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ज्योतिष एबं गणित
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फलादेश सहित निरूपित किये गये हैं । किस स्वप्नका फल कितना किस अवस्थामें घटित होता है, इसकाभी विचार किया गया है ।
बाह्य निमित्तोंको देखकर आगे होने वाले इष्टानिष्ट फलका निरूपण निमित्त शास्त्रमें आया है । निमित्त शास्त्र विषयक स्वतन्त्र रचनाएं जैनाचार्योंकीही उपलब्ध होती हैं । जैनेतर ज्योतिषमें संहिता शास्त्रके अन्तर्गत निमित्तके कतिपय विषयोंका विवेचन अवश्य किया गया है पर कुछ विषय ऐसे हैं, जिसका विवेचन केवल जैन ज्योतिषमेंही प्राप्त होता है। व्यञ्जन, अंग, स्वर, भौम, छिन्न, अन्तरिक्ष , लक्षण और स्वप्न इन आठ निमित्तोंमेंसे छिन्न, लक्षण और स्वरका जितना और जैसा विवेचन जैन ज्योतिषमें पाया जाता है, वैसा अन्यत्र नहीं । अन्तरिक्ष, अंग, भौम और स्वप्नका संहिता ग्रन्थोंमें कथन आया है, पर छिन्न और स्वर निमित्त के सम्बन्धमें संहिता ग्रन्थ मौन हैं। ऋषि पुत्र निमित्त शास्त्र, और भद्रवाहु निमित्त शास्त्रके साथ ज्ञान दीपिकामें छिन्न और स्वरका विस्तार पूर्वक निरूपण आया है । अतएव निमित्त वर्णनकी दृष्टि से भी जैन ज्योतिषका पृथक् स्थान है।
___ ज्योतिषके प्रतिपादनका कारण बतलाते हुए भद्रवाहु संहिताके प्रारम्भमें बताया है कि मुनियोंकी निर्विघ्न चर्या, श्रावकोंके कल्याण एवं राजाओं के राज्य व्यवस्थाके परिज्ञानार्थ इस शास्त्रका निरूपण किया जाता है। वीतरागी साधु इस शास्त्रका अध्ययनकर संघके निर्विघ्न विचरण हेतु विचार करते हैं, और श्रावक अपने कर्तव्य और धर्मके निर्वाहके हेतु परिवेश और परिस्थितिका विचार करते हैं । इस तरह ज्योतिषका उपयोग धर्म, संस्कृति और समाज सेवाके लिये किया गया है। वर्षा एवं कृषि-विज्ञान सम्बन्धी विशेषताएँ
जैनाचार्योंने ज्योतिषका उपयोग राष्ट्र सेवाके लिए भी किया है । वीर सेवा मन्दिर ट्रस्टसे प्रकाशित ग्रन्थ लोकविजययन्त्र द्वारा वृष्टि-विज्ञान, कृषिकी उन्नति और प्रगति, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, स्वदेशकी स्थिति, राष्ट्रोंके साथ सम्बन्ध, रोग-शोकका भय, धान्यकी उत्पत्ति और विनाश, स्वचक्र-परचक्रमय, फसलको नष्ट करने वाले रोग, आन्तरिक और परराष्ट्र विद्रोह आदिका विचार विस्तार पूर्वक किया गया है । देशकी विभिन्न नगर और ग्रामोंकी दशाएँ निकालकर लोक विजययन्त्रको सरणि द्वारा फलादेशका विवेचन किया है। निस्सन्देह राष्ट्रीय फलादेशको अवगत करनेके लिए यह ग्रन्थ अद्वितीय है । जैनेतर ज्योतिषमें इस विषयसे सम्बद्ध अन्य कोई ग्रन्थ अभी तक मेरे देखने में नहीं आया है। अतएव संक्षेपमें सिद्धान्तोंकी प्रतिपादन प्रक्रिया, उनकी व्यवहार विधि एवं उनके विस्तृत वर्णन आदिकी दृष्टिसे जैन ज्योतिषकी अपनी कुछ विशेषताएँ हैं ।
१. भद्रवाहु संहिता, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण ११८-१४ ।