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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैनवाङ्मयका अवदनि
प्रचार अधिक हुआ और उत्तरवर्ती सभी जैन दार्शनिकोंने इसी प्रक्रियाको अपनाया । जैन दर्शन में सत् या पदार्थको तत्त्व कहा गया है । सत्के स्वरूपपर पूर्व में विचार किया गया है । सत् उत्पाद, व्यय और प्रौञ्यात्मक होता है । उत्पाद और व्यय ये दोनों ही परिवर्तन या पर्यायोंकी सूचना देते हैं । घ्रौव्य नित्यताका वाचक है । अतः जैनदर्शनमें तत्त्व, वस्तु या पदार्थ में प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यकी धारा चलती रहती है । स्वजातिका परित्याग किये बिना भावान्तरका ग्रहण करना उत्पाद है । उदाहरणार्थ यों समझा जा सकता है कि मिट्टीका पिण्ड घटपर्याय में परिणत होता हुआ भी मिट्टी ही रहता है। मिट्टीरूप जातिका परित्याग किये बिना घटरूप पर्यायान्तरका जो ग्रहण है, वही उत्पाद है । इसी प्रकार व्ययका स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि स्वजातिका परित्याग किये बिना पूर्वभावका जो विनाश है, वह व्यय है । घटकी उत्पत्तिमें पिण्डकी आकृतिका विनाश व्ययका उदाहरण है । वृत्तिका पिण्ड जब घट बनता है, तब उसकी पूर्व आकृतिका व्यय हो जाता है । इस व्ययमें केवल मृत्तिकाकी पर्याय परिवर्तित हो जाती है, मिट्टी तो वही रहती है । अनादि पारिणामिक स्वभावके कारण वस्तुका नाश न होना ध्रुवत्व है । उदाहरणके लिये, पिण्डादि अवस्थानों में मिट्टीका अन्वय हो धौव्य है । आचार्यं पूज्यपादने लिखा है
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"चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमा महत् उभयनिमित्तवशाद्भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद: मृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् । तथा पूर्वभावविगमनं व्ययः । यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृतैः । अनादिपारिणामिक स्वभावेन व्ययोदयाभावाद् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः । ध्रुवस्य भावः कर्म वा धौज्यम् । यथा मृत्पिण्डघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयः । तैरुत्पादव्ययभौयं युक्तं उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं ' सदिति ।"
अर्थात् चेतन-अचेतन द्रव्य अपनी जातिको कभी नहीं छोड़ते, फिर भी उनमें अन्तरंग और बहिरंग निमित्त कारण प्रति समय जो नवीन अवस्थाकी प्राप्ति होती है, उसे उत्पाद, पूर्व अवस्था के त्यागको व्यय, अनादि पारिणामिक स्वभावरूप अन्वयको ध्रोव्य कहते हैं । यथा कोयला जलकर राख हो जाता है, इसमें पुद्गलकी कोयला रूप पर्याय व्यय है, राख रूप पर्याय उत्पाद है : पर दोनों अवस्थाओं में पुद्गल द्रव्यका अस्तित्व बना रहता है। पुद्गलपने का कभी नाश नहीं होता, यही उसकी धाव्यता है । उत्पाद, व्यय और प्रौव्य ये तीनों ही प्रत्येक पदार्थ में स्वभावतः पाये जाते हैं ।
प्रतिक्षण प्रत्येक पदार्थ में परिवर्तन होता है । क्योंकि परिवर्तनशीलता पदार्थका स्वभाव है । जैसे दुग्ध कुछ समय बाद दधि (दही) के रूपमें परिणत हो जाता है, फिर दहीका मट्टा बना लिया जाता है, तो भी गोरस रूपसे उसकी धीव्यता बनी रहती है । दूध, दही और मट्ठा ये तीनों भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ एक ही गोरस ही मानी जाती हैं । अतएव प्रत्येक सत् पदार्थ या तत्त्व उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक है ।
यहाँ ध्रौव्य गुणसूचक है और उत्पाद, व्यय पर्याय सूचक । वस्तुके स्थायित्वमें एकरूपता या स्थिरता होती है । अस्थायित्व - परिवर्तनमें पूर्वरूपका विनाश और उत्तर रूपकी
१. सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानपीठ संस्करण, पंचम अध्याय ३० व सूत्र, पृ० ३०० ।