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जैन तत्त्व-मीमांसा : एक अनुचिन्तन
जैन दर्शनमें तत्त्व सात माने गये हैं । तत्त्वके स्वरूप सामान्यपर पूर्व में विचार किया जा चुका है । जैन दर्शन कर्म बन्धसे छुटकारा प्राप्त करनेके लिये तत्त्वज्ञानको आवश्यक मानता है। वस्तुतः जीवादि वस्तुओंका जो भाव है, वह तत्त्व है । तत्त्व भावपरक संज्ञा है । हमें भारतीय दर्शनोंमें एक सांख्यदर्शन ऐसा उपलब्ध होता है जिसमें प्रकृति, महान् आदि पच्चीस तत्त्व माने गये हैं। वैशेषिक और नैयायिकोंके यहाँ पदार्थ शब्दका प्रयोग तत्वके रूपमें हुआ है । वंशेषिक सात पदार्थ और नैयायिक सोलह पदार्थ मानते हैं । अतः भारतीय दर्शनोंमें तत्त्व और पदार्थ एकार्थक हैं ।
जैन दर्शनमें तत्त्व-निरूपणकी शैलियोंका उत्तरोत्तर विकास होता रहा है । आरम्भमें सत्, संख्या, क्षेत्र आदि अनुयोगोंके द्वारा जीवादि तत्त्वोंका वर्णन किया जाता था। इस पद्धतिमें जीव तत्त्वका निरूपण बोस' प्ररूपणाओंके द्वारा किया जाता है और इन्हीं बीस प्ररूपणाओंके अन्तर्गत अन्य अजीवादि तत्त्वोंका वर्णन भी यथाप्रसंग किया जाता है । यह शैली अत्यन्त विस्तृत होनेके साथ दुरूह भी है । आचार्य कुन्दकुन्दने तत्त्व-निरूपणकी इस शैलीको नया मोड़ देकर सरल बनाया है और उन्होंने आत्मकल्याणके लिये प्रयोजनभूत जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नव पदार्थोंका विवेचन किया है । अतः इन्हींके यथार्थ ज्ञानकी ओर ध्यान आकृष्ट कर जैन दर्शनको भित्तीको सुदृढ़ता प्रदान की है। अनादि कालसे जीव तथा कर्म-नोकर्मरूप अजीव परस्पर एक दूसरेसे सम्बद्ध होकर संयुक्त अवस्थाको प्राप्त हो रहे हैं । अतएव इस संयुक्त अवस्थामें जीव क्या है और अजीव क्या है ? यह समझना सर्वप्रथम प्रयोजनभूत है । अनन्तर पुण्य-पाप, जीव और अजीवका परस्पर सम्बन्ध क्यों हो रहा है ? इस पर विचार करते हुए आस्रवका निरूपण किया गया है । आस्रवका प्रतिपक्षी संवर है । अतः उसका परिज्ञान भी आवश्यक है। संवरके द्वारा नवीन अजीवका सयोग रुक जाता है, पर संचित अजीवका क्षय किस प्रकार हो? इसका कथन करते हए निर्जराको आवश्यक बतलाया है । इसके पश्चात् जीव और अजीवकी बद्ध अवस्थाका विचार करते हुए बन्धका निरूपण किया गया है। अन्तमें बन्धकी विरोधी अवस्था मोक्ष है। अतः साध्यरूपमें उसका कथन किया गया है।
___ आचार्य कुन्दकुन्दकी इस शैलीको और सरल कर आचार्य गृपिच्छने इन नव पदार्थोके स्थानपर जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका ही निरूपण किया है । उन्होंने पुण्य और पापका अन्तर्भाव आस्रव तत्त्वके अन्तर्गत कर अपने 'तत्त्वार्थ सूत्र' ग्रन्थमें सात ही तत्त्व बतलाये हैं। गृद्धपिच्छ या उमास्वामीकी इस शैलीका
१. गुणजीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य । उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिदा ॥
-गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा २