________________
जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१८५
और उनकी स्त्रियोंने नृत्य कर उत्सव मनाया। पुष्पदन्त कविने वीणा, दुन्दुभि, ढुक्क, भेरी. मृदंग, शंख, झालर, तूर्य, घंटा आदि वाद्योंका उल्लेख किया है। आदिपुराण में भी संगीतके सम्बन्धमें कई उल्लेख हैं ।'
सर्वार्थसिद्धिमें शब्दों -स्वरोंके तत वितत, घन और सुषिर ये चार भेद किये हैं । ढोलक, मृदंग, नक्कारा आदिके शब्दोंको तत; सितार, वीणा आदिके स्वरको वितत; घण्टा, झालर, आदिके स्वरको घन और तुरई, शंख आदिके स्वरको सुषिर कहा गया है । इस शब्दस्वर विभागका संगीतकलाकी दृष्टिसे परीक्षण करनेपर पता चलता है कि जैनोंको गायन और वादन दोनोंका मिश्रण संगीतकलामें अभिप्रेत था ।
स्थानांग सूत्रकी अभयदेव विरचित संस्कृत टीकामें संगीतके गुण दोषोंका अच्छा विवेचन किया है । इसमें संगीतके भीत, द्रुत, रहस्य, उत्ताल, काकस्वर और अनुनास ये छ: दोष बताये हैं । भीतसे थर्राने, द्रुतसे जल्दबाजी, रहस्यसे धीमी आवाज, उत्तालसे तालभंग, काकस्वरसे आवाजमें कडुवापन और अनुनाससे नाकसे शब्द करनेसे तात्पर्य है । गुणोंमें पूर्ण, रक्त, अलंकृत, व्यक्त, अविघुष्ट, मधुर, सम और सुकुमार गिनाये गये हैं । जिसमें सभी स्वर पूर्णरीति और शुद्धतापूर्वक उच्चरित हों, उसे पूर्ण, रागमें भावोंका भरना रक्त अलंकारों से भूषित अलंकृत, लय और स्वरका स्पष्ट उच्चारण व्यक्त गर्दभस्वरका त्याग करना अविघुष्ट, माधुर्य पूर्ण कोकिल स्वरसे गाना मधुर; श्रुति और तालका सामञ्जस्य रखना सम एवं संगीत में लोच लाना सुकुमार कहलाता है ।
संगीत र समयसार पार्श्वदेवकी १३वीं शताब्दीकी संगीतविषयक अपूर्व रचना है । इसमें नादोत्पत्ति, नादभेद, ध्वनिभेद, गीत लक्षण और उसके भेद - आलप्ति, वर्ण, अलंकार आदि, गमक - रागोंके रागांग, भाषांग, उपांग आदि भेदोंका वर्णन; चार प्रकारके अनवद्यादि वाद्योंका स्वरूप; नृत्य और अभिनयका विवेचन; तालकी आवश्यकता और स्वरूप प्रभृति बातोंपर प्रकाश डाला गया है । मध्यमादि तोड़ी, वसंत, भैरवी, श्री, शुद्धबंगाल, मालवश्री, वराही, गौड, धनाश्री, गुंडकृति, गुर्जरी, देशी ये तेरह रागांग राग-लक्षण सहित बताये गये हैं । वेलावली, अन्धासी सायरी ( असावरी ), फल, मंजरी, ललिता, कौशिकी, नाटा, शुद्ध, वराटी, श्रीकण्ठी ये नौ भाषांग राग दिये हैं। आगे वराही आदि २१ उपांग राग दिये गये हैं । इन सब रागोंका खूब विस्तारपूर्वक विवेचन किया है । तालके सम्बन्धमें एक सुन्दर श्लोक दिया है
तालमूलानि गेयानि ताले सवं प्रतिष्ठितम् ।
तालहीनानि गेयानि मन्त्रहीना यथाहुतिः ॥
गायक, वादक और नर्तकके सम्बन्धमें भी अत्यन्त सूक्ष्म ज्ञातव्य बातें दी गयी हैं । राग रागनियोंके सम्बन्धमें सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण किया गया है । जैन संगीत कलाके नमूने गीतवीतराग, जैसे संस्कृत काव्य ग्रन्थों एवं हिन्दीके पद, भजन और लावनी आदिमें मिलते हैं ।
१. नागकुमार चरित भूमिका पृ० २८
२. देखें — जैन - सिद्धान्त - भास्कर भाग ९ किरण २ तथा भाग १० किरण १
२४