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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
जीव इन्द्रिय अगोचर ऐसा तत्त्व है, जिसकी प्रतीति अनुभूति द्वारा ही संभव है। जीवको ही आत्मा कहा जाता है। प्राणियोंके अचेतन तत्त्वसे निर्मित शरीरके भीतर स्वतन्त्र आत्मतत्त्वक.. अस्तित्व है और यह आत्मतत्त्व ही चेतन या उपयोगरूप है । आत्मा स्वतन्त्र और मौलिक है । उपयोग जीवका लक्षण है और उपयोगका अर्थ चैतन्य परिणति है । चैतन्य जीवका असाधारण गुण है, जिसके कारण वह समस्त जड़ द्रव्योंसे अपना पृथक् अस्तित्व रखता है । बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंसे इस चैतन्य के ज्ञान और दर्शनरूपसे दो परिणमन होते हैं । जब चैतन्य स्वसे भिन्न किसी ज्ञेयको जानता है, उस समय वह ज्ञान कहलाता है और जब चैतन्यमात्र ज्ञेयाकार रहता है, तब वह दर्शन कहलाता है । जीव असंख्यात प्रदेशवाला है और अनादिकालसे सूक्ष्म कार्माण शरीरसे सम्बद्ध है । अतः चैतन्ययुक्त जीवकी पहचान व्यवहारमें पाँच इन्द्रिय; मन-वचन-कायरूप बल तथा श्वासोच्छ्वास और आयु इस प्रकार दश प्राणरूप लक्षणोंकी हीनाधिक सत्ताके द्वारा ही की जा सकती है।
___यों तो जीवमें अनेक गुण हैं, पर चैतन्यके साथ उसकी कर्तृत्व और भोक्तृत्व शक्तियाँ प्रधान हैं। जीव या आत्माकी प्रमुख विशेषताओंका विवेचन करते हुए आचार्य नेमिचन्द्रने बताया है-(१) जीव उपयोगरूप है (२) अमूत्तिक है (३) कर्ता है (४) भोक्ता है (५) स्वदेहपरिमाण है (६) संसारी है (७) सिद्ध है और (८) स्वभावसे ऊर्ध्वगमन करनेवाला है।
इन गुणोंके अतिरिक्त आत्मा प्रमाण सिद्ध, परिणामी, प्रत्येक शरीरमें भिन्न और संसारावस्थामें पौद्गलिक कर्मोसे युक्त तथा मुक्तिमें कर्मरहित है।
प्रतिक्षेत्र भिन्न माननेके कारण जीवोंकी संख्या अनन्त है। प्रत्येक शरीरमें विद्यमान जीव अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है और इस अस्तित्वका कभी संसार अथवा मोक्षमें विनाश नहीं होता। जीवमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार पुद्गल अथवा जड़के कर्म नही पाये जाते हैं। जीवके चैतन्य गुणकी समीक्षा
चैतन्य गुण आत्माके सिवा अन्य किसी पदार्थमें नहीं पाया जाता। यह आत्माका निजी गुण है, आत्माका आगन्तुक और औपाधिक गुण नहीं। वैशेषिक और न्यायदर्शनमें स्वरूपतः आत्माको चैतन्य नहीं माना गया। इन दर्शनोंके अनुसार बुद्ध आदि गुणोंके सम्बन्धसे आत्मामें ज्ञान या चेतनाकी उत्पत्ति मानी गई है। जिस प्रकार अग्निके सम्बन्धसे घटमें रक्तता उत्पन्न होती है, उसी प्रकार आत्मामें बुद्धयादिके संयोगसे चेतना गुण उत्पन्न होता है।
१. पंच वि इंद्रियपाणा मनवचकायेसु तिण्णि बलपाणा।
आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दस पाणा ॥-गोम्मटसार जीवकांड गाथा १२९ २ जीवो उवओगमओ अमुत्तिकत्ता सदेहपरिमाणो ।
भोत्ता संसारत्थो मुत्तो सो विस्ससोड्ढगई ॥-बृहद्रव्यसंग्रह गा० २ ३. चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षात् भोक्ता स्वदेह-परिमाणः प्रतिक्षेत्र भिन्नः पौद्गलि
कादृष्टवांश्चायम् । -प्रमाणनयतत्त्वालोक ७/५५-५६