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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
यात्राके लिए विद्या बतायी, पर वह भय से उस विद्याको सिद्ध न कर सका । अंजनचोरने विद्याको सिद्ध कर लिया । पश्चात् वह विरक्त हुआ और मुनि होकर निर्वाण पद पाया ।
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पुण्यास्रव कथाकोष में चारुदत्त की कथामें बताया गया है कि यह भ्रमण करता हुआ राजगृह आया । यहाँ विष्णुदत्त नामक दण्डीने एक रसकूपके सम्बन्धमें बतलाया और कहा कि यदि हम रसकूपसे रस निकालें तो मनमाना स्वर्ण तैयार कर सकते हैं । इसके पश्चात् वह दण्डी चारुदत्त को उस कुएँके पास ले गया और उसे एक वस्त्रमें बाँधकर और तुम्बी देकर कुएँ में उतार दिया । चारुदत्त तुम्बीको रससे भरकर ऊपर भेजने ही वाला था कि कुएँ में किसीने कहा - सावधान, यह तपस्वी धूर्त्त है तुझे यहीं मेरे समान छोड़ देगा । इसपर चारुदत्त सावधान हो गया और उस तपस्वी से अपने प्राण बचाए तथा कुएँ में पड़े हुए वणिक् पुत्रको नमस्कार मंत्र दिया | नागश्रीका जीव वायुभूति पूर्व जन्म में राजगिरिमें जन्मा था और वहीं पर आचार्य सूर्यमित्र ने उसे व्याकरणादि शास्त्रोंको शिक्षा दी थी । अग्निभूति और वायुभूतिके पूर्व भवोंमें बताया गया है कि इस नगरी में सुबल राजा राज्य करता था । एक दिन सुबलने स्नान करते समय तेलसे खराब हो जानेके भयसे हाथ की अंगुठी अपने पुरोहित सूर्यमित्रको दे दी और सूर्यमित्र उसे ग्रहण कर घर चला गया। भोजनके अनन्तर जब राजसभाको आने लगा तो हाथमें अंगुठी न देख बड़ी चिन्ता हुई । पश्चात् उद्यानमें स्थित सुधर्माचार्य मुनिसे खोई हुई अंगूठी की प्राप्ति के सम्बन्ध में पूछा । मुनिराजने अंगूठीका पता बतला दिया । अंगूठी पाकर सूर्यमित्र बहुत प्रभावित हुआ और आचार्य सुधर्मस्वामीसे मुनि दीक्षा ले ली ।
व्यवसायी कृतपुण्य, रानी चेलना, अभयकुमार, रोहिणेय चोर तो भगवान् महावीर के उपदेशके श्रवण मात्रसे अनेक कठिनाइयोंस रक्षा को थी । भगवान् महावीरका आगमन राजगृहमें अनेक बार हुआ था । नन्द नामक मनिहार भी भगवान्का बड़ा भक्त था । इस प्रकार राजगृहके साथ अनेक भक्त, दाना, तपस्वी, धर्मात्माओंकी कथाएँ चिपटी हैं, जो इस नगरीकी महत्ता बतलाती हैं ।
पुरातत्त्व
फाहियान ( ई० सन् ४००) ने आँखों देखा राजगृहका वर्णन लिखा है । यह लिखते हैं " नगरसे दक्षिण दिशामें चार मील चलनेपर वह उपत्यका मिलती है जो पाँचों पर्वतोंके बीच में स्थित है। यहाँ पर प्राचीनकालमें सम्राट् बिम्बसार विद्यमान था । आज यह नगरी नष्ट-भ्रष्ट है ।"१ १८ जनवरी सन् १८११ ई० को बुचनन साहबने इस स्थानका निरीक्षण किया था और उसका वर्णन भी लिखा है । उनसे राजगृहके ब्राह्मणोंने कहा था कि जरासन्धके किलेको किसी नास्तिकने बनवाया है—जैन उसे उपश्रेणिक द्वारा बनाया बताते हैं । बूचर सा० ने यह भी लिखा है कि पहले राजगृह पर चतुर्भुजका अधिकार था, पश्चात् राजा वसु अधिकारी हुए जिन्होंने महाराष्ट्रके १४ ब्राह्मणोंको लाकर बसाया था । वसुने श्रेणिकके बाद राज्य किया था ।
?. Travels of fa-Hian, Beal (London 1869) pp-110-113
२. बुचनन्द्रेभिल इन पटना डिस्ट्रिक्ट पृ० १२५-१४४