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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
गिरीडीह स्टेशन से १८ मील और पारसनाथ ( ईसरी) स्टेशन से लगभग १५ मीलकी दूरी पर है । इस शैलराजकी उत्तुंग शिखाएँ प्राकृतिक और सांस्कृतिक गरिमाका गान आज भी गा रही है । यह समुद्र गर्भसे ४४८८ फुट ऊँचा है । देखने में बड़ा सुन्दर है । घनी वनस्थली से घिरे ढालू संकीर्णपथसे पहाड़ी पर चढ़ाई आरम्भ होती है । जैसे ही प्रयाण करते हैं, पर्वतराजकी विस्मयजनक शोभा उद्भासित होने लगती है और बीच-बीच में नाना रमणीय दृश्य दिखलाई देते हैं । लगभग एक सहस्र फुट ऊँचा जाने पर आठ चोटियोंके बीच पार्श्वनाथ चोटी बादलों के बीच गुम्म-सी प्रतीत होती है । अनेक अंग्रेज यात्रियोंने मुक्तकंठसे इस रमणीय स्थलका वर्णन किया है । सन् १८१९ में कोलोनेल फैक्लिनने (Colonel Franklin ) इसकी यात्रा की थी ।
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इस पर्वत की सबसे ऊँची चोटी सम्मेदशिखिर कहलाती है । यह शब्द सम्मद + शिखर का रूपान्तर प्रतीत होता है । इसकी निष्पत्ति सम् + मद घञर्थ में क अथवा अच् प्रत्यय करने पर हर्ष या हर्षयुक्त होगा । तात्पर्य यह है कि इसकी ऊँची चोटीको मंगलशिखर (The peak of the bliss) कहा जाता है । कुछ लोगों का अनुमान है कि जैनश्रमण इस पर्वतपर तपस्याएँ किया करते थे इसलिए इस पर्वतकी ऊँची चोटीका नाम समणशिखर से सम्मेदशिखर हो गया है । इस शैलराजसे चौबीस तीर्थंकरोंमेंसे अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ और पार्श्वनाथ इन बीस तीर्थकरोंने कर्मकालिमाको नष्टकर जन्म-मरणसे मुक्ति प्राप्त की है ।
वर्धमान कविने अपने दश भक्त्यादि महाशास्त्रमें पार्श्वनाथ पर्वतकी पवित्रताका वर्णन करते हुए श्री रामचन्द्रजीका निर्वाणस्थान इसे बतलाया है । जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणोंसे अन्धकारको नष्ट कर देता है उसी प्रकार इस क्षेत्रकी अर्चना करनेसे समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । कविने इस शैलराजको अनन्त केवलियोंकी निर्वाणभूमि बताया है ।
श्री पं० आशाधरजीने अपने त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्रमें राम और हनुमानका मुक्तिस्थान सम्मेदाचलको माना है । रविषेणाचार्य ने अपने पद्मपुराण में हनूमानका निर्वाणस्थान भी इसी १. वीसं तु जिणवरिदा अमरासुरवंदिदा धुदकिलेसा । सम्मेदे गिरिसिहिरे निव्वाणगया णमो तेसि ॥ - निर्वाणकाण्ड गाथा- २
शेषास्तु ते जिनवरा जितमोहमल्ला, स्थानं परं निरवधारित सौख्यनिष्ठं,
ज्ञानार्कभूरिकिरणैरवभास्य लोकान् । सम्मेदपर्वततले समवापुरीशाः ।।
— निर्वाणभक्ति श्लो० २५
विशेषके लिए देखें - तिलोयपण्णत्ति, अधिकार ४ गाथा १९८६ – १२०० २. अनन्त - जिननिर्वाणे मुनिसुव्रतजन्मनि । उपदेशश्च नास्माकं जिनसेनाचार्य शासने || अमावास्याग्ररात्रौ वानन्तजिज्जिननिर्वृत्तिः । संजाताप्यनगार केवलिविभोः श्रीरामचन्द्रस्य वै । श्रोद्धफाल्गुन शुक्लपक्षविलसच्चातुर्दशीवासरे । पूर्वाह्णे कुलशैलमस्तकमणौ सम्मेदगिर्यप्रकौ ॥ शास्तानिर्वृतिरत्र लक्ष्मणमतेः सीतावली श्रीपतेः । । - दशभक्त्यादिशास्त्र ।
३. साकेतमेतत्सिद्धार्थवने श्रित्वा बलस्तपः । शिवगुप्तजिनात्सिद्धः सम्मे दे गुणमदादियुक ||
- त्रिषष्टिस्मृति इलो० ८०