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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति गणना मन्त्रिमण्डल में नहीं की है, बल्कि राजवृद्धिके लिये शुभ मुहूत्तों एवं अन्य भविष्यके निरूपणके लिए उसका सम्मान पूर्ण पृथक् स्थान बताया है । पुरोहितके स्थानपर ब्राह्मण जाति का ही व्यक्ति नहीं नियुक्त किया जाना चाहिये, बल्कि कोई भी कुलीन सदाचारी व्यक्ति जो नीतिशास्त्र और ज्योतिषका विद्वान् हो, इस पदपर आसीन किया जा सकता है ।
सोमदेव सूरिका शासक परिषदें पुरोहितको सम्मिलित करना परम्परा निर्वाहका द्योतक ही प्रतीत होता है; क्योंकि राजाके यहाँ ऐसे चतुर गुणज्ञ विद्वान् और भी रहते थे, जो प्रजामें धार्मिकताका प्रचार एवं राजाके लिये भविष्य फलका प्रतिपादन कर सकते थे। फिर भी इन्होंने पुरोहितके पदमें पर्याप्त संशोधन किया है, उसकी गणना मन्त्रिमण्डलमें गौणरूपसे की है अर्थात् मन्त्रिमण्डलमें पुरोहितका रहना इनके मतसे आवश्यक नहीं है; हाँ भविष्यफल जाननेके लिये एक ऐसे विद्वान्को राजाको अवश्य नियुक्त करना चाहिये जो राज्यके धार्मिक स्वास्थ्यकी देखरेख कर सके। सोमदेव सूरि अपने समकालीन सभी नीतिकारोंमें यह मौलिकता लाये हैं। पुरोहितके पद, गुण, योग्यता आदि बातोंमें उन्होंने परम्पराका निर्वाह नहीं किया, बल्कि इस सम्बन्धमें अपने मौलिक विचार रखे हैं ।
अन्ताराष्ट्रीय विभाग-इसका प्रधान उद्देश्य राज्य को सुदृढ़ करना, सोमदेव सूरि ने बताया है । इस विभाग का प्रधान राजा या 'सान्धिविग्रहिक'को होना चाहिये । यह नियुक्त व्यक्ति राजा से मन्त्रणा कर युद्ध या मित्रता करने की नीति निर्धारित करे । इस विभाग में दूत नामक एक कार्यकर्ता नियुक्त किया जाना चाहिये जो अन्य राज्यों में राजदूत का कार्य भलीभाँति सम्पादन कर सके । दूतको चतुर, सदाचारी, अव्यसनी, उदार, प्रत्युत्पन्नमति, प्रतिभावान्, विद्वान् वाचाल, कुलोन, सहिष्णु, शूरवीर एवं स्वामिभक्त होना चाहिये । इस दूत का निर्वाचन भी मंत्रिमण्डल द्वारा ही होना आवश्यक है तथा इस पद के लिये कई व्यक्ति खड़े होनेको लिखा है । राजदूतका समस्त प्रबन्ध और व्ययभार राज्यको उठाना पड़ेगा।
राजदूत तीन प्रकारके बताये गये हैं".- निसृष्टार्थ, परिमितार्थ और शासनहर । जो दूत राजाका प्रतिनिधि होकर सन्धि, विग्रह आदि सभी कार्य करने में स्वतन्त्र हो, जिसे राज्य
१. अनासन्नेष्वर्थेषु दूतो मंत्री-नीतिवा० दूत स० सू० १ २. स्वामिभक्तिरव्यसनिता दाक्ष्यं शुचित्वममूर्खता प्रागल्भ्यं प्रतिभानवत्त्वं क्षान्तिः परमर्मवेदित्वं जातिश्च प्रथमे दूतगुणाः ॥-नीतिवा० दूत स० सू० २
दक्षः शूरः शुचिः प्रगल्भः प्रतिभानवान् । विद्वान्वाग्मी तितिक्षश्च द्विजन्मा स्थविरः प्रियः ॥
-यश आ० श्लो० १११ ३. कदाचित्सततसन्मानदानालादितसमस्तमित्रतन्त्रः सचिवलोकमतिसमुद्धृतमन्त्रः श्रीविला
सिनीसूत्रितैश्वर्यवरेषु वसुमतीश्वसुरेषु खलु दूतपूर्वाः सर्वेऽपि सन्ध्यादयो गुणा इत्यवधार्या कार्या । इति गुणविशिष्टमशेषमनीषिपुरुषपरिषदिष्टमखिलप्रयाणसामग्रीसूविधेयं..........।
—यश० आ० ३, पृ० ३९५ ४. स त्रिविधो निसृष्टार्थः परिमितार्थः शासनहरश्चेति ।
यत्कृतौ स्वामिनः सन्धिविग्रही प्रमाणं स निसृष्टार्थः ॥-नीति० दूतस० सू० ३-४