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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
उत्पत्ति होती हैं । वस्तुके विनाश और उत्पाद में व्यय एवं उत्पत्तिके रहनेपर भी वस्तु सर्वथा नष्ट नहीं होती और न सर्वथा नवीन ही उत्पन्न होती है । विनाश और उत्पादके बीच एक प्रकारकी स्थिरता रहती है, जो न नष्ट होती है और न उत्पन्न होती हैं । यह जो स्थिरता या एकरूपता है, वही ध्रौव्य है । यह नित्यताका सूचक है । नित्यताका लक्षण कूटस्थ नित्य न होकर 'तद्भावाव्यय' अर्थात् जो अपने भावको न तो वर्तमानमें छोड़ता है और न भविष्य में छोड़ेगा, वह नित्य है और वही 'तद्भावाव्यय' है । बताया है—
"येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते । यद्यत्यन्तनिरोधोऽभिनवप्रादुर्भावमात्रमेव वा स्यात्ततः स्मरणानुपपत्तिः । तदधीनो लोकसंव्यवहारो विरुध्यते । ततस्तद्भावेनाव्ययं तद्भावाञ्ययं नित्यमिति निश्चीयते । ""
अर्थात् पहले जिस रूप में वस्तुको देखा है, उसी रूप में उसके पुनः होनेसे वही 'यह' है, इस प्रकारकी प्रतीति प्रत्यभिज्ञानके द्वारा होती है । अर्थात् वस्तुका जो भाव है, उस रूपसे च्युत न होना तद्भावाव्यय कहलाता है । यदि पूर्ववस्तुका सर्वथा नाश हो जाय और नयी वस्तुका सर्वथा उत्पाद मान लिया जाय, तो इससे स्मरणकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी और स्मरणाभावसे लोकव्यवहार नष्ट हो जायेंगे । अतएव प्रत्येक सत् को न सर्वथा नित्य है और न अनित्य ही, कूटस्थ नित्य माननेपर अर्थक्रियाकारित्व सिद्ध नहीं होता है । संक्षेप में जैन दर्शनमें सत् या तत्त्व कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य । इसका अर्थ है परिणामी नित्य । तात्पर्य यह है कि जैसे त्रिकालमें अपनी जातिका नहीं त्याग करना प्रत्येक पदार्थका स्वभाव है, वैसे ही उसमें रहते हुए परिणमन करना भी उसका स्वभाव है । यही उसकी परिणामी नित्यता है । इस प्रकार वस्तुको परिणामी नित्य मान लेनेपर उसमें सन्तानकी अपेक्षासे धौव्य और परिणामकी अपेक्षासे उत्पाद व्यय घटित होते हैं ।
तत्त्वको त्रिलक्षणात्मक सिद्ध करनेके अनन्तर अब क्रम प्राप्त तत्त्वोंके स्वरूपपर प्रकाश डालना आवश्यक है । तत्त्वोंमें जीव और अजीवकी प्रमुखता है । इन दोनोंके अनादिकालीन संयोग के कारण ही यह संसार चलता है । अतएव जीव तत्त्वपर विचार करना आवश्यक है |
जीव तत्त्व
लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति रूप है ।
पाया जाय, वह जीव है ।
आत्महित साधन करना ही जीवका लक्ष्य है । और यह जीवका लक्षण चेतना स्वरूप है । जिसमें ज्ञान, दर्शन रूप चैतन्य और जीवका प्रतिपक्षी अजोव है । यह अचेतन या जड़ होता है । जीव और अजीवका सम्पर्क ही ऐसी विभिन्न शक्तियोंका निर्माण करता है, जिनके कारण जीवको नाना प्रकारकी अवस्थाओंका अनुभव करना पड़ता है । यदि यह सम्पर्क-धारा अवरुद्ध हो जाय और उत्पन्न हुए बन्धनों को जर्जरित या नष्ट कर दिया जाय, तो जीत्र अपनी शुद्ध-बुद्ध और मुक्त अवस्थाको प्राप्त हो सकता है ।
१. सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानपीठ संस्करण ५ ३१, पृ० ३०२ ।