________________
३८.
भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
___ मैथिक सोसाइटी के जनरल में डॉ० श्यामशास्त्री, प्रो० एम० विन्टरनित्स, प्रो० एच० बी० ग्लासनेप और डॉ० सुकुमाररंजन दास ने जैन गणित की अनेक विशेषताएं स्वीकार की है। डॉ० बी० दत्त ने कलकत्ता मैथेमेटिकल सोसाइटी से प्रकाशित बोसवें बुलेटिन में अपने निबन्ध "On Mahvira's Solutions of Ratinal Triangles and Quadrilaterals" में मुख्य रूपसे महावीराचार्यके त्रिभुज एवं चतुर्भुजके गणितका विश्लेषण किया है । हमें जैनागमोंमें यत्र-तत्र बिखरे हुए गणितसूत्र मिलते हैं । इन सूत्रोंमें से कितने ही सूत्र अपनी निजी विशेषताके साथ वासनागत सूक्ष्मता भी रखते हैं । प्राचीन गणितसूत्रोंमें ऐसे भी कई नियम हैं, जिन्हें हिन्दू गणितज्ञ १४ वीं और १५वीं शताब्दीके बाद व्यवहारमें लाये हैं । गणितशास्त्रके संस्था सम्बन्धी इतिहासके ऊपर दृष्टिपात करनेसे यह भलीभांति अवगत हो जाता है कि प्राचीन भारतमें संख्या लिखनेके अनेक कायदे थे-जैसे वस्तुओंके नाम, वर्गमालाके नाम, डेनिश ढंगके संख्या नाम, मुहावरोंके संक्षिप्त नाम । और भी कई प्रकारके विशेष चिह्नों द्वारा संख्याएँ लिखी जाती थीं।' जैन गणितके फुटकर नियमोंमें उपर्युक्त नियमोंके अतिरिक्त दाशमिक क्रमके अनुसार संख्या लिखनेका भी प्रकार मिलता है। जैन गणित अन्योंमें अक्षर संख्या की रीतिके अनुसार दशमलव और पूर्व संख्याएं भी लिखी हुई मिलती हैं । इन संख्याओं का स्थान-मान बाई ओरसे लिया गया है। श्रीघराचार्य की ज्योतिर्शान विधिमें आर्यभट्टके संस्थाक्रमसे भिन्न संख्याक्रम लिया गया है। इस ग्रन्थमें प्रायः अब तक के उपलब्ध सभी संख्याक्रम लिखे हुए मिलते हैं । हमें वराहमिहिर विरचित "बृहत्संहिता" की भट्टोत्पली टीकामें भद्रबाहु की सूर्यप्रज्ञप्ति-टीकाके कुछ अवतरण मिले हैं । जिनमें गणित सम्बन्धी सूक्ष्मताओं के साथ संख्या लिखनेके सभी व्यवहार काम में लाये मये है । भट्टोत्पलने ऋषिपुत्र, भद्रबाहु और गर्ग (वृद्ध गर्ग) इन तीन जैनाचार्योंके पर्याप्त वचन उद्धृत किये हैं । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भट्टोत्पलके समयमें जैन गणित बहुत प्रसिद्ध रहा था, अन्यथा वे इन आचार्योंका इतने विस्तारके साथ स्वपक्षकी पुष्टिके लिये उल्लेख नहीं करते । अनुयोग द्वारके १४२वें सूत्रमें दशमलव क्रमके अनुसार संख्या लिखी हुई मिलती है। जैन शास्त्रोंमें जा कोड़ाकोड़ीका कथन किया गया है, वह वर्गिकक्रमसे संख्याएँ लिखनेके क्रमका बोतक है । जैनाचार्योने संख्याओंके २९ स्थान तक बताये हैं । १ का स्थान नहीं माना है, क्योंकि १ संख्या नहीं है। अनुयोगद्वारके १४६ वें सूत्रमें इसीको स्पष्ट करते हुए लिखा है-"से किं तं गणणासंखा? एक्को गणणं न उवइ, दुष्पभिइ संखा"। इसका तात्पर्य यह है कि जब हम एक वर्तन या वस्तुको देखते हैं, तो सिर्फ एक वस्तु या वर्तन, ऐसा ही व्यवहार होता है, गणना नहीं होती। इसीको मलधारी हेमरन्द्रने लिखा है-"Thus the Jainas begin with Two and, of course, with the highest possible type of infinity."
जैन गणितशास्त्रकी महानताके द्योतक फुटकर गणितसूत्रोंके अतिरिक्त स्वतन्त्र भी कई गणित-ग्रन्थ है। इनमें त्रैलोक्यप्रकाश, गणितशास्त्र (श्रेष्ठचन्द्र), गणित साठसौ
१. संस्था सम्बन्धी विशेष इतिहास जान के लिये देखिये 'गणित का इतिहास' प्रथम भाग
१० २-५४