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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
इष्टशंकुसे छायाकर्ण-साधन, यन्त्र शोधन प्रकार और उसके अनुसार विभिन्न राशि और नक्षत्रोंके गणितका साधन, द्वादश भाव और नवग्रहींके स्पष्टीकरणका गणित एवं ग्रह साधन द्वारा तिथि नक्षत्रादि गणितका साधन किया गया है। अतएव संक्षेपमें यही कहा जा सकता हैं कि मेरुको केन्द्र मानने पर भी ग्रहोंके साधनमें विशेष अन्तर नहीं आता है। स्पष्ट ग्रहोंके आनयनार्थ जो ऋणात्मक या धनात्मक संस्कार किये जाते हैं, उनका वर्णन भी 'सूर्यपण्णत्ति' ज्योतिष्करण्डक एवं यन्त्रराज आदि ग्रन्थोंमें आया है। ग्रह-कक्षा एवं ग्रह-गति सम्बन्धी विशेषताएँ
ग्रह कक्षाओंका वर्णन सूर्य सिद्धान्त, सिद्धान्त शिरोमणि, सिद्धान्त तत्त्व विवेक आदि जैनेतर ग्रन्थोंमें आया है। जैन ग्रन्थोंमें भी ग्रह कक्षाओंका निर्देश सर्वत्र मिलता है । सर्वार्थसिद्धि, राजवात्तिक, तिलोयसार, तिलोयपण्णत्ति एवं जम्बूदीवपण्णत्ति जैसे ग्रन्थोंमें भी विद्यमान है।
जैन मनीषियोंने बतलाया है कि इस समान भूमितलसे ७९० योजन ओर तारागण विचरण करते हैं। इससे दस योजन ऊपर जाकर सूर्यको कक्षा है। इससे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमाकी कक्षा है । चन्द्रकक्षासे चार योजन ऊपर नक्षत्र कक्षा है और इससे चार योजन ऊपर बुध कक्षा है । बुध कक्षासे तीन योजन ऊपर शुक्र कक्षा, शुक्र कक्षासे तीन योजन ऊपर बृहस्पति कक्षा और बृहस्पति कक्षासे तीन योजन ऊपर भौमकक्षा और इससे तीन योजन ऊपर शनिश्चर कक्षा है। इस प्रकार ग्रहोंकी कक्षाएँ तिर्यक् रूपमें अवस्थित हैं।
सिद्धान्तशिरोमणिमें भूपिण्ड, चन्द्र, बुध, शुक्र, रवि, मंगल, बृहस्पति, शनि और नक्षत्र कक्षाएं ऊपर-ऊपर बतलायी गयी हैं। ये सभी ग्रह अपनी-अपनी आकर्षण शक्तिसे स्थित है। भूमिका कोई दूसरा आधार नहीं है । यह स्वयमेव अपने आधारपर स्थित है।
जैन मान्यतामें भी वातवलयोंके आधारपर भूमि और ग्रह कक्षाओंको अवस्थित माना है । लोकको वातवलय वेष्टित किये हुए हैं और ग्रह कक्षाएँ पृथ्वीको आकर्षण शक्ति द्वारा अवस्थित है। ग्रह कक्षाओंकी स्थितिमें जो अन्तर दिखलाई पड़ता है, उस अन्तरके रहनेपर सूक्ष्म गणित मानमें कोई विशेष भेद नहीं आता है। अतएव ग्रह कक्षाओंकी दृष्टिसे जैन ज्योतिषकी अपनी विशेषता है । ग्रहगति सम्बन्धी विशेषता
जैनाचार्योने गगन खण्ड कर ग्रहोंकी गतियोंका आनयन किया है। यह गति तीन प्रकारको है-(१) गगन खण्डात्मक (२) योजनात्मक और (३) अंशात्मक । गगनखण्डात्मक गतिका आनयन त्रिलोकसारमें किया गया है। इसी ग्रन्थके आधारपर योजनात्मिका गति भी निकाली जा सकती है । अंशकलात्मक गति आनयनकी विधि ज्योतिष्करण्डक और यन्त्रराजमें वर्णित है। यों तो सूर्यादि ग्रहके गमन मार्ग दीर्घ वृत्ताकार हैं । अतः उससे अंशात्मक गतिके
१. तिलोयसार, गाथा ३३२ तथा सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानपीठ संस्करण पृ० २४५ । २. भूमेः पिण्डः शशाङ्कज्ञकविरविकुजेज्याकिनक्षत्रकक्षा, सिद्धान्तशिरोमणि, गोलाध्याय,
भुवनकोष, पद्म २।