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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
आज इस क्षेत्रमें दिगम्बर और श्वेताम्बर जैनधर्मशालाएँ, मन्दिर एवं अन्य सांस्कृतिक स्थल हैं । पहाड़के ऊपर २५ गुम्म में हैं, जिनमें निर्वाणप्राप्त २० तीर्थंकर, गौतम गणधर एवं अवशेष चार तीर्थकरोंकी चरण-पादुकाएं स्थापित हैं । पहाड़के नीचे मधुवनमें भी विशाल जिनमन्दिर हैं जिनमें भव्य एवं चित्ताकर्षक मूत्तियाँ स्थापित की गयी हैं। भाव सहित इस क्षेत्रके दर्शन, पूजन करनेसे ४९ भवमें निश्चयतः निर्वाण प्राप्त होता है तथा नरक और तिर्यक् गतिका बंध नहीं होता। पावापुरी
____ अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामीकी निर्वाणभूमि पावापुरी, जिसे शास्त्रकारोंने पावाके नामसे स्मरण किया है, अत्यन्त पवित्र है। इस पवित्र नगरीके पद्मसरोवरसे ई० पू० ५२७ में ७२ वर्षकी आयुमें भगवान् महावीरने कात्तिक वदी अमावस्याके दिन उषाकालमें निर्वाणपद प्राप्त किया था। प्रचलित यह पावापुरी, जिसे पुरी भी कहा जाता है, विहारशरीफ स्टेशनसे ९ मील दूरीपर है।
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय वाले इस तीर्थको समान रूपसे भगवान् महावीरको निर्वाणभूमि मानते हैं । परन्तु ऐतिहासिकोंमें इस स्थानके सम्बन्धमें मतभेद हैं । महापण्डित श्री राहुल सांकृत्यायन गोरखपुर जिलेके पपउर ग्रामको ही पावापुर बताते हैं, यह पडरोनाके पास है और कसयासे १२ मील उत्तर-पूर्वको है । मल्ल लोगोंके गणतन्त्रका सभाभवन इसी नगरमें था।
___ मुनिश्री कल्याणविजय गणी विहारशरीफके निकट वाली पावाको ही भगवान्की निर्वाणनगरी मानते हैं । आपका कहना है कि प्राचीन भारतमें पावा नामकी तीन नगरी थीं । जैनसूत्रोंके अनुसार एक पावा भैगिदेशकी राजधानी थी। यह प्रदेश पार्श्वनाथ पर्वतके आस-पासके भूमिभागमें फैला हुआ था, जिसमें हजारीबाग और मानभूमि जिलोंके भाग शामिल हैं। बौद्धसाहित्यके मर्मज्ञ कुछ विद्वान् इस पावाको मलय देशकी राजधानी बताते हैं । किन्तु जैनसूत्र ग्रन्थों के अनुसार यह भंगीदेशकी राजधानी ही सिद्ध होती है ।
दूसरी पावा कोशलसे उत्तर-पूर्व कुशीनाराकी ओर मल्ल राज्यकी राजधानी थी, जिसे राहुलजीने स्वीकार किया है ।
तीसरी पावा मगध जनपदमें थी, जो आजकल तीर्थक्षेत्र के रूपमें मानी जा रही है। इन तीनों पावाओंमें पहली पावा आग्नेय दिशामें और दूसरी पावा वायव्य कोणमें स्थित थी । अतः
१. कत्तियकिल्ले चोदसिपच्चूसे सादिणामणवखते । पावाए णयरीए एक्को वीरेसरो सिद्धो ॥
-तिलोयपण्णत्ति ४, १२०८ क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहरवनान्तरे । बहूनां सरसां मध्ये महामणिशिलातले ।। स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्धनिर्जरः । कात्तिककृष्णपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये । स्वातियोगे तृतीयेद्ध शुक्लध्यानपरायणः । कृतत्रियोगसंरोधसमुच्छिन्नक्रियं श्रितः ।। हताघातिचतुष्कः सन्नशरीरो गुणात्मकः । गतं मुनिसहस्रेण निर्वाणं सर्ववांछितम् ।।
-उत्तरपुराण पर्व ७६ श्लो० ५०८-१२