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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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कविकी उपर्युक्त उत्प्रेक्षा किस रसिकको मुग्ध न करेगी। इस महाकाव्यमें उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक, समासोक्ति, श्लेष, भ्रान्ति और काव्यलिङ्ग आदि अलंकारोंकी छटा निराली ही दिखलाई पड़ती है । इसी प्रकार चन्द्रप्रभकाव्य भी अपने सरस, मधुर और सुदृढ़ पद्यों द्वारा पाठकोंको रससरितामें मज्जन कराता है ।
श्री जिनसेनाचार्यने मेघदूतकी पादपूर्तिमें पाश्वर्वाभ्युदयकी रचना की है। इस कविने शृंगार रससे ओत-प्रोत श्लोकोंके चरणोंको भगवान् पार्श्वनाथकी पौराणिक वार्ताके साँचेमें ढालकर रौद्र, वीर और शान्त रसकी अपूर्व त्रिवेणी प्रवाहित की है ।
___ "तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतोः" इस पद्यांशमें कवि कालिदासने यक्षकी विरह वेदनाका अंकन किया है, किन्तु जैन कविने सिनेमाके चित्रपटके समान शृंगारिक मूत्तिको विलीन कर उसके स्थानपर रौद्रमूत्ति शाम्बरको खड़ा किया है
सोऽसौ जाल्मः कपटहृदयो दैत्यपाशः हताशः स्मृत्वा वैरं मुनिमपघृणो हन्तुकामो निकामम् । क्रोधात्स्फर्जन् नवजलमुचः कालिमानं दधान
स्तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतोः ।। दोनोंमें कितना महान् अन्तर है ।
जैनाचार्योने काव्यों द्वारा धार्मिक एवं सैद्धान्तिक तत्त्वों और नियमोंका प्रचार किया है । इन्होंने शृंगारकी ओर जाती हुई काव्यधाराको मोड़कर भक्ति और शान्त रसकी ओर लगाया है। जैनोंने राजनीति, समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र, तत्त्वचर्चा आदि विषयोंका समावेश भी जैन काव्योंमें किया है । संक्षेपमें जैन काव्यकलामें वे सारे तत्त्व वर्तमान है जो मानव हृदयको स्पर्श करनेवाले हैं तथा जिनमें आनन्दोद्रेक करनेवाला रूप-सौष्ठव पूर्ण रूपसे है। अतएव जैनकला विश्वकी ललितकलाओंमें अपना प्रमुख स्थान रखती है। .