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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
सम्मिलित हुए थे। सारा मन्दिर सजाया गया और दक्षिण सिंहद्वार के बाहर आचार्य सोमसूरिके दर्शनार्थ सहस्रों लोग एकत्र हुए। पूर्वी सिंहद्वारके बाहर बेताढय गिरिका मनोहारी दृश्य निर्मित किया गया था। इसी महोत्सवमें सोमदेवको वाचकपद दिया गया। इस मन्दिरके उत्तरी-पूर्वी कोणमें एक मूर्ति धरणाशाहकी भी है। इनके हाथमें माला, सिरपर पाग और गलेमें उत्तरीय है।
जैन धर्मके प्रचारकोंमें रामदेव नवलखाका नाम भी उल्लेख्य है । रामदेव राणा खेताके समयमें मेवाड़का मुख्यमंत्री था। करेड़ाके जैन मन्दिरके विज्ञप्ति लेखमें इसका सुन्दर वर्णन आया है। इसके पिताका नाम लाघु और दादाका नाम लक्ष्मीधर था। इसकी दो पत्नियाँ थीं-मेलादे और माल्हणदे । मेलादे से सहनपालका जन्म हुआ और माल्हणदे से सारंग का । सहनपाल नवलखा भी राणा मोकल और कुम्भाके समयमें मुख्यमन्त्री था। इसे अभिलेखोंमें "राजमन्त्री धुरधौरेयः" लिखा है । आवश्यक बृहद्वृत्ति में भी आठ पुत्रोंका उल्लेख आया है । यथा-रणमल, रणधीर, रणवीर, माड़ा, संडा, रणभ्रम, चौडा और कर्मसिंह । इसकी माँ मेलादे वि० सं० १४८६ तक जीवित थी । उसने ज्ञानहंसगणिसे "सन्देह दोलावली" नामक पुस्तक लिखाई थी। प्रशस्तिमें इसकी बड़ी प्रशंसा की गयी है। रामदेवकी उक्त समय तक मृत्यु हो चुकी थी। सारंग और उसके पुत्रोंका उल्लेख नागदाके अद्भुतजी मूर्ति लेखमें है । इसमें उसको “माल्हण कुक्षि सरोजहंसोपम जिनधर्म कर्पूरवात सद्यधितुकसाः सारंग" लिखा है। इसकी दो पलियाँ थीं जिनके नाम हीमादे और लकमादे थे । रामदेव नवलखाने अनेक साधुओंको ज्ञान दिया था और तीर्थोके जीर्णोद्धार तथा मन्दिर निर्माणके लिए सहस्रों रुपये व्यय किये थे।
वीसलवेष्ठिका नाम भी गणनीय है । यह इडरका रहनेवाला था और इसका विवाह रामदेव श्रेष्ठीकी पुत्री खीमासे हुआ था । यह सहणपालकी सगी बहन थी-"श्रीधर्मोत्कटमेदपाटव सचिव, श्रीरामदेवांगज मेलादेवि समुद्भूत खीमादेरीति" उल्लेखसे स्पष्ट है कि खीमादे की मांका नाम मीलादेवी था। बंसलके पिताके नाम वंश था, जो इडरके राजा रणमल्हका मन्त्री था। इसके चार पुत्र थे-गोविन्द, वीसल, अंकुरसिंह और हीरा । 'सोम सौभाग्य काव्य'में लिखा है कि वीसल अत्यन्त धार्मिकपुरुष था । उसके दो पुत्र थे-धीर और चम्पक । इसने देलवाड़ामें आचार्य सोमसुन्दर सूरिसे विशालराजको वाचकपद दिलानेके हेतु बड़ा उत्सव किया था। इसने क्रियारत्न समुच्चयकी दश प्रतियां लिखवायीं। इसकी प्रशस्तिमें इसे 'स्त्रीविरत सुधर्म निरतो भक्त' लिखा है। चित्तौड़ में इसने श्रेयांसनाथका एक भव्य मन्दिर भी बनवाया था। जिसकी प्रतिष्ठा आचार्य सोमसुन्दर सूरिने करायी थी। इसके पुत्र चम्पकने तिरानबे अंगुलकी एक मनोरथ कल्पद्रुम पार्श्वनाथकी प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी थी। चम्पकने एक बड़ा उत्सव सम्पन्नकर जिनकीर्तिको सूरिपद दिलाया । बीसल श्रेष्ठि बड़ा धर्मात्मा और धर्म प्रचारक था। १. करेड़ा विज्ञप्ति लेख, वि० सं० १४३१ तथा सन्देह दोलावली वि० सं० १६८६ में रचित
प्रशस्ति द्रष्टव्य है। २. पिटरसनकी छठी रिपोर्ट, पृ० १७-१८, पद्य १-२, देवकुल पाठक, पृ० ७-८, सोम
सौभाग्य काव्यका सातवा सर्ग तथा गुरुगुणरत्नाकर काव्य श्लोक ६५ ।