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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
है । प्रत्येक तीर्थङ्करके तीर्थ प्रवर्तन कालमें धर्मचक्र आगे चलता है। जैन साहित्य में बताया गया है कि प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेवने तक्षशिला में इसका प्रवर्तन किया था। प्राचीन जैनागम में धर्मचक्रका अनेक स्थानोंपर उल्लेख आया है, यह योजन प्रमाण सुविस्तृत सर्वरत्नत्रय होता है । कुषाणकाल से लेकर मध्यकाल तककी जैन प्रतिमाओंके नीचे धर्मचक्रका चिह्न अवश्य रहा है । अतएव इसमें कोई संदेह नहीं कि उपर्युक्त उदम्बर जातिका सिक्का जैन है, उसमें अंकित सभी प्रतीक जैन हैं । जैन धर्मका श्रद्धालु राजा ही इस प्रकारकी मुद्रा प्रचलित कर सकता है । प्राचीन गणतन्त्र भारत में अनेक जनपदीय शासक जैनधर्मका पालन करते थे । '
मालव जातिके कई सिक्के जैन हैं; इस जातिके आठ प्रकारके सिक्के अब तक उपलब्ध हुए हैं । द्वितीय उपविभागके सिक्केके एक ओर अशोकवृक्ष, दूसरी ओर कलश है । तीसरे उपविभाग के सिक्कों पर पहली ओर घेरे में अशोक वृक्ष और दूसरी ओर कलश है । ऐसे सिक्के दो प्रकारके हैं - चौकोर और गोलाकार । चौथे उपविभागके सिक्के चौकोर हैं, इनपर दूसरी ओर सिंहमूति है । पाँचवें उपविभाग के सिक्कोंपर दूसरी ओर वृषभ है । ये भी गोलाकार और चौकोर हैं । कारलाइलने इस जातिके चालीस राजाओं के नामोंके सिक्के ढूँढे हैं | परन्तु आजकल २० राजाओंके ही सिक्के मिलते हैं । इन बीस राजाओंमें यम, मय और जायक जैन धर्म के श्रद्धानी थे । यमने आचार्य सुधर्मके संघ में जाकर जैन दीक्षा ग्रहण की थी ।
यौधेय जातिके सिक्के साधारणतः तीन भागों में विभक्त हैं ।" प्रथम विभागके सिक्के प्राचीन हैं और ये ही सिक्के जैन हैं । इन सिक्कोंपर एक ओर वृषभ और स्तम्भ एवं दूसरी ओर हाथी और वृषभ हैं। पहली ओर ब्राह्मी अक्षरोंमें "यधेयन ( योधेयानां ) " लिखा है । " शेष दो विभागके सिक्कोंपर जैन प्रतीक नहीं हैं । इसका कारण यही प्रतीत होता है कि यौधेय जातिके राजा पहले जैनधर्म पालते थे, पीछे भागवत धर्म में दीक्षित हो गये थे; क्योंकि द्वितीय और तृतीय विभाग के सिक्कों में भागवत धर्मकी भावना अंकित है ।
यद्यपि गुप्तवंशके कई राजा जैनधर्मके श्रद्धालु थे, परन्तु इस वंशके प्राप्त सिक्कों में जैन प्रतीकोंका प्रायः अभाव है । इसका प्रधान कारण यह है कि गुप्तवंशके राजा कट्टर ब्राह्मण धर्मानुयायी थे, इसलिए उन्होंने अपनी धर्मभावनाकी अभिव्यक्ति के लिए ब्राह्मण धर्म के प्रतीकों को ही ग्रहण किया है । यद्यपि जैन इतिहास में ऐसे अनेक उल्लेख वर्त्तमान हैं, जिनसे गुप्तकालीन जैन साहित्य और जैनधर्मको पर्याप्त उन्नति प्रकट होती है । असल बात तो यह है कि ब्राह्मण धर्मानुयायी होते हुए भी गुप्तवंशके राजाओंने सभी धर्मोंको प्रश्रय दिया था ।
१. जैनिज्म इन नार्थ इण्डिया, पृ० ७९-१४६ प्रकरण जैनिज्म इन रायल फेमिली । २. Indian Museum Coins Vol, I. P. 170-171, Nos; 1-11
३. प्राचीन मुद्रा, पृ० १४५ ।
४. Indian Museum Coins VoI: I. P. 171, Nos 12-13, 14-22.
५. Indian Museum Coins VoI. I, P. 165; Coins of Ancient India.
६. राखालादास वन्द्योपाध्यायकी प्राचीन मुद्रा, पृ० १४९: Rodgers Catelogue of
Coins, Lahore museum,