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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
पर्वतको बग़लाया है' । श्री गुणभद्राचार्यने उत्तरपुराण में सुग्रीव, हनूमान और रामचन्द्र आदिको इस शैलराजसे मुक्त हुए कहा है । २
श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य में चौबीस तीर्थकरों के तीर्थकाल में इस पवित्र तीर्थ की यात्रा करनेवाले उन व्यक्तियोंके आख्यान दिये गये हैं; जिन्होंने इस तीर्थकी वंदनासे अनेक लौकिक फलोंको प्राप्त किया तथा दीक्षा लेकर तपस्या की और इसी शैलराजसे निर्वाणपद पाया । दिगम्बर आगमोंके समान श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें भी इस क्षेत्रकी महत्ता स्वीकार की गयी है | विविध तीर्थकल्पमें पवित्र तीर्थोंकी नामावली बतलाते हुए कहा गया है
अयोध्या - मिथिला-चम्पा - श्रावस्ती हस्तिनापुरे । कौशाम्बी - काशि- काकन्दी - काम्पिल्ये - भद्रलाभिधे ॥ चन्द्रानना - सिंहपुरे तथा राजगृहे पुरे । रत्नवाहे शौर्यपुरे कुण्डग्रामेऽप्यपादया || श्रीरैवतक-सम्मेद - वैभाराऽष्टापदाद्रिषु । यात्रायास्मिस्तेषु यात्राफलाच्छतगुणं फलम् ।।
इस प्रकार इस तीर्थ की पवित्रता स्वतः सिद्ध है । यह एक प्राचीन तीर्थ है; परन्तु वर्तमान में इस क्षेत्र में एक भी प्राचीन चिह्न उपलब्ध नहीं है । यहाँके सभी जिनालय आधुनिक हैं, तीन-चार सौ वर्ष से पहले का कोई भी मन्दिर नहीं है । प्रतिमाएँ भी इधर सौ वर्षोंके बीचकी हैं । केवल दो-तीन दिगम्बर मूर्तियाँ जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित हैं; परन्तु इनकी प्रतिष्ठा भी मधुवनमें या इस क्षेत्रसे सम्बद्ध किसी स्थानमें नहीं हुई है । अतएव यह स्पष्ट है कि बीचमें कुछ वर्षोंतक इस क्षेत्रमें लोगोंका आवागमन नहीं होता था । इसका प्रधान कारण मुसलमानी सल्तनत में आन्तरिक उपद्रवोंका होना तथा यातायातकी असुविधाओंका रहना भी है । औरंगजेबके शासनके उपरान्त ही यह पुनः प्रकाश में आया है । तबसे अब तक प्रतिवर्ष सहस्रों यात्री इसकी अर्चना, वन्दना कर पुण्यार्जन करते हैं । १८ वीं शती में तो अंग्रेज यात्रियोंने भी इस क्षेत्रकी यात्रा कर यहाँका प्राकृतिक, भौगोलिक एवं ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया है तथा तत्कालीन स्थितिका स्पष्ट चित्रण किया है" । पर्वतकी चढ़ाई, उतराई और वंदनाका क्षेत्र कुल १८ मील तथा परिक्रमाका क्षेत्र २८ मील है । मधुवनसे दो मील चढ़ाई पर मार्ग में गन्धर्व नाला और इससे एक मील आगे सीता नाला पड़ता है ।
१. निर्दग्धमोहनिचयो जैनेन्द्रं प्राप्य पुष्कलं ज्ञाननिधिम् । निर्वाणगिरावसिधच्छ्रीशैलः श्रमणसत्तमः पुरुषरविः ॥ -पर्व १३, ४५
२. दिने सम्मेदगिर्यग्रे तृतीयं शुक्लमाश्रितः । योगत्रितयमारुष्य समुच्छिन्नक्रियाश्रयः ॥ - उत्तरपुराण पर्व ६८ श्लो० ७१९
३. विविधतीर्थकल्प पृ० ३ ।
४. A statical Account of Bengal volume X VI P. 30-33
५. Pilgrimage to Parsvanath in 1820, Edited by James Burgess,
lled 1902, p. 36-45.
तथा विशेष जाननेके लिए देखें – सम्मेदशिखर नामक विस्तृत निबन्ध