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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
(४) इगि जव जव सगिगिगिदुगणवतिष्णडचउपणे क्कति गिक्कं । परछत्तोसजुर्द हरहिदचउरी
य पढमुभयं ॥
- त्रिलोकसार गाथा २८
अर्थात् : १९९७११२९३८४५१३१६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६० (५) बादल सोंलक्षकदिसंगुणिदं दुगुणणबसमब्मत्थं । इगितीस सुष्णसहियं सरिसवमाणं हवे पढमे ।। — त्रिलोकसार गाथा २० ४२x२५६ x १८४००००००००००००००००००००००००००००००० = १९७९१२०९२९९९६८०००००००००००००००००००००००००००००००।
संख्याओं का वर्गीकरण
संख्याओंके मूलतः दो भेद हैं - ( १ ) वास्तविक ( Real Numbers) और (२) अवास्तविक (Imaginary Numbers) । वास्तविक संख्याएँ भी दो प्रकार की हैं
(१) संगत (Ratinal Nnmbers) और ( २ ) असंगत ( Irratinal Numbers) । प्रथम प्रकारको संख्याओं में भिन्न राशियोंका समूह पाया जाता है और द्वितीय प्रकारकी संख्याओंमें करणीगत राशियाँ निहित हैं। वास्तविक राशियों में घनात्मक, रिणात्मक, पूर्णाङ्क, समूहात्मक, सम, विषम, प्रभृति अनेक उपभेद-उपभेद सम्मिलित हैं । संख्याका एक समूह अलौकिक (Transcendental Numbers) कहा जाता है। संगत संख्याओं में शून्यात्मक, घनात्मक एवं रिणात्मक उपभेद किये गये हैं । वस्तुतः प्रत्येक संख्याके संकेतात्मक और असंकेतात्मक दो भेद हैं । जैसे—'क' को घनात्मक या रिणात्मक लिखना संकेतात्मक राशि है । + क; अचिन्हित क - ।
धवलाटीका, तिलोयपण्णत्ति और त्रिलोकसार ग्रन्थोंमें संख्याके तीन भेद आये हैं१. संख्यात = स - गणना जहाँ तक की जा सकती है ।
२. असंख्यात = अ गणनासे आगेकी राशि
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पर अन्ततः अगणनीय |
३. अनन्त = न - व्यय होते रहने पर भी अनन्त कालसे समाप्त न हो ।
(१) संख्यात ( गणनीय) संख्याओंके तीन भेद हैं- (अ) जघन्य संख्यात (अल्पतम संख्या), (ब) मध्यम संख्यात (बीचकी संख्या) ओर (स) उत्कृष्ट संख्यात ( सबसे बड़ी संख्या) ।
(२) असंख्यात (अगणनीय) के परीत - असंख्यात, युक्त असंख्यात और असंख्यात संख्यात ये तीन मुख्य भेद हैं । पुनः जघन्य, मध्य और उत्कृष्टके भेदसे प्रत्येकके तीन तीन भेद माने गये हैं । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने इन भेदोंका निम्न प्रकार विवेचन किया है ।
(अ) जघन्य - परीत-असंख्यात = स उ + १
(आ) मध्यम - परीत- असंख्यात - स उ १ ८ अ यु उ
(इ) उत्कृष्ट-परीत-असंख्यात - अ युज - १
१. त्रिलोकसार गाथा ३६-४५