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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान पेट, पाचनशक्ति, आँतें, स्तन, गर्भाशय, योनिस्थान, आँख एवं नारीके समस्त गुप्तांगोंपर प्रभाव डालता है।
___ गोत्र कर्मका प्रतीक केतु ग्रह है। यह जीवनको उच्च एवं नीच भावनाओंकी अभिव्यंजना करता है । इसके द्वारा कुल, जाति एवं रहन-सहनकी जानकारी प्राप्त की जाती है । केतुको कष्ट और विपत्तियोंके विश्लेषणका प्रतीक भी माना गया है।
नामकर्मोदयका प्रतीक रवि या सूर्य है। इसकी सात किरणें मानी गयी हैं, जो मोहनीय और गोत्रकर्मको छोड़ शेष कर्मोंकी अभिव्यञ्जना करती हैं। मनुष्यके विकासमें सहायक इच्छा शक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति इन तीनोंकी सूचना सप्त किरणों द्वारा प्राप्त होती है। अनात्मिक दृष्टिकोणकी अपेक्षासे जो व्यक्ति दूसरोंपर अपना प्रभाव रखते हों, ऐसे राजा, मंत्री, सेनापति, सरदार, आविष्कारक, पुरातत्त्ववेत्ता, दार्शनिक आदिपर अपना प्रभाव डालता है । आत्मिक दृष्टिकोणकी अपेक्षासे यह प्रभुता, ऐश्वर्य, प्रेम, उदारता, महत्त्वाकांक्षा, आत्मविश्वास, आत्मनियन्त्रण, विचार और भावनाओंका सन्तुलन एवं सहृदयताका प्रतीक है । शारीरिक दृष्टिसे हृदय, रक्तवाहक छोटी-छोटी नसें, शरीरका कद, रूप-रंग आदिका भी प्रतिनिधि है । इस प्रकार जैन चिन्तकोंके अनुसार ग्रहोंका फलसूचक निमित्तके रूपमें उपस्थित होता है। व्यक्ति अपने प्रबल पुरुषार्थ द्वारा, ग्रहों द्वारा, सूचित फलादेशमें उत्कर्ष, अपकर्ष, संक्रमण आदि कर सकता है । प्रश्नशास्त्र विषयक विशेषता
प्रश्नशास्त्र फलित ज्योतिषका महत्त्वपूर्ण अङ्ग है । इसमें प्रश्नकर्ताके प्रश्नानुसार बिना कुण्डलीके फल बताया जाता है । तात्कालिक फल बतलानेके लिए यह शास्त्र बहुत उपयोगी है। इस शास्त्रमें जैनाचार्योंने जितने सूक्ष्म फलका विवेचन किया है, उतना जैनेतर प्रश्न ग्रन्थोंमें नहीं । प्रश्नकर्ताके प्रश्नानुसार प्रश्नोंका उत्तर तीन प्रकारसे दिया जाता है
१ प्रश्नकालको जानकर उसके अनुसार शुभाशुभ फल बतलाना है । इस सिद्धान्तका मूलाधार समयका शुभाशुभत्व है-प्रश्न समयानुसार तात्कालिक प्रश्नकुण्डली बनाकर उससे ग्रहोंके स्थान विशेष द्वारा फल प्रतिपादन किया जाता है।
२. स्वर सिद्धान्त है । इसमें फल बतलाने वाला अपने स्वर (श्वास क्रिया) के आगमन और निर्गमनसे इष्टानिष्ट फलका प्रतिपादन करता है । इस सिद्धान्तका मूलाधार प्रश्नकर्ताका अदृष्ट है; क्योंकि उसके अदृष्टका प्रभाव तत्स्थानीय वातावरणपर पड़ता है, इससे वायु प्रकम्पित होकर प्रश्नकर्ताके अदृष्टानुकूल बहने लगती है और चन्द्र एवं सूर्य स्वरके रूप में परिवर्तित हो जाती है।
- ३. प्रश्नकर्ताके प्रश्नाक्षरोंसे फल बतलाना है। इस सिद्धान्तका मूलाधार मनोविज्ञान है, क्योंकि विभिन्न मानसिक परिस्थितियोंके अनुसार प्रश्नकर्ता भिन्न-भिन्न प्रश्नाक्षरोंका उच्चारण करते हैं । उच्चरित प्रश्नाक्षरोंसे मानसिक स्थितिका पता लगाकर शुभाशुभ फलका प्रतिपादन किया जाता है।
इन तीनों सिद्धान्तोंका जैनाचार्योंने प्रतिपादन किया है, पर उन्होंने विशेषता प्रश्नाक्षर वाले सिद्धान्तको दी है। यह सिद्धान्त उक्त दोनों सिद्धान्तोंसे अधिक सत्य और अव्यभिचरित