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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैम वाङ्मयका अवदान
दूर कर सकते हैं, वे अपनी बुद्धि द्वारा राज्यकी अभिवृद्धिमें सब प्रकारसे योगदान देते हैं । मन्त्रियोंके गुणों का वर्णन बरते हुए बताया है कि पवित्र, विचारशील, विद्वान्, पक्षपात रहित, कुलीन, स्वदेशज, न्यायप्रिय, व्यसन रहित, सदाचारी, शस्त्र विद्या निपुण, शासनतन्त्रके विशेषज्ञको ही मन्त्री बनाना चाहिये' । मन्त्रिमण्डल राज्य व्यवस्थाका अविच्छेद्य अंग माना गया है । भारतीय नीतिशास्त्रमें मन्त्री, अमात्य या सचिव परिषद्पर सर्वत्र जोर दिया गया है । कौटिल्यके अर्थशास्त्रमें भी राज्य व्यवस्थाका कर्त्ता-धर्ता मन्त्रिमण्डल माना गया है ।
मन्त्रिमण्डल के सदस्योंकी संख्या निर्दिष्ट करते समय आचार्य सोमदेव सूरिने ३, ५ अथवा ७ से अधिक मन्त्रिसंख्या होनेकी राय नहीं दी हैं । मन्त्रिमण्डल के सदस्योंकी संख्याके सम्बन्धमें मध्यकालीन साहित्य में मत भेद है; बाहस्पत्य १६, ओशनस २० शुक्र १० और मानवसम्प्रदायने १२ मन्त्रियोंकी संख्या बतायी है । सोमदेव सूरिने राज्यकी आवश्यकतानुसार ३ से ७ तक संख्या बतायो है; उनका कथन है कि अधिक संख्याके रहने से शासन व्यवस्था में गड़बड़ी होनेकी सम्भावना है ।
मन्त्रियों का कार्यक्षेत्र शासनके अतिरिक्त नयी नीति निर्धारण करना, राज्यके आयव्यय के सम्बन्ध में नीति बनाना, राजकुमारोंकी शिक्षा-दीक्षाका प्रबन्ध करना, उनके राज्याभिषेक में भाग लेना, परराष्ट्र नीति निर्धारण करना एवं साम्राज्यके समस्त कार्योंकी देखरेख करना उनके कार्यों में परिगणित थे । यद्यपि सोमदेव सूरिने मन्त्रियोंके कार्योंका विभाजन नहीं किया है, किन्तु यशस्तिलकमें उन्होंने यशोधर राजाके मन्त्रिमण्डलका जो कार्यविभाजन किया है, उससे मालूम होता है मन्त्रियों के कार्य पृथक् पृथक् थे ।
मध्ययुग में धर्म राज्य से पृथक् नहीं माना जाता था, अतः राजाकी परिषद् में एक पुरोहित भी रहता था; जिसका कार्य शत्रुके अनिष्टकारक अनुष्ठानोंका प्रतीकार करना, पौरोहित्य कर्म द्वारा राज्यकी अभिवृद्धि करना, आधि-व्याधिको नष्ट करना, सेनाको मौलिक शक्ति द्वारा बल प्रदान करना एवं प्रजाके धार्मिक कार्योंका निरीक्षण करना आदि बताया है । इसे शस्त्र, शास्त्र, दण्डनीति, ज्योतिष, मन्त्र-तन्त्र आदिका पूर्ण पण्डित होना अनिवार्य है । पुरोहितकी १. शुचयः स्वामिनि स्निग्वा राजराद्धान्तवेदिनः । मन्त्राधिकारिणो राज्ञामभिजाताः स्वदेशजाः ॥ यशस्तिल० आ० ३ श्लो० ११०
ब्राह्मणक्षत्रियविशामेकतमं स्वदेशजमाचाराभिजनविशुद्ध मव्यसनिनमव्यभिचारिणमधीताखिलव्यवहारतन्त्रास्त्रज्ञमशेषोपाधिविशुद्धं च मन्त्रिणं कुर्वीत । नीतिवा० मंत्रिस०
सू० ५
२. एको मन्त्री न कर्त्तव्यः एको हि मन्त्री निरवग्रहश्चरति मुह्यति च कार्येषु कृच्छ्रेषु द्वापि मंत्रिणौ न कार्यों; त्रयः पंच सप्त वा मंत्रिणस्तैः कार्याः; बहवो मंत्रिणः परस्परं स्वमतीरुत्कर्षयन्ति - नीतिवा० मंत्रिस० सू० ६६, ६७, ६८, ७१, ७३ ३. पुरोहितमुदितोदितकुलशीलं षडंगवेदे दैवे निमित्ते दंडनीत्यामभिविनीतमापदां दैवीनां मानुणां च प्रतिकर्तारं कुर्वीत ।। राज्ञो हि मन्त्रिपुरोहितो मातापितरौ अतस्तौ न केषुचिद्वाच्छितेषु विस्तरयेत् ॥ अमानुष्योऽग्निवर्षमतिवर्षं मरको दुर्भिक्षं सस्योपघातो जंतुसर्गो व्याधिर्भूतपिशाचशाकिनी सपंव्यालमूषकाश्चेत्यापदः ॥ - नीतिवा० पुरोहित समुद्देशः,
सू० १-३