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जैन ज्योतिष साहित्य
"ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्र"-सूर्यादिग्रह और कालका बोध करानेवाला शास्त्र ज्योतिष कहलाता है । अत्यन्त प्राचीन कालसे आकाश-मण्डल मानवके लिए कौतूहलका विषय रहा है । सूर्य और चन्द्रमासे परिचित हो जानेके उपरान्त ताराओं, ग्रहों एवं उपग्रहोंकी जानकारी भी मानवने प्राप्त को। जैन परम्परा बतलाती है कि आजसे लाखों वर्ष पूर्व कर्म भूमिके प्रारम्भमें प्रथम कुलकर प्रतिश्रुतिके समयमें, जब मनुष्योंको सर्वप्रथम सूर्य और चन्द्रमा दिखलायी पड़े, वे तो इतने सशंकित हुए और अपनी उत्कंठा शान्त करनेके लिए उक्त प्रतिश्रुति नामक कुलकर मनुके पास गये। उक्त कुलकरने सौर जगतकी व्यावहारिक जानकारी बतलायी और इन्हींसे लोगोंने सौर मण्डलका ज्ञान प्राप्त किया तथा यही ज्ञान लोकमें ज्योतिषके नामसे प्रसिद्ध हुआ। आगमिक परम्परा अनवछिन्नरूपसे अनादि होनेपर भी इस युगमें ज्योतिष साहित्यकी नींवका इतिहास यहींसे आरम्भ होता है। यों तो जो ज्योतिष-साहित्य आजकल उपलब्ध है, वह प्रतिश्रुति कुलकरसे लाखों वर्ष पीछेका लिखा हुआ है ।
जैन ज्योतिष साहित्यका उद्भव और विकास-आगमिक दृष्टिसे ज्योतिष शास्त्रका विकास विद्यानुवादंगमें किया गया है । षटखंडागम धवलाटीका' में रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारभट, दैत्य, वैरोचन, वैश्वदेव, अभिजित, रोहष, बल, विजय, नैऋत्य, वरुण, अर्यमन और भाग्य ये पन्द्रह मुहूर्त आये हैं । मुहूर्तोंकी नामावली वीरसेन स्वामीकी अपनी नहीं है, किन्तु पूर्व परम्परासे प्राप्त श्लोकोंको उन्होंने उद्धृत किया है । अतः मुहूर्त चर्चा पर्याप्त प्राचीन है।
___ प्रश्नव्याकरणमें नक्षत्रोंकी मीमांसा कई दृष्टिकोणोंसे की गई है। समस्त नक्षत्रोंको कुल, उपकुल और कुलोपकुलोंमें विभाजन कर वर्णन किया गया है। यह वर्णन प्रणाली ज्योतिषके विकासमें अपना महत्त्वरूर्ण स्थान रखती है । धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, अश्विनी, कृत्रिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, उत्तरा फाल्गुनी, चित्रा, वैशाख, मूल एवं उत्तराषाढ़ ये नक्षत्र कुलसंज्ञक; श्रवण पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, रोहणी, पूनर्वसु, अश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, ज्येष्ठा एवं पूर्वाषाढ़ा ये नक्षत्र उपकुलसंज्ञक और अभिजित, शतभिषा, आर्द्रा एवं अनुराधा कुलोपकुल संज्ञक है। यह कुलोपकुलका विभाजन पूर्णमासीको होनेवाले नक्षत्रोंके आधारपर किया गया है। अभिप्राय यह है कि श्रावण मासके धनिष्ठा, श्रवण और अभिजित् भाद्रमासके उत्तराभाद्रपद, पूर्वाभाद्रपद और शतभिषा; आश्विनमासके अश्विनी और रेवती, कात्तिकासके कृत्तिका और भरणी, अगहन या मार्गशीर्ष मासके मृगशिरा और रोहणी, पौष मासके पुष्य, पुनर्वसु और आर्द्रा, माघमासके मघा और अश्लेषा, फाल्गुनमासके उत्तराफाल्गुनी और पूर्वाफाल्गुनी, चैत्रमासके चित्रा और हस्त, वैशाखमासके विशाखा और स्वाति, ज्येष्ठ मासके ज्येष्ठा, मूल और अनुराधा एवं आषाढ़मासके उत्तराषाढ़ा और पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र बताये गये हैं। १. धवलाटीका, जिल्द ४, पृ० ३१८ । २. प्रश्नव्याकरण, १०५।