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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन-वाङ्मय
का अवदान
द्वितीय खण्ड
स्व. डॉ नेमिचन्द्र शास्त्री,
ज्योतिषाचार्य
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भारतीय संस्कृति के विकास में
जैन वाङ्मय का अवदान
[प्राच्य-भाषा, जैन-विद्या, भारतीय वाङ्मय तथा श्रमण-संस्कृति
सम्बन्धी दुर्लभ शोध-निबन्धों का अपूर्व संग्रह]
[द्वितीय खण्ड]
लेखक स्व. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य एम० ए० (त्रय) पी-एच० डी०, डी. लिट्
सम्पादक
डॉ. राजाराम जैन
एम० ए०, पी-एच. डी. रीडर एवं अध्यक्ष संस्कृत-प्राकृत विभाग
एच. डी. जैन कालेज, आरा
डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री
एम० ए०, पी-एच. डी. प्राध्यापक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नीमच
सौजन्य : कृष्ण नगर, दिगम्बर जैन समाज E-5/37, कृष्णा नगर, दिल्ली-51, फोन : 55351932
प्राच्य श्रमण भारती
मुजफ्फरनगर
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उपाध्याय मुनि श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज के कृष्णा नगर जैन मन्दिर में प्रवास के उपलक्ष्य में प्रकाशित
प्रकाशक : कृष्णा नगर जैन समाज, कृष्ण नगर, दिल्ली-51
संस्करण : प्रथम, नवम्बर, 2003,
प्रतियाँ : 1100
मूल्य : 300 रुपये मात्र (पुनः प्रकाशन हेतु)
प्राप्ति स्थान :
प्राच्य श्रमण भारती 12/ए, निकट जैन मन्दिर प्रेमपुरी, मुजफ्फरनगर - 251001 (उ० प्र०) फोन : 0131-2450228, 2408901
रोड़,
श्रुत संवर्द्धन संस्थान प्रथम तल, 247, दिल्ली मेरठ - 250 002 फोन : 0121-2528704
श्री दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र ज्ञानस्थली भूडबराल, परतापुर, दिल्ली रोड़, मेरठ फोन : 0121-2440485, 3119857
श्री दिगम्बर जैन मन्दिर ई-5/37, कृष्णा नगर, शाहदरा, दिल्ली-51 फोन : 55351932
मुद्रक : दीप प्रिंटर्स 70ए. रामा रोड, इंडस्ट्रियल एरिया विषय पर आय - राष्ट्रीय संगोष्ठी में नई दिल्ली -110015 फोन : 25925099, 98110369334
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आचार्य परम्परा बाल ब्रह्मचारी, प्रशान्त मूर्ति आचार्य 108 श्री शान्तिसागर जी महाराज (छाणी) उत्तर
जन्म तिथि - कार्तिक वदी एकादशी वि०सं० – 1945 (सन् 1888) जन्म स्थान - ग्राम-छाणी, जिला - उदयपुर (राजस्थान) जन्म नाम
श्री केवलदास जैन पिता का नाम श्री भागचन्द जैन माता का नाम
-
श्रीमती माणिकबाई क्षुल्लक दीक्षा सन् 1922 (विसं०1979) स्थान
गढ़ी, जिला-बासबाड़ा (राजस्थान) मुनि दीक्षा
भाद्र शुक्ला 14 संवत् 1980 (सन् 1923)
सागवाड़ा, जिला डूगरपुर (राजस्थान) आचार्य पद सन् 1926 स्थान
गिरीडीह (झारखंड प्रान्त) समाधिमरण 17 मई 1944 ज्येष्ठवदी दशमी स्थान
सागवाड़ा (राजस्थान)
स्थान
परम पूज्य आचार्य 108 श्री सूर्यसागर जी महाराज
जन्म तिथि - कार्तिक शुक्ला नवमी वि०सं० 1940 (सन् 1883) जन्म स्थान प्रेमसर, जिला - ग्वालियर (मप्र०) जन्म नाम - श्री हजारीलाल जैन पिता का नाम - श्री हीरालाल जैन माता का नाम श्रीमती गैंदाबाई ऐलक दीक्षा - वि०सं०-1981 (सन् 1924)(आ शान्तिसागर जी से) स्थान
इन्दौर (मध्य प्रदेश) मुनि दीक्षा मर्गासर,बदी ग्यारस वि.स. 1981 (सन् 1924)
51 दिन पश्चात् आचार्य शान्तिसागर जी (छाणी) से स्थान
हाटपीपल्या, जिला-देवास (म.प्र.) आचार्य पद वि०स० 1985 (सन् 1928) स्थान
कोडरमा (झारखण्ड) समाधिमरण वि० सं० 2009 (14 जुलाई 1952) स्थान
डालमिया नगर (झारखण्ड) साहित्य क्षेत्र में - 33 ग्रन्थों की रचना की।
परम पूज्य आचार्य 108 श्री विजयसागर जी महाराज
· · जन्म तिथि - वि० सं० 1938 माघ सुदी 8 गुरुवार
जन्म स्थान - सिरोली,जिला-ग्वालियर (मध्य प्रदेश) : जन्म नाम - श्री चोखेलाल जैन । 1. पिता कामाम - श्री मानिक चन्द जैन
माता का नाम :- श्रीमती लक्ष्मी बाई
क्षुल्लक दीक्षा - इटावा (उत्तर प्रदेश) - ऐलक दीक्षा मथुरा (उत्तर प्रदेश) ' मुनि दीक्षा - मारोंठ (जि.नागौर,राजस्थान) आचार्य श्री सूर्यसागर जी से . समाधि,तिथि- 20 दिसम्बर 1962
मुरार,जिला- ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
स्थान
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परम पूज्य आचार्य 108 श्री विमलसागर जी महाराज (भिन्ड वाले)
जन्म तिथि - पौष शुक्ला द्वितीया वि० सं० 1948 (सन् 1891) जन्म स्थान - ग्राम मोहना, जिला- ग्वालियर (मध्य प्रदेश) जन्म नाम - श्री किशोरीलाल जैन पिता का नाम श्री भीकमचन्द जैन माता का नाम - श्रीमती मथुरादेवी जैन क्षुल्लक दीक्षा - वि० सं०1998 (सन् 1941) आ विजयसागर जी से स्थान
ग्राम - पाटन, जिला-झालावाड (राजस्थान) मुनि दीक्षा वि०सं० 2000-आ विजयसागर जी से स्थान
कोटा (राजस्थान) आचार्य पद
-
सन् 1973,स्थान - हाड़ौती समाधिमरण. 13 अप्रैल 1973 (वि०स०2030) स्थान - सांगोद, जिला - कोटा (राजस्थान)
मासोपवासी, समाधिसम्राट परम पूज्य आचार्य 108 श्री सुमति सागर जी महाराज
. जन्मतिथि वि० सं० 1974 आसोज शुक्ला चतुर्थी (सन् 1917) जन्म स्थान - ग्राम - श्यामपुरा, जिला - मुरैना (मध्य प्रदेश) जन्म नाम
श्री नत्थीलाल जैन पिता का नाम - श्री छिदूलाल जैन माता का नाम - श्रीमती चिरौजा देवी जैन ऐलक दीक्षा - वि.सं. 2025 चैत्र शुक्ला त्रयोदशी (सन् 1968) स्थान
मुरैना (मध्य प्रदेश) आ विमलसागर जी से ऐलक नाम - श्री वीरसागर जी मुनि दीक्षा वि० सं० 2025 अगहन वदी द्वादशी (सन् 1968) स्थान
गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) आचार्य पद ज्येष्ठ सुदी 5 विसं 2030,अप्रैल 13,सन् 1973 स्थान
मुरैना (म.प्र.) आ.विमलसागर जी (भिण्डवाले) महाराज से। समाधिमरण क्वार वदी 1/3 दि.3.10.94
- सोनागिर सिद्धक्षेत्र, जिला दतिया (मध्य प्रदेश)
स्थान
सयकोद्धारक परम पूज्य उपाध्याय 108 श्री ज्ञानसागर जी महाराज
जन्म तिथि - वैशाख शुक्ल द्वितीया, विश्स 2014,
मई 1, सन् 1957 जन्म स्थान
मुरैना (मध्य प्रदेश) जन्म नाम
श्री उमेश कुमार जैन पिता का नाम
श्री शांतिलाल जैन माता का नाम
श्रीमती अशर्फी जैन ब्रह्मचर्य व्रत
सन् 1974 क्षुल्लक दीक्षा सोनागिर जी, 5.11.1976 क्षु दीक्षोपरान्त नाम - क्षु० श्री गुणसागर जी क्षुल्लक दीक्षा गुरु - आचार्य श्री सुमतिसागर जी महाराज मुनि दीक्षा
सोनागिर जी,महावीर जयन्ती,
चैत सुदी त्रयोदसी 31.3.1988 मुनि दीक्षोपरान्त नाम - मुनि श्री ज्ञानसागर जी दीक्षा गुरु
आचार्य श्री सुमतिसागर जी महाराज उपाध्याय पद
सरधना, 30.1.1989
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MS
C
श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, कृष्णा नगर, शाहदरा (दिल्ली)
200
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बाल ब्रह्मचारी, प्रशान्त मूर्ति आचार्य 108 श्री शान्तिसागर जी महाराज ( छाणी)
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परम पूज्य आचार्य 108 श्री सूर्यसागर जी महाराज
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परम पूज्य आचार्य 108 श्री विजयसागर जी महाराज
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परम पूज्य आचार्य 108 श्री विमलसागर जी महाराज
(भिण्ड वाले)
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ज्या
मासोपवासी समाधिसम्राट परम पूज्य आचार्य ___108 श्री सुमतिसागर जी महाराज
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हमारे प्रेरणा स्रोत जिनके आशीर्वाद से यह गुरुतर कार्य सम्पन्न हुआ
सराकोद्धारक परम पूज्य उपाध्याय 108 श्री ज्ञानसागर जी महाराज
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स्व. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य जन्म : 16 सितम्बर 1922
मृत्यु : 10 जनवरी 1974
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आचार्य शान्तिसागर (छाणी) और उनको परम्परा
बीसवीं सदी में दिगम्बर जैन मुनि परम्परा कुछ अवरूद्ध सी हो गई थी, विशेषतः उत्तर भारत में। शास्त्रों में मुनि-महाराजों के जिस स्वरूप का अध्ययन करते थे, उसका दर्शन असम्भव सा था। इस असम्भव को दो महान आचार्यों ने सम्भव बनाया, दोनों सूर्यों का उदय लगभग समकालिक हुआ, जिनकी परम्परा से आज हम मुनिराजों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करते हैं और अपने मनुष्य जन्म को ध्य मानते हैं।
ये दो आचार्य हैं चारित्रचक्रवर्ती आचार्य 108 श्री शान्तिसागर महाराज (दक्षिण) और प्रशान्तमूर्ति आचार्य 108 श्री शान्तिसागर जी महाराज (छाणी)। कैसा संयोग है कि दोनों ही शान्ति के सागर हैं। दोनों ही आचार्यों ने भारतभर में मुनि धर्म व मुनि परम्परा को वृद्धिगत किया। दोनों आचार्यों में परस्पर में अत्यधिक मेल था, यहाँ तक कि ब्यावर (राजस्थान) में दोनों का ससंघ एक साथ चातुर्मास हुआ था।
प्रशान्तमूर्ति आचार्य शान्ति सागर जी का जन्म कार्तिक बदी एकादशी वि.स. 1945 (सन् 1888) को ग्राम छाणी जिला उदयपुर (राजस्थान) में हुआ था, पर सम्पूर्ण भारत में परिभ्रमण कर भव्य जीवों को उपदेश देते हुए सम्पूर्ण भारतवर्ष, विशेषतः उत्तर भारत को इन्होंने अपना भ्रमण क्षेत्र बनाया। उनके बचपन का नाम केवलदास था, जिसे उन्होंने वास्तव में अन्वयार्थक (केवल अद्वितीय, अनोखा, अकेला) बना दिया। वि.स. 1979 (सन् 1922) में गढ़ी, जिला बाँसवाड़ा (राजस्थान) में क्षुल्लक दीक्षा एवं भाद्र शुक्ला 14 संवत 1980 (सन् 1923) सागवाड़ा (राजस्थान) में मुनि दीक्षा तदुपरान्त वि.स. 1983 (सन् 1926) में गिरीडीह (बिहार प्रान्त) में आचार्य पद प्राप्त किया। दीक्षोपरान्त आचार्य महाराज ने अनेकत बिहार किया। वे प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। मृत्यु के बाद छाती पीटने की प्रथा, दहेज प्रथा, बलि प्रथा आदि का उन्होंने डटकर विरोध किया। छाणी के जमींदार ने तो उनके अहिंसा व्याख्यान से प्रभावित होकर अपने राज्य में सदैव के लिए हिंसा का निषेध करा दिया था और अहिंसा धर्म अंगीकार कर लिया था।
आचार्य पर घोर उपसर्ग हुए, जिन्हें उन्होंने समताभाव से सहा। उन्होंने 'मूलाराधना, 'आगमदर्पण', 'शान्तिशतक', 'शान्ती सुधसागर' आदि ग्रन्थों का संकलन/प्रणयन किया, जिन्हें समाज ने प्रकाशित कराया, जिससे आज हमारी श्रुत परम्परा सुरक्षित और वृद्धिगत है। ज्येष्ठ बदी दशमी वि•स• 2001 (17 मई सन् 1944) सागवाड़ा (राजस्थान) में आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज (छाणी) का समाधिमरण हुआ।
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इनके अनेक शिष्य हुए, जिनमें आचार्य सूर्यसागर जी बहुश्रुत विद्वान थे । आचार्य सूर्यसागर जी का जन्म कार्तिक शुक्ला नवमी वि०स० 1940 ( सन् 1883) में प्रेमसर, जिला ग्वालियर (म०प्र०) में हुआ था । वि०स० 1981 (सन् 1924) में ऐलक दीक्षा इन्दौर में, तत्पश्चात 51 दिन बाद मुनि दीक्षा हाट पिपल्या जिला मालवा (म०प्र०) में आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ( छाणी) से प्राप्त की । दिगम्बर जैन परम्परा से जैन साहित्य को सुदृढ़ एवं स्थायी बना सके हैं। आचार्य सूर्यसागर जी उनमें से एक थे। उन्होंने लगभग 35 ग्रन्थों का संकलन / प्रणयन किया और समाज ने उन्हें प्रकाशित कराया। 'संयमप्रकाश' उनका अद्वितीय वृहत ग्रन्थ है, जिसके दो भागों (दस किरणों) में श्रमण और श्रावक के कर्तव्यों का विस्तार से विवेचन है । संयमप्रकाश सचमुच में संयम का प्रकाश करने वाला है, चाहे श्रावक का संयम हो चाहे श्रमण का | वि०स० 2001 (14 जुलाई 1952 ) में डालमिया नगर (बिहार) में उनका समाधिमरण हुआ ।
परम्परा के तीसरे आचार्य 108 श्री विजयसागर जी महाराज का जन्म वि०स० 1938 माघ सुदी 8 गुरूवार (सन् 1881 ) में सिरोली ( म०प्र०) में हुआ था। इन्होंने इटावा (उ०प्र०) में क्षुल्लक दीक्षा एवं मथुरा (उ०प्र०) में ऐलक दीक्षा ग्रहण की थी तथा मारोठ (राजस्थान) में आचार्य श्री सूर्यसागर जी से मुनि दीक्षा ली थी। आचार्य सूर्यसागर जी का आचार्य पद पूज्य मुनि श्री विजयसागर महाराज को लश्कर में दिया गया था । आचार्य विजयसागर जी महाराज परम तपस्वी वचनसिद्ध आचार्य थे। कहा जाता है कि एक गांव में खारे पानी का कुंआ था, लोगों ने आचार्य श्री से कहा कि हम सभी ग्रामवासियों को खारा पानी पीना पड़ता है, आचार्य श्री ने सहज रूप से कहा, "देखो पानी खारा नहीं मीठा है", उसी समय कुछ लोग कुएं पर गये और आश्चर्य पानी खारा नहीं मीठा था। आपके ऊपर उपसर्ग आये, जिन्हें आपने शान्तीभाव से सहा, आपका समाधि मरण वि०स० 2019 (20 दिसम्बर 1962 ) में मुरार (ग्वालियर) में हुआ ।
आचार्य विजयसागर जी के शिष्यों में आचार्य विमलसागर जी सुयोग्य शिष्य हुए। आचार्य विमल सागर जी का जन्म पौष बदी शुक्ला द्वितीया वि०स० 1948 (सन् 1891) में ग्राम मोहना, जिला ग्वालियर (म०प्र०) में हुआ था। आपने क्षुल्लक दीक्षा एवं मुनि दीक्षा (वि०स० 2000 में) आचार्य श्री विजयसागर जी महाराज से ग्रहण की। आप प्रतिभाशाली आचार्य थे। आपके सदुपदेश से अनेकों जिनालयों का निर्माण और जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा हुई । आपके सान्निध्य में अनेक पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं व गजरथ महोत्सव सम्पन्न हुए । भिण्ड नगर को आपकी विशेष देन है। आपका जन्म मोहना ( म०प्र०) में तथा पालन-पोषण पीरोठ में हुआ, अतः आप 'पीरोठवाले महाराज' साथ ही भिण्ड नगर में अनेक जिनबिम्बों की स्थापना कराने के कारण भिण्ड वाले महाराज' के नाम से विख्यात रहे हैं। आचार्य विजय
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जी ने अपना आचार्य पद विमलसागर जी महाराज (भिण्ड) को सन् 1973 में हाड़ौती जिले में दिया।
आचार्य विमलसागर जी ने अनेक दीक्षाएं दी उनके शिष्यों में आचार्य सुमतिसागर जी, आचार्य निर्मल सागर जी, आचार्य कुन्थुसागर जी, मुनि ज्ञानसागर जी आदि अतिप्रसिद्ध हैं। आचार्य विमलसागर जी महाराज ने अपना आचार्य पद ब्र ईश्वरलाल जी के हाथ पत्रा द्वारा सुमतिसागर जी को दिया था। आचार्य विमलसागर जी महाराज का समाधिमरण 13 अप्रैल 1973 (वि•स• 2030) में सांगोद, जिला कोटा (राजस्थान) में हुआ था।
आचार्य शान्तिसागर जी महाराज (छाणी) परम्परा के पांचवे आचार्य श्री सुमति सागर जी महाराज का जन्म वि.स. 1974 (सन् 1917) आसोज शुक्ला चतुर्थी को ग्राम श्यामपुरा जिला मुरैना (म.प्र.) में हुआ था। आपने ऐलक दीक्षा वि•स• 2025 चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को रेवाडी (हरियाणा) में मुनि दीक्षा वि.स. 2025
अगहन बदी द्वादशी (सन् 1968) में गाजियाबाद (उ.प्र.) में ग्रहण की। आचार्य सुमतिसागर जी कठोर तपस्वी और आर्षमार्गानुयायी थे। आपने अनेक कष्टों और आपदायों को सहने के बाद दिगम्बरी दीक्षा धारण की थी। आपके जीवन में अनेक उपसर्ग और चमत्कार हुए। पंडित मक्खनलाल जी मुरैना जैसे अद्भुत विद्वानों का संसर्ग आपको मिला। आप मासोपवासी कहे जाते थे। आपके उपदेश से अनेक आर्षमार्गानुयायी ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ। सोनागिर स्थित त्यागी व्रती आश्रम आपकी कीर्तिपताका पफहरा रहा है। आपने शताधिक दीक्षाएं अब तक प्रदान की थी। आपके प्रसिद्ध शिष्यों में उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज प्रमुख है। ऐसे आचार्यों, उपाध्यायों, मुनिवरों, गुरुवरों को शत्-शत् नमन, शत्-शत् वन्दन।
सन् 1957 ई. में मध्य प्रदेश के मुरैना शहर में उपाध्याय जी का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम श्री शान्तिलाल जी एवं माता का नाम श्रीमती अशर्फी है। इनके बचपन का नाम उमेश कुमार था। इनके दो भाई और बहने हैं। भाइयों का नाम श्री राकेश कुमार एवं प्रदीप कुमार है तथा बहनों के नाम सुश्री मीना एवं अनिता है। आपने 5.11.1976 को सिद्धक्षेत्र सोनागिर जी में आचार्य श्री सुमतिसागर जी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की थी तथा आपको क्षुल्लक गुणसागर नाम मिला था। 12 वर्षों तक निर्दोष क्षुल्लक की चर्या पालने के बाद आपको आचार्य श्री सुमतिसागर जी महाराज ने 31.3.88 को सोनागिर सिद्धक्षेत्र में मुनि दीक्षा देकर श्री ज्ञानसागर जी महाराज नाम से अलंकृत किया। सरधना में 30-1-89 को आपको उपाध्याय पद प्रदान किया गया। उपाध्यायश्री के चरण-कमल जहां पड़ते हैं वहां जंगल में मंगल चरितार्थ हो जाता है।
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उमेश से उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी महाराज सफरनामा
एक अनेकान्तिक साधक का
एकान्त, एकाग्र और सयंमी जीवन की विलक्षण मानवीय प्रतीति बन कर एक संकल्पशील के रूप में उपाध्याय श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज जब लोक जीवन में अवतरित हुए तो यह धरती उद्भासित हो गयी उनकी तपस्या की प्रभा और त्याग की क्रांति से। त्याग, तितिक्षा और वैराग्य की सांस्कृतिक धरोहर के धनी तीर्थंकरों की श्रृंखला को पल्लवित और पुष्पित करती दिगम्बर मनि परम्परा की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली कड़ी के रूप में पूज्य उपाध्याय श्री ने अपने आभामण्डल से समग्र मानवीय चेतना को एक अभिनव संदृष्टि दी है और संवाद की नई वर्णमाला की रचना करते हुए उन मानवीय आख्यों की संस्थापना की है जिनमें एक तपस्वी के विवेक, एक योगी के संयम और युगचेतना की क्रान्तिदर्शी दृष्टि की त्रिवेणी कासमवा है। गुरुदेव की उपदेश-वाणी प्रत्येक मनुष्य का झंकृत करसही है क्योंकि वह अन्तःस्फूर्त है और है सहज तथा सामान्य - ऊहापोह से मुक्त, सहजग्राह्य और बोधगम्य जो मनुष्य को ज्ञान और पाण्डित्य के अहंकार से मुक्त कर मानवीय सद्भाव का पर्याय बनाने में सतत् प्रवृत्त है। यह वाणी वर्गोदय के विरूद्ध एक ऐसी वैचारिक क्रान्ति है जहाँ सभी के विकास के पूर्ण अवसर हैं, बन्धनों से मुक्ति का अह्वान है, जीवन समभाव है, जाति-समभाव है जो निरन्तर दीपित हो रही हैउनकी जगकल्याणी और जनकल्याणी दीप्ति से।
चम्बल के पारदर्शी नीर और उसकी गहराई ने मुरैना में वि.सं 2014 वैशाख सुदी दोयज को जन्मे बालक उमेश को पिच्छि कमण्डलु की मैत्री के साथ अपने बचपन की उस बुनियाद को मजबूत कराया जिसने उसे निवृत्ति मार्ग का सहज, पर समर्पित पथिक बना दिया। शहर में आने वाले हर साधु-साध्वी के प्रति बचपन से विकसित हुए अनुराग ने माता अशर्फी बाई और पिता शान्तिलाल को तो हर पल सशंकित किया पर बालक उमेश का आध्यात्मिक अनुराग प्रतिक्षण पल्लवित एवं पुष्पित होता गया और इसकी परिणति हुई सन् 1974 में उस प्रतीक्षित फैसले से जब किशोर उमेश ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया, दो वर्षों बाद पांच नवम्बर उन्नीस सौ छिहत्तर को ब्रह्मचारी उमेश ने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की आ. श्री सुमतिसागर जी से। उमेश से रूपान्तरित हुए क्षुललक गुणसागर ने बारह वर्षों तक पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, पं. लक्ष्मीकान्त जी
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झा, पं. बलभद्र जी पाठक, पं. जीवनलाल जी अग्निहोत्री आदि विद्वानों की सान्निधि में न्याय, व्याकरण एवं सिद्धान्त के अनेक ग्रन्थों का चिन्तन-मनन भी सफलतापूर्वक किया।
क्षुल्लक गुणसागर जी की साधना यात्रा ललितपुर, सागर तथा जबलपुर में इस युग के महान सन्त पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की पावन सान्निधि के मध्य धवला की तत्त्व सम्पदा के सागर में अवगाहन करने में समर्पित हुई। दार्शनिक अवधारणों की पौर्वात्य पृष्ठभूमि की गहरी समझ के साथ-साथ क्षुल्लक जी ने पाश्चात्य चिन्तकों के विचारों को भी आत्मसात् किया एवं भाषा तथा साहित्य के ग्रन्थों का भी अध्ययन किया ताकि अपने चिन्तन का नवनीत जनमानस के सम्मुख आसान और बोधगम्य भाषा में वस्तुपरकता के साथ पहुँचाया जा सके। क्षुल्लक जी का निस्पृही, विद्यानुरागी मन जैन दर्शन के गूढ रहस्यों के सन्धान में रत रहा और प्रारम्भ हुआ संवाद का एक नया चरण। चाहे चंदेरी की सिद्धान्त-वाचना हो या ललितपुर की न्याय-विद्या-वाचना या मुंगावली की विद्वत्संगोष्ठी या फिर खनियांधाना की सिद्धान्त-वाचना, प्राचीन अवधारणाओं के नये और सरल अर्थ प्रतिपादित हुए, परिभाषित हुए और हुए संप्रेषित भी जन-जन तक। यह तो प्रज्ञान का प्रभाषित होता वह पक्ष था, जिसकी रोशनी से दिग्-दिगन्त आलोकित हो रहा था। पर दूसरा-तीसरा....चौथा.... न जाने और कितने पथ/आयाम, साथ-साथ चेतना की ऊर्ध्वगामिता के साथ जुड़ रहे थे, साधक की प्रयोग धर्मिता को ऊर्जस्विता कर रहे थे - शायद साधक भी अनजान था अपने आत्म-पुरूषार्थी प्रक्रम से। चाहे संघस्थ मुनियों, क्षुल्लकों, ऐलकों की वैयावृत्ति का वात्सल्य पक्ष हो या तपश्चरण की कठिन और बहुआयामी साधना, क्षुल्लक गुणसागर की आत्म-शोधन-यात्रा अपनी पूर्ण तेजस्विता के साथ अग्रसर रही, अपने उत्कर्ष की तलाश में। .
महावीर जयन्ती के पावन प्रसंग पर इकत्तीस मार्च उन्नीस सौ अठासी को क्षुल्लक श्री ने आचार्य श्री सुमतिसागर जी महाराज से सोनागिर सिद्धक्षेत्र (दतिया म.प्र.) में मुनि धर्म की दीक्षा ग्रहण की और तब आविर्भाव हुआ उस युवा, क्रान्तिदृष्टा तपस्वी का जिसे मुनि ज्ञानासागर के रूप में युग ने पहचाना और उनका गुणानुवाद किया।
साधना के निर्ग्रन्थ रूप में प्रतिष्ठित इस दिगम्बर मुनि ने जहाँ आत्म-शोधन के अनेक प्रयोग किए, साधना के नये मानदण्ड संस्थापित किए, उदात्त चिन्तन की ऊर्जस्वी धारा को प्रवाह मानकर तत्वज्ञान को नूतन व्याख्याओं से समृद्ध किया वहीं पर अपनी करूणा, आत्मीयता और संवेगशीलता को जन-जन तक विस्तीर्ण कर भगवान महावीर की "सत्वेषु मैत्री" की अवधारणा को पुष्पित, पल्लवित
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और संवर्द्धित भी किया। मध्यप्रदेश की प्रज्ञान-स्थली सागर में मुनिराज का प्रथम चातुर्मास, तपश्चर्या की कर्मस्थली बना और यहीं से शुरू हुआ आध्यात्मिक अन्तर्यात्रा का वह अर्थ जिसने प्रत्येक कालखण्ड में नये-नये अर्थ गढ़े और संवेदनाओं की समझ को साधना की शैली में अन्तर्लीन कर तात्विकं परिष्कार के नव-बिम्बों के सतरंगी इन्द्रधनुष को आध्यात्मिक क्षितिज पर प्रतिष्ठित किया।
आगामी वर्षों में मुनि ज्ञानसागर जी ने जिनवाणी के आराधकों से स्थापित किया एक सार्थक संवाद ताकि आगम-ग्रन्थों में निबद्ध रहस्यों को सामान्य जनों तक बोधगम्य भाषा और शैली में सम्प्रेषित किया जा सके। सरधना, शाहपुर, खेकड़ा, गया, रांची, अम्बिकापुर, बड़ागांव, दिल्ली, मेरठ, अलवर, तिजारा, मथुरा आदि स्थानों पर विद्वत्-संगोष्ठियों के आयोजनों ने बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों के जहां एक ओर उत्तर खोजे वहीं दूसरी और शोध एवं समीक्षा के लिए नये सन्दर्भ भी परिभाषित किये। अनुपलब्ध ग्रन्थों के पुनर्प्रकाशन की समस्या को इस ज्ञान-पिपासु ने समझा परखा और सराहा। इस क्षेत्र में गहन अभिरूचि के कारण सर्वप्रथम बहुश्रुत श्रमण परम्परा के अनुपलब्ध प्रामाणिक शोध-ग्रन्थ स्व. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा सर्जित साहित्य सम्पदा, "तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा" (चारों भाग) के पुनर्प्रकाशन की प्रेरणा की, जिसे सुधी श्रावकों ने अत्यल्प समयावधि में परिपूर्ण भी किया।
पुनर्प्रकाशन यह अनुष्ठान श्रमण-परम्परा पर काल के प्रभाव से पड़ी धूल को हटा कर उन रत्नों को जिनवाणी के साधकों के सम्मुख ला रहा है जो विस्मृत से हो रहे थे। पूज्य गुरूदेव की मंगल प्रेरणा से प्राच्य श्रमण भारती, मुज़फ्फरनगर (उ.प्र.) के अवधान में पाचास से अधिक ग्रन्थों का प्रकाशन/पुनर्प्रकाशन, लगभग चार वर्षों की अल्पावधि में हुआ है, जिसमें तिलोयपण्णती, जैनशासन, जैनधर्म आदि अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस क्रम को गति देते हुए पूज्य उपाध्याय श्री ने आधुनिक कालखण्ड में भुला दिये गये संतों एवं विद्वानों के कृतित्व से समाज को परिचित कराने का भी गुरूकार्य किया है, जिसकी परिणति स्वरूप आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ है, जिसके प्रकाशन से एक ओर विस्मृत से हो रहे उस अत्यन्त पुरातन साधक से समाज का परिचय हुआ, जिसने सम्पूर्ण भारत में दिगम्बर श्रमण परम्परा को उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अभिवृद्धि करने का गुरू-कार्य किया था, तो दूसरी ओर उनकी समृद्ध एवं ष्टशस्वी शिष्य परम्परा से भी समाज को रू-बरू कराया। सुप्रसिद्ध जैनदर्शन-विद स्व. पं. महेन्द्र कुमार जैन न्यायाचार्य की स्मृति में एक विशाल स्मृति-ग्रन्थ के प्रकाशन की प्रेरणा कर मात्र एक जिनवाणी-आराधक का गुणानुवाद ही नहीं हुआ, प्रत्युत नयी पीढ़ी को उस महान साधक के अवदानों से परिचित भी कराने का अनुष्ठान पूर्ण हुआ। इस
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श्रृंखला में स्व. डॉ. हीरालाल जी जैन, स्व. डॉ. ए.एन. उपाध्ये आदि विश्रुत विद्वानों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर शोधपरक संगोष्ठियों की आयोजना के प्रस्तावों को पूज्य श्री ने एक ओर अपना मंगल आशीर्वाद दिया है दूसरी ओर जैन पुरातत्व के गौरवशाली पन्नों पर प्राचीन भारतीय इतिहासवेत्ताओं एवं पुरातत्त्वविदों को कंकाली टीले, मथुरा और कुतुबमीनार के अनबूझ रहस्यों की परतों को. कुरेदने और उसकी वैभव सम्पदा से वर्तमान का परिचय कराने जैसा ऐतिहासिक कार्य भी पूज्य गुरुवर के मंगल आशीर्वाद से ही संभव हो सका है।
इस तप:पूत ने वैचारिक क्रान्ति का उद्घोष किया है इस आशा और विश्वास के साथ कि आम आदमी के समीप पहुँचने के लिए उसे उसकी प्रतिदिन की समस्याओं से मुक्ति दिलाने के उपाय भी संस्तुति करने होंगे। तनावों से मुक्ति कैसे हो, व्यसन मुक्त जीवन कैसे जिएं, पारिवारिक सम्बन्धों में सौहार्द कैसे स्थापित हो तथा शाकाहार को जीवन-शैली के रूप में कैसे प्रतिष्ठापित किया जाय, आदि यक्ष प्रश्नों को बुद्धिजीवियों, प्रशासकों, पत्रकारों, अधिवक्ताओं, शासकीय, अर्द्ध-शासकीय एवं निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों व अधिकारियों, व्यवसायियों, छात्रों-छात्राओं आदि के साथ परिचर्चाओं, कार्यशालाओं, गोष्ठियों के माध्यम से उत्तरित कराने के लिए एक ओर एक रचनात्मक संवाद स्थापित किया तो दूसरी ओर श्रमण संस्कृति के नियामक तत्वों एवं अस्मिता के मानदण्डों से जन-जन को दीक्षित कर उन्हें जैनत्व की उस जीवन शैली से भी परिचित कराया जो उनके जीवन की प्रामाणिकता को सर्वसाधारण के मध्य संस्थापित करती है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की अनुभव सम्पन्न प्रज्ञान सम्पदा को, गुरुवंर ने आपदमस्तक झिंझोड़ा है, जिसकी अद्यतन प्रस्तुति अतिशय क्षेत्र तिजारा में आयोजित जैन चिकित्सकों की विशाल संगोष्ठी थी जिसमें भारत के सुदूरवर्ती प्रदेशों से आये साधर्मी चिकित्सक बन्धुओं ने अहिंसक चिकित्सा पद्धति के लिये एक कारगर कार्ययोजना को ठोस रूप दिया और सम्पूर्ण मानवता की प्रेमपूण सेवा के लिये पूज्य श्री की सन्निधि में अपनी वचनबद्धता को रेखांकित किया, जो श्लाघ्य है स्तुत्य है। __पूज्य श्री ने समाज को एक युगान्तर बोध कराया-भूले बिसरे सराक भाइयों को समाज की मुख्य-धारा में जोड़कर सराक भाइयों के बीच अरण्यों में चातुर्मास कर उनके साथ संवाद स्थापित किया, उनकी समस्याओं को समझा-परखा और समाज का आह्वान किया, उनको अपनाने के लिये। पूज्य श्री की प्रेरणा से सराकोत्थान का एक नया युग प्रारम्भ हुआ है जिसके कुछ प्रतीक है उस क्षेत्र में निर्मित हो रहे नये जिनालय तथा सराक केन्द्र एवं औषाधालय ·आदि जहाँ धार्मिक तथा लौकिक शिक्षण की व्यवस्था की जा रही है।
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इस आदर्श तपस्वी और महान विचारक के द्वारा धर्म के वास्तविक स्वरूप की प्रतिष्ठा एवं रूढ़ियों के समापन में सन्नद्ध सत्य की शाश्वतता के अनुसंधि त्सुओं/जिज्ञासुओं के प्रति अनुराग के प्रति सभी नतमस्तक हैं। जिनवाणी के आराधकों को उनके कृतित्व के आधार पर प्रतिवर्ष श्रुत संवर्द्धन संस्थान के अवधान में सम्मानित करने की योजना का क्रियान्वयन पूज्य उपाध्याय श्री के मंगल आर्शीवाद एवं प्रेरणा से सम्भव हो सका है। यह संस्थान प्रतिवर्ष श्रमण परम्परा के विभिन्न आयामों में किये गये उत्कृष्ट कार्यों के लिये पांच वरिष्ठ जैन विद्वानों को इकतीस हजार रूपयों की राशि से सम्मानित कर रहा है। संस्थान के उक्त प्रयासों की भूरि-भूरि सराहना करते हुए बिहार के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम श्री सुन्दरसिंह जी भण्डारी ने तिजारा में पुरस्कार समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा था कि विलुप्त हो रही श्रमण परम्परा के साधकों के प्रज्ञान गुणानुवाद की आवश्यकता को इस तपोनिष्ठ साधक ने पहचान कर तीर्थंकर महावीर की देशना को गौरवमण्डित करने में महायज्ञ में जो अपनी समिधा अर्पित की है वह इस देश के सांस्कृतिक इतिहास का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रेरक प्रसंग है, जिसके प्रति युगों-युगों तक इस देश की बौद्धिक परम्परा ऋणी रहेगी। गुणानुवाद के प्रतिष्ठापन के इस प्रक्रम को अधिक सामयिक बनाने के उद्देश्य से श्रमण परम्परा के चतुर्दिक विकास में सम्पूर्णता में किये गये अवदानों के राष्ट्रीय स्तर पर किय गये आकलन के आध पर पर एक लाख रूपयों की राशि के पुरस्कार का आयोजन इक्कीसवीं सदी की सम्भवतः पहली रचनात्मक श्रमण घटना होगी। पूज्य गुरूदेव का मानना है कि प्रतिभा और संस्कार के बीजों को प्रारम्भ से ही पहचान कर संवर्द्धित किया जाना इस युग की आवश्यकता है। इस सुविचार को राँची से प्रतिभा सम्मान समारोह के माध्यम से विकसित किया गया जिसमें प्रत्येक वय के समस्त प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं का सम्मान, बिना किसी जाति/धर्म के भेद-भाव के किया गया। गुणानुवाद की यह यात्रा गुरुदेव के बिहार से विहार के साथ प्रत्येक ग्राम, जनपद
और नगरमें विहार कर रही है और नयी पीढ़ी को विद्यालयों से विश्वविधालयों तक प्रेरित कर रही है, स्फूर्त कर रही है।
परम पूज्य उपाध्याय 108 श्री ज्ञानसागर जी महाराज वर्तमान युग के एक ऐसे युवा दृष्टा, क्रान्तिकारी विचारक, जीवन-सर्जक और आचारनिष्ठ दिगम्बर संत हैं जिनके जनकल्याणी विचार जीवन की आत्यांतिक गहराइयों, अनुभूतियों एवं साधना की अनन्त ऊंचाइयों तथा आगम प्रामाण्य से उद्भूत हो मानवीय चिन्तन के सहज परिष्कार में सन्नद्ध हैं। पूज्य गुरूदेव के उपदेश हमेशा जीवन-समस्याओं/सन्दर्भो की गहनतम गुत्थियों के मर्म का संस्पर्श करते हैं, जीवन को उनकी समग्रता में जानने और समझने की कला से परिचित कराते हैं।
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उनके साधनामय तेजस्वी जीवन को शब्दों की परिधि में बाँधना सम्भव नहीं है, हाँ उसमें अवगाहन करने की कोमल अनुभूतियाँ अवश्य शब्दतीत हैं। उनका चिन्तन फलक देश, काल, सम्प्रदाय, जाति, धर्म-सबसे दूर, प्राणिमात्र को समाहित करता है, एक युग बोध देता है, नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा देता है, वैश्विक मानव की अवधारणा को ठोस आधार देता है जहाँ दूर-दूर तक कहीं भी दुरूहता नहीं है, जो है, वह है, भाव-प्रवणता, सम्प्रेषणीयता और रत्नत्रयों के उत्कर्ष से विकसित हुआ उनका प्रखर तेजोमय व्यक्तित्व, जो बन गया है करूणा, समता और अनेकान्त का एक जीवन्त दस्तावेज।
पूज्य उपाध्याय श्री का जीवन, क्रान्ति का श्लोक है, साधना और मुक्ति का दिव्य छन्द है तथा है मानवीय मूल्यों की वन्दना एवं जन-चेतना के सर्जनात्मक परिष्कार एवं उनके मानसिक सौन्दर्य एवं ऐश्वर्य के विकास का वह भागीरथ प्रयत्न जो स्तुत्य है, वंदनीय है और है जाति, वर्ग, सम्प्रदाय भेद से परे पूरी इन्सानी जमात की बेहतरी एवं उसके बीच “सत्वेषु मैत्री" की संस्थापना को समर्पित एक छोटा, पर बहुत स्थिर और मजबूती भरा कदम। गुरूदेव तो वीतराग साधना पथ के पथिक हैं, निरामय हैं, निर्ग्रन्थ हैं, दर्शन, ज्ञान और आचार की त्रिवेणी हैं। वे क्रान्तिदृष्टा हैं और परिष्कृत चिन्तन के विचारों के प्रणेता हैं। महाव्रतों की साधना में रचे-बसे उपाध्याय श्री की संवेदनाएं मानव मन की गुत्थियों को खोलती हैं और तन्द्रा में डूबे मनुज को आपाद-मस्तक झिंझोड़ने की ताकत रखती हैं। परम पूज्य उपाध्याय श्री के सन्देश युगों-युगों तक सम्पूर्ण मानवता का मार्गदर्शन करें, हमारी प्रमाद-मूर्छा को तोड़ें, हमें अन्धकार से दूर प्रकाश के उत्स के बीच जाने को मार्ग बताते रहें, हमारी जड़ता की इति कर हमें गतिशील बनाएं, सभ्य, शालीन एवं सुसंस्कृत बनाते रहें, यही हमारे मंगलभाव हैं, हमारे चित्त की अभिव्यक्ति है, हमारी प्रार्थना है।
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आशीर्वचन
हमारे अन्तस में व्याप्त संस्कृति की रचना और विकास की चिरन्तन धारा, आदान-प्रदान के माध्यम से वृद्धिगंत हो सतत् प्रवाहमान होती रहती है। यह मन, आचार और रुचियों का परिष्कार कर अन्तःकरण की परिशुद्धि तथा उसे जाग्रत करने के उपक्रम में सन्नद्ध भी रहती है। मोहनजोदड़ो हड़प्पा आदि की सभ्यता से भारत की सामासिक संस्कृति, समृद्ध रूप से उद्भूत हो आर्यो तथा द्रविड़ों के समन्वित योगदान की साक्षी रही है। इस विकास - यात्रा को गति देने का गुरु- कार्य किया है भाषा ने और उसे जीवन्त किया है उसमें रचे जाने वाले साहित्य ने। धार्मिक भावनाओं से प्रेरित हुए साहित्य सर्जन के अनगिनत बिम्ब, काल के प्रवाह में उभरे हैं जिससे साहित्य की आध्यात्मिकता, नैतिक विन्यास एवं व्यावहारिक उपयोगिता तथा सन्तुलन, अपने प्रशस्त रूपों में सहजता से प्रतिष्ठित हो सके हैं। साहित्याकाश में जैन साहित्य का उज्ज्वल नक्षत्र, प्रकृति में जड़ और चेतन तत्वों की सत्ता को स्वीकार कर चेतन को जड़ से उठाने और परमतत्व की प्राप्ति की कला के प्रतिपादन की मौलिकता को उद्भासित करता एक मात्र अनूठा और अनुपम प्रकाशपुंज है, क्योंकि विश्व के अनादि - अनन्त प्रवाह में जड़ चेतन रूप द्रव्यों के नाना रूपों और गुणों के विकास के लिये इस दर्शन में ईश्वरीय इच्छा एवं अधीनता को स्वीकार नहीं किया गया, प्रत्युत जीव और अजीव तत्वों के परिणामी नियत्व गुण के समवाय द्वारा ही समस्त विकार और विकास के उत्पाद - व्यय ध्रौव्यात्मक स्वरूप की द्रव्य-गुण- पर्यायमूलक पहचान को रेखांकित कर व्यक्ति स्वातन्त्रय को दार्शनिक चिन्तन के प्राणरूप में समाहित किया गया है। यही कारण है कि जैन वाङ्मय का समेकित अनुशीलन, लौकिक एवं लोकोत्तर विवेचन, भारतीय संस्कृति के विकास में जैन संस्कृति के अवदानों के विराट स्वरूप को आदर पूर्वक प्रतिष्ठापित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने के अतिरिक्त काल - चिन्तन को एक निर्णायक मोड़ पर ला सकने में भी सफल हो सका है।
“ भारतीय संस्कृति के विकास में जैन संस्कृति का अवदान' एक कालजयी श्रुत - आराधक स्व० प्रो० डा० नेमिचन्द्र शास्त्री की अहर्निश श्रुत साधना की फलश्रुति है, जो उनकी बहुमुखी प्रतिभा के चतुर्मुखी विस्तार
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के अनेक बिम्ब बिखेरती है। स्व० प्रो० शास्त्री एक संलेखक थे एवं संस्कृत, प्राकृत तथा हिन्दी भाषाओं पर समान अधिकार रखते थे। भगवान महावीर के पच्चीससौवें निर्वाणोत्सव के शुभ अवसर पर उन्होंने “ तीर्थंकार महावीर और उनकी आचार्य परम्परा" नामक एक ऐतिहासिक कृति की रचना की जिसके चार खण्डों में मुनि परम्परा के सम्पूर्ण इतिहास को बड़ी गहराई से उन्होंने अभिलेखित किया है। यह ग्रन्थ अ०भा०दि० जैन, विद्वत्परिषद द्वारा प्रकाशित किया गया था। इसकी अनुपलब्धता को देखते हुए एवं नई पीढ़ी को परम्पराजन्य प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से, इस महाग्रन्थ के चारों भागों को पुनप्रकाशित कराने की योजना, मेरे गया के वर्षायोग के समय, रखी गयी थी। मुझे प्रसन्नता है कि गया तथा रफीगंज जैन समाज एवं शांतिसागर छाणी ग्रन्थमाला ने इस गुरुकार्य को निष्ठापूर्वक सम्पन्न किया। प्रो० शास्त्री के विशाल रचना संसार में से कुछ प्रतिनिधि लेखों को भी चयनित कर अ०भा०दि० जैन विद्वत्परिषद ने दो खण्डों में उपरोक्त वर्णित शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित किया था। इस पुस्तक के प्रथम खण्ड में भाषा - विज्ञान, साहित्य तथा जैन धर्म-दर्शन से सम्बन्धित इकतीस शोध आलेख संकलित किये गये हैं एवं द्वितीय खण्ड में जैन न्याय एवं तत्व मीमांसा, जैन तीर्थ, इतिहास, कला संस्कृति एवं राजनीति, भक्ति, संगीत एवं ललित कलायें तथा ज्योतिष एवं गणित से सम्बन्धित सैंतीस शोध लेखों का समवाय किया गया है। विलक्षण प्रतिभा के धनी डा० शास्त्री का साहित्य प्रणयन संस्कृति, साहित्य भाषा दर्शन आदि के क्षेत्र में शोध के नये मार्गो का उद्घाटन करता है एवं करता है श्रुत-आराधन/चिन्तन/मनन तथा मौलिक प्रणयन के नये आयामों की खोज भी। एक समर्पित विद्वान की सर्जना का यह कालजयी संसार जिनवाणी के आराधकों की नयी पीढ़ी को प्रेरणा दे एवं शोध के नित नए मार्गो को प्रशस्त कर सम्पूर्ण भारतीय साहित्य संसार की श्री वृद्धि के लिए एक प्रेरक प्रसंग बन सके, ऐसी मेरी भावना है। इस शुभ कार्य के लिये मेरे मंगल आशीर्वाद हैं।
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उपाध्याय ज्ञानसागर
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प्रकाशकीय
श्रमण संस्कृति को उसकी समग्रता में जानने समझने और जन-जन तक सम्प्रेषण के युगान्तर बोध के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करती यह संस्था, प्राच्य श्रमण भारती, तीर्थंकर महावीर की देशना को गौरवमण्डित करने के महायज्ञ में अपने सम्पूर्ण जीवन को समिधा रूप अर्पित करने वाले, इस देश के साहित्यक एवं सांस्कृतिक इतिहास के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण हस्ताक्षर स्व. प्रो० (डॉ.) नेमिचन्द्र शास्त्री के कतिपय महत्वपूर्ण शोध आलेखों के प्रकाशन की प्रस्तुति कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रही है। प्राच्य श्रमण भारती ने वैचारिक परिष्कार एवं श्रुत साधकों से संवाद को अपने चिन्तन फलक पर प्राथमिकता के स्तर पर प्रतिष्ठापित किया है ताकि आगम-ग्रन्थों में निबद्ध रहस्यों को सामान्य जनों तक बोधगम्य भाषा और शैली में सम्प्रेषित किया जा सके एवं शोध-मीमांसा तथा समीक्षा के नूतन सन्दर्भो को रेखांकित किया जा सके। श्रमण परम्परा के उदात्त चिन्तन की ऊर्जस्वी धारा का तत्वज्ञानमयी प्रवाह यदि निर्बाध गति से संचारित हो सका है तो उसका सम्पूर्ण श्रेय अपने प्रेरणा-स्तम्भ, आदर्श तपस्वी और महान विचारक, आचारनिष्ठ दिगम्बर साधक परमपूज्य उपाध्याय श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज को जाता है जिनके मौलिक चिन्तन का सार जीवन की आत्यातिक गहराइयों, अनुभूतियों एवं साधना की अनन्त ऊँचाइयों का संस्पर्श करता है तथा आगम-प्रामाण्य से उद्भूत हो मानवीय चिन्तन के सहज परिष्कार में सतत्/सदैव सन्नद्ध हो रहा है। वीतराग साधना-पथ के इस निरामय, निर्ग्रन्थ पथिक का रत्नत्रयों के उत्कर्ष से विकसित हुआ क्रान्तिदृष्टा जीवन, दर्शन, ज्ञान
और आचार की एक ऐसी त्रिवेणी है जिसमें अवगाहन करने की अनुभूतियाँ शब्दातीत हैं। गुरुदेव का चिन्तन फलक देश, काल, सम्प्रदाय, जाति, धर्म-सबसे दूर प्राणिमात्र को समाहित करता है, ए युगबोध देता है, नैतिक जीवन जीने को अभिप्रेरित करता है और वैश्विकता के उदात्त चिन्तन को प्रशस्त करता है। मुनिराज जहाँ आत्म-शोधन के नित-नए प्रयोगों में सन्नद्ध हैं वहीं जिनवाणी के आराधकों से सहज-सार्थक संवाद को प्रतिपल सशक्त करने हेतु भी संकल्पित हैं और तत्वज्ञान की ऊर्जस्वी चिन्तन-धारा को अपनी करूणा, आत्मीयता और संवेदनशीलता की त्रिवेणी से अभिसिंचित कर भगवान महावीर की सत्वेषु मैत्री की अवधारणा को पुष्पित, पल्लवित और संवर्धित करते हुए अखिल विश्व के जन-जन तक विस्तीर्ण कर रहे हैं। उनकी आध्यात्मिक अन्तर्यात्रा नूतन अर्थों और प्रतिमानों का विन्यास तो रचती/गढ़ती ही है, मानवीय संवेदनाओं की व्यापक
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वस्तुपरक समझ को साधना की शैली में अन्तर्लीन कर तात्विक परिष्कार के नव-बिम्बों की इन्द्रधनुषी छटा के सौन्दर्य को आध्यात्मिक क्षितिज पर भी बिखेर रही है।
पूज्य गुरुदेव की मंगल प्रेरणा से प्रकाशित हो रही प्रस्तुत कृति स्व. प्रो. (डॉ.) नेमिचन्द्र शास्त्री के बहुमुखी प्रतिभाशाली एवं बहुआयामी व्यक्तित्व की सर्जनाशीलता से पाठकों को परिचित कराती है। प्रो. (डॉ.) शास्त्री का चिन्तन फलक साहित्य, कला, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष आदि विषयों को अपने प्रामाणिक रूप में संजोता है। इन क्षेत्रों में उन्होंने मौलिक ग्रन्थों का सृजन किया है, भारतीय ज्योतिष, तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, संस्कृत गीतिकाव्यानुचिन्तनम्, महाकवि भास, संस्कृत काव्यों के विकास में जैन कवियों का योगदान, मंगलमन्त्र णमोकारः एक अनुचिन्तन, आचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासन, भद्रबाहु संहिता, हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, केवलज्ञान प्रश्न चूड़ामणि आदि उनकी ऐसी रचनाएँ हैं जो भारतीय साहित्याकाश में कालजयी हैं। स्व० (प्रो०) (डॉ.) शास्त्री ने अपनी प्रखर-प्रांजल तेजस्विनी लेखनी के माध्यम से भारत की समस्त उज्ज्वलताओं का अभिमन्थन कर अपनी सर्जना से सम्पूर्ण बौद्धिक विश्व को एक नया विश्वास, नयी आशा, अभिनव आस्था और चिरस्मरणीय प्रेरणा दी है। श्रमण संस्कृति की उस परमोज्ज्वला धारा के इस अनुकरणीय साधक की, जिसे काल ने हमसे मात्र चौवन वर्षों के अनन्तर ही छीन लिया, अप्रतिम गौरव-गाथा को हमारी संस्था आदर पूर्वक प्रणाम करती है और उनका अपनी सम्पूर्ण निष्ठा, आत्मीयता, शोभा-शालीनता के साथ सम्मान करते हुए प्रमुदित है। साथ ही पूज्य गुरुदेव के प्रति यह संस्था पुनः-पुनः आदर व्यक्त करती है कि उन्होंने इस तत्वदर्शी चिन्तक, वाग्मी, श्रुत-आराधक के कालजयी शोधालेखों के प्रकाशन की मंगल प्रेरणा दी एवं इस हेतु हमें अपने मंगल आशीष से अभिसिंचित भी किया।
सुधी पाठकों के हाथों में यह कृति समर्पित है। पूज्य उपाध्याय श्री का मंगल मार्गदर्शन हमारी संस्था को प्राप्त होता रहे एवं जन-चेतना के सर्जनात्मक परिष्कार एवं उसके मानसिक सौन्दर्य के विकास हेतु हमारे प्रयासों को सतत् मार्ग मिलता रहे, यही हमारे चित्त के मंगल भाव हैं।
प्राच्य श्रमण भारती
मुजफ्फरनगर
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श्री दिगम्बर जैन मन्दिर कृष्णा नगर दिल्ली का इतिहास - एक नजर में
श्री मन्दिर जी का शिलान्यास 28 जनवरी 1972 तथा 10 सितम्बर 1972 को एक अस्थाई कमरा बना कर दो प्रतिमायें श्री महावीर भगवान एवं पार्श्वनाथ भगवान की स्व० श्री मित्रसैन जी के सहयोग से बर्फखाना सब्जीमंडी के मन्दिर जी से लाकर अस्थाई विराजमान की गई। उस समय के संस्थापक सदस्य सर्वश्री धर्मवीर जैन, पूरण चन्द्र जैन, अजित प्रसाद जैन, मदन लाल जैन, चन्द्र प्रकाश जैन, सलेख चन्द्र जैन, प्रेमचन्द्र जैन, महीपाल सिंह जैन, सनत कुमार जैन, सुभाष चन्द्र जैन, प्रधुमन कुमार जैन, वीरेन्द्र कुमार जैन, अशोक कुमार जैन, आर० के० जैन, एवम् राजेन्द्र प्रसाद जैन थे। इनके आर्थिक सहयोग से तथा कर्मठता से चैत्यालय की स्थापना हो पायी । 28 फरवरी 1974 को चैत्यालय में श्री सिद्धचक्र विधान का पाठ आयोजित किया गया जिसका समापन एक चमत्कारिक ढंग से सम्पन्न हुआ। प्रत्यक्षदर्शी इसके साक्षी हैं। इसके पश्चात् भी अनेकों चमत्कार इस क्षेत्र में देखे गये। 12 मई 1974 को नीचे के हाल का शिलान्यास किया गया तथा शिखर बंद श्री मन्दिर जी का निर्माण अनेकों कार्यकर्ताओं तथा अनेकों बंधुओं के आर्थिक सहयोग से सम्पन्न हुआ। 14 फरवरी से 19 फरवरी 1980 को वेदी प्रतिष्ठा के माध्यम से श्री महावीर भगवान की अतिशयमयी प्रतिमा मूल नायक के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी। पहली मंजिल पर स्थाई वेदी में भगवान विराजमान होने पर दर्शनार्थीयों का तांता लग गया। पहली मंजिल के हाल में कांच का काम भी करा दिया गया जिससे वह कांच का मन्दिर कहलाने लगा। समाज के बुजुर्गों को ध्यान में रखते हुये नीचे के इनमें छोटी वेदी का निर्माण करा दिया गया तथा पंच कल्याणक मार्च 1995 में उपाध्याय श्री गुप्तिसागर जी महाराज के सान्निध्य में कराया गया जिसे प० गुलाब चन्द्र 'पुष्प' के द्वारा वि
विधान से सम्पन्न कराया। इसी बीच श्री मन्दिर जी के बराबर में एक अतिथि भवन का निर्माण भी हो चुका था । यह भवन बहुत छोटा था इस कारण से बराबर में समाज ने और जगह लेकर तीन मंजिल का अतिथि भवन जिसमें 10-10 कमरे सुव्यवस्थित ढंग से
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बनाये गये। जिसके बनाने में समाज के प्रधान तथा कर्मठ कार्यकर्ता श्री महेन्द्र कुमार जी का विशेष योगदान रहा। मैं संस्थापक सदस्य से लेकर आज तक श्री मन्दिर जी की सभी गतिविधियों में सक्रिय रूप से जुड़ा रहा। इस प्रकार से यमुनापार में कृष्णा नगर दिगम्बर जैन मंदिर का एक विशेष स्थान है।
श्री मन्दिर जी के चमत्कार का ही प्रभाव था कि श्री मन्दिर जी की दो प्रतिमायें कृष्णा नगर मन्दिर से चोरी हो गयी थी जो चमत्कारिक ढंग से बरामद हो गई यहाँ पर करीब पचास-साठ पुजारी प्रतिदिन पूजा करते हैं तथा अनेकों विधान समय-समय पर किये जाते हैं।
भवदीय
चन्द्रप्रकाश जैन
महामन्त्री जैन समाज
कृष्णा नगर
नोट : परम पूज्य उपाध्याय श्री 108 ज्ञान सागर महाराज की प्रेरणा से कृष्णा नगर जैन समाज की ओर से यह शास्त्र छपवा कर भेंट किया।
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वर्तमान कृष्णा नगर जैन समाज
कार्यकारिणी
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प्रधान
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उपप्रधान उपप्रधान मंत्री उपमंत्री कोषाध्यक्ष प्रबंधक सदस्य
सदस्य
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श्री महेन्द्र कुमार जैन श्री विनय कुमार जैन
श्री नरेन्द्र कुमार जैन 4. श्री चन्द्र प्रकाश जैन 5. श्री जे.के. जैन 6. श्री अनिल कुमार जैन 7. श्री अरहंत कुमार जैन 8. श्री सुभाष चन्द्र जैन । 9. श्री किशोर जैन 10. श्री महेश चन्द्र जैन
श्री सुरेश चन्द्र जैन (साड़ी वाले) 12. श्री राजेश कुमार जैन
श्री मदन सैन (आ. नगर) 14. श्री मदन सैन (राधे पुरी)
श्री अशोक कुमार जैन 16. श्री वीर सैन जैन
___ श्री रमेश चन्द्र जैन 18. श्री प्रवीण कुमार जैन 19. श्री राकेश कुमार जैन 20. श्री सुनील कुमार जैन 21. श्री शील चन्द्र जैन
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अन्तर्ध्वनि
स्व० डॉ० श्री नेमिचन्द्रजी शास्त्री चतुर्मुखी प्रतिभाके धनी थे । संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, बंग्रेजी आदि विविध भाषाओंपर आपका अधिकार था। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी होनेके कारण आप प्रत्येक विषयके तलस्पर्शी विद्वान् थे । लेखन और वक्तृत्व कलाके पारगामी थे। साहित्य सृजनका आपको व्यसन था । अवकाशका दुरुपयोग आपने कभी नहीं किया। साहित्य सृजन और सहयोगियोंको आगे बढ़ाना आपके जीवनका लक्ष्य था।
___ 'गुरु गोपालदास बरैया स्मृतिग्रन्थ' और 'तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा' जैसे विशाल ग्रन्थ तैयारकर आपने प्रकाशनार्थ अखिल भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद्को दिये। विद्वत्परिषद्के प्रति उनकी आत्मीयता थी। यही कारण है कि वे उसके गौरवको बढ़ाने के लिये सतत् प्रयत्नशील रहे।
विद्वत्परिषद्ने उनको स्मृति में 'डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री स्मारक निधि' की स्थापनाकर उसमें २५००१) की राशि समर्पित की । उसी स्मारक निधिकी ओरसे सन् १९८२ में 'भारतीय संस्कृतिके विकास में जैन वाङ्मयका अवदान, का प्रथम भाग प्रकाशित किया था । और उसके बाद उसीका दूसरा भाग प्रकाशित किया जा रहा है । इन खोजपूर्ण निबन्धोंका संकलन प्रत्येक थोषार्थी छात्रके लिये मार्गदर्शक होगा, यह मेरा विश्वास है ।
इन दोनों भागोंके प्रकाशनमें मंहगाईके कारण विद्वत्परिषद्को आर्थिक संकटका अनुभव करना पड़ रहा है । यदि समाजके उदारमना दानी महानुभाव, स्व. डॉक्टर नेमिचन्द्रजी शास्त्री की इस महनीय कृतिको देशके विश्वविद्यालयों और लायबेरियोंको भेंट स्वरूप भिजवानेकी अनुकम्पा करें तथा विद्वत्परिषद्के क्रियाशील ७०० से भी अधिक सदस्य अपने-अपने शिक्षा केन्द्रों में एक-एक प्रति बुलानेका कष्ट करें तो यह आर्थिक संकट सरलतासे दूर हो सकता है और प्रत्यावृत्त अर्थराशिसे अन्य ग्रन्थ प्रकाशित हो सकते हैं ।
दिवंगत डॉ. नेमिचन्द्रजी शास्त्रीकी श्रुताराधनाके प्रति श्रद्धाभाव प्रकट करता हुआ थाकांक्षा करता हूँ कि उनकी यह रचना भी सर्वत्र रुचिपूर्वक पढ़ी जावेगी।
विनीत सागर
पन्नालाल साहित्याचार्य ।६।१९८३
अध्यक्ष. अ. भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत्परिषद्
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प्रकाशकीय वक्तव्य
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्ने गत मार्च १९८२ में, अपने भूतपूर्व अध्यक्ष, स्व० डॉ० नेमिचन्द्रजी शास्त्री, ज्योतिषाचार्य, एम० ए०, डी० लिट्० के अप्रकाशित तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंमें यत्र तत्र बिखरे शोध निबन्धोंको 'भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन-वाङ्मयका अवदानका प्रथम खण्ड ग्रन्थके रूपमें प्रकाशित किया गया था। अब उसके द्वितीय खण्डको प्रस्तुत ग्रन्थ के रूपमें प्रकाशित कर परिषद् गौरवका अनुभव कर रही है ।
इस ग्रन्थ के प्रकाशनकी योजना २६-५-७९ को मदनगंज किशनगढ़ ( राजस्थान) में सम्पन्न विद्वत्परिषद्को कार्यसमितिकी बैठक में स्वीकृत की गयी थी । वहाँ एक प्रस्ताव द्वारा स्व० डॉ० नेमिचन्द्रजी शास्त्रो द्वारा लिखित 'तीर्थङ्कर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' के चारों भागोंसे प्राप्त धनराशि में से २५००१) रु० के द्वारा 'डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री स्मारकनिघि' की स्थापनाकी गई, तथा अन्य प्रस्ताव द्वारा स्व० शास्त्रीजीके अद्यावधि अप्रकाशित शोष-निबन्धोंके प्रकाशनका निश्चय किया गया। तत्पश्चात् डॉ० राजारामजी आरा तथा डॉ० देवेन्द्रकुमारजी शास्त्री, नीमच, ग्रन्थके सम्पादक नियुक्त किए गए। प्रस्तुत ग्रन्थ इसी योजना का सुन्दर, सुखद एवं सफल परिणाम है ।
कलकत्ता में 'वीर शासन जयन्ती महोत्सव' के अवसर पर २ -११-४४ को "अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्” की स्थापना हुई थी । इसका उद्देश्य, जैन शासनका संरक्षण, प्रचार एवं विद्वानोंका सामयिक सहयोग तथा उन्नति करना था । परिषद्ने १९४७ के सोनगढ़ अधिवेशन में जैन साहित्यके निर्माण और प्रकाशनका भी निर्णय लिया गया । तब से आज तक विद्वत्परिषद्, एक ओर, विद्वज्जनोंके सर्वाङ्गीण विकास और साहित्य पुरस्कार आदि द्वारा उनके प्रति सम्मान एवं सहयोग जागृत करनेका प्रयत्न करती रही और दूसरी ओर, स्वयं साहित्यके प्रकाशन द्वारा विद्वानोंके मनोबल एवं जैन साहित्य के अभ्युत्थानका कार्य कर रही है । जितना भी साहित्यके द्वारा प्रकाशित किया गया उसका न केवल जैन समाज में अपितु देश-विदेशके समग्र प्रबुद्धवर्ग में अच्छा सम्मान हुआ ।
परिषद्का प्रथम प्रकाशन था - 'आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार - व्यक्तित्व और कृतित्व और इसके लेखक थे डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री । तत्पश्चात् 'श्रुत सप्ताह नवनीत' का प्रकाशन हुआ, जिसके सम्पादक डॉ० पन्नालाल जी साहित्याचार्य थे ।
तदनन्तर परिषद् द्वारा, न्यायवाचस्पति, गुरुणां गुरुः पं० श्री गोपाल दास जी बरैयाके जन्म शताब्दी समारोह के अवसरपर १९६७ में 'गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ' का प्रकाशन किया गया। इसमें पूज्य गुरुजी के विशाल व्यक्तित्व संबंधी संस्मरण आदिके साथ ही जैनधर्म, दर्शन, साहित्य, इतिहास, पुरातत्त्व और संस्कृति से सम्बद्ध अनेक महत्त्वपूर्ण शोष निबन्ध प्रकाशित किए गए। यह ग्रन्थ भारत के समस्त विश्वविद्यालयोंको निःशुल्क भेंट किया गया था। इसके सुन्दर सम्पादन में अन्य विद्वानोंके साथ स्व० डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्रीका प्रमुख हाथ था ।
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इसके पश्चात् परिषद्के शिवपुरीके 'रजत जयन्ती अधिवेशन' के अवसरपर 'रजत जयन्ती पत्रिका-१९७३' का प्रकाशन हुआ। इसमें १९७३ तकके परिषद्के अधिवेशनों, प्रस्तावों, पुरस्कारों तथा कार्योंका सविस्तार सचित्र वर्णन है। विद्वत्परिषद्के इतिहासकी दृष्टिसे यह महत्त्वपूर्ण, अतिसुन्दर एवं संग्रहणीय प्रकाशन है ।
तत्पश्चात् १९७४ में, विद्वत्परिषद्के प्राण, सन्तप्रवर, क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद जी वर्गीके जन्म शताब्दी समारोहके अवसरपर 'श्री गणेश प्रसाद वर्णी स्मृति ग्रन्थ' प्रकाशित किया गया । यह ग्रन्थ वर्णी जी के जीवन और अवदानकी दृष्टिसे अतिशय महत्त्वपूर्ण है।
भगवान् महावीरके २५००वें निर्वाण-महोत्सवके अवसरपर परिषद्ने जो अपनी साहित्य-श्रद्धाञ्जलि समर्पितकी वह समग्र भारतीय-साहित्यके क्षेत्रमें सदैव स्मरणीय रहेगी; और वह है 'तीर्थङ्कर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा' का चार खण्डोंमें प्रकाशन । लगभग २००० पृष्ठोंके इस विशालकाय ग्रन्थमें जैनधर्म और दर्शनके विकास और महनीय योगदानके ढाई हजार वर्षोंका इतिहास सरक्षित है। इस ग्रन्थके लेखक स्वनामधन्य स्व० डॉ नेमिचन्द्र शास्त्री जी हैं । इस ग्रन्थके लेखनमें शास्त्री जी ने पांच वर्ष तक न केवल अकयनीय परिश्रम किया, किन्तु सच बात तो यह है कि उन्होंने अपनेको इस यज्ञमें होम दिया। फलतः नवम्बर १९७४ में इस ग्रन्थ के प्रकाशन लगभगके दश माह पूर्व, वे अपनी चिरयात्रापर प्रयाण कर गए ।
डॉ. नेमिचन्द्र जी शास्त्री विलक्षण प्रतिभाके धनी थे। उन्हें साहित्य-प्रणयनका व्यसन था । अपने शरीर और स्वास्थ्यके प्रति निर्मम होकर वे सतत् साहित्य-साधनामें संलग्न रहे । विद्वत्परिषद्की समस्त गतिविधियोंमें डॉ० शास्त्रीका निरन्तर सहयोग प्राप्त होता रहा । वे इसकी प्रगतिके लिए सदैव कार्य करते रहे । यही कारण है कि विद्वत्परिषद्ने उसके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकाशित करनेके निमित्त, उसके समस्त अप्रकाशित साहित्यको प्रकाशित करने का निर्णय लिया।
म. नेमिचन्द्र जी द्वारा लिखित तथा अद्यावधि अप्रकाशित साहित्य विपुल मात्रामें है। इसलिए उसे पृथक्-पृथक् दो खण्डोंमें प्रकाशित करनेका निर्णय किया गया ।
पूर्व प्रकाशित इस ग्रन्थके प्रथम खण्डमें तीन भाग हैं-भाषाविज्ञान, साहित्य एवं जैनधर्म-दर्शन । भाषाविज्ञानके अन्तर्गत संस्कृत, प्राकृत एवं भोजपुरी भाषाओंका भाषा वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन है । उसमें जो सात निबन्ध है वे इस प्रकार है :
१. प्राकृत भाषाका सांस्कृतिक-अध्ययन, २. भोजपुरी भाषामें प्राकृत-तत्त्व, ३. अशोककालीन भाषाओंका भाषा शास्त्रीय सर्वेक्षण, ४. देशीनाममालाः भाषाशास्त्रीय व सांस्कृतिक-अध्ययन, ५. सक्कय-अज्झयणत्यं पाइय-अज्झयणस्सावसिगदा उवजोगिदा य, ६. संस्कृतके सर्वाङ्गीण अध्ययमहेतु प्राकृतके अध्ययनकी उपयोगिता, ७. वर्ष-विकासकी प्रक्रिया कुछ शब्द ।
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[ ४ ] साहित्यके अन्तर्गत, संस्कृत, प्राकृत एवं हिंदीकी साहित्यिक विधाओंका समीक्षात्मक अध्ययन है। उसमें जो सत्रह निबन्ध है वे इस प्रकार हैं :
१. हिन्दी जैनकाव्योंमें प्रकृति-चित्रण २. हिन्दी जैन साहित्यमें अलंकार-योजना ३. हिन्दी जैन साहित्यको शाहाबादका अवदान, ४. हिन्दी जैन साहित्य, ५. प्राकृत-काव्यका उद्भव एवं विकास, ६. प्राकृत-कथा साहित्य और उसकी विशेषताएँ, ७. जैन-कोशसाहित्य, ८. जैन-व्याकरण साहित्य, ९. कवीश्वर मानतुङ्ग, १०. जैन-संस्कृत काव्य समीक्षात्मक अध्ययन, ११. संस्कृत साहित्यके सांकेतिक शब्द, १२. संस्कृत कोश-साहित्यको आचार्य हेमचन्द्रकी अपूर्व देन, १३. संस्कृतके ऐतिहासिक नाटकोंका अनुशीलन, १४. भट्टारक युगीन जैन संस्कृत साहित्यको प्रवृत्तियां, १५. महाकवि कालिदासः आधुनिक परिवेशमें, १६. कालिदासस्य राष्ट्रिय भावना,
१७. मेघदूतस्य समस्यापूात्मकं पार्वाभ्युदयकाव्यम् । जैन-धर्म-दर्शनके अन्तर्गत जो सात निबन्ध हैं वे इस प्रकार है :
१. पुष्पकर्म तथा देव पूजा विकास और विधि, २. जैनदर्शनकी मौलिक अवधारणाएँ, ३. अहिंसा और पांच जैनाचार्य, ४. प्रमुख दिगम्बर जैनचार्योका विवरण, ५. विद्वत्परिषद्का दायित्व एवं जैन सिद्धान्त, ६. दिगम्बर जैन संस्कृत-पूजाएंः एक अनुचिंतन, ७. भगवदी-आराहणाए वसधि-वियारो,
प्रस्तुत ग्रंथके प्रथम खण्डका सुधीजनोंने अच्छा स्वागत किया। इसके प्रकाशमपर हर्ष व्यक्त करते हुए सागर विश्वविद्यालयके तत्कालीन कुलपति डॉ० प्रफुल्ल कुमार मोदीने लिखा था
"डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्रीकी इस कृतिका अवलोकन कर प्रसन्नता हुई। प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी एवं भोजपुरी भाषाओंके भाषावैज्ञानिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विवेचनके साथ जैनधर्म एवं दर्शनके विविध तत्त्वोंपर सप्रमाण प्रकाश डाला गया है। यह कृति निःसंदेह भारतीय संस्कृति, साहित्य, भाषा एवं दर्शनके क्षेत्रमें शोधके नए मार्गोका उद्घाटन करेगी।"
इसी प्रकार सागर विश्वविद्यलयके प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभागके
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भूतपूर्व अध्यक्ष, प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयीने इस ग्रन्थके प्रथम खण्डको समालोचना करते हुए लिखा था
.. Dr. N. C. Shastri was a versatile writer, whose untimely demise has taken away a devoted scholar of great promise. His writings are marked by an authentic treatment of the Vast Prakrit and sanskrit literature and the Jain philosophy.
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With adequate documentation in the papers under review, Dr. Shastri has furnished eloqueut testimony to the significance of the prakrit studies for a correct appraisal of Indian culture. This sumptuous volume will undoubtedly serve as reference book to the learned scholars and the postgraduate students of Indian culture."
प्रस्तुत ग्रन्थके इस द्वितीय खण्डको चार भागों में विभक्त किया गया है — जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा, २ - जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति, ३ - भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ ४ – ज्योतिष एवं गणित । इन चारोंमें छत्तीस महत्त्वपूर्ण निबन्ध हैं ।
डॉ० राजारामजी जैन, आरा, तथा डॉ० देवेन्द्रकुमारजी शास्त्री नीमचने डॉ० शास्त्रीके यत्र यत्र बिखरे महनीय निबन्धोंके संग्रह और सम्पादनमें पर्याप्त परिश्रम किया है । उन्हींके सतत् प्रयत्नोंके परिणाम स्वरूप डॉ० शास्त्रीके निबन्ध प्रस्तुत ग्रन्थका आकार ग्रहण कर सके । निबन्धोंके संकलनमें स्व० डॉ० शास्त्रीके सुपुत्र चि० नलिन शास्त्रीका प्रयत्न भी श्लाघनीय रहा है । अत: यह त्रयी धन्यवादके पात्र है ।
विद्वत्परिषद्के भूतपूर्व अध्यक्ष, डॉ० दरबारीलालजी कोठिया, वाराणसी, ने इस ग्रन्थके प्रकाशन में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी सतत् प्रेरणा एवं मार्गदर्शन के फलस्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थका प्रकाशन संभव हुआ, अतः मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ ।
विद्वत्परिषद्के संरक्षक, आदरणीय गुरुवर्य पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, वाराणसी, ने अपने अत्यन्त व्यस्त समयमें से कुछ क्षण निकालकर इस ग्रन्थके प्रथम खण्डमें प्राक्कथन लिखनेकी कृपाकी तदर्थ मैं उनके प्रति अपना कृतज्ञ भाव अभिव्यक्त करता हूं ।
विद्वत्परिषद्के प्रकाशनमंत्री, डॉ० फूलचन्द्र जैन प्रेमी, अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, का इस ग्रन्थके प्रकाशनमें महनीय योगदान है । उन्होंने पूरे ग्रन्थके अन्तिम प्रूफ तो देखे ही हैं, साथ ही वे ग्रन्थके शीघ्र प्रकाशन एवं मुद्रण के लिए निरन्तर प्रयत्नशील भी रहे, अतः वे हमारे अतिशय साधुवादके पात्र हैं ।
विद्वत्परिषद् के अध्यक्ष तथा भूतपूर्व मन्त्री एवं मेरे गुरुवर, डॉ० पन्नालालजी साहित्याचार्यका मैं किन शब्दोंमें आभार व्यक्त करूं । उन्हींके सतत् अध्यवसायसे परिषद्की समस्त गतिविधियाँ सुचारु रूपसे संचालित हो रही हैं । प्रस्तुत ग्रन्थके प्रकाशन में 'अथ से इति' तक उनका भगीरथ प्रयत्न रहा है । उनके इस समर्पण भावके प्रति, मैं श्रद्धासे विनत
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हूँ। मेरे आग्रहपर उन्होंने ग्रन्थके प्रारम्भमें 'अतध्वनि' के रूपमें अपना लघुवक्तव्य लिख देनेका जो कष्ट किया है, तदर्थ मैं उनका विशेष आभारी हूं।
मित्रप्रवर, महामनीषी, स्व० डॉ० नेमिचन्द्रजी शास्त्रीके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए मेरे पास शब्द नहीं है । उनका समग्र जीवन विद्वानोंके लिए आदर्श है । उनका छात्र प्रेम एवं साहित्यिक श्रम, नई पीढोके अन्वेषकोंके लिए अनुकरणीय हैं । विद्वत्परिषद् उनके शोध-खोजको प्रकाशित कर अपनेको धन्य मानती है ।
____अंतमें, महावीर प्रेसके मालिक, मित्रवर, श्री बाबूलालजी फागुल्लको मैं धन्यवाद देता है जिनकी मुद्रण संबंधी विशेष प्रतिभाके कारण प्रस्तुत ग्रन्थका प्रकाशन अत्यन्त सुन्दर एवं नितान्त नयनहारी बन सका । उज्जैन
(महामहोपाध्याय) दि० २५-५-१९८३
डॉ. हरीन्द्र भूषण जैन मंत्री-भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद्, निदेशक-अनेकान्त शोधपीठ, पो० बाहुबली जिला-कोल्हापुर, (महाराष्ट्र), ४१६-११०
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दो शब्द भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन धर्मको विराट सांस्कृतिक, साहित्यिक और दार्शनिक उपलब्धियोंका अपना विशेष महत्त्व है। इस बहुमूल्य विरासतको प्रकाशमें लाकर क्रमशः उनका मूल्यांकन और प्रस्तुति एक इतिहासपरक आवश्यकता है । इसके लिए अनिवार्य है अपने ज्ञानके प्रतीकोंके युगानुकूल सहज एवं व्यावहारिक प्रस्तुतिमें सक्षम उत्क्रान्त प्रतिभाओं की । स्व० डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ऐसी ही प्रतिभाओं से एक थे। समय-समयपर इनके द्वारा लिखित (प्रकाशित एवं अप्रकाशित) निबन्धोंका संकलन रूप यह ग्रन्थ पिछले अध्ययन क्रमका द्वितीय खण्ड है । इसके दोनों खण्डोंमें संग्रहीत निबन्धोंका वैशिष्टय लेखककी सम्पूर्ण साहित्यसाधनाका वह प्रस्तार है जिसकी दिशाबोधके संकेत इन निबन्धों में मिलते हैं । जैन धर्म, दर्शन, न्याय, सिद्धान्त, भाषा, साहित्य, इतिहास, गणित, ज्योतिष तथा और भी अन्यान्य विविध विषयोंके एकत्र-न्यायकी इन निबन्धोंमें जो चेष्टा है वह केवल साहित्यकी ही वस्तु नहीं, अपितु ये निबन्ध अनेकधा आराध्य/मननीय और प्रेरणाके स्रोत हैं। दोनों खण्डोंको समग्र रूपमें देखें तो ये निबन्ध जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति और उसके विशाल वाङ्मयकी प्रमुख प्रवृत्तियोंकी कथा कह देते हैं।
प्राचीन बहुमूल्य विद्याओंके प्रति हमारा आकर्षण और मोह एक नैसर्गिक सम्मोहन है । क्योंकि उनमें वे तत्त्व निहित हैं जो हमारे आध्यात्मिक, सामाजिक, दार्शनिक एवं सांस्कृतिक जीवनको सम्पूर्णता प्रदान करते हैं। स्व० शास्त्रीजीको इस दिशा में सम्पूर्ण भारतीय विद्याओंके अध्ययन, मनन और लेखनमें निरन्तर लगे रहनेका अपना व्यवसन था। और यही कारण है कि उनके द्वारा प्रतिपादित विषय एवं तुलनात्मक अध्ययनमें कहीं संकोच दिखाई नहीं देता। उन्होंने अपने जीवन-कालमें प्राकृत-संस्कृत और जैन विद्याओंकी विविध विधाओंके व्यापक विकास और प्रसारमें जो सतत् तत्परता और अध्यवसाय किया, निश्चय ही वह स्वर्णाक्षरोंमें लिखे जाने योग्य है । उनके सतत् उद्यमशील एवं कर्मठ जीवनको स्मृति आज भी नई चेतना जाग्रत करती है।
प्रस्तुत ग्रन्थके दोनों खण्डोंमें संकलित निबन्धोंका सांगोपाङ्ग और सर्वाङ्गीण अध्ययन वर्तमान तथा आनेवाली पीढ़ियोंके लिए निश्चय ही प्रेरणा-स्रोत सिद्ध होगा, साथ ही अपनी विशेषताओंके कारण यह ग्रन्थ साहित्य जगत्में अपनी अलग और विशिष्ट पहचान बनाएगा, ऐसी आशा है।
विद्वत्परिषद्के सम्माननीय अध्यक्ष, मंत्री, संरक्षक, सम्पादकद्वय तथा अन्य सभी प्रेरक इसलिए विशेष अभिनन्दनीय है कि इन्होंने स्व० शास्त्रीजीके यत्र-तत्र बिखरे गए निबन्धोंको प्रकाशित करनेमें विशेष अभिरुचिको साकार किया, अन्यथा ये बहुमूल्य निबन्ध न मालूम किस अन्धकारमें खो जाते । सम्पादकीय वक्तव्यमें इस ग्रन्थके दोनों खण्डोंमें संकलित निबन्धोंका जो मूल्यांमन किया गया है वह भी अपने आपमें काफी महत्त्वपूर्ण है ।
व्यवस्थित प्रकाशन, अन्तिम प्रूफ संशोधन तथा मुद्रणके समय मुझे इस ग्रन्थके दोनों खण्डोंका अच्छी तरह अध्ययन करनेका अवसर मिला, इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ।
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श्रमका इससे बढ़कर मेरे लिए और कोई मूल्य नहीं हो सकता । जितना महत्त्वपूर्ण यह ग्रन्थ है उसीके अनुसार इसका व्यापक प्रचार-प्रसार और उचित सम्मान हम सभीका गुरुतर दायित्व है, ताकि विद्वत्परिषद् गौरवपूर्ण प्रकाशनोंकी श्रृंखलामें आगे भी इसी प्रकारके अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंका बिना किसी आर्थिक कठिनाईके प्रकाशन करती रहे ।
मान्यवर बाबूलाल जी फागुल्ल, महावीर प्रेसका विशेष आभारी इसलिए हूँ कि मुद्रणके समय मेरे द्वारा सुझाये गये संशोधनोंको उदारतापूर्वक स्वीकार किया। पं० महादेव जी चतुर्वेदीको उनके अच्छे सहयोग के लिए भी विद्वत्परिषद्की ओरसे कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ ।
अध्यक्ष
जैनदर्शन विभाग
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, श्रावण कृष्णा १, वीरशासन जयन्ती दिनांक २५-७-१९८३
डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी प्रकाशन मंत्री
अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्
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सम्पादकीय
जिस प्रकार भारतीय संस्कृतिमें धर्म, दर्शन तथा सभ्यता आदि मानव-विकासके सभी उपादान-तत्त्व निहित हैं, उसी प्रकार जैन-संस्कृतिमें मानव-विकासके सभी सोपानोंसे लेकर जैन-तीर्थ, कला, संगीत, नाट्य आदि सभी प्रकारको प्रवृतियां समाहित हैं। लोक-व्यवहारमें आने वाली जनोपयोगी सामान्य ललितकलासे लेकर सभी प्रकारकी लौकिक व लोकोत्तरकलाओंका विवेचन जैन-वाड्मयमें उपलब्ध होता है। जैन-वाड्मयके अनुशीलनसे ही हमें बहत्तर कलाओंके स्पष्ट नाम एवं उनके सम्बन्धमें रोचक जानकारी मिलती है । धर्मकी किस रीति-नीतिसे मनुष्य स्वभावसिद्ध साम्यभावमूलक संस्कृतियोंको उपलब्ध कर सकता है, यह भलीभांति दर्शाना ही जैन-संस्कृतिका प्रमुख प्रयोजन है। इसकी छाप संस्कृतिके सभी अंगों पर स्पष्टतया परिलक्षित होती है।
संस्कृतिके उन्मेष-कालसे ही उसके दो प्रमुख पक्ष रहे है-तत्त्वदर्शन (या विचारमूलक पक्ष) और तीर्थ-दर्शन (अथवा आचारमूलक या प्रवृत्तिमूलक पक्ष)। यह सत्य है कि जैन-संस्कृति व धर्म निवृत्तिमूलक है, किन्तु, यह भी सत्य है कि इसकी निवृत्तिमें प्रवत्ति और प्रवृतिमें भी निवृत्तिका उद्देश्य निहित है । जैन-संस्कृति जहां भोगोंसे विरत कराती है, वहीं आत्मोपम्यमूलक प्रवृत्तिमें प्रवृत्त भी कराती है । सम्पूर्ण प्रवृतियोंका एक मात्र केन्द्र आत्मा है । विद्युतीय धाराकी भांति दर्शन, ज्ञान एवं चारित्रकी सम्पूर्ण प्रवृत्तियोंका अधिष्ठान वह स्वयं ही है। मानवको सम्पूर्ण आचार-विचारकी प्रवृत्तियाँ इसी आत्म-ज्योतिसे अनुस्यूत हैं । जिस प्रकार 'स्विच-आन' करते ही विद्युत्प्रवाह संचरित हो उठता है, उसी प्रकार आत्मधर्मा (ट्रांसफार्मर) से प्रकाशकी रश्मियाँ ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदिकी शाखाओंमें विविध नामरूपोंमें उपयोगका जुड़ान होते ही अभिव्यक्त होती रहती है । अभिव्यक्तिके मणोंमें ही वे हमारे अनुभवमें प्रतीयमान होते हैं। जिस प्रकार संस्कृतिका आधार मानव-आत्मा है, उसी प्रकार प्रतीतिका आधार स्वयं आत्मानुभव है। पूर्व-प्रकाशित "भारतीय संस्कृतिके विकास में जैनवाड्मयका अवदान" के प्रथम खण्डमें उक्त प्रथम पक्ष (जैन-दर्शन व तत्त्वज्ञान) सम्बन्धी निबन्धोंका संकलन प्रकाशित किया जा चुका है।
प्रस्तुत द्वितीय-खण्डमें जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति, भक्ति, संगीत, ललितकला ज्योतिष एवं गणित आदिसे सम्बन्धित प्रामाणिक निबन्धोंका संकलन प्रस्तुत है । इन निबन्धोंके आषारोंपर हम जैन संस्कृतिको स्वतन्त्रता और उसकी विशेषताओंके विशेष रूपसे उजागर कर सकते हैं । यद्यपि ये सभी निबन्ध अपने-अपने विषयोंकी सर्वांगीण सामग्री तथा विधाओंसे समन्वित नहीं, फिर भी अनछुए पहलुओं और सन्दर्भ सामग्रीसे भरपूर होनेके कारण इनकी महत्ता विशेष रूपसे प्रकाशित हुई है। उदाहरणार्थ "विहारके जैनतीर्थ" के सम्बन्धमे प्रथम बार प्रामाणित रूपसे विस्तृत सामग्री प्रकाशित हो रही है । सम्मेदाचलको सम्मेदशिखर क्यों कहते है ? समणशिखर, मंगल-शिखरकी भांति इसे सम्यक्त्वशिखर भी कहा जा सकता है ।
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[१०]
सम्यक्त्वको प्राकृतमें "सम्मत" कहते हैं । धर्ममें आस्थावान् सम्यग्दृष्टि ही इस शिखरकी ऊँचाईको माप सकता है। अतः उसका 'सम्मेत शिखर' नाम सार्थक ही है । इसी प्रकार पावापुरीके सम्बन्धमें लेखक द्वारा स्वानुचिन्तन प्रकट किया गया है। प्राचीन भारत में पावा नामकी एक नहीं, बल्कि तीन नगरी प्रसिद्ध थीं, किन्तु जैनागमों में उल्लिखित मगध जनपदकी पावानगरी ही समीचीन प्रतीत होती है । जैनागमों में वर्णित पंच पहाड़ियोंका वर्णन भी विद्वान् लेखकने भली भाँति किया है । इनके अतिरिक्त भी बिहारके अन्य कुछ प्रमुख जैनatter वर्णन प्रस्तुत निबन्ध में समाहित है, जो निःसन्देह ही एक स्वतन्त्र पुस्तकका विषय बन सकता है ।
डॉ० शास्त्रीके सभी निबन्ध शोधपूर्ण हैं । उन्होंने उनमें शास्त्रीय, ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक एवं वैज्ञानिक सभी विषयोंका मूल भावानुगामी अध्ययन प्रस्तुत किया है । वे भारतीय ज्योतिष एवं जैनगणितके भी अधिकारी विद्वान् थे । अतः उन्होंने जैनागमों के नामोल्लेख- पूर्वक ऋतु, अयन, दिनमान, दिनवृद्धि, दिनहास, नक्षत्रमान, नक्षत्रोंकी विविध संज्ञाओं तथा ग्रहोंके विमानोंके स्वरूप और विस्तार तथा ग्रहोंकी आकृतियों आदिको विस्तार पूर्वक चर्चा की है । ज्योतिष एवं गणित विषयक प्रायः सभी विधाओं पर उन्होंने संक्षेपमें सुन्दर प्रकाश
मण्डल,
है | शोध अनुसन्धित्सु उनके इन निबन्धोंसे शोधकी दिशाओंका संकेत भलीभांति प्राप्त कर सकते हैं । इतना ही नहीं, ऐतिहासिक दृष्टिसे ज्योतिष एवं गणित विषयों पर रचना करने वाले विद्वानों और उनकी कृतियोंका भी लेखकने यथायोग्य प्रमाण रूपमें विवेचन किया है । यद्यपि यह विवेचन संक्षिप्त है, फिर भी ये निबन्ध प्राचीनता व नवीनता के तुलनात्मक रूपको लेकर चलने के कारण गवेषकों एवं जिज्ञासु पाठकोंकी दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमितिगणित आदिके सिद्धान्तोंका कहीं-कहीं तुलनात्मक रूपसे और कहीं-कहीं वैदिक-चिन्तकोंसे भिन्नताका यथास्थान उल्लेख किया गया है । जैनाचार्योंने मूलतः सभी विषयोंका प्रतिपादन किया है। उनमें क्या-क्या भिन्नता एवं विशेषताएँ हैं, यही बतानेका मुख्य प्रयोजन रहा है । एतद्विषयक गम्भीर अध्ययन करनेवाले शोधकगण भी निष्पक्षतासे वस्तु स्थितिको तथा प्रामाणिकताको जाननेके लिए इन निबन्धोंका विशेष रूपसे अध्ययन व उपयोग कर सकते हैं । सामान्य पाठकों की दृष्टिसे " अंगविद्या ” नामक निबन्ध सर्वाधिक रोचक एवं लोकोपयोगी बन पड़ा है ।
इतिहास - खण्ड के अन्तर्गत " जैन इतिहासकी प्राचीर पर कुछ भूले-बिसरे प्रसंग" नामक निबन्ध भी अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं मार्मिक है | ग्वालियरके निकटवर्ती प्रक्षेत्रोंमें जैनोंका जो पुरातात्विक वैभव बिखरा पड़ा है, उसका संरक्षण तथा क्रमबद्ध इतिहासके रूपमें प्रकाशन होना नितान्त आवश्यक है । डॉ० शास्त्रीने ग्वालियर से लगभग ७६ मील दूर दक्षिण-पश्चिम में तथा शिवपुरीसे ४४ मील दूर उत्तर-पश्चिममें एक उपत्यकाके ऊपर स्थित दूबकुण्डके प्राचीन जैन मन्दिर व शिलालेखका उल्लेख कर बताया है कि किसी राजाने आक्रमण कर सोने-चांदी की विविध मूर्तियोंको भग्न कर अनेक मूर्तियोंको तालाब में डूबा दिया था, इसलिए उसका नाम डूबकुण्ड - दूबकुण्ड पड़ गया । कालके दुष्प्रभावसे यह मन्दिर भूमिसात हो गया है, उसकी छतें भी गिरती जा रही हैं। ऐसे प्राचीन जैन तीर्थ तुल्य स्थानोंका सर्वेक्षण तथा पुरातात्त्विक अनुसन्धान करना - कराना अनिवार्य है । इसके अतिरिक्त भो डॉ० शास्त्री
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[ ११ ] इतिहासके कुछ नये पृष्ठ भी खोले हैं जिनमें "प्राचीन जैन-सिक्कोंका अध्ययन" नामक निबन्ध विशेष महत्त्वपूर्ण है। उनके अनुसार सिक्कों पर उत्कीर्ण प्रतीकोंके आधार पर जैन धर्मानुयायी अनेक उपेक्षित प्राचीन जैन सम्राटोंके नाम एवं अनेक कार्य कलापों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।
विद्वान् लेखकने संगीतके प्रकरणमें उसके सात प्रमुख स्वतन्त्र ग्रन्थोंका उल्लेख किया है, जिनमेंसे संगीत समयसारका प्रकाशन हो चुका है। इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दीके जैन कवियोंने अधिकसे अधिक राग-रागनियोंमें गीत-पदोंकी रचना की है। उनका उल्लेख यथास्थान किया गया है । शोध एवं अनुसन्धान करने वालोंके लिए यह प्रकरण निश्चय ही पथ निर्देशकका कार्य करेगा।
___ इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थमें संग्रहीत शोध निबन्धोंमें अनेक मौलिक, नवीन, ऐतिहासिक एवं शास्त्रीय तथ्योंपर विश्लेषणात्मक प्रकाश डाला गया है। आशा है प्राच्य विद्या विशारदोंकी प्रगल्भ परम्परा इनका अध्ययन अनुशीलन कर श्रमणसंस्कृति एवं ऐतिहासिक परम्पराको समुन्नत करनेका यथोचित अध्यवसाय करेगी।
अन्तमें, हम विद्वत्परिषद्के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं , जिसने इस बृहद् काय ग्रन्थके शीघ्र प्रकाशनमें विशेष अभिरुचि प्रदर्शित की । इस प्रसंगमें उसके अध्यक्ष श्रद्धेय डॉ० (पं) पन्नालालजी सागर,एवं प्रधानमन्त्री श्री प्रो० डॉ० हरीन्द्र भूषणजी, विक्रम विश्व विश्व विद्यालय, उज्जैनने उसके प्रकाशन-कार्यमें जो उत्साह दिखलाया वह निरन्तर सुखद बना रहेगा एवं अविस्मरणीय भी । विद्वत्परिषद् के प्रकाशन मन्त्री डॉ० फूलचन्द्रजी प्रेमीने ग्रन्थ मुद्रण कार्यको तीव्रगति देनेके लिए तो अथक प्रयत्न किया ही, उसके अन्तिम प्रूफ-संशोधनमें भी अथ से लेकर इति तक कठोर परिश्रम कर उन्होंने हमें उससे निश्चिन्त बनाए रखा। उनके इस युवकोचित, उत्साहपूर्ण सत्श्रमके लिए हम उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं । श्रद्धय गुरुवर पं० कैलाशचन्द्रजी सि० शास्त्री वाराणसी, श्री० पं० नाथूलालजी शास्त्री, इन्दौर एवं श्री प्रो० खुशालचन्द्रजी गोरावाला, वाराणसीकी, उनकी सद्भावनाओं एवं शुभाशीर्वादोंके प्रति हम पुनः अपना आभार व्यक्त करते हैं, जिनके सत्प्रयत्नोंके कारण ही मई १९७९ में प्रस्तुत ग्रन्थकी रूपरेखा तैयार हो सकी थी तथा जिनकी प्रेरणासे ही विद्वत्परिषद्ने उसके प्रकाशनकी स्वीकृति प्रदान की थी । इनके अतिरिक्त भी हम उन सभी विद्वानों एवं जिज्ञासु पाठकोंके प्रति भी अपना आभार व्यक्त करते हैं, जिन्होंने इसके प्रथम खण्डका अध्ययन किया तथा अपनी शुभ सम्मतियाँ एवं बधाई-पत्र प्रेषितकर हमें उत्साहित किया है ।
डॉ. राजाराम जैन (आरा, विहार) डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच (म०प्र०)
सम्पादक
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विषयक्रम
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जैन न्याय एवं तस्वमीमांसा १. जैन तत्त्वमीमांसा : एक अनुचिन्तन २. प्रामाण्यवाद ३. जैनदर्शनमें शब्दका पौद्गलिकत्व-प्रतिपादन ४. चन्द्रप्रभचरित काव्यमें तत्त्वोपप्लववाद समीक्षा ५. प्रमेयरत्नमालाकी टीकाएँ ६. कार्य-कारणभाव : महाकवि कालिदासकी कृतियोंके परिप्रेक्ष्यमें
जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १. बिहारके जैन तीर्थ २. राजगृह : एक प्राचीन जैन तीर्थ-क्षेत्र ३. जैन साहित्यमें प्रतिपादित मगध जनपद ४. दक्षिण भारतमें जैन धर्मका प्रवेश और विस्तार ५. जैन इतिहासकी प्राचीरपर कुछ भूले विसरे प्रसंग ६. जैनधर्मके प्रभावक पुरुष एवं नारियाँ ७. जैनधर्मका महान् प्रचारक-सम्राट सम्प्रति, ८. सम्राट सम्प्रति और उसकी कृतियाँ ९. आदिपुराणमें वर्णित नारी १०. तीर्थकरोंको पञ्चकल्याणक तिथियां ११. जैन कला : एक विश्लेषण १२. प्राचीन जैन सिक्कोंका अध्ययन १३. सोमदेवका राजनैतिक विवेचन १४.Jain Culture in Shahabad
भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ १. जैन भक्तिका स्वरूप २. बौद्ध महायानमें भक्ति सिद्धान्त ३. जैन वाङ्मयमें संगीत
ज्योतिष एवं गणित १.जैन ज्योतिषको प्रमुख विशेषताएं २. जैन ज्योतिष साहित्य ३. ग्रीकपूर्व जैन ज्योतिष विचार-पारा
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२५३ २६८
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४. अंग - विद्या: प्रादुर्भाव और विकास ५. जैन पञ्चांग
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६. जातक तत्त्व अर्थात् प्रारब्ध विचार
७. आचार्य नेमिचन्द्र और ज्योतिषशास्त्र
८. जैनाचार्य ऋषिपुत्र और उनका ज्योतिष शास्त्रको योगदान
९. महान् ज्योतिविद् श्रीधराचार्य
१०. जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुत गणित सम्बन्धी कतिपय मौलिक उद्भावनाएं
११. जैन गणितका महत्त्व
१२. तिलोयपण्णत्तिके श्रेणी व्यवहारके दस सूत्रोंकी उपपत्ति
१३. संस्कृत-साहित्ये त्रिभुजगणितम्
१४. स्वप्न और उसका फल
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें
जैन वाङमयका अवदान
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
१. जैन तत्त्वमीमांसा : एक अनुचिन्तन
२. प्रामाण्यवाद
३. जैनदर्शन में शब्दका पौद्गलिकत्व प्रतिपादन
४. तत्त्वोपप्लववाद समीक्षा
५. प्रमेयरत्नमालाकी टीकाएँ
६. कार्य-कारणभाव : नहाकवि कालिदासकी कृतियों के परिप्रेक्ष्य में
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जैन तत्त्व-मीमांसा : एक अनुचिन्तन
जैन दर्शनमें तत्त्व सात माने गये हैं । तत्त्वके स्वरूप सामान्यपर पूर्व में विचार किया जा चुका है । जैन दर्शन कर्म बन्धसे छुटकारा प्राप्त करनेके लिये तत्त्वज्ञानको आवश्यक मानता है। वस्तुतः जीवादि वस्तुओंका जो भाव है, वह तत्त्व है । तत्त्व भावपरक संज्ञा है । हमें भारतीय दर्शनोंमें एक सांख्यदर्शन ऐसा उपलब्ध होता है जिसमें प्रकृति, महान् आदि पच्चीस तत्त्व माने गये हैं। वैशेषिक और नैयायिकोंके यहाँ पदार्थ शब्दका प्रयोग तत्वके रूपमें हुआ है । वंशेषिक सात पदार्थ और नैयायिक सोलह पदार्थ मानते हैं । अतः भारतीय दर्शनोंमें तत्त्व और पदार्थ एकार्थक हैं ।
जैन दर्शनमें तत्त्व-निरूपणकी शैलियोंका उत्तरोत्तर विकास होता रहा है । आरम्भमें सत्, संख्या, क्षेत्र आदि अनुयोगोंके द्वारा जीवादि तत्त्वोंका वर्णन किया जाता था। इस पद्धतिमें जीव तत्त्वका निरूपण बोस' प्ररूपणाओंके द्वारा किया जाता है और इन्हीं बीस प्ररूपणाओंके अन्तर्गत अन्य अजीवादि तत्त्वोंका वर्णन भी यथाप्रसंग किया जाता है । यह शैली अत्यन्त विस्तृत होनेके साथ दुरूह भी है । आचार्य कुन्दकुन्दने तत्त्व-निरूपणकी इस शैलीको नया मोड़ देकर सरल बनाया है और उन्होंने आत्मकल्याणके लिये प्रयोजनभूत जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नव पदार्थोंका विवेचन किया है । अतः इन्हींके यथार्थ ज्ञानकी ओर ध्यान आकृष्ट कर जैन दर्शनको भित्तीको सुदृढ़ता प्रदान की है। अनादि कालसे जीव तथा कर्म-नोकर्मरूप अजीव परस्पर एक दूसरेसे सम्बद्ध होकर संयुक्त अवस्थाको प्राप्त हो रहे हैं । अतएव इस संयुक्त अवस्थामें जीव क्या है और अजीव क्या है ? यह समझना सर्वप्रथम प्रयोजनभूत है । अनन्तर पुण्य-पाप, जीव और अजीवका परस्पर सम्बन्ध क्यों हो रहा है ? इस पर विचार करते हुए आस्रवका निरूपण किया गया है । आस्रवका प्रतिपक्षी संवर है । अतः उसका परिज्ञान भी आवश्यक है। संवरके द्वारा नवीन अजीवका सयोग रुक जाता है, पर संचित अजीवका क्षय किस प्रकार हो? इसका कथन करते हए निर्जराको आवश्यक बतलाया है । इसके पश्चात् जीव और अजीवकी बद्ध अवस्थाका विचार करते हुए बन्धका निरूपण किया गया है। अन्तमें बन्धकी विरोधी अवस्था मोक्ष है। अतः साध्यरूपमें उसका कथन किया गया है।
___ आचार्य कुन्दकुन्दकी इस शैलीको और सरल कर आचार्य गृपिच्छने इन नव पदार्थोके स्थानपर जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका ही निरूपण किया है । उन्होंने पुण्य और पापका अन्तर्भाव आस्रव तत्त्वके अन्तर्गत कर अपने 'तत्त्वार्थ सूत्र' ग्रन्थमें सात ही तत्त्व बतलाये हैं। गृद्धपिच्छ या उमास्वामीकी इस शैलीका
१. गुणजीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य । उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिदा ॥
-गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा २
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैनवाङ्मयका अवदनि
प्रचार अधिक हुआ और उत्तरवर्ती सभी जैन दार्शनिकोंने इसी प्रक्रियाको अपनाया । जैन दर्शन में सत् या पदार्थको तत्त्व कहा गया है । सत्के स्वरूपपर पूर्व में विचार किया गया है । सत् उत्पाद, व्यय और प्रौञ्यात्मक होता है । उत्पाद और व्यय ये दोनों ही परिवर्तन या पर्यायोंकी सूचना देते हैं । घ्रौव्य नित्यताका वाचक है । अतः जैनदर्शनमें तत्त्व, वस्तु या पदार्थ में प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यकी धारा चलती रहती है । स्वजातिका परित्याग किये बिना भावान्तरका ग्रहण करना उत्पाद है । उदाहरणार्थ यों समझा जा सकता है कि मिट्टीका पिण्ड घटपर्याय में परिणत होता हुआ भी मिट्टी ही रहता है। मिट्टीरूप जातिका परित्याग किये बिना घटरूप पर्यायान्तरका जो ग्रहण है, वही उत्पाद है । इसी प्रकार व्ययका स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि स्वजातिका परित्याग किये बिना पूर्वभावका जो विनाश है, वह व्यय है । घटकी उत्पत्तिमें पिण्डकी आकृतिका विनाश व्ययका उदाहरण है । वृत्तिका पिण्ड जब घट बनता है, तब उसकी पूर्व आकृतिका व्यय हो जाता है । इस व्ययमें केवल मृत्तिकाकी पर्याय परिवर्तित हो जाती है, मिट्टी तो वही रहती है । अनादि पारिणामिक स्वभावके कारण वस्तुका नाश न होना ध्रुवत्व है । उदाहरणके लिये, पिण्डादि अवस्थानों में मिट्टीका अन्वय हो धौव्य है । आचार्यं पूज्यपादने लिखा है
४
"चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमा महत् उभयनिमित्तवशाद्भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद: मृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् । तथा पूर्वभावविगमनं व्ययः । यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृतैः । अनादिपारिणामिक स्वभावेन व्ययोदयाभावाद् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः । ध्रुवस्य भावः कर्म वा धौज्यम् । यथा मृत्पिण्डघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयः । तैरुत्पादव्ययभौयं युक्तं उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं ' सदिति ।"
अर्थात् चेतन-अचेतन द्रव्य अपनी जातिको कभी नहीं छोड़ते, फिर भी उनमें अन्तरंग और बहिरंग निमित्त कारण प्रति समय जो नवीन अवस्थाकी प्राप्ति होती है, उसे उत्पाद, पूर्व अवस्था के त्यागको व्यय, अनादि पारिणामिक स्वभावरूप अन्वयको ध्रोव्य कहते हैं । यथा कोयला जलकर राख हो जाता है, इसमें पुद्गलकी कोयला रूप पर्याय व्यय है, राख रूप पर्याय उत्पाद है : पर दोनों अवस्थाओं में पुद्गल द्रव्यका अस्तित्व बना रहता है। पुद्गलपने का कभी नाश नहीं होता, यही उसकी धाव्यता है । उत्पाद, व्यय और प्रौव्य ये तीनों ही प्रत्येक पदार्थ में स्वभावतः पाये जाते हैं ।
प्रतिक्षण प्रत्येक पदार्थ में परिवर्तन होता है । क्योंकि परिवर्तनशीलता पदार्थका स्वभाव है । जैसे दुग्ध कुछ समय बाद दधि (दही) के रूपमें परिणत हो जाता है, फिर दहीका मट्टा बना लिया जाता है, तो भी गोरस रूपसे उसकी धीव्यता बनी रहती है । दूध, दही और मट्ठा ये तीनों भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ एक ही गोरस ही मानी जाती हैं । अतएव प्रत्येक सत् पदार्थ या तत्त्व उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक है ।
यहाँ ध्रौव्य गुणसूचक है और उत्पाद, व्यय पर्याय सूचक । वस्तुके स्थायित्वमें एकरूपता या स्थिरता होती है । अस्थायित्व - परिवर्तनमें पूर्वरूपका विनाश और उत्तर रूपकी
१. सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानपीठ संस्करण, पंचम अध्याय ३० व सूत्र, पृ० ३०० ।
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
उत्पत्ति होती हैं । वस्तुके विनाश और उत्पाद में व्यय एवं उत्पत्तिके रहनेपर भी वस्तु सर्वथा नष्ट नहीं होती और न सर्वथा नवीन ही उत्पन्न होती है । विनाश और उत्पादके बीच एक प्रकारकी स्थिरता रहती है, जो न नष्ट होती है और न उत्पन्न होती हैं । यह जो स्थिरता या एकरूपता है, वही ध्रौव्य है । यह नित्यताका सूचक है । नित्यताका लक्षण कूटस्थ नित्य न होकर 'तद्भावाव्यय' अर्थात् जो अपने भावको न तो वर्तमानमें छोड़ता है और न भविष्य में छोड़ेगा, वह नित्य है और वही 'तद्भावाव्यय' है । बताया है—
"येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते । यद्यत्यन्तनिरोधोऽभिनवप्रादुर्भावमात्रमेव वा स्यात्ततः स्मरणानुपपत्तिः । तदधीनो लोकसंव्यवहारो विरुध्यते । ततस्तद्भावेनाव्ययं तद्भावाञ्ययं नित्यमिति निश्चीयते । ""
अर्थात् पहले जिस रूप में वस्तुको देखा है, उसी रूप में उसके पुनः होनेसे वही 'यह' है, इस प्रकारकी प्रतीति प्रत्यभिज्ञानके द्वारा होती है । अर्थात् वस्तुका जो भाव है, उस रूपसे च्युत न होना तद्भावाव्यय कहलाता है । यदि पूर्ववस्तुका सर्वथा नाश हो जाय और नयी वस्तुका सर्वथा उत्पाद मान लिया जाय, तो इससे स्मरणकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी और स्मरणाभावसे लोकव्यवहार नष्ट हो जायेंगे । अतएव प्रत्येक सत् को न सर्वथा नित्य है और न अनित्य ही, कूटस्थ नित्य माननेपर अर्थक्रियाकारित्व सिद्ध नहीं होता है । संक्षेप में जैन दर्शनमें सत् या तत्त्व कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य । इसका अर्थ है परिणामी नित्य । तात्पर्य यह है कि जैसे त्रिकालमें अपनी जातिका नहीं त्याग करना प्रत्येक पदार्थका स्वभाव है, वैसे ही उसमें रहते हुए परिणमन करना भी उसका स्वभाव है । यही उसकी परिणामी नित्यता है । इस प्रकार वस्तुको परिणामी नित्य मान लेनेपर उसमें सन्तानकी अपेक्षासे धौव्य और परिणामकी अपेक्षासे उत्पाद व्यय घटित होते हैं ।
तत्त्वको त्रिलक्षणात्मक सिद्ध करनेके अनन्तर अब क्रम प्राप्त तत्त्वोंके स्वरूपपर प्रकाश डालना आवश्यक है । तत्त्वोंमें जीव और अजीवकी प्रमुखता है । इन दोनोंके अनादिकालीन संयोग के कारण ही यह संसार चलता है । अतएव जीव तत्त्वपर विचार करना आवश्यक है |
जीव तत्त्व
लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति रूप है ।
पाया जाय, वह जीव है ।
आत्महित साधन करना ही जीवका लक्ष्य है । और यह जीवका लक्षण चेतना स्वरूप है । जिसमें ज्ञान, दर्शन रूप चैतन्य और जीवका प्रतिपक्षी अजोव है । यह अचेतन या जड़ होता है । जीव और अजीवका सम्पर्क ही ऐसी विभिन्न शक्तियोंका निर्माण करता है, जिनके कारण जीवको नाना प्रकारकी अवस्थाओंका अनुभव करना पड़ता है । यदि यह सम्पर्क-धारा अवरुद्ध हो जाय और उत्पन्न हुए बन्धनों को जर्जरित या नष्ट कर दिया जाय, तो जीत्र अपनी शुद्ध-बुद्ध और मुक्त अवस्थाको प्राप्त हो सकता है ।
१. सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानपीठ संस्करण ५ ३१, पृ० ३०२ ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
जीव इन्द्रिय अगोचर ऐसा तत्त्व है, जिसकी प्रतीति अनुभूति द्वारा ही संभव है। जीवको ही आत्मा कहा जाता है। प्राणियोंके अचेतन तत्त्वसे निर्मित शरीरके भीतर स्वतन्त्र आत्मतत्त्वक.. अस्तित्व है और यह आत्मतत्त्व ही चेतन या उपयोगरूप है । आत्मा स्वतन्त्र और मौलिक है । उपयोग जीवका लक्षण है और उपयोगका अर्थ चैतन्य परिणति है । चैतन्य जीवका असाधारण गुण है, जिसके कारण वह समस्त जड़ द्रव्योंसे अपना पृथक् अस्तित्व रखता है । बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंसे इस चैतन्य के ज्ञान और दर्शनरूपसे दो परिणमन होते हैं । जब चैतन्य स्वसे भिन्न किसी ज्ञेयको जानता है, उस समय वह ज्ञान कहलाता है और जब चैतन्यमात्र ज्ञेयाकार रहता है, तब वह दर्शन कहलाता है । जीव असंख्यात प्रदेशवाला है और अनादिकालसे सूक्ष्म कार्माण शरीरसे सम्बद्ध है । अतः चैतन्ययुक्त जीवकी पहचान व्यवहारमें पाँच इन्द्रिय; मन-वचन-कायरूप बल तथा श्वासोच्छ्वास और आयु इस प्रकार दश प्राणरूप लक्षणोंकी हीनाधिक सत्ताके द्वारा ही की जा सकती है।
___यों तो जीवमें अनेक गुण हैं, पर चैतन्यके साथ उसकी कर्तृत्व और भोक्तृत्व शक्तियाँ प्रधान हैं। जीव या आत्माकी प्रमुख विशेषताओंका विवेचन करते हुए आचार्य नेमिचन्द्रने बताया है-(१) जीव उपयोगरूप है (२) अमूत्तिक है (३) कर्ता है (४) भोक्ता है (५) स्वदेहपरिमाण है (६) संसारी है (७) सिद्ध है और (८) स्वभावसे ऊर्ध्वगमन करनेवाला है।
इन गुणोंके अतिरिक्त आत्मा प्रमाण सिद्ध, परिणामी, प्रत्येक शरीरमें भिन्न और संसारावस्थामें पौद्गलिक कर्मोसे युक्त तथा मुक्तिमें कर्मरहित है।
प्रतिक्षेत्र भिन्न माननेके कारण जीवोंकी संख्या अनन्त है। प्रत्येक शरीरमें विद्यमान जीव अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है और इस अस्तित्वका कभी संसार अथवा मोक्षमें विनाश नहीं होता। जीवमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार पुद्गल अथवा जड़के कर्म नही पाये जाते हैं। जीवके चैतन्य गुणकी समीक्षा
चैतन्य गुण आत्माके सिवा अन्य किसी पदार्थमें नहीं पाया जाता। यह आत्माका निजी गुण है, आत्माका आगन्तुक और औपाधिक गुण नहीं। वैशेषिक और न्यायदर्शनमें स्वरूपतः आत्माको चैतन्य नहीं माना गया। इन दर्शनोंके अनुसार बुद्ध आदि गुणोंके सम्बन्धसे आत्मामें ज्ञान या चेतनाकी उत्पत्ति मानी गई है। जिस प्रकार अग्निके सम्बन्धसे घटमें रक्तता उत्पन्न होती है, उसी प्रकार आत्मामें बुद्धयादिके संयोगसे चेतना गुण उत्पन्न होता है।
१. पंच वि इंद्रियपाणा मनवचकायेसु तिण्णि बलपाणा।
आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दस पाणा ॥-गोम्मटसार जीवकांड गाथा १२९ २ जीवो उवओगमओ अमुत्तिकत्ता सदेहपरिमाणो ।
भोत्ता संसारत्थो मुत्तो सो विस्ससोड्ढगई ॥-बृहद्रव्यसंग्रह गा० २ ३. चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षात् भोक्ता स्वदेह-परिमाणः प्रतिक्षेत्र भिन्नः पौद्गलि
कादृष्टवांश्चायम् । -प्रमाणनयतत्त्वालोक ७/५५-५६
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा न्याय-वैशेषिकके इस कथनका अभिप्राय यह है-जब तक आत्मामें चैतन्य उत्पन्न नहीं होता, तब तक वह जड़ या भोतिक है। इन दर्शनोंमें चैतन्य-ज्ञान और आत्माको भिन्न-भिन्न माना गया है। दोनों-ज्ञान और आत्माके सम्बन्धसे आत्मामें ज्ञान उत्पन्न होता है। इसी सम्बन्धके कारण आत्माको ज्ञानवान् कहा जाता है। जिस प्रकार पगड़ीके संयोगसे मनुष्य पगड़ीवान कहलाता है, उसी प्रकार ज्ञानके सम्बन्धसे आत्मा ज्ञानवान् कहलाता है । वस्तुतः आत्मा और ज्ञान अत्यन्त भिन्न हैं ।
न्याय-वैशेषिककी उक्त मान्यताकी समीक्षा करते हुए बताया है कि यदि आत्मा और चैतन्य-ज्ञानको एकान्ततः भिन्न स्वीकार किया जाय तो वसन्तका ज्ञान वसन्तकी आत्मासे उतना ही भिन्न है, जितना कि जयन्तका ज्ञान जयन्तकी आत्मासे । ऐसी स्थितिमें वसन्तका ज्ञान वसन्तकी ही आत्मामें है और जयन्तका ज्ञान जयन्तकी ही आत्मामें है, इसका निर्णय किसके द्वारा किया जायगा। यदि यह माना जाय कि ज्ञान और आत्मासे नितान्त भिन्न होनेपर भी समवाय सम्बन्ध द्वारा ज्ञान आत्माके साथ सम्बद्ध होता है । जो ज्ञान जिस आत्माके साथ सम्बद्ध होता है, वह ज्ञान उसी आत्माका कहा जाता है, अन्यका नहीं। इस प्रकार समवाय सम्बन्ध द्वारा वसन्तका ज्ञान वसन्तको आत्मासे और जयन्तका ज्ञान जयन्तकी आत्मासे सम्बद्ध है, अतः ज्ञानसांकर्य दोष नहीं आता है।
ज्ञान और आत्माके समवाय सम्बन्धकी भी समीक्षा की गई है। बताया है कि जब समवाय एक, नित्य और व्यापक है; तब अमुक ज्ञानका सम्बन्ध अमुक आत्माके साथ ही हो और अन्य आत्माओंके साथ नहीं, यह कैसे निर्णीत होगा । एक अन्य बात यह भी है कि न्यायवैशेषिक दर्शनोंमें आत्मा भी सर्वव्यापक मानी गई है, इस प्रकार एक आत्माका ज्ञान सभी आत्माओंमें रहना चाहिए । अतएव वसन्तका ज्ञान जयन्तमें भी रहेगा। __न्याय-वैशेषिक दर्शनमें एक अन्य हेतु उपस्थित करते हुए बताया है कि आत्मा और ज्ञानमें कर्तृ-करणभाव रहनेसे दोनों भिन्न हैं । आत्मा कर्ता है और ज्ञान करण है, अतः आत्मा और ज्ञान एक नहीं हो सकते । इस तथ्यकी समीक्षा करते हए जैनदार्शनिकोंने इस हेतुको सदोष बतलाया है कि मान और आत्माका सामान्य करण-कत्तु भाव सम्बन्ध नहीं है, यह तो स्वाभाविक सम्बन्ध है । देवदत्त लाठीसे मारता है, यहाँ लाठी बाह्य करण है पर ज्ञान आत्मासे भिन्न करण नहीं है। यदि लाठीकी तरह ज्ञान भी आत्मासे भिन्न सिद्ध हो जाय, तो यह कहा जा सकता है कि ज्ञान और आत्मामें करण और कर्ताका सम्बन्ध है । फलतः ज्ञानको आत्मासे सर्वथा भिन्न नहीं माना जा सकता।
एक अन्य उदाहरण द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है कि वसन्त नेत्र और दीपकसे देखता है । इस उदाहरणमें दीपक जिस प्रकार वसन्तसे भिन्न है, उस प्रकार नेत्र नहीं हैं । दीपक और नेत्र दोनों करण हैं, पर दोनोंमें बहुत अन्तर है ।
___ ज्ञान और आत्माके अभिन्न माननेपर करण-कर्तृ-अभावकी आशंका नहीं की जा सकती; अतः आत्मा अपनेमें ही अपने आपको जानता है । जाननेवाला होनेसे आत्मा कर्ता है
और उसी आत्माके ज्ञान गुणसे जानता है, अतः आत्मा ही करण है । कर्ता और करणका यह सम्बन्ध पर्याय भेदसे है । कर्ता और करण ये दोनों पर्यायें आत्माको ही हैं। सामान्यतः गुण
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका सवदान गुणीको अपेक्षासे ज्ञान और आत्मामें भिन्नता है, पर स्वभावकी अपेक्षा ज्ञान और आत्मामें भिन्नता नहीं है । जीवका अभूतिक गुण
रूपका अर्थ मूत्तिक है, जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण पाये जाएँ, वह मूत्तिक है, आत्मा इन गुणोंसे रहित होनेके कारण अमूत्तिक है । 'समयसार' में आचार्य कुन्दकुन्दने बताया है कि जीवके न वर्ण है, न रस है, न गन्ध है, न स्पर्श है, न रूप है, न शरीर है, न संस्थान है, न संहनन है, न राग है, न द्वष है, न मोह है, न प्रत्यय हैं, न कर्म है, न वर्ग है, न वर्गणा है, न कोई स्पर्धक हैं, न यध्यवसाय स्थान है, न अनुभाग स्थान है, न कोई योग स्थान है, न कोई बन्धस्थान है, न उदयस्थान है, न मार्गणा स्थान है, न स्थितिबन्धस्थान है, न संक्लेशस्थान है, न संयमलब्धिस्थान है, न जीवसमासादि है । अतएव यह निश्चय नयकी अपेक्षा अमूर्तिक, शुद्ध, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यभग है। पर व्यवहारनयसे मूर्तिक कर्मोके अधीन होनेके कारण स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णयुक्त मूर्तिसे संयुक्त रहनेसे मूर्तिक माना जाता है। निश्चयतः जीव अमूर्तिक, इन्द्रिय अगोचर शुद्ध-बुद्धरूप स्वभावका धारक होनेसे जीव अमूर्तिक है । सभी अध्यात्मवादी दर्शन आत्माको अमूर्तिक और शाश्वत मानते हैं । कर्तृत्व-विवेचन
परिणमन करने वालेको कर्ता, परिणामको कर्म और परिणतिको क्रिया कहते हैं। ये तीनों वस्तुतः भिन्न नहीं हैं । एक वस्तुको ही परिणति हैं । जीवमें कर्तृत्व शक्ति स्वभावतः पायी जाती है । आत्मा असद्भूत व्यवहारनयसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय आदि पुद्गलकर्म तथा भवन, वस्त्र आदि पदार्थोंकी का है। अशुद्ध निश्चयनयसे अपने राग-द्वेष आदि चैतन्य कर्मों--भावकर्मोंका और शुद्ध निश्चयनयको दृष्टिसे अपने शुद्ध चैतन्य भावोंका' कर्ता है।
जीव और अजीव अनादिकालसे सम्बद्ध अवस्थाको प्राप्त हैं । अतः इस प्रश्नका होना स्वाभाविक है कि इन दोनोंके अनादि सम्बन्धका क्या कारण है ? जोवने कर्मको किया या कर्मने जीवको किया । यदि यह माना जाय कि जीवने बिना किसी विशेषताके कर्मको किया है, तो शुद्ध सिद्धावस्थामें भी कार्य करनेमें कोई विप्रतिपत्ति नहीं होगी, यदि कर्मने जीवको किया, तो कर्मनें ऐसी विशेषता कहाँसे आयी कि वह जीव को इस प्रकार विकृत कर सकेरागादिभाव उत्पन्न कर सके । यदि कर्म बिना किसी वैशिष्ट्यके रागादि करते हैं. तो कर्मके अस्तित्व कालमें सदा रागादि उत्पन्न होना चाहिए ।
इन प्रश्नोंका समाधान विभिन्न दृष्टियोंके समन्वय द्वारा सम्भव है। यतः जीवके रागादि परिणामोंसे पुद्गल द्रव्यमें कर्मरूप परिणमन होता है और पुद्गलके कर्मरूप
१. समयसार, गाथा ५०-५५ । २. मूर्तकर्माधीनत्वेन स्पर्शरसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या सहितत्वान्मूर्तस्तथापि परमार्थेनामूत्ततिीन्द्रियशुद्धबुद्ध कस्वभावत्वादमूर्तः ।
-बृहद्रव्य संग्रह, देहली संस्करण, प्रथम संस्करण, दि० सं० २०१०, पृ०८ ३. वही, गाथा ८
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
परिणमन उनकी उदयावस्थाका निमित्त पाकर आत्मामें रागादि भाव उत्पन्न होते हैं । यद्यपि इस समाधानमें अन्योन्याश्रय दोष दिखलायी पड़ता है, पर अनादि संयोग माननेसे इस दोषका निराकरण हो जाता है ।
कर्तृकर्मभाव व्यवस्थाके स्पष्टीकरण हेतु कारक व्यवहारका विचार कर लेना मावश्यक है ।
संसार में अनादिकाल से समस्त द्रव्य प्रतिक्षण पूर्व पूर्व अवस्था - पर्यायको त्याग कर उत्तरोत्तर अवस्थाको प्राप्त होते हैं । इसी परिणमनको क्रिया कहा जाता है । अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती परिणाम विशिष्ट द्रव्य उपादान कारण है और अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती परिणाम विशिष्ट द्रव्य कार्य है । इस परिणमन - अवस्था परिवर्तन में सहकारी स्वरूप अन्य द्रव्य निमित्त कारण है । निमित्त कारणके दो भेद हैं- ( १ ) उदासीन निमित्त कारण और (२) प्रेरक निमित्त कारण । इन्हीं कारणों में कारक व्यवहार होता है । क्रिया निष्पादकत्व कारकका लक्षण है और इसके कर्त्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये छह भेद हैं । क्रियाका उपादान कारण कर्ता, जिसे क्रिया प्राप्त हो, वह कर्म, क्रियामें साधकतम अन्य पदार्थ करण, कर्म जिसको प्राप्त हो वह सम्प्रदान, दो पदार्थके बियुक्त होनेमें जो ध्रुद रहे, वह अपादान, एवं आधारको अधिकरण कहा जाता है । इस कारक प्रक्रियाका अभिप्राय यह है कि संसारमें जितने पदार्थ हैं, वे अपने-अपने भावके कर्त्ता हैं, पर भावका कर्त्ता कोई पदार्थ
वास्तव में कर्तृकर्म भाव उसी द्रव्यमें घटित होते हैं, जिसमें व्याप्य व्यापक भाव अथवा उपादान उपादेय भाव रहता है। जो कार्यरूप परिणत होता है, उसे व्यापक या उपादान कहते हैं और जो कार्य होता है, उसे व्याप्य या उपादेय । मिट्टीसे घड़ा बना, यहाँ मिट्टी व्यापक या उपादान है और घट व्याप्य या उपादेय है । यह उपादेय भाव सर्वदा एक द्रव्यमें ही होता है, दो द्रव्योंमें नहीं, त्रिकाल में भी परिणमन नहीं होता ।
व्याप्य व्यापक भाव या उपादान
यतः एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यरूप
जो उपादान के कार्यरूप परिणमनमें सहकारी है, वह निमित्त है । यथा-मिट्टी के घटाकार परिणमनमें कुम्भकार और उसके दण्ड चक्रादि । इस निमित्तकी सहायतासे उपादान में जो कार्य होता है, वह नैमित्तिक कहलाता है । जैसे कुम्भकार आदिको सहायता से मिट्टी में हुआ घटाकार परिणमन । यहाँ यह ज्ञातत्र्य है कि निमित्त - नैमित्तिक भाव दो विभिन्न द्रव्यों में भी घटित हो जाता है । पर उपादान - उपादेय या व्याप्य व्यापक भाव एक ही द्रव्यमें सम्भव हैं ।
पुद्गल द्रव्य जीवके रागादि परिणामोंका निमित्त पाकर कर्मभावको प्राप्त होता है, इसी प्रकार जीव द्रव्य भी पुद्गल कर्मोंके विपाक कालरूप निमित्तको पाकर रागादि भावरूप परिणमन करता है । इस प्रकारका निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध होनेपर भी जीव द्रव्य कर्म में किसी गुणका उत्पादक नहीं । अर्थात् पुद्गल द्रव्य स्वयं ज्ञानावरणादि भावको प्राप्त होता है । इसी तरह कर्म भी जीवमें किन्हीं गुणोंको नहीं करता है, किन्तु मोहनीय आदि कर्मके विपाकको निमित्त कर जीव स्वयमेव रागादि रूप परिणमता है । इतना होनेपर भी पुद्गल
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
और जीवका परिणमन परस्पर निमित्तक है। इससे स्पष्ट है कि आत्मा अपने भावोंके द्वारा अपने परिणमनका कर्ता होता है । पुद्गल कर्मकृत भावोंका कर्ता नहीं है । तथ्य यह है कि सुदगलके जो ज्ञानावरणादि कर्म हैं, उनका कर्ता पुद्गल है और जीवके जो रागादि भाव हैं, उनका कर्ता जीव' है।
आत्मा और पुद्गल इन दोनोंमें वैभाविक शक्ति है। इस शक्तिके कारण ही आत्मा मिथ्या दर्शनादि विभावरूप परिणमन स्वयं करती है और पुद्गल ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन करता है । इस प्रकारके परिणमनको ही निमित्त-नैमित्तिक भाव कहा जाता है ।
निमित्त-नैमित्तिक, कर्तृ-कर्मभाव स्वीकार करनेपर द्विक्रियाकारित्वका दोष भी नहीं आता है । यतः निमित्त अपने परिणमनके साथ उपादान परिणमनका कर्ता नहीं है ।
जीव न तो घटका कर्ता है, न तो पटका कर्ता है और न शेष अन्य द्रव्योंका ही। जीव अपने योग और उपयोगका कर्ता है ।
आत्मा घटादि और क्रोधादि पर द्रव्यात्मक कर्मोंका कर्त्ता न तो व्याप्य-व्यापक भावसे है और न निमित्त-नैमित्तिक भाव से ही; पर अनित्य योग और उपयोग ही घट पटादि द्रव्योंके निमित्त कर्ता हैं । जब आत्मा ऐसा विकल्प करती है कि 'मैं घटको बनाऊँ तब काययोग द्वारा आत्मप्रदेशोंमें चंचलता आती है और चंचलताकी निमित्तता पाकर हस्तादिके व्यापार द्वारा दण्डसे चक्रका परिभ्रमण होता है और इससे घटादिकी निष्पत्ति होती है । ये विकल्प
और योग अनित्य हैं । अज्ञान वश आत्मा इनका कर्ता हो भी सकता है, पर 'पर' द्रव्यात्मक कर्मोंका कर्ता कदापि सम्भव नहीं है।
____ तथ्य यह है कि निमित्तके दो भेद हैं-(१) साक्षात् निमित्त और (२) परम्परा निमित्त । कुम्भकार अपने योग और उपयोगका कर्ता है । यह साक्षात् निमित्तकी अपेक्षा कथन है । यतः इनके साथ कुम्भकारका साक्षात् सम्बन्ध है और कुम्भकारके योग और उपयोगसे दण्ड चक्रादि द्वारा घटकी उत्पत्ति परम्परा निमित्तकी अपेक्षा है। जब परम्परा निमित्तसे होनेवाले निमित्त-नैमित्तिकको गौण कर कथन किया जाता है तब जीवको घटपटादिका कर्ता नहीं माना जाता। किन्तु जब परम्परा निमित्तसे होनेवाले निमित्त-नैमित्तिक भावको प्रमुखता दी जाती है, तब जीवको घट-पटादिका कर्ता कहा जाता है ।
१. जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति ।
पुग्गलकम्मनिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ । णवि कुवइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोह्लपि । एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण । पुग्गलकम्मकयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ॥
-समयसार, श्रुतभण्डार प्रकाशन समिति फल्टन, गाथा ८०-८२ २. जीवो ण करोदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दन्वे ।
जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ।। -वही, गाथा १००
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांस
घटका कर्ता कुम्भकार, पटका कुविन्द और रथका कर्ता बढ़ईको न माना जाय, तो लोक विरुद्ध कथन हो जायगा। लोकमें उनका कर्तृत्व परम्परा निमित्त की अपेक्षा ही संगत होता है।
___अभिप्राय यह है कि संसारके सभी पदार्थ अपने-अपने भावके कर्ता हैं । पर भावका कर्ता कोई पदार्थ नहीं है। कुम्भकार घट बनाने रूप अपनी क्रियाका कर्ता है । व्यवहार में कुम्भकारको जो घटका कर्ता कहा जाता है, वह केवल उपचार मात्र है । घट बनने रूप क्रियाका कर्ता घट है । घटकी बनने रूप क्रियामें कुम्भकार सहायक निमित्त है । इस प्रकार सहायक निमित्तको ही उपचारसे का कहा जाता है।
कत के दो भेद हैं-(१) वास्तविक कर्ता और (२) उपचरित कर्ता । क्रियाका उपादान ही वास्तविक कर्ता है। अतः कोई भी क्रिया वास्तविक कर्ताके बिना सम्भव नहीं है । उपचरित कर्ताके लिये यह नियम नहीं है । यथा-घट रूप कार्य के सम्पादन में उपचरित कर्ताको आवश्यकता है, पर नदीके बहने रूप कार्यमें उपचरित कर्ताकी आवश्यकता नहीं है ।
संक्षेपमें आत्माको ही रागादि भाव कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म और नोकर्म शरीरादिका कर्ता मानने के साथ स्वशुद्ध चैतन्य भावोंका भी कर्ता माना गया है। आत्माकी इस कर्तृत्व शक्तिका विवेचन जैन दर्शनमें बहुत विस्तारपूर्वक किया गया है और विभिन्न नय प्रक्रिया द्वारा आत्माकी कर्तृत्व शक्तिका निरूपण किया गया है । समीक्षा
जैन दर्शनमें आत्माको कर्ता कहा गया है। पर सांख्य दर्शनमें प्रकृति या प्रधानको कर्ना और आत्मा या पुरुषको फलभोक्ता कहा गया है। इस दर्शनके अनुसार आत्मा केवल कर्तृत्व शक्तिका साक्षी है । परिणामवादकी सिद्धिके साथ ही कर्तत्व भी सिद्ध हो जाता है । यह आत्मा कूटस्थ नित्य है, जो कुछ भी परिवर्तन होता है, वह प्रधान या प्रकृतिमें । पुरुष न कभी बद्ध होता है और न मुक्त । बन्धन और मुक्ति रूप जितने परिणाम हैं, वे सब प्रकृतिके आश्रित हैं, आत्माके आश्रित नहीं। आत्मा नित्य है। जन्म मरणादि जितने भी परिणाम होते हैं, वे उससे भिन्न हैं । अतएव सांख्य दर्शन आत्मा या पुरुषको अपरिणामी मानता है । प्रकृति ही बद्ध होती है और प्रकृति ही मुक्त होती है, इस कथनमें बद्ध और मुक्त प्रकृतिके अतिरिक्त किससे मानी जाती है । प्रकृति किसी अन्य तत्त्वसे तो बद्ध नहीं हो सकती। यदि प्रकृति स्वयं ही बद्ध होती है और स्वयं ही मुक्त होती है तो बन्धन और मुक्तिमें कोई अन्तर नहीं होगा। क्योंकि प्रकृति सर्वदा प्रकृति है, वह जैसी है, वैसी ही रहेगी। उसमें परिवर्तन सम्भव नहीं है। क्योंकि उसमें भेद डालनेवाला अन्य कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता।
यदि यह माना जाय, कि पुरुष प्रकृति के परिवर्तनमें कारण है, तो भी समस्याका समाधान सम्भव नहीं है । पुरुष सर्वदा प्रकृतिके सम्मुख रहता है । यदि वह निरन्तर एक रूप है, तो प्रकृति भी एक रूप रहेगी । यदि उसमें परिवर्तन होता है तो प्रकृतिमें भी परिवर्तन होगा। ऐसा सम्भव नहीं कि पुरुष तो सदैव एक रूप रहे और प्रकृतिमें परिवर्तन होता रहे।
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
यदि पुरुषको प्रकृतिके परिवर्तनमें कारण माना जाय तो पुरुषमें भी परिवर्तन मानना ही पड़ेगा ।
सांख्य दर्शन में सुखदुखादि समस्त क्रियाएँ मानसिक हैं, सब प्रकृतिको देन हैं । पुरुषका पर प्रतिबिम्ब पड़ता है और इस प्रतिबिम्बके कारण पुरुष यह समझने लगता है कि सुखदुखादि मेरे भाव हैं । वह अपने मूल स्वरूपको भूलकर सुखदुःखादिको अपना समझने लगता है । अतएव परिणामी और अकर्त्ता पुरुषगें इस प्रकारका परिणाम सम्भव नहीं है। जड़ प्रकृति चैतन्य परिणामोंका कर्त्ता नहीं हो सकती और न सुखदुःखादिका अनुभव बिना क्रियाके हो सकता है । सुखदुःखादि क्रियारूप ही है । ऐसी अवस्थामें पुरुषको अकर्त्ता और निष्क्रिय मानना किसी प्रकार ठोक नहीं है । पुरुषको साक्षी' मात्र मानना युक्ति विरुद्ध है ।
भतृत्व शक्ति : विवेचन
आत्मा फलोंका स्वयं भोक्ता । यह असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा पुद्गल कर्मफलोंका भोक्ता है । अन्तरंग में साता - असाताका उदय होनेपर बाहर में उपलब्ध होनेवाले सुखदुःखादि साधनोंका उपभोग करती है । अशुद्ध निश्चयन की अपेक्षा चेतनाके विकार रागादि भावकी भोक्ता है और शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा शुद्ध चैतन्य भावोंकी भोक्ता है ।
वस्तुतः आत्माके ही कर्ता और भोक्ता होनेके कारण संसारकी कोई भी परोक्ष शक्ति जीवके लिये किसी भी प्रकारका कार्य नहीं करती है । जीव स्वयं अपने भावोंका कर्त्ता - भोक्ता है । जीवको किसी दूसरी शक्तिके द्वारा कर्मफलकी प्राप्ति नहीं होती । आत्मा स्वयं ही अपने किये गये भावोंके अनुसार कर्मोंको बाँधती है और स्वयं ही अपने प्रयाससे कर्मोंसे मुक्त होती है । बन्धन और मुक्तिमें पर का किंचित् भी कर्तृत्व नहीं है । स्वभाव से रूपमें चलनेवाले इस जगत्का न कोई नियन्ता है और न कोई स्रष्टा है । किसी भी देवी देवताकी कृपासे इष्टानिष्ट फल प्राप्त नहीं हो सकता। सबसे बड़ा आत्मदेव है । इससे शक्तिशाली अन्य कोई भी नहीं है । हानि-लाभ, सुख-दुःख अपने ही हाथमें है, अन्य किसीके हाथ में नहीं । जब आत्मा अपनी कर्तृत्व और भोक्तृत्व शक्तिका अनुभव करने लगता है, अपने स्वरूपको पहचान लेता है, उस समय जगत्के देवी-देवता सभी आत्माके चरणोंमें नतमस्तक हो जाते हैं । अतएव यह जीव स्वतन्त्र है और स्वयं ही कर्त्ता और भोक्ता है ।
१. तस्माच्च विपर्यासात्सिद्ध साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । कैवल्यं
माध्यस्थ्यं द्रष्टृत्व कर्तृभावश्च ॥ सांख्य कारिका, श्लोक १९
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प्रामाण्यवाद
सन्निकर्ष प्रमाणवाद
सन्निकर्षवादी नैयायिकोंका कथन है कि अर्थका ज्ञान कराने में सबसे अधिक साधक सन्निकर्ष है । यह विदित है कि चक्षुका घटके साथ संयोग होनेपर ही घटका ज्ञान होता है । जिस अर्थका इन्द्रियके साथ सन्निकर्ष नहीं होता उसका ज्ञान भी नहीं होता । यदि इन्द्रियोंसे असन्निकृष्ट अर्थका भी ज्ञान माना जायगा तो सबको सभी पदार्थोंका ज्ञान होना चाहिए, किन्तु देखा जाता है कि जो पदार्थ दृष्टिसे ओझल होते हैं उनका ज्ञान नहीं होता ।
दूसरी बात यह है कि इन्द्रिय कारक है और कारक दूर रहकर अपना कार्य नहीं कर सकता । अत इन्द्रियाँ जिस पदार्थसे सम्बन्ध नहीं करती उसे नहीं जान सकतीं क्योंकि वे कारक हैं । जैसे - बढ़ईका बसूला लकड़ीसे दूर रहकर अपना काम नहीं करता । इसी प्रकार इन्द्रियाँ भी पदार्थ से दूर रहकर पदार्थको नहीं जान पाती हैं । यह सार्वजनीन सत्य है कि स्पर्शन इन्द्रिय पदार्थको स्पर्श कर ही जानती है, बिना स्पर्श किये नहीं जानती । यही बात अन्य इन्द्रियों विषयमें भी समझनी चाहिए ।
सन्निकर्ष छः भेद हैं
. (१) संयोग, (२) संयुक्त समवाय (३) संयुक्त समवेत समुदाय (४) समवाय (५) समवेत समवाय और (६) विशेषण विशेष्य भाव ।
चक्षुका वटादि पदार्थोंके साथ संयोग सन्निकर्ष है । घटादिमें समवाय सम्बन्धसे रहने वाले गुण कर्म आदि पदार्थोंके साथ संयुक्त समवाय सन्निकर्ष है । क्योंकि चक्षुका घटके साय संयोग सम्बन्ध है और उस घट में समवाय सम्बन्धसे गुण कर्म आदि रहते हैं तथा घटमें समवाय सम्बन्धसे रहने वाले गुणकर्म आदिमें समवाय सम्बन्धसे रहने वाले गुणत्व, कर्मत्व आदिके साथ संयुक्तसमवेतसमवाय सन्निकर्ष है । इसी तरह श्रोत्रका शब्दके साथ समवाय सन्निकर्ष है क्योंकि कर्णके छिद्रमें रहने वाले आकाशका ही नाम श्रोत्र है और आकाशका गुण होनेसे शब्द जहाँ समवाय सम्बन्धसे रहता है । शब्दत्वके साथ समवेत समवाय सन्निकर्ष है । इस घरमें घटका अभाव है । यहाँ घटाभावके साथ विशेषण विशेष्य भाव सन्निकर्ष है क्योंकि चक्षुसे संयुक्त गृहका विशेषण घटाभाव है ।
प्रथम प्रत्यक्ष ज्ञान ४, ३ अथवा २ के सन्निकर्षसे उत्पन्न होता है । बाह्यरूप आदिका प्रत्यक्ष ४ के सन्निकर्षसे होता है - आत्मा मनसे सम्बन्ध करता है, मन इन्द्रियसे और इन्द्रिय अर्थसे । खादिका प्रत्यक्ष ३ के सन्निकर्षसे होता है क्योंकि उसमें चक्षु आदि इन्द्रियाँ काम नहीं करतीं। योगियों को जो आत्माका प्रत्यक्ष होता है वह केवल आत्मा और मनके सन्निकर्ष - से ही होता है । अतः सन्निकर्षको ही प्रमाण मानना चाहिए !
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
न्यायसिद्धान्तमुक्तावलीमें इसीको स्पष्ट करते हुए बताया है कि द्रव्यका जहाँ त्वगिन्द्रियके द्वारा स्पर्शन प्रत्यक्ष हुआ वहाँ त्वक् संयोग कारण है एवं द्रव्यमें समवेत जो स्पर्श उसके प्रत्यक्षमें त्वक् संयुक्त समवाय सन्निकर्ष कारण है । द्रव्य में समवेत स्पर्श उसमें समवेत स्पर्शत्व आदिके प्रत्यक्षमें त्वक् संयुक्त समवेत समवाय सन्निकर्ष कारण है । यहाँ — त्वक् संयोगमें भी महत्त्वावच्छिन्नत्व - उद्भूत स्पर्शावच्छिन्नत्व चाक्षुष प्रत्यक्षकी तरह स्वीकार करना है । इसी प्रकार गन्धके प्रत्यक्षमें घ्राण संयुक्त समवाय सन्निकर्ष कारण है । गन्ध समवेत गन्धत्व के घ्राणसे उत्पन्न प्रत्यक्षमें घ्राण इन्द्रिय संयुक्त समवेत समवाय सन्निकर्ष कारण है । इसी प्रकार रसके प्रत्यक्षमें रसना संयुक्त समवाय सन्निकर्ष कारण है । रस में समवेत (रसत्व) के रासन प्रत्यक्ष में रसना संयुक्त समवेत समवाय सन्निकर्ष कारण है । शब्द प्रत्यक्ष में श्रोत्रावच्छिन्न समवाय सन्निकर्ष कारण है । शब्दमें समवेत ( शब्दत्व) के श्रावण प्रत्यक्ष श्रोत्रावच्छिन्न समवेत समवाय सन्निकर्ष कारण है । यहाँ प्रत्यक्ष शब्दसे अलौकिक प्रत्यक्षका ही ग्रहण करना है और यह प्रमाण स्वरूप है । अतएव रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दका ज्ञान सन्निकर्ष द्वारा ही होता है । अतएव सन्निकर्षको प्रमाण मानना आवश्यक है ।
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आत्म प्रत्यक्षमें भी सन्निकर्ष ही प्रमाणभूत है । आत्मामें समवेत ( सुखादि) के मानस प्रत्यक्ष में मनः संयुक्त समवाय सन्निकर्ष कारण है । यतः आत्मामें समवेत सुखादि, सुखादिमें समवेत सुखत्वादिके मानस प्रत्यक्षमें मनः संयुक्त समवेत समवाय सन्निकर्ष कारण हैं | अभाव के प्रत्यक्षमें और समवायके प्रत्यक्षमें इन्द्रिय सम्बद्ध विशेषणता सन्निकर्ष कारण है । यथा'भूतलादौ घटाद्यभावः' अथवा 'घटाभाववद् भूतलम्' में चक्षु इन्द्रिय सम्बद्ध भूतल है । उसमें विशेषता घटाभावकी है । इसी प्रकार 'घटत्व समवायवान घट:' में चक्षु इन्द्रिय सम्बद्ध घट है उसमें विशेषण समवाय है अतः विशेषणता समवायकी है ।
वैशेषिक समवायका प्रत्यक्ष नहीं मानते । यद्यपि विशेषण विशेष्य भाव सन्निकर्ष में अभावको विशेषणता मानी गयी है । यथा--' घटाभाववद् भूतलम्' में भूतलादिमें घटाभावका प्रत्यक्ष चक्षु संयुक्त विशेषणता सन्निकर्षसे होता है । संख्या आदिमें रूपादिकके अभावका प्रत्यक्ष संयुक्त समवेत विशेषणता सन्निकर्षसे होता है । यथा चक्षु संयुक्त भूतल है उसमें समवेत संख्या उसमें विशेषता रूपादिके अभावकी है । संख्यात्वादिमें रूपाभावका प्रत्यक्ष संयुक्तसमवेत, समवेत विशेषता सन्निकर्षसे है । यथा - चक्षु संयुक्त भूतल, उसमें समवेत संख्या, उसमें समवेत संख्यात्व, उसमें विशेषणता है रूपादिके अभावको । क्योंकि रूपादिका अभाव संख्यात्वमें विशेषण है । शब्दाभावका प्रत्यक्ष श्रोत्रावच्छिन्न विशेषणता सन्निकर्षसे होता है
मीमांसकों का अभिमत है - विशेषणतया तद्वद्भावानां ग्रहो भवेत् अर्थात् विशेषणता सन्निकर्षसे अभावोंका प्रत्यक्ष होता है । यह नैयायिकोंका कथन असंगत है । यतः अभावका प्रत्यक्ष होता ही नहीं । अतः अभाव प्रत्यक्षके अनुरोधसे विशेषण विशेष्यका सन्निकर्ष भाव स्वीकार करना व्यर्थ है । इस प्रश्नके उत्तरमें नैयायिकका कथन है कि मीमांसकके यहाँ अभावका ग्राहक कौनसा प्रमाण है । यदि अभावकी प्रतीतिका कारण ' अनुपलब्धि नामक प्रमाणको माना जाय तो वह अभावकी प्रतीति प्रत्यक्ष न रहकर परोक्ष रह जायगी । नैया
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जैम न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
यिकोंके यहां तो अभाव प्रत्यक्ष ही है और समवायको पदार्थ माना गया है । अतः इन दोनोंके संयोगसे विशेषणता सन्निकर्ष बन जायगा । इसमें भी अभाव प्रत्यक्ष में अनुपलब्धिको सहकारी कारण माना गया है और अभावका प्रत्यक्ष विशेषणता सन्निकर्षसे होता है । तथ्य यह है कि इन्द्रिय और विशेषता जन्य अभाव प्रत्यक्षमें योग्यतानुपलब्धि सहकारी कारण है । तथा हि भूतल आदि अधिकरणमें घटादिका प्रत्यक्षात्मक ज्ञान होनेपर घटाभाव आदिका प्रत्यक्ष नहीं होता। इससे यह सिद्ध हुआ कि अभावके उपलम्भ-प्रत्यक्ष में प्रतियोगीका उपलम्भाभावउपलब्धि अभाव अर्थात् अनुपलब्धि-प्रत्यक्ष न होना सहकारी कारण है । आशय यह कि जहां प्रतियोगीका प्रत्यक्ष नहीं होगा वहीं पर उसके अभावका प्रत्यक्ष होता है। ननुप्रतियोगीका उपलम्भाभाव यदि प्रतियोगीके अभाव प्रत्यक्षमें कारण है तो जलादि परमाणुमें पृथ्वीत्वका उपलम्भ-प्रत्यक्ष नहीं होता है क्योंकि वहाँ जलादि परमाणुमें पृथ्वीत्वोपलम्भाभाव है । अतः पृथ्वीत्वाभावका प्रत्यक्ष होता है ।
प्रतियोगी उपलम्भाभाव में योग्यता भी अपेक्षित है। अर्थात् योग्यता विशिष्ट जो प्रतियोगी उपलम्भाभाव वही प्रतियोगीके अभाव प्रत्यक्षमें कारण है। जिसका अभाव किया जाता है वह उसका प्रतियोगी होता है । अतः अभावके ग्रहणमें योग्यता विशेष कारण है और यह योग्यता उपालम्भाभावमें रहने वाला तादृश प्रतियोगित्वात्मक धर्म है। अतएव अभावका ग्रहण प्रत्यक्ष द्वारा सम्भव है। वायुमें रूपका अभाव, पाषाणमें सुगन्धका अभाव, गुड़में तिक्त रसका अभाव, श्रोत्रमें शब्दाभाव, आत्मामें सुखाभाव आदिके ग्रहण करने में तत्सम्बन्धी प्रतियोगियोंका प्रत्यक्ष होता है क्योंकि पूर्वोक्त अभावोंके प्रत्यक्षका अपादान-आरोप हो सकता है. क्योंकि इन अभावोंके प्रतियोगी जो रूपादि है उनके उपलम्भाभावमें-"प्रतियोगी सत्त्व प्रसञ्जन प्रसञ्जित प्रतियोगिकत्व रूप योग्यता है । अतः वायौ यदि रूपं स्यात् तहि चक्षुष उपलभ्येत ऐसा उपादान हो सकता है। संसर्गाभाव के प्रत्यक्षमें प्रतियोगीकी प्रत्यक्ष योग्यता अपेक्षित है और अन्योन्याभावके प्रत्यक्षमें तो अधिकरणकी योग्यता आवश्यक है।
___ सन्निकर्षके प्रत्यक्ष ज्ञानकी अपेक्षासे दो भेद हैं-लौकिक और अलौकिक । लौकिक सन्निकर्ष पूर्वोक्त छः प्रकारका होता है और अलौकिक सन्निकर्ष तीन प्रकारका है
अलौकिकस्तु व्यापारस्त्रिविधः परिकीर्तितः ।
सामान्यलक्षणो ज्ञानलक्षणो योगजस्तथा ॥' अर्थात् अलौकिक व्यापार रूप सन्निकर्ष तीन प्रकारका है-(१) सामान्य लक्षण (२) ज्ञान लक्षण और (३) योगज । सामान्य लक्षण शब्दका अर्थ है कि सामान्य घटत्वादि जाति और घटादि व्यक्ति-ये दोनों जिसके स्वरूप हों उससे सामान्य स्वरूप प्रत्यासत्ति रूप अर्थका लाभ होता है और वह सामान्य स्वरूप सम्बन्ध इन्द्रिय सम्बद्ध विशेष्यक अयं घटः इत्याकारक ज्ञान उसमें प्रकारीभूत समझना चाहिए। आशय यह है कि पूर्ववर्ती घटके साथ चक्षु संयोग होनेके अनन्तर घट घटत्वे इत्याकारक निर्विकल्पक ज्ञान होता है । उसके
१. न्याय सिद्धान्त मुक्तावली-न्यायाचार्य पं. श्री ज्वालाप्रसाद गौड़ ।
प्रकाशक-सरजू देवी, १८५ गणेश महाल, वाराणसी, प्रथम संस्करण १९५८ । पृ०-२५०, श्लोक संख्या-६३ ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन नाङ्मयका अवदान
बाद अयं घटः इस प्रकारका सविकल्पक ज्ञान होता है। यह ज्ञान घटको दिशेष्य विधया और घटत्वको विशेषण विधया ज्ञात करता है। अतः इन्द्रिय सम्बन्ध विशेष्य-घटका जो ज्ञान अयं घटः इत्याकारक ज्ञान इसमें प्रकारीभूत सामान्य वा घटत्व उस घटत्व रूप सामान्य लक्षण सन्निकर्षक द्वारा 'घटाः' इत्याकारक सकल घट विषयक अलौकिक प्रत्यक्ष होता है। इसीको मुक्तावलीमें निम्न प्रकार दिखलाया गया है
___ "तथाहि-इन्द्रियसम्बद्धो धूगादिस्तद्विशेष्यकं धूम इति ज्ञानं यत्र जातं, तत्र जाने धूभत्वं प्रकारः, तत्र धूमत्वेन रूपेण सन्निकर्षेण धमा इत्येवरूपं सकलधूमविषयकं ज्ञानं जायते । अत्र यदीन्द्रियसम्बद्धमित्येवोच्यते तदा धूलीपटले चूमत्वभ्रमानन्तरं सकलधूमविषयकं ज्ञानं न स्याद् धूमत्वेन सहेन्द्रियसम्बन्धाभावात् । मन्मते इन्द्रियसम्बद्ध धूलीपटलं तद्विशेष्यकं धूम इति ज्ञानं तत्र प्रकारीभूतं धूमत्वं प्रत्यासनिः । इन्द्रियसम्बन्धश्व लोकिको ग्राह्यः । इदं च बहिरिन्द्रियस्थले बोध्यम् । मानसस्थले तु ज्ञानप्रकारीभूतं सामान्य प्रत्यासत्तिः ।'
___ सामान्य पदार्थोंके भानको सामान्य शब्द द्वारा कहा गया है । यह सामान्य कहीं नित्य है । जैसे-शूमित्व आदि । कहीं अनित्य है जैसे-घटत्वादि । जहाँ एक ही घट संयोग सम्बन्धसे भूतलमें और सपनाय सम्बन्धसे कपालमें ज्ञात होनेके अनन्तर 'सर्वाणि भूतलानि प्रयोगेन घटवन्ति एवं सर्वे कपालाः समवायेन घटवन्तः' इस प्रकारसे संयोग सम्बन्धसे सकल घटवत् भूतलोंका-एवं समवाय सम्बन्धंसे सकल घटवाले कपालोंका ज्ञान होता है । अतएव सामान्य लक्षण प्रत्यासत्ति द्वारा सामान्य लक्षण सन्निकर्षकी प्रतीति होती है।
प्राचीन नैयायिकोंने ज्ञायमान सामान्यको प्रत्यासत्ति बतलाकर सामान्य ज्ञानको अलौकिक प्रत्यक्ष सन्निकर्ष माना है, पर नव्य नैयायिक कहते हैं "ननु संयोगेन घटवत् भूतलम्" इत्याकारक भूतलमें संयोग सम्बन्धसे घटका चाक्षुष प्रत्यक्ष हुआ ! उसके पश्चात् किसी कारणवश वह घट नष्ट हो गया । इस परिस्थितिमें उस घटके नाश होनेके बाद भी पूर्वोक्त चाक्षुष प्रत्यक्षात्मक अनुभवजन्य संस्कारके बलसे 'भूतलम् तद् घटवत्' यह स्मरण हो अनन्तर ज्ञान सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति के द्वारा तद् घटवाले समस्त अधिकरणों-भूतलोंकी तद् घटवन्ति भूतलानि इत्याकारक अलौकिक प्रतीति होती है । यह प्रतीति ज्ञायमान्य सामान्यको प्रत्यासत्ति माननेपर नहीं हो सकेगी। क्योंकि कारणभूत सामान्य-तद् घट नहीं है, नष्ट हो चुका है। अतः कारणके व्यतिरेक-न होनेपर कार्यका होना. यह व्यतिरंक व्यभिचार कहलायगा । इस प्रकार प्राचीन नैयायिकोंके मतमें नव्य नैयायिकोंने व्यतिरेक व्यभिचार नामक प्रथम दोष प्रतिपादित किया है। किंच दूसरी बात यह है कि इन्द्रिय सम्बद्द विशेज्यक 'अयं घटः' यह ज्ञान आज हुआ। दूसरे दिन घटके साथ इन्द्रिय सम्बन्धके बिना भी सर्वे घटा इत्याकारक अलौकिक प्रतीति होनी चाहिये । कारण कि आज हमारा चक्षु इन्द्रियके साप सम्बन्ध होकर 'अयं घटः' यह ज्ञान हमें हुआ। उस ज्ञान में प्रकारीभूत सामान्यघटत्व नित्य होनेके कारण सर्वदा रहेगा। अतः सामान्य रूप कारणके रहनेपर भी कार्य अलौकिक प्रत्यक्ष नहीं होता है ! अतः अन्वयव्यभिचार नामक द्वितीय दोष उत्पन्न हो जायगा । अतः सामान्य ज्ञानको ही प्रत्यासत्ति सन्निकर्ष मानना उचित है ।
१. वही पू० २५१-२५२
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा प्राचीन नैयायिकों का उक्त शंकाके समाधानमें उत्तर है कि सामान्य ज्ञानको प्रत्यासत्ति माननेसे नव्य नैयायिकके यहाँ भी उक्त दोनों दोष आ जायेंगे। नवीन नैयायिक उक्त शंकाका उत्तर देते हुए कहता है कि प्रथम पक्ष में घटके नाश होनेपर भी घटका ज्ञान तो है ही, द्वितीय पक्षमें सामान्य घटके नित्य होनेपर भी इन्द्रिय सम्बन्धके बिना उसका ज्ञान सर्वथा असम्भव है । यतः 'सामान्यविषयकं ज्ञानं प्रत्यासत्तिर्न तु सामान्यं ।'
ननु सामान्य लक्षण शब्दसे सामान्य विषयक ज्ञान यह अर्थ कैसे घटित हुआ। उत्तर-लक्षण शब्दका ही विषय अर्थ है । अतः सामान्य विषयक ज्ञानको प्रत्यासत्तित्वका लाभ हो गया। अतएव "तेन सामान्यविषयकं ज्ञानं प्रत्यासत्तिरित्यर्थो लभ्यते ।" ननु जहाँ चक्षु संयोगके बिना ही सामान्य-घटत्वका शाब्दिक या स्मरणात्मक ज्ञान हो गया है, वहाँ सर्व घटा इत्याकारक सकल घटोंका अलौकिक चाक्षषा प्रत्यक्ष होना चाहिये। उत्तर- ब आप चक्षुरादि बहिरिन्द्रियसे सामान्य लक्षणाके द्वारा अलौकिक चाक्षुष प्रत्यक्ष करना चाहें उस समय यत् किंचित् धर्ममें उस सामान्य-घटत्वका चक्षु आदि इन्द्रियसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानकी सामग्री अपेक्षित है। उस सामग्रीके बिना वह ज्ञान नहीं हो सकता और सामग्री चक्षु संयोग आदि है। अतः पूर्वोक्त स्थलमें चक्षु संयोगके बिना अलौकिक चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । आलोक संयोग भी सामग्रीके अन्तर्गत है । अतः अन्धकारमें घट आदिका चक्षुसे अलौकिक चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता है । अतएव सामान्य ज्ञान लक्षण प्रत्यासत्ति ही सामान्य लक्षण अलौकिक प्रत्यक्षके लिये सन्निकर्ष है ।
ननु ज्ञान प्रत्यासत्ति यदि ज्ञानरूपा और सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति भी ज्ञानरूप है, तो इन दोनों सन्निकर्षों में क्या अन्तर होगा ? उत्तर-सामान्य लक्षण सन्निकर्ष अपने आश्रयके अलौकिक प्रत्यक्षमें कारण होता है । अर्थात् सामान्यके सकल आश्रयोंका प्रत्यक्ष सामान्य लक्षणाके द्वारा होता है-जैसे घटत्व ज्ञानरूप सामान्य लक्षणासे घटत्वाश्रय सकल घटोंका अलौकिक प्रत्यक्ष होता है और ज्ञानलक्षणा सन्निकर्ष जिसका विषयी-ज्ञान होता है, उसीका व्यापार सन्निकर्ष होता है, आश्रयका नहीं । जैसे 'सुरभि चन्दनम्' में चन्दनको देखकर सौरभका ही स्मरणात्मक ज्ञानरूप ज्ञानलक्षणा सन्निकर्षके द्वारा अलौकिक प्रतीति होती है न कि सौरभाश्रय चन्दन की। क्योंकि-"चक्षुसंयुक्त मनःसंयुक्तात्म समवेत स्मृतिविषयत्वं' यही ज्ञान लक्षणा वस्तु है। चन्दनको देखनेके बाद सुगन्धकी स्मृति आती है । अतः तादृश स्मृति विषयत्वरूप ज्ञानलक्षणा सौरभका सन्निकर्ष है चन्दनका नहीं। क्योंकि चन्दनका तो चाक्षुष ही हो रहा है। नैयायिकोंका अभिप्राय यह है कि सामान्य लक्षणा अलौकिक सन्निकर्ष न माननेपर समस्त सामान्याश्रयोंकी प्रतीति नहीं हो सकेगी। क्योंकि प्रत्यक्ष मात्रमें सन्निकर्ष कारण है । मुक्तावलीमें बताया है-"प्रत्यक्षे सन्निकर्ष विना भानम् न सम्भवति तथाच् सामान्य लक्षणाम् विना धूमत्वेन सकलधूमानाम् वह्नित्वेन सकलवह्निमाम् च भानं कथं भवेत् तदर्थम् सामान्य लक्षणा स्वीक्रियेत" ।
ननु सामान्य लक्षणा स्वीकार कर ली जाये तो प्रमेयत्वरूप सामान्य लक्षणाके द्वारा समस्त प्रमेयोंका ज्ञान हो जानेसे सर्वज्ञताकी आपत्ति हो जायगी । उत्तर-प्रमेयत्वरूप सामान्य लक्षणाके द्वार। सामान्यतः यावत्प्रमेयका ज्ञान होनेपर भी घटत्व पद आदि तद् विशेष धर्मोके
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
द्वारा घट-पट आदि सकल धरनीरूप पदार्थ अज्ञात होनेके कारण सर्वज्ञ दोषकी आपत्ति नहीं है। इसी प्रकार ज्ञान लक्षणा यदि नहीं मानेगें, तो 'सुरभि चन्दनम्' इस ज्ञानमें सौरभका ज्ञान कैसे होगा ? अतः ज्ञानलक्षणा भी मानना चाहिए। ननु सुरभि चन्दनम् यहाँपर सौरभत्वरूप सामान्य लक्षणाके द्वारा सौरभका ज्ञान सम्भव है, फिर ज्ञान लक्षण सन्निकर्षकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर-उक्त स्थलमें सौरभकी प्रतीति सामान्यलक्षणासे होनेपर भी सौरभत्वका ज्ञान लक्षणा द्वारा ही सम्भव है । अतः 'सुरभि चन्दनम्' में सौरभत्वके भानके लिए ज्ञान लक्षणाका मानना आवश्यक है। इसी प्रकार जहाँ धूमत्व रूपसे धूम पटलका ज्ञान हुआ अर्थात् 'धूमत्वेन धूलिपटलमहं जानामि' यह अनुव्यवसाय हुआ। इस अनुव्यवसायमें धूलीपटलका भान ज्ञान लक्षणासे ही होगा। अतः ज्ञानलक्षणा प्रत्यासत्ति सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्तिसे सर्वथा भिन्न है।
योगज प्रत्यासत्ति उक्त दोनों सन्निकर्षोंसे भिन्न है। यतः-"योगाभ्यासजनितधर्मविशेषोभयसहकृतमनसा युञानस्य सूक्ष्मपदार्थविषयकं मानसं भवति"। योगज सन्निकर्षके दो भेद माने गये हैं
योगजो द्विविधः प्रोक्तो युक्तयुञ्जानभेदतः ।
युक्तस्य सर्वदाभानं चिन्ता सहकृतोऽपरः ॥ अर्थात् योगज अलौकिक सन्निकर्ष दो प्रकार का है-- (१) युक्त योगज अलौकिक सन्निकर्ष । (२) युञ्जान योगज अलौकिक सन्निकर्ष
योगज सन्निकर्ष मूलतः योगाभ्याससे उत्पन्न होता है । यह धर्म विशेष रूप है । योगी दो प्रकारके होते हैं, इसी कारण योगज सन्निकर्ष भी दो प्रकार का है । युक्त योगीको योगज धर्मकी सहायतासे आकाश, परमाणु आदि समस्त पदार्थोंका ज्ञान सर्वदा होता रहता है, पर युञ्जान योगीको आकाश परमाणु आदि समस्त पदार्थोंका ज्ञान ध्यान विशेषके करनेपर ही होता है । इस ध्यान विशेषको चिन्ता विशेष भी कहा गया है ।
इस प्रकार नैयायिकोंने सन्निकर्ष प्रमाणका विस्तार पूर्वक विचार किया है। __ जैन नैयायिकों और बौद्ध नैयायिकोंने सन्निकर्षको प्रमाण रूप नहीं माना है । जैनोंका अभिमत है कि वस्तुका ज्ञान कराने में सन्निकर्ष साधकतम नहीं है, अतएव वह प्रमाण नहीं । अन्वय व्यतिरेक समधिगम्य कार्यकारणभाव ही साधकतम माना गया है। अर्थात् जिसके होनेपर ज्ञान हो, और नहीं होनेपर न हो, उसे साधकतम कहा गया है । किन्तु सन्निकर्षमें यह बात नहीं है । कहीं-कहीं सन्निकर्ष के होनेपर भी ज्ञान नहीं होता। जैसे घटकी तरह आकाश आदिके साथ भी चक्षुका संयोग रहता है, फिर भी आकाश का ज्ञान नहीं होता है। अतः जो जहाँ बिना किसी व्यवधानके कार्य करता है वही वहाँ साधकतम माना जाता है । जैसे-घरमें रक्खे पदार्थोको प्रकाशित करनेमें दीपक । एक ज्ञान ही ऐसा है, जो बिना किसी व्यवधानके अपने विषयकी प्रतीति कराता है। अतः वही प्रतीतिमें साधकतम है। इसलिये वही प्रमाण १. सिद्धान्त मुक्तावली, कारिका ६५
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
है। सन्निकर्षवादी नैयायिकोंने इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि चक्षु सन्निकर्षमें घटादिकका ज्ञान करानेकी योग्यता है । आकाशादिका ज्ञान करानेको योग्यता नहीं है । अतः वह आकाशादिका ज्ञान नहीं कराता है । यह योग्यता विशिष्ट शक्तिका नाम है । उद्योतकरने सहकारियोंकी निकटताको शक्ति बतलाया है। अब प्रश्न यह है कि सन्निकर्षके सहकारी कारण द्रव्य हैं ? गुण हैं अथवा कर्म हैं ? आत्मद्रव्य तो सहकारी कारण हो नहीं सकता; क्योंकि आकाश और चक्षुके सन्निकर्षके समय आत्मा विद्यमान रहता है, फिर भी ज्ञान नहीं होता। इसीप्रकार काल, दिशा आदि भी सन्निकर्षके सहकारी कारण नहीं हो सकते; क्योंकि आकाश और चक्षुके सन्निकर्षके समय वे भी विद्यमान रहते हैं फिर भी आकाशका ज्ञान नहीं होता । मन भी सन्निकर्षका सहायक नहीं हो सकता; क्योंकि चक्षु और आकाशके सन्निकर्षके समय पुरुषका मन उस ओर हो तब भी आकाशका ज्ञान नहीं होता। अतः यह कहना ठीक नहीं कि आत्मा, मन, इन्द्रिय और अर्थ इन चारोंका सन्निकर्ष अर्थका ज्ञान कराने में साधकतम है; क्योंकि यह सब सामग्री आकाशके साथ सन्निकर्षके समय विद्यमान रहती है । यदि कहा जाये कि तेज द्रव्य प्रकाश सन्निकर्षका सहायक है; क्योंकि उनके होनेपर ही आँखोंसे ज्ञान होता है तो भी ठीक नहीं; क्योंकि घरकी तरह आकाशक साथ सन्निकर्षक समय प्रकाशके रहते हुए भी आकाशका ज्ञान नहीं होता। यदि अदष्ट गुणको सहायक माना जायेगा तो भी कभी न कभी आकाशका चक्षसे ज्ञान होनेका प्रसंग उपस्थित होगा; क्याकि सहकारी अदष्ट आकाश और सन्निकर्षके समय भी वर्तमान रहता है। इसी प्रकार कर्मको सन्निकर्षका सहकारी माननेसे भी वही दोष आता है; क्योंकि आकाश और इन्द्रियके सन्निकर्षके समय भी चक्षुका उन्मीलन-निमीलन कर्म चालू रहता है । अतः सहकारी कारणोंकी सहायता रूप शक्ति अर्थका ज्ञान कराने में साधक नहीं है, किन्तु ज्ञाताका अर्थको ग्रहण कर सकनेको शक्ति या योग्यता ही वस्तुका ज्ञान कराने में साधकतम है।
वस्तुतः नैयायिकके मतसे सन्निकर्ष स्वयं प्रमाण नहीं है, वह जिस ज्ञानको उत्पन्न करता है, वह ज्ञान ही प्रमाण है। ज्ञानकी उत्पत्ति इन्द्रिय और पदार्थके संयोग होनेपर होती है और यह संयोग कई प्रकारसे होता है। अतएव जो इन्द्रियार्थ-सन्निकर्षके प्रति तर्क दिये जाते हैं, उनमेंसे अधिकांश तर्क सार्थक नहीं हैं ।
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जैन-दर्शनमें शब्दका पौद्गलिकत्व प्रतिपादन प्रास्ताविक
शब्द और अर्थ क्या है ? इनका सम्बन्ध है या नहीं ? ये नित्य हैं या अनित्य ? यदि नित्य है तो इनका क्या स्वरूप है और अनित्य हैं तो क्या ? अर्थतत्त्वका ज्ञान कैसे और क्यों होता है ? अर्थ-तत्त्वका निर्णय किस प्रकारसे और किन साधनोंसे किया जाता है ?-आदि प्रश्नोंका समाधान वैयाकरणोंके अतिरिक्त दार्शनिकोंने भी किया है। शब्द सुदूर प्राचीन कालसे ही दार्शनिकोंके लिए विचारका विषय रहा है । जैन दर्शनकारोंने भी शब्द और अर्थत्तव पर पर्याप्त ऊहा-पोह किया है । प्रमोत्पत्तिका प्रधान साधन शब्द ही है । अतः इसके स्वरूप पर विचार करना दर्शन शास्त्रका एक अनिवार्य अंग है। स्वरूप
जैन दर्शनमें शब्दको पुद्गलका पर्याय या रूपान्तर माना गया है। इसकी उत्पत्ति स्कंधोंके परस्पर टकरानेसे होती है। इस लोकमें सर्वत्र पुद्गलरूप शब्द वर्गणाएँ, अति सूक्ष्म
और अव्याहत रूपसे भरी हुई हैं। हम अपने मुंहसे ताल्वादिके प्रयत्न द्वारा वायु विशेषका निस्सरण करते है, यही वायु पुद्गल-वर्गणाओंसे टकराती है, जिससे शब्दकी उत्पत्ति हो जाती है। प्रमेय-कमल-मार्तण्डमें शब्दके आकाश गुणत्वका निराकरण करते हुए बतलाया गया है कि परमाणुओंके संयोगरूप स्कन्धों-शब्दवर्गणाओंके सर्वत्र सर्वदा विद्यमान रहनेपर भी ये वर्गणाएँ शब्द रूप तभी परिणमन करती हैं, जब अर्थबोधकी इच्छा से उत्पन्न प्रयत्नसे प्रेरित परस्पर घर्षण होता है। वाद्यध्वनि तथा मेघ आदिको गर्जना भी वर्गणाओंके घर्षण का ही फल है । कुन्दकुन्द स्वामीने शब्द स्वरूपका विवेचन करते हुए लिखा है।
सदो खंधप्पभवो खंधो परमाणुसंगसंघादो।
पुढेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादिगो णियमा ॥-पंचास्तिकाय, गाथा ७९ शब्द स्कन्धसे उत्पन्न होता है । अनेक परमाणुओंके बन्धको स्कन्ध कहते हैं । इन स्कन्धोंके परस्पर टकरानेसे शब्दकी उत्पत्ति होती है । संस्कृत टीकाकार अमृतचन्द्राचार्यने स्पष्ट करते हुए लिखा है :
अतः यह सिद्ध है कि शब्द पुद्गलका पर्याय है-पुद्गल स्वरूप है और इसकी उत्पत्ति स्कन्धोंके परस्पर टकरानेसे होती है ।
जब शब्द पुद्गलका पर्याय है तो यह किस गुणके विकारसे उत्पन्न होता है; क्योंकि प्रत्येक पर्याय गुणोंकी विकृति-परिवर्तनसे उत्पन्न होता है । पुद्गलमें प्रधान चार गुण होते है-रूप, रस, गन्ध और स्पर्श । शब्द स्पर्श गुण के विकारसे उत्पन्न होता है । भाषा वर्गणाएं जो पुद्गल रूप हैं, उनमें पुद्गलके चारों प्रधान गुणोंके रहनेपर भी स्पर्श गुणके परिवर्तनसे शब्दको उत्पत्ति होती है । यही कारण है कि शब्द कर्ण इन्द्रियसे स्पर्श करनेपर ही अर्थबोधका कारण बनता है । आजके विज्ञानने (Sound) ध्वनिकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें जो प्रक्रिया प्रस्तुत
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा की है, उससे भी उपर्युक्त कथनकी सिद्धि होती है। विज्ञान ध्वनिकी उत्पत्तिमें 'कम्पन' को आवश्यक मानता है । यह कम्पन स्पर्श गुणके परिवर्तनसे ही सम्भव है। जैन दार्शनिकोंने शब्दको गतिमान, स्थितिमान और मूर्तिक माना है। परीक्षणसे भी उक्त तीनों गुण शब्दमें सिद्ध हैं । अत शब्द पुद्गलका पर्याय है और स्पर्श गुणके विकारसे उत्पन्न होता है तथा इसमें पुद्गलके चारों गुणोंमेंसे स्पर्श गुण ही प्रधान रूपसे व्यक्तावस्थामें पाया जाता है । नित्यानित्यत्व
मीमांसकका कहना है कि शब्दको अनित्य माननेसे अर्थको प्रतीति सम्भव नहीं; किन्तु शब्दसे अर्थकी प्रतीति होती है, अतः शब्द नित्य है । शब्द नित्य न हो तो स्वार्थका वाचक नहीं हो सकता है। शब्दमें वाचकत्व और अर्थमें वाच्यत्व-शक्ति है, अतः शब्द और अर्थमें वाच्यवाचक सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमादि प्रमाणोंसे सिद्ध है। उदाहरणके लिए यों कह सकते हैं कि हमने किसी व्यक्तिसे पानी लानेको कहा। शब्द अनित्य होता तो पानी शब्द कहनेके साथ ही नष्ट हो जाता और श्रोताको अर्थकी प्रतीति ही नहीं होती तथा हम प्यासे ही बने रहते और सुननेवाला हमें कभी भी पानी लाकर नहीं देता। पर यह सब होता नहीं है, श्रोता हमारे कहनेके साथ ही अर्थ बोध कर लेता है और जिस अर्थमें जिस शब्दका प्रयोग किया जाता है श्रोता उसकी क्रियाको भी सम्पन्न कर देता है। अतएव शब्द नित्य है, अन्यथा अर्थबोध नहीं हो सकता था। अनित्य शब्द से अर्थकी प्रतीति, प्रवृत्ति और प्राप्ति असम्भव है।
_ 'यह घट है' इस शब्दकी सदृशता इसी प्रकारके विभिन्न देशवर्ती शब्दोंमें पायी जाती है, अतः यह सदृशता अर्थका वाचक हो जायगी, नित्यता नहीं-यह आशंका भी निरर्थक है, अतः शब्द सदृशतासे अर्थका वाचक नहीं हो सकता; क्योंकि शब्दमें वाचकत्व एकत्वसे सम्भव है, सदृशतासे नहीं । न सादृश्य प्रत्यभिज्ञानसे अर्थका निश्चय किया जा सकता है; क्योंकि ऐसा माननेसे शब्द-ज्ञानमें भ्रान्ति-दोष आयगा । एक शब्दमें संकेत होनेपर दूसरे शब्दसे अर्थका निश्चय निन्ति नहीं हो सकता; अन्यथा गृहीत संकेत गोशब्दमें अश्व शब्दसे गाय अर्थका निश्चय भी अभ्रान्त हो जायगा । यदि शब्दके अवयवोंके साम्यसे शब्दमें सदृशता स्वीकार की जाय तो यह भी असंगत होगा; क्योंकि वर्ण निरवयव होते हैं । गत्वसे विशिष्ट गादि शब्दोंमें भी वाचकत्व नहीं बन सकता है; यतः गादि सामान्यका अभाव है और सामान्यके अभावके कारण शब्दों में नानात्व भी सम्भव नहीं। अतएव नित्य शब्द द्वारा ही अर्थबोध हो सकता है।
पतंजलिने 'ऋलक्' सूत्रकी व्याख्यामें जातिवाचक, गुणवाचक, क्रियावाचक और यदृच्छा शब्दोंका विवेचन करते हुए जाति शब्दोंको नित्य; क्रियावाचक शब्दोंको अत्यन्त सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष; गुणवाचक शब्दोंको अव्यवहार्य और स्वानुभूति-संवेद्य एवं यदृच्छा शब्दोंको लोकव्यवहारका हेतु माना है । यदृच्छा शब्द भौतिक हैं, ये नित्य नहीं; प्रतिक्षण परिवर्तनशील हैं।
कैयटने इसी सूत्रकी व्याख्यामें यदृच्छा शब्दके अतिरिक्त अन्य किसीका अस्तित्व स्वीकार नहीं किया । ये इसे माया, अविद्या और अज्ञानका ही प्रपंच मानते हैं ।
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
नैयायिक और वैशेषिक शब्दको अनित्य मानने हैं । उनका सिद्धान्त है कि उत्पत्तिके तृतीय क्षणमें शब्दका ध्वंस हो जाता है; यह आकाशका गुणविशेष है । लौकिक व्यवहारमें वर्णसे भिन्न नाद ध्वनिको ही शब्द कहा जाता है ।
२२
बौद्ध अपोह - अन्य निवृत्ति रूप शब्दको मानता है तथा इस दर्शन में शब्दको अनित्य माना गया है ।
प्रभाकरने शब्दकी दो स्थितियाँ मानी हैं- ध्वनि रूप और वर्ण रूप । दोनों रूप आकाशके गुण हैं । इनमें ध्वन्यात्मक शब्द अनित्य हैं और वर्णात्मक शब्द नित्य ।
जैन दर्शन में उपर्युक्त सभी दर्शनोंकी आलोचना करते हुए शब्दको नित्यानित्यात्मक माना गया है। तथ्य यह है कि जैन दर्शनमें विचार करनेकी दो पद्धतियाँ हैं - द्रव्याथिक नय या द्रव्यदृष्टि और पर्यायार्थिक या पर्यायदृष्टि । किसी भी वस्तुका विचार करते समय उपर्युक्त दोनों दृष्टियों में से जब एक दृष्टि प्रधान रहती है तब दूसरी दृष्टि गौण और दूसरीके प्रधान होनेसे पर पहली गौण हो जाती है । अतः द्रव्य दृष्टिसे विचार करनेपर शब्द कथञ्चित् नित्य सिद्ध होता है; क्योंकि द्रव्य रूप शब्द वर्गणाएँ सर्वदा विद्यमान रहती हैं और पर्यायदृष्टिकी अपेक्षासे शब्द कथञ्चित् अनित्य हैं; क्योंकि व्यक्ति विशेष जिन शब्दोंका उच्चारण करता है, वे उसी समय या उसके कुछ समय पश्चात् नष्ट हो जाते हैं । जैन दार्शनिकोंने पर्यायापेक्षा भी शब्दको इतना क्षण - विध्वंसी नहीं माना है, जिससे वह श्रोताके कान तक ही नहीं पहुँच सके और बीच में ही नष्ट हो जाय । एक ही शब्दकी स्थिति कथञ्चित् नित्यानित्यात्मक हो सकती है । यही कारण है कि जैन दार्शनिकोंने शब्दको एकान्त रूपसे नित्य या अनित्य माननेवाले पक्षोंका तर्क संगत निराकरण किया है। कुमारिल भट्टके नित्यपक्षकी आलोचना करते हुए प्रभाचन्द्रने बतलाया है कि अर्थके वाचकत्व के लिए शब्दको नित्य मानना अनुपयुक्त है; क्योंकि शब्दके नित्यत्व के बिना अनित्यत्वसे भी अर्थका प्रतिपादन सम्भव है । जैसे अनित्य धूमादिसे सदृशता के कारण पर्वत और रसोईघर में अग्निका ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार गृहीत संकेतवाले अनित्य शब्दसे भी सदृशता के कारण अर्थका प्रतिपादन सम्भव है । यदि कार्यकारण एवं सदृशता सम्बन्धों को वस्तुप्रतिपादक न माना जाय और केवल नित्यताको ही प्रधानता दो जाय तो सर्वत्र सभी पदार्थोंको नित्यत्वापत्ति हो जायगी । अतएव कुमारिलभट्टने जो शब्दको नित्य माना है तथा शब्दकी उत्पत्ति न मानकर उसका आविर्भाव एवं तिरोभाव माना है, वह सदोष है। तर्क द्वारा शब्द कथञ्चित् नित्यानित्यात्मक ही सिद्ध होता है । शब्दकी उत्पत्ति होती है, अभिव्यक्ति नहीं ।
अर्थ - प्रतिपत्ति
जैन दार्शनिकोंने अर्थ में वाच्य रूप और शब्दोंमें वाचक रूप एक स्वाभाविक योग्यता मानी है । इस योग्यताके कारण ही संकेतादिके द्वारा शब्द सत्य अर्थका ज्ञान कराते हैं । घट शब्दमें कम्बुग्रीवादिवाले घड़ेको कहनेकी शक्ति है और उस घड़े में कहे जाने की शक्ति है । जिस व्यक्तिको इस प्रकारका संकेत ग्रहण हो जाता है कि घट शब्द इस प्रकारके घट अर्थको कहता है, वह व्यक्ति घट शब्दके श्रवण मात्रसे ही जलाधारण क्रियाको करनेवाले घट पदार्थ का बोध प्राप्त कर लेता है । आचार्य माणिक्यनन्दिने अर्थ प्रतिपत्तिका निर्देश करते हुए कहा है
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
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सहजयोग्यतासंकेतवशाद्धि शब्दादयो वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः-परीक्षामुख ३.९६
प्रभाचन्दने शब्द और अर्थके वास्तविक सम्बन्धको सिद्धिमें उपस्थित किये गये तर्कोका उत्तर देते हुए लिखा है कि यह सत्य है कि अर्थज्ञानके विभिन्न साधनोंसे अर्थका ज्ञान समान रूपसे स्पष्ट नहीं होता; कोई अधिक स्पष्ट रूपसे वस्तुका ज्ञान कराते हैं और कोई नहीं । अग्नि शब्दसे उतना अग्निका स्पष्ट ज्ञान नहीं होता; जितना कि अग्निके जलनेसे उत्पन्न दाहका । साधनके भेदसे स्पष्ट या अस्पष्ट ज्ञान होता है, विषयके भेदसे नहीं । अतः स्पष्ट ज्ञान करानेवाले साधनसे ज्ञात पदार्थको असत्य नहीं कह सकते । साधकके भेदसे एक ही शब्द विभिन्न अर्थों के प्रकट करनेकी योग्यता रखता है ।
शब्द और अर्थकी इस स्वाभाविक योग्यतापर मीमांसकने आपत्ति प्रस्तुत की है कि शब्द-अर्थमें यह स्वाभाविकी योग्यता नित्य है या अनित्य ? प्रथम पक्षमें अनवस्था दूषण आयेगा और द्वितीय पक्षमें सिद्ध साध्यतापत्ति हो जायगी। इस शंकाका समाधान करते हुए बताया गया है कि हस्त, नेत्र, अंगुली संज्ञा सम्बन्धकी तरह शब्दका सम्बन्ध अनित्य होनेपर भी अर्थका बोध करानेमें पूर्ण समर्थ हैं। हस्त, संज्ञादिका अपने अर्थके साथ सम्बन्ध नित्य नहीं है, क्योंकि हस्त, संज्ञादि स्वयं अनित्य हैं, अतः इनके आश्रित रहनेवाला सम्बन्ध नित्य कैसे हो सकता है । जिस प्रकार दीवालपर अंकित चित्र दीवालके रहनेपर रहता है और दीवालके गिर जानेपर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार शब्दके रहनेपर स्वाभाविक योग्यताके कारण अर्थबोध होता है और शब्दाभावमें अर्थबोध नहीं होता । मीमांसकके समस्त आक्षेपोंका उत्तर प्रभाचन्द्रने तर्कपूर्ण दिया है।
भर्तृहरिने अपने वाक्यपदीयमें शब्द और अर्थकी विभिन्न शक्तियोंका निरूपण किया है। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डमें शब्द और अर्थकी स्वाभाविक योग्यताका निरूपण करते हुए भर्तृहरिके सिद्धान्तकी विस्तृत आलोचना की है । शब्द और अर्थका सम्बन्ध
जैन-दर्शन शब्दके साथ अर्थका तादात्म्य सम्बन्ध मानता है। यह स्वाभाविक है तथा कथञ्चित् नित्यानित्यात्मक है। इन दोनोंमें प्रतिपाद्य-प्रतिपादक शक्ति है। जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेयमें ज्ञाप्य-ज्ञापक शक्ति है, उसी प्रकार शब्द और अर्थमें योग्यताके अतिरिक्त अन्य कोई कार्य-कारण आदि सम्बन्ध भाव नहीं है। शब्द और अर्थमें योग्यताका सम्बन्ध होनेपर ही संकेत होता है । संकेत द्वारा ही शब्द वस्तुज्ञानके साधन बनते हैं। इतनी विशेषता है कि यह सम्बन्ध नित्य नहीं है तथा इसकी सिद्धि प्रत्यक्ष, अनुमान और अर्थापत्ति इन तीनों प्रमाणों द्वारा होती है ।
जैन दार्शनिकोंने नित्यसम्बन्ध, अनित्य सम्बन्ध एवं सम्बन्धाभावका बड़े जोरदार शब्दोंमें निराकरण किया है। प्रमेयकमलमार्तण्डमें प्रभाचन्द्रने जो विस्तृत समालोचना की है, उसीके आधारपर थोड़ा-सा इस सम्बन्धमें विवेचन कर देना, अप्रासंगिक न होगा।
वैयाकरण अर्थबोध शब्दसे न मानकर शब्दको अभिव्यक्त करनेवाली सामूहिक ध्वनि विशेषसे ही अर्थ-बोध मानते हैं और इसीका नाम उन्होंने स्फोटवाद रखा है। इसका कहना है
सम्बन्धावगमश्च प्रमाणत्रयसम्पाद्याः-प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ११६ ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
कि अर्थमें निश्चित वाच्य शक्ति है और उसका वाचक स्फोट है । यदि वर्गों में वाचकत्व शक्ति स्वीकार की जाय तो वों में यह वाचकत्व शक्ति न तो उनके समूहपनेसे सम्भव हो सकती है न पृथक्पनेसे । पृथक्पनेके मार्गको स्वीकार करने में 'गौः' शब्दमेंसे 'ग' वर्ण ही गाय पदार्थका वाचक हो जायगा। 'औं' और विसर्गका उच्चारण निष्फल ही होगा। यदि सामूहिक वर्णोंको अर्थबोधक माना जायगा तो वर्णों की सामूहिकता ही एक कालमें कैसे सम्भव हो सकेगी ? क्योंकि वर्ण अनित्य हैं। उनका उच्चारण क्रमशः होता है तथा इनके उच्चारण स्थान भी निश्चित हैं और ये उच्चारण स्थान एक साथ अपना काम नहीं करते हैं । अतः सामूहिक वर्ण अर्थबोध के हेतु नहीं हो सकते।
_ अनुग्राह्य और अनुग्राहक सम्बन्धकी ओक्षा भी वर्गों में वाचकत्व शक्ति सिद्ध नहीं हो सकती; अतः अनुग्राह्य-अनुग्राहक सम्बन्ध मूर्तमें होता है अर्थात् अनुग्राह्य वस्तु और अनुग्राहक वस्तु दोनोंके सद्भावमें यह नियम घटित होता है। इनमेंसे प्रथमके सद्भावमें और द्वितीयके अभावमें या द्वितीयके सद्भावमें और प्रथमके अभावमें यह नियम किस तरह कार्यकारी हो सकेगा? ग, औ और विसर्गमें 'ग' 'औ' पूर्व वर्ण हैं और विसर्ग पर वर्ण है। इनमें पूर्व वर्ण 'ग' 'औ' इन दोनोंका पर वर्ण विसर्गकी सद्भाव अवस्थामें अभाव है । अतः उपर्युक्त सम्बन्ध वों में नहीं है।
पूर्व वर्ण और अन्त्य वर्णमें जन्य-जनक सम्बन्ध भी नहीं है, जिसके आधारपर पर पूर्व वर्ण और अन्त्य वर्णका सम्बन्ध मानकर वर्णोंकी सामूहिकता एक कालमें एक साथ बन सके और उस सामूहिकताकी अपेक्षा वर्ण अर्थके वाचक हो सकें । अन्यथा वर्णसे वर्णकी उत्पत्ति होने लगेगी।
सहकार्य-सहकारी सम्बन्धको अपेक्षा भी पूर्व वर्ण और अन्त्य वर्गों का सद्भाव एक साथ एक कालमें नहीं माना जा सकता है; यतः विद्यमानोंमें ही यह सम्बन्ध होता है । अन्त्य वर्णके समयमें पूर्व वर्ण अविद्यमान है, फिर इस सम्बन्धकी कल्पना इनमें कैसे सम्भव है । जिस प्रकार यह सम्बन्ध वर्गों में सम्भव नहीं, उसी प्रकार पूर्व वर्ण-ज्ञान और पूर्व वर्णज्ञानोत्पन्न संस्कारमें भी नहीं बन सकता है। क्योंकि पूर्व वर्णज्ञानोत्पन्न संस्कार पूर्व वर्ण ज्ञानके विषयकी स्मृतिमें कारण हो सकता है, अन्यमें नहीं । वर्णज्ञानोत्पन्न संस्कारसे उत्पन्न स्मृतियाँ भी अन्त्यवर्णकी सहायता नहीं कर सकती, यतः उनकी उत्पत्ति भी एक साथ सम्भव नहीं। क्रमशः उत्पन्न स्मृतियोंकी उत्पत्ति भी असम्भव है। यदि सम्पूर्ण संस्कारोंसे उत्पन्न एक स्मृति अन्त्यवर्णको सहायता करती है, यह माना जाय तो विरोधी घटपदार्थ अनेक पदार्थोके अनुभवसे उत्पन्न संस्कार भी एक स्मृतिजनक हो जायेंगे। निरपेक्ष वर्ण पदार्थवाचक नहीं हो सकते हैं। क्योंकि पूर्व वर्णोंका उच्चारण निरर्थक हो जायगा । अतः किसी भी सम्बन्धमें ऐसी शक्ति नहीं है जिससे गौः आदि शब्दों द्वारा गवादि अर्थोकी प्रतीति हो सके । पर, अर्थकी प्रतीति शब्दों द्वारा देखी जाती है; अतः स्फोट नामकी शक्ति ही अर्थबोधका कारण है। स्फोटवादी शब्दको ब्रह्मस्वरूप मानते हैं । यही ज्ञान, ज्ञाता और श्रेय रूप है । स्फोटको भी नित्य, अखण्ड, अनिवर्चनीय और निर्लेप माना गया है।
जैन दर्शनकारोंने इस स्फोटवादको विस्तृत समीक्षा करते हुए बताया है कि ए कका अभाव अन्य वस्तुके सद्भावका कारण होता है । यह कारण उपादान हो अथवा निमित्त, पर
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कार्योत्पत्ति में सहायक अवश्य रहता है । प्रत्येक कार्य उपादान और निमित्त दोनों प्रकार के कारणोंसे उत्पन्न होता है । वलिष्ठ उपादान भी अकेला तब तक कार्य उत्पन्न नहीं कर सकता है, जब तक निमित्त सहायता नहीं करता है । शब्द की अन्तिम ध्वनि अर्थ प्रतीतिमें उपादान कारण है, पर यह उपादान अपने सहाकारी पूर्व वर्णकी अपेक्षा करता है । यद्यपि अन्त्य वर्णके समय में पूर्व वर्णका सद्भाव नहीं है, फिर भी श्रूयमाण पूर्व वर्णका अभाव तो अन्त्य वर्णके समय में विद्यमान है । इस अभावकी सहायतासे अन्त्यवर्ण अर्थ - प्रतीतिमें पूर्ण समर्थ है । जैसे आम्रवृक्ष की शाखापर लगा हुआ आम अपने भारके कारण स्वयं गिरकर अथवा दूसरे किसी कारणसे च्युत होनेपर वह अपना संयोग पृथ्वीसे स्थापित करता है । इस संयोगमें उसके पूर्व : संयोग का अभाव कारण है; अन्यथा पृथ्वीसे उसका संयोग हो ही नहीं सकता । अतएव पूर्व वर्ण- ज्ञान के अभाव से विशिष्ट अथवा पूर्व वर्णज्ञानोत्पन्न संस्कारकी सहायतासे अन्त्यवर्ण अर्थकी प्रतीति करा देता है ।
पूर्व वर्ण विज्ञानोत्पन्न संस्कार प्रवाहसे अन्त्यवर्णकी सहायताको प्राप्त करता है । प्रथम वर्ण और उससे उत्पन्न ज्ञानसे संस्कारकी उत्पत्ति होती है; द्वितीय वर्णका ज्ञान और उससे प्रथम वर्ण ज्ञानोत्पन्न संस्कारसे विशिष्ट संस्कार उत्पन्न होता है । इसी प्रकार अन्त्य संस्कार तक क्रम चलता रहता है । अतएव इस अन्त्य संस्कारकी सहायतासे अन्त्यवर्ण अर्थकी प्रतीति में जनक होता है ।
शब्दार्थ की प्राप्ति में सबसे प्रमुख कारण क्षयोपशम रूप शक्ति है, इसी शक्ति के कारण पूर्वापर उत्पन्न वर्णज्ञानोत्पन्न संस्कार स्मृतिको उत्पन्न करता है, जिसकी सहायतास अन्त्यवर्ण अर्थ-प्रतीतिका कारण बनता है । इसी प्रकार वाक्य और पद भी अर्थ प्रतीति में सहायक होते हैं ।
जैन दर्शनमें कथञ्चित्तादात्म्य लक्षण सम्बन्ध शब्द और अर्थका माना गया है, जिससे स्फोटवादीके द्वारा उठायी गयी शंकाओं को यहाँ स्थान ही नहीं । भद्रबाहु स्वामीने भी शब्द और अर्थके इस सम्बन्धकी विवेचना करते हुए कहा है-
अभिहाणं अभियाउ होइ भिन्नं अभिन्नं च । खुर अग्गिमोयगुच्चारणम्मि जम्हा उवयणसवणणं ॥ १ ॥ विच्छेदो न वि दाहो न पूरणं तेन भिन्नं तु । जम्हाय मोयगुच्चारणम्मिभतत्थेव पच्चओ होई ॥२॥
नय होइ स अन्नत्थे तेण अभिन्नं तदत्थाओ । — न्यायावतार पृ० १३
शब्द -- अभिधान अर्थ - अभिधेयसे भिन्न और अभिन्न दोनों ही है । चूंकि खुर, after और मोदक इनका उच्चारण करनेसे वक्ताके मुँह और श्रोताके कान नष्ट या जल या
भर नहीं जाते हैं, इसलिये तो अर्थसे शब्द कथञ्चिद्भिन्न हैं 'मोदक' अर्थमें ही ज्ञान होता है और किसी कथञ्चित् भिन्न है |
पदार्थ में नहीं होता.
शब्द के भेद
शब्दके मूलतः दो भेद हैं-- भाषा रूप प्रकारका है- -अक्षर रूप और अनक्षर रूप । मनुष्योंके
और चूंकि 'मोदक' शब्दसे इसलिये अपने अर्थसे शब्द
और अभाषा रूप । भाषा रूप शब्द भी दो व्यवहार में आनेवाली अनेक बोलियाँ
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अक्षररूप भाषात्मक शब्द है और पशुपक्षियोंकी टें टें, मैं-मैं अनक्षर रूप भाषात्मक शब्द हैं । अभाषा रूप शब्द के दो भेद हैं- प्रायोगिक और स्वाभाविक । जो शब्द पुरुष प्रयत्नसे उत्पन्न होता है उसे प्रायोगिक और जो बिना पुरुष प्रयत्नके मेघादिकी गर्जनासे होता है उसे स्वाभाविक कहते हैं । प्रायोगिकके चार भेद हैं-तत, वितत, घन और सुषिरा चमड़ेको मढ़कर ढोल, नगारे आदिका जो शब्द होता है, वह तत है । सितार, पियानो और तानपुरा आदिके शब्दको वितत घण्टा, झालर आदिके शब्दको घन एवं वाँसुरी, शंख आदिके शब्दको सुषिर कहते हैं ।
उपसंहार
जैन दर्शन में शब्दको महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । इसके बिना प्रमा ही संभव नहीं तथा सर्वज्ञ वचनोंकी प्रमाणताके अभाव में आगम भी प्रमाण नहीं हो सकेगा । शब्दको जैन दार्शनिकोंने आकाश गुण नहीं माना है, प्रत्युत पौद्गलिक सिद्ध किया है । शब्दकी सिद्धि अनेकान्तके द्वारा मानी है । पूज्यपादने अपने व्याकरणके आरम्भ में— 'सिद्धिरनेकान्तात् ' सूत्र लिखा है, जिसकी वृत्ति लिखते हुए सोमदेवने बतलाया है - "सिद्धिः शब्दानां निष्पत्तिर्ज्ञाप्तिर्वा भवत्यनेकान्तात्, अस्तित्व - नास्तित्वत्य नित्यत्वानित्व विशेषणविशेष्याद्यात्मकत्वात् दृष्टेष्टप्रमाणाविरुद्धत्वात् अर्थात् शब्दोंकी सिद्धि अनेकान्तके द्वारा हो सकती है । अतः प्रत्येक शब्द में नित्यत्व अनित्यत्व, अस्तित्व, नास्तित्व, विशेषण, विशेष्यत्व आदि अनेक विरोधी और अविरोधी धर्म पाये जाते हैं । जैन दर्शन शब्दके अर्थ विकास प्रसारमें स्वाभाविक योग्यताको ही कारण मानता है; परन्तु देश, काल आदिके प्रभाव के कारण शब्दके अर्थमें उत्तरोत्तर विस्तार होता रहता है । विद्यानन्द स्वामीने पुद्गल स्कन्ध रूप शब्दकी सिद्धि संक्षेपमें निम्न प्रकार की है
न शब्दः खगुणो बाह्यकरणज्ञानगोचरः । सिद्धो गंधादिवन्नैव सोमूर्तद्रव्यमप्यतः ॥ न स्फोटात्मापि तस्यैव स्वभावस्याप्रतीतितः ।
शब्दात्मनस्सदा नाना स्वभावस्यावभासनात् ॥
अन्तःप्रकाशरूपस्तु शब्दे स्फोटो परे ध्वनिः । यथार्थगतिहेतुः स्यात्तथा गंधादितोपरः ॥ बन्धरूपरसस्पर्शः स्फोटः किं नोपगम्यते । तत्राक्षेपसमाधान समत्वात्सर्वथार्थतः ॥
अत: जैन दर्शनने शब्दको आकाश गुण न मानकर पौद्गलिक माना है तथा शब्द और अर्थका कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध सिद्ध किया है । स्फोट द्वारा अर्थबोध नहीं होता है, क्योंकि वर्ण, ध्वनि, पद और वाक्यका स्फोट किसी भी दशामें सम्भव नहीं ।
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चन्द्रप्रभचरित काव्यमें तत्त्वोपप्लववाद-समीक्षा
वीरनन्दि द्वारा रचित चन्द्रप्रभ एक काव्य ग्रन्थ है, पर प्रसंग वश इस काव्यमें कई दार्शनिक मान्यताओंकी समीक्षा भी की गयो है। यहाँ हम अन्य दार्शनिक सिद्धान्तोंकी आलोचनान कर, केवल तत्त्वोपप्लववादको समीक्षा पर ही विचार-विनिमय करेंगे।
चार्वाक दर्शनके विभिन्न रूपोंमें एक तत्त्वोपप्लववाद भी है। यह भूत चैतन्यवादी चार्वाकसे भी नास्तिकतामें आगे है । भूत चैतन्यवादी कमसे कम भूतचतुष्टयका अस्तित्व स्वीकार करता है तथा उसकी सिद्धिके लिए एक प्रत्यक्ष प्रमाण भी मानता है, किन्तु तत्त्वोपप्लववादी तो किसी भी तत्त्वका अस्तित्व स्वीकार नहीं करता। उसके मतमें समस्त प्रमेयतत्त्व और प्रत्यक्षादि प्रमाणतत्त्व उपप्लुत-बाधित हैं। अतः जीवादि तत्त्व मानना एवं आत्मशुद्धिके लिए पुरुषार्थ करना व्यर्थ है । जो वस्तु प्रमाण सिद्ध है ही नहीं, उसकी साधना करना बालुका कणोंमेंसे तेल निकालनेके समान निष्फल है ।
तत्त्वोपप्लववादी' पूर्वपक्षकी स्थापना करता हुआ कहता है कि प्रमाणसे सिद्ध होनेवाला जीव नामका कोई पदार्थ नहीं है । अतएव जीवके आश्रयसे सिद्ध होनेवाला अजीव पदार्थ भी कैसे मान्य हो सकता है। ये दोनों परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हैं। स्थूल और सूक्ष्म धर्मोके समान एक दूसरेके आश्रित हैं । अतएव आश्रयके अभावमें आश्रयी और आश्रयीके न रहनेसे आश्रयकी स्थिति सम्भव नहीं है । जब जीव नहीं है, तो जीवके कर्मबन्ध और मोक्षादि किस प्रकार घटित हो सकते हैं । यतः धर्मकी स्थिति धर्मीमें ही होती है ।
___तार्किक दृष्टिसे विचार करनेपर जीवादि पदार्थोंका न तो आकारिक (Formal) सत्य उपलब्ध होता है और न वास्तविक ही (Material) दृश्यमान जगत्के पदार्थ न तो परमतम सत्य हैं, न व्यावहारिक सत्य और न लौकिक ही । विचार करते ही पदार्थोंका स्वरूप उपप्लुतबाधित होने लगता है और जब तत्त्व स्वरूप ही उपप्लुत है तो फिर अनुमानादि प्रमाणोंका स्वरूप किस प्रकार स्थिर रह सकेगा? वह तो विचार करते ही जीर्ण वस्त्रके समान खण्डित हो जाता है। जिस अनुमान या तर्क द्वारा प्रमेयोंकी सिद्धि की जाती है, वह अनुमान संशयास्पद अथवा मिथ्या होता है, अतएव मिथ्यासे सत्यको सिद्धि कभी भी सम्भव नहीं है। जब प्रत्यक्ष
१. केचिदित्थं यतः प्राहुर्नास्तिकाममाश्रिताः ।
न जीवः कश्चिदप्यस्ति पदार्थो मानगोचरः । अजीवश्च कथं जीवापेक्ष्यस्तस्यात्यये भवेत् । अन्योन्यापेक्षया तौ हि स्थूलसूक्ष्माविव स्थितौ ।। कथञ्च जीवधर्माः स्युर्बन्धमोक्षादयस्ततः । सति धर्मिणि धर्मी हि भवन्ति न तदत्यये ॥ तस्मादुपप्लुतं सर्व तत्त्वं तिष्ठतु संवृत्तम् । प्रसार्यमाणं शतधा शीर्यते जीर्णवस्त्रवत् ॥-चन्द्रप्रभचरितम् २/४४-४७
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
ज्ञान बाधित है, तब अप्रत्यक्ष या असाक्षात् ज्ञानके सत्य होनेका दावा किसी किसी प्रकार नहीं किया जा सकता है।
तत्त्वोपप्लववादी चार्वाकका उक्त कथन आधुनिक तर्क शास्त्रके 'पर्याप्त कारण नियम' (law of Surfficicnt rcason) पर आधृत है। कोई भी सत्य या तथ्य पर्याप्त कारणोंके बिना सिद्ध नहीं होता है। प्रमाण-प्रमेयके अस्तित्वकी सिद्धि में पर्याप्त कारणोंका अभाव दिखलायी पड़ता है, अतः सभी तत्व उपप्लुत हैं ।
अनेक मतावलम्बी' जीवको स्वीकार करते हैं, पर उसके स्वरूपके सम्बन्धमें पर्याप्त मतभेद है। विपरीत धारणाओंके मध्य किसके विचारको यथार्थ समझा जाय । सांख्य जीवको त्रिकाल भूत, भविष्यत् और वर्तमानमें व्याप्त एवं अविनाशी मानते हैं। मीमांसक जीवको कर्तव्य शक्तिहीन, नैयायिक अज्ञानमय और बौद्ध जीवको विज्ञानमय मानते हैं । विभिन्न मतावलम्बियोंकी परस्परमें व्याघातक मान्यताएं ही जीवका अभाव सिद्ध करनेमें सहायक हैं।
आधुनिक तर्कके मध्यवर्ती निषेध-नियमके (law of excluded middle) अनुसार दो व्याधातक पदोंके बीच तीसरे पदके लिए कोई स्थान नहीं हो सकता । दो विरोधी तर्क एक साथ न तो सत्य हो सकते हैं और न असत्य ही । अतएव जीवके स्वरूपके सम्बन्धमें किये गये विरोधी विचार जीवका अभाव बतलाते हैं ।
___ यहां तत्त्वोपप्लववादी तत्त्वदादियोंसे प्रश्न करता है कि जो तत्त्व-प्रमाण तत्त्व और प्रमेय तत्त्व आप मानते हैं, वे प्रमाण सिद्ध है अथवा बिना प्रमाणके । यदि प्रमाण सिद्ध हैं, तो वह प्रमाण भी किसी अन्य प्रमाणसे सिद्ध होगा। इस प्रकार प्रश्नान्तर होनेसे अनवस्था दोष आयगा, जिससे प्रमाण तत्त्वकी सिद्धि सम्भव नहीं । यदि यह कहा जाय कि प्रथम प्रमाण द्वितीय प्रमाणका व्यवस्थापक है और द्वितीय प्रथमका तो यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उस मान्यतामें अन्योन्याश्रय दोष आता है । यदि प्रमाण की प्रमाणता स्वयं ही व्यवस्थित मानी जाय तो समस्त प्रमाणवादियोंके यहां कोई विवाद उठनेपर उसकी व्यवस्था प्रमाण द्वारा स्वीकार करने में पूर्ववत् अन्योन्याश्रय दोष आयगा। यदि प्रमाणके बिना ही प्रमाणतत्त्वकी सिद्धि मानी जाय तो तत्त्वोपप्लवकी सिद्धि भी बिना प्रमाणके मान लेने में क्या हानि है ।
तत्त्ववादीका यह तर्क भी समीचीन नहीं कि विचारके बाद प्रमाणादितत्त्वकी व्यवस्था होती है और विचार जिस किसी तरह किये जानेपर उपालम्भके योग्य नहीं है । अन्यथा किसी वचनका प्रयोग ही नहीं हो सकेगा। इस प्रकारको विचार प्रक्रियाका संयोजन तत्वोपप्लवमें भी सम्भव है।
१. जोवमन्ये प्रपद्यापि तद्धर्म प्रतिवादिनः ।
विवदन्ते प्रबन्धेन विविधागमवासिताः ।।-चन्द्रप्रभ चरितम् २/४८ २. परस्य सिद्धं प्रमाणं तदभावविषयमिति चेत् तत् परस्य प्रमाणतः सिद्धं प्रमाणान्तरेण वा ?
यदि प्रमाणतः सिद्ध नानात्मसिद्धं नाम, प्रमाणसिद्धस्य नानात्मनां वादि-प्रतिवादिनां सिद्धत्वाविशेषात् ।.... अष्टसहस्री, पृ० ३७
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
प्रमाणका प्रामाण्य किस प्रकार स्थिर किया जाता है'-(१) निर्दोष कारण समुदायके उत्पन्न होनेसे (२) बाधा रहित होनेसे (३) प्रवृत्ति सामथ्र्यसे अथवा (४) अविसंवादी होनेसे । प्रथम पक्ष असमीचीन है, क्योंकि कारणोंकी निर्दोषता किस प्रमाणसे जानी जायगी। प्रत्यक्ष और अनुमानादिसे निर्दोषता नहीं मानी जा सकती है । दूसरी बात यह है कि चक्षुरादि इन्द्रियां गुण और दोष दोनोंका आश्रय है, अतः इनसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानमें दोषोंकी आशंकाकी निवृत्ति नहीं हो सकती है। यदि दोष-निवृत्तिके हेतु अन्य प्रमाणको कारण माना जायगा तो अनवस्था और चक्रक दोषका प्रसंग आयेगा ।
द्वितीय पक्ष भी असमीचीन है । यतः बाधकोंकी उत्पत्तिके अभावमें प्रमाणता माननेपर मिथ्या ज्ञान भी कुछ समय तक प्रमाण हो सकता है। क्योंकि कभी-कभी बहत काल तक मिथ्या प्रतीतिमें भी बाधकोंकी उत्पत्ति नहीं होती। अतः बाधक उत्पत्ति रहित होनेसे प्र प्रामाण्य स्थिर नहीं माना जा सकता है । यदि सर्वदाके लिए बाधकका अभाव प्रामाण्यका कारण माना जाय, तो बाधकके अभावका निश्चय किस प्रकार होगा?
एक दूसरी बात यह भी है कि किसी एककी बाधाकी उत्पत्तिका अभाव प्रमाणताका कारण है अथवा सभीकी बाधाकी उत्पत्तिका अभाव प्रमाणताका कारण है। प्रथम विकल्प स्वीकार करनेपर विपर्यय ज्ञानमें भी किसी-किसीको बाधाकी उत्पत्ति नहीं होती । अतः वह भी प्रमाण हो जायगा। सभीकी बाधाकी उत्पत्तिका अभाव भी अर्थ ज्ञानमें प्रमाणताका कारण नहीं है । क्योंकि किसोको बाधाकी उत्पत्ति नहीं भी होती है। तथा सभीको बाधाकी उत्पत्ति नहीं होगी, इसे अल्पज्ञानी कैसे जान सकेगा ? ।
प्रवृत्ति-सामर्थ्य द्वारा भी प्रमाणके प्रामाण्यका निश्चय नहीं किया जा सकता। क्योंकि इसमें अनवस्था दोष आता है । हम पूछते हैं कि प्रवृत्ति-सामर्थ्य है क्या ? यदि फलके साथ सम्बन्ध होनेका नाम प्रवृत्ति-सामर्थ्य है तो बतलाइए वह सम्बन्ध ज्ञात होकर ज्ञानकी प्रमाणताका निश्चय कराता है या अज्ञात रहकर । अज्ञात रहकर तो वह ज्ञानके प्रामाण्यका निश्चायक नहीं हो सकता है ? अन्यथा कोई भी अज्ञान किसीका भी निश्चायक हो जायगा। यह सार्वजनीन सिद्धान्त है कि अज्ञान ज्ञापक नहीं होता । यदि ज्ञात होकर ज्ञानके प्रामाण्यका निश्चायक है तो यह विकल्प उत्पन्न होता है कि उसका ज्ञान उसी प्रमाणसे होता है या अन्य प्रमाणसे । प्रथम पक्ष असत् है, अन्योन्याश्रय दोष उत्पन्न होनेके कारण । द्वितीय विकल्प माननेपर चक्रक दोष आता है।
__यदि सजातीय ज्ञानको उत्पन्न करनेका नाम प्रवृत्ति-सामर्थ्य माना जाय तो यह कथन भी भ्रामक है। अतः सजातीय ज्ञानको प्रमाणता का निश्चय प्रथम ज्ञानसे माननेपर अन्योन्याश्रय और अन्य प्रमाणसे माननेपर अनवस्थादोष आता है। इस प्रकार प्रमाणका लक्षण उत्पन्न न होने से प्रमेय तत्त्वकी सिद्धिका अभाव स्वतः हो जाता है । अत एव प्रमाण-प्रमेय सभी उपप्लुत-बाधित हैं।
१. किमदुष्टकारकसन्दोहोत्पाद्यत्वेन, आहोस्विद्बाधा रहितत्वेन, प्रवृत्तिसामर्थ्येन, अन्यथा
वा ?-जयराशि-तत्त्वोपल्लवसिंह, ओरियन्टल इन्स्टीच्यूट, बड़ौदा, सन् १९४०, पृ० २
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उत्तर पक्ष- समीक्षा
तत्त्वोपप्लववादीका यह कथन सर्वथा निराधार है कि जीवसिद्धि किसी भी प्रमाणसे सम्भव नहीं । आस्तिकवादी दार्शनिकोंने जीवके नास्तित्व धर्मकी सिद्धि के लिए जो अनुपलब्ध हेतु दिया है, वह निःसार है, क्योंकि प्रत्येक प्राणीमें जीवके होनेका प्रमाण स्वसंवदेन रूप ज्ञानके द्वारा सिद्ध होता है । मैं सुखी हूँ, दुखी हूँ आदि अनुभव स्वसंवेदन गोचर है । अतः प्रत्येक प्राणीमें आत्मतत्त्वकी अनुभूति होती है । अतएव सुख-दुःख राग-द्वेष आदि भावोंसे युक्त जीव पदार्थ प्रत्यक्ष द्वारा सिद्ध होता है । प्रत्येक प्राणी स्वानुभूतिसे अपने अस्तित्वको जानता है ।
दूसरी बात यह है कि धर्मी वह होता है, जो प्रमाणसे सिद्ध है । तत्त्वोपप्लववादीने जीवका अभाव सिद्ध करनेके लिए जो यह अनुमान दिया है - 'जीव कोई पदार्थ नहीं है, क्योंकि उसकी उपलब्धि नहीं होती' यह अनुमान मिथ्या है, क्योंकि जीवनरूपी धर्मी प्रत्यक्षादि प्रमाणसे सिद्ध है ।
यह
जब जीव पदार्थ प्रमाणसे सिद्ध है, तब उसका नास्तित्व सिद्ध करनेके लिए व्यर्थ हेतुका प्रयोगकर अपनी हँसी कराना है। यह कहना ठीक नहीं है कि ज्ञान कलशादिके समान ज्ञेय होनेसे अपने स्वरूपको नहीं जानता, किन्तु अन्य पदार्थोंको जानता है । अर्थात् जैसे कलशको अपना ज्ञान नहीं होता, पर औरोंको उसका ज्ञान होता है, इसी तरह ज्ञानको स्वयं अपने स्वरूपका निश्चय नहीं होता, पर उसके रूपका निश्चय दूसरा उत्तर कालीन ज्ञान करता है, विचार-सरणि मिथ्या है । ज्ञान स्वपर - प्रकाशक है; यह इसका निजी धर्म दीपक के समान है | जिस प्रकार दीपक अपनेको प्रकाशित करके ही अन्य विषयोंको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान भी अपने को जान कर ही अन्य विषयों या भावोंको अवगत करता है । जो ज्ञान अपनेको नहीं जानता, उसकी प्रवृत्ति अन्य विषयोंमें हो ही नहीं सकती, क्योंकि, पूर्व - पूर्वके ज्ञेय रूप ज्ञानका निश्चय करनेके लिए उत्तरोत्तर जो भी ज्ञान होंगे, वे भी ज्ञेय ही होंगे । अतः जब वे ज्ञान-स्वरूपके निश्चय करनेमें ही चरितार्थ हो जायेंगे तब उनकी प्रवृत्ति दूसरे विषय में नहीं हो सकती ।
१. जीवो नास्तीति पक्षोऽयं प्रत्यक्षादि-निराकृतः,
तत्र हेतुमुपन्यस्यन् कुर्यात् कः स्वविडम्ननाम् । - चन्द्रप्रभचरितम् २/५४
२. प्रतिजन्तु यतो जीवः स्वसंवेदनगोचरः,
सुख-दुःखादिपर्यायैराक्रान्तः प्रतिभासते । —- चन्द्रप्रभचरितम् २/५५
३. न चास्वविदितं ज्ञानं वेद्यत्वात् कलशादिवत्,
स्वात्मन्यपि क्रियादृष्टेः दीपादेः स्वप्रकाशनात् । विषयान्तरसंचारो न च स्यादस्ववेदिनः,
अपरापरबोधस्य वेदनीयस्य संभवात् ।
अनवस्था लता च स्यान्नभस्तत्र विसर्पिणी, यदेवाविदितं तेषु तन्न पूर्वस्य वेदकम्, तस्माद् विषयविज्ञानमप्रत्यक्षमवस्थितम्, यदप्रत्यक्षतायां च विषयस्यापि सा गतिः । परोक्षादपि चेज्ज्ञानादर्थाधिगतिरिष्यते, परेण विदितोऽप्यर्थस्तथा स्वविदितौभवेत् । वही २/५०-५५
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
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दूसरा तर्क यह है कि यहाँपर जो ज्ञान अज्ञान है, वह ज्ञान प्रथम ज्ञानका बोध कराने वाला नहीं हो सकता और यदि ऐसा नहीं मानते तो अनन्त अनवस्था दोष रूपी लता फैलकर समस्त आकाशको व्याप्त कर लेगी। इस कारण पदार्थका ज्ञान अप्रत्यक्ष ठहरा और उसके अप्रत्यक्ष होनेपर पदार्थकी भी वही स्थिति होगी। यदि अप्रत्यक्ष ज्ञानसे भी विषयका निश्चय स्वीकार करते हैं तो दूसरेका जाना हुआ विषय भी अपनेको विदित हो जायगा। इस प्रकार जीव अपने शरीरमें अपने ज्ञानसे प्रत्यक्ष सिद्ध है और अन्यके शरीरमें अनुमानसे सिद्ध है । अतः एव तत्त्वोपप्लववादी द्वारा निरसन किया गया जीव स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे सिद्ध है।
इस प्रकार तत्त्वोपप्लववादीने जीव, तत्त्वके उपप्लवके लिए जो युक्तियाँ दी हैं तथा जिन व्याघातक कारणोंका निरूपण किया है, उन सबका निरसन जीव तत्त्वकी सिद्धिसे हो जाता है । वस्तुतः तत्त्वोपप्लववादी चार्वाक प्रमेय तत्त्वमें जीवको और प्रमाण तत्त्वमें अनुमानको प्रमुखता देता है । वीरनन्दीने चन्द्रप्रभ चरितमें पूर्व पक्षके पश्चात् उत्तर पक्षमें जिन तर्कोको उपस्थित किया है, उन तर्कोमें जीव तत्त्व सिद्धि सम्बन्धी तर्क हो प्रमुख हैं । इस स्थलके अध्ययनसे सामान्यतः भूतवादी चार्वाककी युक्तियां ही प्रतीत होती हैं, पर संदर्भ के अन्तमें वीरनन्दीने प्रमेय और प्रमाण तत्त्वकी सिद्धिके लिए जिन युक्तियोंका निरूपण किया है, उनका सम्बन्ध तत्वोप लववादोके साथ घटित होता है और पूर्व पक्षमें उठाये गये समस्त विकल्पोंका समाधान भी प्राप्त होता है।
हम यहाँ वीरनन्दी द्वारा प्रस्तुत जीव सिद्धि-सम्बन्धी युक्तियोंको उपस्थित करने के अनन्तर तत्त्वोपप्लववादीके अन्य तर्कोका चन्द्रप्रभको शैलोमें ही आलोचना प्रस्तुत करेंगे । बताया गया है कि गर्भ में आनेसे लेकर मरण पर्यन्त स्वानुभव द्वारा जीवका अस्तित्व माना भी जा सकता है ।२ पर गर्भ में आनेके पूर्व और मरणके पश्चात् किस प्रमाणसे जीवका अस्तिस्व सिद्ध होगा। जीवके अभावमें अजीवादि तत्त्व भी उपप्लुत हो जायेंगे । यह तर्क भी असमीचीन है । भौतिक जगत्में प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होनेवाले वायु, अग्नि और जल-आदि जिम प्रकार अनादि अनन्त हैं, उसी प्रकार जीव भी अनादि अनन्त है। यह स्वयं सिद्ध है कि नित्य वस्तुका कोई कारण नहीं होता। नित्यकी कारण हीनता किसी हेतु या प्रमाणके द्वारा असिद्ध नहीं की जा सकती है। क्योंकि इस कारणहीनताको असिद्ध सिद्ध करनेवाला कोई हेतु या प्रमाण नहीं है ।
हम तत्त्वोपप्लववादीसे यह जानना चाहेंगे कि जीवादि तत्त्वोंका उपप्लव कैसे करते हो ? प्रमाणके द्वारा या बिना प्रमाणके द्वारा । प्रमाणसे तो उपप्लव हो नहीं सकता, क्योंकि प्रमाण तो तत्त्वोंका सद्भाव ही सिद्ध करता है। प्रमाणके अभावमें किसी वस्तुका सद्भाव या असद्भाव माना नहीं जा सकता। अतएव वायु आदि तत्त्वोंको जीवका कारण माननेवाला देहवादी चार्वाक भी तत्त्वोपप्लववादी चार्वाकके समान असमीचीन है। यहाँ यह विकल्प होता है कि वायु आदि तत्त्व मिलकर जीवका कारण होते हैं या पृथक्-पृथक् ? प्रथम पक्ष १. तस्मात्स्वरवेदने सिद्धे प्रत्यक्ष सति युक्तितः, प्रत्यक्षबाधा न भवेत् कथं नास्तित्ववादिनाम् ।
वही २/६१ २. चन्द्रप्रभचरितम् २/६२-६३
३. वही २६४
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भारतीय संस्कृतिके विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
असमीचीन है, यतः तत्त्वाभावमें जड़ तत्वोंका अस्तित्व ही संभव नहीं । जब तत्त्वोंका उपप्लव माना जाता है तो जड़ तत्त्वोंका भी उपप्लव मानना ही पड़ेगा। दूसरी बात यह है कि जड़ तत्त्वोंसे चेतन जीवकी उत्पति संभव नहीं। प्रसिद्ध है कि सजातीयसे सजातीयकी उत्पत्ति होती है, विजातीय की नहीं' । अन्यथा जलसे पृथ्वीको उत्पत्ति और पृथ्वीसे वायुकी उत्पत्ति माननी पड़ेगी। यदि वायु आदि तत्त्वोंको पृथक्-पृथक् जीवोंकी उत्पत्तिका कारण मानते हैं तो भूतोंके समान जीवोंकी संख्या भी हो जायगी।
___ यदि यह माना जाय कि भूत तत्त्व भी उपप्लुत है, अतः चेतनजीवके उपादान कारण नहीं सहकारी कारण है ।२ यह तर्क भी निराधार है क्योंकि उपादानके अभावमें केवल सहकारी कारणसे कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। अतएव तत्त्वोपप्लववादीका 'जीवो नास्ति, अनुपलब्धेः।" यह कथन असमीचीन है । यतः उपलब्धि हेतु द्वारा स्वसंवेदन ज्ञानरूप जीवकी सिद्धि होती है । जो यह कहा गया था कि "जीवाभावे अजीवः कथं वक्तुं युज्यते, जीवाजीवयोः सापेक्षत्वात्"। यह कथन भी तत्त्वीपप्लववादीके लिए उचित नहीं । जो तत्त्वोंका उपप्लव स्वीकार करता है, उसके यहाँ हेतु या अनुमानकी चर्चा करना असंगत है ।
___ आत्मा और पृथ्वी आदि तत्त्वोंकी एकता भी सिद्ध नहीं की जा सकती । आत्मा चेतन है और भूतादि तत्त्व अचेतन हैं। दोनों पृथक्-पृथक् प्रतिभासित होते हैं और दोनोंके लक्षण भी भिन्न हैं।
___अतएव तत्त्वोपप्लववादी चार्वाकने जो जीव तत्त्वका अभाव सिद्ध किया था और व्याघातक तर्क सिद्धान्तके आधारपर अजीवादि तत्त्वोंका अभाव प्रतिपादित किया था, वह सर्वथा असमोचीन है, क्योंकि स्वानुभव प्रत्यक्ष द्वारा जीवतत्त्वकी सिद्धि की जा चुकी है । अब प्रश्न यह है कि जीव एक है या अनेक ? इन विकल्पोंके उत्तरमैं तत्त्ववादी जैन अनेक जीवोंका अस्तित्व स्वीकार करता है। सुख दुःखादि परिणाम जीवसे सर्वथा भिन्न नहीं हैं, क्योंकि यदि ये पर्याय जीवसे भिन्न होते, तो ये जीवके हैं-इस प्रकारके सम्बन्धकी कल्पना नहीं हो सकती थी। यदि यह माना जाय कि भेद रहनेपर भी समवाय सम्बन्धके निमित्तसे उक्त कल्पना सम्भव हो सकती है तो यह भी ठीक नहीं । यतः नित्य उपकारी नहीं होता और सब प्रकारके सम्बन्धोंको स्थिति उपकारके आधारपर ही पायी जाती है। आचार्य वीरनन्दीने उक्त विचारको निम्न प्रकार उपस्थित किया हैनित्यस्यानुपकारित्वात्समवायो न युज्यते । उपकाराश्रया सर्वा सम्बन्धसमवस्थितिः ॥ उपकारोऽपि भिन्नत्वात्तस्येति कथमुच्यते । उपकारान्तरापेक्षा विदध्यादनवस्थितिम् ॥
अतएव समवाय-सम्बन्धकी कल्पना भी अयुक्त है ।
यदि नित्यको उपकारी माना जाय तो वह उपकार भिन्न है या अभिन्न ? भिन्न विकल्प स्वीकार करजेपर सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता। यदि किसी अन्य प्रकारकी अपेक्षा करके सम्बन्ध स्थापित किया जाय तो अनन्त सम्बन्धोंका जाल बिछ जानेसे अनवस्था दोष आयेगा
और कहीं भी व्यवस्था नहीं हो पायेगी। अतएव जीवको सुख-दुःखादि पर्यायोंसे सर्वथा न १. चन्द्रप्रभचरितम्, २/६६
२. वही २/६८ ३. वही २/७३
४. वही २/७७-७८
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
३३ भिन्न माना जा सकता है न अभिन्न हो । पर्याय पर्यायीका व्यपदेश होनेसे कथंचित् भिन्नता है और पर्यायीमें ही सुख-दुःखादि पर्यायोंके रहनेसे कञ्चित् अभिन्नता है।
वीरनन्दीने तत्त्वोपप्लववादका निरसन करते हुए जीवसिद्धिके प्रकरणमें आत्माको स्वदेह प्रमाण, कर्ता, भोक्ता, चैतन्य एवं प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सिद्ध माना है । इसी प्रसंगमें उन्होंने कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि भावोंकी सिद्धि की है। जो आत्माको चित्सन्तति मात्र मानते हैं, उनका भी समालोचन करते हुए चैतन्य ज्ञानदर्शन रूप जीवकी सिद्धि की है । बताया गया है
तस्मादनादिनिधनः स्थितो देहप्रमाणकः,
कर्ता भोक्ता चिदाकारः सिद्धो जीवः प्रमाणतः ।। जीवके सिद्ध होने पर जीवतत्त्वकी अपेक्षा रखने वाले अजीवादि तत्त्व भी प्रमाण सिद्ध है, क्योंकि इनके बिना बन्ध मोक्षादिकी व्यवस्था बन ही नहीं सकती है। वीरनन्दीने पूर्णतः जीव तत्त्वकी सिद्धिके पश्चात् अजीव आदि तत्त्वोंको सिद्ध करते हुए तत्त्वोपप्लवको मिथ्या या भ्रम बतलाया है । यथा
येऽप्यजीवादयो भावास्तदपेक्षा व्यवस्थिताः,
तेऽपि संप्रति संसिद्धास्तन्न तत्त्वमुपलुतम् ।। प्रमाण तत्त्वके निरसनार्थ जो युक्तियां दी गयी है, वे भी निःसार है, क्योंकि स्याद्वाददर्शनमें ज्ञानको प्रमाणता न निर्दोष-कारण-समूहके उत्पन्न होनेसे न बाधाओंके उत्पन्न होनेके कारण है, न प्रवृत्ति-सामर्थ्यके द्वारा ही है और न अविसंवादिस्वके कारण ही है, यतः ६। चारों पक्षोंमें पूर्वोक्त दोष, जिनका निर्देश तत्त्वोपप्लववादीने किया है, आते हैं, पर स्याद्वाद दर्शनमें प्रामाण्यकी व्यवस्था बाधकोंकी संभावनाका सुनिश्चित अभाव होनेसे ही घटित होती है। समस्त देशों और समस्त कालोंके पुरुषोंकी अपेक्षा अभ्यस्त दशामें उत्पन्न माणमें बाधकोंकी संभावनाका अभाव स्वयं ही प्रतीत होता है, जिस प्रकार प्रमाणका स्वरूप अपनेमें निश्चित प्रतीत होता है, उसी प्रकार अभ्यस्त विषयमें प्रामाण्यमें बाधकोंकी संभावनाका अभाव भी निश्चित रूपसे प्रतीत होने लगता है।
- अनभ्यस्त दशामें उत्पन्न हुए ज्ञानमें प्रमाणता परके द्वारा बाधकोंकी सम्भावनाका निराकरण करने पर सुनिश्चित होती है । स्याद्वाद-दर्शन में वस्तु-व्यवस्था और प्रमाण-व्यवस्था अनेक दृष्टिकोणों द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे निरूपित है । अत एव अन्योन्याश्रय अनवस्था अतिप्रसंग एवं चक्रक आदि दोष नहीं आते ।
तत्त्वोपप्लववादी आदि समस्त वस्तुओंके जापक प्रमाण-विशेषोंका अभाव प्रत्यक्षसे करता है या अनुमानसे ? प्रथम पक्ष असमीचीन है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाणको स्वीकार न करनेसे अतिप्रसंग दोष आयेगा। जिसने प्रमाण तत्त्व स्वीकार ही नहीं किया, उसके यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाणकी चर्चा करना गगनारविन्द की गन्ध-चर्चाके समान निरर्थक है।
१. वही, २/८८
२. वही, २/८९
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
अनुमानसे भी वह ज्ञापक प्रमाण- विशेषोंका अभाव सिद्ध नहीं कर सकता, क्योंकि तत्त्वोपप्लववादीके यहां अनुमान प्रमाणका अस्तित्व है ही नहीं ।
३४
यदि स्वयं सिद्ध प्रमाण द्वारा वस्तुकी व्यवस्था मानी जाय तो समस्त प्रमाण सभी वादियों के अपने-अपने इष्ट तत्त्वके भी साधक हो जायेंगे । अतः तत्त्वोपप्लवकी सिद्धि किसी भी प्रकार संभव नहीं है । यह सर्वमान्य और अनुभूत सिद्धान्त है कि किसी भी प्रकार के ज्ञानको प्रमाणभूत मानकर ही प्रवृत्ति-निवृत्ति संभव होती है । जो समस्त प्रमाणोंका उपप्लव स्वीकार करता है, उसके यहां उसका स्वयंका अस्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकता है । अतः प्रमाण - प्रमेयकी व्यवस्था मानना लोक व्यवहारके निर्वाहकी दृष्टिसे भी आवश्यक है ।
आचार्य वीरनन्दीने अनुभव और युक्तियोंसे जीव तत्त्वकी सिद्धि कर उससे सम्बद्ध अन्य अजीवादि तत्त्व एवं तत्त्वोंके प्रतिपादक और साधक प्रमाणोंकी सिद्धि की है । तत्त्वोपप्लववादी चार्वाकने जो पूर्व पक्ष उपस्थित किया था, उसकी सम्यक् आलोचना कर प्रमाणप्रमेयक व्यवस्था प्रतिपादित की है ।
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प्रमेयरत्नमाला की टीकाएँ
जैन न्यायशास्त्रमें प्रमेयरत्नमालाका महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्य माणिक्यनन्दीने 'परीक्षामुखम्' में गागरमें सागर भर देनेकी कहावत चरितार्थ की है। इस सूत्र ग्रन्थ पर अद्यावधि अनेक टीकाएं लिखी गयी हैं । यशस्वी तार्किक अनन्तवीर्यने प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि ग्रन्थोंका सार लेकर 'परीक्षामुखम्' पर प्रमेयरत्नमाला नामक टीका लिखी है; इस टीकापर श्रवणबेलगोला गद्दीके पट्टाधीशोंने कई टीकाएँ लिखी हैं, जो स्वतन्त्र ग्रन्थ बन गयी हैं। इन समस्त टीकाओंका रचनाकाल १६ वीं शतीसे १८ वीं शती तक माना गया है ।
प्रमेयरत्नमालामें प्रमाण, प्रमेयका विस्तृत विवेचन है । प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसे गम्भीर , ग्रन्थोंके अध्ययनके लिए जिनके पास समय और शक्ति नहीं है, वे इस लघुग्रन्थके अध्ययनसे जैन न्यायके तथ्योंको अवगत कर सकते हैं । इस ग्रन्थमें छः उद्देश्य हैं। प्रथय उद्देश्यमें प्रमाणका स्वरूप, उसकी निर्दोषता, उत्पत्ति, ज्ञप्ति एवं प्रमाणता प्रभृतिका निरूपण अन्यमतोंके निराकरणपूर्वक किया गया है। इस रचनाकी शैली तार्किक है, मीमांसात्मक विवेचनपद्धति द्वारा पूर्वाचार्योंके सिद्धान्तोंका समर्थन किया है। जैन न्यायके व्यवस्थापक आचार्य अकलंकदेव द्वारा प्रतिपादित स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानको ही प्रमाण सिद्ध किया है। यह ज्ञान प्रदीपको तरह स्वपर प्रकाशक है, अपने आप प्रत्यक्षरूपसे भासित होता है और अन्य घटपटादि पदार्थोंको प्रतिभासित करता है।
दूसरे परिच्छेदमें प्रमाणोंका वर्गीकरण किया गया है । मूलतः प्रमाणके दो भेद हैंप्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्षज्ञान इन्द्रिय निरपेक्ष विशिष्ट आत्म शक्तिसे उत्पन्न होता है और परोक्षज्ञान ज्ञानावरणीयकर्मके क्षयोपशम होनेपर विषयेन्द्रिय सन्निपातसे । यों तो आत्मशक्ति दोनों ही प्रकारके ज्ञानोंकी उत्पत्तिमें सहायक है, पर परोक्षमें इन्द्रियोंकी सहायता अपेक्षित है
और प्रत्यक्षमें नहीं। आचार्य अनन्तवीर्यने इस द्वितीय परिच्छेदमें "प्रत्यक्षतरभेदात्" सूत्रकी व्याख्यामें प्रत्यक्षक प्रमाणवादी चार्वाकके प्रति अनुमानकी सिद्धि; प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणवादी बौद्धके प्रति प्रत्यभिज्ञानकी सिद्धिः तीन प्रमाणवादी सांख्यके प्रति तर्ककी सिद्धि एवं दो प्रमाणवादी वैशेषिक, चार प्रमाणवादी नैयायिक और छः प्रमाणवादी मीमांसकके प्रति स्मृति तथा प्रत्यभिज्ञानको सिद्धि कर प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोंको स्थापना की है।
विशदज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है। प्रत्यक्षके सांव्यावहारिक और पारमार्थिक ये दो भेद हैं। इन्द्रिय और मनके निमित्तसे जो एकदेश विशदज्ञान होता है, उसे सांव्यावहारिक' और इन्द्रियोंके साहाय्य बिना केवल आत्मासे जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे पारमार्थिक या मुख्य
१. समीचीनः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो व्यवहारः तत्र भवं सांव्यावहारिकम् । भूवः किंभूतमिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । इन्द्रियं चक्षुरादिः, अनिन्द्रियम् मनः, ते निमित्तं कारणं यस्य । समस्तं व्यस्तं च कारणमभ्युपगन्तव्यम् । इन्द्रियप्राधान्यादनिन्द्रियबलाधानादुपजातमिन्द्रियप्रत्यक्षम्, अनिन्द्रियादेव विशुद्धिसव्यपेक्षादुपजायमानमनिन्द्रियप्रत्यक्षम्- प्रमेयरत्नमाला-पृ०४
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
प्रत्यक्ष माना है । सांव्यावहारिक प्रत्यक्षके अन्तर्गत मतिज्ञानके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं । अवग्रहके दो भेद हैं- व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह । व्यञ्जनावग्रह चक्षु और मनसे नहीं होता; अतः व्यञ्जनावग्रहकी उत्पत्ति स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियोंसे होती है । व्यञ्जनावग्रह जहाँ होता है, वहाँ ईहादि अन्य तीन ज्ञान उत्पन्न नहीं होते । प्रत्येक इन्द्रियज्ञान बहु, अबहु, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिसृत, निसृत, उक्त, अनुक्त, ध्रुव और अध्रुव इन बारह प्रकारके विषयोंको ग्रहण करता है, अतः व्यन्जनावग्रहके कुल ४८ भेद हुए । अर्थावग्रहके साथ ईहादि ज्ञान होते हैं, अतः इनके ४x६ × १२ = २८८ भेद हुए । समस्त मतिज्ञानके २८८ + ४८ = ३३६ भेद हुए । इस परिच्छेद में ज्ञान मीमांसाके साथ ताद्रूप्य, तदुत्पत्ति और तद्ध्यवसायका निराकरण कर योग्यता - क्षयोपशम शक्तिको ही ज्ञान व्यवस्था में कारण माना है ।
इस परिच्छेदके अन्तिमसूत्र में सर्वज्ञसिद्धि, ईश्वरसृष्टिकर्तृत्वनिराकरण तथा ब्रह्माद्वैतका निराकरण पुष्ठ प्रमाण और तर्कोंके आधार पर किया गया है ।
तृतीय परिच्छेद में परोक्ष ज्ञानके भेद - स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगमकी परिभाषाएँ परमत निराकरण पूर्वक दी गयी हैं । हेतुकी व्यवस्था बतलाते हुए त्रैरूप्य पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष से व्यावृत्तित्व तथा नैयायिकाभिमत पञ्चरूप्यका खण्डन किया गया है । स्वार्थानुमान, परार्थानुमानके लक्षणोंके पश्चात् उपलब्धि और अनुपलब्धिरूप हेतुओं के भेद प्रभेदों का सविस्तार वर्णन है । अन्तमें आगमका लक्षण निर्धारित करते हुए वेदके अपौरुषेयत्व और शब्दके नित्यत्वकी सुन्दर विवेचना की है । यह प्रकरण दार्शनिकोंके लिए मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक है । इसी प्रकरणमें बौद्धाभिमत अन्यापोहका भी खण्डन किया है ।
चतुर्थ परिच्छेद के आरम्भ में सामान्यविशेषात्मक पदार्थको सिद्ध करते हुए बोद्धाभिमत निरपेक्षविशेष, और सांख्याभिमत निरपेक्ष सामान्यका अनेक तर्क और युक्तियों द्वारा खण्डन किया है। इस प्रकरण में सांख्याभिमत सृष्टिके आरम्भ और प्रलयकी प्रक्रियाका दिग्दर्शन भी कराया गया है । इसी सूत्रकी व्याख्यामें समस्त वस्तुओं को अनेकान्तात्मक सिद्ध करते हुए अनेकान्तात्मक वस्तुव्यवस्था में पर प्रदत्त विरोध, वैयधिकरण, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव इन आठ दोषोंका परिहार कर वास्तविक वस्तु व्यवस्था सिद्ध की है | सामान्यके तिर्यक् और ऊर्ध्व एवं विशेषके पर्याय और व्यतिरेक भेदोंका लक्षण सहित विवेचन किया है । इस अनेकान्त दृष्टि द्वारा एकान्तोंकी पारस्परिक वादलीलाका अन्त आचार्यने बड़े सुन्दर ढंगसे किया है । समस्त विरोधोंका समाधान एवं पूरे सत्यका दर्शन अनेकान्तवादकी भूमिका पर ही संभव है । यद्यपि यह विचारसरणी अनन्तवीर्यकी नयी नहीं है, आचार्य अकलंक, समन्तभद्र और प्रभाचन्द्र जैसे तार्किकोंका अनुकरणमात्र है, तो भी थोड़े में तथ्यांशका दर्शन करा देना ही इनकी मौलिकता है ।
पांचवें परिच्छेद में प्रमाणका फल और उसके भिन्नाभिन्नत्वका विश्लेषण किया है । छठें परिच्छेद में प्रमाणाभास, हेत्वाभास, नय, नयाभास आदिका विवेचन है । हेत्वाभास संख्याविषयक जो अनेक परम्पराएँ प्रचलित हैं, उन सबकी मीमांसा इस प्रकरणमें मुख्यरूपसे की
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
गयी है । इसी परिच्छेदमें आत्माका व्यापकत्व और अणुपरिमाणाधिकरणत्वका भी खण्डन कर शरीर प्रमाण आत्माको सिद्ध किया है ।
____टीकाएँ-प्रमेयरत्नमालाकी अबतक छः-सात टीकाएँ उपलब्ध हैं। इनमें निम्न टीकाएँ विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें विषयनिरूपण स्वतन्त्ररूपसे किया है तथा दार्शनिक तथ्योंकी मीमांसा प्रमेयरत्नमालाके क्षेत्रमें रहकर भी सुस्पष्ट और विस्तृतरूपसे की है। (१) अर्थप्रकाशिका (२) न्यायमणिदीपिका (३) प्रमेयकण्ठिका (४) प्रमेयरत्नमालालंकार (५) प्रमेयविवृत्ति और (६) प्रमेयरत्नमाला लघुवृत्ति ।।
अर्थप्रकाशिकाः-इस टीकाके रचयिता पंडिताचार्य चारुकीति हैं। यह श्रवणबेलगोलाके पट्टाधीशोंका उपाधि नाम रहा है । अतः निश्चित प्रमाणके अभावमें इस टीकाका समय निर्धारण करना कठिन है । परन्तु इस टीकामें सम्बन्धादित्रयका विवेचन करते हुए स्वयं ग्रन्थकर्ताने लिखा है
___ "लभ्यते एव विषयत्वं नाम शास्त्रजन्यबोधविषयत्वमिति । अत्र वक्तव्यांशः न्यायमणिदीपिकाप्रकाशे एतत्सूत्रव्याख्यायां च विस्तरेणास्माभिरभिहितो वेदितव्यः'। इससे स्पष्ट है कि न्यायमणिदीपिका टीका भी इन्हीं पण्डिताचार्य की है । A Descriptive Catalogue of the Sanskrit Manuscripts in the Government Oriental Manuscripts Library; Madras में न्यायमणिदीपिका की प्रशस्ति देते हुए संपादकने लिखा है
"The transcription of this manuscript is said to have been completed by Janarılan-Vijaya of Vasistha gotra and pupil of Cavukirti Panditacarya on monday the Ist of the bright half of the month Arani in the year Plave in thc Salivahana year 1763"२
अर्थात् इस टीकाको शक संवत् १७६३ में वैशाख शुक्ला प्रतिपदा सोमवारको प्लव नामक संवत्में पंडिताचार्य चारुकीतिके शिष्य वशिष्ठगोत्रीय जनार्दन विजयने पूर्ण किया । इससे स्पष्ट है कि न्यायमणिदीपिकाका आरम्भ भी पंडिताचार्य चारुकीर्तिने ही किया था, पर वे किसी कारणसे इसकी समाप्ति नहीं कर सके, अतः इसे उनके शिष्य जनार्दन विजयने समाप्त किया । अर्थप्रकाशिकामें भी स्वयं ग्रन्थकर्ताने न्यायमणिदीपिकाकी बात ऊपर कही है, अतएव उक्त टीकाका रचनाकाल शक संवत्की १८वीं शती है । मालूम होता है कि न्यायमणिदीपिका अर्थप्रकाशिकासे पहले लिखी गयी थी, पर समाप्ति उसकी पीछे हुई ।
शैली और भाषा-अर्थप्रकाशिका टीकाको शैलीमें जहाँ-तहाँ नव्यन्याय पद्धतिका आश्रय लिया गया है। यथा-"अनुवादो नाम अत्र न निष्ठप्रकारताशालिबोधजनकशब्दप्रयोगः" । "प्रतिज्ञा हि स्वकर्तव्यत्वप्रकारकबोधजनकशब्दप्रयोगरूपा । यथा मया इदं क्रियते इति प्रतिज्ञायां निरुक्तलक्षणं वर्तते । स्वं वक्तपुरुषः तत्कर्तव्यत्वं कर्तृविषयत्वं तत्प्रकारको यो बोधः मया क्रियते इति वाक्यजन्यमन्निष्ठकृतिविषयाभिन्नमिदमित्याकारको बोधः । तादृशबोधे १. अर्थप्रकाशिका नवें पृष्ठका पूर्वार्ध । २. DCSM पृष्ठ ३९७६ ।। ३. पृ० २३
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयको अवदान
हि स्वकर्त्तव्यत्वं हि प्रकारः" । विषयका स्पष्टीकरण इतने अच्छे ढंगसे किया है. जिससे मूल विषयको समझने में बड़ो सरलता होती है । बीच-बीचमें पूर्वपक्षोंको स्पष्ट करने के लिए मीमांसाश्लोकवात्तिक, सांख्यकारिका, न्यायसूत्र, छान्दोग्योपनिषद्, प्रमाणसंग्रह प्रभृति ग्रन्थोंके उद्धरण भी दिये हैं। निरूपण शैली एक अध्यापकके पाठनके तुल्य है । विषयका प्रवेश हृदय में सीधे और तीक्ष्णरूपसे होता है। उदाहरणार्थ 'प्रदीपवत्' सूत्रकी व्याख्या उद्धृत की जाती है । पाठक देखेंगे कि टीकाकारने अपने शब्दों में एक सुयोग्य व्युत्पन्न अध्यापकके समान विषयका स्पष्टीकरण किया है । पाठकोंकी सारी कठिनाइयाँ, जो प्रमेयरत्नमालाके अध्ययन में उत्पन्न होती थीं, दूर हो जाती हैं।
___ "यथा प्रदीपस्य प्रत्यक्षतां विना तत्प्रतिभासितस्यार्थस्य प्रत्यक्षता न घटते, तद्वत् ज्ञानस्य प्रत्यक्षतां विना विज्ञानविषयीभूतार्थस्य प्रत्यक्षता न घटत इति भावः । अत्र स्वव्यवसायात्मकत्वसमर्थकप्रकरणोपसंहारे प्रदीपदृष्टान्तं वदतो आचार्यस्यायमाशयो लभ्यते । ज्ञानं स्वतः प्रकाशकत्वाभाववत् प्रमेयत्वात्, घटादिवदिति नैय्यायिकाः । तदसत् तदीयपक्षस्य प्रत्यक्षानुमानबाधितत्वात् । तथा च प्रयोगः ज्ञानं स्वविषयीकरणे स्वभिन्नस्वसजातीयपदार्थान्तरानपेक्षं प्रत्यक्षविषयीभूतपदार्थसमवेतगुणत्वे सति अदृष्ट रूपसहकारिविशिष्टकारणत्वात् । प्रदीपनिष्ठभासुराकारवत्, यथा प्रदीपनिष्ठभासुराकारः प्रत्यक्षविषयीभूतो योऽर्थः प्रदीपादिरूपः तद्गुणोऽपि भवति । अदृष्टरूपसहकारिविशिष्टकरणमपि भवतीति कृत्वा स्वावभासने स्वसजातीयपदार्थान्तरं स्वभिन्नदीपादिकं नापेक्षते । तद्वत् ज्ञानमपि प्रत्यक्षविषयीभूतो योऽर्थः तद्गुणोऽपि भवति, अदृष्टानुयायिकरणं च भवति । स्वावभासने स्वातिरिक्त स्वसजातीयार्थान्तरं नापेक्षते इति ।"२
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि शैली आशुबोधगम्य है । जिज्ञासु थोड़े श्रमसे ही प्रमेयरत्नमालाके हृद्यको अवगत कर सकता है। इसके अतिरिक्त व्याख्यामें अलंकारों और ध्वन्यर्थोंका भी प्रयोग किया है, जिससे शैली में सरसता आ गयी है। आरंभमें मंगलाचरणके श्लोकोंकी व्याख्या करते हए "नतामरेति अस्मिन श्लोके वृत्त्यनुप्रासशब्दालंकारः । रेफादिवर्णानामावत्तेः । एकद्वयादिवर्णानामावृत्तौ वृत्त्यनुप्रासस्य अभिहितत्वात् । तदुक्तं-एकद्विप्रमुखावर्णाः व्यवधानेन यत्र वै आवर्तन्ते तदा तत्र वृत्त्यनुप्रास इष्यते "इतिपदार्थ हेतुकं काव्यलिंगमर्थालंकारः । हेतोर्वाक्यपदार्थ त्वेकाव्यलिङ्गमुदाहृतम् इति लक्षणात् । अकलंकेति-अत्र रूपकालंकारः वचसि अम्भोधित्वस्य प्ररूपणात्, उपमानोपमेययोरभेदकथनं हि रूपकम्" ।
__ भाषा सरल और प्रवाह युक्त है । न्याय जैसे कठिन विषयको सरल संस्कृतमें समझाने का आयास प्रशंसनीय है। समस्यन्त प्रयोगोंका प्रायः अभाव है । टीकाकारने विषयको बलपूर्वक लादनेका प्रयास नहीं किया है, बल्कि सुगमरोतिसे पाठकोंके अन्तःकरणमें प्रविष्ट करानेकी चेष्टा की है। जैसा प्रायः देखा जाता है कि कतिपय टीकाकार विषय को इतना उलझा देते हैं कि मूल ग्रन्थ समझमें आ जाय, पर टीका नहीं आती। परन्तु इस अपवादसे यह टीका
१. उ० पु० पृ० २ उ. ४ पू० २. उ० पु० पृ० २८, २९ ३. उ० पु० पृ० १ ४. उ० पु० पृ० २
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
रहित है । प्रत्येक कठिन विषयको स्पष्ट किया गया है । प्रसादगुण युक्त भाषा शैली पाठकोंका ध्यान सहज ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है ।
विषय विवेचन - यों तो प्रमेयरत्नमालामें निरूपित विषयोंकी विवेचना ही इसमें को गयी है तथा उन्हीं विषयोंका स्पष्टीकरण है, परन्तु तो भी इसमें कतिपय नवीन बातोंका समावेश टीकाकारने किया है । इस टीकामें स्वतन्त्ररूपसे उपन्यस्त विषयोंमें शून्याद्वैत तत्त्वोपप्लव, प्रमाणसम्प्लव, हेत्वाभासोंका विस्तृत विवेचन प्रभृति हैं। जिन सूत्रोंकी व्याख्या प्रमेय'रत्नमालाकारने संक्षेप और अस्पष्ट रूपसे की है, उन सूत्रोंकी व्याख्या इस टीकामें स्पष्ट और विस्तृत है । प्रमेयरत्नमाला में अन्यापोहका विषय कुछ क्लिष्ट है जिससे सर्वसाधारण उसे हृदयंगम नहीं कर पाते; परन्तु इस टीकामें इस विषयको इतने सरल और सीधे ढंगसे रखा है, जिससे एक साधारण न्यायका विद्यार्थी भी इसे समझ सकता है । यद्यपि विषय निरूपणमें जहाँ-तहाँ नव्यन्याय पद्धतिको अपनाया है, तो भी विषयको दुरूह नहीं होने दिया है । अनेकान्तात्मक वस्तुकी सिद्धिमें नवीन अनुमानोंका भी प्रयोग किया है तथा विस्तारपूर्वक उदाहरण देकर इस विषय को समझाया है । अन्यमतावलम्बियोंने जो अनेकान्त में आठ दूषण दिये हैं, उनका निराकरण भी बड़ी दृढ़ता और प्रौढ़ताके साथ किया है । उत्पाद - विनाश-ध्रौव्यात्मक वस्तुकी साधना कर ईश्वरके नित्यज्ञानका निराकरण किया है तथा सिद्ध किया है कि समस्त वस्तुओं की वास्तविक स्थिति त्रयात्मक दृष्टिसे देखने पर ही अवगत हो सकती है । संसारमें प्रतिक्षण जो परिवर्तन हो रहे हैं, उनका मूल कारण वस्तु स्वभाव है । द्रव्यदृष्टिसे वस्तु नित्य है और पर्यायदृष्टिसे अनित्य ।
ग्रन्थ परिमाण - --इस टीकामें कुल २४९ पृष्ठ हैं, प्रतिपृष्ठ ११ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्ति १८ अक्षर हैं । पृष्ठकी लम्बाई ८|| इंच और चौड़ाई ६ ||| इंच है। इस टीकाकी अंतिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है ।
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“स्वस्तिश्रीमत्सुरासुरवृन्दवन्दितपादपाथोजश्रीमन्नेमीश्वरसमुत्पत्तिपवित्रीकृतगौतमगोत्र
समुद्भूतार्हतद्विजश्रीब्रह्मसूरिशास्त्रितनुजश्री मद्दोर्बलिजिनदासशास्त्रिणामन्तेवासिना मेरुगिरिगोत्रोत्पन्न वि० विजयचन्द्राभिधेन जैनक्षत्रियेण लेखीति । भद्रं भूयात् । श्री श्री० श्री० श्री० " न्यायमणिदीपिका- -इस टीकाके रचयिता पंडिताचार्य चारुकीर्तिजी ही हैं; इसका उल्लेख अर्थप्रकाशिका में स्वयं ही आचार्यने किया है । यद्यपि प्रशस्तिसंग्रह में श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने इसके रचयिताका नाम अजितसेनाचार्य लिखा' है, और अपने इस कथन का समर्थन Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts in the Central Provinces and Berar by R B. Hiralal B. B. ( Appendices ) से किया है । पर इस कथनमें कोई सबल युक्ति नहीं है; अतः पूर्वोक्त प्रमाणोंके आधारपर इसके आरम्भ करनेवाले पंडिताचार्यं चारुकीर्ति और समाप्ति करनेवाले उनके शिष्य जनार्दन विजय हैं। इस टीकाकी समाप्ति शक संवत् १७६३ में हुई है ।
शैली और भाषा - इस टीकाकी शैली समस्यन्त है तथा प्रौढ़ गद्यात्मक है । रचयिता ने भाषा सम्बन्धी पाण्डित्यका प्रदर्शन सर्वत्र किया है । विषय निरूपणकी अपेक्षा श्रेष्ठ गद्य
१. प्रशस्ति संग्रह — जैन सिद्धान्त भवन आरा, पृ० २ - ३
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
सकल
शैलीमें उलझानेका आयास अधिक है । आरम्भमें हो संस्कृत की छटा दिखलाते हुए कहा है"इह हि खलु सकलकलङ्कविकलकेवलावलोकनविमललोचनलोकितलोकपरम गुरुवीर जिनेश्वररुचिरमुख सरसीरुहसमुत्पन्नसरस्वती सरसानवरतस्मरणावलोकनसल्लापदत्तचित्तवृत्तिः राजाधिराजपरमेश्वरस्य हिमशीतलस्य महाराजस्य महास्थानमध्ये निष्ठुरकष्टवादसौष्ठवदुष्टसौगतान् चटुलघटवादादिपटिष्ठतयातारादेवताधिष्ठितदुर्घटघटवादविजयेन विघटय्य तेन राज्ञा सभ्यैस्सभासदैश्च परिप्राप्तजयप्रशस्तिः सकलतार्किकचूडामणिमरीचिमे चकित रुचिररुचिचकचकायमानचरणनखरो भगवान् महाकलङ्कदेवो विश्वविद्वन्मण्डलहृदया ह्लादियुक्तिशास्त्रेण जगत्सद्धर्मप्रभावमबबूत्तमाम् ।”
४०
इस उद्धरण से स्पष्ट है कि इस टीकामें पूर्णतया पाण्डित्य प्रदर्शित किया है। विवेचन करते हुए बीच-बीच में प्रश्नोत्तर शैलीका भी आलम्बन लिया गया है। परिभाषाओंका स्पष्टीकरण भी उलझे हुए ढंगसे किया है । शब्दजाल इतना अधिक हैं, जिससे वास्तविक विषयछिप-सा गया है । अर्थप्रकाशिकाकी शैलीसे इसकी शैली बिल्कुल भिन्न है । यद्यपि अलंकार ध्वन्यथका प्रयोग दोनोंमें समानरूपसे हुआ है । आलङ्कारिक पाण्डित्य दिखलाते हुए लिखा है - " परीक्षामुखमादर्श मितिरूपकालंकारेणालंकृतत्वात्तमलङ्कारं तदेवं रूपयतीत्यनेनाभिव्यज्य उपमैव तिरोभूतभेदा रूपकमिष्यत इति रूपकालङ्कारलक्षणसद्भावस्तदलङ्कारतिरोहितामुपमां दर्शयति 1
भाषा प्रौढ़ और परिमार्जित है । न्यायशास्त्रमें भी काव्यशास्त्रका आनन्द प्राप्त होता है । कई स्थानों पर तो गद्यमें उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक और कार्व्यालंग अलंकारोंकी झड़ी लगा । ऐसा मालूम होता है कि टीकाकार यह भूल ही गया है कि उसे प्रमेयरत्नमालाका स्पष्टीकरण करना है, अतः अनेक स्थानों पर व्यर्थके पाण्डित्य प्रदर्शनमें समय लगाया है ।
दी
विषय विवेचन - विषय विवेचनकी दृष्टिसे दो-चार स्थलों पर विशेषता पायी जाती है । इस पीनकाय पुस्तक में प्रमाण और प्रामाण्य, उत्पत्ति और ज्ञप्ति, अर्थापत्ति और अनुमान, उपमान और प्रत्यभिज्ञान, आदिके अन्तरोंका अच्छा स्पष्टीकरण किया है। विषयोंके विश्लेषण के लिए जैनागमके प्रमाण स्थान-स्थान पर उद्धृत किये गये हैं । बन्ध व्यवस्थाका निरूपण करते हुए बताया है - " जहण वज्जे इत्युक्तत्वात् तेनैकगुणस्य स्निग्धस्य रूक्षस्य वाणोः परेण स्निग्धक्षेण वैकगुणेन द्वित्रिसंखेयासंखेयानन्तगुणेन वाणुना बन्धो नास्ति । तथा द्वयादिभिरपि परमाणुभिर्द्वयादि गुणैरेकगुणैश्च न बन्धः । ततो जघन्यवर्णानामेव द्विगुणादिकानामेव तुल्यजातीयानां चेति बन्धः । तद्यथा द्विगुणस्निग्धस्य परमाणोरेकगुणस्निग्धेन द्वित्रिगुणस्निग्धेन वा नास्ति सम्बन्धः । चतुर्गुणस्निग्धे नत्वस्ति सम्बन्धः । तस्यैव पुनद्वगुणस्निग्धस्य पंचगुणस्निग्धेन षट्सप्ताष्टसंखेयासंखेयानन्तगुणस्निग्धेन च बन्धो नास्ति । एवं त्रिगुणस्निग्धस्य पञ्चगुणस्निग्धेन बन्धोऽस्ति शेषः पूर्वोत्तरैर्न भवति"" । आदि
इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक विषयको पर्याप्त विस्तार दिया गया है। परमतोंका निराकरण भी दृढता और पुष्ट तर्कोंसे किया है ।
परिमाण - इस ग्रन्थमें ३१० पत्र हैं, प्रतिपत्र एक ओर १० पंक्तियाँ और प्रतिपंक्ति २८ अक्षर हैं ।
१. न्यायमणिदीपिका पत्र २२९ - २३०
२. न्यायमणिदीपिका पत्र २६१
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा प्रमेयरत्नमालालंकार-इस टीकाके रचयिता पण्डिताचार्य चारुकीत्ति है। यह रचना अर्थप्रकाशिका टीकाको पूर्ववर्ती मालूम होती है। अनुमानतः शक संवत् १७ वीं शतीमें इसका प्रणयन हुआ है।
इस टीकाकी शैली नव्यन्याय पद्धति पर है । अवच्छेदक, अवच्छिन, तन्निष्ठता आदि शब्दोंका प्रयोग स्थल-स्थल पर हुआ है । शैली स्वच्छ, प्रौढ़ और परिमार्जित है। नव्यन्याय पद्धति पर ब्रह्माद्वैतवादीका पूर्वपक्ष स्थापित करते हुए लिखा है-"ब्रह्माद्वैतवादिनस्तु-सत्तारूपं ब्रह्मव सर्वसाक्षात्कारि सर्वावच्छिन्नचैतन्याभिन्नत्वात् । चैतन्यस्य घटादिसाक्षात्कारित्वं हि घटावच्छिन्नचैतन्याभेद एव घटसाक्षात्कारकाले इन्द्रियद्वारा अन्तःकरणवृत्तघटादिविषयदेशतमनेन घटावच्छिन्नचैतन्यस्य रूपान्तःकरणावच्छिन्नचैतन्येनाभेदोत्पत्ते: एकदेशस्योपाध्योः भेदकत्वायोगात् गृहावच्छिन्नाकाशे घटावच्छिन्नाकाशे घटावच्छिन्नाकाशभेदवत् । मायावच्छिन्नचैतन्ये घटावच्छिन्नचैतन्याभिरूपं सर्वसाक्षात्कारित्वं च घटस्सन् पटस्सन् इत्यादि प्रत्येक्षेण गृह्यते''
इससे स्पष्ट है कि इस टीकामें नव्यन्यायकी शैलीपर विषय विवेचन किया गया है । विषयका स्पष्टीकरण जितना भी संभव हुआ है, किया है ।
विषय प्रमेयरत्नमालाका ही है, उसी में थोड़ा विस्तार किया गया है।
परिमाण-इस पुस्तकमें कुल ३७६ पत्र हैं, प्रतिपत्र एक ओर ११ पक्तियाँ और प्रतिपंक्ति १७-१८ अक्षर हैं।
प्रमेयकण्ठिका-इस टीकाके रचयिता शान्तिवर्णी हैं । इसका रचनाकाल १६-१७ वीं शतीके मध्यका है । ग्रन्थकी रचनाशैलीसे प्रतीत होता है कि यह प्रमेयरत्नमालापर आरम्भिक टीका है। यद्यपि विषयका स्पष्टीकरण पूर्णरूपसे नहीं हो पाया है, तो भी प्रकरणोंके स्पष्टीकरणका आयास प्रशंसनीय है । रचयिताके सम्बन्धमें इस टीकासे कुछ भी पता नहीं चलता है।
शैली और भाषा-इस टीकाकी भाषा सरल है। शैली परिष्कृत और स्वच्छ है । विषयको समझानेका प्रयास भी किया गया है । रचयिताने स्वयं ही अपनी टोकाको प्रशंसा करते हए लिखा है
प्रमेयकण्ठिका जीयात्प्रसिद्धानेकसद्गुणा। लसन्मार्तण्डसाम्राज्ययौवराज्यस्य कण्ठिका ।।। सनिष्कलङ्कां जनयन्तु तक वा बाधितर्को मम तर्करले।
केनानिशं ब्रह्मकृतः कलङ्काश्चन्द्रस्य कि भूषणकारणं न । इससे स्पष्ट है कि इनकी टोकामें तर्क, युक्तियाँ और प्रमाणोंकी बहुलता है। शैलीमें प्रवाह और प्रसाद दोनों गुण हैं ।
प्रमेयरत्नमालामें आगत विषयोंका स्पष्टीकरण ही इस टीकामें किया गया है । टीकाकारने अपनी ओरसे नवीन विषयोंको उठानेका प्रयास नहीं किया है ।
परिणाम-इसमें कुल ३८ पत्र हैं, प्रत्येक पत्र ८॥"४७" है ।
१. प्रमेपरलमालालंकार पत्र १३९
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान प्रमेयरलमाला लघुवृत्ति'-इस टीकाके रचयिताके सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञात नहीं , है । पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस टीकाका रचनाकाल १७ वीं शती है।
शैली, भाषा और विषय-निरूपणकी दृष्टिसे भी इस टीकामें नवीनता बहुत कम अंशोंमें दिखलायी पड़ती है । प्रमेयरत्नमालामें आये हुए कठिन पदोंका विश्लेषण भर कर दिया है । शैली स्वतन्त्र भाष्य या विवेचनकी नहीं है, किन्तु टिप्पणात्मक है। पाठक जिन कठिन पदोंको यथार्थरूपसे हृदयंगम नहीं कर पाते हैं, उन पदोंका स्पष्टीकरण किया है। नयी बातें इस टीकामें नहीं मिलेंगी।
ग्रन्थ समाप्त करते हुए परीक्षामुखसूत्र और प्रमेयरत्नमालाके रचनाके कारणों पर प्रकाश डाला गया है।
श्रीमान् वैजयनामाभूदग्रणी गुणशालिनाम् । बदरीबालवंशालीव्योम्नि धुमणिजित ॥ तदीयपत्नी भुवि विश्रुतासीन्नाणाम्बनामा गुणशीलधामा । यां रेवतीति प्रथिताम्बिकेति प्रभावतीति प्रवदन्ति सन्तः । तस्मादभूद्विश्वजनीनवृत्तिर्दानाम्बुवाहो भुवि हीरपाख्यः । स्वगोत्रविस्तारनयोंऽशुमाली सम्यक्त्वरत्नाभरणार्चिताङ्गः॥ तस्योपरोधवशतो विशदोरुकीर्तेर्माणिक्यनन्दिकृतशास्त्रमगाधबोधम् ।
स्पष्टीकृतं कतिपयैर्वचनेरुदारर्बालप्रबोधकरमेतदनन्तवीर्यैः ॥ टीकाकारने स्वयं अपने सम्बन्धमें इतना ही लिखा है कि आचार्य अकलंक देवके वचनोंका सारांश लेकर मैं विवृत्ति लिखता हूँ। ग्रन्थमें सूत्रोंका व्याख्यान भी प्रमेयरत्नमालाके समान ही किया है । यद्यपि भाषा शैलीमें अन्तर है तथा टीकाकारने सूत्रार्थको कुछ विस्तृत कर देनेकी चेष्टा की है। जिन सूत्रोंका विशेषार्थ प्रमेयरत्नमालाकारने नहीं लिखा है, उन सूत्रोंका अर्थ इसमें भी छोड़ दिया गया है।
इन समस्त टीकाओंमें अर्थ प्रकाशिका, न्यायमणिदीपिका और प्रमेयरत्नमालालंकार तो शीघ्र प्रकाशित करने योग्य हैं। इन तीनों टीकाओंसे जैन न्याय शास्त्रके जिज्ञासुओंको विशेष लाभ होता। अच्छा हो कि तुलनात्मक टिप्पण देते हुए प्रमेयरत्नमालाका एक सुन्दर संस्करण निकाला जाय । प्रकाशक संस्थाओंको इस ओर ध्यान देना चाहिये ।
१. देखें-A Descriptive Catalcgue of the Sanskrit Manuscripts in the
Government Orienial Manuscripts Library, Madras, PP, 3975
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कार्यकारणभाव : महाकवि कालिदासकी कृतियोंमें
महाकवि कालिदासके काव्यों और नाटकोंमें कार्य-कारण सम्बन्धका अस्तित्व अनेक स्थलोंपर उपलब्ध होता है । भावोंकी अभिव्यञ्जना करते हुए उन्होंने सौन्दर्यानुभूतिकी अलंकृत योजनामें इस सम्बन्धका सुन्दर निर्वाह किया है । यह सार्वजनिक सत्य है कि जीवन और जगत्के सम्बन्धमें रसानुभूतिकी जिस प्रक्रिया द्वारा चित्तका उन्मीलन होता है, वह प्रक्रिया कार्यकारण सम्बन्धमें निहित रहती है । कवि अपने मनके विविधरंगोंमें अनुरञ्जित होकर ही प्रेमवस्तुका भावन करता है, पर नवीन उद्भावनाओंके अवसरपर वह कार्य-कारण भावका आश्रय ग्रहण कर काव्यचमत्कार की सृष्टि करने में समर्थ होता है। तर्क- न्याय मूलक अलंकारोंमें तो कार्यकारण भाव समाहित रहता ही है, पर सादृश्यमूलक, विशेषगम्य, लोकाश्रय न्याय और वाक्यन्याय मूलक अलंकारों में भी कार्य कारणभाव किसी न किसी रूप में पाया जाता है । कविको स्वयं प्रकाश या सहजज्ञान कल्पनाके माध्यमसे प्राप्त होता हैं और यह आत्माके समक्ष बिना किसी तर्क या प्रयासके स्वतः उपस्थित हो जाता है । सौन्दर्यानुभूति के समय व्यक्ति के मनको कोई बौद्धिक कष्ट उठाना नहीं पड़ता । हम किसी रमणीके मुख या गुलाबके पुष्पकी गन्धको किसी शास्त्रीय ज्ञान या कार्यकारण सम्बन्धकी प्रक्रियाका नियोजन किये बिना ही रम्य कह देते हैं । वस्तु विशेषके सौन्दर्यका अनायास ज्ञान या भावन चित्तकी जिस वृत्ति द्वारा होता है, उसे सहजज्ञान तथा ऐसे ज्ञानको स्वयं प्रकाश, सहज या सहजानुभूति कहते हैं । पुष्पगन्धके समान काव्यका सौन्दर्य स्वयं प्रकाश्य होता है, किन्तु उसकी अभिव्यञ्जना प्रस्तुत करते समय तर्क या कार्यकारण सम्बन्धका अवलम्बन ग्रहण करना पड़ता है । यतः संवेदनको रूपायित करना, बिम्ब ढालना सहज ज्ञानका काम है, पर संवेदनके प्रभावको रूपायित करते समय हेतु, तर्क या सम्बन्धका आश्रय अपेक्षित होता है । पात्रोंके शीलस्थापत्य एवं उनके व्यक्तित्वके चित्रण में कार्य-कारण सम्बन्धकी सर्वाधिक प्रतीति होती है । कथानकका गठन भी कार्य-कारण सापेक्ष होता है, कोई भी घटना कार्य-कारणकी श्रृंखलामें आबद्ध होकर ही कथानकका रूप ग्रहण करती है । महाकवि कालिदासके कार्य कारणभाव के विश्लेषणके पूर्व कार्य-कारण सम्बन्धके स्वरूपको अवगत कर लेना आवश्यक है ।
केशव मिश्रने तर्कभाषामें कारणकी परिभाषा बतलाते हुए लिखा है - 'यस्य कार्यात् पूर्वभावो नियतोऽनन्यथासिद्धश्च तत्कारणम्"" । अर्थात् जिसकी कार्य — उत्पन्न होनेवाले घटादि पदार्थोंसे पहले सत्ता निश्चित हो और जो अन्यथासिद्ध न हो उसको कारण कहते हैं । कारण इस लक्षणमें 'नियत' और 'अनन्यथासिद्धश्च' ये दो विशेषण पद विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । 'नियत' कहनेसे कार्योत्पत्ति के समय उपस्थित रहनेवाली अन्य वस्तुओंका निराकरण हो जाता है, किन्तु जिनका अस्तित्व 'नियत' रहता है। उन्होंका ग्रहण होता है । इसी प्रकार
१. तर्कभाषा चौखम्बा वाराणसी, सन् १९५३ ई० पू० १९, प्रमाणनिरूपण, काव्य
वरूप
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
'अनन्यथासिद्ध' का अर्थ अव्यर्थ या आवश्यक है, जो आवश्यक और नियत पूर्वभावी हैं, वही कारण माना जाता है । यथा
"यद्यपि पटोत्पत्तौ देवादागतस्य रासभादेः पूर्वभावो विद्यते, तथापि नासो नियतः ।"
निष्कर्ष यह है कि कारणका कार्यसे नियत पूर्ववर्तित्व रहनेके साथ उसमें नितान्त उपयोगिता धर्मका रहना भी आवश्यक है । कार्यके प्रति कुछ वस्तुएँ ऐसी भी होती हैं जो नियत पूर्ववर्ती तो अवश्य हैं, पर वे नितान्त उपयोगी नहीं हैं । ऐसी अनावश्यक वस्तुओंको अन्यथामिद्ध कहा जाता है और न ये कार्योंकी उत्पत्तिके प्रति कारण ही होती हैं। कारणको अनौपाधिक माना जाता है, सोपाधिक घटना कार्यके प्रति कारण नहीं बन सकती है । अतएव नियत, अनोपाधिक और तात्कालिक पूर्ववर्ती घटना ही कार्य विशेषके प्रति कारण मानी जाती है ।
• कारणके तीन भेद है-समवायी, असमवायी और निमित्त । जिसमें समवाय सम्बन्धके रहते हुए कार्यकी उत्पत्ति होती है, उसे समवायी कारण कहते हैं । समवायी कारणका दूसरा नाम उपादानकारण भी है, क्योंकि समवायिकारणता द्रव्यकी होती है। कार्यके साथ अथवा कारणके साथ एक वस्तुमें समवाय सम्बन्धसे रहते हुए जो कारण होता है, वह असमवायी कहलाता है। गुण और क्रिया असमवायी कारण होते हैं। इन दोनोंसे भिन्न कारणको निमित्तकारण कहते हैं । इस प्रकार विविध कारणोंकी परस्पर सहकारितासे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है।
महाकवि कालिदासने निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धका विवेचन अपने शाकुन्तल नाटकमें अनेक स्थानों पर किया है। वस्तुतः 'निमित्त' कारणका ही पर्यायवाची शब्द है और न्याय सिद्धान्तकी दृष्टिसे यह कारणका एक भेद है। जिसकी सहायता या कर्तृत्वसे कार्यकी उत्पत्ति घटित होती है, वह सहायक तत्त्व निमित्त कारण है। जो किसी निमित्तसे किया जाय अथवा जो निमित्त उपस्थित होनेपर या किसी विशेष प्रयोजनकी सिद्धिके लिए हो, उसे नैमित्तिक कहते हैं । तथा एक दूसरेके कार्य होने या परिणमनमें एक दूसरेको परस्पर सहायक होना। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है । पाश्चात्य तर्कशास्त्रके अनुसार कारणके चार भेद हैं
१. द्रव्यकारण-कार्य की उत्पत्ति में द्रव्य विशेष को आवश्यकता होती है और यह द्रव्य विशेष ही उस कार्यको उत्पत्ति का कारण है ।
२. आकारिक कारण-प्रत्येक वस्तुमें द्रव्यके साथ-साथ आकार भी पाया जाता है । इसी बाकारके विचारको आकारिक कारण कहा गया है ।
३. योग्य कारण-प्रत्येक वस्तुमें द्रव्य और आकारके साथ उसमें एकशक्ति भी पायी जाती है, जिसके कारण उसका निर्माण सम्भव होता है । १. वही पृ० २० २. तच्च कारणं त्रिविधम् । समवायि-असमवायि-निमित्तभेदात् । तत्र यत्समवेतं कार्यमुत्पद्यते
तत्समवायिकारणम् । यत्समवायिकारणप्रत्यासन्नमवधृतसामर्थ्य तदसमवायिकारणम् ।
-तर्कभाषा-पृ० २५,३५ । ३. तदुभयभिन्न कारणं निमित्तकारणम्-तर्कसंग्रह प्रत्यक्षखण्ड ।
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
४. अन्तिम कारण प्रत्येक वस्तुके निर्माणके पीछे एक प्रयोजन निहित रहता है मतः बस्तुके निर्माणके पीछे जो उद्देश्य किया रहता है, उसे अन्तिम कारण कहा जाता है ।
वास्तवमें कार्य-कारण सम्बन्धका नाम ही व्याप्ति है, इसे अविनाभाव सम्बन्ध भी कहते हैं। कार्यकारणभावके सहचर सम्बन्धका सद्भाव और व्यभिचार-ज्ञानका अभाव ही व्यक्तिका साधक है।
महाकवि कालिदासने अपने शाकुन्तल नाटकमें सहजानुभूतिकी अभिव्यञ्जनाके हेतु 'कारणाभावात् कार्याभावः' और 'कारणसद्भावात् कार्यसद्भावः' सिद्धान्तोंका पूर्णतया निर्वाह किया है । उनके काव्यलिंग अलंकारके उदाहरणोंमें कार्य-कारण सम्बन्धकी योजना सम्यक्तया पायी जाती है । कविके समस्त काव्य-नाटक प्रन्योंके कार्य-कारण सम्बन्धोंका विश्लेषण सम्भव नहीं है, अतएव केवल शकुन्तला नाटकमें समाहित कार्य-कारणभावका ही विवेचन प्रस्तुत किया बायगा।
शाकुन्तलमें कार्यकारण सम्बन्धका निर्देश करते हुए बिना कारणके कार्य सद्भावका की निस्पष किया है
उदेति पूर्व कुसुमं ततः फलं, घनोदयः प्राक्तदनन्तरं पयः । निमित्तनैमित्तिकयोरयं क्रमस्तव प्रसादस्य पुरस्तु सम्पदः ॥'
प्रथम कारणरूप पुष्पका आगमन होता है, पश्चात् पुष्प कारणसे फलरूप कार्य घटित होता है। भाकाशमें मेघरूप कारणके आच्छादित होने पर ही, वर्षारूप कार्यको उत्पत्ति देखी जाती है । इस प्रकार कारण-कार्यका सम्बन्ध ही कार्योत्पत्तिका नियामक है।।
कायलिंग अलंकारकी योजना करते हुए शाकुन्तलमें कारण-कार्य सम्बन्धकी सुन्दर अभिव्यंजना की गयी है । 'काव्यलिंग' शब्दमें दो पद हैं-काव्य और लिंग । यहाँ लिंग का अर्थ कारण है, अर्थात् काव्यमें असाधारण या चमत्कार युक्त कथनको युक्तियुक्त बनाने के लिए जहां युक्ति अथवा हेतु-कारणका कथन किया जाय, वहाँ कायलिंग अलंकार होता है । यह हेतु या कारण लोकसिद्ध अथवा तर्क सिद्ध हेतुसे कुछ भिन्न होता है, यतः तर्क सिद्ध हेतुसे कुछ भिन्न होता है, यतः तर्क सिद्ध हेतुमें चमत्कार का अभाव होता है ।
हेतु-कारणके दो भेद हैं-कारक और ज्ञापक । पुत्रके लिये पिता कारक हेतु है और पिताके लिए पुत्र ज्ञापक हेतु । कारक हेतुके 'निष्पादक' और 'समर्थक' ये दो भेद माने गये हैं। हेतु वाचक नहीं होता, इसे गम्य अथवा प्रतीयमान होना चाहिए। शाकुन्तल नाटकमें जिन कार्य-कारण भावोंका उल्लेख है वे सभी प्रायः गम्य ही हैं, वाच्य नहीं। यथा
तत् साधुकृतसन्धान प्रतिसंहर सायकम् ।
आतंत्राणाय वः शस्त्रं न प्रहर्तुमनागसि ॥ १. शाकुन्तल ७।३० २. काव्यलिंगं हेतोर्वाक्यपदार्थता-काव्यप्रकाश, चौखम्बा संस्करण १०।११४
हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिंगं निगद्यते-साहित्यदर्पण, कलकत्ता संस्करण १०१६२ ३. शाकुन्तल १।११
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
इस पद्यमें 'आर्तत्राणाय वः शस्त्र' कारण है और 'साधुकृतसन्धानं सायकम् प्रतिसंहर' कार्य है अथवा पद्यका उत्तराद्ध पूर्वाद्ध का कारण है । इस प्रकार कारणके गम्य होने पर भी पद्य में कार्य कारणभाव समाहित है ।
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दुष्यन्तको उसके भुजपराक्रमरूप कारण द्वारा आश्रमके रक्षारूप कार्यका परिज्ञान तपस्वी कराते हुए कहते हैं
रम्यास्तपोधनानां प्रतिहतविघ्नाः क्रियाः समवलोक्य । ज्ञास्यसि कियद्भुजो मे रक्षति मौर्वीकिणांक इति ॥ भुजपराक्रमरूप कारण रक्षारूप कार्यका पूर्ववर्तित्व और अनन्यथा सिद्ध है । अतः इसमें न्यायसम्मत कार्य कारणभावकी परिभाषा भी घटित होती है ।
आश्रम परिचय प्रसंग में महाकविने चञ्चल लहर रूपी कारण द्वारा वृक्षोंके मूल प्रक्षालनरूप कार्यका; धूमरूप कारण द्वारा किसलयोंकी कान्तिके नष्ट होने रूप कार्यका एवं कुशहीनतारूप कारणसे मृगोंके निर्भय विचरण रूप कार्यका सम्पन्न होना बतलाया है । यहाँ पृथक्-पृथक् तीन कारणों द्वारा पृथक्-पृथक् तीन कार्योंकी उत्पत्ति प्रदर्शित की गयी है । इस कार्यकारणभावसे कविने आश्रमका स्वरूप उपस्थित किया है । यथा
कुल्याम्भोभिः पवनचपलैः शाखिनो धौतमूला भिन्नो रागः किसलयरुचामाज्यधूमोद्गमेन । एते चार्वागुपवन भुविच्छिन्नदर्भाङ्कुरायां नष्टाशङ्का हरिणशिशवो मन्दमन्दं चरन्ति ॥
भ्रमरके कृतकृत्यरूप कार्यका विवेचन उसके द्वारा शकुन्तलाके चुम्बन, अधरपान एवं कर्णके पास गुञ्जनरूपी कारणों द्वारा किया है । इस कार्यकारण भावमें भ्रमर पर नायकका आरोप कर उसके कृतार्थ होनेकी चर्चा की गयी है ।
१. वही १।१३ ३. १।२४
चलापाङ्गां दृष्टिं स्पृशसि बहुशो वेपथुमती रहस्याख्यायीव स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचरः । करौ व्याघुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधरम् वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती ॥ ३
शकुन्तलाके प्रथम साक्षात्कारके समय राजा दुष्यन्त के मनमें यह आशङ्का उत्पन्न होती है कि इसने जीवन पर्यन्त अवधिके लिए ब्रह्मचर्य धारण कर लिया है अथवा निश्चित समयकी अवधि के लिए ? अनसूया और प्रियंवदाके वार्तालापसे उसकी उक्त शंका निराकृत हो जाती है । और राजा यह समझ लेता है कि अभी शकुन्तलाका विवाह होना अवशिष्ट है । अब उसके मन में यह सन्देह रह जाता है कि उसका विवाह किसी क्षत्रिय राजासे होगा या तपस्वीसे । प्रियंवदा "गुरोः पुनरस्या अनुरूपवरप्रदाने संकल्प : " वाक्यसे उक्त सन्देहके दूर होनेपर राजा मनमें चिन्तन करता है । राजा दुष्यन्तका यह चिन्तन कारण- कार्यभावसे युक्त है ।
२ . वही १।१५
४. १।१२ के पूर्वका गद्यखण्ड
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा भव हृदय साभिलाषं सम्प्रति सन्दैहनिर्णयोः जातः । - आशङ्कसे यदग्नि तदिदं स्पर्शक्षमं रत्नम् ॥'
यहाँ सन्देह निर्णय होना कारण है और हृदयका साभिलाष होना कार्य है। इस कार्य कारणभाव द्वारा राजा दुष्यन्तको मानसिक स्थितिका चित्रण किया है ।
वृक्षसिञ्चनमें संलग्न शकुन्तला क्लान्त दिखलाई पड़ती है । प्रियंवदा उससे दो वृक्षोंका सिञ्चन कराती है, जिससे घड़े द्वारा जल देनेके कारण उसके हाथ कन्धेपरसे झुक जाते हैं, हथेलियाँ अत्यधिक रक्त हो जाती हैं, लम्बे-लम्बे श्वास चलनेसे स्तन कम्पित होने लगते हैं, वेणीबन्धन शिथिल हो जाता है और मुँह पर पसीनेकी बूंदें व्याप्त हो जाती हैं । इस प्रसंगमें कविने कार्य-कारणभावकी योजना की है।
स्रस्तांसावतिमात्रलोहिततलौ बाह घटोत्क्षेपणादद्यापि स्तनवेपथु जनयति श्वासः प्रमाणाधिकः । बद्धं कर्णशिरीषरोधि वदने धर्माम्भसां जालकम् ,
बन्धे स्रसिनि चैकहस्तयमिताः पर्याकुला मूर्धजाः ॥२ यहाँ घटोत्क्षेपण कारणसे 'लोहिततलौ', 'स्रस्तांसौ बाहू', 'प्रमाणाधिकश्वासः', 'स्तनवेपथु', धर्माम्भसां जालकम्' एवं 'बन्धे संसिनि मूर्धजाः'' रूप कार्योंको उत्पत्ति दिखलाई गई है । इस कार्य-कारण सम्बन्ध द्वारा कविने शकुन्तलाकी परिश्रान्तता व्यक्त की है।
दुष्यन्तके मनमें शकुन्तलाका स्मरण हो आता है, अतः मृगयासे उसका मन विरक्त हो जाता है । यहाँ शकुन्तलाका स्मरण कारण और मृगया-विरक्ति कार्य है। वह उदासीन मनसे विदूषक से कहता है
न नमयितुमधिज्यमस्मि शक्तो, धनुरिदमाहितसायकं मृगेषु । सहवसतिमुपेत्य यः प्रियायाः कृत इव मुग्धविलोकितोपदेशः ॥
प्रस्तुत पद्य में प्रिया शकुन्तलाके सहवास और उसे सुन्दर कटाक्षपात सिखलानेके कारण हिरण राजा दुष्यन्तकी सहानुभतिके पात्र बन गये हैं, इस कारण वह उनपर बाण चलाना नहीं चाहता है । अतः यहाँ पद्य के उत्तरार्धमें कथित सहानुभूति कारण है और बाण चलानेका त्याग कार्य है । इस कार्य-कारणभावसे कविने प्रियके संयोगसे वस्तुके प्रिय बन जानेकी कल्पनाका समर्थन किया है।
कविने मृगयारूप कारणसे एक साथ कई कार्योंकी उत्पत्तिका दिग्दर्शन कराया है। यथा
मेदश्छेदकृशोदरं लघु भवत्युत्थानयोग्यं वपुः सत्त्वानामपि लक्ष्यते विकृतिमच्चित्तं भयक्रोधयोः । उत्कर्षः स च धन्विनां यदिषवः सिध्यन्ति लक्ष्ये चले ,
मिथ्येव व्यसनं वदन्ति मृगयामिदृग्विनोदः कुतः ॥ १. वही ११२८ २. अभिज्ञानशाकुन्तलम्-सम्पादक एम० आर० काले, प्र० गोपालनारायण कम्पनी, बम्बई
सन् १९३४ ई०, ११२७ ३, वही २।३;
४. वही २५
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान यहाँ मृगयाको व्यसनाभाव कहना कार्य है, इस कार्यकी सिद्धि पद्यमें कथित समस्त कारणोंसे हुई है।
महाकवि कालिदास कार्यकारणभावकी योजनाकर दुष्यन्तके समस्त पृथ्वीके सम्राट होनेमें किसी भी प्रकारका आश्चर्य व्यक्त नहीं करता। यतः देव-दानवोंके युद्धके अवसरपर देवोंकी रक्षा दुष्यन्तके प्रत्यञ्चा-युक्त धनुषके द्वारा ही सम्भव होती है । अतएव देवोंको उसके धनुषपर इन्द्रके वज्र के समान ही विश्वास है । कवि कहता है
नेतच्चित्रं यदयमुदधिश्यामसोमां धरित्रीमेकः कृत्स्नां नगरपरिघप्रांशुबाहुभुनक्ति । आशसन्ते समितिषु सुरा बद्धवरा हि देत्य
रस्याधिज्ये धनुषि विजयं पौरुहूते च वजे ॥ यहाँ अधिज्ये धनुषि कारण है, इस कारणद्वारा 'कृत्स्नामुदधिश्यामसीमां धरित्री भुनक्ति' कार्यकी उत्पत्ति हुई है । अतएव कार्य-कारण सम्बन्ध द्वारा नैतच्चित्रम्की सिद्धि की गयी है ।
दुष्यन्त ऋषियोंका निवेदन स्वीकारकर यज्ञरक्षाके लिए कण्वाश्रममें निवास करनेकी सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर देता है। निवेदन करनेवाले ऋषि हेतु प्रदर्शन पूर्वक राजाकी स्वीकारोक्तिको प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं कि अपने पूर्वजोंका अनुकरण करनेवाले आपका यह कार्य अत्यन्त रचित है, क्योंकि पुरुवंशी राजा आपत्तिग्रस्तोंकी रक्षाका व्रतधारण किये हुए है। यथा
अनुकारिणि पूर्वेषां युक्तरूपमिदं त्वयि ।
आपन्नाभयसत्रेषु दीक्षिताः खलु पौरवाः ॥ इस पद्यमें 'आपन्नाभयसत्रेषु पौरवाः दोक्षिताः' कारण है, इस कारणसे 'त्वयि इदं युक्तरूपम्' कार्यकी उत्पत्ति हुई है। अतः कार्य-कारण भाव संबंधसे दुष्यन्तकी वीरता और दृढ़ताको अभिव्यञ्जना की गयी है।
___ दुष्यन्तको विदूषककी गम्भीरतापर विश्वास नहीं है। उसके मनमें सन्देह है कि कहीं यह चञ्चल ब्राह्मण मेरे इस प्रेम व्यापारको अन्तःपुरकी स्त्रियोंसे जाकर न कह दे । अतः वह यथार्थताको छिपाता हुआ कहता है-मित्र ! ऋषियोंके प्रति आदरभावके कारण मैं इस आश्रममें कुछ दिनों तक और निवास करूंगा, तपस्वी कन्यापर आसक्तिके कारण नहीं । कविने राजा द्वारा इस प्रसङ्गमें शकुन्तलाके विकाराभावरूप कारणसे प्रेम व्यापाररूप कार्यका निषेध कराया है । यतः विकार सद्भावरूप कारणसे प्रेमव्यापाररूप कार्यका अस्तित्व सिद्ध होता है। अविनाभावरूप व्याप्ति भी विकारसद्भाव और प्रेमव्यापाररूप कार्यके साथ वर्तमान है । अन्वय और व्यतिरेक रूप दोनों ही प्रकारको व्याप्ति भी यहाँ घटित होती है।
क्व वयं क्व परोक्षमन्मथो, मृगशावैः सममेधितो जनः ।
परिहासविजल्पितं सखे, परमार्थेन न गृह्यतां वचः॥ १. अभिज्ञानशाकुन्तल एम० आर० काले द्वारा सम्पादित, सन् १९३४ ई० २।१५। २. वही २।१६। ३. वही २।१८।
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
कामव्यथाके कारण राजा दुष्यन्तको अवस्था बिगड़ती जाती है । पुष्पधन्वा कामदेव और शीतल रश्मियोंसे युक्त चन्द्रमा भी तापहारक होनेके स्थानपर सन्ताप उत्पन्न कर रहे है । वह उक्त दोनोंको उपालम्भ देता हुआ कहता है
तव कुसुमशरत्वं शीतरश्मित्वमिन्दोद्वैयमिदमयथार्थ दृश्यते मद्विधेषु । विसृजति हिमगर्भरग्निमिन्दुर्मयूखैस्त्वमपि कुसुमबाणान् वज्रसारीकरोषि ।'
इस पद्यमें 'इन्दुः हिमगर्भः मयूखैः अग्नि' विसृजति और त्वमपि कुसुमबाणान् वज्रसारीकरोषी । कारण हैं, इस कारण द्वारा 'कुसुमशरत्व' और 'शीतरश्मित्व' का अयथार्थत्व रूप कार्य दिखलाया गया है । यह कार्यकारण भाव योजना कामव्यथाकी तीव्रताको अभिव्यक्त करती है।
दुष्यन्तके प्रेमके कारण शकुन्तलाको कामव्यथा कष्ट पहुँचा रही है, इस व्यथाके कारण उसका शरीर कृश हो गया है, कान्ति पीत वर्णकी हो गयी है और वह अहमिश क्षीण होती जा रही है । कविने यहाँ ‘मदनक्लिष्टा' कारण द्वारा क्षामकपोल, काठिन्यमुक्तस्तन, प्रकामविनतावंस एवं पाण्डु छविरूप कार्यका वर्णन तो किया ही है, साथ ही उसके शोचत्वरूप कार्यके लिए मदनक्लिष्टत्वरूप कारणका निर्देश किया है। कविने सहजानुभूतिको अभिव्यक्ति कार्य-कारण सम्बन्धके वातावरणमें ही प्रस्तुत की है।
क्षामक्षामकपोलमाननमुरःकाठिन्यमुक्तस्तनं मध्यः क्लान्ततरः प्रकामविनतावंसौ छविः पाण्डुरा । शोच्या च प्रियदर्शना च मदनक्लिष्टेयमालख्यते
पत्राणामिव शोषणेन मरुता स्पृष्टा लता माधवी ॥२
राजा दुष्यन्त मदन व्यथित शकुन्तलासे कहता है कि तुम धूपमें इस सन्तप्त शरीरको लेकर कहाँ जाओगी? इस सन्दर्भमें 'परिबाधापेलवैरङ्गः' कारण है, इस कारणसे गमनाभावरूप कार्य उत्पन्न होता है, अतएव 'कथं गमिष्यसि' को उक्त कारणका कार्य माना जायगा । इस प्रकार कार्यकारणकी योजना शकुन्तलाकी व्यथाको अभिव्यक्त कर रही है । महाकवि कालिदासने सहज कल्पनाका सम्बन्ध तकके साथ जोड़ दिया है
उत्सृज्य कुसुमशयनं नलिनीदलकल्पितस्तनावरणम् ।
कथमातपे गमिष्यसि परिबाधापेलवरङ्गः ॥ कण्वाश्रममें सन्ध्याके समय राक्षसोंकी छाया यज्ञवेदीको व्याप्त कर लेती है, जिससे वहाँ भयका संचार होता है। महाकवि कालिदासने यहाँ राक्षसोंकी छायाके कारण और 'भयमादधाना'को कार्यरूपमें चित्रित किया है । यथा
सायंतने सवनकमणि संप्रवृत्ते वेदि हुताशनवती परितः प्रयस्ताः । छायाश्चरन्ति बहुधा भयमादधानाः सन्ध्यापयोदकपिशाः पिशिताशनानाम् ॥
१. वही ३।३। २. वही ३७।
___३. वही ३।२०।
४. वही ३१२५ ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान हस्तिनापुरके लिए शकुन्तलाके प्रस्थानके समय कण्व समीपस्थ तपोवनके वृक्षोंसे उसके गमन करनेकी अनुमति मांगते हैं । इस प्रसंगमें उनके वार्तालापमें कार्य-कारण भावकी योजना उपलब्ध होती है । ऋषि वृक्षोंको सम्बोधन कर कहते हैं कि आभूषण प्रिय होनेपर भी इस शकुन्तलाने स्नेहके कारण मण्डनार्थ भी पल्लवोंको नहीं तोड़ा; न कभी इसने वृक्षोंको जलसे सिञ्चन किये बिना जल ही पिया है । अधिक क्या पुष्पोद्गमके समय यह पुत्र-प्राप्ति जैसा उत्सव सम्पन्न करती थी, आज यही शकुन्तला पतिगृह जा रही है, आप सब अपनी स्वीकृति दीजिए।
पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या नादत्ते प्रियमण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम् । आद्ये वः कुसुमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः
सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम् ॥' इस पद्यमें स्नेह कारण है और मण्डनार्थ भी पल्लवोंका न तोड़ना कार्य है तथा स्नेह सद्भावसे ही जलसिञ्चन, उत्सव सम्पादन आदि भी घटित हुए हैं।
___महर्षि कण्वको नवमालिकाको आम्रसे मिलते हुए और शकुन्तलाको निजपतिको प्राप्त करते हुए देखकर परम सन्तोष होता है । वे नवमालिका और शकुन्तलाकी ओरसे निश्चित हो जाते हैं । इस सन्दर्भ में 'भर्तारमात्मसदृशं सुकृतर्गता' कारण है, इस कारणसे महर्पिका 'वीतचिन्तः' रूपी कार्य उत्पन्न होता है। इस प्रकारको कार्यकारण योजनासे कविने ऋषिकी संकल्प पूर्ति पर उत्पन्न हुए हर्षको सूचित किया है
सङ्कल्पितं प्रथममेव मया तवार्थे भर्तारमात्मसदृशं सुकृतैर्गता त्वम् ।। चूतेन संश्रितवती नवमालिकेयमस्यामहं त्वयि च सम्प्रति वीतचिन्तः ।।
शकुन्तला आश्रमसे प्रस्थान करते समय रुदन करती है । महर्षि कण्व उसे धैर्य बंधाते हैं. और नतोन्नत भूमिमें सावधानीपूर्वक चलनेका निर्देश करते हैं
उत्पक्ष्मणोनयनयोरुपरुद्धवृत्ति बाष्पं कुरु स्थिरतया विरतानुबन्धम् । अस्मिन्नलक्षितनतोन्नतभूभिभागे मार्गे पदानि खलु ते विषमीभवन्ति ।।
उपर्युक्त पद्यमें 'स्थिरता' कारण है और 'आँसुओंका रोकना' कार्य है। उत्तरार्द्ध में नतोन्नत भूमि भागका अलक्षित होना कारण है और मार्गमें पदोंका विषम होना कार्य है।
महर्षि कण्वका शोक उटज द्वारपर बल्यर्थ रोपित नीवारको देखकर अधिक बढ़ जाता है। यहाँ कविने नीवारबलिका अवलोकन कारणके रूपमें और शोकवृद्धिको कार्यके रूपमें चित्रित किया है।
शममेष्यति मम शोकः कथं नु वत्से त्वया रचितपूर्वम् । उटजद्वारविरूढं नीवारबलिं . विलोकयतः॥
१. वही ४९ • २. वही ४।१३
३. वही ४।१५. .
..
४. वही ४।२१ ..
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा मनोहर वस्तुओंको देखकर और मधुर शब्दोंको सुनकर प्रसन्नचित्त व्यक्तिके उत्कण्ठित हो जानेका वर्णन कार्य-कारण भाव युक्त है । अक्लोकन और श्रवण कारण हैं, इनसे सुखान्वित व्यक्तिका उत्कण्ठित होना कार्य है । कविने बताया हैरम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान् पर्युत्सुको भवति यत्सुखितोऽपि जन्तुः । तच्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्व' भावस्थिराणि जननान्तरसौहृदानि ।।
वैतालिक राजा दुष्यन्तको प्रशंसा करता हुआ कहता है कि आप सर्वदा प्रजाकल्याणमें संलग्न रहते हैं, आपका कार्यव्यापार ही इस प्रकारका है, जिससे प्रजाको सुख-शान्तिकी प्राप्ति होती है । वृक्ष अपने सिरपर तीव्र आतापको सहन कर छायाश्रितोंके सन्तापको दूर करता है । इस प्रसंगमें छाया कारण और तापशान्ति कार्य है। राजा दुष्यन्तका कार्याव्यापार कारण और प्रजाकल्याण कार्य है । यथा
स्वसुखनिरभिलाषः खिद्यसे लोकहेतोः प्रतिदिनमथवा ते वृत्तिरेवंविधैव । अनुभवति हि मूर्ना पादपस्तीवमुष्णं
शमयति परितापं छायया सश्रितानाम् । राजा दुष्यन्त हस्तिनापुरमें शकुन्तलाके अवगुण्ठनवती होनेके कारण उसके अपरिस्फुटलावण्यका दर्शन करता है । इस प्रसंगमें कार्य-कारण भी योजना प्रभावक रूपमें घटित हुई है । इसीप्रकार फलागम रूप कारणद्वारा वृक्षोंके नम्र होने रूप कार्यका, नवाम्बु के कारण घनोंके झुकने रूप कार्यका और समृद्धिको प्राप्तकर सज्जन पुरुषोंके अनुद्धत होने रूप कार्यका कविने वर्णन किया है । ये दोनों ही पद्य कार्य-कारण भावकी योजनाद्वारा काव्य सौंदर्यका सृजन करते हैं
कास्विदवगुण्ठनवती नातिपरिस्फुटशरीरलावण्या।। मध्ये तपोधनानां किसलयमिव पाण्डुपत्राणाम् ।।
भवन्ति नम्रास्तरवः फलागमैनवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः। अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवेष परोपकारिणाम् ।।
जब दुष्यन्त शकुन्तलाका प्रत्याख्यान करता है, तो शकुंतलाके अकृत्रिम क्रोधके कारण उसके मनमें सन्देह उत्पन्न हो जाता है । वह सोचता है - "सन्दिग्धबुद्धि मां कुर्वन्नकैतव इवास्याः कोपो लक्ष्यते""। इस चिन्तनमे शकुंतलाका क्रोध कारण और सन्देहकी उत्पत्ति कार्य है। इसी क्रममें शकुन्तलाकी लाल आँखें कार्य हैं और उसका अत्यन्त क्रोध कारण है । इस कार्यकारण भावकी योजना द्वारा शकुन्तला और दुष्यन्तके चरित्रपर भी प्रकाश पड़ता है ।
मय्येव विस्मरणदारुणचित्तवृत्ती वृत्तं रहः प्रणयमप्रतिपद्यमाने । भेदाभ्रुवोः कुटिलयोरतिलोहिताक्ष्या
भग्नं शरासनमिवातिरुषा स्मरस्य॥ १. शाकुन्तल ५।२;
२. वही २१७ ३. वही ५।१३ ;
४. वही ५।१२ ५. वही २२ पद्य के अनन्तरवाला गद्य, पृ० १३३ ६. वही ५।२३ ,
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदानें
इस प्रकार अभिज्ञान शाकुन्तलम्के समस्त अंकोंमें कार्य-कारण भावकी योजना उपलब्ध होती है । इस नाटक में दुर्वासाका अभिशाप स्वयं कारण है और कार्य है शकुन्तलाका परित्याग, मुद्रिकाकी पुन: प्राप्ति कारण है, तो कार्य है दुष्यन्तकी शकुन्तला विषयक स्मृति और उसका पश्चात्ताप । सप्तम अङ्क में दुष्यन्त स्वयं आत्मनिवेदन करता हुआ कहता है
५२
सुतनु हृदयात्प्रत्यादेशव्यलीकमपेतु ते किमपि मनसः सम्मोहो मे तदा बलवानभूत् । . प्रबलतमसामेवंप्रायाः शुभेषु हि वृत्तयः स्रजमपि शिरस्यन्धः क्षिप्तां धुनोत्यहिशङ्कया ।।
इस पद्य में अज्ञान कारणके रूपमें वर्णित है और परित्याग कार्यके रूपमें । इस सन्दर्भ में तमोगुणको कल्याणकारी बृत्तियोंको आच्छादित करनेका कारण माना गया है ।
महर्षि मारीचने अन्तमें रहस्यका उद्घाटन करते हुए कार्य-कारण भावका उल्लेख किया है
शापादसि प्रतिहता स्मृतिरोधरुक्षे भर्तर्यपपेतमसितत् प्रभुता तवैव । छाया न मूर्छति मलोपहतप्रसादे शुद्धे तु दर्पणतले सुलभावकाशा ||
शापके कारण तुम्हारे पतिकी स्मरण शक्ति रुक गई थी, अतएव वे रूखे हो गये थे और उनके द्वारा तुम्हारा तिरस्कार हुआ था। अब उसका अज्ञान दूर हो गया है, अतः उनपर तुम्हारी ही प्रभुता रहेगी । मैले शीशेमें प्रतिबिम्ब साफ नहीं दिखलायी देता है पर दर्पणके स्वच्छ होने पर प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखलायी पड़ने लगता है ।
यहाँ शाप कारण और स्मृतिका अवरोध कार्य; अज्ञानका अभाव कारण और प्रभुताका सद्भाव कार्य एवं मलाभाष कारण और प्रतिबिम्बका स्वच्छ दर्शन कार्य है । महर्षि मारीचने शकुन्तलाको सान्त्वना कार्य-कारण भावका निर्देश करते हुए ही प्रदान की है ।
विषय विवेचनकी दृष्टिसे अभिज्ञान शाकुंतल के प्रथम अंकमें संग, द्वितीय अंकमें काम, तृतीय में भोग चतुर्थ में चिता, पञ्चममें प्रमाद, षष्ठमें पश्चात्ताप और सप्तममें सिद्धिका प्रतिपादन हुआ है । इन समस्त विषयोंके मूलमें रागबद्ध चित्तवृत्ति ही कारण रूपमें प्रवृत्त दिखलायी पड़ती है । अतएव संक्षेपमें इस नाटकमें मानव वृत्तियों का कार्य-कारण रूप विस्तार ही माना जा सकता है ।
मुद्रिका दर्शनके पश्चात् सम्राट् दुष्यन्तको शकुंतलाकी तीव्र स्मृति हो गयी और वह अज्ञानताके कारण किये गये शकुन्तलाके परित्यागके लिए पश्चात्ताप करने लगा। राजाको समस्त मनोहर वस्तुएँ नीरस प्रतीत होने लगीं, वह रात्रि जागकर व्यतीत करने लगा। जब कभी उससे गोत्र स्खलन हो जाता, तो उसे विशेषरूपसे लज्जित होना पड़ता । कवि कहता हैरम्यं द्वेष्टि यथा पुरा प्रकृतिभिर्न प्रत्यहं सेवते शय्याप्रान्तविवर्तनैविगमयत्युन्निद्र एव क्षपाः । दाक्षिण्येन ददाति वाचमुचितामन्तःपुरेभ्यो यदा गोत्रेषु स्खलितस्तदा भवति च क्रीड़ाविलक्षश्चिरम् ॥'
१. शाकुन्तल- 'काले' संस्करण ६।५;
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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
प्रस्तुत पद्यमें व्रीडाविलक्ष कार्य है और गोत्रस्खलन कारण है। इस कार्य-कारणभाव द्वारा राजाकी शकुन्तलाके विरहके कारण उत्पन्न हुई मानसिक अवस्थाका परिचय प्राप्त होता है।
__दुष्यन्त प्रतिहारीको आदेश देता है कि आज विलम्बसे जगनेके कारण धर्मासनपर बैठना सम्भव नहीं है, अतएव अमात्यसे कहना कि जिन नागरिक कार्योंका अवलोकन किया है उन्हें पत्रमें चढ़ाकर भेज दें। चिरप्रबोधान्न सम्भावितमस्माभिरद्य धर्मासनमध्यासितुम् । यत्प्रत्यवेक्षितं पौरकार्यमार्येण तत्पत्रमारोप्य दीयतमिति'।
यहाँ 'चिरप्रबोध' कारण है और 'धर्मासनपर आसीन होनेकी अक्षमता' कार्य है।
मुद्रिकाको उपालम्भ देता हुआ दुष्यन्त कहता है, कि मुद्रिके, तुम्हारा पुण्य भी मेरे ही समान अवश्य न्यून है, यह फलसे ही ज्ञात होता है । यहाँ फल-हाथसे गिरजाना कारण है और पुण्यकी न्यूनता कार्य है । अतः कार्यकारण भाव सम्बन्धसे कविने राजाकी विभिन्न भावनाओंका चित्रण किया है।
तव सुचरितमङ्गलीयं नूनं प्रतनु ममेव विभाव्यते फलेन ।
अरुणनखमनोहरासु तस्याश्च्युतमसि लब्धपदं यदङ्गलीषु॥
किसी अप्रत्यक्ष सत्ताद्वारा विदूषकके आक्रान्त होनेपर दुष्यन्त विचार करता है कि प्रतिदिन प्रमादजन्य त्रुटियोंको पूर्णतया अवगत करना कठिन है । यहाँ प्रमादद्वारा स्खलन होना कारण है और इस कारणसे उत्पन्न त्रुटियाँ कार्य हैं ।
___ इन्द्रकी सहायताकर स्वर्गसे लौटते समय दुष्यन्तकी मातलि प्रशंसा करता है। वह कहता है
सुखपरस्य हरेरुभयैः कृतं त्रिदिवमुद्धृतदानवकण्टकम् ।
तव शरैरधुना नतपर्वभिः पुरुषकेसरिणश्च पुरा नखैः ॥ यहाँ 'त्रिदिवमुद्धृतदानवकण्टकम्' कार्य है और 'तव शरैः' तथा 'पुरुषकेसरिणः नखः कारण हैं । उक्त दोनों कारणोंमें कारणका लक्षण विद्यमान है।
__ स्वर्गसे वापस आता हुआ राजा दुष्यन्तका रथ पयोधरोंके बीचसे आ रहा है, जलकणोंने उसके चक्रके प्रान्तभागको आर्द्र कर दिया है । इस प्रसंगमें 'शीकर' कारण और मेघपथका बोध कार्य है।
१. वही षष्ठ अङ्क ७वें पद्य का पश्चात्वर्ती गद्य, पृ० १५० ; २. वही ६।११; ३. वही ७३;
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १. बिहारके जैन तीर्थ २. राजगृह : एक प्राचीन जैन तीर्थ-क्षेत्र ३. जैन साहित्यमें प्रतिपादित मगध जनपद ४. दक्षिण भारतमें जैन धर्मका प्रवेश और विस्तार ५. जैन धर्मके प्रभावक पुरुष एवं नारियाँ ६. जैन धर्मका महान् प्रचारक-सम्राट सम्प्रति ७. सम्राट सम्प्रति और उसकी कृतियाँ ८. आदिपुराण में वर्णित नारी ९. तीर्थंकरोंकी पञ्चकल्याणक तिथियाँ १०. जैन कला : एक विश्लेषण ११. प्राचीन जैन सिक्कोंका अध्ययन १२. सोमदेवका राजनैतिक विवेचन १३. Jain Culture in Shahabad
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बिहार के जैन-तीर्थ
प्रस्तावना
बिहारके जैनतीर्थ अक्षय, अक्षुण्ण भारतीय धार्मिकताके शाश्वत, उदीयमान, उज्ज्वल प्रतीक हैं । श्रावणके सघन गगन-पटमें जैसे कभी निशीथकी तारिकाएँ नीलवर्णके चंचल-अंचलको सौम्य हाससे हटाकर कठिन कठोर कोलाहलमयी इस भू को क्षणभरके लिए निहार लेती है और मुग्धा सी अपने कान्तिमय सुन्दर श्रीमुखको पुनः अंचलसे ढक लेती हैं। वैसे ही शान्त हृदयमें स्मृतियोंके अनेक स्तरोंके बीच इन तीर्थोकी पावन स्मृति विरागताको उत्पन्नकर प्राणोंकी श्रद्धाको झकझोर देती है । लगता है इस मर्त्यभूमिमें अनन्तकाल तक इन तीर्थोके प्रेम-प्रणयका अविरल प्रवाह उद्दाम रूपसे प्रवाहित होता रहे और इनके दर्शन-वन्दनसे चिरसंचित कर्मकालिमाको हम प्रक्षालित करते रहें । एक कल्पना उठती है कि बिहारके इन जैनतीर्थोके शुभ भाल पर षोड़श कलाकलित विधुने प्राचीनकालसे आगत अपनो कलंककालिमाको धोनेके लिए ही अपनी ज्योत्सनाको विकीर्ण किया है।
प्राणोंका अमूर्तधर्म इन तीर्थोकी नैसर्गिक आभाग मूर्त हो गया है । जीवन की समस्त विरूपताओं, दुर्घर्ष पाशविकताके शिलाखण्डों, अधार्मिक प्रवृत्तियोंके शोषणजन्य रुद्र दृश्यावलियोंसे दूर ये तीर्थप्रान्त मानवको चरम शान्तिका सन्देश देते हुए धर्मप्रवर्तकोंका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं । इनका धार्मिक वैभव युगोंके अन्तरालमें अपनी सुषमाका गौरवमय इतिहास छुपावे बहता आया है। हृदयको प्रकाण्ड निष्ठाके ये जीवित प्राण हैं। इनकी झलक चेतनाका वह विकम्पन है जो दानवको मानव. सरागीको विरागी बनाने में पूर्ण सक्षम हैं। स्वप्न जागरणके मूक मिलन पर ये एक सुषुप्त आह्लाद जगाते हैं । अहिंसा और सत्यका मौन भाषामें उपदेश दे मानवको सुमार्ग पर ले जाते हैं । भावुक, श्रद्धालु इन तीर्थोंमें विश्वास और श्रद्धाकी इकाइयोंमें फैली सारी मान्यताओंका अवलोकन करता है। इनकी अखण्ड शान्ति, मोहक प्राकृतिक दृश्य, अणु-अणुमें व्याप्त सरलता सहज ही दर्शकको अपनी ओर आकृष्ट करती है। गगन-चुम्बी शलराजोंके उत्तुङ्ग शृंगों पर निर्मित जिनालय प्रत्येक भावुककी हृत्तंत्रियोंको झंकृत करने में समर्थ हैं । अतएव "संसाराब्धेरपारस्य तरणे तीर्थमिष्यते'' यह सार्थकता इनमें विद्यमान है। वर्गीकरण
जैन-संस्कृति और जैनकलाकी आदर्शोन्मुख उठान बिहारके इन जैनतीर्थोंको हम सुविधाके लिए निम्न वर्गोंमें विभक्त कर सकते हैं :
सिद्धभूमि तीर्थ, तपोभूमि और ज्ञानभूमि तीर्थ, जन्मभूमि तीर्थ और साधारण तीर्थ ।
सिद्धभूमि तीर्थ वे हैं, जहाँसे कर्मजाल नष्टकर तीर्थकर और सामान्य केवलियोंने अजरअमर निर्वाणपद उपलब्ध किया है। कहना न होगा कि बिहारकी पुण्य धराको ऋषभनाथ
१. आदिपुराण पर्व ४, श्लोक ८
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
और नेमिनाथके अतिरिक्त अवशेष बाईस तीर्थंकरोंकी निर्वाण प्राप्तिका गौरव उपलब्ध है । बिहार की भूमि इस अर्थ में श्रेष्ठ है, बड़भागिन है । श्री सम्मेद शिखर (पारसनाथ पर्वत), पावापुरी, चम्पापुरी ( नाथनगर - भागलपुर), राजगृह, गुणावा, मन्दारगिरि और कमलदह (गुलजारबाग पटना ) ये तीर्थ बिहार में सिद्धभूमि माने जाते हैं ।
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तपोभूमि और ज्ञानभूमि, वे तीर्थ हैं; जहाँ पर तीर्थंकर या अन्य मुनिराजोंने तपस्या की हो - प्रव्रज्या ग्रहण की हो तथा घातिया कर्मोंको चूरकर कैवल्य प्राप्त किया हो । ये स्थान हैं राजगिरिके निकटवर्ती नील वनप्रदेश, ऋजुकूला नदीका तटवर्ती जम्भिका ग्राम, राजगृहकी पंच पहाड़ियाँ, कुलहा पहाड़' (हजारीबाग) आदि । इन स्थानोंमें तीर्थंकर अथवा मुनिराजोंने प्रव्रज्या ग्रहण की अथवा विश्वको आलोकित करने वाले ज्ञान-पुञ्जको प्राप्त किया था । आज भी इन भूखण्डोंसे ज्ञानकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। ये नीरव स्थान मानवको अपरिमित शान्ति और तृप्ति प्रदान करते हैं ।
जन्मभूमि तीर्थ वे हैं, जहाँ तीर्थकरों का जन्म हुआ हो । तीर्थकरोंके जन्म लेनेसे वह भूमि उनकी क्रीड़ाभूमि होती है, जिससे उनके पुण्यातिशयके कारण वहाँका कण-कण पवित्र होता है । बिहारके मिथिला प्रदेश में उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ और इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथका; राजगृह में बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथका एवं वैशालीके क्षत्रियकुण्ड ग्राम में अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामीका जन्म हुआ है । बारहवें तीर्थकर वासुपूज्यकी जन्मभूमि चंपा है।
साधारण तीर्थ वे हैं, जहाँ प्राचीन या अर्वाचीन जिनालय हैं, जिनकी पूजा-वन्दना प्रतिदिन की जाती है। ऐसे तीर्थ बिहार में जहाँ-जहाँ जैनोंकी आबादी हैं, सर्वत्र । आरा, गया आदि प्रमुख हैं । बिहार में कुछ ऐसे भी प्राचीन तीर्थ हैं जिनका इतिहास आज तक अन्धकाराच्छन्न है | श्रावक पहाड़ और प्रचार पहाड़, ये दोनों जैनतीर्थ गया जिलेमें हैं; जहाँ जैन मूर्तियों के ध्वंसावशेष उपलब्ध हैं ।
सिद्ध भूमियाँ
बिहार की सिद्धभूमियों में सबसे प्रमुख सम्मेदशिखर है । अतः क्रमानुसार सभी सिद्धभूमियोंका निरूपण करना आवश्यक है ।
श्री सम्मेद शिखर,
इस स्थानका दूसरा नाम पार्श्वनाथपर्वत है, यह जिला हजारीबागके अन्तर्गत है ।
१. कुलुहा पहाड़ श्री शान्तिनाथ भगवान्की तपोभूमि है ।
२. मिहिलाए मल्लिजिणो पहवदिए कुंभअक्खिदोसेहि । मग्गसिर सुक्क एक्कदसीए संजादो ||
महिलापुरिए जादो विजयर्णारिंदे ण वप्पिलाए च ।
अस्सिणिरिक्खे आसाढसुक्कदसमीए णमिसामी ||
रायगिहे भुणिसुव्वयदेवो पउमासु मित्तराएहि । अस्सजुदवारसीए सिदपवसे सबणभे जादे ॥ सिद्धत्थरायपियकारिणीहि यरम्मि कुंडले वीरो ।
उत्तरफग्गुणिरिक्खे चित्तसियातेरसीए उप्पणो ॥
-तिलोयपण्णत्ति, चतुर्थ अधिकार, गाथा ५४४, ५४५,५५६, १४९
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
गिरीडीह स्टेशन से १८ मील और पारसनाथ ( ईसरी) स्टेशन से लगभग १५ मीलकी दूरी पर है । इस शैलराजकी उत्तुंग शिखाएँ प्राकृतिक और सांस्कृतिक गरिमाका गान आज भी गा रही है । यह समुद्र गर्भसे ४४८८ फुट ऊँचा है । देखने में बड़ा सुन्दर है । घनी वनस्थली से घिरे ढालू संकीर्णपथसे पहाड़ी पर चढ़ाई आरम्भ होती है । जैसे ही प्रयाण करते हैं, पर्वतराजकी विस्मयजनक शोभा उद्भासित होने लगती है और बीच-बीच में नाना रमणीय दृश्य दिखलाई देते हैं । लगभग एक सहस्र फुट ऊँचा जाने पर आठ चोटियोंके बीच पार्श्वनाथ चोटी बादलों के बीच गुम्म-सी प्रतीत होती है । अनेक अंग्रेज यात्रियोंने मुक्तकंठसे इस रमणीय स्थलका वर्णन किया है । सन् १८१९ में कोलोनेल फैक्लिनने (Colonel Franklin ) इसकी यात्रा की थी ।
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इस पर्वत की सबसे ऊँची चोटी सम्मेदशिखिर कहलाती है । यह शब्द सम्मद + शिखर का रूपान्तर प्रतीत होता है । इसकी निष्पत्ति सम् + मद घञर्थ में क अथवा अच् प्रत्यय करने पर हर्ष या हर्षयुक्त होगा । तात्पर्य यह है कि इसकी ऊँची चोटीको मंगलशिखर (The peak of the bliss) कहा जाता है । कुछ लोगों का अनुमान है कि जैनश्रमण इस पर्वतपर तपस्याएँ किया करते थे इसलिए इस पर्वतकी ऊँची चोटीका नाम समणशिखर से सम्मेदशिखर हो गया है । इस शैलराजसे चौबीस तीर्थंकरोंमेंसे अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ और पार्श्वनाथ इन बीस तीर्थकरोंने कर्मकालिमाको नष्टकर जन्म-मरणसे मुक्ति प्राप्त की है ।
वर्धमान कविने अपने दश भक्त्यादि महाशास्त्रमें पार्श्वनाथ पर्वतकी पवित्रताका वर्णन करते हुए श्री रामचन्द्रजीका निर्वाणस्थान इसे बतलाया है । जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणोंसे अन्धकारको नष्ट कर देता है उसी प्रकार इस क्षेत्रकी अर्चना करनेसे समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । कविने इस शैलराजको अनन्त केवलियोंकी निर्वाणभूमि बताया है ।
श्री पं० आशाधरजीने अपने त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्रमें राम और हनुमानका मुक्तिस्थान सम्मेदाचलको माना है । रविषेणाचार्य ने अपने पद्मपुराण में हनूमानका निर्वाणस्थान भी इसी १. वीसं तु जिणवरिदा अमरासुरवंदिदा धुदकिलेसा । सम्मेदे गिरिसिहिरे निव्वाणगया णमो तेसि ॥ - निर्वाणकाण्ड गाथा- २
शेषास्तु ते जिनवरा जितमोहमल्ला, स्थानं परं निरवधारित सौख्यनिष्ठं,
ज्ञानार्कभूरिकिरणैरवभास्य लोकान् । सम्मेदपर्वततले समवापुरीशाः ।।
— निर्वाणभक्ति श्लो० २५
विशेषके लिए देखें - तिलोयपण्णत्ति, अधिकार ४ गाथा १९८६ – १२०० २. अनन्त - जिननिर्वाणे मुनिसुव्रतजन्मनि । उपदेशश्च नास्माकं जिनसेनाचार्य शासने || अमावास्याग्ररात्रौ वानन्तजिज्जिननिर्वृत्तिः । संजाताप्यनगार केवलिविभोः श्रीरामचन्द्रस्य वै । श्रोद्धफाल्गुन शुक्लपक्षविलसच्चातुर्दशीवासरे । पूर्वाह्णे कुलशैलमस्तकमणौ सम्मेदगिर्यप्रकौ ॥ शास्तानिर्वृतिरत्र लक्ष्मणमतेः सीतावली श्रीपतेः । । - दशभक्त्यादिशास्त्र ।
३. साकेतमेतत्सिद्धार्थवने श्रित्वा बलस्तपः । शिवगुप्तजिनात्सिद्धः सम्मे दे गुणमदादियुक ||
- त्रिषष्टिस्मृति इलो० ८०
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
पर्वतको बग़लाया है' । श्री गुणभद्राचार्यने उत्तरपुराण में सुग्रीव, हनूमान और रामचन्द्र आदिको इस शैलराजसे मुक्त हुए कहा है । २
श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य में चौबीस तीर्थकरों के तीर्थकाल में इस पवित्र तीर्थ की यात्रा करनेवाले उन व्यक्तियोंके आख्यान दिये गये हैं; जिन्होंने इस तीर्थकी वंदनासे अनेक लौकिक फलोंको प्राप्त किया तथा दीक्षा लेकर तपस्या की और इसी शैलराजसे निर्वाणपद पाया । दिगम्बर आगमोंके समान श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें भी इस क्षेत्रकी महत्ता स्वीकार की गयी है | विविध तीर्थकल्पमें पवित्र तीर्थोंकी नामावली बतलाते हुए कहा गया है
अयोध्या - मिथिला-चम्पा - श्रावस्ती हस्तिनापुरे । कौशाम्बी - काशि- काकन्दी - काम्पिल्ये - भद्रलाभिधे ॥ चन्द्रानना - सिंहपुरे तथा राजगृहे पुरे । रत्नवाहे शौर्यपुरे कुण्डग्रामेऽप्यपादया || श्रीरैवतक-सम्मेद - वैभाराऽष्टापदाद्रिषु । यात्रायास्मिस्तेषु यात्राफलाच्छतगुणं फलम् ।।
इस प्रकार इस तीर्थ की पवित्रता स्वतः सिद्ध है । यह एक प्राचीन तीर्थ है; परन्तु वर्तमान में इस क्षेत्र में एक भी प्राचीन चिह्न उपलब्ध नहीं है । यहाँके सभी जिनालय आधुनिक हैं, तीन-चार सौ वर्ष से पहले का कोई भी मन्दिर नहीं है । प्रतिमाएँ भी इधर सौ वर्षोंके बीचकी हैं । केवल दो-तीन दिगम्बर मूर्तियाँ जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित हैं; परन्तु इनकी प्रतिष्ठा भी मधुवनमें या इस क्षेत्रसे सम्बद्ध किसी स्थानमें नहीं हुई है । अतएव यह स्पष्ट है कि बीचमें कुछ वर्षोंतक इस क्षेत्रमें लोगोंका आवागमन नहीं होता था । इसका प्रधान कारण मुसलमानी सल्तनत में आन्तरिक उपद्रवोंका होना तथा यातायातकी असुविधाओंका रहना भी है । औरंगजेबके शासनके उपरान्त ही यह पुनः प्रकाश में आया है । तबसे अब तक प्रतिवर्ष सहस्रों यात्री इसकी अर्चना, वन्दना कर पुण्यार्जन करते हैं । १८ वीं शती में तो अंग्रेज यात्रियोंने भी इस क्षेत्रकी यात्रा कर यहाँका प्राकृतिक, भौगोलिक एवं ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया है तथा तत्कालीन स्थितिका स्पष्ट चित्रण किया है" । पर्वतकी चढ़ाई, उतराई और वंदनाका क्षेत्र कुल १८ मील तथा परिक्रमाका क्षेत्र २८ मील है । मधुवनसे दो मील चढ़ाई पर मार्ग में गन्धर्व नाला और इससे एक मील आगे सीता नाला पड़ता है ।
१. निर्दग्धमोहनिचयो जैनेन्द्रं प्राप्य पुष्कलं ज्ञाननिधिम् । निर्वाणगिरावसिधच्छ्रीशैलः श्रमणसत्तमः पुरुषरविः ॥ -पर्व १३, ४५
२. दिने सम्मेदगिर्यग्रे तृतीयं शुक्लमाश्रितः । योगत्रितयमारुष्य समुच्छिन्नक्रियाश्रयः ॥ - उत्तरपुराण पर्व ६८ श्लो० ७१९
३. विविधतीर्थकल्प पृ० ३ ।
४. A statical Account of Bengal volume X VI P. 30-33
५. Pilgrimage to Parsvanath in 1820, Edited by James Burgess,
lled 1902, p. 36-45.
तथा विशेष जाननेके लिए देखें – सम्मेदशिखर नामक विस्तृत निबन्ध
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
आज इस क्षेत्रमें दिगम्बर और श्वेताम्बर जैनधर्मशालाएँ, मन्दिर एवं अन्य सांस्कृतिक स्थल हैं । पहाड़के ऊपर २५ गुम्म में हैं, जिनमें निर्वाणप्राप्त २० तीर्थंकर, गौतम गणधर एवं अवशेष चार तीर्थकरोंकी चरण-पादुकाएं स्थापित हैं । पहाड़के नीचे मधुवनमें भी विशाल जिनमन्दिर हैं जिनमें भव्य एवं चित्ताकर्षक मूत्तियाँ स्थापित की गयी हैं। भाव सहित इस क्षेत्रके दर्शन, पूजन करनेसे ४९ भवमें निश्चयतः निर्वाण प्राप्त होता है तथा नरक और तिर्यक् गतिका बंध नहीं होता। पावापुरी
____ अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामीकी निर्वाणभूमि पावापुरी, जिसे शास्त्रकारोंने पावाके नामसे स्मरण किया है, अत्यन्त पवित्र है। इस पवित्र नगरीके पद्मसरोवरसे ई० पू० ५२७ में ७२ वर्षकी आयुमें भगवान् महावीरने कात्तिक वदी अमावस्याके दिन उषाकालमें निर्वाणपद प्राप्त किया था। प्रचलित यह पावापुरी, जिसे पुरी भी कहा जाता है, विहारशरीफ स्टेशनसे ९ मील दूरीपर है।
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय वाले इस तीर्थको समान रूपसे भगवान् महावीरको निर्वाणभूमि मानते हैं । परन्तु ऐतिहासिकोंमें इस स्थानके सम्बन्धमें मतभेद हैं । महापण्डित श्री राहुल सांकृत्यायन गोरखपुर जिलेके पपउर ग्रामको ही पावापुर बताते हैं, यह पडरोनाके पास है और कसयासे १२ मील उत्तर-पूर्वको है । मल्ल लोगोंके गणतन्त्रका सभाभवन इसी नगरमें था।
___ मुनिश्री कल्याणविजय गणी विहारशरीफके निकट वाली पावाको ही भगवान्की निर्वाणनगरी मानते हैं । आपका कहना है कि प्राचीन भारतमें पावा नामकी तीन नगरी थीं । जैनसूत्रोंके अनुसार एक पावा भैगिदेशकी राजधानी थी। यह प्रदेश पार्श्वनाथ पर्वतके आस-पासके भूमिभागमें फैला हुआ था, जिसमें हजारीबाग और मानभूमि जिलोंके भाग शामिल हैं। बौद्धसाहित्यके मर्मज्ञ कुछ विद्वान् इस पावाको मलय देशकी राजधानी बताते हैं । किन्तु जैनसूत्र ग्रन्थों के अनुसार यह भंगीदेशकी राजधानी ही सिद्ध होती है ।
दूसरी पावा कोशलसे उत्तर-पूर्व कुशीनाराकी ओर मल्ल राज्यकी राजधानी थी, जिसे राहुलजीने स्वीकार किया है ।
तीसरी पावा मगध जनपदमें थी, जो आजकल तीर्थक्षेत्र के रूपमें मानी जा रही है। इन तीनों पावाओंमें पहली पावा आग्नेय दिशामें और दूसरी पावा वायव्य कोणमें स्थित थी । अतः
१. कत्तियकिल्ले चोदसिपच्चूसे सादिणामणवखते । पावाए णयरीए एक्को वीरेसरो सिद्धो ॥
-तिलोयपण्णत्ति ४, १२०८ क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहरवनान्तरे । बहूनां सरसां मध्ये महामणिशिलातले ।। स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्धनिर्जरः । कात्तिककृष्णपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये । स्वातियोगे तृतीयेद्ध शुक्लध्यानपरायणः । कृतत्रियोगसंरोधसमुच्छिन्नक्रियं श्रितः ।। हताघातिचतुष्कः सन्नशरीरो गुणात्मकः । गतं मुनिसहस्रेण निर्वाणं सर्ववांछितम् ।।
-उत्तरपुराण पर्व ७६ श्लो० ५०८-१२
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
उल्लिखित तीसरी पावा मध्यमाके नामसे प्रसिद्ध थी । भगवान् महावीरका अन्तिम चातुर्मास्य तथा निर्वाण इसी पावामें हुआ है ।'
६२
श्री डा० राजबली पाण्डेयका 'भगवान् महावीरकी निर्वाणभूमि' शीर्षक एक निबन्ध प्रकाशित हुआ है । आपने इसमें कुशीनगरसे वैशालीकी ओर जाती हुई सड़क पर कुशीनगरसे ९ मीलकी दूरी पर पूर्व-दक्षिण दिशामें सठियांव के भग्नावशेष ( फाजिलनगर ) को निश्चित किया है । यह भग्नावशेष लगभग डेढ़ मील विस्तृत है और भोगनगर तथा कुशीनगर के बीच में स्थित है । यहाँ पर जैन मूर्तियोंके ध्वंसावशेष अभीतक पाये जाते हैं । बौद्ध साहित्य में जो पावाकी स्थिति बतलायी गयी है, वह भी इसी स्थान पर घटित होती है ।
इन तीनों पावाओं की स्थितिपर विचार करनेसे ऐसा मालूम होता है कि भगवान् महाarrat निर्वाणभूमि पावा डा० राजबली पाण्डेय द्वारा निरूपित ही है । इसी स्थान पर काशीकोशलके नौ लिच्छवी तथा नौ मल्ल एवं अठारह गणराजोंने दीपक जलाकर भगवान्का निर्वाोत्सव मनाया था । नन्दिवर्द्धनके द्वारा भगवान् के निर्वाण स्थानकी पुण्यस्मृति में जिस मन्दिरका निर्माण किया गया था, आज वही मन्दिर फाजिलनगरका ध्वंसावशेष है । इस मन्दिरको भी एक मीलके घेरेका बताया गया है तथा यह ध्वंसावशेष भी लगभग एक-डेढ़ मीलका है । ऐसा मालूम होता है कि मुसलमानी सलतनतकी ज्यादतियोंके कारण इस प्राचीन तीर्थको छोड़कर मध्य पावाको ही तीर्थ मान लिया गया है । यहाँपर क्षेत्रकी प्राचीनताका द्योतक कोई भी चिह्न नहीं है । अधिक-से-अधिक तीन सौ वर्षोंसे इस क्षेत्रको तीर्थ स्वीकार किया गया है । यहाँ पर समवशरण मन्दिरकी चरणपादुका ही इतनी प्राचीन है, जिससे इसे सात-आठ सौ वर्ष प्राचीन कह सकते हैं । मेरा तो अनुमान है कि इस चरणपादुकाको कहीं बाहरसे लाया गया होगा । यह अनुमानतः १० वीं शतीकी मालूम होती है, इस पादुका पर किसी भी प्रकारका कोई लेख उत्कीर्ण नहीं हैं । इस चरणपादुकाकी प्राचीनता के आधार पर ही कुछ लोग इसी पावापुरीको भगवान् की निर्वाणभूमि बतलाते है | जलमन्दिरमें जो भगवान् महावीर स्वामीकी चरणपादुका है, वह भी कमसे कम छः सौ वर्ष प्राचीन हैं। ये चरणचिह्न भी पुरातन होनेके कारण गलने लगे हैं । यद्यपि इन चरणों पर भी कोई लेख नहीं है । भगवान् महावीर स्वामीके चरणोंके अगल-बगलमें सुधर्म और गौतम स्वामीके भी चरणचिह्न हैं ।
पावापुरीमें जलमन्दिर संगमरमरका बनाया गया है । यह मन्दिर एक तालाब के मध्य में स्थित है । मन्दिर तक जानेके लिए लगभग ६०० फुट लम्बा लाल पत्थरका पुल है । मन्दिरकी भव्यता और शिल्पकारी दर्शनीय है । धर्मशाला में एक विशाल मन्दिर नीचे है, जिसमें कई वेदियाँ हैं । नीचे सामने वाली वेदीमें श्वेतवर्ण पाषाणकी महावीर स्वामीकी मूलनायक प्रतिमा है । इस वेदीमें कुल १४ प्रतिमाएँ विराजमान हैं । सामने वाली वेदीके बायें हाथकी ओर तीन प्राचीन प्रतिमाएँ हैं । इन प्रतिमाओंमें धर्मचक्रके नीचे एक ओर हाथी और दूसरी ओर बैलके • चिह्न अंकित किये गये हैं । यद्यपि इन मूर्तियों पर कोई शिला - लेखादि नहीं है; फिर भी कलाकी
१. श्रमण भगवान् महावीर पृ० ३७५
२. वर्णी - अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० २११ - २१४
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति ___६३ दृष्टिसे ये निश्चयतः ८-९ सौ वर्ष प्राचीन हैं । मन्दिर में प्रवेश करने पर दाहिनी ओर प्राचीन पार्श्वनाथकी प्रतिमा है । इस प्रतिमामें धर्मचक्रके दोनों ओर दो सिंह अंकित किये गये हैं ।
ऊपर चार मन्दिर है- ( १ ) शोलापुर वालोंका ( २ ) श्री जगमग बीबीका मन्दिर ( ३ ) श्री बा० हरप्रसाद दासजी आरा वालोंका मन्दिर और ( ४ ) जम्बूप्रसाद जी सहारनपुर वालोंका मन्दिर । ये सभी मन्दिर आधुनिक हैं, प्रतिमाएं भी आधुनिक हैं । चम्पापुरी
चम्पापुरी क्षेत्रसे बारहवें तीर्थकर वासुपूज्य स्वामीने निर्वाण प्राप्त किया है । तिलोयपण्णत्तिमें बताया गया है कि फाल्गुन कृष्ण पंचमीके दिन अपराह्नकालमें अश्विनी नक्षत्रके रहते छः सौ एक मुनियोंसे युक्त वासुपूज्य स्वामीने निर्वाण प्राप्त किया। यद्यपि उत्तरपुराणमें बासुपूज्य स्वामीका निर्वाण स्थान मन्दारगिरि बताया गया है। कुछ इतिहासज्ञोंका यह कहना हैं कि प्राचीनकालमें चम्पानगरका अधिक विस्तार था, अतः यह मन्दारगिरि उस समय इसी महान् नगरीको सीमामें स्थित था । भगवान् वासुपूज्य इस चम्पानगरमें एक हजार वर्षतक रहे थे। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थोंमें बताया गया है कि भगवान् महावीरने यहाँ तीन चातुर्मास व्यतीत किये थे। चम्पाके पास पूर्णभद्र चैत्य नामक प्रसिद्ध उद्यान था, जहाँ महावीर ठहरते थे । श्रेणिकके पुत्र अजातशत्रुने इसे मगधकी राजधानी बनाया था। वासुपूज्य स्वामीके चम्पामें ही अन्य चार कल्याणक भी हुए।
, चम्पापुर भागलपुरसे ४ मील और नाथनगर रेलवे स्टेशनसे मिला हुआ है । जिस स्थान पर वासुपूज्य स्वामीको निर्वाण हुआ माना जाता है, उसी स्थान पर एक विशाल मन्दिर और धर्मशाला है । मन्दिरमें पाँच वेदियाँ हैं-चार वेदियाँ चारों कोनोंमें और एक मध्यमें । मध्य वेदीमें प्रतिमाओंके आगे वासुपूज्य स्वामीके चरण काले पत्थर पर अंकित किये गये हैं। इन चरणोंके नीचे निम्न-लेख अंकित है।
- स्वस्ति श्री जय श्रीमङ्गल संवत् १६९३ शकः १५५९ मनुनामसम्बत्सरे (संवत्सरे) मार्गशिर (मार्गशीर्ष) शुक्ला २ शनी शुभमुहुत्तं श्रीमूलसंघ सरस्वतीगच्छबलात्कारगणे कुन्दकुन्दान्वये भट्टारक श्रीकुमुन्दचन्द्रस्तत्पट्टे भ० श्री धर्मचन्द्रोपदेशात् जयपुर शुभस्थानबघेरवाल ज्ञाति से० श्रीपासा भा० से० श्रीसुनोई तथा पुप्रसश्री ५ नामा० श्री सजाईमतं चम्पावासुपूज्यस्य शिखबद्ध शिखरबद्ध प्रासाद कारण्य प्रविष्ठा व"विद्याभूषणैः प्रतिष्ठितं द्धितां श्री जिनधम्यं ।। १. चम्पापुरे च वसुपूज्यसुतः सुधीमान् सिद्धि परामुपगतो गतरागबन्धः ।
... –निर्वाणभक्ति श्लो० २२ २. फग्गुणबहुले पंचमिअवरहे अस्सिणीसु चंपाए । एयाहियछसयजुदो सिद्धिगदो वासुपुज्जजिणो ।
.तिलोय पण्णत्ति अ० ४ गा० ११९६ ३. गुणभद्राचार्यका उत्तरपुराण पर्व ५८. , . . . ४. चंपाएं वासुपुज्जो वसपुज्जणरेसंरेण विजयाए ।
फरगुणसुद्धचउद्दसीए णक्खत्तै पुव्वभद्दपदे ॥-तिलोय पण्णत्ति अ० ४ गा० ५३७
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
'मेरा अनुमान है कि जिस स्थान पर आजकल यह मन्दिर बना है, उस स्थान पर वासुपूज्य स्वामी गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ये चार कल्याण हुए हैं । निर्वाणस्थान तो मन्दारगिरि ही है ।
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चम्पापुरके दो जिनालयोंमेंसे बड़े जिनालयके उत्तर-पश्चिम के कोनेकी वेदीमें श्वेतवर्ण पाषाणकी वासुपूज्य स्वामीकी प्रतिमा है । यह प्रतिमा माघ शुक्ला दशमीको संवत् १९३२ में प्रतिष्ठित की गयी है । इसी वेदी में ५-६ अन्य प्रतिमाएँ भी हैं ।
पूर्वोत्तर के कोनेकी वेदीमें भी मूलनायक वासुपूज्य स्वामी की ही प्रतिमा है, इसकी प्रतिष्ठा भी संवत् १९३२ में ही हुई है। इस वेदीमें दो प्रतिमाएँ पार्श्वनाथ स्वामीकी पाषाणमयी हैं । एक पर संवत् १५८५ और दूसरी पर संवत् १७४४ का लेख अंकित है ।
पूर्व-दक्षिण कोनेकी वेदी में मूलनायक प्रतिमा पूर्वोक्त समयकी वासुपूज्य स्वामीकी है । इस वेदीमें भगवान् ऋषभनाथकी एक खड्गासन प्राचीन प्रतिमा है, जिसमें मध्यमें धर्मचक्र और इसके दोनों ओर दो हाथी अंकित हैं ।
दक्षिण-पश्चिम कोनेकी वेदीमें भी मूलनायक वासुपूज्य स्वामीकी प्रतिमा संवत् १९३२ की प्रतिष्ठित है । इस वेदीमें एक पार्श्वनाथ स्वामीकी पाषाणमयी प्रतिमा जीवराज पापड़ीवाली द्वारा प्रतिष्ठित संवत् १५५४ की है । बीसवीं शताब्दीकी कई प्रतिमाएँ भी इस वेदी में हैं ।
मध्यकी मुख्य वेदी में चाँदीके भव्य सिंहासन पर ४ ।। फुट ऊँची पीतवर्णकी पाषाणमय वासुपूज्य स्वामीकी प्रतिमा है । मूल नायकके दोनों ओर अनेक धातु प्रतिमाएँ विराजमान हैं । बड़े मन्दिर के आगे मुगलकालीन स्थापत्य कलाके ज्वलन्त प्रमाण स्वरूप दो मानस्तम्भ हैं; जिनकी ऊँचाई क्रमशः ५५ और ३५ फीट है ।
मन्दिरके मूल फाटकपर नक्कासीदार किवाड़ हैं । मूल मन्दिरकी दीवालोंपर सुकौशल मुनि उपसर्ग, सीताकी अग्निपरीक्षा, द्रौपदीका चीरहरण आदि कई भव्य चित्र अंकित किये गये हैं । द्रौपदीके चीरहरण और सीताकी अग्निपरीक्षामें दरबारका दृश्य भी दिखलाया गया है । यद्यपि इन चित्रोंका निर्माण हाल ही में हुआ है, पर जैनकलाकी अपनी विशेषता नहीं आ पायी है ।
इस मन्दिरसे आध मील गंगा नदीके नालेके तटपर, जिसको चम्पानाला कहते हैं, एक जैनमन्दिर और धर्मशाला है । इस मन्दिर में नीचे श्वेताम्बरी प्रतिमाएँ और ऊपर दिगम्बर आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान हैं। इन प्रतिमाओं में से कई प्रतिमाएँ, जो चम्पानालासे निकली हैं, बहुत प्राचीन हैं । अन्य प्रतिमाओंमें एक श्वेत पाषाणकी १५१५ को प्रतिष्ठित तथा एक मूंगिया रंगके पाषाणकी पद्मासन सं० १८८१ में भट्टारक जगत्कीति द्वारा प्रतिष्ठित है । प्रतिष्ठा कराने वाले चम्पापुरके सन्तलाल हैं । यहाँ अन्य कई छोटी प्रतिमाओंके अतिरिक्त एक चरणपादुका भी है । श्वेताम्बर आगममें इसी स्थानको भगवान् वासुपूज्य स्वामीके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण इन पंचकल्याणकोंका स्थान माना गया है ।
श्री डब्लू० डब्लू हन्टरने भागलपुरका स्टेटिकल एकाउन्ट देते हुए लिखा है कि जहाँ आजकल चम्पानगरमें जैनमन्दिर है, उस स्थानको ख्वाजा अहमदने सन् १६२२-२३ में आबाद
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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किया था। इस स्थानके आस-पासका मोहल्ला अकबरपुर कहलाता है। यह स्थान बहुत प्राचीन है, यहाँ पर अरण्य हैं ।
मन्दारगिरि
भागलपुरसे ३१ मील दक्षिण एक छोटा-सा पहाड़ अनुमानतः ७०० फुट ऊँचा एक ही शिलाका है । यह प्राचीन क्षेत्र है । यहाँसे भगवान् वासुपूज्यने निर्वाण लाभ किया है। उत्तर पुराणमें बताया गया है
स तैः सह विहृत्याखिलार्यक्षेत्राणि तर्पयन् । धर्मवृष्ट्या क्रमात्प्राप्य चम्पामब्दसहस्रकम् ।। स्थित्वात्र निष्क्रियो मासं नद्या राजतमौलिकासंज्ञायाश्चित्तहारिण्याः पर्यन्तावनिवत्तिनि ।। अग्रमन्दरशैलस्य सानुस्थानविभूषणे । वने मनोहरोद्याने पल्यंकासनमाश्रितः ।। मासे भाद्रपदे ज्योत्स्ने चतुर्दश्यापराह्नके। विशाखायां ययौ मुक्ति चतुर्नवतिसंयतैः ॥
-उत्तरपुराण पर्व ५८ श्लो० ५०-५३ इससे स्पष्ट है कि वासुपूज्य स्वामी का निर्वाण स्थान यही है; जहाँ आजकल चम्पापुरका मन्दिर स्थित है, वहाँसे भगवान्का निर्वाण नहीं हुआ है । इन श्लोकोंमें बताया गया है कि रजतमौलि नामक नदीके किनारेकी भूमिपर स्थित मन्दारगिरिके शिखरपर स्थित मनोहर नामक उद्यानसे भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशीके दिन सन्ध्या समय विशाखा नक्षत्रमें ९४ मुनिराजोंके साथ वासुपूज्य स्वामीने निर्वाणपद प्राप्त किया। भौगोलिक दृष्टिसे पता लगानेपर ज्ञात हुआ कि प्राचीन रजतमौलि नदी आजकल भी रजत नामसे प्रसिद्ध है । भाषा विज्ञानकी अपेक्षासे रजतमौलिका रजत नाम सहज सम्भव है। अतएव वासुपूज्य स्वामी का यही मन्दारगिरि निर्वाण स्थान है ।'
पहाड़के ऊपर दो बहुत प्राचीन जिनालय हैं, इनकी स्थापत्य कला ही इस बातकी साक्षी है कि ये मन्दिर आजसे कमसे कम १० हजार वर्ष प्राचीन हैं । बड़े मन्दिरकी दीवालकी चौड़ाई ७ फीट है, जो बौद्ध कालकी स्थापत्यकलाका सूचक है । पहाड़के बड़े मन्दिर में वासुपूज्य स्वामीके श्यामवर्णके चरणचिह्न हैं। ये चरण भी बहुत प्राचीन हैं, पाषाण एवं शिल्पकी दृष्टिसे ई० सन् की ८-९वीं शतीके अवश्य हैं । पहाड़परके छोटे मन्दिरमें तीन चरणपादुकाएँ हैं । ये पादुकाएं भी प्राचीन हैं तथा निर्वाण प्राप्त मुनिराजोंकी मानी जाती हैं । बड़े मन्दिरके १. निर्वाणकाण्ड और तिलोयपण्णत्तिमें यद्यपि वासुपूज्य स्वामीका निर्वाण चम्पापुरी माना
गया है; पर इसमें कोई विरोध नहीं है। क्योंकि जैनागममें चम्पापुरीका विस्तार ९६ मील लम्बा और ३६ मील चौड़ा बताया गया है । अतः मन्दारगिरि इसी चम्पाके अन्तर्गत है। तिलोयपण्णत्ति और निर्वाणकाण्डमें सामान्यापेक्षया कथन है, इसलिए चम्पा लिखा है, परन्तु उत्तरपुराणमें विशेष रूपसे स्थानका निर्देश किया गया है। अतः वासुपूज्य स्वामीका निर्वाणस्थान मन्दारगिरि है।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
भीतरी दरवाजे के ऊपर एक प्राचीन मूर्ति उत्कीर्णित है । पासकी एक गुफामें मुनिराजों के चरणचिह्न अंकित हैं ।
मन्दारगिरिसे लगभग दो मीलकी दूरीपर बौंसी गांव में दि० जैन धर्मशाला एवं विशाल भव्य मन्दिर है । यात्रियोंके ठहरनेका प्रबन्ध यहीं पर है । धर्मशालाके मन्दिरमें वी० सं० २४६९ की गेहुआंवर्णकी वासुपूज्य स्वामीकी पद्मासन मूर्ति है । और भी कई मूर्तियाँ एवं चरण पादुकाएँ हैं । मन्दिरके बाहिरी दरवाजेके ऊपर दोनों ओर दो पाषाणके हाथी अपने सुण्डादण्डको ऊपर की ओर उठाये खड़े हुए हैं, बीच संगमरमर पर दि० जैन मन्दिर लिखा गया है । बड़े शिखरके नीचे माजिक में कटी हुई फूल पत्तियोंका शिखर बहुत ही भव्य और चित्ताकर्षक है । मन्दिरके सामने बना हुआ छोटा संगमरमरका चबूतरा दूरसे देखनेपर बहुत ही सुहावना मालूम पड़ता है ।
यहाँ एक अन्य अधूरा मन्दिर पड़ा हुआ है, इस मंदिरको पत्थर ही पत्थर से बनवाने - की व्यवस्था श्री सेठ तलकचन्द वारामती (पूना) वालोंने की थी; पर कालचक्र के प्रभावसे यह मंदिर अभी अपूर्ण ही पड़ा है ।
जैनेतरोंके लिए भी यह क्षेत्र पवित्र और मान्य है । यहाँ सीताकुण्ड और शेख कुण्ड नामक दो शीतल जलके कुण्ड हैं । पर्वतकी तलहटी में पापहरणी पुष्करणी नामक तालाब है । कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय मथानीका कार्य इसी पर्वतसे लिया गया था ।
बीचमें कई शताब्दियों तक जैनोंकी शिथिलताके कारण यह तीर्थ अन्धकाराच्छन्न हो गया था । २० अक्तूबर सन् १९११ में सबलपुर के जमींदारोंसे इसकी रजिस्ट्री करायी गयी है । इस तीर्थको पुनः प्रकाशमें लाने का श्रेय स्व० बा० देवकुमार जी आरा, स्व० राय बहादुर केसरे हिन्द सखीचन्द्रजी कलकत्ता एवं श्री बाबू हरिनारायण जी भागलपुरको है । अब यह तीर्थ दिनों दिन उन्नति करता जा रहा है ।
राजगृह
यह स्थान पटना जिलेमें है । ई० आर० रेलवेके बख्तियारपुर जंक्शनसे विहार लाइट रेलवेका अन्तिम स्टेशन है । यहाँ पंचपहाड़ी की तलहटी में दिगम्बर और श्वेताम्बर जैनधर्मशालाएँ एवं जिनमंदिर हैं । पाँचों पहाड़ोंपर भी दिगम्बर और श्वेताम्बर मन्दिर हैं ।
राजगृहका पूर्व इतिवृत्त अत्यन्त गौरवपूर्ण है । इस नगरको कुशात्मज वसुने गंगा और सोन नदी के संगमपर बसाया था । महाराज श्रेणिकने पंच पहाड़ीके मध्य में नवीन राजगृह नगरको बसाया, जो अपनी विभूति और रमणीयतामें अद्वितीय था । महाराज वसुसे लेकर श्रेणिकतक यह उत्तर भारतका शासन केन्द्र रहा । जब श्रेणिक के पुत्र अजातशत्रुने मग की राजधानी चम्पाको बनाया, उस समय किसी कारणवश आग लग जानेसे यह नगर नष्ट हो गया ।
राजगृहका भगवान् महावीर के पहले भी जैनधर्मसे सम्बन्ध रहा है। रामायण काल में भगवान् मुनिसुव्रतनाथके गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ये चार कल्याणक यहीं हुए थे । पश्चात्
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति इसी वंशमें अर्द्धचक्री प्रतिनारायण जरासिन्धु हुआ। यह महापराक्रमी और रणशूर था, इसके भयसे यादवोंने मथुरा छोड़कर द्वारिकाका आश्रय ग्रहण किया था। राजगृहके साथ जैनधर्मका इतिहास जुड़ा हुआ है। यहाँ भगवान् आदिनाथ और वासुपूज्यके अतिरिक्त अवशेष २२ तीर्थकरोंके समवशरण आये थे। भगवान् महावीरने यहाँ वर्षाकाल व्यतीत किया था तथा इनके प्रमुख भक्त इसी नगर निवासी थे।
राजगृहके पंचपहाड़ोंका वर्णन तिलोयपण्णत्ति, धवलाटीका, जयधवलाटीका, हरिवंशपुराण, पद्म पुराण, अणुत्तरोववाई दागसूत्र, भगवतीसूत्र, जम्बू स्वामीचरित्र, मुनिसुव्रतकाव्य, णायकुमारचरिउ, उत्तर पुराण आदि ग्रंथोंमें उपलब्ध है।
तिलोयपण्णत्ति में इसे पंचशैलपुर नगर कहा गया है। बताया गया है कि राजगृह नगरके पूर्व में चतुष्कोण ऋषिशैल, दक्षिणमें त्रिकोण वैभार, नैऋत्यमें त्रिकोण विपुलाचल, पश्चिम, वायव्य और उत्तर दिशामें धनुषाकार छिन्न एवं ईशान दिशामें पाण्डु नामका पर्वत है।
षट्खंडागमकी धवला टीकामें वीरसेन स्वामीने पंच पहाड़ियोंका उल्लेख करते हुए दो प्राचीन श्लोक उद्धृत किये हैं; जिसमें पंच पहाड़ियोंके नाम क्रमशः ऋषिगिरि, वैभारगिरि, विपुल, चन्द्र और पाण्डु आये हैं।'
हरिवंश पुराणमें बताया गया है कि पहला पर्वत ऋषिगिरि है, यह पूर्व दिशा की ओर चौकोर है, इसके चारों ओर झरने निकलते हैं । यह इन्द्रके दिग्गजोंके समान सभी दिशाओंको सुशोभित करता है । दूसरा दक्षिण दिशाकी ओर वैभार गिरि है, यह पर्वत त्रिकोणाकार है। तीसरा दक्षिण-पश्चिमके मध्य त्रिकोणाकार विपुलाचल है, चौथा बलाहक नामक पर्वत धनुषके आकारका तीनों दिशाओंको घेरे शोभित है, पाँचवाँ पाण्डुक नामक पर्वत गोलाकार पूर्वोत्तर मध्यमें है। ये पांचों पर्वत फल-पुष्पोंके समूहसे युक्त हैं। इन पर्वतोंके वनोंमें वासु
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१. चउरस्सो पुवाए रिसिसेलो दाहिणाए वेभारो ।
णइरिविदिसाए विउलो दोण्णि तिकोणद्विट्ठदायारा ॥ पावसरिच्छो छिण्णो वरुणाणिलसोमदिसविभागेसु । ईसाणाए पंडू वण्णा सव्वे कुसग्गपरियरगा ।।-अधिकार १ गा० ६६-६७ पंचसेलपुरे रम्मे विउले पव्वदुत्तमे । णाणादुमसमाइण्णो देव-दाणव-वंदिदे । महावीरेण ऊत्थो कहियो भवियलोयस्स ।। ऋषिगिरिरैन्द्राशायां चतुरस्रो याम्यदिशि च वैभारः । विपुलगिरिनैऋत्यामुभौ त्रिकोणी स्थितौ तत्र ।। धनुराकारश्चन्द्रो वारुण-वायव्य-सामदिक्षु ततः । वृत्ताकृतिरेशान्यां पाण्डुः सर्वे कुशाग्रवृत्ताः ।।
-धवला टोका भाग १ पृ० ६१-६२
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भारतीय संस्कृतिके विकास में जैन वाङ्मयका अवदान पूज्य स्वामीको छोड़ शेष समस्त तीर्थंकरोंके समवशरण आये हैं। ये वन सिद्धक्षेत्र हैं, इनकी यात्राको भव्य जीव आते हैं।'
राजगह सिद्ध भमि है. यहाँ भगवान महावीरका विपलाचलपर प्रथम समवशरण था । अवसर्पिणीके चतुर्थकालके अन्तिम भागमें ३३ वर्ष ८ माह और १५ दिन अवशेष रहनेपर श्रावण कृष्ण प्रतिपदाके दिन अभिजित नक्षत्रके उदित रहनेपर धर्म तीर्थकी उत्पत्ति हुई थी। इस स्थानसे अनेक ऋषि-मुनियोंने निर्वाण पद प्राप्त किया है। श्रद्धय श्री नाथूराम प्रेमीने अनेक प्रमाणों द्वारा नंग-अनंग आदि साढ़े पांच करोड़ मुनिराजोंका निर्वाण स्थान यहाँके ऋष्यद्रिको बतलाया है ।२ आज कल यह ऋष्यद्रि चतुर्थ पहाड़ स्वर्णगिरि या सोनागिरि कहलाता है। श्री प्रेमीजीने निर्वाण भक्तिके ९ वें पद्य को प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत कर अंग-अनंग कुमारका मुक्ति स्थान राजगृहकी पंचपहाड़ियोंमें श्रमणगिरि-सोनागिरिको ही सिद्ध किया है । पूर्वापर सम्बन्ध विचार करनेपर यह कथन युक्तिसंगत प्रतीत होता है ।
राजगृहके विपुलाचल पर्वतसे . गौतम स्वामीने निर्वाण लाभ किया है। उत्तर पुराणमें बतलाया गया है
गत्वा विपुलशब्दादिगिरौ प्राप्स्यामि निवृतिम् । मन्निर्वृतिदिने लब्धां सुधर्मा श्रुतपारगः । उत्तर पुराण पर्व ७६ श्लो०५१
अन्तिम केवली श्री सुधर्मस्वामी और जम्बू स्वामीने भी विपुलाचल पर्वतसे ही निर्वाण प्राप्त किया है । केवली धनदत्त, सुमन्दर और मेघरथने भी राजगृहसे ही निर्वाण प्राप्त किया है। सेठ प्रीतंकरने भगवान् महावीरसे मुनि दीक्षा लेकर यहीं आत्मकल्याण किया था।' धीवरी पूतगन्धाने यहींकी नीलगुफामें सल्लेखना व्रत ग्रहण कर शरीर त्याग किया था ।
१. ऋषिपूर्वो गिरिस्तत्र चतुरस्रः सनिर्झरः । दिग्गजेन्द्र इवेन्द्रस्य ककुभं भूषयत्यलम् ।
वैभारो दक्षिणामाशां त्रिकोणाकृतिराश्रितः । दक्षिणापरदिग्मध्यं विपुलश्च तदाकृतिः ।। सज्यचापाकृति स्तिस्रो दिशो व्याप्य बलाहकः । शोभते पांडुको वृत्तः पूर्वोत्तरदिगन्तरे । वासुपूज्यजिनाधीशादितरेषां जिनेशिनां । सर्वेषां समवस्थातैः पावनोरुवनांतराः ॥ तीर्थयात्रागतानेकभव्यसंघनिषेवितैः । नानातिशयसंबद्धः सिद्धक्षेत्रः पवित्रिताः ॥
-हरिवंशपुराण सर्ग ३ श्लो० ५३, ५४, ५५, ५७,५८ २. जैन-साहित्य और इतिहास पृ० २०१-२०३ ३. तपोमासे सितेपक्षे सप्तश्यां च शुभे दिने । निर्वाणं प्राप सौधर्मो विपुलाचलमस्तकात् ॥११०॥ ततो जगाम निर्वाणं केवली विपुलाचलात् । कर्माष्टकविनिर्मुक्तः शाश्वतानंत सौख्यभाक् १२१
-जम्बूस्वामीचरित जम्बूस्वामी निर्वाणगमनाध्याय ४. सप्तभिः पंचभिः पूजा सर्वेट्टीदशभिश्च ते । अन्ते सिद्धशिलारूढाः सिद्धा राजगृहे पुरे ।
-हरिवंशपुराण अ० १८ श्लो० ११९ ५. अथ प्रियंकराख्याय साभिषेकं स्वंसम्पदं । वसुंधरामूजे प्रीतिकरो दत्वा विरक्तधीः ॥ एत्य राजगृहं सार्द्ध बहुभिभृत्यबांधवैः । भगवत्पार्श्वमासाद्य संयमं प्राप्तवानयम् ॥
-उत्तरपुराण पर्व ६ श्लो० ३८५-८६
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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पहला पहाड़ विपुलाचल है । इस पर्वतपर चार दिगम्बर जैन मन्दिर हैं । नीचे छोटेमन्दिरमें श्यामवर्ण कमलके ऊपर भगवान् महावीर स्वामीकी चरण पादुका है । थोड़ा ऊपर जानेपर तीन मन्दिर हैं । पहले मन्दिर में चन्द्रप्रभुकी चरणपादुका प्राचीन है । मन्दिर भी प्राचीन है । मध्यवाले मन्दिर में चन्द्रप्रभु स्वामीको श्वेतवर्णकी मूर्ति वेदीमें विराजमान है । वेदीके नीचे दोनों ओर हाथी खुदे हुए हैं, बीचमें एक वृक्ष है । बगलमें एक ओर सं० १५४८ की श्वेतवर्णकी चन्द्रप्रभुस्वामीकी मूर्ति है । यहाँ एक पुरानी श्यामवर्णकी भगवान् महावीर स्वामीकी भी मूर्ति है । यह मूर्ति ई० सन् ८ वीं शतीकी प्रतीत होती है । अन्तिम मन्दिरकी वेदिका श्वेतवर्णकी महावीर स्वामीकी मूर्ति विराजमान है । बगलमें एक ओर श्यामवर्ण मुनिसुव्रतनाथकी मूर्ति और दूसरी ओर उन्हींके चरण हैं । मूर्ति प्राचीन और चरण नवीन हैं ।
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दूसरे रत्नगिरिपर दो मन्दिर हैं - एक प्राचीन मन्दिर है और दूसरा नवीन । नवीन मन्दिरको श्रीमती ब्र० पं० चन्दाबाई जी ने बनवाया है इसमें मुनिसुव्रत स्वामीकी श्यामवर्णकी भव्य और विशाल प्रतिमा विराजमान है । पुराने मन्दिर में श्यामवर्ग महावीर स्वामीकी चरणपादुका है।
तीसरे उदयगिरिपर एक मन्दिर है । इसमें श्री शांतिनाथ और पार्श्वनाथ स्वामीकी प्राचीन प्रतिमाएँ एवं आदिनाथ स्वामीके चरणचिह्न हैं । एक महावीर स्वामीकी भी खड्गासन श्यामवर्णकी प्राचीन प्रतिमा है । यहाँ नया मन्दिर भी कलकत्ता निवासी श्रीमान् सेठ रामबल्लभ रामेश्वर जी की ओरसे बना है, पर उसकी अभी प्रतिष्ठा नहीं हुई है ।
चौथे स्वर्णगिरिपर दो मन्दिर हैं । एक मन्दिर फिरोजपुर निवासी लाला तुलसीरामने बनवाया है । इस नये मन्दिर में शांतिनाथ स्वामीकी श्यामवर्णकी प्रतिमा तथा नेमिनाथ और आदिनाथ स्वामी चरणचिह्न हैं । यहाँ एक प्राचीन खड्गासन मूर्ति भी है । पुराने मन्दिरमें भी भगवान् महावीरके नवीन चरणचिह्न हैं । यह मन्दिर छोटा-सा और पुराना है ।
पाँचवें वैभारगिरिपर एक मन्दिर है । यहाँ एक चौबीसी प्रतिमा, महावीर स्वामी, नेमिनाथ स्वामी और मुनिसुव्रत स्वामीकी श्यामवर्णकी प्राचीन प्रतिमाएँ हैं । नेमिनाथ स्वामीके चरणचिह्न भी हैं ।
पहाड़ी के नीचे दो मन्दिर हैं । एक मन्दिर धर्मशालाके भीतर है तथा दूसरा धर्मशाला के बाहर विशाल बगीचे में । बाहर वाले मन्दिरको देहली निवासी लाला न्यादरमल धर्मदासजीने एक लाख रुपयेसे ६ फरवरी सन् १९२५ में बनवाया है। इस मन्दिरमें पाँच वेदिकाएँ हैं । पहली वेदीके बीच में श्यामवर्ण नेमिनाथ स्वामीकी प्रतिमा है, यह पद्मासन मूर्ति १३ फुट ऊँची संवत् १९८० में प्रतिष्ठित की गयी है । इसके दाईं ओर शांतिनाथ स्वामी और बाईं ओर महावीर स्वामीकी प्रतिमाएँ हैं । ये दोनों प्रतिमाएँ विक्रमकी २० वीं शती की हैं । इस after धातुमयी कई छोटी-छोटी मूर्तियाँ हैं, जो सं० १७८९ की हैं। इस वेदीमें दो चाँदीकी भी प्रतिमाएँ हैं ।
दूसरी वेदीमें चन्द्रप्रभु स्वामीको श्वेतवर्णकी ३ फोट ऊँची प्रतिमा है । इसकी प्रतिष्ठा वी० सं० २४४९ में हुई है । चतुर्मुखी धातु प्रतिमा भी इस वेदी में है ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
मध्यकी वेदी सबसे बड़ी वेदी है, इसपर सुनहला कार्य कलापूर्ण हुआ है । वेदीके मध्य में मुनिसुव्रत नाथकी श्यामवर्णकी प्रतिमा, इसके दाहिनी ओर अजितनाथको और बाई ओर संभवनाथकी प्रतिमा हैं। ये प्रतिमाएं भी वि० सं० १९८० को प्रतिष्ठित हैं। चौथी वेदीमें विक्रम संवत् १९७९ को प्रतिष्ठित चन्द्रप्रभु और शांतिनाथ स्वामीकी प्रतिमाएँ हैं । पाँचवीं वेदीके बीचमें कमलपर महावीर स्वामीकी बादामी रंगकी वी० सं० २४६२ की प्रतिष्ठित प्रतिमा है । इसमें आदिनाथ और शीतलनाथकी भी प्रतिमाएँ हैं।
धर्मशालाके भीतरका छोटा मन्दिर गिरिडीह निवासी सेठ हजारीमल किशोरीलाल जी ने बनवाया है । इस मन्दिरकी वेदीमें मध्यवाली प्रतिमा भगवान् महावीर स्वामीकी है । इसका प्रतिष्ठा काल माघ सुदी १३ संवत् १८४१ लिखा है । इसके बगल में पार्श्वनाथ स्वामीकी दो प्रतिमाएं हैं, जिनका प्रतिष्ठा काल वैशाख सुदी ३ सं० १५४८ लिखा है। इस वेदीमें और भी कई प्रतिमाएं हैं। गुणावा
___ यह सिद्धक्षेत्र माना जाता है, यहाँसे गौतम स्वामीका निर्वाण हुआ मानते हैं, पर यह भ्रम है । गौतम स्वामीका निर्वाणस्थान विपुलाचल पर्वत है, गुणावा नहीं। हाँ, इतनी बात अवश्य है कि गौतम स्वामी नाना देशोंमें विहार करते हुए गुणावा पहुँचे थे और यहाँ तपस्या की थी।
यह स्थान नवादा स्टेशनसे १3 मीलकी दूरीपर है। यहाँपर श्रीमान् सेठ हुक्मचंद जी साहबने जमीन खरीद कर धर्मशाला एवं भव्य मन्दिरका निर्माण कराया है। धर्मशालाके मन्दिरमें भगवान कुन्थुनाथ स्वामीकी ४३ फुट ऊँची श्वेतवर्णकी पद्मासन प्रतिमा है। इसकी प्रतिष्ठा चैत्र शुक्लाष्टमी सं० १९९५ में हुई है । वेदीमें चार पार्श्वनाथ स्वामीकी प्रतिमाएं हैं, जिनका प्रतिष्ठाकाल सं० १५४८ है । इस वेदीमें एक वासुपूज्य स्वामीकी प्रतिमा वैशाख सुदी ४ शनिवार सं० १२६८ की है। इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा सारंगपुर निवासी दाताप्रसाद भावसिंह भार्या अमरादिने करायी है। वेदीमें कुन्थुनाथ स्वामीकी प्रतिमाके पीछे सं० १२६८ की एक और प्रतिमा है । यहाँ गौतम स्वामीके चरण वीर सं० २४५३ के प्रतिष्ठित है । वेदी सुन्दर संगमरमर की है, इसका निर्माण कलकत्ता निवासी श्रीमान् सेठ माणिकचंद जी की धर्मपत्नीने कराया है।
धर्मशालाके दिगम्बर मन्दिरसे थोड़ी ही दूरपर जलमन्दिर है। यह मन्दिर एक ६-७ फीट गहरे तालाबके मध्यमें बनाया गया है । मन्दिर तक जानेके लिए २०३ फीट लम्बा पुल है । आजकल इस जल-मन्दिरपर दिगम्बर और श्वेताम्बर भाइयोंका समान अधिकार है, यहाँ एक दिगम्बर-पार्श्वनाथ स्वामीकी प्रतिमा तथा गौतम स्वामीको चरणपादुका है। इस चरणपादुकाकी प्रतिष्ठा सं० १६७७ में हुई है । दि० धर्मशालाका पुजारी प्रतिदिन इस जलमन्दिरमें अपनी प्रतिमा तथा चरणपादुकाका अभिषेक पूजन करता है। इस जलमन्दिरमें श्वेताम्बरीय आम्नायके अनुसार वासुपूज्य स्वामीके चरण, चौबीसी चरण, चौबीस स्थानोंपर पृथक्-पृथक चौबीस भगवानोंके चरण एवं महावीर स्वामीके चरण कई स्थानोंपर हैं। यहाँ मूलनायक प्रतिमा महावीर स्वामी को है । यह मन्दिर प्राचीन और दर्शनीय है।
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति धर्मशालाके मन्दिरके सामने वीर सं० २४७४ में गया निवासी श्रीमान् सेठ केसरीमल लल्लू-लालजीने मानस्तम्भ बनवा कर इसकी प्रतिष्ठा करायी है ! कमलदह गुलजारबाग)
यह सेठ सुदर्शनका निर्वाणस्थान माना गया है। सेठ सुदर्शनने इस स्थानपर घोर तपश्चरण किया था। जब सुदर्शन मुनि श्मशानमें ध्यानस्थ थे, आकाशमार्गमें रानी अभयमतीका जीव, जो व्यन्तरी हुआ था, जा रहा था। मुनिके ऊपर ज्यों ही विमान आया कि वह मुनिके योगप्रभावसे आगे नहीं बढ़ पाया। उसने कुअवधिज्ञानसे पूर्व शत्रुताको अवगत कर उन्हें भयानक उपसर्ग दिया; परन्तु धीर-वीर सुदर्शन मुनिराज ध्यानमें सुमेरुकी तरह अटल रहे । देवोंने उनका उपसर्ग दूर किया।
सुदर्शन मुनिने योग निरोध कर शुक्लध्यान द्वारा पातिया कोको नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया। इन्होंने गुलजारबाग-कमलदह क्षेत्रसे पौष शुदि ५ के दिन अपराह्नमें निर्वाणपद पाया।
गुलजारबाग स्टेशनसे उत्तरकी ओर एक धर्मशाला और मन्दिर है। धर्मशालासे थोड़ी ही दूरपर मुनि सुदर्शनका निर्वाण स्थान है । कुण्डलपुर
यह भगवान महावीरका जन्मस्थान माना जाता था; पर अब अनेक ऐतिहासिक प्रमाणोंके आधारपर वैशालीका कुण्डग्राम भगवान्की जन्मभूमि सिद्ध हो चुका है। यह स्थान पटना जिलेके अन्तर्गत है और नालन्दा स्टेशन से १-२ मीलकी दूरीपर है। यहाँपर धर्मशालाके भीतर विशाल मन्दिर है । वेदी में मूलनायक प्रतिमा महावीर स्वामी की है, इसकी प्रतिष्ठा माघशुक्ला १३ सोमवार सं० १९८२ में हुई है। तीन प्रतिमाएँ पार्श्वनाथ स्वामी की हैं, जिनकी प्रतिष्ठा वैशाख शुदि ३ सं० १५४८ में हुई है । इस वेदीमें ७ प्रतिमाएँ और एक सिद्ध परमेष्ठीकी आकृति है। स्थान रमणीय और. शान्तिप्रद है । आत्मकल्याण करनेके लिए यह सर्वथा उपयोगी है। अब तो नालन्दामें पाली प्रतिष्ठानके खुल जानेसे इस स्थानकी महत्ता और भी बढ़ गयी है। वैशाली
भगवान महावीरका जन्मस्थान यही प्रदेश है ।' वैशाली संघने इस स्थानके अन्वेषणमें अपूर्व श्रम किया है। यहाँसे खुदाईमें भगवान् महावीर स्वामीकी एक प्राचीन मनोज्ञ प्रतिमा प्राप्त हुई है। आजकल यहाँ पर भगवान् महावीरका विशाल मन्दिर बनानेकी योजना चल रही है। मंदिर बनानेके लिए लगभग १३ बीघे जमीन स्थानीय जमींदारोंसे प्राप्त हो चुकी है। यहाँ मंदिर आदिकी व्यवस्थाके लिए 'वैशाली तीर्थ कमेटी' का संगठन हुआ है।
१. सिद्धत्थरायपियकारिणीहिं णयरम्म कुण्डले वीरो।
उत्तरफग्गुणिरिक्खे चित्तासियातेरसीए उप्पणो ॥ -तिलोयपपणत्ति अ० ४ सिद्धार्थनृपतितनयो भारतवास्ये विदेहकुण्डपुरे । देव्यां प्रियकारिण्यां सुस्वप्नान्संप्रदर्श्य विभुः ।। -निर्वाणभक्तिः श्लो? ४
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
वैशाली संघ के तत्त्वावधानमें विहार सरकार ने यहाँ 'प्राकृत शोध संस्थान की स्थापना की है । यह स्थान मुजफ्फरपुर जिलेमें पड़ता है ।
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कुलुआ पहाड़
यह पर्वत गयासे ३८ मील हजारीबाग जिलेमें है । यह पहाड़ जंगलमें है, इसकी चढ़ाई दो मील है । यहाँ सैकड़ों जैन मंदिरोंके भग्नावशेष पड़े हुए हैं । यहाँ १०वें तीर्थङ्कर श्री शीतलनाथने तप करके केवलज्ञान प्राप्त किया था । यहाँ पार्श्वनाथ स्वामीकी एक अखण्डित अत्यन्त प्राचीन पद्मासन २ फुट ऊँची कृष्णवर्णकी प्रतिमा है । इस प्रतिमाको आजकल जैनेतर 'द्वारपाल' के नामसे पूजते हैं। यहाँ एक छोटा दि० जैन मंदिर पाँच कलशोंका शिखरबंद बना हुआ है, यह मंदिर प्राचीन है। इसमें सन् १९०१ की श्री सुपार्श्वनाथ भगवान्की ९ इंच चौड़ी पद्मासन मूर्ति विराजमान थी, परन्तु अब केवल आसन ही रह गया है। मंदिरके सामने पर्वतपर एक रमणीक ३०० x ६० गजका सरोवर है । यहाँ पर अनेक खण्डित जैन मूर्तियोंके अवशेष पड़े हुए हैं। एक मूर्ति एक हाथकी पद्मासन है, आसन पर संवत् १४४३ लिखा मालूम होता है । यहाँकी सबसे ऊँची चोटीका नाम 'आकाशालोकन' है । यह नीचेसे १३ मील ऊँची होगी । इस शिखरपर एक चरणपादुका बहुत प्राचीन है । चरणचिह्न " ८x?" हैं । शिखरसे नीचे उतरनेपर महान् शिलाकी एक ओरकी दीवालमें १० दिगम्बर जैन प्रतिमाएँ खण्डित अवस्था में हैं । इन प्रतिमाओं पर नागरीलिपिमें लेख है, जो घिस जानेके कारण पढ़ने में नहीं आता है । केवल निम्न अक्षर पढ़े जा सकते हैं ।
" श्रीमत् महाचंद कलिद सुपुत्र सध घर मई सह सिद्धम् "
इस स्थानको पण्डोंने दशावतार गुफा प्रसिद्ध कर रखा है । वृहशिलाकी दूसरी ओर भी दीवाल में १० प्रतिमाएँ हैं । इस स्थानसे प्राकाशालोकन शिखर तीन मील है । मार्च १९०१ की इंडियन एण्टीक्वेरटीमें इस तीर्थ के सम्बन्धमें लिखा गया है
"आकाशालोकन शिलाकी चरणपादुका को पुरोहित लोग कहते हैं कि विष्णुकी है, परन्तु देखनेसे ऐसा निश्चय होता है कि यह जैनतीर्थंकरकी चरणपादुका है और ऐसा ही मान कर इसकी असल में पूजा होती 1"
"पूर्व कालमें यह पहाड़ अवश्य जैनियोंका एक प्रसिद्ध तीर्थ रहा होगा, यह बात भले प्रकार स्पष्टतया प्रमाणित है । क्योंकि सिवाय दुर्गादेवीकी नवीन मूर्त्तिके और बौद्ध मूर्त्तिके एक खंडके अन्य सर्व पाषाणकी रचनाके चिह्न, चाहे अलग पड़े हुए, चाहे शिलाओं पर अंकित हों वे सब तीर्थङ्करों को ही प्रकट करते हैं ।"
आज इस पवित्र क्षेत्रके पुनरुद्धार और प्रचारकी आवश्यकता । भा० दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी को इस क्षेत्रकी ओर ध्यान देना चाहिये ।
श्रावक पहाड़
गयाके निकट रफीगंज से ३ मील पूर्व श्रावक नामका पहाड़ है । यह एक ही शिलाका पर्वत है, २ फर्लांग ऊँचा होगा। यहाँ वृक्ष नहीं है, किनारे-किनारे शिलाएँ हैं । पहाड़के नीचे जो गाँव बसा है, उसका नाम भी श्रावकपुर है । पर्वतके ऊपर ८० गज जाने पर एक गुफा है, जो १० X ६ गज है । इसमें एक जीर्ण दिगम्बर जैन मंदिर है, जो इस समय ध्वस्त प्रायः
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति है । यहाँ पर श्री पार्श्वनाथ स्वामीकी मनोज्ञ मूर्ति है। इसका बायाँ पैर खण्डित है। गुफामें अन्य भी खण्डित मूर्तियाँ हैं, गुफाके भीतरके पाषाण पटमें ६ पद्मासन मूत्तियाँ हैं, नीचे यक्षिणीकी मूत्ति लेटी है । इस पटके नीचे एक लेख प्राचीन लिपिमें है।
प्रचार पदा
गया जिलेमें औरंगाबाद की सीमाके पूर्व की ओर रफीगंजसे दो मील की दूरी पर प्रचार या पछार नामक पहाड़ है । यहाँ पर एक गुफाके बाहर वेदीमें पार्श्वनाथ स्वामी की मूर्ति विराजमान है । इसके आस-पास तीर्थकरों की अन्य प्रतिमाएँ है । इस पहाड़ की जैनमूर्तियों के ध्वंसावशेषोंको देखनेमे प्रतीत होता है कि प्राचीन कालमें यह प्रसिद्ध तीर्थ रहा है । सामान्य तीर्थ
आराकी प्रसिद्धि नन्दीश्वरदीपकी रचना, श्री स. मेदशिखरकी रचना, श्री गोम्मटेश्वरको प्रतिमा, मानस्तम्भ, श्री जैनसिद्धान्त-भवन और श्री जैन-बाला-विश्रामके कारण है। गया अपने भव्य जैन मन्दिरके कारण; छपरा अपने शिखरबन्द मन्दिरके कारण; भागलपुर अपने भव्य मन्दिर तथा चम्पापुरके निकट होने के कारण, हजारीबाग श्री सम्मेदशिखरके निकट होनेके कारण प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार ईसरी, गिरिडीह, कोडरमा, रफीगंज आदि स्थान भी साधारण तीर्थ माने जाते हैं। विहार शरीफका छोटा-सा पुराना मंदिर भी प्राचीन है । इस प्रकार विहारके कोने-कोने में जैनतीर्थ हैं । यहाँका प्रत्येक वन, पर्वत और नदी-तट तीर्थङ्करोंकी चरणरजसे पवित्र है।
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राजगृह : एक प्राचीन जैन तीर्थक्षेत्र
प्रास्ताविक
राजगिरि प्राचीन कालसे ही जैन नगरी रही है । २० वें तीर्थकर श्री मुनिसुव्रत भगवान् की जन्मनगरी होनेका गौरव इसे प्राप्त है । यह नगरी ऋषभदेव और वासुपूज्यके अतिरिक्त अवशेष २१ तीर्थकरोंकी समवशरणभूमि भी रही है । भगवान् महावीरके समयमें इस नगरीका बड़ा महत्त्व था । यह श्रमण संस्कृतिका प्रधान केन्द्र थी ।
नामकरण
राजगृहके प्राचीन नाम पंचशैलपुर, गिरिवृज और कुशाग्रपुर भी पाये जाते हैं । धवलाटीका प्रथम भाग पृ० ६१ पर इसे 'पंचशैलपुरे रम्वे' इत्यादि रूपमें पंचशैलपुर कहा है । इसका कारण यहाँको पाँच मनोरम पर्वत श्रेणियाँ हैं ही। रामायणकालमें इसे गिरिवृज ही कहा जाता था। भोगोपभोगकी सम्पत्तिसे परिपूर्ण राजकीय आवास होनेके कारण इसकी प्रसिद्धि राजगृहके रूपमें हुई है ।" गौतम स्वामीको भगवान्ने राजगृहके सम्बन्धमें प्रश्न करने पर उत्तर दिया कि जीवाजीवादि युक्त इस नगरीका नाम राजगृह है।
तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी - किमिदं भंते नगरं रायगिहं पि पवुच्चई ? किं पुठवी रायगिहं ति पवुच्चई ? आऊनगरे रायगिहं ति पवुच्चई ? जाव वणस्सई ? जहाँ एयषु सए पंचेदिय तिरिक्ख जोणियाणं वतव्वयातहा माणियव्वं जाव सचित्ताचित्त मीसयाई दव्वाइं नगर रायगिहं ति पवुच्चई ? गोयमा, पुढवीवि नगरं रायगिहं ति पवुच्चई । से केणट्ठेणं गोयमा ! पुढवी जीवाति य अजीवाति य नगरं रायगिहं ति पवुच्चई जाव सचित्ताचित्त मीसियाई दव्वाइं जीवाति य अजीवाति य नगरं रायगिहं पवुच्चति ? से तेणट्ठेणं तं चैव ॥
भावार्थ — गौतम स्वामीने भगवान् महावीरसे पूछा -- प्रभो ! इस नगरीको राजगृह क्यों कहा जाता है ? क्या पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति, सचित्त, अचित और मिश्रद्रव्यका नाम राजगृह है ? भगवान् बोले- गौतम ! पृथ्वी राजगृह कहलाती है, इसमें जीव अजीव आदिका संयोग है, अतः इस भूमिका नाम राजगृह है । हरिवंशपुराण और उत्तरपुराण में समृद्धिशाली, मान्य और उत्तुंग प्रासादोंके कारण इसे राजगृह कहा गया है । वर्तमान राजगिरि श्रेणिककी नगरी राजगृहसे कुछ हटकर है । राजा श्रेणिकने राजगृहको जरासन्धकी नगरीसे अलग बसाया था ।
परिचय
मगधदेशमें लक्ष्मीका स्थान
अनेक उत्तम महलोंसे युक्त एक राजगृह नगर है । इस नगरीमें पांच शैलं हैं इसलिए इसे पंचशैलपुर कहा जाता है । यह नगरी भगवान् मुनि
१. कनिंघम, एन्शियेण्ट जोगरफी आफ इण्डिया पृ० ५३०
पुरं राजगृहं तस्मिन्पुरंदरपुरोपमम् ।
२. व्याख्या पण्णत्ति सूत्र पृ० ७३१
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति सुव्रतनाथके चार कल्याणोंसे पवित्र है। पांचों पर्वतोंमें प्रथम पर्वतका नाम ऋषिगिरि हैं । यह पर्वत चतुष्कोण है और पूर्व दिशामें स्थित है । दूसरा पर्वत वैभरगिरि है जो त्रिकोणाकार दक्षिण दिशामें स्थित है । तीसरा पर्वत विपुलाचल है । यह पर्वत दक्षिण और पश्चिमके मध्य में है और वैभारगिरिके समान त्रिकोण है । चौथा बलाहक पर्वत है और इन्द्रधनुषके समान तीनों दिशाओं में व्याप्त है। पांचवें पर्वतका नाम पाण्डुक है यह गोलाकार पूर्व दिशामें स्थित है । ये समस्त पर्वत नाना प्रकारके फलफूलोंसे युक्त मनोहर और सुरम्य है।' जैन-साहित्यमें राजगिरि
राजगृहका वर्णन धवलाटीका,२ जयधवलाटीका, तिलोयपण्णति, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पद्मपुराण, महापुराण, णायकुमार चरिउ, जम्बू स्वामी चरित्र, गौतम स्वामी चरित्र, भद्रबाहुचरित्र,° श्रेणिक चरित्र, उत्तर पुराण', हरिवंश पुराण,१२ आराधना कथाकोष पुण्यास्रवकथाकोष१४ मुनिसुव्रतकाव्य, धर्मामृत, अणुत्तरोवाई, दशांगसूत्र, आचारांग,१७ अंतगडदशांग," भगवतो सूत्र, सूत्रकृतांग,१९ उत्तराध्ययन,२° ज्ञाताधर्म कथांग," और १. हरिवंश पुराण सर्ग ३ श्लो० ५१-५७ २. धवलाटोका प्रथम भाग ६१-६२ ३. जयधवला टीका४. तिलोय पण्णति अ० ४ आ० ५४५ तथा अधिकार प्रथम गाथा ६६-६७ ५. रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लो० १२० ६. तत्रास्ति सर्वतः कांत नाम्ना राजगृहे पुरे । कुसुमोपमसुभगं भुवनस्यैव यौवनम ।।
-पद्मपुराण ३३।२ तथा पर्व २ श्लो० ११३ ७. महापुराण पर्व १ श्लो० १९६ ८. तहिं पुरुवरुणामे कणयरण कोदिहिं घडिड ।
बलिवंइ धरंत हो सुख इहिं णं सुरणयरु गयण पडिउ ॥ -णायकुमार चरिउ । ९. जम्बूस्वामीचरित पर्व श्लो० १३ पर्व ७ १०. आरंभिक अंश पृ० २-३ ११. उत्तरपुराण पर्व ७६ श्लो० ३८६ पर्व ६७ श्लो० २०-४७, १२. हरिवंश पुराण सर्ग २ श्लो० १४६-५० तथा सर्ग ३ श्लो० ५१-५८ १३. आराधना कथाकोष भाग १ पृ० १०५, १४९, १५०, १४. पुण्यास्रव कथाकोष पृ० २७, २२०, २१०, १५. धर्मामृत आरम्भ भाग पृ० ५६-५७ तथा वारिषेण कुमारका कथा भाग, १६. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे गाम णयरे होत्था सेणियनामं राया होत्था चेलना देवीए
गुणसिलाय घट्टए वण्णओ "अणुत्तरोबवाई सूत्र १७. आचारांग पृ० १६-१७, ५२, ५३ इत्यादि १८. अन्तगडांग हैदराबाद सं० १० ४८ १९. रायगिहे नयरे जेणेव नालिन्दा....."भगवती सूत्र २०. हैदराबाद संस्करण पृ० ५३३ २१. महानिर्ग थाय ५ वा आख्यान
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
•विविध तीर्थकल्प आदि ग्रंथोंमें राजगृहका उल्लेख आया है ।
___ मुनिसुव्रतकाव्यके रचयिता अर्हद्दास (१३वीं शती) ने इस नगरके वैभवका वर्णन करते हुए बतलाया है-मगध देशमें पीछेकी ओर लगे हुए विशाल उद्यानोंसे युक्त राजगृह नगरी सुशोभित थी। इसके बाहरी उद्यानमें अनेक लताएँ सुशोभित थीं। यहाँ पर सदा शैलाग्र भागसे निकलती हुई जलधाग कामिनियोंके निरन्तर स्नान करनेके कारण सिन्दूर युक्त दिखलाई पड़ती थो । यहाँ अनेक सरोवर थे जिनमें अनेक प्रकारकी मछलियाँ क्रीड़ाएँ करती थीं। नगरीके बाहर विस्तृत मैदान घोड़ोंकी पंक्तिके चलनेसे, मदोन्मत्त हाथियोंसे, योद्धाओंकी शरत्र-शिक्षासे एवं सुभटोंके मल्लयुद्धसे सुशोभित रहते थे। नगरीकी वाटिकामे निर्मल जल सदा भरा रहता था तथा जलतीरके विविध वृक्षोंकी छाया नाना तरहके दृश्य उपस्थित करती थी। इस नगरीकी चहारदीवारीके स्वर्ण-कलश इतने उन्नत थे कि उन्हें भ्रमवश स्वर्ण-कलश समझ देवांगनाएं लेनेके लिए आती थीं। इस नगरीको अट्टालिकाओंकी ऊँची-ऊँची ध्वजाएँ और रंग-विरंगे तोरण आकाशको छूते हुए इन्द्रधनुषका दृश्य बनाते थे । चन्द्रकान्तमणिसे बने हुए भवनोंको कान्ति चन्द्रमाकी ज्योत्स्नासे मिलकर क्रीड़ासक्त अप्सराओं के लिए दिव्य-सरोंको भ्रान्ति उत्पन्न करती थी। इस नगरीमें शिक्षाका इतना प्रचार था, कि विद्यार्थी अहर्निश शास्त्र-चिन्तनमें तल्लीन थे। यहाँके सन्दर जिनालय अकृत्रिम जिनालयोंको शोभाको भो तिरस्कृत करते थे। इन चैत्यालयोंमें नीलमणि, पोतमणि, स्फटिक मणि, हरितमणि एवं विभिन्न प्रकारको लालमणियां लगी हुई थीं जिनसे इसका सौंदर्य अकथनीय था । इस नगरीका शासक सर्वगुणसम्पन्न धनधान्यसे युक्त, विद्वान्, प्रजावत्सल और न्यायवान् था। महाराज सुमित्रके राज्यमें चोर, व्यभिचारी; पापी, अन्यायी और अधर्मात्मा कहीं भी नहीं थे। धनधान्यका प्राचुर्य था। सब सुख-शांतिपूर्वक प्रेमसे निवास करते थे । साधारण व्यक्तियोंके घर में भी नीलमणि जटित थे। शुभचन्द्रदेवने श्रेणिक-चरित्रमें इस नगरका वर्णन करते हुए लिखा है-यहाँ न अज्ञानो मनुष्य हैं और न शीलरहित स्त्रियाँ । निर्धन और दुखो व्यक्ति ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा। यहाँके पुरुष कुबेरके समान वैभववाले और स्त्रियाँ देवांगनाओंके समान दिव्य हैं । यहाँ कल्पवृक्षके समान वैभववाले वृक्ष हैं। स्वर्गों के समान स्वर्गगृह शोभित हैं। इस नगरमें धान्य भी श्रेष्ठ जातिके उत्पन्न होते हैं। यहाँके नरनारी व्रतशोलोंसे युक्त हैं। यहाँ कितने ही जीव भव्य उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रोंको दान देकर भोगभूमिके पुण्यका अर्जन' करते हैं । यहाँके मनुष्य ज्ञानी और विवेको है। पूजा और दानमें निरन्तर तत्पर है । कला, कौशल, शिल्पमें यहाँके व्यक्ति अतुलनीय है । जिन-मन्दिर और राजप्रासादमें सर्वत्र जय-जयकी ध्वनि कर्ण-गोचर होती है ।
विक्रम संवत् १३२६ में रचित विविध तीर्थकल्पमें जिनप्रभसूरिने लिखा है कि अयोध्या, मिथिला, चम्पा, श्रावस्ता, हस्तिनापुर, कोशाम्बी, काशी, कालिन्दी, कम्पिल, भद्रिल, सूर्यपुर, कुण्डलग्राम, चन्द्रपुरी, सिंहपुरो ओर राजगृह तीर्थोंकी यदि निष्पाप रूपसे यात्रा की जाय तो
१. ज्ञाताधर्म कथांग (हैदराबाद संस्करण) पृ० ४८९ २. मुनिसुव्रत काव्य प्रथम सर्ग, श्लो० ३७-५४ और सम्पूर्ण द्वितीय सर्ग
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
७७ गिरनार-सम्मेद शिखर वैभार पर्वत और अष्टापदकी यात्रासे सतगुणा अधिक पुण्य मिलता है । इस ग्रन्थमें राजगृहके वैभार पर्वतकी स्तुति विशेष रूपसे की गयी है।'
वि० संवत् १७२६ में श्री धर्मचन्द्र भट्टारकने गौतम स्वामी चरित्र में इस नगरकी शोभा और समृद्धिका वर्णन करते हुए लिखा है कि राजगृह नगरी बहुत ही सुन्दर है । इस नगरीके चारों ओर ऊँचा परकोटा शोभायमान है। परकोटके चारों ओर जलसे भरी हुई खाई है। इस राजगृहमें चन्द्रमाके समान श्वेतवर्णके अनेक जिनालय शोभायमान हैं। इनके उत्तम शिखर गगनस्पर्शी हैं । यहाँके धर्मात्मा व्यक्ति जिनेन्द्र भगवान्की अर्चना अष्ट द्रव्योंसे करते हैं। यहां कुबेरके समान धनिक और कल्पवृक्ष के समान दानी निवास करते हैं । इस नगरके भवन श्रेणिबद्ध हैं, बाजारमें श्वेतवर्णकी दुकानें पंक्तिबद्ध है। चोर, लुटेरे यहाँ नहीं हैं । बाजारों में सोना, र्चादी, वस्त्र, धान्य आदिका क्रय-विक्रय निरन्तर होता रहता है। प्रजा और राजा दोनों ही धर्मात्मा हैं । भय, आतंक, शारीरिक और मानसिक वेदनाका यहाँ अभाव है। इस प्रकार राजगृहके वैभवका वर्णन प्राचीन ग्रन्थोंमें वर्णित हैं । कथा-सम्बन्ध
राजगृहसे अनेक जैन कथाओंका सम्बन्ध है। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें स्वामी समन्तभद्राचार्यने 'भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे' में कमल दलसे पूजा करनेवाले मेढ़ककी कथाका संकेत किया है । यह कथा रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी संस्कृत टीकामें प्रभाचन्द्रने विस्तारसे लिखी है । सम्राट् श्रेणिककी कथाका भी राजगृहसे सम्बन्ध है। धर्मामृत, श्रेणिकचरित्र, आराधना कथा कोष आदिमें दानी वारिषेणकुमारकी कथा आई है, जो पूर्णतः राजगिरिस सम्बद्ध है । धनकुमारने मुष्ठि-युद्ध या सूर्यदेव नामक आचार्यसे दीक्षा ग्रहण की थी। वारिषेण कुमार दृढ़ सम्यक्त्वी थे । इन्होंने सम्यक्त्वसे विचलित होनेवाले अपने मित्र पुष्यडाल को सम्यक्त्वमें दृढ़ किया था । अरहदास सेठके पुत्र श्री अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का जन्म इसी नगरीमे हुआ था। हरिवंश पुराणमें बताया गया है कि वासुदेव पूर्व भवमें एक ब्राह्मणके पुत्र थे। यह राजगृहमें आये। जीवनसे निराश होनेके कारण वैभारपर्वतपर पहुंचकर यह आत्महत्या करना चाहते थे, पर इस पर्वत पर तप करनेवाले जैन मुनियोंने इस निन्द्य पापसे इसकी रक्षा की । पश्चात् इन्होंने जैन मुनिकी दीक्षा ले ली, और नन्दीषेण नामक मुनि हुए । राजकोठारीकी पुत्री भद्रा कुंडलकेशाने क्रोधावेशमें अपने दुराचारी पतिको मार डाला था, पर अपने पाप-मोचनके लिये यहींके जैन मुनियोंसे साध्वीके व्रत ले लिए थे। धीवरी पूतगन्धा जो कि काठियावाड़के सोमारक नगरसे आर्यिका संघमें यहाँकी वन्दनाके लिए आई थी; उसने अपना अन्त समय जानकर नील गुफामें संल्लेखना व्रत धारण कर प्राण विसर्जित किये थे ।
__ आराधना कथाकोषमे जिनदत्त सेठको कथामें बताया गया है कि वह बड़े धर्मात्मा थे, चतुर्दशीको कायोत्सर्ग ध्यान करते थे। इन्होंने तपस्याके बलसे आकाशगामिती विद्या सिद्ध कर ली थी और प्रतिदिन तीर्थोकी वन्दना करते थे। मालीके आग्रहसे उसे भी तीर्थ१. श्रेणिक चरित्र हिन्दी अनुवाद पृ० १४-१५ २. विविध तीर्थकल्प पृ० ८ पृ० ५२-५४, ७२, ६५ ३. गौतम स्वामी चरित्र अध्याय १ श्लो० ३३-४५
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
यात्राके लिए विद्या बतायी, पर वह भय से उस विद्याको सिद्ध न कर सका । अंजनचोरने विद्याको सिद्ध कर लिया । पश्चात् वह विरक्त हुआ और मुनि होकर निर्वाण पद पाया ।
७८
पुण्यास्रव कथाकोष में चारुदत्त की कथामें बताया गया है कि यह भ्रमण करता हुआ राजगृह आया । यहाँ विष्णुदत्त नामक दण्डीने एक रसकूपके सम्बन्धमें बतलाया और कहा कि यदि हम रसकूपसे रस निकालें तो मनमाना स्वर्ण तैयार कर सकते हैं । इसके पश्चात् वह दण्डी चारुदत्त को उस कुएँके पास ले गया और उसे एक वस्त्रमें बाँधकर और तुम्बी देकर कुएँ में उतार दिया । चारुदत्त तुम्बीको रससे भरकर ऊपर भेजने ही वाला था कि कुएँ में किसीने कहा - सावधान, यह तपस्वी धूर्त्त है तुझे यहीं मेरे समान छोड़ देगा । इसपर चारुदत्त सावधान हो गया और उस तपस्वी से अपने प्राण बचाए तथा कुएँ में पड़े हुए वणिक् पुत्रको नमस्कार मंत्र दिया | नागश्रीका जीव वायुभूति पूर्व जन्म में राजगिरिमें जन्मा था और वहीं पर आचार्य सूर्यमित्र ने उसे व्याकरणादि शास्त्रोंको शिक्षा दी थी । अग्निभूति और वायुभूतिके पूर्व भवोंमें बताया गया है कि इस नगरी में सुबल राजा राज्य करता था । एक दिन सुबलने स्नान करते समय तेलसे खराब हो जानेके भयसे हाथ की अंगुठी अपने पुरोहित सूर्यमित्रको दे दी और सूर्यमित्र उसे ग्रहण कर घर चला गया। भोजनके अनन्तर जब राजसभाको आने लगा तो हाथमें अंगुठी न देख बड़ी चिन्ता हुई । पश्चात् उद्यानमें स्थित सुधर्माचार्य मुनिसे खोई हुई अंगूठी की प्राप्ति के सम्बन्ध में पूछा । मुनिराजने अंगूठीका पता बतला दिया । अंगूठी पाकर सूर्यमित्र बहुत प्रभावित हुआ और आचार्य सुधर्मस्वामीसे मुनि दीक्षा ले ली ।
व्यवसायी कृतपुण्य, रानी चेलना, अभयकुमार, रोहिणेय चोर तो भगवान् महावीर के उपदेशके श्रवण मात्रसे अनेक कठिनाइयोंस रक्षा को थी । भगवान् महावीरका आगमन राजगृहमें अनेक बार हुआ था । नन्द नामक मनिहार भी भगवान्का बड़ा भक्त था । इस प्रकार राजगृहके साथ अनेक भक्त, दाना, तपस्वी, धर्मात्माओंकी कथाएँ चिपटी हैं, जो इस नगरीकी महत्ता बतलाती हैं ।
पुरातत्त्व
फाहियान ( ई० सन् ४००) ने आँखों देखा राजगृहका वर्णन लिखा है । यह लिखते हैं " नगरसे दक्षिण दिशामें चार मील चलनेपर वह उपत्यका मिलती है जो पाँचों पर्वतोंके बीच में स्थित है। यहाँ पर प्राचीनकालमें सम्राट् बिम्बसार विद्यमान था । आज यह नगरी नष्ट-भ्रष्ट है ।"१ १८ जनवरी सन् १८११ ई० को बुचनन साहबने इस स्थानका निरीक्षण किया था और उसका वर्णन भी लिखा है । उनसे राजगृहके ब्राह्मणोंने कहा था कि जरासन्धके किलेको किसी नास्तिकने बनवाया है—जैन उसे उपश्रेणिक द्वारा बनाया बताते हैं । बूचर सा० ने यह भी लिखा है कि पहले राजगृह पर चतुर्भुजका अधिकार था, पश्चात् राजा वसु अधिकारी हुए जिन्होंने महाराष्ट्रके १४ ब्राह्मणोंको लाकर बसाया था । वसुने श्रेणिकके बाद राज्य किया था ।
?. Travels of fa-Hian, Beal (London 1869) pp-110-113
२. बुचनन्द्रेभिल इन पटना डिस्ट्रिक्ट पृ० १२५-१४४
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति कनिंघमने लिखा है कि प्राचीन राजगृह पांचों पर्वतोंके मध्यमें विद्यमान था। मनियार मठ नामक छोटा-सा जैन मन्दिर सन् १७८० ई० का बना हुआ था । मनियार मठके पास एक पुराने कुएँको साफ करते समय इन्हें तीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं। उनमें एक माया देवीकी मूर्ति थी, दूसरी सप्तफण मंडल युक्त एक नग्न मूर्ति भगवान् पार्श्वनाथ की थी।
एम० ए० स्टीन साहब लिखते हैं-"वैभारगिरि पर जो जैन-मन्दिर बने हुए हैं, उनके ऊपरका हिस्सा तो आधुनिक है किन्तु उनकी चौकी जिनपर वे बने हुए हैं, प्राचीन हैं ।
श्री काशीप्रसाद जायसवालने मनियार मठवाली पाषाण मूर्तिका लेख पढ़कर बताया है कि यह लेख पहली शताब्दीका है और उसमें सम्राट् श्रेणिक तथा विपुलाचलका उल्लेख है।
___ आद्रिस बनर्जीने बताया है कि सातवीं शताब्दी तक वैभारगिरि पर्वतपर जैन स्तूप विद्यमान था और गुप्तकालकी कई जैन मूर्तियाँ भी वहाँ हैं । सोनभद्र गुहामें यद्यपि गुप्त कालीन लेख हैं पर इस गुफाका निर्माण मौर्यकालके जैन राजाओंने किया था ।
विपुलाचल पर्वतके तीन मन्दिरों में से मध्य वाले मन्दिरमें चन्द्रप्रभु स्वामीकी श्वेतवर्ण की मूर्ति वेदीमें विराजमान है । वेदीके नीचे दोनों ओर हाथी उत्कीणित हैं । बीचमें एक वृक्ष है । बगलमें एक ओर संवत् १५४८ की श्वेतवर्णकी चन्द्रप्रभु स्वामीकी मूत्ति है। यह मूर्ति गुप्तकालीन है । दूसरे रत्नगिरि पर महावीर स्वामीकी श्यामवर्ण प्रतिमा प्राचीन है। तीसरे उदयगिरि पर महावीर स्वामीकी खड्गासन प्रतिमा निःसन्देह गुप्तकालीन है । चौथे स्वर्णगिरि और पांचवें वैभारगिरि पर भी कुछ प्रतिमाएँ गुप्तकालीन है। राजगृह के पर्वतों पर कुछ खण्डित प्रतिमाएं हैं जो प्राचीन हैं । सिद्धभूमि
राजगृहके विपुलाचलपर इस युगके अन्तिम तीर्थङ्कर श्री महावीर स्वामीका प्रथम समवसरण लगा था। वीर प्रभुका सम्बन्ध अनेक भवोंसे राजगृहसे रहा है। इस नगरका सांस्कृतिक महत्त्व इसीसे अवगत किया जा सकता है कि यहाँसे अनेक महापुरुषोंने निर्वाण लाभ किया है । श्री पं० नाथूराम प्रेमीने नंग, अनंग आदि साढ़े पांच करोड़ मुनियोंका निर्वाण स्थान यहोंके स्वर्णगिरिको माना है। श्री गौतम स्वामी और श्री जम्बूस्वामीने भी विपुलाचल से ही निर्वाण लाभ किया है ।
इसके अतिरिक्त केवली धनदत्त, समुन्दर और मेघरथ ने भी यहाँसे निर्वाण पद प्राप्त
१. Archaelogical Survey of India Vol 1 (1871) pp-25-26 २. Jonurnal of the Bihar and Orissa Rca. Soe. Volxx11 (June 1935) ३. Indian Historical Quarterly Vol xxv pp-205-210 ४. जैन साहित्य और इतिहास पृ० २०१-२०३ ५. उत्तर पुराण पर्व ७६ श्लोक ५१६ ६. जम्बूस्वामी चरित
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
किया ।' विद्युच्चोरने अपने पाँच सौ साथियोंके साथ जिनदीक्षा ली और यहाँ घोर तपश्चरण कर विपुलाचलसे निर्वाण पद पाया ।२ उपसंहार
राजगिरि प्राचीन जैन तीर्थ है । इस नगरीका सम्बन्ध भगवान् आदिनाथके समयसे रहा है । ऋषभदेव स्वामीका समवशरण भी यहाँपर आया था । बौद्ध साहित्य और वैदिक साहित्यमें भी इसका उल्लेख आया है। विनय पिटकमें बताया गया है कि गृह त्याग कर महात्मा बुद्ध राजगृह आये और सम्राट् श्रेणिकने उनका सत्कार किया। अपने मतका प्रचार करनेके लिए भी अनेक बार राजगृहमें बुद्धको आना पड़ा था। वह बहुधा गृद्धकूट पर्वत कलन्दक निवायवे उपवनमें विहार किया करते थे। जब बुद्ध जीवक कौमारमृत्यके आम्रवनमें थे, तब उन्होंने जीवकसे हिंसा अहिंसाको चर्चा की थी और जब वे उपवनमें थे तब उनका अभयकुमार से वाद हुआ था । साधु सफल दोयिने भी बुद्धसे वार्तालाप किया था।
राजगृह माहात्म्यमें बताया गया है कि सूतजीने श्रीशौनक आदि ऋषियोंसे राजगृहकी महत्तापर प्रकाश डालते हुए कहा था कि यह राजगृह क्षेत्र सम्पूर्ण तीर्थोंमें अत्युत्तम है। यहाँ सभी देव, तीर्थ और नदियाँ विचरण करती हैं। अयोध्या, मथुरा, माया, कांची, काशी, अवन्तिका आदि तीर्थोकी धारा सप्तऋषियोंके नामसे एकत्रित है। स्कन्द गया, राजगृह, बैकुण्ठ, लोह दण्डक, च्यवनाश्रम और पुनःपुनः ये छ: मगध के प्रधान तीर्थ हैं। इनमें सबसे अधिक फल देनेवाला पाताल जाह्नवीका जल प्रपात-ब्रह्मकुण्ड (राजगृहस्थ) है ।-सोनभण्डार, मनियार, गौतमवन, सीताकुण्ड, मतीकोल आदि स्थानका स्पष्टतः जैन संस्कृतिसे सम्बन्ध है । इन स्थानोंपर जैन मुनियोंने तपस्याएं की हैं। क्या अब पुनः राजगिरि अपने लुप्त गौरवको प्राप्त कर सकेगा?
१. उत्तर पुराण पर्व ७६ श्लो० ३८५-३८६ २. आराधना कथा कोश भाग १ पृ० १०५ ३. हरिवंश पुराण सर्ग ३ श्लोक ५६ ४. मज्झिम निकाय (सारनाथ १९३) ५. अभयकुमार सुत्तन्त मज्झिम, पृ० २३४
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जैन साहित्यमें प्रतिपादित मगध जनपद
सोलह आर्य क्षेत्रोंमें मगध जनपदकी गणना की गयी है। प्राचीन सभ्यता और संस्कृतिको दृष्टिसे इस जनपदका स्थान महत्त्वपूर्ण हैं । इस जनपदने कई शतकों तक राजनीति और धर्मपर शासन किया है । श्रमण, आजीवक और वैदिक सम्प्रदायोंके संवर्द्धन, पोषण और जीवनदानके कार्य इस जनपद द्वारा होते रहे हैं। तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ, पार्श्वनाथ और महावीरकी प्रवृत्तियोंका यह प्रमुख केन्द्र रहा है। राजा बिम्बसार या श्रेणिक, अजातशत्रु नन्दवंशी राजा, सम्राट चन्द्रगुप्त, प्रियदर्शी राजा अशोक, सम्प्रति, शुगवंशका सेनानी पुष्यमित्र एवं गुप्तवंशके राजाओंने इस जनपदपर शताब्दियों तक शासन किया है ।
___ इस जनपद की सीमा उत्तरमें गंगा, दक्षिणमें शोण नदी, पूर्व में अंग एवं पश्चिममें सघन जंगलों तक व्याप्त थी । एक प्रकारसे आधुनिक दक्षिण विहार प्राचीन मगध जनपद था। गया, पटना, शाहाबाद तथा हजारीबाग, मुंगेर और भागलपुरके कुछ अंश मगधकी सीमाके अन्तर्गत थे । ऋग्वेदकी एक ऋचामें मगधको कीकट देश कहा गया है। यास्कने अपने निरुक्तमें "कीकटो नाम देशोऽनार्य निवासः3"-कीकट प्रदेशको अनार्योंका निवासस्थान बतलाया है । महाभारतमें इसकी सीमा पश्चिममें कर्मनाशा नदी और दक्षिणमें दमूद नदी तक बतलायी है। मगधकी उन्नति शिशुनाग वंशके राजा बिम्बसार-श्रेणिकके समयसे आरम्भ हुई और गुप्तकाल तक यह जनपद समृद्धिको प्राप्त होता रहा।
जैन साहित्यमें मगध जनपदको तीर्थ माना गया है। भरत चक्रवर्तीके दिग्विजय करनेके पश्चात् मगधके पवित्र जलसे उनका राज्याभिषेक किया गया था। आज भी गया, पुनःपुनः नदी, च्यवनाश्रम एवं राजगृह वनकी गणना पवित्र तीर्थों में की जाती है ।" मगध जनपदके निवासियोंको बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और कर्तव्यपरायण बतलाया गया है । क्रान्ति एवं नवीन विचारधाराको प्रमुखता देनेके कारण ही वैदिक साहित्यमें मगध जनपदको आर्य संस्कृतिसे बहिर्भूत माना गया है और वैदिक धर्म सूत्रोंमें इस जनपदको अवमानना की गयी है।
१. व्याख्या प्रज्ञप्ति १५; बौद्धोंके अंगुत्तर निकायमें अंग, मगध, काशी, कोशल, वज्जि,
मल्ल, चेदि, वंश, कुरु, पंचाल, मच्छ, सूरसेन, अस्सक, अवंति, गंधार और कम्बोज
देशोंके नाम आये हैं ।-अंगुत्तर निकाय १, ३ पृ० १९७ २. ऋग्वेद ३।५३।१४ ३. निरुक्त ६।३२ ४. स्थानांग ३।१४२; आवश्यकचूणि पृ० १८५; आवश्यक नियुक्तिभाष्य दीपिका ११०,
पृ० ९३ अ ५. कीकटेषु गया पुण्या नदी पुण्या पुनःपुनः ।
च्यवनाश्रमं पुण्यं पुण्यं राजगृहं वनम् ।।-हिन्दी विश्वकोश, भाग १६ पृ० ४३३ ६. व्यवहारभाष्य १०।१९२
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
वस्तुतः श्रमण साहित्यमें ही मगध जनपदको मध्यदेशकी सीमाके अन्तर्गत स्थान देकर उसे आर्यदेश बताया गया है। जैन लेखकोंने मगधके वैभव, समृद्धि, संस्कृति, और जन-जीवनका सजीव चित्रण कर इस जनपदको महत्त्व प्रदान किया है। प्राचीन समय में श्रमण संस्कृति और श्रमण विचारधाराके प्रसारका प्रमुख केन्द्र यही जनपद रहा है ।
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नगर और ग्राम
जैन वाङ्मयमें इस जनपदके अन्तर्गत राजगृह, नन्दपुर, कुसुमपुर, पाटलिपुत्र, नालन्दा, चणकपुर, कुसाग्रपुर, जयन्तपुर आदि अनेक बड़े नगरोंका और सुग्राम, शालिग्राम, कुम्भाग्राम, मोयाग्राम, फोल्लागसन्निवेश, जम्भिकग्राम, उदण्डपुर, गोबरग्राम, सुवर्णखल, जम्बूसण्डग्राम, वाणिज्यग्राम, सुमंगलाग्राम, सुवर्णग्राम, धन्यपुरग्राम, थूणागसन्निवेश, अचलग्राम आदि ग्रामोंका वर्णन आया है ।
भविष्य ब्रह्मखण्ड में मगध जनपदमें तीन हजार ग्रामोंका उल्लेख आया है, इनमें सात ग्राम मुख्य बतलाये गये हैं ।
मगधकी प्राचीन राजधानी गिरिब्रज अथवा राजगृह नगरी थी। इस नगरीकी समृद्धिका वर्णन समस्त जैन साहित्यमें पाया जाता है । राजगृहके क्षितिप्रतिष्ठ, चणकपुर, ऋषभ - पुर और कुशाग्रपुर नाम भी मिलते हैं। राजगृहमें गुणसिल, मण्डिकुच्छ और मोगरपाणि आदि अनेक चैत्य मन्दिर थे । गुणसिल चैत्य ही आधुनिक गुणावा है ।
राजगृह व्यापारका बड़ा केन्द्र था । यहाँसे तक्षशिला, प्रतिष्ठान, कपिलवस्तु, कुसीनगर आदि भारतके प्रसिद्ध नगरोंके जानेके मार्ग बने हुए थे । विविध तीर्थकल्पमें राजगृहमें छत्ती हजार गृहोंके होनेका उल्लेख है ।
पाटलिपुत्रको मगधकी राजधानी होनेका सौभाग्य नन्द और मौर्यवंशके राजाओंने प्रदान किया। बताया गया है कि कुणिकके परलोक गमनके पश्चात् उसका पुत्र उदायी चम्पाका शासक नियुक्त हुआ। वह अपने पिताके सभास्थान, क्रीड़ास्थान, शयनस्थान आदिको देखकर पूर्व स्मृतिके जाग्रत हो जानेसे उद्विग्न रहता था । इसने प्रधान अमात्योंकी अनुमतिसे नूतन नगर निर्माणार्थ प्रवीण नैमित्तिकोंको आदेश दिया । भ्रमण करते हुए वे गंगा तटपर आये । गुलाबी पुष्पोंसे सुसज्जित छवियुक्त पाटलिवृक्षोंको देखकर वे आश्चर्यचकित हुए । तरु की टहनीपर चाष नामक पक्षी मुँह खोले बैठा था । कीड़े स्वयं उसके मुँहमें आ पड़ते थे । इस घटनाको देखकर वे लोग सोचने लगे कि यहाँपर नगरका निर्माण होनेसे राजाको लक्ष्मीकी प्राप्ति होगी । फलतः उस स्थानपर नगरका निर्माण कराया, जिसका नाम पाटलिपुत्र रखा गया ।
पाटलिपुत्रका अन्य नाम कुसुमपुर भी मिलता है । विविध तीर्थकल्पमें कुसुमोंकी बहु
१. व्याख्या पण्णत्ति, पृ० ७३१; हरिवंशपुराण ३-५१-५७; धवल टीका प्रथम भाग पृ० ६१-६२, तिलोयपण्णत्ति ४।४४५ तथा १।६६-६७, पद्मचरित ३३ । २ तथा १।११३, महापुराण १।१९६; जम्बूस्वामी चरित ५ | १३, मुनिसुव्रत काव्य १।३७ - ५४ । २. विविध तीर्थकल्प पृ० ६७; समराइच्चकहा पृ० २७५ ।
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
लता होनेके कारण इसका कुसुमपुर नाम बताया गया है । सालिग्रामके मनोरम उद्यानमें सुमन यक्षके चैत्यका वर्णन आता है । यह ग्राम आर्थिक और धार्मिक दृष्टिसे अत्यन्त उन्नत था।
कोल्लाक सन्निवेश मगधका प्रसिद्ध ग्राम था। इसमें विउत्त और सुधर्म स्वामीने जन्मग्रहण किया था । शरवण ग्राम मंखलि गोशालका जन्म स्थान था। नालन्दा राजगृहका एक उपनगर था, जहाँपर धनाढ्योंका निवास था । यहाँ श्रमण भगवान् महावीरने वर्षावास किये थे ! तुंगिया नगरी राजगृहके निकटमें अवस्थित थी। भगवती सूत्रसे ज्ञात होता है कि तुंगियाके गृहस्थ धनी, मानी और दृढ़ धर्मी थे । गौतमरासामें बताया गया है कि गणधर इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूतिका जन्मस्थान गोबरग्राम था, यह ग्राम मगध देशमें स्थित था। पलास' ग्राम धन-धान्यसे परिपूर्ण थां, प्राचीन समयमें यह ग्राम वैदिक संस्कृतिका केन्द्र था।
जम्भिक प्राममें भगवान महावीरने कैबल्य प्राप्त किया था। वर्तमानमें यह जमई ग्राम कहलाता है, जो वर्तमान मुंगेरसे ५० मील दक्षिण एवं राजगृहसे ३५ मीलकी दूरीपर स्थित है । यह स्थान क्विल नदीके किनारेपर है, यह नदो ऋजुकूला या ऋष्यकूलाका अपभ्रंश है । क्विल स्टेशनसे जमुई १८-१९ मीलकी दूरीपर है । जमुई से तीन मील दक्षिण एनमेगढ़ नामक एक प्राचीन टोला है। कनिंघमने इसे इन्द्रद्युम्नपालका माना है । यहाँपर खुदाईमें मिट्टीकी अनेक मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं । जमुई और लिच्छवाड़के बीचमें महादेव सिमरिया गांव है। यहाँ सरोवरके मध्य एक ३००-४०० वर्ष प्राचीन मन्दिर है । जमुईसे १५-१६ मीलपर लक्खीसराय है। जमुई और राजगृहके बीच सिकन्दराबाद गाँव है । राजगृह और नालन्दाके बीच अम्बाद्वीपका उल्लेख मिलता है, यह आम्रवन था। आजकल सिलाव ग्राम इसी स्थानपर स्थित है। पर्वत श्रेणियाँ और नदियाँ
मगध जनपदमें राजगृहको ऋषिगिरि, वेभारगिरि, विपुलाचल, बलाहक और पाण्डुक ये पञ्च-पहाड़ियाँ प्रसिद्ध हैं । २ गयासे ३८ मीलकी दूरीपर स्थित कुलुआ पहाड़ है । यह पहाड़ जंगलमें है और इसकी चढ़ाई दो मील है। यहाँ सैकड़ों जैन मन्दिरोंके भग्नावशेप पड़े हुए हैं। इस पर्वतपर दसवें तीर्थङ्कर शीतलनाथने तप कर केवलज्ञान प्राप्त किया था। शीतलनाथका जन्मस्थान भद्दिलपुर वर्तमानमें भौंडिल नामसे प्रसिद्ध हुआ है । कुलुआ पहाड़पर वर्तमानमें खण्डित मूर्तियाँ और मन्दिरोंके ध्वंसावशेष उपलब्ध हैं।
__ गयाके निकट रफीगंजसे तीन मील पूर्व श्रावक नामका पहाड़ है। यह एक ही शिलाका पर्वत है और दो फर्लाङ्ग ऊँचा है। यहाँ वृक्ष नहीं है, किनारे-किनारे शिलाएँ हैं । पहाड़के नीचे जो गांव बसा है, उनका नाम श्रावकपुर है। पर्वत के ऊपर अस्सी गज जानेपर एक गुफा है, इस गुफामें पार्श्वनाथ स्वामीका मन्दिर है ।
१. वसुदेवहिरी पृ० २९। २. हरिवंश पुराण ३१५१-५५ । ३. कोटिशिलाके नामसे जैन साहित्यमें इसका उल्लेख आता है । ४. चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० १५२ ।
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
गया जिलेमें औरंगाबादकी सीमाके पूर्व की ओर रफीगंजसे दो मीलकी दूरी पर प्रचार या पछार नामक पहाड़ है । यहाँ पर एक गुफाके बाहर पार्श्वनाथ भगवान्का मन्दिर है । विपुलाचलपर भगवान् महावीरका प्रथमोपदेश हुआ था, अतः हरिवंश पुराण में इसकी महत्ता प्रतिपादित की गयी है ।
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मगध जनपदमें गंगा, स्वर्णभद्र ( मागधी ), ऋजुकूला ( क्विल ), मयूराक्षी, सुवर्णरेखा चानन, फल्गू प्रभृति नदियोंके उल्लेख मिलते । पाटलिपुत्रके वर्णन प्रसंग में गंगाका निर्देश आता है । इसी नदी किनारे-किनारे चलकर भरत चक्रवर्तीकी सेना गंगाद्वार तक पहुँची थी । २ हिमालयके गंगोत्री झीलसे इसका प्रस्रवण प्रारम्भ होता है । त्रिलोकसारमें गंगाके उत्पत्ति स्थानका विस्तार पूर्वक वर्णन आया है ।
शोणनदका नाम मागधी नदी भी है। अपनी विशाल जलराशि और शोणित बालुकामय कणों के कारण यह शोणभद्र कहलाती है ।
ऋजुकूलाका वर्णन हरिवंश पुराणमें आया है । तिलोपण्णत्ति में भी इस नदीका नाम आया है । मयूराक्षी राजगृहके आस-पास कोई छोटी नदी है और सुवर्ण रेखाको पुनः पुनः का पर्याय माना गया है ।
आर्थिक समृद्धि
मगध जनपदकी आर्थिक समृद्धिका वर्णन पद्मचरित कुवलयमाला, हरिवंश चरित, अभयकुमारचरित, श्रेणिकचरित, आख्यान मणिकोश, चउप्पन्नमहापुरिसचरिय, वसुदेवहिण्डी आदि ग्रन्थोंमें आया है । यह जनपद व्यापारका केन्द्र था, यहाँ नाना देशोंके व्यापारी आते थे । राजगृह नगरी में स्वर्ण, मौक्तिक, रजत, धन-धान्य आदिका क्रय-विक्रय होता था । कुवलयमाला में मगध जनपदके व्यापारियोंका वर्णन करते हुए लिखा है
हरिय-पो-दुव्वण्ण-मडहए सुरय-केलि- तल्लिच्छे ।
'एगे लें' जंपुल्ले अह पेच्छइ मागहे कुमरो ॥
— अनुच्छेद २४६ पृ० १५२ मगध देशके व्यापारी बाहरकी ओर निकले हुए स्थूल उदरवाले, कुत्सितवर्ण वाले, ठिगने, कामक्रीडा रसिक और 'एगेले' इस प्रकार बोलनेवाले होते हैं ।
राजगृह और पाटलिपुत्रमें अनेक धनिक सार्थवाह रहते थे, जो व्यापारके हेतु सामुद्रिकयान लेकर चलते थे । रविषेणने पद्मचरितमें बताया है
पञ्जरं
साधूनां सङ्गमः सद्भिर्भूमिर्लाभस्य वाणिजैः । शरणप्राप्तंर्वज्रदारुविनिर्मितम् ॥ - पद्म० २।४२ मगध देशको सज्जनोंने सत्समागमका स्थान माना था, व्यापारियोंने लाभकी भूमि और शरणागत मनुष्योंने वज्रमय लकड़ीसे निर्मित - सुरक्षित पञ्जर समझा था ।
९. वही, पृ० ६२८ ।
२. आदिपुराण २९/४९; २८|१३; ३२।१६३ ।
३. वही, २९।४९; २९।५२ ।
४. तिलोय पण्णत्ति ४।७०१ ।
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
८५ पद्मचरितमें बताया है कि मगध देशमें कस्तूरी, सुगन्धित द्रव्य, वस्त्र, गज, अश्व, ऊँट, गाय, आदिके व्यापारका वर्णन आया है।
मगध जनपदमें कृषिकी सुव्यवस्था थी। कूपोंमें सिंचाईके लिए रहटोंका प्रबन्ध था । उपजाऊ भूमिके होनेपर भी सिंचाईका प्रबन्ध किया था । गन्ना, धान, गेहूँ, चना, कोदों, मूंग, उड़द, मौंठ आदि समस्त धान्य उत्पन्न होते थे। मगधमें शूक धान्य, शिम्बीधान्य और तृणधान्य तीनों ही प्रकारके धान्य उत्पन्न होते थे। शूक धान्यके दो भेद हैं-शालि और ब्रीहि । हेमन्तमें पकनेवाले धानको शालि कहते हैं। मगधका शालिधान प्राचीनकालमें अतीव प्रसिद्ध था। ऐसा कहा जाता है कि महाशालि मगधसे यूनानी लोगोंके साथ यूनान तक गया।
शूक धान्योंमें गोधूम और यवकी गणना है। शिम्बी धान्यमें मूंग, मसूर, अरहर, चना, कुलत्थी आदि परिगणित हैं। मगध देशमें अनाजके ढेर खलिहानोंमें लगे रहते हैं । भूमिकी उर्वराशक्तिका वर्णन करते हुए पद्मचरितमें लिखा है
उर्वरायां वरीयोभिः यः शालेयरलङ्कृतः। मुद्गकोशीपुटैर्यस्मिन्नुद्देशाः कपिलत्विषः ।। अधिष्ठितः स्थलीपृष्ठः श्रेष्ठगोधूमधामभिः ।
प्रशस्यैरन्यसस्यैश्च युक्तः प्रत्यूहजितैः ।।-पद्म० २।७९ । मगधकी उपजाऊ भूमिमें धान, मूंग, मोठ आदि अन्न पर्याप्त मात्रामें उत्पन्न होते हैं। गेहूँकी खेती इस जनपदमें विशेषरूपसे होती है । रक्षक खेतोंकी रखवाली करते हुए मधुर संगीतका आनन्द लेते थे। दुधारू पशुओंके स्तनोंसे दूध टपकता रहता था, जिससे मगधकी भूमि सदा सुगन्धित रहती थी।
___ मगध जनपद आर्थिक दृष्टिसे अत्यन्त सुखद था । साधारण जनता भी गन्ध, माल्य, दुग्ध आदि पदार्थोंका उपयोग करती थी। पथिक विश्रामके साथ भोजन भी प्राप्त करते थे। मगधवासियोंको आवश्यकताकी समस्त वस्तुएं उपलब्ध हो जाती थीं । नाना प्रकारके फल, ताड़वृक्ष एवं नारियल सभीको आनन्दित करते थे।
पथिकोंके लिए प्याऊ, भोजन-शालाएं और विश्रामशालाएं भी निर्मित थीं। अतिथि जन इस जनपद में घर जैसा आनन्द प्राप्त करते थे । यहाँके भवन, आगार, चैत्यालय, सरोवर, परिखा आदि मनोरम और आरामप्रद थे । भोजन-पान और वेष-भूषा
मगध जनपदमें सभी प्रकारके खाद्यान्न उत्पन्न होते थे, अतः वहाँके निवासी चावल, रोटो, दाल आदिका व्यवहार करते थे । गौतमस्वामी चरित, मुनिसुव्रत काव्य और पद्मचरितमें अन्न भोजन, पक्वान्न भोजन और फल भोजन इन तीनों प्रकारके भोजनका वर्णन आया है। नायाधम्म कहामें धन्य सार्थवाहकी कथा आयी है, जिसने अपने सगे-सम्बन्धियोंको बहभोजके
१. पद्मचरितम्-२।२५, ३१ २. वही २०६;
___३. वही २।४, ८॥ ४. Gode. Studies in Indian cultural history vol I, P.265
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
लिए निमन्त्रण दिया है। भोज और भोजन विधिका साङ्गोपाङ्ग चित्रण कथाकोष प्रकरणमें शालिभद्रको कथामें उपलब्ध होता है । राजा श्रेणिक अपनी रानी चेलनाके साथ सुभद्र सेठानीके घर चहुँचता है । भोजन मण्डपमें बैठनेपर सर्व प्रथम दाडिम, द्राक्षा, दंतसर, वेर, रायण आदि चर्वणीय पदार्थ उपस्थित किये गये । अनन्तर गन्नेकी गँडेरी, खजूर, नारंग, माम आदि चोष्य पदार्थ; तत्पश्चात् विभिन्न प्रकारके स्वादु लेह्य पदार्थ प्रस्तुत किये। अशोक, वट्टीरुक, सेवा, मोदक, फेणी, सुकुमारिका, घेवर आदि अनेक प्रकारके भोज्य पदार्थ परोसे गये । इसके पश्चात् सुगन्धित चावल, विरंज लाये गये । पुनः अनेक प्रकारके द्रव्योंसे बनायी कढ़ी लायी गयी। इसके पश्चात् दधि निर्मित भोज्य पदार्थ उपस्थित किये । सबके अन्त में केसर, शक्कर, और घृत मिश्रित आधा औंटा हुआ दूध दिया गया। ताम्बूल, सुपाड़ी, केसर आदि सुगन्धित पदार्थ भोजनोत्तर ग्रहण किये जाते थे।
__जंबूसामिचरिउसे भी भोजन-पान पर प्रकाश पड़ता है। बताया गया है कि मीठे, खट्टे एवं चरपरे व्यंजनोंका प्रयोग किया जाता था। विवाह या अन्य उत्सवोंके अवसर पर सामूहिक भोज तृणासनों पर बैठकर सम्पन्न होता था। कूर नामक (धानके) चावलसे निर्मित भात घृतसे सिक्त किया जाता था। दधि, तक, अचार एवं चटनीका प्रयोग होता था । मगधमें मूंगके मीठे और नमकीन दोनों प्रकारके व्यञ्जन प्रचलित थे ।२
पेय पदार्थोंमें दुग्ध, पानक, जल आदिका उल्लेख मिलता है । तक्रका भी व्यवहार पेयके रूपमें किया जाता था।
वेश-भूषामें विभिन्न प्रकारके वस्त्रोंका उपयोग आता है । मगधवासी परिधान-अधोवस्त्र और उत्तरीयका प्रयोग तो करते ही थे, पर अन्य प्रकारके सिले हुए वस्त्र भी व्यवहार में लाये जाते थे। वस्त्रोंमें रेशमी, सूती और ऊनी इन तीनों प्रकारके वस्त्रोंका वर्णन आता है । क्षौम वस्त्र दुधिया रंगका कीमती, मुलायम और सूक्ष्म होता था। धनिक व्यक्ति क्षौमका व्यवहार करते थे। दुकूल वृक्षकी छालके रेशोंसे बनता था। विवाह आदि माङ्गलिक अवसरोंपर क्षौम तथा कौशेयका प्रयोग होता था। दुकूल मृदु स्निग्ध और महार्घ वस्त्र है। धनिक परिवारोंमें यह व्यवहृत होता था। अंशुक वस्त्रके कई भेद हैं-सितांशुक, रक्तांशुक और नीलांशुक आदि । कुसुम्म लाल रंगका रेशमी वस्त्र होता था। सूती लालवस्त्रको भी कुसुम्म कहा जाता था । रत्न कम्बलोंका धनी-मानी प्रयोग करते थे।
आभूषणोंमें चूडामणि, किरीट, मुकुट, कुन्तली, हार, रत्नावली, कण्ठमालिका, ग्रेवेयक,
१. उवणीयाई चव्वणीयाई दाडिमदक्खादंतसरबोररायणाई । "तयणंतरमुवणीयं चोसं सुस
मारिय इक्खु-गंडिया खज्जूर-नारंगी-अंबगाइभेयं । तयणंतरं असोगवट्टि सग्गव्य सेवामोयगसुकुमारिया-घय-सुकुमारिया-घयपुण्णाइयं बहुभेयं भक्खं ।"" ""आयमणं । कथाकोष
प्रकरण गा० ८।१० पृ० ५८ २. तिणमयकायमाण संठियजणे । वारिपसिंचमाणचुय जल-कणे ।
पिसुणलोयहिययं व सकूरउ । सज्जणमणु अ नेहपरिपूरउ । ३. कथाकोषप्रकरण पृ० ५८-५९ तथा जम्बूसामिचरिउ ८।१३ पृ० १६१, पद्मचरित २।३१
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति कुण्डल, अंगद, केयूर, कटक, मुद्रिका, मेखला, रशना, काञ्ची, नूपुर आदि धारण किये जाते थे । नर और नारी दोनों ही आभूषणोंका व्यवहार करते थे। अन्य प्रसाधन सामग्री में केश, मुख एवं अन्य शारीरिक अंगोंको सज्जीकृत करनेके लिए केसर, कस्तूरी, पुष्प, अन्य सुगन्धित चूर्ण, गन्ध, माल्य, उद्वर्तन, कालागुरु, विलेपन आदिका उल्लेख मिलता है।' क्रीड़ा-विनोद एवं गोष्ठियाँ
__ मगधवासी कन्दुकक्रोड़ा, सहकारवनक्रीड़ा, जलक्रीड़ा, वनक्रीड़ा, दोलाक्रीड़ा, एवं ऋतुक्रीड़ाओंमें विशेष रुचि रखते थे ।२ मनोरंजनके लिए संगीत और चित्रकलाओंका भी उपयोग किया जाता था । कथा और काव्यगोष्ठियोंमें भी इस जनपदके निवासी भाग लेते थे ।
संगीतका मगधमें पूर्णतया प्रचार था । वीणा, मुरज, पणव, शंख, तूर्य, काहला, घण्टा, मृदंग, दुन्दुभि, तुणव, महापटह, पुष्कर, भेरी आदि वाद्य उत्सवोंके अवसर पर बजाये जाते थे। कई प्रकारको वीणाओंका भी व्यवहार किया जाता था। गीतके तीन आकार, षड्दोष, अष्टगुण एवं तीन प्रकार हैं । जो ज्ञानपूर्वक गीत गाया जाता है, उसे ललित गीत कहते हैं। तीन आकारोंके अन्तर्गत मृदुगीत ध्वनि, तीव्र गीतध्वनि एवं लययुक्त हल्की गीतध्वनि आती है । मगधके गीतकार रागपूर्वक मूर्च्छनाओंका ध्यान रखते हुए स्वरविशेषोंसे अलंकृत कर गाते थे । वारवनिताएँ गीत गानेमें प्रवीण होती थीं।
मनोविनोदके लिए नृत्यकलाका व्यवहार किया जाता था। नृत्यमें निम्नलिखित तत्त्वोंका समावेश किया जाता था। (१) भावोंका अनुकरण
भिनय पर बल (३) भावोंका अवलम्बन (४) कटाक्ष या मुस्कराहटका उपयोग (५) गीतियों द्वारा नृत्य (६) शारीरिक चेष्टाओंका प्रदर्शन (७) हाव-भाव और विलासका प्रदर्शन
नाना प्रकारके नृत्योंका प्रचार मगधमें था । ताण्डवनृत्य, अलातचक्रनृत्य, इन्द्रजालनृत्य, चक्रनृत्य, सूचीनृत्य, लास्यनृत्य, कटाक्षनृत्य, बहुरूपिणी नृत्य आदिका प्रचलन था । मनोविनोदके हेतु मगधमें काव्यगोष्ठीको योजना की जाती थो। कवि अपने कल्पना वैभव द्वारा जनताका अनुरंजन करते थे । कलागोष्ठियोंमें नृत्य, संगीत, चित्र सम्बन्धी चर्चाएं होती थीं। द्यूत और घुड़दौड़ भी मनोरंजनमें परिगणित हैं।
१. कथाकोषप्रकरण दशवीं कथा२. जंबुसामिचरिउ ४।२; ८॥३, ९।१२-१३ ३. संगीतस्वनसंयुक्तर्मयूररवमिश्रितैः।। ____ यस्मिन्मुरजनिर्घोषैर्मुखरं गगनं सदा ॥-पद्म० २।२८ ४. जंबुसामिचरिउ ३८।९ तथा १११० गन्धर्वनगरं गीतशास्त्रकौशलकोविदः । वही २।४१
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
लोकधर्मं
मगध में आत्मधर्मके साथ लोकधर्मका प्रचार था । नायाघम्मकहाओमें लोकधर्म सम्बन्धी प्रचुर सामग्री उपलब्ध होती है । श्रमण और वैदिक दोनों ही समन्वय प्रधान लोकधर्मको महत्त्व देते थे । आर्य संस्कृति, द्रविड, निषाद एवं किरात संस्कृतियोंके सम्मिश्रणसे एक धार्मिक परम्पराका आरम्भ हुआ, जो लोकधर्म के नामसे प्रसिद्ध हुई ।
मगध जनपद में विभिन्न प्रकारके मेले और उत्सवोंमें लोकधर्मका आचरण किया जाता था । प्राचीन कालमें इस प्रकारके धर्म प्रधान उत्सव मह या मख कहलाते थे । द्विजातियोंके जीवन में जो स्थान वैदिक यज्ञोंका था, वही स्थान मह नामक उत्सवोंका था । नायाधम्मकहाओमें राजगृहमें सम्पन्न होनेवाले पन्द्रह मह या उत्सवोंका निर्देश आया है । बताया है
अज्ज रायगिहे नगरे इंदमहेइ वा खंदमहेश्वा एवं रुद्दसिववेसमण नाग-जक्ख भूय, नई - तलाय - रुक्खचेइय उज्जाणगिरि जत्ताइ वा जओ णं बहवे उग्गा भोगा जाव ए गदिसि ए गामिमुहा निग्गच्छति । नायाधम्मका १२५, वैद्य संस्करण पृ० २३
( १ ) इंदमह - इन्द्रमह, (२) खंदमह - स्कन्दमह, (३) रुद्रजत्ता — रुद्रयात्रा (४) सिवजत्ता - शिवयात्रा, (५) वेसमणजत्ता - वैश्रवण यात्रा, (६) नागजत्ता - नागयात्रा, (७) जक्खजत्ता - यक्षयात्रा, (८) भूयजत्ता - भूतयात्रा, (९) नईजत्ता – नदीयात्रा, (१०) तलायजत्तातडागयात्रा (११) रुक्खजत्ता - वृश्नयात्रा ( १२ ) चेइयजत्ता - चैत्ययात्रा (१३) पव्वयजत्ता - पर्वतयात्रा (१४) उज्जाणजत्ता - उद्यान यात्रा (१५) गिरिजत्ता - गिरियात्रा ।
रायपसेणियसुत्त में जत्त के स्थानपर मह पाठ प्राप्त होता है । इन्द्रमह उत्सव विशेष महत्त्वपूर्ण है। वर्षा ऋतु में प्रजा और राजा मिलकर देवराज इन्द्रका पूजन करते थे । इन्द्रमहका सम्बन्ध किसानोंकी खेती के साथ है । इन्द्रमहमें फल, गन्ना, केला आदि से इन्द्रकी पूजा की जाती है । इन्द्रमह वस्तुतः जातीय स्तरका उत्सव था, जिसमें राष्ट्रीय देवताके रूपमें इन्द्रकी गणना की गयी है ।
खन्दमहसे तात्पर्य स्कन्द पूजासे है । फाल्गुन, आषाढ़ और कार्तिक माह में कृष्णपक्ष में षष्ठी तिथिको स्कंदपूजा होती है । स्कंदको षडानन, ब्रह्मण्य और कार्तिकेय भी कहा गया हैं । स्कंदके विकासकी प्रथम स्थिति पिशाचके रूपमें थी । अनंतर रुद्र के साथ स्कन्दका समन्वय हुआ । पश्चात् अग्निके साथ और अन्तमें इन्द्रके साथ, जिसके फल स्वरूप गुप्तकाल में देवसेनाके सेनापति के रूप में प्रतिष्ठित हुआ । इस विकास क्रममें एक छोटी सी शाखा और निकली, जिसके अनुसार स्कंद बालग्रह या बच्चोंका रक्षक माना गया । कुषाणकाल के आस-पास स्कंदकी पूजाका लोकमें अत्यधिक प्रचार था । एक ओर कार्त्तिकेयको युद्ध देवताके रूपमें मान्यता मिली और दूसरी ओर शक्तिघरके रूपमें । स्कंदके अनुशासनमें अनेक देवता थे, भक्तोंके कार्योंकी सिद्धि करते थे ।
नागमहमें नागदेवताका उत्सव सम्पन्न किया जाता था । नागपूजा यक्ष पूजासे भी प्राचीन है । नागका सम्बन्ध सभी देवोंके साथ है। कई प्राकृत आख्यान नागसे सम्बद्ध हैं । वृक्ष पूजाका प्रचार प्राचीन भारत में पर्याप्त था। पीपल, वट, तुलसी, आमलकी आदिकी पूजा
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
आज भी प्रचलित है । किसी गाँवमें जब एक वृक्ष ऐसा दिखलायी पड़ता है, जो पत्तोंसे खूब छतनार हो और फलोंसे लदा हो अपने विशिष्ट लक्षणोंके कारण वह पूजनीय माना जाता है। नायाधम्मकहाके उल्लेखसे स्पष्ट है कि जिस प्रकार वृक्षकी पूजा और उत्सव मनाया जाता था, उसी प्रकार वृक्षोंसे भरे हुए उद्यानमें उत्सवक्रीड़ा, गोष्ठी, समाज आदिका आयोजन किया जाता था । सिद्धर्षिकृत उपमितिभवप्रपंच कथामें उद्यानिका महोत्सवका बहुत सुन्दर वर्णन आया है, इससे विदित होता है कि ऐसे अवसरों पर विशेष भोजका भी प्रबन्ध रहता था । उद्यान क्रीड़ा वसन्त ऋतुमें सम्पन्न होती थी।
यक्ष पूजाका प्रचार सर्वाधिक था। इसका उल्लेख जैन आगम साहित्यमें सर्वत्र पाया जाता है । यक्ष सबसे प्रमुख देवता माने जाते ये । शनैः शनैः आर्यदेवोंके सम्पर्कमें आनेसे आर्यदेवोंका प्रभाव बढ़ा और उन्हें यक्षोंकी तुलनामें ऊंचा पद दिया जाने लगा । आगे चलकर यक्षके स्थान गिरने लगे और उसकी गणना भूत-पिशाचादिमें होने लगी । जैन वाङ्मयमें प्रत्येक तीर्थकरके साथ आरक्षक देवताओंके रूपमें यक्ष-यक्षीका सम्बंध जोड़ा गया।
___ अन्य देवी-देवताओंकी पूजा भी उत्सव-पूर्वक सम्पन्न होती थी। रुद्र, तडाग, चैत्य, पर्वत एवं गिरि आदिके उत्सव भी पूजापूर्वक सम्पन्न किये जाते थे। इस प्रकार मगध जनपदमें लोक धर्मका पर्याप्त प्रचार और प्रसार था।
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दक्षिण भारतमें जैनधर्मका प्रवेश और विस्तार
दक्षिण भारतके इतिहास निर्माणमें जैन संस्कृतिका महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस संस्कृतिका इस भूभागके राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और साहित्यिक जीवनपर अमिट प्रभाव पड़ा है। यद्यपि जैनधर्मके सभी प्रवर्तक उत्तर भारतमें उत्पन्न हुए हैं, पर दक्षिणमें इस धर्मका प्रवेश प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथके समयमें ही हो गया था। ऐसे अनेक ऐतिहासिक सबल प्रमाण वर्तमान हैं, जिनसे प्रागैतिहासिक कालमें दक्षिणभारतमें जैनधर्मका अस्तित्व सिद्ध होता है।
मदुरा और रामनदसे खुदाईमें ई० पू० ३०० के लगभगका प्राप्त शिलालेख इस बातको सिद्ध करता है कि जैनधर्म दक्षिण भारतमें ई० पू० ३०० से पहले उन्नत अवस्थामें था। यह ब्राह्मी लेख अशोक लिपिमें लिखा गया है, इसमें मधुराई, कुम त्तुर आदि कई शब्द तामिल भाषाके भी मिलते हैं । यद्यपि अब तक इस लेखका स्पष्ट वाचन नहीं हो सका है, किन्तु इसी प्रकारके अन्य लेख भी मारूगलतलाई, अनमैलिया, तिरूपरन्नकुरम् आदि स्थानोंमें मिले हैं; जिनके आस-पास तीर्थंकरोंकी भग्न मूर्तियाँ तथा जैन मन्दिरोंके ध्वंसावशेष भी प्राप्त हुए है, जिससे पुरातत्त्वज्ञोंका अनुमान है कि ये सभी लेख जैन हैं। अलगामलकी खुदाईमें प्राप्त जैन मूत्तियाँ भी इस बातकी साक्षी हैं कि दक्षिण भारतमें यह.धर्म ई० पू० ३०० के पहले एक कोनेसे दूसरे कोने तक फैल गया था जिससे कि जैन स्थापत्य और मूर्तिकला उन्नत अवस्था में थी।'
लंकाके राजा धातुसेन (४६१-४७९ ई०) के समयमें स्थविर महानाम द्वारा निर्मित महावंश नामक बौद्ध काव्यसे पता चलता है कि ई० पू० ५०० के पहले दक्षिण भारतमें जैनधर्मका पूर्ण प्रचार था । उस काव्यमें बताया गया है कि राजा पाण्डुगभ्यने अनुराधपुरमें अपनी राजधानी ई० पू० ४३७ में बसाई थी। इस नगरमें विभिन्न प्रकारके सुन्दर भवनोंका निर्माण कराया गया था। राजाने एक 'निग्गन्थ२ कुबन्ध' नामका सुन्दर जैन चैत्यालय बनवाया था तथा इस नगरमें ५०० विभिन्न धर्मानुयायियोंके बसनेका भी प्रबन्ध किया था। इस कथनसे स्पष्ट है कि जैनधर्म लंकामें ई० पू० ५०० के पहले विद्यमान था।
जैन प्रचारक यद्यपि लंकाको समुद्र मार्गसे गये थे, पर लौटते समय वे स्थल मार्ग द्वारा दक्षिणके रास्तेसे आये थे, यह बात तामिल और बौद्ध साहित्यसे स्पष्ट है । अतः लंकामें जैनधर्मके प्रचारके साथ-साथ दक्षिण भारतमें भी जैनधर्मका प्रचार ई० पू० ५०० के लगभग या इससे पहले हुआ होगा।
राजावली कथा एक प्रामाणिक ऐतिहासिक काव्य माना जाता है। इसमें बताया गया है कि विशाख मुनिने चोल और पाण्ड्य प्रान्तोंमें भ्रमण कर वहाँके जैन चैत्यालयोंकी वन्दना
1. See Madras Epigraphical Reports 1907, 1910, 2. See Studies in South Indian Jainism P. 33,
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति की थी तथा वहाँके निवासी श्रावकोंको जैनधर्मका उपदेश दिया था। इससे स्पष्ट है कि भद्रबाहु स्वामीके पहले भी जैनधर्म दक्षिणमें था, अन्यथा विशाखमुनिको जिनमन्दिर और जैन श्रावक कैसे मिलते ?
तामिल साहित्यके प्राचीन व्याकरण अगथियम' और उससे प्रभावित तौल्काप्यामके अध्ययनसे पता लगता है कि ये ग्रन्थ एक जैनाचार्य द्वारा रचे गये हैं । विद्वानोंने इनका रचनाकाल ई० पू० ४०० माना है। अतएव स्पष्ट है कि ई० पू० ४०० के लगभग दक्षिण भारतमें जैनधर्मका व्यापक प्रचार था। संगम कालीन तामिल काव्य 'मणिमेरवल' और 'सीलप्पड्डिकारम् से ज्ञात होता है कि इस युगमें जैनधर्म समुन्नत अवस्थामें था । 'संगम' युगके समय निर्धारणके सम्बन्धमें विद्वानोंमें मतभेद है। कुछ लोग ई० पू० २०० के पूर्वके समयका नाम संगम या प्राथमिक युग बतलाते हैं तथा कतिपय विद्वान् ई० पू० चोथी शताब्दीसे ई० दूसरी शताब्दी तकके काल समूहको । यदि इस विवादमें न भी पड़ा जाय तो भी इतना तो सुनिश्चित है कि भद्रबाहु स्वामीके दक्षिण पहुँचनेके पूर्व ही जैनधर्म वहाँ विद्यमान था।
कन्नड़ रामायणमें बताया गया है कि श्रीमुनिसुव्रत भगवान्के तीर्थंकर कालमें श्री रामचन्द्रजीने दक्षिण भारतकी यात्रा की थी, इस यात्रामें उन्होंने जैन मुनि और जैन चैत्यालयों की वन्दना की थी।
भागवत पुराणमें भगवान् ऋषभदेव के परिभ्रमणकी एक कथा आई है। उस कथामें बताया गया है कि जिस प्रकार कुम्हारका चाक स्वयं चलता है, उसी प्रकार भगवान् ऋषभदेवका शरीर कोंक, वेंकट इत्यादि दक्षिण कर्णाटकके प्रदेशोंमें गया। कुटक पहाड़से सटे हुए जंगलमें उन्होंने नग्न होकर वहाँ तपस्या की। अचानक जंगल दवाग्निसे भस्म हो गया और कोंक, वेंकट और कुटकके राजाओंने ऋषभदेवके धर्म मार्गको ग्रहण किया। इससे स्पष्ट है कि कुटक ग्राम, हटेंगडि, कोंक आदि दक्षिण भारत के प्रदेशोंमें जैनधर्मका प्रचार प्राचीन कालमें ही था । उपर्युक्त स्थानोंमें हटेगडि आज भी जैनियोंका पवित्र क्षेत्र माना जाता है।
विष्णुपुराणमें कहा गया है कि नाभि और मेरुके पुत्र ऋषभने बड़ी योग्यता और बुद्धिमानीसे शासन किया तथा अपने काल में अनेक यज्ञ किये । चतुर्थावस्थामें वह अपना राजपाट अपने बड़े पुत्र भरतको सौंप कर सन्यासी हो गये और दक्षिण भारतमें स्थित पुलस्त्य ऋषिके आश्रममें निवास किया। इससे स्पष्ट है कि प्रथम तीर्थंकर दक्षिणमें गये थे।
हिन्दू पुराणोंमें एक संवाद आता है, जिसमें बताया गया है कि देव और असुरोंके युद्धके बीच जैनधर्मका उपदेश विष्णुने दिया था-"बृहस्पतिसाहाय्यार्थं विष्णुना मायामोहसमुत्पादनम् दिगम्बरेण मायामोहेन दैत्यान् प्रति जैनधर्मोपदेशः, दानवानां मायामोहमोहितानां गुरुणा दिगम्बर जैनधर्मदीक्षादानम्" । अर्थात् देव-मन्त्री बृहस्पतिकी सहायताके लिये विष्णु 1. See Jaina Gazette, Vol. XIX, P. 75 2. Buddhistic Studies, PP. 3, 68. ३. जैनसिद्धान्त-भास्कर भाग १० किरण १ तथा भाग ६ पृ० १०२ । ४. विष्णुपुराण अध्याय १७, मत्स्यपुराण अ० २४, पद्मपुराण अध्याय १ और देवीभागवत
स्कन्ध ४, अ० १३
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयक। अवदान भगवान्ने मोहमाया नामक एक दिगम्बर साधुको उत्पन्न किया और दैत्योंको जैनधर्मका उपदेश उससे दिलाया, जिससे दानव दि० जैनधर्म में दीक्षित हो गये । इस संवादमें एक रहस्य यह छिपा प्रतीत होता है कि विष्णुने दिगम्बर जैन मुनि का अवतार लेकर असुरोंको दीक्षा दो । यहाँ यह मान लिया जाय कि असुर जिनका यहाँ वर्णन किया गया है, वे वही लोग पे जो यहाँके आदिम निवासी थे और दक्षिण भारतके किनारेके प्रदेशोंमें रहते थे । ये आदिम निवासी सभ्य, संस्कृत और स्वतन्त्र थे, दास नहीं। इन्होंने आर्योंके आनेके पूर्व भारतको अपने अधिकारमें कर लिया था; तो इससे स्पष्ट है कि जैनधर्मका केन्द्र उस समय नर्मदा नदीके तटपर स्थित था जो कि आज भी तीर्थ स्थानके समान पूज्य है ।
उपर्युक्त कथनका समर्थन काठियावाड़में प्राप्त एक ताम्रपत्रसे भी होता है । यह ताम्रपत्र महाराज नेबूचदनेज्जर प्रथम अथवा द्वितीय (ई० पू. ११४० या ई० पू० ६००) का है। प्रो० प्राणनाथने इसका वाचन करते हुए बताया था कि यह महाराजा विवलोनियाका निवासी था, वहाँसे यह द्वारिका आया था; यहाँपर इसने एक मन्दिर बनवाया और इस मन्दिरको नेमि या अरिष्टनेमिको अर्पण किया। नेमि उस समय रैवत गिरि (गिरनार) के देव थे । इससे स्पष्ट है कि नेमि या अरिष्टनेमि जो कि जैन तीर्थङ्कर हैं, के प्रति नेबूकी बड़ी भारी श्रद्धा और भक्ति थी। इस ताम्रपत्र में प्रतिपादित नेबू राजाको रेवानगरका स्वामी भी बताया है, संभवतः यह नगर सिद्धवर कूटके निकटका एक स्थान होगा, जो कि दक्षिण भारतमें रेवा नदीके तटपर स्थित है।
दक्षिण भारतमें जैन धर्मकी प्राचीनताके जैन साहित्यमें अनेक प्रमाण हैं । निर्वाणकाण्डको निम्न गाथामें बताया है
__ पण्डुसुआतिण्णिजणा दविडरिंदाण अट्रकोडिओ।
सेतुंजय गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसि ।। अभिप्राय यह है कि पल्लवदेशमें विराजमान भगवान् अरिष्टनेमिके निकट पाण्डवोंने जिनदीक्षा ग्रहण की थी; इनके साथ दक्षिण देशके और भी कई राजाओंने मुनिव्रत धारण किया था; जो कि पाण्डवोंके साथ तपकर शत्रुजयगिरिसे मुक्त हुए थे।
महापुराणमें बताया गया है कि जब कल्पवृक्ष लुप्त हो गये और कर्म भूमिका आरम्भ हो गया तो अन्तिम कुलकर नाभि राजाके पास प्रजा आयी। उन्होंने उसे भगवान् ऋषभनाथके पास भेज दिया। प्रजाने भगवान् ऋषभनाथसे प्रश्न किया-भगवन् ! कृपाकर आजीविकाका उपाय बतलाइये, जिससे हमलोग सुखपूर्वक रह सकें। भगवान्ने प्रजाको षट्कर्मोंका उपदेश दिया। उनके स्मरणमात्रसे इन्द्र अनेक देवोंके साथ आ उपस्थित हुआ और उसने संकेतमात्रसे ही नगर, गाँव, देश और प्रान्तोंका वर्गीकरण कर दिया। तथा वहाँ जिन चैत्यालय, जिनबिम्ब एवं अन्य जैन संस्कृतिके चिन्होंको प्रकट किया। बनाये गये देशोंकी संख्या ५२ बतायी गयी है; जिसमें दक्षिण भारतके अनेक बड़े-बड़े नगर शामिल हैं१. See Indian Culture April 1938. P. 515, and Times of India, 19th
March 1935, P.9. २. देखें-संक्षिप्त जैन इतिहास भा० ३ खं० १ पृ० ११४ । ३. जिनसेनाचार्य विरचित महापुराण पर्व १६ श्लो० १३०-१६५ ।
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जैन तीर्थ इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
करहाटमहाराष्ट्रसुराष्ट्राभीरकोंकणाः । वनवासान्ध्रकर्णाटकोशलाश्चोलकेरलाः ॥ दार्वाभिसारसौवीर शूरसेनापरान्तकाः । विदेह सिन्धुगान्धारपवनाश्चेदिपल्लवाः ॥ कांवोजा रट्ट बाल्हीकतुरुष्कशक केकयाः ।
महापुराण में भरत चक्रवर्तीकी विजयका वर्णन करते हुए दक्षिण दिशाके राजाओंपर की गयी विजयके निरूपणमें बताया है कि
चोलिकान्नालिकप्रायान्प्रायशोऽनृजुचेष्टितान् । केरलान्सरलालापान्कलगोष्ठीषु
चंचुरान् ॥ पाण्ड्यान्प्रचंड दोर्दण्डान् खण्डितारातिमण्डलान् ।
इससे स्पष्ट है कि भरत चक्रवर्तीने चोल, पाण्ड्य, केरल आदि राजाओंको हराकर वहाँ जैनधर्मका प्रचार किया था । प्रत्येक नरेश उस युगमें पराजित देशोंमें अपने धर्मका प्रचार करता था । दूसरी बात यह है कि भगवान् ऋषभदेवके संकेतसे जब इन्द्रने प्रान्तों और देशों का वर्गीकरण किया था, उस समय जैन चैत्यालयोंका निर्माण भी हुआ था, अतः उत्तरके समान दक्षिण में भी भरत चक्रवर्तीने जैन चैत्यालयोंकी वन्दना करते हुए विजय प्राप्त की थी ।
पोदनपुर में दक्षिण भारतके प्रथम जैन सम्राट् बाहुबली स्वामीकी राजधानी बतायी गयी है, यह स्थान आज भी दक्षिण भारत में स्थित है । इसी प्रकार जैन साहित्यमें पोलासपुर, मदुरा, भद्दिल आदि नगरोंके नाम मिलते हैं । इन नगरोंमें भगवान् ऋषभदेवके समयमें ही जैन धर्मका प्रचार बताया गया है ।
दाक्षिणात्य मथुरा - मदुरा नगर, को पाण्डवोंने बसाया था। कहा गया हैसुतास्तु पाण्डोर्हरिचन्द्रशासनादकाण्ड एवाशनिपातनिष्ठुरात् । प्रगत्य दाक्षिण्यभृता सुदक्षिणां जनेन काष्ठां मथुरां न्यवेशयन् ॥
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जब द्वारिका नगरी नष्ट हो गयी और कृष्ण अपने भाई बलदेवके साथ दक्षिण मथुराको चले, रास्तेमें कौशाम्बीके जंगलमें जरतकुमारने बाण चलाया, जो कि श्रीकृष्णके पाँव में लगा; जिससे उनका आत्मा इस नश्वर शरीरको छोड़कर चला गया । जब पाण्डवों को यह दुःखद समाचार मिला तो वे बलदेवसे मिलनेके लिये कौशाम्बीके जंगलमें आये और उन्हें समझा बुझाकर यह तय किया कि नारायणके शवका संस्कार श्रृंगी गिरिपर कर दिया जाय ।
पाण्डव दक्षिणके पल्लव देशमें भगवान् नेमिनाथका विहार अवगत कर मदुराको लौट आये और भगवान् नेमिनाथके पास जाकर जैन - दीक्षा ग्रहण कर ली । पाण्डवोंके साथ और भी कई दक्षिणी राजाओंने जैन- दीक्षा ग्रहण की, अतएव यह स्पष्ट है कि भगवान् नेमिनाथने दक्षिणके देशों में विहार कर जैनधर्मका प्रचार किया था ।
अथ ते पाण्डवाश्चंडसंसारभयभीरवः । प्राप्य पल्लवदेशेषु विहरंतं जिनेश्वरम् ॥
१. हरिवंश पुराण सर्ग ४५ श्लो० ७३ ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
हरिवंश पुराणके एक अन्य कथानकसे ज्ञात होता है कि महाराज श्रीकृष्णका युद्ध जब जरासिन्धुके साथ हो रहा था तो दक्षिण भारतके कई राजा भी उनके पक्षमें थे। इसका कारण यह है कि मदुरामें पाण्डवोंका राज्य स्थापित हो जानेपर द्राविड़ राजाओंका सम्पर्क उत्तरके राजाओंके साथ घनिष्ठ होता जा रहा था। चेर, चोल, पाण्डय आदि वंशके राजाओंका इनके साथ धनिष्ठ सम्बन्ध था। इसलिये पाण्डवोंके साथ इन्होंने जिन-दीक्षा ग्रहण की थी।
___णायकुमार चरिउ' में कहा गया है कि भगवान् नेमिनाथके तीर्थकालमें कामदेव नागकुमार हुए थे। नागकुमारका मित्र मथुराका राजकुमार महाव्याल था। यह महाव्याल पाण्ड्य देश गया था और पाण्ड्य राजकुमारीको विवाह कर ले आया था। भगवान् पार्श्वनाथके समयमें करकण्डु नामका एक राजा हुआ है । उसने अपने राज्यका खब विस्तार कर एक दिन मंत्रीसे पूछा, हे मन्त्री ! क्या कोई ऐसा राजा है जो मुझे मस्तक न नमाता हो ? मंत्री ने उत्तर दिया-उत्तरके तो सभी राजा आपकी आधीनता स्वीकार कर चुके हैं, पर द्राविड़ देशके चेर, चोल और पाण्ड्य नरेश आपको नहीं मानते । राजाने उनके पास दूत भेजा, पर उन राजाओंने करकण्डुकी अधीनता नहीं स्वीकार की और यह कहकर दूतको वापस कर दिया कि हम जिनेन्द्र भगवान्को छोड़ और किसीको सिर नहीं झुका सकते। राजा करकण्डुको द्रविड़ राजाओंके उत्तरने अधिक उत्तेजित कर दिया; इससे उसने प्रतिज्ञा की कि जबतक इन राजाओंको वशमें न कर लूंगा, शान्तिसे राज्य नहीं करूंगा और इनको पददलित न करूं तो राज्य-पाट छोड़ दूंगा।
__ करकण्डुने सेना सजाकर युद्ध के लिये प्रस्थान कर दिया और रास्तेमें तेरापूर नगर में पहुँचा, यहाँ राजा शिवने उसे भेंट चढ़ाई तथा राजा शिवके परामर्शसे पासकी पहाड़ीकी गुफामें भगवान् पार्श्वनाथके दर्शन किये। उस पहाड़ी पर चमत्कारकी एक बात यह थी, एक हाथी प्रतिदिन उस पहाड़ी पर स्थित एक वामीकी पूजा करता था। राजा करकण्डुने उसकी पूजाको देखकर अनुमान लगाया कि निश्चित इस वामीके नीचे कोई देवमूत्ति है, अन्यथा यह पशु पूजा नहीं करता, अतः उस वामीको खुदवाया। खुदाईमें नीचे भगवान् पार्श्वनाथको एक मूर्ति निकली जिसे वह बड़ी भक्ति और श्रद्धाके साथ गुफामें ले आया। इसके पश्चात् वह राजा इधर-उधर भ्रमण करता हुआ दक्षिण पहुँचा तथा चेर, चोल और पाण्ड्य नरेशोंकी सम्मिलित सेनाओंका सामना किया तथा अपने युद्ध कौशलसे उन्हें हराकर अपना प्रण पूरा किया। जब करकण्डु राजा उन पराजित राजाओंके सिरके ऊपर पैर रखने लगा तो उनके मुकुटोंमें स्थित जिन प्रतिमाओंके दर्शन उसे हुए; जिससे उसे भारी पश्चात्ताप हुआ। उन्हें उसने फिर राज्य देना चाहा, पर वे स्वाभिमानी द्रविड़ाधिपति यह कर तपस्याको चले गये कि अब हमारे पुत्र-पौत्रादि ही राज्यको चलायेंगे ।
जम्बू स्वामी चरित्रसे भी अवगत होता है कि विद्युच्चर नामका चोर जम्बू कुमारके प्रभावके कारण चोरीसे विरक्त हो गया था और यह भ्रमण करता हुआ समुद्रके निकट स्थित
१. संक्षिप्त जैन इतिहास भाग ३ खं० १ पृ० ११४ । २. हा हा मइं मूढई किं कियउ, जिंण बिंचु विचरणे आहयउ ।
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जैन तीर्थ, इतिहास,कला, संस्कृति एवं राजनीति
मलयाचल पर्वत पर पहुँचा। यहाँसे वह सिंहलद्वीप गया, लौटते समय वह केरल आया था। द्रविड़ देशको उसने जैन मन्दिरों और जैन श्रावकोंसे पूर्ण देखा। अनन्तर वह कर्णाटक, काम्बोज, कांचीपुर, सह्यपर्वत, आभीर आदि देशोंमें भ्रमण करता हुआ किष्किन्धापुरमें आया । इस भ्रमण वृत्तान्तसे स्पष्ट है कि भद्रबाहु स्वामीके जानेके पहले दक्षिण प्रान्तमें जैनधर्म फल-फूल रहा था। यदि वहाँ जैनधर्म उन्नत अवस्थामें नहीं होता तो यह विशाल मुनिसंघ, जिसकी कि आजीविका जैन धर्मानुयायी श्रावकों पर ही आश्रित थी, विपत्तिके समय कभी भी दक्षिणको नहीं जाता । बुद्धि इस बातको कभी स्वीकार नहीं करती है कि भद्रबाहु स्वामी इतनी अधिक मुनियोंकी संख्याको बिना श्रावकोंके कैसे ले जानेका साहस कर सकते थे ? अतः श्रावक वहाँ विपुल परिमाणमें अवश्य पहलेसे वर्तमान थे। इसीलिये भद्रबाहु स्वामीने अपने विशाल संघको दक्षिण भारतकी ओर ले जानेका साहस किया।
___ भद्रबाहु स्वामीकी इस यात्राने दक्षिणभारतमें जैनधर्मके फलने और फूलनेका सुअवसर प्रदान किया। बौद्धोंकी जातक कथाओं और मेगास्थनीजके भ्रमणवृत्तान्तोंसे अवगत होता है कि उत्तरमें १२ वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा था और चन्द्र गुप्त मौर्य भी अपने पुत्र सिंहसेनको राजगद्दी देकर भद्रबाहुके साथ दक्षिणमें आत्मशोधनके लिये चला गया था। चन्द्रगिरि पर्वतपर चंद्रगुप्तकी द्वादश वर्षीय तपस्याका वर्णन मिलता है। भद्रबाहु स्वामीने अपनी आसन्न मृत्यु ज्ञातकर मार्ग में ही कहीं समाधिमरण धारण किया था। इनका मृत्युकाल दिगम्बर परम्परानुसार वीर नि० सं० १६२ और श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा वी० नि० १७० माना जाता है।
दक्षिणमें पहुंचकर इस संघने वहाँ जैनधर्मका खूब प्रसार किया तथा जैन साहित्यका निर्माण भी विपुल परिमाणमें हुआ। इस धर्मके प्रचार और प्रसारकी दृष्टिसे दक्षिणभारतको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है तामिल प्रान्त और कर्णाटक । तामिल प्रदेशमें चोल और पाण्ड्य नरेशोंमें जैनधर्म पहलेसे ही वर्तमान था, पर अब उनकी श्रद्धा और भी दृढ़ हो गयी तथा इन राजाओंने इस धर्मके प्रसारमें बड़ा सहयोग प्रदान किया। सम्राट एल खारवेलके एक शिलालेखसे पता चलता है कि उसके राज्याभिषेकके अवसर पर पाण्ड्य राजाओंने कई जहाज उपहार भेजे थे। ये सभी राजा जैन थे इसीलिये जैन सम्राटके अभिषेक के अवसर पर उन्होंने उपहार भेजे थे। इनकी राजधानी मदुरा जैनोंका प्रमुख प्रचार केन्द्र बन गयी थो। तामिल ग्रन्थ 'नालिदियर' के सम्बन्धमें किंवदन्ती है कि भद्रबाहु स्वामीके विशाल संघके आठ सहस्र जैन साधु पाण्ड्य देश गये थे, जब वे वहाँसे वापस आने लगे तो पाण्डय नरेशोंने उन्हें आने से रोका। एक दिन रातको चुपचाप इन साधुओंने राजधानी छोड़ दी; पर चलते समय प्रत्येक साधुने एक-एक ताड़पत्र पर एक-एक पद्य लिखकर रख दिया; इन्हीं पद्योंका संग्रह 'नालिदियर' कहलाता है ।
___ तामिल साहित्यका वेद कुरलकाव्य माना जाता है, इसके रचयिता आचार्य कुन्दकुन्द हैं। इन्होंने असाम्प्रदायिक दृष्टिकोणसे इसे लिखा है, जिससे यह काव्य मानवमात्रके लिये अपने विकासमें सहायक है। जैनोंके तिरुकुरुल, नाल दियर, पछिमोछी, नानुछी, चिंतामणि, सीलप्पडिकारम्, वलणप्पदि आदि तामिल भाषाके काव्य विशेष सुन्दर माने जाते हैं।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान इनके अतिरिक्त पेरकदै, यशोधरकाव्य, चूड़ामणि, एलादी, कलिंगतुप्परणी, नन्नूल, नेमिनाद, यप्पांरु, श्रीपुराण, मरुमंदर पुराणं आदि तामिल ग्रंथ भी कम प्रशंसा के योग्य नहीं। यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि व्याकरण, छन्द, अलंकार, दर्शन और जैनागम प्रभृति विभिन्न विषयोंके उत्तमोत्तम ग्रंथ लिखकर तामिल वाङ्मयको समृद्धिशाली और उत्कृष्ट स्थितिमें लानेका श्रेय जैनाचार्योको ही है। जैनाचार्य पूज्यपादके शिष्य व्रजनन्दिने पाण्ड्योंकी राजधानी मदुरामें एक विशाल जैन संघकी स्थापना की थी। इस संघ द्वारा तामिल प्रांतमें जैनधर्म का खूब प्रचार हुआ। आचार्य कुंदकुंदने पोन्नूरग्रामके निकट नीलगिरि नामक पर्वत पर तपस्या की थी, इनके आश्रम में आकर पल्लव वंशी शिवस्कन्दवर्म महाराजने प्राभृत त्रयका अध्ययन किया था। '
तामिल देशके इतिहासमें जैनधर्मका ई० तीसरी और चौथी शताब्दीमें कम प्रभाव दिखाई पड़ता है । पांचवीं और छठीं सदीमें शवधर्मका बड़ा भारी जोर रहा है, फिर भी जैनोंकी तात्कालीन परिस्थितिका चित्रण वैष्णव और शैवपुराणोंमें मिल जाता है। सातवीं शताब्दीसे लेकर ११वीं शताब्दीतक शवधर्म के समानान्तर जैनधर्म भी चलता रहा । गंगवाडिके गंगवंशीय राजाओंने इस धर्मको विशेष प्रोत्साहन दिया, जिससे विधर्मियोंके द्वारा नाना प्रकारके अत्याचारोंके होनेपर इसकी क्षीण रेखा ११ वीं सदीके अन्ततक दिखलाई पड़ती रही।
अनेक विदेशी विद्वानोंने अपने-अपने इतिहासमें तामिल प्रांतकी जैनधर्मको उन्नतिका वर्णन किया है। विशप काल्डवेलका कहना है कि जैनोंकी उन्नतिका युग ही तामिल साहित्यको उन्नतिका महायुग है । इन्होंने तामिल, कनड़ी और दूसरी लोकभाषाओंका प्रचार किया, जिससे वे जनताके सम्पर्क में अधिक आये । सरवाल्टर इलियटके मतानसार दक्षिणकी कला और कारीगरीपर जैनोंका अमिट प्रभाव है । तामिल प्रदेशमें जैनोंके द्वारा ही अहिंसाका विशेष प्रचार हुआ, जिससे जनताने मद्य, मांस और मधु भक्षणका भी त्याग कर दिया था। ब्राह्मणोंपर जैनोंकी अहिंसाका इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि यज्ञोंमें भी हिंसा बन्द हो गई । जीव हिंसा-रहित यज्ञ किये जाने लगे। कुछ विद्वानोंका अभिमत है कि विग्रहाराधना, पुराणपुरुषोंकी पूजा, गणपति पूजा, देवस्थान-निर्माण-प्रथा और जीर्णोद्धार-क्रिया प्रभृति बातें शैव और वैष्णव मतोंमें जैन सम्प्रदायकी देखादेखी प्रचलित हुई। अतएव तामिल देशमें ई० पू० ३००से लेकर ई० ११०० तक जैनधर्मका खूब प्रचार हुआ, किंतु इसके अनन्तर शैव और वैष्णवोंके धर्मद्वेषके कारण प्रभावहीन हो गया।
___ कर्णाटक-इस प्रांतमें जैन धर्मका विस्तार बहुत हुआ; वहाँकी राजनीति, धर्म, संस्कृति, साहित्य, कला, विज्ञान, व्यापार प्रभृति सभी बातें जैनधर्मसे अनुप्राणित थीं। अनेक जैन राजाओंके साथ-साथ ऐसे निष्णात विद्वान्, कवि, कलाकार और प्रभावक गुरु हुए, जिनका प्रभाव दक्षिण प्रांतकी कर्णाटक भूमिके कण-कणपर विद्यमान था। सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक सभी मामलोंमें जैनाचार्योंका पूरा-पूरा हाथ था, उनकी सम्मति और निर्णयके उपरान्त ही किसी भी सांस्कृतिक कार्यका प्रारम्भ होता था । भद्रबाहु स्वामीके संघके पहुंचनेके पहले भी यहाँ जैन गुरुओंको सम्मान्य स्थान प्राप्त था। मौर्य साम्राज्यके बाद इस प्रांतमें आन्ध्रवंशका शासन स्थापित हुआ, इस वंशके सभी राजा जैनधर्मके उन्नायक रहे हैं । इनके शासन-कालमें सर्वत्र जैनधर्मका अभ्युदय था। इसके पश्चात् उत्तर-पूर्वमें पल्लव और उत्तर
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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पश्चिममें कदम्ब वंशके राज्य इस प्रांत में स्थापित हुए । कदम्ब वंशके अनेक शिलालेख उपलब्ध हैं, जिनमें इस वंशके राजाओं द्वारा जैनोंको दान देनेका उल्लेख है । इस वंशका धर्म जैन था । कदम्बवंशके समान चालुक्य वंशके राजा भी जैनधर्मानुयायी थे । पल्लव वंशके राजाओं के जैन होनेके सम्बन्ध में ऐतिहासिक उल्लेख नहीं मिलता है पर भगवान् नेमिनामका विहार पल्लव देशमें होनेसे तथा उस समयके समस्त दक्षिणके वातावरणको जैनधर्मसे अनुप्राणित होनेके कारण प्राचीन पल्लव वंश भी जैनधर्मका अनुयायी रहा होगा । चालुक्य नरेशोंने अनेक नवीन जैन मन्दिर बनवाये तथा उन्होंने अनेक मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराया था । कन्नड़के प्रसिद्ध जैन कवि पम्पका भी सम्मान इस वंशके राजाओं द्वारा हुआ था ।
गंगवंश-कर्णाटक प्रांतमें जैनधर्मके प्रसारकोंमें इस वंशके राजाओंका प्रमुख हाथ है । इतिहास बतलाता है कि दक्षिण भारतीय गंगराजाओंके पूर्वज गंगानद- प्रदेशवासी इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय थे। इनकी सन्तान परम्परामें दडिग और माधव नामके दो शूरवीर व्यक्ति उत्पन्न हुए, जिन्होंने पेरूर नामक स्थानपर जाकर आचार्य सिंहनन्दीका शिष्यत्व ग्रहण किया । उस समय पेरूर जैन संस्कृतिका प्रमुख केन्द्र था, यहाँ पर जैन मन्दिर और जैन संघ विद्यमान था । आचार्यने इन दोनोंको राजनीति और धर्मशास्त्रकी शिक्षा देकर पूर्ण निष्णात बना दिया तथा पद्मावतीदेवीसे उनके लिए वरदान प्राप्त किया । आचार्यकी शिक्षा और वरदानके प्रभावसे इन दोनों वीरोंने अपना राज्य स्थापित कर लिया तथा कुवलालमें राजधानी स्थापित कर गंगवाडी प्रदेशपर शासन किया। गंगराजाओंका राजचिह्न मदगजेन्द्र लाञ्छन और उनकी ध्वजा पिच्छ चिन्ह अंकित थी । उस समय जैनधर्म राष्ट्रधर्म था, और इसके गुरु केवल धार्मिक ही गुरु नहीं थे, बल्कि राजनैतिक गुरु भी थे ।
दगिने जैनधर्मके प्रसारके लिये मंडलि नामक स्थानपर एक लकड़ीका भव्य जिनालय निर्माण कराया, जो शिल्पकलाका एक सुन्दर नमूना था । क्योंकि उस युग के मन्दिर केवल दर्शकों को भक्ति पिपासाको ही शान्त नहीं करते थे, बल्कि धर्म, साहित्य, संस्कृति के प्रचार के प्रमुख केन्द्र स्थान भी माने जाते थे । गंगराजाओंमें अवनीतके गुरु जैनमुनि कीर्तिदेव और दुर्विनीतके आचार्य पूज्यपाद थे । इस वंशका एक राजा मारसिंह द्वितीय था, यह इतना पराक्रमी और साहसी था कि इसने चेर, चोल और पाण्ड्य वंशोंपर विजय प्राप्त कर ली थी । जीवनके अन्तिम समय में इसे संसारसे विरक्ति हो गई थी, जिससे इसने विपुल ऐश्वर्य के साथ राज्यपद त्याग दिया और धारबार प्रान्त के बांकापुर नामक स्थानमें अपने गुरु अजितसेनाचार्य के सम्मुख समाधिपूर्वक प्राणत्याग किया था ।
गंगवंशके २१ वें राजा राचमल्ल सत्यवाक्यके शासन कालमें उसके मंत्री और कवि प्रतिष्ठा कराई थी । वैरीकुलकालदण्ड, सत्य
चामुण्डरायने श्रवणबेलगोल स्थान में श्रीगोमट्टेश्वरकी विशाल प्रतिमाकी चामुण्डरायकी वीरमार्त्तण्ड, चूड़ामणि, समरधुरन्धर, त्रिभुवन वीर, युधिष्ठिर अनेक उपाधियाँ थी । मन्त्रि प्रवर चामुण्डराय जैनधर्मके बड़े भारी उपासक थे, इन्होंने अपना गुरु आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त - चक्रवर्तीको माना है । वीरताके साथ विद्वत्ता भी इनमें पूरी थी, संस्कृत और कन्नड़ दोनों ही भाषाओंपर पूर्ण अधिकार था । चारित्रसार संस्कृत भाषामें रचा गया इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है, कन्नडमें इन्होंने त्रिषष्ठि लक्षण महापुराण
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ रचा है । चामुण्डरायने जैनधर्मकी उन्नति के लिये अनेक कार्य किये हैं । इस प्रकार गंगवंशके सभी राजाओंने मन्दिर बनवाये, मन्दिरोंके प्रबन्धके लिये भूमि दान की और जैन गुरुओं को सम्मान देकर साहित्य और कलाका सृजन कराया । दुर्विनीत, नामकर्म, गुणवर्म प्रथम चामुण्डराय इत्यादि अनेक उल्लेखनीय जैन कलाकार गंगवंश के राज्यकालमें हुए हैं ।
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गंगवंशकालीन जैन साहित्य और कला - गंगराज्यकाल में संस्कृत और प्राकृत भाषा साहित्यकी विशेष उन्नति हुई । अशोकके शासन-लेखों और सातवाहन एवं कदम्ब राजाओं के सिक्कोंपर अंकित लेखोंसे प्रकट है कि इस युगमें प्राकृत भाषाका व्यवहार संस्कृतके साथ-साथ ब्राह्मण और जैन दोनों ही विद्वान् करते थे । ७वीं और ८वीं शतीमें गंगवाडिमें अधिक संख्या में आकर जैन बस गये थे, तब वहाँ संस्कृत साहित्यकी पवित्र मन्दाकिनी प्रवाहित हुई, जिसकी कल-कल ध्वनिसे अष्टशती, आप्तमीमांसा, पद्मपुराण, उत्तरपुराण, कल्याण कारक प्रभृति रचनाएँ प्रस्फुटित हुईं।
संस्कृत और प्राकृत के साहित्य के साथ-साथ कन्नड़ भाषाका साहित्य भी उन्नतिकी ओर अग्रसर हो रहा था; प्राचीन कन्नड़, जो कि साहित्यिक भाषा थी, उसका स्थान नवीन कन्नड़ने ले लिया था । इसमें पूज्यपाद समन्तभद्र जैसे युग प्रवर्त्तक प्रसिद्ध आचार्योंने भी साहित्यका निर्माण किया । इस युग में कुछ ऐसे कवि भी हुए हैं, जो तीनों भाषाओंके - संस्कृत, प्राकृत और कन्नड़के विद्वान् थे । गुणवर्मने गंगराजा ऐरेयप्प के समय में 'हरिवंश' की रचना की थी । इन्हीं के समकालीन कवि पम्प बहुत प्रसिद्ध कवि हुए हैं, इन्हें कविता गुणार्णव, पूर्णकवि, सज्जनोत्तम आदि विशेषणोंसे सम्बोधित किया गया है। इस महाकविने लोककल्याणकी भावना से प्रेरित होकर आदिपुराण, विक्रमार्जुन विजय लघुपुराण, पार्श्वनाथपुराणं और परमार्ग नामक ग्रन्थों की रचना की है ।
पम्प के समकालीन महाकवि पोन्न और रन्न भी हैं । इन दोनों कवियोंने भी कन्नड़ साहित्यको श्रीवृद्धिमें अपूर्व योग दिया है । पोन्नका शान्तिनाथपुराण और रत्नका अजितनाथ - पुराण कन्नड़ साहित्य के रत्न हैं । इनके अतिरिक्त आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने उभय भाषाओं में ग्रंथ रचना की है ।
कला - गंगवाडिमें स्थापत्य और शिल्पकलाकी विशेष उन्नति हुई थी । उस समय समस्त दक्षिण भारत में दर्शनीय भव्य मंदिर, दिव्य मूर्तियाँ, सुन्दर स्तम्भ प्रभृति मूल्यवान् विशाल कृतियाँ स्थापित हुईं। गंगवाडिकी जैनकला बिल्कुल भिन्न रही । गंगवंशके समस्त राजाओं ने जिनालयों का निर्माण कराया था। मंदिरोंकी दीवाल और छतोंपर कहीं-कहीं नक्कासी और पच्चीकारीका कान भी किया गया था । कोई-कोई मंदिर दो मंजिलके भी थे और चारों ओर दरवाजे रहते थे । पाषाणके सिवा लकड़ीके जिनालय भी बनवाये गये थे । इस युग में मूर्ति निर्माण कलामें भी जैन लोग बहुत आगे बढ़े- चढ़े थे; प्रसिद्ध बाहुबली स्वामीकी मूर्ति इसका ज्वलन्त निदर्शन है । यह मूर्ति आज भी दुनियाकी आश्चर्यजनक वस्तुओंमेंसे एक है ।
मंदिरोंके अतिरिक्त गंगराजाओंने मण्डप और स्तम्भोंका भी निर्माण कराया था । जैन मण्डप पाँच स्तम्भके होते थे, चारों कोनोंपर स्तम्भ लगानेके अतिरिक्त बीचमें भी स्तम्भ लगाया जाता था और इस बीच वाले स्तम्भको विशेषता यह थी कि वह ऊपर छतमें इस
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
९९ प्रकार फिट किया जाता था जिससे तली मेंसे रूमाल आर-पार हो सकता था । ये स्तम्भ मानस्तम्भ और ब्रह्मदेव स्तम्भ, इन दो भेदोंमें विभक्त थे ।
ई० स० १००४ में जब गंगनरेशोंकी राजधानी तलकादको चोल राजाओंने जीत लिया तो फिर इस वंशका प्रताप क्षीण हो गया । इसके पश्चात् दक्षिण भारतमें होय्सल वंशका राज्य प्रतिष्ठित हुआ । इस वंशकी उन्नति भी जैन गुरुओं की कृपासे हुई थी। इस वंशका पूर्वज राजा सल था । कहा जाता है कि एक समय यह राजा अपनी कुलदेवी के मंदिर में सुदत्त नाम जैन साधुसे विद्या ग्रहण कर रहा था, इतनेमें वनसे निकलकर एक बाघ सलको मारनेके लिये झपटा। साधुने एक डण्डा सलको देकर कहा - 'पोप सल' - मारसल । सलने उस susसे बाघको मार डाला और इस घटनाको स्मरण रखनेके लिये उसने अपना नाम पोपसल रखा, आगे जाकर यही होय्सल हो गया । गंगवंशके समान इस वंशके राजा भी विट्टिमदेव तक जैन धर्मानुयायी रहे और जैनधर्मके प्रसारके लिये निरन्तर उद्योग करते रहे । जब रामानुजाचार्य के प्रभाव में आकर विट्टिमदेव वैष्णव हो गया, तो उसने अपना नाम विष्णुवर्द्धन रखा । इसकी पहली धर्मपत्नी शान्तलदेवी कट्टर जैनी थी। उसीके प्रभावके कारण इस राजाने जैनधर्म के अभ्युदय के लिए अनेक कार्य किये ।
विष्णुवर्द्धनका मंत्री गंगराज तो जैनधर्मका स्तम्भ था । श्रवणबेलगोलके शिलालेखों में कई शिलालेख उनकी दानवीरता और धार्मिकताकी दुहाई देते हैं । विष्णुवर्द्धनके उत्तराधिकारी नरसिंह प्रथमके मंत्री हुल्लासने भी इस धर्मको दक्षिण में फैलानेका प्रयत्न किया । वस्तुतः मैसूर प्रांतमें इन दोनों मंत्रियोंने तथा चामुण्डरायने जैनधर्म के प्रसारके लिये अनेक कार्य किये हैं ।
होय्सलके पश्चात् बड़े राजवंशोंमें राष्ट्रकूटका नाम आता है, इस वंशके प्रतापी राजाओं के आश्रयसे जैनधर्मका अच्छा अभ्युदय हुआ । मान्यखेट इनकी राजधानी थी, इस वंश में अनेक राजा जैनधर्मानुयायी हुए हैं और सभीने अपने-अपने शासन काल में जैनधर्मकी प्रभावना की है । अमोघवर्ष प्रथमका नाम दि० जैनधर्मकी उन्नति करने वालोंमें बड़े गौरव के साथ लिया जाता है । यह राजा दि० जैनधर्मका बड़ा भारी श्रद्धालु था, इसने अन्तिम अवस्थामें राज-पाट छोड़कर जिनदीक्षा अपने गुरु जिनसेनाचार्य से ले ली थी । अमोघवर्षने जिनसेनाचार्यके शिष्य गुणभद्राचार्यको भी प्रश्रय दिया था । सम्राट् अमोघवर्षने अपने उत्तराधिकारी कृष्णराज द्वितीय गुणभद्राचार्यको गुरुके लिये नियुक्त किया था । श्रवणबेलगोलकी पार्श्वनाथवसति शिलालेखसे प्रकट है कि सम्राट् कृष्णराजकी राजसभामें जैन गुरुओंका आगमन होता था तथा वह यथोचित सत्कार करते थे । इस वंश में उत्पन्न हुए चारों इन्द्र राजाओंने जैनधर्मको धारण किया था तथा उसके प्रचार और प्रसारके लिए अनेक यत्न भी किये थे । यद्यपि अन्तिम राजा इन्द्रको राज्यकी व्यवस्था करनेमें पूर्ण सफलता नही मिली थी, जिससे उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी ।
कलचुरि वंश के नरेशोंने तामिल देशपर चढ़ाई की थी और वहाँके राजाओंको परास्त करके अपना शासन स्थापित किया था। ये राजा जैनधर्मके अनुयायी थे, इनके पहुँचनेसे तामिल देश में जैनधर्मका प्रसार हुआ था। इस वंशके राजाओंका राष्ट्रकूट नरेशोंसे घनिष्ठ सम्बन्ध था, इनमें परस्पर वैवाहिक सम्बंध भी हुए थे ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
इन प्रधान राजवंशोंके अतिरिक्त नोलम्ब, सान्तार, चांगल्व, व्योङ्गल्व, पुन्नाट, सेनवार, सालुव, महाबलि, एलिनका रट्ट, शिलाहार, चेल्लकेतन, पश्चिमी चालुक्य प्रभृति राजवंशोंके अनेक राजा जैनधर्मानुयायी थे। इन वंशोंके जो राजा जैनधर्मका पालन नहीं भी करते थे, उन्होंने भी जैनधर्मकी उन्नतिमें पूरा सहयोग प्रदान किया था। इस प्रकार कर्णाटकके सभी राजाओंने जैनधर्मका विस्तार किया ।
जेन कला और साहित्य-राष्ट्रकूट प्रभृति उपर्युक्त राजाओंके कालमें जैन साहित्य और कलाकी दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञात होता है कि जैन कला और जैन साहित्यका विकास इस समयमें बहुत हुआ है। राष्ट्रकूट और चालुक्य वंशोंके राज्यकालमें जैनधर्मके प्राबल्यने समस्त कर्णाटकको अहिंसामय बना दिया था; जिसके फलस्वरूप राष्ट्र खूब फला-फूला, देशमें सुख समृद्धिकी पुण्यधारा बही । फलतः मानव समाजके हृदयका आनन्द अपनी संकुचित सीमाको पारकर बाहर निकलने लगा, जिससे कला और साहित्यका प्रणयन अधिक हुआ। कला और साहित्य प्रेमी इन राजाओंके दरबारमें साहित्यिक ज्ञान गोष्ठियाँ होती थी, इन गोष्ठियोंमें होनेवाली चर्चाओंमें राजा लोग स्वयं भाग लेते थे । राष्ट्रकूट वंशके कई राजा कवि और विद्वान् थे, इससे इनकी सभामें कवि और विद्वान् उचित सम्मान पाते थे। धवला और जयधवला टीकाओंका सृजन राष्ट्रकूट वंशीय राजाओंके जैन साहित्य प्रेमका ज्वलन्त निदर्शन हैं । दर्शन, व्याकरण, काव्य, पुराण, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद प्रभृति विभिन्न विषयोंपर अनेक मौलिक रचनाएँ लिखी गईं।
इस कालके जैन कवियोंने दूतकाव्य और चम्पूकाव्यकी परम्परा प्रकट कर काव्यक्षेत्रमें शृंगार रसके स्थानपर शांतरसका समावेश किया । जिनसेनाचार्यका पार्वाभ्युदय, आदिपुराण, वर्द्धमानपुराण, पार्श्वस्तुति; सोमदेवाचार्यका यशस्तिलक चम्पू, नीतिवाक्यामृत; गुणभद्राचार्यका आत्मानुशासन, उत्तरपुराण, जिनदत्त चरित्र; वादिराजका यशोधरचरित, पार्श्वनाथचरित, एकीभावस्तोत्र, कुकुत्स्थचरित, न्यायविनिश्चय विवरण और वादमंजरी; महावीराचार्यका गणितसार संग्रह; शाकटानाचार्यका शाकटायन व्याकरण तथा उसकी टीका अमोघवृत्ति प्रभृति संस्कृत जैन रचनाएँ उल्लेखनीय है । अपभ्रंश भाषामें कवि पुष्पदन्तका महापुराण, जसहर चरिउ; णायकुमार चरिउ; कवि धवलका हरिवंश पुराण, कवि स्वयंभूका हरिवंशपुराण, पउम चरिय, देवसेनका सावयधम्म दोहा और अभयदेव सूरिका जयतिहुयण स्तोत्र इत्यादि ग्रन्थ भी जैन साहित्यकी अमूल्य निधि हैं । ग्रन्थोंके अतिरिक्त कन्नड़ भाषामें भी काव्य, पुराण, नाटक, वैद्यक, ज्योतिष, नीति प्रभति विभिन्न विषयोंपर अनेक ग्रन्थ लिखे गये थे ।
साहित्यकी उन्नति के साथ जैनोंने कलाके क्षेत्रमें भी प्रगति की थी । राष्ट्र कूट, चालुक्य, कदम्ब, होयसल इत्यादि वंशके राजाओंने अनेक जैन मंदिर और जैन मूत्तियोंका निर्माण कराया था । यद्यपि जैनोंने अपनी कलाको शांतरससे ओत-प्रोत रखा था तथा अपने धार्मिक सिद्धांतोंके अनुसार मूत्ति और मंदिरोंपर वीतरागताकी ही भावनाएं अंकित की थी, फिर भी सर्वसाधारणके लिये आकर्षण कम नहीं था। अमरेश्वरम्में एक मन्दिरको छतमें संग्रामके दृश्यसे अंकित एक पत्थर लगा है, जिसमें किला बना हुआ है, धनुषबाण चल रहे हैं। नगर और कोटका ऐसा सजीव अंकन किया गया है, जो दर्शकोंके ध्यानको अपनी ओर आकृष्ट किये बिना नहीं रह सकता। श्रवणगुडीमें एक जैनमठके पास खड़े हुए पाषाणोंमें एक घुड़सवार अपने भालेसे एक
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१०१ पियादेके तलवार बारको रोकता हुआ दिखलाया गया है। कई चित्र तो शांतिके मूत्तिमान प्रतीक हैं।
ऐहीले और इलोराके जैनमंदिरोंके मानसम्भ भी मिलते हैं। जैन मानस्तम्भोंके विषयमें विलहौस सा० ने लिखा है :
"The whole capital and canopy of Jain pillors are a wonder of light, clegant, highly decorated stone work; and nothing can surpass the stately grace of these beautiful Pillors, whose proportions and adaptations to surrounding scenery are always Perfect, and whose richness of decoration never offends."
अर्थात् जैन स्तम्भोंकी आधार शिला तथा शिखर बारीक, सुन्दर और समलंकृत शिल्पचातुर्यको आश्चर्यजनक वस्तु हैं। इन सुन्दर स्तम्भोंकी दिव्य प्रभासे कोई भी वस्तु समानता नहीं कर सकती । ये प्राकृतिक सौंदर्य के अनुरूप ही बनाये गये हैं । नक्कासी और महत्ता इनकी सर्वप्रिय है।
___कलापरिपूर्ण मंदिर और मूत्तियोंकी प्रशंसा भी अनेक विद्वानोंने मुक्त कण्ठसे की है। इस तरह जैनधर्म दक्षिण भारतमें अपना प्रभुत्व १३ वीं सदी तक स्थापित किये रहा । शंकराचार्य, शैवानुयायी राजा एवं अन्य धार्मिक विद्वेषोंके भयंकर झोंके लगने पर भी इस धर्मका दीपक आज भी दक्षिणमें टिमटिमा
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जैन इतिहासकी प्राचीर पर कुछ भूले-बिसरे प्रसंग
सुहोनिया या सुधीनपुर प्राचीन भारत में सुहोनिया जैन संस्कृतिका केन्द्र रहा है । यह ग्वालियरसे २४ मील उत्तरकी ओर तथा कुतवरसे १४ मील उत्तर-पूर्व अहसिन नदीके उत्तरी तटपर स्थित है । कहा जाता है कि पहले यह नगर १२ कोसके विस्तारमें था और इसके चार फाटक थे। यहाँसे एक कोसकी दूरीपर विलौनी नामक गाँव में दो खम्भे अभी तक खड़े मिलते हैं; पश्चिममें एक कोस दूरपर वौरीपुरा नामक गाँवमें एक दरवाजेका अंश अभी तक वर्तमान है । दो कोस पूर्व पुरवासमें और दो कोस दक्षिण बाढ़ामें अभी तक दरवाजोंके ध्वंसावशेष स्थित हैं। इन सीमा बिन्दुओंकी दूरी नापनेपर सुहोनियाका प्राचीन विस्तार बिल्कुल ठीक मालूम होता है ।
ग्वालियरके संस्थापक सूरजसेनके पूर्वजों द्वारा आजसे दो हजार वर्ष पूर्व इस नगरका निर्माण किया गया था। कहते हैं कि राजा सूरजसेनको कुष्ठ रोग हो गया था, उसने इससे मुक्ति पानेके लिए अनेक उपाय किये, पर भयानक रोगका शमन नहीं हुआ। अचानक राजाने एक दिन अम्बिका देवीके पार्श्वमें स्थित तालाबमें स्नान किया, जिससे वह उस रोगसे छुटकारा पा गया । इस स्मृतिको सदा कायम रखने के लिए उसने अपना नाम शोधनपाल या सुद्धनपाल रखा तथा इस नगरका नाम सुद्धनपुर या सुधियानपुर रखा; आगे चलकर यही नगर सुहानिया, सिहोनिया या सुधानिया नामोंसे पुकारा जाने लगा। कोकनपुर मठका बड़ा मन्दिर जो ग्वालियरके किलेसे दिखलायी देता है, उसकी रानी कोकनवतीके द्वारा बनवाया गया था। इस मन्दिरका निर्माण काल ई० २७५ है, इस रानीने एक विशाल जैन मन्दिर भी सुहानियाके पास बनवाया था। इसका धर्मके ऊपर अटल विश्वास था । सुहोनियामें उस समय सभी सम्प्रदाय-वालोंके बड़े-बड़े मन्दिर थे। जैन यक्षिणी देवियोंके मन्दिरोंका पृथक् निर्माण भी किया गया था। १० वीं शताब्दी तक ब्राह्मण मतके साथ जैनधर्मका प्रसार इस नगरमे होता रहा । ४ थी और ५ वीं सदोमें सिहोनियाँके आस-पास ११ जैन मंदिर थे; जिनका निर्माण जैसवाल जैनोंने किया था।
सन् ११६५-११७५ के बीच में कन्नौजके राजा अजयचन्दने इस नगरपर आक्रमण किया । इस समय इस नगरका शासन एक राव ठाकुरके अधीन था जो कि ग्वालियरके अन्तर्गत था। इस युद्ध में राव ठाकुरको पराजय हुई, और कन्नौजका शासन स्थापित हो गया । लेकिन सुहानियाके दुर्भाग्यका उदय हो चुका था, उसकी उन्नति और श्री सदाके लिये रूठ गयी थी; फलतः कन्नौजके शासक भी वहाँ अधिक दिनतक नहीं रह सके तथा यह सुन्दर नगर उजड़ने लगा। इसका शासन पुनः ग्वालियरके अन्तर्गत पहुँचा, पर इसके अधिकांश मंदिर मठ धराशायी होने लगे। मुसलमान बादशाहोंको सेनाका प्रवेश भी इधर हुआ, जिसने सुन्दर मूत्तियोंको भग्न किया और मंदिरोंको धूलिसात् कर दिया ।
अभी हालमें इस नगरमें भूगर्भसे श्री शांतिनाथ भगवान्की एक विशालकाय १६ फुट
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१०३ ची प्रतिमा निकली है तथा और भी अनेक जैन मूर्तियाँ वहाँपर विद्यमान हैं। सुनने में आया ग कि ब्र० गुमानीलालको शासन देवताने स्वप्नमें मूत्तियोंकी बात कही थी; उन ब्रह्मचारी जीके कहनेपर ही वहाँकी समाजने उस बीहड़ जंगलमें खुदाई की जिसमें अनेक प्रतिमाएं निकलीं। रतिवर्ष अब यहाँपर वार्षिक मेला भी लगता है । खुदाई करनेपर अभी और भी मूर्तियाँ तथा जैन संस्कृतिकी अन्य वस्तुएँ निकल सकती हैं। पुरातत्त्वज्ञोंने जंगलमें पड़ी हुई जैन मूत्तिको देखकर ग्वालियरकी रिपोर्ट में लिखा है कि यह मूत्ति आजसे कम-से-कम एक हजार वर्ष पहलेको अवश्य है।
(२) कवि वृन्दावन कृत सतसई-सप्तशती कविवर वृन्दावनजी प्रतिभाशाली कवि थे, इनका जन्म सं० १८४८में शाहाबाद जिलेके बारा नामक गाँवमें गोयल गोत्रीय अग्रवाल कुलमें हुआ था। इनके पिताका नाम धर्मचन्द और माताका नाम सिताबी था। इन्होंने चौबीस पाठ, वृंदावन विलास, प्रवचनसार टीका, तीसचौबीसी-पूजा-पाठ आदि ग्रंथ लिखे हैं। जैनसिद्धान्त भवन, आरामें उक्त कविवरकी एक सतसई है; इसमें ७०० दोहे हैं । इस ग्रंथके अन्तमें प्रशस्ति दी गई है :
इति वृन्दावनजी कृत सतसइया चैत्र कृष्ण १५ संवत १९५३ गुरुवार आठ बजे रात्रिको आरामपुरमें बाबू अजितदासके पुत्र हरीदासने लिखकर पूर्ण किया सो जैवंत होहु शुभं शुभं शुभं ॥
अत : कविवरके पौत्र द्वारा लिखित इसको प्रामाणिक मानना चाहिये। किन्तु इसके भीतर ऐसे भी अनेक दोहे हैं, जो कविवरके पूर्वकालीन गिरधर, विहारी, रहीम, तुलसी आदिके नामसे प्रसिद्ध हैं। पता नहीं सतसईके भीतर ये दोहे कैसे आगये ? ग्रंथका प्रारम्भिक अंश इस प्रकार है :
श्रीगुरनाथ प्रसाद तें, होय मनोरथ सिद्ध । वर्षा तैं ज्यो तरुवेलिदल, फूलफलन की वृद्धि । किये बृन्द प्रस्तावको, दोहा सुगम बनाय । उक्त अर्थ दिष्टान्त करि, दिढ़ कर दिये बताय ॥१॥ भाव सरल समझत सबै, भले लगे हिय आय । जैसे अवसरको कही, वानी सुनत सुहाय ॥३।। नीकीहु फीकी लगे, विन अवसरकी बात ।
जैसे वरनत युद्धमें, रस सिंगार न सुहात ।। इनकी यह सतसई विहारीके समान शृंगारिक कृति नहीं है, प्रत्युत नीति और वैराग्यसे ओत-प्रोत है । इनकी यह रचना जनहिताय ही हुई है, मानवके चरित्रको विकसित करना ही इनका ध्येय रहा है । लौकिक ज्ञान समाजको प्रदानकर उसे व्यवहार कुशल और संयमित बनानेका प्रयत्न कविका है । वास्तवमें साहित्य क्षेत्रमें नीति काव्योंका स्थान भी उतना ही ऊँचा और श्रेल है जितना शृंगारिक रचनाओंका। इस रचनामें कविने सहृदय मानव समाजमें भावोंकी
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
सभी वृत्तियाँ जागृतकर करुण, दया, क्षमा, सहानुभूति आदि कोमल वृत्तियोंके विकास पर जोर दिया है । यह रचना अत्यन्त सरल, सरस और सद्यः प्रभावोत्पादिनी है ।
(३)
बकुण्डका ध्वंस जैन मन्दिर
ग्वालियर से दक्षिण-पश्चिममें दुबकुण्ड नामक पुराना जैन मंदिर है। यह कुनू और चम्बल बीचमें ग्वालियरसे ७६ मील दक्षिण-पश्चिम और शिवपुरीसे ४४ मील उत्तर-पश्चिममें एक उपत्यकाके ऊपर स्थित है। ग्वालियरकी सड़कसे ९८ मील दूर है । श्री बा० ज्वालाप्रसाद, जो सन् १८६६ में कप्तान मेलविलके साथ उस स्थानका अवलोकन करने गये थे, उन्होंने वहाँ उत्कीर्ण एक लेखको पढ़कर मंदिरका निर्माण सं० ७४१ बताया; परन्तु कुछ पुरातत्त्वज्ञोंने उसका समय सं० १०८८ या ११४५ कहा है । क्योंकि अन्य उत्कीर्ण शिलालेखोंसे इस मतकी पुष्टि हो जाती है । यह समय श्री विक्रमसिंह महाराजाधिराजके कालमें पड़ता है | ग्वालियरके राजाओं की नामावलीमें इस नामके राजाका उल्लेख नहीं है, किन्तु ग्वालियरके युवराज 'कच्छप वंश घट तिलक' कहे जाते हैं, अत: इस कच्छवाह वंशी राजाका संबंध ग्वालियर से रहा होगा ।
दूबकुण्डका मंदिर ७५० फीट लम्बा और ४०० फीट चौड़ा अण्डाकार घेरेमें है । पूर्व की ओर प्रवेश द्वार है, द्वारके सामने पत्थरमें कटा हुआ ५० वर्गफीट का एक तालाब है । यह मंदिर बिल्कुल गिर गया है । इसके भीतर शिव-पार्वती के मंदिरका ध्वंसावशेष भी है । बेर और बबूल के पेड़ोंका जंगल इतना घना है कि समस्त मंदिरमें घूमना कठिन है । यहाँकी सभी मूर्तियाँ जैन हैं । एक मूर्तिपर चंद्रप्रभुका नाम भी लिखा हुआ है। किवदंती है कि यहाँ प्राचीन काल में जैनियों का मेला भी लगता था । प्राचीन समयमें पश्चिमके किसी राजाने आक्रमणकर यहाँके मंदिर को तोड़ दिया था, तथा अनेक मूर्तियोंको तालाब में डुबा दिया और सोने-चाँदीको मूर्तियों को वह • ले गया था। मूत्तियोंको डुबानेके कारण ही इस मंदिरका नाम डूबकुण्ड अर्थात् दूब कुण्ड पड़ गया है । प्रसिद्धि है कि दोवाशाह और भीमाशाह नामक जैन श्रावकोंने इस मंदिरको बनवाया था । किन्तु शिलालेखमें बताया गया है कि मुनि विजयकीत्तिके उपदेशसे जैसवाल वंशी दाह, कूकेक, सूर्पट, देवघर और महीचन्द्र आदि चतुर श्रावकोंने मंदिरका निर्माण कराया था जिसके पूजन, संरक्षण एवं जीर्णोद्धार आदिके लिए कच्छवाह राजा विक्रमसिंह ने भूमि दान भी दी थी। मराठा सरदार अमर सिंहने धर्मान्ध होकर जैन संस्कृतिके स्तम्भ इस मंदिर को नस्तनाबूद किया था। इस मंदिरके संबंध में कहा गया है 'The Jain temple o Dubkund is square enclosure of 81 feet each way; on each side there are ten rooms. The four corner rooms have doors opening outwards, but all the rest open inwards into a corridor, supported on only seven Chapels, there being exactly eight chapels on each of the other three sides. Each chapel is 5 feet 8 inches square."
अर्थात् — जैन मंदिर ८१ फीटके घेरेमें है, इसमें चारों ओर दस कमरे हैं, चारों कोनोंके दरवाजे बाहर की ओर खुलते हैं, बाकी सभी दरवाजे भीतर बरामदेकी ओर सुलते हैं जो कि
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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चोकोर स्तम्भोंके ऊपर स्थित है । पूर्वकी तरफ सात वेदियाँ हैं और शेष सभी ओर आठ-आठ वेदियाँ हैं । प्रत्येक वेदी ५ फीट ८ इंचके वर्गकी है ।
इस मंदिर में ३१ कमरे जो बाहर की ओर खुलते हैं, उनमें ३१ वेदियाँ और चार कमरे जो भीतरकी ओर खुलते हैं, उनमें चार वेदियाँ हैं, इस प्रकार इस मंदिरमें कुल ३५ वेदियाँ हैं । वेदियों में चित्रकारी की गई है, दरवाजोंपर भी सुन्दर कारीगरी है । प्रत्येक दरवाजेके दोनों ओर चार-चार बड़ी मूर्तियाँ हैं तथा दरवाजेके ऊपर तीन-तीन बड़ी पद्मासन मूर्तियाँ हैं । खम्भे चौकोर हैं, ये ऊपर और नीचे चौड़े हैं, इनके ऊपर चार चार ब्रेकिटें हैं, जो छतको संभाले हुए हैं । इन खम्भोंकी ऊँचाई ७ फीट ५ इंच है । दक्षिण - पूर्वके कोनेके कमरेकी वेदीपर तीन ऊंची खड़ी मूर्तियाँ विराजमान हैं । इनमें बीचकी मूर्ति १२ फीट, ६ इंच ऊंची और ३ फीट ८ इंच चौड़ी है । यह जमीनमें नीचे धँसी हुई है । शेष दोनों बगल वाली मूत्तियाँ ९ फीट ९ इंच ऊंची और २ फीट ४ इंच चौड़ी हैं । मंदिर भूमिसात् है, इसकी छत गिर गई है, बरामदेको छतके कुछ किनारेके हिस्से लटक रहे हैं। बाहरमें तीन यक्षिणियोंकी मूर्तियां भग्न मूर्तियों के साथ पड़ी हुई हैं, ये भग्न सभी मूर्तियाँ दिगम्बर सम्प्रदायकी हैं । एक स्तम्भपर तीन पंक्तियोंका लेख उत्कीर्ण है
प्रथम पंक्ति - सं० ११५२ वैशाख सुदी पञ्चम्यां द्वितीय पंक्ति - श्रीकाष्ठासंघ महाचार्यवयं श्रीदेव तृतीय पंक्ति - सेनपादुका युगलम्
नीचे के हिस्से में एक भग्न मूर्ति है, जिसपर श्रीदेव लिखा है । एक खड्गासन मूर्तिके नीचे निम्न लेख उत्कीर्ण है, इस लेखमें संवत् और तिथिका जिक्र नहीं है
श्रीमान वसु प्रतिमा
षु श्रोष्ठनो का श्रेठिनी लक्ष्मीः
अर्थात् इस लेखमें बताये गये 'वसु' वासुपूज्य भगवान् हैं, जो कि १२ वें तीर्थंकर हैं । दक्षिणकी तरफ १६ इंचके तोरणपर ५९ पंक्तियोंका लम्बा लेख उत्कीर्ण है । यह संवत् १९४५ का है । इसका प्रारम्भ “ ॐनमो वीतरागाय " से हुआ है। श्री शान्तिनाथजिन और श्रीमज्जिनाधिपति आदि नाम भी आये हैं तथा इसमें लाडवागड गणके देवसेन, कुलभूषण, दुर्लभसेन, अंबरसेन और शान्तिषेण इन पाँच आचार्योंके नाम भी पाये जाते हैं ।
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जैनधर्म के प्रभावक पुरुष एवं नारियाँ
इस परिवर्तनशील संसार में देश समाज राष्ट्र या धर्म के लिए जो अवि नश्वर कार्य कर जाते हैं, उनका नाम इतिहास में सदा अमर रहता है। जैन इतिहास में ऐसे अनेक व्यक्तियों के नाम मिलते हैं, जिन्होंने समाज और धर्म के उत्थान के महत्वपूर्ण कार्य किये हैं । इस निबन्ध में आत्म साधक या सरस्वती उपासक व्यक्तियों का उल्लेख न कर इतिहास मान्य ऐसे नर-नारियों का निर्देश प्रस्तुत किया जायगा, जिन्होंने अपने कार्यों से जैन शासन और जैन संघ को अपने जीवनकाल में पर्याप्त प्रेरणा और गति प्रदान की है । यह सार्वजनिक सत्य है कि त्यागी और समाजसेवी व्यक्तियोंके कार्य युग-युगान्तर तक जनमानसको प्रेरित करते रहते हैं । समाज, देश या राष्ट्र में निरही सेवामावी और कर्मठ व्यक्ति ही अपने प्रेरक कार्योंके कारण बड़े माने जाते हैं और ऐसे व्यक्तियोंके पावन चरित ही आनेवाली पीढ़ियोंके लिए उद्बोधक होते हैं ।
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जैन धर्मके प्रभावक पुरुष
जैन गणमान्य व्यक्तियों में सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त मौर्यका नाम आता है । इसने विशाल सेनाका संगठनकर विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की थी। इसके राज्यकी सीमा बंगाल सागरोपकूल से लेकर अरब समुद्र तक व्याप्त थी । वास्तविक में भारतवर्षका यही सर्वप्रथम ऐतिहासिक सम्राट् हुआ है । चन्द्रगुप्तने सम्राट् होने पर अपने परोपकारी चाणक्यको मंत्री पद दिया, पर चाणक्यने प्रधान मंत्रित्वका भार नन्दराजाके भूतपूर्व जैन धर्मानुयायी मंत्री राक्षस को सुपुर्द करने सलाह दी । चन्द्रगुप्तने राक्षसको प्रधान मंत्रित्वका भार सौंपा। प्रजा वत्सल चन्द्रगुप्त ने अपने राज्य की सुव्यवस्था की । पाटलीपुत्रमें राजधानी रहने पर भी उज्जयिनी में भी अपनी उप राजधानी स्थापित की ।
मेगस्थनीजके उल्लेखानुसार चन्द्रगुप्त श्रमण गुरुओंकी उपासना आहारदान एवं प्राणहितके कार्यों में संलग्न रहता था। डॉ० जायसवालने लिखा है - " ये मौर्य महाराज बेदोंके कर्मShrish नहीं मानते थे और न ब्राह्मणोंकी जातिको अपनेसे ऊंचा समझते थे । भारतके ये व्रात्य अवैदिक क्षत्रिय सार्वकालिक साम्राज्य अक्षय धर्म विजय स्थापित करनेकी कामना वाले हुए
डॉ॰ जायसवालके उक्त कथनसे यह ध्वनित होता है कि वे मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्तको अवैदिक अर्थात् जैन मानते हैं । लूईस - राईस तथा महामहोपाध्याय आर० नरसिंहाचार्य ने चन्द्रगुप्त मौर्यको जैन स्वीकार किया है और उसकी दक्षिण यात्राको यथार्थ माना है । डॉ० फ्लोट और डॉ० वो० ए० स्मिथ ने भी इस बातको स्वीकार किया है कि चन्द्र गुप्त राज्यक
ליין
१. मौर्य साम्राज्य के इतिहास की भूमिका
२. Mysore and Kurga from the inscription Page 2 - 10
३. Inscription of Shravana Beyola, Page 36-40
४. एपिग्राफिका इन्डिका, जिल्द ३, पृ० १७१ और इन्डियन, एन्टीक्वियरी जिल्द २१, पृ० १५६
५. अरली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, तृतीय संस्करण, पृ० ७५-७६
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१०७ त्यागकर जैन साधु हो गया था और श्रवणवेलगोलमें उसका स्वर्गवास हुआ।
प्राचीन जैन ग्रन्थ "तिलोयपण्णत्ति" में लिखा है कि-"मुकुटधारी राजाओंमें अन्तिम राजा चन्द्रगुप्तने जिन दीक्षा धारणा की'' चन्द्रगुप्त मौर्यके समयमें उत्तर भारतमें १२ वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और श्रुतकेवली भद्रबाहुने १२ हजार मुनियोंके संघ सहित दक्षिणकी ओर प्रस्थान किया । हरिषेण कृत बृहत कथाकोष' में बताया है कि दीक्षित हो जानेके पश्चात् चन्द्रगुप्तका नाम विशाखाचार्य रखा गया और वे दशपूर्वियोंमें प्रथम हुए तथा भद्रबाहुने अपना उत्तराधिकार चन्द्रगुप्तको सौंपा।
राज्यभोगके पश्चात् चन्द्रगुप्तने भद्रबाहु स्वामीके चरणोंमें उज्जयिनीमें श्रमण दीक्षा ग्रहण की और उनके साथ दक्षिणकी ओर विहार किया। भद्रबाहु स्वामीने अपना अन्तिम समय जानकर श्रवणवेलगोलके कटवप्र पर्वत पर समाधिमरण ग्रहण किया। चन्द्रगुप्तने भद्रबाहु स्वामीके साथ रहकर उनकी अन्तिम अवस्था तक सेवा की और वर्षों तक मुनि संघका संचालन करते रहे । चन्द्रगुप्तका महत्व तीन बातोंकी दृष्टिसे है। पहली बात तो यह है कि चन्द्रगुप्तने आदर्श और अनुकरणीय शासन प्रबन्धकी व्यवस्था की। दूसरी बात यह है कि उसने अपनी प्रजामें सच्चाई और धार्मिक भावोंकी उन्नति की। तीसरी जो उसके जीवनकी प्रमुख विशेषता है वह यह है कि उसने सम्राट्के सुख भोगनेके पश्चात् मुनिपद ग्रहण किया और वर्षों तक जनसंघका नेतृत्व किया।
इस सन्दर्भके दूसरे महान् व्यक्ति सम्राट ऐल खारवेल हैं । ये चेदिवंशके सम्राट् थे और ऐल इनका विरुद था। सोलह वर्षकी अवस्थामें इनके पिता का स्वर्गवास हो गया था और २५ वर्षको अवस्थामें इनका राज्याभिषेक हुआ। राजा खारवेलने कलिंगकी प्राचीन राजधानी तोसलि को ही अपनी राजधानी बनाया था और उस समय उनकी प्रजाकी संख्या ३५ लाख थी। राज्यसिंहासन पर बैठते ही खारवेलने राजधानीकी मरम्मत करायी और नये भवन, परकोटा एवं नगर द्वार आदि बनवाये । प्रजाके जल कष्टको दूर करनेके लिए उसने एक बड़े तालाब का जीर्णोद्धार कराया। राज्यके दूसरे वर्षमें उसने दिग्विजयके लिए प्रयाण किया । यहाँ यह ध्यातव्य है कि उसके दिग्विजयका उद्देश्य केवल पराक्रम प्रकट करना नहीं था अपितु धर्मवृद्धि करना था। उसने सर्वप्रथम पश्चिमीय भारत पर आक्रमण किया और आन्ध्रवंशी सातवर्णीको अधीनस्थ किया। उसने मुशिक क्षत्रियोंकी राजधानी पर अधिकार कर लिया और काश्यप क्षत्रियोंको अभय दिया। इस दिग्विजयके हर्षोपलक्षमें खारवेलने तोसलिमें खूब आनन्दोत्सव मनाया । तीसरे वर्षमें उसने प्रजाहितके अन्य कार्य किये ।
चौथे वर्ष में खारवेल पुनः अपनी सेना लेकर पश्चिम भारतका ओर चला। अबकी बार उसने राष्ट्रिक और भोजिक क्षत्रियोंसे लोहा लिया और विजय का डंका बजाता हुआ कलिंग १. मउडघरेसुं चरिमो जिणदिक्खं धरदि चंदगुत्तो य । __तत्तो मउडधरादु पव्वज्जं णव गेण्हंति ।। १४८१ ॥ ति० प०, अ ० ४ २. कथा संख्या १३१ १. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, श्रवणवेलगोल अभिलेख, न० १
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१०८ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान लौट आया । कलिंग पहुंचकर ग्वारवेलने प्रजाहितके कई कार्य किये उसने "तनसुतिय" नामक स्थानसे एक नहर निकालकर अपनी राजधानी को हरा-भरा बना दिया।
अपने राज्यके छठे वर्षमें उसने दीन-दुःखी जीवोंको अनेक प्रकारसे सहायता की और पौर एवं जनपद संस्थाओंको अगणित अधिकार देकर प्रसन्न किया, पश्चात् दक्षिण भारतके पाण्ड्य आदि देशोंके राजाओंने स्वतः खारवेलके लिए भेंट भेजकर मैत्री स्थापित की। सातकर्णी भी निस्ते
। इस प्रकार कलिंगके आस-पास पश्चिमी और दक्षिणी भारतके लोगों पर खारवेलने अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
अनन्तर खारवेलने मगध पर आक्रमण किया, पर मगध तक न पहुंचकर गोरथगिरि तक अपना अधिकार स्थापित कर कलिंग वापस लौट गया। खारवेलके आक्रमणका समाचार पाकर यूनानका सम्राट् दमित्रियस पटनेके घेरेको छोड़कर पीछे हट गया। दमित्रियसने मथुरा, पंचाल और साकेत पर अधिकार कर लिया था । दमित्रियसके हटते ही खारवेलने मगधकी राजधानी पटना पर आक्रमण किया और नन्दकालके प्रसिद्ध राजप्रासाद "सुसंग" को घेर लिया। शुग नृप पुष्यमित्र इस समय वृद्ध हो गये थे और उनका पुत्र वृहस्पतिमित्र मगधका प्रान्तीय शासक था । खारवेलने उसे अपने सम्मुख नतमस्तक होने को बाध्य किया। उसने मगधके राजकोषसे बहुमूल्य रत्नादिकके साथ कलिंग जिनकी वह प्रसिद्ध मूर्ति भी वापस ले ली, जिसे नन्दराज कलिंगसे ले आये थे।
खारवेलने कलिंगमें अनेक राजभवन देव मन्दिर बनवाकर वास्तु विद्याकी उन्नति की। दक्ष शिल्पियोंने उनके लिये पच्चीकारी और नक्काशीके स्तम्भ बनाकर ललित कलाको उत्तेजना दी थी । खारवेलका राष्ट्रीय जीवन जिस प्रकार उन्नत और विशाल है उसी प्रकार उनका धार्मिक जीवन भी। उसने कुमारी पर्वत पर जैन ऋषि, मुनि और पण्डितगणोंका सम्मेलन बुलाया और जैनागमके पुनरुत्थानका प्रयास किया। जैन संघने उसे भिक्षुराज और खेमराज उपाधियोंसे विभूषित किया ।
____ अन्तिम अवस्थामें खारवेल कुमारी पर्वत पर स्थित अर्हत् मन्दिरमें पहुंच गये और भक्ति भावना एवं व्रत उपवास पूर्वक अपने जीवनका यापन करने लगे। उन्होंने मुनियोंके लिए गुफाएँ एवं मन्दिर बनवाये । उनके द्वारा उत्कीणित एक अभिलेख' उदयगिरि पर्वतकी हाथी गुफामें विद्यमान है। इस अभिलेख में ई० १७० पू० वर्ष तककी घटनाएं अंकित हैं। खारवेलने जैनसंघ और जनजीवनके लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये उनका स्वर्गवास ईसा पूर्व १५२ में हुआ।
ई० सन् की द्वितीय शताब्दीसे लेकर पांचवी-छठी शताब्दी तक गंगवंशके राजाओंने जैन शासनकी उन्नति की। गंगवंशका सम्बन्ध इक्ष्वाकुवंशके साथ था। ई० सन् की दूसरी शताब्दीके लगभग इस वंशके दो राजकुमार दक्षिण आये । उनके नाम दडिग ओर माधव थे। पेरूर नामक स्थानमें उनकी भेंट जैनाचार्य सिंहनन्दिसे हुई। सिंहनन्दिने उन दोनोंको शासन कार्यकी शिक्षा दी। एक पाषाण स्तम्भ साम्राज्य देवीके प्रवेशको रोक रहा था। अतः सिंहनन्दि की आज्ञासे माधवने उसे काट डाला। आचार्य सिंहनन्दिने उन्हें राज्यका शासक बनाते हुए १. जैन शिलालेख संग्रह द्वितीय भाग, अभिलेख संख्या २
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति उपदेश दिया-"यदि तुम अपने वचन को पूरा न करोगे, या जिन शासन को साहाय्य न दोगे, दूसरों की स्त्रियों का यदि अपहरण करोगे, मद्य-मांस का सेवन करोगे या नीचों की संगति में रहोगे, आवश्यक होने पर भी दूसरों को अपना धन नहीं दोगे और यदि युद्ध के मैदान में पीठ दिखाओगे, तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जायगा।""
कल्लूरगुडू के इस अभिलेख में सिंहनन्दि द्वारा दिये गये राज्य का विस्तार भी अंकित है। दडिग ने राज्य प्राप्त कर जैन धर्म और संस्कृति के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये। इसने मंडलि नामक प्रमुख स्थान पर एक भव्य जिनालयका निर्माण कराया जो काष्ठ द्वारा निर्मित था । शिल्प कला की दृष्टि से यह अद्भुत था । अभिलेखों में दडिग का नाम कोड्गुणि वर्मा भी आता है। कोगुणि वर्मा या दडिग के पश्चात् उनका पुत्र लघुमाधव राजा हुआ जिसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र हरिवर्मा था । हरिवर्माने जैन शासनकी उन्नतिके लिए अनेक कार्य किये। इसी वंशमें राजा तडगाल माधवका उत्तराधिकारी उसका पुत्र अविनीत हुआ। नोगा मंगल दानपत्रसे जो उसने अपने राज्यके प्रथम वर्ष में अंकित कराया था ज्ञात होता है उसने अपने परम गुरु अर्हत् विजयकीतिके उपदेशसे मूलसंघके चन्द्रनन्दि आदि द्वारा प्रतिष्ठापित उरणूर जिनालयको वेन्नेलकरणि गाँव और पेरुर एवानिअडिगल् जिनालयको बाहरी चुंगीका एक चौथाई कार्षापण दिया। श्री लूईस राईसने इस ताम्रपत्रका समय ४२५ ई० निश्चित किया है। अविनीत जैन धर्मका अनुयायी था यह बात मर्करासे प्राप्त ताम्र पत्रसे भी सिर होती है । अविनीत का पुत्र दुविनीत भी जैन शासनका प्रचारक था यह १०५५-५६ के अभिलेखसे प्रमाणित है। श्री सालेतोरने लिखा है-"हम जानते हैं कि दुविनीत पक्का जैन पा उसने किरातार्जुनीय पर संस्कृत टीका लिखी थी और गुणाढ्यकी बृहत् कथाका संस्कृतमें रूपान्तर किया था। अतः यह अनुमान करना अनुचित नहीं होगा कि उसने अपने गुरुके प्रति भादर भाव प्रगट करनेके उद्देश्यसे पूज्यपादके शब्दावतारको कन्नड़में निबद्ध किया हो और इसका मतलब यह होगा कि हमें पूज्यपादको दुविनीतका समकालीन अर्थात् ५ वीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध और छट्ठी शताब्दीके प्रारम्भका विद्वान् मानना होगा।"२
__दुविनीतने कोगलि नामक स्थान पर "चेन्न पार्श्ववस्ति' नामक जिनालयका निर्माण कराया था। दुविनीतके पुत्र मुस्कर या मोक्कर ने “मोक्करवसति" नामक जिनालयक निर्माण कराया था।
मुस्करके पश्चात् श्री विक्रम राजा हुआ और उसके दो पुत्र हुए भू-विक्रम और शिवमार । शिवमारने श्रीचन्द्रसेनाचार्यको जिन मन्दिरके लिए एक गाँव प्रदान किया था। सालेतोरका अभिमत है कि शिषमारने प्राचीन गंग नरेशोंकी जैन परम्पराको चालू रखा था। यह प्रजावत्सल और जैन धर्मका परम उद्धारक था। इसके राज्यकालमें जैन धर्मकी पर्याप्त उन्नति हुई। १. अन्तु समस्त राज्यसं.."किडुगु कुल क्रमम् । जैन शिलालेख संग्रह द्वितीय भाग अभिलेख
संख्या २७७, कल्लूरगुडु का लेख; पृ० ४१३ २. मिडीयेवल जैनेजिम, पृ० २२-२३ ३. संक्षिप्त जैन इतिहास, भाग ३, खण्ड २, पृ० ४७ ४. मिडीयेवल जैनेजिम, पृ० २४
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भारतीय संस्कृति विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
इस श्री पुरुषके पुत्र शिवमार द्वितीयने श्रवणबेलगोलाकी छोटी पहाड़ीपर एक वसति बनवायी थी । चन्द्रनाथ स्वामी वसतिसे प्राप्त एक पत्थरपर कन्नड़ में शिवमारन वसति अंकित है । इस शिवमारका छोटा भाई दुग्गमार इरेयप्प था। मैसूर जिलेके हेग्गड़े देवन ताल्लुकेके हेब्बल गुप्पे आञ्जनेय मन्दिरके निकटसे प्राप्त अभिलेख में लिखा है कि श्री नरसिंगेरे अप्पर दुग्गमारने स्थानीय जैन मन्दिर ( कोइलवसदि) को भूमि प्रदान की । बनानेवाले कर्मकार नारायणका भी नाम लिखा है और लिखा है कि तीन गाँवोंके आदमियोंने भी उतनी ही भूमि प्रदान की, जितनी गंग आञ्जनेय मन्दिर के शिलालेखका समय डॉ० कृष्णने ८२५ ई० निर्धारित किया है । इस प्रकार ई० सन् की ८ वीं शताब्दीके कुछ काल बाद तक गंग राजाओं द्वारा जैन धर्मका विकास होता रहा ।
अभिलेख में वसतिको वसतिके व्यय के लिए नरेशने प्रदान की ।
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गंग राजवंश में मरुलका सौतेला भाई मारसिंह जैन शासनकी प्रभावना की दृष्टिसे उल्लेखनीय है । इसका राज्यकाल ई० सन् ९६१- ९७४ ई० तक है । विभिन्न शिलालेखों में इसे सत्यवाक्य गुणि वर्मा धर्म महाराजाधिराज, गंगचूड़ामणि चलदुत्तरंग, मांडलिक त्रिनेत्र, गंग विद्याधर, गंग-कन्दर्प, गंग-वज्र ओर गंगसिंह आदि विरूदों द्वारा उल्लिखित किया है । इन विरुदोंसे इसका यशस्वी और सम्मानित होना व्यक्त होता । इसने मालवा पर आक्रमण कर सियक परमारको पराजित किया । श्रवण वेलगोला के कुगे ब्रह्मदेव स्तम्भपर उत्कीर्ण अभिलेखमें बताया है—
"स्सम्प्रति मारसिंह नृपतिव्विक्रान्त क सो यत्र स्थिति - साहसोन्मद-महासामन्तमत्ताद्विपम । स्वामिनि पट्ट बन्ध महिमा निव्वि मित्युर्व्वराचक्रं यस्य पराक्रम स्तुति परैः व्यावर्णयत्यंगकैः ॥ येनेन्द्र क्षितिवल्लभस्य जगती - राज्याभिषेकः कृतः । १२
अर्थात् उसने कृष्ण तृतीयके लिए गुर्जर देशको विजित किया, कृष्ण केवली श अल्लका दमन किया, विन्ध्य प्रदेश के किरातोंको छिन्न-भिन्न किया, मान्यखेट में चक्रवर्तीके कटक की रक्षा की, शिलाहार बिज्जरसे युद्ध किया, बनवासीके राजाओंको पराजित किया । मातुरोंका दमन किया, उच्चगीके सुदृढ़ दुर्गको हस्तगत किया, शबर राजकुमार नरगका नाश किया, चेर, चोल, पाण्डव और पल्लवोंका दमन किया एवं चालुक्य विजयादित्यका अन्त किया उसके सैनिक कार्यों का विवरण देनेके पश्चात् बताया गया है कि उसने जिनेन्द्र देवके सिद्धान्तोंको नियोजित किया था और अनेक स्थानोंपर वसदियों और मानस्तम्भोंका निर्माण कराया था । लेख न० १४९ के अनुसार उसने पूल गिरे नामक स्थानमें एक जिन मन्दिर बनवाया जो उसीके नामपर गंगकन्दर्प जिनेन्द्र मन्दिर कहलाता था । अभिलेख संख्या - ३८ में बताया है कि मारसिंहने जैन धर्मका अनुपम उद्योत किया और भक्तिके अनेक कार्य करते हुए मृत्युसे
१. मिडीयेवल जेनियेजिम, पृ० २५ ।
२. गंग चूड़ामणि गंग कन्दर्प गंगवज्र चलदुत्तरंग ''जगदेकवीरम् — जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभि० ३८ पृ० २० ।
३. वही, पृ० १८ - १९ ।
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१११ एक वर्ष पूर्व उसने राज्यका परित्याग किया। और उदासीन श्रावकके रूपमें जीवन व्यतीत किया । अन्तमें तीन दिनके सल्लेखना व्रत द्वारा बंकापुरमें अपने गुरु अजितसेन भट्टारकके चरणोंमें समाधिमरण किया। कुडलरके' दानपत्रमें बताया है कि वह जिन चरण कमलोंका मधुकर प्रतिदिन अभिषेक द्वारा समस्त दोषोंको प्रक्षालित करनेवाला गुरु भक्त, व्याकरण, तर्क, दर्शन, साहित्य आदिका पण्डित, परोपकार प्रवीण एवं गुरु भक्त था ।
इतना ही नहीं मारसिंहने अनेक जैन विद्वानोंका भी संरक्षण किया था । वह बौखिक रत्नोंका भण्डार और प्रतिभा रूपी मोतियोंकी खान था। थोड़ेसे ही प्रयत्न और परिश्रमसे इसने सभी विद्याएँ प्राप्त कर ली थीं। वह व्याकरणका पण्डित तथा चार्वाक्, सांख्य और बौद्ध दर्शनोंके साथ तर्कशास्त्रका भी महान् विद्वान् था। जैन धर्ममें तो उसे बादि धंगलका पद प्राप्त था ।२
___गंगवंशके राजाओंके अतिरिक्त कदम्बवंशके राजाओंमें काकुत्स्थ वर्माके पौत्र मृगेश वर्माने पांचवीं शताब्दीमें राज्य किया। राज्यके तीसरे वर्ष में अंकित किये गये ताम्रपत्रसे ज्ञात होता है कि इसने अभिषेक, उपलेपन, पूजन, भग्न संस्कार (मरम्मत) और प्रभावनाके लिए भूमि दानमें दी थी। इसी राज्यके एक अन्य दानपत्रसे इसके द्वारा किये गये श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंके साधुओंके सम्मानका भी निर्देश प्राप्त होता है
"अत्रपूर्वमर्हच्छालापरमपुष्कलस्थाननिवासिभ्यः भगवदर्हन्महाजिनेन्द्रदेवताभ्य एकोभागः, द्वितीयोर्हत्प्रोक्तसद्धर्मकरणपरस्य श्वेतपटमहाश्रमणसंघोपभोगाय, तृतीयो निर्ग्रन्थमहाश्रमण संघोपभोगायेति । अत्र देवभाग धान्यदेवपूजाबलि चरुदेवकर्मकरभग्नक्रिया प्रवर्तनाद्यर्योपभोगाय ।"
इसी अभिलेखसे यह भी अवगत होता है कि मृगेश वर्मा उभयलोककी दृष्टिसे प्रिय और हितकर था तथा शास्त्रोंके अर्थ और तत्त्वज्ञानके विवेचनमें उदारमति था। यह नय विनयमें कुशल, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली, शूरवीर एवं त्यागी था।
एक अन्य ताम्रपत्रमें बताया है कि मृगेशवर्माने अपने राज्यके आठवें वर्ष में अपने स्वर्गीय पिताकी स्मृति में पलाशिका नगरमें एक जिनालय बनाया था और उसकी व्यवस्थाके लिए भूमि दानमें दी थी। यह दान उसने यापनीयों तथा कूर्चक सम्प्रदायके नग्न साधुओंके निमित्त दिया था। इस दानके मुख्य गृहीता जैन गुरु दानकोति और सेनापति जयन्त थे।
___ मृगेशवर्माके उत्तराधिकारी राजा रविवर्माने भी अपने पिताका अनुसरण किया। उसके एक ताम्रपुत्रसे अवगत होता हूँ कि उसने जैन धर्मके लिए एक कानून बनाया था। अभिलेख में बताया है
ते खेः पुण्यार्थ स्वपितुम्मत्ति दत्तवान् पुरुखेटकं जिनेन्प्रमहिमा कार्य प्रतिसंवरसरंक्रमात् अष्टाहकृतामर्यादा कात्तियान्तद्धनागमात् वार्षिकांश्चतुरोमासान् यापनी१. मैसूर आर्योलॉजिकल रिपोर्ट, सन् १९२१, पृ० २२-२३ । २. कैलाशचन्द्रशास्त्री, दक्षिण भारतमें जैनधर्म, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, पृ० ८४ । ३. जैन शिलालेख संग्रह, द्वितीय भाग, अभिलेख संख्या ९८, पृ० ७० । ४, जैन शिलालेख संग्रह द्वितीय भाग, अभिलेख संख्या ९९, पृ० ७३
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
यास्तपस्विनः मु [जीरस्तु ] यथान्याय्यं महिमाशेषवस्तुकन् [ ] कुमारदत्तप्रमुखाहिसूरया अनेकाशास्त्रागमखिन्नबुद्धयः जगत्यतीतास्सुततपोधनान्विताः गणोस्य तेषां भवति प्रमाणतः ।। धर्मेप्सुमिज्जनिपदेस्सनागरः जिनेन्द्रपूजा सततं प्रणेया इति स्थिति स्थापितवान् खोशः पला [शिका]
पलाशिका राजधानीमें राजा रविवर्माने यह नियम निर्धारित किया कि राजा मृगेश वर्माके द्वारा दामकीर्तिकी माताको दिये गये पुरखेटक प्रामकी आयसे प्रतिवर्ष कार्तिककी पूर्णिमा तक अष्टाह्निक महोत्सव होना चाहिए । विद्वानों जिनमें प्रमुख कुमारदत्त हैं, जिन्होंने तपस्या की है और जिनका सम्प्रदाय उनके सत्कर्मोका साक्षी है, न्यायानुसार समस्त सम्मानका उपभोग करें तथा जनपदके वासी और नागरिक नर-नारीगण निरन्तर जिनदेवकी पूजा किया
करें।
रविवर्माके समान उसके भाई भानुवर्माने भी जैन धर्मकी उन्नति की । एक दानपत्रमें बताया है कि उसने पूर्णमासीके दिन जिनदेवका अभिषेक करनेके निमित्तसे जैनोंको भूमिदान दिया था। यह भूमि पलाशिकामें थी और उसे बण्डरभोजकने स्वीकार किया था।
राजा रविवर्माके पुत्र हरिवर्माने अपने राज्यकालके चतुर्थ वर्षमें एक दानपत्र प्रचलित किया था जिससे ज्ञात होता है कि उसने अपने चाचा शिवरथके उपदेशसे कूर्चक सम्प्रदायके वारिषेणाचार्यको वसन्त वाटक ग्राम दान में दिया था। इस दानका उद्देश्य पलाशिकामें भारद्वाज वंशी सेनापति सिंहके पुत्र मृगेशवर्मा द्वारा बनवाये गये जिनालयमें वार्षिक अष्टाह्निक पूजाके अवसर पर कृताभिषेक किया जाना तथा उससे जो धन बचे उसके द्वारा समस्त सम्प्र. दायको भोजन कराना आदि अभीष्ट था। इसी राजाने अपने राज्यके पांचवें वर्ष में सेन्द्रकवंश के राजा भानुशक्तिको प्रार्थनासे धर्मात्मा पुरुषोंके उपयोगके लिए तथा एक मन्दिरको पूजाके लिए "मरदे" नामक गाँव दानमें दिया था। यह मन्दिर क्षमण सम्प्रदायका था जिसे अहरिष्टी कहते हैं और आचार्य धर्मनन्दि उसके प्रबन्धक थे।
इस तरह कदम्ब वंशके राजाओंने जैनधर्मके अभ्युत्थानके लिए अनेक प्रयत्न किये ।
राष्ट्रकूट वंशी गोविन्द तृतीयका पुत्र अमोघवर्ष जैन-धर्मका महान् उन्नायक, संरक्षक और आश्रयदाता हुआ है। इसका समय ई० सन् ८१४-८७८ ई० है। जब यह सिंहासनपर आसीन हुआ तब इसकी अवस्था ९-१० वर्षकी ही थी। अतः उसके चाचा इन्द्रका पुत्र कर्कराज जो गुर्जर देशका शासक था, अमोघवर्णका अभिभावक एवं संरक्षक नियुक्त हुआ। अमोघवर्षकी बाल्यावस्थाका लाभ उठाकर साम्राज्यमें अनेक स्थानोंपर विद्रोह हुए । गंग पल्लवपाण्ड्य पूर्वी चालुक्य आदि अधीनस्थ राजा भी विरुद्ध हो गये। ८१७ ई० में बोगिके विजयादित्य द्वितीय और गंगावाडिके राचमल्ल प्रथमके प्रोत्साहनमें साम्राज्यके दक्षिणी भागोंके अनेक सामन्तोंने विद्रोह किया, किन्तु कर्कराजको स्वामिभक्ति, वीरता, बुद्धिमत्ता एवं तत्परताके कारण इन सब विद्रोहोंका दमन हुआ और ई० सन् ८२१ ई० तक स्थिति शान्त हो गयी। १. वही, अभिलेख संख्या १००, पृ० ७५ २. मिडियेवल जैनिज्म, पृ० ३३ तथा दक्षिण भारतमें जैनधर्म, पृ० ८६ ३, वही, अभिलेख संख्या १०२, पृ० ७८
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति नवीन राजधानी मान्यखेटका निर्माण गोविन्द तृतीयने ही आरम्भ कर दिया था, किन्तु उसे राजधानीको पूरी तरह स्थानान्तरित कर देनेका समय नहीं मिला । अमोघवर्ष वयस्क हो गया था। अतः ई० सन् ८२१ में गुर्जराधिप कर्कराजने मान्यखेटमें ही अमोघवर्षका विधिवत् राज्याभिषेक किया । अमोघवर्षके प्रधान सामन्त कर्कराज और वीर सेनापति वंकेयरसने साम्राज्यको स्वचक्र और परचक्रके उपद्रवोंसे सुरक्षित रखनेका सफल प्रयत्न किया ।
अमोघवर्षने राजधानीको सुन्दर प्रासादों, सरोवरों, भवनों आदिसे अलंकृत किया । ८३० ई०में बेंगिके चालुक्योंका दमन किया और पाण्डयोंको पराजित किया । अपनी पुत्री शंख का विवाह पल्लव नन्दिवर्मन द्वितीयके साथ करके उसने पल्लवोंको मित्र बनाया। अमोघवर्णमें शासकके समस्त गुण वर्तमान थे। उसने राज्यमें पूर्णतया शान्ति स्थापित करनेका प्रयास किया।
सन् ८५१ ई० में अरब सौदागर सुलेमान भारत आया था। उसने दीर्घायु बलहरा नामसे अमोघवर्षका वर्णन किया है। इसका शासन सुचारु रूपसे व्यवस्थित था। यह विद्वानों और गुणियोंका प्रेमी था। इसकी सभामें अनेक विद्वान् विद्यमान थे । वीरसेन स्वामीके पट्टशिष्य आचार्य जिनसेन स्वामी उसके राजगुरु और धर्मगुरु थे। गुणभद्राचार्य कृत उत्तरपुराणमें अमोघवर्षद्वारा जिनसेनको मंगलरूपमें स्वीकार किये जानेका निर्देश है ।' जिनसेन रचित पार्वाभ्युदयसे भी इसकी पुष्टि होती है । जिनसेनके गुरु वीरसेनने शक संवत् ७३८में जब धवला टीका समाप्त की तब जगतुंग देव-गोविन्द तृतीयने सिंहासन छोड़ दिया था और बोद्दणराय या अमोघवर्ष राज्य करते थे। अमोघवर्षने दीर्घ आयु प्राप्त की थी और लगभग ६३ वर्षोंतक राज्य किया । शक संवत् ७९२ के ताम्रपत्रसे अवगत होता है कि इन्होंने मान्यखेटमें जैनाचार्य देवेन्द्रको दान दिया था। यह दानपत्र इनके राज्यके ५२ वें वर्ष का है ।
शक संवत् ७९९ के कन्हेरोको गुफामें प्राप्त हुए अभिलेखसे ज्ञात होता है कि इनका सामन्त कपर्दि था । इन्होंने इससे कुछ पहले ही अपने पुत्र अकालवर्ष या कृष्ण द्वितीयको राज्य कार्य सौंप दिया था। कहा जाता है कि उग्रादित्यने अपने कल्याणकारक नामक वैद्यक ग्रन्थकी रचना ८०० ई० पूर्व ही कर ली थी किन्तु अमोघवर्षके आग्रहपर उन्होंने उसकी राजसभामें आकर अनेक वैद्यों एवं विद्वानोंके समक्ष मद्य-मांस निषेधका वैज्ञानिक विवेचन किया और इस ऐतिहासिक विवेचनको हिताहित अध्यायके नामसे परिशिष्ट रूपमें अपने ग्रन्थमें सम्मिलित किया। प्रसिद्ध जैन गणिताचार्य महावीराचार्यने अपना सुविदित “गणित सारसंग्रह" इसी सम्राट्के आश्रयमें लिखा । योपनीय संघके आचार्य शाकटायन पाल्यकोतिने अपने सुविख्यात शाकटायन व्याकरण एवं उसकी अमोघ वृत्तिकी रचना की। अमोघवर्षने स्वयं ही संस्कृतमें प्रश्नोत्तर रत्नमाला नामक ग्रन्थ और कन्नड़में कविराजमार्ग नामक महत्त्वपूर्ण छन्द और अलंकार शास्त्र रचा । ऐतिहासिक विद्वानोंके मतानुसार अमोघवर्षको धर्मात्मा, सदाचारी, उदार एवं श्रेष्ठ चरित्रवान् बताया गया है। यह स्याद्वाद विद्याका अत्यन्त रसिक था। १. उत्तर पुराण, प्रशस्ति, पद्य ९ २. धवला प्रशस्ति , पद्य ६-९ ३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १४८-१४९
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११४ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
महावीराचार्यने अपने गणितसार संग्रहमें अमोघवर्षकी महिमाका विस्तार करते हुए उसे स्याद्वाद सिद्धान्तका अनुगामी कहा है ।' डॉ० भाण्डारकरने लिखा है-“सौराष्ट्रकूट राजाओंमें अमोघवर्ष जैनधर्मका महान् संरक्षक था और यह बात सत्य प्रतीत होती है कि उसने स्वयं जैनधर्मको धारण किया था। एक अभिलेखमें बताया है कि आश्विन महीनेकी पूर्णिमाको सर्वग्रासी चन्द्रग्रहणके अवसरपर शक संवत् ७८२ बीत चुका था । और जगतुंगके उत्तराधिकारी राजा अमोघवर्ष प्रथम राज्य करते थे। उन्होंने अपने अधीनस्थ राजकर्मचारी वंकेयकी महत्त्वपूर्ण सेवाके उपलक्ष्यमें कोलुनूरमें वंकेय द्वारा स्थापित जिन मन्दिरके लिए देवेन्द्र मुनिको पूरा तलेपुर गांव और दूसरे ग्रामोंकी कुछ जमीन दानमें दी थी। ये देवेन्द्र मुनि पुस्तकगच्छ देशीयगण मूल संघके काल्य योगीशके शिष्य थे। यह वंकेय वही है जिसके नामसे वंकापुर राजधानी बनायी गयी थी। इसी वंकेयके पुत्र सामन्त लोकादित्यके समयमें जब अमोघवर्षका पुत्र कृष्ण द्वितीय राज्य करता था, गुणभद्राचार्यकृत उत्तरपुराणकी पूजा हुई थी।
कोन्नूर अभिलेख सेनापति वंकेयकी प्रार्थनापर उत्कीर्ण कराया गया था और उसने जिन मन्दिरोंके लिए दानमें भूमि प्रदान की थी। इस सम्राट्की माता महारानी गामुंडब्बे, उसकी पट्टमहिषी उमादेवी, पुत्र कृष्णराय, पुत्रियां शंखदेवी और चन्द्रबेलब्बे, चचेरे भाई कर्क आदि राज परिवारके साथ सभी व्यक्ति जैन धर्मानुयायी थे। अमोघवर्षके समयमें जैनधर्मकी सर्वांगीण उन्नति हुई।
अज्जनन्दि या आर्यनन्दिने जैनधर्मके अभ्युत्थानके हेतु तमिल देशमें अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये किये हैं । इसने उत्तर आर्काट जिलेके बल्लिमलइकी और मदुरा जिलेके अन्नइमलइ ऐवर मलइ, अलगर मलइ, करुगा लक्कुड़ी और उत्तम पाल्यम्की चट्टानोंपर जैन मूर्तियोंका निर्माण कराया । दक्षिणकी ओर बढ़ने पर तिन्नेवेल्ली जिलेके दूरुबड़ी स्थानमें भी जैन मूर्तियोंका निर्माण कराया।
___ त्रावणकोर राज्यके चितराल नामक स्थानके निकट तिरुचाणटु नामकी पहाड़ी है। इसपर चट्टान काटकर उकेरी गयी आकृतियोंको बहुतायत है। ये सब मूर्तियाँ जैन तीर्थंकरोंकी हैं और इनके नीचेके लेखमें लिखा है कि आर्यनन्दिने इनका निर्माण कराया । आर्यनन्दिके सम्बन्धमें उपलब्ध अभिलेखोंके अध्ययनसे यह अवगत होता है कि उनका समय ८वी-९वीं शताब्दी है । आर्यनन्दिने तमिल देशमें जैनधर्मके विकासके हेतु अनेक मूर्तियाँ उत्कीर्ण करायों, गुफाओंका निर्माण कराया और जैनकलाके विकासके लिए पूर्ण प्रयास किया।
होयसल राजवंशके कई राजाओंने जैनकला और जैनधर्मकी उन्नतिके लिए अनेक कार्य किये हैं। अङ्गडोसे प्राप्त अभिलेखमें विनयादित्य पोयसलके कार्योंका ज्ञान प्राप्त होता
१. गणितसार संग्रह, संज्ञाधिकार, पद्य ३ २. जैन कर्नाटक क०, पृ० ३२ ३. दक्षिण भारतमें जैनधर्म, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण, पृ० ९२ ४. वही, पृष्ठ ३७
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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है | श्रवणबेलगोल गंध वाणावस्तिके अभिलेखसे विनयादित्यके कार्योंका परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । बताया है
ततो द्वारवतीनाथा पोय्सला द्वीपिलाञ्छना । जाताश्शशपुरे तेषु विनयादित्यभूपतिः ॥ स श्रीवृद्धिकरं जगज्जनहितं कृत्वाधरां पालयन् श्वेतच्छत्र सहस्रपत्रकमले लक्ष्मीं चिरं वासयन् । दोर्दण्डे रिपुखण्डने कचतुरे वीरश्रियं नाटयन् चिक्षेपाखिलदिक्षु शिक्षितरिपुस्तेजः प्रशस्तोदयः ॥
मन्दिरोंका निर्माण
१०६२ ई०के एक विनयादित्यने मूल मत्तावर में स्थित
राजा विनयादित्य
अभिलेख से ज्ञात होता है कि विनयादित्यने अनेक सरोवरों और कराया था । हंसन जिलेके बेल्लूर हुगली के अन्तर्गत तोड्डुसे प्राप्त सन् त्रुटित अभिलेखमें बताया है कि उत्तरायण संक्रमणके पवित्र अवसरपर संघके जैनाचार्य अभयचन्द्रको भूमि दान दिया । चिक्कमंगलूर ताल्लुकाके पार्श्वनाथ वसदिसे प्राप्त सन् १०६९ ई० के अभिलेख में उत्कीर्णित है कि त्तावर आये और पहाड़पर स्थित वसदिके दर्शनार्थ गये । उन्होंने लोगोंसे पूछा कि अपने गाँव में मन्दिर न बनवा कर इस पहाड़ीपर क्यों बनवाया ? माणिक सेट्टीने उत्तर दिया" हमलोग निर्धन हैं । अत आपसे गाँवमें मन्दिर बनवानेकी प्रार्थना करते हैं, क्योंकि आपकी लक्ष्मीका पारावार नहीं है । माणिक सेट्ठीके इस उत्तरसे राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने मन्दिर के लिए भूमि लेकर मन्दिर बनवा दिया और उसकी व्यवस्थाके लिए नाडली ग्रामकी आय प्रदान की । उसने बसदिके पास में कुछ घर बनवानेकी भी आज्ञा दी । गाँवका नाम ऋषी हल्ली रखा गया और बहुतसे कर माफ कर दिये ।
विनयादित्य चालुक्यवंशके विक्रमादित्य षष्ठ का सामन्त था । उसके पुत्र और उत्तराधिकारी एरेयंगको चालुक्योंका दाहिना हाथ, यमका अवतार और मालवराजकी धारा नगरीका विध्वंसक कहा गया है । हले बेलगोलसे प्राप्त एक अभिलेख में होयसल नरेश विनयादित्यकी कीर्तिका वर्णन आया है । साथ ही कल्वप्यु पर्वतकी वस्तियों के जीर्णोद्धार तथा आहारदान आदि के लिए अपने गुरु मूलसंघ देशीयगण कुन्दकुन्दान्वयके देवेन्द्र सैद्धान्तिक और चतुर्मुख देवके शिष्य गोपनन्दि पण्डित देवको राचनहल्लके दान दिये जानेका उल्लेख है । अभिलेख में बताया है कि विनयादित्य चूड़ामणि सम्यक्त्व चूड़ामणि था और उसने जैनधर्मके उत्थानके लिए जीर्णोद्धार, मन्दिर व्यवस्था हेतु ग्रामदान आदि कार्य किये थे ।
एरेद मनुजंगे सुरभूमिरुहं शरणेन्दवंगे कुलिशागारं । परबनितेगनिलतनेयं धुरदोल्पोणदंगेमिर्त्तु विनयादित्यं ॥
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१. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ५६, पृ० १२४ २. मिडीयेबल जेनिज्म, पृ० ७५ तथा दक्षिण भारतमें जैनधर्म, पृ० १०६
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान बलिदडेमलेदडे मलपर तलेयोल्बालिडुवनुदितमयरसवसदि।
बलियद मलेयद मलपर तलेयोल्कैयिडुवनोडने विनयादित्यं ।' होयसल नरेशोंमें विष्णुवर्धन भी जैन शासन का प्रभावक हुआ । उसने जैनगुरु श्रीपाल विद्य देवका सन्मान किया, मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराया एवं व्यवस्थाके हेतु दान दिया। बेल्लूरके एक अभिलेख में मल्लि जिनालयको भी दान देनेका उल्लेख है। इससे इस बातकी पुष्टि होती है कि सन् ११२९ ई० में भी राजा विष्णुवर्धन जैन धर्मका अनुयायी था। हलेबीडके निकट बस्ति हल्लिके पार्श्वनाथ जिनालयसे प्राप्त अभिलेखसे ज्ञात होता है कि विष्णुवर्धनने हलेवीडके पार्श्वनाथ चैत्यालयके लिए दान दिया था।
अनेक सामन्तोंने भी जैनधर्म के अभ्युदय के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं। राष्ट्रकूट सामन्त लोकादित्य ने शक ९वीं शताब्दीमें ग्रन्थ निर्माण, मन्दिर निर्माण एवं जीर्णोद्धार आदिके कार्योंमें पूर्ण योगदान दिया है । यह बंकेयरसका पुत्र था और राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय अकालवर्षके शासनके अन्तर्गत वनवास देशके बंकापुरका शासक था। इसके संरक्षणमें लोकसेनने गुणभद्र कृत उत्तर पुराणके अन्तमें प्रशस्ति लिखी है। प्रशस्ति के ३२ से ३६वें तकके पद्यमें कहा है कि जब अकालवर्षके सामन्त लोकादित्य बंकापुर राजधानी के सारे बनवास देशका शासन करते थे तब शक संवत् ८२० में इस पुराणकी पूजा की गयी। इससे सिद्ध होता है कि लोकसेन गुणभद्रका प्रमुख शिष्य था और लोकादित्यने जैनधर्मकी वृद्धि में योगदान दिया था ।
दक्षिण भारतमें जैन धर्म को सुदृढ़ बनानेमें जिनदत्त रायका भी हाथ है । इसने जिनदेवके अभिषेकके लिए कुम्भसिकेपुर गांव प्रदान किया था। तोला पुरुष विक्रमशान्तरने सन् ८९७ ई० में कुन्दकुन्दान्वयके मौनी सिद्धान्त भट्टारकके लिए वसतिका निर्माण कराया था। और उसे बाहुबलिको भेंट कर दिया था। भुजबल शान्तरने अपनी राजधानी पोम्बुच्चमें भुजबल शान्तर जिनालयका निर्माण कराया था और अपने गुरु कनकनन्दि देवको हरबरि ग्राम प्रदान किया था। उसका भाई नन्नि शान्तर भी जिन चरणोंका पूजक था । वीर शान्तर के मन्त्री नगुल रसने भी अजितसेन पण्डित देवके नामपर एक बसदिका शिलान्यास कराया था। यह नई बसदि राजधानी पोम्बुच्चमें पंच बसदिके सामने बनवाई गयी थी। भुजबल गंग पेरम्माडि वर्मदेव (सन् १११५ ई०) मुनिचन्द्रका शिष्य था और उसका पुत्र नन्निय गंग (सन् ११२२ ई०) प्रभाचन्द्र सिद्धान्तका शिष्य था। शिमोगा जिलेके कल्लूर गुड्डमें सिद्ध श्वर मन्दिरके पाससे प्राप्त एक अभिलेखमें भुजबल गंग वर्मदेवके धार्मिक कृत्यों का रोचक वर्णन दिया है। उसने एक बसदिका निर्माण कराकर उसे कुछ ग्राम प्रदान किये थे। इस बसदिके सम्बन्धमें बताया है-"यह वही बसदि है जिसकी स्थापना गंगवंशके संस्थापक दडिग और माधवने की थी तथा जिसे गंगराजाओंने बराबर भेंटें प्रदान की थीं। भुजबल गंगके समयमें यह बसदि समस्त बसदियोंमें प्रधान मानी जाती थी। ११२२ ई० में उसके पुत्र नन्निय गंगने उसे पाषाणसे निर्मित कराया और भूमि प्रदान की। नन्निय गंगने जैन धर्मको अत्युन्नतिके १. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ४९२, पृ० ३०५ २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १४२
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१९७ लिए २५ चैत्यालयोंका निर्माण कराया था। उसके लगभग ५० वर्ष पश्चात् सन् ११७३ ई० में हुए शान्तरको जिनदेवके चरण कमलोंका मधुकर कहा है ।
११वीं शताब्दी में कोंगालवोंने जैन धर्मकी सुरक्षा और अभिवृद्धिके लिए अनेक कार्य किये हैं । सन् १०५८ में राजेन्द्र कोंगालवने अपने पिताके द्वारा निर्मापित वस्तिको भूमि प्रदान की थी। राजेन्द्र कोंगालवका गुरु मूलसंघ काणूर गण और तगरिगल गच्छका गण्ड विमुक्त सिद्धान्त देव था। उसके लिए राजेन्द्रने चैत्यालयका भी निर्माण कराया था और उसे भूमि प्रदान की थी । इस वंश के राजाओंने सत्यवाक्य जिनालयका निर्माण कराया था और उसके लिए प्रभाचन्द्र सिद्धान्तको गाँव प्रदान किया था ।' सन् ११६५ ई० के दो अभिलेख नेमोश्वर बस्तिमें प्राप्त हैं। उनमे विजयादित्यके राज्यका और सेनापति कालनके द्वारा उसी वर्षमें उस बसदि को बनवानेका उल्लेख है तथा यापनीय संघके पुन्नाग वृक्ष मूल गणका और जैन धर्मके संरक्षक रट्टराज कार्तवीर्यका भी उसमें उल्लेख है। शिलालेखमें बस्तिके निर्माण करनेका कारण भी लिखा है । कालन अपने स्त्री-पुत्रादिके साथ आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करता था। एक दिन उसे लगा कि धर्म ही इस लोक और परलोकमें कल्याणकारी है और उसने नेमीश्वर बस्तिका निर्माण कराकर उसके निमित्तसे अपने गुरु कुमारकीर्ति विधके शिष्य पुन्नाग वृक्ष मूल गणके महामण्डलाचार्य विजयकीतिको भूमि प्रदान की। उसकी आयसे साधुओं और धार्मिकोंको भोजन तथा आवास दिया जाता था। उसकी कीर्तिको सुनकर रट्टवंशका राजा कार्तवीर्य उसे देखने के लिए आया और उसने मन्दिरके जीर्णोद्धारके निमित्त भूमि प्रदान की।
नागर खण्डके सामन्त लोक गावुण्डने सन् ११७१ ई० में एक जैन मन्दिरका निर्माण कराया था और उसकी अष्टप्रकारी पूजाके लिए मूलसंघ काणूर गण तिन्तीणीगच्छके मुनि चन्द्रदेवके शिष्य भानुकीति सिद्धान्तदेवको भूमि प्रदान की थी। १३वीं शताब्दीके अन्तिम चरणमें कुची राजाका नाम भी उल्लेखनीय है । यह पद्मसेन भट्टारकका शिष्य था। इसने अपने गुरुके उपदेशसे जिनालयका निर्माण कराया और उसे भूमि, दूकान तथा उद्यान प्रदान किये । यह मन्दिर मूलसंघ सेनगणके पोगलगच्छसे सम्बद्ध था।
जैन धर्मके संरक्षक और उन्नतिकारकोंमें वीरमार्तण्ड चामुण्डरायका नाम विशेष उल्लेखनीय है । इसका समय ई० सन् की १०वीं शताब्दी है ।
चामुण्डरायने अपने पुराण में लिखा है कि उच्चंगीके किलेकी विजयके उपलक्ष्यमें मारसहने रणरंगसिंहकी उपाधि धारण की थी और चामुण्डरायको वीरमार्तण्डकीजी उपाधिसे विभूषित किया गया था। वीरतापूर्ण कार्यों के उपलक्ष्यमें रायमल्ल चतुर्थकी ओरसे समर धुरन्धर वैरि-कुल काल-दण्ड, भुज-विक्रम आदि उपाधियाँ चामुण्डरायको प्राप्त हुई थीं। चामुण्डरायकी शक्तिनिष्ठा और धर्म प्रेमके कारण उसे सत्य युधिष्ठिर गुण बंकाव, सम्यक्त्व रत्नाकर, शौचाभरण, गुणरत्न भूषण, कविजन शेखर जैसी उपाधियाँ भी प्राप्त थीं। चामुण्ड रायके गुरुका नाम अजितसेन था। और वह नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीका भी स्नेह भाजन था । नेमीचन्द्रने अपने गोम्मटसारकी रचना चामुण्डरायके उद्देश्यसे ही की थी। चामुण्डराय १. दक्षिण भारत में जैनधर्म, पृ० ११३
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदानें
बड़ा उदार दानी था । उसने जैन धर्मके लिए जो कुछ किया, इसके कारण वह भारतके इतिहासमें अमर है। श्रवण बेलगोलमें गोम्मटेश्वरकी प्रसिद्ध मूर्तिको स्थापना उसीके द्वारा हुई है । यह मूर्ति ५६ फीट ऊँची है ।
श्रवणबेलगोलाकी छोटी पहाड़ी पर भी चामुण्डरायने एक बसदि बनवायी थी । उसके पुत्र जिनदेवण्णने भी एक बसदिका निर्माण कराया था । प्रसिद्ध कन्नड़ कविरन्नको भी चामुण्ड रायने आश्रय दिया था । चामुण्डराय बसतिके मण्डपमें जो अभिलेख उत्कीर्ण है उससे चामुण्डरायके कार्योंपर प्रकाश पड़ता है। एक अभिलेखमें चामुण्डरायका निर्देश करते हुए बताया है
यस्मिश्चामुण्डराज भुजबलिनमिनं गुम्मटं कर्मठा भक्त्या शक्त्या च मुक्त्येजित- सुर-नगरे स्थापयद्भद्रमद्रो । तद्वत्काल त्रयोत्थोज्वल-तनु- जिनबिम्बानि नान्यानि चान्यः कैलासे शीलशाली त्रिभुवन - विलसत्कीर्ति चक्रीव चक्रे ॥ विष्णुवर्धन के सेनापति बोप्पने भी जैनधर्मके अभ्युत्थानके लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं । बोप्प गंगराजका ज्येष्ठ पुत्र था । उसकी पत्नी भानुकीर्ति देवकी शिष्या थी और उनका पुत्र ऐच भी दण्डाधीश था । उसने श्रवणबेलगोलमें मन्दिरोंका निर्माण कराया और बेलगोलीके मूल स्थान गंगेश्वरको भूमि प्रदान की । सन् १९३५ ई० में उसने सल्लेखना पूर्वक मरण किया ।
सेनापति हुल्लने श्रवणबेलगोला में चतुर्विंशति जिनालयका निर्माण कराया । यह निर्माण सम्भवतः सन् १९५९ ई० में हुआ था । जब राजा नरसिंह द्वितीय अपनी विजय यात्राके लिए उधरसे गया तो उसने बड़े आदर के साथ गोम्मटदेव और पार्श्वनाथकी मूर्तियोंके तथा जिनालय के दर्शन किये और जिनालयकी पूजाके लिए सबणेरु ग्राम प्रदान किया । २
हुल्लकी सम्यक्त्व चूड़ामणि उपाधिके आधारपर जिनालयको भव्य चूड़ामणि नाम प्रदान किया और हुल्लने महामण्डलाचार्य नयकीर्ति सिद्धान्त चक्रवर्तीको चतुर्विंशति जिनालयका आचार्य बनाया जो सजणेरुकी आयका उपयोग श्रवणबेलगोला स्थानके जिनालयोंकी मरम्मत तथा पूजा आदिमें करते थे । सन् १९७५ ई० में हुल्लने राजा बल्लाल द्वितीयसे सबणेरुके साथ बेक्क और कग्गेरे नामक ग्रामोंको प्राप्त किया तथा इन्हें उक्त जिनालय एवं गोम्मटदेवकी पूजाके भूमि लिए प्रदान किया ।
सेनापति हुल्लने श्रवणबेलगोला के समान केल्लंगेरे, बंकापुर और कोप्पणको भी दान दिया । केल्लंगेरे एक प्राचीन तीर्थस्थान था । इसकी स्थापना गंग राजाओंने की थी किन्तु समयके प्रभावसे यह खण्डहर हो गया था । अतएव हुल्लने वहाँ एक सुन्दर जैन मन्दिरका निर्माण कराया । यहाँ उसने तीर्थंकरोंके पाँच कल्याणकोंको भावनासे पाँच विशाल वस्तियाँ बनवायीं, हुल्लके गुरु देवकीर्ति देवने केलंगेरेमें प्रतापपुर वस्ति बनवायी थी । हुल्लने उसे नवीन
१. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग अभिलेख सं० १०५, पृ० २०३, पद्य ४५ २. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख सं० ९०
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
११९ रूप दिया और श्रवणबेलगोलासे एक मीलकी दूरीपर स्थित जिननाथपुर ग्राममें एक भिक्षागृह बनवाया। बंकापुरमें उसने जीर्ण शीर्ण मन्दिरका नवनिर्माण कराया। हुल्लका समस्त समय जिनमन्दिरोंके निर्माण, जिनदेवकी पूजा, जैन साधुओंको आहारदान और जैन शास्त्रोंके श्रवणमें ही व्यतीत होता था।
नरसिंहके सेनापति शान्तियण्णने एक बसदिका निर्माण कराया और उसकी व्यवस्थाके लिए भूमि प्रदान की। यह वासुपूज्य सिद्धान्तदेवके शिष्य मल्लिसेन पण्डितका शिष्य था । राजा नरसिंहके ईश्वर चमूपतिने तुमकुर ताल्लुकाके मन्दार हिलकी बसदिका जोर्णोद्धार कराया था।
राजा नरसिंहके पुत्र बल्लाल द्वितीयके सेनापतियोंमें रेचिमय्य प्रसिद्ध है । इसका विशेष वर्णन शिकारपुर ताल्लुकाके चिक्क मागडिमें वंशबण्ण मन्दिरके प्रांगण में एक स्तम्भपर उत्कीर्ण सन् १९८२ ई० के अभिलेखमें आया है । बताया है कि एक बार रेचिमय्य राजा बोप्पदेव और शंकर सामन्तके साथ मागडिके जिनेश्वरको पूजाके लिए आया । पूजन करनेके पश्चात् रेचिमय्य दण्डाधीशने शंकर सामन्त द्वारा निर्मापित उस जिनमन्दिरको देखा और बहुत प्रसन्न हुआ तथा तीन पीढ़ियोंके लिए तलब ग्राम इस मन्दिरको प्रदान किया ।'
रेचिमय्यके कार्योंमें सबसे अधिक स्थायी कार्य आरसिय केरेमें सहस्र कूट चैत्यालयका निर्माण कराना है। इस चैत्यालयमें उत्कीर्ण अभिलेखमें बताया है कि जब होयसल नरेश वीर बल्लाल देव राजधानी दोरसमुद्रमें रहते हुए राज्य करते थे, आरसियकेरेके निवासियोंकी रत्नत्रय धर्ममें दृढ़ता सुनकर कलचुरिकुलके सचिवोत्तम रेचिमरसने बल्लाल देवके चरणोंमें आश्रय पाकर आरसियकेरेमें सहस्रकूट जिनालयकी स्थापना की। उन भगवान्की अष्टविध पूजन, पुजारी और सेवकोंको आजीविका तथा मन्दिरकी मरम्मतके लिए राजा बल्लालने हन्दरहाल ग्राम प्राप्त करके उसे अपने वंशके गुरु सागरनन्दि सिद्धान्तदेवको सौंप दिया। इसी अभिलेखमें आगे बताया है-राच द्वारा स्थापित सहस्रकूट जिनालयके लिए एक करोड़ रुपया इकट्ठाकर आरसियकेरेमें एक मन्दिर बनवाया. इस जिनालयको समस्त सात करोड़ लोगोंकी सहायता होनेसे इसका नाम एल्ल कोटि जिनालय रखा गया। इस चैत्यालयके लिए एक हजार कुटुम्बोंसे जमीन खरीदी गयी और राजा बल्लालने उस जमीनको कर मुक्त कर दिया ।
____ इस अभिलेखसे स्पष्ट है कि रेचिमय्यने जैनधर्मके उत्थानके हेतु अनेक महत्त्पपूर्ण कार्य किये हैं । बल्लाल द्वितीयके मन्त्री नागदेवने भी श्रवण बेलगोलाके पार्श्वनाथ देवके सामने एक रंगशाला तथा पत्थरके चबूतरेका निर्माण कराया था। इस प्रकार दक्षिण भारतमें अनेक महापुरुषोंने मन्दिर निर्माण, ग्रामदान एवं तीर्थ जीर्णोद्धार द्वारा जैन धर्मकी सेवा की है।
जैन शासनकी उन्नति करनेवालोंमें परमार्हत् कुमारपालका नाम उल्लेखनीय है । इस राजाका राज्याभिषेक वि० सं० ११९४ में मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्दशीको सम्पन्न हुआ। इसका राज-जीवन मौर्य सम्राट अशोकके तुल्य है। राज्यासीन होनेपर जिस प्रकार सम्राट अशोकको १. जैन शिलालेख संग्रह, भाग तीन, अभिलेख सं० ४०० तथा मिडियेवल जैनिज्म पृ०
१४७-१४८ २. वही अभिलेख सं०.४६५ अरसियरेका संस्कृत और कन्नड़ मिश्रित अभिलेख ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान अनिच्छापूर्वक प्रतिपक्षी राजाओंके साथ युद्ध करना पड़ा उसी प्रकार कुमारपालको भी। आठ दश वर्षके युद्धोपरान्त जीवनके शेष भागमें जिस प्रकार अशोकने प्रजाकी नैतिक और सामाजिक उन्नतिके लिए राजाज्ञाएँ प्रचारित की और राज्यमें शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाए रखने का यत्न किया उसी प्रकार कुमारपालने भी। कुमारपालने अशोकके समान ही प्रजाको धार्मिक और नैतिक बनानेका श्लाघनीय प्रयत्न किया है ।
निःसन्देह कुमारपाल अपने अन्तिम जीवनमें श्रमणोपासक था। उसने श्रावकके द्वादश व्रतोंका पूर्णतया आचरण किया है। सोमप्रभाचार्य और यशपालकी रचनाओंसे स्पष्ट अवगत होता है कि कुमारपालने वि० सं० १२१६ में हेमचन्द्राचार्यके पास सकल जन समक्ष जैनधर्मकी गृहस्थ दीक्षा धारण की थी और निम्नलिखित प्रतिज्ञाएं ग्रहण की थीं
१. राज्य रक्षाके निमित्त युद्धके अतिरिक्त यावज्जीवन किसी प्राणीको हिंसा न
करना। २. आखेट-शिकार न खेलना। ३. मद्य-मांसका सेवन नहीं करना । ४. प्रतिदिन जिन प्रतिभाकी पूजा-अर्चना करना। ५. हेमचन्द्राचार्यका पद-वन्दन करना । ६. अष्टमी और चतुर्दशीके दिन सामायिक और प्रोषध आदि विशेष व्रतोंका पालन
करना। ७. रात्रि-भोजन न करना । ८. स्वदारसन्तोष व्रत धारण करना और परस्त्रीका त्याग करना ।
९. वेश्या सेवन आदि व्यसनोंका त्याग करना । १०. अभ्यासके लिए अनशनादि तपोंका आचरण करना ।
कुमारपालने प्रजा-हितके लिए कई नियमोंका प्रचलन किया । उसने निवंशके धनका त्याग कर एक नया आदर्श उपस्थित किया। प्राचीन कालको राजनीतिके अनुसार निवंश पुरुषको सम्पत्ति उसके मरनेके बाद राजाकी हो जाती थी और इस कारण मरने वालेकी माता, स्त्री आदि आश्रित व्यक्ति अनाथ होकर भटकते थे और मृत्युसे भी अधिक दुःख भोगते थे। इस क्रूर राजनीतिके कारण अबलाएं जीवित रहनेपर भी मृतके समान थीं।
हेमचन्द्रके द्वयाश्रय काव्यको सूचनासे यह स्पष्ट है कि कुमारपालने उक्त प्रथाके दोषको अवगतकर इसे कानूनन बन्द करा दिया था । मन्त्री यशपालके नाटकसे भी इस तथ्यकी पुष्टि होती है।
श्रावकके व्रत ग्रहण करनेके पश्चात् कुमारपालने अपने राज्यमें जीव हिंसापर प्रतिबन्ध लगा दिया था। कहा जाता है कि शाकम्भरीके चाहमान राजा अणोराज और मालवाके परमार राजा बल्लाल देवको पराजित करनेके पश्चात् एक दिन कुमारपालने मार्गमें किसी दीन दरिद्र ग्रामीण मनुष्यको कुछ बकरे कसाईखानेकी ओर ले जाते देखा। उससे पूछ-ताछ की और वस्तुस्थितिका ज्ञान होनेपर उनके मन में बोधि-सत्वके समान करुणाभाव उत्पन्न हुमा। उसने अपने अधिकारियोंको आज्ञा दी कि मेरे राज्यमें कोई भी जीव हिंसा करे उसे चोर और
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १२१ व्यभिचारीसे भी अधिक कठोर दण्ड दिया जाय ! इस प्रकार भोजनके निमित्त होनेवाली जीव हिंसाको बन्द करा दिया।
कुछ प्रबन्ध काव्योंसे ज्ञात होता है कि पाटनकी अधिष्ठात्री कण्ठेश्वरी माताके राजपुजारियोंने कुमारपालको पशुबलि करनेके हेतु बाध्य करना चाहा। उन्होंने बताया कि नवरात्रिमें नगरदेवीकी पशुबलि द्वारा पूजा होनी चाहिए अन्यथा देवी कुपित हो जायगी और उसके कोपसे राजा एवं राज्यपर भयानक आपत्तियां आ जायेंगी । कुमारपालने अपने महामात्य वाग्भट्टसे इस सम्बन्धमें परामर्श किया। वाग्भट्टने भी देवीके कोपसे भयभीत हो बलिदान करनेकी सम्मति दी। राजाने व्याकुल हो हेमचन्द्र सूरिसे इस सम्बन्ध में परामर्श किया और उनकी सम्मतिके अनुसार बलिपूजाके अवसरपर वह थोड़ेसे पशुओंको साथ लेकर माता कण्ठेश्वरीके मन्दिरमें पहुंचा और पुजारियोंसे कहने लगा कि मैं ये पशु माताको बलि चढ़ानेके लिए लाया हूं। मैं इन्हें जीवित ही माताको अर्पित करता हूँ। यदि माताको इनके मांसकी आवश्यकता होगी तो वह स्वयं ही इन्हें अपना भक्ष्य बना लेंगी। इतना कहकर राजाने माताके मन्दिरमें पशुओंको बन्द कर दिया। दूसरे दिन प्रातःकाल राजपरिवारके साथ राजा आया और सहस्रों व्यक्तियोंकी उपस्थिति में उसने माताके मन्दिरका दरवाजा खोला। सभी पशु माताके मन्दिरमें आनन्दपूर्वक जीवित मिले । राजा कुमारपालने सभीको सम्बोधित करते हुए कहा कि माता को पशु मांसकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है। यह प्रथा तो स्वार्थी पुजारियोंने प्रचलित की है । देवी देवता बलि नहीं चाहते । इस प्रकार राजाने पशु बलिके निमित्त होनेवाली जीवहिंसाका उच्छेद किया । कुमारपालने जीवहिंसा, मद्यपान, द्यूत सेवन, वेश्या व्यसन आदिको अपने राज्यमें बन्द कर दिया। हेमचन्द्र द्वारा रचित कुमारपालचरितसे उसकी व्यवस्थित दिनचर्याका परिज्ञान होता है। यह विद्याप्रेमी और साहित्य-रसिक था। हेमचन्द्र द्वारा रचित योगशास्त्र और वीतराग स्तोत्रका प्रतिदिन स्वाध्याय करता था । आचार्य हेमचन्द्रने "त्रिषष्टिशलाका पुरुष" चरितकी रचना कुमारपालकी प्रेरणासे ही की है । उसने राज्य प्राप्तिके पश्चात् संध सहित गिरनारकी यात्रा भी की थी।
प्रबन्धकारोंके अनुसार कुमारपालकी राजाज्ञा उत्तरमें तुरुस्क लोगोंके प्रान्त तक, पूर्वमें गंगा नदीके किनारे तक, दक्षिणमें विन्ध्याचल तक और पश्चिममें समुद्र तक मानी जाती थी। यह धर्मवीर, दानवीर और युद्धवीर था। इसने अपने राज्यकालमें जैन धर्मकी सर्वाङ्गीण उन्नति करने का प्रयास किया है।
जिन शासनकी उन्नति करने वालोंमें विमल मन्त्री और वस्तुपाल एवं तेजपालके नाम उल्लेख्य हैं । मारवाड़के श्रीमाल नामक नगरमें प्राग्वाट जातिका नीना नामक एक करोड़पति सेट्ठी निवास करता था। यह अत्यन्त सदाचारी और परम श्रावक था। काल प्रभावसे धन क्षय होनेपर यह श्रीमालको छोड़कर गांमु नामक स्थानपर आया वहाँ पुनः समृद्धि प्राप्त की। नीनाको लहर नामक विद्वान् पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसने पर्याप्त धनार्जन किया। वि० सं० ८०२ में वनराज चावड़ाने अणहिलपुर पाटन नामक नगर बसाया। इसने नीना सेठ एवं उसके पुत्रलहरको भी अणहिलपुर पाटनमें बुला लिया। लहरको शूरवीर समझ कर उसे अपनी सेनाका सेनापति नियत किया। लहरने बड़ी योग्यतासे सेनाका संचालन किया जिससे प्रसन्न होकर पनराज चावड़ाने उसको सण्डस्थल नामक ग्राम भेटमें दिया । लहरके वंशमें वीरका सामना
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१२२ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
और इन वीरके दो पुत्र हुए-नेढ़ और विमल । नेढ़ अणहिलपुर पाटनके राज्य सिंहासनाधिपति गुर्जर देशके चौलुक्य महाराज भीमदेवका मन्त्री था। विमल अत्यन्त कार्यदक्ष, श्रवीर और उत्साही था। इसी कारण महाराज भीमदेवने उसको सेनापति नियत किया । विमलने भीमदेवकी आज्ञाके अनुसार अनेक संग्रामोंमें विजय प्राप्त की। यही कारण था कि महाराज भीमदेव उसपर सदैव प्रसन्न रहते थे। विमलने परमार घंघुरुको बड़ी ही बुद्धिमानीसे भीमदेवका अनुचर बनाया, जिससे भीमदेव उसपर और भी अधिक प्रसन्न हो गये ।
विमलने अपने उत्तरार्ध जीवनमें चन्द्रावती और अचलगढ़को अपना निवास स्थान बनाया और चन्द्रावतीमें धर्मघोष सूरिका चातुर्मास कराया और इनके उपदेशसे आबू पर्वतपर विमल बसहि नामक मन्दिर बनवाया । इस मन्दिरकी भूमिके खरीदने में अपार धन व्यय हुआ। विमल बसहि अपूर्व शिल्प कलाका उदाहरण है । यह संगमर्मर पाषाणसे बनाया गया है । गूढ मण्डप, नव चौकियां, रंगमण्डप तथा ५२ जिनालयादिसे सुशोभित है। मन्दिरकी प्रतिष्ठा विमलने वर्धमान सूरिके कर कमलों द्वारा वि० सं० १०८८ में करायी । विमल सेनापति अत्यन्त धर्मात्मा और धर्मप्रेमी था । उसने आबू पर्वतपर कलापूर्ण मन्दिरका निर्माण कर अक्षय यश प्राप्त किया है।
जैनधर्मका प्रचार और प्रसार करने वालोंमें वस्तुपाल और तेजपालका नाम भी आदरके साथ लिया जाता है । वस्तुपाल प्राग्वाटवंशी था । इस वंशमें चण्डप नामका प्रसिद्ध वीर हुआ जिसके पुत्रका नाम चण्डप्रसाद था । चण्डप्रसादके पुत्रका नाम सोम था जो सिद्धराज जयसिंहका सामन्त था । सोमने जैनधर्म स्वीकार कर लिया था। सोमका पुत्र अश्वराज हुआ और इस अश्वराजके तीन पुत्र हुए-मालदेव, वस्तुपाल और तेजपाल । वस्तुपालने यात्रा संघ निकाला था। इसकी ललिता देवी और बेजलदेवी नामकी दो धर्मपत्नियां थीं। ललिता देवीकी कुक्षिसे जयन्त सिंहका जन्म हुआ जो पिताके समान वीर और प्रतिभाशाली था ।
महामात्य तेजपालकी भी दो पत्नियां थीं-अनुपमदेवी और सुहडा देवी । अनुपम देवीकी कुक्षिसे महाप्रतापी, प्रतिभाशाली और उदार हृदय लड़सिंह नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। यह राज-कार्यमें भी निपुण था। यह पिताके साथ अथवा अकेला भी युद्ध, सन्धि, विग्रहादि कार्योमें भाग लेता था।
गुजरातकी राजधानी अणहिलपुर पाटनका उत्तराधिकार भीमदेव द्वितीयको प्राप्त हुआ। उस समय गुजरात में धोलकामें महामण्डलेश्वर सोलंकी अर्णोराजका पुत्र लवणप्रसाद राजा था और उसका पुत्र वीर धवल युवराज । ये दोनों भीमदेवके मुख्य सामन्त थे । महाराज भीमदेव इन पर बहुत प्रसन्न थे। इस कारण उन्होंने अपनी राज्य सीमाको बढ़ाने और सम्हालनेका कार्य लवणप्रसादको सौंपा और वीर धवलको अपना युवराज बनाया। इन्हीं वीर धवलके मन्त्री वस्तुपाल और तेजपाल थे। मंत्री वस्तुपाल और तेजपालने कई युद्ध किये और बुद्धिबलसे उनमें विजय प्राप्त की।
___ महामात्य वस्तुपाल और तेजपालने अनेक तीर्थ स्थानोंको यात्रा की और आबू पर्वतपर लूड़ बसहि नामक कलापूर्ण मन्दिर बनवाया । वस्तुपालके लघुभ्राता तेजपालने अपनी धर्मपत्नी अनुपम देवी और उसके गर्भसे उत्पन्न पुत्र लवण्य सिंहके कल्याणके लिए आबु पर्वतस्थ
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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देलवाड़ा ग्राममें विमल बसहि मन्दिरके पास ही उत्तम कारीगरी सहित संगमर्मरका गूढ़मण्डप, नव चौकियां, रंगमण्डप, बालानक, खत्तक, जगति एवं हस्तिशालादिका निर्माण कराया।
लूढ़सिंह बसहि नामक भव्य मन्दिर करोड़ों रुपये व्यय कर तैयार कराया गया है । इस मन्दिर और देहरियोंकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १२८७ से वि० सं० १२९३ तक होती रही है । इस मन्दिरकी नक्काशीका काम विमल बसहि जैसा ही है । मन्दिरकी दीवालें, द्वार, बारसाख, स्तम्भ, मण्डप, तोरण और छतके गुम्बज आदिमें केवल फूल, झाड़, बेलबूटे और झूमर आदि विभिन्न प्रकारकी विचित्र वस्तुओंकी खुदाई की है, बल्कि गज, अश्व, उष्ट्र, व्याघ्र, सिंह, मत्स्य, पक्षी, मनुष्य और देव, देवियोंकी नाना प्रकारकी मूर्तियाँ उत्कीणित हैं । इस प्रकार वस्तुपाल तेजपालने मन्दिरका निर्माण कराकर अपना नाम अमर किया है।
प्रभावनाके कार्य करने वालोंमें धरणाशाहका नाम भी गणनीय है। इसके पिताका नाम कुरपाल और दादाका नाग सांगण था । माताका नाम कमिल या कर्पूरदे था । ये दो भाई थेरत्ला और धरणा। ये दोनों भाई धार्मिक प्रवृत्तिके थे और इनका निवास स्थान शिरोहीका नदिया ग्राम था। कालान्तरमें ये मालवा चले गये और वहाँसे मेवाड़में कुम्बलगढ़के समीप गालगढ़में आ बसे । यहाँ इन्होंने रणकपुरका जैन मन्दिर बनवाया । इन्होंने अजाहरि सालेरा और पिण्डवाड़ामें कई धार्मिक कार्य कराये । इनके धार्मिक कार्योंका निर्देश वि० सं० १४६५ के पिण्डवाड़ाके लेखमें और वि० सं० १४९६ के रणकपुरके अभिलेखमें पाया जाता है । धरणाशाहके भाई रत्नाके वंशज सालिमने वि० सं० १५६६ में आबूमें प्रसिद्ध चतुर्मुख आदिनाथ जिनालय बनवाया था।
इसके अतिरिक्त देलवाड़ाका पिछोलिया परिवार जिनके वि० सं० १४९४ और वि० सं० १५०३ के अभिलेख मिले हैं, अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं ।
तीर्थमाला स्तवनमें--"मेघवीसल केल्हहेम सभीम निंबकटुकायुपासकैः" वर्णित है, जो देलवाड़ाके उल्लेखनीय श्रेष्ठि थे। इनमें केल्हका पुत्र सुरा वि० सं० १४८९ में जीवित था। निंबका उल्लेख ‘सोम सौभाग्य' काव्यके ८ वें सर्ग में आया है। यह संघपति था और इसने भुवन सुन्दरको सूरिपद दिलानेके लिए उत्सव कराया था। मेघ और वीसलने भी जैन धर्मके प्रचार और प्रसारमें योगदान दिया है।
धरणाशाह द्वारा स्थापित गोड़वाड़में सादड़ीवाड़के समीप अरावलीकी छायामें स्थित रणकपुरका जैन मन्दिर उत्तरी भारतके श्वेताम्बर जैन मन्दिरोंमें अपना विशिष्ट स्थान रखता है । इस मन्दिरमें वि० सं० १४९६ का एक अभिलेख है, जिसमें धरणाशाह और उनके पूर्वजोंका परिचय विस्तारपूर्वक दिया गया है । इस परिवार द्वारा गुणराज श्रेष्ठिके साथ यात्रा और पिण्डवाड़ा सालेरा आदि स्थानोंमें मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराना भी वर्णित है। मन्दिर निर्माणके सम्बन्धमें बताया है कि एक बार सोमसुन्दर सूरि बिहार करते हुए रणकपुर आये। वहाँ श्रेष्ठि धरणाशाहने बड़ा स्वागत किया तथा उनके आदेश पर ही रणकपुरमें मन्दिर बनवाया, जो कि वि० सं० १५१६ तक चलता रहा। “सोम सौभाग्य काव्य" से ज्ञात होता है कि धरणाशाहने इस मन्दिरकी प्रतिष्ठाके समय बड़ा महोत्सव सम्पन्न किया था। अनेक नगर मोर ग्रामोंमें कुमकुम पत्रिकाएं भेजी गयीं। इस प्रतिष्ठामें ५२ बड़े संघ और ५५२ साधु
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
सम्मिलित हुए थे। सारा मन्दिर सजाया गया और दक्षिण सिंहद्वार के बाहर आचार्य सोमसूरिके दर्शनार्थ सहस्रों लोग एकत्र हुए। पूर्वी सिंहद्वारके बाहर बेताढय गिरिका मनोहारी दृश्य निर्मित किया गया था। इसी महोत्सवमें सोमदेवको वाचकपद दिया गया। इस मन्दिरके उत्तरी-पूर्वी कोणमें एक मूर्ति धरणाशाहकी भी है। इनके हाथमें माला, सिरपर पाग और गलेमें उत्तरीय है।
जैन धर्मके प्रचारकोंमें रामदेव नवलखाका नाम भी उल्लेख्य है । रामदेव राणा खेताके समयमें मेवाड़का मुख्यमंत्री था। करेड़ाके जैन मन्दिरके विज्ञप्ति लेखमें इसका सुन्दर वर्णन आया है। इसके पिताका नाम लाघु और दादाका नाम लक्ष्मीधर था। इसकी दो पत्नियाँ थीं-मेलादे और माल्हणदे । मेलादे से सहनपालका जन्म हुआ और माल्हणदे से सारंग का । सहनपाल नवलखा भी राणा मोकल और कुम्भाके समयमें मुख्यमन्त्री था। इसे अभिलेखोंमें "राजमन्त्री धुरधौरेयः" लिखा है । आवश्यक बृहद्वृत्ति में भी आठ पुत्रोंका उल्लेख आया है । यथा-रणमल, रणधीर, रणवीर, माड़ा, संडा, रणभ्रम, चौडा और कर्मसिंह । इसकी माँ मेलादे वि० सं० १४८६ तक जीवित थी । उसने ज्ञानहंसगणिसे "सन्देह दोलावली" नामक पुस्तक लिखाई थी। प्रशस्तिमें इसकी बड़ी प्रशंसा की गयी है। रामदेवकी उक्त समय तक मृत्यु हो चुकी थी। सारंग और उसके पुत्रोंका उल्लेख नागदाके अद्भुतजी मूर्ति लेखमें है । इसमें उसको “माल्हण कुक्षि सरोजहंसोपम जिनधर्म कर्पूरवात सद्यधितुकसाः सारंग" लिखा है। इसकी दो पलियाँ थीं जिनके नाम हीमादे और लकमादे थे । रामदेव नवलखाने अनेक साधुओंको ज्ञान दिया था और तीर्थोके जीर्णोद्धार तथा मन्दिर निर्माणके लिए सहस्रों रुपये व्यय किये थे।
वीसलवेष्ठिका नाम भी गणनीय है । यह इडरका रहनेवाला था और इसका विवाह रामदेव श्रेष्ठीकी पुत्री खीमासे हुआ था । यह सहणपालकी सगी बहन थी-"श्रीधर्मोत्कटमेदपाटव सचिव, श्रीरामदेवांगज मेलादेवि समुद्भूत खीमादेरीति" उल्लेखसे स्पष्ट है कि खीमादे की मांका नाम मीलादेवी था। बंसलके पिताके नाम वंश था, जो इडरके राजा रणमल्हका मन्त्री था। इसके चार पुत्र थे-गोविन्द, वीसल, अंकुरसिंह और हीरा । 'सोम सौभाग्य काव्य'में लिखा है कि वीसल अत्यन्त धार्मिकपुरुष था । उसके दो पुत्र थे-धीर और चम्पक । इसने देलवाड़ामें आचार्य सोमसुन्दर सूरिसे विशालराजको वाचकपद दिलानेके हेतु बड़ा उत्सव किया था। इसने क्रियारत्न समुच्चयकी दश प्रतियां लिखवायीं। इसकी प्रशस्तिमें इसे 'स्त्रीविरत सुधर्म निरतो भक्त' लिखा है। चित्तौड़ में इसने श्रेयांसनाथका एक भव्य मन्दिर भी बनवाया था। जिसकी प्रतिष्ठा आचार्य सोमसुन्दर सूरिने करायी थी। इसके पुत्र चम्पकने तिरानबे अंगुलकी एक मनोरथ कल्पद्रुम पार्श्वनाथकी प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी थी। चम्पकने एक बड़ा उत्सव सम्पन्नकर जिनकीर्तिको सूरिपद दिलाया । बीसल श्रेष्ठि बड़ा धर्मात्मा और धर्म प्रचारक था। १. करेड़ा विज्ञप्ति लेख, वि० सं० १४३१ तथा सन्देह दोलावली वि० सं० १६८६ में रचित
प्रशस्ति द्रष्टव्य है। २. पिटरसनकी छठी रिपोर्ट, पृ० १७-१८, पद्य १-२, देवकुल पाठक, पृ० ७-८, सोम
सौभाग्य काव्यका सातवा सर्ग तथा गुरुगुणरत्नाकर काव्य श्लोक ६५ ।
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१२५ जिन शासनको प्रभावना करने वालोंमें गुणराज श्रेष्ठिका नाम भी प्रसिद्ध है। यह मेवाड़ के चित्तौड़का रहनेवाला था और अहमदाबादमें व्यापार करता था। इसका पूर्वज बीसल बड़ा प्रसिद्ध था, जो चित्तौड़में रहता था। इसका पौत्र धनपाल व्यापार करनेके हेतु अहमदाबाद गया था। उसका वंशज श्रेष्ठि गुणोराज हुआ। उसका छोटा भाई अम्बक था, जो जैन साधु हो गया था। इस परिवारका सविस्तार वर्णन वि० सं० १४९५ के एक चित्तौड़ अभिलेखमें आया है । गुणराजके ५ पुत्र थे-गज, महिराज, वाल्हा, कालु और ईश्वर । बाल्हाको राणा मोकल बहुत मानता था। कालू मेवाड़ राज्यमें उच्चपद पर नियुक्त था।
गुणराज जैन संघ का प्रभावक श्रेष्ठि था। इसने संघ निकाला था। जिसका उल्लेख "सोम सौभाग्य काव्य" के अष्टम सर्ग में आया है। कहा जाता है कि इस संघमें रणकपुर मंदिर का निर्माता धरणाशाह भी शामिल था। इसने गुजरात के बादशाह अहमदशाहसे फरमान प्राप्तकर संघ यात्रा की थी। इसके पुत्र वाल्हाने मोकलसे आज्ञा लेकर चित्तौड़में महावीर जैन मन्दिर बनवाया, जिसकी प्रतिष्ठा वि० सं० १४९५ में राणा कुम्भाके समय सोमसुन्दर आचार्य ने की थी । गुणराज श्रेष्ठि और उसका परिवार मन्दिर बनवाने, प्रतिष्ठा करवाने एवं जीर्ण तीर्थोद्धार करानेके कार्यमें विशेष प्रसिद्ध हैं । यात्रा संघ निकालकर इस परिवारने जैन धर्मकी अपूर्व सेवा की है।
इस प्रकार ई० पूर्व तीसरी शतीसे ई० सन्की १६ वीं शताब्दी तक जैन धर्मकी उन्नति करनेमें राजपरिवार, सामन्त परिवार, मन्त्री परिवार एवं श्रेष्ठपरिवार संलग्न रहा है । जैनधर्मकी प्रभाविका नारियां
महान् पुरुषोंके समान ही जैनधर्मकी उन्नति करने वाली अनेक उल्लेखनीय नारियां भी हुई हैं । प्राचीन शिलालेखों एवं वाड्मयके उल्लेखोंसे अवगत होता है कि जैन श्राविकाओं का तत्कालीन समाज पर पर्याप्त प्रभाव था। धर्म सेविका नारियोंने अपनी उदारता एवं आत्मोत्सर्ग द्वारा जैनधर्मको पर्याप्त सेवा को थी। श्रवण बेलगोलाके अभिलेखोंमें अनेक श्राविकाओं एवं आर्यिकाओंका उल्लेख है, जिन्होंने तन-मन-धनसे जैन धर्मके लिए प्रयत्न किया है।
ई० पूर्व छठी शताब्दीमें जैन धर्मका अभ्युत्थान करनेवाली इक्ष्वाकुवंशीय महाराज चेटककी राज्ञी भद्रा, चन्द्रवंशीय महाराज शतानीककी धर्मपत्नी मृगावती, सूर्यवंशी महाराज दशरथको पत्नी सुप्रभा, उदयन महाराजकी पत्नी प्रभावती, महाराज प्रसेनजितकी पत्नी मल्लिका एवं महाराज दधिवाहनकी पत्नी अभया भी है । इन देवियोंने अपने त्याग एवं शौर्यके द्वारा जैनधर्मकी विजय पताका फहरायी थी। इन्होंने अपने द्रव्यसे अनेक जिनालयोंका निर्माण कराया था तथा उनकी समुचित व्यवस्थाके लिए राज्यकी ओरसे भी सहायताका प्रबन्ध किया गया था। महारानी मल्लिका एवं अभयाके सम्बन्धमें कहा जाता है कि इन देवियोंके प्रभावसे ही प्रभावित होकर महाराज प्रसेनजित एवं दधिवाहन जैन धर्मके दृढ़ श्रद्धालु हुए थे । महाराज प्रसेनजितने श्रावस्तीके जैनोंको जो सम्मान प्रदान किया था, उसका भी प्रधान कारण महारानी की प्रेरणा ही थी।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
___ महाराज यम उदेशके राजा थे। इन्होंने सुधर्म स्वामीसे दीक्षा ली थी। इन्हींके साथ महारानी धनवतीने भी श्राविकाके व्रत ग्रहण किये थे । धनवतीने जैन धर्मके प्रसारके लिए कई उत्सव किये थे । यह परम श्रद्धालु और धर्म प्रचारिका नारी थी। इसके प्रभावसे केवल इसका कुटुम्ब हो जैन धर्मानुयायी नहीं हुआ था बल्कि उड्रदेशको समस्त प्रजा जैन धर्मानुयायिनी बन गयी थी। सम्राट् एल खारवेलकी पत्नी भूसीसिंह यथा बड़ी धर्मात्मा हुई है । इसने भुवनेश्वरके पास खण्डगिरि और उदयगिरिपर अनेक गुफाएं बनवायीं और मुनियोंकी सेवा शुश्रूषा की।
मथुरा अभिलेखोंसे ज्ञात होता है कि अमोहिनी', लेण शोमिका', शिवामित्रा' धर्मघोषा', कसुयकी धर्मपत्नो स्थिरा', आर्या जया', जितामित्रा एवं आर्या बसुला आदिने जैन धर्मके उत्थानके लिए मन्दिर निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, आयाग पट्ट निर्माण आदि कार्य सम्पन्न किये । यहाँ स्मरणीय है कि उस युगमें धर्माराधनाका सबसे बड़ा साधन मन्दिरों एवं मूत्तियोंका निर्माण, उनकी प्रतिष्ठा करना ही माना जाता था।
मथुराके एक संस्कृत अभिलेख में ओखरिका और उज्झतिका द्वारा वर्धमान स्वामीकी प्रतिमा प्रतिष्ठित किये जाने एवं जिन मन्दिरके निर्माण किये जानेका उल्लेख आया है ।९ ई० पूर्वकी तीसरी-चौथी शताब्दीसे लेकर ई० सन् की छठी शताब्दीके इतिहासमें गंगवंशको महिलाओंकी उल्लेखनीय सेवाका निर्देश प्राप्त होता है । राजाओंके साथ गंगवंशकी रानियोंने भो जैन धर्मकी उन्नतिके लिए अनेक उपाय किये । ये रानियाँ मन्दिरोंकी व्यवस्था करतीं, नये मन्दिर और तालाब बनवाती एवं धर्म कार्योंके लिए दान की व्यवस्था करती थीं। उस राज्यके मूल संस्थापक दडिग और उनकी भार्या कम्पिलाके धार्मिक कार्योंके सम्बन्धमें कहा गया है कि इस दम्पतिने अनेक जैन मन्दिर बनवाये थे तथा मन्दिरोंकी पूर्ण व्यवस्था की थी। श्रवणबेलगोलाके शक संवत् ६२२ के अभिलेखोंमें आदेयरेनाडमें चितूरके मौनी गुरुकी शिष्या नागमती, पेरुमालु गुरुकी शिष्या धण्ण कुत्तारे विगुरवि, नमिलूर संघकी प्रभावती, मयूर संघको अध्यापिका दनितावतो, इसी संघकी सोन्दर्या आर्या नामकी आर्यिका एवं व्रतशीलादि सम्पन्न शशिमति गोतिके समाधि मरण धारण करनेका उल्लेख मिलता है। इन देवियोंने श्राविकाके व्रतोंका पालन किया था । अन्तिम जीवन में संसारसे विरक्त होकर कटवपपर्वतपर समाधि ग्रहण
१. जैन शिलालेख संग्रह द्वितीय भाग अभिलेख सं० ५ । २. वही, शिलालेख सं०८ । ३. वही अभिलेख सं० ९ । ४. वही, अभिलेख सं० १२ । ५. वही अभिलेख सं० २२ । ६. वही अभिलेख सं० २४ । ७. वही अभिलेख सं० ४१ । ८. वही अभिलेख सं० ६३ । ९. जैन शिलालेख सं० द्वितीय भाग, अभिलेख सं० ८८
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१२७ कर ली थी। सौन्दर्या आर्यिकाके सम्बन्धमें अभिलेख २९ में बताया है कि उसने उत्साहके साथ आत्मसंयम सहित समाधि व्रतका पालन किया और सहज ही अनुपम सुरलोकका मार्ग ग्रहण किया।
इसके अनन्तर जैनधर्मके धार्मिक विकासके इतिहासमें पल्लवाधिराज मरुवर्माकी पुत्री और निर्गुन्द देशके राजा परमगुलकी रानी कन्दाक्षिका नाम आता है। इसने श्रीपुरमें लोकतिलक जिनालय बनवाया था। इस जिनालयकी सुव्यवस्थाके लिए श्रीपुर राजाने अपनी भार्याको प्रेरणा एवं परमगुलकी प्रार्थनासे निर्गुन्द देश में स्थित पुनल्ली नामक ग्राम दानमें दिया था। ऐतिहासिक जैन धर्मसेविका जैन महिलाओंमें इस देवीका प्रमुख स्थान है। इसके सम्बन्धमें बताया जाता है कि यह सदा पुण्य कार्यों में आगे रहती थी। इसने कई उत्सव और जागरण भी किये थे । इसका समय ई० सन् की ८ वीं शताब्दी है ।
दसवीं शताब्दीमें राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीयके राज्य कालमें महासामन्त कलिबिट्ट रस वनवास प्रदेशके अधिकारी थे। सन् ९११ ई० में नगर खण्डके अधिकारी सत्तरस नागार्जुनका स्वर्गवास हो गया। उनके स्थानपर उनकी पत्नी जक्कियब्बेको अधिकारी नियुक्त किया गया। जक्कियब्वे शासनमें सुदक्ष और जैन शासनकी भक्त थी । नारी होनेपर भी उसमें बहादुरीकी कमी नहीं थी। सोलेतोरने इस नारीके सम्बन्धमें लिखा है-"This lady who was skilled in ability for good government faithful to the Jinendra Sasan and rejoicing in her beauty'."
इसी १० वीं शताब्दीमें जैन इतिहासमें स्मरणीय अतिमब्बे नामक महिलाका जन्म हुआ है। इस देवीके पिताका नाम सेनापति मल्लप्य, पतिका नाम नागदेव और पुत्रका नाम पडेबल तेल था। सेनापति मल्लप्य पश्चिमी चालुक्य शासक तेलपका नायक था। अतिमब्बे एक आदर्श उपासिका थी। इसने अपने व्ययसे पोन्नकृत शान्ति पुराणकी एक हजार प्रतियां
और डेढ़ हजार सोने एवं जवाहिरातकी मूत्तियाँ तैयार करायी थीं। अतिमब्बेका धर्म सेविकाओंमें अद्वितीय स्थान है।
१० वीं शताब्दीके अन्तिम भागमें वीरवर चामुण्डरायकी माता कालल देवी एक बड़ी धर्म प्रचारिका हुई है। भुजबल चरितम्से ज्ञात होता है कि इस देवीने गोम्मट देवकी प्रशंसा सुनी तो प्रतिज्ञा की कि जबतक गोम्मट देवके दर्शन न करूँगी तबतक दूध नहीं पीऊँगी। जब चामुण्डरायको अपनी पत्नी अजिता देवीके मुखसे अपनी माताकी यह प्रतिज्ञा ज्ञात हुई तो मातृभक्त पुत्रने माताको गोम्मट देवके दर्शन करानेके लिए पोदनपुरको ओर प्रस्थान किया। मार्गमें उसने श्रवणबेलगोलाकी चन्द्रगुप्ति वसतिके पार्श्वनाथके दर्शन किये और भद्रबाहुके चरणोंकी वन्दना की। इसी रातको पद्मावती देवीने कालल देवीको स्वप्न दिया कि कुक्कुट सर्पोके कारण पोदनपुरकी वन्दना सम्भव नहीं है, पर तुम्हारी भक्तिसे प्रसन्न होकर गोम्मट देव तुम्हें यहीं बड़ी पहाड़ी पर दर्शन देंगे। दर्शन देने का प्रकार यह है कि तुम्हारा पुत्र शुद्ध होकर इस छोटी पहाड़ी परसे एक स्वर्ण बाण छोड़े तो पाषाण शिलाओंके भीतरसे गोम्मट देव
१. मेडिवल जैनिज्म, पृ० १५६
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प्रकट होंगे । प्रातःकाल होनेपर चामुण्डरायने माताके आदेशानुसार नित्य कर्मसे निवृत्त हो स्नान पूजन कर छोटी पहाड़ीकी एक शिलापर अवस्थित हो दक्षिण दिशाकी ओर मुंह कर एक बाण छोड़ा जो विन्ध्य गिरिके मस्तक परकी शिलामें लगा । बाणके लगते ही शिला खण्डके भीतरसे गोम्मट स्वामीका मस्तक दृष्टिगोचर हुआ। अनन्तर हीरेके छेनी और मोतीकी हथौड़ीसे शिलाखण्डको हटाकर गोम्मट देवकी प्रतिमा निकाल ली गयी । इसके पश्चात् माताकी आज्ञासे वीरवर चामुण्ड रायने दुग्धाभिषेक किया।
इस पौराणिक घटनामें कुछ तथ्य हो या न हो, पर इतना निर्विवाद सत्य है कि चामुण्डरायने अपनी माता कालल देवीकी आज्ञा और प्रेरणासे ही श्रवणबेलगोलामें गोम्मटेश्वरकी मूत्ति स्थापित करायी थी। इस देवीने जैन धर्मके प्रचारके लिए भी कई उत्सव किये थे।
राजकीय महिलाओंमें जैन धर्मके संरक्षणमें क्रियात्मक योग देनेवाली पोचब्बरसी राजेन्द्र कौंगालवकी माता थी। इसने सन् १०५० ई० में एक बसदिका निर्माण कराकर उसकी व्यवस्थाके लिए भूमि प्रदान की। कदम्ब शासक कीर्तिदेवकी बड़ी रानी मालल देवीने सन् १०७७ ई० में कुप्पटूरमें पद्मनन्दि सिद्धान्तदेव द्वारा पार्श्वनाथ चैत्यालयका निर्माण कराया था।
शान्तरवंशकी महिला चट्टरदेवीका नाम अत्यन्त गौरवके साथ लिया जाता है। यह रक्कस गंगको पौत्री और पल्लव नरेश काडुवेट्ठीकी पत्नी थी। पुत्र और पतिकी मृत्यु होनेपर अपनी छोटी बहनकी चार सन्तानोंको अपना समझा और उनके साथ शान्तरोंकी राजधानी पोंबुच्चपुरमें जिनालयोंका निर्माण कराया । उसने अनेक मन्दिर, बसदियाँ, तालाब, स्नानगृह तथा गुफाएं बनवायीं तथा आहार, औषध, शिक्षा एवं आवासको व्यवस्था की। चट्टल देवीके गुरु श्रीविजय भट्टारक थे । ये रक्कस गंग और नन्न शान्तरसके भी गुरु थे।
सन् १११२ ई० में गंगवाडीके राजा भुजबल गंगकी महादेवी जैन मतकी संरक्षिका थी। लेखमें उसे जिनेन्द्र चरणोंकी भ्रमरी कहा है। उसके पति राजा हेम्मकी दूसरी पत्नीका नाम बाचल देवी था। उसने बन्निकरेमें एक सुन्दर जिनालयका निर्माण कराया था। इस जिनालयके लिए उसके पतिने, गंग महादेवीने तथा प्रमुख अधिकारियोंने मिलकर बुदनगेरे गांव, कुछ अन्य भूमि एवं धन प्रदान किया था ।
शान्तर राजकुमारी चम्पादेवीका नाम भी प्रसिद्ध है। यह राजा तैलकी पुत्री तथा विक्रमादित्य शान्तरकी बड़ी बहन थी। एक अभिलेखके अनुसार इसकी अष्ट प्रकारी पूजा, जिनाभिषेक एवं चतुर्विध भक्तिमें अत्यन्त आस्था थी। इसकी पुत्री वाचाल देवी दूसरी अतिमम्बे थी। वह प्रतिदिन सूर्य निकलते ही जिन भगवान्की पूजा किया करती थी। दोनों मां बेटी बादिन सिंह अजितसेन पण्डित देवकी शिष्याएं थीं।
जैन सेनापति गंगराजकी पत्नी लक्ष्मीमतीका नाम भी उल्लेखनीय है । यह शुभचन्द्रकी शिष्या थी। इसने श्रवणबेलगोलामें एक जिनालयका निर्माण कराया था और उसके पतिने इसके लिए दान दिया था । वस्तुतः लक्ष्मीमती अपने युगकी अत्यन्त प्रभावशालिनी नारी थी। गंगराजके बड़े भाईकी पत्नी अक्कणब्बे जैन धर्मको संरक्षिकाओंमें गणनीय है। वह सेनापति बोप्पकी माता थी। श्रवणबेलगोला के ४३ वें अभिलेखमें अक्कणब्बेको जैन धर्मका बड़ा भारी
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श्रद्धालु बताया है। इसने जिन मूर्ति एवं तालाब का निर्माण कराया था । मन्दिरों और मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा कराने में जक्कियव्ये एवं सेनापति सूर्यदण्डनायककी पत्नी दावणगेरे भी प्रसिद्ध हैं । इन दोनों नारियोंने जैन शासनकी प्रभावनाके हेतु अनेक कार्य किये हैं ।
गंगवंशके राजा मारसिंहकी छोटी बहनके गुरु माघनन्दि थे । इस महिलाने जहाँ जैन मन्दिर नहीं थे वहाँ जैन मन्दिरोंका निर्माण कराया और जहाँ जैन मुनियोंको निवासका प्रबन्ध नहीं था वहाँ निवास स्थान बनवाये ।
होयसल नरेश विष्णुवर्धनकी रानी शान्तल देवी प्रभावनाके लिए प्रसिद्ध है । इसके गुरु प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव थे । शान्तल देवीने जैनधर्मके लिए जो कुछ कार्य किये वे सब चिरस्थायी हैं । उसने श्रवणबेलगोलामें सन् ११२३ ई० में जिनेन्द्रकी मूर्तिकी स्थापना की और सवति गंधवारण बसदिका निर्माण कराया तथा राजा विष्णुवर्धनकी आज्ञासे प्रबन्धादिके लिए मोट्टेनविले गाँव प्रदान लिया । श्रवणबेलगोलाके एक अभिलेखमें शान्तल देवीके दानका स्मा
वर्णित है । कहा जाता है कि विष्णुवर्धनकी पटरानी शान्तल देवीने जो पातिव्रत धर्म परायणता और भक्तिमें रुक्मिणी, सत्यभामा और सीताके समान थी, सवति गंधवारण बसदि का निर्माण कराकर अभिषेकके लिए एक तालाब बनवाया और उसके साथ एक ग्राम दान दिया । सन् १९३९ ई० में इसने सल्लेखनापूर्वक मरण किया ।"
राजा विष्णुवर्धनकी पुत्री हरियब्बरसि जैन धर्मकी भक्त थी । सन् ११२९ ई० में हन्नियूरमें एक उत्तुंग जिनालयका निर्माण कराया और उसकी मरम्मत आदि के लिए भूमि प्रदान की ।
श्रवणबेलगोलाके १२४वें अभिलेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रमौलि मन्त्रीकी पत्नी आचल देवीने श्रवणबेलगोला में एक जिनमन्दिरका निर्माण कराया था, उसे चन्द्रमौलिकी प्रार्थनासे होयसल नरेश वीर बल्लालने बम्मेयन हल्लि नामक ग्राम प्रदान किया था ।
जैन महिलाओं के इतिहासमें नागले भी उल्लेख योग्य विदुषी और धर्म सेविका महिला है । इसके पुत्रका नाम बूचराज या बूचड़ मिलता है । यह अपनी माताके स्नेहमय उपदेशके कारण शक संवत् १०३७ में वैशाख शुक्ला दशमी रविवारको सर्वपरिग्रहका त्यागकर स्वर्गवासी हुआ । इसकी धर्मात्मा पुत्री देमती या देवमती थी । यह आहार, औषधि, ज्ञान और अभय इन चारों प्रकारोंके दानोंको करती थी । इसने शक सं० १०४२, फाल्गुल कृष्ण एकादशी गुरुवारको संन्यास विधिसे शरीर त्याग किया था ।
दक्षिण भारत के अतिरिक्त उत्तर भारतमें भी कई जैन महिलाओंने जैन धर्मकी प्रभावना की है । सुप्रसिद्ध कवि आशाधरजीकी पत्नी पद्मावतीने बुलडाना जिलेके मेहंकर (मेघंकर) नामक ग्रामके बालाजी मन्दिर में जैन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा कराई थी । यह एक खण्डित मूर्तिके लेखसे सिद्ध होता है । राजपूताने की जैन महिलाओंमें पीरबाड़वंशी तेजपालकी भार्या सोहडा देवी, शीशोदिया वंश की रानी जयतल्लदेवी एवं जैन राजा आशा शाहकी माताका नाम विशेष उल्लेख योग्य है ।
१. जैन शिलालेख संग्रह प्रथम भाग, अभिलेख सं० ५३ और ५६ ।
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
चौहान वंशकी रानियोंने भी उस वंशके राजाओंके समान ही जैन धर्मकी सेवा की है । इस वंशका शासन वि० सं० की तेरहवीं शताब्दी में था । राजा कीर्तिपालकी पत्नी महिबल देवीका नाम प्रसिद्ध है । इस देवीने शान्तिनाथ भगवान्का उत्सव मनानेके लिए भूमिदान की थी । इसने धर्म प्रभावनाके लिए कई उत्सव भी किए थे ।
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इसी वंशमें होने वाले पृथ्वीराज द्वितीय और सोमेश्वरने अपनी महारानियोंकी प्रेरणासे बिजौलियाके मन्दिरको दानमें दिया था तथा मन्दिरके स्थायी प्रबन्धके लिए राज्यकी ओरसे वार्षिक चन्दा भी दिया जाता था ।
परमार वंशमें उल्लेख योग्य धारावंशकी पत्नीश्रृंगारदेवी हुई है । इस देवीने झालोनी के शान्तिनाथ मन्दिर के लिए पर्याप्त दान दिया था तथा धर्म प्रसारके लिए और भी अनेक कार्य किये थे । इस प्रकार जैन धर्मके विकास में पुरुषोंके समान जैन नारियोंने भी योगदान दिया है ।
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जैनधर्म का महान् प्रचारक-सम्राट सम्प्रति
मौर्य राजाओंमें सम्राट चन्द्रगुप्त और सम्प्रति दोनों ही जैनधर्मके महान् प्रचारक हुए हैं। बौद्ध धर्मके प्रचारमें जो स्थान अशोकको प्राप्त है, जैनधर्म के प्रचार और प्रसारमें वही स्थान सम्प्रतिका है । सम्प्रतिकी जीवन गाथाके सम्बन्धमें हेमचन्द्रने अपने परिशिष्ट पर्वमें लिखा है कि बिन्दुसारकी मृत्यु के पश्चात् अशोक राज्यासीन हुआ। अशोकके लाडिले पुत्रका नाम कुणाल था। सम्राट अशोकको सर्वदा यह चिन्ता बनी रहती थी कि कहीं ऐसा न हो कि विमाता तिष्यरक्षिता कुमार कुणालके जीवनको खतरेमें डाल दे तथा वह अपने षड्यन्त्र द्वारा अपने पुत्रको राज्याधिकारी न बना दे। अतः अशोकने कुणालको उज्जयिनीमें अपने भाईके संरक्षणमें रखा । जब कुणाल आठ वर्षका हो गया तो रक्षक पुरुषोंने राजा अशोकको सुचमा मा दी कि कुमार अब विद्याध्ययन करने के योग्य हो गया है। सम्राट अशोक इस समाचारको सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और अपने हाथसे कुमारको विद्याध्ययन करानेका आदेश सूचक पत्र लिखा। पत्र समाप्त करनेके पश्चात् सीलमुहर करनेसे पहले ही अशोक किसी आवश्यक कार्यसे बाहर चला गया। इधर रानी तिष्यरक्षिता वहाँ आ पहँची और उसने उस पत्रको पढ़ा। पढ़कर अपने मनोवांछित कार्यको पूरा करनेके लिए "कुमारो अधीयउ" के स्थान पर अपनी आँखके काजलसे एक अनुस्वार बढ़ाकर 'कुमारो अंधीयउ' बना दिया । आवश्यक कार्यसे लौटकर अशोकने पत्र बिना ही पढ़े बन्द कर दूत (पत्रवाहक) को दे दिया।
उज्जयिनीमें पत्रवाहकने जब पत्र दिया और उसे खोलकर पढ़ा गया तो वहाँ शोक छा गया। कुमार कुणालके अभिभावक महाराज अशोकके भाईने तत्काल समझ लिया कि यह राजकीय विवादका परिणाम है। परन्तु पितृ-भक्त कुणालने विचार किया कि पिताने मुझे अन्धा होनेके लिए लिखा है, यदि मैं पिताकी आज्ञाका पालन नहीं करता हूँ तो मुझसे बड़ा मौर्यवंशमें पातकी कौन होगा। अतः उसने आगमें गर्मकर लोहेकी सलाइयोंसे अपनी दोनों आँखें फोड़ डालीं और वह स्वयं सदाके लिए अन्धा बन गया। पत्रवाहकके वापस आने पर इस दुःखद समाचारने पाटलीपुत्रमें तहलका मचा दिया। सम्राट अशोक भी प्रिय पुत्रके अन्धे हो जानेसे बहुत दुखी हुआ तथा अपने प्रमाद पर उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ।
___ अन्धा हो जानेसे कुणालका राज्य-गद्दी पर अधिकार न रहा। अशोकने उसे जीविका सम्पन्न करनेके लिए उज्जयिनीके आस-पासके कुछ गाँव दे दिये । कुणालको कुछ दिनके पश्चात् सर्वलक्षण सम्पन्न एक पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्रोत्पत्तिका समाचार सुनकर कुणालको बहुत प्रसन्नता हुई और उसने अपनी सौतेली मातासे बदला लेनेत्रा विचार किया। कुणाल संगीत विद्यामें बहुत निपुण था, उसके संगीतकी मधुर लहर जड़-चेतन सभीको आनन्दविभोर करती थी। अतएव वह पाटलीपुत्रमें गया और वहाँ संगीत द्वारा सारे नगरको अपने अधीन कर लिया। अन्धे गायककी प्रशंसा राजमहलों तक पहुँची, राजा अशोकने भी पर्देकी ओटसे गाना सुना । कुणालने मधुर कंठसे अमृत उड़ेलते हुए कहा
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान प्रपौत्रश्चन्द्रगुप्तस्य बिन्दुसारस्य नप्तृकः ।
एषोऽशोकश्रियः सूनुरन्धो याचति काकणिम् ॥ इस श्लोकको सुनकर अशोकको बड़ा आश्चर्य हुआ और पर्देकी ओटसे निकलकर अन्धे गायकका पूरा परिचय पूछा। जब राजाको कुणालका पूरा वृत्तान्त अवगत हो गया तो उसने कहा । पुत्र ! क्या चाहता है ? जो माँगेगा. दूंगा।
कुणाल-पिताजी ! मैं एक काकिनी चाहता हूँ। मंत्रीने राजाको समझाया कि राजपुत्र काकिनीसे राज्यकी याचना करते हैं । अशोकने पुनः कुणालसे कहा कि अन्धे होकर तुम राज्यसे क्या करोगे ? अन्धेको राज-गद्दी कैसे दी जा सकती है ?
कुणाल-पिताजी ! आपकी कृपासे मेरे पुत्र उत्पन्न हुआ है, आप उसीका राज्याभिषेक कीजिये।
___ अशोक-तुम्हारे पुत्र कब हुआ है ? कुणाल हाथ जोड़कर कहने लगा-सम्प्रति अर्थात् अभी। यह सुनकर अशोकने बालकको धूमधामके साथ पाटलीपुत्रमें बुलवाया और उसका जन्मोत्सव मनाया । बालकका नाम कुणालके उच्चारणपर सम्प्रति ही रख दिया। सम्प्रतिका जन्म ई०पूर्व० ३०४ पौषमास-जनवरीमें हुआ था। मगधमें लाये जानेपर इसकी अवस्था १० दिनकी थी। सम्प्रतिका राज्याभिषेक ई० पू० २८९ में १५ वर्षको अवस्थामें अक्षयतृतीयाके दिन हुआ था। ऐतिहासिक मतभेद
विष्णुपुराणमें अशोकका उत्तराधिकारी सुयश को बताया है। राजतरंगिणीके अनुसार काश्मीर प्रांतपर अशोकका पुत्र वीरसेन गान्धारका शासक था। विष्णुपुराण और मत्स्यपुराणमें अशोकका पोता दशरथ बताया गया है। दशरथका नागार्जुन पहाड़ी (गयाके पास) की गुफा में एक दानसूचक अभिलेख मिला है, जिसकी लिपिके आधारपर विन्सेण्टस्मिथका अनुमान है कि यही अशोकके राज्यका उत्तराधिकारी था। जैकोबीने सम्प्रतिको कल्पित बताया है अथवा इनका अनुमान है कि पूर्वीय राज्यका दशरथ उत्तराधिकारी था और पश्चिमीय राज्यका सम्प्रति रहा होगा।
वायुपुराणमें कुणालका पुत्र बन्धुपालित और उसका उत्तराधिकारी इन्द्रपालित बताया गया है। जायसवाल यह निष्कर्ष निकालते हैं कि बन्धुपालित और इन्द्रपालित क्रमशः दशरथ
और सम्प्रतिके उपनाम थे तथा सम्प्रति दशरथका छोटा भाई और उत्तराधिकारी था। तारानाथ कुणालके पुत्रका नाम विगताशोक बतलाते हैं, संभवतः यह सम्प्रतिका उपनाम हो। अशोकके शिलालेखोंके आधार पर सम्प्रतिका उपनाम प्रियदर्शिन् भी बताया गया है । श्री गिरनारजीकी तलहटीमें सुदर्शन नामका तालाब है, उसके पुनरुद्धार सम्बन्धी शिलालेखका
१. भारतीय इतिहासकी रूपरेखा, पृ० ६१५ । २. अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, पृ० १९२। ३. प्राचीन भारत, पृ० २१८ तथा प्राचीन राजवंश द्वितीय भाग, पृ० १३४ । ४. भारतीय इतिहासकी रूपरेखा, पृ० ६१६ ।
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १३३ पीटर्सन साहबने अनुवाद करते हुए कहा है कि इस तालाबको प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्तके समयमें विष्णुगुप्तने बनवाया था। इसके पश्चात् इसके चारों ओरकी दीवालें सम्राट अशोकके समयमें तुपस् नामक सत्ताधारीने पहली बार सुधरवायी थीं। तत्पश्चात् दूसरी बार पुनरुद्धार प्रियदशिन्के समयमें हुआ। इस कथनमें चन्द्रगुप्त, अशोक और प्रियदर्शिन् इन तीन शासकोंके नाम आये हैं । पीटर्सन साहबने प्रियदर्शिन् उर्फ सम्प्रतिके सम्बन्धमें शिलालेखसे निष्कर्ष निकाला है कि "उस राजवंशी पुरुषकी जन्मकालसे लेकर उत्तरोत्तर अप्रतिहत समृद्धि निरन्तर बढ़ती हो चली गयो"। ऐतिहातिक प्रमाण
(१) प्रो० रा० गो० भाण्डारकर का कथन है कि राजा सम्प्रतिको केवल १० दिनकी अवस्थामें गद्दीपर बैठाया गया था।
(२) मगधके सिंहासनपर श्रेणिकके पश्चात् सत्रहवां राजा सम्प्रति हुआ। उसका शासन काल वी० नि० सं० २३८ (ई० पू० २८९) से प्रारम्भ हुआ, जब सम्राट अशोकके शासनका अन्त हो रहा था।
(३) कर्नल टॉड साहब सम्प्रतिका शासन काल ई० पू० ३०३-३०४ में आरम्भ हुआ बताते हैं तथा उनका कहना है कि दस महीनेकी अवस्थामें यह गद्दीपर बैठाया गया था और १५ वर्षको अवस्थामें ई० पू० २९०-२८९ में इसका राज्याभिषेक हुआ था।
(४) तिब्बत देशके ग्रन्थोंमें लिखा गया है कि सम्प्रति५ बादशाह म० सं० २३५ में सिंहासनासीन हुआ था।
(५) प्रो० पिशल साहब की दृढ़ सम्मति है कि रूपनाथ, सासाराम और वैराटके शिलालेख भी सम्प्रतिके ही खुदवाये हैं। इस अभिप्रायसे प्रो० रोजडेविस साहब भी सहमत हैं ।
(६) दिव्यदान के पृष्ठ ४३० में स्पष्ट लिखा हुआ है कि सम्प्रति कुणालका पुत्र था । इस लेख में यह भी बताया गया है कि अशोकके बाद राजगद्दीपर आसीन होनेवाला प्रियदर्शिन् ही सम्प्रति है। यह जैनधर्मानुयायी था। इसके अनुसार सम्प्रतिका पुत्र बृहस्पति, बृहस्पतिका पुत्र वृषसेन तथा वृषसेनका पुण्यधर्मा था।
१. भावनगरके शिलालेख संस्कृत और प्राकृत १० २० । २. भाण्डारकर साहबकी रिपोर्ट IV, सन् १८८३-८४ पृ० १३५ । ३. इंडियन ऐंटिबेरी पु० ११ पृ० २४६ । ४. टॉड राजस्थान, द्वितीय आवृत्ति । ५. इण्डियन ऐंटिक्वेरी पु० ३२ पृ० २३० । ६. इण्डियन ऐंटिक्वेरी पु० ६ पृ० १४९ । ७. राधाकुमुद मुकुर्जी, अशोक पृ० ८, इण्डियन एन्टी० १९१४ पृ० १६८ फुट नो० ६७ ।
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१३४ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
(७) सम्प्रति' के समयमें जैनधर्मकी बुनियाद तमिल भारतके नये राज्योंमें भी जा जमी, इसमें सन्देह नहीं । उत्तर पच्छिमके अनार्य देशोंमें भी सम्प्रतिके समय जैन प्रचारक भेजे गये और वहाँ जैन साधुओंके लिए अनेक विहार स्थापित किये गये।
(८) बौद्ध साहित्य और जैन साहित्यको कथाओंसे सिद्ध होता है कि सम्प्रति जैनधर्म का अनुयायी प्रभावक शासक था । इसने अपने राज्यका खूब विस्तार किया था।
(९) कल्पसूत्र की टीकामें बताया गया है कि सम्प्रतिको रथ यात्राके समय आर्य सुहस्तिके दर्शनसे जाति स्मरण हो गया था; जिससे उसने जैन धर्मके प्रसारके लिए सवा करोड़ जिनालय बनवाये।
(१०) स्मिथ साहबने बताया है कि सम्प्रति प्राचीन भारतमें बड़ा प्रभावक शासक हुआ है। इसने अशोकने जिस प्रकार बौद्धधर्मका प्रचार किया था, उसी प्रकार जैनधर्मका प्रचार किया। धर्म प्रचारके कार्योंकी दृष्टिसे चन्द्रगुप्तसे भी बढ़कर इसका स्थान है ।
(११) तीन' खण्डोंके स्वामी परम प्रतापी कुणालका पुत्र महाराज सम्प्रति हुआ। यह अर्हन्त भगवान्का भक्त था, इसने अनार्य देशोंमें भी जैनधर्मके प्रचारकोंको भेजा था तथा जैन मुनियोंके लिए बिहार बनवाये थे । आर्य सुहस्तिसे इसने जिनदीक्षा ली थी। जीवन गाथा
सम्प्रति ने अपने बाहुबलसे अनेक देश-देशान्तरोंको जीतकर आधीन कर लिया था। दिग्विजयके पश्चात् यह एक दिन अपने उज्जयिनीके महलके वातायनमें बैठा हुआ था । इतने में अर्हन्त भगवान्की रथयात्राका जुलूस निकला, रथके ऊपरी भागपर आर्यमहागिरि और आर्य
१. भारतीय इतिहासकी रूपरेखा पृ० ६१६ । 2. Both the Buddhist and Jain traditions about Samprati have been
referred to us....Cf. Ray Chaudhuri, op. cip. p. 220. ३. सम्प्रति""पितामहदत्तराज्यो रथयात्राप्रवृत्त श्रीआर्यसुहस्तिदर्शनाज्जात जातिस्मृतिः....."
जिनालयसपादकोटि""अकरोत्-कल्पसूत्र सुखबोध टीका सूत्र ६ पृ० १६३ । 8. Almost all ancient Jain temples or monuments of unknown origin
are ascribed by rhe popular voice to Samprati, who is in fact
regarded as a Jaina Asoka"-Smith Early history of India p. 202. ५. तद्वंशे तु बिन्दुसारोऽशोकश्रीकुणालसूनुस्त्रिखण्ड भरताधिपः परमार्हतो अनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तितश्रमणविहारः सम्प्रतिमहाराजश्चाभवत् ।
-विविधतीर्थकल्पे पाटलीपुत्रनगरकल्पः पृ० ६९ । ६. परिशिष्ट पर्व दूसरा भाग पृ० ११५–१२४ । ७. श्वेताम्बर आगम में आर्य महागिरिको दिगम्बर बताया है तथा इन्हें आर्य सुहस्तिका भाई
भी माना गया है । आर्य सुहस्ति आर्य महागिरिकी वन्दना करते थे तथा सब प्रकारसे उनका सम्मान करते थे।
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१३५ सुहस्ति' थे, इन आचार्योंको देखते ही राजाके मनमें विचार आया कि इन्हें मैंने कभी देखा है; इस प्रकार ऊहापोह करनेपर उसे जाति-स्मरण ज्ञान हो गया और पूर्वजन्मकी बातें याद आ गयीं । विचारोंमें तल्लीन होनेसे राजाको मूर्छा आ गयी । मन्त्रियोंने वायु-प्रक्षेप और शीतोपचारोंसे राजाको सचेत किया।
सावधान होकर महाराज सम्प्रति महलसे नीचे आया और अपने गुरु आर्यसुहस्तिकी तीन प्रदक्षिणा दी तथा नमोऽस्तु कर कहने लगा-"प्रभो! क्या आप मुझे पहचानते हैं ? आर्य सुहस्तिने अपने ज्ञानबलसे तत्काल ही उसके पूर्वजन्मकी घटना अवगत कर ली। उन्होंने कहासामायिक व्रतके प्रभावसे तुम राजघरानेमें उत्पन्न हुए हो। यद्यपि तुमने क्षुल्लकके ही व्रतोंका पालन किया था, पर अहिंसक जैनधर्मके पालन करनेसे ऐसे तुच्छ फलोंका कोई महत्त्व नहीं। यह कल्याणकारी धर्म मोक्ष देनेवाला है, इससे जीव अपना सब तरहसे उद्धार कर सकता है ।
सम्प्रतिको गुरुवचनोंपर बड़ो भारी श्रद्धा हुई और उसने तत्काल जैनधर्म स्वीकार कर लिया। इसके दो वर्ष बाद उसने कलिंग देश जीता और व्रत ग्रहण किये । सम्राट् सम्प्रतिने युवावस्थामें भारतके समस्त राजाओंको करदाता बना दिया था । अष्टकके निकट आकर सिन्धु नदी पार करनेके उपरान्त अफगानिस्तानके मार्गसे ईरान, अरब और मिस्र आदि देशोंपर अपना अधिकार किया और कर लिया।
इसके सम्बन्धमें बताया गया है कि इसने सिन्धु नदीके पारके उन सरदारोंको जीतकर-जिन्हें सम्राट अशोक भी अपने आधीन नहीं कर सका था—कर वसूल किया । जिस प्रकार अजातशत्रुके आधीन १६००० करद राज्य थे, उसी प्रकार इसके आधीन राज्यों की संख्या भी उतनी ही थी। इस तरह सम्राट् सम्प्रति जब दिग्विजय कर वापस लौटा तो अशोकके महसे ये उद्गार निकले कि 'मेरे पितामह चन्द्रगुप्त तो केवल भारतके ही सम्राट थे, किन्तु मेरा पौत्र सम्प्रति तो संसार भरका सम्राट है।"
मौर्य राजाओंके राज्यविस्तारको यवसे उपमा देते हुए बताया है कि जिस प्रकार यव (जौ) प्रारम्भमें कुछ मोटा, उसके बाद अधिक मोटा और मध्यमें सबसे अधिक मोटा होता है, १. आर्य सुहस्ति अर्द्धफालक सम्प्रदायके प्रवर्तक थे, क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बरोंका संघ
भेद विक्रम संवत् १३९ में हुआ है । यह अर्द्धफालक सम्प्रदाय दिगम्बर और श्वेताम्बरोंकी मध्यकी चीज था, इसीसे आगे श्वेताम्बर सम्प्रदाय निकला है । आर्य सुहस्तिने उज्जयिनीमें उस वर्ष चातुर्मास किया था और चातुर्मासको समाप्तिके हर्षोपलक्षमें ही रथयात्रा वहां
की गयी थी। २. नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग १६ अंक १ पृ० ४१ । ३. जवमज्झमुरियवंसे, दाणावणिविवणिदारसंलोए ।
तसजीवपडिक्कमओ पभावओ समणसंघस्स ॥ यथा यवो मध्यभागे पृथुलः आदावन्ते च हीनः एवं मौर्यवंशोऽपि । तथाहि-चन्द्रगुप्तस्तावद् बहुलवाहनादिविभूत्या विभूषित आसीत् । ततो बिन्दुसारो बृहत्तरस्ततोऽप्यशोकश्रीबृहत्तमस्ततः सम्प्रतिः सर्वोत्कृष्टः। ततो भूयोऽपि तथैव हानिरवसातव्या । एवं यवमध्यकल्पः सम्प्रतिनृपतिरासीत् । -अभिषानराजेन्द्र सप्तम भाग पृ० १९८
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
पश्चात् धीरे-धीरे घटते घटते सूक्ष्म हो जाता है; इसी प्रकार चन्द्रगुप्तकी विभूतिसे अधिक बिन्दुसार की विभूति, उससे अधिक अशोककी और अशोकसे भी ज्यादा सम्प्रतिकी विभूति थी । इसके पश्चात् इस वंशकी विभूति उत्तरोत्तर कम होती चली गयी । इसने अपने राज्य में सब प्रकारसे अहिंसा धर्मका प्रचार करनेका यत्न किया ।
सम्राट् सम्प्रतिने राज्य की सुव्यवस्था करनेके लिए अपनी राजधानी अवन्ती' (उज्जयिनी ) में बनायी थी । राजनैतिक दृष्टिकोणसे पाटलीपुत्रमें इतने बड़े साम्राज्यकी राजधानी रखनेसे शासन सूत्र चलाने में अनेक कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता । एक बात यह भी थी कि प्रारम्भसे उज्जयिनीमें ही सम्प्रतिकी शिक्षा दीक्षा भी हुई थी, इसलिए इस स्थानसे विशेष प्रेम भी इसका था; अतः उज्जयिनीमें राजधानी स्थापितकर आनन्दपूर्वक शासन करता था । पाँच अणुव्रतों का यथार्थ रीतिसे पालन करते हुए इसने अनेक कार्य किये थे ।
दिग्विजयके दो वर्ष पश्चात् सम्राट् सम्प्रति सम्यग्दृष्टि श्रावक बनकर संघ सहित तीर्थयात्राके लिए रवाना हुआ। इसने मार्गमें कुएँ, धर्मशालाएँ, जिनमन्दिर और अनेक दानशालाएँ स्थापित की थीं। यह संघसहित यात्रा करता हुआ ऊर्जयन्त गिरि ( गिरनारजी) पर पहुँचा तथा वहाँके सुदर्शन नामके तालाबका पुनरुद्धार कराया और शत्रुञ्जयपर जिनमन्दिरों का निर्माण कराया । इसने अपने राज्यमें शिकार खेलनेका पूर्ण निषेध करवा दिया था । इसका जीवन पूर्णतया श्रावकका था । इसकी आयु सौ वर्षकी बतायी गयी है ।
शिलालेख
यद्यपि वर्त्तमानमें एक भी शिलालेख सम्प्रतिके नामका नहीं माना जाता है, प्रायः उपलब्ध मौर्यवंशके अधिकांश शिलालेखोंका परीक्षण किया जाय तो दो-चार अभिलेखों को छोड़ शेष सभी अभिलेख सम्प्रतिके ही प्रतीत होंगे । यहाँ पर कुछ विचारविनिमय किया जायगा, जिससे पाठक उक्त कथनकी यथार्थताको सहज हृदयंगम कर सकेंगे ।
१ - पुरातत्त्व विभागके असि० डायरेक्टर रे - जनरल स्व० पी० सी० बनर्जी लिखते हैं कि ये सब शिलालेख, जिनमें यवन राजाओंके नामोंका अंगुलि-निर्देश
१. प्राचीन भारत पृ० २१८-२१९ और केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया प्रथम पुस्तक पृ० ५६ —१७२ तथा भरतेश्वर बाहुबलीवृत्ति ।
२. इण्डियन ऐटि० ३२ पर तर्क उपस्थित करते हुए उन्होंने लिखा है कि ये सभी शिलालेख अशोकके होते तो उनमेंसे किसीमें भी उन्होंने अपना नाम क्यों नहीं लिखा ? प्रियदर्शिन्ने राज्याभिषेक के नौ वर्ष बाद व्रत लिए थे, ऐसी दशामें उक्त वर्णन अशोकसे सम्बन्ध रखता हो तो उसने राज्याभिषेकसे छः मास पूर्व और गद्दी पर बैठनेके चौथे वर्ष बौद्धधर्म में प्रवेश किया होगा । यदि दूसरा धर्म परिवर्तन कहा जा सकता हो तो राजा प्रियदर्शिन्ने मगधसंघ यात्रा अपने राज्यके दसवें वर्ष में की थी, जबकि मोग्गल पुत्र के नेतृत्वमें तीसरी बौद्ध कौंसिल अशोक राज्यके सत्रहवें वर्ष में हुई थी । इन सब कारणोंसे अशोक के शिलालेख नहीं हो सकते ।
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किया गया है, किसी भी तरह सम्राट अशोक' (द्वितीय) के बनाये हुए नहीं हो सकते । अधिक सम्भव तो उसके पौत्र राजा सम्प्रति द्वारा बनाये जाने का है, जिसने जैनधर्म स्वीकार कर अपने पितामहका पदानुकरण करते हुए शिलालेख खुदवाये होंगे ।
२ - प्रो० पिशल साहब ? रूपनाथ, सासाराम और वैराट के शिलालेखोंको अशोक के नहीं मानते, वे उन्हें सम्प्रति द्वारा खुदवाये बतलाते हैं ।
२३ - पालीभाषा के अधिकारी विद्वान् प्रो० विल्सन साहब लिखते हैं कि प्राणियोंका बध रोकने विषयक उसके आर्डीनेंस बौद्धधर्म की अपेक्षा उसके प्रतिस्पर्धी जैनधर्मके सिद्धान्तोंसे अधिक मेल खाते हैं ।
४ - भाण्डारकर महोदय लिखते हैं कि स्तम्भ लेख नं० ३ में पांच आस्रव बताये गये हैं । बौद्धधर्म में तीन ही आस्रव होते हैं । हाँ जैनधर्ममें पांच आस्रव माने गये हैं ।
५ - राधाकुमुद मुकुर्जी ने निष्कर्ष निकाला है कि फाहियान और युआन च्वांग नामके दो चीनी यात्री भारतवर्ष में आये थे, उनके किये हुए वर्णनोंमें इन शिलालेखोंकी चर्चा अवश्य है, किन्तु यह कहीं भी नहीं लिखा है कि ये शिलालेख अशोकके खुदवाये हुए हैं। केवल इतनी बात लिखी है कि ये लेख प्राचीन हैं, इनमें लिखी बात इनसे भी पहले की है ।
६ - प्रो० हुल्ट्श साहब " का मत है कि बौद्धमतकी तत्त्वविद्या में आत्मविद्या विषयक जो विकासक्रम बतलाया गया है, उसमें और शिलालेखोंकी लिपिमें धम्मपद विषयक जो विकासक्रम लिखा गया है, अत्यधिक अन्तर है । यह समग्र रचना ही जैनधर्मके अनुसार खोदी गयी है ।
७—अशोकके सभो शिलालेख सिकन्दरशाह के समयसे लगभग ८० वर्ष बादके सिद्ध होते हैं और इस गणनासे उनका समय ई० पू० ३२३-८० = ई० पू० २४३ वर्ष आता है । पर अशोककी मृत्यु ई० पू० २७० में हो चुकी थी, अतः ये शिलालेख अशोकके कभी नहीं हो सकते । इनका निर्माता जैनधर्मानुयायी सम्प्रति अपर नाम प्रियदर्शिन् ही है !
१. शिशुनागवंशी कालाशोक उपनाम महापद्म को प्रथम अशोक कहा जाता है । समय ई० पू० ४५४-४२६
२. इण्डियन एण्टीक्वेरी पु० ७ पृ० १४२
3. His ordinances concerning sparing of animal life agree much more closely with the Ideas of the heretical Jains than those of the Buddhists —ज० रा० ए० सो० १८८७ पृ० २७५
४. मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच आसवके कारण है ।
५. कोर० इन्स्क्रिप्शन इंडि० के० पु० १ पृ० XLVII
६. सर कनिंगहम् " बुक ऑफ एसियंट इराज" पु० २
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आन्तरिक परीक्षण
अशोक के शिलालेखोंका आम्यन्तरिक परीक्षण करनेपर प्रतीत होता है कि अधिकांश शिलालेख जैन सम्राट् प्रियदर्शिन् उपनाम सम्प्रतिके हैं । विचार करनेके लिए निम्न प्रमाण उपस्थित किये जा रहे हैं, जिनसे पाठक यथार्थता अवगत कर सकेंगे ।
१ - अधिकांश शिलालेखों में 'देवानां ' प्रिय प्रियदर्शी' आता है । यह प्रियदर्शी न तो अशोकका उपनाम है और न विशेषण ही था । अतः प्रियदर्शीके नाम के सभी शिलालेख सम्प्रतिके हैं ।
२ - जिन लेखोंमें अशोकका नाम स्पष्टतः आया है, उनमें बौद्ध धर्मके सिद्धान्त पाये जाते हैं, किन्तु जिनमें प्रियदर्शीका नाम आया है, उनमें जैनधर्मके सिद्धान्त ही वर्तमान हैं । इसी कारण कई ऐतिहासिक विद्वान् अशोकके जैनधर्मानुयायी होने की आशंका करते हैं । वास्तव - में बात यह है कि मौर्यवंशमें अकेला अशोक ही बौद्धधर्मानुयायी थे ।
३ – पाँचवें शिलालेख में बताया गया है कि "इह ब्राह्मणेषु च नगरेषु सर्वेषु अवरोधनेषु भ्रातॄणां च अन्ये भगिनीनां एवं अपि अन्ये ज्ञातिषु सर्वत्र व्याप्ताः २” अर्थात् राजा प्रियदर्शिन्ने पाटलीपुत्र नगर एवं अन्यान्य स्थानोंमें अपने भाई बहिनोंको नियुक्त किया था । यदि इस कथनको अशोकके लिए माना जाय तो अनेक दोष आवेंगे । क्योंकि अशोक के सम्बन्धमें प्रसिद्धि है कि उसने अपने एक भाईको छोड़ शेष सभी कुटुम्बियोंको निष्कण्टक राज्य करने के लिए राज्याभिषेक से पूर्व ही मरवा डाला था; अतएव शिलालेखमें उल्लिखित उसके भाईबहन कैसे हो सकते हैं ? प्रियदर्शिन्के भाई, पुत्र और कुटुम्बियोंके सम्बन्ध में उल्लेख दिल्ली टोपराके स्तम्भ लेख नं ० ७ में पाया जाता है । अतः प्रियदर्शिन्का ही यह लेख होगा ।
४ — चौथे और ग्यारहवें शिलालेख में अहिंसा तत्त्वका वर्णन जैनधर्मकी अपेक्षा ही किया गया है । बौद्ध मतमें स्थावर जीव - पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकायकी हिंसाका त्याग कहीं नहीं बताया गया है । यदि ये शिलालेख अशोकके होते तो सजीवतुषको जलानेका निषेध तथा वनमें आग लगानेका निषेध कभी नहीं किया जाता । शिलालेखों में अहिंसाका सूक्ष्म वर्णन जैनधर्मके सिद्धान्तोंके साथ ही समत्व रखता है, बौद्धधर्मके सिद्धान्तों के साथ नहीं ।
५ - परभवके सुख के लिए लेखोंमें सर्व प्राणियोंकी रक्षा, संयम, समाचरण और मार्दव धर्म की शिक्षा दी गयी है । समाचरण और संयम जैनधर्म के आचार के प्रमुख अंग हैं, बौद्धधर्ममें इन्हें महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं है ।
१. 'देवानांप्रिय' विशेषण का उपयोग प्रायः साधु, महाराज, भक्तजन या किसी सेठके लिए होता था । कभी-कभी पति-पत्नी भी एक-दूसरे के सम्बोधन के लिए इसका व्यवहार करते थे । - कल्पसूत्रकी सुखबोधिनी टीका पृ० ४७
२. अशोक-धर्म लेख १६२
३. सव भूतानं अछति, संयम, समचरियं मादवं च - अशोक शिलालेख १३, पृ० २५० ४. समदा समाचारो सम्माचारी समो व आचारो ।
सम्वसिहि सम्माणं समाचारो दु आचारो ॥ - मूलाचार १२३ ॥४॥
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६-स्तम्भ लेख नं० ५ में पक्षियोंके वध, जलचर प्राणियोंके शिकार तथा अन्य प्राणियोंके वध करनेका अष्टमी, चतुर्दशी और कात्तिक, फाल्गुन एवं आषाढ़की अष्टान्हिका तथा पयूषण पर्वकी पुण्यतिथियोंमें निषेध किया गया है । इस निषेधसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन तिथियोंका महत्त्व जैनोंके लिए जितना है, उतना अन्य धर्मावलम्बियोंके लिए नहीं । अतः इस आज्ञाका प्रचारक जैन ही हो सकता है। अष्टमी और चतुर्दशीको पर्व तिथियाँ जैनोंने ही माना है बौद्ध और वैदिकोंने नहीं ।
७--जैनधर्मके पारिभाषिक शब्द शिलालेखोंमें इतने अधिक है, जिससे उनके निर्माताको बौद्ध कभी नहीं माना जा सकता। स्तम्भ लेख नं० ६ से पचूपगमन (प्रायुपगमन), शिलालेख नं० ३ में प्राणानारम्भ (प्राण अनारम्भ), शिलालेख नं० ५ में कल्प शिलालेख नं० १२ गुति (गुप्ति) और समवाय (समवायाङ्ग), स्तम्भ लेख नं० २ में संयम, भाव शुद्धि और आस्रव, शिलालेख नं० १३ में वेदनीय तथा पञ्चम स्तम्भ लेखमें जोवनिकाय और प्रोषघ (प्रोषधोपवास) आदि शब्द आये हैं । इन शिलालेखोंका निर्माता सम्प्रति उपनाम प्रियदर्शिन्' होना चाहिये।
(८) गिरनारके लेख नं० ३ में 'स्वामिवात्सल्यता' का प्रयोग आया है । बौद्ध धर्मकी दृष्टिसे यह बन नहीं सकता, क्योंकि बौद्ध धर्म में भिक्षु और भिक्षुणी इन दोनोंका मिलाकर ही द्विविध संघ होता है, पर जैनधर्ममें मुनि, आयिका, श्रावक, और श्राविका इन चारोंको मिलाने से चतुर्विध संघ होता है । अतः स्वामिवात्सल्यता जैनधर्मकी दृष्टिसे ही बन सकती है, बौद्धधर्मकी दृष्टिसे नहीं।
(९) शिलालेख नं० ८ में संबोधिमयाय एक शब्द आया है, जिसके अर्थ में आजतक विशेषज्ञोंको सन्देह है। जैन मान्यतामें यह साधारण शब्द है इसका अर्थ सम्यक्त्व प्राप्ति है । कुछ लोगोंने खींच-तान कर इसका अर्थ जिस वृक्षके नीचे महात्मा बुद्धको सर्वोत्कृष्ट ज्ञानकी प्राप्ति हुई थी, उस बोधि वृक्षके नीचे छायामें जाकर किया है, जो असंगत प्रतीत होता है। १. शिलालेख नं० २ और १३ में ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें बताया गया है कि सम्राट् प्रिय
दर्शिन्के शासनकाल में ग्रीक साम्राज्यके पांच हिस्से हो गये थे। उनमें जो नाम बताये गये हैं उन पांचोंके आधारपर यूरोपीय विद्वानोंने उनका शासनकाल इस प्रकार निश्चित किया है-(१) ई० पू० २६१-२४६ (२) ई० पू० २८५-२४७ (३) ई० पू० २७४२४२ (४) ई० पू० २५६ और (५) ई० पू० २७२-२५४ शिलालेखोंकी खुदाईका समय भले ही बादका हो पर उपर्युक्त घटना प्रियदर्शिन् राजा द्वारा राज्याभिषेक होनेके आठ वर्ष बाद कलिंग जीत लेनेसे पहले हुई है । ऐसी दशामें यदि अशोक और प्रियदर्शी एक ही हों तो ई० पू० ३२५-८में अशोकका राज्याभिषेक होनेके हिसाबसे वह समय ई० पू० ३१७ होता है और इस दृष्टिसे विचार करनेपर उपर्युक्त पांच वर्षों में से किसीके साथ भी (राज्यशासनके आरम्भ या अन्तसे) उसका क्रम नहीं जुड़ता है, बल्कि उसके विपरीत वह और ५०-६० वर्ष पहले चला जाता है। इससे सिद्ध होता है कि प्रियदर्शिन् और अशोक ये दोनों एक नहीं, भिन्न व्यक्ति हैं ।
ना०प्र० प० भाग १६ अंक १ पृ० २२-२३
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान (१०) सम्प्रतिने स्तम्भ बनवाये उनपर सिंहकी मूर्तियाँ इसलिए अंकित करायीं कि यह उनके आराध्य भगवान् महावीरका चिन्ह है तथा सम्यग्दृष्टिके निर्भयपनेका सूचक भी है। सिंहकी मूर्तियाँ और चक्र सम्प्रति उर्फ प्रियदर्शिन्के ही हैं, क्योंकि इनका निकट सम्बन्ध जैनसंस्कृतिसे है। शंकाएँ
यदि अशोकका उपनाम या विशेषण प्रियदर्शिन् न माना जाय तो मक्खी के शिलालेख में अशोक शब्द स्पष्ट क्यों लिखा गया है ? प्रियदर्शी बौद्धधर्मके यात्रास्थान लुंबिनी और निग्लिविमें क्यों गया था ? यदि बौद्धधर्मो न होता तो वह वहां क्यों जाता? अतः प्रियदर्शिन् अशोकका विशेषण या उपनाम है। समाधान
___ मक्खीके शिलालेखमें 'देवानां प्रिय असोकस्स' आया है, प्रियदर्शिन्का नाम नहीं आया है, अतः यह शिलालेख अशोकका ही है। देवानां प्रिय उपाधि राजाओंके लिये उस कालमें व्यवहृत होती थी। इसलिये इस शिलालेखसे अशोक और प्रियदर्शी एक सिद्ध नहीं होते हैं ! यदि इसमें देवानां प्रिय प्रियदर्शिन् अशोक, ऐसा पाठ होता तो अवश्य अशोकका दूसरा नाम प्रियदर्शिन् माना जा सकता था।
दूसरी शंकाका समाधान यह है कि अशोककी मृत्यु सम्प्रतिके राज्याभिषेकके १९ वर्ष बाद ई०पू० २७० में हुई थी, अतः वह एक वर्ष बाद अपने पूज्य पितामहकी सांवत्सरिक क्रिया करनेके लिए गया होगा। दूसरी बात यह भी है कि राजा सभी धर्मों का संरक्षक तथा धर्म सहिष्णु होता है, अतः सम्प्रतिने अन्य स्थानोंके निरीक्षणके समान उक्त धर्म स्थानोंका भी निरीक्षण और दर्शन किया होगा। अतः शिलालेखों द्वारा सम्प्रतिके कार्योंका अनुमानकर उसे यश मिलाना चाहिए । वर्तमानमें राष्ट्रध्वजके लाञ्छन सम्प्रतिके ही हैं । भ्रमवश लोग अशोक के समझे हुए हैं। धर्म प्रचार
सम्प्रतिने जैनधर्मके प्रचारके लिए सवालाख नवीन जैन मन्दिर दो हजार धर्मशालाएं, ग्यारह हजार वापिकाएं और कुंए खोदवाकर पक्के घाट बनवाये । सवा करोड़ जिन-बिम्बोंकी प्रतिष्ठा करायी तथा छत्तीस हजार मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करवाया । एपीटम ऑफ जैनिज्ममें
1. Samprati was a great Jain monarch and a staunch supporter of the
faith. He erected thousands of temples throughour the length and breadth of is vast empire and consecreted large number of images, He is stated further to have sent Jain missionaries and ascetics abroad to preach Jainism in the distant countries and spread the faith amongst the people there.
-An Epitome of Jainism, Appendix A. P. v
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति बताया गया है कि सम्प्रति महान् वीर जैनधर्मानुयायी था। इसने धर्मको वृद्धिके लिए सुदूर देशोंमें धर्मका प्रचार कराया, अनार्य देशोंमें संघका विहार कराया तथा अपने अधीन सभी राजाओंको जैनी बनाकर जैनधर्मके प्रचारकोंको सब प्रकारसे सहयोग दिया।
खरतरगच्छावलीमें भी सम्प्रतिके कार्योंका उल्लेख करते हुए बताया गया है कि जैन साधुओंको धर्म प्रचारके लिए राजदूत बनाकर विदेशोंमें भेजा गया था। मालगुजारी वसूल करनेका कार्य भी प्रायः जैन साधु करते थे, ये साधु सातवीं प्रतिमाके धारी होते थे।
___ सम्प्रतिके धर्म प्रभावनाके कार्योंका निरूपण करते हुए कहा गया है कि यह सम्राट रथयात्रामें साथ रहता था तथा नाना प्रकारके पुष्पहार, तोरण, मालाओं आदिसे रथको सज्जित कर भगवान् जिनेन्द्रकी सवारी गाजे-बाजेके साथ निकालता था। इसने अपने आधीनस्थ राजाओंको आदेश दिया था कि यदि आप लोग मुझे अपना स्वामी मानते हैं तो जैन साधुओं का सम्मान करें, चतुर्विध संघका आदर करें। मुझे दण्ड द्वाग द्रव्यकी आवश्यकता नहीं है । अपने-अपने राज्यमें अभयदान करें, अहिंसा धर्मका प्रचार एवं पालनकर अपना कल्याण करें। चतुर्विध संघको तथा विशेषतः जैन साधुओंको शुद्ध आहार, पात्र तथा अन्य आवश्यकताकी वस्तुएं दानमें दें।
सम्राट् सम्प्रतिने अरब, ईरान, सिंहलद्वीप, रत्नद्वीप, महाराष्ट्र, आन्ध्र, कुडुक्कु आदि देशोंमें जैनधर्मका प्रचार कराया था। इसके द्वारा निर्मित मन्दिरोंमें गुजरात और राजपूतानेमें कुछ मन्दिरोंके ध्वंस अब भी वर्तमान हैं। कर्नल टॉड ने लिखा है कि “कमलमेरका शेष शिखर समुद्रतलसे ३३५३ फीट ऊंचा है । यहाँसे मैंने मरुक्षेत्रके बहुदूरवर्ती स्थानोंका प्रान्त निश्चय कर लिया। यहाँ ऐसे कितने ही दृश्य विद्यमान हैं, जिनका समय अंकित करने में लगभग एक मासका समय लगनेकी सम्भावना है। किन्तु हमने केवल उक्त दुर्ग और एक बहुत पुराने जैन मन्दिरका चित्रांक समाप्त करनेका समय पाया था। इस मन्दिरको गठन प्रणाली
१. येन सम्प्रतिना""साधुवेषधारी-निज-किङ्करजनप्रेषणेन अनार्यदेशेऽपि साधुविहारं कारितवान् ।
-खरतरगच्छावलि संग्रह पृ० ७ २. जति मं जाणइ सामि, समणाणं पणमहा सुविहियाणं ।
दम्वेण मे न कज्जं, एवं खु पियं कुणह मज्झं ।।। यदि मां स्वामिनं यूयं जानीथ मन्यध्वे ततः श्रमणप्रणमनादिकं मम प्रियं तदेव यूयं कुरुत । वीसज्जिया य तेणे, समणं घोसावणं सरज्जेसुं । साहूणं सुहविहारा, जाता पच्चंतिया देसा । समणभडभाविए सुं, तेसुं रज्जेसु एसणादीसुं । साहू सुहं विहरिया तेणं वि य भद्दगा तेउ । उदिणजोहाउलसिद्धसेणापडिट्टितो णिज्जियसत्तुसेणो । समंततो साहुसुहप्पयारे अकासि अंधे दविले य घोरे ।।
-अभिधान राजेन्द्र भाग ७ पृ० १९९-२०० ३. हिन्दी टॉड राजस्थान पहला भाग वि० सं० म० २६ पृ० ७२१-२३
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
बहुत प्राचीन कालके समान है । मन्दिरके बीचमें केवल खिलान युक्त ऊंची चोटीका विग्रह कक्ष (कमरा) है और उसके चारों ओर स्तम्भावलि शोभित गोल बरामदा है यह निश्चय ही जैन मन्दिर है"। कथनसे स्पष्ट है कि यह मन्दिर ई० पू० २०० से भी पहले का है, टॉड साहबने आगे भी इस बातको स्वीकार किया है । अतः यह सम्प्रतिका बनाया हुआ बताया जाता है।
सम्प्रतिने कई पिंजरापोल पशुरक्षणके लिए खुलवाये थे। गुजरातमें इस प्रथाका शेष चिह्न आज भी वर्तमान है । इसके धर्म प्रचारका उल्लेख श्वेताम्बर साहित्यमें ही पाया जाता है, दिगम्बर साहित्यमें नहीं । सम्प्रतिने जैन साधुओंकी धर्म प्रचारमें सब प्रकारसे सहायता की थी' । इसलिए राजकीय आश्रयको पाकर जैनधर्म खूब उस कालमें फैला। लोकोपकारी कार्य भी इसने अनेक किये । आहारदान, ज्ञानदान, औषधदान और अभयदान भी इसने अपने जीवनमें खूब दिये । राजनीतिमें अहिंसाका प्रयोग भी खूब किया। इसने अनार्य देशों में जैनधर्म के प्रचारके लिए सेनाके योद्धाओंको साधुओंका भेष बनाकर भेजा था। अपने प्रिय जैनधर्म के प्रसारमें इसने सभी सम्भव उपायोंसे काम लिया था ।
१. जैनिज्म इन नार्थ इण्डिया पृ० १४४-१४५ २. इत्यधिकायं धर्मविचारं संप्रतिभूपतिवृक्षमुदारम् ।
सद्गुरुप्रहताखिलबहुमान भज्यजना दधतां बहुमानम् ।।
-दर्शनशुद्धि गा.१३
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सम्राट सम्प्रति और उसकी कृतियाँ
मौर्य साम्राज्यकी वंशावली इतिहासके आधारपर इस प्रकार है । चन्द्रगुप्तने ई० पू० ३२२ से २९८ ई० पू० अर्थात् २४ वर्ष राज्य किया, इसके पश्चात् इसका पुत्र विन्दुसार राज्यासीन हुआ, इसने ई० पू० २९८ से ई० पू० २७२ तक अर्थात् २६ वर्ष राज्य किया । इसके पश्चात् इसके पुत्र अशोकवर्द्धनने राज्यभार ग्रहण किया । इसने ई० पू० २७२ से ई० पू० २३२ तक अर्थात् ४० वर्ष राज्य किया । अशोकके उत्तराधिकारियोंकी वंशावली निम्न है ।
रानी पद्मावती
अशोक
रानी तिष्यरक्षिता
कुणाल (सुयश ), दशरथ तीसरे की युद्ध में मृत्यु हुई थी
रानी असंधि मित्रा
महेन्द्रकुमार, जन्म ई० संघमित्रा कन्या; जन्म ई० पू० ३३२, मृत्यु ई० पू० पू० ३३०, मृत्यु ई० पू० २५४, ७८ वर्ष की आयु २५३, ७७ वर्ष की आयु ये दोनों भाईबहन बुद्धधर्म के प्रचार में लगे रहे
संप्रति उर्फ प्रियदर्शिन, शालिशुक उर्फ बन्धु पालित धर्माशोक, इन्द्र पालित
रानी असंधि मित्रा की दासी
ऋषभसेन बलौक तीवर चाइमती कन्या देवपालके साथ विवाह हुआ था,
भग
दोमोदर
कुछ ऐतिहासिक विद्वान् सम्प्रतिका उत्तराधिकारी शालिशुकको मानते हैं । इसने ई० पू० २०७ से ई० पू० २०६ तक अर्थात् एक वर्ष राज्य किया था । शालिशुक का पुत्र देववर्मा हुआ, इसने ई० पू० २०६ से ई० पू० १९९ अर्थात् ७ वर्ष राज्य किया । इसके दो पुत्र हुए शतधनुष और बृहद्रथ । शतधनुष ने ई० पू० १९८ से ई० पू० १९१ तक अर्थात् ८ वर्ष राज्य किया तथा बृहद्रथ ने ई० पू० १९१ से ई० पू० १८४ तक अर्थात् ७ वर्ष राज्य किया । इसके पश्चात् इस वंशका योग्य राज्यशासकके न होनेसे राज्य समाप्त हो गया ।
केरल पुत्र
सत्यपुत्र शालिशुक या
तिखेटन सूक कुमार
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वा मयका अवदान
हिन्दू पुराणोंमें कुणालका शासन काल ई० पू० २३२ से ई० पू० २२४ तक अर्थात् ८ वर्ष तक माना गया है । परन्तु जैन और बौद्ध साहित्यमें अन्धा होनेके कारण कुणालको शासक नहीं माना । वास्तविक बात यह है कि पुराणोंमें अशोक तक तो मौर्य वंशावली एक रूपमें मिलती है, पर इसके बादकी वंशावली में परस्पर मत भिन्नता है। विष्णु पुराण और भगवत पुराणमें अशोकके उत्तराधिकारीका नाम 'सुयश' है; किन्तु डसी स्थानपर वायु पुराणमें 'कुणाल' और ब्रह्माण्डपुराणमें कुशाल है । सुयश, कुणाल या कुशालके पीछे विष्णुपुराणमें 'दशरय' का नाम है एवं वायु और ब्रह्माण्डपुराणमें बन्धुपालितका नाम मिलता है। भागवतकार इसी स्थानपर 'संयत' नाम लिखते हैं । मत्स्य पुराणमें अशोकका उत्तराधिकारी 'सप्तति' (सम्प्रति) बताया है । पुराणकारोंकी इस मत भिन्नताके आधारपर यही कहा जा सकता है कि अशोकके पिछले मौर्य राजाओंकी वंशावलीकी पुराणकारोंको यथार्थ जानकारी नहीं थी। मत्स्यपुराणके कथनका समर्थन जैन और बौद्ध साहित्यसे होता है, अतः अशोकका उत्तराधिकारी सम्प्रतिको ही मानना उचित है । मत्स्यपुराणमें बताया है
षट्त्रिंशत्तु समा राजा, भविताऽशोक एव च । सप्तति (सम्प्रति) दर्शवर्षाणि, तस्य नप्ता भविष्यति ॥ राजा दशरथोऽष्टी तु, तस्य पुत्रो भविष्यति ।
-मत्स्यपुराण अध्याय २७२ श्लो० २३-२४ बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदानके २९वें अवदानमें जो वृत्तान्त आया है, उससे प्रकट है कि अशोककी बीमारीके समय अशोकका पौत्र युवराज सम्प्रति पाटलीपुत्रमें था और अशोककी मृत्युके उपरान्त उसका वहीं राज्याभिषेक हुआ ।
१. "अपि च राधगुप्त, अयं मे मनोरथो बभूव कोटीशतं भगवच्छासने दास्यामीति, स च
मेऽभिप्रायो न परिपूर्णः । ततो राजाऽशोकेन चत्वारः कोटयः परिपूरयिष्यामीति हिरण्यं सुवर्ण कुक्कुटारामं प्रेषयितुमारब्धः। ___ तस्मिंश्च समये कुनालस्य सम्पदी नाम पुत्रो युवराज्ये प्रर्वतते । तस्यामात्यैरभिहितं-कुमार ! अशोको राजा स्वल्पकालावस्थायी इदं च द्रव्यं कुर्कुटारामं प्रेषयते कोशबलिनश्च राजानो निवारयितव्यः । यावत् कुमारेण भांडागारिकः प्रतिषिताः । यदा राज्ञोऽशोकस्याप्रतिषिद्धाः (?) तस्य सुवर्णभाजने आहारमुपनाम्यते, भुक्त्वा तानि सुवर्णभाजनानि कुक्कुटारामं प्रेषयति ।......"अथ राजाऽशोक, साश्रुदुर्दिननयनवदनोऽमात्यानुवाच दाक्षिण्यात् अनृतं हि किं कथय, भ्रष्टाधिराज्या वयम , शेषं त्वामलकार्षमित्यवसितं यत्र प्रभुत्वं मम । ऐश्वयं धिगनार्यमुद्धतनदीतोयप्रवेशोपमम्, महँन्द्रस्य ममापि यत् प्रतिभयं दारिद्यमभ्यागतम् ॥
अर्थात्-राजा अशोकको बौद्धसंघको सौ करोड़ सुवर्णदान देनेकी इच्छा हुई और उसने दान देना शुरु किया । ३६ वर्ष में उसने ९६ करोड़ सुवर्ण तो दे दिया, पर अभी ४ करोड़ देना बाकी था, तब वह बीमार पड़ गया, जिन्दगी का भरोसा न समझकर उसने अवशेष चार करोडको चुका देनेके लिए खजानेसे कुक्कुटाराममें भिक्षुओंके लिए द्रव्य भेजना
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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अवदान कल्पलतामें क्षेमेन्द्र ने भी सम्पदी ( सम्प्रति) को अशोक का पौत्र और उत्तराfधकारी माना है । इसने लिखा है
तत्पौत्रः संपदी नाम, लोभान्धस्तस्य शासनम् । कोषाध्यक्षेरवारयत् ॥८॥
दानपुण्यप्रवृत्तस्य, दाने निषिद्धे पौत्रेण, संघाय पृथ्वीपतिः । भैषज्यामलकस्यार्धं ददो सर्वस्वतां गतम् ||९||
— बोधिसत्त्वावदानकल्पलता पल्लव ७४ १० ५९७
जैन और बौद्ध साहित्य में कुणालका अन्धा होना बताया गया है । विमाता के विद्वेषके कारण कुणाल को अपने नेत्रोंसे हाथ धोना पड़ा था । दिव्यावदान और अवदानकल्पलतामें लिखा है कि कुणालकी आंखें बड़ी सुन्दर थीं, जिससे उसकी सुन्दर आँखों पर मोहित होकर अशोककी रानी तिष्यरक्षिताने उससे अनुचित प्रार्थना की, किन्तु कुणालने उसे स्वीकार नहीं किया । अपना अपमान समझकर रानी अत्यन्त असन्तुष्ट हुई और अवसर मिलने पर बदला लेनेकी बात तय कर ली। एक बार राजा अशोक बीमार पड़ा था, वैद्योंने नाना प्रकारसे चिकित्सा की, किन्तु कुछ लाभ नहीं हुआ । तिष्यरक्षिताने अपनी चतुराई और परिचर्यासे सम्राट् अशोकको निरोग कर लिया । प्रसन्न होकर महाराज अशोकने उसे सात दिन का राज्य दिया । राज्य प्राप्तकर तिष्यरक्षिताने तक्षशिला' के अधिकारीवर्गके पास आज्ञापत्र भेजा कि
शुरू किया । मन्त्रियोंने कुणाल पुत्र संपदीसे कहा- राजन् । राजा अशोक अब थोड़े दिन ही रहनेवाला है, राजाओं का खजाना बल है, अतः कुर्कुटाराम जो द्रव्य भेजा जा रहा है, उसे रोकना चाहिये । मन्त्रियोंकी सलाहसे युवराज सम्पदीने कोषाध्यक्षको धन देनेसे रोक दिया । इस पर अशोकने अपने भोजन करनेके सोने, चांदी और अन्य धातुओं के पात्रों को भी दान कर दिया। अब राजाके पास आधा आँवला शेष रह गया। उसने मंत्रियों और प्रजागणको एकत्रित कर कहा -- बताओ इस समय पृथ्वीमें सत्ताधारी कौन है ? सभीने एक स्वरसे कहा - आपही ईश्वर सत्ताधारी राजा हैं । अशोक – तुम दाक्षिण्यसे
।
झूठ क्यों बोलते हो ? इस समय हमारा प्रभुत्व अर्धामलक पर है । इतना कहकर अशोकने उसे भी पास के एक व्यक्ति द्वारा कुर्कुटाराम संघके पास भेज दिया । संघने यूषमें मिलाकर आपस में बाँट लिया । राजा अशोकने अन्तिम समय में राधगुप्त अमात्यके समक्ष चार करोड़ स्वर्णदानके बदलेमें समस्त पृथ्वीका दान कर दिया अशोककी मृत्युके उपरान्त अमात्योंने संघ ४ करोड़ सुवर्ण देकर पृथ्वीको छुड़ाया और बादमें सम्पदीका राज्याभिषेक किया गया । १. जैन ग्रन्थोंमें कुणालको अवन्तिमें अन्धा किया गया बताया हैं, किन्तु बौद्ध ग्रन्थोंमें तक्षशिला में । इन दोनों कथनोंमें कोई अन्तर नहीं हैं; क्योंकि प्राचीन भारतमें अवन्ति और तक्ष शिला एक ही नगरी थी। बौद्ध साहित्यमें अवन्तिके ही अर्थ में तक्षशिलाका प्रयोग हुआ हैं । वैजयन्ति कोशमें बताया भी है- "अवन्ती स्यात्तक्षशिला " वैजयन्ती
- दिव्यावदान २९
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङमयका अवदान
कुणाल हमारे कुलका कलंक है, अतः इसकी आँखें निकाल ली जायें । फलतः कुणालको आज्ञा प्राप्त कर स्वयं अन्धा होना पड़ा।
__जैन ग्रन्थोंमें बताया है कि विद्याध्ययनके समय ही अवन्तिमें कुणालको विमाता तिष्यरक्षिताके षड्यन्त्रके कारण अन्धा होना पड़ा था। कुणालने अपनी बुद्धिमत्तासे अपने पुत्र सम्प्रतिको अशोकसे राज्य दिलवा दिया था। सम्प्रतिके सम्बन्धमें जैन लेखकोंमें दो मत प्रचलित हैं। प्रथम मत बृहत्कल्पचूणि कल्पकिरणावली, परिशिष्टपर्व आदिका है। इस मतके अनुसार कुणालने सम्प्रतिकी उत्पत्तिके अनन्तर अशोकसे उसके लिये राज्य मांगा; अशोकने उसी समय राज्य दे दिया। दूसरा मत निशीथ चूर्णिका है, इसके अनुसार सम्प्रतिको कुमार मुक्तिमें उज्जयिनीका राज्य मिला था।
इतिहासकारोंने जो कुणाकका राज्यकाल ८वर्ष बताया है तथा उसे अवन्ति या तक्षशिलाका शासक लिखा है; जैन और बौद्ध मान्यताके अनुसार भी इस कथनको एक प्रकारसे ठीक कहा जा सकता है। संभवतः अन्धा होनेके पूर्व कुणाल अवन्तिका युवराज था, अतः यहाँका शासन भार कुणालके हाथोंमें रहा हो । अन्धा होने के पश्चात् उसने अपने पिता अशोक से इसीलिये अपने पुत्रके लिये राज्यको याचना की थी कि अन्धा होनेके कारण उसके हाथसे उज्जयिनीका राज्यभार उसके पुत्रको मिल जाय । क्योंकि महाराज अशोकने कुणालके अन्धा होनेके अनन्तर अपने दूसरे राजकुमारको अवन्तिका शासक बना दिया था तथा कुणालकी गुजर-बसरके लिये एक-दो गाँव दे दिये थे । इस प्रकार की विचित्र असमंजस कारक परिस्थिति में कुणालको या उसके पुत्र सम्प्रतिको अवन्तिका शासन मिलना जरा कठिन था; इसीलिये बुद्धिमान कुणालने तरकीब सोचकर राजाको वचनबद्धकर अधिकार किया ।
मेरे इस कथनका अभिप्राय यह है कि अशोकके पश्चात् कुणालने शासन नहीं किया; किन्तु उसकी जीवित अवस्थामें कुछ दिनों तक युवराजपदका भार कुणालके ऊपर रहा था। अवन्तिमें अमात्योंकी परिषद्की सहायतासे कुणालने राज्य कार्य किया था । अशोककी मृत्युके पूर्व सम्प्रति युवराज पदपर आसीन था। तथा अवशेष चार करोड़ सुवर्णदान, जिसे अशोक खजाने से कुर्कुटाराम पहुँचाना चाहता था, सम्प्रतिने रुकवा दिया था। युवराजकालमें सम्प्रति अवन्तिका शासक भी था। आर्य सुहस्तिसे सम्प्रतिने युवराजकालमें ही जैनधर्मकी दीक्षा ली थी, इसी कारण जैन लेखकोंने उसे दीक्षाके समय युवराज या अवन्ति शासक लिखा है। दिव्यावदान और अवदान कल्पलतावृत्ति नामक बौद्ध ग्रन्थों में स्पष्ट बताया गया है कि अशोककी मृत्युके .
१. जैन-सिद्धान्त-भास्कर भाग १६ किरण २ पृ० ११५ २. कि काहिसि अंधओ रज्जेचं कुणालो भणति-मम पुत्रोत्थि संपती नाम कुमारो, दिन्नं
रज्ज-बृहत्कल्पचूणि २२ + + तस्य सुतः कुणालस्तन्नन्दनास्त्रिखण्डभोक्ता सम्प्रति नामा भूपतिः अभूत्, स च
जातमात्र एव पितामहदत्तराज्यः। -कल्पकिरणावली १६५ ३. उज्जेणीसे कुमारभोत्ती दिण्णा-निशीथचूर्णि ४. परितप्पिता उज्जेणी अण्णस्स दिण्णा-कल्पचूर्णि
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१४७ पश्चात् बौद्ध संघमें चार करोड़ स्वर्ण देकर सम्प्रति राज्यासन पर प्रतिष्ठित हुआ था। इसने अशोकके दानको रोक दिया था, इसलिये बौद्ध लेखकोंने इसकी निन्दा की है, इसे लोभी, मदान्ध आदि कहा है।
अशोकको मृत्यु के उपरान्त सम्प्रतिने पाटलीपुत्रके सिंहासनपर स्थित हो अपनी राज्य व्यवस्थाको सुदृढ़ किया । उसने युवराजकालमें ही काठियाबाड़ और दक्षिणापथको स्वाधीन कर लिया था। निशीथचूणिमें बताया गया है-"तेण सुरठ्ठविसयो अंधा दमिला य ओयविया" इसी सम्बन्धमें कल्पचूर्णिकारने लिखा है- “ताहे तेण संपइणा उज्जेणीआई कउं दक्खिणावहो सव्वो तत्थ ठिण्ण वि अज्जावितो" अर्थात् उस सम्प्रति नरेश ने समस्त दक्षिणापथको स्वाधीन कर लिया था । इस प्रकार पश्चिम और दक्षिण भारत राज्याभिषेक होनेके पहले ही युवराज अवस्थामें सम्प्रतिके आधीन थे। पूर्वी भारत मगधके राज्यसिंहासनपर अभिषिक्त होनेके पश्चात् सम्प्रतिके अधिकार में आगा।
मुनिश्री कल्याणविजयजीने 'वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना' नामक पुस्तकमें अनुमान किया है कि सम्प्रतिके पूर्व पूर्वीय भारतका कुछ भाग अशोकके द्वितीय पुत्र दशरथके आधीन था। कुणालके अन्धा होनेके उपरान्त जबतक अवन्तिका शासन सम्प्रतिको नहीं मिला, तब तक अशोकका यही द्वितीय पुत्र दशरथ अवन्तिका शासक रहा होगा। मुनिजीके इस अनुमानकी पुष्टि दशरथके नामके उपलब्ध शिलालेखोंसे भी हो जाती है।
सम्प्रतिने अपने राज्यमें अपनी कीत्तिको स्थायी रखने के लिये शिलालेख और स्तम्भ लेख खुदवाये तथा अनेक स्तूपोंका निर्माण कर जनताका कल्याण किया। यह इतना निरभिमानी था कि इसने अपना पूरा नाम किसी भी शिलालेख या स्तम्भ लेखमें उत्कीणित नही कराया। केवल महाराज प्रियदर्शिनके नामसे सभी लेख खदवाये हैं। भ्रमवश लोगोंने अशोक को प्रियदर्शिन मान लिया है, जिससे सम्प्रतिकी सारी कृतियाँ आज अशोककी मानी जाने लगी हैं। अशोकके नामके जितने शिलालेख प्रचलित है, उनमें दो-तीनको छोड़ शेष सभी सम्प्रतिके हैं। सम्प्रतिने अपने प्रिय अहिंसा धर्म के प्रचारके लिये जैनमान्यताके अनुसार धर्माज्ञाएँ प्रचलित की हैं। महाराज सम्प्रतिने प्रमुख चौदह शिलालेखोंको तीर्थंकरोंके निर्वाण स्थान, अपने कुटुम्बियोंके मृत्यु स्थान और अपने जन्म स्थानपर खुदवाया है । उसका विश्वास था कि निर्वाणस्थान पर यात्राके लिये आनेवाले यात्री इन धर्माज्ञाओंसे लाभ उठायेंगे तथा संसारसे विरक्त हो, अपना कल्याण करेगें। १. गङ्गाम्बुभाररुचिरां चतुरम्बु राशि-वेलाविलासवसनां मलयावतंसाम् ।
दत्त्वाऽखिलां वसुमती स समाससाद, पुण्यं प्रमाणकलनारहितं हिताय । प्रख्यातषण्णवति कोटिसुवर्णदाने, याते दिवं नरपतावथ तस्य पौत्रः ।
शेषेण मन्त्रिवचसा क्षितिमाजहार, स्पष्टक्रयी कनककोटिचतुष्टयेन ।। x x
x अवदान कल्प ल० ५० ७४ श्लो० ११-१२ एष राज्ञोऽशोकस्य मनोरथो बभूव कोटिशतं भगवच्छासने दानं दास्यामीति तेन षष्णवतिकोटयो दत्ता यावद् राज्ञा प्रतिषिद्धाः, तदभिप्रायेण राज्ञा पृथिवी संघे दत्ता यावदमात्यैश्चतस्रः कोटयो भगवच्छासने दत्त्वा पृथ्वी निष्क्रीय संपदी राज्य प्रतिष्ठापितः । -दिव्यावदान २९
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१४८ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
__ जैन सम्प्रदायके २४ तीर्थंकरोंमें से श्री ऋषभनाथने अष्टापद पर्वतसे, नेमिनाथने गिरनार पर्वतसे, वासुपूज्य स्वामीने चम्पापुरके समीपवर्ती पर्वतसे, महावीर स्वामीने पावापुरीसे और शेष बीस तीथंकरोंने श्रीसम्मेदशिखर ( पार्श्वनाथ हिल ) से निर्वाण लाभ किया है । सम्प्रतिने इन निर्वाण स्थानोंपर तथा अपने जन्मस्थान भावू-विराट एवं अपने कुटुम्बियोंके समाधिस्थानों पर शिलालेख खुदवाये हैं। इसने अपना प्रिय चिह्न हाथी प्रत्येक शिलालेखमें अङ्कित कराया है। हाथीके प्रिय होनेका कारण यह है कि प्रत्येक तीर्थकरकी माताके सोलह स्वप्नोंमें श्वेत हाथी प्रथम स्वप्न है । जैनग्रन्थोंमें यह भी बताया गया है कि सम्प्रतिके जन्मके पूर्व इसकी माताने भी श्वेत हाथीका स्वप्न देखा था, अतः इसे हाथीका चिह्न अत्यन्त प्रिय रहा । अशोकके नामसे प्रचलित चौदह शिलालेख सम्प्रतिके ही हैं । वर्णन निम्न प्रकार है।
१-कालसी (शिलालेख, हाथी खुदा हुआ है)-आदिनाथ (ऋषभनाथ) तीर्थकरका मोक्ष स्थान अष्टापद पर्वत बताया है। प्राचीनकालका अष्टापद तो देवोंने नष्ट कर दिया है। सम्राट् प्रियदर्शिनके समयमें कालसी' ही अष्टापद माना जाता था; अतएव इसकी तलहटीमें शिलालेख सम्राट् प्रियदर्शिनने खुदवाया।
२-जूनागढ़ ( गिरनारजी, शिलालेख और हाथी उत्कीणित है )-बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथका मोक्षस्थान गिरनार पर्वत बताया गया है। प्राचीन पर्वतकी तलहटी धीरे-धीरे हटकर वर्तमान गिरनार पर्वतके स्थान पर पहुंच गयी है। सम्राट् प्रियदर्शिनके समयमें यह तलहटी उसी स्थान पर थी, जिस पर यह शिलालेख अङ्कित है। हमारे इस कथनको पुष्टि सुदर्शन तालाबको प्रशस्तिसे भी होती है । इसमें बताया गया है कि यह तालाब गिरनार पर्वत की तलहटीमें बनवाया गया था। परन्तु आज यह गिरनारसे दूर पड़ता है।
३-धौली (शिलालेख, स्थूल हाथी अङ्कित है)-जैनागममें बीस तीर्थंकरोंको निर्वाण भूमि श्रीसम्मेदशिखर ( पार्श्वनाथ हिल ) को माना गया है। सम्राट् प्रियदर्शिनके समयमें १. यह स्थान संयुक्त प्रदेशके देहरादून जिलेमें लगभग डेढ़मील दक्षिणको ओर जमुना और ____टोसके संगम पर है । हाथीकी मूत्ति के नीचे 'गजतमो' लिखा है । २. गिरनारजीको तलहटीमें सुदर्शन नामका तालाब है, इसके पुनरुद्धार सम्बन्धी शिला
लेखका पीटर्सन साहबने अनुवाद करते हुए कहा है कि इस तालाबको प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्तके समयमें विष्णुगुप्तने बनवाया था। इसके पश्चात् इसके चारों ओरकी दीवालें सम्राट अशोकके समयमें तुपस नामक सत्ताधारीने पहली बार सुधरवायी थी। तत्पश्चात् दूसरी बार पुनरुद्धार प्रियदर्शिन्के समयमें हुआ। इस कथनमें चन्द्रगुप्त, अशोक और प्रियदर्शिन् इन तीनों शासकोंके नाम आये हैं । अतएव अशोक और प्रियदर्शिन् ये दो भिन्न व्यक्ति हैं । प्रियदर्शिन् सम्प्रति ही था, जैनागममें इस नामसे इसका उल्लेख किया गया है ।
-जैनसिद्धान्त भास्कर भाग १६ किरण २ पृ० ११६, तथा भावनगरके संस्कृत, प्राकृत शिलालेख पृ० २०। ३. यह स्थान आजकल पुरी जिलेमें भुवनेश्वरसे सात मोल दक्षिण घोली नामक गांवके पास
अश्वत्थामा पहाड़ीके नामसे प्रसिद्ध है । एक चट्टानपर ११ प्रज्ञापन खुदे है। हाथीके सामनेकी आधी मूत्ति कोरकर बनायी गयी है। छठे प्रज्ञापनके अन्तमें 'सेतों' शब्द भी भाया है।
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति पार्श्वनाथ हिलकी तलहटी धौलीके निकट यो । इसी कारण सम्राट्ने इस पवित्र क्षेत्रको तलहटीमें शिलालेख खुदवाया था। इस शिलालेखके पास स्थूल हाथीकी मूत्ति अंकित की गयी है, जो इस बातको प्रकट करती है कि सम्राट् इस स्थानको अन्य स्थानोंकी अपेक्षा विशेष पवित्र समझता था, क्योंकि इस पर्वतपरसे बीस तीर्थङ्करोंने निर्वाण लाभ किया है। प्राचीनकालमें खण्डगिरि, उदयगिरि सम्मेदशिखर पर्वतके ही अन्तर्गत थे । खण्डगिरि नाम स्वयं इस बातका द्योतक है कि पहाड़के खण्डित हो जाने के कारण ही यह नाम पड़ा है। महाराज खारवेलके सययमें सम्मेदशिखर पर्वतकी श्रेणियाँ खण्डगिरि, उदयगिरि तक थीं। कलिंग नृपति खारवेलने खण्डगिरि हाथी गुफाका शिलालेख इसी कारण खुदवाया था कि वह इसे सम्मेदशिखर पर्वतका भाग मानता था।
४. रूपनाथ' (लघु शिलालेख)-बारहवें तीर्थकर वासुपूज्यको निर्वाण भूमि चम्पापुरोके आस-पासका कोई पर्वत था। इस चम्पापुरीको महाराज कुणिकने ई० पू० ५२४ में बसाया था। यह चम्पानगरी रूपनाथ और भरहुतके बीचमें थी। चम्पानगरीके निकटके पर्वतकी तलहटी रूपनाथमें ही थी । यद्यपि इस स्थानपरके लेख अस्पष्ट हैं तथा हाथीका चिह्न भी मिट गया प्रतीत होता है।
५. पावापुरी-यह अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामीको निर्वाणभूमि है । जिस प्रकार अन्य तीर्थंकरोंने पर्वतके ऊपर ध्यानारूढ़ हो निर्वाण लाभ किया था, उस प्रकार भगवान् महावीरने नहीं। इन्होंने निर्जन सुरम्य वनके मध्य पद्मसरोवरसे युक्त पावापुरीके स्थल भागसे शुक्ल ध्यान द्वारा निर्वाण लाभ किया है । इस स्थानपर कोई पहाड़ न होनेके कारण सम्राट् सम्प्रति शिलालेख नहीं खुदवा सका है ।
६.७ शाहबाज गढ़ी और मानसेरा-ये दोनों स्थान इनके वंशके लोगोंके मृत्यु स्थान हैं। सम्राट् बिन्दुसारका ज्येष्ठ पुत्र पंजाबके विद्रोहको शान्त करने गया था। उपद्रवकारियोंने शाहबाज गढ़ीमें इसकी हत्या कर दी थी। सम्राट् सम्प्रतिने इसी कारण शाहबाज गढ़ी में शिलालेख अंकित कराया। मानसेरा सम्राट अशोकके छोटे भाईका मृत्यु स्थान है, वहाँ भी किसी उपद्रवको शान्त करने गया था।
१. आजकल रूपनाथ मध्यप्रदेशके जबलपुर जिलेमें माना जाता है, प्राचीन चम्पापुरी रूपनाथ
और भरहुतके मध्यमें थी तथा वासुपूज्य स्वामीका निर्वाण भी इसी चम्पापुरीके निकटवाली पहाड़ीसे हुआ था। २. यह गांव पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्तके पेशावर जिलेको युसुफजई तहसीलमें है । इसके पास
एक चट्टानपर चौदह प्रज्ञापनाएं उत्कीणित हैं। यह पहाड़ी पेशावरसे ४० मील
उत्तर-पूर्व है। ३. यह पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्तके हजारा जिलेमें अबटाबाद नगरसे १५ मील उत्तरकी
ओर है।
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१५० भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
८. भाबू' विराट-यह राजा प्रियदर्शिनका जन्म स्थान है। जन्मस्थानके प्रेमसे प्रेरित होकर प्रियदशिनने इस स्थानपर शिलालेख अंकित कराया था।
९. सासाराम-यह सम्राट अशोकका मृत्यु स्थान है। यहाँपर पाषाण खण्डोंपर शिलालेख अंकित कराया गया है। इस लेखमें वीरनिर्वाण संवत् २५६ दिया गया है तथा इस समय प्रियदर्शिनकी अवस्था ३२॥ वर्षको बतायी गयी है।
१०. मास्कि-महाराज अशोकके भाई तिष्य और कुमार कुणालके समान अवन्तिमें रहनेवाले माधवसिंहका यह मरण स्थान है। इसी कारण यहाँपर शिलालेख अंकित कराया है।
११. १२. १३. सिद्धगिरि , ब्रह्मगिरि और चित्तलदुर्ग-महाराज चन्द्रगुप्त, भद्रबाहु स्वामी और कान्त मुनिराजके समाधि-मरणोंको स्मृतिके लिए इन स्थानोंमें लेख अंकित कराये हैं । यहाँ उन तीनोंकी मूर्तियाँ भी वर्तमान हैं।
१४. सोपारा -इस स्थानपर भी किसी मुनिकी समाधि हुई है । यहाँपर चन्द्रगुप्तके साथमें विहार करनेवाले क्षेमंकर नामक मुनिके समाधि ग्रहण करनेका उल्लेख भी मिलता है, अतः इस स्थानपर प्रियदर्शिनने शिलालेख अंकित कराया था।
सम्राट प्रियदर्शिनने जनतामें धर्म प्रचारके लिए शिलालेखोंके अतिरिक्त स्तम्भ और स्तूप भी स्थापित किये तथा स्तम्भोंके ऊपर सिंहको मूर्ति अंकित कर स्तम्भलेख उत्कीर्ण कराये। जिस प्रकार इसने पर्वतोंकी शिलाओंपर शिलालेखोंके लिए निर्वाण स्थान, समाधि स्थान एवं अपने जन्म स्थानको पसन्द किया था उसी प्रकार स्तम्भोंके लिये अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीरके तप स्थान और उपसर्ग स्थानोंको पसन्द किया। स्तम्भ लेखोंमें यह निश्चय करना कठिन है कि सम्राट् सम्प्रतिके स्तम्भ कौन-कौन है; क्योंकि महाराज अशोकने भी ८४०० स्तम्भोंका निर्माण किया था अतः सम्राट् सम्प्रति और सम्राट अशोक इन दोनोंके स्तम्भोंका मिश्रण हो गया है। फिर भी इतना सुनिश्चित है कि जिन स्तम्भों पर सिंहकी मूर्ति है, वे सभी स्तम्भ सम्राट् सम्प्रतिके हैं। इसने अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरके लांछन सिंहकी मूत्तिको स्तम्भोंपर स्थापित किया था। इसका अभिप्राय यह था कि सामान्य जनता भी वीरप्रभुका स्मरण उनके लांछन सिंहको देखकर कर सके ।
१. यह स्थान जयपुर राज्यमें है । जिस पत्थरपर यह शिलालेख उत्कीर्ण है, वह आजकल ___कलकत्तेकी बंगाल एशियाटिक सोसाइटीके भवनमें प्रिंसेपकी मूत्तिके सामने सुरक्षित है। २. विहारके शाहाबाद जिले में है । ३. यह स्थान निजाम राज्यके रायचूर जिलेमें है । ४. यह स्थान उत्तर मैसूरके चित्तलदुर्ग जिलेमें है। ५. उत्तर मैसूरके चित्तलदुर्ग जिलेमें यह आजकल है । ६. यह मैसूर राज्यमें है। ७. यह बम्बईके पास थाना जिलेमें है।
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१५१ श्री डॉ. त्रिभुवनदासजीने स्तूपोंके निर्माणका कारण बताया है कि भगवान् महावीर स्वामीके निर्वाणके अनन्तर उनके पट्टधर आचार्य या अन्य प्रमुख जैनधर्मके प्रचारक श्रावक, जिन्होंने समाधिमरण धारण किया था; के अग्नि संस्कार करके उत्पन्न हुए भस्मको सुरक्षित रखनेके लिये इन स्तूपोंका निर्माण सम्राट् सम्प्रति उर्फ प्रियदर्शिनने कराया था। इसी कारण इन स्तूपोंको भस्म करण्डक कहा गया है। अथवा यह भी सम्भव है कि महावीरके अनन्तर हुए जैनाचार्योंके समाधिस्थानपर उनकी भस्मको सुरक्षित रखने के लिये स्तूपोंका निर्माण कराया गया हो । मेरा अनुमान है कि चौबीस तीर्थंकरोंके पञ्चकल्याणक स्थानोंपर सम्प्रतिने स्तूपोंका निर्माण कराया था। यद्यपि मेरे अनुमानकी पुष्टि अन्य प्रभाणोंसे नहीं होती है फिर भी अब तक जो स्तूपोंके ध्वंसावशेष प्राप्त हुए हैं, उनसे उक्त अनुमानको पर्याप्त बल मिलता है।
वर्तमान राजमुद्रा और सिंहस्तम्भ
वर्तमान राजमुद्रा, जिसे भारत सरकारने अशोककी मुद्रा मानकर स्वीकार किया है, वास्तवमें सम्राट् सम्प्रतिकी है। सम्राट् सम्प्रति उर्फ प्रियदर्शिनने सारनाथमें जो स्तम्भ खड़ा किया था, उसपर तीन सिंहोंकी मूत्तियाँ, सिंहोंके नीचे धर्मचक्र तथा इसके दाईं, बाई ओर बैल और घोड़ेको मूत्तियाँ अंकित करायी है। इस मुद्राके सभी प्रतीकोंका जैन संस्कृतिसे सम्बन्ध है। सिंह अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीरका लांछन था, अतः अन्तिम तीर्थकरकी स्मृतिकी लिये सिंहकी मूत्तियोंको अपनाया था। इन मूत्तियोंका सन्निवेश भी जैन संस्कृतिके प्रतीकोंके अनुसार किया गया है। बीचवाला सिंह सम्यग्दर्शनका प्रतीक है तथा अगलबगलके सिंह, जिनका विरुद्ध दिशाओंकी ओर मुख है; सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रके प्रतीक हैं।
धर्मचक्रके दाई, बाईं ओर रहनेवाले बैल और घोड़ेका सम्बन्ध जैनप्रतीकोंसे है । बैल इस कालके प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेवका लांछन है तथा घोड़ा तृतीय तीर्थङ्कर संभवनाथका लांछन है; सम्राट् सम्प्रतिने द्वितीय तीर्थङ्कर अजितनाथके चिह्न हाथीका प्रयोग इसलिये नहीं किया कि उसने शिलालेखोंमें हाथीका प्रयोग किया था। अतः प्रथम और तृतीय तीर्थङ्करके चिह्नोंको अंकित कर अपनी धर्मभावनाका परिचय दिया।
धर्मचक्रको बौद्ध संस्कृतिसे प्रभावित इतिहासकार बौद्धाम्नायकी मौलिक देन मानते हैं, परन्तु वास्तविकता कुछ और है। यह जैन प्रतीक है, प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेवने तक्षशिलामें इसका प्रवर्तन किया था। यदि यह बौद्ध परम्पराका प्रतीक होता तो प्राचीन पाली साहित्यमें इसको अवश्य महत्त्वपूर्ण स्थान मिलता । प्राचीन जैनागममें जो कि निश्चय बौद्धागमसे प्राचीन हैं, धर्मचक्रका उल्लेख मिलता है तथा योजन प्रमाण सुविस्तृत सर्वरत्नमय धर्मचक्रकी पूजा किये जानेका कथन वर्तमान है। धर्मचक्र प्राचीन जैन मूत्तियोंपर भी अंकित मिलता है । कुषाणकालसे लेकर मध्य काल तककी जैन प्रतिमाओंके नीचे धर्मचक्रका चिह्न अवश्य रहा है । मुगल कालमें धातु प्रतिमाएं भी छोटी बनने लगी थीं, जिससे इस सांस्कृतिक चिह्नको प्रतिमा निर्माता भूल गये। पटना म्यूजियममें एक धातुका सुन्दर धर्मचक्र वर्तमान है, जो
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
मातवीं आठवीं शताब्दीका है । आराके श्री आदिनाथ जिनालय, धनुपुरामें श्यामवर्णकी प्रतिमाके नीचे धर्मचक्र अंकित है । जैन पुराणोंमें बताया गया है कि प्रत्येक तीर्थकरके समवशरणके दरवाजेपर सर्वतोभद्र यक्ष धर्मचक्र अपने सिरपर लिए खड़ा रहता था। अतः यह निश्चित है कि धर्मचक्र जैन संस्कृतिका प्रतीक है ।
___ अतएव वर्तमान राजमुद्राका जैन संस्कृतिसे सम्बन्ध है । बौद्ध संस्कृतिसे खींचतान कर कोई भले ही सम्बन्ध जोड़नेका उपक्रम करे, किन्तु तथ्य यही है कि सम्राट् सम्प्रतिने इस मुद्राको स्तम्भपर अंकित कराया था। गणतन्त्र भारतने इस मुद्राको अशोक मुद्राके मामसे स्वीकार किया है; पर वास्तविक इतिहासको अवगत कर इसे जैनमान्यता मिलनी चाहिये ।
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आदिपुराण में वर्णित नारी
प्रस्तावित
कवि या कलाकार अपने समय का प्रतिनिधि होता है । वह जिस युग में रहकर अपने साहित्यका निर्माण करता है, उस युगको छाप उसके साहित्यपर अवश्य पड़ती है; फलतः हम किसी भी महान् साहित्यकारको रचनामें उस समयके प्रचलित रीति-रिवाजोंका सम्यक्तया अवलोकन कर सकते हैं । यही कारण है कि किसी भी विशेष युग का साहित्य उस युग के इतिहास निर्माण का सुन्दर उपकरण होता है। आज से १११० वर्ष पहले जिनसेन नामक एक प्रख्यात जैनाचार्यने आदिपुराण नामक पुराण ग्रन्थकी रचना की है । इस पुराणमें धर्म, दर्शन, कथा, इतिहास आदि के साथ उस समयकी नारीके सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक आदि विविध क्षेत्रोंकी स्थिति का सूक्ष्म विश्लेषण किया है । यद्यपि उस युगमें भी नारी जातिपर पुरुष जाति वैयक्तिक एवं सामाजिक रूप से अनुचित लाभ उठाती थी, पर नारीकी स्थिति आजसे कहीं अच्छी और सम्मानपूर्ण थी । नारी मात्र भोगैषणाकी पूर्तिका साधन नहीं थी, उसे भी स्वतंत्र रूपसे विकसित और पल्लवित होनेकी पूर्ण सुविधाएँ प्राप्त थीं। वह स्वयं अपने भाग्यकी विधायिका थी। वह जीवनमें पुरुषकी अनुगामिनी बनती थी, दासी नहीं । उसका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व था, पुरुषके व्यक्तित्वमें अपना व्यक्तित्व उसे मिला देना नहीं पड़ता था। आजकी तरह उस समयकी नारी को चूंघट डालकर पर्दे में बन्द नहीं होना पड़ता था। यहाँ पर्याप्त प्रमाण देकर आचार्य जिनसेनने नारीकी जिस स्थिति का निरूपण किया है, उसपर संक्षिप्त प्रकाश डाला जाता है। कन्या की स्थिति
जिनसेनने कन्याको माँ-बापका अभिशाप नहीं माना' । बल्कि बताया है कि समाज में कन्याकी स्थिति आजसे कहीं अच्छी थी। यद्य पि जिनसेनकी रचनासे यह ध्वनित होता है कि उस समयके समाजमें कन्याकी महत्ता पुत्रकी अपेक्षा कम ही थी फिर भी कन्या परिवारके लिए मंगल मानी जाती थी इस कथनकी सिद्धिके लिये हमारे निम्न प्रमाण हैं, जिनके आधारपर यह कहा जा सकता है कि वैदिक आचार्योंकी अपेक्षा जिनसेनने कन्याको परिवारके लिये गौरवस्वरूप बताया है।
(१) जबकि मनुस्मति आदि ग्रन्थोंमें षोडश संस्कारोंमें पुंसवन संस्कारको महत्ता दी गई है वहाँ जिनसेनने इस संस्कारकी गणना ही नहीं की। इससे स्पष्ट है कि जिनसेनकी दृष्टिमें कन्या और पुत्र दोनों तुल्य थे। आदिपुराण (३८ पर्व श्लोक ७६)में बताया गया है
पत्नीमृतुमती , स्नातां पुरस्कृत्यर्हदिज्यया । सन्तानार्थं विना रागात् दम्पतिभ्यां न्यवेयताम् ॥
१. पितरौ तां प्रपश्यन्तो नितरां प्रीतिमापतुः ।
कलामिव सुधासूतेः जनतानन्दकारिणीम् । -आदपुराण पर्व ६, श्लोक ८३ २०
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान इस प्रकरणमें गर्भाधान, प्रीति, सुप्रीति, धृति, मोद, प्रमोद, ताम कर्म, बहिर्यान, निषधा, अन्न प्राशन, व्युष्टि, चौल, लिपि-संख्यान संस्कारोंका उल्लेख किया है।
(२) कन्याओंका लालन-पालन एवं उनकी शिक्षा-दीक्षा भी पुत्रोंके समान ही होती थी । भगवान् ऋषभदेव अपनी ब्राह्मी और सुन्दरी नामकी पुत्रियोंको शिक्षा देनेके लिये प्रेरित करते हुए कहते हैं
विद्यावान् पुरुषो लोके सम्मतिं याति कोविदः । नारी च तद्वती धत्ते स्त्रीसृष्टेरग्रिमं पदम् ॥
-(१६ पर्व श्लो० ९८२) तद् विद्याग्रहणे यत्नं पुत्रिके कुरुतं युवाम् ।। तत्संग्रहणकालोऽयं युवयोर्वर्ततेऽधुना ॥
-(पर्व १६ श्लो० १०२) इत्युक्त्वा मुहुराशास्य विस्तीर्णे हेमपट्टके। अधिवास्य स्वचित्तस्थां श्रुतदेवीं सपर्यया ।। विभुः करद्वयेनाभ्यां लिखन्नक्षरमालिकाम् । उपादिशल्लिपि संख्यास्थानं चाकैरनुक्रमात् ॥
-(प० १६–१०३, १०४) इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि भगवान् ऋषभदेवने अपने पुत्रोंकी अपेक्षा कन्याओंकी शिक्षाका पहले प्रबन्ध किया था । अंक विद्या और अक्षर विद्यामें ब्राह्मी और सुन्दरी ने पूर्णतया पाण्डित्य प्राप्त किया था।
(३) विवाहके अवसर पर वर-वरणकी स्वतंत्रता कन्याओंको प्राप्त थी । आदिपुराण में ऐसे अनेक स्थल हैं जिनसे सिद्ध है कि स्वयंवरों में कन्याएँ प्रस्तुत होकर स्वेच्छानुसार वरका वरण करती थीं।
ऐसे भी प्रमाण उपलब्ध हैं कि कन्याएँ आजीवन अविवाहिता रहकर समाजकी सेवा करती हुई अपना आत्मकल्याण करती थीं। ब्राह्मी और सुन्दरीने कौमार्य अवस्थामें ही दीक्षा ग्रहणकर आत्म-कल्याण किया था। उस समय समाजमें कन्याका विवाहिता हो जाना आवश्यक नहीं था। राजपरिवारोंके अतिरिक्त जनसाधारणमें भी कन्याकी स्थिति आजसे कहीं अच्छी थी। कन्याएं वयस्क होकर स्वेच्छानुसार अपने पिताकी सम्पत्तिमेंसे दानादिकके कार्य करती थीं। आदिपुराण (पर्व ४३, श्लोक १७४, १७५) में बताया गया है कि सुलोचनाने कौमार्य अवस्थामें ही बहुत-सी रत्नमयो प्रतिमाओंका निर्माण कराया और उन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा कराके बृहत् पूजनाभिषेक किया।
(४) कन्याका पैतृक सम्पत्तिमें तो अधिकार था ही पर वह आजीविकाके लिये स्वयं भी अर्जन कर सकती थी। आजीविका अजनके लिये उन्हें मूर्तिकला, चित्रकलाके साथ ऐसी कलाओंकी भी शिक्षा दी जाती थी जिससे वे अपने भरण-पोषणके योग्य अर्जन कर सकती थीं। पिता पुत्रीसे उसके विवाहके अवसर पर तो सम्मति लेता ही था पर आजीविका अर्जनके साधनोंपर भी उससे सम्मति लेता था। आदिपुराणके एवं पर्वमें बताया है कि वज़दन्त
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१५५ चक्रवर्ती अपनी कन्या श्रीमतीको बुलाकर उसे नाना प्रकारसे समझाता हुआ कलाओं के सम्बन्धमें चर्चा करता है। गृहिणी की स्थिति
विवाहके अनन्तर वधू गृहस्थाश्रममें प्रविष्ट हो गृहिणी पद प्राप्त करती थी । विवाह भी साधारणतया किसी पवित्र स्थानमें होता था।
पुण्याश्रमे क्वचित् सिद्धप्रतिमाभिमुखं तयोः । दम्पत्योः परया मूल्या कार्यः पाणिग्रहोत्सवः ।।
-(पर्व३८, श्लोक १२९) अर्थात् तीर्थस्थानमें या सिद्ध प्रतिमाके सम्मुख विवाहोत्सव सम्पन्न किया जाता था। विवाहकी दीक्षामें नियुक्त वरवधू देव और अग्निकी साक्षीपूर्वक सात दिन तक ब्रह्मचर्यव्रत धारण करते थे फिर अपने योग्य किसी देशमें प्रयाणकर अथवा तीर्थभूमिमें जाकर प्रतिज्ञाबद्ध हो गृहस्थाश्रममें प्रविष्ट होते थे। दहेज आदिकी प्रथा समाजमें बिल्कुल नहीं थी। हाँ, एक बात अवश्य थी कि विवाह करनेमें कभी-कभी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता था। विवाहिता स्त्री अपने परिवारको सब तरहसे व्यवस्था करती थी। उस समय विवाह वासनाको पूर्तिका साधन नहीं था किन्तु संतति उत्पत्ति के लिये विवाह आवश्यक माना जाता था।
प्रजासन्तत्यविच्छेदे तनुते धर्मसन्ततिः । मनुष्व मानवं धर्म ततो देवेममच्युत ।। देवमं गृहिणां धर्मं विद्धि दारापरिग्रहम् । सन्तानरक्षणे यत्नः कार्यो हि गृहमेधिनाम् ॥
-(पर्व १५, श्लोक ६३-६४) (१) विवाहिता स्त्रियोंकी वेश-भूषा अनेक प्रकारकी थी। राजपरिवार एवं धनिक परिवारोंकी महिलाएँ मणिमाणिक्य, स्वर्ण, रजतके नुपूर, करधनी, कर्णफूल एवं हारको धारण करती थीं। मनोविनोदके लिये फूलोंके आभूषण और मालाएँ भी धारण करती थीं। रेशमी वस्त्र तथा महीन सूती वस्त्रोंको भी धारण करती थीं। साधारण परिवारोंमें फूलोंके आभूषणों के साथ-साथ कम कीमतके धातुओंके आभूषण भी पहने जाते थे । प्रकृतिकी गोदमें प्रधान रूप से विचरण करनेके कारण फूलपत्तियोंसे उस समय नारियोंको अधिक प्रेम था।
(२) पुरुष एकसे अधिक विवाह करता था तथा अन्तःपुरोंमें सपत्नियोंमें प्रायः कलह होता रहता था जिससे कभी कभी घरेलू जीवन दुःखमय बन जाता था । बहु विवाह की प्रथाके कारण राजपरिवारोंमें स्त्रियोंको कष्टका सामना करना पड़ता था। यद्यपि सामान्य परिवारोंमें बहु विवाहकी प्रथा नहीं थी केवल धनिक परिवारों में ही बहु विवाह होते थे।
१. प्रसूनरचिताकल्पावतंसीकृतपल्लवाः । कुसुमावचये सक्ताः सञ्चरन्तीरितस्ततः ॥ लसद्दुकूलवसनः विपुलैर्जधनस्थलैः । सकाञ्चीबंधनैः कामनपकारालयामितः ॥
आदि पर्व १८ श्लो० २०४, १९५, १९६
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदानं
(३) विवाहित स्त्रीको भी घूमने-फिरनेकी पूर्ण स्वतंत्रता थी । विवाहिता स्त्रियाँ अपने पतियोंके साथ तो वन विहार करती ही थीं पर कभी कभी एकाकी भी वन विहारके लिए जाती थीं ।
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(४) पति से ही स्त्रीकी शोभा नहीं थी, बल्कि पति भी स्त्रीसे शोभित होता था । आदिपुराण चतुर्थ पर्व १३२ वें श्लोक में बताया गया है कि मनोहररानी अपने पति अतिबलके लिए हास्यरूपी पुष्पसे शोभायमान लता के समान प्रिय थी और जिनवाणीके समान हित चाहने वाली ओर यशको बढ़ाने वाली थी । पर्व ६, श्लोक ९५ में बताया गया हैस तया कल्पवल्ल्येव सुरागोऽलंकृतो नृपः ।
(५) गृहस्थ जीवन में पति-पत्नियोंमें कलह भी होता था स्त्रियाँ प्रायः रूठ जाया करती थीं । पतियों द्वारा स्त्रियोंके मनाये जानेका वर्णन करता हुआ कवि कहता है
प्रणयकोपविजिह्नमुखीर्वधूः अनुनयन्ति सदाऽत्र नभश्चराः ॥ इह मृणालनियोजितबन्धर्नरिह वतंससरोरुहताडनैः । इह मुखासवसेचनकैः प्रियान् विमुखयन्ति रते कुपिताः स्त्रियः ॥ ( पर्व १९, श्लोक ९४-९५ )
(६) स्त्रियाँ व्रत उपवास अत्यधिक करती थीं। आरम्भ में ही बड़े-बड़े व्रतों को किया करती थीं । पंचकल्याणकव्रत, सोलहकारण व्रत, जिनेन्द्र-गुण-सम्पत्तिव्रत के करनेकी अधिक प्रथा थी | आदिपुराणके छठवें पर्व में बताया गया है कि मनस्विनी स्वयंप्रभाने अनेक व्रतोपवास किये । उस समय नारियाँ आर्यिका और क्षुल्लिकाकी पदवी धारण करती थीं तथा वे सदा इसके लिए उत्सुक रहती थीं कि कब उन्हें आत्मकल्याण करनेका अवसर प्राप्त हो । ४६ वें पर्व के ७६ वें श्लोक में बताया गया है कि प्रियदत्ताने विपुलमति नामके चारण ऋद्धिधारी मुनिको नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया और मुनिसे पूछा कि प्रभो मेरे तत्रका समय समीप है या नहीं। इससे स्पष्ट है कि उस समय सांसारिक भोगोंकी अपेक्षा आत्मकल्याणको स्त्रियाँ अधिक महत्ता देती थीं और परिवार में धर्मात्मा विदुषी महिलाओंका अधिक सम्मान होता था । (७) दुराचारिणी स्त्रियोंको समाजमें निंद्य दृष्टिसे देखा जाता था तथा पापके फलस्वरूप उनका समाजसे निष्कासन भी होता था । ४७ वें पर्व में बताया गया है कि समुद्रदत्तकी स्त्री सर्वदयिताको उसके ज्येष्ठ सागरदत्तने भ्रमवश घरसे निकाल दिया था और उसके पुत्रको कुल का कलंक समझ भृत्य द्वारा अन्यत्र भिजवा दिया था ।
(८) स्त्रियोंका अपमान समाजमें महान् अपराध माना जाता था । सभी स्त्रियोंको सम्मानकी दृष्टिसे देखते थे । कोई भी उनका अपमान नहीं कर सकता था। पति अपने बाहुबलसे स्त्रीके भरण पोषणके साथ उसका संरक्षण भी करता था । तेतालीसवें पर्वके ९९ वें श्लोक में बताया गया है :
न सहन्ते ननु स्त्रीणां तिर्यञ्चोऽपि पराभवम् ।
१. स्नेचरी जनसंचारसंक्रान्तपदयावकः । रक्ताम्बुजोपहारश्रीर्यत्र नित्यं वितन्यते ॥
- पर्व ४ श्लो० ८६
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यह तो चर्चा हुई स्त्रियोंकी महत्ताके सम्बन्धमें, पर कुछ प्रमाण ऐसे भी उपलब्ध होते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि जिनसेनके समयमें नारी परिग्रहके तुल्य मानी जाने लगी थी। इसी कारण सातवें पर्वके १९६, १९७ वें श्लोकमें नारीकी स्वतंत्रताका अपहरण करते हुए बलपूर्वक विवाह करनेकी बात कही गई है।
__ अथवैतत् खलूक्त्वायं सर्वथाऽर्हति कन्यकाम् ।
हसन्त्याश्च रुदन्त्याश्च प्राघूर्णक इति श्रुतेः ॥ स्त्रियोंके स्वभावका विश्लेषण करते हुए (पर्व ४३, श्लोक १०५-११३) में बताया गया है कि स्त्रियाँ स्वभावतः चंचल, कपटी, क्रोधी और मायाचारिणी होती है । पुरुषोंको स्त्रियोंकी बातों पर विश्वास न कर विचारपूर्वक कार्य करना चाहिये । वासनाके आवेशमें आकर नारियाँ धर्मका परित्याग कर देती हैं।
एक और सबसे बड़े मजे की बात तो यह है कि स्त्रियोंको भी पुरुषोंकी शक्ति पर विश्वास नहीं है। ६वें पर्वके १६९ वें श्लोकमें बताया गया है कि स्त्री ही स्त्रीका विपत्तिसे. उद्धार कर सकती है
स्त्रीणां विपत्प्रतीकारे स्त्रिय एवावलम्बनम् । इससे यह भी ध्वनित होता है कि उस समय स्त्रियोंमें सहयोग और सहकारिताको भावना अत्यधिक थी। नारीको नारीके ऊपर अटूट विश्वास था इसलिए नारी अपनी सहायता के लिए पुरुषोंकी अपेक्षा नहीं करती थी।
वेश्याओंकी स्थितिके सम्बन्धमें भी जिनसेनने पूरा प्रकाश डाला है । वेश्याएं मधपान करती थीं तथा समाजमें उनकी स्थिति आजसे कहीं अच्छी थी। मांगलिक अवसरोंपर तथा धार्मिक अवसरोंपर वेश्याएं बुलाई जाती थीं । इनकी गणना शुभशकुनके रूपमें की गई है अभिशापके रूपमें नहीं। जब भगवान् ऋषभदेव दीक्षाके लिए चलने लगे तो एक ओर दिककुमारी देवियां मंगल द्रव्य लेकर खड़ी थीं तो दूसरी ओर वस्त्राभूषण पहने हुई उत्तम वारांगनाएँ मंगल द्रव्य लेकर प्रस्तुत थीं।
एकतो मंगलद्रव्यधारिण्यो दिक्कुमारिकाः ।
अन्यतः कृतनेपथ्या वारमुख्या वरश्रियः ।। भगवान्के निष्क्रमण कल्याणकके अवसरपरसलीलपदविन्यासमन्येता वारयोषिताम् ।
(पर्व १७, श्लोक ८६) जन्म और विवाहके अवसर पर भी वेश्याओं द्वारा मंगल गीत गाये जानेकी प्रथा का उल्लेख है । सातवें पर्वके २४३, २४४ वें श्लोकमें "मंगलोद्गानमातेनुः वारवध्वः कलं तदा" से सिद्ध है कि महोत्सवोंमें वारांगनाओं का आना आवश्यक सा था । मुझे तो ऐसा प्रतीत है कि ये धार्मिक महोत्सवोंपर सम्मिलित होने वाली वारांगनाएँ देवदासियाँ ही हैं। यह जिनसेनाचार्यका साहस है कि उन्होंने देवदासियोंको खुले रूपसे वारांगना घोषित किया क्योंकि इसी ग्रंथमें वेश्याओंका एक दूसरा चित्र भी मिलता है जिसमें उन्हें त्याज्य एवं निन्द्य बताया गया
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान भारतीय संस्कतिके विकाममें जैः
है । अतः स्पष्ट है कि समाज में दो प्रकारकी वेश्याओंकी स्थिति थी। प्रथम वे जो केवल नृत्य, गायक आदिका कार्य करती थीं और जो धार्मिक अथवा मांगलिक अवसरों पर बुलायी जाती थों और द्वितीय वे वेश्याएं थीं जो धनके लिए अपने शीलको बेचती थीं। अतः प्रथम प्रकारकी वेश्याएं उस समयकी देवदासियोंसे भिन्न अन्य नहीं हैं ।
उस समय स्त्रियोंमें मद्यपानका भी प्रचार था । जो स्त्रियाँ मद्यपान नहीं करती थीं वे श्राविका मानी जाती थीं । ४४ वें पर्वके २९० वें श्लोकमें बताया है
दूरादेवात्यजन् स्निग्धाः श्राविका वाऽऽसवादिकम् । इसी पर्वके २८९ वें श्लोकमें बताया गया है कि मद्य के समान सम्मान और धर्मको नष्ट करने वाला और कोई पदार्थ नहीं है । यही सोचकर ईर्ष्यालु, कलहकारिणी, सपत्नियोंने अपनी सहवासिनियोंको खूब मद्य पिलाया। कुछ स्त्रियां तो वासनाको उत्तेजित करनेके लिए मद्यपान किया करती थीं।
वृथाभिमानविध्वंसी नापरं मधुना बिना। कलहान्तरिता काश्चित्सखीभिरतिपायिताः ॥ मधु द्विगुणितस्वादु पीतं कान्तकरार्पितम् ॥
(पर्व ४४, श्लोक २८९) जननी की स्थिति
जननी रूप नारीको जिनसेनने बड़े आदरकी दृष्टिसे देखा है। इन्द्राणीने जननी रूपमें मरुदेवीकी स्तुति की है उससे स्पष्ट सिद्ध है कि जननी रूप नारी प्रत्येक नरनारी द्वारा वन्दनीय है । १५वें पर्वके १३१वें श्लोकमें बताया गया है कि "गर्भवती स्त्रीका समाजमें विशेष ध्यान रक्खा जाता है । उसके दोहदको पूर्ण करना प्रत्येक पतिका परम कर्तव्य है ।" आचार्यने कहा है:
त्वमम्ब भुवनाम्बासि कल्याणी त्वं सुमंगला । महादेवी त्वमेवाद्य त्वं सपुण्या यशस्विनी ॥ प्रजासन्तत्यविच्छदे तनुते धर्मसंततिः । मनुष्व मानवं धर्म ततो देवेममच्युत ॥ देवेमं गृहिणां धर्म विद्धि दारापरिग्रहम् ।
सन्तानरक्षणे यत्नः कार्यो ही गृहमेधिनाम् ॥ इससे स्पष्ट है कि सन्ततिको जन्म देने वाली माता सर्वथा वन्द्य और पूजनीय थी।
मांको अपने पुत्रके विवाहके अवसरपर सबसे अधिक प्रसन्नता होती थी जैसा कि आज भी देखा जाता है। १५वें पर्वके ७३वें श्लोकमें बताया है-"दारकर्मणि पुत्राणां प्रीत्युत्कर्षों हि योषिताम्" । अतः सिद्ध है कि मांको नवीन पुत्रवधूके प्राप्त होनेमें सबसे अधिक प्रसन्नता होती है । ७ वें पर्वके २०५ वें श्लोकमें बताया है कि वसुन्धराको अपने पुत्रके विवाहके अवसर पर परम हर्ष हुआ। उसका रोम रोम हर्ष विभोर हो उठा। अतः स्पष्ट है कि जननी गृहस्वामिनीके उत्तरदायित्व पूर्ण पदका निर्वाह करती हुई नवीन बधूके स्वागतके लिए सदा
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जैन तीर्थ इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति उत्सुक रहती है । सन्तानकी प्राप्तिसे माताको जितनी प्रसन्नता होती है उससे कहीं बढ़कर वधूके आनेमें । भगवान् ऋषभदेवकी माता मरुदेवीको अपने पुत्रको वधू प्राप्तिके लिए अत्यधिक उत्सुकता थी । वृद्धा जननीकी एक झलक हमें उस समय मिलती है जब देखते हैं कि नवीन वधूके आते ही वह उसे अपना उत्तरदायित्वपूर्ण पद सौंप देती है और स्वयं धर्म साधनमें लग जाती है । गृहस्थीके समस्त मोह जालसे छुटकारा पाकर वह जिनदीक्षा ग्रहण करती है। ८३ पर्वके ८६वें श्लोकमें बताया है
"तदेव ननु पाण्डित्यं यत्संसारात् समुद्धरे" का चिन्तन कर पण्डिताने दवदन्त चक्रवर्तीके साथ ही दीक्षा ग्रहण कर ली। विधवा की स्थिति
जिनसेनाचार्यने विधवा नारीको स्थितिके सम्बन्धमें विशेष प्रकाश नहीं डाला है । कुछ ही ऐसे स्थल हैं जिनसे विधवा नारीकी सामाजिक और धार्मिक स्थितिका पता लगता है । समाजमें उस समय विधवा नारीको अपशकुन नहीं समझा जाता था, उसे समाज आदर और सम्मानकी दृष्टिसे देखता था। विधवाएं भी धर्म साधनमें अपना अवशेष जीवन व्यतीत करती थों, तथा व्रतोपवास द्वारा अपना आत्मशोधनकर स्वर्गादिक सुखोंको प्राप्त होती थीं । आचार्यने ६वें पर्वके ५४-५५वें श्लोकमें ललितांगदेवकी मृत्युके अनन्तर स्वयंप्रभाकी चर्चा एवं कार्यकलापोंका चित्रणकर विधवा नारीके कार्यक्रमका एक स्पष्ट चित्र प्रस्तुत कर दिया है । बताया गया है कि ललितांगकी मृत्यु के पश्चात् स्वयंप्रभा संसारके भोगोंसे विरक्त हो आत्मशोधन करने लगी। यह मनस्विनी भव्य जीवोंके समान ६ महीनेतक जिन पूजा में उद्यत रही तदनन्तर सौमनस वन सम्बन्धी पूर्व दिशाके जिनमन्दिरोंमें चैत्यवृक्षके नीचे पंचपरमेष्ठीका स्मरण करते हुए समाधिमरण धारण किया
षण्मासान् जिनपूजायामुद्यताऽभून्मनस्विनी ॥ ततः सौमनसोद्यानपूर्वदिजिनमन्दिरे । मूले चैत्यतरोः सम्यक् स्मरन्ती गुरुपंचकम् ।
समाधिना कृतप्राणत्यागा प्राच्योष्ट सा दिवः । सं० ६ श्लो० ५५-५७ इससे स्पष्ट है कि पतिकी मृत्यु के पश्चात् स्त्री अपना धर्ममय जीवन व्यतीत करती थी। वह लोकषणा और धनेषणासे रहित होकर समाजकी सेवा करते हुए जीवनयापन करती थी।
___ इस प्रकार जिनसेनने नारोके सभी पहलुओं पर विचार किया है। उन्होंने अपने समयके नारी समाजका एक सुन्दर और स्पष्ट चित्र प्रस्तुत किया है ।
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तीर्थंकरोंकी पञ्चकल्याणक तिथियाँ
दि० जैन समाजमें तीर्थंकरोंकी पञ्चकल्याणक तिथियोंकी मान्यतामें बहुत मतभेद है । इसका प्रधान कारण तिलोयपण्णत्ति जैसे प्राचीन ग्रन्थोंका भण्डारोंमें पड़ा रहना, उनका एक प्रकारसे लोप हो जाना तथा उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण आदि पुराण अन्योंके आधार.पर हिन्दी भाषाके कवियों द्वारा पञ्चकल्याणक तिथियोंका निरूपण करना ही माना जा सकता है । तुलनात्मक दृष्टिसे विचार करनेपर तिलोयपण्णत्ति द्वारा प्रतिपादित तिथियोमें भी कुछ तिथियाँ अशुद्ध प्रतीत होती हैं । पुराणों में निरूपित तिथियोंमें तो कई स्थानोंपर भूल है । अतः यह बावश्यक है कि गणित और ज्योतिषकी दृष्टिसे जो तिथियाँ जिस कल्याणकको जिस ग्रन्थके आधारसे ठीक सिद्ध हों, उन्हींको प्रामाणिकता मिलनी चाहिए । अतः धार्मिक पर्व और विधानोंका सम्पादन शुद्ध तिथिमें करनेपर ही पुण्यातिशयरूप फलको प्राप्ति होती है । इतिहासके लिए भी इन तिथियोंकी महत्ता अत्यधिक है ।
भगवान् ऋषभदेवका गर्भकल्याणक आषाढकृष्णा द्वितीया उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें हुआ है। यह मान्यता सभी पुराणोंकी है तथा हिन्दीके कवियोंने भी इसी तिथिका उल्लेख किया है। नक्षत्र और तिथिके संयोग द्वारा ही किसी तिथिकी प्रामाणिकता जानी जाती है । अतः ज्योतिषके आधारपर इस तिथिकी शुद्धताकी परीक्षा करनेपर यह शुद्ध प्रतीत होती है । क्योंकि ज्येष्ठा नक्षत्र उस समय ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दशीकी रात्रिमें उदित हुआ था तथा पूर्णिमाको उदयकालमें भी ज्येष्ठा ही था। प्रतिपदा तिथिको मूल नक्षत्र रहा है इसी तिथिको रात्रिके ग्यारह बजे पूर्वाषाढ़ा दिखलाई पड़ा था क्योंकि इस वर्ष आषाढ़ कृष्ण पक्षमें दो प्रतिपदाएं हुई। थीं । अतः प्रथम प्रतिपदाको मूल और दूसरी प्रतिपदाको उदयमें पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र रहा था अगले दिन द्वितीया तिथिके उदयमें आते ही उत्तराषाढ़ा नक्षत्र आ गया था । अतएव ज्योतिषदृष्टिसे भगवान् ऋषभदेवके गर्भकल्याणककी तिथि आषाढ़ कृष्णा द्वितीया उत्तराषाढ़ा नक्षत्रवाली शुद्ध है। ___आदिनाथ स्वामीका जन्मकल्याणक तिलोयपण्णत्ति, आदिपुराण आदि सभी ग्रन्थोंमें चैत्रकृष्णा नवमी उत्तराषाढ़ा नक्षत्र बताया गया है । परीक्षा करनेपर यह तिथि भी शुभ जंचती है । अतः फाल्गुन पूर्णिमाके दिन पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र था। पूर्णिमाके चन्द्र माने पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी इन दोनों नक्षत्रोंका भोग किया था। इससे तात्पर्य यह निकला कि पूर्णिमाकी रात्रि पूर्वाफाल्गुनीके अन्त होनेपर उत्तराफाल्गुनी आ गया था तथा चैत्रकृष्णा १. आषाढ़ासितपक्षस्य द्वितीयायां सुरोत्तमः ।
उत्तराषाढनक्षत्रे देव्या गर्भसमाश्रितः ॥-आदि० पर्व १२ श्लो० ६३ टिप्पण। २. जादो हु अवज्झाए उसहो मरुदेविणाभिराएहिं ।
घेत्तासियणवमीए णक्खत्ते उत्तरासाढ़े ।।४.५२६ ३. चैत्रे मास्यसिते पक्षे नवम्यामुदये रविः ।
विश्वे ब्रह्ममहायोगे जगतामेकवल्लभम् ॥१३/२-३
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
प्रतिपदाका उदय उत्तराफाल्गुनीमें हुआ था । लेनेपर नवमी तिथिको उत्तराषाढ़ा नक्षत्र आ भी सही है ।
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अब यहाँसे नक्षत्र और तिथियोंकी गणना कर जाता है, अतः ज्योतिषकी दृष्टिसे यह तिथि
भगवान् आदिनाथने चैत्रकृष्णा नवमीके दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें दीक्षा ग्रहण की थी । यह तिथि भगवान् के तपकल्याणक की है । तिलोयपण्णत्ति, आदिपुराण, पुराणसारसंग्रह आदि ग्रन्थोंमें इसी तिथिका निरूपण किया गया है। ज्योतिषकी दृष्टिसे भी यह तिथि शुद्ध है । भगवान् ने दीक्षा दोपहरके एक बजे ग्रहण की थी। क्योंकि इस दिन दो बजेके उपरान्त श्रवण नक्षत्रका आरंभ हो जाता है। अपराह्नकाल इनकी दीक्षाका समय नहीं हो सकता है । अतः नवमी तिथि भी दो बजेके उपरान्त समाप्त हो जाती है । तिलोयपण्णत्ति में तीसरे प्रहरका निरूपण किया गया है; पर यह गणितसे समय एक बजेका ही आता है ।
भगवान् ऋषभदेवको केवलज्ञानकी उत्पत्ति फाल्गुन कृष्णा एकादशी उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में पूर्वा कालमें पुरिमताल नगर में हुई थी । उपलब्ध सभी दि० जैन साहित्य इस तिथिपर एक मत हैं । ज्योतिष की दृष्टिसे परीक्षा करनेपर प्रतीत होता है कि माघी पूर्णिमाके दिन मघा नक्षत्र था, इस तिथिको चन्द्रमाके उदयके समय मघा अवश्य था, किन्तु चन्द्रमाके अस्तकाल में पूर्वाफाल्गुनी आ गया था तथा फाल्गुन कृष्णा प्रतिपदाका उदय पूर्वाफाल्गुनीमें हुआ था । इस क्रमसे प्रतिपदासे एकादशी तक गणना करनेपर फाल्गुन कृष्णा एकादशीको उत्तराषाढ़ा नक्षत्र आ जाता है । पूर्वाह्न समयका उल्लेख भी उचित है, क्योंकि तिथि, नक्षत्रका योग पूर्वाह्न में ही मिलता है । अतएव ज्योतिष की दृष्टिसे यह तिथि शुद्ध है ।
आदिनाथस्वामीको निर्वाणतिथि माघकृष्णा चतुर्दशी उत्तराषाढ़ा नक्षत्र युक्त मानी गयी है तथा निर्वाणकाल पूर्वाह्नकाल है । आदिपुराण प्रभृति पुराणोंकी भी यही मान्यता है | विचार करनेपर ज्ञात होता है कि पौष मास की पूर्णिमाको चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र में था । पुष्यसे आगेवाले श्लेषा नक्षत्र से गणना करनेपर उत्तराषाढ़ा तेरहवाँ नक्षत्र हुआ और प्रतिपदा से चतुर्दशी की संख्या १४ हुई । अत: इस हिसाब से त्रयोदशीको ही उत्तराषाढ़ा पड़ जाता है । पर गणितसे उक्त स्थिति में माघकृष्णा षष्ठी तिथिका क्षय है, अतएव उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें चतुर्दशी आ जाती है । इस प्रकार प्रचलित मान्यताके अनुसार भगवान् ऋषभदेवकी पञ्चकल्याणक तिथियाँ ज्योतिष की दृष्टिसे शुद्ध हैं ।
१. चेत्तासिदणवमीए तदिए पहरम्मि उत्तरासाढ़े । सिद्धकणे उसहो' उववासे छट्ठमम्मि णिक्कंतो ॥
२. फग्गुणकिण्हेयारसपुव्वण्हे पुरिमतालणय रम्मि |
उत्तरसाढे उसहे उप्पण्णं केवलं गाणं ॥ - तिलोयपण्णत्ति ४.६७९
३. माघस्स किण्हचौद्दसिपुव्वण्हे गिययजम्मणक्खते ।
अट्ठावयम्मि सहो आनुदेण समं गओ गोमि । तिलोयणासी ४.११५ २१
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वा ङ्मयका अवदान
अजितनाथका गर्भकल्याणक ज्येष्ठ मासकी अमावस्या तिथिमें रोहिणी नक्षत्र के रहनेपर माना गया है। उत्तरपुराण तथा अन्य पुराण ग्रन्थोंकी यही मान्यता है । ज्योतिषकी दृष्टिसे ऊहापोह करनेपर यह तिथि शुद्ध है । क्योंकि इस महीनेकी अमावास्याको चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्रके साथ रहता है तथा पूर्णिमा ज्येष्ठा नक्षत्र में होती है । रोहिणीसे ज्येष्ठा पन्द्रहवाँ नक्षत्र और अमावास्या से पूर्णिमा सोलहवीं तिथि आती है । पर ज्योतिष में तिथिका मध्यम मान ५४ घटी और नक्षत्रका ६० घटी होता है, जिससे इस महीनेकी ज्येष्ठ कृष्णा नवमी दो तिथियाँ हुई हैं । अतः अमावास्याको रोहिणीका अस्तित्व रात्रि पर्यन्त है ।
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अजितनाथ स्वामी की जन्मतिथि माघ शुक्ला दशमी रोहिणी नक्षत्र युक्त मानी गयी है । तिलोय पण्णत्ति, उत्तरपुराण आदि सभी ग्रन्थोंका यही मत है । यह तिथि भी ज्योतिष के अनुसार शुद्ध है । क्योंकि गणितके अनुसार माघी पूर्णिमाको सूर्योदय के समय आश्लेषा नक्षत्र ही था; किन्तु चन्द्रमाके उदय होनेपर मघा नक्षत्र आ गया था । रोहिणी के उत्तरवर्ती मृगशिर नक्षत्रसे गणना करने पर श्लेषा पाँचवाँ नक्षत्र आता है तथा एकादशीसे गिननेपर पूर्णिमा भी पाँचवीं तिथि है । अतएव नक्षत्र और तिथिका समन्वय हो जानेसे उक्त जन्म तिथि शुद्ध है । हिन्दी कवि मनरंगलालने अजितनाथ स्वामीका जन्मकल्याणक माघकृष्णा दशमीको माना है, पर यह अशुद्ध मान्यता है ।
अजितनाथ भगवान्का तपकल्याण माघ शुक्ला नवमी रोहिणी नक्षत्रमें हुआ था । दीक्षाकाल अपराह्न का समय बतलाया गया है । उत्तरपुराण की भी मान्यता यही है । ज्योतिषकी विचारसारणि द्वारा यह तिथि सिद्ध हो जाती है । क्योंकि पौषकी पूर्णिमाको पुष्य नक्षत्र था । इस नक्षत्रसे गणना करनेपर नवमीके दिन रोहिणी नक्षत्र आ जाता है । हिन्दी में कवि मनरंगने माघकृष्णा" दशमी तथा वृन्दावनने माघशुक्ला दशमी दीक्षाकी तिथियाँ बतलाई हैं, जो अशुद्ध हैं ।
अजितनाथ भगवान्को केवलज्ञानको उत्पत्ति तिलोयपण्णत्तमें पौष शुक्ला चतुर्दशीके
१. ज्येष्ठे मासि कलाशेषशशिरोहिण्युपागमे ।
मुहूर्त्ताद्ब्रह्मणः पूर्वं दर निद्राविलेक्षणाम् ॥ - उत्तरपुराण ४८-२१
२. माघस्स सुक्कपषखे रोहिणिरिक्खम्मि दसमि दिवसम्म ।
साकेदे अजियजिणो जादो जियसत्तु विजयादि । - तिलो० ४-५२७
३. माघस्स सुक्कणवमी अवरण्हे रोहिणीसु अजियजिणो ।
रम्मे सहेदुगवणे अपयत्तम्मि णिक्कंतो ॥। ४, ६४५ शि०
४. माघे मासे सिते पक्षे रोहिण्यां नवमी दिने ।
V
सहेतुके वने सप्तपर्णद्रुमसमीपगः ॥ उत्तरपुराण पर्व ४८, श्लो० ३८ ता दिन दिक्षा लेत ।
५. माघबदी दसमी कही,
अजित प्रभु को अर्घ ले,
पूजौं भाव समेत । – मनरंग सत्यार्थयज्ञ
६. माघ सुदी दशमी तपद्वारा । भव तन भोग अनित्य विचारा । - वृन्दावनकृत चौबीसी विधान
७. पुस्सस्स सुक्कचोद्दसि अवरले रोहिणिम्मि णक्खत्ते ।
अजियजिणे उप्पण्णं अनंतणाणं सहेदुगम्मि वणे ।। - ति० ४-६८०
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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अपराह्नकालमें रोहिणी नक्षत्रके रहते हुए सहेतुक वनमें हुई कहा है । उत्तर पुराण में पौष शुक्ला एकादशी' सन्ध्या समय रोहिणी नक्षत्रको केवलज्ञानकी उत्पत्तिका काल कहा है । हिन्दी कवि वृन्दावनने पौष शुक्ल चतुर्थी और मनरंगलालने पौष शुक्ला एकादशीको केवलज्ञानकी उत्पत्ति तिथियाँ लिखा है ज्योतिष की दृष्टिसे विचार करनेपर तिलोयपण्णत्त में निरूपित तिथि अशुद्ध प्रतीत होती है, क्योंकि पोष शुक्ला पूर्णिमाको चन्द्रोद के समय पुष्य नक्षत्र रहता है । इस दिन सूर्योदय कालमें पुनर्वसु रह सकता है, किन्तु चन्द्रोदय के सम पुष्यका आ जाना नियामक है । पौष शुक्ला चतुर्दशीको रोहिणी नक्षत्र रहनेके कारण पूर्णिमाको सूर्योदय कालमें पुनर्वसु और चन्द्रोदय काल में पुष्यका आना असंभव है । यह स्थिति मृगशिरा और आर्द्राकी रहेगी । एकादशीको रोहिणी नक्षत्रके रहनेपर पूर्णिमाको पुष्य आ जाता है, जो सूर्योदय कालमें चन्द्रोदयकाल तक रहता है । अतएव उत्तर पुराण और कवि मनरंगकी मान्यता शुद्ध है । ज्योतिषके द्वारा अजितनाथ भगवान्की केवलज्ञान तिथि पौष शुक्ला एकादशी ही आती है । कवि वृन्दावनकी मान्यता तो और भी अशुद्ध है ।
भगवान् अजितनाथकी निर्वाण प्राप्ति तिथि तिलोय पण्णत्ति में चैत्र शुक्ला पञ्चमीके दिन पूर्वाह्न में भरणी नक्षत्रके रहते हुए बतलायी गयी है । उत्तर पुराणमें चैत्र शुक्ला पञ्चमी", रोहिणी नक्षत्र तथा प्रातःकालका समय निर्वाणका काल माना है । हिन्दी कवियों ने भी इसी तिथिको इन अजितनाथ भगवान्की केवलज्ञान तिथि माना है । ज्योतिषकी प्रक्रिया द्वारा विचार करनेपर प्रतीत होता है कि पञ्चमीको भरणी नक्षत्र ही आता है, रोहिणी नहीं । क्योंकि इस महीनेके शुक्लपक्षमें दो सप्तमा तिथियाँ हुई थीं । अतः चैत्री पूर्णिमाके चित्रानक्षत्र से विपरीत क्रम (उल्टी विधि) द्वारा गणना करनेपर रोहिणी नक्षत्र ग्यारहवाँ हुआ और भरणी बारहवाँ । पञ्चमीसे बढ़ी हुई ( वृद्धिगत) तिथि सहित गिननेपर पूर्णिमा तक बारह संख्या आती है । अतः पञ्चमीको भरणी नक्षत्रका ही रहना शुद्ध है । उत्तरपुराणकारने रोहिणीका पाठ, अन्य सभी कल्याणक इसी नक्षत्र में हुए है, इसीलिए रखा है । अतएव सर्व सम्मत तथा ज्योतिषकी प्रक्रिया द्वारा आगत चैत्र शुक्ला पंचमी इनकी निर्वाण तिथि है ।
१. छाद्मस्थेन नयन्नब्दान्पौषे द्वादशशुद्धधीः ।
शुक्लैकादश्यहः प्रान्ते रोहिण्यामाप्ततामगात् ।। —उत्त० ४८-४२ २. पौषसुदी तिथि चौथ सुहायो ।
त्रिभुवनभानु सुकेवल जायो ॥ - वृन्दावन चौबीसी विधान
३. पूष सुदी एकादशी, ता दिन केवल पाय । - मनरंग - सत्यार्थयज्ञ ४. चेत्तस्स सुद्धपंचमिपुव्वण्हे भरणिणामरिक्खम्मि ।
सम्मेद अजियजिणे मुत्ति पत्तो सहस्ससमं । - तिलो० ४, ११८६ ५. चैत्रज्योत्स्नापक्षे पंचम्यां रोहिणीगते चन्द्रे ।
प्रतिमायोगं बिभ्रत्पूर्वाह्णेऽवाप मुक्तिपदम् ।। उत्त० ४८ १०, ५२ श्लो०
६. पंचमि चैतसुदी निरवाना । निजगुनराज लियो भगवाना ॥ - वृन्दावनकृत चोबीसी विधान चैत्र सुदी पाच दिना, सम्मेद शिखरते वीर । मनरंग सत्यार्थयज्ञ
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
उत्तर पुराण में तीसरे तीर्थकर संभवनाथ भगवान्का गर्भकल्याणक फाल्गुन शुक्ला अष्टमी' मृगशिरा नक्षत्र माना गया है। हिन्दी कवियोंमें वृन्दावनने इन भगवान् के गर्भकल्याणककी यही तिथि तथा मनरंगने फाल्गुन कृष्णा' अष्टमी बतलायी है । ज्योतिष की दृष्टि विचार करनेपर फाल्गुन शुक्ल पक्षको अष्टमी तिथि शुद्ध है; क्योंकि फाल्गुनकी पूर्णिमाको सूर्योदय कालमें पूर्वा फाल्गुनी और चन्द्रोदय कालमें उत्तरा फाल्गुनी या पूर्णिमाके सूर्योदय और चन्द्रोदय दोनों ही समयोंमें उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र आता है । उपर्युक्त स्थिति में अष्टमीको मृगशिरा नक्षत्र के होनेपर पूर्णिमाको उत्तराफाल्गुनी आ जाता है । अतएव कृष्ण पक्ष की अष्ट अशुद्ध है और शुक्लपक्षकी अष्टमी गर्भकल्याणककी शुद्ध तिथि है ।
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तिलोय पण्णत्त में संभवनाथ भगवान्का जन्मकल्याणक मार्गशीर्ष पूर्णिमा ज्येष्ठा नक्षत्र बताया गया है । उत्तर पुराण में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा मृगशिर नक्षत्र में भगवान्का जन्म बताया गया है | हिन्दी कवियोंमें वृन्दावन और मनरंग दोनोंने कार्तिकी पूर्णिमा" ही भगवान् - का जन्म दिन माना है । अब यह विचार करना है कि कार्तिकी और मार्गशीर्षी पूर्णिमाओं में से कौन सी तिथि भगवान् के जन्मकल्याणककी है । तिलोयपण्णत्ति में प्रतिपादित ज्येष्ठा नक्षत्र मार्गशीर्षी पूर्णिमाको कभी नहीं हो सकता है । क्योंकि इस तिथिको नियमतः मृगशिर नक्षत्र आता है | कार्तिक पूर्णिमाको कृत्तिका नक्षत्र रहना चाहिए, मृगशिर नहीं । अतः नक्षत्र और तिथियोंका समन्वय दोनों मान्यताओंमेंसे एक भी मान्यता के साथ नहीं है । ज्यौतिष शास्त्रमें एक नियम यह भी आता है कि गर्भकाल से शिशु उत्पत्तिका समय दस नाक्षत्र मास होता है अर्थात् गर्भ की पुष्टि २७० दिनोंमें होती है प्रायः जो नक्षत्र गर्भ स्थिति कालमें रहता है, वही उत्पत्ति समय में भी । मृगशिर नक्षत्र से २७० नक्षत्र दिन कार्तिकी पूर्णिमाको पूर्ण नहीं होते हैं, बल्कि मार्गशीर्ष पूर्णिमाको पूर्ण होते हैं । इस पूर्णिमाको मृगशिर नक्षत्र भी आ जाता है । अतः भगवान् संभवनाथका जन्मकल्याणक मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमाको मृगशिर नक्षत्र में मानना चाहिए | तिलोयपण्णत्ति में 'जेट्ठा रिक्खम्मि' पाठ अशुद्ध है। इसके स्थान 'मिग्गरिक्खम्मि, पाठ होना चाहिए। या तो यह पाठ किसी अन्य प्रतिमें होगा अथवा किसी प्रतिलिपिकर्ताको कृपासे 'मिग्गरिक्खम्मि’के स्थानपर 'जेट्टारिक्खम्मि' पाठ हो गया होगा, जो अशुद्ध है । उत्तर पुराण में 'नवमे मासि' पाठ है । यहाँ यह गणना चैत्रसे लेनी चाहिए। इस सम्बन्धमें एक बात
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१. शुक्ल फाल्गुन जाष्टम्यां स्वप्नान् षोडश पंचमे ।
प्रभातसमयेऽपश्यन्नक्षत्रे सुकृतोदयात् । - उत्त० ४९-१६
२. फागुन असित परव अष्टमीको गरभस्थिति नाथ । – मनरंग : सत्यार्थयज्ञ
३. सावित्थीए संभवदेवो य जिदारिणा सुसेणाए ।
मग्गसिर पुण्णिमाए जेट्टा रिक्खम्मि संजादो || तिलोय० ४-५२८
४. नवमे मासि नक्षत्रे पंचमे सौम्ययोगगे ।
पौर्णमास्यामवापाय महमिन्द्रं त्रिविद्युतम् । उत्तर० ४९-१९ ५. कार्तिक सित पूनम तिथि जान ।
तीन ज्ञानजुत जनम प्रमाण ।। वृन्दावनकृत चौबीसी विधान
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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उल्लेखनीय यह भी है कि चान्द्रमास गणना शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे हो ली जाती थी । ग्यारहवीं शताब्दी से सुविधाके लिए कृष्णपक्षकी प्रतिपदासे मास गणना की जाने लगी है । अतः फाल्गुन शुक्लपक्ष की प्रतिपदासे गणना करनेपर 'नवमे मासि' पाठ और भी स्पष्ट हो जाता है । इसलिए भगवान् संभवनाथ की जन्मतिथि मार्गशीर्षी पूर्णिमा माननी चाहिए । कार्तिकी पूर्णिमा भ्रान्त है ।
भगवान् संभवनाथकी तपकल्याणक तिथि तिलोय पण्णत्त में मार्गशीर्षी पूर्णिमा' बतलायी गयी है । इस दिन ज्येष्ठा नक्षत्र था तथा दीक्षा ग्रहण करनेका काल तृतीय प्रहर बतलाया गया है । उत्तर पुराणसे भी इसी तिथिका समर्थन होता है । कवि वृन्दावनने मार्गशीर्षी पूर्णिमा तथा मनरंगने भी इसी तिथिको दीक्षा कल्याणक तिथि बतलाया है । अतः संभवनाथ स्वामीका तपकल्याणक मार्गशीर्षी पूर्णिमाको हुआ है । ज्योतिष की दृष्टिसे विचार करनेपर ज्येष्ठा नक्षत्र उक्त पूर्णिमाको नहीं आता है; इस दिन गणित द्वारा मृगशिर नक्षत्र ही आता है । इसलिए तिलोपत्ति 'जेट्टाए' के स्थानपर 'माग्गिसिए' या 'मिग्गाए' पाठ होना चाहिए । संशोधनके समय अर्थपर ध्यान नहीं दिया गया होगा । अतएव दीक्षाकल्याणक संभवनाथ स्वामीका मार्गशीर्षी पूर्णिमाको सम्पन्न हुआ ही माना जायगा ।
भगवान् संभवनाथ स्वामी के ज्ञानकल्याणकके सम्बन्ध में तिलोयपण्णत्तिमें मूल कोई गाथा उपलब्ध नहीं है । प्रक्षिप्तरूपमें बतलाया गया है कि कार्तिक कृष्णा पञ्चमी के दिन अपराह्न कालमें ज्येष्ठा नक्षत्र के रहते हुए भगवान् संभवनाथ स्वामीको ज्ञान सम्पन्न हुआ था । उत्तरपुराण में कार्त्तिक कृष्णा चतुर्थी के दिन मृगशिर नक्षत्र में सन्ध्याके समय केवलज्ञानकी प्राप्ति होना बतलाया गया है । कवि वृन्दावन और मनरंग ने भी कार्तिक कृष्णा चतुर्थीको ही केवलज्ञानकी प्राप्ति होना बतलाया है । ज्योतिष की दृष्टिसे कार्त्तिक कृष्णा चतुर्थी ही शुद्ध तिथि मालूम होती है । क्योंकि मृगशिर नक्षत्र इसी तिथिको पड़ता है । आश्विनी पूर्णिमाके दिन अश्विनी नक्षत्र था तथा कार्तिक कृष्णा प्रतिपदाको भरणी, द्वितीयाको कृत्तिका, तृतीयाको रोहिणी और चतुर्थीको मृगशिर नक्षत्र आता है । कार्तिक कृष्णा पञ्चमीको ज्येष्ठा नक्षत्र कभी नहीं आ सकता है, अतः यह तिथि अशुद्ध है ।
संभवनाथ स्वामीका निर्वाण कल्याणक चैत्रशुक्ला" षष्ठीको उनके जन्म नक्षत्र में बताया
१. मग्गसिरपुष्णिमाए तदिए पहरम्मि तदिय उववासे ।
जेट्टाए णिक्कतो संभवसामी सहेदुगम्मि वणे ।। - तिलोय० ४-६४६
२. जन्मर्थे कार्तिके कृष्णचतुर्थ्यामपरागः ।
३.
षष्ठोपवासो हत्वाघान् प्रापानन्तचतुष्टयम् ।—उत्तर० ४९-४१
कातिक कलि तिथि चौथ महान ।
घातिघात लिया. केवल ज्ञान ॥ - वृन्दावन चौ० वि० ४. कार्तिक वदी शुभ चौथके दिन ज्ञान उपजत जानि ।
५.
समवशरन विशाल अनुपम रचत धनपति आनि ॥ मनरंग सत्यार्थयज्ञ चेत्तस्स सुक्कछट्ठीअवरण्हे जम्मभम्मि सम्मेदे |
संपत्तो अपवग्गं संभवसामी सहस्सजुदो ॥ - तिलोय० ४ - ११८७
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
गया है । उत्तरपुराणमें इसी षष्ठी तिथिका समर्थन उपलब्ध होता है। वृन्दावन और मनरंग ने भी इसी तिथिको निवार्णकल्याणका होना लिखा है। और ज्योतिषकी दृष्टिसे विचारकरनेपर फाल्गुनी पूर्णिमाको उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र आता है तथा चैत्रमासकी पूर्णिमाको चित्रा। उत्तराफाल्गुनीसे नक्षत्र गणना और प्रतिपदासे तिथि गणना करनेपर चैत्र शुक्ला षष्ठीको मृगशिर नक्षत्र आ जाता है । अतः यह निर्वाण तिथि शुद्ध है ।
अभिनन्दन स्वामीका गर्भकल्याणक वैशाख शुक्ला' षष्ठीको उत्तरपुराणकारने बतलाया है । इस दिन पुनर्वसु नक्षत्र था। कवि वृन्दावनने भी वैशाख शुक्ला षष्ठीको ही गर्भ कल्याणकका सम्पन्न होना बतलाया है। मनरंगलालने अभिनन्दन स्वामीका गर्भकल्याणक वैशाखशुक्ला अष्टमीको होना बतलाया है। ज्योतिषके अनुसार विचार करनेपर वैशाख शुक्ला षष्ठीको पुनर्वसु नक्षत्र पड़ जाता है । क्योंकि चैत्री पूर्णिमाको चित्रा नक्षत्र रहता है । स्वातिसे नक्षत्र गणना करनेपर २० नक्षत्र संख्या आती है, तिथि गणना करनेपर २१ तिथि संख्या आती है। किन्तु इस स्थितिमें वैशाखकृष्णा सप्तमीको तिथिक्षय था, अतः तिथि और नक्षत्रमें समता मिल जाती है । कवि मनरंग द्वारा प्रतिपादित तिथि अशुद्ध है; क्योंकि इसका नक्षत्रके साथ समन्वय नहीं होता है । पुनर्वसु नक्षत्र ही तिथिका नियामक है, इसके द्वारा षष्ठी तिथि ही आती है, अष्टमी नहीं।
चतुर्थ तीर्थंकर अभिनन्दन स्वामीका जन्मकल्याणक तिलोयपण्णत्तिमें माघशुक्ला द्वादशीके' दिन पुनर्वसु नक्षत्रमें माना गया है। उत्तरपुराणमें भी यही तिथि बतलायी गयी है । वृन्दावनने भी इसी तिथिको भगवान्का जन्म होना बतलाया है; किन्तु मनरंगने माघ शुक्ला चतुर्दशीको जन्म तिथि बतलाया है । ज्योतिष प्रक्रिया द्वारा विचार करने पर माघशुक्ला द्वादशी तिथि शुद्ध जंचती है; क्योंकि माघी पूर्णिमाको मघा नक्षत्र रहता है । अतः द्वादशीको पुनर्वसु, त्रयोदशीको पुष्य, चतुर्दशीको आश्लेषा और पूर्णिमाको मघा नक्षत्र होगा । अतएव मनरंग द्वारा लिखित माघशुक्ला चतुर्दशी अशुद्ध है और द्वादशी तिथि शुद्ध है।
तपकल्याणककी तिथि तिलोयपण्णत्तिमें माघ शुक्ला द्वादशी मानी है तथा इस दिन पुनर्वसु नक्षत्र था । उत्तरपुराणमें भी उपयुक्त योगका ही कथन किया गया है । वृन्दावन १. वैशाखस्य सिते पक्षे षष्ठयां भे सप्तमे शुभे।
स्वप्नेक्षानन्तरं वक्त्रं विशन्तं वीक्ष्य सा गजम् ।।-उत्तर० ५०,१८ २. गरभस्थिति महराजा वैशाखसित अष्टमी दिना कैसे । -सत्यार्थयज्ञ ३. माघस्स बारसीए सिदाम्मि पक्खे पुणन्वसूरिक्खे।
संवरसिद्धत्थाहिं सामेदे णंदणो जादो ॥-तिलोय० ४-५२९ ४. माघे मास्यदितौ योगे धवल द्वादशी दिने ।-उत्तर० ५०-१९ ५. माघ सुदी चौदसिको जन्मै अखण्डप्रतापधर सूर ।-सत्यार्थयज्ञ ६. सिद बारसिपुव्वले माघे मासे पुणव्वसूरिक्खे।
उग्गवणे उववासे तदिए अभिणंदणो य णिक्कतो॥-तिलो० ४-६४७ ७. मासे सिते स्वगर्भङ्क्ष द्वादश्यामपरागः ।
दीक्षां षष्ठोपवासेन जैनी जग्राह राजभिः ॥-उत्तर० ५०-५१
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१६७ और मनरंगने भी उपयुक्त तिथि ही बतलायी है। ज्योतिषकी प्रक्रिया द्वारा भी यह तिथि शुद्ध प्रतीत होती है। क्योंकि नक्षत्र और तिथिका समन्वय यथार्थ है ।
भगवान् अभिनन्दन स्वामीका ज्ञानकल्याणक तिलोययपण्णत्ति के अनुसार कात्तिक शुक्ला पञ्चमी' पुनर्वसु नक्षत्रमें अपराह्नकालमें हुआ है। उत्तरपुराणमें पौष शुक्ला चतुर्दशी की सन्ध्यामें केवलज्ञानको उत्पत्ति बतलायी गयी है। इस दिन भी पुनर्वसु नक्षत्र था। वृन्दावन और मनरंगने पौषशुक्ला चतुर्दशीको हो ज्ञानकल्याणकी तिथि बतलायी है । ज्योतिषकी सरणि द्वारा विचार करनेसे कार्तिक शुक्ला पञ्चमीको पुनर्वसु नक्षत्र नहीं आता है, किन्तु इस तिथिको उत्तराषाढ़ा नक्षत्र होना चाहिए। क्योंकि कार्तिक कृष्णा प्रतिपदाको भरणी नक्षत्र था। भरणीसे गणना करनेपर कात्तिक शुक्ला पञ्चमी उत्तराषाढाको पड़ती है, अतः यह तिथि अशुद्ध है। पौषशुक्ला चतुर्दशीको पुनर्वसु नक्षत्र अवश्य रहता है क्योंकि पौषी पूर्णिमाको पुष्य नक्षत्रका आना आवश्यक है, अतः पौष शुक्ला चतुर्दशी तिथि शुद्ध है । यही अभिनन्दन भगवान्के ज्ञानकल्याणक की तिथि है। तिलोयपण्णत्ति में 'कत्तिय सुक्के' और 'पंचम्मि' इन दोनों पदोंका समन्वय पुनर्वसु नक्षत्र के साथ नहीं होता है। अतः कात्तिक शुक्ला पञ्चमीकी मान्यता भ्रान्त है।
इन भगवान् के निर्वाणकल्याणकका होना तिलोयपण्णत्तिमें वैशाख शुक्ला सप्तमी को पूर्वाह्नकालमें पुनर्वसु नक्षत्रके रहनेपर बताया गया है। उत्तरपुराणमें वैशाख शुक्ला' षष्ठीके दिन प्रातःकालके समय पुनर्वसु नक्षत्रके रहते हुए निर्वाणका होना कहा है । वृन्दावन और मनरंगने षष्ठी तिथिको ही निर्वाण माना है। ज्योतिषके गणित द्वारा विचार करनेपर प्रतीत होता है कि नक्षत्र और तिथिका समन्वय वैशाख शुक्ला षष्ठीको होता है । सप्तमी तिथिको पुनर्वसुकी स्थिति नहीं आती है, किन्तु पुष्य हो जाता है । कारण यह है कि वैशाखी पूणिमा विशाखा नक्षत्रको पड़ती है । षष्ठीको पुनर्वसुके रहनेपर ही पूणिमाको विशाखा आ सकेगा। सप्तमीको पुनर्वसुकी स्थिति माननेपर पूर्णिमाको विशाखा नक्षत्र न पड़कर अनुराधा आ जायगा; जो गणितकी दृष्टिसे अशुद्ध है। अतः अभिनन्दन स्वामोका निर्वाण वैशाख शुक्ला षष्ठीको ही मानना युक्ति संगत है।
पंचम तीर्थकर सुमतिनाथ स्वामीका गर्भकल्याणक उत्तरपुराणके अनुसार श्रावण शुक्ला द्वितीयाके दिन मघा नक्षत्रमें सम्पन्न हुआ है। इसी तिथिका उल्लेख वृन्दावन और मनरंगने
१. कत्तिय सुक्के पंचमी अवरण्हे पुणब्वसुम्गि णक्खत्तै ।
उग्गवणे अभिणंदणजिणस्म संजाद सव्वस्सगयं ॥ -तिलोय० ४-६८१ २. सिते पौषे चतुर्दश्यां सायाह्न भेऽस्य सप्तमे। -उत्तर० ५०-५६ ३. वइसाह सुक्कसत्त मि पुव्वले जम्मभम्मि सम्मेदे ।
दससयमहेसिसहिदो गंदणदेवो गदो मोक्खं ।। -तिलोय० ४-११८८ ४. मुनिभिर्बहुभिः प्राहे प्रतिमायोगवानगात् ।
मे सिते सप्तमे षष्ठयां वैशालेऽयं परं पदम् ॥ उत्तर० ५०-६६ ५. मघाया श्रावणे मासि दृष्ट्वा स्वप्नान् गजादिकान् । ५१ प० २१
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान भी किया है। ज्योतिषको गणनाके अनुसार विचार करनेपर श्रावण शुक्ला द्वितीयाके दिन मघा नक्षत्र मिल जाता है; क्योंकि आषाढ़ी पूर्णिमाको उत्तराषाढ़ा नक्षत्र था। इससे आगे श्रवणादि नक्षत्र गणना करने पर उक्त तिथिको मघा आ जाता है । अतः यह तिथि शुद्ध है ।
तिलोयपण्णत्तिमें जन्मकल्याणक श्रावणशुक्ला एकादशीको' मघा नक्षत्रमें बताया गया है। उत्तरपुराणमें चैत्रशुक्ला एकादशीके२ दिन चित्रा नक्षत्र में जन्मकल्याणक माना गया है। वृन्दावन और मनरंगने भी चैत्रशुक्ला एकादशीको ही जन्मकल्याणककी तिथि बतलाया है। ज्योतिषकी सरणि द्वारा विचार करनेपर श्रावणशुक्ला एकादशीको मघा नक्षत्र नहीं आता है। बल्कि इस दिन ज्येष्ठा नक्षत्रकी स्थिति आती है; क्योंकि श्रावणी पूर्णिमाको श्रवण नक्षत्र रहता है, अतः श्रावणशुक्ला एकादशीको ज्येष्ठा रहना चाहिए। अतएव नक्षत्र और तिथिका समन्वय नहीं होनेसे उक्त तिलोयपण्णत्तिवाली मान्यता अशुद्ध है।
उत्तरपुराणमें चैत्रशुक्ला एकादशीको पितृयोगमें भगवान्का जन्म होना कहा गया है। इस ग्रन्थके हिन्दी टीकाकार वसन्तजीने इस श्लोकके अर्थमें चित्रायांका अर्थ चित्रा नक्षत्र किया है, पर यह अर्थ अशुद्ध है। यहाँ चित्रायां यह विशेषणपद है, इसका सम्बन्ध मासके साथ है, अर्थात् नवमे-चैत्र महीनेकी शुक्लपक्षकी एकादशी तिथिको पितृयोग-मघा नक्षत्रके रहनेपर भगवान्का जन्म हुआ। चित्रायांका अर्थ चित्रा नक्षत्र कर लेनेपर पितृयोग-मघा नक्षत्रके साथ विरोध आयेगा। एक ही व्यक्तिका जन्म दो नक्षत्रोंमे नहीं हो सकता है । पितृयोग शब्द योग वाचक नहीं है, बल्कि नक्षत्र वाचक है । क्योंकि मघा नक्षत्रके स्वामी पितृ हैं, अतः मघा नक्षत्रको पितृयोग कहा जाता है। गणना करनेपर भी चैत्रशुक्ला एकादशीको मघा नक्षत्र आता है, चित्रा नहीं। चित्रा नक्षत्रकी स्थिति चैत्री पूर्णिमाको होती है। एक दूसरा सिद्धान्त यह भी है कि जिस नक्षत्रमें गर्भाधान होता है, उसी नक्षत्र में जन्म भी । भगवान्का गर्भकल्याणक मघा नक्षत्रमें हुआ है, अतः जन्मके दिन मघा या मघाके आस-पास वाला नक्षत्र अवश्य आ जायगा। गणित क्रिया द्वारा चैत्रशुक्ला एकादशीको मघा नक्षत्र आता है। अतः भगवान् सुमतिनाथ स्वामीको जन्म तिथि चैत्रशुक्ला एकादशी निर्विवादरूपसे है ।
पाँचवें तीर्थकर सुमतिनाथ भगवान्का तपकल्याणक तिलोयपण्णत्तिके अनुसार वैशाख
१. मेघप्पहेण सुमई साकेद पुरम्मि मंगलाए य ।
सावणसुक्केयारसिदिवसम्मि मघासु संजणिदो । तिलोय० -४-५३० २. नवमे मासि चित्रायां सज्ज्योत्स्नैकादशीदिने ।
त्रिज्ञानधारिणं दिव्यं पितृयोगे सतां पतिम् ॥ -उत्तर० ५१-२२-३३ ३. नासत्यान्तकवह्निधातृशशभृगुद्रा दितीज्योरगा;
ऋक्षेशाः पितरो भगोऽय॑मरवी त्वष्टा समीरः क्रमात् । शक्राग्नी खलु मित्रशक्रनिर्ऋतिक्षीराणि विश्वे विधिगोविन्दो वसुतोयपाऽजचरणाहिर्बुध्न्यपूषाभिधा ।
-मुहूर्त्तचिन्तामणि नक्षत्र प्रकरण श्लो० १
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१६९ शुक्ला नवमी' को मघा नक्षत्रके रहते हुए पूर्वाह्नकालमें सहेतुक वनमें हुआ है । उत्तरपुराणमें भी वैशाख शुक्ला नवमी को ही दीक्षा ग्रहण करनेका कथन है । इस प्रकार पुराणके अनुसार भी इस दिन मघा नक्षत्र था। वृन्दावन ने सुमतिनाथ भगवान्के तपकल्याणककी तिथि चैत्र शुक्ला एकादशी और मनरंग ने वैशाख शुक्ला नवमी बतलायी है। ज्योतिषकी प्रक्रिया द्वारा विचार करनेपर ज्ञात होता है कि पांचवें तीर्थकरके तपकल्याणकी तिथि वैशाख शुक्ला नवमी शुद्ध है; क्योंकि इस तिथिको मघा नक्षत्र मिल जाता है। इसका कारण यह है कि वैशाखी पूर्णिमा विशाखा नक्षत्रको पड़ती है। विशाखासे विपरीत क्रमानुसार गणना करनेपर तथा पूर्णिमा तिथिसे विपरोत तिथि क्रमानुसार गणना करनेपर मघा वैशाख शुक्ला नवमीके दिन सिद्ध हो जाता है। अतएव कवि वृन्दावन द्वारा निरूपित तिथि अशुद्ध है । प्राचीन और अर्वाचीन मान्यता तथा ज्योतिष गणनाके अनुसार तपकल्याणकी तिथि वैशाख शुक्ला नवमी ही है।
ज्ञानकल्याणकी तिथि तिलोयपण्णत्तिमें पोषी पूणिमा बतायी गयी है । इस दिन हस्त नक्षत्र था। उत्तरपुराणम चैत्रशुक्ला एकादशी को मघा नक्षत्रके रहनेपर पाँचवें तीर्थकरको केवलज्ञानकी उत्पत्ति बतलायी है। वृन्दावन और मनरंगने चैत्र शुक्ला एकादशी तिथि हो केवलज्ञानको उत्पत्तिकी मानी है। ज्योतिषकी पद्धति द्वारा विचार करनेपर तिलोयपण्णत्तिकी मान्यता अशुद्ध प्रतीत होती है । क्योंकि पौषी पूर्णिमाको हस्त नक्षत्र नहीं आ सकता है, इस तिथिको सर्वदा चन्द्रोदयकाल में पुष्य नक्षत्र आता है । अतः हस्त और पौषी पूर्णिमाका योग ज्योतिषकी प्रक्रिया द्वारा सर्वथा असंभव है।
उत्तरपुराणकी मान्यता गणनासे शुद्ध आती है। क्योंकि चैत्र शुक्ला एकादशीको मघा नक्षत्र आ जाता है। यह ज्योतिषका अटल नियम है कि चन्द्रोदयमें चैत्री पूर्णिमाको चित्रा नक्षत्र आता है । अतएव चित्रा नक्षत्रसे विपरीत नक्षत्र तथा पूर्णिमा तिथिसे विपरीत तिथि गणना करनेसे चैत्र शुक्ला एकादशीको मधा नक्षत्र आ जाता है । अतएव यही पाँचवें तीर्थकरको कैवल्य प्राप्तिको तिथि है । हिन्दी कवियोंने इसी तिथि मान्यताको स्वीकार किया है ।
१. णवीए पुन्वण्हे मघासु वइसाहसुक्कपम्खम्मि ।
सुमई सहेदुगवणे णिक्कतो तदियउववासो ॥-तिलोय० ४, ६४८ २. सिते राज्ञां सहस्रण सुमतिनवमी दिने ।
मघाशशिनी वैशाखे पूर्वाह्ने संयमाश्रयम् ।।-उत्तर० ५१.७०-७१ ३. चैतसुकलग्यारस तिथि भाखा ।
ता दिन तप धरि निजरस चाखा ।। वृन्दावन चौबीसी विधान ४. जानि सुदी वैशाख, नौमी दिन तप ग्रहण किया । सत्यार्थयज्ञ ५. पुस्सस्स पुणिमाए रिक्खम्मि करे सहेदुगम्मिवणे ।
अवरण्हे उप्पण्णं सुमइजिण केवलं गाणं ॥-तिलोय० ४-६८२ ६. मघायां चैत्रमासस्य धवलैकादशीदिने । पश्चिमाभिमुखे भानौ कैवल्यमुदयादयत् ।।-उत्तर० ५१.७५
२२
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान · इन्हीं सुमतिनाथ भगवान्के निर्वाण या मोक्ष-कल्याणकका वर्णन करते हुए तिलोयपण्णत्तिमें बताया गया है कि चैत्रशुक्ला दशमीके दिन पूर्वाह्नकालमें मघा नक्षत्रके रहते हुए सम्मेद शिखरसे एक सहस्र मुनियोंके साथ निर्वाणको प्राप्त हुए । उतरपुराणमें चैत्रशुक्ला एकादशीके दिन मघा नक्षत्रमें अपराह्नकाल में सुमतिनाथ स्वामीने निर्वाण लाभ किया । वृन्दावन और मनरंगने भी चैत्रशुक्ला एकादशी तिथि हो निर्वाण तिथि बतलायो है ! ज्योतिषकी प्रक्रिया द्वारा ऊहापोह करनेपर चैत्रशुक्ला एकादशीको ही मधा नक्षत्र आता है, दशमीको नहीं । अतः चैत्री पूर्णिमाको चित्रा नक्षत्र रहेगा, अतएव मघा नक्षत्र एकादशीको ही रहना चाहिए। 'तिलोयपण्णत्ति' का 'चेत्तस्स सुक्कदशमो' के स्थान में 'चेत्तस्रा शुक्ल एकादसी, पाठ होना चाहिए। यहाँ मघा नक्षगका उल्लेख है ही, अतएव पाठान्तर शुद्ध कर देनेपर गड़बडी दूर हो जाती है, जिससे चैत्र शुक्ला एकादशी तिथि सुमतिनाथ भगवान्के निर्वाण कल्याणकी तिथि गणना द्वारा सिद्ध होती है।
षष्ठ तीर्थंकर पद्मप्रभका गर्भकल्याणक उत्तरपुराणमें माघ कृष्ण षष्ठीको माना गया है । इस दिन चित्रा नक्षत्र था । कवि वृन्दावनने माघ कृष्णा षष्ठी तथा मनरंगने भी इसी तिथिको छठवें तीर्थंकरको गर्भकल्याणक तिथि बताया है। ज्योतिषकी पद्धति द्वारा विचार करनेपर भी यह तिथि शुद्ध प्रतीत होती है। क्योंकि माघ कृष्णा षष्ठीको चित्रा नक्षत्र आ जाता है । पौषी पूर्णिमाको पुष्य नक्षत्र आता है, इससे आगे गणना करनेपर माघ कृष्णा षष्ठीको चित्रा नक्षत्रकी स्थिति घटित हो जाती है ।
पद्मप्रभ स्वामीका जन्मकल्याणक तिलोयपण्णत्ति के अनुसार श्रावणशुक्ला एकादशी' मघा नक्षत्र में माना गया है । उत्तरपुराणमें कात्तिक कृष्णा त्रयोदशीको' चित्रा नक्षत्रमें जन्म कल्याणक बतलाया गया है। वृन्दावनने पद्भप्रभ स्वामीकी जन्मतिथि कात्तिक शुक्ला त्रयोदशी और मनरंगने कात्तिक कृष्णा त्रयोदशी मानी है ।
ज्योतिषकी पद्धति द्वारा विचार करनेपर ज्ञात होता है कि तिलोयपण्णत्ति द्वारा प्रतिपादित तिथि अशुद्ध है; क्योंकि श्रावण शुक्ला एकादशीको मघा नक्षत्र नहीं पड़ता है, उस दिन
१. चेत्तस्स सुक्कदसमीपुव्वण्हे जम्मभम्म सम्मंदे ।
दससयरिसिसंजुत्तो सुमइस्साभी समोक्खगदो।।-तिलोय० ४.११८९ २. एकादश्यां सिते चैत्रे मघायामपरागः ।
अमरैरन्त्यकल्याणमवाप सुमतीश्वरः ॥-उत्तर० ५१.८५ ३. प्रभाते माघकृष्णायां षष्ठयां चित्रेन्दुसंगमे ।-उत्तर० ५२.१९ ४. मेघप्पहेण सुमई साकेदपुरम्मि मंगलाए य ।
सावणसुक्केदारसिदिवसम्मि मघासु संजणिदो ॥-तिलोय० ४५३० ५. कृष्णपक्षे त्रयोदश्यां त्वष्टयोगेऽपराजितम् । ____ कात्तिके मास्यसूतैषा रक्ताम्भोजदलच्छविम् ।।-उत्तर० ५२.१ ६. सुकुलकातिकतेरसकों जये । त्रिजगजीव सु आनन्दकों लये।।--वृन्दावन चौबीसी विधान ७, भली त्रयोदश्यां कातिक महीना प्राक परवको । सत्यार्थयज्ञ
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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मूल नक्षत्र गणनासे आता है, अतएव यह तिथि अग्राह्य । उत्तरपुराणकी मान्यतानुसार जन्म दिन कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी है, इस दिन चित्रा नक्षत्रका अस्तित्व रहता है । क्योंकि कार्तिकी पूर्णिमाको कृत्तिका और आश्विनी पूर्णिमाको अश्विनी नक्षत्र आता है । आश्विनी पूर्णिमा या कार्तिक पूर्णिमासे गणना करनेपर कार्तिक कृष्णा त्रयोदशीको चित्रा नक्षत्र आ जाता है । दूसरी बात यह भी है कि जो गर्भ नक्षत्र होता है, वही जन्म नक्षत्र भी आता है । अतः यह पहले ही लिखा जा चुका है कि गर्भकी परिपक्वता दस नाक्षत्र मासोंमें होती है । ये दस नाक्षत्रमास नौ सौर मासके तुल्य होते । चान्द्रमासकी गणना के अनुसार गर्भकी परिपक्वताका निश्चय नहीं किया जा सकता है । अतएव भगवान् पद्मप्रभ स्वामीका जन्मकल्याणक कार्तिक कृष्णा त्रयोदशीको सम्पन्न हुआ ही मानना युक्ति संगत है ।
कवि वृन्दावनने कार्त्तिक शुक्ला एकादशीका निर्देश किया है, यह तिथि भी अशुद्ध है । क्योंकि गणनानुसार चित्रा नक्षत्र इन तिथि को नहीं आता है ।
छठें तीर्थंकरका तपकल्याणक तिलोयपण्णत्ति में कार्तिक कृष्णा त्रयोदशीके' दिन अपराह्नकालमें चित्रा नक्षत्र के रहते हुए बतलाया है । उत्तरपुराण में भी इसी तिथि और नक्षत्रका उल्लेख है । वृदावनने कार्त्तिक शुक्ला त्रयोदशी और मनरंगने कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी तिथि बतलायी है । गणना द्वारा कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी तिथि ही तपकल्याणककी तिथि है । कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी अशुद्ध है ।
पद्मप्रभ स्वामीको कैवल्यकी प्राप्ति तिलोयपण्णत्ति में वैशाख शुक्ला दशमीके' अपराह्न - कालमें चित्रा नक्षत्रके रहते हुए बतायी गयी है । उत्तरपुराणके अनुसार इन्हें कैवल्यलाभ चैत्रशुक्ला पूर्णिमा - चैत्री पूर्णिमाके मध्याह्न में हुआ है। इस दिन भी चित्रा नक्षत्र था । कवि वृन्दावन और मनरंगने भी चैत्री पूर्णिमा ही कैवल्यलाभकी तिथि मानी है । ज्योतिष गणना द्वारा विचार करनेपर तिलोयपण्णत्ति के अनुसार वैशाखशुक्ला दशमीको चित्रा नक्षत्र नहीं आता; यह नक्षत्र तो वैशाखशुक्ला त्रयोदशीको आता है तथा इस तिथिको पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रकी स्थिति आती है । अतः यह तिथि गणना के अनुसार अशुद्ध है । उत्तरपुराणकी मान्यता गणनासे शुद्ध सिद्ध होती है; क्योंकि चैत्री पूर्णिमाको नियमतः चित्रा नक्षत्र रहता है । अतएव छठवें तीर्थंङ्करकी कैवल्य - लाभ - तिथि चैत्री पूर्णिमा है ।
१. चित्तासु किण्हतेरसि अवरण्हे कत्तियस्स णिक्कतो |
पउमप्पहो जिणिदो तदिए खवणे मणोहरुज्जाणे ॥ - तिलोय० ४-६४९
२. कार्तिके शुक्लपक्षस्य त्रयोदश्यपराह्नगः ।
चित्रायां भूभुजां सार्द्ध सहस्रेणाहितादरः ॥ - उत्तर० ५२-५२
३. सुकलतेरसकातिक भावनी । तप धरयो वन षष्टम पावनी ॥ - वृन्दावन चौबीसी विधान ४. वइसाहसुक्कदसमीचेत्तारिक्खे मणोहरुज्जाणे ।
अवरह्णे उप्पण्णं पउमप्पह जिनवरिदस्स ॥ - तिलोय० ४-६८३
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङमयका अवदान
पद्मप्रभ स्वामीके निर्वाण कल्याणके सम्बन्धमें वर्णन करते हुए तिलोयपण्णत्तिमें फाल्गुन कृष्णा' चतुर्थीके दिन अपराह्नकालमें चित्रा नक्षत्रके रहते हुए सम्मेद शिखरसे तीनसो चौबीस मुनियों सहित मोक्ष प्राप्त करना लिखा है। उत्तरपुराणमें भी इसी तिथि और नक्षत्रका उल्लेख है । कवि वृन्दावनने फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी और मनरंगने फाल्गुन कृष्ण सप्तमी तिथिको निर्वाणलाभ-तिथि कहा है। गणनानुसार फाल्गुन कृष्णा चतुर्थीको चित्रा नक्षत्र आ जाता है; क्योंकि उस समय माघी पूर्णिमाको मघा नक्षत्र था उससे आगे तिथि और नक्षत्र गणना करनेसे फाल्गुन कृष्णा चतुर्थीको चित्रा नक्षत्रको स्थिति समीचीन दिखलायी पड़ती है । अतः कवि मनरंगको तिथि अशुद्ध है, इस तिथिको निर्वाणका नक्षत्र नहीं आता है । अतएव भगवान् पद्मप्रभ स्वामीका निर्वाण कात्तिक कृष्णा चतुर्थीको हुआ है ।
१. फग्गुण किण्हचउत्थी अवरले जम्मभम्मि सम्मेदे ।
चउवीसाधियतियसयसहिदो पउमप्पहो देवो ।-तिलोय० ४-५१९० २. फाल्गुने मासे चित्रायां चतुर्थ्यामपराहगः ।। ___कृष्णपक्षे चतुर्थेन समुच्छिन्नक्रियात्मना ।।-उत्तर० ५२-६७ ३. असितफागुन चौथ सुजानियो।-वृन्दावन चौबीसी विधान ४. बदी सात जानौं सुभग महिना फागुण कहा-सत्यार्थयज्ञ
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जैनकला : एक विश्लेषण
आत्माकी सुकोमल, मंजु, मृदुल और मनोज्ञ नैतिक साधन- शृङ्खला कला कहलाती है । मानव शिशु जिस क्षण आँखें खोलता है, उसी क्षणसे बाह्य सृष्टिकी विविध वस्तुओंकी छाप अलक्ष्य रूपसे उसके कल्पनाशील मनपर पड़ने लगती है । संसारका ऐसा कोई परमाणु नहीं, जो उसपर अपना प्रभाव बिना डाले रहता हो । किन्तु विशेषता संस्कार ग्रहण करने वाले की होती है, वह जैसा कल्पनाशील, सजग और सुबोध होता है, संस्कारके वातावरणको भी उसी रूपमें ग्रहण करता है । इस ग्रहीत संस्कारको मनुष्य अपने तक ही सीमित नहीं रखना चाहता है, बल्कि अन्यपर अभिव्यक्त करनेके लिये अनिवार्य सा हो जाता है ।
अथवा यों समझिये कि मानव के हृदय और मस्तिष्ककी रचना ही कुछ ऐसी है, जिससे संसारका वातावरण उसे प्रभावित करता है । जिस प्रकार चंचल पवन जलराशिपर अपना प्रभाव अंकित करता है, या मयूख रश्मियाँ जैसे शिलाखण्डोंपर अपना शीतोष्ण गुण अंकित करती हैं, उसी प्रकार मानव मस्तिष्कमें जड़ चेतन पदार्थोंके चित्र अंकित होते रहते हैं । परन्तु मनुष्यकी आत्मामें नैसर्गिक प्रेरणा होती है कि वह उन चित्रोंको अभिव्यक्त करे । अभिव्यञ्जनाकी यही प्रणाली कला है ।
भारतीय कलाकी उन्नतिमें जैनाचार्योंका स्थान भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । कारण कोई भी धर्म तभी अपना अस्तित्व रख सकता है जब उसकी कला उच्च कोटि की हो । सांस्कृतिक महत्ता और गौरव गरिमा ही धर्मका प्राण है । जैनेतर विचारक और विवेचकोंने समयसमयपर जैनदर्शन और जैनकलाकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है । यद्यपि भारतीय कलाका साम्प्रदायिक वर्गीकरण जैनशैली, बौद्धशैली और ब्राह्मणशैली कलाका नहीं हो सकता है । बूलर' का कथन है कि भारतीय कलामें साम्प्रदायिकता नहीं है । बौद्ध, जैन और ब्राह्मण सभी की भावनाका स्रोत एक ही है । कुमार स्वामी ने हिस्ट्री इन्डियन एण्ड इण्डोनेशन आर्टमें बताया है कि शुद्धशैली के हिसाब से प्रान्तीय भेद या साम्प्रदायिक भेद कलामें संभव नहीं । दार्शनिक भेद होनेके कारण कलामें कुछ अन्तर आया है, पर कलाका वर्गीकरण समय और भूगोल अनुसार ही हो सकता है । भारत के प्रधान तीनों धर्म—जैन, बौद्ध और ब्राह्मणमें कलाकी भावना आन्तरिक सौन्दर्याभिव्यक्ति की ही रही है, अतः कलाके शैलीगत भेद मानना उचित नहीं ।
1. Jain Art in the North P. 247
2. History of Indian and Indonesion Art P. 106; the Jaina Stupa and other Antiquties of Mathura, Int p. 6; Mehta, Studies in Indian Painting, pp. 1-2; Percy Brown, Indian Painting "PP. 38, 51.; History of Indian Architecture,
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन
वाङ्मयका अवदान
जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है इसमें इतर धर्मोकी अपेक्षा अनेक विशेषताएँ हैं । धर्मकी विशेषता के कारण जैन धर्मानुयायी कलाकारोंकी अभिव्यञ्जनामें भी पर्याप्त अन्तर है । यदि प्रतीकों के भेद से या अन्तर्जगत्के भावविशेषको व्यक्त करनेकी प्रणालीके भिन्न होनेसे जैनकलाको अलग स्थान दिया जाय तो अनुचित न होगा । जैन आदर्श वीतरागताका है, इसलिये जेन कलाकार प्रत्येक ललित कलामें इसी आदर्श की अभिव्यञ्जना करता है । उसका ध्येय कला द्वारा लौकिक एषणाकी तृप्ति करना नहीं होता, किन्तु शान्तरसका प्रवाह बहाकर द्रष्टाके हृदय में आध्यात्मिक भावनाको जागृत करना है । जैन कलाकारोंने पत्थर या कागजके माध्यम द्वारा आध्यात्मिक रहस्यके उद्घाटनमें आशातीत सफलता प्राप्त की है ।
अभिव्यञ्जनाकी दृष्टिसे जैनकलाके दो भेद किये जा सकते हैं -- स्थित कला (The Static Mood of art ) और गतिशील कला (The dynamic mood of art ) । प्रथममें क्रम और औचित्यकी प्रधानता तथा द्वितीयमें गति, आरोहावरोह एवं भावव्यञ्जनाकी प्रधानता रहती है | स्थित कला वास्तु, तक्षण और चित्र ये तीन भेद एवं गतिशील कलाके संगीत और काव्य ये दो भेद हैं ।
वास्तुकला — इस कलामें कलाकार लोहा, पत्थर, लकड़ी और ईंट आदि स्थूल पदार्थोंके सहारे अपने अमूनिक भावोंके सौन्दर्यकी अभिव्यञ्जना करता है । जैनोंने इस कलामें प्राचीनकाल से ही अधिक उन्नति की है। गिरनाट' ने हिन्दुकलाके बहुत से स्थापत्योंमें जैन कलाका पूर्ण प्रभाव बताया है । जहाँ तक वास्तुकलाका सम्बन्ध है जैनकला अद्वितीय है । वास्तुकला में जैनधर्मकी सुन्दर अभिव्यक्ति की गई है । विशाल पर्वतोंपर प्रकृतिके रम्य वातावरण में श्रेष्ठ मन्दिरोंका निर्माण कर जैनोंने वस्तुतः अपनी कलाप्रियताका परिचय दिया है । श्री सम्मेदशिखर ( Parshwnath Hill गिरनार और शत्रुञ्जयके निर्जन प्रदेशोंकी जैन स्थापत्य कला अपनी आभा और चमकसे प्रत्येक दर्शकके मनको बरबस अपनी ओर खींच लेती है ।
1
),
प्राचीन भारतकी स्थापत्य कलामें मथुराका जैनस्तूप भी शिल्पतीर्थंका सर्वोत्कृष्ट नमूना है । यहाँके रमणीय देवप्रासाद, उनके सुन्दर तोरण, वेदिकास्तम्भ, उष्णीष पाषाण, उत्फुल्ल कगलोंसे सुसज्जित सूची, उत्कीर्ण आयागपट्ट आदि जैनकलाके गौरव । चहार दीवारी के वेदिका-स्तम्भोंपर अनेक सुगात्रवाली नर्तिकाएँ अंकित हैं, जो मथुराकलाकी अनुपम देन है । इन रमणियोंके सुन्दर रत्नजटित वस्त्राभूषणोंकी कारीगरोंको देखकर दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है । चम्पक, आम्र, अशोक और बकुलके उद्यानोंमें क्रीडासक्त अथवा स्नान और प्रसाधन द्वारा श्रृंगारमग्न देवियोंको देखकर जैनकलाका गौरव सहज ही हृदयंगम हो जाता है । इन वेदिकाओंको सुपर्ण और किन्नर देवोंके पूजा दृश्योंने और भी रमणीय और भावगम्य बना दिया है । बौद्ध स्तूपके पास जो दो बड़े देवप्रासादोंके भग्नावशेष उपलब्ध हुए हैं,
1. Guerinat, Lo Relgion Dgaina, p. 279;
2. Fergusson, History of Indian and Eastern Architecture, ii, p. 24. 3. Elliot, Hinduism and Buddism i, P. 121.
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१७५ वे ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दीके हैं । डा० बूलर और स्मिथ आदि विद्वानोंने जैन स्तूपकी सुन्दर कारीगरीकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करते हुए उसे भारतीय शिल्पका तीर्थ बताया है । वेदिकास्तम्भ और सूचीदलोंकी सजावट नोरस हृदयको भी सरस बना देती है।
विशेषज्ञोंने स्थापत्यकलाको नागर (उत्तरी). वेसर (पूर्वी) और द्राविड़ इन तीन भागोंमें बाँटा है । दक्षिणके जैनमन्दिरोंमें होयसल या चालुक्य और द्राविड़ इन दोनों शैलियोंका प्रभाव पाया जाता है। चन्द्रगिरिके पार्श्वनाथ बस्ति, कत्तले रस्ति और चामुण्डराय बस्ति जैनकलाके सुन्दर निदर्शन हैं । कत्तले बस्ति १२४४४० फुट क्षेत्रफलका है । इसमें गर्भ गृहके चारों ओर प्रदक्षिणा है । नवरंगसे सटा हुआ एक मुखमण्डप भी है और बाहरी बरामदा भी। ये सभी मन्दिर द्राविड़ शैलीके उत्कृष्ट नमूने हैं । फर्ग्युसन' ने चन्द्रगिरिकी १५ बस्तियोंमन्दिरोंको स्थापत्य कलाकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि इनकी नक्काशी उत्तर भारतकी स्थापत्य कलासे सर्वथा भिन्न है। इन मन्दिरोंकी बनावट कलापूर्ण है । द्राविड़ और चालुक्य कलाओंके मिश्रित रूपकी अभिव्यञ्जना प्रशंसनीय है।
__ दक्षिण भारतमें ई० ५० ३ से ई० १३ वीं शताब्दी तक जैन शासन रहनेके कारण जैनकलाकी खूब उन्नति हुई है। तामिल और कन्नड़ दोनों ही प्रान्तोंमे सुन्दरतम जैन मन्दिरोंका निर्माण हुआ है । पल्लव और गंग राजाओंने अपने राज्यकालमें भव्य चैत्यालय और दिव्य स्तम्भोंका निर्माण कराया था। मन्दिरोंकी दीवाल और छतोंपर नवकाशी और पच्चीकारीका भी काम किया गया था। कई मन्दिर दो मंजिले और चारों गोर दरवाजे वाले थे। पाषाणके अतिरिक्त लकड़ीके जिनालयोंकी प्रथा भी प्रारम्भ हो गई थी। जन वास्तुकलाकी यह प्रणाली नागर या आर्यावर्त की थी। इस कलाके मन्दिरोंका आकार चौकोर होता था तथा ऊपर शिखर रहता था। ई० ६-७ वीं सदी तक इसी प्रणालीपर मन्दिरोंका निर्माण होता रहा । पश्चात् बेसर-समकोण आयताकार मन्दिर बनने लगे, इन मन्दिरोंके शिखर ऊपर-ऊपर होन-हीन होते जाते थे और अन्तमें अद्धगोलाकार गुम्मज घना होता था। सातवीं शताब्दीके बारम्भमें इस शैलीके मन्दिर बादामी, ऐहोले, मामल्लपुर, कांची आदि स्थानोंपर बनाये गये थे। विद्वानोंका मत है कि समवशरण रचनाका परिष्कृत रूप बेसर प्रणाली है।
इसके सिवा चतुर्मुख मन्दिर भी बनाये जाते थे। इन मन्दिरोंकी बनावटके बारेमें कहा गया है कि इनके बीच में एक कमरा होता था, जिसके चारों ओर बड़े दरवाजे एवं बाहर बरंडा तथा उसारा होता था। छत सपाट पाषाणसे पाट दी जाती थी और बड़े-बड़े स्तम्भोंपर टिकी रहती थी। तीन कोठरियोंके मन्दिरोंका प्रचार भी दक्षिणमें था, इनमें तीर्थंकरोंकी मूत्तियां यक्ष-यक्षिणी सहित विराजमान रहती थीं। वर्जेस' और फग्यूसनका कथन है कि ७-८ वीं
1. Fergusson, op, css, p. 75, 172 and Burgess, Digambara Jain Icong
raphy Ind, Ant, XXXII, P. 95.96. २. संक्षिप्त जैन इतिहास तृ० भाग द्वि० खंड पृ० १३४ । ३. संक्षिप्त जैन इतिहास भा० ३ खं० २ पृ० १३५; ४. दी गंगज़ ऑफ तालकाड पृ० २२२-२२६ ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
सदीमें दक्षिण भारतमें जनकलाका जो आकार-प्रकार प्रचलित था, वह उत्तरकी ओर बढ़ा और साथ ही द्राविड़ चिन्होंको भी लेता गया । जैन-वास्तु-कला सौन्दर्यके साथ-साथ उपासनाका मूत्तिमान रूप है।
जैन स्तूप और स्तम्भ-जन वास्तुकलामें स्तूपोंका स्थान भी श्रेष्ठ है । स्तूप केबल धार्मिक चिह्न ही नहीं थे, बल्कि सिद्ध परमेष्ठीके प्रतीक होनेसे पूज्य थे । स्तूप रचनाकी प्रणाली जैनियोंमें मौर्य सम्राट अशोकसे भी पहले प्रचलित थी।
मण्डप स्तम्भ द्राविड कलामें जैनोंकी अपनी पृथक् वस्तु हैं । ये मण्डप पांच स्तम्भोंके होते थे। चारों कोनोंके साथ-साथ बीचमें भी एक स्तम्भ रहता था। यह बीचका स्तम्भ कलाकी दृष्टिसे बहुत ही सुन्दर बनाया जाता था। फसनने इस मण्डप स्तम्भकी बड़ी प्रशंसा की है । मण्डप स्तम्भोंके अतिरिक्त सामान्य स्तम्भ दो प्रकारके बैनियोंमें प्रचलित-मानस्तम्भ और ब्रह्मदेव स्तम्भ । मानस्तम्भमें ऊपर चोटीपर एक छोटी सी बेदी रहती है जिसमें चतुर्मुख प्रतिमा विराजमान रहती है। ब्रह्मदेव स्तम्भमें बोटीपर ब्रह्मकी पूर्ति स्थापित की जाती है । यह स्तम्भ एक समूचे पाषाणका होता है और इसके निचले भागमें नक्काशीका काम किया रहता है । ऐहोले, इलोरा आदि स्थानों पर सुन्दर मानस्तम्भ वर्तमान थे । इलोरा की इन्द्रसभाके सम्मुख बना हुआ मानस्तम्भ वास्तुकलाको दृष्टिसे अपूर्व है। श्रीबेलहौस सा० ने मानस्तम्भोंकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि "जैन स्तम्भोंकी आधारशिला और शिखर बारीक और सुन्दर समलंकृत शिल्पचातुर्ग की आश्चर्य वस्तु हैं । इन सुन्दर स्तम्भोंकी राजसी प्रभासे कोई भी वस्तु मुकाबिला नहीं कर सकती है। ये प्राकृत सौन्दर्यके अनुरूप ही पूर्ण और पर्याप्त बनाये गये हैं । इनकी नक्काशी और महत्ता सर्वप्रिय है।"
___राजनृपने काल्पोले नामक स्थानमें अद्वितीय जिनमन्दिर बनवाया था जिसकी तीन शिखरें थीं। उसने शासकोंके विश्रामगृहके लिये एक सोनेकी शिखरवाला मन्दिर तथा उसके सामने मानस्तम्भ बनाया था। ये सभी मानस्तम्भ शिल्पकलाके अद्भुत नमूने थे, इनकी नक्काशी, लटकन और गुम्मनें अनूठे ढंग की बनी हुई थीं।
___ दक्षिणके अलावा उत्तर भारतमें भी आबू के जैन मन्दिर जैसे सुन्दर वास्तुकलाके नमूने बनाये गये थे। आबूके जैन मन्दिरों की प्रशंसा करते हुए कर्नल टॉडने अपनी ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया नामक पुस्तकमें लिखा है । "हिन्दुस्तान भरमें यह मन्दिर सर्वोत्तम है और राजमहलके सिवा कोई दूसरा स्थान इसकी समता नहीं कर सकता"। मिस्टर फर्ग्युसनने पिक्चर्स इलस्ट्रेशन आफ इन्नोसेण्ट आर्कीटेक्चर इन हिन्दुस्तान-नामक पुस्तक में लिखा है"इस मन्दिरमें, जो संगमरमरका बना हुआ है, अत्यन्त परिश्रम सहन करनेवाली हिन्दुओंकी टॉकी से फीते जैसी सूक्ष्मताके साथ ऐसी आकृतियाँ बनायी गयी हैं, जिनकी नकल कागजपर, बनानेमें कितने ही समय और परिश्रम कर भी मैं नहीं कर सकता हूँ"।
___ इस प्रकार जैन वास्तुकलाके नमूने एकसे एक बढ़कर समस्त भारतमें वर्तमान है। जैन इमारतोंके सौन्दर्यकी सूक्ष्मता, गुम्बज, तोरण, स्तम्भ, छत और गोखोंकी सूक्ष्म नक्काशी
1. Walhouse IA, P. 39
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१७७ मनको मुग्ध करती है। मन्दिर निर्माणके सम्बन्धमें जैनाचार्योने जितने नियम प्रचलित किये हैं, उनके देखनेसे मालूम होता है कि मन्दिर निर्माण शैलीके अनेक भेद थे।
धुव-धन्न-जया नंद-खर-कंत-मणोरमा सुमुहा-दुमुहा। कूर सुपक्ख-धणद खय आक्कंद विउल विजया गिहा॥
-वास्तुसार गा० ७१ अर्थात्-ध्रुव, धान्य, जय, नन्द, खर, कान्त, मनोरम, सुमुख, दुर्मुख , क्रूर, सुपक्ष, घनद, क्षय, आक्रन्द, विपुल और विजया ये १६ प्रकारके प्रासाद होते हैं, शाला,'आलिन्द, गुजारी, दीवाल, पट्टे, स्तम्भ और झरोखेके भेदोंसे प्रासाद ९६७० प्रकारके बनाये जाते हैं। प्रतिष्ठासार संग्रहमें मन्दिरके स्थानोंका उल्लेख निम्न प्रकार है
जन्म-निष्क्रमणस्थानज्ञाननिर्वाणभूमिषु । अन्येषु पुण्यदेशेषु नदीकूले नगरेषु च ॥ प्रामादिसन्निवेशेषु समुद्रपुलिनेषु च ।
अन्येषु वा मनोज्ञेषु कारयेज्जिनमन्दिरम् ।। इसी प्रकारके चैत्यालयके सम्बन्धमें भी उल्लेख मिलता है
सिंहो येन जिनेश्वरस्य सदने निर्मापितो तन्मुखे। कुर्यात्कीत्तिमुखं त्रिशूलसहितं घण्टादिभिर्भूषितम् ॥ तत्पावे मदनस्य हस्तयमलं पञ्चाङ्गुलीसंयुतम् ।
केतुस्वर्णघटोज्ज्वलञ्च शिखरं केत्वाय निर्मापितम् ।। वास्तु निर्माणके और भी अन्य प्रकारके नियम बताये गये हैं, जिन नियमोंके देखनेसे जैन वास्तुकलाकी महत्ताका सहज अनुमान किया जा सकता है ।
मूर्तिकला-वास्तुकलाके अनन्तर मूर्तिकलाका कार्य आरम्भ होता है। वास्तुकला जिस आभ्यन्तरिक आत्माकी ओर संकेत करती है, मूर्तिकला उसीको प्रकाशित करती है। मूर्तिकलामें आभ्यन्तरिक आत्मा और बाहरी साधनोंमें समन्वय रहता है। अतएव सफल मूर्तिकलामें आध्यात्मिक और शारीरिक सौन्दर्यकी समन्वित अभिव्यञ्जना की जाती है । मानव स्वभावतः अमूर्तिक गुणोंके स्तवनसे संतोष नहीं करता, उसका भावुक हृदय एक साकार आधार चाहता है, जिसके समक्ष वह अपने भीतरकी बातको कह सके और जिसके गुणोंको अपने जीवनमें उतारकर संतोष प्राप्त कर सके । मूर्तिकलाके आविष्कारका कारण बहुत कुछ उपर्युक्त प्रवृत्ति ही है । जैन सम्प्रदायमें आत्मिक गुणोंके चिन्तनके लिये तीर्थङ्करों और लौकिक अभ्युदय को प्राप्तिके लिये यक्ष-यक्षिणियोंकी मूर्तियाँ प्राचीनकालमें ही बनती थीं। भूगर्भसे जितनी प्राचीन जैन प्रतिमाएं निकली हैं, उतनी अन्य सम्प्रदाय की नहीं। ई० पू० ५-६ वर्ष पहलेकी भी जैन प्रतिमाएं उपलब्ध हो चुकी हैं । जैनमूत्तिकी रूपरेखा निम्न प्रकार है१. औवरय अलिंद-गई गुजारी-भित्तीण-पट्ट-थंभाण । जालिमंडवाणय भेएण गिहा उवज्जति ।।
-वास्तुसार गा० ६९
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
शान्तप्रसन्नमध्यस्थनासाग्रस्थाविकारदृक् । सम्पूर्णभावरूरूऽनुविद्धांगं लक्षणान्वितम् ॥ रौद्रादिदोषनिर्मुक्तं प्रातिहार्यांकयक्षयुक् । निर्माय विधिना पीठे जिनबिम्बं निवेशयेत्' ॥
अर्थात् —– शान्त, प्रसन्न, मध्यस्थ, नासाग्र अविकारी दृष्टिवाली, अनुपमवर्ण, वीतरागी, शुभ लक्षणोंसे सहित, रौद्र आदि बारह दोषोंसे रहित, अशोक वृक्ष आदि आठ प्रतिहा युक्त, और दोनों तरफ यक्ष-यक्षिणियोंसे सहित जिन प्रतिमाको विधिपूर्वक सिंहासनपर विराजमान करना चाहिये । प्रतिमा बनानेवाले शिल्पी को जिन प्रतिमामें वीतराग दृष्टि, सौम्य आकृति और निस्खलता अनिवार्यतः रखनी चाहिये ।
वराहमिहिर ने भी जिन प्रतिमाका लक्षण बतलाते हुए कहा है
आजानु' लम्बबाहुः श्रीवत्साङ्कः प्रशान्तमूत्तिश्च । दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽर्हतां देवः ॥
अर्थात् अर्हन्तकी मूर्ति प्रशान्त, श्रीवत्स चिन्हसे अंकित, तरुण, लम्बी भुजावाली और नग्न होती है ।
अतएव स्पष्ट है कि जैनमूत्तियोंके निर्माणके सम्बन्धमें केवल जैन ग्रन्थकारोंने ही नियम नहीं बनाये थे, किन्तु जैनेतरोंने भी । आजतक जितनी मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं, उन्हें कलाशैलीकी दृष्टिसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है । उत्तरभारतीय, दक्षिणभारतीय और पूर्वभारतीय । प्राचीन समय में जैनधर्मके प्रधान केन्द्र पाटलीपुत्र, मथुरा, उज्जैन और कांची थे । इन स्थानोंमें जैनोंकी संस्कृति विशेषरूप से वर्तमान थी । उत्तर भारतीय — गुजरात, पंजाब, संयुक्तप्रान्त और मध्यभारतमें निर्मित प्रतिमाएँ एक ही शैलीकी होती थीं; शरीर गठन, मुखाकृति सन्निवेश आदिकी दृष्टिसे एक ही वर्ग में उन्हें रख सकते हैं । दक्षिण भारतकी मूत्तियों में द्रविण कलाकी छाप रहनेके कारण शरीरावयव, आकृति आदि में उत्तरभारतीय कलाकी अपेक्षा भिन्नता रहती है। इसी तरह पूर्वभारतकी मूर्तियोंमें भी वहाँके शिल्पियों की अपनी शैलीके कारण कुछ अन्तर रहता है। अबतक भूगर्भसे तीनों ही शैलीकी प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं ।
पटना म्यूजियम में नं० ८०३८ की भग्नमूर्ति है । इस मूर्तिपर चमकदार पालिस है, यह पालिस इतनी सुन्दर और ओजपूर्ण है कि आज भी ज्यों की त्यों बनी है | अशोकके शिल्पोंकी तरह यह चुनार के पत्थर की है, इसके ऊपर किसी मसालेको पालिस नहीं है, बल्कि पत्थर घोंटकर चिकना और चमकदार बना दिया गया है, जिससे काँचके समान चमक आ गई है । यह मूर्ति निस्सन्देह मौर्यकालीन है । इस म्यूजियममें और भी अनेक मूर्तियाँ है, जो पूर्वभारतकी शैलीकी कही जा सकती हैं ।
१. प्रतिष्ठासारोद्धार पृ० ७ श्लो० ६३-६४
२. देखें - वराह संहिता अ० ५७ श्लो० ४५
३. देखें — जैन सिद्धान्त भास्कर १३ भाग किरण २
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१७९ उत्तर भारतीय मूत्तियोंके नमूने मथुरा. लखनऊ, प्रयाग आदि स्थानोंके म्यूजियमोंमें मिलते हैं। प्राचीन समयमें गान्धारकी भाँति मथुराकी शैली भी अपनी निजी थी। मथुरामें सफेद चित्तीवाले लाल रवादार पत्थरकी मूत्तियाँ बनती थीं। इस शैलीमें भरहुतकी अलंकरण शैली और साँचीकी उन्नत शैली इन दोनोंका समन्वय था । श्री रायकृष्णदासने लिखा है कि "मथुरा' की शुगकालीन कला मुख्यतः जैन सम्प्रदायको है, किन्तु उसमें ब्राह्मण विषय भी पाये जाते हैं।" इससे स्पष्ट है कि मथुरामें जैन मूर्तिकलाके सम्बन्धमें बड़ा भारी काम हुआ है । मौर्यकाल और गुप्तकालमें पूर्वभारतीय और उत्तरभारतीय जैन मूर्तिकलाका बड़ा भारी विकास हुआ है । श्री वासुदेव उपाध्यायने लिखा है "गुप्त लेखोंमें ऐसे वर्णन मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उस समय जैन धर्मावलम्बी भी पर्याप्त संख्यामें थे । गुप्तकलाकारोंने जैन मूर्तियोंको उसी सुन्दरताके साथ तैयार किया है । मथुरामें २४ वें तीर्थंकर वर्धमान महावीरकी एक मूत्ति मिली है जो कुमारगुप्तके समयमें तैयार की गई थी। महावीर पद्मासन मारे ध्यानमुद्रामें दिखलाये गये हैं। आसनके नीचे लेख खुदा है तथा निचले भागमें चक्र बना हुआ है । चक्रके दोनों तरफ मनुष्योंकी आकृतियाँ हैं । स्कन्दगुप्तके शासन कालमें कहोम (जिला गोरखपुर) नामक स्थानमें एक तीर्थंकरकी मूत्ति स्थापित की गयी थी"२ । ___ अतएव स्पष्ट है कि लखनऊ और प्रयागके संग्रहालयोंमें अनेकों गुप्तकालीन जैन मूत्तियाँ हैं जिन्हें उत्तरभारतीय कलाकी कोटिमें रखा जा सकता है। इन मूत्तियोंकी सजीवता और स्वाभाविकता उच्च कोटिकी है। ई० पू० १८८-३० ई० शुगकालमें उत्तरीय और पूर्वीय मूर्तिकलाका मिश्रण खण्डगिरि और उदयगिरिके मूतिशिल्पमें मिलता है। श्री रायकृष्णदास जैसे कलापारखीने लिखा है "उड़ीसाके उदयगिरि और खण्डगिरिमें इस कालकी कटी हुई सौ के लगभग जैन गुफाएँ हैं जिनमें मूत्ति शिल्प भी है। इनमेंसे एकका नाम रानीगुफा है। यह दोमंजिले है और इसके द्वारपर मूत्तियोंका एक लम्बा पट्टा है जिसकी मूर्तिकला अपने ढंगकी निराली है । उसे देखकर यह भान होता है कि वह पत्थरकी मूत्ति न होकर एक ही साथ चित्र और काठपरको नक्काशी है । उड़ीसामें आज भी काठपर ऐसा काम होता है जो रंग दिया जाता है और तब उभरा हुआ चित्र जान पड़ता है। वर्तमान उदाहरणसे पता चलता है कि वहाँ ऐसा काम उस समय भी होता था जो इस पट्टेका आधार था। इस दृष्टिसे यह पट्टा महत्त्वका है" ।
दक्षिणभारतीय जैनमूत्ति कलाका विकास भी ई० पू० २००-१३०० ई० तक माना जा सकता है। इतनी लम्बी अवधिमें अनेक जैनधर्मानुयायी शासक हुए, जिन्होंने धर्मप्रेमसे प्रेरित होकर अनेक मन्दिर और मूत्तियोंका निर्माण कराया। यद्यपि जैन मूर्तिकलाके उत्तरीय और दक्षिणीय ढाँचेमें कोई मौलिक अन्तर नहीं, फिर भी स्थान भेदसे थोड़ा-सा अन्तर मिलता ही है । अलगामलमें खुदाईसे जो जैनमूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं, उनका कलात्मक विश्लेषण करनेपर पता लगता है कि उन मूत्तियोंकी सौम्याकृति द्राविड़कलामें अद्भुत मानी जा सकती
१. देखें भारतीय मूत्तिकला पृ० ५९ २. गुप्त साम्राज्यका इतिहास पृ० २९० ३. भारतीय मूर्तिकला प० ६०-६१ ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान है । इन मूत्तियोंका समय ई० पू० ३००-२०० के लगभग बताया जाता है। सुदूर प्राचीन कालमें जैनमूत्तियोंकी केवल रूपरेखा (out line) ही बनायी जाती थी, शिल्पी किसी विशाल पत्थरमें केवल आकृति चिन्हित कर देता था। कुछ समयके उपरान्त पत्थर काटकर मूत्ति गढनेकी प्रथा प्रचलित हुई । श्रवणबेल्गोलाकी प्रसिद्ध मूत्तिके सम्बन्धमें अनेक विद्वानोंका मत है कि चामुण्ड रायके पूर्व उस मूर्तिकी रूपरेखा ही अंकित थी। चामुण्डरायने उसी रूपरेखाके आधारपर मूर्तिका गढ़न कराया है । यह मूत्ति ५७ फुट ऊँची, विशालकाय खड्गासन है और संसारकी अद्भुत और रमणीय वस्तुओंमें से एक है । इसके सिरके बाल घुघराले, कान बड़े,
और लंबे, वक्षस्थल चौड़ा, नीचेको लटकती हुई विशाल भुजाएँ एवं कटि किञ्चित् क्षीण है । मुखपर दिव्य कान्ति और अगाध शान्ति है। घुटनोंसे कुछ ऊपर तक बमीठे बनाये गये हैं, जिनसे सर्प निकलते हुए अंकित किये गये हैं । दोनों पैर और भुजाओंमें माधवीय लताएं लिपटी हुई हैं, इतने पर भी मुखसे दिव्य आभा, अद्भुत शान्ति, तथा दुर्धर तपकी छटा टपकती है । यह मूत्ति तपस्याका साक्षात् अवतार मालूम होती है।
सिंहासन प्रफुल्लित कमलके आकारका है, इस कमलपर बायें चरणके नीचे तीन फुट चार इञ्चका माप खुदा हुआ है। कहा जाता है कि इस मापको अठारहगुना कर देनेपर समस्त मूर्तिका परिमाण निकल आता है। यह मूर्ति समस्त विश्वकी अपूर्व वस्तु है, इसकी जोड़ीकी दूसरी मूत्ति आज संसारके किसी भी कोनेमें नहीं है।
दक्षिणमें बाहुबलि स्वामीकी दो मूत्तियाँ और हैं एक कारकलमें और दूसरी वैणूरमें। प्रथम स्थानकी मूत्ति ४१ फीट ५ इंच ऊँची और १० फीट ६ इञ्च चौड़ी है और दूसरे स्थानकी ३५ फुट ऊँची है । ये दोनों मूत्तियाँ भी अपने अनुपम सौन्दर्य, अगाध शान्ति और अद्भुत प्रभावसे अपनी ओर प्रत्येक व्यक्तिको आकृष्ट कर लेती हैं । इस प्रकार दक्षिणभारतीय जैन मूर्तिकलाके अनेक अनुपम निदर्शन वर्तमान है ।
जैन मूर्तिकलाकी अभिव्यञ्जना शक्ति-सत्य, शिव और सुन्दर इन तीनों गुणोंकी समन्वित रूपमें अभिव्यक्ति होना ही जैन मूर्तिकलाको विशेषता है; पर जैनकलाका सत्य अन्य सम्प्रदायोंकी कलाके सत्यसे भिन्न है । वीतरागता-विकारोंका अभाव यह वैकालिक सत्य है; क्योंकि अजर, अमर एवं अविनाशी अखण्ड आत्म तत्त्वका स्वभाव वीतरागता है, इसलिये त्रैकालिक अबाधित सत्य वीतरागी भावनाओंको उबुद्ध करना ही हो सकता है । शिव तत्त्व भी जैनोंका लोकहित तक ही सीमित नहीं है, किन्तु उनका शिव अमर आत्माकी अनुभूति या विकार रहित आत्मस्थिति है। जैन मूर्तियाँ इसी शिवकी अभिव्यञ्जना करती हैं।
जैन कलाका सौन्दर्य भी लौकिक सुन्दरसे रहित लोकातीत है या बाह्य सौन्दर्याकांक्षासे रहित आन्तरिक आत्मिक गुणोंकी अभिव्यक्ति है ।
जैन मूर्तियोंकी मुद्रा योगमुद्रा है, जिसका अर्थ आत्मिक भावनाओंकी अभिव्यक्ति है। नासाग्र दृष्टि निर्भयता और संसारके प्रलोभनोंके संवरणकी सूचक; सिर, शरीर और गर्दनका 8. Scc Madras Epigraphical reports 1907, 1910
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जैम तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१८१ एक सीधमें रहना अतुलबल, आत्मप्रतिष्ठान, और जगत्की मोह मायासे पृथक्त्वका सूचक तथा पद्मासन प्रतिमामें बाई हथेलीके ऊपर दाई हथेलोका खुला रहना स्वार्थ त्याग, चरम सन्तोष, आदान-प्रदानकी भावनासे रहित, जिससे राग द्वेषकी उत्पत्ति होती है; और खड्गासन मूत्तिमें आजान बाहुओंका लटकना कृतकृत्य, संसारके गोरख-धन्धेसे रहित, मानसिक और शारीरिक संघर्षको छिन्न करने में संलग्न, प्रकाण्ड तथा विस्तृत विश्वमें अकेला ही अपने सुख, दुःखका भोक्ता यह जीव है कि भावनाके संदेशका सूचक; प्रशान्त मुखमुद्रा, सर्वत्र शान्ति और प्रेमके साम्राज्यकी व्यञ्जक एवं आभरण और वस्त्र हीनता अपनी कमजोरियों तथा यथार्थताको प्रकट करनेकी भावना की सूचक हैं । इस प्रकार जैन मूत्तियाँ अपनी अभिव्यञ्जना द्वारा संसार मरुभूमिमें मृगतृष्णासे संतप्त मानवको परम शान्ति और कर्तव्य परायणताका संकेत करती हैं, उनका यह संकेत निर्जीव नहीं, वरन् सजीव है ।
शायद कलाप्रेमी सहृदयोंके चित्तमें यह प्रश्न उठे कि जैन मूत्तियोंमें शारीरस्थान विद्या (एनाटोमी) के लिये कोई स्थान नहीं, किन्तु जैनमूति शिल्पमें देहका खाका, उसका गठन, नाप-जोख आदि बातें मूत्तिकी आकृति, मुखमुद्रा और उसकी विविध गतिभंगियोंके निरीक्षणसे ज्ञात हो जाती हैं । जैनकलामें आन्तरिक भावनाओं द्वारा विशेष-विशेष शारीरिक भंगिमाएं प्रकट की गयी हैं। जैनमूत्तिकी प्राणछन्दकी रूपरेखापरसे ही शरीरको भावसमता, खाका, सूक्ष्मत्व आदि बातें लक्ष्य की जा सकती हैं । प्राणछन्दके द्वारा ही शरीरके यथावत् दर्शन किये जा सकते हैं। अतः जन तीर्थङ्करोंकी तपःप्रधान मूर्तियाँ तपोबलके साथ आराधकके समक्ष शान्ति, अभय, और कलाके दिव्य आदर्शको उपस्थित करती हैं। इस प्रकार जैन मूर्तिकलामें युग-युगको संस्कृति और आध्यात्मिकताके भावोंका सन्निवेश है, जिन बातोंको कलाकार कहना चाहता था, जैनमूर्तियाँ उन बातोंको अभिव्यक्त करनेमें पूर्ण समर्थ हैं ।
जैन चित्रकला-विश्वकी ललित कलाओंमें चित्रकलाका अद्वितीय स्थान है। इस कला द्वारा मानव जातिके व्यापक और.गम्भीर भावोंको जनताके समक्ष रखा जा सकता है । जैनोंने प्राचीन कालमें ही हृदयगत मूल्यवान् भावोंके प्रवाहका व्यक्तीकरण इस कला द्वारा किया है। जैन शिल्पियोंने मूक भाषामें अपने मस्तिष्कके विचारों और हृदयकी गूढ़तम भावनाओंके प्रवाहको रंग और कूचीके सहारे कागजके माध्यम द्वारा प्रवाहित किया है । यद्यपि कला मर्मज्ञोंने जैन चित्रकलाको पृथक् स्थान नहीं दिया है, उसे विशेष-विशेष भौगोलिक परिस्थितियोंके अनुसार भारतीय कलाके अन्तर्गत ही परिगणित किया है, फिर भी इतना तो सभीने स्वीकार किया है कि जैन चित्रों को अभिव्यञ्जना अपने तौरको पृथक् है। चित्रोंका सम्बन्ध धर्मके साथ जोड़ देनेपर भी जैन चित्र हृत्तंत्रीके तारोंको झंकृत करनेमें समर्थ हैं ।
श्रीनानालाल चिमनलाल मेहताने जैन चित्रकलाके सम्बन्धमें लिखा है-"परन्तु इतना अवश्य है कि जैन चित्रोंमें एक प्रकारको निर्मलता, स्फूर्ति और गतिवेग है, जिससे डा० आनन्दकुमार स्वामी जैसे रसिक विद्वान् मुग्ध हो जाते हैं। इन चित्रोंकी परम्परा अजंता, एलौरा, बाघ, सित्तन्नवासलके भित्ति चित्रों की है। समकालीन सभ्यताके अध्ययनके लिए इन चित्रोंसे बहुत कुछ ज्ञानवृद्धि होती है। खासकर पोशाक, सामान्य उपयोगमें आती हुई १. देखें भारतीय चित्रकला पृ० ३३
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१८२ भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान चीजें, आदिके सम्बन्धमें अनेक बातें ज्ञात होती हैं"। स्मिथ और बूलरने भी जैन चित्रकलाकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि "जैनी चित्रोंमें एक नैसर्गिक अंतःप्रवाह, गति, डोलन और भावनिदर्श विद्यमान है"।
निस्संदेह जैन चित्रकलाका ध्येय अत्यन्त व्यापक और उच्च है। जैनाचार्योंने अपने हाथोंसे जैनधर्मके सिद्धान्त और कथाओंको स्पष्ट करनेके लिये चित्रोंका निर्माण किया तथा जैन राजाओंने अपनी कलाप्रियताका परिचय देनेके लिये लक्ष्मीका सदुपयोग कर मन्दिरों, गुफाओं और ग्रन्थोंमें कुशल चित्रकारों द्वारा अपनी आम्नायके अनुसार चित्रोंका निर्माण कराया । इस प्रकार धर्मका आश्रय पाकर जैनचित्रकलामें आध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक और प्राकृतिक रहस्योंकी अभिव्यञ्जना की गयी।
चित्रकला मर्मज्ञोंने चित्रोंके विद्धचित्र, अविद्धचित्र, रसचित्र और धूलिचित्र ये चार विभाग किये हैं । विद्धचित्र-जिसमें बस्तुका साक्षात्कार होता है या उसकी आबेहूब प्रतिकृति होती है। ऐसे चित्र भित्ति', कागज, काष्ठ-पट्टिका आदिपर बनाये जाते हैं।
___ अविचित्र-जिसका विधान आकस्मिक कल्पनासे ही होता है । अविद्ध चित्रोंका सौन्दर्य उनके आकारमें माना जाता है । ऐसे चित्र कागजपर ही सुन्दर बन सकते हैं, दीवालोंपर इनका यथावत् अंकन आसानीसे नहीं किया जा सकता है ।
रसचित्र-जिनके दर्शन मात्रसे शृंगार आदि रसोंका ज्ञान हो जाता है, उन्हें रस चित्र कहते हैं। इसका उदाहरण नायाधम्मकथामें एक मनोरंजक आख्यायिकामें मिलता है। "मिथिला नरेश कुंभराजके पुत्र मल्लदिन्नने अपने लिये सुन्दर चित्रशाला बनवाई। उसकी दीवालोंपर एक कुशल चित्रकारने राजकुमारी मल्लिकाका केवल अंगूठा देखकर ही उसका पूरा और आबेहूब चित्र खींच दिया । राजकुमारने जब अपनी बड़ी बहनका चित्र चित्रशालामें देखा तब उसके मनमें चित्रकार और राजकुमारीके सम्बन्धमें संशय उत्पन्न हुआ और चित्रकारको प्राणदण्डकी आज्ञा दी। परन्तु जब उसे मालूम हुआ कि यह चित्रकारको अनुपम कारीगरीका परिणाम है तो उसकी कूची, रंगोंकी डिबिया आदिको तोड़-फोड़कर निर्वासित कर दिया । "५ जैन साहित्यमें इस प्रकारके रसचित्र या सादृश्य चित्रोंके अनेक उदाहरण मिलते हैं।
धुलिचित्र-जैनोंमें इस प्रकारके चित्रोंका प्राचीनकालसे लेकर आज तक रिवाज प्रचलित है। पूजा-पाठोंमें माड़ना पूरना, चौक पूरना एवं चावलके पुजों द्वारा साथिया या अन्य प्रकारके यंत्रोंका निर्माण करना इस चित्र प्रणालीमें गर्भित है। १. Smith, History of fine art in India and Ceylon p. 133
Percy Brown. Indian painting pp. 38, 51 २. एवं धवलिते भित्तौ दर्पणोदरसन्निधे ।।
फलकादौ पटादौ वा चित्रलेखनमारभेत् ।।-भारतीय चित्रकला पृ० ५ ३. आकस्मिके लिखामीति यदा तूद्दिश्य लिख्यते ।
आकारमात्रसम्पत्वे तदविद्धमिति स्मृतम् ।।-अभिलषितार्थ चिन्तामणि पृ० २८२ ४. शृंगारादि रसो यत्र दर्शनादेव गम्यते-शिल्परत्न । ५. देखें-भगवान् महावीरनो धर्मकथाओ पृ० २२५
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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ऐतिहासिक दृष्टिसे जैन चित्रकलाके सम्बन्ध में विचार करनेपर ज्ञात होता है कि ई० सन्से कई शताब्दी पहले गुफाओं, मन्दिरों एवं धर्मस्थान मठों आदिमें भितिपर चित्रांकन करनेकी प्रथा जैनोंमें थी । ये प्राचीन ध्वंसावशेष आज भी जैन चित्रकला के महत्त्व और भव्यताके रहस्यको सुरक्षित किये हुए हैं। मध्य प्रान्त के अन्तर्गत सरगुजा स्टेटमें रामगिरि नामकी पहाड़ी है, जिसपर जोगीमारा नामक गुफा चित्रित है । इसकी ' प्रधान चौखटपर एक अत्यन्त सुन्दर, भावपूर्ण चित्र अंकित है । प्राचीन भारतीय चित्रकलामें रंगों और रेखाओं की दृष्टिसे यह अपूर्व है ।
इस चित्र परिचय में मुनि श्री कान्तिसागरजीने 'जैनाश्रित चित्रकला' नामक लेखमें लिखा है 2 -
१ एक वृक्षके निम्न भागमें एक पुरुषका चित्र है। बाईं ओर अप्सराएँ व गन्धर्व हैं । दाहिनी ओर सुसज्जित जुलूस खड़ा है ।
२ अनेक पुरुष, चक्र तथा विविध प्रकारके अलंकार हैं ।
३ आधा भाग अस्पष्ट है । एक वृक्षपर पक्षी, पुरुष और शिशु हैं। चारो ओर मानव - समूह उमड़ा हुआ है, केशोंकी ग्रन्थि लगी हुई है ।
४ पद्मासनस्थ पुरुष है । एक ओर मन्दिरकी खिड़की तथा तीन घोड़ोंसे जुता हुआ
रथ है ।
अतः स्पष्ट है कि इस चित्रमें जैन मुनिकी दीक्षाका वर्णन अंकित किया गया है।
ई० ६००-६२५ के पल्लव वंशीय राजा महेन्द्रवर्मनके द्वारा निर्मित पदुकोटा स्थित निवासल्ली गुहा चित्र जनकलाके अद्भुत निदर्शन हैं । यहाँके चित्रों में भाव आश्चर्य ढंग स्फुट हुए हैं और आकृतियाँ बिल्कुल सजीव मालूम पड़ती हैं । समस्त गुफा कमलोंसे अलंकृत है । सामनेके खम्भोंको आपसमें गुन्थी हुई कमलनालकी लताओंसे सजाया गया है । छतपर तालाबका दृश्य अंकित है, उसमें हाथियों, जलविहंगमों, मछलियों, कुमुदिनी और पद्मोंकी शोभा निराली है । तालाब में स्नान करते हुए दो व्यक्ति – एक गौर और दूसरा श्याम वर्णके चित्रित किये गये हैं । इसी गुफाके एक स्तम्भपर एक नर्तकीका सुन्दर चित्र है, इस चित्रमें चित्रित नर्तकीको भावभंगिमा देखकर लोगोंको आश्चर्यान्वित होना पड़ता है । नर्तकीके कमनीय अंगोंका सन्निवेश चित्रकारने बड़ी खूबीके साथ किया है। यह मंडोदक चित्र है । सित्तन्नवासलकी चित्रकारी अजन्ताके समान सुन्दर और अपूर्व है' ।
उड़ीसा भुवनेश्वरकी गुफाओंमें भी जैन चित्र अंकित हैं, इन चित्रोंके सौन्दर्य और भावाभिव्यञ्जनं अद्भुत हैं । भित्ति चित्रोंकी परम्परा जैनोंमें बहुत समय तक चलती रही । मूडबिद्रीके चन्द्रनाथ चैत्यालयके खम्भोंपर उत्कीर्ण प्राकृतिक चित्र अपनी आभासे संसारको आश्चर्यमें डाल सकते हैं । इन चित्रोंमें बाह्य आकर्षण, प्रकृतिका सादृश्य, उसकी रमणीयता, कम्पन और नैसर्गिक प्रवाह वर्तमान है ।
१. देखें — भारतकी चित्रकला ११-१२
२. विशेष जाननेके लिये देखें - विशालभारत नवम्बर १९४७
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
१२वीं सदीके उपरान्त १६वीं सदी तक गुजरात और दक्षिणमें जैन चित्रकलाका पर्याप्त विकास हुआ। निशीथचूणि, अंगसूत्र, त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र, नेमिनाथ चरित्र, कथारत्न सागर दिगम्बर पूजा-पाठोंके गुटके संग्रहणीयसूत्र, उत्तराध्ययन, कल्पसूत्र, जैन रामायण, त्रिलोकसार, त्रिलोक प्रज्ञप्ति, भक्तामर, धवलाटीका इत्यादि जैन ग्रंथ सचित्र पाये जाते हैं । इस जैन चित्रित ग्रंथ शैलीकी परम्पराके कारण इस चित्र शैलीका नाम जैन शैली रखा जाय तो अनुचित न होगा; क्योंकि इस जैन परम्परापर जैनेतर भी कई ग्रन्थ सचित्र लिखे गये ।
जैनोंमें सचित्र ग्रंथोंकी दो प्रणालियां है, पहलीमें विषय द्वारा समझानेका यत्न किया गया है, समस्त धर्मकथाको चित्रों द्वारा ही अभिव्यक्त किया है । इस शैलीमें जैन रामायण और भक्तामर प्रमुख हैं । भक्तामरके प्रत्येक श्लोकके भावको एक-एक चित्र द्वारा व्यक्त किया गया है, इसी प्रकार रामायणकी कथाको जैन परम्पराके अनुसार चित्रोंमें बताया है, प्रत्येक पृष्ठके दोनों ओर जितनो कथा दी है, उतनी कथाको व्यक्त करने वाले चित्र भी दिये हैं। दूसरी प्रणालीमें ग्रन्थके विषयसे बाह्य चित्र दिये जाते हैं, इसमें चित्रका सम्बन्ध विषयसे नहीं रहता है, प्रत्युत उसको सौन्दर्य वृद्धिके लिये या अन्य हृदयगत भावनाओंको स्फुट करनेके लिये चित्रोंका अंकन करते हैं । इस मध्यकालीन जैन चित्रकलाके सम्बन्धमें एक विद्वान्ने लिखा है "सच पूछिए तो मध्यकालीन चित्रकलाके अवशेषोंके लिये हम मुख्यतः जैन भण्डारोंके आभारी हैं । पहली बात तो यह है कि इस कालमें प्रायः एक हजार वर्ष तक जैनधर्मका प्रभाव भारतवर्षके एक बहुत बड़े हिस्से में फैला हुआ था। दूसरा कारण धनी-मानी जैनियोंने बहुत बड़ी संख्यामें धार्मिक ग्रन्थ ताड़पत्रपर लिखित और चित्रित (Illuminated) कराकर बंटवाये थे । अतएव संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि माधुर्य, ओज और सजीवता जैन चित्रकलामें पूर्ण रूपसे वर्तमान है।
जैन संगीतकला-इस कलाका आधार इन्द्रियगम्य है, पर इसका अधिक सम्बन्ध नादसे है । संगीतमें आत्माकी भीतरी ध्वनिको प्रकट किया जाता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि नादको सहायतासे हमें अपने आन्तरिक आह्लादको प्रकट करनेमें बड़ी सुविधा होती है । संगीतका प्रभाव भी व्यापक, रोचक और विस्तृत होता है। जैन प्राचीनकालसे ही इस कलाका उपयोग करते चले आ रहे हैं। जैन वाङ्मयमें संगीतको क्रियाविशाल नामके पूर्व में अन्तर्भूत किया है अर्थात् संगीतको वाङ्मयका एक अंग बताया है, इसीलिये प्राचीनकालमें ही इस विषयपर अनेक रचनाएँ हुई थीं। जैन पुराणोंमें ऐसे अनेक वर्णन हैं, जिनमें जैन राजाओं, उनकी रानियों तथा अन्य लोगोंका संगीतज्ञ होना बताया गया है । भक्तिके प्रबल वेगको बढ़ानेके लिए मन्दिरोंमें गायन और वादनका प्रयोग होता था।
नागकुमार चरित्रसे पता लगता है कि स्वयंवरमें कन्याएँ आगत राजकुमारोंको चेलेंज देती थीं कि जो उन्हें वीणावादन और संगीतमें पराजित कर देगा, वही उनका प्राणेश्वर हो सकेगा। इस ग्रन्थमें कवि पुष्पदन्तने लिखा है कि नागकुमारने स्वयं मन्दिरमें वीणा बजायी १. विशेष जाननेके लिये देखें-जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ५ किरण २ पृ० १०३-१४०
तथा भास्कर भाग १२ किरण १ पृ० ४ २. देखें-जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १२ किरण १ पृ० ५
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और उनकी स्त्रियोंने नृत्य कर उत्सव मनाया। पुष्पदन्त कविने वीणा, दुन्दुभि, ढुक्क, भेरी. मृदंग, शंख, झालर, तूर्य, घंटा आदि वाद्योंका उल्लेख किया है। आदिपुराण में भी संगीतके सम्बन्धमें कई उल्लेख हैं ।'
सर्वार्थसिद्धिमें शब्दों -स्वरोंके तत वितत, घन और सुषिर ये चार भेद किये हैं । ढोलक, मृदंग, नक्कारा आदिके शब्दोंको तत; सितार, वीणा आदिके स्वरको वितत; घण्टा, झालर, आदिके स्वरको घन और तुरई, शंख आदिके स्वरको सुषिर कहा गया है । इस शब्दस्वर विभागका संगीतकलाकी दृष्टिसे परीक्षण करनेपर पता चलता है कि जैनोंको गायन और वादन दोनोंका मिश्रण संगीतकलामें अभिप्रेत था ।
स्थानांग सूत्रकी अभयदेव विरचित संस्कृत टीकामें संगीतके गुण दोषोंका अच्छा विवेचन किया है । इसमें संगीतके भीत, द्रुत, रहस्य, उत्ताल, काकस्वर और अनुनास ये छ: दोष बताये हैं । भीतसे थर्राने, द्रुतसे जल्दबाजी, रहस्यसे धीमी आवाज, उत्तालसे तालभंग, काकस्वरसे आवाजमें कडुवापन और अनुनाससे नाकसे शब्द करनेसे तात्पर्य है । गुणोंमें पूर्ण, रक्त, अलंकृत, व्यक्त, अविघुष्ट, मधुर, सम और सुकुमार गिनाये गये हैं । जिसमें सभी स्वर पूर्णरीति और शुद्धतापूर्वक उच्चरित हों, उसे पूर्ण, रागमें भावोंका भरना रक्त अलंकारों से भूषित अलंकृत, लय और स्वरका स्पष्ट उच्चारण व्यक्त गर्दभस्वरका त्याग करना अविघुष्ट, माधुर्य पूर्ण कोकिल स्वरसे गाना मधुर; श्रुति और तालका सामञ्जस्य रखना सम एवं संगीत में लोच लाना सुकुमार कहलाता है ।
संगीत र समयसार पार्श्वदेवकी १३वीं शताब्दीकी संगीतविषयक अपूर्व रचना है । इसमें नादोत्पत्ति, नादभेद, ध्वनिभेद, गीत लक्षण और उसके भेद - आलप्ति, वर्ण, अलंकार आदि, गमक - रागोंके रागांग, भाषांग, उपांग आदि भेदोंका वर्णन; चार प्रकारके अनवद्यादि वाद्योंका स्वरूप; नृत्य और अभिनयका विवेचन; तालकी आवश्यकता और स्वरूप प्रभृति बातोंपर प्रकाश डाला गया है । मध्यमादि तोड़ी, वसंत, भैरवी, श्री, शुद्धबंगाल, मालवश्री, वराही, गौड, धनाश्री, गुंडकृति, गुर्जरी, देशी ये तेरह रागांग राग-लक्षण सहित बताये गये हैं । वेलावली, अन्धासी सायरी ( असावरी ), फल, मंजरी, ललिता, कौशिकी, नाटा, शुद्ध, वराटी, श्रीकण्ठी ये नौ भाषांग राग दिये हैं। आगे वराही आदि २१ उपांग राग दिये गये हैं । इन सब रागोंका खूब विस्तारपूर्वक विवेचन किया है । तालके सम्बन्धमें एक सुन्दर श्लोक दिया है
तालमूलानि गेयानि ताले सवं प्रतिष्ठितम् ।
तालहीनानि गेयानि मन्त्रहीना यथाहुतिः ॥
गायक, वादक और नर्तकके सम्बन्धमें भी अत्यन्त सूक्ष्म ज्ञातव्य बातें दी गयी हैं । राग रागनियोंके सम्बन्धमें सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण किया गया है । जैन संगीत कलाके नमूने गीतवीतराग, जैसे संस्कृत काव्य ग्रन्थों एवं हिन्दीके पद, भजन और लावनी आदिमें मिलते हैं ।
१. नागकुमार चरित भूमिका पृ० २८
२. देखें — जैन - सिद्धान्त - भास्कर भाग ९ किरण २ तथा भाग १० किरण १
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१८६ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
जैन काव्यकला-विशेषज्ञोंने ललितकलाओंमें सबसे ऊंचा स्थान काव्यकलाको दिया है। मस्तिष्क पर अपना प्रभाव डालने में इसे अन्य अवलम्बनकी आवश्यकता नहीं होती है, इसीलिए ललितकलाओंमें इसे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है । विषयकी दृष्टिसे इसके दो भेद किये जा सकते हैं-प्रथम वह जिसमें कवि अपनी बीती बात कहता है और दूसरा वह जिसमें जगबीती बात कहता है। अपनी बीती बात कहनेमें निजीपनेका अनुभव होनेके कारण भावात्मकताकी मात्रा अधिक रहती है तथा कविके हृदयगत भाव एक नयी प्रकारकी झंकारके साथ प्रकट होते हैं, ऐसे काव्योंको प्रगीत ( Lyrical ) कहते हैं । यह अन्तर्मुखी काव्य होता है ।
जिसमें जगबीती बात कवि कहता है, वह काव्य अनुकृत (Imitatiue) कहलाता है, इसमें वर्णनकी प्रधानता होती है । ऐसे काव्य प्रबन्धकाव्य कहलाते हैं । जैन काव्यकलामें दोनों ही प्रकारकी रचनाएँ वर्तमान हैं । भारतकी प्रायः सभी भाषाओंमें काव्य ग्रन्थ लिखे गये हैं। यद्यपि इस निबन्धमें समस्त जैन कार्योंकी बारीकियोंके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं लिखा जा सकता है, फिर भी नामभर गिनाकर इस कलाके विषयमें कतिपय बातें लिखी जायेगी। जैन काव्य ग्रन्थोंमें धर्मशर्माभ्युदय, चन्द्रप्रभ, मुनिसुव्रत, पार्वाभ्युदय, नेमिनिर्वाण, अमरुशतक, यशस्तिलकचम्पू, पुरुदेवचम्पू, जीवन्धरचम्पू, काव्यानुशासन, अलंकारचिन्तामणि, गद्यचिन्तामणि, शीलदूत, नेमिदूत, चेतोदूत, इन्द्रदूत, पवनदूत, मनोदूत, द्विसन्धान, सप्तसन्धान, क्षत्रचूड़ामणि, छन्दोऽनुशासन, रत्नमंजूषा आदि रचनायें उल्लेखनीय हैं ।
___महाकवि हरिचन्द्रने धर्मशर्माभ्युदयमें सूक्ष्म कल्पना, भाव गाम्भीर्य, रसीली भाषाका प्रयोग कर अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। भाषा और शैलीको चमचमाहट भावको तुरन्त हृदयंगम कराती है। मधुर वाक्यावलीमें बद्ध कवि-विचार रसगुल्लेके समान सब प्रकारसे अच्छे लगते हैं । कविने अपनी अनुभूतिकी व्यापकताके कारण ऐसे विषयोंका विधान किया है जो मानवमात्रकी अनुभूतिसे सम्बन्ध रखते हैं । भावोंके प्रकृत आधारका कल्पना द्वारा पूर्ण तथा यथातथ्य प्रत्यक्षीकरण इसमें वर्तमान है । अतः रति, हास्य, शोक, क्रोध इत्यादि की ऐसी अनभति प्रकट की है, जिससे पाठक काव्यमें तन्मय हए बिना नहीं रह सकता। कविने नीले नभमें चमकते हुए पूर्णचन्द्रकी कितनी सुन्दर कल्पनाएँ की हैं
किं सीधना स्फटिकपानपात्रमिदं रजन्याः परिपूर्यमाणम् ।
चलद्विरेफोच्चयचुम्ब्यमानमाकाशगंगास्फुटकैरवं वा॥ अर्थ-क्या यह मद्यसे भरा हुआ रजनीका स्फटिक निर्मित पानपात्र-प्याला (कप) है ? या चञ्चलभ्रमर समूह द्वारा चुम्व्यमान मन्दाकिनीका विकसित सफेद कमल है।'
ऐरावणस्याथ करात्कञ्चिच्च्युतः सपंको विषकन्द एषः।
किं व्योम्नि नीलोत्पलदर्पणाभे सश्मश्रुवक्त्रं प्रतिबिम्बितं मे ॥
क्या ऐरावत हाथीको सूंडसे गिरा हुआ पंक युक्त मृणाल है ? या नीलमणि निर्मित दर्पणके समान आभा वाले आकाशमें दाढ़ी-मूंछ सहित मुख ही प्रतिविम्बित हो रहा है ? १. धर्मशर्माभ्युदय सर्ग ४ श्लो• ४२-४१
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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कविकी उपर्युक्त उत्प्रेक्षा किस रसिकको मुग्ध न करेगी। इस महाकाव्यमें उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक, समासोक्ति, श्लेष, भ्रान्ति और काव्यलिङ्ग आदि अलंकारोंकी छटा निराली ही दिखलाई पड़ती है । इसी प्रकार चन्द्रप्रभकाव्य भी अपने सरस, मधुर और सुदृढ़ पद्यों द्वारा पाठकोंको रससरितामें मज्जन कराता है ।
श्री जिनसेनाचार्यने मेघदूतकी पादपूर्तिमें पाश्वर्वाभ्युदयकी रचना की है। इस कविने शृंगार रससे ओत-प्रोत श्लोकोंके चरणोंको भगवान् पार्श्वनाथकी पौराणिक वार्ताके साँचेमें ढालकर रौद्र, वीर और शान्त रसकी अपूर्व त्रिवेणी प्रवाहित की है ।
___ "तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतोः" इस पद्यांशमें कवि कालिदासने यक्षकी विरह वेदनाका अंकन किया है, किन्तु जैन कविने सिनेमाके चित्रपटके समान शृंगारिक मूत्तिको विलीन कर उसके स्थानपर रौद्रमूत्ति शाम्बरको खड़ा किया है
सोऽसौ जाल्मः कपटहृदयो दैत्यपाशः हताशः स्मृत्वा वैरं मुनिमपघृणो हन्तुकामो निकामम् । क्रोधात्स्फर्जन् नवजलमुचः कालिमानं दधान
स्तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतोः ।। दोनोंमें कितना महान् अन्तर है ।
जैनाचार्योने काव्यों द्वारा धार्मिक एवं सैद्धान्तिक तत्त्वों और नियमोंका प्रचार किया है । इन्होंने शृंगारकी ओर जाती हुई काव्यधाराको मोड़कर भक्ति और शान्त रसकी ओर लगाया है। जैनोंने राजनीति, समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र, तत्त्वचर्चा आदि विषयोंका समावेश भी जैन काव्योंमें किया है । संक्षेपमें जैन काव्यकलामें वे सारे तत्त्व वर्तमान है जो मानव हृदयको स्पर्श करनेवाले हैं तथा जिनमें आनन्दोद्रेक करनेवाला रूप-सौष्ठव पूर्ण रूपसे है। अतएव जैनकला विश्वकी ललितकलाओंमें अपना प्रमुख स्थान रखती है। .
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प्राचीन जैन सिक्कों का अध्ययन
प्रत्येक देश और जातिके जीवन उत्थानके लिये इतिहासको परमावश्यकता है, क्योंकि अतीतकी गौरवमयी दीपशिखा द्वारा पथ प्रदर्शनका कार्य इतिहाससे ही सम्पन्न होता है । जैन इतिहासका वर्षोसे अनुसंधान हो रहा है । शिलालेख, ताम्रपत्र, मूत्तिलेख, सिक्के, जैन ग्रन्थोंकी प्रशस्तियाँ, विदेशी यात्रियोंके यात्रा विवरण एवं देशी-विदेशी विद्वानों द्वारा लिखित ऐतिहासिक ग्रंथ जैन इतिहास निर्माण के मौलिक उपकरण हैं । सिक्कोंके अतिरिक्त अन्य ऐतिहासिक सामग्रीका उपयोग जैन एवं जैनेतर विद्वानोंने बराबर किया है। अब तक इतिहास निर्माणके प्रधान उपादान सिक्कोंको अध्ययन जैन दृष्टिकोणसे करनेकी दिशा प्रायः रिक्त है । यही कारण है कि भूगर्भसे प्राप्त सिक्कोंका अभी भी जैन मान्यता देने में विद्वानोंको झिझक हो रही है । अतएव प्रस्तुत निबंधका ध्येय विद्वानोंका ध्यान इस दिशाकी ओर आकृष्ट करना ही है।
सन् १८८४ में कनिंघम साहबने' अहिच्छत्रसे प्राप्त तांबेके सिक्के एक ओर पुष्प सहित कमल और दूसरी ओर 'श्री महाराज हरि गुप्तस्य' अङ्कित देखकर यह तर्क उपस्थित किया था कि इस सिक्के में अंकित धर्मभावना वैदिक धर्म और बौद्धधर्मसे भिन्न जैनधर्मकी धर्म भावना है। क्योंकि वैदिक धर्म भावनाको अभिव्यक्तिके लिए गुप्तवंशके राजाओंने यज्ञीय अश्वमूत्ति, विष्णुभक्त इस वंशके राजाओंने अपनी धर्मभावनाकी अभिव्यक्तिके लिए लक्ष्मीमूत्ति, शिवभक्तोंने अपनी धर्मभावनाकी अभिव्यक्तिके लिए नान्दी या शिवलिंग और बौद्धधर्मानुयायियोंने अपनी धर्मभावनाकी अभिव्यक्तिके लिये चैत्य आकृति अंकित की है । पुष्प सहित कमलकी आकृतिका सम्बन्ध केवल जैन धर्मोके प्रतीकोंके साथ ही जोड़ा जा सकता है। जैनधर्ममें अष्टमंगल द्रव्योंका बड़ा महत्त्व है। प्रत्येक कार्यमें उसकी सफलताके लिए इन मंगलद्रव्योंका उपयोग किया जाता है । कलशका इन मंगल द्रव्योंमें प्रमुख स्थान है । मथुरासे प्राप्त स्थापत्यविशेषोंमें मंगल कलशकी आकृति मिलती है तथा अनेक हस्तलिखित ग्रन्थोंमें भी मंगल कलशका चिह्न उपलब्ध है । अतः कुम्भ कलश प्रतीक अंकित सिक्के जैन है । कनिंघमसाहबके साथ भारतीय सिक्कोंका अध्ययन कैम्ब्रिज कॉलेजके अध्यापक रेप्सन, एलेन, गार्डनर, बुहलर, विसेन्टस्मिथ, सिउएड, ह्वाइटेड, राखालदास, वन्द्योपाध्याय, डा. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा आदि विद्वानोंने किया है । कनिंघम साहबके अतिरिक्त समस्त विद्वानोंने वैदिक, वैष्णव, शैव और बौद्धधर्मको धार्मिक भावनाएँ ही प्राप्त मुद्राओंमें व्यक्त की है । यदि ये विद्वान् जैन प्रतीकोंसे सुपरिचित होते तो अवश्य ही अनेक सिक्कोंको जैन सिद्ध करते । कारण स्पष्ट है कि सिक्कोंमें तद्-तद् धर्मानुयायी राजाओंने अपनी-अपनी धर्मभावनाको प्रतीकों द्वारा अभिव्यक्त किया है । प्राचीन कालमें अनेक जैन राजा हुए हैं, जिन्होंने अपनी मुद्राएँ प्रचलित की है। इन जैन राजाओंने अपनी मुद्राओंमें जैन प्रतीकों द्वारा अपनी धर्मभावनाको अभिव्यक्त किया है। पुरातन राजाओंमें ऐसे भी अनेक राजा हुए हैं जो आरम्भमें वैदिक या बौद्धधर्मका पालन करते थे, पर पीछे जैन आचार्योंसे प्रभावित होकर जैनधर्ममें दीक्षित हो गये अथवा प्रारम्भमें जैनधर्मका पालन करते १. जैन साहित्य नो इतिहास पृ० १३१, गुप्तवंशना जैनाचार्य शीर्षक
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १८९ थे, पीछे किसी कारणवश वैदिक या बौद्ध धर्मका पालन करने लगे । ऐसे राजाओंके सिक्कोंमें कई प्रकारको धर्म भावनाएँ मिलती हैं । जब तक ये वैदिक धर्म या बौद्धधर्मका पालन करते रहे, उस समय तककी मुद्राओंमें इन्होंने वैदिक या बौद्धधर्मको भावनाको व्यक्त किया है । जैन धर्मानुयायी बन जानेपर उत्तरकालीन मुद्राओंमें जैनधर्मकी भावनाओंको प्रतीकों द्वारा प्रकट किया है । इसी प्रकार जो प्रारम्भमें जैन थे, उन्होंने उस समयमें चलाई मुद्राओंमें जैन भावना और उत्तरकालमें धर्म परिवर्तन कर लेनेपर उस परिवत्तित धर्मकी भावनाको व्यक्त किया है। उन विदेशी सिक्काओंमें भी जैनधर्म के प्रतीक मिलते हैं, जिन देशोंमें जैनधर्मके प्रचारकोंने वहाँ के राजाओंको अपने धर्म में दीक्षित कर लिया था।
भारतमें अब तक प्राप्त सिक्कोंमें लीडिया देशके सोने और चाँदोसे मिश्रित श्वेत धातुके सिक्के सबसे प्राचीन हैं । इन सिक्कोंको भारतमें माल खरीदनेके लिए वहाँ वाले यहाँ लाये थे। कई वर्ष हुए पंजाबके वन्नू जिलेमें सिन्धु नदीके पश्चिमी तटपर लीडियाके राजा क्रीससका सोनेका एक सिक्का मिला है । रंगपुर जिलेके सद्यः पुष्पकारिणी नामक गाँवके प्रसिद्ध जमीदार श्रीयुत् मृत्युञ्जय राय चौधरीने यह सिक्का खरीद लिया है। इस सिक्के में एक ओर वृषभ और एक सिंहका मुँह बना है, तथा दूसरी ओर एक छोटा और एक बड़ा पंचमार्क चिह्न अंकित है।
उपर्युक्त सिक्के में अंकित प्रतीक वृषभ और सिंहका सम्बंध जैनधर्मको धार्मिक भावनासे है; क्योंकि सिक्का निर्माताने अपने प्रिय धर्मके इस युगीन प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभनाथके चिह्न वृषभ (साँड) तथा अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीरकी अभिव्यक्ति की है । जैन ग्रंथोंसे विदित भी होता है कि यूनान, रोम, मिस्र , ब्रह्मा, श्याम, अफ्रीका, सुमात्रा, जावा, बोनियों आदि देशोंमें जैनधर्मका प्रचार ईस्वी सन्से कई शताब्दी पहले ही वर्तमान था। अतएव क्रीससका अहिंसा धर्म पालक होना असम्भव नहीं है।
रैप्सनने अपने 'भारतीय सिक्के' नामक ग्रन्थ और रायल एशियाटिक सोसायटीकी पत्रिकाके अनेक निबन्धोंमें भारतीय यूनानी राजाओंके सिक्कोंका विवरण उपस्थित किया है ।
1. According to Iterodotus the Earliest Stamped money was made by
the Lydians-Coins of Ancient-India, p. 3. The Earliest Coinage, of the ancient world would apeal chiefty to have been of silver and electrum; The latter metal being conbined to Asia Minar, and the former to areece and India. Some of the Lydian staters of pale gerd may be old as Gyges. Ibid, P. 19. Notes on 'India Coins and seals. Journal of the Royal Aciatic society, 1900-5, Coins of the Greco-Indian Sovercigns, Agathocleia and strato, soter and strato 11 Philopatar. Numismatic Notes ano Novelties, Journal of the aciatic Society of Bengal-old series, 1, 1890.
2
Notes
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
इस विवरणसे प्रतीत होता है कि यूनानी अनेक राजाओंपर जैनधर्मका पूर्ण प्रभाव था; इसी कारण उन्होंने अपने सिक्कोंमें जैन प्रतीकोंका स्थान दिया। अयलिषके' दस प्रकारके चांदीके सिक्के मिले हैं, जो सबके सब गोलाकार हैं । उनमें कई सिक्कोंपर जैन प्रतीक नहीं हैं । किन्तु इसके तांबेके सात प्रकारके सिक्कोंमेंसे दूसरे प्रकारके सिक्कोंपर एक ओर खड़े हुए हरक्युलसकी मूत्ति दूसरी ओर अश्वकी मूत्ति है। तीसरे प्रकारके सिक्कोंपर अश्वके बदलेमें वृषभकी मूर्ति है, चौथे प्रकारके सिक्कोंपर वृषभके स्थानपर हाथीको मूर्ति है । पाँचवें प्रकारके सिक्कोंपर एक ओर हाथीकी मूत्ति और दूसरी ओर वृषभकी मूत्ति है ।
उपर्युक्त अयिलिषके ताँबेके सिक्कोंमें उपयोग किया गया है । अश्व तृतीय तीर्थकर भगवान् संभवनाथका चिह्न है, वृषभ प्रथम तीथंकर भगवान् आदिनाथका चिह्न है पर हाथी द्वितीय तीर्थङ्कर भगवान् अजितनाथका चिह्न है । इस राजाके चाँदीके सिक्कोंपर एक भी जैन प्रतीक अंकित नहीं है, ताँबेके सिक्कोंमें तीन-चार प्रकारके सिक्के जैन प्रतीकोंसे युक्त हैं, इससे प्रतीत होता है कि यह राजा प्रारम्भ में जैन धर्मानुयायी नहीं था । उत्तरकालमें किसी जैन श्रमणके प्रभावसे अहिंसा धर्मका अनुयायी बन गया था। वास्तविक बात यह है कि शक राजाओंमें कई राजा जैन धर्मका पालन करते थे। .
ईस्वी सन् से पूर्व पहली और दूसरी शतीके उज्जयिनीके ताँबेके सिक्कोंपर एक ओर वृषभ और दूसरी ओर सुमेरु पर्वत अंकित है । इन सिक्कोंमें स्पष्टतया जैन प्रतीकोंका प्रयोग किया गया है । वृषभसे आदिम तीर्थंकरकी भावना और सुमेरु पर्वतसे विशाल विश्वको भावना अभिव्यक्त की गई है। जैनागममें सुमेरुको इस पृथ्वीका केन्द्र बिन्दु माना है। प्राचीन हस्तलिखित कतिपय ग्रंथोंके अन्तमें सुमेरु पर्वत ग्रंथ समाप्तिके अनन्तर किया गया है। इस भावनाका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्य, चन्द्र, नित्य सुमेरुको प्रदक्षिणा किया करते हैं, उसी प्रकार यह जैनधर्म ‘यावच्चन्द्रदिवाकरौ' स्थित रहे । सुमेरुको रचनाके संबंध भी कई विधियाँ प्राप्त होती हैं। कुछ सिक्कोंमें तीन चिपटे शून्योंका पर्वताकार ढेर, कुछमें छः चिपटे शन्योंका ढेर और कुछमें नौ चिपटे शून्योंका पर्वताकार ढेर हैं । तीन शून्य रत्नत्रयके प्रतीक, छः शून्य षद्रव्यके प्रतीक और नौ शून्य नवपदार्थके प्रतीक हैं । इस प्रकार सुमेरुके विभिन्न आकृतियोंमें जनभावनाको विभिन्न प्रकारसे अभिव्यक्त किया गया है। वैदिक या बौद्धधर्ममें सुमेरुको इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं है, जितना जैनधर्ममें । यही कारण है कि प्राचीन लिपिकारोंने ग्रन्थ समाप्तिमें सुमेरुकी आकृति अंकित की है।
जनपद और गणराज्योंके प्राप्त सिक्कोंमें कुछ सिक्के उदम्बर जातिके माने जाते हैं। स्मिथ साहबने ताँबे और पीतलके बने हुए बहुतसे छोटे-छोटे गोलाकार सिक्कोंको उदम्बर
1. Catalogue of coins in the punjab Museum, Lahore Vol. 1, P. 139,
Nos 361-62 Connigham's Colns of Ancient India Vol. I, P. 50,
३ खण्ड जैनधर्म की भक्ति श्रद्धा थो-देखें संक्षिप्त जैन इतिहास भाग ३ खण्ड २ पृ०१३ २. Coins of Ancient India P. 14. Indian Museam Cains VoI. I. P.
154-155, No, 29, 30, 34. P. 155 No. 35.
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
जातिके सिक्के माना है। उसका कहना है कि दो प्रकारके ताँबेके सिक्कोंपर उदुम्बर जातिका नाम लिखा मिलता है । पहले प्रकारके सिक्कों पर एक ओर हाथी, घेरेमें बोधिवृक्ष और नीचे एक साँप है। दूसरी ओर दोतल्ला या तीनतल्ला मन्दिर स्तम्भके ऊपर स्वस्तिक और धर्मचक्र है।
निश्चय ही ये पहली प्रकारके सिक्के किसी जैन धर्मानुयायी उदम्बर जातिके राजाके हैं । इन मुद्राओंमें अंकित धर्म भावना जैनधर्मकी है। हाथी द्वितीय तीर्थंकरका लाञ्छन और बोधिवृक्ष केवल ज्ञान प्राप्त करनेका संकेत है अथवा भगवान्के आठ प्रातिहार्यों से पहला प्रतिहार्य है । नीचे साँप अंकित है वह तेईसवें तीर्थङ्कर भगवान् पार्श्वनाथका चिन्ह है । अतः मुद्राको प्रथम पीठिका जैन संकेतोंमें युक्त है । दूसरी पी ठिकामें जो मन्दिर स्तम्भके ऊपर स्वस्तिक और धर्मचक्र बताये गये हैं, वे भी जैन प्रतीक हैं । मन्दिरके स्तम्भके ऊपर स्वस्तिक और धर्मचक्र अंकित करनेकी प्रणाली आज भी जहाँ-तहां पाई जाती है। स्वस्तिकको जैन धर्ममें मंगलकारी माना गया है। कहीं-कहीं स्याद्वाद दर्शनका प्रतीक भी स्वस्तिकको माना है । जो व्यक्ति उसे स्याद्वाद दर्शनका प्रतीक मानते हैं वे इसका अर्थ सु = समस्त, अस्ति = स्थिति क= प्रकट करनेवाला अर्थात् समस्त संसारकी समस्त वस्तुओंकी वास्तविक स्थिति प्रकट करनेकी सार्मथ्य स्याद्वाद दर्शनमें है, अतः स्वस्तिक स्याद्वाद दर्शनका प्रतीक है। प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंमें ग्रन्थ आरम्भके पहले स्वस्तिक चिह्न तथा ग्रन्थ समाप्त करनेपर भी स्वस्तिक चिह्न मंगलसूचक होनेके कारण दिया गया है।
स्वस्तिकमें जैन मान्यतानुसार जीवनकी भी अभिव्यञ्जना वर्तमान है। स्वस्तिकके किनारेदार चारों ओर चार गतियोंके प्रतीक है । जीव-अधर्म-स्वभाव बहिर्मुख होने के कारण तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गतियोंमें परिभ्रमण करता है, जब यह धर्म स्व-स्वभावमें स्थिर हो जाता है तो प्रभु बन जाता है । धर्म स्वभावका द्योतक मध्य बिन्दुसे हटकर कोई भी स्थान है, जो बन्धका कारण है। जैन मान्यताओंमें स्वस्तिकको प्रत्येक शिल्प, ग्रन्थ, मुद्रा आदिमें अंकित इसलिए किया गया है कि जीव अपने स्वभाव को पहचानकर चतुर्गतिके परिभ्रमणसे छुटकारा पा सके।
___ धर्मचक्र जैन संस्कृतिका प्रमुख प्रतीक है, इसकी गणना अर्हन्तके अतिशयोंमें की गयी १. Coins of Ancient India P. 88. P. Journal of Procerdings of the Asiatic Society of Bengal Vol x,
Numismatic Supplement No XXIII P. 247. Coins of Ancient
India P. 68. ३. उच्चर शोकतरुसंश्रितमुन्मयूख
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववति ॥
- -भक्तारस्तोत्र पद्य संग्रह 28 ४. देखें-श्री जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १०, किरण १, पृ० ५९-६० तथा Baranett,
Antiauilities of India P. 253,
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
है । प्रत्येक तीर्थङ्करके तीर्थ प्रवर्तन कालमें धर्मचक्र आगे चलता है। जैन साहित्य में बताया गया है कि प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेवने तक्षशिला में इसका प्रवर्तन किया था। प्राचीन जैनागम में धर्मचक्रका अनेक स्थानोंपर उल्लेख आया है, यह योजन प्रमाण सुविस्तृत सर्वरत्नत्रय होता है । कुषाणकाल से लेकर मध्यकाल तककी जैन प्रतिमाओंके नीचे धर्मचक्रका चिह्न अवश्य रहा है । अतएव इसमें कोई संदेह नहीं कि उपर्युक्त उदम्बर जातिका सिक्का जैन है, उसमें अंकित सभी प्रतीक जैन हैं । जैन धर्मका श्रद्धालु राजा ही इस प्रकारकी मुद्रा प्रचलित कर सकता है । प्राचीन गणतन्त्र भारत में अनेक जनपदीय शासक जैनधर्मका पालन करते थे । '
मालव जातिके कई सिक्के जैन हैं; इस जातिके आठ प्रकारके सिक्के अब तक उपलब्ध हुए हैं । द्वितीय उपविभागके सिक्केके एक ओर अशोकवृक्ष, दूसरी ओर कलश है । तीसरे उपविभाग के सिक्कों पर पहली ओर घेरे में अशोक वृक्ष और दूसरी ओर कलश है । ऐसे सिक्के दो प्रकारके हैं - चौकोर और गोलाकार । चौथे उपविभागके सिक्के चौकोर हैं, इनपर दूसरी ओर सिंहमूति है । पाँचवें उपविभाग के सिक्कोंपर दूसरी ओर वृषभ है । ये भी गोलाकार और चौकोर हैं । कारलाइलने इस जातिके चालीस राजाओं के नामोंके सिक्के ढूँढे हैं | परन्तु आजकल २० राजाओंके ही सिक्के मिलते हैं । इन बीस राजाओंमें यम, मय और जायक जैन धर्म के श्रद्धानी थे । यमने आचार्य सुधर्मके संघ में जाकर जैन दीक्षा ग्रहण की थी ।
यौधेय जातिके सिक्के साधारणतः तीन भागों में विभक्त हैं ।" प्रथम विभागके सिक्के प्राचीन हैं और ये ही सिक्के जैन हैं । इन सिक्कोंपर एक ओर वृषभ और स्तम्भ एवं दूसरी ओर हाथी और वृषभ हैं। पहली ओर ब्राह्मी अक्षरोंमें "यधेयन ( योधेयानां ) " लिखा है । " शेष दो विभागके सिक्कोंपर जैन प्रतीक नहीं हैं । इसका कारण यही प्रतीत होता है कि यौधेय जातिके राजा पहले जैनधर्म पालते थे, पीछे भागवत धर्म में दीक्षित हो गये थे; क्योंकि द्वितीय और तृतीय विभाग के सिक्कों में भागवत धर्मकी भावना अंकित है ।
यद्यपि गुप्तवंशके कई राजा जैनधर्मके श्रद्धालु थे, परन्तु इस वंशके प्राप्त सिक्कों में जैन प्रतीकोंका प्रायः अभाव है । इसका प्रधान कारण यह है कि गुप्तवंशके राजा कट्टर ब्राह्मण धर्मानुयायी थे, इसलिए उन्होंने अपनी धर्मभावनाकी अभिव्यक्ति के लिए ब्राह्मण धर्म के प्रतीकों को ही ग्रहण किया है । यद्यपि जैन इतिहास में ऐसे अनेक उल्लेख वर्त्तमान हैं, जिनसे गुप्तकालीन जैन साहित्य और जैनधर्मको पर्याप्त उन्नति प्रकट होती है । असल बात तो यह है कि ब्राह्मण धर्मानुयायी होते हुए भी गुप्तवंशके राजाओंने सभी धर्मोंको प्रश्रय दिया था ।
१. जैनिज्म इन नार्थ इण्डिया, पृ० ७९-१४६ प्रकरण जैनिज्म इन रायल फेमिली । २. Indian Museum Coins Vol, I. P. 170-171, Nos; 1-11
३. प्राचीन मुद्रा, पृ० १४५ ।
४. Indian Museum Coins VoI: I. P. 171, Nos 12-13, 14-22.
५. Indian Museum Coins VoI. I, P. 165; Coins of Ancient India.
६. राखालादास वन्द्योपाध्यायकी प्राचीन मुद्रा, पृ० १४९: Rodgers Catelogue of
Coins, Lahore museum,
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१९३ ईस्वी सन्की पहली शताब्दीके मालवा और सौराष्ट्रमें महाक्षत्रप उपाधिधारी शक राजाओंने राज्य उपस्थित किया था। इस उपाधिधारी राजाओंमें दो वंशके राजाओंका प्रभुत्व प्रधानरूपसे सौराष्ट्र पर रहा है। पहले राजवंशके कुषाण साम्राज्य स्थापित होनेसे पहले और दूसरे राजवंशने कुषाण राजवंशके साम्राज्यके नष्ट होनेके समय सौराष्ट्र पर अधिकार किया था । प्रथम राजवंशमें केवल दो राजाओंके सिक्के मिलते हैं। पहले राजाका नाम भूमक था । इसके दो तांबेके सिक्के उपलब्ध हुए हैं उनपर एक ओर सिंहकी मूत्ति, दूसरी ओर चक्र तथा एक ओर खरोष्ठी अक्षरोंमें "छहरदास छत्रपसभूमकस" और दूसरी ओर ब्राह्मी अक्षरोंमें "क्षयरातस क्षत्रपस भूमकस' लिखा है।'
उपर्युक्त सिक्कोंमें जैन प्रतीक अंकित है, अतएव यह मानना असंगत नहीं कहा जा सकता है कि भूमिकस जैन था । इस राजा का उत्तराधिकारी क्षत्रप नहपान बताया गया है । जिनसेनाचार्यने इसका उल्लेख नरवाह नामसे किया है, इसका राज्यकाल ४२ वर्ष लिखा है। अनुमानतः यह ई० पू० ५८ में राज्याधिरूढ़ हुआ था। जैन शास्त्रोंमें इसका उल्लेख नरवाहन, नरसेन, नहवाण आदि रूपों में किया गया है। इसका एक विरुद भट्टारक आया है, जिससे इसका जैन होना स्वतः सिद्ध है । नहपानके सिक्के बहुलतामें अभी तक नहीं मिले है । कनिंघम साहबको इस राजाका तांबेका एक सिक्का मिला था। इसपर एक ओर वज्र और ब्राह्मी अक्षरोंमें नहपानका नाम तथा दूसरी ओर घेरेमें अशोकवृक्ष है । अतएव भूमिकस और नहपानके सिक्के जैन हैं ।
__ नहपानके राजत्व कालके अतिम वर्षों में आन्ध्रवंशी गौतमीपुत्र शातकर्णीने शकोंके पहले क्षत्रप वंशका अधिकार नष्ट कर दिया था और नहपानके चाँदीके सिक्कोंपर अपना नाम लिखवाया था। ऐसे सिक्कोंपर एक ओर सुमेरु पर्वत और उसके नीचे साँप तथा ब्राह्मी अक्षरोंमें 'राजो गोतिमि पुत्रस सिरि सातकणिस' लिखा है। दूसरी ओर उज्जयिनी नगरीका चिन्ह है। इस राजाने स्वयं अपने भी सिक्के बनवाये थे; इन सिक्कोंपर इसने एक ओर राजाका मुख और ब्राह्मी अक्षरोंमें 'राजो गोतिमि पुत्रस सिरियनसातकणिस' लिखा है। दूसरी ओर उज्जयिनी नगरीका चिन्ह सुमेरु पर्वत, साँप और दाक्षिणत्व के ब्राह्मी अक्षरोंमें" 'शाष गोतम पुत्रष हिषयत्र हातकणिष' लिखा है ।
गौतमीपुत्र शातकर्णीके सिक्कोंमें जैन प्रतीक हैं। यहाँ राजा पहले वैदिक धर्मानुयायी था, परन्तु अपने पिछले जीवनमें इसने जैनधर्म ग्रहण कर लिया था। नासिकके शिलालेखमें इसे अश्कि, अश्मक, मूलक, सुराष्ट्र, कुकुर, अपरान्त, अनूप, विदर्भ और अकरावन्तीका शासक बताया है । इसका राज्यकाल ई० १००-४४ है । इसका जैन गृहस्थके व्रतोंका पालन करनेका भी उल्लेख मिलता है। 1. Rapson, catalogue of India coins in the British museum. Andhras.
western Ksatrapas etc. pp. 63-64 Nos 237-42. 2. Journal of the Bihar and Orissa Research society Vel, 16, P. 289 ३. राजपूताने का इतिहास, भाग १, पृ० १०३ ४. भरुयच्छेणयरे नहवाहणो सभा कोससमिद्धो-आवश्यकसूत्र भाष्य । ५. संक्षिप्त जैन इतिहास, द्वितीय भाग, द्वितीय खंड, पृ० ६१-६६ ।
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१९४
भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान दक्षिणापथके सिक्कोंमें आन्ध्रजातीय राजाओंके सिक्के सबसे पुराने हैं। किसी समय आन्ध्र राजाओंका साम्राज्य नर्मदा नदीके दक्षिणी किनारेसे समुद्रतट तक था। इसलिए मालव, सौराष्ट्र, अपरान्त आदि भिन्न-भिन्न देशोंमें भी आन्ध्र राजाओंने भिन्न-भिन्न सिक्के प्रचलित किये थे। आन्ध्र देश कृष्णा और गोदावरी नदीके बीचके प्रदेशमें दो प्रकारके सिक्के प्राप्त हुए हैं। ये दोनों प्रकारके सिक्के पुडुमादि, चन्द्रशाति, श्रीयज्ञ और श्री रुद्र आदि राजाओंने प्रचलित किये थे। पहले प्रकारके सिक्कोंपर एक ओर सुमेरु पर्वत और दूसरी ओर उज्जयिनी नगरका चिन्ह है। इन सिक्कोंका निर्माता वाशिष्ठीपुत्र श्री शातकर्णी, वाशिष्ठीपुत्र श्री चन्द्रशांति, गौतमीपुत्र श्रीयज्ञ शातकर्णी और रुद्रशातकर्णी है ।'
__ दूसरे प्रकारके सिक्कोंपर एक ओर घोड़ा, हाथी अथवा दोनोंकी मूर्तियाँ तथा दूसरी ओर सिंहकी मूत्ति है। ये सिक्के श्री चन्द्रशाति, गौतमीपुत्र श्रीयज्ञ शातकर्णी और श्री रुद्र शातकणिके हैं। निश्चय ही ये दोनों प्रकारके सिक्के जैन हैं, क्योंकि इनमें जैन प्रतीकोंका व्यवहार किया गया है।
मालवमें आन्ध्र राजवंशके कुछ पुराने सिक्के मिले हैं । स्वर्गीय पंडित भगवानलाल इन्द्रजीने अपने एकत्रित किये हुए सिक्के लंदनके ब्रिटिश म्यूजियमको प्रदान किये हैं। इन सिक्कोंमें दो प्रकारके सिक्के मिलते हैं। इनपर अंकित लेखका जो अंश पढ़ा गया है, उससे पता चलता है कि ये सिक्के आन्ध्र राजाओंके ही हैं। पहले प्रकार के सिक्के ईरानके पुराने सिक्कों के ही समान हैं। कनिंघमने लिखा है कि इस प्रकारके सिक्के पुराने विदिशा नगरी ( बेसनगर ) के खंडहरों में बेस तथा बेतवा नदीके बीच मिले हैं ।" इसी कारण रैप्सनने अनुमान किया है कि ये सभी सिक्के पूर्व मालवके हैं। इन सिक्कोंको चार विभागोंमें बाँटा जा सकता है । पहले विभागके सिक्के पोखीके बने हैं, इनपर एक ओर घेरेमें बोधिवृक्ष, उज्जयिनी नगरका चिन्ह, वृषभ और सूर्य चिन्ह अंकित है। दूसरी ओर हाथी और स्वस्तिक चिन्ह है । दूसरे विभागके सिक्के तांबे के हैं; इनपर एक ओर हाथोकी मूर्ति और दूसरी ओर घेरेमें बोधिवृक्ष ( अशोक वृक्ष ) और उज्जयिनी नगरी के चिन्ह है । तीसरे विभागके सिक्कोंपर पहली ओर सिंहको मूत्ति और वृषभ चिन्ह तथा दूसरी ओर बोधिवृक्ष और उज्जयिनी नगरीके चिन्ह हैं । ये तीसरे विभागके सिक्के भी ताँबेके हैं। चौथे विभागके सिक्के पोटिनके बने हुए हैं। इनपर पहली ओर सिंहकी मूत्ति और स्वस्तिक चिन्ह हैं तथा ब्राह्मी अक्षरोंमें
1. Rapson, catalogue of Indian coins Andhras. w. khtrapas etc.
P. IXXII 2. Rapson, catalogue of Indian coins Andhras, w. khtrapas etc.
___P. IXXIV; प्राचीन मुद्रा, पृ० २१४ । 3. Journal of the Bombay Branch of the Royal Asiatic society Vol. ___XIII, 10. 311 4. Rapson, British Museum Coins. XCVI. 5. Cunnigham's Coins of Aneient India, P. 99 6. Rapson, British Museum çoins P, 3 Nos 5-6-7-8-9-11,
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१९५
जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
" रनो सातकंणिस" लिखा है । दूसरी ओर वृषभ, उज्जयिनी नगरीका चिन्ह और घेरे में बोधिवृक्ष हैं ।
उपर्युक्त सिक्कों में अंकित धार्मिक भावना स्पष्टतः जैन है । सूर्यको जैन संस्कृति मे केवलज्ञानका प्रतीक माना गया है । अतएव उपर्युक्त सिक्कोंको निस्संदेह जैन माना जा सकता है । जो राजा अर्धस्वतन्त्र थे, उज्जयिनी के आधीनस्थ थे, वे अपने सिक्कोंमें उज्जयिनी चिन्ह अंकित करते थे । अतएव आन्ध्र देशमें मिले हुए जिन सिक्कों पर सुमेरु पर्वत, उज्जयिनी, सर्प, सिंह, वृषभ, हाथी, बोधिवृक्ष, स्वस्तिक, कलश अंकित हैं, वे सिक्के निश्चय ही जैन हैं ।
पल्लव राजाओं के प्राप्त सिक्कों में; जिनपर सिंहका चिन्ह और संस्कृत और कन्नड़ भाषामें कुछ लिखा मिलता है' ये सिक्के भी जैन हैं । इस वंशका राजा महेन्द्रवर्मन् जैन धर्मानुयायी था ।
वी सातवीं शती के उपरान्त चालुक्यवंशी राजा दो भागों में विभक्त हो गए थे । पूर्वकी ओर चालुक्य राजा कृष्णा और गोदावरी नदीके बीच के प्रदेश में राज्य करते थे और पश्चिम और चालुक्य राजाओंका राज्य दक्षिणापथके पश्चिम प्रान्त में था । इन राजाओंके सिक्के सोने और चाँदीके मिलते हैं । इन सिक्कोंकी धार्मिक भावना यद्यपि वैदिक ही है, परन्तु जैन संस्कृतिका प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । इस वंशका प्राचीन लेख धारावाड़ जिलेके आदुर ग्रामसे मिला है, जिसमें राजा कीर्तिवर्मा प्रथम द्वारा नगर सेठ के बनाये जैन मंदिरको दान देनेका उल्लेख है । इस वंशके राजाओंने जैन गुरुओंको भी दान दिये थे ।
कदम्बवंशके प्राप्त सोनेके सिक्कों में कमलकी भावना अंकित है । इस वंश में मृगेशवर्मा - से लेकर हरिवर्मा तक जैन धर्मानुयायी थे । उन्होंने कमल द्वारा मोक्षलक्ष्मीकी भावनाको व्यक्त किया है । जैनके चौबीस तीर्थंकरों में कमल पद्मप्रभुका चिन्ह है । कमल प्रतीकको रखनेका एक अन्य हेतु यह भी है कि लौकिक दृष्टिसे यह उत्साह, आनन्द, स्फूर्ति और कर्त्तव्यपरायणताका द्योतक है । कदम्बवंशके राजाओंकी मुद्राओं में इसलिये दो प्रकारके चिन्ह मिलते हैं, कि उनमें आदिम कई राजा वैदिक धर्मानुयायी थे । इस वंशके जो राजा वैदिक धर्मका पालन करते थे उनमें सिक्कोंमें बारह अवतार अथवा लक्ष्मीकी मूर्ति मिलती है । जैन राजाओंने अपनी धर्मभावनाकी अभिव्यक्तिके लिए कमलको प्रतीक चुना था ।
यादव वंशी राजाओंके राज्य देवगिरी और मैसूरके द्वारसमुद्र नामक स्थानमें थे । देवगिरीमें राज्य करने वाले राजाओंके सोने, चांदी और ताँबेके सिक्के मिले हैं, परन्तु इन सभी सिक्कोंपर हिन्दू धार्मिक भावनाका प्रतीक गरुड़ अंकित किया गया है ।
मैसूर के द्वारसमुद्र नामक स्थानमें भी इस वंश के राजाओंके सोने और ताँबे के सिक्के मिले हैं । ताँबे के सिक्कोंपर एक ओर सिंहकी मूर्ति और दूसरी ओर कन्नड़ लेख हैं । इस स्थानके यादववंशी राजाओंके सिक्कोंपर नामके बदले में उपाधि मिलती है; जैसे- श्रीतलकाडु गोण्ड अर्थात् तलकाडु विजयी । उपर्युक्त द्वारसमुद्र से प्राप्त सिक्के जैन हैं; क्योंकि इनमें जैन प्रतीकोंका व्यवहार किया गया है ।
1. Indian Coins P. 37.
2. Elliott's south Indian Coins P. 152, Nos 87-89; 90-91.
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
बरंगलके काकतीय वंशके राजाओंके सोने और ताँबेके सिक्के मिले हैं । इन पर एक ओर बृषभका चिन्ह हैं और दूसरी ओर कन्नड़ी अथवा तेलगू भाषाका लेख है ।" ये सिक्के भी जैन है ।
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दक्षिणापथमें पाण्ड्य, चेर, राष्ट्रकूट, गंग आदि कई वंशके राजा जैन धर्मानुयायी थे । इन्होंने १२वीं, १३वीं और १४वीं शती में मुद्राएँ प्रचलित की थीं। इन राजाओं की मुद्राओं पर भी जैन मिलते हैं । वास्तव में दक्षिणापथमें जैनधर्मका प्रचार कई शताब्दियों तक जोर से रहा है । इस धर्मने राजाश्रय पाकर अपनी उन्नति की थी । अनेक राजाओंने जैन गुरुओं को दान दिये थे ।
मिहिरकुलके प्राप्त सिक्कोंमें दो प्रकारके तांबेके सिक्के प्रधान हैं । पहले प्रकार के सिक्कोंपर एक ओर राजाका मस्तक और उसके मुँहके पास 'श्रीमिहिर कुल; अथवा 'श्रीमिहिरगुल' लिखा है । दूसरी ओर ऊपर खड़े हुए वृषभको मूर्ति है और उसके नीचे 'जयतु वृष' लिखा है । ये पहले प्रकारके सिक्के जैन हैं । द्वितीय प्रकारके सिक्कों पर एक ओर खड़े हए राजाकी मूर्ति और उसके बगल में एक ओर 'बाहिमिहिरकुल' लिखा है । दूसरी ओर सिंहासन पर पद्मावती की मूर्ति है । 3 मिहिर कुलके ये सिक्के तोरमाणके सिक्कोंपर बने हुए हैं । हमारा अनुमान है कि यह तोरमाण जैनाचार्य हरिगुप्तका प्रशिष्य और देवगुप्तका शिष्य था । " यही कारण है कि मिहिर कुलके सिक्कोंमें जैन धर्मकी भावना अंकित की गयी है ।
उत्तरापथके मध्ययुगीन सिक्कोंमें उद्भाण्डपुरमें शाही राजवंशके पाँच राजाओंके सिक्के मिले हैं। पहले प्रकार के सिक्कोंपर एक ओर वृषभ और दूसरी ओर घुड़सवार की मूर्ति है । दूसरे प्रकारके सिक्कोंपर एक ओर हाथी और सिंहको मूर्ति है। तीसरे प्रकार के सिक्कोंपर एक ओर सिंह और दूसरी ओर मयूर की मूर्ति है । हाथी और सिंहकी मूर्ति वाले सिक्कोंपर 'श्री पदम' 'श्री वक्कलदेव' और श्री ' सामान्तदेव' नाम मिले हैं। हाथी और सिंहकी मूर्तिवाले सिक्के निश्चय जैन हैं । इन सिक्कोंपर जैन भावनाका प्रभाव है ।
८
गुजरात में कुमारपाल और अजयपाल के सिक्के अधिक संख्या में मिले हैं। ये चालुक्यवंशी राजा थे। ग्वालियर राज्यमें अजयपालके राज्यकालका वि० सं० १२२९ का खुदा हुआ एक शिलालेख मिला है।' इसी जगह कुमारपालके राज्यकालमें वि० सं० १२२० का एक शिलालेख खुदा है । इसका अन्य शिलालेख मेवाड़ राज्यके चित्तौड़ में वि० सं० १२०७ का 1. प्राचीन मुद्रा २२९; South Indian Coins P. 152 Nos 93-95.
2. Indian Museum Coins Vol. 1, P. 337 Nos 1.
3. Indian museum Coins Vol, 1, P. Nos 1.
4. Indian Coins P. 30.
5. जैन साहित्यनो इतिहास, पृ० १३२
6. Indian museum Coins Vol. 1, P. 243, 246-248, Nos 1-15
7. Indian Coins P. 31.
8. संक्षिप्त जैन इतिहास द्वितीय भाग, द्वितीय खंड, पृ० १२९ ।
9. Indian Antiqury Vol. XVIII, P. 347.
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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खुदा हुआ मिला है ।" कुमारपालका अजयपाल पुत्र था । 2 कुमारपालने आचार्य हेमचन्द्रसे जैन धर्मकी दीक्षा ली थी । इसने जैन धर्मके प्रचारके लिये अनेक प्रयास किये थे । शत्रु जय और गिरनारकी यात्राके लिए संघ निकालकर संघपतिकी उपाधि ग्रहण की थी और अनेक जैन मंदिर भी बनवाए थे । कुमारपालके सिक्के उद्भाण्डपुरके शाही राजाओंके सिक्कों के ढंग पर मिश्र धातुके हैं । इनमें एक ओर सिंह तथा दूसरी ओर हाथीकी मूर्ति है । अजयपाल कट्टर वैदिक धर्मानुयायी था, पर इसके सिक्के भी कुमारपालके ही समान हैं । इस प्रकार अनेक सिक्के जैन हैं, अन्वेषणशील विद्वानोंको इस ओर ध्यान देना चाहिए ।
1. Epigraphia Indica, Vol. IIP 422.
2. Epigraphia Indica Vol. VIII. App, Ip-14.
3. बम्बई प्रांतके जैन स्मारक, पृ० २१० तथा संक्षिप्त जैन इतिहास, द्वि० भा०,
खं० २,
पृ० १३३ ।
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सोमदेव का राजनैतिक विवेचन
जैनधर्ममें जहाँ आत्मसुधार और आत्मशोधनकी ओर ध्यान दिया गया है, वहाँ लौकिक समस्याओंको सुलझानेका भी पूर्ण प्रयत्न किया है । इस धर्मके आचार्योंने केवल पारलौकिक कल्याणका निरूपण करनेवाले साहित्यका हो निर्माण नही किया है, किन्तु इस लोककी आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक बातोंपर पूर्ण प्रकाश डालते हुए आध्यात्मिकताकी तरंगमें इस लोककी प्रत्यक्ष भौतिक-शारीरिक बातोंकी अवहेलना करना या उपेक्षा करना सर्वसाधारणके लिये असम्भव-सा है; अतः शारीरिक आवश्यकताओंसे सम्बद्ध विषयोंपर भी अपनी लेखनी चलायी है।
सोमदेव सूरि व्यावहारिक जीवनोपयोगी विषयोंका निरूपण करनेवाले आचार्य है; यों तो इन्होंने आध्यात्मिक विषयोंका भी सूक्ष्म प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत निबन्धमें इनके राजनैतिक विचारोंपर प्रकाश डाला जायगा।
सोमदेव सूरिने राजतन्त्रका निरूपण किया है। इनके मतानुसार शासनकी बागडोर ऐसे व्यक्तिके हाथमें होती है, जो वंश परम्परासे राज्यका सर्वोच्च अधिकारी चला आ रहा हो । राजा राज्यको स्थायी समझ कर सब प्रकारसे अपनी प्रजाका विकास करता है । राजाकी योग्यता और गुणोंका वर्णन करते हुए बताया गया है कि "जो मित्र और शत्रुके साथ शासन कार्य में समान व्यवहार करता है, जिसके हृदयमें पक्षपात या अपनेपनेका भाव नहीं रहता और जो निग्रह-दण्ड, अनुग्रह-पुरस्कारमें समानताका व्यवहार करता है, वह राजा होता है, राजाका धर्म दुष्ट, दुराचारी, चोर, लुटेरे, आदिको दण्ड देना एवं साधु, सत्पुरुषोंका यथोचित रीतिसे पालन करना है । सिर मुड़ाना, जटा धारण करना, व्रतोपवास करना राजाका धर्म नहीं है । वर्ण, आश्रम, धान्य, सुवर्ण, चाँदी, पशु आदिसे परिपूर्ण पृथ्वीका पालन करना राजा का कर्म राज्य है। राजाकी योग्यताके सम्बन्धमें सोमदेव सूरिने लिखा है कि राजाको शस्त्र और शास्त्रका पूर्ण पंडित होना आवश्यक है। यदि राजा शास्त्रज्ञान रहित हो और शस्त्र विद्यामें प्रवीण हो तो भी वह कभी न कभी धोखा खाता है तथा अपने राज्यसे भी हाथ घो बैठता है । जो शस्त्र विद्या नहीं जानता, वह भी दुष्टों द्वारा पराजित किया जाता है, अतएव पुरुषार्थी होनेके साथ-साथ राजाको शस्त्र, शास्त्रका पारगामी होना अनिवार्य है । मूर्ख राजासे
१. योऽनुकूलप्रतिकूलयोरिन्द्रयमस्थानं स राजा-विद्यावृद्धिसमुद्देशः सू० १ २. राज्ञो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्मः; न युक्तः शिरोमुण्डनं जटाधारणादिकम्___ विद्यावृद्धिसमुद्देशः, सू० २, ३ ३. वर्णाश्रमवती धान्यहिरण्यपशुकुप्यवृष्टिप्रदानफला च पृथ्वी; राज्ञः पृथ्वीपालनोचितं कर्म
राज्यम्-विद्यावृद्धिसमुद्देशः सू० ५, ४
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १९९ राजाहीन पृथ्वीका होना श्रेष्ठ है, क्योंकि मूर्ख राजाके राज्यमें सदा उपद्रव होते रहते हैं, प्रजा को नाना प्रकारके कष्ट होते हैं । अज्ञानी नृप पशुवत् होनेके कारण अन्धाधुन्ध आचरण करते हैं, जिससे राज्यमें अशान्ति रहती है ।
राज्य प्राप्तिका विवेचन करते हुए बताया है कि कहीं तो यह राज्यवंश परम्परासे प्राप्त होता है और कहीं पर अपने पराक्रमसे राजा कोई विशेष व्यक्ति बन जाता है; अतः राज्यका मूल क्रम-वंश परम्परा और विक्रम-पुरुषार्थ, शौर्य हैं। राज्यके निर्वाह के लिये क्रम, विक्रम दोनोंका होना अनिवार्य है। इन दोनों से किसी एकके अभावमें राज्य-संचालन नहीं हो सकता है। राजाको काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष इन छः अन्तरंग शत्रुओंपर विजय प्राप्त करना आवश्यक है, क्योंकि इन विकारोंके कारण नपति कार्य-अकार्यके विचारसे रहित हो जाता है, जिससे शत्रुओंको राज्य हड़पनेके लिये अवसर मिल जाता है। राजाके विलासी होनेसे शासन प्रबन्ध भी यथार्थ नहीं चलता है, जिससे प्रजामें भी गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है; और राज्य थोड़े दिनोंमें ही समाप्त हो जाता है । शासककी दिनचर्याका निरूपण करते हुए बताया है कि उसे प्रतिदिन राजकार्यके समस्त विभागों-न्याय, शासन, आय-व्यय, आर्थिक दशा, सेना, अन्तर्राष्ट्रीय तथा सार्वजनिक निरीक्षण, अध्ययन, संगीत श्रवण, नृत्य अवलोकन और राज्यको उन्नतिके प्रयत्नोंकी ओर ध्यान देना चाहिये । राजाको स्वयं सहसा किसीपर विश्वास नहीं करना चाहिये, बल्कि समस्त कर्मचारियोंमें अपमा विश्वास उत्पन्न करनेकी ओर लक्ष्य देना चाहिये ।
सोमदेव सूरिने राजाकी सहायताके लिये मन्त्री तथा अमात्य नियुक्त किये जानेपर जोर दिया है । मन्त्री, पुरोहित, सेनापति आदि कर्मचारियोंको नियुक्त करनेवाला नृप आहार्य बुद्धि-राज्य संचालक प्रतिभा सम्पन्न होता है ।" जो राजा मन्त्री या अमात्य वर्गकी नियुक्ति नहीं करता उसका सर्वस्व नष्ट हो जाता है। राज्यका संचालन मन्त्री वर्गकी सहायता और सम्मतिसे ही यथार्थ हो सकता है । जो शासक ऐसा नहीं करता वह अपने राज्यकी अभिवृद्धि एवं संरक्षण सम्यक् रूपसे नहीं कर सकता है । शासनमें आयो हुई शिथिलताको मन्त्रीगण ही
१. वरमराजकं भुवनं न तु मूर्को राजा; न ह्यज्ञानादपरः पशुरस्ति-विद्यावृद्धिसमुद्देशः, सू०
२. राज्यस्य मूलं क्रमो विक्रमश्च-विद्या० स० सू० २६ ३. क्रमविक्रमयोरन्यतरपरिग्रहेण राज्यस्य दुष्करः परिणामः-विद्या० स० सू० २९ ४. अयुक्तितः प्रणीताः काम-क्रोध-लोभ-मद-मान-हर्षाः क्षितीशानामन्तरङ्गोऽरिषड्वर्ग:
अरिषड्वर्ग-समुद्देशः, सू० १ ५. मन्त्रिपुरोहितसेनापतीनां यो युक्तमुक्तं करोति स आहार्यबुद्धिः-मन्त्रि-समुद्देशः, सू० १
व्याधिवृद्धौ यथा वैद्य : श्रीमतामाहितोद्यमः । व्यसनेषु तथा राज्ञः कृतयत्ना नियोगिनः ।। नियोगिभिविना नास्ति राज्यं भूपे हि केवले । तस्मादमी विधातव्या रक्षितव्याश्च यत्नतः ।।
-यशस्तिलकचम्पू आ० ३ श्लोक० २५-२६
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैम वाङ्मयका अवदान
दूर कर सकते हैं, वे अपनी बुद्धि द्वारा राज्यकी अभिवृद्धिमें सब प्रकारसे योगदान देते हैं । मन्त्रियोंके गुणों का वर्णन बरते हुए बताया है कि पवित्र, विचारशील, विद्वान्, पक्षपात रहित, कुलीन, स्वदेशज, न्यायप्रिय, व्यसन रहित, सदाचारी, शस्त्र विद्या निपुण, शासनतन्त्रके विशेषज्ञको ही मन्त्री बनाना चाहिये' । मन्त्रिमण्डल राज्य व्यवस्थाका अविच्छेद्य अंग माना गया है । भारतीय नीतिशास्त्रमें मन्त्री, अमात्य या सचिव परिषद्पर सर्वत्र जोर दिया गया है । कौटिल्यके अर्थशास्त्रमें भी राज्य व्यवस्थाका कर्त्ता-धर्ता मन्त्रिमण्डल माना गया है ।
मन्त्रिमण्डल के सदस्योंकी संख्या निर्दिष्ट करते समय आचार्य सोमदेव सूरिने ३, ५ अथवा ७ से अधिक मन्त्रिसंख्या होनेकी राय नहीं दी हैं । मन्त्रिमण्डल के सदस्योंकी संख्याके सम्बन्धमें मध्यकालीन साहित्य में मत भेद है; बाहस्पत्य १६, ओशनस २० शुक्र १० और मानवसम्प्रदायने १२ मन्त्रियोंकी संख्या बतायी है । सोमदेव सूरिने राज्यकी आवश्यकतानुसार ३ से ७ तक संख्या बतायो है; उनका कथन है कि अधिक संख्याके रहने से शासन व्यवस्था में गड़बड़ी होनेकी सम्भावना है ।
मन्त्रियों का कार्यक्षेत्र शासनके अतिरिक्त नयी नीति निर्धारण करना, राज्यके आयव्यय के सम्बन्ध में नीति बनाना, राजकुमारोंकी शिक्षा-दीक्षाका प्रबन्ध करना, उनके राज्याभिषेक में भाग लेना, परराष्ट्र नीति निर्धारण करना एवं साम्राज्यके समस्त कार्योंकी देखरेख करना उनके कार्यों में परिगणित थे । यद्यपि सोमदेव सूरिने मन्त्रियोंके कार्योंका विभाजन नहीं किया है, किन्तु यशस्तिलकमें उन्होंने यशोधर राजाके मन्त्रिमण्डलका जो कार्यविभाजन किया है, उससे मालूम होता है मन्त्रियों के कार्य पृथक् पृथक् थे ।
मध्ययुग में धर्म राज्य से पृथक् नहीं माना जाता था, अतः राजाकी परिषद् में एक पुरोहित भी रहता था; जिसका कार्य शत्रुके अनिष्टकारक अनुष्ठानोंका प्रतीकार करना, पौरोहित्य कर्म द्वारा राज्यकी अभिवृद्धि करना, आधि-व्याधिको नष्ट करना, सेनाको मौलिक शक्ति द्वारा बल प्रदान करना एवं प्रजाके धार्मिक कार्योंका निरीक्षण करना आदि बताया है । इसे शस्त्र, शास्त्र, दण्डनीति, ज्योतिष, मन्त्र-तन्त्र आदिका पूर्ण पण्डित होना अनिवार्य है । पुरोहितकी १. शुचयः स्वामिनि स्निग्वा राजराद्धान्तवेदिनः । मन्त्राधिकारिणो राज्ञामभिजाताः स्वदेशजाः ॥ यशस्तिल० आ० ३ श्लो० ११०
ब्राह्मणक्षत्रियविशामेकतमं स्वदेशजमाचाराभिजनविशुद्ध मव्यसनिनमव्यभिचारिणमधीताखिलव्यवहारतन्त्रास्त्रज्ञमशेषोपाधिविशुद्धं च मन्त्रिणं कुर्वीत । नीतिवा० मंत्रिस०
सू० ५
२. एको मन्त्री न कर्त्तव्यः एको हि मन्त्री निरवग्रहश्चरति मुह्यति च कार्येषु कृच्छ्रेषु द्वापि मंत्रिणौ न कार्यों; त्रयः पंच सप्त वा मंत्रिणस्तैः कार्याः; बहवो मंत्रिणः परस्परं स्वमतीरुत्कर्षयन्ति - नीतिवा० मंत्रिस० सू० ६६, ६७, ६८, ७१, ७३ ३. पुरोहितमुदितोदितकुलशीलं षडंगवेदे दैवे निमित्ते दंडनीत्यामभिविनीतमापदां दैवीनां मानुणां च प्रतिकर्तारं कुर्वीत ।। राज्ञो हि मन्त्रिपुरोहितो मातापितरौ अतस्तौ न केषुचिद्वाच्छितेषु विस्तरयेत् ॥ अमानुष्योऽग्निवर्षमतिवर्षं मरको दुर्भिक्षं सस्योपघातो जंतुसर्गो व्याधिर्भूतपिशाचशाकिनी सपंव्यालमूषकाश्चेत्यापदः ॥ - नीतिवा० पुरोहित समुद्देशः,
सू० १-३
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति गणना मन्त्रिमण्डल में नहीं की है, बल्कि राजवृद्धिके लिये शुभ मुहूत्तों एवं अन्य भविष्यके निरूपणके लिए उसका सम्मान पूर्ण पृथक् स्थान बताया है । पुरोहितके स्थानपर ब्राह्मण जाति का ही व्यक्ति नहीं नियुक्त किया जाना चाहिये, बल्कि कोई भी कुलीन सदाचारी व्यक्ति जो नीतिशास्त्र और ज्योतिषका विद्वान् हो, इस पदपर आसीन किया जा सकता है ।
सोमदेव सूरिका शासक परिषदें पुरोहितको सम्मिलित करना परम्परा निर्वाहका द्योतक ही प्रतीत होता है; क्योंकि राजाके यहाँ ऐसे चतुर गुणज्ञ विद्वान् और भी रहते थे, जो प्रजामें धार्मिकताका प्रचार एवं राजाके लिये भविष्य फलका प्रतिपादन कर सकते थे। फिर भी इन्होंने पुरोहितके पदमें पर्याप्त संशोधन किया है, उसकी गणना मन्त्रिमण्डलमें गौणरूपसे की है अर्थात् मन्त्रिमण्डलमें पुरोहितका रहना इनके मतसे आवश्यक नहीं है; हाँ भविष्यफल जाननेके लिये एक ऐसे विद्वान्को राजाको अवश्य नियुक्त करना चाहिये जो राज्यके धार्मिक स्वास्थ्यकी देखरेख कर सके। सोमदेव सूरि अपने समकालीन सभी नीतिकारोंमें यह मौलिकता लाये हैं। पुरोहितके पद, गुण, योग्यता आदि बातोंमें उन्होंने परम्पराका निर्वाह नहीं किया, बल्कि इस सम्बन्धमें अपने मौलिक विचार रखे हैं ।
अन्ताराष्ट्रीय विभाग-इसका प्रधान उद्देश्य राज्य को सुदृढ़ करना, सोमदेव सूरि ने बताया है । इस विभाग का प्रधान राजा या 'सान्धिविग्रहिक'को होना चाहिये । यह नियुक्त व्यक्ति राजा से मन्त्रणा कर युद्ध या मित्रता करने की नीति निर्धारित करे । इस विभाग में दूत नामक एक कार्यकर्ता नियुक्त किया जाना चाहिये जो अन्य राज्यों में राजदूत का कार्य भलीभाँति सम्पादन कर सके । दूतको चतुर, सदाचारी, अव्यसनी, उदार, प्रत्युत्पन्नमति, प्रतिभावान्, विद्वान् वाचाल, कुलोन, सहिष्णु, शूरवीर एवं स्वामिभक्त होना चाहिये । इस दूत का निर्वाचन भी मंत्रिमण्डल द्वारा ही होना आवश्यक है तथा इस पद के लिये कई व्यक्ति खड़े होनेको लिखा है । राजदूतका समस्त प्रबन्ध और व्ययभार राज्यको उठाना पड़ेगा।
राजदूत तीन प्रकारके बताये गये हैं".- निसृष्टार्थ, परिमितार्थ और शासनहर । जो दूत राजाका प्रतिनिधि होकर सन्धि, विग्रह आदि सभी कार्य करने में स्वतन्त्र हो, जिसे राज्य
१. अनासन्नेष्वर्थेषु दूतो मंत्री-नीतिवा० दूत स० सू० १ २. स्वामिभक्तिरव्यसनिता दाक्ष्यं शुचित्वममूर्खता प्रागल्भ्यं प्रतिभानवत्त्वं क्षान्तिः परमर्मवेदित्वं जातिश्च प्रथमे दूतगुणाः ॥-नीतिवा० दूत स० सू० २
दक्षः शूरः शुचिः प्रगल्भः प्रतिभानवान् । विद्वान्वाग्मी तितिक्षश्च द्विजन्मा स्थविरः प्रियः ॥
-यश आ० श्लो० १११ ३. कदाचित्सततसन्मानदानालादितसमस्तमित्रतन्त्रः सचिवलोकमतिसमुद्धृतमन्त्रः श्रीविला
सिनीसूत्रितैश्वर्यवरेषु वसुमतीश्वसुरेषु खलु दूतपूर्वाः सर्वेऽपि सन्ध्यादयो गुणा इत्यवधार्या कार्या । इति गुणविशिष्टमशेषमनीषिपुरुषपरिषदिष्टमखिलप्रयाणसामग्रीसूविधेयं..........।
—यश० आ० ३, पृ० ३९५ ४. स त्रिविधो निसृष्टार्थः परिमितार्थः शासनहरश्चेति ।
यत्कृतौ स्वामिनः सन्धिविग्रही प्रमाणं स निसृष्टार्थः ॥-नीति० दूतस० सू० ३-४
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२०२ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान की ओर से समस्त अधिकार प्राप्त हों और जो अन्य राज्यमें अपने राज्यकी अभिवृद्धिके लिये समस्त साध्य-प्रयत्न स्वतन्त्र होकर कर सके वह निसृष्टार्थ; जो केवल अपने राजाकी बातको ही कह सके, अन्य अपनी ओरसे कुछ करने या कहनेका अधिकारी न हो वह परिमितार्थ एवं जो राज्यके लिखित सन्देशको अन्य राजाको पढ़कर सुनावे और जो लिखित राजाज्ञा प्राप्त किये बिना कुछ भी कार्य करनेका अधिकारी न हो वह शासनहर कहलाता है । प्रधान राजदूत निसृष्टार्थको ही माना गया है । यद्यपि इसको भी राज्यका आदेश कार्य करनेके लिये प्राप्त करना आवश्यक होता है, तो भी यह दौत्य कार्य में स्वतन्त्र ही रहता है ।
सेना विभाग का निरूपण करते हुए बताया गया है कि राज्यको सुरक्षित रखने एवं शत्रुओंके आक्रमणोंसे बचने के लिये एक सुदृढ़ और बहुत बड़ी सेनाकी आवश्यकता है। यह विभाग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बताया गया है, राज्यकी आयका अधिकांश भाग इसमें खर्च होना चाहिये । इस विभाग की आवश्यक सामग्री एकत्रित करने एवं सेना सम्बन्धी व्यवहारके संचालनके लिये एक अध्यक्ष होता है, जिसे सेनापति या महाबलाधिकृत कहा गया है । गजबल, अश्वबल, रथबल और पदातिबल ये चार शाखाएँ सेनाकी बतायी हैं। इन चारों विभागोंके पृथक् पृथक् अध्यक्ष होते हैं, जो सेनापतिके आदेशानुसार कार्य करते हैं । चारों प्रकारकी सेना में गजबल सबसे प्रधान बताया है, क्योंकि एक-एक सुशिक्षित हाथी सहस्रों योधाओंका संहार करने में समर्थ होता है । शत्रु के नगर को ध्वंस करना, चक्रव्यूह तोड़ना, नदी, जलाशय आदि पर पुल बनाना एवं अपनी सेनाको शक्तिको दृढ़ करने के लिये व्यूह रचना करना आदि कार्य भी गजबलके हैं । गजबलका निर्वाचन बड़ी योग्यता और बुद्धिमत्ताके साथ करना चाहिये । मन्द, मृग, संकीर्ण और भद्र इन चार प्रकारको जातियोंके हाथी तथा ऐरावत, पुण्डरीक, कामन कुमुद, अञ्जन, पुष्पदन्त, सार्वभौम और सुप्रतीकान इन आठ कुलोंके हाथियोंको ही ग्रहण करना इस बलके लिये आवश्यक है । गजोंके चुनावके समय जाति, कुल, वन और प्रचार इन चारों बातों के साथ शरीर, बल, शूरता और शिक्षापर भी ध्यान रखना आवश्यक है। अशिक्षित गजबल राजाके लिये धन और जन का नाशक बताया गया है।
अश्वबलकी शक्ति भी सैनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानी गयी है, इसे जंगम सैन्यबल बताया है । इस सेना द्वारा दूरवर्ती शत्रु भी वशमें हो जाता है; शत्रुको बढ़ी-चढ़ी शक्तिका
१. द्रविणदानप्रियभाषणाभ्यामरातिनिवारणेन यदिहतं स्वामिनं सर्वावस्थासु बलोसंवृणोतीति
बलम्।-नोति० वा० बलस० सू० १ २. बलेषु हस्तिनः प्रधानमङ्ग स्वरवयवैरष्टयुधा हस्तिनो भवन्ति ।
-नीतिवा० बलस० सू०२ ३. हस्तिप्रधानो विजयो राज्ञां यदेकोऽपि हस्ती सहस्रं योधयति न सीदती प्रहारसहस्रेणापि ।।
सुखेन यानमात्मरक्षा रिपुपुरावमर्दनमरिव्यूहविघातो जलेषु सेन्तुबन्धा वचनादन्यत्र सर्ववि
नोदहेतवश्चेति हस्तिगुणाः । नीतिवा० बलस० सू० ३, ६ । ४. जातिः कुलं वनं प्रचारश्च न हस्तिनां प्रधानं किन्तु शरीरं बलं शौर्य शिक्षा चदुचिता ।
सामग्रीसम्पत्तिः ॥ नीतिवा० बलस० सू० ४ । ५. अशिक्षिता हस्तिनः केवलमर्थप्राणहराः-नीति वा० बलस० सू० ५
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
२०३ दमन, युद्धक्षेत्रमें नाना प्रकारका रणकौशख एवं समस्त मनोरथ सिद्धि इस बल द्वारा होती है।' अश्वबलके निर्वाचनमें भी अश्वोंके उत्पत्ति स्थान,' उनके गुणावगुण, शारीरिकशक्ति, शौर्य, चपलता आदि बातोंपर ध्यान देना चाहिये । रथबलका निरूपण करते हुए उसकी आवश्यकता, कार्य, अजेय शक्ति आदि बातोंपर पूर्ण प्रकाश डाला है। इस बलके निर्वाचनमें धनुविद्याके ज्ञाता योद्धाओंकी उपयुक्तता का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है। पदातिबलमें पैदल सेनाका निरूपण किया है, पैदल सेनाको अस्त्र-शस्त्रमें पारंगत होनेके साथ-साथ शूरवीर, रणानुरागी, साहसी, उत्साही, निर्भय, सदाचारी, अव्यसनी, दयालु होना अनिवार्य बताया है । जबतक सैनिकमें उपर्युक्त गुण न होंगे, वह प्रजाके कष्ट निवारणमें समर्थ नहीं हो सकता है । सेवाभावी और कर्तव्य परायण होना प्रत्येक प्रकारको सेनाके लिये आवश्यक बताया है
सेनापतिकी योग्यता और गुणों का कथन करते हुए सोमदेव सूरिने कहा है कि कुलीन, आचार-व्यवहार सम्पन्न, पण्डित, प्रेमिल, पवित्र क्रियावान्, पराक्रमशाली, प्रभावशाली, बहु कुटुम्बी, नीतिविद्या निपुण, सभी अस्त्र-शस्त्र-सवारी-लिपि भाषाओंका पूर्ण जानकार, सभीका विश्वास और श्रद्धा भाजन, सुन्दर, कष्टसहिष्णु, साहसी, युद्ध विद्या निपुण तथा दया, दाक्षिण्यादि नाना गुणोंसे विभूषित सेनापति होता है । इसमें कायरता, वासना, निष्ठुरता, असहयोगिता, निन्दा, ईर्ष्या व्यसन-प्रवृत्ति, असमयज्ञता, अनावश्यक व्यय आदि दुगुणोंका अभाव रहना अनिवार्य बताया है । सेनापतिकी गणना राजाके प्रधान अधिकारियोंमें की गयी है । इसका निर्वाचन राजाको मंत्रियोंकी सहायतासे बहुत सोच-समझकर करना चाहिये । सोमदेव सूरिने इस विभागका बड़ाभारी उत्तरदायित्व बताया है । राज्यको रक्षा और उसकी अभिवृद्धि करना इस विभागका ही काम माना है ।
पुलिस विभाग-की. व्यवस्थाके सम्बन्धमें उल्लेख करते हुए सोमदेव सूरिने कोट्टपाल दण्डपाशिकको इस विभागका प्रधान बताया है । चोरी, डकैती, बलात्कार आदिके मामले पुलिस द्वारा सुलझाये जाते थे। पुलिसको बड़े-बड़े मामलोंमें सेनाकी सहायता भी लेने को लिखा है। इस विभागको सुदृढ़ करनेके लिए गुप्तचर नियुक्त करना आवश्यक है । गांवों में मुखियाको ही पुलिस का उच्चाधिकारी बताया है । धन सम्पत्ति, पशु आदिके अपहरणकी पूरी तहकीकात मुखियाको ही करनी चाहिये । मुखिया अपने मामलोंकी जाँचमें गुप्तचरोंसे भीसहायता ले सकता है । पुलिस विभागकी सफलता बहुत कुछ गुप्तचर-सी०आई०डी० पर ही आश्रित मानी गयीहै । गुप्तचरके गुणोंका निरूपण करते हुए बताया है कि संतोषी, जितेन्द्रिय, सजग, निरोगी, सत्यवादी, तार्किक
१. अश्वबलं सैन्यस्य जंगमं प्रकारः । अश्वबलप्रधानस्य हि राज्ञः कदनकन्दुकक्रीडाः प्रसीदन्ति,
भवन्ति दूरस्था अपि करस्थाः शत्रव आपत्सु सर्वमनोरथसिद्धयस्तु रंगमा एव शरणमव
स्कन्दः परानीकभेदनं च तुरंगमसाध्यमेतत् ॥-नीति० ब० सू० ९ २. तजिका स्थलाणा करोखरा गाजिगाणा केकाणा पुष्टाहारा-इत्यादि बलस० सू० १० ३. रथरवदितं परबलं सुखेन जीयते मौल-भृत्यक-भृत्य-श्रेणी मित्राटविकेषु पूर्व पूर्व बलं
बतेत-बल स० सू १२ ४. स्वपरमण्डल कार्याकार्यावलोकने चराः चढूंषि क्षितिपतीनाम् ।।-नी० च० सू० १
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङमयका अवदान
और प्रतिभाशाली व्यक्तिको इस महत्त्वपूर्णपदपर नियुक्त करना चाहिये। जो राजा गुप्तचर नियुक्त नहीं करता है, वह अपनी प्रजापर ठीक तरहसे शासन नहीं कर सकता है । गुप्तचरके लिए कपटी, धूर्त, मायावी, शकुननिमित्तज्योतिष-विशारद, गायक, नर्तक, विदूषक, वैतालिक, ऐद्रजालिक होना चाहिये। यों तो ३४ प्रकारके व्यक्तियोंको चर नियुक्त करनेपर जोर दिया है। पुलिस विभागकी व्यरस्थाके लिये अनेक कानून भी बताये गये हैं तथा शासनके लिये अनेक पदों एवं उनके कार्योंका प्रतिपादन किया गया है। यशस्तिलकमें गुप्तचरोंके साथ या उनके नीचे कुछ ऐसे व्यक्तियोंका नाम भी बताया गया है जो आजकल आई० जी०के पदके तुल्य होता था। पुलिस के अधिकार आजकी अपेक्षा सोमदेव सूरिने कम ही बताये हैं । हाँ सेनापति का आदेश लेकर पुलिस अफसर स्वतन्त्रतापूर्वक भी मामलों की जांच कर सकता है । कई धाराएँ ऐसी निर्धारित की गयी हैं जिनमें पुलिसको चोरी, बलात्कार, पशुधनापहरणके मामलों की जाँचका पूरा अधिकार है।
कोश विभाग का वर्णन करते हुए सोमदेवसूरिने राज्य संचालनके लिये कोशपर बड़ा भारी जोर दिया है । जो राजा सम्पत्ति, विपत्तिके समयके लिये कोश संचय करता है, वही अपने राज्य का विकास कर सकता है । कोश में सोना, चाँदी, द्रम्म-मुद्राएँ, धान्य का संग्रह होना चाहिये । इन आचार्यने कोशको महत्ता दिखाने के लिये कोशको ही राजा बताया है, क्योंकि जिमके पास द्रव्य है वही तो संग्राममें विजय प्राप्त कर लेता है। धनहीनको संसारमें कुटुम्बी-स्त्री पुत्रादि भी छोड़ देते हैं अतः राजाओं की सबसे बड़ी शक्ति धन ही है । इस एक चीजके होनेसे ही समस्त वस्तुओंका प्रबन्ध किया जा सकता है। कोश संग्रहमें प्रमुख धान्य संग्रहको बतलाया है, क्योंकि सबसे अधिक प्रधानता इसी की है । धान्यके होनेसे ही प्रजा और सेनाकी जीवन यात्रा चल सकती है । युद्धकालमें भी धान्यकी विशेष आवश्यकता पड़ती है । रस संग्रहमें लवण-नमकको प्रधानता दी गयी है", क्योंकि लवणके बिना भोजनमें
१. अलौल्यममान्द्यममृषाभाषित्वमभ्यूहकत्वं चारगुणाः । छात्रकापटिकोदास्थितगृहयतिवैदेहि
कतापसिकरातयमपट्टिकाऽहितुण्डिकशौण्डिकशोभिकपाटच्चरविटविदूषकपीठमईननर्त्तकडमूकगायकवादकबाग्जीवनगणकशाकुनिकभिषगन्द्रजालिकनैमित्तिकसूदारालिकसंवादकतीक्ष्णक्रूर
जडमूकबधिरान्धछद्मावस्थायियायिभेदेनावसर्पवर्गः ॥-नीति वा० चार सू० २, ८ २. यो विपदि सम्पदि च स्वामिनस्तंत्राभ्युदयं कोशयतीति कोशः ॥ सातिशयहिरण्यरजतप्रायोव्यायवहारिक नाणकबहुलो महापदि व्ययसहश्चेति कोशगुणः
-नीतिवा० कोश० स० सू० १-२ ३. कोशो राजेत्युच्यते न भूपतीनां शरीरं । यस्य हस्ते द्रव्यं स जयति । धनहीनकलत्रेणापि परित्यज्यते किं पुनर्नान्यः । न खलु महान् कुलीनश्च यस्यास्ति धनमनूनं
-नीति वा० कोश स० सू०७-११ ४. सर्वसङ्ग्रहेषु धान्यसंग्रहो महान् । यतस्तन्निबन्धनं जीवितं सकलप्रयासश्च ।। न खलु मुखे
क्षिप्तः खरोऽपि द्रम्मः प्राणत्राणाय यथा धान्यम् ।। -नीति० अमात्य समुद्देश सू० ६५ ५. लवणसंग्रहः सर्वरसानामुत्तमः । सर्वरसमयमप्यन्नमलवणं गोमयायते ।।
-नीतिवा० अ० स० सू० ६९-७०
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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स्वाद नहीं आ सकता है। कोशकी वृद्धि और संचयके समय रस और धान्यके संग्रहपर विशेष ध्यान देना आवश्यक है।
आय-व्यय-की व्यवस्था करने के लिये पाँच प्रकारके अधिकारी नियुक्त करने चाहिये, जिनके नाम आदायक, निबन्धक, प्रतिबन्धक, नीवीग्राहक और राजाध्यक्ष बताये हैं।' आदायकका कार्य दण्ड आदिके द्वारा प्राप्त द्रव्यको ग्रहण करना; निबन्धकका कार्य विवरण लिखना; प्रतिबन्धकका रुपये देना; नीवीग्राहकका भाण्डारमें रुपये रखना और राजाध्यक्षका कार्य सभी आय-व्ययके विभागोंका निरीक्षण करना होता है। राज्यकी आमदनी व्यापार, कर, दण्ड आदिसे तो करनी चाहिये, पर विशेष अवसरोंपर देवमन्दिर, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका संचित धन, वेश्याओं, विधवा स्त्रियों, जमीन्दारों, धनियों, ग्रामकूटों, सम्पन्न कुटुम्बों एवं मंत्री, पुरोहित, सेनापति, प्रभृति अमात्योंसे धन लेना चाहिये ।'
व्यापारिक उन्नति के लिये बताया गया है कि जिस राज्यमें कृषि, व्यापार और पशु पालनको उन्नति नहीं होतो वह राज्य नष्ट हो जाता है। राजाको अपने यहाँके मालको बाहर जानेसे रोकनेके लिये तथा अपने यहाँ बाहरके मालको न आने देने के लिये अधिक कर लगाना चाहिये । अपने यहाँ व्यापारकी उन्नतिके लिये राजाको व्यापारिक नीति निर्धारित करना, यायायातके साधनोंको प्रस्तुत करना एवं वैदेशिक व्यापारके सम्बन्धमें कर लगाना या अन्य प्रकारके नियम निर्धारित करने चाहिये । राज्यको आर्थिक उन्नतिके लिये वाणिज्य और व्यवसायको बढ़ाना, मालके आने-जानेपर कर लगाना प्रत्येक राजाके लिये अनिवार्य बताया है ।
युद्धनीति-का वर्णन करते हुए सोमदेव सूरिने बताया है कि सर्वप्रथम शत्रुको वशमें करनेके लिये नोतिका प्रयोग करना चाहिये। जब शत्रु कूटनीतिसे वशमें न हो तो उसके साथ वीरतापूर्वक युद्ध करना चाहिये । कभी-कभी बुद्धिमान राजा अपनी कुशाग्र बुद्धि द्वारा बलवान् शत्रुको भी वशमें कर लेते हैं। जिस कार्यको सहस्रोंकी तादादमें एकत्रित चतुरंग सेना नहीं कर पाती है, उसीको प्रज्ञाके बलसे नृपति कर लेता है । युद्धके लिये जाते समयकी व्यवस्थाका वर्णन करते हुए बताया है कि राजाको दुर्गमें जल और खाद्य पदार्थोकी व्यवस्था कर दुर्गसे आगे शत्रुके साथ युद्ध करना चाहिये, जिससे समय पड़नेपर जल और खाद्य पदार्थोंका उपयोग
१. आदायकनिबन्धकप्रतिबन्धकनोवीग्राहकराजाध्यक्षाः करणानि ।-नीति० अ० सू० ४९ २. देवद्विजवणिजां धर्माध्वरपरिजनानुपयोगिद्रव्यभागैराढ्य विधवानियोगिग्रामकूटगणिकासंघ
पाखण्डिविभवप्रत्यादानैः समृद्धथौरजनपदद्रविणसंविभागप्रार्थनैरनुपक्षयश्रीका मंत्रिपुरोहित
सामन्तभूपालानुनयग्रहागमनाम्यां क्षीणकोशः कोशं कुर्यात्-नी० को० सू० १४ ३. कृषिः पशुपालनं वाणिज्या च वार्ता वैश्यानाम् । वार्तासमृद्धो सर्वाः समृद्धयो राज्ञः ॥ शुल्कवृद्धिर्बलात्पण्यग्रहणं च देशान्तरभाण्डानामप्रवेशे हेतुः ॥
-नीति वा० वार्ता स० सू० १, २, ११ भूम्यर्थ नृपाणां नयो विक्रमश्च न भूमित्यागाय ।। बुद्धियुद्धेन परं जेतुमशक्तः शस्त्रयुद्धमुपयुज्येत् ।। न तथेशवः प्रभवन्ति यथा प्रज्ञावतां प्रज्ञाः । प्रज्ञा ह्यमोघं शस्त्रं कुशलबुद्धीनां ॥
-नीति० युद्ध स० सू० ३, ४, ५, ८
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दुर्गमें प्रवेशकर किया जा सके। यदि शत्रु युद्ध द्वारा वशमें न किया जा सके तो उसके साथ ऐसी नीतिका व्यवहार करना चाहिये जिससे वह कपट द्वारा वशमें हो सके। शत्रुकी सेनामें फूट डालना, शत्रु सैनिकोंको अपनी ओर मिलाना, अपनी सेनाको सब प्रकार संतुष्ट करना, अमात्य और सेनापतिको धन-धान्य द्वारा प्रसन्न करना, प्रजामें सब प्रकार शान्ति रखनेकी चेष्टा करना, शत्रुके राज्यके ऊपर अन्य किसी राजा द्वारा आक्रमण करा देना, शत्रु सेनाकी खाद्य सामग्री नष्ट कर देना, शत्रु द्वारा अधिकृत अपने देशकी सम्पत्ति नष्ट कर देना आदि नीतिका प्रयोग करना आवश्यक बताया है। युद्धोंके लक्षण और भेद बतलाते हुए कूटयुद्ध, तूष्णीयुद्ध आदि भेदोंका सुन्दर विवेचन किया है, जिससे युद्ध सम्बन्धी नीतिका पूर्ण परिचय मिल जाता है। कूटयुद्ध में बताया है कि एक ओर से छोटी-सी सेनाको टुकड़ी लेकर शत्रु सेनापर आक्रमण करे तथा दूसरी ओरसे दूसरी टुकड़ी द्वारा, जिसका शत्रुको पता भी न लगे धावा कर दे, जिससे शत्रुसेना अपने आप अस्त्र-शस्त्र छोड़कर भाग जायगी। यह आक्रमण इतनी बुद्धिमानी और दूरदर्शिताके साथ करना चाहिये, जिससे विरोधी सेनामें भगदड़ मच जाय और मैदान खाली हो जाय । इसी प्रकार तूष्णी युद्ध में बताया गया है कि विष प्रयोग, विषैली वेश्याओंका प्रयोग, खाद्य पदार्थों में विषमिश्रण, राजा या प्रधान सेनापतिको कर्तव्य च्युत करने के लिये व्यसनोंका उपयोग करना; जिससे बिना युद्ध किये ही शत्रु वशमें हो जाय, तूष्णी युद्ध है।
राजाको युद्धक्षेत्रमें काम आये सैनिकोंके परिवारके भरण-पोषणका प्रबन्ध करना आवश्यक है। जो राजा ऐसा नहीं करता, वह उस सैनिकके परिवारका ऋणी है। इसी तरह सैनिकको युद्धक्षेत्रमें युद्धको अश्वमेधके समान कल्याणकारी समझना चाहिये । जो रणक्षेत्रसे भागता है, उसका इस लोक और परलोकमें कल्याण नहीं हो सकता। युद्ध क्षेत्रके लिये गमन करनेकी विधिका निरूपण करते समय वताया है कि राजाको आधी सेना रणक्षेत्रमें भेजनी चाहिये और आधी सेना दुर्गमें सुरक्षित रखनी चाहिये तथा नवीन सैनिकोंकी शिक्षा भी आरम्भ कर देनी चाहिये । युद्धकालमें कृषि और पशुओं की वृद्धिका भी पूर्ण ध्यान रखना आवश्यक है। सैनिकोंके परिनिष्क्रमणके सम्बन्धमें भी कई नियम निर्धारित किये हैं, जो कि आजकलकी युद्धनोतिसे बहुत कुछ साम्यता रखते हैं।"
न्यायालयकी व्यवस्था और उसके लिये नियमोंका निर्धारण करते हुए सोमदेव सूरिने अनेक नियमोपनियम बताये हैं तथा राजनीतिकी अनेक पेचीदी बातोंका वर्णन किया
१. अन्याभिमुखं प्रयाण कमुपक्रम्यान्योपघातकरणं कूटयुद्धं ॥-नीति वा० युद्ध स० सू० ९० २. विषविषमपुरुषोपनिषदवाग्योपजापैः परोपघातानुष्ठानं तूष्णीयुद्धः ॥
___ नीतिवा० यु० स० सू० ९१ ३. राजा राजकार्येषु मृतानां सन्ततिमपोषयन्नृणभागी स्यात् साधुनोपचर्यते तन्त्रेण ।।
-नी० यु० सू० ९३ ४. स्वामिनः पुरःसरण युद्धेऽश्वमेधसमं । युधि स्वामिनं परित्यजतो नास्तीहामुत्र च कुशलं ॥
नी० यु० सू० ९४-९५ ५. देखें-नीतिवाक्यामृतं युद्धसमुद्देश सू० ९६-१०१
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है। इन्होंने जनपद-प्रान्त, विषय-जिला, मण्डल-तहसील, पुर–नगर और ग्राम इनकी शासन प्रणाली संक्षेपमें बतलायी है । राजाको एक परिषद् होनी चाहिये, जिसका राजा स्वयं सभापति हो और यही परिषद् विवादों-मुकदमोंका फैसला करे । परिषद्के सदस्य राजनीति के पूर्ण ज्ञाता, लोभ, पक्षपातसे रहित और न्यायी हों। वादी एवं प्रतिवादीके लिये अनेक प्रकारके नियम बतलाते हुए कहा है कि जो अपना मुकदमा दायर कर समयपर उपस्थित न हो, जिसके बयानमें पूर्वापर विरोध हो, जो वादी या प्रतिवादी बहस द्वारा निरुत्तर हो जाय या स्वयं प्रतिवादीको छलसे निरुत्तर कर दे वह सभा द्वारा दण्डनीय है । वाद-विवादके निर्णय के लिये लिखित, साक्षी, भुक्ति-अधिकार जिसका बारह वर्ष तक उपयोग किया जा सका है, प्रमाण है । न्यायालयमें साक्षीके रूपमें ब्राह्मणसे सुवर्ण और यज्ञोपवीतके स्पर्शन रूप शपथ; क्षत्रियसे शस्त्र, रत्न, भूमि, वाहनके स्पर्शनरूप शपथ; वैश्यसे कान, बाल, और काकिणीएक प्रकारका सिक्काके स्पर्शनरूप शपथ एवं शूद्रोंसे दूध, बीजके स्पर्शनरूप शपथ लेनी चाहिये। इसी प्रकार जो जिस कामको करता है, उससे उसी कार्य के छूनेकी शपथ लेनी चाहिये । इस तरह गुण-दोषोंका विचारकर यथार्थ न्याय करना चाहिये। राज्य व्यवस्थाके लिये अनेक धाराओंका निरूपण किया है । मुकद्द मे के निर्णयके लिये राजाको प्रत्यक्ष, अनुमान, लिखित, इन तीनोंप्रमाणोंका उपयोग करना चाहिये।' इस प्रकार तन्त्र--शासन व्यवस्था सम्बन्धी नियमोंका वर्णन सोमदेव सूरिने किया है।
अवाय-नीतिका वर्णन करते हुए सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीकरण और संश्रय इन छः गुणोंका तथा राजनीतिके साम, उपदान, दण्ड और भेद इन चार अंगोंका विस्तार सहित प्रतिपादन किया है ।
सन्धि-"पणबन्धः सन्धिः" अर्थात् जब राजाको यह विश्वास हो जाय कि थोड़े ही दिनमें उसकी सैन्य संख्या बढ़ जायगी तथा उसमें अपेक्षाकृत बल अधिक आ जायगा तो वह क्षति स्वीकार कर भी सन्धि कर ले अथवा प्रबल राजासे आक्रान्त हो और बचावका उपाय न हो तो कुछ भेंट देकर सन्धि कर ले।
विग्रह-"अपराधो विग्रहः' अर्थात् जब अन्य राजा अपराध करे, राज्यपर आक्रमण करे या राज्यकी वस्तुओंका अपहरण करे तो उस समय उसे दण्ड देनेकी व्यवस्था करना, विग्रह है। विग्रहके सपय राजाको अपनो शक्ति, कोश ओर बल --सेनाका अवश्य विचार करना चाहिये।
१. नाविचार्य कार्य किमपि कुर्यात् प्रत्यक्षानुमानागमैर्यथावस्थितवस्तुव्यवस्थापनहेतुविचारः ।
-नीति वा० वि० स० सू० १-२ २. सन्धिविग्रहयानासनसंश्रयद्वधोभावाः षाड्गुण्यं ॥-नीति० वा० सू० ४५
अष्टशाखं चतुर्मूलं षष्टिपत्रं द्वयेस्थितम् । षट्पुष्पं त्रिफलं वृक्षं यो जानाति स नीतिवान् ।
-यशस्तिलक आ० ३ श्लो० २५९
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यान -'अभ्युदयो यानं" शत्रुके कर आकपण करना या शत्रुको बलवान्ं समझ कर अन्यत्र चला जाना यान है ।
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आसन--" उपेक्षणमासनं " - यह एक प्रकार विराम सन्धिका रूपान्तर है । जब उभयपक्षी सामर्थ्य घट जाय तो अपने - अपने शिविर में विश्राम के लिये आदेश देना अथवा मंत्री परपक्ष और स्वस्वामीको शक्ति एवं सैन्य संख्या समान देखकर अपने राजाको एकभावस्थान लेनेका जो आदेश देता है, वह आसन है ।
संश्रय- "परस्यात्मार्पणं संश्रय" -- शत्रुसे पीड़ित होनेपर या उससे क्लेशकी आशंका कर किसी अन्य बलवान् राजाका आश्रय लेना संश्रय है ।
द्वैधीकरण - " एकेन सह सन्ध्ययान्येन सह विग्रहकरणमेकेन वा शत्रौ सन्धानपूर्व विग्रहो द्वैधीभावः". - जब दो शत्रु एक साथ विरोध करें, प्रथम एकके साथ सन्धिकर दूसरेसे युद्ध करे और जब वह पराजित हो जाय तो फिर प्रथमके साथ युद्धकर उसे भी हरा दे, इस प्रकार दोनों को कूटनीतिपूर्वक पराजित करना या मुख्य उद्देश्य गुप्त रखकर बहिरंग में शत्रु से सन्धिकर अवसर प्राप्त होते ही अपने उद्देश्यके अनुसार विग्रह करना द्वैधीकरण है । यह कूटनीतिका एक अंग है, इसमें बाहर कुछ और भीतर कुछ भाव रहते हैं ।
भेद - जिस उपाय द्वारा शत्रुकी सेनामेंसे किसीको बहकाकर अपने पक्षमें मिलाया जाय या शत्रुदल में फूट डालकर अपना कार्य साध लिया जाय, भेद है। इसी प्रकार चतुरंग राजनीतिका भी भेद-प्रभेदों सहित वर्णन किया है । राजा अपनी राजनीतिके बलसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश बन जाता है । जनताके जान-मालकी रक्षाके लिये विधान भी राजाको बनाना चाहिये । राजाको प्रधानतः नियम ओर व्यवस्था, परम्परा और रूढ़ियोंका संरक्षक होना अनिवार्य है ।
सोमदेव सूरिने राज्यका लक्ष्य धर्म, अर्थ, ओर कामका संवर्धन माना है । धर्म संवर्धनसे उनका अभिप्राय सदाचार और सुनीतिको प्रोत्साहन देना तथा जनता में सच्ची धार्मिक भावनाका संचार करना है । अर्थ संवर्धन के लिये कृषि, उद्योग, और वाणिज्यकी प्रगति, राष्ट्रीय साधनों का विकास, कृषि विस्तारके लिये सिंचाई और नहर आदि का प्रबन्ध करना आवश्यक बताया है । काम संवर्धन के लिए शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित कर प्रत्येक नागरिक को न्यायोचित सुख भोगनेका अवसर देना एवं कलाकौशलकी उन्नति करना बताया है । इस प्रकार राज्यमें शान्ति और सुव्यवस्था स्थापन के लिये जनताका सर्वाङ्गीण, नैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और शारीरिक विकास करना राजाका परम कर्त्तव्य है । इसलिये राजाको निम्न प्रकार नीतिज्ञ अवश्य होना चाहिये अर्थात् जो अरि, विजिगीषु, मध्यम, उदासीन इन चारों के अरि और मित्रके भेदसे युक्त आठ शाखावाले; साम, दान, भेद और दण्डसे युक्त चतुर मूलवाले; अरि विजिगीषु, अपने मित्रके साथी, शत्रुके मित्र, स्वमित्र, आक्रन्द अरिमित्र, पाणिग्रह, आक्रन्द, आक्रान्दमित्र और दो मध्यस्थ इन बारहको अमात्य, राज्य, दुर्ग, कोश
२
१. यो विजिगीषी प्रास्थितेपि प्रतिष्ठमाने वा पश्चात्कोपं जनयति स पाणिग्रहः ।
२. पाणिग्रहाद्यः पश्चिमः स आक्रन्दः ।
३. पाष्णिग्राहमित्रमासार आक्रन्दमित्रं च । नी० वा० स० सू० २६-२८
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और बल इन पाँचसे गुणा करनेपर साठ पत्रवाले; सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वैधीकरण इन छः पुष्पवाले एवं स्थान, क्षय और बृद्धि इन तीन फलवाले राजनीति वृक्षको जानता है, वही नीतिवान् नृप है ।
राज्याधिकार - का' निरूपण करते हुए बताया है कि सबसे प्रथम पुत्रका, अनन्तर भाईका, भाईके अभाव में विमाताके पुत्र – सौतेले भाईका, इसके अभाव में चाचाका, इसके अभावमें सगोत्री का, सगोत्रीके न रहने पर नाती--लड़कीके पुत्रका एवं इसके अभाव में किसी आगन्तुकका अधिकार होता है । इस प्रकार सोमदेव सूरिने राजनीतिका विस्तृत वर्णन किया है ।
१. सुतसोदरसपत्नपितृव्य कुल्यदौहित्रागन्तुकेषु पूर्वपूर्वाभावे भवत्युत्तरस्य राज्यपदाचाप्तिः ॥
- नीति० राजा स० सू० ८६
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JAIN CULTURE IN SHAHABAD
It would be no exaggeration to say that the district of Shahabad in Bihar is the land of physical prowess as well as of religious grandeur. Apart to other religions its contribution to Jainism is singularly profound and comprehensive. In this respect, Shahabad really makes a mark in Bihar. It has the proud privilege of inhabiting about one and half thousand Jains under its area which constitutes the modern district of Shahabad. Jains reside here in the towns of Arrah and Dalmianagar as the main centre. Historically speaking Jainism exists in this district from the 6th century A.D. About twenty images of Jain Nemi Nath, Rishabha Nath and others, the fabulous tree Kalpbriksha (a tree granting everything desired) the religion incarnate Dharmachakra excavated from Chousa, in Buxar subdivision, unmistakably vouchsafe the truth of the above statement. Archeo logists have fixed the period of these images, to be from the 6th century A.D. to the 9th century A.D. The finding of Dharmachakra, originated by Rishabha Nath, is the symbol of the spread of Jainism in Shahabad dist. before the 6th century A.D., as it is undispụted that Dharmachakra has been excavated only from those places where Jainism had once its stronghold. All these relics excavated from Chousa have been kept safely in the Patna Museum. The sight of these in the museum vividly recalls the religious fervour, skill and artistic genius of that age. However the present existence of Jains in Shahabad is not traceable to earlier than four hundred years ago. The history of middle period is uncertain and is not available. Jains clerrly come into picture from here year 1554. There are various images of year 1554 in the Chandra Prabhu Chaityalaya, built by Babu Chunni Lal. It is clear from the •Murtilekha' of 'Mul Nayak Pratima of Chandra Prabhu' that it was built in Aram Nagar, in 'Sambat 1562 'Baishakha sudi astami'. The front portions of the image have faded and are not easily read. In the same temple there ss a little image of Chandra Prabhu bearing the date of its installation as Baishakha sudi tija 1533, established by Jivaraj Papariwal. It seems, it is one of the one lakh images installed by Jivaraj Papariwal in the different parts of India. There is also a Jain temple in Village Masarh, 6 miles west of Arrah another place of antiquity which gose back to the time of Harsa. Its 'Murti lekha' bears the date Baishakha sudi chaudas 1876. Huen Tasns has referred to this place as Mo-no-so-lo or Mahasara, which was close to the Ganges at that time. Some Rathor Jains of Marwar settled t. re in the fourteenth century and an inscribed Jain image bearing
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२११ the date 1386 A.D. is still to be found there. Babu Sankar Lal of Arrah completed a Jain temple ‘Parshnath Mandir' there in Bikrama Sambat 1819. and an inscription reads that the image of Parasnath was dedicated by him. a citizen of Aram Nagar during the prosperous English rule. over Karushadesa. There are 44 temples in Arrah and its suburb and one in Dalmianagar, From the point of view of art and crafts all these reach the zenith and are certainly captivating. In fine the whole of this land of Shahabad is dotted, as it were, with places of historical interest and importance like these Jain temples, Shahabad is really great on account of its Jain temples and Jain community, whose ideal of non-violence is still a living faith with them.
The Murti lekha found in Masarah is as follows :
संवत् १८७६ वर्षे भट्टारक महेन्द्र भूषणस्तदाम्नाये कांसिलगोत्रे वखतावर सींघःतस्य पुत्रः शंकरलालः तस्य पुत्राश्चावारः श्रीरतनचन्द्रः कोत्तिचन्द्रः गुपालचन्द्रः प्यारेलालश्च आरामनगरवासीति । मसाढ नगरे जिनबिम्व कररापिता। रचनचन्द्रेण रथयात्रा सोत्साहं कारापिता चेति ।
A brief sketch of some of the well known Jain temples of Shahabad in a nut-shell is given below :
1. Shree Samaveda Sikhar Mandir:- This was dedicated by Harprasad Das Jain, the true server of the cause of humanity. To satisfy the yearning of his heart he got erected in 1902 two palatial buildings and employed a highly paid sculptor from aipur to reproduce in marble the famous holy places like Parshwanath hill and the images of 24 Tirthankars. In the same year he executed a registered deed on the 10th March, making a free gift of the houses to the public-along with this temple. In the trust-deed cxecuted on the 31 st March 1918, he himself rccounts with evident satisfaction "I have got two houses built at a high cost adjacent to each other for Dharmasala in the Mahalla Mahajan Toli No. I. at Arrah and on the upper storey of one of these houses I have got constructed in white marblea kharjee and Shree Kailashjce in miniature, I have further got the temple of Pawapuri along with the tank constructed in white marble and also the temple of Shree Champapuri. In all these I have installed the 'Charans' of the Gods. In the houses are installed the God Shree Adinath, Parashnath, Mahabir Swami, the 24 Tirthankars and a few Pratimas." There is a gla
our around these little splendid hüls. It is a monumetal building, historically important, aesthetically superb and humanly inspiring. It is deed a triumph of art over God. Looked at from every point of view. it prorides occasion for thoughts and ideas which uplift our bearts, Experts in the art of building have paid unstinted praise to the skill and genius of those woh
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान were responsible for its structure. The average sightseer too has waxed eloquent and become thrilled at the spectacle of this dream in marble. As one observes the grand monument one is reminded inevitably of the history behind the hills of this 'poem in marble'. Shahabad is proud of its architectural glories from time immemorial and these hilis are a brilliant specimen of Jain art and imagination.
2. Shree Bahubali Jain Mandir. This temple built within the compound of Shree Jain Bala Vishram. Dharma Kunj, Arrah, was dedicated by Shree Nem Sunder Devi, pious wife of Late Babu Dhanedra Das Jain of Arrah. It is admitted on all hands that the 57 feet high, ancient image of Bahubali Swami, in Shrawan Bela Gola, in Mysore state, is a unique sight worth seeing in the world. Historians hold that its foundation was laid by general Chamund Roy of Ganga Bans in the tenth century. He was the commander-in-chief Ganga dynasty Becoming a deserving hero of the time he dedicated the famous statue of Gomatha Swami, the great hero and the second son of Rishabha Deo. This grand unparalelled image of Bahubali and Gomatha was copied in South India at Venur and Karkal respectively. But the non-existence of a statue of Bahubali's was always striking in North India, So the honour of its first foundation in North India goes to Arrah. The statue is 15 ft. high and weighs 250 maunds. The temple is standing over an artificial mountain amidst beautiful natural surroundings. One is struck dumb by the graceful and life-likc engravings of flowers, creepers and fruits round the temple and it is a marvel how such microsco pic items could have been done on stone, Equally impressive are the effects of the larger masses of stones and red stones over which this temple is built. The big domes, the huge gate and the vast and spacious garden are all done with supreme aesthetic skill.
3. The Jal Mandir -This was laid by late Babu Abhāy Kumar Jain of Arrah. Pawapuri has been said to be the expiration place of the last Tirthankar Maha bir, where is a vast exquisite temple, situated in the heart of a big tank full of lotus flowers. She same is reproduced in this teriiple. This is also built in the middle of a little tank. To cross the tank there is a four feet wide and about 40ft long bridge. A magnificet image of Mahabir is installed in it. As one approaches the building sees first the grand gate of redwood which is imposing in its effect. On entering this gate, one is presented with the spectacle of a lovely garden. Then comes the dais on which the main building of the monument is constructed. The whole scene is thrilling and worth seeing.
4. Nandiswar Dwip Mandir :--This is adjacent to Panchayati Mandir. In this temple 52 stnall Chaityalaya (@aisa) have been set up in a
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
२१३ very artistic way. The construction of the Nandiswar Dwip has been set on the basis of Jain-geography. From the point of art, religious instinct and minute details temple also is of great importance.
5. Sahasrakut Chaityalaya :- This temple is under the Adinath temple in Dhanupura. In this temple, on the same storey are one thousand Jain Arhat images, carved with delicate skill and vision. This is religiously well famed in India, reviving as it does, the past glories of Arhat Pratimas and to see it in the moonlight is an unforgettable experience,
6. Shree Adinath Mandir :- This was constructed by Late Babu Makhan Lal in Dhanupura. In this, grand, fascinating and shining images of the God Adinath, Parshwa Nath and others have been installed. People offer unstinted praise to its charm and fascination.
7. Panchayati Jain Mandir :-One thousand Jain images have been constructed in one stone piece. Many important relics of Jainism are to be found here. The most recent addition to the site is a grand building. But even such of it as remains is enough to excite one's imaginat.on for it is a huge structure built with so many images which are yet in a good condition. This is a holy place of pilgrimage. Thus it is historically important because it tells us of the glory of the Arrah Jain organisation.
8. Chaubishi Jain Mandir :- This was founded by late Babu Sukhanand. Its importance is due to the fact that all the 24 images of Tirthankaras are of similar colour as written in Jain Agam. It is also worth seeing.
Jain community in Arrah has also got publishing houses of international fame in the world of religion, which have popularised Jainism through famous publications. They are as follows:--
1. The Central Jain Publishing House, Arrah :- The first institution of the Jain 'Samaj' in India which has published Jain religion, philosophy and literature in English language. This was established in 1911. Kumar Davendra Prasad remained its life-long secretary. He was a man of great zeal and renunciation. This house has published magnificent and invaluable books like 'Drabya Sangrah'. Key of Knowledge, Jain Law, Out lines of Jainism, Jain Jem Dictionary, Dictionary of Jain Biography, Jain Chrono logy, Tatwarthadhi-gam Sutra and many other books of the Jain literature in english. These publications are reputed not only in India but also in England and Germany. Foreigners have realised the Jain aspect of religion only through these publications.
2. Shree Deo Kumar Jain Granthamala - This Granthamala was started by Shree Nirmal Kumar Jain a worthy son of a worthy father in
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भारतीय संस्कृति विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
1922 after the name of his well-known father, late Babu Deokumar Jain of Arrah. This has published eleven books up-till now, in which Jain Litrature in Tamil, Prasthai-Sangrah, Jain-Pratima-Lekha-Sangrah', 'Baidhya-SarSangrah' and Muni Subrut Kabya are of much application and importance.
3. Syadwad Prakashan Mandir:-This house has translated Jain Books of Kanara Literature in hindi with a great zeal and enthusism. This has published up till now 'Dharmamrit', 'Ratnakar Satka I, and II, III part in a quite new and nevel way.
In this way Jain publications in Shahabad have justly gained a neme and maintaining it in right earnest. Several journals and magazines have also appeared from here and one is still continuing. A few important from those are:
1. The Jain Gazette :-This was edited by illustrious late Babu Deo Kumar Jain from 1899 to the end of his life in 1907. This magazine was the torch bearer of the Jain religion, philosophy and literature in all walks of life. Now-a-days its files also are of great use to the Jains.
2. Shree Jain Sidhant Bhasker and Jain Antiquary -This is a research paper of Jain Literature published under the auspices of Jain Sidhant Bhawan. This was issued in 1911 in the beginning but due to unfavourable circumstances it stopped its publication but from 1934 it has been regularly appearing up till now, This is a high class periodical which is subscribed by most of the intellectual aristocrats of the country and the centres of research works. Research works are published in this paper written by eminent scholars of the country. Before long it was tri-monthly but now it is published twice a year.
3. Jain Mahila Parishad.-Edited by Bidushi Ratna Pandita Chanda Bai from 1921. This is the only paper worth mentioning for women, in Jain community. This paper serves as a beacon light to social and religious reforms of the women. The editorial note is full of bristling gems of noble thoughts and constructive ideas.
This shows the literaray progress of Janism in Shahabad in brief. This is really a matter of great pride for Shahabad.
There are also several institutions popularising Janism in Shahabad. They are unique of their type a few among them being.
1. Shree Jain Sidhant Bhawan :-This was established by late Shree Deo Kumar in 1905 which is now housed in a beautiful up-to-date building built at a cost of thousands of rupees. She Library has now become a growing institution having 17000 high class books on different topics conceming all the religions and almost all the schools of philosophy of the world,
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eight thousand manuscript books of Jain Literature out of which two thousand and five hundred are on palm leaves and the rest on paper. It has also got good collection of rare coins, stamps and antique sacred paintings, This is the only institution quite unique of this type in India. This Library won the approbation of Mahatama Gandhi, Pandit Madan Mohan Malviya and many other great personalities of India when they happened to visit this part of the country. It has also attracted scholars from Germany and America who specially come to this place in connection with research works. It is managed by Shree Deo Kumar Jain Trust.
2. Shree Jain Bala Vishram :--She only institution for advancing female education in India among the Jains was founded by Shree Chanda Bai Jain in 1921 and she has been codducting it with great success. It living monument of Jains for the purpose of female-education. Jain girls and also girls of other religions from every corner of India come to read here. Girls are instructed in subjects fit for making them good wives, good mothers as well as good citizens. It teaches religion and indian ideal of womanhood. From here girls appear at the examinations of high sanskrit stages like nyaytirth, shastri parikha, sahitya ratan, matriculation, tntermediate and B. A. Provision for teaching subjects for those examinations have been amply made, It has got a big compound with three buildings, two hostels for girls and many classes decorated in a very artistic way. The whole institution is in the lap of nature. Due to this institution to-day rarely an illiterate woman is found in Jain community.
In this way Jains in Shahabad have been making valuable contributions to Jain religion and are always alive to their religious duties. For the sake of preaching Jainism, 'Mahabir Jayanti' (Shrut Panchami Parwa', 'Rakshabandhan Parwa', Mahabir Nirwan Diwash is celeberted by them on a large scale. Thousands of people come to listen to the aspects of Jainism on the eve of Mahabir Jayanti. There are many charitable dispensaries managed by Jains, two Dharamsalas, Jain Schools and Jain College. In this way Jainism has got a great foot-hold in Shahabad.
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
१. जैन भक्तिका स्वरूप २. बौद्ध महायानमें भक्ति सिद्धान्त ३. जैन वाङ्मयमें संगीत
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जैन भक्तिका स्वरूप
जैनदर्शनकी भाँति जैन भक्ति भी सभी देवी-देवताओंकी भक्तिसे निराली है । अन्य धर्मवाले यह मान कर भगवान्की भक्ति करते हैं कि भगवान् हमारा कुछ बना देंगे, हमें कुछ दे देंगे । वास्तवमें भगवान् के हाथमें कुछ देना लेना नहीं है । संसारके सभी जीव अपने शुभअशुभ भावोंके करनेवाले हैं और भोगनेवाले हैं। भक्त भगवान् की भक्तिमें तन्मय हो कर भी अपने भावों में ही लीन होता है, भावोंमें ही डूब जाता है । किन्तु मानता यह है कि मैं भगवान्के चरणोंमें लीन था, उनके स्वरूपमें इतना आसक्त था कि अपने आपको भूल गया था । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भक्ति 'रागानुगा' होती है । भक्त रागसे आराध्य देवके चरणों में झुकता है, उनकी प्रशंसा, स्तुति-वन्दना करता है और सब कुछ भूल कर अपने आपको केन्द्रित कर लेता है । यथार्थ में जिनेन्द्र भगवान्को भक्ति बाहरमें नहीं अन्तर में होती है । क्योंकि परमात्मा बाहरमें कहीं स्थित नहीं हैं । लोकमें परमात्माकी पुरुषाकार मूर्तियाँ प्रतीक हैं | सच्चे परमात्मा तो हमारे भीतर विद्यमान हैं । जो उस वीतराग निर्मल आत्मा रूप परमात्माको पहचानता जानता है, वही सच्चा जिन भक्त है ।
यह सुनिश्चित है कि जब तक भक्त अपने में और भगवान् में भेद मानता है और परमार्थसे भी भेद समझ कर भिन्नताका अनुभव करता रहता है, तब तक भक्तिकी भूमिकाको प्राप्त नहीं होता । क्योंकि वास्तविक भक्ति में भक्त और भगवान्की अभेदानुभूति होना आवश्यक है । जहाँ भक्त, भगवान् और भक्तिका भेद-भाव है, वहाँ यथार्थमें भक्ति नहीं है जो भक्त भगवान्की और अपनी जातिको भिन्न-भिन्न समझता है, वह वीतरागताको उपलब्ध कर भगवान् कैसे बन सकता है ? क्योंकि दो जातियाँ मिल कर कभी एक नहीं बन सकतीं । जैन भक्ती प्रमुख विशेषता है— रागको वीतरागतामें समाहित कर देना । रागका विसर्जन किए बिना वीतरागताकी प्राप्ति नहीं होती । अतः भक्त वीतरागके गुणोंका स्मरण करता हुआ अपने आपको दृष्टि-भेद कर यथार्थ रूपमें अनुभव करनेका अभ्यास करता है । जो परमात्मा के वास्तविक स्वरूपको मानता, जानता व अनुभव करता है, वही परमात्मस्वरूपका संवेदन करता है - यह जैन भक्तिका विज्ञान है। जिन - परमात्माकी यह भी एक विशेषता है कि उन्होंने अनन्त ज्ञानियोंमें भक्तोंमें तथा भगवानोंमें कोई भेद नहीं बताया है । जितने भी भेद कहे जाते हैं, वे सब बाहरी, लौकिक तथा पर निमित्तकी अपेक्षा से हैं, वस्तुतः कोई भेद नहीं है । इसलिये भक्तको भी जिनेन्द्रदेवका लघुनन्दन कहा गया है। जैन भक्तिकी यह भी विशेषता है कि भक्त “सोऽहं” की अनुभूति में स्थिर होता हुआ स्वयं भगवान् हो जाता है। उसे कोई भगवान् बनाता नहीं है । भक्ति तो उपचारवश कही जाती है । इसीलिये अपने और भगवान्के बीचमें कोई सीमा मान कर प्रवृत्ति नहीं करता है । यदि वह सीमा मान कर चले तो कभी भी सीमाके पार नहीं पहुँच सकता । यह भेद जैन - भक्तिमें नहीं है । आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं - हे भव्यजीवो ! इस देहमें जो स्थित है, उसे जानो । लोकमें नमस्कार करने योग्य इन्द्र आदि और स्तुति ध्यान करने योग्य तीर्थङ्करादि भी जिसकी स्तुति करते हैं, जिसका ध्यान करते हैं, नमस्कार करते हैं, उस वचनातीत भेदज्ञानियोंके अनुभवगोचर परमात्मस्वरूपको जानो, नमस्कार करो, ध्यान करी, स्तुति गान करो ।'
१. मोक्षपाहुड, गा० १०३ ।
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बौद्ध महायानमें भक्ति-सिद्धान्त
बौद्ध महायानमें त्रिकायवाद सिद्धान्त आया है। इसी सिद्धान्तसे भक्तिका विकास हुआ है, पर निर्वाण प्राप्त करते समय बुद्धने अपने शिष्योंको उपदेश दिया-"आनन्द जिस धर्म और विनयका मैंने तुम्हें उपदेश दिया है, जिसे मैंने तुम्हें बताया है, वही मेरे बाद तुम्हारा शास्ता होगा।" एक अन्य घटना में आया है-वक्कील नामक भिक्षुक एक बार बहुत बीमार पड़ा। उसने भगवान् बुद्धके दर्शनोंकी इच्छा की । भगवान् बुद्धने जाकर उसकी इच्छाको पूर्ण किया और उपदेश दिया-"वक्कील मेरी इस गन्दी कायाको देखनेसे तुझे क्या लाभ होगा। जो धर्मको देखता है, वह मुझे देखता है, और जो मुझे देखता है, वह धर्मको देखता है । इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि भगवान् बुद्ध धर्मकायको बहुत महत्त्व देते थे । इस धर्मकायके सिद्धांतने महायान सम्प्रदायमें भक्तिभावका समावेश किया है । महायान भक्ति क्षेत्रमें बुद्धके धर्मकायको एक प्रकारसे उनका निर्गुण रूप बताया गया है और उनके लौकिक शरीरको अवतार व्यञ्जित किया गया है । उसके प्रति अनन्य श्रद्धाकी बातपर बल दिया गया है। यह अनन्तं श्रद्धा ही आगे चलकर भक्तिके रूपमें विकसित हुई।
श्रद्धाके अतिरिक्त 'त्रिशरण सिद्धान्त'ने भी भक्तिभावनाके विकासपर बल दिया है । प्राचीन बौद्ध धर्ममें केवल कर्मवादको ही महत्त्व दिया गया था । उसमें किसी प्रकारके ईश्वरकी प्रतिष्ठा नहीं थी। महायान सम्प्रदायमें बुद्धको ईश्वरके रूपमें प्रतिष्ठित किया गया और उनके प्रति पूर्ण श्रद्धाभावना समर्पित की गयी। यही श्रद्धा भावना भक्ति भावनाका आधारस्तम्भ है ।
"सद्धर्मपुण्डरीक"3 में भगवान बुद्धको जगत्का संतारक कहा गया है । उनमें अद्वितीय करुणा और कृपाभावकी प्रतिष्ठा करके उनके व्यक्तित्वको भक्तवत्सल बनाया गया है। अवलोकितेश्वर बुद्धने कृष्णके सदृश ही प्रतिज्ञा की थी कि जितने दुःखी प्राणी हैं, उन सबका भार मैं अपने ऊपर लेता हूँ । इसी प्रकार और भी ऐसे बहुतसे उद्धरण मिलते हैं, जिनमें भक्तिकी प्राणभूत प्रवृत्ति प्रपत्तिकी झलक दिखलायी पड़ती है । 'सुखावती' सम्प्रदायमें बुद्ध देवाधिदेवके रूपमें प्रतिष्ठित किये गये हैं । असंख्य स्त्री-पुरुष कारुणिक पिता अमिताभकी शरण जाते रहे हैं । इसोको वे मुक्तिका मार्ग मानते थे । इससे स्पष्ट है कि महायानी भक्ति भावनामें ईश्वरवादी और अवतारवादी प्रवृत्तिके साथ-साथ वैष्णवोंके प्रपत्तिभावकी भी प्रतिष्ठा हो गयी ।
महायानी भक्तिकी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता मन्त्र जप है । तिब्बत आदि देशोंमें मन्त्रजपको बहुत महत्त्व दिया गया है । मन्त्र जपके साथ-साथ प्रार्थना तत्त्वको भी महत्त्व प्राप्त है । होनेन्द्रके शिष्य शिनरेनका कथन है कि बुद्धकी हमें करुणा पूर्वक प्रार्थना करनी चाहिये ।
१. दीघनिकाय २।३।। २. Aspects of Mahoyava of Budhisen. Page 103-108 ३. सद्धर्मपुण्डरीक, २०११,
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
• २२१ हम उनकी सहायतासे ही, उनकी शक्ति द्वारा लक्ष्यको प्राप्त कर सकते हैं । भक्तिकी सिद्धिके लिये निम्नलिखित तत्त्वोंको महत्ता दी गयी है
(१) गम्भीर श्रद्धाके साथ आध्यात्मिक प्रमोदका अनुभव (२) गुरुके समीप जाकर सत्संग करना और बुद्ध पूजा करना (३) धर्मशास्त्रोंका स्वाध्याय और उनके अनुकूल जीवन यापन (४) चित्त शुद्धि (५) नमु अमिदा वुत्सु (नमः अमितबुद्धाय) मन्त्रका जाप
प्रज्ञापारमिताओंमें बुद्धभक्तिको सबसे अधिक महत्त्व अश्वघोषने दिया है । उसने पापीसे पापी व्यक्तिके उद्धारका साधन भक्तिभावको माना । शान्तिदेवने 'बोधिचर्यावतार' और 'शिक्षासमुच्चय' में पापविमुक्तिके लिये हृदयकी व्याकुलता, बुद्धकी पूजा वन्दना, भक्तिभावकी तल्लीनता, आत्मविस्मृति एवं आत्म समर्पणको महत्त्व दिया। इस आचार्यने बुद्ध और बोधिसत्त्वोंके दास होनेकी बात कही। अतएव बौद्ध धर्ममें दास्यभक्तिका सन्देश लानेवाला यह पहला आचार्य है । शान्तिदेवकी भक्तिमें आत्मोत्सर्गकी प्रवृत्ति, उपास्यके साथ तादात्म्यकी छटपटाहट, नैतिक आदर्शवादकी अभिव्यक्ति और आत्मसमर्पणकी भावना पूर्णतया पायी जाती है । बोधिचर्यावतारमें
एवं सर्वमिदं कृत्वा यन्मया साधितं शुभम् ।
तेन स्यां सर्वभूतानां सर्वदुःखप्रशान्तिकृत् ।। अर्थात् पुण्य और शुभ कृत्योंद्वारा जो कुछ अजित किया गया है, उससे सम्पूर्ण प्राणियोंके दुःखका नाश हो। शान्तिदेवके सिद्धान्तोंमें विनम्रता अहम् भावका निरोध, बुद्ध बन्दना, शरणागत वत्सलता, वैष्णव भक्तोंके समान हैं । 'बोधिचर्या' और 'शिक्षासमुच्चय'के अनुसार भक्तिके निम्नलिखित अङ्ग है
(१) वंदना और पूजा-बुद्ध और बोधिसत्त्वोंकी पूजा और अर्चना आवश्यक है । वे संसारके समस्त पदार्थोंसे बोधि सत्त्वकी पूजा करना चाहते हैं, समस्त पुष्प, वृक्ष, फल भगवान्को अर्पण करते हैं । इतना ही नहीं, वे अपने आपको भी बुद्ध और बोधिसत्वोंको समर्पण करना चाहते हैं । बुद्धकी कारुणिक भावनासे प्रेरित होकर वे उनके चरणोंमें अपना दास्य भाव निवेदन करते हैं । इस वन्दना और पूजाके अन्तर्गत प्रेम और आत्मसमर्पणकी भावना भी निहित है।
(२) पापदेशना-जिसे वैष्णव भक्तिमें आत्मनिवेदन कहा है, उसीको बोधिचर्यावतारमें 'पापदेशना' कहा है। इस स्थितिमें साधक अपने हृदयको समस्त ग्लानियों, अपने किये हुए समस्त पापों और अपने जीवनके समस्त विकारोंका पश्चात्ताप पूर्वक उद्घाटन करता है । वह सफलताके लिये बोधिसत्त्वकी शरणमें जाता है और बिलखता हुआ कहता है-"जो भी पापकर्म मैंने इस जीवन या अतीत जीवनोंमें किये हैं या दूसरोंको करनेकी प्रेरणा की है, उन सबको मैं स्वीकार करता हूँ। मैं पश्चात्तापसे जल रहा हूँ। मैंने अपने अज्ञानसे मृत्युको
१. बोषिचर्यावतार, ३।६।
२. बोधिचर्यावतार, २८ ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान प्राप्त किया है । हे भिक्षुओ ! मैंने अपने मन और शरीरसे त्रिरत्नके विरोधमें अनेक पाप किये हैं । मैं उन सबको स्वीकार करता हूँ। मैं अनेक अपराधोंको करनेवाला पापी हूँ। मैं पापसे किस प्रकार विमुक्ति प्राप्त करूंगा। मैं अत्यन्त भयभीत हूँ कि पापोंका भार फेंकने के पूर्व ही कहीं न मर जाऊँ" । शान्तिदेव पापोंसे विमुक्त होनेके लिए बोधिसत्त्वसे सहायताकी याचना करते हैं। दुःखसे मुक्ति प्राप्त करनेके लिये बुद्धकी शिक्षाओंका अनुसरण करना भी आवश्यक है।
(३) पुण्यानुमोदना-जब पश्चात्तापकी अग्निमें भक्तके समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं, तब उसमें पुण्यानुमोदनकी शक्ति आ जाती है। उसका हृदय दूसरोंके पुण्योंकी प्रशंसा करनेके योग्य हो जाता है । वह दूसरोंके शुभकर्मको देखकर प्रशंसा करता है और प्रसन्नताका अनुभव करता है।
(४) अध्येषणा-अध्येषणाका अर्थ है-याचना या प्रार्थना। इस अवस्थामें सावक कृत-कृत्य बोधिसत्वोंसे याचना करता है कि संसारमें जीवोंकी सत्ता सदा बनी रहे, जिससे वह जीवोंकी दुःख निवृत्तिके लिये प्रयत्न करता रहे । भगवान् बुद्धसे भी यही कामना करता है कि उसे इसी प्रकारका उपदेश दें।
(५) शरणगमन-मैं तुम्हारी शरणमें हूँ, इस प्रकारको प्रत्येक क्षण अनुभूति साधकको करनी चाहिए । बुद्ध, धर्म और संघ इन तीनोंकी शरण पापमुक्तिके लिये आवश्यक है ।
(६) आत्मभावादि परित्याग--महायान भक्ति सम्प्रदायमें अहम्भावके परित्यागपर बहुत बल दिया है । मनुष्य अपने अस्तित्वको विश्व प्राणियोंके अस्तित्वमें लीन कर देना चाहता है । उसका यह निश्चय रहता है कि जो कुछ भी पुण्य कर्म उसने किये हैं, वे सब दूसरे प्राणियों के कल्याणके विधायक बनें । साधक समस्त विकारोंका परित्याग कर दूसरोंके कल्याणमें लगना चाहता है । उसकी कामना है कि जो कुछ भी पुण्य उसने शुभ कर्मों द्वारा अर्जित किया है, उससे सम्पूर्ण प्राणियोंका दुःख दूर हो । दुःखी प्राणियोंके हृदयमें प्रवेश कर उनके दुःखको बांट लेनेकी आकुलता भी महायानी साधकमें देखी जाती है । बताया है-"जैसे अपने निरात्मक शरीरमें अभ्याससे आत्मबुद्धि होती है, उसी तरह दूसरोंमें भी अभ्याससे आत्मबुद्धि क्यों न हो ?" इस प्रकार भक्ति अङ्गके अन्तर्गत विकार भावको छोड़कर प्राणियोंके कल्याणके हेतु संकल्प करना और संकल्पानुसार प्रवृत्ति करना आदि परिगणित हैं । महायानीभक्ति साधक पारमिताएँ
___ महायानी भक्तिमें पारमिताओंको महत्त्व दिया गया है। वैष्णवी भक्तिमें जो स्थान सदाचार तत्त्वको प्राप्त है, वही स्थान महायानो भक्तिमें पारमिताओंको प्राप्त है । पारमिता शब्दका अर्थ है पूर्णत्व' । यह पालि भाषाके पारगामी शब्दसे निष्पन्न है । कुशल कर्मोके आचरणसे व्यक्ति पारमिताओंको प्राप्त करता है । पारमिताएं प्रधान रूप से छह हैं१. बोधिचर्यावतार २।२८-३२। २. वही, ३१-३। ३. वही, ३।४-५ । ४. पथात्मबुद्धिरम्यासात्स्वकायेऽस्मिन्निरात्मके ।
परेष्वपि तथात्मत्वं किमभ्यासाम्न जायते ॥ बोधिचर्यावतार, ८।११५ । 4. Aspects of Mahayana Budhism, Page 306
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
२२३ (१) दानपारमिता-संसारके समस्त प्राणियोंके लिये निष्काम भावसे दान देना हो दानपारमिता है । संसारके दुःखोंका कारण सर्वपरिग्रह माना गया है । अतएव अपरिग्रह मुक्तिका विधायक है। दान पारमिताके प्राप्त होनेपर साधकमें किसी वस्तुके प्रति ममत्वका भाव शेष नहीं रह जाता। वह समस्त प्राणियोंमें अपना ही रूप देखता है । इस पारमिताकी पूर्ण सफलताके लिये साधकको शठता, मात्सर्य, ईर्ष्या, पैशुन्य और भावलीनता जैसे विकारोंका पूर्ण परित्याग करना पड़ता है । इनके परित्याग कर लेनेपर ही दानपारमिता अपनी पूर्णताको प्राप्त होती है।
(२) शीलपारमिता-शीलका अर्थ है गहित और कुत्सित कर्मोंसे चित्तको विरक्त रखना । दूसरे शब्दोंमें हम विरक्तिको ही शील कह सकते हैं। इसमें चित्तको शुद्ध, मनको स्थिर और शरीरको स्वस्थ रखनेकी आवश्यकता होती है। स्मृतिका अर्थ है विधि तथा प्रतिषिद्धका स्मरण रखना । जो व्यक्ति विधि निषेधोंका पूर्णतया स्मरण रखते हुए उनका आचरण करता है शीलपारमिताका वही अधिकारी है। प्रतिसमय अपने मन और शरीरका निरीक्षण करते हुए उनमें किसी भी प्रकारका विकार उत्पन्न न हो, इसका प्रयास ही शील है । शीलके बिना सम्बोधिकी प्राप्ति नहीं होती। अतः शीलपारमिताका सम्बन्ध भक्तिके साथ है।
(३) शान्तिपारमिता-इस पारमिताकी आवश्यकता रागद्वेषादिके शमनार्थ पड़ती है । शान्ति तीन प्रकारकी है-(१) दुःखादिवासनाशान्ति (२) परोपकारमर्षण शान्ति और (३) धर्मनिध्यानशान्ति । पहले प्रकारको शान्ति वह दशा है, जिसमें अत्यन्त कष्टोंके होते हुए भी किसी प्रकारका दुर्भाव नहीं पैदा होने पाता। इस दुर्भावके प्रतिकारके हेतु मुदिता नामक स्थितिका समुचित आचरण करना होता है। दूसरे प्रकारकी शान्ति सहिष्णुता द्वारा प्राप्त होती है। साधक दूसरों द्वारा किये हुए अपकारोंको सहन करता है। सभी अवस्थाओंमें क्रोधका त्यागकर धर्ममें निरत रहना ही धर्मनिध्यान शान्ति कहलाती है । शान्ति पारमितामें भक्त या साधकका हृदय सहनशील हो जाता है और आराध्यरूप बननेकी चेष्टा करता है ।
(४) वीर्यपारमिता--वीर्यका अर्थ है कर्म करनेका उत्साह । बौद्धधर्ममें कर्मवादको महत्त्व दिया गया है। मनुष्य अपने शुभकर्मोंसे ही निर्वाण प्राप्त करता है। कर्मों में उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति रखना ही वीर्यपारमिता है। कर्म भी दो प्रकारके होते हैं--एक कुशल, दूसरे अकुशल । कुशलकर्म करने में उत्साह और अकुशल कर्मोंके प्रति अनुत्साह होना चाहिए। इसके लिये आलस्य आदिका त्याग करना पड़ता है और कर्म करनेके प्रति जागरूक रहना पड़ता है। उत्साह पूर्वक किये गये कुशल कर्मोके करनेसे मनुष्यका विवक्षित चित्त स्थिर हो जाता है और उसके बहुतसे क्लेश नष्ट हो जाते हैं। क्लेश नष्ट करनेके भगवान् बुद्धने दो साधन बताये हैं--एक शमय और दूसरा विपश्यना । शमथका अर्थ है समाधि और विपश्यनाका अर्थ है ज्ञान । इन दोनोंकी प्राप्ति भक्तिसे होती है ।
(५) ध्यानपारमिता-ध्यान पारमिताके साथ शमथ और विपश्यनाका सम्बन्ध है। शमय या समाधि बिना विरक्ति नहीं होती। इसलिये महायान सम्प्रदायमें विरक्तिपर बहुत जोर दिया है। आसक्तिके त्यागको महायान सम्प्रदायमें आवश्यक माना गया है और इसके
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
लिये एकान्त सेवनका विधान बतलाया है । विश्व कल्याण भावनाका विकास ध्यान पारमितासे होता है और भक्ति इसमें सहायक है।
(६) प्रज्ञापारमिता -- ध्यान पारमिता के अभ्याससे चित्तकी एकाग्रता होती है । चित्तकी एकाग्रता प्रज्ञाको जन्म देती है । जिसका चित्त एकाग्र है उसीको सत्यका दर्शन संभव है । अविद्याका नाश प्रज्ञाके सहारे ही किया जा सकता है । अविद्या ही सब पापोंका मूल है । प्रज्ञापारमिताका सबसे बड़ा लक्ष्य धर्मोकी निस्सारताका बोध कराना है । प्रज्ञापारमिताके उदय होनेपर ही सर्वधर्म शून्यताका अनुभव होता है । सर्वधर्म शून्यताका अनुभव करना ही बोद्धधर्मका लक्ष्य है । इससे अविद्याकी पूर्ण निवृत्ति होती है । अविद्याके निरोधसे संस्कारोंका निराकरण हो जाता है । संस्कारोंके निराकरणसे दुःखका निराकरण होता है । अतएव स्पष्ट है कि प्रज्ञापारमितासे निवृत्ति और निर्वाणकी प्राप्ति होती है । प्रज्ञापारमिताके इस महत्त्वने ही उनकी देवताके रूपमें प्रतिष्ठा कर दी है। बोधिसत्त्वकी भक्तिका आराध्य यह प्रज्ञापारमिता भी मानी जाती है । महायानी भक्तिमार्गके विकासके दश सोपान हैं-
१. भगवान् बुद्धके धर्मकाय और निर्माणकाय दोनोंके प्रति अटूट श्रद्धाभावका
जागरण ।
२. महाकरुणा और लोकसेवाकी प्रतिष्ठाके कारण जगत् संतारकका भाव ।
३. मन्त्र जाप |
४. प्रतिपद मार्गके साथ प्रपत्तिभावका समन्वय ।
५. सत्संग और गुरुश्रद्धा ।
६. धर्माचरणपूर्वक जीवन यापन ।
७. मन और चित्त की शुद्धिपर विशेष बल ।
८. भक्ति के विविध अङ्गोंका विकास ।
९. अनुत्तर पूजा ।
१०. पारमिताओं का सेवन ।
बुद्धके जीवन कालमें उनके शिष्योंने उनके भौतिक शरीरके प्रति अत्यधिक मोह दिखलाया । उस मोहको उन्होंने धर्म कायके प्रति श्रद्धामें बदल दिया। यह श्रद्धा ही उनके परिनिर्वाणके पश्चात् भक्तिके रूपमें हुई । बुद्ध के निर्माणकाय अर्थात् अवतारी रूपके प्रति अटूट श्रद्धाका व्यक्त करना ही भक्तिका बीज है । महायानमें आकर बुद्ध एक प्रकारसे ईश्वर बन गये जिनके प्रति श्रद्धा और पूजा व्यक्त करना आवश्यक हो गया । बुद्धके साथ अनेक देवता भी आये जिन्हें बोधिसत्त्व कहते हैं । बुद्ध स्वयम्भू हो गये और वे अपनी कृपाके द्वारा जगत् के उद्धारक बन' गये । बुद्धकी कृपा भगवती कृपा हो गयी । इसमें सन्देह नहीं कि महायान सम्प्रदायपर भागवत धर्मका प्रभाव है। गीताके भक्तिभावसे भी महायान सम्प्रदायका भक्तिभाव प्रभावित दिखलायी पड़ता है । अतः संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि भक्तिभावनाका विकास महायान सम्प्रदाय में हुआ है । और मूर्तिपूजा भी बौद्धधर्मके प्रभावसे विकसित हुई है । भारतीय धर्मसाधना में मूर्तिपूजाका सर्वप्रथम उपयोग बौद्धधर्मने ही किया । ऐसा कहा जाता है किन्तु महा१. तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् - सद्धर्मपुण्डरीक २।११
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
२२५ यानका भक्तिवाद भक्ति सम्बन्धी उन प्रवृत्तियोंका स्वाभाविक विकास है, जो हमें बुद्धके मूल उपदेशों या स्थविरवाद बौद्धधर्ममें मिलती है । मुक्तिका आश्वासन एक ऐतिहासिक तथ्यपर आधारित होना एक ऐसी ही विशेषता है, जो महायानकी अपनी है। थेरगाथामें कहा है-- "सो भत्तिमा नाम च होति पण्डितो बत्वा च धम्मेसु विसेसिअस्स ।” निष्कर्ष यह है कि भक्तिकी साधना किसी न किसी रूपमें बुद्धधर्मके आविर्भावकाल, बल्कि उसके कुछ पूर्वसे ही प्रचलित थी और उसने अवश्यम्भावीरूपसे महायानके भक्तिवादको प्रभावित किया है । महायानके भक्तिमार्गमें बौद्धदर्शनके प्राचीन तत्त्व ही सम्मिलित नहीं है, अपितु कुछ नवीन तत्त्वोंका समावेश भी हुआ है। इन नवीन तत्त्वोंमें शरणागति सबसे प्रमुख तत्त्व है । बुद्ध परमेश्वर हो गये । उनके नामतत्त्वसे मुक्तिका आश्वासन मिल गया। भक्तिके प्रभावसे नारकीय जीव भी कर्म बन्धनसे छूटने लगे।
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जैन वाङ्मय में संगीत
संगीत शास्त्रकी उत्पत्ति जैन दृष्टिकोणसे क्रियाविशाल नामक तेरहवें पूर्व से हुई है । संगीत शास्त्रके विविध सिद्धान्तोंका निरूपण इसी पूर्व में आया है। छन्द, अलंकार, काव्यके गुण दोष एवं ७२ कलाओंका नौ करोड़ पदों द्वारा वर्णन किया गया है।
__ जैन आचार्यों द्वारा लिखित संगीतको प्रमुखतः चार भागोंमें विभक्त कर विवेचन सम्भव है । प्रथम वर्गमें दार्शनिक ग्रन्थों में निहित संगीत, द्वितीय में पुराण और काव्य ग्रन्थोंमें निहित संगीत, तृतीयमें स्वतन्त्र रूपसे लिखा गया संगीत साहित्य एवं चतुर्थमें प्रायोगिक संगीत ग्रन्थ हैं। दार्शनिक ग्रन्थोंमें तत्त्वार्थसूत्रके पंचम अध्यायके २४ वें सूत्र-"शब्दबन्धसौदम्य स्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च" की टीकामें शब्दकी व्याख्या करते हुए पूज्यपाद अकलंकदेव और विद्यानन्द आदि सभी आचार्योंने शब्द के दो भेद बतलाये हैं-भाषात्मक और अभाषात्मक । अभाषात्मक शब्दोंके भी दो भेद हैं-प्रायोगिक और वैनसिक । प्रायोगिक शब्दोंके अन्तर्गत ही वाद्यध्वनि, कंठध्वनि और पदध्वनिका समावेश किया है । वाद्यध्वनिमें चार प्रकारके वाद्योंको प्रमुखता दी है । तत, वितत, घन और सौषिर। "तत्र चर्मतनननिमित्तः पुष्करभेरोद्राविप्रभवस्ततः । तन्त्रीकृतवाणासुघोषाविसमुद्भवो विततः । तालघण्टालालनाअभिघातजो धनः । वंशशंङ्खाविनिर्मितः' सौषिरः ।
वर्तमान संगीतमें तत और विततके अर्थ बदले हुए हैं। आचार्य अकलंक देवने इसी सूत्रके व्याख्यानमें बताया है कि प्रायोगिक शब्द पुरुषके पुरुषार्थ द्वारा उत्पन्न होता है । इसमें तीव्र, मन्द और माधुर्य आदि भेद उत्पन्न किये जाते हैं । अकलंकने-"प्रयोगः पुरुषकायवामनःसंयोगलक्षणः" अर्थात् पुरुषका काय, वचन और मनके संयोगसे नाद विशेषको उत्पन्न करना प्रायोगिक शब्द है। वीर्यान्तराय ज्ञानावरणका क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मके उदयसे आत्माके द्वारा शरीरके विभिन्न अंगोंसे जो वायु बाहर निकाली जाती है, उससे नाद उत्पन्न होता है । हृदयमें नाभिके उपर ब्रह्मस्थानमें प्राणवायुसे एक प्रकारका शब्द होता है, वही मुख द्वारा प्रकाशित होता है, उसी को नाद कहते हैं । इस प्रकार आचार्य अकलंकदेवने जीवजन्य शब्द और पुद्गलजन्य ध्वनि आदि भेद कर अमधुर और सुमधुर ध्वनियोंका कथन भी किया है। पूज्यपादने केवल वाद्यध्वनिका ही वर्णन किया था, पर अकलंक देवने कण्ठध्वनिका वर्णनकर स्वर विद्या, ग्राम, राग आदि का भी कथन किया है। यह सत्य है कि अकलंक देवका यह वर्णन दार्शनिक है, संगीतात्मक नहीं, पर इसमें संगीतके सभी तत्त्व आ गये हैं । आद्य ध्वनिका वर्णन अकलंक देवका भी पूज्यपादके समान ही है ।
विद्यानन्दने तो संगीतके सम्बन्धमें और विशेष प्रकाश डाला है। गायन, वादन और नर्तनको संगीतका अंग मानते हुए सप्तस्वरका भी कथन किया है ।
आचार्य वीरसेनने अपनी धवला टीकामें वीणा 'मातोखमिति' लिखकर वीणा जैसे १. सर्वार्थसिद्धि टीका ५।२४ को टीका २, षवलाटीका, जिल्द १, पृ० ८७
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
२२७ प्रमुख वाद्योंका संकेत किया है । द्वादशांग और चतुर्दशपूर्वके विषयका वर्णन करते हुए संगीत विद्याको क्रियाविशालके अन्तर्गत समाविष्ट किया है । आचार्य वीरसेनने सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वारके ५८ वें सूत्रके व्याख्यानमें देवागनानाम् मधुर संगीतमहषित ललित कथित आदि द्वारा मधुर संगीतका निर्देश किया है। आचार्य वीरसेनने अन्य कई स्थानों पर भी संगीतकी चर्चा की है और इसकी गणना ज्ञान साधनों में भी की है ।
प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे तर्क ग्रन्थोंमें शब्दको पौद्गलिक सिद्ध करते हुए संगीतके तत्त्वोंका निरूपण किया है। जो स्वर या ध्वनि चित्त में आह्लाद उत्पन्न कर देती है, वह स्वर या ध्वनि आनन्द की अनुभूति कराती है । ऐन्द्रिक आनन्द जब अपनी सीमाका अतिक्रमणकर अतीन्द्रिय आनन्दके रूपमें परिणत होता है, तो यही आत्मानुभूतिका रूप ले लेता है । इस प्रकार जनदर्शन ग्रन्थों में संगीतके मूल सिद्धान्तोंका कथन आया है ।
पुराण और काव्य ग्रन्थों में तो संगीतकी विस्तृत चर्चाएँ आयो हैं । जिनसेन द्वितीयने आदि पुराणके १२ वें पर्वमें बताया है कि देवांगना माता मरुदेवीकी सेवा करनेके समय वाद्य और नृत्यगोष्ठी सम्पन्न करती थो । गीत गोष्ठी द्वारा वे स्पष्ट और गाना गाती हुई माता मरुदेवीका मनोरंजन करती थीं। वे ताल के साथ नृत्य करना, अङ्गोंका संचालन करना एवं विभिन्न प्रकारको नृत्य सम्बन्धी भंगिमाओं द्वारा माता का मनोरंजन करती थीं। लिखा है
काश्चित् संगीतगोष्ठीषु दरोद्भिन्नस्मितेमुखेः । बभुः पद्मरिवाब्जिन्यो विरलोद्भिन्नकेसरः ॥ काश्चिदोष्ठाग्रसंदष्टवेणवोऽणुभ्रुवो बभुः । मदनाग्निमिवाध्मातु कृतयत्नाः सफूत्कृतम् ।। वेणुध्मा वेणवीर्यष्टीर्मार्जन्त्यः करपल्लवैः । चित्रं पल्लवितांश्चक्रुः प्रेक्षकाणां मनोद्रमान ॥ सङ्गीतकविधौ काश्चित् स्पृशन्त्यः परिवादिनीः। कराङ्गुलीभिरातेनुः गानमामन्द्रमूर्च्छनाः ।। तन्त्र्यो मधुरमारेणुः तत्कराङ्गलिताडिता।। अयं तान्त्रो गुणाः कोऽपि ताडनाद् याति यद्वशम् ।। वंशः संदष्टमालोक्य तासां तु दशनच्छदम् । वीणालाबुभिराश्लेषि घनं तत्स्तनमण्डलम् ।। मृदङ्गवादनः काश्चिद् बभुरुत्क्षिप्तबाहवः । तत्कलाकौशले श्लाघां कतुकामा इवात्मनः । मृदङ्गास्तत्करस्पर्शात् तदा मन्द्रं विसस्वनुः ।
तत्कलाकौशलं तासाम् उत्कुर्वाणा इवोच्चकै' :॥ अर्थात् कितनी ही देवांगनाएँ संगीत गोष्ठियों में हंसते हुए उसी प्रकार सुशोभित हो रही थीं, जिस प्रकार विकसित कमलोंसे युक्त कमलिनियां सुशोभित होती हैं । बहुत सी छोटी १. मादिपुराण, १२ वा पर्व, पद्य १९८-२०५
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भौंहवाली देवियाँ भोठों के अग्रभागसे वीणा दबाकर बजाती हुई ऐसी शोभित हो रही थीं, मानों फूंककर कामदेव रूपी अग्निको प्रज्वलित कर रही हैं । यह एक बड़े आश्चर्य की बात थी कि वीणा बजाने वाली कितनी ही देवियाँ अपने हस्त रूपी पल्लवों से वीणाकी लकड़ीको स्वच्छ करती हुई हाथोंकी चञ्चलता, सुन्दरता और बजानेकी कुशलतासे दर्शकों का मन अपहरण कर रही थीं। कितनी ही देवियाँ संगीतके समय गम्भीर शब्द करने वाली बीणाओंको हाथकी अँगुलियों बजाती हुई गा रही थीं। वे मुंहसे बाँसुरी और हाथसे वीणा बजाती हुई दर्शकवृन्दका अनुरञ्जन करती थीं। बजाने वाली देवियोके हाथके स्पर्शसे मृदंग गम्भीर शब्द कर रहे थे, जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो ऊँचे स्वरसे उन बजाने वाली देवियोंके कला-कौशलको ही प्रकट कर रहे हों। इस प्रकार मृदंग, पणव, शंख, तूर्य आदि बाद्यों द्वारा जनता एवं सभाका चित्त अनुरंजित किया करती थीं ।
त्रयोदश पर्व में ऋषभदेवके जन्मकल्याणकके अवसर पर देव-देवाङ्गना और नाभिराजके अन्तःपुरमें जो संगीत प्रस्तुत किया गया था उसके अध्ययनसे संगीत सम्बन्धी कई विशेषताएं प्रकट होती हैं । एक पद्यमें तालका महत्त्व बतलाते हुए लिखा है कि गन्धर्व देव जो मंगल गान प्रस्तुत कर रहे थे उसे मधुर और आनन्दप्रद बनाने के लिए मृदंग और दुन्दुभि बाद्योंके गम्भीर स्वर द्वारा तालकी वृद्धि की जा रही थी । यह संगीतका सामान्य सिद्धान्त है कि गायनके साथ तालका मेल रहनेसे गायन कई गुना आनन्दप्रद हो जाता है । इसी सिद्धान्तका अनुसरण कर जन्माभिषेक के अवसर पर प्रस्तुत किये गये नृत्यमें भी तालोंकी योजना की गयी है । देवाङ्गनाएँ तालके आधार पर ही फिरकी लेती थीं और लास्य नृत्य प्रस्तुत करती थीं और आचार्य जयसेनने लिखा है
गन्धर्वारब्धसंगीतमृदङ्गा ध्वनिमूच्छिते । दुन्दुभिर्ध्वनि मन्द्रे श्रोत्रानन्दं प्रतन्वति ॥ मेरुरङ्गेऽप्सरोवृन्दे सलीलं परिनृत्यति । करणैरङ्गहारैश्च सलयेश्च परिक्रमैः ॥
आदिपुराण में वैयक्तिक गान विद्याके साथ संगतियोंका भी वर्णन आया है । १४ वें पर्व में ऋषभदेव के जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्रने नाटककी योजना की और इस योजना में संगीतकी संगतियाँ भी निर्दिष्ट की गयी हैं । इन्द्रने पुष्पाञ्जलि क्षेपणकर जब ताण्डव नृत्य आरम्भ किया तब देवांगनाएं उनका साथ देनेके लिए मधुर गान गाने लगीं। इस गानकी ध्वनिको प्रभावोत्पादक बनाने के लिए पुष्कर जातिके वीणा, मुरली आदि विभिन्न प्रकारके वाद्य बजने लगे । ये वाद्य संगीतके स्वरका ही साथ दे रहे थे और इन वाद्योंसे वे ही स्वर निःसृत हो रहे थे । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि नृत्य, गीत और वाद्य इन तीनोंकी संगति एक साथ प्रस्तुत की जा रही थी और ये तीनों एक ही प्रकारके स्वर और रागकी वृद्धि कर रहे थे । इससे स्पष्ट है कि आचार्य जिनसेनने संगतियोंको महत्त्व दिया है और वस्तुतः संगीत कलाका पूर्ण चमत्कार संगतियों द्वारा ही प्राप्त होता है ।
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१. आदिपुराण, त्रयोदश पर्व, पद्य १७७, १७९
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इसी पर्वमें लीला नृत्य, सूची नृत्य, बहुरूपिणी नृत्य, चक्र नृत्य आदि अनेक नत्योंका उल्लेख आया है। नृत्य शास्त्रको दृष्टिसे आदिपुराणका १४ वां पर्व विशेष महत्त्वपूर्ण है। इस सन्दर्भ में एक आनन्द नामक नृत्यका उल्लेख आया है, जो विशेष प्रकारके वाद्यों और मायनके साथ सम्पन्न किया जाता था।
तदा पुष्करवाद्यानि मन्द्रं दध्वनुरक्रमात् । दिक्तटेषु प्रतिध्वानान् आतन्वानि कोटिशः॥ वीणा मधरमारेणुः कलं वंशा विसस्वनुः । गेयान्यनुगतान्येषा समं तालेरराणिषुः ॥ उपवादकवाद्यानि परिवादकवादितैः। बभूवुः सङ्गतान्येव साङ्गत्यं हि सयोनिषु ॥ काकलोकलमामन्द्रतारमूर्च्छनमुज्जगे ।
तदोपवीणयन्तीभिः किन्नरोभिरनुल्वणम् ॥' इसके अतिरिक्त संगीत गोष्ठियोंका कथन भी आदि पुराणमें आया है । गीतगोष्ठो, वायगोष्ठी, नृत्यमोष्ठो, वीणागोष्ठी आदि अनेक गोष्ठियोंका कथन आया है । आदि पुराणमें वोणा, मुरज, पणव, शंख, तूर्य, काहला, घण्टा, कण्ठीरव, मुबंग, दुन्दुभि, तुणव, महापटह, पटह, पुष्कर, भेरी आदि वाद्योंके वादनका निर्देश मिलता है । तन्त्रीगत वाद्योंमें वीणाका महत्त्वपूर्ण स्थान था। अलावणी, ब्रह्मवीणा, विपञ्ची, बल्लकी, घोषवती आदि कई प्रकारको वीणाएँ उल्लिखित हैं । आदि पुराणमें वीणाके स्वरको सबसे उत्तम बतलाया है । देवियाँ माता मरुदेवी से प्रश्न पूछती हैं कि स्वरके समस्त भेदोंमें उत्तम स्वर कौन सा है ? उत्तर देती हैं कि वीणाका स्वर समस्त वाद्योंमें उत्तम है। स्वयं आदि तीर्थंकर ऋषभदेवने अपने पुत्र वृषभसेनको गीत, वाद्यरूप गन्धर्व शास्त्रको शिक्षा दी थी।
___ आदिपुराणमें संगीतके लिये गान्धर्व संज्ञा प्राप्त होती है । गायनका नियम है कि प्रथम मन्द स्वरसे क्रमशः मध्य एवं तार स्वरमें गोतका उच्चारण करना चाहिये। गीतके तीन आकार-पस्बोष, अष्टगुण एवं तीन प्रकार हैं । जो ज्ञानपूर्वक गीत गाया जाता है, उसे ललित गीत कहते हैं । तीन आकारोंके अन्तर्गत मदुगीतध्वनि, तीव्रगीतध्वनि एवं भययुक्तहल्की गोत ध्वनि आती है । षट्दोषोंमें भयभीत होकर गाना, शीघ्र गाना, धीरे गाना, तालरहित गाना, काक स्वरसे गाना, नाकसे गाना इत्यादि है । गायनके आठ गुण निम्न प्रकार है
१. पूर्णकलासे गाना २. रागको रंजक बनाकर गाना ३. अन्य स्वर विशेषोंसे अलंकृत करके गाना ४. स्पष्ट गाना ५. मधुर स्वर युक्त गाना ६. तालवंशके स्वरसे मिलाकर गाना
१. आदिपुराण, चतुर्दश पर्व, पद्य ११५-११८ ॥
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७. तारस्वरसे गाना ८. मूर्च्छनाओंका ध्यान रखते हुए गायन करना
उरस, कण्ठ एवं शीर्षसे पदबद्ध गेयपद सहित, ताल समान पदका उच्चारण करना एवं सात स्वरके समक्षरों सहित गाना ही गीत कहा गया है । गीतको दोषरहित, अर्थयुक्त, काव्यालंकारयुक्त, उपसंहार उपचारयुक्त, मधुर शब्दार्थयुक्त एवं प्रमाणयुक्त होना चाहिये ।
आदिपुराणके १६वें पर्वमें वारवनिताओं द्वारा इसी प्रकारके गीत गवाये गये हैं । श्यामा-षोडश वर्षीया मधुर स्वरसे गीतका गायन करती है जबकि गौरी चातुर्यसे गीत गाती है । पिंगला और कपिलाको गीत गानेके लिये वर्जित माना गया है।
आदिपुराणमें पदध्वनि अर्थात् नृत्यका विशेष वर्णन आया है । इसमें भावोंका अनुकरण करनेके साथ-साथ आङ्गिक अभिनयपर जोर दिया गया है । नृत्यकी विभिन्न मुद्राओंका संकेत भी आदिपुराणमें प्राप्त होता है। ताण्डव नृत्यको उद्धतनृत्य कहा है। इसमें विविध रेचकों, अङ्गहारों तथा पिण्डीबन्धोंका समावेश है । इस नृत्यमें वर्धमानक तालका समावेश विशेषरूपसे रहता है । यह ताल, कलाओं, वर्णों और लयोंपर आधारित रहता है । आदिपुराणमें ताण्डव नृत्यका स्वरूप विवेचन करते हुए लिखा है कि पाद, कटि, कण्ठ और हाथोंको अनेक प्रकारसे घुमाकर उत्तम रस दिखलाना ताण्डव नृत्य है ।' ताण्डव नृत्यकी कई विधियाँ प्रचलित थीं। पुष्पाञ्जलि क्षेपण करते हुए नृत्य करना, पुष्पाञ्जलि-प्रकीर्णक नामक ताण्डव नृत्य है। इसी प्रकार विभिन्न रूपोंमें सुगन्धित जलकी वर्षा करते हुए नृत्य करना जलसेचन नामक ताण्डव नृत्य है।
अलातचक्र' नृत्यमें शीघ्रतापूर्वक फिरकी लेते हुए विभिन्न मुद्राओं द्वारा शरीरका अंगसंचार किया जाता था । शीघ्रतासे नृत्य करनेके कारण ही इसे अलातचक्र कहा गया है ।
जिस नृत्यमें क्षणभरके लिए व्यापक हो जाना, क्षणभरमें छोटा बन जाना, क्षणभरमें निकट दिखलायी पड़ना, क्षणभरमें दूर पहुँच जाना, क्षणभरमें आकाशमें दिखलायी पड़ना, वह इन्द्रजाल नामक नृत्य है । इस नृत्यमें नाना प्रकारकी लास्य क्रीड़ाएं भी सम्मिलित रहती हैं । नृत्यकी गतिविधि अत्यन्त शीघ्रता पूर्वक प्रदर्शित की जाती है, जिससे नर्तक या नर्तकीका स्वरूप ही दृष्टिगोचर नहीं होता।
___चक्रनृत्य में नर्तकियोंकी फिरकियां इस प्रकारमें घटित होती हैं, जिससे केवल शिर या सेहरा अंश ही घूमता है । मुकुटका सेहरा घूमने के कारण ही इसे चक्रसंज्ञा प्राप्त है ।।
निष्क्रमण' नृत्यमें प्रवेश और निर्गमन ये दोनों ही क्रियाएँ साथ-साथ चलती है । फिरकी लगानेवाली नर्तकियाँ कभी दो-तीन हाथ आगेकी ओर बढ़ती हैं और कभी दो-तीन हाथ पीछेकी ओर हटती हैं । फिरकी लगानेको यह प्रक्रिया ही निष्क्रमण नामसे अभिहित की जाती है। १. चित्रश्च रेचकैः पादकटिकण्ठकराश्रितः ।
ननाट ताण्डवं शक्रो रसमूजितं दर्शयन् ॥ -आदि० १४।१२१ २. वही, १४।११४; ३. वही, १४।१२८; ४. वही, १४।१३०-१३१; ५. वही, १४।१३६; ६. वही, १४।१३४;
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सामूहिक रूपमें नृत्य करती हुई नर्तकियाँ जब सिमटकर सूचीके रूपमें परिणत हो जाती हैं, तब उसे सूची नृत्य कहते हैं। किसी पुरुषके हाथ की अंगुलियोंपर लीलापूर्वक नृत्य करना सूची नृत्य है ।'
स्त्रियाँ अपने कटाओंका विक्षेपण करती हुई किसी पुरुषकी बाहुओंपर स्थित हो जो नृत्य करती हैं, उसे कटाक्ष' नृत्य कहा जाता है । इस नृत्यकी प्रमुखतः दो विशेषताएँ हैं । प्रथम विशेषता यह है कि यह नृत्य नारियों द्वारा ही सम्पन्न होता है तथा इसमें शृंगारिक भावोंकी प्रधानता होती है । दूसरी विशेषता यह है कि इसका सम्पादन पुरुषकी बाहुओं पर स्थित होकर किया जाता है ।
भावोंकी सुकुमार अभिव्यञ्जनाको लास्य कहते हैं । श्रावण आदि महीनोंके दोलाक्रीड़ा के अवसर पर किये जानेवाले कामिनियोंके मधुर तथा सुकुमार नृत्य लास्य कहलाते हैं । मयूर - के समान कोमल नर्तन लास्य के अन्तर्गत है ।
बहुरूपिणी विद्या वह कहलाती है, जिसमें व्यक्ति अपनी अनेक आकृतियाँ बना ले । कामिनियाँ निर्मल मुक्तामणि जटित हारोंको पहनकर उस प्रकार नृत्य करें, जिससे उनकी आकृतियाँ उस हारके मणियोंमें प्रतिबिम्बित हों । अनेक प्रतिबिम्ब पड़नेके कारण ही इस नृत्यको बहुरूपिणी नृत्य कहा जाता है । आदिपुराण में वास्तविक नृत्य उसीको माना गया है, जिसमें अंगों को विभिन्न प्रकारकी चेष्टाएँ सम्पन्न हों और नृत्य करनेवाला अनेक रूपोंमें अपनी रसभावमयी मुद्राओं का प्रदर्शन करे ।
स्पष्ट है कि रसभाव, अनुभाव और चेष्टाएँ नृत्य के लिए आवश्यक हैं । नृत्य शृंगार, शान्त और वीररसके भावोंकी अभिव्यक्ति के लिए सम्पन्न किया जाता था । नृत्य उत्सवोंके अवसरपर घरमें और साधारणतः नाट्यशालाओंमें सम्पन्न होते थे । आदि तीर्थकर ऋषभ - देवको नृत्य करती हुई नीलाञ्जनाके विलयनके कारण ही विरक्ति उत्पन्न हुई थी ।
इस प्रकार द्वितीय जिनसेनने आदिपुराणमें गीत, वाद्य और नृत्यका उल्लेखकर जीवन भोगके लिए संगीतका महत्त्व प्रतिपादित किया है ।
प्रथम जिनसेनने अपने हरिवंश पुराणके उन्नीसवें सर्ग में संगीत विद्या का साङ्गोपाङ्ग चित्रण किया है । वसुदेव शौरीपुर से चलकर विजयखेट नगर में पहुँचे और वहाँ सुग्रीव नामक गन्धर्वाचार्यकी सोमा और विजयसेना नामकी पुत्रियोंको संगीतशास्त्रमें पराजित कर विवाह किया । एक दिन वे भ्रमण करते हुए एक अटवीमें प्रविष्ट हुए, जहाँ जलावर्त्त नामक सरोवर में प्रविष्ट हो जलतरंगका वादन किया। बताया है
जलं मुरजनिर्घोषं निशम्य रवमुत्तस्थौ तत्र
समवादयदुन्नतः । सुप्तो महागजः ॥ *
अर्थात् जलावर्त सरोवरकी जलतरंगों का वादन मुरजके समान कर मधुर और संवेदनोत्पादक ध्वनि उत्पन्न की है । इस कथन से यह संकेत प्राप्त होता है कि वसुदेव जलतरंगवाद्य में
भी निपुण थे ।
९. वही, १४।१४२; ३. वही, १४।१३३ ।
२. वही, १४ । १४४;
४. हरिवंशपुराण १९।६२;
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बसुदेव अंगारक विद्याधरसे छूटकर चम्पापुरमें प्रविष्ट हुए और वहाँ चारुदत्त श्रेष्ठिकी पुत्री गन्धर्व सेनाको वीणावादनमें पराजित कर संगीत विद्याका उपदेश दिया ।
चार प्रकारके वाद्योंका निरूपण करते हुए बतलाया कि तत, अवनद्ध, धन और सुषिर वाद्य हैं। तार द्वारा बजाये जानेवाले वीणा आदि वाद्य तत; चमड़े से मढ़े मृदङ्ग आदि अवनद्ध, कांसे के बने झाँझ, मजीरा आदि घन एवं बाँसुरी आदि सुषिर कहलाते हैं " गन्धर्वको उत्पत्ति में वीणा वंश और गान ये तीन कारण हैं तथा स्वरगत तालगत और पदगत के भेदसे वह तीन प्रकारका माना गया है । वैण और शारीरके भेदसे स्वर दो प्रकार के हैं ।
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श्रुति, बृत्ति, स्वर, ग्राम, वर्ण, अलंकार, मूर्च्छना, धातु और साधारण आदि वैणस्वर के भेद माने गये हैं और जाति, वर्ण, स्वर, ग्राम, स्थान, साधारण क्रिया और अलंकार शरीर स्वरके भेद हैं । जाति, तद्धित, छन्द, सन्धि, स्तर, विभक्ति, सुबन्त, तिडन्त, उपसर्ग तथा वर्णं पदगत गान्धर्व की विधि हैं । २
अवाप, निष्काम, विक्षेप, प्रवेशन, शम्याताल, परावर्त, सन्निपात, सवस्तुक, मात्रा, अविदार्य, अंग, लय, गति, प्रकरण, यति, दो प्रकारकी गीति, मार्ग, अवयव, पदभाग और पाणि ये तालगत गान्धर्व के बाईस प्रकार हैं । इस प्रकार वाद्य सम्बन्धी गान्धर्वका प्रयोग कर वसुदेवने वीणा बजायी ।
प्रकारान्तरसे षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद ये सात प्रकारके स्वर बताये हैं । इन स्वरोंके प्रयोग के अनुसार बाबी, संवादी, विवादी और अनुवादी ये चार प्रकार हैं । मध्यम ग्राम में पञ्चम और ऋषभ स्वरका षड़ज ग्राममें, षड्ज तथा पञ्चम स्वरका संवाद होता है । षड्ज ग्रामके षड्ज स्वरमें चार, ऋषभमें तीन, गान्धार में दो, मध्यम में चार, पंचम में चार, , धैवतमें दो और निषाद में तीन श्रुतियाँ होती हैं ।
मध्यमग्रामके मध्य स्वरमें चार, गान्धारमें दो, ऋषभमें तीन, षड्जमें चार, निषादमें दो, धैवतमें तीन और पञ्चममें तीन श्रुतियाँ होती हैं । इस प्रकार षड्ज और मध्यम दोनोंग्रामों में बाईस बाईस श्रुतियाँ होती हैं । उक्त दोनों ग्रामोंको मिलकर १४ मूर्च्छनाएं भी बतलायी गयी हैं । इनमें षड्ज ग्राम की निम्नलिखित मूर्च्छनाएँ हैं
(१) उत्तरभद्रा (२) रजनी (३) उत्तरायता (४) शुद्धषड्जा ( ५ ) मत्सरीकृता (६) अश्वक्रान्ता (७) अभिरुद्गतो । मध्यमग्रामकी मूच्र्छनाओं में (१) सौवीरी, (२) हरिणाश्वा (३) कलोपनता (४) शुद्धमध्यमा ( ५ ) भार्गवी (६) पौरवी और ( ७ ) ऋष्यका हैं ।
षड्ज स्वर में उत्तरमन्द्रा, रिषभ, आधिरुद्गता, गान्धारमें अश्वक्रान्ता, मध्यममें मत्सरीकृता, पञ्चम में शुद्ध षड्जा, धैवतमें उत्तरायता और निषादमें रजनी मूर्च्छना होती है । ये मूच्र्छनाएँ षड्ज ग्राम सम्बन्धिनी हैं। मध्यम ग्रामके मध्यम, गान्धार, रिषभ, षड्ज, निषाद, धैवत और पंचमं स्वरमें क्रमसे सौवीरीको आदि लेकर वष्यका तक सात मूर्च्छनाएं होती हैं । अर्थात् मध्यममें सौवीरी, गान्धारमें हरिणाश्वा, ऋषभ में कलोपनता, षड्जमें शुद्धमष्ममा; निषादमें भार्गवी, धैवतमें पौरवी और पंचममें ऋष्यका मूर्च्छना होती है । इन १४ मूच्र्छनाओंके षाडव
९. वही १९ । १४२-१४३ २. वही १९ । १४७ - १४९
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औड़व, साधारण और काकलीके भेदसे चार-चार स्वर होते हैं। इस तरह इनके ५६ स्वर हो जाते हैं । जिसकी उत्पत्ति छह स्वरों से होती है. उसे षाड़व और जिसकी पांच स्वरोंसे उत्पत्ति होती है, उसे औड़व कहते हैं।
तानोंके ८४ प्रकार बतलाये हैं इनमें पांच स्वरोंसे उत्पन्न होनेवाली ३५ और ६ स्वरोंसे उत्पन्न होनेवाली ४९ प्रकारको तानें होती हैं । ग्राम जातियोंका वर्णन करते हुए षड्ज ग्रामसे सम्बन्ध रखनेवाली (१) षाड्जी (२) आर्षभी (३) धैवती (४) निषादजा (५) सुषड्जा (६) उदीच्यवा (७) षड्जकैशिकी और (८) षड्जमध्यमा ये आठ जातियां हैं एवं नीचे लिखी एकादश जातियाँ मध्यमग्रामके आश्रित हैं-(१) गान्धारी (२) मध्यमा (३) गान्धारोदीच्यवा (४) पञ्चमी (५) रक्तगान्धारी (६) रक्तपञ्चमी (७) मध्यमोदीच्यवा (८) नन्दयन्ती (९) कर्मारवी (१०) आन्ध्री (११) कैशिकी। दोनों ग्रामोंकी मिलाकर उन्नीस जातियाँ होती हैं । इन जातियों में मध्यमा, षड्जमध्यमा और पञ्चमी ये तीनों जातियां साधारण स्वरगत हैं । इन जातियोंके शुद्ध और विकृत दो भेद होते हैं। जो परस्पर मिलकर नहीं हुई हैं तथा पृथक्-पृथक लक्षणोंसे युक्त हैं वे शुद्ध कहलाती हैं । सो सामान्य लक्षणोंसे युक्त हैं, वे विकृत कहलाती हैं । विकृत जातियाँ दोनों ग्रामोंकी जातियोंसे मिलकर बनती हैं तथा दोनोंके स्वरोंसे आप्लुत रहती हैं।
मध्यमोदीच्यवा, षड्जकैशिकी, कर्मारवी और गान्धार पञ्चमी ये चार जातियां सात स्वर वाली हैं । षड्जा, आन्ध्री, नन्दयन्ती और गान्धारोदीच्यवा ये चार जातियां छह स्वर वाली हैं और शेष दश जातियाँ पाँच स्वर वाली हैं। नैषादी, आर्षभी, धैवती, षड्जमध्यमा और षड्जोदीच्यवती ये पांच जातियाँ षड्ज ग्रामके आश्रित हैं और गान्धारी, रक्ता गान्धरी, मध्यमा, पञ्चमी तथा कैशिको ये पाँच मध्यम ग्रामके आश्रित हैं । षड्ज ग्राम में सात स्वर वाली षड्जकैशिकी जाति होती है और गानके योगसे ६ स्वर वाली भी होती है । मध्यम ग्राममें सात स्वर वाली कर्मारवी, गान्धार पञ्चमी और मध्यमोदीच्यवा होती है और ६ स्वर वाली गान्धारोदीच्यवा, आन्ध्री एवं नन्दयन्ती जातियां होती हैं । जहाँ छह स्वर होते हैं, वहाँ षड्ज, मध्यम स्वर उसका सप्तांश नहीं होता है और संवादीका लोप हो जाने से वहाँ गान्धार स्वर विशेषताको प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार स्वरों की जातियोंका कथन विस्तार पूर्वक आया है।
तार, मन्द्र, न्यास, उपन्यास, ग्रह, अंश, अल्पत्व, बहुत्व, षाड़व और औड़वित्व ये दश जातियाँ बतलायी गयी हैं । राग जिसमें रहता है, राग जिससे प्रवृत्त होता है, जो मन्द्र अथवा तार मन्द्र रूप से अधिक उपलब्ध होता है, जो ग्रह, उपन्यास, विन्यास, संन्यास और न्यास रूप से अधिक उपलब्ध होता है, तथा जो अनुवृत्ति पायी जाती है, वह दश प्रकारका अंश कहलाता है । संचार, अंश, बलस्थान, दुर्बल, स्वरोंकी अल्पता और नानाप्रकारका अन्तरमार्गमें जातियोंको प्रकट करने वाले हैं । इस प्रकार जाति, अंश, ग्रह, न्यास आदिका विवेचन आया है। किस स्वरका कौन स्वर आरोही कौन न्यासी है कौन उपन्यासी है का विस्तार पूर्वक कथन आया है।
इस प्रकार वसुदेवने गन्धर्व शास्त्रका विवेचन प्रस्तुत किया है। तुम्बुरु, नारद, गन्धर्व अथवा किन्नरके रूपमें ऐसा वोणा वादन प्रस्तुत किया, जिसे सुनकर सभी आश्चर्य चकित रह गये और गन्धर्वसेनाने अपना पराजय स्वीकार किया।
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हरिवंशपुराणके २०वें सर्गमें घोषा, महाघोषा और सुघोषा इन तीन वीणाओंका उल्लेख मिलता है । गीत प्रस्तुत करने के समय वीणा या बाँसुरीकी संगत आवश्यक मानी जाती थी। लिखा है
अनुकर्ण मुनेस्तस्य वीणावंशादिवादिनः ।
मृदुगीताः सनारीकाः जगुर्गन्धर्वपूर्वकाः ॥ इस प्रकार हरिवंशपुराणमें संगीत शास्त्रके सभी प्रमुख तत्त्व उपलब्ध होते हैं।
रविषेणके पद्मपुराणके २४ वें पर्वमें कैकयीके शिक्षा वर्णन सन्दर्भ में संगीत शास्त्रके तत्त्वोंका कथन आया है। इसमें नृत्यके तीन प्रमुख भेद किये हैं। अङ्गहाराषय, अभिनयामय
और व्यायामिक । संगीतको अभिव्यक्ति, कण्ठ, सिर और उरस्थलसे बतायी है। सप्त स्वरोंको द्रुत, मध्य और विलम्वित इन तीन लयोंसे सहित तथा अस्र तथा चतुस्र इन तालकी दो योनियोंसे सहित बताया है। स्थायी, संचारी, आरोही और अवरोही ये चार प्रकारके पद बतलाये हैं । धैवती, आर्षभी, षड्जषड़जा, उदीच्या, निषादिनी; गान्धारी, षड्जकैकशी और षड्जमध्यमा ये आठ जातियां बतायी हैं। प्रकारान्तरसे गान्धारोदीच्या, मध्यम पञ्चमी, गान्धार पञ्चमी, रक्तगान्धारी, मध्यमा, आन्ध्री, मध्यमोदीच्या, कर्मारवी, नन्दिनी और कैशिकी ये दश जातियाँ हैं । संगीतमें आठ या १० जातियां और तेरह प्रकारके अलंकार आवश्यक माने हैं । प्रसन्नादि, प्रसन्नान्त, मध्य प्रसाद और प्रसन्नाद्यवसान ये चार स्थायी पदके अलंकार हैं । निर्वृत्त, प्रस्थित, बिन्दु, प्रेखोलित, तार, मन्द्र और प्रसन्न ये छह संचारो पदके अलङ्कार हैं। आरोही पदका प्रसन्नादि नामका एक ही अलंकार है और अवरोही पदके प्रसन्नान्त तथा कोहर ये दो अलंकार हैं ।
वाद्योंके तत, अवनद्ध, सुषिर और घन ये चार भेद बतलाये हैं । शृङ्गार, हास्य, करुण, वीर, अद्भुत, भयानक, रोद्र, बीभत्स और शान्त इन ९ रसोंका संचार गीत और वाद्य करते थे। इस प्रकार कैकेयीकी कलाभोंके शिक्षणमें संगीत शास्त्रके सिद्धान्तोंका पूर्णतः समावेश हुआ है । सामान्यतः भक्ति और उत्सवोंके अवसरोंपर संगीतको योजना पद्मपुराणमें सर्वत्र उपलब्ध होती है।
कथाकोष और अन्य चरित ग्रन्थों में भी गीत, वाद्य, और नृत्यके सम्बन्धमें उल्लेख प्राप्त होते हैं। इन उल्लेखोंसे ज्ञात होता है कि संगीतका प्रचार केवल सम्भ्रान्त वर्गमें ही नहीं था, किन्तु जनसामान्यमें भी संगीतकी ओर अभिरुचि विद्यमान थी। आदि पुराणमें प्रतिपादित संगीत गोष्ठियाँ इस बातकी सूचक हैं कि इन गोष्ठियोंमें राजसभाओंके व्यक्तियोंके अतिरिक्त जनसामान्य भी भाग लेते थे। गणिकाएं और वाराङ्गनाएं नृत्य एवं संगोतमें विशेष प्रवीण होती थीं। आदिपुराण, हरिवंशपुराण और पद्मपुराण इन तीनोंमें मंगल गीतोंके गानेका निर्देश आया है। इस निर्देशसे यह अनुमान लगाना सहज है कि मंगल गीतोंका प्रचार जनसामान्यमें भी था। जिस प्रकार आज कृषि या उत्सवोंके विभिन्न अवसरोंपर लोकगीत गाये जाते हैं, उसी प्रकार ८वीं ९वीं शताब्दी में मंगल गीत गानेकी प्रथा प्रचलित थी । पद्मपुराणमें बताया है
१. हरिवंश पुराण, २०वा सर्ग, पद्य ५५
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
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ततो मङ्गलगीतेन प्रमदानां नभस्तलम् । तूर्यनादस्य विच्छेदे शब्दात्मकमिवाभवत् ॥
मृदङ्गनिस्वनं काचिच्चक्रे करतलाहतम् ।
कुर्वाणा सलिलं मन्दं गायत्री षट्पदैः समम् ।। पद्मपुराणके नवम पर्व में रावणके सम्बन्धमें बताया है कि वह भगवान्की भावभक्ति में इतना लीन हो गया कि उसने अपने भुजाकी नाड़ीरूपी तन्त्री खींचकर वीणा बजायी और सैकड़ों स्तुतियोंके द्वारा जिनराजका गुणगान किया । वह गा रहा था कि नाथ, आप देवोंके देव हो, लोक और अलोकको देखनेवाले हो । आपने अपने तेजसे समस्त लोकको अतिक्रान्त कर दिया है। आप कृतकृत्य हैं, महात्मा हैं। तीनों लोक आपकी पूजा करते हैं । आपने मोहरूपी महाशत्रुको नष्ट कर दिया है। आप वचनागोचर गुणोंके समूहको धारण करनेवाले हैं । इस प्रकार भक्ति विभोर गाते हुए रावणसे धरणेन्द्र आकृष्ट हुआ और उसके गीतकी प्रशंसा करने लगा--
जगाद रावणं साधो साधु गीतमिदं त्वया ।
जिनेन्द्रस्तुतिसम्बद्धं रोमहर्षणकारणम् ॥ संस्कृत काव्योंमें संगीत तत्त्व
___ जैन कवियोंमें जीवनके सौन्दर्य और भोगपक्षकी अवहेलना नहीं की गयी है। इनमें कला और काव्यका सुन्दर समन्वय दिखलाया गया है। संगीत और काव्यका मुख्य उद्देश्य मनोरंजनके साथ ज्ञान प्राप्त करना है। संस्कृतके सभी जैनकाव्योंमें आया है कि मनोरंजनके विभिन्न अवसरोंपर गायन-वादनका आयोजन किया जाता था। मन्त्र और श्लोक सुर-ताल
और लयके योगसे उच्चरित होनेपर संगीतका सृजन करते हैं। श्रुति, स्वर, वाद्य, ग्राम, मूर्च्छना, तान, राग-रागिनियोंका विनियोग, नर्तन आदि संगीतके सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं । राग, ताल, नृत्य, भाव एवं हस्त आदिके विविध संकेत भी काव्योंमें उपलब्ध होते हैं । संगीतके प्रमुख तीनों अङ्गोंका ही पर्याप्त विवेचन मिलता है । वाद्य संगीतके प्रसंगमें अनेक प्रकारके वाद्योंका नाम निर्देश मिलता है। कवि वर्धमानने अपने वरांगचरितमें लिखा है--
भेरीमृदङ्गकंसालकाहलाशङ्खवेणवः । ढक्कापणवतूर्याणि शृङ्गाणि पटहादयः॥ वरांगचरित, ८५१०१
मृदङ्गकाहलाभेरीतालशङ्खरवैरमी।
मेघगम्भीरनिर्घोषान्निराकुर्वन्ति सर्वदा ॥ वरांगचरित, ११।६२ अर्थात् भेरी, मृदंग, कंसाल, काहला, शंख, वेणु, ढक्का, पणव, तूर्य, शृङ्ग, पटह, ताल-तांसा आदि वाद्य हैं । इन वाद्यों को मनोरम ध्वनि श्रोताओं को विह्वल कर देती है। १. हरिवंश पुराण, ८।२०,९८ २. पद्मपुराण, ९।१९६
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
वाद्य ध्वनि का प्रयोग अनेक प्रकार से होता था । मंगल अवसरों पर वाद्य ध्वनि होती थी, जिससे हर्ष और आनन्दका संचार किया जाता था । युद्धके अवसरपर की जाने वाली air soft सैनिकों में वीरताका संचार करती थी । हम्मीर काव्यमें बताया गया है कि गोरीने' वाद्य बजाने वालों को घूस देकर विपरीत वाद्य बजाने को कहा । इस विपरीत ध्वनिको सुनकर हम्मीर देव घोड़े नृत्य करने लगे । वीरताकी अपेक्षा उनमें शृंगार और ललित रसका संचार हो गया था।
२
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पार्श्वनाथ चरित में वादिराजने वल्लकी, पटह, उल्लेख किया है | महाकवि असगने अपने वर्धमान चरितमें है । इस दोनों वाद्यों का प्रयोग प्रातःकाल अथवा मंगलोत्सव के अवसर पर हो होता था ।
५
वेणु, " वीणा की मधुर ध्वनियोंका तूर्य और शंखको मंगल वाद्य कहा
धर्मशर्माभ्युदय' में बताया गया है कि मृदंग और झल्लरीकी मंगल ध्वनिके बीच धर्मनाथ का अभिषेक सम्पन्न हुआ । संगीत्त प्रारम्भ होनेके पूर्व मृदंग ध्वनिका होना आवश्यक माना गया है । वाद्य वाद्य-समूह के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसकी गणना प्रातःकालीन मंगल सूचक वाद्यों में की गयी । बन्दीजन, शयन गृहके द्वारपर स्थित होकर तूर्य वाद्य द्वारा मधुर संगीतसे राजाओं की निद्राको दूर करते थे ।
जयशेखरसूरिने जैनकुमारसम्भव [ ७।७२ ] में वीणाका उल्लेख किया है । इस काव्य के संस्कृत टीकाकार धर्मशेखरने नकुलोष्ठी, किन्नरी, शततन्त्री, जया, हस्तिका, कुब्जिका, कच्छपी, घोषवती, सारंगी, उदुम्बरी, तिसरी, ढिबरी, परिवादिनी और आलाविणी-इन चौदह प्रकारकी वीणाओंका नाम निर्देश किया है। वीणाओंके इस निर्देश से यह ध्वनित होता है कि प्राचीन भारत में वीणा वाद्य प्रमुख था । महाकवि हरिचन्द्र, वीरनन्दि, धनञ्जय आदिके उल्लेखोंसे भी यह स्पष्ट है कि वीणा वादन द्वारा विभिन्न प्रकारके स्वरों की लहरोंसे राग-रागिनियाँ उत्पन्न की जाती थीं । तानपूरा और सितार इन्हीं वीणा-भेदों के अन्तर्गत समाविष्ट थे । धर्मशेखरने वीणाके विभिन्न अंगोंका भी कथन किया है । तुम्बा, तबली, घुरच, कील, डाँड, गुल, अटी, खूंटियाँ, शिरा, मनका, तार आदिका भी कथन आया है ।
गानेवाली स्त्रीको साधित स्वर गुणवाली कहा गया है। टीकाकारने साधित स्वर गुण की व्याख्या करते हुए सात स्वर, तोन ग्राम, २१ मूर्च्छना और ४९ तानका गीतमें रहना माधुर्य सूचक माना है । सुस्वरा, सुताल, सुपद, शुद्ध, ललित, सुबद्ध, सुप्रमेय, सुराग, सुरम्य, सम, सदर्थ, सुग्रह, हृष्ट, सुकाव्य, सुयमक, सुरक्त, सम्पूर्ण, सालंकार, सुभाषा, भव्य, सुसन्धि, व्युत्पन्न, गम्भीर, स्फुट, सुप्रभ, अग्राम्य, कुंचित कम्पित, समायात, ओज, प्रसन्न, स्थिर, सुख स्थानक, हृत, मध्य, विलम्बित, द्रुत बिलम्बित, गुरुत्व, प्राञ्जलत्व और उक्त प्रमाण ये ३६ गीत गुण बतलाये हैं ।
१. हम्मीर काव्य - नयचन्द्र, ३।५४,
३. वादिराज कवि, पार्श्वनाथ चरित, ९।८४,
५. वही, ११।३३,
७. वर्धमान चरित, ६ |३७|
९.
वही, १७६,
२. वही, ३।५९-६०
४. वही १० ६९,
६. वही, ११।३३
८. धर्मशर्माभ्युदय - ८ ४५,
१० चन्द्रप्रभचरित १० । ६२
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
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पद्मानन्द काव्यमें सप्तस्वरोंका बहुत सुन्दर निरूपण किया गया है। बताया है कि मयूरकी ध्वनि के समान षड्ज स्वर, बकरीकी ध्वनिके समान कोमल गान्धारर
१
गान, क्रौंचपक्षी hot saf समान मध्यम स्वर, वसन्तके समय कोकिलाके गानके समान पंचम स्वर, घोड़ेके हींसने की ध्वनिके समान मनोरम धैवत" स्वर, हथिनीको काम-विह्नल करनेके समय हाथी द्वारा की जाने वाली मनोरम चिंघाड़े ध्वनिके समान निषाद स्वर और गाय या वृषभकी डकारके समान ऋषभ स्वर होता है । इन सप्त स्वरोंका आरोह-अवरोह मनोरम और मधुर संगीतका सृजन करता है । इसी काव्यमें बताया है कि वीणादि वाद्यों से तत ध्वनि, तालादिसे घन ध्वनि, वंशादिसे सुषिर ध्वनि और मूर्जादिकसे आनन्द ध्वनि उत्पन्न होती है ।
गीतके नियमों का वर्णन करते हुए पद्मानन्द काव्यके लेखक अमरचन्द्रने बताया है कि गीत आदिमें नकार, मध्य में घकार और अन्तमें हकारका निषेध है । आदिमें नकारके रहनेसे गायक और श्रोताका सर्वस्व नष्ट हो जाता है । मध्यमें घकारका प्रयोग रहनेसे घात होता है और अन्त में हकारके रहनेसे लक्ष्मीका विनाश होता हैं । लिखा है
उद्गानादौ नकारो न मध्ये धकार एव च । अन्ते हकारो नाकार्यस्त्रयो गीतस्य वैरिणः ॥
गाने के समय एकाग्रचित्त होना आवश्यक माना गया है। कण्ठका कोमल होना एवं मूर्च्छना के समय दृष्टिका संकोचन और गलेमें लोच रहना माधुर्य गुणका अभिव्यंजक है । वाद्य और नृत्यके संयोगका चित्रण अनेक स्थलोंपर आया है। महाकवि धनञ्जयने लिखा है - " मंगलके लिए बजाये गये पटह आदि वाद्य जोर-जोर से बजने लगे । वेश्याओंके झुण्डके झुण्ड राजमहलपर आकर नृत्य करने लगे । नृत्योंके आचार्य नट, गायनाचार्य तथा अभिनयाचार्योंके कुशल वंशधर आकर मंगल पाठ कर रहे थे ।" स्पष्ट है कि वाद्य पूर्वक नृत्य सम्पन्न होता था । वाद्योंकी ध्वनि के आधारपर ही पद ध्वनिका संचालन किया जाता था । वादिराजने गीत, नृत्य और वाद्यका उल्लेख करते हुए बतलाया है - " गोपियाँ सुन्दर वेणुओंके शब्दोंसे प्रतिध्वनित कोमल मधुर गीत गाने लगीं और हर्ष विभोर होकर नृत्य करने लगीं ।" हम्मीर काव्यमें धारा देवीके मयूर नृत्यका वर्णन आया है । वर्धमान चरितमें अलसायी हुई वधुओंके नृत्यका निर्देश है । पद्मानन्द काव्य में हल्लीसक— हेलया लक्ष्यते नृत्यतेऽस्मिन्निति हल्लीसकं—स्त्रीणां मण्डलेन नृत्यम्—अर्थात् स्त्रियाँ मण्डलाकार रूपमें जो नृत्य करती हैं, का कथन किया है। लास्य नृत्यका कथन भी इसी पद्य में है । गाते हुए नृत्य करनेका निर्देश जैन कुमारसम्भवमें आया हैं—
१०
२. वही ८।६१, ४. वही ८।६३
१. पद्मानन्द ८७,
३. वही ८६२,
५. वही ८।६४,
७. वही ८।६६
९. पार्श्वनाथ चरित ४। १३४- १३५
१०. पद्मानन्द - ९।१०२
६. वही, ८।६५,
८. द्विसन्धानकाव्य, ४।२२ तथा ४।२४
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२३८ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
सुश्रुताक्षरपथानुसारिणी ज्ञातसंमतकृताङ्गिकक्रिया ।
आत्मकर्मकलनापटुर्जगौ कापि नित्यनिरता स्वमार्हतम् ।। प्रद्युम्न चरितमें महासेनने "नृत्यप्रगीतैरुरुजयनिनदैर्वशवीणामृदंगः" (प्रद्युम्न चरित-१४॥ ४७) में संगीत और वाद्य पूर्वक नृत्य करनेका उल्लेख किया है। मौनरूपमें भावोंका प्रदर्शन करनेके लिए वाद्य ध्वनिके साथ भी नृत्य किया जाता था। यशोधर चरितमें वादिराजने मौन नृत्य और गीत नृत्य इन दोनोंका पृथक उल्लेख किया है । मनोहर गीत ध्वनि पूर्वक सरस नृत्य किये जानेको गीत नत्य और अंगाभिनयको प्रदर्शित करते हुए भावावलीका प्रकटीकरण मौन नृत्य है । वाद्य ध्वनि का प्रयोग दोनों ही प्रकारके नृत्योंमें किया जाता है ।
क्षत्रचूडामणि और गधचिन्तामणि-इन दोनों ही काव्योंके तृतीय लम्बमें वीणा स्वयंवरका उल्लेख आया है । बताया है कि राजपुरी नगरीका श्रीदत्त सेठ जहाजी बेड़ा लेकर व्यापारके लिए गया। वह सामान लेकर लौट रहा था कि उसका जहाज समुद्रमें डूबने लगा। उसे वहाँ एक स्तूप मिला जहाँ एक व्यक्ति छिपा हुआ था। उसने कहा-"यह गान्धार देश है । यहाँ की नित्यालोका नगरीमें गरुड़ वेग विद्याधर राजा रहता है। इसको पुत्री गन्धर्वदत्ता है । जन्मके समय ज्योतिषियोंने भविष्यवाणी की है कि राजपुरी नगरीमें जो इसे वीणावादनमें पराजित करेगा वही इसका पति होगा । आपका जहाज डूबा नहीं है । आपको यह भ्रम हुआ है । आप गन्धर्वदत्ताको अपने जहाजमें बैठाकर राजपुरी ले चलिये" ।
गरुड़वेग विद्याधर राजाके अनुरोधसे श्रीदत्तने गन्धर्वदत्ताको अपने जहाजमें बैठाकर राजपुरीमें ले आया । यहाँ काष्ठांगारकी स्वीकृतसे स्वयंवरकी योजना की गयी जिसमें वीणावादनकी शर्त रखी गयी । जो राजकुमार गन्धर्वदत्ताको वीणावादनमें पराजित कर देगा उसीके गले में वह वरमाला डालेगी और उसीके साथ गन्धर्वदत्ताका विवाह होगा । देश-विदेशके अनेक राजकुमार इस स्वयंवरमें सम्मिलित हुए, पर सभी गन्धर्वदत्ता द्वारा पराजित किये गये । अन्त में जीवन्धर कुमारने अपनी घोषवती वीणा बजायी और गन्धर्वदत्ताको पराजित कर उसके साथ विवाह किया । गद्य चिन्तामणिमें लिखा है-'तेन च श्रवणसुभगगीतिगर्भमुद्भूतरागमनुगतग्रामं वादयता वल्लकों विजिग्ये विद्याधरराजतनया ।"
जैन संस्कृत काव्योंमें ग्राम्य गीतोंका भी निर्देश आया है। प्रायः सभी काव्योंमें कृषि की रक्षा करती हुई गोपांगनाएं मधुर स्वरसे गीत गाती हैं । इनके गीतोंका श्रवण करनेके लिए पथिक रास्ता चलना छोड़कर गोत सुनते रहते हैं । कृषक बालाओंकी कोमल कण्ठ ध्वनि सुनकर सूर्य और चन्द्रके विमान भी रुक जाते हैं । उनको स्वरतन्त्री इतनी मधुर और लयपूर्ण होती है जिससे गीत सुननेमें परमानन्दको प्राप्ति होती है । राग जनमानसको असीम आनन्दसे भर देता है। वस्तुका सौन्दर्य गोत और वाद्योंके माध्यमसे अलौकिक आनन्दका सृजन करता है । भोली कृषक अंगनाएँ भी संगीतको सप्राण बनानेके लिए सौन्दर्यको भावका मूल कारण बताया है। उनके संगीतमें हृदयको स्पर्श करने तथा हृद्तन्त्रियोंको झंकृत करनेकी अपूर्व
२. जैन कुमारसम्भव-१०।६१
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएं
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क्षमता रहती है। गीत प्रबन्धोंका प्रचार भी इन काव्योंके समयमें था। इस प्रकार संस्कृत भाषाके जैनकाव्योंमें संगीतके प्रमुख तत्त्व स्वर, स्वरके तीव्र तथा कोमल भेद, शुद्ध और विकृत भेद, उत्तरी और दक्षिणी स्वर पद्धतियां, श्रुतिस्वर, रागके तीव्र, मन्द और तीव्रता भेद, स्वर सप्तकोंके विभिन्न सप्तक आदि पाये जाते हैं। प्राकृत और अपभ्रंश काव्योंमें संगीतके सिद्धान्त
प्राकृत साहित्यमें सर्वप्रथम हम जैन आगमोंको लेते हैं । स्थानाङ्ग सूत्रमें सप्तसंख्याका विश्लेषण करते हुए षड्ज, ऋषभ, गान्धार आदि सात स्वरोंका एवं रागोंका कथन आया है। अङ्गबाह्य आगमके राजपसेणीय सूत्रमें संगीतका विशिष्ट वर्णन आया है । ५९वें सूत्रसे लेकर ८५वें सूत्र तक संगीतके तत्त्व वर्णित हैं । वाद्योंमें शंख,ग, शृङ्खिका, खरमुही (काहला) पेया (महती काहला) पिरिपिरिका (कोलिकमुखावनद्य मुखवाद्य) पणव (लघुपटह), पटह, भंभा (ढक्का) होरम्भा (महाढक्का) भेरी (ढक्काकृतिवाद्य) झल्लरी (खजरी) दुन्दुभि, मुरज, मृदंग, नन्दीमृदङ्ग (एकतः संकीर्णः अन्यत्र विस्तृतो मुरजविशेषः) आलिङ्ग (गोपुच्छाकृतिमृदंग कुस्तुंब, गोमुखी, मरदल, वोणा, विपञ्ची (त्रितन्त्रीवोणा) वल्लकी, महती, कच्छपी, चित्रवीणा, बद्दीस, सुघोषा, नन्दीघोषा, भ्रामरी, षड्भ्रामरी, बरवादिनी (सप्ततन्त्रोवीणा) तूणा (तुम्बयुक्तवीणा) आमोद, झंझा, नकुल, मुकुन्द (मुरजवाद्यविशेष), हुडुक्का, विचिक्की, करटा, डिण्डिम, किणित, कडम्ब, दरदर, दरदरिका, कलशिका, महुया, तल, ताल, कांस्यताल, रिंगिसिका, लत्तिया, मगरिका, शिशुमार्थिका, वंश, वेणु, बालि (तूणविशेष) परिलो और बद्धकक नाम आये हैं।
नाट्य विधियोंमें ३२ प्रकारको नाट्य विधियां बतलायी हैं। इन विधियोंमें गीत और नृत्य दोनोंका उपयोग किया जाता था।
१. स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त्त, बद्ध मानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पणके दिव्य अभिनय।
२. आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमानव, वर्द्ध मानक, मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जार, मार, पुष्पावलि, पद्मपत्र, सागरतरंग, वसन्तलता और पद्मलताके चित्रका अभिनय ।
३. ईहामृग, वृषभ, अश्व, नर, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु, शरभ, चमर, कुञ्जर वनलता और पद्मलताके चित्रका अभिनय ।
४. एकतोवक्र, द्विधावक्र, एकतश्चक्रवाल, द्विधाचक्रवाल, चक्राध, चक्रवाल आदिका अभिनय ।
५. चन्द्रावलिका प्रभिभक्ति, सूर्यावलिकाप्रभिभक्ति, हंसावलिकाप्रभिभक्ति, एकावलिकाप्रभिभक्ति, तारावलिका प्रभिभक्ति, मुक्तावलिकाप्रभिभक्ति, कनकावलिकाप्रभिभक्ति और रत्नावलिकाप्रभिभक्ति ।
१. गद्य चिन्तामणि, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पृष्ठ-१८०
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
६. चन्द्रोद्गमन दर्शन और सूर्योद्गमनदर्शनका अभिनय । ७. चन्द्रागम दर्शन और सूर्यागम दर्शनका अभिनय । ८. चन्द्रावरण दर्शन और सूर्यावरण दर्शनका अभिनय । ९. चन्द्रास्तदर्शन और सूर्यास्तदर्शनका अभिनय ।
१०. चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, नागमण्डल, यक्षमण्डल, भूतमण्डल, राक्षसमण्डल बोर गन्धर्वमण्डलके भावोंका अभिनय ।
११. द्रुत, विलम्बित अभिनय इसमें वृषभ और सिंह तथा अश्व और गजकी ललित गतियोंका अभिनय किया जाता है ।
१२. सागर और नागरके आकारोंका अभिनय । १३. नन्दा और चम्पाका अभिनय । १४. मत्स्याण्ड, मकराण्ड, जार और मारकी आकृतियोंका अभिनय । १५. कवर्गकी आकृतियोंका अभिनय । १६. चवर्गकी आकृतियोंका अभिनय । १७. टवर्गकी आकृतियोंका अभिनय । १८ तवर्गकी आकृतियोंका अभिनय । १९. पवर्गकी आकृतियोंका अभिनय । २०. अशोक, आम्र, जम्बू, कोशम्बके पल्लवोंका अभिनय ।
२१. पद्मनाग, अशोक, चम्पक, आम्र, वन, वासन्ती, कुन्द, अतिमुक्तक और श्यामलताका अभिनय ।
२२. द्रुतनाट्य । २३. विलम्बित नाट्य । २४. द्रुतविलम्बित नाट्य । २५. अञ्चित । २६. रिभित। २७. अञ्चिरिभित । २८. आरभट्ट । २९. भसोल (भ्रमरनाठ्य) ३०. आरभट्टभसोल ।
३१. उत्पात, निपात, संकुचित, प्रसारित, रेचक, रेचित, भ्रान्त और सम्भ्रान्त क्रियाओंसे सम्बन्धित अभिनय ।
३२. तीर्थकरके पञ्चकल्याणकोंका अभिनय ।
इसी ग्रन्थमें उत्क्षिप्त, पादान्त, मन्द और रेषित गीतके भेद भी भाये है । इन गीतोंका गायन सप्तस्वर, अष्टरसयुक्त, छहदोष रहित और आठ गुण सहित किया जाता था। वाद्योंके अनेक उल्लेख, कल्पभाष्य, भगवतीसूत्र, जीवाभिगमसूत्र, जम्बूहीपप्रज्ञप्ति, भनुयोग द्वारसूत्र और निर्णय सूत्रमें आये हैं । संगीतके सिद्धान्तोंको अवगत करनेके लिये अनुयोगद्वारसूत्र विशेष उपयोगी है। बताया है
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
सज्जे रिसहे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे । धेवए चेव नेसाए, सरा सत्त विआहिया ॥ एएसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरट्ठाणा पराणत्ता, तं जहा
सज्जं च अग्गजीहाए, उरेण रिसहं सरं । कंठुग्गएण गंधारं, मज्झजीहाए मज्झिमं ॥ नासाए पंचमं बूआ, दंतोट्टेण अ घेवतं । भमुहक्खेवेण सायं, सरट्ठाणा वि आहिआ ॥ सत्तसरा जीवणिस्सिआ पण्णत्ता,
तं जहा
सज्जं रवइ मऊरो, कुक्कुडो रिसभं सरं । हंसो रवइ गंधारं, मज्झिमं च गवेलगा ॥ अह कुसुम-संभवे काले, कोइला पंचमं सरं । छट्ठे च सारसा कुंचा, नेसायं सत्तमं गओ ॥ सत्तसरा अजीवणिस्स पण्णत्ता, '
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अर्थात् षड्जस्वरका उच्चारण अग्र जिह्वासे होता है । उरसे ऋषभ, कण्ठसे गान्धार, मध्यम जिह्वा से मध्यम, नाकते पञ्चम, दन्तोष्ठसे धैवत और भ्रूविक्षेपसे निषाद स्वर निक
है।
मयूरकी ध्वनिके समान षड्ज, मुर्गाकी ध्वनिके समान ऋषभ, हंसकी ध्वनिके समान गान्धार, मेषकी ध्वनि के समान मध्यम, वसन्त ऋतुमें बोलनेवाली कोकिला के समान पञ्चम, सारसको ध्वनिके समान धैवत और गज ध्वनिके समान निषाद स्वर होता है ।
are safaयोंसे निकलने वाले स्वरोंका वर्णन करते हुए लिखा है- मृदङ्ग ध्वनिसे षड्ज, गोमुखी वाद्यसे ऋषभ, शंखसे गान्धार, झालर से मध्यम, गोधिका नामक वाद्य विशेषसे पञ्चम स्वर, आडम्बर नामक वाद्यसे धैवत और महाभेरीसे निषाद स्वर तुल्यता रखता है । गीत, वाद्य और स्वरोंकी विशेषताओंका वर्णन करते हुए बताया है कि षड्ज स्वरसे गायन आरम्भ करनेपर श्रोताओंको विशेष रुचि होती है और इस स्वरके गाने में नारियाँ प्रवीण होती हैं । ऋषभ स्वरसे गायन आरम्भ करनेपर यश, कीर्ति प्राप्त होती है । गान्धार स्वरसे गीत आरम्भ करनेपर विद्याओं और कलाओंकी प्राप्ति होती है । मध्यम स्वरसे गीत आरम्भ करनेपर सुखशांति, पञ्चम स्वरसे गीत आरम्भ करनेपर भी आनन्दकी प्राप्ति होती है । धैवत और निषाद गीत आरम्भ करनेमें त्याज्य हैं । सप्त स्वरोंके तीन ग्राम बतलाये गये हैं- षड्ज ग्राम, मध्यम ग्राम और गान्धार ग्राम । षड्ज ग्रामकी सात मूर्च्छनाएँ भी बतलायी हैं और उनके नाम भी दिये हैं । मध्यम ग्रामकी भी सात मूर्च्छनाएँ हैं और गान्धार ग्रामकी भी सात मूर्च्छनाएँ बतयी हैं । इस प्रकार २१ मूर्च्छनाओंका नाम निर्देश आया है ।
१. अनुयोगद्वार सूत्र, व्यावर संस्करण, सूत्र १२७ ॥
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
___ इसके अनन्तर बताया है कि गोतको योनि क्या है ? कितने उश्वास होते हैं और गीतमें कितने आगार हैं तथा सप्त स्वरोंका स्थान क्या है ? गीतके गुण और दोष भी बतलाये गये हैं । छह दोषों और आठ गुणोंका कथन करते हुए लिखा है
भीयं दुअं उप्पिच्छं, उत्तालं च कमसो मुणेअव्वं । कगस्सर मणुणासं छद्दोसा होंति गेअस्स ॥ पुण्णं रत्तं च अलंकि, च वत्तं च तहेवमविघुटुं ।
महुरं समं सुललिअं अट्ठगुणा होति गेअस्स' ॥ भीत, द्रुत, उत्क्षिप्त, उत्ताल, काक स्वर और चित्त चञ्चलता ये छह दोष गीतके हैं । पूर्ण, रक्त, अलंकृत, वृत्त, अवधुट्टित, मधुर, सम और सुललित ये आठ गुण गीत के हैं।
__उर, कण्ठ, सिर, विशुद्ध, मृदु, रिभित, पदबद्ध, समताल द्वारा वाद्य ध्वनिका क्षेपण इस प्रकार सप्तस्वर रसभरित गीत होता है।
अक्षरसम, पदसम, तालसम, लयसम, गेय, गेहसम, उश्वास-निःश्वास सम और संचार सम ये सात स्वर भी गीतके बतलाये गये हैं । निर्दोष, सारयुक्त, हेतुयुक्त, अलंकृत, उपनीति, सोपकार, मृदु, मधुर और मधुर ये गुण भी गीत में रहने चाहिये । इसी सूत्रके विवेचनमें संगीतके तत्त्वोंका उपसंहार करते हुए लिखा है
सत्त सरा तओ गामा, मुच्छणा इक्कवीसइ ।
ताणा एगणपण्णासं, सम्मत्तं सरमंडलं ॥ अर्थात् सप्तस्वर, तीन ग्राम, २१ मूच्छनाएँ और ४९ तान स्वर मंडलमें होती हैं । इस प्रकार आगम सूत्रोंमें संगीतके सिद्धान्त निबद्ध मिलते हैं ।
आगमोत्तर साहित्यमें वसुदेवहिण्डी, पउमचरियं, समराइच्चकहा, कुवलयमाला आदि ग्रन्थोंमें भी संगीतके सिद्धान्त निहित हैं । वसुदेवहिण्डोमें वसुदेव, यशोभद्रा, गन्धर्वसेना आदिके आख्यानोंमें गीत, वाद्य और नृत्यका कथन आया है।
आख्यानोंको प्रभावोत्पादक बनानेके लिए नृत्य, अभिनय, गीत आदिकी पर्याप्त योजना की गयी है। वसुदेवहिण्डीके आख्यानोंसे यह स्पष्ट है कि गीत, वाद्य, नृत्य, उदक वाद्य, वीणा, डमरू आदिकी शिक्षा कन्याओंको दी जाती थी । वीणा, वंशी, दुन्दुभी, पटह आदि वाद्योंका विशेष प्रचार था।
___'पउमचरियं में कैकेयीकी शिक्षाके अन्तर्गत नाट्य और संगीतको विशेष स्थान दिया है। लिखा है
नर्से सलक्खणगुणं, गन्धव्वं सरविहत्तिसंजुत्तं ।
जाणइ आहरणविही, चउव्विहं चेव सविसेसं ।। १. अनुयोगद्वार, व्यावर संस्करण, सूत्र १२७ २. वही, सूत्र १२७ ३. पउमचरियं, प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी सीरीज, वाराणसी, डा० एच० जैकोबी द्वारा सम्पा.
दित सन् १९६२ ई० पृष्ठ-२१३ पद्य संख्या-५ ।
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ इसके अतिरिक्त अनेक स्थानोंपर गीत, वाद्य, नृत्यका वर्णन आया है। बताया है कि जो जिनमंदिरमें गीत-वाद्य एवं नृत्यसे महोत्सव करता है, वह देव होकर उत्तम विमानमें वास करता हुआ परम उत्सव प्राप्त करता है । यथा
गन्धव्व-तूर-नटूं, जो कुणइ महस्सवं जिणाययणे ।
सो वरविमाणवासे, पावइ परमुस्सवं देवो' । 'समराइच्चकहा' में बहत्तर कलाओंका निर्देश आया है और बताया है कि नृत्य, गीत, वादित्र, पुष्करंगत और समताल-ये संगीतके अन्तर्गत थे। उत्सवों और त्यौहारोंके अवसर पर राजा, महाराजा, सेठ, सामन्तके अतिरिक्त साधारण जनता भी गीत नृत्यका आनन्द लेती थी । लोग अपनी-अपनी टोलियां बनाकर गाते-नाचते और आनन्द मनाते थे । इस ग्रंथमें वाद्य, नाट्य, गेय और अभिनय-ये संगीतके चार भेद बतलाए गए हैं। गुणसेन अपने साथियोंकी टोली द्वारा गायन वादन करता हुआ अग्निशर्माको चिढ़ाता है। समराइच्च कहाकी कथाका आरम्भ ही संगीतसे होता है और अन्तिम भवकी कथामें समरादित्यको संसारकी ओर उन्मुख बनानेके लिए उनके मित्र संगीत गोष्ठियोंकी योजना करते हैं । जिन गोष्ठियोंमें वीणा-वादन अभिनय एवं गीत गोष्ठी विशेष रूपसे आयोजित की जाती है। वाद्योंमें पटह, मृदंग, वंश, कांस्यक. तन्त्री, वीणा, दुन्दुभी, तूर्य आदि प्रधान हैं । विवाह, जन्मोत्सव, सामाजिक उत्सव आदि अवसरोंपर संगीतकी योजना की जाती थी । प्राकृतके सभी कथा ग्रंथों में गीत वाद्य और नृत्यका उल्लेख आता है । अपभ्रंश साहित्य जीवन्त है। इसमें समाजका जैसा सजीव चित्रण आया है वैसा अन्यत्र मिलना कठिन है । पुष्पदन्त, वीर, पद्मकीर्ति, धनपाल आदि सभी कवियोंने गीत वाद्य और नृत्यका उल्लेख किया है। पासणाहचरिउमें पद्मकीर्तिने लिखा है
महाणंदि णं णंदि घोसं सुघोसं झझवं झिझीवं रणंतं ठणंटं । वरं सुन्दरं सुन्दरंगं वरंग पसत्थं महत्थं विसालं करालं। हयाटट्टरी मद्दल ताल कंसाल उप्फाल कोलाहलो ताबिलं । काहलि भेरि भंभेरि भंभारवं भासुरा वीण-वंसा-मुढुंगारओ। सूसरो संख-सद्दो हुडुक्का कराफालिया झल्लरी रुंज सद्दालओ। बहु-विह-तूर-विसेसहिं मंगल-घोसहि पडिबोहिय गन्भेसरि ।
उट्ठिय थिय सीहासणि पवर-सुवासिणि वम्मदेवि परमेसरि ॥
इस काव्य ग्रन्थमें विभिन्न वाद्योंके साथ अभिनय और गीतोंका भी कथन आया है । पार्श्वनाथके जन्माभिषेकके अवसरपर देवोंने जो संगीत प्रस्तुत किया है वह आजकी संगीत गोष्ठियोंसे अधिक महत्त्वपूर्ण है । विभिन्न वादक गायकोंकी संगति करते हैं और उनके स्वरके अनुसार वाद्योंका स्वर प्रस्तुत करते हैं
१. वही, पृष्ठ-२६०, पद्य संख्या-८४ । २. पासणाहचरिउ, प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी सीरीज, वाराणसी सन् १९६५ ई०, प्रो० प्रफुल्ल
कुमार मोदी द्वारा सम्पादित, पृ०-६२, संधि ८-७ ।
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
तहि कालि विविह हय पवरतूर, भविया यण-जण-मण- आस -पूर | केहिमि आऊरियधवल संख, पडु पडह घंट हयतह असंख । केहिमि अप्फालिय महुर- सद्द, ददुरउ भेरि काहल भउछ । केहिंमि उव्वेलिउ भरह· सत्थु णव रसहिं अट्ठ-भावहिं महत्थु । केहिमि आलाविउ वीण-वाउ, आढत्तु गेउ सूसरु ससउ । केहिमि उग्घोसिउ चउपयारु, मंगलु पवित्तु तइलोय -सारु । केहि मिकिय सत्थियवरचउक्क, बहुकुसुम-दाम-गयण-यल-मुक्क । केहिमि सुरेहिं आलविवि गेउ, णच्चिउ असेसु जम्माहिसेउ' ।
ar कवि वीरता वृद्धि करने वाले वाद्य और गीत ध्वनिका सुन्दर चित्रण किया है । युद्ध वाद्यों को सुनकर कायर व्यक्ति भी शूरवीर हो जाते थे और उनके हृदयमें भी वीरताकी लहर उत्पन्न हो जाती थी । इस ग्रंथमें पटह, तरड, मरदल, वेणु, वीणा, कंसाल, तूर्य, मृदङ्ग, दुन्दुभी, घण्टा, झालर, कालह, किरिरि, ढक्का, डमरू, तक्खा, खुन्द, तटखुन्द आदि वाद्योंके नाम आये हैं। इन वाद्योंकी ध्वनियोंका निर्देश भी पंचम सन्धिमें किया गया है-
पहय पडुपडह पडिरडिय दडिडंबरं, करडतडतड - तडिवडण फुरियंवरं । घुमुषुमुक्क घुमुधुमियमद्दलवर; सालकंसालसलसलिय - सुललियसरं । डक्कडमडक्क - डमडमियडमरुब्भडं; घंट- जयघंट- टंकाररहसियभउं । ढक्कत्रं त्रं हुडुक्कावलीनाइयं, रुंज गुंजंत - संदिण्णसमघाइयं । थगगदुग-थगगदुग-थगगदुग सज्जियं, किरिरिकिरि-तट्टकिरिकिरिरि किरवज्जियं । तखिखितखि-तक्खि-तखितत्तासुन्दरं, तदिदिखुदि- खुदखुद खुद भाभासुरं । थिरिरि-कटतट्टकट थिरिरिकट नाडियं, किरिरि तटसुखं तटकिरिरि-तडताडियं । पहय-समहत्य-सुपसत्यवित्थारियं, मंगलं नंदिघोसं मनोहारियं । तूरसद्देण चलियं महाकलयलं, रायराएण सह चाउरंगं बलं ।
९. वही, पृ० -- ६७, संधि - ८ १८ । २ . वही ४१९ ।
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएं उट्टियरयजललोलउ नहयलवोल उतं नरवइबलु चल्लिउ । निवमर्ण रयणरमाउलु करिमयराउलु णं समुदु उच्छल्लिउ ।
इसी तरह अपभ्रंशके अन्य ग्रंथों में भी संगीतके सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं। स्वतन्त्र रूपमें लिखित संगीत ग्रन्थ
संगीतके स्वतन्त्र रचित जैन ग्रन्थों में संगीत समयसार, संगीतोपनिषद्, संगीत उपनिषद सारोद्धार, संगीतमण्डल, संगीत दीपक, संगीत रत्नावली, संगीत सहपिंगल, ग्रंथ प्रधान हैं । संगीत समयसारके रचयिता दिगम्बर जैनमुनि अभयचन्द्रके शिष्य महादेवार्य और उनके शिष्य पार्श्वदेव हैं। संगीत समयसारमें भोजराज और सोमेश्वरका उल्लेख है। भोजराजका समय ई० सन् १०५३ और सोमेश्वरका ई० सन् १९८३ है। अतएव पाश्वदेवका समय ११८३ के पश्चात् होना चाहिये । पार्श्वदेवकी श्रुतज्ञान चक्रवर्ती और संगीताकर उपाधियाँ थीं । इनका विश्वास है कि संगीत ही मोक्षप्राप्तिका सुगम उपाय है। इस ग्रंथकी रचना ई० सन्की १३वीं शताब्दीमें हुई है । ग्रन्थमें ९ अधिकरण हैं । जो निम्नप्रकार हैं
प्रथम अधिकरणमें नादोत्पत्ति, नादभेद, ध्वनिस्वरूप, उसके भेद, मिश्रित ध्वनि, शरीर लक्षण, गति लक्षण और उसके भेद, आलप्ति, वर्ण, अलंकार आदि विषयोंका समावेश है । इसी अधिकरणमें स्वर, श्रुति, मूर्च्छना, अलंकार, गमक आदिकी भी व्याख्याएँ की गयी हैं।
द्वितीय अधिकरणमें आलापके भेद, स्थायीके नाम, करण और उनके स्वरूप दिये हैं। स्थायीके नामोंमें महाराष्ट्र और कर्नाटकमें प्रचलित संगीतका अनुकरण किया है । वादी स्वर अर्थात् जीवस्वरकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि जिस रागमें जो स्वर मुख्य हो अथवा जिसके बिना राग दर्शन ही न हो सके वह वादी स्वर है । बताया है
___ सप्तस्वराणां मध्येऽपि स्वरे यस्मिन् सुरागता।
स जीवस्वर इत्युक्ते अंशो वादी च कथ्यते ॥ संवादी, विवादी और अनुवादी स्वरोंकी व्याख्या भी इतनी ही स्पष्ट दी हुई है। श्रीरागसे उत्पन्न होनेवाले गौड़ राग और गौड़रागसे टक्क रागकी उत्पत्ति बतलायी है । इसी अध्यायमें ग्रह, अंश, न्यास, व्याप्ति और रसकी व्याख्याएँ भी की गयी हैं ।
तृतीय अधिकरणमें देशी रागोंका कथन आया है। रागोंके रागांग, भाषाङ्ग, उपाङ्ग, क्रियाङ्ग आदि भेद किये हैं और वे प्राचीन प्रणालीके अनुसार हैं । मध्यमादि, तोड़ी, बसन्त, भैरव, श्री, शुद्ध बंगाल, मालव श्री, वराही, गौड़, धनाश्री, गुण्डकृति, गुर्जरी और देशी ये १३ रागाङ्ग राग लक्षण सहित बतलाये गये हैं । बेलावली, अंधाली, सायरी (असावरी), फलमञ्जरी, ललिता, कैशिकी, नाटा, शुद्ध वराटी और श्रीकंठी ये नौ भाषाङ्ग राग दिये हैं । २१ उपाङ्ग राग बतलाये हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर ३३ रागोंके लक्षण दिये गये हैं । भाषाङ्ग रागमें बेलावली, आसावरी, देशी आदि भेद बतलाये हैं । उपाङ्ग रागोंके साथ थाटका भी वर्णन आया है। १. जम्बूसामिचरिउ, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृष्ठ-९७, पच-५-६ ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
चतुर्थ अधिकरणके प्रारम्भमें प्रबन्धकी व्याख्या दी है। चार धातु और छ अंगोंसे जिसका नियमन होता है, वह प्रबन्ध है । प्रबन्ध गीतोंकी व्याख्याके पश्चात् पाद, बन्ध, स्वरपद, चित्र, तेन, मिश्र इत्यादि करणोंको व्याख्या एकादश ध्रुवोंके अनन्तर उनका उपयोग करनेका तरीका बतलानेके पश्चात् अधिकरण समाप्त किया है ।
पञ्चम अधिकरण अनवद्यादि चार प्रकार के वाद्योंके भेद बतलाकर तत्सम्बन्धी परिभाषाएँ बतलायी है । पाठ वाद्यके १२ प्रकार बतलाकर उनके अक्षरोंको किस प्रकार बजाना चाहिये यह दिखलाया गया है ।
षष्ठ अधिकरणमें नृत्य और अभिनयका वर्णन है । अङ्गविक्षेपके अनेक प्रकार बतलाये गये हैं।
सप्तम अधिकरणमें तालका उद्देश्य, उसका लक्षण और उसके नाम दिये हैं । संगीतमें तालका महत्त्व बतलाते हुए लिखा है
तालमूलानि गेयानि ताले सर्व प्रतिष्ठितम् ।
तालहीनानि गेयानि मंत्रहीना यथाहुतिः ।। अष्टम अधिकरणका नाम गीताधिकरण है । गीतका स्वरूप, गानेकी विधि, गीतके गुणदोष, सभामें बैठनेको विधि, गाने के नियम आदिका वर्णन है । उत्तम, मध्यम और निकृष्ट, नर्तक, वादक और गायकको परिभाषाएँ दी गयी हैं ।
___ नवम अधिकरणमें प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट आदिका वर्णन किया गया है। इस प्रकार संगीत समयसार देशी संगीतका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें देशी रागोंके नाम और लक्षण संगीत रत्नाकरकी अपेक्षा भिन्न रूपमें दिये गये हैं। संगीत रत्नाकरके अनुकरणपर लिखा जानेपर भी इस ग्रन्थकी अपनी विशेषता है । राग विबोधकार श्री सोमनाथने अपने रागविबोधके तृतीय विवेकमें प्रबन्धके सम्बन्धमें लिखते हुए-“तथा च पार्श्वदेवः" लिखकर बताया है-"चतुभिर्धातुभिः षड्भिश्चाङ्गैर्यस्मात्प्रबध्येत, तस्मात्प्रबन्धः कथितो गीतलक्षणकोविदः ।" इस प्रकार रागविबोधकारने पार्श्वदेवके वचनोंको उद्धृत किया है। संगीतोपनिषद्
श्वेताम्बराचार्य राजशेखर सूरिके शिष्य सुधाकलशने विक्रम संवत् १३८० में संगीतोपनिषद्की रचना की है। इसमें छह अध्याय हैं । प्रथम अध्यायमें गीत प्रकाशन, द्वितीयमें प्रस्तारादिसोपाश्रय तालप्रकाशन, तृतीयमें गुण, स्वर, रागादि प्रकाशन, चतुर्थमें चतुर्विध वाद्य प्रकाशन, पञ्चममें नृत्याङ्ग, उपाङ्ग, प्रत्यक्ष प्रकाशन और षष्ठमें नृत्य पद्धति प्रकाशन है । इन्हीं आचार्यने वि० सं० १४०६ में संगीतोपनिषद्सारोद्धारकी रचना की है । इस ग्रन्थमें ६१० श्लोक हैं और संगीतोपनिषद्का ही विषय वर्णित है। यह ग्रंथ गायकवाड़ ओरियन्टल सिरीज बड़ोदासे प्रकाशित हो चुका है । संगीतमण्डन
मालवा माण्डवगढ़के सुलतान आलम शाहके मन्त्री मण्डनने इस ग्रन्थकी रचना की है । रचना काल वि० सं० १४९० है। मण्डन श्रीमालवंशी सोनगरा गोत्रके थे। ये जालोरके
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
मूल निवासी थे, पर उनकी ७वीं-८वीं पीढ़ीके पूर्वज माण्डवगढ़ में आकर रहने लगे थे । इनके वंश में मन्त्री पद भी परम्परागत चला आता था । आलम शाह विद्याप्रेमी था । अतः मण्डनपर उसका विशेष स्नेह था । संगीत मण्डन अभीतक अप्रकाशित है । इसकी हस्तलिखित प्रति मिलती है ।
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जैन ग्रन्थावलीसे संगीत दीपक, संगीत रत्नावली और संगीत सहपिंगलकी सूचना मिलती है । परन्तु इन ग्रन्थोंके विषय में विशेष जानकारी नहीं मिलती है । प्रायोगिक ग्रन्थ
संगीत सिद्धान्तों का प्रयोग करनेके लिये संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओं में प्रायोगिक ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं । जयदेवके गीत गोविन्दके अनुकरणपर अभिनव पण्डिताचार्य चारुकीर्तिने ई० सन् १४०० - १७५८ के मध्य यह ग्रन्थ लिखा है । 'गीत वीतराग' प्रबन्धात्मक गीति काव्य है । इसमें भगवान् ऋषभदेवके दश जन्मोंका आख्यान गीतों में किया गया है । इसमें २४ प्रबन्ध गीत हैं । कथावस्तु आदि तीर्थंकर ऋषभदेवसे सम्बद्ध है । इसमें गुर्जरी राग, देशी राग, वसन्त राग, रामक्रिया, माड़व गौडी राग, कन्नड़राग, आसावरी राग, देवरालिराग, गुण्डक्रिया राग, पञ्चम राग और सौराष्ट्ररागमें गीत निबद्ध हैं । इन रागों में अष्टताल, यतिताल, तालत्रिउड, प्रतिभनृताल, एकताल, यति-यतिताल आदि तालें प्रयुक्त हैं । रागों की उत्पत्ति स्वरोंके संयोग से बतलायी है । स्वर समूहों को यथाविधि गान वर्ण कहा है । वर्ण चार हैं— स्थायी, आरोही, अवरोही और संचारी । रागोंके चार अङ्ग बताये हैंरागाङ्ग, भाषाङ्ग, क्रियाङ्ग और उपाङ्ग । इन चारों अङ्गों का प्रयोग गीत वीतरागके प्रबन्ध गीतोंमें किया गया है । तालके कोल, मार्ग, क्रियाङ्ग, ग्रह, जाति, कला, लय, यति और प्रस्तार इन दस प्राणों का भी संयोजन किया गया है ।
प्रयोगात्मक गीतिकाव्य में जिनसेनके पाश्वभ्युदयकी भी चर्चा की जा सकती है । जिनसेनने मेघदूतके पदोंको लेकर समस्यापूर्तिद्वारा शान्तरसका प्रणयन किया है । पद्योंमें रागात्मकता अत्यन्त सघन है ।
मुसलमान बादशाहों, ग्वालियर के नरेशों आदिका अवलम्बन पाकर १५वीं १६वीं शताब्दी से हिन्दी में संगीतके प्रयोगात्मक अनेक ग्रन्थ लिखे गये । सूर, तुलसी, मीरा, कबीर आदिके पदोंके समान हो जैन कवियोंने भी प्रयोगात्मक हिन्दी पद्य लिखे ।
भैया भगवतीदासने विभिन्न राग रागनियोंका समन्वय करते हुए आसावरी रागमें निम्नपद गाया है
कहा परदेशीको पतियारो ।
मनमाने तब चलें पंथको, साँझ गिने न सकारो ।
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कुटुम्ब छोड़ इतहि पुनि त्याग चले तन प्यारो ॥ दूर दिशावर चलत आपही, कोउ न रोकन हारो । कोऊ प्रीति करो किन कोटिक, अन्त होयगो न्यारो ॥ धन सों राचि धरम सौ भूलत, झूलत मोह मंझारो । हि विधि काल अनन्त गमायो, पायो नहिं भव पारो ॥
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साँचें सुखसों विमुख होत हो, भ्रम मदिरा मतवारो।
चेतहु चेत सुनहु रे भइया, आप ही आप सँभारो॥ कवि भूधरदासने विहाग रागमें मनकी दुर्बलता तथा अहं और इदंके संघर्षसे उत्पन्न वासनाका नियन्त्रण करते हुए चारित्रकी शोधशालामें नैतिक मन और नैतिक बुद्धिकी आवश्यकताका निरूपण किया है
जगत जन जुवा हारि चले ॥ काम-कुटिल संग बाजी माँड़ी, उन करि कपट छले ।। चार कषायमयी जहँ चौपरि पांसे जोग रले ।
इन सरबस उत कामनिकौंड़ी इहविधि झटक चले ॥ भैया भगवतीदासने सारंग, रामकली, जंगला, मल्हार, गौरी, बृन्दावनी सारंग, धनाश्री, आसावरी, विलावल, भैरव, आदि रागोंमें पदों की रचना की है। जगजीवन कविने मल्हार, रामकली, विलावल, सिन्दूरिया, कन्नड़ो, सारंग आदि रागोंमें पद लिखे हैं । जगत्रामने सोरठ, रामकली, ललित, कन्नड़ो, विलावल, ईमन, सिन्दूरिया, जंगला, मल्हार, जौनपुरी आदि रागोंमें पदोंकी रचना की है । द्यानतरायने मल्हार, जंगला, सारंग, आसावरी, गौरी, माढ़, श्यामकल्याण, विहागड़ी, सोरठ, भैरव, कन्नड़ो, रामकली, सोहनी, उझाज जोगी रासा, विहाग, सोरठ, भैरवी, और कान्हारो आदि रागोंका प्रयोग किया है। भूधरदासने सोरठ, ख्याल, माढ़, मल्हार, विहाग, विलावल, भैरवी, आसावरी, पीलू, होरी, विहागड़ो रागोंमें पदोंकी रचना की है । बस्तरामने पूर्वी, ललित, धनाश्री, नट, झंझोटी, गौड़ी, खमाच, रामकली, आसावरी, भूपाली, परज, भैरव आदि रागोंमें पद रचे हैं। नवलरामने विलावल, सोरठ, कान्हरो, होली, देवगन्धार, मांड, कन्नड़ी, सारंग और ईमनका प्रयोग किया है । बुधजनने कानडी, माढ़, आसावरी, सारंग, भैरवी, रामकली, जंगला, झंझोटी, विहाग, सोरठ, विलावल आदि रागोंमें पद रचा है। दौलतरामने रवा, सारंग, गौरी, मालकोष, भैरवी, मांढ, जंगलो, टोड़ी, उझाज जोगीरासा, सोरठ, होरी आदि रागोंमें पद लिखे हैं । इसी प्रकार कवि छत्रपति और महाचन्दने भी विभिन्न रागोंका प्रयोग कर पदोंकी रचना की है । १९वीं शताब्दीमें भागचन्दने बसन्त, मल्हार, सारंग और विलावल रागोंमें अनेक पद लिखे हैं ।
कवि नयनानन्दने विभिन्न रागोंमें नयनसुख विलासकी रचना की है। इन्होंने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि कान्धला नगर में भूधरदासजीके अनुग्रहसे अध्यात्म ज्ञान प्राप्त हुआ । कवि नयनानन्दके ये भूधरदास ही विद्यागुरु भी थे। भूधरदासको मृत्युके पश्चात् कुछ दिनों तक नयनानन्दने कान्धलामें निवास किया पश्चात् वागप्रस्थ नगरके जैन पञ्चोंका पत्र प्राप्त कर वह वागप्रस्थ चले गये । वहाँपर उनका साक्षात्कार अध्यात्म प्रेमी निश्चल रायसे हुआ । निश्चल रायने बताया कि इस नगरमें सेठ शादीराम और उनका भांजा सगुणचन्द जैनियोंमें प्रधान हैं । सगुणचन्दके पुत्रका नाम चन्दनलाल है । कुसंगतिमें रहनेके कारण चन्दनलालको जैनधर्मके प्रति आस्था नहीं है। अतएव आप चन्दनलाल और उसके साथ तीन-चार लड़कोंको शिक्षा दीजिये। आपके इस कार्यसे धर्मका बड़ा उपकार होगा। पंचोंके समक्ष चार अन्य छात्रों के साथ चन्दनलालको धार्मिक शिक्षा प्रारम्भ हुई, पर चन्दनलाल पढ़ न सका ।
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
२४९ इससे नयनानन्दके मनमें चिन्ता उत्पन्न हुई और उन्होंने विचार किया कि कौन सा उपाय किया जाये जिससे चन्दनलाल धार्मिक शिक्षा प्राप्त कर सके । नयनानन्दने चन्दनलालकी अभिरुचि अवगत करनेका प्रयास किया और चार महीने तक वे उसके कार्योंका निरीक्षण करते रहे । एक दिन उन्होंने देखा कि रात्रिके १०-११ बजे चन्दनलाल कान्हड़ा देशके स्वरोंमें एक माल्हारको अलापता हुआ चला जा रहा है। उसके स्वरमें अपूर्व लालित्य था। आलापकी मधुरिमाको सुनकर गन्धर्व और किन्नर भी मोहित हो जाते थे। अतः नयनानन्द भी उसकी मधुर ध्वनिसे आकृष्ट होकर उसके पास पहुँच गये और उन्होंने चन्दनलालसे कहा-तुम्हारा स्वर बहुत प्रिय लग रहा है, थोड़ी देर बैठ कर तुम इसे गाओ। चन्दनलाल झूम-झूम कर आलापने लगा। जब उसका गीत पूरा हुआ तो नयनानन्दने उससे पूछा कि क्या तुम्हें कोई जैन भजन या पद भी याद है ? तुम उसे भी रागोंमें गा सकते हो ? चन्दनलालने उत्तर दिया-मुझे जैन भजन याद नहीं। मैं तो ठुमरी, भजन, गजल, ध्रुपद, तराना, नौटंकी, सरवण, मरहटी तुर्रा, कलंगी, चौबोला आदि गाता हूँ और ये ही मुझे पसन्द हैं । नयनानन्दने पुनः कहा-यदि तुम्हारे इच्छानुसार विभिन्न रागोंमें जैन पदोंकी रचना की जाये तो क्या तुम मन्दिरमें आकर प्रतिदिन पद गाओगे ? चन्दनलालने अपनी स्वीकृति दे दी। नयनानन्दने विभिन्न राग-रागिनियोंमें पदोंकी रचना की और सितारपर उन पदोंका प्रदर्शन किया जाने लगा। चन्दनलालको ये पद इतने अधिक रुचिकर हुए कि वह अपनी समस्त कुप्रवृत्तियोंका त्याग कर भजन गाने में प्रवृत्त हो गया। चन्दनलालके अन्य साथियोंमें ८ व्यक्ति और सम्मिलित थे । इस प्रकार उन सबने मिलकर एक नयी संगीत शैलीका प्रचार किया । नयनानन्दने २४ अखाड़ों में २४ तीर्थकरोंके पदोंकी रचना की। सभी तीर्थंकरोंके भजन पृथक्-पृथक् रागमें निबद्ध किये गये । ताल, लय, स्वर, ग्राम आदिका पूरा निर्वाह किया गया। इस प्रकार नयनानन्द कविका नैनसुख विलास गायन शिक्षाका ग्रन्थ है और इसके सभी पद संगीतज्ञोंके लिये आकर्षक हैं । यहाँ उदाहरणार्थ ठुमरी शैलीमें एक पद दिया जाता है
__ सब करनी दया बिन थोथी रे ॥ जीव दया बिन करनी निरफल, निष्फल तेरी पोथी रे ।। चन्द्र बिना जैसे निष्फल रजनी, आब बिना जैसे मोती रे॥ नीर बिना जैसे सरवर निरफल, ज्ञान बिना जिया ज्योति रे ।
छाया हीन तरोवर की छबि, नैनानन्द नहिं होती रे ।
इस प्रकार हिन्दी में प्रयोगात्मक संगीत काव्य लिखे जाते रहे हैं । बिलावल, कल्याण, खम्माच, भैरव, पूर्वी, आसावरी, तोड़ी आदि थाटोंमें भी पदोंकी रचना जैन कवि करते रहे हैं। नयनानन्दने सन्ध्या छह बजेसे रात्रि नौ बजे तक ईमनकल्याण, मालश्री, और केदाराका प्रयोग बतलाया है.। प्रातः काल छहसे नौ बजे तक बिलावल, ईमनी और नटविलावल, टोड़ी आदिका प्रयोग बताया गया है। दिनमें १२ बजे ३ बजे तक गौड़ सारंग, त्रिवेणी, वृन्दावनी सारंग आदि रागोंके गानेका विधान किया है । मध्यरात्रिमें सिन्दूरा सैन्धवी, विहाग, मालकोष आदिके गानेका विधान है ।
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ज्योतिष एवं गणित
१. जैन ज्योतिषकी प्रमुख विशेषताएँ २. जैन ज्योतिष साहित्य ३. ग्रीकपूर्व जैन ज्योतिष विचार-धारा ४. अंग-विद्या : प्रादुर्भाव और विकास ५. जैन पञ्चांग ६. जातक तत्त्व अर्थात् प्रारब्ध विचार ७. जैनाचार्य ऋषिपुत्र और उनका ज्योतिष शास्त्रको योगदान ८. महान् ज्योतिविद् श्रीधराचार्य ९. आचार्य नेमिचन्द्र और ज्योतिष शास्त्र १०. जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुत गणित सम्बन्धी कतिपय मौलिक उद्भावनाएँ ११. जैन गणित का महत्त्व १२. तिलोयपण्णत्तिके श्रेणी व्यवहारके दस सूत्रोंकी उपपत्ति १३. संस्कृत साहित्य त्रिभुज गणित १४. स्वप्न और उसका फल
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जैन ज्योतिषकी प्रमुख विशेषताएँ
प्रास्ताविक
ज्योतिष, आयुर्वेद, गणित जैसे लोकोपयोगी विषयोंमें जैन-अजैम का प्रश्न उठाना साधारणतः वैसा ही प्रतीत होता है, जैसा गेहूँ, जो और चावलको ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं शूद्र का कहना । ज्योतिषका सम्बन्ध जन-जीवनके साथ है। प्रत्येक व्यक्ति अपने भावी-शुभाशुभ फलको अवगत कर अपने कार्योंमें सतर्क या सावधान रहता है । अतः ज्योतिषके सिद्धान्तोंका विवेचन सभी भारतीय मनीषियोंने शुभाशुभ फलके रूपमें समान रूपसे किया है। आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कर प्रभृति वैदिक ज्योतिविदोंके समान ही भद्रबाहु, कालकाचार्य, श्रीधर, मल्लिषेण, भट्टवोसरि आदि जैनाचार्योंने भी ज्योतिषके सिद्धान्तोंका विवेचन किया है। ग्रहगणित और ग्रह-गणितसे सम्बद्ध अङ्कगणित, बीजगणित, रेखागणित, प्रतिमागणित, त्रिकोणमिति-गणित आदिके सिद्धान्त वैदिक और जैनाचार्यों द्वारा तुल्य रूपमें प्रतिपादित हैं। इसी प्रकार फलित-ज्योतिषमें जातक, संहिता, मुहूर्त आदिका कथन भी समान रूपमें मिलता है।
ज्योतिषके सिद्धान्तोंमें फलित और गणितकी समानताओंके होने पर भी जैन-ज्योतिषजैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तोंमें कतिपय प्रमुख विशेषताएं उपलब्ध होती हैं। इन विशेषताओंका कारण दार्शनिक मान्यताओंमें तात्त्विक अन्तरका होना है। हम यहाँ जैनज्योतिषकी उन प्रमुख विशेषताओंका प्रतिपादन करेंगे जो विशेषताएँ वैदिक चिन्तकों द्वारा प्रतिपादितं ज्योतिष सिद्धान्तोंमें उपलब्ध नहीं होती अथवा जिन मान्यताओंमें तात्त्विक अन्तर है। विचार-सरणि निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधृत रहेगी
१. ग्रह-भ्रमणका केन्द्र २. ग्रहोंके मार्ग ३. ग्रह-गतियां ४. ग्रहोंके मध्यममान और स्पष्ट मान ५. ग्रहण-सिद्धान्त ६. ग्रहोंका स्वरूप-गुण, तत्त्व, प्रकृति आदि ७. फल-प्रतिपादनके आधारभूत सिद्धान्त-कर्मोदय, क्षयोपशम, क्षय आदि ८. जातक-सिदान्त ९. संहिताके वर्ण्य विषय १०. प्रश्न-सिद्धान्त ११. मुहूर्त-सिवान्त १२. अङ्ग-विद्या १३. स्वप्न-सिद्धान्त १४. आकाशीय निमित्त-सिद्धान्त १५. रोग-विज्ञान
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
१. ग्रह-भ्रमणका केन्द्र
जैनाचार्योंने ग्रह भ्रमणका केन्द्र सुमेरु पर्वतको माना है, जबकि अन्यत्र ध्रुव देश या निरक्षको केन्द्र माना है। जहाँ वैदिक आचार्यों द्वारा सम्पूर्ण गणित और फलित ध्रुव केन्द्रके आधार पर प्रतिष्ठित है, वहां जैनाचार्योंका ग्रह गणित सुमेरु केन्द्र के आधार पर स्थित है। ग्रह नित्य गतिशील होते हुए मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं। ग्रहोंकी गति द्वारा ही कालकी स्थिति मानी जाती है। जैन मान्यताके अनुसार इस जम्बू द्वीपमें दो सूर्य और दो चन्द्रमा माने गये हैं। एक सूर्य जम्बू द्वीपकी पूरी प्रदक्षिणा दो अहोरात्रमें करता है । सूर्य प्रदक्षिणाकी गति उत्तरायण और दक्षिणायन इन दो भागोंमें विभक्त है और इनकी वीथियाँगमन मार्ग १८३ से कुछ अधिक है, जो सुमेरुकी प्रदक्षिणाके रूपमें गोल, किन्तु बाहरकी ओर फैलते हुए हैं। इन मार्गोंकी चौड़ाई ४६ योजन है, तथा एक मार्ग से दूसरे मार्गका अन्तर दो योजन बतलाया गया है। इस प्रकार कुल मार्गोंकी चौड़ाई और अन्तरालोंका प्रमाण ५१० योजन है, जो कि ज्योतिषशास्त्रको परिभाषामें चार क्षेत्र कहलाता है । ५१० योजन में से १८० योजन चार क्षेत्र जम्बू द्वीपमें और अवशेष ३३० योजन लवण समुद्र में हैं । सूर्य एक मार्गको लगभग दो दिनमें पूरा करता है, जिससे ३६६ दिन या एक वर्ष उसे पूरा करने में लगता है।
___ सूर्य जब जम्बूद्वीपके अन्तिम आभ्यन्तर मार्गसे बाहरकी ओर निकलता हुआ लवण समुद्रकी ओर जाता है, तब बाह्य लवण समुद्रके अन्तिम मार्ग पर चलने तकके कालको दक्षिणायन और जब सूर्य लवण समुद्रके बाह्य अन्तिम मार्गसे भ्रमण करता हुआ आभ्यन्तर जम्बूद्वीपकी ओर आता है, उसे उत्तरायण कहते हैं। इस प्रकार उत्तरायण और दक्षिणायन वर्षमान, योजनात्मिका गति एवं भ्रमण मार्गोंकी स्थिति सुमेरु के आधार पर ही वर्णित है।
___ इतना ही नहीं 'विषुव' का विचार भी सुमेरु के अनुसार ही बतलाया गया है । यहाँ यह स्मरणीय है कि 'त्रिलोकसार' और 'जम्बूद्वीपपण्णत्ति' में 'विषुव' का विचार उक्त केन्द्रानुसार ही किया गया है। यहाँ इस विचारको स्पष्ट करनेके लिये नाक्षत्र, चान्द्र, सावन और सौर मानोंका प्रतिपादन किया जाता है। जैन चिन्तकोंने पञ्चवर्षात्मक युगका मान श्रावण कृष्णा प्रतिपदासे माना है।
एक नाक्षत्र वर्ष = ३२७१३ दिन एक चान्द्र वर्ष = ३५४१३ दिन एक सावन वर्ष = ३६० दिन
एक सौर वर्ष = ३६६ दिन अधिक मास सहित एक चान्द्रवर्ष = ३८३ दिन २१६६ मु० ।
१-२. तत्त्वार्थसूत्र, ४१३ ३. वही ४।१४ ४. तिलोयपण्णत्ति ७।११७ ५. सावण बहुल पडिवये-सूरप्रज्ञप्ति
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ज्योतिष एवं गणित
. २५५ सुमेरु केन्द्रानुसार एक पंचवर्षीय युग में चन्द्रमा अभिजित नक्षत्रका भोग ( संयोग) ६७ बार करता है। ये ही ६७ चन्द्रमाके भगण कहलाते हैं। अतः पंचवर्षीय एक युगके दिनादि का मान इस प्रकार होगा
एक युगमें सौर दिन = १८०० ,,, चान्द्र मास = ६२ ,, , चान्द्र दिन = १८६० ,, ,, क्षय दिन = ३० भगण या नक्षत्रोदय = १८३०
चान्द्र भगण = ६७ चान्द्र सावन दिन - १७६८ एक सौर वर्ष में नक्षत्रोदय = ३६७ एक अयनसे दूसरे अयन पर्यन्त सौर दिन = १८०
एक अयनसे दूसरे अयन तक सावन दिन = १८३ चान्द्र वर्ष = २९३३ x १२=३५४१३; अधिक मास सहित चान्द्र वर्ष = ३८३३३ दिन
सौर वर्ष = ३०३ ४ १२ = ३६६ दिन; यहाँ ३ मान गणितके अनुसार पूरा नहीं आता है;
किन्तु उह मुहूर्तका अन्तर आता है। अतएव वर्ष ३६५ दिनसे कुछ अधिक होता है, जो कि आजकलके वर्षमानके तुल्य है।
जैन मनीषियोंने तिथिका आनयन भी उक्त प्रक्रिया द्वारा ही किया है, जो इस प्रकार है-जो चान्द्र संवत्सरमें ३५४१३ दिन होते हैं; अतएव एक चान्द्र मासमें ३५४३३ - २९६३ दिन होते है और एक चन्द्रमासमें दो पक्ष होते हैं । इसलिये २९३३ दिन = २९६३ दिन = २९३३ ४ १५ मुहूर्त = ४४२६६ मुहूर्त शुक्ल पक्ष और इतने ही मुहूर्त कृष्ण पक्षके भी होते हैं। इसी हिसाबसे एक तिथिका मान = २९३३ दिन = ६३, दिन = ६३ x ३० = २५३३ मुहूर्त । तिथिके भी दिन और रात्रिके भेदसे दो भेद हैं । सौर दिनकी अपेक्षासे दिन तिथि
और रात्रि तिथिके पांच-पांच भेद है। इस प्रकार पर्व तिथियों, दैनिक तिथियों एवं सौर तिथियोंका आनयन भी मेरु केन्द्रके आधार पर किया है। पञ्चवर्षात्मक युगका मान मानकर पञ्चाङ्ग गणित और ग्रह गणित दोनोंको साधनिका उक्त गणनानुसार घटित की गयी है। तुलनात्मक दृष्टिसे विचार करने पर जैन चिन्तकों द्वारा निरूपित मानमें किंचित् स्थूलता है, और उत्तरकालीन ज्योतिषियों द्वारा प्रतिपादित मानमें सूक्ष्मता है।
इस स्थूलताका परिहार महेन्द्रसूरिने नाड़ी वृत्तके धरातलमें गोल पृष्ठस्थ सभी बृत्तोंका परिणमन करके नयी विधि द्वारा किया है । इनके इस ग्रन्थका नाम यन्त्रराज है। इस ग्रन्थ पर मलयेन्दु सूरिकी संस्कृत टीका भी है। सुमेरु केन्द्र मानने पर भी परमा क्रान्ति तेईस अंश पैंतीस कला मानी गयी है। इसमें क्रमोत्क्रमज्यानयन, भुजकोटियाका चाप साधन, क्रान्तिसाधन, धुज्याखण्डसाधन, धुज्याफलानयन, अक्षांशसे उन्नतांश साधन, अभीष्ट वर्षके ध्रुवादिका साधन, दृक्कर्म साधन, द्वादश राशियोंके विभिन्न वृत्त सम्बन्धी गणितोंका साधन,
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
इष्टशंकुसे छायाकर्ण-साधन, यन्त्र शोधन प्रकार और उसके अनुसार विभिन्न राशि और नक्षत्रोंके गणितका साधन, द्वादश भाव और नवग्रहींके स्पष्टीकरणका गणित एवं ग्रह साधन द्वारा तिथि नक्षत्रादि गणितका साधन किया गया है। अतएव संक्षेपमें यही कहा जा सकता हैं कि मेरुको केन्द्र मानने पर भी ग्रहोंके साधनमें विशेष अन्तर नहीं आता है। स्पष्ट ग्रहोंके आनयनार्थ जो ऋणात्मक या धनात्मक संस्कार किये जाते हैं, उनका वर्णन भी 'सूर्यपण्णत्ति' ज्योतिष्करण्डक एवं यन्त्रराज आदि ग्रन्थोंमें आया है। ग्रह-कक्षा एवं ग्रह-गति सम्बन्धी विशेषताएँ
ग्रह कक्षाओंका वर्णन सूर्य सिद्धान्त, सिद्धान्त शिरोमणि, सिद्धान्त तत्त्व विवेक आदि जैनेतर ग्रन्थोंमें आया है। जैन ग्रन्थोंमें भी ग्रह कक्षाओंका निर्देश सर्वत्र मिलता है । सर्वार्थसिद्धि, राजवात्तिक, तिलोयसार, तिलोयपण्णत्ति एवं जम्बूदीवपण्णत्ति जैसे ग्रन्थोंमें भी विद्यमान है।
जैन मनीषियोंने बतलाया है कि इस समान भूमितलसे ७९० योजन ओर तारागण विचरण करते हैं। इससे दस योजन ऊपर जाकर सूर्यको कक्षा है। इससे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमाकी कक्षा है । चन्द्रकक्षासे चार योजन ऊपर नक्षत्र कक्षा है और इससे चार योजन ऊपर बुध कक्षा है । बुध कक्षासे तीन योजन ऊपर शुक्र कक्षा, शुक्र कक्षासे तीन योजन ऊपर बृहस्पति कक्षा और बृहस्पति कक्षासे तीन योजन ऊपर भौमकक्षा और इससे तीन योजन ऊपर शनिश्चर कक्षा है। इस प्रकार ग्रहोंकी कक्षाएँ तिर्यक् रूपमें अवस्थित हैं।
सिद्धान्तशिरोमणिमें भूपिण्ड, चन्द्र, बुध, शुक्र, रवि, मंगल, बृहस्पति, शनि और नक्षत्र कक्षाएं ऊपर-ऊपर बतलायी गयी हैं। ये सभी ग्रह अपनी-अपनी आकर्षण शक्तिसे स्थित है। भूमिका कोई दूसरा आधार नहीं है । यह स्वयमेव अपने आधारपर स्थित है।
जैन मान्यतामें भी वातवलयोंके आधारपर भूमि और ग्रह कक्षाओंको अवस्थित माना है । लोकको वातवलय वेष्टित किये हुए हैं और ग्रह कक्षाएँ पृथ्वीको आकर्षण शक्ति द्वारा अवस्थित है। ग्रह कक्षाओंकी स्थितिमें जो अन्तर दिखलाई पड़ता है, उस अन्तरके रहनेपर सूक्ष्म गणित मानमें कोई विशेष भेद नहीं आता है। अतएव ग्रह कक्षाओंकी दृष्टिसे जैन ज्योतिषकी अपनी विशेषता है । ग्रहगति सम्बन्धी विशेषता
जैनाचार्योने गगन खण्ड कर ग्रहोंकी गतियोंका आनयन किया है। यह गति तीन प्रकारको है-(१) गगन खण्डात्मक (२) योजनात्मक और (३) अंशात्मक । गगनखण्डात्मक गतिका आनयन त्रिलोकसारमें किया गया है। इसी ग्रन्थके आधारपर योजनात्मिका गति भी निकाली जा सकती है । अंशकलात्मक गति आनयनकी विधि ज्योतिष्करण्डक और यन्त्रराजमें वर्णित है। यों तो सूर्यादि ग्रहके गमन मार्ग दीर्घ वृत्ताकार हैं । अतः उससे अंशात्मक गतिके
१. तिलोयसार, गाथा ३३२ तथा सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानपीठ संस्करण पृ० २४५ । २. भूमेः पिण्डः शशाङ्कज्ञकविरविकुजेज्याकिनक्षत्रकक्षा, सिद्धान्तशिरोमणि, गोलाध्याय,
भुवनकोष, पद्म २।
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ज्योतिष एवं गणित
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निकालने में किसी भी प्रकारकी कठिनाई नहीं आती है । आरम्भ में योजनात्मिका गतिको कात्मिका गति बनानेकी युक्ति दी गयी है । गगनखण्डोंको प्रतिविकलात्मक माना गया है । चन्द्र गगन खण्ड = १७६८ ) ये गमन करनेके कलात्मक खण्ड हैं, सूक्ष्म गणितके
रवि गगन खण्ड = १८३० नक्षत्र गगन खण्ड = १८३५
अनुसार इनका चापात्मक मान प्रतिविकलात्मक है ।
अभिजितका मान ६३० गगनखण्ड, जघन्य नक्षत्रोंका १८०५ गगन खण्ड, मध्यम नक्षत्रोंके २०१० गगन खण्ड, उत्तम नक्षत्रोंके ३०१५ गगन खण्ड हैं । यह नक्षत्रोंकी कलात्मक मर्यादाका मान है । इसपरसे चन्द्रमाके प्रत्येक नक्षत्रका गत्यात्मक मान निम्न प्रकार होगा । ( १८३५ - १७६८ ) = ६७ चन्द्रमाकी कलात्मक स्वतन्त्र गति है । इस गतिका चन्द्रमाके मर्यादा मान में भाग देनेसे दैनिक नक्षत्र अथवा चन्द्रमाके नक्षत्रका मान होता है । अभिजित्का मान हुआ । १६ x १ =
.".६ × १ = ९
१
''។
१५ मुहूर्त
चन्द्रमाके प्रत्येक जघन्य नक्षत्रका मध्यम मान हुआ । १ X 2090 = ३० मुहूर्त यह चन्द्रमाके प्रत्येक मध्यम ७५ = ४५ मुहूर्त · यह चन्द्रमाके प्रत्येक उत्तम नक्षत्रका मान हुआ ।
=
६
3094 १ X ==
३०१५
(१८३५ - १८३० ) = ५ कलात्मक मध्यम सूर्य गति हुई, जो कि आजकल के मानसे ५९ ८" के बराबर होती है। इसका नक्षत्रोंकी मर्यादामें भाग देनेसे सूर्य नक्षत्र मानका प्रमाण आता है ।
६३०×१
=
६३०
= १२६ मुहूर्त अर्थात् ४ दिन ६ मुहूर्त सूर्य अभिजित् नक्षत्र के
साथ रहता है ।
देशान्तर संस्कार और कालान्तर संस्कार द्वारा गतिके स्पष्टत्वका विवेचन भी आया है । किसी भी देशकी पलभाका ज्ञान करके उसका तीन स्थानों में रखकर प्रथम स्थानमें दशसे, दूसरे में आठसे और तीसरे में दशसे गुणा करना चाहिए। तीसरे स्थानके गुणनफलमें तीनका भाग देकर लब्धिग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार चरखण्ड आयँगे । पुनः सायनसूर्यका भुज बनाकर उसमें राशि संख्या तुल्य चर खण्डों का योग करके, उसमें अंशादिसे गुणे हुए भोगखण्डका तीसवां भाग जोड़ देनेसे चर होता । तुलादि छः राशियोंमें सूर्य हो, तो इसका धन संस्कार तथा मेषादि छः राशियोंमें सूर्य हो तो ऋण संस्कार होता है । इस चरका मध्यम रविकी विकला में संस्कार करनेसे रवि स्पष्ट आता है और चरको दोसे गुणाकर नवका भाग देनेपर जो लब्धि आये, उसका देशान्तर संस्कृत मध्यम चन्द्रमाकी विकलामे संस्कार करने से चन्द्रमा स्पष्ट होता है । आशय यह है कि चन्द्रमामें देशान्तर, भुजान्तर और चरान्तर ये तीन प्रकारके संस्कार किये जाते हैं, तब चन्द्रमा स्पष्ट होता है । इसी मान्यतानुसार बुधादि ग्रहोंका भी साघन किया जा सकता है ।
योजनात्मिका गति निकालनेके लिये आभ्यन्तर चन्द्रवीथिकी परिधि तथा त्रिज्या और दोका गुणा करनेसे फल प्राप्त होते हैं । चन्द्रमा अन्तःवीथिमें स्थित होने पर एक मुहूर्त में अर्थात् ४८ मिनटमें चन्द्रवीथि परिधयात्मक चलता है, तो एक मिनटमें कितने योजनात्मक चलेगा । इस अनुपात विधिसे चन्द्रमा तथा अन्य ग्रहोंकी भी योजनात्मिका गति निकाली जा सकती है । यथा
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अभ्यन्तर चन्द्रवीथिकी परिधि ३१५०८९ योजन तथा त्रिज्या-जम्बूद्वीपके मध्य बिन्दुसे ४९८२० योजन है, यदि का मान /१० अथवा प्रायः ३.१६ लिया जाय तो परिधि (४९८२०)x२x ३.१६ = ३११७०२.४ योजन आती है।
बाह्यमार्गकी परिधिका प्रमाण ३१८३१३४३४ योजन है । जब त्रिज्या बढ़ती है, तब परिधि पथ बढ़ जाता है और नियत समयमें ही वह पथ पूर्ण करनेके लिए चन्द्र और सूर्य दोनोंकी गतियां बढ़ती जाती हैं । जिससे वे समानकालमें असमान परिधियोंका अतिक्रमण कर सकें । उनकी गतिकालके असंख्यातवें भागमें समानरूपसे बढ़ती हुई अग्रसर होती है और यह गतिसमत्वरण (uniform acceleration) कहलाती है, तथा अन्तःमार्गकी ओर आते हुए ग्रहोंकी गति समविमन्दन (uniform retarcation) कही जाती है ।
चन्द्रमाकी रेखीय गति (Jinear Velocity) अन्तःवीथिमें स्थित होनेपर ४८ मिनट में ३१५०८९ : ६२३३५ - ५०७३१७४३५ योजन होती है। अतः एक मिनटकी गति २०७४४.४९४५= ४८०४४०२ मील जब चन्द्रमा बाह्य परिधिमें स्थित रहता है, तब गात ४८ उसकी गति एक मिनटमें प्रायः-५१२५४४५४५ = ४८५२७३२१ मील रहती है। ग्रहण विषयक विशेषता
ग्रहणके सम्बन्धमें प्राचीन कालसे ही विचार हो ता आ रहा है। जिस प्रकार मेघ सूर्यको ढंक देता है, वैसे ही राहु चन्द्र को और केतु सूर्यके विमानको आच्छादित कर देता है । इस मान्यताको समीक्षा उत्तरकालीन ज्योतिषियोंने करते हुए ग्रहणका यथार्थ कारण अवगत कर गणित द्वारा आनयनका प्रयास किया है। छादक, छादय, छादनकाल और छादनकी स्थितिका आनयन गणित प्रक्रिया द्वारा किया गया है । तिलोयपण्णत्तीमें राहु और केतु को ग्रहणका कारण बतलाया है तथा गणित विधि द्वारा ग्रहणकी आनयन विधिको प्रस्तुत किया है। यन्त्रराजमें सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहणका विवेचन करते हुए लम्बन, और नतिका आनयन कर ग्रहणकी स्थिति ज्ञात की है । तिलोयपण्णत्तीमें चन्द्रमाकी कलाओं और ग्रहणको अवगत करनेके लिए चन्द्र बिम्बसे चार प्रमाणांगुलि नीचे कुछ कम एक योजन विस्तार वाले कृष्ण वर्णके दो प्रकार के राहुओंकी कल्पना की गयी है। इनमें एक तो दिन राहु और दूसरा पर्व राहु है। राहुके विमानका बाहुल्य ३५० योजन है । दिन राहुकी गति चन्द्रमाकी गतिके समान मानी गयी है और उसे ही चन्द्रकलाओंका कारण कहा है।
पर्व राहु चन्द्रग्रहणका कारण है। राहुका इस स्थितिमें आना गति विशेषके कारण नियमित रूप से होता है । सूर्यके १८४ वलय माने हैं। प्रत्येक वलय का विस्तार सूर्य व्यासके समान है, तथा प्रथम वलय और मेरुके बीचका अन्तराल ४४८२० योजन है । चन्द्रका भी इतना ही अन्तराल माना गया है । प्रत्येक वलय वीथिका अन्तराल दो गोजन है। जम्बूद्वीप
१. तिलोयपण्णत्ति, गाथा ७।१८९ तथा ७।१७८ २. वही १८६ ३. तिलोयणण्णत्ति ७।२०१, ४. वही, गाथा ७।२१६, -२१५
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ज्योतिष एवं गणित
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के मध्य बिन्दुको केन्द्र मानकर सूर्यके प्रथम पथ त्रिज्या (५०००० - १०० ) = ४९८२० योजन है ! दोनों सूर्य और चन्द्र सम्मुख स्थित रहते हैं । अन्तिम वलय वृत्तमें स्थित रहने पर दोनों सूर्योके बीचका अन्तर २ (५००३३०) योजन रहता है । सूर्यके वलय वृत्त भी चन्द्रके वलय वृत्त के समान समापन ( Winding ) और असमापन ( unwinding ) कुन्तल (Spiral) के समान होता है । इस प्रकार चन्द्रमाके पन्द्रह वलय और सूर्यके १८४ वलय होते हैं । अपनी गगनखण्डात्मक गतिके अनुसार जब राहु और चन्द्र एक समान सूत्रमें बद्ध जैसे प्रतीत होते हैं, तो चन्द्रग्रहण लगता है, और केतु जब सूर्यके गमन वलय में समान सूत्र में आ जाता है, तो सूर्य ग्रहण होता है ।
भिन्न-भिन्न देशों ओर भिन्न-भिन्न नगरोंमें ये ग्रहणकी स्थिति कब और किस प्रकार घटित होगी इसकी जानकारी परिधियोंके आनयन द्वारा की गयी है जिसे आजकी भाषा में अक्षांश और रेखांश कहते हैं । नगरियोंकी परिधिका विकास क्रम उत्तरोत्तर ७१५७८ और १४७८६ योजन बढ़ता हुआ बतलाया है । परिधियोंका असमानत्व भी है । इस असमानत्व का आनयन समत्वरण गति द्वारा किया जाता है । उदाहरण के लिए यों कहा जा सकता है कि ४८ मिनट में प्रथम वल की गति ५२५१६ है, तो एक मिनटमें कितनी योजन होगी । इस प्रकार योजनात्मक गति निकाल कर ग्रहणके समयका आनयन किया है । इस विधि से सूर्य और चन्द्र ग्रहणोंका समय प्रत्येक नगर और स्थानमें जाना जा सकता है । यहाँ यह स्मरणीय है कि पौराणिक युग में इस गणित विधिका उपयोग आश्चर्य चकित करने वाला है ।
to गणितका विकास हुआ और पर्व तिथियोंमें पूर्णिमा और अमावास्यामें ग्रहणकी स्थिति निश्चित हो गयी, तो यन्त्रराज ग्रन्थ में लम्बन, नीति और दृक्क कर्म द्वारा ग्रहणोंके समयका आनयन किया है । यन्त्रराजमें बताया है कि जिस समय सूर्य और चन्द्रकी स्फुट कला समान होती है, उस समय राहु-भूभा चन्द्रबिम्ब में प्रवेश करती है, इससे चन्द्रबिम्ब मलिन निस्तेज दिखलाई पड़ता है । लम्बन और नतिके कारण चन्द्रग्रहण सब देशों में समान दिखलाई नहीं देता । चन्द्र पूर्वाभिमुख गमन करता हुआ भूभामें प्रवेश करता है । इसलिए चन्द्रग्रहण में प्रथम पूर्व दिशामें ग्रहणका प्रारम्भ और पश्चिम दिशामें मोक्ष होता है । सूर्य बिम्बके बड़े और भू बिम्बके छोटे होने से भूमिकी छाया सूचीके समान सूक्ष्माग्र होती है और लम्बी होने के कारण चन्द्रकक्षाके बाहर दूर तक चली जाती है । इस भूभा की लम्बाई और चन्द्रकक्षा में भूभा का प्रमाण अनुपात से निकाला जाता है । चन्द्रमासे विपरीत दिशामें भूभा होती है, अतएव शरका ज्ञान विपरीत होता है । भूभाका कोषात्मक व्यास निकालकर ग्रहणका साघन होता है । यहाँ उदाहरणार्थ एक चित्र दिया जाता है जिससे लम्बन आदिका ज्ञान प्राप्त कर ग्रहणको स्थिति जानी जा सकती है 13
अब, अ = भूकेन्द्र | प = सूर्यका परमलम्बन भ अ क । प = चन्द्रका परम लम्बन भ म ब, वा, भ क ब । स = सूर्य व्यासाध॑से उत्पन्न भूकेन्द्रग कोणमान स म अ । 6 = भ व ब, भूछाया कोणार्धमान ।
९. वही, ७।२२८
२. तिलोयणण्णत्ति, गाथा ७।२४६
३. उदाहरण-चित्र अनुपलब्ध है ।
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अ + c = पे;
e
भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
.:. अ = पे-e
.
इसी कारण से, e = स -प;
.. अ = पे - ( स - पे ) = वे + प-स
परन्तु 'प' व और स का मान ज्ञात है, इसलिए २अ, म न चाप का सम्मुख भूकेन्द्रग कोण निश्चित हुआ ।
इसी प्रकार चन्द्र प्रवेशकाल सम्बन्धी भूछायाका व्यासार्थ अर्थात् 'कय' भी सिद्ध हो सकता है । वह व्यासार्ध 'प-प + स' के समान है । क्योंकि रेखागणित के अनुसार
क भ स = पै + ८ = प + स
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उपर्युक्त क्षेत्रमें भ व अर्थात् भू केन्द्र से छायाग्र तथा भूभाकी लम्बाई है । इसका मान भी भूव्यासार्थ और भू छाया कोणार्ध मान ज्ञात होने से सुगम है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि भूव्यासार्ध किसी वृत्तके चापके तुल्य है, जिसका केन्द्र और व्यासार्धं व, और व भ है । इस प्रकार भूभाका मान निकाल कर लम्बन और नति द्वारा शर ज्ञात होने से ग्रहणको स्थितिका ज्ञान किया जा सकता है । यन्त्रराज में स्फुट लम्बनका साधन कई रूपोंमें किया है । तथा वलन के गणित द्वारा आयन वलन, आक्षवलन और स्पष्टवलनका आनयन किया है। विस्तारके भयसे यहाँ सभीका निरूपण करना शक्य नहीं है । यों तो कालगणना अहर्गण साधन, दिनमान साधन आदिमें भी पर्याप्त अन्तर है ।
जैन मान्यता संसारका कोई स्रष्टा स्वीकार नहीं किया गया है। यह संसार स्वयंसिद्ध है, अनादिनिधन है, किन्तु भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में अवसर्पण कालके अन्त में खण्ड प्रलय होता है, जिससे कुछ पुण्यात्माओं को, जो विजयार्द्ध की गुफाओं में छिप गये थे, छोड़ सभी जीव नष्ट हो जाते है । उपसर्पण के दुःषम दुःषम नामक प्रथम कालमें जल, दुग्ध और घृत की वृष्टि से जब पृथ्वी स्निग्ध रहने योग्य हो जाती है, तो वे बचे हुए जीव आकर पुनः बस जाते हैं। और उनका संसार चलने लगता है । जैन मान्यतामें बीस कोड़ा कोड़ी अद्धा सागरका कल्प काल बताया गया है । इस कल्प काल के दो भेद हैं- एक अवसर्पण और दूसरा उत्सर्पण । अवसर्पण कालके सुषम- सुषम, सुषम, सुषम- दुःषम, दुषम-सुषम, दुःषम और दुःषम दुःषम ये छ: भेद तथा उत्सर्पण के दुःषम- दुःषम, दुःषम- सुषम, सुषम- दुःषम, सुषम और सुषम- सुषम ये छः भेद माने गये हैं । सुषम- सुषमका प्रमाण चार कोड़ीकोड़ी सागर, सुषम का तीन कोड़ाकोड़ी सागर; सुषम- दुःषमका दो कोड़ा - कोड़ी सागर; दुःषम- सुषमका बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर; दुःषम का इक्कीस हजार वर्ष होता है। प्रथम और द्वितीय कालमें भोगभूमिकी रचना; तृतीय कालके आदिमें भोगभूमि और अन्तमें कर्मभूमिको रचना रहती है । इस तृतीय
कालके अन्तमें चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं, जो प्राणियोंको विभिन्न प्रकारकी शिक्षाएँ देते हैं । प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति के समयमें जब मनुष्यको सूर्य और चन्द्रमा दिखलायी पड़े, तो वे इनसे सशंकित हुए और अपनी शंका दूर करनेके लिए उनके पास गये । उन्होंने सूर्य और चन्द्रमा सम्बन्धी ज्योतिषविषयक ज्ञानकी शिक्षा दी । द्वितीय कुलकरने नक्षत्र विषयक शंकाओं का निवारण कर अपने युग के व्यक्तियोंको आकाश मंडलकी समस्त बातें बतलाई ।
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ठाणांग' और प्रश्नव्याकरण अंगमें पञ्चवर्षात्मक युग एवं युगानुसार ग्रह नक्षत्र आदिकी आयन विधि प्रतिपादित है । इस प्रकार जैन चिन्तकोंने नक्षत्रोंका कुल, उपकुल और कुलोपकुलोंमें विभाजन कर वर्णन किया है । चन्द्रमाके साथ स्पर्श करने वाले एवं उसका वेघ करनेवाले नक्षत्रोंका भी कथन आया है । अतएव इस आलोक में यह कहा जा सकता है कि ग्रहगणित सम्बन्धी अनेक विशेषताएँ जैन ज्योतिष में समाहित हैं ।
भारतीय ज्योतिर्ग्रन्थोंमें ज्योतिष्करण्डक पहला जैन ग्रन्थ है जिसमें लग्नका विचार किया गया है । राशि और लग्न के सम्बन्धमें फैली हुई भ्रान्त धारणा कि भारतीयोंने इन सिद्धान्तोंको ग्रीकसे अपनाया है, ई० पूर्व शताब्दीमें रचे गये उक्त ग्रन्थसे निरस्त हो जाती है ।
जातक फल निरूपण सम्बन्धी विशेषताएँ
जैन मान्यतामें ग्रह कर्मफलके सूचक बतलाये गये हैं । कुवलयमाला में लिखा है“पुब्व-कय-कम्म-रइयं सुहं च दुक्खं च जायए देहे" अर्थात् पूर्वकृत कर्मोंके उदय, क्षयोपशम आदिके कारण जीवधारियोंको सुख और दुःख की प्राप्ति होती है । सुख-दुःखका देनेवाला ईश्वर या अन्य कोई दिव्य शक्ति नहीं है । ग्रह कर्मफलकी सूचना देते हैं । अतः वे सूचक निमित्त हैं, कारक निमित्त नहीं । जिस प्रकार ट्रेनके आनेके पूर्व सिगनल डाउन हो जाता है और ट्रेन आनेकी सूचना मिल जाती है, सिगनल ट्रेनको लानेवाला नहीं है, ट्रेनके आनेकी सूचना देनेवाला है । इसी प्रकार निश्चित राशि और अंशोंमें रहनेवाले ग्रह व्यक्तियोंके कर्मोदय, कर्मक्षयोपशम या कर्मक्षयकी सूचना देते हैं ।
जैन मान्यतामें अट्ठासी ग्रह, अगणित नक्षत्र और तारिकाएँ बतलायी गयी हैं, पर इनमें प्रधान नवग्रह ही हैं, और ये ज्ञानावरणादि कर्मोंके सूचक हैं ।
बृहस्पतिको ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमका प्रतीक माना जा सकता है। इसका विचार राशि अंश आदिके अनुसार कर, बाह्य व्यक्तित्व और अन्तरंग व्यक्तित्वका निरूपण किया जाता है । बाह्य व्यक्तित्वकी अपेक्षा रक्त, स्नायुमंडल, मस्तिष्क शक्ति, स्मृति, अनुभव, प्रत्यभिज्ञा, आदिका विचार होता है । अन्तरंग व्यक्तित्वकी अपेक्षा क्षयोपशम जन्य ज्ञानशक्तिका विश्लेषण किया जाता है । इसी कारण व्यापार, कार्यकुशलता, उत्सव, दान, सहानुभूति एवं व्यवसाय सम्बन्धी प्रौढ़ता आदिका विचार भी बृहस्पति द्वारा किया जाता है । मनोभाव एवं मनकी विभिन्न स्थितियोंसे उत्पन्न सौन्दर्य, प्रेम, शक्ति, भक्ति, व्यवस्था, उदारता के साथ पैर, जंघा, जिगर, पाचनक्रियाका विचार भी बृहस्पतिकी स्थितिके आलोक में किया जाता है । मोक्षगामी व्यक्तिके व्यक्तित्वका विश्लेषण प्रधान रूपसे बृहस्पति द्वारा ही सम्भव है ।
यह स्मरणीय है कि फल- प्रतिपादनमें एक ग्रहकी प्रधानताका विचार करते समय अन्य ग्रहोंके गौण सम्बन्धोंपर भी ध्यान रखना आवश्यक होता है । अनेकान्तवाद की सरणिका
१. ठाणांग ५ । ३ । १० तथा समवायांग ६१ सूत्र ।
२. तहा कहन्ते कुला उवकुला कुलावकुला आहितोत्ति वदेज्जा,- -प्रश्न व्याकरण १०।५ । ३. ठाणांग ८। १०० ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
अवलम्बन लिये बिना ग्रह फलका कथन करनेसे पद-पदपर भ्रान्ति होती है। अतएव ग्रह और राशियोंके सभी प्रकारके सम्बन्धोंको ध्यानमें रखते हुए किसी प्रमुख ग्रहकी विशेष स्थितिपर जोर दिया जाता है । दशा, अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर्दशा, सूक्ष्मदशा और प्राणदशाओंके सम्बन्धों द्वारा फलादेशका कथन करना उचित होता है ।
दर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशमादिका प्रतीक बुध है। इस ग्रह द्वारा बुध सम्बन्धी चांचल्य, वाक्-चातुर्य, नेत्रज्योति, आनन्द, उत्साह, विश्वास, अहंकार आदि बातोंका विचार किया जाता है। साधारणतः यह आध्यात्मिक शक्तिका प्रतीक है। इसके द्वारा आन्तरिक प्रेरणा, सहेतुक निर्णयात्मक बुद्धि, वस्तु परीक्षण शक्ति एवं समझदारी आदिका विश्लेषण किया जाता है । इस प्रतीकमें विशेषता यह रहती है कि गम्भीरता पूर्वक किये गये विचारोंका विश्लेषण बड़ी खूबीसे इसके द्वारा किया जा सकता है।
___अनात्मिक दृष्टिकोणकी अपेक्षा गुरु और बुध इन दोनों प्रतीकों द्वारा (ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मोके क्षयोपशमसे उत्पन्न मिश्रित) स्कूलीय शिक्षा, कॉलेज शिक्षण, वैज्ञानिक प्रगति, साहित्यिक शक्ति, लेखन क्षमता, प्रकाशन क्षमता, धातुओंके परखनेकी बुद्धि, खण्डन-मण्डन शक्ति, चित्र और संगीत कला आदिका विचार किया जाता है । शारीरिक दृष्टिकोणसे इस प्रतीक द्वारा मस्तिष्क, स्नायु क्रिया, जिह्वा, श्रवणशक्ति, ज्ञानेन्द्रियोंकी अन्तरंग और बाह्यक्षमता आदिका विश्लेषण विवेचन किया जाता है ।
वेदनीय कर्मोदयका प्रतीक शुक्र है । शुक्रकी शुभ दशा साता वेदनीयकी सूचक है और अशुभ दशा असाता वेदनीय की। यह आन्तरिक व्यक्तित्वका भी प्रतीक है। सूक्ष्म मानव चेतनाओंको विधेय क्रियाओंका प्रतिनिधित्व भी इसके द्वारा होता है । प्राणीको भोगशक्तिका परिज्ञान भी शुक्रसे प्राप्त किया जाता है। अनात्मिक दृष्टिकोणकी अपेक्षासे सुन्दर वस्तुएँ, आभूषण, आनन्दोत्पादक पदार्थ, सजावटकी वस्तुएं एवं कलात्मक सम्बन्धी सामग्रीका विचार भी शुक्रसे होता है । आत्मिक दृष्टिकोणकी अपेक्षासे इसका सुन्दर वस्तुओंके प्रति आसक्ति, स्नेह, सौन्दर्यज्ञान, आराम, आनन्द, स्वच्छता, कार्यक्षमता, परखबुद्धि आदिपर इसका प्रभाव पड़ता है ।
शारीरिक दृष्टि से गला, गुर्दा, जननेन्द्रिय, आकृति, वर्ण, केश, शरीर संचालित करनेवाले अंग-प्रत्यंग आदिपर प्रभाव पड़ता है ।
शुक्र और गुरुकी दशा एवं अन्तर्दशाके सम्बन्धसे आजीविकाका विश्लेषण भी किया . जाता है । ज्ञानावरणीय और अन्तराय कर्मके क्षयोपशमके साथ सातावेदनीयका उदय प्रतीक रूपमें गुरु, मंगल और शुक्रके सम्बन्धों द्वारा, अवगत किया जाता है । जो विचारक इन सम्बन्धोंका जितनी सूक्ष्मताके साथ विभिन्न दृष्टियोंसे विचार कर सकता है, वह फल कथनमें उतना ही सफल माना जाता है ।
अन्तराय कर्मके क्षयोपशमको मंगलकी स्थितियों द्वारा अवगत किया जाता है । यह मानव जातिके कल्याणका प्रतीक है, और हे विभिन्न प्रकारको विपत्तियों और बाधाओंका सूचक । यों इसे बाह्य व्यक्तित्वके मध्यम रूपका व्यञ्जक माना है। यह इन्द्रिय ज्ञान और आनन्देच्छाका प्रतिनिधित्व करता है । जितने भी उत्तेजक और संवेदना जन्य आवेग है, उनका
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यह प्रधान केन्द्र है । बाह्य आनन्ददायक वस्तुओंके द्वारा यह क्रियाशील होता है और पूर्वकी आनन्ददायक अनुभवोंकी स्मृतियोंको जागृत करता है । वांछित वस्तुकी प्राप्ति तथा उन वस्तुओंकी प्राप्ति के उपायोंके कारणोंकी क्रियाका प्रधान उद्गम है । यह प्रधान रूपसे इच्छाओंका प्रतीक है ।
अनात्मिक दृष्टिकोण से यह सैनिक, डाक्टर, रसायनशास्त्रवेत्ता, नापित, बढ़ई, लुहार, मशीनका कार्य करनेवाला, मकान बनानेवाला, खेल एवं खेलोंके सामान आदिका भी प्रतिनिधि है । शारीरिक दृष्टिकोणसे बाहरी सिर- खोपड़ी, नाक एवं गालका प्रतीक है । इसके द्वारा संक्रामक रोग, धाव, खरोंच, ऑपरेशन, रक्तदोष, दर्द, उदरपीड़ा आदिका भी विचार किया जाता है । आत्मविश्वास, क्रोध, युद्धवृत्ति एवं प्रभुता आदिका भी प्रतिनिधि है ।
दर्शन मोहनीय उपशम, क्षय या क्षयोपशमका प्रतीक शनि है । यह समस्त ग्रहों में विशेष महत्त्वपूर्ण है । मानव प्राणी सांसारिक विषयभोगोंमें आसक्त हो, आधिभौतिक और आधिदैविक साधनों से त्रस्त हो जब वह आत्माकी ओर उन्मुख होता दो दर्शन मोहनीय कर्मके प्रतीक शनिका फलादेश माना जाता है । इस ग्रहकी दशा, महादशा, अन्तर्दशा आदिमें क्लेश, दुःख एवं विपत्तियाँ प्राप्त होती हैं । अतः दर्शन मोहनीयके प्रतीक शनिद्वारा बाह्य और आन्तरिक चेतनाका परिज्ञान प्राप्त किया जाता है । प्रत्येक नवजीवन में आन्तरिक व्यक्तित्वसे जो कुछ प्राप्त होता है और जो मनुष्यके व्यक्तिगत जीवनसे मिलता है, उससे यह मनुष्यको वृद्धिगत करता है । यह प्रधान रूपसे अहम् भावनाका प्रतीक होता हुआ भी व्यक्तिगत जीवनके विचार, इच्छा और कार्योंके सन्तुलनका प्रतिनिधि है । विभिन्न प्रतीक - ग्रहोंके संयोगों द्वारा नाना तरहसे जीवन के रहस्योंको अभिव्यक्त करता है । उच्च स्थानका शनि सम्यक्त्वका सूचक है ।
अनात्मिक दृष्टिकोण से कृषक, हलवाहक, पत्रवाहक, चरवाहा, कुम्हार, माली, मठाधीश, पुलिस ऑफिसर, उपवास करनेवाले साधु-संन्यासी आदिका प्रतिनिधि है । आत्मिक दृष्टिसे तत्त्वज्ञान, विचारस्वातन्त्र्य, नायकत्व, मननशीलता, कार्यपरायणता, आत्मसंयम, धैर्य, दृढ़ता, गम्भीरता, आत्मचिन्तन, सतर्कता, विचारशीलता एवं कार्यशीलताका प्रतीक है । शारीरिक दृष्टिसे हड्डियाँ, नीचेके दाँत, बड़ी आंतें एवं मांसपेशियोंपर प्रभाव डालता है ।
चारित्र मोहनीयके उपशम, क्षय, या क्षयोपशमका सूचक राहु है । यह विचारशक्ति और क्रियाशक्तिका भी द्योतक है । जिस व्यक्तिपर राहुका पूर्ण प्रभाव रहता है, वह व्यक्ति संसार त्यागी बनता है अथवा घरमें उदासीन रूपसे निवास करता है । भक्तियोग, असम्प्रज्ञात समाधि, अनासक्त योग, ध्यानावस्था, आत्मानुभूति आदिका प्रतिनिधि भी इसे माना गया है । इसके द्वारा आजीविका, व्यवसाय, विद्याध्ययन, विदेशगमन आदिका विचार किया जाता है ।
आयुकर्मोदयका प्रतीक चन्द्रमा है । चन्द्रमाके द्वारा मनुष्यकी आयु, अरिष्ट, मानसिक क्षमता, आन्तरिक शक्ति आदिका ज्ञान किया जाता है। शरीरपर इसका प्रभाव विशेष रूपसे पड़ता है । यह अनात्मिक दृष्टिकोणकी अपेक्षासे श्वेतरंग, जलपान, बन्दरगाह, मत्स्य, जल, तरलपदार्थ, नर्स, दासी, भोजन, रजत एवं बैगनी रंग के पदार्थोंपर प्रभाव डालता है ।
कल्पना,
आत्मिक दृष्टिकोणकी अपेक्षासे यह संवेदन, आन्तरिक इच्छा, उतावलापन, भावना, सतर्कता एवं लाभेच्छापर प्रभाव डालता है। शारीरिक दृष्टिकोणकी अपेक्षासे इसका
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान पेट, पाचनशक्ति, आँतें, स्तन, गर्भाशय, योनिस्थान, आँख एवं नारीके समस्त गुप्तांगोंपर प्रभाव डालता है।
___ गोत्र कर्मका प्रतीक केतु ग्रह है। यह जीवनको उच्च एवं नीच भावनाओंकी अभिव्यंजना करता है । इसके द्वारा कुल, जाति एवं रहन-सहनकी जानकारी प्राप्त की जाती है । केतुको कष्ट और विपत्तियोंके विश्लेषणका प्रतीक भी माना गया है।
नामकर्मोदयका प्रतीक रवि या सूर्य है। इसकी सात किरणें मानी गयी हैं, जो मोहनीय और गोत्रकर्मको छोड़ शेष कर्मोंकी अभिव्यञ्जना करती हैं। मनुष्यके विकासमें सहायक इच्छा शक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति इन तीनोंकी सूचना सप्त किरणों द्वारा प्राप्त होती है। अनात्मिक दृष्टिकोणकी अपेक्षासे जो व्यक्ति दूसरोंपर अपना प्रभाव रखते हों, ऐसे राजा, मंत्री, सेनापति, सरदार, आविष्कारक, पुरातत्त्ववेत्ता, दार्शनिक आदिपर अपना प्रभाव डालता है । आत्मिक दृष्टिकोणकी अपेक्षासे यह प्रभुता, ऐश्वर्य, प्रेम, उदारता, महत्त्वाकांक्षा, आत्मविश्वास, आत्मनियन्त्रण, विचार और भावनाओंका सन्तुलन एवं सहृदयताका प्रतीक है । शारीरिक दृष्टिसे हृदय, रक्तवाहक छोटी-छोटी नसें, शरीरका कद, रूप-रंग आदिका भी प्रतिनिधि है । इस प्रकार जैन चिन्तकोंके अनुसार ग्रहोंका फलसूचक निमित्तके रूपमें उपस्थित होता है। व्यक्ति अपने प्रबल पुरुषार्थ द्वारा, ग्रहों द्वारा, सूचित फलादेशमें उत्कर्ष, अपकर्ष, संक्रमण आदि कर सकता है । प्रश्नशास्त्र विषयक विशेषता
प्रश्नशास्त्र फलित ज्योतिषका महत्त्वपूर्ण अङ्ग है । इसमें प्रश्नकर्ताके प्रश्नानुसार बिना कुण्डलीके फल बताया जाता है । तात्कालिक फल बतलानेके लिए यह शास्त्र बहुत उपयोगी है। इस शास्त्रमें जैनाचार्योंने जितने सूक्ष्म फलका विवेचन किया है, उतना जैनेतर प्रश्न ग्रन्थोंमें नहीं । प्रश्नकर्ताके प्रश्नानुसार प्रश्नोंका उत्तर तीन प्रकारसे दिया जाता है
१ प्रश्नकालको जानकर उसके अनुसार शुभाशुभ फल बतलाना है । इस सिद्धान्तका मूलाधार समयका शुभाशुभत्व है-प्रश्न समयानुसार तात्कालिक प्रश्नकुण्डली बनाकर उससे ग्रहोंके स्थान विशेष द्वारा फल प्रतिपादन किया जाता है।
२. स्वर सिद्धान्त है । इसमें फल बतलाने वाला अपने स्वर (श्वास क्रिया) के आगमन और निर्गमनसे इष्टानिष्ट फलका प्रतिपादन करता है । इस सिद्धान्तका मूलाधार प्रश्नकर्ताका अदृष्ट है; क्योंकि उसके अदृष्टका प्रभाव तत्स्थानीय वातावरणपर पड़ता है, इससे वायु प्रकम्पित होकर प्रश्नकर्ताके अदृष्टानुकूल बहने लगती है और चन्द्र एवं सूर्य स्वरके रूप में परिवर्तित हो जाती है।
- ३. प्रश्नकर्ताके प्रश्नाक्षरोंसे फल बतलाना है। इस सिद्धान्तका मूलाधार मनोविज्ञान है, क्योंकि विभिन्न मानसिक परिस्थितियोंके अनुसार प्रश्नकर्ता भिन्न-भिन्न प्रश्नाक्षरोंका उच्चारण करते हैं । उच्चरित प्रश्नाक्षरोंसे मानसिक स्थितिका पता लगाकर शुभाशुभ फलका प्रतिपादन किया जाता है।
इन तीनों सिद्धान्तोंका जैनाचार्योंने प्रतिपादन किया है, पर उन्होंने विशेषता प्रश्नाक्षर वाले सिद्धान्तको दी है। यह सिद्धान्त उक्त दोनों सिद्धान्तोंसे अधिक सत्य और अव्यभिचरित
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उदाहरणके लिये मान लिया जाय कि सौ व्यक्ति एक ही साथ, एक ही समय और स्थानमें, प्रश्नोंका उत्तर पूछने के लिये आये। इस समयका प्रश्न लग्न सभी व्यक्तियोंका एक ही होगा, तथा ग्रह भी प्रायः एकसे ही रहेगें। अतः सभीका फल सदृश्य आयेगा । हाँ, एक-दो सेकिण्ड या मिनटका अन्तर पड़ने से नवमांस, द्वादशांश आदिमें अन्तर आ जायेगा, पर इस अन्तरसे स्थूल फलमें विशेष भिन्नता घटित न होगी।
प्रश्नाक्षर वाले सिद्धान्तके अनुसार सभी व्यक्तियोंके प्रश्नाक्षर तुल्य नहीं होंगें । भिन्नभिन्न मानसिक परिस्थितियोंके अनुसार, देव, पुष्प, फल, नदी, पर्वत आदिका नाम भिन्न-भिन्न रूपमें उच्चरित करेंगें। अतः सभीका फलादेश पृथक्-पृथक् होगा।
___जैन प्रश्न शास्त्रमें मुख्यतः प्रश्नाक्षरोंसेही फलका प्रतिपादन किया गया है। इसमें लग्नादिका प्रपंच नहीं है । इसका मूलाधार मनोविज्ञान है । बाह्य और आभ्यन्तरिक दोनों प्रकारको विभिन्न परिस्थितियोंके अधीन मानव मनकी भीतरी तहमें जैसी भावनाएं छिपी रहती हैं, वैसेही प्रश्नाक्षर निकलते हैं। मनोविज्ञानके विद्वानोंका कथन है कि मस्तिष्कमें किसी भौतिक घटना या क्रियाका उत्तेजन पाकर प्रतिक्रिया होती है । यही प्रतिक्रिया मानवके आचरणमें प्रदर्शित हो जाती है; यतः अबाध भावानुसंगसे हमारे मनके अनेक गुप्त भाव भावी शक्ति, अशक्तिके रूपमें प्रकट हो जाते हैं, तथा उनसे समझदार व्यक्ति सहज में ही मनकी धारा और उससे घटित होने वाले फलको समझ लेता है ।
आधुनिक मनोविज्ञानके सुप्रसिद्ध पंडित फ्रायडके मतानुसार मनकी दो अवस्थाएँ हैसज्ञान और निर्ज्ञान । सज्ञान अवस्था अनेक प्रकारसे निर्ज्ञान अवस्थाके द्वारा नियन्त्रित होती रहती है । प्रश्न शास्त्रके अनुसार फल, पुष्प, नदी, पर्वत आदिका नाम पूछे जाने पर मानव निर्ज्ञान अवस्था विशेषके कारण ही झटित उत्तर देता है और उसका प्रतिबिम्ब सज्ञान मानसिक अवस्था पर पड़ता है। अतएव प्रश्नके मूलमें प्रवेश करने पर, संज्ञात इच्छा, असंज्ञातइच्छा, अन्तर्जातइच्छा और नितिइच्छा ये चार प्रकारकी इच्छाएँ मिलती हैं। इन इच्छाओंमेंसे असंज्ञात इच्छा बाधा पाने पर नाना प्रकारसे व्यक्त होनेको चेष्टा करती है तथा इसी कारण रुद्ध या अवदमित इच्छाएँभी प्रकाश पाती हैं । यद्यपि हम संज्ञात इच्छाके प्रकाश कालमें रूपान्तर जान सकते हैं, किन्तु संज्ञात या असंज्ञात इच्छाके प्रकाशित होनेपरभी हठात् कार्य देखनेसे उसे नहीं जान पाते हैं। विशेषज्ञ या ज्योतिषी प्रश्नाक्षरोंके विश्लेषणसेही असंज्ञात इच्छाका पता लगा लेते हैं, तथा उससे सम्बद्ध भावी घटनाओंकोभी अवगत कर लेते हैं ।
इस सिद्धान्तका फ्रायडकी दृष्टिसे विवेचन करनेपर ज्ञात होता है कि मानव मनका संचालन प्रवृत्ति मूलक शक्तियोंसे होता है, और ये प्रवृतियाँ सदैव उसके मनको प्रभावित करती हैं । मनुष्यके व्यक्तित्वका अधिकांश भाग अचेतन मनके रूपमें है, जिसे प्रवृतियोंका अशान्त समुद्र कह सकते हैं। इन प्रवृत्तियोंमें प्रधान रूपसे काम और गौण रूपसे अन्य इच्छाओंकी HT उठती रहती हैं। मनुष्यका दूसरा अंश चेतन मनके रूपमें है, जो घात-प्रतिघात करने वाली कामनाओंसे प्रादुर्भूत हैं और उन्हींको प्रतिबिम्बित करता रहता है । बुद्धि मानवका एक प्रतीक है, उसीके द्वारा वह अपनी इच्छाओंको चरितार्थ करता है । अतः सिद्ध है कि हमारे विचार, विश्वास, कार्य और आचरण जीवनमें स्थित वासनाओंकी प्रतिच्छाया मात्र हैं । सारांश
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
यह है कि संज्ञात इच्छा प्रत्यक्ष रूप से प्रश्नाक्षरोंमें प्रकट होती है, जिससे असंज्ञात और निर्ज्ञात इच्छाओं की जानकारी की जाती है। जैनाचार्योंने प्रश्न शस्त्रमें असंज्ञात और निर्ज्ञात इच्छा सम्बन्धी सिद्धान्तोंका पारिभाषिक शब्दावलि द्वारा विवेचन किया है। अतः अधरोत्तर, वर्गोत्तर एवं वर्ग संयुक्त अधरोत्तर इस वर्गत्रयके संयोग द्वारा उत्तरोत्तर, उत्तराघर, अधरोत्तर, अधराधर, वर्गोत्तर, अक्षरोत्तर, स्वरोत्तर, गुणोत्तर और आदेशोत्तर इन नव भंगों द्वारा प्रश्नों के शुभाशुभत्वका विवेचन किया है ।
वाचिक विधिसे प्रश्नोंका फल विवेचन करने के साथ-साथ मानसिक विधिसे प्रश्नाक्षरों की जीव, धातु और मूल संज्ञाएँ कल्पित कर लाभा लाभ, जीवन-मरण, कार्य सिद्धि-असिद्धि, प्रभूति नाना तरहके प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं । अ आ इ ए ओ अः क ख ग घ च छ ज झ टठडढ़ यश ह ये इक्कीस वर्ण जीवाक्षर; उ ऊ अं त थ द ध प फ ब भ व स ये तेरह वर्ण धात्वक्षर एवं ई ऐ औ न ङ ण न म र ल ष ये ग्यारह वर्ण मूलाक्षर संज्ञक कहे गये हैं । प्रश्नाक्षरांमें जीवाक्षरों की अधिकता होने पर जीव सम्बन्धिनी चिन्ता, धात्वरोंकी अधिकता होने पर धात्व सम्बन्धिनी चिन्ता और मूलाक्षरोंकी अधिकता होने पर मूलाक्षर सम्बन्धिनी चिन्ता होती है । सूक्ष्मतासे फल प्रतिपादन के हेतु जीवाक्षरोंके द्विपद, चतुष्पद, अपद और पादसंकुल ये चार भेद किये हैं । धात्वक्षर और मूलाक्षरोंमेंभी अनेक प्रकार के भेद - प्रभेदकर प्रश्नोंका फल बतलाया गया है । अर्द्धच्चूडामणिसार, केवल ज्ञान प्रश्न चूड़ामणि और चन्द्रोन्मीलन प्रश्न आदि ग्रन्थों में प्रश्नाक्षरों को संयुक्त, असंयुक्त अभिहित, अनभिहित और अभिघातित इन पाँच वर्गों के साथ आलिंगित, अभिधूमित और दध इन तीन क्रिया विशेषणों में विभक्त कर प्रश्नोत्तर की विधि प्रतिपादितको गयी है । भट्टवोसरि और मल्लिषेणने आयज्ञान तिलक और आयसद्भाव प्रकरण में प्रश्नाक्षरों को ध्वज, धूम, सिंह, श्वान, वृष, खर, गज और वायस संज्ञाओं में विभक्तकर प्रश्नोंका फलादेश बतलाया है। प्रश्न प्रणालीका इतना विस्तार और गहन अध्ययन अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता ।
स्वप्न शास्त्र एवं निमित्त शास्त्र सम्बन्धी विशेषताएँ
जैन मान्यतामें शरीरके स्वस्थ रहने पर स्वप्न कर्मोदय के अनुसार घटित होने वाले शुभाशुभ फलके द्योतक बतलाये गये हैं । स्वप्नका अन्तरंग कारण ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायके क्षयोपशमके साथ मोहनीयका उदय है । जिस व्यक्ति के जितना अधिक इन कर्मोंका क्षयोपशम होगा, उस व्यक्ति के स्वप्नोंका फलभी उतना ही अधिक सत्य निकलेगा । तीव्र कर्मोके उदय वाले व्यक्तियोंके स्वप्न निरर्थक एवं सारहीन होते हैं । इसका मुख्य कारण जैनाचार्योंने' यही बतलाया है कि सुषुप्तावस्थामें भी आत्मा तो जागृतही रहती है, केवल इन्द्रियों और मनकी शक्ति विश्राम करनेके लिए सुषुप्त सी हो जाती है, पर ज्ञानकी उज्ज्वलतासे क्षयोपशम जन्म शक्तिके कारण निद्रित अवस्थामें जो कुछ देखते हैं, उसका सम्बन्ध हमारे भूत, वर्तमान और भावी जीवनसे रहता है । इस प्रकार स्वप्न सम्बन्धी विशेषताएँ प्राप्त होती हैं । दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, प्रार्थित, कल्पित, भाविक और विकृत ये सात प्रकारके स्वप्न विस्तृत
१. भद्रवाह संहिता, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, २६।३-४ ।
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ज्योतिष एबं गणित
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फलादेश सहित निरूपित किये गये हैं । किस स्वप्नका फल कितना किस अवस्थामें घटित होता है, इसकाभी विचार किया गया है ।
बाह्य निमित्तोंको देखकर आगे होने वाले इष्टानिष्ट फलका निरूपण निमित्त शास्त्रमें आया है । निमित्त शास्त्र विषयक स्वतन्त्र रचनाएं जैनाचार्योंकीही उपलब्ध होती हैं । जैनेतर ज्योतिषमें संहिता शास्त्रके अन्तर्गत निमित्तके कतिपय विषयोंका विवेचन अवश्य किया गया है पर कुछ विषय ऐसे हैं, जिसका विवेचन केवल जैन ज्योतिषमेंही प्राप्त होता है। व्यञ्जन, अंग, स्वर, भौम, छिन्न, अन्तरिक्ष , लक्षण और स्वप्न इन आठ निमित्तोंमेंसे छिन्न, लक्षण और स्वरका जितना और जैसा विवेचन जैन ज्योतिषमें पाया जाता है, वैसा अन्यत्र नहीं । अन्तरिक्ष, अंग, भौम और स्वप्नका संहिता ग्रन्थोंमें कथन आया है, पर छिन्न और स्वर निमित्त के सम्बन्धमें संहिता ग्रन्थ मौन हैं। ऋषि पुत्र निमित्त शास्त्र, और भद्रवाहु निमित्त शास्त्रके साथ ज्ञान दीपिकामें छिन्न और स्वरका विस्तार पूर्वक निरूपण आया है । अतएव निमित्त वर्णनकी दृष्टि से भी जैन ज्योतिषका पृथक् स्थान है।
___ ज्योतिषके प्रतिपादनका कारण बतलाते हुए भद्रवाहु संहिताके प्रारम्भमें बताया है कि मुनियोंकी निर्विघ्न चर्या, श्रावकोंके कल्याण एवं राजाओं के राज्य व्यवस्थाके परिज्ञानार्थ इस शास्त्रका निरूपण किया जाता है। वीतरागी साधु इस शास्त्रका अध्ययनकर संघके निर्विघ्न विचरण हेतु विचार करते हैं, और श्रावक अपने कर्तव्य और धर्मके निर्वाहके हेतु परिवेश और परिस्थितिका विचार करते हैं । इस तरह ज्योतिषका उपयोग धर्म, संस्कृति और समाज सेवाके लिये किया गया है। वर्षा एवं कृषि-विज्ञान सम्बन्धी विशेषताएँ
जैनाचार्योंने ज्योतिषका उपयोग राष्ट्र सेवाके लिए भी किया है । वीर सेवा मन्दिर ट्रस्टसे प्रकाशित ग्रन्थ लोकविजययन्त्र द्वारा वृष्टि-विज्ञान, कृषिकी उन्नति और प्रगति, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, स्वदेशकी स्थिति, राष्ट्रोंके साथ सम्बन्ध, रोग-शोकका भय, धान्यकी उत्पत्ति और विनाश, स्वचक्र-परचक्रमय, फसलको नष्ट करने वाले रोग, आन्तरिक और परराष्ट्र विद्रोह आदिका विचार विस्तार पूर्वक किया गया है । देशकी विभिन्न नगर और ग्रामोंकी दशाएँ निकालकर लोक विजययन्त्रको सरणि द्वारा फलादेशका विवेचन किया है। निस्सन्देह राष्ट्रीय फलादेशको अवगत करनेके लिए यह ग्रन्थ अद्वितीय है । जैनेतर ज्योतिषमें इस विषयसे सम्बद्ध अन्य कोई ग्रन्थ अभी तक मेरे देखने में नहीं आया है। अतएव संक्षेपमें सिद्धान्तोंकी प्रतिपादन प्रक्रिया, उनकी व्यवहार विधि एवं उनके विस्तृत वर्णन आदिकी दृष्टिसे जैन ज्योतिषकी अपनी कुछ विशेषताएँ हैं ।
१. भद्रवाहु संहिता, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण ११८-१४ ।
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जैन ज्योतिष साहित्य
"ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्र"-सूर्यादिग्रह और कालका बोध करानेवाला शास्त्र ज्योतिष कहलाता है । अत्यन्त प्राचीन कालसे आकाश-मण्डल मानवके लिए कौतूहलका विषय रहा है । सूर्य और चन्द्रमासे परिचित हो जानेके उपरान्त ताराओं, ग्रहों एवं उपग्रहोंकी जानकारी भी मानवने प्राप्त को। जैन परम्परा बतलाती है कि आजसे लाखों वर्ष पूर्व कर्म भूमिके प्रारम्भमें प्रथम कुलकर प्रतिश्रुतिके समयमें, जब मनुष्योंको सर्वप्रथम सूर्य और चन्द्रमा दिखलायी पड़े, वे तो इतने सशंकित हुए और अपनी उत्कंठा शान्त करनेके लिए उक्त प्रतिश्रुति नामक कुलकर मनुके पास गये। उक्त कुलकरने सौर जगतकी व्यावहारिक जानकारी बतलायी और इन्हींसे लोगोंने सौर मण्डलका ज्ञान प्राप्त किया तथा यही ज्ञान लोकमें ज्योतिषके नामसे प्रसिद्ध हुआ। आगमिक परम्परा अनवछिन्नरूपसे अनादि होनेपर भी इस युगमें ज्योतिष साहित्यकी नींवका इतिहास यहींसे आरम्भ होता है। यों तो जो ज्योतिष-साहित्य आजकल उपलब्ध है, वह प्रतिश्रुति कुलकरसे लाखों वर्ष पीछेका लिखा हुआ है ।
जैन ज्योतिष साहित्यका उद्भव और विकास-आगमिक दृष्टिसे ज्योतिष शास्त्रका विकास विद्यानुवादंगमें किया गया है । षटखंडागम धवलाटीका' में रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारभट, दैत्य, वैरोचन, वैश्वदेव, अभिजित, रोहष, बल, विजय, नैऋत्य, वरुण, अर्यमन और भाग्य ये पन्द्रह मुहूर्त आये हैं । मुहूर्तोंकी नामावली वीरसेन स्वामीकी अपनी नहीं है, किन्तु पूर्व परम्परासे प्राप्त श्लोकोंको उन्होंने उद्धृत किया है । अतः मुहूर्त चर्चा पर्याप्त प्राचीन है।
___ प्रश्नव्याकरणमें नक्षत्रोंकी मीमांसा कई दृष्टिकोणोंसे की गई है। समस्त नक्षत्रोंको कुल, उपकुल और कुलोपकुलोंमें विभाजन कर वर्णन किया गया है। यह वर्णन प्रणाली ज्योतिषके विकासमें अपना महत्त्वरूर्ण स्थान रखती है । धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, अश्विनी, कृत्रिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, उत्तरा फाल्गुनी, चित्रा, वैशाख, मूल एवं उत्तराषाढ़ ये नक्षत्र कुलसंज्ञक; श्रवण पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, रोहणी, पूनर्वसु, अश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, ज्येष्ठा एवं पूर्वाषाढ़ा ये नक्षत्र उपकुलसंज्ञक और अभिजित, शतभिषा, आर्द्रा एवं अनुराधा कुलोपकुल संज्ञक है। यह कुलोपकुलका विभाजन पूर्णमासीको होनेवाले नक्षत्रोंके आधारपर किया गया है। अभिप्राय यह है कि श्रावण मासके धनिष्ठा, श्रवण और अभिजित् भाद्रमासके उत्तराभाद्रपद, पूर्वाभाद्रपद और शतभिषा; आश्विनमासके अश्विनी और रेवती, कात्तिकासके कृत्तिका और भरणी, अगहन या मार्गशीर्ष मासके मृगशिरा और रोहणी, पौष मासके पुष्य, पुनर्वसु और आर्द्रा, माघमासके मघा और अश्लेषा, फाल्गुनमासके उत्तराफाल्गुनी और पूर्वाफाल्गुनी, चैत्रमासके चित्रा और हस्त, वैशाखमासके विशाखा और स्वाति, ज्येष्ठ मासके ज्येष्ठा, मूल और अनुराधा एवं आषाढ़मासके उत्तराषाढ़ा और पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र बताये गये हैं। १. धवलाटीका, जिल्द ४, पृ० ३१८ । २. प्रश्नव्याकरण, १०५।
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ज्योतिष एवं गणित
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प्रत्येक मासको पूर्णमासीको उस मासका प्रथम नक्षत्र कुलसंज्ञक, दूसरा उपकुलसंज्ञक और तीसरा कुलोपकुल संज्ञक होता है । इस वर्णनका प्रयोजन इस महीनेका फल निरूपण करना है । इस ग्रंथ में ऋतु, अयन, मास, पक्ष और तिथि सम्बन्धी चर्चाएं भी उपलब्ध हैं ।
समवायाङ्गमें नक्षत्रोंकी ताराएँ, उनके दिशाद्वार आदिका वर्णन है । कहा गया है— “कत्ति आइया सत्तणमवत्ता पुव्वदारिया । मराइया सत्तषमवत्ता दाहिणदारिआ । अणुराहा-इया सत्तणक्खत्ता । धाणिट्ठाइया सत्तणक्खत्ता उत्तरदारिया ।' अर्थात् कृत्तिका, रोहणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और अश्लेषा ये सात नक्षत्र पूर्वद्वार, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति और विशाखा ये नक्षत्र दक्षिणद्वार, अनुराधा, ज्येष्ठ, मूल, पूर्वाषाढ़ा उत्तराषाढ़ा अभिजित् और श्रवण ये सात नक्षत्र पश्चिमद्वार एवं धनिष्ठा, शतभिषा पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी और भरणी ये सात नक्षत्र उत्तर द्वारवाले हैं । समवायांग १।६, २।४, ३२, ४३, ५।८ में आयी हुई ज्योतिष चर्चाएँ महत्त्वपूर्ण हैं |
ठाणांग में चन्द्रमाके साथ स्पर्श योग करने वाले नक्षत्रोंका कथन किया गया है। वहाँ बतलाया गया है— कृत्तिका, रोहणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा, और ज्येष्ठा ये आठ नक्षत्र चन्द्रमाके साथ स्पर्श योग करने वाले हैं । इस योगका फल तिथियोंके अनुसार विभिन्न प्रकारका होता है । इसी प्रकार नक्षत्रोंकी अन्य संज्ञाएँ तथा उत्तर, पश्चिम, दक्षिण और पूर्व दिशा की ओरसे चन्द्रमाके साथ योग करनेवाले नक्षत्रोंके नाम और उनके फल विस्तार पूर्वक बतलाये गये हैं । ठाणांग में अंगारक, काल, लोहिताक्ष, शनैश्चर, कनक, कनककनक, कनक वितान, कनक- संतानक, सोमहित, आश्वासन, कज्जोवग, कर्वट, अयस्कर, दंदुयन, शंख, शंखवर्ण, इन्द्राग्नि, धूमकेतु, हरि, पिंगल, बुध, शुक्र, वृहस्पति, राहु, अगस्त, भानवक्र, काश, स्पर्श, घुर, प्रमुख, विकट, विसन्धि, विमल, पीपल, जटिलक, अरुण, अगिल, काल, महाकाल, स्वस्तिक, सौवास्तिक, वर्द्धमान, पुष्पमानक, अंकुश, प्रलम्ब, नित्यलोक, नित्योदयित, स्पयंप्रभ, उसम, श्रेयंकर, प्रेयंकर, आयंकर, प्रभंकर अपराजित, अरज, अशोक, विगतशोक, निर्मल, विमुख, वितत, विलस्त, विशाल, शाल, सुव्रत, अनिवर्तक, एकजटी, द्विजटी, करकरीक, राजगल, पुष्पकेतु एवं भावकेतु आदि ९९ ग्रहोंके नाम बताए गये हैं । समवायांगमें भी उक्त ९९ ग्रहोंका कथन आया है ।
‘“एगमेगस्सणं चंदिम सूरियस्स लट्ठासीइ महग्गहा परिवारों" " अर्थात् एक-एक चन्द्र और सूर्यके परिवार में अट्ठासी अट्ठासी महाग्रह है । प्रश्नव्याकरणांग में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और धूमकेतु इन नौ ग्रहोंके सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है । समवायांग में ग्रहण के कारणोंका भी विवेचन मिलता है । इसमें राहुके दो भेद बतलाये गये हैं - नित्य राहु और पर्वराहु । नित्यराहुको कृष्णपक्ष और शुक्लपक्षके कारण तथा पर्व राहु
१. समवायांग, स० ७, सं० ५ ।
२. ठाणांग, पू० ९८-१००० ।
३. समवायांग, स० ९९. १ । ४. समवायांग, स० १५.३.
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान को चन्द्रग्रहणका कारण माना है। केतु, जिसका ध्वजदण्ड सुर्यके ध्वजदण्डसे ऊँचा है, भ्रमवश वही केतु सूर्यग्रहणका कारण होता है। दिनवृद्धि और दिनह्रासके समम्बन्धमें भी समवायांग में विचार-विनिमय किया गया है। सूर्य जब दक्षिणायनमें निषधपर्वतके अभ्यांतर मण्डलसे निकलता हुआ ४४ वें मण्डल-गमन मार्गमें आता है, उस समय ६१ मुहूर्त दिन कम होकर रात बढ़ती है-इस समय २४ घटीका दिन और ३६ घटीकी रात होती है। उत्तर दिशामें ४४ वें मंडल-गमन मार्गपर जब सूर्य आता है, तब ६३ मुहूर्त बढ़ने लगता है और इस प्रकार जब सूर्य ९३ वें मण्डलपर पहुंचता है, तो दिन परमाधिक ३६ घटीका होता है । यह स्थिति आषाढीपूर्णिमाको घटती है ।'
___ इस प्रकार जैन आगम ग्रंथोंमें ऋतु, अयन, दिनमान, दिनवृद्धि, दिनह्रास, नक्षत्रमान, नक्षत्रोंकी विविध संज्ञाएँ, ग्रहोंके मण्डल, विमानोंके स्वरूप जौर विस्तार, ग्रहोंकी आकृतियों आदिका फुटकर रूपमें वर्णन मिलता है। यद्यपि आगम ग्रंथोंका संग्रहकाल ई० सन् की आरम्भिक शताब्दी या उसके पश्चात् ही विद्वान् मानते हैं, किन्तु ज्योतिषकी उपर्युक्त चर्चाएँ पर्याप्त प्राचीन हैं । इन्हीं मौलिक मान्यताओंके आधारपर जैन ज्योतिषके सिद्धान्तोंको ग्रीकपूर्व सिद्ध किया गया है ।
ऐतिहासज्ञ विद्वान् गणित ज्योतिष से भी फलित को प्राचीन मानते हैं । अतः अपने कार्यों की सिद्धि के लिये समयशुद्धि की आवश्यकता आदिम-मानव को भी रही होगी । इसी कारण जैन आगम ग्रन्थों में फलित ज्योतिषके बीज-तिथि नक्षत्र, योग, करण, वार, समयशुद्धि, दिनशुद्धि आदिका चर्चाएं विद्यमान हैं।
जैन ज्योतिष-साहित्यका सांगोपांग परिचय प्राप्त करनेके लिये निम्न चार कालखण्डोंमें विभाजित कर हृदयगम करने में सरलता होगी।
आदिकाल-ई० पू० ३०० में ६०० ई० तक । पूर्वमध्यकाल-६०१ ई० से० १००० ई० तक । उत्तर मध्यकाल-१००१ ई० से १७०० ई० तक । अर्वाचीन काल-१७०१ से १९६० ई० तक ।
आदिकालकी रचनाओं में सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, अंगविज्या, लोकविजययन्त्र एवं ज्योतिष्करण्डक आदि उल्लेखनीय है। सूर्यप्रज्ञप्ति प्राकृत भाषा में लिखित एक प्राचीन रचना है । इसपर मलयगिरिकी संस्कृत टीका है। ई० सन् से दो दौ वर्ष पूर्वकी यह रचना निर्विवाद सिद्ध है । इसमें पंचवर्षात्मक युग मानकर तिथि, नक्षत्रादिका साधन किया गया है । भगवान महावीरकी शासन तिथि श्रावणकृष्ण प्रतिपदासे, जबकि चन्द्रमा अभिजित् नक्षत्रपर रहता है, युगारम्भ माना गया है। १. वहिराओ उत्तराअषं कट्ठाओ सूरिए पठमं अयमाणे चोयालिस इमे मंडलगते अट्ठासीति
एगसट्ठि भागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस मिवुडढ़े त्ता रयणिखेत्तस्स अमिनिवुठेत्ता सूरिए
चारं चरइ-स० ९२-७ । २. चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थके अन्तर्गत 'ग्रीकपूर्व जैन ज्योतिष विचारधारा' शीर्षक निबन्ध,
पृ० ४६२ ।
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ज्योतिष एवं गणित
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सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य के गमनमार्ग, आयु, परिवार आदिके प्रतिपादनके साथ पंचवर्षात्मिक युग के अयनोंके नक्षत्र, तिथि और मासका वर्णन भी किया गया है ।
चन्द्रप्रज्ञप्तिका विषय प्रायः सूर्यप्रज्ञप्ति के समान है । विषयकी अपेक्षा यह सूर्यप्रज्ञप्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण है इसमें सूर्यकी प्रतिदिन की योजनात्मिका गति निकाली गयी है तथा उत्तरायण और दक्षिणायनकी वीथियोंका अलग-अलग विस्तार निकाल कर सूर्य और चन्द्र की गति निश्-ि चत की गई है । इसके चतुर्थ प्राभृत में चन्द्र और सूर्यका संस्थान तथा तापक्षेत्रका संस्थान विस्तार से बताया गया है । इसमें समचतुस्र आदि विभिन्न आकारोंका खण्डन कर सोलह वीथियोंमें चन्द्रमाको समचतुस्र गोल आकार बताया गया है। इसका कारण यह है कि सुषमा • सुषम कालके आदिमें श्रावणकृष्ण प्रतिपदाके दिन जम्बूद्वीपका प्रथम सूर्य पूर्व दक्षिण-अग्निकोणमें और द्वित्तीय चन्द्रमा पश्चिम-दक्षिण नैऋत्य कोण में चला । अतएव युगादिमें सूर्य और चन्द्रमा का समचतुस्र संस्थान था, पर उदय होते समय ग्रह वर्तुलाकर निकले, अतः चन्द्रमा और सूर्यका आकार अर्धकपीठ अर्ध समचतुस्र गोल बताया गया है ।
चन्द्रप्रज्ञप्ति में छाया साधन किया गया है और छाया प्रमाणपरसे दिनमान भी निकाला गया है । ज्योतिषकी दृष्टिसे यह विषय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । यहाँ प्रश्न किया गया है कि जब अर्धपुरुष प्रमाण छाया हो, उस समय कितना दिन व्यतीत हुआ और कितना शेष रहा ? इसका उत्तर देते हुए कहा है कि ऐसी छाया की स्थिति में दिनमानका तृतीयांश व्यतीत हुआ समझना चाहिए । यहाँ विशेषता इतनी है कि यदि दोपहर के पहले अर्धपुरुष प्रमाण छाया हो तो दिनका तृतीय भाग गत् और दो तिहाई भाग अवशेष तथा दोपहरके बाद अर्धपुरुष प्रमाण छाया हो तो दो तिहाई भाग प्रमाण दिन गत और एक भाग प्रमाण दिन शेष समझना चाहिए। पुरुष प्रमाण छाया होनेपर दिनका चौथाई भाग गत और एक भाग प्रमाण दिन शेष समझना चाहिए । पुरुष प्रमाण छाया होनेपर दिनका चौथाई भाग गत् और तीन चौथाई भाग शेष, डेढ़ पुरुष प्रमाण छाया होने पर दिनका पंचम भाग गत और चार पंचम भाग (भाग) अवशेष दिन समझना चाहिए' इहे ग्रंथ में सोल, त्रिकोण, लम्बी, चौकोर वस्तुओंकी छाया परसे दिनमान का आयन किया गया है । चन्द्रमाके साथ तीस मुहूर्त्त तक योग करने वाले श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, मृगधिर, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल और पूर्वाषाढ़ ये पन्द्रह नक्षत्र बताए गये हैं । पैंतालीस मुहूर्त्त तक चन्द्रमाके साथ योग करने वाले उत्तरा भाद्रपद, रोहणी, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, और उत्तराषाढ़ा ये छः नक्षत्र एवं पन्द्रह मुहूर्त्त तक चन्द्रमाके साथ योग करने वाले शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा ये छः नक्षत्र बताये गये हैं ।
चन्द्र प्रज्ञप्तिके १९ वें प्राभृतमें चन्द्रमा को स्वतः प्रकाशमान बतलाया है तथा इसके घटने बढ़नेका कारण भी स्पष्ट किया है । १९ वें प्राभृत में पृथ्वी तलसे सूर्यादि ग्रहोंकी ऊँचाई बतलायी गयी है ।
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ज्योतिष्करण्ड एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें अयमादिके कथनके साथ नक्षत्र लग्नका भी निरूपण किया गया है । यह लग्न निरूपणकी प्रणाली सर्वथा नवीन और मौलिक है:१. गए वा सेसे वा जाव चऊ भाग गए सेसे वा । चन्द्र प्रज्ञप्ति ९-५ २. अंगविज्जा १० २०६-२०९ ।
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
लग्गं च दक्खिणाय विसुवे सुवि अस्स उत्तरं अयणे । लग्गं साईवि सुवेसु पंचसु वि दक्खिणे अयणे |
अर्थात् अश्विनी और स्वाति ये नक्षत्र विषुव के लग्न बताये गये हैं । जिस प्रकार नक्षत्रों की विशिष्ट अवस्थाको राशि कहा जाता है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्रोंकी विशिष्ट अवस्थाको लग्न बताया गया है।
इस ग्रन्थ में कृत्तिकादि, धनिष्ठादि भरण्यादि, श्रवणादि एवं अभिजित् आदि नक्षत्र गणनाओं की विवेचनाकी गयी है । ज्योतिष्करण्डका रचनाकाल ई० पू० ३०० के लगभग है । विषय और भाषा दोनों ही दृष्टियोंसे यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है ।
अंगविज्जाका रचनाकाल कुषाण- गुप्त युगका सन्धिकाल माना गया है। शरीरके लक्षणों से अथवा अन्य प्रकारके निमित्त या चिन्होंसे किसीके लिए शुभाशुभ फल का कथन करना ही इस ग्रन्थका वर्ण्य विषय है । इस ग्रन्थ में कुल साठ अध्याय हैं । लम्बे अध्यायोंका माहात्म्य प्रभृत्ति विषयोंका विवेचन किया है। गृहप्रवेश, यात्रारम्भ, वस्त्र, यान, धान्य, चर्या, चेष्टा आदि द्वारा शुभाशुभ फलका कथन किया गया है । प्रवासी घर कब और कैसी स्थिति में लौटकर आयेगा, इसका विचार ४५ वें अध्याय में किया गया है । ५२ वें अध्यायमें इन्द्र धनुष, विद्युत, चन्द्रग्रह, नक्षत्र, तारा, उदय, अस्त्र, अमावस्वा, पूर्णमासी मडंल, वीथी, युग, संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, क्षण, लव मुहूर्त, उल्कापात, दिशादाह आदि निमित्तोंसे फलकथन किया गया है । सत्ताईस नक्षत्र और उनसे होने वाले शुभाशुभ फलका भी विस्तार से उल्लेख है । संक्षेपमें इस ग्रन्थमें अष्टांग निमित्तका विस्तारपूर्वक विभिन्न दृष्टियोंसे कथन किया गया है ।
लोकविजय-यन्त्र भी एक प्राचीन ज्योतिष रचना है । यह प्राकृत भाषामें ३० गाथाओं में लिखा गया है । इसमें प्रधानरूप से सुभिक्ष, दुर्भिक्षकी जानकारी बतलायी गयी है । आरम्भमें मंगलाचरण करते हुए कहा है :
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पण मय पयारविंदे तिलोयनाहस्स जगपईवस्स । पुच्छामि लोयविजयं जंतं जंतूण सिद्धिकयं ॥
जगत्पति - नाभिराय के पुत्र त्रिलोकनाथ ऋषभदेवके चरण कमलोंमें प्रमाण करके जीवों की सिद्धिके लिये लोकविजययन्त्रका प्रतिपादन किया गया है । कृषिशास्त्र की दृष्टि से भी ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है ।
कालकाचार्य:- यह भी निमित्त और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान् थे । इन्होंने अपनी प्रतिभासे शकुलके साहिको स्ववश किया था तथा गर्दभिल्लको दण्ड दिया था । जैन परम्परा में ज्योतिष के प्रवर्तकों में इनका मुख्य स्थान है, यदि यह आचार्य निमित्त और संहिताका निर्माण न करते, तो उत्तरवर्ती जैन लेखक ज्योतिषको पाप श्रुत समझकर अछूता ही छोड़ देते ।
वराहमिहिर ने वृहज्जातकमें कालक संहिताका उल्लेख किया है । इनके मत से ग्रहोंका केन्द्र समंरु पर्वत है, यह नित्य गतिशील होते हुए मेरुकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं । चौथे अध्याय में ग्रह-नक्षत्र प्रकीर्णक और तारोंका भी वर्णन किया है ।
१. भारतीय ज्योतिष, पृ० १०७
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ज्योतिष एवं गणित
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पूर्वमध्यकालमें गणित और फलित दोनों ही प्रकारके ज्योतिषका यथेष्ट विकास हुआ। इसमें ऋषिपुत्र, महावीराचार्य, चन्द्रसेन, श्रीधर प्रभति ज्योतिर्विदों ने अपनी अमूल्य रचनाओंके द्वारा साहित्य की श्री वृद्धिकी।
भद्रबाहुके नामपर अर्हच्चूडामणिसार नामक एक प्रश्नशास्त्र सम्बन्धी ७४ प्राकृत गाथाओंमें रचना उपलब्ध है । यह रचना चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहुकी है, इसमें तो सन्देह है । हमें ऐसा लगता है कि यह भद्रबाहु वराहमिहिरके भाई थे, अतः संभव है कि इस कृतिके लेखक यह द्वितीय भद्रबाहु ही होंगें । आरम्भमें वर्णोकी संज्ञाएँ बतलायी गयी है । अ इ ए ओ, ये चार स्वरं तथा क च ट त प य श ग ज ड द ब ल स य चौदह व्यंजन आलिंगित संज्ञक है। इनका सुभग, उत्तर और सकंट नाम भी है । आ ई ऐ औ, ये चार स्वर तथा ख छ ठ थ फ ए ष ध म ढ, ध भ व ह ये चौदह व्यंजन दग्ध संज्ञक है । इनका विकट, संकट, अधर और अशुभ नाम भी है । प्रश्नमें सभी आलिंगित अक्षर हों, तो प्रश्नकर्ताको कार्य सिद्धि होती है । प्रश्नाक्षरोंके दग्ध होनेपर भी कार्यसिद्धिका विनाश होता है। उत्तर संज्ञक व्यंजनोंमें संयुक्त होनेसे उत्तरतम और उत्तराधर तथा अधर स्वरोंसे संयुक्त होनेपर उत्तर और अधर संज्ञक होते हैं। अधर संज्ञक स्वर दग्धसंज्ञक व्यंजनोंमें संयुक्त होनेपर अधरापरतर संज्ञक होते हैं । दग्धसंज्ञक स्वर दग्धसंज्ञक व्यंजनोंसे मिलनेसे दग्धतम संज्ञक होते है। इन संज्ञाओंके पश्चात् फलाफल निकाला गया है । जय-पराजय, लाभालाभ, जीवन-मरण आदिका विवेचन भी किया गया है। इस छोटीसी कृतिमें बहुत कुछ निद्ध कर दिया गया है। इस कृतिकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है । इसमें मध्यवर्ती क ग और त के स्थानपर य श्रुति पाया गयी है।
करलक्खण-यह सामुद्रिक शास्त्रका छोटासा ग्रन्थ है। इसमें रेखाओंका महत्त्व, स्त्री और पुरुषके हाथोंके विभिन्न लक्षण, अंगुलियोंके बीचके अन्तराल, पर्वोके फल, मणिबन्ध, विद्यारेखा, कुल, धन, उर्ध्व, सम्मान, समृद्धि, आयु, धर्म, व्रत आदि रेखाओंका वर्णन किया है । भाई, बहन, सन्तान आदिको द्योतक रेखाओंके वर्णनके उपरान्त अंगुष्ठके अधोभागमें रहने वाले यवका विभिन्न परिस्थितियोंमें प्रतिपादन किया गया है । यवका यह प्रकरण नौ गाथाओं में पाया जाता है । इस ग्रन्थका उद्देश्य ग्रन्थकारने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है ।
इयं करलक्खणमेयं समासओ दंसिअं जइजणस्स।
पुवायरिएहिं णरं परिक्खउणं वयं दिज्जा ॥६१।। यतियोंके लिए संक्षेपमें करलक्षणोंका वर्णन किया गया है । इन लक्षणों द्वारा व्रत ग्रहण करनेवालेकी परीक्षा कर लेनी चाहिए । जब शिष्यमें पूरी योग्यता हो, व्रतोंका निर्वाह कर सके तथा व्रती जीवनको प्रभावक बना सके, तभी उसे व्रतोंकी दीक्षा देनी चाहिए। अतः स्पष्ट है कि इस ग्रंथका उद्देश्य जनकल्याणके साथ नवागत शिष्यकी परीक्षा करना ही है । इसका प्रचार भी साधुओंमें रहा होगा।
ऋषिपुत्रका नाम भी प्रथम श्रेणीके ज्योतिर्विदों में परिगणित है । इन्हें गर्गका पुत्र भी कहा गया है । गर्ग मुनि ज्योतिषके धुरन्धर विद्वान् थे, इसमें कोई सन्देह नहीं । इनके सम्बन्धमें लिखा मिलता है। १. महचूड़ामणिसार, गाथा १०-८ ।
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान जैन आसीजगवंद्यो गर्गनामा महामुनिः । तेन स्वयं निर्णीत यं सत्पाशास्त्र केवली ॥ एतज्ज्ञानं महाज्ञानं जैनर्षिभिरुदाहृतम् ।
प्रकाश्य शुद्धशीलाय कुलीनाय महात्मना । सम्भवतः इन्हीं गर्गके वंशमें ऋषिपुत्र हुए होंगे। इनका नाम ही इस बातका साक्षी है कि किसी ऋषिके वंशज थे अथवा किसी मुनिके आशीर्वादसे उत्पन्न हुए थे । ऋषिपुत्रका एक निमित्त शास्त्र ही उपशलब्ध है। इनके द्वारा रची गई एक संहिताका भी एक मदनरत्न नामक ग्रन्थमें उल्लेख मिलता है। ऋषिपुत्रके उद्धरण वृहत्संहिताकी महोत्पली टीकामें उपलब्ध है।
ऋषिपुत्रका समय वराहमिहिरके पहले होना चाहिए । यतः ऋषिपुत्रका प्रभाव वराहमिहिरपर स्पष्ट है । यहाँ दो एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया जायगा ।
ससलोहिवण्णहोवरि संकूण इत्ति होइ णायब्बो। संगामं पुंण धोरं खग्गं सूरो णिवेदई ।।
-ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्र शिश रूधिकरनिभे भानो नभस्थले भवन्ति संग्रामाः।
-वराहमिहिर अपने निमित्त शास्त्रमें पृथ्वीपर दिखाई देनेवाले, आकाशमें दृष्टिगोचर होनेवाले और विभिन्न प्रकारके शब्द श्रवण द्वारा प्रगट होने वाले इन तोन प्रकारके निमित्तों द्वारा फलाफल का अच्छा निरूपण किया है। वर्षोत्पात, देवोत्पात, राजोत्पात, उल्कोत्पात, गन्धर्वोत्पाद इत्यादि अनेक उत्पादों द्वारा शुभाशुभत्वकी मीमांसा बड़े सुन्दर ढंगसेकी है।
लग्नशुद्धि या लग्नकुंडिका नामकी रचना हरिभद्रको मिलती है। हरिभद्र दर्शन, कथा और आगम शास्त्रके बहुत बड़े विद्वान् थे । इनका समय आठवीं शती माना जाता है। इन्होंने १४४० प्रकरण-ग्रंथ रचे हैं। इनकी अब तक ८८ रचनाओंका पता मुनि जिन-विजयजीने लगाया है । इनकी २६ रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं ।
___लग्नशुद्धि प्राकृत भाषामें लिखी गयी ज्योतिष रचना है। इसमें लग्नके फल, द्वादश भावोंके नाम, उनसे विचारणीय विषय, लग्नके सम्बन्धमें ग्रहोंका फल, ग्रहोंका स्वरूप, नवांश, उच्चांश आदिका कथन किया गया है। जातकशास्त्र या होराशास्त्रका यह ग्रन्थ है। उपयोगिताकी दृष्टिसे इसका अधिक महत्त्व है। ग्रहोंके बल तथा लग्नकी सभी प्रकारसे शुद्धिपापग्रहोंका अभाव, शुभग्रहोंका सदभाव वर्णित है।
___ महावीराचार्य-ये धुरन्धर गणितज्ञ थे । ये राष्ट्रकूट वंशके अमोघवर्ष नृपतुंगके समयमें हुए थे । अतः इनका समय ई० सन् ८५० माना जाता है। इन्होंने ज्योतिष-पटल और गणितसार-संग्रह नामके ज्योतिष ग्रंथोंकी रचनाकी है। ये दोनों ही ग्रन्थ गणितज्योतिषके हैं ? इन ग्रन्थोंसे इनकी विद्वताका ज्ञान सहज ही में आंका जा सकता है। गणितसारके प्रारम्भमें गणितकी प्रशंसा करते हुए बताया है कि गणितके बिना संसारके किसी भी शास्त्रकी जानकारी नहीं हो सकती है । कामशास्त्र, गान्धर्व, नाटक, सूपशास्त्र, वास्तुविद्या, छन्दशास्त्र,
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ज्योतिष एवं गणित
२७५ अलंकार, काव्य, तर्क, व्याकरण, कला प्रभृतिका यथार्थ ज्ञान गणितके बिना सम्भव नहीं है; अतः गणित विद्या सर्वोपरि है ।
इस ग्रंथमें संज्ञाधिकार, परिकर्मव्यवहार, कलासवर्णव्यवहार, प्रकीर्णव्यवहार, त्रैराशिकव्यवहार, मिश्रकव्यवहार, क्षेत्र-गणित व्यवहार, खातव्यवहार एवं छायाव्यवहार नामके प्रकरण है । मिश्रकव्यवहारमें समकुट्टीकरण, विषमकुट्टीकरण और मिश्रकुट्टीकरण आदि अनेक प्रकारके गणित हैं। पाटीगणित और रेखागणितकी दृष्टि से इसमें अनेक विशेषताएं हैं । इसके क्षेत्रव्यवहार प्रकरण में आयतको वर्ग और वर्गको वृत्तमें परिणित करनेके सिद्धान्त दिये गये हैं । समत्रिभुज, विषमत्रिभुज, समकोण, चतुर्भुज, विषमकोण, चतुर्भुज, वृत्तक्षेत्र, सूची व्यास, पंचभुजक्षेत्र एवं बहुभुज क्षेत्रोंका क्षेत्रफल तथा घनफल निकाला गया है ।
ज्योतिषपटलमें ग्रहोंके चार क्षेत्र, सूर्यके मण्डल, नक्षत्र और ताराओंके संस्थान, गति, स्थिति और संख्या आदिका प्रतिपादन किया है ।
चन्द्रसेन के द्वारा 'केवलज्ञान होरा' नामक महत्वपूर्ण विशालकाय ग्रन्थ लिखा गया है । यह ग्रन्थ कल्याणवर्माके पीछे रचा गया प्रतीत होता है । इसके प्रकरण सारावलोसे मिलते जुलते हैं पर दक्षिणमें रचना होने के कारण कर्णाटक प्रदेशके ज्योतिषका पूर्ण प्रभाव है । इन्होंने ग्रन्थके विषयको स्पष्ट करने के लिये बीच-बीच में क्रन्नड़ भाषाका भी आश्रय लिया है। यह अन्य अनुमानतः चार हजार श्लोकों में पूर्ण हुआ है । ग्रन्थके प्रारम्भमें कहा है
होरा नाम महाविद्या वक्तव्यं च भवद्धितम् ।
ज्योतिर्ज्ञानकसारं भूषणं बुधपोषणम् ।। इन्होंने अपनी प्रशंसा भी प्रचुर परिमाणमेंकी है।
आगमः सदृशो जैनः चन्द्रसेन समो मुनिः ।
केवली सदृशी विद्या दुर्लभा सचराचरे । इस ग्रन्थमें हेमकरण, दाम्यप्रकरण, शिलाप्रकरण, मृत्तिकाप्रकरण वृक्षप्रकरण, कार्पासगुल्म-वल्कल-तृण-रोम-चर्म-पटप्रकरण, संख्याप्रकरण, नष्टद्रव्य प्रकरण, निर्वाह प्रकरण, अपत्यप्रकरण, लाभालाभप्रकरण, स्वरप्रकरण, स्वपनप्रकरण, वास्तु प्रकरण, भोजन प्रकरण, देहलोहदीक्षा प्रकरण, अंजनविद्या प्रकरण एवं विष विद्या प्रकरण आदि हैं । ग्रन्थके आद्योपान्त देखनेसे अवगत होता है कि यह संहिताविषयक रचना है, होरा विषयक नहीं।
श्रीषर-ये ज्योतिष शास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान् हैं। इनका समय दशवीं शतीका अन्तिम भाग है । ये कर्णाटक प्रान्तके निवासी थे। इनकी माताका नाम अब्बोका और पिताका नाम बलदेव शर्मा था.। इन्होंने बचपन में अपने पितासे हो संस्कृत और कन्नड़ साहित्यका अध्ययन किया था। प्रारम्भमें ये शैव थे, किन्तु बादमें जैन. धर्मानुयायी हो गये थे। इनकी गणितसार और ज्योतिर्ज्ञानविधि संस्कृत भाषा तथा जातकतिलक कन्नड़-भाषामें रचनाएं हैं। गणितसारमें अभिन्न गुणक, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्न, समच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबन्ध, भागमात्रजाति, राशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, भाण्डप्रतिभाण्ड, मिश्रकव्यवहार, भाव्यकव्यवहार, एकपत्रीकरण, सुर्वणगणित, प्रक्षेपक, गणित, समक्रय विक्रय,
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२७६ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान श्रेणीव्यवहार, क्षेत्रव्यवहार, खातव्यवहार, चित्रिव्यवहार, काष्ठकव्यवहार, राशिव्यवहार एवं छायाव्यवहार आदि गणितोंका निरूपण किया है ।
ज्योतिर्ज्ञानविधि प्रारम्भिक ज्योतिषका ग्रन्थ है। इसमें व्यवहारोपयोगी महूर्त भी दिये गये हैं । आरम्भमें संवत्सरोंके नाम, नक्षत्र, नाम, योगकरण नाम तथा उनके शुभाशुभत्व दिये गये हैं। इसमें मासशेष, मासाधिपतिशेष, दिनशेष एवं दिनाधिपति शेष आदि गणितानयनकी अद्भुत प्रक्रियाएं बतायी गयी हैं ।
जातकतिलक कन्नड़-भाषामें लिखित होरा या जातकशास्त्र सम्बन्धी रचना है। इस ग्रंथमें लग्न, ग्रह, ग्रहयोग एवं जन्मकुण्डली सम्बन्धी फलादेशका निरूपण किया गया है । दक्षिण भारतमें इस ग्रंथका अधिक प्रचार है ।
चन्द्रोन्मीलन प्रश्न भी एक महत्त्वपूर्ण प्रश्नशास्त्रकी रचना है । इस ग्रंथके कर्ताके सम्बन्धमें भी कुछ ज्ञात नहीं है । ग्रंथको देखनेसे यह अवगत अवश्य होत. है कि इस प्रश्न प्रणालीका प्रचार खूब था। प्रश्नकर्ताके प्रश्नवर्णोंका संयुक्त, असंयुक्त, अभिहत, अनभिहत, अभिघातित, अभिधूमित, आलिंगित और दग्ध इन संज्ञाओंमें विभाजन कर प्रश्नोंका उत्तरमें चन्द्रोन्मीलनका खण्डन किया गया है। "प्रोक्तं चन्द्रोन्मीलनं शुक्लवस्त्रस्तच्चाशुद्धम्" इससे ज्ञात होता है कि यह प्रणाली लोकप्रिय थी। चन्द्रोन्मीलन नामका जो ग्रन्थ उपलब्ध है, वह साधारण है।
उत्तरमध्यमकालमें फलिय ज्योतिषका बहुत विकास हुआ । मुहूर्तजातक, संहिता, प्रश्न सामुद्रिकशास्त्र प्रभृति विषयोंकी अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ लिखी गयी हैं । इस युगमें सर्वप्रथम और प्रसिद्ध ज्योतिषी गुरुदेव है। दुर्गदेवके नामसे यों तो अनेक रचनाएं मिलती हैं, पर दो रचनाएँ प्रमुख हैं-रिट्ठसमुच्चय और अर्धकाण्ड । दुर्गदेवका समय सन् १०३२ माना गया है । रिठ्ठसमुच्चयकी रचना अपने गुरु संयमदेवके वचनानुसारकी है । ग्रन्थमें एक स्थानपर संयमदेवके गुरू संयमसेन और उनके गुरू माधवचन्द्र बताए गए हैं। रिट्ठसमुच्चय शौरसेनी प्राकृतमे २६१ गाथाओंमें रचा गया है । इसमें शकुन और शुभाशुभ निमित्तोंका संकलन किया गया है । लेखकने रिष्टोंके पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ नामक तीन भेद किये हैं। प्रथम श्रेणीमें अंगुलियोंका टूटना, नेत्रज्योतिकी हीनता, रसज्ञानकी न्यूनता, नेत्रोंसे लगातार जलप्रवाह एवं जिह्वा न देख सकना आदिको परिगणित किया है। द्वितीय श्रेणीमें सूर्य और चन्द्रमाका अनेकों रूपोंमें दर्शन, प्रज्वलित दीपकको शीतल अनुभव करना, चन्द्रमाको त्रिभंगी रूपमें देखना, चन्द्रलांछनका दर्शन न होना इत्यादिको ग्रहण किया है । तृतीयमें निजछाया, परच्छाया तथा छायापुरुषका वर्णन है। प्रश्नाक्षर, शकुन और स्वपन आदिका भी विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है।
___ अर्धकाण्डमें तेजी-मन्दीका ग्रह योगके अनुसार विचार किया गया है । यह ग्रन्थ भी १४९ प्राकृत गाथाओंमें लिखा गया है।
मल्लिसेन–संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओंके प्रकाण्ड विद्वान् थे। इनके पिताका नाम जिनसेन सूरि था, ये दक्षिण भारतके धारवाड जिलेके अन्तर्गत गदगतालुका नामक स्थानके
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ज्योतिष एवं गणित
२७७
रहने वाले थे। इनका समय ई० सन् १०४३ माना गया है। इनका आयसद्भाव नामक ज्योतिष ग्रन्थ उपलब्ध है । आरम्भमें ही कहा गया है ।
सग्रीवादिमुनीन्द्रः रचितं शास्त्रं यदायसद्भावम् । तत्सम्प्रत्यार्थाभिर्विरच्यते मल्लिषेणेन ॥ ध्वजधूमसिंहमण्डल वृषश्वरगजवायसा भवन्तयायाः ।
ज्ञायन्ते ते विद्वद्भिरिहैकोत्तरगणनया चाष्टौ । इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि इनके पूर्व भी सुग्रीव आदि जैन मुनियोंके द्वारा इस विषय की और रचनाएं भी हुई थीं, उन्हींके सारांशको लेकर आयसद्भावकी रचना की गई है । इस कृतिमें १९५ आर्याएँ और अन्तमें एक गाथा, इस तरह कुल १९६ पद्य हैं। इसमें ध्वज, धूम, सिंह मण्डल, वृष, खर, गज और वायस इन आठों आर्योंके स्वरूप और फलादेश बणित है।
भट्टवोसरि-आयज्ञानतिलक नामक ग्रन्थके रचयिता दिगम्बराचार्य दामनन्दीके शिष्य भट्टवोसरि है । यह प्रश्न-शास्त्रका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें २५ प्रकरण और ४१५ गाथाएं हैं । ग्रन्थकर्ताको स्वोपज्ञ वृत्ति भी है। दामनन्दीका उल्लेख श्रवणवेल्गोलके शिलालेख नं० ५५ में पाया जाता है । ये प्रभाचन्द्राचार्यके सधर्मा या गुरु भाई थे। अतः इनका समय विक्रम संवत्की ११ वीं शती है और भट्टवोसरिका भी इन्हींके आस-पासका समय है ।
इस प्रन्यमें ध्वज, धूम, सिंह, गज, खर, श्वान, वृष, ध्वांस इन आठों आर्यों द्वारा प्रश्नोंके फलादेशका विस्तृत विवेचन किया है। इसमें कार्य-अकार्य, हानि-लाभ, जय-पराजय, सिद्धि-असिद्धि आदिका विचार विस्तारपूर्वक किया गया है। प्रश्न शास्त्रकी दृष्टिसे यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
उदयप्रभदेव-इनके गुरुका नाम विजयसेन सूरि था। इनका समय ई० सन् १२२० बताया जाता है। इन्होंने ज्योतिष विषयक आरम्भ सिद्धि अपरनाम व्यवहार चर्या ग्रन्थकी रचना की है। इस ग्रन्थपर वि० स० १५४४ में रत्नशेखरसूरिके शिष्य हेमहंसगणिने एक विस्तृत टीका लिखी है। इस टीकामें इन्होंने मुहूर्त सम्बन्धी साहित्यका अच्छा संकलन किया है । लेखकने ग्रन्थके प्रारम्भमें ग्रन्थोक्तः अध्यायोंका संक्षिप्त नामकरण निम्न प्रकार दिया है।
दैवज्ञदीपकालिकां व्यवहारचर्यामारम्भसिद्धिमुदयप्रभदेवानाम् शास्तिक्रमेण तिथिवारमयोगराशि गोचर्यकार्यगमवास्तुविलग्नभिः ।
हेमहंसगणिने व्यवहारचर्या नामकी सार्थकता दिखलाते हुए लिखा है
"व्यवहार शिष्टजनसमाचारः शुभतिथिवारमादिषु शुभकार्यकरवादिरूपस्तस्यचर्या ।" यह ग्रन्थ मुहूर्त चिन्तामणिके समान उपयोगी और पूर्ण है। मुहूर्त विषयकी जानकारी इस अकेले ग्रन्थके अध्ययनसे की जा सकती है।
राजादित्य-इनके पिताका नाम श्रीपति और माताका नाम वसन्ता था। इनका जन्म कोंडिमण्डलके "यूविनबाग" नामक स्थानमें हुआ था। इनके नामान्तर राजवर्म, भास्कर १. प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, संपादक-जुगलकिशोर मुख्तार, प्रस्तावना, पृ० ९५-९६
तथा पुरातन वाक्य सूचीको प्रस्तावना, पृ० १०१-१०२ ।
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदानं
और वाचिराज बताये जाते हैं । ये विष्णुवर्धन राजाकी सभाके प्रधान मण्डित थे अतः इनका समय सन् ११२० के लगभग है । यह कवि होने के साथ-साथ गणित और ज्योतिषके माने हुए विद्वान् थे । 'कर्णाटक कवि चरिते' के लेखकका कथन है कि कन्नड़ साहित्य में गणितका ग्रन्थ लिखने वाला यह सबसे बड़ा विद्वान् था । इनके द्वारा रचित व्यवहार गणित, क्षेत्रगणित, व्यवहाररतन तथा जैन- गणित सूत्रटीकोदाहरण और लीलावती ये गणित ग्रन्थ उपलब्ध हैं ।
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पदम् प्रभ सूरि-नागौरकी तपागच्छीय पट्टावलीसे पता चलता है कि ये वादिदेव सूरिके शिष्य थे । इन्होंने भुवनदीपक या ग्रहभावप्रकाश नामक ज्योतिषका ग्रन्थ लिखा है । इस ग्रन्थ पर सिंहतिलक सूरिने वि सं० १३०६ में एक विवृति लिखी हैं । " जैन - साहित्य नो इतिहास" नामक ग्रन्थमें इन्होंने इनके गुरुका नाम विवुधप्रभ सूरि बताया है । भुवनदीपकका रचनाकाल वि० सं० १२४४ है । यह ग्रन्थ छोटा होते हुए भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है इसमें ३६ द्वार प्रकरण हैं । राशि स्वामी, उच्चनीचदत्व, मित्र-शत्रु, राहुका ग्रह, केतुस्थान, ग्रहोंके स्वरूप, द्वादश भावोंसे विचारणीय बातें इष्टकालज्ञान, लग्न सम्बन्धी विचार, विनष्टग्रह, राजयोगका कथन, लाभालाभ विचार, लग्नेशकी स्थितिका फल, प्रश्न द्वारा गर्भ विचार, प्रश्न द्वारा प्रसवज्ञान, यमजविचार, मृत्युयोग, चौर्य ज्ञान, द्रेष्काणादिके फलोंका विचार विस्तारसे किया है । इस ग्रन्थ में कुल १७० श्लोक हैं । इसकी भाषा संस्कृत है ।
नरचन्द्र उपाध्याय—ये कास दुहगच्छके सिंहसूरके शिष्य थे । इन्होंने ज्योतिष शास्त्र के कई ग्रन्थोंकी रचना की है। वर्तमानमें इनके बेड़ा जातक वृत्ति, प्रश्नशतक, प्रश्न चतुर्विंशतिका, जन्मसमुद्र टीका, लग्नविचार और ज्योतिष प्रकाश उपलब्ध हैं । नरचन्द्र सं० १३२४ में माघ सुदी ८ रविवारको बेड़ाजातक वृत्तिकी रचना १०५० श्लोक प्रभाव में की है । ज्ञानदीपिका नामकी एक अन्य रचना भी इनकी मानी जाती है । ज्योति प्रकाश, संहिता और जातक सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण रचना है ।
अट्ठकवि या अर्हदास--ये जैन ब्राह्मण थे । इनका समय ई० सन् १३०० के आसपास है । अर्हदास के पिता नागकुमार थे । अर्हदास कन्नड़ भाषाके प्रकाण्ड विद्वान् थे । इन्होंने कन्नड़से अट्ठगत नामक ज्योतिषका महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा है । शक संवत्की चौदहवी शताब्दी में भास्कर नामके आन्ध्र कविने इस ग्रन्थका तेलगू भाषामें अनुवाद किया था । अट्ठमत में वर्षा के चिह्न, आकस्मिक लक्षण, शकुन, वायुचक्र, गृहप्रवेश, भूकूम्प, भूजातफल, उत्पात, लक्षण, परिवेषलक्षण, इन्द्रधनुर्लक्षण, प्रथमगर्भलक्षण, द्रोणसंख्या, विद्युतलक्षण, प्रतिसूर्यलक्षण, संवत्सरफल, ग्रहद्वेष, मेघों के नाम, कुलवर्ण, ध्वनिविचार, देशवृष्टि, मासफल, राहुचन्द्र १४ नक्षत्रफल, संक्रान्ति फल आदि विषयोंका निरूपण किया गया है ।
महेन्द्रसूरि---ये भृगुपुर निवासी मदन सूरिके शिष्य फिरोज शाह तुगलकने प्रधान सभापण्डित थे । इन्होंने नाड़ीव्रतके धरातलमें गोलपृष्ठस्थ सभी वृतोंका परिणमन करके
१ अभूद्भुगपुरे वरे गणकचक्रचूड़ामणि :
कृती नृपति संस्तुतो मदनसूरिनामा गुरुः
तदीयपदशालिना विरचिते सुयन्त्रागमे,
महेन्द्रगुरुणोद्धृताजनि विचारणा यन्त्रजा । यन्त्रराज, अ० ५ श्लोक ६७ |
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ज्योतिष एवं गणित
२७९
यन्त्रराज नामक ग्रह गणितका उपयोगी ग्रन्थ लिखा है। इनके शिष्य मलयेन्दु सरिने इसपर सोदाहरण टीका लिखी है । इस ग्रन्थमें परमाक्रक्ति २३ अंश ३५ कला मानी गयी है। इसकी रचना शक संवत् १२९२ में हुई है। इसमें गणिताध्याय, यन्त्रघटनाघ्याय, यन्त्ररचनाध्याय यन्त्रशोधनाध्याय और यन्त्रविचारणाध्याय ये पांच अध्याय हैं । क्रमोन्क्रमज्यानयन, भुजकोटिज्याका चापसाधन, क्रान्तिसाधक धुज्थाखंडसाधन, धुज्याफलानयन, सौम्य गणितके विभिन्न गणितोंका साधन, अक्षांशसे उन्नतांश साधन, ग्रंथके नक्षत्र ध्रुवादिकसे अभीष्ट वर्षके ध्रुवादिकका साधन, नक्षत्रोंके हक्कर्मसाधन, द्वादश राशियोंके विभिन्नकृत सम्बन्धी गणितोंका साधन, इष्ट शंकुसे छायाकरण साधन यन्त्रशोधन प्रकार और उसके अनुसार विभिन्न राशि नक्षत्रोंके गणितका साधन, द्वादश भाव और नवग्रहोंके स्पष्टोकरणका, गणित एवं विभिन्न यन्त्रों द्वारा सभी ग्रहोंके साधनका गणित बहुत सुन्दर ढगसे बताया गया है। इस ग्रन्थमें पंचांग निर्माण करनेकी विधिका निरूपण किया है । ..
भद्रबाहुसंहिता अष्टांग निमित्तका एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके आरम्भके २७ अध्यायोंमें निमित्त और संहिता विषयका प्रतिपादन किया गया है। ३०वें अध्यायमें अरिष्टों का वर्णन किया गया है । इस ग्रन्थका निर्माण श्रुतके वली भद्रबाहुके वचनोंके आधार पर हुआ है। विषयनिरूपण और शैलीकी दृष्टिसे इसका रचनाकाल ८-९वीं शतीके पश्चात् नहीं हो सकता है । हाँ, लोकोपयोगी रचना होनेके कारण उसमें समय-समय पर संशोधन और परिवर्तन होता रहता है।
इस ग्रन्थमें व्यंजन, अंग, स्वर, भौम, छन्न, अंतरीक्ष, लक्षण एवं स्वपन इन आठों निमित्तोंका फलनिरूपण सहित विवेचन ग्रहयुद्ध, स्वपन, मुहूर्त, तिथि, करण, शकुन, पाक, ज्योतिष, वास्तु, इन्द्रसम्पदा लक्षण, व्यंजन, चिन्ह, लन्न, विद्या, औषध, प्रभृति सभी निमित्तोंके बलाबल, विरोध और पराजय आदि विषयोंका विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। यह निमित्तशास्त्रका बहुत ही महत्त्वपूर्ण और उपयोगी ग्रन्थ है। इससे वर्षा, कृषि, धान्यभाव एवं अनेक लोकोपयोगी बातोंकी जानकारी प्राप्तकी जा सकती है।
केवलज्ञानप्रश्नचूड़ामणिके रचयिता समन्तभद्रका समय १३वीं शती है । ये समन्तभद्र विजयपके पुत्र थे। विजयपके भाई नेमिचन्द्रके प्रतिष्ठातिलककी रचना आनन्द संवत्सरमें चैत्रमासकी पंचमीको की है । अतः समन्तभद्रका समय १३वीं शती है । इस ग्रन्थमें धातु, मूल, जीव, नष्ट, मुष्टि, लाभ, हानि, रोग, मृत्यु, भोजन, शयन, शकुन, जन्म, कर्म, अस्त्र, शल्य, वृष्टि, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सिद्धि, असिद्धि आदि विषयोंका प्ररूपण किया गया है । इस ग्रन्थमें अ, च ट त प य श अथवा आ ए क च ट प य श इन अक्षरोंका प्रथम वर्ग, आ ऐ ख छ ठ थ फ र प इन अक्षरोंका द्वितीय वर्ग, इ ओ ग ज ड द ब ल स इन अक्षरोंका तृतीय वर्ग ई औ ध झ भ व ह न अक्षरोंका चतुर्थ वर्ग और उ ऊ ण न म अं अः इन अक्षरोंको पंचम वर्ग बताया गया है। प्रश्नकर्ताके वाक्य या प्रश्नाक्षरोंको ग्रहण कर संयुक्त, असंयुक्त, अभिहित और अभिघातित इन पांचों द्वारा तथा आलिंगित अभूधूमित और दग्ध इन तीनों क्रियाविशेषणों द्वारा प्रश्नोंके फलाफलका विचार किया गया है । इस ग्रंथमें मूक प्रश्नोंके उत्तर भी निकाले गये हैं । यह प्रश्न शास्त्रकी दृष्टिसे अत्यन्त उपयोगी है।
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
हेमप्रभ - इनके गुरूका नाम देवेन्द्र सूरि था । इनका समय चौदहवीं शतीका प्रथम पाद है । संवत् १३०५ में त्रैलोक्यप्रकाश रचनाकी गयी है । इनकी दो रचनाएँ उपलब्ध है— त्रैलोक्यप्रकाश और मेघमाला ।'
२८०
लोक्यप्रकाश बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें १९६० श्लोक है । इस एक ग्रंथके अध्ययन से फलित ज्योतिषकी अच्छी जानकारी प्राप्तको जा सकती है । आरम्भ में ११० श्लोकों में लग्न ज्ञानका निरूपण है । इस प्रकरण में भावोंके स्वामी, ग्रहोंके छः प्रकारके बल, दृष्टिविचार, शत्रु-मित्र, वक्री- मार्गी, उच्च-नीच, भावोंकी संज्ञाएँ, भावराशि, ग्रहबल विचार आदिका विवेचन किया गया है । द्वितीय प्रकरण में योगविशेष-धनी सुखी, दरिद्र, राज्यप्राप्ति, सन्तानप्राप्ति, विद्याप्राप्ति आदिका कथन है । तृतीय प्रकरण में विधिप्राप्ति घर या जमीनके भीतर रखे गये धन और उस धनको निकालने की विधिका विवेचन है । यह प्रकरण बहुत ही महत्त्व - पूर्ण है । इतने सरल और सीधे ढंगसे इस विषयका निरूपण अन्यत्र नहीं है । चतुर्थ प्रकरण योग और पंचम ग्रामपृच्छा है । इन दोनों प्रकरणोंके नामके विभिन्न प्राप्ति आदिका कथन है । सप्तम प्रकरण में छठे भावसे विवेचन, अष्टम में सप्तम भावसे दाम्पत्य सम्बन्ध और नवम्में विभिन्न दृष्टियोंसे स्त्री सुखका विचार किया गया है । दशम प्रकरण में स्त्री जातक - स्त्रियोंकी दृष्टियोंसे फलाफलका निरूपण किया गया है। एकादश में परचक्रगमन, द्वादशमें गमानामन, त्रयोदशमें युद्ध, चतुर्दशमें सन्धि विग्रह, पंचदशमें वृक्ष ज्ञान, षोडशमें ग्रह दोष-ग्रह पीड़ा, सप्तदश में आयु, अष्टादश में प्रवहण और एकोनविंश में प्रवृज्याका विवेचन किया । बीसवें प्रकरण में राज्य या पदप्राप्ति इक्कीसवें में वृष्टि, बाईसवें में अर्धकाण्ड, तेईसवें में स्त्रीलाभ, चौबीसवें में नष्ट वस्तुकी प्राप्ति, एवं पच्चीसवें में ग्रहोंके उदयास्त, सुभिक्ष दुर्भिक्ष, महर्ष, समर्प और विभिन्न प्रकारसे तेजी - मन्दीकी जानकारी बतलाई गयी है । इस ग्रंथकी प्रशंसा स्वयं ही इन्होंनेको है । 2
अनुसार विभिन्न दृष्टियोंसे विभिन्न प्रकारसे रोगों का
श्रीमद्देवेन्द्रसूरीणां शिष्येण ज्ञानदर्पणः । विश्वप्रकाश कश्चक्रे श्री हेमप्रभसूरिणा ॥
श्री देवेन्द्र सूरिके शिष्य श्री हेमप्रभ सूरिने विश्वप्रकाशक और ज्ञानदर्पण इस ग्रन्थको रचा ।
मेघमालाकी श्लोक संख्य १०० बतायी गयी है। प्रो० एच० डी० वेथंकरने जैनग्रंथावली में उक्त प्रकारका ही निर्देश किया है ।
रत्नशेखरसूरिने दिनशुद्धि दीपिका नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ प्राकृत भाषामें लिखा है । इनका समय १५वीं शती बताया जाता है । इस ग्रन्थके अन्त में निम्न प्रशस्ति गाथा मिलती है ।
सिरिवयरसेणगुरुपट्ट- नाहि सिरिहेमतिलय सूरीणं ।
पायसाया एसा रयण सिहरसूरिणा विहिया ॥ १४४ ॥
१. जैन ग्रंथावली,
पृ० ३५६
२. त्रैलोक्य प्रकाश, श्लोक ४३०
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ज्योतिष एवं गणित
___२८१ वजसेन गुक्के पट्टधर श्री हेमतिलक सूरिके प्रसादसे रत्नशेखर सूरिने दिनशुद्धि प्रकरण की रचना की।
इसे 'मुनिमणभवणपयासं' अर्थात् मुनियोंके मन रूपी भवनको प्रकाशित करनेको कहा है। इसमें कुल १४४ गाथाएँ हैं । इस ग्रन्थमें वारदार, काथहोरा, वारप्रारम्भ कुलिकादियोग वर्ण्यप्रहर नन्दभद्रादि संज्ञाएँ, क्रूरतिथि, वर्ण्यतिथियोग अमृतसिद्धियोग, उत्पादियोग, लग्नविचार, प्रयाणकालीन शुभाशुभं विचार, वास्तु मुहूर्त, षडष्टकादि, राशिकूट, नक्षत्रयोनिविचार, विविध मुहूर्त, नक्षत्र दोष विचार, छायासाधन और उसके द्वारा फलादेश एवं विभिन्न प्रकारके शकुनोंका विवेचन किया गया है । यह ग्रन्थ व्यवहारोपयोगी है।
चौदहवीं शताब्दीमें ठक्कर फेरुका नाम भी उल्लेखनीय है । उन्होंने गणितसार और जोइससार ये दो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। गणितसारमें पाटीगणित और परिकर्माष्टककी मीमांसाकी गई है । जोइससारमें नक्षत्रोंकी नामावलीसे लेकर ग्रहोंके विभिन्न योगोंका सम्यक् विवेचन किया गया है।
___ उपर्युक्त ग्रन्थोंके अतिरिक्त हर्षकीर्ति कृत जन्मपत्रपद्धति, जिनवल्लभ कृत स्वप्नसंहित, जयविजय कृत शकुन दीपिका, पुण्यतिलक कृत ग्रहायुसाधन, गर्ग मुनि कृत पासावली, समुद्र कवि कृत सामुद्रिक शास्त्र, मानसागर कृत मानसागरीपद्धति, जिनसेनकृत निमित्तदीपक आदि ग्रन्थ भी महत्त्वपूर्ण हैं । ज्योतिषसार, ज्योतिषसंग्रह, शकुनसंग्रह, शकुनदीपिका, शकुनविचार, जन्मपत्री पद्धति, ग्रहयोग, ग्रहफल नामके अनेक ऐसे संग्रह ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनके कर्ताका. पता ही नहीं चलता है ।
अर्वाचीन कालमें कई अच्छे ज्योतिविद् हुए हैं। जिन्होंने जैन ज्योतिषसाहित्यको बहुत आगे बढ़ाया ।' यहाँ प्रमुख लेखकोंका उनकी कृतियोंके साथ परिचय दिया जाता है । इस युगके सबसे प्रमुख मेघविजयगणि ज्योतिष शास्त्रके प्रकाण्ड विद्वान् थे। इनका समय वि० सं० १७३७ के आस-पास माना गया है । इनके द्वारा रचित मेघमहोदय या वर्षप्रबोध, उदयदीपिका रमलशास्त्र और हस्तसंजीवन आदि मुख्य है । वर्ष-प्रबोधमें १३ अधिकार और ३५ प्रकरण है। इसमें उत्पातप्रकरण, कर्पूरचक्र, पद्मिनीचक्र मण्डलप्रकरण, सूर्य
और चन्द्रग्रहणका फल, मास-वायु विचार, संवत्सरका फल, ग्रहोंके उदयास्त और वक्री-अयन मास-पद विचार, संक्रान्तिफल, वर्षके राजा, मंत्री, धान्येश, रसेरा आदिका निरूपण, आयव्यय विचार, सर्वतोभद्रचक्र एवं शकुन आदि विषयोंका निरूपण किया गया है। ज्योतिष विषयकी जानकारी प्राप्त करनेके लिए यह रचना उपयोगी है।
हस्तसंजीवनमें तीन अधिकार है। प्रथम दर्शनाधिकारमें हाथ देखनेकी प्रक्रिया, हाथकी रेखाओं परसे ही मास, दिन, घटी, फल आदिका कथन एवं हस्तरेखाओंके आधार पर ही लग्नकुण्डली तथा उसका फलादेश निरूपण करना वर्जित है । द्वितीय स्पर्शनाधिकारमें हाथको रेखाओंके स्पर्श परसे ही समस्त शुभाशुम फलका प्रतिपादन कियागया है । इस अधिकारमें मूक प्रश्नोंके उत्तर देनेकी प्रक्रिया भी वर्णित है । तृतीय विमर्शनाधिकारमें रेखाओं परसे ही आयु, संतान, स्त्री, भाग्योदय, जीवनकी प्रमुख घटनाएं, सांसारिक सुख, विद्या, बुद्धि, १. केवलज्ञानप्रश्नचूड़ामणिका प्रस्तावना भाग ।
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान राज्यसम्मान और पदोन्नतिका विवेचन किया गया है । यह ग्रन्थ सामुद्रिक शास्त्रको दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण और पठनीय है।
उभयकुशल-का समय १८वीं शतीका पूर्वार्द्ध है। ये फलित ज्योतिषके अच्छे ज्ञाता है । इन्होंने विवाहपटल और चमत्कार चिंतामणि टबा नामक दो ग्रंथोंकी रचना की है । ये मुहूर्त और जातक, दोनों ही विषयोंके पूर्ण पंडित थे । चिंतामणि टबामें द्वादश भावोंके अनुसार ग्रहोंके फलादेशका प्रतिपादन किया गया है । विवाहपटलमें विवाहके मुहूर्त और कुण्डली मिलानका सांगोपांग वर्णन किया गया है।
लब्धचन्द्रगणि-ये खरतरगच्छीय कल्याणनिधानके शिष्य थे। इन्होंने वि० सं० १७५१ में कात्तिक मासमें जन्मपत्री पद्धति नामक एक व्यवहारोपयोगी ज्योतिषका ग्रन्थ बनाया है। इस ग्रन्थमें इष्टकाल, भयात, भभोग, लगन, नवग्रहोंका स्पष्टीकरण, द्वादशभाव, तात्कालिक चक्र, दशबल, विंशोत्तरी दशा साधन आदिका विवेचन किया गया है ।
बापती मुनि-ये पार्श्वचन्द्रगच्छीय शाखाके मुनि थे । इनका समय वि० सं० १७९३ माना जाता है । इन्होंने तिथि सारणी नामक ज्योतिषका महत्त्वपूर्ण अन्य लिखा है । इसके अतिरिक्त इनके दो तीन फलित-ज्योतिषके भी मुहूर्त सम्बन्धी उपलब्ध ग्रन्थ हैं । इनका साखी ग्रन्थ, मकरन्द साखीके समान उपयोगी है।
यशस्वतसागर-इनका दूसरा नाम जसवंत सागर भी बताया जाता है । ये ज्योतिष, न्याय, व्याकरण और दर्शन शास्त्रके धुरन्धर विद्वान् थे। इन्होंने ग्रहलाघवके ऊपर वात्तिक नामकी टीका लिखी है । वि० सं० १७६२ में जन्मकुण्डली विषयको लेकर 'यशोराज-पद्धति' नामक एक व्यवहारोपयोगी ग्रन्थ लिखा है। यह ग्रन्थ जन्मकुण्डलीकी रचनाके नियमोंके सम्बन्धमें विशेष प्रकाश डालता है। उत्तराद्ध में जातक पद्धतिके अनुसार संक्षिप्त फल बतलाया है।
इनके अतिरिक्त विनयकुशल, हरिकुशल, मेघराज, जिनपाल, जयरत्न, सूरचन्द्र आदि कई ज्योतिषियोंकी ज्योतिष सम्बन्धी रचनाएं उपलब्ध हैं। जैन ज्योतिष साहित्यका विकास आज भी शोष टीकाओंका निर्माण एवं संग्रह ग्रन्थोंके रूपमें हो रहा है ।' संक्षेपमें अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति गणित, प्रतिभागणित, पञ्चांग निर्माण गणित, जन्मपत्रनिर्माण गणित आदि गणित ज्योतिषके अंगोंके साथ होराशास्त्र, संहिता, मुहूर्त, सामुद्रिक शास्त्र, प्रश्नशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, निमित्तशास्त्र, रमलशास्त्र, पासकेवली प्रभृति फलित अंगोंका विवेचन जैन ज्योतिषमें किया गया है । जैन ज्योतिष साहित्यके अब तक पांच सौ ग्रन्थोंका पता लग चुका है।
१. भाद्रबाहु संहिताका प्रस्तावना अंश । २. महावीर स्मृतिग्रन्थके अन्तर्गत 'जैनज्योतिषकी व्यावहारिकता' शीर्षक निबन्ध, - पृ० १९६-१९७ । ३. वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थके अन्तर्गत 'भारतीय ज्योतिषका पोषक जैन ज्योतिष',
पृ० ४७८-४८४ ।
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ग्रीकपूर्व जैन-ज्योतिष विचार-धारा
प्रस्तावना
जैनाचार्योंने ई० सन् की कई शताब्दियोंके पूर्व ही ज्योतिष विषयपर लिखना आरम्भ किया था। इनके सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिष्करण्डक आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। इन ग्रंथोंमें प्रतिपादित सिद्धान्तोंपर ग्रीक ज्योतिषका बिलकुल भी प्रभाव नहीं है । इन ग्रंथोंमें प्रतिपादित ज्योतिष सिद्धान्त मौलिक हैं तथा कथन करनेकी प्रणाली भी अपनी निजी है । श्री श्याम शास्त्रीने अपनी वेदांग ज्योतिषकी प्रस्तावनामें जैन ज्योतिषकी ई० पूर्व कालीन महत्ताको स्वीकार करते हुए बताया है कि जैन ज्योतिष ब्राह्मण ग्रंथोंकी अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । सूर्यप्रज्ञप्तिका युगमान वेदांगको अपेक्षा अधिक परिष्कृत है। यदि तुलनात्मक दृष्टिसे प्राचीन जैन-ज्योतिष ग्रंथोंका आलोड़न किया जाय तो अवगत होगा कि ग्रीक ज्योतिषके सिद्धान्तोंसे भिन्न मौलिक रूपमें मासगणना, युगगणना तथा लग्न आदिका निरूपण किया गया है। ग्रीक और भारतीय ज्योतिष
निष्पक्ष अन्वेषक विद्वानोंने इस बातको मुक्त कंठसे स्वीकार किया है कि प्रथम आर्यभट्ट से लेकर बराहमिहिर तक भारतीय आचार्योंके ज्योतिष सिद्धान्तोंपर ग्रीक ज्योतिषका प्रभाव है। इसी कारण कतिपय मान्य विद्वानोंने भारतीय ज्योतिषको ग्रीक ज्योतिषसे पूर्ण प्रभावित माना है । प्रमाणमें होरा, हिबुक, द्रेष्काण, कंटक, मुन्था, यमया, मणउ आदि शब्दोंको उद्धृत करते हैं । भारतीय ज्योतिषमें इन पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग प्रचुरतासे हुआ है । राशि तथा चान्द्रमास और नक्षत्रांत लग्नकी गणना भी ग्रीक ज्योतिषके प्रभावसे आयी हैं। यों तो दोनों ही ज्योतिषोंके मूल सिद्धान्त पृथक्-पृथक् हैं तथा ग्रहोंके स्थान निर्धारण और काल निरूपणकी प्रणाली भी बिलकुल भिन्न है। सूर्यप्रज्ञप्तिके सिद्धान्तोंकी मौलिकता
___ ई० सन् से दो सौ वर्ष पूर्वकी यह रचना निर्विवाद सिद्ध है। इसमें पंचवर्षात्मक युग मानकर तिथि नक्षत्रादिका साधन किया गया है। भगवान् महावीरकी शासनतिथि श्रावण कृष्ण प्रतिपदासे जब कि चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र पर रहता है; युगारम्भ माना गया है। दिनमानका निरूपण करते हुए लिखा है-"तस्से आदि च्चरस्स संवच्छरस्स सई अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवति । सइं अट्ठारस मुहुत्ता रातो भवति सइंदुवालि समुहुते दिवसे भवति सइंदुबाल समुहुत्ता राती भवति । पढ मे छम्मासे अत्थि अट्ठारसमुत्ता राती भवति । दोच्च छम्मासे अट्ठारसमुहुते दिवसे णत्थि अट्ठारस मुहुत्ता राती अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे पठमे छम्मासे दोच्चे छम्मासे णत्थि"।
_अर्थात्-उत्तरायणमें सूर्य लवण समुद्रके बाहरी मार्गसे जम्बूद्वीपकी ओर आता है और इस मार्गके प्रारम्भमें सूर्यकी चाल सिंहगति, भीतर जम्बूद्वीपके आते-आते क्रमशः मन्द होती हुई गज गतिको प्राप्त हो जाती है । इस कारण उत्तरायणके आरम्भमें बारह मुहूर्त
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
२४ घटीका दिन होता है, किन्तु उत्तरायणकी समाप्ति पर्यन्त गतिके मन्द हो जानेसे १८ मुहूर्त - ३६ घंटेका दिन होने लगता है और रात १२ मुहूर्त की - ९ घंटा ३६ मिनटकी होने लगती है । इसीप्रकार दक्षिणायनके प्रारम्भमें सूर्य जम्बूद्वीपके भीतरी मार्गसे बाहर की ओर - लवण समुद्रकी ओर मन्द गति से चलता हुआ शीघ्र गतिको प्राप्त होता है जिससे दक्षिणायन के आरम्भमें १८ मुहूर्त्त — १४ घंटा २५ मिनटका दिन और १२ मुहूर्त्त की रात होती है, परन्तु दक्षिणायन के अन्त में शीघ्र गतिके कारण सूर्य अपने रास्तेको शीघ्र तय करता है जिससे १२ मुहूर्त्तका दिन और १८ मुहूर्त्त की रात होती है । मध्य में दिन मान लाने के लिए अनुपातसे १८-१२ - ६ मु० अं०, पहने मु०की प्रतिदिनके दिनमान में उत्तरायण में वृद्धि और दक्षिणायनमें हानि होती है ।
=
यह दिनमान सब जगह समान नहीं होता क्योंकि हमारे निवास रूपी पृथ्वी, जो कि जम्बूद्वीपका एक भाग है समतल नहीं है । यद्यपि जैन पुराणों और कर्णानुयोग में जम्बूद्वीपको समतल माना गया है पर सूर्यप्रज्ञप्ति में पृथ्वीके बीच में हिमवान, महाहिमवान, निषधनील रुक्मि और शिखरिणी इन छः पर्वतोंके आ जाने से यह कहीं ऊँची और कहीं नीची हो गयी है। अतः ऊँचाई और निचाई अर्थात् अक्षांश और देशान्तरके कारण दिनमानमें अन्तर पड़ जाता है । सूर्यप्रज्ञप्ति में छायासाधन तथा पंचवर्षात्मक युगके नाक्षत्र आदिके प्रमाण वर्त्तमान या ग्रीक मानों की अपेक्षा सर्वथा भिन्न है । सूर्यप्रज्ञप्ति में पंचवर्षात्मक युगमें चन्द्रमाके ६७ भगण तथा सूर्य ६२ भगण होते हैं । पूर्णिमाके दिन सूर्यसे चन्द्रमा ४०९ मुहूर्त्त ४३ वस्ति प्रमाण अन्तरपर रहता है । जिस समय युगारम्भ होता है उस समय श्रवण नक्षत्र २७८ डिग्रीपर रहता है। अभिजित्का आगमन प्रायः सर्वदा ही आषाढ़ी पूर्णिमाके अन्तिम भाग या श्रावण कृष्ण प्रतिपदाके पूर्व भाग में होता है । पाँच वर्षोंके नाक्षत्र आदि वर्षोंके दिनोंका प्रमाण निम्न प्रकार हैं :
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(१) नाक्षत्र वर्ष - ३२७ दिन
(२) चान्द्रवर्ष - ३५४ ३ दिन
(३) ऋतुवर्ष - ३६० दिन
(४) अभिवर्द्धन वर्ष - ३८३४ दिन
(५) सूर्य वर्ष - ३६६ दिन
कुल पंच वर्षोंका योग १७९१ दिन १९ मुहुर्त और ५७ वस्ति है ।
उपर्युक्त विवेचनको ध्यान में रखकर यदि विचार किया जाय जो सूर्यप्रज्ञप्ति में निम्न सिद्धान्तों का मौलिक रूपसे प्रतिपादन हुआ है जिनकी ग्रीक ज्योतिषसे कोई समता ही नहीं ।
(१) ग्रीक ज्योतिष में पंचवर्षात्मक युगका मान १७६७ दिन माना गया है, जबकि सूर्य प्रज्ञप्ति में १७९१ से कुछ अधिक मान आया है ।
(२) ग्रीक ज्योतिष में छायाका साधन मध्याह्नकी छायापरसे किया गया है पर सूर्य - प्रज्ञप्ति में पूर्वाह्न कालीन छायाको लेकर ही गणित क्रिया की गई है। सूर्यप्रज्ञप्ति में मध्याह्न कालीन छायाका नाम पौरुषी बतलाया गया है। लिखा है कि २४ अंगुल प्रमाण शंकु या की छाया मध्याह्न गर्मीके उस दिन जब कि सूर्य भूमध्यरेखासे अति दूर होता है, ८ अंगुल
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ज्योतिष एवं गणित
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हो जाती है अर्थात् प्रत्येक महीने में ४ अंगुलके हिसाबसे यह छाया क्रमशः बढ़ती और घटती रहती है।
(३) ग्रीक ज्योतिषमें तिथि नक्षत्रादिका मान सौर्य वर्ष प्रणालीके आधारपर निकाला जाता है और पंचांगका निर्माण आज भी इसी प्रणालीपर होता है । किन्तु सूर्यप्रज्ञप्तिमें पंचांगका निर्माण नक्षत्र वर्षके आधारपर किया गया है। सूर्यप्रज्ञप्तिमें समयकी शुद्धि नक्षत्रपरसे ही ग्रहणकी गई है।
(४) युगारम्भ और अयनारम्भ भी सूर्यप्रज्ञप्तिके ग्रीक ज्योतिषसे बिलकुल भिन्न है । मास गणना, अमान्त न लेकर पूर्णिमान्त ली गई है। अतः संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि सूर्यप्रज्ञप्तिके ज्योतिष सिद्धान्त ग्रीक ज्योतिषसे बिलकुल भिन्न और मौलिक है तथा ई० स० से कमसे कम ३०० वर्ष पूर्वके हैं। चन्द्रप्रज्ञप्ति और ज्योतिष करण्डक
इन ग्रन्थोंका विषय प्रायः सूर्यप्रज्ञप्तिसे मिलता है। परन्तु चन्द्रप्रज्ञप्तिमें कीलक छाया और पुरुष छायाओंका पृथक् पृथक् निरूपण है । इस ग्रंथमें २५ वस्तुओंकी छायाओंका विस्तृत वर्णन है । इस ग्रंथमें चन्द्रमाकी १६ तिथियोंमें समचतुरस्र विषमचतुरस्र, आदि विभिन्न आकारोंका खंडनकर समचतुरस्र गोलाकारका वर्णन किया है। इसका कारण यह है कि सुषम सुषुमा कालके आदिमें श्रावण कृष्ण प्रतिपदाके दिन जम्बू द्वीपका प्रथम सूर्य पूर्व दक्षिण कोणअग्निकोणमें और द्वितीय सूर्य पश्चिमोत्तर-वायव्य कोणमें चला था। इसी प्रकार प्रथम चन्द्रमा पूर्वोत्तर-ईशान कोणमें और द्वितीय चन्द्रमा पश्चिम दक्षिण-नैर्ऋत्य कोणमें चला; अतएव युगादिमें सूर्य और चन्द्रमाका समचतुरस्र संस्थान था। पर उदय होते समय ये ग्रह वर्त्तलाकार निकले । अत चन्द्र और सूर्यका आकार अर्द्धकपीठ-अर्द्ध समचतुरस्र गोल बताया है । छाया परसे दिनमानका साधन करते हुए बताया है:
ता अवड्ढ पोरिसिणं छाया दिवसस्स किंगते वा सेसे वा ता ति भागे गए वा ता सेसे वा, पोरिसिणं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा जाव चउ भाग गए वा सेसे वा, ता दिवढ पोरिसिणं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा, ता पंच भाग गए वा सेसे वा एवं अवदड्ढ रोरिसिणं छाया पुच्छा दिवसस्स भागं छोट्टवा गरणं जाव ता अणुलट्ठि पोरिसिणं छाया दिवसस्य कि गए वा सेसे वा ता एक्कूण वीस सतं भागे वा सेसे वा सातिरेग अगुणसट्ठि पोरिसिणं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ताणं किं गए किंचि विगए वा सेसे वा। चं० प्र० ९५
अर्थात्- जब अर्ध पुरुष प्रमाण छाया हो उस समय कितना दिन व्योत हुआ और कितना शेष रहा ? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए कहा है कि ऐसी छायाकी स्थिति में दिनमानका तृतीयांश व्यतीत हुआ समझना चाहिये । यहाँ विशेषता इतनी है कि यदि दोपहरके पहले अर्ध पुरुष प्रमाण छाया हो तो दिनका तृतीय भाग गत और दो तिहाई भाग अवशेष तपा दोपहरके बाद अर्ध पुरुष प्रमाण छाया हो तो तिहाई भाग प्रमाण दिन गत और एक भाग प्रमाण दिन शेष समझना चाहिये । पुरुष प्रमाण छाया होनेपर दिन का चौथाई भाग गत और तीन चौथाई भाग शेष, डेढ़ पुरुष प्रमाण छाया होनेपर दिनका पंचम भाग' गत और चार
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
पंचम भाग-६ भाग अवशेष दिन समझना चाहिये । इसी प्रकार दोपहरके बादकी छायामें विपरीत दिनमान जानना चाहिये । इस ग्रन्थमें गोल, त्रिकोण, लम्बी, चौकोर वस्तुओंकी छाया परसे दिनमानका ज्ञान किया गया है ।
चन्द्रप्रज्ञप्तिमें चन्द्रमाके साथ तीन मुहूर्त तक योग करने वाले श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, मृगसिर, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल और पूर्वाषाढ़ा ये पन्द्रह नक्षत्र, ४५ मुहर्त तक चन्द्रमाके साथ योग करने वाले पूर्वा भाद्रपद, रोहिणी, पुनर्वसु उत्तराफाल्गुनी, विशाखा और उत्तराषाढ़ा ये छ: नक्षत्र है एवं पन्द्रह मुहूर्त तक चन्द्रमाके साथ योग करने वाले शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाती और ज्येष्ठा ये छः नक्षत्र बताये गये हैं ।
___ज्योतिष करण्डकमें यों तो अनेक विशेषताएं हैं पर नक्षत्र लग्ग सम्बन्धी विशेषता विशेष उल्लेखयोग्य है । इस ग्रंथमें लग्न निरूपणकी यह प्रणाली सर्वथा नवीन और मौलिक है:
लग्गं च दक्खिणायविसुवे सुवि अस्स उत्तरं अयणे ।
लग्ग साई विसुयेसु पंचसु वि दक्खिणे अयणे ।। अर्थात् अस्सा यानी अश्विनी और साई-श्वाति ये नक्षत्र विषुवके लग्न बताये गये हैं। यहाँ विशिष्ट अवस्थाकी राशिके समान विशिष्ट अवस्थाके नक्षत्रोंको लग्न माना है। तुलना
ग्रीक ज्योतिष और चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा ज्योतिषकरण्डकके सिद्धान्तोंकी तुलना करनेसे निम्न निष्कर्ष निकालती हैं ।
(१) ज्योतिषकरण्डककी लग्न प्रणाली जिसका आधार नक्षत्र मान है ग्रीक प्रणालीसे बिलकुल भिन्न है । ग्रीक ज्योतिष में लग्नका मान राश्य अंश कलात्मक रूपसे माना गया है। यदि गहराईसे ज्योतिष करण्डकका अवगाहन किया जाय तो नक्षत्रोंकी आकृतियाँ उनकी ताराओंकी संख्या ग्रीक ज्योतिष की अपेक्षा सर्वथा भिन्न है।
(२) चन्द्रप्रज्ञप्तिमें प्रतिपादित छायापरसे दिनमान साधनकी प्रक्रिया ग्रीक ज्योतिषसे तो भिन्न है ही पर यह समय भारतीय ज्योतिष में प्राचीनताकी दृष्टिसे एक मौलिक प्रणाली है। इस प्रणालीका विस्तृत विकसित रूप ही युज्या, त्रिज्या, कुज्याके रूपमें सिद्धान्त ज्योतिषमें आया है । ग्रह-गणितके जिन बीज सूत्रोंका उल्लेख इस ग्रन्थमें किया गया है उनका निरूपण पोक ज्योतिष में कमसे कम २०० वर्ष बाद हुआ है । नक्षत्रांत पूर्णिमाका निरूपण ग्रीक ज्योतिष में ई० स०की पहली दूसरी शताब्दीमें हुआ है । आज कल भी ग्रीक पंचांग सूर्य नक्षत्रके आधार पर ही पूर्णिमा तथा अमावस्याका प्रतिपादन करते हैं पर चन्द्रप्रज्ञप्तिमें चान्द्र नक्षत्रोंके उपभोग और मुहूर्तोंके प्रमाणानुसार ही पूर्णिमा और अमावस्याकी सिद्धिकी गयी है । पंचवर्षात्मक युग परसे समय शुद्धिके निमित्त पंचांग तैयार करना और उनके स्थूल मानों द्वारा समय शुद्धिका कथन करना चन्द्रप्रज्ञप्ति और ज्योतिषकरण्डकका प्रधान वर्ण्य विषय है । अतः प्रत्येक गणितमें
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ज्योतिष एवं गणित
२८७ सूर्यकी प्रधानता न कर चन्द्रमाको ही प्राधान्य दिया गया है। पर ग्रीक ज्योतिषमें यह बात नहीं।
(३) ग्रहोंकी वीथियोंका निरूपण केवल उक्त प्राचीन ग्रन्थोंमें ही मिलता है ग्रोक ज्योतिष में नहीं । नाड़ी वृत्त, खमंडल, आदिका उपयोग ग्रीक ज्योतिषमें अवश्य किया गया है पर यह प्रणाली प्रहवीथियोंसे बिलकुल भिन्न है। हाँ, ग्रह वीथियोंका विकसित रूप प्रचलित भचक्रको माना जा सकता है ।
इस प्रकार ई० स० से कई शताब्दी पूर्व जैन आचार्योंको एक मौलिक ज्योतिष विचार धारा धी जो कि ग्रीक ज्योतिषसे सर्वथा भिन्न है।
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अंगविद्या : प्रादुर्भाव और विकास अंगविद्या भारतकी प्राचीन विद्या है। इसका क्षेत्र वर्तमान सामुद्रिक शास्त्र से बहुत विस्तृत है। उपनिषदोंमें इस विद्याका संकेत प्राप्त होता है ।' महाकाव्योंमें भी इस विद्याके स्रोत मिलते हैं । महाभारत में हाथ-पाँव की रेखा, मुखाकृति, कण्ठस्वर, ललाट आकृति आदिका विचार विद्यमान है। विराट पर्व और उद्योग पर्वमें इस प्रकारके अनेक उल्लेख आये हैं जिनसे स्त्री पुरुषोंके अंगों द्वारा फलाफलपर प्रकाश पड़ता है ।
पाणिनिने अपने व्याकरणमें 'पतिघ्नी पाणिरेखा' जैसे पदोंका प्रयोग किया है। दिव्यावदानमें भी अंगविद्याके महत्वपूर्ण निर्देश प्राप्त हैं। बताया है कि अंगुष्ठके मूलसे जानेवाली एक ऊर्ध्व रेखा व्यक्तिको सुखी बनाती है, यदि इसी स्थानसे दूसरी रेखा निकलती है तो ज्ञानी होनेकी सूचना प्राप्त होती है और इसी स्थानसे यदि तीसरी रेखा निकलती है तो हेतु शास्त्रके पाण्डित्यका बोध कराती है। इसी प्रकार आयु-रेखा ऊर्ध्वरेखा, प्रभृति रेखाओंके साथ यव, तिल, व्यंजन आदिके शुभाशुभ फलोंका वर्णन किया है। रेखाओंके वर्ण, आकृति, गाम्भीर्य, दीर्घता, अल्पता आदिके विवेचन द्वारा विशेष-विशेष फलोंका निरूपण किया है। कन्या परीक्षण प्रसंगमें बताया है कि हस्त, पाद, नख, अंगुली, पाणिरेखा, जंघा, कटि, नाभि, ऊरु, ओष्ठ, जिह्वा, दन्त, कपोल, नासिका, अक्षि, भू, ललाट, कर्ण, केश, रोमराजि, स्वर, वर्ण आदिके संस्थान विशेष द्वारा शुभाशुभत्वका विचार करना चाहिए। इस प्रसंगमें अंगपरिज्ञान परीक्षण विधिसे कन्यांके भविष्यका अत्यन्त विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । लगभग सौ पदोंमें यह प्रसंग समाप्त हुआ है और इसमें आजके सामुद्रिक शास्त्र की अपेक्षा अनेक मौलिक और नवीन सिद्धान्त आये हैं । लिखा है
हस्तौ पादौ निरीक्षत नखानि ांगुलोस्तथा। पाणिलेखाश्च जंघेच कटि नाभ्यरूमेवच ॥ ओष्ठौ जिह्वां च दान्तांश्च कपोलो नासिकां तथा । अक्षिभ्रुवौ ललाटं च कर्णौ केशांस्तथैव च ॥ मीतं सत्वं समीक्षेत कन्यानां शास्त्रकोविदः। तत्र पूर्व परीक्षेत स्वयमेव विचक्षणः ॥ हंस स्वरा मेघवर्णा नारी मधुरलोचना। अष्टौ पुत्रान् प्रसूयेत, दासीदासैः समावृता । उरु जंघे च पार्वे च विक्रमः संस्थितः । रक्तान्ते विपुले नेत्रे सा कन्या सुखमेधते ॥ मृगाक्षी मृगजंघा च मृगग्रीवा मृगोदरी।
युक्तनामा तु या नारी राजानमुपतिष्ठते ॥१॥ १. छान्दोग्य उपनिषद्, सप्तम अध्याय, खण्ड १, सूत्र २ ।
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ज्योतिष एवं गणित
२८९ अंग विद्याके विकासपर ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञात होता है कि इस विद्याका प्रारम्भ भारतवर्षमें ईस्वी सन् से ५०० वर्ष पूर्वही हो चुका था। 'रामायण और 'महाभारत' में अंगविद्याके निर्देशोंके साथ प्राकृत और पालि ग्रन्थों में इस विषयके अनेक उल्लेख मिलते हैं । 'अंगुत्त र' निकायमें ललाट, वक्षस्थल, हस्तपाद, नासिका एवं कर्णके ह्रस्व दीर्घ विचार द्वारा भावी फलोंका वर्णन किया है। समवायांगमें भी अंगोपांगोंका निर्देश आया है । 'रायपसेणीय सुत्तमें स्त्रियों, पुरुषों और पशुओंकी अंगाकृतिका विवेचन आया है तथा इसी ग्रन्थमें उल्लिखित बहत्तर कलाओंमें अंगविद्याकीभी गणना समाविष्ट है । प्राकृत ग्रन्थ 'वसुदेवहिण्डी' के सत्रहवें लम्बमें अंगविद्याके अनेक सिद्धान्त आये हैं । अष्टादश लम्बमें प्रियंगसुन्दरीके अंगवर्णन प्रसंगमें अंगोंकी आकृतिका विवेचन किया गया है । इस विवेचनसे अंगविद्या प्राचीन सिद्धान्तोंकी जानकारी सरलतापूर्वक प्राप्तकी जा सकती है। 'समराइचकहा' और 'कुवलयमाला' में इस विद्याके सिद्धान्तोंका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है। 'कुवलयमाला' में बताया है कि पूर्वोपार्जित कर्मोके कारण जीवधारियोंको सुख-दुखकी प्राप्ति होती है । इस सुख दुःखादिको शारीरिक लक्षणोंके द्वारा जाना जा सकता है। शरीर अंग, उपांग और आंगोपांग इन तीन वर्गोंमें विभक्त है । इन तीनोंके लक्षणोंसे मनुष्योंका शुभाशुभत्व ज्ञात होता है । जिस मनुष्यके पैरका तलवा लाल, स्निग्ध और मृदुल हो तथा स्वेद और वक्रतासे रहित हो, वह इस पृथ्वीका नेता या शासक होता है । पैर में चन्द्रमा, सूर्य, वज्र, चक्र, अंकुश, शंख और छत्रके चिन्ह होनेपर व्यक्ति नेता या तत्तुल्य होता है । स्निग्ध और गहरी रेखाएँभी शासकके पैरके तलवेमें होती हैं । शंखादि चिन्ह, भिन्न, अपूर्ण या स्पष्ट अथवा यत्किचित् स्पष्ट हों तो उत्तरार्ध अवस्थामें सुख भोगोंकी प्राप्ति होती है । खर, गर्दभ, वराह, शूकर जम्बुक, शृगालकी आकृतिके चिन्ह हों तो व्यक्तिको कष्ट होता है। समान पदांगुष्ठोंके होने पर मनोनुकूल पत्नीकी प्राप्ति होती है । इस प्रकार कुवलयमालामें चिह्न, अगुलियोंका हस्व-दीर्घत्व, वर्ण आकृति स्पर्श आदिके द्वारा फलाफलका कथन आया है। शरीरको उन्मत अवस्था, मध्यम परिमाण और जघन्य परिमाणोंका कई ष्टियोंसे विवेचन किया है अंगुली और अंगुष्ठके विचारके पश्चात् हथेलीके स्पर्श, रूप, गन्ध एवं आयतनका विचार किया है । वृषण, वक्षस्थल, जिह्वा, दन्त, ओष्ठ, कान, नाक आदिके रूप रंग, आकृति, स्पर्श, आयाम, गाम्भीर्य प्रभतिके द्वारा शुभाशुभ फल विवेचित हैं। आयुका विचारभी इस ग्रन्थमें विस्तारपूर्वक आया है । दीर्घायु, मध्यमायु, अल्पायु, अरिष्ट, अकाल, मरण आदिका अंगोंके परीक्षण द्वारा विवेचन किया है । दीर्घायुका विचार करते हुए लिखा है
कण्ठं पिट्ठी लिंगं जंघे य हवंति हस्सया एए । पिहुला हत्थ पाया दीहाऊ सुत्थिओ होइ ।। चक्खु-सिणेहे सुहओ दंत सिणेहे य भोयणं मिळें । तय-णेहेण उ सोक्खं णह-णेहे होइ परम-धणं ।।
-कुवलयमाला, पृ० १३१, अनु० २१६ । अर्थात् कंठ, पोठ, लिंग और जंघाका ह्रस्व (लघु) होना शुभ है। हाथ और पैरका दीर्घ होनाभी शुभफल सूचक है । आँखोंके स्निग्ध होनेसे व्यक्ति सुखी, दाँतोंके स्निग्ध होनेसे १. दिव्यावदान, मिथिला विद्यापीठ, संस्करण, शार्दूल कर्णावदानम्, पृष्ठ ४११ ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
मिष्टान्न प्रिय, त्वचाके स्निग्ध होनेसे सुखी और नाखूनोंके स्निग्ध होनेसे धनी होता है। इस प्रकार नेत्र, नाखून, दंत, जांघ, हाथ-पैर आदिके रूप-रंग, स्पर्श, संतुलन, प्रमाण, मान-वजन एवं आकार प्रकारके द्वारा शुभाशुभत्वका वर्णन किया है । अंगविद्या सम्बन्धी स्वतन्त्र रचनाएँ
भारतीय साहित्यके आलोडन से ज्ञात होता है कि वराहमिहिरके समय तक अंगविद्याका कथन या वर्णन अन्य विषयक ग्रन्थोंमें होता रहा। इस विद्यापर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखनेकी परम्पराका आरम्भ अंग विज्जा नामक प्राकृत ग्रन्थमें होता है। अंगविद्यापर यह सर्वप्रथम स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इस ग्रन्थके वर्ण्यविषयके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि इसमें अंग-ज्ञानके साथ अष्टांग निमित्तभी सम्मिलितहो गया था । इस ग्रन्थमें अंग-निमित्तका महत्व बतलाते हुए लिखा है कि अंगविद्या ज्योतिष विषयक सभी शाखाओंमें श्रेष्ठ है । जिस प्रकार समस्त नदियाँ समुद्रमें मिल जाती हैं, उसी प्रकार स्वर, व्यंजन, लक्षण, स्वप्न, छिन्न, भौम और अन्तरिक्ष निमित्त अंग-विद्या रूपी समुद्रमें मिल जाते हैं । इस विद्यासे जय-पराजय, लाभ-हानि, जीवनमरण, सुख-दुख, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष, धन-हानि, धन-प्राप्ति आदिका सहजमें ज्ञान प्राप्त होता है । शारीरिक लक्षणोंको जानकर मानसिक और आध्यात्मिक विकासका परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । जिस प्रकार मनोविज्ञानका सम्बन्ध चित्तवृत्तियों और संवेदनाओंके विकाससे है, सष्टि-विज्ञानका सम्बन्ध मन. बद्धि और शरीरके निर्माणक तत्त्वोंके विश्लेषण और अनुपातसे है। उसी प्रकार अंग-विद्याका सम्बन्ध मनुष्यके आन्तरिक और बाह्य व्यक्तित्वके विश्लेषण
यों तो सभी प्राणियोंके शरीरका निर्माण पौद्गलिक परमाणुओंसे होता है और सभीकी आकृति एक समान दिखलाई पड़ती है, पर इस एकताके बीचभी विविधता और विषमताका समवाय रहता है। अतः जो विभिन्न जन्म-जन्मान्तरके संस्कारोंसे वजित इस विविधताको अवगत कर लेता है, वही अंगविद्याका ज्ञाता भावी शुभाशुभ फलोंका निरूपण करने में समर्थ होता है । वस्तुतः अंगविद्या एक वैज्ञानिक, अध्यात्मिक विद्या है, जिसके अध्ययन और मनन से भावी घटनाओंके साथ व्यक्तिके वर्तमान और अतीतकी भी जानकारी प्राप्तकी जाती है । यहाँ यह स्मरणीय है कि अंग परीक्षक को अंगोंकी क्रिया-प्रतिक्रिया, गति-स्थिति आदिके साथ अन्य निमित्तोंकी जानकारीभी अपेक्षित है । बताया है
जथा णदीओ सव्वाओ ओवरंति महोदधिं । एवं अंगोदधिं सव्वे णिमित्ता ओतरंति हि ॥१॥ अणुरत्तो जयं पराजयं वा राजमरणं वा आरोग्गं वा रणो।
आतंकं वा उवद्धवं वा मा पुण सहसा वियागरिज्ज पाणी ॥२॥ स्पष्ट है कि अंग विद्याके रचयिता आचार्यने केवल अंगविद्याका स्वरूपही नहीं बतलाया, किन्तु कर्म सिद्धान्तानुसार पूर्व जन्मके कर्मोंके प्रभावकाभी विश्लेषण किया है । आचार्यका विश्वास है कि जीवोंकी प्रकृति उनकी प्रकृतिपर निर्भर है और यह प्रकृति पूर्व १. अंग विज्जा, १, ६, पृ० १ । २. वही, पृ०७।
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ज्योतिष एवं गणित
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जन्मके कर्मोंके संस्कारसे निर्मित होती है। अतः जैसे पूर्वजन्मके कर्म संस्कार होते हैं, वैसीही प्रवृत्तिहो जाती है । फलतः कुछ वस्तुओंके प्रति आकर्षण होता है और कुछके प्रति विकर्षण । इस प्रकृतिको पैतृक या वंश परम्पराके द्वारा आगत नहीं माना जा सकता है । यतः एकही पिताके कई शिशुओंकी भिन्न-भिन्न प्रकृति देखी जाती है। एक जिस कार्यमें रुचि रखता है, दूसरा उससे घृणा करता है और तीसरेकी कुछ और ही रुचि रहती है । अतएव कर्म संस्कारोंको विविधताके कारण प्रत्येक व्यक्तिको शरीराकृति पृथक्-पृथक् होती है, जिससे जीवनकी क्रिया, गति और फल भिन्न-भिन्न रूपोंमें घटित होते हैं।
यह ग्रन्थ साठ अध्यायों में समाप्त हुआ है और इसका परिमाण नौ हजार श्लोक प्रमाण है । गद्य और पद्य दोनोंका ही प्रयोग किया गया है। इस ग्रन्थके नवम अध्यायमें शरीर-सम्बन्धी पचहत्तर अङ्गोंके नाम आये हैं । मस्तक, शिर, सीमन्तक, ललाट, नेत्र, कर्ण, कपोल, ओष्ठ, दन्त, मुख, मसूढ़ा, स्कन्ध, बाहु, मणि-बन्ध, हाथ, पैर, जिह्वा, कटि, जानु, करतल, पादतल, अंगुष्ठ प्रभृति अंगोंके वर्ण, स्पर्श, आकृति, चिह्न-विशेष, परिमाण, आयाम, आयतन आदिका विस्तारपूर्वक विचार किया गया है । निःसन्देह इस ग्रन्थमें अंग विद्याके साथ प्रश्न-शास्त्र सम्बन्धी भी अनेक चर्चाएँ आयो हैं । प्रश्न-प्रक्रियाका सांगोपांग विवेचन लगभग दो हजार पद्योंमें किया गया है ।
प्रस्तुत 'अंगविज्जा' के संस्करण के साथ परिशिष्ट रूपमें एक सटीक संस्कृतका 'अंग विद्या शास्त्र' भी अंकित है। इसमें संस्कृत भाषामें लिखे गये केवल ४४ पद्य हैं और साथमें संस्कृत टीका भी है । टीकाकारने लिखा है___कालोऽन्तरात्मा सर्वदा सर्वदर्शी शुभाशुभैः फलसूचकः सविशेषेण प्राणिनाम परांगेषु स्पर्श-व्यवहारेङ्गितचेष्टादिभिः निमित्तैः फलमभिदर्शयति ।
अर्थात्-अंग-स्पर्श, व्यवहार, चर्या-चेष्टा, अंगाकृति आदिके द्वारा शुभाशुभ फलका प्रतिपादन किया गया है । इस लघुकाय ग्रन्थमें अंगोंकी विभिन्न संज्ञाएं वर्णित हैं, जिनसे फलादेशके अध्ययनमें विशेष सुविधा प्राप्त होती है।
___ इन दोनों ग्रन्थोंके अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि इस विषयका विस्तार केवल अंगोंकी आकृति, रेखाएँ आदिके अध्ययन तक ही सीमित नहीं था, किन्तु इसके अन्तर्गत आकाशकी रूपाकृति, उत्पात, उल्का, गन्धर्व, नगर, ताराओंकी विशेष आकृति, भूगर्भशास्त्र आदि भी इस विद्याके वर्ण्य-विषयमें सम्मिलित हो गये थे ।
प्रस्तुत ग्रंथ 'अंगविज्जा' के रचना काल और लेखकका निश्चित रूपसे परिज्ञान प्राप्त करना कठिन है। पर भाषा शैली, वर्ण्य विषय एवं विषयविस्तार आदिकी दृष्टिसे विचार करनेपर इस ग्रंथका रचना काल ई० सन् की चौथी-पाँचवीं शती प्रतीत होता है । यह सत्य है कि अंग-विद्याने इस समय तक स्वयं एक शास्त्रका रूप प्राप्त कर लिया था । इस विषयके अन्य ग्रन्थोंमें कर-लक्खण और ज्ञान-प्रदीपिका भी इसी समयकी रचनाएँ हैं । कर-लक्खणके प्रारम्भमें हस्त रेखापर विचार किया है और बताया है कि मनुष्य इस जीवलोकमें लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण और जय-पराजय रेखाओंके बलसे प्राप्त करता है । अतः पुरुषोंके दाहिने हाथ और स्त्रियोंके बायें हाथकी रेखाओंसे शुभाशुभ फलकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए । यथा
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
पावइ लाहालहं सुहदुक्खं जीविरं च मरणं च ।
रेहाहिं जीवलोए पुरिसो विजयं जयं च तहा ॥१ ६१ गाथाओंमें लेखकने हस्तरेखाके साथ अंगुलियोंकी आकृति, उनका विरलत्व और सघनत्व, मांसलता, वर्ण, स्पर्श आदिका भी विचार किया है। इस छोटेसे ग्रंथमें अंग विद्या विषयक विभिन्न विषयोंका समावेश किया गया है। इसी प्रकार 'ज्ञान-प्रदीपिका' में अङ्ग विद्याका विस्तृत विवेचन है। इस ग्रन्थके कुछ पद्योंमें दार्शनिक दृष्टिसे भी अङ्ग विद्याका विश्लेषण किया है । आत्मा, कर्म और इन दोनोंके सम्बन्धकी दार्शनिक चर्चा भी इस ग्रन्थमें आयी है । आत्माके स्वरूप, गुण, शक्ति एवं उनकी पर्यायोंका विविध दृष्टियोंसे विवेचन किया है । आत्मा एक अखण्ड, अनन्त, चैतन्य पिण्ड है। यह स्वतन्त्र और मौलिक द्रव्य है । चैतन्य परिणति इसका सामान्य लक्षण है और यह इसका असाधारण गुण है । बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंसे इस चैतन्यके ज्ञान और दर्शन रूप परिणमन होते हैं। जब आत्मा स्वसे भिन्न किसी ज्ञेयको जानता है तब उसकी चैतन्य परिणति ज्ञान कहलाती है। यह ज्ञान जितना स्पष्ट और निजरूप होता है, कर्मकी परिणति उतनी ही अनुमात्रकी दृष्टिसे क्षीण होती है । आत्मा पौद्गलिक कर्मोके विलक्षण सम्बन्धके कारण विभिन्न प्रकारके शुभाशुभ संस्कारोंका अर्जन करता है और अंग विद्या इन अजित संस्कारोंकी अभिव्यक्ति दीपवत् करती है। जिस प्रकार दीपकके प्रकाशमें घट-पदादि पदार्थोंको जानकारी प्राप्त होती है, उसी प्रकार अङ्ग विद्या द्वारा अजित संस्कारोंकी जानकारी प्राप्तकी जाती है । ज्ञान प्रदीपिकामें आत्मा और कर्म-सम्बन्धका भी संक्षेपमें विवेचन आया है।
___छठवीं और सातवीं शताब्दीमें इस विद्यापर स्वतन्त्र ग्रन्थ तो लिखे हो गये हैं, पर 'वराहमिहिर', 'नारद' आदिके द्वारा रचित संहिता ग्रन्थों में भी अङ्ग विद्याके अनेक महत्वपूर्ण सिद्धान्त निबन्ध हैं । वराहमिहिरने वाराही संहिताके ६७-६८ और ६९वें अध्यायोंमें इस विद्याके विषयोंका निर्देश किया है । उन्होंने बताया है कि उन्मान-अंगुलात्मक उच्चता, मान, परिमाण या तौल, गमन संहति-अङ्ग सन्धियोंकी सुश्लिष्टता, सार, वर्ण, शब्द, प्रकृति, प्रवृत्ति, सत्व, दशांग मृजा शरीरच्छाया आदिके द्वारा फल प्रतिपादन किया जा सकता है। सामान्य सिद्धान्तोंके पश्चात् रेखाकृति, नख, अंगुलि, नाडी, रोम, ऊरु, जानु, लिंग, वृषण, गन्ध,
आवलि, वक्षस्थल, स्कन्ध, ग्रीवा, कण्ठ, कपोल आदिके परीक्षण द्वारा शुभाशुभ फलोंका वर्णन किया है । ओष्ठ और चिबुकके वर्णन सन्दर्भ में बताया है कि जिस व्यक्तिका चिबुक बहुत कृश
और लम्बा हो वह निर्धन होता है । मांसल और पुष्ट चिबुक वाला धनिक, रक्तवर्णके चिबुक वाला प्रतापी, सघन और कृष्ण केशोंसे युक्त चिबुक वाला व्यक्ति प्रसिद्ध, मन्दबुद्धि एवं अल्पधनी एवं स्निग्ध और समान आकृतिके चिबुक वाला व्यक्ति प्रसिद्ध होता है। इसी प्रकार कन्दूरीके समान रक्तवर्णके अधर वाला व्यक्ति शासक, नेता और संगठन कर्ता होता है। छोटे अधरका व्यक्ति निर्धन, स्थूल अधरका व्यक्ति क्रूर और कर्तव्य परायण, रक्त और स्निग्ध वर्णके अधर वाला व्यक्ति प्रसिद्ध, सुखी और शासक होता है । रुक्ष, वक्र, खण्डित
और भद्दी आकृतिके अघर वाला व्यक्ति निर्धन होता है । रक्त वर्ण, लम्बी, श्लक्षण और समान जिह्वा वाला व्यक्ति भोगी होता है । श्वेत, कृष्ण और रुक्ष जिह्वा वाला. व्यक्ति धनहीन होता है । सौम्य, समवृत्त, निर्मल, लक्षण एवं वक्र जिह्वा वाला व्यक्ति जीवनमें आनन्द
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ज्योतिष एवं गणित
२९३ प्राप्त करता है। इसका प्रभाव सभी प्राणियोंपर पड़ता है। इस प्रकार ६८वें अध्यायके ११७ श्लोकोंमें अङ्गविद्याके विशेष सिद्धान्तोंका वर्णन आया है। इस ग्रन्थके ७०वें अध्यायमें स्त्रियोंके लक्षणोंपर प्रकाश डाला गया है । इसी प्रकार 'नारद संहिता' में अङ्गों और रेखाओंकी विशेषताओंका वर्णन किया है।
नवम और दशम शताब्दीमें लिखित 'अंग दीपक', 'अंग प्रदीपिका' और 'अंग शास्त्र' नामक स्वतन्त्र रचनाएँ प्राप्त होती हैं । इन रचनाओंमें शरीरके छत्तीस अंगों पांगोंका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। करतलका वर्णन और फलादेश १६ दृष्टि बिन्दुओंसे किया गया है। इस वर्णनसे ऐसा ज्ञात होता है कि अंग विद्याके विषयोंका उत्तरोत्तर विस्तार होता जा रहा था और अन्तरिक्ष सम्बन्धी निमित्त भी इस विद्यामें समाविष्ट हो गये थे। अंग प्रदीपिकामें अंगोंका विवेचन रेखागणित के सूत्रों द्वारा किया गया है। फिर शिर और ललाटकी रचनाको त्रिकोणकी आकृति मानकर लम्ब, आधार और भुजाओंके गणितसे अंगोंके मान निकाले गये हैं और इन्हीं मानोंके आधारपर भविष्य फलका प्रतिपादन किया है । मुखाकृतिके अतिरिक्त नेत्र, ललाट, कर्ण, भौंहके क्षेत्र फलोंका भी आनयन किया है और इस प्रक्रियाको रेखागणितका आधार देकर बीजगणितकी प्रतीकशैलीमें भविष्य फलोंका निरूपण किया है । हस्तमुद्राओंके वर्णन भी आये हैं।
११ वीं शताब्दीसे १५ वीं शताब्दी तक लिखे गये ग्रन्थों में अंगविद्याकी विषय वस्तुमे कोई विस्तार या विकास प्राप्त नहीं होता है । इन शताब्दियोंमें इस विद्याके सामुद्रिक शास्त्रका रूप ग्रहण कर लिया प्रतीत होता है । सामुद्रिक शास्त्रका तात्पर्य समुद्र ऋषि द्वारा प्रणीत शरीर चिह्नों से है। इन शताब्दियोंकी रचनाओंमें 'हस्त-संजीवन', 'सामुद्रिक शास्त्र', 'मुख प्रदीपिका', 'हस्त प्रदोपिका' आदि प्रधान है। इन ग्रन्थों में हस्तपाद और ललाटकी रेखाओंके साथ अंगोंकी आकृतियोंके विवेचन भी अंकित हैं। प्रभावशाली व्यक्तित्वके हेतु क्रियाशील, कृश, दुर्बल एवं सुगठित शरीरावयवोंका विवेचन किया है । तिल, मस्सा, व्यंजन आदि चिह्नोंका निरूपण भी किया गया है । यद्यपि सैद्धान्तिक दृष्टिसे इन शताब्दियोंमें रचित अंग-विद्या सम्बन्धी ग्रन्थों में मौलिक सिद्धान्तोंका विवेचन नहीं आया है, तो भी युगानुकूल व्याख्याओंकी दृष्टिसे इन ग्रन्थोंमें विषय-वस्तुका पर्याप्त स्पष्टीकरण किया गया है । यदि विषयानुसार विश्लेषण किया जाए तो इन ग्रन्थोंमें प्रतिपादित विषयोंको संक्षेपमें निम्नलिखित वर्गों में विभाजित कर सकते हैं
१. अवयवाकृति । १. अवयवोंके वर्ण, स्पर्श एवं मान । ३. अंग-उपांग और आंगोंपांगके संस्थान विशेष । ४. हस्त-पाद और ललाटकी रेखाएँ । ५. व्यंजन, तिल, मस्सा, चट्टा आदिका शुभाशुभत्व । ६. स्वर निमित्त-स्वर विज्ञान एवं शब्द और ध्वनिका शुभाशुभत्व ।
७. लक्षण निमित्त-स्वस्तिक, कलश, शंख, चक्र आदि चिह्नों द्वारा शुभाशुभत्व । अधषवाकृति विचार
हाथ-पांव, सलाट,मस्तक और वक्षस्थलकी आकृतिका अध्ययन कर शुभाशुभ फलका
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
प्रतिपादन करना अवयवाकृति है। नासिका, नेत्र, दन्त, ललाट मस्तक और वक्षस्थल इन छ: अवयवोंके उन्नत होनेसे मनुष्य सुलक्षणयुक्त होता है । करतल, पदतल, नयनप्रान्त, नख, तालु, अधर और जिह्वा इन सात अंगोंके रक्त होनेसे जीवन में उन्नति होती है। जिसकी कमर विशाल हो, वह बहुपुत्रवान् होता है । भुजाएं लम्बी होनेसे श्रेष्ठ व्यक्तित्वके साथ पराक्रमकी प्राप्ति होती है । जिसका वक्षस्थल विस्तीर्ण है वह धन-धान्यशाली और जिसका मस्तक विशाल है वह पूजनीय होता है । जिस व्यक्तिका नयन प्रान्त लाल है वह कभी निर्धन नहीं होता है। तप्त कांचनके समान दोप्त वर्णवाला व्यक्ति ऐश्वर्यशाली, प्रतापी और मान्य होता है। जिसका शरीर धूमिल वर्णका है वह निर्धन होता है तथा अधिक रोमवाला व्यक्ति सुखी नहीं होता । जिसकी हथेली चिकनी और मृदुल हो, वह ऐश्वर्य भोग करता है । जिसके पैरका तलवा लाल होता है, वह सवारीका उपभोग सदा करता है। पैरके तलवोंका चिकना और अरुण वर्णका होना शुभ माना गया है। जिस व्यक्तिके केश ताम्रवर्ण और लम्बे तथा घने हों वह पच्चीस वर्षकी अवस्थामें पागल या उन्मत्त हो जाता है। इस प्रकारके व्यक्तिको ४० वर्षको अवस्था तक अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं । जिस व्यक्तिकी जिह्वा इतनी लम्बी हो जो नाकका अग्र भाग स्पर्श कर सके, तो वह योगी या मुमुक्षु होता है । जिसकी बाहु घुटनोंका स्पर्श करती हों या उससे भी कुछ लम्बी हों, वह अत्यन्त प्रभावशाली, शासक, मुमुक्षु या योगी होता है। घुटनोंसे छोटी बाहों वाला व्यक्ति धूर्त, कपटी, कुचाल और प्रभावहीन होता है । स्थूल भुजाओं वाला धनिक और पराक्रमशाली होता है। जिसकी भुजाएं कृश, लघु और असन्तुलित होती हैं, वह धूर्त, चोर, डाकू या धोखेबाज होता है। इसी प्रकार जिस व्यक्तिके दाँत विरल–अलग-अलग हों और हँसनेपर तालुभाग दिखलाई दे, उस व्यक्तिको अन्य किसीका धन प्राप्त होता है और ऐसा व्यक्ति दुराचारी होता है । अवयवाकृतिके अन्तर्गत हस्ताकृति और ललाटाकृति भी सम्मिलित है । हस्ताकृतिमें सात प्रकारके हाथोंका वर्णन आया है१. समकोण
५. निकृष्ट १. चमषाकार
६. विषय ३. दार्शनिक
७. मिश्रित ४. शिल्पी हस्तकारोंका निरूपण
समकोण हाथ सबसे श्रेष्ठ है। इसका दूसरा नाम चतुष्कोण भी है। इसमें कलाई और अंगुलियोंके बीचमें हथेली और अंगुलियां अलग-अलग नापमें समकोणाकार होती हैं। इस हाथके नाखून चतुष्कोण या चौकोन होते हैं। मध्यमा अंगुलीकी बीचको गाँठ आकारमें कुछ बड़ी होती है। इस प्रकारके हाथ वाला व्यक्ति अध्यवसायी, सूक्ष्मबुद्धिवाला, राजनीतिक, कर्तव्यपरायण, गम्भीर, कल्पना-प्रवीण, नियमित कार्य करने वाला, विद्या व्यसनी, सदाचारी, शिष्ट और क्रियानिष्ठ होता है। इस प्रकारके हाथवाले व्यक्ति शिक्षक, वकील, व्यवसायी, प्रन्थकार, मसिजीवी, न्यायाधीश आदि होता है ।
चमषाकार हाथकी अंगुलियाँ मुड़ी हुई, टेढ़ी सीधी होती हैं । हथेली कलाईके पास अधिक और अंगुलियोंके पास कम चौड़ी होती है। किसी-किसी हायमें अंगुलियोंके पास अधिक
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ज्योतिष एवं गणित
और कलाईके पास कम चौड़ी भी हथेली देखी जाती है । यदि चमषाकार हाथ अंगुलियोंके मूलमें चौड़ी हो तो व्यक्ति कार्यशील और व्यवहार प्रवीण होता है । कवि या कल्पनाशील भी इस प्रकारके हाथवाले होते हैं । ये जीवन में उपयोगी पदार्थोंका आविष्कार भी करते हैं । यदि हाथ मणिबन्धकी ओर ज्याद बड़ा हो तो ऐसे व्यक्तियोंकी बुद्धि संसारके कार्योंमें अधिक गतिशील होती है ओर ये संसार में नयी क्रान्ति करते हैं । अंगुलियोंके गांठदार होनेपर मनुष्य परिश्रमी होता है । यदि चमषाकार हाथकी अंगुलियाँ गाँठदार न हों और चिकनी हों तो व्यक्ति हस्तकला में अत्यन्त प्रवीण होता है । चिकनी होने के साथ लम्बी अंगुली वाला व्यक्ति पेड़-पौधों और खेती-बारी के काम में विशेष रुचि लेता है ।
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दार्शनिक हाथ प्राय लम्बा, गठीला, कोणाकार और बीचमें झुका हुआ होता है । अंगुलियों के जोड़ उभरे हुए तथा नाखून बे होते हैं । दार्शदिक हाथवाले व्यक्ति भावुक, विवेकी, आध्यात्मिक, तत्वज्ञानी, वैज्ञानिक, चिकित्सक, रासायनिक, गवेषणाप्रिय, कर्तव्य परायण, कार्यकुशल, योगी, ज्ञानी और नेता होते हैं । दार्शनिक हाथवाले स्वाभिमानी और प्रकृति से गम्भीर होते हैं । ये अधिक धनी नहीं होते । यदि धन प्राप्त भी हुआ तो उसे ये शीघ्र ही खर्च कर डालते हैं ।
व्यावसायिक या शिल्पी हाथ की अंगुलियाँ ऊपर के सिरेपर पतली, मूलमें भरी हुई और मोटी होती हैं । हाथकी लम्बाई, चौड़ाई, मध्यम प्रकारकी होती है । इस प्रकारके हाथ वाले विलासी, शौकीन, भावुक, गुणवान, अधीर, आलसी, देशाटन प्रेमी, वक्ता, कल्पनाप्रिय एवं धर्यहीन होते हैं । किसी कामको करनेमें शीघ्रता करना और फिर उसे बिना समाप्त किये ही बीच में छोड़ना उनका स्वभाव होता है । इनपर दूसरोंका प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है । शिल्पी हाथ- हाथ की प्रमुख विशेषता अंगुलियोंपर आश्रित है । गांठदार अंगुलियोंके रहनेसे इस हाथ वाला सौन्दर्यप्रेमी और ऐश्वर्यवान होता है ।
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निकृष्ट हाथ आवश्यकतासे अधिक मोटा, भारी और भद्दे आकारका होता है । इस प्रकारका हाथ खुरदुरा होता है तथा अंगुलियाँ और नाखून छोटे एवं रेखाएँ भी कम होती हैं । अंगूठा छोटा मोटा और चौकोर होता है । अंगुलियोंकी लम्बाईके आधारपर इस प्रकार के हाथ के अनेक भेद हो सकते हैं । निकृष्ट हाथवाला मन्दबुद्धि और दुष्ट प्रकृतिका होता है । पाशविकताकी और अधिक प्रवृत्ति देखी जाती है । स्वभावतः क्रोधी, भीरु, वासनाप्रिय, धनपिपासु और लोभी होता है । यह वासनाओं की तृप्ति में पशुओं जैसा जीवन व्यतीत करता है । जितनी अधिक बड़ी हथेली होती है पाशविकताका संकेत उतना ही अधिक प्राप्त होता है । निकृष्ट हाथ वाले शिक्षित हो सकते हैं किन्तु उनकी शिक्षाका उपयोग स्वार्थ साधनके लिए ही होता है ।
विषम हाथकी संज्ञा आदर्शवादी हाथ भी प्राप्त होती है । यह हाथ देखनेमें सुन्दर, लम्बा, अंगुलियाँ सिरपर अधिक पतली, नोकदार, मृदुल, शिरपर उभरी हुई एवं नाखून लम्बे तथा बादामकी आकृतिके होते हैं । इस हाथकी प्रमुख विशेषता यह है कि अंगुलियाँ ऊपरसे पतली और लम्बी होकर नीचे की ओरसे मोटी होती हैं। इस प्रकारके कल्पनाशील, महत्वाकांक्षी और अधैर्यशील होते हैं । परिश्रम और उद्योग
हाथ वाले व्यक्ति करनेसे दूर रहना
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
चाहते हैं। ये स्वभावतः शान्त और सन्तोषी होते हैं । इनपर जो भी कृपा करता है, उसका ये विश्वास करते हैं । विषम हाथ वाले व्यक्ति न तो व्यवहार कुशल होते हैं और न तार्किक ही। समय और नियमोंका पालन ये नहीं करते । राग, रंग, शोक, दुःख, आदि तो इन्हें प्रभावित करते ही हैं, पर पूजा-अर्चा, भजन, संगीत उत्सव इत्यादिसे भी प्रभावित होते हैं । इस हाथ वाले व्यक्तियोंकी एक विशेषता यह है कि जिस काममें लग जाते हैं उस कामको कभी पूरा नहीं कर पाते और बीचमें ही छोड़कर अपनी पराजय स्वीकार कर लेते हैं ।
मिश्रित हाथमें प्रायः उपर्युक्त समस्त हाथोंके लक्षण पाये जाते हैं। इस हाथमें तर्जनी अंगुली नोकदार, मध्यमा झुकी हुई, अनामिका समकोण और कनिष्ठा समकोण या नोकदार होती है । वे कठोर और श्रम साध्य कार्य करनेसे दूर भागते हैं। इनके जीवनका उत्तरार्ध अधिक सफल होता है।
जिस मिश्रित हाथकी अंगुलियाँ समकोण होकर ऊपर नोकदार हों और हाथकी हथेली कुछ विस्तृत हो, तो ऐसे हाथ वाला व्यक्ति अस्थिर चित्तके नेता होते हैं और उन्हें आजकी भाषामें दल-बदलू कहा जा सकता है । स्वार्थसिद्धि उनका प्रधान लक्ष्य होता है। ये परिश्रम और उद्योगको अपेक्षा छल, कपट और घूर्तताको महत्व देते हैं ।
___ मृदुल हाथ तथा लम्बी और पतली अंगुलियों वाले व्यक्ति आराम पसन्द, आलसी और महत्त्वाकांक्षी होते हैं। इनका बाल्यकाल आनन्दपूर्वक व्यतीत होता है । युवावस्थामें इन्हें अकस्मात धन और अभ्युदय प्राप्त होते हैं । हथेलीके वर्ण और स्पर्शका भी विचार करना इस सन्दर्भ में आवश्यक है। इस प्रकार अवयवाकृतिका विवेचन और विश्लेषण विस्तार पूर्वक प्राप्त होता है। संस्थान विचार
द्वितीय और तृतीय सिद्धान्तमें अवयवोंके वर्ण स्पर्श मान एवं संस्थानका निरूपण आया है । वर्ण और स्पर्शके विचारकी अपेक्षासे महत्वपूर्ण संस्थानका विचार करना है । अतएव हम संस्थानके सम्बन्धमें दो एक आवश्यक तथ्योंका निरूपण करेंगे । संस्थानसे हमारा तात्पर्य अंगों के नतोन्नत, विस्तार एवं उनकी यथास्थान स्थितिसे है । उदाहरणार्थ सिरको लिया जा सकता है । इसके चार भाग हैं-(१) मस्तक, (२) मूर्धा, (३) कपोल और (४) सिरका पार्श्व भाग। मस्तकके संस्थानसे बुद्धि, मूर्धा के संस्थानसे धार्मिक और तात्विक विचार, कपोलसे शरीर रक्षा और प्रबन्ध शक्ति एवं सिरके पार्श्व भावसे सामाजिक और गार्हस्थिक प्रेमका विचार किया जाता है । उपर्युक्त सिर भाग जितने परिपुष्ट, यथास्थान स्थित और स्निग्ध होते हैं, भविष्यत्कालीन घटनाओंको सूचना उतनी ही स्पष्ट होती है। सिरके संस्थानका स्पष्टीकरण रेखागणित द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। कल्पनाकी कि शिरमें तीन बिन्दु हैं । 'अ' बिन्दु त्रिकुटी, पर 'ब' बिन्दु शिखापर और 'स' बिन्दु कर्णपर है। इन तीनों बिन्दुओंके मिलानेसे अ, ब, स एक त्रिभुज बना । जिसकी आधार रेखा अ-ब त्रिकुटी और शिखाको मिला देनेपर होगी । यहाँ मस्तक समाप्त हो कर केश प्रारम्भ होते हैं । इस त्रिकुटी स्थानपर एक 'द' बिन्दु मान लिया और इस बिन्दुसे शिरके आस-पासको गोलाई नापी जा सकती है।
इस त्रिभुजकी दोनों भुजाएं अ-स और ब-स प्रायः ममान होनी चाहिए । ब-स से सिर का उन्नत भाग भोर भ-स से सिरका आयाम नाना जाएगा। यदि ब-स रेखा अ-स से बड़ी हो
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ज्योतिष एवं गणित
२९७ तो इस संस्थान वाला व्यंक्ति आविष्कारक, मौलिक, प्रतिभावान, तात्विक और बौद्धिक गुणोंसे सम्पन्न होता है । यदि ब, स से अ-स रेखा एक इंचसे अधिक बड़ी हो तो इस संस्थानका व्यक्ति उच्चकोटिका न्यायशील और राष्ट्रका महान् नेता होता है । पूज्य राष्ट्रपिता महात्मा गाधी के मस्तकका संस्थान उपर्युक्त ही था । यदि अ-स रेखा ब-स रेखासे अधिक है, अर्थात् आयतन उन्नत भागसे अधिक है तो व्यक्ति व्यवहार कुशल, दक्ष और शासनपटु होता है । इस प्रकारका संस्थान प्रधानमंत्री था मुख्य मन्त्री होनेका सूचक है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि चौड़ाईसे ऊँचाईमें कमसे कम एक इंचका अन्तर अपेक्षित है । इस अन्तरके न्यूनाधिक होने से फलादेश में भी अन्तर हो जाता है ।
यदि ऊँचाई और निचाई समान हैं या उनमें बहुत ही अन्तर है अथवा आधार रेखासे अर्थात् आयतनसे कर्ण रेखा अर्थात् उन्नत रेखा लम्बी हो तो व्यक्तिके चरित्रमें उन रेखाओंके अनुपातानुसार गुणोंका बोध होता है । इस प्रकारसे संस्थानका विचार विविध रूपोंमें किया गया है । सुव्यवस्थित संस्थानके लिए आयतन और उन्नत भागकी समानता अपेक्षित है । इसमें जितनी हीनाधिकता रहती है, उतना ही व्यक्तिका चरित्र अस्थिर माना जाता है । हमने पूर्व में जिस त्रिभुजकी चर्चाकी है उसकी अब रेखामें द बिन्दुपर दो भाग किये गये हैं । यदि अ द बराबर द ब के हो तो धारणाशक्ति और प्रबन्ध शक्तिकी विशेषता प्रकट होती है। आदर्श सिरकी परिधि सामान्यतः २२ ।। इंच मानी गयी है । यह परिधि द बिन्दुसे घूम कर पुनः द बिन्दु तक होनी चाहिए । संस्थान के सम्बन्ध में अंग, उपांग और आंगोपांग इन तीनोंका विचार किया है । पूर्वोक्त त्रिभुजकी आकृति निम्न प्रकार है
व
द
स
स्पष्ट है कि संस्थान में आयतन, आयाम, नतोन्नत और गाम्भर्य सम्मिलित हैं । मस्तक, नीचे की ओर चौड़ा हो और ऊपरकी ओर छोटा हो तो व्यक्ति झक्की होता है। नीचे, चपटे और चौड़े मस्तक में विचार, कार्यशक्ति और कल्पनाकी कमी और उदारताका अभाव रहता है । चोड़ा और ढालू मस्तक होनेसे व्यक्ति चालाक, चतुर और गम्भीर होता है। उन्नत और चौड़े ललाट वाले व्यक्ति विद्वान् होते हैं । ऊँचा सीधा और आभापूर्ण ललाट होनेपर लेखक, कवि, राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री होनेकी सूचना प्राप्त होती है ।
आभा विचार
इस सिद्धान्तके अन्तर्गत अवयवोंकी आभाका भी विचार किया गया है । आभाका वही महत्व है जो सुन्दर और भव्य भवन में रंगाई और पुताईका हैं आभा रहनेसे व्यक्तिके व्यक्तित्व
३८
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
का विकास दृष्टिगोचर होता है । जिस व्यक्तिके आंगोपांग आभारहित होते हैं वह दरिद्र, दुखी और नाना प्रकारके रोगोंसे पीडित रहता है । आभा का परिज्ञान बीज गणितके सिद्धान्तों के आधारपर भी किया जाता है । आचार्योंने आभाका मध्यम मान 'क' अर्थात् शरीर के तापमान ९९ के तुल्य माना है । आभा के परिज्ञानके लिए प्राचीन भारतमें एक यन्त्र विशेष बनता था । जिसमें मध्यमान अंकित रहता था और स्पष्ट मानके लिए गणित क्रियाकी जाती थी । यह यन्त्र वर्तमान थर्मामीटरके समान ही था । इसका प्रयोग आभाज्ञानके लिए प्रत्येक अवयवके मूलाधार चक्रपर किया जाता था । ज्योतिष के सिद्धान्तोंके अनुसार शरीरके प्रत्येक अवयव में मूलाधार चक्रकी स्थिति है । अन्य चक्र भी प्रत्येक अवयव में स्थित रहते हैं ।
व्यञ्जन निमित्त विचार
व्यंजन निमित्तका वर्णन अंग विद्याके अन्तर्गत है । व्यंजनों में तिल, मस्सा चिह्न विशेष आदिकी गणना की गयी है । ये पुरुषके शरीर में दाहिनी ओर और नारीके शरीर में बायीं ओर शुभ माने जाते हैं । पुरुषकी हथेली में तिल होनेसे उसके भाग्य की वृद्धि होती है । पादतल में होनेसे व्यक्ति शासक होता है । कपालके दक्षिण पार्श्व में तिल होने से व्यक्ति धनवान और सम्भ्रान्त वामपार्श्व या भौंह में तिल होने से कार्य नाश और आशाभंग, दाहिनी ओरकी
हमें तिल होने से दो विवाह, नेत्रके कोने में तिल होनेसे अध्यवसाय की सिद्धि एवं गण्डस्थल या कपोल में तिल होने से व्यक्ति मध्यम वित्त वाला होता है । तिलके सम्बन्ध में विचार करते समय उसके वर्ण, स्पर्श गाम्भीर्य, आयाम, परिधि एवं व्यास आदिका भी विचार करना आवश्यक है । जिस तिलकी परिधि, जिस अंग पर तिल है उसकी परिधिका जितनेवां अंश होती है, उतने ही अंश प्रमाण मूल फलकी प्राप्ति होती है । यदि अंगको परिधिसे तिलकी परिधि पचासव अंश हो तो तिलका फल जीवनके पूर्वार्ध में प्राप्त होता है और पचासवें अंशसे जितना अंश अधिक बढता जाता है उतने अंश प्रमाण फलकी प्राप्ति जीवनके उत्तरार्ध में होती है । इस प्रकार आचार्योंने कान, कपोल, कण्ठ, हस्त, पाद, जांघ, नितम्ब, भौंह, वक्षस्थल, उदर, स्तन, गुह, यप्रदेश, नासिका, नेत्र, गण्डस्थल आदि स्थानोंपर होने वाले तिलोंका व्यास, परिधि और कोणांशोंका आनयन कर विवाह, प्रेम, धन, शिक्षा, अभ्युदय, सम्मान, सुख-दुख, रोग, अरिष्ट, मृत्यु आदि फलों के आनयनकी विधिका उल्लेख किया है ।
स्वरनिमित्त विचार
स्वरनिमित्तका विचारभी अंग विद्याके अन्तर्गत है । इसमें चेतन प्राणियों और अचेतन वस्तुओं के शब्द सुन कर शुभाशुभका निरूपण किया गया है। इसके अन्तर्गत मुख्य रूपसे स्वध्वनिके अतिरिक्त काक, उल्लू, बिल्ली, कुत्ता आदिके शब्दोंका विचार भी किया जाता है । यद्यपि अंग विद्याके साथ पर-स्वरका सम्बन्ध उचित प्रतीत नहीं होता, पर स्व स्वरके वर्णन सन्दर्भ में पर-स्वर का भी विचार किया गया है । व्यक्तिका शब्द जितना कोमल, कठोर, मधुर, कटु और रुक्ष रहता है, उसीके अनुसार उसके स्वभाव, गुण और चरित्रका बोध होता है । नारचन्द्रने स्वरकी मधुरताका मान गणित द्वारा निकाला है । मध्यम मान धैवत स्वरके तुल्य है । इस मध्यम मानसे जितना अधिक या कम स्वरमें माधुर्यं रहता है व्यक्तिके चरित्रमें उतना ही उत्थान और पतन होता है। स्वर निमित्तका मूल उद्देश्य व्यक्तिके चरित्रका विश्लेषण
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ज्योतिष एबं गणित
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करना है । और इस विश्लेषण क्रममें बाह्य और आन्तरिक व्यक्तित्वसे सम्बन्धित गुणोंपर विचार किया है । औद्योगिक और व्यावसायिक प्रगति, शिक्षा, श्रमशीलता, विकास, उन्नतिके अवसरोंकी प्राप्तिका निर्णय स्वरके गणित द्वारा किया गया है । स्वर-ध्वनि विज्ञानके सम्बन्ध में तीन प्रकारके गणित मान प्रचलित हैं
१. माधुर्य-मध्यम मान धैवत = ध, घ, घ, ध, ध,............धअ = धक = धैवत +
घ....""घअ, धक = १. कोमल-मध्यमान-कोकिलको कूज = क = क + १ + क १ + .... ३. उत्क्षेपण-दूर पहुँचनेकी शक्ति-मध्यम मान-शान्त सरोवरकी लहर, प्रतिलव
१० हाथ
स्वर सिद्धान्तका एक अन्य पहलू नासिका छिद्रसे आने वाला श्वास-निश्वास भी है। दिनरातमें मनुष्यके श्वास निःश्वास इक्कीस हजार छ: सौ चलते हैं। और ढाई-ढाई घटीके अन्तरसे श्वास निःश्वासोंमें परिवर्तन होता है । एक बार दक्षिण नासिका छिद्रसे ढाई घटी तो दूसरी बार वाम नासिका छिद्रसे ढाई घटो श्वास चलता है। इस प्रकार एक हजार आठ सौ श्वास दक्षिण नासिका छिद्रसे और इतने ही श्वास वाम नासिका छिद्रसे निकलते हैं । दक्षिण नासिका छिद्रसे चलने वाले श्वासोंको पिंगला नाडी कहा जाता है। यह नाडी अतिउष्ण रहती है । यह सूर्यका स्थान है। योगशास्त्रमें मणिपुर चक्र सीधे नाभिके नीचे है और इसी चक्रपर सूर्यका अधिष्ठान माना गया है। इसी प्रकार वाम नासिका छिद्रसे निकलने वाले वायुकी नाडी इडा मानी जाती है। इसे चन्द्रनाडी भी कहा है। मनुष्यके सिरके वाम भागमें वाम नेत्रके ऊपरी भागमें चन्द्रका स्थान माना गया है। यहां अमृतका निर्माण होता है । यह अमृत एक प्रकारका द्रव पदार्थ है, जिससे मनुष्यकी जीवन शक्ति चलती है। जब वाम नासिका छिद्रसे श्वास अनाहत चक्र तक जा कर पुनः वापस लौट आता है तब तीसरी सुषुम्ना नाडी अर्थात् सूर्य और चन्द्र नाडीका सन्धि स्थान आता है। यहाँपर मंगल ग्रहकी स्थिति है। इन तीनों स्वरोंसे स्व शरीर एवं स्वके भविष्य परिज्ञानके साथ अन्यके शुभाशुभत्वको भी जाना जाता है । स्वरके सम्बन्धमें अन्य ग्रह गुरु, बुध, शुक्र, राहु और केतुका विचार भी किया है । योग क्रियानुसार मूलाधारपर बुध और राहुकी स्थिति है। स्वाधिष्ठानपर शुक्र, मणिपूरपर रवि, अनाहतपर मंगल, विशुद्धपर चन्द्र, आज्ञापर गुरु और सहस्रारपर शनिकी स्थिति है। स्वरको उचित क्रिया द्वारा नाडियोंके परिज्ञानसे विशेष-विशेष फलोंकी जानकारी होती है । बुध और राहु मोक्षमार्गकी ओर प्रवृत्त और जागृत करते हैं । शुक्रसे काम वासनाओंके उतार चढ़ाव, सांसारिक, अभ्युदय, विवाह, शिक्षा एवं प्रगतिकी जानकारी होती है। मणिपुर स्थित रवि सामाजिक और राजनीतिक प्रगतिकी सूचना देता है । अनाहत स्थित मंगलसे भूमि, गृह, अधिकार एवं पेशेकी सूचना मिलती है । विशुद्ध चक्रपर स्थित चन्द्र आयु, सुख दुख एवं पारिवारिक सुखका सूचक है । स्वर द्वारा ज्ञात गुरुसे विचार, तर्क, तात्विक-चिन्तन, व्यक्तित्व एवं जीवनमें घटित होनेवाले महत्वपूर्ण अभ्युदयोंकी सूचना प्राप्त होती है। शनि संघर्षका सूचक है । इस प्रकार अङ्गविद्याके अन्तर्गत स्वर-निमित्त का विचार किया है।
लक्षण निमित्तकी गणना भी अङ्ग विद्यामेंकी गयी है। अङ्गों या रेखाओंमें रहने वाले स्वस्तिक, कलश, शंख, चक्र, मत्स्य आदि चिह्न व्यक्तिके स्वास्थ्य अभ्युदय एवं चरित्रके
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
सूचक होते हैं । ऐसे शुभ लक्षणोंको देखकर फल निरूपण तो किया ही गया है । पर इन शुभ लक्षणों का गणित द्वारा परिणाम निकाल कर सूक्ष्म फलादेशका कथन भी किया है। शंख के चिह्नका गणित दीघ्र वृत्तके अनुसार निकाला गया है ।
रेखाओंका विचार
३००
हस्तपाद और ललाटकी रेखाओंका सिद्धान्त बहुत विस्तृत है । हस्त रेखाओंमें आयु या भोग रेखा, मातृ रेखा, पितृ रेखा, ऊर्ध्व रेखा या भाग्य रेखा, मणिबन्ध रेखा और शुक्र निबन्धिनी रेखाएँ प्रधान हैं । जो रेखा कनिष्ठा अंगुलिसे आरम्भ कर तर्जनी के मूलाभिमुख गमन करती है, उसकी संज्ञा आयु रेखा है । कुछ आचार्य इसे भोग रेखा भी कहते हैं । भोग रेखाका मध्यममान एक सौ बीस वर्ष माना गया है । यह रेखा छिन्न-भिन्न न हो, सुस्निग्ध, सरल और स्पष्ट रूपमें तर्जनी तक व्याप्त हो तो पूर्ण आयु होती है । कनिष्ठा अंगुलिके मूलसे अनामिका मूल तक इसके विस्तृत होनेपर ६२ वर्षकी आयु मानी जाती है । इस रेखाको जितनी क्षुद्र रेखाएँ काटती हैं उतनी ही आयु कम हो जाती है । इस रेखाके छोटी और मोटी होनेपर भी व्यक्ति अल्पायु होता है । इस रेखा के श्रृंखलाकार होने से व्यक्ति लम्पट और उत्साहहीन होता है । यह रेखा जब छोटी-छोटी रेखाओंसे कटी हुई हो तो व्यक्ति जीवन में असफल रहता है । इस रेखा के मूल में बुध स्थान में शाखा न रहने से सन्तान नहीं होती । शनि स्थान के निम्न देशमें मातृ रेखाके साथ इस रेखा के संयुक्त हो जानेपर अकस्मात् दुर्घटना द्वारा मृत्यु होती है । यदि यह रेखा श्रृंखलाकार होकर शनि स्थान में मिल जाए तो व्यक्ति की हत्या किसी स्त्री प्रेमके कारण होती है । शनि स्थानके दक्षिण में मातृ रेखाके मिलनेसे धनके कारण व्यक्ति की हत्या की जाती हैं । ज्ञान प्रदीपिकामें गणित द्वारा आयु रेखापरसे व्यक्तिकी आयुका परिज्ञान प्राप्त किया गया है ।
आयु रेखा पार्श्व में जो दूसरी तर्जनीके निम्न देशमें गयी है, उसकी संज्ञा मातृ रेखा है । यह रेखा शनि स्थान या शनिस्थानके नीचे तक लम्बी हो तो अकाल मृत्यु होती है । जिस व्यक्तिकी मातृ और पितृ रेखाएँ मिलती नहीं, वह विशेष विचार करने में असमर्थ रहता है और कार्य में शीघ्र ही प्रवृत्त हो जाता है । इस प्रकारकी रेखावाला व्यक्ति आत्माभिमानी, अभिनेता, सत्परामर्शदाता और घनिक होता है तथा इस प्रकारके व्यक्तिको पैतृक सम्पत्ति की प्राप्ति होती है । यदि यह रेखा टूट जाए तो मस्तक में चोट लगती है तथा व्यक्ति अंगहीन होता है। यह रेखा लम्बी हो और हाथमें अन्य बहुत सी रेखाएँ हों तो व्यक्ति विपत्तिकालमें आत्मदमन करनेवाला होता है। इस रेखाके मूलमें कुछ अन्तर पर यदि पितृ रेखा हो तो मनुष्य परमुखापेक्षी और डरपोक होता है । मातृरेखा सरल न होकर बुध के स्थानाभिमुखी हो तो वाणिज्य-व्यवसाय में लाभ होता है । यदि यह रेखा कनिष्ठा और अनामिका बीचकी ओर आवे तो शिल्प द्वारा उन्नति होती है । यह रेखा रविके स्थान में जाए तो शिल्पो, विद्यानुरागी और यशः प्रिय व्यक्ति होता है । यह रेखा भाग्य रेखाको छेदकर शनि स्थानमें जाती है तो मस्तक में चोट लगने से मृत्यु होती है । आयु रेखाके समीप इसके होनेसे श्वास रोग होता है । इस रेखाके ऊपर यव चिह्न होनेसे विद्वान् और त्यागी होता है । मातृ और पितृ दोनों रेखाओं के अत्यन्त छोटे होनेसे व्यक्ति अल्पायु होता है ।
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ज्योतिष एवं गणित
३०१
जो रेखा करतल मूलके मध्य स्थानसे निकलकर साधारणतः मातृ रेखाके ऊर्ध्व देशका स्पर्श करती है अथवा उसके निकट पहुँचती है उसकी संज्ञा पितृ रेखा है । कुछ विचारक इसे आयु रेखा भी कहते हैं । यह रेखा चौड़ी और विवर्ण हो तो मनुष्य रुग्ण, नीच स्वभाव, दुर्बल और ईर्ष्यालु होता है । दोनों हाथोंमें पितृ रेखाके छोटी होनेसे अल्पायु सूचित होती है। पितृ रेखाके श्रृंखलाकृति होनेसे व्यक्ति रुग्ण, दुर्बल और मध्यमायु होता है । दो पितृ रेखा होनेसे व्यक्ति दीर्घायु, विलासी, सुखी और किसीके धनका उत्तराधिकारी बनता है । पितृ रेखामें शाखाओंके निकलनेसे नस जाल कमजोर रहता है । चन्द्र स्थान तक जानेवाली पितृरेखा संघर्ष, कष्ट और उत्तर जीवनमें विपत्तिकी सूचना देती है । पितृ रेखाकी कोई शाखा बुध क्षेत्रमें प्रविष्ट हो तो व्यवसायमें उन्नति, शास्त्र चिन्तन, ख्याति, लाभ एवं ऐश्वर्य प्राप्ति होती है । पितृ रेखासे दो रेखाएँ निकलकर एक चन्द्र और दूसरी शुक्र स्थानमें जाए तो मनुष्य विदेशमें प्रगति करता है। चन्द्रस्थानमें कोई रेखा आकर पितृ रेखा को काटे तो ३५ वर्ष की अवस्थामें पक्षाघातकी सूचना प्राप्त होती है। जब मातृ, पितृ आयु ये तीनों रेखाएँ एक स्थान पर मिलती हैं तो दुर्घटना द्वारा मृत्युकी सूचक होती है। पितृ रेखामें छोटी छोटी रेखाएँ आकर चतुष्कोण उत्पन्न करें तो स्वजनोंसे विरोध उत्पन्न होता है। और जीवन में अनेक स्थानों पर असफलताएँ प्राप्त होती हैं ।
__ जो सीधी रेखा पितृ रेखाके मूलके समीप आरम्भ होकर मध्यमा अगुलिकी ओर गमन करती है उसे ऊर्ध्व रेखा कहते हैं। जिसकी ऊर्ध्व रेखा पितृ रेखासे निकलती है वह अपनी चेष्टासे सुख और सौभाग्य लाभ करता है। ऊर्ध्व रेखा हस्ततलके बीचसे निकलकर बुध स्थान तक जाए तो वाणिज्य व्यवसायमें अथवा वक्रता और विज्ञान में उन्नति होती है । रवि स्थान तक जानेवाली ऊर्ध्व रेखा साहित्य और शिल्पमें उन्नतिकी सूचना देती है। यह रेखा मध्यमा अंगुलिसे जितनी ऊपर उठेगी उतना ही शुभ फल प्राप्त होगा। ऊर्ध्व रेखासे उन्नति, अवनति, भाग्योदय, अवस्था विशेष में कष्ट, सुख, दुर्घटनाएँ, अकस्मात्, वस्तुलाभ आदि बातों की सूचना प्राप्त होती है। जिसके हाथमें ऊर्ध्व रेखा नहीं रहती है, वह व्यक्ति शिथिलाचारी उद्यमहीन एवं कठिनाईसे सफलता प्राप्त करनेवाला होता है। तर्जनीसे लेकर मूल तक ऊर्ध्व रेखाके स्पष्ट होनेसे व्यक्ति राजदूत होता है । मध्यमा अंगुलिके मूल तक जिसकी ऊर्ध्व रेखा दिखलाई पड़े वह सुखी, वैभवशाली और पुत्र पौत्रादि समन्वित होता है।
जिस व्यक्तिके मणिबन्धमें तीन सुस्पष्ट सरल रेखाएँ हों, वह दीर्घजीवी, स्वस्थ शरीर और सौभाग्यशाली होता है। मणिबन्ध रेखाएँ कलाई पर होती हैं, और इनका फलाफल ग्रहोंके स्थानोंके अनुसार निश्चित किया जाता है । मणिबन्ध रेखाओंका विस्तारपूर्वक विवेचन अंग विद्याके ग्रन्थोंमें मिलता है। तर्जनी और मध्यमा अंगुलीके बीचसे निकलकर अनामिका और कनिष्ठाके मध्य स्थल तक जानेवाली रेखा शुक्र निबन्धिनी कहलाती है । इस रेखाके भग्न या बाहु शाखा विशिष्ट होनेपर हृदय रोगोंका अध्ययन किया जाता है। बृहस्पति स्थानसे अर्ध चन्द्राकार रेखा बुध स्थान तक जाती है तो व्यक्ति एम० पी० या एम० एल० ए० होता है।
___ उक्त प्रमुख रेखाओंके वर्णनके साथ सूर्य रेखा, मस्तक रेखा, हृदय रेखा, ज्ञान रेखा, शिल्प रेखा जैसी अनेक छोटी छोटी रेखाओंका भी विवेचन आया है । इन छोटी रेखाओंकी संख्या कुल मिलाकर १०८ है ।
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३०२ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान ग्रहोंका निर्देश और उनका फल
रेखाओंके वर्णनके अतिरिक्त हाथमें ग्रहोंके स्थानोंका निर्देश भी किया गया है । तर्जनीके मूलमें गुरुका स्थान, मध्यमा अंगुलिके मूलमें शनिका स्थान, अनामिकाके मूल प्रदेशमें रवि-स्थान, कनिष्ठकाके मूलमें बुध स्थान और अंगुष्ठके मूल प्रदेश में शुक्र स्थान है । मंगलके दो स्थान है-प्रथम तर्जनी और अंगूठेके बीच में पितृ रेखाके समाप्ति स्थानके नीचे द्वितीय बुध स्थानके नीचे और चन्द्र स्थानके ऊपर ऊर्ध्व रेखा तथा पितृ रेखाके नीचे वाले स्थान में है । मंगल स्थानके नीचे मणिबन्धके ऊपर तक करतलके पार्श्व भागके स्थानको चन्द्रस्थान कहते हैं । सूर्यके स्थानके उन्नत होनेसे व्यक्ति चंचल होता है । संगीत तथा अन्यान्य कलाओंका विद्वान् एवं नये विषयोंका आविष्कारक होता है । रवि और बुधका स्थान उच्च होनेसे व्यक्ति विज्ञ, शास्त्र-विशारद और सुवक्ता होता है । यदि इन दोनों ग्रहोंके स्थान अति उच्च हों तो अभ्युदय अधिक प्राप्त होता है पर दुर्व्यसनोंमें उसका उपभोग होता है । इस प्रकार आचार्योंने ग्रहोंके स्थान, उनका उच्चत्व, उन पर गयी हुई रेखाएं, ग्रहों पर स्थित चिह्न विशेष आदि सम्बन्धोंसे विभिन्न प्रकारके फलादेशोंका अंकन किया है । इतना ही नहीं, रेखाओं
और ग्रहोंके सम्बन्धसे स्वभाव, चरित्र, गण, स्वास्थ्य, लाभालाभ. उन्नतिके अवसर, घटित होनेवाली घटनाएं' पारिवारिक सुख आदिका भी विवेचन किया है। हस्त-संजीवनमें पांच रेखाओंको प्रधानता दी है । मद रेखा, धन रेखा, प्रारब्ध रेखा, मध्यरेखा और ऊर्व रेखा, नय रेखा मणिबन्धसे निकलकर शनि-क्षेत्र तक जाती है। इसी प्रकार मणिबन्ध स्थानसे निकलने वाली जीवन रेखा एवं भाग्य रेखाओंका भी विचारकर जन्मतिथि, जन्ममास, जन्म लगनका भी विचार किया है। इस विचारके लिए ध्रुवांक स्थिर किये हैं जिनके आधारसे वर्ष फल और जन्म-कुण्डली आदिका निर्माण सम्भव है। अभी तक इन ध्रुवांकोंकी निष्पत्तिका कोई कारण ज्ञात नहीं हो सका है। इनकी कल्पनाका क्या कारण है और क्यों ये ध्रुवांक निश्चित किये गये हैं, यह अज्ञात है । पर इतना तथ्य है कि इन ध्रुवांकों परसे गणित विधि करनेपर फलादेश जन्म कुण्डलीके समकक्ष ही प्राप्त होता है । इस प्रकार अंग विद्याका उत्तरोत्तर विकास होता रहा है और इसका विषय क्षेत्र आधुनिक सामुद्रिक शास्त्रसे अधिक विकसित है।
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जैन पञ्चांग
जैन पञ्चांगकी प्रणाली बहुत प्राचीन है। जिस समय भारतवर्षमें ज्योतिषके गणित सम्बन्धी ग्रन्थोंका प्रचार विशेष रूपसे नहीं हुआ था, उस समय भी जैन ज्योतिष बहुत पल्लवित और पुष्पित था। तिथि, वार, नक्षक्ष, योग और करण इन पांचोंका ही नाम पञ्चाङ्ग है । इनकी प्रक्रिया जैसी जैन गणित-ज्योतिषके ग्रन्थों में है वैसी अन्यत्र एकाध ग्रन्थमें ही देखनेको मिलेगी।
तिथि-सूर्य और चन्द्रमाके अन्तराशोंसे तिथि बनती है, और इनका मान १२ अंशोंके बराबर होता है। क्योंकि सूर्य और चन्द्रमा अपनी गतिसे गमन करते हुए ३० दिनमें ३६० अंशोंसे अन्तरित होते हैं । मध्यम मानसे तिथिका मान १२ अंश अर्थात ६० घटी अथवा ३० मुहूर्त होता है।
नक्षत्र-प्रत्येक ग्रहका भिन्न-भिन्न नक्षत्र मान होता है। किन्तु पञ्चाङ्गके लिये चन्द्र नक्षत्रको ही लिया जाता है । इसीको दैनिक नक्षत्र भी कहते हैं । जैन आचार्योंने गगन-खण्ड मानकर प्रत्येक ग्रहके नक्षत्रका साधन सुगम रीतिसे किया है। जैन आचार्योंकी मान्यतासे सूर्य नक्षत्रका मध्यम मान १४ दिनसे अधिक और १५ दिनसे कम आता है। बुध गुरु आदिके नक्षत्रोंका मान तो मध्यम रीतिसे १३ दिनके लगभग आता है ।
योग-यह सूर्य और चन्द्रमाके योगसे पैदा होता है । प्राचीन जैन ग्रन्थमें मुहूर्त आदि के लिये इसको प्रधान अङ्ग दिया गया है। व्यतीपात, परिघ, गण्ड-इनका त्याग तो प्रत्येक शुभकार्यमें कहा गया है। गणित-शास्त्रकी रीतिसे सूर्य चन्द्रमाके दैनिक गगन-खण्डके योगमें ८०० का भाग देनेसे लब्ध घटिकादि रूप योग आता है।
करण-यह तिथिका आधा भाग होता है । कुल ११ करण होते हैं, जिनमेंसे ७ करण चर संज्ञक है, और शेष चार करण स्थिति संज्ञक हैं जो निश्चित तिथियोंमें ही आते हैं। परन्तु चर संज्ञक करणोंमेंसे एक करण पूर्वार्ध तिथिमें और दूसरा उत्तरार्द्ध में आता है।
जैन पञ्चाङ्गमें युगका मान ५ वर्ष लिया गया है। इसी पञ्चवर्षात्मक युगपरसे चन्द्रनक्षत्र एवं सूर्यादि नक्षत्र, योग आदिका साधन किया है। इस युगका आरम्भ अभिजित् नक्षत्रसे होता है । एक चान्द्र वर्ष में ३५४ दिन ५५३ मुहूर्त होते हैं, और एक युगसे ६० सौर मास, ६१ सावन मास, ६२ चान्द्र मास और ६७ नाक्षत्र मास होते हैं ।
एक नाक्षत्र वर्ष = ३२७५१ दिन एक चान्द्र वर्ष = ३५४१३ दिन एक सावन वर्ष = ३६० दिन
एक सौर वर्ष = ३६६ दिन अधिकमास सहित एक चान्द्र वर्ष = ३८३ दिन २११६ मु० ।
एक ५ वर्षीय युगमें चन्द्रमा अभिजित् नक्षत्रका भोग ६७ बार करता है, ये ही ६७ चन्द्रमाके भगण कहलाते हैं । अतः पंचवर्षीय एक युगके दिनादिका मान इस प्रकार होगा :
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३०४
भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
एक युगमें सौर दिन =
चान्द्र मास =
चान्द्र दिन
क्षय दिन
भगण वा नक्षत्रोदय
"
11
२ भाद्रपद
३ आश्विन
४
कार्तिक
५
मार्गशीर्ष
६ पौष
३०
१८३०
चान्द्र भगण =
६७
१७६८
चान्द्र सावन दिन = एक सौर वर्ष में नक्षत्रोदय एक अयनसे दूसरे अयन पर्यन्त सौर दिन = १८०
३६७
एक अयनसे दूसरे अयन तक सावन दिन = १८३
"1
वर्तमान महीनोंके नाम
१
श्रावण
फाल्गुन
=
=
=
प्राचीन जैन महीनोंके नाम भी वर्तमान महीनोंके नामोंसे भिन्न मिलते हैं । उनका विवरण इस प्रकार है :
१८००
६२
१८६०
=
प्राचीन जैन महीनोंके नाम
अभिनन्द
सप्रतिष्ठा
विजया
प्रतिवर्धन
श्रीयान्
शिव
७ माघ
८ ९ चैत्र
१० वैशाख
११
ज्येष्ठ
१२ आषाढ़
जैन आगम में संवत्सरका मान चार प्रकार का माना गया है ।
(१) नाक्षत्र संवत्सर = १२ नाक्षत्र मास = १२ x २७३७ दिन = ३२७६७ दिन
(२) युगसंवत्सर
(३) प्रमान संवत्सर
(४) शनि संवत्सर
शिशिर
हैमवान्
वसन्त
कुसुमसंभव
निदाघ
दान-विरोधी
इनमें से पहले नाक्षत्र सम्वत्सरके १२ भेद हैं । श्रावण, भाद्रपद आदि । जब बृहस्पति सभी नक्षत्र समूहको भोगकर पुनः अभिजित् पर आता है तब यह महानाक्षत्र संवत्सर होता है । इसका समय १२ वर्षका है ।
=
चान्द्रवर्ष = २९३३ × १२ = ३५४ + ३ दिन अधिक मास सहित चान्द्रवर्ष : ३८३६ दिन सौरवर्ष = १२ x ३० = ३६६ दिन ।
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ज्योतिष एवं गणित
एक पंचवर्षीय युगमें २४ पर्व होते हैं ।
धमान संवत्सरके पांच भेद हैं :
३०५
(१) साबन (२) सौर (३) चान्द्र (४) बार्हस्पति (५) नाक्षत्र । इनमेंसे सावन संवत्सर को कर्म-संवत्सर भी कहते हैं । इसके कर्म संवत्सर नाम पड़नेका यह कारण मालूम पड़ता है कि साधारण कामकाजी लोग ३६० दिनमें ही अपने वर्षके कार्यको पूरा करते हैं । इसीसे इस संवत्सरका नाम कर्म संवत्सर पड़ा होगा ।
१२
एक चान्द्र संवत्सरमें ३५४१३ दिन होते हैं; अतएव एक चान्द्र मासमें ३५४१३ २९३३ दिन होते हैं और एक चान्द्रमासमें दो पक्ष होते हैं । इसीलिए २९३३ दिन = २९३३ दिन - २९३३४१५ मूहूर्त - ४४२३३ मुहूर्त शुक्ल पक्ष और इतने ही मुहूर्त कृष्ण पक्षके भी होते हैं। इस हिसाब से एक तिथिका मान - २९ दिन हेरे, दिन- ३०=२९१३ मुहूर्त । तिथिके भी दिन और रात्रिके भेदसे दो भेद हैं। सौर दिनकी अपेक्षासे दिन तिथि और रात्रि तिथिके पांच-पांच भेद है। उनका क्रम इस प्रकार है ।
D
(१) नन्दा (२) भद्रा (३) जया (४) तुका (५) पूर्णा । और रात्रि तिथिके ये भेद है (१) अनावर्ती (२) भोगवर्ती (या सोमतो ) (४) सर्वसिद्धा (५) शुभनामनी ।
जैन ज्योतिषकी गणनासे एक वर्ष में ५ ऋतुएँ होती हैं (१) वर्षा (२) शरद (३) शिशिर ( ४ ) वसन्त ( ५ ) ग्रीष्म । ये ऋतुएँ भी चान्द्र और सौर दोनों ही प्रकारकी होतीं हैं । जैन ग्रम्बोंके उत्तरायण और दक्षिणायनका विचार भी प्राचीन तथा अर्वाचीन हिन्दू ज्योतिष ग्रन्थोंसे भिन्न है। सूर्य प्रज्ञप्ति में अयनका विचार भी इस प्रकार लिखा है :
सावण बहुल पडिवए बालवकरणे अभिजिन्नक्षत्रे । सम्वत्थ पडमसमये जुअस्स आदि वियाणाहि ॥
तत्र उत्तरायणं कुर्वन् सूर्यः सर्वदैव अभिशा नक्षत्रेण सह योगमुपागच्छति । दक्षिणायनं कुर्वन् पुष्येषेति च ।
३९
अर्थात् श्रावण बदी प्रतिपद् बालवकरण, अभिजित नक्षत्र में दक्षिणायन प्रारम्भ होता है । यह युगका पहला दक्षिणायन है। एक युगके शेष अयनोंका वर्णन इस प्रकार है :प्रथमा बहुल पडिवर विइया बहुलस्स तेरिसीदिवसे । सुद्धस्स य दसमीए बहुलस्स य सप्तमीए उ ॥ सुद्धस्स चउत्थीए पवत्तये पंचमी उ आउट्टी । एमा आबुद्धीयो सव्वाओ सावणे मासे । बहुलस्स सत्तमीए पडमा सुद्धस्स तो चउत्थीए ! बहुलस्सय पडिवए बहुलस्स य तेरिसी दिवसे ॥ सुद्धस्स य दसमीए पवत्तए पंचमी आउट्ठी । एना आउठ्ठीओ सब्बाओ माहमासम्मि ॥
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३०६
भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
अतः एक युगमें अयन इस प्रकारके होंगे
सूर्य प्रज्ञप्ति के अनुसार अयनवृत्ति
तिथि
अयन
मास और
पक्ष
नक्षत्र
दक्षिणायन श्रावणकृष्ण प्रतिपत् उत्तरायण माघ कृष्ण | सप्तमी दक्षिणायन श्रावणकृष्ण त्रयोदशी उत्तरायण माघ शुक्ल चतुर्थी दक्षिणायन श्रावण शु० दशमी उत्तरायण | माघ कृष्ण प्रतिपत् पुष्य दक्षिणायन श्रावणकृष्ण सप्तमी रेवती उत्तरायण माघ कृष्ण त्रयोदशी मूल दक्षिणायन श्रावण शु० नवमी पूर्वाफा० उत्तरायण माघकृष्ण त्रयोदशी कृत्तिका
वेदाङ्गज्योतिष के अनुसार अयनवृत्ति
मास और पक्ष
तिथि नक्षत्र
अयन
अभिजित् उत्तरायण माघ शुक्ल प्रतिपत् धनिष्ठा हस्त | दक्षिणायन | श्रावण शुक्ल सप्तमी चित्रा मृगशिर उत्तरायण माघ शुक्ल त्रयोदशी आर्द्रा शतभिप दक्षिणायन श्रावण शुक्ल चतुर्थी विशाखा उत्तरायण माघ कृष्ण दशमी दक्षिणायन | श्रावण शुक्ल प्रतिपत् उत्तरायण माघ शुक्ल सप्तमी दक्षिणायन | श्रावण शुक्ल त्रयोदशी पूर्वाषाढ़ा उत्तरायण माघ कृष्ण चतुर्थी उत्तराफाल्गुनी दक्षिणायन श्रावण कृष्ण दशमी रोहिणी
पूर्वाभाद्रपद्
अनुराधा
आश्लेषा अश्विनी
इस चक्र से भी प्रतीत होता है कि जैन शास्त्रोंकी अयनवृत्ति हिन्दू ज्योतिष ग्रन्थोंसे
नहीं मिलती है । क्योंकि हिन्दू ज्योतिष ग्रन्थों में सबसे प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थ 'वेदाङ्ग ज्योतिष' है और इसकी अवनप्रवृत्ति जैन प्रक्रिया से भिन्न है, अतएव यह मानना पड़ेगा कि जैन ज्योतिष स्वतन्त्र है । परन्तु बादमें विकसित नहीं हुआ है और इसीसे यह पिछड़ गया है ।
पर्व और तिथियों में नक्षत्र लानेका जैन ज्योतिषका प्रकार यह है :
नक्षत्राणां परावर्त चन्द्रिसम्बन्धिनामथ | ब्रूमहे प्रत्यहोरात्रं सूर्य सम्बन्धिनामपि ॥ भवत्यभिजिदारम्भो युगस्य प्रथमक्षणे । अस्य पूर्वोक्ता शीतांशु भोगकालादनन्तरम् ॥ श्रावणं स्यात्तस्य चेन्दुभोगकालनतिक्रमे । धनिष्ठेत्येवमादीनि ज्ञेयानि निखिलान्यपि ॥ अथेन्दुना भुज्यमानमहोरात्रे विवक्षते । इष्टे तिथौ च नक्षत्रं ज्ञातुं करणमुच्यते ॥ इत्यादि
काल लोक प्रकाश पृ० ११४ ।
अर्थात् युगादिमें अभिजित् नक्षत्र होता है । चन्द्रमा अभिजित्को भोग कर श्रवणसे शुरू होता है और अग्रिम प्रतिपत्को मघा नक्षत्र पर आता है। इस प्रकार से सम्पूर्ण पर्व और तिथियों में नक्षत्र लाने चाहिए। इसके गणितका नियम इस प्रकार है - पर्वकी संख्याको १५ से गुणाकर गत तिथि संख्याको जोड़कर जो हो उसमें २ घटा कर शेष में ८२ का भाग देने से जो शेष रहे उसमें २७ का भाग देनेपर जो शेष आवे, उतनी ही संख्या वाला नक्षत्र होता है, परन्तु नक्षत्र गणना कृत्तिकासे लेनी चाहिये ।
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चन्द्र गगन खण्ड =
१७६८
रवि गगन खण्ड = १८३०
नक्षत्र गगन खण्ड = १८३५
६३०×१ ६७
मध्यम
अभिजितका मान ६३० गगन खण्ड, जघन्य नक्षत्रोंका १८०५ गगन - खण्ड, नक्षत्रोंके २०१० गगन-खण्ड, उत्तम नक्षत्रोंके ३०१५ गगन खण्ड हैं । यह नक्षत्रोंकी कलात्मक • मर्यादाका मान है । इस परसे चन्द्रमाके प्रत्येक नक्षत्रका मान इस प्रकार होगा
(१८३५-१७६८) = ६७ चन्द्रमाको कलात्मक स्वतंत्र गति है । इस गतिका चन्द्रमा की मर्यादामें भाग देनेसे दैनिक नक्षत्र अथवा चन्द्रमा के नक्षत्रका मान होगा ।
३०१५
६७
२७ = ९
'६७
ज्योतिष एवं गणित
for ग्रहों के नक्षत्रोंका क्रम
} a
ये गमन करनेके कलात्मक टुकड़े हैं ।
अभिजितका मान हुआ ।
के प्रत्येक जघन्य नक्षत्र का सध्यम मान हुआ ।
२०१० X १ ६७
२०१० ६७
=
१००५x१ १००५ = १५ मुहूर्त चन्द्रमा
६७
६७
=
३०७
= ३० मुहूर्त यह चन्द्रमा के प्रत्येक मध्यम,
३०१५x१ ६७
= ४५ मुहूर्त यह चन्द्रमा के प्रत्येक उत्तम नक्षत्र का मान हुआ ।
(१८३५-१८३०) = ५ कलात्मक मध्यम सूर्य गति हुई, जो कि आजकल के मान से ५९°८" के बराबर होती है । इसका नक्षत्रोंकी मर्यादा में भाग देनेसे सूर्य नक्षत्र मानका प्रमाण आता है ।
६३०×१
६३०
५
५
नक्षत्र के साथ रहता है ।
जैन ग्रंथों की मान्यता के अनुसार उत्तम, मध्यम और जघन्य नक्षत्रोंका विभाग इस प्रकार है
= १२६ मुहूर्त अर्थात् ४ दिन ६ मुहूर्त्त सूर्य अभिजित्
उत्तम नक्षत्र - रोहिणी, विशाखा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रये ६ नक्षत्र उत्तम संज्ञक हैं ।
पद्,
मध्यम नक्षत्र - अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद् पूर्वाफाल्गुनी, मूल, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती, ये पन्द्रह नक्षत्र मध्यम संज्ञक हैं ।
जघन्य नक्षत्र - शतभिष, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा, ज्येष्ठा, ये छह नक्षत्र जघन्य संज्ञक हैं ।
इन नक्षत्रोंकी सिद्धि उपर्युक्त प्रकारसे ही जाननी चाहिये । परन्तु यह पञ्चाङ्ग प्रणाली मध्यम मानसे है । इसको स्पष्ट बनानेके लिये देशान्तर, कालान्तर संस्कार अवश्य करने पड़ेंगे, तभी ग्रहोंका स्पष्ट मान आयेगा ।
दि० जैन ग्रन्थोंमें देशान्तर, कालान्तरका विधान मुझे अभी तक देखने को नहीं मिला है, संभव है किसी ग्रन्थमें हो । परन्तु श्वेताम्बर मान्यता के आधारपर से देशान्तर संस्कार निम्न प्रकारसे किया जाता है ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
पहले किसी भी देशकी पलभाका ज्ञान करके उसको तीन स्थानमें रखकर पहले स्थानमें १० से, दूसरेमें ८ से और तीसरेमें १० से गुणा करना चाहिये। तीसरे स्थानके गुणनफलमें तीनसे भाग देना चाहिये । इस प्रकार पूर्वोक्त तीन चर खण्ड आयेंगे।
पुनः सायन सूर्यका भुज बना कर उसमें राशि संख्या तुल्य चर खण्डका योग करके उसमें अंशादिसे गुणे हुए भोग खण्डका ३०वा भाग जोड़नेसे घर होता है। वह तुलादि ६ राशिमें सूर्य हो तो धन तथा मेषादि ६ राशिमें सूर्य हो तो ऋण होता है । इस चर का मध्यम रविको विकलामें संस्कार करनेसे रवि स्पष्ट होता है और चरको २ से गुणा कर ९ का भाग देनेसे जो लन्ध आवे, उसका देशान्तर संस्कृतमध्यम चन्द्रमाको विकलामें संस्कार करनेसे चन्द्रमा स्पष्ट होता है । चन्द्रमाके फलमें देशान्तर, भुजान्तर, चरान्तर ये तीन संस्कार किये जाते हैं तब चन्द्रमा स्पष्ट होता है। इसी मान्यताके अनुसार अन्य बुधादिक ग्रहोंका भी साधन किया जाता है। इस प्रकारसे संक्षेपमें पञ्चाङ्ग प्रणालीपर प्रकाश डाला गया है । कभी अवकाश मिलनेपर ग्रह और नक्षत्रोंके स्पष्टीकरणको प्रक्रियाको भी पाठकोंके सामने रक्तूंगा।
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जातक-तत्त्व अर्थात् प्रारब्ध विचार राजा रविः शशधरस्तु बुधः कुमारः सेनापतिः क्षितिसुतः सचिवौ सितेज्यो। भृत्यास्तयोश्च रविजः सबला नराणां कुर्वन्ति जन्मसमये निजमेव रूपम् ।।सारावली॥
त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिष शास्त्रका होरा एक आवश्यक अवयव है और इस होरा अवयवका नाम ही जातक शास्त्र है । कल्याण वर्माने लिखा है
जातकमिति प्रसिद्ध यल्लोके तदिह कीय॑ते होरा।
अथवा देवविमर्शनपर्यायः खल्वयं शब्दः'। अर्थात्-लोकमें प्रसिद्ध जातक शास्त्रको होरा कहा जाता है । यह प्रारब्ध विचारका पर्याय है। इसके अध्ययन द्वारा जीवनमें घटित होने वाली इष्टानिष्ट सूचक घटनाओंका परिमान प्राप्त होता है । जातकका व्युत्पत्तिगत अर्थ 'जातं जन्म तदधिकृत्य कृतो ग्रन्थः वा जातेन शिशोर्जन्मना कायतीति' अर्थात् जात या उत्पन्न हुए व्यक्तिके शुभाशुभत्वका निर्णय करने पाला शास्त्र जातक है।
होराकी व्युत्पत्ति 'महोरात्र' शब्दसे है। आदि वर्ण 'अ' और अन्तिम वर्ण 'त्र' का लोप होनेसे होरा शम्ब बनता है। जन्म कालीन ग्रहोंकी स्थिति, क्रिया, गति एवं युक्तिके अनुसार व्यक्तिके भविष्यका निरूपण होरा या जातकमें किया जाता है। यह कर्म-फल सूचक है। वराहमिहिरने होराकी व्युत्पत्तिके साथ इसके कर्मफल सूचकत्वकी ओर संकेत किया है
होरेत्यहोरात्रविकल्पमेके वा छन्ति पूर्वापरवर्णलोपात् ॥
कर्माणितं पूर्वभवे सदादि यत्तस्य पंक्ति समभिव्यनक्ति॥ अर्थात्-लग्न, होरा और जातक ये तीनों एक दृष्टिसे पर्यायवाची हैं। दिन या रात्रि में क्रान्तिवृत्तके किसी विशेष प्रदेशको क्षितिजमें लगनेके कारण लग्न-स्थानकी संज्ञा भी होरा या जातक मानी गयी है। जातक व्यक्तिके कर्मफलोंका प्रतिपादन करता है । अतएव जातक तस्वसे हमारा अभिप्राय व्यक्तिको गति क्रिया और शीलके विवेचनसे है। यहां गति, क्रिया और शील ये तीनों शब्द प्रतीक या लाक्षणिक है। अतः गति शब्दसे जातककी गतिविधियों, जीवनके उन्नत-अवनत, आरोह-अवरोहों एवं उसकी भविष्णुताके सम्बन्धमें विवेचन करना है । क्रिया शब्द पुरुषार्थका सूचक है। व्यक्ति अपने जीवनमें किस समय कैसा पुरुषार्थ कर सकेगा तथा उसके पुरुषार्थमें कब कैसी विघ्न बाधाएं उत्पन्न होंगी आदिका विचार क्रिया द्वारा किया जाता है । शीलसे तात्पर्य बाह्य और आन्तरिक व्यक्तित्वसे है ।
१. सारावली : २।४ प्रकाशक, मास्टर खेलाड़ीलाल एण्ड सन्स, वाराणसी, सन् १९५३ ई०, २. बृहन्यातक, लखनऊ संस्करण, अध्याय १, श्लोक ३
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान अतः शरीराकृति, रूपरंग, संस्थान, रोग, व्याधियाँ, शारीरिक सुख, पारिवारिक सुख, मानसिक सुख, सन्तोष, शान्ति, आर्थिक स्थिति, शिक्षा, प्रतिभा आदि का विचार किया जाता है। ग्रहोंका जीवधारियों के साथ क्यों और कैसा सम्बन्ध है ? प्राणियोंकी गति, क्रिया और शीलकी अभिव्यञ्जना ग्रहोंके द्वारा किस प्रकार सम्पन्न होती है ? जीवनका रहस्योद्घाटन ग्रहोंकी संयोगी स्थितियों द्वारा किस प्रकार सम्भव होता है ? आदि प्रश्नोंपर जातकतत्त्वके विवेचन प्रसंगमें विचार करना आवश्यक है।
___भारतीय ज्योतिष परम्पराकी दृष्टिसे जातक-जीवन एक भचक्र है और चक्रवत् ही इसका समुचित अध्ययन हो सकता है । भचक्रके गणितीय अध्ययनकी प्रक्रियाम पिण्ड और ब्रह्माण्डीय और मण्डलकी विद्यमान समता और सन्तुलनको ध्यानमें रखकर भारतीय ऋषियोंने बारह राशियोंके समान जीवनको भी द्वादशात्मक वृत्तमें बाँटा है। इसी द्वादशात्मक भचक्रके पूर्ण और अंशात्मक नामि रूप बिन्दुओंपर ग्रहोंके तात्त्विक भोगोंके परिणाम जीवनके भिन्न-भिन्न समयोंमें कौन-कौनसे परिवर्तन ला सकेंगे, यही जाननेकी प्रक्रिया जातकशास्त्र है। जातक और कर्म सम्बन्ध
जातक शास्त्रको अवगत करनेके हेतु आत्मा और कर्म के सम्बन्धमें जान लेना आवश्यक है। जातक तत्त्वका सम्यक् ज्ञान कर्मसम्बन्धो मान्यताको अवगत किये बिना सम्भव नहीं। श्री के० एस० कृष्णमूर्तिने ज्योतिषको कर्म-फल द्योतक शास्त्र बतलाते हुए लिखा है___Karma is a sanskrit word. 'Kri' means 'action' or deed'. Daymental or physical action in called 'Karma', every action produces its reaction or result which is known as Karma. Thus Karma includes both the action and the result governed by the irresistible law of Causation.
So under the law of Karma. There is nothing as a chonce or an accident. The so called chances and accident are in reality the praducts of some difinite couses which may not be aware of before hand. That which appears to be tccidental or providental to a non-astrological mind is a natural and in-evitable incident to an ashologer. Hence chances. luck or misfortune ar governed absolutely by the low of causation or Karma. 9
अर्थात्-'कर्म' संस्कृत शब्द है और यह कृ धातुसे निष्पन्न है, जिसका अर्थ क्रिया करना या कार्य करना है । कोई भी मानसिक या शारीरिक क्रिया कर्म कही जाती है। प्रत्येक क्रियासे कोई न कोई प्रतिक्रिया या परिणाम उत्पन्न होता है, जिसे कर्म, भाग्य या अदृष्ट कहते हैं । इस प्रकार कर्मके अन्तर्गत क्रिया और परिणाम दोनों ही सम्मिलित हैं, जो अवश्यम्भावी कार्य-कारण-सिद्धान्तके द्वारा नियन्त्रित होते हैं। अतएव कर्म सिद्धान्तके अन्तर्गत सहयोग या घटना का कोई स्थान नहीं है । ये तथा-कथित संयोग और घटनाएं किसी निश्चित कारणके परिणामके स्वरूप है, जिसकी जानकारी हमें नहीं रहती । ज्योतिष ज्ञानसे हीन साधारण व्यक्तिके लिए जो संयोग होता है, वही ज्योतिषीके लिए निश्चित प्राकृतिक घटना होती है ।
१. कृष्णमूर्ति पद्धति, मद्रास संस्करण, पृष्ठ १७
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ज्योतिष एवं गणित
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अतः संयोग-वियोग, सुख-दुःख, सौभाग्य- दुर्भाग्य निरपेक्ष रूपसे कार्य-कारण सिद्धान्त द्वारा परिचालित होते हैं ।
यहाँ यह स्मरणीय है कि मनुष्य की क्रिया-प्रतिक्रिया, घटना और फलके विषयमें ईश्वर या अन्य परोक्ष सत्ता हस्तक्षेप नहीं करती । प्रत्येक घटना व्यक्तिके पूर्व जन्मके संस्कारवश ही घटित होती है । अतः कर्म और पुनर्जन्म उस बीजके समान हैं जो स्वयं वृक्ष रूपमें प्रस्फुटित होता है, जिसमें फल लगते हैं और वे पुनः बीजों को उत्पन्न करते हैं, जिनसे नये वृक्षों का जन्म होता है | अतः कर्म संस्कार बीज रूप है । यह बीज और वृक्षको परम्परा अनादिकालीन
है
विश्लेषण करता है ।
और जीवधारी का जीवन वृक्ष रूपमें जातक तत्त्व इस परम्पराका ही
।
जातक तत्वको अवगत करनेके लिए कर्म सिद्धान्तका और अधिक स्पष्टीकरण अपेक्षित है । दर्शनका यह सिद्धान्त है कि अजर, अमर आत्मा कर्मोंके अनादि प्रवाहके कारण पर्यायों को प्राप्त करता है । हमारी दृश्य सृष्टि केवल नाम रूप या कर्म ही नहीं है, किन्तु इस नामरूपात्मक आवरण के लिए आधारभूत एक अरूपी, स्वतन्त्र और अविनाशी आत्म तत्त्व है । तथा प्राणी मात्र के शरीर में रहनेवाला यह तत्त्व नित्त्य एवं चैतन्य है, पर कर्मबन्ध के कारण यह परतन्त्र और नाशवान दिखलाई पड़ता है ।
कर्मके तीन भेद हैं- प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण । किसीके द्वारा वर्तमान क्षण तक किया गया जो कर्म है - चाहे वह इस जन्ममें किया गया हो या पूर्व जन्मोंमें सब संचित कहलाता है । अनेक जन्म-जन्मान्तरोंके संचित कर्मोंको एक साथ भोगना सम्भव नहीं है, क्योंकि इनसे मिलनेवाले परिणाम स्वरूप फल परस्पर विरोधी होते हैं । अतः इन्हें क्रमश: भोगना पड़ता है । संचित में से जितने कर्मोंको पहले भोगना आरम्भ किया जाता है, उतनेको प्रारब्ध कहते हैं । तात्पर्य यह है कि संचित अर्थात् समस्त जन्म-जन्मान्तरोंके संग्रहमें से एक छोटे भेदकी संज्ञा प्रारब्ध है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि समस्त संचितका नाम प्रारब्ध नहीं । किन्तु जितने भागका भोगना आरम्भ हो गया है, प्रारब्ध है, जो अभी हो रहा है या जो अभी किया जा रहा है, वह क्रियमाण है । इस प्रकार इन तीन तरहके कर्मोंके कारण आत्मा अनेक जन्मों, पर्यायोंको धारण कर संस्कारोंका अर्जन करता चला आ रहा है ।
आत्मा के साथ अनादिकालीन कर्म प्रवाहके कारण लिंग शरीर और भौतिक स्थूल शरीरका सम्बन्ध है । जब एक स्थान से आत्मा इस भौतिक शरीरका त्याग करती है, तो लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर उसे अन्य स्थूल शरीरकी प्राप्ति में सहायक होता है । इस स्थूल भौतिक शरीरमें यह विशेषता है कि इसमें प्रवेश करते ही आत्मा जन्म-जन्मान्तरोंके संस्कारोंकी निश्चित स्मृतिको खो देता । यही कारण है कि ज्योतिषमें प्राकृत ज्योतिष के आधारपर बताया गया है कि यह आत्मा मनुष्यके वर्तमान स्थूल शरीरमें रहते हुए भी एक से अधिक जगत् के साथ सम्बन्ध रखता है । मानवका भौतिक शरीर प्रधानतः ज्योतिः, मानसिक और पौद्गलिक इन तीन उपशरीरोंमें विभक्त है । यह ज्योतिः उपशरीर द्वारा नाक्षत्र जगत्से, मानसिक उपशरीर द्वारा मानसिक जगत्से और पौद्गलिक उपशरीर द्वारा भौतिक जगत्से सम्बद्ध है । अत मनुष्य प्रत्येक जगत्से प्रभावित होता है और अपने भाव, विचार और क्रिया
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११२ भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान द्वारा प्रत्येक जगत्को प्रभावित करता है। बतएव कर्म संस्कारों के कारण पटित होनेवाली घटनाबों एवं अन्य सम्भावनाओंका अध्ययन करनेके लिए जातक शास्त्र में व्यक्तिके व्यक्तित्वको बाह और आन्तरिक दो भागोंमें विभक्त किया है । बाह्य व्यक्तित्व के अन्तर्गत शरीर, शारीरिक रोग, शरीरजन्य प्रभाव आदि परिगणित है। यह व्यक्तित्व भौतिकताके साथ सम्बड होनेपर भी आत्मा की चैतन्य क्रिया के साथ इस प्रकार सम्बद है जिससे पूर्व जन्ममें किये गये संस्कारोंके फलस्वरूप विचार भाव और क्रियाओंकी अभिव्यक्ति होती है तथा वर्तमान जीवनके अनुभवों और क्रिया-प्रतिक्रियाओं द्वारा घटित होनेवाले संयोग और घटनाओंकी सूचना प्राप्त होती है। शनैः शनैः यह व्यक्तित्व विकसित होकर आन्तरिक व्यक्तित्वमें मिलनेका प्रयास करता है । आन्तरिक व्यक्तित्वमें अनेक बाह्य व्यक्तिस्वोंकी स्मृतियों, अनुभवों
और प्रवृत्तियोंका संश्लेषण रहता है, जिससे विभिन्न प्रकारके संयोग, घटनाएं एवं फलोपभोग प्राप्त होते है। व्यक्तित्व के प्रतीक ग्रह
मनुष्यका अन्तःकरण इन दोनों व्यक्तियोंके मिलानेका कार्य करता है । जातक में बाह्य व्यक्तित्वके तीन भेद माने गये है-विचार, भाव और किया। इसी प्रकार आन्तरिक व्यक्तिस्वके भी ये तीन भेद स्वीकार किये गये है। बाह्य व्यक्तित्वके उक्त तीन भेद ओर आन्तरिक व्यक्तित्वके उक्त तीनों भेदोंको सन्तुलित रूप देनेका कार्य अन्तःकरणके द्वारा होता है । दूसरे शब्दोंमें यों कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्तित्वके तीनों रूप एक मौलिक अवस्थामें आकर्षण और विकर्षणकी प्रवृत्ति द्वारा अन्तःकरणकी सहायतासे सन्तुलित रूपको प्राप्त होते हैं। मनुष्यको उन्नति और अवनति इस सन्तुलनके आधारपर ही निर्णीत की जाती है। जातकशास्त्र अनुसार मानव जीवनके बाह्य व्यक्तित्वके तीन रूप और आन्तरिक व्यक्तित्वके तीन रूप और एक अन्तःकरण इन सातके प्रतीक निम्नलिखित सात ग्रह है
१-बृहस्पति २-मंगल ३-चन्द्रमा
७-शनि ४-शुक्र
उक्त ग्रहोंके अनुसार मनुष्योंके भावी फल भिन्न-भिन्न रूपमें अभिव्यक्त होते हैं । अतः प्रत्येक प्राणीके जन्म-जन्मान्तरोंके संचित प्रारब्ध और क्रियमाण कर्म विभिन्न प्रकार के है । अतः प्रतीक रूप ग्रह अपने-अपने प्रतिरूप्यके सम्बन्धमें विभिन्न प्रकारके तथ्य प्रकट करते है। प्रतिरूप्योंकी सच्ची अवस्था बीजगणितकी अव्यक्त मान कल्पना द्वारा निष्पन्न अंकोंके समान प्रकट हो जाती है।
बाए व्यक्तित्वके प्रथम रूप विचारका प्रतीक बृहस्पति है । यह प्राणीमात्रके शरीरका प्रतिनिधित्व करता है और शरीर संचालनके लिए रक्त प्रदान करता है । जीवित प्राणीके रक्त में रहनेवाले कीटाणुओंकी चेतनासे इसका सम्बन्ध है। गुरु द्वारा मनुष्यकी आत्मिक, मनास्मिक और शारीरिक कार्य गतियोंका विश्लेषण किया जाता है, क्योंकि मनुष्यके व्यक्तित्वके किसी भी रूपका प्रभाव शरीर, आत्मा और बाह्य जड़ चेतन पदार्थ, जो शरीरसे भिन्न है, पर पड़ता है, उदाहरणार्थ बाह्य व्यक्तित्वके प्रथम रूप विचारको लिया जा सकता है।
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ज्योतिष एवं गणित
११३ मनुष्यके विचारका प्रभाव शरीरके साथ उसकी चेतन शक्तियोंपर भी पड़ता है। इतना ही नहीं उसके विचारसे गृह, कार्यालय, व्यवसाय, शिक्षालय भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते हैं। अतएव प्रथम रूपके प्रतीक बृहस्पतिसे निम्नलिखित तथ्योंकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।
अनात्मा-इस दृष्टि बिन्दुसे बृहस्पति व्यापार कार्य, वे स्थान और व्यक्ति, जिनका सम्बन्ध धर्म और कानून से है --मन्दिर, पुजारी, मन्त्री, न्यायालय, न्यायाधीश, विश्वविद्यालय, धारासभाएं, जनताके उत्सव, दान, सहानुभूति आदिका प्रतिनिधित्व करता है। अतएव जातकशास्त्रमें सामान्यतः बृहस्पतिसे उक्ततथ्योंका विचार किया जाता है।
आत्मा-इस दृष्टिकोण से यह ग्रह विचार मनोभाव और इन दोनोंके मिश्रित रूप उदारता, स्वभाव, सौन्दर्य-प्रेम, शक्ति, भक्ति एवं व्यवस्था-बुद्धि इत्यादि आत्मिक भावोंका प्रतिनिधित्व करता है।
शारीरिक दृष्टिसे बृहस्पतिका प्रभाव पैर, जंघा, जिगर, पाचन क्रिया, रक्त, स्नायुसंस्थान आदिका विचार किया जाता है। सामान्यतः जठराग्निका विचार भी गुरु द्वारा होता है।
बाह्य व्यक्तित्वके द्वितीय रूपका प्रतीक मंगल है। यह इन्द्रिय ज्ञान और आनन्द इच्छाका प्रतिनिधित्व करता है। जितने भी उत्तेजक और संवेदना जन्य आवेग हैं उनका यह प्रधान केन्द्र है । बाह्य आनन्ददायक वस्तुओं के द्वारा यह क्रियाशील होता है और आनन्ददायक अनुभवोंकी स्मृतियोंको जागृत करता है। वांछित वस्तुओंकी प्राप्ति तथा उन वस्तुओं की प्राप्तिके उपायोंके कारणोंको क्रियाका सूचक है। प्रधान रूपसे मंगलको इच्छाओंका प्रतीक माना गया है।
___अनात्मिक दृष्टिकोणसे यह सैनिक, डाक्टर, रसायनशास्त्री, नाई, बढ़ई, लोहार, मशीनका कार्य करनेवाले, मशीन बनानेवाले राज और मजदूर, खेल एवं खेलके सामान आदि का प्रतिनिधि है।
___आत्मिक दृष्टिकोणसे यह बहादुरी, दृढ़ता, आत्म विश्वास, क्रोष, युध-वृत्ति एवं प्रभुत्व प्रभृति भावों और विचारोंका प्रतिनिधि है।
शारीरिक दृष्टिकोणसे यह बाहरी सिर--खोपड़ी, नाक, एवं कपोलका प्रतीक है। इसके द्वारा संक्रामक रोग, घाव, खरोंच, आप्रेशन, रक्त दोष, उदर-पीड़ा आदि अभिव्यक्त होते हैं। बाह्य व्यक्तित्वके तृतीय रूपका प्रतीक चन्द्रमा है। यह मानवपर शारीरिक प्रभाव मलता है और विभिन्न अंगों तथा उनके कार्यों में सुधार करता है। मानसिक विकास और चरित्रगत विशेषताओंको सूचना भी इसीके द्वारा प्राप्त होती है।
अनास्मिक दृष्टिकोणकी अपेक्षासे यह श्वेत रंग, जहाज, बन्दरगाह, मछली, जल, तरल पदार्थ, मुक्ता, पाषाण, नर्स, दासी, भोजन, रजत एवं बैगली रंगके पदार्थों पर प्रभाव मलता है।
बात्मिक दृष्टिकोगकी अपेक्षासे यह संवेदन, आन्तरिक इच्छा, उतावलापन, भावना, विशेषतः गृह-जीवन सम्बन्धी भावना, कल्पना, सतर्कता एवं लाम इच्छापर प्रभाव सकता है।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान शारीरिक दृष्टिसे उदर, पाचन संस्थान, आंतें, स्तन, गर्भाशय एवं अंगोंपर इसका प्रभाव पड़ता है।
आन्तरिक व्यक्तित्वके प्रथम रूप विचारका प्रतीक शुक्र है । यह सूक्ष्म मानव चेतनाओं की विधेय क्रियाओंका प्रतिनिधित्व करता है । पूर्णबली शुक्र निःस्वार्थ प्रेमके साथ प्राणी मात्रके प्रति भ्रातृत्व भावनाका विकास करता है ।
___अनात्मिक दृष्टि बिन्दुकी अपेक्षासे सुन्दर वस्तुएं आभूषण, मनोरंजन की सामग्री, नृत्य- गान, वाद्य, शृंगारिक पदार्थ, कलात्मक वस्तुएँ एवं भोगोपभोगको सामग्री आदि पर प्रभाव पड़ता है।
आत्मिक दृष्टिसे स्नेह, सौन्दर्य-बोध, आनन्दानुभूति, परखबुद्धि, कार्य-अर्हता एवं जिज्ञासा आदि पर इसका प्रभाव पड़ता है।
शारीरिक दृष्टिसे गला, गुर्दा, आकृति, वर्ण, केश, वीर्य, शक्ति प्रभृतिसे सम्बद्ध है । साधारणतः शरीर संचालित करनेवाले अंगोंपर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है ।
आन्तरिक व्यक्तित्वके द्वितीय रूपका प्रतिनिधि बुध है । यह प्रधान रूपसे आध्यात्मिक शक्तिका प्रतीक है। इसके द्वारा आन्तरिक प्रेरणा सहेतुक निर्णयात्मक बुद्धि, वस्तु परीक्षण शक्ति, समझ और बुद्धिमानी आदिका विश्लेषण किया जाता है । बुध द्वारा आन्तरिक व्यक्तित्वका गम्भीर अध्ययन किया जा सकता है ।
अनात्मिक दृष्टि से विद्यालय, महाविद्यालय सम्बन्धी शिक्षण, विज्ञान, वैज्ञानिक और साहित्यिक स्थान, प्रकाशन-स्थान, सम्पादक, लेखक, प्रकाशक, पोस्ट मास्टर, व्यापारी एवं बुद्धिजीवियोंपर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है । पीत रंग और पारा धातुका भी यह प्रतीक माना गया है।
आत्मिक दृष्टिसे विवेक स्मरण शक्ति, तार्किक प्रतिभा, कला, कला उत्पादनको शक्ति एवं मेधाका विचार किया जाता है।
__शारीरिक दृष्टिसे यह मस्तक संस्थान, स्नायु क्रिया, जिह्वा, वाणी, हाथ एवं अंगुलियों के आकार-प्रकारका प्रतिनिधि है ।
___ आन्तरिक व्यक्तित्वके तृतीय रूपका प्रतीक सूर्य है। इसकी सात किरणें मानी गयी हैं, जो कार्य रूपसे भिन्न-भिन्न होती हुई भी इच्छाके रूपमें पूर्ण होकर प्रकट होती हैं। मनुष्यके विकासमें सहायक तीनों प्रकारकी चेतनाओंके सन्तुलित रूपका यह प्रतिनिधि है । पूर्ण इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति, सदाचार, विश्राम, शान्ति, जीवनकी उन्नति एवं विकासका द्योतक है।
___अनात्मिक दृष्टिकोणकी अपेक्षासे प्रभावक व्यक्ति-शासक, ए० पी०, एम०एल०ए०, सेनापति, न्यायाधीश, मण्डलाधिकारी, आविष्कारक, पुरातत्त्ववेत्ता, उच्च शिक्षाधिकारी आदि पर अपना प्रभाव डालता है।
आत्मिक दृष्टिसे यह प्रभुता, ऐश्वर्य, प्रेम, उदारता, महत्त्वाकांक्षा, आत्मविश्वास, आत्मनियन्त्रण, विचारों और भावनाओंका सन्तुलन एवं सहृदयताका प्रतीक है।
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ज्योतिष एवं गणित शारीरिक दृष्टिसे हृदय, रक्त-संचालन, नेत्र, रक्तवाहिका छोटी छोटी नसे, दांत, कान आदि अंगोंका प्रतिनिधि है ।
अन्तःकरणका प्रतीक शनि है। यह बाह्य चेतना और आन्तरिक चेतनाको मिलानेमें पुलका काम करता है। प्रत्येक नवजीवनमें आन्तरिक व्यक्तित्वसे जो कुछ प्राप्त होता है और जो मनुष्यके व्यक्तिगत जीवनके अनुभवोंसे मिलता है उससे यह मनुष्यको वृद्धिंगत करता है। यह प्रधान रूपसे अहंभावनाका प्रतीक होता हुआ भी व्यक्तिगत जीवनके विचार इच्छा और कार्योंमें सन्तुलन करता है।
अनात्मिक दृष्टिसे कृषक, हलवाहक, पत्रवाहक, चरवाहा, कुम्हार, माली, मठाधीश, कृपण, पुलिस अफसर, उपवास करनेवाले साधु-संन्यासी आदि व्यक्ति तथा पहाड़ी स्थान, चट्टानी-प्रदेश, बंज़रभूमि, गुफा, प्राचीन ध्वस्त स्थान, श्मशान घाट, कब्रस्थान एवं चौरस मैदान आदिका प्रतिनिधि है।
__ आत्मिक दृष्टिसे तत्त्वज्ञान, विचारस्वातन्त्र्य, अध्ययन, मनन-चिन्तन, कर्तव्य-बुद्धि, आत्म-संयम, धैर्य, दृढ़ता, गम्भीरता, निर्मलता, सतर्कता एवं विचारशीलताका प्रतीक है।
शारीरिक दृष्टिसे अस्थि-समूह, बड़ी आंतें, मांस-पेशियां, घुटनेसे नीचे के अंग आदि पर इसका प्रभाव पड़ता है ।
इस प्रकार जातक पद्धतिमें सौर जगत्के उक्त सात ग्रहोंको मानव-जीवनके विभिन्न अंगोंका प्रतीक माना गया है। इन ग्रहोंमें सूर्य और चन्द्रको प्रधानता है। ये दोनों मन और शरीरके विकास पर प्रभाव डालते हैं।
सूर्य सिद्धान्त और वराहमिहिरके सिद्धान्तोंसे ज्ञात होता है कि शरीर कक्षा-वृत्तके द्वादश भाग-मस्तक, मुख, वक्ष-स्थल, हृदय, उदर, कटि, वस्ति, लिंग, जंघा, घुटना, पिंडली और पैर क्रमशः मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन संज्ञक हैं। इन १२ राशियोंमें भ्रमण करनेवाले ग्रहोंमें आत्मा रवि, मन चन्द्रमा, धैर्य मंगल, वाणी बुध, विवेक गुरु, वीर्य शुक्र और संवेदन शनि है। इस प्रकार वराहमिहिरके अनुसार सप्त ग्रह और द्वादश राशियोंकी स्थिति देहधारी प्राणियोंके शरीरके भीतर ही पायी जाती है । शरीर स्थित इस सौर-चक्रका भ्रमण आकाश स्थित सौर मण्डल के समान ही होता है । अतएव व्यक्त और जगत्के ग्रहोंकी गति, स्थिति, क्रिया आदिके अनुसार अव्यक्त शरीर स्थित सौर जगत्के ग्रहों की गति, स्थिति, क्रिया आदिके अनुसार अव्यक्त शरीर स्थित सौर जगत्के ग्रहोंकी गति, स्थिति क्रिया आदिको अभिव्यक्त करते हैं । बताया है
एते ग्रहा बलिष्ठाः प्रसूतिकाले नृणां स्वमूत्तिसमम् ।
कुयुर्देहं नियतं बहवश्च समागता मिश्रम् ॥ कालपुरुष और जातक
जातक शास्त्रमें काल-समयको पुरुष या ब्रह्म माना गया है और ग्रह रश्मियों वश इस पुरुषके उत्तम, मध्यम, उदासीन एवं अधम ये चार अंग विभाग किये हैं। त्रिगुणात्मक प्रकृतिके द्वारा निर्मित समस्त जगत् सत्त्व, रजस् और तमोमय है। जिन ग्रहोंमें सत्त्व गुण
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान अधिक रहता है उनकी किरणें अमृतमय है, जिसमें तमोगुण अधिक रहता है उसकी विषमय जिसमें रजोगुण अधिक रहता है उसकी किरणें उभय गुण मिश्रित एवं जिनमें तीनों गुणोंकी अल्पता रहती है उन ग्रहोंकी गुणहीन किरणें मानी गयी हैं । ग्रहोंके शुभाशुभत्वका विभाजन भी किरणोंके गुणोंके आधार पर ही हुआ है। आकाशमें प्रतिक्षण अमृत रश्मि सौम्य ग्रह अपनी गतिसे जहाँ-जहाँ गमन करते है उनकी किरणें भूमण्डलके उन उन प्रदेशोंपर पड़कर बाँके निवासियोंके स्वास्थ्य बुद्धि आदि पर अपना सौम्य प्रभाव डालती हैं । विषमय किरणोंवाले क्रूर ग्रह अपनी गति से जहां विचरण करते हैं वहाँ वे अपने दुष्ट भावसे वहाँके निवासियों के स्वास्थ्य और बुद्धि पर अपना कुप्रभाव डालते हैं । मिश्रित रश्मि ग्रहोंके प्रभाव मिश्रित एवं गुणहीन रश्मि-ग्रहोंके प्रभाव अकिंचित्कर होते हैं । जन्मके समय जिन जिन रश्मि ग्रहोंकी प्रधानता होती है, जातकका मूल स्वभाव वैसा ही बन जाता है।
आचार्य वराहमिहिरने बताया है कि जिन व्यक्तियोंका जन्म काल पुरुषके उत्त मांगअमृतमय रश्मियों के प्रभावसे होता है, वे बुद्धिमान, सत्यवादी, अप्रमादी, स्वाध्यायशील, जितेन्द्रिय, मनस्वी एवं सच्चरित्र होते हैं, जिनका जन्म काल-पुरुषके मध्यमांग--रजोगुणाधिक्य मिश्रित रश्मियोंके प्रभावसे होता है, वे मध्यम बुद्धि, तेजस्वी, शूरवीर, प्रतापी, निर्भय, स्वाध्याय शील, साधु अनुग्राहक एवं दुष्ट निग्राहक होते हैं। जिनका जन्म उदासीन अंग गुणत्रय की अल्पतावाली ग्रह-रश्मियोंके प्रभावसे होता है वे उदासीन बुद्धि, व्यवसाय कुशल, पुरुषार्थी, स्वाध्यायरत एवं सम्पत्तिशाली होते हैं, एवं जिनका जन्म अधमांग-तमोगुणाधिक्य रश्मिवाले ग्रहोंके प्रभावसे होता है बे विवेकशून्य, दुर्बुद्धि, व्यसनी, सेवाव्रती एवं होनाचरणवाले होते हैं । अतएव स्पष्ट है कि मनुष्यके गुण स्वभाव का अंकन पूर्वोपार्जित कर्म संस्कारके अनुसार ग्रह रश्मियोंके प्रभावसे घटित होता है जिस ग्रह नक्षत्र के वातावरण की प्रयानता रहती है अथवा जिनके तत्व विशेषके प्रभाव में व्यक्ति उत्पन्न होता है उस व्यक्ति में ग्रहके अनुसार उसी तत्व को प्रमुखता समाविष्ट हो जाती है । देशकृत और कालकृत ग्रहोंके संस्कार इस बातके सूचक है कि काल या किसी स्थान विशेषके वातावरण में उत्पन्न एवं पुष्ट होनेवाला प्राणी उस काल या उस स्थानपर पड़ने वाली प्रहरश्मियों को अपनी निजी विशेषता रखता है । अतएव व्यक्तित्व में समाविष्ट प्रह विशेष वैयक्तिक विशेषताओं को स्पष्ट करते हैं ।
ग्रहरश्मियों का प्रभाव केवल मनुष्यपर ही नहीं पड़ता, किन्तु वन्य, स्थलज एवं उद्भिज बादिपर भी पड़ता है। अमृतरश्मियोंके प्रभावसे जड़ी बूटियों में रोगनिवारण की शक्ति उत्पन्न होती है तथा मुक्ता आदि की उत्पत्ति का कारण भी प्रहरश्मियां है। अतएव जातक पद्धति में कालपुरुषके विचारके अन्तर्गत ग्रहरश्मियों और भचक्र का विश्लेषण किया जाता है । जातकतत्वके अन्तर्गत निम्नलिखित सिद्धान्तोंपर विचार करना आवश्यक है :
१-लग्न-नवांशादि षोडश वर्ग या षड्वर्ग । २-प्रहयोग-प्रहों को विभिन्न स्थितियोंसे उत्पन्न योगविशेष । ३-पह-पति-प्रहों के द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी, चतुःसंयोगी आदि भेद और
उनका फल । ४-दृष्टि-हदृष्टिके अनुसार फलादेश । ५ लावल-पढ्बल विचार
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ज्योतिष एवं गणित
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६-महादशा विचार ७-अन्तर्मुक्ति विचार
लग्न-नवांशादिके विचारके पूर्व राशि और ग्रहों का स्वरूप, उनकी विभिन्न संज्ञाएँ एवं लग्नादि द्वादश भावोंके स्वरूप का परिज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है । अतएव जातकतत्व को अवगत करनेके लिए केन्द्र, पणफर, आपौक्लिम, त्रिकोण, उपचय, चतुरन, मारक एवं नेत्रत्रिक संज्ञाओं को समझना आवश्यक है। फलप्रतिपादनके लिए अथवा जातक सिद्धान्तों को मात करनेके लिए प्रारम्भिक बातों की जानकारी अपेक्षित है। जातक फलादेशके मूलभूत सिद्धान्त
जिस भाव में जो राशि हो, उस राशिका स्वामी ही, उस भाव का स्वामी या भावेश कहलाता है। षष्ठ, अष्टम और द्वादश भावके स्वामी जिन भावों स्थानों में रहते है, अनिष्टकारक होते हैं। किसी भाव का स्वामी स्वगृही हो तो उस स्थान का फल अच्छा होता है । ग्यारहवें भाव में सभी फल शुभदायक होते हैं। किसी भाव का स्वामी पापग्रह हो और वह लग्नसे तृतीय स्थान में स्थित हो तो शुभ फल कारक होता है किन्तु जिस भाव का स्वामी शुभग्रह हो और वह तृतीय स्थान में स्थित हो तो मध्यम फल देता है। जिस भावमें शुभग्रह रहता है उस भावका फल उत्तम और जिसमें पाप ग्रह रहता है उस भावके फलका ह्रास होता है।
१४.५।७।९।१० स्थानों में शुभग्रहोंका रहना शुभ है । जो भाव अपने स्वामी शुक्र, बुद्ध और गुरु द्वारा युक्त अथवा दृष्ट हों अथवा अन्य किसी ग्रहसे युक्त अथवा दृष्ट न हों तो वह शुभ फल देता है । जिग भावका भावेश शुभग्रहसे मुक्त अथवा दृष्ट हो अथवा जिस भावमें शुभग्रह स्थित हो या जिस भाव को शुभग्रह देखता हो उस भावका शुभफल होता है। जिस भावका स्वामी पाप ग्रहसे युक्त अथवा दृष्ट हो या पाप ग्रह स्थित हो तो उस भावके फलका ह्रास होता है।
___ भावाधिपति मूल त्रिकोण, स्वक्षेत्रगत मित्रगृही और उच्चका हो तो उस भावका फल शुभ होता है । किसी भावके फलविशेष को ज्ञात करने के लिए यह देखना आवश्यक है कि उस भावका भावेश किस भावमें स्थित है और किस भावके भावेशका किस भावमें स्थित रहनेसे क्या फल होता है । सूर्य, मंगल, शनि और राहु, क्रमशः अधिक अधिक पापग्रह है। ये ग्रह अपनी पापग्रहों की राशियोंपर रहनेसे विशेष अनिष्टकर एवं शुभग्रह और मित्रग्रहों की राशियोंमें रहनेसे अल्प-अनिष्टकारक तथा अपनी उच्चराशियोंमें स्थित रहनेसे सामान्यतः शुभफलदायक होते हैं। चन्द्रमा, बुध, शुक्र, केतु और गुरु ये क्रमशः अधिक अधिक शुभग्रह माने गये है। ये शुभग्रहों की राशियों में रहनेसे अधिक शुभ तथा पापग्रहों की राशियों में रहनेसे अल्पशुभफल को सूचना देते हैं । केतु फल विचार करनेमें प्रायः पापग्रह माना गया है। अष्टम और द्वादश भावों में सभी ग्रह अनिष्टकारक होते है।
गुरु, षष्ठ भावमें शत्रुनाशक, शनि, अष्टमभावमें दीर्घायुकारक एवं मंगल दशम स्थानमें उत्तम भाग्यका सूचक होता है। राहु, केतु और अष्टमेश जिस भावमें रहते है उस भाव को बिगाड़ते हैं। गुरु अकेला, द्वितीय, पंचम और सप्तम भावमें स्थित हो तो धन, पुत्र बोर स्त्री के लिए सर्वद्या बनिष्टकारक होता है। जिस भाव का बो गृह कारक
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
माना जाता है यदि वह अकेला उस भावमें स्थित हो तो उस भावको नष्ट करता है । जातक तत्षके परिज्ञानार्थ गणितमान द्वारा देशान्तर और कालान्तर संस्कारकर सर्वप्रथम लग्नका साघन करना चाहिए । एक लग्न उतने काल खण्डका नाम है जितनेमें किसी एक राशि का उदय होता है । अहोरात्र में बारह राशियोंका उदय होता है । अतएव एक, दिन-रात में बारह लग्नों की कल्पना की गयी है । लग्न साधन के हेतु सर्वप्रथम अपने स्थान का उदयमान निकालना आवश्यक है ।
सायन - मेष संक्रान्ति या सायन-तुला संक्रांति के दिन मध्याह्न कालमें द्वादश अंगुलात्मक शंकु की छाया जितनी हो, उतना ही अपने स्थानकी पलभाका प्रमाण होता है । इस पलभा को तीन स्थानोंमें रखकर प्रथम स्थान में दससे द्वितीय में आठसे और तृतीय स्थानमें १० । ३ से गुणा करने पर तीन राशियोंके चरखण्ड होते हैं । इनको मेषादि, तीन राशियोंमें ऋण, कर्कादि तीन राशियों में धन, तुलादि तीन राशियोंमें धन एवं मकरादि तीन राशियों में ऋण करनेसे उदयमान आता है ।
लग्न-साधन
अब जिस समयका लग्न बनाना हो, उस समय के स्पष्ट सूर्यमें तात्कालिक स्पष्ट अयनांश जोड़ देने से तात्नुालिक सायन सूर्य होता है । इस तात्कालिक सायन सूर्यके मुक्त या भोग्य अंशादि को स्वदेशी उदयमानसे गुणा करके तीस का भाग देनेपर लब्धपलादि मुक्त या भोग्य काल होता है - मुक्तांश को सोदयसे गुणाकर तीसका भाग देनेपर मुक्तबाल और भोग्यांश को सोदयसे गुणकर तीसका भाग देनेपर भोग्यकाल आता है । इस मुक्त या भोग्यकाल को इष्टघटी पलों में घटानेसे जो शेष रहे उसमें मुक्त या भोग्य राशियोंके उदयमानों को जहाँ तक घटा सकें घटाना चाहिए । शेष को तीससे गुणाकर अशुद्धोदय मानसे भाग देनेपर जो अंशादि फल प्राप्त हो उसको क्रमसे अशुद्ध राशिमें घटाने और शुद्ध राशिमें जोड़नेसे सायन स्पष्ट लग्न होता है । इसमें से अयनांश घटानेपर स्पष्ट लग्न आता है । इसप्रकार लग्नमान निकाल कर प्राणपद और गुलिक द्वारा लग्न की शुद्धिका भी विचारकर लेना चाहिए । जातकतत्व का प्रमुखकेन्द्र लग्न है । यदि लग्न ठीक न हो तो कुण्डली का समस्त फल मिथ्या होता है । अतएव लग्न-साधन में सबसे अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है । भारतीय चिन्तकोंने लग्न की शुद्धि को जाँच करने के लिए निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं
१ - प्राणपद एवं गुलिक के साधन द्वारा इष्टकाल के शुद्धाशुद्ध का निर्णयकर गणितागत लगनके साथ तुलना करनी चाहिए ।
२ - इष्टकाल सूर्य-स्थित नक्षत्र, जन्मकालीन चन्द्रमा, मान्दि एवं स्त्री-पुरुष जन्मयोग द्वारा लग्न का विचार करना अपेक्षित है ।
३ - प्रसूति का गृह, प्रसूति का वस्त्र एवं उपसूतिका संख्या आदि उत्पत्तिकालीन वातावरण के निर्णय द्वारा लग्नका निश्चय करना चाहिए ।
४ - जातकके शारीरिक चिह्न, गठन, रूप-रंग, इत्यादि शरीरकी बनावट द्वारा भी लग्न का निर्णय किया जाता है । जिन्हें ज्योतिष शास्त्रकी लग्न प्रणालीका अनुभव होता है। वे जातकके शरीरके दर्शन मात्रसे लग्नका निर्णय करते हैं ।
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ज्योतिष एवं गणित
५-प्राणपद क्रिया द्वारा आए हुए प्राणपदके अंश लग्नांशोंके तुल्य हों तो लग्न शुद्ध होता है । अंशोंमें असमानता होते हुए भी इष्टकालको संशोधित करना आवश्यक है।
६-इष्टकालमें दो का भाग देनेसे जो लब्धि आए उसमें सूर्य जिस नक्षत्रमें हो उस नक्षत्र की संख्या को जोड़ दें। इस योगमें २७ का भाग देनेसे जो शेष रहे, उसी संख्यक नक्षत्र की राशिमें लग्न होता है । यदि यह लग्न और गणितागत पूर्व लग्न समान हो तो लग्न शुद्ध माना जाता है।
___७-इष्ट कालको छः से गुणा कर गुगनफलमें जन्मदिनके सूर्यके अंश जोड़ दें। इस योगफलमें ३० का भाग देकर लब्धि ग्रहण कर ले । तथा १५ से अधिक शेष रहने पर लब्धिमें एक और जोड़ देना चाहिए। यदि ३० से भाग न जाए तो लब्धि एक मान लेनी चाहिए । सूर्य-राशिकी अगली राशिसे भागफलके अंकोंकी गणना कर लेनेसे जो राशि आवे वही लग्नकी राशि होगी। यदि यह राशि गणितागत लग्नसे मिल जाए तो लग्नको शुद्ध समझना चाहिए।
८-यदि दिनमें दिनमानके अद्धभागसे पहले जन्म हो तो जन्म-कालीन रविगत नक्षत्र से सातवें नक्षत्रकी राशि, दिनके अवशेष भागमें जन्म हो तो रविगत नक्षत्रसे बारहवें नक्षत्रकी राशि एवं रात्रिके पूर्वार्धमें जन्म होनेसे सत्रहवें नक्षत्रकी राशि और शेष रात्रिमें जन्म होनेसे चौबीसवें नक्षत्रकी राशि लग्नराशि होती है । यह राशि यदि गणितागत लग्नकी राशिके तुल्य हो तो लग्न शुद्ध माना जाता है ।
१-चन्द्रमासे पंचम या नवम स्थानमें लग्न-राशिका होना सम्भव है । चन्द्रमाके नवमांशके सप्तम स्थानसे नवम और पंचम स्थानमें प्रायः लग्न-राशि स्थित रहती है । चन्द्रमा जिस स्थानमें स्थित हो उस स्थानके स्वामोसे विषम स्थानोंमें लग्नका होना सम्भव है । लग्नमें भी चन्द्रमा रह सकता है।
इस प्रकार लग्नका निश्चय करनेके उपरान्त क्षेत्र, होरा, द्रेष्काण, नवमांश, दशमांस, सप्तांश, द्वादशांश, त्रिंशांश, षोडशांश और षष्ठ्यांशका आनयन करना आवश्यक है। यदि सम्पूर्ण राशिको एक माना जाए और उसके दो हिस्से किये जाएं तो प्रत्येक अाश होरा कहलाता है। यदि राशिके तीन समान अंश किये जाएँ तो प्रत्येक भाग द्रेष्काण कहलाएगा। जो ग्रह जिस राशिका स्वामी होता है वही उस राशिके प्रथम द्रेष्काणका अधिपति कहलता है । उस राशिसे पंचम राशिका अघोश्वर ग्रह द्वितीय द्रेष्काण का अधिपति और उससे नवम राशिका अधीश्वर ग्रह तृतीय द्रेष्काण का अधिपति होता है । इस प्रकार प्रत्येक राशिके द्रेष्काण और उनके अधिपतियोंको ज्ञात करना चाहिए। नवमांश
___ राशिके नवभागोंमें से एक भागको नवमांश कहते हैं । अर्थात् प्रत्येक राशिमें तीन अंश बीस कलाका एक नवमांश होता है। अतएव प्रत्येक राशिमें नव राशियोंके नवमांश होते हैं । यहाँ यह विचारणीय है कि प्रत्येक राशिमें रहनेवाले नवमांश किन-किन राशियों के होंगे ? इस प्रश्नका समाधान करते हुए बताया है कि मेषमें प्रथम नवमांश मेषका, द्वितीय वृषका, तृतीय मिथुनका, चतुर्य कर्कका, पंचम सिंहका, षष्ठ कन्याका, सप्तम तुलाका, अष्टम
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१२० भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान वृश्चिकका और नवम धनु राशिका नवांश होता है । अन्तिम नवम नवांशमें मेष राशिकी समाप्ति और वृष राशिका प्रारम्भ हो जाता है । अतः वृष राशिमें प्रथम नवांश मेष राशिके अन्तिम नवांशसे आगेका आता है। इस प्रकार वृषमें प्रथम नवांश मकरका, द्वितीय कुंभका, तृतीय मीनका, चतुर्थ मेषका, पंचम वृषका, षष्ठ मिथुनका, सप्तम कर्कका, अष्टम सिंहका और नवम कन्याका होता है। मिथुनमें प्रथम नवांश तुलाका, द्वितीय वृश्चिकका, तृतीय धनुका, चतुर्थ मकरका, पंचम कुंभका, षष्ठ मीनका, सप्तम मेषका, अष्टम वृषका और नवम मिथुनका होता है । कर्क में प्रथम कर्कका, द्वितीय सिंहका, तृतीय कन्याका, चतुर्थ तुलाका, पंचम' वृश्चिकका, षष्ठ धनुका, सप्तम मकरका, अष्टम कुम्भका और नवम मीनका होता है। सिंहमें प्रथम मेषका, द्वितीय वृषका, तृतीय मिथुनका, चतुर्थ कर्कका, पंचम सिंहका, षष्ठ कन्याका, सप्तम तुलाका, अष्टम वृश्चिकका और नवम नवांश धनुका होता है। कन्या प्रथम मकरका; द्वितीय कुम्भका, तृतीय मीनका, चतुर्थ मेषका, पंचम वृषका, षष्ठ मिथुनका, सप्तम कर्कका, अष्टम सिंहका और नवम कन्याका नवांश होता है । तुलामें प्रथम तुलाका, द्वितीय वृश्चिकका, तृतीय धनुका, चतुर्थ मकरका, पंचम कुम्भका, षष्ठ मीनका, सप्तम मेषका, अष्टम वृषका और नवम नवांश मिथुनका होता है । वृश्चिक राशिमें प्रथम नवाश कर्कका, द्वितीय सिंहका, तृतीय कन्याका, चतुर्थ तुलाका, पंचम वृश्चिकका, षष्ठ धनुका, सप्तम मकरका, अष्टम कुम्भका और नवम मीनका नवांश होता है । इसी क्रमानुसार आगेकी राशियोंमें भी नवांशकी गणनाकी जाती है ।
गणित विधिसे नवमांश निकालनेका नियम यह है कि अभीष्ट संख्यामें राशि अंकको नौसे गुणा करने पर जो गुणनफल प्राप्त हो उसमें तीन अंश बोस कलाका भाग देनेसे जो फल प्राप्त हो उसे अभीष्ट संख्यामें जोड़ देनेसे नवांश आ जाता है । चर राशिका प्रथम नवांश, स्थिर राशिका पंचम नवांश और द्विस्वभाव राशिका अन्तिम नवांश वर्गोत्तम नवांश कहलाते हैं। सप्तमांशादि विचार
सप्तमांश निकालनेकी विधि यह है कि चार अंश, सत्रह कला, आठ विकला प्रमाण एक सप्तमांश होता है। समराशिमें उस राशिकी सप्तम राशिसे और विषम राशिमें उसी राशिसे सप्तमांशकी गणना की जाती है । लग्न और ग्रहोंके सप्तमांश निकाल कर उनमें ग्रहोंका स्थापन करनेसे सप्तमांश कुण्डली बन जाती है ।
. एक राशिमें दश दशमांश होते हैं अर्थात् तीन अंशका एक दशमांश होता है । विषम राशिमें उसी राशिसे और सम राशिमें नवम राशिसे दशमांशकी गणना होती है । वशमांश कुणाली बनानेकी विधि यह है कि लग्न स्पष्ट जिस दशमांशमें हो वही दशमांश कुण्डलीका लग्न माना जाता है और ग्रह स्पष्ट द्वारा ग्रहोंको मात कर जिस दशमांशका जो ग्रह हो उस महको उस राशिमें स्थापन करनेसे दशमांश कुण्डली बनती है ।
राशिके बारह भागोंमें से उसका एक भाग द्वादशांश कहलाता है। गणितानुसार यह दो बंश तीस कला का होता है। द्वादश गणना अपनी राशिसे ली जाती है । यथा मेपमें
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ज्योतिष एवं मणित
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मेषसे, वृषमें वृषसे, मिथुनमें मिथुनसे आदि । द्वादशांश कुण्डली पूर्ववत् लक्ष्य स्पष्ट में द्वादशांश निकालकर द्वादशांश लग्न एवं स्पष्ट ग्रहोंमें द्वादशांश निकाल कर द्वादशांश कुण्डली के ग्रह आते हैं ।
एक राशिमें सोलह षोडशांश होते हैं । एक षोडशांश एक अंश, बावन कला और तीस विकला का होता है । षोडशांशकी गणना चार राशियों में मेषादि से, स्थिर राशियों में सिंहादिसे और द्विस्वभाव राशियों में धनु राशिसेकी जाती है । लग्न स्पष्ट जिस षोडशांशमें आया हो वही षोडशांश कुण्डलीका लग्न एवं ग्रह - स्पष्ट के अनुसार षोडशांश निकाल कर ग्रह स्थापित किये जाते हैं । विषम राशियों में - मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुम्भमें प्रथम पाँच अंश वाला त्रिशांश मंगलका, द्वितीय पाँच अंश शनिका, तृतीय आठ अंश बृहस्पतिका, चतुर्थ सात अंश बुधका और पंचम पाँच अंश शुक्रका त्रिशांश होता है । सम राशियों— वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीनमें प्रथम पाँच अंश शुक्रका, द्वितीय सात अंश बुधका, तृतीय आठ अंश वृहस्पतिका, चतुर्थ पाँच अंश शनिका और पंचम पाँच अंश मंगल का त्रिशांश होता है ।
मैत्री- विचार
एक षष्ठ अंश तीस कलाका माना गया है । लग्न और ग्रहोंके षष्ठ अंश निकाल कर पूर्ववत् षष्ठ अंश कुण्डली तैयार की जाती है । षड्वर्ग, दशवर्ग और षोडशवर्ग विचार क्रम में ग्रह मैत्री और स्वांश एवं कारकांशका ज्ञान भी आवश्यक है । निसर्ग मैत्रीका विचार करते हुए आचार्योंने बताया है कि सूर्य के मंगल, चन्द्रमा और बृहस्पति निसर्ग मित्र, शुक्र और शनि शत्रु एवं बुध सम है । चन्द्रमाके सूर्य और बुध मित्र, बृहस्पति, मंगल शुक्र और शनि सम हैं । मंगल के सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति मित्र, बुध शत्रु, शुक्र और शनि सम हैं । बुधके शुक्र और सूर्य मित्र, शनि, बृहस्पति और मंगल सम एवं चन्द्रमा शत्रु है । बृहस्पति के सूर्य, मंगल और चन्द्रमा मित्र, शनि सम एवं शुक्र और बुध शत्रु हैं । शुक्र के शनि, बुध मित्र, चन्द्रमा, सूर्य शत्रु और बृहस्पति मंगल सम है । शनिके सूर्य, चन्द्रमा और मंगल शत्रु, बृहस्पति सम एवं शुक्र और बुध मित्र हैं ।
तात्कालिक मैत्रीकी दृष्टिसे जो ग्रह जिस स्थानमें रहता है वह उससे दूसरे, तीसरे, चौथे, दशवें, ग्यारहवें और बारहवें भावके साथ मित्रता रखता है- तात्कालिक मित्र होता है । अन्य स्थानों – ११५ ६ ७ ८ ९ के ग्रह शत्रु होते हैं । नैसर्गिक और तात्कालिक मैत्री इन दोनोंके सम्मिश्रणसे पाँच प्रकार के मित्र शत्रु होते हैं - १ - अति मित्र, २ - अतिशत्रु, ३- मित्र, ४ - शत्रु और ५ - उदासीन - सम । तात्कालिक और नैसर्गिक दोनों स्थानोंमें मित्रता होनेसे अतिमित्र, दोनों स्थानोंमें शत्रु होनेसे अतिशत्रु, एक में मित्र और दूसरे में सम होनेसे मित्र, एक में सम और दूसरेमें शत्रु एवं एकमें शत्रु और दूसरेमें मित्र होनेसे सम-उदासीन ग्रह होते हैं ।
कारक और स्वांश-विचार
सूर्यादि सप्त ग्रहों में जिसके अंश सबसे अधिक हों वही आत्मकारक ग्रह होता है । यदि अंश बराबर हों तो उनमें जिसकी कला अधिक हों, वह, कलाकी समता होनेपर जिसकी
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विकला अधिक हों वह आत्मकारक होता है । विकलाओं में भी समानता होनेपर जो बली ग्रह होगा वही जातकका आत्मकारक ग्रह माना जाएगा। आत्मकारकसे अल्प अंश वाला भ्रातृकारक, उससे न्यून अंश वाला मातृकारक, उससे न्यून अंश वाला पुत्रकारक, उससे न्यून अंश वाला जातिकारक और उससे न्यून अंश वाला स्त्रीकारक होता है । कारकांश कुण्डली निर्माण की प्रक्रिया यह है कि आत्मकारक ग्रह जिस राशिके नवमांशमें हो उसको लग्न मानकर सभी ग्रहोंको यथास्थान स्थापित कर देनेसे कारकांश कुण्डली बनती है ।
स्वांश कुण्डलीका निर्माण प्रायः कारकांश कुण्डली के समान ही होता है । इसमें लग्नराशि कारकांश कुण्डलीकी ही मानी जाती है, किन्तु ग्रहोंका स्थापन अपनी अपनी नवांश राशिमें किया जाता है । अर्थात् नवांश कुण्डलीमे ग्रह जिस जिस राशिमे आये हैं स्वांश कुण्डली में भी उस उस राशिमें स्थापित किये जाते हैं । ग्रहयोग
ग्रह योगोंका विचार तृतीय सिद्धान्तके अन्तर्गत है ! ग्रह योगोंकी संख्या पाँच-छह सौ से कम नहीं है, पर प्रधानतः राजयोग, रज्जुयोग, मुसल योग, नल योग, माला योग, सर्पयोग, गदायोग, शकटयोग, पक्षीयोग, शृंगाटक योग, हलयोग, वज्र योग, कमल योग, बापी योग, शक्तियोग, दण्ड योग, नौका योग, कूप योग, क्षत्रयोग, चापयोग, चक्रयोग, गज केसरी योग, शरद योग आदि योग प्रधान है। योगोंक विचार हा जातकके वास्तविक फलका परिज्ञान होता है । जिस जन्म कुण्डली में तीन अथवा चार ग्रह अपने उच्च या मूल त्रिकोणमें बली हों तो प्रतापशाली व्यक्ति मन्त्री या राज्यपाल होता है, जिस जातकके पाँच अथवा छः ग्रह उच्च या मूल त्रिकोणमें स्थित हों, तो वह दरिद्र-कुलोत्पन्न होनेपर भी राज्य शासनमें प्रमुख अधिकार प्राप्त करता है। जिस जातकके जन्म समय मेष लग्नमें चन्द्रमा, मंगल और गुरु हों अथवा इन तीनों ग्रहोंमेंसे दो ग्रह मेष लग्न में हों तो वह निश्चय ही मन्त्री पद प्राप्त करता है। मेष लग्नमें उच्च राशिके ग्रहों द्वारा दृष्ट गुरुके स्थित होनेसे शिक्षा मन्त्री पद प्राप्त होता है । मेष लग्नमें उच्चका सूर्य हो दशममें मंगल हो और नवम भावमें गुरु स्थित हो तो व्यक्ति प्रभावक, मन्त्री या राज्यपाल होता है । गुरु अपने उच्च में तथा मंगल लग्नस्थ हो और इस स्थानमें मेष राशि हो तो गृह मन्त्री या विदेश मन्त्रीका पद-प्राप्त होता है । मेष लग्नमें जन्म ग्रहण करनेवाला व्यक्ति निर्बल ग्रहोंके होने पर पुलिस अधिकारी होता है । यदि इस लग्नके व्यक्तिकी कुण्डलीमें क्रूर ग्रह-शनि, रवि और मंगल उच्च या मूल त्रिकोणमें हों और गुरु नवम भावमें स्थित हो तो रक्षा मन्त्रीका पद प्राप्त होता है । एकादश भावमें चन्द्रमा शुक्र और गुरु हों, मेषमें मंगल हो, मकरमें शनि हो और कन्यामें बुध हो तो व्यक्ति को राजाके समान सुख प्राप्त होता है । राजयोगोंके विचारके लिए उच्च, मूल त्रिकोण नवांश और स्वराशिका विचार करना आवश्यक है । जन्म कुण्डली में समस्त ग्रह अपने अपने परमोच्च में हों और बुध अपने उच्च नवांशमें हो तो जातक चुनाव में विजयी होता है तथा उसे राजनीतिमें यश और उच्च प्रद प्राप्त होता है। उच्च ग्रहके रहनेसे राष्ट्रपतिका पद भी मिलता है । चन्द्रमा, मंगल और बृहस्पतिके उच्चांशों द्वारा राष्ट्रपति पद, मन्त्री पद, एम० एल० ए०, एम० पी० आदि का विचार किया जाता है । उच्चका गुरु केन्द्र स्थानमें और शुक्र दशम भाव
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में हो तो व्यक्ति राजनीतिमें सफलता प्राप्त करता है । पूर्ण चन्द्रमा कर्फमें हो तथा बली बुध, गुरु और शुक्र अपने अपने नवांशमें स्थित हो कर चतुर्थ भावमें हों और ग्रहों पर सूर्यकी दृष्टि हो तो साधारण व्यक्ति भी मन्त्री पद प्राप्त करता है । मंगल, सूर्य, चन्द्र और गुरुके उच्च राशियोंमें रहने पर राज्याधिकारीका पद प्राप्त होता है । समस्त शुभ ग्रह ११४।७ में हों और मंगल रवि तथा शनि ३।६।११ भावों में हो तो जातकको न्यायी योग होता है । इस योगमें जन्म लेनेवाला चुनाव में विजयी होता है। समस्त शुभ ग्रह ९ और ११वें भावों में हों तो कलश नामक योग होता है । इस योग वाला व्यक्ति राज्यपाल या राष्ट्रपति होता है ।
यदि तीन ग्रह ३।५।११ वें भावमें हों, दो ग्रह षष्ठ भाव में और शेष दो ग्रह सप्तम भाव में हों तो पूर्ण कुम्भ नामक योग होता है । इस योग वाला व्यक्ति उच्च शासनाधिकारी अथवा राजदूत होता है । जब सभी ग्रह चर राशियोंमें स्थित रहते हैं तो उसे रज्जु योग कहा जाता है । इस योगमें उत्पन्न मनुष्य भ्रमणशील, सुन्दर, परदेश जाने में सुखी, क्रूर, दुष्ट-स्वभाव एवं स्थानान्तरमें उन्नति करने वाला होता है।
____ समस्त ग्रह स्थिर राशियोंमें हों तो मुसल योग होता है । इस योगमें उत्पन्न होने वाला जातक मानी, ज्ञानी, धनी, राजमान्य, प्रसिद्ध, बहुत पुत्रवाला, मण्डलाधीश्वर, शिक्षक, धारा-सभाओंका सदस्य पवं शासनाधिकारी होता है । समस्त ग्रह द्विस्वभाव राशियोंमें हों तो नल योग होता है । इस योग वाला जातक हीन या अधिक अंगवाला, धनसंग्रहकर्ता, अतिचतुर राजनैतिक दांव-पेचोंमें प्रवीण एवं निर्वाचनमें सफलता प्राप्त करता है।
बुद्ध, गुरु और शुक्र ४।७।१० वें स्थानमें हों और शेष ग्रह इन स्थानोंसे भिन्न स्थानोंमें हों तो माला योग होता है । माला योग होनेसे जातक धनी, वस्त्राभूषणयुक्त, सम्पन्न शिक्षित एवं मान्य होता है । माला योग वाले जातकको ३५ वर्षको अवस्थासे जीवनमें सफलता प्राप्त होती है । रवि, शनि और मंगल ४।७।१० वें स्थानमें हों और चन्द्र, गुरु, शुक्र एवं बुध इन स्थानोंसे भिन्न स्थानोंमें स्थित हों तो सर्प योग होता है । इस योगके होनेसे जातक कुटिल, निर्धन, दुखी, दीन, भिक्षाटन करने वाला, चन्दा मांगकर खा जाने वाला एवं सर्वत्र निन्दा प्राप्त करनेवाला होता है।
लग्न और सप्तम में समस्त ग्रह हों तो शकट योग होता है। इस योगवाला रोगी, मूर्ख, ड्राइवर, स्वार्थी एवं अपना काम निकालने में बहुत प्रवीण होता है । चतुर्थ और दशम भावमें समस्त ग्रह हों तो विहग योग होता है । इस योगमें जन्म लेनेवाला जातक राजदूत, गुप्तचर, भ्रमणशील, कलहप्रिय और धनी होता है। शुभ ग्रह उक्त स्थानोंमें हों और पापग्रह तृतीय, षष्ठ और एकादश भावमें स्थित हों तो जातक न्यायाधीश और मण्डलाधिकारी होता है । समस्त ग्रह लगन पंचम और नवम स्थानमें हों तो शृंगाटक योग होता है । इस योगवाला जातक सैनिक, योद्धा, कलहप्रिय, राजकर्मचारी, कर्मठ एवं जीवनमें उन्नति करनेवाला होता है । वीरता के कार्यों में इसे सफलता प्राप्त होती है। इस योगवालेका भाग्य २३ वर्षको अवस्थासे उदित होता है।
समस्त शुभ ग्रह लग्न और सप्तम स्थानमें स्थित हों अवथा समस्त पाप ग्रह चतुर्थ और दशम भाव में स्थित हों तो वज्र योग होता है। इस योगवाला बाल्य और बाक्य अवस्थामें सुखी, शूरवीर, सुन्दर, निस्पृह, मन्द भाग्यवाला, पुलिस या सेनामें नौकरी करने
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वाला एवं खल-प्रकृति का होता है । समस्त ग्रह लग्न, चतुर्थ, सप्तम और दशम भाव में स्थित हों तो कमल योग होता है। इस योगका जातक धनी, गुणी, दीर्घायु, यशस्वी, सुकृत करनेवाला, विजयी, मन्त्री या राज्यपाल होता है । कमल योग बहुत ही प्रभावक योग होता है । इस योग में जन्म लेनेवाला व्यक्ति शासनाधिकारी अवश्य बनता है । कानून शास्त्रका विशेषज्ञ होनेके कारण बड़े बड़े व्यक्ति उससे सलाह लेनेके लिए आते हैं । लग्नसे लगातार चार स्थानों में सब ग्रह हों तो यूपयोग होता है । इस योगवाला आत्मज्ञानी, धर्मात्मा, सुखी, बलवान, व्रत-नियमका पालन करनेवाला और विशिष्ट व्यक्तित्वसे युक्त होता है । यूप योग में उत्पन्न हुआ व्यक्ति पंचायती होता है और आपसी विवादों और झगड़ोंको निपटा देने में उसे अपूर्व सफलता प्राप्त होती है ।
चतुर्थ स्थानसे आगे चार स्थानोंमें ग्रह स्थित हों तो शर योग होता है । इस योगवाला व्यक्ति जेलका निरीक्षक, शिकारी, कुत्सित कर्म करनेवाला, पुलिस अधिकारी एवं नीच कर्मरत दुराचारी होता है। सप्तम भावसे आगेके चार भावों में समस्त ग्रह हों तो शक्ति योग होता है और दशम भावसे आगेके चार भावोंमें समस्त ग्रह हों तो दण्ड योग होता है । शक्ति योग मे जन्म लेनेवाला जातक धनहीन, निष्फल जीवन, दुखी, आलसी, दीर्घायु, दीर्घसूत्री, निर्दय और छोटा व्यापारी होता है । शक्ति योगमें जन्म लेनेवाला व्यक्ति नौकरी भी करता है पर उसे जीवन में कहीं भी सफलता नहीं मिलती । दण्ड योगमें जन्म लेनेवाला व्यक्ति नीच कर्म-रत होता है, पर संसारके कार्योंमें उसे सफलता मिलती है । यह उद्योग धन्धे कार्य नहीं कर सकता है, नौकरी ही इसके जीवनका पेशा होती है । लग्नसे लगातार सात स्थानों में सातों ग्रह हों तो नौका योग होता है । इस योगमें जन्म लेनेवाला व्यक्ति नौ सेनाका सैनिक, स्टीमर या जलीय जहाजका चालक, कप्तान, पनडुब्बी में प्रवीण और मोती, सीप आदि निकालने की कलामें कुशल होता है । नौका योगवाला जातक धनी होता है और जीवनमें दुर्घटनाओं का शिकार निरन्तर होता रहता है ।
चतुर्थ भावसे आगेके सात स्थानों में सभी ग्रह हों तो कूट योग और सप्तम भावसे आगेसे सात स्थानों में समस्त ग्रह हों तो छत्र योग होता है । कूट योग में जन्म लेनेवाला व्यक्ति जेल - कर्मचारी, धनहीन, शठ, क्रूर, इंजीनियर या अन्य किसी कला में प्रवीण होता है। छत्र योग वाला व्यक्ति धनिक, लोकप्रिय, राजकर्मचारी, उच्च पदाधिकारी, सेवक, परिवार के व्यक्तियोंका भरण-पोषण करनेवाला एवं अपने कार्य में ईमानदार होता है ।
ग्रह योगका यह विचार किसी स्थान विशेषसे आगे अथवा किसी स्थान विशेषपर ग्रहों के स्थित रहने से किया गया है। सभी ग्रह एक राशिमें स्थित हों, दो राशियों में स्थित हों, तीन राशियों में स्थित हों, चार राशियों में स्थित हों, पांच राशियोंमें स्थित हों, छः राशियों में स्थित हों और सात राशियों में स्थित हों तो क्रमशः गोल-योग, युग-योग, शूल-योग, केदारयोग, पाश-योग, दाम-योग एवं वीणायोग होते हैं । इन योगोंका विचार बहुत ही विस्तारपूर्वक किया गया है ।
ग्रहयुति
ग्रहयुतिके अन्तर्गत द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी, चतुःसंयोगी आदि ग्रहोंके फल बतलाए हैं । रवि-चन्द्र, रवि- मंगल, रवि-बुध, रवि- गुरु, रवि-शुक्र, और रवि-शनिकी युतियोंके साथ चन्द्र
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मंगल, मंगल-बुध, बुध-गुरु, गुरु-शुक्र, शुक्र-शनि ग्रहोंकी युतियोंके फल भी आये हैं। विसंयोगियोंमें रवि-चन्द्र-मंगल, चन्द्र-मंगल-बुध, मंगल-बुध-गुरु, गुरु-शुक्र-शनिके फलादेशोंका निरूपण आया है । चतुस्संयोगियोंमें रवि-चन्द्र-मंगल-बुध, चन्द्र-मंगल-बुध-गुरु, मंगल-बुध-गुरु-शुक्र, बुध-गुरु-शुक्र-शनि, गुरु-शुक्र-शनि-रविके स्थान विशेषके आधारपर संयोगी फलोंका कथन किया गया है । इस संयोगी विचारोंको अवगत करनेके लिए निम्नलिखित नियमोंकी जानकारी अपेक्षित है--
१-स्थान-सम्बन्ध २-दृष्टि-सम्बन्ध ३-राशि-स्वामियोंका सम्बन्ध ४-बलाबल-सम्बन्ध
५-मित्र-शत्रुत्व-सम्बन्ध उक्त नियमोंके अनुसार ग्रह युतिका विचार करनेसे जातक सम्बन्धो फलादेशका ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
ग्रह दृष्टिके सम्बन्धमें सामान्य नियमोंके विवेचन प्रसंगमें हो लिया जा चुका है। षड्बल विचार
जातक-तत्वका प्रमुख अवयव षड्बल है। बल-विचारके अभावमें जातक-तत्वका पूर्ण विवेचन सम्भव नहीं। अतएव ग्रहोंके बलाबलपर विचार करना परमावश्यक है। जातक शास्त्रमें ग्रहोंके छः प्रकारके बल बतलाये गये हैं:-(१) स्थान बल, (२) दिग्बल, (३) कालबल (४) चेष्टाबल (५) नैसर्गिक बल और (६) दृग्बल ।
___ स्थान बलमें उच्चबल, युग्मायुग्म बल, सप्तवगैक्य-बल, केन्द्र-बल और द्रेष्काण-बल ये पाँच सम्मिलित हैं। इन पांचों बलोंका योग करनेसे स्थानबल होता है। सामान्यतः ग्रह अपनी उच्चराशि, स्वक्षेत्र, मूलत्रिकोण, स्वनवमांश या अतिमित्रके क्षेत्रमें रहनेसे स्थानबली होता है।
शनिमेंसे लग्नको, सूर्य और मंगलमेंसे चतुर्थ भावको, चन्द्रमा और शुक्रमेंसे दशम भावको, बुध और गुरुमेंसे सप्तम भावको घटा कर शेषमें छः राशिका भाग देनेसे ग्रहोंका दिग्बल आता है । यदि शेष छः राशिसे अधिक हो तो बारह राशियोंसे घटाकर तब भाग देना चाहिए । दूसरा नियम यह है कि शेषकी विकलाओं में १०८०० का भाग देनेसे कला विकलात्मक दिग्बल होता है ।
बुध और गुरु लग्नमें रहनेसे, शुक्र और चन्द्रमा चतुर्थमें रहनेसे, शनि सप्तम भावमें रहने से एवं सूर्य और मंगल दशम स्थानमें रहनेसे दिग्बली होते हैं। अतः लग्न पूर्व, दशम, दक्षिण, सप्तम पश्चिम और चतुर्थाभाव उत्तर दिशामें माने गये हैं। इसी कारण इन स्थानोंमें ग्रहोंका रहना दिग्बल कहलाता है।
बुध और गुरु लग्नमें रहनेसे, शुक्र और चन्द्रमा चतुर्थमें रहनेसे, शनि सप्तम भावमें रहनेसे एवं सूर्य और मंगल दशम स्थानमै रहनेसे दिग्बली होते हैं । यतः लग्नपूर्व, दशम
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३२६ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान दक्षिण, सप्तम पश्चिम और चतुर्थाभाव उत्तर दिशामें माने गये हैं। इसी कारण इन स्थानोंमें ग्रहोंका रहना दिग्बल कहलाया है ।
नतोन्नत बल, पक्षबल, अहोरात्र विभाग-बल, वर्षेशादिबल इन चारों बलोंका योगकर देनेपर कालबल आता है।
फलित की दृष्टिसे रात्रिमें जन्म होनेपर चन्द्र, शनि और मंगल • यथा दिनमें जन्म होनेपर सूर्य, बुध और शुक्र कालबली होते हैं। मतान्तरसे बुधको सर्वदा कालबली माना गया है।
शनि, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्र और सूर्यको उत्तरोत्तर नैसर्गिक बली माना जाता है।
मकरसे मिथुन पर्यन्त किसी राशिमें रहनेसे सूर्य और चन्द्रमा तथा मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि चन्द्रमाके साथ रहनेसे चेष्टाबली होते हैं । शुभ ग्रहोंसे दुष्ट ग्रह दृग्बली होते हैं।
बलवान् ग्रह अपने स्वभाव के अनुसार जिस भावमें रहता है, उस भावका फल देता है । राशि स्वभाव और ग्रह स्वभावके अध्ययनके आधारपर फलादेशका निर्णय करना चाहिए । ग्रहों का स्वभाव
___ ग्रहोंके स्वभावके सम्बन्धमें यह स्मरणीय है कि गुरु और शुक्र दोनों शुभ ग्रह है, पर शुक्रसे सांसारिक और व्यवहारिक सुखोंका और बृहस्पतिसे पारलौकिक एवं आध्यात्मिक सुखों का विचार किया जाता है। शुक्रके प्रभावसे मनुष्य स्वार्थी और बृहस्पतिके प्रभावसे पारमार्थी होता है।
शनि और मंगल ये दोनों पापग्रह हैं, पर दोनोंमें अन्तर यही है कि शनि यद्यपि क्रूर ग्रह है, लेकिन उसका अन्तिम परिणाम सुखद होता है । शनि दुर्भाग्य और यन्त्रणाके फेरमें डालकर मनुष्यको शुद्ध बना देता है। परन्तु मंगल उत्तेजना देनेवाला, उमंग और तृष्णासे परिपूर्ण कर देने के कारण सर्वदा दुःखदायक होता है । ग्रहोंमें सूर्य और चन्द्रमा राजा, बुध युवराज, मंगल सेनापति, शुक्र-गुरु मन्त्री एवं शनि भृत्य हैं । सबल ग्रह जातकको पूर्ण सुख देते हैं । जातक तत्वकी जानकारीके लिए ग्रहस्वरूप, ग्रहबल, ग्रहोंकी दृष्टि, उनके मूलत्रिकोण, स्वक्षेत्र आदिका विश्लेषण आवश्यक है । ग्रहोंकी अवस्थाएँ
जातक तत्वके अन्तर्गत महादशा विचार आता है; पर इसके पूर्व ग्रहोंकी अवस्थाओं का विवेचन करना आवश्यक है । जातक शास्त्रमें ग्रहोंकी अवस्था तीन प्रकारकी मानी गयी है-(१) दोप्तादि, (२) बाल्यादि और (३) शयनादि।
ग्रह अपने उच्चमें दीप्त, स्वक्षेत्रमें स्वस्थ, मित्रकी राशिमें हर्षित, शुभग्रहके वर्गमें शान्त, षड्बल या षोडस वर्गमें चन्दनादि भेद गत ग्रह शक्त, रविसे युक्त ग्रह लुप्त (अस्त), अपनी नीच राशिमें दीन, पाप ग्रह तथा शत्रू ग्रहकी राशिमें पीड़ित होते हैं। जो ग्रह दीप्त, स्वस्थ, हर्षित, शान्त और शक्त अवस्थामें हों, वे उत्तम माने जाते हैं ।
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ज्योतिष एवं गणित
३२७ विषम राशि-१,३,५,७,९,११ में छः अंश तक बालक, बारह अंश तक कुमार, अठारह अंश तक युवा, चौबीस अंश तक वृद्ध और तीस अंश तक मृत अवस्थामें रहता है । समराशि-२।४।६।८।१०।१२ में छः अंश तक मृत, बारह अंश तक वृद्ध, अठारह अंश तक युवा, चौबीस अंश तक कुमार और तीस अंश तक बाल्यावस्थामें रहते हैं। जिस अवस्थामें ग्रह हो, उसी अवस्था तुल्यकालमें कार्य होता है । वृद्ध और मृत अवस्थामें ग्रह उत्तम नहीं होते।
जिस नक्षत्रमें ग्रह स्थित हो उस नक्षत्रकी संख्याको ग्रहको संख्यासे गुणा करे और गुणनफलको ग्रहके मुतांशसे गुणा करे और जन्मलग्नकी संख्या और इष्ट घटीको जोड़ दे। इस योगफलमें बारहका भाग देनेपर एक शेष रहने पर शयन, दो शेष रहने पर उपवेशन, तीन शेष रहनेपर नेत्रपाणि, चार शेष रहे तो प्रकाश, पाँच शेष रहे तो गमन, छः शेष रहने पर आगमन, सात शेष रहनेपर समा, आठ शेष रहनेपर गम, नौ शेष रहनेपर भोजन, दस शेष रहनेपर विलास, ग्यारह शेष रहनेपर कौतुक और शून्य शेष रहनेपर निद्रा अवस्था ज्ञात करनी चाहिए । इनमें उपवेशन, प्रकाश, सभा, विलास और कौतुक अवस्थागत ग्रह उत्तम होता है।
___ जातककी क्रिया, गति और फलका पूर्ण ज्ञान प्राप्त करनेके लिए अष्टोत्तरी, विंशोत्तरी और यौगिनी आदि दशाओंका विश्लेषण आवश्यक होता है । ग्रहों के शुभाशुभत्वका समय दशाके द्वारा ही ज्ञात होता है। मारकेशका निर्णय भी दशा ज्ञानके बिना सम्भव नहीं है। दक्षिण भारतमें अष्टोत्तरी दशाका और उत्तर भारतमें विंशोत्तरी दशाका प्रचार है । दशाविचार
___विंशोत्तरी दशामें १२० वर्षकी आयु मानकर ग्रहोंका विभाजन किया गया है । सूर्यकी दशा छः वर्ष, चन्द्रमाकी दश वर्ष, भौमकी सात वर्ष, राहुकी अठारह वर्ष, गुरुकी सोलह वर्ष, शनिको उन्नीस वर्ष, बुधकी सत्रह वर्ष, केतुकी सात वर्ष एवं शुक्रकी बीस वर्षकी दशा बतायी गयी है। दशा ज्ञात करने की विधि यह है कि व्यक्तिका, उत्तरा फाल्गुनी और उत्तराषाढामें जन्म होनेसे सूर्यकी, रोहिणी, हस्त और श्रवणमें जन्म होनेसे चन्द्रमाकी, मृगशिरा, चित्रा और घनिष्ठा नक्षत्रमें जन्म होनेसे मंगलकी, आर्द्रा, स्वाति और शतमिषामें जन्म होनेसे राहुकी, पुनर्वसु, विशाखा और पूर्वाभाद्रपदमें जन्म होनेसे गुरुकी, पुष्य, अनुराधा
और उत्तराभाद्रपदमें जन्म होनेसे शनिकी, आश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवतीमें जन्म होनेसे बुधकी मघा, मूल और अश्विनीमें जन्म होनेसे केतुकी एवं भरणी, पूर्वाफाल्गुनी और पूर्वाषाढामें जन्म होनेसे शुक्रकी दशा होती है ।
भयात और भभोगको पलात्मक बनाकर जन्म नक्षत्रके अनुसार जिस ग्रहकी दशा हो, उसके वर्षोंसे पलात्मक भयात को गुणा कर पलात्मक भभोगका भाग देनेसे लब्ध वर्षादि आते हैं। इस वर्षादिको भुक्तमान कहा जाता है और इसे दशा वर्षमेसे घटानेपर भोग्य वर्षादि मान होता है। भावेशोंके अनुसार विंशोत्तरी दशाका फल जाननेकी निम्नलिखित विधियाँ हैं
१-लग्नेशकी दशामें शारीरिक सुख और धनागम होता है। परन्तु स्त्रीकष्ट भी देखा जाता है।
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१२८ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मय का अवदान
२-धनेशको दशामें धनलाभ, पर शारीरिक कष्ट होता है। यदि धनेश पापग्रहसे युक्त हो तो इस दशामें मृत्यु भी होती है।
३-तृतीयेशकी दशा कष्टकारक, चिन्ताजनक और साधारण आमदनी कराने वाली होती है ।
___४-चतुर्थेशकी दशामें घर, वाहन, भूमि आदिके लाभके साथ माता, मित्रादि और स्वयं अपनेको शारीरिक सुख होता है। चतुर्थेश बलवान, शुभ ग्रहोंसे दृष्ट हो तो इसकी दशामें नया भवन बनता है। लाभेश और चतुर्थेश दोनों दशम या चतुर्थ में हों तो इस ग्रहकी दशामें मिल या बड़ा कारोबार जातक करता है लेकिन इस दशाकालमें पिताको कष्ट रहता है। विद्यालाभ, विश्वविद्यालयोंकी बड़ी उपाधियाँ इस दशामें प्राप्त होती है। यदि जातकको यह दशा अपने विद्यार्थीकालमें नहीं मिले तो अन्य समयमें इस दशाके कालमें उन्नति तथा विद्या द्वारा यशकी प्राप्ति होती है ।
५-पंचमेशकी दशामें विणाप्राप्ति, धनलाभ, सम्मानवृद्धि, सुबुद्धि, माताकी मृत्यु या माताके पीड़ा होती है । यदि पंचमेश पुरुष ग्रह हो तो पुत्र और स्त्री ग्रह हो तो कन्या सन्तानकी प्राप्तिका योग रहता है । सन्तान योगका विचार करने पर ही इस योग का फल जाना जा सकता है।
६-लग्नेश अष्टममें, अष्टमेश लग्न में हों, छठे स्थानमें शनि, सूर्य और चन्द्रमा एकत्र हों तथा पाप ग्रहोंसे इष्ट चन्द्रमा ६।८।१२ वें भावमें हो, लग्नेश अष्टममें पाप ग्रहोंसे इष्ट या युत हो तो १८-२० वर्ष तक आयु होती है ।
७-लग्नमें वृश्चिक राशि हो और उसमें सूर्य, गुरु स्थित हों तथा अष्टमेश केन्द्रमें हो, चन्द्रमा और राहु सप्तम, अष्टम भावमें हों, पाप ग्रहके साथ गुरु लग्नमें हो, अष्टम स्थानमें कोई ग्रह नहीं हो, अष्टमेश द्वितीयेश और नवमेश एक साथ हों तथा लग्नेश अष्टममें हो तो जातकको २२-२४ वर्षकी आयु होती है ।
८-शनि द्विस्वभाव राशिगत हो कर लग्नमें हो और द्वादशेश तथा अष्टमेश निर्बल हों तो २५-३० वर्षकी आयु होती है । यह फल द्वितीयेश, तृतीयेश या सप्तमेशकी दशामें घटित होता है।
९-लग्नेश निर्बल, अष्टमेश द्वितीय या तृतीयमें हो, लग्नेश, अष्टमेश केन्द्रवती हों तथा केन्द्रमें अन्य कोई शुभ ग्रह नहीं हो तो अल्पायु होती है, अष्टमेशकी दशामें मृत्युभय, स्त्री मृत्यु एवं नाना प्रकारको व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं ।
१०-नवमेशकी दशामें तीर्थयात्रा, भाग्योदय, दान, पुण्य, विद्या द्वारा उन्नति, भाग्यवृद्धि, सम्मान, राज्यसे सहयोग एवं किसी बड़े कार्यको सफलता प्राप्त होती है । दशमेश को दशामें राजाश्रयकी प्राप्ति, धनलाभ, सम्मानवृद्धि और सुखोदय होता है ।
११-एकादशेशको दशामें धनलाभ, ख्याति, व्यापारसे प्रचुर लाभ एवं पिताकी मृत्यु होती है । यह दशा साधारणतः शुभ-फलदायक होती है । यदि एकादशेश पर क्रूर ग्रहकी दृष्टि हो तो यह दशा रोगोत्पादक होती है ।
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ज्योतिष एवं गणित
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१२- द्वादशेशकी दशामें धनहानि, शारीरिक कष्ट, चिन्ताएं, व्याधियाँ और कुटुम्बियोंको कष्ट होता है । ग्रह दशाका फल सम्पूर्ण दशाकाल में एक सा नहीं होता, किन्तु प्रथम द्रेष्काणमें ग्रह हो तो दशाके प्रारम्भमें द्वितीयके द्रेष्काण में हो तो दशाके मध्यमें और तृतीय द्रेष्काणमें ग्रह हो तो दशाके अन्तमे फलको प्राप्ति होती है । वक्री ग्रह हो तो विपरीत अर्थात् तृतीय द्रेष्काण में ग्रहके होनेपर प्रारम्भमें, द्वितीय द्रेष्काणमें ग्रहके होनेपर मध्यमें और प्रथम द्रेष्काणमें हो तो अन्तमें फल प्राप्त होता है । वक्री ग्रहकी दशामें स्थान, धन और सुखका नाश होता है, और परदेशगमन एवं सम्मानकी हानि होती है ।
मार्गी ग्रहकी दशामें सम्मान, सुख, धन, यशकी वृद्धि, लाभ, नेतागिरी और उद्योगकी प्राप्ति होती है । यदि मार्गी ग्रह ६।८।१२ वें भावमें स्थित हो तो अभीष्ट सिद्धिमें बाधा आती है ।
मोच और शत्रुग्रहकी दशामें परदेशमें निवास, वियोग, शत्रुओंसे हानि, व्यापारसे हानि, दुराग्रह, रोग, विवाद और नाना प्रकारकी विपत्तियाँ आती हैं । यदि ये ग्रह सौम्य ग्रहों से युत या दृष्ट हों तो अशुभ फल कम हो जाता है । इस प्रकार ग्रह दशाके फलादेशका विचार करना जातक तत्वका प्रमुख अंग है ।
अन्तर्मुक्ति
अन्तर्मुक्ति के अन्तर्गत अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर्दशा, सूक्ष्मदशा, प्राणदशा और महाप्राणदशाकी गणना की जाती है । प्रत्येक ग्रहकी महादशा में नौ ग्रहों की अन्तर्दशा होती है । अन्तर्दशा निकालने की विधि यह है कि दशा, दशाका परस्पर गुणा कर दशासे भाग देनेसे लब्ध मास और शेषको तीनसे गुणा करनेपर दिन होंगे ।
अन्तर्दशाके आनयनका एक अन्य नियम यह है कि दशा, दशाका परस्पर गुणा करनेसे जो गुणनफल प्राप्त हो, उसमें इकाईके अंकको छोड़ शेष अंक मास और इकाईके अंकको तीनसे गुणा करनेपर दिन संख्या आती है । अन्तर्दशा के आनयन के पश्चात् उसके फलादेशपर भी संक्षेप में विचार कर लेना आवश्यक है
पाप ग्रहकी महादशा में पाप ग्रहकी अन्तर्दशा धनहानि, शत्रुभय और कष्ट देनेवाली होती है । जिस ग्रहकी महादशा हो उससे छठे या आठवें स्थान में स्थित ग्रहोंकी अन्तर्दशा स्थानच्युति, भयानक रोग, मृत्युतुल्य कष्ट या मृत्यु-दायक होती है ।
पाप ग्रहकी महादशा में शुभ ग्रहकी भाग कष्टदायक और आखिरी आधा भाग
शुभ ग्रहकी महादशा में शुभ ग्रहकी शारीरिक सुख प्रदान करती है ।
अन्तर्दशा हो तो उस अन्तर्दशाका पहला आधा सुखदायक होता है ।
अन्तर्दशा घनागम, सम्मान वृद्धि, सुखोदय और
शुभ ग्रहकी महादशा में पाप ग्रहकी अन्तर्दशा हो तो अन्तर्दशाका पूर्वार्द्ध सुखदायक और उत्तरार्द्ध कष्टकारक होता है ।
पापग्रहकी महादशा में अपने शत्रु ग्रहसे युक्त पाप ग्रहको अन्तर्दशा हो तो विपत्ति आती है । शनि क्षेत्रमें चन्द्रमा हो तो उसकी महादशामें सप्तमेशकी महादशा परम कष्टदायक होती है ।
४२
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान शनि क्षेत्रमें चन्द्रमा हो तो उसकी महादशामें सप्तमेशको अन्तर्दशा परम कष्टकारक होती है । शनिमें चन्द्रमा और चन्द्रमामें शनिका दशाकाल आर्थिक दृष्टि से कष्टकारक होता है ।
शनिमें बृहस्पति और बृहस्पतिमें शनिकी अन्तर्दशा अरिष्टकारक होती है। इसी प्रकार मंगलमें शनि और शनिमें मंगलकी दशा रोगोत्पादक होती है।
शनिमें सूर्य और सूर्यमें शनिकी अन्तर्मुक्ति गुरुजनोंके लिए कष्टदायक तथा अपने लिए चिन्ताकारक होती है। राहु और केतुकी अन्तर्मुक्ति दशाएँ प्रायः अशुभ होती हैं, किन्तु जब राहु ३।६।११ वें भाव में हो तो उसकी अन्तर्मुक्ति अच्छी मानी जाती है ।
अन्तर्मुक्तिका विचार करते समय समस्त ग्रहोंकी अन्तर्मुक्तियोंका स्वरूप, स्वभाव, उच्च, मूलत्रिकोण आदिके आधारको अवश्य ग्रहण किया जाता है।
द्वादश भावोंके प्रसंगमें प्रथम भावसे शरीरको आकृति, रूप आदिका विचार किया जाता है। इस भावमें जिस प्रकारकी राशि और ग्रह रहते हैं, जातकका शरीर और रूप भी वैसा ही होता है। शरीरकी स्थितिको ज्ञात करने के लिए ग्रह और राशियोंके तत्वोंकी जानकारी अपेक्षित है। द्वितीय भावसे धनका विचार करते समय द्वितीयेश, द्वितीय भावकी राशि और द्वितीय स्थानपर दृष्टि रखनेवाले ग्रहोंके सम्बन्धसे किया जाता है । तृतीयभावसे भाई और बहनोंका विचार किया जाता है । जन्म-कुण्डलीके ग्यारहवें भावसे बड़े भाई और बड़ी बहनोंका तथा तृतीय स्थानसे छोटे भाई बहनोंका विचार करना अपेक्षित है । चतुर्थ भावसे भवन, पिता, मित्र आदिके सम्बन्धमें विचार किया जाता है । चतुर्थ और पंचम भाव इन दोनोंके सम्बन्धसे विद्या और बुद्धिका विचार किया जाता है । दशम स्थानसे विद्याजनित यशका और विश्वविद्यालयोंकी उच्च परीक्षाओंमें उत्तीर्णता प्राप्त करनेका विचार किया जाता है।
चन्द्रकुण्डली और जन्मकुण्डलीके पंचम स्थानसे सन्तानका विचार किया जाता है । पंचमभाव, पंचमेश गुरु शुभ ग्रह द्वारा दृष्ट या युत होनेसे सन्तान योग रहता है। ६।८।१२ भावोंके स्वामी पंचम भाव में हो या पंचमेश ६।८।१२ वें भावमें हो, पंचमेश नीच या अस्तंगत हो तो सन्तानका अभाव रहता है।
षष्ठ भाव से रोग और शत्रुका विचार, सप्तम भावसे विवाहका विचार और अष्टम भावसे आयुका विचार किया जाता है। सप्तम स्थानमें शुभ ग्रह रहनेसे, सप्तम या शुभ ग्रहोंकी दृष्टिके होनेसे तथा सप्तमेश के शुभ युत या दृष्ट होनेसे विवाह होता है।
नवम भावसे भाग्य और फर्मके सम्बन्धमें विचार किया जाता है। इसी भावके साथ अन्य ग्रहोंके सम्बन्धसे नौकरी योग, व्यापार योग, कृषि योगका भी निर्णय किया गया है । एकादश भावसे आमदनी और द्वादश भावसे व्यय एवं रोग, शोक आदिका विचार करना आवश्यक है। ग्रहोंके बलाबलके अनुसार मारकेशका भी निर्णय करना चाहिए। सूर्य और चन्द्रमा मारक नहीं होते। मारक ग्रहकी महादशा, अन्तर्दशामें मृत्यु नहीं होती। किन्तु पाप ग्रहोंकी अन्तर्दशा अथवा प्रत्यन्तर्दशा होनेपर मृत्यु होती है। मारक ग्रह शुभ ग्रहकी अन्तदशामें मृत्युकारक नहीं होता। पांचों ही दशाएं पाप ग्रहको होनेपर अथवा मारक ग्रहकी दशा होनेपर मृत्यु अवश्यम्भावी है। इस प्रकार जातक तत्वके अन्तर्गत ग्रहों और राशियोंके सम्बन्धोंका भी विचार करना अपेक्षित है ।
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आचार्य नेमिचन्द्र और ज्योतिष शास्त्र आचार्य श्रीनेमिचन्द्र ज्योतिष-शास्त्रकेभी मर्मज्ञ विद्वान् थे । इनके त्रिलोकसारान्तर्गत ज्योतिष-सम्बन्धी विषयों पर प्रकाश डालना ही प्रस्तुत लेखका उद्देश्य है। विषुप-विचार
आचार्य नेमिचन्द्र ने विषुप दिनका विचार बहुत सूक्ष्मदृष्टिसे किया है । जिस दिन दिनरात्रि दोनों समान हों वह विषुप दिन कहलाता है। यह वर्ष में दो बार आता है । आचार्यके मतसे प्रत्येक अयनके अर्धभाग में विषुप दिन आता है । ज्योतिष शास्त्रके नियमसे भी यह दिन सायन मेषादि और सायन तुलादिमें पड़ता है; इसका भी अर्थ वही है जो आचार्यने अयनार्ध भागमें बतलाया है । क्योंकि कर्कसे लेकर धनु-पर्यन्त दक्षिणायन होता है । इसमें तुलाके सायन सूर्यमें विषुप दिन पड़ेगा । यहाँ पर भी अयनके अर्धभागमें ही विषुप दिन माना गया है । इसी प्रकार मकरसे लेकर मिथुन तक उत्तरायण होता है। इसमें भी मेषके सायन सूर्यमें विषुप दिन माना गया है-अर्थात् अयन के अर्धभागमें ही विषुप दिन पड़ता है। यही अन्य ज्योतिष ग्रन्थोंमें भी मिलता है। जैसे आचार्यने पञ्चवर्षात्मक युग मान कर उस युगमें विषुप दिनकी तिथि तथा नक्षत्र लानेका करण-सूत्र बतलाया है। उसी प्रकार वेदाङ्ग ज्योतिष मेंभी पञ्चवर्षात्मक युग मान कर विषुप दिनके तिथि नक्षत्रका साधन किया गया है । आचार्य-कृत-करणसूत्र यह है :
विगुणे सगिट्ट इसुपे रुऊणे छग्गुणे हवे पम्प ।
तप्पव्वदलं तु तिथि पवट्टमाणस्स इसुपस्स ।।४२७॥ अर्थ-विषुप-संख्याको दूना करके उसमेंसे एक घटा कर शेषको छः से गुणा करनेसे पर्वका प्रमाण आयेगा और पर्वका आधा तिथि-संख्या आयेगी । इसी आशयका वेदाङ्ग ज्योतिष में भी निम्नांकित करण-सूत्र है :
विषुवत् तद्विरभ्यस्तं रूपोनं षड्गुणीकृतम् ।
पक्षाः यदाधं पक्षाणां तिथिः स विषुवान् स्मृतः ।। यह अति प्राचीन हिन्दू ग्रन्थ वेदाङ्ग ज्योतिषका बावीसवां श्लोक है । इसका अर्थ भी वही है जो आचार्यके करण-सूत्रका है । अर्थात् विषुप संख्याको दो से गुणा करके गुणनफलमेंसे एक घटा शेषको छः से गुणा करने पर विषुपकी पर्व-संख्या आयेगी और पर्वका आधा तिथिसंख्या होगी। इस प्रकारका मत अन्यान्य अजैन ज्योतिष ग्रन्थोंमें पाया जाता है और आचार्य के करण-सूत्रकी वासना भी सिद्ध होती है। जब-तक किसी भी सूत्रकी वासना सिद्ध न होवे तब-तक वह सर्वमान्य नहीं हो सकता है । वासना इस प्रकारसे है
माघ शुक्ल के आदिसे तीन सौरमास के अन्तरालमें पहिला विषुप दिन पड़ेगा । क्योंकि विषुप दिन सायन मेषादि और सायन तुलादिमें ही पड़ता है। इसलिये युगादिसे ६० सौर
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
६.
५
मासोंमें १२४ चान्द्रपक्ष होते हैं तो ३ सौरमासमें कितने हुए ? इस प्रकार अनुपात करनेसे यह नतीजा निकलता है।
३४१२४ = ३१यह शेष रखा। दूसरे विषुपमें छः सौरमास होंगे, इसलिये उसके अन्तर्गत पक्ष x ३ दो विषुपमें क्षेप एक गुणा और तीनमें द्विगुण तथा चारमें तिगुणा इस प्रकारसे इष्ट विषुपमें एक कम गुणा मानना पड़ेगा। अतः (वि-१) इसको पक्षोंसे गुणा कर देनेसे अभीष्ट विष्प संख्या आ जायेगी। अतः अभीष्ट विषुप संख्या = वि-(अन्तर्गत पक्ष) पक्ष = ६२ (वि-१) = ६२वि. - ६२ इसमें क्षेपको जोड़ देने पर युगादिसे विषुप संख्या आ जावेगी।
२
= १२ वि.-६ + रवि.-.६(२ वि.-१)पक्ष + (२वि...) ४१५ तिथि
= ६(२ वि.-१) पक्ष + ३ (२ वि.-१) तिथि । यहाँ पर दो गुणा करके दो से ही भाग देने पर राशिमें कोई भी अन्तर नहीं होगा, इसलिये ६(२-वि.-१)पक्ष + ६(२वि.-१) इस प्रकार से आचार्य-कृत करण-सूत्र निष्पन्न हो गया। इसी अभिप्रायका आर्य ज्योतिषमें भी एक करण-सूत्र है
विषुवत् तद्गुणं द्वाभ्यां रूपहीनं तु षड्गुणम् ।
यल्लब्ध तानि सर्वाणि तदर्धं सा तिथिर्भवेत् ॥ इस प्रकारसे आचार्यने युगमें विषुप का साधन किया है । उत्तरायण और दक्षिणायनमें तिथि नक्षत्र लाने का विचार
वेगाउट्टिगुणं तेसीदि सदं सहिद तिगुणगुणरूवे ।
पण्णरभजिदे पव्वासेसा तिहिमाणमयणस्स ।। अर्थ-विवक्षित आवृत्ति मेंसे एक घटाकर शेषको १८३ से गुणा करके गुणनफलमें गुणाकारको तीनसे गुणाकर जोड़ दें और योगफल में एक और मिलानेसे जो हो उसमें १५का भाग देनेसे लब्ध पर्व और शेष तिथि आयेगी। इस प्रकारसे आचार्यने तिथि और पर्वका अयनमें साधन किया है । वेदाङ्ग-ज्योतिष और गर्गसंहितामें भी इसी आशयका सूत्र है। क्योंकि वहाँपर भी पञ्चवर्षीय युग मानकरके ही उत्तरायण और दक्षिणायनमें पर्व और तिथिका मान निकाला है। आचार्यकृत सूत्रकी उपपत्ति बहुत आसानीसे सिद्ध होती है । अतएव आचार्यकी युक्ति महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है। क्योंकि ज्योतिष शास्त्रमें जिसकी वासना सरल एवं सहजमें सिद्ध हो वह सूत्र सर्वमान्य होता है। आचार्यकी वासना निम्न प्रकारसे है-इनके मतसे एक अयनसे दूसरे अयन-पर्यन्त तिथिको संख्या ६ अधिक होती है । अतएव एक अयनसे दूसरे अयन-पर्यन्त चान्द्र दिन - चान्द्र वर्ष ३७२
२. १८६ तिथि
....
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ज्योतिष एवं गणित अथवा चान्द्र दिन एक अयनसे दूसरे अयन-पर्यन्त होते हैं । चान्द्र दिनमें ३० से भाग दें तो लब्ध मास और शेष तिथि आयेगी। अतः १८६ : ३० - ६ + ६ यहां पर मासोंको छोड़ दिया, क्योंकि प्रयोजन नहीं है; इसलिये ६ तिथिका ग्रहण किया। इससे सिद्ध हुआ कि प्रथम तिथिसे द्वितीय तिथि ६ अधिक होती है। अतः १ + ६ = ७, ७+ ६ = १३, १३ + ६ - १९, १९ + ६ = २५, क्रम से १, ७, १३, १९, २५, १, ७, १३, २५ यहाँ पर जो संख्या १५ से अधिक है उसमें १५ का भाग देकर लब्धको छोड़ दिया और शेषको ग्रहण किया तो १, ७, १३, ४, १०, १, ७, १३, ४, १० यह हुआ। अब दक्षिणायनसे गणनाको जाय तो प्रथम तिथि-संख्या दक्षिणायनमें और दूसरी उत्तरायणमें आयेगी । नक्षत्र लानेकी उपपत्ति
___एक सौर वर्ष में चान्द्र दिन ३७२ और एक युग ५ वर्षका होता है, इसलिये इसमें रवि भगण ५ सौर मास ६० सौर दिन १८००, चान्द्र मास ६२, चान्द्र दिन १८६०, क्षय दिन ३० भभ्रम वा नक्षत्रोदय १८३०, चान्द्र भगण ६७, चान्द्रसावन दिन १७६८, एक सौर वर्षमे सावन दिन ३६६, एक वर्ष में नक्षत्रोदय ३६७, एक अयनसे दूसरे अयन-पर्यन्त सौर दिन १८०, एक अयनसे दूसरे अयन तक सावन दिन १८३, २७ नक्षत्रोंका भोग एक ही भगणमें होता है।
३६० भगण
.. २७ - गण - सौरांश = १ नक्षत्र-१०-१४. = १३२. यह द्वितीय अयनका नक्षत्र-भाग हुआ। इस प्रकारसे द्वितीय अयन पुष्यार्धमें उपपन्न हुआ । इस प्रकारसे आचार्यकी नक्षत्र-वासना युक्ति-संगत है और इसी प्रकारसे नक्षत्र-आवृत्ति अयन की वासना संगत-सिद्ध होती है। यदि इसी पञ्चवर्षात्मक युगको मानकर आजकल भी आचार्यकृत करण-सूत्रोंके आधारसे सारिणी बनाई जाये तो पञ्चांग आसानीसे बन सकता है । आधुनिक प्रचलित पञ्चांग प्रायः वेदाङ्ग-ज्योतिषके आधारपर है । परन्तु वेदाङ्ग-ज्योतिष की मूल भित्तिको ही लेकर बादके अजैन ऋषियोंने उसमें बड़ा सुधार किया है। इसी प्रकार जैन ज्योतिषके नियमोंसे भी यदि सारणी बनानेका परिश्रम किया जाय तो जैन ज्योतिष भी विकसित होकर महत्त्वपूर्ण ही नहीं किन्तु समस्त फलित, गणित, सिद्धान्त-सम्बन्धी ज्योतिषशास्त्रमें गणमान्य स्थानको प्राप्त हो जायेगा। हमारे जैन ज्योतिषमें फलितके अनेक ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। निमित्त-शास्त्र जिनका फल बहुत ठीक घटता है ऐसे अनेक ग्रन्थ जैनियोंके भी मौजूद हैं । कुछ ग्रन्थ निमित्त-शास्त्र-सम्बन्धी जैन सिद्धान्त-भवन आरामें भी मौजूद हैं। इनपर पुनः समय मिलनेपर प्रकाश डाला जायगा । गति-विचार
__ आचार्य ने सूर्य-चन्द्रमाकी गति प्रथम योजनात्मक बतलाई है। फिर उसको कलात्मक करनेकी युक्ति भी बतलाई है। इस प्रकारसे आचार्यने ग्रहगणितकी उपयोगिताके लिये दो तरहकी गति निकाली है। फिर क्रमसे प्रतिदिनके गतिमानके वृद्धि-हासको भी बतलाया है। उन्होंने सूर्यकी १८४ वीथी मानी है। प्रतिदिन सूर्य अपनी गतिसे एक वीथीको तय करता है-यह योजनात्मक गति है और जो गगन-खण्ड मान कर सूर्यादि ग्रहोंकी गति
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३३४ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान बतलाई है वह कलात्मक गति है। इसी प्रकार अजैन ज्योतिषशास्त्रमें भी सूर्यादि ग्रहोंकी गति दो प्रकारको बतलाई है। एक योजनात्मक दूसरी कलात्मक । ज्योतिष-शास्त्रके मतसे सूर्य क्रान्ति-वृत्त में चलता है और चन्द्रमा विमण्डलमें । सूर्य के घूमनेके मार्गका नाम अहोरात्र वृत्त है। प्रत्येक दिनका अहोरात्र वृत्त अलग-अलग होता है। इस प्रकारसे एक अयनमें १८३ और कुछ अधिक अर्थात् १८४ अहोरात्र वृत्त होते हैं। अजैन ज्योतिष-शास्त्र में भी १८४ वीथी; घटित होती हैं। केवल उन्होंने उसका नाम वृत्त रक्खा और आचार्यने वीथी परन्तु वीथी और वृत्तका अर्थ परिभाषाके अनुसार एक ही है। यहाँ पर वृत्त शब्दसे दीर्घवृत्ताकार लिया जाता है। या यों कहिये कि ढोलकके आकारका मार्ग वृत्त शब्दसे लिया जाता है। सब ग्रहोंकी कक्षा दीर्घवृत्ताकारकी ली जाती है। आचार्यकी यही योजनात्मक गति अजैन ज्योतिष-ग्रन्थों में पायी जाती है। जैसे आचार्यने गगनखण्ड-रूप गति बतला कर सूर्य-नक्षत्र और चन्द्र-नक्षत्रकी सिद्धिकी है उसी प्रकारसे आधुनिक ज्योतिषके नियमोंसे भी सूर्य-नक्षत्र और चन्द्र-नक्षत्रका मान आता है । क्योंकि सिद्धान्त-शिरोमणिके गणिताध्यायमें नक्षत्रानयन प्रकरणमें आचार्यकी व्यवस्था ही दृष्टिगत होती है
स्थूलं कृतं भानयनं यदेतज्ज्योतिर्विदां संव्यहारहेतोः ।
सूक्ष्म प्रवक्ष्येऽथ मुनि-प्रणीतं विवाहयात्रादिफल-प्रसिद्ध्ये ॥ अध्यर्ध-भोगानि (१९८५/५२) षडत्र तज्ज्ञाः प्रोचुर्विशाखादिति भध्रुवाणि । षडभोगानि च (३९५।१७) भोगिरुद्रवातान्तकेन्द्राधिपवारुणानि ।। शेषाण्यतः पञ्चदशकभोगान्युक्तो भभोगाः शशिमध्यमुक्तिः (७९०।३५)।
इस प्रकारसे चक्र कला मानकर अजैन ज्योतिषमें कलात्मक गतिको ही सूक्ष्म बतलाया है जो आचार्यकी बतलाई गयी गतिसे मिलती है। परिधि-विचार
परिधिके आनयनके लिए भिन्न-भिन्न आचार्योंके भिन्न-भिन्न मत हैं । परन्तु जिसकी वासना युक्ति-युक्त हो वही सर्वमान्य जानना चाहिये । त्रिलोकसारमें जो आचार्यने परिधि लानेका नियम बतलाया है वह सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि उसकी वासना ठीक है
नियम-विक्खंभ वग्गदह गुणकरणी वट्टस्स परिरयोहोदि ।
अर्थ-व्यासके वर्गको १० से गुणा कर जो गुणनफल हो उसका वर्गमूल निकलालनेपर परिधिका मान आता है।
वासना-किसी भी वृत्तकी परिधिके अनन्त हिस्से किये जायें और उसी मापके हिसाबसे व्यासके भी टुकड़े किये जायें तो रूप-व्यासमें परिधिका मान /१० करणी आयेगा । यहाँपर शंका हो सकती है कि परिधि तो चापाकार होती है और व्यास सरलाकार । फिर इन दोनोंका अनुपात करके रूप-व्यासमें/१० करणीका ज्ञान कैसे किया ? इसका उत्तर यह है कि किसी भी वृत्तका ९६ वा भाग चापाकारको छोड़कर सरलाकार हो जाता है । इस नियमको सभी गणितज्ञ स्वीकार करते है क्योंकि उपर्युक्त नियम माननेसे हो प्रथम ज्याका साधन किया जाता है, अन्यथा प्रथम ज्याका साधन नहीं हो सकता । क्योंकि प्रथम ज्या प्रथम
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ज्योतिष एवं गणित
३३५ चाप-तुल्य मानी जाती है । इसलिये यह निर्विवाद सिद्ध है कि रूपव्यासमें V१० करणी परिधिका मान माना जाता है। अब इष्ट परिधिके लिये इष्ट व्याससे गुणा कर दें तो इष्ट परिधि आ जायेगी। परन्तु जब इष्ट व्यासको /१० से गुणा करेंगे तो व्यासका भी वर्ग हो जायेगा । क्योंकि 'वर्ग वर्गेण गुणयेत्' यह नियम है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि व्यासके वर्गको १० से गुणा करके वर्गमूल निकालें तो परिधि आयेगी। सूर्य सिद्धान्तमें भी इसी फलके अनुकूल नियम बनाया गया है-'व्यासवर्गतो दशगुणात्पदं भूपरिधिः" यह नियम है; परन्तु नवीन आचार्योंने इसका परिष्कार दूसरे रूपसे किया है । सुधाकर द्विवेदीजीका मत है कि "व्यासवर्गतोऽदशात्पदं भूपरिधिः" इस प्रकारका परिष्कार मानना चाहिए और व्याख्यामें भी इस प्रकारका परिवर्तन किया है कि "न दशेन्यदश किञ्चिन्न्यूना दशतैगुणात्मकं भूपरिधिः" इस प्रकार की व्याख्या करते हैं । परन्तु यह व्याख्या ठीक नहीं है । सिद्धान्ततत्त्वविवेकके अवलोकनसे मालूम होता है कि उसमें संभवतः आचार्यकृत नियमका ही अनुसरण किया गया है
व्यासवर्गाद्दशगुणात्पदं भूपरिधिभवेत् ।
व्यासः स्यात् परिधेर्वर्गाद्दिगमत्ताच्च पदंत्विह।। इसकी उपपत्ति के लिए भी यह प्रमाण दिया हैरुद्राहतव्यासदलोत्थवृत्तासोत्क्रमज्यावशतः क्रमज्या।
या तत्समोऽयं परिधिः सुसूक्ष्मो व्यासैकमानादशमूलरूपा ।। व्याख्या-रुद्राहतो यो व्यासस्तस्य दलेनोत्थं तस्मिन्, व्यासतुल्या या उत्क्रमज्या तद्वशतः क्रमज्याऽर्धज्या या तत्सम एवायं सूक्ष्मपरिधिः स्यात् ।
जैसे यहाँपर अ घ च वृत्तक्षेत्र लिया जिसका कि क्षेत्रदर्शन व्यास अ च है और परिधि अध च क तथा उत्क्रमज्या अ ग है
अ '.. ११४ व्यास = अ च और अ ग = व्यास (उत्क्रमज्या) , यहाँ पर उत्क्रमज्या शब्दसे व्यास जानना चाहिए। .:. ग च-१०४ व्यास ।
अतः अ ग x ग च = क ग x ग घ (रे० ३ अध्याय ३४ के) यदि वृत्तमें दो पूर्ण ज्या संपात करती हों तो एकके दोनों खण्डोंका गुणनफल दूसरीके दोनों खण्डोंके गुणनफलके बराबर होता है। ऊपर क्षेत्रमें अ च केन्द्रग पूर्ण जीवा है और यह जोवा क घ अकेन्द्रग पूर्ण जीवापर लम्ब-रूप है तथा ग बिन्दुपर संपात भी करती है।
... क ग = ग घ (रे० ३ अ० ३ प्र०) तया अ च रेखाके न विन्दुपर सम और ग असम खण्ड हैं।
या
.:.ग च x अ ग + न ग = न च' (रे० २ अ० ५ प्र०) अथवा अ ग x ग च + न ग' = न करें।
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३३६ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
.:.नक = क ग + न ग (रे० १ अ० ४७ प्र०) अब यहाँपर दोनोंमें से न गरे को अलग कर दिया तो क ग = ग च x अ ग अथवा क ग - क ग x ग घ .:. क ग x ग घ = ग च x अ ग .:. ग च ५ अ ग = क गे= व्यास x १० व्यास = क गे - व्यास ४१० इसका वर्गमूल परिधि होगा। इस प्रकारसे कमलाकरके सूत्रकी वासना सिद्ध होती है । परन्तु कमलाकर और आचार्य के सूत्रमें कोई भी भेद नहीं है। दोनोंका अर्थ एक है। इसलिये संभवतः यह सिद्ध हुआ कि आचार्यका अनुसरण कमलाकर भट्टने किया हो । क्योंकि कमलाकरका जन्म १५८० शकाब्दमें हुआ है; और नेमिचन्द्राचार्य इनसे बहुत पहले हुए हैं। इसलिए संभवतः यह मानना पड़ता है कि आचार्यकी मान्यताका ही अनुकरण कलाकार भट्टने किया हो । आधुनिक ग्रह-गणितकी उपयोगितामें भी ग्रहकक्षाकी परिधि लाने के लिए इसी नियमको आवश्यकता होती है । क्योंकि सूक्ष्म परिधि इसी नियमसे निकलती है तथा वृत्त-क्षेत्रका गणित भी ज्योतिष-शास्त्रमें बहुत आवश्यक है । बिना ज्या-चाप और परिधि गणितके ग्रह स्फुट नहीं हो सकते हैं। इसलिये हो आचार्यने परिधि-नियमको सूक्ष्म बतलाया है। यह एक महत्त्वका विषय है । इसकी प्रशंसा आधुनिक और प्राचीन ग्रहगणितके जाननेवाले ज्योतिर्विदोंने की है । सिद्धान्त-शिरोमणि गोलाघ्यायमें भास्कराचार्यने पचासों श्लोक इसकी प्रशंसामें लिख डाले हैं तथा आगे जाकर भू-परिधिका मध्यम और स्फुट मान निकालते समय भी इसी नियमका आश्रय लिया है । अत एव आचार्यकृत परिधि लानेका करण-सूत्र बहुत ही उपयोगी है । बाण-ज्या-चाप-विचार
आचार्यने बाण-ज्या-चाप के गणित को निकालनेके लिये कई करण-सूत्र बतलाये हैं; जिनकी वासना भी युक्तियुक्त है और सूत्रोंमें भी लाघव किया है । अत एव गणित-ज्योतिषके विषयको ज्या-चाप का गणित बहुत ही कष्ट करता है । गणित-शास्त्रमें जो नियम लाघवका हो वही महत्त्वपूर्ण समझा जाता है; इसलिये आचार्यकृत ज्या-चाप-बाणका गणित बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। लीलावती, बीजसिद्धान्त आदिमें इतने लाघव-पूर्ण एवं सूक्ष्म विषयको प्रतिपादन करनेवाले सूत्र नहीं मिल सकते हैं। उदाहरणके लिये एकाध नमूना पाठकोंके सामने रखता हूँ। बाण निकालनेके लिये आचार्यका सूत्र :
जीवाविक्खंभाणं वग्गविसेसस्स होदि जम्मूलम् ।
तं विक्खंभा सोहय सेसद्धमिसुं विजाणाहि ॥ अर्थ-जीवाके वर्गको वृत्तके व्यासके वर्गमसे घटा कर जो शेष रहे उसका वर्गमूल जो आवे उसमेंसे व्यासको घटा देवें तो शेषका आधा करनेसे बाण आजायेगा । लीलावतीका बाण लानेका सूत्र
ज्याव्यासयोगान्तरघातमूलं व्यासस्तदूनो दलितः शरः स्यात् ।।
अर्थ-ज्या और व्यासको योग और अन्तर करके दोनोंका आपसमें गुणा कर ले; फिर उसका वर्ग-मूल निकालें बाद उसमें से व्यास घटा देने और शेषको आधा कर देने पर बाण बाजायेगा ।
अब विचार कीजियेगा कि इस सूत्रके गणितमें कितना गौरव है; क्योंकि योग और अन्तर पृथक-पृथक् करके फिर गुणा करें तब गुणनफल वर्गान्तर-तुल्य होगा। किन्तु आचार्यने
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ज्योतिष एवं गणित सीधा वर्गान्तर ही बतलाया है। अत एव जिसमें थोड़ी क्रिया हो वह लाघव और जिसमें ज्यादा हो वह गौरव कहा जाता है। इससे आचर्य की कितनी गणितज्ञता प्रकट होती है इस बातको गणितशास्त्रके जानकार हो समझ सकते हैं। आचार्य कृत सूत्र की वासना निम्न प्रकारसे सिद्ध होती है।
यहाँ पर ज्या शब्दसे पूर्ण ज्या ही जानना चाहिये । कल्पना की कि अ क ज्याके वृत्तकेन्द्र । ग प=श रश, ग-ध वृत्तव्यास व्या० ।
- अ अब क्षेत्रमितिके नियमसे
के अके२ - अय-(अके + अप) (अके - अप) इसको ४ से गुणा किया और ४ से ही भाग दिया तब =४x (अके + अप) (अके - अप) .
।
वा
(२ अके x २ अप) (२ अके - २ अप) (व्या + ज्या) (व्या - ज्या) व्या - ज्या' = क्योंकि
४
योगान्तर घात वर्गान्तर-तुल्य होता है । इसका वर्गमूल लिया तो के प-म . गप-केग - केप-३व्या = - व्या-भू = श इस प्रकारसे आचार्यका सूत्र निष्पन्न हो गया।
जीवा-चापका गणित भी आचार्यका महत्त्वपूर्ण है भास्कराचार्य जो कि गणित-शास्त्रके अद्वितीय ज्ञाता माने जाते हैं उन्होंने भी स्थूल जीवाको ही निकाला है। जैसे-लीलावतीमें लिखा है कि "स्थूलजीवाज्ञानार्थमाह"-'चापोननिघ्नपरिधिः प्रथमाह्वयस्यादित्यादि'। किन्तु आचार्यने सूक्ष्मता बतलानेके लिये करणी-द्वारा जीवा तथा चापको निकालनेके लिये करणसूत्र बतलाये हैं । जो गणित करणीसे निकाला जाता है वह बहुत ही सूक्ष्म आता है । आचार्यकृत करण सूत्रों की सूक्ष्मताको पुष्ट करनेके लिये केवल वासना हो प्रमाणरूप है, जो कि सर्वथा गणितशास्त्रके मान्य है। ब्रह्म-सिद्धान्त जो कि गणित-ज्योतिष में बहुत प्राचीन माना जाता है, उसकी जीवानयन-क्रिया भास्कराचार्यसे भी स्थूल है; क्योंकि उसकी वासना स्वल्पान्तरसे ही सिद्ध होती है तथा भास्कर-वापनामें भी स्वल्पान्तरकी आश्यकता पड़ती है । परन्तु आचार्यकृत करण-सूत्रकी वासनामें स्वल्पान्तरको आवश्यकता नहीं पड़ती है । अत एव आचार्यकृत ज्या-चापका गणित सर्वश्रेष्ठ है । इस गणितकी ज्योतिषशास्त्रमें बहुत ही आवश्यकता पड़ती है । अजैन ज्योतिषमें ग्रहोंकी कक्षा दीर्घवृत्ताकार है, और चलनेका मार्ग भी वृत्ताकार है; इसलिये मध्य ग्रहको मन्दस्फुट अथवा स्फुट बनानेमें जीवा-तुल्य संस्कार करना पड़ता है, इसलिये ग्रहण आदिको सिद्ध करने के लिये जीवाचापके गणितकी नितान्त आवश्यकता होती है । जैन ज्योतिष में भी जीवा-चापके गणितकी अत्यावश्यकता है, क्योंकि प्रत्येक वीपीके विना जीवा-चापका ज्ञान किये ग्रहोंकी गतिका ज्ञान नहीं हो सकता है। अत एव जीवा-चापका गणित ज्योतिषशास्त्रसे सम्बन्ध रखता है । इस प्रकारसे आचार्यने ज्योतिष शास्त्र पर प्रकाश डाला
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान है । वेदाङ्ग-ज्योतिषकी मान्यता और आचार्यको मान्यतामें बहुत कम अन्तर है । वेदाङ्गज्मोतिषसे ज्ञात होता है कि श्रविष्ठा (घनिष्ठ) नक्षत्रके आदिसे सूर्यका उत्तरायण और अश्लेषाके अर्धसे दक्षिणायन होता है। यह उत्तर और दक्षिण गतिका समय माघ और श्रावण मासमें होता है। उत्तरायण और दक्षिणायनमें दिनकी बढ़ती और घटती एक प्रस्थ जल के बराबर मानी गई है । उक्त दोनों अयनोंमें दिन-रात्रिके मानमें ६ मुहूर्त्तका भेद पड़ता है। घनिष्ठाके आदिमें वत्सरारम्भ माना गया है। इसके पूर्वकालमें कभी वासंत विषुवद्दिनसे कभी सूर्यके उत्तरायणके अन्तसे वर्षारंभ गिना जाता था। किन्तु आजकल अमावस्यासे लिया जाता है । तैत्तिरीय संहिताके समयमें वर्षारंभ माघी पूर्णासे होता था। परन्तु वेदाङ्ग-ज्योतिषमें अमासे माना गया है । वेदाङ्ग-ज्योतिषके नियमसे पञ्चवर्षीय युग मानकर पञ्चाङ्गको मान्यता भारतवर्षमें बहुत समय तक रही है । शककी पांचवीं शताब्दीमें वराहमिहिरने पञ्चाङ्गकी संस्कृतिमें परिवर्तन कर दिया, किन्तु अयन-प्रवृत्ति तथा सौर वर्ष और चान्द्र वर्षके मानको वेदाङ्ग ज्योतिषके अनुसार ही रक्खा। अपनी वृहत्संहितामें अयन-प्रवृत्ति लिखते हुए वराहमिहिरने लिखा है :
आश्लेषादिक्षिणमुत्तरमयनं रवेर्धनिष्ठार्द्धम् ।
नूनं कदाचिदासीयेनोक्तं पूर्वशास्त्रेषु ॥ इस आर्यासे ज्ञात होता है कि 'पूर्वशास्त्रेषु' से वेदाङ्ग-ज्योतिषका स्मरण किया है । पाराशरतंत्र जो कि भारतीय ज्योतिष-शास्त्रमें बहुत प्राचीन माना जाता है, उसकी मान्यता भी पञ्चवर्षीय युगको लेकर अयन, नक्षत्र, तिथि, पर्व, विषप, दिन तथा चक्रकला मानकर नक्षत्रभुक्ति आदिको मान्यता आचार्यके ही अनुरूप है । पूवलिखित प्राचीन भारतीय ज्योतिष की मान्यतासे मालूम होता है कि आचार्यकी मान्यता प्रायः मिलती-जुलती है केवल उत्तरायण और दक्षिणायनकी नक्षत्र-मान्यतामें ही भेद है। क्योंकि आचार्यने अभिजित् नक्षत्रसे दक्षिणायन और हस्त नक्षत्र से उत्तरायणको माना है । शेष दिन-रात्रिका वृद्धि-ह्रास और नक्षत्र, पर्व, दिन आदि व्यवस्था पाराशर-तंत्र, आर्य-योतिष, अथर्व-ज्योति, वेदाङ्ग-ज्योतिष आदि सुप्राचीन प्रन्थोंसे प्रायः मिलती है। किन्तु गणित-विषयका प्रतिपादन आचार्यका इन ग्रन्थोंसे भी सूक्ष्म एवं महत्त्वपूर्ण है । यदि वेदाङ्ग-ज्योतिषके सूत्रोंके अनुसार त्रिलोकसारमें ४५ गाथा जो गणितज्योतिष शास्त्रसे सम्बन्ध रखती हैं, सुधार हो जाये तो उससे अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकता है । क्योंकि वेदाङ्ग-ज्योतिषमें केवल ३६ ही कारिकायें हैं। उनकी ही मूलभित्तिसे आधुनिक ज्योतिषशास्त्र इस रूपमें है । इस प्रकारसे नेमिचन्द्राचार्यका ज्योतिष शास्त्रसे बहुत ही सम्बन्ध और आप गणितज्योतिषके एक अच्छे विद्वान् थे इसमें जरा भी सन्देह नहीं है।
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जैनाचार्य ऋषिपत्र और उनका ज्योतिष
शास्त्रको योगदान
जैनाचार्य ऋषिपुत्र ज्योतिषके प्रकाण्ड विद्वान् थे । इनके वंशादिका सम्यक् परिचय नहीं मिलता है, पर Catalogus Catalagorum में इनके सम्बन्धमें बताया गया है कि "This is Kraushtuki, The son of Garga." इससे स्पष्ट है कि यह जैनाचार्य गर्गके पुत्र थे। जैनाचार्य गर्ग ज्योतिशास्त्रके प्रकाण्ड विद्वान् थे। पटना खुदाबख्शखां पब्लिक लाइब्रेरीमें मुझे वहाँ इन्हीं गर्गाचार्यका एक ज्योतिष-ग्रन्थ “पाशकेवली" नामका मिला है । यद्यपि यह ग्रन्थ अत्यन्त अशुद्ध है, पर इससे जैन ज्योतिष पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । उसके अन्तमें लिखा है कि
"जैन आसीज्जगद्वंद्यो गर्गनामा महामुनिः । तेन स्वयं निर्णीतेयं सत्पाशात्रकेवली ॥ एतज्ज्ञानं महाज्ञानं जैनर्षिभिरुदाहृतम् ।
प्रकाश्य शुद्धशीलाय कुलीनाय महात्मना । शनी गुहलिकां दत्त्वा पूजापूर्वकमघवाकुमारी भव्यास्थासने स्थापयित्वा पाशको ढालाप्यते पश्चाच्छुभाशुभं ब्रवीति-इति गर्गनामामहर्षिविरचितः पाशकेवली सम्पूर्णः ॥"
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि गर्गाचार्य ज्योतिषशास्त्रके बड़े भारी विद्वान् थे, इसलिये बहुत कुछ संभव है कि इन्हींके वंशमें आचार्य ऋषिपुत्र भी हुए हों। लेकिन निश्चित प्रमाणके अभावमें उनके वंशका निर्णय करना जरा टेढ़ी खीर है। जैनेतर ज्योतिष-ग्रन्थ, वाराहीसंहिता और अद्भुतसागरमें इनके जो वचन उद्धृत किये गये हैं, उनसे इनकी ज्योतिष सम्बन्धी विद्वत्ता और समय निर्णय पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । ज्योतिषशास्त्रके विभिन्न अङ्गोंमेंसे आचार्य ऋषिपुत्रने निमित्तशास्त्र-शकुनशास्त्र और संहिताशास्त्र-ग्रहोंकी स्थिति द्वारा भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन फल, भूशोधन, दिक्शोधन, शल्योढार, मेलापक, आयाद्यानयन, गृहोपकरण, गृहप्रवेश, उल्कापात, गन्धर्वनगर एवं ग्रहोंके उदयास्तका फल आदि बातोंके प्रतिपादक शास्त्रका प्रणयन किया है। Catalogus Catalagorum में इनकी एक संहिताका भी उल्लेख है। उसमें बताया है कि "ऋषिपुत्र संहिता-quoted in Madanaratna." अर्थात् मदनरत्न नामक ग्रन्थमें ऋषिपुत्र संहिताका उल्लेख है, पर आज वह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। जैन-सिद्वान्त-भवन आरामें कई संस्कृत ग्रंथोंके सूचीपत्र (Catalogues) हैं, उनमें किसी भी ऋषिपुत्र संहिताका नाम नहीं है, इससे मालूम पड़ता है कि वह अमूल्य निधि नष्टप्राय है ।
भारतीय ज्योतिषशास्त्रके इतिहासप' दृष्टिपात करनेसे मालूम होगा कि शकुनशास्त्र और संहिताशास्त्रका प्रचार ईस्वी सन्को १ वीं शताब्दी और ११ वीं शताब्दीके मध्यमें
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
विशेषरूपसे हुआ है। इस कालमें स्वतन्त्र ग्रन्थ तो लिखे ही गये पर उक्त विषयके कई संग्रह ग्रंथ तथा भाष्य भी लिखे गये; जिनमें आज केवल दो-चार ही उपलब्ध हैं। आचार्य ऋषिपुत्रके अन्यत्र उपलब्ध उद्धरणोंसे पता चलता है कि इनके भी उपर्युक्त विषयोंके कई ग्रन्थ थे; लेकिन अभी तक इनका एक निमित्तशास्त्र ही उपलब्ध हुआ है, जिसका प्रकाशन एवं सम्पादन पं० वर्धमान शास्त्री शोलापुरने किया है। वाराही-संहिता और अद्भुतसागरमें प्राप्त इनके विपुल उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि इन्होंने संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में ग्रन्थ रचना की है।
जैनाचार्य ऋषिपुत्रके महत्त्वपूर्ण उद्धरण बृहस्पतिसंहिताकी भट्टोत्पली टीका है और भट्टोत्पलने बृहज्जातककी टीकामें अपने सम्बन्धमें बताया है कि "फाल्गुनस्य द्वितीयायामसितायां गुरोदिने । वस्वष्टाष्टमिते शाके कृतेयं विवृत्तिर्मया ।" अर्थात् शक ८८८ में बृहज्जातककी टीका रची है, तथा बृहत्संहिताको टीका इससे भी पहले बनाई गई है । संहिताकी टीका इन्होंने आर्यभट, कणाद, काश्यप, कपिल, गर्ग, पराशर, बलभद्र, ऋषिपुत्र, भद्रबाहु आदि कई जैनाजैन आचार्योंके वचन उद्धृत किये हैं. इस टीकासे स्पष्ट मालूम पड़ता है कि भट्टोत्पलने अपने पूर्ववर्ती प्रायः सभी संहिताकारोंकी रचनाओंका अध्ययन कर उक्त टीका लिखी है। आचार्य ऋषिपुत्रके वचन राहुचारके प्रतिपादनमें निम्न प्रकार उद्धृत किये गये हैं
यावतोऽशान् ग्रसित्वेन्दोरुदयत्यस्तमेति वा। तावतोऽशान् पृथिव्यास्तु तम एव विनाशयेत् ।। उदयेऽस्तमये वापि सूर्यस्य ग्रहणं भवेत् । तदानृपभयं विद्यात् परचक्रस्य चागमम् ॥ चिरं गृह्णाति मोमाकों सर्व वा असते यदा। हन्यात् स्फीतान् जनपदान् वरिष्ठांश्च जनाधिपान् ॥ ग्रंष्मेण तत्र जीवन्ति नराश्नाम्बुफलेन वा। भयदुभिक्षरोगैश्च सम्पीड्यन्ते प्रजास्तथा।
•-सवि० बृ० पृ० १३४-१३५ उपर्युक्त पद्य आचार्य ऋषिपुत्रके नामसे अद्भुतसागरके 'राहोरद्धृतवार्तः' नामक अध्यायमें “अथ चिरग्राससर्वग्रासयोः फलम् तत्र ऋषिपुत्रः" इस प्रकार लिखकर दो स्थानोंमें. उद्धृत किये गये हैं। इन श्लोकोंमें "शस्यैर्न तत्र जीवन्ति नरा मूलफलोदकैः" इतना और अधिक पाठ मिलता है। इन्हीं पद्यों से मिलता-जुलता वर्णन इनके "प्राकृत निमित्त-शास्त्र" में है; पर वहाँकी गाथाएँ छाया नहीं है। अस्तु, उपर्युक्त कथनसे इतना स्पष्ट है कि आचार्य ऋषिपुत्र भट्टोत्पलके पूर्व अर्थात् शक सं० ८८८ के पहले विद्यमान थे और शक सं० की ८वों तथा ९वीं शताब्दीमें इनकी रचनाएँ अत्यन्त लोकादृत थीं । सर्वत्र उनका प्रचार था। इसका एक सबल प्रमाण यह भी है कि शक सं० १०८२ में राजगद्दी पानेवाले मिथिलाधिपति महाराज लक्ष्मणसेनके पुत्र महाराज बल्लालसेन द्वारा शक सं० १०९० में संग्रहीत अद्भुतसागरमें वराह, वृद्धगर्ग, देवल, यवनेश्वर, मयूरचित्र, राजपुत्र, ऋषिपुत्र, ब्रह्मगुप्त, बलभद्र, पुलिश,
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ज्योतिष एवं गणित विष्णुचन्द्र, प्रभाकर' आदि अनेक आचार्योंके वचन संग्रहोत है। अत: यह निर्विवाद सिद्ध है कि आचार्य ऋषिपुत्रका समय शक सं० की ९ वीं शताब्दीके पहले है; पर विचारणीय बात यह है कि कितना पहले माना जाय ।
- आचार्य ऋषिपुत्रके समय निर्णयमें भारतीय ज्योतिषशास्त्रके संहिता सम्बन्धी इतिहाससे बहुत सहायता मिलती है, क्योंकि यह परम्परा शक सं० ४०० से विकसित रूप में है । वराहमिहिरने, जिनका समय लगभग शक सं० ४२७ के माना जाता है, बृहज्जातकके २६ वें अध्यायके ५ वें पद्यमें कहा है कि-"मुनिमतान्यवलोक्य सम्यग्धोरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार ।" इससे स्पष्ट है कि वराहमिहिरके पूर्व संहिता और होरा सम्बन्धी परम्परा वर्तमान थी। इसीलिये उन्होंने बृहज्जातकमें मय, यवन, विष्णुगुप्त, देवस्वामी२, सिद्धसेन', जीवशर्मा, सत्याचार्य आदि कई महर्षियोंके वचनोंका खण्डन किया है। संहिताशास्त्रकी प्रौढ़ रचनाएँ यहींसे आरम्भ हुई हैं । वराहमिहिरके बाद कल्याणवर्माने शक सं० ५०० के आस-पास सारावली नामक होरा ग्रन्थ बनाया; जिसमें इन्होंने वराहमिहिरके समान अनेक आचार्योंके नामोल्लेखके साथ कनकाचार्य और देवकीतिराजका भी उल्लेख किया है। संहिता संबंधी अनेक बातें सारावलीमें पाई जाती हैं। इस काल में अनेक जैन और जैनेतर आचार्योने संहिता शास्त्रकी प्रौढ़ रचनाएँ स्वतन्त्र रूपमें की हैं। इन रचनाओंकी परस्पर तुलना करनेपर प्रतीत होगा कि इनमें एकका दूसरे पर बड़ा भारी प्रभाव है । उदाहरणके लिये गर्ग, वराहमिहिर और ऋषिपुत्रके एक-एक पद्य नीचे उद्धृत किये जाते हैं:
शशशोणितवर्णाभो यदा भवति भास्करः तदा भवन्ति संग्रामा, घोरा रुधिरकर्दमाः॥
-गर्ग शशरुधिरनिभे भानो नभःस्थले भवन्ति संग्रामाः ।
-वराहमिहिर ससलोहिवण्णहोवरि संकुण इत्ति होइ णायव्वो। संगामं पुण घोरं खग्गं सूरो णिवेदेई ॥
-ऋषिपुत्र इसी प्रकार चन्द्रमासे प्रतिपादित फलमें भी बहुत स्थलोंमें समानता मिलती है। ऋषिपुत्रके निमित्त शास्त्रका चन्द्रप्रकरण संहिताके चन्द्राचार अध्यायसे लगभग मिलता जुलता है। इस प्रकारके फल प्रतिपादनकी प्रक्रिया शक सं० की ५-६वीं शताब्दीमें प्रचलित थी। वृद्धगर्गके निम्न पद्य निमित्तशास्त्रकी निम्न गाथाओंसे एकदम मिलते हैं
१. यह प्रतिष्ठाकल्पके रचयिता प्रभाकर देव मालूम पड़ते हैं । २. यह आचार्य जैन मालूम पड़ते हैं। मुझे सन्देह है कि यह प्रसिद्ध देवसेन स्वामी ही तो
नहीं हैं ? ३. यह आचार्य नमस्कार माहात्म्यके रचयिता मालूम पड़ते हैं ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
कृष्णे शरीरे सोमस्य शूद्राणां वधमादिशेत् । पीते शरीरे सोमस्य वैश्यानां वधमादिशेत् ॥ रक्ते शरीरे सोमस्य गज्ञां च वधमादिशेत् ।
-वृद्धगर्ग, विप्पाणं देइ भयं वाहिरण्णो तहा णिवेदेई । पोलो खत्तियणासं धूसरवण्णो य वयसानं ॥३८॥ किंण्णो सुद्द विणासो चित्तलवणोय हवइ पयईऊ। दहिखीरसंखवण्णो सव्वम्हिय पादिहदो चंदो ॥३९।।
-ऋषिपुत्र उपयुक्त तुलनात्मक विवेचनका तात्पर्य यही है कि संहिताकालकी प्रायः सभी रचनाएँ मिलती जुलती हैं । इस कालके लेखकोंने नवीन बातें बहुत थोड़ी कही हैं । तथा फल प्रतिपादनको प्रणाली भी गणितपर आश्रित नहीं है, केवल ग्रहोंके बाह्य निमित्तोंको देखकर फल बताया गया है। इस कालमें भौम, दिव्य, और अन्तरिक्ष, इन तीन प्रकारके निमित्तोंका विशेष रूपसे वर्णन किया है । यथादिव्यान्तरिक्ष भौमं तु त्रिविधं परिकीर्तितम् ।
-अद्भुतसागर, पृ० ६ वराहीसंहितामें इन तीनों निमित्तोंके सम्बन्धमें लिखा है कि "भीमं चिरस्थिरभवं तच्छान्तिभिराहतं शममुपैति । नाभसमुपैति मृदुतां रक्षति न दिव्यं वदन्त्येके ।" इसी प्रकार आचार्य ऋषिपुत्रने "जे दिट्ठभुविरसरण जे दिट्ठा कुहमेणकत्ताणं । सदसंकुलेन दिट्ठा वऊसट्ठिय ऐण णाणधिया ॥"-इत्यादि वर्णन किया है । तात्पर्य यह है कि संहिताकालको इस प्रकारकी रचनाओंका समय ईस्वी सन् की ५ वीं और ६ वीं शताब्दी है, क्योंकि इस कालका संहिताका विषय ज्योतिष-शास्त्रकी मर्मज्ञताको दृष्टिसे अविकसित रूपमें है । हां, वराहमिहिरकी रचनाएँ अवश्य परिमार्जित हैं। वराहमिहिरसे पहलेकी रचनाएं संक्षिप्त सूत्ररूपमें लिखी गई थीं, पर ७ वीं शताब्दीसे इन ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखना आरम्भ हुआ है तथा इस विषय को विस्तृत रचनाएँ भी प्रारम्भ हुई है। अतः ऋषिपुत्रका समय संहिताकालको शताब्दियोंमें है । इनकी रचनाको संक्षिप्तताको देखकर अनुमान होता है कि इनका समय वराहमिहिरसे पूर्व होना चाहिये।
___ आचार्य ऋषिपुत्रके नामसे अद्भुतसागरमें जो निम्न श्लोक आये हैं, उनसे इनके समय निर्णय पर और भी अधिक प्रकाश पड़ता है
गर्गशिष्या यथा प्राहुस्तथा वक्ष्याम्यतः परम् । भौमभार्गवराह्वर्ककेतवो यायिनो ग्रहाः। आक्रन्दसारिणामिन्दुर्ये शेषा नागरास्तु ते। गुरुसौरबुधानेव नागरानाह देवलः ।। परान् धूमेन सहितान् राहुभार्गवलोहितान् ।
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ज्योतिष एवं गणित
इन पद्योंमें गर्गशिष्य और देवल दो व्यक्तियोंके नामोंका उल्लेख किया गया है। यहाँ गर्गशिष्यसे आचार्यको कौन अभिप्रेत है ? यह नहीं कहा जा सकता, पर द्वितीय व्यक्ति देवलकी रचनाओंको देखनेसे प्रतीत होता है कि यह वराहमिहिरसे पूर्ववर्ती है। क्योंकि अद्भुतसागरके प्रारम्भमें ज्योतिषके निर्माता आचार्योंको नामावली कालक्रमके हिसाबसे दी गई प्रतीत होती है । इसमें वृद्धगर्ग, गर्ग, पाराशर, वशिष्ठ बृहस्पति, सूर्य, बादरायण, पीलुकार्य, नृपपुत्र, देवल, काश्यप, नारद, यवन, वराहमिहिर, वसन्तराज आदि आचार्योंके नाम दिये गये हैं । इससे ध्वनित होता है कि आचार्य ऋषिपुत्र देवलके पश्चात् और वराहमिहिर के पूर्ववर्ती हैं । दोनोंकी रचना पद्धतिसे भी यह भेद प्रकट होता है। क्योंकि विषय प्रतिपादन की जितनी गम्भीरता वराहमिहिरमें पाई जाती है, उतनी उनके पूर्ववर्ती आचार्यों में नहीं।
यदि Catalogus Catalagorum के अनुसार आचार्य ऋषिपुत्रके पिता जैनाचार्य गर्ग मान लिये जायँ तब तो उनका यह समय निर्विवाद सिद्ध हो जाता है; क्योंकि गर्गाचार्य वराहमिहिरसे बहुत पूर्व हुए हैं । वंश परिचय
यद्यपि प्रामाणिक सूत्रोंसे आचार्य ऋषिपुत्रके वंशके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं ज्ञात है. पर यत्र-तत्र उपलब्ध इनके उद्धरण तथा इनकी समय सम्बन्धी ज्योतिष परम्पराके आधारपर वंशके सम्बन्धमें कुछ विचार किया जायगा। जैन-अजैन सभी सम्प्रदायोंमें ५वीं ६वीं शतीमें संहिता विषयक रचनाएँ हुई; ये सभी रचनाएँ काश्यप, वत्स और वशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मणोंके द्वारा हुई हैं । ऋषिपुत्रका संहिताकारोंमें अग्रणीय स्थान हैं, इसी कारण इनके उत्तरवर्ती संहिताकारोंने इनके वचनोंको उद्धृत किया है, अतएव ऋषिपुत्रको उपर्युक्त तीन गोत्रों से किसी एक गोत्रका ब्राह्मण मानना चाहिये । ऋषिपुत्र वास्तव में गर्गके शिष्य थे, क्योंकि अद्भतसागरमें इनका उल्लेख गर्गशिष्यके नामसे आया है । हो सकता है कि यह आचार्य गर्गके पुत्र और शिष्य दोनों ही हों।
गर्गाचार्यको पाशाकेवलीमें ज्योतिषका धुरन्धर विद्वान्, निमित्तज्ञ कहा गया है,' साथ ही इन्हें जैनमुनि भी बताया है। अतएव ऋषिपुत्रको इनके आशीर्वादसे उत्पन्न, विद्याशिष्य मानना अधिक युक्ति संगत जंचता है। इनका ऋषिपुत्र नाम भी इस बातका साक्षी है कि यह किसी मुनिके आशीर्वादसे उत्पन्न हुए थे। क्योंकि प्राचीनकालमें यह परिपाटी थी कि जो सन्तान किसी देव या देवीकी उपासनासे या किसी मुनि-ऋषिके आशीर्वाद से उत्पन्न होती थी. उसका नाम प्रायः देवपुत्र, ऋषिपुत्र या ऐसा ही कुछ रखा जाता था। ऋषिपुत्रके उपलब्ध निमित्तशास्त्रमें प्रशस्ति कुछ भी नहीं है, परन्तु ग्रन्थारम्भमें अपना नाम लिखकर ग्रन्थ
१. जैन आसीज्जगद्वंद्यो गर्गनामा महामुनिः, तेन स्वयं निर्मितं यं सत्पाशात्रकेवली ? एतज्ज्ञानं महाज्ञानं जैनर्षिभिरुदाहृतम्, प्रकाश्य शुद्धशीलाय कुलीनाय महात्मना ।।
-पाशाकेवली, पृ०१
इति गर्गनामा महर्षिविरचितः पाश केवलीसम्पूर्णः
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३४ . भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान रचना की प्रतिज्ञा की है। इस प्रतिज्ञामें यह भी बताया गया है कि चारण मुनियों ने जैसा देखा और अपने दिव्य ज्ञान द्वारा जैसा शुभाशुभोंका वर्णन किया है, मैं भी वैसा ही वर्णन करता हूँ । इतना निश्चय है कि गर्गाचार्यसे इनका सम्बन्ध अवश्य था । वाराही संहितामें गर्ग नामके दो व्यक्तियोंके उल्लेख है। वहाँ एकको वृद्ध गर्ग और दूसरेको गर्ग कहा है। विषय और रचना शैलीसे दूसरे गर्ग हो जैन मुनि प्रतीत होते हैं, इन्हींसे ऋषिपुत्रका सम्बन्ध गुरु या पिताका रहा है। आचाय ऋषिपुत्रका ज्योतिष-ज्ञान
आचार्य ऋषिपुत्र फलित ज्योतिषके विद्वान् थे, गणित सम्बन्धी इनकी एक भी रचनाका पता अब तक नहीं लगा है तथा इनको उपलब्ध रचनाओंसे भी इनकी गणित विषयक विद्वत्ता का पता नहीं चलता है। इन्होंने त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिषसे केवल संहिता विषयके ऊपर ही रचनाएँ की है। प्रारम्भिक रचनाएं होनेके कारण विषयको गम्भीरता नहीं है, पर तो भी सूत्ररूपमें संहिताके सभी विषयोंका प्रतिपादन किया है । शकुनशास्त्र के भी ये निर्माता हैं, इन्होंने अपने निमित्तशास्त्रमें पृथ्वी पर दिखाई देनेवाले, आकाशमें दृष्टिगोचर होनेवाले और विभिन्न प्रकारके शब्द सुनाई पड़ने वाले, इन तीन प्रकारके निमित्तों द्वारा फलाफलका अच्छा निरूपण किया है । ऋषिपुत्रने आकाश सम्बन्धी निमित्तोंको बतलाते हुए लिखा है कि "सूरोदय अच्छमणे चंदमसरिक्खामगहचरियं । तं पच्छियं णिमित्तं सव्यं आएसिंह कुणहं ।।" अर्थात् सूर्योदयके पहले और सूर्यास्तके पीछे चन्द्रमा, नक्षत्र और ताराबोंके मार्गको देखकर फल कहना चाहिये । वर्षोत्पात, देवोत्पात, राजोत्पात, उल्कोत्पात, गन्धर्वोत्पात इत्यादि अनेक उत्पातोंके शुभाशुभत्वका बड़ा सुन्दर वर्णन किया है । आचार्य ऋषिपुत्रके निमित्तशास्त्रमें सबसे बड़ा महत्त्वपूर्ण विषय 'मेघयोग' का है। इस प्रकरणमें नक्षत्रानुसार वर्षाके फलका अच्छा विवेचन किया है । आचार्य लिखते हैं कि प्रथम वृष्टि कृतिका नक्षत्रमें हो तो अनाजकी हानि, रोहिणी में हो तो देशकी हानि, मृगशिरामें हो तो सुभिक्ष, आर्द्रामें हो तो खण्डवृष्टि, पुनर्वसुमें हो तो एक माह वृष्टि, पुष्यमें हो तो श्रेष्ठ वर्षा, आश्लेषामें हो तो अन्न हानि, मघा और पूर्वाफाल्गुनी में हो तो सुभिक्ष, उत्तराफाल्गुनी और हस्तमें हो तो सुभिक्ष और सर्वत्र प्रसन्नता, विशाखा और अनुराधामें हो तो अत्यधिक वर्षा, ज्येष्ठामें हो तो वर्षाको कमी, मूलमें हो तो पर्याप्त वर्षा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा और श्रवणमें हो तो अच्छी वर्षा, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपदमें हो तो अधिक वृष्टि और सुभिक्ष एवं रेवती, अश्विनी और भरणीमें हो तो पर्याप्त वृष्टि के साथ अन्न भाव श्रेष्ठ रहता है और प्रजा सब तरहसे सुख प्राप्त करती है । वाराही-संहिताकी भट्टोत्पली टीकाके उद्धरणमें सप्तमस्थ गुरु, शुक्रके फलका प्रतिपादन ऋषिपुत्रका बड़ा महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वहाँ गुरु, शुक्रकी उभय दृष्टिसे फल बतलाया गया है । इससे उनके असाधारण ज्योतिष ज्ञानका अनुमान सहजमें ही किया जा सकता है। इन्हें सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहणका भी ज्ञान था, पर इन्होंने सिर्फ उनका फल ही बतलाया है। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्रको समुज्ज्वल समृद्ध करनेमें आचार्य ऋषिपुत्रका महत्त्वपूर्ण योगदान है।
१. जो चारणेण दिट्ठा अणं दो सायसहम्मणाणेण ।
जो पाहुणेण भणिया तं खलु तिविहेण वोच्चामि ॥
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महान् ज्योतिर्विद् श्रीधराचार्य
काशी विद्यापीठसे प्रकाशित अभिनन्दन ग्रंथ में विद्वद्वर श्रीबलदेव मिश्रका एक निबन्ध गणितज्ञ श्रीधराचार्य के सम्बन्धमें प्रकाशित है, जिसमें इन्होंने उक्त आचार्यको जैनेतर उत्तर भारतका निवासी बतलाया है । लेकिन श्रीधराचार्यकी प्राप्त रचनाओं एवं उनके सम्बन्धमें उपलब्ध उल्लेखोंसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि यह आचार्य दक्षिण कर्णाटक निवासी जैन मतानुयायी थे । इनका प्रसिद्ध गणितका ग्रन्थ गणितसार या त्रिशतिका है, जिसका सम्पादन महामहोपाध्याय पं० सुधाकर द्विवेदीने किया है ।
कुछ दिन पहले भारतीय ज्ञानपीठ काशीकी कर्णाटक शाखा मूडबिद्रीकी ओरसे कर्णाटक प्रान्तके जैन ग्रन्थालयोंके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सविवरण ग्रन्थ सूची तैयार की गई थी । इसी अन्वेषणमें अनेक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं कन्नड़के अप्रकाशित जैन ग्रन्थ दृष्टिमें आये । इन्हीं ग्रन्थों में कन्नड़ लिपिमें लिखित श्रीधराचार्य के गणितसार या त्रिशतिकाकी भी एक पुरानी प्रति मिली है । इस प्रति में ४५१ ताड़पत्र हैं, प्रति पत्रमें ६ पंक्तियां और प्रति पंक्ति में ८५ अक्षर हैं । इस प्रतिको देखनेसे मालूम होता है कि प्रस्तुत गणितसार या त्रिशतिका का मंगलाचरण मुद्रित प्रतिमें बदल कर छापा गया है ।
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प्राप्त हुई हस्तलिखित प्रतिका मंगलाचरण निम्न प्रकार हैनत्वा जिनं स्वविरचितपाट्या गणितस्य सारमुद्धृत्य । लोकव्यवहाराय प्रवक्ष्यति श्रीधराचार्यः ॥
मुद्रित प्रतिका मंगलाचरण
नत्वा शिवं स्वविरचितपाट्या गणितस्य सारमुद्धृत्य । लोकव्यवहाराय प्रवक्ष्यति श्रीधराचार्यः ॥
उपर्युक्त मंगलश्लोक में 'जिन' के स्थानपर 'शिव' लिखा गया है। यह मंगलाचरण बदलने की प्रथा केवल इसी ग्रन्थ तक सीमित नहीं है, किन्तु और भी कई लोकोपयोग जैन ज्योतिष एवं आयुर्वेद ग्रन्थोंमें मिलती है । क्योंकि ज्योतिष और आयुर्वेद ये दोनों विषय सर्व साधारण के लिये एक सरीखे ही हैं; इसलिये किसी मत या सम्प्रदाय में दो-एक बातोंको छोड़ अन्य बातोंमें समानता ही पायी जाती है । मानसागरी जिसका कि ज्योतिर्विदों की मण्डलीमें खूब प्रचार है, जैन ग्रन्थ है ऐसी कोई बात नहीं है कि उपयोगी ज्योतिष या वैद्यकके जैन ग्रन्थोंको जैनेतरोंने अपनानेसे इंकार किया हो; बल्कि अन्वेषण करनेपर प्रमाण मिलते हैं कि अनेक ज्योतिषके ग्रन्थोंका पठन-पाठन सर्व साधारणमें बिना किसी भेद-भाव के प्रचलित था । मानसागरीके जैन होनेको उसके विद्वान्, उदारचेता सम्पादकने भूमिकामें स्वयं स्वीकार किया है
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१. देखें - जैन सिद्धान्त - भास्कर भाग १२, किरण २, १०११३ ॥
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
"एवं मानसागरी नाम्ना सार्थकग्रंथनामकल्पनया 'मानसागर' नाम्ना केनापि व्यरचीति वक्तुं शक्यते, यः कोऽपि कर्त्ता भवतु, जैनमतावलम्बिनाऽवश्यं भवितव्यम्, बहुत्र 'श्री आदिनाथ प्रमुखा जिनेशाः स च जिनप्रसादाद्दीर्घायुर्भवतु, इत्यादि जिनस्तुतिलेखसस्वात्" ।
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अतः स्पष्ट है कि प्राचीन कालमें लौकिक जैन ग्रन्थोंका प्रचार सर्वसाधारण में था; जिससे कुछ संकीर्ण विचार वालोंने कतिपय जैन ग्रन्थोंको मंगलाचरण बदल कर अपने में मिला लिया ।
श्रीधराचार्यकी अन्य ज्योतिषविषयक उपलब्ध रचनाओं में तीन ग्रन्थ हैं - एक ज्योतिर्ज्ञानविधि या श्रीकरण, दूसरा कन्नड़ भाषा में लिखित जातक तिलक या होराशास्त्र और तीसरा इसी भाषामें लिखित लीलावती नामक ग्रन्थ है ।
जातकतिलक के सम्बन्ध में कर्णाटक भाषा के मर्मज्ञ विद्वानोंका कथन है कि यह ग्रन्थ ज्योतिषका महत्त्वपूर्ण है । श्री हीरालाल कापड़ियाने गणिततिलककी अंग्रेजी भूमिका में जैन गणित और ज्योतिषका वर्णन करते हुए इस ग्रन्थ' के सम्बन्ध में बताया है—
Besides these works in Prakrit and Sanskrit there are some works of Jaina authorship, written in Kanarese language, for instance Śrīdharācārya has composed in verses Jātakatilaka, a work of an astrological nature.
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि जातकतिलक जैनाचार्य श्रीधरका एक महत्त्वपूर्ण ज्योतिषका ग्रन्थ है |
ज्योतिर्ज्ञानविधिकी एक अधूरी प्रति मूडबिद्रीके जैन शास्त्रागारसे प्रतिलिपि कराके श्री जैन सिद्धान्त भवन आरामें मँगाई गई है । इस ग्रन्थके केवल दस प्रकरण उपलब्ध हैं - संज्ञाधिकार, तिथ्यधिकार, संक्रान्ति-ऋत्वहोरात्रिप्रमाणाधिकार, ग्रहनिलयाधिकार, ग्रहयुद्धाधिकार, ग्रहणाधिकार, लग्नाधिकार, गणिताधिकार एवं मुहूर्त्ताधिकार | इसका मंगलाचरण निम्न प्रकार है
प्रणिपत्य वर्धमानं स्फुटकेवलदृष्टतत्वमीशानम् । ज्योतिर्ज्ञानविधानं सम्यक् स्वायंभुवं वक्ष्ये ॥ गोपक बालस्त्री वृद्धमतिविहीनानाम् ।
मनसा नेयं तथ्यं श्रीकरणमिदं ततो वक्ष्ये ॥
इस ग्रन्थके प्रत्येक प्रकरणान्तमें आये प्रशस्तिवाक्यमें श्रीधराचार्य ही कर्ता बताये
गये हैं
इति श्रीधराचार्यविरचिते ज्योतिर्ज्ञानविधी ध्रुवाधिकारो नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।
१. देखें - Ganetatilaka's Introduction P X तथा विशेषके लिये कर्णाटक कवि चरिते भाग १, पृ० ७५ ।
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ज्योतिष एवं गणित किसी-किसी परिच्छेदके अम्तमें ज्योतिर्ज्ञानविधिको विशेषण और श्रीकरणको विशेष्य तथा किसी-किसीके अन्तमें ज्योतिर्ज्ञानविधि या श्रीकरण ऐसा भी मिलता है
इति श्रीधराचार्यविरचिते ज्योतिर्ज्ञानविधी श्रीकरणे संज्ञाधिकारः प्रथमः परिच्छेदः । तथा
इति श्रीधराचार्यविरचिते ज्योतिर्ज्ञानविधौ वा श्रीकरणे लग्नप्रकरणं नाम अष्टमः परिच्छेदः।
अतः यह सुस्पष्ट है कि ज्योतिनिविधिके कर्ता ही गणितसार या त्रिशतिकाके रचयिता श्रीधराचार्य हैं। जैनाजैन साहित्यमें इस नामके जितने आचार्य मिलते हैं उनका विवरण प्रस्तुत किया जाता है तथा इस विवरणपरसे पाठक स्वयं निश्चय कर सकेंगे कि गणितज्ञ श्रीधराचार्य कौन है ? श्रीधराचार्य नामके जैनेतर विद्वानोंका विवरण अजैन साहित्यमें श्रीधर नामके आठ विद्वानोंका उल्लेख मिलता है
१-यह श्रीधरपद्धति, पाशुवप्रताप, काल विधान पद्धति एवं अमरकोषकी टीका आदि ग्रन्थोंके रचयिता हैं । सुन्दरगणिकृत धातुरत्नाकरमें इनका उल्लेख मिलता है ।
२-इनका पूरा नाम श्रीधराचार्य यज्वन् बताया गया है। यह स्मृत्यर्थसार और श्रीधरीय धर्मशास्त्र नामक ग्रन्थोंके रचियता है । स्मृत्यर्थसारमें इन्होंने गोविन्दराज और तीर्थसंग्रहकारका मत उद्धृत किया है । हेमाद्रिने अपने ग्रन्थमें इनका आदर सहित उल्लेख किया है । इनके पिताका नाम विष्णु भट्ट उपाध्याय बताया गया है ।
३-इनके नामके अन्तमें 'दास' शब्द भी मिलता है। इन्होंने ईस्वी सन् १२०४ में सदुक्तिकर्णामृतकी रचना की है। इनके पिता बटुदास बंगेश्वर लक्ष्मणसेनके सेनापति और परम सुहृद् थे।
४-श्रीधर दीक्षित-यह प्रयोगवृत्ति और सामप्रयोग पद्धतिके प्रणेता है ।
५-श्रीधराचार्य--पदार्थ-धर्म-संग्रहकी टीका न्यायकन्दलीके रचयिता हैं । इन्होंने व्यवहार दशश्लोकी, सपिण्डदीपिका ये दो ग्रन्थ और बनाये हैं। इनके नामके अन्तमें भट्ट शब्द भी मिलता है। न्यायकन्दलीमें इनके पिताका नाम बलदेव, माताका अव्वोका और पितामहका वाचस्पति बताया है। इस ग्रन्थको इन्होंने पाण्डुदास नामक एक हिन्दू राजाके उत्साहसे ईस्वी सन् ९९१ में रचा है । इनका नाम भूरिसृष्टि बताया गया है।
___ महामहोपाध्याय पं० सुधाकर द्विवेदीने गणितसारके' कर्ता ज्योतिर्विद श्रीधराचार्यको और न्यायकन्दलीके कर्ता श्रीधराचार्यको एक माना है और इसी आधारपर इन्होंने अपनी गणकतरंगिणीमें भट्ट श्रीघर, श्रीधर और श्रीधराचार्य ये तीनों नाम एक ही व्यक्तिके बतलाये है । परन्तु एक भी ऐसा प्रमाण नहीं, जिससे गणक श्रीधराचार्यको न्यायकन्दलीका कर्ता माना जा सके । गणितसार या त्रिंशतिकाके अन्तमें ज्योतिविद्के रूपमें ही इनका परिचय मिलता है, १. 'गणितसार'में जैनाचार्योंका दिया नाम है, जैनोंमें इस नामके गणित सम्बन्धी कई ग्रन्थ
लिखे गये हैं।
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३४८ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान नैयायिकके रूपमें नहीं। और न न्यायकन्दलीसे ही कहीं व्यक्त होता है कि ये ही प्रसिद्ध गणितज्ञ श्रीधराचार्य है। इसके अलावा ऐसे अनेक सबल प्रमाण है जिनसे ज्योतिविद् श्रीधराचार्यका अस्तित्व पृथक् सिद्ध होता है । अतएव न्यायकन्दलीकार भट्ट श्रीधराचार्यसे भिन्न गणितसारके रचयिता हैं।
६-श्रीधर मिश्र-दानपरीक्षा, भ्रष्टवैष्णवखण्डन, शुष्कज्ञान निरादर और वैद्यमनोत्सव नामक ग्रन्थोंके रचयिता हैं।
७-पुरुषोत्तम सरस्वतीके गुरु तथा रामश्रीपाद शिष्य हरिहरानन्दके शिष्य एक श्रीधराचार्य हैं। इनका बनाया हुआ सिद्धान्त तत्त्वबिन्दु-सन्दीपन नामक ग्रन्थ बताया गया है।
छान-बीन करनेपर श्रीधराचार्य नामक अजैन विद्वानोंमें से कोई भी गणितसार, जातक तिलक, ज्योतिनिविधि आदि ज्योतिष विषयक ग्रन्थोंके रचयिता नहीं जंचते हैं। श्रीधराचार्य नामके अन्यान्य उल्लेख
१-श्री प्रेमीजी द्वारा लिखित दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्ता और उनके प्रन्य' नामक पुस्तकसे एक श्रीधराचार्यकी सूचना मिलती है, जो कि श्रुतावतार गद्य और भविष्यदत्त चरित्र नामक ग्रन्थोंके रचयिता है।
२-सुकुमाल चरिउके रचयिता' श्रीधराचार्य अपभ्रंशके प्रसिद्ध कवि हैं । इस ग्रन्थकी रचनाका कारण इस प्रकार बताया है कि एक दिन बलद (बलडइ) के जैन मन्दिर में, जहाँके शासक गोविन्दचन्द्र थे; पप्रचन्द्र नामक एक मुनि उपदेश दे रहे थे। उपदेशमें उन्होंने सुकुमाल स्वामीका भी उल्लेख किया । श्रोताओंमें पीछे साहुका पुत्र कुमार नामक एक व्यक्ति था, जिसने कि सुकुमाल स्वामीकी कथाके विषयमें अधिक जाननेकी इच्छा प्रकट की थी। किन्तु मुनिराजन कुमारको श्रीधराचार्य नामक कविकी अभ्यर्थना करनेको कहा, जो कि उसकी जिज्ञासा शान्त कर सकते थे। अतः श्रीधराचार्यको कुमारने सुकुमाल चरितकी रचना करनेको प्रेरित किया। कुमार साहुको पुरवाड कुलका बताया है । कविने अपनी कृति भी इन्हींको समर्पित की है । ग्रन्थ समाप्तिको तिथि निम्न प्रकार दी गई है
बारहसयइं गयइं कयहरिसइं । अट्रोत्तरइ महीयले वरिसई।
कसणपक्खे अग्गहणे जायए। तिज्जदिवसे ससिवारि समापए। अर्थात् १२०८ वर्ष व्यतीत होने पर मार्गशीर्ष कृष्णा तृतीया चन्द्रवारको समाप्त किया।
३-सेन संघमें श्रीधर नामके एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं, यह काव्य-शास्त्रके मर्मज्ञ, नाना शास्त्रोंके पारगामी विश्वलोचन कोशके कर्ता हैं । इनके गुरुका नाम मुनिसेन बताया जाता है।
१. इनकी सूचना मुझे श्री रामसिंह तोमर एम० ए० रिसर्च स्कालर शान्ति निकेतन (बंगाल)
से मिली है। लेखक
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ज्योतिष एवं गणित
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४-श्रीधरदेव--श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं. ४२ और ४३ में इस नामके दो आचार्य आये हैं। एक आचार्य दामनन्दिके शिष्य और दूसरे मल्लधारि देवके शिष्य । इस नामके एक आचार्य वैद्यामृतके कर्ता भी माने गये हैं । शास्त्रसारसमुच्चयके टीकाकार माघनन्दीने अपनी गुरुपरम्परामें भी श्रीधरदेवका नाम बताया है।
गणितसारके रचयिताका पूरा नाम श्रीधराचार्य है, आचार्य शब्द भी इनके नामके साथ जुड़ा हुआ है अतः प्रसिद्ध गणितज्ञ श्रीधराचार्य उपर्युक्त विद्वानोंसे भिन्न हैं ।
नन्दिसंघ बलात्कारगणके आचार्योंमें श्रीधराचार्यका नाम यथावत् मिलता है । दशभक्त्यादि महाशास्त्रमें कविवर वर्धमानने नन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावली निम्न प्रकार दी है :- .
__ वर्द्धमान भट्टारक, पद्मनन्दी, श्रीधराचार्य', देवचन्द्र, कनकचन्द्र, नयकीति, रविचन्द्रदेव, श्रुतकीत्तिदेव, वीरनन्दी, जिनचन्द्रदेव, भट्टारक वर्धमान, श्रीधर पंडित, वासुपूज्य, उदयचन्द्र, कुमुदचंद्र, माघनंदी, वर्द्धमान, माणिक्यनंदी, गुणकीति, गुणचंद्र अभयनंदी, सकलचंद्र, त्रिभुवनचंद्र, चंद्रकोत्ति, श्रुतकीति, वर्द्धमान, विद्य वासुपूज्य, कुमुदचंद्र और भुवनचंद्र।
उपर्युक्त गुर्वावलीमें श्रीधराचार्य और श्रीधर पंडित ये दो व्यक्ति आये हैं। इनमें श्रीधराचार्य गणितसार, जातक तिलक, कन्नड़ लीलावती आदि ज्योतिष विषयक ग्रंथोंके रचयिता और श्रीधर पंडित जयकुमार चरितके रचयिता हैं । श्रीधराचार्यका समय
___ 'कर्णाटक कवि चरिते' के एक उद्धरणसे पता लगता है कि श्रीधराचार्य के 'जातकतिलक' का रचनाकाल १०४९ ईस्वी है। महावीराचार्य के गणितसारमें
"धनं धनर्णयोर्वर्गो धुले स्वर्ण तयोः क्रमात् ।
ऋणं स्वरूपतोऽवर्गो यतस्तस्मान्न तत्पदम् ॥" यह श्रीधराचार्यका सूत्र आया है, इससे स्पष्ट है कि श्रीधराचार्य महावीराचार्यके पूर्ववर्ती हैं । महावीराचार्यने अपने गणितसारमें अमोघवर्षका निम्न प्रकार स्मरण किया है :
श्रीणितः प्राणिशस्योघो निरीतिनिरवग्रहः । श्रीमतामोघवर्षेण येन स्वेष्टहितैषिणा ।।
विध्वस्तैकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवादिनः ।
देवस्य नृपतुङ्गस्य वद्धतां तस्य शासनम् ॥ . इससे स्पष्ट है कि अमोघवर्षके शासनकालमें गणितसारकी रचना हुई है। इस राष्ट्रकूटवंशी राजाका समय ईस्वी सन् ८१५ से ८६५ तक माना जाता है। इसीलिये .. १. तस्य मौखष्पग्रनन्दी विद्यशो गुणालयः । अभवच्छ्रीधराचार्यस्तत्सधर्मा महाप्रभः ॥
-दशभक्त्यादि महाशास्त्र, पृ० १०१ २. देखें 'प्राचीन भारतके राजवंश' भाग ३, पृ० १२ ।
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३५० भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान ऐतिहासिक विद्वानोंने गणितसारका रचनाकाल नवीं शताब्दीका मध्य भाग माना है। अतएव श्रीधराचार्यका समय ईस्वी सन् ८५० के पहले मानना पड़ेगा। .
इन गणितज्ञ आचार्यका उल्लेख भास्कराचार्य', केशव, दिवाकर' दैवज्ञ आदिने आदर सहित किया है ।
___ श्रीधराचार्य द्वारा विरचित ज्योतिर्ज्ञानविधिमें एक प्रकरण प्रतिष्ठा मुहूर्तका है, इस प्रकरणके समस्त श्लोक वसुनंदी प्रतिष्ठापाठमें ज्योंके त्यों उद्धृत हैं। ज्योतिर्ज्ञानविधि ज्योतिषका स्वतंत्र ग्रंथ है, अतः प्रतिष्ठापाठके मुहूर्त विषयक श्लोक इसमेंसे लिये गये हैं । जैन साहित्यमें वसुनंदी नामके तीन विद्वान् हुए है-एक का सयय वि० सं० ५३६, दूसरेका वि० सं० ७०४ और तीसरेका वि० सं० १३९५ है। मेरा अनुमान है कि अंतिम वसुनंदी ही उक्त प्रतिष्ठापाठके रचयिता हैं । अतः यह मानना पड़ेगा कि वि० सं० १३९५ में श्रीधराचार्यके प्रतिष्ठा मुहूर्त श्लोकोंका संकलन वसुनंदीने किया होगा।
श्रीधराचार्य के समय निर्धारणके लिये एक और सबल प्रमाण ज्योतिर्ज्ञानविधिका है । इस ग्रन्थमें मासध्रुवा साधनकी प्रक्रिया करनेमें वर्तमान शकान्दमें से एक स्थानपर ७२० और प्रकारान्तरसे पुनः इस क्रियाके साधनमें ७२१ घटाये जानेका कथन है। ज्योतिष शास्त्रमें यह नियम है कि अहर्गण साधनके लिये प्रत्येक गणक अपने गत शकाब्दके वर्षोंको या वर्तमान
१, यत् पुनः श्रीधराचार्य ब्रह्मगुप्त्यादिभिर्व्यासवर्गाद्दशगुणात्पदं परिधिः स्थूलोऽप्यङ्गी कृतः
स सुखार्थम् । नहि ने जानन्तीति-सिद्धान्त शि० गो० भुवनकोष श्लो० ५२ टीका । २. श्रेष्ठं रिष्टहती दशाक्तम् इहौजः श्रीधरादयोदितम् । कष्टेष्टनबलान्तरात् क्व च कृतं तद्युक्ति शून्यं त्वसत् ॥
-केशवीय पद्धति श्लो० ३२ ३. य तु श्रीपतिनेष्टकष्ट गुणित बलयोरन्तराद्वलमित्युक्त तत्र यतस्तथा लति रिष्टकरस्यभङ्गकरस्येत्यादि ।
-केशवीय पद्धति श्लो० ३२ की टीका । ४. पञ्चांगातिथिसंशुद्धिर्लग्नं षड्वर्गगोचरम् । शुभाशुभनिमित्तं च लग्नशुद्धिस्तु पंचधा ।।
वारास्तिथिभयोगाश्च मरणं पचधा तिथि । त्यत्त्वा कुजं रविं सौरि वाराः सर्वेऽपि शोभनाः ॥ सिद्धामृतादियोगेषु कुर्यात्तेष्वपि मंगलम् । त्यक्त्वा रिक्ताममावस्यां सर्वास्तु तिथयः शुभाः ॥ रिक्तास्वपि समाश्रित्य योगं कार्याणि कारयेत् । सिद्धयोगमपि प्राप्य सिनिवालीं विवर्जयेत् ॥ पुनर्वसूत्तरापुष्यहस्तश्रवणरेवतीरोहिण्याश्विमृगक्षेषु प्रतिष्ठा कारयेत्सदा ॥ चित्रास्वातिमघामूले भरण्यां तदभावतः नक्षत्रेष्ववशेषेषु प्रतिष्ठां नैव कारयेत् ।।
. -वसुनन्दी प्रतिष्ठापाठ परिच्छेद १ श्लोक १-६ पञ्चाङ्गतिथिसंशुद्धिलग्नं षड्वर्गगोचरम् । शुभाशुभनिमित्तं च लग्नशुद्धिस्तु पञ्चधा । वारास्तिथिभयोगाश्च करणं पंचधा तिथि। त्यत्त्वा कुजं रविं सौरि वारा सर्वेऽपि शोभनाः ।। सिद्धामृतादियोगेषु कुर्यात्तेष्वपि मंगलम् । त्यक्त्वा रिक्ताममावा सर्वास्तु तिथयः शुभाः ।। रिक्तास्वपि समाश्रित्य योगं कार्याणि कारयेत् । सिद्धियोगमपि प्राप्य शनिवारे विवर्जयेत् ॥
-ज्योतिनिविषि पु० २६ ।
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ज्योतिष एवं गणित
शकाब्दके वर्षोंको क्रिया करते समयके शकाब्दके वर्षों मेंसे घटाकर अन्य क्रियाका विधान बतलाता है । उदाहरणार्थ ग्रहलाघव आदि करण ग्रन्थोंको लिया जा सकता है। इन ग्रन्थोंके रचयिताओंने अपने समयके शकाब्दको घटानेका विधान बताया है। अतएव यह निश्चित है कि श्रीधराचार्यने भी अपने समयके गत शकान्द और वर्तमान शकान्दको घटाने का विधान कहा है। जहां इन्होंने क्रिया करते समयके शकाब्दमेंसे ७२० को घटाने का विधान निर्देश किया है, वहाँ वह गत शकाब्द माना जायगा और जहाँ ७२१ के घटाने का कथन है, वहाँ वह वर्तमान शक है ।
इसके अलावा एक अन्य प्रमाण यह भी है कि प्रकारान्तरसे मासधूवानयनमें ७२१ को करणाब्दकाल बतलाया है, जिससे निश्चित है कि ७२१ शकमें ज्योतिर्ज्ञानविधिको रचना
करथि न्यूनं शकाब्दं करणाब्दं रयगुणं द्विसंस्थाप्य । रागहृतमदोलब्धं गतमासांश्चोपरि प्रयोज्य पुनः ॥१॥ संस्थाप्याधो राधागुणिते खगुणं तु वर्षरेखादि ? संत्याज्ये नीचाप्ते लब्धा वारास्तु शेषाः घटिकाः स्युः ।।२।। ज्यो० पृ० ५
अर्थात्-करथि-७२१ करणाब्द शकको वर्तमान शकमेंसे घटाकर १२ से गुणा कर गुणनफलको दो स्थानोंमें रखना चाहिये । एक स्थानपर ३२ से भाग देनेसे जो लब्ध आये उसे गतमास समझना और इन गतमासोंको अन्त स्थानवाली राशि में जोड़ देना चाहिये । पुनः तीन स्थानोंमें इस राशिको रखकर एक स्थानमें ९२ से, दूसरे) २ से और तीसरेमें २२ से गुणाकर क्रमशः एक दूसरेका अन्तर करके रख लेना । जो संख्या हो उसमें ६२ से भाग देनेपर लब्ध वार और शेष घटिकाएं होती हैं ।
यहाँपर ७२१ शक संवत् प्रन्थ रचनाका समय बताया गया है। महावीराचार्यने इसीलिये अपने पूर्ववर्ती जैन धर्मानुयायी घोषराचार्यका अनुसरण किया है। हाँ, यहाँपर एक शंकास्पद बात यह रह जाती है कि 'जातक तिलक' का जो रचनाकाल माना है, उसके साथ कैसे समन्वय होगा? इस शंकाका उत्तर यह है कि जहाँ तक मुझे मालूम है 'जातक तिलक' में ग्रन्थकर्ताने रचनाकाल नहीं दिया है, केवल भाषा आदिके आधारपर उसका रचनाकाल निश्चित किया गया है । अतएव इनका समय १०४९ ईस्वी नहीं माना जा सकता। इनको प्राचीनताका एक अन्य प्रमाण यह भी है कि गणितसारके गणित सम्बन्धी जो सिद्धान्त हैं, उनका जैन सम्प्रदायमें ईस्वी सन् ३ री और ४ थी शताब्दीमें खूब प्रचार था। प्राचीन गणितके अन्वेषक विद्वानोंने इस बातको स्वीकार कर लिया है कि वृत्तक्षेत्रकी परिधि निकालनेका नियम "व्यास वर्गको दससे गुणाकर वर्गमूल परिचि होती है" जैन सम्प्रदाय का है । वर्तमानमें उपलब्ध सूर्य सिद्धान्तसे पहलेके जैन ग्रन्थोंमें यह करण सूत्र पाया जाता है। जैनेतर प्रायः सभी ज्योतिर्विदोंने इस सिद्धान्तको समालोचना की है तथा कुछ लोगोंने जोरदार खण्डन भी। श्रीधराचार्यने जैन मान्यताके इसी सूत्रका अनुसरण किया है तथा प्राचीन जैन गणितके मूल तत्त्वोंका विस्तार किया है । अतएव यह मानना पड़ेगा कि इनका समय इस्वी सन् की ८बी सदीका अन्तिम पाव है।
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३५२ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान श्रीधराचार्यके ज्योतिर्ग्रन्थ और उनका परिचय
दक्षिण भारतमें अनेक शताब्दियों तक ज्योतिष ज्ञानको धारा अबाधित रूपसे प्रवाहित होती रही है । ईस्वी सन् की ४ थी शताब्दीसे लेकर १२ वीं शताब्दी तक अनेक धुरन्धर ज्योतिर्विद दक्षिणमें हुए हैं। जैन गणित और ज्योतिषका प्रचार भी जितना दक्षिणमें था, उतना उत्तरमें नहीं । फलतः श्रीधराचार्यके बहुत ही कम ग्रन्थोंका प्रचार उत्तरमें हुआ है । जो दो-एक ग्रन्थ दक्षिणसे प्रतिलिपि हो उत्तरमें आये भी, उन्हें अपनेमें पचानेके लिये सम्प्रदाय विशेषके चिन्ह भूत मङ्गल श्लोक बदल दिये गये । अथवा यह भी संभव है कि प्रतिलिपि कर्ताको अन्य सम्प्रदाअके दृष्टदेवका नाम लिखना अभीष्ट न हो, इसलिये आसानीसे नाम बदल कर अपने इष्टदेवका नाम उस स्थानपर लिख दिया हो । अस्तु,
____ गणितसारके अन्तमें एक श्लोक मिलता है जिससे इनकी विद्वत्ताका अनुमान सहजमें ही लगाया जा सकता है :
उत्तरतो हिमनिलयं दक्षिणतो मलयपर्वतं यावत् । प्रागपरोदधिमध्ये नो गणक: श्रीधरादन्यः ।।
इससे स्पष्ट है कि श्रीधराचार्यकी कीत्ति कौमुदी उस समय समस्त भारतमें व्याप्त थी । ज्योतिषशास्त्रके मर्मज्ञ महामहोपाध्याय पं० सुधाकर द्विवेदीने इनकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि :
_ "भास्करेणाऽ'स्यानेकेप्रकारास्तस्करवदपहृताः। अहो सुप्रसिद्धस्य भास्करादितोऽपि प्राचीनस्य विदूषोऽन्यकृतिदर्शनमन्तरा समये महान् संशयः । प्राचीना एक शास्त्रमात्रकवेदिनो नाऽऽसन् ते च बहुश्रुता बहुवि षयवेत्तार आसन्नत्र न
संशयः ।"
__इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि श्रीधराचार्यके अनेक नियमोंको भास्कर जैसे धुरन्धर गणकोंने ज्योंका त्यों अपना लिया है। इनके उपलब्ध चार ग्रन्थोंमेंसे दो ग्रन्थ मुझे देखनेको मिले हैं।
कुछ दिन पहले गणितार या विंशतिकाको नागरी अक्षरोंमें लिखी प्रति भारतीय ज्ञानपीठ काशीके तत्कालीन अध्यक्ष श्रीमान् पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य द्वारा प्राप्त हुई थी। यद्यपि इस समय वह प्रति मेरे समक्ष नहीं है, केवल संक्षिप्त नोट्स हैं । इन संक्षिप्त नोट्सोंके आधारपर इतना कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ गणित शास्त्रका अद्भुत है । इसमें अभिन्न . गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्नसमच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबन्ध, भागमातृजाति, पैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक भाण्ड-प्रतिभाण्ड, मिश्र व्यवहार, भाजक व्यवहार, एक पत्रोपकरण, सुवर्णगणित, प्रक्षेपक गणित, समक्रय-विक्रय गणित, श्रेणीव्यवहार, क्षेत्रव्यबहार, एवं छायाव्यवहारके गणित. उदाहरण सहित दिये गये हैं । इस ग्रन्थका जैन एवं जनेतरोंमें बड़ा भारी प्रचार रहा है। गणित तिलककी संस्कृत भूमिकामें कहा गया है कि....
१. देखें गणकतरंगिणी, पृ० २४ ।
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ज्योतिष एवं गणित
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'गीर्वाणगी गुम्फितो मनोरमविविधच्छन्दोनिबद्धः सपादशतपद्यप्रमितो गणिततिलकसंज्ञकोऽयं ग्रन्थः श्रीधराचार्यकृत त्रिशत्याधारेण निर्मित इत्यनुमीयते कतिपयानां पद्यानां साम्यावलोकनेन ।
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि श्रीपतिने इनके गणितसारके अनुकरणपर ही अपने गणित ग्रन्थ की रचना की है। श्री सिंहतिलकसूरिने अपनी तिलक नामक वृत्तिमें गणितसारका आधार लेकर गणित विषयक महत्ताओं का प्रदर्शन किया है । इन्होंने अपनी वृत्तिमें श्रीधराचार्यके सिद्धान्तोंको दूध - पानी की तरह मिला दिया है ।
श्रीधराचार्यके एक बीज गणितकी सूचना भास्कराचार्यने दी है, परन्तु वह अभी तक मिला नहीं है। मेरा विश्वास है कि दक्षिण के किसी जैन ग्रन्थागारमें वह अवश्य होगा । यदि सम्यक् अन्वेषण किया जाय तो उसके मिलनेपर बीज गणितके विद्वानोंके सम्मुख अनेक प्राचीत सिद्धान्त आ जायँगे, जिनसे भारतीय गणितकी अनेक समस्याओंकी उलझन सुलझ जायगी। क्योंकि आधुनिक बीजगणितके एक वर्ण मध्यमाहरण में 'श्रीधर मैथड' के नामसे कुछ नियम पाये जाते हैं ।
यह आचार्य केवल गणितके हो मर्मज्ञ नहीं थे, किन्तु त्रिस्कन्ध ज्योतिष पण्डित थे । संहिता, होरा और सिद्धान्त इन अंगोंपर इनका पूर्ण अधिकार था । जातक विषयको स्पष्ट करने के लिये इन्होंने कन्नड़ भाषा में जातक तिलककी रचना की है । इस ग्रन्थका विषय नामसे ही स्पष्ट है । यत्र-तत्र उपलब्ध ग्रन्थके सारांशको देखनेसे मालूम होता है कि बृहज्जातकके समान ही इसका विषय विस्तृत है तथा जन्मकुण्डलीके फलादेशका कथन बहुत अनूठेढंगसे किया गया है ।
कन्नड़ लीलावती नामक एक ग्रन्थकी सूचना भी मिलती है, इस ग्रंथ में प्रधानरूपसे अङ्कगणित और मेन्स्यूरेशनके गणितका प्रतिपादन किया गया है ।
ज्योतिज्ञ निविधि—यह ज्योतिष शास्त्रका महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें करण, संहिता और मुहूर्त इन तीनों विषयोंका समावेश किया गया है । यद्यपि मेरे समक्ष इसकी अधूरी प्रति है, लेकिन जितना अंश है, उतना विशेष उपयोगी है । इस ग्रन्थकी रचना शैली गणितसार अथवा त्रिंशतिकाके समान है। दोनों ग्रन्थोंके देखनेसे प्रतीत होता है कि ज्योतिर्ज्ञानविधि गणितसारसे पहलेकी रचना है। वैसे उपलब्ध ग्रन्थ अत्यन्त भ्रष्ट है, अशुद्धियोंसे भरा पड़ा है । इसके प्रारम्भ में साठ सम्वत्सर, तिथि, नक्षत्र, वार, योग, राशि, एवं करणोंके नाम तथा राशि, अंश, कला, विकला, घटी, पल आदिका वर्णन किया गया है। दूसरे परिच्छेद में मास और नक्षत्र ध्रुवाका विस्तार सहित विवेचन है । इस प्रकरणके प्रारम्भ में शक संवत् निकालनेका एक सुन्दर करण सूत्र दिया है
षष्टिः षोडशगुणितं व्यपगतसम्वत्सरश्च सम्मिश्रम् । नवशून्याब्धिसमेतं शकनुपकालं विजानीयात् ॥
१. देखें गणित तिलक, पृ० ७२ ।
२. देखें गणित तिलक वृति, पृ० ४, ९, ११, १७, ३९ आदि ।
४५
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भारतीय संस्कृतिके विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
अर्थात् बीती हुई सम्वत्सर संख्याको १६ से गुणा कर ६० जोड़ देनेपर जो संख्या बाबे, उसमें ४०९ और युक्त कर देनेपर शक संवत् आ जाता है। तृतीय तिथ्याधिकारमें मध्यम रवि, चन्द्र और स्पष्ट रवि, चन्द्रके साधनके पश्चात् अन्तरांशोंपर से तिथि साधनकी प्रक्रिया बताई गई है। इसमें मास -शेष ध्रुवापरसे भी तिथिका साघन किया है, यह प्रक्रिया ज्योतिषशास्त्र की दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है । चतुर्थ परिच्छेदमें संक्रान्तिके साधन की क्रियाका सुन्दर वर्णन है । प्रारम्भका श्लोक निम्न प्रकार है।
४०० नोनवगुण करणाब्दं वर्षोनं सुकलोद्धृतं १७ वारम् । नच गुणवृतशेषं घटिका श्रीधरयुक्त तेन संक्रान्त्या ॥ यहाँ श्रीधर शब्द द्वयार्थक है; ग्रन्थकर्त्ताने अपने नामका निर्देश कर श्रीको घर शब्दसे पृथक् कर २९ जोड़े जानेवाली संख्याको भी बता दिया है। दिन-रातका प्रमाण निकालनेकी निम्न विधि बतलाई गई है :
३५४
दिया है तथा
इस प्रकरण में
मकरादि-कर्कटादि ज्ञात्वा राश्यंशभुक्तिरिह खगुणा' । तत्र १२० नरातप युक्तं " नीचहृतं दिवसरात्रिप्रमाणम् ॥ अर्थात् -- मकरसे लेकर मिथुन तक अभीष्ट सूर्यके राश्यादि ज्ञात करे । इस राश्यादिके अंश बनाकर अंशोंको दो से गुणाकर, गुणनफलमें १६२० जोड़े और योगफलमें ६० का भाग देने से पट्यात्मक दिन प्रमाण आता है । कर्कसे लेकर धनु तक अभीष्ट सूर्यके राज्यांशोंके अंश बनाकर दो से गुणा करनेपर जो आवे, उसमें १६२० जोड़कर वयात्मक रात्रि प्रमाण आता है ।
योगफलमें ६० का भाग देनेसे
छठवें परिच्छेद में ग्रहों के युद्धका वर्णन किया गया है, प्रारम्भमें ग्रहयुद्धकी परिभाषा देते हुए कहा है ।
राश्यंशकलाः सर्वाः यदा भवेयुः समा द्वयोग्र हयोः । योगस्तयोस्तदा जायते च तद्युद्धमिति वाच्यम् ।।
अर्थात् जब दो ग्रहोंके राशि, अंश, कला समान हों उस समय उन दोनोंका योग युद्ध संज्ञक होता हैं । इस युद्ध के प्रधानतः पुरतः दृष्ट युद्ध और परतः दृष्ट युद्ध ये दो भेद बतलाये हैं तथा इनका विस्तार सहित वर्णन भी किया है। इसके पश्चात् सात परिच्छेद ग्रहणाधिकार नाम का है इसमें विक्षेप, लम्बन, नति आदिके सामान्य गणितके साथ ग्रहणकी दिशा, ग्रास, स्पर्श, मोक्षकी मध्यम घटिकाओंका आनयन किया है ।
आठव प्रकरण लग्न साधन का है, इसमें शंकुच्छाया, पदच्छाया आदि नाना प्रकारों परसे लग्न साधन किया है। ग्रहोंके संस्कार भी इस प्रकरणमें बताये गये हैं। यह प्रकरण काफी बड़ा है, इसमें गणितके कुछ करण सूत्र भी दिये हैं । इसके अनन्तर लग्न शुद्धि प्रकरण है जिसमें प्रतिष्ठा मुहूर्त्त, यमघण्टक, कुलिक, प्रहरार्धपात्, क्रकच, उत्पात, मृत्यु, काण, सिद्ध, अमृत आदि योगोंके लक्षण दिये गये हैं । यद्यपि यह प्रकरण छोटा है, पर आवश्यक मूहूर्त सभी आ गये हैं । दसवें प्रकरणमें नक्षत्रोंके वृक्ष, देवता, एवं शुभाशुभत्वका प्रतिपादन किया है । इससे आगे प्रकरण नहीं मिलते हैं ।
श्रीधराचार्य के ग्रन्थोंको देखनेसे इनकी विद्वत्ताका अनुमान सहजमें ही किया जा सकता है । बाह्य और अन्तः साक्ष्यके आधारसे यह निश्चित है कि यह जनमतावलम्बी दक्षिण भारतके निवासी थे ।
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जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुत गणित सम्बन्धी कतिपय मौलिक उदभावनाएँ
गणितके दो प्रधान तत्त्व हैं संख्या और आकृति । संख्यासे अंकगणित और बीजगणितकी उत्पत्ति हुई है तथा आकृत्तिसे ज्यामिति और क्षेत्रमिति की । बेबीलोन और सुमेर सभ्यताके समानान्तर ही भारत वर्ष में भी ज्योतिष तथा गणितके सिद्धान्त प्रचलित थे । वैदिक यज्ञ और कुण्डमानके सम्पादनार्थ शुल्वसूत्र एवं वेदांग ज्योतिषका प्रचार ईस्वी सन् से ८०० वर्ष पूर्व ही हो चुका था । कर्मकाण्डको शुभ समयपर सम्पन्न करना आवश्यक माना जाता था, अतः समय शुद्धिको ज्ञान करनेके हेतु पंचांग ( Calendar) बनने लगे थे । जैन प्रन्थ ज्योतिषकरण्डक में ग्रीक पूर्व लग्न प्रणाली उपलब्ध होती है। जैनाचार्योंके त्रिलोक प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति प्रभृति ग्रन्थोंमें गणितके अनेक ऐसे मौलिक सिद्धान्त निबद्ध हैं, जो भारतीय गणित में अन्यत्र नहीं मिलते ।
भारतीय गणित एवं ज्योतिषके अध्ययनके आधारपर जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुतकी गयी गणित सम्बन्धी मौलिक उद्भावनाओंको निम्नांकित रूपमें उपस्थित किया जा सकता है—
(१) संख्या स्वरूप निर्धारण एवं संख्याओं का वर्गीकरण ।
(२) स्थानमान सिद्धान्त ।
(३) घातांक सिद्धान्त ।
(४) लघुगणक सिद्धान्त (Logarithms) ।
(५) अपूर्वक भिन्न राशियोंके विभिन्न उपयोग और प्रकारान्तर ।
(६) गति स्थिति प्रकाश प्यवमान गणित सम्बन्धी सिद्धान्त ।
(७) ज्यामिति और क्षेत्रमिति सम्बन्धी विभिन्न आकृतियोंके प्रकार परिवर्तन एवं रूपान्तरोंके गणित |
(८) अलौकिक गणितका निरूपण ।
(९) गणित सिद्धान्तोंके आध्यात्मिक उपयोग एवं व्यावहारिक प्रयोगोंका विवेचन । संख्या-स्वरूप
जिससे जीव, अजीव आदि पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त किया जाय, उसे संख्या कहते हैं' । जैनाचार्योंने एकसे गणना तो मानी है, पर एकको संख्या नहीं माना। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने लिखा है
एयादीया गणणा बीयादीया दृवंति तीयादीणं णियमा कदित्ति सण्णा
संखेज्जा । मुणेदव्वा ॥
— त्रिलोकसार गाथा १६
१. संख्यायन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादमः पदार्था येन तज्ज्ञानं
संख्येत्युच्येत । सम्यक
स्याप्यते प्रकाश्यतेऽनयेति संख्या - अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग ७ संख्या शब्द ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
एकादिका गणना द्वचादिका संख्याता भवन्ति यादीनां नियमात् कृतिरिति संज्ञा ज्ञातव्या । यस्य कृतौ मूलमदनीय शेषे वर्गिते वर्षिते साकृतिरिति । एकस्य द्वयोश्च कृतिलक्षणाभावात् एकस्य नो कृतित्वं द्वयोरवक्तव्यमिति कृतित्वं त्र्यादीनामेव तल्लक्षणयुक्तत्वात् कृतित्वं युक्तम् । - माघवचन्द्र टीका
३५६
अर्थात् एकादिको गणना, दो आदिको संख्या एवं तीन आदिको कृति कहते हैं । एक और दो में कृतित्व नहीं है, यतः जिस संख्याके वर्ग में से मूलको घटानेपर जो शेष रहे, उसका वर्ग करनेपर उस संख्यासे अधिक राशिकी उपलब्धि हो वही कृति है । यह धर्म तीन आदि संख्याओमें ही पाया जाता है।
एकके संख्यात्वका निषेध करते हुए लिखा है
"दूहे को गणना संख्या न लभते यतः एकस्मिन् घाटा दो दृष्टे घटादि वस्तु दूदं तिष्ठति इत्यमेव प्रायः प्रवीतिरुपपद्यते, नैक संख्या विषयत्वेन अथवा दान समर्पणादि व्यवहार काले एकं वस्तु न प्रायः कश्चित् गणपति यतोऽसं व्यवहारार्यत्वादल्पत्वाद्वा नैको गणन संख्य लभते तस्माद् द्विप्रभृतिरेव गणनसंख्या । ""
अर्थात् — एककी गिनती गणनासंख्यामें नहीं है, यतः घटको देख कर यहाँ घट है, इसकी प्रतीति होती है, उसकी तादादके विषयमें कुछ ज्ञान नहीं होता अथवा दान, समर्पणादि कालमें एक वस्तुकी प्रायः गिनती नहीं की जाती। इसका कारण असंव्यवहार सम्यक् व्यवहारका अभाव अथवा गिननेसे अल्पत्वका बोध होना है।
उपर्युक्त वक्तव्यका परीक्षण करनेपर ज्ञात होता है कि संख्या 'समूह' की जानकारी प्राप्त करनेके हेतु होती है । मनुष्यको उसके विकासकी प्रारम्भिक अवस्थासे ही इस प्रकारका आन्तरिक ज्ञान प्राप्त है, जिसे हम सम्बोधन के अभाव में संख्या ज्ञान कहते हैं । अतएव समूहगत प्रत्येक वस्तुकी पृथक पृथक जानजारीके अभाव में समूहके मध्य में होनेवाले परिवर्तनका बोष नहीं हो सकता है । समूह बोधकी क्षमता और गिननेकी क्षमता इन दोनोंमें पर्याप्त अन्तर है । गिनना सीखनेसे पूर्व मनुष्यने संख्या ज्ञान प्राप्त किया होगा यतः इस क्रियाके लिए मानव मष्तिष्क के पर्याप्त श्रम करना पड़ा होगा ।
मनुष्यने समूहके बीच रहकर संख्याका बोध प्राप्त किया होगा। जब उसे दो समूहों को जोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हुई होगी तो धन - चिह्न और धनात्मक संख्याएँ प्रादुर्भूत हुई होंगी । संख्या ज्ञानके अनन्तर मनुष्यने गिनना सीखा और गिननेके फलस्वरूप अंकगणितका प्रारम्भ हुआ । अंकका महत्व तभी व्यक्त होता है, जब हम कई समूहों में एक संख्याको पाते हैं। इस अवस्थामें उस अंककी भावना हमारे हृदयमें वस्तुओंसे पृथक् अंकित हो जाती है ।
१. अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग ७, पृ० ६७ ।
से किं तं गणना संख्या १ एक्कोगणनं न उबेइ, दुप्यभि संख्या - अनुयोग द्वार सूत्र १४६ ।
एयादीय गया दो आदीया वि जाय संखेत्ति ।
तीयादीनं नियमा कविती सप्णावु बोदव्वा ॥ धवला टीका ९, १० २७६ ।
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ज्योतिष एवं गणित
३५७ इस प्रकार हम वस्तुओंका बार-बार नाम न लेकर उनकी संख्याको प्रकट करते हैं । यथा२+१-३।
जैनमनीषियोंने गणितके तर्क-ज्ञान द्वारा गणना और संख्यामें अन्तर व्यक्त किया है। संस्थाका मूलाधार तत्व 'समूह' है और समूह 'एक' वस्तुसे नहीं बनता। समूहका निर्माण दो आदि बस्तुओंसे ही होता है, अतः एकको संख्या नहीं कहा जाता । अनुमान यह है-'दो आदि राशियां संख्या है, क्योंकि इनसे समूहोंका निर्माण होता है । जिससे समूहका निर्माण सम्भव न हो, वह संख्या नहीं। एक राशिमें समूह निर्माणकी क्षमता नहीं है, अतः एक राशि संख्या नहीं है।"
अंक विज्ञानका कार्य एकके बिना सम्भव नहीं है, यतः गणना-गिनती एकसे मानी जाती है और गणितकी समस्त क्रियाएँ इसी अंक से आरम्भ होती है । इस प्रकार गणना और संख्याके सूक्ष्म भेदका विश्लेषण कर गणित सम्बन्धी तार्किक प्रतिभाका परिचय दिया है। आज गणित विज्ञानमें तर्कका उपयोग किया जा रहा है और तर्कका आधार गणितको स्वीकार किया जा रहा है । यथा
कम्स ख-ग
अतएव निगमन तर्क पद्धति द्वारा क = ग। क, ख, और ग का कोई भी मूल्य रखा जाय पर परिणाम पूर्वोक्त ही आ जायगा ।
संख्याकी उत्पत्ति एवं उसके लिखनेके प्रकार
संख्याकी उत्पत्तिके दो कारण हैं-(१) व्यवहारिक या व्यावसायिक और (२) पार्मिक । संख्या ज्ञानके बिना लेन-देन सम्बन्धी कोई भी व्यवहारिक कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता है । धर्मके साथ भी संख्याका सम्बन्ध है । जैनाचार्योंके आत्मानुसन्धानके लिए संख्याका अन्वेषण किया है। व्यक्त वस्तुओंके पूर्ण ज्ञान द्वारा आत्माकी शक्तिके विकासको अवगत किया जाता है।
जैनवाङ्मयमें संख्याओंके लिखनेको तीन प्रणालियां प्रचलित हैं१. अंकों-द्वारा २. अक्षर संकेतों-द्वारा ३. शब्द संकेतों-द्वारा
अक्षर संकेतों द्वारा संख्याकी अभिव्यक्ति आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्तीके गोम्मटसारमें उपलब्ध होती है। छेदागम और चूणियोंमें भी यह प्रणाली पायी जाती है । इस क्रमानुसार अंकोंका परिझान निम्न प्रकार किया जाता है' :१. कटपयपुरस्थवर्णे नवनवपंचाष्टकल्पितः क्रमशः ।
स्वरमनशून्यं संख्यामात्रोपारिमाक्षरं त्याज्यम् ॥-जीवकाण्ड गाथा १५७ की टीका उब्त । क से लेकर 8 तक नव अक्षरोंसे क्रमशः नव अंक; ट से लेकर आगेके नव अक्षरोंसे क्रमशः नव अंक; से लेकर म तक पांच अक्षरोंसे क्रमशः पांच अंक एवं च से लेकर आठ अक्षरोंसे क्रमशः आठ अंक; सोलह स्वर, ब, न, से शून्य समझना चाहिये । मात्रासे अंक नहीं लिया जाता।
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३५८
यथा
क १
ख = २
ग = ३
६ = ४
ङ = ५
य - १
र-२
ल = ३
व - ४
भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
च - ६
ट - १
त - ६
छ = ७
ठ - २
थ = ७
ज = ८
र=३
द = ८
झ - ९
ढ =४
घ - ९
ण = ५
न ०
अ = ०
आ = ०
8=0
श = ५
ष = ६
स = ७
ह = ८
इ=०
ई = ०
3=0
ऊ = ०
ए = ०
<=0
अं = ०
अ: = ०
ओ = ०
ओ
=0
तललीनमधुगविमलं धूमसिलागाविचारभयमेरू । तटहरिखझसा होंति हु भाणुसपञ्जत्तसंखंका |
प - १
फ = २
ब - ३
भ -४
म = ५
गाथा १५७ जीवकाण्ड
उपर्युक्त अक्षर क्रमानुसार संख्याका विचार करनेपर पर्याप्त मनुष्योंकी संख्या७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ आती है ।
गोम्मटसार जीवकाण्डकी श्रुतमार्गणामें अजों और पूर्वोकी पदसंख्या भी उक्त अक्षर क्रमसे fleanी गयी है ।
शब्दसंकेतों द्वारा संख्याको अभिव्यंजना नामाङ्क और शब्दाङ्कोंके व्यवहारसे की है । किसी वस्तु या व्यक्तिका नाम ही संख्या प्रकट करता है। अपने वर्ग में वस्तु या व्यक्तिकी जो संख्या होती है, उसी संख्याका वाचक वह नाम माना जाता है। जैसे तीर्थकुर चौबीस होते हैं, इनमें चन्द्रप्रभका आठवां ओर पार्श्वनाथका तेईसव क्रम है, अतः चन्द्रप्रभसे ८ और पार्श्वनाथसे २३ संख्या ग्रहणकी जाती है ।
कतिपय पदार्थोंमें उनकी गिनती के आधारपर उन पदार्थोंके वाचक शब्दों द्वारा संख्याएं सूचित की हैं । जैसे द्रव्य शब्दसे ६, तत्त्वने ७, जिनसे २४ एवं गुणस्थानसे १४ की संख्या ग्रहण की गयी है । यह यहाँ स्मरणीय है कि इस प्रकारको संख्या अभिव्यंजनामें पारिभाषिक शब्दावलीको ही स्वीकृत किया है ।
स्थानमान और उसकी अभिव्यंजना
इकाई, दहाई आदि क्रमानुसार स्थानके मानके आधारपर संख्याओंको अभिव्यक्त करना, उनका स्थानमान कहा जाता है । गणितसार संग्रह में महावीराचार्यने चौबीस स्थान पर्यन्त संख्याओं के मानका प्रतिपादन किया है । यथा
पहला स्थान एक (इकाई), दूसरा दश ( दहाई), तीसरा शत, चौथा सहस्र, पाँचव दश सहस्र, छठा लक्ष (लाख), सात दस- लक्ष ( दस लाख), आठवां कोटि, नौवाँ दश-कोटि (दस करोड़), दसवाँ शतकोटि (सौ करोड़), ग्यारहवाँ अरबुद ( अरब), बारहवाँ म्यबुर्द ( दस अरब ) तेरहवाँ सर्व ( खरब), चौदहवाँ महाखर्व (दस खरब), पन्द्रहवां पदम, सोलहवाँ महापक्रम (वस
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ज्योतिष एवं गणित
३५९
पदम), सत्रहवां क्षोणी, अठारहवां महाक्षोणी, उन्नीसवां शंख, बीसौं महा-शंख, इक्कीसवां क्षित्या, बाईसा महाक्षित्या, तेईसवां क्षोभ और चौबीसवां महाक्षोभ कहलाता है ।'
जैन लेखकोंने संख्याओंके स्थानमानका प्रतिपादन कई प्रकारसे किया है । वे आदिअन्तके अंकोंका कथन कर अनन्तर मध्यवर्ती अंकोंको व्यक्त करते हैं । प्रधानतः अभिव्यक्तीकरणके इन प्रकारोंको निम्नलिखित रूपोंमें प्रयुक्त किया जा सकता है
१. दाहिनी ओरसे अंकोंका प्रतिपादन तथा समस्त अंकोंके सन्निवेशसे स्थानमान विषयक एक संख्याको स्थितिका अंकन । व्यतिक्रम मान द्वारा संख्या-निरूपण ।
२. स्थानमानके अनुसार अंकोंका प्रतिपादन ।
३. आदि और अन्तके अंकोंका कथन करनेके उपरान्त मध्यवर्ती तुल्य अंकोंका एक साथ निरुपण ।
४. शब्दों द्वारा अंकोंका कथन करते हुए स्थान-क्रमानुसार संस्थाओंका सन्निवेश । ५. किसी संख्याके वर्ग या धन प्रमाणका कथन कर अन्य संख्याका संसूचन । उपयुक्त स्थानमानकी अभिव्यज्नाके उदाहरण निम्न प्रकार है :
धवलटीका ३ जिल्द पृ० ९९ पर उद्धृत गाथा ५२ में विपरीत क्रम संख्याका निरुपण आया है । यथाचौंसठ, छह सौ, क्यासठ हजार, छ्यासठ लाख तथा चार करोड़-४६६६६६६४ । (२) अडकोडिएयलक्खा अठ्ठसहस्सा य एयसदिगं च । पण्णत्तरि वण्णाओ पइण्णयाणं पंमा० तु ॥
___ गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गाथा ३५० अर्थात् : आठ करोड़, एक लाख, आठ हजार, एक सौ पचहत्तर- ८०१०८१७५ (३) सत्तादो अलैंता छण्णवमज्झा य संजदा सव्धे।
-गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गाथा ६३२ अर्थात् : प्रारम्भमें ७ मध्यमें छह बार ९ तथा अन्त में ८ ।
७१९९९९९८ ।
१. गणितसार संग्रह, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, सन् १९६३ ई०, १।६३-६८
पृ०८ इस स्थान मानके लिए भास्कराचार्य के निम्न पद्य तुलनीय हैएकदशशतसहस्त्रायुतलक्षप्रयुतकोटयः क्रमशः । अर्बुदमब्जं खर्वनिखर्वमहापद्मशङ्कवस्तस्मात् ।। जलाधिश्चान्त्यं मध्यं परामिति दशगुणोत्तराः संज्ञाः । संख्यायाः स्थानानां व्यवहारार्य कृताः पूर्व ।-लीलावती, मास्टर खेलाडीलाल एण्ड सन्स, वाराणसी, सं० १९९४ पृ. ३ इन पद्योंसे स्पष्ट है कि १६ स्थानों तक ही संख्याका निरूपण किया है।
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३६०
भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
(४) इगि जव जव सगिगिगिदुगणवतिष्णडचउपणे क्कति गिक्कं । परछत्तोसजुर्द हरहिदचउरी
य पढमुभयं ॥
- त्रिलोकसार गाथा २८
अर्थात् : १९९७११२९३८४५१३१६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६० (५) बादल सोंलक्षकदिसंगुणिदं दुगुणणबसमब्मत्थं । इगितीस सुष्णसहियं सरिसवमाणं हवे पढमे ।। — त्रिलोकसार गाथा २० ४२x२५६ x १८४००००००००००००००००००००००००००००००० = १९७९१२०९२९९९६८०००००००००००००००००००००००००००००००।
संख्याओं का वर्गीकरण
संख्याओंके मूलतः दो भेद हैं - ( १ ) वास्तविक ( Real Numbers) और (२) अवास्तविक (Imaginary Numbers) । वास्तविक संख्याएँ भी दो प्रकार की हैं
(१) संगत (Ratinal Nnmbers) और ( २ ) असंगत ( Irratinal Numbers) । प्रथम प्रकारको संख्याओं में भिन्न राशियोंका समूह पाया जाता है और द्वितीय प्रकारकी संख्याओंमें करणीगत राशियाँ निहित हैं। वास्तविक राशियों में घनात्मक, रिणात्मक, पूर्णाङ्क, समूहात्मक, सम, विषम, प्रभृति अनेक उपभेद-उपभेद सम्मिलित हैं । संख्याका एक समूह अलौकिक (Transcendental Numbers) कहा जाता है। संगत संख्याओं में शून्यात्मक, घनात्मक एवं रिणात्मक उपभेद किये गये हैं । वस्तुतः प्रत्येक संख्याके संकेतात्मक और असंकेतात्मक दो भेद हैं । जैसे—'क' को घनात्मक या रिणात्मक लिखना संकेतात्मक राशि है । + क; अचिन्हित क - ।
धवलाटीका, तिलोयपण्णत्ति और त्रिलोकसार ग्रन्थोंमें संख्याके तीन भेद आये हैं१. संख्यात = स - गणना जहाँ तक की जा सकती है ।
२. असंख्यात = अ गणनासे आगेकी राशि
-
पर अन्ततः अगणनीय |
३. अनन्त = न - व्यय होते रहने पर भी अनन्त कालसे समाप्त न हो ।
(१) संख्यात ( गणनीय) संख्याओंके तीन भेद हैं- (अ) जघन्य संख्यात (अल्पतम संख्या), (ब) मध्यम संख्यात (बीचकी संख्या) ओर (स) उत्कृष्ट संख्यात ( सबसे बड़ी संख्या) ।
(२) असंख्यात (अगणनीय) के परीत - असंख्यात, युक्त असंख्यात और असंख्यात संख्यात ये तीन मुख्य भेद हैं । पुनः जघन्य, मध्य और उत्कृष्टके भेदसे प्रत्येकके तीन तीन भेद माने गये हैं । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने इन भेदोंका निम्न प्रकार विवेचन किया है ।
(अ) जघन्य - परीत-असंख्यात = स उ + १
(आ) मध्यम - परीत- असंख्यात - स उ १ ८ अ यु उ
(इ) उत्कृष्ट-परीत-असंख्यात - अ युज - १
१. त्रिलोकसार गाथा ३६-४५
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ज्योतिष एवं गणित
( स उ + १)
(ई) जघन्य-युक्त - असंख्यात = ( स उ + १ ) ( उ ) मध्यम - युक्त असंख्यात - ( स उ + १) ( स उ + १) < अयु उ
(ऊ) उत्कृष्ट युक्त असंख्यात = अ यु उ ऊ ऊ ज - १ (क) जघन्य- असंख्याता संख्यात - ( अ यु ज ) '
(ख) मध्यम - असंख्याता संख्यात - ( अ यु ज ) <अ स उ (ग) उत्कृष्ट - असंख्यातासंख्यात = अ प ज १
धवलाटीकामें अनन्तके निम्नलिखित भेद वर्णित हैं ।
(च) नामानन्त - वस्तुके यथार्थतः अनन्त होने या न होनेका विचार किये बिना ही उसका बहुत्व प्रकट करने के लिए अनन्तका प्रयोग करना नामानस्त है ।
(छ) स्थापनानन्त - यथार्थतः अनन्त नहीं, किन्तु किसी संख्यामें आरोपित अनन्त ।
(ज) द्रव्यानन्त -- तत्काल उपयोग न आते हुए सानकी अपेक्षा अनन्त ।
(झ) गणनानन्त—संख्यात्मक अनन्त ।
(ञ) अप्रदेशिकानन्त - परीमाणहीन अनन्त ।
(ट) एकानन्त - एक दिशात्मक अनन्त ।
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(ठ) विस्तारानन्त - द्विविस्तारात्मक:--प्रतरात्मक अनन्ताकाश ।
(ङ) उभयानन्त - द्विदिशात्मक अनन्त – एक सीधी रेखा जो दोनों दिशाओं में अनन्त तक जाती है ।
(ढ) सर्वानन्त - आकाशात्मक अनन्त ।
(ण) भावानन्त - सानकी अपेक्षा अनन्त ।
।
अनन्तके सामान्यतया (१) परीतानन्त ( २ ) युक्तानन्त और (३) अनन्तानन्त ये तीन भेद माने गये हैं । इन तीनोंके जधन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन तीन भेद होनेसे कुल नौ भेद हो जाते हैं । और त्रिलोक सारमें उक्त ३ +९+९= २१ भेद वर्णित हैं । संख्यासे उत्कृष्ट संख्यातकी प्राप्ति होनेपर एक अधिक जोड़नेसे जघन्य परीत असंख्यातका मान आता है, किन्तु यह असंख्यात उपचार रूपसे ही माना जाता है । वास्तविक असंख्यात असंख्यात संज्ञाधारी धर्म द्रव्यादि राशियोंके जोड़ने पर ही आता है । इसी प्रकार उत्कृष्ट असंख्यात - असंख्यात में एक जोड़नेपर जघन्य परीत अनन्ताका मान आता है । अवधि = ज्ञानकी विषय सीमासे बाहर रहनेके कारण ही इसे औपचारिक अनन्त कहा जाता है । वास्तविक अनन्त केवल ज्ञानका विषय होता 1
संख्याओंका यह वर्गीकरण लोकोत्तर या आलौकिक गणितका ही विषय है । आशय यह है कि जैन लेखकोंने गणनीय संख्याओंको संख्यात, गणनातीतोंको असंख्यात एवं अचिन्त्य बड़ी संख्याओंको अनन्त कहा है।
१. जीवाजीव मिस्सदव्यस्त कारणणिरवेक्खा सम्णा अनंता - धवला ३ जिल्द दर. ११ २. जं तं द्ववणवुतं णाम तं कद्वकम्मेसु 'धवला जिल्द ३, पृ० ११-१२ । ३. जंतं दग्वाणं संवही, पृ० १२ ।
४६
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धारा या श्रेणी संस्थाएँ ( Kinds of Series)
संख्याओं का वह समुदाय जो किसी क्रम विशेषसे लिखा जाय, धारा या श्रेणी कहा जाता है । जैन लेखकोंने उक्त प्रकारकी संख्याओंका उदाहरण पूर्वक विचार किया है । १. सर्वधारा
भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
सर्वधाराको हम आधुनिक शब्दावली में ए. पी. ( Arithmatical Progression) कह सकते हैं । इसका पहला संकेत एक है और अन्तर भी एक है । संख्यात से लेकर अनन्तानन्त संख्या पर्यन्त सभी स्थान सर्वधाराके अन्तर्गत परिगणित हैं । इस धारा में समस्त स्वाभाविक संख्याएं ग्रहणकी जाती हैं। यथा
१ + २+३+४+ ५
अनन्तानन्त ।
२. समधारा
संख्याओंके क्षेत्रमें स्वाभाविक संख्याओंको दो वर्गोंमें विभक्त किया जाता है - सम और विषम । समधाराका परिज्ञान प्राप्त करनेके लिए संख्यातका उत्कृष्ट प्रमाण १५ और असंख्यातका २५५ माना है । ये दोनों ही संख्याएँ १ घटाने या जोड़नेके पश्चात् ही समत्वको प्राप्त होंगी; इस संख्याका अन्तिम मान न मान लेनेसे धाराका स्वरूप निम्न प्रकार है२+४+ ६ + ८ + १० + १२ + १४ + + न = समधारा
वि + - १............
क
8
न
I
३. विषमधारा
इस धारा में विषम संख्यक राशियां परिगणित हैं । यथा – २ + १ = ३, ४°१ = ५, ६°१ = ७, ८°१ = ९, १०°१ = ११, १° २१ = १३, १४°१ = १५, १६°१ = १७, १८°१ = १९,...............न + १ = न
४. कृतिधारा
।
इस धारा में वर्गित संख्याएँ ग्रहणकी गई हैं ४१ = १६, ५१ = २५, ६२ = ३६, ७२ = ४९, ११२=१२१, १२२ = १४४, १३२ = १९६न:
यथा - १ था - १२ = = १, २२ = ४, ३ ' = ९, ८२ = ६४, ९२ = ८१, १०२ = १००,
||
न
=
५. अकृतिधारा
कृतिधाराकी संख्याओं में घन-रिणात्मक करनेसे अकृतिधाराकी संख्याएँ निष्पन्न होती हैं, ये संख्याएँ अवर्गात्मक ही होती हैं। यथा
२, ३, ५, ६, ७, ८, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १७
"नरे + - १
न
६. घनधारा
घनधाराका संख्या समूह घनरूप रहता है। समत्रिघातको घन कहा जाता है। यथा
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३६३
ज्योतिष एवं गणित १' = १, २ = ८, ३३ = २७, ४ = ६४, ५७ - १२५, ६३ - २१६,............
७. अघनधारा
इस धाराका संख्या समूह अघनात्मक होता है । सर्वधाराकी संख्याओं में से धनधाराकी संख्याओंके घटाने पर अघनधाराकी संख्याएं आती हैं । यथा
२, ३, ४, ५, ६, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २८, ६३........"
सर्वधारा- न३ = नअ. ८. कृतिमातका या वर्गमातका
___१, २, ३ आदि संख्याओंकी गणना न पर्यन्त की गयी है । इसका अर्थ यह है कि इसमें कृतिके वर्गमूलके तुल्य संख्याएँ होती हैं । यथा
१, २, ३, ५..........."/न२ =न । ९. अकृतिमातका या अवर्गमातका
इस धाराकी संख्याओंका समूह, इस प्रकारका है, जिसका वर्गमूल करणीगत होता है ।
यथा
मू + १, मू + ३, /मू + २, मू + ५,
मू + न = १०. धनमातका
१, २ से लेकर अन्तिम घन संख्याके घनमूल तक इस धाराकी संख्याओंका विस्तार पाया जाता है । इस धारामें उन सभी संख्याओंका सम्बन्ध पाया जाता है, जिनका धनमूल निःशेष रूपमें निकलता है । यथा
१,२ "न ११. अघनमातका
इस धारामें ऐसी संख्याएँ परिगणित हैं, जिनका धनमूल करणीगत होता है। यथा
३/मू +१ ३ मू+२ ३ मू+३
.............च
१२. द्वि. पवर्गधार
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान २२,(२२) इसका चौथा, पांचवा, छठा, पद क्रमशः पण्णद्वि, वादाल और एकाद कहलाते हैं।
अंक द्वारा-(२)" = ६५५३६, (२)31 - (६५५३६)२ या ४२९४९६७२९६, (२) = (४२९४९६७२९६) - १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६
.....(न)न -न १३. द्विरुपधनधारा
इस धाराक्रमकी संख्याएं घनक्रमसे सम्मिलित है । यथा
(२), (४), (९),""(न')३ । १४. द्विरुपधनाधनधारा
इस धारा का पहला पद [(२)"]३......"[(४)].........."[(न3)] ' अदच्छेद या अदच्छेद शलाका
बड़ी संख्याओंको छोटी या लघु संख्याओंमें अभिव्यक्त करनेके लिए जैन विचारकोंने अर्द्धच्छेद या अढच्छेदशलाका का उपयोग किया है । तिलोयपण्णचि, धवलाटीका, त्रिलोकसार, गोम्मटसार प्रभूति ग्रन्थों में इस ग्रन्थका उल्लेख पाया जाता है । इस गणित क्रियाको निम्नलिखित परिभाषिक शब्दोंके विश्लेषण द्वारा अवगत किया जा सकता है।
अदच्छेद-एक संख्या जितनी बार उत्तरोत्तर आधी-आधी की जा सकती है, उस संख्याके उतने अच्छेद कहलाते हैं। यथा-1 - न अबच्छेद = लरि न
वर्गशलाका-किसी संख्याके अच्छेदोंके अवच्छेद उस संख्याकी वर्गशलाका होती है । यथा-न को वर्गशालाका - वश न = अछे-अछे न = लरि-लरि न ।
त्रिकेच्छेद-एक संख्या जितनी बार तीनसे उत्तरोत्तर विभाजित की जाती है, उसके उतने त्रिकच्छेद होते हैं । यथा-न के त्रिकच्छेद -त्रिकेन - लरि ३ न ।
चतुर्थच्छेद-एक संख्या जितनी बार चारसे विभाजित की जा सकती है, उतने ही उस संख्याके चतुर्थच्छेद होते हैं । यया-न के चतुर्थच्छेद - बछे न = लरि ४ न ।
अनुच्छेद गणितको 'लघुगणक' सिद्धान्त भी कहा गया है। इस सिद्धान्तकी मौलिकता के सम्बन्धमें गणितके प्रसिद्ध विद्वान् डा० अवधेशनारायणसिंहने लिखा है-"संस्कृत गणित अन्थोंमें इस प्रकारके लघुगणक नियम नहीं मिलते हैं। मेरी दृष्टिसे यह सर्वथा जैनियों का माविष्कार था और उन्होंने इसका प्रयोग भी किया था।"२
बच्छेदों द्वारा राशिज्ञान प्राप्त करनेके सिद्धान्तका विवेचन करते हुए लिखा है"देय राशि परिवर्तित राशि (Substituted) के अर्बच्छेदोंका इष्टराशि के अच्छेदोंमें
१. त्रिलोकसार गापा ५३-६६ तथा ७७-८८ तक २. वर्गी-अभिनन्दन-प्रन्थ, प्रकाशक श्री वर्णी हीरक जयन्ती महोत्सव सिमति, सागर, पृ०४९.।
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ज्योतिष एवं गणित
३६५
भाग देने पर जो लब्धि आवे उसका अभीष्ट अर्द्धच्छेद राशिमें भाग देनेसे लब्ध प्रमाण इष्ट ۱٫۹ यथाराशिको रखकर परस्पर गुणा करने पर अर्द्धच्छेदोंसे राशिका परिज्ञान होता है। देयराशि - २ इसका अद्धच्छेद १, इष्टराशि १६, इसके अर्द्धच्छेद ४, अभीष्ट अर्द्धच्छेद ८ अतः ४ ÷ १ = ४, ८÷४ - २, १६ x १६ - २५६ आठ अ च्छेदोंकी उक्त राशि ।
गुण्य राशिके अर्द्धच्छेदोंको गुणाकार राशिके अद्धच्छेदोंमें जोड़ देने पर गुणनफल राशिके अर्द्धच्छेद आते हैं । अंकगणितके अनुसार १६ गुण्यराशि, ६४ गुणाकार राशि और गुणनफल राशि = १६ × ६४ = १०२४ । १६ गुण्यराशि = (२) ४, गुणाकार ६४ = (२) T,
(२) * x (२)T = (२)° = गुणनफल १०२४ = (२) १०
न-म
म
म
(क) = क ।
१.
२.
क = क
भाज्य राशिके अर्द्धच्छेदो में से भाजकके अर्द्धच्छेदोंको घटानेसे भाग्यफल राशिके अर्द्धच्छेद आते हैं | अंकगणितानुसार भाज्य राशि २५६ भाजक ४ और भाग्यफल ६४ है । अतः २५६ = (२)८, ४ = (२) २, ६४ = (२); (२) ^ (२) ÷ ± = (२) T, भाग्यफल राशि ६४ = (२)' ।
न
न
१.
म न
अ अ
म X
घाताङ्कसिद्धान्त (Law of Indices)
घातात सिद्धान्तका प्रयोग बड़ी-बड़ी संख्याओंको सूक्ष्मता और सरलता से व्यक्त करने के लिए किया गया है । जब किसी संख्याका संख्यातुल्य घात किया जाता है, तो उसे वर्गितसंवर्गित संख्या कहा जाता है । यथा
( २ ) २. - ४
(२) २२२ - ४४ = २५६
=
क
२५६
३. [ ( २ ) २२ ] [ (२)± २२] = २५६
न+म
म-न
भ
म न अ अ अ
म-न
म
क = करें,कन ÷ क
१. दिष्णच्छेदेणवहिदवूठ्ठच्छेदेहिं पयदविरलणं मजिदे ।
लद्धमिदट्ठरासीणष्णोष्णहदीए होदि पयदधणं ॥ - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) गाथा २१४
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३६६
म न
३. (3T)
धवला टीकामें उक्त सिद्धान्त' के प्रयोग पाये जाते हैं । वर्ग - संवर्ग के उपर्युक्त (१, २, ३)
सकता है ।
भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
=
मन
अ
(न) = न
न न
न
न
(न) पुनः संवर्गित करने पर -
न
न
{ } {
न
(न
न
गणित सिद्धान्तोंको निम्न प्रकार अवगत किया जा
= यह संख्या 'न' का तृतीयवार वर्ग संवर्ग है = ३५ ।
आधुनिक बीज गणित में इसे घातांक सिद्धांत कहा गया है। जैन लेखकोंकी यह अपने समयकी मौलिक उद्भावना है ।
गति - सिद्धान्त
गति गणित (Applied Mathematics) के अन्तर्गत समाविष्ठ है । तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थ राजवात्तिकमें गतिका नियम वर्णित है, यह नियम पूर्णतः न्यूटन के प्रथम गति नियमसे और अंशतः उसके तृतीय नियमसे समता रखता है । आचार्य पूज्यपादने लिखा है - 'कर्मरूपी शक्तिसे संसारी प्राणी गतिमान होता है, उस शक्ति के समाप्त हो जाने पर भी उत्पन्नगति के कारण ( मदावेशपूर्वक) प्राणी गतिमान रहता है, जब तक वह संस्कार नष्ट नहीं हो जाता २ ।
आशय यह है कि कर्मके निमित्तसे यह संसारी प्राणी संसारमें परिभ्रमण करता है, उस प्रयोगसे जो संस्कार बनता है, उसके वशीभूत हुआ यह जीव कर्मके निमित्तके छूट जानेपर भी गमन करता है ।
इस नियमकी तुलना न्यूटनके निम्नलिखित नियमसे की जा सकती है
'प्रत्येक वस्तु अपनी स्थिर या सीधी रेखामें गतिमान अवस्थाको तब तक बनाए रखेगी, जब तक कोई बाहरी लगाया हुआ बल उसे अपनी इस हालत को बदलने के लिए प्रेरित न करे । "3
न्यूटनके समान ही पूज्यवाद और अकलंकदेव के गतिनियमको दो भागों में विभक्त किया जा सकता है
१. घवलाटीका जिल्द ३, पृ० २५३ ।
२. उपरतेऽपि परस्मिन्पूर्वप्रयोगादा संस्कारक्षयाद् भ्रमति एवं भवस्थेन । त्यनाऽपवर्ग प्राप्तये बहुशोयत्प्रणिधानं तदभावेऽपि तदवेशपूर्वकं युक्तस्य गयनयवसीयते । - सर्वार्थसिद्धि १०।७ की वृत्ति ।
३. माध्यमिक भौतिक विज्ञान-प्रकाशक- माडर्न बुक एजेंसी प्राइवेट लिमिटेड, कलकत्ता सन् १९६४ । [नवाँ संस्करण ] पृ० ८३ |
४. द्रव्यस्य बाध्यान्तर सन्निवाने सति देशान्तर प्राप्ति हेतु: परिणामो गतिरित्युच्यते । तत्वार्थराजबात्तिक, ज्ञानपीठ संस्करण ५।१७ द० ४६० ।
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ज्योतिष एवं गणित
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(अ) यदि कोई वस्तु विरामावस्थामें है तो वह उसी अवस्थामें रहना चाहती है, जब तक उसपर बाह्य बलका प्रयोग नहीं होता है ।
(आ) यदि कोई वस्तु समरूपसे सीधी रेखामें गमन करती है, तो वह तब तक इसी अवस्थामें गमन करती रहेगी, जब तक बाहरी बलका प्रयोग नहीं होता।
__संसारी जीवको गति कर्मसंस्कारवश होती है, पर जब संकार नष्ट हो जाता है और बाह्य बल धर्म-अधर्म द्रव्यका अभाव रहता है, तो गति रुक जाती है। जीव और पुङ्गलोंकी गति लोकके मध्यसे लेकर ऊपर, नीचे और तिर्मक क्रमसे स्थित आकाश प्रदेशोंकी पंक्तिके अनुसार होती है।
गति नियमका स्पष्टीकरण करनेके हेतु वस्तुकी जड़ताको स्थितिका परिज्ञान आवश्यक है । जड़ताके नियमके अनुसार कोई भी वस्तु अपनी पूर्व अवस्थाको स्थिर रखनेका प्रयत्न करती है, चाहे वह विरामात्मक अवस्था हो अथवा सीधी रेखामें समरूप गतिको अवस्था हो । प्रथम प्रयत्नको विरामात्मक जड़ता (Inertia of rest) और दूसरेको गत्यात्मक जड़ता (Inertia of motion) कहते हैं ।
उदाहरणार्थ यों कहा जा सकता है कि यदि किसी टेबुलके एक किनारेपर कोई पुस्तक रखी हो तो वह टेबुलके दूसरे किनारेपर स्वयं नहीं जा पाती, वह अपनी विरामावस्थाको बनाये रखती है। यदि वह टेबुलके दूसरे किनारेपर चली जाती है, तो उसके वहाँ पहुँचने के कारणोंका पता लगानेपर ज्ञात होता है कि पुस्तकको किसीने अपने हाथसे हटाया है, या वह वायुके झोंकेसे वहाँ पहुँच गई है। इससे स्पष्ट है कि पुस्तक अपनी विरामावस्थामें स्वयं नहीं बदलती किन्तु किसी बाह्य कारणके द्वारा उसमें परिवर्तन सम्भव होता है । यह नियम समस्त निर्जीव वस्तुमें प्रवृत्त है, बाह्यकरणके अभावमें वस्तुमें गति नहीं होती है । बाह्यकरणका दूसरा नाम बाहरी बल है, यही वस्तुको गतिशील होनेके लिए प्रेरित करता है ।
उमास्वामी, पूज्यपाद और अकलंकदेवके अनुसार वस्तुकी गति उसकी वह राशि है, जो वस्तु की मात्रा और उसके नेग दोनोंसे उत्पन्न होती है। इसका मान उस वस्तुकी मात्रा और वेगके गुणनफल तुल्य होता है ।
बल = मात्रा x त्वरण = आवेगके परिवर्तन की दर । आवेग = मात्रा x वेग त्वरण-एक समयमें वस्तुके वेगमें जो परिवर्तन होता है, उसे वस्तुका त्वरण
कहते हैं। आवेगके परिवर्तनको दर लगाये गये बलका समानुपाती होती है और यह उसी दिशामें कार्य करती है, जिसमें बल कार्य करता है ।
मान लिया कि किसी वस्तुकी मात्रा = म वस्तुका प्रारम्भिक वेग वस्तुका अन्तिम वेग मक→मके
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
आवेगमें परिवर्तन मके - मक । परिवर्तनमें लगा दिया हो तो
न→मके - मक ।+मके - मक
न मके-मक_म (के-क)
बल प-यान
मात्रा त्वरण विरात्मक और गत्यात्मक जड़ताको स्थिति सिदि "गतिपरिणामिनां जीवपुद्गलानां गत्युपग्रहे कर्तव्य धर्मास्तिकायः, साधारणश्रयो जलवन्मत्स्यगमने, तथा स्थिति परिणामिनां जीवपुद्गलानां स्थित्युपग्रहे कर्तव्य अधर्मास्तिकायः साधारणाश्रयः ।"
अर्थात् गतिमान जीव और पुद्गलोंकी गतिमें धर्म द्रव्य, स्थितिमान जीव और पुद्गलोंकी स्थितिमें अधर्मद्रव्य उपकारक है।
इस कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि वस्तुओंकी अवस्था विशेष बने । इनका कोई बाह्यकारण भी है, बाह्यकारणका दूसरा नाम 'बल' है, जो समानुपाती है,
स्थानगत शक्ति (Potential energy) का वर्णन यत्वार्थ सूत्रके "गतिशरीर परिग्रहाभिमानतो हीनाः" ४।२१ की व्याख्यामें बताया गया है
"ततः परतो जघन्यास्थितीनामे कैकहीना भूमयो यावतुतीयेति । गतपूर्वाश्च गमिश्यन्ति च तृतीयां देवाः परतस्तु सत्यापि गतिविषये न गत पूर्वा नापि गमिष्यन्ति । महानुभावक्रियातः औदासीन्याच्चोपर्युपारि देवान गतिरतयो भवन्ति ।"२
जिनकी गतिका विषय भूतक्षेत्र तीसरी पृथ्वीसे अधिक है वे, गमन शक्तिके रहनेपर भी वहां तक गमन नहीं करते । न पूर्व कालमें कभी गमन किया है और न भविष्यमें कभी करेंगे । उनकी गतिको बतलानेका अर्थ केवल उनकी कार्यक्षमता बताना है। उनकी शक्तिका व्यय नहीं होता, वह कार्य रूपमें परिणत नहीं होती, पर वे उतना काम करनेका सामर्थ्य रखते हैं । परिणामोंको शुभताके कारण वे इधर उधर जानेमें उदासीन रहते हैं।
उपर्युक्त वक्तव्यसे 'गति सिद्धान्त'में निहित 'जड़त्व' का नियम अभिव्यक्त होता है। 'बल' का संयोग न होनेसे विरामावस्था बनी रहती है। यद्यपि गमन शक्ति है, पर प्रवत्ति बलके अभावमें सम्भव नहीं। इस प्रकार गत्यात्मक और विरामात्मक जड़ताकी सिद्धि होती है। प्रकाश सिद्धान्त
___जैन ग्रन्थोंमें प्रकाश शक्तिको दो भागोंमें विभक्त किया जाता है-१. आताप और २. उद्योत । इन दोनोंको पुद्गल द्रव्यके पर्याय माना है। आतापके अन्तर्गत सूर्यका प्रकाश, अग्निकी रोशनी और बिजली बत्तीका प्रकाश ग्रहण किया गया है और उद्योतमें चन्द्रमाका १. सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानपीठ संस्करण ५।७७, पृ. २८२ । २. पं० खूबचन्द्र शास्त्री द्वारा सम्पादित-तत्वार्थधिगमभाष्य, बम्बई १९३२ ई०,
पृ० २२३ ।
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ज्योतिष एवं गणित
प्रकाश, रत्नोंकी चमक एवं महनीय वस्तुकी आभा परिगणित है । आतापमें गर्म रश्मियां और उद्यातमें शीतरश्मियां निहित हैं ।
वास्तवमें प्रकाश एक प्रकारका ऊर्जा (Energy) है । प्रकाश स्रोत ऊर्जा विकीर्ण करता है और इस ऊर्जाका कुछ भाग, जो आँखोंपर प्रभाव डालता है, प्रकाश कहलाता है । प्रकाशके ऊर्जा होने के कारण उसका मापन भी इकाइयोंमें सम्भव होता है। आचार्य अकलंक देवने प्रकाशके आवरणभत शरीरको छाया बताया है । छायाके दो भेद हैं तद्वर्ण परिणत छाया और प्रतिबिम्ब । दर्पण आदि स्वच्छ द्रव्योंमें आदर्शके रंग आदिकी तरह मुखादिका दिखाना तद्वर्ण परिणत छाया कहलाती है । आजकलकी भाषामें यो कहा जा सकता है कि यदि किसी स्रोतसे अपसारी किरणें (Divergent Rays) एक प्रिज्म (Prism) पर पड़ती हैं तो प्रिज्मसे निकलने के बाद उनका अपसरण (Divergence) परिवर्तित हो जाता है । केवल एक प्रिज्मसे वर्ण विक्षेपण होनेके साथ ही किरणे विचलित भी हो जाती है अर्थात् वे आयतनकी दिशासे भिन्न दिशामें जाती है । प्रकाश किरणोंकी दिशा सदैव बायोंसे दाहिनी ओर होती है।'
अकलंक देवके प्रकाश सिद्धान्त "प्राङमुखस्य प्रत्यङमुखा छाया दृश्यते इति ? प्रसन्नद्रव्यपरिणाम विशेषाद्भवति"-प्रसन्न द्रव्यके परिणमन विशेषसे पूर्वमुख पदार्थको पश्चिममुखी छाया पड़ती है से ज्ञात होता है कि प्रकाशकी अनुदैर्य और अनुप्रस्थ इन दोनों गतियोंका उन्हें परिज्ञान था।
अनुदैर्य
अनुप्रस्थ
प्लावमान सिद्धान्त
___ जलके ऊपर सन्तरणशील वस्तुओं और उनकी संतरण गतिका वर्णन भी जैन गणितज्ञोंने किया है । यद्यपि इन वर्णनोंका उद्देश्य शुद्ध गणितके सिद्धान्तोंका निरूपण करना नहीं हैं, पर प्रसंगवश इस प्रकारके तथ्य आ गए हैं। कुमुदचन्द्रने कल्याणमन्दिर स्त्रोतमें वायुपूरित मसकके जलमें संतरण करने का उल्लेख किया है।
त्वंतारको जिन ! कथं भविनां त एवत्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृतिस्तराति यज्जलमेष नूनमन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभायः ॥
-कल्याण मन्दिर पद्य १० सन्तरण सिद्धान्त तरंग नियम (Wave theory) पर अवलम्बित हैं । गणितकी दृष्टिसे तरंगोंकी गति चंचल वक्र रेखा (आवर्ण करती हुई) के रूपमें होती है । इसकी
१. आतप उष्ण प्रकाशलक्षणः-आतप आदित्यनिमित्त उष्णप्रकाशलक्षणः पुद्गलपरिणामः।
उद्योतइञ्चन्द्रमणिखद्योतादिविषयः-चन्द्रमणिखद्योतादीनां प्रकाश उद्योग उद्यते । तत्वार्थ
राजवार्तिक, ज्ञानपीठ संस्करण ५।२४।१८-१९ २, वही, ५।२४।१७, पृ० ४८९ ।
४७
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
क्रियाओंकी व्याख्या भी अनुदानके नियमोंपर आधारित है। वस्तु + वायुभार + जलतरंगसंतारणशील वस्तु वेग । इस वेगका आनयन
_ वायुभार ४ वस्तु X जलतरंग तरंगवेग = क = तरगवन, बाह्य क्रियाओंका प्रभाव
इस गणितका आनयन प्रकाश-संचारणके सिद्धान्तके समान ही किया जाता है। वितत भिन्न सिद्धान्त
जैन लेखकोंने भिन्नके विविध रूपोंका प्रयोग ईस्वी सन्की आरम्भिक शताब्दियोंमें हो किया है । 'धवला' तीसरी जिल्दमें भिन्नके कई रोचक नियम उपलब्ध होते हैं, जो अन्य गणित ग्रन्थोंमें नहीं है।
न
क
(१) नन/प) = न = (२) दमब - (का) - १(काको (३) यदि ८ कातथा के,
____ तो- द (क - के) + मे = म
अ
घवला टीकामें करणीगत वगित राशियोंके वर्गमूलके आनयतमें वितत भिन्नका बहुत सुन्दर प्रयोग किया गया है । यथा
____ "असंखेज्जभागकहियसव्वसजीवरासिणा तदुवरिमवग्गे भागे हिदे किभागच्छदि ! असंखेज्जमागहीण सव्वजीवरासी आगच्छदि । उक्कस्स असंखेज्जासैखेज्जभागव्यहिय सव्वजीव रासिणा तदुवरिमवग्गे भागे हिदे किमागच्छदि ! जहण्णय सित्ताणंत भाग होणसव्वजीवरासी आगच्छदि । अणंतभागम्महिय सव्वजीवरासिणा तदुवरिमवग्गे भागे हिदे किभागच्छदि ! अणंतभागहीणसव्वजीवरासी आगच्छदि । सम्वत्थकारणं युग्वं च वक्तव्वं । एत्थ उवज्जतीओ . गाहामओ
अवहारवढिरूवाणवहारादो हु लद्ध अवहारो। रूवहिओ हाणीए हीदि हूँ वड्ढीए विवरीदो।। अवहारविसेसेण य छिण्णवहारादु लद्धरुवो। रूकाहिय ऊणा वि य अवहारो हाणिवड्ढीणं । लढविसेसच्छिण्णं लद्धं रूवाहिऊण यं चांबि। अवहार हामि वड्ढीणवहारो सो मुणेयव्वो ।।
-धवला ३ जिल्द, पृ० ४५-४६
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ज्योतिष एवं गणित अर्थात्-असंख्यातवा भाग अधिक सम्पूर्ण जीवराशिका सम्पूर्ण जीवराशिके उपक्ति वर्ग में भाग देनेपर असंख्यातवों भागहीन सम्पूर्ण जीवराशि आती है । उत्कृष्ट असंख्याता संख्यातवाँ भाग अधिक सम्पूर्ण जीवराशिका सम्पूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देनेपर जघन्य परीतानन्तवाँ भागहोन सम्पूर्ण जीवराशि आतो है । अनन्तवाँ भाग अधिक सम्पूर्ण जोवराशिका सम्पूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्ग में भाग देनेसे अनन्तवा भागहीन सम्पूर्ण जीवराशि आती है।
___ उपर्युक्त राशियोंके आनयन की प्रक्रिया वितत भिन्न की है। इस भिन्नकी संसृति द्वारा उपर्युक्त राशियां निकाली जा सकती हैं। वीरसेनाचार्यने इस संदर्भ में प्राचीन गाथाएँ उद्धृत कर वितत भिन्नकी संसृति पर प्रकाश डाला है। उक्त सन्दर्भसे भिन्न सूत्र निष्पक्ष होते हैं-१. भागहारमें उसीके वृद्धि रूप अंशके रहनेपर भाग देनेसे जो लब्ध भागदार आता है, वह हानिमें रूपाधिक और वृद्धि में इसके विपरीत रूपहीन होता है ।
२. भागदार विशेषसे भागदारके छिन्नभाजित करनेपर जो संख्या आती है, उसे रूपाधिक अथवा रूपन्यून कर देनेपर वह क्रमसे हानि और वृद्धिका भागहार होती है।
३. लब्ध विशेषसे लब्धको छिन्न-भाजित करनेपर जो संख्या उत्पन्न हो, उसमेंसे एक अधिक या एक कम कर देनेपर वह क्रमसे भागहारकी हानि और वृद्धिका प्रमाण होता हैं। पूर्वोक्त समीकरणके अनन्तरः--
तो
-
अ ---- ब + स
-
और
+
9
-
याद यदि
27 -
--कऔर . ब
--क+स,
स
-
१
तो
-ब
회
और यदि
स+
. -१,
al
-स तो बब+
स+ -१ भारतीय गणितमें इस भिन्नका व्यवस्थित रूप भास्कराचार्य में मिलता है । आर्यमय और ब्रह्मगुप्तके ग्रन्थोंमें इस सिद्धांतके केवल बीज सूत्र ही उपलब्ध होते हैं । धवलामें उद्धृत प्राचीन गाथाएँ इस सिद्धान्तकी प्राचीनतापर प्रकाश डालती है। वर्तमान गणितज्ञोंमें इस भिन्नके आविष्कारका श्रेय इटालियन गणितज्ञ मिट्रो एनटोनिया काटालडी को है, इसकी मुत्यु
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३७२
भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान ई० सन् १६२६ में हुई है । इसके वर्गमूल क्रियाके लिए वितत भिन्नका उपयोग किया है । यथा १/२८ = ५ +3+३+3+ +3+३+३...........
उक्त आवर्त वितत भिन्न रूप है । ई० सन् १५७९ के विद्वान् राकेलो वाम्बोलीके बीज गणितमें भी इस भिन्नका निर्देश मिलता है । डेनियल-श्वीनटरने १५८५-१६३६ ई० में Geometrica Practica में इस भिन्नका उपयोग किण है। लार्ड ब्रानकरके निम्नलिखित समीकरणमें भी इस भिन्नका स्वरूप पाया जाता है
इस समीकरणका आधार वालिस (wallis) का निम्न सिद्धांत है A ३३५५७७९९ h २४४६.६८८ .....
वालिसने पाटी गणितके नियमोंमें वितत भिन्नकी संसृतियां अंकित की हैं। वास्तवमें निस्सीम राशियोंके आन्यनके लिए इस भिन्नका उपयोग किया जाता है । क्षेत्रमिति सम्बन्धो अवधारणाएं
क्षेत्रमिति या पाटोय ज्यामितिके सम्बन्धमें जैन लेखकोंकी अनेक मौलिक उद्भावनाएं मिलती है। षट् खण्डागमकी धवला टीकाके क्षेत्रानुगम, तियोयप'ण्णत्ति एवं त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों में क्षेत्रमिति सम्बन्धी सिद्धांतोंका वर्णन आया है। ग्रीक सिद्धांतोंको अपेक्षा इन सिद्धांतोंमें कई विशेषताएं निहित हैं । ग्रीकोने भुज और कोणको अपेक्षासे त्रिभुजोंके छः भेद माने हैं, पर महावीराचार्यने गणितसार संग्रहमें केवल भुजाकी अपेक्षासे त्रिभुजके तीन ही भेद पाये जाते हैं । समकोणका गणित अवश्य है पर कोणापेश या त्रिभुजोंके भेद-प्रभेदोंका उल्लेख नहीं है ।
क्षेत्रफल दो प्रकारका बताया है-१. व्यावहारिक प्रयोजनोंकी सिद्धिके हेतु अनुमानतः फल प्रतिपादक और सूक्ष्म रूपसे शुद्धफल प्रतिपादक । त्रिभुजका क्षेत्रफल = स १
स२ = (स - ब) ४३ और ल-/अ-सर १ अथवा /ब-स२२ होता है
स
१. विशेष जाननेके लिए देखें-प्रो. श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन एम. एस. सी. द्वारा लिखित __"तिलोयपण्णत्ति गणित" प्रकाशक जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलपुर, सन् १९५८ ई०. २. क्षेत्रं जिनप्रणीतं फलाश्रयद्वयावदारिक सूक्ष्ममिति । भेदाद् द्विषा विचिन्त्य व्यवहार स्पष्टमेतदभिधास्ये ।।
-गणितसार संग्रह, शोलापुर संस्करण क्षेत्र गणित प. २, पृ० १८१ ।
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३७.
ज्योतिष एवं गणित
त्रिभुज
अ.
स१
स
सा
अथवा क्षेत्रफल = /य (य - अ) (य - ब) (य-स), यहाँ य भुजाओंके योगकी आधो राशि है और अ, ब, स, त्रिभुजको भुजाएँ है ।
गणितसार संग्रहमें त्रिभुजको Properties का पूरा विवेचन आया है। उदाहरणार्थ अ ब स सक वत्तगत त्रिभुज है और अ ई उसका लम्ब है, तो वत्तके व्यासके लिए निम्न. लिखित सूत्र प्रयुक्त होता है।
व्यास = 4 = अ ब + बस
यहां ज्ञातव्य है कि व्यापीय त्रिभुजों और चतुर्भुजोंके पतर (Plane) त्रिभुज और चतुर्भुजोंके नियम व्यवहृत किए गए हैं । हाथी दांतका क्षेत्रफल एवं सूच्याकार क्षेत्रोंके क्षेत्रफल आनयनमें मौलिक प्रतिभाके दर्शन होते हैं ।
गणितसार संग्रहमें [१] वर्ग [२] आयत (३) द्विसम चतुर्भुज और (४) त्रिसम चतुर्भुज और (५) विषम चतुर्भुज, इस प्रकार पांच तरहके चतुर्भुजोंका उल्लेख मिलता है। सामान्यतः चतुर्भुज क्षेत्रफल निम्न प्रकार सिद्ध होता है ।
अ ब स द चतुर्भुजके अ ब = अ, ब स = ब, स द = स, अद-द इस स्थितिमें
स्थूल फल = अ + स - ब+द
२ यहाँ यह स्मरणीय है कि उक्त फल तभी ठीक होगा, जब चतुर्भुज वर्ग या आयत हो । अन्य स्थितियोंमें उक्त फल भ्रामक भी हो सकता है ।
सूक्ष्म मानके लिए निम्न सूत्र उपलब्ध हैं :(१) चतुक्षेत्र =
V(स-अ) (स-ब) (स-से) (स-द); यहाँ स = परिमितिकी अर्द्धराशि तथा अब
स द भुजाओंके माप हैं। (२) चतुक्षेत्र - (व+द)
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान चतुर्भुजके कोंके लिएकर्ण - V (अ स + ब द) (अ ब + स द)
अद+ब स अ - /(अ स + ब द) (अ ब + सद)
अब+सद भारतीय गणित परम्परामें महावीराचार्य ही एकमात्र ऐसे गणिताचार्य हैं, जिन्होंने अन्तर्गत (Re-entrant) चतुर्भुजोंका गणित निबद्ध किया है ।' वृत्तान्तर्गत चतुर्भुजका उल्लेख अत्यन्त विस्तारके साथ प्राप्त होता है ।
रिमित अभपारामत
व्यास = क्षेत्र
-Isocesiles Trapezilum के सम्बन्धमें
त्रिलोकसारमें तीन नियम उपलब्ध होते हैं ।
(१) क्षेत्रफल = 1 ल (अ + ब)
जहाँ अ, ब समानान्तर भृजाओं के माप हैं, वहां इन्हें एवं आधार और मुख को भुजाएं माना जायगा । समलम्ब चतुर्भुज के लिए यह नियम सत्य है । (२) ब की हानि या अ की वृद्धि
अ-ब- के अनुसार होती है।
(३) किसी ऊंचाई ल पर समानान्तर भुजा के माप को निकालने का नियम
ब-अ।
महावीराचार्यने गणितसार संग्रहमें किसी त्रिभुज चतुर्भुज और वृत्तको समानुपाती क्षेत्रमें विभक्त करने के नियम भी निबद्ध किये हैं। उदाहरणार्थ एक नियम प्रस्तुत किया जाता है।
१. आयतवृत्त-क्षेत्र गणितमार ७।६२ पृ० १९६, बहिश्चक्रवालवृत्त क्षेत्र अन्तश्चक्रवालवृत्त
क्षेत्रके नियम ७।६७४ पृ० १९७ २. वही ७८४, ८५ पृ० २०२-२०३ ३. मुहभूमीण विसेसे उदयहिदे भूमुहादु हाणिचयं ।
जोगदले पदगुणिदे फलं धणो वेध गुणिदफलं ।-त्रिलोकसार गाथा ११४ ४. खंडयुतिभक्ततलमुखकृत्यन्तर गुणित खंडमुखवर्गयुतम् । मूलमघस्तलमुखयुतदल हृतलब्धं च लम्बकः क्रमशः ।।
गणितसार संग्रह ७।१७५४ ० २३४
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ज्योतिष एवं गणित
FF-----
------
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---
-
भA ##
-
-
।
च छ ज झ दो बराबर भुजाओंका चतुर्भुज है और इ फ, ग ह तथा क ल रेखाएं चतुर्भुजको इस तरह विभाजित करती हैं कि विभाजित भाग क्षेत्रफलके सम्बन्धमें क्रमशः म न पख के अनुपातमें घटित होते हैं । च छ = अ, छ ज = द, ज झ = स, झ च = ब, अतएव
द -बर इ फ=NE -xम+ब';
म+न+ +ख
गह = Vद - बरे
-x (म + न) + ब२, म+न+प+ख
कल
क ल =
x (म + न + प) +4' इत्यादि क्रमसे आगे भी क्रिया की जा सकती है।
.
भ+न+प+ख
इफ+च फ
(अ+द+ब)
मा
म+न+प+ख
इग
इग
गह+इफ
२
(अ + दब )x म+न+प
मक-
-
क ल + ग ह इत्यादि
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१७६
TE
च छ (खज + चझ)
च इ (इफ + चझ)
परन्तु चछ (छज + चझ )
चइ (इफ + चझ)
२
२
(ज) 2 – (चज)
-
(इफ)
- चत
.. (इफ)
और इफ -
छज + च श
इफ + च फ
बुतक्षेत्र
भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
√ म
-
छज
म (छज
म + न + प + ख
-
चल २
-
प+स
तुलनात्मक कमी
म+न+प + ख
म
म + न + प + ख
म
-
[vi] व्यास = द = |
चक्ष
= पद
[ i ] परिधि = प [ii] क्षेत्रफल = अ = [iii] जीषा = प [iv] वृत्त खण्डका चाप = अ V६ उ +
[ v ] उ = ई (य - V२ – १२)
=
३
६
+ (च)
X म + ब
वृत्तक्षेत्रका गणित तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराज्यातिक, त्रिलोकसार, घवला - टीका, त्रिलोयपणत्ति एवं गणितसार संग्रह में विस्तारपूर्वक आया है । ग्रन्थकारोंने शुद्धतम रूपमें निकालनेका प्रयास किया है। यहां कतिपय सूत्र किया जावेगा ।
पाईका मान जैन देनेका ही प्रयास
(उर +
/ १० स द = व्यास
-
पर - ब
म+न+प + ख
/ ४उ (द - उ ); उ = चाप की ऊंचाई ।
= १० यह मान ग्रीस देशीय मानसे प्रथम दशमलव बिन्दु तक मिलता है ।
√ १० = ३·१६२ } तीन दशमलब बिन्दु तक
T = ३१४२
२०
०२ ३.१४२ ३१४२
परिधिके लिए - / १०८२ = द / १० यह आधुनिक नियम के तुल्य है ।
षट् खण्डागमकी धवला टीकामें
व्या० x १६ + १६ ११३
परिषि हो इसकी प्राचीनता व्यक्त करती है ।
C
- × म + बरे;
= अत्यल्प कमी है ।
+ ३ व्या० यह नियम स्थूल है और इसकी स्थूलता
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३७७
३७०
ज्योतिष एवं गणित क्षेत्रफलके लिए त्रिलोकसार (गाथा ७६२) मेंअ%३ (+ व्या) उ; यह मान सूक्ष्म है ।
चाप = V४उ (ब्या - उ) -यह नियम आजकल भी प्रचलित है । जीवाके लिए त्रिलोकसार (गाथा ७६६) में बताया है
जीवा = Vबाण२ - ६उ चापके लिए नियम(i) चाप = V ६ उ +१२ (२) (ii) चाप = ४ उ (उ+ 1
त्रिलोकसारके नियमोंके अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्यने चापार्घ जीवा और चापामें किसी प्रकारका अनुपातित सम्बन्ध प्राप्त किया है
चापार्घ जीवा = / +उ
द्वितीय कल्पना भी सम्भव हैअर्ध परिधि - /१० व्यासाई - १.व्या*
N
-/६ व्यासाद्ध + ४ व्यासादर त्रिलोकसारमें व्यासार्द्धके सम्बन्धमें एक समीकरण उपलब्ध होता है । यथाव्यासाद्ध = १-स -उस वृत्तका व्यासाद्ध है, जो स भुजीय वर्ग के बराबर है। अतएव ग = (१६) ।
गणितसार संग्रहमें वृत्त सम्बन्धी गणितका पर्याप्त विस्तार मिलता है । इसमें परस्परमें स्पर्श करनेवाले तीन और चार बराबर वृत्तोंके बीचका क्षेत्र निकाला गया है । यथा(i) C+Cg + h , बाध्य वृत्त परिधि
C, अन्तःवृत्त परिधि (ii) Cy + Cg xh /P. " चौड़ाई
CH + Cy xh = (२Pr, + २rry) (r, - r) १. ते णवसोडस माजिदावढें-त्रिलोकसार गाथा १८ २. विष्कम्यवर्गराशेर्वृत्तस्यकस्य सूक्ष्मफलम् ।
त्यक्त्वा समवृत्तानामन्तरजफलं चतुर्णा स्यात ॥ गणितसार, ७1८२३ पृ. २०१
४८
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३७८
भारतीय संस्कृतिके विकास में जैन वाङ्मयका अवदान " (F12 - 1.2) जब 11 = बाध्यवृत्त व्यासाद
rh = अन्त वृत्त व्यासाई UTATA (Ellipse)
गणितसार संग्रहमें आयत वृत्तका क्षेत्रफल' = २ a b+b' । a = Semi major axis b = Semi minor axis और परिधिके लिए ४a + २b ।
जैन ग्रन्थोंमें द्विधा विस्तृत क्षेत्र और द्विधाविस्तृत क्षेत्रोंका वर्णन भी मिलता है। इन क्षेत्रोंके गणित और परिमितियां भी वर्णित हैं ।
धनत्रयस्र-Triangular Pyramid घन चतुरन-Cube घनायत - Rectagular Parallelopiped घनवृत्त-Sphere धन परिमण्डल-Elliptic Cylinder
इन समस्त क्षेत्रोंका गणित भी गणितसार संग्रहमें दिया गया है। शंख, मृदंग, शंकु, भवकार, पणवाकार एवं वज्राकार क्षेत्रोंके क्षेत्रफल भी दिये गये हैं। इस प्रकार जैनाचार्योंने गणित सम्बन्धी अनेक मौलिक उद्भावनाएं की है। जन्यव्यवहार और पैशाचिक व्यवहार गणित कल्पना पर आश्रित है । बोज संख्याओंके वर्ग, वर्गान्तर, लम्ब, भुज-संरचना, कर्ण एवं क्षेत्र-परिवर्तन सम्बन्धी अनेक सिद्धान्त उक्त गणित नियमोंमें आये है। इनपर पृथक् प्रकाश डालना ही उपयुक्त होगा।
१. वही ७७३-६४ पृ. १९६
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जैन गणित का महत्व
भगवान् महावीर की वाणी प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग ओर द्रव्यानुयोग, इन चार अनुयोगों में विभाजित है। करणानुयोग में अलौकिक और लौकिक गणित-शास्त्र सम्बन्धित तत्त्वों का स्पष्टीकरण किया गया है । प्रस्तुत निबन्ध में केवल लौकिक गणित पर ही प्रकाश डाला जायेगा। लौकिक जैन गणित की मौलिकता और महत्ता के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने अपने विचार प्रकट किये हैं। भारतीय गणित-शास्त्र पर दृष्टिपात करते हुए डॉ० हीरालाल कापड़ियाने 'गणित-तिलक' की भूमिका में लिखा है
"In this connection it may be added that the Indian in general and the jains in Particular have not been behind any nation in Paying due attention to this subject. This is borne out by Ganita Sarsangraha (V.I. 15) of Mahaviracharya (850.A.D.) of the Southern School of Mathematics. There in the Points out thc usefulness of mathematics or the Scince of Calculation regarding the study of various Subjects like
music, logic, drama, medicine, architecture, cookery, prosody, grammar, Pocties, erotis etc.”
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि जैनाचार्योने केवल धार्मिकोन्नतिमें ही जैन गणितका उपयोग नहीं किया, बल्कि अनेक व्यावहारिक समस्याओंको सुलझानेके लिये इस शास्त्रका प्रणयन किया है । भारतीय गणितके विकास एवं प्रचार में जैनाचार्योंका प्रधान हाथ रहा है । जिस समय गणितका प्रारम्भिक रूप था, उस समय जैनोंने अनेक बीजगणित एवं मेन्सुरेशन सम्बन्ध समस्याओंको हल किया था।
___ डॉ० जी० थीबो (Dr. G. Thibaut) साहबने जैन गणितकी प्रशंसा करते हुए अपने "Astrologie ond Mathematik" शीर्षक निबन्धमें सूर्यप्रज्ञप्तिके सम्बन्धमें लिखा है
"This work must have been composed before the greeks came to India' as there is no trace of greek influence in it."
इससे स्पष्ट है कि जैन गणितका विकास ग्रीकोंके आगमनके पूर्व ही हो गया था। आपने आगे चलकर इसी निबन्ध में बताया है कि जैन गणित और जैन ज्योतिष ईस्वी सनसे ५०० वर्ष पूर्व अंकुरित ही नहीं, अपितु पल्लवित और पुष्पित भी थे।
प्रो० वेबर (weder) ने इन्डियन एन्टीक्वैरी नामक पत्र में अपने एक निबन्ध में बतलाया है कि जैनोंका 'सूर्यप्रज्ञप्ति' नामक ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण गणित-अन्य है । वेदाङ्ग ज्योतिषके समान केवल धार्मिक कृत्योंके सम्पादनके लिये ही इसकी रचना नहीं हुई है, बल्कि इसके द्वारा ज्योतिषकी अनेक समस्याओंकी सुलझा कर जैनाचार्योंने अपनी प्रखर प्रतिभाका परिचय दिया है।
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३८.
भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
___ मैथिक सोसाइटी के जनरल में डॉ० श्यामशास्त्री, प्रो० एम० विन्टरनित्स, प्रो० एच० बी० ग्लासनेप और डॉ० सुकुमाररंजन दास ने जैन गणित की अनेक विशेषताएं स्वीकार की है। डॉ० बी० दत्त ने कलकत्ता मैथेमेटिकल सोसाइटी से प्रकाशित बोसवें बुलेटिन में अपने निबन्ध "On Mahvira's Solutions of Ratinal Triangles and Quadrilaterals" में मुख्य रूपसे महावीराचार्यके त्रिभुज एवं चतुर्भुजके गणितका विश्लेषण किया है । हमें जैनागमोंमें यत्र-तत्र बिखरे हुए गणितसूत्र मिलते हैं । इन सूत्रोंमें से कितने ही सूत्र अपनी निजी विशेषताके साथ वासनागत सूक्ष्मता भी रखते हैं । प्राचीन गणितसूत्रोंमें ऐसे भी कई नियम हैं, जिन्हें हिन्दू गणितज्ञ १४ वीं और १५वीं शताब्दीके बाद व्यवहारमें लाये हैं । गणितशास्त्रके संस्था सम्बन्धी इतिहासके ऊपर दृष्टिपात करनेसे यह भलीभांति अवगत हो जाता है कि प्राचीन भारतमें संख्या लिखनेके अनेक कायदे थे-जैसे वस्तुओंके नाम, वर्गमालाके नाम, डेनिश ढंगके संख्या नाम, मुहावरोंके संक्षिप्त नाम । और भी कई प्रकारके विशेष चिह्नों द्वारा संख्याएँ लिखी जाती थीं।' जैन गणितके फुटकर नियमोंमें उपर्युक्त नियमोंके अतिरिक्त दाशमिक क्रमके अनुसार संख्या लिखनेका भी प्रकार मिलता है। जैन गणित अन्योंमें अक्षर संख्या की रीतिके अनुसार दशमलव और पूर्व संख्याएं भी लिखी हुई मिलती हैं । इन संख्याओं का स्थान-मान बाई ओरसे लिया गया है। श्रीघराचार्य की ज्योतिर्शान विधिमें आर्यभट्टके संस्थाक्रमसे भिन्न संख्याक्रम लिया गया है। इस ग्रन्थमें प्रायः अब तक के उपलब्ध सभी संख्याक्रम लिखे हुए मिलते हैं । हमें वराहमिहिर विरचित "बृहत्संहिता" की भट्टोत्पली टीकामें भद्रबाहु की सूर्यप्रज्ञप्ति-टीकाके कुछ अवतरण मिले हैं । जिनमें गणित सम्बन्धी सूक्ष्मताओं के साथ संख्या लिखनेके सभी व्यवहार काम में लाये मये है । भट्टोत्पलने ऋषिपुत्र, भद्रबाहु और गर्ग (वृद्ध गर्ग) इन तीन जैनाचार्योंके पर्याप्त वचन उद्धृत किये हैं । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भट्टोत्पलके समयमें जैन गणित बहुत प्रसिद्ध रहा था, अन्यथा वे इन आचार्योंका इतने विस्तारके साथ स्वपक्षकी पुष्टिके लिये उल्लेख नहीं करते । अनुयोग द्वारके १४२वें सूत्रमें दशमलव क्रमके अनुसार संख्या लिखी हुई मिलती है। जैन शास्त्रोंमें जा कोड़ाकोड़ीका कथन किया गया है, वह वर्गिकक्रमसे संख्याएँ लिखनेके क्रमका बोतक है । जैनाचार्योने संख्याओंके २९ स्थान तक बताये हैं । १ का स्थान नहीं माना है, क्योंकि १ संख्या नहीं है। अनुयोगद्वारके १४६ वें सूत्रमें इसीको स्पष्ट करते हुए लिखा है-"से किं तं गणणासंखा? एक्को गणणं न उवइ, दुष्पभिइ संखा"। इसका तात्पर्य यह है कि जब हम एक वर्तन या वस्तुको देखते हैं, तो सिर्फ एक वस्तु या वर्तन, ऐसा ही व्यवहार होता है, गणना नहीं होती। इसीको मलधारी हेमरन्द्रने लिखा है-"Thus the Jainas begin with Two and, of course, with the highest possible type of infinity."
जैन गणितशास्त्रकी महानताके द्योतक फुटकर गणितसूत्रोंके अतिरिक्त स्वतन्त्र भी कई गणित-ग्रन्थ है। इनमें त्रैलोक्यप्रकाश, गणितशास्त्र (श्रेष्ठचन्द्र), गणित साठसौ
१. संस्था सम्बन्धी विशेष इतिहास जान के लिये देखिये 'गणित का इतिहास' प्रथम भाग
१० २-५४
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ज्योतिष एवं गणित
३८१ (महिमोदय), गणितसार, गणितसूत्र (महावीराचार्य), लीलावती कन्नड़ (कवि राजकुंवर), लीलावती कन्नड़ (आचार्य नेमिचन्द्र) एवं गणितसार (श्रीधर)आदि ग्रन्थ प्रधान हैं। अभी हालमें ही श्रीधराचार्यका जो गणितसार उपलब्ध हुआ है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पहले मुझे सन्देह था कि कहीं यह अजैन ग्रन्थ तो नहीं है, पर इधर जो प्रमाण उपलब्ध हुए हैं उनके आधार से यह सन्देह बहुत कुछ दूर हो गया है । एक सबसे प्रबल प्रमाण यह उपलब्ध हुआ कि महावीराचार्यके गणितसार में "धनं धनर्णयोर्वर्गो मूले स्वर्णे तयोः क्रमात् ! ऋणं स्वरूपतोऽवर्गो यतस्तस्तस्मान्न तत्पदम्'-यह श्लोक श्रीधराचार्यके गणितसारका है । इससे यह जैनाचार्य महावीराचार्यसे पूर्ववर्ती प्रतीत होते हैं । श्रीपतिके 'गणिततिलक' पर सिंहतिलक सूरिने एक वृत्ति लिखी है । इस वृत्तिमें श्रीधरके गणितसारके अनेक उद्धरण दिये गये हैं । इस वृत्ति की लेखन-शैली जैन गणितके अनुसार है; क्योंकि सूरिजीने जैन गणितोंके उद्धरणोंको अपनी वृत्तिमें दूध-पानीकी तरह मिला दिया है । जो हो, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जैनोंमें श्रीधरके गणितसारको पठन-पाठन प्रणाली अवश्य रही थी। श्रीधराचार्यकी ज्योतिानविधिको देखनेसे भी यही प्रतीत होता है कि इन दोनों ग्रन्थोंके कर्ता एक ही है । इस गणितशास्त्रके पाटीगणित, त्रिंशतिका और गणितसार भी नाम बताए गये हैं। इसमें अभिन्न गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्न-समच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबन्ध, भागमातृजाति, पैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक , भाण्ड-प्रतिभाण्ड, मिश्रव्यवहार, भाव्यकव्यवहार, एकपत्रीकरण , सुवर्णगणित, प्रक्षेपकगणित, समक्रयविक्रयगणित , श्रेणीव्यवहार एवं छायाव्यवहारके गणित उदाहरण सहित बतलाये गये हैं । सुधाकर द्विवेदी जैसे प्रकाण्ड गणिताने इनको प्रशंसा करते हुए लिखा है
"भास्करेणाऽस्याने के प्रकारास्तस्करवदपहृताः । अहो अस्य सुप्रसिद्धस्य भास्करादितोऽपि प्राचीनस्य विदुषोऽन्यकृतिदर्शनमन्तरा समये महान् संशयः । प्राचीना एकशास्त्रमा कवेदिनो नासन् ते च बहुश्रुता बहुविषयवेत्तार आसन्न न संशयः।"
इससे स्पस्ट है कि यह गणितज्ञ भास्कराचार्यके पूर्ववर्ती प्रकाण्ड विद्वान् थे । स्वतन्त्र रचनाओंके अतिरिक्त जैनाचार्योने अनेक अजैन ग्रन्थों पर वृत्तियाँ भी लिखी है । सिंहतिलक सूरिने 'लीलावतीके' ऊपर भी एक बड़ी वृत्ति लिखी है । इनकी एकाध स्वतन्त्र रचना गणित सम्बन्धी भी होनी चाहिये।
लौकिक जैन गणितको अंकगणित, रेखागणित, और बीजगणित इन तीन भागोंमें विभक्त कर विचार करनेकी चेष्टाकी जायेगी।
जैन अंकगणित-इसमें प्रधानतया अंक सम्बन्धी जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, धन और घनमूल, इन आठ परिकों का समावेश होता है । भारतीय गणितमें उक्त बाठ परिकर्मों का प्रणयन जैनाचार्यों का अति प्राचीन है। आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और भास्कर मादि जैनेतर गणितज्ञोंने भी उपर्युक्त परिकर्माष्टकों के सम्बन्ध विचार-विनिमय किया है, किन्तु जैनाचार्योके परिकर्मों में अनेक विशेषाताएं हैं । गणितसंग्रह की अंग्रेजी भूमिकामें डेविड यूपीन स्मिथ (David Eugine Smith) लिखते है-"The shadaw Problems, Primitive cases of trignoretry and gnomonits, suggess a similarity
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३८२
भारतीय संस्कृति के विकासमें न वाङ्मयका अवदान
amongss these three great writers, and yet those of mahavirachaya art much belter then the one to be found in either Brahmagupta or Bhaskara.
इन पंक्तियोंमें विद्वान् लेखकने महावीराचार्य की विशेषता को स्वीकार किया है। महावीराचार्यने वर्ग करने की अनेक रीतियां बतलाई है। इनमें निम्नलिखित मौलिक और उल्लेखनीय हैं-"अन्त्य' अंकका वर्ग करके रखना, फिर जिसका वर्ग किया है उसी अंक को दूना करके शेष अंकोसे गुणा करके रखना, फिर जिसका वर्ग किया है उसी अंक को दूना करके शेष अंकोंसे गुणाकर एक अंक आगे हटाकर रखना । इस प्रकार अन्त तक वर्ग करके जोड़ देनेसे इष्टराशि का वर्ग हो जाता है " उदाहरण केलिये १३२ का वर्ग करना है
१४२ = २, २४३ = १४२ = २,२४२ =
(३२)३४२ = ६,६
(२२) =
इस वर्ग करने के नियममें उपपत्ति (वासना) अन्तनिहित है, क्योंकि मैं = (क + ग)२ . = (क + ग) (क + ग) = क (क + ग)+ग (क + ग) = क + क ग + क ग + गई। = क + २ क . गरे । उपर्युक्त राशिमें अन्त्य अक्षर (क) का वर्ग करके गणित अक्षर (क) को दूना करके आगे वाले अक्षर (ग) से गुणा किया गया है तथा आदि अक्षर (ग) का वर्ग करके सबको जोड़ दिया गया है । इस प्रकार उपर्युक्त सूत्रमें बीजगणित गत वासना भी सन्निबद्ध है । महावीराचार्य के उत्तरवर्ती गणितज्ञों पर इस सूत्र का अत्यन्त प्रभाव पड़ा है। इसी प्रकार "अन्त्यौजादपहृतकृतिमूलेन" इत्यादि वर्गमूल निकालने वाला सूत्र भी जैनाचार्योकी निजी विशेषता है । यद्यपि आजकल गुणा, भागके भयसे गणितज्ञ लोग इस सूत्र को काममें नहीं लाते हैं, तथापि बीजगणितमें इसके बिना काम नहीं चल सकता। घन और घनमूल निकालने वाले सूत्रोंमें वासना सम्बन्धी निम्न विशेषता पायी जाती है
अ. अ. अ = अ (अ + ब) (अ - ब) + ब (अ - ब) + 2 = अ । इस नियमसे बोजगणितमें घनमूल निकालनेमें बहुत सरलता रहती है। आज वैज्ञानिक युगमें जिस फारमुला (Formula) को बहुत परिश्रमके बाद गणितज्ञोंने प्राप्त किया है, उसी को जैन गणितज्ञ सैकड़ों वर्ष पहलेसे जानते थे । वर्तमानमें जिन वर्ग और घन सम्बन्धी बातों की गूढ़ समस्याओं को केवल बीजगणित द्वारा सुलझाया जाता है उन्हीं को जैनाचार्योने अंकगणितके माध्यमसे सरलतापूर्वक हल किया है । इनके अतिरिक्त जैन अंकगणितमें साधारण और दशमलव भिन्न१. कृत्वान्त्यकृति हन्याच्छेषपदैद्विगुणमन्त्यमुत्सार्य ।
शेषानुत्सायेवं करणीयो विधिरयं वर्गे । यहाँ अन्त्य अक्षरसे तात्पर्य इकाई, दहाईसे है प्रथम, द्वितीय अंकसे नहीं-परिकर्म व्यवहार श्लो. ३१
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ज्योतिष एवं गणित
३८३ के परिकर्माष्टक, साधारण, और मिश्र व्यवहार गणित, महत्तम और लघुत्तम समापवर्तक, साधारण और चक्रवृद्धि ब्याज, समानुपात, ऐकिक नियम, पैराशिक, पंचराशिक, राप्तराशिक, समय और दूरी सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी दिये गये हैं। जैन अंकगणितमें गच्छ, चय, आद्य
और संबद्धन संख्या आनयन सम्बन्धी सूत्रों की वासनागत सूक्ष्मता गणितज्ञोंके लिये अत्यन्त मनोरंजक और आनन्दप्रद है। “तिलोयपण्णत्ति" में संकलित धन लाने वाले सूत्र १-२ निम्नलिखित प्रकारसे बनाये गये है
१. पदके वर्गको चयसे गुणा करके उसमें दुगने पदसे गुणित मुखको जोड़ देनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसमेंसे चयसे गुणित पद प्रमाणको घटा कर शेषको आधा कर देनेपर प्राप्त हुई राशिके प्रमाण संकलित धन होता है ।
२. पदका वर्ग कर उसमेंसे पदके प्रमाणको कम करके अवशिष्ट राशिको चयके प्रमाणसे गुणा करना चाहिये । पश्चात् उसमें पदसे गुणित आद्यको मिला कर और फिर उसका आधा कर प्राप्त राशिमें मुखके अद्ध भागसे गुणित पदके मिला देनेपर संकलित धनका प्रमाण निकलता है।
गणित-पद ५, चय ४ और मुख ८ है । प्रथम नियमानुसार संकलित धन = (५)२५ ४ ४ = १००, ५४ २ = १०, १०४८ = ८०, (१०० + ८०)- १८०, ५ x ४ = २०, (१८० -२०)-१६०, १६०२०८०
द्वितीय नियमानुसार संकलित धन = (५)२ = २५, २५ - ५ = २०, २०४४-८०, ५४८ = ४०, (८० + ४०)- १२०, १२० २ = ६०, ८:२= ४, ४४५-२०, (२० + ६०) = ८० । उपर्युक्त दोनों ही नियम सरल और महत्त्वपूर्ण हैं । आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और भास्कर जैसे गणितज्ञ भी श्रेणी व्यवहारके चक्रमें पड़ कर सरल नियमोंको नहीं पा सके हैं। वस्तुतः गच्छ, चय, आद्य और संवर्द्धन सम्बन्धी प्रक्रिया जैनाचार्योंकी अत्यन्त मौलिक है । अंकगणितके नियमोंमें अद्धच्छेद सम्बन्धी सिद्धान्त formula) महत्त्वपूर्ण और मौलिक है । प्राचीन जैनेतर गणितज्ञोंने इन जटिल सिद्धान्तोंके ऊपर विचार भी नहीं किया है। आधुनिक गणितज्ञ अद्धच्छेद प्रक्रियाको लघुरिक्थ (Logarithm) के अन्तर्गत मानते हैं, पर इस गणितके लिए एक अंकटेबुल साथ रखनी पड़ती है । परन्तु जैनाचार्योने बिना बीजगणितका आश्रय लिए अंकों द्वारा ही अद्धच्छेदोंसे राशिका ज्ञान किया है । (१) देय राशि-परिवर्तित राशि (Substituted) के अद्धच्छेदोंका इष्ट राशिके अर्द्धच्छेदोंमें भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसीका अभीष्ट अर्द्धच्छेद राशिमें भाग देनेसे जो लग्ध आये, उतनी ही जगह इष्टराशिको रखकर परस्पर गुणा करनेसे अच्छेदोंसे राशिका ज्ञान हो जाता है । उदाहरण१. पदवग्गं चयपहदं दुगुणिगच्छेण गुणिदमुहजुत्तं । __ वड़िदहदपदविहीणं दलिदं जाणिज्ज संकलिदं ।। -तिलोयपण्णत्ति पृ० ६२ २. पदवग्गं पदरहिदं इत्यादि-तिलोयपण्णत्ति, पृ० ६३ ३. दिण्णच्छेदेणवहिदइट्टच्छेदेहिं पयरविरलणं भजिदे ।
लद्धमिदइट्ठरासीणण्णोण्णहदीए होदि पयवधनं ।।-गोम्मटसार जीवकाम गाथा नं० २१४
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें न वाङ्मयका अवदान स्वराशि (२) इसकी अन्द राशि १, इष्ट राथि १६, इसकी अछेद राशि ४, अभीष्ट बन्द राशि :-इन बच्छेदोंसे राशि निकालती है। ४:१-४, ८.४-२, १६४१६ - २५६ राशि आठ अच्छदों को है।
बच्छेदके गणितसे निम्नलिखित सिद्धान्त और भी महत्वपूर्ण निकलते है
$२ x'=', " x =++मगुण्य राशिके अच्छेदोंको गुणाकार राशिके गईन्छेदोंमें जोड़ देनेसे गुणनफल-राशिके बच्छेद बा जाते हैं। उपर्युक्त सिद्धान्त इसी वर्षका घोतक है । अंकगणितके अनुसार १६ गुण्यराशि, ६४ गुणाकार राशि और गुणनफलराशि १०२४ है । १६ गुण्यराशि = (२), गुणाकार ६४ - (२), (२) ४ (२)'. (२)°- गुणनफलराशि १०२४ - (२)"।
(क)' करक, कन-का--" भाग्य राशिके अच्छेदोंमेंसे भाजकराशिके अच्छेदोंको घटानेसे भागफल राशिके अच्छेद होते है। अंकगणितके अनुसार भाज्यराशि २५६, भाजक ४ और भागफल ६४ है । २५६ भाज्यराशि = (२), भाषक (२), (२) : (२) = (२)', भागफलराशि ६४ = (२)' ।
T (कम)न.कम.न इस सिद्धान्तको जैनाचार्योने अढच्छेदके गणितमें लिखा है कि विरलनराशि-विभाजितराशि ( Distributed number ) को देयराशि-परिवर्तितराशि (Substituted number) के अच्छेदोंके साथ गुणा करनेसे जो राशि आती है वह उत्पन्न राशि (rosulting number) के अच्छेदोंके बराबर होती है। व्यासःविभाजितराशि, परिवर्तितराशि'६, उत्पन्नराशि ६५५३६ है। परिवर्तितराशि १६ - (२)', (२)-(२), उत्पन्नराशि ६५५३६ - (२) ।
क)२ (क)' क', विरलन-विभाजितराशिके अछेदोंको देयराशिके बच्छेदोंके अवच्छेदमें जोड़नेसे उत्पन्न राशिकी वर्गशालाका प्रमाण आता है । विभाजितराशि ४, परिवर्तित राशि १६ और उत्पन्नराशि ६५५३६ है। विभाजितराशि ४ = (२)२, परिवर्तितराशि १६, (२२)३ = (२), ६५५३६ उत्पन्नराशि = (४२) ।
__उत्तराध्ययन सूत्रमें द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ षष्ठम और द्वादशम वर्गात्मक शक्तियों (Powers) के लिए वर्ग, धन, वर्ग-वर्ग, धन-वर्ग, और धन-वर्ग-वर्ग शब्दोंका प्रयोग मिलता
$ गुणयाररच्छेदा गुणिज्जमाणस्स अवच्छेदजुदा ।
लम्सवच्छेदा अहियस्स छेदणा गस्थि ।।-त्रिलोकसार गाथा नं० १०५ • मज्जस्सलच्छेदा हाररच्छेदणाहिं परिहीणा ।
अडच्छेदसलाणा लवस्स हवंति सम्बत्य ॥-त्रिलोकसार गापा नं. १०६ T विरलिज्जमाणारासि दिग्णस्सच्छिदीहिं संगुणिदे।
गच्छेदा होंति दु सम्बत्युप्पण्ण रासिस्स ॥-त्रिलोकसार गाषा नं० १०७ । विरलिदरासिच्छेदा विष्णईच्छेदछेदसं मिलदा ।
बग्गसलागपमाणं होंति समुप्पण्ण राखि ।।-त्रिलोकसार गापा नं० १०८
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ज्योतिष एवं गणित
३८५
(क) ४ इत्यादि
क
क
है । अनुयोगद्वार सूत्र १४२वें के अनुसार ( क ) २, (कर) ३ करें, (कॅ) 2, वर्गात्मक शक्तियोंका विश्लेषण होता है । इसी प्रकार वर्गमूलात्मक क _१/२, १/४, १/ इत्यादि शक्तियोंका उल्लेख भी जैन गणितमें किया गया है । गणितसार संग्रहमें विचित्र कुट्टीकार, एक गणितका प्रकार आया है, यह सिद्धान्त अंकगणितकी दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसके अनुसार बीजगणितके बड़े-बड़े प्रश्न सुलझाये जा सकते हैं । अन्य भारतीय गणितज्ञोंने जिन प्रश्नोंको चक्रवाल और वर्ग प्रकृतिके नियमोंसे निकाला है, वे प्रश्न इस विचित्र कुट्टीकारकी रीतिसे हल किये जा सकते हैं । अंकगणितमें जहाँ कोई भी कायदा काम नहीं करता, वहाँ कुट्टीकारसे काम सरलतापूर्वक निकाला जा सकता है । फुटकर सरलता गणित में त्रिलोकसारान्तर्गत १४ धाराओंका गणित उच्चकोटिका है, इस गणितपरसे अनेक बीजगणित सम्बन्धी सिद्धान्त निकाले जा सकते हैं ' । संक्षेपमें जैन गणितकी विशेषता बीजगणित सम्बन्धी सिद्धान्तोंके सन्निवेशकी है, प्रत्येक परिकर्म सूत्रसे अनेक महत्त्वपूर्ण बीजगणितके सिद्धान्त निकलते हैं ।
जेन रेखागणित - यों तो अंकगणित और रेखागणित आपसमें बहुत कुछ 1 मिले हुए हैं, फिर भी जैन रेखागणितमें कई मौलिक बातें हैं । उपलब्ध जैन रेखागणित के अध्ययन से यहीं मालूम पड़ता है कि जैनाचार्योंने मैन्स्यूरेशनकी ही प्रधानता रखी है, रेखाओंकी नहीं । तत्त्वार्थसूत्रके मूलसूत्रोंमें वलय, वृत्त, विष्कम्भ एवं क्षेत्रफल आदि मैन्स्यूरेशन सम्बन्धी बातोंकी चर्चा सूत्ररूपसे की गयी है । इसके टीका ग्रन्थ भाष्य और राजवार्तिक में ज्या, चाप, बाण, परिधि, विष्कम्भ, विस्तार, बाहु एवं धनुष आदि विभिन्न मैन्स्यूरेशनके अंगोंका सांगोपांग विवेचन किया गया है । भगवतीसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र, सूर्यप्रज्ञप्ति एवं त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति में त्रिभुज, चतुर्भुज, आयत, वृत्त और परिमण्डल (दीर्घवृत्त) का विवेचन किया गया है । इन क्षेत्रोंके प्रतर और घम, ये दो भेद बताकर अनुयोगद्वारसूत्रमें इनके सम्बन्धमें बड़ी सूक्ष्म चर्चा की गयी है । सूर्यप्रज्ञप्ति समचतुरस्र, विषमचतुरस्र, समचतुष्कोण, विषमचतुष्कोण, समचक्रवाल, विषमचक्रवाल, चक्रार्धचक्रवाल और चक्राकार, इन आठ भेदोंके द्वारा चतुर्भुजके सम्बन्ध में सूक्ष्म विचार किया गया है। इस विवेचनसे पता चलता है कि प्राचीनकालमें भी जैनाचार्योंने रेखागणितके सम्बन्धमें कितना सूक्ष्म विश्लेषण किया है
गणितसार संग्रह में त्रिभुजोंके कई भेद और क्षेत्रफल भी निम्नांकित प्रकारसे निकाले गये हैं
ग
अ
बतलाये गये हैं तथा उनके भुज, कोटि, कर्ण
म
क
१. देखिये - 'श्री नेमिचन्द्राचार्यका गणित' शीर्षक निबन्ध जैनदर्शन वर्ष ४, अंक १-२ में ।
४९
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
अग त्रिभुज, अग, भुज और कोटि हैं, क ग कर्ण है तथा 4 काग समकोण है; अ समकोण बिन्दुसे क ग वर्णके ऊपर अ म लम्ब गिराया है । . अ करे = क ग क म क म; अगर क ग ग म
C
= क ग
.. अ क + अग े = कग, कम + कग, ग म क ग ( कम + गम) = क ग = क गरे √क न े = / अ क + अ गरे
√भु' + को? =
V,क े;
क — भुरे
= /कोर;
: भुर
क्षेत्रफल —
३८६
=3
अ इ उ त्रिभुजमें छोटी भुज = भु, बड़ी भुज = भु,
भूमि = भू
अ क = लम्ब, छोटी,
* = q - { x2 -
-
=
- { x +
−
=
(12
= (२ १ भू भू +
=
-
आबाधा इक = भू – (भु-भुं)
२ भू
-
(y 2 − y 2 ) 2 } (भु भु
२ भू
- -
-
(†2
२ भू
-
— (भू + भु) 2 - भु
२ भू
भूरे+भुरे - भुरे
२ भू
)
a'2)) } ×
= (भू भु भुं)
- (1 + * + *) × ( 1 + 7 + (भू+भु
X
२
=
X
)
X
क
{ x − (y2 - 42-*2)) }
२ भू
(भुं – (भू - भु) 2
–
×
(11) (२.भू.स - भूक *-* )
(भू + भु+भुं ) x भू + भु–भुं)
•
२ भू
(भू + भु + भुं) x (भूं + भु–भुं) (भू + भुं – भु) (भु + भुं—भू)
X.
x
x
२
२
२
२
= )
31
२ भू
(भुं + भू-भु) X (भुं + भु-भू)
२ भू
उ
* - * ) × (1+1+1 − ) × (1+1+1 − q )
भु
_
X
२
२
इसका वर्गमूल त्रिभुजका क्षेत्रफल होगा । यों तो उपर्युक्त नियम' को प्रायः सभी गणितज्ञोंने कुछ इधर-उधर करके माना है पर वासनागत सूक्ष्मता और सरलता जैनाचार्यों की महत्त्वपूर्ण है ।
वृत्तक्षेत्रके क्षेत्र में प्राचीन गणितमें जितना कार्य जैनाचार्योंका मिलता है उतना अन्य लोगोंका नहीं । आजकलकी खोजमें 'वृत्त'की जिन गूढ़ गुत्थियोंको मुश्किलसे गणितज्ञ सुलझा रहे हैं, उन्हींको जैनाचार्योंने संक्षेपमें सरलता पूर्वक अंकोंका आधार लेकर समझाया है । वृत्तके सम्बन्ध में जैनाचार्योंका प्रधान कार्य अन्तः वृत्त, परिवृत्त, बाह्यवृत्त, सूत्रीव्यास, वलयव्यास, समकोणाक्ष, केन्द्र, परिधि, चाप, ज्या, बाण, तिर्यक् तथा कोणीय नियामक, परिवलय व्यास, १. त्रिभुजचतुर्भुज बाहुप्रति बाहुसमासदलहतं गणितम् । नेमेर्भुजयुत्यर्थं व्यासगुणं तत्फलार्थमिह बालेन्दोः ।।
- गणितसार संग्रह - क्षेत्राध्याय श्लो० ७ १० १८२
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ज्योतिष एवं गणित
१८७ दीर्घवृत्त, सूत्रीस्तम्भ, वृत्ताधारवेलन, चापीयत्रिकोणानुपात, कोटिस्पर्श, स्पर्शरेखा, क्षेत्रफल और घनफलके विषयमें मिलता है।
जैन बीजगणित-जैन अंकगणितके करणसूत्रोंके साथ बीजगणित सम्बन्धी सिद्धान्त (formulae) व्यापक रूपसे मिलते हैं। जैनाचार्योंने अपनी प्रखर प्रतिभासे "अंकगणितके करणसूत्रोंके साथ बीजगणितके नियमोंको इस प्रकार मिला दिया है कि गणितके साधारण प्रेमी भी बीजक्रियासे परिचित हो सकते हैं। जैन बीजगणितमें एकवर्ण समीकरण, अनेक वर्ण समीकरण, करणी, कल्पितराशियां, समानान्तर, गुणोत्तर, व्युत्क्रम, समानान्तर श्रेणियाँ, क्रम-संचय, घाताङ्क और लधु-घाताङ्क और लघु-गुणकोंके सिद्धान्त तथा द्विपद सिद्धान्त आदि बीजक्रियाएँ हैं। उपर्युक्त बीजगणितके सिद्धान्त धवलाटीका, त्रैलोक्यप्राप्ति, लोकविभाग, अनुयोगद्वारसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, गणितसारसंग्रह और त्रिलोकसार आदि ग्रन्थोंमें फुटकर रूपमें मिलते हैं। धवलामें बड़ी संख्याओंको सूक्ष्मतासे व्यक्त करनेके लिये घाता-नियम (वर्ग-संवर्ग) का कथन किया गया है ।
बीजक्रियाजन्य घाताङ्कका सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण और मौलिक है। डॉक्टर अवधेशनारायण "धवला"की चतुर्थ जिल्दकी अंग्रेडी भूमिकामें लिखते हैं
"The theory of the indices as described in the Dhavala in Somewhat different from what is found in the mattemntical works. This theory is certainly primitive and is earlier than 500 A. D. The fundamental ideas seem to be those of (i) the Sguare, (ii) the cube (iii) the Successive Square (iv) the Successive cube (v) the raising of a number to itsown power, (vi) the Square root, (vii) the cube root, (viii) the Successive Square root (ix) the Successive crbe root etc."
घाताङ्क सिद्धान्तके अनुसार मई को अ के घनका प्रथम वर्गमूल माना जायेगा। धवलाके सिद्धान्तोंके अनुसार उत्तरोत्तर वर्ग और घनमूल निम्नप्रकार सिद्ध होते है
अ का प्रथम वर्ग अर्थात् (अ)२ = अरे ,,, द्वितीय वर्ग ,, (अ)२ = अ = अरे ,, ,, तृतीय वर्ग ,, (अ) = अ = अरे ,,, चतुर्थ वर्ग ,, (अ) = अ - अ ,, ,, पंचम वर्ग ,, (अ) = =
,, षष्ठ वर्ग ,, (अ)वृत्त सम्बन्धी इन गणितोंकी जानकारीके लिये देखिये'तिलोयपण्णत्ती' गाथा नं० २५२१, २५२५, २५६१, २५६२, २५६३, २६१७, २६१९, २८१५ से २९१५ तक । 'त्रिलोकसार' गाथा नं० ३०९, ३१०, ३१५, ७६०, ७६१, ७६२, ७६३, ७६४, ७६६ गणितसार एवं गणितसारका क्षेत्राध्याय । 'वाचार्य नेमिचन्द्र और ज्योतिषशास्त्र' शीर्षक निबन्ध भास्कर, भाग ६, किरण २ एवं 'भाचार्य नेमिचन्द्रका गणित' शीर्षक निबन्ध; जैनदर्शन वर्ष ४ अंक १-२
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३८८ भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
इसी प्रकार अरे का दृष्टाङ्क वर्ग = (अ) इ = अ इ घाताङ्क के अनुसार (१) क - + व (२) मन-म- न (३)(म) = अमन
बीजगणितके एकवर्ण समीकरण सिद्धान्तके आविष्कर्ता, अनेक विद्वानोंने जैनाचार्य श्रीधरको माना है । यद्यपि इनका नियम परिष्कृत एवं सर्वव्यापी नहीं है फिर भी प्राचीनताके स्यालसे महत्त्वपूर्ण है। श्रीधराचार्यके नियमानुसार एक अज्ञात राशिका मान निम्नलिखित प्रकारसे निकाला जाता है
__ कब:ख ब = ग । इस गणितमें क, ख, ग, ये ज्ञात राशियां और ब अज्ञात राशि है । कियामें श्रीधराचार्यने समगुणन और भजनका नियम निकाल कर इस प्रकार रूपान्तर किया है- +9 ब = दोनों राशियोंमें समजोड़ देनेसे भी समत्व रहेगा।
-+-४ ग क ! यहाँ दोनों पक्षों क घटा दिया तो
..ख+ ४ ग क ख र+४ ग क .
२क ___इस प्रकार जैनाचार्योने अज्ञातराशिका मान निकाला है। गणितसारसंग्रहमें अनेक बीजगणित सम्बन्धी सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया गया है। यहाँ उदाहरणार्थ मूलधन, व्याज, मिश्रधन और समय निकालनेके सम्बन्धमे कुछ महत्वपूर्ण सूत्र दिये गये हैं। मूलधन-स, मिश्रधनम, समय-ट, व्याज-इ,
म= स.x आ १. (i) स-1
१+ईxexई । आम-स
ट+स
(i) स = 2+ १
टर्स
.
(iii) आ = अनेक प्रकारके मूलधन
२. वा Xट १ मा
ईxस
Xट
(RV म - Xxxx आ + - म ।
रम=स+ट
(ii) संx,xम
ट,xट, + स२४ट+स.xट+........ = आ, १. छट्वग्गस्स उवरि सत्तमवग्गस्स हेढदोत्ति वुत्ते अत्थवत्तीण जोइत्ति.. "धवलाटोका
जिल्द ३ पृ. २५३
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ज्योतिष एवं गणित
३८९
स.x.xम
स.Xट, +२ संXट: + सxट, + ...... - आ व्याजके लिये सूत्र (formula)
आज
ट
म- स, + स२ + स + समय निकालनेके लिए सूत्र (formula)४. (i)
A12*
म-ट
131
+ट.+23
स
सर
स
/स
(i) Jस xx x म + (२x२) २ - सह-६-स
सXट
xम+
XT
x
ट
मट ___स, Xट, स३४८३.....
-
--
-
जैन गणितमें भिन्न सम्बन्धी बीजगणितकी क्रियाएं महत्त्वपूर्ण और नवीन हैं । मुझे भिन्न (fraction) के सम्बन्धमें शेषमूल, भागशेष, मूलावशेष और शेष जातिके ऐसे कई नियम मिले हैं जो मेरी बुद्धिके अनुसार प्राचीन और आधुनिक गणितमें महत्त्वपूर्ण हैं । नमूनेके लिए शेषमूल'का नियम नीचे दिया जाता है
____सकुल संख्या, स = स' के वर्गमूलसे गुणित-राशि, ब = भाजित राशि, अ = अवशेष ज्ञातराशि है।
म
-
-
+
N१-ब
(i) स - य स - 1 (at) स- इस
(5) /(5)+अब} ..
१. मूलाग्रे छिन्धादशौ नैकेन युक्तमूलकृतः । दृश्यस्य पदं सपदं वगितमिह मूलजाती स्वम् ।।
-गणितसारसंग्रह, प्रकीर्णकायाय श्लो. ३३
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
धवलाटीकामें भी भिन्नोंकी अनेक मौलिक प्रक्रियाएं हैं, सम्भवतया ये प्रक्रियाएं अन्यत्र नहीं मिलतीं । उदाहरणार्थ कुछ नीचे दी जा रही है
१. न(नाम=न एक दी संख्यामें दो भाजकोंका भाग देनेसे परिणाम निम्नलिखित होता है
(लक अथवा रवाना यदि = क और म'क' तो द (क - क') + म' = म यदि क, तो - -- तथा ---
-
-क,
तो
=क
- ब
-
+
-
-
ब+
ब
ब
-
-
र
इस प्रकार अनेक भिन्न सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण नियम दिये गये हैं। सभी करणोंके प्रकरणमें भी ऐसे कई नियम हैं जिनके द्वारा अधिक गुणा भागके चक्रमें बिना पड़े ही सरलतापूर्वक समीकरण (Equation) हल किये जा सकते हैं ।
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तिलोयपण्णत्तिके श्रेणी व्यवहारके दस सूत्रोंकी उपपत्ति
तिलोयपण्णत्ति करणानुयोगका प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इसमें सैद्धान्तिक बातोंके स्पष्टीकरणके लिए गणितका अवलम्बन लिया गया है । जैनाचार्योंने आध्यात्मिक विषयोंका निरूपण गणितके नियमोंके आधारपर किया है। गणितका स्थान जैन साहित्यमें महत्त्वपूर्ण है। इसका सम्बन्ध महावीराचार्यने संगीत, तर्कशास्त्र, नाटक, आयुर्वेद, कला-कौशल, व्याकरण आदिके साथ स्थापित किया है। इनका तो यहाँ तक कहना है कि संसार का कोई भी ज्ञान-विज्ञान गणित शास्त्रके परिज्ञानके बिना अधूरा है। धर्मशास्त्रको परिभाषाएँ, द्रव्य और गुणोंकी व्यवस्थाएँ एवं विश्वके रहस्यको प्रस्फुटित करनेवाले भौगोलिक सिद्धान्त गणित सम्बन्धी तों पर प्रतिष्ठित हैं। क्योंकि अनेक वस्तुएं जिन्हें हम आँखोंसे नहीं देख पाते हैं, वे तर्कके द्वारा ही सिद्ध की जा सकती है। पर यह सत्य है कि गणितके क्षेत्रमें तर्कका प्रयोग करना दुष्कर है । इसके लिए प्रवीणता और क्षमता दोनों ही शक्तियोंकी आवश्यकता होती है। तर्कके दो भेद हैआगमन और निगमन । जब दो वक्तव्य एक दूसरेसे इतना घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हों कि पहलेके सत्य होनेपर दूसरेका सत्य होना आश्रित हो तो इसे निगमन प्रणालीका तर्क कहा जाता है। जैसे क-२, ख = ५, तो अनुमान द्वारा क + ख - (५+२) =७, निगमन शैलीके तर्क द्वारा अनुमानको उलट देने पर हम इस सत्यको भी पाते हैं कि क = ३ और ख = ४; क +ख -(४+३) =७ । निगमन शैली द्वारा परिणाम निकाला गया-क-ख तथा ख = ग
क - ग । यहाँ क, ख और ग का कुछ भी मान रखा जाय पर परिणामोंमें किसी भी प्रकारका अन्तर नहीं होगा। निगमन शैलीमें किसी भी अनुमानका आधार उसके निगमनसे अधिक व्यापक होता है; निगमनकी व्यापकता आधारकी व्यापकताके बराबर हो सकती है, पर उससे अधिक कभी नहीं होगी। पर आगमन शैली में आगमन अपने आधारसे सर्वदा अधिक व्यापक होता है । आगमन प्रणालीके तर्ककी परिभाषा करते हुए कहा गया है कि कई विशिष्ट स्थितियोंके आधारपर यदि हम किसी संभव वक्तव्य पर पहुंचते हैं तो उसे आगमन शैलीका तर्क कहा जाता है। इस प्रणालीमें सामान्यसे विशेषको प्राप्त किया जाता है तथा निगमनमें विशेषके कथन द्वारा सामान्यको प्राप्त किया जाता है ।
उपर्युक्त दोनों ही तर्क शैलियां गणित सूत्रोंकी उपपत्तिको अवगत करनेके लिए आवश्यक हैं। इनके प्रयोगके बिना उपपत्ति (वासना) निकाली नहीं जा सकती है । अतः तर्ककी शैली परिभाषाओंका संक्षेपमें उल्लेख कर देना आवश्यक है। यों तो गणित शास्त्रमें वासनाका मूल बुद्धि है । इसीके उपयोग द्वारा सूत्रोंकी उपपत्तियां निष्पन्न की जाती है।
प्रस्तुत निबन्धमें श्रेणी व्यवहारके दस सूत्रोंको उपपत्ति दी जा रही है। इस गणितमें प्रथम स्थानमें जो प्रमाण होता है, उसे आदि, मुख, वदन या प्रभव कहते हैं। अनेक स्थानोंमें समान रूपसे होनेवाली वृद्धि अथवा हानिके प्रमाणको चय या उत्तर तथा जिन स्थानोंमें समानरूपसे वृद्धि या हानि हुआ करती है, उन्हें गच्छ या पद कहते हैं ।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान मुख, चय, गच्छ और संकलित धनोंका प्रमाण निकालनेके लिए निम्न सूत्र आये हैं । १. सूत्र
चयहदमिच्छृणपदं रूणिच्छाए गुणिदचयजुत्तं ।
दुगुणिदवदणेण जुदं पददलगुणिदं हवेदि संकलिदं ॥२६४ अर्थ-इच्छासे हीन गच्छको चयसे गुणा करके उसमें एक कम इच्छासे गुणित चयको जोड़कर प्राप्त हुए योगफलमें दूने मुखको जोड़ देनेके पश्चात् उसको गच्छके आधे भागसे गुणा करने पर संकलित धनका प्रमाण होता है। .
अंक उदाहरण-गच्छ ११, इच्छा २, चय ८, आदि २०५ । = ११ -२ = ९४८- ७२,२-१ = १४८,७२ + ८-८०,२०५४ २ = ४१०, ४१० + ८० = ४९०, ११ : २ = ११४४९० = २६९५ संकलित धन । उपपत्तिमान लिया स = s = सर्वधन, मु = a = मुख, च = b = चय, इ = c = इच्छा, ग = n = गच्छ मु मु च म च मु
मु ग च। स = a + (a + b) + (a + 2b) + a+ 3b + ...... + { a+ (n - 1) b}
s = { a + (n - 1) b } + { a+ (n- 2) b} + { a+ (n + 3) b } +
{a+ (n-4) b } + - +a
:::25 = { 2a + (n-1) b } + { 2a + (n- 1) b} + {2a + (n-1) b}
+ {2a + (n- 1) b + .... + {2a + (n- 1) b}
={2a+ (n- 1) b} n..............(क)
ग इ इ च मु ग -{(n-c+c- 1) b + 2a} n
={ (n-c) b + (c- 1) b+ 2a} n
ग इच इ च मु ग : स = {(n-c) b + (c - 1) b + 2a} n
..स - {(ग-इ) च + (इ - १) च + २मुह ..............(ख)
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ज्योतिष एवं गणित
३९३
२. सूत्र
मान लिया आ = न संख्यक पृथ्वीकी आदि संख्या (सातवीं पृथ्वीको पहली मानकर
उलटा चलने पर)।
आ = ५ आर = १३ =५+१च आ3 = ३७ =५+१च+३च आ. = ७७ = ५+१च+३ +५च आ५ = १३३ =५+१च + ३च+५+७च
इसी प्रकार ..आ, = ५ आ२ - आ, = ८ = च = (२४२-३) च आ3 - आ२ = ३च (२४ ३-३) च आ - आई = ५च = २४४-३) च आ- आ४ = ७च = (२४५-३) च अ"""" आ न - आ न - (२४ न - ३) च जोड़नेसे आ न = ५ +{२ (२+३+४+ ........ + न)- (न - १)३}च =५+{२ - (१+२-३+४+ ............+न)- ३न+१}न ५+२ (न) (न + )- ३न + १}च
=५+इन+न - ३न + १}च -५+ न२ - २न + १) चन संख्यक पृथ्वीका गच्छ ग = २ (न-१) + १ = २न-२+१ = २न-१
(२) का मान (१) में रखने सेआ.न = ५ + (११) - ग+ १ - १}च = ५+ (-१) इसको (क) में रखने पर स = ६५ + (-१) च +(" - १)चग __-(-२) + (-१) च+च ५]
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
इस उपपत्तिके आधार पर
एक्कोणमवणिइंदयमद्धिय वग्गिज्ज मूलसंजुत्तं ।
अट्ठगुणं पंचजुदं पुढविदयताडिदम्मि पुढविधणं ॥२-६५ __ अर्थात्-गच्छके प्रमाणमें से एक घटाकर आधेका वर्ग कर देनेसे जो आवे इसे गच्छमेंसे एक घटाकर आधा कर जोड़ देना चाहिए । पश्चात् इसे चयसे गुणाकर गुणनफलमें पंचगुणित चय जोड़ देनेपर सर्वघनका प्रमाण प्रकारान्तरसे आता है ।
१)xच० + ५४ ग०
यथा ग० १३, चय ८ १३-१)
) = ३६ + ६%D४२४८3३३६+५= ३४१x१३
-
१
/ग
-११
-
.
-
-.
३६+
४४३३ रु. उपर्युक्त उपपत्तिसे यह सूत्र निष्पन्न हो गया३ सूत्र--संकलित धन लाने का प्रकारान्तर
___ चयहदमिट्ठाधियपदमेक्काधियइट्ठगुणिदचयहीणं ।
दुगुणिदवदणेण जुदं पददलगुणिदम्मि होदि संकलिदं ।। २-७० अर्थ-इष्टसे अधिक पदसे चयको गुणा करके उसमें से एक अधिक इष्टसे गुणित चय को घटा देने पर जो शेष रहे उसमें दुगुने मुखको जोड़कर गच्छके आधेसे गुणा करनेपर संकलित धन होता है।
उदाहरण-(ग+ इ) च - (इ + १) च + २ मु०; गच्छ ४९, इष्ट ७, चय ८, मुख ५ = {(४९ + ७)- ८} - {(७ + १४८) + (५ x २)}x ५९ =९६५३ उपपत्ति
प्रथम सूत्रकी उपपत्तिमें आये हुए (क) फलके आधारसे । स = {{ग – १) च + २मु = {(ग+ इ - इ - १)च + २मु} :
= {(ग+ इ)च - (इ + १)च + २मु ४ सूत्र-संकलित धन लानेका अन्य प्रकार--
अद्वत्तालं दलिदं गुणिदं अट्रेहि पंचरूवजदं ।
उणवण्णाए पहदं सव्वधणं होइ पुढवीणं ।। २-७१ अर्थ-अड़तालीसके आधेको आठसे गुणा करके उसमें पांच मिला देनेपर प्राप्त हुई राशिको ४९ से गुणा करनेपर सर्वधनका प्रमाण होता है ।
गणित सूत्र-३८४८+ ५}४९=९६५३
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ज्योतिष एवं मणित
३९५
उपपत्ति
___ (क) से स= {(ग - १) च + २मुई
ग = ४९, च-८, मु=५ वर्गों के स्थानपर अंक संख्या रख देनेसे
_ ={" x ८+ ५}४९ ५ सूत्र--संकलित धन निकालनेका अन्य नियम--
पदवग्गं चयपहदं दुगुणिदगच्छेण गुणिदमुहजुत्तं ।
वड्ढिहदपदविहीणं दलिदं जाणिज्ज संकलिदं ॥२-७६ अर्थ-पदके वर्गको चयसे गुणा करके उसमें दुगुणित पदसे गुणित मुखको जोड़ देने पर जो राशि उत्पन्न हो उसमेंसे चयसे गुणित पद प्रमाणको घटाकर शेषको आधा कर देने पर प्राप्त हुई राशिके प्रमाण संकलित धन होता है। ___ गणित सूत्र-(पद x चय) + (पद x २४ मुख)-(चय x पद) संकलित धन
उदाहरण-पद १३, चय ८, मुख २९२ अतः (१३२४८) + (१३ ४२४ २९२)- . (८४१३) ४४२० उपपत्ति(क) स= {(ग- १)च + मु}
___= (गxच - + २मु)ग
-गxच+गx२xम-चxग
२
६ सूत्र-संकलित धन निकालनेका अन्य प्रकार
पदवग्गं पदरहिदं चयगुणिदं पदहदादिजुदमद्धं । ___मुहदलपहदपदेणं संजुत्तं होदि संकलिदं ॥२-८१
अर्थ-पदके वर्ग से पदके प्रमाणको घटाकर अवशिष्ट राशिको चय प्रमाणसे गुणा करना चाहिए । पश्चात् इसमें पद गुणित आदिको जोड़नेपर जो योगफल हो उसके आधेमें मुखके अर्धभागसे गुणित पदको जोड़ देनेके संकलित धन होता है । गणित सूत्र{(पद-पद)x चय + (पद x आदि)} .
1-संकलित धन
+ (पद X आदि)} + ( आदि x पद ) – संकलित धन
/ आदि
-Xपद
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान उदाहरण-पद : ९, चय ८, आदि ४. {१४९ - ४९) x ८+ (४९४४)} + (२ ४४९) = ९६०४ संकलित धन उपपत्ति(क) से स= {(ग १) च + २५
= (ग x च - च + मु + मु)
= ग२x च-गx च + मुमु + मुग
= गरे ४ च - ग X च + ग X मु, मृग
= (ग२ – गोच' + ग X मु + मु x ग ७ सूत्र--आदि धनके निकालनेका नियम
पददलहिदसंकलिदं इच्छाए गुणियदचयसंजुत्तं ।
रूऊणिच्छाधियपदचयगुणिलं अवणियद्धिदे आदी ॥२-८३ अर्थ-संकलित धनमें पदके आधेका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसमें इच्छा-गुणित चयको जोड़ देना चाहिए । इस योगफल राशिमें चय गुणित पद तथा एक कम इच्छा राशिको घटानेपर जो अवशेष आवे उसका आधा कर देनेसे आदिका प्रमाण होता है । गणित सूत्र
{(संकलित धन :-) + (चय x इच्छा) - (इच्छा - १ + पद x चय)} .
२
उदाहरण-संकलित धन ९६०४, पद ४९, चय ८, इच्छा ७ ::{(९६०४ : ४३) + (८४७) - (७ - १ +.४९४८) _
उपपत्ति
(क) से स= {(ग - १)च + २मु}} 7
.. (ग- १)च + २ मु = स’ .. २मु = (स: )- (ग- १)च __-(स )-(इ-इ- १ + ग)च
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ज्योतिष एवं गणित
३९७
- + इx च - (इ - १ + ग)च
:- + ग + च - (इ -- १ + ग)च मु =८ सूत्र--चयधनके निकालनेका नियम
पददलहदवेकपदावहरिदसंकलिदवित्तपरिमाणे ।
वेकपदद्धेण हिदं आदि सोहेज्ज तत्थ सेस चयं ।। २-८४ अर्थ-पदके अद्ध भागसे गुणित जो एक कम पद, उससे भाजित संकलित धनके प्रमाण मेंसे एक कम पदके अर्ध भागसे भाजित मुखको कम कर देनेपर शेष चयका प्रमाण होता है। गणित सूत्र-संकलितधन : (पद - १ :
आदि : चय उदाहरण-संकलितधन ९६०४, गच्छ ४९, आदि ४
. ९६०४ + ( ४९ - १ + ४६ )-(४४४९-१) - ८ चय उपपत्ति(क) से स= {(ग- १)च+२मु
= (ग- १) च + मुग
पद-१
.:. (ग-१
मु
.. च = स’ (ग- १) - मुग’ (ग- १) ३
= स’ (ग + १) 2 + मुग९ सूत्र--पद के निकालने का विधान
चयदलहदसंकलिदं चयदलरहिदादि अद्धकदिजुत्तं ।
मूलं परिमूलूणं पचयद्धहिदम्मि तं तु पदमथवा ॥२-८५ अर्थ-चयके अर्धभागसे गुणित संकलित धनमें चयके अर्धभागसे रहित मुखके अर्धभागके वर्गको मिला देनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसका वर्गमूल निकाले; पश्चात् उसमेंसे पूर्वमूलको-जिसके वर्गको संकलित धनमें जोड़ा था, घटाकर अवशिष्ट राशिमें चयके अर्धभाग का भाग देनेपर पदका प्रमाण निकलता है। गणित सूत्र-/' x संकलित धन) + (
(आदि - चय/२)२ .
2 - पूर्वमूल = पद
चय
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान उदाहरण-संकलित धन ४४२०, चय ८, आदि २९२ ।
उपपत्ति
..' (६x४२०) + (२९२-६)_ (२९२-६ : १) = १३ पद (क) से स = [(ग- १) च+ २मा
गचाम
،
५ x स ग व ग न , मगच (ई से गुणा करने पर - (ग) + २ ४ गम (-) + (-1) - (-1) - (+-)-F-5)
دوا سه
سه
له
...क
+२ क ख+
गच
च
स
+
२
MAKIAKIA
.. गच + (-) = "5 x स + (-1) .. (गच - ४ च स + (-४) -(--) -इस + (-२) - Y - चरि (ख) ग-( इ स + (-बार") म-परि
१० सूत्र पद या गच्छ निकालनेका अन्य नियम
दुचयहदं संकलिदं चयदलवदणंतरस्स वग्गजुदं ।
मूलं परिमूलूणं चयभजिद होदि तं तु पदं ॥ २-८६ अर्थ-संकलित धनको द्विगुणित चयसे गुणाकर गुणनफलमें चयके अदभाग और मुख के अन्तररूप संख्याके वर्गको जोड़कर उसका वर्गमूल निकालनेपर जो संख्या प्राप्त हो उसमेंसे पूर्वमूलको घटाकर शेषमें चयका भाग देनेपर लब्ध प्रमाण पद या गच्छ होता है । गणित सूत्र{.'(चय x २४ सर्वधन) + मुख - - (मुख - ३}चय = पद गणित-चय ८, सर्वधन ४४२०, मुख २९२ :V(२४८४४४२०) + (२९२-३)२-(२९२ -१ ८ = १३ पद
चय
चय
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ज्योतिष एवं गणित
३९९
उपपत्ति
(ख) से गच - ६ स+ (मु-चरि)२ _ मु-चार ..गच = २६४ ६ स + (मू-बाश) - (F- 5 )} २ से गुणा करनेपर = Vचस + (मु - --इ) .. ग ={/२चस + (मु - ३) - (मु-३)}’ च
इस प्रकार संक्षेपमें श्रेणी व्यवहारके दश सूत्रोंकी उपपत्ति यहाँ दी गई है।
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संस्कृत-साहित्ये त्रिभुजगणितम्
संस्कृत-साहित्ये विविध ज्ञान-विज्ञानानां भाण्डारं प्राप्यते । आयुर्वेद - गणित - ज्योतिषमन्त्र-तन्त्रादिविविधविषयाः संस्कृतवाङ्मये निबद्धाः सन्ति । वैदिकवाङ्मये ज्योतिषगणितयोरनेकसूत्राणि लभ्यन्ते । यज्ञीयकुण्डानां गणित हेतवे तथा तस्कुण्डानां शुद्धरूपेण निर्माणाय त्रिभुजगणितोपयोगो वैदिककालेऽपि क्रियमाण आसीत् । यज्ञविधि - सम्पन्नतायै चतुष्कोणत्रिकोण-वृत्ताकार - षड्भुजरूप - बहुभुज रूपाद्यनेकप्रकाराणि कुण्डानि निर्मीयन्ते स्म । एतेषां कुण्डानां क्षेत्रफलनिष्कासनाय त्रिभुजगणितस्याविष्कारो विहितः । यद्यपि ऋग्वेदे त्रिभुजगणितस्य स्पष्टनिर्देशो नास्ति, परन्तु पृथ्वी सूर्य भुवनानां कथनक्रमे त्रिभुजसमावेशी जायते । पृथ्व्याः दशपटलानामुल्लेखत्वात् भुजशब्दोऽत्रोपलक्षणत्वेन क्षेत्रभुजानां सूचको विद्यते । एवमेव सकलभुवनाधारस्य सूर्यस्य कथनं कुर्वन् 'त्रिनाभि 'शब्दः त्रिभुजस्यापि सूचकोऽस्ति । मन्त्रो निम्न प्रकारोऽस्ति -
यदिन्विन्द्र पृथिवी दशभुजिरहानि विश्वा ततनंतकृष्ट्यः । अत्राह ते मघवन् विश्रुतं सहो द्यामनु शवसा बर्हणा भुवत् ॥ १
X
X
X
सप्त युजंति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनाम ॥ त्रिनाभिचक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधितस्थुः ॥ २
ऋग्वेदे सूर्यगत्यनुसारं राशिचक्रस्य द्वादशभागेषु विभाजनेन 'विषुवसम्पातस्य वार्षिकगतिसदृशं पृथ्व्याः तुलनायां सूर्यचन्द्रमसोः सापेक्षाकारस्य, सूर्यस्य परममन्दफलस्य मानादेश्च परिज्ञानं त्रिभुजगणितं बिना सम्भवं नास्ति । अतएव ग्रहाणां भोगांश निष्कासनाय त्रिभुज - गणितस्य ज्ञानप्रचारो वैदिककालेऽप्यभविष्यत् । तैत्तिरीय ब्राह्मणे तैत्तिरीयसंहितायाञ्च य' ज्योतिषचर्चाधिगम्यते, तस्यां क्षेत्र गणितमपि सम्मिलितमस्ति । शुल्वसूत्रे त्रिभुजगणितस्यानेक प्रकाराः दृश्यन्ते ।
स्वतन्त्ररूपेण त्रिभुजगणितस्यारम्भः प्रथमार्यभट्टाज्जायते । आर्यभट्टेने प्रथमेन ग्रहाणां बिम्बीयकरणानां ज्ञानमवाप्य बिम्बग्रहयोरानयनविधिरङ्कितः । अतो ग्रहणणितेन सह त्रिभुज - गणितस्य कथनं कृतं वर्त्तते । द्वितीयार्यभट्टेन त्रिभुजविवेचनं स्वतन्त्ररूपेण कुर्वता लिखितम् - त्रिभुजस्य फल शरीरं समदलकोटी भुजार्धसंवर्गः । ऊर्ध्वभुजा तत्संवर्गाधं स घनः श्ररिति ॥ ३
" समदलकारिणी या कोटिः त्रिभुजशीर्षादाधारोपरि लम्ब इत्यर्थः । तस्याः कोटे: अर्थात् लम्बस्य भुजार्धस्य आधारार्घस्य यः संवर्ग गुणनं तत् त्रिभुजस्य त्रिभुजरूपक्षेत्रस्य
१. ऋग्वेद : सं० १ ५२।११
२. वही, १।१६४।१४
३. आर्यभटीयम् बिहार रिसर्च सोसाइटी, पटना,
श्लोक ६, पृ० १५
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ज्योषित एवं गणित
४०१
फलशरीरं फलरूपं शरीरं क्षेत्रफलमित्यर्थः भवति । समद्विभुजे समत्रिभुजे च त्रिभुजे आधारो - परि लम्बः आघाराषं करोति तत्राधारस्य लम्बादुभयदिशि समो दलो भागो भवति । विषमत्रिभुजेऽपि उपचारात्तस्यैव लम्बस्याघारार्धस्य च घातः क्षेत्रफलं भवति तत्र त्रिभुजे ।"
एवं प्रकारेणार्यभट्टविहितस्य ग्रह गणित कुण्डगणित - छायागणितादेरानयनाय त्रिभुज - गणितस्य विधानमावश्यकमस्ति । आर्यभट्टानन्तरं वराहमिहिरेण स्वपञ्च सिद्धान्तिकायां ग्रहगणितस्य विधानेन सह मध्यमग्रह-मन्दोच्च - शीघ्रोच्च शीघ्रपरिष्यादेरानयनाय पौलिश - रोमकवाशिष्ठ- सौर- पैतामह सिद्धान्तानां संग्रहो विहितः । एषु सिद्धान्तेषु त्रिभुज सम्बन्ध्यनेकविशेषताः प्रतिपादिताः विद्यन्ते । सूर्यसिद्धान्ते ग्रहाणां वक्रातिवक्रविकलमन्दमन्दतरसमशीघ्रशीघ्रतरगतीनां निरूपणे त्रिभुजगणितस्याश्रयो गृहीतोऽस्ति । ग्रहाणां कीदृगपि गणितं त्रिभुजं बिना सम्भवं नास्ति । लिखितमस्ति -
ग्रहं संशोध्य मन्दोच्चात् तथा शीघ्राद्विशोध्य च, शेषं केन्द्रपदं तस्माद्भुजज्या कोटिरेव च । गताद्भुजज्या विषमे गम्यात् कोटिः पदे भवेत्, युग्मे तु गम्याद् बाहुज्या कोटिज्या तु गताद् भवेत् ॥ १॥
कस्यापि ग्रहस्य मन्दोच्च - शीघ्रोच्चयोः स्थानेषु तन्मध्यमस्थानस्यापचयेन ये शिष्येते, त एव क्रमशः मन्दकेन्द्रनाम्ना शीघ्रकेन्द्र नाम्ना चाभिधीयेते । एताभ्यां पदज्ञानं कृत्वा ज्याकोटिज्यानयनं क्रियते । विषमपदे यो भागो गतो भवति, तज्ज्या 'भुजज्या' तथा यो भागो गम्यो भवति, तज्ज्या 'कोटिज्या' कथ्येते । परन्तु समपादे गमभागज्या 'भुजज्या' तथा गतभागण्या 'कोटिज्या' कथ्येते । एतस्या भुजज्यायाः कोटिज्यायाश्च चापीयत्रिभुजस्य गणितद्वारा गणितस्य परिध्यादेः परिज्ञानं प्राप्यते । एवमक्षांशज्ञानेऽपि त्रिभुजगणितस्योपयोगः क्रियते । सूर्यसिद्धान्तस्यैतादृशं किमपि ग्रहगणितं नास्ति, यत्त्रिभुजगणितं बिना ज्ञायेत । चन्द्रसूर्यादिग्रहाणां लम्बननतांशयोरपि त्रिभुजस्यावलम्बनं गृह्यते ।
बराह मिहिरानन्तरं द्वितीयार्यभट्ट ः महार्यसिद्धान्तमलिखत् । अस्मिन् १८ अध्यायाः ( अष्टादशाध्यायाः ) ६२५ कारिकाश्च (पञ्चविंशत्युत्तरषट्शतकारिकाश्च) सन्ति । क्षेत्रव्यवहारगणिते कथितमस्ति यत् त्रिभुजगणितं विना कस्यापि क्षेत्रस्य गणितानयनं कत्तु न शक्यते । पाटीगणिताय यथा शून्यस्य कस्यापरस्यावश्यकतास्ति तथैव क्षेत्रगणिताय त्रिभुजस्य । भुजकोटि-कोणसम्बन्धेनैव विभिन्न प्रकारक्षेत्राणां गणितं क्रियते । लोकशास्त्रयोरुभयोरपि क्षेत्रीयगणितपरिज्ञानं त्रिभुजगणितेन भवति ।
एकविंशत्युत्तरचतुरशतसंख्या के शकसंवत्सरे लल्लाचार्येण 'शिष्यधीवृद्धि' नामको ग्रंथो व्यलेखि | ग्रंथेऽस्मिन् तेन गणितप्रकरणे स्पष्टाधिकार- त्रिप्रश्नाधिकार- चन्द्रग्रहणाधिकारसूर्यग्रहणाधिकार - ग्रहभूत्यधिकार भग्रहयुत्यधिकाराद्यधिकारेषु त्रिभुजगणितस्य विधानं कृतम् । ग्रंथस्यास्यैव गोलाध्याये, छेदाधिकार - गोलबंघाधिकार-ग्रह-भ्रमण-संस्थाध्यायेषु त्रिभुजगणितस्य महत्त्वं कथितमस्ति । सरलचापीययोरुभयोरपि त्रिभुजयोनिर्देशं कुर्वता गणितविधीनां विवेचनं कृतमस्ति । लल्लाचार्येणार्यभट्टस्य गणित ग्रंथस्यावलोकनं विधायैव स्वस्यास्य ग्रंथस्य प्रणयनमकारि । तेन स्वयं लिखितम् -
१. सूर्यसिद्धान्तः, स्पष्टाधिकारः, पच २९-३०
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४०२
भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान विज्ञाय शास्त्रमलमार्यभटप्रणीतं तन्त्राणि यद्यपि कृतानि तदीयशिष्यैः । कर्मक्रमो न खलु सम्यगुदीरितस्तैः कर्म ब्रवीम्यहमतः क्रमशस्तु सूक्तम् ॥
बृहत्संहितायां कुशलदैवज्ञाय प्रतिपादितयोग्यतायां क्षेत्रगणितस्य विशेषतः त्रिभुज. गणितस्य ज्ञानमावश्यकं कथितमस्ति । लिखितमस्ति
"तत्र ग्रहगणिते पोलिशरोमकवाशिष्ठसौरपैतामहेषु पञ्चष्वेतेषु सिद्धान्तेषु युगवर्षायनर्तुमासपक्षाहोरात्रयाममुहूर्त्तनाडीविनाडी प्राणत्रुटित्रुठ्य वयवाद्यस्य कालस्य क्षेत्रस्य च वेत्ता ।
चतुण्णां च मासानां सौरसावननाक्षत्रचान्द्राणामधिमासकावसम्भवस्य च कारणाभिज्ञः
षष्ट्यब्दयुगवर्षमासदिनहोराधिपतीनां प्रतिपत्तिविच्छेदवित् । सौरादीनाञ्च मानानां सदृशासदृशयोग्यायोग्यत्वप्रतिपादनपटुः ।।
सिद्धान्तभेदेऽप्ययननिवृत्ती प्रत्यक्षं सममण्डलरेखासम्प्रयोगादिम्युदितांशकानाञ्च छाया जलयन्त्रदृग्गणितसाम्येन प्रतिपादनकुशलः सूर्यादीनाञ्च ग्रहाणां शीघ्रमन्दयाम्योत्तरनीचोच्चगतिकारणाभिज्ञः ।
एतेनोद्धरणेन स्पष्टमस्ति यत् त्रिभुजस्य तदवयवानाञ्च परिज्ञानं परमावश्यकमासीत् । एतद्विना न ग्रहगणितस्य ज्ञानं सम्भवमासीत्, न च लौकिकविषयाणामेव । वराहमिहिरानन्तरं प्रतिभावान् गणितज्ञः ब्रह्मगुप्तो बभूव। तज्जन्म पञ्चनदप्रदेशे भिलनालनामकस्थाने ५५८ खीष्टाब्देऽभूत् । त्रिंशत्वर्षीयायामवस्थायां तेन 'ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त' नामकग्रन्थस्य प्रणयनमकारि । सप्तषष्टि-वर्षीये वयसि 'खण्डखाद्य' नामकग्रन्थोऽनेन प्रणीतः । ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते त्रिभुजस्य भेद-प्रभेदानां तथा तेषां गणितविधीनां वर्णनं कृतमस्ति । शकसंवत्सरे चतुरशीत्युत्तरपञ्चशतसंख्याक मुजालेन लघुमानसग्रन्थो व्यरचि । यस्मिन् ग्रन्थे सूर्यग्रहण-चन्द्रग्रहण
शृंगोन्नति-ग्रहयुति-प्रभृत्यष्टाधिकारेषु त्रिभुजगणितस्य सिद्धान्तानामपि समावेशः कुतो विद्यते । समत्रिभुज-विषमत्रिभुजयोरनेकविधयो निरूपिताः सन्ति ।
खीष्टाब्दस्य नवमशताब्दे महावीराचार्येण गणितसारसंग्रहनामकग्रन्थो लिखितः । अस्य ग्रन्थस्यादी कथितमस्ति यत् कामतन्त्रार्थशास्त्र-गांधर्व-नाटक-सूपशास्त्र-वैद्यक-वास्तुविद्याछन्दोऽलंकार-काव्य-तर्क-व्याकरण-कलागुणादिविषयेषु गणितस्य परमावश्यकता भवति तथा गणिते परिकर्माष्टकेण सह त्रिभुजगणितस्य वृत्तगणितस्य च प्रमुखता प्रतिपादिता विद्यते ।' महावीराचार्येण त्रिभुजक्षेत्रस्यानेकभेदाः कीर्तिताः। यवाकार-मुरजाकार-पणवाकार-वज्राकारप्रभृति विभिन्नाकृतिधारिक्षेत्राणां गणितसाधनाय त्रिभुजोपयोगिता वर्णितास्ति । शंखाकृति क्षेत्रस्य फलानयनाय वृत्तणितेन सह त्रिभुजोपयोगिता कथिता वर्तते । ज्यामितिसम्बन्धिविभिन्ननियमानामाधारोऽपि त्रिभुजगणितं प्रतिपादितमस्ति । ___श्रीपतिः स्त्रीष्टाब्दस्य दशमशताब्दे ज्याखण्डानामानयनाय त्रिभुजमाधाररूपेण व्याख्यातवान् । लिखितमस्ति
दोःकोटिभागरहिताभिहताः खनागचन्द्रास्तदीयचरणो न शरार्कदिग्भिः,
ते व्यासखण्डगुणिता विहृताः फलं तु ज्याभिविनापि भवतो भुजकोटिजीवाः । १. गणितसारसंग्रहः, संज्ञाधिकारः, पद्य ९ से १८ तक ।
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ज्योतिष एवं गणित श्रीपतेः पाटीगणितस्य रचनाशैली अत्यन्तसरलोत्तमा च वर्तते। ग्रहभेदप्रक्रियाद्वारा प्रहगणितस्य ज्ञानमवाप्य सिद्धान्तशेखर' नामक ग्रन्थोऽपि लिखितोऽनेन । प्रन्येऽस्मिन् ग्रहानयनप्रकरणे त्रिभुजस्य विभिन्नप्रकाराणां गणितानां समावेशोऽस्ति ।
श्रीपत्यनन्तरं श्रीधराचार्यस्य नामायाति । अनेन 'गणितसार' ग्रन्थः प्रणीतः । यस्मिन् क्षेत्रव्यवहार-खातव्यवहार-चितिव्यवहार-काष्ठव्यवहार-राशिव्यवहार-छायाव्यवहारादिगणितानां निरूपणमस्ति । अत्रेदं ध्यातव्यमस्ति यत् भुजकोट्यनुपातेन त्रिभुजसम्बन्धि-प्रक्रियाद्वारा गणितविधीनामानयनं कृतमस्ति । श्रीधराचार्यस्य बीजगणितसम्बन्धिसूत्राणि तु प्रसिद्धान्येव सन्ति, परं चापीय-सरलत्रिभुजयोरपि गणितं परं महत्त्वपूर्ण वर्तते । कतिपयविपश्चित मतमस्ति यत् श्रीधराचार्येण गणितक्षेत्रे कतिपयानि मौलिकतत्त्वानि प्रदत्तानि ।
द्वादशशतकस्य प्रारम्भे प्रसिद्धगणितज्ञस्य भास्कराचार्यस्य नाम कीर्त्यते । भास्कराचार्येण लीलावतीग्रन्थे त्रिभुजगणितसम्बन्धिविविधविधीनां निर्देशो विहितः । अट्टकविरथवाहदासः 'कन्नडग्रन्थेष्टुमते' उत्पात-परिवेश-इन्द्रधनुष-द्रोण-प्रतिसूर्य-ग्रहद्वेष-ग्रहयुद्धादिप्रकरणेषु विभिन्नविधिद्वारा त्रिभुजगणितस्य निरूपणं कृतमस्ति । 'महेन्द्रसूरिणा 'यन्त्रराजे' यन्त्ररचनाप्रसङ्ग त्रिभुजगणितस्य विधानं कृतमस्ति तथा वृत्तसम्बन्ध्यनेकविधयः त्रिभुजगणितद्वारा निष्कासिताः सन्ति । त्रिभुजगणितस्य विकसितरूपं चापीये सरलत्रिकोणमिती व प्राप्यते । एवं वैदिककालादारम्भ पञ्चदश-षोडशशतकपर्यन्तं त्रिभुजगणिते विकासः सम्पद्यमानो वर्तते। त्रिभुजस्य भेदाः
त्रिभुजस्यानेकभेदाः सम्भवाः सन्ति । परं कोण-भुजसम्बन्धेनास्य प्रधानाः षट्भेदाः सन्ति
१. समत्रिबाहुत्रिभुजम् । २. समद्विबाहुत्रिभुजम् । ३. विषमबाहुत्रिभुजम् । ४. समकोणत्रिभुजम् । ५. अधिकोणत्रिभुजम् ।
तथा ६. न्यूनकोणत्रिभुजम् ।
एतदुपर्युक्तषट्प्रकारकत्रिभुजातिरिक्ताश्चापीयसरलभुजभेदेन प्रत्येकत्रिभुजस्य षड्भेदत्वात् द्वादशप्रकाराः त्रिभुजभेदाः भवन्ति । अन्यभेद-प्रभेदानां गणना एष्वेव द्वादशत्रिभुजेष क्रियते । त्रिभुजगणिते कोणभुजयोरेव सर्वाधिक महत्त्वं विद्यते । समतलरेखागणितसम्बन्धिसिद्धान्तस्य, उच्चतररेखागणितसम्बन्धिसिद्धान्तस्यैव चित्ररेखागणितसम्बन्धिसिद्धान्तानां समावेशः उक्तत्रिभुजगणितेषु सञ्जायते। महावीराचार्येण वर्तुलादिक्षेत्राणां त्रिभुजमणिते परिणतः विधिळलेखि । श्रीधरेण ज्योतिनिविषो कदम्बपीतवृत्त-मेरुच्छिन्नपोतवृत्त-क्रान्तिवृत्तमाडीवृत्तादिलघु-महत्वृत्तानां परिणमनविषिषु त्रिभुजगणितोपयोगः कथितोऽस्ति । शङ्क: गणितस्यच्छायागणितस्याधारः त्रिभुजगणितमेवास्ति ।
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४०४
भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
त्रिभुजगणितानयन-विधिः
___ त्रिभुजगणितानयनविधिः प्राचीनकालतः आगच्छन्नस्ति । विधावस्मिन् भुजकोट्याधारयोरुपयोगः क्रियते । महावीराचार्येण त्रिभुजगणितस्यानयनं द्वाभ्यां विधिम्यां विहितम् । यथा व्यावहारिकविधिः, सूक्ष्मविधिश्च । महावीराचार्येण लिखितम्
त्रिभुज-चतुर्भुजबाहुप्रतिबाहुसमासदलहतं गणितम् ।'
नेमे जयुत्यधैं व्यासगुणं तत्फलार्धमिह बालेन्दोः॥ सम्मुखभुजानां योगानामधराशीनां गुणनफलं त्रिभुजस्य क्षेत्रफलं भवति । अत्र त्रिभुजमेतादृशं चतुर्भुजं कल्पितं, यदाधारस्य सम्मुखभुजतावती लध्वीभवति, यत् सोपक्षणीया जायते ।
___अस्यां दशायां त्रिभुजस्य पार्श्ववतिन्यौ भुजे सम्मुख भुजे जायते । ऊर्ध्ववत्तिनीभजा माने नगण्या गृह्यते । मतो नियमे त्रिभुजीयक्षेत्रसम्बधेऽपि सम्मुखभुजानामुल्लेखः कृतोऽस्ति । त्रिभुजस्य भुजयोः योगस्याधराशिः समस्तदशासु उच्चताया आयतो भवति । अतएव एतन्नियमानुसारं प्राप्त क्षेत्रफलं भवितुं शक्नोति । अतएवेदं व्यवहारोपयोगि मतं विद्यते । सूक्ष्मक्षेत्रफलकृते
भुजकृत्यन्तरभूहृतभूसंक्रमणं त्रिबाहुकाबाधे ।
तद्भुजवर्गान्तरपदमवलम्बकमाहुराचार्याः ॥ भुजानां वर्गाणामाधारद्वाराविभाजनेन प्राप्तराश्याधारयोर्मध्ये संक्रमणक्रियया त्रिभुजस्याबाधानां मानानि (माप) प्राप्यन्ते । एतास्वाबाधासु एकस्यापरस्याः संवाधासन्नभुजायाः वर्गाणामन्तरस्य वर्गमूलमवलम्बनस्य मानं भवति । गणितविधिनिम्नप्रकारोऽस्ति जात्यत्रिभुजस्य भुजकोटिकर्णक्षेत्रफलानि च
अ
अस्मिन् त्रिभुजे अ क, अ ग, भुज-कोटीस्तः, क ग कर्णोऽस्ति । क अ गसमकोणोऽस्ति । असमकोणविन्दुना क ग-कर्णोपरि लम्बोऽस्ति कृतः।।
:: म क = क ग x क म, अ ग = क ग x ग म :: अक+अ ग = क ग x क म+ क ग ग म = क ग
१. गणितसारसंग्रहः, क्षेत्रगणितव्यवहारः, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर,
श्लोक ७, पृ० १-२ २. वही : श्लोक ४९, पृ० १९२
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४०५
= क ग ।
ज्योतिष एवं गणित (क म+ग म) = क ग x क ग = क ग = अ क + क ग
अ क + क ग । कोटि + भुज' = कर्ण; · कर्ण - भुज२ = कोटि; / कर्ण२ - कोटि२ = भुज जात्यत्रिभुजस्य क्षेत्रफलम्
उ
'अ इ उ' त्रिभुजे लघुभुजः = भु; बृहद्भुजः = भु' अ क = लम्बः, लध्वी आबाधा इक = भु - (भु२- भु)
ल°२ = भु. १ भू - ()} = { भु+ (भ- (भु २-y')} x १४२ - (४२ -*- )
भास्कराचार्यः त्रिभुजगणितानयनाय लिखितवान्- . इष्टो भुजोऽस्माद् विगुणेष्टनिघ्नादिष्टस्य कृत्यैकवियुक्तयाप्तम् । कोटिः पृथक् सेष्टगुणा भुजो ना कर्णो भवेत् त्र्यस्रमिदं तु जात्यम् ॥ इष्टो भुजस्तत्कृतिरिष्टभक्ता द्विःस्थापितेष्टो न युताऽधिता वा, तो कोटिकर्णाविति कोटितो वा बाहुश्रुती चाकरणी गते स्तः ।
'यः' इष्टो भुजः, अस्माद् द्विगुणेष्टनिघ्नाद्-द्विगुणेनेष्टान्तरेण गुणितात् इष्टस्य कृत्या एकवियुक्तयाऽप्तं कोटिर्भवेत् । सा कोटिः पृथगिष्टगुणा भुजो ना कर्णो भवेत् । इदं जातं त्र्यसं-जात्यं त्रिभुजं ज्ञेयम् । अथवा इष्टो यो भुजस्तस्कृतिः इष्टभक्ता-केनचिदिष्टान्तरेण भक्ता द्विःस्थापिता इष्टेन युताऽर्षिता क्रमेण तो कोटिकौँ भवेताम् । इति एवं रीत्या कोटितो बाहुश्रुती भुजकों भवतः।
३४० - अत्र भुजः = भु । तथा कोटिकर्णान्तरम् = भु (३ - १)
३+१
अतो योगान्तरघातस्य वर्गान्तरसमत्वात् (क+को) x भु (३ - १) = करे - को = मैं ।
३+१. :.क+को = भु२x (इ+ १) = भु (+ १) = यो । भु (-१)
इ+१
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
अतो "योगान्तसेणोन युक्तोऽधित इत्यादिना कोटि: भु (३+१) - भु (३ - १ ) = भु ( इ + १ ) 2 - भु (३ - १ ) २ २ ( इ - १) २ ( इ + १) ( इ - १ ) x २ = भु (इ े +
२इ + १) — भु (इ े - २इ + १ ) = भु× द्द े
-
1
ह े - १
इत्युपपन्नं कोट्यानयनम् । तथा कर्णः
= यो + भु = भु (इ + १) १ ( इ + १)
+
भु( इ - १) भु ( इ + १)2 + भु (इ – १) २ २ ( इ - १ )
२
( इ + १)
= भु (द्द े + २ इ + १) +
भु
(इ े - २इ + १ ) = भु (इ े + १)
(इ - १)
१
= भु_इ े+भु = भुइ’+भु + भु – भु
इ - १
इ - १
- भुX इ े ३ - भु = (भु X इ३ ) इ - भु = को x इ - भु
=
१- १
इ २
- १
भास्कराचार्येण कर्णेन भुजकोटेरानयनम्, भुजकोट्या कर्णानयनम्, कर्णकोटद्या भुजानयनञ्च कृतानि ! बाहुकर्णयोगकोटयोः ज्ञातयोः तयोः पृथक्करणं कोटिकर्णान्तरं भुजायां ज्ञातायां तत्पृथक्करणं तथा कोट्येकदेशयुत् कर्णभुजयोः ज्ञातयोः कोटिकर्णयोरानयनानि कृतानि । लम्बा बाषात्रिभुजफलानयन विषयः प्रतिपादिताः सन्ति । एवंप्रकारेण संस्कृतसाहित्ये त्रिभुज - गणितस्य विस्तारपूर्वकं वर्णनमायातमस्ति ।
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स्वप्न और उसका फल
रहस्यका उद्घाटन करने के रहस्यकी तह में पहुंचने वाले गम्भीर है कि इसकी थाह
विश्वका प्रत्येक अणु रहस्यमय है । अनादिकालसे आजतक इस लिये दार्शनिक जगत् अनवरत उद्योग करता आ रहा है, तो भी इने-गिने केवलज्ञानी ही हो सके हैं । यथार्थ में ज्ञानोदधि इस तरह विरले ही लगा पाये हैं, फिर भी अपने-अपने ढंगसे प्रत्येक विचारकने सिद्धान्त निर्णय किये हैं । प्रस्तुत स्वप्न जगत् भी उनके विवेचन क्षेत्रसे पृथक नहीं है । इनके रहस्य और महत्ताकी भी प्राच्य और पाश्चात्य दार्शनिकोंने गहरी खोज की है । यही कारण है कि स्वप्न के विषय में भी दो प्रकारकी प्रमुख विचारधाराएँ पाई जाती हैं, जिन्हें हम प्राच्य विचारधारा और पाश्चात्य विचारधारा कहते हैं । यह बात दूसरी है कि इनमेंसे भी प्रत्येक में कई उपधाराएँ फूट निकली हैं ।
प्राच्य दर्शनाचार्यों और पाश्चात्य दर्शनाचार्यों की विवेचनाप्रणाली के मूलमें यही अन्तर है, कि पहली प्रणालीकी नींव आत्माकी अमरता पर है और दूसरीकी नींव भौतिकता पर । इससे स्वप्न आन्तरिक स्वरूपमें महान् अन्तर पड़ जाता है । द्वितीय प्रणालीके विचारकों की विचार सीमा बुद्धि तत्त्व तक ही सीमित है, आजतक वे इसके परे पहुँचने में असमर्थ ही रहे हैं, और अनुमान भी यही किया जाता है कि वैज्ञानिक शक्ति आत्मतत्त्व तक पहुंचने में असमर्थ हो रहेगी । इसी भित्ति पर स्थित उनका स्वप्न सम्बन्धी विचार भी अधूरा ही रह गया है, यथार्थतः स्वप्नका सम्बन्ध आत्मासे ही है, जैसा कि प्राच्य आचार्योंने सुबोध एवं व्यावहारिक ढंग से प्रमाणित कर संसारके सामने उपस्थित किया है । प्राच्य विवेचनानुमोदित आत्माकी अमरताके सिद्धान्तसे यह स्पष्टतया सिद्ध होता है कि हमारे वर्तमान जीवनका सांस्कारिक सम्बन्ध पूर्व भवोंसे भी है, इसलिये यह स्वयं सिद्ध है कि स्वप्नपर भी पूर्वभवों के संस्कार शासन करते हैं ।
पाश्चात्य जगत् में स्वप्नके ऊपर काफी खोज की गई है, अब तक अंग्रेजी में 'अनुमानत: १००१५० पुस्तकें इस सम्बन्ध में लिखी जा चुकी हैं । वैज्ञानिकोंने अधिकांश रूपमें स्वप्न के कारणों की खोज की है, उसके फलाफलकी नहीं । अरस्तू (Aristotle) कारणोंका अन्वेषण करते हुए लिखते है कि जागृत अवस्था में जिन प्रवृत्तियोंकी ओर व्यक्तिका ध्यान नहीं जाता हैं, वे ही प्रवृत्तियाँ अर्द्धनिद्रित अवस्थामें उत्तजित होकर मानसिक जगत् में जागरूक हो जाती हैं । अतः स्वप्न में हमें हमारी छुपी हुई प्रवृत्तियोंका ही दर्शन होता है। एक दूसरे पश्चिमीय दार्शनिकने मनोवैज्ञानिक कारणोंकी खोज करते हुए बतलाया है कि स्वप्न में मानसिक जगत्के साथ बाह्य जगत्का सम्बन्ध रहता है, इसलिये हमें भविष्यमें घटनेवाली घटनाओंकी सूचना स्वप्नकी प्रवृत्तियों से मिलती है । डॉक्टर सी० जे० ह्विटवे' (Dr. C. J. whitby) ने मनोविशेष जानने के लिये देखें
१. Dreams by Henri Berg son,
२, Theam Proble, Volume, second Part 1 P,309,
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका भवदान
वैज्ञानिक ढंगसे स्वप्न कारणोंकी खोज करते हुए लिखा है कि गर्मीको कमीके कारण हृदयकी जो क्रियाएँ जागृत अवस्थामें सुषुप्त रहती हैं, वे ही स्वप्नावस्था में उत्तजित होकर सामने आ जाती हैं । जागृत अवस्थायें कार्य संलग्नताके कारण जिन विचारोंकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता है, निद्रित अवस्था में वे ही विचार स्वप्न रूपसे सामने आते हैं । पृथक् गोरियन सिद्धान्तमें माना गया है कि शरीर आत्माकी कब्र है । निद्रित अवस्थामें आत्मा शरीरसे स्वतन्त्र होकर अपने असल जीवनकी ओर प्रवृत्त होती है और अनन्त जीवनकी घटनाओं को ला उपस्थित करती है । इसीलिये हमें स्वप्न में अपरिचित वस्तुओंके भी दर्शन होते हैं । शुकरात कहते हैं कि-जागृत अवस्थामें आत्मा बद्ध है, किन्तु स्वप्नावस्था में आत्मा स्वतन्त्र रहती है, इसलिये स्वप्न में स्वतन्त्रताकी बातें सोचती रहती है । इसी कारण हमें नाना प्रकार के विचित्र स्पप्न आते हैं जो आत्माएँ कलुषित हैं उनके स्वप्न गन्दे और साधारण होते हैं, पर पवित्र आत्माओंके स्वप्न अधिक प्रभावोत्पादक एवं अन्तर्जगत् और बाह्यजगत् से सम्बन्धित होते हैं । इनके द्वारा हमें भावी जीवनकी सूचनाएँ मिलती हैं । नेरंगां' (Narrangga ) मानते हैं कि जैसे हम अवकाश मिलनेपर आमोद-प्रमोद करते हैं उसी प्रकार स्वप्नावस्थामें आत्मा भी स्वतन्त्र होकर आमोद-प्रमोद करती है और वह मृत आत्माओं से सम्बन्ध स्थापित करके उनसे बातचीत करती है, इसीलिये हमें स्वप्न में अपरिचित चीजें भी दिखाई पड़ती हैं । पवित्र आत्माओंके स्वप्न उनके भूत और भावी जीवनके प्रतीक हैं । विवलोनियन ( Bablylonin) कहते हैं स्वप्न में देव और देवियाँ आती हैं तथा स्वप्नमें हमें उन्ही के द्वारा भावी जीवनको सूचनाएँ मिलती हैं, इसलिये कभी-कभी स्वप्नकी बातें सच होती हैं। (Giljames ) गिलजेम्स नामक महाकव्य में लिखा है कि वीरोंको रात में स्वप्न द्वारा उनके भविष्य की सूचना दी जाती थी । स्वप्नका सम्बन्ध देवी-देवताओं से है, मनुष्यों से नहीं । देवी-देवता ही स्वभावतः व्यक्तिसे प्रसन्न होकर उसके शुभाशुभकी सूचना देते हैं ।
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आधुनिक वैज्ञानिकोंने स्वप्नके कारणोंका अन्वेषण दो प्रकारसे किया है। कुछने Facant कारण शारीरिक विकार और कुछने मानसिक विकार माना है । शारीरिक क्रियाओं को प्रधानता देने वाले विद्वान् मानते हैं कि मस्तिष्क के मध्यस्थित कोषके आभ्यन्तरिक परिवर्तन के कारण मानसिक चिन्ता की उत्पत्ति होती है । विभिन्न कोष जागृतावस्थामें संयुक्त रहते हैं, किन्तु निद्रितावस्था में संयोग टूट जाता है, जिससे चिन्ताधारा की शृंखला नष्ट हो जाती है और स्वप्नकी सृष्टि होती है । मानसिक विकासको कारण माननेवाले ठीक इससे विपरीत हैं, उनका मत है कि निद्रितावस्था में कोषका संयोग भंग नहीं होता, बल्कि और भी घनिष्ठ हो जाता है, जिससे स्वाभाविक चिन्ताकी विभिन्न धाराएँ मिल जाती हैं, इन्हीं के कारण स्वप्न जगत् की सृष्टि होती है । किन्हीं किन्हीं विद्वानोंने बतलाया है। कि निद्रितावस्था में हमारे शरीर में नाना प्रकार के विषाक्त पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं, जिनसे क्रिया में बाधा पहुँचती है, इसलिये स्वप्न देखे जाते हैं। शारीरिक विज्ञानके विश्लेषणसे पता लगता है कि निद्रितावस्था में मानसिक वृत्तियाँ सर्वथा निस्तेज नहीं हो जाती हैं । हाँ, जागतावस्थामें जो श्रृंखला मानसिक वृत्तियोंमें देखी जाती है वह अवश्य नष्ट हो जाती
१. The Dream Problem by Ram Narayan L, M, S, P 105,
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ज्योतिष एवं गणित
४०९ है । नाना प्रकार की अद्भुत चिन्ताएँ और दृश्य मनमें उत्पन्न होते हैं । जागृतावस्थामें दर्शन श्रवण स्पर्शन एवं चाक्षुष आदि प्रत्यक्षानुभूतियों के प्रतिरूप वर्तमान रहते हैं, किन्तु सुषुप्तावस्थामें सिर्फ दार्शन-प्रत्यक्षके प्रतिरूप ही वर्तमान रहते हैं।
चिन्ताधारा दिन और रात दोनोंमें समान रूपसे चलती है, लेकिन जागृतावस्थाकी चिन्ताधाग पर हमारा नियन्त्रण रहता है, पर सुषुप्तावस्था की चिन्ताधारा पर हमारा नियंत्रण नहीं रहता है, इसीलिये स्वप्न भी नाना अलंकारमय प्रतिरूपोंमें दिखलाई पड़ते हैं। स्वप्नमें दार्शन प्रत्यक्षानुभूतिके अतिरिक्त शेषानुभूतियों का अभाव होने पर भी सुख, दुःख, क्रोध, आनन्द, भय, ईर्षा आदि सब प्रकारके मनोभाव पाये जाते हैं। इन भावोंके पाये जाने का प्रधान कारण अज्ञात इच्छा ही है । पाश्चात्य विद्वानोंने केवल विज्ञानके द्वारा ही स्वप्नके कारणोंकी खोज नहीं की, क्योंकि विज्ञान आदि कारणका अनुसन्धान नहीं करता है, आदि कारणका अनुसन्धान करना दर्शन शास्त्रका काम है। पाश्चात्य दर्शनके अनुसार स्वप्न निद्रावस्थाको चिन्तामात्र है। हमारी जो इच्छाएँ जागृत जगत्में पूरी नहीं होतीं या जिनके पूरे होनेमें बाधाएं रहती हैं, वे ही इच्छाएँ स्वप्नमें काल्पनिक भावसे परितृप्त होती है । किसी चिन्ता या इच्छाके पूर्ण न होनेसे मनमें जिस अशान्तिका उदय होता है, स्वप्न में कल्पना द्वारा उसकी शान्ति हो जाती है । मनकी अशान्ति दूर करनेके कारण स्वप्न निद्राका सहायक है ।
उपर्युक्त पंक्तियोंमें बताया गया है कि रुद्धइच्छा ही स्वप्नमें काल्पनिक रूपसे परितृप्त होती है। अब यह बतलाना है कि रुद्ध-इच्छा क्या है ? और इसकी उत्पत्ति कैसे होती है ? दैनिक कार्योंकी आलोचना करनेसे स्पष्ट है कि हमारे प्रायः सभी कार्य इच्छाकृत होते हैं । किन्हीं-किन्हीं कार्यों में हमारी इच्छा स्पष्ट रहती है और किन्हीं-किन्हीं में अस्पष्ट एवं रुद्ध-इच्छा रहती है। जैसे गणित करनेकी आवश्यकता हुई और गणित करनेकी इच्छा होते ही एक स्थान पर गणित करनेके लिये जा बैठे। यहां गुणा, भाग, जोड़, घटाव आदिमें बहुत-सी क्रियाएं ऐसी रहेंगी जिनमें इच्छाके अस्तित्वका पता नहीं लगेगा, पर वहाँ हम इच्छाओं के अस्तित्वका अभाव नहीं कह सकते हैं। ज्ञात और अज्ञात इच्छाओंका पता लगानेके लिये मनका विश्लेषण करना अत्यावश्यक है। कुछ मनोवैज्ञानिकोंने इच्छाओंको प्रधान रूपसे छः भागोंमें बांटा है-(१) स्पष्ट इच्छा-जिन इच्छाओंका अस्तित्वरूप सरलतासे जाना जा सकता है । (२) अस्पष्ट-इच्छा-जो इच्छाएं मनमें स्पष्टरूपसे उदित नहीं हुई हैं, किन्तु जिनके अस्तित्वमें सन्देह नहीं है और जो ज्ञानके प्रान्तमें अवस्थित हैं। (३) अपरिस्फुट-जो उदित नहीं हुई हैं, किन्तु जिनका अस्तित्व सहजमें ही जाना जा सकता है। (४) अनुमान-सापेक्षजिन इच्छाओंके अस्तित्वका मनके विश्लेषण करनेपर भी पता न लगे, कार्य या पहली इच्छासे जिनका अनुमान किया जा सके । (५) इच्छाभास या अविश्वासिक-इच्छा-जिन इच्छाओंका अस्तित्व अनुमान सापेक्ष हो, विश्लेषणसे जिनकी प्रकृतिका ज्ञान होने पर भी, मनमें उनका होना इतना असंभव जंचता हो जिससे विश्वास भी न किया जा सके । (६) अज्ञात--जो इच्छा इतनी सूक्ष्म हो कि ज्ञानमें भी न लाई जा सके।
किसी-किसी पाश्चात्य दार्शनिकने इच्छाके चार ही प्रधान भेद बतलाये हैं, इन चारोंको अज्ञात-इच्छाके अन्तर्गत रखा जाय तो अनुचित न होगा। (१) संज्ञात--जो इच्छा
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
जानके अधिकारके भीतर हो। (२) असंज्ञात-चेष्टा द्वारा जहाँ ज्ञानका अधिकार विस्तृत किया जाय । (३) अन्तर्जात-ज्ञानके अधिकारके बहिर्भूत होते हुए भी जिस इच्छाका मनमें किसी न किसी दिन उठना संभव हो । (४) अज्ञात या निर्जात-जो इच्छा कभी न उठ सके, जिसका अस्तित्व केवल अनुमान गम्य हो । इच्छाके इस दार्शनिक विश्लेषणसे पता लगता है कि स्वप्नमें नामा प्रकारकी अज्ञात-इच्छाएँ अपना जाल बिछाती रहती हैं। इसलिये स्वप्नगत अवदमित्त-इच्छाएँ सीधे-सादे रूपमें चरितार्थ न होकर ज्ञानके पथमें बाधक होती हैं। तथा अज्ञात रुद्ध इच्छा ही अनेक प्रकारसे मनके प्रहरीको धोखा देकर विकृत अवस्थामें प्रकाशित होती है और अवदमित इच्छाओंके आत्मप्रकाशमें उनकी रुद्ध इच्छाएं बाधा पहुंचाती हैजैसे मरनेकी इच्छाको जीनेकी इच्छा पनपने नहीं देती। जिस समय भी मरनेकी इच्छा हमारे मनमें प्रकट होनेकी चेष्टा करती है, उसी समय जीनेकी इच्छा प्रकट होकर बाधा पहुंचाती है । फलस्वरूप मरनेकी इच्छा सीधे-सादे रूपमें मनमें न उठकर तरह-तरहसे प्रकाशित होती है। संकटपूर्ण परिस्थितिमें उतरकर बहादुरी दिखानेकी इच्छा केवल मृत्युकी इच्छाका ही रूपान्तर है। इस इच्छाके इस परिवर्तित रूपको देखकर नहीं समझ सकते हैं कि वह यथार्थमें मरनेकी इच्छा है। यदि इस परिस्थिति में जीनेकी इच्छाको प्रहरी मान लेते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रहरोके कारण ही मृत्यु इच्छा अपने असली रूपमें प्रकाशित नहीं हो सकी। मृत्यु इच्छा विपत्ति के कार्यों में वाहवाही लेनेकी इच्छासे छद्मवेश धारण कर लेती है और इस प्रकार प्रहरीको सहजमें धता बता सकती है। अतः उपर्युक्त विश्लेषणसे यह स्पष्ट है कि स्वप्नमें अज्ञात-इच्छाको धोखा देकर नाना रूपकों और उपरूपकोंमें हमारे सामने आती है।
स्वप्नके अर्थक विकृत होने का प्रधान कारण अवदमित इच्छा-जो इच्छा अज्ञात होकर स्वप्न में प्रकाशित होनेकी चेष्टा करती है, प्रहरीकी-मनके जो-जो भाव रुद्धइच्छाके प्रकाशित होने में बाधा पहुंचाते हैं उनके समष्टि रूप प्रहरीको धोखा देने के लिये छद्मवेशमें प्रकाशित होकर शान्त नहीं होती है, बल्कि पाखण्डरूप धारण करके अपनेको प्रहरीकी नजरोंसे बचानेकी चेष्टा करती है। इस प्रकार नाना इच्छाओंका एक जाल बिछ जाता है, इससे स्वप्नका यथार्थ अर्थ विकृत हो जाता है। दार्शन परिणति (Visuabmagery) अभिक्रान्ति (Displacement), संक्षेपन (Condensation) और नाटकीय परिणति (Dramtization) ये चार अर्थ विकृतिके आकार है । मनका प्रहरी जितना सजग होगा, स्वप्न भी उतने ही विकृत आकारमें प्रकाशित होगा । प्रहरीके कार्यमें ढिलाई होनेपर स्वप्नकी मूल इच्छा अविकृत अवस्थामें प्रकाशित होती है। मनका प्रहरी जागृतावस्थामें सजग रहता है और निद्वितावस्थामें शिथिल । इसी कारण निद्रितावस्थामें मनकी अपूर्ण इच्छाएं स्वप्न द्वारा काल्पनिक तृप्तिका साधन बनती हैं ।
इसी प्रकार विश्वविश्रुत मनोवैज्ञानिक' फ्रायडने स्वप्नके कारणोंकी खोज करते हुए १. (a) देखें-The interpretation of dreams. (b) Delusion & dream.
Studies in Dreams by Mary Arnaldforster P. 8 to 30. Dreams Scientific & practical Interpretations by G. H, Miler P, 8 to 24,
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ज्योतिष एवं गणित
बतलाया है कि वहुधा स्वप्न अत्यन्त विकृत रूपमें हमारे सामने आते हैं और अर्थहीन जान पडते हैं, पर मनोविज्ञानके पण्डित उस अर्थहीनतामें भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अर्थ खोज निकालते हैं । प्रत्येक स्वप्न हमारी किसी आशा या आशंकाका रूपक होता है। हमारी गुप्तभावना स्वप्नमें यथार्थ रूपमें अपनेको प्रकट न करके गुप्तवेशमें नाना रूपकोंके जाल बिछाकर व्यक्त होती है । मनुष्य अपने स्वभावगत असमर्थताको क्षति पूर्ति जिन-जिन रूपोंमें करता है, उसके स्वप्नोंकी भी गणना उन्हीं में की जा सकती है। क्योंकि स्वप्नोंके द्वारा वह अपनी उन इच्छाओंकी पूत्ति करता है जिन्हें वह वास्तविक जगत्में पूरा नहीं कर पाता । स्वप्न वास्तवमें मनुष्यकी अन्तर्भावनाओंके दर्पण होते हैं। किसी मनष्यके भीतरकी सच्ची बात जाननेकी आवश्यकता हो तो उसके स्वप्नोंको जान लेना ही यथेष्ट होगा। एक भारतीय विद्वान्'ने एक जगह लिखा है कि मनुष्य के भीतर कमसे कम दो व्यक्तित्व सदा, सब समय वर्तमान रहते हैं । उसका एक व्यक्तित्व उसे अपनी स्वाभाविक इच्छाओंकी पूत्तिके लिए प्रेरित करता है और दूसरा व्यक्तित्व समाजके कड़े नियमोंके पालनेके लिये उत्कण्ठित रहता है। पहला व्यक्तित्व उसको अन्तभूमिमें सोई हुई अवस्थामें दबा पड़ा रहता है, पर दूसरा व्यक्तित्व (ममाजके शासनचक्रको मानकर चलनेवाला व्यक्तित्व) सब जगह जागता रहता है, यहाँ तक कि हमारी निद्रित अवस्थासे वह पुलिसके चौकीदारकी तरह चौकन्ना रहता है । जब स्वप्न देखते हैं तब हमारे दोनों व्यक्तित्व सचेष्ट रहते हैं। दोनों व्यक्तित्व एक दूसरेपर कड़ी निगाह रखते हैं । पुलिसका काम करनेवाला व्यक्तित्व स्वाभाविक इच्छाओंकी ओर झुकनेवाले व्यक्तित्वको धर पकड़ने के लिये तैयार रहता है, पर दूसरा व्यक्तित्व उस पुलिस प्रहरीको धोखा देकर अपनी सहज इच्छाओंको वेश बदल कर चरितार्थ कर लेता है। यही कारण है कि हमारे स्वप्न हमें अर्थहीन और विचित्र जान पड़ते हैं पर वे वास्तवमें अर्थहीन नहीं होते, बल्कि हमारे भीतर वर्तमान पुलिस प्रहरीको धोखा देनेके लिये निराले रूपक-मय रूप धारण कर लेते हैं । इस प्रकार हमारे मूल व्यक्तित्वकी आकाक्षाएं पूरी होती हैं । जेम्स एलेन लिखते हैं कि मानवके अन्तस्तल में जो सद् बा असद् इच्छाएँ वर्तमान रहती हैं वे स्वप्नमें आती है। कल्पनाओंके संसारका दूसरा नाम स्वप्न उन्होंने रक्खा है । लिलीने स्वप्नका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए लिखा है कि जितने भी ऊँचे स्वप्न देखनेवाले हुए हैं या जिनके ऊंचे मन्तव्य रहे हैं वे संसारके मुक्तिदाता हुए हैं। स्वप्न मनुष्यको अन्तर्भावनाओंके सच्चे प्रतीक हैं । जी० एच० मिलर सा० ने अपनी Dreams Scientific पुस्तकमें लिखा है कि "A dream is an event transpiring in that world belonging to the mind when the objective senses have withdrawn into rest or oblivion.
Than the syiritual man is ling alone in the future or ahead of cbjeetiu lifc and consequently lives man's firs developing conditions in a way that enables waking man to shape his actions by warnings, so as to make life a perfect existence". अर्थात् सुषुप्तावस्थामें मस्तिष्कका आन्तरिक
१. दैनिक जीवन और मनोविज्ञान । २. Asyns Thinkett P. 18. H, H. Sayce P, 33.
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
संसारसे सम्बन्ध रहने के कारण व्यक्तिमें आध्यात्मिकता अधिक रहती है । इस लिये व्यक्तिका सम्बन्ध वास्तविक अर्थात् बाह्य संसारसे न रहकर आन्तरिक संसारसे रहता है, अतः स्वप्नके द्वारा भावी जीवनकी घटनाओंकी सूचना मिलती है । स्वप्नसे ही मानव जीवन में पूर्णता आती है । अतएव स्वप्नोंको भविष्यकी सूचना देनेवाले मानना चाहिये ।
प्राच्य विचारधाराको सुविधाके ख्यालसे विचार करनेके लिये प्रधानतया तीन भागोंमें बाँट सकते है-(१) दार्शनिक धिचारधारा (२) आयुर्वेदिक विचारधारा और (३) ज्योतिषिक विचारधारा। दार्शनिक विचारधाराकी तीन उपधाराएँ है-(१) जैन, (२)बौद्ध और (३) वैदिक ।
जैन वर्शन-जैन मान्यतामें स्वप्न संचित कर्मोके अनुसार घटित होने वाले शुभाशुभ फलके द्योतक हैं। स्वप्नशास्त्रोंके अध्ययनसे स्पष्ट अवगत हो जाता है कि कर्मबद्ध प्राणी मात्रकी क्रियाएँ सांसारिक जीवोंको उनके भूत और भावी जीवनको सूचना देती हैं। स्वप्न का अन्तरंग कारण ज्ञानावरणी, दर्शना वरणी और अन्तरायके क्षयोपशमके साथ मोहनीयका उदय है । जिस व्यक्तिके जितना इन कर्मोंका क्षयोपशम होगा उस व्यक्तिके स्वप्नों का फल भी उतना ही अधिक सत्य निकलेगा। तीव्र कर्मोंके उदय वाले व्यक्तियोंके स्वप्न निरर्थक एवं सारहीन होते हैं, इसका मुख्य कारण है कि सुषुप्तावस्था में भी आत्मा तो जागृत ही रहती है केवल इन्द्रियों और मनकी शक्ति विश्राम करने के लिए सुषुप्त-सी हो जाती है। जिसके उपयुक्त कर्माका भयोपशम है उसके क्षयोपशमजन्य इन्द्रिय और मन सम्बन्धी चेतनता या ज्ञानावस्था अधिक रहती है। इसलिये ज्ञानको मात्राको उज्ज्वलतासे निद्रित अवस्थामें जो कुछ देखते हैं, उसका सम्बन्ध हमारे भूत, वर्तमान और भावी जीवनसे है । इसी कारण स्वप्नशास्त्रियोंने स्वप्नको भूत, वर्तमान और भविष्य जीवनका द्योतक बतलाया हैं । पौराणिक अनेक आख्यानोंसे भी यही सिद्ध होता है कि स्वप्न मानव को उसके भावी जीवनमें घटनेवाली घटनाओंकी सूचना देते हैं।
बौदर्शन-बौद्ध मान्यतामें स्वभावतः पदार्थोंके क्षणिक होनेके कारण सुषुप्तावस्थामें भी क्षण-क्षण ध्वंसी आत्माकी ज्ञानसन्तान चलती रहती है, पर इस ज्ञानसन्तानका जीवात्माके ऊपर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता है न पूर्व संचित संस्कार ही वस्तुभूत हैं । इसलिये स्वप्नका फल जीवात्मासे कुछ सम्बन्ध नहीं रखता है । केवल शारीरिक विकारके कारण स्वप्न आते हैं, आत्मा स्वप्नसे पृथक् रहती है । बौद्ध ग्रन्थोंके पौराणिक आख्यानोंमें कुछ स्वप्न सम्बन्धो कथायें अवश्य मिलती है, पर दार्शनिकोंने स्वप्नके सम्बन्धमें विचार नहीं किया है ।
वैविक बर्शन--इस मान्यतामें प्रधानतः अद्वैत, द्वैत और विशिष्टाद्वैत ये तीन दार्शनिक सिद्धान्त हैं, अवान्तर विचारधाराएँ इन्हीं के अन्तर्गत हैं ।
अत वर्शन--इस मान्यतामें पूर्व और वर्तमान संचित संस्कारोंके कारण जागृत अवस्थामें जिन इच्छाओंकी पूर्ति नहीं होती है, स्वप्नावस्थामें उन्हों इच्छाओंको पूर्ति बताई गई है। स्वप्न आनेका प्रधान कारण अविद्या है, इसलिये स्वप्नका सम्बन्ध अविद्या सम्बद्ध जीवात्मासे है, परमब्रह्मसे नहीं । स्वप्नके फलका प्रभाव जीवात्माके ऊपर पड़ता है, पर यह फल भी मायारूप भ्रान्त है।
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ज्योतिष एवं गणित हुत दर्शन-इस दर्शनमें पुरुष प्रकृतिके सम्बन्धके कारण विकृतावस्थाको धारण कर लेता है । इस विकृत पुरुषमें ही जन्म-जन्मान्तरके संस्कार संचित रहते हैं। पूर्व तथा वर्तमान जन्मके संस्कारोंके कारण विकृत पुरुष स्वप्न देखता है । अतः स्वप्नका सम्बन्ध निर्लेपी पुरुषसे न होकर प्रति मिश्रित पुरुषके भूत, वर्तमान और भावी जीवनसे है।
विशिष्ठात--इस मान्यतामें बताया गया है कि संचित, प्रारब्ध, काम्य और निषिद्ध इन चार प्रकारके कर्मों में से संचित और प्रारब्ध कर्मों के अनुसार प्राणियोंके स्वप्न आते हैं । स्वप्नका सम्बन्ध ब्रह्मके अंशभूत जीवसे है । इस दर्शनकी मान्यताके अनुसार प्राणी संचित कर्मोंका फल भी स्वप्नमें भोग सकता है। पौराणिक आख्यानोंमें महाराज सत्य हरिश्चन्द्रका उदाहरण भी इसी प्रकारका है, जिन्होंने स्वप्न में अनेक भावोंके संचित "डोमके यहाँ विक्रय होनेके" फलको प्राप्त कर लिया था।
आयुर्वेदिक विचारधारा'--इस मान्यताके अनुसार मनके बहनेवाली नाड़ियोंके छिद्र जिस समय अति बली तीनों दोषोंसे (वात, पित्त और कफ) परिपूर्ण हो जाते हैं उस समय प्राणियोंको शुभ और अशुभ स्वप्न आते हैं। जिस समय प्राणी न अत्यन्त सोता है और न जागता हो अर्थात अद्ध निद्रित अवस्थामें इन्द्रियोंके अधिपति मनके द्वारा सफल और निष्फल अनेक प्रकारके स्वप्न देखता है । इस मान्यतामें बताया गया है कि व्यक्तियोंको नाना प्रकारके रोगोंकी स्वप्न द्वारा चेतावनी दी जाती है । चरक और सुश्र तके आधारपरसे कुछका उल्लेख किया जाता है। . जो मनुष्य स्वप्नमें कुत्ता, ऊंट और गधेपर चढ़कर दक्षिण दिशाको जाता है, उसको राजयक्ष्मा; जो स्वप्न में लाख और लाल वस्त्रके समान आकाशको देखता है, उसे रक्तपित्त; जिसे स्वप्नमें शूलरोग, अफरा, आँतोंका रोग, अत्यन्त दुर्बलताका अनुभव हो और नखोंका रंग विकृत मालूम हो, उसे गुल्म; जो स्वप्न में शरीरमें घाव देखे, नग्न हो घृत लगावे, ज्वाला रहित अग्निमें हवन करे और हृदयमें कमल प्रकट हुआ देखे, उसे कुष्ठरोग; जो स्वप्नमें चाण्डाल, कर्मकार आदि नीच वर्णवाले व्यक्तियोंके साथ घृत, तैल आदि स्निग्ध पदार्थोंका पान करे, उसे मधुमेह; जो स्वप्न में अनेक व्यक्तियों सहित नाचता हुआ जलमें निमग्न होता देखे, उसे उन्माद; स्वप्नमें कुत्तेसे प्रेम करते हुए देखनेसे ज्वर; राक्षसोंके साथ प्रीति करते हुए देखनेसे अपस्मार; बन्दरोंके साथ प्रीति करते हुए देखनेसे गुप्त रोग; स्वप्नमें चनेकी तिल मिली पूड़ी खानेसे मस्तक और छदि रोग; स्वप्नमें मार्ग चलता हुआ देखनेसे श्वास; स्वप्नमें हल्दी मिले पदार्थका सेवन करता हुआ देखनेसे पाण्डु रोग और स्वप्नमें लाल तथा काले वस्त्रवाली स्त्रीके साथ वार्तालाप करनेसे भयानक रोग होते हैं । वाग्भट्ट ने बताया है कि जिस मनुष्यकी वात प्रकृति होती है, वह स्वप्नमें आकाशमें भ्रमण करना, उड़ना तथा काले रंगकी वस्तुओंको और प्रचण्ड पवन-आँधी आदि देखता है । पित्ताधिक प्रकृति वाला सोने या रत्नोंकी मालाओं, सूर्य, अग्नि और बिजली आदि प्रकाशमान पदार्थोंको देखता है । कफाधिक प्रकृति
१. मनोवहानां पूर्णत्वाद्दोषरतिबलैस्त्रिभिः
स्रोतसां दारुणान्स्वप्नान्काले पश्यत्यदारुणान् । विशेष जानने के लिये देखो वाग्भट्ट शारीरस्थान ६वां अध्याय
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४१४
भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
उड़ना
वाला चन्द्रमा, नक्षत्र श्वेत पुष्प और नदी, तालाब आदिको देखता है । अपनी-अपनी प्रकृति के अनुकूल देखे गये स्वप्न निरर्थक होते हैं अर्थात् वाताधिक प्रकृतिवाला आकाश में 'देखे या वात प्रकृति सम्बन्धी अन्य स्वप्नोंको देखे तो ऐसे स्वप्नोंका फल नहीं होता है । ज्योतिषिक विचारधारा - उपलब्ध जैन ज्योतिषमें निमित्तशास्त्र अपना विशेष स्थान रखता है। जहां जैनाचार्योंने जीवन में घटनेवाली अनेक घटनाओंके इष्टानिष्ट कारणोंका विश्लेषण किया है, वहाँ स्वप्न के द्वारा भावी जीवनकी उन्नति और अवनतिका विश्लेषण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ढंग से किया है । यों तो प्राचीन वैदिक धर्मावलम्बी ज्योतिषशास्त्रियोंने भी इस विषयपर पर्याप्त लिखा है, पर जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित स्वप्न शास्त्र में कई विशेषताएं हैं । वैदिक ज्योतिषशास्त्रियोंने ईश्वरको सृष्टिकर्त्ता माना है, इसलिये स्वप्नको भी ईश्वरकी प्रेरित इच्छाओंका फल बताया है । वराहमिहिर, बृहस्पति और पौलस्त्य आदि विख्यात गणोंने ईश्वरकी प्रेरणाको ही स्वप्न में प्रधान कारण बताया है । फलाफलका विवेचन जैनाजैन ज्योतिषशास्त्र में दश - पाँच स्थलोंको छोड़कर प्रायः समान ही है ।
जैन स्वप्न शास्त्र में ' प्रधानतया निम्न सात प्रकारके स्वप्न बताये गये हैं । (१) दृष्ट जो कुछ जागृत अवस्थामें देखा हो उसीको स्वप्नावस्थामें देखा जाय; (२) श्रुत-सोनेके पहले कभी किसीसे सुना हो उसीको स्वप्नावस्थामें देखा जाय; (३) अनुभूत - जिसका जागृतावस्था में किसी भाँति अनुभव किया हो, उसीको स्वप्नमें देखे; (४) प्रार्थित - जिनकी जागृतावस्थामें प्रार्थना - इच्छा की हो उसीको स्वप्न में देखे; (५) कल्पित - जिसकी जागृतावस्थामें कभी भी कल्पना की गई हो उसीको स्वप्न में देखे; (६) भाविक - जो कभी न तो देखा गया हो और न सुना हो, पर जो भविष्य में होनेवाला हो उसे स्वप्न में देखा जाय और (७) दोषज - बात, पित्त और कफ इनके विकृत हो जानेसे देखा जाय । इन सात प्रकारके स्वप्नोंमें से पहले के पांच प्रकारके स्वप्न प्रायः निष्फल होते हैं, वस्तुतः भाविक स्वप्नका फल ही सत्य होता है ।
रात्रिके प्रहरके अनुसार स्वप्नका फल -रात्रिके पहले प्रहरमें देखे गये स्वप्न एक वर्षमें; दूसरे प्रहरमें देखे गये स्वप्न आठ महीने में ( चन्द्रसेन मुनिके मत से ७ महीने में ); तीसरे प्रहर में देखे गये स्वप्न तीन महीने में; बौथे प्रहर में देखे गये स्वप्न एक महीने में (वराहमिहिर के मतसे १६ दिनमें ); ब्राह्म मुहूर्त्त ( उषाकाल) में देखे गये स्वप्न दस दिन में और प्रातः काल सूर्योदयसे कुछ पूर्व देखे गये स्वप्न अति शीघ्र शुभाशुभ फल देते हैं ।
अब जैनाजैन ज्योतिष शास्त्र के आधारपर कुछ स्वप्नोंका फल नीचे उद्धृत किया जाता है—
अगुरु - जैनाचार्य भद्रबाहुके मतसे—- काले रंगका अगुरु देखनेसे निःसन्देह अर्थलाभ होता है । जैनाचार्य चन्द्रसेन मुनिके मतसे सुख मिलता है। बराहमिहिरके मतसे धन लाभ के साथ स्त्री लाभ भी होता है । बृहस्पति के मतसे—इष्ट मित्रोंके दर्शन, और आचार्य मयूख एवं दैवज्ञवर्य गणपति के मत से अर्थ लाभके लिये विदेश गमन होता है ।
विशेष जानने के लिये देखो -
९. भद्रबाहु निमित्त शास्त्रका स्वप्नाध्याय और केवलज्ञानहोराका स्वप्न प्रकरण
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ज्योतिष एवं गणित
४१५ अग्नि-जैनाचार्य चन्द्रसेन मुनिके मतसे धूम युक्त अग्नि देखनेसे उत्तमकान्ति, वराहमिहिर और मार्कण्डेयके मतसे प्रज्वलित अग्नि देखनेसे कार्य सिद्धि; दैवज्ञ गणपतिके मतसे अग्नि भक्षण करना देखनेसे भूमि लाभके साथ स्त्री रत्नकी प्राप्ति और बृहस्पतिके मतसे जाज्वल्यमान अग्नि देखनेसे कल्याण होता है ।
____ अग्निवग्ध-जो मनुष्य आसन, शय्या, यान और वाहन पर स्वयं स्थित होकर अपने शरीरको अग्निदग्ध होते देखे (मतान्तरसे अन्यको जलता हुआ देखे और तत्क्षण जाग उठे, तो उसे धन-धान्यकी प्राप्ति होती है । अग्निमें जलकर मृत्यु देखनेसे रोगी पुरुषको मृत्यु और स्वस्थ पुरुष बीमार होता है । गृह अथवा दूसरी वस्तुको जलते हुए देखना शुभ है । वराहमिहिरके मतसे अग्नि लाभ भी शुभ है ।
अन्न-अन्न देखनेसे अर्थ लाभ और सन्तानकी प्राप्ति होती है। आचार्य चन्द्रसेनके मतसे श्वेत अन्न देखनेसे इष्ट मित्रोंकी प्राप्ति; लाल अन्न देखनेसे रोग; पीला अनाज देखनेसे हर्ष और कृष्ण अनाज देखनेसे मृत्यु होती है।
अलङ्कार-अलंकार देखना शुभ है, पर पहनना कष्टप्रद होता है ।
अस्त्र-अस्त्र देखना शुभ फलप्रद; अस्त्र द्वारा शरीरमें साधारण चोट लगना तथा अस्त्र लेकर दूसरेका सामना करना विजयप्रद होता है ।
अनुलेपन-श्वेत रंगकी वस्तुओंका अनुलेपन शुभ फल देनेवाला होता है। वराहमिहिरके मतसे लाल रंगके गन्ध, चन्दन और पुष्पमाला आदिके द्वारा अपनेको शोभायमान देखे तो शीघ्र मृत्यु होती है।
अन्धकार--अन्धकारमय स्थानोंमें वन, भूमि, गुफा और सुरंग आदि स्थानोंमें प्रवेश करते हुए देखना रोगसूचक है।
आकाश--भद्रबाहु स्वामीके मतसे निर्मल आकाश देखना शुभ फलप्रद; लाल वर्णकी आभा वाला आकाश देखना कष्ट प्रद और नील वर्णका आकाश देखना मनोरथ सिद्ध करने वाला होता है ।
____ आरोहण - वृष, गाय, हाथी, मन्दिर, वृक्ष, प्रासाद और पर्वतके ऊपर स्वयं आरोहण करते हुए देखना या दूसरेको आरोहित (चढ़ता हुआ) देखना अर्थ लाभ सूचक है ।
कपास-कपास देखने से स्वस्थ व्यक्ति रुग्ण होता है और रोगीकी मृत्यु होती है । दूसरेको देते हुए कपास देखना शुभ फलप्रद है ।
कबन्ध--नाचते हुए छिन्न कबन्ध देखनेसे आधि, व्याधि और धन नाश होता है। वराहमिहिरके मतसे मृत्यु होती है ।
कलश-कलश देखनेसे धन, आरोग्य और पुत्रकी प्राप्ति होती है। कलशी देखनेसे गृहमें कन्या उत्पन्न होती है ।
कलह-कलह एवं लड़ाई-झगड़े देखनेसे स्वस्थ व्यक्ति रुग्ण होता है और रोगीकी मृत्यु होती है।
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४१६
भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान काक-स्वप्नमें काक, गिद्ध, उल्लू और कुकुर जिसे चारों ओरसे घेरकर त्रास उत्पन्न करें तो मृत्यु और अन्यका त्रास उत्पन्न करते हुए देखे तो अन्यकी मृत्यु होती है।
कुमारी-कुमारी कन्याको देखनेसे अर्थ लाभ एवं सन्तानकी प्राप्ति होती है । वराहमिहिरके मतसे कुमारी कन्याके साथ आलिङ्गन करना देखनेसे कष्ट एवं धन क्षय होता है ।
कूप-गन्दे जल या पंक वाले कूप (कूआ) के अन्दर गिरना या डूबना देखनेसे स्वस्थ व्यक्ति रोगी और रोगीको मृत्यु होती है। तालाब या नदीमें प्रवेश करना देखनेसे रोगीको मरण तुल्य कष्ट होता है।
मोर'--नाईके द्वारा स्वयं अपना या दूसरेका क्षौर (हजामत) करना देखनेसे कष्टके साथ-साथ धन और पुत्रका नाश होता है। गणपति दैवज्ञके मतसे माता-पिताकी मृत्यु; मार्कण्डेयके मतसे भार्या मरणके साथ-साथ माता-पिताकी मृत्यु और बृहस्पतिके मतसे पुत्र-मरण होता है।
खेल२-अत्यन्त आनन्दके साथ खेल खेलते देखना दुःस्वप्न है। इसका फल बृहस्पतिके मतसे-रोना, शोक करना एवं पश्चात्ताप करना; ब्रह्मवैवर्त पुराणके मतसे-धन नाश, ज्येष्ठ पुत्र या कन्याका मरण और भार्याको कष्ट होता है, नारदके मतसे सन्तान नाश और पाराशरके मतसे-धन क्षयके साथ-साथ अपकोत्ति होती है।
गमन-दक्षिण दिशाकी ओर गमन करना देखनेसे धन नाशके साथ कष्ट; पश्चिम दिशाकी ओर गमन करना देखनेसे अपमान; उत्तरको ओर गमन करना देखनेसे स्वास्थ्य लाभ और पूर्व दिशाकी ओर गमन करना देखनेसे धन प्राप्ति होती है।
गत-उच्च स्थानसे अन्धकारमय गर्तमें गिर जाना देखनेसे रोगीकी मृत्यु और स्वस्थ पुरुष रुग्ण होता है । यदि स्वप्न में गर्तमें (गड्ढे) गिर जाय और उठने का प्रयत्न करनेपर भी बाहर न आ सके तो उसको १० दिनके भीतर मृत्यु होती है। - गाड़ो-गाय या बैलोंके द्वारा खींचे जाने वाली गाड़ीपर बैठे हुए चलना देखनेसे पृथ्वीके नीचेसे चिर संचित धनकी प्राप्ति होती है। वराहमिहिरके मतसे-पीताम्बर धारण किये स्त्रीको एक ही स्थानपर कई दिन तक देखनेसे उस स्थानपर धन मिलता है । बृहस्पतिके मतसे-स्वप्नमें दाहिने हाथमें साँपको काटता हुआ देखनेसे १०००००) रुपयेकी प्राप्ति अतिशीघ्र होती है।
___ गाना-स्वयंको गाना गाता हुआ देखनेसे कष्ट होता है । भद्रबाहु स्वामीके मतसे स्वयं या दूसरेको मधुर गाना गाते हुए देखनेसे मुकद्दमा विजय, व्यापारमें लाभ और यश प्राप्ति; बृहस्पतिके मतसे अर्थ लाभके साथ भयानक रोग; नारदके मतसे-सन्तान कष्ट और अर्थ लाभ एवं मार्कण्डेयके मतसे अपार कष्ट होता है ।
१. विशेष जाननेके लिये देखें--मुहूर्तगणपतिका २४वा प्रकरण । २. ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणेशखण्डका ३३वां और ३४वाँ अध्याय ।
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ज्योतिष एवं गणित गाय-दुहने वालेके साथ गायको देखनेसे कीत्ति और पुण्य लाभ हाता है। गणपति दैवज्ञके मतसे-जल पीती गाय देखनेसे लक्ष्मीके तुल्य गुण वाली कन्याका जन्म और वराहमिहिरके मतसे-स्वप्नमें गायका दर्शनमात्र ही सन्तानोत्पादक है ।
गिरना-स्वप्नमें लड़खड़ाते हुए गिरना देखनेसे दुःख, चिन्ता एवं मृत्यु होती है।
गृह-गृहमें प्रवेश करना, ऊपर चढ़ना एवं किसीसे प्राप्त करना देखनेसे भूमि लाभ और धन-धान्यकी प्राप्ति एवं गृहका गिरना देखनेसे मृत्यु होती है ।
पास-कच्चा घास, शस्य (धान) और कच्चे गेहूँ एवं चनेके पौधे देखनेसे भार्याको गर्भ रहता है, परन्तु इनके काटने खानेसे गर्भपात होता है ।
घृत-घृत देखने से मन्दाग्नि; अन्यसे लेना देखनेसे यश प्राप्ति; घृत पान करना देखनेसे प्रमेह और शरीरमें लगाना देखनेसे मानसिक चिन्ताओंके साथ शारीरिक कष्ट होता है।
घोटक–घोड़ा देखनेसे अर्थ लाभ, घोड़ेपर चढ़ना देखनेसे कुटुम्बवृद्धि और घोड़ी का प्रसव करना देखनेसे सन्तान लाभ होता है ।
चक्षु-स्वप्नमें अकस्मात् चक्षु द्वयका नष्ट होना देखनेसे मृत्यु और एक आँखका फूट जाना देखनेसे कुटुम्बमें किसीकी मृत्यु होती है ।
चावर'-स्वप्नमें शरीरकी चादर, चोगा या कमीज आदिको श्वेत और लाल रंगकी देखनेसे सन्तान हानि होती है।
चिता-अपनेको चितापर आरूढ़ देखनेसे बीमारकी मृत्यु और स्वस्थ व्यक्ति बीमार होता है।
बल-स्वप्न में निर्मल जल देखनेसे कल्याण, जल द्वारा अभिषेक देखनेसे भूमिकी प्राप्ति; जलमें डूबकर बिलग होना देखनेसे मृत्यु; जलको तैरकर पार करना देखनेसे सुख और जल पीना देखनेसे कष्ट होता है ।
जूता-स्वप्नमें जूता देखने से विदेश यात्रा, जूता प्राप्त कर उपभोग करना देखनेसे ज्वर एवं जूतासे मार-पीट करना देखनेसे ६ महीने में मृत्यु होती है।
तिल-तैल-तिल, तैल और खलीकी प्राप्ति होना देखने से कष्ट, पीना और भक्षण करना देखनेसे मृत्यु और मालिश करना देखनेसे मृत्यु तुल्य कष्ट होता है ।
बषि-स्वप्नमें दधि देखनेसे प्रीति, भक्षण करना देखनेसे यश प्राप्ति, भातके साथ भक्षण करना देखनेसे सन्तान लाभ और दूसरोंको देना लेना देखनेसे अर्थ लाभ होता है ।
त-दांत कमजोर हो गये हैं और गिरनेके लिये तैयार हैं या गिर रहे हैं, ऐसा देखनेसे धनका नाश और शारीरिक कष्ट होता है। वराहमिहिरके मतसे स्वप्नमें नख, दांत और केशोंका गिरना देखना मृत्यु सूचक है ।
१. विशेष जाननेके लिये देखो-मत्स्यपुराणका २४२ वा अध्याय ।
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४१८ भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
दोपक-स्वप्नमें दीपक जला हुआ देखनेसे अर्थ लाम, अकस्मात् निर्वाण प्राप्त हुआ देखनेसे मृत्यु और ऊर्ध्व लो देखनेसे यश प्राप्ति होती है ।
देग-प्रतिमा-स्वप्नमें इष्टदेवका दर्शन, पूजन और आह्वानन करना देखनेसे विपुल धनकी प्राप्तिके साथ परम्परासे मोक्ष मिलता है। स्वप्नमें प्रतिमाका कम्पित होना, गिरन हिलना, चलना, नाचना और गाते हुए देखनेसे आधि, व्याधि और मृत्यु,होती है।
नग्न-स्वप्नमें नग्न होकर मस्तिष्कके ऊपर लाल रंगकी पुष्पमाला धारण करना देखनेसे मृत्यु होती है।
नृत्य-स्वप्न में स्वयंका नृत्य करना देखनेसे रोग और दूसरेको नृत्य करता हवा देखनेसे अपमान होता है। वराहमिहिरके मतसे-नृत्यका किसी भी रूपमें देखना अशुभ
पक्वान्न-स्वप्नमें पक्वान्न कहींसे प्राप्त कर भक्षण करता हुआ देखे तो रोगीको मृत्यु हो और स्वस्थ व्यक्ति बीमार हो । स्वप्नमें पूरी, कचौरी, मालपुआ और मिष्टान्न खाना देखनेसे शीघ्र मृत्यु होती है।
फल-स्वप्नमें फल देखनेसे धनकी प्राप्ति, फल खाना देखनेसे रोग एवं सन्तान नाश और फलका अपहरण करना देखनेसे चोरी एवं मृत्यु आदि अनिष्ट फलों की प्राप्ति होती है ।
फूल-स्वप्न में श्वेत पुष्पोंका प्राप्त होना देखनेसे धन लाभ, रक्तवर्णके पुष्पोंका प्राप्त होना देखनेसे रोग; पीतवर्णके पुष्पोंका प्राप्त होना देखनेसे यश एवं धन लाभ; हरितवर्णके पुष्पोंका प्राप्त होना देखनेसे इष्ट-मित्रोंका मिलन और कृष्णवर्णके पुष्प देखनेसे मृत्यु
होती है।
भूकम्प'-भूकम्प होना देखने से रोगीको मृत्यु और स्वस्थ व्यक्ति रुग्ण होता है । पन्द्रसेन मुनिके मतसे-स्वप्नमें भूकम्प देखने से राजाका मरण होता है। भद्रबाहु स्वामीके मनसे-स्वप्नमें भूकम्प होना देखनेसे राज्य विनाशके साथ देशमें बड़ा भारी उपद्रव होता है।
मल-मूत्र--स्वप्नमें मल-मूत्रका शरीरमें लगजाना देखनेसे धन प्राप्ति; भक्षण करना देखनेसे सुख और स्पर्श करना देखनेसे सुख और सम्मान मिलता है ।
मृत्यु-स्वप्नमें किसीको मृत्यु देखनेसे शुभ होता है और जिसकी मृत्यु देखते हैं वह दीर्घजीवी होता है, परन्तु अन्य दुःखद घटनाएं सुननेको मिलती है।
यव-स्व में जो देखनेसे घरमें पूजा, होम और अन्य माङ्गलिक कार्य होते है।
पुर-स्वप्नमें युद्ध में विजय देखनेसे शुभ; पराजय देखनेसे अशुभ और युर सम्बन्धी वस्तुओंको देखनेसे चिन्ता होती है।
__पिर-स्वप्नमें शरीरमेंसे रुधिर निकलना देखनेसे धन धान्यकी प्राप्ति; रुधिरसे अभिषेक करता हुआ देखनेसे सुख; स्नान देखनेसे अर्थ लाभ और रुधिर पान करना देखनेसे विद्या लाभ एवं अर्थ लाभ होता है । १. विशेष जाननेके लिये देखो
देवीपुराणका २२वां अध्याय और कालिकापुराणका ८ मन्याव ।
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ज्योतिष एवं गणित
४१९
लता - स्वप्न में कण्टकवाली लता देखनेसे गुल्म रोग; साधारण फल-फूल सहित लता देखनेसे नृप दर्शन और लताके साथ क्रोड़ा करनेसे रोग होता है ।
लोहा - स्वप्न में लोहा देखनेसे अनिष्ट और लोहा या लो हेसे निर्मित वस्तुओंके प्राप्त करनेसे आधि, व्याधि और मृत्यु होती है ।
वमन – स्वप्न में वमन और दस्त होना देखनेसे रोगीकी मृत्यु; मल-मूत्र और सोनाचांदी का वमन करना देखनेसे निकट मृत्यु; रुधिर वमन करना देखनेसे ६ मास आयु शेष और दूध वमन करना देखनेसे पुत्र प्राप्ति होती है ।
विवाह - स्वप्न में अन्यके विवाह या विवाहोत्सव में योग देना देखनेसे पीड़ा, दुःख या किसी आत्मीय जनकी मृत्यु और अपना विवाह देखनेसे मृत्यु या मृत्यु तुल्य पीड़ा होती है । वीणा -- स्वप्न में अपने द्वारा वीणा बजाना देखनेसे पुत्र प्राप्ति; दूसरेके द्वारा वीणा बजाना देखनेसे मृत्यु या मृत्यु तुल्य पीड़ा होती है ।
शृङ्ग - स्वप्न में शृङ्ग और नख वाले पशुओंका मारनेके लिये दौड़ना देखनेसे राजभय, मारते हुए देखनेसे रोग होता है ।
स्त्री - स्वप्न में श्वेत वस्त्र परिहिता, हाथों में श्वेत पुष्प या माला धारण करने वाली एवं सुन्दर आभूषणोंसे सुशोभित स्त्रीके देखने तथा आलिङ्गन करनेसे धम-प्राप्ति और रोगमुक्ति होती है । परस्त्रियोंका लाभ होना अथवा आलिङ्गन करना देखने से शुभ फल होता है । पीतवस्त्र परिहिता और पीत पुष्प या पीत माला धारण करने वाली स्त्रीको स्वप्न में देखने से कल्याण; समवस्त्र परिहिता, मुक्तकेशी और कृष्णवर्णके दांत वाली स्त्रीका दर्शन या मालिङ्गन करना देखनेसे ६ मासके भीतर मृत्यु और कृष्णवर्णवाली, पापिनी, आचार विहीना, लम्बकेशी, लम्बे स्तनवाली और मैले वस्त्र परिहिता स्त्रीका दर्शन और आलिङ्गन करना देखनेसे शीघ्र मृत्यु होती है ।
तिथियोंके अनुसार स्वप्नका फल
शुक्लपक्षको प्रतिपदा - इस तिथि में स्वप्न देखने पर बिलम्बसे फल मिलता है । शुक्लपक्षको द्वितीया - इस तिथि में स्वप्न देखने पर विपरीत फल होता है । अपने लिये देखनेसे दूसरेको और दूसरेके लिये देखनेसे अपनेको फल मिलता है ।
शुक्लपक्षको तृतीया - इस तिथि में मी स्वप्न देखनेसे विपरीत फल मिलता है, पर कलकी प्राप्ति विलम्बसे होती है ।
शुक्लपक्षको चतुर्थी और पंचमी - इन तिथियों में स्वप्न देखनेसे दो महीने से लेकर दो वर्षके भीतर तक फल मिलता है ।
शुक्लपक्षको षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी और दशमी - इन तिथियों में स्वप्न देखनेसे शीघ्र फलकी प्राप्ति होती है तथा स्वप्न सत्य निकलता है ।
शुक्लपक्षकी एकादशी और द्वादशी-इन तिथियोंमें स्वप्न देखनेसे बिलम्ब से फल होता
है ।
शुक्लपक्ष की त्रयोदशी और चतुर्दशी - इन तिथियों में स्वप्न देखने से स्वप्न का फल नहीं मिलता । तथा स्वप्न मिथ्या होते हैं ।
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
पूर्णिमा - — इस तिथिके स्वप्नका फल अवश्य मिलता है । कृष्णपक्षको प्रतिपदा - इस तिथिके स्वप्न का फल नहीं होता है ।
कृष्णपक्षको द्वितीया - इस तिथिके स्वप्नका फल विलम्बसे मिलता है । मतान्तर से इसका स्वप्न सार्थक होता है ।
कृष्णपक्षकी तृतीया और चतुर्थी---इन तिथियोंके स्वप्न कृष्णपक्षको पंचमी और षष्ठी -- इन तिथियोंके स्वप्न दो भीतर फल देने वाले होते हैं ।
मिथ्या होते हैं ।
महीने बाद और ३ वर्षके
कृष्णपक्षको सप्तमी - इस तिथिका स्वप्न अवश्य शीघ्र ही फल देता है ।
nor पक्षको अष्टमी और नवमी--इन तिथियोंके स्वप्न विपरीत फल देने वाले होते
हैं । कृष्णपक्षको दशमी, एकादशी, द्वादशी और त्रयोदशी इन तिथियोंके स्वप्न मिथ्या होते हैं। कृष्णपक्षको चतुर्दशी - इस तिथिका स्वप्न सत्य होता है तथा शीघ्र ही फल देता है । अमावस्या — इस तिथिका स्वप्न मिथ्या होता है ।
जैन निमित्तशास्त्र के आधार पर कुछ विशिष्ट स्वप्नोंके फल
धनप्राप्ति सूचक स्वप्न स्वप्न में हाथी, घोड़ा, बैल और सिंहके ऊपर बैठकर गमन करता हुआ देखे तो शीघ्र धन मिलता है। पहाड़, नगर, ग्राम, नदी और समुद्र इनके देखने से भी अतुल लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। तलवार, धनुष और बन्दूक आदि से शत्रुओं को ध्वन्स करता हुआ देखनेसे अपार धन मिलता है । स्वप्न में हाथी, घोड़ा, बैल, पहाड़, वृक्ष और गृह इन पर आरोहण करता हुआ देखनेसे भूमिके नीचेसे धन मिलता है । स्वप्न में भख और सेमसे रहित शरीरके देखनेसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । स्वप्न में दही, छत्र, फूल, चमर, अन्न, वस्त्र, दीपक, तम्बाकू, सूर्य, चन्द्रमा, पुष्प, कमल, चन्दन देव- पूजा, वीणा और अस्त्र देखनेसे शीघ्र ही लाभ होता है । यदि स्वप्न में चिड़िया पर पकड़कर उड़ता हुआ देखे तथा आकाश मार्गमें देवताओंकी दुन्दुभिकी आवाज सुने तो पृथ्वीके नीचेसे शीघ्र धन मिलता है ।
सन्तानोत्पादक स्वप्न स्वप्नमें वृषभ, कलश, माला, गन्ध, चन्दन, श्वेत पुष्प, आम, अमरूद, केला, सन्तरा, नीबू और नारियल इनकी प्राप्ति होनेसे तथा देव, मूर्ति, हाथी, सत्पुरुष, सिद्ध, गन्धर्व, गुरु, सुवर्ण, रत्न, जौ, गेहूं, सरसों, कन्या, रक्त-पान करना, अपनी मृत्यु देखना, केला, कल्पवृक्ष, तीर्थ, तोरण, भूषण, राज्य मार्ग, और मट्ठा देखने से शीघ्र सन्तानकी प्राप्ति होती है । किन्तु फल और पुष्पोंका भक्षण करना देखनेसे सन्तान मरण तथा गर्भपात होता है ।
मरण सूचक स्वप्न स्वप्नमें तेल मले हुए, नग्न होकर भैंस, गधे, ऊँट, कृष्ण, बैल और काले घोड़ेपर चढ़कर दक्षिण दिशाकी ओर गमन करना देखनेसे; रसोई गृहमें, लाल पुष्पोंसे परिपूर्ण वनमें और सूतिका गृह में अंगभंग पुरुषका प्रवेश करना देखनेसे; झूलना गाना, खेलना, फोड़ना, हँसना, नदीके जलमें नीचे चले जाना तथा सूर्य, चन्द्रमा, ध्वजा और तारा ओंका गिरना देखनेसे; भस्म, घी, लोह, लाख, गीदड़, मुर्गा, बिलाव, गोह, न्योला, बिच्छू,
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ज्योतिष एवं गणित
४२१ मक्खी, सर्प और विवाह आदि उत्सव देखनेसे एवं स्वप्नमें दाढ़ी, मूंछ और सिरके बाल मुंडवाना देखनेसे मृत्यु होती है।
रोगोत्पादक स्वप्न--स्वप्नमें नेत्रोंका रोग होना, कूप, गड़हा, गुफा, अन्धकार और विलमें गिरना देखनेसे; कचौड़ी, पूआ, खिचड़ी और पक्वान्नका भक्षण करना देखनेसे; गरम जल, तैल और स्निग्ध पदार्थोंका पान करना देखनेसे; काले, लाल और मैले वस्त्रोंका पहनना देखनेसे; बिना सूर्यका दिन, बिना चन्द्रमा और तारोंकी रात्रि और असमयमें वर्षाका होना देखनेसे; शुष्क वृक्षपर चढ़ना देखनेसे; हंसना और गाना देखनेसे एवं भयानक पुरुषको पत्थर मारता हुआ देखनेसे शीघ्र रोग होता है।
शोघ्र पाणिग्रहण सूचक स्वप्न-स्वप्नमें बालिका, मुरगी ओर क्रौंच पक्षीके देखनेसे; पान, कपूर, अगर, चन्दन और पीले फलोंकी प्राप्ति होना देखनेसे, रण, जुआ और विवादमें विजय होना देखनेसे; दिव्य वस्त्रोंका पहनना देखनेसे; सुवर्ण और चाँदीके बर्तनोंमें खीरका भोजन करना देखनेसे एवं श्रेष्ठ पूज्य पुरुषोंका दर्शन करनेसे शीघ्र विवाह होता है।
पाश्चात्य विद्वानोंके मतानुसार स्वप्नोंके फल यों तो पाश्चात्य विद्वानोंने अधिकांश रूपसे स्वप्नोंको निस्सार बताया है, पर कुछ ऐसे भी दार्शनिक है जो स्वप्नोंको सार्थक बतलाते हैं। उनका मत है कि स्वप्नमें हमारी कई अतृप्त इच्छाएँ ही चरितार्थ होती हैं। जैसे हमारे मनमें कहीं भ्रमण करनेकी इच्छा होनेपर स्वप्नमें यह देखना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है कि हम कहीं भ्रमण कर रहे हैं। सम्भव है कि जिस इच्छाने हमें भ्रमणका स्वप्न दिखाया है वही कालान्तरमें हमें भ्रमण करावे । इसलिये स्वप्नमें भावी घटनाओंका आभास मिलना साधारण बात है। कुछ विद्वानोंने इस थ्योरीका नाम Law of probability (सम्भाव्य गणित) रखा है। इस सिद्धान्तके अनुसार कुछ स्वप्नमें देखी गई अतृप्त इच्छाएँ सत्यरूपमें चरितार्थ होती है, क्योंकि बहुत समय कई इच्छाएं अज्ञात होनेके कारण स्वप्नमें प्रकाशित रहती हैं और ये ही इच्छाएँ किसी कारणसे मनमें उदित होकर हमारे तदनुरूप कार्य करा सकती हैं । मानव अपनी इच्छाओंके बलसे ही सांसारिक क्षेत्रमें उन्नति या अवनति करता है, उसके जीवनमें उत्पन्न होनेवाली अनन्त इच्छाओंमें कुछ इच्छाएँ अप्रस्फुटित अवस्था हो विलीन हो जाती हैं, लेकिन कुछ इच्छाएँ परिपक्वावस्था तक चलती रहती हैं । इन इच्छाओंमें इतनी विशेषता होती है कि ये बिना तृप्त हुए लुप्त नहीं हो सकती । सम्भाव्यगणितके सिद्धान्तानुसार जब स्वप्नमें परिपक्वावस्थावाली अतृप्त इच्छाएं प्रतीकाधारको लिए हुए देखी जाती है, उस समय स्वप्नका भावी फल सत्य निकलता है । अबाधभावानुसङ्गसे हमारे मनके अनेक गुप्तभाव प्रतीकोंसे ही प्रकट हो जाते हैं, मनको स्वाभाविकधारा स्वप्न में प्रवाहित होती है जिससे स्वप्न में मनकी अनेक चिन्ताएँ गुपी हुई प्रतीत होती हैं। स्वप्नके साथ संश्लिष्ट मनकी जिन चिन्ताओं और गुप्त भावोंका प्रतीकोंसे आभास मिलता है, वही स्वप्नका अव्यक्त अंश (Latent Content) भावी फलके रूपमें प्रकट होता है । अस्तु, उपलब्ध सामग्रीके आधारपर कुछ स्वप्नोंके फल नीचे दिये जाते हैं
अस्वल्प-अपने सिवाय अन्य किसीको अस्वस्थ देखनेसे कष्ट होता है और स्वयं अपनेको अस्वस्थ देखनेसे प्रसन्नता होती है। जी० एच० मिलरके मतमें स्वप्न में स्वयं
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४२२ भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान अपनेको अस्वस्थ देखनेसे कुटुम्बियोंके साथ मेल-मिलाप बढ़ता है एवं एक मासके बाद स्वप्नद्रष्टाको कुछ शारीरिक कष्ट भी होता है तथा अन्यको अस्वस्थ देखनेसे द्रष्टा शीघ्र रोमी होता है । डाक्टर सी० जे० ह्विटवेके मतानुसार अपनेको अस्वस्थ देखने से सुख शान्ति और दूसरेको अस्वस्थ देखनेसे विपत्ति होती है। शुकरातके सिद्धान्तानुसार अपने और दूसरेको अस्वस्थ देखना रोगसूचक है । विवलोनियन और पृथग गोरियनके सिद्धान्तानुसार अपनेको अस्वस्थ देखना नोरोग सूचक और दूसरेको अस्वस्थ देखना पुत्र, मित्रादिके रोगको प्रकट करने वाला होता है।
आवाज-स्वप्नमें किसी विचित्र आवाजके स्वयं सुननेसे अशुभ-सन्देश सुननेको मिलता है, यदि स्वप्नकी आवाज सुनकर निद्रा भंग हो जाती है तो सारे कार्यो में परिवर्तन होने की संभावना होती है। अन्य किसोकी आवाज सुनते हुए देखनेसे पुत्र और स्त्रीको कष्ट होता है तथा अपने अति निकट कुटुम्बियोंकी आवाज सुनते हुए देखनेसे किसी आत्मीय की मृत्यु प्रकट होती है । डा० जी० एच० मिलरके मतसे आवाज सुनना भ्रम का द्योतक है।
ऊपर-यदि स्वप्नमें कोई चीज अपने ऊपर लटकती हुई दिखलाई पड़े और उसके गिरने का सन्देह हो तो शत्रुओंके द्वारा धोखा होता है । ऊपर गिर जानेसे धन नाश होता है, पदि ऊपर न गिरकर पासमें गिरती है तो धन-हानिके साथ स्त्री, पुत्र एवं अन्य कुटुम्बियों को कष्ट होता है । जी० एच० मिलरके मतसे किसी भी वस्तुका ऊपर गिरना धन नाश कारक है । डा० सी० जे० ह्विटवेके मतसे किसी वस्तुके ऊपर गिरनेसे तथा गिरकर चोट लगनेसे मृत्यु तुल्य कष्ट होता है।
कटार-स्वप्नमें कटारके देखनेसे कष्ट और कटार चलाते हुए देखनेसे धन हानि तथा निकट कुटुम्बीके दर्शन, मांस भोजन एवं पलोसे प्रेम होता है। किसी-किसीके मतसे अपनेमें स्वयं कटार भौंकते हुए देखनेसे किसीके रोगी होनेके समाचार सुनाई पड़ते हैं।
कनेर-स्वप्नमें कनेरके फूले वृक्षका दर्शन करनेसे मान प्रतिष्ठा मिलती है । कनेरके वृक्षसे फूल और पत्तोंको गिरना देखने से किसी निकट आत्मीयकी मृत्यु होती है। कनेरका फल भक्षण करना रोग सूचक है तथा एक सप्ताहके भीतर अत्यन्त अशान्ति देने वाला होता है । कनेरके वृक्षके नीचे बैठकर पुस्तक पढ़ता हुआ अपनेको देखनेसे दो वर्षके बाद साहित्यिक क्षेत्रमें यश की प्राप्ति होती है एवं नये-नये प्रयोगोंका आविष्कर्ता होता है।
किला-किलेकी रक्षाके लिये लड़ाई करते हुए देखनेसे मानहानि एवं चिन्ताएं; किलेमें भ्रमण करनेसे शारीरिक कष्ट; किलेके दरवाजे पर पहरा लगानेसे प्रेमिकासे मिलन एवं मित्रोंको प्राप्ति और किलेके देखने मात्रसे परदेशी बन्धुसे मिलन होता है तथा सुन्दर स्वादिष्ट मांस भक्षणको मिलता है।
केला-स्वप्नमें केलाका दर्शन शुभ फलदायक होता है और केलेका भक्षण अनिष्ट फल देने वाला होता है । किसीके हाथसे जबरदस्ती केला लेकर खानेसे मृत्यु और केलेके पत्तों पर रखकर भोजन करनेसे कष्ट एवं केलेके थम्भे लगानेसे धरमें माङ्गलिक कार्य होते हैं।
केश-किसी सुन्दरीके केशपाशका स्वप्नमें चुम्बन करनेसे प्रेमिका मिलन और केशके दर्शनसे मुकदमेमें पराजय एवं दैनिक कार्योंमें असफलता मिलती है ।
पल-स्वप्नमें किसी खल (दुष्ट) के दर्शन करमेसे मित्रोंसे अनबन और लड़ाई करनेसे मित्रोंसे प्रेम होता है । खलके साथ मित्रता करनेसे माना भय और चिन्ताएँ होती है । सलके
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ज्योतिष एवं गणित साथ भोजन-पान करनेसे शारीरिक कष्ट; बातचीत करनेसे रोग और उसके हाथ से दूध लेनेसे सैकड़ों रुपयोंकी प्राप्ति होती है। किसी-किसीके मतसे खलका दर्शन शुभ माना गया है।
खेल-स्वप्नमें खेल खेलते हुए अपनेको देखनेसे स्वास्थ्य वृद्धि और दूसरोंको खेलते हुए देखनेसे ख्याति लाभ होता है । खेल में अपनेको पराजित देखनेसे कार्य साफल्य और जय देखनेसे कार्य हानि होती है । खेलके मैदानका दर्शन करनेसे युद्ध में भाग लेनेका संकेत होता है । खिलाड़ियोंका आपसमें मल्लयुद्ध करते हुए देखना बड़े भारी रोग का सूचक है ।
गाय-यदि स्वप्नमें कोई गाय दूध दुहनेकी इन्तजारीमें बैठी हुई दिखाई पड़े तो सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है। गायका दर्शन जी० एच० मिलरके मतसे प्रेमिका मिलन सूचक बताया गया है । चारा खाते हुए गायको देखनेसे अन्न प्राप्ति; बछड़ा पिलाते हुए देखनेसे पुत्रप्राप्ति; गोबर करते हुए गायको देखनेसे धनप्राप्ति और पागुर करते हुए देखनेसे कार्यमें सफलता मिलती है।
घड़ी-स्वप्नमें घड़ी देखनेसे शत्रु भय होता है । घड़ीके घण्टोंकी आवाज सुनमेसे दुःखद संवाद सुनते हैं या किसी मित्रकी मृत्युका समाचार सुनाई पड़ता है। किसीके हायसे घड़ी गिरते हुए देखनेसे मृत्यु तुल्य कष्ट होता है। अपने हाथकी घड़ीका गिरना देखनेसे छः महीनेके भीतर मृत्यु होती है।
चाय-स्वप्नमें चायका पीना देखनेसे शारीरिक कष्ट, प्रेमिका वियोग एवं व्यापारमें हानि होती है । मतान्तरसे चाय-पीना शुभकारक भी है।
जन्म-यदि स्वप्नमें कोई स्त्री बच्चे का जन्म देखे तो उसकी किसी सखी सहेलीको पत्र प्राप्ति होती है तथा उसे उपहार मिलते हैं। यदि पुरुष यही स्वप्न देखे तो उसे यश प्राप्ति होती है।
साडू-यदि स्वप्नमें नया झाडू दिखाई पड़े तो शीघ्र ही भाग्योदय होता है । पुराने झाडूका दर्शन करनेसे सट्टे धन हानि होती है । यदि स्त्री इसी स्वप्नको देखे तो उसे भविष्यमें नाना कष्टोंका सामना करना पड़ता है।
टाट-अगर स्वप्नमें फटे, मैले टाटके दर्शन हों तो अनिष्ट होता है और स्वच्छ टाटपर स्वयंको बैठते हुए देखनेसे धन प्राप्ति होती है । जो० एच० मिलरके मतसे लाटरी या सट्टेमें बहुत धन एवं स्वादिष्ट भोजन मिलते हैं।
टोन–स्वप्नमें टीनके देखनेसे मित्रोंसे शत्रुता होती है। टीममें रखी हुई चिकनी वस्तु का दर्शन करनेसे मिष्ठान्न एवं मांसको प्राप्ति होती है तथा अचानक मित्रोंसे मिलन होता है । टीनका काटना और खाना अनिष्टक होता है ।
तालाब-स्वप्नमें तालाब देखनेसे आशासे अधिक धनकी प्राप्ति होती है तथा दो वर्ष बाद विपुल सम्पत्तिकी प्राप्ति समझनी चाहिये ।
दुग्यालय-स्वप्नमें दुग्धालय देखनेसे अविवाहितोंको शीघ्र ही प्रेमिका मिलती है और विवाहितोंको सुख-शान्ति मिलती है । किसी-किसीके मतसे यह साधारण स्वप्न है, इसका कोई विशेष फल नहीं बताया है।
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान दुर्घटना-स्वप्नमें दुर्घटना देखनेसे इस बातकी चेतावनी मिलती है कि यात्रा करना बन्द कर देना चाहिये, यात्रा तीन महीने तक प्राणान्त करने वाली होती है ।
धनदौलत-स्वप्नमें स्वयं धन दौलत देखनेसे प्रकट होता है कि अपने दृढ़ अध्यवसायसे उद्योगमें अपरिमित धनकी प्राप्ति होगी। दूसरे आदमीको धन प्राप्त करते हुए देखनेसे ज्वर आनेका भय रहता है ।
पा-स्वप्नमें धुंआ देखना अत्यन्त हानिकारक होता है। इस स्वप्नका फल चिन्ता, भय, प्रेमिका वियोग, धन हानि एवं कार्य-असफलता है ।
नट-नाचते हुए नटको स्वप्न में देखनेसे पिताको कष्ट एवं मित्रकी मृत्यु होती है। साधारण रूपसे नटको देखनेसे शुभ फल होता है ।
पवंत-स्वप्नमें पर्वतके ऊपर चढ़ना देखना शुभ फलदायक है; शिखर पर चढ़कर ऊपर ही रह जाना देखनेसे सहस्रों रुपयेकी आमदनी होती है और नीचे गिर कर देखनेसे बहुत कष्ट होता है तथा व्यापारमें सैकड़ों रुपयेकी हानि होती है ।
बाण-स्वप्नमें बाण देखनेसे सुख, आदर, आतिथ्यलाभ एवं त्योहार आदिमें आनन्दोल्लास होता है । रोग, दुःख एवं निराशाका नाश होता है। पुराना टूटा बाण देखनेसे प्रेम और उद्योगमें बाधा आती है तथा प्रेमिकासे अपमान सहन करना पड़ता है । बाण चलाना देखनेसे घरेलू युद्ध होता है ।
बालक-स्वप्नमें रोते हुए बालकको देखनेसे बीमारी और निराशा होती है । मतान्तर से पांच माहकी लम्बी बीमारीका सामना करना पड़ता है । तेजस्वी और स्वस्थ बालकको देखनेसे प्रेमके बदले प्रेम मिलता है तथा मित्रोंसे बधाइयाँ मिलती हैं । यदि कोई स्त्री स्वप्नमें किसी बच्चेका लालन-पालन करती हुई अपनेको देखे तो उसे यह समझना चाहिये कि जिसपर वह विश्वास करती है उसीसे ठगी जायेगी एवं उसका प्रेमी गुप्त रूपसे किसी अन्यके साथ प्रेम करता है जिसका भण्डा-फोड़ शीघ्र ही होने वाला है। मतान्तरसे बच्चे के साथ प्रेम करते हुए अपनेको देखना सन्तानदायक बताया गया है ।
बैल-यदि स्वप्नमें सुन्दर श्वेत वर्णके बैलके दर्शन हों तो दुश्मनोंकी चालबाजीसे अच्छे मित्र रक्षा करते हैं तथा शरीर नीरोग रहता है। बैलके साथ क्रीडा करते हुए अपनेको देखनेसे पन्द्रह दिनके भीतर लाटरीमें धन मिलता है । रुपये पैसोंसे बैलकी पूजा करना देखनेसे जमीनके मीचेसे धनको प्राप्ति होती है।
भयभीत-स्वप्नमें अपनेको भयभीत देखनेसे प्रवास होता है तथा किसी बड़े कार्यमें असफलता मिलती है । बन्धुओं और मित्रोंसे विरोध होता है
मिक्षा-स्वप्नमें क्रुद्ध होकर भिक्षा देना या लेना देखनेसे निन्दा होती है। प्रसन्नता पूर्वक भिक्षा देना और लेना देखनेसे तीन दिन आनन्द पूर्वक व्यतीत होता है; मतान्तरसे यह स्वप्न साधारण है, इसलिये इसका कोई विशेष फल नहीं बताया गया है ।
भूता-स्वयं अपनेको स्वप्नमें भूखा देखना घरमें सुख और सन्तोषके अभावको प्रकट करता है तथा प्रेमियों के लिये ऐसा स्वप्न देखनेपर विवाहोपरान्त शीघ्र ही विवाह विच्छेद होता
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ज्योतिष एवं गणित
४२५ है। भूखे व्यक्तियोंको चारों ओर भ्रमण करते हुए देखनेसे प्रेमिकाका रुष्ट होना प्रकट होता है तथा एक महीनेके लिये आर्थिक कष्ट होता है । भूखसे अत्यन्त विह्वल होकर भिक्षा मांगते हुए अपनेको देखनेसे भारी विपत्ति आती है । अत्यन्त भूखसे पीड़ित होकर रोना-चिल्लाना देखनेसे किसी बड़े नेताको मृत्यु होती है। जी० एच० मिलरके मतसे भूखे मनुष्यका स्वप्नमें दर्शन करनेसे शोघ्र विवाह होता है ।
मगर-स्वप्नमें मगर देखनेसे युद्ध क्षेत्रमें १० दिनके बाद जाना पड़ता है । यदि भूला मगर खानेको दौड़ता हुआ दृष्टिगोचर हो तो भयङ्कर बीमारी बाती है । मगरके साथ क्रीड़ा करते हुए देखनेसे नाना प्रकारकी विपत्तियोंका सामना करना पड़ता है।
मछली-स्वप्नमें मछलीका दर्शन शुभ फलदायक होता है । यदि पानीमें तड़फड़ाती हुई मछलीका दर्शन स्वप्नमें हो तो हानि; मछली बेचनेवालेकी दुकानपर दर्शन हो तो लाभ और रास्ते में ले जाते हुए अन्य व्यक्तिको देखनेसे कार्यमें सफलता मिलती है। मतान्तरसे मछली का स्वप्न विवाहका सूचक है, पर इस स्वप्नमें दो मछलियोंके दर्शन अपेक्षित है।
मक्किल-स्वप्नमें मवक्किलके देखनेसे घरमें सन्तान लाभ होता है। यदि रुपये देते हुए किसी मवक्किलको वकीलसे बातें करते हुए देखे तो अपमान और धन हानि होती है। साधारणयता मवक्किलका स्वप्न शुभ फलप्रद होता है ।
मवेशी-स्वप्नमें मवेशी देखनेसे भाईकी उन्नति होती है । यदि मवेशी स्वप्न में बीमार दिखलाई पड़े तो पुत्रको बीमारीकी सूचना समझनी चाहिये । गाय, हाथी, घोड़े आदि पालतू मवेशीके देखनेसे श्रेष्ठ फल होता है ।
मशान-स्वप्नमें मशान भूमिके दर्शन हों तो घरमें होने वाली कलहकी सूचना समझनी चाहिये । यदि मशान भूमिमें अधिक मनुष्योंकी भीड़ दिखलाई पड़े तो घरमें उत्सव होता है।
मस्विर-स्वप्नमें मस्जिद देखनेसे धार्मिक कार्योंमें उत्साह होता है। यदि रंगीन, बेलबूटोंसे चित्रित मसजिद स्वप्नमें दिखलाई पड़े तो किसी बड़ी भारी विपत्तिकी सूचना समझनी चाहिये।
मस्तक-यदि स्वप्नमें मस्तकमें दर्द हो तो शारीरिक कष्टको सूचना समझनी पाहिये । आधे मस्तकमें दर्दका अनुभव हो तो आगामी विपत्तिकी सूचना समझनी चाहिये ।
माता-स्वप्नमें आदर्श माके दर्शन हों तो कार्यमें सफलता मिलती है और माताके साथ वार्तालाप हो तो युद्धमें विजय, लाटरीसे धन लाभ होता है । यदि माता मस्तकपर हाथ रख कर कुछ आदेश दे तो वह यथार्थ निकलता है ।
माला-स्वप्नमें सुन्दर मालाके दर्शन हों तो कामिनियोंके दर्शन, आलिंगन और वार्तालापका सुख प्राप्त होता है । माला धारण करनेसे विवाह शीघ्र होता है, नये उत्सवों में जाना पड़ता है । यदि कोई अपने गलेकी माला उतार कर अर्पित करे तो १० महीने के भीतर मृत्युकी सूचना समझनी चाहिये । मुरझाई हुई माझाका दर्शन बीमारीकी सूचना देता है।
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान मुद्रा-स्वप्नमें मुद्राका दर्शन विपत्तिसूचक है। यदि किसी स्थानसे अकस्माद बहुत-सी मुद्राएं प्राप्त होनेका स्वप्न आवे तो युद्ध क्षेत्रमें जानेका निमंत्रण समझना चाहिये। मुद्रा बनाते हुए स्वयंको देखे तो प्रेमिका मिलन और अन्य को देखे तो तलाक जानना चाहिये।
मोती-स्वप्नमें मोतीका दर्शन व्यपारमें लाभकारक होता है । यदि मोतियोंकी माला धारण करनेका स्वप्न आये तो किसी जासूसी कार्यमें सफलताकी सूचना समझनी चाहिये । समुद्रके किनारेसे मोतियोंके निकालनेका स्वप्न आवे तो घरमें सन्तान उत्पत्ति समझनी चाहिये।
यन्त्र-यदि स्वप्नमें यन्त्र दिखाई पड़े तो किसी मशीनरीके कार्यमें बड़ी भारी सफलता समझनी चाहिये देश-विदेशसे व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ता है । किसी प्रयोगशालामें जाकर यंत्रोंके आविष्कारका स्वप्न दिखाई पड़े तो स्वप्नद्रष्टा विज्ञानकी उन्नतिके साथ-साथ रासायनिक और वैज्ञानिक यंत्रोंका आविष्कारक होता है । जड़ विज्ञानके अतिरिक्त विद्युतआलोक और जलके साथ सम्बन्धमें पदार्थ ज्ञान घातक यन्त्रोंका श्रेष्ठ आविष्कर्ता बनता है । यंत्रसे काम करते हुए स्वयंको देखनेसे धन प्राप्ति और अन्यको देखनेसे मित्र समागम होता है । मतान्तरसे यंत्र संचालनका स्वप्न शोघ्र विवाहका सूचक है।
यहूदी-यदि स्वप्नमें यहूदी जातिके लोग अपनी प्राचीन भाषा हिब्रुमें बातचीत करते हुए दिखाई पड़ें तो उनकी भाषाकी उन्नतिकी सूचना समझनी चाहिये । मतान्तरसे इस स्वप्नका फल किसी भी प्राचीन भाषाका उन्नति घोतक है । यहूदी युवतिसे स्वप्न में प्रेम करते हुए स्वयंको देखे तो सुन्दर, स्वस्थ और सुशिक्षित अपनी जातिकी कन्यासे विवाह और अन्यको प्रेम करते देखे तो सुन्दर स्त्री-दो बार विवाह की गई युवतीसे विवाह होता है । इस स्वनका फल तीन महीनेके बाद और पांच महीनेके पहले मिलता है।
यात्रा-यदि स्वप्नमें किसी स्थानके लिए यात्रा करते हुए देखे तो युद्ध और मुकद्दमे में विजय होती है। यदि यात्राके लिए सब सामान तैयार कर चलनेकी तैयारी करते हुए अपने को देखे तो व्यापारमें लाभ, युद्धमें विजय और प्रियजनोंसे मिलन होता है । यात्राकी तैयारी नहीं हुई, किन्तु यात्रा करनेके लिये यदि उत्सुकता स्वप्नमें दिखायी पड़े तो कालान्तरमें यात्रा करनी पड़ती है, यदि सापमें कुछ मित्र और पूज्य लोग यात्रा करते हुए दिखाई पड़े तो तीन महीनेके भीतर किसी पवित्र स्थानके लिए यात्रा करनी पड़ती है, इस यात्रामें धन-धान्यके लाभके साथ और भी अनेक प्रकारको सुन्दर वस्तुएं मिलती हैं। मतान्तरसे इस स्वप्नका फल जुमा या लाटरीसे धन लाभ कराने वाला बताया गया है।
युर-यदि स्वप्नमें युद्ध करते हुए अपनेको देखे तो शीघ्र ही युद्ध के लिये प्रस्थान करना पड़ता है। मल्लयुद्धके स्वप्नका फल विजयोत्पादक और अस्त्र युद्धके स्वप्नका फल कष्टके साथ विजयदायक होता है । युद्ध क्षेत्रमें हाथी, घोड़े और बन्दूकोंकी भयंकर आवाज सुनाई पड़े तो स्वामीकी विजय और सुनसान क्षेत्र दिखाई पड़े तो पराजय समझनी चाहिये ।
पोपी-यदि स्वप्नमें किसी योगीके दर्शन हो तो धार्मिक भावोंकी जापति, धन एवं प्रिय वस्तुणोंकी प्राप्ति होती है । यदि योगीसे बातचीत करते हुए अपनेको देखें तो सुन्दर बस्तुएं उपयोगके लिये मिलती है तथा मनोरंजनकी सामग्रीकी प्राप्ति होती है। प्यास्त्र
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ज्योतिष एवं गणित
योगीके दर्शन करनेसे लौकिक कार्योंमें सफलता मिलती है । उपदेश सुनाई पड़े तो यश प्राप्ति तथा प्रेमिका मिलन होता है ।
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यदि स्वप्न में योगीका
रक्त- यदि अपने शरीरसे रक्त निकलता हुआ स्वप्न में दिखाई दे तो दैनिक कार्योंमें व्यतिक्रम एवं अन्य के शरीरसे रक्त निकलता हुआ दिखाई पड़े तो दैनिक कार्य सुचारु रूपसे सम्पन्न होते हैं । साधारणतया रक्त दर्शनका स्वप्न अच्छा होता है । मतान्तर से रक्तके दर्शन होनेसे रोग की सूचना समझनी चाहिये ।
रंग - स्वप्न में रंगोंके देखनेसे अपमान होता है । साधारणतया हरे रंगका दर्शन स्वप्न में सम्मान सूचक बताया गया है । रंगके स्वप्नका सम्बन्ध मानापमानसे है ।
रोना - स्वप्न में अपनेको रोते हुए देखनेसे तीन महीनेके भीतर अकस्मात् चोट लगती है । और दूसरेको रोते हुए देखनेसे किसी निकट सम्बन्धीको भयङ्कर बीमारी होती है जिससे उसे बहुत कष्ट होता | स्वप्न में बच्चेको रोते हुए देखनेसे सन्तति कष्ट और वृद्धको रोते हुए देखने से कुटुम्बियों को कष्ट होता है ।
ललितकला -- यदि स्वप्न में अपनेको ललित कलाओं - वास्तु, मूर्ति, चित्र, काव्य और संगीत कलाओं का निर्माण करते हुए देखे तो कुछ समय के बाद अच्छा कलाकार होता है । कलाकारके लिये यह अत्यावश्यक है कि वह स्वप्न में अभीष्ट कलाके दर्शन करे। प्राचीन स्वप्न सिद्धान्त के अनुसार अदृश्य शक्ति कलाकारको भविष्यकी सूचना देकर कलाविद् होनेके लिये प्रेरित करती है ।
लोथो - यदि स्वप्न में लीथो - पत्थरका छापा जिसपर हाथसे लिख कर अक्षर या चित्र छापे जाते हैं, दिखाई पड़े तो मनुष्य कम्पोजीटर या प्रेस संचालक बनता है। इस स्वप्नका फल तभी सत्य होता है जब लगातार दस-बारह दिन तक आता रहे ।
लुटिया - यदि स्वप्न में जलसे भरी हुई लुटियाके दर्शन हों तो कहीं शीघ्र यात्रा करनी पड़ती है, जिसमें नाना प्रकारके कष्ट सहन करने पड़ते हैं । मतान्तरसे जल-भरी लुटियाका दर्शन लाटरी से धन प्राप्त करनेकी सूचना देता है ।
लुहार - यदि स्वप्नमें काम करते हुए लुहारको देखे तो वायुयानके कारखाने में काम करनेकी सूचना समझनी चाहिये । साधारणतया यह स्वप्न सैनिक बनने की सूचना देता है ।
लूता - यदि स्वप्न में लूता - मकड़ी काटती हुई दिखाई पड़े तो भयानक रोग होता है । मतान्तरसे कोई विद्वेषी दर्शकको विषपान कराता है ।
लोह - यदि स्वप्न में लोहा दिखलाई पड़े तो तीन महीनेके बाद सुवर्णकी प्राप्ति समझनी चाहिये । लोहेके अस्त्र तथा लोहेकी अन्य चींजोंके दर्शन हों तो देशके ऊपर किसी प्रकारकी विपत्तिकी आशंका समझनी चाहिये ।
वनगज - यदि स्वप्त में वनगज दिखाई पड़े तो घरमें सन्तानकी उत्पत्ति होती है । यदि मदोन्मत्त वनगज इधर-उधर भागता हुआ दिखाई पड़े तो गर्भ स्राव हो जाता है । साधारणतया गजके दर्शन स्वप्नमें श्रेष्ठ होते हैं ।
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
बमलता-यदि स्वप्नमें वनलताएँ हरी-भरी दिखलाई पड़े तो दो-तीन महीनेके भीतर अपरिमित धन मिलना है तथा घरमें कन्यारत्नकी प्राप्ति होती है। बाटिकाकी लताओंका यह फल नहीं होता।
बनस्पति-यदि स्वप्नमें वनस्पतियोंके दर्शन हों तो मालीका कार्य करना पड़ता है। हरी-भरी वनस्पतियोंके दर्शन प्रेमिकासे मिलानेवाले होते हैं ।
वर्षा-स्वप्नमें पानीकी मूसलाधार वृष्टि होते हुए दिखाई पड़े तो व्यापारमें लाभ, घरेलू कार्योमें झगड़ा और मित्रोंसे वियोग होता है ।
सस्य-यदि स्वप्नमें सस्य दिखाई पड़े तो अपने कार्यकी उन्नति समझनी चाहिये ।
सिंह-स्वप्नमें सिंहके देखनेसे बल, प्रताप और पौरुषकी वृद्धि होती है । युद्ध क्षेत्रमें शत्रुओंके दांत खट्टे करने योग्य सामर्थ्य मिलती है। मतान्तरसे प्रतापी सन्तानको उत्पत्ति होती है।
पौर्वात्य और पाश्चात्य स्वप्न-सिद्धान्तकी तुलना यदि तुलनात्मक दृष्टिसे पौर्वात्य और पाश्चात्य स्वप्न सिद्धान्तोंके ऊपर दृष्टिपात किया जाय तो अवगत होगा कि पौर्वात्योंके मतानुसार प्रतीक कल्पना ही सब कुछ है, पर पाश्चात्योंने प्रतीक कल्पनाके अतिरिक्त इच्छाओंकी स्वतन्त्रधाराके कारण अतृप्त इच्छाओं के उदयको भी स्वप्न बताया है, इसलिये जिस प्रकारको इच्छा स्वप्नमें दिखलाई पड़ती है, उस इच्छा जनित फल भी घट सकता है। जिन इच्छाओंको सार्थकता मिल चुकी है, यदि वे ही इच्छाएं पुनः स्वप्नमें आयें तो स्वप्न निरर्थक होते हैं। इसलिये पाश्चात्य गणकोंने अधिकांश रूपसे अतिरंजित इच्छाओंको ही स्वप्न बताया है, अतः जागृतावस्थामें भी स्वप्न सन्तति चल सकती है । लेकिन जागृतावस्थाको इच्छाएं संज्ञात इच्छाके आधीन रहनेसे फलोत्पादक नहीं होती हैं, क्योंकि रुख या अवदमित इच्छाएं संज्ञात-इच्छाके द्वारा शासित की जाती है, अतएव जागृतावस्थाकी विचारधारा स्वप्न रूपसे चलती रहती है, किन्तु इच्छाओंकी अनेकरूपताके अभाव, निस्सार होती है । पौर्वात्य स्वप्न-सिद्धान्तके अनुसार जागृतावस्थाकी विचार सन्ततिको स्वप्नका रूप नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि इस सिद्धान्तमें जागृत, सुषुप्त और स्वप्न ये तीन व्यक्तिकी अवस्थाएं बतलाई गई है । व्यक्ति केवल स्वप्नावस्थामें ही स्वप्न देखता है, क्योंकि यह अवस्था जागृति मोर सुषुप्तिके मध्यकी है, इसमें चैतन्य रूप इन्द्रियजन्य ज्ञान अजागृत रहता है अतः स्वप्न सम्बन्धी क्रियाएँ इसी अवस्थामें हो सकती है। इसलिये भारतीय सिद्धान्तके अनुसार सभी स्वप्नोंका फल एक सदृश नहीं हो सकता है । जिस व्यक्तिकी आत्मा जितनी अधिक विकसित, पवित्र और उज्ज्वल होगी, स्वप्नका फल भी उतना ही अधिक सत्य निकलेगा । क्योंकि जो व्यक्ति दुराचारी होगा, वह निरन्तर नाना प्रकारको चिन्ताएँ करता ही रहेगा, अतः स्वप्नमें उनका आना स्वाभाविक है । शारीरिक अस्वस्थताके कारण जो स्वप्न आते हैं, वे भी निरर्थक ही होते है क्योंकि बीमारीकी स्वप्नावस्था दूषित रहती है,. उसकी इन्द्रियजन्य ज्ञानधारा अधूरी रहती है। अतः पौर्वात्योंके मतमें बागृतावस्थामें स्वप्न सन्तति बन नहीं सकती है। पौर्वात्य और पाश्चात्योंके स्वप्न फलमें भी अन्तर है क्योंकि पौर्वात्योंने आत्मा एवं पुनर्जन्मादिका अस्तित्व माना है, अतः बहुत-से स्वप्न बम
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जन्मान्तराजित संस्कारोंके कारण ही आते हैं, इन स्वप्नोंमें इच्छाओंकी अनेकरूपता कारण वहीं रहती है, किन्तु अदृष्ट या संस्कार ही कारण होते हैं । पाश्चात्योंने शरीरको एक यन्त्रके समान माना है जिसमें किसी भौतिक घटना या क्रियाका उत्तेजन पाकर प्रतिक्रिया होती है। स्वप्न भी शानधाराकी क्रिया-प्रतिक्रियाके कारण आते हैं, इनका सम्बन्ध संस्कारोंसे कुछ भी नहीं है, जैसे जड़ मशीन चलते-चलते कभी मन्द और कभी तेज चलने लगती है, ठीक इसी प्रकार बाह्य कारणोंसे प्रभावित होकर शरीरकी क्रियाएँ कभी मन्द और कभी तेज होती हैं । क्रियाओंकी मन्दावस्थाका नाम स्वप्नावस्था एवं वेमावस्थाका नाम सचेतनावस्था - जागृतावस्था है । फ्रायडके मतानुसार मनुष्यका संचालन करनेवाली शक्तियाँ विशुद्ध प्रवृत्ति मूलक हैं, जो उसे सर्वदा पूर्णरूप से बाह्याभ्यन्तर प्रभावित करती रहती हैं। मनुष्य के व्यक्तित्वका अधिकांश भाग अचेतन मनके रूपमें है, जो प्रवृत्तियोंका भाण्डार है । इन प्रवृत्तियों में मुख्य रूपसे कामकी और गौणरूपसे विभिन्न प्रकारकी वासनाएं संघटित रहती हैं। इन महासमुद्रीय वासनाओं में कुछ तो तृप्त हो जाती है और कुछ अतृप्त रहती है, अतः वे ही अतृप्तवासनाएँ विभिन्न रूप धारण कर स्वप्नके रूपमें बाती हैं ।
इस सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि भी मनुष्यकी प्रवृत्तिका एक प्रतीक है, इसके द्वारा व्यक्ति अपनी कामनाओंको सफल करता रहता है। चेतन मन नाना प्रकारकी कामनाओंको उत्पन्न करता है, वे कामनाएँ बुद्धि द्वारा चरितार्थ की जाती है । किन्तु बुद्धि कैसी ही प्रचण्ड और अभिनव क्यों न हो, एक निमित्त मात्र है, अतः समस्त वासनाएं बुद्धि द्वारा औचित्य सिद्ध नहीं कर पाती हैं, क्योंकि जब प्रवृत्ति ही बुद्धिकी प्रेरणात्मिका शक्ति है, तब उसकी वह दासी सारी वासनाओंको चरितार्थ करनेमें असमर्थ रहती है । अतः स्वप्न द्वारा वे समस्त अतृप्त वासनाएं पूर्ण की जाती है। पौर्वात्य सिद्धान्त में वासनाओंकी तृप्तिके लिये केवल स्वप्न नहीं आते, किन्तु आत्माका प्रतिबिम्ब शरीरस्थ चन्द्रमण्डलमें पड़नेसे स्वप्नावस्था में अधिक चंचलता रहती है, इसीसे आत्मिक क्रियाएँ अधिक तेजीसे होती हैं, फलत: स्वप्न अनेक रूपमें परिणत हो जाते हैं । भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शरीरमें एक सौर मण्डल रहता है । तथा जिस प्रकार आकाशस्य सौर मण्डल भ्रमण करता है, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्तिका सौर मण्डल भ्रमण करता है । व्यक्ति जब पैदा होता है, तब उसके उत्पति कालकी लग्न ही उसके शरीरके सौर मण्डलकी लग्न होती है, इसीलिये ज्योतिष शास्त्र सम्बन्धी फलादेश दोतीन वर्षकी आयु तक ठीक नहीं घटता है, क्योंकि तब तक बच्चे के शरीरका सौर मण्डल स्वतन्त्र रूपसे भ्रमण नहीं कर सकता है । इसका प्रधान कारण यह है कि इस समय तक बच्चेका स्वतन्त्र रूपसे विकास नहीं होता है; उसका रहन-सहन दूसरोंके ऊपर आश्रित रहता है अतः चार वर्षकी अवस्थाके बाद ही ठीक फल घटता है । स्वप्न के फलमें विशेषता इसी सौर-मण्डलके कारण होती है । जैन ग्रन्थ ज्ञानप्रदीपिकाक़े स्वप्नकाण्ड में लग्नानुसार स्वप्नोंका फल बताया गया है, इसका प्रधान कारण मेरी समझसे यही है कि शरीरस्थ सौर मण्डलकी आकाशगामी सौर-मण्डलके साथ तुलना कर क्रान्ति वृत्तीय लग्वोंकी समानता स्थिर की गई है । ज्ञानप्रदीपिकाका स्वप्न सम्बन्धी प्रकार योग शास्त्रके शरीरस्थ सौर मण्डलीय प्रकारसे मिलता-जुलता है । आचार्यने इसीलिये "चतुर्थभवनात् स्वप्नं ब्रूयात् ग्रह निरीक्षकः " इस पद्य में चतुर्थ भवनको प्रधानता दी है। सारांश यह है कि जहाँ पाश्चात्य स्वप्न सिद्धान्तमें केवल
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
अचरितार्थ बौद्धिक प्रवृत्तियोंको स्वप्नका कारण बताया है, वहाँ पौर्वात्य सिद्धान्तमें आत्माके चन्द्रमण्डलीय प्रतिबिम्बको कारण माना है। यह प्रतिबिम्ब सर्वदा, सबके लिये एक समान नहीं होता, बल्कि आत्माकी अशुद्ध अथवा विशुद्ध अवस्थाके अनुसार घटित होता है, यही स्वप्नकी सत्यासत्य अवस्थाओं के होनेका कारण है। दूसरी विशेषता पौर्वात्य और पाश्चात्य स्वप्नोंके फलमें अपनी-अपनी संस्कृतिकी भी है। इसी कारण कई स्वप्नोंके फल पाश्चात्य साहित्यमें स्वादिष्ट मांस भोजन, मदिरा सेवन, प्रेमिका संगम और तलाक आदि बताये गये हैं, लेकिन पौर्वात्य स्वप्नोंके फल में मांसादिका सेवन कहीं नहीं बताया है । संस्कृतिको भिन्नताके कारण स्वप्नोंके फल में जमीन आसमानका अन्तर पड़ गया है। एक ही वस्तु के दर्शनका फल दोनों सिद्धान्तोंके अनुसार पृथक्-पृथक् होगा, पाश्चात्य सिद्धान्तमें इस फल भिन्नताका कोई भी कारण नहीं बताया है, लेकिन भारतीय स्वप्न सिद्धान्त के अनुसार स्थान विशेषके कारण सौर-मण्डल में अक्षांश, देशान्तर वश अन्तर पड़ जाता है, अतः एक विदेशीका स्वप्न एक भारतीयके स्वप्नको अपेक्षा भिन्न फलदायक होगा। इच्छा अतृप्तिके सिद्धान्तानुसार स्वप्न निरर्थक होते हैं, पर सौर-मण्डलीय सिद्धान्तके अनुसार स्वप्न प्रायः सार्थक होते हैं । यहाँ प्रायः शब्दसे मेरा तात्पर्य यह है कि आत्माकी विशुद्ध और अशुद्ध अवस्थावश चन्द्रमण्डलमें पड़ने वाले प्रतिबिम्बमें हल्कापन और घनीभूतपन जितना अधिक या कम रहता है फलमें भी वैसी हीनाधिकता होती जाती है। प्रतिबिम्द जितना अधिक चंचल होता है, स्वप्न उतने ही अधिक निस्सार होते हैं । जिस आत्माका स्थिर प्रतिबिम्ब चन्द्रमण्डलपर पड़ता है उसके स्वप्नोंका फल सत्य निकलता है ।
स्वप्नोत्पादक कारणोंके अतिरिक्त कारण संख्या सम्बन्धी तीसरी विशेषता भी है । पाश्चात्य जगत् स्वप्नोत्पत्तिका एक कारण नहीं मानता, किन्तु विभिन्न वैज्ञानिकोंके मतानुसार कारणोंकी भिन्नता स्वीकार को गई है । लेकिन भारतीय साहित्यमें स्वप्नोत्पादक कारणोंकी भिन्नता नहीं है । प्रायः सभी विचारक एक ही निष्कर्षपर पहुँचते हैं। चौथी विशेषता दाशनिक दृष्टिसे आत्मतत्त्वके विषयमें विचार करनेके कारण चैतन्य और भौतिकवाद सम्बन्धी हैं। पाश्चात्य लोग स्वप्नोत्पत्तिका कारण भौतिक ही मानते हैं, तथा उसका फल भी भौतिक शरीरपर ही पड़ता है, अत: उसका संस्कार आगेके लिये नाम मात्रको भी शेष नहीं रहता है । लेकिन पौर्वात्य सिद्धान्त में आत्माकी अमरता मानी गई है, इसके साथ जन्मजन्मान्तरके संस्कार चलते रहते हैं। आत्मा भौतिकतासे परे ज्ञान, दर्शन, सुख एवं वीर्य स्वरूप है तथा संस्कार जड़ हैं किन्तु वे अनादिकालसे आत्मासे संबद्ध हैं, आत्मा और संस्कार इन दोनोंका आपसमें अति निकट संयोग है, पर स्वभाव-दृष्टिसे दोनों पृथक्-पृथक् हैं । इन्हीं
१. स्वप्ने यानि च पश्यन्ति तानि वक्ष्यामि सर्वदा । शिरोदये देवगृहं प्रासादादीन् प्रपश्यति ॥
पष्ठोदये दिनाधीशे विधौ मानुष्यदर्शनम् । मेषोदये दिनाधीशे ज्ञातदेहस्य दर्शनम् ।। वृषभस्योदयेऽर्कारौ व्याकुलान्मृतदर्शनम् । मिथुनस्योदये विप्रान् तपस्विवदनानि च । कुलीरस्योदये क्षेत्रं शस्यं दृष्ट्वा पुनर्गृहम् । तृणान्यादाय हस्ताम्यां गच्छन्तीति विनिर्दिशेत् ॥ सिंहोदये किरातञ्च महिषीं गिरिपन्नगम् । कन्योदयेऽपि चारूढे मुग्धस्त्रीकन्यकावधूः ।।
--ज्ञानप्रदीपिका पृ० ४४
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४३१ संस्कारोंके कारण हमारे शरीरके सौर-मण्डलका संचालन होता है। दूसरे शब्दोंमें यह कहा जा सकता है कि व्यक्तिका जैसा शुभाशुभ अदृष्ट होता है, वैसे ही सुख-दुःख उसे मिलते हैं । अतः स्वप्न भी उसके अदृष्टकी प्रेरणासे ही आते हैं । अदृष्टकी इसी प्रेरणाके कारण नाना प्रतीक स्वप्नमें दृष्टिगोचर होते हैं। कभी-कभी यह भी दिखलाई पड़ता है कि जैसा हम स्वप्नमें देखते हैं, वैसा ही फल शीघ्र घटता है । इसका कारण यह है कि ऐसे व्यक्तिकी आत्मा स्वप्न देखनेके समय अधिक विशुद्धावस्थामें थी, इसलिये आत्माका प्रतिबिम्ब स्थिर रूपमें रहा । जब प्रतिबिम्ब चंचल रहता है उसी समय अधिक संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते हैं जिससे प्रतीकोंकी एक श्रेणी बन जाती है और स्वप्न भी प्रतीकोंके रूपमें दिखलाई पड़ने लगते हैं । भारतीय ज्योतिष शास्त्रमें जो प्रातःकालके स्वप्नोंको सत्य फलदायक बताया गया है. उसका कारण भी यही है कि प्रातःकालके समय सौर-मण्डलकी गति स्वभावतः स्थिर हो जाती है, अर्थात् रातके १० या ११ बजेसे लेकर रात्रिके २-३ बजे तक शरीरस्थ सौरमंडलकी गतिमें एकरूपता नहीं रहती है, कभी वह तीव्र और कभी मन्द होती है जिससे प्रतिबिम्बमें चंचलता रहती है फलतः स्वप्न भी निरर्थक हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि पाश्चात्य स्वप्न सिद्धान्तका सम्बन्ध केवल शरीरसे और पौर्वात्यका सम्बन्ध आत्मासे है । इसी कारण वेदान्तमें जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय ये चार जीवात्माको अवस्थाएं मानी गई है । जैन दर्शनके अनुसार दर्शनावरणी कर्मके क्षयोपशमकी होनाधिकता आती है । स्वप्नोत्पत्तिका कारण पूर्वोपार्जित अदृष्ट ही है, जिन स्वप्नोंमें शारीरिक विकार प्रधान कारण होते हैं वे निरर्थक और जिनमें अदृष्ट कारण होता है वे सार्थक होते हैं ।
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________________ प्राच्य श्रमण भारती द्वारा प्रकाशित एवं प्रचारित पुस्तकें 10/25/ 15/ 15/ 15/ 30/ 15/25/ 10/10/ 5/ 1. ती महावीर और उनकी आ० परम्परा(4-भाग) 400/- 49. शाकाहार सर्वोत्तम आहार 5/2. तिलोयपण्णति (तीनों भाग) 700/- 50. अहिंसा 5/3. डा. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य स्मृतिग्रंथ 150/- 51. Vegetarian Nutrition 4. प्र. आ. शान्तिसागर (छाणी) स्मृतिग्रंथ 100/- 52. ज्योतिर्धरा 5. आराधाना कथा प्रबन्ध 30/- 53. समाज निर्माण में महिलाओं का योगदान 25/6. महावीर रास 80/- 54. भगवान राम 10/7. कुन्द कुन्द भारती सदु० 55. नानी-नानी कहो कहानी 8. रत्नकरण्ड श्रावकाचार 40/- 56. बैठो-बैठो सुनो कहानी 15/9. मेरी जीवनगाथा (भाग दो) 100/- 57. सफर की हम सफर 10. जैनधर्म 80/- 58. जग जा मेरे लाल 15/11. जैनशासन 75/- 59. डुबकी लगाओ मोती पाओ 12. प्रमेय कमल मार्तण्ड परिशीलन 50/- 60. बुराई की विदाई 15/13. न्यायकुमुदचन्द्र परिशीलन 500/ 61. लुढ़कन स्पटन कम्पन का साथी 14. षट्खण्डागम लेखन-कथा 10/- 62. मन की आवाज 15/15. षट्खण्डागम की शास्त्रीय भूमिका 495/63. झोपड़ी से महलों तक 15/16. धर्मफल सिद्धान्त 764. अभिवंदना पुष्प 150/17. मानवता की धरी 30/- 65. अभय की साधना 18. मध्यकालीन जैन सटक नाटक 24/ 66. डॉ. हीरालाल जैन व्यक्तित्व एवं कृतित्व 19. मुक्ति पथ की ओर 15/67. यह है जैन सिद्धान्त 10/20. भा. वाङ्मय में पार्श्वनाथ विषयक साहित्य 10/ 68. जन जन की आस्था के केन्द्र 10/21. सराक क्षेत्र 50/ 69. जैन धर्म स्वयं जानिये | 22. सराक सर्वेक्षण 25/ 70. सविनय नामोस्तु 23. सराकोत्थान प्रेरणा के स्वर 10/71. शाकाहार ही क्यों 10/24. सराक ज्ञानांजलि 10/72. अतिशयों का भण्डार 10/25. सराक प्रगति की राह पर 73. स्मर्णिका (डायरी) 85/26. स्मारिका:सराक विद्वत्संगोष्ठी दिल्ली 25/ 74. ज्ञानसागर की कहानी चित्रों की जु० 'चित्रकथा' 25/27. स्मारिका:आ.कुन्द कुन्द राष्ट्रीय संगोष्ठी 75. गुणों के आगर-ज्ञान के सागर 100/28. स्मारिका:आचार्य समन्तभद्र संगोष्ठी मेरठ 76. डॉ. कामताप्रसाद व्यक्तित्व एवं कृतित्व 60/29. जैन विज्ञान राष्ट्रीय संगोष्ठी सहारनपुर 25/ 77. पं० जुगलकिशोर व्यक्तित्व एवं कृतित्व 200/30. जैन न्याय को आ• अकलंकदेव का अवदान 78. पारिवारिक शांति और अनेकांत 100/31. तीर्थकर पाश्र्वनाथ 125/79. ज्ञानायनी 200/32. क्षुल्लक वर्धमान सागर जीवन परिचय 80. शारदा के सपूत 10/ 30/33. आ० शान्तिसागर (छाणी) जीवन परिचय 81. क्षणभंगुर जीवन 15/ 20/34. भव्य कल्याणक 82. ज्ञान दर्पण (भाग-1 एवं 2) 15/ 10/35. खबरों के बीच 83. पुष्पान्जलि (प्र०प० गुलाबचन्द 'पुष्प') 301/36. आशा के सुरः जीवन का संगीत 84. युग युग में जैन धर्म 60/20/37. उगता सूरज 85. प्राकृत एवं जैन धर्म समीक्षा 10/ 100/38. जिन खोजा तिन पाइयां 86. सिद्धान्तसारसंग्रहः 39. ज्वलंत प्रश्न शीतल समाधान 10/ 87. अनमोल प्रवचन 40. प्रवचन पढ़ो तनाव भगाओ 88. मथुरा का सांस्कृतिक जैन पुरा-वैभव 75/41. शाकाहार एक जीवन पद्धति 89. आचार्य सुर्यसागरजी व्यक्तित्व एवं कृतित्व 3/ 10/42. शाकाहार एवम् विश्व शान्ति 90. पंचकल्याणक बिहारी कालोनी (शाहदरा) 43. विश्व शान्ति एवम् अहिंसा प्रशिक्षण 91. पंचकल्याणक दर्पण, सूर्य नगर (गाजियाबाद) 80/ सदु० 92. ज्ञान गंगा वर्षायोग-2001 मेरठ 44. शाकाहार विजय 15/93. छहढाला सदु० 45. शाकाहार या मांसाहार : फैसला आपका 94. स्वतंत्रता संग्राम में जैन 200/46. मादक पदार्थ व धूम्रपान 95. भारत संविधान विषयक-जैन अवधारणायें 25/47. गर्भपात उचित या अनुचित : 3/ 96. भारतीय संस्कृति के विकास में जैन (भाग-1) 300/48. धूम्रपान जहर ही जहर 3/- 97. भारतीय संस्कृति के विकास में जैन (भाग-2) 300/प्राच्य श्रमण भारती 12/ए-प्रेमपुरी, निकट जैन मन्दिर, मुजफ्फरनगर-251 001(उ.प्र.) फोनः (0131) 2450228, 2408901 25/25/ 60/ 25/ 15/ 200/50/ 15/ 25/ सदु० सदु० 5/