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सम्पादकीय
जिस प्रकार भारतीय संस्कृतिमें धर्म, दर्शन तथा सभ्यता आदि मानव-विकासके सभी उपादान-तत्त्व निहित हैं, उसी प्रकार जैन-संस्कृतिमें मानव-विकासके सभी सोपानोंसे लेकर जैन-तीर्थ, कला, संगीत, नाट्य आदि सभी प्रकारको प्रवृतियां समाहित हैं। लोक-व्यवहारमें आने वाली जनोपयोगी सामान्य ललितकलासे लेकर सभी प्रकारकी लौकिक व लोकोत्तरकलाओंका विवेचन जैन-वाड्मयमें उपलब्ध होता है। जैन-वाड्मयके अनुशीलनसे ही हमें बहत्तर कलाओंके स्पष्ट नाम एवं उनके सम्बन्धमें रोचक जानकारी मिलती है । धर्मकी किस रीति-नीतिसे मनुष्य स्वभावसिद्ध साम्यभावमूलक संस्कृतियोंको उपलब्ध कर सकता है, यह भलीभांति दर्शाना ही जैन-संस्कृतिका प्रमुख प्रयोजन है। इसकी छाप संस्कृतिके सभी अंगों पर स्पष्टतया परिलक्षित होती है।
संस्कृतिके उन्मेष-कालसे ही उसके दो प्रमुख पक्ष रहे है-तत्त्वदर्शन (या विचारमूलक पक्ष) और तीर्थ-दर्शन (अथवा आचारमूलक या प्रवृत्तिमूलक पक्ष)। यह सत्य है कि जैन-संस्कृति व धर्म निवृत्तिमूलक है, किन्तु, यह भी सत्य है कि इसकी निवृत्तिमें प्रवत्ति और प्रवृतिमें भी निवृत्तिका उद्देश्य निहित है । जैन-संस्कृति जहां भोगोंसे विरत कराती है, वहीं आत्मोपम्यमूलक प्रवृत्तिमें प्रवृत्त भी कराती है । सम्पूर्ण प्रवृतियोंका एक मात्र केन्द्र आत्मा है । विद्युतीय धाराकी भांति दर्शन, ज्ञान एवं चारित्रकी सम्पूर्ण प्रवृत्तियोंका अधिष्ठान वह स्वयं ही है। मानवको सम्पूर्ण आचार-विचारकी प्रवृत्तियाँ इसी आत्म-ज्योतिसे अनुस्यूत हैं । जिस प्रकार 'स्विच-आन' करते ही विद्युत्प्रवाह संचरित हो उठता है, उसी प्रकार आत्मधर्मा (ट्रांसफार्मर) से प्रकाशकी रश्मियाँ ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदिकी शाखाओंमें विविध नामरूपोंमें उपयोगका जुड़ान होते ही अभिव्यक्त होती रहती है । अभिव्यक्तिके मणोंमें ही वे हमारे अनुभवमें प्रतीयमान होते हैं। जिस प्रकार संस्कृतिका आधार मानव-आत्मा है, उसी प्रकार प्रतीतिका आधार स्वयं आत्मानुभव है। पूर्व-प्रकाशित "भारतीय संस्कृतिके विकास में जैनवाड्मयका अवदान" के प्रथम खण्डमें उक्त प्रथम पक्ष (जैन-दर्शन व तत्त्वज्ञान) सम्बन्धी निबन्धोंका संकलन प्रकाशित किया जा चुका है।
प्रस्तुत द्वितीय-खण्डमें जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति, भक्ति, संगीत, ललितकला ज्योतिष एवं गणित आदिसे सम्बन्धित प्रामाणिक निबन्धोंका संकलन प्रस्तुत है । इन निबन्धोंके आषारोंपर हम जैन संस्कृतिको स्वतन्त्रता और उसकी विशेषताओंके विशेष रूपसे उजागर कर सकते हैं । यद्यपि ये सभी निबन्ध अपने-अपने विषयोंकी सर्वांगीण सामग्री तथा विधाओंसे समन्वित नहीं, फिर भी अनछुए पहलुओं और सन्दर्भ सामग्रीसे भरपूर होनेके कारण इनकी महत्ता विशेष रूपसे प्रकाशित हुई है। उदाहरणार्थ "विहारके जैनतीर्थ" के सम्बन्धमे प्रथम बार प्रामाणित रूपसे विस्तृत सामग्री प्रकाशित हो रही है । सम्मेदाचलको सम्मेदशिखर क्यों कहते है ? समणशिखर, मंगल-शिखरकी भांति इसे सम्यक्त्वशिखर भी कहा जा सकता है ।