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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
यह है कि संज्ञात इच्छा प्रत्यक्ष रूप से प्रश्नाक्षरोंमें प्रकट होती है, जिससे असंज्ञात और निर्ज्ञात इच्छाओं की जानकारी की जाती है। जैनाचार्योंने प्रश्न शस्त्रमें असंज्ञात और निर्ज्ञात इच्छा सम्बन्धी सिद्धान्तोंका पारिभाषिक शब्दावलि द्वारा विवेचन किया है। अतः अधरोत्तर, वर्गोत्तर एवं वर्ग संयुक्त अधरोत्तर इस वर्गत्रयके संयोग द्वारा उत्तरोत्तर, उत्तराघर, अधरोत्तर, अधराधर, वर्गोत्तर, अक्षरोत्तर, स्वरोत्तर, गुणोत्तर और आदेशोत्तर इन नव भंगों द्वारा प्रश्नों के शुभाशुभत्वका विवेचन किया है ।
वाचिक विधिसे प्रश्नोंका फल विवेचन करने के साथ-साथ मानसिक विधिसे प्रश्नाक्षरों की जीव, धातु और मूल संज्ञाएँ कल्पित कर लाभा लाभ, जीवन-मरण, कार्य सिद्धि-असिद्धि, प्रभूति नाना तरहके प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं । अ आ इ ए ओ अः क ख ग घ च छ ज झ टठडढ़ यश ह ये इक्कीस वर्ण जीवाक्षर; उ ऊ अं त थ द ध प फ ब भ व स ये तेरह वर्ण धात्वक्षर एवं ई ऐ औ न ङ ण न म र ल ष ये ग्यारह वर्ण मूलाक्षर संज्ञक कहे गये हैं । प्रश्नाक्षरांमें जीवाक्षरों की अधिकता होने पर जीव सम्बन्धिनी चिन्ता, धात्वरोंकी अधिकता होने पर धात्व सम्बन्धिनी चिन्ता और मूलाक्षरोंकी अधिकता होने पर मूलाक्षर सम्बन्धिनी चिन्ता होती है । सूक्ष्मतासे फल प्रतिपादन के हेतु जीवाक्षरोंके द्विपद, चतुष्पद, अपद और पादसंकुल ये चार भेद किये हैं । धात्वक्षर और मूलाक्षरोंमेंभी अनेक प्रकार के भेद - प्रभेदकर प्रश्नोंका फल बतलाया गया है । अर्द्धच्चूडामणिसार, केवल ज्ञान प्रश्न चूड़ामणि और चन्द्रोन्मीलन प्रश्न आदि ग्रन्थों में प्रश्नाक्षरों को संयुक्त, असंयुक्त अभिहित, अनभिहित और अभिघातित इन पाँच वर्गों के साथ आलिंगित, अभिधूमित और दध इन तीन क्रिया विशेषणों में विभक्त कर प्रश्नोत्तर की विधि प्रतिपादितको गयी है । भट्टवोसरि और मल्लिषेणने आयज्ञान तिलक और आयसद्भाव प्रकरण में प्रश्नाक्षरों को ध्वज, धूम, सिंह, श्वान, वृष, खर, गज और वायस संज्ञाओं में विभक्तकर प्रश्नोंका फलादेश बतलाया है। प्रश्न प्रणालीका इतना विस्तार और गहन अध्ययन अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता ।
स्वप्न शास्त्र एवं निमित्त शास्त्र सम्बन्धी विशेषताएँ
जैन मान्यतामें शरीरके स्वस्थ रहने पर स्वप्न कर्मोदय के अनुसार घटित होने वाले शुभाशुभ फलके द्योतक बतलाये गये हैं । स्वप्नका अन्तरंग कारण ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायके क्षयोपशमके साथ मोहनीयका उदय है । जिस व्यक्ति के जितना अधिक इन कर्मोंका क्षयोपशम होगा, उस व्यक्ति के स्वप्नोंका फलभी उतना ही अधिक सत्य निकलेगा । तीव्र कर्मोके उदय वाले व्यक्तियोंके स्वप्न निरर्थक एवं सारहीन होते हैं । इसका मुख्य कारण जैनाचार्योंने' यही बतलाया है कि सुषुप्तावस्थामें भी आत्मा तो जागृतही रहती है, केवल इन्द्रियों और मनकी शक्ति विश्राम करनेके लिए सुषुप्त सी हो जाती है, पर ज्ञानकी उज्ज्वलतासे क्षयोपशम जन्म शक्तिके कारण निद्रित अवस्थामें जो कुछ देखते हैं, उसका सम्बन्ध हमारे भूत, वर्तमान और भावी जीवनसे रहता है । इस प्रकार स्वप्न सम्बन्धी विशेषताएँ प्राप्त होती हैं । दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, प्रार्थित, कल्पित, भाविक और विकृत ये सात प्रकारके स्वप्न विस्तृत
१. भद्रवाह संहिता, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, २६।३-४ ।