्षसुखं नम्राङ्गेषु देयात्
9
निजावतारात् शुचिशुक्लषष्ठ्यां, तुर्यारकप्रान्तमदीदिपद्यः । श्रीवर्द्धमानः परिवर्द्धमानाः, स सम्पदो यच्छतु वाञ्छिता वः ॥ ८३ ॥ उप० शुक्लाष्टमीप्राप्तशिवं शुत्रौ तं शैवेयदेव स्त्रशिवाय सेवे । मौक्तिक्यभूयो यदुराजवंशे, नैर्मल्यविभ्राजि सुवृत्ततादृयः॥८४॥ इन्द्रवज्रा आषाढमासस्य वलक्षपक्षे, चतुर्दशीजातमहोदयश्रीः । श्रीवासुपूज्या जगदेकपूज्यो, जिनातु दुष्कर्मपरम्परा नः
॥ ८५ ॥
॥ उपजातिः | आषाढः ॥
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॥ ८१ ॥ ललिता
॥८२॥
जगत्यां छन्दोविशेषः
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॥८६॥
॥ रुक्मवती चम्पकमाला वा ॥
नमसोsसितसप्तमीं स्तुवे, चत यत्राऽऽप्तमनन्तनामकम् । सुयशा निजकुक्षिकोणकेप्यवरन्मेरुगिरेर्गुरुं गुणैः ||८७|| वैतालीयम् ॥ श्रावणेऽष्टमतियावसितायां, मेरुमूर्ध्नि जननोत्सवमाप्तम् ।
* वप्रया घृतमिन निजकुक्षौ, श्रीनमि नमतिकर्म करोमि ॥ ८८ ॥ स्वागता
भूषणं विजय भूपकुलस्य इति प्रत्यन्तरे ||
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सञ्चयः
३१
स्वस्तश्युतिः श्रावणकृष्णपक्षे, तम्यां नवम्यामरिहस्य यस्य । तं कुन्थुनाथं नृपसूरराज्ञी-श्रीपुत्रमाराधयत त्रिकालम् ॥८९॥ इन्द्रवज्रा श्रावणस्य सितया द्वितीयया, सिंहवद्य इह मेघभूपभूः ।। मङ्गलोदरदरीमवातरत् , सन्मति स सुमतिस्तनोतु नः ॥९०॥ रथोद्धता पञ्चमी नभसि मासि मिता सा, मानसं मुदमवापयतान् मे। नेमिनोन्नतिमनीयत यस्यां, जन्मना यदुकुलं निनकेन ॥११॥ स्वागता यः प्रावाजीत् श्रावणे शुक्लषष्ठयां, मुक्त्वा राज्यं राजमत्या सनाथम् । नेमिः स्वामी श्यामलच्छायकायो, मायामुक्तं स्वं पदं स प्रदेयात् ॥९२॥
शालिनी अश्वसेनतनयं विनयेना-नौमि कामितफलाप्तिसुरद्रुम् । श्रावणस्य विशदाष्टमघस्ने, यो विमुक्तिसुखसङ्गममाप ॥९॥ स्वागता धोर्यश्चयुत्वा श्रावणे पौर्णमास्यां, पद्माकुक्ष्यम्भोरुहे हंसति स्म । देवः स श्रीसुवतः स्वांहिप , नित्यं दद्याच्चञ्चरीकवतं मे ॥१४॥
शालिनी । श्रावणः १० भाद्रमास्यऽसितसप्तमीदिनं, स्यान्न कस्य ननु सम्मदास्पदम् ? ! यत्र षोडशजिनो दिच्यु(श्च्य)व, मोक्षमष्टमजिनोऽप्यवापतुः ॥९॥
रथोद्धता भाद्राष्टम्यां बहुळगतायां, स्वर्गाद्भूमौ समवततार यः । स श्रीमान् जयति सुपार्थः, पृथ्वीसूनुः कनकनिभाङ्गः ॥९६॥ मत्ता । शुक्लनवम्यां भाद्रपदस्या-गाधभवाब्धेः पारमगाद्यः । भानुसमानं भुवनालोकं, श्रीसुविधि तं ध्यायत धन्याः ॥२७॥
रुक्मवती । भाद्रपद: ११ अमाऽपि सूद्योतमयी कथं न, तिथिः पवित्राश्चिनमाप्तसत्का। यत्रोदगान्नेमिनि केवलार्कः, समप्रकर्मावरणाऽभ्रमुक्तः ॥२८॥ उपजातिः तद्युक्तमेवाश्विनपौर्णमासी, यदुज्ज्वला सर्वजनैय॑गादि । नमे(लोकागमनेन यस्यां, महोमयी ! द्राग्निखिलाप्यऽभूद् भूः ॥१९॥
उपनातिः । आश्विनः
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जैनस्तोत्र
सर्वे घलोकाऽऽगमजन्मदीक्षा-ज्ञानापवर्गाप्तिदिना जिनानाम् । महोत्सवोद्योतमया मयाऽमी, स्मृताः समाधिं ददतां च बोधिम् ॥१०० !
उपनातिः च्यवनजननदीक्षाकेवलज्ञानमोक्षा
गमसमयविशेषेषत्मवादयेषु येषां । क्षितिवलयमपास्तस्वर्गशोभ बस्ति,
प्रददतु मुदमाप्तास्तेऽत्र कालत्रयेऽपि ॥१०१॥ मालिनी उत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु भरतेष्वैरावतेष्वर्हता,
सर्वेषामपि भूतभाविभवतां कल्याणकेषु क्रमात् । मासान् भानि तिथींश्च शाश्वततया तान्येव विज्ञा जगुर्यस्मात्तज्जिनभाषितं प्रवचनं भक्त्या नमामोऽन्वहम् ॥१०२॥
शार्दूलविक्रीडितम् ।। ये श्रीतीर्थाधिपानां समसमयभुवां विंशतेर्वा दशानां,
तावद् रूपैरुपेता इह महिमभरं पञ्चकल्याणका । . अर्हद्भक्तिप्रमोदात् तृणतुलित दिवः कुर्वते सर्वकालं, ते सर्वेऽपीन्द्रमुख्या विदधतु विबुधाः सङ्घलोकाय भद्रम् ॥१०३॥
स्त्रग्धरा ॥ इति कार्तिका दिमासानुक्रमेण श्रीजिनकल्याणकदिनस्तुतयः कृताः श्रीतपागच्छाधिराजपरमगुरुभट्टारकप्रभुश्रीसोमसुन्दरसूरिपादैः ।
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ॐ नमो जिनाय ॥ सहस्रावधानिश्री मुनिसुन्दरसूरिवरविरचिता
स्तवपञ्चविंशतिका ।
अथ मङ्गलशब्दार्थस्तवनम् १ ( अनुष्टुप् ) जय श्री जिनकल्याण - वल्लीपवनाम्बुद ! |
मुनीन्द्रहृदयाम्भोज - विलासवरषट्पद ! ॥१॥ तव नाथ ! पदद्वन्द्व सपर्यारसिका जनाः ।
सर्वसम्पत्सुखश्रीभिर्विलसन्ति सदोदयाः ||२॥ नृलोके चक्रिताद्या याः, स्वर्लोके चेन्द्रतादय: ।
शिवेऽनन्तसुखाद्यास्तास्तव भक्तिवशाः श्रियः ॥३॥ सर्वश्रेयः श्रियां मूलं ददद्धर्म समग्रवित् ।
योगक्षेमकरो नाथस्त्वमेव जगतामसि ॥४॥
त्वमेव शरण बन्धुत्वमेत्र मम देवता ।
तन्नां पाहि भवात्तात ! कुरु श्रेयःसुखास्पदम् ||५|| इति मङ्गलशब्दार्थस्तवनम् । अथ मङ्गलशब्दार्थस्तवः २ ( उपजातिः )
1
जयश्रियां धाम सुधामधारिन् !, सुत्रामदामार्चित ! देवदेव ! त्रिलोकपूजातिशयाभिगम !, प्रकाममानन्दननन्दनेतः वर्गत्रयस्यार्जनबद्धचेतसः, सुचेतसः कर्मसु सत्सु सूद्यमाः । ददात्यदो नाथ ! तत्र स्तवोऽत्र तदू, बुधा यतन्ते सकलाः फलार्थिनः ॥२॥ अयं महानन्दपदातये सतां हेतुर्विंशुद्धः प्रथितो मनीषिषु । इति प्रवीणा मुनयोऽपि ते स्तवे, रतिं दुधन्ते मत्र भोगनिःस्पृहाः ॥ ३ ॥ ॥ प्रवर्द्धमानोत्तममङ्गलावली, श्रियः सदानन्दरसोर्मित्रर्मिताः । सुखानि विश्वाशयविश्रमास्पदं प्रभो ! वशत्वं नयते तव स्तवः
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॥ ४ ॥
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स्तोत्रसञ्चये
त्रातारमेकं परम वदन्ति यं, मनस्विनोऽभीष्टदधर्मदानतः । जिनेन्द्र ! तस्मै भवते सदा जग - त्पितामहाय प्रमुतात्मने नमः ॥५॥
इति मङ्गलशब्दार्थस्तवः । अथ मङ्गलशब्दार्थस्तवः ३ (वैतालीयम् ) समवाप्य जयश्रियं जग- त्रितयी जित्वरमोहभूपतेः । त्रिजगत्प्रभुताश्रियां पदं, समभूद्यस्तमहं जिनं तुवे
॥१॥ इदमौपयिक शिवश्रियां, कृपणानामपि मादृशां सुखम् । जगदे कृपया महात्मभिः, करवै तेन तव स्तुर्ति विभो ! ॥२॥ त्वयि हृद्युदिते सतां रवा-विव खे स्युः कमला विकस्वराः । वितमःप्रसराः प्रभो ! धियः, पुनराशा इव सर्वतो जिन ! ॥३॥ वशगा धृतिकान्तिकीर्तयो, नरदेवप्रभुतादयः श्रियः । विभवो विभवस्तवाऽपि यः, स्तुतिवल्लेर्भवतः फलानि ते
॥४॥ सुपरीक्ष्य समनदातृषु, प्रमुरेकोऽर्थितदायकः श्रितः । मयकाऽर्थितया त्वमेव तत, परमानन्दपरं ददस्व मे
॥५॥
इति मङ्गलशब्दार्थस्तवः । अथ मङ्गलशब्दार्थस्तवः ४ ( अनुष्टुप् ) जगतां प्रभुतां प्राप, यो भावारिजयश्रिया ।
शाश्वतानन्दरूपं तं, श्रीसर्वज्ञ स्तुवे मुदा ॥१॥ प्रातिहार्यश्रिया वाणी-गुणैश्चातिशयोच्चयैः ।
योऽनन्तज्ञानद्धया च, त्रैलोक्यस्योपकारकः ॥२॥ शाश्वतं मङ्गलं नित्य-सुखं ते विश्वदैवतम् ।
त्रिलोक्याः शरणं त्राणं, नाथमे के जिनं भजे ॥३॥ युग्मम् । यस्थ नेतुः पदाम्भोज-पूनयाऽभीष्टसम्पदः ।
जायन्ते सर्वतोऽम्भोद-वृष्टयेव भुवि विरुधः ॥४॥
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स्तव पञ्चविंशतिका
मम देवाधिदेवोऽयं, प्रभुरेको भवे भवे ।
भूगाद्देयाच्च कल्याण-मचिराच्छाश्वतं परम् 11911 इति मङ्गलशब्दार्थस्तवः ।
अथ सकलजिनस्तवनम् ५ ( बैतालीयम् ) त्रिजगत्प्रभुता प्रतिष्ठितं, सकलान्तद्विषतां जयश्रिया ।
吃
भुवनोपकृतिक्षमं स्फुरत्सदनन्तातिशयं जिनं स्तुवे ॥१॥ सततं विषयानुचिन्तना-चितदुष्कर्ममलाssविलं मनः । मम नाथ ! तव स्तवामृत-हृदमग्नं विशदीभवत्वदः तपसा विविधेन योगतः परमाच्चापि यदर्यते बुधैः । तदनन्तचतुष्टयात्मकं परमं ब्रह्म तत्र स्तुतेर्वशम् मदनाद्यरिशल्यनिर्गमे त्वद्यस्कान्त निभानुचिन्तनात् । अचिरान्मम विन्दतां सुखा-द्वयमात्मा तव शत्रर्णिकाम् शरणं मुत्रनार्थितप्रदः, परमैश्वर्यमत्वमेव मे । कलुषोऽस्मि यदीश ! दुष्कृतै स्तदपि प्रापय मां निजां श्रियम् इति सकलजिनस्तवनम्
॥५॥
संस्तुतिस्तव विभो ! नृक्ताद्याः, सम्पदो वितनुते कियदेतत् ? । तां त्रिलोकातामपि दत्ते, याऽनुभूतिविषयो हि तत्रैव
३५
एकशोsपि जिन ! यत्र पुष्करावर्त्तष्टय इवाभस्तव । सुप्रसादमधुरा दृशो भवेत्, तत्र शस्यकमलोद्भवश्चिरम् संस्थिते त्वयि हदीश ! नराणां, दूरमेव विपदः खलु यान्ति । किं हि तिष्ठति सुतं विनताया, मन्दिरे फणभृतो
मन्ति
अथ श्रीयुगादिदेवस्तवनम् ६ ( स्त्रागता )
श्रेयसां पद ! जिनेन्द्र ! जय श्री - नाभिनन्दन ! जगत्त्रयबन्धो ! | भव्यलोचनसुधारसत्रर्थिन्, हर्पतः स्तुत ! नरेशसुरेशैः
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॥२॥
॥३॥
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BE
॥२॥
॥३॥
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स्तोत्रसञ्चये
त्वं पिताऽथ जननीगुरुरेक स्त्वं प्रमुर्मम तथा जगतोऽपि । त्वां ततः शरणमेकमुपेतः, किञ्चिदस्मि भगवन्नभिवाञ्छन् ॥५॥ ज्ञानदर्शनचरित्रसमृद्धिः, प्राग न मेऽस्ति विशदा सति चैवम् ।। यो भवेत् तव मतः सदुपाय-स्तेन मां शिवरमा नय नाथ ! ॥६॥
इति युगादिदेवस्तवनम् अथ श्रीयुगादिदेवस्तवनम् ७
( उपनातिः ): जयश्रियामेकपदं यदीय, बभूव राज्यं जगतां सुखाय । विमुक्तये च व्रतकेवलश्रीः, श्रीमधुगादीशमिमं स्तवीमि ॥१॥ हितानि कुर्वन् पितरत्यनिन्दितो, य एव धर्मो जगतामपि स्फुटम् । सूतेरमुष्यापि च यः पितामहो, मतः पुराणं पुरुषं स्मरामि तं ॥२॥ यतः स्म सर्वाः प्रभवन्ति नीतयो, जनानुगा मुक्तिपथानुगा अपि ।। घनाघनौघादिव सर्वतो लता-स्तमादिमं देवमुपास्महे विभुम् ॥३॥ गृहीतिनां कर्मसु न स्फुटेष्वपि, स्वभावशुद्धाऽऽर्नवभक्तिशालिनाम् । बभूव शास्ता वृषभप्रभुः पुरा, येषां स्तुमस्तानपि युग्मिनो जनान् ॥४॥ अयं विवोऽस्ति यदेकहेतुकः, शरीरिणां क्लेशविचित्रतामयः । निरस्य यो मोहतमस्तदप्यगात् , पदं परं तं वृषभप्रभु भजे ॥५॥ उपाधिनान् यः प्रविधूय विप्लवान् , सदोदितब्रह्मतनुःसुयोगिनाम् । निरिन्धनो वह्निरिवावभासते, निरञ्जनं तं पुरुषं स्मराम्यहम् ॥६॥ प्रभुः प्रजानां प्रथम जिजीविषू-नियोजयन् कर्मसु ता बभूव यः। क्रमात् प्रबुद्धः परमार्थदेशना-त्तथैव तेभ्यश्च वियोजयन्नपि ॥७॥ युगादिम देवमनन्सवेदसं, प्रवर्तकं सत्पुरुषार्थपम्पदाम् । प्रणौमि तं बोधिपदाप्तयेऽखिल-द्विषो व्यतिक्रम्य जयश्रियेऽपि च ॥९॥
इति युगादिदेवस्तवनम्
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स्तवपञ्चविंशतिका
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अथ श्रीसीमन्धरस्वामिस्तवनम् ८ (उपजातिः) जयश्रियाडयं कनकाभदेहं, सर्वज्ञलक्ष्मीकलकेलिगेहम् । सीमन्धरं पूर्वमहाविदेह, विभपयन्तं जिनपं स्तुवेऽहम् । रूपं परं सन्ततमङ्गलाली, महत्त्वमुच्चैः परमा यश:श्रीः। ततिः सुखानां जिनसम्पदां च, तव प्रसादस्य जनेषु लीला ॥२॥ विलोकसे येन जगत्समग्रं, ज्ञानेन तेनैव जिनाऽसि गम्यः। तथापि विश्वोत्तरऋद्धिमान् 2-विलोक्यसे नाथ ! त एवं धन्याः ॥३॥ भीतो भवक्लेशततेभवन्तं, शरण्यमीशं शरणं प्रपद्ये । यदर्थयन्ते मुनयः सुयोगे--बच्चा सि गन्ता नय तत्र तन्माम् ॥४॥ यदर्थितं येन तदेव तस्य, त्वया ददे वत्सरमर्थ्यसे तत् । जन्मैव मा दा मम देव ! जन्म, चेत् तत्र यत्रास्यऽविता प्रभुस्त्वम्॥५॥
इति सीमन्धरस्वामिस्तवनम् अथ श्रीवईमान जनाष्टकम् ९ (वंशस्थम् ) जयश्रिये कर्ममहारिसन्ततेः, स्तुवन्ति यं विश्वगुरुं सुयोगिनः । तदर्थताया वशतोऽहमप्यनं, निरञ्जनं वीरजनं स्मरामि तम् ॥१॥ न केवलं नाथ! स सान्वयाभिधो, बभव सिद्धार्थधराधवः क्षितो। तवावतारेण जगत्त्रयीननोऽप्यवाप सिद्धार्थतयैव सम्मदम् ॥२॥ बाहक सुताप्त्यै त्रिशलां तनुं स्त्रियः, श्रितां स्तुमस्तां किल विश्वदेवताम् । अभवुषी या तव जन्मकर्मणा, सुरेश्वराणामपि संस्तुतेः पदम् ॥३॥ तल्ये कुरङ्गक्षितिकर्मणि प्रभो !, करं शिवे ते नरके तु मे गतिः ।। ममाप्यदो देहि जगच्छिवङ्कर!, त्वामर्थयतेति हरिः किलाङ्कभाक् ॥४॥ भयं हरन्तं भगवन् ! भवोद्भवं, श्रयन्ति ये त्वां शरणं मनस्विनः । कां त्वदीयामचिरादवाप्य ते, जगत्सु बृत्तिं दधते सुपालिनीम् ॥५॥ स्थैर्यतस्त्रिजगतीजयिनो मे, क्वीपमानमिममाहुरिहाऽऽर्याः । कम्पयन् सुरगिरि न्विति तान् योऽबूबुधज्जयति वीर जिनोऽयम् ॥६॥
स्वागता
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૨૮
स्तोत्रसञ्चये
भवभयहरणं जगच्छरण्य, शरणमहं तमुपैमि वर्द्धमानम् । कलियुगधनदुर्दिनेऽधुनापि, स्फुटयति तत्त्वपथान् यदाऽऽगमार्कः ॥७]
__औपच्छन्दसिकम् एवमानुत! भवारिजयश्री-प्राप्तये निरुपधि मम बोधिम् । वर्द्धमान जिन ! देहि यतः स्या-मर्थतस्तव पितुः समनामा ॥८॥ स्वागता
इति वर्द्धमान जिनाष्टकम् अथ साह पुरश्रीपार्श्वनाथस्तवनम् १० (वंशस्यम् ) जयश्रियां सङ्गममाप्तुमिच्छवः, स्तुवन्ति यं सर्वसुरेश्वरा अपि । जगत्त्रयत्राणकरं तमानुमः, पार्श्वप्रभु साहपुरे कृतस्थितिम् ॥१॥ यथा निशायां प्रसृतांस्तमोभरान् ,
निहन्तुमेवोदयते दिवाकरः । दुःखोत्करान् नाथ ! तथोद्गतान् जग
त्यपासितुं प्रादुरभूस्ततोऽव माम् 1॥२॥ वृथैव ताम्यन्ति भना: समीहया,
सुसम्पदामोपयिकैरनेकशः । तासां परं ह्यौपयिकं वशीकृतौ, त्वन्नाममन्त्रप्रणिधानमेंककम्
॥३॥ दुरासदास्ता जगदीह्यमानाः, सुखश्रियः प्राणिषु तावदेव । यावन्न लब्धा तव पादसेवा, कल्पद्रुमाप्तो हि सुदुर्लभं किम् ॥४॥
उपजातिः भवन्ति ते स्नानजलेन सिक्ता. ग्रस्ता महाऽऽभैरपि दिव्यदेहाः । भजन्ति किं सिद्धरसानुभावात् , सुवर्णभावं नहि लोहपिण्डाः ? ॥५॥ त्राताऽमरेन्द्रादिजगत्त्रयस्य, त्राण कियन् मे लुठतस्तवांयोः । धौता द्विवृन्दस्य कियद् घनस्य, प्रक्षालनं वा सिकताकणस्य ॥६॥ प्रसरन्नभितोऽशिवोच्चयः, प्रहतो यद्भवता किमद्भुतम् । अतिवर्षति दुर्द्धरोत्तरोन्नतवादे हि दवायः कियान् ॥७॥ वैतालीयम्
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स्तवप-वविंशतिका त्वयि रक्षति केऽप्युपद्रवा, उचित नाभिभवन्ति यजगत् । हरिणा हरिणारिपालितं, वनखण्डं किमु भत्तु मीशते ? ॥८॥ एवं जगद्रक्षणे दक्षिण ! स्तुतः, पार्श्वप्रभो ! साहपुरावतंसक !। निरस्य सर्वद्विषतो जयश्रिय, सबोधिमारोग्यपदं च देहि मे ॥२!!
वंशस्थम् इति साहपुरश्रीपार्श्वनाथस्तवनम् अथ चतुर्विशतिजिनस्तवः ११ जयश्रीदायिनः श्रीमद्-वृषभाजितशम्भवान् । अभिनन्दनमानौमि, सुमतिं च जिनाधिपान् ॥१॥ ( अनुष्टु ) पद्मप्रभः सुपाचश्चन्द्रप्रभसुविधिशीतला: श्रेयान् । श्रीवासुपूज्यविमलाऽनन्ता धर्मश्च मां पान्तु ॥२॥ (आर्या) शान्तिः कुन्थुररः श्रीमल्लिमुनिसुव्रतो नमिर्नेमी । पाो वीरश्च जिना भवभीरोः सन्तु मे शरणम् ॥३॥ इतिभुवनकल्पतरवो नतसुरराजा नुता मयापि जिनाः । शिवपदसम्पदमतुलां, ददतां मम शुद्धबोधिकृते ॥४॥ [ मघवमहामुनिसुन्दरनुतिततिविश्रामभूमिगुणविभवाः । इति संस्तुता जिनेन्द्रा ददतां मे शर्म निजमेव ॥५॥
अथ चतुर्विशतिजिन्नस्तवः १२ ( अनुष्टुप् ) जयश्रीसङ्गिनो नौमि, चतुर्विंशतिमहतः । श्रीयुगादीशमजितं, शम्भवं चाभिनन्दनम् ॥१॥ सुमति सुमतिप्राप्त्यै, नौमि पद्मप्रभ प्रभुम् । सुपार्श्व विश्वकल्पद्रुप्रयं चन्द्रप्रभुं तथा
॥२॥] सुविधि शीतलं सार्व, श्रेयांसं श्रेयसे भजे । वासुपूज्यं च विमलानन्तौ धर्म च बोधिदान् श्रीशान्ति कुन्थुसर्वज्ञ, वन्देऽरं मल्लिसुव्रतौ ।
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४०
स्तोत्र सञ्चयेः
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नमि नेमिं जिने पार्श्व, वर्द्धमानं व बोधये एवं जिनवरा भक्त्या, कीर्त्तिता वन्दिता मया । सम्यग्ज्ञानक्रियाशुद्धया, सन्तु मे शिवसम्पदे अथ श्रीचतुर्विंशतिविहरमाणशाश्वतजिनस्तवनम् १३ (आर्या ) जयश्रिये भक्त्रोमि चतुर्विंशतिं जिनाधीशान् । ऋषभमजितं च शम्भवमभिनन्दनसुमतिपद्माभान् वन्दे सुपार्श्वचन्द्रप्रभसुविधीन् शीतलं जगन्नाथम् । श्रेयांसवासुपूज्य विमलानन्तौ तथा धर्मम् शान्ति कुन्थं चारं मलिमुनिसुव्रतौ नर्मि नेमिं । पार्श्व वीरं च विभुं नौमि श्रेयः श्रिये सततम् सीमन्धरं युगन्धरबाहुसुबाहुजिनानिह सुजातं । स्तौमि स्वयम्प्रमेशं जिनवरवृषभाननं च सदा जिनपतिमनन्तवीर्यं सुरप्रभजिन विशालवज्रवरान् । चन्द्राननं च सर्वानित्यष्टौ घातकीखण्डे
श्रीचन्द्र वाहुनाथं भुजङ्गजिनमीश्वरं त्रिजगदम् | नेमिप्रभुतीपति श्रीमन्तं वीरसेनं च तीर्येश महाभद्रं देवयशो नाथमजितवीर्यविभुम् । प्रणमामि पुष्करार्द्धं विंशतिमिति विहरतः सार्वान् अथ ऋषभवर्द्धमानौ चन्द्रानननाथवारिषेणौ च । शाश्वत जिनांश्च वन्दे ददतु शिवं ते च मे स मत्र महामुनिसुन्दरतु तिततिविश्राम भूमिगुणविभवाः । इति संस्तुत | जिनेन्द्रा ददतां मम शर्म निजमेव
अथ मङ्गलस्तोत्रम् १४ शक्षाणां पूर्व पाठनार्थम् जयामेरिजिणवरतिहुयण- जणमणवंछिअसुहत्यकष्पतरू । सिरिवद्धमाणसामिअ ! हो पहू मम तुमं निचं
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॥१॥
॥२॥
॥३॥
॥४॥
॥५॥
॥६॥
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॥९॥
॥ १ ॥
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स्तोत्रसञ्चये
भविआण थुणिअचरणो सामित्त देसि तिहुअणस्सावि । कप्पतरुसेविच्छिअदाणे एसो तुह सहावो
सलाहुति रिद्धी भद्दकरा गहणिमित्तसउणसुरा । वति नसणचरणा तुह पयपसाएण दंसणनाणचरिते दाउ जह गोअमाइगणवणो । मित्रसुहलच्छीसहिआ विहिन तह नाह ! कुणसु ममं इय सुरनरनाहमहामुणिसुंदर संथवारिहो वीरो । सामी कुणउ पसायं नियपयसुहदाणओ अइरा
सिरिआइजिणं वंदे अजिअजिणं सिरीइ दायारं । संभवमभिनंदणमवि सुमई पउमप्प चेवं
वंदामि सिरिसुपासं चंदप्पहसुविहिसीअल जिणे य । सिसवासुपुज्जे विमलमणतं तहा धम्मं
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॥२॥
॥५॥
इति मङ्गलस्तोत्रम् |
अथ चतुर्विंशतिजिनमङ्गलस्तवनम् १५ ( आर्या )
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॥ १ ॥
॥२॥
सिरिसंति कुंथुपहुं अरनाहं मल्लित्र्वयनिणिंदे | नमिनेमिपासना हे वंदे सिरिवद्धमाणं च इय उवीसजिनिंदा सुरिंद्रधुपया भुवणनाहा । ममर्दितु नासणचरितगुणसंपयं विउलं इय सुरनरनाहमहामुणिसुंदर संथवारिहे सययं । जो थुइ जिणवरिंदे स होइ सासयसुहसमिद्धो
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इति चतुर्विंशतिजिनमङ्गलस्तवनम् । एतानि सर्वाण्याच्या मूलचूलानि श्रीमुनिसुन्दरसूरिभिः कृतानि चिरं जयन्तु जयश्रीपदलाञ्छितानि ॥
॥३॥
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४२
॥१॥
स्तवपञ्चविंशतिका अथ श्रीजिनमङ्गलस्तवः १६ ( अनुष्टुप् ) आनन्दाद्वैतदातारं, जयश्रीद्धं जगत्पतिम् ।
श्रीजिनं भक्तितः स्तौमि, दिष्टविष्टपमङ्गलम् तानाऽऽयुश्विरमारोग्य-मष्टावपि महर्द्धयः ।
___ इन्द्रश्रीः शिवसम्पच्च, श्रयन्ति त्वां स्तुवन्ति ये ॥२॥ सुराः किङ्करतां यान्ति, मन्त्राः सिद्धयन्त्यभीष्टदाः । ग्रहाः स्युर्वरदास्तेषां, येषां त्वं हृदि तिष्ठसि
॥३॥ दुःस्वप्नं दुनिमित्तं वा, दुष्टा भूपाः सुरादयः ।। अनुकूलत्वमेवाशु, त्वन्नतेर्दधतेऽङ्गिनाम्
॥४॥ सर्वे श्रेयोऽर्थिनो विज्ञाः, श्रेयोमूलं च ते स्तुतिः ।
इति त्वां स्तुवतो मेऽहन्निष्टश्रेयःप्रदो भव ॥५॥ (स्तुतिमिति तनुते जिनेन्द्र ! यस्ते, मघवमहामुनिसुन्दरस्तुतांहेः । स भवति गुणसम्पदा समस्ते, फलमिति तद्वितराऽचिरान्ममापि ॥६॥)
इति श्रीजिनमङ्गलस्तवः ॥ अथ श्रीजिनब्रह्मस्तवः १७ ( अनुष्टुप् ) परानन्दपदायार्हन् भवाऽमित्रनयश्रिया ।
त्वदनन्तगुणाम्भोधौ, रमयामि निनां गिरम् ॥१॥ विकल्पास्पृष्टरूपाय, निर्द्वन्द्वपरमेष्ठिने ।
निरुपाधिपरानन्द-शालिने ते विभो ! नमः ॥२॥ ध्यानेन त्वन्मयीभावं, कथञ्चिद्याति यः सुधीः ।
तत्त्वदेक्यपथेनैव, स महानन्दमश्नुते ॥३॥ तव सम्यकस्वरूपस्याप्यनुभूत्यक्षमा वयम् ।
कविडम्बरिणोऽनन्तांस्त्वद्गुणान् स्तुवतः स्तुमः ॥४॥ तात ! तत्प्रार्थये देहि, मम काञ्चन तां कलाम् । याथात्म्यात्त्वत्स्वरूपस्यैवानुभूतिर्भवेद्यया ॥५॥
इति जिनब्रह्मस्तवः ।।
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४३
स्तोत्रसम्चयः
अथ श्रीजिनमहिमस्तवः १८ (द्रुतविलम्बितम् ) शिवपदप्रभुतां दधतं जय-श्रियमवाप्य महाऽऽन्तरविद्विषाम् ।।
जिनपतिं भवभीतिविभेदनं, सकलवाञ्छितसिद्धिकरं स्तुवे ॥१॥ त्रिभुवनोपकृतिक्षमवैभवा, जिनपतेऽतिशयादिगुणोच्चयाः। इह वदन्ति तवैव शिवधियां, वितरणे शतधा स्तवनार्हताम् ॥२॥ किमपि नाथ ! तवाद्भुतमङ्गना-गणवशीकृतिपाटवमीक्ष्यते । त्वदभिधाऽपि हि यत्र भवेदिम, भनति मुक्तिरपीष्टसमृद्धिवत् ॥३॥ तव हगम्बुजयोरखिला रमा, जिन ! वसन्त्यनुभूतिमियर्त्यदः । निपततः खलु ये पुनरेधि मे, प्रविलसन्ति सदापि यदेषु ताः ॥४॥ दृगतिथिस्त्वमभूर्मम शैवलो-लवणमहादवाप्तितिमेरिव । जिनशशीव विमोहतमोहते-वितर केवलबोधसुखोदयम्
इति जिनमहिमस्तवः ॥ अथ श्रीजिनमङ्गलस्तवः १९ (औपच्छन्दसिकम् ) प्रभुतां शिवसम्पदामवाप्या-न्तरविद्वेषिजय श्रिया कृतार्थम् । स्मृतिवन्दनपूजनस्तवेभ्यो, भुवनाभीष्टकरं जिनं स्तवीमि ॥ सुरपादपधेनवः फल यद् , विविधाराधनतोषिता ददन्ते । ददते स्मृतिमात्रमीश ! किञ्चित् , तव नामाप्यवहीलना यतोऽस्मिन् ॥२॥ सकलेप्सितशर्मदानदक्षं, स्पृशति त्वां मनसापि यो मनीषी। विपदो न कदापि संस्पृशन्तिस्पृशतोऽके न तमांसि भीतये यत् ॥३॥ तब रूपमनन्तमेव शमें-त्युदितं योगिवरैर्विभाति चेदम् । त्वयि येन हृदैकतां प्रपन्नेऽनुभवः स्यात्किल तस्य भक्तिभानाम् ॥४॥ अखिलं प्रवितर्य देवतौघं, त्वयि देवाऽध्यगम प्रभुत्वबुद्धिम् । इति संस्तुवतः पदौ तव द्वौ, मम देयाः पदमेकमेव तेऽर्हन् ॥५॥
नमङ्गलस्तवः ।।
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॥३॥
स्तोत्रसञ्चये अथ श्रीजिनमङ्गलस्तवः २० (अनुष्टुप् ) पर श्रियःपदं प्राप्तं, सकलारिजयश्रिया ।
___ स्तुवेऽर्हन्तं स्वजन्मादि, सुखाकृतजगत्त्रयम् संस्पृशत्कृतिनां चेतो, यं शुद्धैकगुणात्मकम् । रज्यते नितरां रक्तानप्यन्यांस्तु विरज्यते
॥२॥ केवलं केवलं यस्य, ज्ञातुं महिमवैभवम् ।
क्षेमतेऽक्षमतेनैव, विषयस्तत्पर हि यत् यस्य नेतुः पदाम्भोज, संस्मरन्तोऽपि भाविनः । सर्वापत्तापनिर्मुक्ताः, शीतीभाव भजन्त्यहो !
॥४॥ निनः स जगतां नेता, प्रणेता पुण्यसम्पदाम् । शरणं शरणं शैव-सुखस्याभीष्टदोऽस्तु मे
॥५॥
इति श्रीजिनमङ्गलस्तवः ! अथ श्रीजिनभक्तिस्तवः २१ ( वैतालीयम् ) प्रभुरक्षरशर्मसम्पदं, भगवान् मोहजयश्रियाऽऽप यः । मुवनार्थितकल्पपादप, तमहं स्तौमि जिनं जगद्गुरुम्
॥१॥ जिन ! कल्पितसम्भवे फले, स्पृहया केऽपि परान् स्तुवन्ति चेत्ः स्तवने तव तत् सुनिश्चिता-ऽक्षरशमोधकलेऽपि कोऽलसः ? ॥२॥ पशवोऽपि मुदोल्लसन्ति यां, गिरमद्वैतगुणां निशम्य ते ।। हृदयं न तयापि तोष्यते, जिन ! येषां तुन वेभि के तु ते ! ॥३॥ जगतामसि पालने प्रभुः, करुणा क्यापि न हीयते च ते । जहतो विषयं तयोस्तथाऽप्यधियः क्लेशजुषः कथं भवे ? ॥४॥ तब लाययतां मनः स्तवे, कृतिनां किन्नु तपस्क्रियादिभिः । कनकोद्भवकर्मवेदिनां, धनलाभौषयिकैर्हि किं परैः । तव गोचरतां स्तुतेर्गुणा, दधतेऽनन्ततया न कस्यचित् । सफलोऽत्र मम श्रमः पुन-जनुषः स्वस्य फलेग्रहित्वतः
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स्तवपञ्चविंशतिका
भगवन् ! प्रमितापि ते स्तुतिः सकलेष्टार्थविधायिनीति मे । कल्यन्नसियां स्वयं कलां, परमानन्दमयीं प्रयच्छताम्
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इति जिनभक्तिस्तवः ||
अथ श्रीजिनराजभक्तिमङ्गलस्तव: । २२ ( रथोद्धता )
१
यैर्भवन्ति हृदयस्थितैर्बुधा, मोहराजविजयश्रियां पदम् । तानू स्मरामि जिननाथ ! ते गुणान्, कांश्चनाऽर्थित करस्तवाध्वना ॥१॥ कामधेनुमणिपादपादयो, गौरवा जगति ये प्रतिष्ठिताः । त्वत्प्रसादजनितोच्चसम्पदां तेऽपि भान्ति पशुशर्करोपमाः यः समृद्धिनिचयोऽत्र चक्रिणो, यो भरोऽपि सुरराजशर्मणाम् । भक्तिरागनृपतेस्तव प्रभो !, तौ सदापि भजतो भुजिष्यताम् चेद्भवन्ति तव सन्निधानतोऽ-चेतनेष्वपि फलर्द्धयो द्रुषु । उल्लसन्ति भुवनोत्तराः श्रियः, सेवकेष्वपि किमद्भुतं ततः ? सन्ति यद्यपि महोदयश्रियां, साधका अपि तपोजपादयः । भक्तिरेव विभुतां तु तेऽद्भुते, तेष्ववादिषु सुबीजवत् कृषेः विश्वरक्षणत्रणस्य तेन ते, संश्रितोऽस्मि शरणं पदद्वयम् । यत्पदं भवभियः स्पृशन्ति नो, देहि नाथ ! तदनन्तशर्म मे इति जिनराजभक्तिमङ्गलस्तवः ।
॥६॥
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॥२॥
॥३॥
॥ ४ ॥
॥५॥
अथ श्रीमङ्गलशब्दस्तवः । २३ ( द्रुतविलम्बितम् ) त्रिभुवनाधिप ! मोहजयश्रिया परमसौख्यमनन्तमुपेयुषः । स्तवनतस्तव नाथ ! समीहिताः, शिवरमा विदधेऽद्य करस्थिताः ॥ १ ॥ सकललोकहितानि विधित्सता, व्यरचि यत्समयौपयिकं त्वया । मुवननाथ ! तवैव सुनाथतां, सहृदयस्तत एव न वेद कः ?
॥२॥
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स्तोत्रसञ्चये भुवनपालक ! केवलसंविदा, कलयताऽप्यखिलार्थगणं त्वया । किमहकं कलितो न सुदुःखितो, मदवने भविता किमथ क्रमः ? ॥३॥ सममशेषविदो न भिदादिमा, कमजुषं जिन ! मामव तद्भवात् । न करुणा तब विष्टपगोचरा, सुगुणवद्विगुणेऽपि हि हीयते ॥४॥ भुवि यथोपकृतो रविशीतरुग्-जलधरा गुणदोषदृशो न वै। त्वमसि नाथ ! तथाऽऽश्रितपालने, भवभयादियतैव धृतिर्मम ॥५॥ समधिगम्य विशेषमशेषतः, शरणमेष भवन्तमथाऽऽगमम् । इति मयाऽऽतिभृतोचितमादधे, त्वमथ नाथ ! जिनोचितमाचर ॥६॥
झलशब्दस्तवः ॥
अथ श्रीशान्तिजिनस्तवनम् । २४ (वंशस्थम् )
जयश्रियं यस्तनुते स्मृतेरपि, प्रणेमुषां कर्मभटारिसङ्कटे । स्तवीमि तं शान्तिजिन जगद्ग, शिवाप्तये टिम्बकनामके पुरे ॥१॥ विवेकवैधुर्यपरिप्लुताशय-न यैः स्तवस्ते भगवन् ! विधीयते । विधीयते शर्मसु तैः स्पृहापि किं ?, विना हि बीजं नहिं शस्यसम्भवः॥२॥ तव स्तुर्ति येऽपि जिनाऽऽहता बुधा, न तैः प्रयत्नः क्रियतां सुखाप्तये । अपेक्षते कल्पलता किमुद्यम, समीहया या ददतेऽर्थिनां फलम् ॥३॥ समग्रशर्माभ्युदयैकहेतवे, भवार्णवोल्लङ्घनसारसेतवे । जिनाय तुभ्यं सकृदानताः पुन-नमन्ति न त्वामपरं च कञ्चन ॥४॥ फलं विभाव्येत्यलपः परानतो, नतो प्रवृत्तस्तव दुर्विधोऽप्यहम् । प्रसीद तन्नाथ ! भवाम्यभीष्टभाक्, समो हि सर्वेष्वपि ते कृपारसः ॥५॥ स्तुतिमिति तनुते जिनेन्द्र ! यस्ते, मघवमहामुनिसुन्दरस्तुतांहः । स भवति गुणसम्पदा समस्ते, फलमिति तद्वितराऽचिरान्ममापि ॥६॥
इति शान्तिजिनस्तवनम् ॥
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स्तोत्रसञ्चये
अथ श्रीवीरजिनस्तुतिः । (भुजङ्गदण्डकः) २५ त्रिभुवनविभवीप्सितार्थप्रथाप्रत्यलत्वातिकल्पद्रुमोग्रप्रभावस्फुरत्-सौरभाद्यक्रमाम्भोजरोलम्बलीलावलम्ब्युल्लसद्भक्तिसंनम्रनाकाधिराट , नरपतिततिमौलिसन्मौलिभास्वत्प्रभाजालविद्योतितोपान्तदेशस्त्वमर्हस्त्रिलोकैकयन्धो ! धराधीशसिद्धार्थवंशानभषामणे ! वर्द्धमानप्रभो! ।।
कुवलयवनकोकिलश्यामलागाधमोहान्धकारप्रकारापहारार्कबिम्बोपमापारकारुण्यपाथो निधे! धामधाम्नां विधेहि प्रसधाऽऽशु मे बिभ्रतः, सुकरुणरसगो चरत्वं चिरं भीष्मसंसारकान्तारवासोद्भवैर्दुःखपुरैःश्रितस्याधुना पादयुग्म त्वदीयं कथञ्चित् पुराणैरगण्यैः शिवम् ॥१॥ वितरतु मम निर्वतेः शर्म सा सन्ततिस्तीर्थराजां विचक्रे सुपर्वेश्वरैर्देशनासद्मयस्यास्तदेकश्रिया भ्राजितं भामराभ्रंलिहादभ्रवप्रत्रयी, परिगतमुरुकिन्नरस्त्रीसमारब्धगीतप्रतिश्रुन्निनादौत्रवाचालिताऽऽशान्तरालं प्रमोदात् प्रनृत्यत्सुरालीक्रमाघातसक्षुब्धगोत्राचलम् ।।
त्रिदशततिभिराहतोद्दामवादित्रचक्रोद्गतैर्यत्र कोलाहलैः स्फातिमुर्ती श्रितैर्नाकिनाथोच्छितोद्यत्पताकावलीनद्धसकिङ्किणीनिक्वणैः सङ्गतैः, तरलिततरतारमीयुस्तुरङ्गाः किलाहर्मणेर्यानयुग्यास्तथा त्रासमत्यद्भुत नैव कुत्राप्यवस्थानमेकत्र सम्प्राप्नुयुस्ते याद्यापित्रस्ता इव ॥२॥ __ भवतु भवभिदे ममानन्तसङख्यार्थवाच्याक्षरालीजलागाधमध्ये जिनेन्द्रक्तसिद्धान्तपाथो निधि:वरैरप्यगम्यस्तनूत्मकृपोल्लासिवेलाकुलो, बहुविधनयभङ्गकाप्रत्नरत्नात्करभ्राजितोऽप्राप्तपार: सुपाठीनमालाभिरप्युल्लसद्धेतुरङ्गत्तरङ्गावलीमालितः प्राज्ययुक्तिप्रथाशुक्तिभृत् ।
पृथुचतुरनुयोगदीव्यत्तटःस्पष्टदृष्टान्तमुक्ताकलापाचितान्तः प्रदेशो मुनीन्द्रादिसवृत्तिसर्पत्तिमिश्रेणिभिः, सङ्कुलः श्रीनिवासो गभीरत्वभ
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स्तोत्रसञ्चये विबुधजनमनो मुदुल्लासनप्रत्यलप्रेलवदिद्ध प्रमाणौवकेलीमहाभूमिभृद्धोरणीबन्धुरः सूक्तसन्दोहभास्वत्प्रवालालयो देवताधिष्ठितः ॥३॥ अपहर भयमजसा मम्भृतस्य भ्रमोद्रेकरूपेण संसारपायोनिधेर्वीतरागोक्तसिद्धान्तलोधप्रथायानपात्रप्रदानेन वाग्देवि !, विश्वार्चिते !, सुमधुरगतिनि:स्वन हंसमारूढक्त्यङ्गिनां त्वं शिवाऽऽकाक्षिणां लोलरोलम्बझंकाररावरिवोद्गीयमानालसत्सौरभं बिभ्रती पुण्डरीकं करे। सितकरहरहारनीहारशुभ्रप्रभाभासमाने समानेतरोल्लासिभक्त्यानमन्नाकिनाथाङ्गनाचक्रवालोत्तमाच्युतोदारसिन्दूररेणूत्करै-ररुणितमभिधारयन्ती क्रमद्वन्द्वमज्ञानविद्वेषिणि! क्रोधपूरादिवाशेषविश्वत्रयीबोधिरत्नापहारप्रगल्भस्फुरद्विक्रमोद्दण्डदोत्कटे ॥ इति श्रीवीरदण्डकस्तुति नङ्गछन्दसा श्रीमुनिसुन्दरसूरीणां कृतिरियम् ।।
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सहस्रावधानिश्रीमुनिसुन्दरसूरिसत्तमनिर्मिता
त्रिदशतरङ्गिणी॥
श्रीअभिनन्दनजिनस्तोत्ररत्नम् ४ *........चापलम् , त्वया जिनेन्दो ! मनसः समन्ततः । ममापि तद्दोषमिमं हरेति यं, कपिनन्नर्थयतेऽङ्कदम्भतः ॥५॥ वंशस्थम् न नाममात्रेण बभूव सिद्धार्थेति प्रसिद्धा जननी यदीया ।। पुमर्थसीमाऽव्ययशर्मलाभात् , तत्त्वार्थतोऽपि देवताज्जिनोऽयम् ॥६॥
उपजातिः न दैवतानां मितिरत्र वर्तते, य एव तु स्तोत्रममीषु चाहति । अभीष्टदानाव्यभिचारनिर्णयात् , तमाभवं श्रीअभिनन्दनं स्तवै ॥७॥ वंश० महर्षयो यस्य गुणाननेकशो, मुदा स्तुवन्तः समतां ययुः प्रभोः ।। विभिद्य सद्यो ममतां स सर्वतो, ददातु देवो मम तां प्रणेमुषः ॥८॥ वंश० एवं श्रीअभिनन्दनं जिनपति यः संस्तुते कालिका
यशाश्रमसेवितांहिकमलं कल्याणमालालयम् । शकालीमुनिसुन्दरस्तुतिततीरहन्नदृष्टद्विषो,
जित्वा स्यादचिरात्पदं स सुकृती सर्वेष्टसौख्यश्रियाम् ॥९॥ शार्दूल.
इति श्रीयुगप्र० नुगामिन्यां तद्विनेयश्रीमुनिसुन्दरसूरिहृदयहिम० त्रिदशतरङ्गिण्याम् । जयश्यङ्कायां प्रथमे जिनादिस्तोत्ररत्नको० श्रोतसि वर्त० हृदे चतुर्थश्रीअभिनन्दनजिनस्तोरत्ननामा चतुर्थो मूलतश्च तरङ्ग ॥
अथ श्रीसुमतिजिनस्तोत्ररत्नम् ५ ( वैतालीयम् ) सुमतिस्तनुतां जयश्रियं, मम भाव द्विषतो जिगीषतः ।
__ कुमतानि विहाय यं भजन् , लभते भव्यजनोऽर्थिताः श्रियः ॥१॥ * एतदन्तः ग्रन्थस्याऽस्य आदिभागः नोपलभ्यते ।
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स्तोत्रसञ्चये
भुवनाधिप ! मेघनोऽप्यसि, स्तुतिमानः खलु मेऽघहृद् यतः ।
जनयस्यपि मङ्गलात्मजः, सततं त्वं विपुलं च मङ्गलम् ॥२॥ इति ते स्तवने कथं यते, न ? जडोऽपि स्वधियोऽनुसारतः।।
सुखलभ्यशभात्मसत्फले, नहि मन्दोऽप्यलमो हि कर्मणि ॥३॥ कलितोऽपि शिवश्रिया प्रभो !, दवसे क्वापि न भैरवाकृतिम् ।
भजसे जिन ! सर्वमङ्गला-श्रितरूपोऽपि सनातनस्थितिम् ॥४॥ शिवसून कुमारतां श्रितो, दधसे क्रौञ्चमथाङ्कसङ्गतम् । जिन ! तारकमित्रतां भजन् , जगति स्वामितया श्रुतोऽद्भुतम् ॥५॥ युग्मम् चरणौ तव विभ्यतां भवा-च्छरणं यो जिन ! वज्रिणामपि ।
हृदि तो मम तिष्ठतां स्थिरा-वियता नाथ ! लभे कृतार्थताम् ॥६॥ यदि ते कुशलाभिलाषुकं, यदिवा क्लेशभयातुरं मनः ।
जनते ! सुमतिं प्रपद्य तन्जिनराज सुमतिं प्रभुं भज ॥७॥ भगवन् सुमते ! प्रसीद मे, स्वमते देहि मतेः स्थिरां स्थितिम् ।।
भवते विमतेर्जयश्रिया, सुखमेषोऽपि जन: शिवस्य यन् ॥८॥ एवं भासुरभक्तितुम्बरुमहाकालीसमासे वित,
__ यत्तीर्थाधिपति स्तवीति सुमति कल्याणमालालयम् । शकालीमुनिसुन्दरस्तुतिततीरहन्नदृष्टद्विषो, जित्वा स्यादचिरात्पदं स सुकृती सर्वेष्टसौख्यश्रियाम् ॥९॥ शार्दूलवि.
इति०श्रीसुमतिजिनस्तोत्ररत्ननामा पञ्चमो मूलतश्च तरङ्गः !
अथ श्रीपद्मप्रभजिनस्तोत्ररत्नम् ६ ( उपजातिः ) जगत्त्रयीजित्वरमोहशत्र-जयश्रिया प्राप परं पदं यः ।
पद्मप्रभं पद्मदलोपमाक्षे, स्तुवे तमहन्तमनन्तपद्मम् ॥१॥ स सान्वयं नाम निज ततान, धरः पिता ते जिन ! जन्मकाले !
यथेष्टदानर्धरति स्म सद्यो, दारिद्यकूपे निपतज्जगद्यः ॥२॥ मात्रेकसीमानमवाप्य सापि, माता सुसीमा तव सान्वयाऽभूत् ।
जगत्त्रयत्राणविधौ नदीष्णु-मजीजनद्या भुवनोत्तमं त्वम् ॥३॥
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त्रिदशतरङ्गिणी
शिरस्त्विदं बिभ्रतु वासवाद्याः, सूर्यः करे श्रीः कुरुतां गृहं वा।
__ तथापि मुक्तिस्तव सेवयैवे.त्यकं मिषत्वां किल सेवतेऽब्जम् ॥४॥ जनुर्जराऽन्तादिभयोर्मिकीर्णे, भवाम्बुराशौ पतितो बिभेमि ।
ततो निजाज्ञातरणिं प्रदाय, प्रसद्य नंतः ! कुरु निर्भयं माम् ॥५॥ दत्से स्वभक्तौ स्थिरचेतसा त्वं, समीहितार्थान् जिनराज ! जाने । स्पृहाऽस्ति सौख्येषु न चेतसस्तु, स्थिरत्वमस्यां मम तत् कथं स्याम् ॥६। स्वदोषतप्तो बहुधा विकल्पै-रिति प्रभो ! व्यग्रमना: स नाऽस्मि । कमप्युपायं शरणागतं तत, प्रशाधि मां येन लभेऽर्थिताऽर्थान् ॥७॥ अथवाऽल्पमपि स्तुतोऽर्थिनां, ददसेऽभीप्सितसाधनान्यपि । तददृष्टनयश्रियोऽप्यहं, जिन ! मोदे कृतवानिति स्तुतिम् ॥८॥
वैतालीयम् इत्थं यो महिमाम्बुराशि-कुसुमश्यामानिषेव्यं स्तुते,
__ श्रीपद्मप्रभतीर्थनाथममलं कल्याणमालालयम् । शक्रालीमुनिसुन्दरस्तुतिततीरहन्नदृष्टद्विषो, जित्वा स्यादचिरात्पदं स सुकृती सर्वेष्टसौख्यश्रियाम् ॥९॥
शार्दूल. इति श्रीपद्मप्रभजिनस्तोत्ररत्ननामा षष्ठो मूलतश्च तरङ्गः !
अथ श्रीसुपार्श्वजिनस्तोत्ररत्नम् ७ (उपजातिः) सुपार्श्वनेतर्भगवन् ! जयश्री-महःसुखज्ञानशिवप्रदायिन् ! । स मे सहर्षत्रिदशेन्द्रवृन्द-स्तुतक्रमाम्भोरुह ! वाञ्छिताप्त्यै ॥१॥ मातङ्गत्यक्षः कुशलानि यस्य, पदो श्रितानां भविनां तनोति । शान्ता प्रशान्ति सकलापदां च, भजे सुपार्श्व त्रिजगत्प्रभुतम् ॥२॥ बभार पृथ्वीतनयोऽपि यो वपुः, सुवर्णकान्ति प्रमुरार्जवं सदा । ज्ञमित्रतां निश्चलतां च खातिगः, सुपार्श्वदेवं तमुपैमि निर्भवम् ॥३॥ प्रमुः प्रतिष्ठात्मजतां श्रितोपि यः, शुभप्रतिष्ठोद्भवकृत् प्रणेमुषाम् ।। स निष्ठितार्थो हृदि तिष्ठतान् मम, प्रथिष्ठरत्नत्रयनिष्ठतां ददत् ॥४॥
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स्तोत्रसम्चये इमौ जिमस्याखिलमङ्गलावलौ, धत्तः प्रभुत्वं सकलार्थितप्रदौ। वदन्नितीवाऽकमिषात तव क्रमौ, निषेवते स्वस्तिक एष बोधिदः ॥५॥ सुखानि सर्वाण्यतिशेरते ध्रुवं, विभो ! गरिम्णा शिवशर्मसम्पदः । इमास्त्वदाज्ञैव तनोति चाहता, बुघास्त्वदन्यं कथमाश्रयन्ति तत् ? ॥६॥ असांवृतब्रह्मविवर्तवैभव, विधेयवैधुर्यविवर्जितं तव । निरूप्यते यन्मुनिभिर्निरावृति, स्वरूपमिच्छाम्यधिगन्तुमीश ! तत् ॥७॥
वंशस्थम् अनन्तकालं भ्रमता ततो भवे, मयाऽसि नाथः शरणीकृतोऽधुना । सुपार्श्व ! मोहारिजयश्रियोज्वलं, निजस्वरूपादपृथक् कुरुष्व माम् ॥८॥
वंशस्थम् स्तुतिमिति मतिमांस्तनोति यस्ते,
भुवनविभोऽर्थितदायिनी सुपार्श्व !। सुरवरमुनिसुन्दरस्तवानां, स पदमनन्तसुखाद्वयोऽचिरात् स्यात्
॥९॥
औपच्छन्दसिकम् इति श्रीसुपार्श्वजिनस्तोत्ररत्ननामा सप्तमो मूलतश्च तरङ्गः ।।
अथ श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तोत्ररत्नम् ८ (उपजातिः) वपुस्त्विषा प्राप्य विधोध्रुवं यो, जयश्रियं स्वाहियुगस्य नित्यम् । चकार त सेवकमकदम्भा-चन्द्रप्रभ श्री जिनमेनमीडे स्वदेहदीप्तिप्रचयेन शुक्ल-ध्यानाह्वयज्योतिष आन्तरस्य । यो वर्णिकां दर्शयते प्रबुद्धां-स्तदेव देयात् स जिनोऽटमो मे ॥२॥ पीतोऽस्मि गर्भाऽवतरेऽस्य मात्र त्यथोऽपि मां मा स्म पिबत् कदाचित् । इतीव भीत्यांऽह्रियुगं यदीय, विधुर्भजत्येष जिनोऽवतान्माम् ॥३॥ नित्यं यदंहिद्वयसेवयाऽऽप्त-पुण्येन मन्ये सततं सितांशुः । वक्रोऽपि मौलौ ध्रियते हरेण, स चन्द्रलक्ष्मा क्षिपतादयं मे ॥४॥
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त्रिदशतरङ्गिणी
॥५॥
सेव्योऽपि नायः सततं भृकुट्या, नादर्शयद्यो भृकुटिं कदाचित् । एकेन नित्यं विजयेन युक्तोऽप्यनन्तसङ्ख्यान् विजयाँश्च दत्ते स लक्ष्मणायास्तनयो नयेन, कुतीर्थिकानां प्रहरन् मदौघान् ! शिवश्रिये श्रीमहसेनवंश- रवि छ विद्योतितदिङ्मुखोऽस्तु धत्ते पढ़े यो गिरिशस्य मौलौ, नेत्रे हरेर्वोदितमात्रपूज्यः । मुक्तेः प्रदाता सदास चन्द्रो, यस्यांहिभाग वक्ति जगत्प्रभुत्वम् ||७|| स तीर्थनेता विनुतो मयाऽपि चन्द्रप्रभो वासववृन्दवन्द्यः । देयादमेयं मम निर्गुणास्या- प्यपारकारुण्यनिधिः सुखम् स्तुतिमिति मतिमांस्तनोति यस्ते,
भुवनविभोऽष्टमतीर्थनाथ ! सम्यग् ।
५३
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॥६॥
1111
सुरवरमुनिसुन्दरस्तवानां,
स पदमनन्तसुखाद्वयोऽचिरात् स्यात् ||९|| औपच्छन्दसिकम् इति श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तोत्ररत्ननामाष्टमो मूलतश्च तरङ्गः ॥ अथ श्रीसुविधिजिनस्तोत्ररत्नम् ९ (वैतालीयम्) यदि वाञ्छथ शर्म शाश्वतं जनताः कर्मजयश्रियोज्ज्वलम् । स्तुत तत् सुविजितं यतः सदुपायः सदुपेयसिद्धये सुविधे ! सततं प्रमत्तता कलुषत्वेऽपि शिवाभिलाषिणि । करुणा क्रियतां तथा मयी - हितमेषोऽप्यचिराल्लभे यथा जननीं तत्र तां प्रणम्यहं, जिन ! रामेत्यभिरामनामिकाम् । त्वयि गर्भगतेऽपि ते गुणा-नमनद्या सुविधिक्रियादिकान् त्वयि भक्ततया सुतारका, जिनराजाऽजित यक्षराडपि । तव शासनभासनोद्यतौ, परिपातः सततं त्वदाश्रितान् मकराङ्कित ! सेवते ध्वजा - नुमितोऽनङ्गभटः पदौ नु ते । भवघातनशक्तिवाञ्छया, विनिहन्तुं निजवैरिणं भवम् अतिथिः स्वमनोगृहे चिरं, जिन ! सुग्रीवज ! यैर्निबध्यसे । कुरुषे गतबन्धनानिमाँश्चरितं तेन शर्मिस्तत्राद्भुतम्
॥ १ ॥
॥२॥
॥३॥
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॥ ६ ॥
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स्तोत्रमञ्चये
यदचिन्त्यमनन्तमव्यये, परमैोगिभिरर्थ्यते सुखम् ।
जिन ! यत्र तदेव वेतनं, करवै तत् खलु दास्यमेव ते । ७॥ न भवारिजयश्रियः परं, फलमीहेत कृती तव स्तवात् ।
इयमेव तव प्रसादतो, भवतात् तात! ममाचिरेण तत् ॥८॥ स्तुतिमिति मतिमाँस्तनोति यस्ते, सुविधिविभोऽखिलवान्छितार्थदात्रीम् । सुरवरमुनिसुन्दरस्तवानां, स पदमनन्तसुखाद्वयोऽचिरात् स्यात् ॥९॥
__
औप०
इति० श्रीसुविधिजिनस्तोत्ररत्ननामा नमो मूलतश्च तरङ्गः ॥
अथ श्रीशीतलजिनस्तोत्ररत्नम् १० ( रयोद्धता ) शीतलोऽपि हिमवद् भवद्विषो, मोहनक्षमदहज्जयश्रिये ।
यः शिवाध्वसुगमीकृतीच्छया, तं स्तुवे जिनवरं जगद्गुरुम् ।।:॥ केवलं दृढरथः पिता न त, निवृतिपुरे स्वमेयुषाम् ।
ज्ञानदर्शनचरित्रवर्णना-प्रापणे दृढरथस्त्वमप्यसि ॥२॥ नन्दया यदि विभो ! तवाम्बया, गर्भगे त्वयि पितुः क्षतः क्षणात् ।
गाढदाहदहनस्त्वया ततो, दुःखदाहदहने किमद्भुतम् ? ॥२॥ यक्षिणी तरुवरश्च सेवया, प्राप केवलमशोकतां न ते ।
उद्भवां हतिविहारदेशना-दर्शनैस्त्रिजगतीननोऽपि तु ॥४॥ ब्रह्मयक्षपरिषेवितक्रम, शीतलं त्रिजगतीसुरद्रुमम् ।
संस्मरन्नपि जनोऽनतेऽर्थितं, क्लिश्यते किमु ततः क्रियान्तरे ? ॥५॥ शीतलेशपदपङ्कज हृदि, स्थापयन्नमलभक्तितो जनः ।
कृत्रिमेतरविपद्णोद्भवं, सर्वतापनिचयं नयेत् क्षयम् ॥६॥ शिश्रियुर्विविधदेवतान्तरा-णीश ! येऽपि शिवसम्पदिच्छया । तैरपि त्वमधिपः श्रयिष्यते, नापरोऽस्ति हि शिवार्थिनां पथः ॥७॥ श्रीवत्सलाञ्छनजिनेश ! जगन्नमस्य !;
स्तोत्रस्य कोपि महिमा तव सोऽस्त्यऽचिन्त्यः ।
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त्रिदशतरङ्गिणी
यत्सम्भवं फलमशेषफलातिशायि,
स्यात्तद् व्यधामिमामितीदृशमस्तु तन्मे ||८| वसन्ततिलका स्तुतिमिति मतिमाँस्तनोति यस्ते, जिनवर ! शीतलनाथ ! विश्वतायिन् ! सुरवरमुनिसुन्दरस्तवानां, स पदमनन्तसुखाद्वयोऽचिरात् स्यात् ।।९॥औप० इतिः श्रीशीतलजिनस्तोत्रनामा दशमो मृलतश्च तरङ्गः ॥
अथ श्रीश्रेयांसजिनस्तोत्ररत्नम् ११ ( उपजातिः ) श्रेयांसनेतुः स्तवनेन मोह-जयश्रियं हस्तगतां विदध्याम् ।। त्रिलोकमैत्रीजसि मोहशत्रौ, जिते हि जेयं नहि किञ्चिदस्ति | | माता पिता वा तव विष्णुरस्तु, श्लाघापदं यन्नतिरर्थिताप्त्यै । देवान्तरं तद्गमुक्तमन्येन्यं, विष्ण्वन्तरं नाथ ! खपुष्पतुल्यम् ॥२॥ श्रेयांसभक्त्या मनुनं कृतार्थ, स्तवीमि यक्षेष्वहमीश्वरं वा । सा मानवी कस्य न माननीया !, श्रेयोऽर्थिनी श्रेयसि याऽतिभक्ता॥३॥ आजन्महिला अपि सेक्या ते, पापविमुक्ताः पशवोऽपि हि स्युः । एवं निबुध्येव तवांहिपीठं, निषेवते चिह्नमिषेण खड्गी
॥४॥ त्वत्पादसंस्पर्शपवित्रितानि, रसायनामानि रजांस्यपीश !। वन्द्यानि शकोपमऋद्धयोपि, त्वदंहिसेवाविमुखास्तु निन्द्याः ॥६॥ संसारनैर्गुण्यमपीन्द्रियाणां, दुरन्ततां वेनि जिनागमात्ते । ठकैः प्रमादैर्वशतां तु तेषां, नीये तदेतान् हर नाथ ! मेऽरीन् ॥७॥ इति स्तुतस्तीर्थपतिर्मयाऽपि, श्रेयांसनामा पुरुहूतपूज्यः । भीतं द्विधा वैरिगणात् प्रसद्य, क्रियात् सदा निर्भयशर्मकर्म ॥८॥ स्तुतिमिति मतिमांस्तनोति यस्ते, भुवन विभोऽखिल वान्छितार्थदात्रीम् । सुरवरमुनिसुन्दरस्तवानां, स पदमनन्तसुखाद्वयोऽचिरात् स्यात् ॥९॥
औप० इति. एकादशश्रीश्रेयांसजिनस्तोत्ररत्ननामा एकादशो मूलतश्च तरङ्गः ।
* इतःपरं पञ्चमं काव्यं नोपलभ्यते ।
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॥२॥
स्तोत्रसम्चये अथ श्रीवासुपूज्यजिनस्तोत्ररत्नम् १२ ( रथोद्धता) सर्व दैत्यविजयश्रियोज्ज्वलो, यं मरुत्पतिरभीक्ष्णमार्चयन् । सर्वकालमतिभक्तितः प्रभु, तं स्तवीमि वसुपूज्यभूपनम् ॥॥ नो गुणश्च न च रूपसम्पदा, वर्तते त्रिभुवन तवोपमा । नो मणीभिरथवा महत्त्वतः, सागरस्य हि मो जलाशयः अर्जितं चिरकृतान्तसेवया, पातकं क्षपयितुं तु सैरिभः ।। सर्वपापहरमीश ! ते श्रित-स्तीर्थमहियुगमङ्कदम्भतः । ॥३॥ श्रीजयाङ्गजं ! कुमारसेवित, चण्डया सततमर्चितं तव ।
योउंहिपद्मयुगलं निषेवते, तं जगत्त्रयमिदं निषेवते ॥४॥ भीरु भीमविषयद्विषां गणान्न त्यजेच्चपलतां च मे मनः ।
तत्तथा निजगुणैर्नियन्त्र्यता-मेतदीश ! भवति स्थिरं यथा ॥५॥ रोषतोषरहितोऽसि चेतथाप्यर्थ्यसेऽभिरुचितं तनोषि च ।
ईदृशोऽपि हि सुरद्रुमोऽर्थितः प्रार्थितं प्रददतेऽर्थिनां फलम् ॥६॥ वासुपूज्य ! विहरन् यथा भुवि, त्वं हरस्यसुमतामुपद्रवान् । ध्यानशक्तिशतो हृदि स्थितो, विद्विषो मम हराऽऽन्तरांस्तथा ॥७॥ त्वां निरीक्ष्य बहुतर्कलोचनै-देवतेषु परमं फलप्रदम् । एवमम्तवमशेषविद्विषा-मर्थये त्वविषयं पदं प्रभो !
॥८॥ स्तुतिमितिमतिमाँस्तनोति यस्ते, मुवनविभो ! जिनराज ! वासुपूज्य । सुरवरमुनिसुन्दरस्तवानां, स पदमनन्तसुखाद्वयोऽचिरात् स्यात् ॥९॥ औप. इति० द्वादशश्रीवासुपूज्यजिनस्तोत्ररत्ननामा द्वादशो मूलतश्च तरङ्गः।।
अथ श्रीविमलजिनस्तोत्रम् १३ ( द्रुतविलम्बितम् ) विमलबोधमवाप्य जयश्रिया, विषममोहरिपोः स्ववचोऽम्बुदैः । वृजिनपङ्कहृतेविमलीकृता-ऽऽश्रितकुलं विमलं जिनमाश्रये यदि भयं भवतां भवतान्तितो, भनत तत् कृतवर्मनृपाङ्गलम् । तदपहारविधौ हि बुधा मुधा, भवगतापरदैवतसंश्रयः
॥२॥
11१॥
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त्रिदशतरङ्गिणी
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विषयमोहगुणाद्यनुचिन्तना-चितमलं जलवज्जिन ! मे मनः । विमलतां नय हे विमलप्रभो !, निजगुणोत्करकातकचूर्णतः मिलिताः किल गर्भनिवासिना, स्वजननीमतिदेहगुणास्त्वया । मिलितं च जगज् जिन ! केवलोन्दयजुषा किमु मां तदुपेक्षसे ? ॥४॥ परकुतर्कंगणा भ्रमयन्ति ये, सुखततेः स्पृहयालुतया जगत् । तव मते रमयन्ति मनस्विनो, जिन ! त एव विचारितगोचराः विषयगृध्नुत्रचोऽनुगचेतस-स्त्वदुद्विते न रतिं दधते जनाः । तदिह शूकरलाञ्छन ! नाद्भुतं, जहति किं न सरोऽशुचिपा द्विका: ? ॥६॥ पदजुषस्तव षण्मुखयक्षराड्, जिन ! सुखाकुरुते विजयाऽपि च । तदिदमीयगुणानुगमीश ! मा मपि सुखाकुरुतामभितोऽपि तौ चिरमनन्तभत्रभ्रमणार्दितस्तत्र पदौ शरणं समुपागमम् ।
विमलनाथ ! तथा कुरु मां यथा, जिन ! भवाम्यचला मितशर्मभाक्॥ ८ श्यामापि माता विमलीकृता स्वा-वस्थानतो येन जिनेन गर्भे । हृदि स्थितोऽयं विमलो पङ्क - हृतेर्दयाब्धिर्विमलीक्रियान् माम् ||९|| स्तुतिमिति मतिमास्तनोति यस्ते, विमलविमोऽखिलवाञ्छितार्थदात्रीम् ।
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सुरवरमुनिसुन्दरस्तवानां,
स पदमनन्तसुखाद्रयोऽचिरात् स्यात् ॥ १०॥ औप० इति ० त्रयोदशश्री विमलनाथस्तोत्ररत्ननामा त्रयोदशो मूलतश्च तरङ्गः ॥ अथ श्री अनन्तजिनस्तोत्ररत्नम् १४ ( उपजाति: ) अनन्तसम्पत्प्रभवः स्तुतः स्यादनन्तसंसारजयश्रिया यः । अनन्तगौरामितकान्त कीर्ति-मनन्तमन्तमहं स्तुवे तम् ॥ १ ॥ तत्रावतारस्य विभो ! महिम्ना कथं न माता सुयशा भवेत् सा ? 1 गीतं सुरेन्द्रैरपि देव ! यस्या, मुदा यशः पूरितदिवितानम् तव प्रभावाज्जनकस्य सेनां, सिंहोपमां शत्रुगणो ददर्श । मृगोपमं स्वं तु रणेषु मेने, स सिंहसेनः प्रथितस्ततोऽभूत्
॥२॥
॥३॥
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स्तोत्रसञ्चये
पातालयक्षप्रभुणाऽनुशाह्व-देव्या च ते रक्षितभक्तराशेः । सेवेत सर्वावहरं तु तीर्थ, श्येनोऽङ्कमिट् पादयुगं स्वशुद्धये ॥४॥ भ्रमन्ननन्तेषु भवेषु वैरि-पराभवैरेव भृतोऽस्मि देव !।। प्रभुस्त्रिलोक्या अपि रक्षणेऽसि, स्वमाश्रितं तत् किमुपेक्षसे माम् ?॥५॥ जगत्सतत्त्वानि विचार्य लेभे, दुःखक्षयायौपयिक मर्यकम् । त्वय्येव नाथत्वधियो निवेश-स्ततोऽपि नाद्यापि कथं सुखी स्याम् ? ॥६॥ आशक्रकीट विविधोच्चनीच-भवोद्भवान्तादिकदर्थनासु । पराक्रमो यस्य समो विमोह-रिपोस्त्वमेवाऽस्य जिनाऽसि जेता ॥७॥ ततो भियाऽस्माच्छरणं श्रितोऽस्मि, पदौ तवैवाहमनन्ततः!। अतस्तथा द्राक् कुरु निर्भयं मां, यथा परानन्दनमयः सदा स्याम् ॥८॥ स्तुतिमिति मतिमास्तनोति यस्ते
___ऽखिलरिपुक्षेत्रगुणामनन्तनेतः ।। सुरवरमुनिसुन्दरस्तवानां,
स पदमनन्तसुखाद्वयोऽचिंरात् स्यात् ॥९॥ औप. इति० चतुर्दश श्री : अनन्तजिनस्तोत्ररत्ननामा चतुर्दशो मूलतश्च तरङ्गः॥
अथ श्रीधर्मजिनस्तोत्ररत्नम् १५ (शालिनी) स श्रीधर्म ! त्वं जय श्री जिनेन्दो !, श्रेयः सर्व संस्तुतिर्यस्य दत्ते । तस्मादेतां कुर्वते सर्वशक्त्या, देवेन्द्राधा योगिनश्चाप्यशेषाः ॥१॥ पास्येवाऽन्ताद्यापदो नाथ ! विश्वं, नीलं वासः क्रूरतां मन्दतां वा ।। खभ्रान्तिं वा नैव धत्से कदाचित् , ख्यातश्चित्रं भानुसू नुस्तथापि १२।। भक्तिं धत्ते यः सुते सुव्रताया-स्तस्मिन् भक्ता स्यात्त्रिलोक्यप्यनस्त्रम् । द्वषे तस्मिन् यश्च कुर्यात्कदापि, द्विष्टाः सर्वाः सम्पदोऽस्मिन् सदापि ॥३॥ कन्दर्पाय॑ किन्नरोपासनीयं, विश्वेशं योऽन्यानुवृत्त्यादिनाऽपि । श्रीमदधर्म वन्दते वन्दते तं, मामाधीश्वराली क्रमेण ॥४॥ मन्ये विश्वप्राणिनां संश्रितानां, दुर्निर्भेदादृष्टभूभृद्गणानाम् । भेदार्थ यो वज्रमच्छलेना-जस्रं धत्ते धर्मनाथं श्रये तम् ।
॥६॥
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त्रिदशतरङ्गिणी
माहस्तेषां विश्वनैत्रोनितेभ्यो, रागा दिभ्यश्चेतसां भीषिद्भयः । त्वत्सिद्धान्तप्रौढदुर्गस्य मध्ये, नावस्थान यानि जातु त्यजन्ति ॥६॥ किं वाच्योऽयं कर्मणां ही विपाकः, केचिद्यस्मात्सत्यपि त्वय्यधीशे। संप्ताराब्धेीरवोपि श्रयन्ते. मोहादीनां धाम देवान्तराणि ॥७॥ यस्य स्तोत्रे स्यात् समीहाऽप्यनन्त-श्रेयःप्राप्त्यै किं पुनावृतत्वम् । स श्रीधर्मः शत्रुभीतिप्रशान्त्या, तन्यान् नाथः शाश्वतं मे प्रमोदम् ॥८॥ स्तुतिमिति मतिमाँस्तनोति यस्ते,
त्रिभुवनपालक ! धर्मतीर्थनेतः । सुरवरमुनिसुन्दरस्तवानां,
स पदमनन्तसुखाद्वयोऽचिरात् स्यात् ॥९॥ औप, इति० पञ्चदशश्रीधर्मजिनस्तोत्ररत्ननामा पञ्चदशो मूलतश्च तरङ्गः ॥
__ अथ श्रीशान्तिजिनस्तोत्ररत्नम् १६ (उपनातिः) जयश्रिया भारतभूपतीनां, यः पञ्चमश्चक्रभृतां बभूव । मोहाद्यरीणामथ पोडशोऽर्हन् , शान्तिं तमीडे जिनमार्तिशान्त्यै ॥१॥ निर्वाण्युपास्यं गरुडार्चनीयं, श्री विश्वसेनोरुकुलाम्बरार्कम् । भनन्ति ये श्रीअचिराङ्गनं तान् , सुरेशितारोऽप्यनिराद्भजन्ते ॥२॥ निनाभिवोच्चारकृतोऽखिलार्ति-शान्तिं वितन्धन् ध्वनिवस्तुनोर्यः ।। तादात्म्यमावेदयते प्रशान्तिं, स शान्तिनेता नयतादयं मे ॥३॥ प्रमाथशक्ति तमसो निजारे-गिन् मृगाङ्कोऽनुमितः स्वचिह्नात् । निषेवते यं किल सर्वभीतीः, स मे निहन्यान्मृगलाञ्छनोऽहन् ॥४॥ अदा जगद्यो जननादिभिः स्वैः, शान्ते ! सुरङ्ग किमहं कुरङ्गः । सुरङ्गता मेऽस्त्विति यं मृगोऽङ्क-निभान्नु विज्ञाय यते ! भजे तम्॥५॥ विधोः सुधातोऽभ्यधिकां विभावयन् ; मृगो नु जन्मान्तनरादिनाशनात् । वचःसुधां यस्य पिपासुरङ्कता, भजत्ययं शान्तिजिनः शिवाय मे ॥६॥ स्मरापहारी न भवाश्रयः सदो-दिताक्षर श्रीर्गतनाड्यगोततिः । कुरङ्गदोषोज्झनकृत्तमोऽर्दयन् , जिनोऽवतान्मां मृगलक्षणो नवः ॥७॥
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स्तोत्र सञ्चये
पितृणानां दहने प्रगल्भते, लत्रोऽपि वह्नेरिव यस्य संस्तुतेः । प्रभुः सशान्तिर्द्विविधा द्विषां मियोऽपनीय मे नित्यसुखाद्वयं क्रियात् ॥८॥ स्तुतिमिति तनुते जिनेन्द्र ! यस्ते, मघमहामुनिसुन्दरस्तुतांहैः ।
६०
स भवति गुणसम्पदा समस्ते,
॥२॥
फलमिति तद्वितराचिरान्ममापि ||९|| औप० इति० षोडशश्रीशान्तिजिनस्तोत्ररत्ननामा पोडशो मूलतश्च तरङ्गः ॥ अथ श्री कुन्थुजिनस्तोत्ररत्नम् १७ ( वंशस्थम् ) बभूव यः सर्वसगर्व भूभृतां जयश्रिया भारतषष्ठच्चक्रभृत् । सकुन्थुनाथः स्तुतिगोचरीभवन् पुनातु मां सप्तदशो जिनेश्वरः ॥ १ ॥ सुखानि कुन्थुः प्रभुरातनोतु मे, स शाश्वतानन्दमयानि सर्ववित् । यदीयविज्ञानसरोरुहोदरे, मधुत्रताभां भुवनानि विभ्रते भवमा विद्वात्कामता ममारतां चच्छगलाङ्कितो दधत् । तथाऽपि यः श्रीतनयः प्रसिद्धिभागू, मतं स तन्यान् मम कुन्थुतीर्थराट् ॥ ३ ॥ सुवर्णकान्तिदैवते न मन्दतां न खभ्रमं जातु न वक्रतामपि । स्तुवन्ति यं सूरसुतं बुधास्तथाऽप्यहो ! स कुन्थुः प्रथयत्ववक्षयम् ॥४॥ न यक्षिणी सा जिन ! केर्बला या, स चापि गन्धर्वसुरः प्रशस्यते ? 1 त्वदंहिसेवादिभिरामरं जनुः स्वमीश ! याभ्यां क्रियते फलेग्रहि ॥५॥ बभार यश्चक्रिपदे नवोत्तमान्, निधीनू जिनत्वे च स तत्त्वशेवधीन् । प्रदीयमाना जगतोऽपि येऽव्ययं, न यान्ति कुन्थुः स मुदेऽस्तु मे प्रभुः ॥ ६ ॥ श्रयामि तं कुन्युविभुं समीहित-प्रदप्रसादं परमेष्ठिनां परम् । यदहिसेवाविधिकल्पवीरुधः, फलानि चक्रीन्द्रजिनेन्द्रसम्पदः द्विधाऽखिलद्वेषिविनिर्जयाद्यतो बभूव चक्री जिननायकश्च यः तमेव मे द्राक् स कृपानिधिः कृपा-ssस्पदस्य कुन्युर्ददतां कृतस्तुतिः ॥८॥
,
स्तुतिमिति तनुते जिनेन्द्र ! यस्ते,
,
मघव महामुनिसुन्दरस्तुतांहेः ।
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त्रिदशतरङ्गिणी स भवति गुणसम्पदा समस्ते,
फलमिति तद्वितराचिरान्ममापि ॥९॥ औप० इति० सप्तदशश्रीकुन्थुजिनस्तोत्ररत्ननामा सप्तदशो मूलतश्च तरङ्गः।।
__ अथ श्रीअरजिनस्तोत्ररत्नम् १७ ( उपजातिः) संसारशत्रोविनयश्रियाऽऽप्य-मिच्छन् शिवं चक्रिरमां जहौ यः। अरं जिनं तं विषयैर्विचित्रै-ररञ्जित स्तोमि जिताखिलाऽऽरम् ॥१॥ चिकीर्षतेऽपि स्तवने तवेष्टान्यास्कन्दतां तत्करणे न चित्रम् ।। देवान्तराणां तु कृतेऽप्यमुष्मिन् , प्रयासमेवाऽऽप्नुवां कथं तत् ? ॥२॥ सुदर्शनक्ष्मापतिवंशमौलिं, देवीतनुजं जगतामधीशम् । परानुवृत्त्यापि नरोऽरदेवं, स्तुवन्न रोरत्वमुपैति जातु
॥३॥ यक्षेशयक्षं जिन ! तं स्तवी मि, धारिण्यभिख्यामपि यक्षिणी ताम् । नित्यं तत्रोपासनभक्तदक्षा-दिभिः शिवं यौ कुरुतः करस्थम् ॥४॥ चिह्नन्छलाद् यद्विदधाति नन्द्या-वर्त्तः प्रभो ! ते पदपद्मसेवाम् । अचेतनोऽप्येष बभूव तेन, धुरीणवृत्तिः किल मङ्गलेषु ॥५॥ निरासि यन्मोहरिपुस्त्वया त-त्वन्मत्परान्न्वेष रुणद्धि जन्तून् । पुरे विविझूस्तव शासने ते, त्वा मित्यदृष्ट्वैव भवे भ्रमन्ति ॥६॥ को वाऽत्र दोषस्तव तस्य वेश !, तस्यैव यत्ते दधते सदाज्ञाम् । स्वाज्ञानुगेष्वेव तु स प्रगल्मो, जह्यर्बुधास्तद्भवदां तदाज्ञाम् ॥७॥युम्मम्।। मा त्याक्षीर्जिन ! नस्त्वदेकशरणान् स्वामी पुनस्त्वत्समो, भावी क्वेति *कुनाभयो नव मरुत्सञ्चारिताब्जच्छलात् । भक्त्या केवलिनं चरन्तमवनीं विज्ञापयन्ति स्म यं, तन्यात् सर्वभयक्षयान्मम परं श्रीमानरः शर्म सः ॥८॥ शार्दू० स्तुतिमिति तनुते जिनेन्द्र ! यस्ते, मघवमहामुनिसुन्दरस्तुताहेः ।। स भवति गुणसम्पदा समस्ते, फलमिति तद्वितराचिरान्ममापि ।।९।।औप० इति० अष्टादशश्रीअरजिनस्तोत्ररत्ननामा-अष्टादशो मूलतश्च तरङ्गः।.
* निधानानि
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६२
स्तोत्र सञ्चये
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अथ श्रीमल्लिजिनस्तोत्ररत्नम् १९ ( रथोद्धता ) मल्लिनाथ | भवतः स्तवं द्विधा, सर्ववैरिविजयश्रिये भजे ! सेवितानि सदुपाययोगतः स्याद्बुधः पदमुपेयसम्पदः ये प्रकल्पित कियत्फलेष्वपि स्वर्तुमादिषु भृशं जिनाऽऽदृताः । निश्चितेन्द्रविभवादिसत्फले, तेऽपि किं तव गुणस्तवेऽलसा : ? कुम्भसम्भव ! भवान्विशोषण, नाद्भुतं तव तदद्भुतं पुनः । यद्रविं स्वमहसा विजित्य भा-मण्डलाङ्गमकृथाः स्वसेवकम् तां तवेश ! जननीं प्रभावती, स्तौम्यनन्तमहिम प्रभावतीम् । त्वां प्रसूय भुवनत्रयप्रभुं प्राप या मघवतामपि स्तुतीः सेवते जिन ! कुबेरयक्षराज् यौ शिवाय धरणेन्द्रपत्न्यपि । त्वत्पदौ मम हृदीश ! तिष्ठतां, तौ सदापि किमतोऽर्थसे परम् ॥५॥ गीः सुधां तत्र पिबद्धिराष्यते, नैव तृप्तिरमरासुरादिभिः । ते तयेति नु घटानपूपुरन, विस्मृतोऽङ्कमिषतश्च कोऽपि सः क्लिश्यते किमिह सम्पदर्थिभिर्मन्त्रयन्त्र सुरसाधनादिभिः । ध्यानतोऽपि तव पादपङ्कजं, भक्तिकाय वितरत्यभीप्सितम् भल्लिनाथ ! भवतः स्तवादतः, प्रार्थये नहि नृपादिसम्पदः । सप्तभीतिरहितं तु देहि मे, सौख्यमेत्यनुभवं तवैव यत् स्तुतिमिति तनुते जिनेन्द्र ! यस्ते, मत्रवमहामुनिसुन्दरस्तुतां हेः । स भवति गुणसम्पदा समस्ते, फलमिति तद्वितराचिरान्ममापि
॥८॥
॥९॥
इति० एकोनविंशति श्रीमल्लिनाथस्तोत्ररत्ननामा एकोनविंशतितमो मूलतश्च तरङ्गः ॥
अथ श्रीमुनिसुव्रतजिनस्तोत्ररत्नम् २० ( स्वागता ) श्री सुमित्रनृपनन्दन ! नन्द, स्वर्दुमाभ 1 जगदीहितदाने । संस्तवेन मुनिसुव्रत ! तेऽहं, सर्ववैरिविनयश्रियमीहे
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॥१॥
॥२॥
॥३॥
118 11
॥६॥
॥७॥
॥१॥
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________________ त्रिदशतरङ्गिणी 63 पद्मया सह तवेश ! जनन्या, नाममैत्र्यमदधात् कमला यत् / तेन सैव भगवन् ! जगदा-पात्रतामियमपि प्रतिपेदे // 2 // सर्वदेवतशिरोमणितां ते, यक्षराज ! वरुणाह्वय ! मन्ये / सुव्रतस्य पदपङ्कजसेवां, यः करोष्यविरतं शिवहेतुम् // 3 // नो शिवां नहि शचीं न च रम्भा, स्तौमि किन्तु भवतीं नरदत्ते ! / या निहन्ति मुनिसुव्रतभत्तया, सर्वतोऽपि मुनिसुव्रतविघ्नान् // 4 // स्तोत्रमीश ! कमठोऽहति तिर्य- प्ययं भजति योऽङ्कमिषात्त्वाम् / / तैस्तु किं नरगणैरमरैर्वा, ये समत्सरधियस्तव दूरे ! // 5 // को भवः ? किमथ विघ्नभयं स्यात् ?, किञ्च दुःखमरतिर्ननु का वा ? | कश्च तस्य जगति प्रतिकूलः, सुव्रतेश ! हृदि तिष्ठसि यस्य // 6 // सर्वकर्मविजाय स्तवनं ते, सर्वसौख्यविजयीश ! सुखं ते / / सर्वधर्म विजयी तव धर्मः, सर्वदेव विजयीत्यसि देवः // 7 // प्रार्थये तदिति नाथ ! मनो मे, चापचञ्चलं न मुनिसुव्रत ! मुश्चेत् / निश्चला वसतु तत्र तु नित्य, सर्ववाञ्छितकरी तव भक्तिः // 8 // स्तुतिमिति तनुते जिनेन्द्र ! यस्ते, मघवमहामुनिसुन्दरस्तुताः। स भवति गुणसम्पदा समस्ते, फलमिति तद्वितराचिरान्ममापि ॥९॥औप० इतेि. विश श्रीमुनिसुव्रतजिनस्तोत्रनामा विंशो मूलतश्च तरङ्गः।। अथ श्रीनमिजिनस्तोत्ररत्नम् 21 ( वसन्ततिलका ) श्रीमन्नमे ! भवरिपोर्विजयश्रियेऽहं, स्तोत्रं सृजामि भवतः करणीयमिन्द्रैः / मन्दोऽपि दृष्टचरसत्कलसम्भवायां, ___नालस्यपङ्ककलुषो हि शुभक्रियायाम् // 1 // मन्ये यदङ्गरुचिभिः परिभूतशोभ, तत्साम्यमिच्छदनलेष्वसकृत्प्रवेशः। अष्टापदं चरति शुद्धमहाक्तानि, श्रीमन्नमिः स हृदि मे स्थिरतां दधातु // 2 // "Aho Shrut Gyanam"
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________________ अर्हन्नमे ! भृकुटियक्षपरक्ष्यमाण भक्तवजस्य विजयक्षितिपालसूनोः / गान्धार्युपास्यचरणस्य दधत्तवाऽऽज्ञां, मान्यो भवेन्मघवतामपि मुक्तिकाम्यः // 3 // वप्रायते स्म जगतीजनदूरगाया (?), सा पालने गुणततेः किल निर्मितायाः / वप्रेति तेन विदिताऽजनि यस्य माता, ज्ञानादिसम्पदमयं तनुतां नमिमें // 4 // मन्ये सदैव परिशीलनवाञ्छ्यायत् पादाम्बुजस्य निकटे घटयाञ्चकार / नीलोत्पलाङ्कमिषतः कमला स्वगेहं, स श्रीनमिः सृजतु मुक्तिरमां वशां मे // 5 // व्योमाग्निवायुजलभूत्रिगुणातिगाय, वाङ्मानसेन्द्रियगणाविषयस्वरूप ! / विश्वोपकारकृदनन्तगुणात्मकाय, सूक्ष्माय नाथ ! महते च नमोऽस्तु तुभ्यम् // 6 // यत्पूजनात् परममस्ति परं न पुण्य, ध्येयं न योगिततिभिः शिवकृद्यतोऽन्यत् / पापं न तन्न यदपति यदीयनाम्ना, तं देवदेवमसम नमिमानमामि // 7 // आरध्यते परमयोगिभिरीशिता यो, यस्मै पदाय विविधैः स्तवनायुपायैः / देयात् तदेव भगवान् स नमिर्ममापि, नैवाहतादि विमृशन्ति दयालवो यत् // 6 // स्तुतिमिति तनुते जिनेन्द्र ! यस्ते, मघवमहामुनिसुन्दरस्तुताः / "Aho Shrut Gyanam"
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________________ त्रिदशतरङ्गिणी स भवति गुणसम्पदा समस्ते, फलमिति तद्वितराऽचिरान् ममापि // 9 // (औप०) इति० एकविंशतितमश्रीनमिजिनस्तोत्ररत्ननामा एकविंशो मूलतश्च तरङ्गः।। अथ श्रीनेमिजिनस्तोत्ररत्नम् 22 विभित्य यो विश्वनयश्रियोन्मद, स्मरा रिवैरं नृसुरासुराजितम् / अवापदार्हन्त्यरमामनुत्तरी, स्तवीमि तं नमिजिनं जगत्पतिम् ॥१॥(वंश) आनन्दमात्रं किल भुज्यमाना, दत्ते क्षणं रागिण एवं नारी / वैराग्यभाजोऽपि हि संयमश्री-ध्रुवं महानन्दमपि त्वनन्तम् // 2 // (उप०) विमृश्य धीमानिति यो विहाय, राजीमती माढचिरत्नरागाम् / भजेऽपरां विश्वजितः स्मरस्य, जेता शिवाभूर्मम सोऽस्तु नेता // 3 // (युग्मम् ) गोमेधयक्षार्चित ! शङ्खलक्ष्मन् !, स्तुवेऽम्बिका तां जगदम्बिकाभां / सुखीकृता विघ्नहृतेर्यया स्युः, शिवार्थिनः के तव सेवका न ? // 4 // यद्वयानधूमध्वजयोगताऽभूदनादिरागादिमलव्यपायात् / / राजीमतीमानसहेम शुद्धं, करोतु नेमिर्हदि मे स वासम् // 5 // नर्मि श्रयामि शरणं त्रिजगत्प्रभुर्यो, धत्ते स्फुरत्तनुकरप्रकरच्छलेन / भक्तिप्रणम्रजनदर्द्धरपापवैरि-प्रध्वंसनप्रगुणितान् बहुलोहदण्डान् // 6 // अथवा-तं श्रीने मिविभुं श्रयामि शरणं स्निग्धं घनश्यामलं, योऽयस्कान्तमणित्रनं निजवपुस्तिोमपिण्डच्छलात् / धत्ते मोहभट द्विपस्त्रिजगतीभव्याङ्गसंस्थान् स्फुरत्कामाद्यस्त्रगणान् व्यथां विदधतः ऋष्टुं समन्तात्किल // 7 // (शार्दू०) तत्रान्तर्विवसन् विगाह्य विपुलं श्रीराजिमत्या मनो वाद्धि केवलरत्नमाविरकरोत्तद्यः क्षमाभृद गुरुः / लोकालोक विभासनैकनिपुणं यन्नामरेन्द्ररपि, प्राप्तुं शक्यमिमं समुद्रविजयक्ष्मापालपुत्रं भजे // 8 // (शार्दू०) "Aho Shrut Gyanam"
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________________ स्तोत्रसञ्चये स्तुतिमिति तनुतं जिनेन्द्र ! यस्ते, मघवमहामुनिसुन्दरस्तुताः / स भवति गुणसम्पदा समस्ते, फलमिति तद्वितराऽचिरान् ममापि // 9 // __ (औप० इति० द्वाविंशश्रीनेमिजिनस्तोत्ररत्ननामा द्वानिशो मूलतय तरङ्गः।। अथ श्रीपार्श्वजिनस्तोत्ररत्नम् 23 ( उपनातिः ) जगजयश्रीप्रभुताफलं स्याद् , यहिसेवाविधिकल्पवल्लेः / तं पार्श्वसंसेवितपार्श्वदेशं, पाचप्रभु स्तौम्यहिरानसेव्यम् // 1 // यथेष्ट संवत्सरदानकाले, सुरदुरत्नत्रिदशादिकम्यः / ददौ प्रभावं यममी तमद्या-प्याविभ्रते पार्थविभुं श्रये तम् // 2 // सहस्त्रशीर्षोपि (पेण) मया क्षमा धृता, प्रकम्पतेऽनेन तु चेतसापि न / इतीव भक्त्या फणिराड निषेवते, यमङ्कमिट पार्श्वविभुः स पातु माम् // 3 // ते सेवेऽहं श्रेयसे पार्थमाज्ञा, विश्वव्यापी (प्ता) कल्पवल्ली यदीया / त्रैलोक्यस्य द्वन्द्वतापस्य ही, दत्ते सर्वाभीष्टसम्पत्फलानि // 4 // शालिनी अस्मिन्प्रभावऽमृतदेऽपि सति श्रितानां, द्वेष्यः किमेप जगतो विपतो भवामि ? / ध्यात्वा फणीत्यमृतमर्थयते यमङ्क दम्माद् भजन जिनमिमं प्रणतोऽस्मि पार्थम् // 5 // (वसन्त०) सप्तद्वीपरवीन् विनित्य भगवान् ज्ञानप्रकाशाद् निजाद , धत्ते सप्तनयध्वजान् फणिफणव्याजेन यो भास्वरान् / विश्वेच्छाविषयप्रदान निपुणस्त्रैलोक्यरक्षागुरुः, ___ स श्रीपार्श्वविभुर्दधत्वविरतं चित्ते निवासं मम // 6 // (शार्दू) नो विद्वेषिभयं दुरामयभवं दुःखं न चोज्जम्भते. ___दुष्टक्ष्मापखलादिभी भविनां चौरादिशङ्का च नो / न क्लशोपि जनुर्नरामृतिमयो यस्या यस्य स्मृतेः, श्रेयोवल्लीनवाम्बुदः स भगवान् पार्थप्रभुः पातु माम् ॥७॥(शार्दू "Aho Shrut Gyanam"
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________________ त्रिदशतरङ्गिणी श्रीवामेयजिनावसेनवसुधाभृदंशभषा प्रणे !, त्वद्भक्तत्रनपालमाहितमनःपद्मावतीसेवित ! ! नार्थ त्वां शरणं श्रितोऽस्मि विविधक्लेशाकुलस्तन्ममा--- ऽशेषद्वषिभयान्यपास्य परमानन्दं प्रदेाक्षरम् // 8 // म्सुतिमिति तनुते जिनेन्द्र ! यस्ते, मत्रमहामुनिसुन्दरस्तुतांहेः / स भवति गुणसम्पदा समस्ते, फलमिति तद्वितराऽचिरान् ममापि ॥९॥वता . इति० त्रयोविंशश्रीपार्श्वजिनस्तोत्ररत्ननामा त्रयोविशो मूलतश्च तरङ्गः।। अथ श्रीवर्द्धमानजिनस्तोत्ररत्नम् 24 ( वंशस्थम् ) जयश्रिये कर्ममहारिसन्ततेः, स्तुवन्ति यं विश्वगुरुं सुयोगिनः / तदर्थताया वशतोऽहमप्यन, निरञ्जनं वीरजिनं स्तवीमि तम् // 1 // न केवलं नाथ ! स सान्वयाभिवो, बभूव सिद्धार्थधराधवः क्षितौ / तवावतारेण जगत्त्रयीननो-ऽप्यवाप, सिद्धार्थतयैव सम्पदम् // 2 // त्वादृक् सुताप्त्यै त्रिशलां तनुं स्त्रियाः, श्रितां स्तुमस्तां किल विश्वदेवताम् / बभवुषी या तव जन्मकर्मणा, सुरेश्वराणामपि संस्तुत: पदम् // 3 // तुल्ये कुरङ्गक्षितिकर्मणि प्रभो !, कथं शिवे ते नरके तु में गतिः / ममाप्यदो देहि जगच्छिङ्कर !. त्वामर्थयेतेति हरिः किलाङ्कभाका 4 // भजन्ति मातङ्गसुरार्चितौ पदो, सिद्धायिकासेव्यतमौ तवेश ! ये। कलां त्वदीयामचिरादवाप्य ते, मग-सु वृत्ति दधते सुपालिनीम् // 5 // स्थैर्यतस्त्रिजगतीजयिनो मे, क्योपमान मिममाहुरिहार्याः / कम्पयन् सुरगिरिं चिति तान् योऽ- बुधजयति वीरजिनोऽयम् // 6 // (स्वागता) भवभयहरणं जगच्छरण्य, शरणमहं तमुपैमि बर्द्धमानम् / कलियुगवनदुर्दिनऽधुनापि, स्फुटयति तत्त्वपथान यदागमार्कः॥७॥ (वैता.) एवमानुत ! भवारिजयश्री-प्राप्तये निरुपषि मम सोधिम् / वर्द्धमानजिन ! देहि यतः स्या-मर्थतस्तव पितुः समनामा / / 8 / / (स्वागता। "Aho Shrut Gyanam"
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________________ स्तोत्रसञ्चये स्तुतिमिति तनुते जिनेन्द्र ! यस्ते, मघवमहामुनिसुन्दरस्तुतांहः / स भवति गुणसम्पदा समस्ते, फलमिति तद्वितराऽचिरान् ममापि // 9H // 3 // // 4 // इति० चतुर्विंशश्रीवर्द्धमानस्तोत्ररत्ननामा चतुर्विशो मूलतश्च तरङ्गः // ___अथ श्रीवईमानजिनस्तोत्ररत्नम् 25 (रथोद्धता) मङ्गलानि स ददातु भाविना, वीरतीर्थपतिरुल्लसन्महाः / यस्य धर्ममधुनापि बिभ्रतः, प्राप्नुवन्त्यरिजयश्रियं बुधाः // 1 // उपेयुषो यस्य शिवं तदागमोद्भवां बुधा वीक्ष्य पदावली स्फुटाम् / अयेयुरद्यापि तदध्वनीनतां, स वीर ! सार्थप्रभुरस्तु मे मुदे // 2 // श्रीधर्मकल्पद्रुरयं यदुप्तः, प्रबुद्धशाखो भरतावनीतले / फलत्यभीष्टेरधुनापि सौख्य-फलैमजे तं त्रिशलातनूजम् सुखं स तन्यान् मम वर्द्धमानो, जगत्प्रमुर्निर्वृतिलक्ष्मिनाथः / शिवं यदाज्ञानुगमाल्लभन्तेऽन्यथा तु जीवा भवदुःखदण्डम् रागादिदोषगदनिर्दलनाय येषां, सिद्धौषधन्ति वचनानि शरीरिबर्गे / अद्यापि भान्ति सरसानि शिवङ्कराणि, वीरो महाभिषगयं जगतां मुदेऽस्तु // 5 // वितरतु स सुखानि वर्द्धमानः, प्रणतिमतां भगवानभङ्गुराणि / कलिघनतमदुर्दिनेऽधुनापि, स्फुटय ति तत्त्वमणीन् यदागमार्कः // 6 // (औपच्छन्दसिकम् ) दानाद्यहिबलः कुतर्कमृगमुक् स्याद्वादवादस्फुरत् क्ष्वेडस्तीर्थमतङ्गनान् विमदयन् स्फूर्जत्प्रभावालधिः / रक्षन् शासनकानन विजयते यद्धर्मपञ्चानन स्त्रैलोक्याप्रतिमाप्रधयॆमहिमा वीरप्रभु तं श्रये // 7 // "Aho Shrut Gyanam"
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________________ त्रिदशतरङ्गिणी निनः श्रीमान् वीरस्त्रिभुवनहितो धर्मचक्री परं मे, वितन्याद् भद्रौवं सुरनरपतिश्रेणिसेव्यांहिपद्मः / श्रियोऽनन्ता दत्ते सकलजगतामध्यभीष्टाः सदोद्यत् परानन्दा धर्माक्षयनिधिरयं सेव्यमानो यदीयः / 8 / / (मेघविस्फूर्जिता) स्तुतिमिति तनुते जिनेन्द्र ! यस्ते, मघवमहामुनिसुन्दरस्तुतांहे। म भवति गुणसम्पदा समस्ते, फलमिति तद्वितराऽचिरान् ममापि // 9 // इति युगप्रधानावतारतपागच्छाधिराज-परमपूज्य श्रीदेवसुन्दरसूरिगुरुगणमहिमाणवानुगामिन्यां तद्विनेयश्रीमुनिसुन्दरसूरिगणिहृदयहिमवदवतीर्णश्रीगुरुप्रभावपद्महदप्रभवायां श्रीपर्युषणामहापर्वविज्ञप्तित्रिदशतरङ्गिण्यां जयथ्यङ्कायां प्रथमे निनादिस्तोत्ररत्नकोशापरनामनि नमस्कारमङ्गलस्रोतसि वर्तमानचतुर्विंशतिश्रीजिनस्तवचतुर्विशिकाह्वमहाहूदे श्रीवर्द्धमानस्यापश्चिमतीर्थपतेः सम्प्रति प्रवर्त्तमानश्रुतधर्मतीर्थप्रवृत्तिद्वारस्तुतिरूपः स्तोत्ररत्न नामा पञ्चविंशो मूलतश्च तरङ्गः // 25 // // 2 // श्री वीरस्तवः जय सिरिजिणवर ! तिहुअणजणमणवंछिअसुहत्थकप्पतरू / सिरिवद्धमाणसामिअ ! होस पहू मम तुमं निच्चं भविआण थुणिअचलणो, सामित्तं देसि तिहुअणस्सावि / कप्पतरुस्स छिअ-दाणो एसो तुह सहावो सयलाओ हुँति रिद्धी, भद्दकरा गहनिमित्त-सउगसरा / विलसति नाणदसण-चरणा तुह पयपसाएण दसणनाणचरित्ते, दाउं जह गोयमाइगणवइणो / सिवसुहलच्छीसहिआ, विहिआ तुह नाह ! कुणम् ममं इअ सुरनरनाहमहा-मुणि सुंदर संथवारिहो वीरो / सामी कुणसु पसायं, नियपयसुहदाणओ अइरा // 2 // // 4 // // 6 // "Aho Shrut Gyanam"
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________________ - शुद्धिपत्रकम् पृ. पङ्क्तिः अशुद्धम् शुद्धम् 3 26 करण ०प० ०दुःख० करेण दपव० ०६ःख. 14 20 15 21 15 22 कुतुकं ०स-द्यद० जनु:स्न० द्विशेषज्ञते. सांस्क्रियां 0 रूपात्मनो, कार्तिककस्य 15 22 22 कतुक ०सय-द. जनुःख० -द्विशेषज्ञ ! ते. सस्क्रियां सुपात् मनो, कार्तिकस्य प्रभु पौषशु० 0 सुतश्च श्रा० ०न्त भ से परम तालीयम् विभष. प्रभु पौषे शु० 06 occc 0 060cdAG6 सुतश्च श्री० ०न्तरे भासे परम वैतालीयम् विभूष. 40 25 होसु ये पुनराधे में येषु नरेष्विमे 44 2 त्रि ०करस्ता० 0 करोस्तवा लमः "Aho Shrut Gyanam"
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________________ त्रिदशतरङ्गिणी पृ. पक्ति अशुद्धम् शुद्धम् 47 12 सभय० पित्रस्ता० सद्म य. •पि भीस्ता. 47 24 1 * मनो मु. ०द्ध प्र० 48 6 ०मनोमु० 0 द्धप्र० नो जयश्य / न्ये (न्यं) गज ! नयय० न्येन्य ञ्जनं ! द्वषे द्वेषं ! 20 धर्म 58 22 58 24 59 22 62 20 धर्म विज्ञाय यते विज्ञापयते तम 0 प or arror orat दूरगाया वाञ्छयाय दम्मान त्रयोविशो वृत्ति दुर्गगाया वाञ्च्छ्या यत् दम्भाद् त्रयोविंशो वृत्ति 677 "Aho Shrut Gyanam"
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________________ "Aho Shrut Gyanam"
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________________ आगमोद्धारक-ग्रन्थमालाया एकोनविंशं रत्नम् / णमोत्थु णं समणस्म भगवा महावीरस्म / # आगमोद्धारक-आचार्यप्रवर-श्री आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः / जैनस्तोत्रसञ्चयस्य तृतीयो विभागः। 卐 am :-: मंगोधक: :: प. पू. गच्छाधिपति-आचार्य-श्रीमन्माणिक्यमागरमूरिः प्रतयः 50.] [मूल्यम् 1-00 वीर मं. 24. वि. मं. : 01 आगमोद्धारक सं. 16 "Aho Shrut Gyanam"
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________________ प्रकाशकीय निवेदन प. पू. गच्छाधिपति आचार्य श्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी 'महाराज आदि ठाणा वि. स. 2010 ना वर्षे कपडवंज शहरमां मीठाभाई गुलालचंदना उपाश्रये चतुर्मास बीराज्या हता। आ अवसरे विद्वान् बालदीक्षित मुनिराजश्री सूर्योदयसागरजी महाराजनी प्रेरणाथी आगमोद्धारक ग्रंथमालानी स्थापना थएली हती, आ ग्रंथमालाए त्यारबाद प्रकाशनोनी ठीक ठीक प्रगति करी छ / सूरीश्वरजीनी पुण्यकृपाए आ 'जैन स्तोत्रसंचय'नो त्रीजो भाग आगमोद्धारक-ग्रंथमालाना 19 मा रत्नतरीके प्रगट करतां अमोने बहु हर्ष थाय छे / ___आनुं संशोधन प. पू. गच्छाधिपति आ० श्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वरजी म नी पवित्रदृष्टि नीचे शतावधानी मुनिराजश्री लाभसागरजीए करेल छे ते बदल तेओश्रीनी तेमज जेओए आना प्रकाशनमां द्रव्य तथा प्रति आपवानी सहाय करी छे, ते बधा महानुभावोनो आभार मानीए छीए / लि. "Aho Shrut Gyanam"
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________________ विषयानुक्रमः / 1. त्रिदशतरङ्गिणी। 2. जिनस्तुति-स्तोत्ररत्नकोषः / 3. श्री शङ्केश्वरपार्श्वनाथस्तवनम् / 4. तीर्थवन्दना (सिद्धसेनसूरिविरचिता) 5. श्री वीरस्यपञ्चवर्गपरिहारस्तुतिः / 6 श्री महावीरजिनस्तुतिः / 7. श्री ऋषभजिनस्तुतिः / ह्रींकारवर्णनस्नवनम् / 9. साधारणजिनस्तवः / 10. एकः श्लोकः / "Aho Shrut Gyanam"
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________________ "Aho Shrut Gyanam"
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________________ शुद्धिपत्रक य 24 प. प. अशुद्धम् शुद्धम् पृ. प. अशुद्धम् शुद्धम् 2 22 सामा. सौभा 12 20 य रो य (र) रो 3 1 ताम्म्मः ताम्मः , 25 दत्वा दत्त्वा 20 विन्दून् बिन्दून् 13 10 देशना देशन 11 मब्योम भव्योम // 12 गतया गततया , 17 दिस्तव दिदेवस्तव रा कृतः रारावकृतः 24 प्रमु- प्रभु |, 18 मारी मारा श्लथ श्लथं 14 3 आमा ये आमा 9 याऽधुर याधुर , 3 तस्वा तस्य 6 11 रुसि रुषि ,८।११।१२ययी अयी , 12 वीथी वीथि " 9 यायम यामम , 19 रालः रालेः |, 17 च य , 26 बर्ग वर्ग |, 24 अयनमाय अमनमाम 1 जगद्धिड जगद्विड लाभस्य आयस्य-लाभस्य 11 स्फूर्ज स्फुर्ज मयाः मया 19 भुजो " 12 मायः मोयः 2 पुष्टय पुष्टय , 17 यामः याम 6 द्रमत्वं , 19 मुत्थु मृत्यु ताश:प्र ताशाप 22 - 'या 'या 14 तणां तृणां 22 ऊरुः उरुः 16 श्चैकारः स्त्वेकारः 26 12 निधिः निधि 18 ईरेण तयोः ईरेण 29 7 समाया समया , 19 वरिष्ठं गरिष्ठं३१ 18 विज्ञना विज्ञानं , 24 ईतिचेतिढ इट इति च / 24 श्रित श्रितं इति इति (इढईतिच)३४ 1 वेदिते वेदितो रति (4-3-71) 35 8 श्रिया श्रियो 10 3 अरु- अरु-वणं 37 20 एवं ये एवं यो , 4 ररस्य अररस्य 40 6 दिमागेन विभावनेन भुजा द्रुमत्वं "Aho Shrut Gyanam"
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________________ (2) 8 मरारि मारारि 9 गृहं ग्रहः / 12 7 रिवै रिरवै " 15 नठ्ठ बहु , 17 भ्रान्तिः वान्तिः 41 4 सत्प्रतिष्ठः सत्प्रतिष्ठ , 8 श्रेणी श्रेणीः / 22 एव एवं 42 10 तान तान द्या 64 1 आशसा आशंसा 69 13 हींकार होकार र्दीपो 77 19 कापि कॉपि 80 9 पभृतिभिः प्रभृतिभिः -Row 60. "Aho Shrut Gyanam"
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________________ प्रास्ताविक "श्री जैनस्तोत्रसंचय" नो श्रीजो विभाग सुज्ञ-विद्वानोना करकमलमां अर्पण कराय छ / आ ग्रंथमा मुख्यत्वे बे विभाग छ (1) श्री त्रिदशतरङ्गिणीनो प्रथमस्रोत अने जिनस्तुतिस्तोत्ररत्नकोश / (2) अन्य स्तुति-स्तोत्रो. प्रथम स्रोतनुं नाम "नमस्कारमंगल" छे तेमा नीचे मुजबना छ तरंगो छ / 1. मंगलशब्दश्लोक-सर्वज्ञाष्टक 2. श्री युगादिदेवस्तवाष्टक 3. श्री शांतिजिनस्तवाष्टक (जेमां शब्दयमकालंकार भरपूर रीते छे) 4. श्री नेमिनाथस्तवाष्टक (जेमां पांच वर्याक्षरनो परिहार करेल छे) 5. श्री पार्श्वजिनस्तवाष्टक 6. श्री वर्द्धमानस्वामिस्तवाष्टक आमां प्रथम अष्टकमां सर्वज्ञप्रभुनी अने पछी श्रीऋषभदेव, श्री शांतिनाथ, श्री नेमिनाथ, श्री पार्श्वनाथ अने श्री महावीरस्वामीनी विविध सुंदर पद्योथी स्तुति करवामां आवी छ / ___ जेमा विशेष करीने श्रीवर्द्धमानस्वामीस्तवनामना छट्ठा तरंगमां मंगलाचरण रूपे पहेलु पद्य छे पछी एक एकाक्षरी पद्य छ। पछी द्वयक्षरी नव पद्यो छे पछी पांच पद्यो उपसंहारआशीर्वादरुप छ / "Aho Shrut Gyanam"
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________________ आ तरंगने पुटभेदतरंग तरीके ग्रंथकारे संज्ञा आपी छ / आ तरंग उपर ग्रंथकारनी स्वोपज्ञ अवचूरि छ / आ पछी 'श्री चतुर्विशतिजिनस्तवाशीर्वाद' नामनो ह्रद शरु थाय छे / एमा नीचे मुजबना त्रण तरंगो छ 1. आद्य-जिनाष्टक 2. मध्यम-जिनाष्टक 3. चरम-जिनाष्टक उपर्युक्त त्रण तरंगोमा पहेलामां श्री ऋषभदेवप्रभुथी श्री चंद्रप्रभसुधीना आठ तीर्थंकरोनी स्तुति छ / ए रीते बीजा तरंगमां श्री सुविधिनाथजीथी श्रीशांतिनाथप्रभुसुधीना आठ तीर्थंकरोनी स्तुति छ। अने त्रीजा तरंगमां श्रीकुंथुनाथजीथी श्री महावीरस्वामीजी सुधीना आठ तीर्थंकरोनी स्तुति छ / अहिं ह्रद पुरो थाय छ / पछी नीचे मुजबना त्रण तरंगो छ / (1) क्रियादिगुप्तकरूप विश्व-कालत्रयभावी जिनस्तवाष्टक (2) श्री जीरापल्लीपाश्वनाथस्तवाष्टक (3) श्री शारदास्तवाष्टक प्रथम अष्टकना आठ श्लोकमां क्रियागुप्त, क्रियाकर्तृक्रियागुप्तक, कर्तृ-कर्म-क्रियाद्वयगुप्तक आदि चमत्कारी अलंकारो गुंथ्या छ / द्वितीय अष्टकमां सुंदर शब्दानुप्रास-श्लेषादि अलंकारो छ। तृतीय अष्टकमां श्री सरस्वतीदेवीनी अर्थगंभीर योगिगम्यगहनस्वरूपवर्णनात्मक स्तुति छ / "Aho Shrut Gyanam"
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________________ (3) पछी 'श्री जिनस्तुतिस्तोत्ररत्नकोश' नामे उत्तर विभाग शरु थाय छे / शरुआतमा 39 गाथान स्तोत्र छे. जेमा 24 तीर्थंकरोनी स्तुति (जेमा 20 मा मुनिसुव्रतस्वामीनी स्तुति बे छे पाठांतररूपे एक वधु) साधारणतीर्थंकरस्तुति, शाश्वतजिनचतुष्टयस्तुति, पुंडरीक स्तुति, गौतमस्तुति, शाम्ब-प्रद्युम्न-रथनेमि-मरुदेवा-राजीमती आदि सिद्धस्तुति, सिद्धचक्रस्तुति, पछी प्रकीर्णकस्तुतिओ छे / आ स्तुतिओ उपर स्वोपज्ञ अवचूरि छे. अहिं ग्रंथनो एक विभाग पुरो थाय छ / बीजा विभागमां श्री शङ्केश्वरपार्श्वनाथ स्तवनम् / 1 / तीर्थवन्दना / 2 / श्रीवीरस्य पञ्चवर्गपरिहारस्तुतिः / / श्री महावीरजिनस्तुतिः / 4 / श्री ऋषभजिनस्तुतिः / 5 / ह्रींकारवर्णनस्तवनम् 16 / साधारणजिनस्तवः 171 तथा एक श्लोक 18! ए आठ कृतिओ अन्यकृत छ / प्रथम विभागना कर्ता सहस्रावधानी पू. आ. श्री मुनिसुंदरसूरिजी महाराज प्रभु महावीरदेवपरमात्मानी पाटे 51 मा छे / आ सूरिदेवनो जत्म वि. सं. 1436 मां थएल / सात वर्षनी लघुवये दीक्षा वि. सं. 1443 मां पू. आ. श्री देवसुंदरसुरि म. पासे ग्रहण करी पू. आ. श्री ज्ञानसागरसुरि म. मासे तेमणे विद्याभ्यास करेल. सूरिवर्यश्रीए बारवर्षनी लघुवये व्याकरण काव्य अने छन्दशास्त्रना विविध विषयोने समजावनार 'श्री विद्यगोष्ठी' नामे अत्यद्भूत ग्रंथ रचेल / "Aho Shrut Gyanam"
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________________ (4) वि. सं. 1466 मां वाचकपदवी थएल. पू. आ. श्री मुनिसुंदरसूरि म. ना श्री जयचंद्र, श्री भुवनसुंदर, श्री जिनकीर्ति, श्री रत्नशेखर, श्री जिनसुंदर, श्री भावसुंदर, श्री अमरसुंदर, श्री सोमदेव, श्री सुधानंदन, श्री जिनमंडन, श्री रत्नहंस, श्री साधुराज्य अने श्री विवेकसमुद्र नामना तेर गुरुभाईओ हता। पू. आ. श्री देवसुंदरसूरिकृत श्री शांतिनाथ चरित्रनी वि. सं. 1479 मां लखायेल प्रशस्तिमां पू. आ. श्री मुनिसुंदरसूरि म. ने शांतिस्तव द्वारा 'महामारिनिवारक' अने 'सहस्रावधानी' ए बिरुदथी वर्णव्या छ / __ वली खंभातमां दफरखानसूबाए 'वादी-गोकुल-खंडक' बिरुद आपेल / तेमज दक्षिणना पंडितोए 'कालीसरस्वती' विरुद आपेल / आ सूरिवरना उपदेशथी चंपकराज, देवा, धारा विगेरे राजाओओ अने शीरोहीना राव सहस्रमल्ले पोताना देशमां अमारिपटह वगडावेल हतो। आ सूरिवरश्रीए सूरिमंत्रनी 24 वार विधिपूर्वक अनेक छट्ठ अट्ठम आदि साथे आराधना करेली जेथी पद्मावती देवी आदि अनेक देवदेवीओ तेमनी सेवामा रहेता / तेओश्रीने वि. सं. 1479 मां आचार्यपदवी मलेली अने वि. सं. 1499 मां भट्टारक पदवी मलेली. वि. सं. 1503 ना का. सु. 1 ना दिने कोरंटक तीर्थ (कोरटाजी-शिवगंज पासे मारवाड) मां समाधिपूर्वक 67 वर्षनी वये स्वर्गवास थयो / "Aho Shrut.Gyanam"
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सूरिवरश्रीए नीचे मुजबना नाना मोटा १४ थी १५ महत्त्वना अत्यंत सुंदर चमत्कारिक अलंकारोथी भरपुर ग्रंथो बनाव्या हता.
१. श्री अध्यात्म कल्पद्रुम । ८. संतिकरं स्तोत्र २. श्री उपदेशरत्नाकर ९. सीमंधरस्तुति
(स्वोपंज्ञवृत्तिसाथे) १०. अंगुल-सित्तरी ३. श्री जयानंद केवली चरित्र ११. वनस्पति-सित्तरी ४. मित्रचतुष्ककथा १२. तपागच्छ-पदावली ५. पाक्षिक-सित्तरी
१३. विद्यगोष्ठी ६. शांतरसभावना
१४. योगशास्त्र ४ थो प्रकाश ७. जिनस्तोत्ररत्नकोश
बालावबोध साथे. पू. आचार्यदेवश्रीनी बधी कृतिओमां महत्त्वनी कृति 'गुर्वावली' ग्रंथ जे के तेओश्रीए पोताना गुरु श्री देवसुंदरसूरि म. उपर १०८ हाथ लांबो 'विज्ञप्ति पत्र' भव्य सुंदर संस्कृत भाषामां अनेक अलंकारो छंदो विविध चित्रोवाला श्लोकोथी लखेल
जेमांनो ५०० पद्यनो एक विभाग "गुर्वावलो" नामे गुरुपरंपरा सूचवनारो भाग बहुसुंदर आज सुधी मलतो हतो
__ पण पू. आगमोद्धारक आचार्यदेवश्रीए प्राचीन ह. लि. भंडारोमांथी मली आवेल अप्रसिद्धस्तोत्रोना संग्रहमा ते त्रिदशतरंगिणीमांनो भाग छुटक पानां रूपे उपलब्ध थएल जेनी प्रेसकोपी करावीने जैनानंदपुस्तकालय सुरतना संग्रहमा राखी हती।
पू. गच्छाधिपति आचार्यदेवश्रीए खूबज परिश्रमकरी ते प्रेसकोपीनुं संशोधन करी विद्वानोने साहित्यनो रसास्वाद मले अने पूर्वाचार्योनी विद्वत्तानो परिचय मले ते हेतुथी 'जैनस्तोत्रसंचय'
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ना बे भागना संपादन-प्रकाशन पछी आ त्रीजो विभाग पू. आ. श्री मुनिसुंदरसूरि म. श्री आदि रचित चमत्कृतिवालां काव्योस्तोत्रोना संग्रहने व्यवस्थित करी सुज्ञ-जनतासमक्ष प्रस्तुत कर्यो छ। त्रिदशतरंगिणीनो प्रथम श्रोत विगेरे स्तुतिस्तोत्रनी बीजी प्रत नहिं मलवाथीं एमां कोई कोई स्थले अशुद्धी रहेवा पामी छे छे तेने सुज्ञ-जनो क्षंतव्य गणशे ।
देवगुरुकृपाए वर्षोंनी कामना पू. गच्छाधिपतिनी निश्रामा श्रुतज्ञानना मार्मिक रहस्यने प्राप्त करवानी पूर्ण थयाना सौभाग्यनी यत्किंचित् अंशे सफलतानी साथे आ संपादनना तेमज कर्ताना परिचय आदिनी माहीती आपवारूपे आ प्रस्तावना लखवानी आज्ञा पू. गच्छाधिपतिश्रीनी मेलवी हुं मारी जातने बहुज कृतार्थ अने धन्यभाग्य मार्नु छु ।
साधन-संयोग-सामग्री आदिनी यथाशक्य मेलवणी करी आ. प्रास्ताविक नुं आलेखन कर्यु छे ।
छद्मस्थसुलभ कोई क्षति आमां रही होय तेनी त्रिविधे २ सकलसंघसमक्ष क्षमाप्रार्थना साथे प्रस्तुतसंग्रहने भावशुद्धिपूर्वक पठनमननादि द्वारा आत्मकल्याणना पंथे धपवामां अचूक उपयोगी साधनतरीके भव्यात्माओ अपनावे ए शुभकामना ।
ली.
वि. सं. २०२१ आसो वद १३ कपडवंज
श्रमणसंघसेवक पू. तपस्वो श्री धर्मसागरगणी चरणोपासक मुनि अभयसागर
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॥ श्रीजिनेन्द्रो विजयतेतराम् ॥ आगमोद्धारक-आचार्य श्री आनन्दसागर सूरीश्वरेभ्यो नमः । सहस्रावधानि-श्री मुनिसुन्दरसूरिप्रवरप्रणीता
त्रिदश-तरङ्गिणी जयश्रिप्राप्तिसौभाग्य-श्रेयांसि ददतां सताम् । महोदयं समृद्धींश्च, श्रीजिनः कल्पपादपः ॥१॥
शब्दरूपं मङ्गलाष्टकमाविष्कुर्वन् श्रीमहापर्वविज्ञप्तित्रिदशतरङ्गिणीप्ररोहमूलं पद्महदतुलां कलयत्ययं श्लोकः । सान्द्रानन्दैः सुरेन्द्र प्रकटितमहिमोल्लासितश्रीप्रकर्ष, दुर्गग्रन्थप्रमाथप्रथितविभुबलक्षिप्तदुष्कर्मशत्रु ।। एकान्तात्यन्तसाताभ्युदयि विजयते केवलं यस्य राज्यम् , त्रैलोक्यव्याप्यनन्तं स जयति भगवान् कोऽपि सर्वज्ञराजः ॥१॥ ध्यानाभ्यासप्रकर्षात् पवनसहचरीभूतचेतःप्रशान्ति, सम्प्राप्यो (पाग्रजापात् ) सहजनिरुपमानन्दसान्द्रप्रवोधैः। योगीन्द्रः कुण्डलिन्यां नियमितमरुदापूरितब्रह्मरन्ध्रयेयं यस्य स्वरूपं स जयति पुरुषः कोऽपिसर्वार्थवेदी ॥२॥ यस्य ब्रह्मार्णवान्तविधिहरिपुरभिद्वज्रिमुख्यामराणां, ज्ञानश्रेणी मुनीनामपि परिमिलिता निन्नगाऽऽलीव भाति । तेजांस्यादाय वाब्दा इव जलनिचयान् भानुवद् यातुविश्वं, प्रीणन्ति(जाति) स्वाववोधं सकलभुवनवित् कोऽप्ययं नः प्रदेयात्॥३॥ : * जयः श्रीः सौभाग्यं श्रेयः सत् महोदयः समृद्धिः कल्पः ( इति मंगलशब्दाष्टकम् )
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त्रिदश- तरङ्गिणी
सिद्धानन्तगुणस्य यस्य विधिना प्रक्षालितस्याभितो, व्याप्याशेषजगत्त्रयं स्थितवतो व्योमद्र हे ज्योतिषः । उत्तीर्णास्तुषराशयो ग्रहगणव्याजादमुष्य प्रभोः, सर्वज्ञस्य पदावनुत्तरचिदानन्दाप्तये तोष्टुमः ॥ ४ ॥ सान्द्रानन्दमुपास्महे भगवतो निःश्रेयसश्रीपतेः, सर्वज्ञस्य पदाम्बुजं निरवधौ प्रज्ञानदुग्धाम्बुधौ । अभ्रं शैवलतिवसा (क्षमा) धरगणाः शङ्खाद (य) यन्त्यर्णवाः, पीयूषन्ति च मौक्तिकन्त्युडुगणा मीनन्ति विश्वानि च ॥ ५ ॥ सम्यक्तत्वप्रवोधेऽनघविधिनिरुपध्यातसाम्यैक सात्म्याद, हेयोपादेयचिन्ताव्यतिकरविधुरीभावमुल्लङ्घय वृत्तौ । सर्वोपाधिप्रणाशादुपरतसकलद्वन्द्वभूयो विवर्त्त-
स्तादृक् तैरेव लभ्यः क्षिपतु सकलहग्गोऽतिनिन्द्यां स विद्याम् ॥ ६ ॥ यत्सत्तां परिनिश्चिनोति विलसच्चिन्तारतस्यानुमा, भावानामनुमानगोचरतया चाध्यक्षमानार्पणम् ।
शास्त्रोक्तार्थततेर्यथावद्विसंवादित्वमप्युच्चकैः,
सर्वज्ञं तमुपास्महेऽस्तु कुमतध्वान्तप्रबोधाप्तये ॥ ७ ॥ आज्ञाराधनतत्परेषु विदधत् सम्यक्पदं निर्वृ तो, नाकश्रीललितान् दधाति विषवान् सन्न्यायमुद्रां दधत् । शुद्धोपायगुणप्रकर्ष कलितं यच्छासनं राज्य -- द्विश्वव्यापि जयत्यनन्तमहिमाधारः स सर्वज्ञराट् ॥ ८ ॥
इतियुग प्रधानावतारवृहत्तपागच्छाधिराजश्री परमगुरुश्री देव सुन्दर सूरिचरणकमल सोभाग्य गुणमहिमावानुगामिन्यां विनेयजनपरमाणुश्री मुनिसुन्दरमणि
हृदय हिमवदवतीर्णविस्तीर्णगुरुप्रभावपद्महदप्रभवायां श्रीमद्दापर्वविज्ञप्ति त्रिदशतरङ्गिण्यां प्रथमे नमस्कार मङ्गलस्रोतसिः मङ्गलन्दश्लोक सर्वज्ञाष्टकनामा
प्रथमस्तरङ्गः ॥
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३
त्रिदश-तरङ्गिणी यस्य ज्ञानसरोवरे निरवधौ वातोद्ध ताम्म्मःकणप्रख्योडुप्रकरायितं जलजति व्योमाष्टकाष्ठादलम्। सूर्याचन्द्रमसौ मरालतुलनां धत्तश्च रातु प्रभुयोगिध्यानपरम्परापरिचितश्रेयः स सर्वार्थवित् ।। १ ।।
इतितरङ्गान्तराशीर्वादः, तरङ्गचूलाप्रायः।। एवं नित्यनिरञ्जनाव्ययपदं सर्वार्थसंवेदिनं, शक्रालीमुनिसुन्दरस्तवगणतक्रमं यः स्तुते । सर्वाभीष्टसुखोछयैरविरतं स्फूर्जप्रमोदाद्वयो, मोहद्वेषिजयश्रिया स लभते श्रेयोऽचिराच्छाश्वतम् ॥ १॥
इतितरङ्गप्रतिचूलाऽपि । देवा यस्य शिवश्रियस्त्रिजगतश्वेतांस्यतीता द्विधा, ब्रह्मशाच्युतचन्द्रभानुमघवन्मुख्याश्च तत्प्रार्थकाः । सर्वाशाप्रमृताः शतं च विदिताः शाखाः परानन्दचिद्रूपः कल्पतरुनवः स ददतां श्रेयो युगादिप्रभुः ॥ १॥ राज्यं सनुष दानमासनकलाज्ञानप्रभावांशकान् यः कल्पद्रुमचन्द्रभानुमुनिसन्म (त्तीर्था) शकेषु न्यधात् । मन्ये मुक्तिपुरी ब्रजन् जनहितायैतानि तत्सन्ततिष्वाप्यन्ते ह्यधुनाऽप्यसौ विजयते श्रीमान् युगादीश्वरः ।।२।। मुक्तिर्यस्यप्रयातत्रिभुवनजनतोद्भूतदुःखातितापव्यापध्वंसाय ध्माताजडिमजलनिधेनूनमादाय विन्दून् । चिन्तारत्नं चकारामरतरुसुरभीकुम्भमुख्यांश्च भावान्, स श्री नाभेयदेवो वितरतु परमानन्दसम्पद्विलासम् ।।३।। विश्वं यस्यालवालो महिमभरतरोः कल्पवृक्षाश्च शाखाश्चिन्तारत्नानि पुष्पप्रकरसमुदयः कामकुम्भाःफलानि । सिक्ता ध्माताधिकूपाहृतजलनिभृतैर्वारिदस्फारकुम्भ--- जीयात् कश्चित्पुराणस्त्रिभुवनमहितः पुरुषोऽसौ युगादिः॥४॥
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त्रिदश- तरङ्गिणी
बौद्धा बुद्ध इति प्रबुद्धमतयो ब्रह्मेति च ब्राह्मणाः, विष्णुश्चेति च वैष्णवाः शिव इति ध्यायन्ति शैवाश्च यम् । अर्हन्नित्यपि चाईतास्तदखिलध्यानैकविश्रामभूर्व्यक्ताव्यक्तगुणः स पातु भगवानाऽऽदिप्रभुः सर्वगः ॥ ५ ॥ श्रीनाभः परितोष्टुमस्तनुभुवः पादान् क्षमाभृद्गुरोः स्फूर्जन्नीतिनदीप्रवाहजनकस्योच्चैः पदं यच्छतः । वंशान् यत्प्रभवानसङ्ख्यसमयं सद्वृत्तपर्वोल्लसच्छश्वन्मौक्तिकसम्पदो गतमलत्रासाः समाशिश्रियः ॥ ६ ॥ आज्ञां यस्य समस्तवस्तुनिकरः स्याद्वादमुद्रामयीं, दण्डाद्विभ्यदिव स्वभावविगमान्नैवातिचक्रम्यते । वीक्ष्यैवैतदतिक्रमोद्भवफलं भव्योम- पद्मादिकं, त्रैलोक्याधिपतिं स्तुमः सुरनराभ्यच्यं तमादिप्रभुम् ॥ ७ ॥ दुष्कर्मारिप्रमाथात् परममहिमकं सुप्रयुक्त र्नयाद्यः, स्फीतीभूतार्थसूत्रं विभवसुखकरं रक्षणीयक्षभेव ( मंत्र धर्मं राज्यं च लब्ध्वा त्रिभुवनमहितं यत्प्रणीतं जनाः स्युः स्तुत्या देवेन्द्रवृन्दैरपि स विजयते नाभिभूरादिनाथः ॥ ८ ॥ इतियुगप्रधान प्रथमे नमस्कार मङ्गलस्रोतसि श्रीयुगादिस्तवनाष्टकनामा द्वितीयस्तरङ्गः ।
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यो धर्म्मव्यवहार सङ्गतकलाः प्राक् शिक्षयन् प्राणिनो - Sशाशासीत् किल यां प्रकाशनकलां चन्द्रार्कदीपादिका स्तामद्यापि निदर्शयन्ति भुवने ते प्रत्यहं लेशतः, श्रेयो यच्छतु सादिमो जिनपतिर्विश्वेप्सितार्थप्रदः।। १ ।। इतिद्वितीयतरङ्गचूलाकल्पः श्रीयुगादिजिनाशीर्वादः । एवं नित्यनिरञ्जनाऽव्ययपदं श्रीमद्युगादिप्रभुशकालीमुनिसुन्दरस्तवगणैनू तक्रमं यः स्तुते ! सर्वाभीष्टसुखोच्चयैरविरतं स्फूर्जत्प्रमोदाद्वयो,
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त्रिदश- तरङ्गिणी
मोहद्वेषि जयश्रिया स लभते श्रेयोऽचिराच्छाश्वतम् ॥ २ ॥
इतितरङ्गप्रतिचूलाऽपि
जयश्रियाऽऽश्रितकेवलरूपया, दमलया सलयामल ! यातरूट् जगति शान्तिजिनाऽमरपादप-प्रतिमताऽतिमताऽतिमतान्तरुक् ॥ १ ॥ जितरवे तव वाणिसुधां पिबन्, वरसते रमते रमतेऽञ्जसा । अभिलषन् शिवसम्पदमत्र नो, नहभणी रमणी रमणीयके ॥ २ ॥ त्यजसि नाथ ! कदाचन चेन्मनो दममना ममनाऽमम नायक ! | न विशतां मरुतां तदिदं इलथ, कमलयाऽसलयाऽऽमलयाऽऽलय || ३ | शमरथस्य न के तव धुर्यतां, मधुरयाऽधुरयाऽधुरया गिरा । वशिगणेन यथा खलु तन्मनांस्यनवमानवमानव मा धूनात् ॥ ४ ॥ स्पृहयतो विषयांस्तव सर्वतो, विरतये रतये रतये न खे । अपहरन्ति धियं धिगिमेऽपि में, परमता रमतारमतागमः ॥ ५॥ त्वदुपदेशर मान्मनसाविभो, शममयाममया मम याच्यते । गतभवेच्छमनन्तसुखामिमां शिवरसां वरमांबर ! मां नय ॥ ६ ॥ सुतपसां गमसारतरागमाद् गमय मामयमामयमाश्रितम् । शिवरमाऽस्तु वशा विनतैव मे, प्रभवता भवता भवतारणा ॥ ७ ॥ वितरणे जगतां हितसन्तते - वितरता तरताऽतरतारक ! | शिवपदस्य जिनेश्वर ? सङ्गमं, परमया रमया रम यारमे ॥ ८ ॥ एवं स्तुतस्त्रिदशदानवमानवाऽच्र्यो, भक्त्या जगत्त्रयपतिः सकलार्थ वेदी । शान्तिर्जिनो भवभयातिहरो विलासं
देयान्महोदयपदाऽप्रतिमश्रियं मे ॥ ६ ॥ इतियुग प्रधाना० नमस्कार मङ्गलस्रोतसि श्रीशान्तिजिनयमकस्तवाष्टकनामा
तृतीयस्तरङ्गः ॥
श्रीशान्तिर्जगदेकमङ्गलततिप्रोद्यलता कन्दलप्रोल्लासाम्बुधरो भवाद्भवभृतः पायान्नताऽऽखण्डलः । रूपस्यैव निरूपणार्थमदधाच्चक्षः सहस्र हरि-deg' यस्य गुणांस्तथोरगपतिजिह्वासहस्रदृयम् ॥ १ ॥
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त्रिदश-तरङ्गिणी इतितृतीयस्तरङ्गचूला श्रीशान्तिजिनाशीर्वादरूपा ॥ एवं नित्यनिरञ्जनाऽव्ययपदं श्रीशान्तिनाथं मुदा, शक्रालीमुनिसुन्दरस्तवगणतक्रमं यः स्तुते । सर्वाभीष्टसुखोच्चयैरविरतं स्फूर्जत्प्रमोदाऽद्धयो, मोहद्वेषिजयश्रिया स लभते श्रेयोऽचिराच्छाश्वतम् ॥ २॥
इतितृतीयतरङ्गप्रतिचूला ।। सुरासुरोर्वीश्वरराशिसेव्यं, विशालवीय सुयशोविलासम् । शैवेयसाय शिवशीर्षहीरं, शैवश्रियः शंविसराय सेवे ॥ १॥ श्रितोत्सवः शंवरवैरिवारविलाससालावलिहव्यवाहः ।। यशःसरस्यां वरलेशलीलां, शिश्राय यस्येह सरोरुहारिः ।। २॥ विशालसंसारविलासवार-बारीशशोषे रुसिरोवरोवः, . सावैश्वरो रोषविलोल वीथी-शरीरिसर्वाशिवराशिवल्ली ॥३॥ वशेश्वरं सिंह इवासि हसि विश्वाविलाहोविसरं विहास्य (विहाय)। विहाशश्यास्थ (विध्वस्य विद्धाशयमेव सा) वसावलिं शिवश्रीविषयं
यियासुः ॥४॥? अवार्यवीर्यालयविश्वविश्वाशोल्लासिवल्लीवरवारिवाह !। उल्लासय स्वांह्रिसरोरुहस्य, सेवारसं यस्य शिवे यियासा ।।५।। ईशास्य यस्योरुयशोविलासाः, शेषाहिहारेश्वरसावहेलाः। आशासु सर्वास्विह शार्वरालः, संशिश्रियुः सारशरारुलीलाम् ॥ ६ ॥ सुश्रेयसालीसरसीरुहेषु यो हेलिलीलः सुवशाविलासैः। सारैरवश्यः स्ववशी विवेश, शिवालयं शैशवशीलशीलः ॥७॥ शैवेयसार्वः स शिवश्रियं वो, रायाल्लयो शैलरसारुहेषु । सः सारवरस्यहरः शरीरिराशयस्यो हरिवंशसूरः ।।८।। स्तुतोऽपवर्गान्तरसंस्तवेन, भक्त्या मयाऽ प्येवमुदारमोदात् । श्रीनेमिनेता भवतात् प्रसद्य, दाताऽपवर्गान्तरसम्पदा मे ।। ६ ॥ इतियुगप्रधाना० नमस्कारमङ्गलस्रोतसि पञ्चवर्गपरिहारश्रीनेमिजिनस्त
वाष्टकनाम। चतुर्थस्तरंग:
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त्रिदश-तरङ्गिणी नूनं येन जगद्धिडम्बनपटुर्दासीकृतेशाच्युतः
कामोऽधानि तदाद्यभूच्चपलतादोषः श्रियः प्राग नतु। सारापत्यवियोगजारतिभृतः स्थेमाहि मातुः कृतः१, श्रेयोरातु सुखाकृतत्रिभुवनः श्रीनेमिनाथः स वः ॥१०॥
इति चतुर्थतरङ्गचूला श्रीनेमिजिनाशीर्वादरूपा॥ अञ्जनश्यामलेनाऽपि येनाङ्गिना, तन्मयीभावमाप्तानि चेतांस्यहो । चारुवेशद्यमाबिभ्रते श्रेयसां, सन्तति रातु नेमिजिनेन्द्रः स वः॥१॥
इति चतुर्थतरङ्गस्य प्रतिचूलाऽपि एवं नित्यनिरञ्जनाऽव्ययपदं श्रीनेमिनाथं मुदा, शक्रालीमुनिसुन्दरस्तवगणे तक्रमं यः स्तुते सर्वाभीष्टसुखोच्चयैरविरतं स्फूझत्प्रमोदाऽद्वयो, मोहद्वेषिजयश्रिया स लभते श्रेयोऽचिराच्छाश्वतम् ।। १२ ॥
इति चतुर्थतरङ्गसमर्थनापङ्कितः।। जन्मस्नात्रेतु यस्याद्भुतमहिमभराऽद्व तरूपस्य देहस्पृष्टः पाथःप्रवाहैः सुरगिरिशिखरे प्रस्फुरद्भिः समन्तात् । जज्ञः सेकप्रभावादभिमतफलदाः कल्पवृक्षा अपीमे, स श्रीदेवो (जगत्यां ) जयति तनुभृतां चिन्तनाऽतीतदेयः ॥॥ पाथोथै रिवाहैः किल सहगतया विद्युता वारिराशौ, प्राप्तैः संयोगमाप्याम्बुनिधिहुतभुजोऽजानि पद्यानि वहि नः । लेभेऽसौ यत्प्रवृद्धिं कमठहठभरप्रेरिताऽकालकालः, स्फूर्जजीमूतमालोद्भवदऽतुलजलासारसिक्तोऽपि युक्तम् ।। २॥ चक्रे यस्योपरिष्ाद्भुजगकुलपतिः साक्षिणि ध्यानवह नौ, कैवल्यश्रीविवाहः फणमणिकिरणैर्मण्डपं मण्डिताशम् । दैत्येन्द्रश्चैष तेने जलधरपटलातोद्यनादान् विचित्रान्, स श्रीपार्श्वप्रभुर्मे भुवनभयहरो रातु निःश्रेयसाप्तिम् ॥३॥ युग्मम् ।। यस्य स्फारांतरङ्गप्रसृमरतिमिरग्रासविज्ञानलीलां, सप्तद्वीपघु नाथाः फणिफणमणिभामण्डलव्याजभाजः ।
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त्रिदश- तरङ्गिणी
याचन्ते सेवमानाः सममित्र मिलिता विष्ट पप्रेष्ठदेष्टा, पिष्टारिष्टारिकष्टः स भवतु भवतामिष्टसंसृष्टिपुष्टयै ॥ ४ ॥ यस्यापारप्रभावप्रवरजलनिधौ शर्करीभूय चक्र - चिन्तारत्नानि वासं त्रिदशघटगणाः कम्बुकीभूय चापि । नानारूपैश्च भेजे जलचरपदवीं देवधेनुः सुरद्रु-
श्रेणीतीरद्रमत्वं प्रतिदिनममराः स्नातकत्वं च बभ्रुः ॥ ५ ॥ मन्त्रास्तद्घोषरूपास्ततिरपि ववृधे शीकरैरौषधानां, वीचीनां चानुकारो बहुविधमभितो नर्तितानां मरुद्भिः । लिप्तैर्यन्त्रैश्च जनुर्महिमगुणपदं तत्तदा द्योतिकानि, स्यात् सेवा निर्मिता यन्नहि हि सुमहतां निष्फला लेशतोऽपि ॥ ६ ॥ युग्मम् ॥
नूनं यन्नाममन्त्रे सकलसुखरसाः संवसन्ति प्रकामं, शब्दार्थानां च योगो लसति मम मनस्यत्र तादात्म्यमेव । एताः सद्यः स्फुरन्ति प्रकटमसुमतां यत्तदुच्चार मात्रात्, पार्श्वो विश्वार्चनीयः स भवतु सुलभासेवनो मे सदाऽपि ॥ ७ ॥ विश्वत्राणप्रणालीप्रकटितकरुणाऽपारपाथोऽधिसारः, सर्वाभीष्टार्थदानावगमितमहिमाम्भोधिरद्वतधैर्यः ।
श्रीमान् विश्वावभासी फणमणिकिरणोल्लासिताशः प्रकाशः, कुर्यात् पार्श्वप्रभु त्रिभुवनमहितोऽनन्तसम्पद्विलासम् ॥ ८ ॥ इति श्रीयुगप्रधाना० नमस्कार मंगलस्रोत्तसि श्रीपार्श्वजिनस्तवनाष्टकनामा
पञ्चमस्तरंगः ||
धत्ते कल्पलता स्वमूर्तिसरसि प्रोद्यन्मणीपल्लवान्, सप्ताहीन्द्र फणच्छलात्रिजगतीरक्षैकदीक्षागुरुः । सप्तद्वीपसमुद्रगाङ्गिनिकराभीष्टार्थदानाय यः, स श्रीपार्श्वविभु स्तनोत्यविरतं श्रेयस्ततिं भाविनाम् ॥ १ इतिपञ्चमतरंगचूला श्रीपार्श्वजिनाशीर्वादरूपा ॥ दशावतारी विमलाञ्जनय ति महाप्रकाशः सकलार्थदर्शनः ।
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त्रिदश-तरङ्गिणी स्नेहक्षयान्निर्वृतिभाक् सुपावकः, श्रीपार्श्वदीपोऽस्तु शिवश्रिये सताम।।
इतिपञ्चमतरङ्गस्य प्रतिचूला एवं नित्यनिरञ्जनाऽव्ययपदं श्रीपार्श्वनाथं मुदा, ( शेषं पूर्ववत् )
इतिपञ्चमतरङ्गस्य समर्थनापङ्क्तिः ।।
अथ श्रीत्रिदशतरङ्गिण्यां प्रथमे मङ्गलस्रोतसि षष्ठः तरङ्गः । जयश्रीसदनं योऽभूद्, विजित्य मदनद्विषम् । महानन्दपदं वीरं, पञ्चभिस्तं स्तुवेऽक्षरैः ॥१॥ रैरिरीरोरुरारोरे-रेराऽऽरारीरारारुरा ।
रारं रारेऽरुरुरु-रररोरा रीररा (रराररिः) ॥२॥ विभागः-रैरिरी-ईर-उरु-रा-रोर--ईर-ईर-आरारी:-आर-अरु-रा रैरिरीरोरुरारोरेरेरारारीरारारु रा। राररं-रारे-अरु-रुरुः-अररोरा-ररीररा (रराररिः)। __ अथ वाचयितृणां प्रयासरक्षासौकर्यार्थमस्य पुटभेदतरङ्गस्य किञ्चिद्वृत्तिवेला प्रादुश्चक्रीयते। तथाहि-तत्र प्रथमः श्लोकः स्पष्ट एवेत्युपेक्ष्यते । द्वितीयश्चैकाक्षर:---रैरिरी' त्यादि। व्याख्या-हेवीरेति सम्बोधनं सौकर्याय गम्यते । हे रैरिरीरोरुरारोरेरेर ! राः स्वर्ण, रिरी:-पित्तलं, उपलक्षणात्सर्वधातवः, ईरेण-इच्छया अर्थिनामित्यर्थः, यद् उरु-वरिष्ठं, रा-दानं तेनरोरान् रङ्कान् ईरयति-प्रेरयति दानग्रहणार्थ यः अणि रैरिरीरोरुरारोरेरः, स चासौ ईरश्व-लक्ष्मीदश्चेति । क्रियायां मध्यमपुरुषादिना त्वमिति गम्यमानत्वात् त्वं, आरारी:, 'प्रापणे' चेति धातोर्यङ्लुपि अद्यतनी सौ सिचि द्वित्वे मृतोऽति रीरौ . [ हैम०४।१।५६ ] ति रागमे ईति चेति ढ इति [ हैम० १।३।४२] सिचो लोपे 'सिचि परस्मै'
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त्रिदश- तरङ्गिणी
[ है ०४३।४४ ] इति वृद्धौ च निष्पत्तिः । भृशमपुनरावृत्त्या प्राप्तवानित्यर्थः । त्वं किमित्याह - आरं वैरिणो वाह्यस्य चान्तरस्य च अरु ( मङ्गलं ) [ णं ] तद्धि यथा नरमुच्चाटयति तथा त्वं द्विविधमप्यरिमिति भावः । जातौ एकवचनं । तथा राडररमिति । ररस्य ग्रहणात् ( ? ) हेर ! 'रः कामे, तीक्ष्णे विश्वानरे नरे । रामे बजे च शब्दे स्यादि' त्येकाक्षरनिघण्टुवचनाद्, वज्र ! कस्मिन् ? रारे । रः कामः स एव बहुभ्योऽरिभ्यो दुर्जयत्वाद् आरमिवारअरिसमूहस्तस्मिन् । त्वं किमरारीरित्याह- अररमिति । ऋधातोरोणादिके अस्प्रत्यये निष्पत्तेः गृहं, कीदृशं ? अरुः, 'रुः सूर्ये रक्षणेऽपि च । भये शब्दे चे' ति सुधाकलशनिघण्टुवचनात् निर्भयं 'इहपरलो गादाणमकम्हा - आजीव- मरणमसिलोए' इत्यागमोक्तसप्तभयरहितत्वात् मोक्षरूपमितिभावः । अत्र 'अ इ उ वर्णस्यान्तेऽ नुनासिकेऽजीदादेः' दधिं दधि मधु मधु इत्यादिवत् । त्वं कीदृशः ? रौ (रु-भयं तस्य रु-रक्षणं यस्माद् यस्य वाद्यपदेशः ( ? ) तथा अररोरा । उणादिनिष्पत्त्या अररं- कपाट: 'तद्वद्विशालतादिगुणमुरो-हृदयं यस्य स तथा । 'ररीररा' इति, रा-नरास्तेषां रीभीतिः, सैव रो-वैश्वानरः, तस्मिन् रा- मेघ इव मेघः, तथा अत्र रराररिरितिपाठे तु रा-नराः ता-रायति - शब्दयति रक्षार्थं य; स चासौ अररिश्च कपाटश्चेति ॥ २ ॥
।
सुरासुररसासारि-सारसाराऽरिराऽरसः संसारसरसीसूरु-सूरः संसारिसाररः ||३|| ( यद्वा) - सुरासुररसासार - सारैररससंसर: । संसारसरसीसारि--संसारिरसुरारिसः । ॥४॥
इति सुसङ्गतः पाठः । इति तृतीयो मूलश्लोकः । विभागः - सुर-असुर - रसा - सारि-सार- सार - अरि-र-अरसः । संसार- सरसी-सु-उरु- सूर-, संसारि - सारर:-॥२॥
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त्रिदश-तरङ्गिणी यद्वा-सुर-असुर--रसा--सारसारै:--अरस-संसरः-संसार-सरसीसारि-संसारि-र-सुरारिसः ।।। _व्याख्या--सुरा-देवाः, असुरा--दानवाः-रसायां--पृथ्व्यां सरन्तीत्येवंशीला रसासारिणो-मानवाः, तेषां, 'सारो मजास्थिरांशयोः । बले श्रेष्ठे च सारं तु, द्रविणन्याय्यवारिधिव' [हैम०] त्यनेकार्थवचनाद् ये सारा:-श्रेष्ठाः, सारा-बलानि, तेषां क्षयकारित्वादरिः-वैरी यो र:- कामः, उपलक्षणत्वात् पञ्चधाऽपि कामसुखानि, तत्र अरस:-न चित्ताश्लेषवान्-न प्रीतिमान् तेभ्यो विरक्त इति भावः। तथा संसार एव सरसी, तस्यां विषये शोयकारिवाल सुष्ठु-अतिशयेन, उरु:----गरीयान्, दिनगतगौरवस्य दिनकरेज्युपचरितत्वात् अर्थात् ग्रीष्म सम्बन्धीति लभ्यते। सूरः-सूर्यः, ग्रीष्मसूरो यथा सरांसि शोषयति, तथा वीरजिनः संसारमितिमावः। संसारश्चित्ते एपामस्तीति संसारिणः-संसाराभिलापिणो जीवाः, तेषां साराणि--द्रव्याणि, रातीति आतोडोऽह्वावामः है०५।११७६] इति डेन तथा, प्रायो बहुजीवानां संसारसुखेष्वेव सामिलापत्वात् तेषां च द्रव्यमूलत्वादेवमुपन्यासः। तेन चतुर्ध्वपि यथाजीवाभिलाषं दातेति तत्त्वं । अयं पाठः किञ्चित्प्रसृतत्वात् पूर्वं व्याख्यातः। अपरस्तु सुगम एवमुन्नेयः-सुरासुराणां रसायाश्च-तास्थ्यात् तद्व्यपदेशात् मानवानां च सारसारैः न रसं संसरतीत्यचि [है०५ २४६ ] उणादिके अप्रत्यये वा तथा [त्व ] अत्र रसं संसरतीति वाक्ये भावार्थमात्रकथनं, तत्त्वतस्तु संसर इति च पृथग निष्पाद्य पश्चात् कर्मादिना योज्यते, अन्यथा प्रत्ययौ न स्यातामिति । तथा संसार एव मूढानां रसप्रदानरतिचित्तविश्रामकरागजाड्यबहुलत्वादिना सरसी, तत्सारिसंसारिणां यो रः-काम:, स एव सर्वदेवानां विडम्बकत्वात् सुरारि:-दैत्यः, तथा, (सुरारि स्यतीति सुरारिसः) पाँच अन्तकर्मणीति' स्यतीति 'आतो डोई०१११७६ इति डे तथा । अत्र पाठद्वयात्मके श्लोके अग्रतने च श्लोके विशेष्य
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त्रिदश- तरङ्गिणी
पदं [ 'रायं राय' मित्यादि ] पञ्चमश्लोकगतं च श्रीवीर इति ज्ञेयम् । अर्थतः संलग्नत्वेन कुलकत्वादिति । इति सुसङ्गतः पाठः । मूलश्लोकः ॥ ३ ॥
-
वीरो वरवीरार - खैरोवींवरो विराः । वारिरोरुवराराबो- रारवाराऽरिरीरवाः ||५|| ( मूलश्लोक ४) विभागः - वीरः- वर्वर- वीर - अरिः अवैर-उवींवर वि-राः वीरोवर्वरवीरारिवैरोवींवरो विराः । वारिर उरु-वर - आरावः- वारिरोरुवरारावः, र आर-वारर - अरिरी-र-वाः रारवारारिरीवाः । व्याख्या - वीरो० स्पष्टः । नवरमुणादिनिष्पत्त्या वर्वर:कामः (वीरारिः) अवैरा उर्वीवराः - राजानः यस्माद्, विगताः परित्या - गाद् रायो धनानि यस्य, वारिरः - मेघः तस्येव उरु: - गरीयान् योजनगामीत्यर्थः । वरः साममाधुर्यादिपञ्चत्रिंशत्सङ्ख्यगुणोपेतः, आरावः-शब्दः यस्य स तथा । तथा रस्य दुर्वारत्वात् तीक्ष्णस्य, आरस्य,–बाह्यस्याऽऽभ्यन्तरस्य चारिसमूहस्य, वारे - निवारणे, अथवा बाह्यान्तरवैरिणामिति नट्ठ ( अष्ट ) भेदत्वात् आराणांअरिसमूहानामपि वारे- समूहे, अरि-चक्रं तद्वत् स्मृतिप्रणामादिभिर्न व्यथते, तद्घातक इति भावः । रीरवाः । रिः - भ्रान्तिः, सैव रो- दवः, तस्मिन् वाः - पानीयं तद्वत् तदुपशम हेतुरित्यर्थः । राय रायं रिरीरायो, यां ययाऽऽऽर्ययाऽऽययौ । रेराsरियारराऽऽरार्या - रेरोरोरूय रोरराः ॥६॥ ( मूलश्लोकः ॥ ५) विभागः -- रायं - रायं-रीरी-रायः-यां ययार्या र्य याऽऽययौ रेरअरि-य-अरर-आराय-रा- इरः- रेराऽरियाडरराऽऽरायरेरः रोरूयरोरराः ।
व्याख्या--रायं रायं दत्वा दत्वा रिरीश्व-पित्तलानि, उप
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त्रिदश-तरङ्गिणी
लक्षणत्वाद् रजतादीनि च, रायश्च-स्वापतेयानि, 'गामश्वं पुरुषं पशु मित्यादिवत् समुच्चये चोऽत्र गम्यः। यां-प्रकरणात् प्रव्रज्यामयीं लक्ष्मी, समवसरणादिरूपां निसङ्गताकालभाविनीं तीर्थकृल्लक्ष्मी वा, यः श्रीवीरः (रोर्यः) [है०१३३६ ] आर्याणांसुजनानाम्, अर्यः-स्वामी, (रोयः) आययौ-प्राप्तवान् । यः कीदृशः? रेरारियाररारार्या-रेः अति (इति राणां)-नराणां राः-तीक्ष्णाः , ये अरयस्तेषां यस्य-यमस्य, यद् अरर-गृह, तत्र आरार्या-आटाट्याभृशं गतिः लोकरूढया शरणमिति भावः। तां राति-ददाति या, ईहशी इरा-'इराम्भो वाक सुराभूमिष्वि' तिहैमवचनात् वाकदेशनालक्षणा यस्य स तथा, भव्यनरतीवरागाद्यरिघातकदेशना इतिभावः । रोख्याः (अचि । [है०५।१।४६] (नोतः) [है०३।४।२६] आपद्गतया भृशं रोदनोच्चारा कृतः (?) रोराः (रङ्काः) तेषां रि (रा:) हेतुत्वाद् धनम् ॥ ५॥
माराऽऽरामामरोमोर्मि-रामामारममाररम् । मारीरामारमामार ! ररमारां ममामम ! ॥७॥ (मूलश्लोकः ६) विभागः-मार-आराम-अमर-उमा-ऊर्मि-रामा-मा-आरं-अमार-रं-मारी-रामा-रमामार-[ममाररा-मारी र-आमा-रमा मार ! र-र-मारां-मम-अमम-मारीरामारमामार! ररमारां ममामम।
व्याख्या-मारा०मारस्य-कामस्य, विश्रान्तिहेतुत्वात् आरामसदृश्यो या अमराणां 'उमोर्मिरामा' इति, उमा:-कान्तयः, तासामूयः-कल्लोलाः, बाहुल्यादेवमूर्मिशब्देन व्यपदेशः, ता एव गुणगुणवतोरभेदोपचारेणैवं व्यपदेशात् उमोर्मिभाजः याः रामाः-स्त्रियः, तासां मा-लीलादिलक्ष्म्यस्तद्र पैः आरैः-अरिसमूहैः, 'अमारर' इति । न मारं 'मारोऽनंगे मृतौ विघ्ने मारी चण्डयां जनक्षये' इति (हैम०)
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त्रिदश-तरङ्गिणी वचनात् विघ्नं, प्रक्रमाद् ध्यानस्य. रीणाति-याति यः कचित् [है०५-१-१७२] डे स तथा। मारी-जनक्षयः. तां रान्ति-ददति. आमा-रोगाः, रमा, तस्या-मारो-विनाशः, मारहैतुत्वात मार इति व्यपदेशः । सम्बोधनं चेदं। रः-कामः, स च रो-दहनः, र:तीक्ष्ण [यो र:-कामः इति वा तं माराम आदाय, (१) यत्तदोनित्याभिसम्बन्धात् स इति क्रियायां मध्यमपुरुषादिना त्वं चति गम्यंमम हे अमम ! इति कुलकम् ।। ६ ।। ( इति मूलषष्ठश्लोकव्याख्या) ययीममायामयमाययौ य याऽऽयाय्यामयामयमाऽययेयः । योयूययायायममेयमाय-यामोमयायाऽमम मामयामः॥८॥
इति सुसङ्गतः पाठः। विभागः--ययीम्-अमायामयम्-आययौ-ययाऽऽयाम याय्या ऽऽमय-म-अय--येय.--ययीममायामयमाययौययायामयाय्यामयमाययेयः। योयूय-यायायं । अमेयमायो, यामोमयाया-ऽसम. मामय-अमा (म०)।
व्याख्या-ययीव्ययीमिति। याधातोः “यापाभ्यां द्वे च' (उणा०) [७१४] इति किदीप्रत्यये द्वित्वे च सिद्धौ मोक्षमार्गम, अमायामयः आययौ च य इति सम्बन्धः ( रोयः) [है०१।३।२६] कीदृशः ? इत्याह-आयाम-विस्तारं यातीत्येवंशीला आयामयायिनः, ये आमयाः-रोगाः, तान् मिनोति-हिनस्तीति कचित् [है०११।१७१] डे, तथा अयेन-शुभदेवेन, यायते 'गत्या ज्ञानार्था' इति वचनात् यायते-प्राप्यते इति अययेयः-शुभकर्मणकोपलन्य इत्यर्थः । नहि भाग्यं विना जिनः परमेष्ठिदेवतया सम्यग् उपलभ्यते इति । कथमाययावित्याह-आयायमिति, आ-आभिमुख्येन अयनमाय-आगमनमित्यर्थः। लाभस्य प्रक्रमात् कैवल्यादिसम्पदागमनं यथा स्यात् तदनुकूलमित्यर्थः। क्रियाविशेषणमिदं । तथा योयूय इति ‘युक् मिश्रणे' इति धातो र्यङि अचि च निष्पत्तौ भृशं
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त्रिदश- तरङ्गिणी
१५
मिश्रितः कथञ्चित्तादात्म्यमापन्न इत्यर्थः । कया ? यामोमयेति । यामः- संयमः, तस्य उमयाः उमा गौर्या, हरिद्रायां, कीर्तिकान्तितमीष्वपी' तिवचनात् कान्त्या - अनन्तातिशयद्धिप्राप्त्यादिरूपया, तथा अमेया- अप्रमाणा, माया- स्यान्माया शाम्वरी कृपा दम्भो बुद्धिश्चे' तिवचनात् त्रिभुवनरक्षाकरत्वात् कृपा बुद्धिः - ज्ञानं वा यस्य स तथा, याऽममेति, यायां- राज्यादिलक्ष्म्यां : अममः - ममत्वरहितः, तथा मामयेति 'अयि वयि पयि मयि नयि चयि रयि गता' विति मयधातोः यङ् यचि च सिद्धौ गत्वरी, अमा-अलक्ष्मीः दारिद्रयादिरूपा यस्मात् स मामयामः अत्र च खञ्जकुण्टादिवत् केवलविशेषणद्वयस्याऽपि कर्मधारयः समास इति । अयं विशेषसंगतः पाठः । अत्र चापरपाठस्त्वेवमुत्तरपादत्रयस्य -- यायाममायामयमायमायः। यामायमायामममेययायो, यूयोययायामममामयायः ॥ इति ॥
विभाग:आय-माय-अमं अमेय याय । आमे यूयोय-य आमेययोयूयययमामयायः ।
य - आयाममाया- आमय-म-अयम-अयः -याम
-
[-य-अय-मामया-अया
अस्यार्थः- आयाममां- विस्तारलक्ष्मीं यान्तीति डे आयामः मायाः । ये आमयाः तान् मिनोतीति क्वचित् [है०५ | १|१७१ ] न यमं - मृत्युं अयते- प्राप्नोतीति, तथा यामं संयमं आयातीति स तथा, आयाममिति । आयस्य अमा- अप्रमाणं यथा स्यादितिक्रियाविशेषणं । अमेयया ज्ञानादिलक्ष्म्या योयूयोऽसि श्रितो भृशं श्रये - त्यादि, 'या याने' इति अयः - अचलः- अममः -मभत्वरहितः । तथा मामया- गत्वरी अया- अलक्ष्मीर्यस्मात् स तथा ततः खञ्जकुण्टादिवत् विशेषणत्रयस्याऽपि समास इति ।
संसार संसारिसुरासुरेरा - सरेरसारैररसं ससार ।
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त्रिदश-तरङ्गिणी सारैरसारैरुरुसारसारः, सुरारसासस्रिरुरेऽरिरंसः ॥ १० ॥
इति विशेषसङ्गतः पाठः । अपरस्त्वेवम्-संसारसंसारिरसारसारि-सारैरसारैररसं ससार । सुरासुरेरः सुरसासरोरु-राराससाससि रसारिरंसः ॥११॥
विभागः-संसार-संसारि-सुरा-सुरेरा-सर-ईर-सारैः-असारैःअरसं-ससार । सारैः-असारैः-उरुसारसारे-सुरारसा-सनिरुरे-अरिरंसः ।।
व्याख्या-संसार-(संसारारण्ये) संसारिणो ये सुरा असुराःतथा ईरायां-भूमौ सरन्तीतीरासराः- मनुष्यादयःतान् ईरयन्तिअर्जनरक्षणादिक्लेशेपु प्रेरयन्ति, यानि साराणि तैः कृत्वा, वृत्तगतस्य यच्छब्दस्यहाऽपि सम्बन्धात् यः, अरसमिति 'रसः स्वादे जले वीर्य, श्रृङ्गारादौ विषे द्रवे । वोले रागे देहधातौ, तिक्तादौ पारदेऽपि चे॥१॥ ति ( हैम० ) वचनात नमो विरुद्धार्थाभिधायित्वाच्च अरागं-नीरागतामित्यर्थः। ससार-प्राप्तवान् । भवतिहि धनादीनां सुराऽसुरमनुजपशुताहेतूनामप्यनित्यतापरिणामादिदुःखहेतुतादिविभावनेन महतां नीरागताऽपि 'जे चेव उ मोक्खस्स भवस्स ते चव तत्तिया हेउ' त्तिवचनात् । साराणामरसहेतुतामेव विशेषणद्वयेनाह-सारैरिति सह (आरैः) चौराऽनलादिप्रतिपक्षौः अत एव असारैः-अश्रेष्ठैरिति । यः कीदृशः? उरुसारसारइति। उ (:) सारसे (उरुः सारः) 'सारो मज्जाऽस्थिरांशयोः । बले श्रेष्ठे च सारं तु, द्रविणन्याय्यवारिष्विति ( हैम०) वचनात् सारश्व-बलं, सा च लक्ष्मीः-मुक्तिभाव्यनन्तवीर्यज्ञानादिलक्ष्मीरित्यर्थः। तां रातिददातीति । तथा सुराः शोभनो मेघः, कस्मिन् ? रसासस्रिरुरे । रसायां-भुवि सरन्तीत्येवंशीलाः 'सनि चक्री' है०५।२।३६] त्यादिना निपातनात् रसासस्रय्यो-मनुष्यादयः, तेषां रुः-भयं 'इहपरलोयायाणे' त्यादिना सप्तप्रकारं, स एव रोदहनस्तस्मिन् ।
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त्रिदश-तर्राङ्गणी
१७
तथा अरिरंस:-विगतरत्यादिभाव इति । अत्राप्यपरपाठ एवं,किञ्चिप्रसतत्वात लिख्यते-संसार० स्पष्टः । नवरं सुरासूरान ईरयति सेवार्थं य: स तथा । अथवा सुराऽसुराणां या ई:-लक्ष्मी: तां रातीति तथा । सुरसेत्यादि । शोभना नत्यादिरता ये रसासरामनुष्याः, तेषां ऊरु-गरिष्ट, रः-तीक्ष्णं आरं अस्येति, या ईदशी सा लक्ष्मी: शक्तिरूपा [ विशेषतां सरति, सस्रीति [ है. ५।२१३९] निपातनात साधुः । न विद्यते सह आरिरसया यः स तथेति । नवमो मूलश्लोकः व्याख्यातः ।
वीरो रविौं वररो वरोरु, रुवीवरावारविवारिवारी।
रैरोरवो वर्वरवीर वीरोऽ-वरैरिरीरोरुवरोरवारः ॥१२॥ विभाग:-वीरो-रविः-व-वररः, वर-उरु-रुवीवर-अवारवि-बारि. वारी। रैरोरवः-वर्वरवीर:-वीरः अर्वरै-रिरी-र-ऊरुवरोरवारः ।
व्याख्या- वीरो-स्पष्ट: । नवरं यत्तदोनित्यमभिसम्बन्धात् अन्यतरोपादानेऽन्यतरस्य ग्रहणात् स इत्यस्य गम्यमानत्वात् स वीरो वो वररोऽस्त्विति सम्बन्धः। रविवत् प्रकाशकत्वाद् रविः, तत्र वर-ईप्सितं, राति-ददातीति बररः, ईदृशः। पुनश्च वरोरु० इत्यादिविशेपण: । तत्र ऊरु:-महान् विस्तारो वरो यस्य स तथा क्रियाविशेषणम् । पुनः कीदश: ? रुः-भयं, वीवरो-विस्तार, तद्रूपः अवारविः अवार्यतउसमूहः, तस्य वारि-निवारणं, लत्र बारी-बन्धनरूपः, अवार्यभयविस्ताररूपपशुगण निवारणबन्धनस्थानरूपः । रैरोरव: । रा:-जलदः, तद्वद् भश योजनप्रसरं यथा स्यात्तथा, पुन: पुनर्वा भव्यानुग्रहाय देशनाक्षणे रौतीति यडलुप्यौणादिके अप्रत्यये च तथा। अथवा रा:-जलदः, तद्वत् राणां नराणां, ऊ:-रक्षा, तद्धेतुत्वात् सैव वा राणां सूः (ऊः) यस्मादिति व्यधिकरणे, रः-तीक्ष्णः, ऊः-रक्षा कान्तिर्वा यस्मादिति
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त्रिदश-तरङ्गिणी
समानाधिकरणे बहुनीहौ वा, एवंविधो (रव:) देशनाध्वनिर्यस्य स तथा । यथा अब्दो जातः क्षदाद्यपद्रवरक्षाकान्त्यादिहेतुस्तथा भगवानपीति भावः । तथा वर्वरं काममेव वीरं विशेषेण ईरयति स तथा । अर्वा-अश्वः, रा:-स्वर्ण, रिरी:-पित्तल, शेषोपलक्षणं (न) तेषां रा-दानं तेन उरुवदाचरन्तः रोरवारा यस्मात्म तथेति । (दशमो मलश्लोको व्याख्यातः) अर्थतः प्राय: सर्वेषां सम्बन्धत्वेऽपि उक्तितस्त्रिभिविशेषकमित्युक्तम् । एवं मया भासुरपञ्चवर्ण-सुवृत्तपैथितां सदाम् । श्रीवोरनेतु. स्तुतिरूपमाला, जुधाः! समादाय तमर्चयन्ताम् ।।१३।।
व्याख्या-स्पष्टं । नवरं-अर्चयन्तामिति । अचिण् पूजायामित्यस्मात् णिजि परस्मैपदमेव स्यात्तेनापप्रयोगः । यौजादिकत्वेन विभापया णिग्भाले तु इदित्त्वादात्मनेपदमेव । अर्चतीति प्रयोगस्नु भौवादिकस्य, तथा च कविरहस्ये
अर्चते चन्द्र चूडं ओ, गुरुमने तथाऽचंति ।
अर्चयत्यनिशं विप्रान, कर्णधारान् भवार्णवे ॥१४॥
इति युगप्रधानावतार० श्रीपर्युषणापर्वमहाविज्ञप्तित्रिदशतरङ्गियां द्वयक्षरवृत्तः पञ्चाक्ष रश्रीवर्धमानस्तवनामा षष्ठः पुटभेदरूपस्तरङ्गः । क्षिप्तैः सन्देहबाणैः सपदि तनुगतै पीडयित्वा निबद्धान । स्नेहोद्यत्पााकैश्च स्ववशमधिगतीकृत्य मोहप्रद (हटे। निश्शल्यान यो विधाय स्ववचनसदयस्कान्तयोगाद् गणेशान । हत्वा मोहं विनोच्य व्यधिश निजभटान् वीरनेता स पातु ।।
इतिषष्ठतरङ्गचूला । यस्यागमोत्था पहाडक्तिपुज्ज्वलां, दृष्ट्वा बुधा पुतिपुरीमुपेयुषः। श्रये युरद्यापि तदध्वनीनतां वीरोऽवतात् सार्थपतिः स वो भवात् ।
इति (षष्ठ) तरङ्गस्य प्रतिचूला ।
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त्रिदश-तरङ्गिणी
एवं नित्यनिरञ्जनाऽव्ययपदं श्रीबर्द्धमानं मुदा, शक्रालीमुनिसुन्दरस्तवगणतक्रमं यः स्तुते । सर्वाभीष्टसुखोच्च यैरविरतं स्फूर्जप्रमोदाद्वयो,
मोहद्वेषिजय श्रिया स लभते श्रेयोऽचिराच्छाश्वतम् ।।१७।। इति षष्ठतरङ्गसमर्थनापङक्तिः । चूलाऽपि स्पष्टा । इति युगप्रधान० स्रोतसि षष्ठतरङ्गस्य पुटभेदरूपस्य किञ्चिद्वृत्तिवेलेयं सदर्थ रत्नप्रकारप्रदर्शिनीति । अथचविशतिजिनस्तवाऽऽशीर्वादनामा हृद: प्रस्तूयते-- जय श्रियं ज्ञानतपस्क्रियायुधै-रवाप्य दुर्वारतरान्तरद्विषाम् । पदं यदाऽऽपुः किल ये तदाप्तये, जिनांश्चतुर्विंशतिमानवीमि तान् । श्रीमानादित्रिभुः क्षमाधरकुले जात सुबंशावली
__ वाद्यो मौक्तिकसम्पदेऽस्तु स सतां शाखाशत भ्राजितः । धर्मादिस्थितियष्टयो यदुदिता: स्फूर्जन्महिम्नोत्तरा,
जजुर्मोहजरादितस्य जगतोऽप्याधारभूता: पराः ।।२।। ईशान: पुरुषोत्तमो जिनपतिब्रह्मति मक्त्यथिभिः,
कल्पद्रुमरुतां घट: सुरमणिश्चैव धनाद्य थिभिः । बन्धुरत्राणमयं पिताऽथ जननी चैवं हितार्थाथभि
यो ध्यातस्तनुतात् सुखाकृतजगज्जन्तु श्रियं सोऽजितः ।।३।। श्रीशम्भवः स जीयात् प्रापयितुं शिवपुर जवाद्भव्यान् ।
बिभ्रत् सार्थाधिपतां धत्ते योऽङ्कच्छलादश्यम् ।।४।। बध्नाति चेतांसि गुणैस्त्रिलोक्या, मत्तोऽप्ययं जित्वर चापलानि । इतीव भीत्याऽङ्कनिभादुपास्ते, यं वानरः पात्वभिनन्दनोऽयम् । ५।। . कल्याणावलिमातनोतु भवतां निस्सीममाहात्म्यभद,
देवानामपि देवता स सुमतिः श्रीतीर्थलक्ष्मीपतिः । रूपं यस्य हरिः क्षमो न दशभिश्चक्षुःशतैर्वीक्षितुं,
विंशत्या रसनाशतैरपि धृतर्वस्तुं गुणांश्चाऽहिराट् ।।६।।
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त्रिदश-तरङ्गिणी त्यक्त्वा वारिरुहं जलाशय रतिः सेवां यदह्रिस्फुर
ल्लावण्यामृतपल्वलस्य कुरुते नित्यं यदङ्कच्छलात् । तत्पुण्येन लभेत तत्सुरनराधीशोत्तमाङगेष्वव
स्थानं मुक्तिपदप्रदोऽस्तु भवतां श्रीमान् स पद्मप्रभः ।।७।। स्फुरत्तरस्फारफणालिरूपिणी रत्नांशुजालदधदिद्धपल्लवान् । यः पञ्चशाख ः समभूत् सुरद्रुमः, स चिन्तितं रातु सुपार्वतीर्थकृत् । मन्ये भवाधःकृतिशक्तिमाप्तुं, प्राज्यं सिषिवे विधुरंहिलग्नः । तथैव यस्याऽऽकृतयोऽप्य भूवंश्चन्द्रप्रभ: पातु जगन्ति सोऽर्हन् ।।९।। नैवामतं प्रदददप्यजरामरत्व
दाने क्षमोऽस्मि विभुरेष जिन स्त्विहापि । व्यात्वेति याचत इवांह्रिगतोऽयमिन्दुस्तच्छक्तिमस्तु विधुलक्ष्म जिनः स भूत्यै ।।१०।।
॥ इति तरङ्गचला 11 इतियुगप्रधाना० स्रोतसि चतुर्विंशतिजिनस्तवाशीर्वादह्रदे आद्यजिनाष्टकस्तवाशीर्वादनामा सचलः सप्तमस्तरङ्गः ।।
अष्टमस्तरङ्गः। देवानामधि : स्फुरद्गुणनिधिः शुष्यद्भवाम्भोनिधि
दुष्कर्मारिप्रधिर्जने हितविधिद्वैधा विमुक्तोपधि: । पातु श्रीसुविधिः सुरैर्वरविधिस्तुत्यः प्रभावोदधि
र्येनोद्यत्सुखधिक्रियाकृदबधि क्रोधः सयोधो युधि ।।११।। नरामरा बिभ्रति भृङ्गभूयं, यस्मिन् सदा योगिमनस्सर:स्थे ।
तनोत्वयं शीतलपादपद्मः, संसारतापप्रचयप्रणाशम् ।।१२।। श्रेयःश्रेणिमयं तनोतु भगवान्नि:श्रेयसश्रीप्रभु
निर्विश्रामसुरेशसंस्तुतपदः श्रेयांसनामा जिनः । मम्पत् कम्पपराङमुखा त्रिजगतो विश्रामभूश्चेतसां,
यन्नामस्मृतिमात्रतोऽपि भविनां पाणौ स्फुरत्यञ्जसा ।।१३।।
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त्रिदश-तरङ्गिणी
२१ सेवागतामरनरावलिपापवैरि-प्रध्वंसनप्रगुणिता इव यस्य भान्ति । आग्नेयशस्त्रनिवहास्तनुकान्तिरूपा:,
पायाद् भवात् स भवतः प्रभुवासुपूज्य: ।।१४।। को नार्या जनितो विनाऽपि हि पति ? कस्मिन् भवेच्चन्दनं ?
का मान्या गृहिणां स्फुटा यदभिधा प्रश्नादिवर्णैर्भवेत् । कीदृग् ध्यानतपःश्रुतैजिनमतैः प्राणी भवत्यञ्जसेत्येवं च प्रतनोतु वः स भगवान्नामानुरूपां धियम्
(वि+म+ल: विमल:) ।।१५।। नेत्रश्रीर्जलराशिगूढविलसत्काम्यार्थ रत्नोच्चयान्,
योऽभूद्दर्शयितुं पुराऽत्र विबुधवातस्य धत्ते च यः । पृथ्वी कीर्तितति तथा सदमृतप्राप्तिर्यदाज्ञावशा,
पायाद् भोगिकुलोद्भवः शिवसदः श्रीमाननन्तप्रभुः ॥१६॥ मङ्गलं प्रवितनोतु भाविना, धर्मतीर्थपतिरामरद्रुमः ।
यत्प्रसादमहिमाणुम्भितं, चक्रिशक्रशिवशर्मसम्पदः ॥१७॥ चिरस्य पीतेन्दुसुधाऽनुवादं, संवीक्षितुं यद्वचनामृतेन ।
सुधारुचेर्लक्ष्ममृगोऽङ्कदम्भाद्यं सेवते शान्ति रयं शिवाय ॥१८॥ इतियुगप्रधा० ह्रदे मध्यमजिनाष्टकस्तवाशीर्वादनामाऽष्टमस्तरङ्गः।
नवमस्तरङ्गः । यः सूरजातोऽपि हि जीवमैत्र्यभाग,
__ मेषाश्रितोऽप्याश्रयते महोच्चताम् । श्रीनन्दनश्चाप्यकरोद् भवक्षयं,स कुन्थुनाथः पृथुसम्पदे सताम् ॥१९॥ ध्वस्ताज्ञानभरः स्मरज्वरहरः सर्वेष्टसौख्याकरः,
क्षीणाशेषदरः क्रमानतनरप्रेयःशिवश्रीकरः । ब्रह्माद्वैतधरः समाश्रितपरत्रैलोक्यरक्षादरः,
कुर्यात श्रीमदरः सतां गुरुतरश्रेयांसि तीर्थङ्करः ॥२०॥
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त्रिदश-तरङ्गिणी
मल्लिजिनोऽसौ श्रियमातनोतु श्रितः पदौ यस्य घटः सुराणाम् । अङ्कं मिषन् सर्वमनोव्यतीत- प्रदानशक्ति किल याचमानः ।। २१॥ पूर्वं कूर्मपतिश्चकार चलनोपास्ति क्षमाभृद्गुरो
र्यस्योद्धर्तुमिमां क्षमामभिलषंस्तच्छक्तिपाठाय नु । दृष्टश्चैष तथाकृतिष्वपि जनैश्चक्रेऽधुनाऽपीक्ष्यते,
श्रेयः श्रीमुनिसुव्रतः स तनुताद्वः कूर्मलक्ष्मा प्रभुः ||२२|| स्थेयः श्रीभरदानशक्तिमतुला यस्येक्षमाणः सदा
२२
स्वस्मिश्चापलपङ्कगतितमां निन्दद्वसन्तीं रमाम् । स्थेष्ठां तां किल याचते पदयुगासेवाकृदङ्कच्छलानीलाम्भोजमयं तनोतु भविनां मुक्तिश्रियं श्रीनमिः ||२३|| विश्वाहङ्कारभारज्वरहरण महाभेषजैः काममुख्यैयांधे रुद्धोपकण्ठं सबलमपि चिरं मोहभूपं वसन्तम् । निर्धाघाऽप्येक एवोत्कटभटमुकुटो यः प्रविश्यौग्रसेनीचित्तोर्वीराजधान्यां स्वयमुषित इह श्रेयसे सोऽस्तु नेमिः || वितरतु भवतां श्रीपार्श्वनाथः स मुक्ति,
फणिपतिफणमालाश्लिष्टपादारविन्दः : 1
Frey
कमठहरुविमुक्तावारवारिप्रवाहै
रपि सर्पादि यदीयो दिद्युते ध्यानवह निः ॥१२५॥ यो वेदार्थविचारणायुधगणैर्हत्वा गणेशोल्लसन्मानप्रोन्नतचित्तदुर्गनिवहे सन्देहशत्रून् स्थितान् । प्रागेव प्रहृतस्य मोहनृपतेर्मल्लानिव प्रोन्मदान्, स्वान् सद्बोधनृपान् न्यवीविशदयं वः पातु वीरप्रभुः ||२६|| एवं निर्णिक्तभक्त्या भरतभुवि चतुर्विंशतिर्वर्तमानाः, संसारक्लेश भी तत्रिभुवनजनता त्राणदुर्गापमानाः । नूता मुग्धस्तवेन त्रिदशपतिनुतास्तीर्थराजा ददन्तां, तां शुद्धां बोधिलक्ष्मी लसति मयि यतः केवलानन्दलीला |
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त्रिदश-तरङ्गिणी
२३
एवं यो मतिमान् स्तुते जिनवरान् भक्त्या चतुर्विंशति,
शकालीमुनिसुन्दरस्तवगणतक्रमाम्भोरुहान् । सर्वाभीष्टसुखोच्चयैरविरतं स्फूर्जत्प्रमोदाद्वयो,
मोहद्वेषिजय श्रिया स लभते श्रेयोऽचिराच्छाश्वतम् ।।२८।। इतियुगप्रधाना० चरमजिनाष्टकस्तवाशीर्वादनामा नवमस्तरङ्गः ।। सम्पूर्णश्चायं चतुर्विशतिजिनस्तवाशीर्वादनामा ह्रदः प्रथमः ।। वक्ष्यमाणत्रयोविंशतिस्तोत्ररत्नेषु प्रथम
रत्नमपीदमेवाष्टकत्रिकमयम् । सुखावहं वीक्ष्यसिताङ्गतामा-दरं विरक्तः शिवशर्म लात्वा । भव्यां गिरोरीकृतिमाप्य साधुयायीलये रङ्गभराद्रिपोऽते ।।१।। ___कारकषटक-सम्बन्धक्रियारूपाऽष्टगुप्तकम् ।
'सुखावह' मित्यादि । अते-रिपो असिताङ्गत सहं वीक्षी शिवशर्म लात्वा भव्यां गिरा ऊरीकृतिमाप्य साधुयायीलये रङ्गभरात अरं विरक्तः सूखौ अमात् ।।१।। विश्वत्रयीवन्द्यपदान्ति केन, न ते श्रितेन स्तवनं स्ववाण्या । न योगिनां हृत् सुजगत्प्रसिद्धरमानिधे शुद्धगुणैश्च केषाम् ।।२।।
क्रियाद्वयगुप्तकम् । 'विश्वत्रयी'त्यादि । विश्वत्रयीवन्द्यपद ! स्ववाण्या तव स्तवनं श्रितेन केन योगिनां हृत् न आन्ति हे अनिधे ! सुजगत्प्रसिद्धः शुद्धगुणैश्च केषां हृद् न अम ॥२॥ जडैजिनाकाम (मि) कियनिषेवितुं,
परो विना त्वां ग्रहिला ह्यमी ततः । व्यामोहभाक्त्वाददते शिवं न तत्,
तवैव विज्ञालिरयात् स्तुतौ बुधैः ॥३॥
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२४
त्रिदश-तरङ्गिणी क्रिया १ कर्तृ २ क्रिया ३ रूपत्रिगुप्तकम् । 'जडै' रित्यादि। त्वां विना परः जडैनिषेवितुं कियत् अकामि, ततः ग्रहिला अमी, व्यामोहभाक्तू न शिवं न आददते तत् विज्ञालि: तवैव स्तुतौ बुधैरयात् ॥३॥ सेवां सदाज्ञाहित एव विस्फुरद्, भयं त्यजद्विश्वमिहाय॑ते न यत् । इदं विभो ! वैरिहर ! त्वमेव तत्, कथं विलम्बौ वनवीतकीलक: ।
क्रियात्रय कर्तृकर्मत्रय त्रयरूपनवगुप्तकम् । 'सेवा'मित्यादि । हे अज्ञ ! अहित एव विस्फुरद् भयं त्यजत् सेवां सद (हे) अय॑ ! ते विश्वमिदमनयत्, हे वैरिहर ! विभो ! त्वमेव वीतकीलक: विलम्बौ कथं च न (?) ।।४।। अहन्नस्ततमः पाप (पा) हित्वा मे भजतो मनः ।
देव त्वं नृपतारामा-लक्ष्मीभोगरसान् पुनः । ५।। कर्तृ १ कर्म २ क्रियाद्वय ४ रूपचतुर्गुप्तकम् ।
'अर्हन्नस्ते' त्यादि । त्वां भजतो मे मनः हे अर्हन् ! अस्ततमः पापाहि, देव नृपतार ! त्वं अलक्ष्मीभोगरसान् पुनः आरम (अम) ॥५॥ योऽध्वा शिवपथे तात ! प्रभ ! विष्टपपावनः । महिमानं नते सोऽपि, सुभक्त्यामम योचितः ।।६।।
क्रियाद्वयगुप्तकम् । 'योऽध्वेत्यादि । तात प्रभ ! विष्टपप अव नो योऽध्वा शिवपथे, महिमानं नते सुभक्त्यां सोऽपि याः (य उचितः अम)
भवे सदाधे विशरारुरङ्ग-भाज: शिवायानतिमादरात्ते । सारारमापाणिपयोरुहेषु, स्थेमानमेषां हि नयानि रम्याम् ॥७।।
क्रियाद्वयगुप्तकम् ।
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त्रिदश-तरङ्गिणी
२५
'भवेत्यादि । विशर ! सदाघे भवे येऽङ्गभाजः ते नति शिवाय आदरात् आरुः एषां हि पाणिपयोरुहेषु सारा रमाः रम्यां स्थेमानं नयानि ॥७॥
न याचे शक्रतां देव ! , चक्रितां विभवं न च । विभो ! बेडावदाननं, भबाम्भोधेर्महाभयात् ॥८॥
क्रियागुप्तकम् । 'न याचे'त्यादि । हे शक्रतादेव ! चक्रिता विभवं च न याचे महाभयात भवाम्भोधे.डावद् आननं अव । गुप्तक्रियाद्यैरिति यं भवद्विषज्जयश्रिया वृत्तवरैः स्तुवे जिनम् । चित्तेऽस्तु मे नाम सदादिभेदतः, स विश्वकालत्रितयं पवित्रयन् ।।९।।
एवं नित्यनिरञ्जनाऽव्ययपदं श्रीतीर्थनाथं मुदा, शक्रालीमुनिसुन्दरस्तवगणैर्नूतक्रमं यः स्तुते । सर्वाभीष्टसुखोच्चयै रविरतं स्फूर्जत्प्रमोदाद्वयो, मोहद्वेषिजयश्रिया स लभते श्रेयोऽचिराच्छाश्वतम् ॥१०॥
इति-युगप्रधाना० स्रोतसि क्रियादिगुप्तकरूपविश्वकालत्रयव्यापिजिन स्तवाष्टकनामा दशमस्तरङ्गो द्वितीयपुटभेदरूपः ।।
एकादशस्तरङ्गः। जय श्रीमन् ! पावं ! त्रिभुवन विभो ! विश्वजनता स्फुरद्विघ्नध्वान्तप्रहणनतबोष्णांशुरमला । शरण्या भीतानां सकलजगतां वज्रनिलयः स जीरापल्लीस्थः प्रकटमहिमाम्भोधिरतुलः ॥१॥ काले ह्यस्मिन् कराले कवलितसकलोद्दामदेवप्रभावप्रोत्तुभ्यत्सर्वदेशे प्रवलखलजने दुःखिताशेषसाधौ । व्यावल्गन् म्लेच्छमालाबहुलकलकलोच्छालिताकालकाले, दीनानां नीतिभाजां जयसि भवभृतां रक्षितैकस्त्वमेव ।।२।।
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२६
त्रिदश-तरङ्गिणी मन्त्राणां न प्रभावः प्रभवति न विभो ! संस्तुतिः काऽपि दैवी, नौषध्यो विध्यापात्रा (द्ययाढया) अपि महिमभृतः
कालरूपाश्च भूपाः । उद्यद्रोहप्ररोहप्रवणमतिजुषः शम्पुषः स्वाजनानां, हा ! हा ! भूतस्तदेवं जगति मतिमतां त्राणमेकोऽसि पार्श्व ! ॥३॥
भ्रश्यद्भूभङ्गभीतभ्रमदसुरगणैः क्षुब्धबिभ्यत्रिलोके, त्रस्यद्दिगमत्तनागे व्यथितफणिपतौ सैन्यघोषोग्रभारात् । शस्त्रज्वालावलीढप्रतिभटविकटं कम्प्रभूध्रोच्चलाब्धौ, विश्वाश्चर्य भट त्वं प्रकटमकृत यः शाखिसंस्फोटकाले ॥४॥ माद्यन्मातङ्गमालागिरिकलकुलितं तुङ्ग रङ्गत्तरङ्ग
श्रेणीकल्लोललोलद्विपुलबलचलत्पत्तियादःकलापम् । योऽमथ्नान् म्लेच्छजालान् कपटजलनिधिः सोऽर्यतां पार्श्वनाथः, सर्पच्छीखीन्द्रदर्पज्वरभरसदपस्मारधन्वन्तरिश्रीः । अर्थतो युग्मम् ।। बाला वेतालमाला बहुलबलकला भूमिपालाः शृगाला, व्यालाश्चाम्भोजनालान्यनधिकृतितयाऽम्भोधयो व्याधयो वा । पञ्चास्याश्चाप्तदास्या ह्यनुकृतपशवः प्राणिनां दस्यवः स्युजैत्रा यन्नाममन्त्रान् स जयति भगवान् जीरिकापल्लिपार्श्वः ।
स्वल्पः कल्पद्रुगणविभवः सम्भवः स्वर्गवीनां, मिथ्या तथ्या न सुरमणयश्चालयः सन्महिम्नाम् । मन्त्रैः स्तोत्रैः किमिह भविनां भाविनां पार्श्वनाथो,
वासं त्रासं गमितरितः संश्रितश्चेन्मनस्सु ॥७॥ रत्तत्धत्तप्या (रत्नत्रय्याप्य) सौख्यं प्रदददभयदः सादरं भोगिभर्ता,
पुत्री० ती विधत्ते सततमीव सुखं चापि पद्मावतीह ।
स्तोतारं यस्य विश्वत्रिदशपरिवृढप्रौढपूजास्पदस्य, श्रीमान् पाश्वो मम स्तादभिमतफलकृज्जीरिकापल्लिमौलि: ॥८॥
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त्रिदश-तरङ्गिणी एवं नित्यनिरञ्जनाऽव्ययपदं श्रीपार्श्वनाथं मुदा, शकालीमुनिसुन्दरस्तवगणैर्नूतक्रमं यः स्तुते । सर्वाभीष्टसुखोच्चयैरविरतं स्फूर्जत्प्रमोदाऽद्वयो, मोहद्वेषिजयश्रिया स लभते श्रेयोऽचिराच्छाश्वतम् ॥९॥ इतियुगप्रधाना० स्रोतसि जीरापल्लोपार्श्वस्तवनाष्टकनामा
एकादशस्तरङ्गः ॥
द्वादशस्तरङ्गः । कलाक्रान्ता कान्ता न विषयमिता वाङमनसयोः समन्मीलत्सान्द्राऽनुपरमदयानन्दविनवा । निरूपा योगीन्द्रैः सुविशदधिया यात्यवहितैरियं रूपं यस्याः श्रुतजलधिदेवी जयति सा ॥१॥ चञ्चत्कुण्डलिनीनिरुद्धपवनप्रोद्दीपितप्रस्फुरत्प्रत्यग्ज्योतिरिनांशुभासितमहाहृत्पद्मकोशोदरे । शुद्धध्यानपरम्परापरिचिता रंरम्यते द्योमिन्म (द्योऽमितं), या हंसीव मयि प्रसत्तिमधुरा भूयादियं भारती ॥२॥ या पुज्या जगतां गरोरपि गरुः सर्वार्थपावित्र्यसः, शास्त्रादौ कविभिः समीहितकरी संस्मृत्य या लिख्यते । सत्तां वाङमयवारिधेश्च कुरुतेऽनन्तस्य या व्यापिनी, वाग्देवी विदधातु सा मम गिरां प्रागल्भ्यमत्यद्भतम् ॥३॥ नाभिकन्दसमुदगता लघवती या ब्रह्मरन्ध्रान्तरे, शक्तिः कुण्डलिनीतिनामविदिता क्वापि स्तुता योगिभिः । प्रोन्मीलन्निरुपाधिबन्धुरपरानन्दाऽमृतस्राविणी, सूते काव्यफलोत्करान् कविवरैर्नीता स्मृतेर्गोचरम् ॥४॥ या नम्या त्रिदशेश्वरैरपि नुता ब्रह्मेशनारायणैभक्तेर्गोचरचारिणी सुरगुरोः सर्वार्थसाक्षात्करी । बीजं सष्टिसमद्भवस्य जगतां शक्तिः परा गीयते,
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२८
त्रिदश-तरङ्गिणी
सा माता भुवनत्रयस्य हृदि मे भूयात् स्थिरा शारदा || ५ ||
॥ युग्मम् ।। तादात्म्येन समस्तवस्तुनिकरान् स्याद्व्याप्य या संस्थिता, निर्व्यापारतया भवेदसदिवाशेषं जगद्यां विना वीणापुस्तक भृन्मराललुलितं धत्ते च रूपं बहिः, पूजार्हं भुवनत्रयस्य विशदज्ञानस्वरूपा धिया || ६ || साक्षेपं प्रतिपन्थिनाऽपि हि मिथः सस्पर्द्धसङ्घोद्धुराः, सर्वे वादिगणाः सतत्त्वममलं यं निर्विवादं श्रिताः । विश्वव्यापितया नया अपि समालीनाः पदन्तर्यतः, सार्हद्वक्त्रसुधातटाकवरला वाग्देवता पातु माम् ॥७॥ युग्मम् विश्वव्यापि सहत्वभागपि कवीन् हृत्पद्मकोशस्थिता, प्रादुष्यारसमग्र वाङ्मयसुधाम्भोधि समुत्तारयेत् । भित्त्वा मोहकपाटसम्पुटतटं धृत्वा प्रसत्ति परां, दद्याद् बोधिमनुत्तरां (रं) भगवती श्रीभारती सा मम । इत्यानन्दविदात्मिकां भगवतीं श्रीभारती देवतां,
शक्रालीमुनिसुन्दरस्तवगणैर्नूतक्रमां यः स्तुते | सर्वाभीष्टसुखोच्चयैरविरतं स्फूर्जत्प्रमोदाऽद्वयो,
मोहद्वेषिजयश्रिया स लभते श्रेयोऽचिराच्छाश्वतम् ||९|| इतियुग प्रधाना० स्रोतसि श्रीशारदास्तवाष्टकनामा द्वादशस्तरङ्गः ।
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त्रिदश-तर्राङ्गणी
ॐ नमो जिनाय । आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्रीआनन्दसागर--सूरीश्वरेभ्यो नमः ।
प्रभावकपुरन्दरश्रीमुनिसुन्दरसूरिगुरुविरचित
___ स्वोपज्ञलघुस्तुत्यवचूरिसमेतः নিনবনম্বনে। जय श्रीऋषभ ! श्रेयः-सुखानि समयाकर ! ।
देहि मे भद्ररत्नौघ-सुखानि समायाकर ! ॥१॥ (अव०) लौकिकलोकोत्तरादिभेदभिन्नानां धर्मव्यवहारादिमयानां वा समयानामागमानां आकरेति (संबन्धः) सम्बोधनं० श्रीऋषभभूत्वात्तेषां यां-लक्ष्मीं करोतीति याकर ! । श्रेयांसि च सुखानि च श्रेयसो-मोक्षस्य सुखानि वा देहीति योगः। संसारवासं मोक्षलाभसमयं चाऽपेक्ष्य उभयप्रार्थना ।।१।। कुरु मे शाश्वतं शर्म कल्याणोदयराजित ! ।
भगवन देहभामित्र--कल्याणोदयराऽजित ! ।।२।। देहभामित्रकल्याणोदयराजित-देहस्य भाभि: भानां वा मित्रं कल्याणं-हेम यस्य । सम्बो० उद्-उच्चैः, अयं-शुभदैवं रातीत्यातो डः ॥२॥ निनोषसि रिपुं चेद्वीराजमान वशं भवम् ।
ततो भक्त्या स्तुहि प्राज्ञराजमानव ! शंभवम् ।।३।। नेतुमिच्छसि। त्यागेच्छायां सुत्यजो दुर्गतिदौर्गत्यादि दुःखानि च न दत्ते इति भवस्य वशता ॥३॥ श्रियस्तं वृणुते विश्वाऽभिनन्दनसदागमः ।
चित्ते त्वं यस्य भक्तस्याऽभिनन्दन ! समागमः ॥४॥ विश्वेषां विश्वानां वाऽभिनन्दनो-दयादिप्रधानत्वान्नन्दिदायी मोदको वा। सन्-सद्भ तार्थवाग् अचितः प्रशस्यो वाऽऽगमो
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३०
त्रिदश-तरङ्गिणी यस्य । विश्वाऽभिनन्दनेति पृथग् जिनामंत्रणं वा । (समागमः) आगतवान् ॥४॥ शिवश्री ऽस्य दूरेऽस्ताऽरमते सुमतेहिते ।
सुमते ! यन्मनोऽतीव रमते सुमतेहिते ।।५।। हे अस्ता-अलक्ष्मीक ! । अतिशायि शासने । हितहेतौ हितहेतुत्वादेववा। असुमता-प्राणिना जातावेकवचनम्। ईहिते-वाञ्छिते। अथवा सुः-पूजादौ, जनेषु पूजिताः सुष्ठु वा मता:-सम्मताश्च सत्पुरुषा इत्यर्थः । तैरीहिते ॥५॥ सर्वश्रीवासकृच्छोण-पद्मप्रभसमानते । ये त्वाऽऽर्चन् स्युः सुखः कैश्चित् पद्मप्रभ ! समा न ते ॥६॥
त्वां अपूजयन् ते पुरुषाः कैश्चिच्छक्रादिभिरपि समा न स्युः?। किन्त्वसमानशिवसुखाः स्युरिति भावः ।।६।। ये सुपार्श्वदृशैक्ष्यन्त, भवतापापहारिणा ।
न द्रूयन्ते स्मरेणैते, भवता पापहारिणा ॥७॥ विरज्यस्त्वां भजन्ते गास्ते चन्द्रप्रभवादरं ।
___ इष्टदो मे पदं दत्त्वा, चन्द्रप्रभभवादरम् ॥८॥ सुविधे ! स्तुवतस्ते स्यात् पदतामरसं सदा ।
स्तुत्यस्य करगा श्रेयः-पदताऽमरसंसदा॥९।। अमरपर्षदा स्तुत्यस्य ते पदतामर स्तुवतः श्रेयःपदता करगा स्यादिति योगः ॥९॥ कः स्तवे शीतल ! प्राज्ञैः, सरतिस्तव ने हिते।
स्तोतुस्ते हि हरेर्वाणी, सरति स्तवने हिते ॥१०॥ - प्राज्ञैरीहिते वः स्तवे कः पुमान् सरती-रतिभाग न स्यादिति योगः । हिर्यस्मात्ते-तव स्तोतुः विशिष्टपदप्राप्तौ सत्यां । स्तवने हिते-हितहेतौ हरेरिन्द्रस्य वाणी सरति-प्रसरतीति ।।१०।।
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त्रिदश-तङ्गिणी
मता श्रेयांसगीर्यस्य, परमागमभासिता ।
नेष्टा स्यानृपता तस्याऽपरमागमभासिता ॥११॥ नृपत्वं, नृपस्य ता-लक्ष्मीर्वा । अपरा-अप्रकृष्टा चक्रीशशक्रादिऋद्धिमपेक्ष्य हीना, या मा-लक्ष्मीस्तस्या गमेन भया-दीप्त्या, सिता-बद्धा। अथवा अपरमस्य-विनाशस्यागम आगमनं यस्यां सा, विनश्वरेत्यर्थः । तादश्या भया सिता । अथवा अपरेभ्यः सेवकलोकादिभ्यो मा गमस्य.भया सिता ॥११॥ नतं ते वासुपूज्योरु-महाऽनेकपराऽजिता ।
राज्यश्रीः श्रयतीहापि, महानेकप-राजिता ॥१२॥ उरवः महा-उत्सवा यस्यां सा । अनेकैः परैर्वरिभिरजिता । हस्तिभिः शोभिता ।।१२।। त्वदस्तु शुभकर्माघ-हृदये विमलाऽऽगमः।
सम स्थेयांस्तदुक्तश्च, हृदये विमलागमः ॥१३॥ अये-शुभकर्म त्वत्तो मम हृदयेऽघहृद् विमलस्य जिनस्य आगमः-आगमनमस्तु इति योगः । निर्मलसिद्धान्तः ॥१३।। हृदि मे तेऽस्तु सिद्धान्तः, सुरसार्थकलापचित् ।
जिग्ये येन स्मरोऽनन्त ! सुरसार्थकलापचित् ।।१४॥
सुरसा-ज्ञानस्य सुखहेतुत्वात्सुखदा-अर्थकलानां (चिद्) विज्ञना यस्मात् । अथवा सुरसानां शूकलापानां चित्-ज्ञानं यस्मात् । अथवा ज्ञातगुणा एवार्था मणिमन्त्रौषधरत्नादयः सुरसाः स्युः इति मतमाश्रित्य सुरसार्थकलापा याचिता। सातता । तादृशी चिद् यस्मादागमात्स तथा। सु० देवसमूहानां कलां-बलमहत्त्वादिरूपामपचिनोति-हापयतीति क्विप् ।।१४।। श्रितं धर्म नमाथा (घा)ब्दे, प्रभजनसमानताम् ।
पान्तं लोकत्रयीं तातप्रभञ्जनसमानताम् ॥१५॥
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३
त्रिदश-तरङ्गिणी
वायुतुल्यतां ॥१५॥ पुंसः सत्कुमुवोल्लासे, सदा नवकलावतः ।
शिवं शान्ते ! करे स्यात्वत्-सदानवकलावतः ।।१६।।
सज्जन कैरवोल्लासे । नव्यचन्द्रमसः । 'त्वदि'ति तव सन्सद्ध त: प्रशस्यो वा (आ) नवः-स्तवः तस्य करणे कलाभाजः । दिनं स्तौमि दिवः पृथ्व्यां, भवदागमहारिणम् ।
सिद्धान्तं ते च कुन्थोऽन्य-भवदागमहारिणम् ।।१७।।
हे कुन्थो ! दिवो देवलोकात् पृथ्व्यां। भव० तवागमनशोभितं दिनं स्तौमीति योगः। अन्येषां कुवादिनां भवदान्हिंसादिमयत्वेन संसारदायिन आगमान् हरति-असत इति करो. तीत्येवंशीलं तव सिद्धान्तं च स्तौमीति योगः ।।१७।। कस्को न क्रियते स्वस्य, भवता नवसादरः ।
जगन्नाथ ! नरोऽतीव, भवतानवसादर ! ।।१८।। नवे-स्तवे सादरः। भवस्य-संसारस्य, तानवं-तनुतां स्वल्पत्वमिति भावः । ततश्च अभवतानवं भवतानवं क्रियते भवतानवसात् 'व्याप्तौ स्सात् [सि० ७.२-१३० इति सात् प्रत्यये। भवतानवरूपोऽल्पसंसार इत्यर्थः। कस्को न क्रियते भवतेतियोगः । अथवा भवतानवेऽधीनः क्रियते इति 'तत्राधीने' [सि० ७-२-१३२] इति सात्प्रत्यये, तानवाधीन इत्यर्थ: ।।१८।। सूत्वा त्वाऽभज्जगन्मोद-जननी श्रीप्रभावती।
या मल्ले ! जयतात् सा ते, जननी श्रीप्रभावती ।।१९।।
प्रसूय त्वां । श्रीश्च प्रभा च ते तद्वती ।।१९।। दिष्टमुक्तिप्रदश्राद्ध-मुनिसुव्रतभारती ।
जीयातं या सतां दत्त, मुनिसुव्रत ! भारती ।।२०।।
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त्रिदश-तरङ्गिणी
दिष्टानि-आदिष्टानि दत्तानि वा मुक्तिप्रदानि श्राद्धानां मुनीनां च सु-शोभनानि (व्रतानि) यया सा चासौ भारती च । भा च रतिश्च ते ॥२०।। जीयात्तेऽस्योदितश्राद्ध-मुनिसुव्रतभारती । पूता यज्जनुषा पृथ्वी, मुनिसुव्रत ! भारती ॥२१॥
इति पाठान्तरम् । ते-तव, कीदृशस्याऽस्य भरतक्षेत्रसम्बन्धिनी ॥२१॥ श्रियोऽर्थी स नमे ! न स्यान् महीनविभवात्मनः ।
यस्याराध्यः शिवाय त्व-महीनविभवात्मनः ॥२२॥ महीनेब्धिवनां (?) (महीनानां) पृथ्वीशानां विभव आत्मास्वरूपं यस्याः श्रियः । हे अहीनविभो ! सम्पूर्णजगत्त्रयैश्वर्यवत्त्वात् सम्पूर्णस्वामिन् । आत्मनो-जीवस्य ।।२२।। तुभ्यं नेमेऽखिलाङगिभ्यो, महागम ! नमो हित ! ।
राजमत्यादिभिविश्व-महागम ! न मोहित ! ॥२३॥
अखिलाङ्गिभ्यो हित ! । अनन्तार्थगम-नयादिभिः सर्वातिशायित्वान्महानाऽऽगमः-सिद्धान्तो यस्य । आदिशब्दात् पितृमातृभ्रातृजायादिरत्नमणिस्वर्णगजतुरगराज्यादिभिः । मोहनविषये 'न तारिसं दुत्तरमत्थि लोए जहित्थि' इत्यागमवचनात् कलत्रस्य प्राधान्याद् राजमत्यादिनिर्देशः। विश्वेषां विश्वानां वा जन्मादिभिर्महानामुत्सवानामागमो यस्मात् ॥२३॥ यः सतां ददतेऽनन्त-सारं श्रेयोऽयशोभितः ।
स्तुवे पार्वजिनस्यास्य, सारं श्रेयोयशोभितः ॥२४॥
अनन्तः सारो-बलं यस्मिन् । श्रेयो-मोक्षं, अयेन-शुभदैवेन तीर्थकृत्समद्धिनिर्वर्तकेन जिननामकर्मणा शोभितं (त:)। सारंसर्वेभ्योऽतिशायि, श्रेयोरूपं श्रेयोहेतुश्च यशः ॥२४॥
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३४
त्रिदश-तरङ्गिणी
श्रीवीरावेदिते येन, भावतः समयस्ततः ।
शिवाप्तौ भवितास्याशु भाबतः समयस्ततः ।।२५।। ततो-विस्तीर्णः प्रकरणादिभिः। समयोऽवसरः। ततः सिद्धान्तात् ॥२५॥ स्तोता सीमंधर ! स्यात्ते, कल्याणकमलालयः ।
तं नार्दन्ते च विश्वेष्ट-कल्याणकमलालयः ॥२६॥ ___ 'तं' स्तोतारं न बाधन्ते । विश्वानां विश्वेषां वा इष्टानि सुखहितोपकारित्वात्कल्याणकानि-अवतार-जनि-व्रत-केवलोत्पत्ति रूपाणि चत्वारि यस्य । पञ्चमस्याऽजाताऽदृष्टत्वेनेष्टानिष्टविचारानहत्वात् । बद्धकर्माणि मला: अशुभकर्माणि वा, योगत्रयकालुष्यरूपा वा मलाः, तेषामालयः ।।२६।। स्तुवते यं जिनं भक्त्या, प्रसिद्धकुशलालयः । लभेयं तं स्तुवन् श्रेयः, प्रसिद्धकुशलालयः ॥२७॥
साधारणस्तुतिरियम् । विख्यातविज्ञश्रेणयः । प्रार्थने सप्तमी । मोक्षं । प्रसिद्धानांस्वायत्तीभूतानां कुशलानां-मङ्गलानामालयः-पदम् ।।२७।। त्वयि भक्तं त्रिलोकीस्थ ! श्रेयोराजि दमोदय ! ।
जिनवर्गेष्टदानान्मां, श्रेयोराजिद ! मोदय ।।२८।। चतुर्विंशतिजिन-सप्ततिशतजिनपट्टकादौ देववन्दने युगपद् बहुजिनस्तुतिरियम् ।
त्रिलोकीगतशाश्वताशाश्वतचैत्यवन्दने आमंत्रणमिदं पाठश्चायम् । पुरस्थजिनवर्गवन्दने तु त्रिलोकीश इत्यपि पाठः । श्रेयसो-मोक्षस्य राजि-स्वामिनि । दमस्य-कषायेन्द्रियसंवररूपस्योदयो यस्य यस्माद्वा । अथवा दमेन उद्-उच्चैः अय:-शुभदैवं यस्य यस्माद्वा । कल्याणश्रेणिद ! ॥२८॥
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त्रिदश-तङ्गिणी जयर्षभविभो ! वर्द्धमान ! चन्द्रानन ! प्रभः ।
वारिषेण ! सुरैः पूज्य-मान ! चन्द्राननप्रभः ॥२९॥ नन्दीश्वरपट्टादौ देववन्दने शाश्वतजिनचतुष्टयस्तुतिः।
प्रकृष्टा भा यस्माद्यस्य वा, प्रकर्षेण भातीति वा डः । चन्द्रवदाननप्रभा-शोभा यस्य ॥२९॥ देहि त्वमिष्टशर्म श्रीपुण्डरीकप्रभो ! मम ॥३०॥
श्रीपुण्डरीकस्तुतिः ॥ सिद्धिश्रिया-मुक्तिलक्ष्म्या निवासायेति भावः । पुण्डरीकप्रभःकमलसम: ॥३०॥ सदा श्रीगौतमाऽऽनन्दि-विश्व ! श्रेयोमहालय ! ।। श्रयन्ति त्वां श्रितान् प्रेयो-विश्वयोमहालयः ॥३१॥
श्रीगौतमस्तुतिः । आनन्दि-सदुपदेशलब्धिप्रभावाऽतिशयादिभिः सर्वेष्टसाधनात् प्रमोदवद्विश्वं यस्मात् । श्रेयो-मोक्ष एव महानालयो यस्य । श्रीगौतम ! 'त्वां श्रितान्' त्वत्सेवकान्, प्रेयसां-अभीष्टानां, श्रेयसांभद्राणां,महानामुत्सवानां चाऽऽलयः श्रेणयः श्रयन्तीति योगः।।३१।। सिद्धानन्तचतुष्कात्मन् ! सदा शुभवनोदक !।
देहि श्रीसिद्ध ! मे शर्म सदाऽऽशु भवनोदक ! ॥३२।। । श्रीशाम्ब-प्रद्युम्न-रथनेमि-मरुदेवा-राजीमत्यादिश्रीसिद्धस्तुतिः।।
हे कल्याणवनजल ! सत्-सत्यं पारमार्थिकं मोक्षरूपमिति यावत् । हे संसारनोदक !॥३२॥
देहि मे सिद्धचक्रेष्टं, सदा नवपदोदित!। जिनैरनन्तशर्मात्मन् ! , सदानवपदोदित ॥३३॥ सिद्धचक्रस्तुतिः ।
__ हे सिद्धचक्र-सिद्धवर्ग ! सदा-नित्यं मे-ममेष्टं देहीति योगः । नवभिः पदैर्जीवाजीवपुण्यपापादिभिः सम्यक्प्ररूपणानुष्ठानादि
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३६
त्रिदश-तरङ्गिणी
गोचरीकृतैरिति भावः । उदितं-उदयं प्राप्तपूर्वत्वाच्छिवलक्षणं पदं तत्रोदित। हे जिनरुदितभाषितस्वरूपेति सम्बन्धः । सताम् आनवस्य-स्तवस्य पारदेति (पदेति) गणधरपट्टादौ बहुसिद्धवन्दने स्तुतिरियम् कैश्चिदालिख्य स्तूयमानस्य सिद्धचक्रस्य वा । तत्पक्षे तु हे नवभिः पदैरहत्सिद्धाचार्योपाध्याय-साधु-दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपोरूपैरुदित-उदयप्राप्तः । अनन्तं शर्म आत्म-स्वरूपं यस्य स अनन्तशर्मात्मा जन्तुर्यस्मात् । सताम् आनवस्य-स्तवस्य पद ! हे उदितभाषित जिनैरिति सम्बन्धः ॥३३॥ अर्हन्तोभिमताः सुखश्रियः, श्रेयोऽनन्तरमोदिताशयाः। सर्वे मे ददतां बधैः स्तुताः, श्रेयोऽनन्तरमोदिताशया ॥३४॥
श्रेयोभिः-कल्याणैः कृत्वा । अनन्तरं-निरन्तरं मोदिताशया यश्चित्तान्यर्थात्सुखश्रीमतां याभिः सुखश्रीभिस्ताः । अथवा श्रेयो० आशया यैरहद्भिस्तेऽर्हति शसन्तं जसन्तं वा । श्रेयो-मोक्षस्यानन्तरमायामुद्गताभिलाषेण बुधैः स्तुता इति योगः ॥३४॥
स्वसेवकान् यः कुरुते ददत् सतां, महागमं ज्ञानमतप्रभावतः । शिवप्रदं तं जितकल्पपादपं, महागमं ज्ञा ! नमत प्रभावतः ।३५।।
यो महागमोऽनन्तार्था (र्थ) गमनयादिभिः सर्वातिशायित्वान्महान सिद्धान्तो जैन इत्यर्थः । सतां महागम-उत्सवागमनं ददत् । स्वसेवकान् ज्ञानं-केवलादि, मतानीष्टानि, प्रभाश्च द्रव्यभावाभ्यां दीप्तयस्तद्वतः कुरुते । हे ज्ञा-विज्ञास्तं प्रभावतो-महिमतो जितकल्पपादपं महागमं नमतेति योग: ।।३५।। अत्र पाठान्तरमपि
स्वसेवकान् यः कुरुते जगन्ति सन्महागमो ज्ञानवतः प्रभावतः । ददात्वयं मेऽतिसुरद्रुमः शिवं,महागमो ज्ञानवतः प्रभावतः।।३६।। इति
अथ पाठान्त रव्याख्या-यो महागमः सतां महागम-उत्सवाऽऽगमोऽथवा सन्-प्रशस्तो महागमो यस्मात् स तथा । स्वसेवकान्
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त्रिदश-तरङ्गिणी
३७
ज्ञान-विदुषः, जगन्ति स्वोपदेश-महिमादिभिरवतः पालयतोऽत एव बहिरन्तश्च प्रभावतो-दीप्तिभाजश्च कुरुते । स प्रभावतो-महिमतोऽतिसुरद्रुमो मे ज्ञानवतः केवलरूपज्ञानभाजः शिवं ददात्विति सार्थः सम्बन्धः ॥३६।। अथाऽत्र तृतीयोऽपि उत्तरार्द्धपाठो यथा
स्वसेवकान् यः कुरुते जगन्ति सन्महागमो ज्ञानवत: प्रभावतः । करोतु सोऽस्मान् शिवसङ्गिनो निजान्, महागमो ज्ञानवतः
प्रभावतः ॥३६।। इति । पूर्वार्द्धव्याख्या प्राग्वत् । उत्तरार्द्धस्य त्वियं-महागमो निजान्, प्रभावतो-महिमतोऽस्मान् ज्ञानवत. शिवसङ्गिनश्च करोत्विति ।। शास्त्रार्णवे सकलवादिजयश्रियाऽऽप्य, वाग् देवते समुदिता कुशलानि कामम् । तेषां शिवाय दधतां विनुवन्ति ये त्वां, वाग्देवते ! समुदिताः कुशला निकामम् ॥३७॥ इति स्तुतयः
तेषां-कुशलानां शिवाय-मोक्षाय, काममभिलाषं दधतां वाक सकलवादिजयश्रिया समुदिता-सङ्गता, कुशलान्याप्य शास्त्रार्णवे देवते-'दिवृड् देवने' इति धातोः प्रयोगादस्खलिता क्रीडतीत्यर्थः । हे वाग्देवते ! ये कुशलाः समुदिताः-सहर्षाः निकाममत्यर्थं त्वां विनवन्ति-स्तुवन्तीत्यर्थः ।।३७-३८।। एवं ये मतिमान् स्तुते जिनवरान् भक्त्या समग्रान् क्रमात्,
शक्रालीमुनिसुन्दरस्तवगणैतक्रमाम्भोरुहान् । सर्वाभिष्टसुखोच्चौरविरतं स्फर्जप्रमोदाद्वयो । मोहद्वेषिजय श्रिया स लभते श्रेयोऽचिराच्छाश्वतम्
॥३९।। अनेन स्तवनमपि ।
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त्रिदश - तरङ्गिणी
इति वर्तमानचतुर्विंशतिजिनानां श्रीसीमन्धरस्य साधारणवृत्त्या जिनस्य युगपद् बहुजिनानां शाश्वतजिनचतुष्टयस्य सिद्धस्य सिद्धचक्रस्य च मङ्गलशब्दाऽर्थाऽक्षरार्थयम कैर्वर्द्धमानाश्च स्तुतयः
३८
।। स्तवनम् ।।
इति युगप्रधानावतार-तपाबृहद् गच्छाधिराज - श्रीदेवसुन्दरसूरि श्रीज्ञानसागरसूरि श्रीसोमसुन्दरसूरिशिष्यैः श्रीमुनिसुन्दरसूरिभिर्विरचिते जयश्यङ्के श्रीजिनस्तुतिस्तोत्ररत्नकोशे तृतीये स्तुतिरूपे प्रस्तावे बहुविधस्तुतिरत्नगर्भा पेटा || ग्रन्थाग्रम् ॥५१॥
एवं ।। ३८-३९ ।। इति श्रीप्रभाव कपुरन्दर श्रीमुनिसुन्दरसूरिगुरुविरचितलघुस्तुत्यवचूरिः ॥ ग्रन्थानम् ॥८१॥ सुकृत सुकृत लभ्योद्यज्जयश्रीजयश्री
वृषभ ! वृषभभूभृद् ब्रह्मधामाऽऽप्तधामा । जनय जनयशः श्रीमद्विधाने विधाने,
कुशल ! कुशलसिद्धी में प्रभावस्वभावः ॥ १॥ जनयजनयशोभृत्शाश्वतानन्दतानं कुशलकुशलभूर्मे दत्तभावप्रभावः । सुष्ठु विधिना कृतैः- पुण्यानुबन्धिभिरित्यर्थः । सुकृतै:पुण्यैर्लभ्या उद्यन्तो (ती) बाह्यान्तर्वैरिजयभवा जयश्रीर्यस्य । ब्रह्मा तपोज्ञानयोगाध्यात्मादिषु । धाम गृहतेजःस्थानप्रभावजन्मादिषु । ब्रह्मेव- मोक्ष एव धाम- गृहं यस्य । आप्तं धाम - तेजः प्रभावोवा येन । जनानां या यश श्री मुदांविधाने कुशल- दक्ष !, कुशलानि भद्राणि, सिद्धिश्चाणिमाद्या मुक्तिर्वा । दत्तो भावानां द्रव्यादीनां प्रभावो येन । यथा द्रव्यस्य बलिकणादे रोगापहारित्वादि, जन्मादिकल्याणभूमेः पावित्र्यतीर्थत्वादि, कालस्य कल्याणादिकदिनादेः पर्वत्वमहिमादि, भावानां जिनाङ्गकृष्णादिवर्णानामपि सौभाग्यादि ॥१॥
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त्रिदश-तङ्गिणी
३९ अथ द्वितीयपाठे-जनानां यशःपोषकशाश्वतानन्दस्य-मुक्तिसुखस्य तानं-विस्तारं, निपुणभद्र भूमिः-पूजादिकदक्षानां मङ्गलदायीत्यर्थः ।। जयविजयविधाता गर्भवासेऽपि मातुः,
सुरस-सुरसदो-मुद्दायिवाणीविलासः । मदनमदनदीशे कुम्भभूर्भद्रभूमिः,
भवतु भवतुदर्शो मे शिवाया जितोऽर्हन् ।।२।। जय:-स्वदेशे सर्वोत्कर्षः, विजयः परदेशे, 'विधाते'ति तृन्नन्तं शीलार्थे । सुरसा:-पञ्चत्रिशद्वाग्गुणोपेतत्वादत एव सुरपर्षदां प्राधान्य निर्देशादुपलक्षणाद्वा नरतिरश्चां च मुदो-हर्षस्य दायिनो वाग्विलासा यस्य । भवं-संसारं तुदतीति भवतुदर्चा पूजा यस्य ।। रमय रमयतो में त्वन्नुतौ चित्तमहन्,
भवदभवदमेऽपि स्याद्यतोऽस्माद्विशुद्धः । चरणचरणयोगः शम्भवेशाऽथ तस्मा
दरतिदरतिरस्कृनिश्चितं मुक्तिशर्म ॥३॥ त्वन्नुतौ चित्तं रमयतो मे भवदभवदमेऽपि चित्तं मे विरमयेति योगः । भवन्-जायमानोऽभवोऽपुनर्भवो यस्मात् स चासौ दमश्च तस्मिन् । अस्मात् दमात् । चरण-चारित्रं, तस्य चरणंआचरणं तस्य योग:-सात्म्यमिति यावत् । तस्माच्चरणचरणयोगात् मुक्तिशर्मं द्विधा इह परत्र च । इह मुक्तिनिःसङ्गता । तच्छर्म यथा वर्षपर्यायस्याऽनुत्तरदेवशर्म । उक्तं च-'जे इमे अज्जत्ताए समणा' इत्यादि । एतत्सङग्रहगाथा- 'वण १ भवण २ ऽसुर ३ गहगण ४ चंदिमसूराण ५ दु ६ दु ७ दु ८ दु ९ च ऊण १० । गेविज्ज ११ णुत्तराण य १२ कमेगमासाइ सुहि साहू ।।१।। इति भग० श० १४ उ० ९ । अत एव अरतिदरतिरस्कृत्, परलोके च मुक्तिशर्म-शिवशर्मं ।।३ ।
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त्रिदश - तरङ्गिणी
कलित ! कलितमोहृत् केवलेनाऽभिनन्दाऽ-
समद ! समदयालो ! पाहि मां मोहशत्रोः । शमित ! शमिततीश ! त्वं शिवस्येष्टमद्रा
कर ! सुकर सुखौघाऽपास्तदोषं च कुर्याः || ४ || हे केवलेन ज्ञानेन कलित !, हे अभिनन्दन !, हे असमद - हे मदरहित ! हे समदयालो - सर्वेष्वपराद्यविभागेन दयावत् ! हे शिवराय शं- सुखमित प्राप्त !, हे इष्टकल्याणाऽऽकर !, सुकरा:सुसाधात्सुखौघा यस्य यस्माद्वा ||४||
"
करति करतिभावान् त्वन्नुति नंव मोहोऽ
सुमति सुमतिनेतर्दातुमीष्टे भवधम् । समयसमययोगी तम्मुदा तां विदध्या
४०
मसममसमदस्य ब्रह्म मे सापि देयात् ॥५॥
के- सुखे, रतिभावाद् - अभिलाषादित्यर्थः । करति करोतेः शतृप्रत्यये भ्वादिपाठबलात् शवि च सूजति त्वन्नुति । असुमतिप्राणिनि । भवपरम्पराम् । समया सङ्केतार्थपरिज्ञातेत्यर्थः । तस्मात्कारणात् तां त्वन्नुति, विदध्यामिति प्रार्थने सप्तमी । 'साप' त्वन्नुतिः । ब्रह्म - शिवं, असमं- अनन्तसुखज्ञानाद्यात्मकत्वेन वैशेषिकादिकल्पितपाषाणादिकल्प मुक्तीनामसदृशम् ||५||
धरज ! धर जयो त्वां मां स्वधर्मोऽथितश्री
करण ! करणमाद्यद्दन्तिदन्तौ सुदक्ष !।
सुरम ! सुरमहेशस्तुत्य ! यत् श्रेयसोsहं,
पदमपदम तान्तिर्नाथ पद्मप्रभ ! स्याम् ||६|| हे धरभूपज ! त्वं जयी - रागादिजयवान्, मां स्वधर्मे सुरम- सुष्ठु अतिशायिनी प्रातिसुराणां महान्त ईशा:-अच्युतेन्द्रा
धर - स्थिरीकुविति भावः । हे हार्यादिरमा यस्य यस्माद्वा ।
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त्रिदश- तरङ्गिणी
४१
दयस्तैः स्तुत्य ! श्रेयसोऽत्र कल्याणस्य परत्र मुक्तेश्च । अपगता
दमे तान्तिः - खेदो यस्य ||६||
ददददररमाली हॅज ! पृथ्वीज ! पृथ्वी
जय जयदमितद्धिः सत्प्रतिष्ठः प्रतिष्ठः ।
कनकनवदपुः श्रीभासमानोऽसमानो,
नवनवरसुरोद्यद्भाः सुपार्श्वः सुपार्श्वः ॥७॥
अदरा-' इहपरलोये 'त्यादिसप्तभयरहिता, अहमिन्द्रसुर - शिवसम्बन्धिनी रमाश्रेणी हे अज-जन्मादिरहित! जयन्ती सर्वोत्कर्षिणी, अमिता अनन्ता ऋद्धिर्ज्ञानसुखातिशयादिकाव्यस्य यस्माद्वा । सतीपूजिता प्रशस्या वा । प्रतिष्ठान् नृपात् पितृत्वेन प्रतिष्ठा यस्य । अथवा सती - प्रतिष्ठस्य पितुरिन्द्रादिस्तुत्यादिरूपा प्रतिष्ठा यस्य । भगवत्पुत्रप्रभावेनैव पित्रोः पूजाद्याप्तेः । प्रातिहार्यातिशयादिभिरनन्यसदृशः । अथवा असमो- देशना - मारिरोगापहारित्वादिभिः शिवमूलबोधिदानादिभिश्च त्रिभुवनोपकारित्वादसमोऽनन्यसदृश अनं जीवितं यस्य । नवनेन - स्तवनेन वराः सेवांद्यर्थागता ये सुरास्तेषामुद्यती [भिः ] भाः । शोभनं पार्श्व - समीपं यस्य ॥७॥ लसदलसदयाब्धेर्यस्य चन्द्रप्रभ ! स्या
दमलदमलयात्ते ध्यानतोऽपोष्टसिद्धिः ।
समुदिसमुदिरश्रीवल्लिषु त्वं सितांशोः,
-
करनिकर निभाङगस्तिष्ठ चित्ते सदा में ||८||
यस्य ते तव ध्यानतोऽपीष्टसिद्धिः स्यात्, स त्वं मम चित्ते समुदि अर्थितलाभात् सहर्षेष्टध्यानगोचरी भवेति योगः । एवं प्रार्थनायां भवेति पदस्य विशेषणद्वारेण हेतुमाह - 'लसे' त्यादि । लसन्ती अलसेष्वपि-तपोऽनुष्ठानाद्यनुद्यमेष्वपि दया तस्या अगाध - त्वादिनाऽव्धिरिवाब्धिस्तस्य । साभिप्रायं चैतत् । यत एव लसद
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४२
त्रिदश-तरङ्गिणी लसदयाब्धिरत एव ध्यानमात्रादऽलससाध्यादिष्टं दत्से, अत एद चित्तस्थितिप्रार्थनेति । कीदृशाद् ध्यानादित्याह-'अमले'त्यादि । अमले-सम्यग् ज्ञानादिकारणसर्वसाम्यादिकार्यविशुद्धे दमे-इन्द्रियनोइन्द्रियसंयमनरूपे लयो यस्माद् ध्यातुरिति भावः । एतेन भगवतोऽमलदमलयात्मकत्वं ध्यानाद् ध्यातरि भवति । तथा चोक्तंवीतराग यतो ध्यायन् वीतरागो भवेद्भवी। इलिका भ्रमरी रूपं ध्यायन्ती भ्रमरी यथेति ॥ एतेन कवेरिष्टा मुक्तिस्तदुपायश्च दमलयात्मकं जिनध्यानमिति कवेरभिप्रायो ज्ञायते । मुदिरो मेयः दधति दधति मुक्ति भक्ततां ये त्वयोशे,
नमति न मतिमान कस्तान क्रमाद्वासवोऽपि । भवति भवति हि दाग भक्तिलेशोऽपि क्लुप्तः,
सुविधि सुविधिनाथाऽचिन्त्यचञ्चत्फलाय ॥९॥ त्वयि मुक्ति दधति-संश्रयति ये-पुरुषा भक्ततां दधतिबिभ्रत इतियोगः । त्वयि 'सुविधी'ति शोभनो विधिराशंसादिरहित यस्मिन् करणे इति क्रियाविशेषणम् ।।९।। सदम ! सवमतान्तर्वैरिजेता यतः स्यां,
विशदविशदनन्तज्ञानवान् शीतलाईन् । सुरव-सुरवधूभिः स्तुत्य ! पात्रं गुणाना
ममद ! मम दयाब्धे ! देहि तां योगशुद्धिम् ॥१०॥ हे सदम ! । सतां-उत्तमानामभिमता येऽन्तर्वेरिण:-काम १ क्रोध २ मद ३ मान ४ लोभ ५ हर्षा ६ दिरूपारिषड्वर्गात्मानस्तेषां जयनशील: सन् । विशदं सकलावरणक्षयात्, विशन्-जीवमध्ये तादात्म्यभावेन परिणमदनन्तज्ञानं केवलज्ञानं तद्वान् । यतो योगशुद्धिः स्यामिति योगः । अष्टमदरहित !। योगस्य मनोवाक्कायरूपस्याष्टाङ्गस्य वा शुद्धिम् ।।१०।।
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त्रिदश-तरङ्गिणी
वरदं ! वरदयां त्वं मित्र हे चित्त ! कृत्वा,
भवविभवविधानेष्वेकहेतो ! मयि द्राक् ।
कलय ! कलय भक्ति श्रेयसीशे सुखश्री
सति लसति नित्या यन्मयि श्रेयसीष्टा ॥११॥
,,
वरं वाञ्छितं ददतीति वरदं चित्तसम्बोधने हे वरद वरापरिणामहिता या दया तां मयि कृत्वेति योगः । भवस्य - संसारस्य, विभवस्य - अपुनर्भवस्य च प्रसन्नचन्द्रादिदृष्टान्तैरद्वितीय कारण ! । हे कलय- सुखलय !, यतः सुखलयित्वमतः श्रेयसि स्वामिनि भक्ति कलयेति । अत्र हेतुहेतुमद्भावो ज्ञेयः । यद्यस्मात्कारणामयि श्रेयसि - मोक्षे लसति - अनन्तज्ञान-वीर्यादिभिर्द्योतमाने सति शाश्वती इष्टा सुखश्री सतीति योगः ॥११॥ हितसहितसदुक्तीर्यस्य कुर्युः सुराणा -
मतनुमतनुतीनां संततीनित्यमीशाः ।
महत महततश्रीहेतुमब्धि महिम्ना
मुदितमुदितचित्तास्तं बुधा ! वासुपूज्यम् ॥१२॥
हितसहिता - हितफलाः, सत्य:- सद्भ ूता उक्तयो यासु ताः । अतनूनि मतानि याभ्योऽथवा अतन्व्यो- गुर्यो मता-अर्चिता या नुतयस्तासां सन्ततीर्यस्य सुराणामीशाः कुर्युरिति योगः । अर्चत | उत्सवः । उदितं मुदितं - भावक्तप्रत्ययान्तत्वाद् हर्षो यस्मिन् ईदृशं चित्तं येषां बुधानां ते तथा ॥१२॥
तुहिन तुहिन रोची रोचिषस्ते वृषानो
४३
धवलधवल ! येयुः कीर्तयोऽपि त्रिलोकीं ।
विमल ! विमलयातश्चित्तमेतत् प्रभुर्मे,
मलिनम लिनवद्युद्द विकल्पोद्भवाधैः ॥१३॥
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त्रिदश-तरङ्गिणी
तुहिनं-हिमं, तुहिनरोंचि:-चन्द्रस्तयो रोचिष इव रोचिषो वपु:कान्तयो यासां ताः । हे पुण्यशकटमहावृषभ !। कर्ममलरहितं कुविति भावः । भ्रमरनव्यकान्तिभिर्दुविकल्पोद्भवैरथैः । १३॥ सदन ! सदनघोद्यत्-श्रेयसां श्रीअनन्ता-..
.. ऽगमनगमनयश्रीभ्राजमानाऽऽगमाब्धे !। शमद ! शमऽदरं मे श्रायसं कल्मषाणां, ..
वितर वितरणे यत्त्वं क्षमोऽसीहितानाम् ॥१४॥ सन्ति-प्रशस्यानि, अनघानि-पापानुबन्धरहितानि, उद्गच्छन्ति यानि श्रेयांसि तेषां सदन !। अगमना-आगमस्य शाश्वतत्वेनाऽगत्वरा, गमा:-सदशपाठाः, नयाश्च नैगमाद्यास्तेषां श्रिया भ्राजमान आगमसमुद्रो यस्य । हे कल्मषाणां शमद !। श्रेयस इदं अणि श्रायसं 'देविकाशिशपादीर्घसत्रश्रेयसस्तत्प्राप्तावाः' [सि०७।४।३] इत्यात्त्वम् ॥१४॥ विबुधविबुधराज्या धर्मनाथाऽघ्रियुग्मं,
महितमहितवह नौ वारिदं ते नमन् स्यात् । जनितजनिततश्रीर्योगिवृन्दस्य चेत:
सरसि सरसिजाभं तन्नमस्यं तदेव ।।१५।। विशेषेण बुधा:-सुधियः सम्यग्दृश इति भावः। ते च ते विबुधा-देवाश्च तेषां सज्या । बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नवैरि। जनिता जनेर्जन्मनस्तता परिणावपि (मेपि) भवान्तरेप्युपलभ्या वा श्री:शोभा सफलता वा येन । जिननमनादिभिरेव नृजन्मनः सश्रीकत्वात्सफलत्वाच्च। तस्माद्धेत्तोः नमस्कासहं तदेव अघ्रियुग्म हितार्थिनामिति शेषः ।।१५।। सदय ! सदययोगाद् यस्य विश्वाागिवर्गे,
महिममहि ! महश्रीवर्ष ! शान्ले ! प्रभुस्त्वं ।
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त्रिदश- तरङ्गिणी
भवति भवसितांशौ सेंहिकेयः प्रभावात्,
स भविसभवितीर्णाऽऽनन्दलक्ष्मीः स्यात् ॥१६॥
विश्वाङ्गिवर्ग हे सदय ! सद्भाग्ययोगात् हे महिममहिमहिम्नां मही- पृथ्वी उत्पत्तिस्थितिवृद्धिविलासादिस्थानमिति भावः । उत्सवानां श्रेणीनां (श्रीणां ) च बाहुल्यकरणाद् वर्षमिव वर्षम् । (भवसितांशी ) संसारचन्द्रे तद्ग्रासादयदीप्त्यादिहननात् सैंहिकेयोराहुः । प्रभावात् स्वमहिम्ना रोगदुर्भिक्षाऽन्यायदारिद्यादिदुःखहरणाद्भविनां सभायाः 'शालां विना सभे'ति । [ लिंगानु० ] नपुंसकत्वे भविसभस्य वितीर्णाऽऽनन्दलक्ष्मीर्येन स तथा ॥ १६ ॥ कमनकमनहेतुर्भक्तितो यस्य कुन्थोः,
सकलसकलमुत्यं ब्रह्मशर्माऽश्नुतेऽङगी ।
भर सुभर सुखौघस्याऽस्य तां नेतुरात्मन् !
४५
वसति वसति हृष्टा यत्त्वयीशे शिवश्रीः || १७ ||
कमनस्य -- कामस्य, कमनं-कान्तिः सर्वत्रास्खलितविलासादिरूपा सदुपदेशादिभिस्तद्धरणशीलस्य । सकलैः सर्वैः सकलैःसम्यग् ज्ञानादिकलावद्भिर्नुत्यं - स्तुत्यम् अभिलषणीयमिति भावः । मुक्ति । अस्य कुन्थोः स्वामिनः तां भक्ति भर-पुषाणेति योगः । सुभरा - अनायास पोषाः सुसाधा इतिभावः । सुखौघा नृसुरशिवसम्बन्धिनो यस्माद् । हे आत्मन् ! त्वयि आधारभूते ईशेसम्यगृज्ञानधान्यादिभिः स्वपररक्षणक्षमे शिवश्रीर्वासयोग्यात्मनां स्वल्पत्वाद्दं लभलाभे च हर्ष भवनात्सदालयप्राप्तिः हृष्टेव वसतीति योगः ।।१७।।
कृतसुकृतसुयत्ना हे बुधाः !
शुद्धभावादरमदरमधीशं श्री जिनानां सदापि ।
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४६
त्रिदश-तरङ्गिणी
नमत न मतसौल्यैश्चै द्विरामेऽस्ति वाञ्छा,
विभवविभवमेष ह्यानतो रात्यनन्तम् ॥१८॥ कृतः सुकृतेषु अर्थात्तदर्जनाय यत्नो यैः । बुधा एव सुकृतयत्नकृतः, सुकृतं जिननमनमूलमित्युपदेशाश्चेिति बुधग्रहणम् । सप्तभयरहितम् । इष्टसुखैः सह विराम-वियोगे नास्ति यदि वाञ्छाशाश्वतसुखे वाञ्छाऽस्ति यदीत्यर्थः । विगतो भव:-उत्पत्तिरुपलक्षणाज्जरामृती च यस्मिन्स विभवः-शिवं, तस्य तद्रूपं वा विभवं. सुखज्ञानादिसमृद्धिम् । एष-श्रीअरः । हि-यस्मात् राङ्क, दाने । कु नतकुमतदूरीभावदोक्तिस्त्रिलोको
__कमलकमलबन्धुः सिन्धुरुधन्महिम्नाम् । जयसुजयसुतत्त्वावाप्तिहन्मोहशत्रो !
विध विविधविशेषज्ञाय॑ ! मल्ले ! शिवं मे ॥१९॥
को:-पृथिव्या अर्थात् पृथिवीस्थजनतायाः प्रायः 'मिच्छत्त. निसेवए जणे' इत्यादिवचनात् प्रायः कुमतप्रियत्वान्मतानीष्टानि यानि कुशासनानि कुवादिन इत्यर्थः । तेषां दूरीभावदा-अवितथप्ररूपणया वितथप्ररूपकाणां त्रासभवनाद्वित्रासिका उक्तय-आगमा यस्य । सूर्यः । सुष्ठु तत्त्वानामवाप्ति हरतीति सुतत्त्वावाप्तिहृच्चासौ मोहशत्रुश्च सुखेन जीयते इति सुजयः सुतत्त्वावाप्तिहृन्मोहशत्रुर्यस्मात्तस्यामन्त्रणम् । तथा 'विधत् विधाने' इति प्रकृतेः पञ्चम्या . हौ विध कुर्वित्यर्थः । विविधा गतिचतुष्कागतभेदादासन्नासन्नतरासन्नतम शिवगमनादिभेदाद्वा ।।१९॥ . वशितवशितति यो वोरहीरं विजिग्ये,
विषमविषमबाणं शौरिशर्वादिजैत्रम् । नयविनयविधिज्ञाः सुव्रते श्रीजिनेऽस्मिन्,
भवत भव-तमार्के श्रेयसे भक्तिभाजः ॥२०॥
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त्रिदश-तरङ्गिणी
४७ वशिता-वशीकृता, वशिनां-लौकिकवशिष्ठविश्वामित्रादि. लोकोत्तरकूलवालकमुनीनां ततिः येन । शूरकोटीरम् । दुर्जयमदनम् । हरिहरादिजयनशीलम् । एवं मदनस्य वीरत्व-महर्षिमहादेवजयशक्त्या विषमत्वोक्तिः, ईदृशस्यापि मदनस्य जयोक्त्या जिनातिशयोक्तिश्च । शूरो नयविनयोनं न भक्तितोऽथितं दत्ते इति नयविनयविधिज्ञा: । रात्रिः । श्रेयसे-मुक्तये ॥२०॥ जनकजनक ! चेतः स्वाहियुग्मे शिवश्री
शरण ! शरण ! विश्वप्राणभाजां लयं मे । जलजजलजयोद्यत्शैत्यपावित्र्यपात्रे, ___ नय सुनयसुखाब्धिः स्यां सदा श्रीनमे ! यन् ॥२१॥
हे श्रीनमे ! मम चेतः स्वांहियुग्मे लयं-ध्यानस्थैर्य नयप्रापयेति योगः। हे जनकजनक ! कस्य-सुखस्य दुभिक्षमारीतिरोगाद्यपहारेण समाधानस्वरूपस्य धनराज्यादेर्वैहिकस्य, स्वर्गापवर्गादेः पारत्रिकस्य च निष्पादक ! 'धर्मोपदेशका गुरवो मता' इत्यादिप्रयोगदर्शनात् 'कर्मजा तृचा च' [सि० ३।१।८३] इति कर्मषष्ठीसमासनिषेधेऽपि जन्यजनकविवक्षयाऽऽकृतिगणत्वेन याजकादिपाठगणनाद्वा समासः । गृह । इष्ट सुखपालनकर। नीर-नीरजयोर्जयेनोद्यती-उदयती ये शैत्य-पावित्र्ये-भवातितापपापकर्ममलाशौचापहारिणी तयोर्भाजने । सुनयः-सुप्रापः, सुखाब्धिलक्षणया मोक्षो यस्मात् ॥२१॥ नुततनततभासा स्निग्धया राजमत्या,
विपुलविपुलयेभभ्रातरत्नादिभिश्च । रुचितरुचितनूको मोहितो नैव योऽर्हन,
भविकभविकदः श्रीने मिनेता स जीयात् ।।२२।।
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४८
त्रिदश-तरङ्गिणी नुता-सर्वोत्तमत्वेन नेमिवधूत्वयोग्यतया वासुदेवादिभिः स्तुता प्रशंसिता, तनोर्वपुषस्तता-विस्तृता भा-दीप्तिः सुभगिमलक्षणा वा यस्याः । स्नेहलया० । विपुला-विशाला, या पृथिवी तया तद्राज्येनेत्यर्थः । इभैरश्वादीनां, हरि-बलादिभ्रातृणां प्राधान्येन निर्देशाज्जनकादीनां,रत्नैर्मणिमुक्तादीनामादिशब्दयुक्तैरुपलक्षणम् । रुचिता-सुभगिमातिरेकाद् जगदभीष्टा, रुचयो यस्यास्तादृशी तनूयस्य । एतेन नेमिराजीमत्योरनुरूपता ख्यायते । तेन च मोहनीययोग्यतायामपि मोहाभवनेन परमयोगित्वं च श्रीनेमे: । भवोऽस्त्येषामिति भविका अतोऽनेकस्वरादि' [सि० ७।२।६] तीके भविकाभविनस्तेषां भविकं-कल्याणं ददातीति डः ॥२२।। रुचिररुचिरनन्तानन्दवायिन् ! शिवश्री
वर ! तव रत ! विश्वाऽभीष्टदाने प्रणौमि । सुहितसुहितचेताः श्रेयसे पार्श्व ! सू:
धरणधरणभोगिस्वामिसेव्यं क्रमाब्जम् ॥२३॥
हे श्रीपार्श्व ! तव चरणकमलं प्रणौम्यहमिति शेषः । रुचिरा-जिनोक्ततत्त्वानुगत्वेन श्रेयसे ति पुरो भणनात् शिवाभिलाषिणी, रुचिर्लक्षणयाऽभिप्रायो यस्य शिवस्येत्यर्थः। सदेव दातुं शक्यमित्याह-हे शिवश्रीवर ! सुष्ठु हितैः शिवसुखैस्तत्त्वैर्वा भवद्दर्शितैः, सुहितं-ध्राणं गतभवाकाङक्षं चेतो यस्य । शिवाय । सुखेनानायासेन लोकरूढया उर्वीधरणः यः स चासौ भोगी स्वामी च तेनाऽऽसेव्यं ।।२३।। चिररुचिररुचस्ते वर्धमानाऽक्षरश्री
दयित ! दयितभव्यश्रेयसः शासनस्य । परमपरमत श्रीजैत्र ! भक्तः सदा स्या
मुदयमुदयपात्रं यल्लभे शर्म नित्यम् ॥२४॥
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स्तुतिस्तोत्ररत्नकोषः
हे श्रीवर्धमान ! ते-तव शासनस्याहं सदा शिवप्राप्तिभक्तः स्यामिति प्रार्थनायां सप्तमी । चिरं-दुष्प्रसहावधि, रुचिराः-शिवसुखदायित्वेन जगदभिमताः, रुचो-दीप्तयो महिमादिरूपा यस्य । हे शिवश्रीवल्लभ ! दयि-दत्तं दातुमारब्धं वा, भव्यानां श्रेयःकल्याणं शिवं वा येन शासनेन त्वया वा । हे परमपरा मासमवसरणादिर्यस्य । अथवा परमाणि-बहुलकालभावित्वाज्जगज्जनन्या एकत्वाच्च प्रकर्षवन्ति यानि परमतानि, तेषां श्रियो जैत्रेत्यामन्त्रणम् । उदयो-ज्ञानसुखताद्यात्मकता । मुद् हर्षः ॥२४॥ सुकृतिसुकृतिनुत्यं सर्वसीमन्धर ! त्वां
_ महति महति सौख्यर्यः शिवे वासमिच्छन् । सहितसहितलक्ष्मी • • • • • • • • • • •
• • • • • 'कर्मा द्रागलभेताऽथितं तं ।।२५।। इति पाठां० । सुकृति(न:)पुण्यवन्तो येऽतिशायिविद्वान्सस्तैःस्तुत्यम्। विद्वत्त्वे सत्यपि पुण्यं विना जिनस्तुतेरसम्भवात् सुकृतित्वग्रहः । पूजयति । सौख्यैः सर्वोत्तमे। हितसहिता-पापकर्मपरिहारेण हितानुबन्धा या लक्ष्मी श्रेणी तां इहलोकेऽपि-संसारवासेऽपि वा अमितम्-अप्रमाणं यथा भवत्येवं समिता-समंतात्सामस्त्येन वा इता-प्राप्ता सद्भयोऽर्चाविमल केवलाद्यवस्थायां पूजा येन शिवे वासम् ।।२५। पाठान्तरव्याख्या।
शिवरूपे। विदेहस्य-महाविदेहस्य इयं वैदेही सा चासौ भूमिश्च पुंवत्कर्मधारये' [सि० ३।२।५७] इति पुंवद्भावेन वैदेहीति ङीनिवृत्तिः। हे इहर-कामहर शिवरूपे । हितसहितानि निरवद्याजीविकया निष्पापानि, न तु हस्तितापसादिवत्सपापानि कर्माणितपो-ध्यानादीनि यस्य स ॥२५॥ सदतिसदतिशीतिश्रीमहिम्ना त्रिलोक्या
महतमहततीर्यः प्राणभाजा प्रदत्त ।
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स्तुतिस्तोत्ररत्नकोषः
५०
स मतसमतयापि श्रीजिनस्त्रयभक्तो
.
जयतु जयतुराषाट् कर्मवैत्यव्रजस्य ॥ २६ ॥ साधारणस्तुतिरियम् । सताम्-उत्तमानाम् अत्यर्थं सत्य : - प्रशस्याः, सद्भिरतिपूजिता वा अतिशीतिश्रिय - अति ( शय) लक्ष्म्यस्तासां महिम्ना । अप्रतिहतोत्सवश्रेणीः । मता-अभिमता, या समता मता भवति, स कथं भक्तांस्त्रायति ?, तस्य हि सर्वेषां सामान्येन त्राणत्राणमौदासीन्यं वा युज्यतेति विरोधदीपकोऽपिशब्दः । विरोधपरिहारस्त्वेवं मतसमतेति चित्तविषयं जिनस्य मंत्री - प्रमोद - कारुण्य- माध्यस्थ्य सद्भावेऽपि भक्तानामेव पालयितुं शक्यत्वात्तेन कालसीकरिकादिषु तथा श्रवणात् । कर्मदैत्यव्रजस्य जये तुराषाट् – इन्द्रः ।।२६।। निजजनिजजयीद्धनन्दसौख्यैस्त्रिलोकी-
महद ! महदनन्तं देहि मे ब्रह्मशर्म ।
सुदयसुदयसम्यक्तत्त्व ! विश्वाङ्गिचेतः
कुमुदकुमुदबन्धों ! श्रीजिनाधीशवर्ग ! ॥२७॥ चतुर्विंशतिजिन सप्ततिशत जिनपट्टादौ देववन्दने युगपद् बहुजिनस्तुतिरियम् ।
निजा - जनयो- जन्मानि तत्प्रभवप्रभाविनी जयीनि-नारकादीनामपि स्वप्रतिपक्ष हेतुदुःखघातात्सर्वोत्कर्षेण वर्तमानानि, इद्धानिमिथः परैरपि विभाव्यमानत्वेन दीप्तानि, आनन्दसौख्यानि तै: कृत्वा हे त्रिलोकीमहद- त्रिजगत्युत्सवप्रद ! सुखान्तरेभ्यो गुरु | सदयानि - अनायासदेयानि सुदयानि - अतिशायिदयामयानि सम्यक्तत्त्वानि - जीवाजीवादीनि यस्येत्यामन्त्रणम् । चन्द्र ! ||२७|| सुकरसुकरमो मां पाहि देवर्षभ ! त्वं
हरसि हरसितद्युत्कीर्तिभृद्वर्द्धमान ! |
*
हृदि सुहृदि सुखानां यः स्थितस्त्वं च चन्द्रा
नन ! जननजरान्तान् भाविनां वारिषेण ! ||२८||
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स्तुतिस्तोत्ररत्नकोषः
५१ १। नन्दीश्वरपट्टादौ देववन्दने शाश्वतजिनचतुष्टयस्तुतिः ॥ - कं-च सुखं रमा च करमे, सु-भृशं करमे सुकरमे, सुकरे-सुदाने सुकरमे यस्य । हे देव ऋषभ ! हे वर्द्धमान ! हे चन्द्रानन ! हे वारिषेणेति शाश्वतजिनचतुष्कसम्बोधनानि । तत्र च त्वं चेति (च) कारेण समुचितस्य त्वमादीनि सर्वाणि यथार्ह योज्यन्ते प्रत्येकम् । त्यत्तदोनित्याभिसम्बन्धात् तदो गम्यत्वेन हे ऋषभदेव ! स त्वं मां पाहि इति योगः । स त्वं महेशधवलकीर्तिपोषकृत् । सुखानां सुहदि मित्रे इव, सुखसङ्गममिच्छतीति भावः। हृदि भव्यानामिति गम्यम् । स्थितः सन् जननजरामरणानि हरसीत्ति योगः ॥२८॥ स जय सजयशर्मणिदायिन् ! महिम्नां
भवन ! भवनगौघस्फूर्जथुः पुण्डरीक !। तमसि तमसि बाचो यस्य भेजुः प्रजानां किरणकिरणलीलाक्लुप्तविश्वप्रकाशाः ॥२९॥ श्रीपुण्डरीकस्तुतिः ।
हे श्रीपुण्डरीकगणधर ! स त्वं जय । हे सजयशर्मश्रेणिदायिन् ! जयो-बाह्यान्तर्वैरिपराभवात्सर्वोत्कर्षेण वर्त्तनं, तेन सहितेति जिनस्य पृथग् सम्बोधनम् शर्मणो वा विशेषणम् । भव:- संसारो, भवा-एकेन्द्रियादिजन्मानि वा, नगौघ:-पर्वतनिवहः तस्मिन् स्फूर्जथुर्वज्रम् । इदं त्वमित्यस्य विशेषणम् । तमः-पापं तदेव ज्ञानचक्षुस्तत्त्वालोकाद्यपहारादन्धकारं तस्मिन् किरण: (स्य) सूर्यस्य ये किरणा-रश्मयस्तल्लीलां ॥२९॥ • शमिन ! शमिनत ! श्री गौतमाशेषभक्ते
हितद ! हित ! दयस्व त्वं ममाऽनन्तमाशु । .. शिवद ! शिवदशात्मन्नादिमो वीरशिष्यावलीषु वलिषु सीम्नो मोहवीरस्य जेता ॥३०॥ श्रीगौतमस्तुतिः ।
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स्तुतिस्तोत्ररत्नकोषः हे श्रीगोतम ! हे इन-स्वामिन् ! ममाऽनन्तं शं-सुखं शैवमित्यर्थः । त्वमाशु दयस्व-देहीति योगः । अशेषं भक्तानामीहितदं इष्टदायि, हितं-तात्त्विकं ज्ञानत्रयं यस्य । शिवा-सर्वरोगाद्युपद्रवरहिता दशाऽवस्थाविशेषात्मस्वरूपं यस्य । गणभृतां रोगजरादिरहितदशात्मकत्वात् । हरिहरपुरन्दरादिसुभटवशीका. रान्मोहस्य बलिषु सीमत्वं सिद्धमेव ॥३०॥ जयद ! जयदनन्तानन्दचिद्दर्शनौजो
मय ! समयसदेकत्रिंशदुधद्गुणस्त्वम् । हवयहृदयभन्मे देहि शं सिद्धराजाs
समसुसमसुखानां ते हि कोशोऽस्तपारः ॥३१॥ । श्रीशाम्ब-प्रद्युम्न-रथनेमि-मरुदेवा-राजीभत्यादिश्रीसिद्धस्तुतिः ।
जयन्ति-बाह्यान्तरिपराभवेन सर्वोत्कर्षवन्ति अनन्तान्यानन्दज्ञान (दर्शन) वीर्याणि प्रकृतानि यस्मिन् स तन्मय :। समये सन्तोऽर्थात् प्ररूपिता एकत्रिंशत्सङ्ख्या उद्यन्तो गुणा आदिगुणा यस्य । ते च गुणा:-संस्थान ५ वर्ण १० गन्ध १२ रस १७ स्पर्श २५ वेद २८ काय २९ सङ्ग ३० जन्म ३१ निषेधरूपाः। 'नवदरिंसणम्मि चत्तारि आउए पंच आइमे अंते । सेसे दो दो भेया खीणभिलावेण इगतीसं ॥ इति गाथोक्ता वा। हृदयं हरतीति हृदयहृद्-निरुपमसुखफल इत्यर्थः । स चासौ अयश्च-शुभदैवं तं बिति-पुष्णाति स्वसेवार्चादिभिः स्वसेवकादीनां स तथा । असमानाम्-'इअ सिद्धाणं सुक्खं अणोवम्म नत्थि तस्स उवम्म' [आवश्यक नि०] इत्यादिवचनान्निरुपमानामत एव स्थितिमजितानां समेषामन्यू नानां । हि-यस्मात् ते-तव कोश इव कोशोऽपारोऽनन्तानामपि दानेऽक्षय्योऽस्ति । तदात्मकत्वात्तवेतिदानयुक्त्युक्तिः।
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स्तुतिस्तोत्ररत्नकोषः
५३ कृतिसुकृतिसुरेन्द्राद्यच्यं ! हे सिद्धचक्राs
नवमनवमहःधीदाय्यनन्तप्रभावः । सुमह ! सुमहतां त्वं सर्वतो ध्यानलीला
पद ! विपदविताम् देहि मे शर्म शैवम् ।।३२।। । श्रीसिद्धवर्गस्य सिद्धचक्रस्य वा स्तुतिः । कृतिनो-देवादितत्त्वाभिज्ञाः, सुकृतिन:-पुण्यबीजभाजः, अन्येषां तदर्चाया अयोगात् । अनवमा-उत्कृष्टाः, अत एव नवा-प्रागऽप्राप्तपूर्वा या महश्री-ज्ञानप्रतिष्ठापूजादितेजोलक्ष्मीस्तस्या दायी। अनन्तः प्रभावो यस्य । शोभना महा उत्सवा यस्मात् इत्यामन्त्रणम् । पूजितमहतां योगिनामित्यर्थः । ध्यानसुभगतास्थान ! विपद्भूयोऽवनशील !। सिद्धचक्रस्य कैश्चिदालिख्य पूज्यमानस्य सिद्धवर्गस्य एकदा गणधरादिपट्टस्थस्य बहुसिद्धप्रतिमारूपस्य वा स्तुतिः ॥३२॥ महाऽऽयतमहायतच्चरणवन्दनाः श्रीजिनाः
सदोदयसदोदयप्रथितशुद्धपुण्याऽऽगमाः । सुभाववसुभाववत्रिदशराजवृन्दाचिताः
___ सुरोचितसुरोचितप्रचितदामभि: पातु माम् ।।३३॥
महान्तः-प्रौढाः, स्थाने २ विभावनाद् विस्तीर्णा ये महाउत्सवास्तेषां आयस्य-लाभस्य 'गतिकारकस्ये' [सि० ३।२।८५] ति दीर्घत्वाभावाय तनोतीति तदिति पृथग् निष्पाद्य योजने विस्तारकं चरणवन्दनं येषां ते तथा । सदा-नित्यं, उदयो यस्याः सा सदोदया, ईदृशी सदसोऽर्थात् श्रोतृसभाया दया येभ्यस्ते सदोदया, प्रथितानि-विस्तारितानि शुद्धपुण्यानि यैस्ते प्रथितशुद्धपुण्याश्चागमाः सिद्धान्ता येषाम् । सु-शोभनो भावः श्रद्धा सुभावः, स एवानन्तसुखहेतुत्वाद्वसु-द्रव्यं तस्य भावः-सत्ता तद्वन्तो ये त्रिदश
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५४
स्तुतिस्तोत्र रत्न कोषः
: 3
राजान:- सुरेन्द्रास्तैरच्चिताः कैः ? इत्याह- सुष्ठु भृशं रोचितैःशोभितैः सुराणां जिन पूजार्थमुचितैर्योग्यैः, कल्पद्रुमादिभ्यः प्रचितैर्मीलितैर्दामभि: - पुष्पस्रग्भिः ॥३३॥
सन्तः सन्ततशर्मणे दधति यं धीरोचिधीरोचित
श्रीद ! श्रीदमदर्शक हृदि स ते सम्पन्न सम्पन्नतः । प्राणिप्राणितदानवाग् वितनुतां सर्वज्ञ ! सर्वज्ञराट्श्रेयः श्रेयसि वासकानि समयः पुण्यानि पुण्यानि मे ||३४||
3
हे सर्वज्ञ ! सन्ततशर्मणे - नित्यसुखाय शिवायेत्यर्थः, हृदि दधति - धारयन्ति यं स ते समय :- आगमः, पुण्यानि - आशसारहितविधानादिना पवित्राणि श्रेयसि - मोक्षे, वासकानि - वासप्रदानि मे - मम वितनुतामिति योगः । धिया बुद्ध्या रोचन्त इति धीरोचिनो ये धीराः पुण्यकर्मसु सात्त्विकास्तेषामुचितां सत्त्वसाव्यामतां श्रियम्-इह महाराज्यादिकां परत्र चानुत्तरसुरशिवशर्म रूपां च ददातीति सर्वज्ञामन्त्रणम् श्रिया युक्तस्य दमस्य- इन्द्रियनोइन्द्रियनियन्त्रणारूपस्य दर्शकं ज्ञापकम् । सम्पन्नाः सम्पदो येषां तैरर्थादिन्द्रनुपादिभिर्नतः, प्राणिनां जन्तूनां प्राणितस्य- जीवितस्य दानं वक्तीति ( वाक् ) 'दिद्युदि' [ सि० ५।२।८३ ] त्यादिनिपाते जीवदयाख्यापक इत्यर्थः । सर्वज्ञराड्भिः - विज्ञ राजैः श्रेय-आश्रयणोयः ||३४||
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-
-
कारं कारं जिनानामतिमतिविभवा ये स्तवं वास्तवं वाः
साराऽऽसाराः स्वभक्तेहितहितविपिने स्युः समानाऽसमानाः । क्रीडाक्रीडा महिम्नां सरसरतिसुरीराजयः श्रीजयश्री
श्रेयः श्रेयस्विनस्तेऽसुरसुरपतयो मे क्रियासु क्रियासुः ||३५|| इति स्तुतयः
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स्तुतिस्तोत्ररत्नकोषः
५५ ये (असुर) सुरपतयोऽत्यर्थ बुद्धिसमृद्धयः स्वभक्तेहितहित विपिने वाः सारासाराः स्युरिति योगः। कोऽर्थ: ? स्वभक्तवाञ्छितहितकानने वारां-जलानां, सारश्च आसारो-वेगवान् वर्षस्तद्रूपास्तत्पल्लवनहेत व इत्यर्थः । समाना: साम्यत्वात् असमानाश्चानन्यसदृशा महिमादिभिः। खञ्जकुटादिवत् समासः । महिम्नां क्रीडाक्रीडाः-केलियोग्यराजलोकोचितोद्यानरूपाः । सरसाश्चित्ताक्षेपहेतवो रतय:-कामानुगाह,लादविशेषा याभ्यस्ता: सुरीराजयःअप्सरःश्रेण्यो येषां ते, सुरीराजियुता इत्यर्थः, श्रियो-रामाः, जयःसर्वोत्कर्षः, श्रियः-शोभा, श्रेयांसि-शिवानीतिपदचतुष्कस्य समाहारद्वन्द्वे कर्मणि द्वितीयैकवचनम् । कल्याणभाजः । समवसरणकरणादि यः (ष) सुराणां प्रागपयोगाल्लोकरूढया तेषां बलित्वाद्वा प्राग निर्देशः । कर्मकर्मसु ॥३५' . एवं यो मतिमान् स्तुते जिनवरान् भक्त्या समग्रान् क्रमात
शकालोमुनिसुन्दरस्तवगणैतक्रमाम्भोरुहान् । सर्वाभीष्टसुखोच्चौरविरतं स्फूर्जत्प्रमोदाद्वयो
मोहद्वेषिजयश्रिया स लभते श्रेयोऽचिराच्छाश्वतम् ॥३६।। ___ शकाल्या मुनीनां च सुन्दरैस्तवगणैः ।।३६।।
अनेन स्तवनमपि। इति वर्तमानचतुर्विशतिजिनानां श्री सीमन्धरस्य साधारणवृत्त्या जिनस्य युगपद्धहुजिनानां शाश्वतजिनचतुष्कस्य सिद्धस्य सिद्धचक्रस्य च मङगलशब्दार्थाक्षरार्थ यमकैर्वर्द्धमानाश्च स्तुतयः स्तवनं च । इति पञ्चशक्रस्तवः श्रीदेववन्दने आसामुभयोनामपि कथनेन मङगलमयाऽक्षरार्थयमकर्वर्द्धमानाः स्तुतयो भवन्तीति एतासां प्रागविभाव्यमानतज्जातीयानां करणोद्यम इति ।
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स्तुतिस्तोत्र रत्न कोष :
०
इति युगप्रधानावतारतपाबृहद् गच्छाधिराजश्री देव सुन्दरसूरिश्रीज्ञानसागर श्री सोमसुन्दर ० शिष्यैः श्रीमुनिसुन्दर सूरिभिविरचिते जयश्र्यङ्के श्री जिनस्तुतिस्तोत्ररत्नकोशे तृतीयस्तुतिरूपे प्रस्तावे बहुविधस्तुतिरत्नगर्भा पेटा ।। . ८१
आद्यस्तुतिषु वर्णत्रयस्य, द्वितीयस्यां वर्णचतुष्कस्य, तृतीयस्यां स्थानद्वयेन पञ्चानां चतुर्थ्यां स्थानत्रयेण षण्णां च वर्णानां प्रतिपादमावृत्त्या यमकैर्वर्द्धमानत्वमिति ।
इति श्रीमुनिसुन्दरसूरिपादकृतस्तुतीनामवचूरिः । ग्रन्थाग्रं २०२ ।
५६
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श्रीशङ्केश्वरपार्श्वनाथस्तवनम् ५७
वाचकमेघविजयरचितम् । . ।श्रीशलेश्वरपार्श्वनाथस्तवनम् ।
ॐ ह्रीं क्लीं अर्ह ऐं नम: सिद्धम् । श्रीसारणाचलमहेश्वरसन्निधाने,
सम्पत्करी शिवपुरीनगरी सुरीभिः । (स)तद्राज्यभाजि ननु राजनि वैरिशल्ये,
शङ्केश्वरो विजयतां जिनपार्श्वनाथः ॥१॥ स्पष्टीबभूव भविनां भुवि भागधेयाद्,
ध्येयातिशायि-सुखदायि-सुनामधेयः । शवेश्वरस्तनुमयूखदिनेश्वरोऽर्हन्,
नेत्राऽमताञ्जनजगत्प्रियरूपधेयः ।।२।। ॐकार एष सविशेषविधेविधाने,
श्वेतातपत्ररुचिसम्भतचारुमतिः । देवाऽसुरोरगनरेश्वरसेविताही,
राज्यश्रियं त्रिभुवनस्य दधाति पावः ॥३॥ नैतादृश स्त्रिभुवने जनताभिनेता,
__ योगीश्वरोऽपि विबुधाधिपतेः श्रियाढ्यः। शैवस्थितं (ति) वपुषि दर्शयते जिनोऽपि,
ब्रह्मक्रियापरिणतः स्वत एव भास्वान् ॥४॥ १. ध्येयान् अतिशेते यत् इति ध्येयातिशायि सुखं दत्ते यत् इति सुखदायि ध्येयातिशायि च सुखदायि च सुनामधेयं यस्य स इतिविग्रहः । २. तनुः-शरीरं तस्य ये मयूखाः शरीरस्य तेजोऽञ्चितत्वात् किरणानि तैः दिनेश्वरः सूर्य इव योऽसौ इति समासः । ३. जिनोऽपिरागद्वेषजयकारी अपि ब्रह्मक्रियया-योगसम्बन्धिप्रक्रियानुगतपरमा
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श्रीशङ्केश्वरपार्श्वनाथरतवनम् राजा द्विभागमदधाद् विविधार्थबोधात्,
क्रोधानुरोधनधियो विरराम कासम् । माङ्गल्यमाल्यपरिपूजनया प्रसादी,
शङ्केश्वरः प्रभुरसौ सुरसौख्यकारी ॥५॥ त्वन्नाम्नि धाम्नि भगवन् ! हरिशङ्कराद्याः,
स्वांश दधुर्मधुरपूजनहेतवेऽमी । तल्लेभिरे फलमलं विमलं त्वदीयं,
ते विश्वपूज्यपदसम्पदमङ्गनाढयाः ॥६॥ ये चक्रीया (स)त्ककमलापरिभोगमग्ना:,
भूता भवन्त्यभिनवैविभवैर्मनुष्याः । त्वत्पादपद्मरजसामनुशीलनस्य,
माहात्म्यमद्भुतमिदं जगति प्रतीमः ॥७॥ नामानि यानि जगदुद्धरणाय लोके,
गेयानि तानि किल निश्चिनुमस्तवैव । पर्यायवृत्तिविधया सुधयावलिप्ता,
भावा भवन्ति सरसाः स्वरसाद्यथैव ॥८॥ त्मचिन्तनया परिणतः सन् शैवस्थिति शिव:-मोक्षः तत्सम्बन्धिनी स्वीयां स्थिति वपुषि-प्रक्रमात् ध्यातुरन्तरङ्गमनोमयसृष्टौ संवेदनादिद्वारा स्वत एव भास्वान्-तेजस्वी प्रभुः दर्शयते-परमात्मस्वरूपध्यातृन् परमात्मस्वरूपानुभवयुतान् कारयतीत्यर्थः ।
४. धाम्नि-तेजस्वरूपे त्वन्नाम्नि शङ्केश्वरपार्श्वनाथरूपे हरिशङ्कराद्याः लौकिकदेवाः शं इति शङ्करवाचक ख इति विष्णुवाचकं ईश्वर इति ब्रह्मावाचकं इत्येवंरूपेण स्वांशं दधुः येन च तैरेवमित्थं कल्पितं यदस्य नामाक्षराणि पार्श्वनाथप्रभुनाम्नि संनिविष्टत्वात् पूज्यमानानि पूजास्पदत्वमस्माकमपि प्रथयिष्यन्ति।
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श्रीशङ्केश्वरपार्श्वनाथस्तवनम्
भाग्योदयेन भविनां भगवस्त्वदीयं,
संदर्शनं भवति दुस्तमसा भिदायै । भानोर्मरीचिनिचये स्फुरिते समन्तात्,
कि वा न नश्यति तमिश्रविमिश्रितो (ता) वा ॥९॥ त्वन्नायकस्त्वमसि सार्वजनीनबन्ध
स्त्वं तारकः सकलदुर्जनवारकस्त्वम् । नीतस्त्वयाहमियतीमिह वन्द्यभूमि,
तद्देहि सम्प्रति पदं परमं स्वकीयम् ॥१०॥ सिद्धेविधास्त्वदभिधा विविधानुभावा
ललक्ष्मीस्त्वदीयपदसेवनया घशेव । सम्प्राप्यते तनुभृता निभृता नितान्तं,
कीर्तिस्तदेकसुररत्नमयस्त्वमत्र ।।११।। नीताः क्षयं रिपुजना जनपूजनाऽपि,
सम्प्रापिता मयि कलाः सकलाः फलाढयाः । सद्योऽनवद्यसुरवन्ध ! विभिद्य माद्यत्
कर्माणि देहि परमं पदमीश ! मह्यम् ।।१२।। लुप्ता: क्रियास्त्वदुदिताश्चरणस्य दुष्टै
क्लस्वरूपकलिकालकरालयोगात । ५. त्वदभिधाया:-त्वन्नाम्नः विविधानुभावात्-विविधप्रभावात् सिद्धेः-मुक्तिलक्षणस्येष्टकार्यसिद्धेर्वा विधा:-प्रकाराः प्राप्यन्त इतिशेषः त्वदीयपदसेवनया वशा-बशवत्तिनीव लक्ष्मीः सम्प्राप्यते तथा निभृता कीत्तिः नितान्तं सम्प्राप्यते तत्-तस्मात् एकः-अद्वितीयः सुररत्नमयः-चिन्तामणिस्वरूपः त्वं अत्र-संसारे इति भावः । ६. अनवद्यसुरवन्ध ! हे विभो ! माद्यत् कर्माणि विभिद्य हे ईश ! मह्यं परमं पदं देहि ।
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श्रीशङ्केश्वरपार्श्वनाथस्तवनम् एषां पुनविमलमार्गमहोदयार्थ,
दुष्कर्मणां कुरु पराकरणं गुरुस्त्वम् ।।१३।। मोहावमोहवशतः शतशोऽन्यदेवाः,
सेवारसादनुगुणा विहिता मया ते । तैः काऽपि सिद्धि रभवन्न मनोरथस्य,
तश्चै (च्चे)तसः स्थिरदृशा त्वयि मे बभूव ॥१४॥ सिद्धप्रसिद्धमहिमा भगव (व) त्वमेव,
देवः सदैव धरणोरगराजसेव्यः । विश्वम्भरः शिवकरः करुणैकवृत्ति
वि (वि) श्वेशिता जनपितामह एव साक्षात् ।।१५।। तेजस्तवाव्ययन (त) रं तरसान्तरारि
विस्तारिवर्गहनने तरवारिधारिः। तस्मात् त्रयीतनुलसत्तनुरेव भासि,
शोभातिरेकवशतः शतमन्युमान्य ! ॥१६॥ के के त्वया न भगवन्ननुयायिनः स्वा:,
विश्वाधिपत्यकमलां विमलां न नीताः। ७. अतिशयेनाव्ययं अव्ययतरम् । ८. तरसा-शीघ्रम् । ९. खड्गापरपर्यायोऽयं शब्द: 'तलवार' इति लोकरूढयनुगश्च तस्य धारि:तीक्ष्णाग्रं 'धार' इति पदवाच्यं बोध्यम् । १०. त्रयी-त्रिपदीरूपा तनुः यस्यैतादृशद्वादशाङ्गश्रुतज्ञानरूपा लसत्तनुः यस्य स इतिविग्रहः । ११. मन्युशब्दः यज्ञवाच्यप्यस्ति अतः 'शतमन्यु' पदेनात्र लौकिकदृष्ट्या यज्ञशतकरणोत्तरलभ्येन्द्रपदवीरूढिमनुसृत्य 'इन्द्र' रूपार्थो ग्राह्यः । १२. स्वपदस्य सर्वादित्वाभावमत्र सूचयित्वा ज्ञाति-धनरूपार्थे सर्वादित्वनिषेधं व्याकरणप्रसिद्धमुपजीव्य अनुयायिनां ज्ञातीयत्वं प्रकल्प्य परमात्मनो विश्वजनीनता ध्वनिता ।
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श्रीशङ्खश्वरपार्श्वनाथस्तवनम्
3
इच्छन्ननन्तसुखभोग महो मनीषी,
कस्त्वां विमुञ्चति सुरद्रुमरूपमारात् ॥१७॥
*
१५
जेता सहस्रमहसां (सो) स (म ) हसां प्रताप:,
कीर्त्तिश्च कार्तिक निशाकरकान्तिकान्ता । कान्ता विलासकलना किल वर्द्धमानात्,
95
त्वद्ध्यानतस्तनुभृतामचिरादुदेति ॥ १८॥ त्वद्दर्शनान्ननु जनुविहितं पवित्र,
१७
निष्कम्पसम्पदुदियाय जयाय भोग्या । आनन्दमन्जुलदशाऽजनि मामकीना,
लभ्यं मया परिचयात् परमं पदं तत् ॥१९॥ चित्ताम्बुजन्मनि मम भ्रमरायसे चेद्,
१८
भक्तिः परं भगवती मयि सानुरागा ।
नित्याष्टधीविभवसिद्धिरसप्रसिद्धिः,
प्राप्ता मया ननु तदा भगवत्प्रसादात् ॥२०॥
६१
१३. मनीषी पदं हि समीक्षापूर्वक कार्यकारिबुद्धिमदर्थक हि विन्यस्यैवं दध्वनुः स्तुतिकर्त्तारो यत् अनन्तसुखभोगेच्छुः सन् तत्पूर्तिमं सुरतरुसन्निभं भवन्तं कः विमुञ्चति एवं च ध्वनिव्यङ्गयो हि प्रभोः निरतिशायिफलप्रदत्वरूपी गुणः स्तुतिकारैः मनीषीपदेन सूचितोऽस्ति ।
१४. सहस्राणि महांसि - तेजांसि किरणानीति यावत् यस्य स इति विगृह्य सूर्यस्येतिभावः । १५. महसां - तेजसां १६. कान्ता - रम्या विलासकलना - विविध सत्पदार्थविपुलताप्तिरित्यर्थः । १७. कम्पःअस्थिरत्वं निर्गतः कम्पः यस्याः सेति समस्य सुस्थिरेत्यर्थः ।
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तीर्थवन्दना
श्रीशङ्खेश्वर पार्श्वभास्वदुदितज्योतिर्मय श्रीजिनः, सर्वारिष्टविनाशनः शिवपुरीप्राप्तप्रतिष्ठोदयः । देशाधीश्वर वैरिशल्यमहितः सद्भाग्यलक्ष्म्यै सतां, नूतो वाचकमेघपूर्व विजयाऽभिख्येन मेरुध्रुवः ॥२१॥ १८. भगवती - मुक्तीरूपपरमपदप्रापकत्वेनाभ्यर्हणीया भक्तिः यदि मयि सानुरागा - अनुरागेण दृढान्तःकरणीयप्रीतिना सहिता भक्तिः मयि उदेतु प्राप्नोतु यतः सर्वसिद्धिः ।
६२
। श्रीसिद्धसेनसूरिविरचिता ।
(तीर्थवन्दना)
संसारतारयाणं तियसासुरमनुयवंदियकमाणं । तित्थयराणं तिहुयण - चेइयभवणे नम॑सामि ||१|| बत्तीस सयसहस्सा जिणभवणाणं नमामि सोहमे । अट्ठावीसं लक्खा वंदे ईसाणकप्पमि ||२|| बारस सणकुमारे लक्खा वंदामि अट्ठ माहिदे । चत्तारि बंभलोए सासय- जिणनाभवणाई ||३|| पंचास सहस्साइं लंतयकप्पंमि भावओ वंदे । चत्तालीसं सुक्के छच्च सहस्सा सहस्सारे ||४|| आणय-पाणयकप्पे दोसुवि दो दो सयाई वंदामि । आरणअच्चुयकप्पे सयं दिवढं दिवढं तु ||५|| एगारसुत्तरस्यं हेट्ठि मगेविज्जएसु वंदामि । सत्तुत्तरं च मज्झिम सयमेगं उवरिमे वंदे ||६|| पंचेवऽणुत्तराई एवं वंदामि उड्ढलोगंमि । तेवीस सत्तनउई सहस्स चुलसीइ लक्खा य ||७|| भवणवईणं मज्झे असुरकुमारेसु लक्ख चउसट्ठी । चुलसीइ सयसहस्सा नागकुमारेसु वंदामि ||८|| बावन्तरि च लक्खा जिणभवणाणं सुवण्ण
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तीर्थवन्दना
भवणेसु । छन्नवइ सयसहस्सा वाउकुमारेसु वंदामि ॥९॥ दीवदिसाउदहीणं विज्जुकुमारिदथणियमग्गीणं । छावत्तरि छावत्तरि लक्खा छण्हपि वदामि ।।१०।। एवं च अहोलोए फणिदनमंसियाई भावेणं। बावत्तरि-लक्खजुया कोडीओ सत्त वंदामि ॥११॥ सासयजिणभवणाई वंदे नंदीसरंमि दीवंमि। बावन्न मणहराइं तियसासुरखयरनमियाइं ॥१२॥ चउरो कुंडलवलए चउरो वंदामि रुयगवलयंमि । चत्तारि माणुसुत्तरवलए वंदामि जिणभवणे ।।१३। इसुकारपव्वएसुं वंदे चत्तारि चेइयहराई। मेरुसिहरेसु पंचसु पणसिइ वंदामि भावेण ॥१४॥ जिणभवणाई वीसं वंदे गयदंतसेलसिहरेसु। दस कुरुदुमेसु वंदे तीसं वासहरसेलेसुं ॥१५॥ वंदे असिई जिणमंदिराई वक्खारपव्वयवरेसु । सत्तार सयं च पुन्नं वेयड्ढनगेसु वंदामि ॥१६॥ एवं च तिरियलोए तेसट्ठाई सयाई चत्तारि । जोइस-वंतरियाणं संखाइयाई वंदामि ।।१७।। सत्ताणवइ सहस्सा लख्खा छप्पन्न अट्ठ कोडीओ। चउसय छायासीया तइलोए चेइयं वदे ।।१८। सिरिभरहचक्कवइणा अट्ठावयपव्वयस्स सिहरंमि । कारवियं अइरम्म चउवीसजिणालयं वंदे ॥१९॥ सम्मेयसेल-सेत्तुंज उज्जिते अब्बुयंमि चित्तउडे । जालउर रणत्थंभे गोयलगिरिम्मि वंदामि ॥२०॥ सिरिपासनाहसहियं रम्म सुरनिम्मियं महाथूभं । कलिकालेवि सुतित्थं मज्ज (थु) रा नयरीए वंदामि ॥२१॥ रायगिहं चंप-पावा अउज्झ-कंपिल्ल-हत्थिणपुरेसु । भद्दिलपुर-सींहपुरे अंगइया-कन्नउज्जेसु ।।२२।। सावत्थिदुग्गमाइसु वाणारसिपमुह पुव्वदेसंमि । कम्मगसिरोहमाइसु भयाण देसंमि वंदामि ॥२३॥ रज्जउरकुडीणीसु य वंदे गिज्झउर पंचवारेसु । तलवाड देवराउर उत्तरदेसंमि वंदामि ॥२४॥ खंडिल्लडिडु थाणघनराण हरिसउर खट्टऊएसु ।
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तीर्थवन्दना
नागउरसुद्वदंति संभरिदेसंमि वंदामि ||२५|| पल्लियसंडेरघनागएसु कोरिंट - भिल्लमालेसु । वंदे गुज्जरदेसे आहाडाईसु मेवाडे ||२६|| उवएस किराडउए विजयपुराईसु मरुंमि वंदामि । सच्चउरकुंडराइसु पच्छिमदेसंमि वंदामि ||२७|| थारावद्द धवाघड जालोहरखेड नगरमोढेरे । अणहिल्लवाडदेसे वड्डावल्लीघ बंभाणे ||२८|| नियकलिकालमल्लं साइसयं सयलवाहिथंभणय । थंभणयपुरनिवासं पासं पणमामि भत्तीए ||२९|| कच्छे भरुयच्छंमि य सुरट्ठ-मरहट्ठ- कुंकणथलीसु । कलिकुंडमन्नखेडे दक्खिणदेसे नम॑सामि ||३०|| धारा उज्जीणीसु य मालवदेसंमि पारिघत्ते य । वंदामि मणुयविहिए जिणभवणे सव्वदेसेसु ||३१|| इय पंचसु भरसु य एवएसु य महाविदेहेसु । संखेज्ज जिणहराई मणुएहि कयाई वंदामि ||३२|| कित्तिम अकित्तिमा वि य तित्थया वंदिया मए सब्वे । जिणभवणेसु निविट्ठा साहारणभत्तिराएण ॥३३॥ भराइमणुयमहिया महिया मोहारिमहिमाहप्पा | सिरिसिद्धसेणसूरीहि संथुया सिवसुहं दितु ||३४|| इति ||
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SA
वीरस्तुतिः श्री वीरस्य पञ्चवर्गपरिहारस्तुति। हरहासयशोराशि सेवे हारं शिवश्रियः ।
रोषोर्वीरुहसंहार-वायुं वीरेश्वरं वरम् ॥१॥ विश्वश्रीसंश्रियः सार्व-विसरांह्रि (रोऽह्नि) सरोरुहम् । _ सुरहंसावलीसेव्यं सं श्रियात् पा(ल्या)लि वः श्रिये ॥२॥ सुरासुरविशां वारा सहर्षी (र्षा) यं हि शश्रुवुः।
श्रेयसेऽ(स) रहः सर्वे (सार्व)विहारविसरः स वः ॥३॥ शिवहारि सरोहंसं सार्व सार्वहसारवम् ।
१. हरः-शङ्करः हास:-हास्यं तद्वत् निर्मला-उज्वला यशसां राशिः यस्य स तम् । २. रोष:-क्रोधः स एव उर्वीरुहः-वृक्षः तस्य संहारे वायुः तम् । ३. विश्वा च या श्रीः तं संश्रयते योऽसौ अर्थात् समस्तलक्ष्मीस्थानरूपः । ४. सर्वं विदन्ति ये ते इति सार्वाः-तीर्थकृतः तेषां विसरः-समूहः । ५. सश्रिया-श्री:--लक्ष्मीः तेन सहिता तया, आल्या-पडक्त्या श्रेण्या, अर्थात् लक्ष्मीश्रेण्या, आसमन्तात् लिवति-भक्तजनान् स्पृशति अर्थात् भक्तजनैः लक्ष्मीश्रेण्या सम्बन्धकारी। ६. A सुराश्च असुराश्च विशश्च-जनाः तेषां वारा-समूहः। ६. B श्रुधातोः वशत्तित्वार्थं हि विवक्ष्याऽत्र वशीभूता इत्यर्थः। ७. वि--विशेषेण हारः-हरणं यस्मात् कर्ममलानामित्येतादृशं हितकारिवचः तस्य विसर:-संमूह इत्यर्थः । अरहः-न विद्यते रहः येभ्यः इत्येतादृशाः तथा सर्वं विदन्ति ये ते सार्वाः तत् सम्बन्धि । ८. शिव-मुक्तिपदं तदेव हारि-रमणीयं सरः तस्मिन् हंसभूतम् । ९. सार्वा:-सर्वज्ञाः ये सार्वा:-तीर्थकृतः तेषां हस:-प्रकाशमानः य आरव:-आ समन्तात् रौति-दिशति तत्त्वादिकं योऽसौ उपदेश इत्यर्थः तम् ।
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महावीरस्तुतिः
विषषे (से) वृषवः सार्व-श्रिये वः स्युः सुराः सुराः ॥४॥
१०. विषसे-वि-विशेषेण ससे-गच्छामि शरणमितियावत अहमिति शेषः । ११. वृष-धर्म अवन्ते ये ते वृषवः-धर्मरक्षकाः इदं हि सुरविशेषणं ज्ञेयम् । १२. सर्व वेत्ति यत् तत् सार्व-केवलज्ञानं तस्य श्रिये । १३. सु-सुष्ठु राजन्ते ये ते इति ।
। श्रीमहावीर-निस्तुतिः । [श्री उदय (लावण्य) धर्मगणिविहिता
___ स्तुतिचतुष्कमयी दण्डकरूपा च] स चरमपरमेष्ठिनाथ ! त्वदेकान्तविश्रान्तचित्ताः स्वयं सूरय
स्सूचयन्तीति तत्त्वं परेषां यदेनं जिनं वर्द्धमानप्रभुं, भजत रजतगौरवर्ण विवर्णावनीभूतवर्णागमं निर्जराधीनपुण्यां च
नाहं तमोदीर्णभावं प्रभावास्तवामाहितम् ।। विविधधनसमिद्धसिद्धार्थपृथ्वीय(प)ति-प्रीतिकारिण्युदाराशया
ऽम्भौरुहाशीतपादोदयं दीप्ततेजोदयं पादपद्मद्वयी, भजत रजतगौरवर्णं विवर्णावनीभूतवर्णागमं निर्जराधीनपुण्यां च
नार्ह तमोदीर्णभावं प्रभावास्तवामाहितम् ॥१॥ निखिलजिनवरावली दर्शनानन्दलीनात्मनां व्यक्तभक्ताङ्गभूत्
कौमुदीवल्लभानां मनश्शान्तिपीयूषयूषार्पणे तर्पणे, रजनीपतिविभास्वरा वजिताखण्डजीवासनज्येष्ठमध्यस्थबाणस्थिति
मुक्तनिर्ग्रन्थनाथायतागारसाराजभावञ्चकम् ।
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महावीरस्तुतिः शुभमुभयभवाश्रयायातसातोदयं वर्द्धयन्ती चयं वर्धयन्ती च तीव्रांहसा
पुष्पयत्वाशुपुष्पर्तुतुल्यां यशोजालक, रजनीपतिविभास्वराजिताखण्डजीवासनज्येष्ठमध्यस्थबाणस्थिति
भुक्तनिर्गन्थनाथायतागारसाराजभावञ्चकम् ।।२।। जिणगणिभणिआगमो दाणि माणेइ णिम्माइणिव्वत्तए देइ वित्थारए.
आसु णित्थारए वारए गाढपाठत्थिणं पाणिणं, दुहबहू विह वेअणं तत्तसंकित्तणं तं कलंकित्तणं पावणिज्जायणं
सीससंघायणं सव्ववेरग्गयं सब्वहा भग्गयं । गमणयसयसंकुलो तक्कचक्केसु चक्केसरो वक्क वक्केसरो छिदई
भिदई रुंधइ संधए बंधए सोहए बोहए, दुहबहूविह वेअणं तत्तसंकित्तणं तं कलंकित्तणं पाणिज्जायणं
सीससंधायणं सब्ववेरग्गयं सव्वहा भग्गयं ॥३॥ हवइ कइवईणि वायकाएसु णिद्दोसया वित्तपावित्तयं सद्दिलि
___ गंगातरंगालिए णाणसुण्हाणसंताणओ, सिअवसण सुहासिआ जुग्गहं सप्पिणा अप्पवीणिक्कणिस्साण अत्ताण
मायालयाणं च सारप्पणासायओ हारिणी सामिणी । दिसउ सुअसमिद्धिमिद्धा पसिद्धा ससिद्धा सुरेहिं सुरेहिं णया सारया
सारयादेवया मे वरा पुण्णलावण्णधम्माणुआ, सिअवसण सुहासिआ जुग्गहं सप्पिआ अप्पवीणिक्कणिस्साण अत्ताण
मायालयाणं च सारप्पणासायओ हारिणी सामिणी ॥४॥ ___ इति श्रीमहावीरजिनस्तुतिः ( स्तुतिचतुष्क)
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ऋषभस्तुतिः । श्री भापनिस्तुतिः । प्रमुखसुखनिदर्शनं दर्शनं दर्शनंदादिनाग्रेसरद्वासरप्रोदिता
तोदितामोदिताशेष'कौमुदीकान्त कान्तस्य ते, वृषभजिन ! निरर्गलालोकलोकालिकालच्छवीमत्कुवेलाविला
ज्ञानभानप्रमीलाकुवेलावहेलामहेलालसं नालसम् । लसदसमरसेनसेनारसेनासुराभासुरावासुराबालबाला
अबालाश्च बालाः स्ववालादिभूषादिकृत्यत्यजिप्रत्यला, विदधति रतिकारणं प्रक्षरत्कारणं सम्पदाकारणं तामसावारणं
व्यापदां वारणं सर्वसाधारणं सातनिर्धारणम् ॥१॥ जनितमनितसङ्गमाजङ्गमारङ्गमाला इवोद्भङ्गमारास्तथा तुङ्गमा
रातिजातिस्मयं दुर्जयं नाशयन्तो भवद्विस्मयं, स्फुरदतिशयसञ्चयं तीर्थंकृत्त्वोदयं लाभलक्ष्म्यालयं
भूतभूताभयं सर्वदेवव्रजद्धर्युच्चयं तर्जयन्तः श्रयन्तः स्वयम् । नवतरुतरुणारुणादारुणा भारुणाश्माजनादय गाङ्गेयखर्जूर
कर्पूरपूरोपमानाऽसमानाद्भुतस्फूत्तिमूत्तिप्रभा, भवभयभरभेदकाः सन्तु ते मेदका म्लानविद्वेदकाः क्षीण
तद्वेदकाः सर्वथा भेदनिर्वेदका: सर्वसंवेदकाः सत्सभाः ।।२।। अतिमतियतिपुङ्गवैस्तुङ्गवैरङ्गिकरङ्गिकैवल्यकल्याण
___ कल्पत्वदैः शल्यचापल्यवैकल्यदैर्यो विधेः सङ्गते धीयते, सहृदयहृदयोल्लसद्धर्म्यहर्येचयः शास्त्रतात्पर्यवर्यार्थसाथैः
__ कृतार्थीकृतेररोचिरप्रत्नरत्नोज्ज्वलागाररत्नायते । विषयविषगूढपातू क्ष्वेडमूर्तात्मनां मूर्तिमद् धर्मधीचेतना
वालनाज्जाङ्ग लीविद्यया विद्यते विद्यमानोपमानश्चयः, स च जिनसमयो मयोद्गीयते नित्यमादीयते चित्र आधी (पी)
यते साधवे दीयते वृद्धिमानीयते हीयते नो न तत् क्षीयते ॥३॥
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ह्रींकारवर्णनस्तवनम्
दलयतु दुरिताभितापप्रपन्नं विपन्नत्वदौस्थ्यं महद्द : खदुस्थानदुर्मानदुर्ध्यानदुर्गतसम्बाधजाबाधसंसाधनं,
कलयतु कुशलावलीसत्प्रणालीसमालीनचेतस्कसंलीनताघानवाः पानदानात् समाधानजध्यानसंधातुसालेन्धनम् । मम समदमनोज्ञमेधाविस्तुता शक्रचक्रेश्वरीभूतिभूतिस्थितविश्रुता शीघ्रभाविश्रुतार्थाव्ययार्था सुधार्थार्थिभिः संस्तुता, विधुतविधुतरस्वितेजस्विताभावलावण्यधर्मानमासौ
वसन्मानसाद्दत्तमत्ताखिलस्वान्तकामा च चक्रेश्वरीदेवता ॥४॥ इतिश्री वृषभ जिनस्तुतिः । ॥ इदं स्तुतिद्वयं कृतं पं. उदयधर्मगणिभिः,
विमलकुशलगणिना लिखिता ( तं ) ॥
| ह्रींकारवर्णन स्तवनम् । पद्मद्बोधविधात्म (य) कात्मधवलध्यानोदयः सर्वतः, शुष्यद्द: खदविघ्नपङ्कनिकरः सच्चक्रहर्षप्रदः । आत्मीयप्रकटप्रभावकिरणव्याधूतताम्यत्र भो, ह्रींकारस्तरणिस्तनोतु सततोद्योतं सतां चिन्मयम् ॥१॥ एनः सा तु विभेदभग्नरदनः कुम्भानुकारोन्नुताऽनुस्वारः पृथुपृष्टिरप्रतिमहत्पृष्टप्रदेशेंसलः । द्वैतीयीक गुरुस्व रायतकरः खण्डेन्दुरेखाङ्कुशो, वंशारूढ विशिष्टषड् जिज्न महामात्रोऽतिमात्रोन्नतः ॥ २ ॥
ऊक्तिक्रोडगतद्विरष्टपरमेष्ठ्यष्टापदीयस्फुरद्घण्ट: पादनिलीन रेफनिगुडः पद्माप्रतिष्ठावधिः ।
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ह्रींकारवर्णनस्तवनम् मायाबीजकरी दुरन्तदुरितवातद्रुमोन्मूलके, ध्यानाधीनधियां तनोतु सुधियां प्रत्यूहवैरिक्षयम् ॥३।। युग्मम् ॥ ॐकारादिनमोऽन्तमन्त्रजगदन्तःस्थः कलाचूलिकोऽनुस्वारविहारहारिशिखरोद्वेधा सुवर्णात्मकः।। अन्त्योपान्त्यशिरस्त्रिरेख विपिनश्रेणिीत्रयः सर्वविद्देवानां सदनं हराक्षरसुरक्ष्माभृच्चिरं नन्दतु ॥४॥ हस्ताभ्यामिह शाखिताः कुसुमिताः कामाङकुशादर्शकैभूषाभिश्च विभूषिताः किलिता दीर्घाङगुलीभिर्भृशम् । यत्र स्वःपतिपादपंति सपदि द्विादश श्रीजिनाः, ह्रींकारा""रनन्दनं तदुदितच्छाया सुखायाऽस्तु वः ॥५॥ भव्यप्राणीसमीहितार्थपटलीसम्पादनप्रत्यला:, सर्वे सार्वप (सा)र्वदिव्यमणयस्तिष्ठन्ति यस्यान्तरे । चञ्चच्चन्द्रकलोर्ध्वभूम्यधिगतानुस्वारश्रृङ्गं दधि, ह्रींकाराकृतिरोहणक्षितिधरो दद्यात् सरत्तानि वः ॥६॥ नीलः शीर्षगलभरायभुग्जग व्यापादनव्याप्तः, प्रेङखत्कालिमबिन्दुचन्द्रकलभोपेतः सदीर्घस्वरः । यः शोभाञ्चितपञ्चवर्णरुचिरो धत्ते मयूरश्रियं, मायाबीजमयः स खेलतु हृदुद्यानेषु वर्णः सताम् ।।७।। यः कायांहिषु शातकुम्भकपिशः शीर्षाश्रितेकारयोदुर्वानीलरुचिर्न चार्ककिरणरक्तश्च नादेद्भुते । बिन्दौ व्योमशितिः कलाधरकलासत्क: कलायामिति स्याद्वादं प्रतिपादयन्नवतु वो ह्रींकारवर्णो गुरुः ॥८॥ भूतोद्भाविभवज्जगज्जनजरां ह्रींकारवर्णोसितुम्, सन्नादोंष्ढनिकोलबिन्दुगकलापीयूषकुम्भोदधिः ।
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ह्रींकारवर्णनस्तवनम् तभारद्विवटीभवत्कटिरिवेकारैकयष्टेरवष्टम्भात्तिष्ठति कष्टमुत्तमनरः सत्यं परार्थोद्यमः ॥९॥ स्वान्तस्थापितसर्वसार्वनिवहः संन्यस्तसर्वाशुभव्यापारः स्थविरत्ववक्रवलितश्चेकारदण्डं दधन् । यो रेखात्रययोगपट्टमुररीकृत्यौपतिष्ठत्यलं, दद्यासिद्धिमसौ स सौष्ठवकलो हींकारयोगीश्वरः ॥१०॥ यत्रेकारखलीनलीनवदनेऽध्यारुह्य सद्योगिनां, स्वान्तोद्यानवनान्तरे शशिकलापर्याणचर्याकृतौ । उच्चैः खेलति बिन्दुरूपपरमब्रह्माश्वचारः स वो, मायाबीजयः कुकर्मविजये भूयात्सहायः सदा ॥११॥ ख. गोयमतुर्यकस्वरधरोऽनुस्वाररूपं जटाजूटं मूनि कलाकलाधरकलं बिभ्रन् शिवोल्लासकः सर्वाभीष्टसुखप्रदः सुरसुरासंसेव्यमानोनिश !, श्री ह्रींकारहरस्त्रिपातकपुरक्षेप्ता तनोतु श्रियम् ।।१२।। ह्रींकारोऽस्ति तृणोटजस्तदुदरे साविली जानकी, रेखास्तत्परितश्च रामविहिताऽऽज्ञादानरूपाः किमु । तस्योर्ध्वं चतुरङ्गलाञ्छनकलालीलाविमानवरानुस्वारो दशकन्धरस्तदुपरित्वात्तिष्ठतीवोन्नता ॥१३॥ वज्ञा(ज्रा)गारमकारि धूर्त्तविधिना ह्रींकाररूपं कलि, स्तेनातङ्कवशाज्जिनार्थकलशोस्तस्योदरे न्यस्य च । बिन्दुशेखरिकश्च तस्य परितो रेखाश्च तिस्रः कृता, वप्रास्तिष्ठति तत्पुरो तु सततं क्रोंकार सत्क्रांतिकः ॥१४॥ कुर्वाणं वृषभासनं वसुमिता: सिद्धीददानं सतां, कण्ठेकालमहीनसन्निगरणं सोमादिमन्त्रप्रथम् ।
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ह्रींकारवर्णनस्तवनम् नाम्ना चापि हराक्षराङ्गमितियश्कत्वे वनादछलादद्धेन्दुः समुपास्ति सोऽस्तु भवतां ह्रींकारवर्णः श्रिये ॥१५॥ योगीन्द्राङ्गनणस्यगद् करगलद्वाग्निर्जराचिर्भवो, ह्रींकाराक्षरपाठपाटवसरित्पूरोधकारस्करान् । नि:संस्कारमयास्य याति परमज्योतिः समद्रं चयः, सोन्तः कर्ममलान्तमत्र भवतान्तंतन्यतामेपयः ॥१६॥ धन्यास्ते कृतिनो यदीयहृदयावासेषु नक्तं दिवा, शीर्षे वक्षसि पादयोश्च विधृतार्हद् तूपदीपव्रजः । अन्तनिश्चलमुक्तबिन्दुसुलिकामिन्दो: कलामल्लिकां, बिभ्रन् मूर्द्धनि नृत्यति प्रतिकलं ह्रींकारशैभूषकः ॥१७॥ अन्त्योपि प्रथमोहकार भवसि त्वं व्यञ्जने रेफ हे, त्वं सत्यो सिकटारमल्लविरुदीकारासि सत्यो गुरु । बिन्दो त्वं समवर्णशीर्षवसतिः स्थाने भवद्भिर्यतो, मायाबीजमुरुप्रभावसदनं सम्भूय सम्भाष्यते ॥१८॥ लक्ष्मीसागरवार्यमेयमहिमावासो यमेवं स्तुतो, नित्यादित्यगुणेन र्यनयकृद्योगीन्द्रहृद्व्योमनि । स्वर्णाच्च द्विपरत्नमण्डनमुखाभीष्टार्पणस्वस्तरुर्चेणानामधिपस्तनोतु भवतां ह्रींकारवर्ण: श्रियम् ॥१९॥
॥ इतिश्रीपरमगुरुरत्नमण्डनसूरिशिष्यविबुधश्रीआगममण्डनगणिभिः कृतं स्तवनं समाप्तम् ।।
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साधारण जिनस्तवः
महोपाध्याय - श्रीहेमहंसगणिवर-विरचितः साधारणजिनस्तयः ।
भक्तामरस्तवनमध्यगतानि यानि,
एकैकतच्चरणरूपसमस्ययाऽहं
स्वस्वाश्रय स्थितिजुषैव जिनं नुवामि ॥ १ ॥ "यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्व
वृत्तानि सन्ति नव सातिशयान्यतीव ।
1
मप्यानतो नृभिरिमेऽप्यनघाः स्युरेव |
स्यादेव नूनमजरामरता कथञ्चित्,
पीता सुधा यदि रुचेरिह को विचारः ? ॥ २ ॥ त्रैलोक्य पूधिकतावककीर्तिराशि
निर्मापित स्त्रिभुवनं कललामभूतः । सपिण्डय सैष विधिना निधिना मतीनां,
मन्ये महोदयशीलेति विदो विदुस्तम् ॥ ३ ॥
यान् व्याडिराह नियतान् प्रतिमासमेका
द्यङ्गा ( ६ ) न्तसङख्यशतयुक्तमथो सहस्रम् | तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां
७३
व्यंशवः किमु समास्त्वदनन्तभासाम् ॥ ४ ॥
यैरागृहीतमुपमै कमलङ्कृतीनां,
काव्येषु बीजमिति हा ! कुधियो हतास्ते । यत्त्वां कथं कवयितार इमे वराका
यते समानमपरं नहि रूपमस्ति ॥ ५ ॥
"वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि ?
कुण्डं क्व चामृतरसस्य भुजङ्गभीष्मम् ? |
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७४
साधारणजिनस्तवः यत्तुल्यतामपि तयोः प्रतिपादयन्ति,
- तेभ्यो नमः शुचिविचारचतुर्मुखेभ्यः ? ॥६॥ देव ! त्वदीयचरितं हृदुपैति याव
निश्शेषनिजितजगस्त्रितयोपमानम् । तावन्मतिर्मम सतीरसतीव्रतेव,
. स्तुत्याऽन्तरस्य नहि संमुखमीक्षतेऽपि ॥ ७ ॥ क्षीराब्धिगर्भसलिलैर्घटितानि नूनं,
वाक्यानि ते विमलतातिशयाञ्चितानि । बिम्बं कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य ?,
तेषां तु यातु परिणामि-निदानतायाम् ॥ ८॥ नित्यं निशासु शशिबिम्बमुदीय दीपं,
दीपं यथेष्टमधिकाधिकदीप्ति रूपैः । चेन्नति ते मुखतुलां त्रपयोचितं तद्,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ।।९।। "सम्पूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलाप
मुन्मुद्य किञ्चिदपसार्य च पङ्कमाङ्कम् । चेत्तं पृथक् क्वचन सञ्चिनुते विरञ्चि
__ स्तत् त्वगिरो निरुपमत्वमदं पिदध्यात् ॥१०॥ त्वं देशमेतमधुना प्रपुनासि पादैः,
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लङघयन्ति । तन्नूनमेतदनृतं गुणिनं विहाय,
यन्नो गुणाः क्वचन केवलतां भजन्ति ॥११॥ क्षान्तिर्दृढा तव गिरो मृदुलाश्च कीत्ति
__ लॊकम्पृणाऽथ परतापकरः प्रतापः ।
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साधारणजिनस्तवः
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ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेकं,
त्वामेव तेष्वपि किमेवमहो! विरोधः ।।१२।। लुम्पन्ति गा द्विजपतेस्तमपीरयन्ति,
कण्ठे लगन्ति सुमनः सुदृशामशङ्कम् । मुक्तार्गलास्तव गुणा यदि वा प्रभुत्वात्,
कस्तान्निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम् ॥१३॥ "चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभिः,
कण्ठेकृतः सपदि सद्गुणरत्नहारः। सद्वृत्तनिर्मलमहार्घतमेन जज्ञे, .
यन्नायकेन भवता भुवनप्रियोऽयम् ॥१४॥ अक्षैः कषायविषयैश्च न कौतुकं ते,
नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् । वर्षाऽऽतपोत्थमथवा किमु चर्मरीत्या,
व्योम्नोऽपि मार्दवकठोरिमवैकृतं स्यात् ॥१५॥ क्षान्तोऽसि नाथ ! परमात्मसभाजिनां नः,
पीडासु किं किमपि नो तनुषे स्वतेजः । कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन,
यस्मात्पयोधिरपि लङ्घयति स्वसीमाम् ॥१६॥ विद्योन्मदैरपि न कौतुकमन्यतीर्थ्य
! शक्यते चलयितुं तव शासनश्रीः । दृष्टं श्रुतं क्वचन वा घनवातवृन्दैः,
कि मन्दरादिशिखरं चलितं कदाचित् ।।१७॥ "निधूंमत्तिरपजिततैलपूरः,
खे दीप्रदीप इयता ननु कोऽर्थ उल्का ।
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साधारणजिनस्तवः कुक्षिम्भरिस्त्रिजगतां यमुनाऽमुनापि,
स्यादेतदेव विदुषां तव देव ! कीत्तिः ॥१८॥ यत्त्वं गिरा मधुकिरा किल केदलीन्द्रः,
. कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । तत्तावकीनकरणि कियदेतिकां ये,
कर्तुं स्पृशन्ति विलिखन्ति नखैगिरि ते ।।१९।। स्पर्द्धा विधाय भवतोन्तिषदापि कश्चिद्
यातः स्वमानमविहाय भवेदिदं चेत् । गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलाना
मेरण्डकोऽद्रिशिरसीत्यपि सूनृतं तत् ॥२०॥ दुःखेऽत्र दुष्षमतमासमये तमोभि
___ालुप्तचक्षुषि जने सुपथप्रवृत्त्यै । निष्कम्पनिर्मलनिरञ्जननित्यदीप्ति
पोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ॥२१, "नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः,
पूर्णः सदाप्यनवमः सुदशाधिकश्च । धत्ते कलङ्ककणिकामपि नो बुधेष्टः,
स्पष्टं तथाप्यमृतसूरसि चित्रमेतत् ।।२२।। न स्नेहमुद्वहसि नाञ्जन-तीव्रते वा,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति । दीपः क्व तत् क्व च भवाँस्तदपीह विज्ञं
__ मन्योऽपि कि बत ! पतङ्गति दोषिवर्गः ॥२३॥ भौमं न तन्न च खजन्मजडैरनाशा
स्थैर्याच्च न ग्रहगणप्रभवं यतस्त्वम् ।
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साधारणजिनस्तवः
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नाम्भोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभाव
स्तज्ज्योतिरीश ! कतमन्ननु यन्मयोऽसि ॥२४॥ रात्रिंदिवाऽभ्युदयिता रुचिसञ्चयाना
__ महासिता च मिहिरे न महोमयेऽपि । ते तु त्वयीश ! सततं वसतस्ततस्त्वं,
सूर्यातिशायिमहिमाऽसि मुनीन्द्र ! लोके ॥२५॥ “नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं,
त्वां दीप्यमानमभितः स्वतनुप्रभाभिः । मन्येऽनुकर्तुमिह दीपशिखाभिधानाः
स्वःशाखिनस्तदनुरूपमहो ! यतन्ते ॥२६॥ ज्योत्स्नेन्दुमाह नु विधो ! भवतेश ! पार्वे,
गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् । तद्योगकश्मलतयाऽस्य न जातु यातु,
त्वत्कीत्तिसाम्यपदवीति विदग्धबुद्धया ॥२७॥ सन्नेत्रपत्रलममत्रममात्रलक्ष्म्याः ,
सद्यः प्रसादजननं जनलोचनानाम् । विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति,
प्रेसत्यरागपरिषङ्गपिशङ्गिताशम् ॥२८॥ निस्तेजसी भवति कर्बापि नान्धकारं,
नो मन्दयेत् कषति किन्तु समूलकाषम् । तृप्नोति कस्य नयनानि न ते मुखाब्ज,
विद्योतयज्जगदपूर्वशशाडाकबिम्बम् ॥२९॥ ''कि शर्वरीषु शशिनाऽह नि विवस्वता वा,
शक्येत कोऽपि तमसां प्रसरो निरोद्धम् ।
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साधारणजिनस्तवः अव्याहतैस्तव महोभिरिमानि पूर्व
मुद्योतिभिर्यदि हि जर्जरितानि न स्युः ॥३०॥ बाह्येषु चान्तरगतेषु च विष्टपस्य,
युष्मन्मुखेन्दुलितेषु तमस्सु नाथ !। एतौ जगत्युदयतो यदि पुष्पदन्तौ,
तन्नूनमान्तरतमःक्षयशिक्षणार्थम् ॥३१॥ स्वामिन् ! प्रभावविभवैर्भुवने भृते ते,
सर्वेऽप्यमी जनपदाः सुखदा भृशं नः । निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके,
यद्वा शुकः क्वचन तिष्ठति कि क्षुधातः ? |॥३२॥ मुक्त्यथिनां किमपरैरभियोगयोगै--
स्त्वत्पादभक्तिकरणे यदि शक्तिरस्ति । चेत् शालयः समूदपत्सत पङ्किलैस्तत्,
कार्य कियज्जलधरैजलभारनम्रः ॥३३॥ २°ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,
साऽऽलोकलोककलनास्वनिभं नभस्वत् । क्वाऽन्येषु तस्य कणिकाऽप्यथवाऽऽप्यते किं,
__ कल्पद्रुमः क्वचन मारवमेदनीषु ॥३४॥ दैवी कलां त्वयि यथाऽर्हति सम्यगास्ते,
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । यत्सौरभं मलयचन्दनपादपानां,
भाव्यं क्व तेन मरुमण्डलशाल्मलीषु ? ॥३५॥ श्रीसर्ववेदिनि जिन ! त्वयि यादृशी श्रीः,
क्वैषा कियन्मतिधरेषु सुरान्तरेषु ।
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साधारण जिनस्तव:
तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं,
fi दुष्टष्टशकलेऽपि तथैव तत्स्यात् ? ॥३६॥
साऽऽडम्बरेष्वपि सुरेष्वपरेषु नेत्रे,
नो रंरतस्त्वयि यथा गतडम्बरेऽपि ।
ज्ञानां रतिर्भवति धूसरितेऽपि रत्ने,
नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥३७॥
भक्तामरस्थनवपद्यपदप्रसूनैः,
षट्त्रिंशतेति खचितां नवकाव्यमालाम् । भक्त्या विधाय महितः परमेश्वरो मे,
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श्री सोमसुन्दर शिवालयवासदः स्तात् ॥३८॥
॥ इति श्रीभक्तामरस्तवमध्यगतवृत्तनवकस्यैकैकपादरूपसमस्याभिविरचितः साधारणजिनस्तव:
श्री महोपाध्याय - श्रीमहंसगणिपादैः कृतः ॥
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एकः श्लोकः
एकः श्लोकः ।
यामाता मम ! ता मा या, मा परोक्षक्षरोपमा । तारोने गगने रो ! ता-मक्षगक्षक्ष ! गक्षम ! || १॥
व्याख्या - अथ गुरुः शिष्यं वक्ति - हे अमम !, हे रो ! - सर्वजीवरक्षणपर ! हे गगने गक्षम ! - हे आकाशे गमनसमर्थ !, किं विशिष्टे गगने ? तारोने - ताराभिः ऊने - ताराविवर्जिते सकलगगनगमनसमर्थ इति । आकाशगा मिलब्धिमत्त्वात् । हे अक्षगक्षक्ष ! -अक्षगम्-इन्द्रियवशगं यत् क्षं- क्षेत्रं वपुस्तत्र तपः पभृतिभिः क्षयकारित्वात् क्ष-राक्षसतुल्य हे साधो !, तां, तां - लक्ष्मीं प्रति ममतां - स्मरणमपि मा अय- मा गच्छ । तां कां ? या अपरोक्षक्षरोपमा - अपरोक्षाणि क्षराणि - चञ्चलानि उपमानानि यस्याः सा तथा । किं विशिष्टो मुनिः ? अमाता - स्वजनादिसङ्गरहितः । इति ।
समास
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________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! II શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમઃ | | શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: || જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હરતલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણા ગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વેસર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણ અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ નં-૧ તથા .૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય, પૂજ્યા સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ન શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્ય ગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધના માટે ખુબજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધના જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલળળની તીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો શ્રુત વારસો જળવાઈ રહે તો શુભ આશયથી આ થોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોનો જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. લો અભાઈ તથા સંશોધના માટે વધુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યની પ્રોત્સાહન આપશી. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમા જોડાવાળાની વંદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે...! = પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???