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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
७७ गिरनार-सम्मेद शिखर वैभार पर्वत और अष्टापदकी यात्रासे सतगुणा अधिक पुण्य मिलता है । इस ग्रन्थमें राजगृहके वैभार पर्वतकी स्तुति विशेष रूपसे की गयी है।'
वि० संवत् १७२६ में श्री धर्मचन्द्र भट्टारकने गौतम स्वामी चरित्र में इस नगरकी शोभा और समृद्धिका वर्णन करते हुए लिखा है कि राजगृह नगरी बहुत ही सुन्दर है । इस नगरीके चारों ओर ऊँचा परकोटा शोभायमान है। परकोटके चारों ओर जलसे भरी हुई खाई है। इस राजगृहमें चन्द्रमाके समान श्वेतवर्णके अनेक जिनालय शोभायमान हैं। इनके उत्तम शिखर गगनस्पर्शी हैं । यहाँके धर्मात्मा व्यक्ति जिनेन्द्र भगवान्की अर्चना अष्ट द्रव्योंसे करते हैं। यहां कुबेरके समान धनिक और कल्पवृक्ष के समान दानी निवास करते हैं । इस नगरके भवन श्रेणिबद्ध हैं, बाजारमें श्वेतवर्णकी दुकानें पंक्तिबद्ध है। चोर, लुटेरे यहाँ नहीं हैं । बाजारों में सोना, र्चादी, वस्त्र, धान्य आदिका क्रय-विक्रय निरन्तर होता रहता है। प्रजा और राजा दोनों ही धर्मात्मा हैं । भय, आतंक, शारीरिक और मानसिक वेदनाका यहाँ अभाव है। इस प्रकार राजगृहके वैभवका वर्णन प्राचीन ग्रन्थोंमें वर्णित हैं । कथा-सम्बन्ध
राजगृहसे अनेक जैन कथाओंका सम्बन्ध है। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें स्वामी समन्तभद्राचार्यने 'भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे' में कमल दलसे पूजा करनेवाले मेढ़ककी कथाका संकेत किया है । यह कथा रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी संस्कृत टीकामें प्रभाचन्द्रने विस्तारसे लिखी है । सम्राट् श्रेणिककी कथाका भी राजगृहसे सम्बन्ध है। धर्मामृत, श्रेणिकचरित्र, आराधना कथा कोष आदिमें दानी वारिषेणकुमारकी कथा आई है, जो पूर्णतः राजगिरिस सम्बद्ध है । धनकुमारने मुष्ठि-युद्ध या सूर्यदेव नामक आचार्यसे दीक्षा ग्रहण की थी। वारिषेण कुमार दृढ़ सम्यक्त्वी थे । इन्होंने सम्यक्त्वसे विचलित होनेवाले अपने मित्र पुष्यडाल को सम्यक्त्वमें दृढ़ किया था । अरहदास सेठके पुत्र श्री अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का जन्म इसी नगरीमे हुआ था। हरिवंश पुराणमें बताया गया है कि वासुदेव पूर्व भवमें एक ब्राह्मणके पुत्र थे। यह राजगृहमें आये। जीवनसे निराश होनेके कारण वैभारपर्वतपर पहुंचकर यह आत्महत्या करना चाहते थे, पर इस पर्वत पर तप करनेवाले जैन मुनियोंने इस निन्द्य पापसे इसकी रक्षा की । पश्चात् इन्होंने जैन मुनिकी दीक्षा ले ली, और नन्दीषेण नामक मुनि हुए । राजकोठारीकी पुत्री भद्रा कुंडलकेशाने क्रोधावेशमें अपने दुराचारी पतिको मार डाला था, पर अपने पाप-मोचनके लिये यहींके जैन मुनियोंसे साध्वीके व्रत ले लिए थे। धीवरी पूतगन्धा जो कि काठियावाड़के सोमारक नगरसे आर्यिका संघमें यहाँकी वन्दनाके लिए आई थी; उसने अपना अन्त समय जानकर नील गुफामें संल्लेखना व्रत धारण कर प्राण विसर्जित किये थे ।
__ आराधना कथाकोषमे जिनदत्त सेठको कथामें बताया गया है कि वह बड़े धर्मात्मा थे, चतुर्दशीको कायोत्सर्ग ध्यान करते थे। इन्होंने तपस्याके बलसे आकाशगामिती विद्या सिद्ध कर ली थी और प्रतिदिन तीर्थोकी वन्दना करते थे। मालीके आग्रहसे उसे भी तीर्थ१. श्रेणिक चरित्र हिन्दी अनुवाद पृ० १४-१५ २. विविध तीर्थकल्प पृ० ८ पृ० ५२-५४, ७२, ६५ ३. गौतम स्वामी चरित्र अध्याय १ श्लो० ३३-४५