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________________ ज्योतिष एवं गणित २६५ उदाहरणके लिये मान लिया जाय कि सौ व्यक्ति एक ही साथ, एक ही समय और स्थानमें, प्रश्नोंका उत्तर पूछने के लिये आये। इस समयका प्रश्न लग्न सभी व्यक्तियोंका एक ही होगा, तथा ग्रह भी प्रायः एकसे ही रहेगें। अतः सभीका फल सदृश्य आयेगा । हाँ, एक-दो सेकिण्ड या मिनटका अन्तर पड़ने से नवमांस, द्वादशांश आदिमें अन्तर आ जायेगा, पर इस अन्तरसे स्थूल फलमें विशेष भिन्नता घटित न होगी। प्रश्नाक्षर वाले सिद्धान्तके अनुसार सभी व्यक्तियोंके प्रश्नाक्षर तुल्य नहीं होंगें । भिन्नभिन्न मानसिक परिस्थितियोंके अनुसार, देव, पुष्प, फल, नदी, पर्वत आदिका नाम भिन्न-भिन्न रूपमें उच्चरित करेंगें। अतः सभीका फलादेश पृथक्-पृथक् होगा। ___जैन प्रश्न शास्त्रमें मुख्यतः प्रश्नाक्षरोंसेही फलका प्रतिपादन किया गया है। इसमें लग्नादिका प्रपंच नहीं है । इसका मूलाधार मनोविज्ञान है । बाह्य और आभ्यन्तरिक दोनों प्रकारको विभिन्न परिस्थितियोंके अधीन मानव मनकी भीतरी तहमें जैसी भावनाएं छिपी रहती हैं, वैसेही प्रश्नाक्षर निकलते हैं। मनोविज्ञानके विद्वानोंका कथन है कि मस्तिष्कमें किसी भौतिक घटना या क्रियाका उत्तेजन पाकर प्रतिक्रिया होती है । यही प्रतिक्रिया मानवके आचरणमें प्रदर्शित हो जाती है; यतः अबाध भावानुसंगसे हमारे मनके अनेक गुप्त भाव भावी शक्ति, अशक्तिके रूपमें प्रकट हो जाते हैं, तथा उनसे समझदार व्यक्ति सहज में ही मनकी धारा और उससे घटित होने वाले फलको समझ लेता है । आधुनिक मनोविज्ञानके सुप्रसिद्ध पंडित फ्रायडके मतानुसार मनकी दो अवस्थाएँ हैसज्ञान और निर्ज्ञान । सज्ञान अवस्था अनेक प्रकारसे निर्ज्ञान अवस्थाके द्वारा नियन्त्रित होती रहती है । प्रश्न शास्त्रके अनुसार फल, पुष्प, नदी, पर्वत आदिका नाम पूछे जाने पर मानव निर्ज्ञान अवस्था विशेषके कारण ही झटित उत्तर देता है और उसका प्रतिबिम्ब सज्ञान मानसिक अवस्था पर पड़ता है। अतएव प्रश्नके मूलमें प्रवेश करने पर, संज्ञात इच्छा, असंज्ञातइच्छा, अन्तर्जातइच्छा और नितिइच्छा ये चार प्रकारकी इच्छाएँ मिलती हैं। इन इच्छाओंमेंसे असंज्ञात इच्छा बाधा पाने पर नाना प्रकारसे व्यक्त होनेको चेष्टा करती है तथा इसी कारण रुद्ध या अवदमित इच्छाएँभी प्रकाश पाती हैं । यद्यपि हम संज्ञात इच्छाके प्रकाश कालमें रूपान्तर जान सकते हैं, किन्तु संज्ञात या असंज्ञात इच्छाके प्रकाशित होनेपरभी हठात् कार्य देखनेसे उसे नहीं जान पाते हैं। विशेषज्ञ या ज्योतिषी प्रश्नाक्षरोंके विश्लेषणसेही असंज्ञात इच्छाका पता लगा लेते हैं, तथा उससे सम्बद्ध भावी घटनाओंकोभी अवगत कर लेते हैं । इस सिद्धान्तका फ्रायडकी दृष्टिसे विवेचन करनेपर ज्ञात होता है कि मानव मनका संचालन प्रवृत्ति मूलक शक्तियोंसे होता है, और ये प्रवृतियाँ सदैव उसके मनको प्रभावित करती हैं । मनुष्यके व्यक्तित्वका अधिकांश भाग अचेतन मनके रूपमें है, जिसे प्रवृतियोंका अशान्त समुद्र कह सकते हैं। इन प्रवृत्तियोंमें प्रधान रूपसे काम और गौण रूपसे अन्य इच्छाओंकी HT उठती रहती हैं। मनुष्यका दूसरा अंश चेतन मनके रूपमें है, जो घात-प्रतिघात करने वाली कामनाओंसे प्रादुर्भूत हैं और उन्हींको प्रतिबिम्बित करता रहता है । बुद्धि मानवका एक प्रतीक है, उसीके द्वारा वह अपनी इच्छाओंको चरितार्थ करता है । अतः सिद्ध है कि हमारे विचार, विश्वास, कार्य और आचरण जीवनमें स्थित वासनाओंकी प्रतिच्छाया मात्र हैं । सारांश ३४
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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