________________
भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
•विविध तीर्थकल्प आदि ग्रंथोंमें राजगृहका उल्लेख आया है ।
___ मुनिसुव्रतकाव्यके रचयिता अर्हद्दास (१३वीं शती) ने इस नगरके वैभवका वर्णन करते हुए बतलाया है-मगध देशमें पीछेकी ओर लगे हुए विशाल उद्यानोंसे युक्त राजगृह नगरी सुशोभित थी। इसके बाहरी उद्यानमें अनेक लताएँ सुशोभित थीं। यहाँ पर सदा शैलाग्र भागसे निकलती हुई जलधाग कामिनियोंके निरन्तर स्नान करनेके कारण सिन्दूर युक्त दिखलाई पड़ती थो । यहाँ अनेक सरोवर थे जिनमें अनेक प्रकारकी मछलियाँ क्रीड़ाएँ करती थीं। नगरीके बाहर विस्तृत मैदान घोड़ोंकी पंक्तिके चलनेसे, मदोन्मत्त हाथियोंसे, योद्धाओंकी शरत्र-शिक्षासे एवं सुभटोंके मल्लयुद्धसे सुशोभित रहते थे। नगरीकी वाटिकामे निर्मल जल सदा भरा रहता था तथा जलतीरके विविध वृक्षोंकी छाया नाना तरहके दृश्य उपस्थित करती थी। इस नगरीकी चहारदीवारीके स्वर्ण-कलश इतने उन्नत थे कि उन्हें भ्रमवश स्वर्ण-कलश समझ देवांगनाएं लेनेके लिए आती थीं। इस नगरीको अट्टालिकाओंकी ऊँची-ऊँची ध्वजाएँ और रंग-विरंगे तोरण आकाशको छूते हुए इन्द्रधनुषका दृश्य बनाते थे । चन्द्रकान्तमणिसे बने हुए भवनोंको कान्ति चन्द्रमाकी ज्योत्स्नासे मिलकर क्रीड़ासक्त अप्सराओं के लिए दिव्य-सरोंको भ्रान्ति उत्पन्न करती थी। इस नगरीमें शिक्षाका इतना प्रचार था, कि विद्यार्थी अहर्निश शास्त्र-चिन्तनमें तल्लीन थे। यहाँके सन्दर जिनालय अकृत्रिम जिनालयोंको शोभाको भो तिरस्कृत करते थे। इन चैत्यालयोंमें नीलमणि, पोतमणि, स्फटिक मणि, हरितमणि एवं विभिन्न प्रकारको लालमणियां लगी हुई थीं जिनसे इसका सौंदर्य अकथनीय था । इस नगरीका शासक सर्वगुणसम्पन्न धनधान्यसे युक्त, विद्वान्, प्रजावत्सल और न्यायवान् था। महाराज सुमित्रके राज्यमें चोर, व्यभिचारी; पापी, अन्यायी और अधर्मात्मा कहीं भी नहीं थे। धनधान्यका प्राचुर्य था। सब सुख-शांतिपूर्वक प्रेमसे निवास करते थे । साधारण व्यक्तियोंके घर में भी नीलमणि जटित थे। शुभचन्द्रदेवने श्रेणिक-चरित्रमें इस नगरका वर्णन करते हुए लिखा है-यहाँ न अज्ञानो मनुष्य हैं और न शीलरहित स्त्रियाँ । निर्धन और दुखो व्यक्ति ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा। यहाँके पुरुष कुबेरके समान वैभववाले और स्त्रियाँ देवांगनाओंके समान दिव्य हैं । यहाँ कल्पवृक्षके समान वैभववाले वृक्ष हैं। स्वर्गों के समान स्वर्गगृह शोभित हैं। इस नगरमें धान्य भी श्रेष्ठ जातिके उत्पन्न होते हैं। यहाँके नरनारी व्रतशोलोंसे युक्त हैं। यहाँ कितने ही जीव भव्य उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रोंको दान देकर भोगभूमिके पुण्यका अर्जन' करते हैं । यहाँके मनुष्य ज्ञानी और विवेको है। पूजा और दानमें निरन्तर तत्पर है । कला, कौशल, शिल्पमें यहाँके व्यक्ति अतुलनीय है । जिन-मन्दिर और राजप्रासादमें सर्वत्र जय-जयकी ध्वनि कर्ण-गोचर होती है ।
विक्रम संवत् १३२६ में रचित विविध तीर्थकल्पमें जिनप्रभसूरिने लिखा है कि अयोध्या, मिथिला, चम्पा, श्रावस्ता, हस्तिनापुर, कोशाम्बी, काशी, कालिन्दी, कम्पिल, भद्रिल, सूर्यपुर, कुण्डलग्राम, चन्द्रपुरी, सिंहपुरो ओर राजगृह तीर्थोंकी यदि निष्पाप रूपसे यात्रा की जाय तो
१. ज्ञाताधर्म कथांग (हैदराबाद संस्करण) पृ० ४८९ २. मुनिसुव्रत काव्य प्रथम सर्ग, श्लो० ३७-५४ और सम्पूर्ण द्वितीय सर्ग