________________
जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १९९ राजाहीन पृथ्वीका होना श्रेष्ठ है, क्योंकि मूर्ख राजाके राज्यमें सदा उपद्रव होते रहते हैं, प्रजा को नाना प्रकारके कष्ट होते हैं । अज्ञानी नृप पशुवत् होनेके कारण अन्धाधुन्ध आचरण करते हैं, जिससे राज्यमें अशान्ति रहती है ।
राज्य प्राप्तिका विवेचन करते हुए बताया है कि कहीं तो यह राज्यवंश परम्परासे प्राप्त होता है और कहीं पर अपने पराक्रमसे राजा कोई विशेष व्यक्ति बन जाता है; अतः राज्यका मूल क्रम-वंश परम्परा और विक्रम-पुरुषार्थ, शौर्य हैं। राज्यके निर्वाह के लिये क्रम, विक्रम दोनोंका होना अनिवार्य है। इन दोनों से किसी एकके अभावमें राज्य-संचालन नहीं हो सकता है। राजाको काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष इन छः अन्तरंग शत्रुओंपर विजय प्राप्त करना आवश्यक है, क्योंकि इन विकारोंके कारण नपति कार्य-अकार्यके विचारसे रहित हो जाता है, जिससे शत्रुओंको राज्य हड़पनेके लिये अवसर मिल जाता है। राजाके विलासी होनेसे शासन प्रबन्ध भी यथार्थ नहीं चलता है, जिससे प्रजामें भी गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है; और राज्य थोड़े दिनोंमें ही समाप्त हो जाता है । शासककी दिनचर्याका निरूपण करते हुए बताया है कि उसे प्रतिदिन राजकार्यके समस्त विभागों-न्याय, शासन, आय-व्यय, आर्थिक दशा, सेना, अन्तर्राष्ट्रीय तथा सार्वजनिक निरीक्षण, अध्ययन, संगीत श्रवण, नृत्य अवलोकन और राज्यको उन्नतिके प्रयत्नोंकी ओर ध्यान देना चाहिये । राजाको स्वयं सहसा किसीपर विश्वास नहीं करना चाहिये, बल्कि समस्त कर्मचारियोंमें अपमा विश्वास उत्पन्न करनेकी ओर लक्ष्य देना चाहिये ।
सोमदेव सूरिने राजाकी सहायताके लिये मन्त्री तथा अमात्य नियुक्त किये जानेपर जोर दिया है । मन्त्री, पुरोहित, सेनापति आदि कर्मचारियोंको नियुक्त करनेवाला नृप आहार्य बुद्धि-राज्य संचालक प्रतिभा सम्पन्न होता है ।" जो राजा मन्त्री या अमात्य वर्गकी नियुक्ति नहीं करता उसका सर्वस्व नष्ट हो जाता है। राज्यका संचालन मन्त्री वर्गकी सहायता और सम्मतिसे ही यथार्थ हो सकता है । जो शासक ऐसा नहीं करता वह अपने राज्यकी अभिवृद्धि एवं संरक्षण सम्यक् रूपसे नहीं कर सकता है । शासनमें आयो हुई शिथिलताको मन्त्रीगण ही
१. वरमराजकं भुवनं न तु मूर्को राजा; न ह्यज्ञानादपरः पशुरस्ति-विद्यावृद्धिसमुद्देशः, सू०
२. राज्यस्य मूलं क्रमो विक्रमश्च-विद्या० स० सू० २६ ३. क्रमविक्रमयोरन्यतरपरिग्रहेण राज्यस्य दुष्करः परिणामः-विद्या० स० सू० २९ ४. अयुक्तितः प्रणीताः काम-क्रोध-लोभ-मद-मान-हर्षाः क्षितीशानामन्तरङ्गोऽरिषड्वर्ग:
अरिषड्वर्ग-समुद्देशः, सू० १ ५. मन्त्रिपुरोहितसेनापतीनां यो युक्तमुक्तं करोति स आहार्यबुद्धिः-मन्त्रि-समुद्देशः, सू० १
व्याधिवृद्धौ यथा वैद्य : श्रीमतामाहितोद्यमः । व्यसनेषु तथा राज्ञः कृतयत्ना नियोगिनः ।। नियोगिभिविना नास्ति राज्यं भूपे हि केवले । तस्मादमी विधातव्या रक्षितव्याश्च यत्नतः ।।
-यशस्तिलकचम्पू आ० ३ श्लोक० २५-२६