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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका सवदान गुणीको अपेक्षासे ज्ञान और आत्मामें भिन्नता है, पर स्वभावकी अपेक्षा ज्ञान और आत्मामें भिन्नता नहीं है । जीवका अभूतिक गुण
रूपका अर्थ मूत्तिक है, जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण पाये जाएँ, वह मूत्तिक है, आत्मा इन गुणोंसे रहित होनेके कारण अमूत्तिक है । 'समयसार' में आचार्य कुन्दकुन्दने बताया है कि जीवके न वर्ण है, न रस है, न गन्ध है, न स्पर्श है, न रूप है, न शरीर है, न संस्थान है, न संहनन है, न राग है, न द्वष है, न मोह है, न प्रत्यय हैं, न कर्म है, न वर्ग है, न वर्गणा है, न कोई स्पर्धक हैं, न यध्यवसाय स्थान है, न अनुभाग स्थान है, न कोई योग स्थान है, न कोई बन्धस्थान है, न उदयस्थान है, न मार्गणा स्थान है, न स्थितिबन्धस्थान है, न संक्लेशस्थान है, न संयमलब्धिस्थान है, न जीवसमासादि है । अतएव यह निश्चय नयकी अपेक्षा अमूर्तिक, शुद्ध, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यभग है। पर व्यवहारनयसे मूर्तिक कर्मोके अधीन होनेके कारण स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णयुक्त मूर्तिसे संयुक्त रहनेसे मूर्तिक माना जाता है। निश्चयतः जीव अमूर्तिक, इन्द्रिय अगोचर शुद्ध-बुद्धरूप स्वभावका धारक होनेसे जीव अमूर्तिक है । सभी अध्यात्मवादी दर्शन आत्माको अमूर्तिक और शाश्वत मानते हैं । कर्तृत्व-विवेचन
परिणमन करने वालेको कर्ता, परिणामको कर्म और परिणतिको क्रिया कहते हैं। ये तीनों वस्तुतः भिन्न नहीं हैं । एक वस्तुको ही परिणति हैं । जीवमें कर्तृत्व शक्ति स्वभावतः पायी जाती है । आत्मा असद्भूत व्यवहारनयसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय आदि पुद्गलकर्म तथा भवन, वस्त्र आदि पदार्थोंकी का है। अशुद्ध निश्चयनयसे अपने राग-द्वेष आदि चैतन्य कर्मों--भावकर्मोंका और शुद्ध निश्चयनयको दृष्टिसे अपने शुद्ध चैतन्य भावोंका' कर्ता है।
जीव और अजीव अनादिकालसे सम्बद्ध अवस्थाको प्राप्त हैं । अतः इस प्रश्नका होना स्वाभाविक है कि इन दोनोंके अनादि सम्बन्धका क्या कारण है ? जोवने कर्मको किया या कर्मने जीवको किया । यदि यह माना जाय कि जीवने बिना किसी विशेषताके कर्मको किया है, तो शुद्ध सिद्धावस्थामें भी कार्य करनेमें कोई विप्रतिपत्ति नहीं होगी, यदि कर्मने जीवको किया, तो कर्मनें ऐसी विशेषता कहाँसे आयी कि वह जीव को इस प्रकार विकृत कर सकेरागादिभाव उत्पन्न कर सके । यदि कर्म बिना किसी वैशिष्ट्यके रागादि करते हैं. तो कर्मके अस्तित्व कालमें सदा रागादि उत्पन्न होना चाहिए ।
इन प्रश्नोंका समाधान विभिन्न दृष्टियोंके समन्वय द्वारा सम्भव है। यतः जीवके रागादि परिणामोंसे पुद्गल द्रव्यमें कर्मरूप परिणमन होता है और पुद्गलके कर्मरूप
१. समयसार, गाथा ५०-५५ । २. मूर्तकर्माधीनत्वेन स्पर्शरसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या सहितत्वान्मूर्तस्तथापि परमार्थेनामूत्ततिीन्द्रियशुद्धबुद्ध कस्वभावत्वादमूर्तः ।
-बृहद्रव्य संग्रह, देहली संस्करण, प्रथम संस्करण, दि० सं० २०१०, पृ०८ ३. वही, गाथा ८