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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
परिणमन उनकी उदयावस्थाका निमित्त पाकर आत्मामें रागादि भाव उत्पन्न होते हैं । यद्यपि इस समाधानमें अन्योन्याश्रय दोष दिखलायी पड़ता है, पर अनादि संयोग माननेसे इस दोषका निराकरण हो जाता है ।
कर्तृकर्मभाव व्यवस्थाके स्पष्टीकरण हेतु कारक व्यवहारका विचार कर लेना मावश्यक है ।
संसार में अनादिकाल से समस्त द्रव्य प्रतिक्षण पूर्व पूर्व अवस्था - पर्यायको त्याग कर उत्तरोत्तर अवस्थाको प्राप्त होते हैं । इसी परिणमनको क्रिया कहा जाता है । अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती परिणाम विशिष्ट द्रव्य उपादान कारण है और अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती परिणाम विशिष्ट द्रव्य कार्य है । इस परिणमन - अवस्था परिवर्तन में सहकारी स्वरूप अन्य द्रव्य निमित्त कारण है । निमित्त कारणके दो भेद हैं- ( १ ) उदासीन निमित्त कारण और (२) प्रेरक निमित्त कारण । इन्हीं कारणों में कारक व्यवहार होता है । क्रिया निष्पादकत्व कारकका लक्षण है और इसके कर्त्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये छह भेद हैं । क्रियाका उपादान कारण कर्ता, जिसे क्रिया प्राप्त हो, वह कर्म, क्रियामें साधकतम अन्य पदार्थ करण, कर्म जिसको प्राप्त हो वह सम्प्रदान, दो पदार्थके बियुक्त होनेमें जो ध्रुद रहे, वह अपादान, एवं आधारको अधिकरण कहा जाता है । इस कारक प्रक्रियाका अभिप्राय यह है कि संसारमें जितने पदार्थ हैं, वे अपने-अपने भावके कर्त्ता हैं, पर भावका कर्त्ता कोई पदार्थ
वास्तव में कर्तृकर्म भाव उसी द्रव्यमें घटित होते हैं, जिसमें व्याप्य व्यापक भाव अथवा उपादान उपादेय भाव रहता है। जो कार्यरूप परिणत होता है, उसे व्यापक या उपादान कहते हैं और जो कार्य होता है, उसे व्याप्य या उपादेय । मिट्टीसे घड़ा बना, यहाँ मिट्टी व्यापक या उपादान है और घट व्याप्य या उपादेय है । यह उपादेय भाव सर्वदा एक द्रव्यमें ही होता है, दो द्रव्योंमें नहीं, त्रिकाल में भी परिणमन नहीं होता ।
व्याप्य व्यापक भाव या उपादान
यतः एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यरूप
जो उपादान के कार्यरूप परिणमनमें सहकारी है, वह निमित्त है । यथा-मिट्टी के घटाकार परिणमनमें कुम्भकार और उसके दण्ड चक्रादि । इस निमित्तकी सहायतासे उपादान में जो कार्य होता है, वह नैमित्तिक कहलाता है । जैसे कुम्भकार आदिको सहायता से मिट्टी में हुआ घटाकार परिणमन । यहाँ यह ज्ञातत्र्य है कि निमित्त - नैमित्तिक भाव दो विभिन्न द्रव्यों में भी घटित हो जाता है । पर उपादान - उपादेय या व्याप्य व्यापक भाव एक ही द्रव्यमें सम्भव हैं ।
पुद्गल द्रव्य जीवके रागादि परिणामोंका निमित्त पाकर कर्मभावको प्राप्त होता है, इसी प्रकार जीव द्रव्य भी पुद्गल कर्मोंके विपाक कालरूप निमित्तको पाकर रागादि भावरूप परिणमन करता है । इस प्रकारका निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध होनेपर भी जीव द्रव्य कर्म में किसी गुणका उत्पादक नहीं । अर्थात् पुद्गल द्रव्य स्वयं ज्ञानावरणादि भावको प्राप्त होता है । इसी तरह कर्म भी जीवमें किन्हीं गुणोंको नहीं करता है, किन्तु मोहनीय आदि कर्मके विपाकको निमित्त कर जीव स्वयमेव रागादि रूप परिणमता है । इतना होनेपर भी पुद्गल
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