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जैन ज्योतिषकी प्रमुख विशेषताएँ
प्रास्ताविक
ज्योतिष, आयुर्वेद, गणित जैसे लोकोपयोगी विषयोंमें जैन-अजैम का प्रश्न उठाना साधारणतः वैसा ही प्रतीत होता है, जैसा गेहूँ, जो और चावलको ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं शूद्र का कहना । ज्योतिषका सम्बन्ध जन-जीवनके साथ है। प्रत्येक व्यक्ति अपने भावी-शुभाशुभ फलको अवगत कर अपने कार्योंमें सतर्क या सावधान रहता है । अतः ज्योतिषके सिद्धान्तोंका विवेचन सभी भारतीय मनीषियोंने शुभाशुभ फलके रूपमें समान रूपसे किया है। आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कर प्रभृति वैदिक ज्योतिविदोंके समान ही भद्रबाहु, कालकाचार्य, श्रीधर, मल्लिषेण, भट्टवोसरि आदि जैनाचार्योंने भी ज्योतिषके सिद्धान्तोंका विवेचन किया है। ग्रहगणित और ग्रह-गणितसे सम्बद्ध अङ्कगणित, बीजगणित, रेखागणित, प्रतिमागणित, त्रिकोणमिति-गणित आदिके सिद्धान्त वैदिक और जैनाचार्यों द्वारा तुल्य रूपमें प्रतिपादित हैं। इसी प्रकार फलित-ज्योतिषमें जातक, संहिता, मुहूर्त आदिका कथन भी समान रूपमें मिलता है।
ज्योतिषके सिद्धान्तोंमें फलित और गणितकी समानताओंके होने पर भी जैन-ज्योतिषजैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तोंमें कतिपय प्रमुख विशेषताएं उपलब्ध होती हैं। इन विशेषताओंका कारण दार्शनिक मान्यताओंमें तात्त्विक अन्तरका होना है। हम यहाँ जैनज्योतिषकी उन प्रमुख विशेषताओंका प्रतिपादन करेंगे जो विशेषताएँ वैदिक चिन्तकों द्वारा प्रतिपादितं ज्योतिष सिद्धान्तोंमें उपलब्ध नहीं होती अथवा जिन मान्यताओंमें तात्त्विक अन्तर है। विचार-सरणि निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधृत रहेगी
१. ग्रह-भ्रमणका केन्द्र २. ग्रहोंके मार्ग ३. ग्रह-गतियां ४. ग्रहोंके मध्यममान और स्पष्ट मान ५. ग्रहण-सिद्धान्त ६. ग्रहोंका स्वरूप-गुण, तत्त्व, प्रकृति आदि ७. फल-प्रतिपादनके आधारभूत सिद्धान्त-कर्मोदय, क्षयोपशम, क्षय आदि ८. जातक-सिदान्त ९. संहिताके वर्ण्य विषय १०. प्रश्न-सिद्धान्त ११. मुहूर्त-सिवान्त १२. अङ्ग-विद्या १३. स्वप्न-सिद्धान्त १४. आकाशीय निमित्त-सिद्धान्त १५. रोग-विज्ञान