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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
उल्लिखित तीसरी पावा मध्यमाके नामसे प्रसिद्ध थी । भगवान् महावीरका अन्तिम चातुर्मास्य तथा निर्वाण इसी पावामें हुआ है ।'
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श्री डा० राजबली पाण्डेयका 'भगवान् महावीरकी निर्वाणभूमि' शीर्षक एक निबन्ध प्रकाशित हुआ है । आपने इसमें कुशीनगरसे वैशालीकी ओर जाती हुई सड़क पर कुशीनगरसे ९ मीलकी दूरी पर पूर्व-दक्षिण दिशामें सठियांव के भग्नावशेष ( फाजिलनगर ) को निश्चित किया है । यह भग्नावशेष लगभग डेढ़ मील विस्तृत है और भोगनगर तथा कुशीनगर के बीच में स्थित है । यहाँ पर जैन मूर्तियोंके ध्वंसावशेष अभीतक पाये जाते हैं । बौद्ध साहित्य में जो पावाकी स्थिति बतलायी गयी है, वह भी इसी स्थान पर घटित होती है ।
इन तीनों पावाओं की स्थितिपर विचार करनेसे ऐसा मालूम होता है कि भगवान् महाarrat निर्वाणभूमि पावा डा० राजबली पाण्डेय द्वारा निरूपित ही है । इसी स्थान पर काशीकोशलके नौ लिच्छवी तथा नौ मल्ल एवं अठारह गणराजोंने दीपक जलाकर भगवान्का निर्वाोत्सव मनाया था । नन्दिवर्द्धनके द्वारा भगवान् के निर्वाण स्थानकी पुण्यस्मृति में जिस मन्दिरका निर्माण किया गया था, आज वही मन्दिर फाजिलनगरका ध्वंसावशेष है । इस मन्दिरको भी एक मीलके घेरेका बताया गया है तथा यह ध्वंसावशेष भी लगभग एक-डेढ़ मीलका है । ऐसा मालूम होता है कि मुसलमानी सलतनतकी ज्यादतियोंके कारण इस प्राचीन तीर्थको छोड़कर मध्य पावाको ही तीर्थ मान लिया गया है । यहाँपर क्षेत्रकी प्राचीनताका द्योतक कोई भी चिह्न नहीं है । अधिक-से-अधिक तीन सौ वर्षोंसे इस क्षेत्रको तीर्थ स्वीकार किया गया है । यहाँ पर समवशरण मन्दिरकी चरणपादुका ही इतनी प्राचीन है, जिससे इसे सात-आठ सौ वर्ष प्राचीन कह सकते हैं । मेरा तो अनुमान है कि इस चरणपादुकाको कहीं बाहरसे लाया गया होगा । यह अनुमानतः १० वीं शतीकी मालूम होती है, इस पादुका पर किसी भी प्रकारका कोई लेख उत्कीर्ण नहीं हैं । इस चरणपादुकाकी प्राचीनता के आधार पर ही कुछ लोग इसी पावापुरीको भगवान् की निर्वाणभूमि बतलाते है | जलमन्दिरमें जो भगवान् महावीर स्वामीकी चरणपादुका है, वह भी कमसे कम छः सौ वर्ष प्राचीन हैं। ये चरणचिह्न भी पुरातन होनेके कारण गलने लगे हैं । यद्यपि इन चरणों पर भी कोई लेख नहीं है । भगवान् महावीर स्वामीके चरणोंके अगल-बगलमें सुधर्म और गौतम स्वामीके भी चरणचिह्न हैं ।
पावापुरीमें जलमन्दिर संगमरमरका बनाया गया है । यह मन्दिर एक तालाब के मध्य में स्थित है । मन्दिर तक जानेके लिए लगभग ६०० फुट लम्बा लाल पत्थरका पुल है । मन्दिरकी भव्यता और शिल्पकारी दर्शनीय है । धर्मशाला में एक विशाल मन्दिर नीचे है, जिसमें कई वेदियाँ हैं । नीचे सामने वाली वेदीमें श्वेतवर्ण पाषाणकी महावीर स्वामीकी मूलनायक प्रतिमा है । इस वेदीमें कुल १४ प्रतिमाएँ विराजमान हैं । सामने वाली वेदीके बायें हाथकी ओर तीन प्राचीन प्रतिमाएँ हैं । इन प्रतिमाओंमें धर्मचक्रके नीचे एक ओर हाथी और दूसरी ओर बैलके • चिह्न अंकित किये गये हैं । यद्यपि इन मूर्तियों पर कोई शिला - लेखादि नहीं है; फिर भी कलाकी
१. श्रमण भगवान् महावीर पृ० ३७५
२. वर्णी - अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० २११ - २१४