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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा न्याय-वैशेषिकके इस कथनका अभिप्राय यह है-जब तक आत्मामें चैतन्य उत्पन्न नहीं होता, तब तक वह जड़ या भोतिक है। इन दर्शनोंमें चैतन्य-ज्ञान और आत्माको भिन्न-भिन्न माना गया है। दोनों-ज्ञान और आत्माके सम्बन्धसे आत्मामें ज्ञान उत्पन्न होता है। इसी सम्बन्धके कारण आत्माको ज्ञानवान् कहा जाता है। जिस प्रकार पगड़ीके संयोगसे मनुष्य पगड़ीवान कहलाता है, उसी प्रकार ज्ञानके सम्बन्धसे आत्मा ज्ञानवान् कहलाता है । वस्तुतः आत्मा और ज्ञान अत्यन्त भिन्न हैं ।
न्याय-वैशेषिककी उक्त मान्यताकी समीक्षा करते हुए बताया है कि यदि आत्मा और चैतन्य-ज्ञानको एकान्ततः भिन्न स्वीकार किया जाय तो वसन्तका ज्ञान वसन्तकी आत्मासे उतना ही भिन्न है, जितना कि जयन्तका ज्ञान जयन्तकी आत्मासे । ऐसी स्थितिमें वसन्तका ज्ञान वसन्तकी ही आत्मामें है और जयन्तका ज्ञान जयन्तकी ही आत्मामें है, इसका निर्णय किसके द्वारा किया जायगा। यदि यह माना जाय कि ज्ञान और आत्मासे नितान्त भिन्न होनेपर भी समवाय सम्बन्ध द्वारा ज्ञान आत्माके साथ सम्बद्ध होता है । जो ज्ञान जिस आत्माके साथ सम्बद्ध होता है, वह ज्ञान उसी आत्माका कहा जाता है, अन्यका नहीं। इस प्रकार समवाय सम्बन्ध द्वारा वसन्तका ज्ञान वसन्तको आत्मासे और जयन्तका ज्ञान जयन्तकी आत्मासे सम्बद्ध है, अतः ज्ञानसांकर्य दोष नहीं आता है।
ज्ञान और आत्माके समवाय सम्बन्धकी भी समीक्षा की गई है। बताया है कि जब समवाय एक, नित्य और व्यापक है; तब अमुक ज्ञानका सम्बन्ध अमुक आत्माके साथ ही हो और अन्य आत्माओंके साथ नहीं, यह कैसे निर्णीत होगा । एक अन्य बात यह भी है कि न्यायवैशेषिक दर्शनोंमें आत्मा भी सर्वव्यापक मानी गई है, इस प्रकार एक आत्माका ज्ञान सभी आत्माओंमें रहना चाहिए । अतएव वसन्तका ज्ञान जयन्तमें भी रहेगा। __न्याय-वैशेषिक दर्शनमें एक अन्य हेतु उपस्थित करते हुए बताया है कि आत्मा और ज्ञानमें कर्तृ-करणभाव रहनेसे दोनों भिन्न हैं । आत्मा कर्ता है और ज्ञान करण है, अतः आत्मा और ज्ञान एक नहीं हो सकते । इस तथ्यकी समीक्षा करते हए जैनदार्शनिकोंने इस हेतुको सदोष बतलाया है कि मान और आत्माका सामान्य करण-कत्तु भाव सम्बन्ध नहीं है, यह तो स्वाभाविक सम्बन्ध है । देवदत्त लाठीसे मारता है, यहाँ लाठी बाह्य करण है पर ज्ञान आत्मासे भिन्न करण नहीं है। यदि लाठीकी तरह ज्ञान भी आत्मासे भिन्न सिद्ध हो जाय, तो यह कहा जा सकता है कि ज्ञान और आत्मामें करण और कर्ताका सम्बन्ध है । फलतः ज्ञानको आत्मासे सर्वथा भिन्न नहीं माना जा सकता।
एक अन्य उदाहरण द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है कि वसन्त नेत्र और दीपकसे देखता है । इस उदाहरणमें दीपक जिस प्रकार वसन्तसे भिन्न है, उस प्रकार नेत्र नहीं हैं । दीपक और नेत्र दोनों करण हैं, पर दोनोंमें बहुत अन्तर है ।
___ ज्ञान और आत्माके अभिन्न माननेपर करण-कर्तृ-अभावकी आशंका नहीं की जा सकती; अतः आत्मा अपनेमें ही अपने आपको जानता है । जाननेवाला होनेसे आत्मा कर्ता है
और उसी आत्माके ज्ञान गुणसे जानता है, अतः आत्मा ही करण है । कर्ता और करणका यह सम्बन्ध पर्याय भेदसे है । कर्ता और करण ये दोनों पर्यायें आत्माको ही हैं। सामान्यतः गुण