________________
१८६ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
जैन काव्यकला-विशेषज्ञोंने ललितकलाओंमें सबसे ऊंचा स्थान काव्यकलाको दिया है। मस्तिष्क पर अपना प्रभाव डालने में इसे अन्य अवलम्बनकी आवश्यकता नहीं होती है, इसीलिए ललितकलाओंमें इसे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है । विषयकी दृष्टिसे इसके दो भेद किये जा सकते हैं-प्रथम वह जिसमें कवि अपनी बीती बात कहता है और दूसरा वह जिसमें जगबीती बात कहता है। अपनी बीती बात कहनेमें निजीपनेका अनुभव होनेके कारण भावात्मकताकी मात्रा अधिक रहती है तथा कविके हृदयगत भाव एक नयी प्रकारकी झंकारके साथ प्रकट होते हैं, ऐसे काव्योंको प्रगीत ( Lyrical ) कहते हैं । यह अन्तर्मुखी काव्य होता है ।
जिसमें जगबीती बात कवि कहता है, वह काव्य अनुकृत (Imitatiue) कहलाता है, इसमें वर्णनकी प्रधानता होती है । ऐसे काव्य प्रबन्धकाव्य कहलाते हैं । जैन काव्यकलामें दोनों ही प्रकारकी रचनाएँ वर्तमान हैं । भारतकी प्रायः सभी भाषाओंमें काव्य ग्रन्थ लिखे गये हैं। यद्यपि इस निबन्धमें समस्त जैन कार्योंकी बारीकियोंके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं लिखा जा सकता है, फिर भी नामभर गिनाकर इस कलाके विषयमें कतिपय बातें लिखी जायेगी। जैन काव्य ग्रन्थोंमें धर्मशर्माभ्युदय, चन्द्रप्रभ, मुनिसुव्रत, पार्वाभ्युदय, नेमिनिर्वाण, अमरुशतक, यशस्तिलकचम्पू, पुरुदेवचम्पू, जीवन्धरचम्पू, काव्यानुशासन, अलंकारचिन्तामणि, गद्यचिन्तामणि, शीलदूत, नेमिदूत, चेतोदूत, इन्द्रदूत, पवनदूत, मनोदूत, द्विसन्धान, सप्तसन्धान, क्षत्रचूड़ामणि, छन्दोऽनुशासन, रत्नमंजूषा आदि रचनायें उल्लेखनीय हैं ।
___महाकवि हरिचन्द्रने धर्मशर्माभ्युदयमें सूक्ष्म कल्पना, भाव गाम्भीर्य, रसीली भाषाका प्रयोग कर अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। भाषा और शैलीको चमचमाहट भावको तुरन्त हृदयंगम कराती है। मधुर वाक्यावलीमें बद्ध कवि-विचार रसगुल्लेके समान सब प्रकारसे अच्छे लगते हैं । कविने अपनी अनुभूतिकी व्यापकताके कारण ऐसे विषयोंका विधान किया है जो मानवमात्रकी अनुभूतिसे सम्बन्ध रखते हैं । भावोंके प्रकृत आधारका कल्पना द्वारा पूर्ण तथा यथातथ्य प्रत्यक्षीकरण इसमें वर्तमान है । अतः रति, हास्य, शोक, क्रोध इत्यादि की ऐसी अनभति प्रकट की है, जिससे पाठक काव्यमें तन्मय हए बिना नहीं रह सकता। कविने नीले नभमें चमकते हुए पूर्णचन्द्रकी कितनी सुन्दर कल्पनाएँ की हैं
किं सीधना स्फटिकपानपात्रमिदं रजन्याः परिपूर्यमाणम् ।
चलद्विरेफोच्चयचुम्ब्यमानमाकाशगंगास्फुटकैरवं वा॥ अर्थ-क्या यह मद्यसे भरा हुआ रजनीका स्फटिक निर्मित पानपात्र-प्याला (कप) है ? या चञ्चलभ्रमर समूह द्वारा चुम्व्यमान मन्दाकिनीका विकसित सफेद कमल है।'
ऐरावणस्याथ करात्कञ्चिच्च्युतः सपंको विषकन्द एषः।
किं व्योम्नि नीलोत्पलदर्पणाभे सश्मश्रुवक्त्रं प्रतिबिम्बितं मे ॥
क्या ऐरावत हाथीको सूंडसे गिरा हुआ पंक युक्त मृणाल है ? या नीलमणि निर्मित दर्पणके समान आभा वाले आकाशमें दाढ़ी-मूंछ सहित मुख ही प्रतिविम्बित हो रहा है ? १. धर्मशर्माभ्युदय सर्ग ४ श्लो• ४२-४१